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________________ 24 न्यायकुमुदचन्द्र वार्तिकमें नहीं पाई जातीं / कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके प्रभेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें भी उद्धृत हैं। संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिलके ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों / तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका . अग्रस्थान पानेके योग्य है। अर्चट और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दु पर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनेकों स्थलोंमें किया है। 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दुके साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है / अर्चटका समय भी करीब ईसाकी 6 वीं शताब्दी होना चाहिये। अर्चटने अपने हेतुबिन्दुविवरणमें सहकारित्व दो प्रकारका बताया है-१ एकार्थकारित्व, 2 परस्परातिशयाधायकत्व / आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 10) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारित्वके यही दो विकल्प किये हैं। धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दु पर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। मित्तु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्परीके अनुसार इनका समय ई० 725 के आसपास है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० 2) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० 20) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चरचामें, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहरतक्षकचूड़ारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० 2 ) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं / इनकी शब्दरचना करीब करीब एक जैसी है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 26 ) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितत्वको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितत्वोपलक्षित अर्थसाक्षास्कारित्व को प्रवृत्तिनिमित्त / ये प्रकार भी न्यायबिन्दुटीका (पृ० 11) से अक्षरशः मिलते हैं। ज्ञानश्री और प्रभाचन्द्र-ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं / उदयानाचार्य ने अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वी से खंडन किया है। उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली तर्काम्बरांक (106 ) शक, ई० 184 में समाप्तकी थी। अतः ज्ञानश्रीका समय ई० 184 से पहिले तो होना ही चाहिए / भिक्षु राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है कि-ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धिके प्रारम्भमें यह कारिका है "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते / " विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है। आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवाद के पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है। वाचस्पतिमिश्र (ई० 841) के ग्रन्थों में ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य (ई० 984) के ग्रन्थोंमें है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाकी 10 वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता / 1 देखो वादन्यायका परिशिष्ट /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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