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आचार्य जिनसेन विरचित
आ7
हरिवंशपुराण
सम्पादन-अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य
12)
भारतीय ज्ञानपीठ
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हरिवंशपुराण
'हरिवंशपुराण' आचार्य जिनसेन (आठवीं शती) की अप्रतिम संस्कृत काव्यकृति है। इसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के त्यागमय जीवनचरित के साथ-साथ कृष्ण, बलभद्र, कृष्ण 'के पुत्र प्रद्युम्न तथा पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित बड़ी सुन्दरता से अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस विशाल ग्रन्थ में सम्पूर्ण हरिवंश का परिचय तथा जैनधर्म और संस्कृति के विभिन्न उपादानों का स्पष्ट एवं विस्तार से विवेचन हुआ है। भारतीय संस्कृति और इतिहास की बहुविध सामग्री इसमें भरी पड़ी है।
'हरिवंशपुराण' मात्र कथा-ग्रन्थ नहीं है, यह उच्चकोटि का महाकाव्य भी है। छ्यासठ सर्गों में विविध छन्दों में निबद्ध इस विशाल ग्रन्थ में लगभग आठ हजार नौ सौ श्लोक हैं। मूल संस्कृत, हिन्दी अनुवाद, महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना तथा अनेक परिशिष्टों के साथ सुसम्पादित यह ग्रन्थ पुराण कथाप्रेमियों के लिए जितना उपयोगी है, उससे कहीं अधिक इसकी उपयोगिता भारतीय संस्कृति और इतिहास के अनुसन्धित्सुओं के लिए है।
प्रस्तुत है ग्रन्थ का यह एक और नया संस्करण ।
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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थांक 27
आचार्य जिनसेन विरचित
हरिवंशपुराण
हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना तथा परिशिष्टि सहित
सम्पादन एवं अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य
भारतीय ज्ञानपीठ आठवाँ संस्करण : 2003 - मूल्य : 325 रुपये
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ISBN 81-263-0847-8
भारतीय ज्ञानपीठ
(स्थापना : फाल्गुन कृष्ण 9; वीर नि. सं. 2470; विक्रम सं. 2000; 18 फरवरी 1944)
पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवी की स्मृति में साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उनके मूल और
यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की ग्रन्थसूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य पर विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य ग्रन्थ भी
इस ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
प्रधान सम्पादक (प्रथम संस्करण) डॉ. हीरालाल जैन एवं डॉ. आ.ने. उपाध्ये
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ 18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110 003
मुद्रक : बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
© भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित
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Moortidevi Jain Granthamala : Sanskrit Grantha No. 27
HARIVANŠA PURĀNA
of
ĀCHĀRYA JINASENA
with Hindi translation, introduction and appendices
Edited and Translated
by Dr. Panna Lal Jain, Sahityacharya
BHARATIYA JNANPITH
Eighth Edition : 2003 o
Price : Rs. 325
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ISBN 81-263-0847 - 8
BHARATIYA JNANPITH (Founded on Phalguna Krishna 9; Vira N. Sam. 2470; Vikrama Sam. 2000; 18th Feb. 1944)
MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA
FOUNDED BY
Sahu Shanti Prasad Jain In memory of his illustrious mother Smt. Moortidevi
and promoted by his benevolent wife
Smt. Rama Jain
In this Granthamala critically edited Jain agamic, philosophical, puranic, literary, historical and other original texts in Prakrit,
Sanskrit, Apabhramsha, Hindi, Kannada, Tamil etc. are being published in the original form with their
translations in modern languages.
Catalogues of Jain bhandaras, inscriptions, studies on art and architecture by
competent scholars and popular Jain literature are also being published.
General Editors (First Edition) Dr. Hiralal Jain and Dr. A. N. Upadhye
Published by
Bharatiya Jnanpith 18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at : B.K. Offset, Delhi-110 032
© All Rights Reserved by Bharatiya Jnanpith
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प्रधान सम्पादकीय
प्रथम संस्करण साहित्यकी प्रेरणाके मूलाधार हैं प्रकृतिके दृश्य और घटनाएँ एवं जीवनके अनुभव । मनुष्यके विभिन्न अनुभवोंमें सबसे अधिक प्रभावशाली उन पुरुषोंके चरित्र सिद्ध. हुए हैं, जिन्होंने लोक-कल्याणका कुछ विशेष कार्य किया, चाहे वह संकटसे मुक्ति सम्बन्धी हो अथवा भौतिक या आध्यात्मिक उत्कर्षक रूपमें । यह बात इसीसे सिद्ध है कि संसारका नब्बे प्रतिशत साहित्य वीर-गाथात्मक है, जिसमें यथार्थ व कल्पित कुछ असाधारण लोकोत्तर मानव-चरित्रका चित्रण पाया जाता है। भारतीय साहित्यको ही देखिए जहाँ वेदोंसे लगाकर कलकी चीनी लड़ाईके किसी छोटे-से समाचार तककी रचनाओंमें किसी न किसी प्रकारके पौरुषकी ही प्रधानता पायी जायेगी।
- राष्ट्रके कुछ महापुरुषोंके चरित्र क्षेत्र और कालकी सीमाको पार कर व्यापक रूपसे लोकरुचिके विषय बन गये हैं। राम और कृष्णके चरित्र इसी प्रकारके हैं। हिन्दू और जैन साहित्यमें इनकी प्रधानता है, और गत दो-ढाई हजार वर्षों में अगणित पुराण, काव्य, नाटक व कथानक इन नामोंके आधारसे लिखे गये है । जैसे वैदिक परम्परामें रामायण और महाभारत उक्त विविध साहित्यिक धाराओंके स्रोत सिद्ध हुए हैं वैसे ही जैन साहित्यमें पद्मपुराण या पद्मचरित और हरिवंशपुराण या अरिष्टनेमिचरितका स्थान है । यहाँ हमारा प्रयोजन विशेषतः हरिवंश सम्बन्धी कथानकोंसे है। अर्धमागधी आगममें अनेक स्थलोंपर कृष्ण व कौरव-पाण्डवोंके आख्यान आये हैं। विशेषतः छठे श्रुताङ्ग णायाधम्मकहाओ एवं आठवें अन्तगडदसाओंमें । आगमोत्तर 'वसुदेवहिंडी' आदि प्राकृत ग्रन्थ भी हरिवंश सम्बन्धी कथाओंके महान् आकर हैं । इनका बहुत-सा वर्णन महाभारतसे मिलता है, और कुछ स्वतन्त्र पाया जाता है। विशेष बात यह है कि इन चरित्रोंको भिन्नभिन्न धर्मों में भी अपनी-अपनी सैद्धान्तिक व नैतिक परम्पराके अनुरूप बनाकर अपनाया गया है।
पूछा जा सकता है कि इन अन्य धर्मके देवरूप माने जानेवाले पुरुषोंको जैनधर्ममें क्यों और कैसे मान्यता प्राप्त हुई ? उत्तर वही है, जो ऊपर दिया जा चुका है। जैनधर्ममें वीर-पूजाकी मान्यता है। उसने अपने अन्तिम तीर्थंकरको तो वीर व महावीर नामसे सम्बोधित ही किया है। ऐसे चौबीस महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने तप और ज्ञानके बलसे धर्मका मार्ग प्रशस्त बनाया और स्वयं तीर्थकर रूपसे लोकाराधनके पात्र बने । बारह वीर पुरुष ऐसे भी हए है, जिन्होंने लोकविजय और दुष्टनिग्रह करके शासनकी व्यवस्थाएँ स्थापित की । वे चक्रवर्ती पद प्राप्त करके लोकसम्मानके भाजन हुए। इसी प्रकार नौ बलभद्रों, नौ नारायणों तथा इन नारायणोंके शत्रु नौ प्रतिनारायणोंने भी अपने-अपने समयमें कुछ असाधारण पराक्रम द्वारा विविध प्रकारके आदर्श उपस्थित किये। जैन पुराणोंमें विस्तारसे तथा चरित्रों व कथानकोंमें रचयिताकी प्रतिभा व रुचि अनुसार हीनाधिक कलात्मक रूपसे इन वेसठ शलाकापुरुषोंकी वीर-गाथा गायी गयी है। इन्हीं लोकोत्तर वीर पुरुषोंमें राम और कृष्ण भी गिने गये हैं । अतएव उनकी भी जैनपुराणोंमें सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठा पायी जाती है ।
विषय-वर्णनकी दृष्टिसे वैदिक परम्परामें पुराणके पांच अंग माने गये है-सृष्टिकी रचना, प्रलय और पुनः सृष्टि, मानव वंश, मनुओंके युग और राजवंशोंके चरित्र । अपने मौलिक सिद्धान्तोंके अनुसार उचित हेर-फेरके साथ जैनपुराणों में भी इन लक्षणोंका पालन किया गया है। जैन धर्म विश्वको जड़-चेतन रूपसे अनादि-अनन्त मानता है, किन्तु उसका विकास कालचक्रके आरोह-अवरोह क्रमसे ऊपर-नीचेकी ओर परिवर्तनशीलताको लिये हुए बदला करता है। अतः जैनपुराणों में सर्ग और प्रतिसर्गके स्थानपर विश्वका यही स्वरूप तथा कालचक्रके आरोंका उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप विपरिवर्तन व लोक-व्यवस्थामें हेर-फेरका विवरण दिया गया है । वंशों, मनुओं (कुलकरों) और वंशानुचरितोंका इन पुराणोंमें भी अपनी परम्परानुसार वर्णन है। पुराणविषयक जैन ग्रन्थोंकी संख्या सैकड़ों है, और वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा
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हरिवंशपुराणे
तमिल, कन्नड, हिन्दी आदि सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं में पाये जाते हैं। इन विविध रचनाओं में वर्णनभेद भी पाया जाता है जिसका परस्पर तथा वैदिक पुराणोंके साथ तुलनात्मक अध्ययन अनुसन्धान एक रोचक और महत्त्वपूर्ण विषय है।
जैन हरिवंशपुराणमें उक्त प्रकार विषय-प्रतिपादनके साथ-साथ हरिवंशकी एक शाखा यादवकुल और उसमें उत्पन्न हुए दो शलाकापुरुषोंका चरित्र विशेष रूपसे वणित हुआ है। एक बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और दूसरे नवें नारायण कृष्ण । ये दोनों चचेरे भाई थे, जिनमें से एकने अपने विवाहके अवसरपर निमित्त पाकर संन्यास ले लिया; और दूसरेने कौरव-पाण्डव युद्धमें अपना बल-कौशल दिखलाया। एकने आध्यात्मिक उत्कर्षका आदर्श उपस्थित किया, और दूसरेने भौतिक लीलाका । एकने निवृत्ति-परायणताका मार्ग प्रशस्त किया, और दूसरेने प्रवृत्तिका । इसी प्रसंगसे हरिवंशपुराणमें महाभारतका कथानक सम्मिलित पाया जाता है ।
इस विषयकी प्राचीन संस्कृति, प्राकृत व अपभ्रंश रचनाएँ बहुसंख्यक हैं । हरिवंशपुराणके नामसे संस्कृतमें धर्मकीर्ति, श्रुतकीर्ति, सकलकीर्ति, जयसागर, जिनदास व मंगरस कृत, व पाण्डवपुराण नामसे श्रीभूषण, शुभचन्द्र, वादिचन्द्र, जयानन्द, विजयगणि, देवविजय, देवप्रभ, देवभद्र व शुभवर्धन कृत; तथा नेमिनाथ चरित्रके नामसे सूराचार्य, उदयप्रभ, कोतिराज; गुणविजय, हेमचन्द्र, भोजसागर, तिलकाचार्य, विक्रम, नरसिंह, हरिषेण, नेमिदत्त आदि कृत रचनाएँ ज्ञात हैं । प्राकृतमें रत्नप्रभ, गुणवल्लभ और गुणसागर द्वारा तथा अपभ्रंशमें स्वयंभू, धवल, यशःकीर्ति, श्रुतकीर्ति, हरिभद्र व रयधू द्वारा रचित पुराण व काव्य ज्ञात हो चुके हैं ( देखिए-वेलणकर कृत जिनरत्नकोश, तथा कोछड़ कृत अपभ्रंश साहित्य )। इन स्वतन्त्र रचनाओंके अतिरिक्त जिनसेन, गुणभद्र व हेमचन्द्र तथा पुष्पदन्त कृत संस्कृत व अपभ्रंश महापुराणोंमें भी यह कथानक वर्णित है एवं उसकी स्वतन्त्र प्राचीन प्रतियाँ भी पायी जाती हैं। हरिवंशपुराण, अरिष्टनेमि या नेमिचरित, पाण्डवपुराण व पाण्डवचरित आदि नामोंसे न जाने कितनी संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश रचनाएँ अभी भी अज्ञात रूपसे भण्डारोंमें पड़ी होना सम्भव है। प्राचीन हिन्दी व कन्नडमें रचित ग्रन्थ भी अनेक हैं । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादकने अपनी प्रस्तावनाके पृष्ठ दस पर प्रस्तुत रचनाके अतिरिक्त केवल एक संस्कृत और एक अपभ्रंश रचना मात्रका जो उल्लेख किया है, उससे इस विषयपर जैन साहित्य रचनाके सम्बन्धमें भ्रम नहीं होना चाहिए।
पुराणोंको हिन्दू व जैन परम्पराओंमें अपने-अपने कालके विश्वकोश बनानेका प्रयत्न किया गया है। उनमें न केवल कथानक मात्र है, किन्तु प्रसंगानुसार धर्म व नीतिके अतिरिक्त नाना कलाओं और ज्ञानविज्ञानका भी परिचय संक्षेप या विस्तारसे करा दिया गया है। इस प्रवृत्तिका उद्देश्य यह दिखाई देता है कि एक ही पुराणका पाठ करनेवाला श्रद्धालु अपनी परम्परा सम्बन्धी सभी प्रकारकी जानकारी प्राप्त कर ले। प्रस्तुत हरिवंशपराण में भी यह प्रवृत्ति विशेष रूपसे पायी जाती है। यहाँ जो त्रैलोक्यका स्वरूप. महावीर तीर्थंकरका जीवनचरित्र, समवसरण व धर्मोपदेश तथा संगीत कला आदिका वर्णन किया गया है, वह उन-उन विषयोंका परिपूर्ण प्रकरण है और स्वतन्त्र रूपसे भी अध्ययन व प्रसारके योग्य है।
वैदिक साहित्य, और विशेषतः पौराणिक रचनाओंके कर्तृत्व और कालके सम्बन्धमें बड़ा विवाद तथा अनिश्चय है । सौभाग्यसे जैन परम्पराओंमें कालनिर्देशकी प्रवृत्ति प्रायः अधिक स्पष्ट पायी जाती है। यहाँ प्रमुख पुराणोंके रचयिता और रचनाकालके स्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं। प्रस्तुत हरिवंशपुराणके कर्ताने तो अपना परिचय भले प्रकार दे दिया है कि वे पुन्नाट संघके थे, उनके गुरुका नाम कीर्तिषेण था और उन्होंने अपनी यह रचना शक संवत् ७०५ में समाप्त की थी। यही नहीं, किन्तु वे ही एक ऐसे महाकवि पाये जाते है, जिन्होंने भगवान् महावीरसे लगाकर ६८३ वर्षको सर्वमान्य गुरुपरम्पराके अतिरिक्त उसके आगे अपने समय तकको अन्यत्र कहीं न पायी जानेवाली गुर्वावली भी दी है।
हरिवंशपुराणकारकी इस अद्वितीय ऐतिहासिक चेतनाका एक और भी महत्त्वपूर्ण प्रमाण उनकी रचनामें उपलभ्य है, जिसने तत्कालीन समस्त भारतके इतिहासकी जानकारीको प्रभावित किया है। उन्होंने
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प्रधान सम्पादकीय
अपने ग्रन्थ समाप्तिकाल के साथ-साथ यह भी उल्लेख किया है कि उन्होंने कहाँ किन स्थानोंमें बैठकर वह रचना की थी। उनकी यह सूचना ग्रन्थके उपान्त्य दो श्लोकों में ( ६६, ५२-५३ ) में पायी जाती है, जहाँ . उन्होंने कहा है कि उस ग्रन्थका बहुभाग पहले वर्धमानपुरके पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर रचा था और शेष भाग शान्तिनाथके उस शान्तिपूर्ण मन्दिरमें जहाँ दोस्तटिकाके लोगोंने एक बृहत्पूजाका आयोजन किया था । उस समय उत्तर दिशामें इन्द्रायुध, दक्षिणमें कृष्णके पुत्र श्रीवल्लभ तथा पूर्व और पश्चिम में अवन्तिनरेश, वत्सराज तथा सौरमण्डल (सौराष्ट्र ) में वीर जयवराह राज्य करते थे । ये उल्लेख बड़े महत्त्वपूर्ण हैं और सभी इतिहास-लेखकोंने इनका उपयोग किया है । किन्तु कुछ बातों में उलझन भी उत्पन्न हुई है । एक मत यह है कि यहाँ पूर्व में अवन्तिराज वत्सराजका और पश्चिम में सौराष्ट्रके नरेश वीर जयवराहका उल्लेख किया गया है । किन्तु दूसरे मतानुसार यहाँ पूर्व में अवन्तिराज और पश्चिममें वत्सराज तथा वीर जयवराहका उल्लेख समझना चाहिए। इस बात में भी मतभेद है कि इन राज्य सीमाओंका मध्यविन्दु कहा जानेवाला वर्धमानपुर कौन-सा है । ग्रन्थमालाके हम दोनों प्रधान सम्पादक भी इस बातपर एकमत नहीं हैं। डॉ. उपाध्येके मत से यह वर्धमानपुर काठियावाड़का वर्तमान वढवान है, और वहीं इसी पुन्नाट संघके हरिषेणने इससे १४८ वर्ष पश्चात् शक ८५३ में बृहत्कथाकोशकी रचना की थी ( देखिए उक्त ग्रन्थकी प्रस्तावना पृ. १२१ ) | किन्तु डॉ. हीरालाल जैनने अपने एक लेख ( इण्डियन कलचर खण्ड ११, १९४४-४५ पृ. १६१ आदि, तथा जैन सिद्धान्त भास्कर, १२-२ ) में यह प्रमाणित करनेका प्रयत्न किया है कि जिनसेन द्वारा चल्लिखित वर्धमानपुर वर्तमान मध्यभारतके धार जिलेका बदनावर होना चाहिए, क्योंकि उसका प्राचीन नाम वर्धमानपुर पाया जाता है, वहाँ प्राचीन जैन मन्दिरोंके भग्नावशेष अब भी विद्यमान हैं, वहाँसे दुतरिया ( प्राचीन दोस्तटिका ) नामक ग्राम समीप है तथा वहाँसे उक्त राज्य विभाजनकी सीमाएँ ठीक-ठीक इतिहाससंगत सिद्ध होती हैं । इसी प्रश्नके साथ पुन्नाट संघकी शाखाका कर्नाटकसे आकर वर्धमानपुर में स्थापित होने और कमसे कम जिनसेन और हरिषेणके बीच कोई डेढ़ सौ वर्ष तक चलते रहनेका इतिहास भी गवेषणीय है । केवल संघके गिरनार यात्राके लिए आने और वर्धमानपुरमें रुक जानेकी बातसे इस महान् घटनाका पूरा मर्म नहीं खुलता। सम्भव है जैन धर्मके महान् आश्रयदाता राष्ट्रकूट- नरेशोंके मालवा और गुजरात में प्रभुत्व बढ़ने से इस संघपीठकी स्थापनाका कुछ सम्बन्ध हो । शिलालेखों के अनुसार इन प्रदेशोंको राष्ट्रकूटनरेश दन्तिदुर्गने सन् ७५० के लगभग अपने अधीन कर लिया था ।
ग्रन्थके अन्तिम पद्य में इस हरिवंशपुराणको ऐसा श्रीपर्वत कहा है जिसका कविने बोधिके लाभार्थ आश्रय लिया, और यह आशा व्यक्त की कि यह श्रीपर्वत समस्त दिशाओं में व्याप्त होकर व स्थिरतर बनकर पृथ्वीपर प्रतिष्ठित रहे । प्रश्न है कि यहाँ कवि द्वारा अपनी रचनाको श्रीपर्वतकी उपमा देनेकी सार्थकता क्या है ? विचार करनेपर यहाँ भी भारतीय संस्कृतिकी एक धाराका महत्त्वपूर्ण इतिहास छिपा हुआ दिखायी देता है । बौद्ध साहित्य में श्रीपर्वतका अनेक स्थलोंपर उल्लेख मिलता है । विशेषतः मंजुश्री मूलकल्प (पृ. ८८ ) का यह उल्लेख ध्यान देने योग्य है,
श्रीपर्वते महाशैले दक्षिणापथसंज्ञके । श्रीधान्यकटके चैत्ये जिन धातुपरे भुवि ।
सिद्धयन्ते मन्त्र-तन्त्रा वै क्षिप्रं सर्वार्थ कर्मसु ॥
इस उल्लेखके अनुसार दक्षिणापथ में धान्यकटकके समीप श्रीपर्वत नामक महाशैलपर एक चैत्य है जिसमें जिन (बुद्ध) की अस्थियाँ व भस्मावशेष सुरक्षित हैं । वहाँ साधना करनेसे मन्त्र-तन्त्र शीघ्र सिद्ध होते और सब कामनाएँ सफल होती हैं । बौद्ध साहित्य में ही नहीं, अन्य संस्कृत महाकवियोंने भी श्रीशैलकी इस ख्यातिका उल्लेख किया है । उदाहरणार्थ, महाकवि बाणने अपनी कादम्बरी कथाके एक पात्र वृद्ध द्रविड धार्मिकको 'श्रीपर्वताश्चर्य वार्ता सहस्राभिज्ञ' कहा है तथा हर्षचरित में स्वयं हर्पको कहा है 'सकलप्रणयिमनोरथसिद्धिः श्रीपर्वतः' । भवभूतिने अपने मालतीमाधव नामक नाटकके एक पात्र वौद्ध भिक्षुणी सौदामिनी के
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हरिवंशपुराणे मन्त्र-तन्त्र सीखनेके लिए पद्मावती नगरीसे श्रीपर्वतको जानेकी बात कही है। इस प्रकारके और भो अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सातवीं शती व उसके आस-पास श्रीपर्वत मन्त्र-तन्त्रात्मक ऋद्धि-सिद्धि के लिए देशप्रसिद्ध केन्द्र बन गया था। इसी ख्यातिके कारण कुछ तिब्बती ग्रन्थोंमें तो यहाँ तक कहा गया है कि भगवान बुद्धने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन धान्यकटक ( श्रीपर्वतके निकटवर्ती नगर ) में ही किया था ( राहुल सांकृत्यायन कृत पुरातत्त्व-निबन्धावली)। खुदाईसे प्राप्त हुई पुरातत्त्व सामग्रीके आधारसे उक्त श्रीपर्वत आधुनिक आन्ध्रप्रदेशके गुण्टूर जिलेमें स्थित नागार्जुनी कोंडासे अभिन्न सिद्ध किया गया है। इस पहाड़ीका अब स्थानीय नाम नहरल्लवडु है। पूर्व इतिहासके ऐसे प्रकाशमें अब सन्देह नहीं रहता कि हरिवंशपुराणके कर्ताको भी श्रीपर्वतकी उक्त प्रख्याति विज्ञात थी, और उसीको तुलनामें उन्होंने अपना यह पुराणरूपी नया श्रीपर्वत खड़ा किया। जिस प्रकार उस महायान बौद्धधर्मकी चैत्यवादी शाखा व वज्रयान सम्प्रदायमें मनोरथोंकी सिद्धि श्रीपर्वतकी उपासनासे मानो जाती थी, उसी प्रकार जिनसेनने अपनी इस रचनाके विषयमें कहा कि 'जो कोई इस हरिवंशको भक्तिसे पढ़ेंगे उन्हें अल्प यत्नसे ही अपनी आकांक्षित कामनाओंको पूरी सिद्धि होगी, तथा धर्म, अर्थ और मोक्षका भी लाभ मिलेगा' (६६, ४६ )। ग्रन्थकर्ता स्वयं जिनेन्द्र के नाम मात्रको ही ग्रहों आदिको पीडाको दूर करनेका उपाय मानते थे (६६, ४१) और सिंहवाहिनी ( अम्बादेवी ) की उपासनासे सर्व विघ्नोंकी शान्ति होने में विश्वास रखते थे (६६, ४४)।
भारतीय संस्कृति में जैनधर्मकी देन बड़ी विशाल और गम्भीर है. तथा इस संस्कृतिसे अन्य समानान्तर धाराओंसे ग्रहण किये हुए तत्त्वोंको मात्रा भी कम नहीं है। बड़ी आवश्यकता है कि. खोज-शोधपूर्वक इन बिखरी हुई कड़ियोंको जोड़ा जाये । इस कार्य के लिए पहले तो सुचारु रूपसे साहित्य-प्रकाशनकी ही बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि अभी तक भी विपुल जैन साहित्य प्रकाशित व अज्ञात पड़ा हुआ है । यह बात जैन शास्त्रभण्डारों और विशेषतः जयपुरके भण्डारोंकी प्रकाशित सूचियोंके अवलोकन मात्रसे सिद्ध हो जाती है । इस प्राचीन साहित्य के प्रकाशनके साथ ही साथ हिन्दी व अन्य प्रचलित भाषाओं में उसके शुद्ध अनुवादकी आवश्यकता है। हर्षकी बात है कि यह कार्य कुछ ग्रन्थमालाओं द्वारा योजनाबद्ध रूपसे हो रहा है, जिनमें मूर्तिदेवी ग्रन्यमालाका विशेष स्थान है। इस प्रकार प्रकाशित साहित्यको, और विशेषतः जैन पुराणोंकी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टियोंसे आन्तरिक व तुलनात्मक गवेषणाकी नितान्त आवश्यकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थको साहित्याचार्य पं. पन्नालालजोने पाँच-छह प्रतियों के आधारसे संशोधित कर उसको अपने अनुवादसे अलंकृत किया है। उन्होंने अपनी प्रस्तावनामें ग्रन्थ सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका उल्लेख व संकेत किया है। कुछ बातें ऐसी भी कही गयी हैं जिनपर और अधिक विचार व प्रमाणीकरणकी आवश्यकता थी। उदाहरणार्थ, उन्होंने कुवलयमालामें विमलकृत हरिवंशपुराण या चरितके उल्लेखका कथन किया है, किन्तु उन्होंने उस अंशके उस पाठको सर्वथा भुला दिया है जिसे कुवलयमालाके सम्पादक (डॉ. उपाध्ये ) ने अपने संस्करणमें स्वीकार किया है। उसमें 'हरिवंस' के स्थानपर हरिवरिसं' का पाठ होनेसे कुछ अन्य भी अर्थ निकाला जा सकता है। उन्होंने रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणका प्रस्तुत रचनामें तथा महापुराणमें इस रचनाका अनुकरण किये जानेका उल्लेख किया है, किन्तु इन महत्त्वपूर्ण मतोंका जितनी सावधानी और गम्भीरतासे प्रमाणीकरण वांछनीय था वह यहाँ नहीं पाया जाता । अन्य कुछ बातोंका संशोधन उपर्युक्त विवेचन द्वारा करनेका प्रयत्न किया गया है ।
इस ग्रन्थसहित पं. पन्नालालजीने जैन धर्मके तीन प्राचीन पुराणों-महापुराण, पद्मपुराण और हरिवंशपुराणका संस्करण और अनुवाद प्रस्तुत कर जैन साहित्यकी जो सेवा की है उसके लिए हम उनके बहुत अनुगृहीत हैं। ये तीनों ही सस्करण इनके पूर्व संस्करणोंसे अति अधिक शुद्ध और उपयोगी रूपमें प्रस्तुत किये गये हैं, जिससे साधारण पाठकों के अतिरिक्त इस विषयपर शोधकार्य करनेवालोंको वे बहत उपयोगी सिद्ध होंगे. ऐसी आशा है।
-हीरालाल जैन, आ. ने. उपाध्ये
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[१] सम्पादन - परिचय
प्रस्तावना
हरिवंश पुराणका सम्पादन निम्नलिखित ६ प्रतियोंके आधारपर हुआ है-
'क' प्रति - यह प्रति पं. परमानन्दजी शास्त्रीके सौजन्य से श्री दि. जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा, देहलीसे प्राप्त हुई थी । इसकी पत्रसंख्या २८२ है, प्रति पत्रपर १३-१४ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति में ४२ से ४५ तक अक्षर । प्रति प्राचीन है, जर्जर होनेसे कितने हो पत्र अलग कर नये पत्र लिखाये गये हैं । अन्तिम पत्र भी जर्जर होनेसे बदला गया है इसलिए लिपि संवत्का पता नहीं चल सका । स्याही लाल-काली है, अक्षर सुवाच्य हैं, जहाँ-तहाँ टिप्पणी भी दी गयी हैं प्रायः पाठ शुद्ध हैं । पत्रोंकी साइज ११ × ५ इंच है। इसका सांकेतिक नाम 'क' है ।
।
'ख' प्रति - यह प्रति भी पं. परमानन्दजी शास्त्रीके सौजन्यसे पंचायती मन्दिर देहलीसे प्राप्त हुई है । संवत् १८७१ में लिखी गयी है । दशा अच्छी है; परन्तु कागज जर्जर होने लगा है । लाल-काली स्याही हैं, पत्रसंख्या ३३० है । प्रतिपत्र में १२-१३ पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३५-३८ अक्षर हैं । पत्रोंकी साइज १२३x६ इंच है। इसका सांकेतिक नाम 'ख' है ।
'ग' प्रति - यह प्रति श्री पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ और डॉ. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल जयपुरके सौजन्य से प्राप्त हुई है । इसमें १२४५ साइजके ३१३ पत्र हैं । प्रतिपत्रमें १२ पंक्तियाँ हैं और प्रतिपंक्ति ४५-५० तक अक्षर हैं प्राचीन है, परन्तु बीच-बीच में कई जगह जीर्ण-शीर्ण हो जाने से नये पत्र लिखाकर शामिल कराये गये हैं । कहीं-कहीं टिप्पण भी दिये गये हैं, पाठ शुद्ध है, दशा अच्छी है । लेख संवत् १८३० है । इसका सांकेतिक नाम 'ग' है ।
।
'घ' प्रति - यह प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूनासे उपलब्ध हुई थी। इसमें १२ x ५ इंचके ३७६ पत्र, प्रतिपत्र १२ पंक्तियों और प्रतिपंक्ति में ३६-४० अक्षर हैं । काली-लाल स्याही से लिखी गयी है, सुवाच्य लिपि है और दशा अच्छी है । लेखनकाल अज्ञात है फिर भी कागजकी दशा से अधिक प्राचीन मालूम होती है । इसका सांकेतिक नाम 'घ' है ।
'ङ' प्रति---यह प्रति पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ और डॉ. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवालके सौजन्यसे जयपुरसे प्राप्त हुई थी। इसमें १२५ इंचकी साइजके ४२० पत्र हैं । प्रतिपत्रमें ११-१२ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति में ४०-४२ अक्षर हैं। अक्षर सुवाच्य हैं, कागज पतला है, लेखनकाल १६४० विक्रम संवत् है । दशा अच्छी है, स्याही के दोषसे कुछ पत्र परस्पर चिपक गये हैं। बीच-बीच में कुछ टिप्पणी भी हैं, पाठ शुद्ध है । अन्तमें लेख है—
'संवत् १६४० वर्षे चैत्रे मासे शुक्लपक्षे षष्ठ्यां तिथो बुधवासरे रोहिणी नामक नक्षत्रे श्री मूलसंघे' । इसका सांकेतिक नाम 'ङ' है ।
'म' प्रति - यह प्रति माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से पं. दरबारीलालजी न्यायतीर्थ ( साम्प्रतिक नाम - सत्यभक्त ) के द्वारा सम्पादित होकर दो भागोंमें मूलमात्र प्रकाशित हुई है । जहाँ कहीं खटकने लायक अशुद्धियाँ रह गयी हैं । इसका सांकेतिक नाम 'म' है ।
उक्त छह मूल प्रतियों के पाठसे भी
जहाँ कहीं शुद्ध पाठका निर्णय नहीं हो सका वहाँ श्री ऐलक
[२]
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हरिवंशपुराणे
पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई तथा प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर मैसूरकी प्रतिसे भी पाठ मिलाकर शुद्ध पाठ स्थापित किये गये हैं । इस कार्य में हमें श्री पं. कुन्दनलालजी शास्त्री तथा पं. के. श्री भुजबली शास्त्री मूडबिद्री पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ है ।
[२] हरिवंशपुराण
अभी तक मेरी दृष्टिमें तीन हरिवंशपुराण आये हैं । जिनमें दो संस्कृतमें हैं और एक अपभ्रंश भाषाका है | अपभ्रंश हरिवंशके रचयिता महाकवि रइधू हैं । इसकी प्रति मैंने कुरवाई ( सागर ) के जैन मन्दिरमें देखी थी । संस्कृत के दो हरिवंशों में एक हरिवंश ब्रह्मचारी जिनदासका बनाया हुआ है। इसकी प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूनामें विद्यमान है। रचना सरल और संक्षिप्त है । जिनसेनके हरिवंशमें जो यत्र-तत्र प्रसंगोपात्त अन्य वर्णन आये हैं उन्हें छोड़कर मात्र कथाभाग इसमें संगृहीत किया गया है । दूसरा हरिवंश आचार्य जिनसेनका है जिसका संस्करण पाठकों के हाथमें है ।
आचार्य जिनसेनका हरिवंश पुराण दिगम्बर-सम्प्रदायके कथासाहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता हैं । यह विषय विवेचनाकी अपेक्षा तो प्रमुख स्थान रखता ही है, प्राचीनताकी अपेक्षा भी संस्कृत कथाग्रन्थों में तीसरा ग्रन्थ ठहरता है । पहला रविषेणाचार्यका पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दीका वरांगचरित और तीसरा यह जिनसेनका हरिवंश है । यद्यपि जिनसेनने अपने हरिवंश में महासेनकी सुलोचनाकथा तथा कुछ अन्यान्य ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है; परन्तु अभी तक अनुपलब्ध होने के कारण उनके विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । हरिवंशके कर्ता जिनसेनने अपने ग्रन्थके प्रारम्भमें पार्श्वाभ्युदयके कर्ता जिनसेन स्वामीका स्मरण किया है। इसलिए इनका महापुराण हरिवंशसे पूर्ववर्ती होना चाहिए.... यह मान्यता उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि जिस तरह जिनसेनने अपने हरिवंशपुराण में जिनसेन ( प्रथम ) का स्मरण करते हुए उनके पार्खाभ्युदयका उल्लेख किया है उस तरह महापुराणका उल्लेख नहीं किया, इससे विदित होता है कि हरिवंशकी रचनाके पूर्व तक जिनसेन ( प्रथम ) के महापुराणकी रचना नहीं हुई थी । महापुराण, जिनसेन स्वामी के जीवनकी अन्तिम रचना है इसीलिए तो वह उनके द्वारा पूर्ण नहीं हो सकी, उनके शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा पूर्ण किया गया है । हरिवंश और महापुराण दोनोंको देखनेके बाद ऐसा लगता है कि महापुराणकारने हरिवंशको देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिवंशपुराण में तीन लोकोंका, संगीतका तथा व्रतविधान आदिका जो बीच-बीचमें विस्तृत वर्णन किया गया है उससे कथा के सौन्दर्यकी हानि हुई है । इसलिए महापुराण में उन सबके अधिक विस्तारको छोड़कर प्रसंगोपात्त संक्षिप्त हो वर्णन किया गया है । काव्योचित भाषा तथा अलंकारकी विच्छित्ति भी हरिवंशपुराणकी अपेक्षा महापुराणमें अत्यन्त परिष्कृत है ।
[३] हरिवंशपुराणका आधार
जिस प्रकार जिनसेनके महापुराणका आधार कवि परमेष्ठीका 'वागर्थसंग्रह पुराण है उसी प्रकार हरिवंशका आधार भी कुछ न कुछ अवश्य रहा होगा । हरिवंशके कर्ता जिनसेनने प्रकृत ग्रन्थके अन्तिम सर्गमें भगवान् महावीरसे लेकर ६८३ वर्ष तककी और उसके बाद अपने समय तककी जो विस्तृत - अविच्छिन्न आचार्य-परम्परा दो है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इनके गुरु कीर्तिपेण थे और सम्भवतया हरिवंशकी कथावस्तु उन्हें उनसे प्राप्त हुई होगी !
कुवलयमाला कर्ता उद्योतन सूरिने ( वि. सं. ८३५ ) अपनी कुवलयमाला में जिस तरह रविषेणके पद्मचरित और जटासिंह नन्दीके वरांगचरितकी स्तुति की है उसी तरह हरिवंशकी भी की है'। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों बुधजनोंके प्रिय, हरिवंशोत्पत्तिकारक, प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशको वन्दना
१. बहजण सहस्स दइयं हरिवंसुप्पत्तिकारयं पढमं । वंदामि बंदियं पितु हरिवंसं चेत्र विमलपयं ॥३८॥
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प्रस्तावना
करता है। यहाँ श्लेषसे विमलपदके (विमलमूरिके चरण और विमल हैं पद जिसके ऐसा हरिवंश) दो अर्थ घटित होते हैं। विमलसूरिका यह 'हरिवंश' अभी तक अप्राप्य है, इसके मिलनेपर हरिवंशके मूलाधारका निर्णय सहज हो सकता है । वर्णन शैलीको देखते हुए इन्होंने रविषेणके पद्मचरितको अच्छी तरह देखा है यह स्पष्ट है । पद्ममय ग्रन्थोंमें गद्यका उपयोग अन्यत्र देखने में नहीं आता परन्तु जिस प्रकार रविषेणने पद्मचरितमें वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९वें सर्गमें नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है। हरिवंशका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन 'त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति' से मेल खाता है । द्वादशांगका वर्णन राजवातिकके अनुरूप है, संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणित है और तत्त्वोंका निरूपण तत्त्वार्थसूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि के अनुकूल है। इससे जान पड़ता है कि आचार्य जिनसेनने उन सब ग्रन्थोंका अच्छी तरह आलोडन किया है। तत्तत्प्रकरणोंमें दिये गये तुलनात्मक टिप्पणोंसे उक्त बातका निर्णय सुगम है। हाँ, व्रतविधान, समवसरण तथा जिनेन्द्र विहारका वर्णन किससे अनुप्राणित है ? यह निर्णय मैं नहीं कर सका। [४] हरिवंशपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन
हरिवंश पुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघके थे । ये महापुराणादिके कर्ता जिनसेनसे भिन्न हैं। इनके गुरुका नाम कीतिषण और दादागुरुका नाम जिनसेन था। महापुराणादिके कर्ता जिनसेनके गुरु वीरसेन और दादागुरु आर्यनन्दी थे । पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है इसलिए इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाट संघ था । जिनसेनका जन्मस्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवनका कुछ भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है । गृहविरत पुरुषके लिए इन सबके उल्लेखकी आवश्यकता भी नहीं है।
आचार्य जिनसेन बहुश्रुत विद्वान् थे—यह हरिवंशपुराणके स्वाध्यायसे स्पष्ट हो जाता है। हरिवंशपुराण पुराण तो है ही साथ ही इसमें जैन वाङ्मयके विविध विषयोंका अच्छा निरूपण किया गया है इसलिए यह जैन-साहित्यका अनुपम ग्रन्थ है। [५] ग्रन्थकर्ताको गुरु-परम्परा
हरिवंशपुराणके छयासठवें सर्गमें भगवान् महावीरसे लेकर लोहाचार्य तककी वही आचार्य-परम्परा दी है जो कि श्रुतावतार आदि अन्य ग्रन्थोंमें मिलती है । परन्तु उसके बाद अर्थात् वीर निर्वाणसे ६८३ वर्षके अनन्तर जिनसेनने अपने गुरु कोतिषण तककी जो अविच्छिन्न परम्परा दी है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । इस दृष्टिसे इस ग्रन्थका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। वह परम्परा इस प्रकार है-विनयधर, श्रुतिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, मन्दरार्य, मित्रवीर्य, बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, शान्तिषेण, जयसेन, अमितसेन; कीर्तिषण और जिनसेन ( हरिवंशके कर्ता)।
___ इनमें अमितसेनको पुन्नाटगणका अग्रणी तथा शतवर्षजीवी बतलाया है । वीरनिर्वाणसे लोहाचार्य तक ६८३ वर्षमें २८ आचार्य बतलाये हैं। लोहाचार्यका अस्तित्व वि. सं. २१३ तक अभिमत है और वि. सं. ८४० तक जिनसेनका अस्तित्व सिद्ध है। इस तरह इस ६२७ वर्षके अन्तरालमें ३१ आचार्योंका होना सुसंगत है।
१. ब्र, जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुर से प्रकाशित त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उसके सम्पादक डॉ.हीरालालजी
और डॉ. ए. एन. उपाध्येने त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिको अन्य ग्रन्थों के साथ तुलना करते हुए हरिवंशके साथ भी उसकी तुलना की है
और दोनों के वर्णनमें कहाँ साम्य और कहाँ वैषम्य है। इसकी अच्छी चर्चा की है। विस्तार भयसे हम यहाँ उस चर्चाको न लेकर पाठकोंका ध्यान उस ओर अवश्य आकृष्ट करते हैं। २. हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, श्लो, २२-३३ 1
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हरिवंशपुराणे
[६] हरिवंशका रचना-स्थान
हरिवंशपुराणको रचनाका प्रारम्भ वर्द्धमानपुरमें हुआ और समाप्ति दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें हुई । यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्रका प्रसिद्ध शहर 'वढवाण' जान पड़ता है क्योंकि हरिवंशपुराणमें उस समयकी जो भौगोलिक स्थिति बतलायी है उसपर विचार करनेसे उक्त कल्पनाको बल प्राप्त होता है ।
हरिवंशपुराणके ६६वें सर्गके ५२ और ५३वें श्लोकमें कहा है कि शकसंवत् ७०५ में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध, दक्षिण दिशाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वकी अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिमकीसौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणोंसे अथवा सुवर्णसे बढ़नेवाली विपुल लक्ष्मीसे सम्पन्न वर्धमानपुरके पार्श्वजिनालयमें जो कि नन्नराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिकाकी प्रजाके द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजासे युक्त वहांके शान्ति जिनेन्द्रके शान्तिपूर्ण गृहमें रचा गया।
वढवाणसे गिरिनगरको जाते हए मार्गमें 'दोत्तडि' नामक स्थान है वही 'दोस्तटिका' है। प्राचीन गुर्जर-काव्य संग्रह (गायकवाड सीरिज ) में अमुलकृत चर्चरिका प्रकाशित हई है उसमें एक यात्रीकी गिरिनार-यात्राका वर्णन है। वह यात्री सर्वप्रथम वढवाण पहुँचता है. फिर क्रमसे रंनदुलई, सहजिगपुर, गंगिलपुर और लखमीघरुको पहुँचता है। फिर विषम दोत्तडि पहुँचकर बहुत-सी नदियों और पहाड़ोंको पार करता हुआ करिवंदियाल पहुँचता है। करिवंदियाल और अनन्तपुरमें डेरा डालता हुआ भालणमें विश्राम करता है। वहाँसे उसे ऊँचा गिरिनार पर्वत दिखने लगता है। यह विषम दोत्तडि ही दोस्तटिका है।
वर्धमानपुर ( बढ़वाण ) को जिस प्रकार जिनसेनाचार्यने अनेक कल्याणोंके कारण विपुलश्रीसे सम्पन्न लिखा है उसी प्रकार हरिषेणकथाकोशके कर्ता हरिषेणने भी उसे 'कार्तस्वरापूर्णजनाधिवास' लिखा है । कार्तस्वर और कल्याण दोनों ही स्वर्णके वाचक हैं इससे सिद्ध होता है कि वह नगर अत्यधिक समृद्ध था और उसको समृद्धि जिनसेनसे लेकर हरिषेण तक १४८ वर्षके लम्बे अन्तराल में भी अक्षुण्ण बनी रही। हरिषेणने अपने कथाकोशकी रचना भी इसी वर्द्धमानपुर ( वढ़वाण ) में शक संवत् ८५३ (वि. सं. ९८९ ) में पूर्ण की थी।
यद्यपि जिनसेन पुन्नाट संघके थे और पुन्नाट नाम कर्नाटकका है तथापि विहारप्रिय होनेसे उनका सौराष्ट्र की ओर आगमन युक्ति-सिद्ध है। सिद्धक्षेत्र गिरिनार पर्वतकी वन्दनाके अभिप्रायसे पुन्नाट संघके मुनियोंने इस ओर विहार किया हो, यह आश्चर्यकी बात नहीं। जिनसेनने अपनी गुरुपरम्परामें अमितसेनको पुन्नाट गणके अग्रणी और शतवर्पजीवी लिखा है । इससे जान पड़ता है कि यह संघ अमितसेनके नेतृत्व में ही पुन्नाट-कर्नाटक देशको छोड़कर उत्तर भारतकी ओर आया होगा और पुण्यभूमि श्री गिरिनार क्षेत्रकी वन्दनाके निमित्त सौराष्ट्र ( काठियावाड़ ) में गया होगा।
वर्द्धमानपुरकी चारों दिशाओं में जिन राजाओंका वर्णन जिनसेनने किया है, उनपर भी विचार कर लेना आवश्यक है
१. शाकेष्वन्दशतेषु सप्तमु दिशं पश्चोत्तरेषुत्तरी
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वा' श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजे परां
शौर्याणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ॥५२॥ कल्याणैः परिवर्धमान-विपुल-श्रीवर्धमाने पुरे
श्रीपावलिय-नन्नराजवसतो पर्याप्तशेषः पुर।। पश्चादोस्त टिका प्रजा प्रजनितप्राज्यार्चना वर्जने
शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो बंशो हरीणामयम् ॥१३॥
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प्रस्तावना
१. इन्द्रायुध
स्व. ओझाजीने लिखा है कि इन्द्रायुध और चक्रायुध किस वंशके थे, यह ज्ञात नहीं हुआ, परन्तु सम्भव है कि वे राठोड़ हों। स्व. चिन्तामणि विनायक वैद्यके अनुसार इन्द्रायुध भण्डि कुलका था और उक्त वंशको वर्मवंश भी कहते थे।' इसके पुत्र चक्रायुधको परास्त कर प्रतिहारवंशो राजा वत्सराजके पुत्र नागभट द्वितीयने जिसका कि राज्यकाल विन्सेट स्मिथके अनुसार वि. सं. ८५७-८८२ है' कन्नौजका साम्राज्य उससे छीना था। बढवाणके उत्तरमें मारवाड़का प्रदेश पड़ता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कन्नौजसे लेकर मारवाड़ तक इन्द्रायुधका राज्य फैला हुआ था।
२. श्रीवल्लभ
यह दक्षिणके राष्ट्रकूट वंशके राजा कृष्ण (प्रथम) का पुत्र था। इसका प्रसिद्ध नाम गोविन्द (द्वितीय) था। कावीमें मिले हुए. ताम्रपटमें इसे गोविन्द न लिखकर वल्लभ ही लिखा है, अतएव इस विषयमें सन्देह नहीं रहा कि यह गोविन्द (द्वितीय) ही था और वर्धमानपरकी दक्षिण दिशामें उसीका राज्य था बढ़वाणके प्रायः दक्षिणमें है । श. सं. ६९२ (वि. सं. ८२७) का उसका एक ताम्रपत्र भी मिला है।
३ अवन्तिभूभृत् वत्सराज
यह प्रतिहार वंशका राजा था और उस नागावलोक या नागभट (द्वितीय) का पिता था जिसने चक्रायुधको परास्त किया था। वत्सराजने गौड़ और बंगालके राजाओंको जीता था और उनसे दो श्वेत छत्र छीन लिये थे । आगे इन्हीं छत्रोंको राष्ट्रकूट गोविन्द (द्वितीय) या श्रीवल्लभके छोटे भाई ध्र वराज ने चढ़ाई करके उससे छीन लिया था और उसे मारवाड़की अगम्य रेतीली भूमिकी ओर भागनेको विवश किया था।
ओझाजी ने लिखा है कि उक्त वत्सराजने मालवाके राजापर चढ़ाई की और मालवराजको बचानेके लिए ध्रुवराज उसपर चढ़ दौड़ा। ७०५ में तो मालवा वत्सराजके ही अधिकारमें था क्योंकि ध्रुवराजका राज्यारोहणकाल श. सं. ७०७ के लगभग अनुमान किया गया है। उसके पहले ७०५ में तो गोविन्द (द्वितीय) (श्रीवल्लभ ) ही राजा था और इसलिए उसके बाद ही ध्रुवराजकी उक्त चढ़ाई हुई होगी।
उद्योतन सूरिने अपनी कुवलयमाला जावालिपुर या जालोर ( मारवाड़ ) में तब समाप्त की थी जब श. सं. ७०० के समाप्त होने में एक दिन बाकी था। उस समय वहाँ वत्सराजका राज्य था अर्थात् हरिवंशकी रचनाके समय ( श. सं. ७०५ में ) तो ( उत्तर दिशाका ) मारवाड़ इन्द्रायुधके अधीन था और (पूर्वका) मालवा वत्सराजके अधिकार में था ! परन्तु इसके ५ वर्ष पहले ( श. सं. ७०० ) में वत्सराज़ मारवाड़का अधिकारी था । इससे अनुमान होता है कि उसने मारवाड़से ही आकर मालवापर अधिकार किया होगा और उसके बाद ध्रुवराजकी चढ़ाई होनेपर वह फिर मारवाड़की ओर भाग गया होगा। श. सं. ७०५ में वह अवन्ति या मालवाका शासक होगा। अवन्ति बढ़वाणकी पूर्व दिशामें है ही। परन्तु यह पता नहीं लगता कि उस समय अवन्तिका राजा कौन था, जिसकी सहायताके लिए राष्ट्रकूट ध्रुवराज दौड़ा था। ध्रुवराज (श. सं. ७०७) के लगभग गद्दीपर आरूढ हुआ था। इन सब बातोंसे हरिवंशकी रचनाके समय उत्तरमें इद्रायुध, दक्षिणमें श्रीवल्लभ और पूर्व में वत्सराजका राज्य होना ठीक मालूम होता है।
१. देखो, सी. पो. वैद्यका 'हिन्दू भारतका उत्कर्ष': पु. १७५ । २. म म. ओझाजी के अनुसार नागभटका समय वि.सं. ८७२-८६० तक है। ३. इण्डियन ऐण्टिक्वेरी : जिन्द५.प.१४६ । ४. एपिग्राफि आ इण्डिका : जिन्द६,प, २७६ ।
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हरिवंशपुराणे ४. वीर जयवराह
यह पश्चिममें सौरोंके अधिमण्डलका राजा था। सौरोंके अधिमण्डलका अर्थ हम सौराष्ट्र ही समझते हैं जो काठियावाड़के दक्षिणमें है। सौर लोगोंका राष्ट्र सौर-राष्ट्र या सौराष्ट्रसे बढ़वाण और उसके पश्चिमकी ओरका प्रदेश ही ग्रन्थकर्ताको अभीष्ट है।
यह राजा किस वंशका था इसका ठीक पता नहीं चलता । हमारा अनुमान है कि यह चालुक्य वंशका कोई राजा होगा और उसके नामके साथ 'वरआह' का प्रयोग उस तरह होता होगा जिस तरह कि कीर्तिवर्मा (द्वितीय) के साथ महावराहका। राष्ट्रकूटोंसे पहले चौलुक्य सार्वभौम-राजा थे और काठियावाड़पर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्वभौमपना श. सं. ६७५ के लगभग राष्ट्रकूटोंने ही छीना था, इसलिए बहुत सम्भव है कि हरिवंशकी रचनाके समय सौराष्ट्रपर चौलुक्य वंशकी हो किसी शाखाका अधिकार हो और उसीको जयवराह लिखा हो । सम्भवतः पूरा नाम जयसिंह हो और वराह विशेषण।
प्रतिहार राजा महीपालके समयका एक दानपत्र हड्डाला गाँव ( काठियावाड़) से श. सं. ८३६ का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय बढ़ वाणमें धरणीवराहका अधिकार था, जो चावड़ा वंशका था और प्रतिहारोंका करद राजा था। इससे एक संभावना यह भी है कि उक्त धरणीवराहका ही कोई ४-६ पीढ़ी पहलेका पूर्वज उक्त जयवराह रहा हो। [७] हरिवंशका रचनाकाल
जिनसेनाचार्यने अन्तिम सर्गके ५२वें श्लोकमें हरिवंशका रचनाकाल शक संवत् ७०५ लिखा है जो वि. सं. ८४० होता है। जिनसेनने अपने ग्रन्थको रचनाका समय मात्र शक संवत्में लिखा है जब कि हरिषेणने कथाकोशका रचनाकाल लिखते समय शक संवतके साथ वि. सं. का भी उल्लेख किया है। उत्तरभारत, गजरात और मालवा आदिमें वि. सं. का और दक्षिणमें शक संवतका चलन रहा है। जिनसेनको दक्षिणसे आये हुए एक-दो पीढ़ियाँ ही बीती थीं इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थमें शक संवत्का ही उल्लेख किया है, परन्तु हरिषेणको काठियावाड़में कई पीढ़ियाँ बीत गयी थी इसलिए उन्होंने वहाँकी पद्धतिके अनुसार साथमें वि. सं. का देना भी उचित समझा ।
[८] जिनसेनके पूर्ववर्ती विद्वान्
कृतज्ञताके नाते जिनसेनने अपनेसे पूर्ववर्ती समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, जटासिंहनन्दो, शान्त ( शान्तिपेण ) विशेपवादी, कुमारसेन गरु, वीरसेनगरु, जिनसेन स्वामी और वर्द्धमान पुराणके कर्ताका नामस्मरण करते हए उनकी प्रशंसा की है। अतः इनके सम्बन्धमें संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार हैसमन्तभद्र
समन्तभद्र क्षत्रिय राजपुत्र थे। इनका जन्मनाम शान्तिवर्मा था किन्तु बादमें आप 'समन्तभद्र' इस थतिमधर नामसे लोकमें प्रसिद्ध हए । इनके गुरुका नाम क्या था और इनकी क्या गुरुपरम्परा था यह ज्ञा नहीं हो सका । वादो, वाग्मी और कवि होने के साथ-साथ स्तुतिकार होनेका श्रेय आपको ही प्राप्त है। आप दर्शनशास्त्र के तलद्रष्टा और विलक्षण प्रतिभासम्पन्न थे । एक परिचय पद्यमें तो आपको दैवज्ञ, वैद्य, मान्त्रिक और तान्त्रिक होने के साथ आज्ञासिद्ध सिद्धसारस्वत भी बतलाया है। आपकी सिंहगर्जनासे सभी वादिजन काँपते थे । आपने अनेक देशों में विहार किया और वादियोंको पराजित कर उन्हें सन्मार्गका प्रदर्शन किया । आपको उपलब्ध कृतियाँ बड़ी ही महत्त्वपूर्ण, संक्षिप्त, गूढ़ तथा गम्भीर अर्थकी उद्भाविका हैं। उनके नाम इस प्रकार
१. हरिवंशपुराण. सर्ग १. श्लोक २६-४१ ।
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प्रस्तावना
१५
है-१ बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २ युक्त्यनुशासन, ३ आप्तमीमांसा, ४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और ५ स्तुतिविद्या । हरिवंशपुराणकार जिनसेनने इनके जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासन इन दो ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। इनका समय विक्रमकी २-३ शताब्दी माना जाता है । सिद्धसेन
इस नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं पर यह सिद्धसेन वही ज्ञात होते हैं जो सन्मतिप्रकरण नामक प्राकृत प्रन्थके कर्ता हैं । ये न्यायशास्त्रके विशिष्ट विद्वान् थे। इनका समय विक्रमको ६-७वीं शताब्दी होना चाहिए। कतिपय प्राचीन द्वात्रिशिकाओंके कर्ता भी दिगम्बर सिद्धसेन हए हैं। ये सिद्धसेन, न्यायावतारके कर्ता श्वेताम्बरीय विद्वान सिद्धसेन दिवाकरसे भिन्न हैं। देवनन्दी
यह पूज्यपादका दूसरा नाम है । श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं. ४० ( ६४ ) के उल्लेखानुसार इनके देवनन्दी, जिनेन्द्रबुद्धि और पूज्यपाद ये तीन नाम प्रसिद्ध हैं। यह आचार्य अपने समयके बहुश्रुत विद्वान् थे। इनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। दर्शनसारके इस उल्लेखसे वि. सं. ५२६ में दक्षिण मथुरा या मदुरामें पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दीने द्राविड़ संघकी स्थापना की थी, आप ५२६ वि. सं. से पूर्ववर्ती विद्वान् सिद्ध होते हैं । आचार्य जिनसेनने इनका स्मरण वैयाकरणके रूपमें किया है । अबतक आपके जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश तथा दशभक्ति ये पांच ग्रन्थ उपलब्ध हो सके है ।। वज्रसूरि
ये देवनन्दो या पूज्यपादके शिष्य द्राविड़संघके स्थापक वज्रनन्दि जान पड़ते हैं। जिनसेनने इनके विचारोंको प्रवक्ताओं या गणधर देवोंके समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत किया गया है जिसमें बन्ध और मोक्ष तथा उनके हेतुओंका विवेचन किया गया है। दर्शनसारके उल्लेखानुसार आप छठी शतीके प्रारम्भके विद्वान् ठहरते हैं। महासेन
इन्हें जिनसेनने सुलोचना कथाका कर्ता कहा है । इनका विशिष्ठ परिचय अज्ञात है । रविषेण
आप पद्मपुराणके कर्ता रविषेण हैं। पद्मपुराणकी श्रुतिसुखद और हृदयहारी रचना कर आपने रामकथाको अपने ढंगसे विद्वत-समाजके समक्ष उपस्थित किया है। आप विक्रमकी आठवीं शतीके मध्यवर्ती विद्वान् थे । आपने पद्मपुराणकी रचना वि. सं. ७३३ में पूर्ण की है। जटासिंहनन्दि
जिनसेनने इनका नामोल्लेख न कर इनके वराङ्गचरितका उल्लेख किया है। यह बड़े भारी तपस्वी थे । इनका समाधिमरण 'कोप्पण' में हुआ था। कोर्पणके समीपको 'पल्लवकी गुण्डु' नामकी पहाड़ोपर इनके चरण-चिह्न भी अंकित है और उनके नीचे दो लाइनका पुरानी कनड़ीका एक लेख भी उत्कीर्ण है जिसे 'चापय्य' नामके व्यक्तिने तैयार कराया था। इनकी एकमात्र कृति 'वराङ्गचरित' डॉ. ए. एन. उपाध्येद्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हो चुकी है। राजा वरांग बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथके समयमें हआ है। उपाध्येजीने जटासिंहनन्दी का समय ७वीं शती निश्चित किया है ।
१. देखो, अनेकान्त : वर्ष ६, किरण ११-१२ में प्रकाशित, पं. जुगल किशोरजी मुख्तार का 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' शीर्षक
लेख।
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हरिवंशपुराणे
शान्त
इनका पूरा नाम शान्तिषेण जान पड़ता है। इनकी उत्प्रेक्षा अलंकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गयी है। इनका कोई काव्य ग्रन्थ होगा। जिनसेनने, अपनी गुरु-परम्पराका वर्णन करते हुए जयसेनके पूर्व एक शान्तिषेण आचार्यका नामोल्लेख किया है बहुत कुछ सम्भव है कि यह शान्त वही शान्तिषण हों। विशेषवादि
जिनसेनने इनके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत किया है जो गद्य-पद्यमय है और जिनकी उक्तियों में बहुत विशेषता है । वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरितमें भी इनका स्मरण किया है। कुमारसेन गुरु
चन्द्रोदय ग्रन्थके रचयिता प्रभाचन्द्र के आप गुरु थे। आपका निर्मल सुयश समुद्रान्त विचरण करता था। इनका समय निश्चित नहीं है। चामुण्डराय पुराणके पद्य नं. १५ में भी इनका स्मरण किया गया है। डॉ. उपाध्येने इनका परिचय देते हए जैन संदेशके शोधांक १२ में लिखा है कि ये मूलगुण्ड नामक स्थानपर आत्म-त्यागको स्वीकार करके कोप्पणाद्रिपर ध्यानस्थ हो गये तथा समाधिपूर्वक मरण किया । वीरसेन गुरु
ये उस मलसंघ पंचस्तूपान्वयके आचार्य थे जो सेनसंघके नामसे लोकमें विश्रुत हुआ है। ये आचार्य चन्द्रसेनके प्रशिष्य और आर्यनन्दीके शिष्य तथा महापुराण आदिके कर्ता जिनसेनके गुरु थे। आप षट्खण्डागमपर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका तथा कषाय प्राभृतपर बीस हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर दिवंगत हुए थे। जिनसेनने उन्हें कवियोंका चक्रवर्ती तथा अपने-आपके द्वारा परलोकष्य विजेता कहा है। आपका समय विक्रमकी ९वीं शतीका पूर्वार्ध है। जिनसेन स्वामी
आप वीरसेन गुरुके शिष्य थे। हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेनने आपके पाश्र्वाभ्युदय ग्रन्थकी ही चर्चा की है। जब कि आप महापुराण तथा कषायप्राभृतको अवशिष्ट चालीस हजार श्लोक प्रमाण टोकाके भी कर्ता है। इससे जान पड़ता है कि हरिवंशपुराणके समय उन्होंने पार्वाभ्युदयकी ही रचना की होगी। जयधवला और महापुराणकी रचना पीछे की होगी। और महापुराणको रचना तो उनको अन्तिम कृति कही जा सकती है जिसे वे पूरा नहीं कर सके। उनके सुयोग्य शिष्य गुणभद्रने उसे पूरा किया। आपका समय ९वीं शती है। वर्धमानपुराणके कर्ता
जिनसेनने वर्द्धमानपुराणका उल्लेख किया है परन्तु इसके कर्ताका नाम नहीं लिखा है । जान पड़ता है कि उनके समयका अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ होगा। [९] हरिवंशपुराणको कथावस्तु
- हरिवंशपुराणमें जिनसेनाचार्य प्रधानतया बाईसवें तीर्थकर श्रीनेमिनाथ भगवान्का चरित्र लिखना चाहते थे परन्तु प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी इसमें लिखे गये हैं। यह बात हरिवंशके प्रत्येक सर्गके उस पुष्पिका वाक्यसे सिद्ध होती है जिसमें उन्होंने 'इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रह' इसका उल्लेख किया है। भगवान् नेमिनाथका जीवन आदर्श त्यागका जीवन है। वे हरिवंश-गगनके प्रकाशमान सूर्य थे । भगवान् नेमिनाथके साथ नारायण और बलभद्र पदके धारक श्रीकृष्ण तथा रामके भी कौतुकावह चरित्र इसमें लिखे गये हैं। पाण्डवों तथा कौरवोंका लोकप्रिय चरित्र इसमें बड़ी सुन्दरताके साथ अंकित किया है। श्रीकृष्णके पुत्र प्रद्युम्नका चरित भी इसमें अपना पृथक् स्थान रखता है।
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प्रस्तावना
[१०] हरिवंशपुराणकी साहित्यिक सुषमा
हरिवंशपुराण न केवल कथा ग्रन्थ है किन्तु महाकाव्यके गुणोंसे युक्त उच्च कोटिका महाकाव्य भी है। इसके सैंतीसवें सनसे नेमिनाथ भगवानका चरित्र प्रारम्भ होता है वहींसे साहित्यिक सुषमा इसकी बढ़ती जाती है। इसका पचपनवाँ सर्ग यमकादि अलंकारोंसे अलंकृत है। अनेक सर्ग सुन्दर-सुन्दर छन्दोंसे विभूषित हैं । ऋतुवर्णन, चन्द्रोदयवर्णन आदि भी अपने ढंगके निराले हैं। नेमिनाथ भगवानके वैराग्य तथा बलदेवके विलाप आदिके वर्णन करने के लिए जिनसेनने जो छन्द चुने हैं वे रस परिपाकके अत्यन्त अनुरूप है। श्रीकृष्णकी मृत्यु के बाद बलदेवका करुण विलाप और स्नेहका चित्रण, लक्ष्मणको मृत्युके बाद रविषेणके द्वारा पत्रपुराणमें वर्णित राम-विलापके अनुरूप है। वह इतना करुण चित्रण हुआ है कि पाठक अश्रुधाराको नहीं रोक सकता । नेमिनाथ वैराग्य वर्णनको पढ़कर प्रत्येक मनुष्यका हृदय संसारकी माया-ममतासे विमुख हो जाता है । राजीमतीके परित्यागपर पाठकके नेत्रोंसे सहानुभतिको अश्रुधारा जहां प्रवाहित होती है वहां उनके आदर्श सतीत्वपर जन-जनके मानसमें उनके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न होती है।
मृत्युके समय कृष्णके मुखसे जो अन्तिम उद्गार प्रकट हुए हैं उनसे उनकी महिमा बहुत ही ऊँची उठ जाती है । तीर्थंकर प्रकृतिका जिसे बन्ध हुआ है उसके परिणामों में जो समता होनी चाहिए वह अन्त तक स्थित रही है। यहाँ हम कुछ अवतरण देकर ग्रन्थकी सुषमाको प्रकट करना चाहते थे परन्तु लेखका कलेवर बढ़ जानेके भयसे वैसा नहीं कर रहा हूँ। मेरा अनुरोध है कि पाठक ग्रन्थका स्वाध्याय कर रसानुभूति करें। [११] हरिवंशपुराण और लोकवर्णन
हरिवंशपुराणका लोकवर्णन प्रसिद्ध है जो त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिसे अनुप्राणित है। किसी पुराणमें इतने विस्तारके साथ इस विषयकी चर्चा आना खास बात है। पुराण आदि कथाग्रन्थोंमें लोक आदिका वर्णन संक्षेप रूपमें ही किया जाता है परन्तु इसका वर्णन अत्यन्त विस्तार और विशदताको लिये हए है। कितने ही स्थलोंपर करणसूत्रोंका भी अच्छा उल्लेख किया गया है। यदि लोक-विभागके प्रकरणको हिन्दी अनुवादके साथ अलगसे प्रकाशित कर दिया जाये तो अल्पमूल्यमें पाठक इससे अवगत हो सकते हैं। [१२] हरिवंशपुराण और धर्मशास्त्र
भगवान नेमिनाथकी दिव्यध्वनिके प्रकरणको लेकर ग्रन्थकर्ताने बड़े विस्तारके साथ तत्त्वोंका निरूपण किया है। इस निरूपणका आधार उमास्वामो महाराजका तत्वार्थसूत्र और पूज्यपाद स्वामीको सर्वार्थसिद्धि टीका है। वर्णनको देखकर ऐसा लगने लगता है कि मानो तत्त्वार्थसूत्र और सर्वार्थसिद्धि ही श्लोकरूपमें परिवर्तित हो सामने आये हैं । कथाके साथ-साथ बीच-बीच में तत्त्वोंका निरूपण पढ़कर पाठकका मन प्रफुल्लित बना रहता है। [१३ ] एक विचारणीय विषय
दिगम्बर परम्परामें नारदको नरकगामी माना गया है परन्तु हरिवंशपुराणके कर्ताने उसे चरमशरीरी बताया है
प्रस्तावेऽत्र गणिज्येष्ठं श्रेणिकोऽपृच्छदित्यसौ । क एष नारदो नाथ कुतो वास्य समुद्भवः ॥१२॥ सर्ग ४२ गण्युवाच वचो गण्यः शृणु श्रेणिक भण्यते । उत्पत्तिरन्त्यदेहस्य नारदस्य स्थितिस्तथा ॥१३॥ सर्ग ४२ अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव निःकषायोऽप्यसो क्षिती।
रणप्रेक्षाप्रियः प्रायो जातो जल्पाकभास्करः ॥२२॥ सर्ग ४२ [३]
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हरिवंशपुराणे
नारदोऽपि नरश्रेष्ठः प्रव्रज्य तपसो बलात् ।
कृत्या भवक्षयं मोक्षमक्षयं समपेयिवान् ॥२४।। सर्ग ६५ उक्त श्लोकोंमें १३ और १२वें श्लोकमें नारदको अन्त्यदेह लिखा है जिसपर कितनी ही प्रतियोंमें 'चरमशरीरस्य' यह टिप्पण भी दिया हआ है और ६५वें श्लोकमें तो स्पष्ट ही अक्षय मोक्षको प्राप्त करनेकी बात लिखी है।
यह नारदकी मुक्तिका प्रकरण विचारणीय है। इसी प्रकार ६५वें सर्गके अन्त में कथा है कि बलदेव जब ब्रह्मलोकमें देव हो चुके तब वे अवधिज्ञानसे कृष्णके जीवका पता जानकर उसे सम्बोधनके लिए बालुकाप्रभापृथिवीमें गये। बलदेवका जीव देव, कृष्णको अपना परिचय देने के बाद उसे वहाँसे अपने साथ ले जानेका प्रयत्न करता है परन्तु वह सब विफल होता है। अन्तमें कृष्णका जीव बलदेवसे कहता है कि, 'भाई जाओ अपने स्वर्गका फल भोगो, आयुका अन्त होनेपर मैं भी मनुष्यपर्यायको प्राप्त होऊँगा। वह मनुष्यपर्याय जो कि मोक्षका कारण होगी। उस समय हम दोनों तप कर जिनशासनको सेवासे कर्मक्षयके द्वारा मोक्ष प्राप्त करेंगे। परन्तु तुम इतना करना कि भारतवर्ष में हम दोनों पुत्र आदिसे संयुक्त तथा महाविभवसे सहित दिखाये जावें । लोग हमें देखकर आश्चर्यसे चकित हो जावें । तथा घर-घरमें शंख, चक्र और गदा हाथमें लिये हुए मेरी प्रतिमा बनायी जाये और मेरी कीर्तिकी वृद्धिके लिए हमारे मन्दिरोंसे भरतक्षेत्रको व्याप्त किया जाये।' बलदेवके जीवने कृष्णके वचन स्वीकार कर उससे कहा कि सम्यग्दर्शनमें श्रद्धा रखो। तथा भरतक्षेत्रमें आकर कृष्णके कहे अनुसार विक्रियासे उनका प्रभाव दिखाया और तदनुसार उनकी प्रतिमा और मन्दिर बनवाकर भरतक्षेत्रको व्याप्त किया।
इस प्रकरण में विचारणीय बात यही है कि जिसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध है वह सम्यग्दृष्टि तो रहेगा ही। यह ठीक है कि बालुकाप्रभामें उत्पन्न होते समय उनका सम्यक्त्व छूट गया होगा परन्तु अपर्याप्तक अवस्थाके बाद फिरसे उन्हें सम्यग्दर्शन हो गया होगा यह निश्चित है। सम्यग्दृष्टि जीवने लोकमें अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिए मिथ्यामूर्तिके निर्माणको प्रेरणा दी और सम्यग्दृष्टि बलरामके जीव देवने वैसा किया भी । इस प्रकरणकी संगति कुछ समझमें नहीं आती।
सम्पादन और आभार-प्रदर्शन इस ग्रन्थके सम्पादनमें श्रम बहुत करना पड़ा। जिन स्थलोंका आधार मिल गया उनके सम्पादनमें तो सुविधा रही परन्तु जिनका कुछ आधार नहीं मिला उनके सम्पादनमें बहुत खोज-बीन करनी पड़ी। महापुराणके सम्पादनके लिए कुछ ताडपत्रीय प्रतियाँ मिल गयी थीं जिनसे सही पाठ आँकने में बहुत सहायता मिली थी; परन्तु हरिवंशपुराणकी ताड़पत्रीय प्रतियाँ नहीं मिल सकी। उत्तर भारतके भाण्डारोंमें पायी जानेवाली कागजकी ही प्रतियाँ उपलब्ध हुई। हमें यह लिखते हुए संकोच नहीं होता कि उत्तर भारत में जो कागजपर प्रतियाँ लिखी गयी हैं वे यदा-कदा च ऐसे पेशेवर लेखकोंकी कलमसे भी लिखी गयी हैं जो संस्कृत भाषासे प्रायः अनभिज्ञ रहे हैं । ऐसे लेखकोंकी कृपासे प्रतियाँ प्रायः अशुद्ध हो गयी है अतः शुद्ध पाठकी कल्पना करनेमें बहुत चिन्तन करना पड़ता है। ऐसे कई स्थल इस ग्रन्यमें निकले जिनके विषयमें मझे दूसरी प्रतियों के पाठ मिलाने पड़े और 'पद्मयान क्या है' इस विषयका एक लेख ही जैन सन्देशमें लिखना पड़ा। पं. के. भुजबली शास्त्रीने मैसूरकी प्रतियोंसे पाठ मिलाने और पं. कुन्दनलालजीने बम्बईकी प्रतियोंसे पाठ मिलाने में मुझे पर्याप्त सहयोग दिया। पं रतनलालजी कटारया केकड़ी भी सुयोग्य विद्वान् हैं, आपने हमारा 'पद्मयान' वाला लेख पढ़कर सुझाया कि सिन्धुरारोढुंके स्थानपर शम्भुरारोढं पाठ होना चाहिए। सम्पादनके लिए उपलब्ध प्रतियोंमें-से सभीमें 'सिन्धुरारोढुं' पाठ था पर खोज करनेपर मैसूरकी प्रतियोंमें शम्भुरारोढुं पाठ मिल गया और उससे अर्थकी संगति बैठ गयी। और भी एक-दो स्थल ऐसे हैं जिनमें आपने अच्छा विचार व्यक्त
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प्रस्तावना
१९
किया है। नारदमुक्ति तथा सम्यग्दृष्टि कृष्णके द्वारा मिथ्यामार्ग चलानेकी बातपर भी आपने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। इस तरह इन विद्वानोंका मैं आभार मानता हूँ। पं. दरबारीलालजी सत्यभक्त-द्वारा सम्पादित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित मूल हरिवंशपुराण तथा पं. दौलतरामजी और पं. गजाधरलालजी कृत हिन्दी टीकाएँ भी हमारे कार्य में पर्याप्त सहायक सिद्ध हुई हैं इसलिए इनके प्रति मैं समादर प्रकट करता हूँ। प्रस्तावना लेखमें श्रीमान् स्वर्गीय नाथुरामजी प्रेमीके 'जैन-साहित्यका इतिहास' से यथेच्छ सहायता ली गयी है अतः उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करता हूँ। महापुराणकी प्रस्तावना प्रेमीजीने रुग्ण रहते हुए भी स्वयं देखी थी। पद्मपुराणकी प्रस्तावनामें काफी विचार पत्रों द्वारा दिये थे पर हरिवंशपुराण की प्रस्तावनाके समय हमें उनका प्रत्यक्ष सहयोग न मिलकर मात्र उनके लेखका परोक्ष सहयोग मिल रहा है इसका हृदयमें दुःख है। किसी भी व्यक्तिको परखने और उसे ऊँचा उठानेकी उनकी उदात्त भावना सम्पर्कमें आनेवाले प्रत्येक व्यक्तिको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी। हरिवंशके इस संस्करणको पद्यानुक्रमणिका, शब्दकोष तथा सूक्तिरत्नाकर आदि स्तम्भोंसे अत्यन्त उपयोगी बनानेका प्रयत्न किया गया है। तत्तत्प्रकरणोंमें तुलनात्मक टिप्पणोंसे भी इसे उपयोगी बनाया गया है । इस कार्यके लिए श्री डॉ. हीरालालजी, डॉ. ए. एन. उपाध्ये तथा बाबू लक्ष्मीचन्द्रजीने सुझाव और सत्प्रेरणा दी है जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। इतना सुन्दर और सुव्यवस्थित प्रकाशन करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक साहू शान्तिप्रसादजी तथा उसकी अध्यक्षा रमारानीजी धन्यवादके पात्र हैं । महापुराण, पद्मपुराण और हरिवंशपुराणको सुसम्पादित करनेकी मेरी चिर-साधना साहूजीकी उदारतासे हो पूर्ण हो सकी है। इसलिए उनके प्रति अपनी श्रद्धा किन शब्दों में प्रकट करूं?
यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि आजका वातावरण आहत दर्शनके प्रचारके लिए अत्यन्त उपयुक्त है । शंकराचार्यके समयसे लेकर अभी पिछले पचीस-पचास वर्ष पूर्व तकका समय इतना संघर्षपूर्ण समय था कि लोग एक-दूसरेके दर्शन या धर्मकी बातको सूनना ही पाप समझते थे पर सौभाग्यसे अब वह संघर्षमय वातावरण समाप्तप्राय है और धीरे-धीरे बिलकुल ही समाप्त होने के सम्मुख है। आजका मानव एक-दूसरे दर्शन या धर्मकी बातको सूनने और समझनेके लिए तैयार है । आज आर्हत दर्शनके हीरे-जवाहरात कुन्दकुन्द और समन्तभद्रके अनूठे-अनूठे ग्रन्थ विश्वके सामने रखे जावें तो विश्वके प्रत्येक मानवका अन्तरात्मा उनके अलौकिक प्रकाशसे जगमगा उठे । आवश्यकता है कि कुन्दकुन्द स्वामीकी अध्यात्मधारा विश्वके रंगमंचपर प्रवाहित की जाये जिससे आजका संताप-सन्त्रस्त मानव उसमें अवगाहन कर सच्ची शान्तिका अनुभव कर सके। आजकी सरकार जिन पंचशीलोंकी स्थापना कर विश्व शान्ति स्थापित करना चाहती है, उन पंचशीलोंके सिद्धान्त तथा समाजवाद और निरतिवादके सिद्धान्त आर्हत दर्शनोंमें उनके पुराण, काव्य और कथा-ग्रन्थोंमें कूट-कूट कर भरे हुए हैं। यदि आहत दर्शनका अनुयायी समाज अपने दर्शनके प्रकाशनार्थ पंचवर्षीय योजना बना ले और पूरी शक्तिके साथ जट पडे तो उसके इतिहासमें एक गणनीय काय जावेगा । जैनमन्दिरों के अन्दर लाखों-करोड़ोंको सम्पत्ति अनावश्यक पड़ी हई है। यदि जिनेन्द्र देवकी वाणीके प्रचारमें उसीका उपयोग कर लिया जाये तो यह महान पुण्यका कार्य होगा। मन्दिरोंमें चाँदी-सोनेके बर्तनोंके संग्रह तथा संगमर्मर आदि लगवानेकी अपेक्षा जिनवाणीके प्रचारमें जो द्रव्य खर्च होता है वह लाखगुना अच्छा है-अर्हत धर्मकी सच्ची प्रभावना करनेवाला है।
__ अन्त में ग्रन्थकी अगाधता और अपनी अल्पज्ञता तथा व्यस्तताके कारण हुई त्रुटियोंके लिए क्षमायाचना करता हुआ प्रस्तावना लेख समाप्त करता हूँ।
सागर २३।८।६२
विनम्र पन्नालाल जैन
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हरिवंशपुराणके सम्पादनमें प्रस्तावनामें वर्णित पाण्डुलिपियोंके अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रन्थोंसे
सहायता ली गयी है । १. हरिवंशपुराण
२. हरिवंशपुराण
३. त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति ( प्रथम भाग )
४. त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ( द्वितीय भाग )
५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
६. राजवार्त्तिक
१३.
१४. साहित्यदर्पण
१५. जैन साहित्यका इतिहास
१६. जीवकाण्ड
१७. सिद्धान्तकौमुदी १८. अमरकोष
१९. विश्वलोचन कोष
२०. पाण्डवपुराण
सम्पादनमें सहायक ग्रन्थ
२१. वृत्तरत्नाकर २२. छन्दोमंजरी
७. सर्वार्थसिद्धि
८. पुरुषार्थसिद्धयुपाय
९. मोक्षशास्त्र
सूरतका संस्करण
१०. त्रिलोकसार ( संस्कृत टीका सहित ) बम्बईका संस्करण
११. त्रिलोकसार ( हिन्दी टीका सहित )
१२. नाव्यशास्त्र ( भरतमुनि )
वर्षप्रबोध
( पं. दौलतरामजी कृत वचनिका ) लाहौरका संस्करण ( पं. गजाधरप्रसादजी कृत अनुवाद ) कलकत्ताका संस्करण जीवराज ग्रन्थमालासे प्रकाशित
ज्ञानपीठका संस्करण सोलापुरका संस्करण
बम्बईका संस्करण
33
सोलापुरका संस्करण
71
( स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमी )
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विषय सूची
विषय पृष्ठ विषय
पृष्ठ प्रथम सर्ग
रचना की। इन्द्रभूति आदि पण्डितोंने उनकी मंगलाचरणके अन्तर्गत अनाद्यनिधन जिन
सभामें आकर उनसे दीक्षा धारण की। राजा शासन, तीर्थनायक श्री वर्धमान स्वामी,
चेटककी पुत्री चन्दना भी आर्यिका होकर शेष ऋषभादि २३ तीर्थकर अतीत-अनागतके
गणिनी हुई है । राजा श्रेणिक चतुरंग सेनाके चौबीस जिनेन्द्र और अहंदादि पंच परमे
साथ भगवान्के समवसरणमें पहुंचा। समवष्ठियोंका स्तवन
सरणका संक्षिप्त वर्णन
१७-१९ समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी, वज्रसूरि, श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्रमहासेन, रविषेण, वरांगचरितके कर्ता जटा
में भगवान्की प्रथम देशना हुई । उसमें अंगसिंहनन्दी, शान्तिषेण, विशेषवादी कवि, प्रविष्ट और अंगबाहय श्रुतका वर्णन, गुणकुमारसेन, वीरसेन, जिनसेन आदि पूर्वाचार्यों- स्थान, मार्गणा, जीवसमास तथा जीवादि का स्मरण ३-५ सात तत्त्वोंकी विस्तृत चर्चा हुई
१९-२० सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निन्दा
५-६ गौतम गणधर द्वारा द्वादशांगकी रचना, ग्रन्थकत प्रतिज्ञा, ग्रन्थके मूलोत्तर ग्रन्थकर्ता ६-७ भगवान की दिव्यध्वनि श्रवण कर राजा स्वाध्यायको उपयोगिता, ग्रन्थके वर्णनीय
श्रेणिकने सम्यग्दर्शन धारण किया। 'अहिंसा अधिकारोंका संग्रह
७-११ महाव्रत आदि श्रमणधर्म-मुनिधर्मका वर्णन ग्रन्थकी महत्ता और उसके अध्ययनकी प्रेरणा ११ सुनकर कितने ही जीवोंने महाव्रत और द्वितीय सर्ग
कितने ही मनुष्य तथा तियंचोंने देशव्रत धारण
किया। क्षायिक सम्यग्दर्शनकी महिमा और जम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेह देशके कुण्डपुर ग्राममें राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमतीके राजा
समवसरणके प्रभावका निरूपण
२१-२३ सिद्धार्थ पुत्र थे। इनकी प्रियकारिणी स्त्रीके
तृतीय सर्ग गर्भ में अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानसे च्युत भगवान महावीरका भरतक्षेत्रके आर्यखण्ड होकर भगवान् महावीरका जीव आया १२-१३।। सम्बन्धी अनेक देशों में विहार, चौंतीस अतिभगवान महावीर स्वामीके गर्भ और जन्म
शय, अष्ट प्रातिहार्य, गणधर तथा अन्य कल्याणकका वर्णन १४-१५ शिष्य समूहका निरूपण
२४-२७ उनका वर्धमान नाम था, तीस वर्षको अव
भगवानका पंचशैल-राजगृहपर पहुँचना, स्थामें जिनदीक्षा लेकर उन्होंने १२ वर्ष तक उसकी प्राकृतिक सुषमाका वर्णन, और विपुलाघनघोर तपस्या की । तदनन्तर ऋजु
चलपर भगवान्का समवसरण रचा जाना । कुला नदी के तटपर केवलज्ञान प्राप्त कर ६६ चतुर्विध संघके समक्ष दिव्यध्वनि द्वारा जीवादिन तक मौन विहार किया
१६-१७ जीवादि तत्त्व, चौदह गुणस्थान, चतुर्गतिके पश्चात् राजगृहीके विपुलाचलपर आये। दुःख, और उनमें उत्पन्न होनेके कारण वहाँ देवोंने एक योजन विस्तृत समवसरणकी
आदिका वर्णन तथा भगवान की देशना सुनकर
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२२
विषय
लोगोंसे व्रतादिक धारण करना राजा श्रेणिक गौतम गणधरसे तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलभद्रों, नारायणों तथा प्रतिनारायणोंके चरित, वंशोंको उत्पत्ति और लोकालोक विभागके निरूपणके लिए प्रार्थना करते हैं
चतुर्थ सर्ग
अलोकाकाश और लोकाकाशका स्वरूप तथा
पृष्ठ
२७-४०
उसका आकार
अधोलोक और ऊर्ध्वलोकका विस्तार तथा वातवलयोंका वर्णन व विस्तार अधोलोककी सात पृथिवियों का वर्णन, रत्नप्रभा पृथिवीके खरभाग और पंकभागका निरूपण
हरिवंशपुराणे
विषय
नरक तक उत्पन्न होते हैं ? प्रथमादि पृथिवियोंमें लगातार उत्पन्न होना, किस पृथिवीसे निकला हुआ नारकी क्या होता क्या नहीं होता आदिका वर्णन तथा अधोलोकके वर्णनका समारोप
४०-४१
४२
४२-४५
४५-४६
अब्बहुल भागमें नारकियोंके बिलोंका वर्णन, सातों पृथिवियोंके पटलोंका वर्णन, घर्मा पृथिवी के प्रस्तार क्रमसे बिलोंका वर्णन द्वितीयादि पृथिवीके बिलोंका वर्णन प्रथमादि पृथिवियोंके महानरकों का वर्णन तथा बिलोंका विस्तार प्रथमादि पृथिवियोंके इन्द्रकबिलोंका विस्तार ५४-५७ घर्मा आदि पृथिवियों के इन्द्र कबिलोंकी मोटाई प्रथमादि पृथिवियों के बिलोंका परस्पर अन्तर ५७-५८ प्रथमादि पृथिवीके प्रस्तारोंमें जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुका वर्णन
५२-५३
५७
५८-५९
प्रथमादि पृथिवी में नारकियोंकी ऊँचाईका वर्णन
प्रथमादि पृथिवियोंमें अवधिज्ञानका विषय, मिट्टी की दुर्गन्ध, लेश्याओं का वर्णन, उष्ण और शीतकी बाधा, उपपाद स्थानों का वर्णन प्रथमादि पृथिवियोंके नारकी उपपाद स्थानोंसे गिरनेपर उछलना, असुरकुमारकृत बाधा, नारकियोंके परस्परकृत दुःख, नारकियों के परिणाम, वेद और संस्थानका वर्णन आगामी कालमें तीर्थंकर होनेवाले नारकियोंकी विशेषता, प्रथमादि पृथिवियों में नारकियोंके उत्पत्ति सम्बन्धी अन्तर कौन जीव किस
४७-४९
४९-५२
६२-६३
६६-६७
६७-६८
पंचम सगं
तिर्यग्लोककी व्याख्या, जम्बूद्वीपके मेरुक्षेत्र, कुलाचलादिका विस्तार तथा भरतक्षेत्र के विजयार्ध, हिमवत्कुलाचल, हेमवतक्षेत्र, महाहिमवत्कुलाचल, हरिवर्षक्षेत्र, निषध कुलाचल, विदेहक्षेत्र, नील कुलाचल, रुक्मी पर्वत, शिखरिकुलाचलका वर्णन, ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्ध, अन्तिम भागोंमें स्थित वनखण्ड और वाटिकाएँ कुलाचलोंके सरोवर, उनकी गहराई, कमल, कमलों में रहनेवाली देवियाँ तथा सरोवरोंसे निकलने वाली नदियोंका वर्णन पद्मसरोवरसे निकलनेवाली गंगा, सिन्धु और रोहितास्या नदियोंके निर्गमन-द्वार तथा प्रवाह आदिका वर्णन
सिन्धु नदीकी गंगा नदीके साथ समानता, अन्य नदियोंके निर्गमन और प्रवाह तथा हैमवत आदि क्षेत्रों में स्थित नाभिगिरि पर्वतोंका वर्णन जम्बूद्वीपके समान धातकीखण्ड द्वीप के क्षेत्रकुलाचल आदिका वर्णन, द्वितीय जम्बूद्वीप, विदेहक्षेत्र के अन्तर्गत देवकुरु और उत्तरकुरुका वर्णन
६८-६९
जम्बूवृक्ष और शाल्मली वृक्षका वर्णन तथा नीलादि कुलाचलों और सीता आदि नदियोंके समीप स्थित कूटों, हृदों तथा उनमें रहनेवाले देवोंका वर्णन
पृष्ठ
७०-७७
विदेहक्षेत्र के वक्षारगिरि पर्वत, भद्रशाल वन और उसकी वेदिकाका वर्णन
विभंगा नदियोंका वर्णन
जम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेहक्षेत्र के बत्तीस भेद, उनकी राजधानी आदिका वर्णन
७७-७८
७८-८०
८०-८१
८१-८२
८२-८५
८५-८६ ८६
८७
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विषय
विदेह के कच्छा आदि प्रत्येक क्षेत्र में बहनेवाली गंगा, सिन्धु आदि नदियोंका वर्णन वृषभाचल तथा देवारण्य और भूतारण्य वनोंका वर्णन
जम्बूद्वीप मेरु पर्वत तथा जगतीका वर्णन देवारण्य तथा उसके प्रासाद आदिका वर्णन संख्यात द्वीपों के अनन्तर द्वितीय जम्बूद्वीपका वर्णन
धातकीखण्ड द्वीपका वर्णन
कालदधिका वर्णन
पुष्करद्वीपका वर्णन
लवण समुद्रके विस्तार, पाताल विवर समीपवर्ती पर्वत, गोतम देव, उनके अन्य अन्तद्वीप, लवणसमुद्रकी जगती तथा उसके विस्तारका वर्णन
मनुष्यक्षेत्र और उसका विस्तार मानुषोत्तर पर्वतका वर्णन आदिके सोलह द्वीपसमुद्रोंके नाम, समुद्रोंके जलका स्वाद, समुद्रोंमें सजीवोंका अस्तित्व कहाँ है, कहाँ नहीं है ? तथा द्वीपसमुद्रोंके अधिष्ठाता देवोंका वर्णन
आठवें नन्दीश्वर द्वीपका वर्णन
अरुणद्वीप तथा अरुणसागर में अन्धकारका वर्णन
विषय सूची
पृष्ठ
कुण्डलवरद्वीप और कुण्डलगिरि तथा रुचकवर द्वीप और रुचकगिरिका वर्णन स्वयंभूरमण द्वीप के मध्य में स्थित स्वयंप्रभपर्वतका वर्णन, स्वयंप्रभपर्वतके आगे तियंचोंका वर्णन, मध्यलोकके वर्णनका समारोप
८८
८८-८९
८९-९६
९६-९७
९७-९९
श्रेणीबद्ध, प्रकीर्णक तथा संख्यात असंख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंका वर्णन १२५-१२६ पाँच पैंतला और चार लखूरोंका वर्णन १२६-१२७ श्रेणीबद्ध विमानोंका अवस्थानक्षेत्र, उनके
शिलापट्टोंकी मोटाई तथा भवनोंकी गहराई आदिका वर्णन
१२७-१२८ कौन जीव कहाँ तक उत्पन्न होते हैं, १२८ देवोंमें लेश्याएँ देवों के अवधिज्ञानका विषय १०४-१०८ क्षेत्र, देवोंकी ऊँचाई, प्रविचार और देवियों के १०८-१०९ उत्पत्ति स्थानका वर्णन
९१-१०४
१२८-१२९
१०९-११० ११० ११०-११२
सिद्धलोकका वर्णन तथा ऊर्ध्वलोकके वर्णनका समारोप
११२-११४
११४-११६
११६-११७
११७-११९
१२०
षष्ठ स
पृथिवीतलसे सात सौ नब्बे योजनकी ऊँचाईसे लेकर नौ सो योजनकी ऊंचाई तक स्थित ज्योतिष पटल ग्रहोंका स्थिति-क्रम, आयु, विस्तार, रूप, रंग तथा अढ़ाई द्वीपके सूर्यचन्द्रमा आदिका वर्णन १२१-१२३ मेरु पर्वतकी चूलिकाके ऊपर ऊर्ध्वलोक के
विषय
सौधर्मादि १६ स्वर्गौके आठ युगल, नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंका स्थिति-क्रम, तथा त्रेशठ पटलोंके इन्द्रक विमानोंके नामोंका वर्णन
२३
१२३-१२५
पृष्ठ
व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धा पल्य तथा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके छह-छह कालों का वर्णन
१२९-१३१
सप्तम सर्ग
काल- द्रव्यका स्वरूप तथा उसका अस्तित्व, व्यवहारकाल के समय, आवली उच्छ्वास, और प्राण आदि भेदों-प्रभेदों का वर्णन १३२-१३४ परमाणु तथा अवसंज्ञ, त्रुटिरेणु, त्रसरेणु और रथरेणु आदिका वर्णन
१३४-१३५
१३५-१३७
अवसर्पिणीके प्रथम कालके समय भरतक्षेत्र - की उत्तम भोगभूमि तथा दस प्रकार के कल्पवृक्षों का निरूपण
१४०-१४१
१३७१४० भोगभूमिमें उत्पत्ति के कारणों का वर्णन करते हुए पात्र - कुपात्र-अपात्रका वर्णन तृतीय कालके अन्तिम भागमें प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरोंकी उत्पत्ति और उनके कार्य, ऊँचाई, रूप-रंग और दण्ड व्यवस्था आदिका वर्णन
अष्टम सर्ग अन्तिम कुलकर नाभिराजके इक्यासी खण्ड के सर्वतोभद्र भवनका वर्णन
१४१-१४५
१४६
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हरिवंशपुराणे विषय
पृष्ट विषय राजा नाभिराजकी महारानी मरु देवीके
छह कर्मोंका उपश देना तथा अपने पुत्रसौन्दर्यका वर्णन
१४६-१४८ पुत्रियोंको नाना कलाएँ सिखाना और राजनाभिराज और मरुदेवीके यहाँ भगवान् वंश स्थापित करने का वर्णन १६७-१६९ ऋषभदेवके गर्भावतारके छह माह पूर्वसे नीलांजसा नामक नर्तकीको अकस्मात् कुबेरके द्वारा रत्नोंकी वर्षा तथा श्री, ही
विलीन देख भगवान्के वैराग्यका होना, आदि देवियोंके द्वारा भगवानकी माता
लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति, निष्क्रमण मरुदेवीकी सेवा होना और इससे तीर्थकरकी कल्याणककी तैयारीका वर्णन
१६९-१७१ उत्पत्तिका निश्चय होना
१४८-१५० ।। कुबेरनिर्मित पालकीका वर्णन १७१-१७३ मरुदेवीका ऐरावत आदि १६ स्वप्न देखना भगवानका प्रथम ३२ कदम पैदल चलना, देवियोंने उनकी स्तुति की
१५०-१५२ तदनन्तर पालकीपर सवार हो दीक्षानाभिराज द्वारा स्वप्नों के फलका निरूपण और स्थानपर पहुँचना, वहाँ उनके द्वारा प्रजाको भगवान ऋषभदेवके गर्भावतारका वर्णन १५३-१५४
सान्त्वनाका उपदेश देकर अनेक राजाओंके भगवान ऋषभदेवका जन्म तथा रुचक
साथ दीक्षा धारण करना
१७३-१७४ गिरिनिवासिनी देवियोंके द्वारा अपने भगवान्का छह माहका योग लेकर ध्यानस्थ नियोगानुसार सेना एवं चतुर्णिकाय देवोंके
होना तथा साथमें दीक्षित हुए चार हजार आवास-भवनों में, भेरीनाद, शंखनाद आदि राजाओंका भूख-प्याससे बेचैन हो भ्रष्ट होना होनेका वर्णन १५४-१५६ .
१७४-१७६ जन्म-कल्याणकके लिए देवों का आगमन और नमि और विनमिको धरणेन्द्र द्वारा विजयाधनगरकी तात्कालिक शोभाका वर्णन १५६-१५७ की दोनों श्रेणियोंका राज्य प्रदान १७६-१७७ जिनबालकको सुमेरु पर्वतपर ले जाकर
छह माहका योग समाप्त होनेपर भगवान् इन्द्र द्वारा उनका क्षीरसागरके जलसे अभि
आहार के लिए निकले
१७७-१७९ षेक करना
१५८-१५९ भगवान् जब हस्तिनापुर आनेको हुए तब इन्द्राणी द्वारा भगवान्को लेप लगाकर वहाँके राजा सोमप्रभको स्वप्न-दर्शन हुआ। अलंकार पहनाना। उनके सुसज्जित शरीरका सिद्धार्थ पुरोहितने स्वप्नोंका फल बताया। मनोहर वर्णन, इन्द्र द्वारा 'ऋषभदेव' नाम- भगवान पहुंचे और सोमप्रभके छोटे भाई करण और उनकी हृदयहारिणी स्तुति १५९-२६४ ।। श्रेयांसने जातिस्मरणके द्वारा आहारको सब पर्वतसे वापस आकर जिनबालक माता
विधि जानकर उन्हें इच्छुरसका आहार पिताको सौंपना और आनन्द नाटक करना १६४-१६५ दिया। राजा श्रेयांसका सुयश जगमें व्याप्त नवम सर्ग हो गया
१७९-१८२ ऋषभदेवकी बालक्रीड़ा और शरीरकी
पूर्वतालपुरके शकटास्य नामक वनमें भगवानसुन्दरताका वर्णन
१६६-१६७
को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, समवसरण युवा होनेपर उनका नन्दा और सुनन्दाके
रचा गया, अनेक गणधर हुए और भगवान् की साथ विवाह
दिव्यध्वनि खिरने लगी
१८२-१८४ कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर भूख-प्याससे
दशम सर्ग विह्वल प्रजाका नाभिराजकी सम्मतिसे भगवान्के पास जाना और अपना दुःख प्रकट एक हजार वर्षका मौन खोलकर भगवान् करना, भगवान्का सबको सान्त्वना देकर ऋषभदेवने सबको संसार-सागरसे पार करने कर्मभूमिकी रचना करना, असि-मसी आदि दाला तीर्थ दिखलाया। मुनिधर्म और श्रावक
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विषय सूची
पृष्ठ
विषय
पृष्ट विषय धर्मका वर्णन करने के बाद विस्तारसे श्रुतज्ञान
इस घटनासे बाहबलीने विरक्त होकर दीक्षा का व्याख्यान किया
धारण कर ली। उनकी तपस्याका वर्णन २०४-२०५ श्रुतज्ञानके पर्याय, पर्यायसमास आदि २०
चक्रवर्ती भरतके वैभवका वर्णन २०५-२०८ भेदोंका वर्णन, उसोके अन्तर्गत आचारांग
द्वादश सगं आदि अंगोंका वर्णनीय विषय और उनके भेदोपभेदोंका निरूपण
१८५-१९० भरत समवसरण में जाकर शलाकापुरुषोंदृष्टिवाद अंगके पूर्वगत भेदोका वर्णन, का चरित्र सुनते थे। उन्होंने तीर्थकरों के अंगबाह्य श्रुतका निरूपण, समस्त थुतके स्मरणार्थ अपने द्वारपर २४ घण्टियोंकी अक्षरोंका परिमाण, मतिज्ञानका स्वरूप तथा
वन्दनमाला बँधवायी थी। उन्हीके साम्राज्यउसके भेदोंका कथन, अवधि, मनःपर्यय और में सर्वप्रथम जयकुमार और सुलोचनाका केवलज्ञानका निरूपण तथा उनके प्रयोजन स्वयंवर हुआ
२०९-२११ आदिको चर्चा
१९१-१९७ विद्याधर और विद्याधरीको देख जयकुमार
और सुलोचना मूच्छित हो गये। अनन्तर एकादश सगं
जातिस्मरण द्वारा अपने पूर्वभव जानकर समवसरणसे वापस आकर भरतने पुत्र जन्म
बहुत प्रसन्न हुए । सुलोचना द्वारा पूर्वभवोंका का उत्सव किया और चक्ररत्नकी पूजा कर
वर्णन
२११ दिग्विजयके लिए प्रस्थान किया, पूर्व, दक्षिण रतिप्रभ देवके द्वारा जयकुमारके शीलकी और पश्चिम दिशाके देव और मनुष्योंको परीक्षाका वर्णन
२११ वश कर उन्होंने उत्तर दिशाकी ओर प्रयाण
जयकुमार द्वारा सुलोचनाके लिए भगवान् किया और विजया देवका स्मरण कर उसे
ऋषभदेवके समवसरणका वर्णन । जयकुमारपरास्त किया, तदनन्तर तमिस्र गुहाद्वारसे
ने स्वयं १०८ राजाओंके साथ दीक्षा ले ली उत्तर भरत क्षेत्र में प्रवेश किया १९८-२००। तथा गणधरका पद प्राप्त किया। भगवान के उत्तर भरत के म्लेच्छ राजाओं तथा उनके
८४ गणधरोंके नाम एवं शिष्य-परम्पराका सहायक मेघमुख देवको परास्त कर समस्त वर्णन । कैलास पर्वतपर योग निरोध कर म्लेच्छ खण्डोंपर विजय प्राप्त की। इस तरह
भगवान् ऋषभदेव मोक्ष पधारे २११-२१५ साठ हजार वर्ष तक पखण्ड भरतको दिग्विजय कर भरत चक्रवर्ती अयोध्याके निकट
२००.२०२ आये
त्रयोदश सगं जब चक्ररत्न अयोध्याके प्रवेश-द्वारगर रुक
चक्रवर्ती भरतने अर्ककीतिको राज्य दे दीक्षा गया तब भरतके पूछनेपर बुद्धिसागर पुरो
धारण कर ली और वृषभसेन आदि गणधरोंहितने उसका कारण बताया। भरतने अपने
के साथ कैलास पर्वतसे मोक्ष प्राप्त किया २१६ सब भाइयोंके पाय दूत भेजे । बाहुबलीको अर्क कीति स्मितयशको राज्य देकर तप द्वारा छोड़ अन्य भाइयों ने राज्यसे व्यामोह छोड़ मोक्षको प्राप्त हुए। सूर्यवंश और चन्द्रवंशके दीक्षा ले ली परन्तु बाहुबलीने दृष्टियुद्ध, जल- अनेक राजाओंका समुल्लेख
२१६-२१७ युद्ध और मल्ल युद्ध में भरत को परास्त कर अजितनाथ भगवान्, सगर चक्रवर्ती, उनके दिया। भरतने क पत हो उसपर चक्ररत्न
अद्गु आदि साठ हजार पुत्र और कालक्रमसे चला दिया परन्तु चर भी उसा कुछ बिगाड़ होनेवाले सम्भवनाथसे लेकर शीतलनाथ तकनहीं सका। २०२-२०४ के तीर्थंकरोंका समल्लेख
२१७-२१८ [४]
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२६
विषय
हरिवंशपुराणे
विषय
विद्याएँ छेदकर छोड़ गया। अब वह 'आर्य' विद्याधर अपनी 'मनोरमा' विद्याधरीके साथ वहीं रहने लगा। वहाँका राजा बन गया तथा उसके 'हरि' नामका पुत्र हुआ । यही 'हरि' हरिवंशका स्थापक हुआ । इसी वंशमें आगे चलकर कुशाग्रपुर ( राजगृह नगर ) में राजा 'सुमित्र' और रानी 'पद्मावती' का वर्णन २३४-२३६
चतुर्दश सर्ग
जम्बूद्वीपके वत्सदेशमें कौशाम्बी नगरी थी।
उसमें राजा सुमुख राज्य करता था। इस प्रकरणके अन्तर्गत कौशाम्बी नगरी और राजा सुमुखका काव्यशैली से वर्णन वसन्त ऋतुका वर्णन
२२२-२२३
वन विहार के लिए जाता हुआ राजा सुमुख मागमें एक सुन्दरीकी सुन्दरतापर आसक्त हो उसके हरणका विचार करने लगा मन्त्रीके पूछने पर राजा सुमुखने उसे अपनी व्यग्रताका कारण बताया और मन्त्री राजाकी इच्छापूर्ति के लिए प्रयत्न करने लगा २२४-२२५ सन्ध्या होनेपर सुमति मन्त्रीने आत्रेयी नामकी दूती उस वनमाला सुन्दरीके पास भेजी । वनमाला भी अन्तरंगसे राजा सुमुखपर आसक्त थी अतः दूतीका प्रयत्न सफल हो गया और वनमाला पतिकी अनुपस्थितिमें राजाके घर आ गयी। सुमुख और वनमाला परस्परके समागमसे प्रसन्नताका अनुभव करने लगे २२५-२२८
पृष्ठ
२१९-२२० २२०-२२१
·
षोडश सर्ग
भगवान् शीतलनाथके बाद कालक्रमसे नौ तीर्थंकरोंके मोक्ष चले जानेपर कुशाग्रपुरके राजा सुमित्र और रानी पद्मावती के जब बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रतनाथ के गर्भावतारका समय आया तब रानी पद्मावतीने सोलह स्वप्न देखे । राजा सुमित्रने उनका फल बताया २३७-२३८ भगवान् मुनि सुव्रतनाथका जन्म । देवोंने क्षीरसागरके जलसे अभिषेक कर जन्मोत्सव किया । बाल्य अवस्था पूर्ण होनेपर सुन्दर स्त्रियों के साथ उनका विवाह हुआ २३८- २४० २४०-२४१ शरद् ऋतुका साहित्यिक वर्णन
पञ्चदश सर्ग
राजा सुमुख और वनमाला प्रेमसे रहने लगे। एक बार उन्होंने 'वरधर्म' नामक मुनि राजको आहारदान देकर विद्याधर- युगलकी आयुका वध किया । तदनन्तर बज्रपातसे दोनों मरकर क्रमश: विजयार्ध गिरिके 'हरिपुर' और 'मेघपुर' नगरमें उत्पन्न हुए। वहां भी उन दोनोंका वर-वधूके रूपमें समागम हुबा । वरका नाम 'आर्य' और वधुका नाम 'मनोरमा' था २२९-२३३ वनमाला के विरहमें उसके असली पति 'वीरक' सेठकी बड़ी दुर्दशा हुई । तदनन्तर वह दीक्षा धारण कर प्रथम स्वर्गमें देव हुआ २३३-२३४ निर्वाण प्राप्तिका वर्णन 'वीरक' का जीव देव, अवधिज्ञानसे अपनी पूर्व प्रिया 'वनमाला' और उसके अपहर्ता 'सुमुख' को जानकर विजयार्धसे उठा लाया बौर भरसक्षेत्रके चम्पापुर नगरमें समस्त
गणना
पृष्ठ
२४१-२४४
ऋतु चन्द्रतुल्य उज्ज्वल मेघको तत्काल विलीन होते देख उन्हें वैराग्य आ गया, वे संसारके पदार्थोंकी अनित्यताका चिन्तन करने लगे । लौकान्तिक देवोंने उनके वैराग्यकी सराहना की। दीक्षा कल्याणकका वर्णन, वृषभदत्तके यहाँ आहारका निरूपण, देवोपनीत पंचाश्चर्यं २४४-२४५ तेरह मासकी उग्रस्थ अवस्था पूर्ण होनेपर उन्हें केवलज्ञान हुआ, देवोंने समवसरणकी रचना की, ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया, दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मतोकी प्रवृत्ति हुई । उनके समवसरण में स्थित साधु-समूहकी
२४६-२४७
२४७
सप्तदश सर्ग
उसी हरिवंशमें मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरके सुव्रत नामका पुत्र हुआ। सुव्रतके दक्ष नाम
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२४८
विषय सूची विषय
पृष्ठ विषय का पुत्र हुआ और दक्षकी इला नामक रानीसे
आयु, इनका आकार, अवगाहना, जीवसमास, ऐलेय नामक पुत्र और मनोहरी नामकी इन्द्रियोंका आकार तथा उनके विषय क्षेत्र कन्या हुई।
आदिका वर्णन
२६४-२६९ राजा दक्षने अपनी पुत्री मनोहरीकी सुन्दरता- अन्धकवृष्णिके भवान्तरका वर्णन २६९-२७० से रीझकर उसे अपनी स्त्री बना लिया। अन्धकवृष्णिके समुद्रविजय आदि दस पुत्रोंके इस घटनासे राजा दक्षकी स्त्री इला पतिसे भवान्तरोंका निरूपण
२७०-२७५ सम्बन्ध विच्छेद कर अपने ऐलेय पुत्रको ले सुप्रतिष्ठ केवलीका विहार और समुद्रविजयअन्यत्र चली गयी । वहाँ उसने इलावर्धन को राज्यप्राप्तिका वर्णन
२७५ नगर बसाकर ऐलेयको राजा बनाया। ऐलेय
एकोनविंश सर्ग के पुत्र कुणिमने विदर्भ देशमें एक कुण्डिन नामका नगर बसाया। काल-क्रमसे इसी
राजा समद्रविजयने अपने आठ छोटे भाइयों
के विवाह किये। वसुदेव अत्यन्त सुन्दर थे । वंशमें अन्य अनेक पुत्र उत्पन्न हुए। २४८-२५० राजा वसु, क्षीरकदम्बकका पुत्र पर्वत और
जब वे नगर में क्रीडार्थ निकलते थे तब नगरनारदका वर्णन तथा उनके 'अजैर्यष्टव्यम्'
की स्त्रियाँ उन्हें देख कामसे विह्वल हो उठती वाक्यके अर्थको लेकर शास्त्रार्थका वर्णन
थीं। इसलिए नगरके प्रतिष्ठित लोग राजा
समुद्रविजयके पास गये। उन्होंने लोगोंको और राजा वसु द्वारा मिथ्या अर्थका समर्थन, वसूका पतन और नरक गमनका निरूपण २५०-२६१
सान्त्वना देकर विदा किया और तत्काल घूम
कर आये हुए वसुदेवको बड़े प्रेमसे अपने अष्टादश सगं
महलमें रख छोड़ा तथा उनके बाहर जानेपर राजा वसुके बृहद्ध्वज नामक पुत्रसे मथुरामें पाबन्दी लगा दी
२७८-२७९ सुबाहु पुत्र हुआ। इसे आदि लेकर अनेक एक दिन कुब्जा दासीके द्वारा कुमार वसुदेवराजाओंके हो जानेपर इक्कीसवें तीर्थकर
को अपने कैद होनेका पता लग गया, जिससे नमिनाथ हुए । उनके मोक्ष जानेके बाद इसी वे रात्रिके समय एक सेवकको साथ ले बाहर हरिवंशमें यदु नामका राजा हुआ जो यादवों निकल गये । श्मशानमें जाकर उन्होंने उस की उत्पत्तिका कारण हुआ। इसी वंशमें
सेवकको यह प्रत्यय करा दिया कि वसुदेव अन्धकवृष्णिकी सुभद्रा स्त्रीसे समुद्रविजय चितामें जलकर मर गये और आप शीघ्रआदि दस भाई हुए।
२६२-२६३ गामी घोड़ेपर सवार हो वहाँसे अन्यत्र चल राजा भोजक वृष्णिकी पद्मावती नामक पत्नी- दिये । सेवकने समुद्रविजयको खबर दी, इस से उग्रसेन, महासेन आदि पुत्र हुए। राजा घटनासे सब लोग बहुत दुःखी हुए २७९-२८० वसुके सुवसु पुत्रको सन्तति में अनेक राजा वसुदेवका भारतवर्ष एवं विजयाध पर्वतकी हुए । राजगृह नगरमें राजा जरासन्ध तथा दोनों श्रेणियोंमें परिभ्रमण कर अनेक विद्याधर उसके कालयवन आदि पुत्रोंका वर्णन २६३-२६४ और भूमिगोचरी कन्याओंके साथ विवाह कदाचित सौर्यपरके गन्धमादन पर्वतपर सुप्र
करना
२८०-२८५ तिष्ठ मुनिराजको उपसर्गके बाद केवलज्ञान- उसी परिभ्रमणके समय वसुदेव चम्पापुरीमें को प्राप्ति हुई
आये और सेठ चारुदत्तकी गन्धर्वसेना पुत्रीसुप्रतिष्ठ केवलीके द्वारा धर्मका विस्तृत उप
की संगीतज्ञताकी प्रशंसा सुन उसे परास्त देश, जिसमें मुनि तथा श्रावकोंके व्रतोंका करनेके लिए सुग्रीव नामक संगीताचार्यके पास वर्णन, कुल कोटियाँ, एकेन्द्रियादि जीवोंकी संगीत विद्या सीखने लगे । तदनन्तर उन्होंने
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२८
हरिवंशपुराणे विषय ___ पृष्ठ विषय
पृष्ठ संगीतके द्वारा गन्धर्वसेनाको परास्त कर उसे जाना और गन्धर्वसेना पुत्रीको विवाहके अर्थ विवाहा, इसी प्रकरणके अन्तर्गत संगीत लाना आदिका रोमांचकारी वर्णन ३०४-३१८ शास्त्रका विस्तृत निरूपण किया २८५-२९७
द्वाविंशतितम सर्ग विंशतितम सर्ग
चम्पापरीमें गन्धर्वसेनाके साथ वसुदेव रह राजा श्रेणिकके प्रश्नके उत्तरमें गौतम गणधर रहे थे कि इसी बीचमें फाल्गुनका अष्टाह्निका सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करनेवाली विष्णुकुमार
पर्व आ गया। वसुदेव गन्धर्वसेनाके साथ मुनिकी कथा कहने लगे । उज्जयिनीका राजा
वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमाकी पूजाके लिए श्रीधर्मा नगरवासियोंको मनिवन्दनाके लिए
नगरके बाहर गये । बीच में नृत्य करनेवाली जाते देख मन्त्रियोंके साथ स्वयं गया।
एक मातंगकन्याकी ओर उनका आकर्षण मुनियोंका संघ उस समय ध्यानस्थ था, अतः बढ़ा परन्तु गन्धर्वसेनाकी प्रेरणासे सारथिने किसीने राजाको आशीर्वाद नहीं दिया । रथ आगे बढ़ा दिया। मन्दिरमें वसुदेवने बलि आदि मन्त्री मार्ग में मिले, एक मुनिको
वासुपूज्य भगवान्की पूजा और स्तुति की। शास्त्रार्थ के लिए छेड़ बैठे और हारकर लज्जित
घर वापस आनेपर गन्धर्वसेनाका प्रणय कोप हुए । रात्रिमें मुनियोंको मारने के लिए आये
शान्त किया
३१९-३२२ पर यक्षने कीलित कर दिया। यह देख
एक समय वसुदेव एकान्त स्थानमें बैठा राजाने मन्त्रियोंको देशसे निकाल दिया २९८
था, उसी समय एक वृद्ध विद्याधरीने आकर हस्तिनापुरके महापद्म चक्रवर्ती और उनके
उन्हें आशीर्वाद दिया और विद्याओंके निकाय पुत्र विष्णुकुमारकी दीक्षाका वर्णन । बलि
तथा विजयाकी दोनों श्रेणियोंकी नगरियोंका आदि मन्त्री हस्तिनापुर जाकर राजा पद्मके
नामोल्लेख कर सिंहदंष्ट्र और नीलांजनाकी पास रहने लगे
२९८-२९९
पुत्री नीलयशाको विवाहनेकी बात कही। किसी समय अकम्पनाचार्य आदि पूर्वोक्त
वसुदेवने 'तथास्तु' कहार स्वीकृति दी ३२२-३२७ मुनियोंका संघ हस्तिनापुर पहुँचा तो बलि
एक बार एक वेतालकन्या रात्रिके समय वसुआदि मन्त्रियोंने राजा पद्मसे ७ दिन तकका
देवको खींचकर श्मशान ले गयी, वहाँ उसने राज्य लेकर मुनियोंपर उपसर्ग किया और अपना असली रूप दिखलाकर पूर्वोक्त नीलविष्णुकुमार मुनिने अपनी विक्रियासे बलिका
यशाके साथ उनका पाणिग्रहण कराया । तददमन कर मुनिसंघकी रक्षा की २९९-३०३
नन्तर उन विद्याधरियोंके साथ वसुदेव ह्रीमन्तपर गये । पश्चात् हिरण्यवतीकी
सहायतासे असित पर्वत नामक नगर गये । एकविंशतितम सर्ग
वहाँके राजा सिंहदंष्ट्रने अपने अन्तःपुरके साथ कुमार वसुदेवके पूछनेपर चारुदत्तने आत्म- वसुदेवको प्रेमपूर्ण दृष्टिसे देखा । वसुदेव कथा सुनायी। जिसके अन्तर्गत चारुदत्तकी नीलयशाके साथ सानन्द रहने लगे ३२७-३३० उत्पत्ति, विवाह, वेश्याव्यसनकी आसक्ति, वेश्याकी माताके द्वारा छलसे अलग करना,
त्रयोविंशतितम सर्ग अपने घर वापस आना, माता तथा स्त्रोसे कुमार वसुदेव नीलयशाके साथ सुखसे रहते मिलना, व्यापारके लिए बाहर जाना, मार्गमें
थे । वर्षा ऋतु आयी और उसके बाद शरद् अनेक कष्ट भोगना, अन्तमें मनिराजके दर्शन
ऋतुने अपनी छटा दिखलायी। विद्याधर कर उनके पुत्रोंकी सहायतासे विजयापर दम्पती क्रीड़ाके लिए बाहर निकले । वसुदेव
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विषय
भी नीलशाके साथ बाहर गये, वहाँ नीलकण्ठ नामका विद्याधर मयूरका रूप धर नीलयशाको हर ले गया । वसुदेव जहाँ-तहाँ घूमते हुए गिरितट नगर में गये । वहाँ ब्राह्मणों का जमाव देख तथा सोमश्री कन्याकी यह प्रतिज्ञा कि 'जो मुझे वेदमें परास्त कर देगा उसीसे विवाह करूंगी' ज्ञातकर ब्रह्मदत्त उपाध्यायके पास वेद पढ़ने लगे । इसी प्रकरणमें आर्ष वेदकी उत्पत्तिका वर्णन अनार्ष वेदोंकी उत्पत्तिका वर्णन करते हुए सगर राजा, सुलसा और मधुपिंगलकी रोचक कथा तथा सगर राजाके द्वारा कृत्रिम सामुद्रिक शास्त्रका वर्णन, अन्त में वेदज्ञान में परास्त कर कुमार वसुदेवने सोमश्री के साथ विवाह किया
विषय सूची पृष्ठ विषय
३३१-३३४
चतुर्विंशतितम सर्ग
कुमार वसुदेवने तिलवस्तु नगर में जाकर नर-मांसभोजी सौदासको नष्ट किया । इसी प्रकरण में वृद्ध लोगोंने सौदासका वृत्तान्त सुनाया
कुमार वसुदेवका अचलग्रामके सेठकी पुत्री वनमाला के साथ विवाह हुआ । तथा वेदसामपुरके राजा कपिल मुनिको जीतकर उसकी कपिला नामक पुत्री के साथ विवाह सम्पन्न हुआ । विद्याधर लोकमें घूमनेके अनन्तर वेगवती और मदनवेगा आदिके साथ उनका संयोग हुआ
३३४-३४३
३४४-३४५
३४५-३५०
पञ्चविंशतितम सर्ग
मदनवेगाके भाई दधिमुखने अपने पिताको बन्धनसे छुड़ाने के लिए वसुदेवसे प्रार्थना की । इसी सन्दर्भ में हस्तिनापुरके राजा कार्तवीर्य, जमदग्निके पुत्र परशुराम और सुभौम चक्रवर्तीका वर्णन ३५१-३५४ दधिमुखकी प्रार्थना सुन वसुदेवने युद्ध द्वारा त्रिशिखरको मारा और अपने श्वसुर को बन्धन मुक्त किया
३५४-३५६
विशतितम सर्ग
कुमार वसुदेवसे मदनवेगाके अनावृष्टि नामका
पुत्र हुआ। एक दिन सब विद्याधर अपनीअपनी स्त्रियोंके साथ विजयार्ध गिरिके सिद्धकूट जिनालय गये । कुमार वसुदेव भी मदनवेगाके साथ गये । वहाँ मदनवेगाने उन्हें विद्याधरोंकी विविध जातियोंका परिचय
२९
कराया
३५७-३५८
एक दिन मदनवेगा कारणवश कुमारसे कुपित हो भीतर चली गयी । इसी बीच में त्रिशिखर विद्याधरकी विधवा पत्नी शूर्पणखी मदनवेगाका रूप धरकर कुमारको छलसे हर ले गयी । शूर्पणख कुमारको नष्ट करनेके कार्य में मानसवेगको नियुक्त कर चली गयी । कुमार राजगृही नगरी में एक घासको गंजीपर गिरे । उधर जरासन्धके सेवकोंने पकड़कर तत्काल मारने के अभिप्राय से एक चर्म - निर्मित भाथड़ी में बन्द कर उन्हें पर्वतसे नीचे पटका परन्तु 'वेगवती' स्त्रीने उन्हें बीच में ही झेल लिया और नीचे उतारकर भाथड़ी से बाहर निकाला, दोनों का मिलन हुआ ३५८-३६० कुमार वसुदेवने नागपाशसे बद्ध बालचन्द्राको छुड़ाया जिससे उसे विद्या सिद्ध हो गयी और वह कुमारकी पत्नी बननेकी आशासे अपनी वह विद्या कुमारकी आज्ञासे वेगवतीको दे गयी
३६०-३६१
अष्टाविंशतितम सर्ग
वेगवतोसे रहित वसुदेव एक बार तापसोंके
पृष्ठ
सप्तविंशतितम सर्ग
विद्युष्ट्र ने संजयन्त मुनिपर उपसर्ग किस कारण किया ? राजा श्रेणिकके इस प्रकार प्रश्न करनेपर गौतम गणधर संजयन्त केवलीका चरित पूर्वभवों के साथ वर्णन करने लगे । इसीके अन्तर्गत सुमित्रदत्त वणिक्के रत्न हड़पने वाले श्रीभूति पुरोहितकी कथाका समुल्लेख ३६२-३७२
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३०
विषय
आश्रम में गये वहाँ विकथा करते हुए तापसोंसे श्रावस्ती नगरी के राजा एणीपुत्रकी प्रियंगुसुन्दरी कन्याका समाचार जानकर नगरमें प्रविष्ट हुए। वहाँ कामदेवके मन्दिरके आगे निर्मित तीन पाँव के सुवर्णमय भैंसाको देखकर उन्होंने वहाँके ब्राह्मणोंसे उसका परिचय पूछा । एक ब्राह्मणने इसके उत्तर में उन्हें मृगध्वज केवली और महिषका सारा चरित्र सुनाया
हरिवंशपुराणे
एकोनत्रिंशत्तम सर्ग
वसुदेव कुमारका बन्धुमती और प्रियंगु सुन्दरी कन्याओंकी प्राप्तिका वर्णन
३७३-३७७
त्रिशत्तम सर्ग
कार्तिककी पूर्णिमाको रात्रि में कुमार वसुदेव खसे सोये हुए थे कि एक अतिशय रूपवती कन्या उन्हें जगाकर एकान्तमें ले गयी और उन्हें अपना परिचय देने लगी । उसने कहा कि मैं प्रभावती हूँ और आपकी प्रिया वेगवतीका समाचार लायी हूँ । सोमश्रीने मुझे भेजा है। कुमार उसके साथ सोमश्रीके घर गये और अपनी चिर वियुक्त प्रियाओं से मिलकर प्रसन्न हुए । इसी प्रकरणमें उन्हें प्रभावतीकी प्राप्ति हुई
पृष्ठ
३७८-३८३
एकत्रिंशत्तम सर्ग
अनेक कन्याओंको विवाहते हुए कुमार वसुदेव अरिष्टपुर नगर आये और वहाँके राजा रुधिरकी पुत्री रोहिणीके स्वयंवर में वेष बदलकर पहुँचे । 'पणव' नामक बाजा बजानेवालोंकी श्रेणीमें जा बैठे। रोहिणीने वसुदेव के गले में वरमाला डाल दी। इस घटना से अनेक राजा कुपित होकर वसुदेवसे युद्ध करनेको तत्पर हुए। जरासन्ध बारी-बारीसे राजाओंकों वसुदेव के साथ लड़ाता था । अन्त में समुद्रविजयका भी अवसर आया । दोनों भाइयोंका युद्ध हुआ । वसुदेवने अपना कौशल दिखलाने के बाद एक पत्रसे युक्त बाण समुद्रविजयकी
३८४-३८८
विषय ओर छोड़ा जिसे ग्रहण कर समुद्रविजय हर्षित हुए। चिर वियुक्त भाईके मिलनसे सर्वत्र आनन्द छा गया
द्वात्रिंशत्तम सर्ग
वसुदेवके रोहिणी स्त्री से 'राम' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । एक विद्याधरीकी प्रार्थना सुन कुमार वसुदेव, समुद्र विजयकी आज्ञा ले पुन: विजयार्ध पर्वतपर गये और वहाँ से अपनी समस्त स्त्रियोंको साथ ले
वापस
आ गये
३८९-३९९
पृष्ठ
४००-४०३
त्रयस्त्रिंशत्तम सर्ग
वसुदेव शस्त्रविद्याका उपदेश देते हुए सौर्यपुरमें रहने लगे । किसी समय वे कंस आदि शिष्यों के साथ राजगृह गये । वहाँ जरासन्धकी घोषणाको सुन वे सिंहपुर के स्वामी सिंहरथको जीवित पकड़ लाये । घोषणा के अनुसार जरासन्ध अपनी जीवद्यशा पुत्री वसुदेवको देने लगे पर उन्होंने स्वयं न लेकर कंसको दिलवा दी इस प्रकरण में कंसका परिचय ४०४-४०६ कंस, वसुदेवको मथुरा ले आया और बहन देवकीका उनके साथ विवाह कर दिया अतिमुक्तक मुनिके द्वारा 'देवकीका पुत्र तुम्हारे पतिको मारेगा' यह भविष्यवाणी सुन कंसकी स्त्री जीवद्यशा बहुत घबड़ायी । कंसने भी घबड़ाकर वसुदेवसे यह वचन ले लिया कि देवकीका प्रसव हमारे घर होगा । वसुदेवने अतिमुक्तक मुनिसे इसका कारण पूछा । उत्तर में मुनिराजने कंसका पूर्वभव सम्बन्धी वर्णन किया
बलदेव सहित, देवकीके सातों पुत्रोंके पूर्व - भवों का वर्णन
४०६-४११
चतुस्त्रिशत्तम सर्ग
अतिमुक्तक मुनिके मुखसे यह बात सुनकर कि 'हमारे वंश में बाईसवें तीर्थंकर उत्पन्न होंगे' वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए । उनकी प्रार्थना सुनकर अतिमुक्तक मुनिने नेमिनाथ
४०६
४११-४१८
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विषय सूची
विषय
पृष्ठ विषय के पूर्वभवोंका सविस्तर वर्णन किया। इसी
आया तो कृष्णने उसे भी पथिवीपर पछाड़ प्रकरणमें उन्होंने सर्वतोभद्र आदि अनेक उप
कर समाप्त कर दिया
४५५-४६५ वासव्रतोंका स्वरूप वर्णन किया ४१९-४४७ कृष्ण अपने माता-पिता तथा समुद्रविजय पञ्चत्रिंशत्तम सगं
आदिसे मिलकर प्रसन्न हुए। सुकेतु विद्या
धरने कृष्णको अपनी पुत्री 'सत्यभामा' दी। अतिमुक्तक मुनिके मुखसे भगवान् नेमिनाथके
जीवद्यशाके करुण विलापसे द्रवीभूत हो पूर्वभव सुनकर वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए, क्रम
जरासन्धने यादवोंको नष्ट करने के लिए अपने क्रमसे देवकीने मथुरामें तीन युगलके रूपमें
भाई अपराजितको भेजा। जिसे कृष्णने अपने छह पुत्र उत्पन्न किये। जिन्हें इन्द्रकी आज्ञा
बाणोंसे धराशायी कर दिया
४६६-४७० से नैगमदेव सुभदिल नगरके सुदृष्टि सेठके घर पहुँचाता रहा और उसके मृत पुत्रोंको देवकी
सप्तत्रिंशत्तम सर्ग के पास छोड़ता रहा । सेठके यहाँ छहों पुत्रों
भगवान् नेमिनाथके गर्भमें आनेके छह माह का लालन-पालन होता रहा
४४८-४४९ । पूर्वसे समुद्रविजयके घर रत्नोंकी वर्षा होने तदनन्तर देवकीने स्वप्न-दर्शनपूर्वक कृष्ण लगी। माता शिवा देवीने ऐरावत हाथी को गर्भमें धारण किया। भाद्रपद मास शुक्ला
आदि सोलह स्वप्न देखे
४७१-४७४ द्वादशीको सात मासमें कृष्ण का जन्म हुआ।
राजा समद्रविजयने स्वप्नोंका फल बतलाते वसुदेव उसे गुप्तरूपसे अपने विश्वासपात्र हुए कहा कि 'तुम्हारे तीर्थंकर पुत्र होगा' ४७४-४७७ नन्दगोपको सौंप आये और उसकी स्त्री
अष्टत्रिंशत्तम सर्ग यशोदाकी पुत्रीको ले आये। पता चलनेपर
देवोंने भगवान्के माता-पिताका अभिषेक कर कंसने उस पुत्रीकी नाक चपटी कर उसे छोड़
वस्त्राभूषणोंसे उनकी पूजा की । शिवा देवीदिया
४५०-४५२
का गूढ गर्भ वृद्धिको प्राप्त होने लगा । वैशाख श्रीकृष्ण नन्द और यशोदाके यहाँ बढ़ने
शुक्ल त्रयोदशीको चित्रा नक्षत्र में भगवानका लगे । निमित्तज्ञानीके कथनसे शंकित हो
जन्म हुआ। तीनों लोकोंमें हर्ष छा गया । कंस गुप्त रूपसे बढ़ते हुए अपने शत्रुकी खोज
जन्म महोत्सव के लिए देवोंकी सात प्रकारकी करने लगा
४५२-४५४ सेना सौर्यपुर आयी
४७८-४८२ देवकी उपवासके बहाने कृष्णको देखनेके
देवियोंके द्वारा जातकर्मका वर्णन ४८२-४८३ लिए गयी । कृष्णकी बालक्रीड़ा और लोको
सौर्यपुरकी अद्भुत शोभा हो रही थी। इन्द्र त्तर पराक्रमका वर्णन
भगवान्को ऐरावत हाथीपर विराजमान षट्त्रिंशत्तम सर्ग
कर सुमेरु पर्वतकी ओर चला। इसी प्रसंगमें
ऐरावत हाथीका वर्णन । हर्पमय वातावरणशरद् ऋतुका साहित्यिक वर्णन, श्रीकृष्णको
में भगवानका जन्माभिषेक प्रारम्भ हुआ ४८३-४८६ मारनेके लिए कंसके विविध प्रयत्न,
एकोनचत्वारिंशत्तम सर्ग मल्लयुद्ध के लिए कंसने कृष्णको मथुरा
इन्द्र द्वारा भगवान्का स्तवन बुलाया, इससे शंकित वसुदेवने सौर्यपुरसे
४८७-४८९
देवों द्वारा शंखादि बादित्रांका वादन और समुद्रविजय आदि नौ भाइयोंको मथुरा बुला
भगवान की परिचर्याका वर्णन .४९०-४९३ लिया। बलभद्र और श्रीकृष्णका कंसके मल्लोंके साथ युद्ध हुआ, जिसमें उन्होंने उन
चत्वारिंशत्तम सर्ग मल्लोंको यमलोक पहुँचा दिया। कंस सामने यादवों द्वारा अपने भाई अपराजितका वध
पा
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३२
हरिवंशपुराणे
विषय
पृष्ठ विषय सुन जरासन्ध बहुत कुपित हुआ और उनका साथ ले कुण्डिनपुर पहुँचे और नागदेवकी वध करनेके अभिप्रायसे सौर्यपुरकी ओर चल पूजाके बहाने उद्यानमें आयी हुई रुक्मिणीको पड़ा। जब यादवोंको पता चला तब वे हरकर ले आये। युद्धमें शिशुपालको मार परस्पर मन्त्रणा कर सौर्यपुरसे पश्चिम दिशा- गिराया और रुक्मिणीके भाई रुक्मीर्का बन्दी की ओर चल दिये । विन्ध्याचलके वनमें एक बना लिया। रुक्मिणीके साप विधिवत देवीने कृत्रिम चिताएँ जलाकर तथा यादवोंके विवाह कर सुखसे रहने लगे
५०७-५१३ नष्ट होनेका मिथ्या समाचार सुनाकर जरा
त्रिचत्वारिंशत्तम सर्ग सन्धको वापस लौटा दिया:
४९४-४९७
सत्यभामा और रुक्मिणीके सपत्नीभावका एकचत्वारिंशत्तम सर्ग वर्णन
५१४-५१६ समुद्र विजय आदिके द्वारा समुद्रकी शोभाका रुक्मिणी और सत्यभामाके गर्भका वर्णन अवलोकन
४९८-४९९ तथा दोनोंके पुत्रोंकी उत्पत्तिका निरूपण ५१६-५१७ कृष्णने अष्टमभक्त कर पंचपरमेष्ठीका ध्यान रुक्मिणीके पुत्रको पूर्वभवका वैरी 'धूमकेतु' किया। इन्द्र की आज्ञासे गौतम देवने समुद्र
नामका असुर हरकर ले गया और खदिराको शीघ्र ही दूर हटा दिया और उस स्थल
टवीमें तक्षशिलाके नीचे दबा आया। मेघकूट पर कुबेरने द्वारिकानगरीकी रचना कर दी।
नगरका राजा कालसंवर विद्याधर अपनी श्रीकृष्णको नारायण और रामको बलभद्र
स्त्री के साथ वहाँसे निकला और उस बालकस्थापित कर कुबेर अपने स्थानपर चला
को लेकर अपने घर गया। उसका प्रद्युम्न गया । द्वारिकाका सुन्दर वर्णन ५००-५०३
नाम रखा
५१७-५१९ रुक्मिणीका विलाप, कृष्णके द्वारा दो गयी द्वाचत्वारिशत्तम सर्ग
सान्त्वना, नारदका आगमन और सीमन्धर 'द्वारिकामें नारदका आगमन
५०४-५०५ स्वामी द्वारा पद्मरथ चक्रवर्तीके प्रश्नोत्तरमें नारदकी उत्पत्तिका वर्णन
५०५
प्रद्युम्नके पूर्व भवोंका वर्णन, नारदका मेघकूट नारद कृष्णके अन्तःपुरमें गये परन्तु सत्यभामा
जाकर कालसंवरके यहाँ प्रद्युम्नको स्वयं अपनी साज-सजावटमें लीन थी अतः उठकर देखना और लौटकर कृष्ण तथा रुक्मिणीको उनका सत्कार नहीं कर सकी। नारदजीका
सब समाचार सुनानेका वर्णन
५१८-५३२ मनोभाव बदल गया जिससे वे सत्यभामाका
चतुश्चत्वारिंशत्तम सर्ग मान भग्न करनेके लिए किसी अन्य सुन्दर
सत्यभामाके पुत्रका नाम भानुकुमार रखा कन्याकी खोज करनेके लिए चल पड़े ५०५-५०७
गया। श्रीकृष्णका जाम्बवती, लक्ष्मणा, अब वे कुण्डिनपुरमें स्थित राजा भीष्मके
सुसीमा, गौरी, पद्मावती और गान्धारीके अन्तःपुरम पहुँचे। वहाँ रुक्मिणीको देख 'तू
साथ विवाह हुआ
५३३-५३७ द्वारिकाधीश श्रीकृष्णकी पटराज्ञो हो' यह आशीर्वाद दे उसका मन श्रीकृष्णकी ओर
पञ्च चत्वारिंशत्तम सर्ग आकृष्ट कर चल दिये और रुक्मिणीका चित्र- किसी समय यादवोंके भानेज युधिष्ठिर, भीम, पट ले श्रीकृष्णके पास पहुँचे. श्रीकृष्णका
अर्जुन, सहदेव और नकुल द्वारिका आये। अनुराग बढ़कर चरम सीमापर पहुँच यादवोंने उनका अच्छा सत्कार किया। कुरुरहा था, उसो समय रुक्मिणीकी बुआका
वंशके राजाओंका वर्णन करते हुए पाण्डवोंकी गप्त पत्र उन्हें मिला। कृष्ण बलभद्रको
उत्पत्ति, पाण्डु के बाद दुर्योधनादि कौरवों और
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विषय सूची
३३
विषय पृष्ट विषय
पृष्ट यधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके बीच होनेवाले प्रद्युम्नका द्वारिका आना और तरह-तरहकी संघर्षका वर्णन
५३८-५४१ अद्भुत चेष्टाएँ दिखाना लाक्षागृहमें आग लगवा देनेसे पाण्डव अपनी
अष्टचत्वारिंशत्तम सर्ग माता कुन्तीके साथ अज्ञात रूपसे बाहर निकल गये और अनेक जगह भ्रमण करते सत्यभामाके सुभानु और जाम्बवतीके शम्ब रहे । अन्त में माकन्दी नगरीके राजा द्रुपदकी
नामक पुत्रको उत्पत्ति हुई। सुभानु और पुत्री द्रौपदीको स्वयंवरमें अर्जुनने प्राप्त किया शम्बकी लीलाएँ सबका मन मोहती थीं। इसी और युद्धमें विरोधी राजाओंको परास्त कर प्रसंगमें वसुदेवने अपनी पूर्व कथा कही । ५६९-५७१ प्रकट हुए। सबके साथ हस्तिनापुरमें प्रवेश यदुवंशके कुमारों का वर्णन
५७१-५७४ कर सुखसे रहने लगे
५४१-५५०
एकोनपश्चाशत्तम सर्ग षट्चत्वारिंशत्तम सर्ग
कृष्णकी छोटी बहनकी सुन्दरता और पाण्डव दुर्योधनके साथ जुआ खेले और
तपस्याका वर्णन । इसी प्रसंगमें मनिराजने अपना सब राज-पाट हारकर बारह वर्ष तक
उसके भवान्तरका वर्णन किया ५७५-५८० अज्ञातवासके लिए निकल पड़े। इसी
विन्ध्याटवीमें उसे सिंहने खा लिया सिर्फ तीन अज्ञातवासके समय विराट नगरमें द्रौपदीके
अंगलियाँ बचीं। उनमें त्रिशूलकी कल्पना ऊपर कुदृष्टि करनेपर भीमसेनने कीचककी
कर लोग उसे दुर्गाके नामसे पूजने लगे ५८०-५८२ अच्छी मरम्मत की जिससे वह मुनि होकर
पञ्चाशतम सर्ग तपस्या करने लगा। कीचकके सौ भाइयोंने
द्वारिकामें यादवोंके बढ़ते वैभवको सुन जरातेज दिखाया तो उन्हें जलती चितामें भस्म सन्धका क्रोध भड़क उठा और वह युद्ध करनेकर दिया। कोचक मुनिने केवलज्ञान प्राप्त के लिए उद्यत हो गया। दोनोंने एक दूसरेके कर निर्वाण प्राप्त किया
प्रति अपने-अपने दूत भेजे । तदनन्तर युद्ध प्रारम्भ हुआ।
५८३-५९२ सप्तचत्वारिंशत्तम सर्ग
एकपञ्चाशत्तम सर्ग कीचकका उपद्रव शान्त कर पाण्डव हस्तिना
यद्धका अवान्तर वर्णन । राजा रुधिरका पत्र. पुर वापस आ गये। धीरे-धीरे दुर्योधनका
वीर हिरण्यनाभ मारा गया जिससे एक दुर्भाव फिरसे बढ़ने लगा इसलिए वे पुनः
ओर हर्ष और दुसरी ओर विषाद छा गया ५९३-५९६ दक्षिणकी ओर चले गये। विन्ध्य वनमें
द्वापञ्चाशत्तम सर्ग तपस्वी विदुरसे युधिष्ठिरको भेट हुई। क्रम
युद्ध अपने पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच गया और क्रमसे पाण्डव द्वारिका पहुँचे और समुद्रविजय
श्रीकृष्णके द्वारा जरासन्ध मारा गया ५९७-६०३ आदिसे मिलकर प्रसन्न हुए
५५७-५५८
त्रिपञ्चाशत्तम सर्ग युधिष्ठिर आदिको लक्ष्मीमती आदि कन्याएँ प्राप्त हुई
कृष्ण नारायणके रूपमें प्रसिद्ध हए। अनेक प्रद्युम्नकी चेष्टाओंका वर्णन
५५८-५६०
विद्याधरोंने वसुदेवके साथ आकर कृष्णको प्रद्युम्नकी शोभा देख कालसंवरकी स्त्री
नमस्कार किया। कृष्ण विजयी हुए ६०४-६०८ कनकमाला कामसे विह्वल हो गयी और
चतुःपञ्चाशत्तम सर्ग प्रद्यम्नको रिझानेका प्रयत्न करने लगी। ५६०-५६३ नारदने द्रौपदीसे रुष्ट होकर अपनी प्रतिशोधकी
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हरिवंशपुराणे विषय
विषय
पृष्ठ भावना प्रकट की। और उसका चित्र बनाकर
सत्यभामा आदि रानियोंके भवान्तरोंका वर्णन धातकीखण्डकी अमरकंकापुरीके राजा पद्म
भगवानकी दिव्यध्वनिमें हआ ७०६-७१५ नाभके पास पहुँचे । राजा पद्मनाभने संगम गजकूमारके निर्वेदका वर्णन । भगवान् नामक देवके द्वारा सोती हई द्रौपदीका अप
नेमिनाथ एक बार रैवतकगिरिपर आये । हरण करा लिया । अन्तमें पता चलनेपर श्रीकृष्णने उनसे वेशठशलाकापुरुषोंका विवश्रीकृष्ण तथा पाण्डव भी देवकी की सहायता से रण पूछा। तब भगवान्ने उन सबका वहाँ पहुँचे और राजा पद्मनाभको दण्डित कर विस्तारसे वर्णन किया
७१६-७५३ द्रौपदीको वापस ले आये । असामयिक हँसी
एकषष्टितम सर्ग के कारण कृष्ण पाण्डवोपर अप्रसन्न हो गये जिससे पाण्डव दक्षिणसमुद्र के तटपर चले गये सोमशर्मा ब्राह्मणकी कन्याको छोड़ गजकुमार और मथुरा नगरी बसाकर रहने लगे ६०९-६१५ मनि हो गये थे इसलिए उसने रुष्ट होकर पञ्चपञ्चाशत्तम सर्ग
उनके ऊपर अग्निका उपसर्ग किया। परन्तु वे
शक्लध्यानसे कर्मक्षय कर मोक्ष पधारे. देवोंने श्रीकृष्णकी सभामें नेमिकुमार गये और प्रसंग
उनका निर्वाणोत्सव मनाया । श्रीकृष्णके पूछनेवश 'सबसे अधिक बलवान् कौन है' इसकी
पर भगवान्ने बारह वर्ष बाद द्वारिकादाहकी परीक्षा हुई, कृष्ण नेमिनाथके बलसे परास्त
बात कही और प्रयत्न करनेके बाद भी द्वैपाहो गये । यादवोंकी जलक्रीड़ाका वर्णन ।
यन मुनिके क्रोधसे द्वारिका भस्म हो गयी ७५४-७६२ नेमिनाथके विवाहके लिए स्वीकृति पाकर कृष्णने विवाहके लिए राजीमतोको निश्चित
द्विषष्टितम सर्ग किया । बारात जूनागढ़ जा रही थी, परन्तु
श्रीकृष्ण और बलदेव भ्रमण करते-करते मार्गमें रुद्ध पशुओंको देख कुमारको वैराग्य
कौशाम्ब वनमें पहुँचे, वहाँ कृष्णको प्यासने आ गया और रसमें भंग हो गया ६१६-६३४
सताया। बलदेव पानीके लिए गये और षट्पञ्चाशत्तम सर्ग
श्रीकृष्ण पीताम्बर ओढ़कर पड़ गये,इसी समय भगवान् नेमिनाथकी तपश्चर्या और केवल
धोखेसे जरत्कुमारके बाणसे उनके पदतलमें ज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन
चोट लगी । उत्तम भावनाओंका चिन्तवन
करते-करते कृष्णकी मृत्यु हो गयी। ७६३-७६८ सप्तपञ्चाशत्तम सर्ग भगवान्के समवसरणका वर्णन ६४६-६५९
त्रिषष्टितम सर्ग अष्टपञ्चाशत्तम सर्ग
पानी लेकर जब बलदेव वापस आये तो वरदत्त गणधरके पूछनेपर भगवान्की दिव्य
कृष्णको चुपचाप पड़ा देख पहले तो जागनेध्वनिमें जीवाजीवादि तत्त्वोंका विस्तत
की प्रतीक्षा करने लगे परन्तु बादमें मृत्यु जान विवेचन हुआ
६६०-६९३ कर विलाप करने लगे। ६ माह तक कृष्णका __एकोनषष्टितम सर्ग
शव लेकर घूमते रहे। अन्तमे सिद्धार्थ सारथि
के जीव देवने अपनी विक्रियारूप क्रियाओंसे भगवान् नेमिनाथके विहारका अनुपम वर्णन ६९४-७०५
उन्हें सम्बोधित किया जिससे उन्होंने कृष्णषष्टितम सर्ग
का तुंगीगिरिपर दाह किया और नेमिनाथ वसूदेवसे देवकीके कृष्ण जन्मके पूर्व जो छह भगवान्से परोक्ष दीक्षा ले तप करने लगे। युगल पुत्र हुए थे उनकी तपस्याका वर्णन ७०६ उनकी तपस्याका आश्चर्यकारी वर्णन ७६९-७८३
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________________
विषय
चतुःषष्टितम सर्ग
भगवान नेमिनाथ विहार करते-करते पल्लव देशमें पहुँचे। वहां पाण्डवोंने उनसे अपने भवान्तर सुने और दीक्षा लेकर घोर तप किया
पंचषष्टितम सर्ग
पाण्डवों की तपस्या तथा उपसर्गका वर्णन | बलदेव सौ वर्ष तक तपकर ब्रह्म स्वर्ग में देव
विषय सूची
विषय
हुए पूर्व स्नेहसे प्रेरित हो बलदेवका जीव कृष्णको सम्वोधन के लिए बालुकाप्रभा गया । भगवान् मोक्ष पधारे
पृष्ट
७८४-७९७
षट्षष्टितम सर्ग
जरतकुमारसे यादव वंशकी परम्परा चली। ग्रन्यके अन्तमें भगवान् महावीरके निर्वाणका प्रसंग या दीपावलीके प्रचलित होनेका वर्णन तथा आचार्य परम्पराका विशद वर्णन
३५
पृष्ठ
७९८-८०३
८०४-८११
Page #38
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________________
16 to o
क
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ग
घ
भ
क+दि
वि. उ.श्रे. वि. द. ओ BIT+ft.
आ + च.
आ + ना.
आ + प्र. ना.
प्रे. प्र.
ज. प्र.
त. वा.
sit. T.
पु. उ.
ना. शा.
व्य.
मो.
पा.
