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________________ प्रस्तावना जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकबाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है / इनका समय ईसाकी 8 वीं शताब्दी है / तत्त्वोपप्लवग्रन्थ में प्रमाण प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहुविध विकल्पजालसे खंडन किया गया है। आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है / प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खंडन किया है / प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० 648 ) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है / न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० 336) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है / तात्पर्य यह कि परमतके खंडनमें कचित् तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेने पर भी प्रभाचन्द्रने स्थान स्थान पर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा की है। कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है / इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पश्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणुवेक्खा अष्टपाहुड आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है / कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड ( गा० 37) में केवलीको श्राहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है। सूत्रप्राभृत (गा० 23-36 ) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है / कुन्दकुन्दके इस मूलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंमें केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमुक्तिवादके रूपमें पाते हैं / यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंमें दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खंडन किया है, जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योंका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओंके समर्थकरूपमें समुपस्थित हैं / आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी 'जियदु य मरदु य' गाथा, भावपाहुडकी 'एगो मे सस्सदो' गाथा, तथा प्रा० सिद्धभक्तिकी 'पुंवेदं वेदन्ता' गाथा उद्धृत की है। प्राकृत दशभक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हैं / समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र-आधस्तुतिकार स्वामी समन्तभद्राचार्यके बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। किन्हीं विद्वानोंका विचार है कि इनका समय विक्रमकी पांचवीं या छठवीं शताब्दी होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रसे "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः" "मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्" "तदेव च स्यान्न तदेव” इत्यादि श्लोक उद्धृत किए हैं / आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए निम्नलिखित श्लोक लिखा है कि "श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् /
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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