________________ प्रकाशककी ओरसे : लगभग दो वर्षके बाद न्यायकुमुदचन्द्रका यह दूसरा भाग भी पाठकोंके सामने उपस्थित किया जा रहा है और इस तरह कोई बीस वर्षे के बाद इस महान् ग्रन्थको प्रकाशित करनेको मेरी इच्छा पूरी हो रही है। पूर्वार्धके समान इस उत्तरार्धका भी सर्वाङ्ग सुन्दर पद्धतिसे सम्पादन और संशोधन किया गया है और इसके लिए सम्पादक महाशय धन्यवाद के पात्र हैं। उनका यह परिश्रम और अध्यवसाय दूसरे विद्वानोंके लिए ग्रन्थसम्पादन कार्यमें मार्गदर्शकका काम देगा। हमें आशा करनी चाहिए कि आगे जो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हों वे इसी सावधानी और ऐसे ही परिश्रमसे हो / इन दो वर्षों में इस ग्रन्थमालाकी ओर से महापुराणका दूसरा खण्ड और जटासिंहनन्दिका वरांगचरित्र, ये दो ग्रन्थ और भी प्रकाशित हो चुके हैं। महापुराणका तीसरा खण्ड प्रेसमें है, और आशा है कि वह भी इस सालके अन्त तक समाप्त हो जायगा। ग्रन्थमालाके आर्थिक संकटकी बात मैं पहले लिख चुका हूँ, वह अभी चल ही रहा है। ग्रन्थमालाके कोषाध्यक्ष सेठ ठाकुरदास भगवानदासजी जौहरीने अपने हाथकी अन्य संस्थाओंसे कुछ रकम कर्जके तौर पर ले ली है और इस तरह फिलहाल अधूरे ग्रन्थोंको पूरा करनेकी समस्याको हल कर लिया गया है। आगे क्या होगा, यह भविष्य हो बतलायगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। .. यह बात ग्रन्थमालाके मन्त्रीके अधिकारको सीमाके भीतर नहीं आती कि वह ग्रन्थकर्ताके समय . आदिके विषयमें भी कुछ लिखे और उसकी ऐसी कोई जरूरत भी नहीं मालूम होतो। परन्तु सम्पादक महाशयका आग्रह है कि मुझे कुछ लिखना ही चाहिए, अत एव विवश हूँ। पहले भागकी भूमिकामें पं० कैलासचन्द्रजीने और इस भागको भूमिकामें पं० महेन्द्रकुमारजीने प्राचार्य प्रभाचन्द्रके समयादिके विषयमें खूब बिस्तारके साथ ऊहापोह किया है। यद्यपि दोनों विद्वानोंमें अनेक बातोंमें मतभेद है, फिर भी उससे इस ग्रन्थके पाठकोंके समक्ष प्राचार्य प्रभाचन्द्रके समयकी शताब्दी तो कमसे कम निर्धान्तरूपसे स्पष्ट हो जाती है, और यह बहुत बड़ी बात है। मेरी समझमें प्रभाचन्द्राचार्य, जैसा कि उनके ग्रन्थोंको प्रशस्तियों में ही लिखा है, धारानरेश भोजदेव और उनके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवके समयके विद्वान् हैं और अब इस विषयमें जरा भी सन्देहकी गुंजाइश नहीं है। अभी तक उनके समय-निर्णयमें सबसे बड़ा बाधक भगवजिनसेनके अदिपुराणका वह चन्द्रांशुशुभ्रयशसं' श्रादि श्लोक* था, जिसने विद्वानोंको एक ऐसा दिग्भ्रम उत्पन्न कर दिया था कि वे जिनसेनके बाद प्रभाचन्द्रके होनेकी बात सोच ही नहीं सकते थे। क्योंकि उसमें 'प्रभाचन्दकवि' और कृत्वा चन्द्रोदय' पद इतने स्पष्ट थे कि उनके कारण प्रभाचन्द्राचार्य और न्यायकुमुदचन्द्रके सिवाय दूसरी ओर किसीकी दृष्टि ही नहीं जाती थी। जहाँ तक मैं जानता हूँ सबसे पहले पं० कैलासचन्द्रजीने उक्त श्लोकके माने हुए अर्थमें शङ्का उठाई और अनुमान किया कि जिनसेन स्वामीने किसी और ही प्रभाचन्द्रकी स्तुतिकी होगी और उनका बनाया हुआ कोई 'चन्द्रोदय' नामका ग्रन्थ भी होगा। उन्होंने द्वितीय जिनसेनके हरिवंशपुराणके आकृपारं यशो लोके आदि श्लोका से यह भी अनुमान * चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे / कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् // + आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् / गुरोः कुमारसेनस्य विचरयजितात्मकम् //