संकेत सूची
दिल्ली की प्रति
पंचायती मन्दिर दिल्लीकी प्रति
जयपुरकी प्रति
भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूनाकी प्रति जयपुरकी प्रति
माणिकचन्द्र ग्रन्यमालासे प्रकाशित मूल प्रवि
क प्रतिके टिप्पणमें
समझना चाहिए विजयार्धकी उत्तर श्रेणी विजयार्धको दक्षिण श्रेणी
आगामी तीर्थकर
आगामी चक्रवर्ती
आगामी नारायण
आगामी प्रतिनारायण
त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति
तत्त्वार्थराजवार्तिक
मोक्षशास्त्र
पुरुषार्थं सिद्धधुपाय
नाट्यशास्त्र व्यक्तिवाचक
भौगोलिक
पारिभाषिक
इसी प्रकार अन्य प्रतियोंके टिप्पणका संकेत
0
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श्रीमज्जिनसेनाचार्यविरचितं
हरिवंशपुराणम्
प्रथमः सर्गः
सिद्धं धौव्य व्ययोत्पादलक्षणद्रव्यमाधनम् । जैनं द्रव्याद्यपेक्षातः साधनाद्यर्थ शासनम् ॥१॥ 'शुद्धज्ञानप्रकाशाय लोकालोकैकमानवे । नमः श्रीवर्द्धमानार्य वर्द्धमान जिनेशिने ॥२॥ नमः सर्वविदे सर्वव्यवस्थानां विनायिने । कृतादिधर्मतीर्थाय वृषभाय स्वयम्भुवे ॥३॥ येन तीर्थमभिव्यकं द्वितीयमजितायितम् । अजिताय नमस्तस्मै जिनेशाय जितद्विषे ॥४॥ शं भवे वा विमुक्तौ वा भक्ता यत्रैव शम्मवे' । भेजुर्भव्या नमस्तस्मै तृतीयाय च शम्भवे ॥५॥
यदु कुल जलधि सुचन्द्र सम, वृष रथचक्र सुनेमि भव्य कमल दिनकर जयो, जयो जिनेन्द्र सुनेमि ॥१॥ देव शास्त्र गुरुको प्रणमि, बार बार शिर नाय ।
श्री हरिवंश पुराणकी, भाषा लिखू बनाय ॥२॥ जो वादी-प्रतिवादियोंके द्वारा निर्णीत होने के कारण सिद्ध है. उत्पाद. व्यय एवं ध्रौव्य लक्षणमे युक्त जीवादि द्रव्योंको सिद्ध करनेवाला है, और द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा अनादि तथा पर्यायाथिक नयको अपेक्षा सादि है ऐसा जिन-शासन सदा मंगलरूप है ॥१॥ जिनका शुद्ध ज्ञान रूपी प्रकाश सर्वत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोकको प्रकाशित करनेके लिए अद्वितीय सूर्य हैं, तथा जो अनन्तचतुष्टय रूपी लक्ष्मीसे सदा वृद्धिंगत हैं ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार हो ॥२॥ जो सर्वज्ञ हैं, युगके प्रारम्भकी सब व्यवस्थाओंके करनेवाले हैं, तथा जिन्होंने सर्वप्रथम धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति चलायी है उन स्वयंबुद्ध भगवान् वृषभदेवको नमस्कार हो ॥३।। जिन्होंने अपने ही समान आचरण करनेवाला द्वितीय तीर्थ प्रकट किया था तथा जिन्होंने अन्तरंग बहिरंग शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली थी ऐसे उन अजितनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार हो॥४|| जिन शंभव नाथके भक्त भव्यजन संसार अथवा मोक्ष-दोनों ही स्थानोंमें सुखको प्राप्त हुए थे उन तृतीय शंभवनाथ तीर्थकरके लिए
१. ध्रौव्यव्ययोत्पादलक्षणं म.। २. अथेत्यव्ययं मङ्गलवाचकम् 'मङ्गलानन्तराराजप्रश्नकात्स्र्नेष्वथो अथ' इत्यमरः । ३. गुद्धज्ञानमेव प्रकाशो यस्य तस्मै । ४. श्रिया वर्द्धमानो यः स तस्मै। ५. गृहस्थादिव्यापाराणाम् । ६. शं सुखम् । ७. संसारे । ८. मोक्षे । ९. यस्मिन् सति । १०. तृतीयतीर्थङ्करे । ११. शं सुखं भवति यस्मात इति शम्भुस्तस्मै शम्भवे चतुर्थ्यन्तप्रयोगः ।
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२
हरिवंशपुराणे
तीर्थं चतुर्थमन्वर्थं यश्चकारामिनन्दनः । लोकाभिनन्दनस्तस्मै जिनेन्द्राय नमस्त्रिधा ॥ ६ ॥ पञ्चमं प्रपञ्चार्थं तीर्थं वर्तयति स्म यः । नमः सुमतये तस्मै नमः सुमतये सदा ॥७॥ ककुभोsभासयद्यस्य जितपद्मप्रभा प्रभा । पद्मप्रभाय षष्टाय तस्मै तीर्थकृते नमः ॥ ८ ॥ यस्तोथं स्वार्थसंपन्नः परार्थमुदपादयत् । सप्तमं तु नमस्तस्मै सुपाश्र्वाय कृतात्मने ॥९॥ अष्टमस्येन्द्र जुष्टस्य क तीर्थस्य तायिने । चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमश्चन्द्रामकीर्तये ॥ १० ॥ देहदन्तप्रमाक्रान्तकुन्दपुष्पत्विषे नमः । पुष्पदन्ताय तीर्थस्य नवमस्य विधायिने ॥११॥ शुचिशीतलतीर्थस्य जन्तुसंतापनोदिनः । दशमस्य नमः कर्त्रे शीतलायापथाशिने ॥ १२ ॥ तीर्थं व्युच्छिन्नमुद्भाव्य मन्यानामाजवअवम् । चिच्छेदैकादशो योऽहंस्तस्मै श्रीश्रेयसे नमः ॥३३॥ कुतीर्थध्वान्तमुद्धूय द्वादशं तीर्थमुज्ज्वलम् । नमस्कृतवते मत्रै वासुपूज्यविवस्वते ॥ १४॥ विमलाय नमस्तस्मै यः कापथैमलाविलम् । त्रयोदशेन तीर्थेन चकार विमलं जगत् ॥१५॥ तस्मै नमः कुसिद्धान्ततमोभेदनमास्वते । चतुर्दशस्य तीर्थस्य यः कर्ताऽनन्त जिज्जिनः ॥ १६ ॥ अधर्मपथपातालपतदुद्धरणक्षमम् । कर्त्रे पञ्चदशं तीर्थं धर्माय मुनये नमः ॥ १७ ॥ सृष्टषोडशतीर्थाय कृर्तनानेतिशान्तये । चक्रेशाय जिनेशाय नमः शान्ताये' शान्तये "
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नमस्कार हो ॥५॥ लोगों को आनन्दित करनेवाले जिन अभिनन्दन नाथने सार्थक नामको धारण करनेवाले चतुर्थं तीर्थ की प्रवृत्ति की थी उन श्री अभिनन्दन जिनेन्द्रके लिए मन-वचन-कायसे नमस्कार हो ||६|| जिन्होंने विस्तृत अर्थसे सहित पंचम तीर्थको प्रवृत्ति की थी तथा जो सदा सुमति सद्बुद्धि धारक थे उन पंचम सुमतिनाथ तीर्थंकरके लिए नमस्कार हो ||७|| कमलों की प्रभाको जीतनेवाली जिनकी प्रभाने दिशाओंको देदीप्यमान किया था उन छठवें तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो ||८|| जिन्होंने आत्महितसे सम्पन्न होकर परहित के लिए सप्तम तीर्थंकी उत्पत्ति की थी तथा जो स्वयं कृतकृत्य थे उन सुपार्श्वनाथ भगवान् के लिए नमस्कार हो ||९|| जो इन्द्रोंके द्वारा सेवित अष्टम तीर्थंके प्रवर्तक एवं रक्षक थे तथा जो चन्द्रमाके समान निर्मल कीर्तिके धारक थे उन चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र के लिए- नमस्कार हो ||१०|| जिन्होंने अपने शरीर तथा दांतों की कान्ति कुन्दपुष्पकी कान्तिको परास्त कर दिया था और जो नौवें तीर्थंके प्रवर्तक थे उन पुष्पदन्त भगवान् के लिए नमस्कार हो ||११|| जो प्राणियोंके सन्तापको दूर करनेवाले उज्ज्वल एवं शीतल दशवें तीर्थंके कर्ता थे उन कुमार्गके नाशक श्री शीतलनाथ जिनेन्द्रके लिए नमस्कार हो ||१२|| जिन्होंने श्री शीतलनाथ भगवान् के मोक्ष जानेके बाद व्युच्छित्तिको प्राप्त तीर्थको प्रकट कर भव्यrain संसार नष्ट किया था तथा जो ग्यारहवें जिनेन्द्र थे उन श्री श्रेयांसनाथ भगवान् के लिए नमस्कार हो ||१३|| जिन्होंने कुतीर्थरूपी अन्धकारको नष्ट कर बारहवाँ उज्ज्वल तीर्थं प्रकट किया था तथा जो सबके स्वामी थे ऐसे उन वासुपूज्य भगवान् रूपी सूर्यको नमस्कार हो ||१४|| जिन्होंने कुमार्गं रूपी मलसे मलिन संसारको तेरहवें तीर्थंके द्वारा निर्मल किया था उन विमलनाथ भगवान्को नमस्कार हो ||१५|| जो चौदहवें तीर्थंके कर्ता थे तथा जिन्होंने अनन्त अर्थात् संसारको जीत लिया था और जो मिथ्या धर्मं रूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए सूर्यके समान थे उन अनन्तनाथ जिनेन्द्रको नमस्कार हो ||१६|| जो अधर्मके मागंसे पाताल नरकमें पड़नेवाले प्राणियोंका उद्धार करने में समर्थं पन्द्रहवें तीर्थंके कर्ता थे उन श्री धर्मनाथ मुनीन्द्रके लिए नमस्कार हो ||१७|| जो सोलहवें तीर्थंके कर्ता थे, जिन्होंने अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि नाना ईतियोंको शान्त किया था, जो १. -मर्थ्य म. । २. सविस्तारार्थं । ३. सुष्ठु मतिर्ज्ञानं केवलं यस्य तस्मै । ४. दिश: । ५. पालकाय । ६. कापथस्फेटकाय । ७. कुमार्गमलिनम् । कषायमलाविलं ख., म. । ८. सृष्टे षोडशतीर्थस्य म, ख. । ९. कृता नानाप्रकाराणामातीनां शान्तिर्येन स तस्मै । १०. शान्तमूर्तये । ११. शान्तिनाथाय ।
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प्रथमः सर्गः येन सप्तदशं तीर्थ 'प्रावर्ति पृथुकीर्तिना' । तस्मै कुन्थुजिनेन्द्राय नमः प्राक्चक्रवर्तिने ॥१९॥ नमोऽष्टादशतीर्थन प्राणिनामिष्टकारिणे । चक्रपाणिजिनाराय निरस्तदुरितारये ॥२०॥ तीर्थेनैकोनविंशेन स्थापितस्थिरकीर्तये । नमो मोहमहामल्लमाथिमल्लाय मल्लये ॥२१॥ स्वं विंशतितमं तीर्थं कृत्वेशो मुनिसुव्रतः । अतारयद् भवाल्लोकं यस्तस्मै सततं नमः ॥२२॥ नमये मुनिमुख्याय नमितान्तर्बहिर्द्विषे । एकविंशस्य तीर्थस्य कृताभिव्यक्तये नमः ।।२३।। मास्वते हरिवंशादिश्रीशिखामणये नमः । द्वाविंशतीर्थसच्चक्रनेमयेऽरिष्टनेमये ॥२४॥ धर्ता धरणनिधूतपर्वतोद्धरणासुरः । त्रयोविंशस्य तीर्थस्य पाश्वो विजयतां विभुः ॥२४॥ इत्यस्यामवसर्पिण्यां ये तृतीय चतुर्थयोः । कालयोः कृततीर्थास्ते जिना नः सन्तु सिद्धये ॥२६॥ येऽतीतापेक्षयाऽनन्ताः संख्येया वर्तमानतः। अनन्तानन्तमानास्तु माविकालव्यपेक्षया ॥२७॥ तेऽहन्तः सन्तु नः सिद्धाः सूर्युपाध्यायसाधवः । मङ्गलं गुरवः पञ्च सर्वे सर्वत्र सर्वदा ॥२८॥ "जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्मते ॥२९॥
चक्ररत्नके स्वामी थे, और स्वयं अत्यन्त शान्त थे उन शान्तिनाथ जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो ।।१८।। जिन्होंने सत्रहवाँ तीर्थं प्रवृत्त किया था, जो विशाल कीतिके धारक थे, तथा जो जिनेन्द्र होनेके पूर्व चक्ररत्नको प्रवृत्त करनेवाले-चक्रवर्ती थे उन श्री कुन्थु जिनेन्द्रको नमस्कार हो ।।१९।। जो अठारहवें तीर्थंकर थे, प्राणियोंका कल्याण करनेवाले थे, और जिन्होंने पापरूपी शत्रुको नष्ट कर दिया था उन चक्ररत्नके धारक भी अरनाथ जिनेन्द्र के लिए नमस्कार हो ॥२०॥ जिन्होंने उन्नीसवें तीर्थके द्वारा अपनी स्थायी कीर्ति स्थापित की थी. तथा जो मोहरूपी महामल्लको करनेके लिए अद्वितीय मल्ल थे ऐसे मल्लिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥२१।। जिन्होंने अपना बीसवाँ तीथं प्रवृत्त कर लोगोंको संसारसे पार किया था उन श्री मुनिसुव्रत भगवान्के लिए निरन्तर नमस्कार हो ।।२२।। जो मुनियोंमें मुख्य थे, जिन्होंने अन्तरंग-बहिरंग शत्रुओंको नम्रीभूत कर दिया था, और जिन्होंने इक्कीसवां तीर्थ प्रकट किया था उन नमिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥२३।। जो सूर्यके समान देदीप्यमान थे, हरिवंशरूपी पर्वतके उत्तम शिखामणि थे,
और बाईसवें तीर्थरूपी उत्तम चक्रके नेमि (अयोधारा) स्वरूप थे उन अरिष्टनेमि तीर्थंकरके लिए नमस्कार हो ।।२४।। जो तेईसवें तीर्थके धर्ता थे तथा जिनके ऊपर पर्वत उठाकर उपद्रव करनेवाला असुर धरणेन्द्रके द्वारा नष्ट किया गया था वे पार्श्वनाथ भगवान् जयवन्त हों ।।२५।। इस प्रकार इस अवसर्पिणीके तृतीय और चतुर्थ कालमें धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेवाले जो जिनेन्द्र हुए हैं वे सब हम लोगोंकी सिद्धिके लिए हों ।।२६|| जो भूतकालकी अपेक्षा अनन्त हैं, वर्तमानको अपे हैं, और भविष्यत्की अपेक्षा अनन्तानन्त हैं वे अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुसमस्त पंच परमेष्ठी सब जगह तथा सब कालमें मंगलस्वरूप हों ।।२७-२८॥
जो जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ ( पक्षमें जीवोंकी मुक्ति ) के रचयिता हैं तथा जिन्होंने युक्त्यनुशासन नामक ग्रन्थ ( पक्षमें हेतुवादके उपदेश ) की रचना की है ऐसे श्री समन्तभद्रस्वामीके
१. प्रवतितं । २. विस्तारितयशसा। ३. तीर्थाय म.। ४. चक्रवति पदधारकतीर्थकरपदधारक-अरनाथाय । ५. विध्वस्तपापवैरिवर्गाय । ६. मोह एव महामल्लस्तं मथितुं शीलं यस्य तादृशो मल्लस्तस्मै । ७. नमितान्तबहिर्वेरिवर्गाय । ८. प्रवर्तकाय । ९. धरणेन धरणेन्द्रेण निधूतः पर्वतोद्धरणः असुरो यस्य सः । १०. सर्वोत्कर्षण वर्तताम् । ११. भूतकालापेक्षातः। १२. वर्तमानकालापेक्षातः । १३. भविष्यकालापेक्षातः । १४. जीवानां सिद्धिस्तद्विधायि, द्वितीयपक्षे जीवसिद्धिनाम ग्रन्यस्तत्कारकं । १५. कृता युक्तिर्यत्र एतादृशम् अनुशासनं यत्र द्वितीयपक्षे युक्त्यनुशासनं नाम ग्रन्थः स कृतो येन तत् ।
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हरिवंशपुराणे
जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ १५ ॥ “इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापिव्याकरणे क्षिणैः । देवस्य देववन्द्यस्य न वन्द्यन्ते गिरः कथम् ॥ ३० ॥ वज्रसूरेर्विचारिण्यः सहेश्वोर्बन्धमोक्षयोः । प्रेमाणं धर्मशास्त्राणां प्रर्वक्तृणामिवोक्तयः ॥ १२ ॥ महासेनस्य मधुरा शीळालंकारधारिणी । कथ । न वर्णिता केन वनितेव सुलोचना ||३३|| कृत पद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्त्तिता । मूर्त्तिः काव्यमयी लोके खेरिव खेः प्रिया || ३४ || वराङ्गनेव सर्वाङ्गेर्वराङ्गचरितार्थवाक् । कस्य नोपादयेद् गाढमनुरागं स्वगोचरम् | ५|| शान्तस्यापि च वक्रोक्ती रम्योत्प्रेक्षाबलान्मनः । कस्य नोद्घाटितेऽन्वर्थे रमणीयेऽनुरञ्जयेत् ॥ ३६॥ 'योऽशेषोक्तिविशेषेषु विशेषः पद्यगद्ययोः । विशेषवादिता तस्य विशेषत्रयवादिनः ||३७||
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वचन इस संसारमें भगवान् महावीरके वचनोंके समान विस्तारको प्राप्त हैं ||२९|| जिनका ज्ञान संसार में सर्वत्र प्रसिद्ध है ऐसे श्री सिद्धसेन की निर्मल सूक्तियाँ श्री ऋषभ जिनेन्द्रकी सूक्तियोंके समान सत्पुरुषों की बुद्धिको सदा विकसित करती हैं ||३०|| जो इन्द्र, चन्द्र, अर्क और जैनेन्द्र व्याकरणोंका अवलोकन करनेवाली है ऐसी देववन्द्य देवनन्दी आचार्यकी वाणी क्यों नहीं वन्दनीय है ? ॥३१॥ जो हेतु सहित बन्ध और मोक्षका विचार करनेवाली हैं ऐसी श्री वज्रसूरिकी उक्तियाँ धर्मशास्त्रोंका व्याख्यान करनेवाले गणधरोंकी उक्तियोंके समान प्रमाणरूप हैं ||३२|| जो मधुर है - माधुर्यं गुणसे सहित है ( पक्षमें अनुपम रूपसे युक्त है) और शीलालंकारधारिणी है— शीलरूपी अलंकारका वर्णन करनेवाली है (पक्षमें शीलरूपी अलंकारको धारण करनेवाली है) इस प्रकार सुलोचनासुन्दर नेत्रोंवाली वनिताके समान, महासेन कविकी सुलोचना नामक कथाका किसने वर्णन नहीं किया है ? अर्थात् सभीने वर्णन किया है ||३३|| श्री रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्ति सूर्यकी मूर्तिके समान लोक अत्यन्त प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्यकी मूर्ति कृतपद्मोदयोद्योता है अर्थात् कमलोंके विकास और उद्योत - प्रकाशको करनेवाली है उसी प्रकार रविषेणाचार्यकी काव्यमयी मूर्ति भी कृतपद्मोदयोद्योता अर्थात् श्री रामके अभ्युदयका प्रकाश करनेवाली है - पद्मपुराणकी रचनाके द्वारा श्री रामके अभ्युदयको निरूपित करनेवाली है और सूर्यकी मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्यकी काव्यमयो मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित - अभ्यस्त होती रहती है ||३४|| जिस प्रकार उत्तम स्त्री अपने हस्त-मुख-पाद आदि अंगोंके द्वारा अपने आपके विषय में मनुष्योंका गाढ़ अनुराग उत्पन्न करती रहती है उसी प्रकार * श्री वरांग चरितकी अर्थपूर्ण वाणो भी अपने समस्त छन्द - अलंकार रीति आदि अंगोंसे अपने आपके विषयमें किस मनुष्यके गाढ़ अनुरागको उत्पन्न नहीं करती ? ||३५|| श्री शान्त ( शान्तिषेण ) कविकी वक्रोक्ति रूप रचना, रमणीय उत्प्रेक्षाओंके बलसे, मनोहर अर्थके प्रकट होने पर किसके मनको अनुरक्त नहीं करती है ? ||३६|| जो गद्य-पद्य सम्बन्धी समस्त विशिष्ट उक्तियोंके विषयमें विशेष अर्थात् तिलकरूप हैं तथा जो विशेषत्रय ( ग्रन्थविशेष ) का निरूपण करनेवाले हैं ऐसे विशेषवादी
१. स्पष्टाः २. रुद्रचन्द्रार्क क., म., घ, ङ. । इन्द्र ख., म । ३. - णेक्षणाः म । 'व्याकरणेशिनः' इत्यपि पाठ: । ४. देवसंघस्य ख. म. । ५. प्रमाणभूताः । ६. गणवरदेवानाम् । ७. सुनेत्रा सुलोचनानाम्नी कथा च । ८. पद्मं कमलं रामश्च । ९. पद्मपुराणकर्तुः रविषेणाचार्यस्य । १०. वराङ्गकथा अत्र वराङ्गचरितकर्तुः श्रीजासिंहनन्दिनः कवेर्नाम नोल्लिखितम् । ११. वादिराजमुनिना पार्श्वनाथ चरितेऽपि समुल्लेखः कृतः -- "विशेषवादिगीर्गुम्फश्रवणासक्तबुद्धयः । अक्लेशादधिगच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ।"
* यहाँ कविने वराङ्गचरितके रचयिता जटासिंहनन्दीका उल्लेख न कर केवल ग्रन्थका ही उल्लेख किया है ।
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प्रथमः सर्गः
'आकूपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्ज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरस्य जितात्मकम् ॥ ३८ ॥ जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते ॥३९॥
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याsमिताभ्युदये पाइवे जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्त्ति संकीर्तयत्यसौ ॥४०॥ वर्धमानपुराणोद्यदादिस्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति ́ गिरीशान्तःस्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४१|| निर्गुणाऽपि गुणान् सद्भिः कर्णपूरीकृता कृतिः । विभयैव वधूवक्त्रैश्च्तस्येवाग्रमञ्जरी ॥ ४२ ॥ साधुरस्यति काव्यस्य दोषवत्तामयाचितः । पावकः शोधयत्येव कलधौतस्य कालिकाम् ||४३॥ काव्यस्यान्तर्गतं लेपं कुतश्चिदपि सत्सभाः । प्रक्षिपन्ति बहिः क्षिप्रं सागरस्येव वीचयः ॥ ४४ ॥ मुक्ताफलतयाऽऽदानात् परिषद्भिः कृतिः स्फुरेत् । जलात्मापि विशुद्धाभिस्तोयधेरिव शुक्तिभिः || ४५॥ दुर्वचोविषदुष्टान्तर्मुखं स्फुरितजिह्वकान् । निगृह्णन्ति " खलव्यालान् सन्नरेन्द्राः"स्वशक्तिभिः ॥४६॥
कविका विशेषवादोपना सर्वत्र प्रसिद्ध है ||३७|| श्री कुमारसेन गुरुका वह यश इस संसार में समुद्र पर्यन्त सर्वत्र विचरण करता है जो प्रभाचन्द्र नामक शिष्यके उदयसे उज्ज्वल है तथा जो अविजित रूप है - किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है ||३८|| जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे श्री वीरसेन स्वामीकी निर्मल कीर्ति प्रकाशमान हो रही है ||३९|| अपरिमित ऐश्वयंको धारण करनेवाले श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्रको जो गुणस्तुति है वही जिनसेन स्वामीकी कीर्तिको विस्तृत कर रही है ।
भावार्थ - श्री जिनसेन स्वामीने जो पार्श्वाभ्युदय काव्यकी रचना की है वही उनकी कीर्तिको विस्तृत कर रही है ॥४०॥ वर्धमान पुराणरूपी उगते हुए सूर्यकी सूक्तिरूपी किरणें विद्वज्जनोंके अन्तःकरणरूपी पर्वतोंको मध्यवर्तिनी स्फटिककी दीवालोंपर देदीप्यमान हैं || ४१ || जिस प्रकार स्त्रियोंके मुखोंके द्वारा अपने कानोंमें धारण की हुई आमकी मंजरी निर्गुणा - डोरा - रहित होनेपर भी गुण सौन्दर्य विशेषको धारण करती है उसी प्रकार सत् पुरुषोंके द्वारा श्रवण की हुई निर्गुणा-गुण रहित रचना भी गुणोंको धारण करती है । भावार्थं - यदि निर्गुण रचनाको भी सत् पुरुष श्रवण करते हैं तो वह गुण सहितके समान जान पड़ती है ||४२ ||
साधु पुरुष याचना के बिना ही काव्यके दोषोंको दूर कर देता है सो ठीक ही है क्योंकि अग्नि स्वर्णकी कालिमाको दूर हटा ही देती है ||४३|| जिस प्रकार समुद्र की लहरें भीतर पड़े हुए मैलको शीघ्र ही बाहर निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार सत्पुरुषों की सभाएँ किसी कारण काव्यके भीतर आये हुए दोषको शीघ्र ही निकालकर दूर कर देती हैं ||४४|| जिस प्रकार समुद्रकी निर्मल सीपोंके द्वारा ग्रहण किया हुआ जल मोतीरूप हो जाता है उसी प्रकार दोषरहित सत्पुरुषोंकी सभाओंके द्वारा ग्रहण की हुई जड़ रचना भी उत्तम रचनाके समान देदीप्यमान होने लगती है || ४५ || दुर्वचनरूपी विषसे दूषित जिनके मुखोंके भीतर जिह्वाएँ लपलपा रही हैं ऐसे दुर्जनरूपी
१. श्रीकुमारसेनस्य शिष्यः प्रभाचन्द्र आसीत् येन चन्द्रोदय नाम शास्त्रं रचितम् । आदिपुराणे श्रीजिनसेनाचार्येणापि प्रभाचन्द्रस्य स्मरणं कृतम् - " चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥" । २. केनापि विजितम् । ३. यामिताभ्युदयपाश्वं ख । यामिताभ्युदये पार्श्व =म., पार्श्वे = पार्श्वनाथतीर्थङ्करदेवे । ४. पण्डितानां मनः स्फटिकभित्तिषु ! ५ गुणान् बिभति इति संबन्धः । ६. पण्डितपरिषदः । ७. कल्लोलाः । ८. सभाभिः । ९. मुखे म. । १०. दुर्जननागान् । ११. उत्तमनृपाः । पक्षे उत्तमविषवैद्याः ।
★ यहाँ भी वर्धमान पुराणके रचयिताका नाम प्रकट नहीं किया गया है ।
+ गिरां वाणीनाम् ईशा गिरीशाः विद्वांसः, पक्षे गिरीणां पर्वतानामीशा गिरीशाः ।
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हरिवंशपुराणे रंजोबहुलमारूक्षं खलं कालं विदाहिनम् । सन्तः काले कलध्वानाः शमयन्ति यथा धनाः ॥४७।। साध्वसाधुसमाकारप्रवृत्तमबुधं बुधाः । वारयन्ति तमोराशिं रवीन्द्वोरिव रश्मयः ।।४८॥ इत्थं साधुसहायोऽहमनातङ्कमनुद्धतम् । देहं काव्यमयं लोके करोमि स्थिरमात्मनः ॥४९॥ बद्धमूलं भुवि ख्यातं बहुशाखाविभूषितम् । पृथुपुण्यफलं पूर्त कल्पवृक्षसमं परम् ॥५०॥ अरिष्टनेमिनाथस्य चरितेनोज्ज्वलीकृतम् । पुराणं हरिवंशाख्यं ख्यापयामि मनोहरम् ।।५१॥ [युग्मम्] धमणिद्योतितं द्योत्यं द्योतयन्ति यथाणवः । मणिप्रदीपखद्योतविद्यतोऽपि यथायथम् ॥५२॥ द्योतितस्य तथा तस्य पुराणस्य महात्मभिः । द्योतने वर्ततेऽत्यल्पो मादशोऽप्यनुरूपतः ॥५३॥ . विप्रष्टमपि ह्यर्थ सौकुमार्ययुतं मनः । सूरिसूर्यकृतालोकं लोकचक्षुरिवेक्षते ॥५४॥ पञ्चधाप्रविमक्तार्थ क्षेत्रादिप्रविमागतः । प्रमाणमागमाख्यं तत्प्रमाणपुरुषोदितम् ॥५५॥ तथाहि मूलतन्त्रस्य कर्ता तीर्थकरः स्वयम् । ततोऽप्युत्तरतन्त्रस्य गौतमाख्यो गणाग्रणीः ॥५६॥ उत्तरोत्तरतन्त्रस्य कतारो बहवः क्रमात् । प्रमाणं तेऽपि नः सर्वे सर्वज्ञोक्त्यनुवादिनः ॥५७॥ त्रयः केवलिनः पञ्च ते चतुर्दशपूर्विणः । क्रमेणकादश प्राज्ञा विज्ञेया दशपूर्विणः ॥५०॥
पञ्चैवैकादशाङ्गानां धारकाः परिकीर्तिताः । आचाराङ्गस्य चत्वारः पञ्चधेति युगस्थितिः ॥५९॥ साँपोंको सज्जनरूपी विषवैद्य अपनी शक्तिसे शीघ्र ही वश कर लेते हैं ॥४६।। जिस प्रकार मधुर गर्जना करनेवाले मेघ, अत्यधिक धूलिसे युक्त, रूक्ष और तीव्र दाह उत्पन्न करनेवाले ग्रीष्मकालको समय आनेपर शान्त कर देते हैं उसी प्रकार मधुर भाषण करनेवाले सत्पुरुष, अत्यधिक अपराध करनेवाले, कठोर प्रकृति एवं सन्ताप उत्पन्न करनेवाले दुष्ट पुरुषको समय आनेपर शान्त कर लेते हैं ।।४७।। जिस प्रकार सूर्य और चद्रमाकी किरणें, अच्छे और बुरे पदार्थों को एकाकार करनेमें प्रवृत्त अन्धकारको राशिको दूर कर देतो हैं उसी प्रकार विद्वान् मनुष्य, सज्जन और दुर्जनके साथ समान प्रवृत्ति करने में तत्पर मूर्ख मनुष्यको दूर कर देती हैं ॥४८॥ इस प्रकार साधुओंकी सहायता पाकर मैं रोग और अभिमानसे रहित अपने इस काव्यरूपी शरीरको संसारमें स्थायी करता हूँ॥४९।। अब मैं उस हरिवंश पुराणको कहता हूँ जो बद्धमूल है-प्रारम्भिक इतिहाससे सहित ( पक्षमें जड़से युक्त है ), पृथिवीमें अत्यन्त प्रसिद्ध है, अनेक शाखाओं-कथाओं-उपकथाओंसे विभूषित है, विशाल पुण्यरूपी फलसे युक्त है, पवित्र है, कल्पवृक्षके समान है, उत्कृष्ट है, श्री नेमिनाथ भगवान्के चरित्रसे उज्ज्वल है, और मनको हरण करनेवाला है ॥५०-५१।। जिस प्रकार सूर्यके द्वारा प्रकाशित पदार्थको, अत्यन्त तुच्छ तेजके धारक मणि, दीपक, जुगनू तथा बिजली आदि भी
ग्य-अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार बडे-बड़े विद्वान महात्माओंके द्वारा प्रकाशित इस पुराणके प्रकाशित करने में मेरे जैसा अल्प शक्तिका धारक पुरुष भी अपनो सामर्थ्यके अनुसार प्रवृत्त हो रहा है ॥५२-५३।। जिस प्रकार सूर्यका आलोक पाकर मनुष्यका नेत्र दूरवर्ती पदार्थको भी देख लेता है उसी प्रकार पूर्वाचार्यरूपी सूर्यका आलोक पाकर मेरा सुकुमार मन अत्यन्त दूरवर्ती-कालान्तरित पदार्थको भी देखने में समर्थ है ॥५४।। जिसके प्रतिपादनीय पदार्थ-क्षेत्र, द्रव्य, काल, भव और भावके भेदसे पाँच भेदोंमें विभक्त हैं तथा प्रामाणिक पुरुषों-आप्तजनोंने जिसका निरूपण किया है ऐसा आगम नामका प्रमाण, प्रसिद्ध प्रमाण है ।।५५।। इस तन्त्रके मूलकर्ता स्वयं श्री वर्धमान तीर्थंकर हैं, उनके बाद उत्तर तन्त्रके कर्ता श्री गौतम गणधर हैं, और उनके अनन्तर उत्तरोत्तर तन्त्रके कर्ता क्रमसे अनेक आचार्य हुए हैं सो वे सभी सर्वज्ञके कथनका अनुवाद करनेवाले होनेसे हमारे लिए प्रमाणभूत हैं ॥५६-५७।। इस १. पापप्रचरं पक्षे धलिबहलम । २. दाहोत्पादकम् उष्णकालम् । ३. द्योतनं म.। ४. लघवः । ५ रविप्रकटीकृतम् । ६. द्रव्यक्षेत्रकालादिभिरन्तरितार्थ मूर्तामूर्तम् । ७. सर्वज्ञवाणीप्रकाशकाः । ८. केवलिनः चतुर्दशपूर्वधारिणः, दशपूर्वधारिणः, एकादशाङ्गधारिणः, एकाङ्गधारिणः एते पञ्चधा मुनयः ।
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प्रथमः सर्गः वर्धमानजिनेन्द्राऽऽस्यादिन्द्रभूतिः श्रुतं दधे । ततः सुधर्मस्तस्मात्तु जम्बूनामान्त्यकेवली ॥६०॥ तस्माद्विष्णुः क्रमात् तस्मान्नन्दिमित्रोऽपराजितः । ततो गोवर्धनो दधे भद्रबाहुः श्रतं ततः ॥६१।। दशपूर्वी विशाखाख्यः प्रोष्ठिलः क्षत्रियो जयः । नागसिद्धार्थनामानौ तिषेणगुरुस्ततः ।।६२॥ विजयो बुद्धि लामाख्यो गङ्गदेवामिधस्ततः । दशपूर्वधरोऽन्त्यस्तु धर्मसेनमुनीश्वरः ।।६३॥ नक्षत्राख्यो यशःपालः पाण्डुरेकादशाङ्गक । ध्रुवसेनमुनिस्तस्मात् कंसाचार्यस्तु पञ्चमः ॥६॥ सुभद्रोऽतो यशोमद्रो यशोबाहुरनन्तरः । लोहाचार्यस्तुरीयोऽभूदाचाराङ्गतां ततः ॥६५॥ पूर्वाचार्येभ्य एतेभ्यः परेभ्यश्च वितन्वतः । एकदेशागमस्यायमेकदेशोऽपदिश्यते ॥६६॥ अर्थतः पूर्व एवायमपूर्वो ग्रन्थतोऽल्पतः । शास्त्रविस्तरमीरुभ्यः क्रियते सारसंग्रहः ॥६७॥ मनोवाकाय शुद्धस्य भव्यस्याभ्यस्यतः सदा । श्रेयस्करपुराणार्थो वक्तुः श्रोतुश्च जायते ॥६८॥ बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधेऽपि तपोविधौ । अज्ञानप्रतिपक्षत्वात् स्वाध्यायः परमं तपः ॥६९।। यतस्ततः पुराणार्थः पुरुषार्थकरः परः । वक्तव्यो देशकाल ः श्रोतव्यस्त्यक्तमत्सरैः ।।७०॥ लोकसंस्थानमत्रादौ राजवंशोद्भवस्ततः । हरिवंशावतारोऽतो वसुदेवविचेष्टितम् ॥७१॥ चरितं नेमिनाथस्य द्वारवस्या निवेशनम् । युद्धवर्णननिर्वाणे पुराणेऽष्टा शुभा इमे ॥७२॥
संग्रहादधिकारैः स्वैः संगृहीतैरलंकृताः । अधिकाराः सूत्रिताः प्रोक्सूरिसूत्रानुसारिभिः ॥७३॥ पंचमकालमें तीन केवली, पांच चौदह पूर्व के ज्ञाता, पाँच ग्यारह अंगोंके धारक, ग्यारह दशपूर्वके जानकार और चार आचारांगके ज्ञाता इस तरह पांच प्रकारके मनि हए हैं ।।५८-५९||
श्री वर्धमान जिनेन्द्र के मुखसे श्री इन्द्रभूति (गौतम ) गणधरने श्रतको धारण किया उनसे सुधर्माचार्यने और उनसे जम्बू नामक अन्तिम केवलीने ॥६०।। उनके बाद क्रमसे १ विष्णु, २ नन्दिमित्र, ३ अपराजित, ४ गोवर्धन, और ५ भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए ॥६१।। इनके बाद ग्यारह अंग और दशपूर्वके जाननेवाले निम्नलिखित ग्यारह मुनि हुए-१ विशाख, २ प्रोष्ठिल, ३ क्षत्रिय, ४ जय, ५ नाग, ६ सिद्धार्थ, ७ धृतिषेण, ८ विजय, ९ बुद्धिल, १० गंगदेव, और ११ धर्मसेन ॥६२-६३।। इनके अनन्तर १ नक्षत्र, २ यशःपाल, ३ पाण्डु, ४ ध्रुवसेन और ५ कंसाचार्य ये पांच मुनि ग्यारह अंगके ज्ञाता हुए ॥६४।। तदनन्तर १ सुभद्र, २ यशोभद्र, ३ यशोबाह और लोहाय ये चार मुनि आचारागक धारक हुए ॥६५।। इस प्रकार इन तथा अन्य आचार्योसे जो आगमका एकदेश विस्तारको प्राप्त हआ था उसीका यह एकदेश यहाँ कहा जाता है ॥६६॥ यह ग्रन्थ अर्थकी अपेक्षा पूर्व ही है अर्थात् इस ग्रन्थमें जो वर्णन किया गया है वह पूर्वाचार्योंसे प्रसिद्ध ही है परन्तु शास्त्रके विस्तारसे डरनेवाले लोगोंके लिए इसमें संक्षेपसे सारभूत पदार्थोंका संग्रह किया गया है इसलिए इस रचनाकी अपेक्षा यह अपूर्व अर्थात् नवीन है ॥६७॥ जो भव्यजीव मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक सदा इसका अभ्यास करते हुए कथन अथवा श्रवण करेंगे उनके लिए यह पुराण कल्याण करनेवाला होगा ॥६८।। बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे तप दो प्रकारका कहा गया है सो उन दोनों प्रकारके तपोंमें अज्ञानका विरोधी होनेसे स्वाध्याय परम तप कहा गया है ॥६९।। यतश्च इस पुराणका अर्थ उत्तम पुरुषार्थों का करनेवाला है इसलिए देश-कालके ज्ञाता मनुष्योंके लिए मात्सर्यभाव छोड़कर इसका कथन तथा श्रवण करना चाहिए ।।७०॥
___ इस पुराणमें सर्वप्रथम लोकके आकारका वर्णन, फिर राजवंशोंकी उत्पत्ति, तदनन्तर हरिवंशका अवतार, फिर वसुदेवकी चेष्टाओंका कथन, तदनन्तर नेमिनाथ का चरित, द्वारिकाका निर्माण, युद्धका वर्णन और निर्वाण-ये आठ शुभ अधिकार कहे गये हैं ॥७१-७२।। ये सभी १. यशःपालपाण्डु-ख., म.। २. धृग म.। ३. धृतस्ततः म. । ४. द्वारावत्या म.। ५. पर्वाचार्यकृतशास्त्रानुगामिभिः।
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हरिवंशपुराणे संग्रहेण विमागेन विस्तारेण च वस्तुनः । शासने देशना यस्माद् विभागः कथ्यते ततः ॥७॥ वर्धमानजिनेन्द्रस्य धर्मतीर्थप्रवर्तनम् । गणभृद्गणसंख्यानं भूयो राजगृहागमम् ॥७५॥ गौतमश्रेणिकप्रश्ने क्षेत्रकालनिरूपणम् । ततः कुलकरोत्पत्तिमुत्पत्तिं वृषभस्य च ॥७॥ कीर्तनं क्षत्रियादीनां हरिवंशप्रवर्तनम् । मुनिसुव्रतनाथस्य तत्र वंशे समुद्भवम् ॥७७।। दक्षप्रजापतेर्वृत्त वसुवृत्तान्तमेव च । जननं वृष्णिपुत्राणां सुप्रतिष्ठस्य केवलम् ॥७८।। वृष्णिदीक्षा तथा राज्यं समुद्र विजयस्य तु । वसुदेवस्य सौभाग्यमुपायेन च निर्गमम् ॥७९॥ लाभं कन्यकयोस्तस्य सोमाविजयसेनयोः । वन्यहस्तिवशीकारं श्यामया सह संगमम् ॥८॥ अङ्गारकेण हरणं चम्पायां च विमोचनम् । लामं गन्धर्वसेनाया मनेर्विष्णोविचेष्टितम् ॥८॥
निदर्शनम् । चारुनीलयशोलाभं सोमश्रीलाभमेव च ॥८॥ वेदोत्पत्तिमुपाख्यानं सौदासस्य नृपस्य तु । कपिलाकन्यकालामं पद्मावत्युपलम्भनम् ॥८३॥ संप्राप्ति चारुहासिन्या रत्नवत्यास्ततोऽपि च ! सोमदत्तसुतालाभं वेगवस्याश्च संगमम् ।।८४॥ लामं मदनवेगाया बालचन्द्रावलोकनम् । प्रियङ्गसुन्दरीलाभं बन्धुमत्या समन्वितम् ।।८५॥ प्रभावत्याः परिप्राप्ति रोहिण्याश्च स्वयंवरम् । संग्रामे विजयं तस्य भ्रातृभिः सह संगमम् ॥८६॥ बलदेवसमुत्पत्ति कंसोपाख्यानमेव च । जरासन्धस्य वचनात् 'सिंहस्यन्दनबन्धनम् ॥८॥
तथा जीवद्यशोलाभं कंसस्य पितृबन्धनम् । देवक्या सह संयोगं ततोऽप्यानकदुन्दुभेः ॥८॥ अधिकार संग्रहकी भावनासे संगृहीत अपने अवान्तर अधिकारोंसे अलंकृत हैं तथा पूर्वाचार्यों द्वारा निर्मित शास्त्रोंका अनुसरण करनेवाले मुनियोंके द्वारा गुम्फित हैं ॥७३॥ वस्तुका निरूपण करनेके लिए दो प्रकारको देशना पायी जाती है एक विभाग रूपसे और दूसरी विस्तार रूप से। इनमें-से यहाँ विभागरूपीय देशनाका निरूपण किया जाता है ।।७४।। प्रथम ही इस ग्रन्थमें श्री वर्धमान जिनेन्द्रकी धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिका वर्णन है फिर गणधरों की संख्या और भगवान्के राजगृहमें आगमनका निरूपण है ।।७५।। तदनन्तर श्रेणिक राजाका गौतम स्वामीसे प्रश्न करना, तदनन्तर क्षेत्र, कालका निरूपण, फिर कुलकरोंकी उत्पत्ति और भगवान् ऋषभदेवकी उत्पत्तिका वर्णन है ।।७६।। तत्पश्चात् क्षत्रिय आदि वर्णों का निरूपण, हरिवंशको उत्पत्तिका कथन और उसी हरिवंशमें भगवान् मुनिसुव्रतके जन्म लेनेका निरूपण है ॥७७। तदनन्तर दक्ष प्रजापतिका उल्लेख, वसुका वृत्तान्त, अन्धकवृष्णिके दशकुमारोंका.जन्म, सुप्रतिष्ठ मुनिके केवलज्ञानको उत्पत्ति, राजा अन्धकवृष्णिको दोक्षा, समुद्रविजयका राज्य, वसुदेवका सौभाग्य, उपायपूर्वक वसुदेवका बाहर निकलना, वहाँ उन्हें सोमा और विजयसेना कन्याओंका लाभ होना, जंगली हाथीका वश करना, श्यामाके साथ वसुदेवका संगम, अंगारक विद्याधरके द्वारा वसुदेवका हरण, चम्पा नगरीमें वसुदेवका छोड़ना, वहाँ गन्धवसेनाका लाभ, विष्णुकुमार मुनिका चरित, सेठ चारुदत्तका चरित उसीको मुनिका दर्शन होना, तथा वसुदेवको सुन्दरी नीलयशा और सोमश्रीका लाभ होनेका वर्णन है ।।७८-८२।। तदनन्तर वेदोंकी उत्पत्ति, राजा सौदासको कथा, वसुदेवको कपिला कन्या और पद्मावतीका लाभ, चारुहासिनी और रत्नवतीकी प्राप्ति, सोमदत्तकी पुत्रीका लाभ, वेगवतीका समागम, मदनवेगाका लाभ, बालचन्द्राका अवलोकन, प्रियंसुन्दरीका लाभ, बन्धुमतीका समागम, प्रभावतीको प्राप्ति, रोहिणीका स्वयंवर, संग्राममें वसुदेवकी जीत और उनका भाइयोंके साथ समागम होनेका कथन है ।।८३-८६।। तत्पश्चात् बलदेवकी उत्पत्ति, कंसका व्याख्यान, जरासन्धके कहनेसे राजा सिंहरथका बाँधना, कंसको जीवद्यशाको प्राप्ति होना, पिता उग्रसेनको बन्धनमें डालना, देवकीके साथ वसुदेवका समागम होना, 'देवकीके पुत्रके हाथसे मेरा मरण है'
१. गौतमश्रेणिक प्रश्न म., ख. । २. सिंहरथबन्धनम् ।
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प्रथमः सर्गः
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सत्यातिमुक्तकादेशं कंससंक्षोभकारणम् । प्रार्थनं वसुदेवस्य देवकीप्रसवं प्रति ॥ ६६ ॥ 'आनकेन मुनेः प्रश्नमष्टपुत्रभवान्तरम् । चरितं नेमिनाथस्य पापप्रमथनं तथा ॥ ६० ॥ उत्पत्ति वासुदेवस्य गोकुले बालचेष्टितम् । ग्रहणं सर्वशास्त्राणां बलदेवोपदेशतः ॥ ११ ॥ चापरत्नसमारोपं कालिन्यां नागनाथनम् । वाजिवारणचाणूर मल्लकंसवधं ततः ॥ ३२ ॥ उग्रसेनस्य राज्यं च सत्यभामाकरग्रहम् । सर्वज्ञातिसमेतस्य प्रीतिं च परमां हरेः ॥१३॥ जीवद्यशोविलापं च जरासन्धरूपं ततः । प्रेषितस्य रणे कालयवनस्य पराभवम् ॥ ६४ ॥ तथाऽपराजितस्यापि मारणं हरिणा रणे । शौरीणां परमं तोषमकुतोभयतः स्थितिम् ॥१५॥ शिवादेव्याः सुतोत्पत्तौ षोडशस्त्रप्रदर्शनम् । फलानां कथनं पत्या नेमिनाथसमुद्भवम् ॥१६॥ मेरो जन्माभिषेकं च बालक्रीडामहोदयम् । जरासन्धातिसन्धानं 'शौरिसागरसंश्रयम् ||३७|| देवताकृतमायातो जरासन्धनिवर्तनम् । विष्णोः 'साष्टमभक्तस्य दर्भशय्याविरोहणम् ||१८|| गौतमेनेन्द्रवचनात् सागरस्यापसारणम् । कुत्रेरेण क्षणात्तत्र द्वारावत्या निवेशनम् ॥६॥ रुक्मिणीहरणं भास्वानुप्रद्युम्नसम्भवम् । रौक्मिणेयहृतिं पूर्ववैरिणा धूमकेतुना ॥ १००॥ विजयार्द्धस्थितिं पित्रोर्नारदेनेष्टसूचनम् । प्राप्तिं षोडशलाभानां प्रज्ञप्तेरुपलम्भनम् ||१११ ॥ कालसंवरसङ्ग्रामं पितृमातृसमागमम् । शम्बोत्पत्ति शिशुक्रीडां प्रश्नं चापि पितुः पितुः ||१०२ || तेन स्वहिण्डाख्यानं कुमाराणां च कीर्त्तनम् । वार्तोपलम्भाद् दूतस्य प्रेषणं प्रतिशत्रुणा ॥१०३॥
ऐसा श्री सत्यवादी अतिमुक्तक मुनिका आदेश सुन कंसका व्याकुल होना, 'देवकीका प्रसव हमारे घर ही हो' इस प्रकार कंसकी वसुदेवसे प्रार्थना करना, वसुदेवका अतिमुक्तक मुनिसे प्रश्न, देवकीके आठ पुत्रोंके भवान्तर पूछना और भगवान नेमिनाथके पापापहारी चरितका निरूपण है ||८७- ६०॥ तदनन्तर श्रीकृष्णकी उत्पत्ति, गोकुलमें उनकी बालचेष्टाएँ, बलदेवके उपदेश से समस्त शास्त्रोंका ग्रहण, धनुष रत्नका चढ़ाना, यमुना में नागको नाथना, घोड़ा, हाथी, चाणूरमल्ल और कंसका बध, उग्रसेनका राज्य, सत्यभामाका पाणिग्रहण, सर्वकुटुम्बियों सहित श्रीकृष्णका परम प्रीतिका अनुभव करना, कंसकी स्त्री जीवद्यशांका विलाप, जरासन्धका क्रोध, रणमें भेजे हुए कालयवनका पराजय, श्रीकृष्णके द्वारा युद्ध में अपराजितका मारा जाना, यादवोंका परमहर्ष और निर्भयताके साथ रहना, पुत्रोत्पत्तिके निमित्त शिवादेवीके सोलह स्वप्न देखना, पति के द्वारा स्वप्नोंका फल कहा जाना, नेमिनाथ भगवान्का जन्म, सुमेरु पर्वतपर उनका जन्माभिषेक होना, भगवान्की बालक्रीड़ा और महान अभ्युदयका विस्तार, जरासंघका पीछा करना, यादवोंका सागरका आश्रय करना, देवीके द्वारा की हुई मायासे जरासन्धका लौटना, तीन दिनके उपवासका नियम लेकर कृष्णका डाभकी शय्यापर आरूढ़ होना, इन्द्रकी आज्ञासे गौतम नामक देवके द्वारा समुद्रका संकोच करना और कुबेरके द्वारा वहाँ क्षणभर में द्वारावती ( द्वारिका ) नगरी - की रचना होना इन सबका वर्णन है ॥११- ६६ ॥ तदनन्तर रुक्मिणीका हरा जाना, देदीप्यमान भानुकुमार और प्रद्युम्नकुमारका जन्म होना, रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्नका पूर्वभवके वैरी धूमकेतु असुर के द्वारा हरण होना, विजयार्ध में प्रद्युम्न की स्थिति, नारदके द्वारा प्रद्युम्न के माता-पिताको इष्ट समाचारकी सूचना देना, प्रद्युम्नको सोलह लाभों तथा प्रज्ञप्ति विद्याकी प्राप्ति होना, राजा कालसंवर के साथ प्रद्युम्नका युद्ध, मातापिताका मिलाप, शम्बकुमारकी उत्पत्ति, प्रद्युम्न की बालक्रीड़ा, वसुदेवका प्रद्युम्नसे प्रश्न, प्रद्युम्न द्वारा अपने भ्रमणका वृत्तान्त, सकल यादव कुमारोंका कीर्तन, समाचार पाकर प्रति शत्रु जरासन्धका कृष्णके प्रति दूत भेजना, यादवोंकी
१. वसुदेवेन । २. कृष्णस्य । ३. सर्व कुटुम्बयुक्तस्य । ४. यादवानां समुद्राश्रयम् । ५. उपवासत्रययुक्तस्य । ६. शोभमानभानुकुमारप्रद्युम्नोत्पत्तिम् । ७. प्रद्युम्नस्य हरणम् । ८. स्वकीयपरिभ्रमणाख्यानम् ।
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हरिवंशपुराणे यादवानां सभाक्षोभं सेनयोरुपसर्पणम् । विजयाधै 'खगोमं वसुदेवपराक्रमम् ॥१०॥ अक्षौहिणीप्रमाणं च रथिनोऽतिरथांस्तथा । महासमरथान् सर्वान् नृपानर्धरथानपि ॥१०५॥ चक्रव्यूहव्यपोहाथ गरुडव्यूहकल्पनम् । सिंहगारुडविद्यासु रथाप्तिं बलकृष्णयोः ॥१०६॥ नेमेः सारथिरूपेण मातुले रुपसर्पणम् । नेम्यनावृष्णिपार्थ श्च चक्रव्यूहस्य भेदनम् ॥10॥ कदनं पाण्डुपुत्राणां धृतराष्ट्रसुतैः सह । सेनापत्योर्महायुद्धं कृष्णमागधयोरतः ।।१०८॥ चक्रोत्पत्तिं तदा विष्णोर्जरासन्धवधस्ततः । विजयं वसुदेवस्य खेचरीभिनिवेदितम् ॥१०९॥ कृष्णकोटिशिलोत्क्षेपं वसुदेवागमं ततः । ततो दिग्विजयं दिव्यं रत्नानां च समुद्भवम् ॥११॥ भ्रात्रोः राज्याभिषेकं च द्रौपदीहरणं सह । पाण्डवैर्धातकीखण्डाद् विष्णुनानयनं पुनः ॥१११॥ नेमिसामर्थ्य विज्ञानं मजनं तदनन्तरम् । पूरणं पाञ्चजन्यस्य विवाहारम्भसंभ्रमम् ॥११२॥ मृगमोक्षविधानं च दीक्षणं केवलोदयम् । देवागमविभूतिं च समवस्थानकीर्तनम् ।।११३॥ राजीमत्यास्तपःप्राप्ति द्विधा धर्मोप शनम् । धर्मतीर्थविहारं च षट्पहोदरसंयभम् ॥१४॥ ऊर्जयन्तनगारोहं देवकीप्रश्नसंकथाम् । रुक्मिणीसत्यमामादिसहादेवीभवान्तरम् ।।११५॥ कुमारस्य गजाख्यस्य संमवं तस्य दीक्षणम् । वसुदेवेतरोद्विग्ननवभ्रातृतपस्यनम् ॥१६॥ त्रिषष्टिपुरुषोभूति सजिनान्तरविस्तरम् । बलदेवपरिप्रश्नं ततः प्रद्युम्नदीक्षणम् ।।११।।
रुक्मिण्यादिहरिस्त्रीणां दुहितणां च संयमम् । दीपायनमुनेः क्रोधाद् द्वारवल्या विनाशनम् ॥११८।। सभामें क्षोभ उत्पन्न होना, दोनों सेनाओंका पास-पास आना, विजया पर्वतके विद्याधरोंमें क्षोभ उत्पन्न होना, श्री वसुदेवका पराक्रम, अक्षौहिणी दलका प्रमाण, रथी, अतिरथ, समरथ और अर्धरथ राजाओंका निरूपण, जरासन्धके चक्रव्यूहको नष्ट करनेके लिए श्रीकृष्णको सेनामें गरुड़व्यूहकी रचना होना, बलदेवको सिंहवाहिनी और कृष्णको गरुड़वाहिनो विद्याकी प्राप्ति होना, नेमिके सारथिके रूप में उनके मामाके पुत्रका आगमन, नेमि, अनावृष्णि तथा अर्जुनके द्वारा चक्रव्यूहका भेदा जाना, पाण्डवोंका कौरवोंके साथ युद्ध, दोनों सेनाओंके अधिपति कृष्ण तथा जरासन्धके महायुद्धका वर्णन है ॥१००-१०८।।
तदनन्तर श्रीकृष्णके चक्ररत्नकी उत्पत्ति होना, जरासन्धका मारा जाना, विद्याधरियोंके द्वारा वसुदेवके लिए श्रीकृष्णकी विजयका समाचार सुनाना, कृष्णका कोटिशिलाका उठाना, वसदेवका आगमन, श्रीकृष्णका दिग्विजय, दिव्यरत्नोंकी उत्पत्ति, दोनों भाइयोंका राज्याभिषेक. द्रौपदीका हरण, श्रीकृष्ण द्वारा पाण्डवोंके साथ जाकर धातकीखण्डसे द्रौपदोका पूनः वापस लाना, श्रीकृष्णको नेमिनाथकी सामथ्यंका ज्ञान होना, नेमिनाथकी जलक्रीड़ा, पांचजन्य शंखका बजाना, नेमिनाथके विवाहका आरम्भ, पशुओंका छुड़ाना, दीक्षा लेना, केवलज्ञान उत्पन्न होना, ज्ञानकल्याणकके लिए देवोंका आगमन, समवसरणका निर्माण, राजीमतीका तप धारण करना, सागार और अनगारके भेदसे दो प्रकारके धर्मका उपदेश देना, धर्म-तीर्थोंमें विहार, श्रीकृष्णके छह भाइयोंका संयम धारण करना, नेमिनाथका गिरिनार पर्वतपर आरूढ़ होना, देवकीके प्रश्नका उत्तर देना, रुक्मिणी तथा सत्यभामा आदि आठ महादेवियोंके भवान्तरोका निरूपण, गजकूमारका जन्म, उनकी दीक्षा और वसुदेवसे भिन्न नौ भाइयोंका संसारसे उद्विग्न हो तपश्चरण करनेका निरूपण है ।।१०९-११६||
तदनन्तर भगवान् नेमिनाथके द्वारा त्रेसठ शलाकापुरुषोंकी उत्पत्तिका वर्णन, तीर्थकरोंके अन्तरका विस्तार, बलदेवका प्रश्न, प्रद्युम्नकी दीक्षा, रुक्मिणी आदि कृष्णको स्त्रियों और १. खगक्षोभो क., ख., ग., घ., ङ., म.,। २. एतन्नामधेयस्य शङ्कविशेषस्य। ३. विष्णोः युगलत्रयरूपषट्सहोदरसंयमम् । ४. वसुदेवं विहाय समुद्रविजयादीनां नवानां भ्रातणां तपस्यनं वैराग्यम् ।
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प्रथमः सर्गः रामकेशवयोः 'प्लुष्टबन्धु गुवकलत्रयोः । निर्गमं दुर्गमं शोक कौशाम्बवनसेवनम् ॥११९।। शीरिरक्षणमुक्तस्य प्रमादाईवयोगतः । जरत्कुमारमुकेन शरेण हननं हरेः ॥१२॥ ततो घातकशोकं च शोकं रामस्य दुस्तरम् । सिद्धार्थबोधितस्यास्य निर्विण्णस्य तपस्यनम् ।।१२।। ब्रह्मलोकोपपादं च कौन्तेयानां तपोवनम् । ऊर्जयन्तगिरावन्ते नेमिनाथस्य निवृतिम् ॥१२२॥ उपसर्गजयं पञ्चपाण्डवानां महात्मनाम् । दीक्षां जरत्कुमारस्य सन्तानं तस्थ चायतम् ॥१२३।। हरिवंशप्रदीपस्य जितशत्रोत केवलम् । पुरप्रवेशमन्ते च श्रेणिकस्य पृथुश्रियः ।।१२४।। वर्धमानजिनेशस्य निर्वाणं गणिनां तथा । देवलोककृतं वक्ष्ये प्रदीपमहिमोदयम् ॥१२।। हरिवंशपुराणस्य विभागोऽयं ससंग्रहः । श्रयतां विस्तरः सिद्धये भव्यैः सभ्यरतः परम् ।। ५२६॥
शार्दूलविक्रीडितम् एकस्यापि महानरस्य चरितं पापस्य विधंसनं, सर्वेषां जिनचक्रवर्तिहलिनामेतबुधाः किं पुन: । वायकस्य महाधनस्य महतस्तापस्य विच्छेदकं,लोकव्यापिघनाघनौघनिपतद्धारासहस्रं न किम् ।।१७।। मुक्त्वा लोकपुराणतिर्य गपथभ्रान्ति विवेकी जनो,गृह्णातु प्रगुजां पुराणपदवीमेतां हितग्रापिणीम् । दिग्मूढं विरहय्य मोहबहुलं संशुद्धदृष्टिः परो विस्तीर्ण जिनभास्करप्रकटिते मार्ग भृगोः कः पतेत् ।।१२८॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती संग्रहविभागवर्णनो नाम प्रथम: वर्ग:॥१॥ पुत्रियोंका संयम ग्रहण करना, द्वीपायन मुनिके क्रोधसे द्वारिका पुरीका विनाश, जिनके भाई, पुत्र तथा स्त्रियाँ जल गयी थीं ऐसे बलराम और कृष्णका द्वारिकासे निकलना, असा शोक, कौशाम्बीके वनमें दोनों भाइयोंका जाना, बलभद्रकी रक्षासे रहित श्रीकृष्णका भाग्यवश जरत्कुमारके द्वारा छोड़े हुए बाणसे प्रमादपूर्वक मारा जाना, तदनन्तर मारनेवाले जरत्कुमारका शोक करना, बलरामका दुस्तर शोक, सिद्धार्थ देवके द्वारा प्रतिबोधित होनेपर बलदेवका विरक्त हो दीक्षा धारण करना, ब्रह्मलोकमें जन्म होना, पाण्डवोंका तपके लिए वनको जाना. गिरिनार पर्वतपर नेमिनाथका निर्वाण होना, महान् आत्माके धारक पाँच पाण्डवोंका उपसर्ग जीतना, जरत्कुमारकी दीक्षा, उसकी विस्तृत सन्तान, हरिवंशके दीपक राजा जितशत्रुको केवलज्ञान, विशाल लक्ष्मीके धारक राजा श्रेणिकका अन्त में नगर प्रवेश, श्री वर्धमान जिनेन्द्र और उनके गणधरोंका निर्वाण और देवोंके द्वारा किया हुआ दीपमालिका महोत्सवका वर्णन है। श्री जिनसेन स्वामी कहते हैं कि इस पुराणमें इन सबका मैं वर्णन करूंगा ।।११७-१२५।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार हरिवंशपुराणका यह संग्रह सहित अवान्तर विभाग दिखा दिया। अब इसके आगे भव्य सभासद् आत्म-सिद्धि के लिए इसके विस्तारका वर्णन श्रवण करें ॥१२६॥ हे विद्वज्जनो! जब एक ही महापुरुषका चरित पापका नाश करनेवाला है तब समस्त तीर्थंकरों, चक्रवतियों और बलभद्रोंके चरितका निरूपण करनेवाले इस ग्रन्थको महिमाका क्या कहना है ? सो ठीक ही है क्योंकि जब एक ही महामेघका जल अत्यधिक सन्तापको नष्ट करनेवाला है तब लोकमें सर्वत्र व्याप्त मेघ समूहसे पड़नेवाली हजारों जलधाराओंकी महिमाका क्या कहना है ? ॥१२७|| विवेकोजन, लौकिक पुराणरूपी टेढ़े-मेढ़े कुपथके भ्रमणको छोड़, सीधे तथा हित प्राप्त करनेवाले इस पुराणरूपी मार्गको ग्रहण करें। मोहसे भरे हुए दिङ्मूढ मनुष्यको छोड़ अत्यन्त शुद्ध दृष्टिको धारण करनेवाला ऐसा कौन मनुष्य है जो जिनेन्द्रदेवरूपी सूर्यके द्वारा लम्बे-चौड़े मार्गके प्रकाशित होनेपर भी भृगुपात करेगा-किसी पहाड़को चट्टानसे नीचे गिरेगा? अर्थात् कोई नहीं ॥१२८॥
इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे श्री जिनसेनाचार्य
विरचित हरिवंशपुराणमें 'संग्रह विभाग वर्णन' नामका प्रथम सर्ग समाप्त हुआ ॥१॥ १. दग्धबन्धपुत्रस्त्रीकयोः । २. बलभद्ररक्षारहितस्य । ३. पाण्डवानाम् ।
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द्वितीयः सर्गः
अथ देशोऽस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य मारते । विदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्डसमः श्रिया ॥१॥ प्रतिवर्षविनिष्पन्नधान्यगोधनसंचितः । सर्वोपसर्गनिर्मुक्तः प्रजासौस्थित्यसुन्दरः ॥२॥ सखेटपर्वटाटोपिमटम्बपुटभेदनैः । द्रोणामुखाकरक्षेत्रग्रामघोषैविभूषितः ॥३॥ किं तत्र वर्ण्यते यत्र स्वयं क्षत्रियनायकाः । इक्ष्वाकवः सुखक्षेत्रे संभवन्ति दिवश्च्युताः ॥४॥ · त्राखण्डलनेत्रालीपद्मिनीखण्डमण्डलम् .. सुखाम्भाकुण्डमामाति नाम्ना कुण्डपुरं पुरम् ।।५।। यत्र प्रासादसंघातैः शङ्कशुभ्र भस्तलम् । धवलीकृतमाभाति शरन्मंधैरिवोन्नतैः ।।६।। चन्द्रकान्तकरस्पर्शाच्चन्द्रकान्तशिलाः निशि । द्रवन्ति यद्गृहाग्रेषु प्रस्वेदिन्य इव स्त्रियः ॥७॥ सूर्यकान्त करासंगात् सूर्यकान्तानकोटयः । स्फुरन्ति यत्र गेहेषु विरक्ता इव योषितः ।।८।। 'पद्मरागमणिस्फीतियंत्र प्रासादमूर्धनि । इनपादपरिष्वङ्गादङ्गनेवातिरज्यते ॥९॥ मुक्तामरकतालोकैर्ववैदूर्यविभ्रमैः । एकमेवं सदा धत्ते यस्समस्ताकरश्रियम् ॥१०॥
अथानन्तर इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें लक्ष्मीसे स्वर्गखण्डकी तुलना करनेवाला, विदेह इस नामसे प्रसिद्ध एक बड़ा विस्तृत देश है ।।१।। यह देश प्रतिवर्ष उत्पन्न होनेवाले धान्य तथा गोधनसे संचित है, सब प्रकारके उपसर्गोंमें रहित है, प्रजाकी सुखपूर्ण स्थितिसे सुन्दर है और खेट, खवंट, मटम्ब, पुटभेदन, द्रोणामुख, सुवर्ण, चाँदी आदिकी खानों, खेत, ग्राम और घोषोंसे विभूषित है। भावार्थ-जो नगर नदी और पर्वतसे घिरा हो उसे बुद्धिमान् पुरुष खेट कहते हैं, जो केवल पर्वतसे घिरा हो उसे खर्वट कहते हैं। जो पाँच सौ गांवोंसे घिरा हो उसे पण्डितजन मटम्ब मानते हैं। जो समुद्रके किनारे हो तथा जहाँपर लोग नावोंसे उतरते हैं उसे पतन या पुटभेदन कहते हैं। जो किसी नदीके किनारे बसा हो उसे द्रोणामुख कहते हैं। जहां सोना-चांदो आदि निकलता है उसे खान कहते हैं । अन्न उत्पन्न होनेकी भूमिको क्षेत्र या खेत कहते हैं। जिनमें बाड़से घिरे हुए घर हों, जिनमें अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हैं तथा जो बाग-बगीचा और मकानोंसे सहित हों उन्हें ग्राम कहते हैं, और जहाँ अहीर लोग रहते हैं उन्हें घोष कहते हैं। वह विदेह देश इन सबसे विभूषित था ॥२-३॥ उस देशका क्या वर्णन किया जाये जहाँके सुखदायी क्षेत्रमें क्षत्रियोंके नायक स्वयं इक्ष्वाकुवंशी राजा स्वर्गसे च्युत हो उत्पन्न होते हैं ।।४। उस विदेह देशमें कुण्डपुर नामका एक ऐसा सुन्दर नगर है जो इन्द्रके नेत्रोंकी पंक्तिरूपो कमलिनियोंके समूहसे सुशोभित है तथा सुखरूपी जलका मानो कुण्ड ही है ।।५।। जहाँ शंखके समान सफेद एवं शरद् ऋतुके मेघके समान उन्नत महलोंके समूहसे सफेद हुआ आकाश अत्यन्त सुशोभित होता है ।।६।। जिसके महलोंके अग्र भागमें लगी हुई चन्द्रकान्तमणिको शिलाएँ रात्रिके समय चन्द्रमारूपी पतिके कर अर्थात् किरण ( पक्षमें हाथके ) स्पर्शसे स्वेदयुक्त स्त्रियोंके समान द्रवीभूत हो जाती हैं |७|| जहाँके मकानोंपर लगे हुए सूर्यकान्तमणिके अग्रभागकी कोटियाँ, सूर्यरूपी पतिके कर अर्थात् किरण (पक्षमें हाथ ) के स्पर्शसे विरक्त स्त्रियोंके समान देदीप्यमान हो उठती हैं |८|| जहाँके महलोंके शिखरपर लगे हुए पद्मराग मणियोंकी पंक्ति, सूर्यको किर गोंके संसर्गसे स्त्रीके समान अत्यन्त अनुरक्त हो जाती है ॥९|उस नगरमें कहीं मोतियोंकी मालाएँ लटक रही हैं, कहीं मरकत मणियोंका १. भूविभूषितः म. । २. इक्ष्वाकुवंशोद्भवा राजानः । ३. ज्वलन्ति । ४. 'पद्मरागमणिस्फातिः' इत्ययं पाठः शुद्धः प्रतिभाति । ५. सूर्यकिरणाश्लेषात् ।
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द्वितीयः सर्गः शालशैलमहावप्रपरिखापरिवेषिणः । यस्योपरि परं 'गच्छत्यमित्रेतरमण्डलम् ॥११॥ एतावतैव पर्याप्तं पुरस्य गुणवर्णनम् । स्वर्गावतरणे तद्यद्वीरस्याधारतां गतम् ॥१२॥ सर्वार्थश्रीमतीजन्मा तस्मिन् सर्वार्थदर्शनः । सिद्धार्थोऽमवदर्काभो भूपः सिद्धार्थपौरुषः ॥१३॥ यत्र पाति धरित्रीयमभदेकत्र दोषिणी । धर्मार्थिन्योऽपि यत्त्यक्तपरलोकमयाः प्रजाः ।।१४॥ कस्तस्य तान् गुणानुद्वान्नरस्तुलयितुं क्षमः । वर्धमानगुरुत्वं यः प्रापितः स नराधिपः ॥१५॥ उच्चकुलादिसंभूता सहजस्नेहवाहिनी । महिषी श्रीसमुद्रस्य तस्यासीत् प्रियकारिणी ॥१६॥ चेतश्चेटकराजस्य यास्ताः 'सप्तशरीरजाः । अतिस्नेहाकुलं चक्रुस्तास्वाद्या प्रियकारिणी ॥१७॥ कस्ता योजयितुं शक्तस्त्रिशला गुणवर्णनैः । या स्वपुण्य महावीरप्रसवाय नियोजिता ॥१८॥ सर्वतोऽथ नमन्तीषु सर्वासु सुरकोटिषु । प्रभावाग्निपतन्तीषु नमसो वसुवृष्टिषु ॥१९॥ वीरेऽवतरति त्रातुं धरित्रीमसुधारिणः । तीर्थेनाच्युतकल्पोच्चैःपुष्पोत्तरविमानतः ॥२०॥
प्रकाश फैल रहा है, कहीं हीराकी प्रभा फैल रही है और कहीं वैडूर्यमणियोंकी नीली-नीली आभा छिटक रही है। उन सबसे वह एक होनेपर भी सदा सब रत्नोंकी खानकी शोभा धारण करता है ॥१०॥ कोटरूपी पर्वत, बड़े-बड़े धूलि कुट्टिम, और परिवारसे घिरे हुए उस नगरके ऊपर यदि कोई जा सकता था तो मित्र अर्थात् सूर्यका मण्डल ही जा सकता है, अमित्र अर्थात् शत्रुओंका मण्डल नहीं जा सकता था ॥११॥ इस नगरके गुणोंका वर्णन तो इतनेसे ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्गसे अवतार लेते समय भगवान् महावीरका आधार हुआ-भगवान् महावीर वहाँ स्वर्गसे आकर अवतीर्ण हुए ॥१२॥
राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमतीसे उत्पन्न, समस्त पदार्थों को देखनेवाले, सूर्यके समान देदीप्यमान और समस्त अर्थ-पुरुषार्थ सिद्ध करनेवाले सिद्धार्थ वहाँके राजा थे ॥१३॥ जिन सिद्धार्थके रक्षा करनेपर पृथिवी इसी एक दोषसे युक्त थी कि वहाँकी प्रजाने धर्मकी इच्छुक होनेपर भी परलोकका भय छोड़ दिया था। भावार्थ-जो प्रजा धर्मकी इच्छुक होती है उसे स्वर्ग, नरक आदि परलोकका भय अवश्य रहता है परन्तु वहांकी प्रजा परलोकका भय छोड़ चुकी थी यह विरोध है परन्तु परलोकका अर्थ शत्रु लोगोंसे विरोध दूर हो जाता है अर्थात् वहाँको प्रजा धर्मकी इच्छुक थी और शत्रुओंके भयसे रहित थी ॥१४॥ जो राजा सिद्धार्थ, साक्षात् भगवान् वर्धमान स्वामीके पितृपदको प्राप्त हुए उनके उत्कृष्ट गुणोंका वर्णन करनेके लिए कौन मनुष्य समथं हो सकता है ? ॥१५॥ ____जो उच्च कुलरूपी पर्वतसे उत्पन्न स्वाभाविक स्नेहकी मानो नदी थी ऐसो रानी प्रियकारिणी लक्ष्मीके समुद्रस्वरूप राजा सिद्धार्थको प्रिय पत्नो थी ॥१६।। जिन सात पुत्रियोंने राजा चेटकके चित्तको अत्यधिक स्नेहसे व्याप्त कर रखा था उन पुत्रियोंमें प्रियकारिणी सबसे बड़ी पुत्री थी ॥१७|| जो अपने पुण्यसे भगवान् महावीरको जन्म देनेके लिए प्रवृत्त हुई उस त्रिशला (प्रियकारिणी ) के गुण वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥१८॥
____ अथानन्तर जब सब ओरसे समस्त देवोंको पंक्तियां नमस्कार कर रही थीं, प्रभावके कारण जब आकाशसे रत्नोंकी वर्षा हो रही थी और भगवान् महावीर जब अपने तीर्थसे प्राणियोंकी रक्षा करनेके लिए अच्युत स्वर्गके उच्चतम पुष्पोत्तर विमानसे पृथिवीपर अवतीर्ण होनेके लिए उद्यत हुए १. सूर्यमण्डलं गच्छति न तु शत्रुमण्डलम् । २. सर्वार्थ नाम पिता, श्रीमती माता ताभ्यां जन्म यस्य सः । ३. प्रेत्य प्राप्यो लोकः परलोकः पक्षे शत्रुलोकः । ४. -नुद्यान् म.। ५. त्रिशला इति प्रियकारिण्या द्वितीयं नाम । ६. पुत्र्यः । ७. रत्नवृष्टिषु । ८. प्राणिगणान् ।
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हरिवंशपुराणे
सा तं पोडशसुस्वप्नदर्शनोत्सव पूर्वकम् । दधे 'गर्भेश्वरं गर्भे श्रीवीरं प्रियकारिणी ॥२१॥ पञ्चसप्रतिवर्षाष्टमासमासार्धशेषकः । चतुर्थस्तु सदा कालो दुःषमः सुषमोत्तरः ॥ २२ ॥ आषाढशुक्लषष्ठ्यां तु गर्भावतरणेऽर्हतः । उत्तराफाल्गुनी नोडमुडुराजद्विजः श्रितः ॥२३॥ दिक्कुमारीकृताभिख्यां द्योतिमृर्ति घनस्तनीम् । प्रच्छन्नोऽभासयद्गर्भस्तां रविः प्रावृषं यथा ॥२४॥ नवमावतीतेषु स जिनोऽष्टदिनेषु च । उत्तराफाल्गुनीष्विन्दौ वर्तमानेऽजनि प्रभुः ॥ २५ ॥ ततोऽन्त्यजिनमाहात्म्याल्लुठत्पीठ किरीटकाः । प्रणेमुरवधिज्ञाततद्वृत्तान्ताः सुरेश्वराः ॥ २६ ॥ शङ्खभेरीहरिध्वानघण्टानिर्घोषघोषणम् । समाकर्ण्य सुरास्तृणं घूर्णितार्णवराविणः ॥२७॥ सतानीकमहाभेदाः सस्त्रीकाः कृतभूषणाः । सेन्द्र | इचतुर्णिकायास्ते प्रापुः कुण्डपुरं पुरम् ॥ २८ ॥ ( युग्मम् ) त्रिःपरीत्य पुरं देवाः पुरन्दरपुरस्सराः | जिनमिन्दुमुखं देवं 'तद्गुरू च ववन्दिरे ॥२९॥ मातुः शिशुं विकृत्यान्यं सुतायाः सुरमायया । इन्द्राणी प्रणता नीवा जिनेन्द्र हरये ददौ ॥ ३० ॥ गृहीत्वा करपद्माभ्यां तमभ्यर्च्य चिरं हरिः । चक्रे नेत्रसहस्रोरुपुण्डरीकवनार्चितम् ॥३१॥ ततश्चन्द्रावदाताङ्गमिन्द्रस्तुङ्गमतङ्गजम् । शृङ्गौवमिव हेमाद्रेर्मुक्ताधोमदनिर्क्षरम् ||३२||
रानी प्रियकारिणीने उत्तमोत्तम सोलह स्वप्न देखकर गर्भमें गर्भकल्याणकके स्वामी श्री महावीर भगवान्को धारण किया || १९ - २१ ।। जब भगवान् गर्भ में आये तब दुःषम- सुषम नामक चतुर्थं कालके पचहत्तर वर्ष साढ़े आठ माह बाकी थे ||२२|| आषाढ़ शुक्ला षष्ठीके दिन जब भगवान् महावीर जिनेन्द्रका गर्भावतरण हुआ तब चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रपर स्थित था || २३ || जिस प्रकार मेघमाला के भीतर छिपा हुआ सूर्य वर्षाऋतुको सुशोभित करता है उसी प्रकार दिक्कुमारियोंके द्वारा कृतशोभ, देदीप्यमान शरीरकी धारक एवं स्थूल स्तनोंको धारण करनेवाली माता प्रियकारिणीको वह प्रच्छन्नगर्भ सुशोभित करता था ||२४||
तदनन्तर नौ माह आठ दिनके व्यतीत होनेपर जब चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर आया तब भगवान् का जन्म हुआ ||२५|| तत्पश्चात् अन्तिम जिनेन्द्रके माहात्म्यसे जिनके सिंहासन तथा मुकुट हिल उठे थे एवं अवधिज्ञानसे जिन्होंने उनके जन्मका वृत्तान्त जान लिया था ऐसे इन्द्रोंने उन्हें नमस्कार किया || २६ ॥ भवनवासियोंके यहाँ शंख, व्यन्तरोंके यहाँ भेरी, ज्योतिषियोंके यहाँ सिंह और कल्पवासियोंके यहाँ घण्टाका शब्द सुनकर जो शीघ्र ही क्षुभित समुद्रके समान शब्द करने लगे थे, जो सात प्रकारकी सेनाओंके महाभेदोंसे सहित थे, स्त्रियों सहित थे तथा जिन्होंने नाना प्रकार के आभूषण धारण कर रखे थे ऐसे चारों निकायके देव कुण्डपुर नगरमें आ पहुँचे ||२७-२८ ॥ इन्द्र जिनके आगे-आगे चल रहा था ऐसे देवोंने नगरको तीन प्रदक्षिणाएँ देकर चन्द्रमाके समान सुन्दर मुखको धारण करनेवाले जिनेन्द्र देव तथा उनके माता- पिताको नमस्कार किया ||२९|| विनयावनत इन्द्राणीने देवकृत मायासे सोयी हुई माताके समीप विक्रियासे एक दूसरा बालक रख, जिनेन्द्रदेवको उठा इन्द्रके लिए सौंप दिया ||३०|| इन्द्रने उन्हें दोनों हाथोंसे ले चिर काल तक उनकी पूजा की ओर विक्रिया निर्मित हजार नेत्ररूपी कमलवनमें उन्हें अर्चित किया ||३१||
तदनन्तर इन्द्रने भगवान्को उस अत्यन्त ऊँचे ऐरावत हाथीपर विराजमान किया जिसका कि शरीर चन्द्रमाके समान उज्ज्वल था, जो सुमेरुके शिखरों के समूहके समान जान पड़ता था और जो नोचेकी ओर मदके निर्झर छोड़ रहा था ||३२|| जिसके गण्डस्थलोंपर मदकी सुगन्धिके कारण भ्रमरोंके समूह मँडरा रहे थे और उनसे जो सुमेरुके उस शिखर समूहके समान जान
१. गर्भकल्याणनायकम् । २. रिक्ष क. ग. । ३. दिक्कुमारीकृतशोभां । ४. मातापितरौ ।
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द्वितीयः सर्गः
गण्डस्थलमदामोदभ्रमभ्रमरमण्डलम् । तमिवाधित्यकावस्थतमालवनमण्डितम् ॥३३॥ कर्णान्तरततासक्तरक्त चामरसंहतिम् । तं यथाधित्यकाधीनरकाशोकमहावनम् ॥३४॥ 'सुवर्णारिक्षया चाा परिवेष्टितविग्रहम् । तमेव च यथोपात्तकनस्कनकमेखलम् ॥३५॥ 'अनेकरदसंवृत्तनृत्यसंगीतयोषितम् । तमिवोत्तङ्गशृङ्गाग्रनृत्यद्गायरसुराजनम् ॥३६॥ सुवृत्तदीर्घसंचारिकररुद्ध दिगन्तरम् । तमिवात्यायतस्थूलस्फुरद्भोगभुजङ्गमम् ॥३७॥ ऐशानधारितस्फीतधवलातपवारणम् । तमिवोर्ध्वस्थिताभ्यर्णसंपूर्णशशिमण्डलम् ॥३८॥ चामरेन्द्र भुजोक्षिप्तचलच्चामरहारिणम् । तं यथा चमरीक्षिप्तबालव्यजनवी जितम् ॥३९॥ ऐरावतं समारोप्य जिनेन्द्रं तस्य मण्डनम् । देवैः सह गतः प्राप मन्दरं स पुरन्दरः॥४०॥ (नवभिः कुलकम्) तं पाण्डुकवने रम्ये मन्दरस्य जिनं हरिः । पाण्डुकायां प्रसिद्धायां शिलायां सिंहविष्टरे ॥४१॥ संस्थाप्य विबुधानीतक्षीरसागरवारिभिः । शातकुम्भमयैः कुम्भैरभिषिच्य समं सुरैः ॥४२॥ वस्त्रालंकारमालाधरलंकृत्य कृतस्तुतिः । आनीय मातुरुत्संगे जिनं कृत्वा कृतोचितः ॥४३॥ सिद्धार्थप्रियकारिण्योः सममानन्ददायकम् । वर्धमानाख्यया स्तुत्वा सदेवो वासवोऽगमत् ॥४४॥ मासान् पञ्चदशाऽऽजन्म गुम्नधारा दिने दिने । याः पूर्वमापतंस्ताभिस्तर्पितोऽर्थी जनोऽखिलः॥४५||
पड़ता था जो कि ऊपरी भागपर स्थित तमाल वनसे मण्डित था ||३३|| जिसके कानोंके समीप लाल-लाल चमरोके समूह लटक रहे थे और उनसे जो सुमेरुके उस शिखर-समूहके समान जान पड़ता था जिसके कि ऊपरी भागपर लाल-लाल अशोकोंका महावन फूल रहा था ॥३४।। जिसका शरीर सुर्वणकी सुन्दर सांकलसे वेष्टित था और उससे जो सुमेरुके उस शिखर-समूहके समान जान पड़ता था जिसके कि समीप स्वर्ण की मेखला देदीप्यमान हो रही थी ॥३५।। जो अनेक दांतोंपर होनेवाले नृत्य और संगीतसे परिपुष्ट था और उससे जो उस सुमेरुके समान जान पड़ता था जिसकी कि अत्यन्त ऊंचे शिखरोंके अग्र भागपर देवांगनाएं नृत्य-गायन कर रही थीं ॥३६।। जिसने अपनी गोल लम्बो तथा चारों ओर घूमनेवाली सूंड़ोंसे दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था और उनसे जो उस सुमेरुके समान जान पड़ता था जिसके कि समीप अत्यन्त लम्बे-मोटे और फणाओंसे युक्त सांप घूम रहे थे ।।३७॥ जिसके ऊपर ऐशानेन्द्रने बड़ा भारी सफेद छत्र धारण कर रखा था और उससे जो उस सुमेरुके समान जान पड़ता था जिसके कि ऊपर समीप ही पूर्ण चन्द्रमाका मण्डल विद्यमान था ॥३८॥ और जो चमरेन्द्रकी भुजाओंके द्वारा ढोरे हए चंचल चमरों से सुन्दर था तथा उनसे उस सुमेरुके समूहके समान जान पड़ता था जो कि चमरो मृगोंके द्वारा उत्क्षिप्त पूछोंसे सुशोभित था ॥३९॥ इस प्रकार वह इन्द्र आभरणस्वरूप श्रो जिनेन्द्र देवको उस ऐरावत हाथीपर विराजमान कर देवोंके साथ सुमेरु पर्वतपर गया ।।४०॥
वहां जाकर इन्द्रने सुमेरु पर्वतके अत्यन्त रमणीय पाण्डुकवनमें पाण्डुक नामको प्रसिद्ध शिलापर जो सिंहासन था उसपर श्री जिन बालकको विराजमान किया, स्वर्णमय कुम्भोंमें भरकर देवों द्वारा लाये हए क्षीरसागरके जलसे देवोंके साथ उनका अभिषेक किया. वस्त्र. अलंकार तथा माला आदिसे उन्हें अलंकृत कर उनकी स्तुति को, तदनन्तर वापस लाकर माताकी गोदमें विराजमान किया, अन्य यथोचित कार्य किये और उनके माता-पिता राजा सिद्धार्थ तथा रानी प्रियकारिणी को समान आनन्द देनेवाले उन जिन बालककी वर्धमान इस नामसे स्तुति की तदनन्तर वह देवोंके साथ यथास्थान चला गया ।।४१-४४|| भगवानके जन्मसे पन्द्रह मास पूर्व प्रतिदिन जो रत्नोंकी धाराएं बरसी थीं उनसे समस्त याचक सन्तुष्ट हो
१. सुवर्णक्षुद्रघण्टामालया । २. त्यायति म. । ३. अनेकरक्षसंछन्न ख. । ४. पोषितं म. ।
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हरिवंशपुराणे
वर्धमानः सुरैः सेव्यो ववृधे स यथा यथा । पितृबन्धुत्रिलोकानामनुरागस्तथा तथा ।। ४६ ।। सुरासुरनराधीश मौलिमालातिक्रमः । त्रिंशद्वर्षप्रमाणोऽभूद् वीरो भोगैः परिष्कृतः ॥४७॥ शुद्धवृत्तं न भोगेषु चित्तं तस्य चिरं स्थितम् । कुटिलेषु यथा सिंहनखरन्ध्रेषु मौक्तिकम् ||४८|| शान्तचित्तं कदाचित् तं स्वयंबुद्धमबोधयन् । नत्वा सारस्वतादित्य मुख्याः लौकान्तिकाः सुराः ।। ४९|| सौधर्माद्यैः सुरैरेत्य 'कृताऽभिषवपूजनः । आरुह्य शिविकां दिव्यामुह्यमानां सुरेश्वरैः ||५०|| उत्तराफाल्गुनीष्वेव वर्तमाने निशाकरे | कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य दशम्यामगमद्वनम् ॥ ५१ ॥ अपनीय तनोः सर्वं वस्त्रमाल्यविभूषणम् । पञ्चमुष्टिभिरुद्धृत्य मूर्धजानभवन्मुनिः ||५२ || केशकुण्डलसंघातं जिनस्य भ्रमरासितम् । प्रतिगृह्य सुराधीशो निदधौ दुग्धवारिधौ ॥५३॥ इन्द्रनीलचयेनेव क्षिप्तेनेन्द्रेण चात्यमात् । जिनेन्द्र केशपुञ्जेन रञ्जितः क्षीरसागरः ॥ ५४ ॥ जिननिष्क्रमणं दृष्ट्वा तुष्टाः सर्वे नरामराः । कृत्वा तृतीयकल्याणपूजां जग्मुर्यथायथम् ||५५॥ मनःपर्ययपर्यन्तचतुर्ज्ञानमहेक्षणः । तपो द्वादशवर्षाणि चकार द्वादशात्मकम् ||५६॥ विहरन्नथ नाथोऽसौ गुणग्रामपरिग्रहः । ऋजुकूलापगाकूले जृम्भिक ग्राममीयिवान् ॥ ५७॥ तत्रातापनयोगस्थः 'सालाभ्याशशिळातले । बैशाखशुक्लपक्षस्य दशम्यां षष्ठमाश्रितः ॥ ५८ ॥
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गये थे ||४५॥ देवोंके द्वारा सेवनीय वर्धमान भगवान् जिस-जिस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे उसी-उसी प्रकार पिता, बन्धुजन तथा तीन लोकके जीवोंका अनुराग वृद्धिको प्राप्त हो रहा था - बढ़ता जाता था || ४६ ॥
अथानन्तर सुर, असुर और राजाओंके मुकुटोंकी मालाओंसे जिनके चरण पूजित थे तथा जो देवोपनीत नाना प्रकारके भोगोंसे युक्त थे ऐसे भगवान् महावीर तीस वर्ष के हो गये ||४७॥ फिर भी जिस प्रकार सिंहके कुटिल नखोंके छिद्रोंमें मोती चिर काल तक नहीं ठहर पाते हैं उसी प्रकार उनका निर्मल चरित्रको धारण करनेवाला चित्त भोगोंमें चिरकार तक नहीं ठहर सका ||४८ || किसी समय शान्त चित्तके धारक उन स्वयम्बुद्ध भगवान्को सारस्वत-आदित्य आदि प्रमुख लौकान्तिक देवोंने आकर तथा नमस्कार कर प्रतिबुद्ध किया || ४९|| प्रतिबुद्धविरक्त होते ही सौधर्मेन्द्र आदि देवोंने आकर उनका अभिषेक और पूजन किया । तदनन्तर देवोंके द्वारा उठायी जानेवाली दिव्य पालकीपर सवार होकर वे जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर ही विद्यमान था तब मगसिर वदी दशमी के दिन वनको चले गये ॥ ५०-५१ ।। वहाँ जाकर उन्होंने शरीर से समस्त वस्त्रमाला तथा आभूषण उतारकर अलग कर दिये और पंचमुष्टियोंसे केश उखाड़कर वे मुनि हो गये ॥५२॥ भ्रमरोंके समूह के समान काले-काले भगवान् के घुँघराले बालोंके समूहको इन्द्रने उठाकर क्षीरसागरमें क्षेप दिया ॥ ५३ ॥ उस समय इन्द्रके द्वारा क्षेपे हुए जिनेन्द्र भगवान् के बालोंके समूहसे रँगा हुआ क्षीरसागर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्रनील मणियोंके समूहसे हो रंग गया हो ||५४ || जिनेन्द्र भगवान्की दीक्षाकल्याणक देख सन्तोषको प्राप्त हुए समस्त मनुष्य और देव तृतीय कल्याणककी पूजा कर यथास्थान चले गये ॥५५॥
तदनन्तरमति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञानरूपी महानेत्रों को धारण करनेवाले भगवान् ने बारह वर्ष तक अनशन आदिक बारह प्रकारका तप किया || ५६ || तत्पश्चात् गुणसमूहरूपी परिग्रहको धारण करनेवाले श्री वर्धमान स्वामी विहार करते हुए ऋजुकूला नदी तटपर स्थित जृम्भिक गाँव के समीप पहुँचे || ५७|| वहाँ वैशाख सुदी दशमी के दिन दो
१. कृतोऽभिषवपूजन: म । २. निदध्यो म । ३. शालवृक्ष निकटस्थशिलोपरि । ४. दिनद्वयोपवासम् आश्रितः ।
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द्वितीयः सर्गः
उत्तराफाल्गुनीप्राप्ते' शुक्लध्यानी निशाकरे । निहत्य धातिसंघातं केवलज्ञानमाप्तवान् ॥५॥ केवलस्य प्रभावेण सहसा चलितासनाः । आगत्य महिमां चक्रुस्तस्य सर्वे सुरासुराः ॥६०॥ षटषष्टिदिवसान भूयो मौनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ॥६॥ आरुरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रबोधार्थं स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥६२।। ततः प्रवुद्धवृत्तान्तैरापतद्भिरितस्ततः । जगत्सुरासुरैाप्तं जिनेन्द्रस्य गुणैरिव ॥६॥ सौधर्मायैस्तदा देवैः परीतोऽभात् स भूधरः । नाभेयाधिष्ठितः पूर्व यथाष्टापदपर्वतः ॥६॥ चतुराशामुखद्वारस्थितद्वादशगोपुरम् । कृतं रत्नमयं देवैः प्राकारवलयत्रयम् ॥६५॥ जाते योजनविस्तीर्ण सरणे समवादिके । विमागा द्वादशामासन्नमास्फाटिकभित्तयः ॥१६॥ प्रातिहायुतोऽष्टाभिश्चतुस्त्रिंशन्महाद्भुतैः । तत्र देवैर्वृतोऽभासीजिनश्चन्द्र इव ग्रहैः ॥६॥ इन्द्राग्निवायुभूत्याख्याः कौडिन्याख्याश्च पण्डिताः । इन्द्रनोदनयाऽऽयाताः समवस्थानमर्हतः ॥६॥ प्रत्येकं सहिता सर्वे शिष्याणां पञ्चमिः शतैः । त्यक्ताम्बरादिसंबन्धाः संयम प्रतिपेदिरे ॥६९॥ सुता चेटकराजस्य कुमारी चन्दना तदा । धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणां पुरःसरी ॥७॥ श्रेणिकोऽपि च संप्राप्तः सेनया चतुरङ्गया। सिंहासनोपविष्टं तं प्रणनाम जिनेश्वरम् ।।७१॥ छत्रचामरभृङ्गारैः कलशध्वजदर्पणैः । व्यञ्जनैः सुप्रतीकैश्च प्रसिद्धैरष्टमङ्गलः ॥७२॥
दिनके उपवासका नियम कर वे साल वक्षके समीप स्थित शिलातलपर आतापन योगमें आरूढ हुए ॥५८।। उसी समय जबकि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें स्थित था तब शुक्लध्यानको धारण करनेवाले वर्धमान जिनेन्द्र घातिया कर्मोंके समूहको नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त हुए ॥५९।। केवलज्ञानके प्रभावसे सहसा जिनके आसन डोल उठे थे ऐसे समस्त सुर और असुरोंने आकर उनके केवलज्ञानकी महिमा को-ज्ञानकल्याणकका उत्सव किया ॥६०।। तदनन्तर छयासठ दिन तक मौनसे बिहार करते हुए श्री वर्धमान जिनेन्द्र जगत्प्रसिद्ध राजगृह नगर आये ॥६१।। वहाँ जिस प्रकार सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार वे लोगोंको प्रतिबुद्ध करनेके लिए विपुल लक्ष्मीके धारक विपुलाचलपर आरूढ़ हुए ॥६२।। तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान्के आगमनका वृत्तान्त जान चारों ओरसे आनेवाले सुर और असुरोंसे जगत् इस प्रकार भर गया जिस प्रकार कि मानो जिनेन्द्रदेवके गुणोंसे ही भर गया हो ॥६३॥ उस समय सौधर्म आदि देवोंसे घिरा हुआ वह विपुलाचल ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि पहले श्री ऋषभ जिनेन्द्रसे अधिष्ठित कैलास पर्वत सुशोभित होता था ॥६४॥
अथानन्तर देवोंने रत्नमयी ऐसे तीन कोट बनाये जिनकी चारों दिशाओं में एक-एक प्रमुख द्वार होनेसे बारह गोपुर थे ॥६५।। एक योजन विस्तारवाला समवसरण बनाया जिसमें आकाशस्फटिककी दीवालोंवाले बारह विभाग सुशोभित थे॥६६।। आठ प्रातिहार्यों और चौंतोस अतिशयोंसे सहित भगवान् उस समवसरणमें विराजमान हुए। वहाँ देवोंसे घिरे श्री वर्धमान ग्रहोंसे घिरे चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ॥६७॥ इन्द्रभति, अग्निभति. वायभति तथा कौण्डिन्य आदि पण्डित इन्द्रकी प्रेरणासे श्री अरहन्तदेवके समवसरणमें आये ॥६८॥ वे सभी पण्डित अपने पाँच-पाँच सौ शिष्योंसे सहित थे तथा सभीने वस्त्रादिका सम्बन्ध त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥६९।। उसी समय राजा चेटककी पुत्री चन्दना कुमारी, एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकाओंमें प्रमुख हो गयो ।।७०॥ राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिणी सेनाके साथ समवसरणमें पहुंचा और वहाँ सिंहासनपर विराजमान श्रीवर्धमान जिनेन्द्रको उसने नमस्कार किया ।।७१॥ जिनेन्द्र भगवान्की वह समवसरण
१. उत्तराफाल्गुनों प्राप्ते म. । २. विपुलगिरिनामानम् । ३. परितो म. । ४. कैलासपर्वतः । ५. महातिशयैः ।
३
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१८
हरिवंशपुराणे
'रुजचक्रदु कूलाब्जगज सिंहवृषध्वजैः । गरुडध्वजसंयुक्तैरष्टभेदैर्महाध्वजैः ॥७३॥ मानस्तम्भैस्तथा स्तूपैश्चतुर्भिश्च महावनैः । वाप्यम्भोरुहखण्डैश्च वल्लीचनलतागृहैः ॥७४॥ तैस्तैर्देवैः कृतैः सर्वैरन्यैश्वातिशयैस्तथा । यथास्थानस्थितैजैनी समवस्थानभूरभात् ॥ ७५ ॥ अथेन्दोरिव शुक्राद्या निषण्णा गुर्वधिष्ठिताः । साधवोऽभाञ्जिनस्यान्ते जातरूपाच्छविग्रहाः ॥७६॥ ततः कल्पनिवासिन्यो देव्यः कल्पलताभुजाः । मेरोरिव जिनस्यान्ते ता बभुर्भोगभूमयः ॥ ७७ ॥ ततोऽलंकृतनारीभिरार्थिकात तिराबभौ । स्फुरद्विद्युद्भिराश्लिष्टा शारदीव घनावली ॥७८॥ ज्योतिर्देवस्त्रियोऽतश्च रेजुरुज्ज्वलमूर्तयः । तास्तारा इव संक्रान्ताः समवस्थानसागरे ||७९|| कान्ता व्यन्तरदेवानां ततस्तत्र विरेजिरे । करकुड्मलहारिण्यः साक्षादिव वनश्रियः ||८०|| ततो नागकुमारादिदेव्यो नागफणोज्ज्वलाः । नागलोकसमायाता नागवल्ल्य इवाबभुः ॥ ८१ ॥ ततोऽप्यग्निकुमाराद्या देवाः पातालवासिनः । ज्वलितोज्ज्वलवेषास्ते दशभेदा बनासिरे ॥ ८२ ॥ ततः किन्नरगन्धर्वयक्षकिंपुरुषादयः । षोडशार्द्धविकल्पास्ते व्यन्तराश्च चकासिरे ॥ ८३ ॥ प्रकीर्णकनक्षत्रसूर्याचन्द्रमसो ग्रहाः । पञ्चभेदास्तदाऽनल्पवपुषो ज्योतिषो बभुः ॥ ८४ ॥
भूमि, यथायोग्य स्थानोंपर रखे हुए छत्र, चामर, भृंगार, कलश, ध्वजा, दर्पण, पंखा और ठोना आठ प्रसिद्ध मंगल द्रव्योंसे, माला, चक्र, दुकूल, कमल, हाथी, सिंह, वृषभ और गरुड़के चिह्नोंसे युक्त आठ प्रकारकी महाध्वजाओंसे, मानस्तम्भों स्तूपोंसे, चार महावनोंसे, वापिकाओं में प्रफुल्लित कमल-समूहोंसे, लताओंके वनोंमें बने हुए लतागृहों - निकुंजोंसे तथा देवोंके द्वारा निर्मित अन्य सभी प्रकार के उन उन प्रसिद्ध अतिशयोंसे सुशोभित हो रही थी ।।७२-७५।।
अथानन्तर जिस प्रकार चन्द्रमाके समीप गुरु अर्थात् बृहस्पति से अधिष्ठित शुक्रादि ग्रह सुशोभित होते हैं उसी प्रकार श्रीवर्धमान जिनेन्द्रके समीप प्रथम कोणमें गुरु अर्थात् अपने-अपने दीक्षागुरुओं अधिष्ठित, निर्दोष दिगम्बर मुद्राको धारण करनेवाले अनेक मुनि सुशोभित हो रहे थे ||७६ || तदनन्तर द्वितीय कोठामें कल्पलताओंके समान भुजाओंको धारण करनेवाली कल्पवासिनी देवियाँ स्थित थीं और वे जिनेन्द्र के समीप इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं जिस प्रकार कि सुमेरु के समीप भोगभूमियाँ सुशोभित होती हैं ॥७७॥ तदनन्तर तृतीय कोठामें नाना प्रकार के अलंकारोंसे अलंकृत स्त्रियोंके साथ आर्यिकाओंकी पंक्ति इस प्रकार सुशोभित हो रही थी जिस प्रकार कि चमकती हुई बिजलियोंसे आलिंगित शरदऋतुकी मेघपंक्ति सुशोभित होती है ||७८|| इनके बाद चतुर्थ कोठामें उज्ज्वल शरीरकी धारक ज्योतिष्क देवोंकी स्त्रियाँ सुशोभित हो रही थीं । वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो समवसरणरूपी सागरमें प्रतिबिम्बित तारा ही हों ||७९ || उनके बाद पंचम कोठामें हस्तरूपी कुण्डलोंको धारण करनेवाली व्यन्तर देवोंकी स्त्रियाँ साक्षात् वनकी लक्ष्मी के रामान सुशोभित हो रही थीं ॥ ८० ॥ तत्पश्चात् षष्ठ कोठामें नागलोकसे आयी हुई नागवेलके समान उज्ज्वल फणाओंको धारण करनेवाली नागकुमार आदि भवनवासी देवोंकी देवियाँ सुशोभित हो रही थीं ॥८१॥ तदनन्तर सप्तम कोठामें पाताललोक में रहनेवाले एवं उज्ज्वल वेषके धारक अग्निकुमार आदि दस प्रकारके भवनवासी देव सुशोभित हो रहे थे ॥ ८२॥ तत्पश्चात् अष्टम कोठामें किन्नर, गन्धर्व, यक्ष तथा किम्पुरुष आदि आठ प्रकारके व्यन्तर देव सुशोभित हो रहे थे || ८३ || उसके बाद नवम कोठामें प्रकीर्णक, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्रमा और ग्रह ये पाँच प्रकारके विशाल शरीरके धारक ज्योतिषी देव सुशोभित हो रहे थे ॥८४॥
१. स्रजाचक्र ख. । २. गुरुभिराचार्येरन्यत्र बृहस्पतिना । ३. जातरूपं यथा जातं अन्यत्र जातरूपं स्वर्ण तद्वदच्छा निर्मला विग्रहा येषां ते । ४. -राश्लिष्टशारदीव म. ।
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द्वितीयः सर्गः
मौलिकुण्डलकेयूरप्रालम्बकटिसूत्रिणः । हारिणः कल्पवृक्षाभास्ततोऽमान् कल्पवासिनः ॥८५।। सपुत्रानमितानेकविद्याधरपुरस्सराः । न्यषीदन् मानुषा नानामाषावेषरुचस्ततः ॥८६॥ ततोऽहिनकुलेभेन्द्रहर्यश्वमहिषादयः । जिनानुभावसंभूतविश्वासाः शमिनो बभुः ॥४७॥ इति द्वादशभेदेषु परीतिं विनुर्ति नतिम् । गणेषु प्रथमं कृत्वा स्थितेषु परितो जिनम् ।।८।। प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोषत्रयक्षयम् । जिनेन्द्र गौतमोऽपृच्छत् तीर्थार्थ पापनाशनम् ॥८९॥ स दिव्यश्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । दुन्दुमिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ।।९।। श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्यति पूर्वाह्ने शासनार्थमुदाहरत् ॥११॥ आचाराङ्गस्य तत्त्वार्थ तथा सूत्रकृतस्य च । जगाद भगवान् वीरः संस्थानसमवाययोः ॥१२॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिहृदयं ज्ञातृधर्मकथास्थितम् । श्रावकाध्ययनस्यार्थमन्तकृदशगोचरम् ।।१३।। अनुत्तरदशस्यार्थ प्रश्नव्याकरणस्य च । तथा विपाकसूत्रस्य पवित्रार्थ ततः परम् ॥१४॥ त्रिषष्टिः त्रिशती यत्र दृष्टीनाममिधीयते । दृष्टिवादस्य यस्यार्थ पञ्चभेदस्य सर्वदृक् ॥१५॥ जगाद जगतां नाथः प्रथमं परिकर्मणः । सूत्रस्याद्यानुयोगस्य तथा पूर्वगतस्य च ।।९६।। उत्पादपूर्वपूर्वस्य परमार्थ ततः परम् । अग्रायणीयपूर्वार्थमग्रणीरभणद्विदाम् ।।९७॥ वीर्यप्रवादपूर्वार्थमस्तिनास्तिप्रवादजम् । ज्ञानसत्यप्रवादार्थमात्मकर्मप्रवादयोः ॥९८॥ प्रत्याख्यानस्य विद्यानुवादकल्याणपूर्वयोः । प्राणावायस्य पूर्वस्य तत्त्वार्थ तदनन्तरम् ।।९९।। क्रियाविशालपूर्वस्य विशालार्थमशेषवित् । सल्लोकबिन्दुसारार्थ चूलिकार्थ सवस्तुकम् ॥१००।।
तदनन्तर दशम कोठामें मुकुट, कुण्डल, केयूर, हार और कटिसूत्रको धारण करनेवाले कल्पवृक्षके समान कल्पवासी देव सुशोभित हो रहे थे। तत्पश्चात् एकादश कोठामें पुत्र, स्त्री आदिसे सहित अनेक विद्याधरोंसे युक्त नाना प्रकारकी भाषा, वेष और कान्तिको धारण करनेवाले मनुष्य बैठे थे ॥८५-८६।। और उनके बाद द्वादश कोठामें जिनेन्द्र भगवान्के प्रभावसे जिन्हें विश्वास उत्पन्न हुआ था तथा जो अत्यन्त शान्तचित्तके धारक थे ऐसे सर्प, नेवला, गजेन्द्र, सिंह, घोड़ा और भैंस आदि नाना प्रकारके तियंच बैठे थे ।।८७। इस प्रकार जब बारह कोठोंमें बारह गण, जिनेन्द्र भगवान्के चारों ओर प्रदक्षिणा रूपसे परिक्रमा, स्तुति और नमस्कार कर विद्यमान थे तब समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष देखनेवाले एवं राग, द्वेष और मोह इन तीनों दोषोंका क्षय करनेवाले पापनाशक श्रीजिनेन्द्र देवसे गौतम गणधरने तीर्थकी प्रवृत्ति करने के लिए पूछा-प्रश्न किया ।।८८-८९||
तदनन्तर श्रीवर्धमान प्रभुने श्रावण मासके कृष्णपक्षकी प्रतिपदाके प्रातःकालके समय अभिजित् नक्षत्रमें समस्त संशयोंको छेदनेवाले, दन्दभिके शब्दके समान गम्भीर तथा एक योज तक फैलनेवाली दिव्यध्वनिके द्वारा शासनकी परम्परा चलानेके लिए उपदेश दिया ॥९०-९१॥ प्रथम ही भगवान् महावीरने आचारांगका उपदेश दिया फिर सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, श्रावकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिक दशांग, प्रश्नव्याकरणांग और पवित्र अर्थसे युक्त विपाकसूत्रांग इन ग्यारह अंगोंका उपदेश दिया ।।९२-९४।। इसके बाद जिसमें तीन सौ त्रेसठ ऋषियोंका कथन है तथा जिसके पांच भेद हैं ऐसे बारहवें दृष्टिवाद अंगका सर्वदर्शी भगवान्ने निरूपण किया ॥१५॥ जगत्के स्वामी तथा ज्ञानियोंमें अग्रसर श्रीवर्धमान जिनेन्द्रने प्रथम ही परिकर्म, सूत्रगत, प्रथमानुयोग और पूर्वगत भेदोंका वर्णन किया-फिर पूर्वगत भेदके उत्पाद पूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद पूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानपूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणपूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व इन चौदह पूर्वोका तथा १. अभुः, अभान् इति बहुवचने रूपद्वयम् । २. सपुत्रा आगतानेक ख., सपुत्रवनिता- म., . ।
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हरिवंशपुराणे अङ्गप्रविष्टतत्त्वार्थ प्रतिपाद्य जिनेश्वरः । अङ्गबाह्यमवोचत्तत्प्रतिपाद्यार्थरूपतः ॥१०१॥ सामायिक यथार्थाख्यं सचतुर्विंशतिस्तवम् । वन्दनां च ततः पूतां प्रतिक्रमणमेव च ॥१०॥ वैनयिक विनेयेभ्यः कृतिकर्म ततोऽवदत् । दशवैकालिकां पृथ्वीमुत्तराध्ययनं तथा ॥१०॥ तं कल्पव्यवहारं च कल्पाकल्पं तथा महा-कल्पं च पुण्डरोकं च सुमहापुण्डरीककम् ।।१०४॥ तथा निषद्यकां प्रायः प्रायश्चित्तोपवर्णनम् । जगत्त्रयगुरुः प्राह प्रतिपाद्यं हितोद्यतः ॥१०५|| मत्यादेः केवलान्तस्य स्वरूपं विषयं फलम् । अपरोक्षपरोक्षस्य ज्ञानस्योवाच संख्यया ॥१०६॥ मार्गणास्थानभेदैश्च गुणस्थानविकल्पनैः । जीवस्थानप्रभेदैश्च जीवद्रव्यमुपादिशत् ॥१०७॥ सत्संख्याद्यनुयोगैश्च सन्नामादिकमादिभिः । द्रव्यं स्वलक्षणैर्मिन्नं पुद्गलादि विलक्षणम् ॥१०८।। द्विविधं कर्मबन्धं च सहेतुं सुखदुःखदम् । मोरं मोक्षस्य हेतुं च फलं चाष्टगुणात्मकम् ॥१०९॥ बन्धमोक्षफलं यत्र भुज्यते तत् विधाकृतम् । अन्त:स्थितं जगौ लोकमलोकं च बहिःस्थितम् ॥११॥ अथ सप्तर्द्धिसंपन्नः श्रुत्वार्थ जिनभाषितम् । द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धं सोपाङ्गं गौतमो व्यधात् ॥१११॥ बेलोक्यं संसदि स्पृष्टं जिनार्कवचनांशुभिः । मुक्तमोहमहानिद्रं सुप्तोस्थितमिवाबमौ ॥११॥ जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजृम्भिता । तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत् ॥११३॥ वस्तुओंसे सहित चूलिकाओंका वर्णन किया ॥९६-१००। इस प्रकार श्रीजिनेन्द्रदेवने अंगप्रविष्ट तत्त्वका वर्णन कर अंगबाह्यके चौदह भेदोंका वास्तविक वर्णन किया। प्रथम हो उन्होंने सार्थक नामको धारण करनेवाले सामयिक प्रकीर्णकका वर्णन किया तदनन्तर चतुर्विशति स्तवन, पवित्र वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक तथा जिसमें प्रायः प्रायश्चित्तका वर्णन है ऐसी निषद्यका इन चौदह प्रकोणंकोंका वर्णन हित करने में उद्यत तथा जगत् त्रयके गुरु श्रीवर्धमान जिनेन्द्रने किया ॥१०१-१०५।। इसके बाद भगवान्ने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पांच ज्ञानोंका स्वरूप, विषय, फल तथा संख्या बतलायो और साथ ही यह भी बतलाया कि उक्त पाँच ज्ञानोंमें प्रारम्भके दो ज्ञान परोक्ष और अन्य तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥१०६॥ तदनन्तर चौदह मार्गणा स्थान, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमासके द्वारा जीव द्रव्यका उपदेश दिया ॥१०७॥ तत्पश्चात् सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारोंसे तथा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंसे द्रव्यका निरूपण किया। उन्होंने यह भी बताया कि पुद्गल आदिक द्रव्य अपने-अपने लक्षणोंसे भिन्न-भिन्न हैं और सामान्य रूपसे सभी उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य रूप त्रिलक्षणसे युक्त हैं ॥१०८।। शुभ-अशुभके भेदसे कर्मबन्धके दो भेद बतलाये, उनके पथक-पथक कारण समझाये. शभबन्ध सख देनेवाला है और अशभबन्ध देनेवाला है यह बताया। मोक्षका स्वरूप, मोक्षका कारण और अनन्त ज्ञान आदि आठ गणोंका प्रकट हो जाना मोक्षका फल है यह सब समझाया ॥१०९।। जो अनन्त अलोकाकाशके मध्यमें स्थित है तथा जहाँ बन्ध और मोक्षका फल भोगा जाता है उसे लोक कहते हैं। इस लोकके ऊर्ध्व-मध्य और पातालके भेदसे तीन भेद हैं । लोकके बाहरका जो आकाश है उसे अलोक कहते हैं ॥११०॥ अथानन्तर सप्तऋद्धियोंसे सम्पन्न गौतम गणधरने जिनभाषित पदार्थका श्रवण कर उपांगसहित द्वादशांगरूप श्रुतस्कन्धको रचना की ॥१११।। उस समय समवसरणमें जो तीनों लोकोंके जीव बैठे हुए थे वे जिनेन्द्ररूपी सूर्यके वचनरूपी किरणोंका स्पर्श पाकर सोयेसे उठे हुएके समान सुशोभित होने लगे और उनकी मोहरूपी महानिद्रा दूर भाग गयी ॥११२॥ ओठोंके
दुःख
१.शिष्येभ्यः । २. उत्पादव्ययध्रौव्यरूपम् । ३. नाशयामास ।
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द्वितीयः सर्गः
ततो जिनोक्तत्वार्थमार्गश्रद्धानलक्षणम् । शङ्काकाङ्क्षानि दानादिकलङ्कविगमोज्ज्वलम् ॥ ११४ ॥ सम्यग्दर्शनसद्रत्नं ज्ञानालंकारनायकम् । स्वकर्णहृदयेष्वेकं पिनद्धमखिलाङ्गिमिः ॥ ११५ ॥ कायेन्द्रियगुणस्थान जीवस्थान कुलायुषाम् । मेदान् योनिविकल्पांश्च निरूप्यागमचक्षुषा ॥ ११६ ॥ क्रियासु स्थानपूर्वासु वधादिपरिवर्जनम् । षण्णां जीवनिकायानामहिंसाद्यं महाव्रतम् ||११७|| यद्वागद्वेषमोहेभ्यः परतापकरं वचः । निवृत्तिस्तु ततः सत्यं तद् द्वितीयं महाव्रतम् ॥११८॥ अल्पस्य महतो वापि परद्रव्यस्य साधुना । अनादानमदत्तस्य तृतीयं तु महाव्रतम् ॥ ११९ ॥ स्त्रीपुंसंगपरित्यागः कृतानुमतकारितैः । ब्रह्मचर्यमिति प्रोक्तं चतुर्थं तु महाव्रतम् ॥ १२० ॥ बाह्याभ्यन्तरवर्तिभ्यः सर्वेभ्यो विरतिर्यतः । स्वपरिग्रहदोषेभ्यः पञ्चमं तु महाव्रतम् ॥ १२१ ॥ चक्षुर्गोचरजीवौघान् परिहृत्य यतेर्यतः । ईर्यासमितिराद्या सा व्रतशुद्धिकरी मता ॥ १२२ ॥
काश्यपारुष्यं यतेर्यत्नवतः सदा । भाषणं धर्मकार्येषु भाषासमितिरिष्यते ॥ १२३॥ पिण्डशुद्धिविधानेन शरीरस्थितये तु यत् । आहारग्रहणं सा स्यादेषणासमितिर्यतेः ॥ १२४॥ निक्षेपणं यदादानमीक्षित्वा योग्यवस्तुनः । समितिः सा तु विज्ञेया निक्षेपादाननामिका ॥ १२५ ॥ शरीरान्तर्मलत्यागः प्रगतासु सुभूमिषु । चत्तरसमितिरेषा तु प्रतिष्ठापनिका मता ॥ १२६ ॥ एवं समितयः पञ्च गोप्यास्तिस्रस्तु गुप्तयः । वाङ्मनः काययोगानां शुद्धरूपाः प्रवृत्तयः ॥ १२७॥ चित्तेन्द्रियनिरोधश्च पडावश्यकसविक्रयाः । लोचास्नानैकभक्तं च स्थितिभुक्तिरचेलता ॥ १२८ ॥
I
बिना हिलाये ही निकली हुई भगवान्की वाणीने तियंच, मनुष्य तथा देवोंका दृष्टिमोह नष्ट कर दिया था ॥ ११३ ॥ तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित तत्त्वार्थं और मार्गका श्रद्धान करना ही जिसका लक्ष है, जो शंका, कांक्षा, निदान आदि दोषोंके अभावसे उज्ज्वल है तथा सम्यग्ज्ञानरूपी अलंकारका स्वामी है ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी समोचीन रत्न को समस्त प्राणियोंने अपने कानों तथा हृदय में धारण किया ।११४ - ११५ ॥ काय, इन्द्रियां, गुणस्थान, जीवस्थान, कुल और आयुके भेद तथा योनियोंके नाना विकल्पोंका आगमरूपी चक्षुके द्वारा अच्छी तरह अवलोकन कर बैठने-उठने आदि क्रियाओंमें छह कायके जीवोंके वध - बन्धनादिकका त्याग करना प्रथम अहिंसा महाव्रत कहलाता है | ११६ - ११७॥ राग, द्वेष अथवा मोहके कारण दूसरोंके सन्ताप उत्पन्न करनेवाले जो वचन हैं उनसे निवृत्त होना सो द्वितीय सत्य महाव्रत है ॥ ११८ ॥ | बिना दिया हुआ परद्रव्य चाहे थोड़ा हो चाहे बहुत उसके ग्रहणका त्याग करना सो तृतीय अचौर्यं महाव्रत है ॥ ११२ ॥ कृत, कारित और अनुमोदनासे स्त्री-पुरुषका त्याग करना सो चतुर्थं ब्रह्मचर्यात कहा गया है ॥ १२०॥ परिग्रह के दोषोंसे सहित समस्त बाह्याभ्यन्तरवर्ती परिग्रहोंसे विरक्त होना सो पंचम अपरिग्रह महाव्रत है ॥ १२१ ॥ नेत्रगोचर जीवोंके समूहको बचाकर गमन करनेवाले मुनिके प्रथम ईर्यासमिति होती है । यह ईर्यासमिति व्रतोंमें शुद्धता उत्पन्न करनेवाली मानी गयी है ॥ १२२ ॥ सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने - वाले यतिका धर्मकार्योंमें बोलना भाषा समिति कहलाती है ।। १२३ ।। शरीरकी स्थिरताके लिए पिण्डशुद्धिपूर्वक मुनिका जो आहार ग्रहण करना है वह एषणा समिति कहलाती है ॥ १२४॥ देखकर योग्य वस्तुका रखना और उठाना सो आदाननिक्षेपण समिति है ॥ १२५ ॥ प्रासुक भूमि पर शरीर के भीतरका मल छोड़ना सो प्रतिष्ठापन समिति है ॥ १२६ ॥ इस प्रकार इन पाँच समितियोंका तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोगको शुद्ध प्रवृत्तिरूप तीन गुप्तियोंका पालन करना चाहिए || १२७|| मन और इन्द्रियोंका वश करना, समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्गं इन छह आवश्यक क्रियाओंका पालन करना, केश लोंच करना, स्नान
१. सर्वप्राणिसभूहैः । २. गच्छतः ।
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हरिवंशपुराणे
भूमिशय्याव्रतं दन्तमलमार्जनवर्जनम् । तपःसंयमचारित्रं परीषहजयः परः ॥१२९॥ अनुप्रेक्षाश्च धर्मश्च क्षमादिदशलक्षणः । ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविनयसेवनम् ॥१३॥ इति श्रमणधर्मोऽयं कर्मनिर्मोक्षहेतुकः । सुरासुरनराध्यक्षं जिनोक्तस्तं तदा नराः ॥१३१॥ संसारभीरवः शुद्धजातिरूपकुलादयः । सर्वसंगविनिर्मुक्ताः शतशः प्रतिपेदिरे ॥१३२॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः शुद्धकवसनावृताः । सहस्रशो दधुः शुद्धा नार्यस्तत्रार्यिकाव्रतम् ॥१३३॥ पञ्चधाणुव्रत केचित् त्रिविधं च गुणवतम् । शिक्षाव्रतं चतुर्भेदं तत्र स्त्रीपुरुषा दधुः ॥१३४॥ तिर्यञ्चोऽपि यथाशक्ति नियमेष्ववतस्थिरे । देवाः सदर्शनज्ञानजिनपूजासु रेमिरे ॥१३५॥ श्रेणिकेन तु यत्पूर्व बहारम्भपरिग्रहात् । परस्थितिकमारब्धं नरकायुस्तमस्तमे ॥१३६॥ तत्त क्षायिकसम्यक्त्वात् स्वस्थितिं प्रथमक्षितौ । प्रापद्वर्षसहस्राणामशीतिं चतुरुत्तराम् ।।१३७॥ त्रयस्त्रिंशत् समुद्राः क्व क्व चेयं मध्यमा स्थितिः । अहो क्षायिकसम्यक्त्वप्रभावोऽयमनुत्तरः ॥१३॥ अकरो वारिषेणो यो योऽभयः स तथा परे । कुमारा मातरश्चैषां पराश्चान्तःपुरस्त्रियः ।।१३९॥ सम्यक्त्वं शीलसदानं प्रोषधं जिनपूजनम् । प्रतिपद्य विनेमुस्तं जिनेन्द्र त्रिजगद्गुरुम् ॥ ४०॥ ततः प्रणम्य देवेन्द्रा जिनेन्द्रं स्तोत्रपूर्वकम् । यथायथं ययुर्युक्ता निजवगैर्निजास्पदम् ॥१४॥ श्रेणिकोऽपि गुणश्रेणीमुच्चकैरभिरूढवान् । अभिष्टुत्य जिनं नत्वा प्रविष्टस्तुष्टधीः पुरम् ।। १४२॥ निःसरद्भिर्विशद्भिश्च सभा जैनी जनोमिमिः । चुशोभ झुमितवेला नदीपूरैरिवाम्बुधेः ॥१४३॥
नहीं करना, एक बार भोजन करना, खड़े-खड़े भोजन करना, वस्त्र धारण नहीं करना, पृथ्वीपर शयन करना, दन्तमल दूर करनेका त्याग करना, बारह प्रकारका तप, बारह प्रकारका संयम,
त्र, परीषह विजय. बारह अनुप्रेक्षाएँ, उत्तम क्षमादि दस धर्म, ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और तप विनयकी सेवा, इस प्रकार सुर, असुर और मनुष्योंके सम्मुख श्री जिनेन्द्र भगवान्ने कर्मक्षयके कारणभूत जिस मुनिधर्मका वर्णन किया था उसे उन सैकड़ों मनुष्योंने स्वीकृत किया था जो संसारसे भयभीत थे, शुद्ध जातिरूप और कुलको धारण करनेवाले थे तथा सब प्रकारके परिग्रहसे रहित थे ॥१२८-१३२।। सम्यग्दर्शनसे शुद्ध तथा एक पवित्र वस्नको धारण करनेवाली हजारों शुद्ध स्त्रियोंने आर्यिकाके व्रत धारण किये ॥१३३॥ कितने ही स्त्री-पुरुषोंने पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये श्रावकके बारह व्रत धारण किये ॥१३४॥ तिर्यंचोंने भी यथाशक्ति नियम धारण किये और देव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा जिन पूजामें लीन हुए ॥१३५।। राजा श्रेणिकने पहले बहुत आरम्भ और परिग्रहके कारण तमस्तमः नामक सातवें नरकको जो उत्कृष्ट स्थिति बांध रखी थी उसे, क्षायिक सम्यग्दर्शनके प्रभावसे प्रथम पथ्वी सम्बन्धी चौरासी हजार वर्षकी मध्यम स्थितिरूप कर दिया ॥१३६-१३७॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि कहां तो तैंतीस सागर और कहां यह जघन्य स्थिति ? अहो, क्षायिक सम्यग्दर्शनका यह अद्भुत लोकोत्तर माहात्म्य है ॥१३८॥ राजा श्रेणिकके अक्रूर, वारिषेण और अभयकुमार आदि पुत्रोंने, इनकी माताओंने तथा अन्तःपुरकी अन्य अनेक स्त्रियोंने सम्यग्दर्शन, शील, दान, प्रोषध और पूजनका नियम लेकर त्रिजगद्गुरु श्री वर्धमान जिनेन्द्रको नमस्कार किया।।१३९-१४०।।
तदनन्तर इन्द्र, स्तुतिपूर्वक श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार कर अपने परिवारके साथ यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥१४१॥ भावों की उत्तम श्रेणीपर आरूढ़ हुआ राजा श्रेणिक भी श्री वर्धमान जिनेन्द्रकी स्तुति कर तथा नमस्कार कर सन्तुष्ट होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ॥१४२॥ जिस प्रकार समुद्रको बेला क्षोभको प्राप्त हुए नदीके पूरोंसे सुशोभित हो जाती है उसी प्रकार
१. सुरासुरनरप्रत्यक्षम् । २. परा उत्कृष्टा ३३ सागरप्रतिमा स्थितिर्यस्य तत् परिस्थितिक-म.। ३. सप्तमनरके।
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द्वितीयः सर्गः
आकीर्णमेव तैनित्यं सभामण्डलमहतः । हीयते वा कदा स्फीतैर्भानुभिर्भानुमण्डलम् ॥१४४॥ नोदयास्तमितं तत्र ज्ञायते ब्रधनमण्डलम् । धर्मचक्रप्रमाचक्रप्रभामण्डलरोचिषा ॥१४५॥ तत्र तीर्थकरः कुर्वन् प्रत्यहं धर्मदेशनम् । सेवितः श्रेणिकेनास्य न हि तृप्तिस्त्रिवर्गजा ॥१४६॥ गौतमं च समासाद्य तदा तदुपदेशतः । सर्वानुयोगमागेषु प्रवीणः स नृपोऽभवत् ॥१४॥ ततो जिनगृहैस्तुङ्गैः राज्ञा राजगृहं पुरम् । कृतमन्तर्बहिर्याप्तमजनमहिमोत्सवैः ।।१४८।। कृतः सामन्तसंघातैमहामन्त्रिपुरोहितः । प्रजाभिर्जिनगेहाढयो मगधो विषयोऽखिलः ॥१४९॥ पुरेषु ग्रामघोषेषु पर्वतानेष्वदृश्यत । नदीतटवनान्तेषु तदा जिनगृहावली ॥१५॥
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः तिष्ठन्नेव महोदये विघटयन् मोहान्धकारोन्नति प्राग्देशप्रजया विधाय मगधादेशं प्रबुद्धप्रजम् । तद्भूत्या पृथुमध्यदेशमगमन्मध्यन्दिनश्रीधरं
मिथ्याज्ञान हिमान्तकृजिनरविर्बोधप्रभामण्डलः ॥१५॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती धर्मतीर्थप्रवत्तंनो नाम द्वितीयः सर्गः ॥२॥
उस समय वह सभा भीतर प्रवेश करते तथा बाहर निकलते हुए जन-समूहोंसे क्षुभित हो रही थी॥१४३।। अहंन्त भगवान्का वह सभामण्डल मनुष्योंसे सदा व्याप्त ही दिखाई देता था सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यमण्डल अपनी विस्तृत किरणोंसे कब रहित होता है ? अर्थात् कभी नहीं ॥१४४॥ वहाँ धर्मचक्र और भामण्डलको कान्तिके कारण सूर्यबिम्बके उदय-अस्तका पता नहीं चलता था ॥१४५।। वहाँ विपुलाचलपर धर्मोपदेश करनेवाले श्री तीर्थंकर भगवान्की राजा श्रेणिक प्रतिदिन सेवा करता था अर्थात् वह प्रतिदिन आकर उनका धर्मोपदेश श्रवण करता था सो ठीक ही है क्योंकि त्रिवर्गके सेवनसे किसीको तृप्ति नहीं होती ॥१४६।। वह राजा श्रेणिक, गौतम गणधरको पाकर उनके उपदेशसे सब अनुयोगोंमें प्रवीण हो गया ॥१४७|| तदनन्तर राजा श्रेणिकने जिनमें निरन्तर महिमा और उत्सव होते रहते थे ऐसे ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिरोंसे राजगृह नगरको भीतर और बाहर व्याप्त कर दिया ॥१४८।। राजाके भक्त सामन्त, महामन्त्री, पुरोहित तथा प्रजाके अन्य लोगोंने समस्त मगध देशको जिनमन्दिरोंसे युक्त कर दिया ॥१४९।। वहाँ नगर, ग्राम, घोष, पर्वतोंके अग्रभाग, नदियोंके तट और वनोंके अन्त प्रदेशोंमें-सर्वत्र जिन मन्दिर ही जिनमन्दिर दिखाई देते थे ।।१५०।। इस प्रकार जो महान् अभ्युदयमें स्थित थे, मोहरूपी अन्धकारको उन्नतिको नष्ट कर रहे थे, मिथ्याज्ञानरूपी हिमका अन्त करनेवाले थे तथा ज्ञानरूपी प्रभामण्डलसे सहित थे ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्ररूपी सूर्यने पूर्व देशको प्रजाके साथ-साथ मगध देशको प्रजाको प्रबुद्ध कर मध्याह्नको शोभा धारण करनेवाले विशाल मध्य देशकी ओर उसी पूर्वोक्त विभूतिके साथ गमन किया ।।१५१।।
इस प्रकार जिसमें भगवान् अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे श्रीजिनसेनाचार्य
रचित हरिवंशपुराणमें 'धर्मतीर्थ प्रवर्तन' नामका दूसरा सर्ग समाप्त हुआ ॥२॥
१. किरणः । २. सूर्यमण्डलम् । ३. देशः।
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तृतीयः सर्गः
मध्यदेशे जिनेशेन धर्मतीर्थे प्रवर्तिते । सर्वेष्वपि च देशेषु तीर्थमोहो न्यवर्तत ।।। 'आशयाः स्वच्छता जग्मुर्जिनेन्द्रोदयदर्शनात् । लोकेऽगस्त्योदये यद्वत् कलुषाश्च जलाशयाः ॥२॥ काशिकौशलकौशल्यकुसंध्यास्वष्टनामकान् । साल्वत्रिगर्तपञ्चालभद्रकारपटच्चरान् ॥३॥ मौकमत्स्यकनीयांश्च सूरसेनवृकार्थपान् । मध्यदेशानिमान् मान्यान् कलिङ्गकुरुजालान् ॥४॥ कैकेयाऽऽत्रेयकाम्बोजबाह्रीकयवन श्रुतीन् । सिन्धुगान्धारसौवीरसूरमीरुदशेरुकान् ॥५|| वाडवानभरद्वाजक्वाथतोयान् समुद्रजान् । उत्तरास्तार्णकामांश्च देशान् प्रच्छालनामकान् ।।६।। धर्मेणायोजयद् वीरो विहरन् विभवान्वितः । यथैव भगवान् पूर्व वृषभो भव्यवत्सलः ॥७॥ द्योतमाने जिनादित्ये केवलोद्योतभास्करे । क्व लीना इति न ज्ञातास्तीर्थखद्योतसंपदः ॥८॥ सर्वज्ञवीतरागस्य वपुर्वचनवैभवम् । तदोपलभमानानां सक्ति मत्परोक्तिपु ।।९।। नित्यं निर्मलनिःस्वेदं गोक्षारनिभशोणितम् । दिव्यसंहतिसंस्थानरूपसौरभलक्षणम् ।।१०॥ अनन्तवीर्य पर्याप्त स्वहितप्रियभाषणम् । स्वाभाविकपवित्रात्मदशातिशयशोभितम् ॥११॥ निमेपोन्मेषविगमप्रशान्तायतलोचनम् । सुव्यवस्थितसुस्निग्धनखकेशोपशोमितम् ॥१२॥
अथानन्तर श्री वर्धमान जिनेन्द्रके द्वारा मध्यदेशके धर्म तीर्थकी प्रवृत्ति होनेपर समस्त देशोंमें तीर्थ विषयक मोह दूर हो गया अर्थात् धर्मके विषयमें लोगों का जो अज्ञान था वह दूर हो गया ॥१॥ जिस प्रकार संसारमें अगस्त्य नक्षत्रका उदय होनेपर मलिन तालाब स्वच्छताको प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार जिनेन्द्रदेवका उदय होनेपर लोगोंके कलुषित हृदय स्वच्छताको प्राप्त हो गये ।।२।। जिस प्रकार पहले भव्यवत्सल भगवान् ऋषभदेवने अनेक देशोंमें विहार कर उन्हें धर्मसे यक्त किया था उसी प्रकार भगवान महावीरने भी वैभवके साथ विहार कर मध्यके काशी, कौशल. कौशल्य, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगतं, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्त्य, कनीय, सूरसेन और वृकार्थक, समुद्रतटके कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाह्रोक, यवन, सिन्ध, गान्धार, सौवीर, सूर, भीरु, दरोरुक, वाडवान, भरद्वाज और क्वाथतोष, तथा उत्तर दिशाके ताणं, कार्ण और प्रच्छाल आदि देशों को धर्मसे युक्त किया था ।।३-७|| केवल ज्ञानरूपी प्रभाको फैलानेवाले श्री जिनेन्द्ररूपी सूर्य के प्रकाशमान होनेपर नाना मिथ्याधर्मरूपी जुगनुओंके ठाट-बाट कहाँ विलीन हो गये थे यह नहीं जान पड़ता था ।।८। उस समय जिन लोगोंने श्री वर्धमान जिनेन्द्रके शरीरका साक्षात् दर्शन किया था, उनकी दिव्यध्वनिका साक्षात् श्रवण किया था तथा उनके वैभवका साक्षात अवलोकन किया था तथा उनकी अन्य पुरुषों के वचनोंमें आसक्ति नहीं रह गयी थी ||२|| निरन्तर मलमूत्रसे रहित शरीर, स्वेदका अभाव, गो दुग्धके समान सफेद रुधिर, वज्रवृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अत्यन्त सुन्दर रूप, अतिशय सुगन्धता, एक हजार आठ लक्षण युक्त शरीर, अनन्त बल और हितमित प्रिय वचन इन पवित्र दस अतिशयोंसे तो वे जन्मसे ही सुशोभित थे,परन्तु केवलज्ञान होनेपर निमेष उन्मेषसे रहित अत्यन्त शान्त विशाल लोचन, अत्यन्त व्यवस्थित अर्थात् वृद्धिसे रहित कान्तिपूर्ण नख और केशोंसे शोभित होना, कवलाहारका अभाव, वृद्धावस्थाका न होना, शरीरकी छाया नहीं पड़ना, परम कान्तियुक्त मुखका एक होनेपर भी १. चित्तानि । २. समवसरणलक्ष्मोयुक्तः । ३. मिथ्यात्वतीर्थखद्योतलक्ष्म्यः । ४. शक्ति क., म., ग.। ५. गोदुग्धसदृशरक्तम् ।
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तृतीयः सर्गः
कुलकम् ]
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"स्यक्तभुक्ति जरातीतमच्छायं छाययोर्जितम् । एकतो मुखमप्यच्छचतुर्मुखमनोहरम् ॥ ३३॥ द्वियोजनशतक्षोणी सुभिक्षत्वोपपादकम् । उपसर्गासुमत्पीडाव्यपोहं गगनायनम् ॥१४॥ सर्वंविद्यास्पदं कर्मक्षयोद्भूतदशाद्भुतम् । दृष्टं श्रुतं वपुर्जेनं व्यधत्त जगतः सुखम् ॥ १५॥ अमृतस्येव धारां तां माषां सर्वार्धमागधीम् । पिबन् कर्णपुटैजैनों ततर्प त्रिजगज्जनः ॥ १६ ॥ अन्योन्यगन्धमासोढुमक्षमाणामपि द्विषाम् | मैत्री बभूव सर्वत्र प्राणिनां धरणीतले ॥१७॥ व इवाज फलपुष्पानतद्रुमाः । सहैव षडपि प्राप्ता ऋतवस्तं सिषेविरे ॥ १८ ॥ स्वान्तः शुद्धिं जिनेशाय दर्शयन्तीव भूवधूः । सर्वरत्नमयी रेजे शुद्धादर्शतलोज्ज्वला ॥१९॥ जनिताङ्गसुखस्पर्शो ववौ विहरणानुगः । सेवामिव प्रकुर्वाणः श्रीवीरस्य समीरणः ॥२०॥ 'विहरत्युपकाराय जिने परमबान्धवे । बभूव परमानन्दः सर्वस्य जगतस्तदा ॥२१॥ देवा वायुकुमारास्ते योजनान्तर्धरातलम् । चक्रुः कण्टकपाषाणकोटकादिविवर्जितम् ॥ २२ ॥ तदनन्तरमेवोच्चैस्तनिताः स्तनिताभिधाः । कुमारा ववृषुर्मेधीभूता गन्धोदकं शुभम् ||२३|| पादपद्मं जिनेन्द्रस्य सप्तपद्मः पदे पदे । भुवेव नभसाऽगच्छदुद्गच्छद्भिः प्रपूजितम् ॥ २४ ॥ रेजे शाल्यादिसस्यौघैर्मेदिनी फलशालिभिः । जिनेन्द्रदर्शनानन्दप्रोद्भिन्न पुलकैरिव ॥२५॥
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चारों ओर दिखाई देना, दो सौ योजन तककी पृथ्वी में सुभिक्ष होना, उपसर्गका अभाव, प्राणिपीड़ा अर्थात् अदयाका अभाव, आकाशगमन और सब विद्याओंका स्वामित्वपना, कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानके इन दस अतिशयोंसे और भी अधिक आश्चर्यं उत्पन्न कर रहे थे । उस समय देखा अथवा सुना गया जिनेन्द्र भगवान्का शरीर जगत् के जीवोंको सुख उत्पन्न कर रहा था || १० - १५ ॥ सर्वभाषारूप परिणमन करनेवाली अमृतकी धाराके समान भगवान्की अर्द्धमागधी भाषाका कर्णंपुटोंसे पान करते हुए तीन लोकके जीव सन्तुष्ट हो गये ॥ १६ ॥ जो परस्परकी गन्ध सहन करने में भी असमर्थ थे ऐसे शत्रुरूप प्राणियोंमें पृथ्वीतलपर सर्वत्र गहरी मित्रता हो गयी ॥१७॥ जिनमें समस्त वृक्ष निरन्तर फल और फूलोंसे नम्रीभूत हो रहे थे ऐसी छहों ऋतुएँ 'मैं पहले पहुँचूँ, मैं पहले पहुँचूँ' इस भावनासे ही मानो एक साथ आकर उनकी सेवा कर रही थीं ॥ १८॥ सर्वरत्नमयी तथा निर्मल दर्पणतलके समान उज्ज्वल पृथ्वीरूपी स्त्री ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवान् के लिए अपने अन्तःकरणकी विशुद्धता ही दिखला रही हो ॥ १९ ॥ शरीरमें सुखकर स्पर्शं उत्पन्न करनेवाली विहारके अनुकूल - मन्द सुगन्धित वायु बह रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान्की सेवा ही कर रही हो ||२०|| उस समय परोपकार के लिए उत्कृष्ट बन्धुस्वरूप श्री जिनेन्द्र भगवान्के विहार करनेपर जगत् के समस्त जीवों को परम आनन्द हो रहा था || २१ || वायुकुमारके देव, एक योजनके भीतरकी पृथिवीको कण्टक, पाषाण तथा कीड़े-मकोड़े आदिसे रहित कर रहे थे ||२२|| उनके बाद ही जोरकी गर्जना करनेवाले स्तनितकुमार नामक देव मेघका रूप धारण कर शुभ सुगन्धित जलकी वर्षा कर रहे थे ||२३|| भगवान् पृथिवीके समान आकाशमार्गंसे चल रहे थे तथा उनके चरण-कमल पद-पदपर खिले हुए सात-सात कमलोंसे पूजित हो रहे थे । भावार्थ - विहार करते समय भगवान्के चरणकमलोंके आगे और पीछे सात-सात तथा चरणोंके नीचे एक इस प्रकार पन्द्रह कमलोंकी पन्द्रह श्रेणियाँ रची जाती थीं उनमें सब मिलाकर दो सौ पचीस कमल रहते थे ||२४|| फलोंसे सुशोभित शालि आदि धान्यों के समूहसे पृथिवी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र-दर्शन से उत्पन्न हुए १. कवलाहारादिरहितत्वम् । २. छायारहितम् । ३. छायया कान्त्या ऊर्जितम् । ४. गगन- गमनम् । ५. भाषासर्वार्ध-म. भाषां सर्वार्थ ख. । ६. परस्परगन्धमपि सोढुमसमर्थानां शत्रूणाम् । ७. अहं अग्रे गच्छामि अहम गच्छामीति भावनया युक्ता इव । ८. विहारं कुर्वति सति । ९. उच्चैर्गर्जनयुक्ताः । १०. मेघकुमाराः ।
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२६
हरिवंशपुराणे जिनेन्द्र केवलज्ञानवैमल्यमनुकुर्वता । धनावरणमुक्तेन गगनेन विराजितम् ॥२६॥ नीरजोभिरहोरात्रं जनताभिरिवेश्वरः । आशाभिरपि नमल्यं बिभ्रतीभिरुपासितः ॥२७॥ धर्मदानं जिनेन्द्रस्य घोषयन्तः समन्ततः । आह्वानं चक्रिरेऽन्येषां देवा देवेन्द्र शासनात् ॥२८॥ सहस्रारं हसद्दीप्त्या सहस्रकिरणद्युति । धर्मचक्रं जिनस्याग्रे प्रस्थानास्थानयोरमात् ॥२९॥ इति देवकृतैर्भूमौ चतुर्दशभिरद्भुतैः । विजहार जिनो युक्तः सध्वजैरष्टमङ्गलैः ॥३०॥ अशोकनगमाभासीदशोकानोकह श्रिया । नमद्भुवनमाकाशं महत्त्वं किमतः परम् ॥३१॥ पुष्पवृष्टिभिरानम्रशिरोभिरमरैः करैः । आवर्जिताभिराकाशादाशीविश्वंभरा बनुः ॥३२।। चतुर्दिक्षु चतुःषष्टिचमरैरमरैर्जिनः । वीजितोऽभात् पतद्गाङ्गतरङ्गैर्हिमवानिव ॥३३॥ अभिभूयाबभौ धाम्ना मण्डलं चण्डरोचिषः । प्रभामण्डलमीशस्य प्रध्वस्ताहर्निशान्तरम् ॥३४॥ धीरमध्वनि देवानां जजम्भे दुन्दुमिध्वनिः । कर्मशत्रुजयं जैनं घोषयन्निव विष्टपे ॥३५।। एकातपत्रमैश्वयं भुवि मुक्तवतोऽहंतः । आतपत्रत्रयैश्वर्यमाबभौ भुवनत्रये ॥३६॥ सिंहासनं नरेन्द्रौघैर्वृतं त्यक्तवतो बमौ । सिंहासनं जिनस्यान्यत्सुरेन्द्र परिवारितम् ॥३७॥
धर्मोकी योजनव्यापी चेतःकर्णरसायनम् । दिव्यध्वनिर्जिनेन्द्रस्य पुनाति स्म जगत्त्रयम् ॥३८॥ हर्षसे उसके रोमांच ही निकल आये हों ।।२५।। मेघोंके आवरणसे रहित आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो वह जिनेन्द्रदेवके केवलज्ञानकी निर्मलताका ही अनुकरण कर रहा हो।२६।। जिस प्रकार रजोधर्मसे रहित होनेके कारण निर्मलता-शुद्धताको धारण करनेवाली स्त्रियाँ रात-दिन अपने पतिकी उपासना करती हैं उसी प्रकार रज अर्थात् धूलिसे रहित होनेके कारण उज्ज्वलताको धारण करनेवाली दिशाएँ भगवान्की उपासना कर रही थीं ॥२७॥ इन्द्रकी आज्ञासे देव लोग, सब ओर जिनेन्द्रदेवके धर्मदानकी घोषणा करते हुए अन्य लोगोंको बुला रहे थे ॥२८॥ विहार करते हों चाहे खड़े हों प्रत्येक दशामें श्रीजिनेन्द्रके आगे, सूर्यके समान कान्तिवाला तथा अपनी दीप्तिसे हजार आरेवाले चक्रवर्तीके चक्ररत्नकी हंसी उड़ाता हुआ धर्मचक्र शोभायमान रहता था ॥२९।। इस प्रकार देवकृत चौदह अतिशयों और ध्वजाओं सहित अष्ट मंगल द्रव्योंसे युक्त श्रीमहावीर जिनेन्द्र पृथिवीपर विहार करते थे ॥३०॥
अष्ट प्रातिहार्योंमें प्रथम प्रातिहायं अशोकवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अशोकवृक्षकी शोभाके बहाने समस्त संसार अथवा आकाश ही भगवान्को नमस्कार कर रहा हो इससे अधिक और महत्व क्या हो सकता है ? ॥३१॥ नम्रीभत शिरको धारण करनेवाले देव लोग अपने हाथोंसे जो पुष्प-वृष्टियाँ छोड़ रहे थे उनसे समस्त दिशाओंकी भूमियाँ सुशोभित हो रही थीं ॥३२।। चारों दिशाओं में देवों द्वारा चौंसठ चमरोंसे वीजित भगवान् उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पड़ती हुई गंगाकी तरंगोंसे हिमगिरि सुशोभित होता है ॥३३॥ जिसने रात-दिनका अन्तर दूर कर दिया था ऐसा भगवान्का भामण्डल, अपने तेजसे सूर्य मण्डलको अभिभूत करदबाकर सुशोभित हो रहा था ॥३४॥ देवोंके मार्ग अर्थात् आकाशमें दुन्दुभियोंका शब्द इस गम्भीरतासे फैल रहा था मानो वह संसारमें इस बातकी घोषणा ही कर रहा था कि श्रीजिनेन्द्रदेव कर्मरूपी शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर चुके हैं ॥३५॥ जिसमें एक छत्र लगाया जाता है ऐसे पृथिवीके ऐश्वर्यको त्याग करनेवाले भगवान्के छत्रत्रयसे युक्त तीन लोकका ऐश्वर्य प्राप्त हआ है ऐसा जान पडता था ॥३६॥ यतश्च भगवानने राजाओंके समहसे घिरा हुआ सिंहासन छोड़ दिया था इसलिए उन्हें इन्द्रोंसे घिरा हुआ दूसरा सिंहासन प्राप्त हुआ था ॥३७॥ जो धर्मका उपदेश देनेके लिए एक योजन तक फैल रही थी तथा जो चित्त और कानोंके लिए रसायनके १. दिशाभिः । २. सूर्यसमान-कान्तियुक्तम् । ३. शोकानोकुहश्रिया-क., ख., ग. । ४. पातिताभिः । ५. आशा दिशा एव विश्वम्भराः पृथिव्यस्ताः । ६. सूर्यस्य । ७. धोरं ।
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तृतीयः सर्ग:
२७ प्रातिहार्यादिविमवैर्विहृत्य विषयान् बहून् । अय॑मानः सुरैरायान्मागधं विषयं विभुः ॥३९॥ प्राप्तसप्तर्द्धिसंपद्भिः समस्तश्रुतपारगैः । गणेन्द्ररिन्द्रभूत्याद्यैरेकादशमिरन्वितः ॥४०॥ इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूति द्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयकः ॥११॥ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्मः पञ्चमस्ततः । षष्ठो माण्डव्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सप्तमः ॥४२॥ अष्टमोऽकम्पनाख्यातिरचलो नवमो मतः । मेदार्यो दशमोऽन्त्यस्तु प्रभासः सर्व एव ते ।।४।। तप्तदीप्तादितपसः सचतुर्बद्धिविक्रियाः । अक्षीणौषधिलब्धीशाः सद्सर्द्धिबल यः ॥४४॥ पञ्चानामानुपूर्वेण गणसंख्या गणेशिनाम् । द्वे सहस्रे शतं त्रिंशत् प्रत्येकमृषयः स्मृताः ॥४५॥ ततः परं द्वयोज्ञेयाः पञ्चविंशा चतुःशती। चतुर्णा षट्शती तेषां पञ्चविंशा तपोभृताम् ॥४॥ तत्र पूर्वधरास्त्रीणि शतानि नव वैक्रियाः। त्रयोदश शतान्यासन्नवधिज्ञानचक्षुषः ।।४७।। शतानि सप्त कालेन केवलज्ञानलोचनाः । शतानि पञ्च संख्यातास्तथा विपुलबुद्धयः ॥४८॥ पतुःशतानि जेतारो वादिनः परवादिनाम् । शिक्षका नव विज्ञेयाः सहस्राणि शतानि च ॥४॥ सैकादशगणाधीशश्चतुर्दशसहस्रकः । ऋषिसंघो जिनस्याभात् सनद्योघ इवाम्बुधिः ॥५०॥ युक्तः प्राप जिनो जैन्या जगद्विस्मयनीयया । लक्ष्म्या लक्ष्मीगृहं राजद्गृहं राजगृहं पुरम् ॥५१॥ पञ्चशैलपुरं पूतं मुनिसुवतमन्मना । यत्परध्वजिनीदुर्ग पञ्चशैलपरिष्कृतम् ॥५२॥ ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिझरः । दिग्गजेन्द्रमिवेन्द्रस्य ककुभ मषयत्यलम् ।।५३।।
वैमारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृतिराश्रितः । दक्षिणापरदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ॥५४॥ समान थी ऐसी भगवान्की दिव्यध्वनि तीनों जगत्को पवित्र कर रही थी ॥३८॥ इस प्रकार प्रातिहार्य आदि विभवके साथ अनेक देशोंमें विहार कर देवोंके द्वारा पूजित होते हुए भगवान् महावीर फिरसे मगध देश में आये ॥३९॥ वे भगवान् सप्त ऋद्धिरूपी सम्पदाको प्राप्त करनेवाले एवं समस्त श्रुतके पारगामी इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरोंसे सहित थे ॥४०॥ उन ग्यारह गणधरोंमें प्रथम गणधर इन्द्रभूति थे, द्वितीय अग्निभूति, तृतीय वायुभूति, चतुर्थ शुचिदत्त, पंचम सुधर्म, षष्ठ माण्डव्य, सप्तम मौर्यपुत्र, अष्टम अकम्पन, नवम अचल, दशम मेदार्य और अन्तिम प्रभास थे। ये सभी गणधर, तप्त दीप्त आदि तप, ऋद्धिके धारक तथा चार प्रकारकी बुद्धि ऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, अक्षीणऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि और बलऋद्धिसे सम्पन्न थे ॥४१-४४।। इनमें से प्रारम्भके पाँच गणधरोंकी गण-शिष्य संख्या, प्रत्येककी दो हजार एक सौ तीस, उसके आगे छठे और सातवें गणधरकी गण संख्या प्रत्येककी चार सौ पचीस, तदनन्तर शेष चार गणधरोंकी गण संख्या प्रत्येककी छह सौ पचीस । इस प्रकार ग्यारह गणधरोंकी शिष्य संख्या चौदह हजार थी।।४५-४६।। इन चौदह हजार शिष्योंमें तीन सौ पूर्वके धारी, नौ सौ विक्रिया-ऋद्धिके धारक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, पांच सौ विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानके धारक, चार सौ परवादियोंको जीतनेवाले वादी और नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे। इस प्रकार श्रीजिनेन्द्र देवका, ग्यारह गणधरोंसे सहित चौदह हजार मुनियोंका संघ, नदियोंके प्रवाहसे सहित समुद्र के समान सुशोभित हो रहा था ।।४७-५०।। इस तरह जगत्को विस्मयमें डालनेवाली आहंन्त्य लक्ष्मीसे सहित श्रीवर्धमान जिनेन्द्र उस राजगृह नगरमें आये जो लक्ष्मीका मानो घर था और जिसमें अनेक उत्तमोत्तम घर सुशोभित हो रहे थे ||५१|| राजगृह नगरमें पाँच शैल हैं इसलिए उसका दूसरा नाम पंचशैलपुर भी है। यह श्री मुनिसुव्रत भगवान्के जन्मसे पवित्र है, शत्रु-सेनाओंके लिए दुर्गम है एवं पांच पर्वतोंसे सुशोभित है ॥५२॥ पाँचों पर्वतोंमें प्रथम पर्वतका नाम ऋषिगिरि है, यह चौकोर, झरते हुए निर्झरनोंसे सुशोभित है तथा ऐरावत हाथोके समान पूर्व दिशाको अत्यन्त सुशोभित कर रहा है ।।५३।। वैभार नामका दूसरा पर्वत दक्षिण दिशामें है तथा त्रिकोण आकृतिका १. देशान् । २. शत्रुसेनादुर्गमम् ।
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हरिवंशपुराणे सज्यचापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पाण्डुको वृत्तः पूर्वोत्तरदिगन्तरे ॥५५।। फलपुष्पमरानम्रलतापादपशोमिताः । पतन्निर्झरसंघातहारिणो गिरयस्तु ते ॥५६॥ वासुपूज्यजिनाधीशादितरेषां जिनेशिनाम् । सर्वेषां समवस्थानैः पावनोरुवनान्तराः ॥५७॥ तीर्थयात्रागतानेकमव्यसंघनिषेवितैः । नानातिशयसंबद्धः सिद्धक्षेत्रैः 'पवित्रिताः ॥५८।। तत्र तस्थौ जिनः शैले विपुले विपुलेशितः । शतक्रतुकृताशेषसमवस्थितिसंस्थितौ ॥५९॥ सौधर्मादिषु देवेषु मर्येषु श्रेणिकादिषु । संस्थितेष तदा भूभद् देवमांचितो बमौ ॥६॥ ऋषयः प्राक्ततस्तस्थुर्जिनान्ते प्राप्तलब्धयः । यतयश्च कषायान्ता मुनयोऽतीन्द्रियेक्षिणः ।।६१॥ अनगारास्तथाऽन्ये ते संख्याताः संख्ययाऽखिलाः । चतुर्दशसहस्राणि साधिकानि गणाधिपैः ॥६२।। पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि आर्यिकाणां गणस्थितिः। श्रावकास्त्वेकलक्षाश्च विलक्षाः श्राविकास्तदा ॥३॥ तेऽपि तस्थुर्यथास्थानं देव्यो देवाश्चतुर्विधाः । तिर्यञ्चोऽप्यावृतोऽभासीद् वीरो द्वादशमिर्गणैः ॥६॥ ततस्त्रिभुवने तत्र धर्मशुश्रूषया स्थिते । बमाण भगवान् धर्म गणेशप्रश्नपूर्वकम् ॥॥६५॥ सिद्धः सिद्धेतरश्च द्वौ सामान्यादुपयोगिनौ । जीवभेदी विशेषात्तावनन्तानन्तभेदिनौ ॥१६॥ सदृग्बोधक्रियोपायसाधितोपेयसिद्धयः । सिद्धास्तत्र प्रसिद्धात्मसिद्धिक्षेत्रमधिष्ठिताः ॥७॥
धारक है। तीसरा पर्वत विपुलाचल है यह दक्षिण और पश्चिम दिशाके मध्यमें स्थित है और वैभारगिरिके समान त्रिकोण आकृतिवाला है ॥५४॥ चौथा पर्वत वलाहक है वह डोरीसहित धनुषके आकार है तथा तीन दिशाओंको व्याप्त कर स्थित है और पांचवां पर्वत पाण्डक है यह गोल है तथा पूर्व और उत्तर दिशाके अन्तरालमें सुशोभित है ॥५५।। ये सभी पर्वत, फल और फूलोंके भारसे नम्रीभूत लताओंसे सुशोभित हैं और पड़ते हुए निर्झरोंके संमूहसे मनोहर हैं ।।५६।। केवल वासुपूज्य जिनेन्द्रको छोड़कर अन्य समस्त तीर्थंकरोंके समवसरणोंसे इन पांचों पर्वतोंके बड़ेबड़े वन-प्रदेश पवित्र हुए हैं ।।५७।। वे वन-प्रदेश तीर्थयात्राके लिए आये हुए अनेक भव्यजीवोंके समूहसे सेवित तथा नाना प्रकारके अतिशयोंसे सम्बद्ध सिद्धक्षेत्रोंसे पवित्र हैं ॥५८॥
अथानन्तर जहाँ इन्द्रने पहलेसे ही समवसरणकी सम्पूर्ण रचना कर रखी थी ऐसे विपुलाचल पर्वतपर विशाल ऐश्वर्यके धारक श्रीवर्धमान जिनेन्द्र जाकर विराजमान हुए ॥५९|| उस समय सौधर्म आदि देव और श्रेणिक आदि मनुष्योंके सब ओर स्थित होनेपर देव और मनुष्योंसे व्याप्त हुआ वह पर्वत अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥६०॥ ऋद्धियोंको धारण करनेवाले ऋषि श्रीजिनेन्द्र भगवान्के समीप सबसे पहले बैठे। उनके बाद कषायोंका अन्त करने. वाले यति, अतीन्द्रिय पदार्थों का अवलोकन करनेवाले-प्रत्यक्ष ज्ञानी मुनि और संख्यात अनगार बैठे, इस तरह ग्यारह गणधरोंके सहित चौदह हजार मुनि, पैंतीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीस लाख श्राविकाएँ, चारों प्रकारके देव और देवियाँ तथा तिथंच ये सब यथास्थान बैठे । इन सब बारह सभाओंसे वेष्टित भगवान् अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥६१-६४॥
तदनन्तर जब धर्मश्रवण करनेकी इच्छासे तीनों लोकोंके जीव यथास्थान स्थित हो गये तब गणधरके प्रश्नपूर्वक श्रीतीर्थकर भगवान्ने धर्मका उपदेश आरम्भ किया ॥६५॥ उन्होंने कहा कि सामान्य रूपसे सिद्ध और संसारीके भेदसे जीवके दो भेद हैं तथा दोनों ही भेद उपयोगरूप लक्षणसे युक्त हैं और विशेषकी अपेक्षा दोनों ही अनन्तानन्त भेदोंको धारण करनेवाले हैं ॥६६॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपी उपायके द्वारा जिन्होंने प्राप्त करने योग्य मुक्तिको प्राप्त कर लिया है तथा जो स्वरूपको प्राप्त कर सिद्धिक्षेत्र-लोकके अग्रभागपर तनुवात-वलयमें
१. प्रवत्तिताः घ. । २. विपुला ईशिता यस्य सः ।
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तृतीयः सर्गः प्रक्षयात् पञ्चभेदस्य ज्ञानावरणस्य कर्मणः । दर्शनावरणस्यापि नवभेदस्य भेदनात् ॥६॥ सातासातविकल्पस्य वेदनीयस्य नोदनात् । अष्टाविंशतिभेदस्य मोहनीयस्य हानितः ॥६९॥ चतुर्विधस्य निःशेषप्लोषणादायुषस्तथा । द्विचत्वारिंशतो नाशान्नाम्नो गोत्रद्वयस्य च ॥७॥ पञ्चसंख्यस्य विश्वंसादन्तरायस्य कर्मणः । सिद्धानुपेत्य तिष्ठन्ति सिद्धास्त्रैलोक्यमूर्द्धनि ॥७॥ सम्यक्त्वपरमानन्तकेवलज्ञानदर्शनाः । अनन्तवीर्यतात्यन्तसूक्ष्मत्वगुणलक्षिताः॥७२॥ स्वभावगहनाहीनगुणावगाहनान्विताः । अव्याबाधात्मकानन्तसुखिनोऽगुरुलाघवाः ॥७३॥ प्रसिद्धाष्टगुणाः सिद्धा असंख्येयप्रदेशिनः । वर्णादिविंशतेन शादमूर्त्तात्मतया स्थिताः ॥७॥ ईषदूनसमाकारा वपुषश्चरमस्य ते । मूषापतितसव्योमस्वभावानुविधायिनः ॥७५॥ मृत्युजन्मजरानिष्टसंयोगेष्टवियोगजः । क्षुत्तृष्णाव्याधिजैदुःखैरखिलैरखलीकृताः ॥७६॥ द्रव्यभावमवक्षेत्रकालभेदप्रपञ्चितैः । वियुक्ताः पञ्चमिर्मुक्ताः परिवत्र्तेः सुखात्मकाः ॥७७॥ असंयतचतुःस्थानात् संयतासंयतस्थितेः । नवधा संयतस्थानादसिद्ध स्त्रिविधः स्मृतः ॥८॥ मोहस्योदयतो जीवः क्षयोपशमतद्वयात् । पारिणामिकमावस्थो गुणस्थानेषु वर्तते ॥७९॥ मिथ्यादृष्टियथार्थोऽन्यः सासादन इतीरितः । सम्यग्मिथ्यादृगन्योऽस्ति सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥८॥ संयतासंयतोऽन्वर्थस्तत ऊर्ध्वमुदीरितः । प्रमत्तसंयतस्तस्मादप्रमत्तश्च संयतः ॥८१॥ उपशान्तकषायात् प्रागपूर्वकरणादिषु । क्षपकाः सोपशमकास्त्रिषु स्थानेषु वर्णिताः ॥८२॥ ऊर्ध्व क्षीणकषायोऽस्मात् सयोगः केवली प्रभुः । अयोगकेवलो चेति गुणस्थानक्रमस्थितिः ॥४३॥ नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः । अध्यात्म कृतनानात्वादुपर्युपरिशुद्धयः ।।८४॥
स्थित हो गये हैं वे सिद्ध कहलाते हैं ॥६७।। ये पांच प्रकारका ज्ञानावरण, नो प्रकारका दर्शनावरण, साता-असाताके भेदसे दो प्रकारका वेदनीय, अट्ठाईस प्रकारका मोहनीय, चार आयु, बयालीस प्रकारका नाम, दो प्रकारका गोत्र और पांच प्रकारका अन्तराय कर्म नष्ट कर अनन्त पूर्वसिद्धोंमें समाविष्ट हो तीन लोकके अग्रभागपर विराजमान रहते हैं ॥६८-७१॥ सम्यक्त्व, अनन्त केवलज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीय, अत्यन्त सूक्ष्मत्व, स्वाभाविक अवगाहनत्व, अव्याबाध अनन्तसुख और अगुरुलघु इन आठ प्रसिद्ध गुणोंसे सहित हैं, असंख्यात प्रदेशी हैं, पुद्गल सम्बन्धी वर्णादि बीस गुणोंके नष्ट होनेसे अमूर्तिक हैं, अन्तिम शरीरसे किंचित् न्यून आकारके धारक हैं, मोमके साँचेके भीतर स्थित आकाशके समान हैं, जन्म-जरा-मरण, अनिष्ट, संयोग, इष्ट वियोग तथा क्षुधा, तृष्णा, बीमारी आदिसे उत्पन्न समस्त दुःखोंसे रहित हैं तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पांच प्रकारके परिवर्तनोंसे रहित होनेके कारण सुख स्वरूप हैं |७२-७७॥ असिद्ध अर्थात संसारी जीव असंयत, संयतासंयत और संयतके भेदसे तीन प्रकारके माने गये हैं। इनमें-से असंयत अवस्था तो प्रारम्भके चार गुणस्थानोंमें है, संयतासंयत अवस्था पंचम गुणस्थानमें है और संयत अवस्था छठे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थानोंमें है ।।७८॥ पारिणामिक भावोंमें स्थित रहनेवाला जीव मोहनीय कर्मके उदय, क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशमके निमित्तसे गणस्थानोंमें प्रवृत्त होता है ॥७९॥ गणस्थान चौदह हैं, उनमें से प्रथम गणस्थान मिथ्यादष्टि है जो कि सार्थक नामको धारण करनेवाला है, दूसरा सासादन, तीसरा मिश्र, चौथा असंयत सम्यग्दृष्टि, पांचवां संयतासंयत, छठा प्रमत्त संयत, साँतवां अप्रमत्त संयत, आठवां अपूर्वकरण, नौवाँ अनिवृत्तिकरण, दशवां सूक्ष्मसाम्पराय, ग्यारहवाँ उपशान्त कषाय, बारहवाँ क्षीणमोह, तेरहवां सयोगकेवली और चौदहवां अयोगकेवली है। इनमें से उपशान्त कषायके पूर्ववर्ती अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारके होते हैं ।।८०-८३॥ छठेसे लेकर चौदहवें तक नौ गुणस्थानोंमें रहनेवाले मनुष्योंमें बाह्यरूपकी अपेक्षा कोई भेद नहीं
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हरिवंशपुराणे संयतासंयतान्तेष गुणस्थानेष पञ्चसु । रूपं प्रत्यमिभेदोऽस्ति यथाध्यात्मक तत्र केवलिनां सौख्यं सयोगानामयोगिनाम् । लब्धक्षायिकलब्धीनामनन्तं नेन्द्रियार्थजम् ॥८ कषायप्रशमोद्भूतं कषायक्षयजं तथा । अपूर्वकरणादीनामुमयेषां परं सुखम् ।।८।। निद्रेन्द्रियकषायारिविकथाप्रणयात्मकैः । प्रमादैरप्रमत्तानां सुखं प्रशमसदसम् ।।८८॥ हिंसानृतपरादत्तग्रहाब्रह्मपरिग्रहात् । निवृत्तानां प्रमत्तानामपि सौख्यं शमात्मकम् ।।८।। हिंसादिभ्यो यथाशक्ति देशतो विरतात्मनाम् । संयतासंयतानां च महातृष्णाजयात् सुखम् ।।९०॥ यद्यप्यविरता तृष्णाहिंसादेपि देशतः। सत्सम्यग्दृष्टयोऽश्नन्ति तरवश्रद्धानजं सुखम् ॥११॥ परस्परविरुद्वात्मसम्यग्मिथ्यादृगङ्गिनाम् । सम्यग्मिथ्यादृशामन्तः सुखदुःखविमिश्रिताः ।९।। सम्यक्त्वं वमतामन्तर्मावः सासादनात्मनाम् । यथा क्षीरघृतोन्मिश्रशर्करोद्गारकारिणाम् ॥१३॥ सप्तप्रकृतिमिश्रेण मोहेन मतिभेदिना । राज्येनेव विमूढस्य मिथ्यादृष्टेः कुतः सुखम् ॥९॥
है। सब निर्ग्रन्थमुद्राके धारक हैं परन्तु आत्माकी विशुद्धताकी अपेक्षासे उनमें भेद है। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे ही उनमें विशुद्धता बढ़ती जाती है ।।८४॥ प्रथमसे लेकर संयतासंयत नामक पाँचवें गुणस्थान तक जिस प्रकार रूप-बाह्यवेषकी अपेक्षा भेद है उसी प्रकार आत्मविशुद्धिको अपेक्षा भी भेद है ॥८५।। इन गुणस्थानोंमें-से सबसे अधिक सुख तो क्षायिक लब्धियोंको प्राप्त करनेवाले सयोगकेवली और अयोग केवलीके होता है। इनका सुख अन्त रहित होता है तथा इन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंसे उत्पन्न नहीं होता ।।८६।। उनके बाद उपशमक अथवा क्षपक दोनों प्रकारके अपूर्वकरणादि जीवोंके, कषायोंके उपशमक अथवा क्षयसे उत्पन्न होनेवाला परम सुख होता है ।।८७।। तदनन्तर उनसे कम एक निद्रा, पाँच इन्द्रियां, चार कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोंसे रहित अप्रमत्त संयत जीवोंके प्रशम रसरूप सुख होता है ।।८८।। उनके बाद हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंसे विरक्त प्रमत्त संयत जीवोंके शान्तिरूप सुख होता है ।।८९।। तदनन्तर हिंसा आदि पांच पापोंसे यथाशक्ति एकदेश निवृत्त होनेवाले संयतासंयत जीवोंके महातष्णापर विजय प्राप्त होने के कारण सूख होता है ।।२०। उनके बाद अविरत सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि हिंसादि पापोंसे एकदेश भी विरत नहीं हैं तथापि तत्त्वश्रद्धानसे उत्पन्न सुखका उपभोग करते ही हैं ।।९१।। उनके पश्चात् परस्पर विरुद्ध सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप परिणामोंको धारण करनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अन्तःकरण सुख और दुःख दोनोंसे मिश्रित रहते हैं ।।१२।। सम्यग्दर्शनको उगलनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर्भाव उस प्रकारका होता है जिस प्रकारका दूध और घीसे मिश्रित शक्कर खाकर उसकी डकार लेनेवालोंका होता है । भावार्थ-सम्यक्त्वके छूट जानेसे सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंको सुख तो नहीं होता किन्तु सुखका कुछ आभास होता है जिस प्रकार कि दूध, घी, शक्कर आदि खानेवालोंको पीछेसे उसकी डकार द्वारा मधुर रसका आभास मिलता है। उसी प्रकार इनके सुखका आभास जानना चाहिए ॥९३।। तदनन्तर जो स्वप्नके राज्यके समान बुद्धिको भ्रष्ट करनेवाले सप्तप्रकृतिक मोहसे अत्यन्त मूढ़ हो रहा है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको सुख कहाँ प्राप्त हो सकता है ॥९४॥
विशेषार्थ-मोह और योगके निमित्तसे आत्माके परिणामोंमें जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थानके निम्न प्रकार १४ भेद हैं-१ मिथ्यादृष्टि, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ असंयत सम्यग्दृष्टि, ५ संयतासंयत, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्त संयत, ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्म साम्पराय, ११ उपशान्त मोह, १२ क्षीण मोह, १३ संयोगकेवली और १४ अयोगकेवली। इनमें से प्रारम्भके १२ गुणस्थान मोहके निमित्तसे होते हैं और अन्तके १. दूरीकुर्वताम् ।
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तृतीयः सर्गः
२ गुणस्थान योगके निमित्तसे। मोह कर्मको १ उदय, २ उपशम, ३ क्षय और ४ क्षयोपशम ऐसी चार अवस्थाएं संक्षेपमें होती हैं। इन्हींके निमित्तसे जीवके परिणामोंमें तारतम्य उत्पन्न होता है। उदय-आबाधा पूर्ण होनेपर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार कर्मों के निषेकोंका अपना फल देने लगना उदय कहलाता है। उपशम-अन्तर्मुहूर्तके लिए कर्म निषेकोंके फल देनेकी शक्तिका अन्तर्हित हो जाना उपशम कहलाता है। जिस प्रकार निर्मली या फिटकिरीके सम्बन्धसे पानीकी कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्यक्षेत्रादिका अनुकूल निमित्त मिलनेपर कर्मके फल देने की शक्ति अन्तर्हित हो जाती है । क्षय-कर्म प्रकृतियोंका समूल नष्ट हो जाना क्षय है, जिस प्रकार मलिन पानी में-से कीचड़के परमाणु बिलकुल दूर हो जानेपर उसमें स्थायी स्वच्छता आ जाती है उसी प्रकार कर्म परमाणुओंके बिलकुल निकल जानेपर आत्मामें स्थायी स्वच्छता उद्भूत हो जाती है। क्षयोपशम-वर्तमान कालमें उदय आनेवाले सर्वघाती स्पर्द्धकोंको उदयाभावी क्षय और उन्हींके आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाती प्रकृतिका उदय रहना इसे क्षयोपशम कहते हैं । कर्म प्रकृतियोंकी उदयादि अवस्थाओंमें आत्माके जो भाव होते हैं उन्हें क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। जिसमें कर्मोंकी उक्त अवस्थाएँ कारण नहीं होतीं उन्हें पारिणामिक भाव कहते हैं । अब गुणस्थानोंके संक्षिप्त स्वरूपका निदर्शन किया जाता है
१. मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उदयसे जिसकी आत्मामें अतत्त्वश्रद्धान उत्पन्न रहता है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं। इस जीवको न स्व-परका भेद ज्ञान होता है, न जिनप्रणीत तत्त्वका श्रद्धान होता है और न आप्त आगम तथा निग्रन्थ गुरुपर विश्वास ही होता है।
२. सासादन सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शनके कालमें एक समयसे लेकर छह आवली तकका काल बाकी रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभमें से किसी एकका उदय आ जानेके कारण जो चतुर्थ गुणस्थानसे नीचे आ पड़ता है परन्तु अभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नहीं आ पाया है उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। इसका सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धीका उदय आ जानेके कारण आसादन अर्थात् विराधनासे सहित हो जाता है।
३. मिश्र-सम्यग्दर्शनके कालमें यदि मिश्र अर्थात् सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिका उदय आ जाता है तो यह चतुर्थ गुणस्थानसे गिरकर तीसरे मिश्र गुणस्थानमें आ सकता है। जिस प्रकार मिले हुए दही और गुड़का स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवी जीवका परिणाम
भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्वसे मिश्रित रहता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव चतुर्थ गुणस्थानसे गिरकर ही तृतीय गुणस्थानमें आता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थानसे भी तृतीय गुणस्थानमें पहुँच जाता है।
४. असंयत सम्यग्दृष्टि-अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच प्रकृतियोंके और सादि मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानबन्धो चतष्क इन सात अथवा पांच प्रकृतियोंके उपशमादि होनेपर जिसकी आत्मामें तत्त्व श्रद्धान तो प्रकट हुआ है परन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय रहने में संयम भाव जागृत नहीं हुआ है उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
५. संयतासंयत-अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम होनेपर जिसके एकदेश चरित्र प्रकट हो जाता है उसे संयतासंयत कहते हैं। यह त्रस हिंसासे विरत हो जाता है इसलिए संयत
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हरिवंशपुराणे
कहलाता है और स्थावर हिंसासे विरत नहीं होता इसलिए असंयत कहलाता है। इसके अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें तारतम्य होनेसे दार्शनिक आदि ग्यारह अवान्तर भेद हैं ।
६. प्रमत्तसंयत-प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम और संज्वलनका तीव्र उदय रहनेपर जिसकी आत्मामें प्रमाद सहित संयम प्रकट होता है उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं। इस गणस्थानका धारक नग्न मुद्रामें रहता है। यद्यपि यह हिंसादि पापोंका सर्वदेश त्याग कर चुकता है तथापि संज्वलन चतष्कका तीव्र उदय साथमें रहनेसे इसके चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा तथा स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोंसे इसका आचरण चित्रल-दूषित बना रहता है।
७. अप्रमत्तसंयत-संज्वलनके तीव्र उदयकी अवस्था निकल जानेके कारण जिसकी आत्मासे ऊपर कहा हआ पन्द्रह प्रकारका प्रमाद नष्ट हो जाता है उसे अप्रमत्तसंयत कहते हैं। इसके स्वस्थान और सातिशयकी अपेक्षा दो भेद हैं जो छठे और सातवें गुणस्थानमें ही झूलता रहता है वह स्वस्थान कहलाता है और जो उपरितन गुणस्थानमें चढ़नेके लिए अधःकरणरूप परिणाम कर रहा है वह सातिशय अप्रमत्तसंयत कहलाता है। जिसमें समसमय अथवा भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकारके होते हैं उसे अधःकरण कहते हैं
८. अपूर्वकरण-जहाँ प्रत्येक समयमें अपूर्व-अपूर्व-नवीन-नवीन ही परिणाम होते हैं उसे अपूर्वकरण कहते हैं । इसमें सम समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों प्रकारके होते हैं परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं।
९. अनिवृत्तिकरण-जहाँ सम समयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश ही और भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम विसदृश ही होते हैं उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। ये अपूर्व करणादि परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्धताको लिये हुए होते हैं तथा संज्वलन चतुष्कके उदयकी मन्दतामें क्रमसे प्रकट होते हैं।
१०. सूक्ष्म साम्पराय-जहाँ केवल संज्वलन लोभका सूक्ष्म उदय रह जाता है उसे सूक्ष्म साम्पराय कहते हैं। अष्टम गुणस्थानसे उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी ये दो श्रेणियां प्रकट होती हैं। जो चारित्र मोहका उपशम करने के लिए प्रयत्नशील हैं वे उपशम श्रेणी में आरूढ़ होते हैं और जो चारित्र मोहका क्षय करनेके लिए प्रयत्नशील हैं वे क्षपक श्रेणीमें आरूढ़ होते हैं। परिणामोंकी स्थितिके अनुसार उपशम या क्षपक श्रेणी में यह जीव स्वयं आरूढ़ हो जाता है, बुद्धिपूर्वक आरूढ़ नहीं होता। क्षपक श्रेणीपर क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही आरूढ़ हो सकता है पर उपशम श्रेणीपर औपशमिक और क्षायिक दोनों सम्यग्दृष्टि आरूढ़ हो सकते हैं। यहाँ विशेषता इतनी है कि जो औपशमिक सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणीपर आरूढ़ होगा वह श्रेणोपर आरूढ़ होनेके पूर्व अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर उसे सत्तासे दूर कर द्वितीयौपशमिक सम्यग्दृष्टि हो जायेगा । जो उपशम श्रेणीपर आरूढ़ होता है वह सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके अन्त तक चारित्र मोहका उपशम कर चुकता है और क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होता है वह चारित्र मोहका क्षय कर चुकता है।
११. उपशान्तमोह-उपशम श्रेणीवाला जीव दसवें गुणस्थानमें चारित्र मोहका पूर्ण उपशम कर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानमें आता है। इसका मोह पूर्ण रूपमें शान्त हो चुकता है और शरद् ऋतुके सरोवरके समान इसकी सुन्दरता होती है। अन्तर्मुहूर्त तक इस गुणस्थानमें ठहरनेके बाद यह जीव नियमसे नीचे गिर जाता है।
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ततीयः सर्गः
पटप्रकृतिना सम्यग्बोधावृतिविधायिना । प्रतीहारात्मनान्येन ज्येष्ठदर्शनरोधिना ।।९५॥ मधुदिग्धोनखड्गारधारामाधुर्यधारिणा । मधेनेव परेणातिमतिविभ्रमकारिणा ॥१६॥ दृढेन निगडेनेव गतिधारणकारिणा । तथा चित्रकरेणेव विचित्राकारसर्गिणा ।।९।। कुलालेनेव चान्येन नीचैरुच्चैनियोगिना । 'माण्डाकरकरेणेव लभ्यविधनविधायिना ॥१८॥ कर्मणोऽष्टविधस्येवं भेदेन फलदायिना । मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने बाध्यन्ते जन्तवो भवे ॥१९॥ स्थानेषु नियमेनोर्व त्रयोदशसु भव्यता । जीवानां प्रथमस्थाने भव्यताऽभव्यताद्वयम् ॥१०॥
१२. क्षोणमोह-क्षपक श्रेणीवाला जीव दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहका पूर्ण क्षय कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानमें आता है यहाँ इसका मोह बिलकुल ही क्षीण हो चुकता है और स्फटिकके भाजनमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान इसकी स्वच्छता होती है।
१३. सयोगकेवली-बारहवें गुणस्थानके अन्त में शुक्लध्यानके द्वितीय पादके प्रभावसे ज्ञानावरणादि कर्मोका युगपत् क्षय कर जीव तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ इसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है इसलिए केवली कहलाता है और योगोंको प्रवृत्ति जारी रहनेसे सयोग कहा जाता है । दोनों विशेषताओं को लेकर इसका सयोगकेवली नाम प्रचलित है।
१४. अयोगकेवली-जिनकी योगोंकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । यह जीव इस गणस्थानमें 'अ इ उ ऋ ल' इन पाँच लघ अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने ही काल तक ठहरता है। अनन्तर शुक्लध्यानके चतुर्थं पादके प्रभावसे सत्तामें स्थित पचासी प्रकृतियोंका क्षय कर एक समयमें सिद्ध क्षेत्रमें पहुँच जाता है।
आचार्य जिनसेनने उक्त चौदह गुणस्थानों में सुखके तारतम्यका भी विचार किया है। सुख आत्माका गुण है और वह उसमें सदा विद्यमान रहता है परन्तु मोहके उदयसे उसका विभाव परिणमन होता रहता है अतः ज्यों-ज्यों मोहका सम्पर्क आत्मासे दूर होता जाता है त्यों-त्यों सुख गुण अपने स्वभावरूप परिणमन करने लगता है। मिथ्यादृष्टि जीवके मोहका पूर्ण उदय है इसलिए उसके सुखका बिलकुल अभाव बतलाया है। मिथ्यादृष्टि जीवके जो विषय सम्बन्धी सुख देखा जाता है वह सुखका स्वाभाविक रूप न होकर वैभाविक रूप ही है। बारहवें गुणस्थानमें मोहका सम्पर्क बिलकुल छूट जाता है इसलिए वहाँ सुख स्वभावरूपमें प्रकट हो जाता है परन्तु वहाँ उस सुखको वेदन करनेके लिए अनन्त ज्ञानका अभाव रहता है इसलिए उसे अनन्त सुख नहीं कहते । केवलज्ञान होनेपर वही सुख अनन्त सुख कहलाने लगता है।
१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तरायके भेदसे कर्म आठ प्रकारके हैं। इनमें से ज्ञानावरण कर्मपटके समान सम्यग्ज्ञानको ढकनेवाला है। दर्शनावरण कर्म द्वारपालके समान श्रेष्ठ दर्शनको रोकनेवाला है। वेदनीय कम मधुसे लिप्त तलवारको तीक्ष्ण धाराके समान माधुर्यको धारण करनेवाला है। मोहकर्म मदिराके समान बुद्धिमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाला है। आयुकर्म सुदृढ़ बेड़ीके समान किसी निश्चित गतिमें रोकनेवाला है। नामकर्म चित्रकारके समान विचित्र आकारोंको सृष्टि करनेवाला है। गोत्रकर्म कुम्हारके समान उच्च-नीचका व्यवहार करनेवाला है और अन्तरायकर्म भाण्डारीके समान प्राप्त होने योग्य पदार्थों में विघ्न करनेवाला है । इस प्रकार फल देनेवाले आठ प्रकारके कर्मोसे ये प्राणी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बद्ध होते रहते हैं ॥९५-९९।। दूसरे गुणस्थानसे लेकर अन्तिम गुणस्थान तकके तेरह गुणस्थानोंमें नियमसे जीवोंके भव्यपना ही रहता है और प्रथम गुणस्थानमें
१. भाण्डागार क., भाण्डाकार घ. ।
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हरिवंशपुराणे
सदृष्टिज्ञानचारित्रप्रतिपत्तिपुरःसराः । मोक्षप्रातिक्षमा भव्या अमव्यास्तद्विलक्षणाः ॥१०१॥ आसन्न भव्यता हेतोरर्वाग्दर्शिभिरुह्यते । विशुद्धदर्शनज्ञानचास्त्रित्रयलक्षणात् ॥१०२॥ सदाप्तवचनादेव बोद्धव्या दूरमव्यता । अमव्यता च भूतानामहेतुविषया ततः ॥ १०३ ॥ जीवस्वमावभावोऽयं भव्या भव्यत्वलक्षणः । एकाधारचुटन्माषककटूकात्ममाषवत् ॥ १०४॥ अनादिरन्तवान् भव्य व्यक्तीनां भवसागरः । मव्यसंतान सामान्यचिन्तनादन्तवर्जितः ॥ १०५ ॥ अनादिरपि चानन्तः संतानाद् व्यक्तितोऽपि च । अभव्यजीवराशीनां भवव्यसनसागरः ॥ १०६॥ भव्याभव्या भवेऽनन्ता जीवराशिद्वये स्थिताः । मिथ्यात्वाद् भुञ्जते दुःखं कालद्रव्यवदक्षयाः ॥ १०७॥ द्रव्यपर्यायरूपत्वान्नित्यानित्योभयात्मकाः । मिथ्यात्वा संयमैर्योगेः कषायैः कलुषीकृताः ॥ १०८ ॥ बध्नानाः सततं पाप कर्म दुर्मोचबन्धनम् । जन्तवः परिवर्तन्ते चतुर्गतिषु दुःखिनः ॥ १०९ ॥ रौद्रध्यानाविलास्मानो बह्वारम्भपरिग्रहाः । मिथ्यात्वाष्टमदक्लिष्टा विशिष्टानिष्टदृष्टयः ॥ ११० ॥ स्वप्रशंसापरा निन्द्याः परनिन्दाभिनन्दिनः । परस्वहरणे लुब्धा भोगतृष्णातिरेकिणः ॥१११॥
भव्यपना तथा अभव्यपना दोनों ही सम्भव हैं || १०० || सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको प्राप्तिपूर्वक जो जीव मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो इनसे विपरीत हैं वे अभव्य कहे जाते हैं ॥१०१॥ जो विशुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्कुचारित्ररूपी लक्षण से युक्त हैं वे आसन्नभव्य हैं और उनकी आसन्नभव्यता आधुनिक पुरुषोंके द्वारा भी जानी जा सकती है । परन्तु दूर भव्यता और अभव्यता सदा आप्त भगवान् के वचनोंसे ही जानी जा सकती है क्योंकि वह साधारण प्राणियों के हेतुका विषय नहीं है अर्थात् साधारण व्यक्ति उसे हेतु द्वारा जान नहीं सकते ।। १०२ - १०३ ।। यह भव्यत्व और अभव्यत्व भाव जीवका स्वाभाविकपारिणामिक भाव है तथा एक बरतनमें भरकर सीजनेके लिए अग्निपर रखे हुए सीजनेवाले और न सीजनेवाले उड़द के समान हैं । भावार्थ - भव्यजीव निमित्त मिलनेपर सिद्ध पर्यायको प्राप्त हो जाते हैं और अभव्य जीव बाह्य निमित्त मिलनेपर भी निजकी योग्यता न होनेसे सिद्ध पर्याय नहीं प्राप्त कर पाते || १०४ || भव्य जीवोंका संसार-सागर अनादि और सान्त है तथा सामान्य भव्यजीवोंकी अपेक्षा अनादि अनन्त है || १०५ || अभव्यजीव राशिका संसारसागर व्यक्ति तथा समूह दोनोंकी अपेक्षा अनादि अनन्त है || १०६ ||
संसारमें जीवोंकी दो राशियाँ हैं - एक भव्य और दूसरी अभव्य । ये दोनों ही प्रकारकी राशियाँ अनन्त हैं, मिथ्यात्व कर्मके उदयसे दुःख भोगती रहती हैं और कालद्रव्यके समान अक्षय - अविनाशी हैं अर्थात् जिस प्रकार कालद्रव्यका कभी अन्त नहीं होता उसी प्रकार उन दोनों राशियों का भी कभी अन्त नहीं होता || १०७॥ ये जीव द्रव्यकी अपेक्षा नित्य हैं पर्यायको अपेक्षा अनित्य हैं, तथा एक साथ दोनोंकी अपेक्षा उभयात्मक - नित्यानित्यात्मक हैं, मिथ्यात्व, अविरति, योग और कषायके द्वारा कलुषित हो रहे हैं तथा जिसका छूटना कठिन है ऐसे पापकर्मका निरन्तर बन्ध करते हुए दुःखो हो चारों गतियोंमें घूमते रहते हैं ॥१-०८-१०९ ॥
जिनकी आत्मा निरन्तर रोद्रध्यानसे मलिन है, जो बहुत आरम्भ और परिग्रहसे सहित हैं, मिथ्यादर्शन तथा ज्ञानमद, पूजामद आदि आठ मदोंसे क्लेश उठाते हैं, जिनकी दृष्टि अत्यन्त अनिष्टरूप है, जो आत्मप्रशंसा में तत्पर हैं, निन्दनीय हैं, दूसरेकी निन्दासे आनन्द मानते हैं,
१. चुटन्माषाश्च कङ्कटूकात्ममाषाश्चेति चुटन्माषकङ्कटूकात्ममाषाः, एकाधाराश्च ते चुटन्माषकङ्कटुकात्ममाषाश्च, ते तथोक्ताः तेषामिव तद्वत् । एकाधारे एकस्मिन् भाजने एके चुटन्माषाः निष्पन्नाः अन्ये कङ्कटूकात्ममाषाः अनिष्पन्नाः तेषामिव ।
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तृतीयः सर्गः
३५ मधुमांससुराहाग मानुषाः कर्मभूमिजाः । तिर्यञ्चो व्याघ्रसिंहाया बन्धका नारकायुषः ।।११३॥ जायन्ते चातिशीतोष्णदह्यमानशरोरिषु । चण्डा नरककुण्डेषु नारकाः षण्डकात्मकाः ॥१३॥ न तद् द्रव्यं न तत् क्षेत्रं न सा कालकलाऽपि च । स्वभावो यत्र दुःखस्य विश्रामो नरक जाम् ॥११॥ लामः साधारणस्तेषामकाले मरणं न यत् । वल्लभ जीवलोकस्य सुलभं चिरजीवितम् ॥११५॥ रत्नप्रभादिषु ज्ञेयं पृथिवीष्वथ सप्तसु । महातमःप्रमान्तासु प्रमाणमिदमायुषः ॥११॥ एकत्रयस्ततः सप्त. दश सप्तदश क्रमात् । द्वाविंशतिस्त्रयस्त्रिंशत् सागराः परमा स्थितिः ॥११७॥ पूर्वात्पूर्वादधोऽधः स्यात् जघन्या समयाधिका । दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां क्षितौ स्थितिः ॥११॥ क्रोधमानमहामायालोमचिन्तावशीकृताः । आर्तध्यानमहावर्तसततभ्रान्तमानसाः ॥१९॥ तिर्यञ्चो मानुषा देवा नारका वा कुदृष्टयः । तिर्यग्गतिं प्रपद्यन्ते त्रसस्थावरसंकुलाम् ।।१२०॥ पृथिव्यप्कायभेदेषु ते तेजोऽनिलमूर्तिषु । वनस्पतिषु चाइनन्ति जन्मदुःखं पुनः पुनः ॥१२१॥ कृम्यादिद्वीन्द्रियेष्वेके यूकादित्रीन्द्रियेष्वपि । चतुरिन्द्रियभेदेषु भ्रमन्ति भ्रमरादिषु ॥१२२॥ पञ्चेन्द्रियप्रकारेषु पक्षिमत्स्यमृगादिषु । ते भजन्ते चिरं दुःखं तिर्यग्जन्मनि जन्तवः ॥१२३॥ अन्तर्मुहूर्त्तकालञ्चातिरश्चामधरा स्थितिः । पूर्वकोटीः परा भोगभूमौ पल्योपमत्रयम् ॥१२४॥ स्वमावादार्जवोपेताः स्वभावान्मृदवो मताः । स्वमावाद् मद्रशीलाश्च स्वभावात् पापभीरवः ॥१२५॥
दूसरेका धन हरण करनेके लोभी हैं, जिन्हें भोगोंको तृष्णा अत्यधिक है, जो मधु, मांस और मदिराका आहार करते हैं ऐसे कर्मभूमिके मनुष्य और व्याघ्र, सिंह आदि तियंच नरकायुका बन्ध करते हैं ॥११०-११२।। एवं जहाँ अत्यन्त शीत और उष्णतासे शरीर जल रहे हैं ऐसे नरककुण्डोंमें अत्यन्त क्रोधी नारकी उत्पन्न होते हैं। वहाँ इन नारकियोंके खण्ड-खण्ड हो जाते हैं ।।११३।। वहां न वह द्रव्य है, न क्षेत्र है और न वह कालकी कला भी है जहाँ नारको जीवोंके दुःखका स्वाभाविक विश्राम हो सके ॥११४।। उन नारकियोंके यदि एक साधारण लाभ है, तो यही कि उनका अकालमें मरण नहीं होता। संसारके समस्त प्राणियोंको चिरकाल तक जीवित रहना प्रिय है सो यह चिरजीवन नारकियोंको सुलभ है ॥११५॥ रत्नप्रभाको आदि लेकर महातमःप्रभा पर्यन्त-सातों पृथिवियोंमें नारकियोंकी आयुका प्रमाण क्रमसे एकसागर, तीनसागर, सातसागर, दशसागर, सत्रहसागर, बाईससागर और तैंतीससागर जानना चाहिए। यह इनकी उत्कृष्ट स्थिति है ॥११६-११७॥ पूर्व-पूर्व नरकोंकी जो उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक होनेपर आगामी नरकोंको जघन्य स्थिति कहलाती है। प्रथम नरककी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षकी है॥११८।।
__ जो क्रोध, मान, महामाया और लोभके कारण चिन्तातुर है तथा आर्तध्यानरूपी बड़ी भारी भंवरके कारण जिनका मन निरन्तर घमता रहता है, ऐसे मिथ्यादष्टि तिर्यंच, मनुष्य, देव और नारकी त्रसस्थावर जीवोंसे भरी हुई तिर्यंचगतिको प्राप्त होते हैं ॥११२-१२०॥ तिर्यंचगतिमें जन्म लेनेवाले प्राणो पृथिवीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायमें बार-बार जन्म लेनेका दुःख भोगते रहते हैं ॥१२१॥ कितने ही कृमि आदि दो इन्द्रियोंमें, यूक आदि तोन इन्द्रियोंमें, भ्रमर आदि चतुरिन्द्रियोंमें और पक्षी, मत्स्य, मृग आदि पंचेन्द्रियोंमें चिरकाल तक दुःख भोगते हैं ॥१२२-१२३॥ कर्मभूमिज तियंचोंकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक करोड़ वर्ष पूर्वकी है तथा भोगभूमिज तियंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और जघन्य एक पल्य प्रमाण है ।।१२४॥
जो मनुष्य स्वभावसे हो सरल हैं, स्वभावसे हो कोमल हैं, स्वभावसे ही भद्र हैं, स्वभावसे
१. खण्डकात्मकाः म. । २. कालस्य तिरश्चा-म. ।
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हरिवंशपुराणे
प्रकृत्या मधुमांसादिसावधाहारवर्जिताः । अर्जयन्ति सुमानुष्यं कुमानुष्यं कुकर्मभिः ॥ १२६ ॥ पापनिर्जरणात् कैश्चित् तिर्यग्नारकजन्तुभिः । प्राप्यते प्रियमानुष्यं देवैश्च शुभकर्मभिः ॥ १२७ ॥ मनुष्यश्वेऽपि जन्तूनामार्यम्लेच्छकुलाकुले । दुःखमेवेप्सितालाभाद् विप्रयोगात्प्रियैर्जनैः ॥ १२८ ॥ नापि प्राप्तेप्सितार्थानां संयुक्तानां प्रियैर्जनैः । विषयेन्धनदीप्तेच्छापावकानां नृणां सुखम् ॥ १२९॥ यदेव जायते नृत्वं केषांचिन्मोक्षकारणम् । आसन्न भव्य सत्त्वानां दर्शनादिनिषेविणाम् ॥१३०॥ तदेव जायतेऽन्येषां दीर्घसंसारकारणम् । सुदूर भव्य सत्वानां नरत्वं मुग्धचेतसाम् ॥१३१॥ कर्मभूमिषु सर्वासु भोगभूमिषु च स्थिती । तिरश्चामिव निश्श्रेये नृस्थिती च परावरे ॥१३२॥ अब्भक्षा वायुभक्षाश्च मूलपत्रफलाशिनः । उपशान्तधियोऽभ्यस्तकषायेन्द्रियनिग्रहाः ॥ १३३॥ तापसा बालतपसः कायक्लेशपरायणाः । अकामनिर्जरायुक्तास्तिर्यञ्चो बन्धरोधिनः ॥ १३४ ॥ भावना व्यन्तरा देवा ज्योतिष्काः कल्पवासिनः । अल्पर्द्धयो हि जायन्ते ते मिथ्यात्वमलीमसाः ॥ १३५ ॥ देवाः कन्दर्पनामानो नित्यं कन्दर्परञ्जिताः । आभियोग्याः सभायोग्याः क्लिष्टाः किल्विषकादयः ॥ १३६ ॥ ते महर्द्धिकदेवानां दृष्ट्वैश्वर्यं महोदयम् । देवदुर्गतिदुःखार्ता दुःखमश्नन्ति मानसम् ॥१३७॥ सम्यग्दर्शनलामस्य दुर्लभत्वादभव्यवत् । भव्या अपि निमज्जन्ति भवदुःखम होदधौ ॥ १३८ ॥ भावनानां भवत्यब्धिः साधिकः परमा स्थितिः । भौमानां पल्यमन्या तु दशवर्षसहस्रिका ॥ १३९॥ ज्योतिषां साधिकं पल्यं पल्याष्टशंशोऽवरा परा । स्वर्गिणां सागराः पल्यं साधिकं ह्यपरा स्थितिः ॥ १४०॥
ही पापभीरु हैं और स्वभावसे ही मधुमांसादि सावद्य आहारके त्यागी हैं वे उत्तम मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं तथा जो खोटे कर्म करते हैं वे खोटी मनुष्यपर्याय प्राप्त करते हैं ||१२५-१२६ || पाप कर्मोंकी निर्जरा होनेसे कितने ही तिर्यंच तथा नारकी और शुभ कर्म करनेवाले देव भी उत्तम पर्याय प्राप्त करते हैं ||१२७|| आर्य तथा म्लेच्छ कुलसे भरा हुआ मनुष्य जीवन प्राप्त होनेपर भी इच्छित वस्तुकी प्राप्ति नहीं होनेसे तथा प्रियजनोंके साथ वियोग होने के कारण जीवोंको दुःख ही प्राप्त होता रहता है || १२८|| कितने ही मनुष्यों को यद्यपि इच्छित पदार्थ प्राप्त होते रहते हैं और प्रियजनोंके साथ उनका समागम भी होता रहता है तथापि विषयरूपी ईंधन के द्वारा उनकी इच्छारूपी अग्नि निरन्तर प्रज्वलित होती रहती है। इसलिए उन्हें सुख प्राप्त नहीं होता || १२९ || जो मनुष्य भव, सम्यग्दर्शनादिको धारण करनेवाले किन्हीं निकट भव्य जीवोंको मोक्षका कारण होता है वही मनुष्य भव, मोहपूर्ण चित्तको धारण करनेवाले दूरानुदूर भव्य जीवोंको दीर्घं संसारका कारण है ।।१३०-१३१|| समस्त कर्मभूमियों और भोगभूमियोंमें मनुष्योंकी उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति तिर्यंचों के समान जानना चाहिए ॥१३२॥
जो केवल जल, वायु अथवा वृक्षोंके मूल, पत्र तथा फलोंका भक्षण करते हैं, जिनकी बुद्धि अत्यन्त शान्त है, जिन्होंने कषाय तथा इन्द्रियोंके निग्रहका अभ्यास कर लिया है, जो बालतप करते हैं तथा जो कायक्लेश करनेमें तत्पर रहते हैं, ऐसे तापसी और अकामनिर्जरासे युक्त बन्धनबद्ध तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा अल्प ऋद्धिके धारक कल्पवासी देव होते हैं | ये सब मिथ्यादर्शन से मलिन होते हैं ।। १३३ - १३५ ॥ इनमें जो कन्दर्प नामके देव हैं वे निरन्तर कामसे आकुलित रहते हैं, आभियोग्य जातिके देव सभामें बैठनेके अयोग्य होते हैं और किल्विषक देव सदा संक्लेशका अनुभव करते रहते हैं || १३६ || ये बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंके धारक देवोंके महाभ्युदयसे युक्त ऐश्वर्यंको देखकर तथा देव होनेपर भी अपनी दुर्गतिका विचार कर दुःखसे पीड़ित होते हुए मानसिक दुःख उठाते रहते हैं || १३७ || सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति दुर्लभ होनेसे भव्य जीव भी अभव्यकी तरह संसारके दुःखरूपी महासागरमें गोता लगाते रहते हैं | | १३८।। भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक सागर है, व्यन्तर देवोंकी एक पल्य प्रमाण है और जवन्य स्थिति दस हजार वर्षकी है ॥१३९|| ज्योतिषी देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ
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तृतीयः सर्गः
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मव्यसरवैयंदा कैश्चित् लभ्यन्ते पञ्च लब्धयः । क्षयोपशमसंशुद्धिक्रियाप्रायोग्य देशनाः ॥१४॥ अधःप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणं तदा । तथाऽनिवृत्तिकरणं विधाय करणं त्रिधा ॥१४२॥ ततो दर्शनमोहस्य विधायोपशमं ततः । क्षयोपशमभावं च क्षयं चात्मविशुद्वितः ॥१४३॥ पूर्वमेवीपशमिकं क्षायोपशमिक क्रमात् । क्षायिकं तैः समुत्पाद्य सम्यक्त्वमनुभूयते ॥१४४॥ तथा चारित्रमोहस्य क्षयोपशमलब्धितः । चारित्रं प्रतिपद्यामी क्षयं कुर्वन्ति कर्मणाम् ॥१४५॥ ततोऽनन्तसुख मोक्षमनन्तज्ञानदर्शनम् । अनन्तवीर्यमध्यास्य तेऽधितिष्ठन्ति निवृताः ॥१४६॥ ये तु चारित्रमोहस्य नितान्तबलवत्तया। दर्शनादेव निष्कम्पा देवायुष्कस्य बन्धकाः ॥१४७॥ संयतासंयता ये च नराः कल्पेषु तेऽमराः । सौधर्माद्यच्युतान्तेषु संभवन्ति महर्द्धयः ॥१४८॥ सरागसंयमश्रेष्टाः संयता ये तु तेऽनघाः । कल्पे सुरा भवन्त्येके कल्पातीतास्तथा परे ॥१४॥ नवगैवेयकावासा नवानुदिशवासिनः । कल्पातीतास्तथा ज्ञेयाः पञ्चानुत्तरवासिनः ॥१५०॥ इन्द्रायाः कल्पजा देवा अहमिन्द्राश्च सत्पथे । सुखं सुविहितस्यामी भुञ्जते तपसः फलम् ॥१५१॥ सौधर्मशानयोरायुः साधिके सागरोपमे । सानत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोः सप्त सागराः ॥१५२॥ 'दशार्णवोपमायुष्का ब्रह्मब्रह्मोत्तरामराः । लान्तवेऽपि च कापिष्टे स्युश्चतुर्दश सागराः ॥१५३॥
अधिक एकपल्य है, जघन्य स्थिति पल्यके आठवे भाग प्रमाण है और स्वर्गवासी देवोंको उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर तथा जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है ॥१४०।।
जब कोई भव्य जीव, क्षयोपशम, विशुद्धि, प्रायोग्य, देशना तथा अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारको करण लब्धि इन पंच लब्धियोंको प्राप्त करता है तब वह आत्म-विशुद्धिके अनुसार दर्शन-मोहनीय कर्मका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कर सर्वप्रथम औपशमिक, फिर क्षायोपशमिक और तदनन्तर क्रमसे क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कर उसका अनुभव करता है ।।१४१-१४४|| सम्यक्त्व प्राप्त करनेके बाद कितने ही भव्य जीव चारित्र मोहके क्षयोपशमसे चारित्र प्राप्त कर कर्मोका क्षय करते हैं तदनन्तर निर्वाणको प्राप्त कर अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्यसे युक्त होते हुए मोक्षमें निवास करते हैं ॥१४५-१४६।। जो भव्य जीव चारित्रमोहकी अत्यन्त प्रबलतासे चारित्र नहीं धारण कर पाते हैं वे निश्चल सम्यकत्वके प्रभावसे ही देवायुका बन्ध कर लेते हैं ।।१४७|| इसी प्रकार जो मनुष्य संयतासंयत अर्थात् देशचारित्रके धारक हैं वे सौधर्मसे लेकर अच्युत स्वगं तकके कल्पोंमें बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंके धारक देव होते हैं ।।१४८॥
जो मनुष्य सराग संयमसे श्रेष्ठ तथा निर्दोष संयमके धारक हैं, उनमें से कितने ही कल्पवासी देव होते हैं और कितने ही कल्पातीत देव ॥१४९।। नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश तथा पंच अनुत्तर विमानोंमें रहनेवाले देव कल्पातीत कहलाते हैं ।।१५०॥ कल्पवासी देव इन्द्रादिकके भेदसे अनेक प्रकारके हैं और कल्पातीत देव केवल अहमिन्द्र कहलाते हैं-उनमें भेद नहीं होता। इन सभीने सन्मार्गमें चलकर जो उत्तम तप किया था वे देवगतिमें उसके फलस्वरूप सुखका उपभोग करते हैं।।१५१।। सौधर्म-ऐशान स्वर्गमें देवोंकी आयु कुछ अधिक दो सागर, सानत्कुमारमाहेन्द्र स्वर्गमें कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में कुछ अधिक दश सागर, लान्तव
१. दशसागरप्रमितायुष्काः । * कुछ अधिक आयु घातायुष्क जीवोंकी अपेक्षा है। इसका सम्बन्ध बारहवें स्वर्ग तक ही रहता है, क्योंकि घातायुष्क जीवोंकी उत्पनि यहीं तक होती है। जो उपरितन स्वर्गोंकी आयु बांधकर पोछे संक्लेशरूप परिणाम हो जाने के कारण नीचेके स्वर्गोंमें उत्पन्न होते हैं वे घातायुष्क कहलाते हैं। इनकी आयु निश्चित आयुसे आधा सागर अधिक होती है।
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हरिवंशपुराणे
भायुः शुक्रमहाशुक्रकल्पयोः षोडशाब्धयः । शतारे च सहस्रारे तथाऽष्टादश सागराः ॥१५॥ विंशत्यब्धिसमायुष्का आनतप्राणतामराः । आरणाच्युतयोदेवा द्वाविंशत्यब्धिजीविनः ॥१५५॥ एकोत्तरा तु वृद्धिः स्यान्नषवेयकेष्वियम् । उत्कृष्टस्थितिरेषो साधिका त्वपरा स्थितिः ।।१५६॥ नवस्वनुदिशेषु स्याद् द्वात्रिंशत्सागरोपमा । परा स्थिति धन्या स्यादेकत्रिंशत्पयोधयः ॥१५॥ त्रयस्त्रिंशदुदन्वन्तः पराऽनुत्तरपञ्चके । सर्वार्थसिद्धितोऽन्यत्र द्वात्रिंशदधरा स्थितिः ॥१५॥ पल्यानि पञ्च सौधर्मे देवीनां परमा स्थितिः । आसहस्रारकल्पात्तु तान्येव द्वयधिकानि तु ॥१५९॥ ततः सप्तमिराधिक्ये पञ्च पञ्चाशदुच्यते । पल्यानि स्वल्पकालास्ताः परतस्तु न योषितः ।।१६०॥ उपपादश्च सर्वासा कर्मशक्तिनियोगतः । कल्पवासीसुरस्त्रीणामाये कल्पद्वये सदा ॥१६॥ ज्योतिषो भावना भौमाः सौधर्मशानवासिनः । देवाः कायप्रवीचारास्तीवमोहोदयत्वतः ॥१६॥ सानस्कुमारमाहेन्द्रकल्पद्वयसमुद्भवाः । देवाः स्पर्शप्रवीचाराः मध्यमोहोदयत्वतः ॥१६३॥ ब्रह्मब्रह्मोत्तरोद्भूताः कान्ताः लान्तवकल्पजाः । देवा रूपप्रवीचाराः कापिष्टप्रभवास्तथा ॥१६॥ देवाः शुक्रमहाशुक्रशतारस्थितयस्तथा । सहस्रारोद्भवाः शब्दप्रवीचारा भवन्त्यमी ॥१५॥ आनतप्राणतोद्भता आरणाच्युतवासिनः । देवा मनःप्रवीचारा मन्दमोहोदयत्वतः ॥१६॥ परतस्त्वप्रवीचारा यावरसर्वार्थसिद्धिजाः । शमप्रधानशर्माख्या मोहाव्यक्तोदयस्वतः ।।१६७॥
कापिष्ट स्वर्गमें कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र-महाशुक्र स्वर्गमें कुछ अधिक सोलह सागर, शतारसहस्रारमें कुछ अधिक अठारह सागर, आनत-प्राणत स्वर्ग में बीस सागर और आरण-अच्युत स्वर्गमें बाईस सागर प्रमाण आयु है ॥१५२-१५५।। नव ग्रैवेयकोंमें एक-एक सागर बढ़ती हुई आयु है अर्थात् प्रथम ग्रेवेयकमें बाईस सागरकी आयु है और आगेके ग्रेवेयकोंमें एक-एक सागरकी बढ़ती हुई नौवें ग्रैवेयकमें इकतीस सागरकी हो जाती है। पूर्व-पूर्व स्वर्गोंकी जो उत्कृष्ट स्थिति है वही एक समय अधिक होनेपर आगे-आगेके स्वर्गोंकी जघन्य स्थिति होती है ॥१५६॥ नव अनुदिशोंमें बत्तीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है और एक समय अधिक इकतीस सागर जघन्य स्थिति है ॥१५७|| पंच अनुत्तर विमानोंमें तैंतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थसिद्धिको छोड़कर बाकी चार अनुत्तरोंमें जघन्य स्थिति एक समय अधिक बत्तीस सागर प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धि में जघन्य स्थिति नहीं होती, वहां सब एक ही समान स्थितिके धारक होते हैं ॥१५८॥ सौधर्म स्वर्गमें देवियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पांच पल्य प्रमाण है। उसके आगे सहस्रार स्वर्ग तक प्रत्येक स्वर्गमें दोदो सागर अधिक है । उसके आगे सात-सात सागर अधिक है। इस तरह सोलहवें स्वर्गमें पचपन पल्यकी आयु है। उसके आगे स्त्रियोंका सद्भाव नहीं है ॥१५९-१६०॥ कर्मोंको सामर्थ्यसे समस्त कल्पवासिनी देवियोंका उत्पाद सदा पहले और दूसरे स्वर्ग में ही होता है ॥१६१॥ मोहका तीव्र उदय होनेसे ज्योतिषी, भवनवासी, व्यन्तर और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्गके निवासी देव कामसे मैथुन करते हैं ।।१६२।। मोहका मध्यम उदय होनेसे सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देव स्पर्श मात्रसे प्रवीचार करते हैं अर्थात वहाँके देव-देवियोंकी कामबाधा परस्परके स्पर्श मात्रसे शान्त हो जाती है ॥१६३॥ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्गके देव, रूप मात्रसे प्रवीचार करते हैं अर्थात् वहांके देव-देवियोंका रूप देखने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ।।१६४॥ शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गके देव शब्दसे प्रवीचार करते हैं । अर्थात् वहाँके देव-देवियोंके शब्द सुनने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥१६५।। मोहका उदय अत्यन्त मन्द होनेसे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गके देव मनसे प्रवीचार करते हैं । अर्थात् वहाँके देव मनमें देवियोंका ध्यान आने मात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं ।।१६६॥ उसके आगे सर्वार्थसिद्धि तकके देव मोहका उदय अव्यक्त होनेसे प्रवीचार रहित हैं अर्थात् उन्हें कामकी बाधा उत्पन्न ही नहीं होती। वहाँके अहमिन्द्र शान्ति प्रधान सुखसे युक्त
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तृतीयः सर्गः
यथास्थित्या तथा त्या प्रभावेन सुखेन ते । विशुद्ध्यापि च लेश्यानामिन्द्रियावधिगोचरैः ॥१६८॥ उपर्युपरि सौधर्मात् पूर्वतः पूर्वतोऽधिकाः । अल्पा गतितनुत्सेधैरभिमानपरिग्रहैः ॥ १६९॥ मुक्तिमूल महान रत्नस्यायत्नसाधनम् । ध्यानस्वाधीन सर्वार्थं भुक्त्वा ते वैबुधं सुखम् ॥ १७० ॥ दिवश्च्युता विदेहेषु भरतैरावतेषु वा । कर्मभूमिविभागेषु भवन्ति पुरुषोत्तमाः ॥ १७१ ॥ षट्खण्डप्रभवः केचिन्निधिरत्नोपलक्षिताः । सिद्धिसौख्यानुसंधानसमर्थचरमक्रियाः ॥१७२॥ केचिद्वित्रिभवाश्चान्ये वलाः स्वर्गापवर्गिणः । निदानिनस्तु तत्रान्ये केशवप्रतिशत्रवः ॥ १७३ ॥ केचित् पूर्वभवाभ्यस्त शुभषोडशकारणाः । कीत्र्यास्तीर्थकृतो भूत्वा प्रभवन्ति जगत्त्रये ॥१७४॥ सम्यक्त्व स्थिरमूलस्य ज्ञानकाण्डधृतात्मनः । चारित्रस्कन्धबन्धस्य नयशाखोपशाखिनः ॥ १७५ ॥ नृसुरश्रीप्रसूनस्य जिनशासनशाखिनः । सेवितस्य लभन्तेऽग्रे ते निर्वाणमहाफलम् ॥ १७६॥ [ युग्मम् ] परमानन्दरूपं ते निर्वाणफैलसंभवम् । सारमौख्यरसं प्राप्ताः सिद्धाः तिष्ठन्ति निर्वृताः ॥ १७७॥ इत्थमाकर्ण्य सा धर्म भुवनत्रयपद्मिनी । मोक्षमार्गार्कसंपर्कात् चकासेति प्रमोदिनी ॥ १७८ ॥ प्राक् प्रशस्तानुरागाच्या धर्मश्रवणतो दधुः । लोकाखयोऽग्निशुद्धाच्छरत्नजातिचयश्रियम् ॥ १७९ ॥ सद्धर्मदेशना जैनी जगत्त्रयतन्भृताम् । भ्रान्तिशेष रजः शेषमं भ्रौलीवाभ्यशीशम ॥१८०॥
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होते हैं ||१६७|| सोधर्मं स्वर्गसे लेकर ऊपर-ऊपर के देव, पूर्व- पूर्वको अपेक्षा स्थिति, द्युति, प्रभाव, सुख, लेश्याओंकी विशुद्धता, इन्द्रिय तथा अवधिज्ञानके विषयकी अपेक्षा अधिक अधिक हैं तथा गति, शरीरकी ऊंचाई, अभिमान और परिग्रहकी अपेक्षा होन-हीन हैं ।। १६८ - १६९ ॥ मुक्ति के कारणभूत महा अमूल्य रत्नत्रयके प्रभावसे जिसकी सिद्धि अयत्न साध्य होती है तथा जहाँ इच्छा करते ही समस्त पदार्थोंकी सिद्धि हो जाती है ऐसे देवों सम्बन्धी सुख भोगकर वे देव स्वर्गसे च्युत हो विदेह, भरत और ऐरावत इन कर्मभूमियोंमें उत्तम पुरुष अथवा नारायण उत्पन्न होते हैं ॥ १७० - १७१ ॥ कितने ही देव, नौ निधियों और चौदह रत्नोंसे सहित छह खण्डोंके प्रभु होते हैं अर्थात् चक्रवर्ती होते हैं। इनकी अन्तिम क्रियाएँ मोक्षसुख प्राप्त करने में समर्थ होती हैं || १७२ || कितने ही दो-तीन भव धारण कर मोक्ष चले जाते हैं, कोई बलभद्र होते हैं, और वे स्वर्गं अथवा मोक्ष जाते हैं तथा पूर्वं भवमें निदान बाँधनेवाले कितने ही लोग नारायण एवं प्रतिनारायण होते हैं || १७३ || जिन्होंने पूर्वं भव में शुभ सोलह कारण भावनाओंका अभ्यास किया है ऐसे कितने ही लोग कीर्तिके धारक तीर्थंकर होते हैं और वे तीनों जगत्का प्रभुत्व प्राप्त करते हैं || १७४।। सम्यग्दर्शन ही जिसकी स्थिर जड़ है, जो ज्ञानरूप पिण्डपर टिका हुआ है, चारित्ररूपी स्कन्धको धारण करनेवाला है, नयरूपी शाखाओं और उपशाखाओंसे सहित है तथा मनुष्य और देवों की लक्ष्मीरूप जिसमें फूल लग रहे हैं ऐसे जिनशासनरूपी वृक्षकी जो सेवा करते हैं वे उसके अग्रभागपर स्थित निर्वाणरूपी महाफलको प्राप्त होते हैं ।। १७५ - १७६ ।। निर्वाणरूपी फलमें उत्पन्न होनेवाले परमानन्दस्वरूप श्रेष्ठ सुखरूपी रसको प्राप्त हुए सिद्ध परमेष्ठी निर्वाणको प्राप्त हो सिद्धालय में सदा विद्यमान रहते हैं || १७ || इस प्रकारका धर्मोपदेश सुनकर वह लोकत्रयरूपी कमलिनी, मोक्षमार्गरूपी सूर्यं संसगं प्रमुदित हो सुशोभित हो उठो || १७८ || जो पहले से ही प्रशस्त अनुरागले सहित थे ऐसे तीनों लोकोंके जीव धर्मं श्रवण कर अग्निसे शुद्ध हुए निर्मल जाति के रत्नसमूहकी शोभा धारण कर रहे थे || १७९ || जिस प्रकार मेघमाला अवशिष्ट धूलिके समूहको शान्त कर देती है उसी
१. स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः त. सू. च. अ. । २. गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः त. सू. च. अ. । ३. कीर्तनीयाः प्रशस्ता इत्यर्थः । ४. बल- म. ।
५ मेघमालेव |
६. शमयामास ।
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हरिवंशपुराणे अथ दिव्यध्वनेरन्ते जैनस्य तदनन्तरम् । चक्रुस्तदनुसंधानं देवा दुन्दुमिनिःस्वनाः ॥१८॥ पुष्पवृष्टिं प्रवर्षन्तो रस्नवृष्टिं च तुष्टुवुः । देवास्तत्र वनोद्देशे मुहुश्चैकं महामुनिम् ॥१८॥ तं निशम्य मुनिश्रेष्ठं पूज्यमानं सुरेश्वरैः । श्रेणिको गौतमं नत्वा पप्रच्छ बहुविस्मयः ॥१८३॥ भगवन् ! ब्रूहि किनामा मुनिः सुरगणैरयम् । पूज्यते पूज्य ! किंवंशः प्राप्तो वाऽद्य किमद्भुतम् ॥१८॥ गदतिस्म ततस्तस्मै विस्मिताय गतस्मयः । आगमानुमितिज्ञाप्यविज्ञेयः श्रुतकेवली ॥१८५॥ श्रीमनोऽस्य महाराज ! शृणु श्रेणिक सन्मतेः । मुने म च वंशं च माहात्म्यं च वदामि ते ॥१८६॥ जितशत्रः क्षितौ ख्यातो धरित्रीपतिरत्र यः । प्राप्त एव धरित्रीश! भवतः श्रोत्रगोचरम् ॥१८७॥ हरिवंशनभोभानुरभिमतनृपस्थितिः। राज्य श्रियं परित्यज्य प्रावाजीजिनसंनिधौ ॥१८॥ तपो दुष्करमन्येषां बाह्यमाध्यात्मिकं च सः । कृत्वा प्राप्तोऽद्य घात्यन्ते केवलज्ञानमदभुतम् ॥१८९॥ तेनायममरैः सर्वैर्जनमार्गोपवृंहकैः । स पुनर्बोधिलामार्थ भक्तितोऽत्यर्चितो यतिः ॥१९॥ पुनः प्रगम्य भक्त्याऽसौ समुतकुतूहलः । पृच्छति स्म गणाधीशमिति श्रेणिकभपतिः ॥१९॥ क एष भगवान् ! वंशो हरिशब्दोपलक्षितः । जातः कदा क्व वा कीर्त्यः को वास्य प्रभवः पुमान् ॥१९२॥ केयन्तः समतिक्रान्ताः प्रजारक्षणदक्षिणाः । धर्मार्थकाममोक्षाढ्या हरिवंशक्षितीश्वराः ॥१९३।। इह भारतजातानां जिनानां चक्रवर्तिनाम् । हलिनां वासुदेवानां तथा चैषां प्रतिद्विषाम् ॥१९॥
प्रकार जिनेन्द्र भगवानको सद्धर्मदेशना जगत्त्रयके जीवोंकी समस्त भ्रान्तिको शान्त कर देती है ।।१८०॥ अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान्की दिव्यध्वनिके बाद देवोंने उसका अनुसन्धान किया। तथा कुछ देव, दन्दभिके समान शब्द करते, पुष्पवृष्टि एवं रत्नवष्टि करते हए वनके एक देशमें स्थित एक महामुनिकी स्तुति करने लगे ।।१८१-१८२।। इन्द्रोंके द्वारा पूजित उन श्रेष्ठ मुनिका नाम सुनकर अत्यधिक आश्चर्यसे युक्त राजा श्रेणिकने गौतम स्वामीको नमस्कार कर पूछा ॥१८३।। कि हे भगवन् ! हे पूज्य ! कृपा कर कहिए कि देव लोग जिनको पूजा कर रहे हैं ऐसे ये मुनि किस नामके धारक हैं ? इनका क्या वंश है ? और आज किस अतिशयको प्राप्त हुए हैं ? ॥१८४|| तदनन्तर जिनका अहंकार नष्ट हो गया था और जिन्होंने आगम तथा अनुमानके द्वारा जानने योग्य पदार्थों को जान लिया था ऐसे श्रुतकेवली श्रीगौतम स्वामी, आश्चर्यसे भरे हुए राजा श्रेणिकसे कहने लगे कि ।।१८५।। हे महाराज श्रेणिक ! मैं सद्बुद्धिके धारक इन श्रीमान् मुनिराजका नाम, वंश और माहात्म्य सब तुम्हारे लिए कहता हूँ सो श्रवण कर ॥१८६॥ हे पृथिवीपते ! इस पृथिवीपर जो जितशत्रु नामका प्रसिद्ध राजा था वह आपके कर्णगोचर हुआ होगा ॥१८७।। जो हरिवंशरूपी आकाशका सूर्य था, जिसने अन्य राजाओंकी स्थितिको अभिभूत कर दिया था, जिसने राज्यलक्ष्मीका परित्याग कर जिनेन्द्रदेवके समीप प्रव्रज्या-दीक्षा धारण की थी तथा जिसने अन्य लोगोंके लिए कठिन बाह्य और आभ्यन्तर तप किया था आज वही राजा जितशत्रु घातिया कर्मोको नष्ट कर आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त हुआ है ॥१८८-१८९॥ इसीलिए जिनमार्गकी प्रभावना करनेवाले समस्त देवोंने मिलकर रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिए भक्तिपूर्वक इन मुनिराजकी पूजा की है ।।१९०॥
___ तदनन्तर जिसे कुतूहल उत्पन्न हो रहा था ऐसे श्रेणिक राजाने भक्तिपूर्वक पुनः प्रणाम कर गणधरसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह हरिवंश कौन है ? कब और कहां उत्पन्न हुआ है ? तथा इसका मूल कारण कौन पुरुष है ? ॥१९१-१९२।। प्रजाको रक्षा करने में समर्थ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसे सहित ऐसे हरिवंशमें कितने राजा हो चुके हैं ? ||१९३।। यह कह १. गतगर्वः । २. आगमानुमानेन ज्ञाप्यो ज्ञातव्यो ज्ञेयो यस्य स. । ३. घातिकर्मक्षयानन्तरम् । ४. उत्पद्योत्पद्य गताः ।
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तृतीयः सर्गः
४१ शृणोमि चरितं सर्व वंशानां च समुद्भवम् । लोकालोकविभागोक्तिपूर्वकं वक्तुमर्हसि ॥१९५॥ जगाद गौतमः स्थाने राजन् ! प्रश्नस्त्वया कृतः । शृणु सर्व यथावत्ते कथयामि यथायथम् ॥१९६॥
शार्दूलविक्रीडितम् त्रैलोक्यस्य सुखासुखानुभवनाधिष्ठानभूमेः स्थिरं,
संस्थानं प्रथमं तथैव विविधान् बंशावतारांस्तव । श्रव्याथ हरिवंशसंभवमतस्तद्वंशजान् भूपतीन्,
श्रीमच्छणिक ! कीर्तयामि भवते शुश्रूषवे श्रूयताम् ॥१९७॥
स्रग्धरा भव्यत्वाद्विप्रकृष्टेष्वपि च तनुभृतो देशकालस्वभाव
र्भावेष्वाप्तोपदेशाद्विदधति विधिवन्निश्चयं निश्चितार्थम् । सदृष्टीनां हि मोहः प्रमवति भुवने तावदेवार्थदृष्टौ
यावन्नात्राभ्युदेति प्रथितजिनरविर्ज्ञानभास्वन्मरीचिः ॥१९८॥
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती श्रेणिकप्रश्नवर्णनो
नाम तृतीयः सर्गः ॥३॥
राजा श्रेणिकने पुनः कहा कि मैं इस भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणोंका समस्त चरित, वंशोंकी उत्पत्ति और लोकालोकका विभाग सुनना चाहता हूँ सो आप कहनेके योग्य हैं ॥१९४-१९५।।
यह सुन, गौतम स्वामीने कहा कि हे राजन् ! तूने ठीक प्रश्न किया है तू सब ठीक-ठीक श्रवण कर। मैं यथायोग्य कहता हूँ ॥१९६|| हे श्रीमन् ! हे श्रेणिक! मैं सर्वप्रथम सुख-दुःख भोगनेके स्थानभूत तीन लोकका स्थिर आकार कहता हूँ। फिर विविध वंशोंके अवतारकी बात करूंगा। तदनन्तर मनोहर अर्थसे युक्त हरिवंशकी उत्पत्ति कहूँगा और तत्पश्चात् श्रवण करनेके इच्छुक तेरे लिए हरिवंशमें उत्पन्न हुए राजाओंका कीर्तन करूंगा ॥१९७|| भव्य जीव, श्रीआप्त भगवान्के उपदेशसे देश-काल और स्वभावसे दूरवर्ती पदार्थोंका भी विधिवत् यथार्थ निश्चय कर लेते हैं। यथार्थमें सम्यग्दृष्टि मनुष्योंका मोह, इस संसारमें पदार्थों का ठीक-ठीक स्वरूप देखनेमें तभी तक अपना प्रभाव रख पाता है जबतक कि ज्ञानरूपी देदीप्यमान किरणोंसे युक्त श्रीजिनेन्द्र देवरूपी सूर्यका उदय नहीं होता ।।१२८।। इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे श्रीजिनसेनाचार्य प्रणीत
हरिवंश पुराण में श्रेणिकप्रश्न वर्णन नामका तृतीय सर्ग समाप्त हुआ ॥३॥
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१. युक्तः । २. भव्यत्वादिप्रकृष्टे-म.।
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चतुर्थः सर्गः
सर्वतोऽनन्तविस्तारमनन्तस्वप्रदेशकम् । द्रव्यान्तरविनिर्मुक्तमलोकाकाशमिष्यते ॥१॥ न लोक्यन्ते यतस्तस्मिन् जीवाजीवात्मकाः परे । भावास्ततस्तदुद्गीतमलोकाकाशसंज्ञया ॥२॥ न गतिर्न स्थितिस्तत्र जीवपुद्गलयोस्तयोः । निमित्तयोरभूतत्वादु धर्माधर्मास्तिकाययोः ॥३॥ अनाद्यनिधनस्तस्य मध्ये लोको व्यवस्थितः। असंख्येयप्रदेशात्मा लोकाकाशविमिश्रितः ॥४॥ कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाखिलाः । लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते ॥५॥ [युग्मम्] वेत्रासनमृदङ्गोरुझल्लरीसदृशाकृतिः । अधश्चोर्ध्व च तिर्यक् च यथायोग्यमिति विधा ।।६॥ मुरजार्धमधोमागे तस्यो मुरजो यथा । आकारस्तस्य लोकस्य किं त्वेष चतुरस्रकः ॥७॥ कटिस्थकरयुग्मस्य वैशाखस्थानवर्तिनः । बिमर्ति पुरुषस्यायं संस्थानमचलस्थितेः ॥८॥ अधोलोकस्य सप्ताधः स्वविस्तारेण रजवः । प्रदेशहानितो रज्जुस्तिर्यग्लोकेऽवशिष्यते ॥९॥ ऊध्वं प्रदेशवृद्धयातः पञ्च ब्रह्मोत्तरान्तरे । ततः प्रदेशहान्योल रज्जुरेकावशिष्यते ॥१०॥ आयामस्तु त्रिलोकानां स्याच्चतुर्दशरजवः । सप्ताधो मन्दरादूर्ध्व सार्द्ध तेनैव सप्त ताः ॥११॥ चित्राधोभागतो रज्जुर्द्वितीयान्ते समाप्यते । द्वितीयातस्तृतीयान्ते चतुर्थ्यन्ते ततोऽपरा ॥१२॥ पञ्चम्यन्ते चतुर्थी च षष्टयन्ते पञ्चमी ततः । सप्तम्यन्ते च षष्ठी सा लोकान्ते सप्तमी स्थिता ॥१३॥
अथानन्तर सब ओरसे जिसका अनन्त विस्तार है, जिसके अपने प्रदेश भी अनन्त हैं तथा जो अन्य द्रव्योंसे रहित है वह अलोकाकाश कहलाता है ॥१॥ यतश्च उसमें जीवाजीवात्मक अन्य पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं इसलिए वह अलोकाकाश इस नामसे प्रसिद्ध है ॥२॥ गति और स्थितिमें निमित्तभूत धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायका अभाव होनेसे अलोकाकाशमें जीव और पुद्गलकी न गति ही है और न स्थिति ही है ॥३॥ उस अलोकाकाशके मध्य में असंख्यातप्रदेशी तथा लोकाकाशसे मिश्रित अनादि लोक स्थित है ॥४॥ काल द्रव्य तथा अपने अवान्तर विस्तारसे सहित अन्य समस्त पंचास्तिकाय यतश्च इसमें दिखाई देते हैं इसलिए यह लोक कहलाता है ।।५।। यह लोक नीचे, ऊपर और मध्यमें वेत्रासन, मृदंग और बहुत बड़ी झालरके समान है अर्थात् अधोलोक वेत्रासन-मूंठाके समान है, ऊर्ध्वलोक मृदंगके तुल्य है और मध्यलोक जिसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं झालरके समान है ॥६।। नीचे आधा मृदंग रखकर उसपर यदि पूरा मृदंग रखा जाये तो जैसा आकार होता है वैसा ही लोकका आकार है किन्तु विशेषता यह है कि यह लोक चतुरस्र अर्थात् चौकोर है ।।७।। अथवा कमरपर हाथ रख तथा पैर फैलाकर अचल-स्थिर खड़े हुए मनुष्यका जो आकार है उसी आकारको यह लोक धारण करता है ।।८।। अपने विस्तारको अपेक्षा अधोलोक नीचे सात रज्जु प्रमाण है, फिर क्रम-कमसे प्रदेशोंमें हानि होते-होते मध्यम लोकके यहाँ एक रज्जु विस्तृत रह जाता है ।।९।। इसके ऊपर प्रदेशवृद्धि होते-होते ब्रह्मब्रह्मोत्तर स्वर्गके समीप पांच रज्जु प्रमाण है। तदनन्तर उसके आगे प्रदेशहानि होते-होते लोकके अन्तमें एक रज्जु प्रमाण विस्तृत रह जाता है ।।१०।। तीनों लोकोंको लम्बाई चौदह रज्जु प्रमाण है। सात रज्जु सुमेरु पर्वतके नीचे और सात रज्जु उसके ऊपर है ।।११।। चित्रा पृथिवीके अधोभागसे लेकर द्वितीय पृथिवीके अन्त तक एक रज्जु समाप्त होती है, इसके आगे तृतीय पृथिवीके अन्त तक द्वितीय रज्जु, चतुर्थ पृथिवीके
१. पदार्थाः । २. अविद्यमानत्वात् । ३. प्रसारितजङ्घाद्वयोर्ध्वस्थितस्य ।
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चतुर्थः सर्गः
४३
चित्राधोदेशतस्तूवं सार्धा रज्जुः समाप्यते । ऐशानान्ते ततः सार्दा माहेन्द्रान्ते तु तिष्ठति ॥१४॥ ततः कापिटकल्पाग्रे रजरेकावतिष्ठते । सा सहस्रारकल्पाने ततोऽप्येका समाप्यते ॥१५॥ आरणाच्युतकल्पान्तवर्तिनी सा ततोऽपरा । सप्तमी तु ततो रजरूर्वलोकान्तनिष्ठिता ॥१६॥ रजः प्रथमरज्ज्वन्ते सा पडभिः सप्तभागकैः । अधोलोकस्य विस्तारो लोकविद्भिरुदाहृतः ॥१७॥ रज द्वितीयरज्जवन्ते पञ्चमिः सप्तमागकैः । तिम्रस्तृतीयरज्ज्वन्ते चतुर्मिः सप्तमागकैः ॥१८॥ चतस्रस्तुर्य रज्ज्वन्ते सप्तभागैस्त्रिभिर्युताः । पञ्च पञ्चमरज्ज्वन्ते सप्तमागद्वयेन ताः ॥१९॥ षडेताः सप्तभागेन षष्टरज्ज्वन्तगोचरे । सप्त सप्तमरज्ज्वन्ते विस्तारो रजवः स्मृताः ॥२०॥ ऊवं च सार्धरज्ज्वन्ते रज द्वे सप्तमागकैः । पञ्चभिः सह विस्तारो लोकस्य परिकीर्तितः ॥२१॥ परतः सार्धरज्ज्वन्ते सप्तमागैस्त्रिभिर्युताः । चतस्रो रजवो ज्ञेयो विस्तारो जगतस्ततः ॥२२॥ ततोऽर्धरजपर्यन्ते सब्रह्मोत्तरमूर्धनि । विस्तारो रजवः पञ्च भुवनस्य निरूपितः ।।२३।। कापिष्टाग्रेऽर्धरज्ज्वन्ते सप्तमार्गस्त्रिभिः सह । चतस्रो रजवो व्यासो जगतः प्रतिपादितः ॥२४॥
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अन्त तक तृतीय रज्जु, पंचम पृथिवीके अन्त तक चतुर्थ रज्जु, षष्ठ पृथिवीके अन्त तक पंचम रज्जु, सप्तम पृथिवीके अन्त तक षष्ठ रज्जु और लोकके अन्त तक सप्तम रज्ज समाप्त होती है अर्थात् चित्रा पृथिवीके नीचे छह रज्जुकी लम्बाई तक सात पृथिवियाँ और उसके नीचे एक रज्जुके विस्तारमें निगोद तथा वातवलय हैं ।।१२-१३।। यह तो चित्रा पृथिवीके नीचेका विस्तार बतलाया अब इसके ऊपर ऐशान स्वर्ग तक डेढ़ रज्जु, उसके आगे माहेन्द्र स्वर्गके अन्त तक फिर डेढ़ रज्जु, फिर कापिष्ट स्वर्ग तक एक रज्जु, तदनन्तर सहस्रार स्वर्ग तक एक रज्जु, उसके आगे आरण अच्युत स्वर्ग तक एक रज्जु और उसके ऊपर ऊर्ध्व लोकके अन्त तक एक रज्जु इस प्रकार कुल सप्त रज्जु समाप्त होती हैं ॥१४-१६।।
चित्रा पृथिवीके नीचे प्रथम रज्जुके अन्तमें जहां दूसरी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ लोकके जाननेवाले आचार्योंने अधोलोकका विस्तार एक रज्जु तथा द्वितीय रज्जुके सात भागोंमें से छह भाग प्रमाण बतलाया है ॥१७|| द्वितीय रज्जु के अन्तमें जहां तीसरी पृथिवी समाप्त होती है वहां अधोलोकका विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जुके सात भागोंमें-से पाँच भाग प्रमाण बताया है। तृतीय रज्जुके अन्त में जहां चौथी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोकका विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जुके सात भागों में से चार भाग प्रमाण बतलाया है ॥१८॥ चतुर्थ रज्जुके अन्तमें जहां पांचवीं पृथिवी समाप्त होती है वहां अधोलोकका विस्तार चार रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से तीन भाग प्रमाण कहा गया है, पंचम रज्जुके अन्तमें जहां छठी पृथिवी समाप्त होती है वहाँ अधोलोकका विस्तार पाँच रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें से दो भाग प्रमाण बतलाया है, षष्ठ रज्जुके अन्तमें जहाँ सातवीं पृथिवी समाप्त होती है वहां अधोलोकका विस्तार छह रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से एक भाग प्रमाण है तथा सप्तम रज्जुके अन्त में जहाँ लोक समाप्त होता है वहाँ अधोलोकका विस्तार सात रज्जु प्रमाण कहा गया है ॥१९-२०॥
चित्रा पृथिवीके ऊपर डेढ़ रज्जुकी ऊंचाईपर जहां दूसरा ऐशान स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोकका विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जुके सात भागोंमें से पांच है ।।२१।। उसके ऊपर डेढ़ रज्जु और चलकर जहाँ माहेन्द्र स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोकका विस्तार चार रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें से तीन भाग प्रमाण बताया गया है ।।२२।। उसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहाँ ब्रह्मोत्तर स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोकका विस्तार पांच रज्जु प्रमाण कहा गया है ।।२३।। उसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ कापिष्ट स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोकका विस्तार चार रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें से तीन भाग
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हरिवंशपुराणे ततोऽधंरज्जुमानान्ते महाशुक्रायवर्तिनि । षट् सप्तभागसंयुक्तास्तिस्रो व्यासो जगद्गतः ॥२५॥ अर्धरज्ज्ववसानेऽतः सहस्रारान्तमिश्रिते । द्विसप्तभागसंयुक्ता व्यासस्तिस्रोऽस्य रजवः ॥२६॥ प्राणताग्रार्धरज्ज्वन्ते पञ्चसप्तांशमिश्रिते । द्वे रज जगतो व्यासो व्यासविद्भिः प्रकाशितः ॥२७॥ अच्युतान्तार्धरज्ज्वन्ते सप्तमागेन संमिते । द्वे रज रजु रेवान्तरज्ज्वन्ते लोकमस्तके ॥२८॥ अधोलोकोरुजङ्घादिस्तिर्यग्लोककटीतटः । ब्रह्मब्रह्मोत्तरोरस्को माहेन्द्रान्तस्तु मध्यभाग ॥२९।। आरणाच्युतसुस्कन्धो द्विपर्यन्तमहाभुजः । नवग्रेवेयकग्रीवोऽनुदिशोद्धहनुदयः ॥३०॥ पञ्चानुत्तरसद्वक्त्रः सिद्धक्षेत्रललाटभृत् । सिद्ध जीवश्रिताकाशदेशविस्तीर्णमस्तकः ॥३१॥ स्वोदरस्थितनिःशेषपुरुषादिपदार्थकः । अपौरुषेय एवैष सल्लोकपुरुषः स्थितः ॥३२॥ घनोदधिरिमं लोकं धनवातश्च सर्वतः । तनुवातश्च तिष्टन्ति योऽप्यावेष्ट्य वायवः ॥३३॥ आद्यो गोमूत्रवर्णोऽत्र मुदगवर्णस्तु मध्यमः । संपृक्तानेकवर्णोऽन्त्यो बहिर्वलयमारुतः ॥३४॥ दण्डाकारा घनीभूता ऊर्ध्वाधोभागभागिनः । भङ्गुराकृतयो लोकपर्यन्तेपु प्रभञ्जनाः ॥३॥ योजनानां सहस्राणि प्रत्येक विंशतिः स्मृताः । अधोविस्तारतस्तूवं त्रयोऽप्यूनैकयोजनाः ॥३६॥ दण्डाकारपरित्यागे यथाक्रमममी पुनः । सप्तपञ्चचतुःसंख्या योजनानि वितन्वते ॥३७॥ प्रदेशहानितः पञ्च चत्वारि त्रीणि च क्रमात् । बाहुल्यं योजनान्येषां तिर्यग्लोके भवत्यतः ॥३८॥
ण बतलाया गया है ॥२४॥ उसके आगे आधी रज्ज और चलकर जहाँ महाशक स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोकका विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से छह भाग प्रमाण कहा गया है ।।२५।। इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ सहस्रार स्वर्गका अन्त आता है वहाँ लोकका विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें-से दो भाग प्रमाण बतलाया गया है ।।२६।। इसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहां प्राणत स्वर्गका अन्त आता है वहाँ लोकका विस्तार दो रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमेंसे पाँच भाग प्रमाण कहा गया है ॥२७॥ इसके ऊपर आधी रज्जु और चलकर जहाँ अच्युत स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोकका विस्तार दो रज्जु और एक रज्जुके सात भागोंमें से एक भाग प्रमाण बतलाया है और इसके आगे सातवीं रज्जके अन्तमें जहाँ लोककी सीमा समाप्त होती है वहां लोकका विस्तार एक रज्ज प्रमाण कहा गया है ॥२८॥ तीनों लोकोंमें अधोलोक तो पुरुष की जंघा तथा नितम्बके समान है, तिर्यग्लोक कमरके सदृश है, माहेन्द्र स्वर्गका अन्त मध्य अर्थात् नाभिके समान है, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग छातीके समान है, तेरहवा, चौदहवाँ स्वर्ग भुजाके समान है, आरण-अच्युत स्वर्ग स्कन्धके समान है, नव ग्रैवेयक ग्रीवाके समान है, अनुदिश उन्नत डांडीके समान है, पंचानुत्तर विमान मुखके समान है, सिद्ध क्षेत्र ललाटके समान है और जहाँ सिद्ध जीवोंका निवास है ऐसा आकाश प्रदेश मस्तकके समान है ।।२९-३१॥ जिसके मध्यमें जीवादि समस्त पदार्थ स्थित है ऐसा यह लोकरूपी पुरुष अपौरुषेय ही है-अकृत्रिम ही है ॥३२॥ घनोदधि, घनवात और तनुवात ये तीनों वातवलय इस लोकको सब ओरसे घेरकर स्थित हैं ॥३३।। आदिका घनोदधि वातवलय गोमूत्रके वर्णके समान है, बीचका धनवातवलय मुंगके समान वर्णवाला है और अन्तका तनुवातवलय परस्पर मिले हुए अनेक वर्णोंवाला है ॥३४॥ ये वातवलय दण्डके आकार लम्बे हैं, घनीभूत हैं, ऊपर-नीचे तथा चारों ओर स्थित हैं, चंचलाकृति हैं तथा लोकके अन्त तक वेष्टित हैं ।।३५।। अधोलोकके नीचे तीनों वलयोंमें-से प्रत्येकका विस्तार बीस-बीस हजार योजन है और लोकके ऊपर तीनों वातवलय कुछ कम एक योजन विस्तारवाले हैं ॥३६॥ अधोलोकके नीचे तीनों वातवलय दण्डाकार हैं और ऊपर चलकर जब ये दण्डाकार का परित्याग करते हैं अर्थात् लोकके आजू-बाजूमें खड़े होते हैं तब क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तारवाले रह जाते हैं ॥३७॥ तदनन्तर प्रदेशोंमें हानि होते-होते मध्यम लोकके यहां इनका विस्तार क्रमसे पाँच,
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चतुर्थः सर्गः
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प्रदेशवृद्धितः सप्त पञ्च चत्वारि च क्रमात् । योजनान्युपनीयन्ते ब्रह्मब्रह्मोतरान्ति के ||३९॥ पुनः प्रदेशहान्यवं पञ्च चत्वारि च क्रमात् । त्रीणि चैव भवन्त्येषां योजनानि शिवान्तके ॥४॥ अर्धयोजनबाहुल्यो मस्तकेषु घनोदधिः । धनवातस्तदर्धः स्यात्तनुवातस्तदनकः ॥ १।। भ्राजते वातवलयः सर्वतरिभिरावृतः। कवचैरिव लोकस्तैर्महालोकजिगीषया ॥४२॥ अत्र रत्नप्रभाद्ययं द्वितीया शर्कराप्रमा। प्रथिता पृथिवी लोके तृतीका बालुकाप्रभा ॥१३॥ पङ्कप्रभा चतुर्थी तु पञ्चमी पृथिवी तथा । धूमप्रभा विनिर्दिष्टा षष्टी चापि तमःत्रमा ॥४४॥ महातमःप्रभा भूमिः सप्तमी च घनोदधौ । वलयाधिष्ठिता घेताः सप्ताधोऽधो व्यवस्थिताः ॥४॥ गोत्राख्यथा तु ताः ख्याता घर्भा वंशा यथाकमम् । मेवाअनाप्यारिष्टा च मघवी माधवीति च ॥४६॥ लक्षका योजनानां स्यात् सहाशीतिसहस्रिका । निभिर्भागविभक्तं च बाहल्यं प्रथमपितेः॥४७॥ योजनानां सहस्राणि खरभागेऽत्र पोडश । अशीतिः पङ्कबहुले चतुर्भिरधिकानि तु ॥४८॥ तर्थवाव्बहुले भागे बाहुल्यं सुविनिश्चितम् । शस्त्रेऽशीतिसहस्राणि योजनानि जिनेशिनाम् ॥४२॥ तं पङ्कबहुलं भागं भासयन्ति यथायथन् । रक्षसामसुराणां च निवासा रत्नभासुराः ॥५०॥ खरमागं नवानां तु वासा भवनवासिनाम् । भूषयन्ति महाभासा बहुभेदाः स्वयंप्रभाः ॥५१॥ चित्राख्यं पटलं पूर्व वज्राख्यं तु ततः परम् । वैडूर्याख्यं ततो ज्ञेयं लोहिताङ्कारुपमप्यतः ॥५२॥ मसारगल्वगोमेदेप्रवालपटलान्यतः । द्योती रसाञ्जनाख्ये च तथैवाअन रकम् ।।३।। अङ्गस्फटिक्संज्ञे च चन्द्रामाख्यं च वर्चकम् । बहुशिलामयं चेति पटलानि हि षोडश ॥५४॥ एकैकस्य तु बाहुल्यं सहस्रगुणयोजनम् । पटलस्य तदात्मासौ खरभागः प्रभासुरः ॥ ५॥
चार और तीन योजन रह जाता है ।।३८।। तदनन्तर प्रदेशोंमें वृद्धि होनेसे ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर नामक पाँचवें स्वर्गके अन्तमें क्रमशः सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हैं ॥३९।। पुनः प्रदेशोंमें हानि होनेसे मोक्ष स्थानके समीप क्रमसे पाँच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं ॥४०॥ तदनन्तर लोकके ऊपर पहुंचकर घनोदधि वातवलय आधा योजन अर्थात् दो कोस, घनवात वलय उससे आधा अर्थात् एक कोस और तनुवातवलय उससे कुछ कम अर्थात् पन्द्रहसे पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है ॥४१॥ तीनों वातवलयोंसे घिरा हुआ यह लोक ऐसा जान पड़ता है मानो महालोक जीतनेकी इच्छासे कवचोंसे ही आवेष्टित हुआ हो ॥४२।।
___ इस लोकमें पहली रत्नप्रभा, दूसरी शकंराप्रभा, तीसरी बालुकाप्रभा, चौथी पंकप्रभा, पांचवीं धूमप्रभा, छठवीं तमःप्रभा और सातवों महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं। ये सातों भूमियाँ तीनों वातवलयोंपर अधिष्ठित तथा क्रमसे नोवे-नीचे स्थित हैं। अन्तमें चलकर ये सभी अधोलोकके नीचे स्थित घनोदधिवातवलय पर अधिष्ठित हैं ।।४३-४५।। इन पृथिवियोंके रूढ़ि नाम क्रमसे घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी भी हैं ।।४६।। पहली रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है तथा खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग इन तीन भागोंमें विभक्त है ।।४७|| पहला खर भाग सोलह हजार योजन मोटा है, दूसरा पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है और तीसरा अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है ।।४८-४९|| पंक भागको राक्षसों तथा असुरकुमारोंके रत्नमयी देदीप्यमान भवन यथा क्रमसे सुशोभित कर रहे हैं ॥५०॥ तथा खर भागको नौ भवनवासियोंके महाकान्तिसे युक्त, स्वयं जगमगाते हुए नाना प्रकारके भवन अलंकृत कर रहे हैं ॥५१॥ खर भागके १ चित्रा, २ वज्रा, ३ वैडूर्य, ४ लोहितांक, ५ मसारगल्ब, ६ गोमेद, ७ प्रवाल, ८ ज्योति, ९ रस, १० अंजन, ११ अंजनमूल, १२ अंग, १३ स्फटिक, १४ चन्द्राभ, १५ वर्चस्क और १६ बहुशिलामय ये सोलह पटल हैं ।।५२-५४।। इनमें से प्रत्येक पटलको मोटाई एक-एक हजार योजन है तथा देदीप्यमान खर भाग इन सोलह पटल १. गोमेध-क.।
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हरिवंशपुराणे विज्ञयाः पङ्कबहुलाच्छेषाः षडपि भूमयः । स्वस्वबाहुल्यहीनैकरज्ज्वायामनिजान्तराः॥५६॥ द्वात्रिंशदथ बाहुल्यमष्टाविंशतिरेव च । चतुर्विशतिरप्यासां विंशतिः षोडशाच ॥५७॥ योजनानां सहस्राणि षण्णामपि यथाक्रमम् । पृथिवीन विनिर्दिष्टं दष्टतत्वैर्जिनेश्वरैः ॥५८॥ दशानामसुरादीनां प्रथमायां च सद्मनाम् । संख्या सा प्रतिपत्तव्या परिपाच्या व्यवस्थिता ॥५९॥ चतुःषष्टिः स्मृता लक्षा अशीतिश्चतुरुत्तरा । द्वासप्ततिस्तथा लक्षाः षण्णां षट्सप्ततिस्ततः ॥६०॥ भवनानां तथा लक्षा नवतिश्च षडुत्तरा । चैत्यालयाश्च विज्ञेयाः प्रत्येक समसंख्यया ॥६१॥ चतुर्दश सहस्राणि षोडशापि यथाक्रमम् । भताना राक्षसानां च सन्ति समान्यधो भूवः ॥६२॥ असुरा नागनामानः सुपर्णतनयामराः। द्वीपोदधिकुमाराश्च तथैव स्तनितामराः ॥६३॥ विद्युत्कुमारनामानो दिक्कुमारास्तथापरे । देवा अग्निकुमाराश्च कुमारा वायुपूर्वकाः ॥४॥ मणिद्यमणि नित्याभे पाताले निवसन्ति ते । यथायथं निवासेषु देवा भवनवासिनः ॥६५॥ असुराणां च तत्रायुः साधिकः सागरः स्मृतः । तथा नागकुमाराणां ज्ञेयं पल्योपमत्रयम् ॥६॥ तत् सुपर्णकुमाराणां साध पल्योपमद्वयम् । द्वयं द्वीपकुमाराणां शेषाणां पल्यमर्द्धभाक् ॥१७॥ असुराणां धनू षि स्यादुत्सेधः पञ्चविंशतिः । मौमैदशैव शेषाणां ज्योतिषां सप्त तस्वतः ॥६॥ सौधर्मशानयोर्देवाः सप्तहस्तोच्छयास्ततः । एकार्धहानौ सर्वार्थसिद्धौ हस्तोऽवशिष्यते ॥६॥
अतः परं प्रवक्ष्यामि शृणु श्रेणिक ! लेशतः । सप्तानामपि भूमीना क्रमेण नरकालयान् ॥७॥ स्वरूप ही है ।।५५॥ पंक भागसे शेष छह भूमियोंका अपना-अपना अन्तर अपनी-अपनी मोटाईसे कम एक-एक रज्जु प्रमाण है ॥५६॥ समस्त तत्त्वोंको प्रत्यक्ष देखनेवाले श्री जिनेन्द्र देवने द्वितीयादि पृथिवियोंकी मोटाई क्रमसे बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन बतलायी है ।।५७-५८॥
प्रथम पृथिवीमें असुरकुमार आदि दसभवनवासी देवोंके भवनोंकी संख्या निम्न प्रकार जानना चाहिए-असुरकुमारोंके चौंसठ लाख, नागकुमारोंके चौरासी लाख, गरुड़कुमारोंके बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेधकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत्कुमार इन छह कमारोंके छिहत्तर लाख तथा वायकमारोंके छियानबे लाख भवन हैं। ये सब भवन श्रेणि रूपसे स्थित हैं तथा प्रत्येकमें एक-एक चैत्यालय हैं ॥५९-६१॥ पृथिवीके नीचे भूतोंके चौदह हजार और राक्षसोंके सोलह हजार भवन यथाक्रमसे स्थित हैं ॥६२॥ जहां मणिरूपी सूर्यको निरन्तर आभा फैली रहती है ऐसे पाताल लोकमें असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार ये दस प्रकारके भवनवासी देव यथायोग्य अपने-अपने भवनोंमें निवास करते हैं ॥६३-६५॥ उनमें असुरकुमारोंको उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक सागर, नागकुमारोंको तीन पल्य, सुपर्णकुमारोंकी अढ़ाई पल्य, द्वीपकुमारोंकी दो पल्य और शेष छह कुमारोंकी डेढ़ पल्य प्रमाण है ॥६६-६७|| असुरकुमारोंकी ऊँचाई पच्चीस धनुष, शेष नो प्रकारके भवनवासियों तथा व्यन्तरोंकी दस धनुष और ज्योतिषी देवोंकी सात धनुष है॥६८॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंकी ऊँचाई सात हाथ है। उसके आगे एक तथा आधा हाथ कम होते-होते सर्वार्थसिद्धि में एक हाथकी ऊंचाई रह जाती है। भावार्थ-पहले दूसरे स्वर्गमें सात हाथ, तीसरे चौथे स्वर्गमें छह हाथ, पाँचवें, छठवें, सातवें, आठवें स्वर्ग में पांच हाथ, नौवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें स्वर्गमें चार हाथ, तेरहवें, चौदहवेंमें साढ़े तीन हाथ, पन्द्रहवें-सोलहवें स्वर्गमें तीन हाथ, अधोग्रेवेयकोंमें अढ़ाई हाथ, मध्यम अवेयकोंमें दो हाथ, उपरि अवेयकोंमें तथा अनुदिश विमानोंमें डेढ़ हाथ और अनुत्तर विमानोंमें एक हाथ ऊँचाई है ॥६९॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब इसके आगे संक्षेपसे रत्नप्रभा आदि सातों भूमियोंके विलोंका यथाक्रमसे वर्णन करता हूँ सो सुन ॥७०॥
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चतुर्थः सर्गः
भवन्त्यब्बहले भागे धर्माणां नारकाश्रयाः । योजनानां सहस्रं तु मुक्त्वो धोविभागयोः ॥७॥ अयमेव क्रमो ज्ञेयः शेषास्वपि च भूभिषु । सप्तम्यां मध्यदेशेऽमी सत्रिंशे क्रोशपञ्चके ॥७२॥ लक्षा नरकभेदानां स्युस्त्रिंशत्पञ्चविंशतिः । तासु पञ्चदशैवैता दश तिस्रस्तथैव च ॥७३॥ पञ्चोनापि च लक्षका पञ्च चैव यथाक्रमम् । लक्षाश्चतुरशीतिः स्युस्तेषां संग्रहसंख्यया ॥४॥ त्रयोदश यथासंख्यमेकादश नवापि च । सप्त पञ्च त्रयश्चकः प्रस्तारास्तासु भूमिषु ॥७५॥ सीमन्तको मतः पूर्वो नरको रौरुस्ततः । भ्रान्तोद्भ्रान्तौ च संभ्रान्तः परोऽसंभ्रान्त एव च ॥७६॥ विभ्रान्त तथा वस्तो धर्मायां प्रसितः परः। वक्रान्तश्चाप्यवक्रान्तो विक्रान्तश्चेन्द्र काः स्मृताः ॥७॥ स्तरक स्तनकश्चैव मनको वन कस्तथा । घाटसंवाट रामानौ जिह्वाख्यो जिबिकामिधः ॥७॥ लोलश्च लोलुपश्चापि तथाऽन्यस्स्तनलोलुपः । वंश यामिन्द्रका ह्यते जिनैरेकादशोदिताः ॥७९॥ तप्तश्च तपितश्चान्यस्तपनस्तापनः परः । पञ्चमश्च निदाघाख्यः षष्ठः प्रज्वलितो मतः ॥८॥ तथैवोज्ज्वलितो ज्ञेयस्ततः संज्वलितोऽष्टमः । संप्रज्वलित इत्यन्यस्तृतीयायां नवेन्द्रकाः ।।८१॥ आरस्तारश्च मारश्च वर्चस्कस्तमकस्तथा। खडः खडखडश्चेति चतुथ्यां सप्त वर्णिताः ॥८२॥ तमो भ्रमो झषोऽतश्च तामिस्रश्चेत्यमी स्मृताः । इन्द्रका नगराकाराः पञ्चम्यां पञ्च संहिताः ॥८३॥ हिमवर्दललल्लक्कास्त्रयः षष्ठ्यामपीन्द्रकाः । सप्तम्यामप्रतिष्ठानमेकमेवेन्द्रकं विदुः ॥८४॥ ज्ञेया ह्येकोनपञ्चाशदिन्द्रकाः संयुतास्त्वमी । अधोऽधो न्यूनका द्वाभ्यामुपर्युपरि वृद्धयः ।।५।। सीमन्तके चतुर्दिक्ष प्रत्येकं नारकालयाः । तिष्ठन्त्येकोनपञ्चाशत् श्रेणिबद्धा महान्तराः ॥८६।। तावन्त एव चैकोनाः श्रेणिबद्धाः विदिक्ष च । प्रत्येक बहवस्तेभ्यस्ताभ्योऽन्यत्र प्रकीर्णकाः ॥८७॥
घर्मा नामक पहली पृथिवीके अब्बहुल भागमें ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर कयोंके विल हैं। यही क्रम शेष पथिवियोंमें भी समझना चाहिए, किन्तु सातवीं पथिवीमें पैंतीस कोशके विस्तारवाले मध्य देशमें विल हैं ।।७१-७२।। पहली पृथिवीमें तीस लाख, दूसरीमें पच्चीस लाख, तीसरीमें पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पाँचवीमें तीन लाख, छठवीं में पांच कम एक लाख, सातवीं में पांच और सातोंमें सब मिलाकर चौरासी लाख विल हैं ||७३-७४।। उन पृथिवियोंमें क्रमसे तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पाँच, तीन और एक प्रस्तार अर्थात् पटल हैं ॥७५॥ धर्मा पृथिवीके तेरह प्रस्तारोंमें क्रमसे निम्नलिखित तेरह इन्द्रक विल हैं-१ सीमन्तक, २ नारक, ३ रोरुक, ४ भ्रान्त, ५ उद्भ्रान्त, ६ संभ्रान्त, ७ असम्भ्रान्त, ८ विभ्रान्त, ९ त्रस्त, १० त्रसित, ११ वक्रान्त, १२ अवक्रान्त और १३ विक्रान्त ।।७६-७७|| श्री जिनेन्द्र देवने वंशा नामक दूसरी पृथिवीके ग्यारह प्रस्तारोंमें निम्नांकित ग्यारह इन्द्रक विल बतलाये हैं-१ स्तरक, २ स्तनक, ३ मनक.४ वनक. ५ घाट, ६ संघाट, ७ जिह्वा, ८ जिबिक, ९ लोल, १० लोलुप और ११ स्तनलोलुप ।।७८-७९|| तीसरी मेघा पृथिवीके नौ प्रस्तारोंमें निम्न प्रकार नौ इन्द्रक विल बतलाये हैं-१ तप्त, २ तपित, ३ तपन, ४ तापन, ५ निदाघ, ६ प्रज्वलित, ७ उज्ज्वलित, ८ संज्वलित और ९ संप्रज्वलित ।।८०-८१।। चौथी पथिवीके सात प्रस्तारों में क्रमसे निम्नलिखित सात इन्द्रक विल हैं-१ आर, २ तार, ३ मार, ४ वर्चस्क, ५ तमक, ६ खड और ७ खडखड ।।८२।। पांचवीं पृथिवीके पाँच प्रस्तारोंमें निम्नलिखित पांच इन्द्रक विल हैं-१ तम, २ भ्रम, ३ झष, ४ अन्त और ५ तामिस्र । ये इन्द्रक विल नगरोंके आकार हैं ।।८३।। छठवों पृथिवीमें १ हिम, २ वर्दल और ३ लल्लक ये तीन इन्द्रक विल हैं ।।८४।।
तों पथिवियोंके सब इन्द्रक मिलकर उनचास हैं। ऊपरसे नोचेको ओर प्रत्येक पथिवीमें दो-दो कम होते जाते हैं और नीचेसे ऊपरकी ओर प्रत्येक पृथिवी में दो-दो अधिक होते जाते हैं ।।८५।। प्रथम पृथिवीके प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी सोमन्तक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओं में प्रत्येकमें उनचासउनचास श्रेणिबद्ध विल हैं और ये परस्पर बहुत भारी अन्तरको लिये हुए हैं ।।८६।। इसी सीमन्तक १. सल्लका म., ख.।
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हरिवंशपुराणे एकैको हीयते चाधः सीमन्तनरकादिषु । चतुःशेषोऽप्रतिष्ठानो न श्रेणी न प्रकीर्णकाः ।।८।। शतं षण्णवतं दिक्ष चतुरूनं विदिक्ष तत् । सीमन्तकस्य तन्मिश्रमष्टाशीतं शतत्रयम् ।।८।। शतं द्वानवतं दिक्ष साष्टाशीति विदिक्ष तत् । कुण्डानां नरकस्यैतद् युक्त्वाशीत्या शतत्रयम् ॥९०।। अष्टाशीतं शतं दिक्ष चतुरूनं विदिक्ष तत् । रोरुकस्य विमिश्रं तद् द्वासप्तत्या शतत्रयम् ।।११।। शतं चतुरशीतिश्च भ्रान्ते दिक्ष विदिक्ष तत् 1 साशीति नारकं मिश्रं चतुःषष्टया शतत्रयम् ॥१२॥ साशीतिकं शतं दिक्षु षट्सप्तत्या विदिक्षु तत् । षट्पञ्चाशद्विमिश्रं स्यादुद्भ्रान्तस्य शतत्रयम् ।।९३॥ षट्सप्तत्या शतं दिक्षु द्वासप्तत्या विदिक्षु तत् । द्वयूनपञ्चाशता मिश्रं संभ्रान्तस्य शतत्रयम् ॥९४॥ द्वासप्तत्या शतं दिक्ष साष्टषष्ट्या विदिक्षु तत् । असंभ्रान्तस्य मिश्रं तच्चत्वारिंशं शतत्रयम् ।।९५।। साष्टषष्टिशतं दिक्ष चतुःषष्ट्या विदिक्ष तत् । द्वात्रिंशं तवयं युक्तं विभ्रान्तस्य शतत्रयम् ॥१६॥ चतुःषव्या शतं दिक्ष शतं षष्ट्या विदिक्ष च । त्रस्तस्य तदद्वयं मिश्रं चतुर्विशं शतत्रयम् ॥१७॥ शतं षष्ट्याधिक दिक्ष षट्पञ्चाशं विदिक्ष तत् । त्रसितस्य समायुक्तं षोडशाग्रं शतत्रयम् ॥२८॥ घटपञ्चाशं शतं दिक्ष द्वापञ्चाशं विदिक्ष तत् । वक्रान्तस्य समायुक्तमष्टोत्तरशतत्रयम् ॥९९।।।
द्विपञ्चाशं शतं दिक्ष चत्वारिंशं सहाष्टभिः । विदिक्षु मिश्रितं तरस्यादवक्रान्ते शतत्रयम् ॥१०॥ विलकी चार विदिशाओंमें प्रत्येकमें अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं। इन श्रेणियों तथा श्रेणिबद्ध विलोंके सिवाय बहतसे प्रकीर्णक विल भी हैं ॥८७|| इन सीमन्तक आदि नरकोंमें नीचे-नीचे क्रम-क्रमसे एक-एक विल कम होता जाता है। इस प्रकार सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रककी चार दिशाओंमें एक-एकके क्रमसे केवल चार विल हैं। वहां न श्रेणी है और न प्रकीर्णक विल ही हैं ॥८८॥ इस प्रकार प्रथम पृथिवीके प्रथम सोमन्तक इन्द्रकको चार दिशाओं में एक सौ छियानबे, चार विदिशाओंमें एक सौ बानबे और सब मिलाकर तीन सौ अठासी श्रेणीबद्ध विल हैं ।।८९॥ दूसरे प्रस्तारके नारक इन्द्रकको चार दिशाओंमें एक सौ बानबे, चार विदिशाओंमें एक सौ अठासी और सब मिलाकर तीन सौ अस्सी श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९०॥ तीसरे प्रस्तारके रोरुक इन्द्रककी चार दिशाओंमें एक सौ अठासी, चार विदिशाओं में एक सौ चौरासी और सब मिलाकर तीन सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९१॥ चौथे प्रस्तारके भ्रान्त नामक इन्द्रकको चार दिशाओंमें एक सौ चौरासी, विदिशाओंमें एक सौ अस्सी और सब मिलाकर तीन सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९२॥ पाँचवें प्रस्तारके उद्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलको दिशाओंमें एक सौ अस्सी, विदिशाओं में एक सौ छिहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ छप्पन श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९३।। छठवें प्रस्तारके सम्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओं में एक सौ छिहत्तर, विदिशाओं में एक सौ बहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥९४|| सातवें प्रस्तारके असम्भ्रान्त नामक इन्द्रक विलको चारों दिशाओंमें एक सौ बहत्तर, विदिशाओंमें एक सौ अड़सठ और सब मिलाकर तीन सौ चालीस श्रेणीबद्ध विल हैं ।।१५।। आठवें प्रस्तारके विभ्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ अडसठ, विदिशाओंमें एकसौ चौसठ और सब मिलाकर तीन सौ बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल हैं॥९६|| नौंवें प्रस्तारके त्रस्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ चौसठ, विदिशाओंमें एक सौ साठ और सब मिलाकर तीन सौ चौबीस श्रेणिबद्ध विल हैं ।।९७।। दसवें प्रस्तारके त्रसित नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ साठ, विदिशाओं में एक सौ छप्पन और सब मिलाकर तीन सौ सोलह श्रेणिबद्ध विल हैं |२८|| ग्यारहवें प्रस्तारके वक्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओं में एक सौ छप्पन, विदिशाओंमें एक सौ बावन और सब मिलाकर तीन सौ आठ श्रोणिबद्ध विल हैं ।।९९|| बारहवें प्रस्तारके अवक्रान्त नामक इन्द्रक विलकी चार दिशाओंमें एक सौ बावन, विदिशाओं में एक सौ अड़तालीस और सब मिलाकर तीन सौ श्रेणिबद्ध विल हैं ।।१०।।
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चतुर्थः सर्गः चत्वारिंशं शतं दिक्षु विक्रान्तस्य सहाष्टमिः । चत्वारिंशं चतुर्भिस्तद् विदिक्ष परिकीर्तितम् ॥१.१॥ द्वयं तच्च समायुक्तं द्वयं द्वानवतं शतम् । इन्द्र के नरकाणां स्यात् परिवारस्त्रयोदशे ॥१०२।। श्रेणिन्द्वान्यमुनि स्युः सहस्राणीन्द्रकैः सह । त्रयस्त्रिंशचतुःशल्या चत्वारि समुदायतः ॥१.३॥ ये लक्षाशिदकोना नवतिः पञ्च पञ्चभिः । सहस्राणि शतैस्तेऽपि सप्तषष्ट्या प्रकीर्णकाः ॥१०॥ चत्वारिंशं शतं दिक्ष चतुर्भिस्तरकस्य तत् । विदिक्ष चतुरूनं द्वे अशीत्या चतुरन्तया ॥१०५॥ चत्वारिंशं शतं दिक्ष पत्रिंशं तु विदिक्ष तत् । स्तनकस्य समस्तं तत् षट्सप्तत्या शतद्वयम् ॥१०६॥ पटत्रिंश हि शतं दिक्ष द्वात्रिंशं तु विदिक्ष तत् । मनकस्य समस्तं तत् साष्टषष्टि शतद्वयम् ॥१०७॥ द्वात्रिंशं हि शतं दिक्ष त्वष्टाविंशं विदिक्ष तत् । वनकस्य समन्तं तत् षष्ट्या युक्तं शतद्वयम् ॥१०॥ अष्टाविंशं शतं दिक्ष चतुर्विशं विदिक्ष तत् । घाटस्यापि समस्तं तत् द्वापञ्चाशं शतद्वयम् ॥१०९॥ चतुर्विंशं शतं दिक्ष विशमेव विदिक्ष तत् । संघाटस्य चतुर्युक्तं चत्वारिंशं शतद्वयम् ॥१०॥ दिक्ष वियां शतं ज्ञेयं पोडशानं विदिक्ष तत् । जिह्वाख्यस्य समस्तं तत् पटत्रिंशं हि शतद्वयम् ।।१११॥ पोडशा शतं दिक्ष द्वादशाग्रं विदिक्ष तत् । जिह्वकाव्यस्य युक्तं स्यादष्टाविंशं शतद्वयम् ॥११२॥ द्वादशाग्रं शतं दिन विदिश्वष्टोत्तरं शतम् । लोलस्यापि समस्तं तत् विंशत्यग्रं शतद्वयम् ॥११३॥ अष्टोत्तरशतं दिक्ष विदिक्ष चतुरुत्तरम् । लोलुपस्य समस्तं तत् द्वादशाग्र शतद्वयम् ।।११४॥ चतुर्भिश्च शतं दिक्ष विदिक्षु शतमायतम् । तत्तनुलोलुपाख्यस्य चतुर्युक्तं शतद्वयम् ॥१५॥
और तेरहवें प्रस्तारके विक्रान्त नामक इन्द्रक विलको चारों दिशाओं में एक सौ अडतालीस,विदिशाओंमें एक सौ चौवालीस और दोनोंके सब मिलाकर दो सौ बानबे श्रेणिवद्ध विल हैं ॥१०१-१०२।। इस प्रकार तेरहों प्रस्तारोंके समस्त श्रेणिबद्ध विल चार हजार चार सौ बीस, इन्द्रक विल तेरह और श्रेणिबद्ध तथा इन्द्रक दोनों मिलाकर चार हजार चार सौ तेंतीस विल हैं। इनके सिवाय उनतीस लाख पंचानवे हजार पाँच सौ सड़सठ प्रकीर्णक विल हैं। इस प्रकार सब मिलाकर प्रथम पृथिवीमें तीस लाख विल हैं।।१०३-१०४|| द्वितीय पृथिवीके प्रथम प्रस्तारकेस्तरक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चौवालीस, विदिशाओं में एक सौ चालीस और सब मिलाकर दो सौ चौरासी श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०५।। द्वितीय प्रस्तारके स्तनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चालीस, विदिशाओमें एक सौछत्तीस और सब मिलाकर दो सौ छिहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०६|| तृतीय प्रस्तारके मनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ छत्तीस, विदिशाओंमें एक सौ बत्तीस और सब मिलाकर दो सौ अड़सठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०७।। चतुर्थं प्रस्तारके वनक नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ बत्तीस, विदिशाओंमें एक सौ अट्ठाईस और सब मिलाकर दो सौ साठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१०८॥ पंचम प्रस्तारके घाट नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ अट्ठाईस, विदिशाओंमें एक सौ चौबीस और सब मिलाकर दो सौ बावन विल श्रेणिबद्ध हैं ॥१०।। षष्ठ प्रस्तारके संघाट नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओंमें एक सौ चौबीस, विदिशाओं में एक सौ बीस और सब मिलाकर दो सौ चौवालीस श्रेणिबद्ध विल हैं।।११०॥ सप्तम प्रस्तारके जिह्व नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ बीस, विदिशाओंमें एक सौ सोलह और सब मिलाकर दो सौ छत्तीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१११॥ अष्टम प्रस्तारके जिह्वक नामक इन्द्रकको चारों दिशाओंमें एक सौ सोलह, विदिशाओंमें एक सौ बारह और सब मिलाकर दो सौ अट्ठाईस श्रेणिबद्ध निल हैं ॥११२॥ नवम प्रस्तारके लोल नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ बारह, विदिशाओंमें एक सौ आठ और सब मिलाकर दो सौ बीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥११३॥ दशम प्रस्तारके लोलुप नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ आठ, विदिशाओं में एक सौ चार और सब मिलाकर दो सौ बारह श्रेणिबद्ध विल हैं ॥११४॥ और एकादश प्रस्तारके स्तन-लोलुप नामक
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हरिवंशपुराणे
श्रेणिबद्धानि चैतानि सहस्रे च षट्शती । नवतिः पञ्चभिर्युक्ता भवन्ति नरकाणि तु ॥ ११६ ॥ चतुर्विंशतिलक्षाश्च नवतिः सप्तभिस्त्विह । सहस्रगुणिताः पञ्च त्रिशती च प्रकीर्णकाः ॥ ११७ ॥ तप्तस्यापि शतं दिक्षु नरकाणां विदिक्षु तत् । मता षण्णवतिर्युक्तं शतं षण्णवतं तु तत् ॥ ११८ ॥ दिक्षु षण्णवतिर्द्वाभ्यां विदिक्षु नवतिर्युता । तपितस्य तु तद् युक्तमष्टाशीतं शतं मतम् ॥ ११९ ॥ दिक्षु द्वानवतिः सा स्यादष्टाशीतिर्विदिक्षु तत् । तपनस्य तु तद्युक्तमशीत्या सहितं शतम् ॥ १२०॥ अष्टाशीतिर्महादिक्षु विदिक्षु चतुरुत्तरा । अशीतिस्तापनस्यै तद् द्वासप्तत्या शतं युतम् ॥१२१॥ अशीतिश्चतुरूर्ध्वा स्याद् दिवशीतिर्विदिक्षु तत् । निदाघस्यापि तद्युक्तं चतुःषष्टियुतं शतम् ॥१२२॥ दिक्ष्वशतिर्विदिक्षु ज्ञैः षट्सप्ततिरुदाहृता । युक्तं प्रज्वलितस्यापि षट् पञ्चाशं शतं हि तत् ॥ १२३॥ दिक्षु षट्सप्ततिज्ञेया चतुरूना विदिक्ष, सा । शतमुज्ज्वलितस्योभे चत्वारिंशं शतं मतम् ।। १२४ || दिक्षु द्वासप्ततिः सा स्यादष्टापष्टिर्विदिक्षु तत् । युक्तं संज्वलितस्यापि चत्वारिंशं शतं मतम् ॥१२५॥ अष्टषष्टिहादि चतुःषष्टिर्विदिक्षु तत् । संप्रज्वलितसंज्ञस्य द्वात्रिंशत्संयुतं शतम् ॥ १२६ ॥ श्रेणिवद्धानि चामूनि सहस्रं च चतुःशती । पञ्चाशीतिश्च जायन्ते नवस्त्रपि सहेन्द्रकैः ।। १२७|| लक्षाश्चतुर्दशाष्टाभिर्नवतिश्च प्रकीर्णकाः । सहस्रताडिता पञ्च शती पञ्चदशापि च ॥ १२८ ॥
इन्द्रककी चारों दिशाओंमें एक सौ चार, विदिशाओं में सौ और सब मिलाकर दो सौ चार श्रेणिबद्ध विल हैं ।। ११५ ।। इस प्रकार इन ग्यारह प्रस्तारोंके श्रेणिबद्ध विल दो हजार छह सौ चौरासी और इन्द्र विल ग्यारह हैं तथा दोनों मिलाकर दो हजार छह सौ पंचानबे हैं ॥ ११६ ॥ तथा प्रकीर्णक विल चौबीस लाख सत्तानवे हजार तीन सौ पाँच है । इस तरह सब मिलकर पचीस लाख विल हैं ॥११७॥
तीसरी पृथिवीके पहले प्रस्तार सम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रक विलकी चारों दिशाओं में सौ, विदिशाओं में छियानबे और सब मिलाकर एक सो छियानबे श्रेणिबद्ध विल हैं ||११८ || दूसरे प्रस्तारके तपित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें छियानवे, विदिशाओंमें बानबे और दोनोंके मिलाकर एक सौ अट्ठासी श्रेणिबद्ध विल हैं ।। ११९ ॥ तीसरे प्रस्तारके तपन नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में बानबे, विदिशाओं में अट्ठासी और दोनोंके मिलाकर एक सौ अस्सी श्रेणिबद्ध विल हैं || १२० || चौथे प्रस्तारके तापन नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओं में अट्ठासी, विदिशाओं में चौरासी और दोनोंके मिलाकर एक सौ बहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं || १२१ ॥ पाँचवें प्रस्तार के निदाघ नामक इन्द्रक विकी चारों दिशाओंमें चौरासी, विदिशाओं में अस्सी और दोनोंके मिलाकर एक सौ चौंसठ श्रेणिबद्ध विल हैं ।। १२२ ।। छठे प्रस्तार के प्रज्वलित नामक इन्द्रकको चारों दिशाओं में अस्सी, विदिशाओं में छिहत्तर और दोनोंके मिलाकर एक सौ छप्पन श्रेणिबद्ध विल हैं ॥ १२३ ॥ सातवें प्रस्तारके उज्ज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में छिहत्तर, विदिशाओं में बहत्तर और दोनों मिलाकर एक सौ अड़तालीस श्रेणिबद्ध विल हैं || १२४ || आठवें संज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओं में बहत्तर, विदिशाओं में अड़सठ और दोनोंको मिलाकर एक सौ चालीस श्रेणिबद्ध बिल हैं ।। १२५ || और नौवें प्रस्तारके संप्रज्वलित नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें अड़सठ, विदिशाओं में चौंसठ और दोनोंके सब मिलाकर एक सौ बत्तीस श्रेणिबद्ध विल हैं ।। १२६ || इस प्रकार नौ प्रस्तारोंके समस्त श्रेणिबद्ध विल एक हजार चार सौ छिहत्तर हैं । इनमें नो इन्द्रक विलोंकी संख्या मिलानेपर एक हजार चार सौ पचासी विल होते हैं ॥ १२७॥ तीसरी पृथिवीमें चौदह लाख, अंठानबे हजार पाँच सौ पन्द्रह प्रकीर्णक हैं और सब मिलाकर पन्द्रह लाख विल हैं ॥ १२८ ॥
१. नम. ।
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चतुर्थः सर्गः चतुःषष्टिर्महादिक्षु षष्टिरेव विदिक्षु च । आरस्यापि शतं मिश्रं चतुर्विंशतिसंमतम् ॥१२९॥ षष्टिरेव महादिक्ष षट्पञ्चाशद्विदिक्ष च । तारस्यापि च तन्मिश्रं षोडशाग्रं शतं मतम् ॥१३॥ षट्पञ्चाशन्महादिक्षु द्वापञ्चाशद्विदिक्षु च । मारस्यापि च तन्मिनं मतमष्टोत्तरं शतम् ॥१३१॥ बापञ्चाशन्महादिक्षु चत्वारिंशत् सहाष्टमिः । वर्चस्कस्य विदिक्षु स्यात्तन्मिभं शतमेव तु ॥१३२॥ चत्वारिंशत् सहाष्टाभिर्महादिक्ष विदिक्ष तु । तमकस्य चतुर्मिश्च युतं वा नवतिर्द्वयम् ॥१३३॥ चत्वारिंशचतुर्भिश्च महादिक्षु विदिक्षु तु । चत्वारिंशत् खडस्येयमशीतिश्चतुरुत्तरा ॥३३॥ : चत्वारिंशन्महादिक्ष षट्त्रिंशच्च विदिक्षु च । युता खडखडस्येव षट्सप्ततिरुदाहृता ।।१३।। इन्द्रकैः सह सप्त स्युः शतान्येतानि सप्त च । श्रेणीबद्धानि सर्वाणि नरकाण्यत्र संमवात् ॥ १३६॥ लक्षा नवसहस्राणि नवतिर्नवमिः सह । नवतिश्च त्रिभिर्युक्ता द्विशती च प्रकीर्णकाः ॥१३॥ षटत्रिंशच महादिक्ष द्वात्रिंशत्तु विदिक्ष तत् । तमःश्रुतेयं मिश्रमष्टाषष्टिरुदाहृता ॥१३॥ द्वात्रिंशश्च महादिक्ष, 'भ्रमस्याष्टौ च विंशतिः । विदिक्ष मिश्रितं तच्च षष्टिरिष्टा मनीषिभिः ॥१३९।। भष्टाविंशतिरुद्दिष्टा महादिक्षु विदिक्ष तु । श्रेषस्य चतुरूना स्यावापञ्चाशद्वयं युता ।।१४०॥ चतुर्विशतिरन्ध्रस्य महादिक्ष विदिक्षु तु । विंशतिमिश्रियं तस्य चत्वारिंशञ्चतुर्युता ॥१४॥ विंशतिस्तु महादिक्षु विदिक्ष्वपि च षोडश । तमिस्रस्य विमिश्रं तत् षट् त्रिंशन्नरकाणि तु ॥१४२॥
- चौथी पृथिवीके पहले प्रस्तार सम्बन्धी आर नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें चौंसठ, विदिशाओंमें साठ और दोनोंके मिलाकर एक सौ चौबीस श्रेद्धिबद्ध विल हैं ॥१२९।। दूसरे प्रस्तारके तार नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें साठ, विदिशाओंमें छप्पन और दोनोंके मिलाकर एक सौ सोलह श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३०॥ तीसरे प्रस्तारके मार नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें छप्पन, विदिशाओंमें बावन और दोनोंके मिलाकर एक सौ आठ श्रेणिबद्ध विमान हैं ॥१३१॥ चौथे प्रस्तारके वर्चस्क नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें बावन, विदिशाओंमें अड़तालीस और दोनोंके मिलाकर एक सौ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३२॥ पांचवें प्रस्तारके तमक नामक इन्द्रकको चारों महादिशाओंमें अड़तालीस, विदिशाओंमें चवालीस और दोनोंके मिलाकर बानबे श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३३॥ छठवें प्रस्तारके खड नामक इन्द्रकको चारों दिशाओंमें चवालीस, विदिशाओंमें चालीस और दोनोंके मिलाकर चौरासी श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३४॥ और सातवें प्रस्तारके खड-खड नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें चालीस. विदिशाओंमें छत्ती दोनोंके मिलाकर छिहत्तर श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३५॥ इस प्रकार चौथी भूमिमें सात इन्द्रक विलोंकी संख्या मिलाकर सब इन्द्रक और श्रेणिबद्ध विलोंकी संख्या सात सौ सात है ॥१३६॥ इनके सिवाय नौ लाख निन्यानबे हजार दो सौ तिरान प्रकोणक विल हैं तथा सब मिलाकर दश लाख विल हैं ॥१३७॥
पांचवीं पृथिवी सम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके तम नामक इन्द्रकको चारों महादिशाओंमें छत्तीस, विदिशाओंमें बत्तीस और दोनोंके मिलाकर अड़सठ श्रेणिबद्ध विल हैं ।।१३८॥ दूसरे प्रस्तारमें भ्रम नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें बत्तीस, विदिशाओंमें अट्ठाईस और दोनोंके मिलाकर साठ श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१३९॥ तीसरे प्रस्तारके ऋषभ नामक इन्द्रकी चारों महादिशाओंमें अटाईस.
