________________ न्यायकुमुदचन्द्र अनहोनी बात न होकर अधिक संभव और निश्चित बात मालूम होती है। ( प्रमेय ) कमलमार्गण्ड, (न्याय) कुमुदचन्द्र, (शब्द) अम्भोजभास्कर जैसे सुन्दर नामोंकी कल्पिका प्रभाचन्द्रीय बुद्धिने ही ( प्रवचनसार ) सरोजभास्करका उदय किया है / इस ग्रन्थकी संवत् 1555 की लिखी हुई जीर्णप्रति हमारे सामने है। यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बईकी है। इसका परिचय संक्षेपमें इस प्रकार है पत्रसंख्या 53, श्लोकसंख्या 1746, साइज 1346 / एक पत्रमें 12 पंक्तियां तथा एक पंक्तिमें 42-43 अक्षर हैं / लिखावट अच्छी और शुद्धप्राय है / प्रारम्भ- . "ओं नमः सर्वज्ञाय शिष्याशयः / . वीरं प्रवचनसारं निखिलार्थं निर्मलजनानन्दम् / वक्ष्ये सुखाववोधं निर्वाणपदं प्रणम्याप्तम् // श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः सकललोकोपकारकं मोक्षमार्गमध्ययनरुचिविनेयाशयवशनोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं शास्त्रस्यादौ नमस्कुर्वन्नाह . // छ // एस सुरासुर"।" अन्त-"इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे शुभोपयोगाधिकारः समाप्तः ॥छ। संवत् 1555 वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पून्यमायां तिथौ गुरुवासरे गिरिपुरे व्या० पुरुषोत्तम लि० ग्रन्थसंख्या षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि // 1746 // " ___ मध्यकी सन्धियोंका पुष्पिकालेख- "इति श्री प्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे.." है। इस टीका में जगह जगह उद्धृत दार्शनिक अवतरण, दार्शनिक व्याख्यापद्धति एवं सरल प्रसन्नशैली इसे न्यायकुमुदचन्द्रादिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी कृति सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं / अवतरण-(गा० 2 / 10 ) "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामौ तुलान्तयोः" (गा० 2 / 28 ) "स्वोपात्तकर्मवशाद् भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसारः” इनमें दूसरा अवतरण राजवार्तिक का तथा प्रथम किसी बौद्ध ग्रन्थका है। ये दोनों अवतरण प्रमेयकमल०. और न्यायकुमुद० में भी पाए जाते हैं / इस व्याख्याकी दार्शनिक शैलीके नमूने (गा० 2 / 13 ) “यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमसदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति; यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुवं निश्चयेन न तं तत् भवति / कथं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् / हवदि पुणो अण्णं वा / अथ सत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा अतः पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ताकल्पना व्यर्था। सत्तासम्बधात्सत्त्वे चान्योन्याश्रय:-सिद्धे हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याञ्च सम्बन्धसिद्धौ सत्यां तत्सत्त्वसिद्धिरिति / तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः। तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् / " (गा०.२।१६) ... तथाहि-द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्रुतं वा द्रव्यमिति।