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________________ प्राक्कथन 17 शताब्दीका उत्तरार्ध और नववीं शताब्दीका पूर्वार्ध ही हो सकता है जैसा कि याकिनीसूनु हरिभद्रका है। मेरी रायमें अकलंक, हरिभद्र, तत्त्वार्थभाष्यटीकाकार सिद्धसेनगणि, ये सभी थोड़े बहुत प्रमाणमें समसामयिक अवश्य हैं। आगे जो खामी समन्तभद्रके समयके बारेमें कुछ कहना है उससे भी इसी समयकी पुष्टि होती है / आचार्य प्रभाचन्द्रके समयके विषयमें पुरानी नववीं सदीकी मान्यताका तो निरास पं० कैलाशचन्द्रजीने कर ही दिया है / अब उसके सम्बन्धमें इस समय दो मत हैं, जिनका आधार 'भोजदेवराज्ये' और 'जयसिंहदेवराज्ये' वाली प्रशस्तिओंका प्रक्षिप्तत्व या प्रभाचन्द्रकर्तृकत्वकी कल्पना है / अगर उक्त प्रशस्तियाँ प्रभाचन्द्रकर्तृक नहीं हैं तो समयकी उत्तरावधि ई० स० 1020, और अगर प्रभाचन्द्रकर्तृक मानी जाय तो उत्तरावधि ई० स० 1065 है / यही दो पक्षोंका सार है / पं० महेन्द्रकुमारजीने प्रस्तावनामें उक्त प्रशस्तिओंको प्रामाणिक सिद्ध करनेके लिए जो विचारक्रम उपस्थित किया है वह मुझको ठीक मालूम होता है। मेरी रायमें भी उक्त प्रशस्तिओंको प्रक्षिप्त सिद्ध करनेकी कोई बलवत्तर दलील नहीं है / ऐसी दशामें प्रभाचन्द्रका समय विक्रमकी 11 वीं सदीके उत्तरार्धसे बारहवीं सदीके प्रथम पाद तक स्वीकार कर लेना सब दृष्टिसे सयुक्तिक है। - मैंने 'अकलङ्क ग्रन्थत्रय'के प्राक्कथनमें ये शब्द लिखे हैं-"अधिक संभव तो यह है कि समन्तभद्र और अकलंकके बीच साक्षात् विद्याका ही सम्बन्ध रहा है, क्योंकि समन्तभद्रकी कृतिके उपर सर्वप्रथम अकलंककी ही व्याख्या है / " इत्यादि / आगेके कथनसे जब यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र पूज्यपादके बाद कभी हुए हैं। और यह तो सिद्ध ही है कि समन्तभद्रकी कृतिके ऊपर सर्वप्रथम व्याख्या अकलंककी है, तब इतना मानना होगा कि अगर समन्तभद्र और अकलंकमें साक्षात् गुरु-शिष्य भाव न भी रहा हो तब भी उनके बीच में समयका कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता। इस दृष्टिसे समन्तभद्रका अस्तित्व विक्रमकी सातवीं शताब्दीका अमुक भाग हो सकता है। मैंने अकलङ्कग्रन्थत्रयके ही प्राक्कथनमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा एवं अष्टसहस्रीके स्पष्ट *श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेः' वाला जो श्लोक आप्तपरीक्षा है उसमें 'इद्धरत्नोद्भवस्य' ऐसा सामासिक पद है। श्लोकका अर्थ या अनुवाद करते समय उस सामासिक पदको 'अम्बुनिधि' का समानाधिकरण विशेषण मानकर विचार करना चाहिए। चाहे उसमें समास 'इद्धरत्नोंका उद्भव-प्रभवस्थान' ऐसा तत्पुरुष किया जाय, चाहे 'इद्धरत्नों का उद्भव-उत्पत्ति हुआ है जिसमेंसे' ऐसा बहुव्रीहि किया जाय / उभय दशा वह अम्बनिधिका समानाधिकरण विशेषण ही है / ऐसा करनेसे 'प्रोत्थानारम्भकाले' यह पद ठीक अम्बुनिधिके साथ अपुनरुक्त रूपसे संबद्ध हो जाता है। और फलितार्थ यह निकलता है कि तत्त्वार्थशास्त्ररूप समुद्रकी प्रोत्थान-भूमिका बाँधते समय जो स्तोत्र किया गया है। इस वाक्यार्थमें ध्यान देनेकी मुख्य वस्तु यह है कि तत्त्वार्थका प्रोत्थान बांधनेवाला अर्थात् उसकी उत्पत्तिका निमित्त बतलानेवाला और स्तोत्रका रचयिता ये दोनों एक हैं। जिसने तत्त्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाया उसीने उस निमित्तको बतलानेके पहिले 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' यह स्तोत्र भी रचा / इस विचार के प्रकाशमें सर्वार्थसिद्धिकी भूमिका जो पढेगा उसे यह सन्देह ही नहीं हो सकता कि 'वह स्त्रोत्र खद पूज्यपाद का है या नहीं।
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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