में अट्ठाईस, विदिशाओंमें चौबीस और दोनोंमें मिलाकर बावन श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१४०॥ चौथे प्रस्तारके अन्ध्र नामक इन्द्रकको चारों दिशाओंमें चौबीस, विदिशाओंमें बोस और दोनोंके मिलाकर चवालीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१४१॥ और पांचवें प्रस्तारके तमिस्र नामक इन्द्रककी चारों दिशाओंमें बीस, विदिशाओंमें सोलह और दोनोंके मिलाकर छत्तीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१४२॥ इस १. तमस्याष्टो म. । २. ऋषभस्य म. ।
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हरिवंशपुराणे इन्द्रकैः सह सर्वाणि श्रेणीबद्धान्यमून्यपि । द्वे शते नरकाण्युक्ने पञ्चषष्टिविमिश्रिते ॥१४३॥ द्वे लक्ष च सहस्राणि नवमिर्नवतिस्तथा । शतानि सप्त कथ्यन्ते पञ्चत्रिंशत् प्रकीर्णकाः ॥१४४॥ षोडशैव महादिक्षु द्वादशैव विदिक्षु च । हिमस्यापि विमिश्रं स्यादष्टाविंशतिरेव तत् ॥१४५॥ द्वादशैव महादिक्षु विदिक्ष्वष्टौ तु तद्वयम् । सहितं नरकाणां स्याद् वर्दलस्य तु विंशतिः ॥ १४६॥ अष्टावेव महादिक्षु चत्वार्येव विदिक्षु च । लल्लक्कस्य समेतं तु द्वादशैव तु तद्वयम् ॥१४७॥ त्रिषष्टिरिन्द्रका साध श्रेणीबद्धान्यमून्यपि । नवतिश्च सहस्राणि नवभिः सहितानि तु ।।१४८॥ शतानि नव तत्रापि द्वात्रिंशच प्रकीर्णकाः । प्रकीर्णनारकाकीर्णाः प्रणीताः प्राणिदुःसहाः ।।१४९।। एकमेव महादिक्षु विदिक्षु नरकं न हि । अप्रतिष्ठानयुक्कानि पञ्च स्युर्न प्रकीर्णकाः ।।१५०।। काङ्क्षाख्यश्च महाकाङ्क्षः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोः । पिपासातिपिपासाख्यौ दक्षिणोत्तरयोस्तथा ।।१५१।। सीमन्तकेन्द्रकस्यामी चत्वारोऽनन्तराः स्थिताः । दुर्वर्णनारकाकीर्णाः प्रसिद्धा नारकालयाः ॥५२॥ अनिच्छाख्यो महानिच्छो निरयो विन्ध्यनामकः । महाविन्ध्यामिधानश्च तरकस्य तथा स्थिताः ।।१५३ दुःखाख्यश्च महादुःखो निरयो वेदनामिधः । महावेदननामा च तप्तस्यामी तथा स्थिताः ॥१५४॥ निसृष्टातिनिसृष्टाख्यौ निरोधो निरयोऽपरः। महानिरोधमाला च तेऽप्यारस्य तथा स्थिताः ॥१५५॥ निरुद्धातिनिरुद्धाख्यौ तृतीयश्च विमर्दनः । महाविमर्दनाख्यश्च तमोनाम्ना तथा स्थिताः ॥१५६।।
प्रकार पाँचवीं पृथिवीमें पाँच इन्द्रक विल मिलाकर समस्त इन्द्रक और श्रेणिबद्ध विलोंको संख्या दो सौ पैंसठ है। तथा दो लाख निन्यानबे हजार सात सौ पैंतीस प्रकीर्णक विल हैं और सब मिलकर तीन लाख विल हैं ।।१४३-१४४।। छठवीं पृथिवी सम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके हिम नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें सोलह, विदिशाओंमें बारह और दोनोंके मिलाकर अदाईस श्रेणिवद्ध । हैं ।।१४५।। दूसरे प्रस्तारके वर्दल नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें बारह, विदिशाओंमें आठ और दोनोंके मिलाकर बीस श्रेणिबद्ध विल हैं ॥१४६।। और तीसरे प्रस्तारके लल्लक नामक इन्द्रककी चारों महादिशाओंमें आठ, विदिशाओंमें चार और दोनोंके मिलाकर बारह श्रेणिबद्ध विल हैं।।१४७।। इस प्रकार छठवीं पृथिवीके तीन प्रस्तारोंमें तीन इन्द्रकोंकी संख्या मिलाकर वेसठ इन्द्रक
और श्रेणिबद्ध विल हैं तथा निन्यानबे हजार नौ सौ बत्तीस प्रकीर्णक विल हैं और सब मिलकर पाँच कम एक लाख विल हैं । ये सभी विल प्राणियोंके लिए दुःखसे सहन करने के योग्य हैं ।।१४८-१४९।।
सातवीं पृथिवीमें एक ही प्रस्तार है और उसके बीच में अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक है उसकी चारों दिशाओंमें चार श्रेणिबद्ध विल हैं। इसकी विदिशाओंमें विल नहीं हैं तथा प्रकीर्णक विल भी इस पृथिवी में नहीं हैं। एक इन्द्रक और चार श्रेणिबद्ध दोनों मिलकर पांच विल हैं ॥१५०।।।
वोके प्रथम प्रस्तारमें जो सीमन्तक नामका इन्द्रक विल है उसकी पूर्व दिशामें कांक्ष, पश्चिम दिशामें महाकांक्ष, दक्षिण दिशामें पिपास और उत्तर दिशामें अतिपिपास नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं । ये महानरक इन्द्रक विलके निकट में स्थित हैं तथा दुर्वर्ण नारकियोंसे व्याप्त हैं ।।१५१-१५२॥ दूसरी पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो तरक नामका इन्द्र के विल है उसकी पूर्व दिशामें अनिच्छ, पश्चिम दिशामें महानिच्छ, दक्षिण दिशामें विन्ध्य और उत्तर दिशामें महाविन्ध्य नामके प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५३।। तीसरी पृथिवीके प्रथम प्रस्तार में जो तप्त नामका इन्द्रक विल है उसको पूर्व दिशामें दुःख, पश्चिम दिशा में महादुःख, दक्षिण दिशामें वेदना और पश्चिम दिशामें महावेदना नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ।।२५४|| चौथी पथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो आर नामका इन्द्रक विल है, उसको पूर्व दिशामें निःसष्ट, पश्चिम दिशामें अतिनिःसृष्ट, दक्षिण दिशामें निरोध और उत्तर दिशामें महानिरोध नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥१५५।। पांचवों पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो तम नामका इन्द्रक है उसकी
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चतुर्थः सर्गः
नीलाख्यश्च महानीलो निरयो मघवाक्षितो । दिक्ष पङ्कमहापङ्को हिमनाम्नस्तथा स्थितः ॥१५७।। स्थिताः कालमहाकालरोरवा निरयास्तथा । महारौरवनामा च स्वाप्रतिष्ठानदिक्ष ते ।।१५८॥ नवतिश्च सहस्राणि त्रिशती च प्रकीर्णकाः । लक्षाश्चैव व्यशीतिः स्युश्चत्वारिंशच्च सप्तभिः ॥१५९।। सहस्राणि नव श्रेणी-गतानां षट्शतीन्द्रकैः । त्रिभिः पञ्चाशता लक्षा अशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१६॥ तेषु संख्येयविस्ताराः षडूलक्षाः प्रथमक्षितौ । सन्त्यसंख्येयविस्ताराश्चतुर्विंशतिरेव ताः ॥१६१॥ सन्ति संख्येयविस्ताराः पञ्चलक्षास्तु विंशतिः । ततोऽसंख्येयविस्तारा नरकौघा ह्यधःक्षितौ ॥१६२॥ लक्षास्तिस्रस्तृतीयायां ख्याताः संख्येययोजनाः । असंख्येयास्तु विस्तारा लक्षा द्वादश तु क्षितौ ॥१६३॥ लक्षद्वयं चतुर्था तु नारकाणां क्षितौ ततः । संख्येययोजनानां स्यादन्येषामष्ट लक्षिताः ।।१६४॥ अधःपष्टिसहस्राणि संख्यया ध्वनितान्यतः । चत्वारिंशत्सहस्राणि द्विलक्षाण्यपराग्यपि ।। १६५॥ एकोनविंशतिः षष्टयां सहस्राणि नवोत्तरा । नवतिर्नवशत्यामा संख्येया ध्वनितानि तु ॥१६६।। सप्ततिश्च सहस्राणि नवासंख्येययोजनाः । शतानि नारकावाला नवषण्णवतिस्त्विह ।।१६७।। एक संख्येयविस्तारं सप्तम्यां नरकं मतम् । ततोऽसंख्येयविस्तारं नरकाणां चतुष्टयम् ॥१६८॥ तत्र संख्येयविस्तारा इन्द्रकाः सर्व एव ते । श्रेणीबद्धास्त्वसंख्येयविस्तारा नरकालयाः ॥१६९॥ केचित् संख्येयविस्ताराः सर्वभूमिप्रकीर्णकाः । केऽप्यसंख्ययविस्तारा इत्थं ते तूभयात्मकाः ॥१७॥
पूर्व दिशामें निरुद्ध, पश्चिम दिशामें अतिनिरुद्ध, दक्षिणमें विमर्दन और उत्तरमें महाविमर्दन नामके चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५६।। छठवीं पृथिवीके प्रथम प्रस्तारमें जो हिम नामका इन्द्रक विल है उसकी पूर्व दिशामें नील, पश्चिम दिशामें महानील, दक्षिणमें पंक और उत्तरमें महापंक नामके चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं ।।१५७।। और सातवों पृथिवीमें जो अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक है उसकी पूर्व दिशामें काल, पश्चिम दिशामें महाकाल, दक्षिण दिशामें रौरव और उत्तर दिशामें महारोरव नामके चार प्रसिद्ध महानरक हैं ॥१५८।। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें तेरासी लाख, नब्बे हजार, तीन सौ सैंतालिस प्रकीर्णक, नौ हजार छह सौ श्रेणिबद्ध, उनचास इन्द्रक और सब मिलाकर चौरासी लाख विल हैं ॥१५९-१६०||
प्रथम पृथिवीके तीस लाख विलोंमें छह लाख विल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और चौबीस लाख विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१३१॥ उसके नीचे दूसरी पृथिवीमें पांच लाख संख्यात योजन विस्तारवाले और बोस लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले विल हैं ।।१६२।। तीसरी पृथिवीमें तीन लाख संख्यात योजन विस्तारवाले और बारह लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले विल हैं ।।१६३।। चौथी पृथिवीमें दो लाख विल संख्यात योजन विस्तारवाले हैं और आठ लाख असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६४।। पांचवीं पृथ्वीमें साठ हजार विल संख्यात योजन विस्तारवाले हैं और दो लाख चालीस हजार विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६५॥ छठवीं पथिवीमें उन्नीस हजार नौ सौ निन्यानबे विल संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं और उन्यासी द्वज नौ सौ छियानबे विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६६-१६७॥ सातवीं पथिवीमें एक अर्थात् बीचका इन्द्रक विल संख्यात योजन विस्तारवाला है और चारों दिशाओंके चार विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं ॥१६८॥ सातों पृथिवियोंमें जो इन्द्रक विल हैं वे सब संख्यात योजन विस्तारवाले हैं, तथा श्रेणिबद्ध विल असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं और प्रकीर्णक विलोंमें कितने ही संख्यात योजन विस्तारवाले तथा कितने हो असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं इस तरह उभय विस्तारवाले हैं ।।१६९-१७०॥
१. साकमित्यर्थः।
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हरिवंशपुराणे सोमन्तकस्य विस्तारो योजनानां मतं ततः। विद्वद्भिः प्रमितो लक्षाश्चत्वारिंशच्च पञ्च च ॥१७॥ चत्वारिंशञ्चतस्रश्च लक्षाः साष्टसहस्रिकाः । त्रिशती च त्रयस्त्रिंशत् सत्र्यंशो नारकस्य सः॥१७२।। त्रिचत्वारिंशदिष्टास्ताः सहस्राणि च षोडश । षट्शतानि च षट्षष्टिद्वौ व्यंशी रौरवस्य च ॥१७३॥ द्विचत्वारिंशदुक्तास्ताः सहस्राणि च विंशति । पञ्चोत्तराणि विस्तारो भ्रान्तस्यापि समन्ततः ॥१४॥ चत्वारिंशच्च लक्षा सैकोभ्रान्तस्य शतत्रयम् । त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि त्रयस्त्रिंशत्तु भागवान् ॥१७५॥ चत्वारिंशत्स संभ्रान्ते तत: षट्षष्टि षट्शती । चत्वारिंशत् सहस्राणि सैकानि द्वौ त्रिभागकौ ॥१७६॥ ताश्चत्वारिंशदेकोना असंभ्रान्तस्य विस्तृतिः । पञ्चाशञ्च सहस्राणि योजनानां समन्ततः ॥१७॥ अष्टात्रिंशत् स विभ्रान्ते ताः पञ्चाशत् सहस्रकैः । सह त्र्यंशस्त्रयस्त्रिंशत् त्रिशताष्टसहस्रकः ॥१७॥ सप्तत्रिंशदतो कक्षा सषट्षष्टिसहस्रिकाः । शतानि षट् त्रिभागो द्वौ षटषष्टिस्त्रस्तनामनि ॥१७॥ षट्त्रिंशच तथा लक्षाः सहस्राणि च सप्ततिः । पञ्चोत्तराणि विस्तारस्त्रसितस्य परिस्फुटः ॥८॥ पञ्चत्रिंशदतो लक्षा वक्रान्तस्य त्रिभागवान् । व्यशीतिश्च सहस्राणि यत्रिंशच्छतत्रयम् ॥१८१॥ चतुस्त्रिशदतो लक्षा नवत्येकसहस्रिका । षट्क्षष्टिः षट्शती व्यंशाववक्रान्तस्य सर्वतः ॥१८॥ चतुस्त्रिशत्ततो लक्षा योजनानामवस्थिताः । विक्रान्तस्यापि विस्तारः समस्तो विस्तरेरितः ॥१८॥ स्तरकस्य नास्त्रिशत् लक्षाः साष्ट सहस्रिकाः । शतानि त्रीणि सभ्यंशः त्रिंशच त्रीणि विस्तृतिः ॥१८॥ स्तनकस्य तु विस्तारो लक्षा द्वात्रिंशदंशको । षोडशापि सहस्राणि षट्पष्टिः षट्शती मता ॥१८५।। मनकस्यापि विस्तारो त्रिशल्लक्षा सहककाः । योजनानां सहस्राणि पञ्चविंशतिरेव च ॥१८॥ ___अब सातों पृथिवियोंके उनचास इन्द्रक विलोंका विस्तार कहते हैं-उनमेंसे प्रथम पृथिवीके सीमन्तक इन्द्रकका विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ॥१७१।। दूसरे नारक इन्द्रकका विस्तार चवालीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन तथा एक योजनके तीन भागोंमें से एक भाग प्रमाण है ॥१७२।। तीसरे रौरव इन्द्रकका विस्तार तैंतालीस लाख सोलह हजार छह सौ सड़सठ योजन और एक योजनके तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥१७३।। चौथे भ्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार सब ओरसे बयालीस लाख पच्चीस हजार योजन है ॥१७४|| पांचवें उद्भ्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार इकतालीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोमे-से एक भाग प्रमाण है ॥१७५|| छठवें सम्भ्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार चालीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ॥१७६।। सातवें असम्भ्रान्त इन्द्रकका विस्तार सब ओरसे उनतालीस लाख पचास हजार योजन है ।।१७७|| आठवें विभ्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें से एक भाग प्रमाण है ॥१७८|| नौवें त्रस्त नामक इन्द्रकका विस्तार सैंतीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ||१७|| दशवें त्रसित नामक इन्द्रकका विस्तार छत्तीस लाख हजार योजन है ॥१८०|| ग्यारहवें वक्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजन के तीन भागोंमें-से एक भाग प्रमाण है ॥१८१।। बारहवें अवक्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार सब ओरसे चौंतीस लाख एकानबे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें-से दो भाग प्रमाण है ।।१८२।। और तेरहवें विक्रान्त नामक इन्द्रकका विस्तार चौंतीस लाख योजन है ।। १८३।। १. द्वितीय पृथिवीके पहले स्तरक नामक इन्द्रकका विस्तार तैंतीस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें-से एक भाग प्रमाण है ।।१८४।। दूसरे स्तनक नामक इन्द्रकका विस्तार बत्तीस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग है ।।१८५।। तीसरे मनक इन्द्रकका विस्तार इकतीस लाख पच्चीस हजार योजन है
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चतुर्थः सर्गः वनकस्यापि विस्तारः त्रिंशल्लक्षाः शतत्रयम् । त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशस्त्रिभागवान् ॥१८॥ घाटस्य विशतिर्लक्षा नव पट्पष्टिश्च पटशतम् । चत्वारिंशत्सहस्राणि सैकानि व्यंशको हि सः ॥१८॥ अष्टाविंशतिलक्षास्तु विस्तारः परिकीर्तितः । स पञ्चाशत् सहस्राणि संघाटस्य निरन्तरः॥१८९॥ सप्तविंशतिलक्षाः स त्रयस्त्रिंशं शतत्रयम् । पञ्चाशच्च सहस्राणि साष्टौ जिह्वस्त्रिभागवान् ॥१९॥ लक्षाः पड्विंशतिःोक्ताः सपटप प्टिपहसिकाः। पटक्षष्टिः षट्शती ध्यंशौ विस्तारो जिबिकाश्रयः॥१९॥ पञ्चविंशतिलक्षास्तु लोलस्य परिकीर्तितः । सहस्राणि च विस्तारः समस्तः पञ्चपप्ततिः ॥१९॥ चतुर्विशतिलक्षाश्च लोलुपस्य विभागान् । ज्यशोतिश्च सहस्राणि त्रिशती त्रिंशता ब्रयम् ।।१९३॥ त्रयोविंशतिलक्षास्तु विस्तारः स्तनलोलुपे । सहस्रायेकनवतित्यंशौ षट्षष्टि षट्शतम् ॥१४॥ त्रयोविंशतिलक्षास्तु तप्ते द्वाविंशतिः परे । त्रिभागोऽष्टौ सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् ॥१९५॥ एकविंशतिलक्षा वै सहस्राणि च पोडश । तपनस्य त्रिभागौ च षट्षष्टिः षट्शती च सः ॥१९६।। लक्षाः विंशतिरुद्दिष्टा मुनिमिः पञ्चविंशतिः । सहस्राणि च विस्तारस्तापनस्यापि सर्वतः ॥१९७॥ एकोनविंशतिर्लक्षा निदाघस्य शतत्रयम् । त्रयस्त्रिंशत्वहस्राणि त्रिभागस्त्रिंशता अयम् ॥१९८॥ स चाष्टादश लक्षास्ताः घट्पष्टिः षोडशात्मकम् । शतं प्रज्वलितस्यासौ चत्वारिंशत्सहस्रकैः ।।१९९॥ लक्षाः सप्तदश प्रोक्ता विस्तारस्तत्वदर्शिमिः । सहैवोज्ज्वलितस्यासौ चत्वारिंशसहस्रकैः ॥२०॥ लक्षाः षोडश विस्तारो ह्यष्टापञ्चाशदप्यतः । सहस्राणि त्रिंशत्यंशशित्संज्वलिते त्रिमिः ॥२०॥
लक्षाः पञ्चदश व्यंशो पटषष्टिः पटशती च सः । सहस्राणि च षट्षष्टिः संप्रज्वलितनामनि ॥२०२।। ॥१८६।। चौथे वनक इन्द्रकका विस्तार तीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥१८७।। पाँचवें घाट नामक इन्द्रकका विस्तार उनतीस लाख इकतालीस हजार छ: सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ।।१८८।। छठवें संघाट नामक इन्द्रकका विस्तार अट्ठाईस लाख पचास हजार योजन है ॥१८९|| सातवें जिह्व नामक इन्द्रकका विस्तार सत्ताईस लाख अंठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।१९०॥ आठवें जिबिक इन्द्रकका विस्तार छब्बीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ॥१९१।। नौवें लोल इन्द्रकका विस्तार पच्चीस लाख पचहत्तर हजार योजन है ।।१९२॥ दसवें लोलप नामक इन्द्रकका विस्तार चौबीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥१९३॥ और ग्यारहवें स्तनलोलुप इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख एकानबे हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ।।१९४||
तीसरी पृथिवीके पहले तप्त नामक इन्द्रकका विस्तार तेईस लाख योजन है। दूसरे तपित इन्द्रकका विस्तार बाईस लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥१९५। तीसरे तपन इन्द्रकका विस्तार एक्कीस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ।।१९६।। चौथे तापन नामक इन्द्रकका विस्तार मुनियोंने सब ओर बीस लाख पच्चीस हजार योजन कहा है ॥१९७।। पांचवें निदाघ नामक इन्द्रकका विस्तार उन्नीस लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।१२८॥ छठवें प्रज्वलित इन्द्रकका विस्तार अठारह लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन है ॥१९९।। सातवें उज्ज्वलित इन्द्रकका विस्तार तत्त्वदर्शी आचार्योंने सत्रह लाख चालीस हजार योजन बतलाया है ॥२००॥ आठवें संज्वलित इन्द्रकका विस्तार सोलह लाख अंठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।२०१॥ और नौवें संप्रज्वलित इन्द्रकका विस्तार पन्द्रह लाख
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हरिवंशपुराणे लक्षाश्चतुर्दशवोक्ताः पञ्चसप्ततिरप्यतः । सहस्राणि स विस्तारस्तस्यारस्यापि सर्वतः ॥२०३॥ लक्षास्त्रयोदश व्यंशस्त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् । ज्यशीतिश्च सहस्राणि विस्तारस्तारगोचरः ॥२०४॥ लक्षा द्वादश ज्यशौ च षट्षष्टिः षट्शती तथा । सहस्राण्येकनवतिर्विस्तारो मारगोचरः ॥२०५॥ लक्षा द्वादश वर्चस्के लक्षोनास्तनके तु ताः । त्र्यंशश्चाष्टसहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् ॥२०६॥ लक्षा दश षडस्योक्ताः सहस्रं षोडशात्मकम् । षटशती च त्रिमागी च षट्षष्टिः स प्रकीर्तितः ॥२०७॥ लक्षा नव सहस्राणि पञ्चविंशतिरेव च । विस्तारो विस्तरेणोकस्तज्ज्ञः खडखडस्य सः ॥२०८।। लक्षास्तमःश्रुतेरष्टौ योजनानां शतत्रयम् । त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि व्रयस्त्रिंशत्त्रयं च सः ॥२०९।। लक्षाः सप्त भ्रमस्यासौ चत्वारिंशत्सहस्रकैः । शतानि षोडशांशी च षटषष्टिरपि माषितः ॥२१०॥ लक्षाः षडेव विस्तारः सपञ्चाशरसहस्रिकाः । योजनानां समन्तात्त झषस्य परिभाषितः ॥२१॥ लक्षाः पञ्चैव चान्ध्रस्य त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् । व्यंशश्चाप्यष्टपञ्चाशत् सहस्राणि स वर्णितः ॥२१२॥ लक्षाश्चतस्र उद्दिष्टास्तमिस्र व्यंशकद्वयम् । षट्षष्टिश्व सहस्राणि षट्षष्टिः षटशती च सः ॥२.१३॥ लक्षास्तिस्रो हिमस्यापि विस्तारः पञ्चसप्ततिः । सहस्राणि समादिष्टः शुद्धकेवल दृष्टिमिः ॥२१४॥ लक्षद्वयं विमागश्च विस्तारो वर्दलस्य तु । ज्यशीतिश्च सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् ॥२१५॥ लल्लकस्य तु लक्षका षट्षष्टिः षट्शती तथा । सहस्राण्येकनवतिर्विस्तारः त्र्यंशकद्वयम् ॥२१६॥
छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥२०२॥
चौथी पृथिवीके आर नामक पहले इन्द्रकका विस्तार सब ओर चौदह लाख पचहत्तर हजार योजन कहा है ॥२०३।। दूसरे तार इन्द्रकका विस्तार तेरह लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥२०४॥ तीसरे मार नामक इन्द्रकका विस्तार बारह लाख एकानबे हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ॥२०५।। चौथे वर्चस्क इन्द्रकका विस्तार बारह लाख योजन है। पांचवें तनक इन्द्रकका विस्तार ग्यारह लाख आठ हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ॥२०६।। छठवें खड इन्द्रकका विस्तार दश लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग है॥२०७॥ और सातवें खडखड नामक इन्द्रकका विस्तार जानकार आचार्योंने नौ लाख पच्चीस हजार योजन कहा है ॥२०८॥
पाँचवों पृथिवीके पहले तम नामक इन्द्रकका विस्तार आठ लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।२०९।। दूसरे भ्रम इन्द्रकका विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग है ॥२१०॥ तीसरे झष इन्द्रकका विस्तार छह लाख पचास हजार योजन कहा गया है ॥२११।। चौथे अन्ध्र नामक इन्द्रकका विस्तार पांच लाख अंठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण वणित है ॥२१२।। और पांचवें तमिस्र नामक इन्द्रकका विस्तार चार लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागों में दो भाग प्रमाण है ।।२१३।।
छठवीं पृथिवीके पहले हिम नामक इन्द्रकका विस्तार निर्मल केवलज्ञानके धारी अरहन्त भगवान्ने तीन लाख पचहत्तर हजार योजन बतलाया है ॥२१४॥ दूसरे वर्दल इन्द्रकका विस्तार दो लाख तेरासी हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ॥२१५।। और तोसर लल्लक इन्द्रकका विस्तार एक लाख एकानबे हजार छह सो छियासठ योजन और एक योजनके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण है ।।२१६।।
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चतुर्थः सर्गः केवलैव तु लक्षका योजनानां प्रकीर्तितः । अप्रतिष्ठानविस्तारो वस्तुविस्तरवेदिमिः ॥२१७।। इन्द्रकेषु च बाहुल्यं धर्मायां क्रोश एव च । श्रेणिवेषु स सत्यशो द्वौ सव्यंशौ प्रकीर्णके ।।२१।। क्रोशः सार्धस्तु वंशायामिन्द्रकेषु तदीरितम् । श्रेजीगतेषु तु कोशौ त्रयः सार्धाः प्रकीर्णके ॥२१९।। मेघायाभिन्द्र कपूक्तं बाहुल्यं कोशयोयम् । स द्विव्यं तच्छण्यां संयुक्त तत्प्रकीणके ॥२२॥ साधी द्वाविन्द्ववेती चतयां शकस्त्रयः। श्रेण्यांकन केष्वेते षड्भागैः पञ्च पञ्चभिः ॥२२१।। इन्द्रकेपु वयः क्रोशाश्वत्वारः श्रेयुपाश्रयः । स प्रकीर्णकेष्वेते पञ्चम्यामुपवर्णिताः ॥२२२।। सार्धाः षष्ठ्यां त्रयः क्रोशा इन्द्रकै श्रेण्युपाश्रिताः। चत्वारस्वयंश काटौते पदभागाः प्रकीर्णके ॥२२३।। सप्तम्यामप्रतिघाने चत्वारस्ते समुच्छुधाः । श्रेणिबद्धेषु पचव सत्रिभागाः प्रकीर्तिताः ॥२२४॥ योजनानां चतःषष्टिः शतानि प्रथम क्षिती: जतिन वलयका कोरगोश्वयं तथा ॥२२५।। बोगद्वादशभागाश्च तथैकादशापरे । इन्द्रकाणामिदं शेयकमा मदरं बुधैः ॥२२६।। चतापष्टिशतान्येव नवतिश्च नवोत्तरा । श्रेणीगतान्तरं क्रोशी मापनाशकाः ।।२२७।। नवतिर्नव चैतानि चतुःपष्टिशतानि तत् । कोशाः सप्तदशारोगा कोशपत्रिंशदंशकाः ॥२२॥ इन्द्रकाणां द्वितीयायां पृथिव्यां तु पृथुश्रुताः । तद्योजनशतान्याहुरेकान्नत्रिपदन्तरम् ॥२२९।। नव मिश्च नवत्या च योजनैः सहितानि तु । चत्वारिंशच्छतैर्युका तथा सप्तधनुःशती ॥२३०।। तावन्त्येव च जायन्ते योजनान्यन्ययाऽनया। श्रोणिचद्धस्थितानां च या पदागिद्धनुःशती ॥२३॥
सातवीं पृथिवीमें केवल अप्रतिष्ठान नामका एक ही इन्द्रक है तथा वस्तुके विस्तारको जाननेवाले सर्वज्ञ देवने उसका विस्तार एक लाख योजन बतलाया है ।।२१७।।
घर्मा नामक पहली पृथिवीके इन्द्रक विलोंकी मुटाई एक कोश, श्रेणिबद्ध विलोंकी एक कोश तथा एक कोशके तीन भागों में एक भाग और प्रकीर्णक विलोंकी दो कोश तथा एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण है ।।२१८।। दूसरी वंशा पृथिवीके इन्द्रक विलोंकी मुटाई डेढ़ कोश, श्रेणिबद्धोंकी दो कोश और प्रकीर्णकोंकी साढ़े तीन कोश है ।।२१९।। तीसरी मेघा पृथिवीके इन्द्रकोंकी मुटाई दो कोश, श्रेणिबद्धोंकी दो कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग, तथा प्रकोणंकोंकी चार कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग है ।।२२०|| चौथी अंजना पृथिवीके इन्द्रकों की मुटाई अढ़ाई कोश, श्रेणिबद्धोंकी तीन कोश और एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग तथा प्रकीर्णकोंकी पाँच कोश और एक कोशके छह भागोंमें पाँच भाग है ।।२२१।। पाँचवीं अरिष्टा पथिवीके इन्द्रकोंको मटाई तीन कोश, श्रेणिबद्धोको चार और प्रकीर्णकोंको सात कोश है ॥२२२॥ छठी मघवी पृथिवीके इन्द्रकोंकी मुटाई साढ़े तीन कोश, श्रेणिबद्धों की चार कोश और एक कोशके तीन भागोंमें दो भाग तथा प्रकीर्णकोंकी आठ कोश और एक कोशके आठ भागोंमें छह भाग प्रमाण है ।।२२३।। एवं माधवी नामक सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान इन्द्रकको मुटाई चार कोश, श्रेणिबद्धोंकी पाँच कोश और एक कोशके तीन भागोंमें एक भाग है। सातवों पृथिवीमें प्रकीर्णक बिल नहीं है।।२२४।। अब विलोंका परस्पर अन्तर कहते हैं-प्रथम पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर बुद्धिमान् पुरुषोंको चौंसठ सौ निन्यानबे योजन (छह हजार चार सौ निन्यानवे योजन) दो कोश और एक कोशके बारह भागोंमें-से ग्यारह भाग जानना चाहिए ।।२२५-२२६।। श्रेणिबद्ध विलोंका चौंसठ सौ निन्यानवे योजन दो कोश और एक कोशके नौ भागोंमें पांच भाग है ॥२२७॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर चौंसठ सौ निन्यानबे योजन दो कोश और एक कोशके छत्तीस भागों में सत्रह भाग प्रमाण है ।।२२८॥ द्वितीय पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर बहुश्रुत विद्वानोंने दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और चार हजार सात सौ धनुष कहा है ।।२२२-२३०॥ श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और तीन हजार छह सौ धनुष है ।।२३१।। एवं प्रकीर्णक विलोंका
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हरिवंशपुराणे
तावन्त्येव पुनस्तानि योजनानि परस्परम् । प्रकीर्णकान्तरं तस्यां तृणीयं तु धनुःशतम् ||२३२|| विनैकेन तु पञ्चादिन्द्रकाणां शतान्यपि । द्वात्रिंशच्च तृतीयायां पञ्चत्रिंशद्धनुः शतैः ॥ २३३॥ योजनानि हि यावन्ति द्विसहस्रधनूंषि च । श्रेणीगतान्तरं तस्यां लब्धवर्णैः प्रवर्णितम् ॥ २३४॥ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर्द्वात्रिंशच्च शतानि वै । धनूंषि पञ्चपञ्चाशच्छतान्येतत्प्रर्क के ।। २३५|| पञ्चषष्टिश्च षट्त्रिंशच्छतातीन्द्र कगोचरम् । धनुःशतानि तद्वेद्यं चतुर्थ्यां पञ्चसप्ततिः ।।२३६ ।। योजनानि हि तावन्ति श्र ेण्यां पञ्चनवांशकैः । धनूंषि पञ्चपञ्चाशत्तावन्त्येव शतानि तत् ॥ २३७॥ चतुःषष्टिश्च षट्त्रिंशद् योजनानां शतानि तु । सप्तसप्ततिसंख्यानैस्तथा चापशतैरपि ॥ २३८ ॥ द्वाविंशतिधनुर्मिश्व नवभागद्वयेन च । प्रकीर्णकान्तरं बोध्यं तस्यामेव प्रकीर्तितम् ॥२३९॥ सहस्राणि तु चत्वारि तच्चत्वारि शतानि च । योजनानि समस्तानि नवतिश्व नवोत्तरा ॥ २४० ॥ धनुःशतानि पञ्चैव पञ्चम्यामिन्द्र केष्विदम् । भेदान्तरप्रपञ्चज्ञैरन्तरं प्रतिपादितम् ॥ २४१ ॥ सहस्राणि च चत्वारि श्रेण्यां तावच्छतानि च । अष्टानवति नन्वेतत् षट्सहस्रधनूंषि च ॥ २४२ ॥ तच्चत्वारि सहस्राणि शतान्यपि च सप्तभिः । नवतिः शेषके चापपञ्चवष्टिशतानि च ॥ २४३ ॥ सहस्राणि च षट्षष्ट्यां शतानि नव चाष्टभिः । नवतिः पञ्चञ्चाशद्धनुः शतयतीन्द्र के ॥ २४४ ॥ तावन्त्येव भवन्त्यस्यां योजनानि तदन्तरम् । श्रेणीमद्वेषु वक्तव्यं द्विसहस्रधनुर्युतम् ||२३५|| सहस्राणि षडेवास्यां नवतिश्च पटुत्तरा । शतानि जब सप्तत्या शेषे पञ्चधनुःशती ॥ २४६ ॥ ऊर्ध्वास्त्रिसहस्राणि नवतिश्च नवोत्तरा । शतानि नव गव्यूतिः सप्तम्यामिन्द्रकान्तरम् ॥२४७॥ श्रीमद्धान्तरं चास्यां योजनानि भवन्ति हि । गव्यूतेश्व त्रिभागेन तावन्त्येवेति निश्चयः ॥ २४८॥ दशवर्षसहस्राणि नारकाणां लघुस्थितिः । सीमन्तके विनिर्दिष्टा नवतिस्तु परा स्थितिः ॥ २४२॥
भी पारस्परिक अन्तर उतना हो अर्थात् दो हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और तीन सौ धनुष है ||२३२|| तीसरी पृथिवी में इन्द्रक विलोंका विस्तार बत्तीस सौ योजन और पैंतीस सो धनुष प्रमाण है ।। २३३ ॥ श्रेणीगत विलोंका अन्तर विद्वानोंने बत्तीस सौ योजन और दो हजार धनुष बतलाया है || २३४|| तथा प्रकीर्णंकों का अन्तर बत्तीस सौ अड़तालीस योजन और पचपन सौ धनुष कहा है || २३५ || चोथो पृथिवीमें इन्द्रकविलोंका विस्तार छत्तीस सौ पैंसठ योजन और पचहत्तर सो धनुष प्रमाण है || २३६ || श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर छत्तीस सौ पैंसठ योजन, पचहत्तर सौ धनुष और एक धनुषके नौ भागों में से पाँच भाग प्रमाण है ॥ २३७॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका विस्तार छत्तीस सौ चौंसठ योजन, सतहत्तर सो वाईस धनुष और एक धनुषके नी भागों में दो भाग प्रमाण है ।। २३८- २३९ ।। पाँचवीं पृथिवीके इन्द्रक विलोंका अन्तर भेद तथा अन्तरोंका विस्तार जाननेवाले आचार्योंने चार हजार चार सौ निन्यानबे योजन और पाँच सौ धनुष बतलाया है || २४०-२४१ ॥ श्रेणिबद्ध विलों का अन्तर चार हजार चार सौ अंठानबे योजन और छह हजार धनुष है ॥ २४२॥ तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर चार हजार चार सौ सन्तानबे योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष है ।। २४३ || छठी पृथिवीके सो अंठानबे योजन और पचपन सो धनुष प्रमाण है || २४४ श्रेणिबद्ध बिलोंका अन्तर छह हजार नौ सौ अंठानबे योजन और दो हजार धनुष है || २४५ || तथा प्रकीर्णक विलोंका अन्तर छह हजार नौ सौ छियानबे योजन और सात हजार पाँच सौ धनुष है || २४६ || सातवीं पृथिवीमें इन्द्रक विलका अन्तर ऊपर-नीचे तीन हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और एक गव्यूति अर्थात् दो कोश प्रमाण है || २४७ || तथा इसी सातवीं पृथिवीं में श्रेणिबद्ध विलोंका अन्तर तीन हजार नौ सौ निन्यानबे योजन और एक कोशके तीन भागों में एक भाग प्रमाण है ऐसा निश्चय है || २४८ ॥ अब सातों पृथिवियों में जघन्य तथा उत्कृष्ट आयुका वर्णन करते हैं- पहली पृथिवीके
इन्द्रक विलोंका अन्तर छह हजार नौ
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चतुर्थः सर्गः साधिका तु परे चासाववरा स्थितिरिष्यते । इन्द्र के नार कामिख्ये लक्षास्तु नवतिः परा ॥५०॥ इयमेव जघन्या स्याद रौरवे' समयाधिका । पूर्वकोट्यस्वसंख्येया परमा परिकीर्तिता ॥२५॥ एषा चैवापरा भ्रान्ते स्थितिः स्यात् समयोत्तरा । सागरस्य पशे भागो दशमोऽत्र परा स्थितिः ॥२५२॥ इयमेव जघन्या स्यादुभ्रान्ते परमा पुनः । द्वावेव दशमी भागाविति तत्वविदां मतम् ॥२५३॥ संभ्रान्ते तु जवन्येयं दशभागास्त्रयः परा । अवराऽसावसंभ्रान्ते परा मागचतुष्टया ॥२५॥ अवराऽसौ च विभ्रान्ते परा सैकशवद्धिता । त्रस्ते त्वबरा सा स्यात् षट् पररा तु दशांशका ॥२५५॥ त्रसिते त्वपरा प्रोक्ता परा सत तर्दशका | वक्रान्रो साऽपरा प्रोक्ता परा चाष्टौ दशांशकाः ॥२५॥ एषैवोक्ता विपश्चिद्भिरवशान्तेऽवरा स्थितिः । नचैते दशमा नागास्तत्रैव परमा स्थितिः ॥२५७॥ इयमेव तु विक्रान्ते जघन्या परमा दश । दश भागा स्थितिः सैषा घर्मायां सागरोपमा ॥२५८॥ सातिरेकाऽवरा सैव स्तरके सागरोपमा । सागरैकादशांशी च सागरस्य परा स्थितिः ॥२५९॥
प्रथम सीमन्तक नामक प्रस्तारमें नारकियोंकी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षकी और उत्कृष्ट नब्बे हजार वर्षको कही गयी है ॥२४९॥ दूसरे नारक नामक इन्द्रकमें कुछ अधिक नब्बे हजार वर्षकी जघन्य स्थिति और नब्बे लाख वर्षको उत्कृष्ट स्थिति है ॥२५०|| रौरव नामक तीसरे प्रस्तारमें एक समय अधिक नब्बे लाखकी जयन्य स्थिति और असंख्यात करोड़ वर्षको उत्कृष्ट स्थिति है ॥२५१।। भ्रान्त नामक चौथे प्रस्तारमें एक समय अधिक असंख्यात करोड़ वर्षकी जघन्य स्थिति और सागरके दसवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ।।२५२।। उद्भ्रान्त नामक पाँचवें प्रस्तारमें एक समय अधिक सागरका दसवाँ भाग जघन्य स्थिति है और एक सागरके दश भागोंमें दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तत्त्वज्ञ पुरुषोंने मानी है ॥२५३।। सम्भ्रान्त नामक छठे प्रस्तारमें एक सागरके दश भागोंमें दो भाग तथा एक समय जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागोंमें तीन भाग प्रमाण है। असम्भ्रान्त नामक सातवें प्रस्तारमें जघन्य स्थिति सागरके दश भागोंमें समयाधिक तीन भाग है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागोंमें चार भाग प्रमाण है ॥२५४|| विभ्रान्त नामक आठवें प्रस्तारमें जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागरके दश भागोंमें चार भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागों में पांच भाग प्रमाण है । त्रस्त नामक नौवें प्रस्तारमें एक समय अधिक सागरके दश भागोंमें पांच भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और सागरके दश भागोंमें छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ।।२५५।। त्रसित नामक दसवें प्रस्तारमें जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागरके दश भागोंमें छह भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागोंमें सात भाग प्रमाण है। वक्रान्त नामक ग्यारहवें प्रस्तारमें जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागरके दश भागोंमें सात भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागोंमें आठ भाग प्रमाण है ॥२५६।। अवक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तारमें एक समय अधिक सागरके दश भागोंमें आठ भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और एक सागरके दश भागोंमें नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विद्वानोंने कही है। विक्रान्त नामक तेरहवें प्रस्तारमें जघन्य स्थिति एक सागरके दश भागोंमें समयाधिक नौ भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागरके दश भागोंमें दशों भाग अर्थात् एक सागर प्रमाण है। इस प्रकार घर्मा नामक पहली पृथिवीके तेरह प्रस्तारोंमें जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थितिका कथन किया । अब दूसरी पृथिवीके ग्यारह प्रस्तारों में स्थितिका वर्णन करते हैं ।।२५७-२५८।।
दूसरी पथिवीके स्तरक नामक प्रथम प्रस्तारमें नारकियोंकी जघन्य आय एक समय अधिक एक सागर और उत्कृष्ट स्थिति एक सागर तथा एक सागरके ग्यारह अंशोंमें दो अंश प्रमाण १. रोरुके म.।
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हरिवंशपुराणे
स्थितिरेषैव विज्ञेया स्तनकेऽनन्तरावरा । चतुरेकादशांशाश्च सागरश्च परा तथा ॥ २२०॥ अनन्तरा विनिर्दिष्टा मुनिभिर्मनकेश्वरा । षडैकादश मागाश्च सागरश्च तथा परा ॥ ३६१ ॥ एषैवावादिविद्वद्भिर्वनके चावरा स्थितिः । अष्टैकादशभागाश्च सागर परा तथा ॥ २६२ ॥ सैषैवाद्या विधाटेsपि पटुभिः प्रकटावरा । दशैकादश भागाश्च सागरश्च परा तथा ॥ २६३ ॥ इन्द्र के स्वियमेव स्यात् संघाटेऽनन्तरा । तत्रैकादशभागश्च सागरौ च परा स्थितिः ॥ २६४ ॥ स्थितिरेषैव बोधव्या जिल्लाख्येऽपीन्द्रकेश्वरा । त्रयस्त्वेकादशांशास्ते सागरौ च तथा परा ॥ २६५॥ असावेव समादिष्टा जिह्निकाख्येन्द्रकेश्वरा । पञ्चैकादश भागाश्च सागरौ च परा स्थितिः ॥ २६६॥ एषैवानन्तरा वेद्या लोलनामेन्द्रकेश्वरा । सप्तैकादश भागाश्च सागरौ च परा तथा ॥ २६७ ॥ भवत्यनन्तरैवैषा लोलुपेऽपीन्द्रकेश्वरा । नचैकादशभागाश्च सागरौ च परा तथा ॥ २६८ ॥ अवरैषा परापीष्टा स्तनलोलुपनामनि । सागरत्रयमेतेषु वंशाया सागरास्त्रयः ॥ २६९ ॥ सागरत्रयमेवासाववरा तप्तनामनि । चत्वारो नवभागाश्च परमा सागरास्त्रयः || २७० ।। इयमेवावराव पितेऽपीन्द्र के स्थितिः । तथाऽष्टौ नवभागाश्र परमा सागरात्रयः ॥ २७१ ॥ तपनेऽप्यवरेषैव नव भागास्त्रयोऽपि तु । चत्वारश्च समादिष्टा परमा सागराः स्थितिः ॥२७१॥ इयमेवोपगीता सा तापनेऽप्यवरा स्थितिः । सा सप्त नवभागास्तु चत्वारः सागराः परा ॥ २७३॥
है || २५९ || स्तनक नामक दूसरे प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति है तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६०|| मनक नामक तीसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और एक सागर पूर्ण तथा एक सागरके ग्यारह भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥ २६९ ॥ वनक नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानोंने यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही है || २६२ ॥ विघाट नामक पांचवें प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्णं और एक सागरके ग्यारह भागोंमें दश भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विज्ञ पुरुषोंने प्रकट की है— बतलायी है || २६३ || संघाट नामक छठे इन्द्रक अथवा प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६४ || जिह्व नामक सातवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्णं तथा एक सागरके ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६५ || जिह्विक नामक आठवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्णं तथा एक सागरके ग्यारह भागोंमें पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६६ || लोल नामक नौवें प्रस्तारमें यही जघन्य स्थिति तथा दो सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिए || २६७ || लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और दो सागर पूर्ण तथा एक सागरके ग्यारह भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है || २६८ || एवं स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और तीन सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । इस तरह वंशा नामक दूसरी पृथिवीमें सामान्य रूपसे तीन सागर प्रमाण स्थिति प्रसिद्ध है || २६९ ||
तीसरी पृथिवी के तप्त नामक प्रथम इन्द्रकमें तीन सागर जघन्य और तीन सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में चार भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है ॥२७० || तपित नामक दूसरे इन्द्रकमें यही जघन्य तथा तीन सागर पूर्ण और एक सागरके नौ भागों में आठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन करने योग्य है || २७१ ।। तपन नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य और चार सागर पूर्ण तथा एक सागरके नौ भागों में तीन भाग पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है || २७२ ॥ तापन नामक चौथे इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति और चार सागर पूर्ण तथा एक सागरके नौ
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चतुर्थः सर्गः
निदाघेऽप्यवरेषैव स्थितिः समुपवर्णिता । परा तु नवभागाभ्यां सागराः पञ्च संचिताः ॥२७॥ अजघन्या निदाघे या सैव प्रज्वलितेऽन्यथा । षड्नवांशकसंमिश्रा परा पञ्च पयोधयः ॥२७५॥ परा प्रज्वलिते येयं सेव चोज्ज्वलितेऽपरा । तथा सनवमागास्ते षट्समुद्राः परा स्थितिः ॥२७६॥ उत्कृष्टोज्ज्वलिते येयं सैव संज्वलितेऽवरा । सपञ्चनवमागास्ते परमा षट पयोधयः ॥२७॥ सा संप्रज्वलिते हीना परा सागरसप्तकम् । तृतीयनरके तेऽमी प्रसिद्धाः सप्त सागराः ॥२७॥ या संप्रज्वलिते दीर्घा हस्वाऽऽरे सा प्रकीर्तिता । दीर्घा सप्त समुद्रास्ते सप्तभागास्तथा त्रयः ॥२८९॥ आरे या परमा प्रोक्ता तारे संवापरा स्थितिः । परा सप्त समुद्रास्ते षड्भिः सप्तमभागकैः॥२८॥ तारे या परमा प्रोक्ता मैव मारेऽवरा स्थितिः । सह सप्तममागाभ्यां पराऽप्यष्टौ पयोधयः ॥२८१॥ मारे तु या परा सैव वर्चस्के वर्णिताऽवरा । पञ्चसप्तममागैस्तु पराष्ट जलराशयः ॥२२॥ वर्चस्के परमा याऽसौ तमकेऽप्यवरा स्थितिः । परा सप्तमभागेन संयुक्ता नव सागराः ॥२८३॥ परा तु तमके याऽसौ जघन्या सा षडे मत।। चतुर्भिः सप्तमैर्मागैः पराऽपि नव सागराः ॥२८॥ षडे तु परमा याऽसौ हीना षडषडेऽप्यसौ । चतुथ्या सुप्रसिद्धास्ते परा तु दश सागराः ॥२८५॥
भागोंमें सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायो मयी है ॥२७३॥ निदाघ नामक पांचवें इन्द्रकमें यही जघन्य और पांच सागर पूर्ण तथा एक सागरके नौ भागोंमें दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन की गयी है ।।२७४।। प्रज्वलित नामक छठे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति तथा पांच सागर पूर्ण और एक सागरके नौ भागोंमें छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥२७५।। प्रज्वलित इन्द्रकको जो उत्कृष्ट स्थिति है वही उज्ज्वलित नामक सातवें इन्द्रकको जघन्य स्थिति है तथा छह सागर पूर्ण और एक सागरके नो भागोंमें एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ॥२७६|| उज्ज्वलित इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति है वही संज्वलित नामक आठवें इन्द्रककी जघन्य स्थिति है तथा छह सागर पूर्ण और एक सागरके नौ भागोंमें पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है ।।२७७।। संप्रज्वलित नामक नौंवें इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति और सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। इस तरह तीसरे नरकमें सामान्य रूपसे सात सागरको स्थिति प्रसिद्ध है ॥२७८||
ऊपर संप्रज्वलित नामक इन्द्रकमें जो सात सागरको उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है वह चौथी पृथिवीके आर नामक प्रथम इन्द्रकमें जघन्य स्थिति कही गयी है तथा सात सागर पूर्ण और एक सागरके सात भागोंमें-से तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है ।।२७९|| और इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही तार नामक दूसरे इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायी गयी है, तथा सात सागर पूर्ण और एक सागरके सात भागोंमें-से छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।।२८०॥ तार इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कहो गयी है वही मार नामक तीसरे इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और आठ सागर पूर्ण तथा एक सागरके सात भागोंमें दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।।२८१।। मार इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही वर्चस्क नामक चौथे इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और आठ सागर पूर्ण तथा एक सागरके सात भागों में पांच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।।२८२॥ वचस्क इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही तमक नामक पांचवें इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और नौ सागर पूर्ण तथा एक सागरके सात भागोंमें एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।।२८३।। तमक इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही षड नामक छठे इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और नौ सागर पूर्ण तथा एक सागरके सात भागोमें चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति प्रदर्शित की गयी है ।।२८४।। षड इन्द्रकमें जो उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है वही षडषड नामक सातवें इन्द्रकमें जघन्य स्थिति बतलायो गयो है और दश सागर प्रमाण उत्कृष्ट
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हरिवंशपुराणे
दशार्णवास्तमोनाम्नि जघन्या सा पडे मता । सह पञ्चमभागाभ्यामुत्कृष्टैकादशार्णवाः ॥ २८६ ॥ इयमेव भ्रमे ह्रस्वा स्थितिः संप्रतिपादिता । चतुर्भिः पञ्चमैर्भागैः परा द्वादशसागराः ॥ २८७॥ एषैव हि झपे हीना स्थितिरुत्कर्षिणी पुनः | साकं पञ्चमभागेन चतुर्दशपयोधयः ॥ २८८ ॥ इयमेवात्ररःऽन्ध्रे सा सत्यसंधैरुदीरिता । सत्रिपञ्चमभागास्तु परा पञ्चदशाब्वयः ॥ २८९ ॥ एषैव च तमिस्रेऽपि जघन्या स्थितिरिष्यते । पञ्चम्यां सुप्रतीतास्ते परा सप्तदशार्णवाः ॥ २९० ॥ अवरा तु स्थितिः प्रोक्ता हिमे सप्तदशार्णवाः । पराऽपि द्वित्रिभागाभ्यामष्टादश पयोधयः ॥ २९६ ॥ वर्दले स्थितिरेषैव जघन्या समुदीरिता । परा त्रिभागसंमिश्राः विंशतिस्तु पयोधयः ॥ २९२॥ लल्लके तु जघन्येयमजघन्या स्थितिः पुनः । षष्ठयां प्रोक्ता मुनिश्रेष्ठैर्द्वाविंशतिपयोध्यः ॥ २०३ ॥ इयमेवाप्रतिष्टाने जघन्या स्थितिरुच्यते । योत्कृष्टा सा हि सप्तम्यां त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः ॥ २२४ ॥ नारकाणां तनूत्सेधो हस्ताः सीमन्तके त्रयः । तरके तु धनुर्हस्तः सार्धान्यष्टाङ्गुलान्यसौ ॥ २२५॥ शैरुके धनुरुत्सेधस्त्रयो हस्ताः शरीरिणाम् । अङ्गुलान्यपि तत्रैव भवेत् सप्तदशैव सः ॥२९६।।
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स्थिति कही गयी है । इस प्रकार चौथी पृथिवी में सामान्य रूपसे दश सागर स्थिति प्रसिद्ध है ।। २८५|| ऊपर जो स्थिति कही गयी है वही पांचवीं पृथिवीके तम नामक प्रथम इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलायी गयी है । और ग्यारह सागर पूर्ण एक सागरके पाँच भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गयी है ।। २८६ ॥ भ्रम नामक दूसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कहो गयी है और बारह सागर पूर्ण तथा एक सागरके पांच भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २८७ ||
झष नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कही गयी है और चौदह सागर पूर्णं तथा एक सागर के पांच भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २८८ || अन्ध्र नामक चौथे इन्द्रकमें सत्यवादी जिनेन्द्र भगवान्ने यही जघन्य स्थिति कही है और पन्द्रह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पाँच भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है || २८९|| तमिस्र नामक पाँचवें इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति मानी जाती है और सत्रह सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी जाती है। इस प्रकार पाँचवीं पृथिवी में सामान्य रूपसे सत्रह सागरकी आयु प्रसिद्ध है ||२९० ||
छठी पृथिवी हिम नामक प्रथम इन्द्रकमें सत्रह सागर प्रमाण जघन्य स्थिति कही गयी है और अठारह सागर पूर्ण तथा एक सागरके तीन भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २९१ || वर्दल नामक दूसरे इन्द्रक विलमें यही जघन्य स्थिति कही गयी है और बीस सागर पूर्ण तथा तीन भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गयी है || २९२ || मुनियों में श्रेष्ठ गणधरादि देवोंने लल्लक नामक तीसरे इन्द्रकमें यही जघन्य स्थिति कही है तथा बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलायी है । इस प्रकार छठी पृथिवो में सामान्य रूपसे बाईस सागर प्रमाण आयु कही गयी है || २९३ ||
सातवीं पृथिवी में केवल एक अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक है सो उसमें यही जघन्य स्थिति बतलायी गयी है और जो उत्कृष्ट स्थिति है वह तैंतीस सागर प्रमाण है। इस प्रकार सातवीं पृथिवी में सामान्य रूपसे तैंतीस सागर प्रमाण आयु प्रसिद्ध है || २९४ || अब नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका वर्णन किया जाता है
पहली पृथिवी के सीमन्तक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियोंके हाथ है। तरक नामक दूसरे प्रस्तार में एक धनुष एक हाथ तथा साढ़े रोरुक नामक तीसरे प्रस्तारमें एक धनुष तीन हाथ तथा
शरीरकी ऊँचाई तीन
आठ अंगुल है | २९५॥ सत्रह अंगुल है | २९६ ||
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चतुर्थः सर्ग: भ्रान्ते द्वे धनुषी हस्तावङ्गलं सार्द्धमप्यसौ। उभ्रान्ते तु यो दण्डाः सोऽङ्गलानि दशोदितः ॥२१७॥ धनू षि त्रीणि संभ्रान्ते द्वौ हस्तावङ्गुलान्यपि । अष्टादशैव सा नि नारकोत्सेध ईरितः ॥२९८॥ कार्मुकाणि तु चत्वारि हस्तस्त्रोण्यङ्गुल!नि च । असंभ्रान्तेऽप्यसंभ्रान्तैरुत्सेधः साधु वर्णितः ॥२१॥ चत्वारः खलु कंदण्डास्त्रयो हस्तास्तथोदिताः । विभ्रान्तेऽपि ह्यविभ्रान्तैः साढ़े रेकादशाङ्गुलैः ॥३०॥ चापपञ्चकमुलेधः तथा हस्तश्च विंशतिः । अङ्गुलानि स पुदिष्टस्त्रस्तनामनि चेन्द्रके ॥३०१॥ धनंषि च षडुत्सेधस्वसिते त्रासिताङ्गिनि । सार्धाङ्गुलचतुकं च चतुरैः प्रतिपादितः ॥३०२॥ वक्रान्ते धनुषां षट्कं सहस्तद्वितयं तथा । कथितं कपकैरुद्धैरङ्गुलानि त्रयोदश ॥३८३॥ धनुःसता त्सेधः' सार्थमर्धाङ्गुलेन च । अवक्रान्ते बुधैरुक्तः सोऽङ्गुलान्येकविंशतिः ॥३०४॥ विक्रान्ते सप्त चापानि यो हस्ताः षडङ्गुली । स एष विहितः प्रासलेधः प्रथमावनौ ॥३०५॥ स्तरकेऽष्टौ धनूंषि द्वौ हस्तावॉलयोर्दयोः।। द्वाकादशभागौ च नारकोत्सेध इष्यते ॥३०६।। स्तनके नवदण्डास्तु द्वाविंशत्यङगुलानि च । उत्सेधो वर्णितो युक्तश्चतुरेकादशांशकैः ॥३०॥ मनके नवदण्डाश्च त्रयो हस्ताः सहाङ्गलैः । अष्टादशभिरुत्सेधः षमिरेकादशांश कैः ॥३०८॥ वनके दश दण्डा द्वौ हस्तावुत्सेध इष्यते । साष्टकादशप्रागानि सोङ्गलानि चतुर्दश ॥३०९॥ घाटे स्वेकादशप्रा ईण्डा हस्तो दशाङ्गुलैः । दर्शकादशमागाश्च देहोत्सेधः प्रकीर्तितः ॥३१॥
संघाटे द्वादशोत्सेधो दण्डः सप्ताङ्गुलान्यपि । तथैकादशभागाश्च नारकागामुदाहृतः ॥३११॥ भ्रान्त नामक चौथे प्रस्तारमें दो धनुष दो हाथ और डेढ़ अंगुल है। उद्भ्रान्त नामक पांचवें प्रस्तारमें तीन धनुष और दश अंगुल है ॥२९७|| संभ्रान्त नामक छठवें प्रस्तारमें तीन धनुष दो हाथ और साढ़े अठारह अंगुल है ।।२९८।। असंभ्रान्त नामक सातवें प्रस्तारमें विशद ज्ञानके धारी आवार्योंने नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई चार धनुष, एक हाथ और तीन अंगुल बतलायी है ।।२९९।। भ्रान्ति रहित आचार्योंने विभ्रान्त नामक आठवें प्रस्तारमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध चार धनुष तीन हाथ और साढ़े ग्यारह अंगुल प्रमाण कहा है ॥३००।। त्रस्त नामक नौवें प्रस्तारमें पांच धनुष एक हाथ और बीस अंगुल ऊंचाई कही गयी है ।।३०१।। जहां प्राणी भयभीत हो रहे हैं ऐसे त्रसित नामक दसवें प्रस्तारमें नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई चतुर आचार्योंने छह धनुष और साढ़े चार अंगुल प्रमाण बतलायी है ॥३०२॥ वक्रान्त नामक ग्यारहवें प्रस्तारमें श्रेष्ठ वक्ताओंने नारकियोंका शरीर छ: धनुष दो हाथ और तेरह अंगुल प्रमाण कहा है ।।३०३॥ अवक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तारमें विद्वान् आचार्योंने नारकियोंकी ऊंचाई सात धनुष और साढ़े इक्कीस अंगुल कही है ॥३०४।। और विक्रान्त नामक तेरहवें प्रस्तारमें सात धनुष तीन हाथ तथा छः अंगुल प्रमाण ऊँचाई है । इस प्रकार बुद्धिमान् आचार्योंने प्रथम पृथिवीमें ऊँचाईका वर्णन किया है ॥३०५||
दूसरी पथिवीके स्तरक नामक पहले प्रस्तारमें नारकियोंकी ऊँचाई आठ धनुष, दो हाथ, दो अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें दो भाग प्रमाग मानी जाती है ॥३.६।। स्तनक नामक दूसरे प्रस्तारमें नारकियोंका उत्सेध नौ धनुष बाईस अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें चार भाग प्रमाण कहा गया है ।।३०७।। मनक नामक तीसरे प्रस्तारमें नी धनुष तोन हाथ अठारह अंगल तथा एक अंगलके ग्यारह भागोंमें छह भाग प्रमाण ऊँचाई बतलायी है॥३०८।। वनक नामक चौथे प्रस्तारमें नारकियोंके शरोरकी ऊँचाई दश धनुष दो हाथ चौदह अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें आठ भाग मानी जाती है ।।३०९।। घाट नामक पांचवें प्रस्तारमें ग्यारह धनुष, एक हाथ, दश अगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें दश भाग शरीरको ऊँचाई कही गयी है ॥३१० संघाट नामक छठवें प्रस्तारमें नारकियों को ऊँचाई बारह धनुष सात अंगुल और एक अंगुलके १. -मुद्देशः म.।
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हरिवंशपुराणे जिह्वाख्ये द्वादशैवोक्ता दण्डा हस्तास्त्रयस्तथा । अङ्गलानि च सत्रीणि त्रयश्चैकादशांशकाः ॥३१२॥ दण्डा हस्तोऽङ्गलान्येषु जिबिकाख्ये त्रयोदश । एकपञ्चोक्तभागैश्च त्रयोविंशतिरिष्यते ॥३३॥ लोले चतुर्दशेवासौ दण्डास्त्वेकोनविंशतिः । अङ्गलानि विनिर्दिष्टा सप्तकादशभागकैः ॥३१४।। वयो हस्ता धनूष्येष लोलुपे च चतुर्दश । नवैकादशभागश्च तथा पञ्चदशाङ्गली ॥३१५॥ दण्डाः पञ्चदशैवासौ हस्तौ च स्तनलोलुपे । द्वादशाङ्गलमानं च द्वितीयायां च इष्यते ॥३१६॥ तप्ते सप्तदशोत्लेधो दण्डा हस्तो दशाङ्गली । द्वित्रिभागसमेतोऽसौ नारकाणां समीरितः ।।३१७।। एकोनविंशतिर्दण्डास्तपितेऽसौ जवाङ्गली । त्रिभागश्च समादिष्टः स्पष्टज्ञानेष्टदृष्टिभिः ॥३१८।। तपने विंशतिदंण्डास्त्रयो हस्तास्तथैव सः । अङ्गलानि समुदिष्टः शिष्टैरष्टौ प्रकृष्टतः ॥३१९॥ द्वाविंशतिधन षि द्वौ हस्तावुनः षडङलैः । उत्सेधस्तापने त्र्यंशी नारकासमुद्भवः ॥३२॥ चतुर्विंशतिचापानि हस्तः पञ्चाङ्गलानि च । त्रिमागश्च निदाघेऽसावुत्सेधो बोधितो बुधैः ॥३२१॥ षडविंशतिधनूप्येष प्रोक्तः प्रोज्ज्वलितेन्द्रके। अङ्गलानि च चत्वारि ज्ञानप्रज्वलितात्मभिः ॥३२॥ सप्तविंशतिचापानि त्यो हस्ता स वर्णितः । आगमोज्ज्वलितप्रास्थ्यंशावुज्ज्वलितेऽङ्गली ॥३२३॥ एकात्रिंशदुत्सेधः कोदण्डा हस्तयोइयम् । अङगुलं च त्रिभागश्व बोध्यः संज्वलिते बुधैः ॥३२४॥
एकत्रिंशतु कोदण्डा हस्तश्चोत्सेध इष्यते । संप्रज्वलितसंज्ञे च तृतीये यः स भाष्यते ॥३२५॥ ग्यारह भागोंमें एक भाग प्रमाण कही गयी है ॥३११॥
जिह्वा नामक सातवें प्रस्तारमें बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें तीन भाग प्रमाण ऊंचाई है ॥३१२।। जिह्वक नामक आठवें प्रस्तारमें तेरह धनुष, एक हाथ, तेईस अंगुल और एक अंगुलके पांच भागोंमें एक भाग प्रमाण ऊंचाई इष्ट है ॥३१३॥ लोल नामक नौवें प्रस्तारमें चौदह धनुष, उन्नीस अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें सात भाग प्रमाण ऊँचाई है ।।३१४|| लोलुप नामक दसवें प्रस्तारमें चौदह धनुष तीन हाथ पन्द्रह अंगुल और एक अंगुलके ग्यारह भागोंमें नौ भाग प्रमाण ऊंचाई है ॥३१५॥ और स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तारमें पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल ऊंचाई इष्ट है। इस प्रकार दूसरी पृथिवीमें नारकियोंके शरीरकी ऊंचाईका वर्णन किया ।।३१६।।
तीसरी पथिवीके तप्त नामक प्रथम प्रस्तारमें नारकियोंके शरीरको ऊँचाई सत्रह धनुष, एक हाथ, दश अंगुल और एक अंगुलके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण कही गयी है ॥३१७॥ स्पष्ट ज्ञान रूपी इष्ट दृष्टिको धारण करनेवाले तपित नामक दूसरे प्रस्तारमें नारकियोंकी ऊँचाई उन्नीस धनुष नौ अंगुल और एक अंगुलके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण बतलायो है ॥३१८।। शिष्टजनोंने तपन नामक तीसरे प्रस्तारमें नारकियोंके शरीरका उत्सेध बोस धनुष तीन हाथ और आठ अंगुल प्रमाण बतलाया है ।।३१९।। तापन नामक चौथे प्रस्तारमें नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई बाईस धनुष दो हाथ छ: अंगल और एक अंगलके तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण कही गयी है॥ २०॥ निदाघ नामक पांचवें प्रस्तारमें चौबीस धनुष, एक हाथ, पांच अंगल और एक अंगलके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण ऊंचाई विद्वानोंने बतलायी है ॥३२१।। जिनकी आत्मा ज्ञानके द्वारा देदीप्यमान है ऐसे आचार्योंने प्रोज्ज्वलिन नामक छठवें प्रस्तारमें नारकियोंकी ऊँचाई छब्बीस धनुष और चार अंगुल प्रमाण बतलायी है ।।३२२।। आगमज्ञानसे सुशोभित विद्वज्जनोंने उज्ज्वलित नामक सातवें प्रस्तारमें नारकियोंका शरीर सत्ताईस धनुष, तीन हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के तीन भागोंमें दो भाग प्रमाण ऊँचा कहा है ॥३२३।। विद्वानोंको संज्वलित नामक आठवें प्रस्तारमें नारकियोंकी ऊँचाई उन्तीस धनुष, दो हाथ एक अंगुलके तीन भागोंमें एक भाग प्रमाण जानना चाहिए ॥३२४॥ और संप्रज्वलित नामक नौवें प्रस्तारमें ऊँचाईका प्रमाण एकतीस धनुष तथा
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चतुर्थः सर्गः
पचत्रिंशद्धनंध्यारे द्वौ हस्तावङ गुलान्यपि । विंशतिः सप्तभागाश्च चत्वारः संप्रकीर्तितः ॥ ३३६ ॥ ranरिंशतथा तारे दण्डा सप्तदशाङ्गुली । एकः सप्तमभागः स्यादुत्सेधो नारकाश्रयः || ३२७|| चत्वारिंशचतुर्भिश्च दण्डा हस्तौ त्रयोदश । अङ्गुलानि मतो मारे सप्तभागैः स पञ्चभिः ॥ ३२८ ॥ धनूंष्ये कोनपञ्चाशदुत्सेधः स दशाङ्गुली । द्वौ च सप्तमभागौ तौ वर्चस्के वर्णितो बुधैः ॥३२९॥ धनूंषि सत्रिपञ्चाशद्स्तौ चापि षडङ्गुली । षट् च सप्तमभागास्ते तमके परिकीर्तितः ॥ ३२० ॥ अष्टापचाशदुत्सेधो धनूंषि व्यङ्गुलानि च । त्रयः सप्तमभागाश्च षडेऽपि प्रकटस्थितः ।। ३३१ ॥ द्विषष्टिस्तु धनूंषि द्वौ हस्ती षडपडे मतः । उत्सेधः सुप्रसिद्धो यश्चतुर्थे नरके सताम् ॥ ३३२ ॥ तमोनामनि चोरलेधः कोदण्डाः पञ्चसप्ततिः । सप्ताशीतिरसौ दण्डा द्वौ हस्तौ भवति भ्रमे ॥ ३३३॥ वपुषो नारकोयस्य - शषे शतधनूंषि सः । अन्धे द्वादशमिश्राणि तानि हस्तद्वयं मतम् ||३३४ || मित्रेऽपि च तान्येव पञ्चविंशतिदण्डकैः । उत्सेधो वर्णितो योऽसौ पञ्चमे नरके बुधैः || ३३५|| षट्षष्टया शतकोदण्डा द्वौ हस्तौ षोडशाङ्गुली । उत्सेधो वर्णितः पूर्णो हिमनामनि चेन्द्रके ।। ३३६ ॥ द्विशत्यष्टौ च कोदण्डा हस्तोऽष्टावङ्गुलान्यपि । उत्सेधः शास्त्र नेत्राड्यैर्वर्दलेऽपि विलोकितः ॥ ३३४॥ शतद्वयं च पञ्चाशद्धनूंष्येव स मासितः । लल्लके नरके षष्ठे निष्ठितार्थैर्यं इष्यते ||३३८||
एक हाथ प्रमाण कहा जाता है। इस प्रकार तीसरी पृथिवीमें नारकियोंकी ऊँचाईका वर्णन किया || ३२५ ॥
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चौथी पृथिवीके आर नामक प्रथम प्रस्तारमें पैंतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और एक अंगुल सात भागों में चार भाग प्रमाण ऊँचाई कहो गयी हैं || ३२६ || तार नामक दूसरे प्रस्तारमें चालीस धनुष, सत्रह अंगुल और एक अंगुलके सात भागों में एक भाग प्रमाण नारकियोंकी ऊँचाई है || ३२७|| मार नामक तीसरे प्रस्तार में चवालीस धनुष, दो हाथ, तेरह अंगुल और एक अंगुलके सात भागों में पांच भाग प्रमाण ऊंचाई मानी गयी है || ३२८ || वर्चस्क नामक चौथे प्रस्तारमें विद्वानोंने शरीर की ऊँचाई उनचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुलके सात भागों में दो भाग प्रमाण बतलायी है || ३२९|| तमक नामक पाँचवें प्रस्तारमें त्रेपन धनुष, दो हाथ, छ: अंगुल और एक अंगुलके सात भागों में छः भाग प्रमाण ऊँचाई कही गयी है || ३३० || षड नामक छठवें प्रस्तारमें अठावन धनुष, तीन अंगुल और एक अंगुलके सात भागों में तीन प्रमाण ऊँचाई प्रकट की गयी है ||३३१|| और षडबड नामक सातवें प्रस्तारमें बासठ धनुष, दो हाथ ऊँचाई प्रसिद्ध है । इस प्रकार चौथी पृथिवी में विद्यमान नारकियोंकी ऊंचाईका वर्णन किया है ||३३२ ॥
पाँचवीं पृथिवीके तम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई पचहत्तर धनुष बतलायी है । भ्रम नामक दूसरे प्रस्तार में सत्तासी धनुष और दो हाथ है ||३३३ || झष नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियोंके शरीर की ऊँचाई सो धनुष कही गयी है । अन्ध नामक चौथे प्रस्तारमें एक सौ बारह धनुष तथा दो हाथ है ||३३४|| और तमिस्र नामक पाँचवें प्रस्तार में एक सौ पच्चीस धनुष है । इस प्रकार पांचवीं पृथिवो में विद्वानोंने ऊंचाईका वर्णन किया है ||३३५ ||
छत्रपृथिवीके हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई एक सौ छयासठ धनुष, दो हाथ तथा सोलह अंगुल बतलायी है ||३३६ || वर्दल नामक दूसरे प्रस्तार में शास्त्ररूपी नेत्रोंके धारक विद्वानोंने नारकियोंकी ऊँचाई दो सौ आठ धनुष, एक हाथ और छ: अंगुल प्रमाण देखी है ||३३७|| और लल्लक नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियोंको ऊँचाई दो सौ पचास धनुष बतलायी है । इस प्रकार कृतकृत्य सर्वज्ञ देवने छठवीं पृथिवीमें ऊँचाईका वर्णन किया ||३३८ || सातवीं
१. शती म. ।
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हरिवंशपुराणे
उत्सेधश्चाप्रतिष्ठाने पञ्चचापशतानि सः । निश्चितो निश्चितज्ञानैः सप्तमे नरके च यः ॥३३९॥ सप्तसु प्रतिबोद्धव्यः प्रथितः प्रथमादिषु । अवधेर्विषयस्तासु पृथिवीषु यथाक्रमम् ॥३४॥ योजनं त त्रयः क्रोशाः सार्धा क्रोशत्रयं तथा । साधौं तौ तवयं साधः क्रोशः क्रोशश्च निश्चितः॥३४१॥ क्रोशार्द्ध मृत्तिकागन्धः प्रथमे पटले व्रजेत् । तदधोऽधः क्रोशस्या वर्द्धते पटलं प्रति ॥३४२॥ पृथिव्योराद्ययोर्युक्ता जीवाः कापोतलेश्यया । तृतीयायां तयैवोर्ध्वमधस्तानीललेश्यया ॥३४॥ अधश्चोवं च संबद्धाश्चतुर्थ्यां नीललेश्यया । तयैवोपरि पञ्चम्यामधस्ते कृष्णलेश्यया ॥३४४॥ षष्ट्यां च कृष्णयैवोलमधः परमकृष्णया । सप्तम्यामुमयत्रामी क्लिष्टाः परमकृष्णया ॥३४५॥ स्पर्शनोष्णेन बाध्यन्ते नारका भूचतुष्टये । पञ्चम्यामुष्णशीताभ्यां शीतेनैवान्त्ययोर्भुवोः ॥३४६॥ आकारणोष्ट्रिकाकुम्नीकुस्थलीमुद्गरोपमाः । मृदङ्गनाडिकाकारा निगोदा पृथिवोत्रये ॥३४७॥ गोगजाश्वादिमस्त्राम द्रोण्यब्जपुटसंनिभाः । ते चतुथ्यां च पञ्चम्यां नारकोत्पत्तिभूमयः ॥३४८॥ केदाराकृतयः केचित्झल्लरीमल्लकोपमाः । केचिन्मयूरकाकारा निगोदास्तेऽन्स्ययोर्भुवोः ॥३४९॥ एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससंगताः । शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिताः ॥३५०॥ उच्छ्रायो वस्तुतस्तेषां विस्तारः पञ्चताडितः । निगोदानां समस्तानामिति वस्तुविदो विदुः ॥३५१॥
पृथिवीमें एक ही अप्रतिष्ठान नामका प्रस्तार है तो उसमें सन्देहरहित ज्ञानके धारक आचार्योंने नारकियोंकी ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है ॥३३२॥
प्रथम पृथिवीको आदि लेकर उन सातों पृथिवियोंमें यथाक्रमसे अवधिज्ञानका विषय इस प्रकार जानना चाहिए ।।३४०।। पहली पृथिवीमें अवधिज्ञानका विषय एक योजन अर्थात् चार कोश, दूसरीमें साढ़े तीन कोश, तीसरीमें तीन कोश, चौथीमें अढ़ाई कोश, पाँचवीं में दो कोश, छठवीं में डेढ़ कोश और सातवीं में एक कोश प्रमाण है ॥३४१॥ प्रथम पृथिवी सम्बन्धी पहले पटलकी मिट्टीकी दुर्गन्ध आध कोश तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटलके प्रति आधा-आधा कोश अधिक बढ़ती जाती है ॥३४२।। पहली और दूसरी पथिवीमें रहनेवाले नारकी कापोत लेश्यासे युक्त हैं। तीसरी पृथिवीके ऊध्वं भागमें रहनेवाले कापोत लेश्यासे और अधोभागमें रहनेवाले नील लेश्यासे सहित हैं ॥३४३॥ चौथी पृथिवीके ऊपर-नीचे दोनों स्थानोंपर तथा पांचवीं पृथिवीके ऊपरी भागमें नील लेश्यासे युक्त हैं और अधोभागमें कृष्ण लेश्यासे सहित हैं ॥३४४॥ छठवीं पृथिवीके ऊर्श्वभागमें कृष्ण लेश्यासे, अधोभागमें परमकृष्ण लेश्यासे और सातवीं पृथिवीके ऊपर-नीचे दोनों ही जगह रहनेवाले परमकृष्ण लेश्यासे संक्लिष्ट हैं अर्थात् संक्लेशको प्राप्त होते रहते हैं ॥३४५॥ प्रारम्भकी चार भूमियोंमें रहनेवाले नारकी उष्ण स्पर्शसे, पांचवीं भूमिमें रहनेवाले उष्ण और शीत दोनों स्पर्शोसे तथा अन्तकी दो भूमियोंमें रहनेवाले केवल शीत स्पर्शसे ही पीड़ित रहते हैं ॥३४६।। प्रारम्भकी तीन पृथिवियोंमें नारकियोंके उत्पत्ति-स्थान कुछ तो ऊँटके आकार हैं, कुछ कुम्भी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाडीके आकार हैं ॥३४७|| चौथी और पांचवीं पृथिवीमें नारकियोंके जन्मस्थान अनेक तो गौके आकार हैं, अनेक हाथी, घोड़े आदि जन्तुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुटके समान हैं ।।३४८।। अन्तिम दो भूमियोंमें कितने ही खेतके समान, कितने ही झालर और कटोरोंके समान, और कितने ही मयूरोंके आकारवाले हैं ॥३४९॥ वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तारसे सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ॥३५०।। उन समस्त उत्पत्ति स्थानोंकी ऊँचाई अपने विस्तारसे पंचगुनी है ऐसा वस्तु स्वरूपको जाननेवाले आचार्य जानते हैं ॥३५१।। समस्त इन्द्रक विल तीन द्वारोंसे युक्त तथा तीन कोणोंवाले हैं। इनके सिवाय जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वारवाले
१. नारकोत्पत्तिस्थानानि ।
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चतुर्थः सर्गः
सर्वेन्द्र कनिगोदास्ते त्रिद्वाराश्च त्रिकोणकाः। द्वित्र्येकपञ्चसप्तात्मद्वारकोणास्ततः परे ॥३५॥ संख्येयव्यासयुक्तानां निगोदानां निजान्तरम् । गव्यूतयः षडल्पं स्यादनल्पं द्वादशैव ताः ॥३५३॥ असंख्येयप्रमाणानामसंख्यं महदन्तरम् । योजनानां सहस्राणि सप्तवात्यल्पमन्तरम् ॥३५४॥ 'त्रिगम्यूतिश्चतुर्भागसप्तयोजनमात्रकम् । धर्मानिगोदजा जीवा खमुत्पत्य पतन्त्यधः ॥३५५॥ गम्यूतिद्वितयं साधं सपञ्चदशयोजनम् । वंशानिगोदजन्मानः खमुत्पत्य पतन्त्यधः ॥३५६॥ एकत्रिंशत्तु गव्यूत्या योजनानि नभस्तले । मेघानिगोदजा जीवाः खमुल्लंघ्य पतन्त्यधः ॥३७॥ द्विषष्टियोजनान्यूचं गव्यूतिद्वयमुद्गताः । निपतन्त्युग्रदुःखास्तेिऽञ्जनाजनिगोदजाः ॥३५८॥ पञ्चविंशतिसन्मिनासयोजनमातुराः । खमुत्पत्य पतन्त्येव पञ्चमीस्था निगोदजाः ॥३५९॥ पञ्चाशता विमिश्रं तु योजनानां शतद्वयम् । वियदुत्पत्य षष्ठीस्थनिगोदोत्थाः पतन्त्यधः ॥३६॥ सप्तमीस्थनिगोदोत्थाः सपञ्चशतयोजनम् । अध्वानमूर्ध्वमुत्पत्य पतन्ति वसुधातले ॥३६१॥ असुरा आतृतीयान्तं योधयन्ति परस्परम् । प्रयुध्यते स्वयं तेऽपि ज्ञात्वा वैरं पुरातनम् ॥३६२॥ कुन्तक्रकचशूलाये नाशस्तैस्तनूनवैः । खण्डं खण्डं विधीयन्ते पीडयन्ति परस्परम् ॥३६३॥ 'सूतकस्येव संघातः शरीरस्य प्रजायते । यावदायुःस्थितिस्तेषां न तावन्मरणं भवेत् ॥३६४॥ शारीरं मानसं दुःखमन्योऽन्योदीरितं खलु । सहन्ते नारका नित्यं पूर्वपापविपाकतः ॥३६५॥
दुकोने, कितने ही तीन द्वारवाले तिकोने, कितने ही पांच द्वारवाले पंचकोने और कितने ही सात द्वारवाले सतकोने हैं ॥३५२।। इनमें संख्यात योजन विस्तारवाले विलोंका अपना जघन्य अन्तर छ: कोश और उत्कृष्ट अन्तर बारह कोश है ।।३५३।। एवं असंख्यात योजन विस्तारवाले विलोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात योजन तथा जघन्य अन्तर सात हजार योजन है ।।३५४||
घर्मा नामक पहली पृथिवीके उत्पत्ति-स्थानोंमें उत्पन्न होनेवाले नारकी जीव जन्मकालमें जब नीचे गिरते हैं तब सात योजन सवा तीन कोश ऊपर आकाशमें उछलकर पुनः नीचे गिरते हैं ॥३५५॥ दूसरी वंशा पथिवीके निगोदोंमें जन्म लेनेवाले नारकी पन्द्रह योजन अढाई कोश आकाशमें उछलकर नीचे गिरते हैं ॥३५६॥ तीसरी मेघा पृथिवीमें जन्म लेनेवाले जीव इकतीस योजन एक कोश बाकाशमें उछलकर नीचे गिरते हैं ।।३५७|| चौथी अंजना पृथिवोके निगोदोंमें जन्म लेनेवाले जीव बासठ योजन दो कोश उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुःखसे दुःखी होते हैं ॥३५८॥ पांचवीं पृथिवीके निगोदोंमें जन्म लेनेवाले नारकी अत्यन्त दुःखी हो एकसौ पच्चीस योजन आकाशमें उछलकर नीचे गिरते हैं ॥३५९॥ छठवीं पृथिवीमें स्थित निगोदोंमें जन्म लेनेवाले जीव दो सौ योजन आकाशमें उछलकर नीचे गिरते हैं ।।३६०॥ और सप्तमी पृथिवीमें स्थित निगोदोंमें उत्पन्न हुए जीव पांच सौ धनुष ऊंचे उछलकर पृथिवी तलपर नीचे गिरते हैं ॥३६॥ तीसरी पथिवी तक असुरकूमार देव नारकियोंको परस्पर लड़ाते हैं। इसके सिवाय वे नारकी पुराने वैर भावको जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं ॥३६२॥ विक्रिया शक्तिके द्वारा अपने शरीरसे ही उत्पन्न होनेवाले भाले, करोंत तथा शूल आदि नाना शस्त्रोंसे उन नारकियोंके खण्ड-खण्ड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरेको पीड़ा पहुँचाते हैं ।।३६३।। खण्ड-खण्ड होनेपर भी पारेके समान उनके शरीरके टुकड़ोंका पुनः समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयुकी स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता ।।३६४।। ये नारकी पूर्व कृत पाप कर्मके उदयसे निरन्तर एक १. अतः परं म. ख. पुस्तकयोः अयं श्लोकोऽधिकोऽस्ति-"क्रोशत्रयं सतशिं योजनानां च सप्तकम् । समत्पतन्ति धर्मायां शेषास्तु द्विगुणोत्तरम् ।" २. एष श्लोकः ड. पुस्तके नास्ति । ३. मपस्तके एतस्य श्लोकस्य स्थाने निम्नांकितः श्लोकोऽस्ति-'यजिनं पंचदशकं सार्धक्रोशद्वयं तथा। समुच्छलन्ति वंशायां पतन्ति च निगोदजाः। ४. पारदस्येव ।
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६८
हरिवंशपुराणे क्षारोष्णतीव्रसद्भावनदोवैतरणीजलात् । 'दुर्गन्धान्मृन्मयाहौरादुःखं भुञ्जन्ति दुःसहम् ॥३६॥ अक्ष्णोनिमीलनं यावास्ति सौख्यं च जातुचिद् । नरके पच्यमानानां नारकाणामहर्निशम् ॥३६७॥ स्युस्तेषामशुमतराः परिणामाः शरीरिणाम् । लिङ्ग नपुंसकाख्यं स्यात् संस्थानं हुण्डसंज्ञकम् ॥३६८॥ आगामितीर्थकतणां तथैवोपशमैनसाम् । उपसर्गाहतिं भक्त्या : कुर्वन्त्यन्यायने सुराः ॥३६९॥ चत्वारिंशत्सहाष्टामिर्घटिकाः प्रथमक्षितौ । अन्तरं नारकोत्पत्तेरन्तरज्ञैः स्फुटीकृतम् ॥३७०॥ सप्ताहश्चेव पक्षः स्यान्मासो मासौ यथाक्रमम् । चत्वारोऽपि च षण्मासा विरहः षट सु भूमिषु ॥३७॥ तीव्रमिथ्यात्वसंबद्धा बह्वारम्मपरिग्रहाः । पृथिवीस्ताः प्रपद्यन्ते तिर्यञ्चो मानुषास्तथा ॥३२॥ आद्यामसंज्ञिनो यान्ति द्वितीयां च प्रसर्पिणः । पक्षिणश्च तृतीयायां चतुर्थी च भुजंगमाः ॥३७३॥ पञ्चमीमपि सिंहास्तु षष्ठीमपि च योषितः । प्रयान्ति प्राणिनः पापाः सप्तमी मत्स्यमानुषाः ॥३७४॥ सप्तम्युतितो यायात्तामेवानन्तरं सकृत् । षष्टीतो निर्गतो द्विस्तां पञ्चमी त्रिवथ ब्रजेत् ॥३७५॥ चतुर्थी च चतुर्वारान् प्रपद्येत ततश्च्युतः । तृतीयां पञ्च कृत्वोऽपि तस्या एव समागतः ॥३७६॥ द्वितीयायां च षटकृत्वः सप्तकृत्वस्तथाऽसुमान् । प्रथमाया विनिर्यातः प्रथमायां प्रजायते ॥३७७॥ सप्तमीतो विनिर्यातः संज्ञितिर्यक्त्वभाक पुनः । संख्येयायुक्तो याति नरकं तनुमद्गणः ॥३७॥ षष्टीतस्तु विनिर्यातो लभते नैव संयमम् । तं लभेतापि पञ्चम्या निर्वाणं न तु तद्भवे ॥३७९॥ लभेतापिच निर्वाणं चतुर्थीनिःसृतः पुनः । निश्चयेनैव नैवाङ्गी तीर्थकृत्त्वं प्रपद्यते ॥३८॥
दूसरेके द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःखको सहते रहते हैं ॥३६५॥ वे खारा गरम तथा अत्यन्त तीक्ष्ण वैतरणी नदीका जल पीते हैं और दुर्गन्धि युक्त मिट्टीका आहार करते हैं इसलिए निरन्तर असह्य दुःख भोगते रहते हैं ॥३६६।। रातदिन नरकमें पचनेवाले नारकियोंको निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता ॥३६७॥ उन नारकियोंके निरन्तर अत्यन्त अशुभ परिणाम रहते हैं। तथा नपुंसक लिंग और हुण्डक संस्थान होता है ॥३६८॥ जो आगामी कालमें तीर्थकर होनेवाले हैं तथा जिनके पापकर्मोंका उपशम हो चका है। देव लोग भक्तिवश छ: माह पहलेसे उनके उपसर्ग दूर कर देते हैं ।।३६९।। अन्तरके जाननेवाले आचार्योंने प्रथम पृथिवीमें नारकियोंको उत्पत्तिका अन्तर अड़तालीस घड़ी बतलाया है ॥३७०।। और नीचेकी छह भूमियों में क्रमसे एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मासका विरह-अन्तरकाल कहा है ।।३७१॥ जो तीव्र मिथ्यात्वसे युक्त हैं तथा बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहके धारक हैं ऐसे तिर्यंच और मनुष्य उन पृथिवियोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनमें उत्पन्न होते हैं ॥३७२॥ असंज्ञी पंचेन्द्रिय पहली पथिवी तक जाते हैं, सरकनेवाले दूसरी पथिवी तक, पक्षी तीसरी तक, सपं चौथो तक सिंह पाँचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करनेवाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथिवी तक जाते हैं ॥३७३-३७४।। सातवीं पृथिवीसे निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूपसे सातवोंमें जावे तो एक बार, छठवोंसे निकला हुआ छठवोंमें दो बार, पांचवींसे निकला हुआ पांचवीं में तीन बार, चौथीसे निकला हुआ चौथीमें चार बार, तीसरीसे निकला हुआ तीसरीमें पाँच बार, दूसरीसे निकला हुआ दूसरीमें छः बार और पहलीसे निकला हुआ पहलोमें सात बार तक उत्पन्न हो सकता है ।।३७५-३७७|| सातवीं पृथिवीसे निकला हुआ प्राणी नियमसे संज्ञो तिर्यंच होता है तथा संख्यात वर्षकी आयका धारक हो फिरसे नरक जाता है॥३७८॥ छठवीं पथिवीसे निकला हआ जीव संयमको प्राप्त नहीं होता। और पांचवीं पृथिवीसे निकला जीव तो संयमको प्राप्त हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ॥३७९।। चौथी पृथिवीसे निकला हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है परन्तु निश्चयसे तीर्थंकर नहीं हो सकता ॥३८०॥ तीसरी दूसरी और पहली पृथिवीसे निकला १. दुर्गन्धा म., २. मृन्मयाहाराः म. । ३. अन्तिमषण्मासेषु । ४. प्राणिसमूहः ।
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चतुर्थः सर्गः
तृतीयायाः द्वितीयाया प्रथमायाश्च निःसृतः । तीर्थकृत्त्वं लभेतापि देही दर्शनशुद्धितः ॥३८१॥ बलकेशवचक्रित्वं परिहत्यैव जन्तवः । नरत्वं प्रतिपद्यरन् नरकेभ्यो विनिर्गताः ॥३८२॥ अधोलोकविभागस्ते संक्षेपेण मयोदितः । तिर्यग्लोकविमागस्य शृणु श्रेणिक ! संग्रहम् ॥३८३।।
शार्दूलविक्रीडितम् सूर्याचन्द्रमसामगोचरमधोलोकान्धकारं बुधाः
प्रध्वंस्याऽऽप्तवचःप्रदीपविमवैः सर्वत्रगैः सर्वदा । पश्यन्तः प्रभवन्ति तत्त्वमिति किं चित्रं त्रिलोक्याकृता
वालोके जिनभानुना विरचिते ध्वान्तस्य वा क्व स्थितिः ॥३८४॥
इत्यारिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती अधोलोकसंस्थानवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥
हुआ जीव सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासे तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है ।।३८१।। नरकोंसे निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते ॥३८२।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तेरे लिए अधो लोकके विभागका वर्णन किया। अब तू तिर्यग्लोक-मध्यम लोकके विभागका वर्णन सुन ॥३८३।।
बद्धिमान मनुष्य सब समय. सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले. जिनेन्द्र भगवानके वचन रूपी उत्तम दोपकोंको सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमाके अगोचर अधोलोकके अन्धकारको नष्टकर वस्तुके यथार्थ स्वरूपको देखते हुए प्रभुत्वको प्राप्त होते हैं इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोकमें जिनेन्द्र रूपी सूर्यके द्वारा प्रकाशके उत्पन्न होनेपर अन्धकारका सद्भाव कहाँ रह सकता है ? ॥३८४।। इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमिके पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्य प्रणीत
हरिवंशपुराणमें अधोलोकका वर्णन करनेवाला चौथा सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
१. बुधः म. । २. प्रध्वस्ताप्त । ३. त्रिलोकाकृता-म., विलोक्याकृता-ख., घ, ङ. ।
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पञ्चमः सर्गः
तनुवातान्तपर्यन्तस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः । लक्षितावधिरूभंधो मेरुयोजनलक्षया ॥१॥ तत्रैवास्मिन्नसंख्येयसागरद्वीपवेष्टितः । जम्बूद्वीपः स्थितो वृत्तो जम्बूपादपलक्षितः ॥२॥ विस्तारेणार्णवस्पर्शी वज्रवेदिकयाऽऽवृतः । महामेरुमहानामिर्लक्ष्ययोजनलक्षया ॥३॥ 'तिस्रो लक्षाः परिक्षेपः स्यात्सहस्राणि षोडश । योजनानि त्रिगव्यतिर्दिशती सप्तविंशतिः ॥४॥ अष्टविंशतिसन्मिश्रं तथैवान्यं धनुःशतम् । त्रयोदशाङगुलानि स्युः साधिकार्धाङ्गलानि तु ॥५॥ कोटीशतानि सप्त स्युः कोटयो नवतिः स्फुटाः। पटपञ्चाशत्तथा लक्षा नवतिश्चतुरुत्तरा ॥६॥ सहस्रगुणिता द्वीपे शतं पञ्चाशताधिकम् । योजनानि विभक्तेऽस्मिन् गणितस्य पदं विदुः ॥७॥ क्षेत्राणि सन्ति सप्ताऽत्र मेरुरेकः कुरुद्वयम् । जम्बूश्च शाल्मलीवृक्षौ षडेव कुलपर्वताः ॥८॥ महासरांसि षट् तेषु महानद्यश्चतुर्दश । द्विषड् विभङ्गनद्यश्च वक्षारागाश्च विंशतिः ॥९॥ राजधान्यश्चतुस्त्रिंशद्रौप्यादिवृषमादयः । अष्टाषष्टिगुहा वृत्तविजयार्द्धचतुष्टयम् ॥१०॥ तथा त्रीणि सहस्राणि पुनः सप्तशतान्यपि । चत्वारिंशत्पुराणि स्युर्विद्याधरमहीभृताम् ॥११॥ एतैः सर्वैग्यं द्वीपो दीप्यते द्विगुणैरिमैः । यथाऽसौ धातकीखण्डः पुष्करार्धश्च सर्वतः ॥१२॥ भारतं दक्षिणं तत्र क्षेत्रं हैमवतं परम् । हरिक्षेत्र विदेहं च रम्यकं च तथा परम् ॥१३॥
तनुवातवलयके अन्त भाग तक तियंग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोककी अवधि निश्चित है। भावार्थ-मेरु पर्वत कुल एक लाख योजन विस्तारवाला है। उसमें एक हजार योजन तो पृथिवीतलसे नीचे है और निन्यानबे हजार योजन पृथिवीतलसे ऊपर है। तिर्यग्लोककी सीमा इसी मेरु पर्वतसे निश्चित है अर्थात् तियंग्लोक पृथिवीतलके एक हजार योजन नीचेसे लेकर निन्यानबे. हजार योजन ऊंचाई तक है ।।१।। इसी मध्यम लोकमें असंख्यात द्वीप-समुद्रोंसे वेष्टित गोल तथा जम्बू वृक्षसे युक्त जम्बू द्वीप स्थित है ॥२॥ यह जम्बू द्वीप लवण समुद्रका स्पर्श करनेवाला है, वज्रमयी वेदिकासे घिरा हुआ है, महामेरु रूपी नाभिसे युक्त है अर्थात् महामेरु इसके मध्यभागमें अवस्थित है तथा एक लाख योजन विस्तारवाला है ॥३॥ जम्बू द्वीपको परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तोन कोश एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल है ॥४-५॥ विभाग करनेपर गणितज्ञ मनुष्य इस जम्बू-द्वीपका घनाकार क्षेत्र सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख, चौरानबे हजार एक सौ पचास योजन बतलाते हैं ॥६-७॥ इस जम्बू द्वीपमें सात क्षेत्र, एक मेरु, दो कुरु, जम्बू और शाल्मली नामक दो वृक्ष, छह कुलाचल, कुलाचलोंपर स्थित छह महासरोवर, चौदह महानदियां, बारह विभंगा नदियां, बीस वक्षार गिरि, चौंतीस राजधानी, चौंतीस रूप्याचल, चौंतीस वृषभाचल, अड़सठ गुहाएँ, चार गोलाकार नाभि गिरि और तीन हजार सात सौ चालीस विद्याधर राजाओंके नगर हैं। ऊपर कही हुई इन सभी चीजोंसे यह जम्बू द्वीप अत्यधिक सुशोभित है। जम्बू द्वीपसे दूने क्षेत्र तथा मेरु आदिसे दूसरा धातकीखण्ड द्वीप देदीप्यमान है और पुष्कराधं भी धातकीखण्डके समान समस्त क्षेत्रों तथा पर्वतों आदिसे युक्त
१. स्पधि म.। २. -नाभिलक्षयोजन -म.। ३. जम्बूद्वीपस्य सूक्ष्मपरिधिः ३१६२२७ योजनानां कोशाः १२८ धनूंषि १३३ अङ्गुलानि च वर्तते । ४. वक्षागाराश्च म. ।
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पञ्चमः सर्गः हैरण्यवतमित्यन्यत् स्यादैरावतमुत्तरम् । विस्तारणाविदेहान्तं क्षेत्रं क्षेत्राच्चतुर्गुणम् ॥११॥ प्रथमो हिमवानन्यो महाहिमवदाह्वयः । पर्वतो निषधो नीलो रुक्मी च शिखरी गिरि ॥१५॥ पूर्वस्मादुत्तरो भूभृद् विस्तारेण चतुर्गुणः । निषधं यावदाख्याता दक्षिणरुत्तराः समाः ॥१६॥ क्षेत्रस्याद्यस्य विस्तारः सपञ्चशतयोजनः । षडविंशतिस्तथा मागः षड् चाप्येकोनविंशतः ॥१७॥ जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भे नवस्या च शतेन च । विभक्त भारतस्यायं विस्तारो भवति स्फुटः ॥१०॥ क्षेत्राद् द्विगुणविस्तारः पर्वतः क्षेत्रमप्यतः । आविदेहमतस्तस्य वृद्धिवच्च परिक्षयः ॥१९॥ मध्येमारतमन्योऽदिरन्तप्राप्ताम्बुधिद्वयः । भाति विद्याधरावासो विजयाई इति श्रुतः ॥२०॥ पञ्चविंशतिरुत्सेधः षट् सपादान्यधः स्थितः । योजनान्यस्य पञ्चाशद्विस्तारो रजतात्मनः ॥२१॥
है ॥८-१२॥ जम्बू द्वीपमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। इनमें भरत क्षेत्र सबसे दक्षिणमें है और ऐरावत क्षेत्र उत्तरमें है। प्रारम्भसे लेकर विदेह क्षेत्र तकके क्षेत्र विस्तारको अपेक्षा पूर्व क्षेत्रसे चौगुने-चौगुने विस्तारवाले हैं। भावार्थभरत क्षेत्रसे चौगुना विस्तार हैमवत क्षेत्रका है, हैमवत क्षेत्रसे चौगुना विस्तार हरि क्षेत्रका है और हरि क्षेत्रसे चौगुना विस्तार विदेह क्षेत्रका है। विदेह क्षेत्रसे आगेके क्षेत्रोंका विस्तार चौथा भाग है अर्थात् विदेह क्षेत्रके विस्तारसे चौथा भाग विस्तार रम्यक क्षेत्रका है, रम्यक क्षेत्रसे चौथा भाग विस्तार हैरण्यवतका है और उससे चौथा भाग विस्तार ऐरावत क्षेत्रका है ।।१३-१४॥ हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। इनमें आगे-आगेका कुलाचल पूर्व-पूर्व कुलाचलसे चौगुने-चौगुने विस्तार वाला है। यह क्रम निषध कुलाचल तक ही चलता है। इसके आगे उत्तरके तीन कुलाचल दक्षिणके कुलाचलोंके समान कहे गये हैं ॥१५-१६।। प्रथम भरत क्षेत्रका विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागोंमें छह भाग प्रमाण है ।।१७।। जम्बू द्वीपकी चौड़ाई एक लाख योजनमें यदि एक सौ नब्बे योजनका भाग दिया जाय तो भरत क्षेत्रका उक्त विस्तार स्पष्ट हो जाता है। भावार्थ-भरत क्षेत्रका जो विस्तार ५२६४ योजन बतलाया है। वह जम्बू द्वीपके विस्तारका एक सौ नब्बेवाँ भाग है ॥१८॥ क्षेत्रसे पर्वत दूने विस्तारवाला है। और पर्वतसे क्षेत्र दूने विस्तारवाला है। दूने विस्तारका यह क्रम विदेह क्षेत्र तक चलता है। उसके आगेके क्षेत्र और पर्वतोंका विस्तार ह्रासको लिये हुए है अर्थात् आगेके क्षेत्र और पर्वत अर्ध-अर्ध विस्तारवाले हैं ॥१९।। * भरत क्षेत्रके ठीक मध्य भागमें विजया नामसे प्रसिद्ध एक दूसरा पर्वत सुशोभित है। इसके दोनों अन्तभाग पूर्व और पश्चिमके दोनों समुद्रोंको प्राप्त हैं तथा इसपर विद्याधरोंका निवास है ।।२०।। यह पर्वत पृथिवीसे पचीस योजन ऊँचा है, सवा छह योजन पृथिवीके नीचे स्थित है, पचास योजन चौड़ा है और
१. मुत्तमं म.। २. निषधो म. ।
* क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार निम्नलिखित है१ भरत क्षेत्र ५२६६ योजन
२ हिमवत् पर्वत ३ हैमवत क्षेत्र २१०५५ योजन ४ महाहिमवत् पर्वत ५ हरिक्षेत्र ८४२११३ योजन ६ निषध पर्वत ७ विदेह क्षेत्र ३३६८४३४ योजन ८ नील पर्वत ९ रम्यक क्षेत्र ८४२११३ योजन १. रुक्मी पर्वत ११ हैरण्यवत क्षेत्र २१०५३ योजन १२ शिखरी पर्वत १३ ऐरावत क्षेत्र ५२६६ योजन
१०१२१२ योजन ४२१०१२ योजन १६८४२६३ योजन १६८४२४ योजन
४२१०११ योजन १०५२,३ योजन
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हरिवंशपुराणे योजनानि क्षितेरून दशोत्पत्य दशोपरि। विस्तीर्ण पर्वतायाम श्रेण्या विद्याधराश्रिते ॥२२॥ दक्षिणस्यां महाश्रेण्यां पञ्चाशनगराणि च । उत्तरस्या' पुरः षष्टिस्त्रिविष्टेपपुरोपमाः ॥२३॥ योजनानि दशातीत्य पुनः सन्ति पुराण्यतः। सुराणामाभियोग्यानां क्रीडायोग्यान्यनेकशः ॥२४॥ पुनरुत्पत्य पञ्चोव दशयोजनविस्तृता । श्रेणी तु पूर्णभद्राख्या विजयार्द्धसुराश्रिता ॥२५॥ द्विायतनकूटं प्राक् दक्षिणार्द्धकमेव च । खण्डकादिप्रपातं च पूर्णभद्रं ततः परम् ॥२६॥ विजयार्द्धकुमाराख्यं मणिमद्रं ततः परम् । तामित्रगुहकं चान्यदुत्तराद्धं च नामतः ॥२७॥ अन्ते वैश्रवणाख्यं तु मान्ति तानि दधन्ति तम् । नगाग्रे नवकूटानि क्रोशषड़योजनोच्छितिम् ॥२८॥ मूले तन्मात्रमेवैषां मध्येऽप्यूनानि पञ्च तु । साधिकान्युपरि त्रीणि विस्तारस्तेषु भाषितः ॥२९॥ सिद्धायतनकूटे च सिद्धकूटमितीरितम् । पूर्वाभिमुखमाभाति जिनायतनमुज्ज्वलम् ॥३०॥ उच्छायस्तस्य पादोनः क्रोशः क्रोशार्द्धविस्तृतिः । आयामः क्रोश एव स्यात्प्रासादस्याविनाशिनः ॥३१॥ ज्याऽसौ नवसहस्राणि सप्तशस्यपि चाष्टमिः । चत्वारिंश त् कला द्विःषट् मारता तु दक्षिणा ॥३२॥ धनुःपृष्टं पुनस्तस्या षट्षष्टिः सप्तशत्यपि । सहस्राणि नव ज्यायाः साधिका च कलोदितम् ॥३३॥ योजनानां शते द्वे तु साष्टत्रिंशत्कलात्रयम् । धनुषोऽनन्तरस्येय मिषुर्भवति पुष्कला ॥३४॥ सहस्राणि दशामोषां सप्तशस्यपि विंशतिः । एकादशकला ज्यासौ विजयार्द्धनगोत्तरा ॥३५॥ ज्याया दशसहस्राणि धनुःसप्तशतीरितम् । त्रिचत्वारिंशदप्यस्याः कलाः पञ्चदशाधिकाः ॥३६॥ योजनानां प्रसिद्धेषुरष्टाशी तिशतद्वयम् । उत्तरा विजयार्द्धस्य तिस्रश्चापि कलाः कलाः ॥३॥
चूलिका विजयार्द्धस्य योजनानां चतुःशती । षडशीतिमनागना जिनेशेन प्रकीर्तिता ॥३८॥ चाँदीके समान सफेद वर्णवाला है ॥२१॥ पृथिवीसे दश योजन ऊपर चलकर इस पर्वतकी दो श्रेणियाँ हैं जो पर्वतके ही समान लम्बी हैं तथा जिनमें अनेक विद्याधरोंका निवास है ।।२२।। । दक्षिण महाश्रेणीमें पचास और उत्तर महाश्रेणी में साठ नगर हैं, ये सब नगर स्वर्गपुरीके समान हैं ।।२३।। यहाँसे दश योजन और ऊपर चलकर आभियोग्य जातिके देवोंकी क्रीड़ाके योग्य अनेक नगर स्थित हैं ॥२४॥ यहाँसे पांच योजन और ऊपर चढ़कर एक पूर्णभद्र नामकी श्रेणी है जो दश योजन चौड़ी है तथा विजया नामक देवसे आश्रित है अर्थात् जहाँ विजयार्ध देवका निवास है ।।२५।। इस विजयाध पर्वतपर नौ कूट हैं जिनमें पहला सिद्धायतन, दूसरा दक्षिणार्धक, तीसरा खण्डकप्रपात, चौथा पूर्णभद्र, पांचवां विजयार्धकुमार, छठवाँ मणिभद्र, सातवाँ तामिस्रगुहक, आठवाँ उत्तराधं और नौवां वैश्रवण कूट है। ये नौ कूट पर्वतके अग्रभागपर सुशोभित हैं तथा सवा छह योजन ऊंचाईको धारण करते हैं ॥२६-२८॥ इन पर्वतोंका विस्तार मूलमें सवा छह योजन, मध्य में कुछ कम पाँच योजन और ऊपर कुछ अधिक तीन योजन कहा गया है ।।२२।। सिद्धायतन कूटपर पूर्व दिशाको ओर सिद्धकूट नामसे प्रसिद्ध अत्यन्त उज्ज्वल जिनमन्दिर सुशोभित है ।।३०।। इस अविनाशी जिनमन्दिरकी ऊँचाई पौन कोश, चौडाई आध कोश और लम्बाई एक कोश है ॥३१॥ भरत क्षेत्रके अधं भागमें विजयाध पर्वतको दक्षिण प्रत्यञ्चा नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन और बारह कला प्रमाण विस्तृत है ॥३२।। प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठका विस्तार नौ हजार सात सौ छयासठ योजन तथा कुछ अधिक एक कला प्रमाण कहा गया है ।।३३।। इस निकटस्थ धनुषका बाण दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला प्रमाण है ||३४|| विजयाध पर्वतकी उत्तर प्रत्यंचा दश हजार सात सो सत्ताईस योजन तथा ग्यारह कला प्रमाण है ॥३५।। इस उत्तर प्रत्यंचाका धनुःपृष्ठ दश हजार सात सौ तैंतालीस योजन तथा कुछ अधिक पन्द्रह कला प्रमाण है ॥३६॥ विजयार्धके इस उत्तर धनुःपृष्ठका बाण दो सौ अठासी योजन तथा तीन कला प्रमाण है ॥३७॥ जिनेन्द्रदेवने विजयाधं पर्वतकी चूलिका कुछ कम चार सौ छयासी योजन १. पुनः म., क. । २. स्वर्गपुरीसन्निभाः । ३. भागा द्वादश कीर्तिताः म. ।
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पञ्चमः सर्ग:
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पूर्वापरान्तयोरदरष्टाशीति चतुःशती । प्रमाणं भुजयोरस्य भागाः षोडश चाधिकाः ॥३९।। षट्कला मरतज्योना सैका सप्ततिरोरिता । चतुःशतीविमिश्राणि सहस्राणि चतुर्दश ॥४०॥ चतुर्दशसहस्राणि पञ्चशत्या तु विंशतिः । अष्टामिऔरतं भागा धनुरेकादशाधिकाः ॥४१॥ शतानि पञ्चविंशत्या सह षड्भिश्च षट् कलाः । प्रसिद्धयमिषुर्भाष्या धनुषस्तस्य भारती ॥४२॥ अष्टादशशती प्रोक्ता चूलिका पञ्चसप्ततिः । अर्धसप्तमभागाश्च साधिका भरतक्षितेः ॥४३॥ सहस्रमेकमष्टौ च शतानि नवतिर्द्वयम् । साधिकार्धाष्टमांशाश्च पूर्वापरभुजप्रभा ॥४४।। शतयोजनमानः स्यादुच्छायो हिमवगिरेः । अवगाहस्तु तस्यैव पञ्चविंशतियोजनः ।।४५।। योजनानां सहस्रं तु द्वापञ्चाशत्समन्वितम् । द्वादशापि कलाः प्रोक्ता विस्तारो हिमवगिरेः॥४६॥ चतुर्विशतिरस्याद्रेः सहस्राणि शतान्यपि । नव द्वात्रिंशता ज्या स्यादीषदूनकलोत्तरा ॥१७॥ पञ्चविंशतिरस्यैव सहस्राणि शतद्वयम् । योजनानि धनुस्त्रिंशच्चतस्रः साधिका कलाः ॥४८॥ सहस्रं पञ्चशत्येकमष्टासप्ततिरेव च । कला चाष्टादशैवारिषुरेषाऽस्य माषिता ॥४९॥ योजनानां सहस्राण पञ्च तानि शतद्वयम् । त्रिंशच्चूलिकाऽस्यादुर्भागाः सप्त च साधिकाः ॥५०॥ पञ्चवास्य सहस्राणि पञ्चाशच्च शतत्रयम् । साधिका न तो बाहू भागाः पञ्चदशाधिकाः॥५१॥ भान्त्येकादश कूटानि हैमस्य हिमवगिरेः । शिखरेऽस्य निविष्टानि पत्या पूर्वपरात्मना ॥५२।। सिद्धायतनकूटं प्राक् हिमवत्कूटमप्यतः । कूटं भरतसंज्ञं स्यादिलाकूटं ततः परम् ॥५३।। गङ्गाकूटं श्रियः कूटं रोहितास्यादिकं च तत् । सिन्धुकूटं सुरादेवीकूट हैमवतं च यत् ॥५४॥ कूटं वैश्रवणाख्यं तु पाश्चात्त्यं परिकीर्तितम् । पञ्चविंशतिरुच्छायः सर्वेषां योजनानि तु ॥५५॥ पञ्चविंशतिरेव स्याद् विस्तारो मूलगोचरः । अर्द्ध त्रयोदशाग्रेऽन्तः' पादोनैकोनविंशतिः ॥५६॥
बतलायी है ॥३८॥ विजयाध पर्वतकी पूर्व-पश्चिम भुजाओंका विस्तार चार सौ अठासी योजन तथा कुछ अधिक सोलह कला प्रमाण है ।।३९|| भरत क्षेत्रको प्रत्यंचा चौदह हजार चार सौ इकहत्तर योजन और कुछ कम छह कला है ।।४०॥ इसका धनु:पृष्ठ चौदह हजार पाँच सौ अट्ठाईस योजन तथा ग्यारह कला प्रमाण है ।।४१॥ भरतक्षेत्र सम्बन्धी धनुःपृष्ठके बाणका विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन और छह कला प्रमाण प्रसिद्ध है ।।४२|| भरत क्षेत्रकी चूलिका अठारह सौ पचहत्तर योजन तथा कुछ अधिक साढ़े छह भाग बतलायी है ॥४३।। इसको पूर्व-पश्चिम भुजाओंका विस्तार एक हजार आठ सौ बानबे योजन तथा कुछ अधिक साढ़े सात भाग है ।।४४॥ हिमवान् कुलाचलकी ऊंचाई सौ योजन, गहराई पचीस योजन और चौड़ाई एक हजार बावन योजन तथा बारह कला प्रमाण कही गयी है ।।४५-४६।। इस हिमवत् कुलाचलको प्रत्यंचाका प्रमाण चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन तथा कुछ कम एक कला प्रमाण बतलाया है ।।४७-४८॥ इसका बाण एक हजार पांच सौ अठहत्तर योजन तथा अठारह कला प्रमाण कहा है ॥४९॥ हिमवत्कुलाचलकी चूलिकाका विस्तार पाँच हजार दो सौ तीस योजन तथा कुछ अधिक सात कला है ॥५०॥ इसको पूर्व-पश्चिम दोनों भुजाओंका विस्तार पाँच हजार तीन सौ पचास योजन साढ़े पन्द्रह भाग है ॥५१।। इस सुवणमय हिमवत् कुलाचलके शिखरपर पूवसे पश्चिम तक पंक्ति रूपसे स्थित ग्यारह कूट सुशोभित हो रहे हैं ।।५२।। उन कूटोंके नाम इस प्रकार हैं-१. सिद्धायतनकूट, २. हिमवत्कूट, ३. भरतकूट, ४. इलाकूट, ५. गंगाकूट, ६. श्रीकूट, ७. रोहितकूट, ८. सिन्धुकूट, ९. सुरादेवीकूट, १०. हैमवतकूट और ११. वैश्रवणकूट । इन सभी कूटोंकी ऊंचाई पचीस योजन प्रमाण है ।।५३-५५॥ इन सबका मूलमें पचीस योजन, मध्यमें पौने उन्नीस योजन और ऊपर साढ़े बारह योजन विस्तार है ॥५६||
१. दशाने तु म.।
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हरिवंशपुराणे
सहस्रे शतं पञ्च योजनानि तु पञ्चभिः । मागे हैमवतस्यापि विष्कम्भः पुष्कलो मतः ॥५७॥ सप्तत्रिंशत्सहस्त्राणि चतुःसप्तति षट्शती । ज्यापि हैमवतस्यान्ते न्यूनाः षोडश ताः कलाः ||५८ || साष्टत्रिंशत्सहस्राणि सप्तशत्यपि नोदिता । चत्वारिंशद्धनुर्ज्याया दशास्याः साधिकाः कलाः || ५९ ॥
त्रिंशच्च शतानि स्यादशीतिश्वतुरुत्तरा । योजनानि कलाश्वास्य चतस्रो धनुषस्त्विषुः ||६०|| चूलिका चैकसप्तत्या त्रिषष्टिशतयोजना | साधिकैः सप्तभिर्भागैः क्षेत्रस्यास्योपवर्णिता ||३१|| सप्तषष्टिशतान्यस्याः पञ्चपञ्चाशता भुवः । योजनानि भजामानं साधिकाश्च त्रयोंऽशकाः ॥ ६२॥ सहस्राणि तु चत्वारि दशोत्तरशतद्वयम् । दशभागाश्च विस्तारो महाहिमवतो गिरेः ॥ ६३॥ ऊर्ध्वं च पुनरुद्यातो योजनानां शतद्वयम् । पञ्चाशतमधी यातो घरिण्यां धरिणीधरः ||६४|| त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि योजनानि शतानि च । नवैकत्रिंशदेतस्य ज्या षट् मागाश्च साधिकाः || ६५ || पञ्चाशच्च सहस्राणि सप्तास्य द्विशती धनुः । त्रिनवत्या सह ज्यायाः साधिकाचे दशांशकाः ||६६ || धनुषोऽस्य सहस्राणि सप्त साष्टशतानि तु । चतुर्नवतियुक्तानि भागाश्चेषुश्चतुर्दश ॥ ६७ ॥ एकाशीतिशतानि स्यादष्टाविंशतिरेव च । चत्वारोऽर्द्धाधिका मागाश्चूलिकाऽस्य महीभृतः ॥ ६८॥ सहस्राणि नव द्वे तु शते षट्सप्ततिर्नव । भागा भुजद्वयं तस्य साधिकार्द्ध कलाधिकाः ॥ ६९ ॥ अष्टार्जुनमयस्यास्य कुटानि शिखरे गिरेः । रत्नरञ्जितसानूनि नित्यानि सन्ति भान्ति च ॥ ७० ॥ सिद्धायतनकूटं स्यान्महाहिमवदादिकम् । कूटं हैमवतं कूटं रोहिता कूटमप्यतः ॥ ७१ ॥ होटं हरिकान्तादि हरिवर्षादिकं हि तत् । वैडूर्यकूटमप्येषां पञ्चाशद्योजनोच्छितिः ॥ ७२ ॥ पञ्चाशद्योजनो मौलो' farकम्भो मध्यगोचरः । सप्तत्रिंशत्तथा च मस्तके पञ्चविंशतिः ॥७३॥
इसके आगे दूसरा हैमवत क्षेत्र है इसका विस्तार दो हजार एक सौ पाँच योजन तथा पाँच कला प्रमाण माना गया है ||५७|| इसकी प्रत्यंचा सैंतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन तथा कुछ कम सोलह कला प्रमाण है ||१८|| इस प्रत्यंचाका धनुषपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन तथा कुछ अधिक दश कला प्रमाण है || ५९५ || और इसका बाण तीन हजार छह सौ चौरासी योजन तथा चार कला है ||६०|| इसकी चूलिका छह हजार तीन सौ इकहत्तर योजन तथा कुछ अधिक सात कला है ॥ ६१ ॥ पूर्व-पश्चिम भुजाओं का मान छह हजार सात सौ पचपन योजन और कुछ अधिक तीन भाग है ||६२||
इसके आगे महाहिमवान् कुलाचल है इसका, विस्तार चार हजार दो सौ दश योजन तथा दश कला है ||६३|| यह पर्वत पृथिवीसे दो सौ योजन ऊपर उठा है तथा पचास योजन पृथिवीके नीचे गया है ||६४ || इसकी प्रत्यंचाका विस्तार तिरपन हजार नौ सौ इकतीस योजन तथा कुछ अधिक छह कला है || ६५ || इस प्रत्यंचा के धनुःपृष्ठका विस्तार सत्तावन हजार दो सौ तिरानबे योजन तथा कुछ अधिक दश अंश है || ६६ || इसके बाणकी चौड़ाई सात हजार आठ सौ चौरानबे योजन तथा चौदह भाग है ||६७ || इस महाहिमवान् पर्वतकी चूलिका आठ हजार एक सौ अट्ठाईस योजन तथा साढ़े चार कला है ||६८|| इसकी दोनों भुजाएँ नौ हजार दो सौ छिहत्तर योजन तथा साढ़े नौ कला प्रमाण हैं ||६९ || चाँदीके समान श्वेतवर्णवाले इस पर्वत के शिखरपर रत्नोंसे शिखरोंको अनुरंजित करनेवाले उत्तम एवं स्थायो आठ कूट सुशोभित हो रहे हैं ||७० || उन कूटोंके नाम इस प्रकार हैं - १. सिद्धायतनकूट, २. महाहिमवत्कूट, ३. हैमवत कूट, ४. रोहिता कूट, ५. ह्री कूट, ६. हरिकान्त कूट, ७. हरिवर्ष कूट और ८ वैडूयं कूट । सब कूटोंकी ऊँचाई पचास योजन प्रमाण है ||७१-७२ || मूलमें इन कूटोंका विस्तार पचास योजन, मध्यमें साढ़े सैंतीस योजन और ऊपर पचीस योजन है ||७३ ||
१. सकलाः कलाः ख. । २. दशान्तकाः म । ३. मूले भवो मील: ।
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पञ्चमः सर्गः
७५
स्यादष्टौ हि सहस्राणि चतुःशत्येकविंशतिः । हरिवर्षस्य विस्तारो भागश्चैकोनविंशतः ॥७॥ शतानि नव सैकानि सहस्राणि त्रिसप्ततिः । ज्यापि चास्य विशेषेण भागाः सप्तदशाधिकाः ॥७५॥ अस्याश्चतुरशीतिश्च सहस्राणि पुनर्भवेत् । षोडशापि धनुायाश्चतस्रः साधिकाः कलाः ॥७६।। षोडशास्य सहस्राणि योजनानां शतत्रयम् । इषः पञ्चदश ज्ञेया सह पञ्चदशांशकैः ॥७७॥ सहस्राणि नवान्यानि शतानि नव चलिका । पञ्चाशीतिश्च पञ्चांशाः सहादूर्धकलया तु सा ॥८॥ त्रयोदशसहस्राणि त्रिशतो षष्टिरेककम् । साधिकार्धाधिकार्धाः षड़ भागास्तत्र भजप्रमा॥७९॥ द्वाचत्वारिंशदष्टौ च शतान्यन्यानि षोडश । सहस्राणि च भागौ द्वौ विष्कम्भो निषधस्य च ॥८॥ उच्छायः पुनरस्य स्याद् योजनानां चतुःशती । अवगाहस्त्वधो भूमेः शतयोजनमात्रकः ॥८१॥ चतुर्नवतिसंख्यानि सहस्राणि शतं तथा । षट्पञ्चाशदविभागौ च साधिको ज्यास्य भूभृतः ॥८२॥ लौकात्र सहस्राणि चतुर्विशतिरंशकाः । साधिका नव चापं षट्चत्वारिंशच्छतत्रयम् ॥८३॥ धनुषोऽस्य त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि शतं तथा । सप्तपञ्चाशदेव स्यादिषुः सप्तदशांशकाः ॥४४॥ तथा दशसहस्राणि शतं स्यात्सप्तविंशतिः । साधिको च परौ भागी चूलिका निषधस्य सा ॥८५।। विंशतिश्च सहस्राणि पञ्चषष्टियुतं शतम् । साधिकार्धाधिको भागौ प्रमाणं मुजयोरिह ॥८६।। तपनीयमयस्यास्य निषधस्यापि मूर्धनि । मासन्ते नवकूटानि सर्वरत्नमरीचिभिः॥ ८७॥ सिद्धायतनकूटं च कूटं तनिषधादिकम् । हरिवर्षादिकं पूर्वविदेहादिकमेव तत् ॥८॥ होकूटं तिकूटं च शीतोदाकूटमेव च । विदेहकूटमित्येकं रुचकं नवमं मतम् ॥८९।। उच्छायो योजनशतं विष्कम्भश्चापि मूलजः । पञ्चाशन्मस्तकेऽमोषां मध्येऽसौ पञ्चसप्ततिः ॥१०॥
इसके आगे हरिवर्ष क्षेत्र है इसका विस्तार आठ हजार चार सौ इक्कीस योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागोंमें से एक भाग प्रमाण है ॥७४॥ इसकी प्रत्यंचाका विस्तार तिहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और सत्रह कला है ।।७५।। इस प्रत्यंचाका धनुःपृष्ठ आठ हजार चार सौ सोलह योजन तथा कुछ अधिक चार कला है ॥७६।। इसके बाणका विस्तार सोलह . हजार तीन सौ पन्द्रह योजन तथा पन्द्रह कला है ।।७७। इसकी चूलिका नौ हजार नौ सौ पचासी योजन तथा साढ़े पांच कला है ।।७८|| और इसकी भजाओंका प्रमाण तेरह हजार तीन सौ इकसठ योजन साढ़े छह कला है ॥७९॥
इसके आगे निषध पर्वत है इसका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालीस योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण है ॥८०॥ इसकी ऊंचाई चार सो योजन है और पृथिवीके नीचे गहराई सौ योजन प्रमाण है ॥८१॥ इस पर्वतकी प्रत्यंचा चौरानबे हजार एक सौ छप्पन योजन तथा अधिक दो कला है ॥८२।। इसका धनःपष्ठ एक लाख चौबीस हजार तीन सौ छियालीस योजन तथा कछ अधिक नौ कला है ॥८३।। इस धनःपष्ठके बाणका विस्तार तैंतीस हजार एक सौ सन्तावन योजन तथा सत्रह कला है ।।८४॥ इस निषध कूलाचलकी चूलिका दश हजार एक सौ सत्ताईस योजन तथा कुछ अधिक दो कला है ।।८५।। इसकी भुजाओंका प्रमाण बीस हजार एक सौ पैंसठ योजन तथा कुछ अधिक अढ़ाई कला है ॥८६॥ इस स्वर्णमय निषधाचलके मस्तकपर नौ कूट हैं जो कि सब प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे सुशोभित हो रहे हैं ।।८७।। उन कूटोंके नाम इस प्रकार हैं-१ सिद्धायतन कूट, २ निषध कूट, ३ हरिवर्ष कूट, ४ पूर्व विदेह कूट, ५ ह्री कूट, ६ धृति कूट, ७ सीतोदा कूट, ८ विदेह कूट और ९ रुचक कूट ।।८८-८९॥ इन सबकी ऊँचाई और मूलकी चौड़ाई सौ योजन है । बोचकी चौड़ाई पचहत्तर योजन और मस्तक-ऊर्ध्व भागको चौड़ाई पचास योजन है ॥९०॥ १. मात्रकाः म.।
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हरिवंशपुराणे त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि विदेहस्य च षट्शती । तथा चतुरशीतिश्च विस्तारश्च तुरंशकाः ॥९॥ ज्या स्याच्छतसहस्राणि योजनानि प्रमाणन: । जम्बूद्वीपप्रमाणेन कृतस्पर्दैन साम्यतः ॥१२॥ अष्टापञ्चाशदिष्टानि सहस्राणि शतं धनः । त्रयोदर्शकलमांशाः साधिकाधन षोडश ॥१३॥ पञ्चाशञ्च सहस्राणि योजनानीषुरिष्यते । महतो धनुषस्तस्य महती युज्यते हि सा ॥९॥ द्वे सहस्त्रे शतैर्युक्ते नवभिश्चैकविंशतिः । साधिकाष्टादशांशाश्व विदेहार्द्धस्य चूलिका ॥१५॥ त्र्यशीतिश्च शतान्यष्टौ सहस्राणीहि षोडश । त्रयोदशांशकाः पादः साधिकश्च मुजाद्वयम् ॥९६॥ प्रमाणं दक्षिणाद्धे यद् द्वीपस्य प्रतिपादितम् । बोध्यं तदुत्तरार्धेऽपि क्षेत्रपर्वतगोचरम् ॥१७॥ ज्यायां ज्यायां विशुद्धायां शेषाद्धं चूलिका स्मृता । चापे चापे विशुद्धेऽर्द्ध तथा पार्श्वभुजा हि सा ॥९॥ वडयमयनीलस्य सिदधायतननामकम् । नीलकूटं च तत्पूर्वविदेहाद्यपरिस्थितम् ॥१९॥ सीताकूटं चतुर्थ स्यात्कीर्तिकूटं च पञ्चमम् । नरकान्तादिकं षष्ठं ततोऽपरविदेहकम् ॥१०॥ रम्यकायष्टमं कूटमपदशनकं विह । उच्छ्रायमूलमध्यान्तविष्कम्मो निषधेषु यः ॥१०॥ रौक्मस्य रुक्मिणोऽप्यने सिद्धायतनमादितः । रुक्मिकूटं द्वितीयं स्यात् तृतीयं रम्यकादिकम् ॥१०२।।. नारीकूटं तुरीयं तु बुद्धिकूटं तु पञ्चमम् । रूप्यकूटं परं कूटं हैरण्यवतपूर्वकम् ॥१०॥ मणिकाञ्चन कुटं च सामान्योच्छायतस्तु ते । मूलमध्यानविस्तारैर्महाहिमवति स्थितः ॥१०॥ कूटान्य कादशैवाने हैमस्य शिखरिश्रुतेः । सिद्धायतनमायं स्यात् कूटं शिखरिपूर्वकम् ॥१०५॥ हैरण्यवतकूटं च सुरदेवीपुरःसरम् । रक्तालक्ष्मीसुवर्णादिकूटानि च यथाक्रमम् ॥१०६॥ तथा रक्तवतो कूटं गन्धदेव्यास्ततः परम् । तथैरावतकूटं च पाश्चात्यं मणिकाञ्चनम् ॥१०७॥
इसके आगे विदेह क्षेत्र है इसका विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागोंमें चार भाग प्रमाण है ॥९१॥ इसकी प्रत्यंचाका प्रमाण मानो समानताके कारण स्पर्धा करनेवाले जम्बू द्वीपके बराबर एक लाख योजन है ॥९२।। इसके धनुःपृष्ठका विस्तार एक लाख अंठावन हजार एक सौ तेरह योजन तथा कुछ अधिक साढ़े सोलह कला है ॥१३॥ बाणका विस्तार पचास हजार योजन है सो ठीक ही है क्योंकि उतने बड़े धनुषका उतना बड़ा बाण होना उचित ही है ।।१४।। विदेहाधंकी चूलिका दो हजार नौ सौ इक्कीस योजन तथा कुछ अधिक अठारह कला है ॥९५।। इसकी दोनों भुजाओंका विस्तार सोलह हजार आठ सौ तिरासी योजन तथा सवा तेरह कलासे कुछ अधिक है ॥९६।। जम्बू द्वीपके दक्षिणार्ध भागमें क्षेत्र तथा पर्वत आदिका जो प्रमाण बतलाया है वही उत्तरार्ध भागमें भी जानना चाहिए ।।९७॥ प्रत्यंचा, धनु:पृष्ठ, बाण, भुजा तथा चूलिकाका जो विस्तार दक्षिणार्धमें बतलाया गया है वही शेषार्धमें भी है ।।१८।। उत्तरार्धके पर्वतोंमें जो विशेषता है उसे बतलाते हैं-विदेह क्षेत्रके आगे जो वैडूर्यमणिमय नील पर्वत है उसके ऊपर निम्नलिखित नौ कूट हैं-१ सिद्धायतन कूट, २ नील कूट, ३ पूर्व विदेह कूट, ४ सीताकूट, ५ कोर्ति कूट, ६ नरकान्तककूट, ७ अपर विदेह कूट, ८ रम्यक कूट और ९ अपदर्शन कूट । इन सब कूटोंको ऊँचाई तथा मूल मध्य और ऊध्वं भागकी चौड़ाई निषधाचलके कूटोंके समान है ॥९९-१०१।। रुक्मी पर्वत चाँदीका है उसके अग्रभागपर निम्नलिखित आठ कूट हैं-पहला सिद्धायतन कूट, दूसरा रुक्मि कूट, तीसरा रम्यक कूट, चौथा नारी कुट, पांचवां बुद्धि कूट, छठा रूप्य कूट, सातवाँ हैरण्यवत कूट और आठवाँ मणिकांचनकूट। इन सबकी सामान्य ऊंचाई मूल मध्य तथा अग्र भागका विस्तार महाहिमवान् पर्वतके कूटोंके समान जानना चाहिए ॥१०२-१०४॥ शिखरी पर्वत सुवर्णमय है उसके अग्रभागपर निम्नलिखित ग्यारह कूट हैं-१ सिद्धायतन कूट,२ शिखरो कूट, ३ हैरण्यवत कूट, ४ सुरदेवी कूट, ५ खत्ता कूट, ६ लक्ष्मी कूट, ७ सुवर्ण कूट,
१. महिती म.।
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पञ्चमः सर्गः
हिमवरकटतुल्यानि तानि कूटानि शोभया। आदिमध्यान्त विस्तारैरुच्छायेण च चारुणा ॥१०॥ तथैरावतमध्यस्थविजयार्द्धस्य मूर्धनि । हठन्ते नवकूटानि सुरत्नमणिसंकटैः ॥१०९॥ सिद्धायतनकूटं स्यादुत्तरार्धाभिधानकम् । तामिस्रगुहकूटं च मणिभद्रमतः परम् ॥११०॥ विजयार्धकुमाराख्यं पूर्णभद्राख्यमप्यतः । खण्डकादिप्रपातं च दक्षिणा च नामतः ॥१११॥ नवमं तु तथाख्यातं कूटं वैश्रवणश्रुतिः । तानि सर्वाणि तुल्यानि मारतीयैः प्रमाणतः ॥११२॥ पूर्वापरायतानां हि षण्णां तत्कुलभूभृताम् । सप्तक्षेत्रविमक्तणामेकैकस्योभयान्तयोः ।।११३।। सर्वर्तुकुसुमाकीर्णफलभारनतद्रुमैः । हारिणों पक्षिसंघातमधुकृन्मधुरस्वनैः ॥११॥ अर्द्धयोजनविस्तौँ विचित्रमणिवेदिको । भवतो वनखण्डौ द्वौ पर्वतायामसम्मितौ ।।११५॥ अर्धयोजनमानस्तु वेदिकोत्सेध इष्यते । वेदकैप्सतत्त्वस्य व्यासः पञ्चधनुःशती ॥११६॥ सुरत्नपरिणामानि नानावर्णानि सर्वतः । वेदिकोचितदेशेष तोरणानि भवन्ति च ॥११७॥ भूभृतामुपरि ज्ञेया सर्वतः पद्मवेदिका। मणिरत्नमयी दिव्या गव्यूतिद्वयमुच्छ्रिता ॥१८॥ गृहद्वीपसमुद्राणां भूनदीहदभूभृताम् । वेदिकोत्सेधविस्तारौ तिर्यग्लोके स्थिताविमौ ॥११९॥ तेषां तु मध्यदेशेषु पूर्वापरसमायताः । षामहाकुलशैलानां षड महान्तो हदाः स्थिताः ।।१२०॥ पद्मश्चापि महापद्मस्तिगिञ्छः केसरी हृदः । सुमहापुण्डरीकश्च पुण्डरीकश्च नामतः ।।१२१॥ चतुर्दश विनिर्गस्य सरितः पूर्वसागरम् । तेभ्यो विशम्ति सप्तव सप्तवापरसागरम् ।।१२२॥
८ रक्तवती कट. ९ गन्धदेवी कट. १०ऐरावत कट और ११ मणिकांचन कट। ये सब कट शोभा. मल-मध्य और अन्त सम्बन्धी विस्तार तथा सन्दर ऊँचाईसे हिमवत पर्वतके कटोंके समान हैं ॥१०५-१०८॥ ऐरावत क्षेत्रके मध्य में जो विजयाध पर्वत है उसके अग्रभाग पर भी नौ कूट हैं जो कि उत्तमोत्तम रत्न तथा मणियोंके समूहसे देदीप्यमान हो रहे हैं। उन कूटोंके नाम इस प्रकार हैं-१ सिद्धायतन कूट, २ उत्तराधं कूट, ३ तामिस्रगुह कूट, ४ मणिभद्र कूट, ५ विजयाधं कुमार कूट, ६ पूर्णभद्र कूट, ७ खण्डकप्रपात कूट, ८ दक्षिणाधं कूट और ९ वैश्रवण कूट। ये सब कूट प्रमाणको अपेक्षा भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजयार्धपर स्थित कटोंके तुल्य हैं ॥१०९-११२|| सात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले तथा पूर्वसे पश्चिम तक लम्बे जिन छह कुलाचलोंका वर्णन पहले कर आये हैं उनमें से प्रत्येकके दोनों अन्त भागमें वनखण्ड सुशोभित हैं। ये वनखण्ड समस्त ऋतुओंके फूलोंसे भरे तथा फलोंके भारसे नम्रीभूत वृक्षों और पक्षिसमूह तथा भ्रमरोंके मधुर शब्दोंसे मनोहर हैं, आधा योजन विस्तृत हैं, चित्र-विचित्र मणियोंकी वेदिकाओंसे सहित हैं और पर्वतको लम्बाईके बराबर हैं ॥११३-१५५॥ व्यास-विस्तारके रहस्यको जाननेवाले आचार्योंने इन वनखण्डोंको वेदिकाकी ऊँचाई आधा योजन और चौड़ाई पांच सौ धनुष बतलायी है ।।११६|| वेदिकाओंके ऊपर योग्य स्थानों पर चारों ओर उत्तमोत्तम रत्नोंसे निर्मित नाना रंगके तोरण हैं ॥११७।। कुलाचलोंके ऊपर चारों ओर मणि तथा रत्नोंसे बनी हुई दिव्य तथा दो कोश ऊंची पद्म-वेदिका है ।।११८|| मध्य लोकमें गृह, द्वीप, समुद्र, पृथिवी, नदी, ह्रद और पर्वतोंकी जो वेदिकाएँ हैं उनकी ऊँचाई और विस्तार भी इसी प्रकार समझना चाहिए अर्थात् सबकी ऊंचाई आधा योजन और चौड़ाई पाँच सौ धनुष हैं ।।११९॥
___ उक्त छह महाकुलाचलोंके मध्यभागमें पूर्वसे पश्चिम तक लम्बे छह विशाल सरोवर हैं ।।१२०।। उनके नाम इस प्रकार हैं-१ पद्म, २ महापद्म, ३ तिगिछ, ४ केसरी, ५ महापुण्डरीक और ६ पुण्डरीक ॥१२१॥ उन सरोवरोंसे चौदह नदियाँ निकली हैं जिनमें सात तो पूर्व
१. हठन्ति ख., म.। उत्तिष्ठन्ति-इत्यर्थः, 'हठ' प्लुतिशठत्वयोः। २. मनोहरौ। ३. मघुपस्वनः म. । ४. उत्तमरत्ननिमितानि ।
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हरिवंशपुराणे गङ्गा सिन्धुश्च रोह्या च रोहितास्या हरित् सरित् । हरिकान्ता च सीता च सीतोदापि च नामतः ॥१२३॥ नारी च नरकान्ता च तथैव परिवर्णिता । सुवर्णकूलया साकं रूप्यकूला परापगा ॥१२४॥ रक्तया सह रक्तोदा ताश्च सर्वा यथायथम् । नदीबहुसहस्रेस्तु भवन्ति सहिताः क्षितौ ॥१२५।। सहस्रयोजनायामः पद्मः पञ्चशतानि च । योजनानि स विस्तीर्णौ दश स्यादवगाहतः ॥१२६॥ हिमवद्वेदिकातुल्या परिक्षिपति वेदिका । समन्ततस्तमापूर्ण शुभशीतलवारिणा ॥१२७॥ योजनाद्धतेविष्कम्भं पुष्करं पुष्करेऽम्मसः । निष्क्रम्य योजनाधं तु काशते क्रोशकर्णिकम् ॥१२८॥ द्विगणद्विगणायामविष्कम्भादौ हदान्तरे । दक्षिणोत्तरमागस्थे पुष्कराणि चकासते ॥१२९॥ पुष्करेषु वसन्त्युच्चैः प्रासादेषु यथाक्रमम् । श्रीहियौ तिकीत्यौं च बुद्धिलक्ष्म्यौ च देवताः ॥१३०॥ ताश्च पल्योपमायुष्काः सौधर्मेन्द्रस्य दक्षिणाः । ऐशानस्योत्तरा देव्यः ससामानिकसंसदः ॥१३१॥ गङ्गा पूर्वेण पद्मस्य द्वारेणानुनगं गता । सिन्धुरप्यपरेणास्य रोहितास्योत्तरेण तु ॥३२॥ महापद्महदाद् रोह्या हरिकान्ता च निःसृता । हरिता सह सीतोदा तिगिन्छहदतस्तथा ॥१३३॥ केशरीहृदतः सीता नरकान्ता च निर्गता । नारी च रूप्यकूला च सा महापुण्डरीकतः ॥१३४॥ सुवर्णकलया रक्ता रक्तोदा पुण्डरीकतः । द्वारेण तोरणोद्भासा विनिःक्रान्ता महानदी ॥१३५॥ षड़ योजनानि गव्यूतं व्यासो वज्रमुखस्य सः । अवगाहोऽर्द्धगव्यूतं गङ्गाया निर्गमे स्मृतम् ॥१३६॥ योजनानि नवोद्विद्धमष्टांशत्रितयं तथा । तोरणं तत्र विज्ञेयं विचित्रमणिभास्वरम् ॥१३७॥
सागरमें प्रवेश करती हैं और सात पश्चिम सागरमें ॥१२२।। उन नदियोंके नाम इस प्रकार हैं१ गंगा, २ सिन्धु, ३ रोह्या (रोहित् ), ४ रोहितास्या, ५ हरित्, ६ हरिकान्ता, ७ सीता, ८ सीतोदा, ९ नारी, १० नरकान्ता, ११ सुवर्णकूला, १२ रूप्यकूला, १३ रक्ता और १४ रक्तोदा। ये सब नदियां पृथिवीतलपर हजारों सहायक नदियोंसे युक्त हैं ॥१२३-१२५॥ पद्म सरोवर एक हजार योजन लम्बा, पांच सौ योजन चौड़ा और दश योजन गहरा है ॥१२६।। शुभ एवं शीतल जलसे भरे हुए इस सरोवरको हिमवत्कुलाचलको वेदिकाके तुल्य एक वेदिका चारों ओरसे घेरे हुए है ॥१२७॥ इस पद्म सरोवरमें एक योजन विस्तारवाला कमल है। यह कमल पानीसे निकलकर आधा योजन ऊपर उठा हुआ है, तथा एक कोशकी उसकी कर्णिका सुशोभित है ॥१२८॥ दक्षिण तथा उत्तर भागमें जो अन्य सरोवर हैं उनको लम्बाई-चौड़ाई आदि पूर्व-पूर्वके सरोवरोंसे दुगुनीदुगुनी है तथा उन सब सरोवरोंमें कमल सुशोभित हैं ॥१२९।। कमलोंपर जो ऊँचे-ऊंचे भवन बने हुए हैं उनमें यथाक्रमसे श्री, हो, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नामकी देवियां निवास करती हैं ॥१३०|| ये सब देवियां एक पल्यकी आयुवाली हैं। इनमें दक्षिण भागको देवियाँ सौधर्मेन्द्रको और उत्तर भागको देवियाँ ऐशानेन्द्रको आज्ञाकारिणी हैं। ये सब सामानिक देवोंको सभासे सहित हैं ।।१३१॥
पद्म सरोवरके पूर्व द्वारसे गंगा, पश्चिम द्वारसे सिन्धु और उत्तर द्वारसे रोहितास्या नदी निकली है। ये नदियाँ सरोवरसे निकलकर कुछ दूर तक पर्वतपर हो बहती हैं ॥१३२।। महापद्मसरोवरसे रोह्या और हरिकान्ता, तिगिछसे हरित् और सीतोदा, केशरी सरोवरसे सीता और नरकान्ता, महापुण्डरीक सरोवरसे नारी और रूप्यकूला और पुण्डरीक सरोवरसे सुवर्णकूला, रक्ता और रक्तोदा नदी निकली हैं । इन नदियोंके निकलनेके द्वार तोरणोंसे सुशोभित हैं ॥१३३-१३५॥ जिस वज्रमुख द्वारसे गंगा निकलती है उसका विस्तार छह योजन
और एक कोश है तथा उसको गहराई आधे कोशकी है ॥१३६।। उस द्वारपर चित्र-विचित्र मणियोंसे देदीप्यमान एक तोरण बना हुआ है जो नौ योजन तथा एक योजनके आठ भागोंमें १. रोहिच्च ख., म. । २. योजनोच्छ्रित-म, ।
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पञ्चमः सर्गः
प्राप्य पञ्चशतीं प्राचीमावर्तेन निवर्त्य च । गङ्गाकटादपाची सा भारतव्यासमागता ॥३०॥ शतयोजनमाकाशं चाधिकं चातिलध्य सा । न्यपतत्पर्वतारे पञ्चविंशतियोजने ॥१३॥ 'षड्योजनी सगव्यूता विस्तीर्णा वृषभाकृतिः । जिविका योजनार्द्धा तु बाहुल्यायामतो गिरौ ॥१४॥ तयैत्य पतिता गङ्गा गोशृङ्गाकारधारिणी । श्रीगृहाग्रेऽभवद् भूमौ दशयोजनविस्तृता ॥११॥ षष्टियोजनविस्तीर्ण वज्रकुण्डमुखं भवि । अवगाहो दशास्यापि मध्ये द्वीपो व्यवस्थितः ॥१४॥ अष्टयोजनविष्कम्भः सोऽम्भसः क्रोशयोद्धयम् । उस्थितस्तस्य चान्योऽस्ति मूनि वज्रमयोऽचलः ॥१४३।। चत्वारि च गिरिद्वे च तथैकं च दशोन्नतिः । योजनानि स विस्तीर्णो मूले मध्ये च मूर्धनि ।।१४४॥ शिखरे च गिरेस्तस्य मूले मध्ये च मस्तके । ब्रोणि द्वे च सहस्रं च विस्तारेण धनंषि तु ॥१४५।। अन्तः पञ्चशतायाम तदद्धं चापि विस्तृतम् । द्विसहस्रधनुस्तुङ्गं भाति वज्रमय गृहम् ॥१४६॥ अशीतिधनुरुद्विद्धं चत्वारिंशच विस्तृतम् । तत्र वज्रकपाटाख्यं द्वारं वज्रमयं गृहे ॥१७॥ यात्वा दक्षिणतः कुण्डात् क्वचित् कुण्डलगामिनी । गुहायां विजयार्द्धस्य विस्तृता साष्टयोजनीम् ॥१४॥ चतुर्दशसहस्रस्तु प्रवेशे सरितामसौ । साईद्विषष्टिविष्कम्भा प्रविष्टा पूर्वसागरम् ॥१४॥
तीन भाग प्रमाण ऊँचा है ॥१३७|| गंगा नदो अपने निर्गम स्थानसे निकलकर पांच सौ योजन तो पूर्व दिशाकी ओर बही है फिर वलखाती हुई गंगा कूटसे लौटकर दक्षिणको ओर भरत क्षेत्रमें आयो है ।।१३८।। वह गंगा कुछ अधिक सौ योजन आकाशसे उलंघकर पर्वतसे पचीस योजनकी दूरीपर गिरी है ।।१३९||
___हिमवत् पर्वतके दक्षिण तटपर एक जिबिका नामको प्रणाली है जो छह योजन तथा एक कोश चौड़ी है, दो कोश ऊंची तथा उतनी ही लम्बी है और वृषभाकार अर्थात् गोमुखके आकारकी है ॥१४०|| इस प्रणाली द्वारा गंगा, गोशृंगका आकार धारण करती हुई श्रीदेवीके भवनके आगे गिरी है और वहाँ भूमिपर इसका विस्तार दश योजन हो गया है ।।१४।। भूमिपर साठ योजन चौड़ा तथा दश योजन गहरा एक वज्रमुख नामका कुण्ड है इस कुण्डके मध्य में एक द्वीप है जो आठ योजन चौड़ा है तथा पानीसे दो कोश ऊंचा है । इस द्वीपके ऊपर एक वज्रमय पर्वत है जो मलमें चार योजन, मध्यमें दो योजन, तथा अन्तमें एक योजन चौड़ा एवं दश योजन ऊंचा है ॥१४२-१४४।। उस पर्वतके शिखरपर एक सुशोभित वज्रमय भवन है जो मूलमें तीन हजार, मध्यमें दो हजार और अन्तमें एक हजार धनुष विस्तृत है। तथा भीतर पांच सौ धनुष लम्बा, दो सौ पचास धनुष चौड़ा और दो हजार धनुष ऊँचा है ।।१४५-१४६॥ उस भवनका अस्सी योजन ऊँचा तथा चालीस योजन चौड़ा वज्रकपाट नामका वज्रमय द्वार है ॥१४७॥ वजमख कुण्डसे दक्षिणकी ओर जाकर कहीं कुण्डलके आकार गमन करती हुई गंगा विजयाध पर्वतकी गुफामें आठ योजन चौड़ी हो गयी है ।।१४८।। चौदह हजार नदियोंके साथ जहाँ यह गंगा पूर्व लवण समुद्र में प्रवेश करती है वहाँ इसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजनको हो गयी है ।।१४।। गंगा
-त्रिलोकसार
१. षड्योजनों सगव्यूतां म. । २. योजनाध । ३. कोसदुगदीहवहला वसहायारा य जिदिया संघ ।
छज्जोयणं सकोसं तिस्से गंतण पडिदा सा ॥५८४।। हिमवन्त अन्त मणिमय वरकूड मुहम्मि वसह रूवम्मि । पविसित्तु पडह घारा सय जोयण तुंग ससि धवला ॥१४९॥ छज्जोयण सक्कोशा पणालिया वित्थडा मुणेयवा ।
आयामेण य णेया वे कोसातेत्तिया बहला ॥१५०॥ ४. अजितः म. । ५. याष्टयोजनी क.।
-जम्बू. प्रज्ञप्ति
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हरिवंशपुराणे योजनानि त्रिनवति विगव्यूतानि चोच्छुितम् । गाधतो योजनाई स्यात् सरिद्विस्तारतोरणम् ॥१५॥ सर्वप्रकारतः सिन्धुः समाना गङ्गया ततः । आविदेहाच्च सरितां द्विगुणं जिबिकादिकम् ।।१५१॥ तोरणान्यवगाहेन समस्तानि समानि तु । वसन्ति तेषु सर्वेषु दिक्कुमार्यो यथायथम् ।।१५२॥ षट्सप्तति कलाषटकं योजनानां शतद्वयम् । गत्वाऽद्रौ रोहितास्यातो निपत्य श्रीगृहेऽगमत् ।।१५। शतानि षोडशादौ तु रोह्या पञ्चयुतानि सा । कलाश्चागम्य पञ्चागाद् गिरेः पञ्चाशदन्तरम् ॥१५४॥ तावदेव गता शैले हरिकान्तोत्तरां दिशम् । समुद्रं पश्चिमं याता प्राप्य कुण्डं शतान्तरम् ॥१५५॥ चतुःसप्ततिसंख्यानि शतानि कलया हरित् । एकविंशतिमागम्य निषधे ह्यपतच्छते ॥१५६॥ सीतोदापि गिरिं गत्वा तावदेव चतुःशती। उल्लङ घ्यापतदद्रेः सा योजनानां शतद्वये ॥१५॥ तावदेव समागत्य सीतासौ नीलपर्वते । तावत्येव समापत्य प्राग्विदेहान् बिभेद च ॥१५॥ दक्षिणामिः समा नद्यः षड्मिस्ताश्च षडुत्तराः । यथायोग्यं प्रपाताद्यः प्रतिपाद्याः प्रतिद्विकम् ॥१५९॥ गङ्गा चैव नदी रोह्या हरित् सीता च पूर्वगाः । नारी सुवर्णकला च सरक्ताः परगाः पराः ॥१६॥ श्रद्धावान् विजयावांश्च पद्मवांश्चापि गन्धवान् । मध्ये हैमवतादीनां विजयास्तुि वर्तुलाः ॥१६१॥ योजनानां सहस्रं स्यान्मूले विस्तृतिरुच्छितिः । तदधं मस्तके मध्ये पञ्चाशत् सप्तशत्यपि ॥१६२॥ योजनार्द्धन न प्राप्ता नद्यो नाभिगिरीनिमान् । गता प्रदक्षिणा सीतासीतोदे मन्दरं यथा ॥१६३॥
जिस तोरण द्वारसे लवण समुद्र में प्रवेश करती है वह तेरानबे योजन तीन कोश ऊँचा है तथा आधा योजन गहरा है ॥१५०।।
सिन्धु नदी सब प्रकारसे गंगा नदीके समान है केवल विशेषता यह है कि यह पश्चिम लवण समुद्रमें मिली है। गंगा-सिन्धुसे लेकर विदेह क्षेत्र तककी समस्त नदियोंकी जिहिका आदिका विस्तार दूना-दुना जानना चाहिए ॥१५१॥ समस्त नदियोंके तोरण गहराईकी अपेक्षा समान हैं तथा उन समस्त तोरणोंमें यथायोग्य दिक्कुमारी देवियाँ निवास करती हैं ॥१५२॥ रोहितास्या नदी दो सौ छिहत्तर योजन छह कला पर्वतपर बहती है। तदनन्तर पर्वतसे गिरकर श्री देवीके भवनकी ओर गयी है ॥१५३।। रोह्या नदी एक हजार छह सौ पांच योजन पाँच कला पर्वतपर बहकर उससे पचास योजन दूर गिरी है ॥१५४॥ इसी प्रकार हरिकान्ता नदी भी महाहिमवान् पर्वतपर एक हजार छह सौ पचास योजन पाँच कला उत्तर दिशाकी ओर बहकर सो योजन दूर कुण्डमें गिरी है और वहाँसे पश्चिम समुद्रको ओर गयी है ॥१५५।। हरित् नदी सात हजार चार सौ इक्कीस योजन एक कला निषध पर्वतपर बहकर सौ योजन दूरपर गिरी है ॥१५६॥ सीतोदा नदी भी इतनी ही दूर पवंतपर बहती है। तदनन्तर चार सौ योजन ऊँचे आकाशको उल्लंघ कर पर्वतसे दो सौ योजन दूर गिरती है ॥१५७।। सीता नदी भी इतनी ही दूर नील पर्वतपर बहती है और इतनी ही दूर आकाशमें उछलकर पूर्व विदेह क्षेत्रको भेदन करती है ।।१५८॥ उत्तर दिशाकी छह नदियां दक्षिण दिशाको छह नदियोंके समान हैं इसलिए उनके प्रपात आदिका वर्णन दो-दो नदियोंके युगल रूपमें यथायोग्य करना चाहिए ।।१५९॥ गंगा, रोह्या, हरित्, सीता, नारी, सुवर्णकला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व समुद्र की ओर जाती हैं और शेष सात नदियाँ पश्चिम समुद्र की ओर ॥१६०।। हैमवत आदि चार क्षेत्रोंके मध्यमें क्रमसे श्रद्धावान्, विजयावान्, पद्मवान् और गन्धवान् नामके चार गोलाकार विजया पर्वत हैं ॥१६१।। ये पर्वत मूलमें एक हजार योजन, मध्यमें सात सौ पचास योजन और मस्तकपर पांच सौ योजन चौड़े हैं तथा एक हजार योजन ऊँचे हैं ॥१६२॥ इन पर्वतोंका दूसरा नाम नाभि गिरि है जिस प्रकार सीता, सीतोदा नदी मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देती हुई गयी है इसी प्रकार रोह्या, रोहितास्या आदि नदियाँ भो आधा योजन १. तस्यान्तो भ. । २. शतयोजनानन्तरे ।
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पञ्चमः सर्गः
प्रासादेष शिरस्येषां स्वातिरप्यरुणः परः । पद्मश्चापि प्रभासश्च व्यन्तरा निवसन्ति ते ।।१६४॥ क्षेत्रपर्वतनद्याद्या येऽत्र द्वीपे प्रकीर्तिताः । द्विगुणा धातकोखण्डे पुष्कराद्धे च ते स्थिताः ॥१६५।। 'द्वीपानतीत्य संख्यातान् जम्बूद्वीपः परः स्थितः । सन्ति तत्र पुरोऽमीषामत्र ये गदिताः सुराः ॥१६६।। नीलमन्दरमध्यस्था उत्तराः कुरवो मताः। स्थितास्तु देवकुरवः सुमेरुनिषधान्तरे ॥१६॥ द्वाचत्वारिंशदष्टौ च शतानि व्यासतो मताः । एकादशसहस्राणि कुरवस्ते कलाद्वयम् ।।१६८॥ ज्या च तेषां त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि धनुः पुनः । षष्टिश्चतुःशती चाष्टौ दशांशा द्वादशाधिकाः ।।१६९।। त्रिचत्वारिंशतं सैकसहस्राणि च सप्ततिः । चतुरंशा नवांशाश्च कुरुवृत्तं प्रकीर्तितम् ।। १७०।। सहस्राणि त्रयस्त्रिंशत् षट्शती चतुरंशकाः । अशीतिश्चतुरग्राऽसौ विदेहक्षेत्रविस्तृतिः ॥१७१॥ मेरोः पूर्वोत्तराशायां सीतायाः पूर्वतः स्थितम् । समीपं नीलशैलस्य जम्बूस्थलमुदीरितम् ॥१७२॥ पञ्चचापशतव्यासा गव्यूतिद्वयमुद्धता ! स्थलस्योपरि पर्येति सर्वतो रत्नवेदिका ॥१७३॥ तस्य पञ्चशती व्यासो मध्ये बाहुल्यमष्ट तु । गव्यूतिद्वितयं चान्ते स्थलस्य परिकीर्तितम् ।।१७४॥ जम्बूनदमये तत्र पीठिकाष्टोच्छ्रया स्थिता । मूलमध्यानविस्तारैदशाष्टचतुर्मिता ।।१७५॥ अधोऽधोऽन्या षडेतस्याः परितो मणिवेदिकाः । प्रत्येकमुपरि द्वे द्वे तासांता पद्मवेदिकाः ॥१७॥ मूले गव्यूतिविस्तीर्णः स्कन्धोच्छ्रायद्वियोजनः । अवगाहद्विगव्यूतिः शाखाव्याप्ताष्टयोजनः ॥१७७॥
दूर रहकर इन पर्वतोंकी प्रदक्षिणा देती हुई गयो हैं ॥१६३।। इन पर्वतोंके शिखरोंपर निर्मित भवनोंमें क्रमसे स्वाति, अरुण, पद्म और प्रभास नामके व्यन्तर देव निवास करते हैं ॥१६४।।
जम्बू द्वीपमें जिन क्षेत्र, पर्वत तथा नदी आदिका वर्णन किया है, धातकीखण्ड तथा पुष्करार्धमें वे सब दूने-दूने हैं ॥१६५।। संख्यात द्वीप समुद्रोंको उल्लंघकर एक दुसरा जम्बू द्वीप भी है। इस जम्बू द्वीपमें जिन देवोंका कथन किया है उस दूसरे जम्बू द्वीपमें भी इन देवोंके नगर हैं ॥१६६।। नील कुलाचल और सुमेरु पर्वतके मध्य में जो प्रदेश स्थित हैं वे उत्तरकुरु माने जाते हैं
और सुमेरु तथा निषध कुलाचलके बीचके प्रदेश देवकुरु कहे जाते हैं ॥१६७॥ ये दोनों कुरु विस्तारकी अपेक्षा ग्यारह हजार आठ सौ योजन दो कला प्रमाण माने गये हैं ॥१६८।। इनको प्रत्यंचा वेपन हजार और धनुःपृष्ठ छह हजार चार सौ अठारह योजन बारह कला है ।।१६९।। इन कुरु प्रदेशोंका वृत्तक्षेत्र इकहत्तर हजार एक सौ तैंतालीस योजन तथा एक योजनके नौ अंशोंमें चार अंश प्रमाण है ।।१७०॥ ।
विदेह क्षेत्रका समस्त विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन चार कला है ॥१७१।। मेरु पर्वतकी पूर्वोत्तर ( ऐशान ) दिशामें, सीता नदीके पूर्व तटपर नील कुलाचलके समीप जम्बू स्थल कहा गया है ॥१७२।। पाँच सौ धनुष चौड़ी और दो कोश ऊँची रत्नमयी वेदिका इस स्थलको चारों ओरसे घेरे हुए है ॥१७३॥ इस स्थलकी चौड़ाई मूलमें पांच सौ कोश, मध्यमें आठ कोश और अन्तमें दो कोश कही गयी है ॥१७४॥ इस स्वर्णमय स्थल में आठ कोश ऊँची एक पीठिका स्थित है जो मूलमें बारह कोश, मध्यमें आठ कोश और अन्तमें चार कोश चौड़ी है ॥१७५॥ इस पीठिकाके नीचे-नीचे चारों ओर रत्ननिर्मित छह वेदिकाएँ और हैं तथा उन प्रत्येक वेदिकाओंपर दो-दो रत्नमयी वेदिकाएं हैं। उन छहों वेदिकाओंपर जो लघु वेदिकाएँ हैं वे पद्मवेदिका कहलाती हैं ॥१७६॥
इस पूर्वोक्त पीठिकाके ऊपर जम्बू वृक्ष सुशोभित है। वह जम्बू वृक्ष मूलमें एक कोश चौड़ा है, उसका स्कन्ध दो योजन ऊँचा है, उसको गहराई दो कोश है, उसकी शाखाएँ आठ योजन .
