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________________ प्रस्तावना गम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुणः / द्रव्यं वा द्रव्यान्तरात् येन विशिष्यते स गुणः / इत्येतस्मादर्थविशेषात् यद् द्रव्यस्य गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः।" इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रीय और जयसेनीय टीकाओंसे इस टीकाकी तुलना करने पर इसकी दार्शनिकप्रसूतता अपने आप झलक मारती है। इस टीकाका जयसेनीयटीका पर प्रभाव है और जयसेनीयटीकासे यह निश्चय ही पूर्वकालीन है / ___अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी जिन 36 गाथाओंकी व्याख्या नहीं की है प्रायः वे गाथाएँ प्रवचनसारसरोजभास्करमें यथास्थान व्याख्यात हैं। जयसेनीयटीकामें प्रभाचन्द्रका अनुसरण करते हुए इन गाथाओंकी व्याख्या की गई है / हाँ, जयसेनीयटीकामें दो तीन गाथाएँ अतिरिक्त भी हैं। इस टीकाका लक्ष्य है गाथाओंका संक्षेपसे खुलासा करना / परन्तु प्रभाचन्द्र प्रारम्भसे ही दर्शनशास्त्रके विशिष्ट अभ्यासी रहे हैं इसलिए जहाँ खास अवसर या वहाँ उन्होंने संक्षेपसे दार्शनिक मुद्दोंका भी निर्देश किया है। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें भावत्रिभंगीकार श्रुतमुनिके 'सारत्रयनिपुण प्रभाचन्द्र' के उल्लेखसे प्रवचनसारसरोजभास्करके कर्ताका समय १४वीं सदीका प्रारम्भिक भाग सूचित किया है। परन्तु यह संभावना किसी दृढ़ आधार से नहीं की गई है / __ जयसेनीय टीकापर इसका प्रभाव होनेसे ये उनसे प्राक्कालीन तो हैं ही / प्रा. जयसेन अपनी टीका में (पृ० 26) केवलिकवलाहारके खंडनका उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि"अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता बहवो दोषाः ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्या अत्र चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्ते / " सम्भव है यहाँ तर्कशास्त्रसे प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिकी विवक्षा हो। अस्तु, मुझे तो यह संक्षिप्त पर विशदटीका प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रारम्भिककृति मालूम होती है / गद्यकथाकोश-यह ग्रन्थ भी इन्हीं प्रभाचन्द्रका मालूम होता है। इसकी प्रतिमें 86 वी कथाके बाद "श्रीजयसिंहदेवराज्ये” प्रशस्ति है / इसके प्रशस्ति श्लोकोंका प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके प्रशस्तिश्लोकोंसे पूरा पूरा सादृश्य है। इसका मंगल श्लोक यह है "प्रणम्य मोक्षप्रदमस्तदोषं प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेन्द्रम् / वक्ष्येऽत्र भव्यप्रतिबोधनार्थमाराधनासत्सुकथाप्रबन्धः // " ८९वी कथाके अनन्तर 'जयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति लिखकर ग्रन्थ समाप्त कर दिया गया है। इसके अनन्तर भी कुछ कथाएँ लिखीं हैं / और अन्तमें “सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः” श्लोक - 1 न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना पृ० 122- "यराराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलाम् / प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा (?) / तेषां धर्मकथाप्रपञ्चरचनास्वाराधना संस्थिता / स्थयात् कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि // 1 // सुकोमलैः सर्वसुखावबोधैः पदैः प्रभाचन्द्रकृतः प्रबन्धः / कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ // 2 // श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलरुन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः / "
SR No.004327
Book TitleNyayakumudchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1941
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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