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________________ 80 न्यायकुमुदचन्द्र यह शिलालेख 16 वीं शताब्दीका है और वर्धमानमुनिका समय भी 16 वीं शताब्दी ही है। शाकटायनन्यासके प्रथम दो अध्यायोंकी प्रतिलिपि स्याद्वादविद्यालयके सरस्वतीभवनमें मौजूद है। उसको सरसरी तौर से पलटने पर मुझे इसके प्रभाचन्द्रकृत होनेमें निम्नलिखित कारणों से सन्देह उत्पन्न हुआ है १-इस ग्रन्थमें मंगलश्लोक नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें मंगलाचरण नियमित रूपसे करते हैं। २-सन्धियोंके अन्तमें तथा ग्रन्थमें कहीं भी प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थमें 'इति प्रभाचन्द्रविरचिते' आदि पुष्पिकालेख या 'प्रमेन्दुर्जिनः' आदि रूप से अपना नामोल्लेख करनेमें नहीं चूकते / __३-प्रभाचन्द्र अपनी टीकाओंके प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर आदि नाम रखते हैं जब कि इस ग्रन्थके इन श्लोकोंमें इसका कोई खास नाम सूचित नहीं होता "शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः / प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः // सूत्राणां च विवृतिलिख्यते च यथामति / ग्रन्थस्यास्य च न्यासेति ( ? ) क्रियते नामनामतः // " * ४-शाकटायन यापनीयसंघके आचार्य थे और प्रभाचन्द्र थे कट्टर दिगम्बर / इन्होंने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरणोंका खंडन भी किया है / अतः शाकटायनके व्याकरणपर प्रभाचन्द्रके द्वारा न्यास लिखा जाना कुछ समझमें नहीं आता। ५-इस न्यासमें शाकटायनके लिए प्रयुक्त 'संघाधिपति, महाश्रमणसंघप' आदि विशेषणों का समर्थन है। यापनीय आचार्यके इन विशेषणोंके समर्थनकी आशा प्रभाचन्द्र द्वारा नहीं की जा सकती। यथा "एवंभूतमिदं शास्त्रं चतुरध्यायरूपतः, संघाधिपतिः श्रीमानाचार्यः शाकटायनः / / महतारभते तत्र महाश्रमणसंघपः, श्रमेण शब्दतत्त्वं च विशदं च विशेषतः // महाश्रमणसंघाधिपतिरित्यनेन मनःसमाधानमाख्यायते / विषयेषु विक्षिप्तचेतसो न मन:समाधि''असमाहितचेतसश्च किं नाम शास्त्रकरणम्, आचार्य इति तु शब्दविद्याया गुरुत्वं शाकटायन इति अन्वयबुद्धिप्रकर्षः, विशुद्धान्वयो हि शिष्टैरुपलीयते / महाश्रमणसंघाधिपतेः सन्मार्गानुशासनं युक्तमेव..." $ मैसूर यूनि० में न्यासग्रन्थकी दूसरे अध्यायके चौथे पादके 124 सूत्र तक की कापी है (नं० A. 605 ) / उसमें निम्नलिखित मंगलश्लोक हैं __"प्रणम्य जयिनः प्राप्तविश्वव्याकरणश्रियः / शब्दानुशासनस्येयं वृत्तविवरणोद्यमः॥ अस्मिन् भाष्याणि भाष्यन्ते वृत्तयो वृत्तिमाश्रिताः / न्यासा न्यस्ताः कृताः टीकाः पारं पारायणान्ययः / / तत्र वृत्ता (त्या) दावयं मंगलश्लोकः श्रीवीरममतमित्यादि।" परन्तु इन श्लोकोंकी रचनाशैली प्रभाचन्द्रकृत न्यायकमदचन्द्र आदि के मंगलश्लोकोंसे अत्यन्त विलक्षण है।
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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