१. द्वोपानतोतसंख्यातान् म.। २. जम्बूद्वीपनामान्यो द्वीपः स्थितः ।
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हरिवंशपुराणे 'अश्मगर्भमहास्कन्धो वैज्रशाखोपशोमितः । राजद्राजतपनाढ्यो मणिपुष्पफलाङ्करः ॥१७॥ रक्तपल्लवसंतानरअितान्तदिगन्तरः । पीठिकायां पुरोक्तायां जम्बूवृक्षः प्रकाशते ॥१७९॥ पृथिवीपरिणामस्य नानाशाखोपशोमिनः । महादिक्ष चतस्रोऽस्य महाशाखा महातरोः ॥१८॥ तत्र चोत्तरशाखायां सिद्धायतनमद्भुतम् । आदरानादरावासाः प्रासादास्तिसृषु स्थिताः ॥१८॥ जम्बूवृक्षस्य तस्याधस्त्रिंशद्योजनविस्तृताः । पञ्चाशयोजनोच्छायाः प्रासादा देवयोस्तयोः ॥१८२॥ वेदिकान्तरदेशेषु चक्रवालेषु सप्तसु । प्रधानकगुमोपेताः परिवारोऽस्य पादपाः ।।१८३॥ चत्वारोऽनन्तरं तस्य ततश्चाष्टोत्तरं शतम् । चत्वारि च सहस्राणि सहस्राणि च षोडश ॥१८४॥ द्वात्रिंशच्च सहस्राणि चत्वारिंशत्तु तान्यतः । चत्वारिंशत् सहाष्टाभिः प्रधानैः सप्तभिर्युताः ॥१८५।। मिश्राः शतसहस्रं तु चत्वारिंशसहस्रकैः । संजायन्ते समस्तास्ते शतमेकोनविंशतिः ॥१८६॥ दक्षिणापरतो मेरोः सीतोदायास्तटे परे । निषधस्य समीपस्थं राजतं शाल्मलीस्थलम् ॥१८७॥ जम्बूस्थलेसमे तत्र शाल्मलीवृक्ष इष्यते । वक्तव्या तस्य निःशेषा जम्बूवृक्षस्व वर्णना ।।१८८॥ तत्र दक्षिणशाखायां सिद्धायतनमक्षयम् । प्रासादास्तु त्रिशाखासु तत्र देवाविमौ मतो ॥१८९॥ वेणुश्च वेणुदारी तावादरानादरौ यथा । उत्तरेषु कुरुविष्टौ तथा देवकुरुविमौ ॥१९०॥ नीलार्दक्षिणाशायां योजनैकसहस्रके । सीता पूर्वतटे चित्र विचित्रं कुटमप्यतः ॥१९॥ निषधस्योत्तराशायां सीतोदातटयोस्तथा । यमकूटं मतं पूर्व मेघकटमतः परम् ॥१९२॥
तक फैली हुई हैं, उसका महास्कन्ध नीलमणिका बना हुआ है, वह होराको शाखाओंसे शोभित है, चाँदीके सुन्दर पत्तोंसे युक्त है, उसके फूल-फल तथा अंकुर मणिमय हैं, और उसने अपने लाल-लाल पल्लवोंके समूहसे समस्त दिशाओंके अन्तरालको लाल-लाल कर दिया है ।।१७७-१७९॥ पृथिवीकाय रूप तथा नाना शाखाओंसे सुशोभित इस महावृक्षकी चारों दिशाओंमें चार महाशाखाएँ हैं ॥१८०। इनमें उत्तर दिशाको शाखापर आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला जिनमन्दिर है और शेष तीन दिशाओंकी शाखाओंपर भवन बने हुए हैं जिनमें आदर-अनादरका निवास है ।।१८१।। उस जम्बू वृनके नीचे उन दोनों देवोंके तीस योजन चौड़े और पचास योजन ऊँचे अनेक भवन बने हुए हैं ॥१८२॥ वेदिकाओंके सात अन्तरालोंमें एक-एक प्रधान वृक्षसे सहित जो अनेक वृक्ष हैं वे ही इस जम्बू वृक्षके परिवार-वृक्ष कहलाते हैं ॥१८३॥ प्रथम वृक्षके परिवारवृक्ष चार हैं, दूसरेके एक सौ आठ, तीसरेके चार हजार, चौथेके सोलह हजार, पाँचवेंके बत्तीस हजार, छठेके चालीस हजार और सातवेंके अड़तालीस हजार हैं। सात प्रधान वृक्षोंको साथ मिलानेपर इन समस्त वृक्षोंकी संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ उन्नीस होती है॥१८४-१८६।।
मेरु पर्वतकी दक्षिण-पश्चिम ( नैऋत्य ) दिशामें सीतोदा नदीके दूसरे तटपर निषधाचलके समीप रजतमय एक शाल्मली स्थल है ॥१८७॥ जम्बू स्थलकी समानता रखनेवाले इस शाल्मली स्थल में शाल्मली वृक्ष है । उसका सब वर्णन जम्बू वृक्षके वर्णनके समान जानना चाहिए ।।१८८॥ शाल्मली वृक्षकी दक्षिण शाखापर अविनाशी जिन-मन्दिर है और शेष तीन शाखाओंपर जो भवन बने हुए हैं उनमें वेणु और वेणुदारी देव निवास करते हैं। जिस प्रकार उत्तरकुरुमें आदर और अनादर देव इष्ट माने गये हैं उसी प्रकार देवकुरुमें वेणुदारी देव इष्ट माने गये हैं ॥१८९-१९०॥
नील पर्वतकी दक्षिण दिशामें सीता नदीके पूर्व तटपर एक हजार योजन विस्तारवाले चित्र और विचित्र नामके दो कूट हैं ।।१९१।। इसी प्रकार निषध पर्वतको उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके १.नीलमणिमयमहास्कन्धः । २. हीरकशाखोपशोभितः । ३. शोभमानरजतमयपत्रसहितः। ४. परिवारमा मताः ख. । ५. संजायते म.। ६. जम्बूस्थलसमस्तत्र म.।
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पञ्चमः सर्गः
नामिपर्वतमानानि तानि कूटानि तेषु तु । देवाः स्वकटनामानः क्रीडन्ति निजयेच्छया ॥१९३॥ अध्यढे हि सहस्रार्दै नीलतो नीलवान् हृदः । तथोत्तरकुरुर्नाम्ना चन्द्रश्चैरावणोऽपरः ॥१९॥ माल्यवांश्च नदीमध्ये सर्वे पञ्चशतान्तराः । ते दक्षिणोत्तरायामाः पद्महदसमा मताः ॥१९५॥ निषधादुत्तरो नया निषधो नामतो हृदः । नाम्ना देवकुरुः सूर्यः सुलसश्च तडिप्रभः ॥१९॥ रत्नचित्रतटाः सर्वे वज्रमूला महाहदाः । तेषु नागकुमाराः स्युः पद्मप्रासादवासिनः ॥१९७॥ जलाद् द्विकोशमुद्विद्धं योजनोच्छितिविस्तृतम् । पद्म प्रतिहदं क्रोशविस्तृतोच्छ्रितकर्णिकम् ॥१९॥ पद्माः शतसहस्रं हि चत्वारिंशस्सहस्रकैः । शतं सप्तदशाग्रं स्यात् प्रतिपद्म परिच्छदः ॥१९९॥ एकैकस्य हृदस्यात्र पर्वता दश समुखाः । मान्ति काञ्चनकूटाख्याः सीतासीतोदयोस्तटे ॥२०॥ उच्छायमूलविस्तारैः शतयोजनकाः समाः । पञ्चसप्ततिका मध्ये पञ्चाशदविस्तृतारकाः ॥२०१॥ तेषामुपरि प्रत्येकमेकैकाकृत्रिमाः शुभाः। प्रतिमाश्च निरालम्बाः मोक्षमार्गकदीपिकाः॥२.२॥ धनुःपञ्चशतीतुझा मणिकाञ्चनरस्नगाः । पञ्चमेरुषु विख्यातं सहस्रोत्तरकटकम् ॥२०३॥ आक्रोपनगृहेष्वेषां शिखरेषु महास्विषः । देवाः काश्चनकामिख्याः संक्रीडन्ते समन्ततः ॥२०४॥ सीतोत्तरतटे कूटं पनोत्तरमनुत्तरे । तटे तु नीलवत्कटं पूर्वतो मेरुपर्वतात् ॥२०५॥ शीतोदापूर्वतीरे तु कुटं स्वस्तिकमस्ति तत् । तदअनगिरिप्रख्यं पश्चात्ते मेर्वनुत्तरे ।।२०।। तटे तु दक्षिणे तस्याः कुमुदं कुरमुत्तरे । पलाशमपराशायां ते तु मन्दरतो मते ॥२०७॥
दोनों तटोंपर यम कूट और मेघ कूट नामके दो कूट हैं ॥१९२॥ ये कूट नाभि पर्वतोंके समान विस्तारवाले हैं तथा इन कूटोंपर कूटोंके ही समान नामवाले देव अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं ।।१९३॥ नील पवंतसे साढ़े पांच सौ योजन दूरीपर नदीके मध्यमें नीलवान्, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावण और माल्यवान् नामके पांच ह्रद हैं। ये समस्त ह्रद पांच-पांच सौ योजनके अन्तरसे हैं तथा इनको दक्षिणोत्तर लम्बाई पद्म ह्रदके समान मानी गयी है ॥१९४-१९५॥ इसी प्रकार निषध पर्वतसे उत्तरको ओर नदीके बीच निषध. देवकर, सयं, सलस और तडित्प्रभ नामके पाँच महाह्रद हैं। इन सबके तट रत्नोंसे चित्र-विचित्र हैं तथा सबके मूल भाग वज्रमय हैं। इन महाह्रदोंमें कमलोंपर जो भवन बने हैं उनमें नागकुमार देव निवास करते हैं ॥१९६-१९७॥ प्रत्येक महाह्रदमें एक-एक प्रधान कमल है जो जलसे दो कोश ऊंचा है, एक योजन विस्तृत है और एक कोश विस्तृत कणिकासे युक्त है ।।१९८।। प्रत्येक प्रधान कमलके साथ परिवार रूपमें एक लाख चालीस हजार एक सौ सत्रह कमल और भी हैं ॥१९९॥ तथा एक-एक महाह्रदके सम्मुख सीता, सीतोदा नदियोंके तटपर कांचनकूट नामके दश-दश पर्वत हैं ॥२००॥ इन पर्वतोंकी ऊंचाई सौ योजन है तथा विस्तार मूलमें सौ योजन, मध्यमें पचहत्तर योजन और अग्रभागमें पचास योजन है ।।२०१॥ उन कांचनकूटोंमें प्रत्येकके ऊपर एक-एक अकृत्रिम शुभ जिन-प्रतिमाएं हैं जो निराधार हैं, मोक्ष मार्गको प्रकाशित करनेवाली हैं, पाँच सौ धनुष ऊंची हैं, मणिमयी, सुवर्णमयी तथा रत्नमयी हैं। एक-एक मेरुपर दो-दो सौ कूट हैं और पांचों मेरुओंके एक हजार कूट प्रसिद्ध हैं ॥२०२-२०३॥ इन पर्वतोंके शिखरोंपर अनेक क्रीड़ागृह बने हुए हैं उनमें महाकान्तिके धारक कांचनक नामके देव सब ओर क्रीड़ा करते रहते हैं ।।२०४॥ मेरु पर्वतसे पूर्वकी ओर सीता नदीके उत्तर तटपर पद्मोत्तर और दक्षिण तटपर नीलवान् नामका कूट है ।।२०५॥ मेरु पर्वतसे दक्षिणकी । ओर सीतोदा नदीके पूर्व तटपर स्वस्तिक और पश्चिम तटपर अंजनगिरि कूट है ॥२०६|| इसी सीतोदा नदीके दक्षिण तटपर कुमुद कूट और उत्तर तटपर पलाश कूट है। ये दोनों ही कूट
१. नामानि म. । २. मिताः म.।
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हरिवंशपुराणे
पश्चात्तटेऽस्ति सीताया वतंसं कूटमुत्कटम् । रोचनाख्यं पुरस्तात्तु मेरोरुत्तरतश्च ते ॥२०८॥ मद्रशालवने मान्ति समान्येतानि काञ्चनैः । वसन्ति तेषु देवास्ते दिग्गजेन्द्रा इति श्रुताः || २०९ || अपरोत्तरदिग्भागे मन्दराद् गन्धमादनः । ख्यातः काञ्चनकायोऽसौ सर्वतः पर्वतः स्थितः || २१०|| मेरोः पूर्वोत्तराशायां माल्यवानिति विश्रुतः । बैडूर्यमयमूर्तिः स्यात् प्रियं माति स्वयंप्रमः ॥२११॥ मेरोः प्राग्दक्षिणाशायां सौमनस्यस्तु राजतः । विद्युत्प्रभोऽपरे कोणे तपनीयमयः स्थितः ॥ २१२ ॥ ते नीलनिषधप्राप्तौ चतुःशत निजोच्छ्रयाः । मेरुपर्वतसंप्राप्तौ प्रोक्ताः पञ्चशतोच्छ्रयाः ॥२१३॥ निजोच्छ्रितचतुर्भार्गेस्वोभयान्तावगाहनाः । देवोत्तरकुरुप्राप्तौ स्युः पञ्चशतविस्तृताः ॥ २१४॥ सहस्राणि पुनस्त्रिंशन्नवाधिकशतद्वयम् । आयामः षट् कलाश्चैषां चतुर्णामपि वर्णितः ॥ २१५ ॥ मेरोः प्रभृति कूटानि चतुर्ष्वपि यथाक्रमम् । सन्ति सप्त नवैतेषु पुनः सप्तनवाद्विषु ।। २१६ ।। सिद्धायतनकूटं स्याद् गन्धमादननामकम् । तथोत्तरकुरुप्रख्यं गन्धमालिनिकाह्वयम् || २१७|| कूटं च लोहिताक्षं च स्फुटिकानन्दनामनी । गन्धमादनशैलेषु सप्तैतानि भवन्ति तु ॥२१८॥ सिद्धाख्यं माल्यवत्कूटं तथोत्तरकुरूक्तिकम् । कच्छाकूटं विनिर्दिष्टं तथा सागरकं परम् ॥२१९॥ रजतं पूर्णमद्राख्यं सीताकूटं ततः परम् । कूटं हरिसहाभिख्यं नवमं माल्यवत्स्वपि ॥ २२०॥ सिद्धं सौमनसाभिख्यं कूटं देवकुरुध्वनि । मङ्गलं विमलं चैव काञ्चनाख्यं विशिष्टकम् ||२२१|| सिद्धं विद्युत्प्रभाभिख्यं पुनर्देव कुरुश्रुति । पद्मकं तपनं चैव स्वस्तिकं च शतज्वलम् ॥२२२॥ सीतोदकूटमन्यत्तु कूटं हरिसहश्रुति । विद्युत्प्रभेन्वशेषेषु नवैतानि भवन्ति तु ॥२२३॥
मेरुसे पश्चिम दिशा में माने गये हैं || २०७|| सीता नदीके पश्चिम तटपर वतंस कूट और पूर्व तटपर रोचन नामका विशाल कूट है । ये दोनों कूट मेरु पर्वतसे उत्तरको ओर हैं । ये समस्त कूट भद्रशाल वनमें सुशोभित हैं, कांचन कूटोंके समान हैं तथा इनमें दिग्गजेन्द्र नामके देव निवास करते हैं ||२०८-२०९|| मेरु पर्वतको पश्चिमोत्तर दिशा में गन्धमादन नामका प्रसिद्ध पर्वत है । यह पर्वत सब ओरसे सुवर्णमय है || २१०|| मेरुकी पूर्वोत्तर दिशामें माल्यवान् नामका प्रसिद्ध पर्वत है । यह पर्वत वैडूर्यमणिमय है तथा स्वयं देदीप्यमान होता हुआ अतिशय प्रिय मालूम होता है ॥२११॥ मेरुकी पूर्व-दक्षिण दिशा में रजतमय सौमनस्य पर्वत और दक्षिण-पश्चिम कोण में सुवर्णमय विद्युत्प्रभ नामका पर्वत है || २१२ || ये चारों पर्वत नील और निषध पर्वतके समीप चार सौ योजन तथा मेरु पर्वतके समीप पांच सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं ।। २१३ || इनकी गहराई अपनी ॐ चाईसे चतुथं भाग है, तथा देवकुरु और उत्तरकुरु के समीप इनकी चौड़ाई पाँच सौ योजन है || २१४ ॥ इन चारोंकी लम्बाई तीस 'हजार दो सौ नौ योजन तथा छह कला प्रमाणं कही गयी है || २१५ ॥ इन चारों पर्वतोंपर मेरु पर्वत से लेकर अन्त तक क्रमसे सात, नौ, सात और नौ कूट हैं अर्थात् गन्धमादनपर सात, माल्यवान्पर नौ, सौमनस्यपर सात और विद्युत्प्रभपर नौ कूट हैं ॥ २१६ || १ सिद्धायतन कूट, २ गन्धमादन कूट, ३ उत्तरकुरु कूट, ४ गन्धमालिनिका कूट, ५ लोहिताक्ष कूट, ६ स्फटिक कूट और ७ आनन्द कूट ये सात कूट गन्धमादन पर्वतार हैं ॥ २१७ - २१८ । १ सिद्ध कूट, २ माल्यवत्कूट, ३ उत्तरकुरु कूट, ४ कच्छा कूट, ५ सागर कूट, ६ रजत कूट, ७ पूर्णभद्र कूट, ८ सीता कूट और ९ हरिसह कूट ये नौ कूट माल्यवान् पर्वतपर हैं ।। २१९ - २२०।। १ सिद्ध कूट, २ सौमनस कूट, ३. देवकुरु कूट, ४ मंगल कूट, ५ विमल कूट, ६ कांचन कूट ओर ७ विशिष्टक कूट ये सात कूट सौमनस्य पर्वत पर हैं ||२२१ ॥ १ सिद्ध कूट, २ विद्युत्प्रभ कूट, ३ देवकुरु कूट, ४ पद्मक कूट, ५ तपन कूट, ६ स्वस्तिक कूट, ७ शतज्वल कूट, ८ सोतोदा कूट और ९ हरिसह कूट ये तो कूट विद्युत्प्रभ पर्वत
१. स प्रियं म. । २. -र्भागाः म । ३. नवादिषु म. ।
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पञ्चमः सर्गः
उच्छ्रायोऽपि हि सर्वेषां कूटानां च यथायथम्। आत्माधारावगाहस्य समानस्तु प्रभाषितः॥२२४ सिद्धायतनकूटेषु तेषु सर्वेषु ये गृहाः । सिद्धबिम्बसनाथास्ते विभ्राजन्ते यथायथम् ॥२२५॥ शेषोभयान्तकूटेषु रमन्ते व्यन्तरामराः । मध्ये च दिक्कुमार्यस्तु क्रीडागारेषु चारुषु ।।२२६॥ . मोगरा भोगवती सुभोगा मोगमालिनी । वत्समित्रा सुमित्राऽन्या वारिषेणा चलावती ॥२२॥ विदेहे चित्रकूटाख्यः पद्मकूटश्च पर्वतः । नलिनश्चैकशैलश्च नीलसीतान्तरायताः ॥२२८॥ पूर्वाधास्तु टश्च शैलो चैश्रवणोऽञ्जनः । आत्माजनश्च सर्वेऽपि ते सीतानिषधस्पृशः ॥२२९॥ श्रद्धावान् सुप्रसिद्धोऽद्रिर्विजयावांस्तथैव च । आशीविषस्तदन्यस्तु सुखावह इतीरितः ॥२३०॥ विदेहेष्वपरेष्वेते चरवारो देशभेदकाः । स्वायामेन प्रसिद्धेन सीतोदानिषधस्पृशः ॥२३॥ चन्द्रसूर्यौ च मालास्तौ नागमालस्तथाचलः । मेघमालश्च ते मध्ये नीलसीतोदयोः स्थिताः ॥२३॥ सरित्तटेषु चोच्छायस्तेषां वक्षारभूभृताम् । शतानि पञ्चशेषं तु पूर्ववक्षारवर्णितम् ॥२३३॥ प्रत्येकं षोडशस्वेषु मूर्ध्नि कूटचतुष्टयम् । कुलाचलान्तकूटेषु दिक्कुमार्यो वसन्ति ताः ॥२३॥ नदीसमीपकूटेषु जिनेन्द्रायतनानि तु । तथा मध्यमकूटेषु व्यन्तराक्रीडनालयाः ॥२३५॥ भद्रशालवन मेरोः पूर्वापरदिगायतम् । नानादुमलताकीर्ण वर्णनीयं यथाक्रमम् ॥२३६॥ आयामो मागयोस्तस्य द्वाविंशतिसहस्रकः । प्रत्येक द्विशती सार्दा दक्षिणोत्तरविस्तृतिः ॥२३७॥
पर हैं ॥२२२-२२३॥ इन सब कूटोंकी ऊँचाई यथायोग्य अपनी-अपनी गहराईके समान कही गयी है ।।२२४॥ इन चारों पर्वतोंके सिद्धायतन कूटोंपर जो मन्दिर हैं वे श्री सिद्ध भगवान्की प्रतिमाओंसे सहित हैं तथा यथायोग्य सुशोभित हो रहे हैं ॥२२५।। शेष तीन पर्वतोंके अन्तिम दो कूटोंमें व्यन्तर देव क्रीड़ा करते हैं और मध्यमें बने हुए सुन्दर क्रीड़ा-भवनोंमें दिक्कुमारी देवियाँ रमण करती हैं ॥२२६।। चारों पर्वतोंके बीच-बीचके दो-दो कूट मिलकर आठ कूट होते हैं उनमें क्रमसे १ भोगंकरा, २ भोगवतो, ३ सुभोगा, ४ भोगमालिनी, ५ वत्समित्रा, ६ सुमित्रा, ७ वारिषेणा और ८ अचलावती ये आठ देवियां कोड़ा करती हैं ।।२२७॥
विदेह क्षेत्रमें सोलह वक्षार गिरि हैं, उनमें १ चित्रकूट, २ पद्धकूट, ३ नलिन और ४ एकशेल ये चार पर्वत पूर्व विदेहमें हैं तथा नील पवंत और सीता नदीके मध्य लम्बे हैं ॥२२८॥ १ त्रिकूट, २ वैश्रवण, ३ अंजन और ४ आत्मांजन ये चार भी पूर्व विदेहमें हैं तथा सीता नदी और निषध
शिं करनेवाले हैं अर्थात् उनके मध्य लम्बे हैं ॥२२९॥ १ श्रद्धावान, २ विजयावान्, ३ आशीविष और ४ सुखावह ये चार पश्चिम विदेह क्षेत्रमें हैं। ये चारों देशोंका भेद करनेवाले हैं और अपनी प्रसिद्ध लम्बाईसे सीतोदा नदी तथा निषध पर्वतका स्पर्श करनेवाले हैं ॥२३०-२३१॥१ चन्द्रमाल, २ सूर्यमाल, ३ नागमाल और ४ मेघमाल ये चार पश्चिम विदेहक्षेत्रमें हैं तथा नील और सोतोदाके मध्यमें स्थित हैं ॥२३२॥ इन समस्त वक्षार पर्वतोंकी ऊंचाई नदी तटपर पांच सौ योजनकी और अन्यत्र सब जगह पूर्व वणित वक्षारोंके समान चार सौ योजन है ॥२३३॥ इन सोलह वक्षार पर्वतोंमें प्रत्येकके शिखरपर चार-चार कूट हैं उनमें कुलाचलोंके समीपवर्ती कूटोफर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं । नदीके समीपवर्ती कूटोंपर जिनेन्द्र भगवान्के चैत्यालय हैं और बीच के कूटोंपर व्यन्तर देवोंके क्रोडागृह बने हुए हैं ॥२३४-२३५।।
मेरुकी पूर्व-पश्चिम दिशामें लम्बा तथा नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त एक सुन्दर भद्रशाल वन है। यहाँ क्रमसे उसका वर्णन किया जाता है ॥२३६॥ उसकी पूर्व-पश्चिम भागको लम्बाई बाईस हजार योजन और दक्षिण-उत्तर चौड़ाई ढाई सो योजन है ।।२३७॥ वनके
१. सुवत्सान्या म. । २. बलाचिता म. । ३. व्यन्तराः क्रीडनालयाः म., क. ।
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हरिवंशपुराणे वनात् पूर्वापरान्तस्था वेदिका योजनोच्छितिः । क्रोशावगाहिनी ज्ञेया विस्तृता क्रोशयोयम् ॥२३८॥ नीलाद् प्राहवती सीतां वाहिनी हृदवस्यपि । पङ्कवत्यपि यान्तीमा वक्षाराभ्यन्तरे स्थिताः ॥२३९॥ नदी तप्तजला पूर्वा सीतामेवैति नैषधी । ततो मत्तजला नाम्ना तथोन्मत्तजलाऽपरा ॥२४॥ क्षीरोदान्या च सीतोदा स्रोतोऽन्तर्वाहिनी नदी। विशन्ति नैषधोपनाः सीतोदा सुमहानदीम् ॥२४१॥ तामुत्तरविदेहेषु पश्चिमा गन्धमादिनी । सा फेनमालिनी नीलात् संप्राप्ता चोमिमालिनी ॥२४२॥ नाम्ना विमङ्गनद्यस्ताः प्रमाणे रोह्यया समाः। तोरणेषु वसन्त्यासां संगमे दिक्कुमारिकाः ॥२४३॥ वक्षाराणां च तासां च मध्ये नयोस्तटद्वये । स्युः पूर्वापरयोमरोर्विदेहाश्चतुरष्टकाः ॥२४॥ कच्छा सुकच्छा महाकच्छा चतुर्थी कच्छकावती । भावर्त्ता लागलावर्ता पुष्कला पुष्कलावती ॥२४५॥ अपराधास्वमी वेद्याः षट्खण्डा विषयाः स्थिताः । सीतानीलान्तराले स्युःप्रादक्षिण्येन वर्णिताः ॥२४६॥ वत्सा सुवस्सा महावस्सा चतुर्थी वस्सकावती । रम्या रम्यका रमणीयाष्टमी मङ्गलावती ॥२४७॥ पूर्वादयस्त्वमी वेद्या विषयाश्चक्रवर्तिनाम् । सीतानिषधयोर्मध्ये व्यायता दक्षिणोत्तराः ॥२४८॥ पद्मा सुपद्मा महापद्मा चतुर्थी पद्मकावती । शङ्खा च नकिनी चैव कुमुदा सरिता तथा ॥२४९॥ पूर्वतः प्रभृति प्रोक्ताः दक्षिणोत्तरमायताः । अष्टाविमे निविष्टास्तु सीतोदानिषधान्तरे ॥२५०॥ वप्रा सुवप्रा महावप्रा चतुर्थी वप्रकावती । गन्धा चापि सुगन्धा च गन्धिला गन्धमालिनी ॥२५१॥ अपराद्यास्त्विमे प्रोक्ताः विषयाश्चक्रपाणिनाम्। नोलसोतोदयोर्मध्ये निविष्टास्तावदायताः ॥२५२॥
पूर्व-पश्चिम भागमें एक वेदिका है । यह वेदिका एक योजन ऊँचो, एक कोश गहरी और दो कोश चौड़ी जानना चाहिए ॥२३८॥ १ ग्राहवती. २ हदवती और ३ पंकवती ये तीन नदियां नील पर्वतसे निकलकर सीता नदीकी ओर जाती हैं तथा वक्षार पर्वतोंके मध्यमें स्थित हैं ॥२३९।। १ तप्तजला, २ मत्तजला, ३ उन्मत्तजला ये तोन नदियाँ निषध पर्वतसे निकलकर सोता नदोको ओर जाती हैं ॥२४०॥ १ क्षीरोदा, २ सीतोदा और ३ स्रोतोऽन्तर्वाहिनी ये तीन नदियां निषध पर्वतसे निकलकर सीतोदा नामक महानदीमें प्रवेश करती हैं ॥२४१॥ उत्तर विदेह क्षेत्रमें १ गन्धमादिनी, २ फेनमालिनी और ऊमिमालिनी ये तीन नदियां नीलाचलसे निकलकर सीतोदा नदीमें मिली हैं ॥२४२॥ ऊपर कही हुईं बारह नदियां विभंगा नदी कहलाती हैं । ये प्रमाणमें रोह्या नदीके समान हैं तथा इनके संगम स्थानोंमें जो तोरण द्वार हैं उनमें दिक्कुमारी देवियां निवास करती हैं ॥२४३।।
वक्षारगिरि और विभंगा नदियोंके मध्यमें सीता-सोतोदा नदियोंके दोनों तटोंपर मेरुकी पूर्व और पश्चिम दिशामें बत्तीस विदेह हैं ।।२४४। उनमें १ कक्षा, २ सुकच्छा, ३ महाकच्छा, ४ कच्छकावती, ५ आवर्ता, ६ लांगलावर्ता, ७ पुष्कला और ८ पुष्कलावती ये आठ देश पश्चिम विदेह क्षेत्रमें सीता नदी और नोल कुलाचलके मध्य प्रदक्षिणा रूपसे स्थित हैं तथा प्रत्येक देशके छह खण्ड हैं ॥२४५-२४६॥ १ वत्सा, २ सुवत्सा, ३ महावत्सा, ४ वत्सकावती, ५ रम्या, ६ रम्यका, ७ रमणीया और ८ मंगलावती ये आठ देश पूर्व विदेह क्षेत्रमें सीता नदी और निषध पर्वतके मध्य स्थित हैं। ये चक्रवर्तियोंके देश हैं और दक्षिणोत्तर लम्बे हैं ॥२४७-२४८॥ १ पद्मा, २ सुपद्मा, ३ महापद्मा, ४ पद्मकावतो, ५ शंखा, ६ नलिनी, ७ कुमुदा और ८ सरिता ये आठ देश पूर्व विदेह क्षेत्रमें सीतोदा नदी और निषध पर्वतके मध्य स्थित हैं तथा दक्षिणोत्तर लम्बे हैं ॥२४९-२५०॥ १ वप्रा.२ सवप्रा.३ महावा. ४ वप्रकावतो.५ गन्धा, ६ सगन्धा.७ गन्धिका और ८ गन्धमालिनी ये आठ देश पश्चिम विदेह क्षेत्रमें नील पर्वत और सीतोदा नदीके मध्य स्थित हैं तथा दक्षिणोत्तर लम्बे हैं । ये चक्रवतियोंके क्षेत्र कहे गये हैं अर्थात् इनमें चक्रवतियोंका निवास रहता
१. चक्रपाणिनामिति प्रयोगश्चिन्त्यः 'चक्रपाणीना' मिति भवितव्यम्, तत्र च कृते छन्दोभङ्गः स्यात् ।
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पञ्चमः सर्गः
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सहस्रद्वितयं तेषां द्विशती च त्रयोदश । योजनाष्टमभागोना सा पूर्वापरविस्तृतिः ॥२५॥ नदीविस्तारहीनस्य विदेहस्यार्धविस्तृतिः । आयामो देशवक्षारविमङ्गसरितामसौ ॥२५॥ तद्देशविस्तरायामास्तन्मध्ये रजतादयः । द्वात्रिंशद्धारतेनामी समाना नवकूटकाः ॥२५५।। श्रेण्योः स्युनंगराण्येषां पञ्चपञ्चाशदेकशः । विद्याधराः वसन्त्येष परे द्वीपतये यथा ॥२५६॥ क्षेमा क्षेमपुरी ख्याता रिष्टा रिटपुरी परा । खड्गा मञ्जूषया सार्द्धमौषधी पुण्डरीकिणी ॥२५७॥ कच्छादिषु यथासंख्यमष्टास्वष्टाविमाः पुरः । राजधान्यः समादिष्टाः शलाकापुरुषोद्भवाः ॥२५८॥ सुसीमा कुण्डलामिख्या पुरी चान्या पराजिता । प्रमङ्करा चतुर्थी तु 'पञ्चम्यङ्कावतीरिता ॥२५९।। पद्मावती शुभाभिख्या साष्टमी रस्नसंचया। राजधान्यस्त्विमा मान्या वरसादिष यथाक्रमम् ॥२६॥ तथैवाश्वपुरो ज्ञेया परा सिंहपुरीति च । महापुरी तथैवान्या विजया च पुरी पुनः ॥२६॥ अरजा विरजा वासावशोका व तशोकया । राजधान्यः प्रसिद्धास्ताः पद्मादिषु यथाक्रमम् ॥२६२॥ विजया वैजयन्तो च जयन्तो चाऽपराजिता । चक्रा खड्गा च वप्रादिष्वयोध्यावध्यया समम् ॥२६३॥ दक्षिणोत्तरतो दैात् पुर्यों द्वादशयोजनाः। नवयोजन विस्तारा हेमप्राकारतोरणाः ॥२६॥ अल्पैः पञ्चशतैरैर्वृहद्भिस्ताः सहस्रकैः । रत्नचित्रकपाटाव्यर्दभ्रः सप्तशतैर्युताः ॥२६५॥
द्वादश स्युः सहस्राणि रथ्यानां तु यथायथम् । सहस्रं तु चतुष्काणां नगरीष्वक्षयारमसु ॥२६६॥ है ॥२५१-२५२।। इन सबका पूर्वापर विस्तार योजनके आठ भागोंमें से एक भाग कम दो हजार दो सौ तेरह योजन है ॥२५३॥ समस्त विदेह क्षेत्रके विस्तारमें-से नदीका विस्तार घटा देनेपर जो शेष रहे उसका आधा भाग किया जाये। यही देश, वक्षारगिरि और विभंगा नदियोंको लम्बाई है। भावार्थ-समस्त विदेह क्षेत्रका विस्तार तैंतीस हजार छह सौ चौरासी योजन चार कला है. उसमें सोता नदीका पाँच सौ योजनका विस्तार घटा देनेपर तैंतीस हजार एक सौ चौरासी योजन चार कलाका विस्तार शेष रहता है। इसका आधा करनेपर सोलह हजार पांच सौ बानबे योजन दो कला क्षेत्र बचता है। यही कच्छा आदि देश वक्षार गिरि ओर विभंगा नदियोंकी लम्बाईका है ॥२५४॥ इन बत्तीस विदेहोंमें बत्तीस विजयाध पर्वत हैं। इनकी लम्बाई कच्छादि देशोंकी चौड़ाईके समान है अर्थात् ये कूलाचलसे लेकर नदी तक लम्बे हैं। प्रत्येक विजयाधंपर नौ-नौ कट हैं और इन सबका वर्णन भरत क्षेत्रके विजयाधंके समान है ।।२५५।। इन विजयाओंकी दो-दो श्रेणियाँ हैं, प्रत्येक श्रेणीमें पचपन-पचपन नगर हैं और उन नगरोंमें भरत तथा ऐरावत क्षेत्रके समान विद्याधर निवास करते हैं ।।२५६।। १ क्षेमा, २ क्षेमपुरी, ३ रिष्टा, ४ रिष्टपुरी, ५ खड्गा, ६ मंजूषा, ७ औषधी और ८ पुण्डरीकिणी ये आठ नगरियाँ क्रमसे कच्छा आदि देशोंकी राजधानियाँ कही गयी हैं। इनमें शलाका पुरुषोंको उत्पत्ति होती है ॥२५७-२५८|| १ सुसीमा, २ कुण्डला, ३ अपराजिता, ४ प्रभंकरा, ५ अंकावती, ६ पद्मावती, ७ शुभा और ८ रत्नसंचया ये आठ क्रमसे वत्सा आदि देशोंकी राजधानियां जानना चाहिए ॥२५९-२६०।। १ अश्वपुरो, २ सिंहपुरी, ३ महापुरी, ४ विजयापुरी, ५ अरजा, ६ विरजा, ७ अशोका और ८ वीतशोका ये आठ नगरियां क्रमसे पद्मा आदि देशोंकी राजधानियां प्रसिद्ध हैं ।।२६१-२६२।। १ विजया, २ वैजयन्ती, ३ जयन्ती, ४ अपराजिता, ५ चक्रा, ६ खड्गा, ७ अयोध्या और ८ अवध्या ये आठ वप्रा आदि देशोंको राजधानियाँ हैं। ये सभी नगरियाँ दक्षिणोत्तर दिशामें बारह योजन लम्बी हैं, पूर्व-पश्चिममें नौ योजन चौड़ी हैं, सुवर्णमयो कोट और तोरणोंसे युक्त हैं। रत्तमयी चित्र-विचित्र किवाड़ोंसे युक्त पांच सौ छोटे और एक हजार बड़े दरवाजों तथा सात सौ झरोखोंसे सहित हैं ॥२६३-२५॥ इन अविनाशी नगरियोंमें बारह हजार गलियां और एक हजार चौक हैं ॥२६६।। १. पञ्चम्यङ्कवती म.। २. वक्रा म.। ३. गवाक्षः ।
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हरिवंशपुराणे गङ्गासिन्धू प्रतिक्षेत्रं कच्छादौ नीलतः सुते । सीतां प्रविशतोऽतीत्य विजयार्द्धगुहाद्वयम् ।।२६७॥ गिरिव्याससमायामे योजनाष्टकमुच्छिते । गुहे द्वादशविस्तारे द्वे द्वे स्यातां गिरौ गिरौ ॥२६॥ नद्यः षोडश गङ्गायाः समा भरतगङ्गया। ता रक्तारक्तवत्योस्तु तावन्त्यो निषधसूताः ॥२६९॥ निषधधान्नीलतस्तावत्संख्यास्तनामिकाः श्रुताः । नद्योऽपरविदेहेषु सीतोदां तु वजन्ति ताः ॥२७॥ नाम्ना साधारणेनोक्तास्ता एता रतिनिम्नगाः । चतुर्दशसहस्रेस्तु प्रत्येकं सरितां युताः ॥२७॥ अशीतिश्चापि चत्वारि सहस्राणि कुरुद्वये । प्रत्येक निम्नगा नद्यारधमर्धतटहये ।।२७२।। पञ्चलक्षाः सहस्राणि द्वात्रिंशस्त्रिंशदष्टभिः । प्रत्येकमुभयो द्यः सीतासीतोदयोयुताः ॥२७३॥ दशलक्षाः चतुःषष्टिसहस्राण्यष्टसप्ततिः । सर्वा एवापगाः प्रोका पूर्वापरविदेहयोः ।।२७४।। चतुर्दशसहस्राणि प्रत्येकं सरितो मताः । गङ्गासिन्ध्वोः पतन्त्यस्ताः रक्तारकोदयोश्च ताः ॥२३५॥ रोह्यायां रोहितास्यायां सहस्राणि पतन्ति ताः । सुवर्णरूप्यकलयोरष्टाविंशतिरेकशः ।।२७६।। षटपञ्चाशस्सहस्राणि ता हरिद्धरिकान्तयोः । पतन्ति सिन्धवो यद्वत् सनारीनरकान्तयोः ॥२७॥ संगताश्च समस्तास्ता गङ्गासिन्ध्वादिसिन्धवः । तिस्रो लक्षा नवत्या द्वे सहत्रे द्वादशापि च ॥२७८।। स्युश्चतुर्दशलक्षास्तु वैदेह्यस्ताश्च संख्यया । षट्पञ्चाशत्सहस्राणि नवतिश्च समुद्रगाः ॥२७९॥ द्वीपेऽस्मिन् काञ्चनैस्तुल्या वैडूर्यमयमूर्तयः । चतुस्त्रिंशत्सुरैः सेव्या वृपैर्वृषभपर्वताः ।।२८०॥ पूर्वापरविदेहान्ताः समुद्र तटसंगताः । देवारण्यवनामोगाश्चत्वारः सरितोस्तटे ॥२८॥
कच्छा आदि प्रत्येक क्षेत्रमें गंगा-सिन्धु नामकी दो नदियाँ हैं जो नील पवंतसे निकलकर विजयाध पर्वतको दोनों गुफाओंको उल्लंघन करतो हुई सीता नदीमें प्रवेश करती हैं ।।२६७।। प्रत्येक विजयाधं पर्वतमें उसकी चौड़ाईके समान लम्बी, आठ योजन ऊँची और बारह योजन चौड़ी दो-दो गुफाएँ हैं ॥२६८|| ये गंगा आदि सोलह नदियाँ, भरत क्षेत्रकी गंगा नदोके समान हैं। इसी प्रकार निषधाचलसे निकली हुई सोलह रक्ता, रक्तोदा नदियाँ भी ऐरावतकी रक्ता-रक्तोदाके समान हैं ॥२६९।। पश्चिम विदेह क्षेत्रमें भी इसी प्रकार गंगा, सिन्धु और रक्ता-रक्तोदा नामको सोलहसोलह नदियां निषधाचल और नीलाचलसे निकलकर सोतोदा नदीकी ओर जाती हैं ।।२७०|| समान नामसे जिनका कथन किया गया है ऐसी ये समस्त नदियाँ अत्यन्त प्रीतिको बढ़ाने वाली हैं तथा प्रत्येक नदियाँ चौदह हजार नदियोंसे युक्त हैं ।।२७१।। सीता और सीतोदा नदियोंका परिवार देवकुरु और उत्तरकुरुमें चोरासी हजार नदियोंका है। दोनों नदियों में प्रत्येक नदोके तटसे व्यालोस हजार नदियोंका प्रवेश होता है ।।२७२।। सीता, सीतोदा नामक उक्त नदियों में से प्रत्येक नदीमें पाँच लाख बत्तीस हजार अड़तीस नदियाँ मिली हैं ।।२७३।। पूर्व और पश्चिम विदेहमें इन समस्त नदियोंका प्रमाण दश लाख चौंसठ हजार अठहत्तर कहा गया है ।।२७४।। गंगा, सिन्धु एवं रक्तारक्तोदा नदियोंमें प्रत्येकका परिवार चौदह-चौदह हजार नदियोंका है ।।२७५।। रोह्या, रोहितास्या और सुवर्णकूला, रूप्यकूलामें प्रत्येकका अट्ठाईम-अट्ठाईस हजार नदियोंका परिवार है ।।२७६।। हरित्, हरिकान्ता और नारो, नरकान्तामें प्रत्येक नदीका परिवार छप्पन हजार नदियोंका है ।।२७७॥ विदेह क्षेत्रको छोड़ अन्य क्षेत्रोंको गंगा, सिन्धु आदि नदियोंको समस्त परिवार-नदियाँ मिलकर तीन लाख बानबे हजार बारह हैं ॥२१८|| विदेह क्षेत्रको समुद्र तक जानेवाली समस्त नदियोंको संख्या चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे है ॥२७९।।
____ जम्बू द्वीपमें कांचन कूटोंके समान वैडूर्य मणिमय तथा श्रेष्ठ देवोंके द्वारा सेवनोय चौंतीस वृषभाचल हैं ।।२८०॥ सीता और सोतोदा दोनों नदियोंके तटपर पूर्व-पश्चिम विहार्यन्त लम्बे
१. निर्गते । श्रुते म. । २. एवाराति-म., क. । ३. प्रधानदेवः ।
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पञ्चमः सर्गः
द्वाविंशति सहस्रे द्वे शतानि नव विस्तृताः । योजनानि पुनस्तेषां वेदिका भद्रशालवत् ॥२८२॥ विदेहक्षेत्रमध्यस्थः कुरुक्षेत्रद्वयावधिः । योजनानां सहस्राणि नवतिर्नव चोद्धतः ॥२८३॥ मेखलात्रयसंयुक्तः ख्यातो मेरुमहीधरः । ऊर्ध्व चूलिकयोद्भासी सचत्वारिंशदुच्चयः ॥२८॥ सहस्रमवगाहोऽस्य सहस्राणि दशाऽत्र च । विष्कम्भो नवतिश्च स्याद् दशैकादशमागकाः ॥२८५॥ सैकास्त्रिंशत्सहस्राणि शतानि नव वै दश । योजनानि तथा भागौ साधिको परिधिगिरेः ॥२८६॥ तलात् सहस्रमुद्गस्य सहस्राणि दशोपरि । योजनानि स विष्कम्भो भूमौ भवति भूभृतः ॥२८॥ सैकस्त्रिंशसहस्राणि षट्शती विंशतिद्वयम् । योजनानि त्रयः क्रोशाः शते द्वादश दण्डकाः ॥२४॥ हस्तास्त्रयस्तथैव स्यादङ्गलानि त्रयोदश । साधिकानि परिक्षेपो भद्रशालेऽद्रिगोचरः ॥२८९॥ गत्वा पञ्चशतीमूव मेखलायां तु नन्दनः । स्यात्पञ्चशत विष्कम्मं मन्दरं परितो वनम् ।।२९०॥ नव तत्र सहस्राणि शतानि नव षट्कलाः । चतुःपञ्चाशदप्यस्य विष्कम्भः पुष्कलो गिरेः ॥२९॥ एकत्रिंशत्सहस्राणि तथा तत्र चतुःशती । गिरेबर्बाह्यपरिक्षेपः साधिका नवसप्ततिः ॥२९॥ स एव च सहस्रोनो विष्कम्मोऽभ्यन्तरः स्फुटः । नन्दने मन्दरस्य स्यात् परिक्षेपोऽपि वक्ष्यते ॥२९३॥ अष्टाविंशतिरेष स्यात् सहस्राणि शतत्रयम् । षोडशाग्राः कलाश्चाष्टौ परिधिः साधिका गिरेः ॥२९॥ सहस्राणि द्विषष्टिं च गत्वा पञ्चशतीं ततः । नन्दनेन समानं तद् वनं सौमनसं भवेत् ॥२९५॥ चत्वारि च सहस्राणि शते द्वे च द्विसप्ततिः । अष्टौ भागाश्च विष्कम्मो बाह्यस्तत्र भवेद् गिरेः ॥२९६॥ परिक्षेपः पुनस्तस्य सहस्राणि त्रयोदश । शतं पञ्चतयं ज्ञेयमेकादश च षट कलाः ॥२९७।।
बाह्यो यो गिरिविष्कम्भः सहस्रेण स वर्जितः । स्वादभ्यन्तरविष्कम्भस्तस्येति मुनयो विदुः ॥२९८॥ तथा समुद्र तटसे मिले हुए चार देवारण्य [ दो देवारण्य, दो भूतारण्य ] वनके प्रदेश हैं ॥२८१।। इन वनोंकी वेदिकाएं भद्रशाल वनके समान बाईस हजार दो सौ नो योजन विस्तृत हैं ।।२८२।। विदेह क्षेत्रके मध्य में प्रसिद्ध मेरु पर्वत स्थित है, उसकी सीमा देवकुरु और उत्तरकुरु तक फैली हुई है, वह निन्यानबे हजार योजन ऊंचा है, तीन मेखलाओंसे युक्त है, चालीस योजन ऊंची चूलिकासे सुशोभित है, उसकी गहराई एक हजार योजन है और पृथिवी तलपर चौड़ाई दश हजार नब्बे योजन तथा एक योजनके ग्यारह भागोंमें दश भाग प्रमाण है ॥२८३-२८५।। उसकी परिधि इकतीस हजार नौ सौ दश योजन तथा कुछ अधिक दो भाग प्रमाण है ।।२८६॥ तल भागसे एक हजार योजन ऊपर चलकर पृथिवीपर इस पर्वतकी चौड़ाई दश हजार योजन है ॥२८७।। भद्रशाल वनके समीप इसकी परिधि इकतीस हजार छह सौ बाईस योजन तीन कोश बारह धनुष तीन हाथ और कुछ अधिक तेरह अंगुल है ।।२८८-२८९|| भद्रशाल वनसे पांच सौ योजन ऊपर चलकर मेरु पर्वतको चारों ओर मेखलापर पांच सौ योजन चौड़ा दूसरा नन्दन वन है॥२९०|| वहाँ इस पर्वतकी चौडाई नौ हजार नौ सौ चौवन योजन छह कला है ॥२२१॥ नन्दन वनके समीप इस पर्वतकी बाह्य परिधि इकतीस हजार चार सौ उन्यासी योजनसे कुछ अधिक है ॥२९२।। भीतरी चौड़ाई आठ हजार नौ सौ चौवन योजन छह कला है। अब इसकी अभ्यन्तर परिधि कहते हैं ॥२९३।। नन्दन वनके समीप मेरुकी अभ्यन्तर परिधि अट्ठाईस हजार तीन सौ सोलह योजन तथा कुछ अधिक आठ कला है ।।२९४॥ नन्दन वनसे साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर चलकर तीसरा सौमनस वन है। यह वन नन्दन वनके ही समान है ॥२९५॥ सौमनस वनमें पर्वतको बाह्य चौड़ाई चार हजार दो सौ बहत्तर योजन आठ कला है ॥२९६।। और बाह्य परिधि तेरह हजार पांच सौ ग्यारह योजन छह कला है ॥२९७|| पर्वतकी जो बाह्य चौड़ाई बतलायी है उसमें एक हजार योजन कम करनेपर भीतरी चौड़ाई निकलती है ऐसा मुनिगण कहते हैं ॥२९८।। १. चोच्छ्रिता म.।
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हरिवंशपुराणे
ईषदून परिक्षेपः सहस्राणि दश स्मृतः । त्रिंशत्येकोनपञ्चाशत्त्रयश्चैकादशांश काः ॥ २९९ ॥ स्यात् पत्रिंशत्सहस्राणि गत्वादौ पाण्डुकं वनम् । चतुर्नवतिसंयुक्ता तद्विस्तारश्चतुःशती ॥ ३००॥ द्विषष्टियोजननान्यत्र सहस्रत्रितयं शतम् । गव्यूतं साधिकं मेरोः परिधिः परिकीर्तितः ॥ ३०१ ॥ चत्वारिंशत्तमुद्दिद्धा मूर्ध्नि वैडूर्यचूलिका । मूलमध्यान्तविस्तारैर्द्वादशाष्टचतुर्विधा ॥ ३०२ ॥
त्रिंशद् भवेन्मूले मध्ये स्यात् पञ्चविंशतिः । चूलिकायाः परिक्षेपो द्वादशा च साधिकाः ॥ ३०३॥ पार्थिवाः पट्परिक्षेपाइचूलिकायाः प्रभृत्यधः । एकादशप्रकारोऽन्यः सप्तमोऽपि वनैः कृतः ॥ ३०४।। लोहिताक्षमयः पूर्वः पद्मरागमयः परः । तथा वज्रमयः सर्वरत्नो वैडूर्यविग्रहः ॥ ३०५ ॥ हरितालमयः षष्टस्तेषां प्रत्येकमिष्यते । पञ्चशत्यपि विस्तारः सहस्राण्यपि षोडश ॥ ३०६ ॥ भद्र लवनं भूमौ मानुषोत्तरमेव च । सदेवनागभूतानां रमणानि वनानि च ॥ ३०७ ॥ परिक्षेपो वनं चान्यन्नन्दनं चोपनन्दनम् । वनं सौमनसं चान्यदुपसौमनसं तथा ॥ ३०८ ॥ पाण्डुकं दशमं प्रोक्तमुपपाण्डुकमन्त्यजम् । मेरोरेकादश ज्ञेयाः परिक्षेपाः परीक्षकैः ॥ ३०९ ॥ देशेष्वेकादशानां तु पूरणेषु हि मन्दरः । मौलविष्कम्मभागानामेकैकेन प्रहीयते ।। ३१० ॥ सर्वत्राङ्गुलमानादौ यावद् योजनमानकम् | हानिवृद्धी इति ग्राह्ये मेरुविस्तारगोचरे ॥ ३११॥
पर्वतकी भीतरी परिधि दश हजार तीन सौ उनचास योजन तथा एक योजनके ग्यारह भागोंमें तीन भाग प्रमाण है || २९९ || यहाँसे छत्तीस हजार योजन ऊपर चलकर पर्वतके ऊपर चौथा पाण्डुक वन है, यहाँ पर्वत चार सौ चौरानबे योजन चौड़ा है || ३०० || यहाँ पर्वत की परिधि तीन हजार एक सौ बास योजन कुछ अधिक एक कोश है ।। ३०१ ॥ मेरु पर्वत के मस्तकपर चालीस योजन ऊंची वैडूर्य मणिमयी चूलिका है । यह चूलिका मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन और अन्तमें चार योजन चौड़ी है || ३०२ || चूलिकाको परिधि मूलमें सैंतीस योजन, मध्यमें पचीस योजन और अग्र भाग में कुछ अधिक बारह योजन है || ३०३ || मेरु पर्वतकी चूलिकासे लेकर नीचे तक १ लोहिताक्षमय, २ पद्मरागमय, ३ वज्रमय, ४ सर्वरत्नमय, ५ वैडूर्यमय और ६ हरितालमय ये छह पृथिवीकाय रूप परिधियाँ हैं । इन परिधियोंमें प्रत्येकका विस्तार सोलह हजार पाँच सौ योजन है। इनके सिवाय वनोंके द्वारा की हुई एक सातवीं परिधि और भी है। तथा उसके नीचे लिखे अनुसार ग्यारह भाग परीक्षकोंके द्वारा जानने योग्य हैं - १ भद्रशाल वन, २ मानुषोत्तर, ३ देवरमण, ४ नागरमण, ५ भूतरमण, ६ नन्दन, ७ उपनन्दन, ८ सौमनस, ९ उपसौमनस, १० पाण्डुक और ११ उपपाण्डुक | इनमें से पृथिवीपर जो भद्रशाल वन है उसमें भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरण ये पाँच वन हैं। उससे ऊपर चलकर नन्दन वनमें नन्दन और उपनन्दन, सौमनस वन में सौमनस और उपसौमनस तथा पाण्डुक वनमें पाण्डुक और उपाण्डुक वन हैं ||३०४-३०९ || इन भागो में यदि ग्यारह भाग मेरुपर चढ़ा जाये तो वहाँ मूल भागकी चौड़ाईसे एक भाग कम चौड़ाई हो जाती है । इसी प्रकार सब जगह योजन पर्यन्त अंगुल हाथ आदि प्रमाणों में भी मेरुके विस्तार में हानि तथा वृद्धि समझना चाहिए। भावार्थ - ऊपर जो ग्यारह भाग बतलाये हैं उनमें प्रथम भागसे यदि ग्यारह योजन ऊंचा चढ़ा जाये तो मेरुकी चौड़ाई मूलभागकी चौड़ाईसे एक योजन कम हो जाती है और यदि ग्यारह हाथ या ग्यारह अंगुल चढ़ा जाये तो वहाँ की चौड़ाई मूलभागकी चौड़ाईसे एक हाथ या एक अंगुल कम हो जाती है 1 इसी प्रकार यदि ऊपरसे नीचेकी ओर आया
★ मेरु पर्वत निन्यानबे हजार योजन ऊंचा है। उसके सोलह हजार पाँच सौ योजन २ विस्तारवाले ६ खण्ड चूलिकासे लेकर नीचे तक हैं । उनकी रचना लोहिताक्ष आदि मणियोंकी है इसलिए उनके नाम भी उन्हींके अनुसार प्रतिपादन किये गये हैं ।
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पञ्चमः सर्गः
एकादश सहस्राणि योजनानि तु मन्दरः । समरुन्द्रौ नन्दनादूर्ध्व वनात्सौमनसात्तथा ॥३१२॥ पञ्चमेषु प्रदेशेषु चूलिकैकेन हीयते । तथाऽङ्गलादिमानेषु योजनान्तेष्वयं क्रमः ॥३१३॥ साधिकैकादशांशाभ्यां लक्षस्यास्त्युत्तरं शतम् । दैव्यं योजनलक्षस्य मेरोः पार्श्वभुजाद्वयम् ॥३१४॥ पण्याख्यं दिशि पूर्वस्या दक्षिणस्यां च चारणम् । गन्धर्वमपरस्यां स्यादुत्तरस्यां च चित्रकम् ॥३१५॥ मवनं नन्दने तेषां त्रिंशत्स्यान्मुखविस्तृतिः । पञ्चाशद्योजनोच्छायः परिधिनवतिः स्मृता ॥१६॥ पण्याख्ये रमते सोमश्चारणाख्ये यमस्तथा। गान्धर्व वरुणश्चित्रे कुबेरः सपरिच्छदः ॥३१७।। चत्वारोऽपि ते दिक्षु लोकपाल' पृथक पृथक । साद्धामिस्तु त्रिकोटीभिः स्त्रीणां क्रीडन्ति संततम् ॥३१८॥ वज्र वज्रप्रभं नाम्ना सुवर्णभवनं भवेत् । सुवर्णप्रममप्येकं दिक्षु सौमनसे वने ॥३१९॥ भवनानां परिक्षेपमुखव्यासोच्छ्रया इह । त एवार्धाकृता बोध्या नन्दनस्थितसद्मनाम् ।।३२०॥ लोकपालास्त एवात्र देवाः सोमयमादयः । क्रोडन्ति स्वेच्छया स्त्रीभिस्तावतीभिर्यथायथम् ॥३२१॥ लोहिताअनहारिद्रपाण्डुराख्यानि पाण्डुके । वेश्मान्यूध्वस्वनामानि तावत्कन्यानि तान्यपि ॥३२॥ स्वयंप्रभविमानेशः सोमोऽसौ पूर्वदिक्प्रमुः । रक्तवाहननेपथ्यः सार्द्धपल्य दयस्थितिः !!३२३॥ स षटषष्टिसहस्राणां विमानानां प्रभावताम् । षट्षष्टिषट्शतानां च षड लक्षाणां च भोजकः ।।३२४॥ तथाऽरिष्टविमानेशो यमो दक्षिणदिप्रभुः । साईपल्यद्वयायुष्कः कृष्णनेपथ्यवाहनः ।।३२५॥
जाये तो वहाँ उसकी चौड़ाई वृद्धिंगत हो जाती है ॥३१०-३११॥ परन्तु विशेषता यह है कि यदि नन्दन वन और सौमनस वनसे ग्यारह योजन ऊंचा चढ़ा जाये तो वहाँ की चौड़ाई मूलभागकी चौड़ाईसे कम नहीं होती किन्तु बराबर रही आती है ॥३१२॥ चूलिकासे पाँच योजन ऊपर चढ़नेपर एक योजन चोड़ाई कम हो जातो है और पाँच अंगुल अथवा पांच हाथ चढ़नेपर एक अंगुल वा एक हाथ चौड़ाई घट जाती है ।।३१३॥ एक लाख योजन विस्तारवाले मेरु पर्वतकी दोनों पार्श्व भुजाओंको लम्बाई एक लाख सो योजन तथा ग्यारह भागोंमें दो भाग प्रमाण है ॥३१४॥ नन्दन वनको पूर्व दिशामें पण्य नामका, दक्षिण दिशामें चारण नामका, पश्चिम दिशामें गन्धर्व नामका और उत्तर दिशामें चित्रक नामका भवन है। इन भवनोंकी चौड़ाई तीस योजन, ऊँचाई पचास योजन और परिधि नब्बे योजन है ॥३१५-३१६।। इनमें पण्य नामक भवनमें सोम, चारण नामक भवनमें यम, गान्धर्व नामक भवनमें वरुण और चित्रक नामक भवन में कबेर सपरिवार कोड़ा करता है ॥३१७। ये चारों लोकपाल पथक -पथक दिशाओं में साढे तीन करोड साढे तीन करोड़ स्त्रियोंके साथ निरन्तर क्रीड़ा करते हैं ॥३१८॥
सौमनस वनकी चारों दिशाओंमें क्रमसे वज्र, वज्रप्रभ, सुवर्णभवन और सुवर्णप्रभ नामके चार भवन हैं ॥३१९।। इन भवनोंको परिधि तथा अग्रभागकी चौड़ाई और ऊंचाई नन्दनवनके भवनोंसे आधी समझनी चाहिए ॥३२०॥ इन भवनों में भी वे हो सोम, यम आदि लोकपाल अपनो इच्छानुसार उतनी ही स्त्रियोंके साथ यथायोग्य क्रोड़ा करते हैं ॥३२१॥ पाण्डुक वनको चारों दिशाओंमें लोहित, अंजन, हारिद्र और पाण्डु नामके चार भवन हैं। इन भवनोंकी ऊँचाई आदि सौमनस वनके भवनोंके समान है तथा इनमें वे ही लोकपाल उतनी ही स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करते हैं ॥३२२।। इन लोकपालोंमें सोम नामका लोकपाल पूर्व दिशाका स्वामी तथा स्वयम्प्रभ विमानका अधिपति है । इसके वाहन तथा वस्त्राभूषण आदि सब लाल रंगके हैं और इसकी आयु अढ़ाई पल्य प्रमाण है। यह छह लाख छयासठ हजार छह सौ छयासठ देदीप्यमान भवनोंका भोग करनेवाला है अर्थात् इतने भवनोंका यह स्वामी है ।।३२३-३२४॥ यम दक्षिण दिशाका राजा तथा अरिष्ट
.१.वारणं म.।
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हरिवंशपुराणे जलप्रमविमानेशो वरुणो वारुणीप्रभः । तथैव पीतनेपथ्यः त्रिमागोन त्रिपल्यकः ॥३२६॥ वल्गुप्रभविमानेशः कौबेरीप्रभुरिष्यते । कुबेरः शुक्लनेपथ्यः सत्रिपल्योपमस्थितिः ।।३२७॥ मेरोरुत्तरपूर्वस्यां नन्दने बलभद्के । कुटे काञ्चनकैस्तुल्ये कूटनाम्नामरो भवेत् ॥३२॥ नन्दनं मन्दरं कूटं निषधं हिमवच्च तत् । रजतं रजकं नाम्ना तथा सागरचित्रकम् ॥३२९॥ वज्रकूटं विनिर्दिष्टमष्टमं तु मनीषिभिः । दिशं दिशं प्रति द्वे द्वे स्यातां कुटे यथाक्रमम् ॥३३०॥ उच्छायो मूलविस्तारस्तेषां पञ्चशतानि तु । तदधं मस्तके मध्ये त्रिशती पञ्चसप्ततिः ॥३३१॥ दिक्कुमार्यस्तु कूटेषु तेष्विमाः प्रतिपादिताः । मेघङ्करा तु पूर्वा स्यात् तथा मेघवती परा ॥३३२॥ ततः परं प्रसिद्धान्या सुमेघा मेघमालिनी। तोयधारा विचित्रा स्यात् पुष्पमाला स्वनिन्दिता ॥३३३॥ पूर्वदक्षिणदिग्भागे वाप्यो मेरुमहीभृतः । पूर्वा तूत्पलगुल्माख्या नलिना चोत्पला परा ॥३३४॥ उत्पलोज्ज्वलसंज्ञा स्यात् तासां पञ्चाशदायतिः । अवगाहो दश ज्ञेयो विस्तारः पञ्चविंशतिः ॥३३५॥ आसां मध्ये च शक्रस्य प्रासादः समवस्थितः। योजनान्यस्य गव्यूत्या सैकत्रिंशत्त विस्तृतिः ॥३३६।। उच्छायः पुनरुद्दिष्टो द्वाषष्टिश्चाईयोजनः । अवगाहः प्रमाणेन प्रासादस्याईयोजनः ॥३३७॥ सिंहासनं सुरेन्द्रस्य तस्य मध्येऽवतिष्ठते । स्वदिक्षु लोकपालानामासनानि भवन्ति च ॥३३८॥ तस्यैवोत्तरपूर्वस्यामपरोत्तरतोऽपि च । तत्र सामानिकानां तु भान्ति मद्रासनानि तु ॥३३९॥ पुरोऽप्यष्टाग्रदेवीनां तत्र मद्रासनानि हि । सासनाः परिषण्मुख्याः पूर्वदक्षिणतस्तथा ॥३४०॥ मध्यमा दक्षिणस्यां स्याद् बायाश्चापरदक्षिणा । त्रायस्त्रिंशाश्च तत्र स्युः पश्चात्सैन्यमहत्तराः ॥३४१॥ चतसृष्वात्मरक्षाणां दिक्ष मद्रासनान्यपि । आसेव्यतेऽत्र तैरिन्द्रः पूर्वाभिमुखमास्थितः ॥३४२॥
विमानका स्वामी है। इसके वाहन तथा वस्त्राभूषण आदि काले रंगके हैं और इसकी आयु ढाई पल्य प्रमाण है ॥३२५।। वरुण पश्चिम दिशाका राजा है तथा जलप्रभ विमानका स्वामी है। उसकी वेषभूषा पीले रंगकी है और वह तीन भाग कम तीन पल्यको आयुवाला है ॥३२६।। कुबेर उत्तर दिशाका राज्य तथा वल्गुप्रभ विमानका स्वामी है। इसकी वेषभूषा शुक्ल रंगको है तथा आयु तीन पल्य प्रमाण है ॥३२७।। मेरुकी पूर्वोत्तर दिशामें नन्दनवनके बीच कांचन कूटके समान एक बलभद्रक नामका कूट है और उसमें कूट नामधारी बलभद्रक देवका निवास है ॥३२८। वहींपर १ नन्दन, २ मन्दर, ३ निषध, ४ हिमवत्, ५ रजत, ६ रजक, ७ सागर और ८ चित्रक नामके आठ कूट और हैं । ये प्रत्येक दिशामें क्रमसे दो-दो हैं ॥३२९-३३०।। इन कूटोंकी ऊंचाई पांच सौ योजन है तथा मूल भागकी चौड़ाई पांच सौ योजन, मध्यभागको तीन सौ पचहत्तर योजन और ऊध्वंभागकी ढाई सौ योजन है ।।३३१।। इन कूटोंमें क्रमसे १ मेघंकरा, २ मेघवतो, ३ सुमेधा, ४ मेघमालिनी, ५ तोयधारा, ६ विचित्रा, ७ पुष्पमाला और ८ अनिन्दिता ये आठ प्रसिद्ध दिक्कुमारी देवियां निवास करती हैं ॥३३२-३३३।। मेरु पर्वतकी पूर्व-दक्षिण ( आग्नेय ) दिशामें १ उत्पलगुल्मा, २ नलिना, ३ उत्पला और ४ उत्पलोज्ज्वला ये चार वापिकाएं हैं। इनकी लम्बाई पचास योजन, गहराई दश योजन और चौड़ाई पचीस योजन है ।।३३४-३३५।। इन वापिकाओंके मध्यमें इन्द्रका भवन स्थित है । इस भवनकी चौड़ाई इकतीस योजन एक कोश, ऊँचाई साढ़े बासठ योजन और गहराई अर्धयोजन प्रमाण है ।।३३६-३३७।। उस भवनके मध्यमें इन्द्रका सिंहासन है तथा चारों दिशाओंमें चार लोकपालोंके आसन हैं ।।३३८॥ इन्द्रासनसे उत्तर-पूर्व तथा पश्चिमोत्तर दिशामें सामानिक देवोंके भद्रासन हैं ।।३३९।। आगे आठ पट्टरानियोंके भद्रासन हैं, पूर्व-दक्षिण दिशामें सभाके मुख्य-मुख्य अधिकारी देव बैठते हैं, दक्षिणमें मध्यम अधिकारी, दक्षिण-पश्चिममें सामान्य अधिकारी एवं त्रायस्त्रिंश देव तथा उनके पीछे सैन्यके महत्तर देव आसन ग्रहण करते हैं ॥३४०-३४१।। चार दिशाओंमें आत्मरक्ष देवोंके भद्रासन हैं। इन्द्र अपने आसनपर पूर्वाभिमुख
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पञ्चमः सर्गः
भृङ्गाभृङ्गनिभाप्यन्या कजला कजलप्रभा । पुष्करिण्यश्च वापीनां समास्त्वपरदक्षिणाः ॥३४३॥ श्रीकान्ता प्रथमा वापी श्रीचन्द्रा चापरोत्तरा । तथा श्रीमहितैशानमोग्या श्रीनिलया ततः ॥३४४॥ तथा चोत्तरपूर्वस्यां वापी तु नलिनाभिधा । ततो नलिनगुल्मापि कुमुदा कुमुदप्रभा ॥३४५॥ प्रासादादिकमत्राऽपि पूर्ववत्सर्वमिष्यते । यथैतनन्दने वेद्यं तथा सौमनसे वने ॥३४६॥ दिशि चोत्तरपूर्वस्यां पाण्डके पाण्डुका शिला । पाण्डुकम्बलया सार्द्ध रक्तया रक्तकम्बला ॥३४७॥ विदिक्षु सक्रमा हैमी राजती तापनीयिका । लोहिताक्षमयी चार्द्धचन्द्राकाराश्च ताः शिलाः ॥३४॥ अष्टोच्छ्रयाः शतायामाः पञ्चाशद्विस्तृताश्च ताः । यत्रार्हन्तोऽमिषिच्यन्ते जम्बूद्वीपसमुद्भवाः ॥३४९॥ रक्तापाण्डुकयोध्य दक्षिणोत्तरतः स्थितम् । तत्पूर्वापरतः शेषशिलयोस्तु विशालयोः ॥३५०॥ चापं पञ्चशतोच्छायं मूलव्यासोऽपि यस्य सः । प्रत्येकं तन्महारत्नं तत्र सिंहासनत्रयम् ॥३५१॥ ऐन्द्र दक्षिणमेतेषामैशानं तूत्तरं मतम् । मध्यस्थितं तु जैनेन्दं प्राङ्मुखानि च तान्यपि ॥३५॥ मारतापरवंदेहा ऐरावतविदेहजाः । जिना बाल्ये सुरस्नाप्यास्तासु तेषु यथाक्रमम् ॥३५३॥
बैठता है और आत्मरक्ष उसकी सेवा करते हैं ।।३४२॥ पश्चिम-दक्षिण (नैऋत्य ) दिशामें उक्त वापिकाओंके समान १ भंगा, २ भंगनिभा. ३ कज्जला और ४ कज्जलप्रभा ये चार वापिकाएँ हैं ॥३४३।। पश्चिमोत्तर (वायव्य) दिशामें १ श्रीकान्ता, २ श्रीचन्द्रा
) दिशामें १ श्रीकान्ता, २ श्रीचन्द्रा, ३ श्रीमहिता और ४ श्रोनिलया ये चार वापिकाएं हैं। इनमें ऐशानेन्द्र कोड़ा करता है ।।३४४॥ उत्तर-पूर्व (ऐशान) दिशामें १ नलिना, २ नलिनगुल्मा, ३ कुमुदा और ४ कुमुदप्रभा ये चार वापिकाएँ हैं। इनमें भवन आदिकी समस्त रचना पूर्ववत् जाननी चाहिए। जिस प्रकार नन्दन वनमें इन सबकी रचना है उसी प्रकार सौमनस वन में भी जानना चाहिए ॥३४५-३४६॥
पाण्डुक वनको उत्तर-पूर्वादि दिशाओं में क्रमसे १ पाण्डुक, २ पाण्डुकम्बला, ३ रक्ता और ४ रक्तकम्बला ये चार शिलाएँ हैं । ये शिलाएं विदिशाओं में हैं तथा क्रमसे सुवर्णमयी, रजतमयी, सन्तप्त स्वर्णमयी और लोहिताक्ष मणिमयी हैं। एवं इनका अर्धचन्द्रके समान आकार है ॥३४७-३४८।। ये शिलाएं आठ योजन ऊंची, सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी हैं तथा इनपर जम्बू द्वीपमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका अभिषेक होता है ।।३४९।। इनमें रक्ता और पाण्डुक शिलाको लम्बाई दक्षिणोत्तर दिशामें है तथा रक्ता और रक्तकम्बलाकी लम्बाई पूर्व-पश्चिम दिशामें है ।।३५०।। उन शिलाओंपर रत्नमयी तीन-तीन सिंहासन हैं जो पांच सौ धनुष ऊँचे तथा उतने ही चौड़े हैं ॥३५१॥ तीन सिंहासनोंमें दक्षिण सिंहासन सौधर्मेन्द्रका, उत्तर सिंहासन ऐशानेन्द्रका तथा मध्य स्थित सिंहासन जिनेन्द्र देवका है। इन सब सिंहासनोंका मुख पूर्व दिशाको ओर होता है। भावार्थ-मध्यके सिंहासनपर श्री जिनेन्द्र देव विराजमान होते हैं और दक्षिण तथा उत्तरके सिंहासनोंपर क्रमसे सौधर्मेन्द्र और ऐशानेन्द्र खड़े होकर उनका अभिषेक करते हैं ॥३५२।। उन पाण्डुक आदि शिलाओंके सिंहासनोंपर क्रमसे भरत, पश्चिम विदेह, ऐरावत और पूर्व विदेह क्षेत्रमें
१. ईसाण दिसाभागे भरह जिणिदाण दिव्वदेहाणं । पंडुक सिलातले तह जम्मण महिमा समुद्दिवा ॥१४८॥ अवर विदेहाण तहा वरपंडुयकंबलम्मि धूमदिसे । वररत्तकंबलम्मि दुणेरदि एरावदाणं तु ॥१४९।। वाऊदिसे रत्तसिला पुन्वविदेहाण जिणवरिंदाणं । जम्मण महिमा मेरुप्पदाहिणेणं तु गंतुणं ॥१५०।। ज. प्र. ४ उद्देश्य ।
* नैऋत्य और आग्नेय दिशाको आठ वापिकाओंमें सौधर्म तथा वायव्य और ऐशान दिशाकी वापिकाओंमें ऐशानेन्द्र के भवन है।
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हरिवंशपुराणे पाण्डुके सन्ति चत्वारो महादिक्ष जिनालयाः । सर्वरत्नमया दिव्या नित्या यकृतकस्वतः ॥३५४॥ पञ्चविंशतिरायामः सार्धाः द्वादश विस्तृतिः । अर्द्धक्रोशोऽवगाहः स्यादुच्छायोऽष्टादश त्रिपाद् ॥३५५॥ द्वारस्य चोच्छ यस्तेषां चतुर्योजनसंमितः । द्वे तु विस्तृतिरस्याई मणुद्वारद्वयस्य हि ॥३५६॥ वने सौमनसे तेषां तदेव द्विगुणं मवेत् । कुल वक्षारशैलेष मानं सौमनसोदितम् ॥३५॥ नन्दने मद्रशाले च जिनायतनगोचरम् । प्रत्येक द्विगुणं मानं तद् यत्सौमनसे बने ॥३५॥ विजयाद्धेषु सर्वेषु सिद्धायलनगोचरम् । मानं तदेव बोद्धव्यं विजयाई भरते तु यत् ॥३५९॥ अष्टायामो द्विविस्तारः सर्वषु चतुरुच्छ्रितः । देवच्छन्दोऽवगाढश्च गव्यूतिस्तेषु वेश्मषु ॥३६०॥ शुम्भद्रत्नमहास्तम्भशातकुम्मात्ममित्तिमिः । चन्द्रादित्योत्पतत्पक्षिमृगयुग्माद्यलंकृतः ॥३६१॥ रत्नकाञ्चननिर्माणाः पञ्च चापशतोच्छ्रिताः । अष्टोत्तरशतं तत्र जिनानां प्रतिमा मताः ॥३६॥ नागमयुगे तासां प्रत्येकं सप्रकीर्णके । सनत्कुमारसर्वाह्न निर्वृत्तिश्रुतमूर्तिमिः ॥३६३॥
उत्पन्न हुए तीर्थकर बाल्यकालमें देवोंके द्वारा अभिषेकको प्राप्त होते हैं। भावार्थ-भरत क्षेत्रके तीर्थंकरोंका पाण्डुक शिलापर, पश्चिम विदेह क्षेत्रके तीर्थंकरोंका रक्तापर और पूर्व विदेहके तीर्थंकरोंका रक्तकम्बला शिलापर जन्माभिषेक होता है ||३५||
पाण्डुक वनकी चारों महादिवाओंमें चार जिनालय हैं जो सर्वरत्नमय हैं, दिव्य हैं तथा अकृत्रिम होनेसे नित्य हैं ।।३५४।। इनकी पचीस योजन लम्बाई, साढ़े बारह योजन चौड़ाई, आधा कोश गहराई और पौने उन्नीस योजन ऊँचाई है ।।३५५॥ प्रत्येक मन्दिरमें एक बड़ा तथा आजूबाजूमें दो लघु द्वार हैं। इनमें बड़े द्वारकी ऊँचाई चार योजन और चौड़ाई दो योजन है। तथा लघद्वारोंकी ऊंचाई और चौडाई इससे आधी है ||३५६|| पाण्डक वनके समान सौमनस वनकी चारों दिशाओंमें भी चार जिनालय हैं और उनके द्वारोंको लम्बाई-चौड़ाई आदि पाण्डुक वनके चैत्यालयोंसे दूनी है। कुलाचल तथा वक्षार गिरियोंपर जो जिनालय हैं उनकी लम्बाई-चौड़ाई आदि भी सौमनस बनके चैत्यालयोंके समान कही गयो है ॥३५७।। इसी प्रकार नन्दन वन और भद्रशाल वनमें भी चार-चार जिनालय हैं उनकी ऊंचाई तथा चौड़ाई आदिका प्रमाण सोमनस वनके जिनालयोंसे दुना है ||३५८|| समस्त विजयाध पर्वतोपर जो सिद्धायतन-जिनमन्दिर हैं उनका प्रमाण वही जानना चाहिए जो कि भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजयार्धके जिन-मन्दिरोंका है ॥३५९|| उन समस्त जिनालयोंमें आठ योजन लम्बा, दो योजन चौड़ा, चार योजन ऊंचा और एक कोश गहरा देवच्छन्द नामका एक गर्भगृह है ॥३६०|| वह गर्भगृह, देदीप्यमान रत्नोंसे बने हुए विशाल स्तम्भों, सुवर्णमयी दीवालों तथा उनमें खिचे हुए चन्द्र, सूर्य, उड़ते हुए पक्षी एवं हरिण-हरिणियोंके जोड़ोंसे अलंकृत है ॥३६१॥ उस गर्भगृहमें सुवर्ण तथा रत्नोंसे निर्मित पांच सौ धनुष ऊँची एक सौ आठ जिन-प्रातमाएं विद्यमान हैं ॥३६२॥ उन प्रतिमाओंके समीप चमर लिये हुए नागकुमार और
१. सर्वरत्नमहादिव्या म.। २. तनुरुच्छ्रितः म.। ३. त्रिलोकप्रज्ञप्तौ देवच्छन्दस्य प्रमाणं भिन्न प्रकार वर्तते-वसहीऐ गब्भगिहे देवच्छन्दो दुजोयणच्छेहो । इगिजोयणवित्थारो च उजोयण दीहसंजुत्तो ॥१८५५।।
सोलस कोसुच्छेहं समचउरस्सं तदद्धवित्यारं । लोयविणिच्छायकत्ता देवच्छन्दं परूवेई ॥१८६६॥
( पाठान्तरम् ) ४. सचामरे । ५. सदृशे म. । सर्वाणि ग., ङ., ख. सर्वाण क. । सिरि सुददेवीण तहा सव्वार्टी सणकुमार जक्वाणं । रूवाणि पत्तेकं पडि वररयणाह रइदाणि ।।१८८१।। सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण सणककुमार जावाणं । रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्रविहमवि होदि ॥९८८।।
-त्रिलोकसार
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पञ्चमः सर्गः
भृङ्गारकलशादर्श पात्रीशंखाः समुद्गकाः । पालिकाधूपनीदीपकूर्चाः पाटलिकादयः ॥ ३६४ ॥ अष्टोत्तरशतं तेऽपि कंसतालनकादयः । परिवारोऽत्र विज्ञेयः प्रतिमानां यथायथम् ॥ ३६५॥ गवाक्षगेहजालानि मुक्ताजालानि भान्ति वै । मणिविद्रुमरूपाब्ज किंकिणीजालकानि च ॥ ३६६ ॥ षट् च चत्वारि च द्वे च मूले मध्ये च मस्तके । विस्तृतश्चतुरुच्छ्रायः सौवर्णः क्रोशगाहकः ॥ ३६७॥ अष्टोच्छ्रायश्चतुर्व्यासश्चतुस्तोरणदिङ्मुखः । प्राकारः प्रतिवेश्म स्यात् पञ्चाशत्तुङ्गगोपुरः ॥ ३६८ ॥ सिंहहंसगजाम्भोजदुकूलवृषभध्वजैः । मयूरगरुडाकीर्णश्चक्रमालामहाध्वजैः ॥ ३६९ ॥ दशार्द्धवर्ण मासद्भिर्दशभेदैर्दिशो दश । साशीतिसहस्रान्तैर्भान्ति पल्लविता इव ॥ ३७० ॥ उदम्रो मण्डपोऽप्यग्रे ततः प्रेक्षागृहं बृहत् । स्तूपाश्चैत्यद्रुमाश्चान्ये पर्यङ्कप्रतिमोज्ज्वलाः ॥ ३७१॥ मत्स्य कूर्मं विमुक्तश्च प्रसन्नसलिलः शुभः । दिशि नन्दो हृदः प्राच्यां सिद्धायतनतो भवेत् ॥ ३७२ ॥ "वज्र मूलः सवैडूर्यचूलिको मणिमिश्चितः । विचित्राश्चर्यं संकीर्णः स्वर्णमध्यः सुरालयः ।। ३७३ ।। मेरुश्चैव सुमेरुश्च महामेरुः सुदर्शनः । मन्दरः शैलराजश्च वसन्तः प्रियदर्शनः ॥ ३७४ ॥ रखोच्चयो दिशामादिर्लोकनाभिर्मनोरमः । लोकमध्यो दिशामन्त्यो दिशामुत्तर एव च ॥ ३७५ ॥ सूर्याचरणविख्यातिः सूर्यावर्तः स्वयंप्रभः । इत्थं सुरगिरिश्चेति लब्धवर्णैः स वर्णितः ॥ ३७६ ॥ इति व्यावर्णितं द्वीपं परिक्षिपति सर्वतः । पर्यन्तावयवत्वेन सास्यैव जगती स्थिता ॥ ३७७ ॥ मूले द्वादश मध्येऽष्टौ चत्वार्यग्रे च विस्तृता । अष्टोच्छ्रयाऽवगाढा तु योजनार्द्धमधो भुवः || ३७८ ॥
यक्षों के युगल खड़े हुए हैं तथा समस्त प्रतिमाएँ सनत्कुमारे और सर्वा यक्ष तथा निर्वृत्ति और श्रुत देवी की मूर्तियोंसे युक्त हैं ॥ ३३३॥ झारी, कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्चं पाटलिका आदि तथा झांझ-मंजीरा आदि एक सौ आठ -एक सौ आठ उपकरण उन प्रतिमाओं के परिवारस्वरूप जानना चाहिए अर्थात् ये सब उनके समीप यथायोग्य विद्यमान रहते हैं || ३६४-३६५ || उन जिनालयों में झरोखे, गृहजाली, मोतियोंकी झालर, रतन तथा मूँगारूप कमल और छोटी-छोटी घण्टियोंके समूह सुशोभित रहते हैं || ३६६ || प्रत्येक जिनमन्दिर में एक-एक प्राकार - कोट है जो मूलमें छह योजन, मध्यमें चार योजन और मस्तकपर दो योजन चौड़ा है । चार योजन ऊँचा है, एक कोश गहरा है तथा सुवर्णं निर्मित है ॥ ३६७॥ इसकी चारों दिशाओं में आठ योजन ऊँचे, तथा चार योजन चौड़े चार तोरण द्वार हैं और पचास योजन ऊँचा इसका गोपुर है || ३६८ || सिंह, हंस, गज, कमल, वस्त्र, वृषभ, मयूर, गरुड़, चक्र और माला के चिह्नोंसे सुशोभित दश प्रकारकी पंचवर्णी महाध्वजाओंसे उन चैत्यालयोंकी दशों दिशाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो लहलहाते हुए नूतन पत्तोंसे ही युक्त हों। वे ध्वजाएँ एक-एक जातिकी एक सौ आठ एक सौ आठ तथा दशों दिशाओंकी मिलाकर एक हजार अस्सी होती हैं ||३३९-३७० ॥ चैत्यालयोंके आगे विशाल सभामण्डप, उसके आगे लम्बा-चौड़ा प्रेक्षागृह, उसके आगे स्तूप और स्तूपोंके आगे पद्मासनसे विराजमान प्रतिमाओंसे सुशोभित चैत्यवृक्ष हैं || ३७१|| जिनालयोंसे पूर्व दिशामें मच्छ तथा कछुआ आदि जल-जन्तुओंसे रहित, एवं स्वच्छ जलसे भरा हुआ नन्द नामका सरोवर है || ३७२ ॥ वज्रमुक, सवैडूर्यचूलिक, मणिचित, विचित्राश्चयंकीणं, स्वर्णमध्य, सुरालय, मेरु, सुमेरु, महामेरु, सुदर्शन, मन्दर, शैलराज, वसन्त, प्रियदर्शन, रत्नोच्चय, दिशामादि, लोकनाभि, मनोरम, लोकमध्य, दिशामन्त्य, दिशामुत्तर, सूर्याचरण, सूर्यावर्त, स्वयम्प्रभ और सुरगिरि"इस प्रकार विद्वानोंने अनेक नामोंके द्वारा सुमेरु पर्वतका वर्णन किया है ||३७३-३७६ ।।
इस प्रकार से वर्णित जम्बू द्वीपको चारों ओरसे जगती घेरे हुए है । यह जगती इसी जम्बू द्वीपका अन्तिम अवयव - भाग है || ३७७|| वह मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन,
१. मेरुपर्वतस्य पर्यायनामानि ।
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हरिवंशपुराणे सर्वरत्नात्ममध्या सा वैडूर्यमयमस्त का । मूले वज्रमयी भासा भासयन्ती दिशः स्थिता ॥३७९।। पञ्च चापशतव्यासमूलाग्रे चापि वेदिका । गव्यूति द्वितयोच्छायाः जगत्या मध्यमाश्रिता ॥३८॥ वेदिकाभ्यन्तरे कान्तं देवारण्यं वनं बहिः । सत्सौवर्णशिलापट्ट वापी प्रासादशोभितम् ।।३८१।। धनुःशतं शुतं साद्ध विस्तृताश्च शतद्वयम् । न्यूनमध्योत्तमा वाप्यो गाधाः स्नं स्वं दशांशकम् ॥३८॥ पञ्चाशच्चापविस्ताराः शतचापसमायताः । पञ्चसप्ततिमुच्चैस्तु प्रासादास्तत्र चाल्पकाः ॥३८३॥ षट् चापविस्तृतान्येषां द्वादशोच्छायवन्ति च । चत्वारि चापगाढानि द्वाराणि लघुवेश्मनाम् ॥३८४॥ द्विगुणा स्त्रिगुणाश्च स्युासायामोच्छ्यैरतः । मध्यमाश्चोत्तमास्तेषां द्विद्विारावगाहनम् ॥३८५॥ मालावलीकदल्याद्याः प्रेक्षागनसभागृहाः । वीणागर्भलताचित्रग्रसाधनमहागृहाः ॥३८६॥ मोहनास्थानसंज्ञाश्च रम्या रस्नमया गृहाः । सर्वतस्तत्र शोमन्ते व्यन्तरामरसेविताः ॥३८७॥ हंसक्रौञ्चासनैर्मुण्डैमंगेन्द्र मकरासनैः । स्फाटिकैरुन्न तैनः प्रबालगरुडासनैः ॥३८८॥ दीर्घस्वस्तिकवृत्तस्तैर्विपुलेन्द्रासनैरपि । गन्धासनैश्च रत्नाढ्यैर्युक्ताः सुरमनोरमैः ॥३८९॥ विजयं वैजयन्तं च जयन्त मपराजितम् । द्वाराग्यस्यां जगत्यां स्युः प्राच्यादौ दिक्चतुष्टये ॥३९०॥ अष्टोच्छायं चतुर्यासं नानारत्नांशुरञ्जितम् । द्वारमेकैकमत्र स्याद् भास्वद्वज्रकवाटकम् ॥३९१॥ दश सप्तशतो चान्या सहस्राणि च सप्ततिः । त्रयः क्रोशाश्चतुर्विंशाश्चतुर्दशशती युगैः ॥३९२॥
और अग्रभागमें चार योजन चौड़ी है, आठ योजन ऊंची है तथा पृथिवीके नीचे आधा योजन गहरी है ॥३७८|| उसका मूल भाग वज्रमय है, मध्य भाग सब प्रकारके रत्नोंसे निर्मित है और मस्तक-अग्रभाग वेडूयं मणियोंका बना है। वह जगती अपनी कान्तिसे दशों दिशाओंको देदीप्यमान करती हुई स्थित है ।।३१९।। जगतोके मध्य में एक वेदिका है जो मूल और अग्र भागमें पांच सौ धनुष चौड़ी है तथा दो कोश ऊंची है ।।३८०|| वेदिकाके आभ्यन्तर तथा बाह्य-दोनों भागोंमें सुवर्णमय उत्तम शिलापट्टोंसे युक्त, एवं वापिकाओं और भवनोंसे सुशोभित देवारण्य नामका सुन्दर वन है ।।३८१।। इनमें निम्न श्रेणीको वापियाँ सौ धनुष, मध्यम श्रेणीकी डेढ़ सौ धनुष और उत्तम श्रेणीकी दो सौ धनुष चौड़ी हैं। इन सबकी गहराई अपनी-अपनी चौड़ाईके दशवें भाग हैं ॥३८२।। देवारण्य वनमें जो लघु प्रासाद हैं वे पचास धनुष चौड़े, सौ धनुष लम्बे और पचहत्तर धनुष ऊंचे हैं ।।३८३।। इन प्रासादोंके द्वार छह धनुष चौड़े, बारह धनुष ऊँचे और चार धनुष गहरे हैं ॥३८४।। मध्यम और उत्तम प्रासादों तथा उनके द्वारोंकी लम्बाई-चौड़ाई एवं ऊंचाई लघु प्रासादोंसे क्रमशः दूनी और तिगुनी है। किन्तु द्वारोंकी गहराई दूनी-दूनी है ॥३८५।। उस वनमें मालाओंकी पंक्ति कदली आदि वृक्ष, प्रेक्षागृह, सभागृह, वीणागृह, गर्भगृह, लतागृह, चित्रगृह, प्रसाधनगह तथा मोहना स्थान नामके अनेक रत्नमयी सुन्दर-सुन्दर गृह सब ओर सुशोभित हैं । ये सब स्थान व्यन्तर देवोंके द्वारा सेवित हैं ॥३८६-३८७।। ये भवन देवोंके मनको हर्षित करनेवाले रत्नखचित हंसासन, क्रौं वासन, मुण्डासन, मृगेन्द्रासन, मकरासन, प्रबालासन, गरुडासन, विशाल इन्द्रासन और गन्धासन आदि अनेक आसनोंसे युक्त हैं। ये आसन स्फटिक मणिके बने हैं, इनमें कितने ही आसन ऊंचे हैं, कितने ही नीचे हैं, कितने ही लम्बे हैं, कितने ही स्वस्तिकके समान हैं
और कितने ही गोल हैं ।।३८८-३८९।। जगतीकी पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार हैं ॥३९०। इनमें प्रत्येक द्वार आठ योजन ऊँचा, चार योजन चौड़ा, नाना रत्नोंकी किरणोंसे अनुरंजित और वज्रमयी देदीप्यमान किवाड़ोंसे युक्त है ॥३९१।। जगतीके अभ्यन्तर भागमें उन द्वारोंकी अन्तरज्याका प्रमाण सत्तर हजार सात सौ दश
१. आसनानां नामानि । २. विजयन्तं म.।
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पञ्चमः सर्गः
हस्तास्त्रयोऽगुलानि स्यादेकविंशतिरेकशः । तेषां दिशान्तरज्यासौ द्वाराणां तु प्रमाणतः ॥३९३॥ अस्या ज्यायाः सहस्राणि सप्ततिर्नव चोदितम् । सह षड्मिश्च पञ्चाशद् गव्यूतित्रितयं तथा ॥३९४॥ धनुःसहस्रमेकं च पुनः पञ्चशतानि तु । द्वात्रिंशच धनुःपृष्टमङ्गुकानां च सप्तकम् ॥३९५॥ चतुर्योजनहीनं तु तदेव परिनिश्चितम् । द्वाराणामन्तरं तेषामन्तरज्ञैः परस्परम् ॥३९६॥ संख्येयद्वीपपर्यन्तो जम्बूद्वीपसमोऽपरः । विजयस्य पुरं तत्र पूर्वस्यां दिशि शोभते ॥३९७॥ तद् द्वादशसहस्राणि विस्तृतं वेदिकायुतम् । चतुस्तोरणसंयुक्तं रुचिरं सर्वतोऽद्भुतम् ॥३९८॥ साष्टभागं त्रिकं चाये मूले तत्तु चतुर्गुणम् । तत्प्राकारस्य विस्तारस्तस्य गाहोऽर्द्धयोजनम् ॥३९९॥ प्राकारस्योच्छ्यस्तस्य सप्तत्रिंशत्तथार्धकम् । गोपुराणि चतुर्दिक्षु प्रत्येकं पञ्चविंशतिः ॥४०॥ एकत्रिंशत्सगव्यूतिविस्तारो गोपुरस्य च । उच्छायो द्विगुणस्तस्माद् गाहः स्यादर्धयोजनम् ॥४०१॥ भूभिभिः सप्तदशभिः प्रासादा गोपुरेषु तु । सर्वरत्नसमाकीर्णा जाम्बूनदमयाश्च ते ॥४०॥ गोपुराणां तु मध्ये स्यादीपपादिकलेणकम् । गव्यतिवहलं व्यासः शतानि द्वादशास्य च ॥४०३॥ पञ्चचापशतव्यासा गन्यूतिद्वयमुच्छ्रिता । चतुस्तोरणसंयुक्ता वेदिका तस्य सर्वतः ॥४०४।। गोपुरेण समो मानैः प्रासादः पुरमध्यगः । अष्टोच्छ्रायश्चतुर्व्यासो द्वारो विजयसेवितः ॥४०५।। सवज्रद्वारवंशश्व हेमरत्नकपाटकः । चतुर्दिक्षु पुनस्तस्य प्रासादास्तत्समानकाः ॥४०६।। तेषामन्ये महादिक्षु चत्वारस्तत्समानकाः। द्वितीयमण्डले ज्ञेयाः प्रासादा रत्नभास्वराः ॥४०७।।
योजन तीन कोश, चौदह सौ चौबीस धनुष, तीन हाथ और इक्कीस अंगुल है ॥३९२-३९३।। इस ज्याके धनुष पृष्ठ का परिमाण, उन्यासी हजार छप्पन योजन, तीन कोश, एक हजार पाँच सौ बत्तीस धनुष तथा सात अंगुल है ॥३९४-३९५।। अन्तरके जाननेवाले आचार्योंने उन द्वारोंका पारस्परिक अन्तर धनुःपष्ठके प्रमाणसे चार योजन कम निश्चित किया है ॥३९६॥
संख्यात द्वीपोंके अनन्तर जम्बू द्वीपके समान एक दूसरा जम्बू द्वीप है उसकी पूर्व दिशामें विजय द्वारके रक्षक विजय देवका नगर सुशोभित है ।।३९७|| वेदिकासे युक्त वह नगर बारह योजन चौड़ा है, चारों दिशाओंके चार तोरणोंसे विभूषित, सब ओरसे सुन्दर और आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला है ॥३९८||
उस नगरके चारों ओर एक प्राकार है, उसका विस्तार अग्र भागमें एक धनुषके आठ भागोंमें तीन भाग तथा मूलमें उससे चौगुना है। इस प्राकारकी गहराई आधा योजन है ।।३९९।। ऊँचाई साढ़े सैंतीस योजन है और इसकी प्रत्येक दिशामें पचीस-पचीस गोपुर हैं ॥४००॥ प्रत्येक गोपुरकी ऊंचाई इकतीस योजन एक कोश है, चौड़ाई उससे दूनी है और गहराई आधा योजन प्रमाण है ।।४०१॥ उन गोपुरोंपर सत्रह-सत्रह खण्डके भवन बने हुए हैं। ये भवन सब प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त तथा स्वर्णमय हैं ।।४०२॥ गोपुरोंके मध्यमें देवोंके उत्पन्न होनेका स्थान है जो एक कोश मोटा और बारह योजन चौड़ा है ।।४०३।। उस उत्पत्ति स्थानके चारों ओर एक वेदिका है जो पाँच सौ धनुष चौड़ी, दो कोश ऊंची और चार तोरणोंसे युक्त है ।।४०४॥
उस नगरके मध्य में एक विशाल भवन है जो प्रमाणमें गोपुरके समान है। और उसका दरवाजा आठ योजन ऊंचा, चार योजन चीड़ा तथा विजय नामक देवके द्वारा सेवित है ॥४०५॥ उस भवनके द्वारका तोरण हीरेका बना है तथा स्वर्ण और रत्नमय उसके किवाड़ हैं। उसको चारों दिशाओंमें उसोके समान विस्तारवाले और भी अनेक भवन बने हुए हैं ।।४०६।। दूसरे मण्डलमें उन भवनोंकी चारों दिशाओं में उन्हींके समान विस्तारवाले, रत्नोंके
१. देवीनामुत्पादस्थानम् । २. तत्स्वामी देवः ।
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हरिवंशपुराणे पूर्वमानार्द्धमानाश्च तृतीये मण्डले स्थिताः । तत्समानाश्चतुर्थे तु प्रत्येक दिक्चतुष्टये ॥४०॥ चतुर्थेभ्योऽर्द्धहीनाश्च पञ्चमे मण्डले स्थिताः । षष्ठे तु तत्समानस्ते प्रत्येक दिकचतुष्टये ॥४०९॥ लेणवेदिकया तुल्या वेदिका मण्डलद्वये । अर्धाधमाना सा वेद्या मण्डलस्य द्वये द्वये ॥४१०॥ प्रासादे विजयस्यात्र सिंहासनमनुत्तरम् । सचामरसितच्छत्रं तन्न पूर्वमुखोऽमरः ॥११॥ उत्तरस्यां सहस्त्राणि षट् सामानिकसंज्ञिनः । विदिशोश्च पुरः षट् स्युरग्रदेव्यश्च सोसनाः ॥४१२॥ आसनष्टौ सहस्राणि परिषत्पूर्वदक्षिणाः । मध्यमा दर्श बोधव्या दक्षिणस्यां दिशि स्थिताः ॥४१॥ द्वादशव सहस्राणि बाह्या साऽपरदक्षिणाः। आसनेष्वपरस्यां च सप्तसैन्यमहत्तराः ॥४१४॥ अष्टादश सहस्राणि चतुर्दिश्वारमरक्षकाः । मद्रासनानि तेषां च दिक्ष तावन्ति तासु च ॥४१५॥ अष्टादश सहस्राणि देवाश्च परिवारिकाः। विजयः सेव्यमानस्तैः पल्यं जीवति साधिकम् ॥४१६॥ विजयादुत्तराशायां सुधर्माख्या तु तस्सभा । दीर्घा षड् विस्तृता त्रीणि नवोच्चैः क्रोशगाहिनी ॥४१७॥ ततोऽप्युत्तरदिग्भागे तावन्मानो जिनालयः । अपरोत्तरतश्चास्मादुपपाश्र्वा सभा भवेत् ॥४१॥ अभिषेकसभा तपागलङ्कारसमाप्यतः । व्यवसायसमा तस्मात् संसमानाः सुधर्मया ॥४१९॥ पञ्चैव च सहस्राणि चत्वारोऽपि शतानि च । सप्तषष्टिश्च ते सर्व प्रासादा विजयास्पदे ॥४२०॥
बहिर्विजयपुर्यास्तु पञ्चविंशतियोजनीम् । गत्वा वनानि चत्वारि स्युः प्राच्या दिक्चतुष्टये ॥४२१॥ देदीप्यमान भवन बने हुए हैं ।।४०७।। तोसरे मण्डलमें भी इसी प्रकार भवनोंको रचना है परन्तु उनका प्रमाण पूर्व प्रमाणसे आधा है। चौथे मण्डलकी चारों दिशाओंमें जो भवन-रचना है वह तीसरे मण्डलको भवन-रचनाके समान है ।।४०८|| पांचवें मण्डलमें जो भवन हैं वे चौथे मण्डलके भवनोंसे अर्ध प्रमाण हैं और छठे मण्डलके भवन पांचवें मण्डलके भवनोंके समान हैं ।।४०९|| आदिके दो मण्डलोंमें उत्पत्ति स्थानको वेदिकाके तुल्य वेदिका है और उसके आगे दो-दो मण्डलोंकी वेदिकाएँ पूर्व-पूर्व वेदिकाके प्रमाणसे आधी-आधी विस्तारवाली जानना चाहिए ॥४१०॥
बीचके भवन में चमर और सफेद छत्रोंसे युक्त विजयदेवका उत्तम सिंहासन है। उसपर वह विजयदेव पूर्वाभिमुख होकर बैठता है ॥४१३॥ उसको उत्तर दिशामें छह हजार सामानिक देव बैठते हैं । तथा आगे और दो दिशाओंमें छह पट्टदेवियां आसन ग्रहण करती हैं ।।४१२।। पूर्व-दक्षिणआग्नेय दिशामें आठ हजार उत्तम पारिषद देव बैठते हैं। मध्यम परिषद्के दश हजार देव दक्षिण दिशामें स्थित होते हैं। बाह्य परिषद्के बारह हजार देव, पश्चिम-दक्षिण-नैऋत्य दिशामें आसनारूढ़ होते हैं और सात सेनाओंके महत्तर देव पश्चिम दिशामें आसन ग्रहण करते हैं ।।४१३-४१४|| चारों दिशाओंमें अठारह हजार अंग-रक्षक रहते हैं और चारों दिशाओंमें उतने ही उनके भद्रासन हैं ॥४१५|| विजयदेवके अठारह हजार परिवार देव हैं। इन सबके द्वारा सेवित होता हुआ वह कुछ अधिक एक पल्य तक जीवित रहता है ।।४१६|| विजयदेवके भवनसे उत्तर दिशामें एक सुधर्मा नामकी सभा है जो छह योजन लम्बी, तीन योजन चौड़ी, नौ योजन ऊंची
और एक कोश गहरी है ॥४१७।। सुधर्मा सभासे उत्तर दिशामें एक जिनालय है जिसकी लम्बाईचौड़ाई आदिका विस्तार सुधर्मा सभाके समान है। पश्चिमोत्तर दिशामें उपपाश्वं सभा है ॥४१८।। उसके आगे अभिषेक सभा, उसके आगे अलंकार सभा, और उसके आगे व्यवसाय सभा है । ये सब सभाएं सुधर्मा सभाके समान हैं ॥४१९॥ विजयदेवके नगरमें सब मिलाकर पांच हजार चार सौ सड़सठ भवन हैं ॥४२०।।
विजयदेवके नगरसे बाहर पचीस योजन चलकर पूर्वादि दिशाओंमें चार वन १. विदिशोऽस्य म.। २. आसनैः सह विद्यमाना सासनाः म.। विदिशि षट महादेवीनामासनानि । ३. दशसहस्राणि । ४. सेव्यमानस्तैः म.। ५. जीवन्ति म.।
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पञ्चमः सर्गः
अशोकवनमादौ च सप्तपर्णवनं ततः । स्याञ्चम्पकवनं नाम्ना तथा चूतवनं ततः ॥४२२॥ योजनानां सहस्राणि द्वादशायाम इष्यते । शतानि पञ्चविस्तारास्तेषां मध्ये तु पादपाः॥४२३।। अशोकः सप्तपर्णश्च चम्पकश्चूतपादपः । जम्बूपीठार्द्धमानाश्च पीठा जम्वर्द्ध मानकाः ॥४२४॥ चतस्रः प्रतिमास्तेषु चतुर्दिक्षु यथायथम् । अशोकादिसुरैरा जिनानां रत्नमूर्तयः ।।४२५॥ वनस्योत्तरपूर्वस्यामशोकपुरमत्र च । मानेन विजयस्येव प्रासादोऽशोकनामकः ॥४२६॥ सप्तपर्णपुरं पूर्वदक्षिणस्यां वनस्य तु । सप्तपर्णपुरस्यात्र प्रासादः पूर्वमानकः ॥४२७॥ दक्षिणापरदिग्भागे चम्पकस्य पुरं वनात् । अपरोत्तरदिग्भागे पुरं चेतामरस्य च ॥४२८॥ वैजयन्तादयो देवा विजयस्य समास्त्रयः । दक्षिणादिपुराधीशाः स्वालयायुःपरिच्छदैः ॥४२९॥ योजनानां तु लक्ष द्वे विस्तीर्णो लवणार्णवः । परिक्षिप्य स्थितो द्वीपं परिखेव सवेदिकः ॥४३०॥ लक्षाः पञ्चदशाशीत्या सहस्रं च शतं तथा । त्रिंशन्नव च देशोना परिधिलवणाम्बुधेः ॥४३१॥ अष्टादश सहस्राणि कोट्या नवशतान्यपि । त्रिसप्ततिश्च निश्चेया लक्षाः षट्षष्टिरेव च ॥४३२॥ सहस्राणि च पञ्चाशन्नव तानि च षट्शती। गणितस्य पदं वेद्यं प्रकीर्ण लवणार्णवे ॥४३३॥ दशैवोपरि मूले च सहस्राणि दश स्मृतः । सहस्रमवगाढोऽधो ध्रुवाण्येकादशोच्छ्रितः ॥४३४॥ तटान्तात्पञ्चनवतिं देशान् गत्वाऽवगाहते । देशमेकमधश्चैवमङ्गलादि सयोजनम् ॥४३५॥ स गत्वा पञ्चनवतिं देशान् देशांश्च षोडश । उच्छितोऽङ्गलहस्तादीन योजनानि च सागरः ॥४३६॥
हैं ॥४२१॥ उनमें पहला अशोकवन, दूसरा सप्तपर्णवन, तीसरा चम्पकवन और चौथा आम्रवन है ॥४२२॥ ये वन बारह योजन लम्बे और पांच सौ योजन चौड़े हैं। इन वनोंके मध्यमें क्रमसे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आमके प्रधान वृक्ष हैं। इन वृक्षोंकी पोठिका जम्बू वृक्षको पीठिकासे आधी है तथा इनका निजका विस्तार जम्बू वृक्षसे आधा है ॥४२३-४२४॥ उन चारों वनोंकी चारों दिशाओंमें यथायोग्य अशोकादि देवोंके द्वारा पूजित जिनेन्द्र देवकी रत्नमयी चार प्रतिमाएँ हैं ॥४२५।। अशोक वनकी उत्तर-पूर्व दिशामें अशोकपुर नामका नगर है इसमें अशोक नामक देवका भवन है जिसका विस्तार विजयदेवके भवनके समान है ॥४२६॥ सप्तपर्ण वनकी पूर्व-दक्षिण दिशामें सप्तपर्णपुर है उसमें पूर्व प्रमाणको धारण करनेवाला सप्तपर्ण देवका भवन है ।।४२७।। चम्पक वनकी दक्षिण-पश्चिम दिशामें चम्पक देवका चम्पकपुर और आम्रवनकी पश्चिमोत्तर दिशामें आम्रदेवका आम्र नगर है ॥४२८॥ वैजयन्त आदि तीन देव दक्षिणादि दिशाओंमें बने हुए नगरोंके स्वामी हैं तथा अपने भवन वायु और परिवार आदिकी अपेक्षा विजयदेवके समान हैं ॥४२९।। इस प्रकार जम्बू द्वीपका वर्णन किया। अब लवणसमुद्रका वर्णन करते हैं
__ वेदिकासे सहित लवणसमुद्र, दो लाख योजन विस्तारवाला है और वह परिखाके समान जम्बू द्वीपको घेरकर स्थित है ॥४३०॥ इसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजनमें कुछ कम है ।।४३१॥ तथा इसके गणितका प्रकीर्णक पद (क्षेत्रफल ) अठारह हजार नौ सौ तिहत्तर करोड़, छयासठ लाख, उनसठ हजार छह सौ योजन है॥४३२-४३३॥ इसकी ऊपर-नीचे चौडाई दश हजार योजन, गहराई एक हजार योजन और अवस्थित रूपसे ऊं ग्यारह योजन प्रमाण है ॥४३४॥ वह लवणसमुद्र, तटान्तसे पंचानबे हाथ जानेपर एक हाथ, पंचानबे अंगुल जानेपर एक अंगुल और पंचानबे योजन जानेपर एक योजन गहरा है ।।४३५॥ और पंचानबे अंगुल, पंचानबे हाथ या पंचानबे योजन जानेपर यह समुद्र सोलह अंगुल, सोलह हाथ या सोलह योजन ऊंचा है अर्थात् तटान्तसे पंचानबे अंगुल जानेपर सोलह अंगुल ऊंचा है, पंचानबे हाथ जानेपर सोलह हाथ ऊंचा है और पंचानबे योजन जानेपर सोलह योजन ऊंचा
१. जम्बूद्ध- म. । २. भूतामरस्य च म. । ३. १८९७३६६५९६०० ।
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हरिवंशपुराणे
शुक्ल पञ्चसहस्राणि यावत्तावत् प्रवर्धते । पक्षे प्रहीयते कृष्णे यावदेकादशैव सः॥४३७॥ त्रिशती च त्रयस्त्रिंशद् योजनानि दिने दिने । त्रिभागं वर्धते वाधिः शुक्ले कृष्णे च हीयते ॥४३८॥ मक्षिकापक्ष्मसूक्ष्मान्तो वेदिकान्ते पयोनिधिः। स चोवं मानतोयस्तु योजनाई प्रवर्द्धते ॥४३९॥ षट्षष्टि द्वे शते दण्डा द्वौ हस्तौ षोडशाङ्गली । शुक्ले कृष्णे च ते स्यातां वृद्धिहानी दिने दिने ॥४४०॥ अधः संक्षेपणी द्रोणी विस्तीर्णोध्वं क्षितौ दिवि । अन्यथा नौपुटाम्मोधिः समो वा यवराशिना ॥४४१॥ जगत्याः पञ्चनवतिं सहस्राणि प्रविश्य तु । मध्ये स्युर्दिक्षु चत्वारि पातालविवराण्यधः ॥४४२॥ प्राच्यां पातालमाशायां प्रतीच्यां बडवामुखम् । कदम्बुकमपाच्यां स्यादुदीच्यां यूपकेसरम् ॥४४३॥ तन्मूलमुखविस्तारः सहस्राणि दश स्मृतः । गाहस्वमध्यविस्तारावेका लक्षेति लक्षितौ ॥४४४॥ अलञ्जलसमानानि पातालानि समन्ततः । बाहुल्यं वज्रकुड्यानां तेषां पञ्च शतानि तु ॥४४५॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतत्रयम् । एकैकोऽत्र विभागः स्याद् योजनानां तु मागवान् ॥४४६॥ ऊर्ध्वभागे जलं तेषां तृतीये केवलं सदा । मूले च बलवान् वायुमंध्यमागे क्रमेण तौ ॥४४७॥ वायोरुच्छ्वासनिश्वासौ पातालेषु स्वभावजौ । तद्वशादुदकस्योर्ध्वमधश्च परिवर्तनम् ॥४४८॥ भागः पञ्चदशः शुक्ले वायुभिः पूर्यते शनैः । पातालानां जलैः कृष्णे स्थितिः स्यात्पक्षसंधिषु ॥४४॥
है॥४३६।। शुक्ल पक्ष में समुद्रका जल पाँच हजार योजन तक ऊँचा बढ़ जाता है और कृष्ण पक्षमें स्वाभाविक ऊचाईजो ग्यारह हजार योजन है वहाँ तक घट जाता है ।।४३७|| शुक्ल पक्षमें समुद्र प्रतिदिन तीन सौ तैंतीस योजन और एक योजनके तीन भाग बढ़ता है तथा कृष्ण पक्षमें उतना ही घटता है ॥४३८॥ वेदिकाके अन्तमें समुद्र मक्षिकाके पंखके समान अत्यन्त सूक्ष्म है परन्तु जब उसके जलमें वृद्धि होती है तब आधा योजन तक बढ़ जाता है ॥४३९।। शुक्लपक्षमें वेदिकाके अन्तमें प्रतिदिन समुद्रकी वृद्धि दो सौ छयासठ धनुष, दो हाथ और सोलह अंगुल होती है और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन उतनी ही हानि होती है ।।४४०॥ संकुचित होता हुआ समुद्र नीचे भागमें नावके समान रह जाता है और ऊपर पृथिवीपर विस्तीर्ण हो जाता है तथा आकाशमें इसके विपरीत जुड़ी हुई दो नौकाओंके पुटके समान अथवा जौको राशिके समान नीचे चौड़ा और ऊपर संकीर्ण हो जाता है ।।४४१२॥
वेदीसे पंचानबे हजार योजन भीतर प्रवेश करनेपर चारों दिशाओंमें नीचे चार पातालविवर हैं ॥४४२॥ उनमें पूर्व दिशामें पाताल, दक्षिणमें बडवामुख, पश्चिममें कदम्बुक और उत्तरमें यूपकेसर नामका पाताल है ॥४४३॥ इन चारों पातालोंके मूल और अग्रभागका विस्तार दश हजार योजन है तथा गहराई और अपने मध्य भागका विस्तार एक-एक लाख योजन प्रमाण माना गया है ।।४४४॥ ये पाताल-विवर गोलीके समान हैं अर्थात् इनका तल और ऊपरका विस्तार अल्प है तथा मध्यका अधिक है। इनकी वज्रमयो दोवालोंकी मोटाई सब ओरसे पांच-पांच सौ योजन है ।।४४५।। इन विवरोंके तीन-तीन भाग हैं उनमें से एक भाग तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और एक कला प्रमाण है ।।४४६।। इनके तीसरे ऊर्ध्व भागमें केवल जल रहता है, नीचेके भागमें बलवान् वायु रहती है और बीचके भागमें क्रमसे जल तथा वायु दोनों रहते हैं ॥४४७॥ पातालोंमें जो वायु है उसका उच्छ्वास-ऊँचा उठना और निःश्वास-नीचे आना स्वाभाविक है उसीके कारण उनमें जलका ऊँचा-नीचा परिवर्तन होता रहता है अर्थात् जब वायु ऊपर उठती है तब जल ऊपर उठ जाता है और जब वायु नीचे बैठती है तब जल नीचे बैठ जाता है ।।४४८।। पातालोंका पन्द्रहवां भाग शुक्लपक्षमें धीरे-धीरे वायुसे भरता रहता है और कृष्णपक्षमें जलसे । अमावस्या और पूर्णिमाके दिन उनकी स्वाभाविक स्थिति हो जाती है ।।४४९।। इन पाताल-विवरोंका पृथक्-पृथक अन्तर १. स्थिति स्यात्पञ्चसन्धिषु म. ।
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पञ्चमः सर्गः
लक्षद्वयं सहस्राणि सप्तविंशतिरन्तरम् । शतं सप्ततिरेषां' स्यात् पादोनं योजनं पृथक् ॥४५०॥ विदिक्षु क्ष द्रपाताल चतुष्कं मुखमूलयोः । सहस्रं विस्तृतं दैर्ध्य मध्यविस्तारतो दश ॥४५१|| चतुर्णामपि तेषां स्यात्पञ्चाशत्कुड्यविस्तृतिः । एकैकस्य त्रिभागेषु प्रागिवाम्भः प्रभञ्जनौ ॥ ४५२ ॥ त्रियोजन सहस्राणि त्रयस्त्रिंशं शतत्रयम् । सत्रिभागं त्रिमागानां प्रत्येकं योजनस्थितिः ॥ ४५३ ॥ एकलक्षा सहस्राणि त्रयोदश निजान्तरम् । पञ्चाशीति त्रयोऽष्टांशाः कुण्डानां दिग्वि दिस्थितम् ॥ ४५४ ॥ मुक्तावलीवदेतेषामन्तरालेषु चाष्टसु । समुद्रे क्षुद्र पाताल सहस्र मवतिष्ठते ॥ ४५५ ॥ सहस्रमवगाहश्च मध्यविष्कम्भ एव च । योजनानां शतं तेषां विस्तारो मुखमूलयोः ॥ ४५६ ॥ पञ्चविंशतं तानि प्रत्येकं चान्तरेऽन्तरे । द्विहीनाष्टशती क्रोशः सविशेषस्तदन्तरम् ॥४५७ ॥ यथायोगपरावृत्त सलिलाप्लवविप्लवाः । पातालौघाः समस्तास्ते क्षुद्राश्च परिकीर्तिताः ||४५८ ॥ तटाद् गत्वा सहस्राणि द्वाचत्वारिंशतं समौ । चतुर्दिक्षु सहस्रोच्चैः द्वौ द्वौ स्यातां तु पर्वतौ ॥ ४५९॥ कौस्तुभः कौस्तुमासश्च पाताळस्योमयान्तयोः । राजतावर्द्ध कुम्भामौ तत्सुरौ विजयश्रियौ ॥ ४६०॥ उदकश्योदवासश्च कदम्बुकसमीपगौ । शिवश्च शिवदेवश्च तयोर्देवौ यथाक्रमम् ॥ ४६ ॥
शङ्खमहाशङ्खौ वडवामुखपार्श्वगौ । शङ्खामावुदकश्च स्यादुदवासश्च तत्सुरौ ॥४६२ ॥ resistaratsu यूपकेसरपार्श्वगी । रोहितो लोहिताङ्कश्च तत्सुरौ परिकीर्तितौ ॥ ४६३ ॥
दो लाख सत्ताईस हजार एक सौ पौने इकहत्तर योजन है ||४५०||
चारों विदिशाओं में चार क्षुद्र पाताल-विवर हैं इनका ऊपर और नीचे एक-एक हजार तथा मध्यमें दश हजार योजन विस्तार है एवं उनकी ऊंचाई भी दश हजार योजन है ||४५१ || इन चारोंकी दीवालोंको चोड़ाई पचास योजन है तथा प्रत्येकके तीन तीन भाग हैं और उनमें पूर्व की भांति जल तथा वायुका सद्भाव है || ४५२|| तीनों भागों में प्रत्येक भाग तीन हजार तीन सौ तीस योजन तथा एक योजनके तीन भागों में एक भाग प्रमाण है || ४५३ || दिशाओं और विदिशाओं के पाताल- विवरोंका परस्पर अन्तर एक लाख तेरह हजार पचासी योजन है || ४५४ || लवण समुद्र में इन आठ पाताल- विवरों के आठ अन्तरालोंमें एक हजार क्षुद्र पाताल और भी हैं जो मोतियों की माला समान सुन्दर जान पड़ते हैं || ४५५ || इन क्षुद्र पाताल-विवरोंकी गहराई एक हजार योजन है और विस्तार मध्य में एक हजार योजन तथा ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन है ||४५६|| ये क्षुद्र पाताल विवर एक-एक अन्तराल के बीच में एक सौ पचीस-एक सौ पचीस हैं तथा इनका पारस्परिक अन्तर सात सौ अंठानबे योजन एवं कुछ अधिक एक कोश है || ४५७|| जिनमें यथायोग्य पानीका प्रवेश तथा निर्गम होता रहता है, ऐसे ये समस्त पाताल -विवरोंके समूह क्षुद्र पाताल कहे गये हैं ।। ४५८ ।।
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तटसे बयालीस हजार योजन चलकर चारों दिशाओं में एक-एक हजार योजन ऊँचे दो-दो पर्वत हैं || ४५९ || पूर्व दिशाके पाताल-विवरकी दोनों ओर कौस्तुभ और कौस्तुभास नामके अर्धकुम्भकार चाँदी के दो पर्वत हैं इनके अधिष्ठाता ( उदक और उदवास) देव विजयदेव के समान वैभवको धारण करनेवाले हैं ||४६०|| दक्षिण दिशा के कदम्बुक पातालविवरके समीप उदक और उदवास नामके दो पर्वत हैं । क्रमसे शिव तथा शिवदेव उनके अधिष्ठाता देव हैं ||४६१ || पश्चिम दिशा के बडवामुख पातालविवरके समीप शंख और महाशंख नामके दो पर्वत हैं तथा शंखके समान आभावाले शिव और शिवदेव नामक देव अधिष्ठाता हैं || ४६२|| उत्तर दिशाके भूपकेसर पातालविवरके समीप उदक और उदवास ये दो पर्वत हैं तथा रोहित और लोहितांक उनके अधिष्ठाता देव
१. -रेव ख । २. तदनन्तरं म. ।
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हरिवंशपुराणे योजनानां तु लौका सहस्राणि च षोडश । अन्तरं पर्वतानां स्यानिजपातालमूर्तिभिः ॥४६॥ नागवेलन्धराधीशा गिरिमस्तकवर्तिषु । वसन्ति नगरेष्वेते नागैर्वेलन्धरैः सह ॥४६५॥ नागानां च सहस्राणि द्विचत्वारिंशदम्बुधौ । लवणाभ्यन्तरां वेलां धारयन्ति नियोगतः ।।४६६॥ द्वासप्ततिसहस्राणि बाह्ये वेला जलाकुलाम् । धारयन्ति सदा नागा जलक्रीडादृढादराः ॥४६७॥ अष्टाविंशतिसंख्यानि सहस्राणि यथायथम् । अग्रोदकमदग्रं तु नागानां धारयन्ति च ॥४६८॥ द्वादशैव सहस्राणि वारिधावपरोत्तरम् । तावस्यव सहस्राणि विस्तृतः सर्वतः समः ॥४६९।। गोतमो नामतो द्वीपो गोतमस्तस्य चामरः । सोऽपि कौस्तुमदेवेन परिवारादिमिः समः ॥४७०।। मास्त्वेकोरुकाः पूर्वे दक्षिणे तु विषाणिनः । लागूलिनोऽपरे च स्युरुत्तरेऽमाषकास्तथा ।।४७१॥ विदिक्षु शशकर्णास्तु चतसृष्वपि भाषिताः । एकोरुकोत्तरापाच्योरश्वसिंहमुखाः क्रमात् ॥४७२॥ शष्कुलीकर्णनामानः पार्श्वयोस्तु विषाणिनाम् । श्वमुखा वानरास्या ये ते लाङगूलिकपार्श्वयोः ॥४३॥ अमाषकान्तयोश्चापि शष्कुलोकर्णमानुषाः । गोमुखा मेषवक्त्राः स्युर्विजया?भयान्तयोः ॥४७४।। हिमवत्प्राक्प्रतीच्योः स्युरुल्काकालमुखा नराः । मेघविद्युन्मुखाः प्राच्यप्रतीच्योः शिखरिश्रुतेः ॥४७५॥ आदर्शगजवक्त्राख्या विजयान्तियोर्मताः । चतुर्विशतिरेव स्युर्तीपाश्चापि तदाश्रयाः ॥१७॥ गत्वा पञ्चशतीं दिक्षु विदिक्ष्वन्तरदिक्षु च । पञ्चाशतं च ते द्वीपाः षट्शती मुखपर्वताः ॥४७॥ दिगाताः शतरुन्द्राः स्युः पञ्चविंशतिमद्विजाः । रुन्द्रा पञ्चशतं द्वीपा विदिश्वन्तरदिक्षु च ॥४७८॥
हैं ।।४६३।। इन पर्वतोंका अपने-अपने पाताल-विवरोंसे एक लाख सोलह हजार योजन अन्तर है ॥४६४।। इन पर्वतोंके ऊपर अनेक नगर बने हुए हैं उनमें वेलन्धर जातिके नागकुमार देवोंके साथ उनके स्वामी निवास करते हैं ॥४६५॥ लवण समुद्र में बयालीस हजार नागकुमार अपने नियोगके अनुसार उसकी आभ्यन्तर वेलाको धारण करते हैं और बहत्तर हजार नागकुमार जलसे भरी बाह्य वेलाको सदा धारण करते हैं। ये नागकुमार जलक्रीडा करने में दृढ़ आदर रखते हैं ॥४६६-४६७।। अट्ठाईस हजार नागकुमार लवण समुद्रकी उन्नत अग्रशिखाको धारण करते हैं ॥४६८|| लवण समुद्रको पश्चिमोत्तर दिशामें बारह योजन दूर चलकर बारह हजार योजन विस्तारवाला एक गोतम नामका द्वीप है। यह द्वीप सब ओरसे सम है तथा गोतम नामका देव उसका अधिष्ठाता है। परिवार आदिकी अपेक्षा गोतम देव कौस्तुभ देवके समान हैं ।।४६९-४७०|| लवण समुद्रकी पूर्व दिशामें एक टांगवाले, दक्षिणमें सींगवाले, पश्चिममें पूंछवाले और उत्तरमें गूंगे मनुष्य रहते हैं ।।४७१।। चारों विदिशाओंमें खरगोशके समान कानवाले मनुष्य कहे गये हैं। एक टांगवालोंको उत्तर और दक्षिण दिशामें क्रमसे घोड़े और सिंहके समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं ॥४७२॥ सींगवाले मनुष्योंकी दोनों ओर शष्कुलीके समान कानवाले और पूंछवालोंको दोनों ओर क्रमसे कुत्ते और वानरके समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं ॥४७३।। गूंगे मनुष्योंकी दोनों ओर शकूलीके समान कानवाले रहते हैं। विजयाध पर्वतके दोनों किनारोंपर जो कि पूर्व-पश्चिम समुद्रमें निकले हुए हैं क्रमसे गौ और भेड़के समान मुखवाले रहते हैं ।।४७४॥ हिमवत् पर्वतके पूर्व और पश्चिम कोणोंपर क्रमसे उल्कामुख और कृष्णमुख तथा शिखरी पर्वतके पूर्व-पश्चिम कोणोंपर मेघमुख और विद्युन्मुख मनुष्य रहते हैं ।।४७५।। और ऐरावत क्षेत्रमें जो विजया है उसके दोनों कोणोंपर दर्पण तथा हाथोके समान मुखवाले मनुष्य माने गये हैं। इस प्रकार उक्त चौबीस द्वीप ही ऊपर कहे हुए मनुष्योंके आश्रय हैं ॥४७६।। दिशाओं और विदिशाओंके अन्तरद्वीप समुद्रतटसे पाँच सौ योजन, अन्तरदिशाओंके साढ़े पांच सौ योजन और पर्वतोंके कोणवर्ती द्वीप छह सौ योजन आगे चलकर हैं इन द्वीपोंके अग्रभागमें एक-एक पर्वत हैं ॥४७७॥ दिशाओंके द्वीप
१. -मुदने ख.।
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पञ्चमः सर्गः
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ते पञ्चनवतं मागं 'स्वप्रदेशस्य चाप्लुताः । जलायोजनमुद्विद्धवेदिकापरिवारिताः ॥४७९॥ तेनैव षोडशाभ्यस्तमुपरिष्टाजलावृताः । संकलय्याधरं वोद्ध्वं क्षेत्रं वाच्यं जलावृतम् ॥४०॥ जम्बूद्वीपस्य यावन्तो द्वीपाः निकटवर्तिनः । तावन्तो धातकीखण्ड-द्वीपस्य लवणोदजाः ॥४८१।। अष्टादशकुलास्तेषु पल्यायुष्काः कुमानुषाः । एकोरुगाः गुहावासाः मृष्टमृद्भोजनास्तु ते ॥४८२॥ शेषपुष्पफलाहाराः वृक्षमूलनिवासिनः । एकान्तराशनाः मृत्वा जायन्ते भौमभावनाः ॥४८३॥ जम्बूद्वीपजगत्या च समुद्रजगती समा। अभ्यन्तरे शिलापट्ट बहिस्तु वनमालिका ॥४८४॥ चतुर्गुणस्तु विस्तारो द्वीपस्य जलधेस्तथा । सूची भवेत्रिभिन्यूनः तदन्ते मण्डलेऽखिले ॥४८५॥ विस्ताररहिता सूची चतुासगुणा तु या । तावन्तस्तु भवन्त्यस्य जम्बूद्वीपसमांशकाः ॥४८६॥ स्युश्चतुर्विंशतिर्मागा लवणद्वीपसंमिताः । षड्गुणास्ते परद्वीपे काले सप्तचतुर्गुणाः ॥४८७॥
सौ योजन, विदिशाओं तथा अन्तरदिशाओंके पाँच सौ योजन और पर्वतोंके तटान्तवर्ती द्वीप पचीस योजन विस्तारवाले हैं ॥४७८॥ इनका पंचानबेवां भाग जलमें डूबा है तथा ये एक योजन जलसे ऊपर उठी हुई वेदिकाओंसे घिरे हुए हैं ।।४७९॥ पंचानबेवें भागको सोलहसे गुणा करनेपर गुणित भागोंके बराबर इनके ऊपर-नीचेका क्षेत्र जलसे आवृत कहना चाहिए ॥४८०॥ लवण समुद्रके जितने अन्तर्वीप जम्बूद्वीपके निकटवर्ती हैं उतने ही धातकी खण्डके निकटवर्ती हैं। भावार्थ-दिशाओंमें चार, विदिशाओंमें चार, अन्तरालोंमें आठ और हिमवत् शिखरी तथा दोनों विजयाध पर्वतोंके आठ इस प्रकार चौबीस अन्तर्वीप जम्बूद्वीपके निकटवर्ती लवणसमुद्र में हैं तथा चौबीस धातकीखण्डके निकटवर्ती लवण समुद्रमें। सब मिलाकर लवण समुद्रमें ४८ अन्तर्वीप हैं ॥४८१।। उनमें अठारह कुल कुभोगभूमिया जीवोंकी है और वे एक पल्यकी आयुवाले हैं।
एक टांगवाले मनुष्य गुफाओंमें रहते हैं तथा मधुर मिट्टीका भोजन करते हैं ।।४८२।। शेष मनुष्य फूल और फलोंका आहार करते हैं तथा वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं। ये सब एक दिनके अन्तरसे भोजन करते हैं और मरकर व्यन्तर तथा भवनवासी देव होते हैं ॥४८३।। लवण समुद्रको जगती ( वेदी) जम्बू द्वीपकी जगतीके समान हैं उसके भीतरी भागमें शिलापट्ट हैं और बाहरी भागमें वन-पंक्तियां हैं ।।४८४॥ किसी भी द्वीप अथवा समुद्रका जितना विस्तार है उसे चौगुना कर उसमें से तीन घटा देनेपर उसके अन्तिम मण्डलकी सूचीका प्रमाण निकलता है ॥४८५।। इस करणसूत्रके अनुसार लवण समुद्रकी सूची पांच लाख है उसमें-से विस्तारके दो लाख घटा देनेपर तीन लाख रहे । उसमें चारका गुणा करनेपर बारह लाख हुए और उसमें विस्तारका प्रमाण जो दो लाख है उसका गुणा करनेपर चौबीस लाख हुए। इस तरह लवण
-त्रिलोकसारस्य
१. वप्रवेशस्य म. २. इगिगमणे पणणउदिग तुंगो सोलगुणमुवरि कि पयदे ।
दुगजोगे दीउदयो सदिया जोयणग्गया जलदो ॥९१५॥ ३. भवण वइवाण विन्तर जोइस भवणेसु ताण उप्पत्तो ।
ण य अण्णु त्थुपपत्ती बोधव्वा होई णियमेण ॥८५।। सम्मइंसणरयणं जेहिं सुगहियं णरेहिं णारीहिं ।
ते सव्वे मरिऊणं सोहम्माईसु जायंति ॥८६।। ४. दीपस्स समुदस्स य विक्खंभं चहि संगणं णियमा ।
तिहि सदसहस्स ऊणा सा सूची सव्वकरणेसु ॥९५॥
-जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति, १० उद्देश
-ज.प्र., १० उद्देश
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हरिवंशपुराणे
हे सहस्र शतान्यष्टावशीतिरपि चोत्तराः। जम्बूद्वीपसमा भागाः पुष्करद्वीपभाविनः ॥१८॥ द्वीपोऽपि धातकीखण्डः पर्येति लवणोदधिम् । योजनानां चतुर्लक्षविस्तीर्णो वलयाकृतिः ॥१८॥ सूचिरभ्यन्तरा पञ्च-लक्षा नव तु मध्यमा । बाह्या त्रयोदश द्वोपे धातकीखण्डमण्डिते ॥१९॥ परिधिः पूर्वसूच्यास्तु लक्षाः पञ्चदशोदिताः । एकाशीतिसहस्राणि शतं त्रिंशन्नवाधिकम् ॥४९॥ स चाष्टाविंशतिर्लक्षाः मध्यायाः षट्सहस्रकैः । चत्वारिंशरसहस्राणि पञ्चाशद् योजनानि च ॥४९२॥ बाह्यसूच्यास्त्वसौ लक्षाश्चत्वारिंशत्स हैकया । शतानि नव षष्ट्य के सहस्राणि दशापि च ॥४९३॥ पूर्वापरौ महामेरोद्वौं मेरू भवतोऽस्य च । इष्वाकारी विमक्तारौ पर्वतौ दक्षिणोत्तरौ ॥४९४॥ सहस्रयोजनव्यासौ द्वीपव्याससमायतौ। उच्छायेणावगाहेन निषधेन समौ च तौ ॥४९५॥ क्षेत्राणि भरतादीनि सप्त षट कुलपर्वताः । हिमवत्पूर्वका द्वीपे तत्रापि प्रतिमन्दरम् ॥४१६॥ पूर्वैः सहैकनामानः सर्वे नगनदीहृदाः । समोच्छ्रायावगाहाः स्युस्तेभ्यो द्विगुणविस्तृताः ॥४९७॥ अररन्ध्राकृतीन्यङ्कमुखान्यभ्यन्तरे बहिः । क्षुरप्राकृतवन्ति स्युः शैलक्षेत्राणि तानि च ॥४९८॥ लक्षया पर्वतै रुद्धं सहस्राण्यष्टसप्ततिः । द्विचत्वारिंशदष्टौ च शतानि क्षेत्रमत्र च ॥४९९॥ बडु योजनसहस्राणि षट् शतानि चतुर्दश । भरतान्तरविष्कम्मः शतं विशं नवांशकाः ॥५०॥
समुद्रके जम्बू द्वीपके बराबर चौबीस खण्ड हैं। धातको खण्डमें इससे छह गुने-एक सौ चालीस हैं। कालोदधिमें धातकीखण्डके खण्डोंसे सतगुने-छह सौ बहत्तर हैं और पुष्कराधमें कालोदधिके खण्डोंसे चौगुने-दो हजार आठ सौ अस्सी हैं ॥४८६-४८८।। इस प्रकार लवण समुद्रका वर्णन हुआ। अब धातकीखण्डका वर्णन करते हैं
चार लाख योजन विस्तारवाला चडीके आकार दसरा धातकीखण्ड दीप भी चारों ओरसे लवणसमुद्रको घेरे हुए है ।।४८९॥ धातकी अर्थात् आंवलेके वक्षोंसे सुशोभित इस धातकीखण्ड द्वीपकी आभ्यन्तर सूची पांच लाख, मध्यम सूची नौ लाख और बाह्य सूची तेरह लाख योजनकी है ।।४९०॥ इनमें पूर्व-आभ्यन्तर सूचीकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन है ।।४९१।। मध्यम सूचीकी परिधि अट्ठाईस लाख छियालीस हजार पचास योजनकी है ।।४२२।। और बाह्य सूचीकी परिधि इकतालीस लाख दश हजार नौ सौ इकसठ योजनकी है ।।४९३।।
इस द्वीपमें जम्बू द्वीपके महामेरुसे पूर्व और पश्चिम दिशामें दो मेरु पर्वत हैं तथा दक्षिण और उत्तरके भेदसे दो इष्वाकार पर्वत इसका विभाग करनेवाले हैं ॥४९४|| वे दोनों इष्वाकार पवंत एक हजार योजन चौड़े, द्वीपकी चौड़ाई बराबर चार लाख योजन लम्बे तथा ऊँचाई और गहराईकी अपेक्षा निषध पर्वतके समान ( चार सौ योजन ऊँचे और सौ योजन गहरे । ॥४९५॥ द्वीपके समान इस धातकोखण्डमें भी प्रत्येक मेरुकी अपेक्षा भरतको आदि लेकर सात क्षेत्र तथा हिमवान् आदि छह कुला वल हैं ॥४९६॥ यहाँके समस्त पर्वत, नदी और सरोवर जम्बू द्वीपके पर्वत, नदी और सरोवरके समान नामवाले हैं तथा उन्हींके समान ऊंचाई और गहराईसे युक्त हैं केवल विस्तार उनका दूना-दूना है ॥४९७|| इस द्वीपके पर्वत और क्षेत्र भीतरकी ओर नौ गाड़ीके पहियेमें लगे आरों तथा उनके बीचके अन्तरके समान हैं और बाहरको ओर क्षुराके समान हैं अर्थात् इनका आभ्यन्तर भाग संक्षिप्त और बाह्य भाग विस्तृत है ।।४९८।। इस धातकोखण्ड में एक लाख अठहत्तर हजार आठ सौ बयालोस योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतोसे रुका हआ है ॥४९९|| भरत क्षेत्रका आभ्यन्तर विस्तार छह हजार छह सौ चौदह योजन तथा
१. परमन्दर म. । २.-रूध्वं म. ।
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पञ्चमः सर्गः
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क्षेत्राणां च भवेच्छेदो द्विशती द्वादशोत्तरा। एकोनविंशतिस्तत्र छेदः पर्वतगोचरः ॥५०॥ द्वादशव सहस्राणि तथा पञ्च शतानि च । एकाशीतिश्च पत्रिंशत्कला मध्यमविस्तृतिः ॥५०२॥ अष्टादश सहस्राणि पञ्चशत्यपि सप्त तु । चत्वारिंशद्बहिर्भागाः पञ्च पञ्चाशता शतम् ॥५०३॥ विष्कम्भत्रितयं ज्ञेयमाविदेहं चतुर्गुणम् । क्रमेण परतो हानिर्यावदैरावतक्षितिः ।।५.४॥ पूर्वस्माद् द्विगुणो व्यासो हिमवत्पूर्वकादिषु । द्वादशस्वपि च द्वीपे तेभ्यः पुष्करनामनि ॥ ०५॥ भूभृतोऽर्द्धतृतीयेषु वृक्षावक्षारवेदिकाः । मेरुवयं विगाहन्ते चतुर्भागं निजोच्छितेः ॥५०६॥ षड्गुणः स्वावगाहस्तु कुण्डानां विस्तृतिर्भवेत् । नदोहदावगाहोऽपि पञ्चाशद्गुणितश्च सा ॥२०७॥ उच्छायश्चैत्यगेहस्य सार्दो ज्ञेयः शताहतः । जम्बूप्रभृतयस्तुल्या महावृक्षा दशापि ते ॥५०॥ नद्यः सरांस्यरण्यानि कुण्डपद्मा नगा हृदाः । अपगाहैः समाः पूर्विस्तारैदिगुणाः परे ॥५०९! चैत्यचैत्यालया ये ते वृषभा नामिपर्वताः । चित्रकूटादरश्चापि तथा काञ्चनकादयः ॥५१०॥ दिशागजेन्द्रकुटानि यथास्वं वेदिकादयः । व्यासावगाहनोच्छायैः सर्वे द्वीपत्रये समाः ॥५३१॥ अर्धयोजनमुद्विद्धं व्यस्तं पञ्चधनुःशतीम् । प्रत्येकं सर्वकूटानां विदितं रत्नतोरणम् ॥५१२॥ अशातिश्च सहस्राणि चत्वारि च समुच्छ्यः । चतुर्णामपि मरूगां परयोझैपयोर्मवेत् ॥५१३।। सहस्रमवगाढाश्च मेदिनी ते तु मेरवः । सहस्राणि नवव्यस्ता मूले पञ्च शतानि च ॥५१४॥ त्रिंशदेव सहस्राणि द्वाचत्वारिंशता सह । तेषामेव विनिर्दिष्टः परिधिमूलगोचरः ॥५१५॥
एक योजनके दो सौ बारह भागों में एक सौ उनतीस भाग प्रमाण है ।।५००॥ धातकीखण्ड द्वीपमें पर्वत रहित क्षेत्रोंके दो सौ बारह खण्ड और पर्वतावरुद्ध क्षेत्रके एक सौ उन्नीरा खण्ड होते हैं ।।१०१॥ भरत क्षेत्रके मध्यम भागका विस्तार गरह हजार पाँच सौ इक्यासी योजन छत्तीस भाग है ॥५०२।। और बाह्य विस्तार अठारह हजार पाँच सौ सैंतालीस योजन एक सौ पचपन भाग है ॥५०३।। यह तीनों प्रकारका विस्तार विदेह क्षेत्र तकके क्षेत्रों में भरत क्षेत्रके विस्तारसे आगे-आगे चौगुना-चौगुना अधिक है और उसके आगे ऐरावत क्षेत्र तक क्रमसे चौगुना-चौगुना कम होता गया है ।।५०४|| धातकीखण्ड द्वीपमें हिमवान् आदि बारहों पर्वतोंका विस्तार जम्बू द्वीपके पर्वतोंसे दूना-दूना है। इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपमें भी उनसे दूना-दूना विस्तार है ।।५०५।। अढ़ाई द्वीप में मेरु पर्वतको छोड़कर कुलाचल, वृक्ष, वक्षार पर्वत और वेदिकाओंकी गहराई अपनी ऊंचाईसे चौथा भाग है ॥५०६।। धातकीखण्डके कुण्डोंका विस्तार उनकी गहराईसे छह गुना, और नदी-सरोवरोंका विस्तार उनकी गहराईसे पचास गुना है ।।५०७॥ धातकीखण्डके चैत्यालयोंकी ऊंचाई डेढ़ सौ योजन है और जम्बू आदि दशों महावृक्ष एक समान विस्तारवाले हैं ।।५०८|| नदी, सरोवर, वन, कुण्ड, पद्म, पर्वत और सरोवर गहराईकी अपेक्षा जम्बू द्वीपकी नदी आदिके समान हैं तथा विस्तारको अपेक्षा दूने-दुने हैं ।।५०९।। चैत्य, चैत्यालय, वृषभाचल, नाभिपर्वत, चित्रकूट आदि कांचनगिरि आदि पर्वत, दिग्गजेन्द्रोंके कूट, तथा वेदिका आदि हैं वे सब विस्तार, गहराई तथा ऊँचाईकी अपेक्षा तीनों द्वीपोंमें समान हैं ।।५१०-५११|| धातकीखण्ड में समस्त कूटोंके रत्नमयी तोरण आधा योजन ऊंचे और पांच सौ धनुष चौड़े हैं ।।५१२।। धातकोखण्ड और पुष्कर इन दोनों द्वीपों के वारों मेरु पर्वतोंको ऊँचाई चौरासी हजार योजन है ।।५१३ वे मेरु पर्वत एक हजार योजन नीचे तो पृथिवीमें गहरे हैं और नौ हजार पाँच सौ योजन उनके मूलका विस्तार है ॥५१४|| उनके मूल भागको परिधि तीस हजार बयालीस योजन है ।।५१५।। १. वंसधर विरहिदं खलु जं खेतं हवदि धातकीखण्डे । तस्स दु छेदाणियमा वे चेव सदाणि वाराणि ॥१४।।
-ज. प्र. ११ उद्देश्य २. मेरुं वयं म.। ३. परैः म.।
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हरिवंशपुराणे नव चैव सहस्राणि चतुःशतयुतानि तु । चतुर्णामपि मेरूणां भूमौ विष्कम्भ इष्यते ॥५१६॥ एकोनत्रिंशदेव स्युः सहस्राणि शतानि च । पञ्चविंशति सप्तव परिधिर्वसुधातले ॥५१७॥ सहस्राधं च गत्वोव नन्दनं स्वतिविस्तृतम् । पञ्च पञ्चाशतं पञ्चशती सौमनसं वनम् ॥५१८॥ पाण्डुकं च सहस्राणि गत्वाष्टाविंशतिः पृथु । चतुर्णवतिसंयुक्ता योजनानां चतुःशती ॥५१९॥ शतान्यर्द्धचतुर्थानि सहस्राणि नवापि च । नन्दनै मन्दरस्यायं विष्कम्भः परिभाषितः ॥५२०॥ सप्तषष्टिसहस्रार्द्धमेकोनत्रिंशदेव च । सहस्राणि परिक्षेपो नन्दने मन्दराद् बहिः ॥५२१॥ शतान्यर्द्धचतुर्थानि सहस्राण्यष्ट नन्दनात् । विना मन्दरविष्कम्मः स चाभ्यन्तर ईरितः ॥५२२॥ षड्वंशतिसहस्राणि पञ्चाग्रा च चतुःशती । परिधिर्मन्दरस्यैष नन्दनान्तरगोचरः ॥५२३॥ बाह्यस्त्रीणि सहस्राणि विष्कम्मोऽष्टौ शतानि च । मेरोः सौमनसे सान्तः सहस्रेण विवर्जितः ॥५२४॥ बाह्यस्तस्य सहस्राणि द्वादशैव हि षोडश । मन्दरस्य परिक्षेपो वने सौमनसे स्थितः ॥५२५॥ अष्टौ चैव सहस्राणि तथैवाष्टौ शतानि च । चतुःपञ्चाशदप्यन्तः परिधिस्तस्य तद्वने ॥५२६॥ द्वाषष्टयकं शतं त्रीणि सहस्राणि च पाण्डुके । गव्यूतं साधिकं बोध्यः परिधिभूभृतः ॥५२०॥ नन्दनात् समरुन्द्रोऽद्रिः सहस्राणि दशोपरि । हानिस्तत्र क्रमादेवं वनारसौमनसादपि ॥५२८॥ दशमो दशमो भागो मूलात्प्रभृति हीयते । प्रदेशाङ्गुलहस्तादिश्चतुर्णा मेरुभूभृताम् ॥५२९॥ पुष्करिण्यः शिलाकूटप्रासादाश्चैत्यचूलिकाः । समानाः पञ्चमेरूणां व्यासावगाहनोच्छुयैः ॥५३०॥ शतानि द्वादशैव स्यात्पञ्चविंशति विस्तृतिः । मद्रशालवनस्यैषा धातकोखण्डवर्तिनः ॥५३१॥ लक्षा सप्त सहस्राणि शतान्यष्टौ च दीर्घता। नवसप्ततिरप्यस्य मद्रशालवनस्य तु ॥५३२॥ ___ तथा पृथिवीपरका विस्तार नौ हजार चार सौ योजन है ।। ५१६ ॥ पृथिवीतलपर उनको परिधि उनतीस हजार सात सौ पच्चीस योजन है ॥५१७॥ भूमितलसे पांच सौ योजन ऊपर चलकर अत्यन्त विस्तृत नन्दन वन है तथा पचपन हजार पांच सौ योजन ऊपर सौमनस वन है॥५१८॥ सौमनस वनसे अट्ठाईस हजार चार सौ चौरानबे योजनपर जाकर विशाल पाण्डुक वन है ।।५१९।। नन्दन वनमें मेरुका विस्तार नौ हजार तीन सौ पचास योजन कहा गया है ॥५२०॥ इसी वनमें मेरुकी बाह्य परिधिका विस्तार उनतीस हजार पांच सौ सड़सठ योजन है ।।५२१॥ नन्दन वनको छोड़कर मेरु पर्वतका भीतरी विस्तार आठ हजार तीन सौ पचास योजन है ॥५२२।। मेरु पर्वतको नन्दन वन सम्बन्धी परिधि छब्बीस हजार चार सौ पाँच योजन है ॥५२३।। सौमनस वन में मेरु पर्वतका बाह्य विस्तार तीन हजार आठ सौ योजन है और आभ्यन्तर विस्तार इससे एक हजार योजन कम है ॥५२४।। सौमनस वनमें मेरु पर्वतकी बाह्य परिधि बारह हजार सोलह योजन है ॥५२५ । और आभ्यन्तर परिधि आठ हजार आठ सौ चौवन योजन है ।।५२६।। पाण्डुक वनमें मेरु पर्वतकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन तथा कुछ अधिक एक कोश जानना चाहिए ॥५२७|| ये चारों मेरु पर्वत नन्दन वनसे दश हजार ऊपर तक जो समरुन्द्र हैं अर्थात् समान चौड़ाईवाले हैं और उसके बाद क्रमसे कम-कम होते जाते हैं। यह क्रम सौमनस वनके आगे भी जानना चाहिए। क्रम यह है कि मूलसे लेकर दश हजार योजनको वृद्धि होनेपर अंगुल हस्त तथा योजनका दसवां-दसवां भ कम होता जाता है। अर्थात् दश हजार योजन की ऊंचाईपर एक हजार योजन, दश हाथकी ऊंचाई पर एक हाथ और दश अंगुलकी ऊंचाईपर एक अंगुल विस्तार कम हो जाता है ॥५२८-५२९॥ पांचों मेरुओंकी वापियाँ, शिला, कूट, प्रासाद, चैत्य और चूलिकाएँ, चौड़ाई, गहराई और ऊँचाईकी अपेक्षा एक समान हैं ।।५३०॥ धातकीखण्डके भद्रशाल वनकी चौड़ाई बारह सौ पचीस योजन है ।।५३१।। और इसको लम्बाई एक लाख सात हजार आठ सौ उन्यासी योजन १. भूति विस्तृतं म., ङ. । भूमि- ग. । २. शिलाः कूटः प्रासादा-म. ।
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पञ्चमः सर्गः
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पटपञ्चाशत्महस्राणि तिस्रो लेक्षा शतद्वयम् । सप्तविंशतिरायामो गन्धमादनविद्यतोः ॥५३३॥ नवपष्टिसहस्राणि लक्षाः पञ्च शतद्वयम् । एकोनषष्टिरायामो माल्यवत्सौमनस्यगः ॥५३४॥ द्वे लक्षे च सहस्राणि योविंशतिरेव च । 'कुलायन्ते कुरुव्यासः शतं पञ्चाशदष्ट च ॥५३५॥ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि नवतिः सप्त चाष्ट तु । शतानि सप्त नवतिर्भागा द्वानवतिस्त्वयम् ॥५३६॥ वक्रायामः कुरूणां म्यादामेरोगकुहावलात् । पूर्वाधऽपि च पश्चाई धातकीखण्डमण्डले ॥५३७॥ तिम्रो लक्षाः सहस्राणि एट्पष्टिः पट शतान्ययम् । ऋज्वायामः कुरूणां स्यादशीतिश्चोभयान्तयोः।५३८। प्रतिमेरु विदेहान द्वात्रिंशत्पूर्ववन्मताः । पूर्वे पूर्वविदेहाख्या अपरे वारे स्थिताः ॥५३० ।। पूर्वस्पान्मन्दरापूर्वः कच्छाजनपदोऽवधिः । अपरादपरः सूच्या विजयो गन्धमालिनी ॥५४॥ एकादशव लक्षा हि सा सूचिः पञ्चविंशतिः । सहस्राणि शतं तस्मादष्टापञ्चाशता सह ॥११॥ लक्षाश्चास्याः परिक्षेपः पञ्चत्रिंशकाशितः । द्वापष्टिश्चाष्टपञ्चाशत्सहस्राणि प्रमाणतः ॥५४२॥ पद्मादिगृह्यो सूचीमङ्गलावत्यधिष्टिता । सा पूर्वापरयोमोरन्तराले तु या स्थिता ॥५४३।। लक्षाः षट् च सहस्राणि चतुःसततिरष्ट च । शनानि योजनानां सा द्वाचत्वारिंशता सह ॥५४४॥ एकविंशतिलक्षाश्च चतुस्त्रिशत्सहस्रकैः । त्रिंशदष्टौ पुनस्तस्याः सूच्या परिधिरिष्यते ॥५४५॥ व्यापी विजयविस्तारः सहस्राणि नवात हि । षट्शता त्रितयं च स्यादष्टमागास्वपस्तथा ॥५४६॥ स्वायामः क्षेत्रवक्षारविम सरितां विधा । सदवरमणानां स्यादादिमध्यान्तभेदतः ॥४७॥ कच्छाख्यविजयायामः पशलक्षाः सहस्रकैः । नवमिः पञ्चशत्याद्यः सप्तत्या द्विशतांशकैः ॥५४ ॥ विजयायामवृद्ध्यायी युको मध्योऽस्य जायते । मध्येऽपि च तयायामो युक्तोऽन्त्योऽयादिकेष्वपि॥५४९॥
है ।।५३२।। धातकोखण्डके गन्धमादन और विद्युद् गजदन्त पर्वतोंकी लम्बाई तीन लाख छप्पन हजार दो सौ सत्ताईस योजन है ॥५३३।। तथा माल्यवान् और सौमनस्य गजदन्तोंकी लम्बाई पांच लाख उनहत्तर हजार दो सौ उनसठ योजन है ॥५३४॥ कुलाचलोंके समीप कुरुक्षेत्रका विस्तार दो लाख तेईस हजार एक सौ अंठावन योजन है ।।५३५॥ धातकी खण्ड द्वीपके पूर्वार्ध
और पश्चिमाधं दोनों भागोंमें मेरु पर्वतसे लेकर कुलाचलों तक कुरु प्रदेशोंकी वक्र लम्बाई तीन लाख सत्तानब हजार आठ मो सत्तानबे योजन और बानबे भाग है॥५३६-५३७॥ और दोनों ओर सीधी लम्बाई तीन लाख छयासठ हजार छह सौ अस्सी योजन है ॥५३८॥ जिस प्रकार जम्बू द्वोपमें एक मेरु पर्वतके बत्तीस विदेह हैं उसी प्रकार धातकी खण्ड में भी प्रत्येक मेरुकी अपेक्षा बत्तीस-बत्तीस विदेह हैं। इनमें पूर्वको ओर पूर्व विदेह और पश्चिमकी ओर पश्चिम विदेह स्थित हैं ॥५३॥ मेरु पर्वतसे पूर्व में कच्छा नामका देश है और पश्चिममें सुचोसे यक्त गन्धमालिनी
। वह सूची ग्यारह लाख पचीस हजार एक सौ अंठावन योजन है ॥५४०-५४१।। इस सूचोको परिधि पैंतीस लाख अंठावन हजार बासठ योजन प्रमाण है ।।५४२।। पद्मा देशको आदि लेकर मंगलावती देश तक वह सूदी ली जाती है जो पूर्व-पश्चिम मेरु पर्वतोंके अन्तरालमें स्थित है ।।५४३॥ यह सूची छह लाख चौहत्तर हजार आठ सौ बयालीस योजन प्रमाण है ।।५४४॥ इस सूचोको परिधिका प्रमाण इक्कीस लाख चौंतीस हजार अड़तीस योजन है ॥५४५।। इसके देशका विस्तार नौ हजार छह सौ तीस योजन तथा एक योजनके आठ भागोंमें तीन भाग प्रमाण है ॥५४६।। क्षेत्र, वक्षारगिरि, विभंगा नदी और देवारण्य इनकी लम्बाई आदि, मध्य और अन्तके भेदसे तीन-तीन प्रकारको है ॥५४७॥ कच्छा देशकी आदि लम्बाई पांच लाख नौ हजार पाँच सौ सत्तर योजन तथा एक योजनके दो सौ बारह भागोंमें दो सौ भाग है ॥५४८॥ इसकी आदि
१. कुलाद्यन्ते म. । २. शते म. ।
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हरिवंशपुराणे पूर्वस्य विजयस्यादरायामः सरितोऽपि वा । अन्त्यो यः स परस्यायो विजयादेर्व्यवस्थितः ॥५५॥ विजयायामवृद्धिश्च सहस्रं तु चतुर्गुणम् । शतानि पञ्च चाशीतिश्चत्वारि च समीरिता ॥५५॥ वक्षारायामवृद्धिस्तु सप्त सप्ततिसंयुता । चतुःशतीतिसंख्याता षष्टिश्च सकला कलाः ॥५५२॥ सा विभङ्गनदीवृद्धिः शतमेकोनविंशतिः । कलाश्चैव द्विपञ्चाशदिति वृद्धिविदो विदुः ॥५५३।। सप्तशत्या सहस्रे द्वे तथाशीतिर्नवाधिका । देवारण्यायते वृद्धिर्वा द्वानवतिः कलाः ॥५५४॥ स्थानक्रमास्त्रिकं द्वे च षट चत्वारि नवद्विकम् । पद्माजनपदायामः शतं षण्णवतिः कलाः॥५५५॥ आद्यो यो वृद्धिहीनोऽसौ मध्यो मध्योऽन्त एव हि । वक्षारक्षेत्रनद्यादा वेद्यमेवं यथाक्रमम् ।।५५६।। अन्योन्याभिमुखा देशा वक्षारनगसिन्धवः । तटयोः सदशायामाः सीतासीतोदयोः स्थिताः॥५५७।। पूर्वान्मन्दरतः पूर्व विदेहैरपरिमैः । पाश्चात्यादपरे पूर्व ते समाः स्युर्यथाक्रमम् ।.५५८।। चत्वारिंशच्च चत्वारस्तवीपे शतमेव च । जम्बूद्वीपसमाः खण्डा गणितस्य समं पुनः ॥५५१।। कोटोनामेकलक्षा स्यात्सहस्राणि त्रयोदश । शतान्यष्टौ तथैका सा चत्वारिंशच्च कोटयः ॥५६॥ नवभिनवतिर्लक्षा पञ्चाशत्सप्तमिः सह । सहस्राणि शतैः षड्मिरेका उत्तरैस्तथा ॥५६१॥ द्वीपं च धातकीखण्डं परिक्षिपति सर्वतः । द्वीपद्विगुणविस्तारः काल: कालोदसागरः ॥५६२।। तस्यैकनवतिर्लक्षाः सहस्राणि च सप्ततिः । षटशतो साधिका पञ्च पर्यन्तपरिधिर्मतः ॥५६३।। षट् शतानि च कालोदे द्वासप्ततिरितस्ततः । जम्बूद्वीपसमाः खण्डाः पण्डितैरिह पिण्डिताः ॥५६४।। पञ्च लक्षास्तु कोटीनामेकत्रिंशत्सहस्रकैः । शतद्वयं द्विषष्टिश्च कोटयः प्रकटाः स्थिताः ॥५६५।।
लक्षाश्चैव चतुःषष्टिर्नवषष्टिसहस्रकैः । कालोदधावशीतिश्च गणितस्य पदं मतम् ॥५६६॥ लम्बाईमें देशको लम्बाई मिला देनेपर मध्य लम्बाई हो जाती है और मध्य लम्बाईमें देशकी लम्बाई मिल जानेपर अन्त लम्बाई हो जाती है। यही क्रम पर्वतादिकमें जानना चाहिए ॥५४९।। पूर्वमें देश, वक्षार पर्वत और विभंग नदीकी जो अन्त्य लम्बाई है वही आगेके देश, वक्षार पर्वत और विभंग नदीकी आदि लम्बाई है ।।५५०॥ देशकी आयामवृद्धि चार हजार पांच सौ चौरासी योजन कही गयी है ॥५५१।। वक्षार गिरियोंकी आयामवृद्धि चार सौ सतहत्तर योजन साठ कला है ॥५५२॥ विभंग नदियोंकी आयामवृद्धि एक सौ उन्तीस योजन बावन कला है ऐसा वृद्धिके जाननेवाले आचार्य कहते हैं ।।५५३।। और देवारण्यकी वृद्धि दो हजार सात सौ नवासी योजन बानबे कला है ॥५५४॥ पद्मा देशकी लम्बाई दो लाख चौरानबे हजार छह सौ तेईस योजन एक सौ छियानबे कला है ॥५५५।। यहाँके वक्षार पर्वत, क्षेत्र तथा नदी आदिको आयामवृद्धि हीन जो आदि लम्बाई है वही इनकी मध्य लम्बाई है और आयामवृद्धि होन जो मध्य लम्बाई है वही इनकी अन्त्य लम्बाई यथाक्रमसे जानने योग्य है ।।५५६।देश, वक्षारगिरि और विभंग नदियाँ सीता, सोतोदा नदियोंके दोनों तटोंपर आमने-सामने स्थित हैं तथा एक समान आयामके धारक हैं ।।५५७।। पश्चिम मेरुसे पूर्व और पश्चिममें जो विदेह हैं वे क्रमशः पूर्व मेरुसे पूर्व तथा पश्चिमके विदेहोंके समान हैं ।।५५८|| इस धातकीखण्डमें जम्बूद्वीपके समान एक-एक लाख विस्तारवाले एक सौ चौवालीस खण्ड हैं और समस्त धातकीखण्ड द्वीपका क्षेत्रफल एक लाख तेरह हजार आठ सौ इकतालीस करोड़ निन्यानबे लाख संतावन हजार छह सौ इकसठ योजन है ॥५५९-५६१॥ इस प्रकार धातको खण्डका वर्णन किया । अब कालोदधिका वर्णन करते हैं
धातकीखण्ड द्वीपसे दूने विस्तारवाला काले रंग का कालोदधि सागर धातकीखण्ड द्वीपको सब ओरसे घेरे हुए है ॥५६२॥ इसकी परिधि एकानबे लाख सत्तर हजार छह सौ पांच योजनसे कुछ अधिक मानी गयो है ॥५६३॥ विद्वानोंने कालोदधि समुद्र में जहां-तहाँ जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन विस्तारवाले छह सौ बहत्तर खण्ड संकलित किये हैं ॥५६४॥ कालोदधि समुद्रका समस्त क्षेत्रफल पाँच लाख उनहत्तर हजार अस्सी योजन है ॥५६५-५६६।। कालोदधि
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पञ्चमः सर्ग:
कालोदे दिशि निश्चेयाः प्राच्यामुदकमानुषाः । अपाच्यामश्वकर्णास्तु प्रतीच्यां पक्षिमानुषाः ॥५६॥ उदीच्यां गजकर्णाश्च शूकरास्या विदिक्षु तु । उष्ट्रकर्णाश्च गोकर्णाः प्राच्येभ्यो दक्षिणोत्तराः ॥५६८॥ गजकर्णाश्वकर्णानां मार्जारास्यास्तु पार्श्वयोः । पक्षिणां गजवक्त्राश्च कर्णप्रावरणाः स्थिताः ॥५६९।। शिशुमारमुखाश्चैव मकराममुखास्तथा । विजयाद्वंद्वयोपान्त्ये कालोदजलधौ स्थिताः ॥५७०॥ मा हिमवतोरने वृकव्याघ्रमुखाः स्थिताः । शृगालभमुखाश्चाग्रे शिखरिश्रतिभूभृतोः ॥५७१॥ स्थिता द्वीपिमुखाश्चाग्रे भृङ्गाराराजतागयोः । बाह्याभ्यन्तरयोरन्तर्जगत्यो प्यमानवाः ॥५७२॥ आयुर्वर्णगृहाहाः समा गत्यापि लावणः । सहस्रमवगाढास्ते द्वीपाश्छिन्नतटाम्बुधौ ॥७३॥ कालोदस्थाः प्रवेशेन द्वीपाः पञ्चशताधिकाः । मता द्विगुणविस्तारा लावणेभ्यः कुमानुषैः ॥५७४॥ चतुर्विशतिरन्तःस्थास्तावन्तश्च बहिः स्थिताः । लवणोदस्थितैः सर्वेः ई.पाः षण्णवतिस्तु ते ॥५७५॥ कालोदं पुष्करद्वीपः परिष्कृत्य द्विमन्दरः। स्थितो द्विगुणविष्कम्भः पृथुपुष्करलाञ्छनः ॥५७६॥ मानुषक्षेत्रमर्यादा मानुषोत्तरभूभृता। परिभिप्तस्तु तस्याद्धः पुष्करार्द्धस्ततो मतः ॥५७७॥
समुद्रकी पूर्व दिशामें पानीके समान मुखवाले, दक्षिण दिशामें घोड़ेके समान कानवाले, पश्चिम दिशामें पक्षियोंके समान मुखवाले और विदिशाओंमें शूकरके समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं। पूर्व दिशामें जो पानीके समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं उनके दक्षिण और उत्तरमें दोनों ओर क्रमसे ऊँट तथा गौके समान कानवाले मनुष्य रहते हैं। गजकर्ण और अश्वकणं मनुष्योंकी दोनों ओर बिल्लीके समान मुखवाले तथा पक्षियोंके समान मुखवालोंकी दोनों ओर हाथीके समान मुखवाले मनुष्य स्थित हैं। इन मनुष्यों के कान इतने लम्बे होते हैं कि ये उन्हींको ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं ॥५६७-५६९|| कालोदधि समुद्रमें विजयाधं पर्वतके जो दो छोर निकले हुए हैं उनपर शिशुमारके समान तथा मगरके समान मुखवाले मनुष्य रहते हैं ।।५७०॥ हिमवान् पर्वतके दोनों छोरोंपर भेड़िया और व्याघ्रके समान मुखवाले तथा शिखरी पर्वतके दोनों भागोंपर शृगाल और भालूके समान मुखवाले मनुष्य स्थित हैं ।।५७१।। ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी विजयाध पर्वतके दोनों भागोंपर चीता तथा भंगार ( झारी) के समान मखवाले और बाह्य एवं आभ्यन्तर जगतीपर चीतेके समान मुखवाले मनुष्य निवास करते हैं। ये समस्त मनुष्य आयु, वर्ण, गृह, आहार और गतिकी अपेक्षा लवण समुद्रके मनुष्योंके समान हैं, ये द्वीप एक हजार योजन गहरे हैं तथा जहाँ स्थित हैं वहाँ समुद्रका तट कटा हुआ है ।।५७२-५७३॥ कालोदधिमें स्थित रहनेवाले ये द्वीप प्रवेशको अपेक्षा पाँच सौ योजनसे अधिक हैं अर्थात् दिशाओंके द्वीप समुद्रतटसे पाँच सौ योजन प्रवेश करनेपर, विदिशाओंके द्वीप पांच सौ पचास योजन प्रवेश करनेपर और अन्तदिशाओंके द्वीप छह सौ योजन प्रवेश करनेपर स्थित हैं। इन सभीका विस्तार लवण समुद्र के द्वीपोंसे दूना माना गया है तथा कुमानुष कुभोग भूमिया जीव इनमें रहते हैं ।।५७४।। चौबीस द्वीप कालोदधिको आभ्यन्तर (धातकोखण्डकी समीपवर्ती) सीमा में और चौबीस द्वीप बाह्य (पुष्कराद्धकी समीपवर्ती) सीमामें स्थित हैं। इस प्रकार कालोदधिमें अड़तालीस हैं। लवण समुद्रके अड़तालीस द्वीपोंके साथ मिलकर सब अन्तर्वीप छियानबे हो जाते हैं ।।५७५।। इस प्रकार कालोदधिका वर्णन किया। अब पुष्कर द्वीपका वर्णन करते हैं
जिसको पूर्व-पश्चिम दिशाओं में दो मेरु हैं, कालोदधिको अपेक्षा जिसका दूना विस्तार है और जो पुष्कर अर्थात् कमलके विशाल चिह्नसे युक्त है ऐसा पुष्करवर द्वोप कालोदधिको चारों ओरसे घेरकर स्थित है ।।५७६।। पुष्करवर द्वीपका अर्धभाग, मनुष्य क्षेत्रको सीमा निश्चित करनेवाले
१. शृगालाक्ष म.।
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हरिवंशपुराणे
sorter द्विष्णाप्येष दक्षिणेनोत्तरेण च । विभक्तो भिद्यते द्वेधा स पूर्वश्चापि पश्चिमः ॥ ५७८ ॥ प्रत्येकं मेरुमध्यौ तौ धातकीखण्डखण्डवत् । क्षेत्रपर्वतनद्याद्यैः पूर्वनाममिरन्वितौ ॥ ५७९ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि सहस्त्रं पञ्चशत्यपि । सप्ततिर्नव चांशास्तु त्रिसप्तत्युत्तरं शतम् ॥ ५८० ॥ भरतान्तरविष्कम्मो मध्यो द्वादशयोजनैः । त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि शतैः पञ्चभिरेव च ॥५८१ ॥ भागाश्वास्य शतं प्रोक्ता नवतिश्व नवापि च । बाह्योऽपि भाष्यते तस्य विष्कम्भो भरतस्य तु ॥ ५४२ ॥ पञ्चषष्टिसहस्राणि योजनानि चतुःशतैः । षट् चत्वारिंशदेतानि भागाश्वासौ त्रयोदश ॥ ५८३ ॥ आविदेहं च विष्कम्भाद् वर्षाद् वर्ष चतुर्गुणम् । गणितज्ञैर्विनिर्दिष्टं पर्वतादपि पर्वतः ॥ ५८४ ॥ एका कोटिः पुनर्लक्षा द्वाचत्वारिंशदेव ताः । त्रिंशच्चापि सहस्राणि योजनानां शतद्वयम् ॥ ५८५ ॥ साधिकैकाशपञ्चाशद् योजनानि बहिर्भवः । पुष्करार्धस्य सर्वस्य परिधिः परिभाषितः ॥ ५८६ ॥ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि पञ्च पञ्चाशदद्विभिः । रुद्धं क्षेत्रं शतैः षद्भिरशांत्या चतुरन्तया ॥ ५८७ ॥ वैताढ्य वृत्तवैतायास्तथा वर्षधरादयः । निजोत्सेधावगाहाभ्यां तैर्जम्बूद्वीपजैः समाः ॥५८८ ॥ धातकीखण्ड जेभ्यस्तु विष्कम्भा द्विगुणा मताः । पुष्करार्द्ध समौ प्राग्भ्यामिवाकारौ च मन्दरौ ॥ ५८९ ॥ मानुषक्षेत्र विष्कम्भश्चत्वारिंशच्च पञ्च च । लक्ष्यास्त्वर्धतृतीयौ तौ द्वीपो वार्धिद्वयन्वितौ ॥५९० ॥ योजनानां सहस्रं तु सप्तशत्येकविंशतिः । उच्छ्रायः सच्छ्रियस्तस्य मानुषोत्तरभूभृतः ॥ ५९१|| सक्रोशोऽपि च सत्रिंशदवगाहश्चतुःशती । द्वाविंशत्या सहस्रं तु मूलविस्तार इष्यते ॥ ५९२ ॥ त्रयोविंशतियुक्तानि मध्ये सप्त शतानि तु । विस्तारोऽस्योपरि प्रोक्तश्चतुर्विंशाश्चतुःशती ॥५९३ ॥ कोटी तुपरिधिर्लक्षा द्विचत्वारिंशदस्य च । षट्त्रिंशश्च सहस्राणि सप्तशत्या त्रयोदश ॥ ५९४ ॥
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मानुषोत्तर पर्वतसे घिरा हुआ है इसलिए पुष्करार्धं माना गया है ||५७७|| यह द्वीप उत्तर और दक्षिण दिशा में पड़े हुए इष्वाकार पर्वतोंसे विभक्त है इसलिए इसके पूर्वं पुष्करार्धं और पश्चिम
करार्ध इस प्रकार दो भेद हो जाते हैं || ५७८ ।। इन दोनों ही खण्डोंके मध्य में धातकीखण्ड के समान मेरु पर्वत है तथा पहलेके ही समान नामवाले क्षेत्र पर्वत तथा नदी आदिसे दोनों खण्डयुक्त हैं || ५७९ || पुष्करार्धके भरत क्षेत्रका आभ्यन्तर विस्तार इकतालीस हजार पाँच सौ उन्यासी योजन तथा एक सौ तेहत्तर भाग है। मध्य विस्तार त्रेपन हजार पांच सौ बारह योजन एक सौ निन्यानबे भाग है और बाह्य विस्तार पैंसठ हजार चार सौ छियालीस योजन तेरह भाग कहा जाता है ।। ५८० - ५८३ ।। गणितज्ञ आचार्योंने विदेह क्षेत्र तक पूर्व क्षेत्रसे आगेके क्षेत्रका और पूर्व भवनसे आगे पर्वतका चौगुना विस्तार बतलाया है || ५८४ || समस्त पुष्करार्ध की बाह्य परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजनसे कुछ अधिक कही गयी है ।। ५८५-५८६ ।। पुष्करार्धंका तीन लाख पचपन हजार छह सौ चौरासी योजन प्रमाण क्षेत्र पर्वतोंसे रुका हुआ है ||५८७ || पुष्करार्धं के विजयाधं नाभिगिरि तथा कुलाचल आदि अपनी-अपनी ऊँचाई और गहराईकी अपेक्षा जम्बू द्वीपके विजयार्धं आदिके समान हैं ||१८८|| परन्तु विस्तारकी अपेक्षा धातकीखण्डके विजयार्धं आदिके दूने दूने हैं । पुष्करार्धके दोनों इष्वाकार तथा दोनों मेरु धातकीखण्ड के इष्वाकार और मेरुओंके समान हैं || ५८९ || अढ़ाई द्वीप तथा लवणोदधि और कालोदधि ये दो समुद्र मनुष्यक्षेत्र कहलाते हैं । इसका विस्तार पैंतालीस लाख योजन है ||५९० || उत्तम शोभासे सम्पन्न मानुषोत्तर पर्वतकी ऊँचाई एक हजार सात सौ इक्कीस योजन है || ५९१ ॥ गहराई चार सौ तीस योजन एक कोश है। मूल विस्तार एक हजार बाईस योजन, मध्य विस्तार सात सौ तेईस योजन और उपरितन भागका विस्तार चार सौ चौबीस योजन है ।।५९२ - ५९३ ॥ मानुषोत्तरकी परिधिका विस्तार एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार सात
१. वृत्तवेदाड्या म. । २. खण्डकेभ्यस्तु क., म. ।
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पञ्चमः सर्गः
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अन्तश्छिन्नतटो भाति बहिर्वृद्धिक्रमोन्नतिः । सोऽभ्यन्तरमुखासीनभृगाधिपतिविक्रमः ।।५९५॥ चतुर्दशगुहाद्वारदत्तनिर्गमनो गिरिः । 'पुष्करोदं नयत्येष पूर्वापरनदीवधूः ॥५९६॥ पञ्चाशद्योजनायामास्तद व्याससंगताः । अर्धयोजनसंवृद्धसप्तत्रिंशत्समच्छिताः ॥५९७॥ अष्टोच्छ्रायचतुासगृहद्वारोपशोभिताः । चत्वारो. मूनि तस्याद्रेश्चतुर्दिक्षु जिनालयाः ।।५९८॥ तत्प्रदक्षिणवृत्तानि प्राच्यादिषु दिशासु च । इष्टदेशनिविष्टानि कूटान्यष्टादशावले ॥५२९॥ तानि पञ्चशतोत्सेधमूलविस्तारवन्ति तु । शते चाद्ध तृतीये द्वे विस्तृतान्यपि चोपरि ॥६००॥ त्रोणि त्रीणि हि कूटानि चतुर्दिक्षु विदिक्षु तु । चत्वारि वज्रमैशान्यामाग्नेय्यां तपनीयकम् ॥६.१॥ प्राच्यां दिशि तु बैडूर्ये यशस्वान् वसति प्रभुः । अश्मगर्ने यशस्कान्तः सुपर्णानां यशोधरः ॥६०२॥ सौगन्धिके ततोऽपाच्या रुचके नन्दनस्तथा । लोहिताक्षे पुनः कूरे नन्दोत्तर इतीरितः ॥६०३।। तस्यामशनिघोषोऽपि वसत्यञ्जनके दिशि । सिद्धश्चाञ्जनमूले तु प्रताच्यां कनके पुनः ।।६०४।। क्रमणे मानुषाख्यस्तु कूटे रजतनामनि । उदीच्यां स्फटिके कूटे सुदर्शन इति श्रुतः ॥६०॥ अङ्के मोघः प्रवालेऽस्यां सुप्रवृद्धो वसत्यसौ । तपनीये सुरः स्वातिर्वज्रे तु हनुमानापि ॥६०६॥
निषधस्पृष्टभागस्थे रत्नाख्ये पूर्वदक्षिणे । वेणुदेव इति ख्यातः पन्नगेन्द्रो वसत्यसौ ॥६०७॥ सौ तेरह है ।।५९४।। यह मानुषोत्तर भीतरकी ओर छिन्नतट टाँकोसे कटे हुएके समान एक सदृश है और इसका बाह्य भाग पिछली ओरसे क्रमसे ऊंचा उठता गया है अतः भोतरको ओर मुख कर बैठे हए सिंहके समान उसका आकार जान पडता है ।।५९५।। यह पर्वत चौदह गफारूपी दरवाजों के द्वारा निकलनेका मार्ग देकर पूर्व-पश्चिमकी नदीरूपी स्त्रियोंको पुष्करोदधिके पास भेजता रहता है ।।५९६।। जिन गुफाओंसे नदियां निकलती हैं वे पचास योजन लम्बी, पचीस योजन चौड़ी और साढ़े सैंतोस योजन ऊंची हैं ॥५९७।। मानुषोत्तर पर्वतके उपरितन भागपर चारों दिशाओं में आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े गृह-द्वारोंसे सुशोभित चार जिनालय हैं ।।५९८॥ इसी मानुषोत्तर पर्वतकी पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणा रूपसे इष्ट स्थानोंपर बने हुए अठारह कूट हैं । ५९९॥ ये कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इनके मूल भागका विस्तार पाँच सौ योजन और ऊध्वंभागका ढाई सौ योजन है ॥६००। मानुषोत्तर पर्वतकी चारों दिशाओं में तीन-तीन तथा विदिशाओमें चार* कुट हैं। इन चारके सिवाय ऐशान दिशामें वनकूट ओर आग्नेय दिशामें तपनोयक कूट और भी हैं ॥६०१॥ पूर्व दिशाके वैडूर्य नामक पहले कूटपर यशस्वान् देव, दूसरे अश्मगर्भ कूटपर यशस्कान्त और तीसरे सौगन्धिक कूटपर सुपर्णकुमारोंका स्वामी यशोधर देव रहता है । तदनन्तर दक्षिण दिशाके रुवक कूटपर नन्दन, लोहिताक्ष कूटपर नन्दोत्तर और अंजन कूटपर अशनिघोष देव रहता है। पश्चिम दिशाके अंजनमूल कूटपर सिद्धदेव, कनक कूटपर क्रमण देव और रजत कूटपर मानुष नामका देव रहता है। उत्तर दिशाके स्फटिक कूटपर सुदर्शन, अंक कूटपर मोच और प्रवाल नामक कूटपर सुप्रवृद्ध देव रहता है । आग्नेय विदिशाके पूर्वोक्त तपनीयक कूटपर स्वाति देव तथा ऐशान दिशाके वज्रक कूटपर हनुमान् नामका देव रहता है। मानुषोत्तर पर्वतके पूर्व-दक्षिण कोणमें निषधाचलसे स्पृष्ट भागमें रत्न नामका कूट है और उसपर नागकुमारोंका स्वामी वेणदेव रहता है। पूर्वोत्तर कोणमें नीलाचलसे स्पष्ट भागमे सर्वरत्न नामका कट है उसपर
१. सुखासोन म. । २. पुष्करो नन्दयत्येष म. ।
* ऐशान और आग्नेय विदिशामें दो-दो तथा नैऋत्य और वायव्य में एक-एक इस प्रकार विदिशाओंमें ६ तथा दिशाओं में १२ कुल मिलाकर १८ कुट बताये हैं। इनमें चार सिद्धायतन कुट और मिला देनेपर २२ कूट होते है।
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हरिवंशपुराणे नीलादिस्पृष्टभागस्थे पूर्वोत्तरदिगावृते । सर्वरत्ने सुपर्णेन्द्रो वेणुदारी वसस्यसौ ॥६०८॥ निषधस्पृष्टमागस्थं दक्षिणापरदिग्गतम् । बेलम्बं चातिबेलम्बो वरुणोऽधिवसस्यसौ ॥६०९॥ नीलाद्रिस्पृष्टमागस्थमपरोत्तरदिग्गतम् । प्रभञ्जनं तु तन्नामा वातेन्द्रोऽधिवसत्यसौ ॥६१०॥ इत्यनेकाद्धताकीर्णः सौवर्णो मानुषक्षितेः । प्राकार इव भात्येष मानुषोनरपर्वतः ॥११॥ विद्याधरा न गच्छन्ति नर्षयः प्राप्तलब्धयः । समुद्घातोपपादाभ्यां विनास्मादुत्तरं गिरेः ॥३१२।। जम्बूद्वीपं यथा क्षारः कालोदोऽब्धिः परं यथा । द्वीपं तथैव पर्येति पुष्करोदोऽपि पुष्करम् ॥६१३॥ वारुणीवरनामानं वारुणीवरसागरः । ततः क्षीरवरद्वीपं ख्यातः क्षीरोदसागरः ॥६१४॥ ततो घृतवरद्वीपं षष्ठं धृतवरोदधिः । ततश्चेश्वरद्वीपं पर्येतीक्षरसोदधिः ।।६१५।। नन्दीश्वरवरद्वीपं नन्दीश्वरवरोदधिः । अष्टमं चाष्टमः ख्यातः परिक्षिपति सर्वतः ।।६१६॥ अरुणं नवमं द्वीप सागरोऽरुणसंज्ञकः । अरुणोद्भासनामानमरुणोद्भाससागरः ॥६१७॥ द्वीपं तु कुण्डलवरं स कुण्डलवरोदधिः । ततः शङ्खघरद्वीपं स शङ्खवरसागरः ।।६१८॥ रुचकादिवरद्वीपं रुचकादिवरोदधिः । मजगादिवरद्वीपं भजगादिवरोदधिः ॥६१९॥ द्वीपं कुशवरं नाम्ना ख्यातः कुशवरोदधिः । द्वीपं क्रौञ्चवरं चापि स क्रौञ्चवरसागरः ॥६२०॥ द्विगुणद्विगुणव्यासा यथैते द्वीपसागराः । नामभिः षोडश ख्याताः असंख्येयास्ततः परे ॥६२१॥ आषोडशादीत्यान्यानसंख्यान द्वीपसागरान् । द्वीपो मनःशिलाभिख्यो हरितालस्ततः परः ॥६२२॥ सिन्दूरः श्यामको द्वीपस्तथैवाअनसंज्ञकः । द्वीपो हिङ्गलकाभिख्यस्ततो रूपवरः परः ।।६२३॥ सुवर्णवरनामाऽतो द्वीपो वज्रवरस्ततः । वैडूर्यवरसंज्ञश्च परो नागवरस्तथा ॥६२४॥ द्वीपो भूतवरश्चान्यस्ततो यक्षवरस्ततः । ख्यातो देववरो द्वीपः परश्चेन्दुवरस्ततः ॥६२५॥
गरुडकुमारोंका इन्द्र वेणुदारी रहता है। दक्षिण-पश्चिम कोणमें निषधाचलसे स्पृष्ट भागमें वेलम्ब नामका कूट है उसपर वरुणकुमारोंका अधिपति अतिवेलम्ब देव रहता है। तथा पश्चिमोत्तर दिशामें नीलाचलसे स्पृष्ट भागमें प्रभंजन नामका कूट है और उसके ऊपर वायुकुमारोंका इन्द्र प्रभंजन नामका देव रहता है ।।६०२-६१०।। इस प्रकार अनेक आश्चर्योंसे भरा हुआ यह सुवर्णमय मानुषोत्तर पर्वत मनुष्य क्षेत्रके कोटके समान जान पडता है।३१।। समदघात और उपपादके सिवाय विद्याधर तथा ऋद्धि प्राप्त मुनि भी इस पर्वतके आगे नहीं जा सकते ॥६१२।।।
जिस प्रकार जम्बूद्वीपको लवण समुद्र घेरे हुए है उसी प्रकार पुष्करवर द्वीपको पुष्करवर समुद्र घेरे हुए है ॥६१३।। उसके आगे वारुणीवर द्वीपको वारुणीवर सागर, क्षीरवर द्वीपको क्षीरोदसागर, घृतवर द्वीपको घृतवर सागर, इक्षुवर द्वीपको इक्षुवर सागर, आठवें नन्दीश्वर द्वीपको नन्दीश्वरवर सागर, नौवें अरुण द्वीपको अरुणसागर, अरुणोद्भास द्वीपको अरुणोद्भास सागर, कुण्डलवर द्वीपको कुण्डलनर सागर, शंखवर द्वीपको शंखवर सागर, रुचकवर द्वीपको रुचकवर सागर, भुजगवर द्वीपको भुजगवर सागर, कुशवर द्वीपको कुशवर सागर, और क्रौंचवर द्वीपको क्रौंचवर सागर ये सब ओरसे घेरे हुए हैं। जिस प्रकार दूने-दूने विस्तारवाले इन सोलह द्वीपसागरोंका नामोल्लेख पूर्वक वर्णन किया है उसी प्रकार दूने-दूने विस्तारवाले असंख्यात द्वीप-सागर इनके आगे और हैं ॥६१४-६२१॥
सोलहवें द्वीप सागरके आगे असंख्यात द्वीप सागरोंका उल्लंघन कर १ मनःशिल नामका द्वीप है उसके बाद २ हरिताल, ३ सिन्दूर, ४ श्यामक, ५ अंजन, ६ हिंगुलक, ७ रूपवर, ८ सुवर्णवर, ९ वज्रवर, १० वैडूर्यवर, ११ नागवर, १२ भूतवर, १३ यक्षवर, १४ देववर
१. वरुणेन्द्रो यसत्यसो म. । २. मतः शिलोऽभिख्यो म.।
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पञ्चमः सर्गः
स्वयंभूरमणाभिख्या सर्वान्स्यौ द्वीपसागरौ । षोडशतेऽब्धिभिः सार्धं स्वनामसमनामभिः ॥६२६॥ राशिद्वयान्तराले स्युरसंख्या द्वीपसागराः । अनादिशुभनामानः सान्तरस्थितमूर्तयः ॥६२७॥ लवणो लवणस्वादस्तन्नामा वारुणीरसः । घृतक्षीररसौ द्वौ च कालोदान्त्यौ शुमोदको ॥६२८॥ मधूदकोभयास्वादः पुष्करोदः स्वभावतः । शेषास्त्विक्षरसास्वादाः सर्वेऽपि जलराशयः ॥६२९॥ लवणोद महामरस्याः संमूर्छनजमूर्तयः । नवयोजनदीर्घाः स्युस्तीरे मध्ये द्विरायताः ॥६३०॥ नदीमखेषु कालोदे ते त्वष्टादशयोजनाः । षत्रिंशद्योजना मध्ये गर्मजास्तु तदर्धकाः ॥६३१॥ 'स्वयंभूरमणेऽप्यादौ ते पञ्चशतयोजनाः । सहस्रयोजना मध्ये मरस्याद्या नान्यसिन्धुषु ॥६३२॥ मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः । अन्त्यद्वीपातः सन्ति परस्तात्ते यथा परे ॥६३३॥ द्वीपो वापि समद्रो वा विस्तारणकलक्षया । सर्वेभ्यः समतीतेभ्यः परस्तेभ्योऽतिरिच्यते ॥६३४॥ अर्धमन्दरविष्कम्मात् स्वयंभूर मणाम्बुधेः । अन्तः प्राप्य स्थितायास्तु रज्ज्वा मध्यमिदं विदुः ॥६३५॥ गुणितं पञ्चसप्तत्या सहस्रमगाह्य तु । स्वयंभूरमणाम्भोधि रज्जुमध्यमवस्थितम् ॥६३६॥
१५ इन्दुवर तथा सबसे अन्तिम स्वयम्भूरमण द्वीप तथा स्वयम्भू रमण सागर है। ये सभी द्वीप अपने समान नामवाले सागरोंसे वेष्टित हैं ॥६२२-६२६।। आदिके सोलह और अन्तके सोलह इन दोनों राशियों के बीच अनादि कालिक शुभ नामोंको धारण करनेवाले असंख्यात द्वीप और असंख्यात सागर हैं। इनमें द्वीपोंके बीच सागरका और सागरोंके बीच द्वीपका अन्तर विद्यमान है अर्थात् द्वीपके बाद सागर और सागरके बाद द्वीप इस क्रमसे इनका सद्भाव है ॥६२७|| इन समुद्रोंमें लवणसमुद्रके जलका स्वाद नमकके समान है, वारुणीवर समुद्रके जलका स्वाद वारुणी-शराबके तुल्य है, घृतवर और क्षीर समुद्रका जल क्रमसे घृत और दूधके समान है। कालोदधि और अन्तिमस्वयम्भरमणका जल पानीके समान है। पुष्करवर समुद्र मधु और पानी दोनोंके स्वादसे युक्त है तथा बाकी समस्त समुद्र इक्षुरसके समान स्वादवाले हैं ॥६२८-६२९।। लवण समुद्रके तीरपर सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न हुए महामच्छ नौ योजन लम्बे हैं तथा मध्यमें इससे दूने अर्थात् अठारह योजन लम्बे हैं। कालोदधि समुद्र में नदियोंके प्रवेशस्थानपर अठारह योजन और मध्यमें छत्तीस योजन लम्बे हैं। गर्भजन्मसे उत्पन्न होनेवाले मच्छोंकी लम्बाई सम्मच्छेनज मत्स्योंसे आधी है ॥६३०-६३१॥ स्वयम्भूरमण समुद्रके तोरपर मच्छोंकी लम्बाई पांच सौ योजन और मध्यमें एक हजार योजन है। लवण समद्र, कालोदधि और स्वयम्भूरमण इन तीन समुद्रोंके सिवाय अन्य समुद्रोंमें मच्छ आदि जलचर जीव नहीं हैं ।।६३२।। इस ओर विकलेन्द्रिय जीव (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय ) मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयम्भूरमण द्वीपके अर्ध भागसे लेकर अन्त तक पाये जाते हैं ॥६३३॥ यदि किसी द्वीप या सागरका विस्तार जानना है तो उसके पहले जो भी द्वीप और सागर निकल चुके हैं उन सबके विस्तारको इकट्ठा कर लीजिए उससे एक लाख योजन अधिक विस्तार उस विवक्षित द्वीप या सागरका होता है ॥६३४॥ मेरु पर्वतकी अधं चौड़ाईसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रके अन्त तक आधी राजू होती है। इस आधी राजूका मध्य स्वयम्भूरमण समुद्र में पचहत्तर हजार योजन प्रवेश करनेपर होता है । भावार्थ-समस्त मध्यम लोकका विस्तार एक राजू है। मेरु पर्वतको जो चौड़ाई है उसके अर्ध भागसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रके अन्त तक आधी राजू होती है। आधी राजूके आधे भागमें आधा जम्बूद्वीप तथा असंख्यात द्वोप सागर और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रके पचहत्तर हजार योजन तकका प्रदेश आता है, बाकी आधी राजूमें
१. जलयरजीवा लवणे काले यंतिम सयंभुरमणे य ।
कम्म मही पडिवद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा ॥३२॥
-त्रिलोकसारस्य
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हरिवंशपुराणे
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अनावृत्त प्रमुक्षो जम्बूद्वीपस्य रक्षकः । सुस्थितो लवणाम्मोधेरधिपः प्रतिपादितः ॥ ६३७॥ धातकीखण्डनाथौ तु प्रभासप्रियदर्शनौ । कालश्चापि महाकालः काकोदजलधीश्वरौ ॥ ६३८ ॥ पद्मश्च पुण्डरीकश्च पुष्करद्वीपनामेकौ । चतुष्मांश्च सुचक्षुश्च मानुषोत्तरशैलैपौ ॥६३९॥ श्रीप्रमश्रीवरौ नाथौ पुष्करोदस्य वारिधेः । वारुणीवरभूमीशौ वरुणो वरुणप्रभः ॥ ६४० ॥ वारुणीवरवार्धीशी मध्यमव्यमसंज्ञकौ । पाण्डुरः पुष्पदन्तश्च तौ क्षीरवरभूमिपौ ॥ ६४१ ॥ वार्षेः क्षीरवरस्येशौ विमलो विमलप्रभः । प्रभू घृतवरद्वीपे सुप्रमश्च महाप्रभः ॥ ६४२ ॥ कनकः कनकामश्च नाथौ घृतवरोदधेः । तथैवेक्षुरसद्वीपे पूर्ण पूर्ण प्रभौ सुरौ ॥ ६४३॥ देव गन्धमहागन्धौ नाथाविक्षुरसोदधेः । नन्दीश्वरवरद्वीपे नन्दिनन्दिप्रभौ तथा ॥ ६४४ ॥ प्रभू भद्रसुभद्रौ तु नन्दीश्वरवरोदधेः । अरुणद्वीपपौ देवावरुणश्चारुणप्रमः ॥ ६४५ ।। सुगन्ध सर्वगन्धाख्यावरुणाब्धेरधीश्वरौ । द्वौ द्वौ द्वीपाधिपावेवं परतो दक्षिणोत्तरौ ॥ ६४६ ॥ कोटोशतं त्रिषष्टप्रमशीतिश्वतुरुत्तराः । लक्षा नन्दीश्वरद्वीपो विस्तोर्णो वर्णितो जिनैः ।।६४७ ।। षट्त्रिंशच्च सहस्रं च कोटयो निर्युतानि च । द्वादशैव सहस्रे द्वे तथा सप्त शतानि च ।।६४८ ।। योजनानि त्रिपञ्चाशदान्तरः परिधिः स च । नदीश्वरवरद्वीपसंभवी परिभाषितः ।। ६४९॥ द्वारयुत्तरं कोटी सहस्रद्वितयं तथा । नियुतानि त्रयस्त्रिंशनवस्था सहितं शतम् ||६५० || पञ्चाशञ्च सहस्राणि चतुर्भिरधिकानि च । बहिः परिधिरेष स्यादष्टमद्वोपसंभवी ।। ६५१ ॥ मध्ये तस्य चतुर्दिक्षु चत्वारोऽञ्जनपर्वताः । तुङ्गाश्चतुरशीतिं ते व्यस्ताश्चाधः सहस्रगाः ।। ६५२॥ पटहा कृतयश्चित्रा वज्रमूलाः प्रमोज्ज्वलाः । भ्राजन्ते पर्वताः सर्वे सर्वतस्ते मनोहराः || ६५३ || सुकृष्णशिखराः शैलास्ते जाम्बूनदमूर्त्तयः । विकिरन्ति परां कान्ति दिङ्मुखेषु यथायथम् ||६५४|| गवा योजनलक्षाः स्युर्महादिक्षु महोभृताम् । चतस्रस्तु चतुष्कोणा वाप्यः प्रत्येकमक्षयाः ॥ ६५५॥
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स्वयम्भूरमण समुद्रका अवशिष्ट भाग है ।। ६३५ - ६३६ ।। जम्बू द्वीपका रक्षक अनावृत्त यक्ष है, लवण समुद्रका स्वामी सुस्थित देव कहा गया है ||६३७॥ धातकीखण्डके स्वामी प्रभास और प्रियदर्शन, कालोदधिके काल और महाकाल, पुष्करवर द्वीपके पद्म और पुण्डरीक, मानुषोत्तर पर्वत के चक्षुष्मान् और सुचक्षु, पुष्करवरं समुद्रके श्रीप्रभ और श्रीधर, वारुणीवर द्वीपके वरुण और वरुणप्रभ, वाणीवर समुद्रके मध्य और मध्यम, क्षीरवर द्वीपके पाण्डुर और पुष्पदन्त, क्षोरवर समुद्र के विमल और विमलप्रभ, घृतवर द्वीपके सुप्रभ और महाप्रभ, घृतवर समुद्रके कनक और कनकाभ, इक्षुवर द्वीप पूर्ण और पूर्णप्रभ, इक्षुवर समुद्रके गन्ध और महागन्ध, नन्दीश्वर द्वीप के नन्दो और नन्दिप्रभ, नन्दीश्वर समुद्रके भद्र और सुभद्र, अरुण द्वीपके अरुण और अरुणप्रभ और अरुण समुद्रके सुगन्ध और सर्वगन्ध देव स्वामी हैं । इसी प्रकार आगे दो-दो देव स्वामी हैं । उनमें एक दक्षिणका ओर दूसरा उत्तरका स्वामा है ।।६३८-६४६ ॥
प्रत्येक द्वीप और सागरके
जिनेन्द्र भगवान् ने आठवें नन्दीश्वर द्वीपका विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन कहा है || ६४७ || नन्दीश्वर द्वीपकी आभ्यन्तर परिधि एक हजार छत्तीस करोड़ बारह लाख दो हजार सात सौ योजन है तथा बाह्य परिधि दो हजार बहत्तर करोड़ तैंतीस लाख चौवन हजार एक सौ नबे योजन है || ६४८- ६५१ ।। नन्दीश्वर द्वीपके मध्य में चारों दिशाओंमें चार अंजनगिरि हैं । ये पर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे, उतने ही चौड़े और एक हजार योजन गहरे हैं || ६५२॥ ये सभी पर्वत ढोलके आकार हैं, चित्र-विचित्र हैं, वज्रमय मूलके धारक हैं, प्रभासे उज्ज्वल हैं और सब ओरसे मनको हरण करते हुए देदीप्यमान हैं || ६५३ || सुन्दर काले शिखरोंसे युक्त वे सुवर्णमयी पर्वत, दिशाओं में सब ओर उत्तम कान्ति बिखेरते रहते हैं || ६५४ || एक लाख योजन आगे चलकर १. नामको म. । २. शैलयोः म. । ३. लक्षाणि । ४. सहस्रं द्वितयं म ।
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पञ्चमः सर्गः
११५ सहस्रपत्रसञ्छनाः स्फटिकस्वच्छवारयः । विचित्रमणिसोपाना 'विनक्राद्याः सवेदिकाः ॥६५६॥ अवगाहः पुनस्तासां योजनानां सहस्रकम् । आयामोऽपि च विष्कम्मो जम्बूद्वीपप्रमाणकः ॥६५७॥ नन्दा नन्दवती चान्या वापी नन्दोत्तरा परा । नन्दीघोषा च पूर्वाद्रर्दिश्च प्राच्यादिषु स्थिताः ॥६५८॥ सौधर्मेन्द्रस्य भोग्याद्या द्वितीयैशानमोगिनः । तृतीया चमरेन्द्रस्य चतुर्थी तु बलेरसौ ॥१५॥ विजया बैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । दक्षिणाम्जनशैलस्य दिक्ष पूर्वादिषु क्रमात् ।।६६०॥ शक्रस्य लोकपालाना पूर्वा तु वरुणस्य सा। क्रमाद् यमस्य सोमस्य भोग्या वैश्रवणस्य च ।।६६१।। पाश्चास्याअनशैलस्य पूर्वादिदिगवस्थिताः। अशोका सुपबुद्धा च कुमुदा पुण्डरीकिणी ॥६६२॥ मोग्याद्या वेणुदेवस्य वेणुतारतः परा। धरणस्य तृतीया तु भूतानन्दस्य चोत्तरा ॥६६३॥ उदीच्याम्जनशैलस्य प्राच्याद्या सुप्रभंकरा । सुमनाश्च दिशासु स्यादानन्दा च सुदर्शना ।।६६४॥ ऐशानलोकपालस्य वरुणस्य यमस्य च । सोमस्य च कुबेरस्य मोग्यास्तास्तु यथाक्रमम् ॥६६५।। पञ्चषष्टिसहस्राणि चत्वारिंशच्च पञ्च च । अन्तरं षोडशानां स्यादान्तरं योजनानि तु ॥६६६।। मध्यान्तराणि लक्षका चत्वारि च सहस्रकः । द्वियोजनाधिकानि स्युस्तासां वै षट्शतानि च ॥६६७।। बाह्यान्तराणि कक्षे द्वे त्रयोविंशतिरेव च । सहस्राणि तथैव स्युरेकषष्टया च षट्शती ॥६६८॥ तासां मध्येषु वापीनां जाम्बूनदमयाः स्थिताः । षोडशार्जुन मूर्धानो नाम्ना दधिमुखादयः ॥६६९॥ सहस्रमवगाढास्तु तदेव दशसंगुणम् । पटहा कृतयो व्यस्ता व्यायताश्च समुच्छ्रिताः ।।६७०॥ परितस्ताश्चतस्रोऽपि वापीर्वनचतुष्टयम् । प्रत्येक तत्समायामं तदद्धव्याससंगतम् ॥६७१।।
इन पर्वतोंकी चारों दिशाओं में चार चौकोर अविनाशी वापियां हैं ॥६५५॥ ये वापियाँ कमलोंसे आच्छादित हैं, स्फटिकके समान स्वच्छ जलसे युक्त हैं, मगरमच्छादिसे रहित और वेदिकाओंसे युक्त हैं ॥६५६॥ इनकी गहराई एक हजार योजन तथा लम्बाई और चौड़ाई जम्बू द्वीपके बराबर एकएक लाख योजनकी है ।।६५७॥ पूर्व दिशामें जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रमसे नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दीघोषा नामकी वापिकाएँ स्थित हैं ॥६५८॥ इनमें पहली नन्दा नामकी वापी सौधर्मेन्द्रकी, दूसरी नन्दवतो ऐशानेन्द्रकी, तीसरी नन्दोत्तरा चमरेन्द्रकी और चौथी नन्दीघोषा वैरोचनको भोग्य है-क्रीडाका स्थान है ।।६५९।। दक्षिण दिशामें जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमसे विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये चार वापिकाएं हैं ॥६६०॥ इनमें-से पहली वापिकामें वरुण, दूसरीमें यम, तीसरीमें सोम, चौथीमें वैश्रवण क्रीड़ा करता है। ये चारों सौधर्मेन्द्रके लोकपाल हैं ॥६६१॥ पश्चिम दिशामें जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमसे अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीकिणी ये चार वापिकाएं हैं। इनमें से पहली वापी वेणुदेवकी, दूसरी वेणुतालिकी, तीसरी धरणकी और चौथी भूतानन्दकी क्रीड़ा-भूमि है ॥६६२-६६३।। उत्तर दिशामें जो अंजनगिरि है उसकी पूर्वादि दिशाओं में क्रमसे सुप्रभंकरा, सुमना, आनन्दा और सुदर्शना ये चार वापिकाएँ हैं। इनमें ऐशानेन्द्रके लोकपाल, वरुण, यम, सोम और कुबेर क्रमसे क्रीड़ा करते हैं ।।६६४-६६५।। इन सोलह वापिकाओंका भीतरी अन्तर पैंसठ हजार पैंतालिस योजन है। मध्य अन्तर एक लाख चार हजार छह सौ दो योजन है और बाहरी अन्तर दो लाख तेईस हजार छह सौ इकसठ योजन है ॥६६६-६६८।। उन वापिकाओंके मध्यमें रूपामयो सफेद शिखरोंसे युक्त सुवर्णमय सोलह दधिमुख पर्वत हैं ॥६६९।। ये सभी पर्वत एक-एक हजार योजन गहरे, दश-दश हजार योजन चौड़े, लम्बे तथा ऊँचे एवं ढोलके आकार हैं ॥६७०|| चारों वापिकाओंकी चारों ओर चार वन हैं जो वापिकाओंके समान एक लाख योजन लम्बे और उनसे आधे अर्थात्
१. नक्रमकरादिजन्तुरहिताः।
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हरिवंशपुराणे प्रागशोकवनं तत्र सप्तपर्णवनं स्वपाक् । स्याञ्चम्पकवनं प्रत्यक चूतवृक्षवनं युदक् ।।६७२।। वापीकोणसमीपस्था नगा रतिकरामिधाः । स्युः प्रत्येकं तु चत्वारः सौवर्णाः पटहोपमाः ॥६७३॥ गाढाश्चार्द्धतृतीयं ते योजनानां शतद्वयम् । सहस्रोत्सेधविस्तारव्यायामा व्ययवर्जिताः ॥६७४।। तेत्राभ्यन्तरकोणस्था द्वात्रिंशत्सेविताः सुरैः। द्वात्रिंशद्बाह्यकोणस्थाः प्रत्येक वेकचैत्यकाः ॥६७५।। तथैवाम्जनका ज्ञेया नगा दधिमुखास्तथा । एकैकजिनगेहेन पवित्रीकृतमस्तकाः ॥६७६।। प्राङमुखास्ते शतायामाः पञ्चाशद् व्यासयोगिनः । उत्सेधेन गृहा जैनाः पञ्चसप्ततियोजनाः ॥६७७।। अष्टोत्सेधचतुर्यासगाहत्रिद्वारभास्वराः। ते द्विपञ्चाशदाभान्ति नन्दीश्वरजिनालयाः ॥६.८॥ पञ्चचापशतोत्सेधा रत्नकाञ्चनमूर्तयः । प्रतिमास्तेषु राजन्ते जिनानां जितजन्मनाम् ॥६७९।। फाल्गुनाष्टाह्निकायेषु प्रतिवर्ष तु पर्वसु । शकाद्याः कुर्वते पूजां गीर्वाणास्तेषु वेश्मसु ॥६८०।। पूर्वाख्यातचतुःषष्टिवनखण्डान्तरस्थिताः । प्रासादास्तु चतुःषष्टिर्वननामसुराश्रिताः ॥६-१।। द्विषष्टियोजनोत्सेधा एकत्रिंशतमायताः । विस्तृताश्च पुरोद्दिष्टप्रमाणद्वारकाः पुनः ॥६८२॥ परौ नन्दीश्वराम्मोधेररुणद्वीपसागरौ । अन्धकारः पुनः सिन्धोर्ब्रह्मलोकान्तमाश्रितः ॥६८३।। मृदङ्गसदृशाकाराः कृष्णराज्यो विजृम्भिताः । अष्टौ ताश्च घनाकारा बाहस्तस्य व्यवस्थिताः ॥६८४॥
पचास हजार योजन चौड़े हैं ॥६७१।। उनमें पूर्व दिशामें अशोकवन है, दक्षिणमें सप्तपर्णवन है, पश्चिममें चम्पकवन है और उत्तरमें आम्रवन है ।।६७२।। वापिकाओंके कोणोंके समीप रतिकर नामके पर्वत हैं। ये पर्वत प्रत्येक वापिकाके प्रति चार-चार हैं, सुवर्णमय हैं तथा ढोलके आकार हैं ॥६७३।। ढाई सौ योजन गहरे हैं. एक हजार योजन ऊँचे-चौड़े तथा लम्बे हैं और विनाशसे रहित हैं ।।६७४॥ इनमें बत्तीस रतिकर आभ्यन्तर कोणोंमें हैं और बत्तीस बाह्य कोणोंमें । ये सभी देवोंके द्वारा सेवित हैं तथा प्रत्येकपर एक-एक चैत्यालय है ॥६७५||* रतिकरोंकी भांति अंजनगिरि तथा दीर्घ मुख पर्वतोंके मस्तक भी एक-एक जिन-मन्दिरसे पवित्र हैं अर्थात् उन सबपर एक-एक चैत्यालय है ।।६७६।। ये समस्त चैत्यालय पूर्वाभिमुख, सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे हैं ॥६७७॥
आठ योजन ऊंचे, चार योजन चौड़े तथा गहरे. तीन-तीन द्वारोंसे देदीप्यमान नन्दीश्वर द्वीपके ये पावन चैत्यालय अतिशय शोभायमान हैं ॥६७८।। उन चैत्यालयोंमें संसारको जीतनेवाले जिनेन्द्र भगवान्की पांच सौ धनुष ऊंची रत्न एवं स्वर्ण निर्मित मूर्तियां विराजमान हैं ॥६७९॥ प्रतिवर्ष फाल्गुन, आषाढ़ और कार्तिकके आष्टाह्निक पर्वोमें सौधर्मेन्द्र आदि देव उन चैत्यालयोंमें पूजा करते हैं ॥६८०|| पहले जिन चौंसठ वनखण्डोंका वर्णन किया गया है उनमें चौंसठ प्रासाद है तथा उन प्रासादोंमें वनोंके नामवाले देव रहते हैं ।।६८१।। वे प्रासाद बासठ योजन ऊंचे, इकतीस योजन लम्बे, इतने ही चौड़े तथा पूर्वोक्त प्रमाणवाले द्वारोंसे सहित हैं ॥६८२॥
नन्दीश्वर समुद्रसे आगे अरुण द्वीप तथा अरुण सागर है वहाँ समुद्रसे लेकर ब्रह्मलोकके अन्त तक अन्धकार ही अन्धकार है ।।६८३।। अरुण समुद्रके बाहर मृदंगके समान आकारवाली
१. व्यायामश्चावणिताः ख. । २. अत्राभ्यन्तरकोणेषु रतिकरवर्णनं चिन्त्यम् । ३. गृहमुखा-म.। ४. तस्या म.।
* रतिकरोंका यह वर्णन भ्रान्तिपूर्ण है क्योंकि रतिकर वापिकाओंके बाह्य कोणोंपर है। आभ्यन्तर कोणोंपर नहीं। इस तरह एक दिशाकी चार बावड़ी सम्बन्धा आठ-आठ रतिकर होते हैं, चारों दिशाओंको मिलाकर बत्तीस होते हैं। यहां आभ्यन्तर और बाह्य दोनों कोणोंमें बत्तीस-बत्तीसका वर्णन किया है इससे चौंसठ रतिकर हो जाते हैं । नन्दीश्वर द्वीपको चारों दिशाओंमें ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर इस तरह सब मिलकर ५२ चैत्यालय सर्वत्र प्रसिद्ध हैं।
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पञ्चमः सर्गः
११७ अस्मिन्नल्पयो देवा दिग्मूढाश्चिरमासते । महद्धिकसुरैः साधं कुर्युस्तद्वार्धिलङ्घनम् ॥६८५॥ यत्कुण्डलवरो द्वीपस्तन्मध्ये कुण्डलो गिरिः । वलयाकृतिराभाति संपूर्णयवराशिवत् ॥६८६॥ सहस्रमवगाहोऽस्य द्विचत्वारिंशदुच्छितिः । योजनानां सहस्राणि मगिप्रकरभासिनः ।।६४७॥ सहस्रं विस्तृतिस्त्रेधा दशसप्तचतुर्गुणम् । द्वाविंशं च त्रयोविंशं चतुर्विशं प्रभृत्यधः ॥६८८।। प्रत्येकं तस्य चत्वारि पूर्वाद्याशासु मूर्धनि । भान्ति षोडश कूटानि सेवितानि सुरैः सदा ॥६८९।। पूर्वस्यां त्रिशिरा वज्रे दिशि पञ्चशिराः सुरः । कूटे वज्रप्रभेज्ञेयः कनके च महाशिराः ॥६९०॥ महाभुजोऽपि तस्यां स्यात् कूटे तु कनकप्रभे । पद्म पद्मोत्तरोऽपाच्यां रजते रजतप्रभे ॥६९१।। सुप्रभे त महापद्मो वासुकिश्च महाप्रभे । अपाच्यामेव वाच्यौ तौ प्रतीच्यां त सुरा इमे ॥६९२।। हृदयान्तस्थिरोऽप्यके महानङ्कप्रभेऽप्यसौ । श्रीवृक्षो मणिकूटे तु स्वस्तिकश्च मणिप्रभे ॥६९३।। सुन्दरश्च विशालाक्षः स्फटिके स्फटिकप्रभे । महेन्द्र पाण्डकस्तयः पाण्डुरो हिमवत्युदक ॥६९४।। येऽमी षोडश नागेन्द्राः सर्वे पल्योपमायुषः । यथायथं स्वकूटेष प्रासादेष वसन्ति ते ॥६९५।। दिशि प्राच्या प्रतीच्यां च कुण्डलाचलमस्तके । तदद्वीपाधिपतेर्वासौ द्वे कूटे प्रकटे तयोः ।।६९६।। उच्छायो मूलविस्तारो योजनानां सहस्रकम् । अग्रे पञ्चशती मध्ये पञ्चाशत् सप्तशत्यपि ॥६९७।। तस्यैवोपरि शैलस्य महादिक्ष जिनालयाः । चत्वारः सदृशा मानैरञ्जनाद्रिजिनालयैः ॥६९८।। त्रयोदशस्त यो द्वीपो रुचकादिवरोत्तरः । तन्नामा तस्य मध्यस्थः पर्वतो वलयाकृतिः ॥६९९।।
घनाकार आठ कालो पंक्तियाँ फैली हुई हैं ॥६८४|| अल्प ऋद्धिके धारी देव इस अन्धकारमें दिशामूढ़ हो चिरकाल तक भटकते रहते हैं। वे बड़ी ऋद्धिके धारक देवोंके साथ ही इस समुद्रको लाँघ सकते हैं ॥६८५।। कुण्डलवर द्वीपके मध्य में चूड़ीके आकारका एक कुण्डलगिरि पर्वत है जो सम्पूर्ण यवोंकी राशिके समान सुशोभित है ।।६८६।। मणियों के समूहसे सुशोभित रहनेवाले इस पर्वतकी गहराई एक हजार योजन और ऊँचाई बयालीस हजार योजन है ॥६८७।। उस पर्वतकी मूलमें दश हजार दो सौ बीस योजन, मध्यमें सात हजार एक सौ इकसठ योजन और अन्तमें चार हजार छियानबे योजन चौड़ाई है ॥६८८।। उसके मधंभागपर पूर्वादि दिशाओंमें चार-चार कूट हैं। चारों दिशाओंके ये सोलह कूट सदा देवों के द्वारा सेवित हैं तथा अत्यन्त सुशोभित हैं ॥६८९।। पूर्व दिशाके वज्र नामक पहले कूटपर त्रिशिरस् , वज्रप्रभ नामक दूसरे कूटपर पंचशिरस् , कनक नामक तीसरे कूटपर महाशिरस् और कनकप्रभ नामक चौथे कूटपर महाभुज नामका देव रहता है । दक्षिण दिशाके रजतकूटपर पद्म, रजतप्रभ कूटपर पद्मोत्तर, सुप्रभ कूटपर महापद्म और महाप्रभ कूटपर वासुकि देव रहता है। पश्चिम दिशाके अंक कूटपर स्थिरहृदय, अंकप्रभ कूटपर महाहृदय, मणि कूटपर श्रीवृक्ष और मणिप्रभ कूटपर स्वस्तिक देव रहता है। उत्तर दिशाके स्फटिक कूटपर सुन्दर, स्फटिकप्रभ कूटपर विशालाक्ष, महेन्द्र कूटपर पाण्डुक और हिमवत् कूटपर पाण्डुर देव रहता है ॥६९०-६९४॥ ये सोलह देव नागकुमार देवोंके इन्द्र हैं, सबकी एक पल्य प्रमाण आयु है और सब यथायोग्य अपने-अपने कूटोंपर बने हुए प्रासादोंमें निवास करते हैं ॥६९५।। कुण्डल गिरिके ऊपर पूर्व-पश्चिम दिशामें कुण्डलवर द्वीपके स्वामीके दो कूट प्रकट हैं। उन कूटोंकी ऊंचाई एक हजार योजन है, मूल विस्तार एक हजार योजन, मध्य विस्तार सात सौ पचास योजन और उपरितन विस्तार पाँच सौ योजन है ।।६९६-६९७|| उसी कुण्डलगिरिके ऊपर चारों महादिशाओंमें चार जिनालय हैं जो प्रमाणकी अपेक्षा अंजनगिरिके जिनालयोंके समान हैं ।।६९८।।
रुचकवर नामका जो तेरहवाँ द्वीप है उसके मध्यमें चूड़ीके आकारका रुचकवर नामका
१. -मवगाढोऽस्य म., क. । २. सर्वतो म. ।
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हरिवंशपुराणे सहस्रमवगाहः स्यादशीतिश्चतुरुत्तरा । सहस्राण्युच्छ्रितिासो द्विचत्वारिंशदस्य तु ।।७००॥ सहस्रयोजनव्यासं दिक्षु पञ्चशतोच्छितम् । शिखरे तस्य शैलस्य भाति कूटचतुष्टयम् ।।७०१॥ नन्द्यावर्तेऽमरः प्राच्या पनोत्तर इतीरितः । स्वहस्ती स्वस्तिकेऽपाच्या श्रीवृक्षे नीलकोऽपरे ॥७०२॥ उत्तरे च सुरः प्रोक्तो वर्धमानेऽजनागिरिः । चत्वारो दिग्गजेन्द्राख्यास्तेऽपि पल्योपमायुषः ॥७०३।। तस्यैवोपरि पूर्वस्या कूटानामष्टकं दिशि । पूर्वोक्तकूटतुल्यं तु दिक्कुमारीभिराश्रितम् ॥७०४॥ वैडूर्ये विजया देवी वैजयन्ती च काञ्चने । जयन्ती कनके कूटे प्राच्यरिष्टेऽपराजिता ।।७०५।। नन्दा नन्दोत्तरा चोभे ते दिकस्वस्तिकनन्दने । आनन्दाप्यम्जने नान्दोवर्धनाञ्जनमलके ॥७०६॥ एतास्तीर्थकरोत्पत्तौ दिक्कुमार्यः सपर्यया। मातुरन्तेऽवतिष्ठन्ते भास्वभृङ्गारपाणयः ।।.०७॥ अमोघे स्वस्थितापाच्यां सुप्रबुद्धे सुपूर्विका । प्रणिधिः सुप्रबुद्धाऽपि मन्दरे परिकीर्तिता ॥७०८॥ दिक्कुमारी तथा ज्ञेया विमलेऽपि यशोधरा । लक्ष्मीमतति रुचके कीर्तिमत्यनि कोर्तिता॥७०९।। दिक्कुमारी प्रसिद्धाऽसौ रुचकोत्तरवासिनी । चन्द्रे वसुंधरा चित्रा सुप्रतिष्टे प्रतिष्ठिता ॥ १०॥ अष्टौ तीर्थकरोस्पत्तावेतास्तुष्टाः समागताः । मणिदर्पणधारिण्यस्तन्मातरमुपासते ।।७११॥ अपरस्यामिलादेवी लोहिताख्ये सुरा पुनः । जगत्कुसुमकूटे स्यात् पृथिवी नलिने तथा ॥ १२॥ पद्मे पद्मावती ज्ञेया कुमुदे काञ्चनापि च । कूटे सौमनसामिख्ये देवी नवमिका श्रतिः ॥७१३॥
शीतापि च यशःकूटे भद्रकूटे च मद्रिका । इमा शुभ्रातपत्राणि धारयन्त्यश्वकासते ॥ १४॥ पर्वत है ॥६९९।। इसकी गहराई एक हजार योजन, ऊँचाई चौरासी हजार योजन और चौड़ाई बयालीस हजार योजन है ।।७००|| उस पर्वतके शिखरपर चारों दिशाओं में एक हजार योजन चौड़े और पांच सौ योजन ऊंचे चार कूट सुशोभित हैं ॥७०१॥ उनमें पूर्व दिशाके नन्द्यावर्त कूटपर पद्मोत्तर देव रहता है, दक्षिण दिशाके स्वस्तिक कूटपर स्वहस्ती देव रहता है। पश्चिम दिशाके श्रीवृक्ष कूटपर नीलक देव रहता है और उत्तर दिशाके वर्धमानक कूटपर अंजनगिरि देव रहता है। ये चारों देव दिग्गजेन्द्रके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा एक पल्यको आयुवाले हैं ।।७०२-७०३।। इसी पर्वतकी पूर्व दिशामें पहले कहे हुए अन्य कूटोंके समान आठ कूट हैं और वे दिक्कुमारी देवियोंके द्वारा सेवित हैं ॥७०४।। उनमें पहले वैडूयं कूटपर विजया, दूसरे कांचन कूटपर वैजयन्ती, तीसरे कनक कूटपर जयन्ती, चौथे अरिष्ट कूटपर अपराजिता, पांचवें दिक्नन्दन कूटपर नन्दा, छठे स्वस्तिकनन्दन कूटपर नन्दोत्तरा, सातवें अंजनकूटपर आनन्दा और आठवें अंजनमूलक कूटपर नान्दीवर्धना देवी निवास करती हैं ।।७०५-७०६।। ये दिक्कुमारियां तीर्थकरके जन्मकालमें पूजाके निमित्त हाथमें देदीप्यमान झारियाँ लिये हुए तीर्थंकरको माताके समीप रहती हैं ।।७०७|| दक्षिण दिशामें भी आठ कूट हैं और उनमें पहले अमोघ कूटपर स्वस्थिता, दूसरे सुप्रबुद्ध कूटपर सुप्रणिधि, तीसरे मन्दर कूटपर सुप्रबुद्धा, चौथे विमल कूटपर यशोधरा, पाँचवें रुचक कूट पर लक्ष्मीमती, छठे रुचकोत्तर कूटपर कीर्तिमती, सातवें चन्द्र कूटपर वसुन्धरा और आठवें सुप्रतिष्ठ कूटपर चित्रादेवी निवास करती हैं ॥७०८-७१०॥ ये देवियां तीर्थकरकी उत्पत्तिके समय सन्तुष्ट होकर आती हैं और मणिमय दर्पण धारण कर तीर्थंकरकी माताकी सेवा करती हैं ।।७११।। पश्चिम दिशा में भी आठ कूट हैं उनमें पहले लोहिताख्य कूटपर इलादेवी, दूसरे जगत्कुसुम कूटपर सुरा देवी, तीसरे नलिन कूटपर पृथिवो देवी, चौथे पद्मकूटपर पद्मावतो देवी, पाँचवें कुमुद कूटपर कांचना देवी, छठे सौमनस कूटपर नवमिका देवी, सातवें यशःकूटपर शीता देवी और आठवें भद्र कूटपर भद्रिका देवीका निवास है। ये देवियाँ तीर्थंकरकी उत्पत्तिके समय शुक्ल छत्र धारण करती हुई सुशोभित होती हैं ।।७१२-७१४।। १. नन्द्यावर्तामरः म. । २. हस्तिके -म. । ३. सुस्थिता म. । ४. नलिनी म. ।
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पञ्चमः सर्गः
स्फटिके लम्बुसा त्वङ्के मिश्रकेशी व्यवस्थिता । तथैवाञ्जनके ज्ञेया कुमारी पुण्डरी किणी ।। ७१५ || वारुणी काञ्चनाख्ये स्यादाशाख्या रजते तथा । कुण्डले हीरिति ज्ञाता रुचके श्रीरितीरिता ।।७१६।। धृतिः सुदर्शने देवो दिक्कुमार्य इमाः पुनः । गृहीतचमरा जैनीं मातरं पर्युपासते ।।७१७ ॥ दिक्षु चत्वारि कूटानि पुनरन्यानि दीप्तिभिः । दीपिताशान्तराणि स्युः पूर्वादिषु यथाक्रमम् || ७१८ || पूर्वस्यां विमले चित्रा दक्षिणस्यां तथा दिशि । देवी कनकचित्राख्या तित्यालोकेऽवतिष्ठते ॥ ७१९ || त्रिशिरा इति देवी स्यादपरस्यां स्वयंप्रभे । सूत्रामणिरुदीच्यां च नित्योद्योते वसत्यसौ ।।७२०|| विद्युत्कुमार्य एतास्तु निमातृसमीपगाः । तिष्ठन्त्युद्योतकारिण्यो भानुदीधितयस्तथा ॥ ७२१ ॥ पूर्वोत्तरस्यां वैडूर्ये रुचका विदिशीरिता । तथा दक्षिणपूर्वस्य रुचके रुचकोज्ज्वला ॥७२२॥ दक्षिणापरदिश्यन्ते रुचकामा मणिप्रभे । रुवकोत्तम केऽन्यस्यां दिशि स्याद् रुचक्रप्रभा ।। ७२३।। एतास्तु दिक्कुमारीणां स्युर्महतरिका वराः । विदिक्षु पुनरन्यानि चतुःकूटान्यमूनि च ।।७२४।। पूर्वोत्तरे तु विजया रहने रत्नप्रभे पुनः । दिशि दक्षिणपूर्वस्यां वैजयन्ती प्रभाषिता ॥७२५|| जन्ती सर्वरत्ने तु दक्षिणापरदिग्गते । रलोच्चयेऽपि शेषायां दिशि स्यादपराजिता ।। ७२६।। एता विद्युत्कुमारीणां स्युर्महत्तरिका इमाः । तीर्थंकृजातकर्माणि कुर्वन्त्यष्टाविहागताः ||७२७ || चतुर्दिक्षु नगस्योर्ध्वं चत्वार्यायतनानि च । अन्जनालयतुल्यानि प्राङ्मुखानि जिनेशिनाम् ।। ७२८ || सविदिदिक्कुमारीणां वासकटैर्जिनालयैः । नित्यालंकृतमूर्धासौ राजते रुचकालयः ।। ७२९ ।।
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इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी आठ कूट हैं और उनमें पहले स्फटिक कूटपर लम्बुसा, दूसरे अंक कूटपर मिश्रकेशी, तीसरे अंजनक कूटपर पुण्डरोकिणो, चौथे कांचन कूटपर वारुणी, पाँचवें रजत कूटपर आशा, छठवें कुण्डल कूटपर हो, सातवें रुचक कूटपर श्री और आठवें सुदर्शन कूटपर धृति नामकी देवी रहती है । देवियां हाथमें चमर लेकर जिनमाताकी सेवा करती हैं ।। ७१५-७१७।। इनके सिवाय पूर्वादि दिशाओं में दीप्तिसे दिशाओंके अन्तरालको देदीप्यमान करनेवाले चार कूट और हैं जो यथाक्रमसे इस प्रकार हैं- पूर्व दिशा में विमल नामक कूट है और उसपर चित्रा देवी रहती है । दक्षिण दिशा में नित्यालोक नामका कूट है और उसपर कनकचित्रा देवीका निवास है । पश्चिम दिशामें स्वयंप्रभ नामका कूट है और उसपर त्रिशिरस् देवी निवास करती है तथा उत्तर दिशामें नित्योद्योतनामका कूट है और उसपर सूत्रामणि देवी रहती है। ये विद्युत्कुमारी देवियां सूर्य की किरणों के समान प्रकाश करती हुई जिनमाताके समीप स्थिर रहती हैं ।।७१८-७२१ ।। पूर्वोत्तर - ऐशान विदिशामें वैडूर्य नामका कूट है उसपर रुवका देवो रहती है, दक्षिणपूर्वा - आग्नेयविदिशा में रुचक नामका कूट है उसपर रुचकोज्ज्वला देवी रहती है, दक्षिण-पश्चिम - नैऋत्य विदिशा में मणिप्रभ कूट है उसपर रुचकाभा देवी निवास करती है और पश्चिमोत्तर - वायव्य दिशा में रुचकोत्तम कूट है उसपर रुचकप्रभा देवीका निवास है ।।७२२- ७२३|| ये चारों दिक्कुमारी देवियोंकी उत्कृष्ट महत्तरिका (प्रधान) देवियाँ हैं । इनके सिवाय विदिशाओं में निम्नलिखित चार कूट और हैं ||७२४|| उनमें ऐशान दिशामें रत्न कूटपर विजया देवीका निवास है, आग्नेय दिशामें रत्नप्रभ कूटपर वैजयन्ती देवी निवास करती है; नैऋत्य दिशा में सर्वरत्न कूटपर जयन्ती देवी रहती है और वायव्य दिशा में रत्नोच्चय कूटपर अपराजिता देवी निवास करती है। ये चार देवियाँ विद्युत्कुमारी देवियोंकी महत्तरिका हैं । ऊपर कही हुई चार विद्युत्कुमारियाँ तथा चार ये इस प्रकार आठों देवियाँ यहाँ आकर तीर्थंकरका जातकर्म करती हैं ।।७२५ - ७२७॥ रुचिकगिरिके ऊपर चारों दिशाओं में, चार जिनमन्दिर हैं। ये अंजनगिरियोंके समान विस्तारवाले हैं तथा पूर्वकी ओर इनका मुख है || ७२८ || दिशाओं एवं विदिशाओंमें रहनेवाली देवियोंके निवास- कूटों तथा जिन-मन्दिरोंसे जिसका मस्तक सदा अलंकृत रहता है ऐसा यह रुचकगिरि अतिशय सुशोभित है || ७२९ ||
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हरिवंशपुराणे
स्वयम्भूरमणद्वीप मध्य देशस्थितो गिरिः । स्वयंप्रभ इति ख्यातो भ्राजते वलयाकृतः ।।७३०।। मानुषोत्तर शैलस्य मध्ये तस्य च भूभृतः । भोगभूमिप्रतीभागास्तिरश्चां द्वीपवासिनाम् ।।७३१|| परस्तात्तु गिरेस्तस्य तिर्यखः कर्मभूमिवत् । असङ्घवेया यतस्तत्र संयतासंयताश्च ते ।।७३२।। उक्तद्वीपसमुद्रेषु पर्वतेष्वपि हारिषु । वसन्ति व्यन्ता देवाः किन्नरायां यथायथम् ॥ ७३३|| प्रज्ञप्तिः श्रेणिक ज्ञाता द्वीपसागरगोचरा । प्रज्ञप्तिं शृणु संक्षेपाज्ज्योतिर्लोकोर्ध्वलोकयोः ।।७३४ ।।
शार्दूलविक्रीडितम्
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जम्बूद्रीपतदम्बुधिप्रभृतिसद्वीपावली सागर
प्रज्ञप्तिस्फुटसंग्रहं मुनिमतं भव्यस्य संशृण्वतः । संशीतिः प्रलयं प्रयाति सकला भूलोकसंबन्धिनी
किं ध्वान्तस्य कृतोदये मुनिरवौ संतिष्ठते संहतिः ॥७३५॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृतो द्वीपसागरवर्णनो नाम पञ्चमः सर्गः समाप्तः ।
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स्वयंभूरमण द्वीपके मध्यमें स्थित, चूड़ीके आकारवाला एक स्वयंप्रभ नामका पर्वत सुशोभित है || ७३० || मानुषोत्तर और स्वयंप्रभ पर्वतके बीच असंख्यात द्वीपोंमें जो तिर्यंच रहते हैं उनकी जघन्य भोगभूमि तिर्यंचों की सदृशता है ||७३१|| स्वयंप्रभ पर्वत के आगे जो तिथंच हैं वे कर्मभूमिज तिर्यंचोंके समान हैं क्योंकि उनमें असंख्यात तियंच संयतासंयत - देशव्रती भी होते हैं ||७३२|| ऊपर कहे हुए द्वीप समुद्रों में तथा मनोहारी पर्वतोंपर किन्नर आदि व्यन्तर देव यथायोग्य निवास करते हैं || ७३३ || गौतम स्वामी कहते हैं कि श्रेणिक ! इस प्रकार तूने द्वीपसागर सम्बन्धी प्रज्ञप्ति जानी अब इसके आगे संक्षेपमें ज्योतिर्लोक तथा ऊध्वलोक सम्बन्धी प्रज्ञप्तिका श्रवण कर || ७३४|| जम्बू द्वीप तथा लवणसमुद्रको आदि लेकर उत्तमोत्तम द्वीप तथा सागर सम्बन्धी प्रज्ञप्तिके इस मुनि सम्मत स्पष्ट संग्रहको जो भव्य सुनता है उसका पृथिवी लोक सम्बन्धी समस्त संशय नष्ट हो जाता है सो ठीक ही है. क्योंकि मुनि रूपी सूर्यके उदित होनेपर क्या अन्धकारका समूह कहीं ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ||७३५ ।।
इस प्रकार जिसमें अरिष्टनेमि पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें द्वीप सागरोंका वर्णन करनेवाला पंचम सर्ग समाप्त हुआ ।
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षष्ठः सर्गः शतानि सप्त गत्वोध्वं योजनानि भुवस्तलात् । नवतिं च स्थितास्ताराः सर्वाधस्तान्नमस्तले ॥१॥ शतानि नव गत्वोर्ध्व योजनानि धरातलात् । स्थितं व्योमतले ज्योतिः सर्वेषामुपरि स्थितम् ॥२॥ ज्योतिःपटलमेतद्धि बहलं दशभिः सह । योजनानि शतं प्राप्तं सर्वतश्च घनोदधिम् ॥३॥ तारकापटलाद् गत्वा योजनानि दशोपरि । सूर्याणां पटलं तस्मादशीतिं शीतरोचिषाम् ॥४॥ चत्वारि च ततो गत्वा नक्षत्रपटलं स्थितम् । चत्वार्येव ततो गत्वा पटलं बुधगोचरम् ॥५॥ त्रीणि त्रीणि तु शुक्राणां गुर्वङ्गारकसंज्ञिनाम् । ग्रहाणां तद्यथासंख्यं स्यात् शनैश्चरसङ्गिनाम् ॥६॥ सूर्याश्चन्द्राश्च तत्रस्था नक्षत्रग्रहतारकाः । ज्योतिष्काः पञ्चधा देवाः स्वस्थानसमनामकाः ॥७॥ पल्यं जीवन्ति चन्द्राख्यास्तेऽधिकं वर्षलक्षया । सूर्या वर्षसहस्रेण शुकदेवाः शतेन तत् ॥८॥ पल्यमूनं तु जीवन्ति गुरवोऽद्ध ग्रहाः परे । पल्यं पादं तु ताराख्याः पादा, ते जघन्यतः ॥९॥ एकषष्टिकृता भागा शुद्धया ये योजनस्य ते । षट्पञ्चाशत्त विष्कम्भश्चन्द्रमण्डलगोचरः ॥१०॥ ते चत्वारिंशदष्टाभिः सूर्यमण्डलविस्तृतिः । क्रोशः शुक्रस्य विस्तारो देशोनः स बृहस्पतेः ॥११॥ अर्द्धगव्यूतिविस्तारः सर्वतः परिभाषितः । ग्रहाणां परिशेषाणां सर्वेषामपि मण्डलम् ॥१२॥ 'तारामण्डलमत्यल्पं पादं क्रोशस्य विस्तृतम् । मध्यमं साधिकं पादं क्रोधाद्ध तु बृहत्तरम् ॥१३॥
पृथिवीतलसे सात सौ नब्बे योजन ऊपर चलकर आकाशमें सबसे नीचे तारा स्थित है ।।१।।
तलसे नौ सौ योजन ऊपर चलकर आकाशमें सबसे ऊपर ज्योतिष्पटल स्थित है। भावार्थ-आकाशमें ज्योतिष्पटल सात सौ नब्बे योजनकी ऊँचाईमें शुरू होकर नौ सौ योजन तक है ॥२॥ यह ज्योतिष्पटल एक सौ दश योजन मोटा है तथा आकाशमें घनोदधिवातवलय पर्यन्त सब ओर फैला है ।।३।। ताराओंके पटलसे दश योजन ऊपर जाकर सूर्योंका पटल है और उससे अस्सो योजन ऊपर जाकर चन्द्रमाओंका पटल है ।।४|| उससे चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्रोंका पटल है और उससे चार योजन ऊपर चलकर बुधका पटल है ॥५॥ उससे तीन-तीन योजन ऊपर चलकर क्रमसे शुक्र, गुरु, मंगल और शनैश्चर ग्रहोंके पटल हैं ॥६|| सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रह और तारा ये पाँच प्रकारके ज्योतिर्विमान हैं। इनमें रहनेवाले देव भी इन्होंके समान नामवाले हैं तथा इन्हींके समान पाँच प्रकारके हैं ॥७॥ इनमें चन्द्र एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य तक, सूर्य एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य तक, शुक्र सौ वर्ष अधिक एक पल्य तक, वृहस्पति पौन पल्य तक, मंगल, बुध और शनैश्चर आधा पल्य तक और तारा चौथाई पल्य तक, जीवित रहते हैं । यह सबको उत्कृष्ट आयु है । जघन्य आयु पल्यके आठवें भाग प्रमाण है ।।८-९|| बुद्धि द्वारा योजनके जो इकसठ भाग किये जाते हैं उनमें छप्पन भाग प्रमाण चन्द्र मण्डलका विस्तार है ||१०|| और अड़तालीस भाग प्रमाण सूर्यका विस्तार है । शुक्रका विस्तार एक कोश, बृहस्पतिका कुछ कम एक कोश, और शेष समस्त ग्रहोंका विस्तार आधा कोश प्रमाण है। जघन्य तारा मण्डल पाव कोश, मध्यम तारा मण्डल कुछ अधिक पाव कोश और उत्कृष्ट तारामण्डल आधाकोश १. "उदुत्तर सत्तसए दस सीदी चदुदुर्ग तियचउक्के । __ तारिण ससि रिक्ख बृहा सुक्क गुरूंगार मन्दगदी ॥३३२॥
-त्रिलोकसारस्य २. ५६ : ६१ योजनप्रमाणं चन्द्रविमानम् । ३. ४८ ६१ योजनप्रमाणं सूर्यविमानम् । ४. तारंतरं जहणं णायबा सत्त भाग गाउदियं । पण्णासा मज्झिमया उक्कस्सं जोयणसहस्सा ॥१०॥
--त्रै.प्र. सौ.
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हरिवंशपुराणे
क्रोशस्य सप्तमो भागस्ताराणामल्पमन्तरम् । पञ्चाशन्मध्यमं दूरं सहस्रं योजनानि तत् ॥ १४॥ भान्ति सूर्यविमानानि लोहिताक्षमयानि तु । अर्द्धगोलकवृत्तानि प्रतप्ततपनीयवत् ॥१५॥ " तथार्कमणिमूत्तनि मृणालधवलानि तु । मान्ति चन्द्रविमानानि कान्तिसंतानवन्ति वै ॥१६॥ अरिष्टमणिमूर्त्तीनि समान्यञ्जनपुञ्जकैः । भान्ति राहुविमानानि चन्द्रार्काधःस्थितानि तु ॥१७॥ एकयोजन विष्कम्भव्यायामानि तु तान्यपि । शते वर्द्धतृतीये द्वे धनुषी बहलानि च ॥ १८ ॥ विषा राजतमूर्तीनि जयन्ति नवमालिकाम् । तथा शुक्रविमानानि प्रकाशन्ते समन्ततः ॥१९॥ जात्यमुक्ताफलाभानि विभान्त्यर्कमणित्विषा । बृहस्पतिविमानानि बुधानां कनकानि तु ॥ २० ॥ शनैश्वर विमानानि तपनीयमयानि तु । अङ्गारकविमानानि लोहिताक्षमयानि हि ॥ २१॥ ज्योतिर्लोकविमानानामियं वर्णविकल्पना | अरुणद्वीपवार्धस्तु केवलं कृष्णवर्णता ॥ २२ ॥ मानुषोत्तरतः पूर्वमुदयास्तव्यवस्थितिः । परतस्तु समस्तानां स्थितिरेव नमस्थले ॥ २३ ॥ सूर्याचन्द्रमसस्तेषां ज्योतिषां तु यथायथम् । सङ्ख्येयानामसङ्ख्यानामिन्द्रास्तावत्प्रमाणकाः ॥ २४॥ तत्रैकादशभिर्मेरुमेकविंशैः शतैश्चलाः । ज्योतिष्कास्त्वनवाप्यैव प्रभ्रमन्ति प्रदक्षिणम् ॥२५॥ द्वीपे तु हौ मतौ सूर्यौ द्वौ च चन्द्रमसाविह । चत्वारो लवणोदेऽमी द्वीपे द्वादश तत्परे ॥ २६ ॥ द्वाचत्वारिंशदादिस्याः कालोदे शशिनस्तथा । पुष्करार्द्धं तु विज्ञेया द्वासप्ततिरमी पुनः ||२७|| षट् च षष्टिसहस्राणि तथा नवशतानि च । कोटीको व्यस्तु ताः सर्वाः पञ्चसप्ततिरेव च ॥ २८॥ एकैकस्यैव चन्द्रस्य परिवारस्तु तारकाः । अष्टाविंशतिनक्षत्रास्तेऽष्टाशीतिर्महाग्रहाः ॥२९॥ परस्तात्पुष्करार्दे तु द्वासप्ततिरिति स्थिताः । निश्चलाः सर्वदादित्यास्तावन्तः शशिनस्तथा ॥३०॥
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विस्तृत है ॥११- १३ ॥ ताराओंका जघन्य अन्तर कोशका सातवां, मध्यम अन्तर पचास योजन और उत्कृष्ट अन्तर एक हजार योजन है || १४ || सूर्यके विमान लोहिताक्षमणिके हैं, अर्ध गोलक समान गोल तथा तपाये हुए सुवर्णके समान सुशोभित हैं || १५ || चन्द्रमाके विमान स्फटिक मणिमय हैं, मृणाल के समान सफेद हैं तथा कान्तिके समूहसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त सुशोभित हैं ||१६|| राहु विमान अरिष्टमणिमय हैं, अंजनकी राशिके समान श्याम हैं तथा चन्द्रमा और सूर्यं विमानके नीचे स्थित हैं ||१७|| राहुके विमान एक योजन चौड़े, एक योजन लम्बे, तथा ढाई सौ धनुष मोटे हैं || १८ || शुक्र विमान रजतमय हैं, अपनी कान्तिसे नूतन मालतीकी मालाको जीतते हैं तथा सब ओरसे प्रकाशमान हैं ||१९|| जिनकी आभा उत्तम मुक्ताफलके समान है, ऐसे बृहस्पतिके विमान स्फटिक मणिसदृश कान्तिसे सुशोभित हैं । बुधके विमान सुवर्णमय हैं, शनैश्चर के विमान तप्त स्वर्णमय हैं, और अंगारक - मंगलके विमान लोहिताक्षमणिमय हैं ||२० - २१ ॥ यह वर्णों की विविधरूपता ज्योतिर्लोक गत विमानोंकी है किन्तु अरुण समुद्रके ऊपर जो ज्योतिर्विमान हैं उनका केवल श्यामवर्ण ही है ||२२|| ज्योतिर्विमानोंके उदय और अस्तकी व्यवस्था मानुषोत्तर पर्वतके इसी ओर है उसके आगे के समस्त विमान आकाशमें स्थित ही हैं उनमें संचार नहीं होता ||२३|| मानुषोत्तर पर्वत तक के ज्योतिषी संख्यात हैं और उसके आगेके असंख्यात । उन दोनों प्रकारके ज्योतिषियोंके इन्द्र, सूर्य और चन्द्रमा हैं । संख्यात ज्योतिषियोंके इन्द्र संख्यात सूर्य चन्द्रमा हैं और असंख्यात ज्योतिषियोंके इन्द्र असंख्यात सूर्य चन्द्रमा हैं ||२४|| उनमें जो गतिशील ज्योतिषी हैं वे ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर हटकर मेरुकी प्रदक्षिणा देते हुए भ्रमण करते हैं ||२५|| जम्बू द्वीपमें दो सूर्य, दो चन्द्रमा, लवण समुद्र में चार सूर्य, चार चन्द्रमा, धातकीखण्ड में बारह सूर्य, बारह चन्द्रमा, कालोदधिमें बयालीस सूर्यं, बयालीस चन्द्रमा और पुष्करार्ध में बहत्तर सूर्य और बहत्तर चन्द्रमा हैं || २६ - २७|| एक-एक चन्द्रमाके छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ा-कोड़ी तारा, अट्ठाईस नक्षत्र और अठासी महाग्रह हैं ॥ २८-२९ ॥ मानुषोत्तर के आगे पुष्करार्ध में बहत्तर
१. तथांक म., क.
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षष्ठः सर्गः सहस्राणि तु पञ्चाशत् सर्वतो मानुषोत्तरात् । प्रगत्यादित्यचन्द्राद्याश्चक्रवालैर्व्यवस्थिताः॥३१॥ नियुतं नियुतं गत्वा परितः' परितः स्थिताः । चतुरभ्यधिकं शश्वदन्योन्योन्मिश्ररश्मयः ॥३२॥ धात यादिषु चन्द्रार्काः क्रमेण त्रिगुणाः पुनः । व्यतिक्रान्तैर्युतास्ते स्युद्वीपे च जलधौ परे ॥३३॥ ज्योतिर्लो कविभागस्य संक्षेपोऽयमुदीरितः । ऊर्वलोकविभागस्य संक्षेपः प्रतिपाद्यते ॥३४॥ मेरुचूलिकया सार्द्धमूर्ध्वलोकः समीरितः । उपर्युपरि तस्याः स्युः कल्पा ग्रैवेयकादयः ॥३५॥ सौधर्मः प्रथमः कल्पः परश्चैशान नामकः । सनत्कुमारमाहेन्द्रौ ब्रह्मब्रह्मोत्तरौ ततः ॥३६॥ कल्पो लान्तवकापिष्टौ तथैव कथितो ततः । पुनः शुक्रमहाशुक्रौ दक्षिणोत्तरदिग्गतौ ॥३७।। शतारच सहस्रार आनतः प्राणतस्ततः । आरणश्चाच्युतश्चेति कल्पाः षोडश माषिताः ॥३८॥ 4वेयकाखिवै स्युरधोमध्योपरि स्थिताः । प्रत्येकं त्रिविधास्ते स्युरधोमध्योलभेदतः ॥३९॥ नदानुदिशनामानि ततोऽनुत्तरपञ्चकम् । ईषत्प्राग्भारभूम्यन्त ऊर्ध्वलोकः प्रतिष्ठितः ॥४०॥
सूर्य और बहत्तर चन्द्रमा हैं, ये सदा निश्चल रहते हैं ।।३०|| मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी-वलयके रूपमें स्थित हैं। भावार्थ-मानुषोत्तरसे पवास हजार योजन चलकर ज्योतिषियोंका पहला वलय है ।।३१।। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियोंके वलय हैं। प्रत्येक वलयमें चार-चार सूर्य और चार-चार चन्द्रमा अधिक हैं एवं एक दूसरेको किरणें निरन्तर परस्परमें मिली हुई हैं ।।३२।। धातकीखण्ड आदि द्वीपसमुद्रोंमें सूर्य-चन्द्रमा क्रमसे तिगुने-तिगुने हैं। विशेषता यह है कि उनमें पिछले द्वीप-समुद्रोंके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या भी मिलानी पड़ती है। जैसे, कालोदधि समुद्रके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या बयालीस है, वह इस प्रकार निकलती है-कालोदधिसे पिछला द्वीप धातकीखण्ड है इसके सूर्य- . चन्द्रमाओंकी संख्या बारह है, इससे तिगुनी संख्या छत्तीस हुई, उसमें लवण समुद्र तथा जम्बूद्वीपके सूर्य-चन्द्रमाओंकी छह संख्या जोड़ देनेसे कालोदधिके सूर्य-चन्द्रमाओंकी संख्या बयालीस निकल । आता है। पूष्करवर द्वापके मानुषोत्तर तक बहत्तर और उसके आगे बहत्तर दोनों मिलाकर एक सो चौवालीस सूर्य-चन्द्रमा हैं। उनके निकालने की विधि यह है कि पुष्कर द्वीपसे पूर्ववर्ती कालोदधिक्री संख्या बयालीसको तिगुना किया तो एक सौ छब्बोस हुए, उनमें कालोदधिके बारह, लवण समुद्रके चार और जम्बूद्वीपके दो इस प्रकार अठारह और मिलाये जिससे एक सौ चौवालीस सिद्ध हुए। इसी प्रकार आगे-आगेके द्वीप-समुद्रोंमें जानना चाहिए ॥३३।। इस प्रकार यह ज्योतिर्लोकके विभागका संक्षेपसे वर्णन किया । अब ऊध्र्वलोकके विभागका संक्षेपसे वर्णन किया जाता है ।।३४||
मेरु पर्वतकी चूलिकाके साथ ऊर्ध्वलोक शुरू होता है अर्थात् चूलिकासे ऊपर ऊर्ध्वलोक है । चूलिकाके ऊपर-ऊपर स्वर्ग तथा ग्रैवेयक आदि हैं ॥३५॥ १ सौधर्म, २ ऐशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्म, ६ ब्रह्मोत्तर, ७ लान्तव, ८ कापिष्ठ, ९ शुक्र, १० महाशुक्र, ११ शतार, १२ सहस्रार, १३ आनत, १४ प्राणत, १५ आरण और १६ अच्युत ये सोलह कल्प कहे गये हैं। इनकी रचना दक्षिण और उत्तरके भेदसे दो-दोके जोड़के रूप में है ।।३६-३८॥ उनके ऊपर अधोवेयक, मध्यग्रेवेयक और उपरिम ग्रेवेयकके भेदसे तीन प्रकारके ग्रेवयक हैं। इन तीनों ग्रैवेयकोंके भी आदि, मध्य और ऊर्ध्वके भेदसे तीन-तीन भेद होते हैं। इन ग्रैवेयकोंके नौ पटल* हैं ।।३९|| उसके आगे
१. लक्षं लक्षम् । * नव-वेयक-१ सुदर्शन, २ अमोघ, ३ सुप्रबुद्ध, ४ यशोवर, ५ सुभद्र, ६ विशाल, ७ सुमन, ८ सौमनस, ९ प्रीतिकर।
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हरिवंशपुराणे लक्षाः स्वर्गविमानानामशीतिश्चतुरुत्तरा । नवत्या च सहस्राणि सप्त त्रिविंशदेव च ॥४॥ त्रिषष्टिपटलानि स्युः त्रिषष्टीन्द्रकसंहतिः । पटलानां तु मध्येऽसावूर्वावल्या व्यवस्थिता ॥४२॥ ऋतुमादोन्द्रकं प्राहुस्त्रिषष्टिस्तस्य दिक्षु च । विमाना न्यूनता तेषामेकैकस्योत्तरेषु च ॥४३॥ तेवामृतुविमानं स्याद् विमलं चन्द्रनामकम् । वल्गुवीराभिधानं च तथैवारुणसंज्ञकम् ॥४४॥ नन्दनं नलिनं चैव काञ्चनं रोहितं ततः । चञ्चन्मारुतमृद्धीशं वैडूय रुचकं तथा ॥४५॥ रुचिरं च तथा च स्फटिक तपनीयकम् । मेघ भद्रं च हारिद्रं पद्मसंज्ञं ततः परम् ।।४६।। लोहिताक्षं च वज्रं च नन्द्यावर्त प्रभङ्करम् । प्रष्टकं च जगन्मित्रं प्रमाख्यं चाराकल्पयोः ॥४७॥ अञ्जनं वनमालं च नागं गरुडसंज्ञकम् । लागलं बलभद्रं च चक्रं च परकल्पयोः ॥४॥ अरिष्टदेवसंमोतं ब्रह्मब्रह्मोत्तरद्वयम् । ब्रह्मलोकेऽपि चत्वारि लक्ष येदिन्द्र काणि तु ॥४९।। लान्तवे ब्रह्महृदयं लान्तवं च द्वयं विदुः । शुक्रमेकं महाशुक्रे सहस्रारे शतारकम् ॥५०॥ आनतं प्राणताख्यं च पुष्पकं चानते त्रयम् । अच्युते सानुकारं स्यादारणं चाच्युतं त्रयम् ॥५॥ सुदर्शनममोघं च सुप्रबुद्धमधस्त्रयम् । यशोधरं सुभद्रं च सुविशालं च मध्यमे ॥५२॥ सुमनः सौमनस्यं च प्रीतिंकरमितीरितम् । ऊर्ध्वग्रेवेयकेऽप्येवमिन्द्रकत्रितयं तथा ॥५३॥ मध्ये चानुदिशाख्यानामादित्यमिति चेन्द्रकम् । सर्वार्थसिद्धिसंशं तु पञ्चानुत्तरमध्यमम् ॥५४॥ सौधर्म च विमानानां लक्षा द्वात्रिंशदीरिताः। अष्टाविंशतिरैशाने तृतीये द्वादशैव ताः ॥५५॥
नौ अनुदिश* और अनुदिशोंके आगे पाँच अनुत्तर विमान हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानोंका एक-एक पटल है । अन्तमें ईषत्प्राग्भार भूमि है। उसीके अन्त तक ऊर्वलोक कहलाता है ॥४०॥ स्वर्गोंके समस्त विमान चौरासी लाख संत्तानबे हजार तेईस हैं ।।४१।। इनमें त्रेसठ पटल और त्रेसठ ही इन्द्रक विमान हैं। इन्द्रक विमानोंका समूह पटलोंके मध्यमें ऊर्ध्व रूपसे स्थित है ।।४२॥ आदि इन्द्रकका नाम ऋतु है उसकी चारों दिशाओंमें त्रेसठ-वेसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं और आगे प्रत्येक इन्द्रकमें एक-एक विमान कम होता जाता है ॥४३।। सौधर्म और ऐशान नामक प्रारम्भके दो स्वर्गों में १ ऋतु, २ विमल, ३ चन्द्र, ४ वल्गु, ५ वीर, ६ अरुण, ७ नन्दन, ८ नलिन, ९ कांचन, १० रोहित, ११ चंचल, १२ मारुत, १३ ऋद्धीश, १४ वैडूर्य, १५ रुचक, १६ रुचिर, १७ अकं, १८ स्फटिक, १९ तपनीयक, २० मेघ, २१ भद्र, २२ हारिद्र, २३ पद्म, २४ लोहिताक्ष, २५ वज्र, २६ नन्द्यावतं, २७ प्रभंकर, २८ प्रष्टक, २९ जग, ३० मित्र और ३१ प्रभा ये इकतीस पटल हैं।।४४-४७|| सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पमें १ अंजन, २ वनमाल, ३ नाग, ४ गरुड़, ५ लांगल, ६ बलभद्र और ७ चक्र ये सात इन्द्रक विमान हैं ॥४८॥ ब्रह्म लोकमें १ अरिष्ट, २ देवसंगीत, ३ ब्रह्म और ४ ब्रह्मोतर ये चार इन्द्रक विमान हैं ।।४९।। लान्तवमें १ ब्रह्महृदय और २ लान्तब ये दो इन्द्रक विमान हैं। महाशुक्रमें १ शुक्र, सहस्रारमें १ शताख्य, आनतमें १ आनत, २ प्राणत और ३ पुष्पक ये तीन, अच्युतमें १ सानुकार, २ आरण और ३ अच्युत ये तीन इन्द्रक विमान हैं॥५०-५१।। अधोग्रैवैयकमें १ सुदर्शन, २ अमोघ और ३ सुप्रबुद्ध ये तीन, मध्य प्रवेयकमें १ यशोधर, २ सुभद्र और ३ सुविशाल ये तीन और ऊर्ध्व-प्रैवेयकमें १ सुमन, २ सौमनस्य और ३ प्रीतिकर ये तीन इन्द्रक विमान हैं ।।५२-५३।।
दशोंके मध्य में आदित्य नामका एक इन्द्रक विमान है और पांच अनुत्तरोंमें सर्वार्थसिद्धि नामका एक इन्द्रक विमान है ॥५४॥ सौधर्म स्वर्गमें बत्तीस लाख, ऐशानमें अट्ठाईस लाख, १. ८४९७०२३ विमानानि । २. ऋतुम् + आदि + इन्द्रकम् इतिच्छेदः । * नव-अनुदिश-१ आदित्य, २ अचि, ३ अचिमाली, ४ वैरोचन, ५ प्रभास, ६ अचि-प्रभ, ७ अचिमध्य, ८ अचिरावर्त, ९ अचि-विशिष्ट ।। अनुत्तर विमान-१ विजय, २ वैजयन्त, ३ जयन्त, ४ अपराजित, ५ सर्वार्थ सिद्धि ।
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षष्ठः सर्गः
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माहेन्द्रऽष्टौ तु लक्षे द्वे षण्णवत्या च पञ्चमे । ब्रह्मोत्तरे च लक्षका सहस्रं च चतुर्गुणम् ॥५६॥ पञ्चविंशतिसंख्यानि सहस्राणि भवन्ति तु । द्विचत्वारिंशता साकं विमानानि हि लान्तवे ॥५७॥ चतुर्विशतिसंख्यानि सहस्राणि शतान्यपि । नवपञ्चाशदष्टौ च कल्पे कापिष्ठनामनि ॥५८॥ शुक्रे विंशतियुक्तानि सहस्राणि त विंशतिः । परेऽशोतिनवशती तानि चैकानविंशतिः ॥५९॥ त्रिसहस्री शतारे स्यात्तथैवैकान्नविंशतिः । त्रिसहस्री सहस्रारे वर्जितैकान्नविंशतिः ॥६॥ आनतप्राणतस्था च चत्वारिंशतःशती। द्विशती च विमानानां षष्टिः स्यादारणाच्युते ॥६१॥ एकादश त्रिके पूर्वे शतं सप्तोत्तरं परे । शुद्धै कनवतिश्चो नवैवानुदिशेष्वपि ॥६२॥ अचिराद्यं परं ख्यातमर्चिमालिन्यमिख्यया । वज्रं वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ॥६३॥ अकं च स्फुटिकं चेति दिशास्वनुदिशानि तु । आदित्याख्यस्य वर्तन्ते प्राच्याः प्रभृति सक्रमम् ।।६४॥ विजयं वैजयन्तं च जयन्तमपराजितम् । दिक्ष सर्वार्थसिद्धेस्त विमानानि स्थितानि वै ॥६५॥ शतेनाष्टसहस्राणि सप्तविंशतिरेव च । श्रेणीगतानि सेर्वाणि विमानानि भवन्ति वै ॥६६॥ चत्वारि स्युः सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च । श्रेणीगतानि सौधर्म नवतिः पञ्चमिस्तथा ॥६७॥ अष्टाशीस्या सहशाने सहस्रं तु चतःशती । सलत्कुमारकल्पे तु षट्शती षोडशाधिका ॥६८॥ आवलिस्थविमानानां माहेन्द्र व्युत्तरे शते । ब्रह्मलोकस्थितानां तु षडशोत्या शतद्वयम् ।।६९।। चतुर्णवतिरेव स्युस्तानि ब्रह्मोत्तरेऽपि च । शतं लान्तवकल्पे च पञ्चविंशतिमिश्रितम् ॥७०।। चत्वारिंशत्तथैकं च कापिष्ठे शुक्रनामनि । अष्टापञ्चाशदेकोना महाशुक्रे त विंशतिः ॥७१।। शतारे पञ्चपञ्चाशत् सहस्रारे दशाष्टमिः । आनते शतमुद्दिष्टं चत्वारिंशश्च सप्तमिः ॥७२।। प्राणते पुनरष्टामिश्चत्वारिंशत्तथारणे । शतं विंशं ततस्त्रिंशन्नवमिः पुनरच्युते ॥७३॥ चत्वारिंशत्तु पञ्चामा सैवैकामा प्रकोणके । सप्तत्रिंशद् यथासंख्यमधोवेयकत्रिके ।।७४॥ विमानानि त्रयस्त्रिंशदेकान्नत्रिंशदेव च । पञ्चविंशतिरावल्यां मध्यप्रैवेयकत्रिके ॥७५॥
सनत्कुमारमें बारह लाख, माहेन्द्र में आठ लाख, ब्रह्म-स्वर्गमें दो लाख छियानबे हजार, ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें एक लाख चार हजार, लान्तवमें पचीस हजार बयालीस, कापिष्ठमें चौबीस हजार नौ सौ अंठावन, शुक्रमें बीस हजार बीस, महाशुक्रमें उन्नीस हजार नौ सौ अस्सी, शतारमें तीन हजार उन्नीस, सहस्रारमें उन्नीस कम तीन हजार, आनत-प्राणतमें चार सौ चालीस, तथा आरणअच्युतमें दो सौ साठ विमान हैं ॥५५-६१।। ग्रेवेयकोंके पहले त्रिकमें एक सौ ग्यारह, दूसरे त्रिकमें एक सौ सात, तीसरे त्रिकमें एकानबे और अनुदिशोंमें नौ विमान हैं ॥६२॥ अनुदिशोंमें आदित्य नामका विमान बीचमें है और उसकी पूर्व आदि दिशाओं तथा विदिशाओंमें क्रमसे १ अर्चि, २ अचि-मालिनी, ३ वज्र, ४ वैरोचन, ५ सौम्य, ६ सौम्य-रूपक, ७ अंक और ८ स्फुटिक ये आठ विमान हैं ॥६३-६४।। अनुत्तर विमानोंमें सर्वार्थ सिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि र दिशाओं में १ विजय.२ वैजयन्त. ३ जयन्त और ४ अपराजित ये चार विमान स्थित हैं॥६५||
सब श्रेणी-बद्ध विमान मिलकर आठ हजार एक सौ सत्ताईस हैं ॥६६।। उनमें सौधर्म स्वर्गमें श्रेणीबद्ध विमान चार हजार चार सौ पंचानबे, ऐशानमें एक हजार चार सौ अट्ठासी, सनत्कुमारमें छह सौ सोलह, माहेन्द्र में दो सौ तीन, ब्रह्मलोकमें दो सौ छियासी, ब्रह्मोत्तरमें चौरानबे, लान्तवमें एक सौ पचीस, कापिष्ठमें इकतालीस, शुक्रमें अंठावन, महाशुक्रमें उन्नीस, शतारमें पचपन, सहस्रारमें अठारह, आनतमें एक सौ सैंतालीस, प्राणतमें अड़तालीस, आरणमें एक सौ. बीस और अच्युतमें उनतालीस कहे जाते हैं ॥७-७३|| अधोवेयकके तीन विमानोंमें क्रमसे पैंतालीस, इकतालीस और सैंतीस, मध्यमग्रेवेयकके तोन विमानोंमें क्रमसे तैंतीस, उनतोस और पचीस तथा ऊध्वं-नैवेयकके तीन विमानोंमें क्रमसे इक्कीस, सत्तरह और तेरह, अनुत्तरोंमें
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हरिवंशपुराणे एकविंशतिरूवं तु त्रिके सप्तदशत्रिमिः। दशश्रेणीगतान्येव नवपञ्चकतत्परम् ॥७६॥ एतेषु तु विशुद्धेषु यथास्वं मूलराशिषु । प्रकीर्णकविमानानि शेषाणीति बुधा विदुः ॥७७॥ तेषु संख्येयविस्तारा विमानव्यक्तयः पुनः । चत्वारिंशत्सहस्राणि 'सौधर्मे नियुतानि षट् ।।७८॥ पञ्चैव नियुतानि स्युः करले चैशाननामनि । सह षष्टिसहस्रस्तु संयुतानि तु तानि वै ॥७९॥ सनत्कुमारकरपे तु नियतं नियुनद्वयम् । चत्वारिंशत्सहस्रेस्तु सहितं तदिति स्मृतिः ॥८॥ 'माहेन्द्रे नियुतं प्रोक्तं सह पष्टिसहस्रकैः । ब्रह्म ब्रह्मोत्तरेऽशीतिसहस्राणि सहैव तु ॥४१॥ लान्तवेऽपि च कापिष्ठे सहस्राणि दशैव तु । चत्वारि तु सहस्राणि चतुर्मिः शुक्रनामनि ॥४२॥ षण्णवत्या नवशती त्रिसहस्री महत्यपि । शतारे च सहस्रारे द्वादशैव शतानि तु ।।८३॥ अष्टाशीतिः सहैव स्यादानतप्राणताख्ययोः। द्विपञ्चाशत्सहैव स्यादारुणाच्युतकल्पयोः ॥८४॥ सर्वत्रैवात्र संख्येयविस्तारास्तु चतुर्गणाः । असंख्येयात्मविस्तारा विमानव्यक्तयः स्मृताः ॥८५॥ यथास्वमिन्द्रकैहींना नवप्रैवेयकादिषु । स्युरसंख्येयविस्तारा श्रेणीष्वन्यास्तु ता द्विधा ॥८६॥ लक्षाः षोडशसंख्येयविस्तृता नवतिर्नव । सहस्राणि सहाशीत्या त्रिशती पिण्डितास्तु ताः ॥८॥ षट्शतैकानेपंञ्चाशत् सप्तभिर्नवतिः'' पुनः । सहस्राणीतरा लक्षाः सप्तषष्टिरुदीरिताः ॥८॥ प्राग्भारभूनरक्षेत्रमृतुः सीमन्तकः समम् । विस्तारेण तु" संप्राप्तो बालमात्रेण चूलिकाम् ॥४९॥ जम्बूद्वीपाप्रतिष्ठानक्षेत्रसर्वार्थसिद्धयः । योऽपि समविस्ताराः प्रोक्ता विस्तारवेदिभिः ॥१०॥
पाँच श्रेणी-बद्ध विमान हैं। विमान संख्याकी मूल राशिमें-से इन इन्द्रक और श्रेणी-बद्ध विमानोंकी संख्या घटा देनेपर जो शेष बचते हैं वे प्रकीर्णक विमान हैं ऐसा विद्वज्जन जानते हैं ।।७४-७७||
उन विमानोंमें संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी संख्या सौधर्म स्वर्गमें छह लाख चालीस हजार है। ऐशान स्वर्गमें पांच लाख साठ हजार, सनत्कुमार स्वर्गमें दो लाख चालीस हजार, माहेन्द्र स्वर्गमें एक लाख साठ हजार, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें अस्सी हजार, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्गमें दश हजार, शुक्र स्वर्गमें चार हजार चार, महाशुक्र स्वर्गमें तीन हजार नौ सौ छियानबे, शतार-सहस्रार स्वर्गमें बारह सौ, आनत-प्राणत स्वर्गमें अठासी, और आरण-अच्युत स्वर्गमें बावन हैं ।।७८-८४।। इन सभी स्वर्गों में संख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी जो संख्या है उससे चौगुने असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान हैं ॥८॥ नव-प्रेवेयकादिकमें इन्द्रक विमानोंको छोड़कर श्रेणी-बद्ध विमानों में संख्यात योजन विस्तारवाले और असंख्यात योजन विस्तारवाले दोनों प्रकारके विमान हैं। इन्द्रक विमान संख्यात योजन विस्तारवाले हो हैं ॥८६॥ संख्यात योजन विस्तारवाले सब विमान मिलाकर सोलह लाख निन्यानबे हजार तीन सौ अस्सी हैं और असंख्यात योजन विस्तारवाले विमान सड़सठ लाख संत्तानबे हजार, छह सौ उनचास कहे गये हैं ॥८७-८८॥ प्रारभार-भूमि ( सिद्धशिला ),ढाई द्वीप, प्रथम स्वर्गका ऋतु विमान, प्रथम नरकका सीमन्तक इन्द्रक विल और सिद्धालय ये पांच विस्तारको अपेक्षा समान हैं अर्थात् सब पैंतालीस लाख योजन विस्तारवाले हैं। इनमें ऋतु विमान बाल मात्रका अन्तर देकर मेरुकी चूलिकाको प्राप्त है अर्थात् चूलिका और ऋतु विमानमें बालमात्रका अन्तर
पर जम्बद्रीप. सातवें नरकका अप्रतिष्ठान नामका इन्द्रक विल और सर्वार्थसिद्धि ये तीनों विस्तारवे जाननेवाले आचार्योंने समान विस्तारसे युक्त कहे हैं अर्थात् इन सबका एक-एक
१. ६४०००० । २. ५६००००। ३. २४००००। ४. १६००००। ५. ८००००। ६.१००००। . ७. ४००४। ८. ३९९६ । ९. 'श्रेणीष्वन्याकृता द्विधा म०। १०. ६४९। ११. ९७०००। १२. तु
शब्दान् मुक्तालयोऽपि, इति क प्रतिटिप्पण्याम् ।
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षष्ठः सर्गः
१२७ सर्वश्रेणीविमानानामर्द्धमूर्ध्वमितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानाधं स्वयंभूरमणोदधेः ॥११॥ वेश्ममूल शिलापीठबाहुल्यं पूर्वकल्पयोः । योजनान्येकविंशत्या त्वेकादश शतानि च ॥१२॥ ऊर्ध्वं नवनवत्यास्तु युग्मे युग्मे' परिक्षयः । एकैकत्र त्रिके तुल्यश्चतर्दशसु चोपरि ॥१३॥ आये विंशं शतं व्यासः कल्पयुग्मे तु वेश्मनाम् । परे शतं दशोनोऽतश्चतुर्दशसु पर्थ्य तु ॥९॥ उच्छ्रायः पट् शतान्याये पञ्च कल्पयुगे परे । शतानोनमूनोऽस्मात्पञ्चविंशतिमात्रकाः ॥१५॥ पष्टिराग्रेऽवगाहोऽपि पञ्चाशयुगले परे । पञ्चोनोऽस्मात्परेपु द्वे चतुर्दशसु सार्धके ॥१६॥ कृष्णा नीलाश्च रकाश्च पीताः श्वेताश्च वर्णिताः । प्रासादाः पञ्चवर्णास्ते सौधर्मेशानकल्पयोः ॥९७॥ नीलाद्याः परयोश्चोवं रकाद्यास्तु चतुर्वपि । सहस्रारावसानेषु पीताः श्वेताश्च नेतरे ॥१८॥ आनतप्राणतादी च श्वेतवर्णाः प्रवर्णिताः । वैमानिकविमानेषु प्रासादाः प्रस्फुरत्प्रमाः ॥९९॥ द्वयोयोर्विमानानि कल्पाटकपरेषु च । जले वाते द्वयोयोम्नि संस्थितादि यथाक्रमम् ॥१०॥
षड़यालेषु शेषेसु कल्पेषु चरमेन्द्र कात् । श्रेणीबद्धे निजावासे वसन्त्यष्टादशे तथा ॥१०॥ लाल योजन विस्तार है ।।२०।। समस्त श्रेणी-बद्ध विमानोंकी जो संख्या है उसका आधा भाग तो
भू-रमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रोंके ऊपर फैला हुआ है ॥११॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें भवनोंके मूल शिलापीठकी मोटाई ग्यारह सौ इक्कीस योजन है ।।९२॥ ऊपर प्रत्येक कल्प युगलमें निन्यानबे-निन्यानबे यो जन मोटाई कम होती है। अवेयकोंके तीनों त्रिक तथा अनुदिश और अनुत्तर विमानोंके चौदह विमानोंमें समान मोटाई होती है ॥९३।। प्रथम कल्प युगल-सौधर्म, ऐशान स्वर्ग में भवनोंकी चौड़ाई एक सौ बीस योजन, दूसरे कल्प युगल -सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्ग में सौ योजन और इसके आगे प्रत्येक कल्प युगल तथा ग्रैवेयकोंके प्रत्येक त्रिकोंमें दश-दश योजन कम होती जाती है। अनुदिशों और अनुत्तरोंके चौदह विमानोंमें केवल पाँच योजन चौड़ाई रह जाती है ॥९४॥ प्रथम कल्प युगलमें भवनोंकी ऊंचाई छह सौ योजन है, दूसरे कल्प युगलमें पांच सौ योजन है और आगेके युगलोंमें पचास-पचास योजन ऊँचाई कम होती जाती है। इसके आगे अनुदिश और अनुत्तरोंके भवन मात्र पचीस योजन ऊँचे हैं ॥९५॥ प्रथम कल्प युगलमें भवनोंकी गहराई साठ योजन है, दूसरे कल्प युगलमें पचास योजन है और इसके आगेके कल्पोंमें पाँच-पाँच योजन कम होती जाती है। अनुदिश और अनुत्तर सम्बन्धी चौदह विमानोंमें मात्र ढाई योजन गहराई है ॥९६॥ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके भवन काले, नीले, लाल, पीले और सफेदके भेदसे पाँच रंगके कहे गये हैं ॥९७॥ आगेके युगलसानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गमें नीलेको आदि लेकर चार रंगके हैं, उसके आगे चार स्वर्गों में लालको आदि लेकर तीन रंगके हैं, उसके आगे सहस्रार स्वर्ग तकके चार स्वर्गों में पीले और सफेद दो रंगके हैं अन्य रंगके नहीं हैं ॥९८॥ उसके आगे आनत-प्राणतको आदि लेकर समस्त स्वर्ग, ग्रैवेयक, अनुदिश तथा अनुत्तरविमानोंके भवन मात्र सफेद वर्ण के हैं। वैमानिक देवोंके ये भवन जगमगाती हुई प्रभासे युक्त हैं ।।९९।। सौधर्म और ऐशान स्वर्गके विमान घनोदधिके आधार हैं, सानत्कुमार और माहेन्द्र के विमान घनवातवलयके आधार हैं, आगे आठ कल्प अर्थात् सहस्रार स्वगं तकके विमान घनोदधि और घनवात दोनोंके आधार हैं और शेष विमान आकाशके आधार हैं ॥१००। छह युगलों तथा शेष कल्पोंमें अपने-अपने निवासके योग्य अन्तिम इन्द्रकके श्रेणीबद्ध १. सौधर्मयुग्मे ११२१, सानत्कुमारयुग्मे १०२२, ब्रह्मयुग्मे ९२३ इत्यादि नवनवतिहीनक्रमम् । २. १२० । ३. १००, ९०, ८०, ७०, ६०, ५०, ४०, ३०, २०, १०। ४. अनुदिशानुत्तरेषु । ५.५०० । ६. पञ्चाशदूनक्रमम् । ७. छज्जुगल सेसकप्पे अट्ठारसमम्हि सेढि वद्धम्मि । दोहीण कम दक्खिण उत्तर भागम्हि देविदा ।।४८३।।-त्रिलोकसारस्य । ८. चमरेन्द्रका: म.।
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१२८
हरिवंशपुराणे द्विहानिक्रमतोऽतोऽग्रे दक्षिणोत्तरसंभवाः । सुराधीशाः सुखाम्मोधिमध्यगा गतविद्विषः॥१०२॥ भाज्योतिर्लोकमुत्पादस्तापसानां तपस्विनाम् । ब्रह्मलोकावधिज्ञेयः परिव्राजकयोगिनाम् ॥१०॥ सदगाजीवकानां च सहस्रारावधिर्मवः । न जिनेतरदृष्टेन लिङ्गेन तु ततः परम् ॥१०४। कल्पानच्युतपर्यन्तान् सौधर्मप्रभृतीन् पुनः । व्रजन्ति श्रावकास्तेभ्यः श्रमणाः परतोऽपि च ॥१०५॥ उपपादोऽस्त्यमव्यानामग्रग्रेवेयकेष्वपि । स च निर्ग्रन्थलिङ्गेन संगतोऽग्रतपःश्रिया ॥१०६॥ रस्नत्रयसमृद्धस्य मव्यस्यैव ततः परम् । यावरसर्वार्थसिद्धिं स्यादुपपादस्तपस्विनः ।।१०७॥ . कृष्णा नीला च कापोता लेश्यात द्रव्यमावतः । तेजोलेश्या जघन्या च ज्योतिषान्तेषु भाषिताः ॥१०॥ सौधर्मशानदेवानां तेजोलेश्या तु मध्यमा । सैवोत्कृष्टोत्तरद्वन्द्वे पद्मलेश्या जघन्यतः ॥१०९|| मध्यमा पद्मलेश्या तु परस्मिन् युगलत्रये । उत्कृष्टा पद्मलेश्या च युग्मे शुक्लावरापरे ॥११॥ अच्युतान्तचतुष्के च नवप्रैवेयकेषु च । सर्वेषामेव देवानां शुक्ललेश्या तु मध्यमा ॥१११॥ अहमिन्द्रविमानेषु चतुर्दशसु संस्थिताः । लेश्या परमशुक्लोज़ संक्लेशरहितात्मनाम् ॥११२॥
विमानोंमें इन्द्रोंका निवास है। पहले युगलके अन्तिम इन्द्रक सम्बन्धी अठारहवें श्रेणीबद्ध विमानमें इन्द्रका निवास है और आगे दो-दो श्रेणीबद्ध विमानोंको क्रमिक हानि है। १ सौधर्म.२ सनत्कमार, ३ ब्रह्म, ४ शुक्र, ५ आनत और ६ आरण कल्पोंमें रहनेवाले इन्द्र दक्षिण दिशामें रहते हैं और १ ऐशान, २ माहेन्द्र, ३ लान्तव, ४ शतार, ५ प्राणत और ६ अच्युत इन छह कल्पोंमें रहनेवाले उत्तर दिशामें रहते हैं । ये इन्द्र सुखरूपी सागरके मध्यमें स्थित हैं तथा प्रतिद्वन्द्वियोंसे रहित हैंभावाधं-सौधर्म स्वर्गके अन्तिम पटलके इन्द्रक विमानसे दक्षिण दिशामें जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें सौधर्मेन्द्र रहता है और उत्तर दिशामें जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें ऐशानेन्द्र रहता है। सनत्कुमार इन्द्र अपने स्वर्गके अन्तिम पटल सम्बन्धी इन्द्रकसे दक्षिण दिशा सम्बन्धी सोलहवें श्रेणीबद्ध विमानमें रहता है और माहेन्द्र उत्तर दिशा सम्बन्धी । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए ॥१०१-१०२।। पंचाग्नि आदि तप तपनेवाले तपस्वियोंकी उत्पत्ति भ व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें होती है, परिव्राजक-संन्यासियोंकी उत्पत्ति ब्रह्मलोक तक और सम्यग्दृष्टि आजीवकोंकी उत्पत्ति सहस्रार स्वर्ग तक हो सकती है। जिन-लिंगके सिवाय अन्य लिंगके द्वारा जीव सहस्रार स्वर्गके आगे नहीं जा सकते यह नियम है ॥१०३-१०४|| श्रावक सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वगं तक जाते हैं और मुनि उसके आगे भी जा सकते हैं ॥१०५।। अभव्य जीवोंका उपपाद अग्निम ग्रैवेयक तक हो सकता है, परन्तु यह नियम है कि प्रैवेयकोंमें उपपाद निर्ग्रन्थ लिंगके द्वारा उग्र तपश्चरण करनेसे ही हो सकता है ॥१०६।। इसके सर्वार्थ-सिद्धि तक रत्नत्रय तपस्वी भव्य जीवकी ही उत्पत्ति होती है ॥१०७।।
भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषो देवोंमें द्रव्य तथा भावको अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोतलेश्या तथा जघन्य पीतलेश्या होती है ॥१०८|| सौधर्म और स्वर्गके देवोंके मध्यम पीतलेश्या होती है। माहेन्द्र स्वर्गके देवोंके उत्कृष्ट पीतलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है ॥१०९।। इसके आगे तीन युगलोंमें मध्यम पद्मलेश्या होती है। उसके आगे दो युगलोंमें उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है। तदनन्तर अच्युत स्वगं तकके चार स्वर्गों और नौ ग्रैवेयकोंके समस्त देवोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है और उसके आगे अनुदिश और अनुत्तर सम्बन्धी अहमिन्द्रोंके चौदह विमानोंमें परम शुक्ललेश्या होती है। यहाँके निवासी अहमिन्द्र संक्लेशसे रहित होते हैं ।।११०-११२।।
१. सर्वार्थसिद्धिः
क., ख., ग., ङ.।
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षष्ठः सर्गः
१२९ आधर्मायास्तु देवानामाद्ययोर्विषयोऽवधिः । कल्पयोः परयोश्चासावावंशाया व्यवस्थितः ॥ ११३ ॥ आऽसौ मेघावनेरुतश्चतुः कल्पे तु तत्परम् । आचतुर्थ पृथिव्यास्तु परे कल्पचतुष्टये ॥ ११४ ॥ आनतादिचतुष्केऽसावापञ्चम्याः समीरितः । नवग्रैवेयकस्थानामषष्ठ्या विषयोऽवधिः ॥ ११५ ॥ नवानुदिशदेवानामासप्तम्या समाप्तितः । लोकनाडीसमस्तासु पञ्चानुत्तरवासिनाम् ॥ ११६ ॥ स्वविमानावधिस्तुध्वं विषयोऽवधिचक्षुषः । विशेषामेव देवानामिति विश्वविदो विदुः ॥११७॥ स्थित्युत्सेधप्रवीचारा जिनेन्द्रप्रतिभाषिताः । चतुर्देवनिकायानां वेदितव्यं यथायथम् ॥ ११८ ॥ दक्षिणाशरणान्तानां देव्यः सौधर्म एव तु । निजागारेषु जायन्ते नीयन्ते च निजास्पदम् ॥१९॥ उत्तराशाच्युतान्तानां देवानां दिव्यमूर्त्तयः । ऐशानकल्प संभूता देव्यो यान्ति निजाश्रयम् ॥ १२०॥ शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वराः षड् लक्षास्तु चतुर्लक्षाः सौधर्मेशान कल्पयोः ॥ १२१ ॥ दिव्य वस्त्र विभूषाभिः शुभविक्रियमूर्तिभिः । 'चित्रनेत्रह रोदाररूपविभ्रमवृत्तिभिः ॥ १२२ ॥ हाव भावविदग्धाभिर्निसर्गप्रेमभूमिभिः । नैकपल्योपमायुर्भिर्देवीमिर्बहुभिः सुखम् ॥ १२३ ॥ इन्द्राः सामानिका देवाखायस्त्रिंशादयोऽखिलाः । कल्पोपपन्नपर्यन्ताः श्रयन्ते दीर्घजीविनः ॥ १२४॥ अहमिन्द्रास्ततोऽनन्तं भजन्ते भवेजं सुखम् । तत्सातावेदनीयोत्थमस्त्रीकं प्रशमात्मजम् ॥१२५॥ सिद्धानां तु परं स्थानं परं द्वादशयोजनम् । सर्वार्थसिद्धितो गत्वा स्थितं त्रैलोक्यमूर्धनि ॥ १२६॥ ईषत्प्राग्भारसंज्ञाऽसावष्टमी पृथिवी श्रुता । अष्टयोजनबाहुल्या मध्ये हीना क्रमात्ततः ॥१२७॥
प्रथम दो स्वर्गके देवोंके अवधिज्ञानका विषय धर्मा पृथिवी तक है, उसके आगे के दो स्वर्गों सम्बन्धी देवोंका विषय वंशा पृथिवी तक है। उसके आगे चार स्वर्गों सम्बन्धी देवोंका विषय मेघा पृथिवी तक है, उनके आगे चार स्वर्गे सम्बन्धी देवोंका विषय अंजना नामक चौथी पृथिवी तक है । उसके आगे आनतादि चार स्वर्गोंके देवोंका विषय अरिष्टा नामकी पांचवीं पृथिवी तक है । नव ग्रैवेयकवासियों का छठवीं पृथिवी तक है। नवानुदिशवासियोंका सातवीं पृथिवीके अन्त तक है और पञ्चानुत्तरवासियोंका समस्त लोकनाडी तक है । समस्त देवोंके अवधिज्ञान रूपी नेत्रका ऊपरकी ओरका विषय अपने-अपने विमानके अन्त भाग तक है ऐसा सर्वज्ञ देव जानते हैं ॥। ११३ - ११७॥ चारों निकायके देवोंकी स्थिति, ऊँचाई तथा प्रवीचार — कामसेवनका वर्णन जैसा जिनेन्द्र भगवान् ने किया है वैसा यथायोग्य जानना चाहिए | | ११८ || आरण स्वर्गं पर्यन्त दक्षिण दिशाके देवोंकी देवियां सौधर्म स्वगंमें ही अपने-अपने उपपाद स्थानोंमें उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवोंके द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं ||११९|| तथा अच्युत स्वगं पर्यन्त उत्तर दिशाके देवोंकी सुन्दर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं एवं अपने-अपने नियोगी देवोंके स्थानपर जाती हैं ॥ १२०॥ मुनियोंके ईश्वर गणधर देवने सोधमं और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियोंसे युक्त विमानों की संख्या क्रमसे छह लाख और चार लाख बतलायी है अर्थात् सौधर्म ऐशान स्वर्ग में केवल देवियोंके उत्पत्ति स्थान छह लाख और चार लाख प्रमाण हैं || १२१ || सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न एवं दीर्घं आयुको धारण करनेवाले इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रश आदि देव, दिव्य वस्त्रालंकारोंसे विभूषित, शुभ विक्रिया करनेवाली हृदय तथा नेत्रोंको हरण करनेवाली उत्कृष्ट रूप और विभ्रमसे सहित, हावभाव दिखलाने में चतुर स्वाभाविक प्रेमकी भूमि एवं अनेक पल्य-प्रमाण आयुवाली अनेक देवियोंके साथ सुखको प्राप्त होते हैं | १२२ - १२४ | सोलहवें स्वर्गके आगे के अहमिन्द्र, साता वेदनीयके उदयसे उत्पन्न, स्त्री रहित, शान्तिरूप आत्मासे उत्पन्न होनेवाले, देव पर्यायजन्य अपरिमित सुखका उपभोग करते हैं ।। १२५ ।। सर्वार्थसिद्धिसे बारह योजन आगे जाकर तीन लोकके मस्तकपर सिद्ध भगवान्का उत्कृष्ट स्थान है ||१२६|| सिद्धों का यह स्थान ( सिद्धशिला ) ईषत्प्राग्भार नामकी आठवीं पृथिवी १. चित्तस्ववृत्तिभिः म ख । २. भवनं म । ३. स्तुता म. ।
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हरिवंशपुराणे
पर्यन्तेऽङ्गुल संखयेय भागमात्रतनुस्थितिः । सोत्तानित महावृत्तश्वेतच्छत्रोपमाकृतिः॥१२८॥ चत्वारिंशत् विस्तारो लक्षाः पञ्चभिरर्चिताः । योजनानि क्षितेस्तस्या विद्वद्भिरभिधीयते ॥१२९॥ कोटी तुपरिधिर्लक्षा द्विचत्वारिंशदिष्यते । द्विशत्येकान्नपञ्चाशत् त्रिसहस्री दशाहता ॥ १३०॥ ऊर्ध्वं तस्याः पुरा प्रोक्तं यद्वातवलयत्रयम् । तत्र त्रिकोशबाहुल्यमतीत्य वलयद्वयम् ॥ १३१ ॥ धनुषां पञ्चशस्यामा पञ्चसप्ततियुक्तया । धनुः सहस्रमेकं हि बहलं वळयं तु यत् ॥ १३२ ॥ तनुवातस्य तस्यान्ते पञ्चविंशतिसंयुताम् । विगाह्योत्कर्षतः सिद्धाः स्थिताः पञ्चधनुःशतीम् ॥ १३३॥ सार्द्धहस्तत्रयं पूर्वं कृत्वान्तेऽनन्तरोच्छ्रुितिम् । सिद्धावगाहनाकाशदेशो देशोन इष्यते ॥ १३४॥ एकोऽवतिष्ठते यत्र सिद्धः सिद्धप्रयोजनः । तत्रानन्ताश्च तिष्ठन्ति सिद्धास्ते स्वावगाहतः ॥ १३५ ॥ अशरीराः सुखात्मानः सिद्धा जीवघनायुताः । साकारेणोपयोगेन निराकारेण चात्मनः ॥ १३६ ॥ सर्वलोकमलोकं च संततानन्तपर्ययम् । जानन्तः सह पश्यन्तस्तिष्ठन्ति सुखिनः सदा ॥ १३७॥ सिद्धाः शुद्धाः प्रबुद्धार्था विजन्मानोऽजरानराः । शास्त्रताः 'शाश्वतं स्थानमधितिष्टन्त्यबन्धनाः ॥१३८॥
मन्दाक्रान्ता
१३०
ज्योतिर्लोकप्रकटपटलस्वर्गमोक्षोर्ध्वलोक
प्रज्ञप्त्युक्तं नरवर मया संग्रहाक्षेत्रमेवम् ।
संप्रोक्तं ते श्रवणसुभगं श्रेणिक श्रेयसेऽतः
वायुष्मन्नवहितमतिर्वच्मि कालोपदेशम् ॥१३९॥
कहलाती है । यह पृथिवी मध्यमें आठ योजन मोटी है उसके आगे क्रमसे कम कम होती हुई अन्त भाग में अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती है, वह ऊपरकी ओर उठे हुए विशाल गोल सफेद छत्रके आकार है ।। १२७- १२८ || विद्वज्जन उस पृथिवीका विस्तार पैंतालीस लाख योजन बतलाते हैं ॥ १२९ ॥ उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनचास योजन है || १३०।। उस पृथिवीके ऊपर पहले कहे हुए तीन वातवलय हैं, उनमें तीन कोश विस्तारवाले दो वलयोंका उल्लंघन कर एक हजार पाँच सौ पचहत्तर धनुष विस्तारवाला जो तीसरा तनुवातवलय है। उसके पाँच सौ पच्चीस धनुष मोटे अन्तिम भागको अपनी उत्कृष्ट अव गाहनासे व्याप्तकर सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। जिन सिद्ध भगवान्का अनन्तर पूर्वं शरीर साढ़े तीन हाथ ऊँचा रहता है उनकी अवगाहना सम्बन्धी आकाशका प्रदेश साढ़े तीन हाथसे कुछ कम माना जाता है ॥१३१ - १३४|| जहाँ कृतकृत्य अवस्थाको प्राप्त हुए एक सिद्ध भगवान् विराजमान हैं वहीं अपनी अवगाहनासे अनन्त सिद्ध परमेष्ठी स्थित है । भावार्थ - अवगाह दानकी सामर्थ्यं होने से सिद्ध परमेष्ठी एक दूसरेको बाधा नहीं पहुँचाते इसलिए जहाँ एक सिद्ध है वहीं अनन्त सिद्ध विराजमान रहते हैं ॥ १३५ ॥ | ये सिद्ध परमेष्ठी शरीररहित हैं, सुख रूप हैं, जीवके घन प्रदेशों से युक्त हैं और अपने ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोगके द्वारा अनन्त पर्यायोंसे युक्त समस्त लोक और अलोकको एक साथ जानते हुए सदा सुखसे स्थिर रहते हैं ॥१३६ - १३७॥ जो कर्म कलंकसे रहित होने के कारण शुद्ध हैं, अनन्त ज्ञानसे सम्पन्न होनेके कारण जिन्होंने समस्त पदार्थोंको जान लिया है, जो आयुकमंसे रहित होनेके कारण नूतन जन्मसे रहित हैं, शरीर रहित होनेके कारण अजरअमर हैं, मोहजन्य विकारसे रहित होनेके कारण जो कर्मबन्धनसे दूर हैं और स्वाश्रित होनेसे शाश्वत हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी उस शाश्वत - अविनश्वर स्थानपर सदा विद्यमान रहते हैं ॥ १३८ ॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे नररत्न श्रेणिक ! इस प्रकार हमने तेरे कल्याणके लिए १. निश्चलं ख. । २. 'ज्योतिर्लोकः प्रकटपटलस्वर्ग मोक्षोर्ध्वलोकः म । ३. संग्रहाक्षेपमेवं ख. ।
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षष्ठः सर्गः
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धर्मध्यानं धवलमुदितं मोक्षहेतुर्जिनेन्द्र
__राज्ञापायप्रभृतिविचयश्चित्तवृत्तेनिरोधः । यत्तत्कार्या समितकरणलोकसंस्थानचिन्ता
मन्दाक्रान्ता न हृदयमदेभेन्द्रियाश्वा विधेयाः ॥१४॥
इत्यरिष्टने मिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृतो ज्योतिर्लोको लोकवर्णनो
नाम षष्ठः सर्गः ॥६॥
ज्योतिर्लोक और अनेक पटलोंसे युक्त स्वर्ग एवं मोक्षसे सहित ऊवं लोकका कथन करनेवाले इस क्षेत्रका संक्षेपसे कर्णप्रिय वर्णन किया है । अब हे आयुष्मन् ! हम कालद्रव्यका कथन करते हैं सो एकाग्रचित्तसे श्रवण कर ॥१३९|| श्रीजिनेन्द्र भगवान्ने आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयके द्वारा चित्तवृत्तिके निरोध करनेको उज्ज्वल धर्मध्यान कहा है और चूँकि धर्मध्यान मोक्षका कारण है इसलिए इन्द्रियोंको वश करनेवाले पुरुषोंको लोकके संस्थान-आकारका चिन्तन करना चाहिए । आचार्योंने ठीक ही कहा है कि इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथी और इन्द्रियरूपी घोड़े मन्द आक्रमण होनेपर वशमें नहीं रहते। भावार्थ-मोक्षाभिलाषी पुरुषोंको मन और इन्द्रियोंको स्वतन्त्र नहीं छोड़ना चाहिए ।।१४०।।
इस प्रकार जिसमें श्रीअरिष्टनेमि जिनेन्द्र के पुराणका संग्रह किया गया है ऐसे जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें ज्योतिर्लोक तथा ऊर्ध्वलोकका
वर्णन करनेवाला छठा सर्ग समाप्त हुआ ॥६॥
१. भेदेन्द्रियास्वाविधेयाः क., ख., ग., घ.।
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सप्तमः सर्गः
वर्णगन्धरसस्पर्शमुक्तोऽगौरवलाघवः । वर्तनालक्षणः कालो मुख्यो गौणश्च स द्विधा ॥१॥ गतिस्थित्यवगाहानां धर्माधर्माम्बराणि च । निमित्तं सर्वमावानां वर्तनस्यात्र निश्चयः ॥२॥ धर्माधर्मनभोद्रव्यं यथैवागमदृष्टितः । तथा निश्चयकालोऽपि निश्चेतव्यो विपश्चिता ॥३॥ जीवानां पुदगलानां च परिवत्तिरनेकधा । गौणकालप्रवृत्तिश्च मुख्यकालनिबन्धना ॥४॥ सर्वेषामेव मावानां परिणामादिवृत्तयः । स्वान्तर्बहिनिमित्तेभ्यः प्रवर्तन्ते समन्ततः ॥५॥ निमित्तमान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता । बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितस्तत्त्वदर्शिभिः ॥६॥ अन्योन्यानुप्रवेशेन विना कालाणवः पृथक । लोकाकाशमशेषं तु व्याप्य तिष्ठन्ति संचिताः ॥७॥ द्रव्यानिर्विकारस्वादुदयव्ययवर्जिताः । नित्या एव कथंचित्ते स्वरूपसमवस्थिताः ॥८॥ अगुरुत्वलघुत्वात्मपरिणामसमन्विताः । परोपाधिविकारित्वादनित्यास्तु कथंचन ॥९॥ त्रिधा समयवृत्तीनां हेतुत्वात्ते त्रिधा स्मताः । अनन्तसमयोत्पादादनन्तव्यपदेशिनः ।।१०॥ तेभ्यः कारणभूतेभ्यः समयस्य समुद्भवः । कारणेन विना कार्य न कदाचित् प्रजायते ॥११॥ स्वत एवाऽसतो जन्म कार्यस्य यदि जायते । स्वत एव हि किं न स्यात् ख़रशृङ्गस्य संभवः ॥१२॥ न कालादन्यतो हेतोः कालकार्यसमुद्भवः । न हि संजायते जातु शालिबीजाद् यवाकुरः ॥१३॥
रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित व हलका व भारी और वर्तना लक्षणसे युक्त कालद्रव्य है। वह मुख्य और गौणके भेदसे दो प्रकारका है।।१।। जिस प्रकार जीव और पुद्गलके गमन करने में धर्म द्रव्य, ठहरनेमें अधर्म द्रव्य और समस्त द्रव्योंको अवगाह देनेमें आकाश द्रव्य निमित्त है उसी प्रकार समस्त द्रव्योंकी वर्तना--षड्गुणी हानि-वृद्धिरूप परिणमनमें निश्चय कालद्रव्य निमित्त है ।।२।। जिस प्रकार धर्म-अधर्म और आकाशद्रव्यका आगमदृष्टिसे निश्चय किया जाता है उसी प्रकार विद्वानोंको काल द्रव्यका भी निश्चय करना चाहिए ॥३।। जीव और पुद्गलोंका परिणमन नाना प्रकारका होता है और गौण कालकी प्रवृत्ति मुख्य कालके कारण है ।।४।। समस्त पदार्थों में जो परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्वरूप परिणमन होते हैं वे अपने-अपने अन्तरंग तथा बहिरंग निमित्तोंसे ही सब ओर प्रवृत्त होते हैं ।।५।। उन अन्तरंग, बहिरंग निमित्तोंमें अन्तरंग निमित्त तो वस्तुकी अपनो योग्यता है जो सदा उसमें स्थित रहती है और बाह्य निमित्त निश्चय कालद्रव्य है ऐसा तत्त्वदर्शी आचार्योंने निश्चित किया है ।।६।। परस्परके प्रवेशसे रहित कालाणु पृथक्-पृथक् समस्त लोकको व्याप्त कर राशिरूपमें स्थित हैं ॥७॥ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा कालाणुओंमें विकार नहीं होता इसलिए उत्पाद-व्ययसे रहित होनेके कारण वे कथंचित् नित्य हैं और अपने स्वरूपमें स्थित हैं ||८| अगुरु लघु गुणके कारण उन कालाणुओंमें प्रत्येक समय परिणमन होता रहता है तथा परपदार्थके सम्बन्धसे वे विकारी हो जाते हैं इसलिए पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी है|९|| भूत, भविष्य और वर्तमानरूप तीन प्रकारके समयका कारण होनेसे वे कालाणु तीन प्रकारके माने गये हैं और अनन्त समयोंके उत्पादक होनेसे अनन्त भी कहे जाते हैं ।।१०।। उन कारणभूत कालाणुओंसे समयकी उत्पत्ति होती है सो ठीक ही है क्योंकि कारणके बिना कभी कार्य उत्पन्न नहीं होता ॥११॥ यदि असद्भूत कार्यको उत्पत्ति कारणके बिना स्वयं ही होती है तो फिर गधेके सींगकी उत्पत्ति स्वयं ही क्यों नहीं हो जाती ? ॥१२॥ कालके सिवाय अन्य कारणसे कालरूप कार्यको उत्पति नहीं होती क्योंकि धानके बीजसे कभी जौका अंकुर
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सप्तमः सर्गः
१३३ जायते मिसजातीयो हेतुर्यत्रापि कार्यकृत् । तत्राऽसौ सहकारी स्यात् मुख्योपादानकारणः ॥१४॥ 'युक्त्यागमबलादेवमनतीन्द्रियदर्शिनः । सद्भावं मुख्यकालस्य अतिपद्य व्यवस्थितः ॥१५॥ समयावलिकोच्छ्वासप्राणस्तोकलवादिकः । व्यवहारस्तु विज्ञेयः कालः कालज्ञवर्णितः ॥१६॥ परिणाम प्रपमस्य गत्या सर्वजघन्यया । परमाणोनिजागाढस्वप्रदेशव्यतिक्रमः ॥१७॥ कालेन यावतैव स्थादविभागः स भाषितः । समयः समयामि निरुद्ध परमान्यतः ॥१८॥ तैरेवावलिकासंख्यैः संख्यातामिस्तु भाषितौ । ताभिरुच्छ्वासनिश्वासौ तावुभौ प्राण इष्यते ॥१९॥ प्राणाः सप्त पुनः स्तोकः सप्तस्तोका मवेल्लवः । ते सप्त सप्ततिः सन्तो मुहर्तास्त्रिंशदेव ते ॥२०॥ भहोरात्रं भवेत्पक्षस्तानि पञ्चदशैव तौ । मासो मासावृतुस्तेषां त्रितयं त्वयनं तथा ॥२१॥ अयनद्वयमब्दं स्थात् पञ्चाब्दानि युगं पुनः । युगद्वयं दशाब्दानि शतं तानि दशाहतौ ॥२२॥ भवेद्वर्षसहस्रं तु शतं चापि दशाहतम् । दशवर्षसहस्राणि तदेव दशताडितम् ॥२३॥ ज्ञेयं वर्षसहस्रं तु तच्चापि दश संगुणम् । पूर्वाङ्गं तु तदभ्यस्तमशीत्या चतुराया ॥२४॥ तत्तद्गुणं च पूर्वाह्न पूर्व भवति निश्चितम् । पूर्वाङ्गं तद्गुणं तच्च पूर्वसंज्ञतु तद्गुणम् ॥२५॥ नियुता परं तस्माग्नियुतं च ततः परम् । कुमुदाङ्गं ततश्च स्याद् कुमुदं तु ततः परम् ॥२६॥ पन्नाज पनमप्यस्माद् नलिनाङ्गं तथैव च । नलिनं कमलाङ्गं च कमलं चाप्यतः परम् ।।२७॥ तुव्यातुव्यमप्यस्मादटटानं ततोऽपि च । अरटं चाममाङ्गं स्यादममं चाप्यतः परम् ॥२८॥
उत्पन्न नहीं होता ।।१३।। जहाँ कहीं भिन्न जातीय कारण कार्य उत्पादक होता है वहां वह सहकारी कारण ही होता है। कार्यकी उत्पत्तिमें मुख्य कारण उपादान है और सहकारी कारण उसका सहायक होता है ॥१४॥ इस प्रकार जो अतीन्द्रियदर्शी नहीं हैं अर्थात् स्थूल पदार्थको ही जानते हैं उनके लिए युक्ति और आगमके बलसे मुख्यकालका सद्भाव बताकर उसे व्यवस्थित किया है ॥१५॥ समय, आवलि, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक और लव आदिको व्यवहार-काल जानना चाहिए ऐसा समयके ज्ञाता आचार्योंने वर्णन किया है ॥१६॥ सर्वजघन्य गतिसे परिणामको प्राप्त हुआ परमाणु जितने समयमें अपने द्वारा प्राप्त स्वर्गीय प्रदेशका उल्लंघन करता है उतने समयको
शाखके ज्ञाता आचार्योने समय कहा है। यह समय अविभागी होता है तथा परकी मान्यताको रोकनेवाला है ॥१७-१८॥ असंख्यात समयको एक आवली होती है, संख्यात आवलियोंका एक उच्छ्वास निश्वास होता है, दो उच्छ्वास निश्वासोंका एक प्राण होता है। सात प्राणोंका एक स्तोक होता है, सात स्तोकोंका एक लव होता है, सत्तर लवोंका एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूत्र्तीका एक दिन-रात होता है, पन्द्रह दिन-रातका एक पक्ष होता है, दो पक्षका एक मास होता है, दो मासकी एक ऋतु होती है, तीन ऋतुओंका एक अयन होता है, दो अयनोंका एक वर्ष होता है, पांच वर्षोंका एक युग होता है, दो युगोंके दश वर्ष होते हैं, इसमें दशका गुणा करनेपर सौ वर्ष होते हैं, इसमें दशका गुणा करनेपर हजार वर्ष होते हैं, इसमें दशका गुणा करनेपर दश हजार वर्ष होते हैं, इसमें दशका गणा करनेपर एक लाख वर्ष होते हैं. इसमें चौरासीका गणा करनेपर ए होता है, चौरासी लाख पूर्वांगोंका एक पूर्व, चौरासी लाख पूर्वोका एक नियुतांग, चौरासी लाख नियुतांगोंका एक नियुत, चौरासी लाख नियुतोंका एक कुमुदांग, चौरासी लाख कुमुदांगोंका एक कुमुद, चौरासी लाख कुमुदोंका एक पद्मांग, चौरासी लाख पद्मांगोंका एक पद्म, चौरासो लाख पमोंका एक नलिनांग, चौरासी लाख नलिनांगोंका एक नलिन, चौरासी लाख नलिनोंका एक कमलांग, चौरासी लाख कमलांगोंका एक कमल, चौरासी लाख कमलोंका एक तुटयांग, चौरासी लाख तुटयांगोंका एक तुटय, चौरासी लाख तुटयोंका एक अटटांग, चौरासी लाख १. युक्तागम- म., क.। २. -कोच्छ्वासः प्राश म.। ३. निरुद्धः परमास्थितः म. ।
पवाग
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हरिवंशपुराणे
ऊहाङ्गमूहमप्यस्मालताङ्गं च लताह्वयम् । महालताङ्गसंज्ञ स्यात् कालवस्तु महालता ॥ १९ ॥ शिरःप्रकम्पितं प्रोक्तं ततो हस्तप्रहेलिका | चर्चिकेत्यादिकः कालः संख्येयः परिभाषितः ॥३०॥ वर्ष संख्याव्यतिक्रान्तः कालोऽसंख्येय इष्यते । पल्यसागरसंख्यानं कल्पानन्तादिभेदवान् ॥ ३१ ॥ "आदिमध्यान्तनिर्मुक्तं निर्विभागमतीन्द्रियम् । मूर्त्तमप्यप्रदेशं च परमाणुं प्रचक्षते ॥३२॥ एकदैकं रसं वर्ण गन्धं स्पर्शावबाधकौ । दधत् स वर्ततेऽभेद्यः शब्द हेतुरशब्दकः ॥३३॥ आशङ्कया नार्थतत्त्वज्ञ र्नभःशानां समन्ततः । षट्केन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता ॥३४॥ स्वल्पाकाशषडंशाश्च परमाणुश्च संहताः । सप्तांशाः स्युः कुतस्तु स्यात्परमाणोः षडंशता ||३५|| वर्णगन्धरसस्पर्शैः पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत्तस्मात् पुद्गलाः परमाणवः ॥ ३६ ॥ "अनन्तानन्तसंख्यानपरमाणुसमुच्चयः । अवसंज्ञादिकांसंज्ञा स्कन्धजातिस्तु जायते ||३७|| ताभिरष्टाभिरप्युक्ता संज्ञासंज्ञादिका तथा । ताभिरप्यष्ट संज्ञाभिस्तुटिरेणुः स्फुटीकृतः ||३८||
१३४
अमम,
अटटांगों का एक अटट, चौरासी लाख अटटोंका एक अममांग, चौरासी लाख अममांगों का एक चौरासी लाख अममोंका एक ऊहांग, चौरासी लाख ऊहांगों का एक ऊह, चौरासी लाख ऊहों का एक लतांग, चौरासी लाख लतांगों की एक लता, चौरासी लाख लतांगों का एक महालतांग, चौरासी लाख महालतांगोंकी एक महालता, चौरासी लाख महालताओंका एक शिरः प्रकम्पित, चौरासी लाख शिरःप्रकम्पितोंकी एक हस्त प्रहेलिका और चौरासी लाख हस्त प्रहेलिकाओंकी एक चर्चिका होती है । इस प्रकार चर्चिका आदिको लेकर संख्यात काल कहा गया है || १९-३०॥ जो वर्षों की संख्यासे रहित है वह असंख्येय काल माना जाता है । इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनन्त आदि अनेक भेद हैं ||३१||
जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है, निर्विभाग है, अतीद्रिय है और मूर्त होनेपर भी अप्रदेश - द्वितीयादिक प्रदेशोंसे रहित है उसे परमाणु कहते हैं ||३२|| वह परमाणु एक काल में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और परस्परमें बाधा नहीं करनेवाले दो स्पर्शोको धारण करता है, अभेद्य है, शब्दका कारण है और स्वयं शब्दसे रहित है ||३३|| पदार्थंके स्वरूपको जाननेवाले लोगों को ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए कि सब ओरसे एक समय आकाशके छह अंशोंके साथ सम्बन्ध होनेसे परमाणुमें षडंशता है || ३ ४ || क्योंकि ऐसा माननेपर आकाशके छोटे-छोटे छह अंश और एक परमाणु सब मिलकर सप्तमांश हो जाते हैं । अब परमाणु में षडंशता कैसे हो सकती है ? ||३५|| क्योंकि परमाणु रूप, गन्ध, रस और स्पर्शके द्वारा पूरण तथा गलन करते रहते हैं इसलिए स्कन्धके समान परमाणु पुद्गल द्रव्य हैं ||३६|| अनन्तानन्त परमाणुओं के समूह - को अवसंज्ञ कहते हैं । ये अवसंज्ञ आदि स्कन्धकी ही जातियाँ हैं ||३७|| आठ अवसंज्ञाओंकी १. अंतादिमज्झहीणं अपदेशं इंदियेहि गहु गेज्झं । जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणुं वदंति जिणा ||९८॥ २. परमाणूहि अनंताणंतेहि बहुविहेहि देहि |
अवसण्णासण्णोत्ति सो खंधो होइ णामेण ॥ १०२ ॥ उवसण्णासण्णो वि य गुणिदो अट्ठेहि होदि णामेण । सणासण्णोति तदो दु इदि खंधो पमाणट्टं ॥ १०३ ॥ अहि गुणिदेहि सणासह होदि तुडिरेणु । तित्तियमेत्तहदेहि तु डिरेणूहि पितसरेणु ॥ १०४ ॥ तसरेणू रथ रेणू उत्तमभोगावणीए बालगं ।
मज्झिमभोगविदीएं घोलं पि जहण भोगखिदिवालं ।। १०५ ।। इत्यादि
- त्रै. प्र.
त्रे. प्र.
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सप्तमः सर्गः
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एतैरप्यष्टवालारेकमेकाग्रमानसैः । कर्मभूभिमनुष्याणां बालाग्रमिति भासितम् ॥३९॥ तैरष्टाभिर्मवेल्लिक्षा तामि' का तथाष्टभिः । यूकाभिस्तु यवोऽष्टाभिर्यवैरष्टाभिरङ्गलम् ॥४०॥ उत्सेधाङ्गुलमेतत्स्यादुत्सेधोऽनेन देहिनाम् । अल्पावस्थितवस्तूनां प्रमाणं च प्रगृह्यते ॥४१॥ प्रमाणाङ्गुलमेकं स्यात् तत्पञ्चशतसंगुणम् । प्रथमस्यावसर्पिण्यामङ्गुलं चक्रवर्तिनः ॥४२॥ बोध्यं यथास्वमुत्सेधव्यासादि महतः पुनः । द्वीपसागरशैलादेः प्रमाणाङ्गलसंमितम् ॥४३॥ स्वे स्वे काले मनुष्याणामङ्गलं स्वाङ्गुलं मतम् ।.मीयते तेन तच्छत्रभृङ्गारनगरादिकम् ॥४४॥ त्रिविधाङ्गलषटकः स्यात् पादः पादद्वयं पुनः । वितस्तिस्तद्वयं हस्तस्तद्वयं किल्कुरिष्यते ॥४५॥ दण्डः किष्कुद्वयं दण्डः धनाड्या समा मताः । अष्टौ दण्डसहस्राणि योजनं परिभाषितम् ॥४६॥ प्रमाणयोजनव्यासस्वावगाहं विशेषवत् । त्रिगुणं परिवेषेण क्षेत्रं पर्यन्तमित्तिकम् ॥४७॥ सप्ताहान्ताविरोमाओरापूर्य कठिनीकृतम् । तदुद्धार्यमिदं पल्यं व्यवहाराख्यमिष्यते ॥४८॥ एकैकस्मिस्ततो रोम्नि प्रत्यब्दशतमुद्धते । यावताऽस्य क्षयः कालः पल्यं व्युपत्तिमात्रकृत् ॥४९॥ असंख्येयाब्दकोटीन समयै रोमखण्डितम् । प्रत्येकं पूर्वकं तरस्यात्पल्यमुद्धारसंज्ञकम् ॥५०॥
एक संज्ञा-संज्ञा कही गयी है, आठ संज्ञा-संज्ञाओंका एक त्रुटिरेणु प्रकट किया गया है ॥३८॥ [आठत्रुटिरेणुओंका एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओंका एक रथरेणु, आठ रथरेणुओंका एक उत्तम भोगभूमिज मनुष्यके बालका अग्रभाग, उत्तमभोगभूमिज मनुष्यके आठ बालाग्रभागोंका एक मध्यमभोगभूमिज मनुष्यका बालाग्र और आठ मध्यमभोगभूमिज मनुष्यके बालारोंका एक जघन्य भोगभूमिज मनुष्यका बालाग्र होता है ] जघन्य भोगभूमिज मनुष्योंके आठ बालानोंका एक कर्मभूमिज मनुष्यका बालाग्र होता है, इन आठ बालागोंकी एक लीख, आठ लोखोंका एक जूंआ, आठ जुओंका एक जो और आठ जी का एक उत्सेधांगुल होता है । इस उत्सेधांगुलसे जीवोंके शरीरकी ऊंचाई और छोटी वस्तुओंका प्रमाण ग्रहण किया जाता है ॥३९-४१॥ उत्सेधांगुलमें पांच सौका गुणा करनेपर एक प्रमाणांगुल होता है। यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणीके प्रथम चक्रवर्तीका अंगुल है ॥४२॥ इस अंगुलसे बड़े-बड़े द्वीप, समुद्र आदिकी ऊंचाई, चौड़ाई आदि यथायोग्य जानी जाती है ।।४३॥ अपने-अपने समयमें मनुष्योंका जो अंगुल है वह स्वांगुल माना गया है। इसके द्वारा छत्र, कलश तथा नगर आदिका विस्तार नापा जाता है ॥४४॥ छह अंगुलोंका एक पाद होता है, दो पादोंकी एक वितस्ति, दो वितस्तियोंका एक हाथ और दो हाथोंका एक किष्क होता है ।।४५।। दो किष्कुओंका एक दण्ड, धनुष अथवा नाड़ी होती है, आठ हजार दण्डोंका एक योजन कहा गया है ।।४६||
एक ऐसा क्षेत्र ( गतं ) बनाया जाये जो एक प्रमाण योजन बराबर लम्बा-चौड़ा तथा गहरा हो, जिसकी परिधि इससे कुछ अधिक तिगुनी हो तथा जिसके चारों तरफ दीवालें बनायी गयी हों ।।४७|| इस क्षेत्रको एकसे लेकर सात दिन तककी भेड़के बालोंके ऐसे टुकड़ोंसे जिनके कि दूसरे टूकड़े न हो सकें ऊपर तक कूट-कूटकर भरा जाये। इस गतंको व्यवहारपल्य कहते हैं ॥४८॥ सौ-सौ वर्षके बाद एक-एक बालका टुकड़ा उस गतसे निकालनेपर जितने समयमें वह खाली हो जाये उतने समयको व्यवहारपल्योपम काल कहते हैं ।। ४९।। तदनन्तर उन्हीं बालके टुकड़ोंमें प्रत्येक टुकड़ेके, असंख्यात करोड़ वर्षों में जितने समय हैं उतने टुकड़े बुद्धिसे कल्पित टुकड़ोंसे पूर्वोक्त प्रमाणवाले गतंको भरा जाये। इस भरे हुए गर्तको उद्धारपल्य कहते हैं और
१. रोमखण्डितैः म., .. * कोष्ठकान्तर्गत भावको सूचित करने वाले इलोक सम्पादनके लिए प्राप्त चारों हस्तलिखित तथा एक मुद्रित पांचों प्रतियोंमें नहीं हैं परन्तु हैं आवश्यक । इसलिए उनका प्रासंगिक अनुवाद दिया गया है।
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हरिवंशपुराणे कोटीकोव्यो दामीषां पल्यानां सागरोपमा । ताभ्यामर्द्धतृतीयाभ्यां द्वीपसागरसमितिः ॥५१॥ सोऽध्वा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग् । निष्पद्यते त्रयो लोकाः प्रमीयन्ते बुधैस्तथा ॥५२॥ असंख्यवर्षकोटोनां समयै रोमखण्डितः । उद्धारपल्यमद्धाख्यं स्यात्कालोऽद्धाभिधीयते ॥५३॥ कालः पल्योपमाख्योऽसौ समयं समयं प्रति । क्षीयमाणः प्रमाणार्थमायुषो विनियुज्यते ॥५४॥ कोटीकोव्यो दशामीषां जायते सागरोपमा । मेया संसारिणां चामिरायुःकर्मभवस्थितिः ॥५५॥ कोटीकोव्यो दर्शतासां प्रत्येकमवसर्पिणी । उत्सर्पिणी च कालाः षट प्रत्येकमनयोः समाः ॥५६॥ अवसर्पति वस्तूनां शक्तिर्यत्र क्रमेण सा । प्रोक्ताऽवसर्पिणी सार्था सान्यथोत्सर्पिणो तथा ॥५७॥ सुषमासुषमाऽऽद्या स्यात् द्वितीया सुषमा समा । दुःषमासुषमाऽऽद्या स्यात् सुषमादुःषमादिका ॥५८॥ दुःषमा चावसर्पिण्यामतिदुःषमया सह । ता एवं प्रतिलोमाः स्युरुत्सर्पिण्यां च षट् समा ॥५९॥ कोटीकोट्यश्चतस्रश्च तिस्रो द्वे च यथाक्रमम् । आदितस्तिसृणां तापां प्रमाण सागरोपमाः ॥६०॥ द्वाचत्वारिंशदब्दानां सहस्रः परिवर्जिता । कोटी कोटीसमुदाणां तुरीयस्य यथाक्रमम् ॥६॥ तानि वर्षसहस्राणि विभक्कानि समं भवेत् । पञ्चमस्य च षष्ठस्य प्रमाणं कालवस्तुनः ॥६२॥
कल्पस्ते द्वे तथार्थानां वृद्धि हानिमती स्थितिः । मरतेरावतक्षेत्रेष्वन्येष्वपि ततोऽन्यथा ॥६३॥ एक-एक समयमें एक-एक टुकड़ा निकालनेपर जितने समय में वह गर्त खाली हो जाये उतने समयको उद्धारपल्योपम काल कहते हैं ॥५०॥ दश कोड़ाकोड़ो उद्धारपल्योंका एक उद्धार सागर होता है और ढाई उद्धार सागरोपम काल अथवा पचीस कोड़ाकोड़ो उद्धारपल्योंके बालोंके जितने टुकड़े हों उतने द्वीपसागरोंका प्रमाण है ॥५१॥ द्वीपसागरोंका जो अध्वा अर्थात् एक दिशाका विस्तार है उसे दुगुना करनेपर रज्जुका प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओंके तनुवातवलयके अन्त भागको स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीन लोकोंका प्रमाण निकालते हैं ॥५२।। उद्धार पल्यके रोम खण्डोंके असंख्यात करोड़ वर्षों के समय बराबर बुद्धि द्वारा खण्ड कल्पित किये जावें और उनसे पूर्वोक्त गतंको भरा जाये। इस गर्तको अद्धा पल्य कहते हैं। उनमें से एक-एक समयके बाद एक-एक टुकड़ाके निकालनेपर जितने समयमें वह खाली हो जाये उतने समयको अद्धापल्योपम काल कहते हैं । आयुका प्रमाण बतलाने के लिए इसका उपयोग होता है ।।५३-५४॥ दश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्योंका अद्धासागर होता है, इसके द्वारा संसारी जीवोंको आयु, कर्म तथा संसारको स्थिति जानी जाती है ॥५५॥ दश कोड़ाकोड़ी अद्धासागरोंकी एक अवसर्पिणी तथा उतने ही सागरोंकी एक उत्सपिणी होती है। इनमें प्रत्येकके छह-छह भेद हैं ॥५६।। जिसमें वस्तुओंकी शक्ति क्रमसे घटती जाती है उसे अवसपिणी और जिसमें बढ़ती जाती है उसे उत्सर्पिणी कहते हैं। इनका अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम सार्थक है ॥५७॥ १ सुषमासुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमादुःषमा, ४ दुःषमासुषमा, ५ दुःषमा और ६ दुःषमादुःषमा ये अवसर्पिणोके छह भेद हैं और इससे उलटे अर्थात् १ दुःषमादुःषमा, २ दुःषमा, ३ सुषमादुःषमा, ४ दुःषमासुषमा, ५ सुषमा और ६ सुषमासुषमा ये छह उत्सर्पिणीके भेद हैं ।।५८-५९।। प्रारम्भके तीन कालोंका प्रमाण क्रमसे चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोडाकोड़ी सागर और दो कोडाकोड़ी सागर है ।।६०॥ चौथे कालका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर है और पाँचवें तथा छठे कालका प्रमाण इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥६१-६२।। जिस प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल है उसी प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका उत्सर्पिणी काल है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों
१. दर्शतेषां क.। २. द्वीपसागरप्रमाणम् । ३. द्वीपसाराणामेकस्मिन् दिशि मर्यादामार्गः अध्वा कथ्यते । . ४. निष्पद्यन्ते म., ग., ङ., क.। ५. द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्राणि विभक्कानि द्विधाकृतानि अर्थात एकविंशति
वर्षसहस्राणि । ६. उत्सपिण्यवसपिण्यो।
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सप्तमः सर्गः
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आयेषु त्रिषु कालेषु कल्पवृक्षविभूषिता । मोगभूमिरियं भूमि गभूमिस्तु भारती ॥६॥ युग्मधर्मभुजो मूत्वा तेषामादौ जगत्प्रजाः । षट्चतुर्द्विसहस्राणि धनू षि वपुषोच्छ्रिताः ॥६५॥ आयस्त्रिद्वयकपल्यैस्तु तुल्यं तासां यथाक्रमम् । देवोत्तरकुरुक्षेत्रहरिहमवतेष्विव ॥६६॥ प्रोद्यदादिस्यवर्णामाः पूर्णचन्द्रसमप्रमाः । प्रियङ्गश्यामवर्णाश्च तेषु स्त्रीपुरुषास्त्रिषु ॥६७॥
पृष्ठकाण्डकसंख्यानं षट्पञ्चाशं शतद्वयम् । अष्टाविंशं शतं तेषां चतुःषष्टिर्यथाक्रमम् ॥६॥ दिव्यं बदरतन्मात्रमक्षमात्रं च भोजनम् । तथाऽमलकमात्र च चतुस्विद्विदिनैस्विष ॥१९॥ तस्त्रिकालनियोगेन धरित्रीय नियन्त्रिता । त्रिभेदानां तदादत्ते नित्यमोगभुवां स्थितिम् ॥७॥ रत्नप्रभा यथा माति पृथिवीयमवस्थितैः । एषा तथा स्फुरद्रत्नपटलैरुपरिस्थितैः ॥७॥ इन्द्रनीलादिभिर्नीलैः कृष्णैर्जात्यञ्जनादिमिः । पद्मरागादिकैः रक्तैः पीतैहैंमादिमिः परैः ॥७२॥ श्वेतैर्मुक्तादिमि मिर्मयूखाक्रान्तदिङ्मुखैः । पञ्चवर्णैश्चिता रत्नैः स्वर्गभूरिव शोभते ॥७३॥ चन्द्रकान्तशिलाऽस्योर्वी विद्रुमाधरपल्लवा । ललनेव तदाऽऽभाति रत्नकाञ्चनकन्चुका ॥७॥ चन्द्रकान्तांशवः शीताः सूर्यकान्तांशवोऽन्यथा । विश्लिष्यन्त्यत्र नाश्लिष्टाः शीतोष्णव्यथिता इव ॥७५॥
मिलकर कल्प काल कहलाते हैं। इन दोनों कालोंके समय भरत-ऐरावत क्षेत्रमें पदार्थोंकी स्थिति हानि और वृद्धिको लिये हुए होती है। इन दो क्षेत्रोंके सिवाय अन्य क्षेत्रोंमें पदार्थों की स्थिति हानिवृद्धिसे रहित-अवस्थित है ॥६३।। प्रारम्भके तीन कालोंमें भरत क्षेत्रकी यह भूमि भोगभूमि कहलाती है जो कि यथार्थमें नाना प्रकारके भोगोंकी भूमि-स्थान भी है ॥६४॥ उन तीनों कालोंके प्रारम्भमें मनुष्य क्रमसे छह हजार, चार हजार और दो हजार धनुष ऊंचे रहते थे तथा स्त्री-पुरुषोंकी उत्पत्ति युगल रूपमें-साथ ही साथ होती थी ॥६५॥ उस समय उनकी आयु देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवर्ष तथा हैमवत क्षेत्रके मनुष्योंके समान क्रमसे तीन पल्य, दो पल्य और एक पल्यके तुल्य होती थी ॥६६॥ उन तीन कालोंमें स्त्री-पुरुष क्रमसे उदित होते हुए सूर्यके समान, पूर्णचन्द्रके समान और प्रियंगु पुष्पके समान आभावाले होते थे ॥६७॥ उनकी पीठको हड्डियोंकी संख्या पहले कालमें दो सौ छप्पन, दूसरे कालमें एक सौ अट्ठाईस और तीसरे कालमें चौसठ थी ॥६८।। उनका पहले कालमें चार दिनके अन्तरसे बेरके बराबर, दूसरे कालमें दो दिनके अन्तरसे बहेड़ाके बराबर और तीसरे कालमें दो दिनके अन्तरसे आँवलेके बराबर दिव्यकल्पवृक्षोत्पन्न आहार होता था ॥६९।। उन तीन कालोंके नियोगसे नियन्त्रित यह भारतवर्षको भूमि उस समय क्रमशः तीन प्रकारको स्थायी भोगभूमियोंकी रीतिको ग्रहण करती थी अर्थात उस समय यहाँको व्यवस्था शाश्वती उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमियोंके समान थी ॥७०॥ जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी, स्थायी लगे हुए रत्नोंके पटलोंसे सुशोभित है उसी प्रकार भरत क्षेत्रको यह भूमि भी उस समय ऊपर स्थित देदीप्यमान रत्नोंके पटलोंसे सुशोभित होती है ॥७१।। अपनी किरणोंसे दिशाओंको व्याप्त करनेवाले इन्द्रनील आदि नीलमणि, जात्यंजन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि कालमणि, हैम आदि पीले मणि और मुक्ता आदि सफेद मणि इस प्रकार पाँच वर्णके मणियोंसे व्याप्त हुई यह भूमि उस समय स्वर्गभूमिके समान सुशोभित हो रही थी ॥७२-७३॥ चन्द्रकान्तमणि जिसका मुख था, मूंगा जिसके ओठ थे तथा रत्न और स्वर्ण जिसकी चोली थे ऐसी यह भमि उस समय किसी स्त्रीके समान सुशोभित होती थी।७४॥ चन्द्रकान्त मणिकी किरणें शीतल होती हैं और सूर्यकान्त मणिकी उष्ण । परन्तु यहाँ दोनों ही एक दूसरेसे मिलकर अलग-अलग नहीं होती थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो चन्द्रकान्तकी किरणें ठण्डसे पीड़ित थीं इसलिए सूर्यकान्तको उष्ण किरणोंको नहीं छोड़ना चाहती थीं और १. पृष्ठास्थिचयानां संख्या एतेन पदेन वेदितव्या ।
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हरिवंशपुराणे परस्परकराश्लेषरागमूछितमूर्तिभिः । मणिजातिविशेषैर्भाति प्रेमवशैरिव ॥७॥ पञ्चवर्णसुखस्पर्शसुगन्धरसशब्दकैः । संच्छना राजते क्षोणी तृणैश्च चतुरङ्गलैः ॥७॥ पूर्णैर्दधिमधुक्षीरघृतेक्षुरससजलैः । रत्नरोधोभिाऽभाद् दिव्यवापीसरोवरैः ॥७॥ नानावर्णमणिच्छौः सौवणः प्राणिसौख्यदैः । रम्यैः क्षोणीधरैः क्षोणी भ्राजते नितरी सदा ॥७९॥ ज्योतिर्गृहप्रदीपाङ्गैस्तूर्यभोजनभाजनैः । वस्त्रमाल्याङ्गमूषाङ्गमद्याङ्गैश्च द्रुमैरमात् ॥८॥ ज्योतिरङ्गनुमा ज्योतिश्छन्नचन्द्रार्कमण्डलाः । अहोरात्रकृतं भेदं मिन्दन्तो मान्ति संततम् ॥४१॥ सोद्यानभूमयश्चित्राः प्रासादाः बहुभूमयः । गृहाङ्गद्रुमखण्डोत्था मण्डयन्ति नभोऽङ्गणम् ॥४२॥ विशालायतशाखामिः पनकुड्मलपल्लवान् । धारयन्ति प्रदीपाभान् प्रदीपाङ्गमहीरुहाः ॥८३॥ चतुर्विधं शुभ वाद्यं ततं च विततं धनम् । सुषिरं च सृजन्त्यत्र सूर्याङ्गदुमजातयः ॥८४॥ षड्रसान्यतिमृष्टानि चतुर्भेदानि भोगिनाम् । भोजनाङ्गगुमा नानामोजनानि सृजन्ति ते ।।८५॥ पात्राणि स्थालकं चोलसौवर्णादीन्यनेकशः । भाजनानि विचित्राणि भाजनाङ्गाः सृजन्त्यलम् ॥८६॥ पट्टचीनद्कलानि वस्त्राणि विविधानि वै । बिभ्राणाः स्कन्धशाखासु भान्ति वस्त्राङ्गपादपाः ॥८७॥
सूर्यकान्तकी किरणें गर्मीसे पीड़ित हैं इसलिए चन्द्रकान्तकी शीतल किरणोंको नहीं छोड़ना चाहती थीं ॥७५॥ जिस प्रकार प्रेमके वशीभत हए मनुष्य परस्पर कराश्लेष अर्थात हाथोंका आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् प्रेमसे उनके शरीर मूच्छित रहते हैं, उसी प्रकार यहाँके नाना प्रकारके मणि भी परस्पर कराश्लेष अर्थात् किरणोंका आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् रंगसे उनकी आकृति मूच्छित-वृद्धिंगत होती रहती है। इस प्रकार जो प्रेमके वशीभूतके समान जान पड़ते थे ऐसे मणियोंसे यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥७६॥ जिनका वणं पांच प्रकारका था, स्पर्श सुखकारी था तथा गन्ध, रस और शब्द जिनके उत्तम थे ऐसे चार अंगुल प्रमाण तृणोंसे ढकी हुई यहाँकी भूमि सुशोभित हो रही थी ॥७७|| जो दही, मधु, दूध, घी और ईखके समान स्वादवाले उत्तम जलसे भरे हुए थे तथा जिनके तट रत्ननिर्मित थे ऐसी सुन्दर-सुन्दर बावाड़यों और सरोवरोंसे वह भूमि अत्यधिक सुशोभित थी ॥७८॥ रंग-बिरंगे मणियोंसे आच्छादित एवं प्राणियोंको सुख देनेवाले सुवर्णमय सुन्दर पर्वतोंसे यह भूमि सदा अत्यधिक सुशोभित रहती थी ॥७९॥ १ ज्योतिरंग, २ गृहांग, ३ प्रदीपांग, ४ तूर्यांग, ५ भोजनांग, ६ भाजनांग, ७ वस्त्रांग, ८ माल्यांग, ९ भूषणांग और १० मद्यांग जातिके कल्पवृक्षोंसे वह भूमि सदा सुशोभित रहती थी ।।८०॥ जिन्होंने अपनी कान्तिसे चन्द्रमा और सूर्यके मण्डलको आच्छादित कर रखा था ऐसे ज्योतिरंग जातिके कल्पवृक्ष दिन-रातका'भेद दूर करते हुए सदा सुशोभित रहते थे ॥८१।। जो बाग-बगीचोंसे सहित थे तथा जिनमें अनेक खण्ड थे ऐसे गृहांग जातिके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए नाना प्रकारके वृक्ष आकाशरूपी आँगनको सुशोभित कर रहे थे ।।८२।। प्रदीपांग जातिके कल्पवृक्ष अपनी लम्बी-चौड़ी शाखाओंसे दीपकके समान आभावाले कमलकी बोड़ियोंके आकार नये-नये पत्तोंको धारण कर रहे थे ।।८३॥ यहाँ जो तगि जातिके कल्पवक्ष थे वे तत, वितत, धन और सुषिरके भेदसे चार प्रकारके शुभ बाजोंको सदा उत्पन्न करते रहते थे ।।८४॥ भोजनांग जातिके कल्पवृक्ष भोगी मनुष्योंके लिए छह प्रकारके रसोंसे परिपूर्ण, अत्यन्त स्वादिष्ट तथा अन्न, पान, खाद्य और लेह्यके भेदसे चार भेदवाले नाना प्रकारके भोजनको उत्पन्न करते रहते थे ।।८५॥ भाजनांग जातिके कल्पवृक्ष मणि एवं सुवर्णादिसे निर्मित थाली, कटोरा आदि अनेक प्रकारके बर्तन उत्पन्न करते थे ।।८६।। वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्ष अपनी पींड तथा शाखाक्षोंपर पाट, चीनी तथा रेशम आदिके बने हुए नाना प्रकारके वस्त्र धारण करते हुए १. रत्नभासुराः क.।
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सप्तमः सर्गः मालतीमल्लिकाद्युद्यस्कुसुमप्रथितानि तु । भान्ति माल्यानि बिभ्राणा माल्यानधरणीरुहाः ॥४८॥ हारकुण्डलकेयूरकटिसूत्रादिभिश्चिताः । भूषणैर्भूषिताङ्गाश्च मान्ति स्त्रीपुरुषोचितः ॥८९॥ मद्यभेदाः प्रसन्नाद्या मदशक्तर्विधायकाः । संपाद्यन्ते नरस्त्रीणां हृद्या मद्याङ्गपादपैः ॥१०॥ दशधाकल्पवृक्षोत्थं भोगं युग्मानि भुञ्जते । दशाङ्गमोगचक्रेशमोगतोऽभ्यधिकं तदा ॥११॥ तदा स्त्रीपुंसयुग्मानां गर्भानिलुंठितात्मनाम् । दिनानि सप्त गच्छन्ति निजाङ्गुष्ठावलेहनैः ॥१२॥ रंगतामपि सप्तव सप्तास्थिरपराक्रमैः । स्थिरैश्च सप्त तैः सप्त कलासु च गुणेषु च ॥१३॥ कालेन तावता तेषां प्राप्तयौवनसंपदाम् । सम्यक्त्वग्रहणेऽपि स्याद् योग्यता सप्तमिर्दिनैः ॥९॥ स्त्रीपुंसलक्षणेः पूर्णा विशुद्धेन्द्रियबुद्धयः। कलागणविदग्धास्ता रमन्ते नीरुजाः प्रजाः ॥१५॥ नरा देवकुमारामा नार्यो देवाङ्गनोपमाः । वर्णगन्धरसस्पर्शशब्दवेषमनोरमाः ॥१६॥ श्रोत्रं गीतरवे रूपे चक्षुर्घाणं सुसौरभे । जिह्वा मुखरसास्वादे सुस्पर्श स्पर्शनं तनोः ॥९७॥ अन्योन्यस्य तदाशक्तं दम्पतीनां निरन्तरम् । स्तोकमपि न संतृप्तं मनोऽधिष्ठितमिन्द्रियम् ॥१८॥ मिथुनानि यथा नणां रमन्ते प्रेमनिर्भरम् । तथा कल्पदमाहारैस्तिरश्चां तृप्तचेतसाम् ॥१९॥ क्वचिस्सैह क्वचिञ्चमं क्वचिदौष्टं च शौकरम् । क्वचित् क्रीडन्ति वैयाघ्र मिथुनं मदमन्थरम् ॥१०॥ गवाश्वमहिषादीनां मिथुनानि मिथस्तदा । मायुःप्रमितायूंषि रम्यन्ते निजेच्छया ॥१०॥ आर्यामाह नरो नारीमायं नारी नरं निजम् । मोगममिनरस्त्रीणां नाम साधारणं हि तत् ॥१.२॥ उत्तमा जातिरेकैव चातुर्वण्यं न षक्रियाः । न स्वस्वामिकृतः पुंसां संबन्धो न च लिङ्गिनः ॥१३॥
सुशोभित होते थे ।।८७।। माल्यांग जातिके कल्पवृक्ष मालती, मल्लिका आदिके ताजे फूलोंसे गुंथी हुई मालाओंको धारण करते हुए सुशोभित हो रहे थे ।।८८॥ भूषणांग जातिके कल्पवृक्ष स्त्रीपुरुषोंके योग्य हार, कुण्डल, बाजूबन्द तथा मेखला आदि आभूषणोंसे व्याप्त हो सुशोभित थे ।।८।। और मद्यांग जातिके कल्पवृक्षोंके द्वारा स्त्री-पुरुषोंके लिए प्रिय तथा उनकी मदशक्तिको उत्पन्न करनेवाले प्रसन्ना आदि नाना प्रकारके मद्य उत्पन्न किये जाते थे ॥९०॥ उस समय यहाँ स्त्री-पुरुषोंके युगल दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न चक्रवर्तीके दशांग भोगोंसे भी अधिक भोगोंका उपभोग करते थे ।।११।। उस समय गर्भसे उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुषों (युगलियों ) के सात दिन तो अपना अंगूठा चूसते-चूसते व्यतीत हो जाते थे, तदनन्तर सात दिन रेंगते, सात दिन लड़खड़ाती हुई गतिसे, सात दिन स्थिर गतिसे, सात दिन कला तथा अनेक गुणोंके अभ्याससे और सात दिन यौवनरूप सम्पदाके प्राप्त करने में व्यतीत होते थे। उसके सातवें सप्ताहमें उन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेकी योग्यता आती थी ॥९२-९४॥ स्त्री-पुरुषोंके उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त, विशुद्ध इन्द्रिय और बुद्धिके धारक, कला और गुणोंमें चतुर एवं रोगोंसे रहित उस समयके लोग आनन्दसे क्रीड़ा करते थे ॥९५।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और वेषके द्वारा मनको आनन्दित करनेवाले वहाँके लोग देवकुमारोंके समान तथा वहाँको स्त्रियां देवांगनाओंके समान जान पड़ती थों ।।९६।। उस समय स्त्री-पुरुषोंके कान परस्परके संगीत शब्दोंमें, चक्षु रूपके देखने में, घ्राण सुगन्धिके ग्रहण करनेमें, जिह्वा मुखके रसास्वादमें और स्पर्शन शरीरके उत्तम स्पर्शके ग्रहण करने में निरन्तर आसक्त रहते थे। उनके मन तथा इन्द्रियाँ रंचमात्र भी सन्तुष्ट नहीं होती थीं ॥९७-९८। जिस प्रकार मनुष्योंके जोड़े कल्पवृक्ष सम्बन्धी आहारोंसे सन्तुष्ट हो प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते हैं उसी प्रकार सन्तुष्ट चित्तके धारक तियंचोंके जोड़े भी प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते थे ॥९९।। उस समय कहीं सिंहोंके युगल, कहीं हाथियोंके युगल, कहीं ऊंटोंके युगल, कहीं शूकरोंके युगल, और कहीं मदसे धीमी चाल चलनेवाले व्याघ्रोंके युगल क्रीड़ा करते थे ॥१००॥ कहीं मनुष्योंके बराबर आयुको धारण करनेवाले गाय, घोड़े
और भैंसोंके जोड़े अपनी इच्छानुसार अत्यधिक क्रीड़ा करते थे।॥१०१॥ वह पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुषको आर्य कहती थी। यथार्थमें भोगभूमिज स्त्री-पुरुषोंका वह साधारण नाम है।।१०२॥ उस
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हरिवंश पुराणे
मध्यस्था एव सर्वत्र न मित्राणि न शत्रवः । प्रकृत्याल्पकषायित्वाद्यान्ति चायुः क्षये दिवम् ॥ १०४ ॥ सुखमृत्युः क्षुतेः पुंसो जृम्भारम्भेण च स्त्रियाः । जन्मबद्धस्य प्रेमस्य युगलस्य सहैव सः ॥ १०५ ॥ अथ ज्ञाखा गणाधीशः श्रेणिकस्य मनोगतम् । मोगभूमिसमुत्पत्तिनिमित्तमभणीदिति ॥ १०६ ॥ कर्मभूमिगता मर्त्याः प्रकृत्याल्प कषायिगः । अत्र ते पात्रदानात् स्युभगभूमिषु मानुषाः ॥ १०७ ॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रतपःशुद्धिपवित्रिताः । मध्यस्थाः शत्रुमित्रेषु सन्तो हि पात्रमुत्तमम् ॥१०८॥ मध्यमं तु भवेत्पात्रं संयतासंयता जनाः । जघन्यमुदितं पात्रं सम्यग्दृष्टिरसंयतः ॥१०९ ॥ त्रिविधेऽपि बुधः पात्रे दानं दत्वा यथोचितम् । भोगभूमिसुखं दिव्यं भुङ्क्ते भूत्वा तु मानुषः ||११० ॥ सुक्षेत्रे विधिवत्क्षिप्तं बोजमल्पमपि व्रजेत् । वृद्धिं यथा तथा पात्रे दानमाहारपूर्वकम् ॥ १११ ॥ aritrक्षेत्र निक्षिप्तं यथा मिष्टं पयो मवेत् । धेनुभिश्च यथा पीतं क्षीरत्वं प्रतिपद्यते ॥ ११२ ॥ तथैवाल्परसास्वादमन्नपानौषधादिकम् । पात्रदत्तं परत्र स्यादमृतास्वादमक्षयम् ॥ ११३ ॥ निवृत्ताः स्थूलहिंसादेर्मिथ्यादृग्ज्ञानवृत्तयः । कुपात्रमिति विज्ञेयमपात्रमनिवृत्तयः ॥ ११४ ॥ कुपात्रदानतो भूत्वा तिर्यञ्चो भोगभूमिषु । संभुञ्जतेऽन्तरं द्वीपं कुमानुष कुलेषु वा ॥११५॥ असक्षेत्रे यथा क्षिप्तं बीजमल्पफलं फलेत् । कुपात्रेऽपि तथा दत्तं दानं दात्रे कुभोगभाक् ॥ ११६॥ ऊषरक्षेत्र निक्षिप्तशालिर्नश्यति मूलतः । यथात्र विफलं दानं कुपात्रपतितं तथा ॥ ११७ ॥
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समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है, वहां न ब्राह्मणादि चार वर्णं होते हैं व असि, मषी आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामीका सम्बन्ध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ॥ १०३ ॥ वहाँके मनुष्य सब विषयोंमें मध्यस्थ रहते हैं, वहाँ न मित्र होते हैं और न शत्रु । एवं स्वभावसे ही अल्पकषायी होनेके कारण आयु समाप्त होनेपर सब नियमसे देव पर्यायको ही प्राप्त होते हैं || १०४ || जन्म से ही जिसका प्रेमभाव परस्परमें निबद्ध रहता था ऐसे पुरुषकी मृत्यु छींक आनेसे तथा स्त्रीकी मृत्यु जिम्हाई लेने मात्र से सुखपूर्वक हो जाती थी || १०५ ।।
अथानन्तर गणधर देव श्रेणिकका मनोभिप्राय जानकर भोगभूमिमें उत्पन्न होने के कारण इस प्रकार कहने लगे ॥ १०६ ॥ कर्म-भूमिके जो मनुष्य स्वभावसे ही मन्दकषाय होते हैं वे पात्रदानके प्रभावसे भोगभूमिमें मनुष्य होते हैं ॥ १०७॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपकी शुद्धिसे पवित्र हैं तथा शत्रु और मित्रोंपर मध्यस्थ भाव रखते हैं ऐसे साधु उत्तम पात्र कहलाते हैं || १०८ || संयमासंयमको धारण करनेवाले श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहे जाते हैं || १०९ || उक्त तीनों प्रकारके पात्रोंमें यथायोग्य दान देकर बुद्धिमान् मनुष्य भोगभूमिमें आर्य होकर वहाँका दिव्य सुख भोगता है ||११०|| जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में विधिपूर्वक बोया हुआ छोटा भी बीज वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्रके लिए दिया हुआ आहार आदि दान भी वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ १११ ॥ जिस प्रकार धान और ईख के खेत में पड़ा हुआ जल मीठा हो जाता है और गायोंके द्वारा पोया हुआ पानी दूध पर्यायको प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पात्रके लिए दिया हुआ अल्प रसवाला अन्न, पान तथा औषध्यादिकका दान परभवमें अविनाशी तथा अमृतके समान स्वादसे युक्त हो जाता है ।। ११२-११३ ।। जो स्थूल हिंसा आदिसे निवृत्त हैं परन्तु मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके धारक हैं वे कुपात्र कहलाते हैं और जो स्थूल हिंसा आदि से भी निवृत्त नहीं हैं उन्हें अपात्र जानना चाहिए ।। ११४|| कुपात्र दानके प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियोंमें तिर्यंच होते हैं अथवा कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अन्तर द्वीपोंका उपभोग करते हैं ।। ११५ || जिस प्रकार खराब खेत में बोया हुआ बीज अल्प फलवाला होता है उसी प्रकार कुपात्रके लिए दिया हुआ दान भी दाताको कुभोग प्राप्त करानेवाला होता है | ११६ || जिस प्रकार ऊषर क्षेत्र में बोया हुआ धान समूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कुपात्रके लिए दिया हुआ दान भी निष्फल हो जाता है ॥११७॥
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सप्तमः सर्गः
१ 'अम्बु निम्बमे रौद्रं कोद्रवे मदकृद् यथा । विषं व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा ॥ ११८ ॥ सुपात्रे सुफलं दानं कुपात्रे कुफलं भवेत् । अपात्रे दुःखदं तस्मात्पात्रेभ्यः प्रतिपादयेत् ॥ ११९ ॥ यात्युपाधिवशाद् भेदं निर्मलः स्फटिकोपरुः । यथा तथा च दानाघं प्रतिग्राहकभेदतः ॥ १२० ॥ सम्यग्दृष्टिः पुनः पात्रे स्वपरानुग्रहेच्छया । दानं दत्त्वा विशुद्धात्मा स्वर्गमेव गृही व्रजेत् ॥ १२१ ॥ अथ कालद्वsaid क्रमेण सुखकारणे । पल्याष्टमागशेषे च तृतीये समवस्थिते ।। १२२|| क्रमेण क्षीयमाणेषु कल्पवृक्षेषु भूरिषु । क्षेत्रे कुलकरोत्पत्तिं शृणु श्रेणिक ! सांप्रतम् ॥ १२३ ॥ गङ्गासिन्धुमहानद्योर्मध्ये दक्षिणभारते । चतुर्दश यथोत्पन्नाः क्रमेण कुलकारिणः ||१२४|| प्रतिश्रुतिरभूदाद्यस्तेषां कुलकरप्रभुः । महाप्रभावसंपन्नः स्वमवस्मरणान्वितः ।। १२५ ।। तस्य काले प्रजा दृष्ट्वा पौर्णमास्यां सहैव खे । आकाशगजघण्टाभे द्वे चन्द्रादित्यमण्डले ॥ १२६॥ आकस्मिक भयोद्विग्नाः स्वमहोत्पातशङ्किताः । प्रजाः संभूय पप्रच्छ्रुस्तं प्रभुं शरणागताः ॥१२७॥ नरप्रधान ! कावेतावपूर्वी गगनान्तयोः । दृश्यते मण्डलाकारावकाण्डे नो भयंकरौ ॥१२८॥ अहो दुःसहमस्माकमकस्माद् भयमुद्गतम् । किं महानलयः प्राप्तः प्रजानामेव दुस्तरः || १२९ || इति पृष्टः प्रभुः प्राह शुचं मुञ्चत हे प्रजाः । न किंचिद् मयमस्माकं स्वस्था भवत कथ्यते ॥१३०॥ प्रभामण्डलसंवीतमेतदादित्यमण्डलम् । प्रतीच्यां वीक्षते भद्रा ! प्राच्यां मोश्वन्द्रमण्डलम् ॥ १३१ ॥
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जिस प्रकार नीमके वृक्षमें पड़ा हुआ पानी कड़ आ हो जाता है, कोदोंमें दिया हुआ पानी मदकारक हो जाता है और सर्पके मुखमें पड़ा हुआ दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ दान विपरीत फलको करनेवाला हो जाता है ॥ ११८ ॥ चूँकि सुपात्र के लिए दिया हुआ दान सुफलको देनेवाला है, कुपात्रके लिए दिया हुआ दान कुफलको देनेवाला है और अपात्र के लिए दिया हुआ दान दुःख देनेवाला है अतः पात्र के लिए ही दान देना चाहिए ॥ ११९ ॥ जिस प्रकार निर्मल स्फटिकमणि उपाधिके वशसे भेदको प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्रके भेदसे दानका फल भी भेदको प्राप्त हो जाता है ॥ १२० ॥ निर्मल अभिप्रायको धारण करनेवाला सम्यग्दृष्टि गृहस्थ यदि पात्र के लिए दान देता है तो वह नियमसे स्वर्गं ही जाता है ॥ १२१ ॥
अथानन्तर सुख के कारणभूत जब प्रारम्भके दो काल बीत गये और पल्यके आठवें भाग बराबर तीसरा काल बाकी रह गया तथा कल्पवृक्ष जो पहले अधिक मात्रामें थे क्रम-क्रमसे कम होने लगे तब इस क्षेत्र में कुलकरोंकी उत्पत्ति हुई । हे श्रेणिक ! मैं इस समय उन्हीं कुलकरोंकी उत्पत्ति कहता हूँ तू श्रवण कर | १२२ - १२३ ।। गंगा और सिन्धु महानदियोंके बीच दक्षिण भरत क्षेत्रमें क्रमसे चौदह कुलकर उत्पन्न हुए थे || १२४|| उन कुलकरोंमें पहला कुलकर प्रतिश्रुति था । वह महाप्रभाव से सम्पन्न था तथा अपने पूर्वंभवके स्मरणसे सहित था ॥ १२५ ॥ उसके समय प्रजाके लोग पौर्णमासीके दिन आकाशमें एक साथ, आकाशरूपी हाथीके दो घंटाओंके समान आभावाले चन्द्र और सूर्य - मण्डलको देखकर अपने ऊपर आनेवाले किसी महान् उत्पातसे शंकित हो आकस्मिक भयसे उद्विग्न हो उठे तथा सब एकत्रित हो प्रतिश्रुति कुलकरकी शरण में जाकर उससे पूछने लगे ॥ १२६ - १२७॥ कि हे नररत्न ! आकाशके दोनों छोरोंपर, मण्डलाकार तथा असमय में हम लोगोंको भय उत्पन्न करनेवाले ये दो कौन अपूर्वं पदार्थं दीख रहे हैं ? || १२८ || अहो ? हम लोगोंके लिए यह अकस्मात् ही दुःसह भय प्राप्त हुआ है। क्या यह प्रजाके लिए दुस्तर महाप्रलय ही आ पहुँचा है ? || १२९ ॥ इस प्रकार पूछे जानेपर स्वामी प्रति तिने कहा कि हे प्रजाजनो ! भय छोड़ो, हमारे लिए कुछ भी भय प्राप्त नहीं हुआ है । आप लोग स्वस्थ रहिए। ये जो दिखाई दे रहे हैं मैं उनका कथन करता हूँ ॥ १३० ॥ हे भद्रपुरुषो ! यह पश्चिममें प्रभाके समूह से व्याप्त सूर्य-मण्डल
१. अम्बु निम्बुद्रुमे क. ख. । २. दृश्यते म. ।
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हरिवंशपुराणे ज्योतिश्चक्राधिपावेतो सूर्याचन्द्रमसौ स्थितौ । मेरुप्रदक्षिणी नित्यं भ्रमन्तौ भ्रमणात्मकौ ॥१३२।। चतुर्विधेषु देवेषु ज्योतिर्देवकदम्बकम् । खे करोत्यनयोर्नित्यमनुभ्रमणमीशयोः ॥१३३॥ ज्योतिरङ्गमहावृक्षप्रभाच्छादितविग्रहो। प्रागन्यत्रविदेहेभ्यो न गतौ दृष्टिगोचरम् ॥१३४॥ तेजोहीनेऽधुना लोके ज्योतिरङ्गप्रभाक्षये । जिगीषयेव चन्द्राकौं स्थितौ प्रकटविग्रहौ ॥१३५॥ अहोरात्रादिको भेदो भवत्यवशादिह । अधुनेन्दुवशाद् व्यक्तिः पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ।।१३६ । शीतदीधितिरस्तामो धर्मदीधितिना दिवा । न स्पष्टः स्पष्टतामेति ज्योतिश्चक्रसखो निशि ।।१३७॥ पूर्वजन्मनि युष्मामिदृष्टपूर्वाविमौ स्फुटम् । विदेहेषु यतस्तस्मान्नाद्य वोऽपूर्वदर्शनौ ॥१३८॥ दृष्टश्रुतानुभूतस्य वस्तुनः सति दर्शने । माभूदुत्पातशङ्का वो निर्भया भवत प्रजाः ।। १३९॥ कालस्वभावभेदेन स्वभावो मिद्यते ततः। द्रव्यक्षेत्रप्रजावृत्तवपरीत्यं प्रजायते ।।१४०।। अव्यवस्थानिवृत्यर्थमतः परमतः प्रजाः । हा मा धिक्कारतो भूताः तिस्रो वै दण्डनीतयः ।।१४१॥ मर्यादोल्लङ्घनेच्छस्य कथंचित्कालदोषतः । दोषानुरूपमायोज्याः स्वजनस्य परस्य वा ॥१४२॥ नियन्त्रितो जनः सर्वस्तिसृमिर्दण्डनीतिभिः । दृष्टदोषभयत्रस्तो दोषेभ्यो विनिवर्तते ।।१४३॥ रक्षणार्थमनर्थेभ्यः प्रजानामर्थसिद्धये । प्रमाणमिह कर्तव्याः प्रणीता दण्डनीतयः ।।१४४॥ प्रासादेषु यथास्थानं मिथुनान्यकुतोभयम् । अनुस्मृत्यावतिष्ठन्त्वस्मदीयमनुशासनम् ।।१४५।।
इत्युक्ता प्रतिपद्याऽऽशु वचस्तस्य प्रजापतेः । श्रत्वा तस्थुर्यथास्थानं प्रजातप्रमदाः प्रजाः ॥१४६।। और यह पूर्व दिशामें चन्द्र-मण्डल दिखाई दे रहा है ॥१३१।। ये सूर्य और चन्द्रमा समस्त ज्योतिश्चक्रके स्वामी हैं, भ्रमणशील हैं और निरन्तर मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देते हुए घूमते रहते हैं ॥१३२॥ चार प्रकारके देवोंमें जो ज्योतिषी देवोंका समूह है वह आकाशमें निरन्तर अपने इन दोनों स्वामियोंके पीछे-पीछे भ्रमण करता है ॥१३३।। पहले इनका आकार ज्योतिरंग जातिके महावृक्षोंकी प्रभासे आच्छादित था इसलिए ये विदेह क्षेत्रको छोड़ अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं थे ॥१३४।। इस समय लोक, ज्योतिरंग वृक्षोंकी प्रभा क्षीण हो जानेसे तेजरहित हो गया है इसलिए उसे जीतनेकी इच्छासे ही मानो चन्द्रमा और सूर्य अपने शरीरको प्रकट कर स्थित हैं ॥१३५॥ अब पृथिवीपर सूर्यके भेदसे दिन-रातका भेद होगा और चन्द्रमाके द्वारा शुक्ल पक्ष
और कृष्ण पक्ष प्रकट होंगे ॥१३६।। दिनके समय चन्द्रमा सूर्यके द्वारा अस्त-जैसा हो जाता है, स्पष्ट नहीं दिखाई देता और रात्रिके समय स्पष्टताको प्राप्त हो जाता है। यह चन्द्रमा समस्त ज्योतिश्चक्रका सखा है ।।१३७|| तुम लोगोंने पूर्व जन्मके समय विदेह क्षेत्र में इन्हें अच्छी तरह देखा है इसलिए आज इनका दिखना तुम्हारे लिए अपूर्व नहीं है ॥१३८॥ पहले देखी-सुनी और अनुभवमें आयी वस्तुका दर्शन होनेपर आप लोगोंको उत्पातकी आशंका नहीं होनी चाहिए। हे प्रजाजनो ! तुम सब निर्भय होओ-उत्पातका भय छोड़ो ॥१३९॥ कालके स्वभावमें भेद होनेसे पदार्थोंका स्वभाव भिन्न रूप हो जाता है और उसीसे द्रव्य-क्षेत्र तथा प्रजाके व्यवहारमें विपरीतता आ जाती है ॥१४०॥ इसलिए हे प्रजाजनो ! अब इसके आगे अव्यवस्था दूर करनेके लिए हा, मा और धिक् ये तीन दण्डकी धाराएँ स्थापित की जाती हैं ॥१४१।। यदि कोई स्वजन या परजन कालदोषसे मर्यादाके लांघने की इच्छा करता है तो उसके साथ दोषीके अनुरूप उक्त तीन धाराओंका प्रयोग करना चाहिए ॥१४२।। तीन धाराओंसे नियन्त्रणको प्राप्त हुए समस्त मनुष्य इस भयसे त्रस्त रहते हैं कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाये। और इसी भयसे वे दोषोंसे दूर हटते रहते हैं ।।१४३।। अनर्थोंसे बचने के लिए तथा प्रजाको भलाईके लिए आप लोगोंको ये निश्चित को हुई दण्डको धाराएं स्वी त करनी चाहिए ॥१४४॥ हमारी आज्ञाका स्मरण कर अब सब युगल निर्भय हो यथास्थान महलोंमें निवास करें ।।१४५।। इस प्रकार कहने१. स्थितं म. । २. प्रदक्षिणां म.। ३. विद्यते म.। ४. हितसिद्धये । ५. इत्युक्त्वा म.।
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सप्तमः सर्गः
२४३
प्रतिश्रुतं वचस्तामिर्यतस्तस्य गुरोर्यथा। प्रथमं प्रथितस्तस्मारस पृथिव्यां प्रतिश्रुतिः ॥१७॥ पल्यस्य दशमं मागं जीवित्वाऽसौ प्रतिश्रुतिः । पुत्रं सन्मतिमुत्पाद्य जीवितान्ते दिवं 'सृतः ॥१४॥ स रक्षन् पितृमर्यादा प्रजानां संमतो यतः । ततः सन्मतिनामायं कुलकारी कलालयः ॥१४९॥ पल्यस्य शतमं (?) मार्ग स प्रतिजीव्य निजस्थितिम् । पुत्रं क्षेमंकरामिख्यमुत्पाद्य त्रिदिवं गतः ॥१५०॥ प्रजानां च तदा जाताः सिंहव्याघ्रविभीषिकाः । सोऽपि क्षेमं ततः कृत्वा प्राप्तः क्षेमंकरश्रुतिम् ॥१५॥ सहस्रभागमाजीव्य पल्यस्यासौ प्रजाप्रभुः । पुत्रं क्षेमंधराभिख्यं जनयित्वा गतो दिवम् ॥१५२॥ क्षेमंधरः स मस्वार्यस्थिति कुलकरो गुरोः । सहस्रमागमाजीव्य पल्यस्य दशसंगुणम् ॥१५३॥ सूनुं सीमंकरं नाम्ना समुत्पाद्य ययौ दिवम् । वृक्षलुब्धप्रजानां च स सीमामकरोत् प्रभुः ॥१५४॥ लक्षमागं स पल्यस्य जीवित्वा स्वर्गगोऽभवत् । सीमंधरो यथार्थाख्यस्तत्सुतो दशताडितम् ॥१५५॥ तत्पुत्रो वाहनीकृत्य चिक्रीड विपुलद्विपान् । यत्तख्यातः स भूम्नाऽभूद् नाम्ना विपुलवाहनः ॥५६॥ कोटीमागं स पल्यस्य जीविस्वा स्वर्गमाश्रितः । चक्षुष्मानिति तत्सूनुरजनिष्ट जनप्रभुः ॥१५७॥ पुत्रचक्षुर्मुखालोकाच्चक्षुर्मरवा भियाऽनया। आयुष्मत्प्रजया गीतश्चक्षुष्मानित्यसौ प्रभुः ॥१५॥ कोटीभागं स पल्यस्य दशताडितमीडितः । भुक्त्वा भोगमुदात्तोऽपि स्वरितोऽभूस्थितिक्षये ॥१५९॥
पर सब लोगोंने प्रतिश्रुति कुलकरके वचन शीघ्र ही स्वीकृत किये और सब बड़ी प्रसन्नतासे यथास्थान महलोंमें रहने लगे ॥१४६॥ जिस प्रकार गुरुके वचन स्वीकृत किये जाते हैं उसी प्रकार प्रजाने चूंकि उसके वचन स्वीकृत किये थे इसलिए वह पृथिवीपर सर्वप्रथम प्रतिश्रति इस नामसे प्रसिद्ध हआ था ॥१४७।। यह प्रतिश्रति कुलकर, पल्यके दशवें भाग तक जीवित रहकर तथा सन्मति नामके पुत्रको उत्पन्न कर आयुके अन्तमें स्वर्ग गया ॥१४८।। सन्मति कुलकर पिताकी मर्यादाकी रक्षा करता था, प्रजाको अतिशय मान्य था और अनेक कलाओंका घर था इसलिए सन्मति इस नामसे प्रसिद्ध हुआ था ।।१४९|| वह सन्मति पल्यके सौवें भाग जीवित रहकर तथा क्षेमंकर नामक पुत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥१५०॥ उसके समयमें प्रजाको सिंह तथा व्याघ्रोंसे भय उत्पन्न होने लगा था उससे उनका कल्याण कर वह क्षेमंकर इस नामको प्राप्त हुआ था ॥१५१॥ यह प्रजाका स्वामी पल्यके हजारवें भाग जीवित रहकर तथा क्षेमन्धर नामक पुत्रको उत्पन्न कर स्वगं गया ॥१५२॥ वह क्षेमन्धर पिताकी आय मर्यादाकी रक्षा करनेवाला था और पल्यके दश हजारवें भाग जीवित रहकर तथा सीमङ्कर नामक पुत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया। इसके समयमें कल्पवृक्षोंकी संख्या कम हो गयी थी इसलिए उनकी लोभी प्रजामें परस्पर कलह होने लगी थी। इसने उनकी सीमा निर्धारित की थी इसलिए यह सीमंकर इस सार्थक नामको धारण करता था। यह पल्यके लाखवें भाग जीवित रहकर स्वर्गगामी हुआ और इसके सीमन्धर इस सार्थक नामको धारण करनेवाला पुत्र हुआ। वह पल्यके दश लाखवें भाग जीवित रहकर स्वर्ग गया। इसके विपुलवाहन नामका पुत्र हुआ, यह बड़े-बड़े हाथियोंको वाहन बनाकर उनपर अत्यधिक क्रीड़ा करता था इसलिए विपुलवाहन इस नामका धारी हुआ था ।।१५३-१५६॥ वह पल्यके करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्ग गया और उसके चक्षुष्मान् नामका पुत्र हुआ ॥१५७।। पहले माता-पिता पुत्रका मुख तथा चक्षु देखे बिना ही मर जाते थे पर इसके समय पुत्रका मुख और चक्षु देखकर मरने लगे इससे प्रजाको कुछ भय उत्पन्न हुआ परन्तु इसने उन सबके भयको दूर किया इसलिए कुछ अधिक काल तक जीवित रहनेवाली प्रजाने इसे 'चक्षुष्मान्' इस नामसे सम्बोधित किया ।।१५८॥ स्तुतिको प्राप्त हुआ वह चक्षुष्मान् पल्यके दश करोड़वें भाग तक भोग १. स्मृतः म. । २. व्याघ्रादिभीषिका: म.। ३. प्रजां प्रभुः म.। ४. उदात्तो महान् अन्यत्र उदात्तः स्वर उच्यते । ५. स्वर् इतः = स्वर्ग गतः, अन्यत्र स्वरितस्वर उच्यते शब्दच्छलेन ।
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हरिवंशपुराणे तदपत्यं यशस्वीति स्वकालेऽपत्यमाख्यया । प्रजयायोजयत्प्रायो योजितो यशसोरुणा ॥१६॥ कोटीमागं स पल्यस्य शतसंगुणितं प्रभुः । जीवित्वोत्पाद्य सत्पुत्रमभिचन्द्रं दिवं गतः ॥१६॥ तत्कालेऽपत्यमुरिक्षप्य प्रजा रमयति स्म यत् । अभिचन्द्रमतः प्रापत्सोऽमिचन्द्र इति श्रुतिम् ॥१६॥ कोटीमागं स पल्यस्य सहस्रगुणितं गुणी। संजीव्योत्पाद्य चन्द्रामं तनयं प्रययौ दिवम् ॥१६३॥ कोटीमागं सहस्रं तु तस्यायुर्दशसंगुणम् । पल्यस्य मरुदेवं स मासं पुत्रमलालयत् ॥१६॥ मरुदेवस्य काले च मातः पितरिति ध्वनिम् । शुश्राव शिशुयुग्मस्य प्रथमं मिथुनं कलम् ॥१६५॥ एकमेवासृजत्पुत्रं प्रसेनजितमत्र सः । युग्मसृष्टेरिहैवोर्ध्वमितो व्यपनिनीषया॥१६॥ प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम् । विवाहविधिना वीरः प्रधानकुलकन्यया ॥१६॥ कोटीमागसहस्रं स पल्यस्य शतसंगुणम् । संजीव्य मरुदेवोऽपि महतां लोकमुद्ययौ ॥१६॥ पूर्वकोट्यायुषं नामि प्रसेनजिदजीजनत् । नामिच्छेदव्यवस्थायाः कर्तारं स्वर्गगामिनम् ॥१६९॥ दशानां कोटिलक्षाणां पल्यांशानामांशकम् । जीविस्वा कालधर्मेण प्रसेनजिदितो दिवम् ॥१७॥ शतान्यष्टादशोत्सेधो धनंष्यासन् प्रतिश्रुतेः । त्रयोदश तु पुत्रस्य पौत्रस्याष्टशतान्यतः ॥१७॥ परतः क्रमहानिस्तु धनुषां पञ्चविंशतेः । स पञ्चविंशतिः शेषा नाभेः पञ्चधनुःशती ॥१७२॥
आद्यसंस्थानसंघातगम्भीरोदारमूर्तयः । स्वपूर्वमवविज्ञाना मनवस्ते चतुर्दश ॥१७३॥ भोगकर आयु समाप्त होनेपर स्वर्ग गया। वह यद्यपि उदात्त = उदात्त नामका स्वर था तो भी स्वरित =स्वरित नामका स्वर हुआ था यह विरोध है । परिहार पक्षमें वह उदात्त-महान् था और स्वरितः स्वर् इतः-स्वर्ग गया था ॥१५९।। चक्षुष्मान्का पुत्र यशस्वी हुआ। इसने अपने समयमें प्रजाको पुत्रका नाम रखना सिखाया इसलिए प्रजाने इसे विस्तृत यशसे युक्त किया अर्थात् इसका यशस्वी यह नाम रखा ॥१६०। वह पल्यके सौ करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा अभिचन्द्र नामक उत्तम पत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥१६१॥ उसके समयमें प्रजा अपनी सन्तानको ऊपर उठा चन्द्रमाके सामने क्रीड़ा कराती थी इसलिए वह अभिचन्द्र इस नामको प्राप्त हुआ ॥१६२॥ वह गुणवान् कुलकर पल्यके हजार करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा चन्द्राभ नामक पुत्रको उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥१६३।। चन्द्राभने पल्यके दश हजार करोड़वें भाग तक जीवित रहकर मरुदेवको उत्पन्न किया। वह अपने मरुदेव पुत्रको एक मास तक खिलाता रहा अनन्तर स्वर्गको प्राप्त हुआ ॥१६४।।।। मरुदेवके समय स्त्री-पुरुष अपनी सन्तानके मुखसे 'हे माँ', 'हे पिता' इस प्रकारके मनोहर शब्द सुनने लगे थे ॥१६५।। पहले यहाँ युगल सन्तान उत्पन्न होती थी परन्तु इसके आगे युगल सन्तानकी उत्पत्तिको दूर करनेकी इच्छासे ही मानो मरुदेवने प्रसेनजित् नामक अकेले पुत्रको उत्पन्न किया था ॥१६६॥ इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्योंके शरीरमें पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित्का शरीर जब कभी पसीनाके कणोंसे सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेवने अपने पुत्र प्रसेनजित्को विवाह-विधिके द्वारा किसी प्रधान कुलकी कन्याके साथ मिलाया था ।।१६७।। अन्तमें मरुदेव पल्यके लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग गया ॥१६८।। तदनन्तर प्रसेनजित्ने एक करोड़ पूर्वकी आयुवाले, जन्मकालमें बालकोंकी नाल काटने की व्यवस्था करनेवाले थे, तथा स्वगंगामी नाभिराज पुत्रको उत्पन्न किया ॥१६९|| पल्यके दश लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर आयु समाप्त होनेपर प्रसेनजित् स्वर्ग गया ॥१७०||
प्रथम कुलकर प्रतिश्रु तिकी ऊंचाई अठारह सौ धनुष थी, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मतिकी तेरह सौ धनुष थी, प्रतिश्रुतिके पौत्र-तीसरे कुलकर क्षेमंकरको आठ सौ धनुष थी और इसके आगे प्रत्येकको पचीस-पचीस धनुष कम होती गयी है। इस तरह अन्तिम कुलकर नाभिराजकी ऊंचाई पाँच सौ पचीस धनुष थी ॥१७१-१७२॥ ये चौदह कुलकर समचतुरस्र संस्थान १. यशसा उरुणा = विशालेन । यशसाऽरुणा म.। २. प्रस्वेदमलभूपितम् म.।
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सप्तमः सर्गः
म यशस्वी च तथैवासौ प्रसेनजित् । त्रयः कुलकराः प्रोक्ताः प्रियङ्गश्यामरोचिषः ॥१७४॥ चन्द्रामचन्द्रगौरामस्तथैव प्रथितः प्रभुः । कथिता दश शेषास्ते संतप्तकनकप्रभाः ॥ १७५ ॥ मर्यादारक्षणोपायहामाधिक्कारनीतयः । प्रजानां जनकाभास्ते प्रभवः प्रतिभाधिकाः ॥ १७६ ॥ इथं कुलकरोत्पत्तिः सकला कथिता नृप । नाभेयस्याधुनोत्पत्तिं शृणु पापविनाशिनीम् ॥ १७७॥ शिखरिणीवृत्तम्
जगत्षभिर्द्रव्यैरनुपचरितैव्र्याप्तमखिलं
यतः कालाद्यर्थे धनमपि धुनात्यन्धतमसं
तदप्यज्ज्ञानादधिकमभियुक्तैरं धिगतम् ॥
जिनादिव्यालोकः स्थिरपरिणतः श्रीमदुदयः ॥ १७८ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो कालकुल करोत्पत्ति वर्णनो नाम सप्तमः सर्गः समाप्तः ।
O
और वज्रवृषभ नाराचसंहननसे युक्त गम्भीर तथा उदार शरीरके धारक थे, इनको अपने पूर्वभवका स्मरण था तथा इनकी मनुसंज्ञा थी || १७३ ।। इन कुलकरोंमें चक्षुष्मान्, यशस्वी और प्रसेनजित् ये तीन कुलकर प्रियंगु पुष्पके समान श्याम कान्तिके धारक थे, चन्द्राभ चन्द्रमाके समान गौरवर्णं था, और बाकी दश तपाये हुए स्वर्णके समान प्रभासे युक्त थे || १७४ -१७५ ॥ ये चौदह राजा मर्यादाकी रक्षाके उपायभूत 'हा', 'मा' और 'धिक्' इन तीन प्रकारकी दण्डनीतियोंको अपनाते थे, प्रजाके पिताके तुल्य थे और अत्यधिक प्रतिभाशाली थे ॥ १७६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस तरह मैंने समस्त कुलकरोंकी उत्पत्ति कही । अब नाभिराजाके पुत्र आदिनाथकी पापनाशिनी कथा सुन || १७७ ॥ यद्यपि यह समस्त संसार छह अकृत्रिम द्रव्योंसे व्याप्त है तो भी उद्यमशील आचार्योंने उसे अरहन्त भगवान् के दिव्य ज्ञानके प्रभावसे जान लिया है सो ठीक ही है क्योंकि नित्य और श्रीसम्पन्न उदयको धारण करनेवाला जिनेन्द्ररूपी सूर्यका प्रकाश, काल आदि द्रव्योंके विषय में जो गाढ़ अन्धकार है उसे भी क्षण भरमें नष्ट कर देता है ।। १७८ ।।
भगवान्
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यंरचित हरिवंशपुराण में कालद्रव्य तथा कुकरों की उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला सातवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।
१. तदप्यर्हत्ज्ञाना- ख. । २. ऋषीश्वरैः ज्ञातम् ।
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अष्टमः सर्गः
श्रीमतामनुरूपं यः परिणाममनुश्रितः । मननात् मनुजार्थस्य मनुसंज्ञामनुश्रितः ॥१॥ प्रक्षीणः कल्पवृक्षारमा मध्येदक्षिणमारतम् । नाभेरपि स एवाभूत् प्रासादः पृथिवीमयः ॥२॥ शातकुम्भमयस्तम्भो विचित्रमणिभित्तिकः । पुष्पविद्रुम मुक्तादिमालाभिरुपशोमितः ॥३॥ सर्वतोभद्रसंज्ञोऽसौ प्रासादः सर्वतो मतः । सैकाशीतिपदः शालवाप्युद्यालाद्यलंकृतः ॥४॥ स्वस्थानमेककोऽनल्पकल्पवृक्षैर्वृतः क्षितौ । अध्यतिष्टदधिष्ठातुः स नाभेरनुभावतः ॥५।। अथ नाभेरभूदेवी मरुदेवीति वल्लमा। देवी शचीव शक्रस्य शुसंतानसंभवा ॥६॥ अभ्युन्नतौ पदाङ्गष्टौ प्रोल्लसन्नखमण्डलौ । यस्या रेजतुरुच्यैव ललाटस्य दिदृक्षया ॥७॥ उन्नताग्रसमस्निग्धतनुताम्रनखांशुभिः । कुट्टिले कुरुतां यस्याः क्रमौ कुरवकश्रियम् ॥८॥ श्लिष्टाङ्गुलिदलौ गूढगुल्फो कान्तिजलप्लवम् । समौ कूर्मोन्नती यत्याः पादपद्मी प्रचक्रतुः ॥९॥ यस्याश्च चरणी चारुमत्स्यशङ्खादिलक्षणौ । क्रीडास्वेव प्रियस्पर्शात्स्वेदसंबन्धसंगिनौ ॥१०॥ आनुपूर्व्यसुवृत्ते च जो रोमशिरोज्झिते । लावण्यरसवर्णाट्ये शरधी पुष्पधन्वनः ॥११॥ जाननी मृदुनी यस्था गूढसंधानवर्तिनी । ददतुः प्रियगात्राणां मदुस्पर्शकृतं सुखम् ॥१२॥ असाराः कदलीस्तम्भाः कर्कशाः करिगां कराः । परिणाहगुणत्वेऽपि यदूर्वोः सशान ते ॥१३॥
अथानन्तर ऊपर जिन नाभिराजका कथन किया गया है वे श्रीमान् पुरुषों के अनुरूप परिणामको प्राप्त थे तथा समस्त पुरुषार्थोंका मनन करनेसे मन कहलाते थे ॥१॥ उस समय दक्षिण भरत क्षेत्रमें कल्पवृक्षरूप प्रासाद अन्यत्र नष्ट हो गये थे परन्तु राजा नाभिराजका जो कल्पवृक्षरूप प्रासाद था वही पृथिवी निर्मित प्रासाद बन गया था ॥२॥ राजा नाभिराजके उस प्रासादका नाम सर्वतोभद्र था, उसके खम्भे स्वर्णमय थे, दीवालें नाना प्रकारकी मणियोंसे निर्मित थीं, वह पुखराज, मूंगा तथा मोती आदिकी मालाओंसे सुशोभित था, इक्यासी खण्डसे युक्त था और कोट, वापिका तथा बाग-बगीचोंसे अलंकृत था ॥३-४|| वह अधिष्ठाता नाभिराजके प्रभावसे अकेला ही अनेक कल्पवृक्षोंसे आवृत था तथा पूथिवीके मध्य अपने स्थानपर अधिष्ठित था ॥५॥
अथानन्तर राजा नाभिराजकी मरुदेवी नामकी पटरानी थी। यह शुद्ध कूलमें उत्पन्न हुई थी तथा जिस प्रकार इन्द्रको इन्द्राणी प्रिय होती है उसी प्रकार राजा नाभिराजको प्रिय थी ।।६।। जिनके नख अत्यन्त चमकदार थे ऐसे उसके उठे हुए दोनों पैरोंके अंगठे ऐसे जान पड़ते थे मानो ललाटके देखनेकी इच्छासे ही ऊपरकी ओर उठ रहे हों।।७। उसके दोनों चरण, उन्नत अग्रभागसे युक्त, सम, स्निग्ध, पतले और लाल-लाल नखोंकी किरणोंसे फर्शपर कुरवककी शोभा उत्पन्न कर रहे थे ||८|| जिनकी अंगुलियारूपी कलिकाएँ परस्परमें सटी हुई थीं, जिनकी गांठें छिपी हुई थीं और जो कछुओंके समान उन्नत थे, ऐसे उसके दोनों चरणकमल कान्तिरूपी जलमें मानो तैर ही रहे थे ॥९|| सुन्दर मच्छ तथा शंख आदिके लक्षणोंसे युक्त जिसके चरण, क्रीड़ाओंके समय ही पतिका स्पर्श पाकर पसीनाके सम्बन्धसे युक्त होते थे अन्य समय नहीं ॥१०॥ अनुक्रमिक गोलाईसे यक्त, तथा रोम एवं नसोंसे रहित उसकी दोनों जंघाएँ सौन्दयं रससे भरे हुए मानो कामदेवके दो तरकश ही हैं ।।११।। गूढ़ सन्धिसे युक्त जिसके दोनों कोमल घुटने पतिके अवयवोंको कोमल स्पर्शजन्य सुख प्रदान करते थे ।।१२।। केलेके स्तम्भ १. महादेवीति म. । २. जलप्लवी म.।
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अष्टमः सर्गः
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उरुसन्धिनितम्बश्च कुकुन्देरमनोहरः । गुरुर्जघनमारश्च यस्याः सादृश्यमयगात् ॥१४॥ प्रदक्षिणकृतावतं गम्भीरं नाभिमण्डलम् । रोमराजिकृतासङ्गं यस्या नाभेरभून्मुदे ॥१५॥ अरोमशं कृशं मध्यं यस्यास्त्रिवलिभङ्गरम् । बभौ वृत्तसमोत्तुङ्ग धनस्तनमरादिव ॥१६॥ कठिनस्तनचक्राभ्यां यस्या मृदुमियोरसा । प्रक्रीडच्चक्रवाकाभ्यां सरितेव विराधितम् ॥१७॥ रक्तहस्ततलौ श्रेष्ठप्रकोष्ठमणिबन्धनौ । स्वंसौ मृदुभुजौ यस्याः कामपाशौ बभूवतुः ॥१८॥ शङ्खावर्तसमग्रीवा प्रवालाधरपल्लवा । दन्तमुक्ताफलोद्योता सिन्धोवलेव या बभौ ॥१९॥ संरक्ततालजिह्वाग्रमन्तरास्यमराजत । यस्या वाचि प्रवृत्तायां कोकिलस्वननिस्वनम् ॥२०॥ प्रियामुखमिवात्मीयं दिदृक्षोः प्रेयसो मुखम् । संमुखौ भवतो यस्याः कपोलाविव दर्पणौ ॥२१॥ सन्नासिकातिमध्यस्था समा समपुटाभ्यभात् । स्पर्द्धिन्योर्वारयन्तीव दृशोरन्योन्यदर्शनम् ॥२२॥ त्रिवर्णाब्जनिभे यस्या दर्शने दीर्घदर्शने । मन्त्रस्य मन्त्रणायेव कर्णमूलमुपाश्रिते ॥२३॥ तनुरेखभ्रुवौ यस्या न दूरे न च संहते । समारोपितचापाभे शुशुभाते शुभावहे ॥२४॥ न नतस्य न तुङ्गस्य सादृश्यस्य सिसूक्षया । यस्या ललाटपट्टस्य नार्धन्दोरभवत् स्थितिः ॥२५॥
कुण्डलोज्ज्वलगण्डस्य यत्कर्णयुगलस्य तु । नोपमा मासलस्यासीत् कोमलस्य समस्य तु ॥२६॥ सार रहित हैं और हाथीके शुण्डादण्ड कठोर स्पर्शसे युक्त हैं अतः विस्ताररूपी गुणोंसे युक्त होनेपर भी दोनों मरु देवीकी जाँघोंके समान नहीं थे ।।१३।। जिसके कूल्हे, गर्तविशेषसे मनोहर नितम्ब और स्थूल जघन सादृश्यसे परे थे अर्थात् अनुपम थे ॥१४॥ जिसकी आवर्त-जलभंवरके समान गोल, गहरी एवं रोमराजिसे यक्त नाभि, राजा नाभिराजके हर्षका कारण थ जिसकी रोम रहित, पतली एवं त्रिवलिसे युक्त कमर ऐसी जान पड़ती थी मानो गोल, सम, ऊंचे और स्थूल स्तनोंके भारसे ही झुक रही हो॥१६॥ जिस प्रकार मन्द भयके साथ क्रोड़ा करते हुए चकवा-चकवियोंके युगलसे नदी सुशोभित होती है उसी प्रकार जिसका वक्षःस्थल कठोर स्तनोंके मण्डलसे सुशोभित हो रहा था ॥१७॥ जिनकी हथेलियाँ लाल-लाल थीं, जिनकी कोहनी और कलाई उत्तम थीं और जिनके कन्धे शोभास्पद थे ऐसी उसकी दोनों कोमल भुजाएँ कामपाशके समान जान पड़ती थीं ॥१८॥ उसकी ग्रीवा शंखके आवर्तके समान थी, अधर पल्लव मूगाके समान थे और दाँत मोतियोंके समान प्रकाशमान थे इसलिए वह समुद्रकी वेलाके समान सुशोभित हो रही थी ॥१९|| जिसका तालु और जिह्वाका अग्रभाग अत्यन्त लाल था ऐसा उसका अन्तर्मुख सुशोभित था और जब उसके शब्द निकलते थे तब वह कोकिलाके शब्दको भी अशब्द कर देता था-फीका बना देता था ।।२०।। प्रियाके मुखके समान जब नाभिराज अपना मुख देखनेको इच्छा करते थे तब सामने स्थित मरुदेवीके दोनों कपोल दर्पणके समान हो जाते थे॥२१॥ ठीक बीच में स्थित सम और समान पुटवाली उसकी नासिका ऐसी जान पड़ती थी मानो स्पर्धा करनेवाले दोनों नेत्रोंके पारस्परिक दर्शनको रोक ही रही थी॥२२॥ सफेद, काले और लाल इन तीन वर्णके कमलोंके समान जिसके बड़े-बड़े नेत्र किसी मन्त्रको सलाह करने के लिए ही मानो कानोंके समीप तक गये थे ।।२३।। जिसकी पतली भौंहें न दूर थीं और न पास ही थीं। शुभ लक्षणोंसे युक्त थीं तथा चढ़ाये हुए धनुषके समान सुशोभित थीं ॥२४॥ जिसका ललाटपट्ट न अधिक नीचा था और न अधिक ऊँचा था इसलिए उसका सादृश्य प्राप्त करनेके लिए अर्धचन्द्रकी सामर्थ्य नहीं थी ॥२५।। जिसके कानोंका युगल अपने कुण्डलोंसे गालोंको उज्ज्वल बना रहा था, स्थूल था, कोमल था और समान था अत: उसकी कहीं भी उपमा नहीं थी ॥२६॥
१. 'कूपको तु नितम्बस्थौ द्वयहीने कुकुन्दरे' इत्यमरः । २. यस्यां म.। ३. -भिमध्यस्था म. । ४. सादृश्यसिसृक्षया म.। ५. स्रष्टुमिच्छा सिसृक्षा तया । ६. नार्धेन्दु- म. ।
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हरिवंशपुराणे
नीलकुचितसुस्निग्धसूक्ष्मकेशकलापिनः । समस्य शिरसो यस्याः शोभा वाक्पथमत्यगात् ॥२७॥ अखण्डमण्डलचन्द्रो मुखमण्डलशोमया। यस्याः पराजितः प्रापदाधिनेवाति पाण्डुताम् ॥२८॥ षोडशाल्पकलावस्या द्वासप्ततिकलोवला। इन्दुमूर्योपमीयेत सा कथं सकलङ्कया ॥२९॥ चतुःषष्टिगुणोत्कृष्टा मार्दवातिशया कथम् । सा चतुर्गुणया तुल्या पृथिव्या कठिनात्मना ॥३०॥ स्निग्धामिरपि सुस्निग्धा सौष्ठवात्मा जलात्ममिः । कथं साऽन्यप्रणेयामिरद्भिरप्युपमीयते ॥३१॥ सद्भासुररूपापि कथं वा दहनामिका । भेजे तेजोमयी मूर्तिस्तन्मूर्तरुपमानताम् ॥३२॥ दर्शनस्पर्शनाभ्यां या नाभेरतिसुखावहा । स्पर्शमात्रसुखाहा वायुमूर्त्या कथं समा ॥३३॥ अशून्यहृदयस्पर्शा मर्नुर्या स्पर्शशून्यया । साऽकाशास्मिकया शक्त्या शुद्धयाऽपि कथं समा ॥३४॥ चतुर्दशविधं यस्याः कल्पपादपकल्पितम् । भङ्गप्रत्यङ्गसङ्गेन भूषणं भूष्यतां गतम् ॥३५॥ भुक्षानस्य तया नामेमोग स्वर्लोकसंनिभम् । वक्तं शक्तौ यदि व्यक्तं वक्ता शुक्रो बृहस्पतिः ॥३६॥ अथ तीर्थकृतामाये स्वर्गात सर्वार्थसिद्धितः । तयोः प्रागेव षण्मासान् वृषभेऽवतरिष्यति ॥३७॥ दिवः पतितुमारब्धा वसुधारा गृहाङ्गणे । प्रत्यहं धनदोन्मुक्ता पुरुहूतनिदेशतः ॥३०॥ श्रीलक्ष्मीपतिकीाचा नवतिनव चाययुः । प्राग्विद्यदिक्कुमार्योऽपि दिग्विदिग्भ्यः ससंभ्रमाः ॥३९॥
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काले धुंघराले चिकने और महीन केशके समूहसे युक्त जिसके सुन्दर शिरकी शोभा वचन मार्गको उल्लंघन कर गयी थी॥२७॥ जिसके मख-मण्डलकी शोभासे पराजित हुआ पूर्णचन्द्र मानसिक व्यथासे ही मानो अत्यन्त सफेदीको प्राप्त हो गया था ॥२८॥ चन्द्रमाको मूर्ति सोलह कलाओंसे मुक्त है और मरुदेवी बहत्तर कलाओंसे सहित थी, चन्द्रमाकी मूर्ति कलंक सहित है और मरुदेवी अत्यन्त उज्ज्वल थी अतः चन्द्रमाकी मूर्तिसे उसकी तुलना कैसे हो सकती है ? ॥२९|| मरुदेवी चौंसठ गुणोंसे युक्त थी और पृथिवी मात्र चार गुणोंको धारण करनेवाली है। मरुदेवी कोमलताके अतिशयको प्राप्त थी और पृथिवी अत्यन्त कठिन है अतः यह उसके तुल्य कैसे हो सकती है ? ॥३०॥ यद्यपि जल स्निग्ध है-कुछ-कुछ चिकनाईसे युक्त है पर मरुदेवी सुस्निग्धा-अत्यधिक चिकनाईसे युक्त थी ( पक्षमें पति-विषयक स्नेहसे सहित थी), जल जड़रूप है, मूर्ख है-(पक्षमें पानीरूप है) और मरुदेवी कलाओंमें निपुण थी, जल, अन्यप्रणेया-दूसरेके द्वारा ले जाने योग्य है और मरदेवी वन्यप्रणेया नहीं थी-स्वावलम्बी थी अतः उसकी जलके साथ उपमा कैसे हो सकती है ? ॥३१॥ यद्यपि अग्नि मरुदेवीके समान भास्वर रूप है परन्तु साथ ही दाहमयी भी है अतः वह मरदेवीके शरीरकी उपमाको कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥३२॥ मरुदेवी, दर्शन और स्पर्श दोनोंके द्वारा नाभिराजको अतिशय सुख देनेवाली थी परन्तु वायु मात्र स्पर्शके द्वारा सुख पहुँचाती थी अतः वह वायुके समान कैसे हो सकती थी ? ॥३३॥ मरुदेवी पतिके हृदयका स्पर्श करनेवाली थी जबकि आकाश स्पर्शसे शून्य है अत: वह शुद्ध होनेपर भी आकाशरूपी शक्तिके सदृश कैसे हो सकती है ? ॥३४॥ कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए चौदह प्रकारके आभूषण जिसके अंग-प्रत्यंगका सम्बन्ध पाकर भूष्यताको प्राप्त हुए थे। भावार्थ-आभूषणोंने उसके शरीरको विभूषित नहीं किया था किन्तु उसके शरीरने ही आभूषणोंको विभूषित किया था ॥३५॥ उस मरुदेवीके साथ स्वर्ग लोकके समान भोग भोगनेवाले राजा नाभिका यदि स्पष्ट वर्णन करने के लिए कोई समर्थ है तो वक्ता शुक्र और बृहस्पति हो समर्थ हैं अन्य नहीं ॥३६॥
अथानन्तर जब प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेव सर्वार्थसिद्धि विमानसे च्युत हो राजा नाभिराज और मरुदेवीके यहां अवतार लेंगे उसके छह माह पूर्वसे ही उनके घरके आँगनमें इन्द्रको आज्ञासे कुबेरके द्वारा छोड़ी हुई रत्नोंकी धारा आकाशमें पड़ने लगी ॥३७-३८॥ श्री, लक्ष्मी,
१. मेने म.। २. शुक्रबृहपति म., क.।
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अष्टमः सर्गः
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प्रयुज्य प्रणति तुष्टा जिनपित्रोभविष्यतोः । स्वनिवेद्यागर्म स्वं च पाकशासनशासनात् ॥४०॥ प्रत्येक शासनं देव्यो मरुदेव्या महादरात् । प्रतीषदेवि ! देशाज्ञा नन्दं जीवेति सगिरः ॥४१॥ रूपयौवनलावण्यसौभाग्यादिगुणार्णवम् । वर्णयन्ति तदा काश्चिदाश्चयं परमं श्रिताः ॥४२॥ अक्षरालेख्यगन्धर्वगणितागमपूर्वकम् । कलाकौशलमन्यास्तु प्रशंसन्ति समन्ततः ॥४३॥ दर्शयन्ति स्वयं काश्चित् न्त्रिीवीणादिकौशलम् । गायन्ति मधुरं गेयं काश्चित्कर्णरसायनम् ॥४४।। शोमनामिनयं काश्चित् शृङ्गारादिरसोत्कटम् । हावभावविलासिन्यो नृत्यन्ति नयनामतम् ॥४५॥ हस्तसंवाहने काश्चित दिसंवाहने पराः । अङ्गसंवाहने काश्चिद व्यावृत्ता मदुपाणयः ॥४६॥ अङ्गाभ्यङ्गविधौ काश्चिद् काश्चिदुद्वर्तने पराः । काश्चिन्मजनके काश्चित्स्नानवस्त्रनिपीलने ॥४७॥ 'सद्गन्धानयने काश्चित् तत्समालभने पराः । काश्चिच्चित्राम्बराधाने परिधानविधौ पराः ॥४८॥ काश्चिद्भुषालगाधाने काश्चिदेहप्रसाधने । दिव्यान्नानयने काश्चित् काश्चिद्भोजनकर्मणि ॥४९॥ शय्यासनविधौ काश्चित् काश्चित्ताम्बूल ढोकने । काश्चित्पतदद्महे व्यग्राः काश्चिच्च गृहकर्मणि ।।५।। दर्पणग्रहणे काश्चिचामरग्रहणे पराः । छत्रस्य ग्रहणे काश्चिद् व्यजनग्रहणे पराः ॥५१॥ अङ्गरक्षापरा देव्यः खड्गव्यग्रामपाणयः । ग्रहरक्ष:पिशाचेभ्यो रक्षन्त्यः प्रति जाग्रति ॥५२।। अभ्यन्तरगृहद्वारे काश्चिकाश्चिद्द । असिचक्रगदाशक्तिहेमवेत्रकराः स्थिताः ॥५३॥
धृति, कीर्ति आदि निन्यानबे विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियां भी छह माह पहलेसे बड़े हर्पके साथ दिशाओं और विदिशाओंसे आ गयीं ॥३९|| उन्होंने आकर बड़े सन्तोषसे जिनेन्द्र भगवान्के होनहार माता-पिताको नमस्कार किया और हम इन्द्रकी आज्ञासे स्वर्गलोकसे यहाँ आयी हैं, इस प्रकार अपना परिचय दिया ॥४०॥ 'हे देवि ! आज्ञा दो, स्मृद्धिसम्पन्न होओ, और चिर काल तक जीवित रहो' इस प्रकारको उत्तम वाणोको बोलती हुई वे देवियाँ महान् आदरके साथ मरुदेवीके आदेशको प्रतीक्षा करने लगीं ॥४१।। उस समय परम आश्चर्यको प्राप्त हईं कितनी ही देवियाँ मरुदेवीके रूप, यौवन, सौन्दर्य और सौभाग्य आदि गुणोंके सागरका वर्णन करती थीं ॥४२॥ कितनी ही देवियां मरुदेवीके अक्षर-विज्ञान, चित्र-विज्ञान, संगीत-विज्ञान, गणित-विज्ञान और आगमविज्ञानको आदि लेकर उसके कला-कौशलको प्रशंसा करती थीं ॥४३।। कितनी ही देवियाँ स्वयं अपनी तन्त्री तथा वीणा आदि विषयक चतुराई दिखलाती थीं। कितनी ही कानोंके लिए रसायनस्वरूप मधुर गान गाती थीं ॥४४॥ हाव, भाव और विलाससे भरी हुई कितनी ही देवियाँ सुन्दर अभिनयसे युक्त, शृंगारादि रसोंसे उत्कट और नेत्रोंके लिए अमृतस्वरूप मनोहर नृत्य करती
1४५।। कोमल हाथोंको धारण करनेवालो कितनी ही देवियाँ मरुदेवीके हाथ दाबने में, कितनी ही पैर दाबने में तथा कितनी ही अन्य अंगोंके दाबने में लग गयो थीं ॥४६|| कितनी ही शरीरपर तेलका मर्दन करने में, कितनी हो उबटन लगाने में, कितनी ही स्नान कराने में और कितनी ही स्नानके वस्त्र निचोड़ने में तत्पर थीं ॥४७॥ कोई उत्तम गन्धके लाने में, कोई उसका लेप लगाने में, कोई चित्र-विचित्र वस्त्र संभालने में, और कोई वस्त्र पहनाने में लग गयो॥४८॥ कोई आभूषण तथा मालाओंके लाने में, कोई शरीरको सजावटमें, कोई दिव्य भोजनके लानेमें और कोई भोजन करानेमें व्यग्र थी ॥४२|| कोई विस्तर तथा आसनके बिछानेमें, कोई पान लगाने में, कोई पीकदान रखने में, कोई गृह-सम्बन्धो कार्यमें, कोई दर्पण उठानेमें, कोई चमर ग्रहण करने में, कोई छत्र लगानेमें और कोई पंखा झलने में तत्पर थी ॥५०-५१|| कितनी ही देवियाँ हाथमे तलवार ले अंगरक्षा करने में तत्पर रहती थीं एवं ग्रह, राक्षस और पिशाचोंसे रक्षा करती हुई जागृत रहती थों ॥५२॥ कितनी ही देवियाँ घरके भीतरो द्वारपर और कितनी ही बाह्य द्वारपर तलवार, चक्र,
१. इन्द्राज्ञया । २. निपीडने । ३. -बभुः म., क.।
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हरिवंशपुराणे इति नक्तं दिवं दृष्ट्वा देवताभिरनुष्ठितम् । आत्मनः शासनं लोके परेषामतिदुर्लभम् ॥५४॥ निश्चितश्चापि षण्मासान् पतन्त्या वसुधारया । नामिना मरुदेव्या च प्रार्थ्यस्तीर्थकरोद्भवः ॥५५॥ अथासौ सौम्यताराभिरभितः कृतसेवना । मरुदेवी सुरस्त्रीभिश्चन्द्रलेखेव हारिणी ॥५६॥ शरदभ्रावलीशुभ्रे प्रासादेऽगुरुधूपिते । नानोपधानकाधाने शयाना शयने विधौ ॥५७॥ निधीनिव निशाशेषे ददर्श शुमसूचकान् । क्रमेण षोडशस्वप्नानिमान दुर्लमदर्शनान् ॥५॥ प्रभूतदानधाराकरपुष्करधारिणम् । गीयमानं शुचिं भृङ्गैर्दानार्थिमिरिवेश्वरम् ॥५९॥ सुप्रतिध्वनिविक्षिप्तप्रतिपक्षं शुमोदयम् । शुमं भद्राकृतिं धीरं वृषं वृषमिवोन्नतम् ।।६०॥ मत्तेभ तमिवान्वेष्टं मदगन्धेन सूचितम् । सिंहमुस्थितमद्राक्षोनखदंष्ट्रासटोत्कटम् ॥६॥ चित्ररत्नघटाटोपघनघोषवनाघनैः । श्रियोऽभिषेकमम्मोजे नवाम्भोमिरिवावनेः ।।६।। नानापुष्पवने दीर्घ श्रीमाले सौरभौकटे । संभूयेव च सर्वतश्रीभिः सेवार्थमुद्धते ॥६३॥
गदा, शक्ति और स्वर्णमय छड़ी हाथमें लेकर खड़ी थीं ॥५३।। इस प्रकार लोकमें जो दूसरोंके लिए दुर्लभ थी, ऐसी देवियों द्वारा अपनी आज्ञाकी पूर्ति देखकर तथा लगातार छह माहसे पड़ती हुई रत्नधारासे राजा नाभिराज और मरुदेवीने निश्चय कर लिया कि हमारे यहाँ सबके द्वारा प्रार्थनीय तीर्थकरका जन्म होगा ।।५४-५५॥
___ अथानन्तर मनोहर ताराओंसे सेवित चन्द्रकलाके समान अनेक देवियोंसे सेवित मनोहरांगी मरुदेवी, शरद् ऋतुको मेघावलीके समान सफेद एवं अगुरु चन्दनसे सुवासित राजभवनमें नाना गद्दा-तकियोंसे युक्त चन्द्रतुल्य शय्यापर शयन कर रही थी कि उसने रात्रिके पश्चिम भागमें निधियों के समान शुभसूचक, इन दुर्लभ सोलह स्वप्नोंको क्रमसे देखा ॥५६-५८॥ प्रथम ही उसने सफेद हाथी देखा, ऐमा हाथी कि जो अत्यधिक मदकी धारासे गोली सूंड़ और उसके अग्रभागको धारण कर रहा था तथा मदके अर्थी भ्रमर जिसके आस-पास गुंजार कर रहे थे। वह हाथी किसी राजाके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार राजाके कर पुष्कर-हस्त कमल अत्यधिक दानके संकल्पके लिए गृहीत जल की धारासे गीले रहते हैं उसी प्रकार उस हाथीके कर पुष्करसूंड और उसके नथने अत्यधिक दान -मद जलकी धारासे गीले थे और जिस प्रकार राजाके समीप खड़े दानके अर्थीजन उसकी स्तुति किया करते हैं उसी प्रकार दान-मदके अर्थी भ्रमर उसके समीप
नार कर रहे थे।॥५९॥ दूसरी बार उसने भद्र आकृतिको धारण करनेवाला एक धीर-वीर बैल देखा। वह बैल ठीक धर्मके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार धर्म अपनी मधुर देशनासे एकान्तवादी प्रतिपक्षियोंको पराजित कर देता है उसी प्रकार वह बैल भी अपनी हुम्बाध्वनिसे प्रतिपक्षी बैलोंको पराजित कर रहा था, जिस प्रकार धर्म शुभ अभ्युदयको देता है उसी प्रकार वह बैल भी शुभ अभ्युदयको सूचित करनेवाला था। जिस प्रकार धर्म भद्राकृति-मंगलकारी होता है उसी प्रकार वह भद्राकृति-उत्तम आकृतिका धारक था, जिस प्रकार धर्म धीर-धी बुद्धिको प्रेरणा करनेवाला है उसी प्रकार वह बैल भी धीर-गम्भीर था और जिस प्रकार धर्म उन्नत-उत्कृष्ट होता है उसी प्रकार वह बैल भी उन्नत--ऊँचा था ॥६०॥ तीसरी बार तीक्ष्ण नख, दंष्ट्रा और सटा (गरदनके बालों) से युक्त एक सिंह देखा। वह सिंह ऐसा जान पड़ता था मानो पहले स्वप्नमें दिखे हाथोके मदको गन्ध पा उसे ढूँढ़नेके लिए ही तैयार खड़ा हो ॥६१।। चौथी बार उसने नाना रत्नमयी घड़ोंके विशाल शब्दसे युक्त मदोन्मत्त हाथियोंके द्वारा कमलपर बैठी लक्ष्मीका अभिषेक देखा । लक्ष्मीका वह अभिषेक ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रधनुषसे उपलक्षित एवं घनघोर गर्जना करनेवाले मेघ नूतन जलसे पृथिवीका ही अभिषेक कर रहे हों ।।६२।। पांचवीं बार उसने नाना पुष्पोंसे व्याप्त तथा अत्यन्त १. घनाघना मत्तगजा मघाश्च ( इति क. प्रतिटिप्पण्याम् ) ।
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अष्टमः सर्गः
१५१ अधोमुखमयूखौघदण्डमातपवारणम् । ताराभरणयोरिक्षप्तं श्यामयेवेन्दुमण्डलम् ॥६४।। संध्यारागाङ्गरागाड्य पूर्वाशागनयारुणम् । सिन्दूरारुणितं कुम्भं मङ्गलार्थमिवोद्धृतम् ॥६५॥ मीनौ कृतजलक्रीडौ हृतात्मोदरशोभयोः । नेत्रयोश्चलयोर्दातुमुपालम्ममिवागतौ ॥६६।। हारिणौ वारिणा पूर्णी विशालौ कलशौ धनौ । सौवौं स्वोपमो द्रष्टुं स्तनभाराविवोद्धतौ ॥६७॥ 'सोद्दण्डपुण्डरीकौघं राजहंसमनोहरम् । रथपादातिनादाढ्यं सरः सैन्यमिवोर्जितम् ॥६॥ *प्रमीन मिथुनोन्मेपमकराद्यरुराशिभिः । प्रपूर्णितमिवाकाशं वर्द्धमान महार्णवम् ॥६९॥ सावष्टम्भभुजस्तम्भैः प्रौढदृष्टिमिरुन्मुखैः । सिंहहेमासनं व्यूढं मनुराजैर्जगद् यथा ।।७।।
स्वर्गसौन्दर्यसंदर्भमिव दर्शयितुं नृणाम् । विमानं कलगीताभिर्देवकन्यामिराहृतम् ।।७१।। सुगन्धित दो बड़ी-बड़ी मालाएँ देखीं। वे मालाएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो समस्त ऋतुओंकी लक्ष्मीने मिलकर मरुदेवीकी सेवाके लिए उन मालाओंको बनाकर ऊपर उठा रखा हो ॥६३|| छठवीं बार उसने चन्द्रमण्डलको देखा। वह चन्द्रमण्डल ऐसा जान पड़ता था मानो तारारूपी आभूषणोंसे युक्त रात्रिरूपी स्त्रोके द्वारा ऊपर उठाया हुआ छत्र हो हो। ऐसा छत्र कि जिसकी नीचे की ओर आनेवाली किरणोंका समूह ही दण्डका काम दे रहा था।॥६४|| सातवों बार उसने सन्ध्याकी लालिमारूपी अंगरागसे युक्त उदित होता हुआ सूर्य देखा। वह सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो पूर्व दिशारूपी स्त्रीने मंगलके लिए सिन्दुरसे रंगा हुआ कलश ही ऊपर उठाया हो ॥६५।। आठवीं बार उसने जलके भीतर क्रीड़ा करते हुए दो मीन देखे। वे मीन ऐसे जान पडते थे मानो अपने उदरकी शोभाको हरनेवाले चंचल नेत्रोंका उलाहना देने के लिए ही मरुदेवीके पास आये हों ॥६६|| नौवीं बार उसने जलसे भरे हुए दो स्वर्णमय विशाल कलश देखे। वे कलश ऐसे जान पड़ते थे मानो अपनी उपमा धारण करनेवाले माताके स्तनोंको देखने के लिए ही ऊपर उठे हों ॥६७|| दशवीं बार उसने एक ऐसा सरोवर देखा जो किसी बलिष्ठ सेनाके समान जान पड़ता था। क्योंकि जिस प्रकार सेना, सोद्दण्डपुण्डरीकोघ-ऊपर उठे दण्डोंसे युक्त छत्रोंके समूहसे सहित होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी सोद्दण्डपुण्डरीकोघ-ऊँचे-ऊंचे डण्ठलोंसे युक्त श्वेत कमलोंके समहसे सहित था। जिस प्रकार सेना, राजहंस मनोहर-उत्तम राजाओंसे मनोहर होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी राजहंस मनोहर-हंस* विशेषोंसे सुन्दर था। और जिस प्रकार सेना, रथपादातिनादाढय-रथके पहियोंकी विशाल चीत्कारसे युक्त होती है उसी प्रकार वह सरोवर भी रथपादातिनादाढय-चक्रवाक पक्षियोंके अत्यधिक शब्दके युक्त था ॥६८॥ ग्यारहवीं बार उसने बढ़ता हुआ एक ऐसा महासमुद्र देखा जो ठीक आकाशके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार आकाश मीन, मिथुन, मकर आदि राशियोंसे युक्त होता है-उसी प्रकार महासमुद्र भी उत्तम मीन युगलोंको उछल-कूद तथा मगर-मच्छ आदिकी विशाल राशिसे पूर्ण था ।।६९।। बारहवीं बार उसने एक सुवर्णमय सिंहासन देखा। वह सिंहासन जिस प्रकार सबल भुजाओंके धारक, प्रौढ़ दृष्टिसे युक्त एवं कार्य करने में तत्पर कुलकरोंके द्वारा जगत् धारण किया जाता है उसी प्रकार मजबूत भुजस्तम्भोंसे युक्त, प्रौढ़ दृष्टिसे सहित एवं ऊपरकी ओर मुख किये हुए सिंहोंके द्वारा धारण किया गया था ॥७०।। तेरहवीं बार उसने एक विमान देखा जो ऐसा जान पड़ता था मानो मनूष्योको स्वर्गलोकका सौन्दर्य दिखलाने के लिए सुन्दर गीत गानेवाली देवकन्याएं उसे पृथिवीपर ले आयी हों ॥७१।। १. मयूखोद्यदण्ड म.। २. सौद्दण्डपुण्डरीकौघराज- म.। ३. रथपादाः चक्रवाकाः तेषामतिनादेन दीर्घशब्देन आढयं सहितम् । प्रकर्षेण मीना मत्स्यास्तेषां मिथुनानि तेषामुन्मेषः। मकरादीनामुराशिश्च तैः, पक्षे राशिविशेषः। * राजहंसास्तु ते चञ्चुचरणोहित: सिता:-जिनकी चोंच और चरण लाल होते हैं बाको सफेद होते हैं, ऐसे हंस राजहंस कहलाते हैं।
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हरिवंशपुराणे नागलोकं विजित्येव नागेन्द्रभवनं श्रिया । नागकन्यामिरुद्भूतं शेषलोकजिगीषया ॥७२॥ अभ्रंलिहं निरभ्रेऽपि विद्युदिन्द्रधनुःश्रियम् । खे सृजन्तं महारत्नराशिं प्रांशुभिरंशुमिः ॥७३॥ सुप्रसन्नं भ्रमज्वालं निधूमेन्धनपावकम् । प्रचलत्पुष्पितादभ्रंकिंशुकोस्करविभ्रमम् ॥७४|| खण्डस्वप्नानिमान दृष्टा दधेऽनन्तरमात्मनि । जिनं सा वृषरूपेण प्रविष्टं मुखवर्मना ॥७५॥ सुस्वप्नदर्शनानन्दं स्वामिनी यन्नवं मया । प्रापितेति कृतार्थेव क्वाऽपि निद्रासखी निरैत् ।।७६।। विबुध्यस्व विबुद्धार्थे विवर्धस्व विवर्धने । विजयस्व जयश्रीशे देवि पूर्णमनोरथे ॥७७॥ इत्यादयो विबोधाय दिक्कुमारीभिरीरिता: । याताः स्वयं विबुद्धायाः केवलं मङ्गलं गिरः ।।७८॥ दोषाकरः कलङ्क्येष निःकलङ्कगुणाकरम् । दृष्ट्व मुखचन्द्रं ते हिया भवति निष्प्रमः ॥७९॥ तवैव गृहमुद्योत्यं दशनप्रभयाऽधुना । इतोव स्फुरितव्याजात् प्रदीपाः स्वं हसन्त्यमी ॥८॥ अत्यन्तमुखरागाड्या क्षगरजितविप्रिया । प्रस्खलखलमैत्रीव वन्ध्या संध्या विरज्यते ॥८॥
स्वमावमत्सरारम्भा ग्यापिकोदयमेष्यतः । प्रमा रवेरवन्ध्यार्था साधोमैत्रीव वर्द्धते ॥१२॥ चौदहवीं बार उसने नागेन्द्रका भवन देखा जो ऐसा जान पड़ता था मानो वह अपनी शोभासे नागलोकको तो जीत चुका था अब अन्य लोकोंको जीतनेकी इच्छासे ही नागकन्याएँ उसे पृथिवीपर ऊपर लायी हों ॥७२।। पन्द्रहवीं बार उसने आकाशमें महारत्नोंकी एक ऐसी राशि देखी जो अपनी उन्नत किरणोंके द्वारा मेघ रहित आकाशमें बिजली और इन्द्रधनुषसे शोभित मेघकी रचना कर रही थी॥७३|| और सोलहवीं बार उसने अत्यन्त निर्मल एवं घूमती हुई ज्वालाओंसे युक्त, निर्धूम अग्नि देखी। वह अग्नि ऐसी जान पड़ती थी मानो चंचल फूलोंसे युक्त पलाशके बड़े-बड़े वृक्षोंका समूह ही हो ॥७४। इस प्रकार पृथक्-पृथक् दिखनेवाले इन सोलह स्वप्नोंको देखकर रानी मरुदेवीने उसके बाद बैलके रूपमें मुख मार्गसे प्रविष्ट हुए जिनेन्द्र भगवान्को भीतर धारण किया ॥७५।। ___मैं स्वामिनीको उत्तम स्वप्नोंके देखनेका नूतन आनन्द प्राप्त करा चुकी हूँ इसलिए कृतकृत्य हुईकी तरह रानी मरुदेवोको निद्रारूपी सखी कहीं भाग निकली ॥७६।। महारानी मरुदेवी स्वप्न-दर्शनके बाद स्वयं जाग गयो थीं, इसलिए दिक्कुमारियोंके द्वारा उसके जगानेके लिए 'हे पदार्थों को जाननेवाली माता ! जागो, हे वृद्धिरूपिणी माता! वृद्धिको प्राप्त होओ, हे जयलक्ष्मीकी स्वामिनि ! पूर्ण मनोरथोंवाली माता ! जयवन्त रहो' इत्यादि कहे गये वचन केवल मंगलरूपताको प्राप्त हुए थे ॥७७-७८॥ हे माता ! यह चन्द्रमा दोषाकर-दोषोंको खान ( पक्षमें निशाकर ) और कलंकी-दोषयुक्त (पक्षमें काले चिह्नसे युक्त) है अतः तुम्हारे निष्कलंक और गुणोंकी खानभूत मुखचन्द्रको देखकर लज्जासे ही मानो प्रभा-रहित हो गया है ॥७९|| अब तो यह घर तुम्हारे ही दोनोंकी प्रभासे प्रकाशित है-हम लोगोंकी आवश्यकता नहीं, यह विचारकर ही मानो ये दीपक स्फुरणके बहाने अपने आपको हँसो कर रहे हैं ।।८।। हे माता ! यह प्रातः सन्ध्या, दुष्टको चंचल मित्रताके समान राग-रहित होती जा रही है अर्थात् जिस प्रकार दुष्टको मित्रता प्रारम्भमें रागसे सहित होती है और क्षण-भर बाद ही शत्रुओंको अनुरंजित करने लगती है उसी प्रकार यह प्रात: सन्ध्या पहले तो राग अर्थात् लालिमासे सहित थी और अब। बाद लालिमासे रहित हुई जा रही है। जिस प्रकार दुष्टको मित्रता वन्ध्या-निष्फल रहती है-उससे किसी कार्यकी सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार यह प्रातः सन्ध्या भी वन्ध्या है-इससे किसी कार्यकी सिद्धि दृष्टिगत नहीं हो रही है ॥८१।। और यह उदित होते हुए सूर्यको प्रभा सज्जनको मित्रताके समान उत्तरोत्तर बढ़ती चली जा रही है। क्योंकि जिस प्रकार सज्जनकी मित्रता प्रारम्भमें मत्सर-युक्त होनेके कारण फीकी रहती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है १. पुष्पितादभ्रात् किंशुको म,। २. सान्त रान् वा। ३. त्वं म. । ४. -मेष्यति क. ।
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अष्टमः सर्गः
१५३ भास्वराम्बरभूषैषा माति भास्वद्विशेषका । पुरन्ध्रीरिव पूर्वाऽशा मङ्गलाय तवोद्गता ।।८।। दीर्घा नीत्वा निशामेषा दीर्घिकास्विनदर्शने । तुष्टा स्वान् घटयत्येव चक्रवाकी कलारवान् ॥८॥ त्वत्पादन्यासलीलायामीक्षणार्थमिवाकुलम् । स्वामुत्थापयते कूजत्कलहंसकुलं कलम् ॥४५॥ घर्मिता मदवातेन तामिनयमूर्तयः । भवत्या दर्शयन्तीव नृत्तारम्भममी दमाः ॥८६॥ दिङ्मुखानि प्रसन्नानि चेष्टितानीव तेऽधुना । सुप्रभातमिदं देवि मुञ्च शय्यामनिन्दिते ॥८७॥ इति वन्दिजनैर्वन्द्या साऽमुञ्चत् शुचिविग्रहा। शय्यां पुष्पतरङ्गाया हंसीव सिकतास्थलीम् ॥८८॥ धौतवासं गृहीत्वाऽसौ धौतच्छाया विनिर्गता । शुशुभे शारदाम्भोदात् तन्वीव शशिनः कला ॥८९॥ श्रीविद्यददिक्कुमारीभिः प्रत्यग्रकृतभूषणा । साऽन्तर्गर्भाऽन्तिकं याता घनश्री मिभूभृतः ॥१०॥ भद्रासनस्थितायाऽस्मै क्रमेण स्वासनस्थिता । श्रीरिवावेदयत् स्वप्नान् सत्कराम्भोजकुडमला ॥११॥ स्वप्नाथं सोऽवधायतां जगाद दयिते ध्रुवम् । संक्रान्तोऽद्य त्रिलोकानां नाथस्तीर्थकरस्त्वयि ॥१२॥ न दूराल्पफलप्राप्तावीदृशं स्वप्नदर्शनम् । अतोऽद्येव प्रतीतो मे भवस्यां गर्मसंभवः ॥१३॥
षण्मासवसुवृष्टया च देवतापरिचर्यया । सूचिता जिनसंभूतिर्या साद्य फलिताऽऽवयोः ॥१४॥ उसी प्रकार सूर्यको प्रभा पहले मन्द होती है और आगे चलकर खूब फैल जाती है-सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। जिस प्रकार सज्जनकी मित्रता सार्थक है उसी प्रकार सूर्यको प्रभा सार्थक है ।।८२।। भास्वर-अम्बर-देदीप्यमान आकाश ही जिसका आभूषण है ( पक्षमें जिसके वस्त्र और आभषण देदीप्यमान हैं तथा भास्वविशेषका-सयं ही जिसका तिलक है ( पक्षमें देदीप्यमान तिलकसे युक्त है ) ऐसी यह पूर्व दिशा सौभाग्यवती स्त्रीके समान मानो तुम्हारा मंगल करनेके लिए ही उद्यत हुई है ।।८३॥ वापिकाओंमें लम्बी रात बितानेके बाद अब सूर्यका दर्शन हुआ है इसलिए यह चकवी प्रसन्न हो अपने मधुर शब्द कर रही है अथवा मधुर शब्द करनेवाले आत्मीय जनोंको इकट्ठा कर रही है ।।८४।। इधर मधुर शब्द करता हुआ यह कलहंसोंका समूह तुम्हें उठा रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे पादनिक्षेपको लीलाको देखनेके लिए अत्यन्त उतावला हो रहा है ।।८।। जो मन्द-मन्द वायुसे हिल रहे हैं, तथा अभिनयको मुद्राको धारण किये हैं ऐसे ये वृक्ष, आपके लिए मानो अपने नृत्यका आरम्भ ही दिखला रहे हैं ।।८६।। हे माता! इस समय समस्त दिशाएँ तुम्हारी चेष्टाके समान निर्मल हो गयी हैं एवं सुन्दर प्रभातकाल हो गया है, इसलिए हे अनिन्दिते देवि ! शय्याको छोड़ो।।८७|| इस प्रकार बन्दीजनोंके द्वारा वन्दनीय, एवं निर्मल शरीरको धारण करनेवाली महारानी मरुदेवीने शय्याको उस प्रकार छोड़ा जिस प्रकार कि हंसी नदीके रेतीले तटको छोड़ती है ।।८८॥ उज्ज्वल कान्तिको धारण करनेवाली मरुदेवी धुले हुए वस्त्रको ग्रहण कर जब शयनागारसे बाहर निकली तब शरद् ऋतुके मेघसे बाहर निकली चन्द्रमाको पतली कलाके समान सुशोभित होने लगी ॥८९|| विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियोंने जिसे नवीन-नवीन आभूषण पहनाये थे तथा जो अन्तर्गतगर्भा होनेसे गृहीतजला मेघमालाके समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवी नाभिराजरूपी पर्वतके समीप गयी ॥९०॥ जो शोभामें लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ऐसी मरुदेवो वहां जाकर अपने आसनपर बैठी और हस्तकमल जोड़, भद्रासनपर बैठे हुए महाराजसे क्रम-पूर्वक स्वप्नोंका वर्णन करने लगी ॥११॥
स्वप्नोंका फल समझकर महाराज नाभिराजने उससे कहा कि हे प्रिये ! निश्चय ही आज तुम्हारे गर्भ में तीन लोकके नाथ तीर्थकरने अवतार लिया है ।।१२।। दूरवर्ती तथा अल्प फलकी प्राप्तिके समय ऐसे स्वप्न नहीं दिखते इसलिए मुझे विश्वास है कि आज ही आपके गर्भ रहा है ॥९३।। लगातार छह माससे होनेवाली रत्नोंको वर्षा और देवताओंके द्वारा की हुई शुश्रूषासे १. सूर्यदर्शने सति । २. धौतेवासं म. ।
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हरिवंशपुराणे
सर्वथा सर्वकल्याणभाजनात्मजजन्मना । प्रिये ! स्वमचिरेणैव जगदानन्दयिष्यसि ॥ ९५ ॥ इति सुस्वप्नफलं श्रुत्वा सद्यः संभूतमात्मनि । मुमुदेऽतितरां देवी दीसिं कान्ति च बिभ्रती ॥९६॥ तृतीयकालशेषेऽसावशीतिश्वतुरुत्तरा । पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमा सपक्षयुतास्तदा ॥ ९७ ॥ स्वर्गावतरणं जैनमाषाढबहुलस्य तु । द्वितीयामुत्तराषाढनक्षत्रेऽत्र जगन्नतम् ॥ ९८ ॥ वर्धमाने क्रमाद् गर्मे वर्धते वपुषो वपुः । तस्यास्त्रिवलिशोभाया भङ्गभीत्येव नोदरम् ॥९९॥ गौरवातिशयाधानी दधाना त्रिजगद्गुरुम् । लाघवातिशयं देहे दधे चित्रमिदं परम् ॥१००॥ संतापहेतुरन्तःस्थो मातुर्माभूत् सुनिश्चलः । ज्ञानवान् स जिनो मानुर्यथाऽप्सु प्रतिबिम्बितः ॥ १०१ ॥ ज्ञाननेत्रैस्त्रिभिः पश्यन् विश्वं मासानसौ सुखम् | नव गर्भगृहेऽतिष्ठदिक् कुमारीविशोधिते ॥१०२॥ पूर्णेषु तेषु मासेषु निपतद्वसुवृष्टिषु । जिनं सा सुपुवे देवी सोत्तराषाढसंनिधौ ॥ १०३ ॥ प्राच्या इव विशुद्धाया विशुद्ध स्फटिकोपमात् । घनोदराद्विनिःक्रान्तो जिनः सूर्य इवाबभौ ॥ १०४॥ जातकर्मणि कर्त्तव्ये व्यापृता लघु देवताः । अन्तरङ्गा हि कर्त्तव्ये व्याप्रियन्ते जगत्यरम् ॥१०५॥ विजया बैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । नन्दा नन्दोत्तरा नन्दी नन्दीवर्द्धनया सह ॥१०६ ॥ आलोलकुण्डलालोकविलसद्गण्डमण्डलाः । एतास्ता दिक्कुमार्योऽष्टौ तस्थुर्भुङ्गरपाणयः ॥१०७॥ सुस्थिता प्रणिधान्या सुप्रबुद्धा च यशोधरा । लक्ष्मीमती तथैवान्या कीर्तिमत्युपवर्णिता ॥ १०८ ॥
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हम दोनों को जिनेन्द्रदेव के जिस जन्मको सूचना मिली थी वह आज सफल हुई || ९४ || हे प्रिये ! निश्चय ही समस्त कल्याणोंके पात्ररूप पुत्रको उत्पन्न कर तुम शीघ्र ही संसारको आनन्दित करोगी || ९५|| इन उत्तम स्वप्नोंका फल अपने-आपमें शीघ्र हो संघटित हो चुका है, यह सुन दीप्ति और कान्तिको धारण करती हुई मरुदेवी बहुत ही प्रसन्न हुई ||१६|| तीसरे कालमें जब चौरासी लाख पूर्वं तीन वर्षं साढ़े आठ माह बाकी रहे थे तब आषाढ़ कृष्ण द्वितीयाके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें समस्त जगत् के द्वारा नमस्कृत श्री जिनेन्द्रदेवका स्वर्गावतरण हुआ था ॥ २७-२८।। क्रम-क्रम से गर्भंमें वृद्धि होनेपर माताका शरीर भी बढ़ गया परन्तु त्रिवलिकी शोभा कहीं नष्ट न हो जाये इस भयसे मानो उसके उदरमें वृद्धि नहीं हुई ||१९|| माता मरुदेवी स्वयं अत्यधिक गौरवसे सुशोभित थी और उसपर तीनों जगत् के गुरु - भारी ( पक्षमें श्रेष्ठ ) जिनेन्द्र देवको धारण कर रही थी, फिर भी वह शरीर में अत्यधिक लघुताका अनुभव करती थी यह बड़े आश्चर्यकी बात थी ||१०० || मैं गर्भ में स्थिर रहकर माताके सन्तापका कारण न बनूँ यह जानकर ही मानो जिन बालक गर्भ में अत्यन्त निश्चल रहते थे । माता के गर्भ में उनका निवास वैसा ही था जैसा कि जलमें प्रतिबिम्बित सूर्य का होता है ॥ १०१ ॥ मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानरूपी नेत्रोंके द्वारा जगत्को देखते हुए जिन बालक, दिक्कुमारियोंके द्वारा शुद्ध किये हुए गर्भमें नौ माह तक सुखसे स्थित रहे ||१०२ ||
तदनन्तर नौ माह पूर्ण होनेपर जब लगातार रत्नोंकी वर्षा हो रही थी तब उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के समय माताने जिन बालकको उत्पन्न किया || १०३ || जिस प्रकार निर्मल पूर्व दिशा में विशुद्ध स्फटिकके तुल्य मेघमण्डलके मध्यसे निकला हुआ सूर्यं सुशोभित होता है उसी प्रकार माता मरुदेवीके स्फटिकके समान स्वच्छ गर्भसे निकले हुए जिन बालक सुशोभित हो रहे थे || १०४ ॥ उस समय वहाँ जो देवियाँ थीं वे शीघ्र ही करने योग्य जातकर्म में लग गयीं सो ठीक ही है क्योंकि जो अन्तरंग व्यक्ति होते हैं वे संसार में शीघ्र ही अपने करने योग्य काममें लग जाते हैं || १०५ ॥ चंचल कुण्डलोंके प्रकाशसे जिनके कपोल सुशोभित हो रहे थे ऐसी १ विजया, २ वैजयन्ती, ३ जयन्ती, ४ अपराजिता, ५ नन्दा, ६ नन्दोत्तरा, ७ नन्दी और ८ नन्दीवर्धना ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ हाथों में झारियाँ लिये हुए खड़ी थीं ॥ १०६ - १०७ ॥ नाना प्रकारके आभरणोंसे सुशोभित १ सुस्थिता, २ प्रणिधान्या, ३ सुप्रबुद्धा, ४ यशोधरा, ५ लक्ष्मीमती, ६ कीर्तिमती, ७ वसुन्धेरा
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अष्टमः सर्गः
वसुंधरा तथा चित्रा चित्रामरणभास्वराः । दिक्कुमार्य इमाश्चाष्टौ तस्थुर्दर्पणपाणयः ।।१०९॥ इला सुरा पृथिव्याख्या पद्मावत्यपि काञ्चना । सीता नवमिकाऽन्या च दिक्कन्या भद्रकामिधा ॥११॥ अष्टौ तुष्टाः प्रकृष्टाङ्गप्रभामासितदिङमुखाः । धवलान्यातपत्राणि धारयन्ति स्म विस्मिताः ॥११॥ हीः श्रीः धृतिः परा सा च वारुणी पुण्डरीकिणी । अलम्बुसाम्बुजास्यश्रीर्मिश्रकेशीति विश्रुताः ॥११२।। 'कनस्कनकदण्डानि कनकनककुण्डलाः । चामराणि गृहीत्वाष्टौ दिक्कुमार्यः स्थिता इमाः ॥११३।। चित्रा कनकचित्रा च सूत्रामणिरिमा बभुः । त्रिशिराश्च कृतोद्योता विद्युत्कन्यास्तडित्प्रभा ॥११४॥ विजया वैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । इमा विद्युत्कुमारीणां चतस्रः प्रमुखाः स्थिताः ॥११५।। रुचका दिक्कुमारीणां प्रधाना रुचकोज्ज्वला । रुचकामाश्चतस्रस्ता रुचकप्रभया सह ।।११६॥ जातकर्म जिनस्यैताश्चक्ररष्टौ यथाविधि । जातकर्मणि निष्णाताः सर्वत्र जिनजन्मनि ॥११७॥ आचेलुश्चलमौलीनां काले तस्मिन् सुरेशिनाम् । त्रैलोक्येऽप्यासनान्याश जिनोभूतिप्रमावतः ॥११८॥ प्रणेमुरहमिन्द्रास्तं प्रयुक्तावधयो जिनम् । तत्रस्थाः सिंहपीठेभ्यो गत्वा सप्तपदान्यरम् ॥११९।। लोके भावनदेवानां शङ्खध्वनिरभूत्स्वयम् । व्यन्तराणां रवो भेर्या ज्योतिषां सिंहनिस्वनः ॥१२०॥ घण्टारत्नमहाघोषः कल्पलोकमतीतनत् । किंकर्तव्यत्वसंमुख्यं त्रैलोक्यममवरक्षणम् ॥१२१॥ आसनस्य प्रकम्पेन दध्यो विस्मितधोस्तदा । सौधर्मेन्द्रश्चलन्मौलिधूत्वा मूर्धानमुन्नतम् ॥ १२२॥ अतिबालेन मुग्धेन स्वतन्त्रेणाशुकारिणा । निर्भयेन विशङ्केन केनेदमप्यनुष्ठितम् ।।१२३।।
और ८ चित्रा ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ हाथों में दर्पण लिये हुए खड़ी थीं ॥१०८-१०९॥ अपने शरीरकी श्रेष्ठ प्रभासे दिशाओंको सुशोभित करनेवाली १ इला, २ सुरा, ३ पृथिवी, ४ पद्मावती, ५ कांचना, ६ सीता, ७ नवमिका और ८ भद्रका ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ आश्चर्यचकित हो सफेद छत्र धारण कर रही थीं ॥११०-१११॥ देदीप्यमान स्वर्णके कुण्डलोंको धारण करनेवाली १ ह्री, २ श्री, ३ धृति, ४ वारुणी, ५ पुण्डरीकिणी, ६ अलम्बुसा, ७ अम्बुजास्यश्री और ८ मिश्रकेशी ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ देदीप्यमान सुवर्णमय दण्डोंसे युक्त चामर लेकर खड़ी थीं ॥११२-११३।। बिजलीके समान प्रभावशाली १ चित्रा, २ कनकचित्रा, ३ सूत्रामणि और ४ त्रिशिरा इन चार विद्यत्कुमारी देवियोंने सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश कर दिया था ॥११४॥ १ विजया, २ वैजयन्ती, ३ जयन्ती और ४ अपराजिता ये चार देवियाँ विद्युत्कुमारियों में प्रमुख थीं ॥११५॥ १ रुचका, २ रुचकोज्ज्वला, ३ रुचकाभा और ४ रुचकप्रभा ये चार देवियाँ दिक्कुमारियोंमें प्रधान थीं ॥११६।। इन आठ देवियोंने विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेवका जातकर्म किया था। ये देवियाँ जातकर्ममें अत्यन्त निपुण हैं और सब जगह जिनेन्द्र देवका जातकर्म ये ही देवियां करती हैं ।।११७।। उस समय तीनों लोकोंमें जो इन्द्र थे, जिनेन्द्रजन्मके प्रभावसे उन सबके मुकुट चंचल हो गये और सबके आसन कम्पायमान हो उठे ॥११८॥ अवधिज्ञानका प्रयोग करनेवाले अहमिन्द्र अपने-अपने निवासस्थानोंमें ही स्थिर रहे, मात्र उन्होंने सिंहासनोंसे सात डग चलकर जिनेन्द्र भगवान्को शीघ्र ही परोक्ष नमस्कार किया ॥११९।। भवनवासी देवोंके लोकमें अपने-आप शंखोंका शब्द, व्यन्तरोंके लोकमें भेरीका शब्द और ज्योतिषी देवोंके लोकमें सिंहोंके शब्द होने लगे ॥१२०।। श्रेष्ठ घण्टाओंके जोरदार शब्दने कल्पवासी देवोंके लोकको व्याप्त कर लिया। उस समय तीनों लोक 'क्या करना चाहिए' यह विचार करने में तत्पर हो गये ॥१२१।। उस समय आसनके कम्पायमान होनेसे जिसकी बुद्धि चकित हो गयी थी ऐसा सौधर्मेन्द्र मुकुट हिलाकर तथा ऊँचे मस्तकको कपाकर विचार करने लगा कि उत्पन्न बालक, मूर्ख, स्वच्छन्द, सहसा कार्य करनेवाले निर्भय एवं शंकारहित किस ,
१. क्वणत म. । २ क्वणत म. । ३. अरं शीघ्र सप्तपदानि गत्वा । सप्तपदान्परम म.। ४. निस्वनाः म.।
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हरिवंशपुराणे देवदानवचक्रस्य स्वपराक्रमशालिनः । कथंचित्प्रतिकूलस्य यः समर्थः कदर्थने ॥१२॥ इन्द्रः पुरंदरः शक्रः कथं न गणितोऽधुना । सोऽहं कम्पयताऽनेन सिंहासनमकम्पनम् ॥१२५॥ संभावयामि नेदृक्षप्रभावं भुवनत्रये । प्रमं तीर्थंकरादन्यमिति मत्वा सृतोऽवधिम् ॥१२६।। अतो विस्फुरितेनायमवधिज्ञानचक्षुषा । तं तीर्थकरमुत्पन्नमाद्यमैक्षिष्ट भारते ॥१२७॥ आसनादवतीर्याशु क्रान्त्वा सप्तपदानि सः । जयतां जिन इत्युक्त्वा प्रणनाम कृताञ्जलि: ॥१२८॥ पुनश्वासनमारुह्य समाज्ञापयति स्म सः । ध्यानानन्तरमानम्य स्थितं सेनापतिं पुरः॥१२९।। अस्यामाद्योऽवसर्पिण्यां जातस्तीर्थकरोऽधुना । गन्तव्यं भारतं देवैर्बोध्यन्तां ते त्वया न्विति ॥१३०॥ स्वाम्यादेशे कृते तेन चेलुः सौधर्मवासिनः । देवैश्चाच्युतपर्यन्ताः स्वयंबुद्धाः सुरेश्वराः ।।१३१॥ यथास्वस्वं निमित्तेभ्यः प्रतिबुद्धाः प्रहर्षिणः । निश्चेलुर्निजलोकेभ्यो ज्योतिय॑न्तरभावनाः ॥१३२॥ गजाश्वरथसंघट्टपदातिवृषभैस्तदा । गन्धर्वनर्तकीमित्रैः सप्तानीकैश्वितं नमः ॥१३३।। महिषाद्यैश्च नावाद्यैः खड्गाद्यैर्गरुडादिमिः । शिविकाश्वोष्ट्रमकरद्विपहंसादिभिस्तथा ॥१३४।। दशानामसुरादीनां कुमाराणां यथाक्रमम् । सप्तानीकैन भी व्याप्तं बमासे नितरां तदा ॥१३५।। विमानानि समारूढा गोवृषान् गवयान् रथान् । अश्वान् शरमशालान् मकरान करभान सुराः॥१३६।।
वराहमहिषान् सिंहान् पृषतान् द्वीपिनो द्विपान् । चमरान् हरिणांश्चारुरुरून् केचिद् गरुत्मतः ॥१३॥ व्यक्तिने यह कार्य किया है ? ॥१२२-१२३।। अपने पराक्रमसे सुशोभित देव-दानवोंका समूह भी यदि कदाचित् प्रतिकूल हो जावे तो उसे भी जो नष्ट करने में समर्थ है ऐसा मैं इन्द्र, शक्र या पुरन्दर हूँ फिर मेरे अकम्पित आसनको कम्पित करनेवाले इस मूर्खने इस समय मुझे कुछ क्यों नहीं समझा ? ॥१२४-१२५।। मैं तीनों लोकोंमें तीर्थंकरके सिवाय किसी दूसरे प्रभुको ऐसे प्रभावसे युक्त नहीं समझता हूँ, ऐसा विचारकर उसने अवधिज्ञानका आश्रय लिया ॥१२६।।।
तदनन्तर सौधर्मेन्द्रने प्रकट हुए अवधिज्ञानरूपी नेत्रके द्वारा भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुए प्रथम तीर्थंकरको देख लिया ॥१२७।। उसने शीघ्र ही आसनसे उतरकर तथा सात डग आगे जाकर 'जिनेन्द्र भगवान्की जय हो' यह कहते हुए हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया ।।१२८॥ तदनन्तर सिंहासनपर आरूढ़ हो सौधर्मेन्द्रने विचार करते ही नमस्कार कर सामने खड़े हुए सेनापतिको आदेश दिया कि 'इस समय इस अवसर्पिणीके प्रथम तीर्थंकर उत्पन्न हो चुके हैं अतः समस्त देवोंको भरतक्षेत्र चलना है।' तुम यह सूचना सबके लिए देओ ॥१२९-१३०।। सेनापतिके द्वारा स्वामीका आदेश सुनाये जाते ही सौधर्म स्वर्ग में रहनेवाले समस्त देव चल पड़े। तथा अच्युत स्वर्ग तकके समस्त इन्द्र स्वयं ही इस समाचारको जान देवोंके साथ बाहर निकले ॥१३१।। अपनेअपने स्थानोंमें होनेवाले निमित्तोंसे जिन्हें जिनेन्द्रजन्मका समाचार ज्ञात हुआ था, ऐसे हर्षसे भरे हुए ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देव अपने-अपने स्थानोंसे बाहर निकले ।।१३२।। उस समय १ हाथी, २ घोड़ा, ३ रथ, ४ पैदल सैनिक, ५ बैल, ६ गन्धर्व और ७ नतंकी इन सात प्रकारकी सेनाओंसे आकाश व्याप्त हो गया था ।।१३३|| असुर कुमार आदि दश प्रकारके भवनवासी देवोंकी भैंसा, नौका, गेंडा, हाथी, गरुड़, पालकी, घोड़ा, ऊँट, मगर, हाथी और हंसको आदि लेकर क्रमसे जो सात प्रकारकी सेनाएं थीं उन सबसे व्याप्त हुआ आकाश उस समय अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥१३४-१३५।। उन देवों में कितने ही देव विमानोंमें बैठे थे, कितने ही बैलोंपर, कितने ही रोझोंपर, कितने ही रथोंपर, कितने ही घोड़ोंपर, कितने ही अष्टापद और शार्दूलोंपर, कितने ही मगरोंपर, कितने ही ऊंटोंपर, कितने ही वराह और भैंसोंपर, कितने ही सिंहोंपर, कितने ही हरिणोंपर, कितने ही चीतोंपर, कितने ही हाथियोंपर, कितने ही सुरागायोंपर, १. बोध्यतामिति म.।
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अष्टमः सर्गः
१५७ शुकान् परभृतान् क्रौञ्चान् कुररान् शिखिकुक्कुटान् । परे पारावतान् हंसान् सकारण्डवसारसान् ॥१३८॥ चक्रवाकबलाकौघान् बकादीन समधिष्ठिताः । चतुर्देवनिकायास्ते सह जग्मुरितस्ततः ॥१३९।। श्वेतच्छत्रैर्वजश्चित्रेश्चामरैः फेनपाण्डुरैः । कुर्वाणाः सर्वमाकाशं समाकीण निरन्तरम् ॥१४॥ भेरीदुन्दुभिशङ्खादिरवापूरितविष्टपम् । नृत्यगीतैर्युतं रेजे देवागमनमद्भुतम् ॥१४१॥ सौधर्मेन्द्रस्तदारूढो गजानीकाधिपं गजम् । ऐरावतं विकुर्वाणमाकाशाकारवद्वपुः ।।१४२।। प्रोइंष्ट्रान्तरविस्फारिकरास्फारितपुष्करम् । प्रोद्वंशाङ्करमध्योद्यद्मोगीन्द्रमिव भूधरम् ॥१४३॥ कर्णचामरशङ्खाई कक्षानक्षत्रमालिनम् । बलाकाहंसविद्युद्भिरिव भ्रान्तं मरुत्पथम् ॥१४४।। आरूढवारणेन्द्राणामिन्द्रागां निवहैर्युतः । जन्मक्षेत्रं जिनस्यासौ पवित्रं प्राप्तवान् सुरैः ॥१४५॥ नमसोऽवतरन्ती वैसा सुरासुरसंततिः । कुबेरकृतमद्वाक्षीत् पुरं स्वर्गमिव क्षिती ॥१४६॥ वप्रप्राकारपरिखापरिवेषमनोहरम् । सोद्यानकाननारामसरोवापीविराजितम् ॥१४७॥ इन्द्रनीलमहानीलवज्रवैडूर्यभित्तयः । प्रासादाः पद्मरागादिप्रभाझ्या यत्र रेजिरे ॥१४८॥ सुराणामसुराणां च तत्पुरश्रीविलोकिनाम् । मनोऽभू दरितोत्कण्ठं स्वर्गपातालजश्रियः ॥१४९॥
यतः साकमितं यत्प्राक सुरासुरजगत्त्रयम् । पुरं तत्कीर्तिमत्तस्मात्साकेतमिति कीर्तितम् ॥१५॥ कितने ही सामान्य हरिणोंपर, कितने ही श्याम हरिणोंपर, कितने ही गरुड़ोंपर, कितने ही तोताओंपर, कितने ही कोकिलाओंपर, कितने ही क्रौंच पक्षियोंपर, कितने ही कूररोपर, कितने ही मयूरों और मुर्गोपर, कितने ही कबूतरों, हंसों, कारण्डव और सारसोंपर, कितने ही चकवा और बलाकाओंके समूहपर और कितने ही बगुला आदि जीवोंपर बैठे थे। इस प्रकार उस समय चारों निकायके देव इधर-उधर जा रहे थे ।।१३६-१३९।। सफेद छत्रों, नाना प्रकारकी ध्वजाओं, और फेनके समान सफेद चमरोंसे समस्त आकाशको व्याप्त करते हुए वे चारों निकायके देव जहाँ-तहाँ चल रहे थे ।।१४०।। भेरी, दुन्दुभि तथा शंख आदिके शब्दोंसे जिसने समस्त लोकको भर दिया था तथा जो नृत्य और गीतसे युक्त था, ऐसा वह देवोंका आश्चर्यकारी आगमन अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।१४१।। उस समय सौधर्मेन्द्र, हाथियोंको सेनाके अधिपति तथा आकाशके समान अपने शरीरको विक्रिया करनेवाले ऐरावत हाथीपर आरूढ़ था ।।१४२।। वह ऐरावत, दोनों खीसोंके बीच उठी हुई सूड़के अग्रभाग फैलाये हुए था, अतएव जिसके बाँसोंके अंकुशोंके बीच सर्पराज ऊपरकी ओर उठ रहा था, ऐसे पर्वतके समान जान पड़ता था ॥१४३॥ वह ऐरावत ठीक आकाशके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार आकाश, बलाका, हंस और बिजलियोंसे युक्त होता है, उसी प्रकार वह हाथी भी कर्ण, चामर, शंख तथा कक्षामें लटकती हुई नक्षत्रमालासे युक्त था ।।१४४।। अन्य-दूसरे गजराजोंपर बैठे हुए इन्द्रोंके समूहसे युक्त सौधर्मेन्द्र, समस्त देवोंके साथ-साथ जिनेन्द्र भगवान्के पवित्र जन्मक्षेत्रको प्राप्त हुआ ।।१४५।। आकाशसे उतरती हुई उस सुर और असुरोंकी पंक्तिने पृथिवीपर कुवेरके द्वारा निर्मित नगरको ऐसा देखा मानो स्वर्ग ही हो ॥१४६।। वह नगर धलिके बन्धान, कोट और परिखाके चक्रसे मनोहर था तथा उद्यान, वन, आराम, सरोवर और वापिकाओंसे अलंकृत था ।।१४७॥ इन्द्रनील, महानील, हीरा और वैडूर्यमणिको दीवालोंसे युवत तथा पद्मराग आदि मणियोंको प्रभासे परिपूर्ण वहाँके भवन अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१४८।। उस नगरकी शोभा देखनेवाले सुर और असुरोंका मन स्वर्ग तथा पाताल सम्बन्धी शोभाके देखनेकी उत्कण्ठा दूर कर चुका था ।।१४९।। क्योंकि सुर, असुर आदि तीनों जगत्के जीव वहाँ पहले एक साथ पहुंचे थे इसलिए वह कीर्तिशाली नगर उस समयसे 'साकेत' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ था ।।१५०॥ १. तान्तं म. । २. महत्पथम् म. । ३. दुरितोत्कण्ठ- म. ।
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हरिवंशपुराणे ततः समं पुरं देव स्त्रिःपरीत्य पुरंदरः । प्रविश्य जिनमानेतुमादिदेश शची शुचिम् ॥१५१॥ लब्नादेशा जनन्याः सा प्रविश्य प्रसवालयम् । सुखनिद्रां विधायान्यं शिशुं च सुरमायया ॥१५२॥ प्रणम्य जिनमादाय चकार करयोहरेः । तद्पातिशयं पश्यन् सहस्राक्षो न तृप्तिमैत् ॥१५॥ आरोप्य जिनमात्माङ्कमैरावतगजे स्थितः । सोऽत्यभादुदितादित्यः शिखरात्मेव नैषधः ॥१५४॥ छत्रच्छायापटच्छन्नं चामरोल्करवीजितम् । जिनं निनाय देवौधः सुमेरुशिखरं हरिः ॥१५५॥ सप्रदक्षिणमागत्य पाण्डुकाख्यशिलातले । सिंहासने जिनं शकश्चक्रे चक्रेण नाकिनाम् ॥१५६॥ क्षमिताम्भोधिगम्भीरा भेरीपटहमर्दलाः । ताडिताः समृदङ्गायाः सुरैः शङ्खाश्च पूरिताः ॥१५७॥ जगुः किन्नरगन्धर्वाः स्त्रीमिस्तुम्बुरुनारदाः । सविश्वावसवो विश्वे चित्र श्रोत्रमनोहरम् ॥१५॥ ततं च विततं चैव धनं सुषिरमप्यलम् । मनोहारि तदा देवैर्वाद्यते स्म चतुर्विधम् ॥१५९॥ हावमावाभिरामं च नृत्यमप्सरसामभूत् । अङ्गहारकृतासंगं शृङ्गारादिरसाद्भुतम् ॥१६०॥ इत्थं तत्र महानन्दे देवसंघः प्रवर्तिते । पूरित प्रतिशब्दैश्च मन्दरे रुन्द्रकन्दरे ॥१६१॥ धृताऽऽकल्पेऽभिषेकार्थ सौधर्मेन्द्रे ससंभ्रमे । साष्टमङ्गलहस्तासु प्रशस्तामरभीरुषु ॥१६२॥ संघटैः सुरसंघातैर्महावेगैर्महाधनैः । सर्वदिक्षु गतैः क्षिप्रं क्षोभितः क्षीरसागरः ॥१६३॥
तदनन्तर देवोंके साथ-साथ उस नगरकी तीन प्रदक्षिणाएँ देकर सौधर्मेन्द्रने भीतर प्रवेश किया और पवित्र जिनेन्द्रको लाने के लिए इन्द्राणीको आज्ञा दी ॥१५१॥ इन्द्रकी आज्ञा पाते ही इन्द्राणीने माताके प्रसूतिगृहमें प्रवेश किया और देवकृत मायासे माताको सुखनिद्रामें निमग्न कर उसके पास मायामयी दूसरा बालक लिटा दिया ॥१५२॥ तत्पश्चात् प्रणाम करनेके बाद जिनबालकको लेकर उसने इन्द्र के हाथोंमें सौंपा। इन्द्रने हजार नेत्र बनाकर उनका अतिशय सुन्दर रूप देखा फिर भी वह तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ ॥१५३|| जिन-बालकको अपनी गोदमें रखकर ऐरावत हाथीपर बैठा हुआ सौधर्मेन्द्र उस समय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सूर्योदयसे सहित निषधाचलका शिखर ही हो ॥१५४॥ जो छत्रको छायारूपी वस्त्रसे आच्छादित थे तथा जिनकी दोनों ओर चामरोंके समूह ढोले जा रहे थे, ऐसे जिन बालकको सौधर्मेन्द्र देव-समूहके साथ सुमेरुके शिखरपर ले गया ॥१५५।। इन्द्रने पहले आकर देव-समूहके साथ मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा दी फिर पाण्डुक शिलापर स्थित सिंहासनपर जिन-बालकको विराजमान किया ॥१५६|| उस समय देवोंने क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रके समान गम्भीर शब्दवाले भेरी, पटह, मदल तथा मृदंग आदि बाजे बजाये और शंख फूंके ॥१५७॥ किन्नर, गन्धर्व, तुम्बुरु, नारद तथा विश्वावसु जातिके समस्त देव अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ कानों एवं हदयको हरनेवाले भांति-भांतिके गान गाने लगे ॥१५८॥ उस समय देव तत*, वितत, धन और सुषिर नामके चारों मनोहारी बाजे बजा रहे थे ॥१५९।। हाव-भावसे सुन्दर, अंगहारोंसे युक्त तथा शृंगारादि रसोंसे आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला अप्सराओंका नृत्य हो रहा था ॥१६०॥ इस प्रकार जब वहाँ देव-समूहके द्वारा महान् आनन्द मनाया जा रहा था, लम्बी-चौड़ी गुफाओंसे युक्त मेरु पर्वत उनकी प्रतिध्वनिसे गूंज रहा था, हर्षसे भरा सौधर्मेन्द्र अभिषेकके लिए योग्य वेष धारण कर रहा था, और उत्तम देवांगनाएं अपने १. प्राप। २. ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम् ।
वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं धनम ॥ अमरकोषस्य ३. मनोहरदेवस्त्रीषु । ४. संघटैः म.।।
* तारके बाजे वीणा आदिको तत कहते हैं। चमड़ेसे मढ़े हुए नवला मृदंग आदि वितत कहलाते हैं। झालर, झांझ, मंजीरा आदि कांसे के बाजोंको घन कहते हैं और शंख, बांसुरी आदि सुषिर कहलाते हैं।
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अष्टमः सर्गः
१५९ क्षीरापूर्णाः सुरैः क्षिप्ता राजताः करतः करम् । सौवर्णाश्च बभुः कुम्माश्चन्द्रार्का इव मेरुगाः ॥१६॥ कुम्भनिरन्तरारावैबहुदेवसहस्रकैः । क्षीराम्मोभिजिनेन्द्रस्य चक्रे जन्माभिषेचनम् ॥१६५।। ऐन्द्राः कुम्ममहाम्भोदा दुग्धाम्मोऽन्तरवर्षिणः । शिशोजिनगिरेरासन्न तदाऽऽयासहेतवः ।।१६६।। जिनोच्छ्वासमुहुः क्षिप्तक्षीरवारिप्लवेरिताः । प्लवन्ते स्म क्षणं देवाः क्षीरौधे मक्षिकौघवत् ॥१६॥ दृष्टः सुरगणेयः प्राग मन्दरो रत्नपिञ्जरः । स एव क्षीरपूरौधैर्धवलीकृतविग्रहः ॥१६॥ तदाऽत्यस्तपरोक्षोऽपि प्रत्यक्षः क्षीरवारिधिः । कृतः खेचरसंघातैजिनजन्माभिषेवने ॥१६९।। स्नानासनमभूम्मेरुः स्नानवारिपयोम्बुधेः । स्नानसंपादका देवाः स्नानमीदग जिनस्य तत् ।।१७०॥ इन्द्रसामानिकानेकलोकपालादयोऽमराः । क्रमेण चक्रुरम्मोमिरभिषेकं पयोम्बुधेः ।।१७१।। अस्यन्तसुकुमारस्य जिनस्य सुरयोषितः । शच्याद्याः पल्लवस्पर्शसुकुमारकरास्ततः ॥१७२। दिव्यामोदसमाकृष्टषट्पदौघानुलेपनैः । उद्वर्तयन्त्यस्ताः प्रापुः शिशुस्पर्शसुखं नवम् ॥१७३॥ ततो गन्धोदकैः कुम्मेरभ्यषिञ्चन् जगत्प्रभुम् । पयोधरमरानम्रास्ता वर्षा इव भूभृतम् ॥१४॥ समं च चतुरस्रं च संस्थानं दधतः परम् । सुवज्रषमनाराचसंघातसुधनात्मनः ॥१७५॥ कर्णावक्षतकायस्य कथंचिद् वज्रपाणिना। विद्धौ वज्रघनौ तस्य वज्रसूचीमुखेन तौ ।।१७६॥ कृताभ्यो कर्णयोरोशः कुण्डलाभ्यामभात्ततः। जम्बूद्वीपः सुभानुभ्यां सेवकाभ्यामिवान्वितः ॥१७७॥
हाथोंमें अष्ट मंगल द्रव्य धारण कर रही थी, तब महावेगशाली देवोंके समूह घट लेकर विशाल मेघोंके समान समस्त दिशाओंमें फैल गये और उन्होंने क्षीरसागरको क्षोभित कर दिया ॥१६१-१६३॥ क्षीरसे भरे चांदी और सोनेके कलश देवों द्वारा एक हाथसे दूसरे हाथमें दिये जाकर सुमेरु पर्वतपर पहुंच रहे थे और वे चन्द्र तथा सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे ॥१६४॥ निरन्तर शब्द करनेवाले
सागरके जलसे भरे हए कलशोंके द्वारा हजारों देवोंने जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक किया ॥१६५।। उस समय इन्द्रोंके कलशरूपी महामेघ जिनबालकरूपी पर्वतके ऊपर क्षीरोदककी वर्षा कर रहे थे परन्तु वे उन्हें रंचमात्र भी खेदके कारण नहीं हुए थे ।।१६६।। भगवान्के श्वासोच्छ्वाससे बार-बार उछाले हुए क्षीरोदकके प्रवाहसे प्रेरित देव, उस क्षीरोदकके समूहमें क्षण-भरके लिए मक्खियोंके समूहके समान तैरने लगते थे ॥१६७॥ देवोंके समूहने पहले जिस मेरुको रत्नोंसे पीला देखा वही उस समय क्षीरोदकके पूरसे सफेद दिखने लगा था ॥१६८॥ यद्यपि क्षीरसागर अत्यन्त परोक्ष है तथापि जिनेन्द्र के जन्माभिषेकके समय देवोंके समूहने उसे प्रत्यक्ष कर दिखाया था ॥१६९।। जिसमें मेरु पर्वत स्नानका आसन था, क्षीर समद्रका क्षीर स्नान जल था, और देव स्नान करानेवाले थे ऐसा वह भगवान्का स्नान था ॥१७०।। इन्द्र सामानिक तथा लोकपाल आदि अनेक देवोंने क्षीरसागरके जलसे भगवानका क्रमपूर्वक अभिषेक किया था ॥१७१।।
तदनन्तर जिनके हाथ पल्लवोंके समान अत्यन्त सुकुमार थे, ऐसी इन्द्राणी आदि देवियोंने अतिशय सुकुमार जिन-बालकको अपनी दिव्य सुगन्धिसे भ्रमर-समूहको आकृष्ट करनेवाले अनुलेपनसे उबटन किया और इस तरह उन्होंने जिन-बालकके स्पर्शसे समुत्पन्न नूतन सुख प्राप्त किया ॥१७२-१७३॥ तदनन्तर पयोधरभार-मेघोंके भारसे नम्रीभूत वर्षा ऋतु जिस प्रकार पर्वतका अभिषेक करती है उसी प्रकार पयोधरभार-स्तनोंके भारसे नम्रीभूत देवियोंने सुगन्धित जलसे भरे कलशों द्वारा भगवान्का अभिषेक किया ॥१७४|| जो परम सुन्दर समचतुरस्र संस्थानको धारण कर रहे थे तथा वज्रर्षभ नाराच संहननसे जिनका शरीर अत्यन्त सुदढ था, ऐसे अक्षतकाय जिन-बालकके वज्रके समान मजबूत कानोंको इन्द्र वज्रमयी सूचीकी नोंकसे किसी तरह वेध सका था ॥१७५-१७६।। तदनन्तर कानोंमें पहनाये हुए दो कुण्डलोंसे भगवान् उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि सदा सेवा करनेवाले दो सूर्योसे जम्बूद्वीप सुशोभित होता है ॥१७७॥
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हरिवंशपुराणे चूलायां स्निग्धनीलायां पद्मरागमणिः कृतः । परभागमसौ लेभे हरिनीलमणौ यथा ॥१७॥ ललाटपट्टविन्यस्ता सितचन्दनचर्चिका । रराजार्द्वन्दुरेखेव संध्यापीताभ्रवर्तिनी ॥१७९॥ सुरत्नहेमकेयूरभूषितौ च भुजौ मृदू । रेजतुः सफणारत्नाविव बालभुजङ्गमौ ॥१८०॥ प्रकोष्ठौ ज्येष्ठमाणिक्यकटकप्रकटप्रभौ । अमातां रत्नशैलस्य तटाविव सुराश्रितौ ॥ ८१॥ स्थूलमुक्ताफलेनास्य रंजे हारेग हारिणा । वक्षःस्थलं महीध्रस्य निझरेणेव सत्तटम् ।।१८२।। बभौ प्रालम्बसूत्रेण मास्वद्गलमयेन सः । कल्पम इवाश्लिष्टः कान्तकल्पलतात्मना ।।१८३।। विचित्रस्योपरिस्थेन कटिसूत्रेण वाससः । बभौ कटीतटीवाइरभ्रस्य तडिदर्चिषा ।।१८४॥ चरणी मणिसंकीर्णरणञ्चरणभूषणौ । परस्सरसमालापं कुर्वाणाविव रेजतुः ॥१८५॥ मुद्रिकाभरणेनाभाद् रत्नहेमात्मना गलत् । स्वाङ्ग लोबहुलावण्यरक्षामुद्रीकृतेन वा ॥१८६॥ दिग्धश्चन्दनपङ्केन कुङ्कमस्थासकाचितः । संध्यापीताश्रलेशातस्फटिकादिरिवाबमौ ।।१८७॥ उत्तरीयाम्बरं स्वच्छं हंसमालोज्ज्वलं सृतः । शुशुभेऽसौ शुभाकारः शरद्धन इवानघः ॥१८८॥ संतानपारिजातादिदेवलोकतरूद्भवैः । जलस्थलोद्भवैर्नानासुरमित्रसवैः शुभैः ।। १८९।।
भद्रशालवनोद्भूतै रुन्द्रनन्दनसंभवैः । पुष्पैः सौमनसोद्भूतैः सपाण्डुकवनोद्भवैः ॥१९॥ भगवान्की चिकनी एवं नीली चोटीपर धारण किया पद्मराग मणि, ऐसा वर्णोत्कर्षको प्राप्त हो रहा था मानो इन्द्रनील मणिके ऊपर ही धारण किया गया हो।१७८।। भगवान्के ललाट पटपर बनायी हुई सफेद चन्दनकी खौर, सन्ध्याके पोले बादलोंके बीच वर्तमान अर्धचन्द्रकी रेखाके समान सुशोभित हो रही थी ॥१७९।। उत्तम रत्नोंसे खचित स्वर्णमय बाजूबन्दोंसे सुशोभित उनकी दोनों कोमल भजाएँ फणाके मणियोंसे सहित दो बाल सोके समान जान पड़ती थीं ॥१८०॥ उत्तम मणिमय कड़ोंसे जिनको शोभा बढ़ रही थी ऐसी उनकी दोनों कलाइयाँ, देवोंसे आश्रित रत्नाचलके दो तटोंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥१८१।। जिसमें बड़े-बड़े मोतो लगे हुए थे ऐसे सुन्दर हारसे उनका वक्षःस्थल उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि झरनेसे किसी पर्वतका उत्तम तट सुशोभित होता है ।।१८२।देदीप्यमान रत्नोंसे निर्मित प्रालम्ब सूत्रसे भगवान् उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि सुन्दर कल्पलतासे वेष्टित कल्पवृक्ष सुशोभित होता है ॥१८३।। रंग-बिरंगे वस्त्र के ऊपर स्थित कटिसूत्रसे भगवानकी कटि ऐसी जान पड़तो मेघके ऊपर स्थित बिजलीकी किरणसे शोभित किसी पर्वतको तटी ही हो ॥१८४|| जिनमें रुनझन करनेवाले मणिमय आभूषण पहनाये गये थे, ऐसे उनके दोनों चरण परस्पर वार्तालाप करते हएके समान जान पड़ते थे ।।१८५।। रत्न-जटित स्वर्णमय मुदरियोंसे वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अपनी अंगुलियोंसे टपकते हुए अत्यधिक सौन्दर्यको रक्षाके निमित्त उनपर मुद्रा (मुहर) ही लगा दी हो ॥१८६।। पहले तो भगवान्पर चन्दनका लेप लगाया और उसके ऊपर केशरके तिलक लगाये गये जिससे वे सन्ध्याकालके पोले-पीले मेघखण्डोंसे युक्त स्फटिकके पर्वतके समान सुशोभित होने लगे ॥१८७|| स्वच्छ एवं हंसमालाके समान उज्ज्वल उत्तरीय वस्त्रको धारण किये हुए भगवान् शुभ आकारवाले.शरदऋतु के निर्मल मेघके समान जान पड़ते थे।।१८८|| उस समय माला बनाने के कौशल. में अत्यन्त निपुण देवांगनाओंके द्वारा सन्तानक, पारिजात आदि देवलोकके वृक्षोंसे उत्पन्न पुष्पोंसे, जलस्थल सम्बन्धी नाना प्रकारके शुभ सुगन्धित पुष्पोंसे तथा भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनके पुष्पोंसे गूंथी हुई मुण्डमालाके अग्रभागको अलंकृत करनेवाली मालासे वे सुमेरुके आभूषण भगवान् १. तनौ म. । २. 'कटिभागादवालम्बि प्रालम्ब सूत्रमुच्यते' ।। इति क. पुस्तके टिप्पणी। ३. तडिदचिषः म. । ४. गलत् म., गलच्च तत्स्वाङ्गलो बहुलावण्यं च तस्य रक्षार्थ मुद्रीकृतेनेव (क. टि.)। ५. संध्याभ्रदभ्रलेशाक्त ख., घ., ग.।
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अष्टमः सर्गः
१६१
प्रन्थितेन सुरस्त्रीभिर्माल्यकौशल चुचुमिः । मण्डितो मुण्डमालाग्रमण्डनेनाद्रिमण्डनः ॥१९॥ मद्रशालो जगत्युच्चैर्जगताममिनन्दनः । सोऽमात्सौमनसोऽखण्डयशसा पाण्डुकः स्वयम् ॥१९॥ विशेषको भुवामीशो विशेषकविभूषितः । विशेषतो बनौ देवविशेषकविभूषितः ॥१९३॥ शिशोर्निरञ्जनस्यास्ये स्वअनाञ्जितलोचने । परं जितार्कचन्द्राभिदीप्तिकान्ती बभूवतुः ॥१९॥ श्रीशचीकीर्तिलक्ष्मोमिः स्वहस्तैः कृतमण्डनः । स तथाऽऽखण्डलादीनां देवानामहरन्मनः ॥१९५॥ ततस्तमृषमं नाम्ना प्रधानपुरुषं सुराः । युगाद्यमभिधायत्थं शक्राद्याः स्तोतुमुद्यताः ॥१९६॥ मतिश्रुतावधिश्रष्ठचक्षुषा वृषम ! त्वया । जातेन भारते क्षेत्रे द्योतितं भुवनत्रयम् ॥१९७॥ नृभवाभिमुखेनैव भवताऽद्भुतकर्मणा । आवर्जितं जगद् येन किं जातस्यैतदद्भुतम् ॥१९८॥ पादाधःस्थापितोत्तङ्गमानङ्गमहागुरुः । महागुरुस्त्वमीशानां शैशवेऽप्यशिशुस्थितिः ॥१९॥ अस्पृशन्तो भुवं सा पादाः सुरपर्वताः । पादौ मुकुटकूटोच्चैःशिरोमिस्ते वहन्त्यमी ॥२०॥ मन्त्रशक्तिरियं किंतु प्रभुशक्तिस्तथाऽथवा । प्रोत्साहशक्तिराहोस्वित् किमप्यन्यन्महाद्भुतम् ॥२०॥ पौरुषाधिकमानीतं त्वया नाथ जगत्त्रयम् । कथमेकपदे विश्वं विधिनेव विधीयताम् ॥२०२॥
अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ।।१८९-१९१॥ वे भगवान् भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक इन चारों वन-स्वरूप सुशोभित थे । भद्रशाल इसलिए थे कि उनकी शाला अर्थात् प्रासाद भद्र अर्थात् उत्तम था। नन्दन इसलिए थे कि जगत्के सब जीवोंको अत्यधिक आनन्दित करनेवाले थे, सौमनस इसलिए थे कि उत्तम हृदयको धारण करनेवाले थे और पाण्डुक इसलिए थे कि वे स्वयं यशसे पाण्डुक-सफेद हो रहे थे ॥१९२।। जो तीनों लोकोंमें विशेषक अर्थात् तिलकके समान श्रेष्ठ थे, जो विशेषकों अर्थात् तिलकोंके द्वारा सुशोभित थे और जो देव-विशेषक अर्थात् विशिष्ट देवोंके द्वारा विभूषित किये गये थे ऐसे भगवान् उस समय विशेष रूपसे शोभायमान हो रहे थे ।।१९३॥ यद्यपि जिन-बालक स्वयं निरंजन-कज्जल ( पक्षमें पाप) से रहित थे तो भी उनके मुखपर जो नेत्र थे वे उत्तम अंजन-कज्जलसे अलंकृत थे और सूर्य तथा चन्द्रमाकी दीप्ति एवं कान्तिको जीतनेवाले थे ॥१९४॥ श्री, शची, कीर्ति तथा लक्ष्मी नामक देवियोंने अपने हाथोंसे उन्हें उस तरह अलंकृत किया था कि जिससे वे इन्द्रादिक देवोंका मन हरण करने लगे थे ॥१९५।। तदनन्तर युगके आदिमें हुए उन प्रधान पुरुषका ऋषभ नाम रखकर इन्द्र आदि देव उनको इस प्रकार स्तुति करनेके लिए तत्पर हुए ॥१९६||
. हे ऋषभदेव ! मति, श्रति और अवधिज्ञानरूपी श्रेष्ठ नेत्रोंको धारण करनेवाले आप यद्यपि भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए हैं फिर भी आपने तीनों लोकोंको प्रकाशमान कर दिया है ।।१९७।। हे भगवान् ! जब आप मनुष्य-भवमें आने के लिए सम्मुख ही थे तभी रत्नवृष्टि आदि अद्भुत कार्य दिखाकर आपने जगत्को आधीन कर लिया था फिर अब तो आप मनुष्य-भवमें स्वयं उत्पन्न हुए, अब आश्चर्यकी बात ही क्या है ? ॥१९८॥ हे नाथ ! बहुत बड़े शिखर ( पक्षमें मानरूपी शिखर ) से युक्त सुमेरु पर्वतको भी आपने अपने पैरके नीचे दबा दिया इसलिए आप समस्त स्वामियों में महागुरु-अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। और बालक अवस्थामें भी बालकों-जैसी आपकी चेष्टा नहीं है ।।१९९।। जो देवरूपी पर्वत अपने चरणोंके अग्रभागसे कभी समस्त पृथिवीका स्पर्श भी नहीं करते वे ही देवरूपी पर्वत अपने मुकुटरूपी ऊँचे शिखरोंसे आपके दोनों चरणोंको धारण कर रहे हैं। सो यह क्या आपकी मन्त्र शक्ति है ? या प्रभु शक्ति है ? या उत्साह शक्ति है ? अथवा कोई दूसरा ही महान् आश्चर्य है ? भावार्थ-जो देव, देवत्वके अभिमानमें चूर होकर पृथिवीको तुच्छ समझते हैं वे ही आपको अपने शिरपर धारण कर रहे हैं, इससे आपका सर्वोपरि प्रभाव सिद्ध है।।२००-२०१|| हे नाथ! १. 'तेन वित्तश्चुचुपचणपौ' इति चुचुप्प्रत्ययः ।
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१६२
हरिवंशपुराणे क चेदं सौकुमार्य ते क्व च कार्कश्यमीदृशम् । नाथान्योन्यविरुद्धार्थसंभवस्त्वयि दृश्यते ॥२०३॥ अष्टोत्तरसहस्रोच्चैर्लक्षणं व्यञ्जनाञ्चितम् । रूपं तवैतदामाति भूसुरासुरदुर्लभम् ॥२०४॥ रूपातिशयतो लोके प्रथमश्चरमश्च ते । विधत्ते प्रणतं विश्वं विग्रहो विग्रहाद् विना ॥२०५॥ हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि यतस्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चैर्गीर्वाणीयसे ततः ॥२०६॥ सह ज्ञानत्रयेणात्र तृतीयमवभाविना । स्वयंभूतो यतोऽतस्त्वं स्वयंभूरिति भाष्यसे ॥२०७॥ व्यवस्थानां विधाता त्वं भविता विविधात्मनाम् । भारते यत्ततोऽन्वर्थं विधातेत्यमिधीयसे ॥२०८॥ अपूर्वः सर्वतो रक्षां कुर्वन् जातः पतिः प्रमो। प्रजानां त्वं यतस्तस्मात् प्रजापतिरितीर्यसे ।।२०९॥ आकन्तीक्षरसं प्रीत्या बाहुल्येन स्वयि प्रभो । प्रजाः प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कोयंसे ॥२०॥ पूर्वः सर्वपुराणानां त्वं महामहिमा महान् । इह दीव्यसि यत्त न पुरुदेव इतीष्यसे ॥२१॥ भरतासनमध्यास्य त्रैलोक्यैश्चर्यमर्जयत् । युज्यते तत्तवात्यल्पमनन्तैश्वर्ययोगिनः ॥२१२।। त्वं विधाता स्वयंबुद्धस्तपसां दुष्करात्मनाम् । सचेता चेतसामुच्चैर्यशसां वातिशायिनाम् ॥२१३॥ श्रेयसो दानधर्मस्य श्रेयोऽथ प्राणिनां मुनिः । भुवि दर्शयिता वीर: विशुद्ध पात्रता स्वयम् ॥२१४॥
स्वमनभुजङ्गस्य मन्त्रो द्वेषद्विपाङ्कशः । मोहाभ्रपटलभ्रान्तिभ्रंशहेतुः प्रभञ्जनः ॥२१५॥ पौरुषसे वशमें न होनेवाले तीनों जगतको आपने कैसे विधिके समान एक साथ अपने आधीन कर लिया ? भावार्थ-जिस प्रकार विधि-नियति तीनों जगत्को अपने आधीन किये हुए है उसी प्रकार आपने भी तीनों जगत्को अपने आधीन कर लिया है, परन्तु यह कार्य पुरुषार्थ साध्य नहीं है, यह तो केवल आपकी अचिन्त्य आत्मशक्तिका ही प्रभाव है ॥२०२॥ हे नाथ ! कहाँ तो यह सुकुमारता ? और कहाँ ऐसी कठोरता ? हे प्रभो ! विरुद्ध पदार्थोंका सम्भव आपमें ही दीख पड़ता है ।।२०३।। मनुष्य, देव और दानवोंके लिए दुर्लभ तथा एक हजार आठ व्यंजन और लक्षणोंसे युक्त आपका यह रूप अतिशय शोभायमान हो रहा है ।।२०४।। हे भगवान् ! आपका शरीर चरम-पर्याय धारण करनेकी अपेक्षा अन्तिम है तथा रूपके अतिशयसे प्रथम है-सर्वश्रेष्ठ है और युद्धके बिना ही समस्त विश्वको नम्रीभूत कर रहा है ।।२०५।। हे नाथ ! जब आप गर्भमें स्थित थे तभी सबको इष्ट हिरण्य -सुवर्णको वृष्टि हुई थी इसलिए देव आपको हिरण्यगर्भ (हिरण्यं गर्भे यस्य सः ) कहते हैं ॥२०६।। हे प्रभो ! इस भवसे पूर्व तीसरे भवमें जो तीन ज्ञान प्रकट हुए थे उन्हीं के साथ आप यहाँ स्वयं उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप स्वयम्भू कहे जाते हैं ।।२०७|| क्योंकि आप भरत क्षेत्रमें नाना प्रकारको व्यवस्थाओंके करने वाले होंगे इसलिए आप विधाता इस सार्थक नामके धारी बहे जाते हैं ।।२०८॥ हे प्रभो ! आप सब ओरसे प्रजाकी रक्षा करते हुए अपूर्व ही प्रभु हुए हैं इसलिए आप प्रजापति कहलाते हैं ॥२०९॥ हे प्रभो! आपके रहते हुए प्रजा बहुत प्रीतिसे इक्षुरसका आस्वादन करेगी इसलिए आप इक्ष्वाकु कहे जाते हैं ॥२१०॥ आप समस्त पुराण पुरुषोंमें प्रथम हैं, महामहिमाके धारक हैं, स्वयं महान हैं और यहां अतिशय देदीप्यमान हैं इसलिए पुरुदेव कहलाते हैं ॥२११॥ हे भगवान् ! आपने भरतक्षेत्रके आसनपर आरूढ़ होकर तीन लोकका ऐश्वर्य उपाजित किया है सो अनन्त ऐश्वर्यको धारण करनेवाले आपके लिए यह अत्यन्त तुच्छ बात हैआश्चर्यकी बात नहीं है ॥२१२॥ हे प्रभो! आप स्वयं बुद्ध होकर अतिशय कठिन तपके करनेवाले हैं तथा उत्तम ज्ञान और बहुत भारी यशके संचेता हैं ।।२१३।। हे विभो ! पृथिवीपर आप धीरवीर मुनि बनकर प्राणियोंके लिए कल्याणकारी दान, धर्मकी श्रेष्ठता तथा स्वयं निर्दोष पात्रताको दिखलावेंगे। भावार्थ - आप मनि बनकर लोगोंमें दान-धर्मकी प्रवत्ति चलावेंगे तथा अपनी प्रवत्तिसे प्रकट करेंगे कि निर्दोष पात्र कैसे होते हैं ? ॥२१४॥ हे भगवान् ! आप कामरूपी भुजंगको नष्ट १. चरमस्य म. । २. शरीरं। ३. युद्धात् । ४. विधिनात्मनाम् म. । ५. आस्वादयन्ति ।
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अष्टमः सर्गः
१६३
प्रशस्तस्तिमितध्यानसुप्तमीनमहादः। बन्धानन्तरसंधानघातीन्धनहुताशनः ॥२१६॥ स्नेहानपेक्षकैवल्यप्रदीपोद्योतिताखिलः । देशको मोक्षमार्गस्य निसर्गाद् भविता भुवि ॥२१७॥ कालमष्टादशाम्भोधिकोटीकोटीप्रमाणकम् । धर्मनामनि निर्मूलं नष्टे स्रष्टेह भारते ॥२१८॥ स्वर्गापवर्गमार्गस्य मार्गणे भव्यदेहिनाम् । दिग्मोहान्धधियां धीमान् जातस्त्वमुपदेशकः ॥२ १९॥ जायन्तेऽभ्युदयश्रीशाश्रयो निःश्रेयसश्रियः । सांप्रतं भुवि भव्यौवा नाथ त्वदुपदेशतः ॥२२०॥ प्रमाणनयमार्गाभ्यामविरुद्धेन जन्तवः । त्वदुपज्ञेन मार्गेण प्राप्नुवन्तु पदं प्रियम् ॥२२१॥ प्रणन्तव्यः प्रयत्नेन स्तोतव्यस्त्वं हितार्थिनाम् । स्मर्तव्यः सततं नाथ जगताभुपकारकः ॥२२२॥ प्रणतेस्ते कृती कायो गुणिनो वाग्गुणस्तुतेः । प्राणिनां प्रणिधानेन गुणानां गणवन्मनः ॥२२३।। नमस्ते मृत्युमल्लाय नमस्ते भवभेदिने । नमस्ते जरसोऽन्ताय नमस्ते धनस्तकपणे ।।२२४॥ नमस्तेऽनन्तबोधाय नमस्तेऽनन्तदर्शिने । नमस्तेऽनन्तवीर्याय नमस्तेऽनन्तशर्मणे ॥३५॥ नमस्ते लोकनाथाय नमस्ते लोकबन्धवे । नमस्ते लोकवीराय नमस्ते लोकवेधसे ॥२२६।।
करनेके लिए मन्त्र हैं, द्वेषरूपी हाथीको वश करनेके लिए अंकुश हैं तथा मोहरूपो मेघ-पटल के संचारको नष्ट करनेके लिए प्रचण्ड वायु हैं ।।२१५।। हे स्वामिन् ! आप प्रशस्त तथा निइनल ध्यानके द्वारा जिसमें मछलियां सो रही हैं ऐसे महासरोवरके समान हैं, तथा संवरको धारण कर आप घातिया कर्मरूपी इंधनको जलाने के लिए अग्निस्वरूप हैं ।।२१६।। हे नाथ ! तेलसे निरपेक्ष केवलज्ञानरूपो दीपकके द्वारा जिन्होंने समस्त पदार्थों को प्रकाशित कर दिया है ऐसे मोक्षमार्गके उपदेशक आप पृथिवीपर स्वभावसे ही होंगे ॥२१७॥ हे भगवन् ! इस भारतवर्षमें अठारह कोडाकोड़ी सागर तक धर्मका नाम निर्मूल नष्ट रहा अब आप पुनः उसकी सृष्टि करेंगे। भावार्थ-उत्सर्पिणीके चौथे, पांचवें, छठे और अवसर्पिणोके पहले, दूसरे तथा तीसरे कालके अठारह कोडाकोड़ी सागर तक यहां भोग-भूमिको प्रवृत्ति रही इसलिए भोगोंकी मुख्यता होनेसे यहाँ *चारित्ररूप धर्म नहीं रहा, अब आप पुनः उसको प्रवृत्ति करेंगे ॥२१८।। हे नाथ ! आप परम बुद्धिमान् हो तथा दिशाभ्रान्तिके कारण जिनको बुद्धि अन्धी हो रही है ऐसे भव्य प्राणियोंके लिए आप स्वर्ग तथा मोक्षका मार्ग बतलानेके लिए उपदेशक हुए हैं ॥२१९।। हे नाथ ! इस समय आपके उपदेशसे भव्य जीवोंके समूह, संसारमें स्वर्ग लक्ष्मीके स्वामी तथा मोक्षलक्ष्मीके आश्रय होंगे ॥२२०॥ हे भगवन् ! आपके द्वारा चलाया हुआ मार्ग प्रमाण और नयमार्गके अविरुद्ध है, उसपर चलकर जगत्के प्राणी अपने प्रिय स्थानको प्राप्त करें ॥२२१॥ हे नाथ ! आप तीनों लोकोंका उपकार करनेवाले हैं इसलिए हितके इच्छुक जीवोंके द्वारा प्रयत्नपूर्वक नमस्कार करने योग्य, स्तुति करने योग्य और ध्यान करने योग्य हैं ॥२२२॥ हे प्रभो ! आपको प्रणाम करनेसे प्राणियोंका काय कृतार्थ हो जाता है, आपके गुणोंकी स्तुति करनेसे उसको वाणी सार्थक हो जाती है और आपका ध्यान करने से उनका मन गणसहित हो जाता है ॥२२३।। हे नाथ ! आप मत्यको नष्ट करनेके लिए मल्ल हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप संसारको नष्ट करनेवाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप बुढ़ापेका अन्त करनेवाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, आप कर्मोंको नष्ट करनेवाले हैं अतः आपको नमस्कार हो ॥२२४॥ हे भगवन् ! आप अनन्त ज्ञानके स्वामी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनन्त दर्शनके धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनन्त-बलसे सहित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप अनन्त सुखसे सम्पन्न हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२५॥ आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप समस्त जीवोंके बन्धु हैं इसलिए आपको १. बन्धानन्तरा संवरः तस्य संधानं धारणं येन धातीन्धनस्य हुताशनः । २. श्रिया क. ।
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१६४
हरिवंशपुराणे नमस्ते जिनचन्द्राय नमस्ते जिनभानवे । नमस्ते जिनसाय नमस्ते जिनतायिने ॥२२७॥ इति स्तुतिशतैः स्तुत्वा नत्वा शतमखादयः । भक्तिस्त्वय्यस्तु शस्तेति शतशस्तं ययाचिरे ॥२२॥ ततः सरमसोद्यातसरसंघातसेनया। वृतः शेतावरो मेरोरुवाचाल जिनान्वितः ॥२२॥ सवर्णकणिकारोरुराशिपिम्जरविग्रहम् । तमैरावतमारोप्य रौप्याद्रिमिव जङ्गमम् ॥२३॥ तामयोध्या परायोध्या ध्वजमालाविभूषिताम् । वादिध्वनिधीरां स्वामध्यास्य ध्वजिनीमिव ॥२३१॥ पौलोम्या मातुरुरसङ्ग स्थापयित्वा जिनं ततः । जनको प्रणिपत्याशु कृतनेपथ्यविग्रहः ॥२३२॥ नृत्यत्सुराङ्गनोद्भासिमास्वद्भुजवनावृतः । ननर्त्त ताण्डवारम्भचल विश्वम्भरो हरिः ॥२३३॥ चिरं प्रेक्षकयोरग्रे नटिस्वाऽऽनन्दनाटकम् । पित्रोः कृत्वोचितं देवैः सहेन्द्रः स्वास्पद ययौ ॥२३॥ कोट्यस्तिस्रोऽर्द्धकोटी च वसुवृष्टिदिने दिने । मासान् पञ्चदशोत्पत्तेः प्राग जिनस्यापतद्गृहे ॥२३५॥
वसन्ततिलकावृत्तम् प्राप्तोऽभिषेकममरेन्द्र गणेगिरीन्द्रे
प्राप्तः सुतस्विभुवनेश्वर इत्युदारौ । प्राप्तौ महाप्रमदमारवशौ तदानीं
नाभिश्च नामिवनिता च सुखं स्ववेद्यम् ॥२३६॥ नमस्कार हो, आप लोकमें अद्वितीय वीर हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप लोकके विधाता हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२६॥ हे जिन ! आप चन्द्रमारूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सूर्यस्वरूप हो इसलिए आपको नमस्कार हो, हे जिन ! आप सबका हित करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और हे जिन ! आप सबकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥२२७॥ इस तरह सैकड़ों प्रकारकी स्तुतियोंसे स्तुति कर तथा नमस्कार कर इन्द्र आदि देवोंने उनसे बार-बार यही याचना की कि हे भगवन् ! हमारी उत्तम भक्ति सदा आपमें बनी रहे ॥२२८॥
तदनन्तर शीघ्रगामी देवोंकी सेनासे घिरा हुआ इन्द्र, जिन-बालकको साथ ले मेरु पर्वतसे चला ।।२२९।। सुवर्ण और कनेरके फूलोंकी राशिके समान पीत शरीरके धारक जिन-बालकको चलते-फिरते रजताचलके सदृश ऐरावत हाथीपर सवार कर वह अयोध्याको ओर चला ॥२३०।। जो शत्रुओंके द्वारा अयोध्या थी, ध्वजाओंकी पंक्तियोंसे सुशोभित थी, बाजोंकी ध्वनिसे व्याप्त थी तथा अपनी सेनाके समान जान पड़ती थी ऐसी अयोध्यामें पहुँचकर उसने जिन-बालकको इन्द्राणीके द्वारा माताकी गोदमें विराजमान कराया। तदनन्तर माता-पिताको नमस्कार कर शीघ्र ही सुन्दर वेषभूषासे युक्त हो ताण्डव-नृत्य करना प्रारम्भ किया। उस समय वह इन्द्र, नृत्य करनेवाली देवांगनाओंसे सुशोभित सुन्दर भुजारूपी वनसे घिरा हुआ था और ताण्डव नृत्यके प्रारम्भमें ही उसने पृथिवीको कम्पायमान कर दिया था ॥२३१-२३३।। भगवान्के माता-पिता इस नृत्यके दर्शक थे। उनके आगे चिर काल तक आनन्द नाटकका अभिनय कर तथा यथायोग्य उनका सत्कार कर इन्द्र देवोंके साथ अपने स्थानपर चला गया ।।२३४॥ जिनेन्द्र भगवान्के जन्मसे पन्द्रह माह पूर्व प्रतिदिन उनके पिताके घर साढ़े तीन करोड़ रत्नोंकी वर्षा आकाशसे पड़ती थी ।।२३५।। 'हमारा पुत्र इन्द्रोंके समूह द्वारा सुमेरु पर्वतपर अभिषेकको प्राप्त हुआ है तथा तीनों लोकोंका स्वामी है' यह जानकर उस समय अतिशय उदार राजा नाभिराज और मरुदेवी महान् आनन्दके १. जिनसर्वाय म.। २. इन्द्रः । ३. सुवर्ण च कणिकाराणि च तेषामुरुराशिस्तद्वत् पिञ्जरो विग्रहो यस्य तम् ( क. टि.) । सुवर्णकर्णिकारोहराशि-म.।
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अष्टमः सर्गः
१६५
स्वर्गावतारजननाभिषवद्विभेद
कल्याणवर्णनमिदं वृषभेश्वरस्य । भक्त्या सदा पठति योऽत्र शृणोति यश्च
कल्याणमेति स जनो जिनभास्करस्य ।।२३७।।
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृतो ऋषभनाथजन्माभिषेकवर्णनो
नाम अष्टमः सर्गः ॥८॥
वशीभूत हो स्वसंवेद्य सुखको प्राप्त हुए ।।२३६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि भगवान् वृषभदेवके स्वर्गावतार और जन्माभिषेक इन दो कल्याणकोंके इस वर्णनको जो भक्तिपूर्वक सदा पढ़ता है, अथवा जो सुनता है वह इस संसारमें जिन-सूर्यके ही समान कल्याणको प्राप्त होता है ।।२३७।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें भगवान्
ऋषभदेवके जन्माभिषेकका वर्णन करनेवाला आठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥८॥
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नवमः सर्गः अथेन्द्रेण कराङ्गष्ठे निपिक्तममृतं पिबन् । पित्रोनेत्रामृताहारं वितरन् वर्द्धते जिनः ॥१॥ वृद्धः शीतमयूखस्य बालचन्द्रस्य दर्शनात् । प्रत्यहं वर्द्धमानस्य जगत्प्रमदसागरः ॥२॥ बालक्रीडामृतरसः पीयमानोऽप्यनारतम् । सलभोऽपि विमो भूल्लोकलोचनतृप्तये ॥३॥ कुमारः क्रीडितं चक्रे स शक्रप्रहितैर्हितः । प्रतिबिम्बैरिवात्मीयैहा देवकुमारकैः ॥४॥ मृदुशय्यासनं वस्त्रं भूषणं चानुलेपनम् । भोजनं वाहनं यानं तस्यासीद देवनिर्मितम् ॥५॥ भक्त्या शक्राज्ञया चाभूद् धनदो धनदोऽर्थतः । वयःकालानुरूपेण वस्तुनाऽनुचरन् जिनम् ॥६॥ सहायैः सहजैः स्वच्छैः दिव्यैरिव कलागुणैः । संपूर्णो यौवनेनापि जिनश्चन्द्र इवाबभौ ॥७॥ तुङ्गासौ सांगदौ वृत्तौ सुप्रकोष्ठौ महाभुजौ । परिष्वङ्गाय पर्याप्तौ त्रैलोक्यविपुलश्रियः ॥८॥ श्रीवत्सलक्षणेनोरुवक्षःस्थलमभाद् विभोः । गाढोपगूढराज्यश्रीकुचाग्रोल्पीडितेन वा ॥९॥ सश्लिष्टपदजङ्घोधगूढजानूरुदण्डयोः । वक्षःप्रासादसंस्तम्मस्तम्भयोः श्रीरभूत् परा ॥१०॥ केशकुन्तलमारोऽभानीलो हेमाचलस्य सः । छत्राकारे शिरस्युच्चैरिन्द्रनीलचयो यथा ॥१॥ श्रीललाटस्य नासायाः सुकर्णोत्पलनालयोः । सज्यचापभ्रुवोर्वापि वाचागोचरमत्यगात् ॥१२॥
अथानन्तर इन्द्रके द्वारा हाथके अंगूठेमें स्थापित अमृतको पीते तथा माता-पिताके नेत्रोंके लिए अमृतरूप आहार प्रदान करते हुए भगवान् जिनेन्द्र दिनोंदिन बढ़ने लगे ॥१॥ प्रतिदिन बढ़नेवाले जिन-बालकरूपी चन्द्रमाके देखनेसे संसारके समस्त प्राणियोंका आनन्दरूपी सागर वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥२॥ यद्यपि भगवानका बालक्रीडारूपो अमतरस पिया जाता था और लिए निरन्तर सुलभ भी था तो भी वह मनुष्योंके नेत्रोंकी तृप्ति के लिए पर्याप्त नहीं था। भावार्थ-- भगवान्को बालक्रीड़ा देखकर मनुष्योंके नेत्र सन्तुष्ट नहीं होते थे ॥३॥ जिन-बालक, इन्द्रके द्वारा भेजे हुए, हितकारी एवं अपने ही प्रतिबिम्बके समान दिखनेवाले देव-बालकोंके साथ मनोहर क्रीड़ा करते थे ॥४॥ भगवानका कोमल बिस्तर, कोमल आसन, वस्त्र, आभूषण, अनुलेपन, भोजन, वाहन तथा यान आदि सभी वस्तुएँ देव निर्मित थीं ।।५।। इन्द्रकी आज्ञानुसार अवस्था तथा ऋतुके अनुकूल वस्तुओंसे भक्तिपूर्वक भगवान् की सेवा करनेवाला धनद-कुबेर वास्तवमें ही धनद-धनको देनेवाला था ।।६।। अपने सहज मित्रोंके समान स्वच्छ एक दिव्य कलारूप गुणोंसे युक्त तथा यौवनसे परिपूर्ण जिनेन्द्र चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ।।७।। ऊँचे कन्धोंसे सुशोभित, बाजूबन्दोंसे युक्त गोल तथा उत्तम कलाइयोंसे सहित उनको दोनों महाभुजाएँ त्रैलोक्यको लक्ष्मीका आलिंगन करने के लिए पर्याप्त थीं ॥८॥ भगवान्का विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्स चिह्नसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अच्छी तरहसे आलिंगित राज्यलक्ष्मोके स्तनके अग्रभागसे ही पीड़ित हो ।।९|| जिनके पैर और जंघाएँ अच्छी तरह मिली हुई थीं, जिनके घुटने मांसपेशियों में भीतर छिपे हुए थे और जो वक्षःस्थलरूप महलके आधारभूत स्तम्भोंके समान जान पड़ते थे ऐसे उनके दोनों ऊरुओंकी शोभा बहुत चढ़ी-बढ़ी थी॥१०|| भगवान्के छत्राकार शिरपर काले घुघराले बालोंका समूह ऐसा जान पड़ता था मानो सुमेरुके ऊँचे शिखरपर इन्द्रनील मणियोंका समूह ही रखा हो ॥११॥ उनके ललाट, नाक, सुन्दर कानोंपर लगे हुए नील कमलोंकी नाल, और डोरी चढ़े धनुषकी समानता १. वृद्धिंगतः। २. कुमारक्रीडितं म.। ३. हितः म.। ४. कुबेरः । ५. धनदायकः । ६. मारोप-म. । ७. सज्ज -म.।
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नवमः सर्गः
१६७
चन्द्रश्चन्द्रिका रात्रौ दिवा दीप्त्या दिवाकरः । मुदे त्रिभुवने न स्यात् तस्य ताभ्यां तयोर्मुखम् ॥३३॥ पुण्डरीकस्य पत्रेण नेत्रे श्रोत्रे सृते ममे । पिण्डालक्तकरक्तं वा हस्तपादतलाधरम् ||१४| शुद्ध मौक्तिकसंघातघटितेव घनद्युतिः । कुन्दधुतिमधाज्जैनी दन्तपंक्तिरदन्तुरा || १५ || सनवव्यन्जनशते सहाष्टशतलक्षणे । पञ्च वापशतोच्छ्राये तथा हेमाद्रिसंनिभे ॥ १६ ॥ रूपशोभासमस्तेयं जिनस्य गदितुं सह । लेशेनापि न सा शक्या शक्रकोटिशतैरपि ॥१७॥ स जगत्त्रयरूपिण्या नन्दया च सुनन्दया । प्रौढयौवनया प्रौढश्चिकीड विधिनोढया ॥१८॥ स गौरीश्यामयोर्मध्ये स्तवकस्तनयोस्तयोः । जगत् कल्पद्रुमोऽभासीलतयोरङ्गलग्नयोः ॥१९॥
कान्ति सा दीप्तिर्न सा संपद् न सा कला । अस्यानयोश्च या नाऽभूत् तत्र सौख्यं किमुच्यताम् ॥ २० ॥ भरतानन्दनं नन्दा नन्दनं चक्रवर्तिनम् । भरताख्यं सुतां ब्राह्मीमपि युग्ममसूत सा ॥२१॥ सुनन्दा बाहुबलिनं महाबाहुबलं सुतम् । तथैव सुषुवे लोके सुन्दरामपि सुन्दरीम् ॥२२॥ अष्टानवतिरस्येति नन्दायां सुन्दराः सुताः । जाता वृषभसेनाद्या वेद्याश्चरमविग्रहाः ॥ २३ ॥ अक्षरालेख्यगन्धर्वगणितादिकलार्णवम् । सुमेधानैः कुमारीभ्यामवगाहयति स्म सः ॥ २४ ॥
करनेवाली भौंहों की शोभा वचन मार्गको उल्लंघन कर चुकी थी || १२|| तीनों लोकोंमें चन्द्रमा अपनी चाँदनीसे रात्रि में ही आनन्द उत्पन्न करता है और सूर्य अपनी दीप्तिसे दिनमें ही लोगोंको आनन्द पहुँचाता है परन्तु भगवान्का मुख दिन-रातके भेदके बिना निरन्तर सबको आनन्द पहुँचाता था अतः वह न तो चन्द्रमाकी चांदनी के समान था और न सूर्यको दीप्तिके ही सदृश था || १३|| उनके कानों तक लम्बे नेत्र कमलपत्र के समान थे और हथेलियाँ पदतल और अधरोष्ठ महावर के रंगके समान लाल थे ||१४|| शुद्ध मोतियोंके समूहसे बनी हुईके समान अत्यन्त चमकदार एवं ऊँचे-नीचे विन्याससे रहित उनकी दांतोंकी पंक्ति कुन्दपुष्पकी शोभा धारण कर रही थी || १५ || नौ सौ व्यंजन, और एक सौ आठ लक्षणोंसे सहित, पाँच सौ धनुष ऊँचे एवं हेमाचलसुमेरुके समान उनके शरीरकी जो शोभा थी उस सबको यदि सैकड़ों करोड़ इन्द्र भी एक साथ कहना चाहें तो भी लेशमात्र नहीं कह सकते ॥ १६-१७॥
जब भगवान् पूर्णं युवा हुए तब तीनों लोकोंको अद्वितीय सुन्दरी प्रौढ़ यौवनवती नन्दा और सुनन्दा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह हुआ और उनके साथ वे क्रीड़ा करने लगे ||१८|| गुच्छोंके समान स्तनोंको धारण करनेवाली उन गौरांगी एवं नवयौवनवती नन्दा और सुनन्दाके बीचमें भगवान् ऐसे जान पड़ते थे मानो अंगमें लगी हुई दो लताओंके बोचमें संसारके कल्पवृक्ष ही हों ||१९|| संसार में न वह कान्ति थी, न दीप्ति थी, न सम्पत्ति थी, और न वह कला ही थी जो भगवान् ऋषभदेव और नन्दा-सुनन्दाको प्राप्त नहीं थी फिर उनके सुखका क्या वर्णन किया जाये ? ||२०|| नन्दाने भरतक्षेत्रको आनन्दित करनेवाले भरत नामक चक्रवर्ती पुत्रको और ब्राह्मी नामक पुत्रीको युगल रूपमें उत्पन्न किया || २१ || और सुनन्दा नामक दूसरी रानीने महाबाहुबलसे युक्त बाहुबली नामक पुत्र तथा संसारमें अतिशय रूपवती सुन्दरी नामक पुत्रीको जन्म दिया ||२२|| भरत और ब्राह्मी के सिवाय भगवान्की सुनन्दा रानीके वृषभसेनको आदि लेकर अंठानबे पुत्र और हुए । उनके ये सभी पुत्र चरमशरीरी थे ||२३|| भगवान् ने अतिशय बुद्धिसे सम्पन्न अपने समस्त पुत्रोंके साथ-साथ ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों पुत्रियोंको भी अक्षर, चित्र, संगीत और गणित आदि कलाओंके सागर में प्रविष्ट कराया था । भावार्थं - अपने समस्त पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने विविध कलाओंमें पारंगत किया था ||२४||
१. पात्रेण म. । २. विधिवत्परिणीतया । ३. भरतक्षेत्रजनानन्दनम् । ४. सुष्ठुवे (?) म. । ५. सुमेधावी म. । सुष्टु बुद्धिसंपन्नैः पुत्रः सह (क. टि.) । ६. कुमाराभ्याम् म. ।
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१६८
हरिवंशपुराणे अथान्यदा प्रजाः प्राप्ता नाभेयं नाभिनोदिताः । स्तुतिपूर्व प्रणम्योचुरेकीभूय महातयः ॥२५॥ प्रभो कल्पद्रुमाः पूर्व प्रजानां वृत्तिहेतवः । तेषां परिक्षयेऽभूवन् स्वयंच्युतरसेक्षवः ॥२६॥ दिव्येक्षरसतृप्तानां रक्षितानां वौजसा । प्रजानां नाथ ! दूरेण विस्मृताः कल्पपादपाः ॥२७॥ इदानीं छिन्नभिन्नाश्च न क्षरन्तीक्षवो रसम् । यान्ति कालानुमावेन मृदवोऽपि कठोरताम् ॥२८॥ फलभारवशान्नम्रा दृश्यन्ते तृणजातयः। न विद्मो वयमेतामिः कथमन्नविधिर्भवेत् ॥२९॥ सरमीणां घटोनीनां महिषीणां च संततम् । स्तनेभ्यो प्रक्षरद् मक्ष्यमभक्ष्यं वा तदुच्यताम् ॥३०॥ कण्ठाश्लेषोचिताः पूर्व सिंहव्याघ्रवृकादयः । अस्मानुद्वेजयन्तीशे कुपुत्रा इव सांप्रतम् ॥३१॥ अतः क्षुधामहाग्रस्ता जोवनोपायदर्शनात् । स्वामिन्ननुगृहाणता रक्षणाच्च भयात् प्रजाः ॥३२॥ ततो वीक्ष्य क्षधाक्षीणाः प्रजाः सर्वाः प्रजापतिः । कृत्वातिहरणं तासां दिव्याहारैः कृपान्वितः ॥३३॥ सर्वानुपदिदेशासौ प्रजानां वृत्तिसिद्धये । उपायान् धर्मकामार्थान् साधनान्यपि पार्थिवः ॥३४॥ असिषी कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमित्यपि । षट्कर्म शमेसिद्धयर्थ सोपायमुपदिष्टवान् ॥३५॥ पशुपाल्यं ततः प्रोक्तं गोमहिष्यादिसंग्रहम् । वर्जनं करसत्त्वानां सिंहादीनां यथायथम् ॥३६॥ ततः पुत्रशतेनापि प्रजया च कलागमः । गृहीतः सुगृहीतं च कृतं शिल्पिशतं जनैः ॥३७॥ पुरग्रामनिवेशाश्च ततः शिल्पिजनैः कृताः। सखेटकर्वटाख्याश्च सर्वत्र मरतक्षितौ ॥३८॥ क्षत्रियाः क्षतितस्त्राणाद् वैश्या वाणिज्ययोगतः । शूद्राः शिल्पादिसंबन्धाजाता वर्णास्त्रयोऽप्यतः ॥३९॥
अथानन्तर किसी समय बहुत भारी व्यथासे युक्त समस्त प्रजा, राजा नाभिराजसे प्रेरित हो एक साथ भगवान् वृषभदेवके पास पहुंची और स्तुतिपूर्वक प्रणाम कर कहने लगी ॥२५॥ हे प्रभो! पहले, कल्पवृक्ष प्रजाको आजीविकाके साधन थे, फिर उनके नष्ट होनेपर स्वयं ही जिनसे रस चू रहा था ऐसे इक्षु वृक्ष साधन हुए ॥२६॥ हे प्रजानाथ ! उन दिव्य इक्षु वृक्षोंके रससे प्रजा इतनी सन्तुष्ट हुई और आपके प्रतापने उसकी ऐसो रक्षा की कि उसने कल्पवृक्षोंको दूरसे ही भुला दिया ||२७|| परन्तु इस समय वे इक्षवृक्ष छिन्न-भिन्न होनेपर भी रस नहीं देते हैं सो ठोक ही हैं क्योकि समयके प्रभावसे कोमल भी कठोरताको प्राप्त हो जाते हैं ॥२८॥ यद्यपि फलोंके भारसे झुके हए नाना प्रकारके तण दिखाई देते हैं परन्तु हम लोग नहीं जानते कि इनसे अन्न कैसे प्राप्त किया जाता है ? ॥२९|| घटके समान स्थूल स्तनोंको धारण करनेवाली गायों और भैंसोंके स्तनोंसे भी कुछ झर रहा है सो वह भक्ष्य है या अभक्ष्य यह कहिए ॥३०॥ जो सिंह, व्याघ्र तथा भेड़िया आदि पहले कण्ठालिंगन करनेके योग्य थे हे नाथ ! अब वे हो इस समय कुपुत्रोंके समान हम लोगोंको भयभीत कर रहे हैं ॥३१।। इसलिए हे स्वामिन् ! क्षुधाकी तीव्र बाधासे ग्रस्त इस प्रजाको जीवन निर्वाहके उपाय दिखाकर तथा भयसे उसकी रक्षा कर अनुगृहीत कीजिए ॥३२॥ तदनन्तर दयालु भगवान्ने समस्त प्रजाको भूखसे व्याकुल देख पहले तो दिव्य आहारके द्वारा सबकी पीड़ा दूर की फिर आजीविकाके निर्वाहके लिए सब उपाय तथा धर्म, अर्थ और कामरूप साधनोंका उपदेश दिया ॥३३-३४॥ उन्होंने सुखकी सिद्धिके लिए अनेक उपायोंके साथ असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मोंका भी उपदेश दिया।।३५।। तदनन्तर उन्होंने यह भी बताया कि गाय, भैंस आदि पशुओंका संग्रह तथा उनको रक्षा करनी चाहिए और सिंह आदिक दुष्ट जीवोंका परित्याग करना चाहिए ॥३६॥ तदनन्तर भगवान्के सौ पुत्रों और प्रजाने कला शास्त्र सीखा, एवं लोगोंने सैकड़ों शिल्पी बनाकर उन्हें अपनाया ॥३७|| जिससे शिल्पिजनोंने भरतक्षेत्रको भूमिपर सब जगह गांव, नगर तथा खेट, कर्वट आदिको रचना की ॥३८॥ उसी समय क्षत्रिय, वैश्य . और शूद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए। विनाशसे जीवोंकी रक्षा करनेके कारण क्षत्रिय, वाणिज्य १. कण्ठाश्लेषोदिताः म.। २. -तीश: म. । ३. संग्रहः म.। ४. क्षततस्त्राणात् म.।
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नवमः सर्गः
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षमिः कर्मभिरासाय सुखितामर्थवत्तया। प्रजाभिस्तत्सुतुष्टाभिः प्रोक्तं कृतयुगं युगम् ॥४०॥ सेन्द्राः सुरास्तदागत्य कृत्वा राज्याभिषेचनम् । नाभेयस्य प्रजानां ते सौस्थित्यं विदधुः परम् ॥४१॥ अयोध्येति विनीतेति विनीतजलसंकुला । साक्रेतेति च विख्याता पुरी रेजे तदाधिकम् ॥४२॥ इक्ष्वाकुक्षत्रियज्येष्ठज्ञातिज्ञा लोकबन्धुना । भूमौ वृषमनाथेन स्थापितास्तेऽत्र रक्षणे ॥४३॥ करवः करुदेशेशो उग्रास्ते चोग्रशासनाः । न्यायेन पालनाद् मोजाः प्रजानामपरे मताः ॥४४॥ राजानश्च तथैवान्ये जाताः प्रकृतिरञ्जनाः । श्रेयःलोमप्रमाद्यैस्तैः कुरुपुत्रैस्तु भूरभात् ॥४५॥ दिव्यान् भोगान् सुरानीतान भुञानस्य जगद्गुरोः । पूर्वलक्षास्त्र्यशीतिश्च जग्मुराजन्मनस्ततः ॥४६॥ सोऽथ नीलाअसां दृष्ट्वा नृत्यन्तीमिन्द्रनर्तकीम् । बोधस्याभिनिबोधस्य निर्विवेदोपयोगतः ॥४७॥ ये रागहेतवो बाह्या भावाः प्रागभवन भुवि । ते स्युरन्तर्निमित्तस्य शमे प्रशमहेतवः ॥४८॥ य एव विषया रम्या मतिविभ्रमकारिणः । प्रशमानुगुणे काले त एव स्युः शमावहाः ॥४९॥ स दध्यौ च स्वयं बुद्धौ व्यावृत्तविषयस्पृहः । चिरं भोगसमासक्त्या लजितात्मात्मनात्मनः ॥५०॥ अहो परमवैचित्र्यं संसारस्य शरीरिणाम् । यत्र कर्मविधेयानामन्ये यान्ति विधेयताम् ॥५५॥ सद्भावं दर्शयन्तीयमतिनृत्यति नर्तकी । हावमावरसप्रायं विचित्राभिनयाङ्गिका ॥५२॥ तोषिते मयि नृत्येन शक्रः स्यात् किल तोषितः । ततस्तु सुखितामेषा संमोहादतिमन्यते ॥५३॥
व्यापारके योगसे वैश्य और शिल्प आदिके सम्बन्धसे शूद्र कहलाये ॥३९।। उस समय असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा प्रजाने वास्तविक सुख प्राप्त किया और अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उसने उस युगको कृतयुग कहा ॥४०॥ उसी समय इन्द्र सहित समस्त देवोंने आकर तथा भगवान् वृषभदेवका राज्याभिषेक कर प्रजाको परम सुखी किया ॥४१॥ उस समय विनयी मनुष्योंसे व्याप्त अयोध्या, विनीता और साकेता नामसे प्रसिद्ध, भगवान्की जन्मपुरी अधिक सुशोभित हो रही थी ॥४२॥ जो इक्ष्वाकु क्षत्रियोंमें वृद्ध तथा जाति व्यवहारके जाननेवाले थे, उन्हें लोकबन्धु भगवान् वृषभदेवने यहाँ रक्षाके कार्यमें नियुक्त किया ॥४३॥ जो कुरु देशके स्वामी थे वे कुरु, जिनका शासन उग्र-कठोर था वे उग्र और जो न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करते थे वे भोज कहलाये ॥४४॥ इनके सिवाय प्रजाको हर्षित करने वाले अनेक राजा और भी बनाये गये । उस समय श्रेयान्स तथा सोमप्रभ आदि कुरुवंशी राजाओंसे यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥४५।। तदनन्तर देवोपनीत दिव्य भोगोंको भोगते हुए भगवान्के जन्मसे लेकर तेरासी लाख पूर्व व्यतीत हो गये ॥४६॥
अथानन्तर किसी समय नत्य करती हई इन्द्रकी नीलांजसा नामक नर्तकीको देख. मतिज्ञानका उस ओर उपयोग जानेसे भगवान ऋषभदेव विरक्त हो गये ॥४७॥ इस संसार में जो पदार्थ पहले रागके कारण थे वे ही पदार्थ अब अन्तरंग निमित्तके शान्त हो जानेपर शान्तिके कारण हो गये ॥४८॥ जो विषय पहले बुद्धिमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाले थे वे ही विषय अब शान्तिके अनुकूल समयके आनेपर शान्तिके उत्पादक हो गये ॥४९॥ जिनकी भोगाभिलाषा दूर हो चुकी थी, तथा चिरकाल तक भोगोंमें आसक्त रहने के कारण जिनकी आत्मा स्वयं अपने आपसे लज्जित हो रही थी ऐसे भगवान् वृषभदेव अपने मन में विचार करने लगे कि अहो ! संसारके जीवोंकी बड़ी विचित्रता देखो, इस संसारके जीव स्वयं कर्मोके आधीन हैं और दूसरे जीव उनकी आधीनताको प्राप्त हो रहे हैं ॥५०-५१।। अभिनयके विविध अंगों से युक्त यह नर्तकी समीचीन भावको दिखाती हुई हाव-भाव तथा रसपूर्वक इस अभिप्रायसे अधिक नृत्य कर रही है कि मेरे नृत्यसे भगवान् प्रसन्न होंगे, उनके प्रसन्न होनेपर इन्द्र प्रसन्न होगा और इन्द्रकी प्रसन्नतासे मैं अधिक सुखी हो सकूँगी। १. ज्येष्ठा ज्ञातिज्ञा म., ज्येष्ठज्ञातिना क.। २. कुरुदेशेऽसावुग्रस्ते म.। ३. -रभूत् म.। ४. नीलजसां म.. ५. बोधस्यापि म. । ६. विधीयतां म. । ७. नृत्तेव म.। २२
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हरिवंशपुराणे
धिग जन्तोः परतन्त्रस्य सुखानुभवनस्पृहाम् । पराराधनसक्तस्य यन्मनः सतताकुलम् ॥५४॥ यत्स्वतन्त्राभिमानस्य सुखं तदपि किं सुखम् । स्वकर्मपरतन्त्रस्य भोगतृष्णाकुलात्मनः ॥ ५५ ॥ आत्माधीनं यदत्यन्तमात्माधीनस्य यत्सुखम् । नेन्द्रियार्थपराधीनं पराधीनस्य कर्मभिः ॥५६॥ नानन्तेनापि कालेन नृसुरासुरभोगकैः । तृप्तिर्जीवस्य संसारे नद्योचैरिव वारिधेः ॥५७॥ महाबलस्य विद्येशो ललिताङ्गस्य नाकिनः । वज्रजङ्घनरेन्द्रस्य तथोत्तरकुरुस्थितेः ॥ ५८ ॥ श्रीधरस्य सुरेशस्य सुविधेरच्युतस्थितेः । वज्रनाभेश्व सर्वार्थसिद्धिदेवस्य पश्यतः ॥ ५९ ॥ न तृतिस्तेरभूद् भोगैर्दिव्यैश्विरनिषेवितैः । यस्य तस्याद्य किं सा स्यात् सुलभैर्विपुलैरपि ॥ ६०|| तस्मात् सांसारिकं सौख्यं त्यक्त्वान्ते दुःखदूषितम् । मोक्षसौख्यपरिप्राप्त्यै प्रविशामि तपोवनम् ॥ ६१ ॥ त्रिज्ञानोपचितो राज्ये स्थितोऽहमितरो यथा । कालोपेक्षणमेतद्धि कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ६२ ॥ ज्ञातपूर्वभवे तस्मिन्निति ध्यानपरे जिने । ब्रह्मलोकालया ज्ञात्वा लौकान्तिकसुरास्तदा ||६३ ॥ कुर्वाणश्चन्द्रसंकाशाश्रन्दाकीर्णमिवाम्बरम् । नत्वा सारस्वतादित्यप्रमुखाः प्रोचुरीश्वरम् ॥ ६४ ॥ साधु नाथ ! यथाख्यातं स्वपरार्थहितं तथा । क्रियतां वर्तते कालो धर्मतीर्थप्रवर्तने ॥६५॥ चतुर्गतिमहादुर्गे दिग्मूढस्य प्रभो दृढम् । मार्ग दर्शय लोकस्य मोक्षस्थानप्रवेशकम् ॥६६॥ विच्छिन्न संप्रदायस्य मन्त्रस्येव चिरं प्रभो । सिद्धिमार्गस्य विश्वेश ! कुरु द्योतनमुद्यतः ॥६७॥
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परन्तु यह भ्रान्तिवश ऐसा मान रही है ।। ५२-५३ ॥ पराधीन प्राणीकी जो सुखोपभोगकी इच्छा है उसे धिक्कार है क्योंकि पराधीन मनुष्यका मन निरन्तर आकुल रहता है ||५४ || और अपने आपको स्वतन्त्र माननेवालेका जो सुख है वह भी क्या सुख है ? क्योंकि वह भी तो अपने कर्मों के परतन्त्र है तथा भोगों की तृष्णासे उसकी आत्मा व्याकुल रहती है ||५५ || आत्माधीन मनुष्यका जो सुख है वह आत्मा के ही आधीन होनेसे अन्तातीत है और कर्माधीन मनुष्यका सुख इन्द्रियविषयों के आधीन होनेसे अन्तातीत नहीं है ||५६ || जिस प्रकार नदियोंके प्रवाहसे समुद्रकी तृप्ति नहीं होती उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य सुर तथा असुरोंके सुखोंसे अनन्तकालमें भी जीवको तृप्ति नहीं हो सकती ॥५७॥ | मैं पहले विद्याधरोंका राजा महाबल था, फिर ललितांग देव हुआ, फिर वज्रजंघ राजा हुआ, फिर उत्तरकुरुमें आर्य हुआ, फिर श्रीधर देव हुआ, फिर सुविधि राजा हुआ, फिर अच्युतेन्द्र हुआ, फिर वज्रनाभि हुआ और फिर सर्वार्थसिद्धिका देव हुआ । चिरकाल तक भोगे हुए उन दिव्य भोगोंसे जिसे उस समय तृप्ति नहीं हुई उसे आज भले ही जो सुलभ और अधिक हों इन भोगोंसे क्या तृप्ति हो सकती है ? ।। ५८- ६० ।। इसलिए जो अन्तमें दुःखसे दूषित है ऐसे सांसारिक सुखको छोड़कर मैं मोक्ष सुखकी प्राप्ति के लिए तपोवनमें प्रवेश करता हूँ ॥ ६१ ॥ हाय, मैं मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंसे युक्त होकर भी साधारण मनुष्य के समान राज्यमें स्थित रहा; यह मेरी समयकी उपेक्षा ही है अर्थात् मैंने व्यर्थं बीतते हुए समयकी ओर दृष्टि नहीं दी । यथार्थ में समयका उल्लंघन करना कठिन है - जिस समय जो जैसा होनेवाला है वैसा ही होता है ||६२ ॥ पूर्वं भवोंको जाननेवाले जिनेन्द्र भगवान् जब इस प्रकारका ध्यान कर रहे थे तब ब्रह्मलोक के वासी सारस्वत, आदित्य आदि लोकान्तिक देव यह ज्ञात कर यहाँ आये । वे चन्द्रमाके समान थे अतः आकाशको चन्द्रमाओंसे व्याप्त जैसा करते हुए आये और नमस्कार कर भगवान् से बोले ||६३-६४ ।। हे नाथ ! ठीक है, जिससे स्वपर कल्याण हो वही कीजिए । धर्म- तीर्थंके प्रवर्तनका यही समय है ||६५ || हे प्रभो ! यह संसार चतुर्गतिरूप महावन में दिशाभ्रान्त हो रहा है इसे आप मोक्ष-स्थान में प्रवेश करानेवाला मार्ग दिखलाइए || ६६ || हे प्रभो ! हे जगदीश्वर ! मन्त्रकी तरह
१. सुरभ्रानुवनस्पृहं (?) म । २. तदिन्द्रियार्थपराधीन - म । ३. विद्यानाम् ईट् विद्येट् तस्य । ४. विज्ञानोपचिते म. । ५. पारम्पर्येणोपदेशः संप्रदायो गुरुक्रम इत्यभिधानात् ( क. टि. ) ।
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नवमः सर्गः
दुःखत्रय महावर्त्त दोषत्रयमहोरगे । भ्रमतां मव भर्तस्त्वं कर्णधारो मवोदधौ ॥ ६८॥ स्वं संसारमहाचक्राद्भ्रमतो वेगशालिनः । उपदेशकरेणाशु विश्वमुत्तारय प्रभो ॥ ६९॥ विश्रमन्वधुना गया सन्तस्त्वदर्शिताध्वना । ध्वस्त जन्मश्रमा नित्यसौख्ये त्रैलोक्यमूर्धनि ॥७०॥ कोर्त्या लौकान्तिकैर्वाचः स्वयंवृद्धस्य तस्य ताः । पूँजार्थमेव संजाताः पत्युरापो यथा ह्यपाम् ॥७१॥ सुत्रामाद्यैश्च संप्राप्तैश्चतुर्विधसुरैर्नतैः । प्रोक्तं लौकान्तिकैः प्राक्तं यत्तदेव मुहुर्मुहुः ॥ ७२ ॥ ऋषभोऽभात् स्वयंव्रुद्धो बोधितो विबुधैः करैः । मानोः प्रबुद्धपद्मौत्रो यथा पद्ममहाहृदः ॥७३॥ धीरपुत्रशतस्यासौ प्रविभक्तवसुंधरः । कृती दशशतस्यैव कराणां रविरावभौ ॥ ७४ ॥ अभिषिक्तस्ततो देवैः क्षीरार्णवजलैर्जिनः । दिग्धो गन्धैर्व रैर्वस्त्रैर्भूषामाल्यैर्विभूषितः ॥ ७५॥ दत्तास्थानो नृपैर्देवैर्वृतोऽसान्मणिभूषणैः । पूर्वापराय तैर्मेरुर्यथाऽसौ कुलभूधरैः ॥ ७६॥ अथ वैश्रवणो दिव्यां निर्ममे शिविकां नवाम् । नाम्ना सुदर्शनां भूरिशोभयाऽपि सुदर्शनाम् ॥ ७७ ॥ ताराभरस्नजातीनां प्रमाभिरतिभास्वरा । मण्डला कृतिशुभ्राभ्रधवलातपवारणा ॥ ७८ ॥
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चिरकालसे जिसकी परम्परा टूट चुकी है ऐसे मोक्षमार्गका आप फिरसे प्रकाश कीजिए || ६७ ॥ हे स्वामिन्! जो जन्म, जरा, मरण इन तीन दुःखरूपी भँवरोंसे युक्त है, तथा राग, द्वेष, मोह ये तीन दोषरूपी बड़े-बड़े सर्प जिसमें निवास कर रहे हैं ऐसे इस संसाररूपी सागर में भ्रमण करनेवाले -- गोता खानेवाले जीवों के लिए आप कर्णधार होइए ||६८|| हे प्रभो ! आप उपदेशरूपी हाथके द्वारा इस वेगशाली घूमते हुए संसाररूपी महाचक्र से सबको उतारो - सबकी रक्षा करो ||६९ || इस समय सत्पुरुष आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्गसे चलकर तथा जन्म सम्बन्धी थकावटको दूर कर नित्य सुख से सम्पन्न तीन लोकके शिखरपर विश्राम करें || ७२ || जिस प्रकार समुद्र के लिए चढ़ाया हुआ जल केवल उसकी पूजाके लिए है उसी प्रकार स्वयं ही प्रतिबोधको प्राप्त हुए भगवान् के लिए
कान्तिक देवोंके वचन केवल पूजाके लिए ही थे । भावार्थ - लोकान्तिक देवोंके उपदेशके पहले ही भगवान् विरक्त हो चुके थे इसलिए उनके वचन केवल नियोग पूर्ति के लिए ही थे || ७१ ॥ उसी समय इन्द्रको आदि लेकर चारों निकायके देव आ पहुँचे । उन्होंने भी नमस्कार कर वही कहा जो कि लौकान्तिक देवोंने इनके पूर्व बार-बार कहा था ॥ ७२ ॥ देवोंके द्वारा सम्बोधित स्वयंबुद्ध भगवान् ऋषभदेव, उस समय, जिसका कमल -समूह सूर्यको किरणोंसे खिल उठा है उस महासरोवर के समान सुशोभित हो रहे थे ||७३ || धीर-वीर सौ पुत्रोंके लिए जिन्होंने पृथिवीका विभाग कर दिया था ऐसे कृतकृत्य भगवान् उस समय, एक हजार किरणोंके लिए अपना तेज वितरण करनेवाले सूर्यके समान सुशोभित हो रहे थे ||७४ || तदनन्तर देवोंने क्षोर समुद्रके जलसे जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक किया, उत्तम गन्धसे लेपन किया और उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण तथा मालाओं से उन्हें विभूपित किया || ७५ || सभा में विराजमान तथा मणिमय आभूषणोंसे विभूषित देव और राजाओंसे घिरे हुए भगवान् उस समय पूर्व-पश्चिम लम्बे कुलाचलोंसे घिरे हुए सुमेरुके समान सुशोभित हो रहे थे ||७६ ||
अथानन्तर कुबेर ने एक नूतन दिव्य पालकी बनायी जो नामकी अपेक्षा सुदर्शना थी और अत्यधिक शोभासे भी सुदर्शना - सुन्दर थी || ७७ || वह पालको आकाश अथवा उत्तम स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार आकाश ( ताराभरत्नजातीनां प्रभाभिरतिभास्वरा ) तारा और श्रेष्ठ नक्षत्रों की प्रभासे अतिशय देदीप्यमान होता है, तथा उत्तम स्त्री नेत्रोंको पुतलियों और नक्षत्रोंके समान देदीप्यमान रत्नोंकी प्रभासे उज्ज्वल होती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओं के समान आभावाले रत्नोंकी प्रभासे अतिशय देदीप्यमान थी। जिस प्रकार आकाश
१. मुत्तरय म. । २. विश्राम म. । ३. नित्यं सौख्ये म । ४. पूर्वार्थमेव म. । ५. सुरैः म । ६. रभून्मणि-म. ।
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हरिवंशपुराणे
चलच्चामरसंघातहंसमालांशुकोज्ज्वला । आदर्शमण्डलाखण्डदीप्ति दिङ्मुखमण्डला ॥७९॥ बुबुदापाण्डुगण्डान्ता मूर्धचन्द्रालिकाकृतिः । संध्याभ्रखण्डसंरक्तविस्फुरद्विद्रुमाधरा ॥८०॥ पतज्जललवस्वच्छमुक्तादशनशोभिता । शुभकेतुपताकालीलीला भुजलतोज्ज्वला ॥ ८१ ॥ दिङ्नागनासिका जङ्घारम्भास्तम्भोरुशोभिनी | चित्रवीतारकालोका जगतीजघनस्थला ||८२॥
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( मण्डलाकृतिशुभ्राभ्र-धवलातपवारणा ) मण्डलाकार सफेद मेघोंसे उज्ज्वल तथा सन्तापको दूर करनेवाला होता है और उत्तम स्त्री मण्डलाकार सफेद मेघावलीके समान उज्ज्वल और सन्तापको हरनेवाली होती है; उसी प्रकार वह पालकी भी मण्डलाकार सफेद मेघके समान उज्ज्वल छत्रसे युक्त थी ||७८ || जिस प्रकार आकाश ( चलच्चामरसंघात - हंसमालांशुकोज्ज्वला ) चंचल चमरोंके समूह के समान उड़ती हुई हंसमालासे देदीप्यमान तथा उज्ज्वल होता है, और उत्तम स्त्री चंचल चमरोंके समूह तथा हंसपंक्तिके समान सफेद वस्त्रोंसे युक्त होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी हंसमाला के समान चंचल चमर और वस्त्रोंसे उज्ज्वल थी । जिस प्रकार आकाश ( आदर्शमण्डलाखण्डदीप्तिदिङ्मुखमण्डला ) दर्पण तलके समान अखण्ड दीप्ति से युक्त दिशाओंसे सहित होता है, और उत्तम स्त्रीका मुखमण्डल दर्पण तलकी अखण्ड दीप्तिसे देदीप्यमान दिशाके समान भास्वर होता है उसी प्रकार वह पालकी भी दर्पणों के समूहसे समस्त दिशाओंको अखंण्ड प्रतिभासित करनेवाली थी ||७९ || जिस प्रकार आकाश ( बुदबुदापाण्डुगण्डान्ता ) जलके बबूलोंके समान सफेद प्रदेशों से युक्त होता है, और उत्तम स्त्रीके कपोल चन्दनकी बिन्दुओंसे सफेद होते हैं उसी प्रकार उस पालकीके छज्जोंका चौगिर्द प्रदेश भी बुदबुदाकार मणिमय गोलकोंसे सफेद था । जिस प्रकार आकाश ( मूर्धचन्द्रालिकाकृति : ) ऊपर विद्यमान चन्द्रमासे युक्त होता है और उत्तम स्त्री मस्तक तथा चन्द्राकार ललाटसे युक्त होती है उसी प्रकार वह पालकी भी ऊपर तनी हुई चाँदनी से सहित थी। जिस प्रकार आकाश ( संध्याभ्रखण्ड संरक्त-विस्फुरद्विद्रुमाधरा ) लाल-लाल चमकते हुए मूंगोंके समान सन्ध्याके लाल-लाल मेघखण्डोंको धारण करता है और उत्तम स्त्रीका अधरोष्ठ सन्ध्याकालीन मेघखण्ड तथा चमकते हुए लाल मूँगेके समान होता है, उसी प्रकार वह पालकी भी सन्ध्याकालीन मेघखण्ड के समान लाल चमकदार मूँगाको धारण कर रही थी ||८०|| जिस प्रकार आकाश ( पतज्जललवस्वच्छ मुक्ता दशनशोभिता ) स्वच्छ मोतियों तथा दाँतोंके समान उज्ज्वल पड़ती हुई जलकी बूँदोंसे शोभित होता है और उत्तम स्त्री पड़ते हुए जलकण तथा उज्ज्वल मोतियोंके समान दाँतोंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी पड़ते हुए जलकणोंके समान स्वच्छ मोतियोंके जड़ावसे सुशोभित थी। जिस प्रकार आकाश ( शुभ्र केतुपताकाली लीलाभुजलतोज्ज्वला ) सुन्दर भुजलताओंके समान केतुके शुभ विमानपर फहराती हुई पताकाओं की पंक्तिसे सुशोभित होती है और उत्तम स्त्री शुभध्वजदण्डसे युक्त पताकाओं की पंक्ति के समान चंचल भुजलताओंसे उज्ज्वल होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी उत्तम ध्वजापताकाओं और सुन्दर भुजाओंकी तुलना करनेवाली लताओंसे सुशोभित थी ||२१|| जिस प्रकार आकाश ( दिग्नागनासिकाजङ्घारम्भास्तम्भोरुशालिनी ) दिग्गजों की सूँड़ों और केलाके स्तम्भोंके समान सुशोभित उनकी मोटी-मोटी जंघोंसे अत्यधिक शोभित होता है और उत्तम स्त्री दिग्गजों की सूँड़के समान जंघाओं और केलाके स्तम्भोंके समान सुन्दर ऊरुओंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी दिग्गजोंको सूँड़ों और स्त्रियोंकी जंघाओंकी समानता करनेवाले के लेके स्तम्भोंसे अत्यधिक सुशोभित थी। जिस प्रकार आकाश (चित्रस्त्रीतारकालोका) चित्रा नक्षत्रके आलोकसे युक्त होता है, और उत्तम स्त्री चित्रा नक्षत्र तथा ताराके समान १. दीप्त म. । २. वासिता म. ।
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नवमः सर्गः
वारिधारास्फुरद्वाराशुम्भत्कुम्भपयोधरा । तारापुष्पवती रम्या सुनक्षत्रबृहत्फला ॥८३॥ सुनीलघनशाsसौ कुबेरेण सुदर्शना । यौरिवोत्तमयोषेव कौशिकाये प्रदर्शिता ॥ ८४ ॥ अथ विज्ञापितो नाथः सुरनाथेन हर्षिणा । आपृच्छ्य पितृपुत्रादीन् परिवर्गं च संश्रितम् ॥८५॥ गृहीतचामरच्छत्रैः सेव्यमानः सुरेश्वरैः । स द्वात्रिंशत्पदानुर्व्या पद्भ्यामेव प्रचक्रमे ॥ ८६ ॥ लोकाञ्जलिपुटालोकशब्दाशीर्वादवन्दितः । शिविकामारुरोहेशः सवितेवोदयश्रियम् ॥८७॥ क्षितेः क्षितीश्वरोत्क्षिप्तां खमुत्पत्य सुरेश्वराः । संनाहिनः 'समूहुस्तां शिरसाज्ञामिवेशितुः ॥ ८८ ॥ ततः शङ्खाः सभेरीका मुखरीकृत दिङ्मुखाः । दध्वनु वंशवीणाश्च पटहा बहुनिस्वनाः ॥ ८९ ॥ नानानीकैः सुरैरूष्वं चतुरङ्गबलैरधः । राजक्षत्रोग्रभोजाद्यैर्व्रजद्भिर्व्याप्तमीश्वरैः ॥९०॥ ऊर्ध्व नवरसा जाता नृत्यदप्सरसां स्फुटाः । नाभेयेन विमुक्तानामधः शोकरसोऽभवत् ॥९१॥
देदीप्यमान होती है उसी प्रकार वह पालकी भी चित्रा नक्षत्र और ताराके समान प्रकाशसे युक्त थी। जिस प्रकार आकाश ( जगतीजघनस्थला ) पृथिवीरूपी मध्यम स्थलसे सहित होती है और उत्तम स्त्री पृथिवीके समान स्थूल नितम्ब स्थलसे युक्त होती है, उसी प्रकार वह पालकी भी मध्यलोकमें विराजमान थी ||८२॥ जिस प्रकार आकाश ( वारिधारास्फुरद्धाराशुम्भत्कुम्भपयोधरा ) जलसे भरे एवं पड़ती हुई धारोंसे सुशोभित घड़ोंके समान मेघोंसे युक्त होता है और उत्तम स्त्रीके स्तनकलश जलधाराके समान शोभायमान हारसे सुशोभित रहते हैं उसी प्रकार वह पालकी भी जलधाराके समान सुशोभित हारों - मणिमालाओं से अलंकृत घड़ों में जलको धारण करनेवाली थीजलसे भरे घड़ों से युक्त थी । जिस प्रकार आकाश ( तारापुष्पवती रम्या) फूलों के समान ताराओंसे युक्त एवं मनोहर होता है और उत्तम तारोंके समान फूलोंसे युक्त एवं मनोहर रहती है उसी प्रकार वह पालकी भी ताराओंके समान चमकीले फूलोंसे युक्त और मनोहर थी। जिस प्रकार आकाश ( सुनक्षत्रबृहत्फला ) बड़े-बड़े फलोंके समान उत्तम नक्षत्रोंसे युक्त होता है और उत्तम स्त्री अच्छे नक्षत्रों के विशाल परिणामसे सहित होती है उसी प्रकार वह पालकी भी उत्तम नक्षत्रों के समान बड़े-बड़े फलोंसे युक्त थी || ८३ || और जिस प्रकार आकाश ( सुनीलघनकेशा ) केशों के समान अत्यन्त नीले मेघोंसे युक्त रहता है और उत्तम स्त्री अत्यन्त काले एवं सघन केशों से युक्त होती है उसी प्रकार वह पालकी भी सघन केशोंके समान उत्तम नील मणियोंसे खचित थी । ऐसी वह सुदर्शना पालकी कुबेरने इन्द्रके लिए दिखलायी ||८४||
अथानन्तर हर्षसे भरे हुए इन्द्रने पालकीपर सवार होनेके लिए भगवान् से प्रार्थना की । तब भगवान् अपने माता-पिता, पुत्र तथा आश्रित परिजनोंसे पूछकर बत्तीस कदम पृथिवीपर पैदल ही चले । उस समय चमर तथा छत्र लेकर इन्द्र उनकी सेवा कर रहे थे । ८५-८६ ।। तदनन्तर लोगोंने हाथ जोड़कर जय-जयकार करते हुए जिन्हें नमस्कार किया था और माता-पिता आदि गुरुजनोंने जिन्हें आशीर्वाद दिया था ऐसे भगवान् ऋषभदेव पालकीपर उस तरह आरूढ़ हुए जिस तरह कि सूर्य उदयकालीन लक्ष्मीपर आरूढ़ होता है ॥८७॥ उस पालकीको पृथिवीसे तो राजाओंने उठाया पर बादमें तैयार खड़े हुए इन्द्रोंने उसे आकाश में उछलकर इस प्रकार धारण कर लिया जिस प्रकार कि प्रभुकी आज्ञाको शिरसे धारण करते हैं ||८८|| तदनन्तर दिशाओंको मुखरित करनेवाले शंख, भेरी, बाँसुरी, वीणा तथा जोरदार शब्द करनेवाले नगाड़े शब्द करने लगे ||८९|| उस समय ऊपर आकाश तो देवोंकी नाना प्रकारको चतुरंग सेनाओंसे व्याप्त था और नीचे पृथिवीतल साथ-साथ चलनेवाले अनेक राज - क्षत्रियों तथा उग्रवंशी, भोजवंशी आदि राजाओंसे व्याप्त था ||९०|| ऊपर आकाशमें नृत्य करनेवाली अप्सराओंके शृंगारादि नो रस प्रकट हो रहे १. इन्द्राय । २. समायु: म. । ३. किमुक्तानाम् म. ।
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हरिवंशपुराणे
सेव्यमानः सुरैरीशः सिद्धार्थं वनमाप सः । अशोकचम्पकायुग्मच्छदचूत वटैश्चितम् ॥ ९२ ॥ अवतीर्णः स सिद्ध्यर्थी शिविकायाः स्वयं यथा । देवलोकशिरस्थाया दिवः सर्वार्थसिद्धितः ॥ ९३ ॥ ततः प्राह प्रजास्तत्र शोकं त्यजत भोः प्रजाः । संयोगो हि वियोगाय स्वदेहैरपि देहिनाम् || १४ || राजा वो रक्षणे दक्षः स्थापितो भरतो मया । स्वधर्मवृत्तिभिर्नित्यं सेव्यतां सेव्यतां श्रितः ॥९५॥ एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन् । प्रदेशः स प्रयागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ।। ९६ ।। आपृच्छय ज्ञातिवगं च राजकं च नतं विभुः । त्यक्त्वाऽन्तर्बहिः संगं संयमं प्रतिपन्नवान् ॥ ९७ ॥ पञ्चमुष्टिभिरुरखातान् विडौजा' मूर्धजान् विभोः । प्रतिगृह्य कृतान् मूर्ध्नि चिक्षेप क्षीरवारिधौ ॥९८॥ जाते निःक्रमणे जैने कृत्वा पूजां सुरासुराः । यथायथं ययुर्नत्वा चिन्ताक्रान्ताश्च मानवाः ।। ९९ । राज क्षत्रोप्रभोजाद्याः स्वामिभक्ती महानृपाः । चतुःसहस्रसंख्याता मुख्या नाग्न्यस्थितिं श्रिताः ॥ १००॥ कायोत्सर्गेण षण्मासान् परीषहसहो जिनः । महातपाश्चतुर्ज्ञानी तस्थौ मौनी गिरिस्थिरः ||१०१ ॥ नृपास्तेऽपि तथा तस्थुः कायोत्सर्गेण निश्चलाः । परमार्थमजानन्तः स्वामिच्छन्दानुवर्तिनः ॥ १०२॥ भृत्यपुत्रकलत्राणि क्षुत्पिपासा कुलात्मनाम् । अद्य श्वो नोऽन्नमादाय समेष्यन्तीत्यमी विदुः ॥ १०३ ॥
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थे और नीचे पृथिवीतलपर भगवान्के द्वारा छोड़े हुए माता-पिता आदिके शोक-रस प्रकट हो रहा था ॥ ९१ ॥ अनेक देवोंसे सेवित भगवान् अशोक, चम्पा, सप्तपर्ण, आम और वट वृक्षोंसे व्याप्त सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे ||१२|| सिद्धि अर्थात् मोक्षकी इच्छा करनेवाले भगवान् वहाँ पालकीसे उस प्रकार उतरे जिस प्रकार कि पहले स्वर्ग लोकके शिखरपर स्थित सर्वार्थसिद्धि विमानसे उतरे थे ||९३|| तदनन्तर भगवान् ने प्रजासे कहा कि हे प्रजाजनो ! तुम लोग शोक छोड़ो क्योंकि प्राणियों का अन्य वस्तुओं की बात जाने दो, अपने शरीर के साथ भी जो संयोग है वह वियोगके ही लिए है । भावार्थ - जब शरीरका भी वियोग हो जाता है तब अन्य वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ? ॥ ४॥ अतिशय चतुर भरतको मैंने आप लोगोंकी रक्षा करनेमें नियुक्त किया है । आप लोग निरन्तर अपने धर्म में स्थिर रहते हुए उसकी सेवा करें, वह आपकी सेवाका पात्र है ||१५|| भगवान्के ऐसा कहने के बाद प्रजाने उनकी पूजा की। प्रजाने जिस स्थानपर भगवान् की पूजा की वह स्थान आगे चलकर पूजाके कारण प्रयाग इस नामको प्राप्त हुआ || ९६ || प्रभुने कुटुम्बके लोगों तथा नम्रीभूत राजाओंसे पूछकर अन्तरंग, बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्यागकर संयम धारण कर लिया ॥९७॥ इन्द्र पंचमुट्ठियोंके द्वारा उखाड़े हुए भगवान् के शिरके बालोंको उठाकर पिटारे में रख लिया और 'इन्हें भगवान्ने शिरपर धारण किया था।' यह विचारकर बड़े आदरसे उन्हें क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया || १८ || इस प्रकार दीक्षा कल्याणक होनेपर समस्त सुर और असुर भगवान्की पूजा कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानोंपर चले गये । साथ ही चिन्तासे भरे हुए मनुष्य भी नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानोंपर गये ||१९|| उस समय इक्ष्वाकु, कुरु, उग्र तथा भोज आदि वंशोंके चार हजार बड़े-बड़े मुख्य स्वामिभक्त राजाओंने भी नग्नदीक्षा धारण की ||१००|| परीषहों को सहनेवाले, महातपस्वी, चार ज्ञानके धारक और पर्वतके समान निश्चल भगवान् छह माहका कायोत्सर्गं लेकर मोनसे विराजमान हुए || १०१ || साथ ही वे अन्य राजा भी जो परमार्थंको नहीं जानते थे मात्र स्वामीकी इच्छानुसार काम करना चाहते थे, निश्चल हो कायोत्सगंसे स्थित हो गये ||१०२ || जब उनकी आत्मा भूख और प्याससे व्याकुल हो उठी तब वे विचार करने लगे कि हमारे नौकर, पुत्र अथवा स्त्रियाँ हमारे लिए भोजन लेकर आज-कलमें
१. सिद्धार्थी म । २. संयोगी म. । ३. सततं श्रियः म । ४. प्रजागारो म । ५. इन्द्रः । ६. स्वामिभक्त महानृपाः म. । ७ नः अस्माकम् ।
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नवमः सर्गः
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ततः कच्छमहाकच्छमरीच्यग्रेसरास्तके । षड्मासाभ्यन्तरे भग्नाः क्षुधाधुनपरीषहैः ॥१०॥ तेषां क्षुत्क्षामगात्राणां भ्रमती दृष्टिरस्थिरा । भ्रान्त दृष्टेमविष्यन्त्याः पूर्वरङ्गमिवाकरोत् ।।१०५॥ दृष्टं तैमिरिकं कैश्चिदन्धकारेऽपि तादृशे । स्पर्धयेव हि चन्द्राः शतचन्द्र नभस्तलम् ॥१०६॥ श्रतं शब्दात्मक विश्वं भावयद्भिरिवापरैः । स्वशब्दलिङ्गमाकाशमिति वैशेषिकागमम् ॥१०॥ पतद्भिरपि तत्रान्यैर्न मनागपि चेतितम् । अचिस्वभावमात्मानमनुकर्तुमिवोचतैः ॥१०८॥ चेतयन्तोऽपि तत्रान्ये स्वरमासितुमप्यलम् । निरीहास्मतया जज्ञः स्वां सांख्य पुरुषस्थितिम् ।।१०९॥ केचिन निरन्वयध्वस्तबुद्धयो नैव सस्मरुः । पूर्वापरस्य मूर्छार्ताः क्षणभङ्गानुवर्तिनः ॥११०॥ इति ते क्षुत्पिपासाद्यैरतिव्याकुलबुद्धयः । कायोत्सर्जनमुत्सृज्य दुद्रुवुश्च शनैः शनैः ।।१११॥ स्वामिनं कौलपुत्रांश्च मर्यादां चानुवर्तते । तावदेव जनो यावद् स्वशरीरस्य निर्वृतिः ॥११२॥ भक्षणं फलमूलादेरपा पानावगाहनम् । कुर्वतां नग्नरूपेण स्वयंप्राहेण भूभृताम् ॥११३॥ भो भो माऽनेन रूपेण स्वयं ग्राहविरोधिना । प्रवर्तध्वमिति व्यक्ताः खेऽभवन्मरुतां गिरः ॥११४ ततस्ते त्रपितास्त्रस्ता दिशो वीक्ष्य महीक्षितः । चक्रुर्वेषपरावतं कुशचीवरवल्कलः ॥११५॥ आते ही होंगे ॥१०३।। तदनन्तर कच्छ, महाकच्छ और मरीचि जिनमें अग्रसर थे. ऐसे वे कत्रिम मनि छह माहके भीतर ही क्षधा आदि कठिन परोषहोंसे भ्रष्ट हो गये ॥१०४।। भखके कारण जिनके शरीर अत्यन्त कृश हो गये थे ऐसे इन कृत्रिम मुनियोंकी अस्थिर दृष्टि घूमने लगी तथा ऐसी जान पड़ने लगी मानो आगे होनेवालो भ्रान्त दृष्टि (भ्रान्त श्रद्धान) का पूर्वाभ्यास ही कर रही हो ॥१०५।। कितने ही लोगोंने अन्धकारका समूह देखा अर्थात् उनको आँखोंके सामने अन्धकार ही अन्धकार छा गया, उनके नेत्र क्षुधाके कारण चन्द्रमाके समान पाण्डुवर्ण हो गये तथा उन्हें उस अन्धकारके बीच आकाशमें एकके बदले सौ चन्द्रमा दिखाई देने लगे ।।१०६॥ कितने ही लोगोंने समस्त संसारको शब्दमय सुना अर्थात् उनके कानोंके सामने शब्द ही शब्द सुनाई पड़ने लगा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे 'शब्दरूप लक्षणसे सहित आकाश हैं इस वैशेषिक मतके शास्त्रका ही चिन्तन कर रहे थे ।।१०७|| कितने ही लोग जमीनपर गिरने लगे तथा उन्हें कुछ भी चेत नहीं रहा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे आत्माको जड़-स्वभाव करनेके लिए ही उद्यत हुए हों अर्थात् जड़स्वभाव है यह चार्वाकका मत ही प्रचलित करना चाहते हों ।।१०८॥ कितने ही लोगोंको चेत (होश) तो था पर वे स्वच्छन्दता-पूर्वक रहनेके लिए निरीह वृत्तिके कारण अपने आपको सांस्यमत सम्मत पुरुष-जैसी स्थिति बतलाने लगे ।।१०९।। जिनकी बुद्धि निरन्वय नष्ट हो गयी थी तथा जो मोसे दःखी हो रहे थे. ऐसे कितने ही लोगोंको आगे-पीछेका कछ भी स्मरण नहीं रहा, जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे बौद्धोंके क्षणभंगवादका ही अनुकरण कर रहे हों ॥११०॥
इस प्रकार भूख-प्यास आदिसे जिनकी बुद्धि अत्यन्त व्याकुल हो गयी थी ऐसे वे सब कायोत्सर्ग छोड़कर धीरे-धीरे भागने लगे ॥१११॥ सो ठोक ही है क्योंकि जबतक अपने शरीरकी सन्तोषपूर्ण स्थिति रहती है तभी तक मनुष्य स्वामी, कुल, पुत्र और मर्यादाका अनुसरण करता है ॥११२॥ वे राजा नग्नरूपमें रहकर ही फल-मूल आदिका भक्षण तथा जलका पीना और उसमें प्रवेश करना आदि कार्य स्वेच्छासे करनेके लिए उद्यत हुए तो उसी समय आकाशमें देवोंके यह शब्द प्रकट हुए कि स्वयं ग्राहके विरोधी इस नग्नवेषसे आप लोग ऐसो प्रवृत्ति न करें।।११३-११४॥ तदनन्तर देवोंके उक्त शब्द सुनकर वे राजा बड़े लज्जित हुए और भयभीत हो दिशाओंकी ओर देख उन्होंने कुशा, चीवर तथा वल्कल आदिसे नग्नवेश बदल लिया अर्थात् कुशा, चीवर एवं १. द्विचन्द्राक्षः म., ग., ङ. । क्षुधावशाच्चन्द्रवन्नेत्रः (क. टि.)। २. चेतिकं म. । ३. महतां म.।
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हरिवंशपुराणे
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पुनः कृत्वा सुविश्रब्धास्ते दग्धोदरपूरणम् । स्वस्थाः कार्यं विचार्योचुः स्वस्थे चित्ते हि बुद्धयः ॥ ११६ ॥ कोऽभिप्रायः प्रभोरस्य त्यक्तभोगस्य लक्ष्यताम् । नवैहिकफलायेदं चेष्टितं सुष्ठुदुष्करम् ॥११७॥ तथा नेन भो दृष्टापदो विपदो यथा । रत्यरत्योर्विघातेन विषयाइ विषोपमाः ॥ ११८ ॥ सालंकारं परित्यक्तं वसनं व्यसनं यथा । मूलोत्खाताः स्वहस्तेन मूर्धजा वैरिणो यथा ॥ ११९ ॥ शरीरमपि संन्यस्तं संन्यस्ताहारवस्तुना । तदस्याभिमतं किंचिदामुत्रिकफलं भवेत् ॥ १२० ॥ नैष्टिकव्रतमास्थाय स्वामिन्येवं व्यवस्थिते । किं नः कर्तव्यमित्येकं न विद्मः सांप्रतं वयम् ॥ १२१ ॥ निष्क्रान्तानामनेनामा स्वदेशात् प्रतिनिवर्तनम् । नैव पुष्णाति नश्छायामपायबहुलं च तत् ॥ १२२ ॥ न शक्ताश्चरितुं चर्यां यदि नाम वयं विभोः । वनवासित्वसाम्येन किं न कुर्मोऽनुवर्तनम् ॥ १२३ ॥ इति निश्चित्य तेऽन्योन्यं पाण्डुपत्रफलाशिनः । जटावल्कलिनो जातास्तापसा वनवासिनः ॥ १२४ ॥ ॥ यो मरीचिकुमारस्तु नप्ता तप्ततनुर्विमोः । दृष्टवान् जलभावेन तृषामरुमरीचिकाम् ॥ १२५ ॥ जलावगाहनान्यस्य गजस्येव विदाहिनः । मृदवश्च मृदश्चक्रुः शरीरपरिनिर्वृतिम् ॥ १२६ ॥ यत्तन्मान कषायी स काषायं वेषमग्रहीत् । एकदण्डी शुचिर्मुण्डी परिवाब्रत पोषणम् ॥१२७॥ नमिश्च विनमिश्वोभौ भोगयाचनयातुरौ । तावुद्विग्नो विभोग्नौ पादयोर्दुःस्थितौ स्थितौ ॥ १२८ ॥
वृक्षोंको छाल आदि धारण कर नग्न वेष छोड़ दिया ।। ११५ ।। इसके बाद निश्चिन्ततासे अधम उदरकी पूर्ति कर जब वे स्वस्थ हुए तब कार्यका विचारकर परस्पर कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि चित्तके स्वस्थ होनेपर ही बुद्धि उत्पन्न होती है-विचारशक्ति आती है ॥ ११६ ॥
वे कहने लगे कि भगवान्ने समस्त भोगोंको छोड़ दिया है सो इसमें इनका क्या अभिप्राय है। यह ज्ञात किया जाये । ऐहिक फलके लिए तो इनकी यह अतिशय कठिन चेष्टा नहीं हो सकती क्योंकि इन्होंने सम्पत्तियों को विपत्तियोंके समान देखा है, रति और अरतिको नष्ट कर विषयोंको विषके समान समझा है, वस्त्राभूषणको दुःखके समान छोड़ दिया है, शिरके बालोंको शत्रुओंकी तरह अपने हाथसे जड़ से उखाड़ दिया है और आहार-पानीका परित्याग कर दिया है इसलिए शरीरको भी छोड़ा हुआ समझना चाहिए। इससे जान पड़ता है कि इन्हें कोई पारलौकिक फल ही अभिप्रेत होगा ||११७- १२० ।। जबकि भगवान् नैष्ठिक व्रत लेकर इस प्रकार विराजमान हैं - कुछ बोलतेचालते नहीं हैं, तब इस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए, इस एक बातको हम लोग इस समय बिलकुल नहीं जानते ॥ १२१ ॥ हम लोग इनके साथ अपने देशसे निकल आये हैं इसलिए अब लोटकर जाना तो हमारी शोभाको नहीं बढ़ाता। साथ ही लौटकर जाना अनेक बाधाओं कष्टोंसे भरा है || १२२ ॥ | यदि हम भगवान्की चर्याका आचरण करनेके लिए समर्थं नहीं हैं तो क्या वनवासीपनेकी सदृशतासे हम इनका अनुसरण नहीं कर सकते ? भावार्थं - यदि हमसे इनके समान कुछ तपश्चर्या नहीं बनती है तो इनके समान वनमें तो रह सकते हैं || १२३ ।। आपसमें ऐसा निश्चय कर वे भ्रष्ट राजा, पके पत्र और फलोंको खाते हुए जटा और वृक्षोंकी छाल धारण कर वनवासी तापस बन गये ||१२४|| उनमें मरीचि कुमार नामका जो भगवान्का पोता था, प्यास से उसका शरीर सन्तप्त हो रहा था, उसने भ्रान्तिवश मरुस्थलकी मरीचिकाको ही जल समझ लिया तथा उसमें लोटने लगा सो जिस प्रकार जलमें प्रवेश करना सन्तप्त हाथी के शरीरको शान्ति पहुँचाता है उसी प्रकार कोमल मिट्टीने उसके शरीरको कुछ शान्ति पहुँचायो ॥१२५-१२६ ॥ मरीचि बड़ा मानकषायी था इसलिए उसने परिव्राजकों के व्रतको पोषण करनेवाला गेरुआ वेष स्वीकार कर लिया । वह एक दण्ड अपने साथ रखता था, स्नानादिसे अपनेको पवित्र मानता था तथा शिर मुड़ाये रखता था ।। १२७।। इधर जो भोगोंकी याचनासे अतिशय दुःखी थे, भोगोंके अभाव के कारण उद्विग्न थे, १. त्यक्तं । २. स्वदेशान् म. । ३. -ऽनुवर्ततं म.
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नवमः सर्गः
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धूतासनोऽवधिज्ञानात् तद्बुद्धा धरणः फणी । आजगाम मुनेर्भक्त्या मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥१२९॥ विश्वास्य दिव्यरूपोऽसौ भ्रातरौ भ्रातरौ यथा । महाविद्यां ददौ ताभ्यां विद्यालाभो गुरोर्वशात् ॥३०॥ योऽगो विद्याधराधारो विजयाई इतीरितः । सोऽपि ताभ्यां ततो लब्धः किं न स्याद गुरुसेवया ॥१३॥ स नमिर्दक्षिणश्रेण्यां पञ्चाशनगरेश्वरः । विनमिश्चोत्तरश्रेण्यामभूत् षष्टिपुरेश्वरः ॥१३२॥ अध्यशिष्टन्न मिः श्रेष्टं नगरं रथनूपुरम् । नभस्तिलकमन्वथं विनमिः सह बान्धवैः ।।१३३।। विद्याधरजनो धीरों प्राप्य तौ परमेश्वरी । उपरिस्थितमात्मानं भुवनस्याप्यमन्यत ।।१३।। अथासौ प्रतिमास्थोऽपि प्रविश्य भगवान् स्थितः । परीपहाग्निविध्यापिसद्ध्यानजलधौ स्थिरः ॥१३५॥ मत्वेतरमनुष्याणां भवतां च भविष्यताम् । मोक्षाय विजिगीषणां भुक्त्यभावेऽल्पशक्तिताम् ॥१३६॥ धर्मार्थकाममोक्षेषु धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः । पुरुषार्थः स्थितो मुख्यो मोक्षकामार्थसाधनः ॥१३७॥ प्राणाधिष्टानतन्निष्टं शरीरं धर्मसाधनम् । प्राणरधिष्टितः प्राणी प्राणाश्चान्नैरधिष्टिताः ॥१३८॥ गरम्पर्यण धर्मस्य ततोऽन्नमपि साधनम् । प्राणिनामल्पवीर्याणां प्रधानस्थितिकारणम् ॥१३॥ अतस्तस्यानवद्यस्य ग्रहणे विधिमर्थिनाम् । शासनस्थितयेऽन्नस्य दर्शयामीह भारते ॥१४॥
इति ध्यात्वा स्वयंशक्तः स क्षुधादिविनिर्ग्रहे । परार्थ मतिमाधत्त गोचरान्नपरिग्रहे ॥१४१॥ तथा दुःखमय स्थितिमें स्थित थे, ऐसे नमि और विनमि दोनों राजपुत्र भगवान्के चरणोंमें आ लगे॥१२८।। उसी समय जिसका आसन कम्पायमान हआ था ऐसा धरणेन्द्र अवधिज्ञानसे यह समाचार जान जिनेन्द्रकी भक्तिपूर्वक वहाँ आया, सो ठीक ही है क्योंकि मौन सब कार्योंको सिद्ध करनेवाला है ॥१२९|| दिव्यरूपको धारण करनेवाले उस धरणेन्द्रने उन दोनों भाइयों को अपने भाइयोंके समान विश्वास दिलाकर महाविद्या प्रदान की सो ठीक ही है क्योंकि विद्याकी प्राप्ति गुरुसे ही होती है ॥१३०।। और जो विद्याधरोंका निवासभूत विजयार्ध नामका पर्वत है वह भी उन दोनोंने धरणेन्द्रसे प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि गुरुसेवासे क्या नहीं होता है ? ||१३१॥ उनमें तमि दक्षिणश्रेणीके पचास नगरोंका स्वामी हुआ और विनमि उत्तर श्रेणीके साठ नगरोंका अधिपति हुआ ॥१३२॥ नमि अपने बन्धुजनोंके साथ रथनूपुर नामक श्रेष्ठ नगरमें निवास करने लगा और विनमि सार्थक नाम धारण करनेवाले नभस्तिलक नामक नगरमें रहने लगा ॥१३३।। विद्याधर लोग उन धीर-वीर राजाओंको पाकर अपने-आपको संसारसे ऊपर मानने लगे॥१३४।।
अथानन्तर- यद्यपि धीर-वीर भगवान् परोषहरूपी अग्निको बुझानेवाले प्रशस्त ध्यानरूपी सागरमें प्रवेश कर प्रतिमायोगसे विराजमान थे-छह माहसे प्रतिमायोग धारण करनेपर भी आहारके बिना उन्हें कुछ भी आकुलता नहीं थी तो भी 'मोक्ष प्राप्त करनेके लिए कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेको इच्छा करनेवाले जो अन्य मनुष्य वर्तमानमें हैं तथा आगे होंगे आहारके अभावमें उनकी शक्ति क्षीण हो जायेगी' ऐसा मानकर वे विचार करने लगे कि क्षमा आदि लक्षणोंसे युक्त धर्म-पुरुषार्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में मुख्य है, वही मोक्ष, काम और अर्थका साधन है । धर्मका साधन शरीर है और शरीर प्राणोंका आधार होनेसे प्राणोंपर निर्भर है। प्राणी प्राणोंसे अधिष्ठित है अर्थात् प्राणोंके द्वारा जीवित है और प्राण अन्नसे अधिष्ठित हैं अर्थात् अन्नसे ही प्राण सुरक्षित रहते हैं। इसलिए परम्परासे अन्न भी धर्मका साधन है। अल्पशक्तिके धारक मनुष्योंकी स्थिति प्रधान पुरुषार्थ-धर्म में बनी रहे इसमें अन्न भी कारण है। अतः इस भरत क्षेत्रमें शासनको स्थिरताके लिए मैं आहारके इच्छुक मनुष्योंको निर्दोष आहार ग्रहण करनेकी विधि दिखाता हूँ ॥१३५-१४०॥ ऐसा विचारकर, यद्यपि भगवान् क्षुधादिके १. चातुरी म. । २. धरणेन्द्रात् । ३. -मत्यर्थ म. । ४. धीरः म.। ५. स्थिरः म.। ६. विध्यापी । ७. पुरुषार्थस्थितो मोक्षो मुख्यो म.। ८. प्राणस्त्वन्न -म. । ९. परार्थमति म.।
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हरिवंशपुराणे षण्मासानशनस्यान्ते संहृतप्रतिमास्थितिः । प्रतस्थे पदविन्यासैः क्षिति पल्लवयन्निव ।। ३ ४२॥ आकेवळोदयाम्मौनी प्रलम्बितभुजः पथि । सावधानां गतिं बिभ्रन्नातिद्रुतविलम्बिताम् ॥१४॥ मध्याह्नेषु पुरग्रामगृहपङ्क्तिषु दर्शनम् । प्रशस्तासु प्रजाभ्योऽदाच्चान्द्रीचर्या चरन् क्षितौ ॥१४॥ भ्राम्यन्तं तं तथा नाथं सौम्यविग्रहमुन्मुखाः । पश्यन्त्यो न प्रजास्तृप्ता यथा चन्द्रं नवोदितम् ।।१४५॥ 'श्वेतमानुरयं किंतु स्वर्भानुग्रासशङ्कया। भूमिगोचरमायातस्त्यक्ततासर्कगोचरः ॥१४६।। पूषा किंवा मवेदेष भूभृत्प्रासादभूरुहाम् । छायातमस्तिरस्कतु द्वितीय क्षितिमागतः ।।१४७।। अहो कान्तः परं स्थानमहो दीप्तः परं पदम् । अहो सशीलशैलोऽयं गुणराशिरहो महान ॥१४॥ सौरूप्यस्य परा कोटिः सौलावण्यस्य भूः पराः । माधुर्यस्य पराऽवस्था धैर्यस्यायं परा स्थितिः ।।१४९।। एतैतेक्षणसार्फल्यमन्ते पश्यत पश्यत । जना दिग्वसनस्यापि परमां रमणीयताम् ॥१५०॥ इत्यन्योन्य कृतालापा घनसंघट्टसंकटाः । जिनं नराश्च नार्यश्च ददृशुर्विस्मयाकुलाः ॥[षड्भिः कुलकम्] केचिद् वस्त्राणि चित्राणि भूषणान्यपरे परे । दिव्यानि गन्धमाल्यानि प्रकुर्वन्ति पुरः प्रभोः ॥१५२।। तुरङ्गतुङ्गमातङ्गरथयानान्यथापरे । सद्यःसजानि तस्याग्रे स्थापयन्ति विमोहिनः ।।१५३।। अदृष्टश्रुतपूर्वस्वात् तत्प्रयोग्यमजानता । भिक्षादानविधिस्तस्मै न लोकेन विकल्पितः ॥५४॥
दूर करने में स्वयं समर्थ थे तो भी परोपकारके अर्थ उन्होंने गोचर-वृत्तिसे अन्न-ग्रहण करनेकी इच्छा की ।।१४१॥ तदनन्तर छह महीनेके अनशनके बाद जिन्होंने प्रतिमा योगका संकोच कर लिया था ऐसे भगवान् आदि जिनेन्द्र अपने चरणोंके निक्षेपसे पृथिवीको पल्लवित करते हुए आहारके लिए चले ॥१४२।। केवलज्ञान प्राप्त होने तक उन्होंने मौन व्रत ले रखा था, मार्गमें चलते समय उनकी भुजाएँ नीचेकी ओर लम्बी थीं, वे न अधिक शीघ्र और न अधिक धीमी चालसे सावधानीपूर्वक चल रहे थे ।।१४३॥ पृथिवोपर चान्द्री चर्यासे विचरण करते हुए वे मध्याह्नके समय उत्तम नगर तथा ग्रामोंकी गृह पंक्तियोंमें प्रजाके लिए दर्शन देते थे ।।१४४॥ जिस प्रकार नूतन उगे हुए चन्द्रमाको देखती हुई प्रजा सन्तुष्ट नहीं होती है उसी प्रकार उस तरह भ्रमण करते हुए सौम्य शरीरके धारक भगवान्को ऊपरकी ओर मुख उठा-उठाकर देखती हुई प्रजा सन्तुष्ट नहीं होती थी॥१४५॥ भगवान्को देख अनेक लोग ऐसा तर्क करते थे कि क्या यह राहुके द्वारा ग्रसे जानेके भयसे नक्षत्र और सूर्य मण्डलको छोड़कर चन्द्रमा ही पृथिवी तलपर आ गया है ? अथवा क्या पहाड़, महल और वृक्षोंकी छायारूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए यह सूर्य ही पृथिवीपर अवतीर्ण हुआ है ? ।।१४६-१४७।। अहो ! ये भगवान् कान्तिके परम स्थान हैं, दीप्तिके अद्वितीय धाम हैं, अहो ! ये उत्तम शीलके मानो पर्वत हैं, अहो ! ये गुणोंके महासागर हैं। ये सुन्दर रूपकी परम सीमा हैं, वे लावण्यको उत्कृष्ट भूमि हैं, माधुर्यको परम अवस्था हैं और धैर्यको उत्कृष्ट रीति हैं।।१४८-१४९।। अरे भव्यजनो! आओ, आओ नेत्रोंको सफल करो। देखो, नग्न-दिगम्बर होनेपर भी इनकी कैसी परम सुन्दरता है ? ॥१५०। इस प्रकार आपस में वार्तालाप करते तथा बहुतबहुत बड़ी भीड़के साथ इकट्ठे हुए नर-नारी आश्चर्यसे व्याकुल हो भगवान्के दर्शन कर रहे थे ॥१५१॥ उस समय कोई चित्र-विचित्र वस्त्र, कोई तरह-तरहके आभूषण और कोई उत्तमोत्तम गन्ध तथा मालाएँ भगवान्के आगे समर्पित करते थे ॥१५२॥ कितने ही अज्ञानी लोग तत्काल सजाये हुए घोड़े, ऊंचे-ऊंचे हाथी, रथ तथा अन्य वाहन उनके आगे रखते थे ॥१५३॥ लोगोंने कभी किसीको आहार देते हुए न देखा था और न सुना था और न वे भगवान्के अभिप्रायको ही
१. श्राम्यन्तं म. । २. पश्यन्तो क., ख., म.। ३. चन्द्रः। ४. साफल्यं एनं म.। ५. नग्नस्यापि । ६. कृतालापधनसंघसंघटा म.। ७. जिनस्याभिप्रायं क. टि.। ८. विकल्पिता।
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नवमः सर्गः
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लोकस्य प्रतिबोधार्थमुदितस्य दिने दिने । जिनार्कस्थ न खेदाय जगभ्रमणमप्यभूत् ॥१५५।। तथा यथागर्म नाथः षण्मासानविषण्णधोः । प्रजाभिः पूज्यमानः सन् विजहार महों क्रमात् ॥१५६॥ संप्राप्तोऽथ सदादानैरिभैरिमपुरं विभुः । दानप्रवृत्तिरति सूचयद्भिरिवाचितम् ।।१५७।। तस्मिन् सोमप्रभः श्रेयानपि भूपौ सहोदरौ । तस्यामेव विभावर्या स्वप्नानेतानपश्यताम् ॥१५॥ चन्द्रमिन्द्रध्वज मेरुं सतडित्कल्पपादपम् । रत्नद्वीपं विमानं च नाभेयं पुरुषोत्तमम् ।।३५२॥ प्रभाते तो 'कुरुप्रेष्ठावास्थानस्थौ च विस्मितौ । चक्राते बुधचक्रेण सुस्वप्नफलसंकथाम् ।।१६।। बन्धुः कौमुदखण्डानामिव कौमुदमावही । अद्यवेष्यति बन्धुनः कोऽपि नूनमनूनभाः ॥१६१।। उच्चैर्यशोध्वजो लोके सर्वकल्याणपर्वतः । जगत्कल्पद्रुमो विद्युत्क्षणदर्शितविग्रहः ॥१२॥ धर्मरत्नमहाद्वीपो वैमानिकजगच्च्युतः । स्वप्नवम्किनु नाभेयः स्वयमेवाद्य दृश्यते ।।१६३॥ पुरस्य राजगेहस्य लक्ष्मीरचैव लक्ष्यते । भद्रं निवेदयत्याशु ककुभां च प्रसन्नता ॥१६॥ स्वप्नार्थमिति बुद्ध्वा तौ नियुज्यान्तर्बहिर्नरान् । कथया जिननाथस्य शक्ती यावदवस्थितौ ॥१६५।।
तावदामातमाध्याह्वशङ्खनादः समुच्छ्रितः । वर्धयन्निव दिष्टया तो जिनागमनिवेदनात् ।।१६६॥ जानते थे इसलिए किसीको आहार देनेका विकल्प नहीं उठा ॥१५४॥ जिस प्रकार लोगोंको जागृत करनेके लिए उगे हुए सूर्यका जगत्में भ्रमण करना उसके खेदका कारण नहीं है उसी प्रकार लोगोंको प्रतिबुद्ध करने के लिए तत्पर जिनेन्द्र भगवान्का जगत्में जहाँ-तहाँ भ्रमण करना उसके खेदका कारण नहीं था ॥१५५।। इस प्रकार जिनकी बुद्धि में रंचमात्र भी विषाद नहीं था ऐसे भगवान् प्रजाके द्वारा पूजित होते हुए लगातार छह माह तक आगमके अनुसार क्रमसे पृथिवीपर विहार करते गये ॥१५६।।तदनन्तर विहार करते-करते भगवान् हस्तिनागपुर नगर पहुँचे । वह नगर जिनसे सदा दान (मद) चूता रहता था और जो मानो इस बातकी सूचना ही दे रहे थे कि यहां दान (त्याग) की प्रवृत्ति होगी ऐसे हाथियोंसे सहित था ॥१५७॥ उस नगरके राजा सोमप्रभ और श्रेयान्स थे। उन दोनों भाइयोंने उसी रातमें चन्द्रमा, इन्द्रकी ध्वजा, मेरु पर्वत, बिजली, कल्पवृक्ष, रत्नद्वीप, विमान और पुरुषोत्तम भगवान् ऋषभदेव ये आठ स्वप्न देखे ॥१५८-१५९|| प्रातःकाल दोनों भाई सभामें बैठे और आश्चर्यसे चकित हो विद्वत्समूहके साथ इन्हीं उत्तम स्वप्नोंके फलकी चर्चा करने लगे ॥१६०॥ विद्वानोंने उक्त स्वप्नोंका फल इस प्रकार बताया कि कुमुदबन्धु-चन्द्रमाके समान पृथिवीपर आनन्दको बढ़ानेवाला तथा उत्कृष्ट कान्तिको धारण करनेवाला हमारा कोई बन्धु आज ही यहां आवेगा । वह उत्तम यशरूपी ध्वजाका धारक होगा, संसार में समस्त कल्याणोंका पर्वत होगा, जगत्के मनोरथोंको पूर्ण करनेके लिए कल्पवृक्षरूप होगा, बिजलीके समान क्षण-भर ही अपना शरीर दिखलानेवाला होगा, धर्मरूपी रत्नोंका महाद्वीप होगा और वैमानिक जगत-स्वर्ग लोकसे च्युत हुआ होगा। भगवान ऋषभदेवने जिस प्रकार स्वप्नमें दर्शन दिया है क्या आज वे स्वयं ही दर्शन देंगे-स्वयं यहाँ पधारेंगे। नगर तथा राजभवनकी जो शोभा है वह आज ही दिखाई दे रही है ऐसी शोभा पहले कभी नहीं दिखी। तथा दिशाओंकी निर्मलता भी शीघ्र हो कल्याणकी सूचना दे रही है ॥१६१-१६४।। इस प्रकार स्वप्नोंका फल जानकर तथा भीतर और बाहर अनेक मनुष्योंको नियुक्त कर जिनेन्द्र भावान्की चर्चा करते हुए दोनों समर्थ भाई जबतक बैठे तबतक मध्याह्न कालके फूंके हुए शंखका जोरदार शब्द हुआ। वह शंखका शब्द ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र भगवान्का आगमन होनेवाला है-इस शुभ समाचारसे उन दोनोंको बढ़ा ही रहा हो ॥१६५-१६६।। १. हस्तिनागपुरम् । २. -रिवोचितम् म. । ३. श्रीमानपि म. । ४. भूमौ म. । ५. कुरुवंशश्रेष्ठौ। ६. किंतु म. ।
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हरिवंशपुराणे
रचितः परिवर्गेण स्नातयोश्च तयोस्ततः । सुभोजन विधिस्तत्र दिव्याहारमनोहरः ॥१६७॥ मणिकुट्टिमभूमौ तावुपविष्टौ भुजि' प्रति । सिद्धार्थस्तूर्णमागत्य दिष्ट्या वर्धयतीत्य सौ ॥ ९६८ ॥ तितिक्षोः पृथिवीं यस्य मकरालयमेखलाम् । शिविकोद्वाहिनोऽभूवन् देवा वज्रधरादयः ॥ १६९॥ मग्ने कच्छमहाकच्छपूर्वपुङ्गवमण्डले । बिभर्ति दुर्वहामेको वृषभो यस्तपोधुराम् ॥ ३७० ॥ यत्कथामृततृप्तानां गोष्ठीषु विदुषां सदा । वर्तते युष्मदादीनां नाहारग्रहणे मतिः ॥ १७१ ॥ प्राघूर्णिकोऽद्य सोऽस्माकमकस्माज्जगतां पतिः । क्षान्ति मैत्रीत पोलक्ष्मीसहायः समुपागतः ॥ १७२ ॥ दिशा वैश्रवणस्यैव प्रविश्य नगरीं विभुः । युगान्तदृष्टिरास्थाय चान्द्रीं चर्यां यथोचिताम् ॥ १७३ ॥ संभ्रान्त्यान्वितलोकस्य पादयोरर्थ्यदायिनः । स्तुतिभिर्वन्दनाभिश्च समन्तादुपसेवितः ॥ १७४॥ "धाम धाम निजं धार्मं प्रकिरन्निव शोतगुः । अस्मदीयतया नाथो निशान्ताजिर माप्तवान् ॥१७५॥ इति सिद्धार्थवागर्थं ज्ञातोच्छ्रायससंभ्रमौ । अभिजग्मतुरीशस्य ललाटे न्यस्तहस्तकौ ॥ १७६ ॥ आगच्छ मर्तरादेशं प्रयच्छेति कृतध्वनी । चन्द्रार्काविव शैलेशमर्ध्वनीमं परीयतुः ॥ १७७॥ पतित्वा पादयोस्तस्य सुखपृच्छापुरःसरौ । आगते मनिनो हेतुं ध्यायन्तावग्रतः स्थितौ ॥१७८॥ सोमप्रभस्य देवीमिर्लक्ष्मीसत्यकरोत् प्रिया । शशिरेखेव ताराभिगिरीशं तं प्रदक्षिणम् ॥ १७९॥ स श्रेयानीक्षमाणस्तं निमेषरहितेक्षणः । रूपमीदृक्षमद्राक्षं क्वचित् प्रागित्यधान्मनः ॥ १८० ॥
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तदनन्तर दोनों भाई स्नान कर तैयार हुएं और परिजनोंने उनके लिए दिव्य आहारसे मनोहर उत्तम भोजन की विधि की भोजनसे थालियाँ सजायीं । मणिमय फशंके ऊपर दोनों भाई भोजन के लिए बैठे ही थे कि उसी समय सिद्धार्थ नामका द्वारपाल शीघ्रतासे आकर इस हर्षवर्धक समाचारसे उन्हें वृद्धिंगत करने लगा ।। १६७ - १६८ ।। कि समुद्रान्त पृथिवीका त्याग करते समय इन्द्रादिक देव जिनकी पालकीके उठानेवाले थे । कच्छ, महाकच्छ आदि पूर्वं पुरुषोंके भ्रष्ट हो
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पर जो अकेले ही तपके दुर्धर भारको धारण कर रहे हैं, सभा-गोष्ठियोंमें आप-जैसे विद्वान् जिनकी कथारूपो अमृत से सन्तुष्ट होकर आहार ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं रखते और जो क्षमा, मैत्री तथा तपरूपी लक्ष्मीसे सहित हैं, वे त्रिलोकीनाथ भगवान् वृषभदेव आज अकस्मात् हमारे अतिथि बनकर आये हुए हैं ।। १६९ - १७२ ।। वे प्रभु उत्तर दिशासे ही नगर में प्रवेश कर पधार रहे हैं, यथायोग्य चान्द्रीचर्याका नियम लेकर जूडा प्रमाण दृष्टिसे विहार कर रहे हैं, हड़बड़ाहट से युक्त मनुष्य उनके चरणोंमें अर्घ दे रहे हैं तथा स्तुति और वन्दनाके द्वारा उनकी सब ओरसे सेवा कर रहे हैं, वे चन्द्रमाके समान प्रत्येक घरमें अपना तेज बिखेरते हुए अपना समझ अन्तःपुरके आँगन में आ पहुँचे हैं ।। १७३ - १७५ ।। इस प्रकार सिद्धार्थंके वचनोंका तात्पर्यं समझ हर्ष से भरे हुए दोनों भाई, हाथ जोड़ ललाटपर धारण कर भगवान् के सामने गये ||१७६ || हे स्वामिन् ! आइए आज्ञा दीजिए, यह कहते हुए दोनों भाइयोंने जिस प्रकार चन्द्रमा और सूर्य सुमेरुकी प्रदक्षिणा देते हैं उसी प्रकार मार्ग में भगवान् की प्रदक्षिणा दी || १७७॥ तदनन्तर चरणों में पड़कर (नमस्कार कर) सुख -समाचार पूछते हुए दोनों भाई आगे खड़े हो गये । उस समय वे मौनके धारक भगवान् के आगमनका कारण विचार रहे थे ||१७८ ॥ जिस प्रकार चन्द्रमाकी रेखा ताराओंके साथ सुमेरु पर्वतको प्रदक्षिणा देती है, उसी प्रकार राजा सोमप्रभकी रानी लक्ष्मीमतीने अन्य अनेक रानियोंके साथ भगवान्की प्रदक्षिणा ॥ १७९ ॥ उसी समय टिमकार रहित नेत्रोंसे भगवान् की ओर देखते हुए श्रेयान्सके १. भुजं म । २. व्यक्तुमिच्छो: । ३. वाहनो भूवन् म । ४. वैश्रवणस्येव म. । ५. गृहं गृहं प्रति । ६, तेजः । ७. भवनाङ्गणं । ८. अध्वनि मार्गे; इमं भगवन्तं । ९. आगतो म. ।
* जिस प्रकार चन्द्रमा छोटे-बड़े सभीके घरपर अपना प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जिसमें अतिथि छोटेबड़े सभी के घर पर जाता है, उसे चान्द्रीचर्या कहते हैं ।
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नवमः सर्गः
१८१ दीप्रेणाप्युपशान्तेन स तद्रपेण बोधितः । 'दशात्मेशभवान् बुद्ध्वा पादावाश्रित्य मूछितः ॥१८१॥ मूञ्छितेनापि तत्पादौ प्रमज्य मृदुमूर्धजैः । अधश्रमच्छिदा धौती सोष्णानन्दाश्रुधारया ॥१८२॥ श्रीमतीवज्रजङ्घाभ्यां दत्तं दानं पुरा यथा। चारणाभ्यां स्वपुत्राभ्यां संस्मत्य जिनदर्शनात् ॥१८३॥ भगवन् ! तिष्ठ तिष्ठेति चोक्त्वा नीतो गृहान्तरे । उच्चैः स चौसने स्थाप्य धौततत्पादपङ्कजः ॥१८४॥ 'तचरणपूजनं कृत्वा प्रणतिं च त्रिधा तथा । दानधर्मविधेर्बोद्धा विधाता स्वयमेव सः ॥१८५॥ श्रद्धादिगुणसंपूर्णः पात्रे संपूर्णलक्षणे । दित्सुरिक्षुरसापूर्ण कुम्भमुदत्य सोऽब्रवीत् ॥१६॥ षोडशोद्गमदोषैश्च षोडशोत्पादनिश्चितैः । दशाभिश्चैषणादोपैर्विशुद्धमपरैस्तथा ॥१८७॥ धूमाङ्गारप्रमाणाख्यैः संयोजनयुतैः प्रमो । मुक्तं दायकदोषैश्च गृहाण प्रासुकं रसम् ॥१८॥ वृत्तवृद्धय विशुद्धात्मा पाणिपात्रेण पारणम् । समपादस्थितश्चक्रे दर्शयन् क्रियया विधिम् ॥१८९॥ श्रेयसि श्रेयसा पात्र प्रतिलब्धे जिनेश्वरे । पञ्चाश्चर्य विशुद्धिभ्यः पञ्चाश्चर्याणि जज्ञिरे ॥१९॥ अहो दानमहो दानमहो पात्रमहो क्रमः । साधु साध्विति खे नादः प्रादुरासोदिवौकसाम् ॥१९१॥ नेदुरम्बदनि?षाः सुरदुन्दुभयोऽम्बरे । दानतीर्थकरोत्पत्ति घोषयन्तो जगत्त्रये ॥१९२॥ श्रेयोदानयशोराशिपूर्णदिग्वनिताननैः । प्रोद्गीर्ण इव निःश्वाससुरभिः पवनो ववौ ॥१९३॥
पपात सुमनोवृष्टिरमान्तीवाङ्गनिर्गता । श्रेयसः सुमनोवृत्तिरमान्तीय दिवः पुनः ॥१९४॥ मनमें यह विचार आया कि ऐसा रूप तो मैंने पहले कहीं देखा है ॥१८०॥ भगवान्के देदीप्यमान होनेपर भी उपशान्त रूपसे प्रतिबोधको प्राप्त हुआ यान्स अपने तथा भगवान् के दस पूर्व भवोंको जान गया और उनके चरणोंके समीप आकर मूच्छित हो गया ॥१८१।। मूच्छित होनेपर भी श्रेयान्सने अपने शिरके कोमल-बालोंसे भगवान के चरण पोंछे और मार्ग का श्रम दूर करनेके लिए आनन्दजन्य गरम-गरम आंसूओंकी धारासे धोये ॥१८२।। श्रीमती और वज्रजंघने पहले चारण ऋद्धिके धारक अपने दो पुत्रोंके लिए जिस विधिसे दान दिया था वह सब विधि भगवान्का दर्शन करते ही श्रेयान्सकी स्मतिमें आ गयी ॥१८॥
तदनन्तर दान-धर्मको विधिका ज्ञाता और उसकी स्वयं प्रवृत्ति करानेवाला राजा श्रेयान्स श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त हो 'हे भगवन् ! तिष्ठ-तिष्ठ-ठहरिए-ठहरिए' यह कहकर भगवान्को घरके भीतर ले गया, वहां उच्चासनपर विराजमान कर उसने उनके चरण-कमल धोये, उनके चरणोंको पूजा करके उन्हें मन, वचन, कायसे नमस्कार किया। फिर सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त पात्रके लिए देनेकी इच्छासे उसने इक्षुरससे भरा हुआ कलश उठाकर कहा कि प्रभो! यह इक्षुरस सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष तथा धूम-अंगार प्रमाण और संयोजना इन चार दाता सम्बन्धी दोषोंसे रहित एवं प्रासुक है, इसे ग्रहण कीजिए ॥१८४-१८८॥ तदनन्तर जिनकी आत्मा विशुद्ध थी और जो पैरोंको सीधा कर खड़े थे ऐसे भगवान् वृषभदेवने क्रियासे आहारकी विधि दिखाते हुए चारित्रकी वृद्धिके लिए पारणा की ।।१८९|| राजा श्रेयान्सने कल्याणकारी श्रीजिनेन्द्ररूपी पात्र प्राप्त किये इसलिए पाँच प्रकारकी आश्चर्यजनक विशुद्धियोंसे पंचाश्चर्य प्रकट हुए ।।१९०।। 'अहो दान, अहो दान, अहो पात्र, अहो दान देने की पद्धति, धन्य-धन्य', इस प्रकार आकाशमें देवोंके शब्द हुए ॥१९१॥ आकाशमें मेघोंके समान शब्द करनेवाले देव-दुन्दुभि बजने लगे। वे दुन्दुभि तीनों जगत्में मानो इस नामको घोषणा हो कर रहे थे कि दानरूपी तीर्थको चलानेवालेकी उत्पत्ति हो चुकी है ॥१९२॥ राजा श्रेयान्सके दानसे उत्पन्न यशकी राशिसे पूर्ण दिशारूपी स्त्रियोंके मुखसे प्रकट हुए श्वासोच्छ्वासके समान सुगन्धित वायु बहने लगी ॥१९३॥ उस १. आत्मनः ईशस्य च दश भवान् बुद्ध्वा। २. अध्वभ्रम म. । ३. सदासने म.। ४. सर्व पुस्तके वित्थमेव पाठः कित्वत्र पादे नवाक्षरत्वात् छन्दोभङ्गो भवति 'तत्पादपूजनं कृत्वा' इति पाठः सुष्ठु प्रतिभाति ।
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१८२
हरिवंशपुराणे श्रेयसा पात्रनिक्षिप्तपुण्ड्रेक्षुरसधारया । स्पर्धयेव सुरैः स्पृष्टा वसुधारापतद्दिवः ॥१९५॥ अभ्यचिते तपोवृद्धये धर्मतीर्थकरे गते । दानतीर्थकर देवाः साभिषेकमपूजयन् ॥१९६॥ श्रुत्वा देवनिकायेभ्यः सदानफलघोषणम् । समेत्य पूजयन्ति स्म श्रेयांसं मरतादयः ॥१९७॥ इतिहासमनुस्मत्य दानधर्मविधि ततः । शुश्रवुः श्रद्धया युक्ताः प्रत्यक्षफलदशिनः ॥१९८॥ प्रतिग्रहोऽतिथेरुच्चैःस्थानस्थापनमन्यतः । पादप्रक्षालनं दात्रा पूजनं प्रणतिस्ततः ॥१९९॥ मनोवचनकायानामेषणायाश्च शुद्धयः । प्रकारा नव विज्ञेया दानपुण्यस्य संग्रहे ॥२०॥ पुण्यमित्थमुपातं यत् तदभ्युदय लक्षणम् । 'दत्वा दातुः फलं दत्ते प्राग निश्रेयसलक्षणम् ॥२०१॥ इतिश्रुत यथातत्त्वा श्रेयांसममिनन्द्य ते । दानधर्मोद्यतस्वान्ता नृपा याता यथागेतम् ॥२०२॥ सहस्रवर्ष वृषभो चतुर्ज्ञानचतुर्मुखः । चक्रे मोक्षार्थबोधार्थ तपो नानाविधं स्वयम् ॥२०३॥ सप्रलम्बजटाभारभ्राजिष्णुजिष्णुराबभौ । रूढप्रारोहशाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ॥२०॥ अन्यदा विहरन् प्राप्तः पूर्वतालपुरं पुरम् । राजा वृषमसेनाख्यो यत्रास्ते भरतानुजः ॥२०५॥ तत्रोद्यानं महोद्योगः शकटास्याभिधानकम् । ध्यानयोगमथासाद्य स न्यग्रोधतरोरधः ॥२०६॥ उपविष्टः शिलापट्टे पर्यङ्कासनबन्धनः । वशस्थकरणग्रामः शुक्लध्यानासिधारया ॥२०७॥
समय आकाशमें न समा सकनेके कारण ही मानो सुमन ( पुष्पों ) की वर्षा होने लगी थी और वह ऐसी जान पड़ती थी मानो राजा श्रेयान्सकी सुमनवृत्ति-पवित्र मनका व्यापार ही भीतर न समा सकनेके कारण शरीरसे बाहर निकल रहा हो ॥१९४॥ राजा श्रेयान्सने पात्रके लिए जो इक्षरसको धारा दो थी उसके साथ ईर्ष्या होने के कारण ही मानो आकाशसे देवकृत रत्नोंकी धारा नीचे पड़ने लगी ॥१९५॥ पूजा होनेके बाद जब धर्म तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव तपकी वृद्धिके लिए वनको चले गये तब देवोंने अभिषेकपूर्वक दान तीर्थकर-राजा श्रेयान्सकी पूजा की ॥१९६॥ देवोंसे समीचीन दान और उसके फलकी घोषणा सुन भरतादि राजाओंने भी आकर राजा श्रेयान्सकी पूजा की ॥१९७॥ इतिहास-पूर्व घटनाका स्मरण कर राजा श्रेयान्सने जो दानरूपी धमकी विधि चलायो थी उसे दानका प्रत्यक्ष फल देखनेवाले भरत आदि राजाओंने बड़ी श्रद्धाके साथ श्रवण किया ॥१९८॥ राजा श्रेयान्सने बताया कि दान सम्बन्धी पुण्यका संग्रह करनेके लिए १ अतिथिको पड़गाहना, २ उच्च स्थानपर बैठाना, ३ पाद-प्रक्षालन करना, ४ दाता द्वारा अतिथिको पूजा होना, ५ नमस्कार करना, ६ मनःशुद्धि, ७ वचन-शुद्धि, ८ काय-शुद्धि और ९ आहार-शुद्धि बोलना ये नौ प्रकार जानने के योग्य हैं ॥१९९-२००।। दानका फल बताते हुए राजा श्रेयान्सने कहा कि इस तरह दान देनेसे जो पुण्य संचित होता है वह दाताके लिए पहले स्वर्गादि रूप फल देकर अन्तमें मोक्षरूपी फल देता है ॥२०१।। इस तरह यथार्थ बातको सनकर जिनके चित्त दानरूपी धर्मके लिए उद्यत हो रहे थे ऐसे भरत आदि राजा जैसे आये थे वैसे चले गये ॥२०२॥ चार ज्ञानरूपो चार मुखोंको धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेवने स्वयं मोक्ष तत्त्वका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिए एक हजार वर्ष तक नाना प्रकारका तप किया ॥२०३।। लम्बी-लम्बी जटाओंके भारसे सुशोभित आदि जिनेन्द्र उस समय जिसकी शाखाओंसे पाये लटक रहे थे ऐसे वट-वृक्षके समान सुशोभित हो रहे थे।।२०४॥
अथानन्तर किसी समय विहार करते हुए भगवान्, पूर्वतालपुर नामक उस नगरमें पहुंचे जहाँ कि भरतका छोटा भाई राजा वृषभसेन रहता था ॥२०५॥ वहाँ वे शकटास्य नामक उद्यानमें बड़ी तत्परताके साथ ध्यान धारण कर वटवृक्षके नीचे एक शिलापर पर्यकासनसे विराजमान हो गये। उस समय उन्होंने शुक्ल ध्यानरूपी तलवारकी धारसे इन्द्रियोंके समूहको अपने वश १. दत्वा तु यत्फलं भुक्तं म. । २. यथाक्रमम् म. ।
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नवमः सर्गः
आरूढः क्षपकश्रेणिं रणक्षोणी क्षणेन सः । महोत्साहगजारूढो मोहराजमपातयत् ॥२०८॥ ज्ञानावरणशत्रं च दशनावरणद्विषम् । अन्तरायरिपुं चैव जघान युगपत् प्रभुः ॥२०॥ चतुर्घातिक्षयाच्चास्य केवल ज्ञानमुद्गतम् । समस्तद्रव्यपर्यायलोकालोकावलोकनम् ॥२१०॥ चतुर्देवनिकायाश्च पूर्ववत् समुपागताः । सेन्द्राः नेमुजिनेन्द्रं तं गायन्तः कर्मणा जयम् ॥२१॥ प्रातिहायस्ततोऽष्टामिजिनेन्द्रस्तत्क्षणोद्भवैः । स चतुस्त्रिंशद्विशेषरशेषैः सहितो बमी ॥२१॥ पुत्र वक्रसमुत्पत्या जिनकेवलजन्मना । दिष्टयाभिवधितो यातो भरतो वन्दितं विभुम् ॥२१३॥ संप्राप्तः कुरुभोजायेश्चतुरङ्गबलावृतः । आर्हन्त्यविभवोपेतमभ्यय॑ प्रणनाम तम् ॥२१४॥ नृपैर्वृषभसेनस्तं बहुभिवृषमं श्रितः । संयमं प्रतिपद्याभूद गणभृत् प्रथमः प्रभोः ॥२१५।। लक्ष्मीमत्यात्मजं राज्ये जयमायोज्य सानुजम् । प्रव्रज्यां प्रतिपन्नौ तौ श्रेयःसोमप्रमौ नृपौ ॥२१६।। ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमायौं धैर्यसंगते । प्रव्रज्य बहुनारीमिरार्याणां प्रभुतां गते ॥२१७॥ आर्हन्त्यश्वर्यमालोक्य वृषभस्य जिनस्य यत् । सम्यक्त्वव्रतसंयुतं यथायोगमभूत्तदा ॥२१८॥ इन्द्रनीलनिभान् केशान् पद्मरागमयः करैः । उद्धरन्तः स्वयं रेजुः स्त्रीपुंसोऽरागिणस्ततः ॥२१९॥ तदा प्रव्रजतां तेषां नापेक्षाभून्मनस्विनाम् । केशेष्विव शरीरेषु मस्निग्धधनेष्वपि ॥२२०॥ ततश्चतविधे संघे निकाये च दिवौकसाम् । सरणे समेवाद्ये च जाते द्वादश योजने ॥२२१॥
कर लिया था ॥२०६-२०७।। उन्होंने क्षपक श्रेणिरूपी रणभूमिमें प्रवेश कर महोत्साहरूपी हाथीपर सवार हो क्षणभरमें मोहरूपी राजाको नीचे गिरा दिया ॥२०८॥ और उसके बाद ही एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन शत्रुओंको भी नष्ट कर दिया ॥२०९॥ इस तरह चार घातिया कर्मोके क्षयसे उन्हें समस्त द्रव्यपर्याय तथा लोक-अलोकको दिखानेवाला केवलज्ञान प्राप्त हुआ ॥२१०॥ पूर्वकी भाँति इन्द्रों सहित चारों निकायोंके देवोंने आकर जिनेन्द्र देवको नमस्कार किया। उस समय समस्त देव भगवान्ने कर्म शत्रुओंपर जो विजय प्राप्त की थी उसका गुणगान कर रहे थे ॥२११।। तदनन्तर तत्क्षणमें उत्पन्न हुए आठ प्रातिहार्यों और चौंतीस अतिशयोंसे सहित भगवान् अत्यधिक सुशोभित होने लगे ॥२१२।। उसी समय भरतको पुत्रको उत्पत्ति, चक्ररत्नकी प्राप्ति और भगवानको केवलज्ञानका लाभ ये तीन समाचार एक साथ मिले। इस भाग्यवद्धिसे प्रसन्न होता हआ भरत सर्वप्रथम भगवानकी वन्दना करने के लिए चला ॥२१३॥ कुरुवंशी तथा भोजवंशी आदि राजाओंके साथ चतुरंग सेनासे आवृत भरतने जाकर अरहन्त सम्बन्धी विभूतिसे युक्त भगवान्की पूजा कर उन्हें प्रणाम किया ॥२१४॥ उसी समय अनेक राजाओंके साथ राजा वृषभसेन भगवान के पास गया और संयम धारण कर उनका प्रथम गणधर हो गया ॥२१५।। लक्ष्मीमतीके पुत्र जयकुमार तथा उसके छोटे भाईको राज्यकार्यमें नियुक्त कर राजा श्रेयान्स और सोमप्रभने भी दीक्षा धारण कर ली ॥२१६।। धैर्यसे युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियाँ अनेक स्त्रियोंके साथ दीक्षा ले आयिकाओंकी स्वामिनी बन गयीं ॥२१७ वृषभ जिनेन्द्रके अर्हन्त सम्बन्धी वैभवको देखकर अन्य लोग भी उस समय यथायोग्य सम्यग्दर्शन तथा श्रावकोंके व्रतसे युक्त हुए थे ।।२१८।। उस समय रागरहित स्त्री-पुरुष, पद्मराग मणियोंके समान अपने लाल-लाल हाथोंसे इन्द्रनील मणिके समान काले-काले केशोंको स्वयं उखाड़ते हुए अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥२१९।। उस समय दीक्षा लेनेवाले धैर्यशाली मनुष्योंका जिस प्रकार कोमल, चिकने और सघन बालोंमें स्नेह नहीं था उसी प्रकार अपने शरीरोंमें भी उनका स्नेह नहीं था ॥२२०॥ तदनन्तर बारह योजन विस्तारवाले समवसरणको रचना हुई, उसमें चतुर्विध संघ
१. संप्राप्तकुरु म.। २. समवाये म. ।
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हरिवंशपुराणे महाप्रभावसंपन्नास्तत्र शासनदेवताः । नेमुश्चाप्रतिचक्राद्या वृषभं धर्म चक्रिणम् ॥२२२॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् तस्थुर्दक्षिणतो जिनस्य मुनयः कल्पाङ्गनाश्चार्यिकाः
ज्योतिय॑न्तरभावनामरवधूवर्गाः क्रमेणैव हि । भयोभावनभोमदेवनिवहा ज्योतिष्ककल्पाः नृपाः
. तिर्यञ्चश्च पृथक् पृथक् पृथुनिजस्थाने गणा द्वादश ॥२२३॥ त्रैलोक्ये जिनशासनोरुपदवीशुश्रषयावस्थिते
संपृष्टः प्रथमेन तत्र गणिना विश्वार्थविद्योतनः । भूयोभेदविवृत्तयाधरपेरिस्पन्दोज्झितस्वात्मना
मोहध्वान्तमपाकरोदथ जिनो भानुः स्वभाषाश्रिया ॥२२४॥
इत्वरिष्टनेमि पराणसंग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती ऋषभनाथकैवल्योत्पत्तिवर्णनो
नाम नवमः सर्गः।
और चार निकायके देव यथास्थान आसीन हुए ॥२२१।। उस समवसरणमें महाप्रभावसे सम्पन्न अप्रतिचक्र आदि शासन देवता, धर्मचक्रके धारक भगवान् वृषभदेवको निरन्तर नमस्कार करते रहते थे ॥२२२।। समवसरणमें बारह सभाएँ थीं उनमें भगवानकी दाहिनी ओरसे लेकर १ मनि. २ कल्पवासिनी देवियाँ, ३ आर्यिकाएँ, ४ ज्योतिषी देवोंकी देवियाँ, ५ व्यन्तर देवोंकी देवियाँ, ६ भवनवासी देवोंकी देवियाँ, ७ भवनवासी देव, ८ व्यन्तर देव, ९ ज्योतिषी देव, १० कल्पवासी देव, ११ मनुष्य और १२ तिर्यञ्च ये बारह गण पृथक्-पृथक् अपने-अपने विस्तृत स्थानोंपर बैठे थे ।।२२३।। अथानन्तर जब तीन लोकके जीव भगवान्का दिव्य उपदेश सुननेकी इच्छासे शान्तिपूर्वक बैठ गये तब प्रथम गणधरने समस्त पदार्थों के प्रकाशित करनेवाले जिनेन्द्ररूपी सूर्यसे प्रश्न किया और उन्होंने नाना भेदोंमें परिवर्तित होनेवाली एवं ओठोंके परिस्पन्दसे रहित अपनी दिव्य ध्वनिरूपी लक्ष्मीके द्वारा मोहरूपी अन्धकारको नष्ट कर दिया ॥२२४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे सहित जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें श्रीवत्पमनाथ भगवान्की केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला
नवाँ पर्व समाप्त हुआ।
१. भौम म, । २. पतिस्यन्दोज्झितः स्वात्मना म., परिरुपन्दोज्झितास्यात्मना क., ड. ।
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दशमः सर्गः
धर्म प्रवदता तेन तदा त्रैलोक्यसंनिधौ । तं वर्षसहस्त्रान्तं मौनमुद्योदितं दृढम् ॥१॥ संसारतरणं तीर्थ नाथे दर्शयति स्वयम् । ददर्श जगदत्यर्थ गम्भीरार्थमपि स्फुटम् ॥२॥ वागाद्यतिशयोद्योंते द्योतयत्यर्थसंपदम् । जिनेन्द्रद्युमणौ को वा मिथ्यान्धतमसं भजेत् ॥३॥ जिनेन्द्रोऽथ जगौ धर्मः कार्यः सर्वसुखाकरः । प्राणिभिः सर्वयत्नेन स्थितः प्राणिदयादिषु ॥४॥ सुखं देवनिकायेपु मानुषेषु च यत्सुखम् । इन्द्रियार्थसमुद्भूतं तत्सर्व धर्मसंभवम् ॥५॥ कर्मक्षयसमुद्भतमपवर्गसुखं च यत् । आत्माधीनमनन्तं तद् धर्मादेवोपजायते ॥६॥ दया सत्यमथास्तेयं ब्रह्मचर्यममूर्च्छता । सूक्ष्मतो यतिधर्मः स्यात्स्थूलतो गृहमेधिनाम् ॥७॥ दान पूजातपशील लक्षणश्च चतुर्विधः । त्यागजश्चैव शारीरो धर्मो गृहनिषेविणाम् ।।८॥ सम्यग्दर्शनमूलोऽयं महद्धिकसुरश्रियम् । ददाति यतिधर्मस्तु पुष्टो मोक्षसुखप्रदः ॥९॥ स्वर्गापवर्गमूलस्य सद्धर्मस्येह लक्षणम् । श्रृतज्ञानाद्विनिश्चेयमर्वाग्दर्शिमिरर्थिभिः ॥१०॥ द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं द्रव्यभावभिदां श्रितम् । आप्तामिव्यङ्गयमातश्च निर्दोषावरणो मतः ॥११॥
उस समय त्रिलोकवर्ती जीवोंके सन्निधानमें धर्मका उपदेश देते हुए भगवान्ने एक हजार वर्ष तक दृढ़तापूर्वक धारण किया हुआ मौन खोला ॥१॥ श्री आदि जिनेन्द्र स्वयं ही संसारसागरमें पार करनेवाला तीर्थ दिखला रहे थे, इसलिए संसारके समस्त जीव अतिशय गूढ़ अर्थको भी सरलतासे देख रहे थे। भावार्थ-यद्यपि दिव्यध्वनिमें प्रतिपादित पदार्थ अत्यन्त गम्भीर था फिर भी वक्ताके प्रभावसे लोग उसे सरलतासे समझ रहे थे ॥२॥ उस समय जब कि वचन आदिके अतिशयोंसे प्रकाशमान जिनेन्द्ररूपी सूर्य स्वयं पदार्थों को प्रकाशित कर रहे थे तब कौन मनुष्य मिथ्यात्वरूपी अन्धकारको प्राप्त हो सकता था ? अर्थात् कोई नहीं ॥३॥
अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान्ने कहा कि समस्त प्राणियोंको जीव-दया आदि कार्यों में स्थित धर्म पूर्ण प्रयत्नसे करना चाहिए क्योंकि धर्म ही समस्त सुखोंकी खान है ॥४॥ चार निकायके देवों और मनुष्योंमें इन्द्रिय विषयजन्य जो सुख दिखाई देता है वह सब धर्मसे ही उत्पन्न हुआ है ॥५।। और कर्मोंके रूपसे उत्पन्न, स्वाधीन तथा अन्तसे रहित जो मोक्षसम्बन्धी सुख है वह भी धर्मसे ही उत्पन्न होता है ।।६।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये सूक्ष्म रीतिसे धारण किये जावें तो मुनिका धर्म है और स्थूल रीतिसे धारण किये जावें तो गृहस्थका धर्म है ॥७॥ दान, पूजा, तप और शील यह गृहस्थका चार प्रकारका शारीरिक धर्म है- शरीरसे करने योग्य है। गृहस्थका यह चतुर्विध धर्म त्यागसे ही उत्पन्न होता है ।।८॥ सम्यग्दर्शन जिसकी जड़ है ऐसा यह गृहस्थका धर्म महद्धिक देवोंकी लक्ष्मी प्रदान करता है और पूर्णतासे पालन किया हुआ मुनिधर्म मोक्ष सुखको देनेवाला है ॥९॥ जो मात्र अर्वाचीन बातको ही देख सकते हैं ऐसे हिताभिलाषी मनुष्योंको ( छद्मस्थ जीवोंको) स्वर्ग और मोक्षके मूलभूत समीचीन धर्मका लक्षण श्रुतज्ञानके द्वारा जानना चाहिए। भावार्थ-अल्पज्ञानी मनुष्य द्वादशांगके सहारे ही धर्मका लक्षण समझ सकते हैं, इसलिए यहाँ द्वादशांगका वर्णन करना उचित है ॥१०॥ द्रव्यश्रुत और भावश्रुतके भेदको प्राप्त हुआ द्वादशांग श्रुतज्ञान आप्तके द्वारा प्रकट होता है और आप्त वही माना गया है
१. संपदा म.,ख., ङ. । २. सूतं म. । ३. निर्दोषाचरणो म.।
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हरिवंशपुराणे श्रुतं च स्वसमासेन पर्यायोऽक्षरमेव च । पदं चैव हि संघातः प्रतिपत्तिरतः परम् ॥१२॥ अनुयोगयुतं द्वारैः प्राभृतप्राभृतं ततः । प्राभृतं वस्तु पूर्व च भेदान् विंशतिमाश्रितम् ॥१३॥ श्रतज्ञानविकल्पः स्यादेकहस्वाक्षरात्मकः । अनन्तानन्तभेदाणुपुद्गकस्कन्धसंचयः ॥१४॥ अनन्तानन्तमागैस्तु मिद्यमानस्य तस्य च । भागः पर्याय इत्युक्तः श्रुतभेदो घनल्पशः ॥१५॥ सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्यालब्धपर्याप्तदेहिनः । संमवी सर्वथा तावान् श्रुतावरणवर्जितः ॥१६॥ सर्वस्यैव हि जीवस्य तावन्मात्रस्य नावृतिः । आवृतौ तु न जीवः स्यादुपयोगवियोगतः ॥१७॥ जीवोपयोगशक्तश्च न विनाशः सयुक्तिकः । स्यादेवात्यभ्ररोधेऽपि सूर्याचन्द्रमसोः प्रभा ॥१८॥ पर्यायानन्तभागेन पर्यायो युज्यते यदा। स पर्यायसमासः स्यात् श्रुतभेदो हि सावृतिः ॥१९॥ अनन्तासंख्यसंख्येयभागवृद्धिक्षयान्वितः। संख्येयासंख्यकानन्तगुणवृद्धि क्रमेण च ॥२०॥ स्यात्पर्यायसमासोऽसौ यावदक्षरपूर्णता । एकैकाक्षरवृद्धया स्यात् तत्समासः पदावधिः ॥२१॥ पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदं स्थितम् ॥२२॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्यं द्वितीयं तु पदमष्टाक्षरात्मकम् ॥२३॥
जो रागादिक दोष तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन आवरणोंसे रहित हो ॥११॥ श्रुतज्ञानके १ पर्याय.२ पर्याय-समास.३ अक्षर, ४ अक्षर-समास, ५ पद.६ पद-समास. ७ संघात, समास, ९ प्रतिपत्ति, १० प्रतिपत्ति-समास, ११ अनुयोग, १२ अनुयोग-समास, १३ प्राभृत-प्राभृत, १४ प्राभृत-प्राभृत-समास, १५ प्राभृत, १६ प्राभृत-समास, १७ वस्तु, १८ वस्तु-समास, १९ पूर्व और २० पूर्व-समास-ये बीस भेद हैं ॥१२-१३॥ श्रुतज्ञानके अनेक विकल्पोंमें एक विकल्प एक ह्रस्व अक्षर रूप भी है। इस विकल्पमें द्रव्यकी अपेक्षा अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंसे निष्पन्न स्कन्धका संचय होता है ॥१४॥ इस एक ह्रस्वाक्षररूप विकल्पके अनेक बार अनन्तानन्त भाग किये जावें तो उनमें एक भाग पर्याय नामका श्र तज्ञान होता है ॥१५॥ वह पर्याय ज्ञान सूक्ष्मनिगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवके होता है और श्रुतज्ञानावरणके आवरणसे रहित होता है ॥१६॥ सभी जीवोंके उतने ज्ञानके ऊपर कभी आवरण नहीं पड़ता। यदि उसपर भी आवरण
ड़ जावे तो ज्ञानोपयोगका सर्वथा अभाव हो जायेगा और ज्ञानोपयोगका अभाव होनेसे जीवका भी अभाव हो जायेगा ॥१७॥ यह युक्तिसे सिद्ध है कि जीवकी उपयोग शक्तिका कभी विनाश नहीं होता। जिस प्रकार कि मेघका आवरण होनेपर भी सूर्य और चन्द्रमाको प्रभा कुछ अंशोंमें प्रकट रही आती है उसी प्रकार श्रु तज्ञानका आवरण होनेपर भी पर्याय नामका ज्ञान प्रकट रहा आता है ॥१८॥ जब यही पर्यायज्ञान पर्याय ज्ञानके अनन्तवें भागके साथ मिल जाता है तब वह पर्याय-समास नामका श्रुतज्ञान कहलाने लगता है । यह श्रुतज्ञान आवरणसे सहित होता है अर्थात् जबतक पर्याय-समास नामक श्रु तज्ञानावरणका उदय रहता है तबतक प्रकट नहीं होता उसका क्षयोपशम होनेपर ही प्रकट होता है ॥१९॥ यह पर्याय-समासज्ञान अनन्तभागवृद्धि, असंख्यभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि एवं संख्यातभागहानिसे सहित हैं। पर्यायज्ञानके ऊपर संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके क्रमसे वृद्धि होते-होते जबतक अक्षरज्ञानको पूर्णता होती है तबतकका ज्ञान पर्याय-समासज्ञान कहलाता है। उसके बाद अक्षरज्ञान प्रारम्भ होता है उसके ऊपर पदज्ञान तक एक-एक अक्षरकी वृद्धि होती है। इस वृद्धि प्राप्त ज्ञानको अक्षर-समास ज्ञान कहते हैं। अक्षर-समासके बाद पदज्ञान होता है ।।२०-२१॥ अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपदके भेदसे पद तीन प्रकारका है ।।२२।। इनमें एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात अक्षर१. मासृतं म. । २. एकं म., क. ।
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दशमः सर्गः
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कोट्यश्चैवं चतुस्त्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश । ज्यशीतिश्च पुनर्लक्षाः शतान्यष्टौ च सप्ततिः ॥२४॥ अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिताः । पूर्वाङ्गपदसंख्या स्यान्मध्यमेन पदेन सा ॥२५॥ एकैकाक्षरवृद्धया तु तस्समासमिदस्ततः । इत्थं पूर्वसमासान्तं द्वादशाङ्गं श्रुतं स्थितम् ॥२६॥ अष्टादशसहस्राणां पदानां संख्यया युतम् । तत्राचाराङ्गमाचारं साधूनां वर्गयत्यलम् ॥२७॥ यत्पत्रिंशत्सहस्रस्तु पदैः सूत्रकृतं युतम् । परस्वसमयार्थानां वर्णकं तद् विशेषतः ॥२८॥ चत्वारिंशत्सहस्रैश्च द्विसहस्रः पदैयुतम् । स्थानं स्थानान्तरं जन्तोर्वक्त्येकादिदशोत्तरम् ॥२९॥ चतुःषष्टिसहस्रयत्पदैश्च पदलक्षया । लक्षितं समवायाङ्गं वक्ति द्रव्यादितुल्यताम् ॥३०॥ धर्माधर्मकजीवानां लोकाकाशस्य वा यथा । प्रदेशाद्वब्यतस्तुल्याः समवायेन वर्णिताः ॥३॥ सिद्धिसीमन्तकाख्यं विमानं नरलोकजम् । प्रमाणं सममित्युक्तं तत्रैव क्षेत्रतस्तथा ॥३२॥ उत्सपिण्यवसर्पियोः कालतः समतोदिता । मावतोऽनन्तयोस्तत्र ज्ञानदर्शनयोरपि ॥३३॥ पदानां तु सहस्राणि यत्राष्टाविंशतिस्तथा । लक्षयोद्धयमाख्यातं व्याख्याप्रज्ञप्तिसंज्ञके ॥३४॥ तत्रोत्पथव्युदासेन विनयेन सविस्तरः । प्रश्न व्याख्यानभेदानां क्रमः समुपवर्यते ॥३५॥
तकका पद अर्थपद कहलाता है। आठ अक्षररूप प्रमाणपद होता है और मध्यमपदमें सोलह सो चौंतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षर होते हैं, और अंग तथा पूर्वोके
को संख्या इसी मध्यम पदसे होती है॥२३-२५॥ एक-एक अक्षरकी वद्धि कर पदसमाससे लेकर पूर्व-समास पर्यन्त समस्त द्वादशांग श्रुत स्थित है ॥२६॥ उनमें पहला अंग आचारांग है जो मुनियोंके आचारका अच्छी तरह वर्णन करता है और अठारह हजार पदोंसे सहित है ॥२७॥ दूसरा अंग सूत्रकृतांग है जो स्वसमय और परसमयका विशेषरूपसे वर्णन करता है तथा छत्तीस हजार पदोंसे सहित है ।।२८॥ तीसरा अंग स्थानांग है जो जीवके एकसे लेकर दश तक स्थानोंका वर्णन करता है और बयालीस हजार पदोंसे सहित है। भावार्थ-स्थानांगमें-जीवके एक केवलज्ञान, एक मोक्ष, एक आकाश, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य आदि । दो दर्शन, दो ज्ञान, दो राग-द्वेष आदि । तीन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय, माया, मिथ्या, निदानतीन शल्य, जन्म-जरा-मरण-तीन दोष आदि। चार गति, चार कषाय, चार अनन्त चतुष्टर आदि । पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच अस्तिकाय, पाँच कषाय आदि । छह द्रव्य, छह लेश्या, छह काय, छह आवश्यक आदि। सात तत्त्व, सात भय, सात व्यसन, सात नरक आदि। आठ कर्म, आठ गुण, आठ ऋद्धियाँ आदि, नौ पदार्थ, नौ नय, नौ शील आदि। तथा दश धर्म, दश परिग्रह, दश दिशा आदि। इस तरह सदृश संख्यावाले पदार्थों का वर्णन है ।।२९|| चौथा अंग समवायांग है। यह एक लाख चौंसठ हजार पदोंसे सहित है तथा द्रव्य आदिको तुल्यताका वर्णन करता है ॥३०॥ जैसे धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, एक जीव द्रव्य और लोकाकाशके प्रदेश एक बराबर हैं-असंख्यातप्रदेशी हैं--यह द्रव्यको अपेक्षा तुल्यता समवाय अंग द्वारा वर्णित है ।।३१।। सिद्धशिला, प्रथम नरकका सीमन्तक नागका इन्द्रक विल, प्रथम स्वर्गका ऋतू-विमान और अढ़ाई द्वोप ये क्षेत्रसे समान हैं-पैंतालीस लाख योजन विस्तारवाले हैं-यह क्षेत्रको अपेक्षा समानता उसी समवायांगमें कही गयी है ॥३२॥ कालकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीको समानता कही गयी है अर्थात् दोनों दश-दश कोडाकोड़ी सागर प्रमाण हैं और भावकी अपेक्षा केवलज्ञान तथा केवलदर्शनकी तुल्यता बतलायी गयी है अर्थात् जिस प्रकार केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद हैं उसी प्रकार केवलदर्शनके भी अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं ॥३३॥ पांचवां अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग है उसमें पदोंको संख्या दो लाख अट्ठाईस हजार है। इस अंगमें कुमर्गित्यागी गणधरादि
१. कख्यिं म.।
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हरिवंशपुराणे
षट्पञ्चाशत् सहस्राणि पञ्च लक्षाः पदानि तु । ज्ञातृधर्मकथाचष्टे जिनधर्मकथामृतम् ॥३६॥ यत्रैकादशलक्षाश्च सहस्राण्यपि सप्ततिः । पदान्युपासकास्तत्रोपासकाध्ययने सृताः ॥३७॥ त्रयोविंशतिलक्षाश्च सहस्राणि च विंशतिः । अष्टौ चैव सहस्राणि स्युः पदान्यन्तकृदशे ॥३८॥ दशोपसर्गजेतारः प्रतितीर्थ दशोदिताः । संसारान्तकृतस्तत्र मुनयो ह्यन्तकृद्दशे ॥३९॥ लक्षाद्वानवतिर्यत्र चत्वारिंशत्सहस्रकैः । चत्वारिंशत्सहस्राणि पदान्यभिहितानि तु ॥४०॥ तत्रौपपादिके देशे वर्ण्यन्तेऽनुत्तरादिके । दशोपसर्गजयिनो दशानुत्तरगामिनः ॥४१॥ स्त्रीपुंनपुंसकैस्तिर्यग्नृसुरैरष्ट ते कृताः । शरीराचेतनत्वाभ्यामुपसर्गा दशोदिताः ।।१२।। आक्षेपण्यादयो यत्र प्रश्नव्याकरणे कथाः । पदलशास्त्रिनवतिः सहस्राण्यत्र षोडश ॥४३॥ अङ्गं विपाकसूत्रं यद् विपाकं कर्मणोऽवदत् । कोटी चतुरशीतिश्च पदलक्षा इहोदिताः ॥४४॥ शतं कोटीभिरष्टामिः सहाष्टाः षष्टिलक्षकाः । षट्पञ्चाशत्सहस्राणि पदानां पञ्च यत्र हि ॥४५॥ दृष्टिवादप्रमाणं स्यादेतत्तत्र सविस्तरम् । शतानि त्रीणि वर्ण्यन्ते विषष्टयाधिकदृष्टयः ॥४६॥ क्रियातश्चाक्रियातोऽन्या अज्ञानाद्विनयात्पराः । वदन्त्यो दृष्टयः सिद्धिं ताश्चतुर्धा व्यवस्थिताः ॥४७॥ सक्रियाः शतधाऽशीत्या चतस्रोऽशीतिरक्रियाः । अज्ञानात्सप्तषष्टिस्ता द्वात्रिंशद्विनयश्रिताः ॥४८॥
शिष्योंके द्वारा विनय-पूर्वक केवलीसे किये गये अनेक प्रश्न तथा उनके उत्तरका विस्तारके साथ वर्णन है ॥३४-३५।। छठा अंग ज्ञातकथांग है यह जिनधर्मकी कथारूप अमतका व्य करता है तथा इसमें पांच लाख छप्पन हजार पद हैं ॥३६॥ सातवाँ अंग उपासकाध्ययनांग है। श्रावकगण इसी अंगके आश्रित हैं अर्थात् श्रावकाचारका वर्णन इसी अंगमें है, इस अंगमें ग्यारह लाख सत्तरह हजार पद हैं ॥३७॥ आठवाँ अंग अन्तकृद् दशांग है इसमें तेईस लाख अट्ठाईस हजार पद हैं ।।३८|| इसमें प्रत्येक तीर्थकरके तीर्थमें दश प्रकारके उपसर्गको जीतकर संसारका अन्त करनेवाले दश-दश मुनियोंका वर्णन है ॥३९॥ नौवाँ अंग अनुत्तरोपपादिक दशांग है इसमें बानबे लाख चवालीस हजार पद कहे गये हैं। इस अंगमें प्रत्येक तीर्थंकरके तीर्थमें दश प्रकारके उपसर्ग जीतकर अनुत्तरादि विमानोंमें उत्पन्न होनेवाले दश-दश मुनियोंका वर्णन है ।।४०-४१॥ स्त्री, पुरुष और नपुंसकके भेदसे तीन प्रकारके तिर्यंच, तीन प्रकारके मनुष्य एवं स्त्री और पुरुषके भेदसे दो प्रकारके देव इन आठ चेतनोंके द्वारा किये हुए आठ प्रकारके चेतनकृत, एक शारीरिक, कुष्ठादिककी वेदनाकृत और एक अचेतनकृत-दीवाल आदिके गिरनेसे उत्पन्न सब मिलाकर दश प्रकारके उपसर्ग कहे गये हैं ॥४२॥ दशवा अंग प्रश्नव्याकरणांग है इसमें *आक्षेपिणी आदि कथाओंका वर्णन है तथा इसमें तिरानबे लाख सोलह हजार पद हैं ॥४३|| ग्यारहवां अंग विपाकसूत्रांग है। यह अंग ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके विपाक-फलका वर्णन करता है और इसमें एक करोड़ चौरासौ लाख पद हैं ॥४४॥ और बारहवां अंग दृष्टिप्रवाद अंग है इसमें पदों की संख्या एक सौ आठ करोड़ अड़सठ लाख छप्पन हजार पाँच है ।।४५।। इस अंगमें तीन सौ त्रेसठ दृष्टियोंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है ॥४६॥ मलमें १ क्रियादृष्टि, २ अक्रियादृष्टि, ३ अज्ञानदृष्टि और ४ विनयदृष्टिके भेदसे दृष्टियाँ चार प्रकारकी हैं । ये दृष्टियाँ क्रमसे क्रिया, अक्रिया, अज्ञान और विनयसे सिद्धिको प्राप्ति होती है, ऐसा निरूपण करती हैं ।।४७॥ इनमें
१. के ते दशोपसर्गाः ? तियंचः स्त्रीपुंनपुंसकाः, नरः स्त्रीपुंनपुंसकाः, देवाः स्त्रीपुरुषाः इत्थं चेतनकृता अष्टौ शारीरिक कुष्ठव्याध्यादि, अचेतनं भित्तिपतनादिकम्-सर्वे दशविधा उपसर्गाः ।
* १ आक्षेपिणी, २ विक्षेपिणी, ३ संवैदिनी और ४ निर्वेदिनीके भेदसे कथाएँ चार प्रकारको हैं: जिसमें स्वमतका स्थापन होता है उसे आक्षेपिणी, जिसमें परमतका खण्डन है उसे विक्षेपिणी, जिसमें धर्मके कलका वर्णन है उसे संवेदिनी और जिसमें वैराग्यका वर्णन है उसे निर्वेदिनी कथा कहते हैं।
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दशमः सर्गः
१८९ नियतिश्च स्वभावश्च कालो दैवं च पौरुषम् । पदार्थ नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ ॥४९॥ पञ्चमिनियतिपृष्टश्चतुर्मिः स्वपरादिमिः । एकैकस्यात्र जीवादेोगेऽशीत्युत्तरं शतम् ॥५०॥ नियत्यास्ति स्वतो जीवः परतो नित्यतोऽन्यतः । स्वभावाकालतो दैवात् पौरुषाच्च तथेतरे ॥५१॥ सप्तजीवादितत्त्वानि स्वतश्च परतोऽपि च । प्रत्येक पौरुषान्तेभ्यो न सन्तीति हि सप्ततिः ॥५२॥ नियते कालतः स्वन्तन तानीति चतुर्दश । सप्तत्या सत्यमायोगेऽशीतिश्चतुरधिष्ठिताः ॥५३॥ पदार्थान्नव को वेत्ति सदाद्यः सप्तभङ्गकैः । इत्याज्ञानिकसंदृष्ट्या त्रिषष्टिरुपचीयते ॥५४॥ सजीवभाववित्को वा को वाऽसजीवभाववित् । सदसज्जीवभावज्ञः कश्चावक्तव्यजीववित् ॥१५॥ सदवक्तव्यजीवज्ञोऽसदवक्तव्यविच्च कः । सदसत्तमवक्तव्यं को वा वेत्तीति यो जनः ॥५६॥ सद्भावोत्पत्तिविद् वा कोऽसद्भावोत्पत्तिविच्च कः । उभयोत्पत्तिवित्कश्चाऽवक्तव्योत्पत्ति विच्च कः ।।५।।
क्रियावादी एक सौ अस्सी, अक्रियावादी चौरासी, अज्ञानवादी अड़सठ और विनयवादी बत्तीस है ।।४८।। नियति, स्वभाव, काल, देव और पौरुष इन पाँचका स्वतः, परतः, नित्य और अनित्य इन चारके साथ गणा करनेपर बीस भेद होते हैं और इन बीस भेदोंका जीवादि नौ पदार्थों के साथ योग करनेपर क्रियावादियोंके एक सौ अस्सी भेद होते हैं। जैसे कोई मानता है कि जीव नियतिसे स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है । कोई मानता है कि जीव स्वभावसे स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है। कोई मानता है कि जीव कालसे स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है, कोई मानता है कि नित्य है, कोई मानता है कि अनित्य है
और कोई मानता है कि जीव देवसे स्वतः है। कोई मानता है कि परतः है। कोई मानता है कि नित्य है और कोई मानता है कि अनित्य है। और कोई मानता है कि जीव पौरुषसे स्वतः है, कोई मानता है कि परतः है। कोई मानता है कि नित्य है और कोई मानता है कि अनित्य है। जिस प्रकार नियति आदिके कारण जीव पदार्थके बीस-बीस भंग हैं उसी प्रकार अजीवादि पदार्थों के भी बीस भंग हैं। इस तरह क्रियावादियोंके सब मिलाकर एक सौ अस्सी भेद होते हैं ॥४९-५१॥ जीवादि सात तत्त्व, नियति, स्वभाव, काल, दैव और पौरुषकी अपेक्षा न स्वतः हैं और न परतः हैं। इस तरह जीवादि सात तत्त्वोंमें नियति आदि पाँचका गुणा करनेपर पैंतीस और पैंतीसमें स्वतः, परतः इन दोका गुणा करनेपर सत्तर भेद हुए। पुनः जीवादि सात तत्त्व
ति और कालकी अपेक्षा नहीं हैं इसलिए सातमें दोका गुणा करनेपर चौदह भेद हए। पूर्वोक्त सत्तर भेदोंके साथ इन चौदह भेदोंको मिला देनेपर अक्रियावादियोंके चौरासी भेद होते हैं ॥५२-५३|| जीवादि नौ पथार्थोंको १ सत्, २ असत्, ३ उभय, ४ अवक्तव्य, ५ सद् अवक्तव्य, ६ असत् अवक्तव्य, और उभय अवक्तव्य इन नौ भंगोंसे कौन जानता है ? इस प्रकार नौ पदार्थोंमें सात भंगोंका गुणा करनेपर आज्ञानिक मिथ्यादृष्टियोंके वेसठ भेद होते हैं ॥५४|| जैसे १ कोई कहता है कि जीव सत् रूप है यह कौन जानता है ? २ कोई कहता है कि जीव असद् रूप है यह कौन जानता है ? ३ कोई कहता है कि जीव सत्-असत्-उभय रूप है यह कौन जानता है ? ४ कोई कहता है कि जीव अवक्तव्य रूप है यह कौन जानता है ? ५ कोई कहता है कि जीव सद् अवक्तव्य रूप है यह कौन जानता है ? ६ कोई कहता है कि जीव असद् अवक्तव्य रूप है यह कौन जानता है ? और कोई कहता है कि जीव सत्-असत् अवक्तव्य रूप है यह कौन जानता है ? इसी प्रकार अजीवादि पदार्थोंके साथ सात-सात भंगोंकी योजना करनेपर वेसठ भेद होते हैं। इन त्रेसठ भेदोंमें
१. तथोत्तरे म., घ.। २. वसन्तीति हि सप्ततिः ख. । ३. इत्याद्यनेक-म. ।
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हरिवंशपुराणे भावमात्राभ्युपगमैर्विकल्पैरेमिराहतैः । त्रिषष्टिः सप्तषष्टिः स्यादाज्ञानिकमतास्मिका ॥५॥ विनयः खलु कर्तव्यो मनोवाक्कायदानतः । 'पितृदेवनृपज्ञानिबालवृद्धतपस्विषु ॥५९॥ मनोवाकायदानानां मात्राद्यष्टकयोगतः । द्वात्रिंशत्परिसंख्याता वैनयिक्यो हि दृष्टयः ॥६॥ इत्येवं वदतो दृष्टिं दृष्टि वादस्य पञ्च ते । परिकर्मादयो भेदाश्चूलिकान्ता व्यवस्थिताः ।।६।। पञ्चप्रज्ञप्तयः प्रोक्ताः परिकर्मणि ताः पुनः । व्याख्याप्रज्ञप्तिपर्यन्ताश्चन्द्रसूर्यादिनामिकाः ॥६२॥ षट्त्रिंशत्पदलक्षाभिः सहस्त्रैः पञ्चमिः पदैः । चन्द्र प्रज्ञप्तिराचष्टे चन्द्रमोगादिसंपदाम् ॥६३॥ पदानां पञ्चलक्षामिः सहस्रस्त्रिभिरेव च । सूर्यप्रज्ञप्तिराख्याति सूर्यस्त्रीविभवोदयम् ॥६॥ सहस्रः पञ्चविंशत्या लक्षाभिस्तिसृभिः पदैः । जम्बूद्वीपस्य सर्वस्वं तत्प्रज्ञप्तिः प्रभाषते ॥६५॥ पदलक्षा द्विपञ्चाशत् षत्रिंशत्सहस्रकाः । प्रज्ञप्तौ सन्ति यस्यां सा द्वीपसागरवणिनी ॥६६॥ लक्षाश्चतुरशीतिर्या सषत्रिंशत्सहस्रकाः । पदानां प्रवदत्येषा व्याख्याप्रज्ञप्तिरुच्यते ॥६७।। रूपिद्रव्यमरूपं च भव्यामव्यात्मसंचयम् । व्याख्याप्रज्ञप्तिराख्याति समस्तं सा सविस्तरम् ॥६८॥ पदाष्टाशीति लक्षा हि सून्ने चादावबन्धकाः । श्रुतिस्मृतिपुराणार्था द्वितीये सूत्रताः पुनः ॥६२॥ तृतीये नियतिः पक्षश्चतुर्थे समयाः परे । सुत्रिता ह्यधिकारेअपनानाभेदव्यवस्थिताः ॥७॥ पदैः पञ्चसहस्रेस्तु प्रयुक्त प्रथमे पुनः । अनुयोगे पुराणार्थस्त्रिषष्टिरुवार्यते ॥७१।।
चतुर्दशविधं पूर्व गतं श्रुतमुदीर्यते । प्रतिपूर्व च वस्तूनि ज्ञातव्यानि यथाक्रमम् ॥७२॥ १जीवकी सत् उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? २ जोवकी असत उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? ३ जीवकी सत्-असत् उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? और जीवकी अवक्तव्य उत्पत्तिको जाननेवाला कौन है ? केवल भावकी अपेक्षा स्वीकृत इन चार भेदोंके और मिला देनेपर आज्ञानिक मिथ्यादृष्टियोंके सब भेद सड़सठ हो जाते हैं ॥५५-५८॥ १ माता, २ पिता, ३ देव, ४ राजा, ५ ज्ञानी, ६ बालक, ७ वृद्ध और ८ तपस्वी इन आठका मन, वचन, काय और दानसे विनय करना चाहिए । इसलिए मन, वचन, काय और दान इन चारका माता आदि आठके साथ संयोग करनेपर वैनयिक मिथ्यादष्टियों के बत्तीस भेद हो जाते हैं ॥५९-६०। इस प्रकार अनेक मिथ्यादृष्टियोंका कथन करनेवाले दृष्टिवाद अंगके १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ अनुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका ये पांच भेद हैं ।।६१॥ परिकर्ममें १ चन्द्रप्रज्ञप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ये पाँच प्रज्ञप्तियाँ कही गयी हैं अर्थात् इन पाँच प्रज्ञप्तियोंकी अपेक्षा परिकर्मके पाँच भेद हैं ।।६२।। इनमें चन्द्रप्रज्ञप्ति छत्तीस लाख पाँच हजार पदोंके द्वारा चन्द्रमाको भोग आदि सम्पदाका वर्णन करती है ।।६३।। सूर्यप्रज्ञप्ति पाँच लाख तोन हजार पदोंके द्वारा सूर्यके स्त्री आदि विभवका निरूपण करती है ॥६४।। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तीन लाख पचीस हजार पदोंके द्वारा जम्बूद्वीपके सर्वस्वका वर्णन करती है ।।६५।। जिसमें बावन लाख छत्तीस हजार पद हैं, ऐसी द्वीप और सागरोंका वर्णन करनेवाली चौथी द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्ति है ॥६६।। जो चौरासी लाख छत्तीस हजार पदोंसे युक्त है वह पांचवीं व्याख्याप्रज्ञाप्त कही जाती है ।।६७|| व्याख्याप्रज्ञप्ति रूपीद्रव्य, अरूपीद्रव्य तथा भव्य-अभव्य जीवोंके समूह आदि सबका विस्तारके साथ वर्णन करती है ॥६८॥ दृष्टिवादके दूसरे भेद सूत्रमें अठासी लाख पद हैं, इसके अनेक भेदोंमें-से प्रथम भेदमें अबन्धक-बन्ध न करनेवाले भावोंका वर्णन है। दूसरे भेदमें श्रुति, स्मृति और पुराणके अर्थका निरूपण है। तीसरे भेदमें नियति पक्षका कथन है और चौथे भेदमें नाना प्रकारके परसमयों-अन्य दर्शनोंका निरूपण है ।।६९-७०।। दृष्टिवादके तीसरे भेद अनुयोगमें पांच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेद प्रथमानुयोगमें वेसठ शलाकापुरुषोंके पुराणका वर्णन है ।।७१।। दृष्टिवादका १. माता च पिता च इति पितरौ एकशेषात् मातृपदस्य लोपः । २. ते म. ।
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दशमः सर्गः दश चतुर्दशाष्टौ चाष्टादश द्वादश द्वयोः । दशषड्विंशतिस्त्रिंशत्तत्तत्पञ्चदशैव तु ॥७३॥ दशैवोत्तरपूर्वाणां चतुणां वर्णितानि वै । प्रत्येकं विंशतिस्तेषां वस्तूनां प्राभृतानि तु ॥७॥ पूर्वमुपादपूर्वाख्यं पदकोटीप्रमाणकम् । द्रव्यध्रौव्यव्ययोत्पादत्रयव्यावर्णनात्मकम् ॥७५॥ लक्षाः षण्णवतियंत्र पदानां तेन दृष्टयः । वर्ण्यन्तेऽप्रायणीयेन स्वमतानपदानि तु ॥७॥ अग्रायणीयपूर्वस्य यान्युकानि चतुर्दश । विज्ञातव्यानि वस्तूनि तानीमानि यथाक्रमम् ।।७७॥ पूर्वान्तमपरान्तं च ध्रुवमध्रुवमेव च । तथाच्यवनलब्धिश्च पञ्चमं वस्तु वर्णितम् ॥७८॥ अध्वं संप्रणयन्तं कल्पाश्चार्थश्च नामतः । मौमावयाद्यमित्यन्यत् तथा सर्वार्थकल्पकम् ॥७९॥ निर्वाणं च तथा ज्ञेयातीतानागतकल्पता । सिद्धयाख्यं चाप्युपाध्याख्यं ख्यापितं वस्तु चान्तिमम् ॥८॥ वस्तुनः पञ्चमस्यात्र चतुर्थे प्राभृते पुनः । कर्मप्रकृतिसंज्ञे तु योगद्वाराण्यमूनि तु ॥८१॥ कृतिश्च वेदनास्पर्शः कर्माख्यं च पुनः परम् । प्रकृतिश्च तथैवान्यद् बन्धनं च निबन्धनम् ।।८२॥ प्रक्रमोपक्रमौ प्रोक्तावुदयो मोक्ष एव च । संक्रमश्च तथा लेश्या लेश्याकर्म च वणितम् ॥८३॥ लेश्यायाः परिणामश्च सातासातं तथैव च । दीर्घहस्वमपि तथा भवधारणमेव च ॥८॥ पुद्गलात्मामिधानं च तन्निधत्तानिधत्तकम् । सनिकाचितमित्यन्यदनिकाचितसंयुतम् ॥८५|| कर्मस्थितिकमित्युक्तं पश्चिम स्कन्ध एव च । समस्तविषयाधीना बोध्याल्पबहुता तथा ।।८६॥ अन्येषामपि पूर्वाणां वस्तुषु प्राभृतेषु च । अनुयोगेषु चान्येषु भेदो ग्राह्यो यथागमम् ॥८७॥ । पदानां सप्ततिर्लक्षा यत्र वर्णयति स्फुटम् । तद्वीर्यानुप्रवादाख्यं वीर्य वीर्यवतां सताम् ॥८॥ अस्तिनास्तिप्रवादं च यत्पष्टिपदलक्षकम् । जीवाद्यस्तित्वनास्तित्वं स्वपरादिमिराह तत् ।।८९॥ एकोनपदकोटीकं यत्तद्वर्णयति श्रुतम् । पूर्व ज्ञानप्रवादाख्यं ज्ञानं पञ्चविधं गुणः ॥१०॥
चौथा भेद पूर्वगत कहा जाता है उसके उत्पाद आदि चौदह भेद हैं और प्रत्येक भेदमें निम्न प्रकार वस्तुओंकी संख्या जाननी चाहिए ।।७२।। उन भेदोंमें क्रमसे दश, चौदह, आठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दश, दश, दश और दश वस्तुएं हैं तथा प्रत्येक वस्तुके बीसबीस प्राभूत होते हैं ॥७३-७४। पहला उत्पादपूर्व है उसमें एक करोड़ पद हैं तथा द्रव्योंके उत्पादव्यय और ध्रौव्यका वर्णन है ।।७५|| दूसरा आग्रायणीय पूर्व है उसमें छियानबे लाख पद हैं तथा स्वमत सम्मत सात तत्त्व नव पदार्थ आदिका वर्णन है ॥७६॥ पहले आग्रायणीय पूर्वकी जिन चौदह वस्तुओंका कथन किया गया है उनके नाम यथाक्रमसे इस प्रकार जानना चाहिए ||७७|| १ पूर्वान्त, २ अपरान्त, ३ ध्रुव, ४ अध्रुव, ५ अच्यवन लब्धि, ६ अध्रुव सम्प्रणधि, ७ कल्प, ८ अर्थ, ९ भौमावय, १० सर्वार्थकल्पक, ११ निर्वाण, १२ अतीतानागत, १३ सिद्ध और १४ उपाध्याय ॥७८-८०|| आग्रायणीय पूर्वकी पंचम वस्तुके बीस प्राभृत (पाहुड़) हैं। उनमें कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृतमें निम्नलिखित चौबीस योगद्वार हैं ।।८१॥ १ कृति, २ वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५ प्रकृति, ६ बन्धन, ७ निबन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११ मोक्ष, १२ संक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १५ लेश्यापरिणाम, १६ सातासात, १७ दोघहस्त्र, १८ भवधारण, १९ पुदगलात्मा, २०निधत्तानिधत्तक, २१ सनिकाचित, २२ अनिकाचित, २३ कर्मस्थिति और २४ स्कन्ध । इन योगद्वारोंमें समस्त विषयोंकी हीनाधिकता यथायोग्य जाननी चाहिए ।।८२-८६।। अन्य पूर्वोकी वस्तु, प्राभृत तथा अनुयोग आदिका भेद आगमके अनुसार जानना चाहिए ॥७॥ जिसमें सत्तर लाख पद हैं ऐसा तीसरा वीर्यानुप्रवाद नामका पूर्व अतिशय पराक्रमी सत्पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन करता है ॥८८॥ जिसमें साठ लाख पद हैं ऐसा चौथा अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व स्वचतुष्टयकी अपेक्षा जीवादि द्रव्योंके अस्तित्व और पर-चतुष्टयकी अपेक्षा उनके नास्तित्वका कथन करता है ।।८९|| एक कम एक करोड़ पदोंसे सहित जो पांचवाँ ज्ञानप्रवाद नामका पूर्व है वह पांच
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१९२
हरिवंशपुराणे पूर्व सत्यप्रवादाख्यं पदकोटीकषट्पदम् । भाषा द्वादशधा प्राह दशा सत्यभाषणम् ॥११॥ हिंसाद्यकर्तुः कर्तुर्वा कर्त्तव्यमिति माषणम् । अभ्याख्यानं प्रसिद्धी हि वागादिकलहः पुनः ॥१२॥ दोषाविष्करणं दुष्टैः पश्चात्यैशुन्यभाषणम् । भाषा बद्धप्रलापाख्या चतुर्वर्गविवजिता ॥१३॥ रत्यरत्यभिधे वोभे रत्यरत्युपपादिक । आसज्यते यथार्थषु श्रोता सोपाधिवाक पुनः ॥१४॥ वञ्चनाप्रवणं जीवं कर्ता निःकृतिवाक्यतः । न नमत्यधिकेष्वात्मा सा चाप्रणतिवागभूत् ॥१५॥ या प्रवर्तयति स्तेये मोघवाक सा समीरिता । सम्यग्मार्ग नियोक्त्री या सम्यग्दर्शनवागसौ ॥१६॥ मिथ्यादर्शनवाक सा या मिथ्यामागोपदेशिनी । वाचो द्वादशभेदाया वकारो द्वीन्द्रियादतः ॥९७।। दशधा सत्यसद्भावे नामसत्यमुदाहृतम् । इन्द्रादिव्यवहारार्थ यत् संज्ञाकरणं हि तत् ।।९८॥ यदर्थासंनिधानेऽपि रूपमात्रेण भाष्यते । तद्र पसत्यं चित्रादिपुरुषादावचेतने ॥१९॥ आकारेणाक्षपुस्तादौ सता वा यदि वासता । स्थापितं व्यवहारार्थ स्थापनासत्यमुच्यते ॥१०॥ प्रतीत्य वर्तते भावान यदीपशमकादिकान् । प्रतीत्यसत्यमित्युक्तं वचनं तद्यथागमम् ॥१०१॥
प्रकारके ज्ञानका वर्णन करता है ॥९०॥ जिसमें छह अधिक एक करोड़ पद हैं ऐसा छठवां सत्यप्रवाद नामका पूर्व बारह प्रकारको भाषा तथा दश प्रकारके सत्य वचनका कथन करता है ।।९१॥ बारह प्रकारकी भाषाओंके नाम और स्वरूप इस प्रकार हैं-हिंसादि पापोंके करनेवाले अथवा नहीं करनेवालेके लिए करना चाहिए' इस प्रकार कहना सो अभ्याख्यान भाषा है। कलह कारक वचन बोलना सो कलह भाषा है यह प्रसिद्ध ही है ॥९२॥ दुष्ट मनुष्योंके द्वारा पीठ पीछे दोषोंका प्रकट किया जाना सो पैशुन्य भाषा है। जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार वर्गोके वर्णनसे रहित है वह बद्धप्रलाप नामक भाषा है ।।९३॥ रति अर्थात् राग उत्पन्न करनेवाली भाषाको रति भाषा कहते हैं और अरति अर्थात् द्वेष उत्पन्न करनेवाली भाषाको अरति भाषा कहते हैं, जिसके द्वारा श्रोता अर्थार्जन आदि कार्योंमें लग जाता है वह उपाधि वाक् भाषा है। जो जीवको धोखादेहीमें निपुण करती है वह निकृति भाषा है। जो अपनेसे अधिक गुणवालोंको नमस्कार नहीं करती है वह अप्रणति भाषा है ।।९४-९५॥ जो जीवको चोरीमें प्रवृत्त करती है वह मोघ ( मोष ) भाषा है । जो समीचीन मार्गमें लगाती है वह सम्यग्दर्शन भाषा है और जो मिथ्या मार्गका उपदेश देती है वह मिथ्यादर्शन भाषा है। इन बारह प्रकारको भाषाओंके बोलनेवाले द्वीन्द्रियादिक जीव हैं ॥९६-९७।। सत्य वचन दश प्रकारके हैं उनमें पहला नाम सत्य कहा गया है, व्यवहार चलानेके लिए किसीका इन्द्र आदि नाम रख लेना नामसत्य है ॥९८॥ पदार्थके न होनेपर भी रूप-मात्रकी मुख्यतासे जो कथन होता है वह रूपसत्य है जैसे किसी मनुष्यके अचेतन चित्रको उस मनुष्यरूप कहना ॥९९॥ पांसा तथा खिलौना आदिमें आकारको समानता होने अथवा न होनेपर भी व्यवहारके लिए जो स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है जैसे सतरंजकी गोटोंमें वैसा आकार न होनेपर भी बादशाह-वजीर आदिकी स्थापना करना और हाथी, घोड़ा आदिके खिलौनोंमें उन जैसा आकार होनेपर हाथी, घोड़ा आदिको स्थापना करना ॥१००॥ आगमके अनुसार प्रतीतिकर औपशमिकादि भावोंका कथन करना प्रतीत्य सत्य है। जैसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें आगममें औदयिक भाव बतलाया है। यद्यपि वहाँ ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम भाव १. अभ्याख्यानकलहपैशुन्यासंबद्धप्रलापरत्यरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यग्दर्शनमिथ्यादर्शनात्मिका भावा द्वादशधा ।-राजवातिक प्रथमाध्याय सूत्र २० । २. नामरूपस्थापनाप्रतीत्यसंवृतिसंयोजनाजनपददेशभावसमयसत्यभेदेन दशविधः सत्यभावः ।
-राजवातिक प्र. अ. सू. २० । ३. जयार्थेषु म., जयार्थेषु स्रोतारो बधिता पुनः क. । ४. प्रतीत्या म.।
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वशमः सर्गः
१९३ सामग्रीकृतकायस्य वाचकत्वैकदेशतः । वचः संवृतिसत्यं स्यात् भेरीशब्दादिकं यथा ॥१.२॥ चेतनाचेतनवग्यसंनिवेशाविमागकृत् । वचः संयोजनासत्यं क्रौनब्यूहादिगोचरम् ॥१०॥ यदार्याऽनायनानास्वनानाजमपदेविह। चतुर्वर्गकरं वाक्यं सत्यं जनपदाश्रितम् ॥१०॥ यद्मामनगराचारराजधर्मोपदेशकृत् । गणाश्रमपदोनासि देशसत्यं तु तन्मतम् ।।१०५।। छमस्थे द्रव्ययाथात्म्यज्ञानवैकल्यवस्यपि । प्रासुकाप्रासुकत्वेऽपि मावसत्यं वचः स्थितम् ॥१०६॥ द्रव्यपर्यायभेदानां याथात्म्यप्रतिपादकम् । यत्तस्समयसत्यं स्यादागमार्थपरं वचः॥१०॥ कोन्यः षड्विंशतियंत्र पदानां परिवर्णिताः । आत्मप्रवादपूर्वेऽपि भूयोयुक्तिपरिग्रहे ॥१०॥ तत्र कर्तृत्वभोक्तृत्वनिस्यतानित्यतादयः । आत्मधर्मा निरूप्यन्ते तद्भेदाश्च सयुक्तिकाः ॥१०९॥ साशीतिपदलकपदकोटीप्रमाणकम् । पूर्व कर्मप्रवादाख्यं कर्मबन्धस्य वर्णकम् ॥११॥ लक्षाश्चतुरशीतिस्तु पदानां यत्र वणिताः । पूर्व नवममाख्यातं प्रत्याख्यानं तदाख्यया ॥११॥ प्रमिताप्रमितं तत्र द्रव्यमावसमाश्रयम् । प्रत्याख्यानं समाख्यातं यच्च श्रामण्यवर्धनम् ॥११२॥ कोटी च दशलक्षाश्च यत्पदानां प्रवत्तिता । तद्विद्यानुप्रवादाख्यं पूर्व दशममत्र च ॥११३।।
लवोऽङ्गष्टप्रसेनाद्या विद्याः सप्तशतानि तु । रोहिण्याद्या महाविद्याः प्रोक्ताः पञ्चशतानि च ॥११॥ होनेसे क्षयोपशमिक तथा जीवत्व और भव्यत्व अथवा जीवत्व और अभव्यत्वकी अपेक्षा पारिणामिक भाव भी है परन्तु आगमके कहे अनुसार वहां दर्शनमोहकी अपेक्षा औदयिक भाव ही कहना ॥१०१॥ समुदायको एक देशको मुख्यतासे एक रूप कहना संवृति सत्य है, जैसे भेरी, तबला, बाँसुरो, वीणा आदि अनेक बाजोंका शब्द जहां एक समूहमें हो रहा है वहां भेरी आदिकी मुख्यतासे भेरी आदिका शब्द कहना ॥१०२॥ जो चेतन-अचेतन द्रव्योंके विभागको करनेवाला न हो उसे संयोजना सत्य कहते हैं। जैसे क्रौंचव्यूह आदि। भावार्थ-क्रौंचव्यूह, चक्रव्यूह आदि सेनाओंकी रचनाके प्रकार हैं और सेनाएँ चेतन-अचेतन पदार्थों के समूहसे बनती हैं पर जहाँ अचेतन पदार्थोंको विवक्षा न कर केवल क्रौंचाकार रची हुई सेनाको क्रौंचव्यूह और चेतन पदार्थों की विवक्षा न कर केवल चक्रके आकार रची हुई सेनाको चक्रव्यूह कह देते हैं वहाँ संयोजनासत्य होता है ।।१०३॥ जो वचन आर्य-अनार्य आदि अनेक देशोंमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका करनेवाला है उसे जनपदसत्य कहते हैं ।।१०४|| जो वचन गांवकी रीति, नगरकी रीति तथा राजाकी नीतिका उपदेश करनेवाला हो एवं गण और आश्रमोंका उपदेशक हो वह देशसत्य माना गया है॥१०५॥ यद्यपि छद्मस्थके द्रव्योंके यथार्थ ज्ञानकी विकलता है तथापि केवलीके वचनकी प्रमाणता कर वे प्रासुक और अप्रासुक द्रव्यका निर्णय करते हैं यह भावसत्य है ॥१०६।। और जो द्रव्य तथा पर्यायके भेदोंकी यथार्थताको बतलानेवाला तथा आगमके अर्थको पोषण करनेवाला वचन है वह समयसत्य है ।।१०७।। जिसमें छब्बीस करोड़ पद कहे गये हैं ऐसा सातवां आत्मप्रवाद नामका पूर्व है । इसमें अनेक युक्तियोंका संग्रह है तथा कर्तृत्व, भोक्तृत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि जीवके धर्मों और उनके भेदोंका सयुक्तिक निरूपण है ।।१०८-१०९॥ जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख पद हैं ऐसा आठवाँ कर्मप्रवाद नामका पूर्व है। यह पूर्व ज्ञानावरणादि कर्मोंके बन्धका निरूपण करनेवाला है ।।११०|| जिसमें चौरासी लाख पद हैं ऐसा नौवां प्रत्याख्यान पूर्व कहा गया है॥११॥ इस पर्वमें परिमित द्रव्य-प्रत्याख्यान और अपरिमित भाव-प्रत्याख्यानका निरूपण है तथा यह पूर्व मुनिधर्म को बढ़ानेवाला है ॥११२॥ जिसमें एक करोड़ दश लाख पद हैं ऐसा दशवां विद्यानुवाद नामका पूर्व है ॥११३। इसमें अंगुष्ठ प्रसेन आदि सात सौ लघु विद्याएं और रोहिणी
१. याथात्म्यज्ञानं वैकल्य म. । २. प्रावण्य म.। Jain Education InternatioRk
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हरिवंशपुराणे कोव्यः षड्विंशतिर्यस्मिन् पदानां सुप्रतिष्ठिताः । कल्याणनामधेयं तत् पूर्वमन्वर्थनामकम् ॥१५॥ ज्योतिर्गणस्य संचारं त्रिषष्टिपुरुषाश्रितम् । सुरासुरेन्द्र कल्याणं वर्णयस्वतिविस्तरम् ।।११।। स्वप्नान्तरिक्षमौमाङ्गस्वरव्यञ्जनलक्षणम् । छिन्नमित्यष्टधामिनं निमित्तं शाकुनं तथा ॥११७॥ यस्त्रयोदशकोटीभिः पदानां समधिष्ठितम् । प्राणावायाख्यपूर्व तत्प्रणीतं द्वादशं परम् ॥११॥ यत्र कायचिकित्सादिरायुर्वेदोऽष्टधोदितः । प्राणापानविभागादिभूतकर्मविधिस्तथा ॥११॥ क्रियाविशालपूर्व तु नवकोटीपदात्मकम् । छन्दःशब्दादिशास्त्राणि तत्र शिल्पकला गुणाः ॥२०॥ पञ्चाशत्पदलक्षाभिः कोव्यो द्वादश यत्र तु । पूर्व चतुर्दशे लोकबिन्दुसारे हि तत्र च ॥१२१॥ अङ्कराशिविधिश्चाष्टव्यवहारविधिस्तथा । परिकर्मविधिः प्रोक्तः समस्तश्रुतसंपदा ॥१२२॥ जलस्थलगताकाशरूपमायागता पुनः । चूलिका पञ्चधान्वर्थसंज्ञा भेदवती स्थिता ॥१२॥ द्रिकोव्यौ नवलक्षाश्च नवाशीतिसहस्रकैः । द्वे शते पदसंख्यानां पञ्चानां च पृथक पृथक् ॥१२॥ चतुर्दशप्रकारं स्यादङ्गबाह्यं प्रकीर्णकम् । ग्राह्य प्रमाणमेतस्य प्रमाणपदसंख्यया ॥१२५।। अष्टावक्षरकोव्यस्तु लक्षकाष्टसहस्रकैः । शतं च पञ्चसप्तत्या'तत्रेषोऽक्षरसंग्रहम् ॥१२६॥ त्रयोदशसहस्राणि पञ्चशत्येकविंशतिः । कोटो च पदसंख्येयं वर्णाः सप्तव वणिताः ॥१२७।। पञ्चविंशतिलक्षाश्च त्रयस्त्रिंशत् शतानि च । अशीतिः श्लोकसंख्येयं वर्णाः पञ्चदशात्र च ॥१२८॥ तत्र सामायिकं नाम शत्रमित्रसुखादिषु । रागद्वेषपरित्यागात्समभावस्य वर्णकम् ॥१२॥
आदि पांच सौ महाविद्याएँ कही गयी हैं ॥११४|| जिसमें छब्बीस करोड़ पद प्रतिष्ठित हैं ऐसा ग्यारहवाँ कल्याणवाद नामका पूर्व है। यह सार्थक नामधारी है और सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवोंके संचार तथा सुरेन्द्र, असुरेन्द्रकृत वेसठ शलाकापुरुषोंके कल्याणका विस्तारके साथ वर्णन करता है । साथ ही इसमें १ स्वप्न, २ अन्तरिक्ष, ३ भौम, ४ अंग, ५ स्वर, ६ व्यंजन, ७ लक्षण और ८ छिन्न इन अष्टांग निमित्तों और अनेक शकुनोंका भी वर्णन है ॥११५-११७॥ जो तेरह करोड़ पदोंसे सहित है वह प्राणावाय नामका बारहवां पूर्व है ॥११८॥ इसमें काय-चिकित्सा आदि आठ प्रकारके आयुर्वेदका तथा प्राणापान आदिके विभाग और उनकी पार्थिवी आदि धारणाओंका वर्णन है ॥११९॥ तेरहवां नौ करोड़ पदोंसे सहित क्रियाविशाल नामका पूर्व है। इसमें छन्दःशास्त्र, व्याकरण-शास्त्र तथा शिल्पकला आदि अनेक गुणोंका वर्णन है ॥१२०॥ और जिसमें बारह करोड़ पचास लाख पद हैं ऐसा चौदहवां लोकबिन्दुसार नामक पूर्व है। इसमें समस्त श्रुतरूपी सम्पदाके द्वारा अंकराशिकी विधि, आठ प्रकारके व्यवहारकी विधि तथा परिकमकी विधि कही गयी है ।।१२१-१२२॥ पहले बारहवें दृष्टिवाद अंगके पांच भेदोंमें एक चूलिका नामक भेद बता आये हैं वह जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागताके भेदसे पांच प्रकारकी है । चूलिकाके ये समस्त भेद सार्थक नामवाले हैं और इनमें प्रत्येकके दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सो पाँच पद हैं ॥१२३-१२४। इस प्रकार अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानका वर्णन किया, अब अंगबाह्यश्रुतका वर्णन करते हैं
अंगबाह्यश्रुत सामायिक आदिके भेदसे चौदह प्रकारका है, यह प्रकोणकश्रुत कहलाता है और इसका प्रमाण, प्रमाणपदको संख्यासे ग्रहण करना चाहिए ॥१२५॥ अंगबाह्य श्रुतज्ञानके समस्त अक्षरोंका संग्रह आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर प्रमाण है ॥१२६॥ इसके समस्त पदोंका जोड़ एक करोड़ तेरह हजार पांच सौ इक्कोस पद तथा शेष सात अक्षर प्रमाण है ॥१२७|| और इसके समस्त श्लोकोंकी संख्या पचीस लाख तीन हजार तीन सौ अस्सी तथा शेष पन्द्रह अक्षर प्रमाण है ॥१२८॥ उन चौदह प्रकीर्णकोंमें पहला सामायिक नामका
१. तत्रैकोऽक्षर म..
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दशमः सर्गः
जिनस्तवविधानाख्यः स चतुर्विंशतिस्तवः । वर्णको वन्दना वन्द्यवन्दनाविधिवादिनी ॥१३०॥ द्रव्ये क्षेत्रे च कालादौ कृतावद्यस्य शोधनम् । प्रतिक्रमणमाख्याति प्रतिक्रमणनामकम् ॥१३१॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यौपचारिकम् । पञ्चधा विनयं वक्ति तद् वैनयिकनामकम् ॥१३२॥ चतुःशिरस्त्रिविनतं द्वादशावर्तमेव च । कृतिकर्माख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधि परम् ॥१३३॥ दशवकालिकं वक्ति गोचरग्रहणादिकम् । उत्तराध्ययनं वीरनिर्वाणगमनं तथा ॥१३४॥ तत्कल्पव्यवहाराख्यं प्राह कल्पं तपस्विनाम् । अकल्प्यसेवनायां च प्रायश्चित्तविधि तथा ॥३५॥ यत्कल्पाकल्पसंझं स्यात् कल्पाकल्पद्वयं पुनः। महाकल्पं पुनद्रव्यक्षेत्रकालोचितं यतेः ।। १३६॥ देवोपपादमाचष्टे पुण्डरीकाख्यमप्यतः । देवोनामुपपादं तु पुण्डरीकं महादिकम् ॥१३॥ निषद्यकाख्यमाख्याति प्रायश्चित्तविधि परम् । अङ्गबाह्यश्रुतस्यायं व्यापारः प्रतिपादितः ॥१३८॥ एकमष्टौ च चत्वारि चतुः षट् सप्तमिश्चतुः । चतुः शून्यं च सप्तत्रिसप्तशून्यं नवापि च ॥१३९॥ पञ्च पञ्चैक षट् च तथैकं पञ्चतत्त्वतः । समस्तश्रुतवर्णानां प्रमाणं परिकीर्तितम् ॥१४०॥ लक्षाशीतिसहस्राणि चतुर्मिश्च चतुःशती । सप्तषष्टिश्च निर्दिष्टाः कोटीकोट्य इमाः स्फुटाः ॥१४१॥ चत्वारिंशचतुर्लक्षास्त्रिसप्ततिशतानि च । सप्ततिश्च तथा ज्ञेया इमाः कोट्यः स्फुटीकृताः ॥१४२॥ सपञ्चनवतिलक्षाः सपञ्चाशत्सहस्रकम् । सहस्रं षट्शती वर्णा वर्णाः पञ्चदशापि ते ॥१५३॥
प्रकीर्णक है। यह प्रकीर्णक शत्रु, मित्र तथा सुख-दुःख आदिमें राग-द्वेषका परित्याग कर समताभावका वर्णन करनेवाला है ॥१२९॥ दूसरा जिनस्तव नामका प्रकोर्णक है इसमें चौबीस तीर्थकरोंका स्तवन किया गया है। तीसरा वन्दना नामका प्रकीर्णक है इसमें वन्दना करने योग्य पंचपरमेष्ठी आदिकी वन्दनाकी विधि बतलायो गयी है ॥१३०।। प्रतिक्रमण नामका चौथा प्रकीर्णक द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिमें किये गये पापको शुद्ध करनेवाले प्रतिक्रमणका कथन करता है ॥१३१॥ वैनयिक नामका पांचवां प्रकीर्णक दर्शन-विनय, ज्ञान-विनय, चारित्र-विनय, तपोविनय और उपचार-विनयके भेदसे पांच प्रकारकी विनयका कथन करता है ॥१३२॥ कृतिकर्म नामका छठा प्रकीर्णक सामायिकके समय चार शिरोनति, मन-वचन-कायसे आदि-अन्त में दो दण्डवत् नमस्कार और बारह आवर्त करना चाहिए। इस प्रकार कृति-कमकी उत्तम विधिका वर्णन करता है ।।१३३॥ दशवैकालिक नामका सातवां प्रकीर्णक मुनियोंको गोचरी आदि वृत्तियोंके ग्रहण करने आदिका वर्णन करता है। आठवाँ उत्तराध्ययन नामका प्रकीर्णक महावीर भगवान्के निर्वाणगमन सम्बन्धी कथन करता है ।।१३४|| कल्पव्यवहार नामक नौवां प्रकीर्णक तपस्वियोंके करने योग्य विधिका तथा नहीं करने योग्य कार्योंके हो जानेपर उनकी प्रायश्चित्त-विधिका वर्णन करता है ॥१३५।। कल्पाकल्प नामक दशवां प्रकीर्णक करने योग्य तथा न करने योग्य दोनों कार्यों का निरूपण करता है। महाकल्प नामका ग्यारहवाँ प्रकीर्णक मुनिके द्रव्य, क्षेत्र तथा कालके योग्य कार्यका उल्लेख करता है ॥१३६॥ पुण्डरीक नामका बारहवां प्रकीर्णक दोनोंके उपपादका वर्णन करता है। महापुण्डरीक नामका तेरहवाँ प्रकीर्णक देवियोंके उपपादका निरूपण करता है ॥१३७। और निषद्य नामका चौदहवाँ प्रकीर्णक प्रायश्चित्त-विधिका उत्तम वर्णन करता है । इस प्रकार यह अंगबाह्य श्रुतज्ञानका विस्तार कहा ॥१३८|| समस्त श्रुतके अक्षरोंका प्रमाण एक, आठ, चार, चार, छह, सात, चार, चार, शून्य, सात, तोन, सात, शून्य, नौ, पाँच, पांच, एक, छह, एक और पाँच अर्थात् एक लाख चौरासी हजार चार सौ सड़सठ कोड़ाकोड़ी चवालीस लाख, सात हजार तीन सौ सत्तर करोड़ पंचानबे लाख इक्कावन हजार छह सौ पन्द्रह १. वन्दना द्विविधादिना म.।
२. पुण्डरीकाक्ष म. ।
३. सप्तति- क. । ४. १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ।
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हरिवंशपुराणे क्षयोपशमभावे च श्रुताधरणकर्मणः । मतिपूर्व परोक्षं स्यादनन्तविषयं श्रुतम् ॥१४॥ इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं स्यान्मतिज्ञानमनेकधा । परोक्षमर्थसानिध्ये प्रत्यक्षं व्यावहारिकम् ॥१४५॥ क्षयोपशमसापेक्षं निजावरणकर्मणः । अवग्रहहावायाख्याधारणातश्चतुर्विधः ॥१४॥ इन्द्रियानिन्द्रियः षड्भिश्चत्वारोऽवग्रहादयः । भवन्ति गुणिता भेदाश्चतुर्विंशतिरेव ते ॥१७॥ शब्दगन्धरसस्पर्शग्यअनावग्रहैर्युताः । चाष्टाविंशतिरुक्तास्ते द्वात्रिंशन्मूलभङ्गकैः ॥१४॥ बतायः षभिरभ्यस्तास्ते त्रयो राशयश्चतुः । चत्वारिंशं शेतं चाष्टाषष्टिः वानवतं शतम् ।। १४९।। अभ्यस्ताः सेतरैस्तैस्तैरष्टाशीतं शतद्वयम् । षट्त्रिंशत् त्रिशती च स्यादशीस्यासौ चतुर्युता ॥१५॥ मतिज्ञानविकल्पोऽयं तावत्स्वावृतिकर्मणः । क्षयोपशमभेदेन मिद्यमानः सुदृष्टिषु ।।१५१॥ देशप्रत्यक्षमुद्भूतो जीवशुद्धौ विधावधि । देशः सर्वश्च परमः पुद्गलावधिरिष्यते ॥१५२॥ देशप्रत्यक्षमेव स्यान्मनःपर्यय इत्यपि । विपुलर्जुमतिप्रख्यः सोऽवधेः सूक्ष्मगोचरः ।।१५३॥ सर्वप्रत्यक्षसत्यं स्यात्केवलावरणक्षयात् । अक्षयं केवलज्ञानं केवलं विश्वगोचरम् ॥१५४॥
है ।।१३९-१४३।। यह श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे होता है, मतिज्ञानपूर्वक होता है, परोक्ष है और अनन्त पदार्थोंको विषय करनेवाला है ।।१४४||
पांच इन्द्रियों तथा मनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। यह मतिज्ञान अनेक प्रकारका है एवं परोक्ष है। यदि पदार्थों के सान्निध्यमें होता है तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है ॥१४५॥ यह मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखता है तथा अवग्रह ईहा अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारका है ॥१४६॥ अवग्रह आदि चारों भेद पांच इन्द्रिय और मन इन छहके द्वारा होते हैं इसलिए चारमें छहका गुणा करनेसे मतिज्ञानके चौबीस भेद होते हैं ॥१४७।। इन चौबीस भेदोंमें शब्द, गन्ध, रस और स्पर्शसे होनेवाले व्यंजनावग्रहके चार भेद मिलानेसे मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद हो जाते हैं और इन अट्ठाईस भेदोंमें अवग्रह आदि चार मूलभेद मिला देनेसे बत्तीस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीसके भेदमें मतिज्ञानके भेदोंकी प्रारम्भमें तीन राशियां होती हैं। उनमें क्रमसे बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव इन छह पदार्थों का गुणा करनेपर एक सौ चवालीस, एक सौ अड़सठ तथा एक सौ बानबे भेद होते हैं । यदि बहु आदि छह तथा इनसे विपरीत एक आदि छह इन बारह भेदोंका उक्त तीन राशियोंमें क्रमसे गुणा किया जावे तो दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद होते हैं ॥१४८-१५०॥ मतिज्ञानके ये विकल्प मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशममें भेद होनेसे प्रकट होते हैं तथा सम्यग्दष्टि जीवोंके होते हैं। मिथ्यादष्टि जीवोंका म कुमतिज्ञान कहलाता है ॥१५१॥ अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे जीवमें शुद्धि होनेपर देशावधि, सर्वावधि और परमावधि यह तीन प्रकारका अवधिज्ञान होता है। यह अवधिज्ञान देश-प्रत्यक्ष है तथा पुद्गल द्रव्यको विषय करता है ॥१५२॥ मनःपर्यय ज्ञान भी देशप्रत्यक्ष ही है । इसके विपुलमति और ऋजुमतिके भेदसे दो भेद हैं तथा यह अवधिज्ञानकी अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थको विषय करता है। अवधिज्ञान परमाणुको जानता है तो यह उसके अनन्तवें भाग तकको जान लेता है ॥१५३।। अन्तिम ज्ञान केवलज्ञान है यह केवलज्ञानावरणकर्मके क्षयसे होता है, सर्व प्रत्यक्ष है, अविनाशी है और समस्त पदार्थों को जाननेवाला है ॥१५४॥
१. चतुश्चत्वारिंश शतं १४४ । २. उभयदोपकमिदम् । ३. शतं चाष्टाषष्टिः १६८ । ४. १९२ । ५. जीवसिद्धी म.। ६. विधिः म.।
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दशमः सर्ग:
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पंगेक्षस्य प्रमाणस्य हानोपादानधीः फलम् । प्रत्यक्षस्य तथोपेक्षा प्रागमोहः फलद्वयम् ॥१५५॥ पारम्पर्यण मोक्षस्य हेतुनिचतुष्टयम् । साक्षादेव भवत्येक केवलज्ञानमव्ययम् ॥१५६।। प्रमाणप्रमितार्थानां श्रद्धानं दर्शनं शुभम् । शुभक्रियासुवृत्तिश्च चारित्रमिति वर्ण्यते ॥१५७॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रत्रितयं मोक्षसाधनम् । श्रद्धेयं चाप्यनुष्टेयं परसंपदमिच्छता ॥१५८॥ इतोऽन्यदुत्तरं नास्ति नासीमापि भविष्यति । मुक्त्यङ्गमित्यवेतव्यमिति सारसमुच्चयः ॥१५९।। इत्याद्यस्य जिनेन्द्रस्य प्रपीय वचनौषधम् । संदेहान्तकनिर्मुक्का मुक्तेवामाजगत्त्रयी ॥१६॥
वंशस्थवृत्तम् गृहीतरत्नत्रयभूषणा पुरा जना बभूवुः स्थिरमावनास्तदा। परे यतिधावकधर्मदीक्षिताः कृते युगे युक्तगुणाश्चकासिरे ॥१६॥ युतं च संघेन चतुर्विधेन तं जगद्विहाराभिमुखं जिनेश्वरम् । विशुद्धसम्यक्त्वधियश्चतुर्विधाः प्रणम्य जग्मुविबुधा निजास्पदम् ॥१६॥ गृहाश्रमी श्रावकमुख्यतां श्रितों जिनेश्वरं तं भरतेश्वरो नृपः । समय॑ साकेतमितः प्रमोदवानुदारवंशस्थनृपैः परिष्कृतः ॥१६३।। इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ प्रथमतीर्थकरधर्मतीर्थप्रवर्तनो
नाम दशमः सर्गः समाप्तः ।
परोक्ष प्रमाणका फल हेय पदार्थको छोड़ने और उपादेय पदार्थको ग्रहण करनेको बुद्धि उत्पन्न होना है तथा प्रत्यक्ष प्रमाणका फल उपेक्षा-रागद्वेषका अभाव एवं उसके पूर्व मोहका क्षय होना है ॥१५५|| मतिज्ञानादि चार ज्ञान परम्परासे मोक्षके कारण हैं और एक अविनाशी केवलज्ञान साक्षात् ही मोक्षका कारण है ॥१५६।। प्रमाणके द्वारा जाने हुए पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति होना सम्यक्-चारित्र कहलाता है ॥१५७॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ये तीनों मोक्षप्राप्तिके उपाय हैं, इसलिए उत्तम सम्पदाकी इच्छा करनेवाले पुरुषको इनका श्रद्धान तथा तदनुरूप आचरण करना चाहिए ।।१५८|| इन तीनोंसे बढ़कर दूसरा मोक्षका कारण न है, न था, और न होगा। यही सबका सार है ॥१५९।। इस प्रकार आदि जिनेन्द्रके वचनरूपी औषधिका पानकर तीनों जगत् सन्देह रूपी रोगसे छूटकर ऐसे सुशोभित होने लगे मानो मक्क ही हो गये हों-मोक्षको ही प्राप्त हो गये हों॥१६०॥ उस कृतयगमें जिन जीवोंने रत्नत्रयरूप आभूषणोंको पहलेसे ग्रहण कर रखा था उस समय भगवान्की दिव्यध्वनि सुननेसे उनकी भावना और भी दृढ़ हो गयी तथा कितने ही नवीन लोग मुनिधर्म एवं श्रावक धर्मकी दीक्षा ले सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे युक्त हो सुशोभित हुए ॥१६॥ निर्मल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे युक्त चार प्रकारके देव, चतुर्विध संघसे युक्त तथा जगत्में विहार करनेके लिए उद्यत श्री जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर अपने-अपने स्थानपर चले गये ।।१६२।। गृहस्थाश्रमसे युक्त तथा श्रावकोंमें मुख्यताको प्राप्त राजा भरतेश्वर, जिनेन्द्र भगवान्को पूजाकर उच्चकुलीन राजाओंके साथ हर्षित होता हुआ अयोध्याकी ओर वापस गया ॥१६३॥ इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें प्रथम तीर्थकरके
द्वारा धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति होनेका वर्णन करनेवाला दशवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१०॥
१. उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्व वाज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥१०२ वा. मी. २. प्रागमोहफलं द्वयम् म. । ३. सुवृष्टिश्च म. (?)। ४. सूतो म. ।
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एकादशः सर्गः
अथ करवात्मजोरपत्ती भरतः सुमहोत्सवम् । कृतचक्रमहोऽयासीत् षट्खण्डविजिगीषया ॥१॥ चतुरङ्गमहासेनो नृपचक्रेण संगतः । अग्रप्रस्थितचक्रण युक्तो दिक्चक्रिणां नृणाम् ॥२॥ गङ्गानुकूलमागत्य गङ्गासागरसंगतः । गङ्गाद्वारेऽष्टम सद्वागङ्गायकृत भक्तकम् ॥३॥ द्वारेणोद्धारितेनासौ प्रविश्याश्वयुगाश्रितम् । अजितजितनामानं रथमारुह्य वेगिनम् ॥४॥ अवगाह्य महाबाहुर्जानुदनं महोदधिम् । वज्रकाण्डधनुःपाणिवैशाखस्थानमास्थितः ॥५॥ सदृष्टिमुष्टिसंधानविधानेषु विशारदः । स्वनामाङ्कममोघाख्यं मुमो चाशुंगमाशुगम् ॥६॥ शरः पपात वज्राभो गरवा द्वादशयोजनीम् । प्रासादे मागधस्याशु प्रविशन्मुखराम्बरः।।७॥ हृदयेन समं तस्मिन् प्रासादे चलिते सुरः। संभ्रान्तः स तमालोक्य चक्रिनामाङ्कितं शरम् ॥८॥ चक्रवर्तिनमुत्पन्नं ज्ञात्वा स्वं पुण्यमल्पशः । निन्दित्वा भग्नमानोऽसौ रत्नपाणिरुपागतः ॥२॥ हारं स पृथिवीसारं मुकुटं रत्नकुण्डले । उपनीय सुरलानि वस्त्रतीर्थोदकानि तु ॥१०॥ शाधि किं करवाणीश देह्यादेशं बुधोऽवदत् । मुक्तस्तेन गतः स्थान निर्ययौ भरतोऽप्यतः ॥११॥
भूतव्यन्तरसंघातान् दाक्षिणात्यान् महाबलान् । साधयन् सागरद्वारं वैजयन्तमवाप सः ॥१२॥ __ अथानन्तर समवसरणसे आकर भरतने पुत्र-जन्मका उत्सव किया, चक्ररत्नकी पूजा की
और उसके बाद छह खण्डोंको जीतने की इच्छासे प्रस्थान किया ॥१।। उस समय चतुरंग सेना उसके साथ थी, वे राजाओंके समूहसे युक्त थे और नाना दिशाओंसे आये हुए अपार जनसमूहके आगे-आगे चलनेवाले चक्ररत्नसे सहित थे ।।२।। वे गंगा नदोके किनारे-किनारे चलकर गंगासागरपर पहुंचे। वहां गंगाद्वारपर उन्होंने मन, वचन, कायकी क्रियाको प्रशस्त कर तीन दिनका उपवास किया ॥३॥ जिसमें दो घोड़े जुते हुए थे ऐसे वेगशाली रथपर सवार होकर उन्होंने द्वार खोला और समुद्रमें घुटने पर्यन्त प्रवेश किया। उस समय लम्बी भुजाओंके धारक भरत अपने हाथमें वज्ञकाण्ड नामक धनुष लिय
सुष लिये हुए थे, तथा वैशाख आसनसे खड़े थे। वे दृष्टिके स्थिर करने, कड़ी मुट्ठी बांधने और डोरोपर बाण स्थापित करनेमें अत्यन्त निपुण थे। उसो समय उन्होंने अपने नामसे चिह्नित अमोघ नामका शीघ्रगामो बाण छोड़ा ॥४-६।। वज्रके समान चमकता हुआ बाण शीघ्र ही बारह योजन जाकर मागध देवके भवन में गिरा और उसने भवनमें प्रवेश करते ही समस्त आकाशको शब्दायमान कर दिया ॥७॥ बाणके गिरते ही मागधदेवका भवन और हृदय दोनों ही एक साथ हिल उठे। वह बहुत ही क्षोभको प्राप्त हुआ। परन्तु जब उसने चक्रवर्तीके नामसे चिह्नित बाणको देखा और चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका है यह जाना तब वह अपने पुण्यको अल्प जान अपनी निन्दा करने लगा। तदनन्तर जिसका मान खण्डित हो गया था ऐसा मागधदेव हाथोंमें रत्न लेकर भरतके पास आया ॥८-९॥ आकर उस बुद्धिमान् देवने पृथिवीका सारभूत हार, मुकुट, रत्ननिर्मित दो कुण्डल, अच्छे-अच्छे रत्न, वस्त्र तथा तीर्थोदककी भेंट दी और कहा कि हे स्वामिन् ! बताइए मैं क्या करूं? मुझे आज्ञा दीजिए। तदनन्तर भरतसे विदा हो वह अपने स्थानपर गया और भरत भी वहाँसे चलकर दक्षिण
१. उपवासत्रयम् 'तेला' कृत्वा । २. वाक् च अङ्गानि च इति वागङ्गं तदादी यस्य तत् वागङ्गादि सत् शोभनं वागङ्गादि यस्मिन् तत् । ३. कृतवान् । ४. शीघ्रगामिनम्। ५. बाणम् । ६. कथय । ७. विजयं तम-म..
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एकादशः सर्गः
सुरं वरतनुं तत्र यथा मागधमाह्वयन् । चूडामणिमसौ दिव्यं अवेयकमुरश्छदम् ॥१३॥ वीराङ्गदे च कटके कटीवतं च सूत्रकम् । उपनीय प्रणम्येशं 'विमुक्तः किङ्करो ययौ ॥१४॥ पाश्चात्यं साधयन् विश्वं दधद्भपालमण्डलम् । अनुवेदिकमागच्छत् सिन्धुद्वारं स बन्धुरम् ॥१५॥ प्रमासममरं तत्र गङ्गाद्वारविधानतः । नमयित्वा वशं चक्रे चक्रेशः शक्रविक्रमः ॥१६॥ लेभे सान्तानकं तस्मान्माल्यदामकमुत्तमम् । मुक्काजालं च मौलिं च रत्नचित्रं च हेमकम् ॥१७॥ चक्ररत्नानुमार्ग स विजयार्द्धस्य वेदिकाम् । प्राप्तश्चक्रधरो दध्यौ सोपवासो गिरेः सुरम् ॥१८॥ बुद्ध्वा स्वावधिकात्प्राप्तः सोऽभिषिच्य महर्द्धिभिः । विजयाद्धकुमाराख्यो देवः प्रणतिपूर्वकम् ॥१९॥ भृङ्गारं कुम्मतोयं च सिंहासनमनुत्तमम् । छत्रचामरयुग्मानि दत्वा तेऽहमिति न्यगात् ॥२०॥ तत्र चक्रमहं कृत्वा स तमिस्रगुहामुखम् । प्रापत्तु कृतमालस्तं सुरः प्राप ससंभ्रमः ॥२१॥ तिलकाद्यानि दिव्यानि भूषणानि चतुदश। प्रदाय प्रणिपत्यासौ तवाहमिति यातवान् ॥२२॥ सेनापतिरयोध्यश्च राजराजस्य शासनात् । अश्वरत्नं शुकच्छायं कुमुदामेलकामिधम् ॥२३॥ आरुह्य दण्ड रत्नेन प्रचण्डेन पराङ्मुखः । गुहाद्वारकाटानि प्रताड्यानुपलायितः ॥२४॥ उद्घाटिते गुहाद्वारे षण्मासैः स निरूष्मणि । सेनयाविशदारुह्य गजं विजयपर्वतम् ॥२५॥ तत्रोन्मग्नजला नाम्ना संनिमग्नजलापगा । महानद्योस्तयोस्तोरे गुहामध्येऽमुचच्चमूः ॥२६॥
दिशामें रहनेवाले महाबलवान् भूत और व्यन्तर देवोंके समूहको वश करते हुए समुद्रके वैजयन्तद्वारपर जा पहुंचे ||१०-१२।। वहांपर उन्होंने मागधदेवके समान उस प्रदेशके स्वामी वरतनु देवको बुलाया और वरतनु देवने आकर चूड़ामणि, सुन्दर कपठहार, कवच, वीरोंके बाजूबन्द, कड़े और करधनी भेंट कर भरतको प्रणाम किया। तदनन्तर सेवकवृत्तिको स्वीकार करनेवाले वरतनु भरतसे विदा ले अपने स्थानपर चला गया ॥१३-१४॥ वहाँसे चलकर भरत पश्चिम दिशाके समस्त राजाओं को वश करते हुए वेदिकाके किनारे-किनारे चलकर सिन्धु नदीके मनोहर द्वारपर पहुंचे ॥१५।। वहां इन्द्रके समान पराक्रमको धारण करनेवाले चक्रवर्ती भरतने गंगाद्वारके समान वहाँके अधिपति प्रभास देवको नम्रोभूत कर अपने वश किया ॥१६|| तथा उससे सन्तानक वृक्षोंके पुष्पोंको उत्तम माला, मोतियोंकी जाली, मुकुट और रत्नोंसे चित्र-विचित्र कटिसूत्र प्राप्त किया ॥१७॥
तदनन्तर भरत, चक्ररत्नके पोछे-पीछे चलकर विजयाधं पर्वतकी वेदिकाके समीप आये । वहाँ उन्होंने उपवास कर पर्वतके अधिष्ठाता (विजयार्ध कुमार) देवका स्मरण किया ॥१८॥ वह देव
ने अवधिज्ञानसे भरतको वहाँ आया जानकर आया। उसने भरतको प्रणाम कर बड़ी ऋद्धियोसे उनका अभिषेक किया तथा झारी, कलशजल, उत्तम सिंहासन, छत्र और दो चमर भेंट कर कहा कि मैं आपका हूँ-आपका सेवक हूँ। इस प्रकार निवेदन कर वह चला गया ॥१९-२०॥ राजा भरत वहाँ चक्ररत्नकी पूजा कर तमिस्र गुहाके द्वारपर आये । वहीं घबड़ाया हुआ कृतमाल नामका देव उनके पास आया ॥२१।। और तिलक आदि चौदह दिव्य आभूषण देकर तथा प्रणाम कर 'मैं आपका हूँ' यह कहता हुआ चला गया ॥२२॥ राजराजेश्वर भरतकी आज्ञासे उनके अयोध्य नामक सेनापतिने सुआके समान कान्तिवाले कुमुदामेलक नामक अश्वरत्नपर सवार हो तथा पीछेकी ओर अपना मुख कर दण्डरत्नसे गहा द्वारके किवाडोंको ताड़ित किया और ताडित कर वह एकदम पीछे भाग गया ॥२३-२४॥ खुला हुआ गुहाद्वार जब छह माहमें ऊष्मारहित हो गया तब चक्रवर्तीने विजयपर्वत नामक हाथीपर सवार हो सेनाके साथ उसमें प्रवेश किया ॥२५॥ गुहाके बीच में उन्मग्नजला और निमग्नजला नामको दो नदियां थीं, उनके तटपर भरतने सेनाओंको छोड़
१. वरतनस्तत्र म.। २. विमक्तं म.1 ३. कूततोयं च म.। ४. अयोध्यस्य म.।
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हरिवंशपुराणे निस्यान्धकारमुहास्य काकणीमणिरोचिषा । स्कन्धावारं स्थितं तत्र नक्कन्दिवमतन्द्रितम् ॥२०॥ कामदृष्टिगृहपती रत्नभद्रमुखो द्रुतम् । स्थपतिश्च स्थिरस्ताभ्यां संक्रमः सरितोः कृतः ॥२८॥ उत्तीर्य संक्रमाक्रान्स्या सद्यो नचोर्ययो चमूः। द्वारमुत्तरमुद्धाव्य प्रागिवोत्तरभारतम् ॥२९॥ म्लेष्छराजसहस्राणि वीक्ष्यापूर्ववरूथिनीम् । क्षुमितान्यभिगम्याशु योधयामासुरश्रमात् ॥३०॥ ततः क्रुद्धो युधि म्लेच्छैरयोध्यो दण्डनायकः । युद्ध्वा निधूय तानाशु दधे नामार्थसंगतम् ॥३॥ भगम्लेच्छास्ततो 'याताः शरणं कुलदेवताः । घोरान्मेघमुखान्नागान् दर्मशय्याधिशायिनः ॥३२॥ ततो मेघमुखा देवा खमापूर्य युधि स्थिताः। युद्ध्वा जयकुमारस्तैलेंभे मेघस्वरामिधाम् ॥३३॥ पुनमेंघमुखा घोरैमें धैरापूर्य पुष्करम् । ववृषुर्मुष्टिमात्राभिर्धाराभिः सैन्यमस्तके ॥३४॥ दृष्टा वृष्टिं ततश्चक्री सतडिदगर्जिताशनिम् । चर्मरस्नमधश्चक्रे छत्ररत्नं तथोपरि ॥३५॥ द्विषड्योजन विस्तीर्णा तरन्ती साप्सु वाहिनी । अण्डायते स्म सप्ताह कान्दिशीकस्वमागता ॥३६॥ ततो निधिपतिः ऋद्धी गणबद्धाभिधानकान् । देवानाज्ञापयत् तैस्तैयस्ता मेघमुखाः सुराः ॥३७॥ ततो मेघमुखैम्लेंच्छाः प्रोक्ताः संहृतवृष्टिमिः । चक्रिणं शरणं जग्मुरादाय वरकन्यकाः ॥३८॥ मोतानामभयं दत्त्वा स तेषां शासनैषिणाम् । आयादायासनिर्मुक्तः सिन्धुनद्यनुवेदिकम् ॥३९॥ सिन्धुदेव्यभिषिच्यैनं सिन्धुकूटाग्रवासिनी । ददौ भद्रासने भरे पादपीठोपशोमिते ॥४०॥
दिया-उन्हें विश्राम कराया ॥२६।। उस गुफामें निरन्तर अन्धकार रहता था जिसे भरतने काकणी मणिकी किरणोंसे दूर कर दिया था। भरतकी सेनाने वहां आलस्यरहित होकर एक दिन-रात निवास किया ॥२७॥ कामदृष्टि नामक गृहपतिरत्न और रत्नभद्रमुख नामक स्थपतिरत्न इन दोनोंने उत नदियोंपर मजबूत पुल बनाये ।।२८। सेना उन पुलोंके द्वारा शीघ्र ही नदियोंको पार कर आगे बढ़ गयी और पहलेकी तरह उत्तर द्वारको खोलकर उत्तर भारतमें जा पहुंची ।।२९।। उत्तर भारतके हजारों म्लेच्छ राजा चक्रवर्तीकी अपूर्व सेनाको देखकर क्षुभित हो गये और शीघ्र ही सामने आकर अनायास युद्ध करने लगे ॥१०॥ तदनन्तर क्रोधसे भरे अयोध्य सेनापतिने युद्ध में म्लेच्छ राजाओंके साथ युद्ध कर तथा उन्हें शोघ्र ही खदेड़कर अपना 'अयोध्य' नाम सार्थक किया ॥३१॥ सेनापतिसे भयभीत हुए म्लेच्छ, अपने कुलदेवता, दर्भशय्यापर शयन करनेवाले एवं भयंकर मेघमुख नागकुमारोंको शरण गये ॥३२॥ जिसमें मेघमुख देव आकाशको व्याप्तकर युद्ध के लिए आ डटे परन्तु जयकुमारने उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त कर दिया और स्वयं 'मेषस्वर' यह नाम प्राप्त किया ॥३३॥ कुछ देर बाद मेघमुख देव भयंकर मेघोंसे आकाशको व्याप्त कर मट्री बराबर मोटी-मोटी धाराओसे सेनाके मस्तकपर जलवषो करने लगे ||३४|| तदनन्तर जिसमें बिजलीके साथ वज्रको भयंकर गर्जना हो रही थी ऐसी जलवृष्टि देखकर चक्रवर्तीने सेनाके नीचे चर्मरत्न और ऊपर छत्ररत्न फैला दिया ॥३५॥ बारह योजन पर्यन्त फैली एवं जलके भीतर तैरती हुई वह सेना अण्डाके समान जान पड़ती थी। वह सेना सात दिन तक इसी तरह भयभीत रही ॥३६॥ तदनन्तर निधियोंके स्वामी चक्रवर्तीने कुपित होकर गणबद्ध देवोंको आज्ञा दी और उन्होंने उन मेघमुख देवोंको परास्त कर खदेड़ दिया ॥३७॥ तत्पश्चात् जिन्होंने वृष्टिका संकोच कर लिया था ऐसे मेघमुख देवोंकी प्रेरणा पाकर वे म्लेच्छ राजा उत्तमोत्तम कन्याएँ लेकर चक्रवर्तीको शरणमें आये ॥३८॥ चक्रवर्तीने उन भयभीत तथा आज्ञा पानेकी इच्छा करनेवाले म्लेच्छ राजाओंको अभयदान दिया और उसके बाद श्रमसे रहित हो सिन्धु नदीकी वेदिकाके किनारे-किनारे गमन किया ॥३९॥ बीचमें सिन्धुकूटपर निवास करनेवाली सिन्धु देवीने
१. जाताः म. । २. आकाशम् । ३. मेंघमात्राभि-मः ।
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चक्रवर्ती चमूं मूले संस्थाप्य हिमवगिरेः । कृताष्टमोपवासोऽसौ दर्मशय्यामधिष्टितः ॥४१॥ कृततीर्थोदकस्नानः कृतकौतुकमण्डनः । आरूढाश्वरथो धन्वी चक्रायुधपुरःसरः ॥४२॥ क्षुल्लकं हिमवत्कृटं यत्र तत्र गतः शरी। वैशाखस्थानमास्थाय बभाण रणदक्षिणः ॥४३॥ भो भो नागसुपर्णाद्याः शासनं शृणुताशु मे । देशस्था इत्यतश्चापमाकृष्य शरमाक्षिपत् ॥४५॥ पपाताशनिनिर्घोषो योजने द्वादशे शरः । हिमवत्कूटवासी तं सुरो दृष्टा समागमत् ।।४।। दिव्यामोषधिमालां स दिव्यं च हरिचन्दनम् । दत्त्वा संपूज्य तं यातः शासनैषी विसर्जितः ॥४६॥ आगत्य चक्रवर्ती च ततो वृषभपर्वतम् । तत्रालिखनिजं नाम काकण्या स परिस्फुटम् ।।१७।। वृषभस्य सुतो मोऽहं चक्री भरत इत्यसौ। प्रवाच्य विजयार्द्धस्य वेदिकामगमत् प्रभुः॥४८॥ बुद्ध्वोपवासिनं तत्र श्रेणिद्वयनिवासिनौ । नमिश्च विनमिश्चोभौ गन्धाराद्यैः समागतौ ॥४९॥ स्त्रीरत्नं प्रतिगृह्याभ्यां सुभद्राख्यं खगैर्नतः । गङ्गानुवेदिकं गत्वा भक्तमष्टममास्थितः ।।५०॥ गङ्गादेवी विदित्वा तं गङ्गाकूट निवासिनी । हेमकुम्भसहस्रेण कृत्वा तदभिषेचनम् ॥५१॥ रसिंहासने तस्मै पादपीठयुते ददौ । विजयाईकुमारोऽपि तस्थौ चक्रेशशासने ॥५२॥ अष्टादशसहस्राणि म्लेच्छक्षितिभृतां ततः। वशीकृत्यात्तसदनः खण्डकापातमाप सः ॥५३॥
भरतका अभिषेक कर उन्हें पादपीठसे सुशोभित दो उत्तम आसन भेंट किये ॥४०॥ चक्रवर्ती सेनाको हिमवान् पर्वतकी तराईमें ठहराकर तथा स्वयं तीन दिनके उपवासका नियम लेकर दर्भशय्यापर आरूढ़ हुए ॥४१।। तदनन्तर जिन्होंने तीर्थजलसे स्नान किया था, उत्तम वेषभूषा धारण की थी, जो घोडोंके रथपर सवार थे, जिनके आगे-आगे चक्ररत्न चल रहा था और जो रणमें अत्यन्त कुशल थे ऐसे भरत, जहाँ हिमवान् पर्वतका हिमवत् नामक छोटा कूट था वहाँ आये और बाण हाथमें ले तथा वैशाख आसनसे खड़े होकर बोले कि 'हे इस देश में रहनेवाले नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवो! तुम लोग शीघ्र ही मेरी आज्ञा सुनो।' यह कह उन्होंने धनुष खींचकर बाण छोड़ा ।।४२-४४|| वज्रके समान शब्द करता हुआ वह बाण बारह योजन दूर जाकर गिरा तथा हिमवत् कूटपर रहनेवाला देव उसे देखकर भरतके पास आया ॥४५।। उसने दिव्य ओषधिओंकी माला तथा दिव्य हरिचन्दन देकर भरतकी पूजा की। तदनन्तर आज्ञाकी इच्छा करता हुआ वह भरतसे विदा ले अपने स्थानपर चला गया ।।४६।। चक्रवर्ती वहांसे चलकर वृषभाचल पर्वतपर आये और वहाँ उन्होंने काकणी रत्नसे साफ-साफ अपना यह नाम लिखा कि 'मैं भगवान् वृषभदेवका पुत्र भरत चक्रवर्ती हूँ'। नाम लिखकर तथा बाँचकर वे विजयाध पर्वतको वेदिकाके समीप आये ॥४७-४८|| दहाँ जाकर उन्होंने उपवास धारण किया। दोनों श्रेणियों के निवासी नमि और विनमिको जब यह ज्ञात हुआ कि भरत यहाँ विद्यमान हैं तब वे गन्धार आदि विद्याधरोंके साथ वहाँ आये ॥४९|| समस्त विद्याधरान उन्हें नमस्कार किया और भरतने नमि, विनमिसे सुभद्रा नामक स्त्री-रत्न ग्रहण किया। तत्पश्चात् वे गंगा नदीकी वेदिकाके किनारे-किनारे चलकर गंगाकूटके समीप आये और तीन दिनके उपवासका नियम लेकर वहाँ ठहर गये । वहाँ गंगाकूटपर रहनेवाली गंगा देवीने उनके आनेका समाचार जानकर सुवर्णमय एक हजार कलशोंसे उनका अभिषेक किया ।।५०-५१|| अभिषेकके बाद उसने पादपोठसे युक्त दो रत्नोंके सिंहासन भेंट किये। यहां विजयार्ध पर्वतका स्वामी विजयाध कुमारदेव चक्रवर्तीकी आज्ञामें खडा रहा ॥५२।।
तदनन्तर वहाँसे चलकर अठारह हजार म्लेच्छ राजाओंको वश करते और उनसे उत्तमोत्तम रत्नोंकी भेंट स्वीकार करते हुए भरत विजयार्धकी दूसरी गुफा खण्डकाप्रपातके समीप
१. मण्डल: म. । २. वैशाखं स्थान ग., घ, ङ., म.।
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हरिवंशपुराणे उपोषिताष्टमायास्मै नाव्यमालोऽत्र दत्तवान् । नानारूपं स नेपथ्यं विद्युदाभे च कुण्डले ॥५४॥ अयोध्योद्घाटितेनासौ गुहाद्वारेण पूर्ववत् । प्रविश्य निर्गतः सिन्धोरिव गाङ्गेन सेनया ॥५५॥ विजित्य मारतं वर्ष स षट्खण्डमखण्डितम् । षष्टिवर्षसहस्रेस्तु विनीतां प्रस्थितः कृती ॥५६॥ चक्रे सुदर्शनेऽयोध्यामविशत्यथ चक्रभृत् । बुद्धिसागरमप्राक्षीत् संदिहानः पुरोधसम् ॥५७॥ साधिते भारते वास्ये चक्ररत्नमिदं किमु । दिव्यं विशति नायोध्यां योध्याः सन्ति न के च नः ॥५॥ पुरोधाः सोऽभ्यधागातरो भवतो ननु । ये महाबलसंपन्नास्ते न शृण्वन्ति शासनम् ॥५९॥ तदाकर्ण्य वचस्तूर्ण तेषां प्रेषयति स्म सः । ससामोपप्रदानादिनीतिपूर्व वचोहरान् ॥६०॥ ततस्ते तनिमित्तेन मानिनो लब्धबोधयः । स्वराज्यान्यस्यजस्त्यागं मन्यमाना महोत्सवम् ॥६॥ प्रपद्य शरणं सर्वे नाभेयं भवभीरवः । मानशल्यविनिर्मुक्ताः प्रवज्या मोक्षिणो दधुः ॥६२॥ सकमारैः कमारैस्तैर्मव्यसिंहः सहैव हि । ज्ञेयानि त्यक्तदेशानां नामानीमानि पण्डितैः ॥१३॥ कुरुजाङ्गलपञ्चालसूरसेनपटच्चराः । तुलिङ्ग-काशि-कौशल्य-मद्र कारवृकार्थकाः ॥६४।। सोल्वावृष्टत्रिगर्ताश्च कुशाग्रो मत्स्यनामकः । कुणीयान् कोशलो मोको देशास्ते मध्यदेशकाः ॥६५।। बाहीकात्रेयकाम्बोजा यवनाभोरमद्रकाः । क्वाथतोयश्च शूरश्च वाटवानश्च कैकयः ॥६६॥ गान्धारः सिन्धुसौवीरमारद्वाजदशेरुकाः। प्रास्थालास्तीर्णकर्णाश्च देशा उत्तरतः स्थिताः ॥६॥ खड्गङ्गारकपौण्डाश्च मल्लप्रवकमस्तकाः । प्राद्योतिषश्च वङ्गश्च मगधो मानवर्तिकः ॥६॥
पहुँचे ॥५३।। वहां वे तीन दिनके उपवासका नियम लेकर ठहर गये। यहां नाट्यमाल नामक देवने उन्हें नाना प्रकारके आभूषण और बिजलीके समान चमकते हुए दो कुण्डल भेंट किये ॥५४॥ जिस प्रकार पहले अयोध्य सेनापतिने दण्डरत्नके द्वारा सिन्धु नदीको गुफाका द्वार खोला था उसी प्रकार यहां भी उसने दण्डरत्नसे गंगानदीकी गुफाका द्वार खोला और भरत उस द्वारसे प्रवेश कर सेनासहित बाहर निकल आये ॥५५॥ इस तरह अतिशय कुशल भरतने साठ हजार वर्षों में छह खण्डोंसे युक्त समस्त भरतक्षेत्रको जीतकर अयोध्या नगरीकी ओर प्रस्थान किया ॥५६||
___ अथानन्तर-समीप आनेपर जब सुदर्शनचक्रने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब भरतने सन्देहयक्त हो बद्धिसागर पूरोहितसे पूछा कि समस्त भरतक्षेत्रको वश कर लेनेपर भी यह दिव्य चक्ररत्न अयोध्यामें प्रवेश क्यों नहीं कर रहा है ? अब तो हमारे युद्धके योग्य कोई नहीं है ? ॥५७-५८। पुरोहितने कहा कि आपके जो महाबलवान् भाई हैं वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं ।।५९|| यह सुनकर भरतने शीघ्र ही उनके पास साम, दाम आदि नीतिके साथ दूत भेजे ॥६०।। तदनन्तर इस निमित्तसे जिन्हें बोधिकी प्राप्ति हुई थी ऐसे भरतके अभिमानो भाइयोंने त्यागको ही महोत्सव मान अपने-अपने राज्य छोड़ दिये ॥६१।। जो संसारसे भयभीत थे, जिनकी मानरूपी शल्य छूट चुकी थी, और जो अन्तरंगमें मोक्षकी इच्छा रखते थे ऐसे भरतके समस्त भाइयों ने भगवान् वृषभदेवके समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥६२॥ उन सुकुमार एवं भव्य-शिरोमणि कुमारोंने जो देश छोड़े थे विद्वानोंको उनके नाम इस प्रकार जानना चाहिए ॥६३॥ कुरुजांगल, पंचाल, सूरसेन, पटच्चर, तुलिंग, काशि, कौशल्य, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, त्रिगत, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयान्, कोशल और मोक ये मध्यदेश थे॥६४-६५।। वाह्लीक, आत्रेय, काम्बोज, यवन, आभीर, मद्रक, क्वाथतोय, शूर, वाटवान, कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दशेरुक, प्रास्थाल और तोर्णकर्ण ये देश उत्तरको ओर स्थित थे ॥६६-६७॥ खड्ग, अंगारक, पोण्ड, मल्ल, प्रवक, मस्तक, प्राद्योतिष, वंग, मगध, मानवतिक,
१. न तु म. । २. वचोहरात् म. ।
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मलदो भार्गवश्वामी प्राच्यां जनपदाः स्थिताः । बागमुक्तश्च वैदर्भाः माणवः सककापिराः ॥६९।। मूलकाश्मकदाण्डीककलिङ्गासिङ्ककुन्तलाः । नवराष्ट्रो माहिषकः पुरुषो भोगवर्धनः ॥७०।। दाक्षिणात्या जनपदा निरुच्यन्ते स्वनामभिः । माल्यकल्लीवनोपान्तदुर्गसूर्पारकबुकाः ॥११॥ काक्षिनासारिकागर्ताः ससारस्वततापसाः । माहेभो मरुकरछश्च सुराष्ट्रो नर्मदस्तथा ॥७२॥ एते जनपदाः सर्वे प्रतीच्या नाममिः स्मृताः । दशार्णकेति किष्कन्धस्त्रिपुरावर्त्तनैषधाः ॥७३॥ नेपालोत्तमवर्णश्च वैदिशान्तपकौशलाः । पत्तनो विनिहात्रश्च विन्ध्यापृष्ठनिवासिनः ॥७४॥ भद्रवत्सविदेहाश्च कुशभङ्गाश्च सैतवाः । वज्रखण्डिक इत्येते मध्यादेशाश्रित। मताः ॥७५॥ देशानेताननुज्ञातान् गुरुणा भरतानुजाः । दारानिव विधेयांश्च मुमुचुस्ते मुमुक्षवः ।।७६॥ अथ बाहुबली चक्रे चक्रेशं प्रत्यवस्थितिम् । संदधानो मनश्चक्रे चक्रेलातमये यथा ॥७७।। भवतो न भुजिष्योऽहमिति प्रेष्य वचोहरान् । पोदनान्निययौ योद्धुमक्षोहिण्या युतो द्रुतम् ।।७८॥ चक्रवर्त्यपि संप्राप्तः सैन्यसागररुद्ध दिक् । विततापरदिग्भागे चम्वोः स्पर्शस्तयोरभूत् ॥७९।। उभये मन्त्रिणो मन्त्र मन्त्रयित्वाहुरीशयोः । माभूजनपदक्षयो धर्मयुद्धमिहास्त्विति ॥४०॥ प्रतिपद्य वचस्तौ तद दृष्टियुद्धं प्रचक्रतुः । चिरं निमेषमुक्ताक्षौ दृष्टौ खे खेचरामरैः ॥८॥ कनिष्ठोऽत्राजयज्ज्येष्ठं पञ्चचापशतोच्छितिम् । ऊर्ध्वदृष्टिमधोदृष्टिस्तदुच्चैः पञ्चविंशतिः ।।८२।। ततोऽन्योन्यभुजक्षिप्ततरङ्गाधातदुःसहम् । जलयुद्धमभूद्रौद्रं सरस्यत्र जितोऽग्रजः ।।८३॥
मलद और भार्गव, ये देश पूर्व दिशामें स्थित थे। बाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दाण्डोक, कलिंग, आंसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन, ये दक्षिण दिशाके देश थे । माल्य, कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सूर्पार, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगतं, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद, ये सब देश पश्चिम दिशामें स्थित थे। दशार्णक, किष्कन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नैषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वैदिश, अन्तप, कौशल, पत्तन और विनिहात्र, ये देश विन्ध्याचलके ऊपर स्थित थे ।।६८-७४॥ भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव और वज्रखण्डिक, ये देश मध्यदेशके आश्रित थे ॥७५।। पिता-भगवान वषभदेवके द्वारा दिये हए इन सब देशोंको मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले भरतके छोटे भाइयोंने स्त्रियोंके समान छोड़ दिया साथ ही उन्होंने आज्ञाकारी सेवकोंका भी परित्याग कर दिया ||७६||
अथानन्तर कुमार बाहुबलीने भरतके प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट की। उन्होंने उनके सुदर्शनचक्रको अलातचक्रके समान तुच्छ समझा और 'मैं आपके आधीन नहीं हूँ' यह कहकर दूत भेज दिये तथा वे शीघ्र ही अक्षौहिणी सेना साथ ले युद्ध के लिए पोदनपुरसे निकल पड़े ||७७-७८|| इधर सेनारूपी सागरसे दिशाओं को व्याप्त करते हुए चक्रवर्ती भरत भी आ पहुंचे जिससे वितता नदीके पश्चिम दिग्भागमें दोनों सेनाओंकी मुठभेड़ हई ॥७९॥ तदनन्तर दोनों राजाओंके मन्त्रियोंने परस्पर सलाह कर कहा कि देशवासियोंका क्षय न हो इसलिए दोनों ही राजाओंमें धर्मयुद्ध हो ।।८०॥ भरत और बाहुबलीने मन्त्रियोंकी यह बात मानकर सर्वप्रथम दृष्टियुद्ध शुरू किया और आकाशमें खड़े हुए देव और विद्याधरोंने दोनोंको चिरकाल तक टिमकाररहित नेत्रोंसे युक्त देखा । अर्थात् दोनों भाई चिरकाल तक टिमकाररहित नेत्रोंसे खड़े रहे और कोई किसीसे हारा नहीं। परन्तु अन्तमें छोटे भाईने बड़े भाईको हरा दिया क्योंकि बड़े भाई पांच सौ धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि ऊपरको ओर थी और छोटे भाई उनसे पचीस धनुष ऊँचे थे इसलिए उनकी दृष्टि नीचेको ओर थी॥८१-८२॥ दृष्टियुद्धके बाद दोनों भाइयोंका तालाबमें भयंकर जलयुद्ध हुआ। १. 'गुरुस्तु गीष्पती श्रेष्ठे गुरौ पितरि दुर्भरे' इति विश्वः ख., घ.। २. तथा ख , घ.। ३. दासः । ४. विनतापर -ङ. ।
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हरिवंशपुराणे वलितास्फोटिताटोपं नानाकरणकौशलम् । मल्लयुद्धमभूत्पश्चाद् रङ्गभूमौ चिरं तयोः ॥८॥ पादावष्टम्मसंभिन्नहृदया युध्यमानयोः । तयोभियेव वैरयो ररास वसुधावधूः ॥८५॥ भरतं भुजयन्त्रेण दयावान् भुजविक्रमी। निरुद्धयोरिक्षप्य संतस्थे रत्नशैलमिवामरः ॥८६॥ प्रेक्षकैः सुरसंघातैः खेचरैरपि भूचरैः । अहो वीर्यमहो धैर्य साधु साध्विति वर्णितम् ॥७॥ साधु संसाध्य मुक्तेन भरतेन रुषा ततः । अपमृत्यु स्मृतं चक्रं सहस्रारं स्थितं करे ॥१८॥ रक्ष्यं यक्षसहस्रेण सहस्रकिरणप्रभम् । प्रभ्राम्य चक्रमुन्मुक्तं वधार्थ भ्रातुरुन्मुखम् ॥८९॥ चरमोत्तमदेहस्य तस्याशक्त विनाशने । देवताधिष्ठितं चक्रं त्रिःपरीत्यागतं पुनः ॥१०॥ ज्येष्ठभ्रातरमालोक्य निघृणं भुजविक्रमी । कर्णौ पिधाय हस्ताभ्यां निनिन्द श्रियमित्यसौ ॥९॥ स्वच्छानामनुकलानां संहतानां नृचेतसाम् । विपर्यासकरी लक्ष्मी धिक पद्धिमिवाम्भसाम् ॥९॥ मधुरस्निग्धशीलानां चिरस्थस्नेहहारिणीम् । चलाचलारिमका पिक धिग् पन्त्रमूर्तिमिव श्रियम् ॥१३॥
सर्वतोऽपि सुदुःप्रेक्ष्यां नरेन्द्राणामपि स्वयम् । दृष्टिं दृष्टिविषस्येव धिक् धिग् लक्ष्मी भयावहाम् ॥९॥ उस समय दोनों ही भाई एक दूसरेपर अपनी भुजाओंसे लहरें उछाल-उछालकर दुःसह आघात कर रहे थे । परन्तु इस युद्ध में भी बड़े भाई भरत हार गये ||८३॥ तदनन्तर दोनोंका रंगभूमिमें चिरकाल तक मल्लयुद्ध हुआ। उनका वह मल्लयुद्ध तालोंकी फटाटोपसे युक्त था तथा नाना प्रकारके पैंतरा बदलनेकी चतुराईसे पूर्ण था ॥८४|| उस समय युद्ध करते हए दोनों वरोंके पदाघातसे जिसका हृदय फट गया था ऐसी पृथिवीरूपी स्त्री भयसे ही मानो चिल्ला उठी थी॥८५।। अन्तमें दयावान् बाहुबली अपने भुजयन्त्रसे भरतको पकड़कर तथा ऊपरकी ओर उठाकर इस प्रकार खड़े हो गये मानो कोई देव रत्नोंके पर्वतको उठाकर खड़ा हो ॥८६॥ देखनेवाले देवोंके समूह, विद्याधरों तथा भूमिगोचरी मनुष्योंने उसी समय जोरसे यह शब्द किया कि अहो ! वीर्यम्-आश्चर्यकारी शक्ति है, अहो! धैर्यम्-आश्चर्यकारी धैर्य है, साधु-साधु-ठीक है, ठीक है आदि ।।८७॥ तदनन्तर अच्छी तरह जीतकर जब बाहुबलीने भरतको छोड़ा तब उन्होंने क्रोधके कारण अपमृत्यु करनेवाले सुदर्शनचक्रका स्मरण किया और स्मरण करते ही हजार अरोंको धारण करनेवाला सुदर्शनचक्र उनके हाथमें आकर खड़ा हो गया ।।८८॥ एक हजार यक्ष जिसकी रक्षा कर रहे थे तथा जो सूर्यके समान देदीप्यमान प्रभाका धारक था ऐसे सुदर्शनचक्रको उन्होंने ऊपरकी ओर घुमाकर भाईको मारनेके लिए छोड़ा ॥८९॥ परन्तु वह देवाधिष्ठित चक्र चरमोत्तम शरारक धारक बाहबलीके मारने में असमर्थ रहा इसलिए उनकी
मर्थ रहा इसलिए उनकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर वापस आ गया ॥९०॥ तदनन्तर बाहुबली बड़े भाईको निर्दय देख हाथोंसे कान ढंककर लक्ष्मीकी इस प्रकार निन्दा करने लगे ॥२१॥ जिस प्रकार कीचड़ स्वच्छ, अनुकूल, एवं मिले हुए जलको विपरीतमलिन कर देती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी स्वच्छ, अनुकूल और मिले हुए मनुष्योंके चित्तको विपरीत कर देती है अतः इसे धिक्कार हो ॥९२॥ जिस प्रकार यन्त्र-मूर्ति-( कोल्हू ) मधुर एवं चिक्कण स्वभाववाले तिलहनोंके दीर्घकालिक स्नेह-तेलको हर लेती है तथा अत्यन्त अस्थिर होती है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी मधुर एवं स्नेहपूर्ण स्वभाववाले मनुष्योंके चिर-कालिक स्नेह-प्रियको नष्ट कर देती है एवं अत्यन्त अस्थिर है अतः इसे धिक्कार हो ॥१३॥ जिस प्रकार दृष्टिविष सर्पकी दृष्टि नरेन्द्र-विषवैद्योंके लिए भी सब ओरसे स्वयं अत्यन्त दुःखसे देखनेके योग्य तथा भय उत्पन्न करनेवाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी नरेन्द्र-राजाओंके लिए भी सब ओरसे अत्यन्त दुःप्रेक्ष्य-दुःखसे देखने योग्य तथा भय उत्पन्न करनेवाली है इसलिए इसे
१. वरणे म.।
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एकादशः सर्गः
मूलमध्यान्तदुःस्पर्शं सर्वदाग्निशिखामिव । भास्वरामपि घिग्लक्ष्मीं सर्व संतापकारिणीम् ॥९५॥ मर्त्यलोके सुखं तद् यच्चित्तसंतोषलक्षणम् । सति बन्धुविरोधे हि न सुखं न धनं नृणाम् ॥ ९६ ॥ जनयन्ति नृणां मोगाः प्रतिकूलेषु बन्धुषु । 'शीतज्वरामिभूतानां शोतस्पर्शा इवासुखम् ॥९७॥ इति संचिन्त्य संत्यज्य स राज्यं तपसि स्थितः । कैलासे प्रतिमायोगं तस्थौ वर्ष सुनिश्चलः ॥९८॥ वल्मीकरन्ध्रनिर्यातैः फणिभिर्मणिभूषितैः । चरणौ रेजतुस्तस्य पुरेव नरपैर्भृतैः ॥९९॥ वल्लभेव पुरा वल्ली माधवी कोमलाङ्गिका । निःशेषाङ्गपरिष्वङ्गं चक्रे तस्य मुनेरपि ॥ १०० ॥ लतां व्यपनयन्तीभ्यां खेचरीभ्यां बभौ मुनिः । श्याममूर्तिः स्थिरो योगी यथा मरकताचलः ।। १०१ ।। कषायान्तमसौ कृत्वा भरतेन कृतानतिः । केवलज्ञानमुत्पाद्य पारिषद्यः प्रभोरभूत् ॥ १०२ ॥ चतुर्दशमहारत्नैर्निधिभिर्नवभिर्युतः । निःसपत्नं ततश्चक्री बुमोज वसुधां कृती ॥१०३॥ अदाद् द्वादशवर्षाणि दानं चासौ यथेप्सितम् । लोकाय कृपया युक्तः परीक्षापरिवर्जितम् ॥ १०४॥ जिनशासनवात्सल्यभक्तिमारवशीकृतः । परीक्ष्य श्रावकान् पश्चाद् यवब्रीह्यङ्कुरादिभिः ॥ १०५ ॥ काकिण्या लक्षणं कृत्वा सुरत्नत्रय सूत्रकम् । संपूज्य स ददौ तेभ्यो भक्तिदानं कृते युगे ॥१०६ ॥ ततस्ते ब्राह्मणाः प्रोक्ताः व्रतिनो भरतादृताः । वर्णत्रयेण पूर्वेण जाता वर्णचतुष्टयी ॥१०७॥
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धिक्कार हो ||१४|| जिस प्रकार अग्निकी शिखा सदा मूल, मध्य और अन्तमें दुःखकर स्पशंसे सहित है तथा देदीप्यमान होकर भी सबको सन्ताप करनेवाली है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी आदि, मध्य और अन्तमें दुःखकर स्पशंसे सहित है - सब दशाओंमें दुःख देनेवाली है तथा देदीप्यमान- तेज तर्राटेसे युक्त होनेपर भी सबको सन्ताप उत्पन्न करनेवाली है-आकुलता की जननी है इसलिए इसे धिक्कार हो || ९५|| मनुष्यलोकमें सुख वही है जो चित्तको सन्तुष्ट करनेवाला हो परन्तु बन्धुजनोंमें विरोध होनेपर मनुष्योंको न सुख प्राप्त होता है और न धन ही उनके पास स्थिर रहता है || ९६|| जिस प्रकार शीत-ज्वरसे आक्रान्त मनुष्योंके लिए शीतल स्पर्श दुःख उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार बन्धुजनोंके विरुद्ध होनेपर भोग भी मनुष्योंके लिए दुःख उत्पन्न करते हैं ||९७|| इस प्रकार विचार कर तथा राज्यका परित्याग कर बाहुबली तप करने लगे और कैलास पर्वतपर एक वर्षका प्रतिमा योग लेकर निश्चल खड़े हो गये ||९८ || उनके चरण, arita fबलोंसे निकले हुए मणिभूषित सर्पोंसे इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि पहले मणिभूषित आश्रित राजाओंसे सुशोभित होते थे ||१९|| जिस प्रकार पहले कोमलांगी वल्लभा उनके समस्त शरीरका आलिंगन करती थी उसी प्रकार कोमलांगी माधवीलता उनके मुनि होनेपर भी उन बाहुबलीके समस्त शरीरका आलिंगन कर रही थी ||१०० || दो विद्याधर परियाँ उनके शरीरपर लिपटी हुई लताको दूर करती रहती थीं जिससे श्याममूर्तिके धारक एवं स्थिर खड़े हुए योगिराज बाहुबली मरकतमणिके पर्वत के समान सुशोभित हो रहे थे || १०१ ॥ तदनन्तर भरतने आकर जिन्हें नमस्कार किया था ऐसे बाहुबली मुनिराज कषायोंका अन्त कर तथा केवलज्ञान उत्पन्न कर भगवान् वृषभदेव के सभासद् हो गये -उनके समवसरण में पहुँच गये ॥१०२॥
तदनन्तर चौदह महारत्नों और नो निधियोंसे युक्त अतिशय बुद्धिमान् चक्रवर्ती भरत, पृथिवीका निष्कण्टक उपभोग करने लगे || १०३ || भरत महाराज दयासे युक्त हो बिना किसी परीक्षा के बारह वर्षं तक लोगोंके लिए मनचाहा दान देते रहे || १०४ || तदनन्तर जिन - शासन सम्बन्धी वात्सल्य और भक्तिके भारसे वशीभूत होकर उन्होंने जो तथा धान्य आदिके अंकुरोंसे श्रावकों की परीक्षा की, काकिणी रत्नसे निर्मित रत्नत्रयसूत्र - यज्ञोपवीतको उनका चिह्न बनाया और आदर-सत्कार कर कृतयुगमें उन्हें भक्तिपूर्वक दान दिया ।। १०५ - २०६|| आगे चलकर भरतके १. शीतद्वाराभिभूतानां ख. 1
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हरिवंशपुराणे
चक्रच्छत्रासिदण्डास्ते काकिणीमणिचर्मणी । सेनागृहपती माइत्राः पुरोधः स्थपतिस्त्रियः ॥ १०८ ॥ चतुर्दश महारत्ननिचयाइचक्रवर्तिनः । प्रत्येकं रक्षिता देवैः सहस्रगणनैर्बभुः || १०९ || कालश्चापि महाकालः पाण्डुको मानवस्तथा । नैः सर्पः सर्वरत्नाश्च शङ्खः पद्मश्च पिङ्गलः ॥ ११० ॥ अमी पुण्यवतस्तस्य निधयोऽनिधना' नव । पालिता निधिपालाख्यैः सुरैर्लोकोपयोगिनः ॥ १११ ॥ शकटाकृतयः सर्वे चतुरक्षाष्टचक्रका: । नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशायामसंमिताः ॥ ११२ ॥ ते चाष्टयोजनागाधा बहुवक्षारकुक्षयः । नित्यं यक्षसहस्रेण प्रत्येकं रक्षितेक्षिताः ||११३ ॥ ज्योतिर्निमित्तशास्त्राणि हेतुवादकलागुणाः । शब्दशास्त्रपुराणायाः सर्वे कालनिधौ मताः ॥ ११४ ॥ पञ्चलोहादयो लोहा नानाभेदाः प्रवर्तिताः । लब्धवर्णैर्विनिर्णेया महाकालनिधौ पुनः ॥ ११५ ॥ धान्यानां सकला भेदाः शालिब्रीहियवादयः । कटुतिक्तादिभिर्द्रव्यैः प्रणीताः पाण्डुके निधी ॥ ११६ ॥ कवचैः खेटकैः खड्गैः शरैः शक्तिशरासनैः । चक्राद्यैरायुधैर्दिव्यैः पूर्णो माणवको निधिः ॥ ११७ ॥ शयनासनवस्तूनां विविधानां महानिधिः । सर्पो गृहोपयोग्यानां भाजनानां च भाजनम् ॥ ११८ ॥ इन्द्रनील महानी वज्रवैडूर्य पूर्वकैः । सर्वरत्ननिधि पूर्णः सुरत्नैः सुमहाशिखैः ॥ ११९ ॥ भेरीशङ्खानकैणालरीमुरजादिभिः । आतोद्यैश्चोद्यसंपूर्णैः पूर्णः शङ्ख निधिर्महान् ॥ १२० ॥
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द्वारा आदरको प्राप्त हुए वे व्रती ब्राह्मण कहे जाने लगे । इस तरह पहले कहे हुए तीन वर्णोंके साथ मिलकर अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वणं हो गये ॥१०७॥ १ चक्र, २ छत्र, ३ खड्ग, ४ दण्ड, ५ काकिणी, ६ मणि, ७ चर्म, ८ सेनापति, ९ गृहपति, १० हस्ती, ११ अश्व, १२ पुरोहित, १३ स्थपति और १४ स्त्री चक्रवर्तीके ये चौदह रत्न थे, इनमें प्रत्येककी एक-एक हजार देव रक्षा करते थे तथा ये अत्यधिक सुशोभित थे ।। १०८ - १०९ | १ काल, २ महाकाल, ३ पाण्डुक, ४ माणव, ५ नैः सर्प, ६ सर्वरत्न, ७ शंख, ८ पद्म और ९ पिंगल....ये पुण्यशाली चक्रवर्तीकी नौ निधियाँ थीं। ये सभी निधियाँ अविनाशी थीं, निधिपाल नामक देवोंके द्वारा सुरक्षित थीं और निरन्तर लोगोंके उपकार में आती थीं ॥ ११०-१११ ॥ ये गाड़ीके आकार की थीं, चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियोंसे सहित थीं । नो योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, आठ योजन गहरी और वक्षार गिरिके समान विशाल कुक्षिसे सहित थीं । प्रत्येककी एक-एक हजार यक्ष निरन्तर देख-रेख रखते थे |११२-११३॥
इनमें से पहली कालनिधिमें ज्योतिषशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरणशास्त्र एवं पुराण आदिका सद्भाव था अर्थात् कालनिधिसे इन सबकी प्राप्ति होती थी ॥११४॥ दूसरी महाकाल निधि में विद्वानोंके द्वारा निर्णय करने योग्य पंचलोह आदि नाना प्रकार के लोहोंका सद्भाव था अर्थात् उससे इन सबकी प्राप्ति होती थी ||११५ || तीसरी पाण्डुक निधि में शालि, ब्रीहि, जो आदि समस्त प्रकारकी धान्य तथा कडुए चिरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था ||११६|| चौथी माणवक निधि, कवच, ढाल, तलवार, बाण, शक्ति, धनुष तथा चक्र आदि नाना प्रकारके दिव्य शस्त्रोंसे परिपूर्ण थी ॥ ११७ ॥ पांचवीं सर्प-निधि, शय्या, आसन आदि नाना प्रकारकी वस्तुओं तथा घरमें उपयोग आनेवाले नाना प्रकारके भाजनोंकी पात्र थी ॥ ११८ ॥ छठी सर्वरत्न निधि इन्द्रनील मणि, महानील मणि, वज्रमणि आदि बड़ी-बड़ी शिखाके धारक उत्तमोत्तम रत्नोंसे परिपूर्ण थी ॥ १२९ ॥ सातवीं शंखनिधि, भेरी, शंख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी और मृदंग आदि आघातसे तथा फूंककर बजाने योग्य नाना प्रकार के बाजोंसे
१. नाशरहिताः, निधनानि च ङ. । २. पुराणाढ्याः म । ३. भोजनानां म ।
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एकादशः सर्गः
पट्टचीणमहानेत्रदुकूलवर कम्बलैः । वस्त्रैर्विचित्रवर्णाढ्यैः पूर्णपद्मनिधिः सदा ॥१२१॥ कटकैः कटिसूत्राद्यैः स्त्रीपुंसाभरणैः शुभैः । स पिङ्गलनिधिः पूर्णो गजवाजिविभूषणैः ॥१२२॥ "कामवृष्टिवशास्तेऽमी नवापि निधयः सदा । निष्पादयन्ति निःशेषं चक्रवर्त्तिमनीषितम् ॥ १२३॥ शतानि त्रीणि षष्ट्या तु सूपकाराः परे परे । कल्याणसिक्थमाहारं प्रत्यहं ये वितन्वते ॥ १२४॥ सहस्रसिक्थः कबलो द्वात्रिंशत् तेऽपि चक्रिणः । एकश्चासौ सुभद्रायाः एकोऽन्येषां तु तृप्तये ॥ १२५ ॥ चित्रकारसहस्राणि नवतिर्नवभिः सह । द्वात्रिंशत् ते सहस्राणि नृपा मुकुटबन्दकाः ॥ १२६॥ देशाश्चापि हि तावन्तो जयन्त्यपि सुरखियः । अन्तःपुरसहस्राणि तस्य षण्णवतिः प्रभोः ॥१२७॥ हलकोटी तथा गावनिकोव्यः कामधेनवः । कोट्यश्चाष्टादशाश्वानां निश्चेया वातरंहसाम् ॥ १.२८ ॥ लक्षाश्चतुरशीतिस्तु मदमन्थरगामिनाम् । हस्तिनां सुरथानां च प्रत्येकं चक्रवर्त्तिनः ॥ १२९ ॥ 'आदित्ययशसा सार्द्धं विवर्द्धनपुरोगमाः । पञ्च पुत्रशतान्यस्य वशाश्वरमदेहकाः ॥१३०॥ भाजनं भोजनं शय्या चमूर्वाहनमासनम् । 'निधिरत्नपुरं नाट्यं मोगास्तस्य दशाङ्गकाः ॥ १३१ ॥ स पोडशसहस्रैश्च गणबद्धसुरैः सदा । सेवायां सेव्यते दक्षैः प्रमादरहितैर्हितैः ॥ १३२ ॥ विभवेन नरेन्द्र तादृशेन युतोऽपि सन् । शास्त्रार्यक्षुण्णधीश्चक्रे दुर्गतिग्रहनिग्रहम् ॥ १३३ ॥ स द्वात्रिंशत्सहस्राणां स्मयबाहुल्यमस्मयः । अपाकरोद्विकीर्यैतान् दोः कृताहितमन्थनः ॥ १३४॥ "श्रीवृक्ष लक्षितोरस्के सचतुःषष्टिलक्षणे । षोडशे मनुराजेऽस्मिन् विडौजः श्रीविडम्बिनि ॥१३५॥
स्वायंभुवे महाभागे भरते भरतक्षितिम् । नीत्या शासति खण्डानां नित्याखण्डितपौरुषे ॥ १३६॥
पूर्ण थी || १२० || आठवीं पद्मनिधि पाटाम्बर, चीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा नाना प्रकार के रंग-बिरंग वस्त्रोंसे परिपूर्ण थी || १२१|| और नौवीं पिंगलनिधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषोंके आभूषण और हाथी, घोड़ा आदिके अलंकारोंसे परिपूर्ण थी ॥ १२२ ॥ | ये नौकी नौ निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपतिके आधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं ॥ १२३ ॥ चक्रवर्तीके एक-से-एक बढ़कर तीन सौ साठ रसोइया थे जो प्रतिदिन कल्याणकारी सीथोंसे युक्त आहार बनाते थे || १२४ || एक हजार चावलोंका एक कंबल होता है ऐसे बत्तीस कबल प्रमाण चक्रवर्तीका आहार था, सुभद्रा का आहार एक कबल था और एक कबल अन्य समस्त लोगों को तृप्तिके लिए पर्याप्त था और एक कबल अन्य समस्त लोगोंकी तृप्तिके लिए पर्याप्त था ॥ १२५ ॥ चक्रवर्ती के निन्यानबे हजार चित्रकार थे, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा थे, उतने ही देश थे और देवांगनाओंको भी जीतनेवाली छियानबे हजार स्त्रियाँ थीं ।। १२६-१२७|| एक करोड़ हल थे, तीन करोड़ कामधेनु गायें थीं, वायुके समान वेगशाली अठारह करोड़ घोड़े थे, मत्त एवं धीरे-धीरे गमन करनेवाले चौरासी लाख हाथी और उतने ही उत्तम रथ थे ।। १२८-१२९ ॥ अकंकीति और विवर्धनको आदि लेकर पाँचसो चरम शरीरी तथा आज्ञाकारी पुत्र थे || १३०|| १ भाजन, २ भोजन, ३ शय्या, ४ सेना, ५ वाहन, ६ आसन, ७ निधि, ८ रत्न, ९ नगर और १० नाट्य ये दश प्रकारके भोग थे || १३१|| सेवामें निपुण, प्रमादरहित एवं परमहितकारी सोलह हजार गणबद्ध देव सदा उनकी सेवा करते थे || १३२ || यद्यपि राजाधिराज चक्रवर्ती इस प्रकारके विभवसे सहित
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तथापि उनकी बुद्धि शास्त्रोंका अर्थ विचारने में निरत रहती थी और वे दुर्गतिरूपी ग्रहका सदा निग्रह करते रहते थे ।। १३३ || भुजाओंसे शत्रुओं का मथन करनेवाले चक्रवर्तीने यद्यपि बत्तीस हजार राजाओंको बिखेरकर उनका अभिमान नष्ट कर दिया था तथापि स्वयं अभिमानसे रहित थे || १३४|| जिनका वक्षःस्थल श्रीवृक्ष के चिह्न से सहित था, जो चौंसठ लक्षणोंसे युक्त थे, जो इन्द्रकी
१. कामदृष्टि म । २. अर्ककीर्तिना । ३. विवर्द्धनकुमारादयः । ४. निधिरत्नं पुरं म । ५. श्रीवक्ष-म. ।
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हरिवंशपुराणे धर्मार्थकाममोक्षेषु यथेष्टमनुरागिणः । जनाः सन्ततमारेभुनिःप्रत्यूहसमोहिताः ॥१३७॥ अवाग्विसर्गमन्येषां पूर्वधर्मफलं प्रभुः । श्रिया स दर्शयन् केषां नाभूधर्मस्य देशकः ॥१३८॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् धर्मस्याचरितस्य पूर्वजनने मार्गे जिनानां महान्
माहात्म्येन सपौरुषः सुखनिधिोकैककल्पद्रुमः । सम्यग्दर्शनरत्नरञ्जितमनोवृत्तिर्मनश्चक्रभृत्
चक्रे शक्रनिभः श्रियात्र भरतः शार्दूलविक्रीडितम् ॥१३९॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती भरतदिग्विजयवर्णनो
नाम एकादशः सर्गः।
लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाले थे और जो नित्य एवं अखण्डित पौरुषको धारण करनेवाले थे ऐसे स्वयम्भूपुत्र सोलहवें कुलकर भरत महाराज जब भरत क्षेत्र सम्बन्धी छह खण्डोंकी भूमिका नीतिपूर्वक शासन करते थे तब धर्म, अर्थ, काम और मोक्षमें यथेष्ट अनुराग रखनेवाले लोग निर्विघ्न रूपसे निरन्तर आनन्दका उपभोग करते थे ॥१३५-१३७॥ जो अपनी लक्ष्मीके द्वारा बिना वचन बोले ही अन्य मनुष्योंके लिए पूर्वजन्ममें किये हुए धर्मका फल दिखला रहे थे ऐसे भरत महाराज किनके लिए धर्मके उपदेशक नहीं थे । भावार्थ-उनकी अनुपम विभूतिको देखकर लोग अपने आप समझ जाते थे कि यह इनके पूर्वकृत धर्मका फल है इसलिए सबको धर्म करना चाहिए ॥१३८॥ इस प्रकार पूर्वजन्ममें आचरण किये हुए धर्मके माहात्म्यसे जो स्वयं अतिशय महान थे. पौरुषसे यक्त थे, सुखके भाण्डार थे, लोगोंके लिए कल्पवक्षस्वरूप थे, सम्यग्दर्शनरूपी रत्नसे रंजित मनोवृत्तिसे युक्त थे, और लक्ष्मीसे इन्द्रके समान थे ऐसे चक्रवर्ती भरत, सिंहको चेष्टाके समान सुदृढ़ मनको जिनमार्गमें लीन रखने लगे ॥१३९।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
भरतकी दिग्विजयका वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥११॥
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द्वादशः सर्गः चकार वन्दनां गत्वा चक्री भर्तुरनारतम् । स त्रिषष्टिपुराणानि शुश्राव च सविस्तरम् ॥१॥ चतुर्विंशतितीर्थेश वन्दनाथं शिरःस्पृशम् । अचीकरदसौ वेश्मद्वारे वन्दनमालिकाम् ॥२॥ अदृष्टपूर्वतीर्थेशाः प्रविष्टाः समवस्थितिम् । कदाचिञ्चक्रिया साद्धं विवर्द्धनपुरोगमाः ॥३॥ क्लिष्टाः स्थावरकायेष्वनादिमिथ्यात्वदृष्टयः । दृष्ट्वा भगवतो लक्ष्मी राजपुत्राः सुविस्मिताः ॥४॥ अन्तर्मुहूर्तकालेन प्रतिपन्नसुपंयमाः। त्रयोविंशान्यहो चित्रं शतानि नवभिर्बभुः ॥५॥ तान् प्रशस्य ततश्चक्री शासनं च जिनेशिनाम् । नत्वेशं साधुसंधं च विवेश मुदितः पुरीम् ॥६॥ शनैर्याति ततः काले साम्राज्ये लोकपालिनः । चतुर्वर्गोंचितज्ञानजलक्षालितचेतसः ॥७॥ ततः स्वयंवरारम्भे प्राप्ते भूचरखे बरे । वृते मेघेश्वरे धीरे सुसुलोचनया तया ॥८॥ युद्धे बैद्वेऽर्ककीतौ च मुक्के च कृतपूजने । अकम्पनसुताभर्त्ता पूजितश्वक्रवर्तिना ॥९॥ स हास्तिनपुराधीशः प्रासादस्थोऽन्यदा वृतः । स्त्रीभिः खे खेचरं यान्तं खेचर्या वीक्ष्य मूच्छितः ॥१०॥
अथानन्तर चक्रवर्ती भरत समवसरणमें जाकर निरन्तर भगवान् वृषभदेवको नमस्कार करते थे और त्रेसठ शलाकापुरुषोंके पुराण विस्तारके साथ सुनते थे ।।१।। उन्होंने चौबीस तीथंकरोंकी वन्दनाके लिए अपने महलोंके द्वारपर शिरका स्पर्श करनेवाली वन्दनमालाएं बँधवायी थीं। भावार्थ-चक्रवर्ती भरतने अपने महलोंके द्वारपर रत्ननिर्मित चौबीस घण्टियोंसे सहित ऐसी वन्दन-मालाएं बँधवायी थीं जिनका निकलते समय शिरसे स्पर्श होता था। घण्टियोंको आवाज सुनकर भरतको चौबीस तीर्थंकरोंका स्मरण हो आता था जिससे वह उन्हें परोक्ष नमस्कार करता था ॥२॥ किसी समय चक्रवर्ती के साथ विवर्द्धन कुमार आदि नो सौ तेईस राजकुमार भगवान्के समवसरण में प्रविष्ट हुए। उन्होंने पहले कभी तीर्थकरके दर्शन नहीं किये थे। वे अनादि मिथ्यादृष्टि थे और अनादि कालसे ही स्थावर कापोंमें जन्ममरण कर क्लेशको प्राप्त हुए थे। भगवान्की लक्ष्मी देखकर वे सब परम आश्चर्यको प्राप्त हुए और अन्तर्मुहूर्तमें ही उन्होंने संयम प्राप्त कर लिया ॥३-५|| चक्रवर्तीने उन सब कुमारोंकी तथा जिनेन्द्रदेवके शासनकी प्रशंसा की और अन्तमें वे श्रीजिनेन्द्र भगवान् तथा मुनिसंघको नमस्कार कर प्रसन्न होते हुए अयोध्या नगरीमें प्रविष्ट हुए ॥६॥
तदनन्तर धीरे-धीरे समय व्यतीत होनेपर लोगोंकी रक्षा करनेवाले एवं चतुर्वर्गके वास्तविक ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित चित्तके धारक महाराज भरतके साम्राज्यमें सर्वप्रथम स्वयंवर प्रथाका प्रारम्भ हुआ। स्वयंवर मण्डपमें अनेक भूमिगोचरो तथा विद्याधर इकट्ठे हुए। बनारसके राजा अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाने हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभके पुत्र मेघेश्वर जयकुमारको वरा। अर्ककीति और जयकुमारका युद्ध हुआ जिसमें जयकुमारने अर्ककीर्तिको बाँध लिया। पश्चात् अकम्पनकी प्रेरणासे जयकुमारने अर्ककीर्तिको छोड़ दिया एवं उसका सस्कार किया और चक्रवर्तीने सुलोचनाके पति जयकुमारका सत्कार किया ॥७-९॥
तदनन्तर किसी समय हस्तिनापुरका राजा जयकुमार स्त्रियोंसे घिरा महलकी छतपर बैठा था कि आकाशमें जाते हुए विद्याधर और विद्याधरीको देखकर अकस्मात् मूच्छित हो १. तीर्थेशं वन्दनाथ म.। २. विवद्धनकुमारप्रभृतयः ९२३ भरतपुत्राः अनादिमिथ्यादृष्टयः सर्वतः पूर्व भगवतो वैभवं दृष्ट्रा संयम स्वीचक्ररिति कथासारः । ३. बद्धे च की च म.। ४ विद्याधर्या सह ।
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हरिवंशपुराणे विह्वलान्तःपुरस्त्रीमिः कृतमूर्छाप्रतिक्रियः । हा प्रभावति ! यातासि क्वेत्यवादीत्प्रबुद्धवान् ॥११॥ जये जातिस्मरे जाते तत्प्रियापि सुलोचना । प्रासादवलभौ क्रीडत्पारावतयुगेक्षणात् ॥१२॥ भूत्वा जातिस्मरा मूछा गरवा प्राप्य प्रतिक्रियाम् । हिरण्यवर्मणो नाम गृह्नतीव समुत्थिता॥ १३॥ हिरण्यवर्मपूर्वोऽहमित्युवाच जयः प्रियाम् । साह प्रभावतीत्याह प्रहृष्टा तं सुलोचना ॥१४॥ विद्याधरमवं पूर्वमभिज्ञानरुभावपि । परस्परस्य संवाद्यं स्पष्टं विदधतुः प्रियौ ॥१५॥ ततोऽन्तःपुरलोकस्य कौतुकव्याप्तचेतसः। किमेतदिति जिज्ञासाज्ञापनार्थं जयोक्तया ॥१६॥ सुखदुःखरसोन्मिश्रमवियोगसुखान्वितम् । द्वयोश्चरितमाख्यातं चतुर्भवमयं तया ॥१७॥ उहिण्टिकारिसंबन्धं सकान्तरतिवेगयोः । दम्पत्योर्दग्धयोस्तेन मरणं करुणावहम् ॥१८॥ मार्जारेण सता तेन स्वपारावतजन्मनि । मक्षणे दुःखमरणं स्वं जगाद सुलोचना ॥१९॥ साधुदानानुमोदेन प्रमावत्या प्रभावितः । हिरण्यवर्मणो भोगं महाविद्याधरश्रियः ॥२०॥ स्वपूर्ववैरिणा दाहं तयोः सह तपस्थयोः । आद्यकल्पसमुत्पत्तिं संक्लेशपरिणामतः ॥२१॥ क्रीडार्थमागतस्यास्य क्षमा देवमिथुनस्य च । वैरिणो नरकोत्थस्य भीमसाधोश्च मर्षणम् ॥२२॥ स्वर्गच्यवनपर्यन्तं दम्पत्योश्चरितं यथा। दृष्टश्रुतानुभूतार्थ सविस्तरमुदीरितम् ॥२३॥
गया॥१०॥ घबड़ायी हुई अन्तःपुरकी स्त्रियोंने उसकी मूछ का उपचार किया जिससे सचेत होकर वह कहने लगा कि 'हाय ! प्रभावति ! तू कहाँ गयो ? ॥११॥ उधर विद्याधर और विद्याधरीको देखकर जयकुमारको जातिस्मरण हुआ और इधर महलके छज्जेपर क्रीड़ा करते हुए कबूतर और कबूतरीका युगल देखनेसे सुलोचनाको भी जातिस्मरण हो गया जिससे वह भी मूच्छित हो गयी। पश्चात् मूर्छाका उपचार प्राप्त कर सुलोचना हिरण्यवर्माका नाम लेती हुई उठी ।।१२-१३।। प्रियाके मुखसे हिरण्यवर्माका नाम सुनकर जयकुमारने उससे कहा कि पहले मैं ही हिरण्यवर्मा था। इसके उत्तरमें सुलोचनाने भी प्रसन्न होती हुई कहा कि वह प्रभावती मैं ही हूँ ॥१४॥ इस प्रकार पतिपत्नी दोनोंने अनेक चिह्नोंसे हम पहले विद्याधर थे, इसका स्पष्ट निर्णय कर लिया ॥१५॥
तदनन्तर जिसका चित्त कौतुकसे व्याप्त हो रहा था ऐसे अन्तःपुरके समस्त लोगोंकी 'यह क्या है' इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिए जयकुमारकी प्रेरणा पाकर सुलोचनाने दोनोंके पिछले चार भवोंसे सम्बन्ध रखनेवाला चरित कहना शुरू किया। उनका वह चरित सुख और दुःखरूपी रससे मिला हुआ था तथा संयोग सम्बन्धी सुखसे सहित था ।।१६-१७॥ उसने बताया कि सुकान्त और रतिवेगा नामक दम्पतिके साथ उट्टिटिकारिका क्या सम्बन्ध था तथा किस प्रकार उसने उक्त दोनों दम्पतियोंको जलाकर उनका करुणापूर्ण मरण किया था। उट्टिटिकारि मरकर बिलाव हुआ और सुकान्त तथा रतिवेगा मरकर कबूतर-कबूतरी हुए तो उट्टिटिकारिने कबूतर-कबूतरीका भक्षण किया। जिससे उन्हें मरते समय बड़ा दुःख उठाना पड़ा ॥१८-१९।। मुनिदानकी अनुमोदनासे कबूतरीका जीव प्रभावती नामकी विद्याधरी हई और कबूतरका जीव हिरण्यवर्मा नामका विद्याधर हुआ तथा दोनों ही विद्याधरोंकी लक्ष्मीका उपभोग करते रहे। कदाचित् हिरण्यवर्मा
और प्रभावती वनमें तपस्या करते थे, उसी समय अपने पूर्व भवके वैरी-मार्जारके जीव ( विद्युद्वेग नामक चोर) ने उन्हें अग्निमें जला दिया। संक्लिष्ट परिणामोंके कारण हिरण्यवर्मा और प्रभावती मरकर प्रथम स्वर्गमें देव-देवी हुए और विद्युद्वेग चोरका जीव मरकर नरक गया। किसी समय उक्त देव-देवियोंका युगल क्रोड़ाके लिए पृथिवीपर आया था और विद्युद्वेगका जीव नरकसे निकलकर भीम नामका साधु हुआ था। सो कारण पाकर तीनों जीवोंने परस्पर क्षमा
१. कृतमूर्छानिवारणः । २. प्रतिक्रियः म.। ३. दृष्टं श्रुता म. ।
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द्वादशः सर्गः
२११ निजाज्ञया च कथितं श्रीपालचरितं तथा । सान्तःपुरो जयः श्रुत्वा महान्तं विस्मयं श्रितः ॥२४॥ भवपञ्चकसंबन्धस्नेहसागरवर्तिनोः । स्मरणादेव संप्राप्ताः विद्याः प्राग्जन्मजास्तयोः ॥२५॥ ततो विद्याप्रभावेण विद्याधरयुवश्रियो । विजहतुर्जयन्तौ तौ लोकं खेचरगोचरम् ॥२६॥ जिनेन्द्रवन्दगापूर्व त्रिवर्गपरिपोषिणा । मन्दरस्य रतं तेन कन्दरासु समं तया ॥२७॥ कुलशैलनितम्बेषु सुविशाल नितम्बया । रेमे किन्नरगीतेषु रामया सोऽभिरामया ॥२८॥ कर्मभूमिभवेनापि क्रीडितं भोगभूमिषु । कलागुणविदग्धेन मिथुनेन यथेरिसतम् ॥२९॥ शक्रप्रशंसनादेत्य रतिप्रभसुरेण सः । परीक्ष्य स्वस्त्रिया मेरावन्यदा पूजितो जयः ॥३०॥ सर्वासामेव शुद्धीनां शीलशुद्धिः प्रशस्यते । शीलशुद्धिविशुद्धानां किङ्करास्त्रिदशा नृणाम् ॥३१॥ वर्षाणि बहुपत्नीकः सुबहूनि बहुप्रजाः । बुभुजे परमान् भोगान् विजयेन समं जयः ॥३२॥ सुतयाकम्पनस्यासावाक्रोड्यादिषु चान्यदा । वन्दनाथ जिनेद्रस्य वृषमस्य समागमत् ॥३३॥ प्रत्यासन्नममुञ्चन्तीं प्रोवाच दयितां च सः । प्रिये पश्य जिनाधीशं त्रैलोक्यपरिवारितम् ॥३४॥ प्रातिहार्ययुतोऽष्टाभिश्चतुस्त्रिशन्महाद्भुतैः । अयं माति विभुर्धाता त्रैलोक्यपरमेश्वरः ॥३५॥
अमी चतुर्विधा देवाः सौधर्मप्रमुखाः प्रिये । देव्योऽमीषामपि मूर्ना प्रणमन्ति जिनेश्वरम् ॥३६॥ भाव धारण किया । काल पाकर भीम मुनि तो मोक्ष चले गये और देवदम्पती स्वर्गसे च्युत होकर हम दोनों हुए हैं। इस प्रकार स्वर्गसे च्युत होने पर्यन्त देवदम्पतीका चरित जैसा देखा, सुना अथवा अनुभव किया था वैसा सुलोचनाने विस्तारके साथ वर्णन किया ।।२०-२३।। तदनन्तर जयकुमारकी आज्ञा पाकर सुलोचनाने श्रीपाल चक्रवर्तीका भी चरित कहा जिसे अन्तःपुरके साथसाथ सुनकर जयकुमार परम आश्चर्यको प्राप्त हुए ॥२४॥ जो पांच भवोंके सम्बन्धसे समुत्पन्न स्नेहरूपो सागरमें निमग्न थे ऐसे जयकुमार और सुलोचनाको स्मरण मात्रसे ही पूर्व भव सम्बन्धी विद्याएँ प्राप्त हो गयीं ।।२५।। तदनन्तर विद्याके प्रभावसे विद्याधर और विद्याधरियोंकी शोभाको जीतते हुए वे दोनों विद्याधरोंके लोकमें विहार करने लगे ।।२६।। धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गको पुष्ट करनेवाला जयकुमार कभी जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना कर सुमेरुपर्वतकी गुफाओंमें सुलोचनाके साथ रमण करता था और कभी जहां किन्नर देव गाते थे ऐसे कुलाचलोंके नितम्बोंपर विशाल नितम्बोंसे सुशोभित सुन्दरी सुलोचनाके साथ क्रीड़ा करता था ॥२७-२८।। वह यद्यपि कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ था तथापि कला गुणमें विदग्ध आर्य दम्पतीके समान भोगभूमियोंमें इच्छानुसार क्रीड़ा करता था ॥२९॥
किसी समय इन्द्रके द्वारा की हई प्रशंसासे प्रेरित होकर रतिप्रभ नामक देवने अपनी स्त्रीके साथ सुमेरु पर्वतपर जयकमारके शीलको परीक्षा की और परीक्षा करनेके बाद उसकी पूजा की ॥३०॥ सो ठीक ही है क्योंकि सब प्रकारको शुद्धियोंमें शीलशुद्धि ही प्रशंसनीय है। जो मनुष्य शीलकी शुद्धिसे विशुद्ध हैं उनके देव भी किंकर हो जाते हैं ।।३१।। बहुत पत्नियों और बहुत पुत्रोंसे सुशोभित जयकुमार अपने छोटे भाई विजयके साथ उत्तमोत्तम भोग भोगता रहा ॥३२॥
तदनन्तर किसी दिन वह सुलोचनाके साथ पर्वतोंपर क्रोड़ा कर श्री वृषभ जिनेन्द्रकी वन्दनाके लिए समवसरण गया ॥३३॥ समवसरणके समीप पहुँचकर उसने पास में खड़ी सुलोचनासे कहा कि प्रिये ! तीन लोकके जीवोंसे घिरे हुए जिनेन्द्र देवको देखो ॥३४॥ ये त्रिलोकीनाथ आठ प्रातिहार्योसे सहित हैं तथा चौंतीस अतिशयोंसे सुशोभित हो रहे हैं ॥३५।। हे प्रिये ! ये सौधर्म आदि चारों निकायके देव और इनको देवियाँ मस्तक झुका-झुकाकर जिनेन्द्र देवको प्रणाम कर
१. मवोचन्ती म.। २. विशुद्धान्तो म., ख.।
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हरिवंशपुराणे नानचियतिभिर्युक्ताः सप्ततिर्गणधारिणः । अमी वृषमसेनाद्याः प्रकाशन्तेऽन्तिकं प्रमोः ॥३७॥ असौ बाहुबली कान्ते ! केवली जटिलो वृतः । स्वभ्रातृमनिभिर्भाति न्यग्रोध इव पादपैः ॥३८॥ एष सोमप्रमो देवि ! शोभते गुरुरावयोः । श्रेयसा सहितो योगी तप:श्रीपरिवारितः ॥३९॥ अयं पुत्रसहस्रेण तपस्थो जनकस्तव । अकम्पनमहाराजो राजते तपसः श्रिया ॥४॥ दुर्मर्षणादयस्तेऽमी स्वत्स्वयंवरयोधिनः । उपशान्त धियः कान्ते ! तपस्यन्ति महानृपाः ॥४१॥ ब्राह्मीयं सुन्दरीयं च समस्ता गणाग्रणीः । कुमारीभ्यां प्रिये ताभ्यां मारभङ्गः स्फुटीकृतः ॥४२॥ भरतोऽयं नृपैः सार्द्धमुपविष्टो जिनान्तिके । अन्तःपुरमिदं तस्य सुभद्रादिकमेकतः ॥४३॥ पश्य पश्य प्रिये चित्रं यदन्योन्यविरोधिनः । तिर्यञ्चोऽमी समासीनाः सममेकत्र मित्रवत् ॥४४॥ दर्शयन्निति कान्तायै समवस्थितिमहतः । सोऽवतीर्य मरुन्मार्गात् कृतजैनेन्द्र संस्तवः ॥४५॥ निविष्टश्चक्रिणः पाश्व विनयी नयविजयः। सुभद्रान्तिकमासाद्य समासीना सुलोचना ॥४६॥ धर्म तत्र जयः श्रुत्वा सप्रपञ्चकथामृतम् । बोधिलाभमसौ लेभे मोहनीयतनुस्वतः ॥४७॥ स्नेहपाशं दृढं छित्त्वा प्रबोध्य स सुलोचनाम् । पुत्रायानन्तवीर्याय दत्वा राज्यं निजं कृती ॥४८॥ चक्रिणा रुध्यमानोऽपि स स्नेहवशतिना। प्रवव्राज जिनस्थान्ते विजयेन जयः समम् ॥४९॥ शतान्यष्टौ जयेनामा प्रावजन् क्षितिपास्तदा । कलत्रपुत्रमित्राणि सराज्यान्यवहाय ते ॥५०॥ दुःसंसारस्वभावज्ञा सपत्नीभिः सिताम्बरा । ब्राह्मीं च सुन्दरों श्रिस्वा प्रववाज सुलोचना ॥५१॥
रही हैं ॥३६।। ये भगवान् ऋषभदेवके समीप नाना ऋद्धियोंके धारक मुनियोंसे युक्त वृषभसेन आदि सत्तर गणधर सुशोभित हो रहे हैं ॥३७॥ हे कान्ते ! यहाँ ये केवलज्ञानी जटाधारी बाहुबली भगवान् विराजमान हैं। ये मुनि अवस्थाको प्राप्त हुए अपने भाइयोंसे घिरे हुए हैं और अनेक वृक्षोंसे घिरे वटवृक्षके समान सुशोभित हो रहे हैं ॥३८॥ हे देवि ! इधर ये तपरूपी लक्ष्मीसे घिरे हुए हमारे पिता सोमप्रभ मुनिराज, अपने छोटे भाई श्रेयान्सके साथ सुशोभित हो रहे हैं ॥३९।। इधर ये तुम्हारे पिता अकम्पन महाराज एक हजार पुत्रोंके साथ तपमें लीन हैं तथा तपोलक्ष्मीसे अत्यधिक सुशोभित हो रहे हैं॥४०॥ हे कान्ते ! इधर ये तम्हारे स्वयंवरमें यद्ध करनेवाले दुर्मर्षण आदि बडे-बड़े राजा शान्त चित्त होकर तपस्या कर रहे हैं ॥४१॥ हे प्रिये ! यह समस्त आर्यिकाओंकी अग्रणी ब्राह्मी है और यह सुन्दरी है। इन दोनोंने कुमारी अवस्थामें ही कामदेवको पराजित कर दिया है।॥४२॥ इधर यह जिनेन्द्र भगवान्के समीप अनेक राजाओंके साथ भरत चक्रवर्ती बैठा है और उधर दूसरी ओर उसको सुभद्रा आदि रानियाँ अवस्थित हैं।।४३।। हे प्रिये ! देखो देखो, कैसा आश्चर्य है कि ये परस्परके विरोधी तिथंच यहाँ एक साथ मित्रकी तरह बैठे हैं ॥४४।। इस प्रकार प्राणवल्लभा-सुलोचनाके लिए अरहन्त भगवान्का समवसरण दिखाता हुआ नीतिका वेत्ता कुमार आकाशसे नीचे उतरा
और जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति करता हुआ विनय-पूर्वक चक्रवर्तीके पास बैठ गया तथा सुलोचना सुभद्राके पास जाकर बैठ गयी ।।४५-४६।। जयकुमारका मोह अत्यन्त सूक्ष्म रह गया था इसलिए वहाँ विस्तृत कथारूपी अमृतसे सहित धर्मका उपदेश सुनकर उसने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी बोधिका लाभ प्राप्त किया ||४७|| तदनन्तर अतिशय बुद्धिमान् जयकुमारने स्नेहरूपी सुदृढ़ बन्धनको छेदकर सुलोचनाको समझाया, अनन्तवीयं नामक पुत्रके लिए अपना राज्य दिया और स्नेहके वशवर्ती चक्रवर्तीके मना करनेपर भी छोटे भाई विजयके साथ जिनेन्द्रदेवके समीप दीक्षा ले ली ||४८-४९।। उस समय जयकुमारके साथ एक सौ आठ राजाओंने स्त्री, पुत्र, मित्र तथा राज्यको छोड़कर दीक्षा धारण कर ली ॥५०॥ दुष्ट संसारके स्वभावको जाननेवाली सुलोचनाने अपनी सपत्नियों के साथ सफेद वस्त्र धारण कर लिये और ब्राह्मी तथा
१. तपसा श्रिया म. । For Private & Personal use only
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द्वादशः सर्गः
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द्वादशाङ्गधरो जातः क्षिप्रं मेघेश्वरी गणी । एकादशाङ्गभृजाता सार्यिकापि सुलोचना ॥५२॥ भूचरेषु ततोऽन्येषु खेचरेषु च राजसु । निष्क्रान्तेषु श्रियस्त्यक्त्वा दोषिणीरिख योषितः ॥५३॥ अभूवन् गणिनो भत्तरशीतिश्चतुरुत्तरा । सहस्राणि गणाश्चासन्नशीतिश्चतुरुत्तरा ॥५४॥ आद्यो वृषभसेनोऽन्यः कुम्भो दृढरथो गणी । चतुर्थः शत्रुदमनो देवशर्मा च पञ्चमः ॥५५॥ षष्ठो गणधरो धीमान् धनदेव इतीरितः । नन्दनः सोमदत्तश्च सुरदत्तस्तथा परः ॥५६॥ वायुशर्मा सुबाहुश्च देवाग्निादशो गणी। अग्निदेवोऽग्निभूतिश्च'चतुर्दश उदीरितः ॥५॥ तेजस्वी चाग्निमित्रश्च तथा हलधरः श्रुती। महीधरश्च माहेन्द्रो वसुदेवो वसुंधरः ॥५८॥ तथैवाचलनामान्यो मेरुश्च जगतीष्यते । भूतिः सर्वंसहो यज्ञः सर्वगुप्तस्तथापरः ॥५९।। द्वौ च सर्वप्रियो देवी विजयश्चापि संज्ञया । परो विजयगुप्तश्च मित्रान्तविजयस्ततः ॥६॥ विजयश्रीरिति ख्यातः पराख्योऽप्यपराजितः । वसुमित्रोऽपि सेनान्तो वसुसाधुरनीदृशः ॥६१॥ सत्यदेव इति ज्ञेयः सत्यवेदः पुनर्गणी । सर्वगुप्तश्च मित्रश्च सत्यवानिति नामतः ॥६२॥ विनीतः संवरश्चोभावृषिगुप्तर्षिदत्तकौ । यज्ञदेव इति प्रोक्तो यज्ञगुप्तस्तथैव च ॥१३॥ यज्ञमित्रो यज्ञदनः स्वायंभुव इति स्तुतः । मागदत्तो भागफल्गुगुप्तफलाः प्रकीर्तितः ॥६४॥ तथाऽन्यो गणभृनाम्ना मित्रफल्गुः प्रजापतिः । ततः सत्ययशा नाम्ना वरुणो धनवाहिकः ॥६५।। गणी महेन्द्रदत्तश्च तेजोराशिमहारथः । विजयश्रुतिरन्यश्च महाबल इति श्रुतः ॥६६॥ सुविशालश्च वज्रश्च वैरनामा ततोऽपरः । सप्ततिश्चन्द्रचूडोऽन्यस्ततो मेघेश्वरः परः ॥६७॥ कच्छश्चापि महाकच्छः सुकच्छोऽतिबलोऽपि च । मद्रावलिश्च विख्यातो नमिश्च विनमिस्तथा ॥६८॥ गगी भद्रबलो नन्दी तथान्यः समुदोरितः । महानुभावसंज्ञश्च नन्दिमित्रश्च नामतः ॥६९॥ तथैव कामदेवश्च चरमोऽनुपमः स्मृतः । वृषभस्य गणिनस्तेऽमी अशीतिश्चतुरुत्तराः ॥७०।।
सुन्दरीके पास जाकर दीक्षा ले ली ॥५१॥ मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांगके पाठी होकर भगवान्के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगोंकी धारक हो गयो ।।५२।। तदनन्तर अनेक भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंने जब दोषवती स्त्रियोंके समान लक्ष्मीका त्याग कर दोक्षा धारण कर ली तब भगवान के चौरासी गणधर हो गये और गणोंकी संख्या चौरासी हजार हो गयो ।।५३-५४।। उनमें चौरासी गणधरोंके नाम ये हैं-१ वृषभसेन, २ कुम्भ, ३ दृढ़रथ, ४ शत्रुदमन, ५ देवशर्मा, ६ धनदेव, ७ नन्दन, ८ सोमदत्त, ९ सुरदत्त, १० वायुशर्मा, ११ सुबाहु, १२ देवाग्नि, १३ अग्निदेव, १४ अग्तिभूति, १५ तेजस्वी, १६ अग्निमित्र, १७ हलधर, १८ महीधर, १९ माहेन्द्र, २० वसुदेव, २१ वसुन्धर, २२ अचल, २३ मेरु, २४ भूति, २५ सर्वसह, २६ यज्ञ, २७ सर्वगुप्त, २८ सर्वप्रिय, २९ सर्वदेव, ३० विजय, ३१ विजयगुप्त, ३२ विजयमित्र, ३३ विजयश्री, ३४ पराख्य, ३५ अपराजित, ३६ वसुमित्र, ३७ वसुसेन, ३८ साधुसेन, ३९ सत्यदेव, ४० सत्यवेद, ४१ सर्वगुप्त, ४२ मित्र, ४३ सत्यवान्, ४४ विनीत, ४५ संवर, ४६ ऋषिगुप्त, ४७ ऋषिदत्त, ४८ यज्ञदेव, ४९ यज्ञगुप्त, ५० यज्ञमित्र, ५१ यज्ञदत्त, ५२ स्वायम्भुव, ५३ भागदत्त, ५४ भागफल्गु, ५५ गुप्त, ५६ गुप्तफल्गु, ५७ मित्रफल्गु, ५८ प्रजापति, ५९ सत्ययश, ६० वरुण, ६१ धनवाहिक, ६२ महेन्द्रदत्त, ६३ तेजोराशि, ६४ महारथ, ६५ विजय-श्रुति, ६६ महाबल, ६७ सुविशाल, ६८ वज्र, ६९ वैर, ७० चन्द्रचूड, ७१ मेचेश्वर, ७२ कच्छ, ७३ महाकच्छ, ७४ सुकच्छ, ७५ अतिबल, ७६ भद्रावलि, ७७ नमि, ७८ विनमि, ७९ भद्रबल, ८० नन्दी, ८१ महानुभाव, ८२ नन्दिमित्र, ८३ कामदेव और ८४ अनुपम । भगवान् वृषभदेवके ये चौरासी गणधर थे ।।५५-७०॥ भगवान् वृषभ
१. भूतश्च म.। २ धनवाहकः म., ख. ।
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हरिवंशपुराणे
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संघः परिषदि श्रीमान् बभौ सप्तविधस्तदा । विचित्रगुणपूर्णानामृषीणां वृषभेशिनः ॥ ७१ ॥ सहस्राणि च चत्वारि तत्र सप्तशतानि च । पञ्चाशच्च महाभागा बभुः पूर्वधरास्तदा ॥ ७२ ॥ तावन्त्येव सहस्राणि शतं पञ्चाशतायुतम् । श्रुतस्य शिक्षकाः प्रोक्ताः संयताः संयताक्षकाः ॥७३॥ सहस्राणि नवाधीता मुनयोऽवधिलोचनाः । विंशतिस्ते सहस्राणि केवलज्ञानलोचनाः ॥७४॥ विंशतिस्ते सहस्राणि षट् शतानि च वैक्रियाः । विक्रियाशक्तियोगेन जयन्तः शक्रमप्यलम् ॥७५॥ द्वादशैव सहस्राणि तथा सप्तशतानि च । पञ्चाशञ्च युतास्तत्र मत्या विपुलया बभुः ॥७६ || तावन्त एव संख्याताः संख्ययासंख्य सद्गुणाः । जेतारो हेतुवादज्ञा वादिनः प्रतिवादिनाम् ||१७|| सपञ्चाशत्सहस्रास्ता शुद्धज्ञा बभुरायिकाः । श्राविकाः पञ्चलक्ष्यस्तास्त्रिलक्षाः श्रावकाश्च ते ||७८|| छद्मस्थकालनिर्मुक्तां पूर्वलक्षां जिनेश्वरः । विजहार महीं भव्यान् भवाब्धेस्तारयन् बहून् ।।७९।।
स्रग्धराच्छन्दः
इथं कृत्वा समर्थ मवजलधिजलोत्तारणे मावतीर्थं
कल्पान्तस्थायि भूयस्त्रिभुवनहितकृत् क्षेत्रतीर्थं स कर्त्तुम् । स्वाभाव्य दारुरोह श्रमणगणसुरवातसंपूज्यपादः
कैलासाख्यं महीधं निषधमिव वृषादित्य इद्धप्रमाढ्यः ||८०|| तस्मिन्नद्वौ जिनेन्द्रः स्फटिकमणिशिलाजालरम्ये निषण्णो
योगानां संनिरोधं सह दशभिरथो योगिनां यैः सहस्रैः । कृत्वा कृत्वान्तमन्ते चतुरपरमहाकर्मभेदस्य शर्म
स्थानं स्थानं स सैद्धं समगमदमलस्रग्धराभ्यर्च्य मानः ॥ ८१ ॥
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देवकी सभा में नाना प्रकारके गुणोंसे पूर्णं मुनियोंका सात प्रकारका संघ था ॥ ७१ ॥ उनमें चार हजार सात सौ पचास महाभाग तो पूर्बंधर थे ॥ ७२ ॥ | चार हजार सात सौ पचास मुनि श्रुत शिक्षक थे, ये सब मुनि इन्द्रियोंको वश करनेवाले थे || ७३ || नौ हजार मुनि अवधिज्ञानी थे, बीस हजार केवलज्ञानी थे, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक थे, मुनि अपनी विक्रिया शक्तिके योग से इन्द्रको भी अच्छी तरह जीतनेवाले थे, बीस हजार सात सौ पचास विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानके धारक थे, बीस हजार सात सौ पचास ही असंख्यात गुणोंके धारक; हेतुवादके ज्ञाता तथा प्रतिवादियों को जीतनेवाले वादी थे, शुद्ध आत्मतत्त्वको जाननेवाली पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, पाँच लाख श्राविकाएँ थीं और तीन लाख श्रावक थे ||७४-७८ ।। भगवान् की कुल आयु चौरासी लाख पूर्वं वर्षकी थी उसमें से छद्मस्थ कालके तेरासी लाख वर्ष पूर्वं वर्ष कम कर देनेपर एक लाख पूर्वं वर्ष तक उन्होंने अनेक भव्य जीवों को संसार सागर से पार करते हुए पृथिवीपर विहार किया T || ७९|| इस प्रकार मुनिगण और देवोंके समूहसे पूजित चरणोंके धारक श्रीवृषभ जिनेन्द्र, संसाररूपी सागरके जलसे पार करने में समर्थ रत्नत्रयरूप भाव तीर्थंका प्रवर्तन कर कल्पान्त काल तक स्थिर रहनेवाले एवं त्रिभुवन जनहितकारी क्षेत्र तीर्थंको प्रवर्तनके लिए स्वभाववश ( इच्छाके बिना ही ) कैलास पर्वतपर उस तरह आरूढ़ हो गये जिस तरह कि देदीप्यमान प्रभाका धारक वृषका सूर्यं निषधाचलपर आरूढ़ होता है ||८०|| स्फटिक मणिकी शिलाओंके समूहसे रमणीय उस कैलास पर्वत पर आरूढ़ होकर भगवान्ने एक हजार राजाओंके साथ योग निरोध किया और अन्तमें चार अघातिया कर्मोंका अन्त कर निर्मल मालाओंके धारक देवोंसे पूजित हो अनन्त
१. ४७५० । २.४१५० । ३. ९००० । ४. २०००० । ५.२०६०० । ६.१२७५० ।
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द्वादशः सर्गः
उदूघः संघोऽस्य 'मौनः स्फुटभुवनगुरोर्देवदेवस्य देहं
देवोश्चक्रवत्तिप्रमुख नृपगणश्चातिभक्त्या समेत्य । गन्धैः पुष्पैश्च धूपैः सुरभिमिरमलैरक्षतैश्च प्रदीपैः
संपूज्यानम्य सम्यग्वृषभजिनगुणश्रीफलं याचते स्म ॥८२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो वृषभेश्वरपरिनिर्वाणवर्णनो नाम द्वादशः सर्गः ॥ १२ ॥
D
सुखके स्थानभूत मोक्षस्थानको प्राप्त क्रिया || ८१ || मोक्षप्राप्ति के अनन्तर मुनियोंका श्रेष्ठ संघ, देवों का समूह और चक्रवर्ती आदि प्रमुख राजाओं का समूह - इन सबने तोव्र भक्तिवश आकर गन्ध, पुष्प, सुगन्धित धूप, उज्ज्वल अक्षत और देदीप्यमान दीपकके द्वारा त्रिजगद्गुरु देवादि देव वृषभदेव के शरीर की पूजा कर तथा अच्छी तरह नमस्कार कर यही याचना को कि हम लोगों को श्री ऋषभ जिनेन्द्रके गुण लक्ष्मीरूपी फलकी प्राप्ति होवे ॥ ८२ ॥
१. मुनीनामयं मौनः ‘तस्येदम्' इत्यण् प्रत्ययः,
।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में श्रीवृषभदेवकी निर्वाण प्राप्तिका वर्णन करनेवाला बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||१२||
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त्रयोदशः सर्गः
अनुभूय चिरं लक्ष्मी भूपतिर्भरतेश्वरः । आदित्ययशसं पुत्रमभिषिच्य भुवो विभुः ॥१॥ दीक्षा जग्राह जैनेन्द्रीमुग्रामात्मपरिग्रहाम् । दुर्निग्रहेन्द्रियग्राममृगनिग्रहवागुराम् ॥२॥ पञ्चमुष्टिमिरुत्पाट्य त्रुट्यबन्धस्थितिः कचान् । लोचानन्तरमेवापद् राजन् श्रेणिक ! केवलम् ॥३॥ द्वात्रिंशत्रिदशेन्द्रैः स कृतकेवल पूजनः । दीपको मोक्षमार्गस्य विजहार चिरं महीम् ॥४॥ पूर्वलक्षाः कुमारत्वे तस्यागुः सप्तसप्ततिः । साम्राज्ये षट् प्रमोरेका श्रामण्ये विश्वदृश्वनः ॥५॥ शैलं वृषभसेनाद्यैः कैलासमधिरुह्य सः । शेषकर्मक्षयान्मोक्षमन्ते प्राप्तः सुरैः स्तुतः ॥६॥ आदित्ययशसः पुत्रो जातः स्मितयशःश्रतिः । श्रियं तस्मै वितीर्यासौ तपसा प्राप निवृतिम् ।।७।। बलस्तस्मादभूत्पुत्रः सुबलोऽतो महाबलः । ततोऽतिबलनामा च तस्यामृतबलः सुतः ॥८॥ सुभद्रः सागरो भद्रो रवितेजाः शशी ततः । प्रभूततेजास्तेजस्वी तमनोऽन्यः प्रतापवान् ॥९॥ अतिवीर्यः सुत्रीयोऽतस्तथोदितपराक्रमः । महेन्द्रविक्रमः सूर्य इन्द्रद्युम्नो महेन्द्रजित् ॥१०॥ प्रभविभरविध्वंसो वीतभीवृषभध्वजः । गरुडाको मृगाताख्य इत्याद्याः पृथिवीभृतः ॥११॥ आदित्यवंशसंभूताः क्रमेण पृथुकीर्तयः । सुते न्यस्तभराः प्रापुस्तपसा पेरिनितिम् ॥१२॥
अथानन्तर षट्खण्ड पृथिवीके स्वामी महाराज भरतने चिरकाल तक लक्ष्मीका उपभोग कर अर्ककीर्ति नामक पुत्रका अभिषेक किया और स्वयं अतिशय कठिन आत्मरूप परिग्रहसे युक्त, एवं कठिनाईसे निग्रह करने योग्य इन्द्रियरूपी मगसमहको पकडने के लिए जालके समान जिनदीक्षा धारण कर ली।।१-२।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन श्रेणिक! महाराज भरतने अपने समस्त पंचमुट्टियोंसे उखाड़कर फेंक दिये तथा उनके कर्मबन्धनको स्थिति इतनी जल्दी क्षीण हुई कि उन्होंने केशलोंचके बाद ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥३॥ तदनन्तर बत्तीसों इन्द्रोंने आकर जिनके केवलज्ञानकी पूजा की थी और जो मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेके लिए दीपकके समान थे ऐसे भगवान् भरतने चिरकाल तक पृथिवीपर विहार किया ॥४॥ सर्वदर्शी भगवान् भरतको आयु भी चौरासी लाख पूर्वको थी उसमें-से सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार कालमें बीते, छह लाख पूर्व साम्राज्य पदमें व्यतीत हुए और एक लाख पूर्व उन्होंने मुनि पदमें विहार किया ॥५॥ आयुके अन्त समय वे वृषभसेन आदि गणधरोंके साथ कैलास पर्वतपर आरूढ़ हो गये और शेष कर्मोका क्षय कर वहींसे उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, देवोंने उनकी स्तुति-वन्दना को ॥६॥
राजा अर्ककोतिके स्मितयश नामका पुत्र हुआ। अककीर्ति उसे लक्ष्मी दे तपके द्वारा मोक्षको प्राप्त हुआ |७॥ स्मितयशके बल, बलके सुबल, सुबलके महाबल, महाबलके अतिबल, अतिबलके अमृतबल, अमृतबलके सुभद्र, सुभद्रके सागर, सागरके भद्र, भद्रके रवितेज, रवितेजके शशी, शशीके प्रभूततेज, प्रभूततेजके तेजस्वी, तेजस्वीके तपन, तपनके प्रतापवान्, प्रतापवान्के अतिवीर्य, अतिवीर्यक्रे सुवीर्य, सुवीर्यके उदितपराक्रम, उदितपराक्रमके महेन्द्रविक्रम, महेन्द्रविक्रमके सूर्य, सूर्यके इन्द्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्नके महेन्द्रजित्, महेन्द्रजित्के प्रभु, प्रभुके विभु, विभुके अविध्वंस, अविध्वंसके वीतभी, वीतभीके वृषभध्वज, वृषभध्वजके गरुडांक और गरुडांकके मगांक आदि अनेक राजा क्रमसे सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए। ये सब राजा विशाल यशके धारक थे
१. कल्पवासिनः १२, भवनवासिनः १०, व्यन्तराः ८, सूर्याचन्द्रमसौ इति = ३२ । २. मोक्षम् ।
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त्रयोदशः सर्गः
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मोक्षमिक्ष्वाकवो जग्मुर्भरताद्या निरन्तराः । ते चतुर्दशलक्षास्तु प्रापैकोऽग्रेऽहमिन्द्रताम् ॥१३॥ तथा दशगुणाश्चाष्टौ परिपाट्या नरेश्वराः । मुक्तास्तदन्तरे प्रापदेकैकः 'सुरनाथताम् ॥१४॥ धोरा राज्यधुरां त्यक्त्वा धृत्वान्तेऽन्ये तपोधुराम् । स्वर्गमेकेऽपवर्ग तु जग्मुरादित्यवंशजाः ॥१५॥ योऽसौ बाहुबली तस्माजातः सोमयशाः सुतः । सोमवंशस्य कर्तासौ तस्य सूनुर्महाबलः ॥१६॥ ततोऽभूत्सुबलः सूनुरभूद् भुजबली ततः । एवमाद्याः शिवं प्राप्ताः सोमवंशोद्भवा नृपाः ॥१७॥ पञ्चाशत्कोटिलक्षाश्च सागराणां प्रमाणतः । तीर्थ वृषमनाथस्य तदा वहति सन्तते ॥१८॥ इक्ष्वाकवो द्विधादित्यसोमवंशोद्भवा नृपाः । उग्राद्या कौरवाद्याश्च मोक्षं स्वर्ग च भेजिरे ॥१९॥ नमेः खेचरनाथस्य रत्नमाली शरीरजः । रत्नवज्रोऽभवत्तस्मात्ततो रत्नरथस्तथा ॥२०॥ रत्नचिह्नाभिधानोऽस्मात् तस्माच्चन्द्ररथः सुतः । वज्रजङ्घो बभूवास्माद् वज्रसेनसुतस्ततः ॥२१॥ संजातो वज्रदंष्ट्रोऽस्मादभूद्ववजस्ततः । वज्रायुधश्च वज्रोऽतः सुवज्रो वज्रभृत्पुनः ॥२२॥ वज्राभो वज़बाहुश्च वज्राङ्को वज्रसुन्दरः । वज्रास्यो वज्रपाणिश्च वज्रभानुश्च वज्रवान् ॥२३॥ विद्युन्मुखः सुवक्त्रश्च विद्युदंष्ट्रस्तथैव च । विद्युत्वान् विद्युदाभश्च विद्युद्वेगश्च वैद्युतः ॥२४॥ इत्याद्याः सुतविन्यस्तविमवाः खेचराधिपाः । आद्ये तीर्थे तपः कृत्वा स्वर्ग मोक्षं च भेजिरे ॥२५॥ स्वर्गाग्रादवतीर्याथ जातस्तीर्थकरोऽजितः। नाभेयस्येव तस्यापि पञ्चकल्याणवर्णना ॥२६॥
काले तस्याभवञ्चक्री द्वितीयः सगरश्रुतिः । अक्षीणनिधिरत्नेशः प्रसिद्धो मरतो यथा ॥२७॥ और पुत्रोंके लिए राज्यभार सौंप तप कर मोक्षको प्राप्त हुए ॥८-१२॥ भरतको आदि लेकर चौदह लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गये। उसके बाद एक राजा सर्वार्थसिद्धिसे अहमिन्द्र पदको प्राप्त हआ. फिर अस्सो राजा मोक्ष गये परन्तु उनके बीच में एक-एक राजा इन्द्रपदको प्राप्त होता रहा ॥१३-१४।। सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए कितने ही धीर-वीर राजा अन्तमें राज्यका भार छोड़ और तपका भार धारण कर स्वर्ग गये तथा कितने ही मोक्षको प्राप्त हुए ॥१५॥ भगवान् ऋषभदेवके जो बाहुबली पुत्र थे उनसे सोमयश नामक पुत्र हुआ। वही सोमयश सोमवंश (चन्द्रवंश) का कर्ता हुआ। सोमयशके महाबल, महाबलके सुबल और सुबलके भुजबली पुत्र हुआ। इन्हें आदि लेकर सोमवंशमें उत्पन्न हुए अनेक राजा मोक्षको प्राप्त हुए ॥१६-१७। इस प्रकार भगवान् वृषभदेवका तीर्थ पृथिवीपर पचास लाख करोड़ सागर तक अनवरत चलता रहा। इस तीर्थकालमें अपनी दो शाखाओं-सूर्यवंश और चन्द्रवंशमें उत्पन्न हए इक्ष्वाकुवंशीय तथा कुरुवंशीय आदि अनेक राजा स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त हुए ।।१८-१९॥
विद्याधरोंके स्वामी राजा नमिके रत्नमाली, रत्नमालीके रत्नवज्र, रत्नवज्रके रत्नरथ, रत्नरथके रत्नचिह्न, रत्नचिह्नके चन्द्ररथ, चन्द्ररथके वज्रजंघ, वज्रजंघके वज्रसेन, वज्रसेनके वज्रदंष्ट्र, वज्रदंष्ट्रके वज्रध्वज, वज्रध्वजके वज्रायुध, वज्रायुधके वज्र, वज्रके सुवज्र, सुवज्रके वज्रभृत्, वज्रभृत्के वज्राभ, वज्राभके वज्रबाहु, वज्रबाहुके वज्रांक, वज्रांकके वज्रसुन्दर, वज्रसुन्दरके वज्रास्य, वज्रास्यके वज्रपाणि, वज्रपाणिके वज्रभानु, वज्रभानुके वज्रवान्, वज्रवान्के विद्युन्मुख, विद्युन्मुखके सुवक्त्र, सुवक्त्रके विद्युदंष्ट्र, विद्युदंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान्के विद्युदाभ, विद्यदाभके विद्युद्वेग और विद्युद्वेगके वैद्युत पुत्र हुआ। इन्हें आदि लेकर जो विद्याधर राजा हुए वे भी भगवान आदिनाथके तीर्थमें पुत्रोंके लिए राज्य-वैभव सौंप तपश्चरण कर यथायोग्य स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त हुए ॥२०-२५॥
अथानन्तर सर्वार्थसिद्धिसे चयकर दूसरे अजितनाथ तीर्थकर हुए। इनके पंच कल्याणकोंका वर्णन भगवन् ऋषभदेवके समान ही जानना चाहिए ॥२६।। इनके कालमें सगर नामका दूसरा १. एको मुक्तिमन्यः सुरनाथतां पुनरेको मुक्तिमन्य इन्द्रत्वमित्यनेन क्रमेण । २. नाभेयस्यापि म.। २८
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हरिवंशपुराणे पुत्राः षष्टिसहस्राणि तस्य दुर्ललितक्रियाः । परस्परमहाप्रीताः प्रत्याख्याताद्गु पूर्वकाः ॥२८॥ कृताष्टापदकैलासा दण्डरत्नेन ते क्षितिम् । मिन्दानाः कुपितेनामी नागराजेन मस्मिताः ॥२९॥ संसारस्थितिविच्चक्री पुत्रशोकमुदस्य सः । दीक्षित्वाजिननाथान्ते मोक्षमैन मुक्तबन्धनः ॥३०॥ ततः संभवनाथोऽभूत्ततोऽभूदभिनन्दनः । ततः सुमतिनाथश्च ततः पद्मप्रभो जिनः ॥३१॥ सुपाश्र्वश्च जिनेन्द्रोऽस्मात् ततश्चन्द्रप्रमः प्रभुः । पुष्पदन्तः परस्तस्मादशमः शीतलस्ततः ॥३०॥
शार्दूलविक्रीडितम् इक्ष्वाकुः प्रथमः प्रधानमुदगादादित्यवंशस्तत
स्तस्मादेव च सोमवंश इति यस्त्वन्ये कुरूप्रादयः । पश्चात् श्रीवृषमादभूदृषिगणः श्रीवंश उच्चस्तरा
मित्थं ते नृपखेचरान्वययुता वंशास्तवोक्ता मया ॥३३॥ शुद्ध श्रेणिक ! शीतलस्य दशमे तीर्थे वहत्युज्ज्वले
काले केवलदीपकोज्वलजगद्देवेन्द्र देवागमे । प्रोद्भूतः प्रकटप्रभावमहतां वंशो हरीणां यथा
वर्ण्यः सोऽपि मया तथा जिनपथे तथ्यो नृपाकर्ण्यताम् ॥३४॥ इत्यरिष्टने मिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती इक्ष्वाकुवंशवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः ।
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चक्रवर्ती हुआ। यह अक्षीणनिधियों तथा रत्नोंका स्वामी था और भरत चक्रवर्तीके समान प्रसिद्ध था ॥२७॥ इसके अद्गुको आदि लेकर साठ हजार पुत्र थे। ये सभी पुत्र अद्भुत चेष्टाओंके धारक थे और परस्परमें महाप्रीतिसे युक्त थे ॥२८॥ किसी समय ये समस्त भाई कैलास पर्वतपर गये वहाँ आठ पादस्थान बनाकर दण्डरत्नसे वहाँकी भूमि खोदने लगे परन्तु इस क्रियासे कुपित होकर नागराजने सबको भस्म कर दिया ॥२९॥ चक्रवर्ती सगर संसारको स्थितिका ज्ञाता था इसलिए पुत्रोंका शोक छोड़ उसने अजितनाथ भगवान्के समीप दीक्षा धारण कर ली और कर्म-बन्धनसे छूटकर मोक्ष प्राप्त किया ॥३०।। तदनन्तर अजिननाथके बाद सम्भवनाथ, उनके बाद अभिनन्दन नाथ, उनके बाद सुमतिनाथ, उनके बाद पद्मप्रभ, उनके बाद सुपार्श्वनाथ, उनके बाद चन्द्रप्रभ, उनके बाद पुष्पदन्त और उनके बाद शीतलनाथ हुए ॥३१-३२॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सर्व-प्रथम इक्ष्वाकु वंश उत्पन्न हुआ फिर उसी इक्ष्वाकुवंशसे सूर्यवंश और चन्द्रवंश उत्पन्न हुए। उसी समय कुरुवंश तथा उग्रवंश आदि अन्य अनेक वंश प्रचलित हुए। पहले भोगभूमिमें ऋषि नहीं थे परन्तु आगे चलकर भगवान् ऋषभदेवसे दीक्षा लेकर अनेक ऋषि उत्पन्न हुए और उनका उत्कृष्ट श्रीवंश प्रचलित हुआ। इस प्रकार मैंने तेरे लिए अनेक राजाओं और विद्याधरोंके वंशोंका कथन किया ।।३३।। अब जिस समय शीतलनाथ भगवान्का शुद्ध एवं उज्ज्वल दसवाँ तीथं बीत रहा था तथा केवलज्ञानरूपी दीपकसे उज्ज्वल,संसारमें इन्द्र और देवोंका आगमन जारी था ऐसे समय महाप्रभावके धारक हरियोंका जो वंश प्रकट हुआ था उसका
वंठा प्रकट दआ था उसका भी वर्णन करता हूँ। हे राजन् ! जिनमार्गमें इसका जो यथार्थ वर्णन है उसे तू श्रवण कर ॥३४||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
इक्ष्वाकुवंशका वर्णन करनेवाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१३॥
१. अद्गुः इति ज्येष्ठपुत्रस्य नाम ।
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चतुर्दशः सर्गः
अस्ति वरसाभिधो देशो देशेष्विह परेषु यः । सत्सु वत्साकृतिं धत्ते गोदोहे दोग्टगोचरे ||१|| कालिन्दीस्निग्धनीलाम्बुप्रतिबिम्बितसौर्धेता । कौशाम्बी नगरी तस्य गम्भीरा नाभिरख्यभात् ||२|| वप्रप्राकारपरिखाभूषणाम्बरधारिणी । नितम्बस्तनभारार्त्तस्तम्भितेव वधूरभात् ॥३॥ रत्नचित्राम्बरधरा या प्रासादमुखैर्घनान् । वर्षानिशास्त्रिव स्निग्धान् लेढि प्रौढाभिसारिका ॥४॥ 'दोषाकरकराप्राप्ता रत्नभूषार्चिषां चयैः । लेभे बहुलदोषासु परभागं सतीव या ॥५॥ पुर्याः प्रभुरभूतस्याः प्रतापप्रभवो नृपः । सवितेव कराक्रान्तदिक्चक्रः सुमुखः सुखी ||६||
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अथानन्तर जम्बूद्वीप में एक वत्स नामका देश है जो दूसरे देशोंके विद्यमान रहते हुए दोहनकर्ता जब गायको दुहते हैं तब सचमुच ही वत्स - बछड़ेकी आकृतिको धारण करता है । भावार्थ - जिस प्रकार वत्स गायके दूध निकालने में सहायक है उसी प्रकार यह देश भी गोपृथिवीसे धन-सम्पत्ति निकालने में सहायक था || १ || यमुना नदीके स्निग्ध एवं नीले जलमें जिसके महलोंका समूह सदा प्रतिबिम्बित रहता था ऐसी कौशाम्बी नगरी उस वत्स देशकी गहरी नाभिके समान अतिशय सुशोभित थी ॥२॥ वप्र, प्राकार और परिखारूपी आभूषण तथा अम्बर - आकाश ( पक्ष में वस्त्र ) को धारण करनेवाली वह नगरी नितम्ब और स्तनोंके भारसे पीड़ित होकर खड़ी हुई स्त्री के समान जान पड़ती थी ||३|| वह नगरी प्रौढ़ अभिसारिकाके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार प्रौढ़ अभिसारिका रत्नचित्राम्बरधरा - रत्नोंसे चित्र-विचित्र वस्त्रको धारण करती है उसी प्रकार वह नगरी भी रत्न-चित्राम्बरधरा - रत्नोंसे चित्र-विचित्र आकाशको धारण करती थी, और अभिसारिका जिस प्रकार रात्रिके समय अपने स्नेही जनोंका प्रसन्न मुखसे स्पर्श करती है उसी प्रकार वह नगरी भी वर्षाऋतुरूपी रात्रि के समय स्निग्ध - नूतन जलसे भरे मेघका महलरूपी मुखोंसे स्पर्श करती थी ॥४॥ अथवा वह नगरी कृष्ण पक्षकी रात्रियों में पतिव्रता स्त्री के समान सुशोभित होती थी क्योंकि जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री दोषाकरकराप्राप्ता - दोषोंकी खानस्वरूप दुष्ट मनुष्योंके हाथसे अस्पृष्ट रहती है उसी प्रकार वह नगरी भी बहुलदोषासु -कृष्ण पक्षकी रात्रिमें दोषाकरकरा प्राप्ता - चन्द्रमा की किरणोंसे अस्पृष्ट थी और पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार बहुल दोषासु - अनेक दोषोंसे भरी व्यभिचारिणी स्त्रियोंमें रत्नमय आभूषणोंकी किरणों के समूह उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त होती है, उसी प्रकार वह नगरी भी बहुलदोषासु - कृष्ण पक्षकी रात्रियों में रत्नमय आभूषणोंकी किरणोंसे उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त थी || ५ | उस कौशाम्बी नगरीका स्वामी राजा सुमुख था । वह सुमुख ठीक सूर्यके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सूर्य प्रतापप्रभवः --- प्रकृष्ट सन्तापका कारण है उसी प्रकार वह राजा भी प्रतापप्रभवः - उत्कृष्ट प्रभावका कारण था । जिस प्रकार सूर्य कराक्रान्तदिक्चक्रः - अपनी किरणोंसे दिङ्मण्डलको व्याप्त कर लेता है उसी प्रकार वह राजा भी कराक्रान्तदिक्चक्र:- अपने टैक्ससे दिङ्मण्डलको व्याप्त कर
१. ख पुस्तके 'दोग्धगोचरे' इति पाठ: केनापि 'दुग्धगोचरे' इति रूपेण शोधितः । २ सौधसमूहः । ३. मध्यदेशो नाभिश्च । ४. दोषाकरः दोषवान् मनुष्यः तस्य करेण अप्राप्ता पक्षे दोषाकरश्चन्द्रस्तस्य करैः किरणैः अप्राप्ता । ५. प्रभूतदोषासु स्त्रीषु पक्षे कृष्णपक्षनिशासु । ६. गुणोत्कर्षम् । ७. प्रकृष्टस्तापः प्रतापस्तस्य प्रभवः कारणं पक्षे प्रतापस्य प्रभावस्य प्रभवः कारणं 'स प्रभावः प्रतापश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्' इत्यमरः । ८. कराः किरणाः पक्षे राजग्राह्यो बलिः । ९. सुष्ठु खम् आकाशं यस्य स पक्षे सुखमस्यास्तीति सुखी ।
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२२०
हरिवंशपुराणे वर्णसङ्करविक्षेपिधनुषेन्द्रधनुर्गुणैः । यस्याधिक्षिप्तमेक्षिप्तवर्णसङ्करदोषकम् ॥७॥ दर्शनीयतमाङ्गस्य संगतस्य युवश्रिया । अदृष्टविग्रहोऽनङ्गो रूपेणास्य समः कथम् ॥८॥ धर्मशास्त्रार्थकुशलः कलागुणविशेषवान् । निग्रहेऽनुग्रहे शक्तः प्रजानामनुपालकः ॥९॥ सोऽवरोधनराजीववनराजीमधुव्रतः । ऋतून्मानयति प्राप्तानकृतत्रिगुणक्षतिः ॥१०॥ अथ प्राप्तो वसन्तर्तुः सुमुखद्युतिरुद्यमी । पुष्पपल्लवरागश्रीवनमालामनोहरः ॥११॥ नवपल्लवरागाढ्याश्चूताश्चेतोहरा बभुः । वनमालानुरागस्य सूचकाः सुमुखस्य च ॥१२॥ जज्वलुचलनज्वालालीलाः किंशुकराशयः । वियुज्येवानुयुक्तानां विमुक्ता धिरहाग्नयः ॥१३॥ रणन्नू पुरचारुस्त्रीकोमलक्रमताडितः। नवाशोकयुवोद्भिन्नपल्लवाङ्गरुहो बभौ ॥१४॥ अखण्डमधुगण्डूषपानपूरितदौहृदः । बकुलोऽपूरयत्पुष्पैः प्रमदाजनदौहृदम् ॥१५॥
चक्रे कुरवको यूनां शिलीमुखरवैः सुखम् । सुखिनां यः स एवाभूदितरेषां यथाश्रुतिः ॥१६॥ रहा था, और जिस प्रकार सूर्य सुखी-उत्तम ख-आकाशसे सहित होता है उसी प्रकार वह राजा भी सुखी-सुखसे सहित था ॥६॥ राजा सुमुखके धनुषने अपने गुणोंसे इन्द्रधनुषको तिरस्कृत कर दिया था क्योंकि राजा सुमुखका धनुष वर्णसंकरविक्षेपि-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन वर्गों के संकर दोषको दूर करनेवाला था और इन्द्रधनुष अक्षिप्तवर्णसंकरदोषकं-लाल, पीले, नीले, हरे आदि वर्गों के संकर-संमिश्रणरूपी दोषको दूर नहीं कर सका था ॥७॥ तारुण्य-लक्ष्मीसे सहित होने के कारण राजा सुमुखका शरीर अत्यन्त सुन्दर था. अतः जिसका शरीर ही नहीं दिखाई देता ऐसा कामदेव सौन्दर्यमें उसके समान कैसे हो सकता था ॥८॥ वह राजा धर्मशास्त्रके अर्थ करने में कुशल था, कला और गुणोंसे विशिष्ट था, दुष्टोंके निग्रह और सज्जनोंके अनुग्रह करनेमें समर्थ था और प्रजाका सच्चा रक्षक था ॥९॥ वह राजा अन्तःपुररूपी कमलवनको पंक्तिका भ्रमर था और धर्म, अर्थ, काममें परस्पर बाधा नहीं पहुंचाता हुआ आगत ऋतुओंका सम्मान करता था अर्थात् ऋतुओंके अनुकूल भोग भोगता था ।।१०।।
अथानन्तर किसी समय वसन्त ऋतुका आगमन हुआ। वह वसन्त ऋतु ठीक सुमुख राजाके ही समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार सुमुख राजा उद्यमी-उद्यमसे सम्पन्न था उसी प्रकार वसन्त ऋतु भी उद्यमी-अपना वैभव बतलानेमें उद्यमसम्पन्न थी, जिस प्रकार राजा सुमुख फूलों और पल्लवोंके रागसे युक्त वनमाला नामक स्त्रीके मनको हरण करनेवाला था उसी प्रकार वसन्त ऋतु भी फूलों और पल्लवोंकी लाल-लाल शोभासे युक्त वनपंक्तियोंसे मनोहर थी ॥११|| मनुष्योंके मनको हरण करनेवाले आमोंके वृक्ष उस समय नये-नये पल्लवोंकी लालिमासे युक्त हो गये थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो राजा सुमुखके लिए वनमाला-वनपंक्ति ( पक्षमें वनमाला नामक स्त्री ) के अनुरागको सूचना ही दे रहे हों ।।१२।। अग्निज्वालाओंकी शोभाको धारण करनेवाले टेसूके वृक्ष ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो विरहके अनन्तर मिले हुए स्त्री-पुरुषोंके द्वारा छोड़ी हुई विरहाग्नि ही हो ॥१३।। रुनझुन करनेवाले नूपुरोंसे सुन्दर स्त्रीके कोमल पदाघातसे ताड़ित होनेके कारण जिसमें पल्लवरूपी रोमांच निकल आये थे ऐसा अशोक वृक्षरूपी नवीन युवा उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।१४।। अखण्ड मद्यके कुल्लोंके पान करनेसे जिसका दोहला पूर्ण हो गया था ऐसे वकुल वृक्षने अपने फूलोंसे स्त्री जनोंकी अभिलाषाको पूर्ण कर दिया था ॥१५।। जो करवक वक्ष सुखी यवाओंके लिए भ्रमरोंके शब्दसे सुख उत्पन्न कर रहा था वही कुरवक दुखी ( विरही ) युवाओंके लिए सार्थक नामका धारक ( कु-खोटे रवक-शब्द कराने१. अक्षिप्तो वर्णसङ्करदोषो येन तत् । इन्द्रधनुषो विशेषणमिदम् । २. अदृष्टविग्रहानङ्गो म. । ३. यथाश्रुति म.।
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चतुर्दशः सर्गः
२२१ पाटलामोदसुभगां वनश्रीवनितामलम् । चक्रुः पुष्पवती फुल्लास्तिलकास्तिलकश्रियः ॥१७॥ जिगीषयेव विकसन्नागेसंहतिसंततेः । सिंहकेसरसिंहस्य केसरश्रीयं जम्भत ।।१८॥ मालतीवल्लभां मासश्चिरविश्लेषशोषिताम् । चकाराश्लेषपुष्टाङ्गी सद्यः पुष्पवती मधुः ॥१९।। हिन्दोलग्रामरागेण रक्तकण्ठाधरश्रियः । दोलाद्यान्दोलनक्रीडाव्यासक्ताः कोमलं जगुः ॥२०॥ उद्यानवनखण्डेषु तत्कालोचितमण्डनाः । स्त्रीसखाः केचिदाभेजुः प्रीत्या पानपरम्पराम् ॥२१॥ प्राग्दूर्वाङ्कुरमास्वाद्ये हरिण्यै हरिणो ददौ । तं सास्वाद्य ददौ तस्मै प्रियाघ्रातोऽपि हि प्रियः ॥२२॥ सल्लकीपल्लवोल्लासिकवलग्रासलालसाम् । स्वाननस्पर्शसौख्यान्धां चकार करिणी करी ।।२३।। मधुपानमदोन्मत्तमधुपद्वन्द्वमुत्स्वनम् । मधौ विजम्भितेऽन्योऽन्यं जिघ्रति स्म घनस्पृहम् ॥२४॥ कोकिलाकलकण्ठीनां गीतं श्रुत्वेव योषिताम् । चुकूज कोकिलस्तोषपोषी तस्य जिगोषया ॥२५।। मधुपैः परपुष्टश्च कलकोलाहलाकुलैः । गीयते स्म मधुर्यत्र तत्रान्येषु कथा नु का ॥२६॥
वाला ) था ॥१६।। उस समय तिलककी शोभाको धारण करनेवाले जो तिलकके फूल चारों ओर फूल रहे थे उन्होंने गुलाबकी सुगन्धिसे सुवासित वनलक्ष्मीरूपी स्त्रीको अत्यधिक पुष्पवतीफूलोंसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) कर दिया था ॥१७॥ जिस प्रकार इधर-उधर घूमते हुए हस्ति-समूहको जीतनेकी इच्छासे सिंहकी केशर ( अयाल ) सुशोभित होती है उसी प्रकार पुन्नागवृक्षोंके समूहको जीतनेकी इच्छासे सिंहकेशर - वृक्ष विशेषकी केशर सुशोभित हो रही थी ॥१८॥ जो चिरकालके विरहसे सूख रही थी ऐसी मालतीरूपी वल्लभाको चैत्र मासने अपने आलिंगनसे शीघ्र ही पुष्ट तथा पुष्पवती-फूलोंसे युक्त ( पक्षमें रजोधर्मसे युक्त ) बना दिया था। भावार्थजिस प्रकार कोई पुरुष चिरकालके वियोगसे कृश अपनो वल्लभाको आलिंगनसे पृष्ट कर पुष्पवती ( रजोधर्मसे युक्त) बना देता है उसी प्रकार चैत्रमासने चिरकालसे वियक्त सखी हई मालती लतारूपी वल्लभाको अपने आलिंगनसे पुष्ट तथा फूलोंसे व्याप्त कर दिया ।।१९।। उस समय रागपूर्ण कण्ठ और अतिशय लाल ओठोंको धारण करनेवाले स्त्री-पुरुष, झूला झूलनेकी क्रीड़ामें आसक्त हो हिन्दोल रागमें कोमल गान गा रहे थे ।।२०।। उस समयके अनुरूप वस्त्राभूषणोंको धारण करनेवाले कितने ही पुरुष अपनी स्त्रियोंके साथ बाग-बगीचोंमें बड़े प्रेमसे मद्यपान करते थे ॥२१।। हरिण दूबाके अंकुरका पहले स्वयं आस्वादन कर हरिणीके लिए देता था और हरिणी भी उसका आस्वादन कर हरिणके लिए वापस देती थी सो ठीक हो है क्योंकि प्रेमीजनोंके द्वारा सूंघी हुई भी वस्तु प्रिय होती है ।।२२।।
सल्लकी वृक्षके पल्लवोंका हरा-भरा ग्रास खाने में जिसकी लालसा लग रही थी ऐसी हस्तिनीको हस्तीने अपने मुखके स्पर्शसे समुत्पन्न सुखसे अन्धी कर दिया था-अपने स्पर्शजन्य सुखसे उसके नेत्र निमीलित कर दिये थे॥२३॥ उस समय वसन्तका विस्तार होनेपर मधुपान सम्बन्धी नशासे उन्मत्त हुए भ्रमर और भ्रमरियोंके जोड़े उच्च शब्द करते हुए तीव्र लालसाके साथ परस्पर एक दूसरेको सूंघ रहे थे॥२४॥ उस समय हर्षसे पुष्ट हुए कोकिल जहाँ-तहाँ मधुर शब्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कोकिलाओंके समान कलकण्ठी स्त्रियोंका गीत सुनकर उसे जीतनेकी इच्छासे ही शब्द कर रहे हों ।।२५।। आचार्य कहते हैं कि जहाँ मनोहर कोलाहलसे आकुल भ्रमर तथा कोकिल भी वसन्तके गीत गाते हैं वहाँ दूसरोंकी तो कथा ही क्या है? ॥२६॥
१. तिलकश्रिया म.। २. नागपुन्नागसंहतेः ख., म.। नागाः पुन्नागवृक्षा: पक्षे हस्तिप्रधानाः । ३. चैत्रमासः । ४. दोलाढ्यं म. । ५. -मासाद्य म.।
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हरिवंशपुराणे
इत्थं राजा मधौ मासे जाते जनमनोहरे । बभ्रे वनविहाराय मनो मदनविभ्रमम् ||२७|| कृतमण्डनमारूढो द्विपेन्द्रं कृतमण्डनः । अखण्डमण्डलेाभच्छत्रच्छन्नार्कमण्डलः ॥ २८ ॥ पूर्यमाणः पुरो निर्यंन् नृपैरोधैरिवोदधिः । राजा राजपथं भेजे वन्दिवृन्दस्तुतोऽन्यदा ॥२९॥ वसन्तमिव साक्षात् तं वसन्तं हृदि संततम् । दिदृक्षुः क्षुभिता मङ्क्षु पौरनारीजनाततिः ॥३०॥ वर्धस्व जय नन्देति कृतनादा कृताञ्जलिः । भूपरूपं पपौ सैषा नेत्राअलिमिराकुला ॥३१॥ तत्र स्त्रीजनमध्यस्थामेकामत्यन्तहारिणीम् । रतिं साक्षादिव प्राप्तामद्राक्षीद् वनितां नृपः ॥३२॥ मुखेन्द नेत्रयुग्माब्जे बिम्बोष्ठे कम्बुकण्ठके । स्तनचक्रे कृशे मध्ये गम्भीरे नामिमण्डले ||३३|| सुधने जघने तस्या नितम्बे सकुकुन्दरे । उरुजानुलसज्जङ्घापाणिपादे पदे पदे ॥ ३४॥ लोलां निपतितां दृष्टिं मनसाधिष्ठितां निजाम् । न शशाकोपसंहर्त्तुमतिरक्तो नरेश्वरः ||३५|| दध्यौ वधूरियं कस्य रूपपाशेन मे मनः । बद्ध्वा मुग्धमृगीनेत्रा समाकर्षति हर्षिणी ॥ ३६ ॥ यदीयं नानुभूयेत मया हृदयहारिणी । ततो व्यर्थ ममैश्वयं रूपं च नवयौवनम् ॥ ३७ ॥ लोकोऽयमेकतो भूयात्सर्वदा दुर्व्यतिक्रमः । अभिलाषोऽन्यदारेषु दुःसहोऽयमथैकतः ||३८|| इति ध्यायन्मनश्चक्रे स तस्याहरणे नृपः । अपवादो हि सह्येत रक्तेन न मनोव्यथा ॥ ३९ ॥ यशः प्रकाशमानोऽपि लोकज्ञः सोऽत्यमुद्यत । तमः पतनकाले हि प्रभवत्यपि भास्वतः ॥४०॥
इस प्रकार मनुष्यों के मनको हरण करनेवाले चैत्रमासके आनेपर राजा सुमुखने कामविलास से परिपूर्ण अपने मनको वन-विहार के लिए उद्यत किया ||२७|| तदनन्तर किसी दिन, जिसने नाना प्रकारके आभूषण धारण किये थे, अपने अखण्डमण्डलवाले देदीप्यमान छत्रसे जिसने सूर्य के मण्डलको आच्छादित कर दिया था, जो सजाये हुए हाथीपर आरूढ़ हो नगरसे बाहर निकल रहा था, जिस प्रकार नदियोंके प्रवाह आकर समुद्र में मिलते हैं उसी प्रकार अनेक राजा आकर जिसके साथ मिल रहे थे तथा बन्दीजनोंके समूह जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसा राजा सुमुख राजमार्गको प्राप्त हुआ ||२८-२९ || साक्षात् वसन्तके समान हृदयमें निरन्तर वास करनेवाले राजा सुमुखको देखनेके लिए इच्छुक नगरकी स्त्रियां शीघ्र ही क्षोभको प्राप्त हो गयीं ||३०|| 'हे राजन् ! वृद्धिको प्राप्त होओ, जयवन्त रहो, और समृद्धिमान् हो' जो इस प्रकार शब्द कर रही थीं, हाथ जोड़े हुई थीं तथा बड़ों आकुलताका अनुभव कर रही थीं, ऐसी नगरकी स्त्रियोंने नेत्ररूपी अंजलियोंके द्वारा राजा सुमुखके सौन्दयंका पान किया ||३१|| राजा सुमुखने उन स्त्रियों के मध्य में स्थित एक अत्यन्त सुन्दर स्त्रीको देखा। वह स्त्री ऐसी जान पड़ती थी मानो साक्षात् रति ही आ पहुँची हो ||३२|| अतिशय रागको प्राप्त हुआ राजा, उसके मुखचन्द्र, नेत्र कमल, बिम्बके समान लाल-लाल ओठ, शंखतुल्य कण्ठ, स्तनचक्र, पतली कमर, गम्भीर नाभिमण्डल, सुन्दर जघन, गर्तविशेषसे सुशोभित नितम्ब, जांघों -घुटनों, पिंडरियों-हाथ एवं पैरों पर पद-पदमें पड़ती हुई अपनी मनोयुक्त चंचल दृष्टिको संकुचित करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका ||३३-३५ ।। वह विचार करने लगा कि यह भोली-भाली हरिणीके समान नेत्रोंवाली हर्षसे भरी किसको स्त्री रूपपाशसे मेरे मनको बाँधकर खींच रही है || ३६ || यदि मैं इस हृदयहारिणी स्त्रीका उपभोग नहीं करता हूँ तो मेरा यह ऐश्वर्य, रूप एवं नवयौवन व्यर्थ है ||३७|| जिसका सर्वदा उल्लंघन करना कठिन है ऐसा यह लोक तो एक ओर है और जिसका सहन करना अतिशय कठिन है ऐसी परस्त्री-विषयक अभिलाषा एक ओर है ||३८|| इस प्रकार विचार करते हुए राजा सुमुखने उसके हरण करनेमें मन लगाया सो ठीक ही है क्योंकि रागी मनुष्य अपवादको तो सह सकता है परन्तु मनकी व्यथाको नहीं सह सकता ||३९|| आचार्य कहते हैं कि देखो राजा सुमुख यशसे प्रकाशमान था तथा लोक व्यवहारका ज्ञाता था फिर भी अत्यन्त मोहको
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चतुर्दशः सर्गः
सापि दर्शनतस्तस्य रूपिणः शिथिलाङ्गिका । शशाक न मनो धत्तु दोलारूढेव कामिनी ॥४१॥ "विचित्ररस संस्पर्शप्रादुर्भावफलोदयम् । भावं च प्रकटीचक्रे सानुलुब्धमनोगतम् ॥ ४२ ॥
दूरात्कटाक्षविक्षेपि चक्षुरन्ते निकुञ्चितम् । जहेऽस्यास्तन्मनो भङ्गि प्रतिचक्षुःप्रदानतः ॥ ४३ ॥ अधरस्तननाभ्यन्तःश्रोणीचरणवीक्षणैः । परावृत्तेक्षितैश्चक्रे सा वस्य स्मरदीपनम् ॥४४॥ प्रियालापेक्षिभिः स्निग्धैरन्योन्यघटितैः कृते । जिह्वा विह्नलयोर्वाचि न लेभेऽवसरं तयोः ॥ ४५॥ तावारूढौ च दुर्मोचप्रेमबन्धौ मनोरथम् । दुर्लभाइलेष संभोगफललाभार्थमर्थिनौ ॥ ४६ ॥ रक्तायाश्चित्तमादाय प्रदायास्यै मनोनिजम् । नगर्या निर्ययौ राजा पणबन्धात्कृतीव सः ॥४७॥ यमुनोत्तंसमुद्यानं वसन्तस्यावतंसकम् । विवेश जनतानन्दि नरेन्द्रो नन्दनोपमम् ॥४८॥ रम्यं नागलताश्लिष्टः पुष्पितः फलितैर्दुमैः । क्रमुकैर्नालिकेराद्यैर्दाडिमी कदलीवनैः ॥ ४९ ॥ विजहार 'वने हैथे स्त्रीजनैः स निजैर्वृतः । वयस्यैरनुकूलैश्च नृपपुत्रैः सहारमत् ||५०|| कांचिरकालकलां तस्य क्रीडतो जनसंकुला । शून्येव वनमालासीद् वनमालावियोगिनः || ५१|| वनमालानुरागेण हियमाणोऽविशत्पुरीम् । क्षितीशः स्थीयते स्वस्थैः परचित्तैः कियच्चिरम् ॥५२॥
२२३
प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यके पतनका जब समय आता है तब अन्धकारकी प्रबलता हो ही जाती है ||४०|| उधर सुन्दर शरीरक्ते धारक राजा सुमुखको देखनेसे उस स्त्रीके भी अंगहो गये और वह झूलापर बैठी स्त्रीके समान मनको रोकनेके लिए समर्थ नहीं हो सकी ||४१ || उसका मन राजा सुमुखमें अत्यन्त लुभा गया था इसलिए वह नाना प्रकारके रसके स्पर्श और प्रादुर्भावरूप फलसे सहित भावको प्रकट करने लगी ॥४२॥ जो दूर तक कटाक्ष छोड़ रहा था तथा जिसका अन्तःभाग संकोचको प्राप्त था ऐसा उस स्त्रीका नेत्र, बदले में सुमुखकी ओर देखकर उसके चंचल मनको हर रहा था ||४३|| वह अधर, स्तन, नाभिका मध्यभाग, नितम्ब और चरणोंको दिखानेसे तथा मुड़कर संचारित तिरछी चितवनसे उसके कामको उद्दीपित कर रही थी ||४४|| उस समय विह्वलताको प्राप्त हुए दोनोंके स्निग्ध तथा परस्पर मिले हुए नेत्रोंने ही मधुर वार्तालाप कर लिया था इसलिए बेचारी जिल्लाको बोलनेका अवसर ही नहीं मिल सका था ॥ ४५ ॥ जिनका प्रेम बन्धन छूट नहीं सकता था ऐसे दोनों स्त्री-पुरुष, दुर्लभ आलिंगन, तथा सम्भोगरूप फल की प्राप्ति करानेवाले मनोरथपर आरूढ़ हुए । भावार्थ- आलिंगन तथा सम्भोगकी इच्छा करने लगे ||४६||
अतिशय अनुरक्त उस स्त्रीका चित्त लेकर और अपना चित्त उसे देकर राजा सुमुख नगरीसे बाहर निकला । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो आगामी मिलापके लिए बयाना देकर कृत-कृत्य ही हो गया हो ||४७|| नगरीसे निकलकर राजाने यमुनोत्तंस नामक उद्यानमें प्रवेश किया । वह उद्यान, वसन्त ऋतुका आभूषणस्वरूप था, जनताको आनन्दित करनेवाला था और नन्दन वनके समान जान पड़ता था ॥ ४८॥ वह उद्यान, नागलताओंसे आलिंगित फूले- फले सुपारी वृक्षों और नारियल, अनार तथा केलोंके वनोंसे अतिशय रमणीय था || ४९ || अपनी स्त्रियों से घिरे हुए राजा सुमुखने उस सुन्दर वनमें विहार किया एवं अनुकूल मित्रों और राजपुत्रोंके साथ क्रीड़ा की ||५०॥ वह वहाँ कुछ काल तक क्रीड़ा करता रहा परन्तु वनमाला के वियोगसे उसे वह मनुष्योंसे व्याप्त वनकी पंक्ति शून्य-जैसी जान पड़ती थी || ५१॥ वनमाला के अनुरागसे हरे हुए राजाने लौटकर शीघ्र ही कौशाम्बोपुरी में प्रवेश किया सो ठीक चित्त दूसरेमें लग रहा है वे कितनी देर तक स्वस्थ रह सकते हैं ? ॥ ५२ ॥
ही है क्योंकि जिनका
१. विचित्ररसस्य संस्पर्शप्रादुर्भाव एव फलं तस्योदयो यस्मात् तं एवंभूत भावम् । २. वनं क. । ३. हृद्यं क . ।
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हरिवंशपुराणे अपृच्छत्सुमतिर्मन्त्री तमांशु विशां विभुम् । विषण्णोऽसि किमद्येश ! कथ्यतामिति सादरः ॥५३॥ एकच्छत्रमिदं राज्यमनुरक्ताः प्रजाः प्रमो। अनुरागप्रतापाभ्यां निभृता भृत्यभभृतः ॥५४॥ इष्टार्थस्य प्रदानेन प्रीणितोऽर्थिजनोऽखिलः । वल्लमाः प्रणयोद्रकान्मानिताश्च प्रसादिना ॥५५॥ धर्म चार्थे च कामे च प्रार्थितं दुर्लभं न ते । तदित्थं नाथ ! सौस्थित्यं मनो दुःखमितं कुतः ॥५६॥ संविभज्य मनोदुःखं सख्यौ प्राणसमे सुखी । संपद्यते जनः सर्व इतीयं जगतः स्थितिः ॥५७॥ तदुच्यतां प्रभोऽद्यैव विदधामि तवेप्सितम् । सुस्थिते हि प्रभौ लोके सुस्थिताः सकलाः प्रजाः ॥५॥ इत्युक्तः सोऽभ्यधात् सद्यो मयाद्योद्यानयातया । दृष्टया परवध्वाशु विद्ययेव वशीकृतः ।।५९।। ईदृशी दृक्स्वनेपथ्या प्रायेण भवताप्यसौ । लक्षितैव निजं मावं कथयन्ती स्फुटेङ्गितः ॥६॥ इति श्रुत्वावदन्मन्त्री लक्षिता लक्षिता विभो । वणिजो वीरकस्यासौ वनमालाभिधा वधूः ॥६॥ नृपोऽवादीत्तया योगो यदि मेऽद्य न जायते । न मन्ये जीवितं स्वस्य तस्याश्च कुटिलभ्रवः ॥६२॥ सन्ये दिवसमप्येषा सहते न मया विना। अनयाहमपि क्षिप्रं तद्विधत्स्व प्रतिक्रियाम् ॥६३॥ दुर्यशः प्राप्यतेऽमम्मिन्ननर्थोऽमत्र मूढधीः । तथापि नेक्षते कार्य यथैवानिमिषान्धकः ॥६॥ तत्वया न निवार्योऽहमकायेऽपि प्रवृत्तधीः । पापोपशमनोपायाः सत्येव सति जीविते ॥६५॥ अनुमेने वचो मन्त्री तदन्यायमपि प्रमोः । अत्यम्यर्णविपत्तीनां मन्त्रिणो हि निवर्तकाः ॥६६॥
PANNA
समति नामक मन्त्रीने एकान्तमें आदरपर्वक राजासे पूछा कि हे स्वामिन ! आज आप विषादयुक्त क्यों हैं ? कृपाकर कहिए ॥५३॥ हे प्रभो! आपका यह एकछत्र राज्य है, प्रजा आपमें अनुरक्त है तथा अन्य राजा अनुराग और प्रतापसे वशीभूत हो आपके दास हो रहे हैं ॥५४॥ अभिलषित वस्तुओंको देकर आपने समस्त याचकोंको सन्तुष्ट कर रखा है तथा प्रेमकी अधिकतासे प्रसन्न होकर आपने समस्त स्त्रिगेको सम्मानित किया है ।।५५|| धर्म, अर्थ तथा कामविषयक कोई भी वस्तु आपको दुर्लभ नहीं है, इस प्रकार हे नाथ! सब प्रकारको कुशलता होनेपर भी आपका मन दुखी क्यों हो रहा है ? ।।५६।। सभी लोग प्राणतुल्य मित्र के लिए मनका दुःख बांटकर सुखी हो जाते हैं यह जगत्की रीति है ॥५७। इसलिए हे प्रभो ! बतलाइए मैं आज ही आपकी अभिलाषाको पूर्ण करूंगा क्योंकि स्वामीके सुखी रहनेपर ही समस्त प्रजा सुखी रहती है ॥५८॥
___ मन्त्रीके इस प्रकार कहनेपर राजाने शीघ्र हो कहा कि आज उद्यानको जाते समय मैंने एक पर-स्त्रीको देखा था उसीने विद्याकी भांति मुझे शीघ्र ही वश कर लिया है ॥५९॥ वह ऐसी थी, ऐसी उसकी वेष-भूषा थी और अपनी स्पष्ट चेष्टाओंसे अपना अभिप्राय प्रकट कर रही थी प्रायः आपने भी वह देखी होगी ॥६०॥ यह सुनकर मन्त्रीने कहा कि हे स्वामिन् ! देखी है, अवश्य देखी है, वह वीरक वैश्यकी वनमाला नामकी स्त्री है ॥६१।। राजाने कहा कि यदि आज उसके साथ मेरा समागम नहीं होता है तो मैं मानता हूँ कि न मेरा जीवन बचेगा और न उस कुटिल भौंहोंवाली वनमालाका ॥२॥ जान पड़ता है कि वह मेरे बिना एक दिन भी नहीं ठहर सकती
और न इसके बिना मैं भी एक दिन ठहर सकता हूँ इसलिए शीघ्र ही इसका उपाय करो ॥६३।। यद्यपि इस कार्यसे इस जन्म में अपयश प्राप्त होता है और परजन्ममें अनर्थकी प्राप्ति होती है तथापि जन्मान्धके समान मूर्ख मनुष्य कार्यको नहीं देखता ॥६४॥ इसलिए अकार्यमें प्रवृत्त होनेपर भी मैं तुम्हारे द्वारा रोकने योग्य नहीं हूँ। यदि जीवन रहा तो पापको शान्त करने के बहुत-से उपाय हो जावेंगे ॥६५।। यद्यपि राजाका वह वचन अन्यायरूप था तथा मन्त्रीने उसे
१. सौस्थित्यै म. । २. मया द्योतनया नया म.। ३. ईदग्भूतं स्वनेपथ्यं यस्याः सा (क.टि.)। ४. अनिमिषमात्रेणान्धः जात्यन्ध इत्यर्थः ( क. टि.)।
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चतुर्दशः सर्गः
२२५ आह चात्यनुकूलस्तमित्यसौ प्रणतः प्रभो । वनमालां सुकण्ठे ते पश्यायैव मया कृताम् ॥६॥ स्वं मजनविधिं सद्यः भुक्तिं च भज पूर्ववत् । दिव्यानुलेपनश्लक्ष्णवस्त्रताम्बूलमाल्यकम् ॥६८॥ इति विज्ञापितो नत्वा प्रज्ञानेत्रेण मन्त्रिणा । कर्तुमैच्छत्तदुद्दिष्टं द्विष्टभुक्तिरपि प्रभुः ॥६९॥ विज्ञाय सुमुखाकृतं कृपयेव विमाकरः । प्रतीचीमगमच्छीघ्रमुपसंहृतदीधितिः ॥७॥ प्रौढेऽस्ताभिमुखे ध्वस्तप्रतापे मित्रमण्डले । सोद्यमोऽप्यमवल्लोको निखिलः स्खलितोद्यमः॥७१॥ दष्टिरश्मिभिराकृष्य चक्रवाकैर्धतो यथा । तदा कथमपि प्रायात् शनैर्भानुरदृश्यताम् ॥७२॥ संध्यारागेग चच्छन्नं भुवनं तदनन्तरम् । वनमालानुरागेण सुमुखस्येव भूरिणा ॥७३॥ संकोचः पद्मखण्डानां ततोऽभूत्खण्डितौजसाम् । मित्रोदयोदयाः के वा मित्रापदि विकासिनः ॥४॥ संध्यारागानुसंधाने ध्वान्तेनापि कृते बमौ । मुक्तरक्ताम्बरं गूढं जगन्नीलपटेन वा ॥७५॥ लब्धो वर्णविवेको न 'लब्धवर्णैरपि क्षणम् । प्रदोषे विषमे काले तिमिरोपप्लुतैस्तदा ॥७६॥
मान लिया सो ठोक ही है क्योंकि मन्त्री अत्यन्त निकटवर्ती आपत्तियोंको ही दूर करते हैं ॥६६।। मन्त्रीने अत्यन्त अनुकल एवं विनम्र होकर कहा कि हे प्रभो! मैं प्रयत्न करता हूँ आप वनमालाको आज ही अपने कण्ठ में लगो देखिए ॥६७॥ आप पहले की भांति शीघ्र ही स्नान कीजिए, भोजन कीजिए, दिव्य विलेपन, सुकोमल वस्त्र, पान तथा माला आदि धारण कीजिए ॥६८॥ यद्यपि राजाको वनमालाके बिना भोजन करना इष्ट नहीं था तथापि बुद्धिरूपी नेत्रको धारण करनेवाले मन्त्रीने जब नमस्कार कर प्रार्थना की तब उसने उसके कहे अनुसार सब कार्य करनेकी इच्छा की ॥६९।।
तदनन्तर सुमुखका अभिप्राय जानकर दयासे ही मानो सूर्य अपनी किरणोंको संकचित कर पश्चिम दिशाकी ओर चला गया ॥७०।। जिस समय अतिशय प्रतापी मित्रमण्डल-सूर्यमण्डल (मित्रोंका समूह ) प्रताप-रहित हो अस्त होने लगा उस समय समस्त उद्यमी मनुष्य भी उद्यमरहित हो गये । भावार्थ-जिस प्रकार समर्थ मित्रोंके समूहको नष्टप्रताप एवं नाशके सम्मुख देखकर उसके अनुगामी अन्य लोग पुरुषार्थहीन हो जाते हैं उसी प्रकार प्रतापी सूर्यको भी नष्टप्रताप एवं अस्त होनेके सम्मुख देख दूसरे उद्यमी मनुष्य भी उद्यम रहित हो गये-दिनभर काम करनेके बाद सन्ध्याके समय विश्रामके लिए उद्यत हुए ॥७१।। उस समय सूर्य धीरे-धीरे किसी तरह अदृश्यताको प्राप्त हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो चक्रवाक पक्षियोंने उसे अपनी दृष्टि रूपी रस्सियोंसे खींचकर रोक ही रखा था ॥७२॥ तदनन्तर जिस प्रकार राजा सुमुखका अन्तःकरण वनमालाके अनुरागसे व्याप्त था उसी प्रकार समस्त संसार सन्ध्याकालकी लालीसे व्याप्त हो गया।७३।। तत्पश्चात् जिनका तेज खण्डित हो गया था ऐसे कमलोंका समूह भो संकोचको प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मित्र ( सूर्य पक्षमें मित्र) के उदयकालमें अभ्युदयको प्राप्त होनेवाले ऐसे कौन हैं जो मित्रकी विपत्तिके समय विकसित ( पक्षमें हर्षित ) रह सकें ? ||७४॥ धोरे-धीरे अन्धकारने भी जब सन्ध्या-कालिक लालिमाकी खोज की तब संसार लाल वस्त्रको छोडकर नील-वस्त्रसे आच्छादित हो गया ।। भावार्थ-सन्ध्याको लालीको दूर कर उसके स्थानपर अन्धकारने अपना अधिकार जमा लिया जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारने लाल वस्त्र छोड़कर नीला वस्त्र ही धारण कर लिया हो ॥७५।। जिस प्रकार प्रदोष-दोषपूर्ण विषम कालमें मोहरूपी अन्धकारसे आच्छादित हुए विद्वान् मनुष्य भी ब्राह्मणादि वर्गों का विवेक नहीं प्राप्त करते हैं-वर्णभेदको भूल जाते हैं उसी प्रकार उस प्रदोष-रात्रिके प्रारम्भ रूप विषम कालमें अन्धकारसे उपद्रत विद्वान मनुष्य भो-लाल-पीले आदि वर्गों के भेदको नहीं प्राप्त कर सके थे-उस समय सब पदार्थ एक वर्ण-काले-काले ही दिखाई
१.विदद्धिरपि ।
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हरिवंशपुराणे वेलायां तत्र पमन्व्य मन्त्री दूतीमजीगमत् । आत्रेयी वनमालायाः समीपं सुमुखाज्ञया ॥७७॥ मानितासनदानाद्यः संफली वनमालया। सामिनन्द्य रहस्येतामुवाचैवं विचक्षणा ॥८॥ वनमाले प्रिये वत्से विचित्तेवाद्य लक्ष्यसे । वद वैचित्यहेतं मे पत्या किमसि कोपिता ॥७९॥ वीरको ोकपत्नीकस्तत्र किं कोपकारणम् । अन्यदन निमित्तं स्यात्स्वसंवेद्यं निगद्यताम् ।।८०॥ पुत्रि ! सर्वरहस्येषु नन्वहं तु परीक्षिता । भवत्या मयि सत्यां वा दुर्लभ किमभीप्सितम् ॥८॥ इत्युक्ता सोष्णनिश्वासग्लपिताधरपल्लवा । तथा प्रार्थितया वार्ता' कथमप्यब्रवीद् वचः ॥८॥ स्वां मुक्त्वाम्ब न मे काचिद्विश्रम्भस्थानमत्र हि । षटको भिद्यते मन्त्रो रक्षणीयः स यत्नतः ॥८३॥ दृष्टो मयाद्य सद्पः सुमुखः सुमुखो नृपः । दृष्टमात्रं प्रविष्टोऽमा स मनो मे मनोभुवा ।।८४॥ दुर्लभेऽप्यभिलाषस्य द्वेषिणः सुलभेजने । हृदयस्य खलस्येव वृत्तिरात्मोपतापिनी ॥४५॥ दिग्धं चन्दम्पङ्केन हृदयं मम शुष्यति । बहिरङ्गो विधिः कुर्यादन्तरङ्गे विधीत किम् ॥८६॥ आईवस्वमपि न्यस्तमङ्गोपाङ्गेऽतिशुप्यनि । शीतस्पर्शोऽल्पशोऽत्युष्णे किं करोतु निधापितः ॥८७॥ यस्य पलवतस्पोऽपि कल्पितो म्लायतेतराज्: तापकर्कशगात्रस्य मृदुं शीतः करोतु किम् ॥८॥ अङ्गस्पर्शाद्विना तस्य नाहं पश्यामि निर्वृतिम् । तत्कुरुष्व दयां पूते तत्समातममेव में ॥८॥
देते थे ||७६।। उस समय मन्त्रीने सलाह कर राजा सुमुखकी आज्ञासे वनमालाके पास आत्रेयी नामकी दूती भेजी ।।७७।। वनमालाने आसन आदि देकर उस दूतीका सम्मान किया जिससे वह बहुत प्रसन्न हुई । तदनन्तर उस चतुर दूतीने एकान्तमें वनमालासे इस प्रकार कहा कि प्रिय बेटी वनमाला! तू आज उदास-सी दिख रही है। उदासीका कारण मुझसे कह, क्या पतिने तुझे नाराज कर दिया है ? ॥७८-७९|| वीरकके तो तू ही एक पत्नी है अतः उसके क्रोधका कारण क्या हो सकता है ? उदासी में कुछ दूसरा ही कारण होना चाहिए जो कि तेरे अनुभव में आ रहा है, उसे बता ॥८॥ बेटी! तुने सब रहस्यों में कई बार मेरी परीक्षा की है, मेरे रहते हए तझे कौन-सा इष्ट कार्य दुर्लभ रह सकता है ? |८१॥ दूतोके यह कहते हो उसके मुखसे गरम-गरम सांसे निकलने लगीं जिनसे उसका अधरपल्लव मुरझा गया। तदनन्तर दूतोके कई बार प्रार्थना करनेपर उसने बड़े दुःखसे यह वचन कहे कि हे माँ ! तुझे छोड़कर इस विषयमें मेरा कोई भी विश्वासपात्र नहीं है । चूंकि छह कानों में पहुँचा हुआ मन्त्र फूट जाता है उसका रहस्य खुल जाता है इसलिए मन्त्रको यत्न-पूर्वक रक्षा करनी चाहिए ।।८२-८३।। बात यह है कि आज मैंने प्रशस्त रूप एवं सुन्दर मुखके धारक राजा सुमु वको देखा था और देखते ही कामदेवके साथ वह मेरे मनमें प्रविष्ट हो गया ।।८४|| इस समय मेरे हृदयको प्रवृत्ति दुर्जनको प्रवृत्तिके समान अपने आपको सन्ताप उत्पन्न कर रही है। क्योंकि जिस प्रकार दुर्जन दुर्लभ वस्तुकी अभिलाषा करता है और सुलभ वस्तुसे द्वेष करता है उसी प्रकार मेरा हृदय जो मेरे लिए सर्वथा दुर्लभ है ऐसे राजा सुमुखकी अभिलाषा कर रहा है और सुलभ वोर कसे द्वेप कर रहा है !!८५।। मेरा हृदय चन्दनके लेपसे लिप्त होनेपर भी सूख रहा है, सो ठीक ही है क्या क बाह्य उपचार अन्तरंग कार्यमें क्या कर सकता है ? ।।८६।। मेरे अंग और उपांगोंपर रखा हुआ गीला कपड़ा भी सूख जाता है सो ठीक ही है क्योंकि अत्यन्त उष्ण पदार्थपर रखा हुआ थोड़ा-सा शीतस्पर्श क्या कर सकता है ? ॥८७॥ जिस तापसे कर्कश शरीर के लिए बनाया हुआ पल्लवोंका विस्तर भी अत्यन्त मुरझा जाता है उसके लिए थोड़ा सा शीत-स्पर्श क्या कर सकता है ? ॥८८॥ मैं उसके शरीरके स्पर्शके बिना शान्ति नहीं देखती इसलिए हे पवित्रे ! दया करो और मेरे लिए शीघ्र ही उसका समागम प्राप्त कराओ ॥८९|| १. दूती। ३ वा + आर्ता कामेन सरोगा ( क. द. टि.)। ३. मुक्त्वात्र म.। ४. सुन्दरमुखयुक्तः । ५. एतन्नामा नृपः । ६. सह । ७. सुलभो जनः म. ।
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चतुर्दशः सर्गः
२२७ तस्यापि हि मनोवृत्तिं प्रतीहि मम दर्शनात् । मदमित्रायसंमिश्रां सर्वाकारोपलक्षिताम् ॥१०॥ तदा तप्तौ प्रवीणे! द्वौ त्वं नौ रहसि योजयेः । सुखेनैव हि कालज्ञ तप्तं तप्तेन योज्यते ॥९॥ निशम्य वनमालायास्तद्वचो भावसूचकम् । जगाद वचनं दूती तदेति मुदितात्मिका ॥१२॥ वत्से वत्सेश्वरेगाहं स्वद्रपहृतचेतसा । प्रहितास्मि तदेह्याशु तेन त्वां घटयाम्यहम् ॥१३॥ इति स्वेष्टार्थसंवादे वनमाला स्मरानुरा । दूत्या पत्यो परोक्षे द्वागविशद्राजमन्दिरम् ॥९॥ विलोक्य मनसश्चौरी सुमुखः सुमुखीं मुदा । एघेहीति प्रियालापाञ्चकार सुखिनी सुखी ॥१५॥ हस्ते स्तनानुलुप्तां तां स्वेदिनि स्वेदिना युवा । हस्तेनादाय तन्वङ्गों शयने स्वे न्यवेशयत् ॥१६॥ प्रौढयौवनयोर्योगमनुकतमिबैतयोः । उदियाय निशानाथो प्रसादितनिशामुखः ॥१७॥ शशाङ्कस्य करस्पर्शान्मुमोदाशु कुमुदती । सुमुखस्य करस्पर्शाद् वनमालेव हारिणी ॥९॥ उक्तप्रत्युक्तयुक्तार्थान् स्त्रीपुंसगुणसंगतान् । प्रेमबन्धप्रवृद्धये तो बहून् मावांस्तु चक्रतुः ॥९९॥ सोऽपि विश्रम्भदरास्तनवसङ्घमसाध्वसाम् । तामुत्सङ्गे कृतां गाढमालिलिङ्गाङ्गसंगताम् ॥१०॥
असंतोषभुजाश्लेपैविश्लेषमुषितश्रमैः । चुम्बनैश्चूषणैदशः कण्ठग्रहकचग्रहैः ॥१०१॥ तुम यह विश्वास करो कि मेरे देखनेसे उसकी मनोवृत्ति भी मेरी चाहसे मिश्रित है-उसके मनमें मेरी चाह है क्योंकि उस की समस्त चेष्टाओंसे यह स्पष्ट प्रतीत होता था ।।९०|| तुम बड़ी चतुर और समयकी गतिको जाननेवाली हो इसलिए हम दोनों संतप्त स्त्री-पुरुषों को एकान्त में मिला दो क्योंकि संतप्त वस्तु दूसरी संतप्त वस्तुके साथ सुखसे मिलाई जा सकता है ॥९१॥
इस प्रकार वनमालाके अभिप्रायको सूचित करनेवाले उन वचनोंको सुनकर दूती बहुत प्रसन्न हुई और निम्नांकित वचन कहने लगी !!९२।। उसने कहा कि हे बेटो ! तेरे रूपसे जिसका चित्त हरा गया है ऐसे वत्स देशके स्वामी रागां सुमुखने ही मुझे भेजा है अतः चल मैं शीघ्र ही तुझे उसके साथ मिलाये देती हूँ ॥२३॥ इस प्रकार अपने मनोरथके अनुकूल बात होनेपर कामसे पीड़ित वनमाला, पतिको अनुपस्थितिमें दुतीके साथ शीघ्र ही राजभवन में प्रविष्ट हो गयो ॥९४।। राजा सुमुख, मनको चुरानेवाली सुमुखीको देखकर बहुत सुखी हुआ और हर्षसे 'आइए, आइए' इस प्रकारके प्रिय वचन कहकर उसे सुखी करने लगा ।।१५।। जिसके स्तनोंका स्पर्श किया गया था ऐसी कृशांगी वनमालाको तरुण सुमुखने अपने स्वेद युक्त हाथसे उसका स्वद युक्त हाथ पकडकर अपनी शय्यापर बैठा लिया ।।२६|| उसी समय रात्रि रूपी स्त्रीके मखको प्रसन्न करता हुआ ( पक्षमें रात्रिके प्रारम्भको प्रकाशमान करता हुआ) चन्द्रमा उदित हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह प्रौढ़ यौवनसे युक्त राजा सुमुख और वनमालाके समागमका अनुकरण करनेके लिए ही उदित हुआ था ॥९७|| जिस प्रकार राजा सुमुखके करस्पर्श (हाथके स्पर्श ) से सुन्दरी वनमाला प्रसन्न हो रही थी उसी प्रकार चन्द्रमाके करस्पर्श ( किरणोंके स्पर्श ) से कुमुदिनी शीघ्र ही प्रसन्न हो उठी-खिल उठो ।।९८|| राजा सुमुख और वनमालाने उत्तर-प्रत्युत्तरसे सहित तथा स्त्री-पुरुषोंके गुणोंसे संगत बहुतसे भाव किये-नाना प्रकारकी शृंगार-चेष्टाएं कीं ॥९९|| विश्वासकी अधिकतासे नूतन समागमके समय होनेवाला जिसका भय दूर छुट गया था ऐसी वनमालाको राजा सुमुखने गोद में उठा लिया और अपने शरीरसे लगाकर उसका गाढ़ आलिंगन किया ॥१००।। तदनन्तर कामसे उत्तप्त दोनों स्त्री-पुरुषोंने, बीच-बीचमें आलिंगन छोड़ देनेसे जिनमें आलिंगन जन्य थकावट दूर हो जाती थी ऐसे भुजाओंके गाढ़ आलिंगनसे, चुम्बनसे, चूषणसे, १. स्तनावलुप्तां तां ग., ड.। हस्तस्तनानुलप्तां तां म.। स्वेदिनि हस्ते स्तनयोश्च अनुलुप्तां कृतस्पी (ख. टि.)। २. मुक्तार्था म. । ३. सुखित श्रमैः म. ।
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हरिवंशपुराणे नितम्बास्फालनैरङ्गप्रत्यङ्गस्पर्शनैर्मिथः । मिथुनं मन्मथोद्दीप्तं चिक्रीड विविधक्रियम् ॥१०२॥ यथासत्त्वं यथाभावं यथावदग्ध्यमङ्गना । पुंसः सुखाय तस्यासौ बभूव सुरतोत्सवे ॥१०३॥ श्रमप्रस्विन्नसर्वाङ्गौ कृतसंवाहनौ मिथः । नागाविव कृताश्लेषौ शयने शयितावुभौ ॥१०॥
वंशस्थवृत्तम प्रकृष्टवैदग्ध्यहृतात्मनोस्तयोः प्रसुप्तयोः प्रेमनिबद्धचित्तयोः । प्रवृत्तवृत्तान्तमिव प्रवेदितुं प्रभातसंध्यां' व्यसृजत्प्रभाकरः ।।१०५॥ सहेन्दुना बन्धुरयाप्रसंध्यया सुरञ्जिता द्यौरभजत्परां युतिम् । सुचित्तवृत्त्या सुमुखेन सन्मुखी वधूरिवाऽसौ वनमालिका नवा ॥१०६॥ नृपं शयानं सुमुखं विभाकरः सरोरुहश्रीवनमालया सह । महोदयाद्रिस्थित एव च द्रुतो व्यबोधयल्लोकमिमं यथा जिनः ॥१०७॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती सुमुखवनमालावर्णनो
नाम चतुर्दशः सर्गः ॥१४॥
दशनसे, कण्ठग्रहणसे, केशग्रहणसे, नितम्बास्फालनसे और अंग-प्रत्यंगके स्पर्शसे परस्पर नाना प्रकार को कोड़ा को ॥१०१-१०२॥ वनमालामें जैसा उत्साह था, जैसा भाव था, और जैसा चातुर्य था उन सबके अनुसार वह संभोगोत्सवके समय राजा सुमुखके सुखके लिए हुई थी-उसने अपनी समस्त चेष्टाओंसे राजा सुमुखको सुखी किया था ॥१०३।। तदनन्तर थकावटसे जिनके सर्व शरीरमें पसीना आ गया था और जो परस्पर एक दूसरेका संमर्दन कर रहे थे ऐसे वे दोनों, हस्तीहस्तिनी. के समान आलिंगनकर शय्यापर सो गये ॥१०४।। तदनन्तर अत्यधिक चातुर्यसे जिनकी आत्मा हरी गयी थी, और चित्त प्रेमरूपी बन्धनसे बद्ध थे ऐसे गाढ़ निद्रामें निमग्न सुमुख और वनमालाका क्या हाल है ? यह जानने के लिए ही मानो सूर्यने प्रभात सन्ध्याको भेजा। भावार्थआकाशमें प्रातःकाल की लालिमा छा गई ॥१०५।। उस समय चन्द्रमाके साथ-साथ सुन्दर प्रभात सन्ध्यासे अनुरंजित ( रक्तवर्ण को हुई ) द्यावा ( आकाशरूपी स्त्री ) राजा सुमुख द्वारा उत्तम मनोवृत्तिसे अनुरंजित (प्रसन्न की हुई ) सुवदना नव-वधू वनमालाके समान सुशोभित हो रही थी ॥१०६॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् समवसरणमें सिंहासनारूढ़ हो इस समस्त लोकको प्रबुद्ध करते हैं उसी प्रकार आगत सूर्यने उदयाचलपर स्थित होकर कमलोंके समान सुशोभित वनमालाके साथ सोते हुए राजा सुमुखको प्रबुद्ध किया-जगाया ॥१०७।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे सहित जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें सुमुख
और वनमालाका वर्णन करनेवाला चौदहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१४॥
१. सन्ध्या
म. । २. सन्धया म.।
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पञ्चदशः सर्गः
द्रुतविलम्बितवृत्तम् अथ विबुद्धसरोजवनस्पृशा सुरमिणा स्पृशता मरुता तदा । हृतवपुःश्रमकं मिथुनं मिथस्तदकरोदुपगूढमतिश्लथम् ।।१।। मृदुतरङ्गघने शयनस्थले मदितपुष्पचये शयितोत्थितः । सह बमौ प्रियया सुमुखो यथा समदहंसयुवा सिकतास्थले ॥२॥ विषहते स्म वियोगविष क्षणं विरहिणोरिव रात्रिषु पक्षिणोः । प्रियवधूवरयोर्वरयोस्तयोर्न हृदयं हृदयङ्गमचेष्टयोः ॥३॥ न विससर्ज ततः स्वपतेर्गृह स्वगृह एव रुरोध वधू प्रभुः । रहसि दुर्लभमाप्य मनीषितं न हि विमुञ्चति लब्धरसो जनः ॥४॥ सुमुखमुख्यवधूजनेमुख्यतां समधिगम्य नि वरवधूरतिगौरवमाप सा न सुलभं सुमुखे किमु भर्तरि ।।५।। अवततार कदाचिदचिन्तितो निधिरिवोरुतपोनिधिरञ्चितः । नृपगृहं वरधर्ममुनिहानतिथिरेति हि भरिशुभोदये ॥६॥ परमदर्शनशुद्धि विशुद्धधीरधिकबोधविबुद्धपदार्थकः ।
व्रतसुगुप्तिसमित्यतिशुद्धतामयचरित्रपवित्रितविग्रहः ।।७॥ अथानन्तर खिले हुए कमल वनका स्पर्श करनेवाली सुगन्धित वायुने स्पर्श कर जिसका समस्त श्रम दूर कर दिया था ऐसे उस मिथुनने उस समय परस्परका आलिंगन अत्यन्त ढीला कर दिया ॥१॥ जिसपर तरंगोंके समान कोमल सिकुड़नें उठ रही थीं तथा जिसपर फूलोंका समूह मसला गया था ऐसी शय्यापर सोकर उठा सुमुख, प्रिया वनमालाके साथ उस तरह सुशोभित हो रहा था जिस तरह कि बालूके स्थलपर हंसीके साथ मदोन्मत्त युवा हंस सशोभित होता है ॥२॥ जिस प्रकार रात्रिके समय बिछुड़नेवाले चकवा-चकवीका हृदय क्षण-भरके लिए भी वियोगरूपी विषको सहन नहीं करता है उसी प्रकार मनोहर चेष्टाके धारक उन प्रिय वधू-वरका हृदय क्षणभरके लिए भी वियोगरूपी विषको सहन नहीं करना चाहता था ॥३॥ इसलिए राजा सुमुखने वधू-वनमालाको उसके पतिके घर नहीं भेजा अपने ही घर रोक लिया सो ठीक ही है क्योंकि दुर्लभ वस्तुको पाकर उसका रस प्राप्त करनेवाले उसे छोड़ते नहीं हैं |४|| सुन्दरी वनमाला, अपने . उत्तम गुणोंसे राजा सुमुखकी समस्त मुख्य स्त्रियोंमें मुख्यताको पाकर परम गौरवको प्राप्त हुई थी सो ठीक ही है क्योंकि भर्ताके अनुकूल रहनेपर कौन-सी वस्तु सुलभ नहीं ? ॥५॥
तदनन्तर किसी समय अचिन्तित निधिके समान उत्कृष्ट तपके भाण्डार वरधर्म नामके पूज्य मुनि राजा सुमुखके घर आये सो ठीक ही है क्योंकि अत्यधिक पुण्यका उदय होनेपर ही अतिथि घर आते हैं ॥६॥ उन मुनिको बुद्धि उत्कृष्ट दर्शनविशुद्धिसे विशुद्ध थी, अधिक ज्ञानसे वे अनेक पदार्थोंको जानते थे, व्रत गुप्ति और समितिकी अतिशय शुद्धिरूपी चारित्रसे उनका शरीर पवित्र था, वे अनशन तथा स्वाध्याय आदि तपकी निर्मल लक्ष्मीसे युक्त थे और धवल
१. महता । २. हृदयङ्गमा मनोज्ञा चेष्टा ययोस्तयोः । ३. अनुकूले ।
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२३०
हरिवंशपुराणे अनशनाध्ययनादितपाश्रिया धवलया प्रशमास्तविकारया । जनितगौरवया शुचिभषितो विपुलनिर्जरया जरया यथा ॥८॥ विजितदोषकषायपरीषहं सुनिगृहीतजितेन्द्रियवृत्तकम् । यतिवृषं 'सुमुखः स्वगृहागतं तमभिवीक्ष्य नृपः सहसोस्थितः ।।।। प्रमदमारवशीकृतमानसस्तमभिगत्य परीत्य वधूयुतः । सविनयं प्रतिगृह्य शुचिः शुचिं शुचिनि साधुमधान्मणिकुटिमे ॥१०॥ प्रिय वधूकरधारितसत्कनकनककर्करिकोजलधारया । व्यपगतासुकयाँ वरभूभृता स्वकरधौतमकारि मुनेः पदम् ।।११।। सुरभिगन्धशुभाक्षतपुष्पसत्प्रकरदीपकधूपपुरःसरैः । समभिपूज्य वचस्तनुचेतसा तमभिवन्द्य सुदानमदान्मदा ।।१२।। समगुणात्परिणामविशेषतः परभवे सहयोगफलोदयम् । सुमनसा सुमखो वनमालया सह बबन्ध सुपुण्यमपुण्यभित् ॥१३॥ बहुदिनानशनव्रतधारणः कृशतनुस्थितये कृतपारणः । विहितदातृसुखोदयकारणः स मुनिरैत्पटुतत्त्वविचारणः ॥१४॥ व्रजति नित्यमरखे सुमुखेशिनः शममनेह सि पुण्यफलाशिनः । *परयवत्यपहारदुरीहितं प्रतिकृतानुशयस्य हताहितम् ॥१५॥ मणिगणच्छविविच्छरितोदरे सुरभिगर्भगृहे विहितादरे । सह कदाचिदसौ गुणमालया दयितया शयितो वनमालया ॥१६॥
अर्थात् सफेद ( पक्षमें उज्ज्वल ) समस्त विकारोंसे रहित एवं गौरवको उत्पन्न करनेवाली वृद्धावस्थाके समान कर्मोकी विपुल निर्जरासे सुशोभित थे ॥७-८।। जिन्होंने दोष कषाय और परिषहको जीत लिया था एवं इन्द्रियोंकी वृत्तिको अच्छी तरह रोककर परास्त कर दिया था ऐसे अपने घर आये हुए उत्तम मुनिराजको देखकर राजा सुमुख सहसा उठकर खड़ा हो गया ।।९।। आनन्दके भारसे जिसका हृदय विवश था ऐसे उज्ज्वल परिणामोंके धारक राजा सुमुखने स्त्रीके साथ आगे जाकर पहले तो उन पवित्र मनिराजको प्रदक्षिणा दो फिर विनय सहित पडगाहकर उन्हें रत्नमय पवित्र फर्शपर विराजमान किया ।।१०।। तदनन्तर प्रिय स्त्रोके द्वारा हाथमें धारण की हुई सुवर्णमय झारीको प्रासुक जलधारासे राजाने मुनिराजके चरण धोये ॥११॥ फिर सुगन्धित चन्दन, शुभ अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप आदि अष्टद्रव्यसे पूजा कर मन, वचन, कायसे उन्हें नमस्कार किया। तदनन्तर हर्ष-पूर्वक दान दिया ॥१२।। उस समय राजा सुमुख और वनमालाके परिणाम एक समान थे इसलिए दोनोंने ही परभवमें एक साथ भोग-रूपी फलको देनेवाला पापापहारी उत्तम पुण्यबन्ध किया ॥१३।। जिन्होंने अनेक दिनका उपवासरूपी व्रत धारण किया था, जो दाताओंके लिए सुख प्राप्तिका कारण जुटानेवाले थे और जो तत्त्वके विचार करने में अतिशय निपुण थे ऐसे मुनिराज अपने कृश शरीरकी स्थिरताके लिए पारणा कर वनको चले गये ॥१४॥
तदनन्तर जो पुण्य का फल भोग रहा था और परस्त्रीके अपहरणसे उत्पन्न पापके प्रति जो निरन्तर पश्चात्ताप करता रहता था ऐसे राजा सुमुखका काल जब अहितोंको नष्ट कर निरन्तर सुखसे बीत रहा था तब वह किसो समय गुणोंकी मालास्वरूप वनमाला स्त्रीके साथ सुगन्धित
१. यतिश्रेष्ठम् । २. झारी। ३. प्रासुकया। व्यपगतांशुकया (?) म.। ४. कृततनु म.। ५. सममनेहसि क., ख., ग., घ., म.। ६. वरयुवत्य -ङ.। ७. प्रतिकृतः अनुशयः पश्चात्तापो येन स तस्य ।
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पञ्चदशः सर्गः
२३१
अथ तयोः परिपाकमुपेयुषि प्रगुणमानसयोः प्रगुणायुषि । अधिपपात हि कालनियोगतो जलदकालसमागतचञ्चला ॥१७॥ अशनिपातसहोज्झितजीवितौ परमदानफलोदयसेवितौ । सुविजया गिराविह तावितौ विपुलखेचरतां सुखमावितौ ॥१८॥ उभयकोटितटीघटितोदधिर्धवलताधरितेन्दुपयोदधिः । स्फुरितराजतमूर्तिरसौ यतः क्षितिवधूपृथुहार इवायतः ॥१९॥ वियदतीत्य भुवो दशयोजनी स्वजगतीद्वितयांशयुगेन सः । जगति भोगभुवोऽमिनवा यथा वहति खेचरराजपुरीगिरिः ॥२०॥ 'सभृतभारतभूरिगिरीशते स्थिरदशोत्तररम्यपुरीशते । उदितपञ्चविंशतियोजने वितततद्विगुणे सुखयोजने ॥२१॥ पुरमिहोत्तरमस्ति सुखक्षम तरुवनानु कृतोरुकुरुक्षमम् । हरिपुरं विदितं तदमिख्यया हरिपुरप्रति यदभिख्यया ॥२२॥ अमवदस्य पुरस्य तु गोपिता पवन पूर्वगिरिः खचरः पिता । सुमुखराज चरस्य मृगावती गुणवती जननी हि कलावती ॥२३॥ अभृत चार्थवतोमभिधामयं प्रकटमार्य इतीह सुधामयम् । वचनमार्यजनप्रमदावहं स्मरणमन्यभवप्रमदावहम् ॥२४॥
गर्भगृहमें सोया था। उस मभंगृहका मध्य भाग मणिसमूहको कान्तिसे व्याप्त था तथा आदरको प्रदान करनेवाला था ॥१५-१६। उसी समय जिनके मन एक दूसरेके आधीन थे ऐसे उन दोनोंकी श्रेष्ठ आयु समाप्त होनेको आयी इसलिए उनके ऊपर वर्षाकालको बिजली आ गिरी॥१७॥ बिजली गिरनेसे जिनके प्राण एक ही साथ छूटे थे, तथा जो उत्तम दानके फलको प्राप्त थे ऐसे दोनों दम्पती सुखसे मरण कर विजया पर्वतपर विद्याधर-विद्याधरी हुए ॥१८॥ वह विजयाधं पर्वत, अपनी पूर्व-पश्चिम-दोनों कोटियोंसे समुद्रका स्पर्श करता है, उसने अपनी सफेदीसे चन्द्रमा और क्षीर समद्रको जीत लिया है, वह चाँदोके समान देदीप्यमान मतिका धारक है और पथिवी रूपी स्त्रीके बड़े भारी हारके समान लम्बा है ॥१९॥ वह विजयाधं पर्वत पृथिवीसे दश योजन ऊपर चलकर अपनी दो श्रेणियों के द्वारा विद्याधर राजाओंकी उन नगरियोंको धारण करता है जो संसारमें नूतन भोगभूमियोंके समान जान पड़ती हैं ।।२०। यह पर्वत भरत क्षेत्रके समस्त पर्वतोंके स्वामित्वको धारण करता है, इसपर एक सौ दश सुन्दर नगरियां स्थित हैं, यह पचीस योजन चौड़ा तथा सुखको उत्पन्न करनेवाला है ।।२१।। इसी पवंतकी उत्तर श्रेणीपर एक हरिपुर नामका नगर है जो सब प्रकारके सुख देनेमें समर्थ है, नाना प्रकारके वृक्षोंके वनसे उत्तरकुरुकी पृथिवोका अनुकरण करता है और शोभामें इन्द्रपुरीके समान जान पड़ता है ।।२२। इस नगरका रक्षक पवनगिरि विद्याधर था। वही राजा सुमुखके जीवका पिता था तथा इसकी अनेक कलाओं और गुणोंमें निपुण मृगावती नामको स्त्री थी वही सुमुखके जीवकी माता थी ।।२३।। यहाँ सुमुखका जीव, 'आय' इस सार्थक नामको धारण करता था। धीरे-धीरे वह आर्यजनोंको आनन्द उत्पन्न करनेवाले अमृतमय वचन बोलने लगा तथा उसे अपनी पूर्व भवकी स्त्रीका स्मरण हो आया ॥२४॥ १. क्षगरुचिः सहसा समयोगतः घ., ङ.। २. सुभृता भारतभूरिगिरीणामोशता येन स तस्मिन् । ३. पञ्चाशद्योजनविष्कम्भे। ४. विनिहिताखिल चाक्षगणश्रमं ख., ग., ङ., म. अत्र यः पाठः स्वीकृतस्तस्य ङ. पुस्तकस्य टिप्पण्यां समुल्लेखः कृतः। विनिहिताखिलवाक्षगणश्रमं क.। ५. शोभया। ६. रक्षकः । ७. खचराधिपः घ.।
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२३२
हरिवंशपुराणे पुरमथोत्तरदिग्जगतीमितं भवति तत्र गिरौ विमवामितम् । यदिह मेघपुरं परमं परां वहति सन्मणिसौधपरम्पराम् ॥२५॥ अधिवसन्यथ तद्दमनो हरी रिपुमदेमकुलस्य मनोहरी । रतिषु यस्य मनोहरति प्रिया पवनवेगखगस्य रतिप्रिया ॥२६॥ अजनि साथ तयोर्दुहिता सती सहचरी सुमुखस्य हिता सती । विदितपूर्वभवाऽत्र मनोरमा' जगति चन्द्र कलेव मनोरमा ॥२७॥ कुलमुवाह विवाहविधोचितं शचि यथैव तथाकृतभावितम् । शिशुसमागममाशु विधिः स्वयं कृतिषु यद् यतते सककास्वयम् ॥२८॥ मिथुनमकयोः सुखलालितं निजनिषङ्ग कृताशिनिमोलितम् । स्मितमुखं सुमुखं वचनाध्वनि स्वजनतोषमपोषयदध्वनि ॥२९॥ स्वजननीस्तनपानकृताशनं निजरुचोपमितार्कहुताशनम् । मजति भोगभुवां शिशुभावनां विजयिनां मिथुनं स्म सभावनाम् ॥३०॥ स्वतनुवृद्धिमतश्च शनैः शनैः सह कलाभिरिदं च दिने दिने । शशिवपुर्यदियाय यथा यथा स्वजनमुज्जलधिश्च तथा तथा ॥३१॥ निखिलखेचरसाधितविद्यया मिथुनमेतदमाद् भवविद्या । ललितयौवनमाररुचा तथा जनमनोऽस्यहरद् गुणयातना ॥३२॥
इसी विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें एक मेघपुर नामका उत्तम नगर है जो अपरिमित वैभवसे युक्त है तथा मणिमयो उत्तम महलोंकी पंक्तिको धारण करता है ।।२५।। उस मेघपुर नगरका राजा पवनवेग था। पवनवेग शत्रुरूपो मदोन्मत्त हाथियोंको नष्ट करने के लिए सिंहके समान था। इसकी स्त्री मनोहरी थी। मनोहरी रतिकालमें पतिके मनको हरण करती थी इसलिए वह पवनवेगको रतिके समान प्यारी थी ॥२६।। राजा सुमुखकी जो वनमाला नामकी हितकारिणी उत्तम स्त्री थी वह इन्हीं दोनोंके मनोरमा नामको उतम पुत्री हुई। मनोरमा अपने पूर्वभवको जानती थी और संसारमें चन्द्रकलाके समान मनको आनन्दित करती थी ॥२७॥ उन दोनोंने जैसी पहले भावना की थी उसीके अनुसार विवाहके योग्य पवित्र कुल प्राप किया और उन दोनोंका विधाता सदा समस्त कार्योंमें स्वयं ऐसा ही प्रयत्न करता था कि जिससे उन दोनों शिशुओंका शीघ्र ही समागम हो जाये ॥२८।। उन दोनों बालक-बालिकाओंका अपने-अपने घर सुखपूर्वक पालन होता था, वे अपनी हथेलियोंसे कभी अपनी आँखें बन्द कर लेते थे, कभी मन्द हास्य करते थे, कभी वचन बोलने में तत्पर होते थे, और कभी किलकारियाँ भरते हुए अपने कुटुम्बीजनोंके हर्षको बढाते थे ।।२९।। और अपनी-अपनी कान्तिसे जो सूर्य तथा अग्निको उपमा धारण कर रहे थे ऐसे उन दोनों बालिका-बालिकाओंका युगल भोगभूमियाँ बालकोंकी विजययुक्त उत्तम भावनाको प्राप्त हो रहा था अर्थात् वे भोग-भूमियां बालकोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥३०॥ चन्द्रमाके समान शरीरको धारण करनेवाला वह युगल प्रतिदिन कलाओंके साथ जिस प्रकार धीरे-धीरे शरीरकी वृद्धिको प्राप्त होता जाता था उसी प्रकार उनके कुटुम्बीजनोंका आनन्दरूपी सागर भी वृद्धिको प्राप्त होता जाता था ॥३१।। संसारको जाननेवाला वह युगल, जिस प्रकार समस्त विद्याधरोंकी सिद्ध की हुई विद्याओंसे सुशोभित हो रहा था उसी प्रकार अनेक गुणके साथ प्राप्त हुई सुन्दर यौवनकी शोभासे लोगोंके मनको हरण कर रहा था ॥३२।। १. मनोहरा म.। २. विधोचितभावितं ख.। ३. स्वजनहर्षोदधिः । 'जनमनो मुदितं च तथा तथा ख.। ४. भववेत्ता, यथा । ५. गुणान् याता तया ।
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पञ्चदशः सर्गः
अथ तया स खगेन्द्रयुवान्यदा कमलयेव च खेचरकन्यया । परमभूतिविवाहविधानतः सममयोजि' निजैर्जनतानतः ॥३॥ अनुबभूव सुखं चिरमेतया मदनभावविलाससमेतया । सुरतनाटकभूमिविनीतया मदननर्तकसूरिविनीतया ॥३४॥ सुरवधूवरसुन्दरकन्दरे परमवल्लभया सह मन्दरे । सुरभिदेवतरूमतचन्दने चिरमरंस्त तया सह नन्दने ॥३५॥ स कुलशैलसरःसरितां तया सह तटेषु सरागमतान्तया। रतिमवाप कदाचन कान्तया तरुषु भोगभुवामपि कान्तया ॥३६॥ स्थितिमितं विजयाईगिरी पुरे रणितदिव्यवधूपदनूपुरे । भुवि यदन्यसुदुर्लममर्थितं भजति तत्तदयत्नसमर्पितम् ॥३७॥ अथ स वीरक ईश्वरवञ्चितः प्रियतमाविरहाशिवं चितः । क्वचिदियाय शुचा मृदुपल्लवे शिशिरतल्पतलेऽस्तविपल्लवे ॥३८॥ न समशीशमदस्य शशी करैः हृदयदाहममा हिमशीकरैः। निशि सदा विहगस्य वियोगिनः ससरसोऽपि यथा भुवि योगिनः ॥३९॥ स विनिगृह्य चिराद्विरहव्यथां रतिरहस्यगृहाश्रममाश्रमम् ।
जिननिदेशितमासृतवान् वशी स हि परं शरणं शरणार्थिनाम् ॥१०॥ तदनन्तर जनसमूहके द्वारा नमस्कृत उस विद्याधर युवाको, उसके कुटुम्बीजनोंने वैभव पूर्ण विवाहकी विधिसे लक्ष्मीको तुलना करनेवाली विद्याधर-कन्या मनोरमाके साथ युक्त किया ||३३|| विवाहके बाद कुमार आर्य, कामजनित हाव-भावोंसे सहित कामदेवरूपी नतंकाचार्यके द्वारा शिक्षित एवं सुरतरूपो नाटककी रंगभूमिमें लायी हुई इस मनोरमाके साथ सुखका उपभोग करने लगा ॥३४॥ कभी वह देव दम्पतियोंसे सुन्दर कन्दराओंसे युक्त मन्दर गिरिपर इस परम वल्लभाके साथ क्रीड़ा करता था तो कभी सुगन्धित देवदारु और चन्दनके ऊँचे-ऊंचे वृक्षोंसे सुशोभित नन्दन वनमें इसके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहता था ॥३५॥ कभी वह कुलाचलोंके पद्म आदि सरोवरों और गंगा आदि महानदियोंके तटोंपर तथा कभी भोगभूमिके वृक्षोंके नीचे खेदरहित सुन्दरो वल्लभाके साथ राग-सहित रति-क्रीड़ाको प्राप्त होता था ॥३६|| इस प्रकार विजयाध पर्वतपर रहनेवाला वह युगल, दिव्य स्त्रियोंके पदनूपुरोंको झनकारसे युक्त अपने नगरमें उस सुखका उपभोग करता था जो पृथिवीपर दूसरे मनुष्योंके लिए इच्छा करनेपर भी दुर्लभ था और उसे बिना ही प्रयत्नके प्राप्त था ॥३७॥
अथानन्तर-राजा सुमुखके द्वारा ठगा हुआ वीरक सेठ, प्रियतमा-वनमालाके विरहमें शोकके कारण कहीं भी हृदयको शान्तिको प्राप्त नहीं होता था। यहाँ तक कि जिसपर विपत्तिका एक अंश भी नहीं था ऐसे कोमल-पल्लवोंसे रची हुई शीतल शय्यापर भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता था ॥३८॥ वह विरह-ज्वाला शान्त करनेके लिए रात्रिके समय खुली चाँदनीमें सरोवरके तटपर जा बैठता था पर वहाँपर भी चन्द्रमा बर्फके कणोंके साथ-साथ अपनी किरणोंसे उसके हृदयकी दाहको शान्त नहीं कर पाता था। वह विरही चक्रवाक पक्षीके समान सदा विरहकी दाहमें झुलसता ही रहता था ॥३९।। तदनन्तर उस वीरकने चिरकाल बाद विरहकी व्यथाको १. नपतिना समयोजि विधानतः ङ । २. सरागम् अतान्तया इति च्छेदः। अतान्तया - अश्रान्तया इति घपुस्तके टिप्पणम् । ३. तत्तदयत्नसमर्पितम् ङ. । ४. न्नसिवंचितः म., चितो हृदयस्य शिवं सुखं न इयाय । ५. नियोगिनः म.। ६. सुसरसोऽपि म. । सरोवरसहितस्यापि । ७.-माश्रितवान म.।
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२३४
हरिवंशपुराणे अतिवितप्य तपस्तनुशोषणं विषयलुब्धमनोभवपेषणम् । अगमदेशसुखाम्बुधिपोषणं प्रथमकल्पमथामरतोषणम् ॥४१॥ सुरवधूनिवहादिपरिग्रहः सकलभूषणभूषितविग्रहः । सुरसुखामृतसागरसंगतः सममतिष्टत भावरसं गतः ॥४२॥ दिवि कदाचिदसौ वरकामिनीनिवहमध्यगतोऽवधिगोचरम् । समनयद्वनितां वनमालिका परिचितः प्रणयः खलु दस्त्यजः ॥४३॥ सुमुखराजकृतं च पराभवं स परिचिन्त्य सुरस्तदनन्तरम् । विषमितोन्मिषितावधिचक्षुषा मिथुनमैक्षत खेचरयोस्तयोः ॥४४॥ प्रभुतया प्रविधाय परामवं परभवे हृतवांश्च मम प्रियाम् । इह भवेऽपि तयैव सहेक्ष्यते रतिमितः स पर समुखः खलः ॥४५॥ कृतवतोऽपकृति विषमां द्विषो द्विगुणिता यदि सा न विधीयते । प्रभुतया किमनर्थिकया प्रमोः प्रमवतोऽपि निरुद्यमचेतसः ॥४६॥ इति विचिन्त्य रुषा कलुषीकृतः प्रतिविधानकृतौ कृतनिश्चयः । भुवमवातरदाशु स वैरधीस्त्रिदिवतो दिवसाधिपमास्वरः ॥४७॥ स खलु खेचरराजसुतं सुरः सुमुखराजचरं खचरीसखम् ।
प्रविलसंतमवाप यदृच्छया सुहरिवर्षगतं हरिविभ्रमम् ॥४८॥ रोककर रतिरूप रहस्यसे युक्त गृहस्थाश्रमको छोड़ दिया और जितेन्द्रिय हो जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा प्रदर्शित आश्रमकी शरण ली अर्थात् दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली, सो ठीक ही है क्योंकि शरणकी इच्छा करनेवाले मनष्योंके लिए वह ही सर्वोत्तम शरण है ॥४०॥ दीक्षा लेकर उसने शरीरको सुखा देनेवाला एवं विषयके लोभी कामदेवको पीस देनेवाला कठिन तप किया जिसके फलस्वरूप वह सुखरूपी सागरको पुष्ट करनेवाले एवं देवोंके सन्तोषदायक प्रथम स्वर्गको प्राप्त हुआ ॥४१॥ वहाँ देवांगनाओंके समूहको आदि लेकर अनेक प्रकारका परिग्रह जिसे प्राप्त था, सब प्रकारके आभूषणोंसे जिसका शरीर सुशोभित था और जो देवोंके सुखरूपी अमृतके सागरमें निमग्न था ऐसा वह देव अनेक भावों और रसोंको प्राप्त होता हुआ वहाँ सुखसे रहने लगा ॥४२।।
कदाचित् वह देव स्वर्गमें उत्तमोत्तम स्त्रियोंके बीच बैठा था कि उसने अचानक ही अपनी पूर्वभवकी स्त्री वनमालाको अवधिज्ञानका विषय बनाया अर्थात् अवधिज्ञानके द्वारा उसका विचार किया सो ठीक ही है क्योंकि परिचित-अनुभूत स्नेह बड़ी कठिनाईसे छूटता है ।।४३।। विचार करते ही उसे सुमुख राजाके द्वारा किया हुआ पराभव स्मृत हो गया। तदनन्तर एक बार निमीलित कर उसने अवधिज्ञानरूपी नेत्रको पुनः खोला तो विद्याधर और विद्याधरीका वह युगल सामने दिखने लगा ॥४४॥ वह विचार करने लगा कि देखो जिस दुष्ट सुमुखने पूर्वभवमें प्रभुतावश तिरस्कार कर हमारी स्त्रीका हरण किया था वह इस भवमें भी उसी स्त्रीके साथ परम रतिको प्राप्त हुआ दिखाई दे रहा है ॥४५|| यदि विषम अपकार करनेवाले शत्रुका दूना अपकार नहीं किया तो समर्थ होनेपर भी निरुद्यम चित्तके धारक प्रभुकी निरर्थक प्रभुतासे क्या लाभ है ? ॥४६॥ ऐसा विचारकर क्रोधसे जिसका चित्त कलुषित हो रहा था, तथा बदला लेनेका जिसने दृढ़ निश्चय कर लिया था ऐसा वह सूर्यके समान देदीप्यमान देव पूर्व वैरको बुद्धिमें रख शीघ्र ही स्वर्गसे पृथिवीपर उतरा ॥४७॥ उस समय राजा सुमुखका जीव आर्य नामका विद्याधर, अपनी विद्याधरीके साथ हरिवर्ष क्षेत्रमें इच्छानुसार क्रीड़ा करता हुआ इन्द्रके समान सुशोभित १. चक्षुषः म.। २. हतवांश्च म.।
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पञ्चदशः सर्गः
२३५
तदवलोक्य सुरो मिथुनं वरं प्रथमयौवननिर्भरेविग्रहम् । अकुत खण्डितविद्यमखण्डया सहजखण्डतया सरमायया ॥४९॥ परवधूप्रिय वीरकवैरिणं स्मरसि किं सुमुख प्रमुखाधुना। स्वमपि किं सूखले वनमालिके! स्खलितशीलमरे ! परजन्मनि ॥५०॥ अहमसौ तपसा सुरतामितः खचरतां मुनिदानफलाद् युवाम् । अरतिमेव ममारतिदायिनोः क्षपितविद्यकयोः प्रददामि वाम् ।।५१॥ इति निगद्य तदा विबुधः खगौ चकितकम्पितचित्तशरीरको। गरुडवत्परिगृह्य खमुद्ययौ भरतवर्षवरं प्रति दक्षिणम् ॥५२॥ मृतवतामृतदीधितिकीर्तिना रहितयाऽनृपया वरचम्पया। स तमयोजयदत्र महीपतिं प्रणतराजकमैच दिवं सुरः ॥५३॥ त्रिदशखण्डितविद्य कदम्पती क्षपितपक्षशकुन्तवदक्षमौ । वियति पयंटितुं त्रुटितेच्छकौ सह समीयतुरत्र धृति क्षितौ ॥५४॥ नवतिकार्मुकपूर्वसुलक्षितस्थितिमतो दशमस्य मुनेरिदम् । समधिकाब्धिशतोज्झितकोटिके वहति तीर्थपथेऽकथि वृत्तकम् ॥१५॥ स बुभुजे भुजदण्डवशीकृतप्रणतपार्थिवमानितशासनः।। विषयसौख्यमखण्डितरागया सुचिरकालमतृप्तमतिस्तया ॥५६।। अथ तयोस्तनयो हरिरित्यभूद्धरिरिवं प्रथितः पृथिवीपतिः ।।
समनुभूय सतश्रियमूर्जितां स्वचरितोचितलोकमितौ च ती ॥५७॥ हो रहा था सो उस देवने उसे प्राप्त किया ॥४८॥ नव यौवनसे जिसका शरीर भरा हुआ था ऐसे उस विद्याधर दम्पतीको देखकर देवने अपनी स्वाभाविक अखण्ड मायासे उसे खण्डितविद्य कर दिया अर्थात् उसकी विद्याएँ हर लीं ॥४९॥ और क्रुद्ध होकर उससे कहा कि अरे! पर-स्त्रीको हरनेवाले प्रमुख सुमुख ! क्या तुझे इस समय अपने वीरक वैरीका स्मरण है और परजन्मसे शीलव्रतको खण्डित करनेवाली दुष्ट वनमाला ! तुझे भी वीरककी याद है ? ॥५०॥ मैं तप कर देव हुआ हूँ और तुम दोनों मुनिदानके फलसे विद्याधर हुए हो। तुम दोनोंने पूर्वभवमें मुझे दुःख दिया था इसलिए मैं भी तुम्हारी विद्याएँ नष्ट कर तुम्हें दुःख देता हूँ ।।११।। इस प्रकार कहकर वह देव, जिस प्रकार पक्षियोंको गरुड़ उठा ले जाता है उसी प्रकार आश्चर्यसे चकित चित्त एवं भयसे कम्पित शरीरको धारण करनेवाले दोनों-विद्याधर और विद्याधरीको उठाकर दक्षिण भरत क्षेत्रकी ओर आकाशमें उड़ गया ॥५२।।।। उस समय चम्पापुरीका राजा चन्द्रकीति मर चुका था इसलिए वह राजासे रहित थी। वह देव आर्य विद्याधरको यहाँ ले आया और उसे चम्पापुरीका अनेक राजाओंके द्वारा नमस्कृत राजा बनाकर स्वर्ग चला गया ॥५३।। देव द्वारा जिनकी विद्याएँ खण्डित कर दी गयी थी ऐसे वे दोनों विद्याधर दम्पती, पंख कटे पक्षियोंके समान आकाशमें चलनेको असमर्थ हो गये इसलिए उसकी इच्छा छोड़ पृथिवीमें ही सन्तोषको प्राप्त हुए ॥५४।। यह वृत्तान्त नब्बे धनुष ऊंचे शरीर और एक लाख पूर्वकी स्थितिको धारण करनेवाले दशवें शीतलनाथ भगवानके तीर्थमें हआ था। उस समय उनका तीथं कुछ अधिक सौ सागर कम एक करोड़ सागर प्रमाण चल रहा था ॥५५|| राजा आर्यने अपने भुजदण्डसे समस्त राजाओंको वश कर नम्रोभूत एवं आज्ञाकारी बनाया और अखण्डित प्रेमवाली मनोरमाके साथ चिरकाल तक विषय-सुखका उपभोग किया फिर भी तृप्त नहीं हुआ ॥५६॥ तदनन्तर उन दोनोंके हरि नामका पुत्र हुआ जो १. निर्जर म. । २. मृतेन चन्द्रकोतिना राज्ञा । ३. इन्द्रसदृशः ।
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२३६
हरिवंशपुराणे हरिरयं प्रभवः प्रथमोऽभवत्सुयशसो हरिवंशकुलोद्गते । जगति यस्य सुनामपरिग्रहाच्चरति भो हरिवंश इति श्रुतिः ॥५८॥ अमवदस्य महागिरिरङ्ग जो हिमगिरिस्तनयः सुन यस्ततः । वसुगिरिश्च ततो गिरिरित्यमी त्रिदिवमोक्षयुजस्तु यथायथम् ॥५२॥ शतमखप्रतिमाः शतशस्ततः क्षितिभृतो हरिवंशविशेषकाः ।। क्रमताधिकराज्यतपोधुराः शिवपदं ययुरत्र दिवं परे ॥६॥ व्यपगतेषु नृपेषु बहुवतः क्षितिपतिर्मगधाधिपतिः क्रमात् । इह बभूव हरिप्रमवान्वये कुशलधामकुशाग्रपुराधिपः ॥६॥ स हि सुमित्र इति श्रुतनामकः श्रुतविशेषविभूषितपौरुषः । अनुशशास भुवं सह पद्मया श्रितसखः प्रियया जिनभक्तया ॥६२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो हरिवंशोत्पत्तिवर्णनो नाम
पञ्चदशः सर्गः।
इन्द्रके समान प्रसिद्ध राजा हुआ। राजा आर्य और रानी मनोरमाने चिरकाल तक पुत्रको विशाल लक्ष्मीका अनुभव किया तत्पश्चात् दोनों अपने-अपने कर्मों के अनुसार परलोकको प्राप्त हुए ।।५७॥ यही राजा हरि, परम यशस्वी हरिवंशकी उत्पत्तिका प्रथम कारण था। जगत्में इसीके नामसे हरिवंश इस नामको प्रसिद्धि हुई ॥५८॥ राजा हरिके महागिरि नामका पुत्र हुआ। महागिरिके उत्तम नीतिका पालक हिमगिरि पुत्र हुआ। हिमगिरिके वसुगिरि और वसुगिरिके गिरि नामका पुत्र हुआ। ये सभी यथायोग्य स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त हुए ।।५९॥ तदनन्तर हरिवंशके तिलकस्वरूप इन्द्रके समान सैकड़ों राजा हुए जो क्रमसे विशाल राज्य और तपका भार धारण कर कुछ तो मोक्ष गये और कुछ स्वगं गये ॥६०।। इस प्रकार क्रमसे बहुत-से राजाओंके होनेपर उसी हरिवंशमें मगध देशका स्वामी राजा सुमित्र हुआ। वह कुशल-मंगलका स्थान तथा कुशाग्रपुर नगरका अधिपति था। उसका पराक्रम शास्त्रोंके विशिष्ट ज्ञानसे विभूषित था। वह अपनी जिनभक्त प्रिया पद्मावतीके साथ सुखका उपभोग करता हुआ चिरकाल तक पृथिवीका शासन करता रहा ॥६१-६२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंश पुराणमें हरिवंशकी
उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला पन्द्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१५॥
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षोडशः सर्गः
वसन्ततिलकावृत्तम् श्रीशीतलादिह परेषु जिनेषु पश्चात् तीर्थ प्रवर्त्य भरते जगतां हितार्थम् । कालक्रमेण नवसु श्रितवत्सु मोक्षं स्वर्गादिहैष्यति जिनाधिपतौ च विंशे ॥१॥ शक्राज्ञया प्रतिदिनं वसुधारयोच्चैरापूरयत्यवनिपस्य गृहं कुबेरः । पद्मावती मदुतले शयने शयाना स्वप्नान् ददर्श दश षट् च निशावसाने ॥२।। नागोक्षसिंहकमलाकुसुमस्रगिन्दुबालार्कमत्स्य कलशाब्जसरोऽम्बुराशीन् । सिंहासनामरविमानफणीन्द्रगेहसद्रत्नराशिशिखिनो जिनसूरपश्यत् ॥३॥ सोपासिता पवनवत्युपमाव्यतीतदिव्यप्रभावदिगभिख्य कुमारिकाभिः । शय्यातले सकुसमे शशभे विबुद्धा लेखा यथा नमसि तारकिता हिमांशोः ॥४॥ उभिद्रपद्मनयनाननपाणिपादा सा रागिणी दिनमुखेऽधिपतिं सुमित्रम् । भद्रासनोदयगतं स्थलपद्मिनीव पद्मावती समुदियाय सपुण्डरीका ॥५॥ 'चित्राम्बराम्बुरमनागरणितातिमजुमञ्जीरसिञ्जितविहङ्गनिनादरम्या । मीनेक्षणा त्रिवलिभङ्गतरङ्गिणी सा स्त्रीवाहिनी समगमद् वरंवाहिनीशम् ॥६॥ पीनस्तनस्तवकभारनताङ्गयष्टिराताम्रपल्लवकरा मृदुबाहुशाखा ।
संचारिणी मणिविभूषणमन्महीशकल्पद्रुमं युवतिकल्पलता ननाम ॥७॥ अथानन्तर श्रीशीतलनाथ भगवान्के पश्चात् जब कालक्रमसे नौ तीर्थंकर भरत क्षेत्र में जगत्के जीवोंके हितार्थ धर्म तीर्थकी प्रवृत्ति कर मोक्ष चले गये और बीसवें तीर्थंकर स्वर्गसे अवतार लेनेके सन्मुख हुए तब इन्द्रको आज्ञासे कुबेर प्रतिदिन राजा सुमित्रके घरको रत्नोंकी उत्कृष्ट धारासे भरने लगा। कदाचित् कोमल शय्यापर शयन करनेवाली रानी पद्मावतीने रात्रिके अन्तिम समय १ गज, २ वृषभ, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी, ५ पुष्पमाला, ६ चन्द्रमा, ७ बालसूर्य, ८ मत्स्य, ९ कलश, १० कमलसरोवर, ११ समुद्र, १२ सिंहासन, १३ देवविमान, १४ नागेन्द्रभवन, १५ रत्नराशि और १६ अग्नि ये सोलह स्वप्न देखे ॥१-३|| उपमारहित एवं दिव्य प्रभावको धारण करनेवाली निन्यानबे दिक्कमारी देवियोंके द्वारा सेवित जिनमाता पद्मावती जब जागकर फलोंकी शय्यापर बैठी तब ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो आकाशमें ताराओंसे घिरी हुई चन्द्रमाकी लेखा ही हो ॥४॥ तदनन्तर जिसके नेत्र, मुख, हाथ और पैर फूले हुए कमलके समान थे, जो अनुरागसे युक्त थी, हर्षसे सहित थी और हाथमें सफेद कमल धारण कर रही थी ऐसी रानी पद्मावती प्रातःकालके समय ऊंचे सिंहासनपर विराजमान राजा सुमित्रके पास गयी सो ऐसी जान पड़ती थी मानो अनेक कमलोंसे सुशोभित, लालिमायुक्त स्थल-कमलिनी ही उदयाचलपर स्थित सुमित्र-सूर्यके पास जा रही हो ।।५।। जो नाना प्रकारके वस्त्ररूपी जलसे. युक्त थी, अत्यधिक रुन-झुन करनेवाले अतिशय सुन्दर नूपुरोंकी झनकाररूपी पक्षियोंकी कल-कल ध्वनिसे
हर थी. मछलियों के समान नेत्रोंसे सहित थी और त्रिवलिरूपी तरंगोंसे सशोभित थी ऐसी वह स्त्रीरूपी नदी राजा सुमित्ररूपी समुद्र के पास गयी यह उचित ही था ।|| उस समय मणिमय १. तीर्थङ्करजननी । २. सुमित्राख्यं नृपं, सूर्यं च । ३. चित्राण्यम्बराण्येवाम्बु यस्यां सा । ४. उत्तमसेनाध्यक्ष पक्षे उत्तमनदीपतिम् ।
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२३८
हरिवंशपुराणे आसीनयाऽऽसनवरे स तया समीपे स्वप्नावलीफलमिलाधिपतिः प्रपृष्टः । तस्यै जगौ जिनपतेर्जगतां त्रयस्य भर्तुर्गुरू' लघु भवाव इति प्रहृष्टः ।।८।। स्पृष्टा नृपोकिरणमालिवचोमयूखैः सा तोषपोषभृशहृष्टतनूरुहाऽभात् । स्त्रैणं निकृष्टमपि तीर्थकृतो गुरुत्वान् मत्वा प्रशस्तमिति विस्तृतपभिनीव ।।९।। आरात्सहस्रपदपूर्वपदादुदारादारानमत्सुरसहस्रगणोऽवतीर्य । मासानुवास नव गर्मगृहे प्रशुद्ध सार्धाष्टमार्हगणनान् मुनिसुव्रतोऽस्या: ॥१०॥ आनीलचूचुकविपाण्डुपयोधरधीः सा वज्रसंहतिसगर्भतया स्फुरन्ती । विद्यत्प्रभाभरणबंहितभा बभासे वशरत्समयसन्नियुता यथा चौः ।।११।। सासूत सूतिसमयेन्द्रमहे च माघपक्षेऽसिते जनमनोनयनोत्सवं तस् । द्वादश्य भीप्सिततिथौ श्रवणेऽश्रमेण स्त्रीद्यौरनद्यरहिता जिनपूर्णचन्द्रम् ।।१२।।
आभषणोंको धारण करनेवाली रानी पद्मावती चलती-फिरती कल्पलताके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार कल्पलता गुच्छोंके भारसे नम्रीभूत होती है उसी प्रकार उसकी अंगयष्टि भी स्थूल स्तनरूपी गुच्छोंसे नम्रीभूत थी, जिस प्रकार कल्पलता लाल-लाल पल्लवोंसे युक्त होती है उसी प्रकार वह भी लाल-लाल हथेलियोंसे युक्त थी और जिस प्रकार कल्पलता कोमल शाखाओंसे युक्त होती है उसी प्रकार वह भी कोमल भुजाओंसे युक्त थी। इस प्रकार रानी पद्मावतीरूपी कल्पलताने राजा सुमित्ररूपी कल्पवृक्षको नमस्कार किया ॥७।। पास ही में उत्तम आसनपर बैठी रानी पद्मावतीने जब राजासे स्वप्नावलीका फल पूछा तब उन्होंने हर्पित होते हुए कहा कि हम दोनों शीघ्र ही तीनों जगतके स्वामी जिनेन्द्र भगवान् के माता-पिता होंगे ||८| इस प्रकार राजारूपो सूर्यको वचन किरणोंसे स्पर्शको प्राप्त हुई रानी पद्मावतीके शरीर में हर्षातिरेकसे रोमांच निकल आये और वह फूली हुई कमलिनीके समान सुशोभित होने लगी। वह पहले जिस स्त्रीपर्यायको निकृष्ट समझती थी उसे ही अब तीर्थकरकी माता होनेके कारण श्रेष्ठ समझने लगी ।।९।। जिन्हें हजारों देवोंके समूह दूरसे ही नमस्कार करते थे ऐसे भगवान् मुनिसुव्रतने सहस्रार नामक उत्कृष्ट स्वर्गसे अवतीर्ण होकर माता पद्मावतीके विशुद्ध गर्भ-गृहमें नौ माह साढ़े आठ दिन निवास किया ॥१०॥ उस समय माता पद्मावती, वर्षा और शरद्ऋतुके सन्धिकालसे युक्त आकाशके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार वर्षा और शरद्के सन्धिकालका आकाश कुछ काले और कुछ सफेद पयोधरों-~-मेघोंसे युक्त होता है उसी प्रकार पद्मावती भी नीली चूचुकसे युक्त सफेद पयोधरों-- स्तनोंसे युक्त थी। जिस प्रकार वर्षा और शरद्के सन्धिकालका आकाश वज्रसमूह-वज्रके समूहसे गभित होनेके कारण देदीप्यमान रहता है उसी प्रकार पद्मावती भी वज्रवृपभ संहननके धारक भगवान् के गर्भमें स्थित होनेसे देदीप्यमान हो रही थी और जिस प्रकार वर्षा तथा शरद्के सन्धिकालका आकाश विद्युत्प्रभाभरणबृहितभा--बिजलीकी प्रभाको धारण करनेसे कान्तियुक्त होता है उसी प्रकार माता पद्मावती भी विद्युत्प्रभाभरणबृहितभा-बिजलोके समान देदीप्यमान आभूषणोंसे बढ़ी हुई कान्तिसे युक्त थी ॥११॥
तदनन्तर पाप ( पक्षमें कलंक ) से रहित रानी पद्मावतीरूप आकाशने प्रसूतिके योग्य समय आनेपर इन्द्रमह उत्सवके दिन माघ कृष्ण द्वादशीको शुभ तिथिमें जबकि श्रवण नक्षत्र था बिना किसी श्रमके, मनुष्योंके मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाले जिनेन्द्ररूपी पूर्णचन्द्रको
१. मातापितरौ । २ शीघ्रम् । ३. नृपसूर्यवचनकिरणैः । ४. सार्धाष्ट भीत स. (?) । सार्धाष्टमाह क., ड. (२)। अष्टदिनसहितानवमासान् ( क. टि.) । ५. भीक्षित -म. ।
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षोडशः सर्गः
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जातेन तेन शुभलक्षणचितेन पभावतो प्रमुदिता मुनिसुव्रतेन । सा रूढरोगशिखिकण्ठरुचा चकासे स्निग्धेन्द्रनीलमणिनाकरभूरिबका ॥१३॥ आकम्पितासनतिरीटजगस्त्रयेन्द्राः सपःप्रयुक्तविशदावधयोऽधिगम्य । घेलुः सुरा जिनसमुभवमद्भुतोच्चैर्घण्टामृगेट् पटहशङ्खरवंश्च शेषाः ॥१४॥ *गन्धाम्बुवर्षमृदुमारुतपुष्पवृष्टिसंपूरिताखिलजगद्वलयाः समन्तात् । भागस्य चाशु सुकृतोज्वलभूषवेषाः शक्रादयः पुरुकुशाग्रपुरं परीयुः ॥१५॥ नत्वा जिनं जिनगुरूं च सुरासुराश्च तजातकर्मणि कृते सुरकन्यकामिः । ऐरावतं तमधिरोप्य महाविभूत्या गस्वा परीत्य गिरिराजमधित्यकायाम् ॥१६॥ संस्थाप्य पाण्डुकशिलातलमस्तके तं सिंहासने सुपयसोद्धपयःपयोधेः । भूस्यामिषिच्य कृतभूषम भिष्टवैस्ते स्तुत्वाऽभिधाय मुनिसुव्रतनामधेयम् ॥१७॥ आनीय नीतिकुशलाः जननीशुमाङ्कमारोप्य नाटकविधि प्रविधाय देवाः । नवा ययुः शतमखप्रमुखा यथास्वमानन्दितत्रिमवनं सगुरुं जिनं ते ॥१८॥ ज्ञानत्रयं सहजनेत्रमुदारनेत्रो बिभ्रजिनः सुरकुमारकसेव्यमानः । कालानुरूपकृतसर्वकुबेरयोगक्षेमो ययावपधनस्य गुणस्य वृद्धिम् ॥१९॥
उत्पन्न किया ॥१२॥ जिस प्रकार इन्द्रनीलमणिसे खानकी भूमि सुशोभित होती है उसी प्रकार शुभ लक्षणोंसे यक्त एवं लाली सहित नीलकण्ठ-मयरकी कान्तिको धारण करनेवाले मनिसव्रत भगवान्से हर्षित पद्मावती सुशोभित हो रही थी ॥१३॥ उस समय तीनों जगत्के इन्द्रोंके आसन और मुकुट कम्पायमान हो गये थे जिससे तत्काल ही अवधिज्ञानका प्रयोग कर उन्होंने जिनेन्द्र भगवानके जन्मका समाचार जान लिया था और शेष देवोंने अत्यन्त आश्चर्य तथा जोरके साथ होनेवाली घण्टाध्वनि, सिंहध्वनि, पटहध्वनि और शंखध्वनिसे जिनेन्द्र-जन्मका निश्चय कर लिया था। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्का जन्म जानकर समस्त इन्द्र और देव जन्मोत्सवके लिए चले ॥१४॥ सुगन्धित जल, मन्द वायु और पुष्पोंकी वर्षासे जिन्होंने समस्त जगत्को भर दिया था तथा जिन्होंने उत्तमोत्तम देदीप्यमान आभूषणोंसे सुशोभित वेष धारण किया था ऐरे इन्द्र आदि देवोंने सब ओरसे शीघ्र आकर विशाल कुशाग्रपुरकी प्रदक्षिणाएं दीं ।।१५।। तत्पश्चात् समस्त र असुर देवोंने जिनेन्द्र भगवान् और उनके माता-पिताको नमस्कार किया, देव-कन्याओंने जातकर्म किया और उसके बाद समस्त देव जिनेन्द्र भगवान्को ऐरावत हाथीपर बैठाकर बड़े वैभवके साथ सुमेरु पर्वतपर ले गये। वहाँ प्रथम ही उन्होंने मेरु पर्वको प्रदक्षिणाएँ दी फिर उसके ऊर्ध्वभागपर बनी पाण्डुक शिलाके ऊपर स्थित सिंहासनपर जिनेन्द्र भगवान्को विराजमान किया। वहाँ क्षीर सागरके उत्तम जलसे महाविभूतिके साथ उनका जन्माभिषेक किया, नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे स्तुति की, मुनिसुव्रत नाम रखा। तदनन्तर नीति-निपुण देवोंने भगवान्को ला माताकी शुभ गोदमें विराजमान कर आनन्द नाटक किया। तत्पश्चात् इन्द्रादि देव, त्रिभुवनको आनन्दित करनेवाले जिनेन्द्र भगवान और उनके माता-पिताको नमस्कार कर यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥१६-१८॥ जो स्वयं विशाल नेत्रोंसे युक्त थे, तीन ज्ञानरूपी सहज नेत्रोंको धारण करनेवाले थे, देवकुमार जिनकी निरन्तर सेवा करते थे और समय-समयके अनुरूप कुबेर जिनके योग-क्षेमका ध्यान रखता था-सब सुख-सामग्री समर्पित करता था ऐसे भगवान् मुनिसुव्रत शरीर और गुणोंकी वृद्धिको प्राप्त होने लगे । भावार्थ-जैसे-जैसे उनका शरीर बढ़ता जाता था वैसे-वैसे ही उनके १. सा रागरूढ -म. । २. मृगे पटह -म.। ३. गत्वाम्बुवर्षमृदुमारुतपुष्पवृष्टिं म.। ४. जिनमातापितरौ । ५. शरीरस्य।
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हरिवंशपुराणे
रम्याङ्गनाश्च कुलशैलसमुद्भवास्तमाद्यन्तमध्यसतताभ्युदया युवानम् । लावण्यवाहिनमवाप्य विवाहपूर्व नद्यः समुद्रमिव संवरयांबभूवुः ॥२०॥ राज्यस्थितः स हरिवंशमरीचिमाली राजा प्रजाकमलिनीहितलोकपालः । राजाधिराज सुरसेवितपादपद्मो भेजे चिरं विषयसौख्य मखण्डिताज्ञः ॥ २१॥ प्राप्ता कदाचिदथ तं शरदम्बुजास्था बन्धूकबन्धुरतयाधरपल्लवश्रीः । काशाच्छचामरकरा विशदाम्बुवस्त्रा वर्षावधूव्यतिगमे स्ववधूरिवैका ॥२२॥ अन्तर्दधे धवलगोकुलघोषघोषैर्मेघावली लघुविधूतरवेव धूम्रा । मेघावरोधपरिमुक्तदिशासु सूर्यः पादप्रसारणसुखं श्रितवश्विरेण ॥ २३॥ रोधोनितम्वगलदम्बुविचित्रवस्त्राः सावर्त्तनाभिसुभगाश्चलमीननेत्राः । फेनावलीवलय वीचिविलासवाहाः क्रीडासु जह रबलासरितोऽस्य चित्तम् ॥२४॥ ऊर्मिभ्रुवश्चटुलनेत्रशफर्यपाङ्गाः मत्तद्विरेफकलहंसनिनादरम्याः । फुल्लारविन्दमकरन्दरजोऽङ्गरागा रागं रतौ विदधुरस्य वधूसरस्यः ॥ २५॥
बढ़ते जाते थे ||१९|| जिस प्रकार कुलाचलोंसे उत्पन्न, आदि, मध्य और अन्तमें समान रूप से बहनेवाली नदियां लवण समुद्रको प्राप्त कर वरती हैं उसी प्रकार उत्तम कुलरूपी पर्वतोंसे उत्पन्न, बालक, युवा और वृद्ध तीनों अवस्थाओं में निरन्तर अभ्युदयको धारण करनेवाली सुन्दर स्त्रियोंने सौन्दर्यके धारक युवा गुनिसुव्रतनाथको प्राप्त कर विवाहपूर्वक वरा था ||२०||
तदनन्तर जो राज्य सिंहासनपर आरूढ़ थे, हरिवंशरूपी आकाशके मानो सूर्य थे, प्रजारूपी कमलिनीका हित करनेके लिए सूर्यस्वरूप थे, राजा, महाराजा और देव जिनके चरणकमलोंकी सेवा करते थे तथा जो अखण्ड आज्ञाके धारक थे ऐसे राजा मुनिसुव्रतनाथने चिरकाल तक विषयसुखका उपभोग किया || २१ ॥ अथानन्तर किसी समय शरद् ऋतु आयो सो वह ऐसी जान पड़ती थी मानो वर्षारूपी स्त्रीके चले जानेपर एक दूसरी अपनी ही स्त्री आयी हो अर्थात् वह शरदऋतु स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री कमलके समान मुखसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी कमलरूपी मुखसे सहित थी, जिस प्रकार स्त्री लाल-लाल अधरोष्ठसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद् ऋतु भी बन्धूकके लाल-लाल फूलरूपी अधरोष्ठसे युक्त थी, जिस प्रकार स्त्री हाथमें चामर लिये रहती है उसी प्रकार वह शरदऋतु भी काशके फूलरूपी स्वच्छ चामर हाथमें लिये थी और जिस प्रकार स्त्री उज्ज्वल वस्त्रोंसे युक्त होती है उसी प्रकार वह शरद् भी उज्ज्वल मेघरूपी वस्त्रोंसे युक्त थी || २२|| जिसने शीघ्र ही अपना शब्द बन्द कर दिया था ऐसी धूमिल मेघमाला, सफेद-सफेद गायोंके समूहसे युक्त अहीरोंको बस्ती के जोरदार शब्द सुनकर ही मानो अन्तर्हित हो गयी थी और मेघोंके आवरणसे रहित दिशाओंमें सूर्य चिरकालके बाद पादपाँवों ( पक्षमें किरणों ) के फैलानेका सुख प्राप्त कर सका था || २३ || जिनके तटरूपी नितम्बसे जलरूपी चित्र-विचित्र वस्त्र नीचे खिसक गये थे, जो भँवररूपी नाभिसे सुन्दर थीं, मीनरूपी चंचल नेत्रोंसे युक्त थीं और फेनावलीरूपी चूड़ियोंसे युक्त तरंगरूपी चंचल भुजाओंसे सहित थीं ऐसी नदोरूपी स्त्रियाँ क्रीड़ाओंके समय इनका हृदय हरने लगीं ||२४|| ऊर्मियां ही जिनकी भौंहें थीं, मछलियाँ ही जिनके चंचल कटाक्ष थे, जो मदोन्मत्त भोरों और कलहंसोंके शब्दसे मनोहर थीं और फूले हुए कमलों का मकरन्द सम्बन्धी पराग ही जिनका अंगराग था ऐसी सरसीरूपी स्त्रियां क्रीड़ाके समय इनके रागको उत्पन्न कर रही थीं ॥ २५ ॥
१. शरदम्बुजाक्षा म.
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षोडशः सर्गः
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नम्रो भृशं फलमरेण सुगन्धिशालिः शालेयजा च विकचोत्पलजातिरुत्था । सौभाग्यगन्धवशवर्तितयाङ्गमङ्गमासाद्य जिघ्रतुरिवास्यमजनमेतौ ॥२६॥ धूलीः 'कदम्बमदधूलिगताङ्गरागाधाराः कदम्बमधुनो विधुराः स्मरन्तः । माद्यद्विपेन्द्रमदगन्धिषु षट्पदौघाः सप्तच्छदेषु विततेषु रतिं वितेनुः ॥२७॥ काले स तत्र मुनिसुव्रतराजहंसः कैलासशैलसदृशे स्थितवान् सुसौधे । लीलावधतरतिविभ्रमराजहंसीः व्रीडामयातिरुचिरामरणाः प्रपश्यन् ॥२८॥ पश्यन् दिशः सकलशारदसस्यशोभाः मेघं ददर्श शशिशुभ्रमदभ्रशोमम् । व्योमार्णवारमणतृष्णमिवावतीर्णमैरावणं भ्रमणविभ्रमवारणेन्द्रम् ॥२९॥ निःशेषनिर्गलितनीरनिजोत्तरीयमाशावधूविपुलपीनपयोधरं सः । प्रोत्तुङ्गपाण्डुपरिणाहिनमम्बरस्य भूषायमाणमवलोक्य तमाप तोषम् ॥३०॥ पश्चात्प्रचण्डतरमारुतवेगघातनिर्मूलितावयवमाशु विलीयमानम् । ज्वालोपनीतमिव तं नवनीतपिण्डमालोक्य लोकविभुरिस्थमचिन्तयत्सः ॥३१॥ शीर्णः शरजलधरः कथमेष शीघ्रमायुःशरीरवपुषां विशरारुतायाः।
लोकस्य विस्मरणशीलविशीर्णबुद्धराशुपदेशमिव विश्वगतं वितन्वन् ॥३२॥ फलके भारसे अतिशय झुके हुए सुगन्धित धानके पौधे और धानके खेतोंमें उत्पन्न हुई ऊंची उठी विकसित उत्पलोंकी श्रेणियाँ-दोनों ही सौभाग्य सम्बन्धी हर्षके वशीभूत हो अंगसे-अंग मिलाकर मानो एक दूसरेका मुख हो सूंघ रही थीं ॥२६॥ जिनके शरीरपर विकसित कदम्बपुष्पोंकी परागका अंगराज लगा था तथा जो कदम्ब मधुकी धाराओं और धूलिका स्मरण करते हुए दुःखी हो रहे थे ऐसे भ्रमरोंके समूह अब कदम्ब-पुष्पोंका अभाव हो जानेसे मदोन्मत्त गजराजके मद-जैसी गन्धसे युक्त सप्तपणं वृक्षोंके लम्बे-चौड़े वनोंमें प्रीति करने लगे॥२७॥ ऐसी शरद्ऋतुके समय भगवान् मुनिसुव्रतरूपो राजहंस-श्रेष्ठ राजा (पक्षमें राजहंस ), लज्जा और भय ही जिनके सुन्दर आभूषण थे तथा जिन्होंने अपनी लीलासे रतिकी शोभाको दूर कर दिया था ऐसी राजहंसियों-श्रेष्ठ रानियों ( पक्षमें राजहंसिनियों) को देखते हए भगवान मनिसुव्रतनाथ कैलास पर्वतके समान ऊंचे महलपर विराजमान थे ॥२८॥ शरद्-ऋतुके समस्त धान्योंकी शोभासे युक्त दिशाओंको देखते-देखते उन्होंने एक मेघको देखा। वह मेघ चन्द्रमाके समान सफेद था, अत्यधिक शोभासे युक्त था और आकाशरूपी समुद्र में कीड़ा करनेकी अभिलाषासे अवतीर्ण भ्रमणप्रेमी, गजराज ऐरावतके समान जान पड़ता था ॥२९|| जिसके ऊपरसे समस्त जलरूपी अपना उत्तरीय वस्त्र नीचे खिसक गया था, जो अतिशय ऊँचा, सफेद एवं विस्तारसे युक्त था, आकाशका आभूषण था, और दिशारूपी स्त्रीके अतिशय स्थूल स्तनके समान जान पड़ता था ऐसे उस मेघको देखकर भगवान् आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥३०|कुछ ही समयके पश्चात् अत्यन्त प्रचण्ड वायुके वेगजन्य आघातसे उस मेघके समस्त अवयव नष्ट हो गये और वह ज्वालाओंके समीप रखे हुए नवनीतके पिण्डके समान शीघ्र ही विलीन हो गया, यह देख जगत्के स्वामी भगवान मुनिसुव्रतनाथ इस प्रकार विचार करने लगे ॥३१॥
____ अरे ! यह शरदऋतुका मेघ इतनी जल्दी कैसे विलीन हो गया ? जान पड़ता है आयु, शरीर और वपुको क्षणभंगुरताको भुला देनेवाले मनुष्यको व्यापक उपदेश देनेके लिए ही मानो
१. धूलीकदम्बमदधूलिगतां सरागा धारां ख.। २. वितेने म.। ३. अकृशशोभम् । ४. नश्वरतायाः । ५. आशु + उपदेशमिव । आशु शीघ्रमित्यर्थः ।
३१
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२४२
हरिवंशपुराणे अल्पप्रमाणपरमाणुसमूहराशिरासंचितः 'स्वपरिणामवशादसारः। कालप्रमानजवावनिपातमात्रादायुधनः प्रलयमत्र लघु प्रयाति ॥३३॥ वज्रास्मसंहननसंहतसंधिबन्धः सत्सन्निवेशनवरम्यशरीरमेघः । "मोधीभवत्यसुभृतामसमर्थ एष वायुप्रकोपभरमग्नसमस्तगात्रः ॥३४॥ सौभाग्यरूपनवयौवनभूषणस्य भूलोकचित्तनयनामृतवर्षणस्य । देहाम्बुदस्य दिनकृत्प्रतिघातिनी स्याच्छायावयःपरिणतिद्रुतवात्ययाऽस्य ॥३५॥ शौर्यप्रमावसुवशीकृतसागरान्तभूराजसिंहचिररक्षितभूमिमागाः । सौराज्यभोगगिरयोऽपि विशीर्णशृङ्गाश्चूर्णीमवन्ति समयान्तरवज्रघातैः ॥३६॥ नेत्रं मनश्च भवदत्र कलत्रमिष्टं प्राणैः समं समसुखासुख मित्रपुत्रम् । व्येतीह पत्रमिव शुष्कमदृष्टवातादेवोऽप्युपैति हि भवे प्रियविप्रयोगम् ॥३७॥ पश्यन्नपि क्षणवि माजामङ्गादिकं स्वयममृत्युभयोऽयमगी। मोहान्धकारपिहितागमदृष्टिरिष्टं मार्ग विहाय विषयामिषगर्तमेति ॥३८॥ प्रत्यङ्गमङ्गजमतङ्गजसंगताङ्गः स्वाङ्गः स्पृशन् प्रियवधजनगात्रयष्टीः। धिक स्पर्शसौख्यविनिमीलितनेत्रभागो मातङ्गवद विषमबन्धमियर्ति मर्त्यः ॥३९॥ आहारमिष्टमिह पसभेदभिन्नमाहारयन् बहुविधं स्पृहयापदृष्टिः।
जिह्वावशो दलितशङ्कविलग्नांसपेशीप्रियश्चपलमीन इवैति बन्धम् यह शीघ्र विलीन हो गया है ॥३२॥ अपने-अपने परिणामोंके अनुसार संचित, अल्प प्रमाण परमाणुओंका राशिस्वरूप यह आयुरूप मेघ निःसार है इसीलिए तो मृत्युरूपी प्रचण्ड वायुके वेगका आघात लगते ही शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ॥३३॥ वज्ररूपी सन्धियोंके बन्धनसे युक्त यह प्राणियोंका उत्तम रचनासे सुशोभित नूतन एवं सुन्दर शरीररूपी मेघ, मृत्युरूपी पवनके प्रबल आघातसे क्षत-विक्षत हो असमर्थ होता हुआ विफल हो जाता है ॥३४॥ सौभाग्य, रूप और नवयौवन ही जिसका आभूषण है तथा जो पृथिवीके समस्त मनुष्योंके चित्त और नेत्रोंके लिए अमृतकी वर्षा करता है ऐसे इस शरीररूपी मेघको छाया, वृद्धावस्थारूपी तीव्र आंधीसे सूर्यको आच्छादित करनेवाली हो जाती है-नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है ॥३५॥ शौयं और प्रभावके द्वारा सागरान्त पृथिवीको अच्छी तरह वश करनेवाले बड़े-बड़े राजाओंके द्वारा जिनमें भूमि-भागोंकी चिर रक्षा की गयी है ऐसे उत्तम राज्यके भोगरूपी पर्वतोंके शिखर भी कालरूपी प्रचण्ड वज्रके आघातसे चूर-चूर हो जाते हैं ॥३६।। नेत्र और मनरूप होती हुई नेत्र और मनके समान प्यारी स्त्री तथा प्राणों के समान सख-दःखके साथी मित्र और पत्र इस संसारमें अदष्टरूपी वायसे प्रेरित हो सूखे पत्तेके समान नष्ट होते रहते हैं। मनुष्यकी तो बात ही क्या है देव भी इस संसारमें प्रियजनोंके वियोगको प्राप्त होता है ॥३७॥ अहो ! यह प्राणी, अन्य प्राणियोंके शरीर आदिको क्षणभंगुर देखता हुआ भी स्वयं मृत्यु के भयसे रहित है तथा इसकी शास्त्ररूपी दृष्टि मोहरूपी अन्धकारसे आच्छादित हो गयी है इसलिए यह इष्ट मार्गको छोड़कर विषयरूपी आमिषके गर्त में , पड़ रहा है ।।३८|| जिसका प्रत्येक अंग कामरूपो मत्त हाथीसे संगत है ऐसा यह मनुष्य अपने अवयवोंसे प्रिय स्त्रियोंके शरीरका स्पर्श करता हुआ उनके स्पर्शजन्य सुखसे निमीलित नेत्र हो मत्त-मातंगके समान विषय बन्धको प्राप्त होता है इसलिए इस स्पर्शजन्य सुखके लिए धिक्कार है ॥३९॥ जिसकी विवेक दृष्टि नष्ट हो गयी है ऐसा यह मनुष्य जिह्वा इन्द्रियके वशीभूत हो १. सपरिणाम- म., क. ख.। २. आयुरेव धनः। ३. शोघ्रम् । ४. बन्ध -म.। ५ वनरम्य म., ख.। ६. मेघीभव-म.।
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शोडशः सर्गः
घ्राणेन्द्रियप्रियसुगन्धिसुगन्धमन्धो' जङ्घाबलादिव विलङ्घिततृप्तिमार्गः । दुष्पाकमस्तधिषणो विषपुष्पगन्धमाघ्राय शीघ्रमघमेति यथा षडङ्घ्रिः ॥४१॥ चित्तद्रवीकरणदक्ष कटाक्षपातसस्मेरवक्त्रवनिताङ्गनिविष्टदृष्टिः । रूपप्रियोऽपि लमते परितापमुग्रं प्राप्तः पतङ्ग इव दीपशिखाप्रपातम् ॥ ४२ ॥ स्वेष्टाङ्गना मुखरनूपुरमेखला दिनानाविभूषणरवैः प्रियभाषणैश्च । संगीतकैश्च मधुरैर्हृतधीरधीरः श्रोत्रेन्द्रियैमृग इव म्रियते मनुष्यः ॥४३॥ संक्लिश्यते विषयभोगकलङ्कपङ्के यत्पुङ्गवां ततिरिहाल्पबला निमग्ना । चित्रं न तद् यदतिमज्जति वज्रकाय पुन्नागसंततिरितीदमतीव चित्रम् ॥ ४४ ॥ यः स्वर्गसौख्यजलधीनतिदीर्घकालं पीत्वाऽपि तृप्तिमगमद् बहुशो न जीवः । सौहित्यमल्पदिवसैः कथमस्य कुर्यात् भूलोकसौख्यले वलोल तृणोदबिन्दुः ॥४५॥ अग्नेरिवेन्धन महानिचयैर्न तृप्तिरम्भोनिधेरिव सदापि नदीसहसैः । जीवस्य तृप्तिरिह नास्ति तथानिषेव्यैः सांसारिकैरुपचितैरपि काम मोगैः ॥४६॥ भोगाभिलाषविषमाग्निशिखाकलापसंवृद्धये हि विषयेन्धनराशिरुच्चैः । तस्यैव तु प्रशमहेतुरिहैव तस्माद् व्यावृत्तिरिन्द्रियजिति स्थिरवारिधारा ४७ ॥ हित्वा ततो विषय सौख्यमसारभूतं शीघ्रं यतेऽहमिह मोक्षपथे सनाथे । स्वार्थ साध्य परमं प्रथमं परार्थ तीर्थप्रवर्त्तनमथ प्रथयामि तथ्यम् ॥ ४८ ॥
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इच्छापूर्वक छह प्रकारके रसोंसे युक्त नाना प्रकारके इष्ट आहारको ग्रहण करता हुआ वंशीके काँटेपर लगे मांस के लोभो मीनके समान बन्धको प्राप्त होता है ||४०|| जिस प्रकार निर्बुद्धि भ्रमर विषपुष्पको गन्धको सँघकर दुष्पाकसे युक्त मरणको प्राप्त होता है उसी प्रकार जंघाबलके कारण ही मानो तृप्ति मार्गको उल्लंघन करनेवाला यह मनुष्य घ्राणेन्द्रियको अच्छे लगनेवाले सुगन्धित पदार्थोंकी सुगन्धको सँघकर अन्धा होता हुआ दुष्परिणामसे युक्त पाप बन्धको प्राप्त होता है || ४१ || जिस प्रकार दीप - शिखापर पड़ा पतंग उग्र सन्तापको प्राप्त होता है उसी प्रकार रूपका लोभी यह प्राणी, चित्तको द्रवीभूत करने में दक्ष कटाक्ष और मन्द मन्द मुसकुराहटसे युक्त मुखसे सुशोभित स्त्रियों के शरीरपर दृष्टि डालता हुआ भयंकर सन्तापको प्राप्त होता है ||४२ || अपनी इष्ट स्त्रियोंके शब्दायमान नूपुर तथा मेखला आदि नाना प्रकारके आभूषणोंके शब्दों, प्रियभाषणों और मधुर संगीतों से जिसकी बुद्धि हरी गयी है ऐसा यह मनुष्य अधीर होता हुआ श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा मृगके समान मृत्युको प्राप्त होता है ||४३|| अल्प शक्तिके धारक क्षुद्र मनुष्योंका समूह विषय-भोगजन्य पापरूपी कीचड़ में फँसकर जो क्लेश उठाता है वह आश्चर्य नहीं है किन्तु वज्रमय शरीर के धारक श्रेष्ठ मनुष्यों का समुदाय भी जो उस पापपंक में अतिशय निमग्न हो रहा है यह अत्यधिक आश्चर्यकी बात है ||४४|| जो जीव अनेकों बार अत्यन्त दीर्घ काल तक स्वर्गके सुखरूपी सागरको पीकर भी तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ उसे भूलोक सम्बन्धी अल्प सुखरूपी तृणकी चंचल जलबिन्दु कुछ दिनों में कैसे सन्तुष्ट कर सकती है ? ॥ ४५ ॥
जिस प्रकार ईन्धनकी बहुत बड़ी राशिसे अग्निको तृप्ति नहीं होती और सदा गिरनेवाली हजारों नदियों से समुद्रको सन्तोष नहीं होता उसी प्रकार सेवन किये हुए संसार के संचित काम भोगों से जीवको तृप्ति नहीं होती ||४६ || निश्चयसे विषयरूपी ईन्धनकी बहुत बड़ी राशि, भोगाभिलाषारूपी विषम अग्निको ज्वालाओंकी वृद्धिका कारण है और इन्द्रियविजयी मनुष्यकी जो
विषयोंसे व्यावृत्ति है वह स्थिर जलधाराके समान उस विषमाग्निको शान्तिका कारण है || ४ || इसलिए मैं सारहीन विषयसुखको छोड़कर शीघ्र ही हितरूप मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति करता १. सन्धो म । २. - मणुलोल-ख । ३ तथाभिषेकैः म. ।
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हरिवंशपुराणे इत्थं मतिश्रुतयुतावधिबोधनेत्रे 'जाते स्वयंभुवि तदा स्वयमेव बुद्धे । आकम्पितासनमभूदमरेन्द्र वृन्दं सर्वार्थसिद्धिसुरपर्यवसानमाशु ॥४९॥ लौकान्तिका ललितकुण्डलहारशोभाः सारस्वतप्रभृतयो निभृताः सिताभाः । आगत्य मौलिमिलिताञ्जलयः किरन्तः पुष्पाञ्जलीनिति जिनं नुनुवुनमन्तः ॥५०॥ वर्धस्व नन्द जय जीव जिनेन्द्रचन्द्र ! विज्ञानरश्मिहतमोहतमोवितान । 'निर्बन्धुबन्धुतम ! भव्यकुमुदतीनां तीर्थस्य विंशतितमस्य हितस्य कर्ता ॥५॥ त्वं वर्त्तय त्रिभुवनेश्वर ! धर्मतीर्थ यत्रायमुग्रभवदुःखैशिखिप्रतप्तः । स्नास्वा जनस्त्यजति मोहमलं समस्तमहाय याति च शिवं शिवलोकमग्रयम् ॥५२॥ चारित्रमोहपरमोपशमात्प्रबुद्धं लौकान्तिका इति जिनं प्रतिबोधयन्तः । नान्यज गुर्निजनियोगनिवेदनेषु युक्ता हि यान्ति न पुनः पुनरुक्तदोषम् ॥५३॥ सौधर्मपूर्वविबुधाश्च चतुर्णिकाया नानाविमाननिवहस्थगितान्तरिक्षाः । संप्राप्य नाथममिषिच्य सुगन्धितोयैस्तं मषितं विदधुरद्भुतमषणाद्यैः ॥५४॥ पुत्रं च सुनतमसौ मुनिसुव्रतेशः प्राभावतेयमभिराज्यपदेऽभ्यषिञ्चत् । श्वेतातपत्रसितचामरविष्टराणि सोऽलञ्चकार हरिवंशनमःशशाङ्कः ॥५५॥ भूपोद्धता नभसि देवगणैरुदूढामारूढवान् सुरुचिरां शिविका विचित्राम् ।
यातो वनं विदितकार्तिकशुक्लपक्षे षष्ठोपवासकृदुपाश्रितसप्तमीकः ॥५६॥ हूँ और सबसे पहले अपना उत्कृष्ट प्रयोजन सिद्ध कर पश्चात् परहितके लिए यथार्थ तीर्थकी प्रवृत्ति करूंगा ॥४८|| इस प्रकार मति, श्रुत और अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंसे युक्त स्वयम्भू भगवान् जब स्वयं प्रतिबुद्ध हो गये तब सर्वार्थसिद्धि तकके समस्त इन्द्रोंके आसन शीघ्र ही कम्पायमान हो गये ।।४९।। उसी समय सुन्दर कुण्डल और हारोंसे सुशोभित, निश्चल मनोवृत्ति और श्वेत दीप्तिके धारक सारस्वत आदि लौकान्तिक देव आ गये और हाथ जोड़ मस्तकसे लगा पुष्पांजलियां बिखेरते हुए नमस्कार कर जिनेन्द्र भगवान्को इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥५०॥
हे जिनेन्द्र चन्द्र ! हे सम्यग्ज्ञानरूपी किरणोंसे मोहरूपी अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाले ! आप वृद्धिको प्राप्त हों, समृद्धिमान् हों, जयवन्त रहें, चिरकाल तक जीवित रहें, आप बन्ध रहित हैं, भव्य जीवरूपी कुमुदिनियोंके उत्तम बन्धु हैं और हितकारी बीसवें धर्मतीर्थके प्रवर्तक है ॥५१॥ हे त्रिलोकीनाथ! आप उस धर्मतीर्थको प्रवृत्ति करें जिसमें संसारके तीव्र दुःखरूपी अग्निसे सन्तप्त प्राणी स्नान कर समस्त मोहरूपो मलको छोड़ दें और शीघ्र हो आनन्ददायो उत्तम शिवालयको प्राप्त हो जावें ॥५२।। भगवान् , चारित्र मोहकर्मके परमोपशम (उत्कृष्ट क्षयोपशम) से स्वयं हो प्रतिबोधको प्राप्त हो गये थे इसलिए उन्हें उक्त प्रकारसे सम्बोधते हुए लौकान्तिक देवोंने अन्य कुछ नहीं कहा सो ठोक ही है क्योंकि योग्य मनुष्य अपने नियोगकी पूर्ति में कभी पुनरुक्त दोषको प्राप्त नहीं होते ॥५३।। उसी समय नाना विमानोंके समूहसे आकाशको आच्छादित करते हुए सौधर्मेद्र आदि चारों निकायके देव आ पहुँचे। आकर उन्होंने सुगन्धित जलसे भगवान्का अभिषेक किया और आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले, उत्तमोत्तम आभषण आदिसे उन्हें अलंकृत किया ।।५४|| भगवान् मुनिसुव्रतनाथने अपनी प्रभावती स्त्रोके पुत्र सुव्रतका राज्यपदपर अभिषेक किया और हरिवंशरूपी आकाशमें चन्द्रमाके समान सुशोभित सुव्रतने भी सफेद छत्र, सफेद चामर तथा सिंहासनको अलंकृत किया ॥५५।। तदनन्तर पहले जिसे भूमिपर राजाओंने उठाया था और उसके बाद जिसे देवलोग आकाशमें उठा ले गये थे ऐसी अतिशय सुन्दर विचित्र १. ज्ञाने । २. निर्बन्ध-क. । ३. दुःखाग्नि । ४. योग्याः । ५. प्रभावत्याः अपत्यं पुमान् प्राभावतेयः तम् ।
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षोडशः सर्गः
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भूभृत्सहस्रपरिवारभृदेष बभ्रे दीक्षां समक्षमखिलस्य जगत्त्रयस्य । तन्मूर्धजानधिनिधाय निजोत्तमाङ्गे शक्रश्चकार विधिना सुपयःपयोधौ ॥५७॥ कृत्वामराश्च जिननिष्क्रमणं तृतीयकल्याणपूजनममी जगुरीश्वरोऽपि । ज्ञानेश्चतुभिरनुगैश्च सहस्रसंख्येस्तैः पार्थिवैदिनमणिः किरणैरिवाभात् ॥५४॥ षष्ठोपवासिनि परेद्यरिनेऽवतीर्ण भिक्षाविधिप्रकटनाय कुशाग्रपुर्याम् ।। भिक्षां ददौ वृषभदत्त इति प्रसिद्धः 'सत्यायसं सविधिना मुनिसुव्रताय ॥५१॥ स्वाधीनमप्रतिहतं स्थितिभुक्तियुक्तं सत्पाणिपात्रमधिपेन विधानपूर्वम् । प्रावर्ति वर्तनसुवर्तनसाधुयोग्यं तीर्थे निजे स्थितिविदा जिलभास्करेण ॥६०॥ चित्रं तदा हि परमान्नमृषीन्द्रपाणी शुद्धयान्वितेन ददता परिनिष्टशेषम् । शेषैरशेषयतिभिश्च सहस्रसंख्यैर्वोभुज्यमानमपरैश्च ययौ न निष्टा ॥६१॥ नेदुस्ततस्त्रिदशदुन्दुभयो निनादाः साधुस्वनः सकलमम्बरमाततान । वायुर्ववौ सुरभिरद्भुतपुष्पवृष्टिर्योम्नः पपात महती वसुनश्च धारा ॥२॥ आश्चर्यपञ्चकमिदं चिरमम्बरस्था देवा विकृत्य परमं परदुर्लभं ते । संपूज्य दानपतिमर्जितपुण्यपुञ्ज जग्मुर्जिनोऽपि विजहार विहारयोग्यम् ॥६३॥ छद्मस्थकालमतिवाह्य समासवर्ष संमार्गशीर्षसुतिथिं सितपञ्चमी तु ।
ध्यानाग्निदग्धघनघातिसमित्समृद्धिः कैवल्यलामविभवेन चकार पूताम् ॥६॥ पालकीपर आरूढ़ होकर भगवान् वनमें गये तथा वहाँ कार्तिक शुक्ल सप्तमीके दिन वेलाका नियम लेकर दीक्षा लेने के लिए उद्यत हए॥५६॥ उस समय एक हजार राजाओंके साथ भगवान्ने समस्त जगत् त्रयके समक्ष दीक्षा धारण की। उन्होंने अपने शिरके केश उखाड़कर फेंक दिये और इन्द्र ने उन केशोंको पिटारेमें रखकर विधिपूर्वक क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया ।।५७|| इस प्रकार देव, भगवान्का निष्क्रमणकल्याणक तथा उसकी पूजा कर यथास्थान चले गये और भगवान् भी चार ज्ञानों तथा एक हजार अनुगामी राजाओंसे उस तरह सुशोभित होने लगे जिस तरह कि एक हजार किरणोंसे सूर्य सुशोभित होता है ।।५८|| वेलाका उपवास धारण करनेवाले भगवान् जब आगामी दिन, आहारकी विधि प्रकट करनेके लिए कुशाग्रपुरोमें अवतीर्ण हुए तब वृषभदत्त नामसे प्रसिद्ध पुरुषने उन्हें विधिपूर्वक खोरका आहार दिया ||५९|| उस समय मर्यादाके जाननेवाले भगवान् मुनिसुव्रतरूपी सूर्यने अपने तीर्थमें निर्दोष चारित्रके धारक मुनियोंके योग्य आहारकी वह विधि प्रवृत्त की जो स्वाधीन थी, बाधासे रहित थी, खड़े होकर जिसमें भोजन करना पड़ता था, जिसमें पाणिपात्रमें भोजन होता था और दानपति जिसमें विधिपूर्वक भोजन प्रदान करता था ॥६०॥ आश्चर्यकी बात थी कि उस समय शुद्धिसे सहित वृषभदत्तने मुनिराजके हाथमें जो खीर दी थी उससे बाकी बची खोरको हजारोंको संख्यामें अन्य मुनियोंने खाया तथा घरके अन्य लोगोंने भी बार-बार ग्रहण किया फिर भी वह समाप्तिको प्राप्त नहीं हुई ॥६१।। तदनन्तर विशाल शब्द करते हुए देव दुन्दुभि बजने लगे. धन्य-धन्यके शब्दने समस्त आकाशको व्याप्त कर दिया. सगन्धित वाय,
लगी, आश्चर्यकारी फूलों की वर्षा होने लगो और आकाशसे बड़ी मोटी रत्नोंकी धारा पड़ने लगी ॥६२।। दूसरोंके लिए अतिशय दुर्लभ इस पंचाश्चर्यको आकाशमें खड़े देवोंने चिरकाल तक किया। तदनन्तर पुण्यराशिका संचय करनेवाले दानपतिकी पूजा कर वे देव लोग यथास्थान चले गये और भगवान् भी विहारके योग्य स्थानमें विहार कर गये ॥६३।। तत्पश्चात् तेरह महीनेका छद्मस्थ १. सत्पात्रसं म.। २. शुद्धान्वितेन । ३. -रशेषपतिभिश्च । ४. समाप्तिम् । ५. त्रयोदशमासात्मकम् । ६. पूतम् म.।
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हरिवंशपुराणे साक्षाच्चकार युगपत्सकलं स मेयमेकेन केवलविशद्ध विलोचनेन । नाथस्तदा न हि निरावरणो विवस्वानभ्युद्गतः क्रमसहायपरः प्रकाश्ये ॥६५॥ नेमुः ससप्तपदमेत्य निजासनेभ्यः सर्वेऽहमिन्द्र निवहाः कृतमौलिहस्ताः । तं प्रापुरभ्युदिततोषविशेषचित्ताः शेषा महेन्द्रसरसन्ततयः समन्तात् ॥६६॥ भक्त्याऽर्चयन् त्रिभुवनेश्वरमानवेन्द्रास्तं देवमभ्युदितचम्पकचैत्यवृक्षम् । सत्प्रातिहार्यविभवातिविशेषरूपमार्हन्त्यमद्भुतमचिन्त्यमनन्तमेतम् ॥६७॥ स द्वादशस्वथ गणेपु निषण्णवत्सु स द्वादशाङ्गमनुयोगपथं जिनेन्द्रः । धर्म विशाखगणिना विनयेन पृष्टः संमाष्य तीर्थमवनौ प्रकटं प्रचक्रे ॥६८॥ कल्याणपूजन मिनस्य तुरीयमिन्द्राः कृत्वा यथायथमगुः प्रणिपातपूर्वम् । देशान् जिनोऽपि विजहार बहून् बहूनां धर्मामृतं तनुभृतां धनवत्प्रवर्षन् ॥१९॥ अष्टौ च विंशतिरिनस्य जिनेन्द्रचर्याः क्रोडीकृताखिलचतुर्दशपूर्वशास्त्राः । त्रिंशत्सहस्रगणना परिषद् यतीनां नानागुणैरजनि सप्तविधः स संघः ॥७॥ स्युस्तत्र पञ्चशतपूर्वधरा यतीशा एकादिविंशतिसहस्रमिदाश्च शिक्षाः। अष्टादशैव गदितानि शतानि तेपु प्रत्येकमस्य मुनयोऽवधिकेवलाप्ताः ॥७१॥ द्वाविंशतिर्यतिशतानि तु वैक्रियाख्यास्तान्येव पञ्चदश ते विपुलास्तु मत्या।
स्यादशैव हि शतानि विवान्तवैराः सद्वादिनो मुनिपतेः प्रथिताः समायाम् ॥७२॥ काल बिताकर भगवान्ने ध्यानरूपी अग्निके द्वारा घातिया कमरूपी ईन्धनकी विपुल राशिको दग्ध कर केवलज्ञानकी प्राप्तिसे मगसिर मासकी शुक्ल पंचमी तिथिको पवित्र किया ॥६४।। अब केवलज्ञानरूपी एक ही विशुद्ध लोचनसे भगवान् समस्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष देखने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जब निरावरण सूर्यका उदय होता है तब वह प्रकाशित करने योग्य पदार्थोके विषय में न तो क्रमकी अपेक्षा करता है और न दूसरेकी सहायताकी ही अपेक्षा करता है ॥६५॥ उस समय समस्त अहमिन्द्रोंने अपने-अपने आसनोंसे सात-सात डग आगे चलकर तथा हाथ जोड़ मस्तकसे लगा जिनेन्द्र भगवान्को परोक्ष नमस्कार किया और जिनके चित्तमें विशेष हर्ष प्रकट हो रहा था ऐसे शेष समस्त इन्द्र तथा देव सब ओरसे वहाँ आये ||६६|| जिनके चम्पक नामक चैत्य वृक्ष प्रकट हुआ था, जो अष्ट प्रातिहार्यरूपी वैभवसे अतिशय सुन्दर थे, और जो आश्चर्यकारी अचिन्त्य एवं अन्तातीत आहंन्त्य पदको प्राप्त थे ऐसे देवाधिदेव मुनिसुव्रतनाथको, तीनों लोकोंके स्वामी तथा राजाओंने भक्तिपूर्वक पूजा को ॥६७॥
तदनन्तर जब बारह गण बारह सभाओं में यथास्थान बैठ गये तब विशाख नामक गणधरने विनयपूर्वक अनुयोग द्वारसे द्वादशांगका स्वरूप पूछा उसके उत्तरमें भगवान्ने धर्मका निरूपण कर पृथिवीपर तीर्थ प्रकट किया ॥६८॥ इन्द्रादि देव भगवान्के चतुर्थं कल्याणककी पूजा कर नमस्कार करते हुए यथास्थान चले गये और भगवान् भी अनेक प्राणियोंके लिए धर्मामृतकी वर्षा करते हुए अनेक देशों में विहार करने लगे ॥६९।। भगवान् मुनिसुव्रतनाथके सम्पूर्ण चौदह पूर्वोको जाननेवाले अट्ठाईस गणधर थे, और तीस हजार मुनि थे। भगवान्का यह संघ नाना गुणोंसे सात प्रकारका था ॥७०॥ उस संघमें पांच सौ मुनिराज पूर्वधारो थे, इक्कीस हजार शिक्षार्थी थे, अठारह सो अवधिज्ञानी थे, इतने ही केवलज्ञानी थे, बाईस सौ विक्रियाऋद्धिके धारक थे, पन्द्रह सौ विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानके धारक थे, बैर को दूर करनेवाले बारह सौ प्रसिद्ध वादी थे, पचास हजार आर्यिकाएँ थीं, एक लाख अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक थे, और १. मेकं म.।
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षोडशः सर्ग:
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पञ्चाशदात्मकसहस्रमिदास्तदार्या: शिक्षागुणवतधरा गृहिणोऽपि लक्षाः । सम्यक्त्वपूतमनसो वनितास्त्रिलक्षाः सभ्योडुभिः परिवृतश्च बभौ जिनेन्दुः ॥७३॥ त्रिंशद्गुणप्रथितवर्षसहस्रजीवी प्राक् पञ्चसप्ततिशताब्दकुमारकालः । राज्येऽपि पञ्चदशवर्षसहस्रमोगी सत्संयमेन विजहार स शेषकालम् ॥७४॥ अन्ते स सम्मदविधायिवनान्तकान्तं सम्मेदशैलमधिरुह्य निरस्तबन्धः । बन्धान्तकृन्मुनिसहस्रयुतो जगाम मोक्षं महामुनिपतिर्मुनिसुव्रतेशः ॥७५॥ माधत्रयोदशतिथौ सितपक्षभाजि मासोपसंहृतविहारविसृष्टदेहे ।। स्थित्वाऽपराह्नसमये वरपुष्ययोगे सिद्धे जिने ननु महं विदधुः सुरेन्द्राः ॥७६॥ षड्वर्षलक्षपरिमाणमिनस्य तस्य प्रावर्त्तत प्रविततं मुवि धर्मतीर्थम् । विद्यावबोधबुधितार्थमुनिप्रभाव देवागमाविरतिवद्धितलोकहर्षम् ॥७७॥ विंशस्य तस्य चरितस्य जिनस्य लोके कल्याणपञ्चकविभूति विभावयन् यः । भक्त्या शृणोति पठति स्मरतीदमस्मिन् मन्यो जनो भजति सिद्धि सुखं स शीघ्रम् ॥७८॥ एवं वसन्ततिलकप्रचुरप्रसूनमालामिमां समधिरोप्य विनूतवृत्तः । विघ्नान् विधूय विदधातु समाधिबोधी धीरो जिनो जितमवो मुनिसुव्रतो नः ॥७९॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती मुनिसुव्रतनाथपञ्चकल्याणवर्णनो
नाम षोडशः सर्गः ।
सम्यग्दर्शनसे पवित्र हृदयको धारण करनेवाली तीन लाख श्राविकाएं थीं। इन सभासद रूपी नक्षत्रोंसे घिरे हुए भगवानरूपी चन्द्रमा अतिशय सुशोभित हो रहे थे ॥७१-७३।। भगवान्की पूर्ण आयु तीस हजार वर्षकी थी, उसमें साढ़े सात हजार वर्षका कुमारकाल था, पन्द्रह हजार वर्ष तक उन्होंने राज्यका भोग किया और शेष साढ़े सात हजार वर्ष तक संयमी होकर विहार किया ||७४।। महामुनियोंके अधिपति मुनिसुव्रत भगवान् आयुके अन्त समयमें हर्षको उत्पन्न करनेवाले वन-खण्डोंसे सुशोभित सम्मेदाचलपर आरूढ़ होकर कर्मोके बन्धसे रहित हुए और बन्धका नाश करनेवाले एक हजार मुनियोंके साथ वहींसे मोक्ष गये ॥७५॥ मोक्ष जानेके एक माह पूर्व भगवान्ने विहार आदि बन्द कर योगनिरोध कर लिया था तथा माघ शुक्ला त्रयोदशीके दिन अपराह्न कालमें पुष्य नक्षत्रका उत्तम योग रहते हुए पद्मासनसे मोक्ष प्राप्त किया था। मुक्त होनेपर इन्द्रने निर्वाणकल्याणककी पूजा की थी ॥७६॥ भगवान मनिसुव्रतनाथका धर्मतीर्थ पृथिवीपर छह लाख वर्ष तक अखण्ड रूपसे चलता रहा। उनके तीर्थमें विद्याओंका परिज्ञान होनेसे मुनियोंका पूर्ण प्रभाव था, और देवोंका निरन्तर आगमन होते रहनेसे लोगोंका हर्ष बढ़ता रहता था ॥७७।। गौतम स्वामी कहते हैं कि संसारमें जो भव्य प्राणी बीसवें तीर्थंकरके पंचकल्याणकविभूतिसे युक्त इस चरितका चिन्तवन करता है, भक्तिसे इसे सुनता है, पढ़ता है, और इसका स्मरण करता है वह शीघ्र ही मोक्षके सुखको प्राप्त होता है ।।७८। जिनसेनाचार्य कहते हैं कि इस तरह वसन्ततिलका छन्दसे निर्मित (पक्षमें वसन्तऋतुके श्रेष्ठ नाना पुष्पोंसे निर्मित) पुष्पोंकी माला समर्पित कर जिनके चरित्रको स्तुति की गयी है वे संसारको जीतनेवाले धीर-वीर मुनिसुव्रत जिनेन्द्र विघ्नोंको नष्ट कर हमारे लिए समाधि (चित्तकी स्थिरता ) और बोधि ( रत्नत्रयकी प्राप्ति ) करावें ॥७९।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मुनिसुव्रतनाथ
भगवान्के पंचकल्याणकोंका वर्णन करनेवाला सोलहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१६॥
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सप्तदशः सर्गः
बभूव हरिवंशानां प्रभुर्वइयवसुंधरः । अरिषड्वर्गजिन्मार्गस्त्रिधर्मस्य स सुव्रतः ॥१॥ स दक्षं दक्षनामानं पुत्रं कृत्वा निजे पदे । दीक्षितः स्वपितुस्तीर्थ प्राप मोक्षं तपोबलात् ॥२॥ ऐलेयाख्यमिलायां स दक्षः पुत्रमजीजनत् । मनोहरी च तनयामर्णवोऽपि यथा श्रियम् ॥३॥ ववृधेऽनुकुमारं च कुमारी नेत्रहारिणी। सानुचन्द्रं यथा कान्तिः कलागुणविशेषिणी ॥४॥ यौवनेन कृताश्लेषा कृशमध्यावभासते । स्तनमारेण गुरुणा जघनेन च भारिणा ॥५॥ 'स्वाधीने सति रूपास्त्रे तस्या धीरमनोमिदि। मनोभवोऽत्यजत्स्वेषु कुसुमास्त्रपु गौरवम् ॥६॥ तद्रूपास्त्रविमोक्षेण मनोभूरेकरोद् भृशम् । दक्षस्थापि मनोभेदमन्येषां नु किमुच्यताम् ॥७॥ कन्यया हृतचित्तश्च ततो दक्षः प्रजापतिः । आहूय च्छद्मना सद्म पप्रच्छ प्रणताः प्रजाः ॥८॥ पृष्टा वदत यूयं मे सज्जना जगति स्थितिम् । अविरुद्धं विचार्यह विश्वे विदितवृनयः ॥९॥ यद्वस्तु भुवनेऽनध्य हस्त्यश्ववनितादिकम् । प्रजानुचितमेतस्य राजा विभुरहो न वा ॥१०॥ केचिदूचुर्जनास्तत्र विचार्य चिरमात्मनि । यत्प्रजानुचितं देव ! तत्प्रजापतये हितम् ॥११॥ यथा नदीसहस्राणां सद्रत्नानां च सागरः । आकरोऽनघरत्नानां तथैवात्र प्रजापतिः ॥१२॥
अथानन्तर भगवान् मुनिसुव्रतनाथके पुत्र सुव्रत हरिवंशके स्वामी हुए। उन्होंने समस्त पथिवीको वश कर लिया था. काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सयं इन छह अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया था, तथा वे धर्म अर्थ काम रूप त्रिवर्गके मार्ग-प्रवर्तक थे ॥१॥ उनके दक्ष नामका अतिशय दक्ष-चतुर पुत्र था। वे उसे अपने पदपर नियुक्त कर अपने ही पिताके समीप दीक्षित हो गये और तपोबलसे मोक्ष चले गये ॥२॥ राजा दक्षने इला नामक रानीमें ऐलेय नामका पुत्र उत्पन्न किया और उसके बाद जिस प्रकार समुद्र ने लक्ष्मीको उत्पन्न किया था उसी प्रकार मनोहरी नामकी पुत्रीको उत्पन्न किया ॥३॥ जिस प्रकार चन्द्रमाके साथ-साथ कलारूपी गुणसे युक्त उसकी कान्ति बढ़ती जाती है उसी प्रकार कुमार ऐलयके साथ-साथ कलारूपो गुणसे युक्त नेत्रोको हरण करनेवाली कुमारी मनोहरी दिनों-दिन बढ़ने लगी ।।४। जब वह यौवनवती हुई तब उसकी कमर पतली हो गयी और वह स्थूल स्तनोंके भार तथा विस्तृत नितम्ब स्थलसे अतिशय सुशोभित होने लगी ।।५।। धीर-वीर मनुष्योंके मनको भेदन करनेवाले उसके सौन्दर्यरूपी अस्त्रके स्वाधीन रहते हुए कामदेवने अपने पुष्पमयी बाणोंका गर्व छोड़ दिया था ॥६।। उसके सौन्दर्यरूपी शस्त्रको छोड़कर कामदेवने राजा दक्षके भी मनको भेद दिया फिर अन्य पुरुषोंकी तो बात ही क्या कही जाये? ॥७॥
तदनन्तर कन्याके द्वारा जिसका चित्त हरा गया था ऐसे दक्ष प्रजापतिने एक दिन किसी छलसे नम्रीभूत प्रजाको अपने घर बलाकर उससे पूछा कि हे सज्जनो! आप सब व्यवहारके ज्ञाता हैं। मैं आप लोगोंसे एक बात पूछता हूँ सो आप सब जगत्की स्थितिका पूर्वापरविरोध रहित विचारकर उत्तर दीजिए ॥८-९॥ बात यह है कि यदि हाथी, घोड़ा, स्त्री आदि कोई वस्तु संसारमें अमूल्य हो और प्रजाके योग्य न हो तो राजा उसका स्वामी हो सकता है या नहीं ? ॥१०॥ प्रजाजनोंमें कितने ही लोगोंने चिरकाल तक आत्मामें विचारकर कहा कि हे देव ! जो वस्तु प्रजाके लिए अयोग्य है वह राजाके लिए हितकारी है ॥११॥ जिस प्रकार समुद्र हजारों १. साधीने म., ग., घ., ड. । २. कामः । ३. हृतचित्तं स. म. ।
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सप्तदशः सर्गः
तद् यत्तव स्थितं चित्ते समस्ते वसुधातले । स्वाकरेषु समुत्पन्नं तद्रत्नं क्रियतां करे ॥ १३ ॥ एवं दक्षः प्रजावाक्यमाकर्ण्य विपरीतधीः । प्रजानुमतिकारित्वं प्रकाश्य विससर्ज ताः ॥ १४ ॥ ततः स दुहितुस्तस्य स्वयमेवाग्रहीत् करम् । कामग्रहगृहीतस्य का मर्यादा क्रमोऽपि कः ॥१५॥ इला देवी ततो रुष्टा पत्युः पुत्रमभेदयत् । तावद्भार्यादयो यावन्मर्यादासंस्थितः प्रभुः ॥ १६ ॥ इला चैलेयमावृत्य महासामन्तसंवृता । प्रत्यवस्थानमकरोदुर्ग देशमुपाश्रिता ॥ १७ ॥ त्रिविष्टपपुराकारं संनिविष्टं पुरं तथा । इलायां वर्धमानायामिला वर्धनसंज्ञया ॥ १८ ॥ ऐलेयः स्थापितो राजा रेजे तत्र प्रजावृतः । वीर्यधैर्यनयाधारो हरिवंश विशेषकः ॥ १९ ॥ पार्थिवेन सता तेन तामर्लि प्तिप्रसिद्धिकाम् । निवेशितं पुरं कान्तमङ्गदेशनिवासिना ॥२०॥ जिगीपता परान् देशान् नर्मदातटमीयुषा । मह्यां माहिष्मती ख्याता नगरी विनिवेशिता ॥२१॥ तत्र स्थितश्चिरं राज्यं कृत्वा प्रणतपार्थिवम् । पुत्रं कुणिमनामानं संस्थाप्य तपसे ययौ ॥ २२॥ कुणिमश्च विदर्भेषु विजिगीषुर्द्विषंतपः । कुण्डिनाख्यं पुरं चक्रे वरदायास्तटे वरे ॥ २३ ॥ कुणिमः क्षणिकं मत्वा जीवितं निजवैभवम् । 'पुलोमाख्ये सुते न्यस्य तपोवनमयात् स्वयम् ॥२४॥ पुलोमपुरमेतेन विनिवेशितमीशिना । श्रियं न्यस्य तपस्यागात् पौलोमचरमाख्ययोः ॥२५॥
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नदियों और उत्तम रत्नोंकी खान है उसी प्रकार राजा भी इस लोक में अनर्घ्य वस्तुओंकी खान है || १२ || इसलिए समस्त पृथिवीतल और उत्तमोत्तम खानोंमें उत्पन्न हुआ जो भी रत्न आपके चित्तमें है - जिसे आप प्राप्त करना चाहते हैं उसे हाथमें कीजिए || १३ || इस प्रकार विपरीत बुद्धधारक राजा दक्षने प्रजाके वचन सुन प्रकट किया कि जैसी आप लोगोंकी अनुमति है वैसा ही कार्य करूंगा - यह कहकर उसने प्रजाके लोगोंको विदा किया || १४ ||
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तदनन्तर उसने पुत्री मनोहरीका कर ग्रहण स्वयं ही कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि कामरूपी पिशाचसे गृहीत मनुष्यकी मर्यादा क्या है ? और क्रम क्या है ? भावार्थ - कामी मनुष्य सब मर्यादाओं और क्रमोंको छोड़ देता है || १५ || राजा दक्षकी रानी इला देवी, पतिके इस कुकृत्य से बहुत ही रुष्ट हुई इसलिए उसने पुत्रको पितासे फोड़ लिया - अलग कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि स्त्री आदि तभी तक है जब तक स्वामी मर्यादा में रहता है-मर्यादाका पालन करता है || १६|| बड़े-बड़े सामन्तोंसे घिरी इला देवी अपने ऐलेय पुत्रको लेकर दुर्गम स्थानमें चली गयी और वहीं उसने निवास करनेका निश्चय किया ||१७|| उसने स्वर्गपुरी के समान एक नगर बसाया जो बढ़ती हुई पृथिवीपर स्थित होनेके कारण इलावर्धन नामसे प्रसिद्ध था || १८ || ऐलेयको उसने उसका राजा बनाया सो प्रजासे सहित, वीर्य, धैर्य और नीतिका आधार तथा हरिवंश का तिलकस्वरूप राजा ऐलेय वहां अत्यधिक सुशोभित होने लगा ||१९|| राजा होनेपर अंग देशमें निवास करनेवाले ऐलेयने तामलिप्ति नामसे प्रसिद्ध एक सुन्दर नगर बसाया ||२०|| जब ऐलेय नाना देशको जीतने की इच्छा करता हुआ नर्मदा नदीके तटपर आया तो उसने पृथिवीपर प्रसिद्ध माहिष्मती नामकी नगरी बसायी ॥ २१ ॥ उस नगरी में रहकर राजा ऐलेयने चिरकाल तक नम्रीभूत राजाओंसे युक्त राज्य किया । तदनन्तर वह कुणिम नामक पुत्रके लिए राज्य सौंपकर तपके लिए चला गया ||२२|| विजयके अभिलाषी एवं शत्रुओंको सन्ताप देनेवाले कुणिमने विदर्भ देशमें वरदा नदी के किनारे कुण्डिन नामका सुन्दर नगर बसाया ||२३|| कुछ समय बाद कुणिमको जीवन क्षणभंगुर जान पड़ा इसलिए वह अपना वैभव पुलोम नामक पुत्रके लिए सौंपकर स्वयं तपोवनको चला गया ||२४|| राजा पुलोमने भी पुलोमपुर नामका नगर बसाया । अन्तमें वह पौलोम और
१. पतिः । २ मावृत्ता म., ख, ग, ड. । ३. इलया वर्धमानं यदि म
५. सुलोमाख्ये घ. ।
३२
। ४ -मलिप्तप्रसिद्धकम् घ ।
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हरिवंशपुराणे
जगत्प्रभावसंभारौ तावखण्डितमण्डलौ । सूर्याचन्द्रमसौ नित्यं विजिगीषू प्रतिग्यतुः ॥२६॥ ताभ्यामिन्द्रपुरं चक्रे रेवायाः सरितस्तटे । जयन्तीवनवास्यौ द्वे चरमेण पुरौ कृते ॥२७॥ संजयश्चरमस्यासीत् तनयो नयवित्तथा । पौलोमस्य महीदत्तस्तपस्थौ जनकौ च तौ ॥ २८ ॥ महीदत्तेन नगरं कृतं कल्पपुराख्यया । सोऽरिष्टनेमिमत्स्याख्यौ तनयावुदपादयत् ॥ २९ ॥ मत्स्यो भद्रपुरं जित्वा सेनया चतुरङ्गया । तथा हास्तिनपुरं प्रीतस्सोऽध्यतिष्ठत् प्रतापवान् ॥ ३० ॥ तस्य पुत्राः शतं 'जाताः शतमन्युसमाः क्रमात् । अयोधनादयो ज्येष्ठे राज्यं न्यस्य स दीक्षितः ॥३१॥ अयोधनसुतो मूलः शालस्तस्य सुतोऽभवत् । सूर्यस्तस्याभवत् सूनुस्तेन शुभ्रपुरं कृतम् ॥३२॥ तस्यासीत्त्वमरस्तेन वज्राख्यं पुरमाहितम् । देवदत्तस्ततो जातो देवेन्द्रसमविक्रमः ॥३३॥ मिथिलानाथमुत्पाद्य विदेहानामभूद्विभुः । हरिषेणस्ततो जज्ञे नमसेनस्तु तत्सुतः ॥ ३४ ॥ ततः शङ्ख इति ख्यातस्ततो भद्र इतीरितः । अभिचन्द्र स्ततश्चाभूदभिभूतरिपुद्युतिः ॥३५॥ विन्ध्यपृष्टेऽभिचन्द्रेण चेदिराष्ट्रमधिष्ठितम् । शुक्तिमत्यास्तटेऽधायि नाम्ना शुक्तिमती पुरी ॥ ३६ ॥ उग्रवंशप्रसूतायां वसुमत्यामभूद्वसुः । अभिचन्द्राद् यथार्द्धात्मा चन्द्रकान्तमहामणिः ॥३७॥ नाम्ना क्षीरकदम्बोऽभूत्तत्र वेदार्थविद्विजः । तस्य स्वस्तिमती पत्नी पर्वतस्तनयस्तयोः ॥ ३८॥ अध्यापितास्त्रयस्तेन वसुपर्वतनारदाः । सरहस्यानि शास्त्राणि गुरुणा धिषणावता ॥ ३९ ॥ आरण्यकमसौ वेदमरण्येऽध्यापयन् सुतान् । आकर्णयद् गिरं व्योम्नि मुनेराकाशगामिनः ॥४०॥ चरम नामक पुत्रोंके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपके लिए चला गया || २५ || पौलोम और चरमका प्रभाव समस्त जगत् में फैल रहा था तथा वे दोनों अखण्डित मण्डल - अखण्ड राष्ट्रके धारक थे इसलिए विजयको अभिलाषा रखते हुए वे दोनों निरन्तर सूर्य और चन्द्रमाको जीतते थे । सूर्य और चन्द्रमाका प्रभाव भी समस्त जगत् में फैला रहता है और वे अखण्ड मण्डल --- अखण्ड बिम्बके धारक होते हैं ||२६|| उन दोनोंने मिलकर रेवा नदीके तटपर इन्द्रपुर नामका नगर बसाया और चरमने जयन्ती तथा वनवास्य नामकी दो नगरियाँ बसायीं ||२७|| पौलोमके महीदत्त और चरमके संजय नामका नीतिवेत्ता पुत्र था । अन्तमें पौलोम और चरम दोनों ही तप करने लगे ||२८|| महोदत्तने कल्पपुर नामका नगर बसाया और अरिष्टनेमि तथा मत्स्य नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ||२९|| प्रतापी मत्स्य अपनी चतुरंग सेनासे भद्रपुर और हास्तिनपुरको जीतकर बड़ी प्रसन्नतासे हस्तिनापुर में रहने लगा ||३०|| उसके क्रम क्रमसे अयोधनको आदि लेकर इन्द्र के समान पराक्रमके धारक सौ पुत्र उत्पन्न हुए । अन्त में वह ज्येष्ठ पुत्रके लिए राज्य सौंपकर दीक्षित हो गया ||३१|| राजा अयोधनके मूल, मूलके शाल और शाल के सूर्य नामका पुत्र हुआ। सूर्यने शुभ्रपुर नामका नगर बसाया था ||३२|| सूर्यके अमर नामका पुत्र हुआ और उसने वज्र नामका नगर बसाया । अमरके देवेन्द्रके समान पराक्रमी देवदत्त नामका पुत्र हुआ ||३३|| देवदत्त मिथिलानाथके हरिषेण, हरिषेणके नभसेन, नभसेनके शंख, शंखके भद्र और भद्रके शत्रुओंकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाला अभिचन्द्र नामका पुत्र हुआ || ३४ - ३५ || अभिचन्द्रने विन्ध्याचल के ऊपर चेदिराष्ट्र की स्थापना की तथा शुक्तिमती नदी के किनारे शुक्तिमती नामकी नगरी बसायी || ३६ || अभिचन्द्रकी उग्रवंश में उत्पन्न वसुमती नामकी रानीसे वसु नामका पुत्र हुआ। वह वसु चन्द्रकान्त महामणिके समान आर्द्रहृदय था ।। ३७। उसी नगरीमें वेदार्थका बेला एक क्षीरकदम्ब नामका ब्राह्मण रहता था । उसकी खीका नाम स्वस्तिमतो था और उन दोनोंके पर्वत नामका पुत्र था ||३८|| बुद्धिमान् गुरु क्षीरकदम्बने वसु पर्वत और नारद इन तीन शिष्यों को गूढार्थं सहित समस्त शास्त्र पढ़ाये ||३९|| एक बार क्षीरकदम्बक वनमें उक्त तीनों पुत्रोंको आरण्यक वेद पढ़ा रहा था कि उसने
१. याताः म. ।
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सप्तदशः सर्गः
२५१ वेदाध्ययनसक्तानां मध्येऽमीषामधोगतिम् । गन्तारौ द्वौ नरौ पापाद् द्वौ पुण्यादूर्ध्वगामिनौ ॥४१॥ इत्युक्त्वा मुनिरन्यस्मै साधवेऽवधिलोचनः । करुणावान् गतः क्वापि ज्ञातसंसारसंस्थितिः ॥४॥ श्रुत्वा क्षीरकदम्बोऽपि वचनं शङ्किताशयः । विसृज्य सदनं शिष्यानपराह्वेऽन्यतो गतः ॥४३॥ अपश्यन्ती पति शिष्यान् पप्रच्छ स्वस्तिमत्यसौ । उपाध्यायो गतः पुत्राः ! कुतो ब्रूतेति शङ्किता ॥४४॥ तेऽब्रुवन्नहमेमीति वयं तेन विजिताः । आयात्येवानुमागे नो मातर्मामूस्त्वमुन्मनाः ॥४५॥ इति तेषां वचः श्रुत्वा तस्थौ स्वस्तिमती दिवा । रात्रावपि यदा चाऽसौ गृहं नागतवाँस्तदा ॥४६॥ गता सा शोकिनी बुद्ध्वा भत्तुराकूतमाकुला । ध्रुवं प्रबजितो विप्र इत्यरोदोच्चिरं निशि ॥४७॥ तमन्वेष्टुं प्रभाते तो गतौ पर्वतनारदौ । वनान्तेऽपश्यतां श्रान्तौ दिनैः कतिपयैरपि ॥४८॥ स निषण्णमधीयानं निर्ग्रन्थं गुरुसंनिधौ । पितरं पर्वतो दृष्टा दूरान्निववृतेऽशतिः ॥४९॥ मात्रे निवेद्य वृत्तान्तं तया दुःखितचित्तया । कृत्वा दुःखं विशोकाऽसौ तिष्ठति स्म यथासुखम् ॥५०॥ नारदस्तु विनीतास्मा गुरोः कृरवा प्रदक्षिणम् । प्रणम्याणुवती भूत्वा संभाष्य गृहमागतः ॥५१॥ 'आश्वास्य शोकसंतप्ता नवा पर्वतमातरम् । जगाम निजधामासौ नारदोऽतिविशारदः ॥५२॥ वसोरपि पिता राज्यं वसौ विन्यस्य विस्तृतम् । संसारसुखनिर्विण्णः प्रविवेश तपोवनम् ॥२३॥
आकाशमें किन्हीं चारण ऋद्धिधारी मुनिके निम्नांकित वचन सुने ।।४०॥ वे कह रहे थे कि वेदाध्ययनमें लगे हुए इन चार मनुष्यों के बीच में पापके कारण दो तो अधोगतिको जावेंगे और दो पुण्यके कारण ऊर्ध्वगति प्राप्त करेंगे ॥४१॥ जो अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे, दयालु थे और संसारको सब स्थिति जानते थे ऐसे वे मुनिराज साथके दूसरे मुनिसे इस प्रकार कहकर कहीं चले गये ।।४२॥ इधर मुनिराजके उक्त वचन सुनकर क्षीरकदम्बकका हृदय शंकित हो उठा। जब दिन ढल गया तो उसने शिष्योंको तो घर भेज दिया पर स्वयं अन्यत्र चला गया ।।४३॥ पतिको शिष्योंके साथ न देख स्वस्तिमतिने शंकित हो पूछा कि अरे शिष्यो! उपाध्याय कहाँ गये हैं ? बताओ ।।४४|| शिष्योंने कहा कि उन्होंने हम लोगोंको यह कहकर भेजा था कि मैं अभी आता हूँ। हे मां! वे मार्गमें पीछे आते ही होंगे, व्यग्र न होओ ॥४५।। शिष्योंके उक्त वचन सुन स्वस्तिमतो दिन-भर तो चुप बैठी रही परन्तु जब वह रात्रिको भी घर नहीं आया तो उसके शोककी सीमा नहीं रही। वह पतिका अभिप्राय जानती थी इसलिए जान पडता है ब्राह्मणने दोक्षा ले ली है, यह विचारकर वह चिरकाल तक रोती रही ।।४६-४७॥ प्रातःकाल होनेपर पर्वत और नारद उसे खोजनेके लिए गये। वे कितने ही दिन भटकते रहने से थक गये। अन्तमें उन्होंने देखा कि पिता क्षीरकदम्बक वनके अन्तमें गुरुके पास निर्ग्रन्थ मुद्रा में बैठकर पढ़ रहे हैं। पिताको उस प्रकार बैठा देखकर पर्वतका धैर्य छूट गया। उसने दूरसे ही लौटकर माताके लिए सब समाचार सुनाया। पर्वतके मुखसे पतिकी दीक्षाका समाचार जानकर ब्राह्मणी स्वस्तिमती बहुत दुःखी हुई। पर्वतने भी माताके साथ दुःख मनाया। अन्तमें धीरे-धीरे शोक दूर कर दोनों पहलेके समान सुखसे रहने लगे ।।४८-५०॥
पर्वत तो दूरसे चला आया था परन्तु नारद विनयी था इसलिए उसने गुरुके पास जाकर प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया, उनसे वार्तालाप कर अणुव्रत धारण किये और उसके बाद वह घर वापस आया ॥५१।। अतिशय निपुण नारदने आकर शोकसे सन्तप्त पर्वतकी माताको आश्वासन दिया, नमस्कार किया और उसके बाद अपने घरकी ओर प्रस्थान किया ।।५२।। तदनन्तर वसुके पिता राजा अभि चन्द्र भी संसारके सुखसे उदासीन हो गये इसलिए अपना विस्तृत राज्य वसुके
१.आशास्य म. ।
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हरिवंशपुराणे वसना वासवेनेव नवयौवनवर्तिना। वनितेव विनीतवं नीता नीतिविदावनिः ॥५४॥ नमःस्फटिकमूर्द्धस्थसिंहासनमधिष्टितम् । नभस्थमेव भूपास्तं दत्तास्थानमर्मसत ॥५५॥ भूमौ कीर्तिरभूत्तस्य महिम्ना धर्मजन्मना । अश्मोपरिचरस्यात्र वसोरन्वर्थतापुषः ॥५६॥ इक्ष्वाकुवंशजा जाया कुरुवंशोद्भवा परा । दशपुत्रास्तयोर्जावाः वसोर्वसुसमाः क्रमात् ॥५७॥ बृहद्वसुरिति ज्ञेयः पूर्वश्चित्रवसुः परः । वासवश्वार्कनामा च पञ्चमश्च महावसुः ॥५८॥ विश्वावसू रविः सूर्यः सुवसुश्च बृहद्ध्वजः । इत्यमी वसुराजस्य सुताः सुविजिगीषवः ॥५९॥ सुतैर्दशमिरन्योऽन्यप्रीतिबद्धमनोरथैः । इन्द्रियाथै रिवोपेतः पार्थिवः सुखमन्वभूत् ॥६॥ एकदा नारदश्छात्रैर्बहुभिश्छत्रिभिर्वृतः । गुरुवद्गुरुपुत्रेच्छः पर्वतं द्रष्टुमागतः ॥६॥ कृतेऽभिवादने तेन कृतप्रत्यभिवादनः । सोऽभिवाद्य गुरोः पत्नी गुरुसंकथया स्थितः ॥६॥ अथ व्याख्यामसौ कुर्वन् वेदार्थस्यापि गर्वितः । पर्वतः सर्वतश्छात्रवृतो नारसंनिधौ ॥६३॥ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र वेदवाक्ये विसंशयम् । अजगब्दः किलाम्नातः पश्वर्थस्यामिधायकः ॥६॥ तैरजैः खलु यष्टव्यं स्वर्गकामैरिह द्विजैः । पदवाक्यपुराणार्थपरमार्थविशारदैः ॥६५॥ प्रतिबन्धमिहान्धस्य तस्य चक्रे स नारदः। युक्त्यागमबलालोकध्वस्ताज्ञानतमस्तरः ॥६६॥ भट्टपुत्र ! किमित्येवमपव्याख्यामुपाश्रितः। कुतोऽयं संप्रदायस्ते सहाध्यायिन्नुपागतः ॥६॥
लिए सौंपकर तपोवनको चले गये ॥५३॥ नवयौवनसे मण्डित, नीतिका वेत्ता वसु इन्द्रके समान जान पड़ता था। उसने समस्त पृथिवीको स्त्रीके समान वशीभूत कर लिया था ॥५४॥ राजा वसु सभामें आकाशस्फटिकके ऊपर स्थित सिंहासनपर बैठता था इसलिए अन्य राजा उसे आकाशमें ही स्थित मानते थे॥५५॥ राजा वसु सदा आकाशस्फटिकपर चलता था और सदा सत्यका ही पोषण करता था इसलिए पृथिवीपर उसका यही यश फैल रहा था कि वह धर्मकी महिमासे आकाशमें चलता है ॥५६।। उसकी एक स्त्री इक्ष्वाकुवंशकी और दूसरी कुरुवंशकी थी। उन दोनोंसे उसके क्रमसे १ बृहद्वसु, २ चित्रवसु, ३ वासव, ४ अर्क, ५ महावसु, ६ विश्वावसु, ७ रवि, ८ सूर्य, ९ सवस और १० बहध्वज ये दश पूत्र हए। ये सभी पूत्र वसके ही समान अतिशय विजिगीषविजयाभिलाषी-पराक्रमी थे ॥५७-५९।। इन्द्रियोंके विषयोंके समान परस्परको प्रीतिसे युक्त इन दश पुत्रोंसे सहित राजा वसु अत्यधिक सुखका अनुभव कर रहा था ॥६॥
___अथानन्तर एक दिन बहुतसे छत्रधारी शिष्यों-से घिरा नारद, गुरुपुत्रको गुरुके समान मानता हुआ पर्वतसे मिलनेके लिए आया ।।६१।। पवंतने नारदका अभिवादन किया और नारदने पर्वतका प्रत्यभिवादन किया। तदनन्तर गुरुपत्नीको नमस्कार कर नारद गुरुजीकी चर्चा करता हआ बैठ गया ।।६२॥ उस समय पर्वत सब ओरसे छात्रोंसे घिरा वेद वाक्यकी व्याख्या कर रहा था सो नारदके सम्मुख भी उसी तरह गवसे युक्त हो व्याख्या करने लगा ॥६३॥ वह कह रहा था कि 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद वाक्यमें जो अज शब्द आया है वह निःसन्देह पशु अर्थका ही वाचक माना गया है ॥६४। इसलिए पद वाक्य और पुराणके अर्थके वास्तविक जाननेवाले एवं स्वर्गके इच्छुक जो द्विज हैं उन्हें बकरासे ही यज्ञ करना चाहिए ॥६५।। युक्तिबल और आगम बलरूपी प्रकाशसे जिसका अज्ञानरूपी अन्धकारका पटल नष्ट हो गया था ऐसे नारदने अज्ञानी पर्वतके उक्त अर्थपर आपत्ति की ।।६६।। नारदने पर्वतको सम्बोधते हुए कहा कि हे गुरुपुत्र ! तुम इस प्रकारकी निन्दनीय व्याख्या क्यों कर रहे हो? हे मेरे सहाध्यायी! यह सम्प्रदाय उन
१. अस्योपरि -म.। २. -रन्वर्थतायुषः म., क.। ३. बृहद्ध्वजाः म.। ४. युक्तागम- म.। युक्त्या. गमबलाल्लोक- ख.।
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सप्तदशः सर्गः
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एकोपाध्यायशिष्याणां नित्यमव्यभिचारिणाम् । गुरुशुश्रूषताऽत्यागे' संप्रदायभिदा कुतः ॥६॥ न स्मरत्यजशब्दस्य यथेहार्थो गुरूदितः । त्रिवर्षा व्रीहयोऽबीजा अजा इति सनातनः ॥६९॥ इत्युक्तोऽपि स दुर्मोचग्राहग्रहगृहीतधीः । सोऽनादृत्य व वस्तस्य प्रतिज्ञामकरोत्पुनः ॥७॥ किमत्र बहुनोक्तेन शृणु नारद ! वस्तुनि । पराजितोऽस्मि यद्यत्र जिह्वाच्छेदं करोम्यहम् ॥७१॥ नारदेन ततोऽवाचि किं दुःखाग्निशिखाती । पतङ्ग इव दुःपक्षः पर्वत ! पतसि स्वयम् ॥७२॥ पर्वतोऽपि ततोऽवोचद् यात' किं बहुजल्पितः । श्वोऽस्तु नौ वसुराजस्य सभायां जल्पनिस्तरः ॥७३॥ नष्टस्त्वं दृष्टं इत्युक्त्वा स्वावासं नारदोऽगमत् । पर्वतोऽपि च तां वातां मातुरातमतिर्जगौ ॥७॥ सा निशम्य हतास्मीति वदन्ती तान्तमानसा । निनिन्द नन्दनं मिथ्या त्वदुक्तमिति वादिनी ॥७५॥ नारदस्य वचः सत्यं परमार्थनिवेदनात् । वचस्तवान्यथा पुत्र ! विपरीतपरिग्रहात् ।।७६॥ समस्तशास्त्रसंदर्भगर्भनिर्भेदशुद्धधीः । पिता ते पुत्र ! यत्प्राह तदेवाख्याति नारदः ॥७७॥ एवमुक्त्वा निशान्ते सा निशान्तमगमद्वसोः । आदरणेक्षिता तेन पृष्टा चागमकारणम् ॥७८॥ निगद्य वसवे सर्व ययाचे गुरुदक्षिणाम् । हस्तन्यासकृतां पूर्व स्मरयित्वा गुरोगृह ॥७९॥ जानताऽपि स्वया पुत्र ! तत्त्वातत्त्वमशेषतः । पर्वतस्य वचः स्थाप्यं दृष्यं नारदभाषितम् ॥८॥ सत्येन श्रावितेनास्था वचनं वसुना ततः । प्रतिपन्नमतः सापि कृतार्थेव ययौ गृहम् ॥८॥
प्राप्त हुआ है ? ॥६७।। जो निरन्तर साथ-ही-साथ रहे हैं तथा जिन्होंने कभी गुरुको शुश्रूषाका त्याग नहीं किया ऐसे एक ही उपाध्यायके शिष्यों में सम्प्रदाय भेद कैसे हो सकता है ? ॥६८।। यहाँ अज शब्दका जैसा अर्थ गुरुजोने बताया था वह क्या तुम्हें स्मरण नहीं है ? गुरुजीने तो कहा था जिसमें अंकुर उत्पन्न होनेको शक्ति नहीं है ऐसा पुराना धान्य अज कहलाता है यही सनातन अर्थ है ॥६९।। दुःखसे छूटने योग्य हठरूपी पिशाचसे जिसकी बुद्धि ग्रस्त थी ऐसे पर्वतने नारदके इस प्रकार कहने पर भी अपना हठ नहीं छोड़ा प्रत्युत नारदके वचनोंका तिरस्कार कर उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि हे नारद ! अधिक कहनेसे क्या? यदि इस विषयमें पराजित हो जाऊँ तो अपनी जीभ कटा लें ॥७०-७१।। पश्चात् नारदने कहा कि हे पर्वत ! खोटा पक्ष लेकर, खोटे पंखोंसे युक्त पक्षीके समान दुःखरूपी अग्निकी ज्वालाओं में स्वयं क्यों पड़ रहे हो? इसके उत्तर में पर्वतने भी कहा कि जाओ बहुत कहनेसे क्या ? कल हम दोनोंका राजा वसुको सभामें शास्त्रार्थ हो जावे ॥७२-७३।। वितण्डावाद बढ़ते देख नारद यह कहकर अपने घर चला गया कि पर्वत ! मैं तुम्हें देखने आया था सो देख लिया. तम भ्रष्ट हो गये। नारदके चले जानेपर पर्वतने भी दुःखी होकर यह वृत्तान्त अपनी मातासे कहा ॥७४।। पर्वतकी बात सुनकर उसकी माताका हृदय बहुत दुःखी हुआ। 'हाय मैं मरी' यह कहती हुई उसने पर्वतको निन्दा को, उसके मुखसे बार-बार यही निकल रहा था कि तेरा कहना झठ है॥७५॥ हे पत्र! परमार्थका प्ररूपक होनेसे नारदका कहना सत्य है और विपरीत अर्थका आश्रय लेनेसे तेरा कहना मिथ्या है ।।७६॥ समस्त शास्त्रोंके पूर्वापर सन्दर्भके ज्ञानसे जिनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल थी ऐसे तेरे पिताने जो कहा था हे पुत्र ! वही नारद कह रहा है ॥७७॥ इस प्रकार पर्वतसे कहकर वह प्रातःकाल होते ही राजा वसुके घर गयो । राजा वसुने उसे बड़े आदरसे देखा और उससे आने का कारण पूछा ।।७८॥ स्वस्तिमतोने वसुके लिए सब वृत्तान्त सुनाकर पहले पढ़ते समय गुरुगृहमें उसके हाथमें धरोहररूपी रखो हुई गुरुदक्षिणाका स्मरण दिलाते हुए याचना की कि हे पुत्र ! यद्यपि तू सब तत्त्व और अतत्त्वको जानता है तथापि तुझे पर्वतके ही वचनका समर्थन करना चाहिए और नारदके वचनको दूषित ठहराना चाहिए ॥७९-८०॥
१. शुश्रूषता त्यागे म. । २. यातः म. । ३. सोऽस्तु म., क., ड. । ४. दुष्ट म. । ५. गृहम् ।
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हरिवंशपुराणे आस्थानीसमये तस्थौ दिनादौ वसुरासने । तमिन्द्रमिव देवौवाः क्षत्रियौघाः सिषेविरे ॥८॥ प्रविष्टौ च नृपास्थानी विप्रौ पर्वतनारदौ । सर्वशास्त्रविशेषज्ञैः प्राश्निकैः परिवारितौ ॥४३॥ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्या शूद्राः साश्रमिणोऽविशन् । लौकिकाः सहजं प्रष्टुमविशेषादृते सभाम् ॥८४॥ तत्सामानि जगुः केचिजनश्रोत्रसुखान्य लम् । तत्र प्रोच्चारगं मष्टं केचिद् विप्राः प्रचक्रिरे ॥८५॥ यजंषि प्रणवारम्भघोषभाजोपरेऽपठन् । पदक्रमजुषो मन्त्रानामनन्ति स्म केचन ॥८६॥ उदात्तस्यानुदात्तस्य स्वरस्य स्वरितस्य च । ह्रस्वदीर्घप्लुतस्थस्य स्वरूपमुदचीचरन् ॥८७॥ द्विजैः सामग्यजुर्वदमारभ्याध्ययनोदधुरैः । बधिरीकृतदिकचक्रनिचितं सदसोऽजिरम् ॥८॥ सिंहासनस्थमाशामिदंष्टोपरिचरं वसुम् । पोठमर्दैः सहासीनी विप्रो नारदपर्वतौ ॥८९॥ कूर्चप्रारोहिणस्तत्र कमण्डलुबृहत्फलाः । सवल्कलजटामारास्तस्थुस्तापलपादपाः ॥१०॥ सदः सागरसंक्षोमसेतुबन्धेषु केपुचित् । अपक्षपातस बन्धतुलादण्डेषु केषुचित् ॥११॥ उत्पथोत्यानवादोमस्वंकुशेषु च केषुचित् । निकपोत्पलकल्पेषु केषुचित्तत्वमार्गणे ॥१२॥ पण्डितेषु यथास्थानं निविष्टेषु यथासनम् । रूपं ज्ञानवयोवृद्धाः केचिदेवं व्यजिज्ञपन ॥१३॥
राजन् ! वस्तुविसंवादादिमो नारदपर्वतो। विद्वांसावागतौ पाव न्यायमार्गविद तव ॥१४॥ स्वस्तिमतीने चूंकि वसुको गुरुदक्षिणाविषयक सत्यका स्मरण कराया था इसलिए उसने उसके वचन स्वीकृत कर लिये और वह भी कृतकृत्यके समान निश्चिन्त हो घर वापस गयो ॥८१।।
तदनन्तर जब प्रातःकाल के समय सभाका अवसर आया तब राजा वसु सिंहासनपर आरूढ़ हुआ और जिस प्रकार देवोंके समूह इन्द्रकी सेवा करते हैं उसी प्रकार क्षत्रियों के समूह उसकी सेवा करने लगे ॥८२।। उसी समय सर्व शास्त्रोंके विशेषज्ञ प्रश्नकर्ताओंसे घिरे हए पर्वत और नारदने राजसभामें प्रवेश किया ।।८३।। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और आश्रमवासी भी आये तथा अन्य साधारण मनुष्य भी विशेष आमन्त्रण न होने पर भी सहज स्वभाववश प्रश्न करनेके लिए सभामें आ बैठे ॥८४|| उस समय राजसभामें कितने ही ब्राह्मण मनुष्योंके कानोंको सुख देनेवाले सामवेद गा रहे थे और कितने ही वेदोंका स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण कर रहे थे ॥८५।। कितने ही ओंकार ध्वनिके साथ यजुर्वेदका पाठ कर रहे थे और कितने ही पद तथा क्रमसे युक्त अनेक मन्त्रोंकी आवृत्ति कर रहे थे ॥८६॥ कितने ही ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भेदोंको लिये हुए उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरोंके स्वरूपका उच्चारण कर रहे थे ॥८७॥ जो ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको प्रारम्भ कर जोर-जोरसे पाठ कर रहे थे तथा जिन्होंने दिशाओंके समूहको बहिरा कर दिया था ऐसे ब्राह्मणोंसे सभाका आँगन खचाखच भर गया ।।८८॥ अन्तरीक्ष सिंहासनपर स्थित राजा वसुको आशीर्वाद देकर नारद और पर्वत अपने-अपने सहायकोंके साथ यथायोग्य स्थानोंपर बैठ गये ।।८९।। जो डाँडीरूपी अंकुरोंसे सहित थे तथा कमण्डलुरूपी बड़ेबड़े फल धारण कर रहे थे ऐसे वल्कल और जटाओंके भारसे युक्त अनेक तापसरूपी वृक्ष वहाँ विद्यमान थे ॥२०॥ उस समय जो पण्डित सभामें यथास्थान बैठे थे उनमें कितने ही सभारूपी सागरमें क्षोभ उत्पन्न होनेपर उसे रोकने के लिए सेतुबन्धके समान थे, कितने ही पक्षपात न हो सके इसके लिए तुलादण्डके समान थे, कितने हो कुमार्गमें चलनेवाले वादोरूपी हाथियोंको वश करने के लिए उत्तम अंकूशोके समान थे और कितने ही श्रेष्ठतत्त्वकी खोज करने के लिए कसोटी पत्थरके समान थे। जब सब विद्वान् यथास्थान यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये तब जो ज्ञान और अवस्था में वृद्ध थे ऐसे कितने ही लोगोंने राजा वसुसे इस प्रकार निवेदन किया ॥९१-९३।।
हे राजन् ! ये नारद और पर्वत विद्वान् किसो एक वस्तुमें विसंवाद होनेसे आपके पास १. तत्समानि म. । २. सामयजुर्वेद-म. । ३. रूपाः म. ।
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सप्तदशः सर्गः
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वैदिकार्थविचारोऽयं त्वदन्येषामगोचरः । विच्छिन्नमसंप्रदायानामिदानीमिह भूतले ।।९५॥ तदत्र भवतोऽध्यक्षममीषां विदुषां पुरः । लभेतां निश्चयादेतौ न्याय्यौ जयपराजयः ॥१६॥ न्यायेनावसिते ह्यत्र वादे वेदानुसारिणाम् । स्यात्प्रवृत्तिरसंदिग्धा सर्वलोक पकारिणी ।।९७॥ इत्युर्वीन्द्रः स विज्ञप्तः पूर्वपक्षमदापयत् । पर्वताय सदस्यैस्तैः सगर्वः पक्षमग्रहीत् ॥२८॥ अजैर्यज्ञविधिः कार्यः स्वर्गार्थिभिरिति श्रतिः । अजाश्चात्र चतुष्पादाः प्रणीताः प्राणिनः स्फुटम् ॥५९॥ न केवलमयं वेदे लोकेऽपि पशुवाचकः । आवृद्धादङ्गनाबालादजशब्दः प्रतीयते ।।१०॥ नरोऽजपोतगन्धोऽयमजायाः क्षारमित्यपि । नापनेतुमियं शक्या प्रसिद्विस्त्रिदशैरपि ॥१०॥ सिद्धशब्दार्थसंबन्धे नियत्ते तस्य बाधने । व्यवहारविलोप: स्यादन्धधूकमिदं जगत् ॥ १०२।। अबाधितः पुनाये शब्दे शब्दः प्रवर्तते । शास्त्रीयो लौकिकश्चात्र व्यवहारः सुगोचरे ॥६०३॥ यथाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ । अग्निप्रभृतिशब्दानां प्रसिद्धार्थपरिग्रहः ॥१०४॥ तथैवात्राजशब्दस्य पशुरर्थः स्फुटः स्थितः । कुत्र यागादिशब्दार्थः पशुपातश्च निश्चितः ।। १०५॥ अतोऽनुष्ठानमास्थेयम जपोतनिपातनम् । यजैयष्टव्यमित्यत्र वाक्यनिष्ठितसंशयः ।।१०६। आशङ्का च न कर्तव्या पशोरिह निपातने । दुःखं स्यादिति मन्त्रेण सुखमत्योर्न दुःखिता ॥१०॥ मन्त्राणां वाहने साक्षाद् दीक्षान्तेऽतिसुखासिका । मणिमन्त्रौषधीनां हि प्रभावोऽचिन्यतां गतः ।।१०८॥
आये हैं क्योंकि आप न्यायमार्गके वेत्ता हैं ॥९४॥ यह वैदिक अर्थका विचार इस समय पृथिवीतलपर आपके सिवाय अन्य लोगोंका विषय नहीं है क्योंकि उन सबका सम्प्रदाय छिन्न-भिन्न हो चुका है ।।९५॥ इसलिए आपकी अध्यक्षतामें इन सब विद्वानोंके आगे ये दोनों निश्चय कर न्यायपूर्ण जय और पराजयको प्राप्त करें ॥९६॥ न्याय द्वारा इस वादके समाप्त होनेपर वेदानुसारी मनुष्यों की प्रवृत्ति सन्देहरहित एवं सब लोगों का उपकार करनेवाली हो जायेगी ।।९७|| इस प्रकार वृद्धजनोंके कहनेपर राजा वसुने पर्वतके लिए पूर्व पक्ष दिलवाया अर्थात् पूर्वपक्ष रखनेका उसे अवसर दिया और अपने साथी सदस्योंके कारण गर्वसे भरे पर्वतने पूर्व पक्ष ग्रहण किया ॥२८॥ पूर्व पक्ष रखते हुए उसने कहा कि 'स्वर्गके इच्छुक मनुष्यों को अजों द्वारा यज्ञकी विधि करनो चाहिए' यह एक श्रुति है इसमें जो अज शब्द है उसका अर्थ चार पाववाले जन्तु विशेष-बकरा है ॥९९॥ अज शब्द न केवल वेदमें ही पशुवाचक है किन्तु लोकमें भी स्त्रियों और बालकोंसे लेकर वृद्धों तक पशुवाचक ही प्रसिद्ध है ।।१००। यह मनुष्य अजके बालकके समान गन्ध वाला है, और 'यह अजा -बकरीका दूध है' इत्यादि स्थलों में अज शब्दकी जिस अर्थमें प्रसिद्धि है वह देवोंके द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती ॥१०१॥ सिद्ध शब्द और उसके अर्थका जो सम्बन्ध पहलेसे निश्चित चला आ रहा है यदि उसमें बाधा डाली जावेगी तो व्यवहारका हो लोप हो जावेगा क्योंकि यह जगत् अन्ध उलूकोंसे सहित है—निर्विचार मनुष्योंसे भरा हुआ है ।।१०२।।
ब्द योग्य अर्थमें अवांछित रूपसे प्रवृत्त होता है और ऐसा होनेपर ही शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार चलता है ॥१०३॥ जिस प्रकार 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' स्वर्गका इच्छुक मनुष्य अग्निहोत्र यज्ञ करे, इस श्रुतिमें अग्नि आदि शब्दोंका प्रसिद्ध ही अर्थ लिया जाता है उसी प्रकार 'अजैर्यष्टव्यं स्वर्गकामैः' स्वर्गके इच्छुक मनुष्योंको अजोंसे होम करना चाहिए इस श्रुतिमे भी अजका पशु अर्थ हो स्पष्ट है और यागादि शब्दोंका अर्थ तो पशुधात निश्चित ही है ॥१०४-१०५॥ इसलिए 'अजैर्यष्टव्यम्' इत्यादि वाक्यों द्वारा निःसन्देह, जिसमें अजके बालकका घात होता है ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए ॥१०६।। यहाँ यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि घात करते समय पशुको दुःख होता होगा क्योंकि मन्त्रके प्रभावसे उसकी सुखसे मृत्यु होती है उसे दुःख तो नाम मात्रका भी नहीं होता ॥१०७॥ दीक्षाके अन्त में मन्त्रोंका उच्चारण होते ही पशुको सुखमय स्थान साक्षात्
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हरिवंशपुराणे निपातनं च कस्यात्र यत्रात्मा सूक्ष्मतां श्रितः ।' अबध्योऽग्निविषास्त्राद्यैः किं पुनमन्त्रवाहनैः ॥१०९॥ सूर्य चक्षुर्दिशं श्रोत्रं वायुं प्राणानसृपयः । गमयन्ति वपुः पृथ्वीं शमितारोऽस्य याज्ञिकाः ॥१०॥ स्वमन्त्रेणेष्टमात्रेण स्वलोकं गमितः सुखम् । याजकादिवदाकल्पमनल्पं पशुरश्नुते ॥११॥ अभिसंधिकृतो बन्धः स्वर्गाप्त्य सोऽस्य नेत्यपि । न बलाद्याज्यमानस्य शिशोद्विघृतादिभिः ॥११२॥ स्वरक्षमित्युपन्यस्य विरराम स पर्वतः । नारदस्तमपाक मित्युवाच विचक्षणः ॥१॥३॥ शृण्वन्तु मद्वचः सन्तः सावधानधियोऽधुना । पर्वतस्य वचः सर्व शतखण्डं करोम्यहम् ॥११४।। अजैरित्यादिके वाक्ये यन्मृषा पर्वतोऽब्रवीत् । अजाः पशव इत्येवमस्यैषा स्वमनीषिका ॥१५॥ स्वाभिप्रायवशाद् वेदे न शब्दार्थगतिय॑तः । वेदाध्ययनवत्साप्तादुपदेशमुपेक्षते ॥११॥ गुरुपूर्वक्रमादर्था द दृश्यः शब्दार्थनिश्चितः । सान्यथा यदि जायेत जायेताध्ययनं तथा ॥११७॥ अथाध्ययनमन्यत स्यादन्यत्स्यादर्थवेदनम् । स्थिते साधारणे न्याये कामचारगतिः कुतः ॥१८॥ शब्दस्याथ स्वतो वेत्ति प्रज्ञासातिशयोऽपि हि । न शब्दमिति शापोऽयं कुतः कस्यात्र दुस्तरः ॥११९॥
दिखाई देने लगता है सो ठीक ही है क्योंकि मणि, मन्त्र और ओषधियोंका प्रभाव अचिन्त्य होता है ॥१०८। जब कि आत्मा अत्यन्त मुक्ष्मताको प्राप्त है तब यहां घात किसका होता है ? यह आत्मा तो अग्नि, विष तथा अस्त्र आदिके द्वारा भी घात करने योग्य नहीं है फिर मन्त्र पाठोंके द्वारा तो इसका घात होगा ही किस तरह ? ॥१०९॥ याज्ञिक लोग यज्ञमें पशुका घातकर उसके चक्षुको सूर्यके पास, क्षेत्रको दिशाओंके पास, प्राणोंको वायुके पास, खूनको जलके पास और शरीरको पृथिवीके पास भेज देते हैं। इस तरह याज्ञिक उसे शान्ति ही पहुंचाते हैं न कि कष्ट । मन्त्र द्वारा होम करने मात्रसे ही पशु सीधा स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ यज्ञ करानेवाले आदिके समान वह कल्पकाल तक बहुत भारी सुख भोगता रहता है ॥११०-१११।। अभिप्रायपूर्वक किया हुआ पुण्यबन्ध ही स्वर्ग प्राप्तिका कारण है और बलपूर्वक होमे गये पशुके वह सम्भव नहीं है इसलिए उसे स्वर्गकी प्राप्ति होना असम्भव है, यह कहना भो ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार बच्चेको उसको उसकी इच्छाके विरुद्ध जबर्दस्ती दिये हुए घृतादिकसे उसकी वृद्धि देखी जातो उसी प्रकार यज्ञमें जबर्दस्ती होमे जानेवाले पशुके भी स्वर्गकी प्राप्ति देखी जाती है ॥११२।। इस प्रकार वह पर्वत अपना पूर्व पक्ष स्थापित कर चुप हो रहा तदनन्तर बुद्धिमान् नारद उसका निराकरण करने के लिए इस तरह बोला ॥११३॥
उसने कहा कि हे सज्जनो! सावधान होकर मेरे वचन सुनिए मैं अब पर्वतके सब वचनोंके सौ टुकड़े करता हूँ॥११४॥ 'अजैर्यष्टव्यम्' इत्यादि वाक्यमें पर्वतने जो कहा है वह झूठ है । क्योंकि अजका अर्थ पशु है यह इसकी स्वयंकी कल्पना है ॥११५॥ वेदमें शब्दार्थकी व्यवस्था अपने अभिप्रायसे नहीं होती किन्तु वह वेदाध्ययनके समान आप्तसे उपदेशकी अपेक्षा रखती है ।।११६।। कहनेका तात्पर्य यह है कि गुरुओंकी पूर्व परम्परासे शब्दोंके अर्थका निश्चय करना चाहिए। यदि शब्दार्थका निश्चय अन्यथा होता है तो अध्ययन भी अन्यथा हो जायगा ।।११७|| यदि यह कहा जाये कि अध्ययन दूसरा है और अर्थज्ञान उससे भिन्न हो सकता है तो यह कहना ठीक नहीं क्योंकि उभयत्र न्याय समान होने या एकके विषयमें मनमानी कैसे हो सकतो है ? भावार्थ-यदि अध्ययन गुरु-परम्पराको अपेक्षा रखता है तो अर्थज्ञान भी गुरु-परम्पराको अपेक्षा रखेगा यह न्यायसिद्ध बात है ॥११८।। यदि यह कहा जाये कि प्रज्ञाशाली मनुष्य ---- - ---- - --- ----------- १. नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। -भगवद्गीता २. दृश्यः शब्दार्थनिश्चितिः घ., म., ङ. । दृष्ट: शब्दार्थ -क. । ३. -मन्यः स्यादन्यः म.।
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सप्तदशः सर्गः
२५७
न चायं संप्रदायोऽस्मायेकस्मै गुरुणोदितः । त्रयः शिष्याः वयं योग्या वसुनारदपर्वताः ॥१२॥ समानश्रुतिकाः शब्दाः सन्ति लोकेऽत्र भूरिशः । गवादयः प्रयोगोऽपि तेषां विषयभेदतः ॥१२१॥ पशुरश्मिमृगाक्षाशावज्रवाजिषु वाग्भुवोः । गोशब्दव्यक्तयो व्यकाः प्रयुज्यन्ते पृथक्-पृथक् ॥१२२॥ न हि चित्रगुरित्यत्रं रश्मिवस्तुनि शेमुषी । न चौशीतगुरित्यत्र सास्नादिमति वर्तते ॥१२३॥ रूड्या क्रियावशावाच्ये वाचां वृत्तिरवस्थिता । तामस्थिरोपदेशास्तु विस्मरन्ति गुरूदितम् ।।१२४॥ तदा चोदनावाक्ये रूढिशब्दार्थदूरगः । क्रियाशब्दस्य चाम्नातो न जायन्त इति ह्यजाः ॥१२५॥ ऐश्चय रूढिशब्दस्य विद्भिर्लोकशास्त्रयोः । अजगन्धोऽयमित्यादौ प्रयोगो न निषिध्यते ॥ १२६॥ तेन पूर्वोक्तदोषोऽपि नैवास्माकं प्रसज्यते । व्यवहारोपयोगित्वाद् वाचां स्वोचितगोचरे ॥१२७॥ सत्यां क्षित्यादिसामग्यामप्ररोहादिपर्ययाः । बीहयोऽजाः पदार्थोऽयं वाक्यार्थो यजनं तु तैः ॥१२८॥ देवपूजा यजेरर्थस्तैरजैर्यजनं द्विजैः। नेवेद्यादिविधानेन यागः स्वर्गफलप्रदः ॥१२९॥
शब्दका अर्थ तो स्वयं जान लेता है पर शब्दको नहीं जान पाता तो यह दुस्तर शाप यहाँ किसके लिए किससे प्राप्त हुआ था सो बताओ। भावार्थ-यदि बुद्धिमान् मनुष्य अपनी इच्छासे शब्दके अर्थकी कल्पना कर लेता है तो उसे शब्द भी बना लेना चाहिए इसमें द्विविधाकी क्या बात है ? ||११९|| गुरुने यह सम्प्रदाय एक पर्वतके लिए ही बनाया हो यह भी सम्भव नहीं है क्योंकि हम वसु, नारद और पर्वत ये तीन योग्य शिष्य थे। भावार्थ -तीन शिष्योंमें-से एक शिष्यको गुरु दूसरा अर्थ बतलावें और शेषको दूसरा अर्थ यह सम्भव नहीं दिखता ||१२०।। लोकमें गोको आदि लेकर ऐसे बहत शब्द हैं जिनका समान श्रवण होता है-समान उच्चारण होता है परन्तु विषय-भेदसे उनका प्रयोग पृथक्-पृथक् होता है। जैसे गो शब्द-पशु, किरण, मृग, इन्द्रिय, दिशा, वच, घोड़ा, वचन और पृथिवी अर्थमें प्रसिद्ध है परन्तु सब अर्थों में उसका पृथक्-पृथक् ही प्रयोग होता है । 'चित्रगु' इस शब्दमें गोका किरण अर्थ कोई नहीं करता और 'अशीतगु' इस शब्दमें गो शब्दका अर्थ सास्नादिमान् पशु कोई नहीं मानता किन्तु प्रकरणके अनुसार 'चित्रगु' शब्दमें गोका अर्थ गाय और 'अशोतगु' शब्दमें किरण ही माना जाता है ॥१२१-१२३।। शब्दोंके अर्थ में जो प्रवृत्ति है वह या तो रूढ़िसे होती है या क्रियाके आधीन होती है परन्तु जिनके हृदय में गुरुका उपदेश चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता वे गुरु-प्रतिपादित अर्थको भूल जाते हैं ।।१२४|| इसलिए 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद-वाक्यमें अज शब्दका अथं रूढ़िगत अर्थसे दूर 'न जायन्ते इति अजाः' ( जो उत्पन्न न हो सकें वे अज हैं) इस व्युत्पत्तिसे क्रिया सम्मत 'तीन वर्षका धान्य' लिया गया है ॥१२५॥ विद्वान् लोग, लोक और शास्त्र दोनोंमें रूढ़ि शब्दके ऐश्वयंको जानते हैं अतः 'अजगन्धोऽयं पुरुषः' इत्यादि स्थलोंमें अज शब्दका बकरा अर्थमें प्रयोग निषिद्ध नहीं है ।।१२६।। पर्वतने जो पहले यह दोष दिया था कि यदि शब्दोंका स्वभावसिद्ध अर्थ न किया जायेगा तो व्यवहारका ही लोप हो जायेगा उसका हमारे ऊपर प्रसंग ही नहीं आता क्योंकि शब्दोंका अपने-अपने योग्य स्थलोंपर व्यवहारकी सिद्धिके लिए ही उपयोग किया जाता है ।। (२७।। इसलिए पृथिवी आदि सामग्रीके रहते हुए भी जिसमें अंकुरादि रूप पर्याय प्रकट न हो सके ऐसा तीन वर्षका पुराना धान अज कहलता है। यह तो अज शब्दका अर्थ है और ऐसे धान्यसे यज्ञ करना चाहिए यह 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्यका अर्थ है ।।१२८॥ यज धातुका अर्थ देव-पूजा है इसलिए द्विजोंको पूर्वोक्त धानसे ही पूजा करनी चाहिए क्योंकि नैवेद्य आदिसे को हुई पूजा ही स्वर्ग रूप फलको देनेवाली
१. चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः = चित्रवर्णगोयुक्तः । २. अशीता उष्णाः गावः किरणा यस्य सोऽशीतगुः= सूर्यः । ३. क्रियाशब्दसमाम्नातो म. । ४. यज देवपूजा-संगतिकरण-दानेषु । ५. निवेद्यादि-क., ड.।
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२५८
हरिवंशपुराणे षटकर्मणां विधातारं पुराणपुरुषं परम् । त्रातारमिन्द्रमिन्द्रेज्यं वेदे गीतं स्वयंभुवम् ॥१३०॥ देशकं मुक्तिमार्गस्य शोषकं भववारिधेः । अनन्त ज्ञानसौख्यादिमदीशाख्यं महेश्वरम् ॥१३॥ ब्रह्माणं विष्णुमीशानं सिद्धं बुद्ध मनामयम् । आदित्यवर्ण वृषभं पूजयन्ति हितैषिणः ॥१३२॥ ततः स्वर्गसुखं पुंसां ततो मोक्षसुखं ध्वम् । ततः कीर्तिस्ततः कान्तिस्ततो दीप्तिस्ततो तिः ॥१३॥ पिऐनापि न यष्टव्यं पशुत्वेन विकल्पितात् । संकल्पादशुमात्पापं पुण्यं तु शुभतो यतः ॥१३॥ यो नामस्थापनाद्रव्यैर्भावेन च विभेदनात् । चतुर्धा हि पशुः प्रोक्तस्तस्य चिन्त्यं न हिंसनम् ॥१३५॥ यदुक्तंमन्त्रतो मृत्योर्न दुःखमिति तन्मषा । न चेद दुःखं न मत्युः स्यात् स्वस्थावस्थस्य पूर्ववत् ॥१३६॥ पादनासाधिरोधेन विना चेनिपतत्वशः। मन्त्रेण मरणं तथ्यमसंभाव्यमिदं पुनः ॥१३७॥ सुखासिकापि नैकान्तान्मर्तमन्त्रप्रभावतः । दुःखिताप्यारटजन्तोहातस्य निरीक्ष्यते ॥१३८॥ सुसूक्ष्मत्वादवध्योऽयमात्मेति यदुदीरितम् । तन्न स्थूलशरीरस्थः स्थूलोऽपि संभवेद्यतः ॥१३९॥ प्रदीपवदयं देही देहाधारवशाद् यतः । सूक्ष्मस्थूलतया थाति स्वसंहारविसर्पणम् ॥१४॥ अनीदशस्तु संसारी शरीरानन्तवेदकः । सूक्ष्म एष कथंकारं सुखदुःखमवाप्नुयात् ॥१४१॥
अतः शरीरबाधायां मन्त्रतन्त्रास्त्रयोगतः । बाधनं नियमादस्य देहमात्रस्य देहिनः ॥१४२॥ होती है ।।१२९॥ हिताभिलाषी मनुष्य जिन्होंने युगके आदिमें असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मोकी प्रवृत्ति चलायी थी, जो पुराण पुरुष हैं, उत्कृष्ट हैं, रक्षक हैं, इन्द्ररूप हैं, इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं, वेदमें स्वयम्भू नामसे प्रसिद्ध हैं, मोक्ष मार्गके उपदेशक हैं, संसार-सागरके शोषक हैं, अनन्त ज्ञान-सुख आदि गुणोंसे युक्त ईश नामसे प्रसिद्ध हैं, महेश्वर हैं, ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं, ईशान हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, अनामय-रोगरहित हैं और सूर्यके समान वर्णवाले हैं ऐसे भगवान् वृषभदेवकी ही पूजा करते हैं ।।१३०-१३२।। उसी पूजासे पुरुषोंको स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, उसीसे मोक्षका अविनाशी सुख मिलता है, उसीसे कोर्ति, उसीसे कान्ति, उसीसे दीप्ति और उसीसे धृतिकी प्राप्ति होती है ।।१३३।। साक्षात् पशुकी बात तो दूर रही पशुरूपसे कल्पित चूनके पिण्डसे भी पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि अशुभ संकल्पसे पाप होता है और शुभ संकल्पसे पुण्य होता है ।।१३४॥ जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपके भेदसे चार प्रकारका पशु कहा गया है उसको हिंसाका कभी मनसे भी विचार नहीं करना चाहिए ॥१३५।। यह जो कहा है कि मन्त्र द्वारा होनेवाली मृत्युसे दुःख नहीं होता है वह मिथ्या है क्योंकि यदि दुःख नहीं होता है तो जिस प्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी उसी प्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए ॥१३६॥ यदि पैर बांधे बिना और नाक मूंदे बिना अपनेआप पशु मर जावे तब तो मन्त्रसे मरना सत्य कहा जाये परन्तु यह असम्भव बात है ॥१३७।। मन्त्रके प्रभावसे मरनेवाले पशुको सुखासिका प्राप्त होती है यह भी एकान्त नहीं है क्योंकि जो पशु मारा जाता है वह ग्रहसे पीड़ितकी तरह जोरजोरसे चिल्लाता है इसलिए उसका दुःख स्पष्ट दिखाई देता है ।।१३८।। यह जो कहा है कि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे अवध्य है-मारने में नहीं आता है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्थूल शरीर में स्थित होता है तब स्थूल भी तो होता है ।।१३९॥ यह आत्मा शरीररूपी आधारके अनुसार दीपकके प्रकाशके समान सूक्ष्म और स्थूलरूप होता हुआ संकोच तथा विस्तारको प्राप्त होता रहता है ॥१४०।। यदि अनन्त शरीरोंका अनुभव करनेवाला संसारी जीव इस प्रकार छोटा-बड़ा न माना जावे और एकान्तसे सूक्ष्म ही माना जावे तो वह सुख-दुःखको किस तरह प्राप्तकर सकेगा? ॥१४१॥ इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध है कि जोव शरीर प्रमाण है और १. महेशाख्यं म. । २. -वर्णवृषभं म.। ३. तत्स्यादसंभाव्य-म.। ४. प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् त. सू. अ. ५।
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सप्तदशः सर्गः
२५९ म्रियमाणोऽतिदुःखेन चक्षुरादिमिरिन्द्रियैः । वियुज्यते स्वयं तेन कोऽन्यस्तेषां वियोजकः ॥१३॥ 'प्राणिघातकृतः स्वर्गः कुतः स्याद्याजकादयः । याज्यस्य स्वर्गगामित्वे दृष्टान्तत्वं गता यतः ॥१४४॥ धर्म्यमेव हि शर्माप्त्य कर्म याज्यस्य जायते । नवपथ्यं शिशोर्द मात्राऽपि स्यात्सुखाप्तये ॥१४५॥ परिषत्प्रावृषि स्फूर्जद्वचोवज्रमुखैरिति । भित्त्वा पर्वतदुःपक्षं स्थिते नारदनीरदे ।। १४६।। साधुकारो मुहुर्दत्तस्तस्मै धर्मपरीक्षकैः । सलौकिकैः शिरःकम्पैस्वाङ्गुलिस्फोटनिस्वनैः ॥ ६४७॥ राजोपरिचरः पृष्ठस्ततः शिष्टेबहुश्रुतैः । राजन् यथाश्रुतं ब्रूहि त्वं सत्यं गुरुभाषितम् ॥ १४८॥ मूढसत्यविमूढेन वसुना दृढबुद्धिना। स्मरतापि गुरोर्वाक्यमिति वाक्यमुदीरितम् ।। १४९ ॥ युक्तियुक्तमुपन्यस्तं नारदेन सभाजनाः । पर्वतेन यत्रोक्तं तदुपाध्यायभाषितम् ।।१५०॥
मन्त्र-तन्त्र तथा अस्त्र आदिसे शरीरका घात होनेपर इसे नियमसे दुःख होता है ।।१४२।। जब यह जीव तीव्र दुःखसे मरने लगता है तब चक्षु आदि इन्द्रियोंसे स्वयं ही वियुक्त हो जाता है इसलिए उनका वियोग करानेवाला और दूसरा कौन है ?। भावार्थ-जब जोव स्वयं ही चक्षु आदि इन्द्रियोंसे वियुक्त होता है तब यह कहना कि 'याजक लोग उनके चक्षु आदिको सूर्य आदिके पास भेज देते हैं' मिथ्या है ॥१४३।। प्राणियोंका घात करनेवालेको स्वर्ग कैसे हो सकता है ? जिससे कि याजक आदिको याज्य ( पशु आदिके ) स्वर्ग जानेमें दृष्टान्त माना जा सके। भावार्थ-पर्वतने कहा था कि मन्त्र द्वारा होम करते ही पशु स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ वह याजकादिके समान कल्प काल तक अत्यधिक सुख भोगता रहता है सो प्राणियोंका घात करनेवाले याजक आदिको स्वर्ग कैसे मिल सकता है ? उन्हें तो इस पापके कारण नरक मिलना चाहिए अतः जब याजक आदि स्वर्ग नहीं जाते तब उन्हें पशुके स्वर्ग जानेमें दृष्टान्त कैसे बनाया जा सकता है ? ।।१४४॥
____धर्म सहित कार्य ही पशुको सुख प्राप्तिमें सहायक हो सकता है अधर्म सहित कार्य नहीं क्योंकि बच्चेके लिए माताके द्वारा दिया हुआ अपथ्य पदार्थ सुख प्राप्तिका कारण नहीं होता। भावार्थ-पवंतने कहा था कि जिस प्रकार न चाहनेपर भी बच्चे के लिए घी आदि दिया जाता है तो वह उसकी वद्धिका कारण होता है, उसी प्रकार पशके न चाहनेपर भी उसे यज्ञमें होमा जाता है तो वह उसके लिए स्वर्गप्राप्तिका कारण होता है । पर्वतका यह कहना ठीक नहीं क्योंकि धर्मयुक्त कार्य ही पशुके लिए सुखप्राप्तिमें सहायक हो सकता है अधर्मयुक्त नहीं। जिस प्रकार माताके द्वारा दिये हुए घृत, दुग्ध आदि हितकारी पदार्थ ही बच्चेके लिए सुखप्राप्तिमें सहायक होते हैं विषादिक अपथ्य पदार्थ नहीं उसी प्रकार पशुको जबर्दस्ती होम देने मात्रसे उसे स्वर्गकी प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु उसके धर्मयुक्त कार्यसे ही हो सकती है ।।१४५॥
__इस प्रकार सभारूपी वर्षाकाल में अपने तीक्ष्ण वचन रूपी वज्रके अग्रभागसे पर्वतके मिथ्या पक्षरूपी पवंत-पहाड़के भद्दे किनारेको तोड़कर जब नारदरूपी मेघ चुप हो रहा तब सभा में बैठे हए धर्मके परीक्षक लोगोंने एवं साधारण मनष्योंने शिर हिला-हिलाकर तथा अपनी-अपनी अंगुलियां चटकाकर नारदके लिए बार-बार धन्यवाद दिया ॥१४६-१४७।।
तदनन्तर अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता शिष्टजनोंने अन्तरिक्षचारी राजा वसुसे पूछा कि हे राजन् ! आपने गुरुके द्वारा कहा हआ जो सत्य अर्थ सना हो वह कहिए ॥१४८॥ यद्यपि राजा वस दढबुद्धि था और गुरुके वचनोंका उसे अच्छी तरह स्मरण था तथापि मोहवश सत्यके विषय में अविवेकी हो वह निम्न प्रकार वचन कहने लगा ।।१४९|| कि हे सभाजनो! यद्यपि नारदने युक्ति
१. प्राणिघातं करोतीति प्राणिघातकृत् तस्य । २. धर्ममेव म. । ३. शिरःकंपं म.।
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२६०
हरिवंशपुराणे वाङ्मात्रेण ततो भूमौ निमग्नः स्फटिकासनः । वसुः पपात पाताले पातकात् पतनं ध्रुवम् ॥१५॥ पातालस्थितकायोऽसौ सप्तमी पृथिवीं गतः । नरके नारको जातो महारौरवनामनि ।।१५२॥ हिंसानन्दमषानन्दरौद्र ध्यानाविलो वसुः । जगाम नरकं रौद्रं रौद्रध्यानं हि दुःखदम् ॥१५३॥ 'प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य पाताले पतिते वसौ । तदाकुलः समुत्तस्थौ हा हा धिग्धिगिति ध्वनिः ॥१५॥ लब्धासत्यफलं सद्यो निनिन्दुनृपतिं जनाः । पर्वतं च निराचक्रुः खलीकृत्य खलं पुरात् ॥१५५।। तत्त्ववादिनमक्षुद्रं नारदं जितवादिनम् । कृत्वा ब्रह्मरथारूढं पूजयित्वा जना ययुः ॥१५६॥ पर्वतोऽपि खलीकारं प्राप्य देशान् परिभ्रमन् । दुष्टं द्विष्टं निरैक्षिष्ट महाकाल महासुरम् ॥१५॥ ततस्तस्मै पराभूतिं पराभूतिजुषे पुरा । निवेद्य तेन संयुक्तः कृत्वा हिंसागमं कुधीः ॥१५॥ लोके प्रतारको भूत्वा हिंसायज्ञं प्रदर्शयन् । अरअयजनं मूढं प्राणिहिंसनतत्परम् ॥१५९॥ मत्वा पापोपदेशेन पापशापवशान्मतः । सेवामिव वसोः कुर्वन् पर्वतो नरकेऽपतत् ॥१६॥ स्थापिता वसुराज्येऽष्टी ज्येष्ठानुक्रमशः क्रमात् । स्वल्पैरेव दिनमत्युं सूनवोऽपि वसोर्ययुः ॥१६॥ ततो मृत्युभयात्रस्तः सुवसुः प्रपलायितः । गत्वा नागपुरेऽतिष्ठन्मथुरा बृहद्ध्वजः ॥१६२॥
शार्दूलविक्रीडितम् कष्टं ख्यातिमवाप्य सत्यजनितां पापादधोऽगाद्वसुः
पापं पर्वतकोऽभिमानवशगस्तस्यैव पश्चाद् ययौ ।
युक्त कहा है तथापि पर्वतने जो कहा है वह उपाध्यायके द्वारा कहा हुआ कहा है ।।१५०।। इतना कहते ही वसुका स्फटिकमणिमय आसन पृथिवीमें धंस गया और वह पातालमें जा गिरा सो ठीक ही है क्योंकि पापसे पतन होता ही है ।।१५१॥ जिसका शरीर पातालमें स्थित था ऐसा वसु मरकर सातवीं पृथिवी गया और वहाँ महारौरव नामक नरकमें नारकी हुआ ॥१५२।। हिंसानन्द और मृषानन्द रौद्र ध्यानसे कलुषित हो वसु भयंकर नरकमें गया सो ठीक ही है क्योंकि रौद्रध्यान दुःखदायक होता ही है ।।१५३।। सब लोगोंके समक्ष जब वसु पातालमें चला गया तब सब ओर आकुलतासे भरा हा-हा धिक-धिक शब्द गजने लगा ॥१५४|| जिसे तत्काल ही असत्य बोलनेका फल मिल गया था ऐसे राजा वसुकी सब लोगोंने निन्दा की और दुष्ट पर्वतका तिरस्कार कर उसे नगरसे बाहर निकाल दिया ||१५५॥ तत्त्ववादी, गम्भीर एवं वादियोंको परास्त करनेवाले नारदको लोगोंने ब्रह्म रथपर सवार किया तथा उसका सम्मान कर सब यथास्थान चले गये ॥१५६॥ इधर तिरस्कार पाकर पर्वत भी अनेक देशोंमें परिभ्रमण करता रहा अन्त में उसने द्वेष-पूर्ण दुष्ट महाकाल नामक असुरको देखा ॥१५७।। पूर्व भवमें जिसका तिरस्कार हुआ था ऐसे महाकाल असुरके लिए अपने परभवका समाचार सुनाकर पर्वत उसके साथ मिल गया और दुर्बुद्धिके कारण हिंसापूर्ण शास्त्रकी रचना कर, लोकमें ठगिया बन हिंसापूर्ण यज्ञका प्रदर्शन करता हुआ प्राणिहिंसामें तत्पर मखंजनोंको प्रसन्न करने लगा ॥१५८-१५९।। अन्तमें पापोपदेशके का रूपी शापके वशीभूत होनेसे पर्वत मरा और मरकर वसुकी सेवा करनेके लिए ही मानो नरक गया ॥१६०। मन्त्रियोंने वसुके आठ पुत्रोंको क्रमसे एक दूसरेके बाद उसकी गद्दीपर बैठाया परन्तु वे भी थोड़े ही दिनोंमें मृत्युको प्राप्त हो गये ।।१६१।। तदनन्तर जो दो पुत्र शेष बचे उनमें मृत्युके भयसे भयभीत हो सुवसु तो भागकर नागपुरमें रहने लगा और बृहद्ध्वज मथुरामें जा बसा ॥१६२।।
बड़े खेदकी बात है कि एक ओर तो वसु सत्यजनित प्रसिद्धिको पाकर अन्तमें पापके कारण नरक गया और अभिमानके वशीभूत हुआ पर्वत भी उसके पीछे पापपूर्ण नरकको प्राप्त
१. खलु म. । २. लब्ध्वा म. । ३. तिरस्कारं। ४. महाकाय -म। ५. प्रदर्शयत् म.।
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सप्तदशः सर्गः
सम्यग्दृष्टिदिवाकराख्यखचरं लब्ध्वा सखायं पुनः
क्षिप्त्वा पर्वतदुर्भतं कृतितया स्वर्ग गतो नारदः ॥ १६३॥ धर्मः प्राणिदया दयापि सततं हिंसाव्युदासो मनो
वाक्कायविरतिर्वधात्प्रणिहितैः प्राणात्ययेऽप्यात्मनः । धरोऽपौ बुधमादरेण चरितः स्वर्गापवर्गार्गलां
मित्वा मोहमयीं सुखेऽतिविपुले धर्मो जिनव्याहृतः ॥१६॥
इत्यरिटने मपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो वसपाख्याने नारदपर्वत विवादवर्णनो
नाम सप्तदश सर्गः ॥१२॥
तथा दूसरी ओर सम्यग्दृष्टि दिवाकर नामक विद्याधर मित्रको पाकर एवं पर्वतके मिथ्या मतका खण्डन कर नारद कृत-कृत्य होता हुआ स्वर्ग गया ॥१६३।। जीवोंपर दया करना धर्म है, निरन्तर - हिंसाका त्याग करना दया है और अपने प्राण जानेपर भी उस ओर लगे हुए मन, वचन, कायके द्वारा वधसे दूर रहना हिंसा त्यांग है। जिनेन्द्र भगवान्ने हिंसा त्यागको ही धर्म कहा है । आदर. . पूर्वक आचरण किया हुआ यह धर्म, स्वर्ग और मोक्षको मोहरूपी अर्गलाको भेदकर विद्वज्जनोंको .. अतिशय विस्तृत सुखमें पहुंचा देता है ।।१६४||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें राजा वसुके चरितमें नारद और पर्वतके विवादका वर्णन करनेवाला सत्रहवाँ सर्ग समाप्त हुआ।॥१७॥
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अष्टादशः सर्गः
अथ योऽसौ वसोः सूनुर्मथुरायां बृहद्ध्वजः। सुबाहुरभवत्तस्मात्तनयो विनयोद्यतः ॥१॥ लक्ष्मी स तत्र निक्षिप्य तपोलक्ष्मीमुपाश्रितः । सुबाहुदीर्घबाहौ च वज्रबाहौ नृपश्च सः ॥२॥ सोऽपि लब्धामिमानेऽपौ भानौ सोऽपि यवौ' सुते । सुभानी नयने सोऽपि भीमनामनि स प्रभुः ॥३॥ एवमाद्यास्तथाऽन्येऽपि शतशोऽथ सहस्रशः । मुनिसुव्रतनाथस्य तीर्थेऽतीयुः क्षितोश्वराः ॥४॥ आयुर्वर्षसहस्राणि यस्य पञ्चदशागमत् । नमेवहति तस्येह पञ्चलक्षाब्दके पथि ॥५॥ उदियाय यदुस्तत्र हरिवंशोदयाचले । यादवप्रभवो व्यापी भूमौ भूपविभाकरः ॥६॥ सुतो नरपतिस्तस्मादुदभूद् भूवधूपतिः । यदुस्तस्मिन् भुवं न्यस्य तपसा त्रिदिवं गतः ॥७॥ शूरश्चापि सुवीरश्च शूरौ वीरौ नरेश्वरी । स तौ नरपती राज्य स्थापयित्वा तपोऽभजत् ॥६॥ शूरः सुवीरमास्थाप्य मथुरायां स्वयं कृती। स चकार कुशग्रंपु परं शौर्यपुरं पुरम् ॥९॥ शूराश्चान्धकवृष्ण्याद्याः शूरादुदभवन् सुताः । वीरा भोजकवृष्ण्याद्याः सुवीरान्मथुरेश्वरात् ॥१०॥ ज्येष्ठ पुत्रे विनिक्षिप्तक्षितिमारो यथायथम् । सिद्धौ शूरसुवीरो तो सुप्रतिप्टेन दीक्षितौ ॥११॥ आपीदन्धकवृष्णेश्च सुभद्रा वनितोत्तमा । पुत्रास्तस्या दशोत्पन्नास्त्रिदशाभा दिवश्च्युताः ॥१६॥ समुद्र विजयोऽक्षोभ्यस्तथा स्तिमितसागरः । हिमवान् विजयश्चान्योऽचलो धारणपूरणौ ॥१३॥
अथानन्तर-राजा वसुका जो बृहद्ध्वज नामका पुत्र मथुरामें रहने लगा था उसके सुबाहु नामका विनयवान् पुत्र हुआ। राजा बृहद्ध्वज सुबाहु के लिए राज्यलक्ष्मी सौंप आप तपरूपी लक्ष्मीको प्राप्त हो गया । यथाक्रमसे सुबाहुके दीर्घबाहु, दोर्घबाहुके वज्रबाहु, वज्रबाहुके लब्धाभिमान, लब्धाभिमानके भानु, भानुके यवु, यवुके सुभानु और सुभानुके भीम पुत्र हुआ। इस प्रकार इन्हें आदि लेकर भगवान् मुनिसुव्रतनाथके तीर्थ में सैकड़ों-हजारों राजा उत्पन्न हए और सब अपने-अपने पुत्रोंपर राज्य-भार सौंपकर तप धारण किया ॥१-४॥ भगवान् मुनिसुव्रतके बाद नमिनाथ हुए। इनकी आयु पन्द्रह हजार वर्षकी थी तथा इनका तीथं पाँच लाख वर्ष तक प्रचलित रहा । इन्हींके तीर्थमें हरिवंशरूपी उदयाचलपर सूर्यके समान यदु नामका राजा हुआ। यही यदु राजा, यादवोंकी उत्पत्तिका कारण था तथा अपने प्रतापसे समस्त पृथ्वीपर फैला हुआ था ।।५-६॥ राजा यदुके नरपति नामका पुत्र हुआ। उसपर पृथिवीका भार सौंप राजा यदु तपकर स्वर्ग गया ।।७।। राजा नरपतिके शूर और सुवीर नामक दो पुत्र हुए सो नरपति उन्हें राज्य-सिंहासनपर बेठाकर तप करने लगा ||८|| अत्यन्त कुशल शरने छोटे भाई सुवीरको मथुराके राज्यपर अधिष्ठित किया और स्वयं कुशद्य देशमें एक उत्तम शौर्यपुर नामका नगर बसाया ॥९॥ शूरसे अन्धकवृष्णिको आदि लेकर अनेक शूरवीर उत्पन्न हुए, और मथुराके स्वामी सुवीरसे भोजकवृष्णिको आदि लेकर अनेक वीर पुत्र उत्पन्न हुए ॥१०॥ यथायोग्य अपने-अपने बड़े पुत्रोंपर पृथिवीका भार सौंपकर कृतकृत्यताको प्राप्त हुए शूर और सुवोर दोनों ही सुप्रतिष्ठ मुनिराजके पास दीक्षित हो गये ।।११।। अन्धकवृष्णिकी सुभद्रा नामक उत्तम स्त्रो थो उससे उनके दश पुत्र हुए जो देवोंके समान कान्तिवाले थे तथा स्वर्गसे च्युत होकर आये थे ।।१२।। उनके नाम इस प्रकार थे-१ समुद्रविजय, २ अक्षोभ्य, ३ स्तिमितसागर, ४ हिमवान् , ५ विजय, ६ अचल, ७ धारण, ८ पूरण,
१. यवुनाम्निपुत्रे । २. भूपतिभास्करः ( क. टि.) । ३. भोजनकवृष्ण्याद्याः म. ।
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अष्टादशः सर्गः
२६३ अभिचन्द्र इहाख्यातो वसुदेवश्च ते दश । 'दशार्हाः सुमहाभागाः सर्वेऽप्यन्वर्थनामकाः ॥१४॥ कुन्ती मद्री च कन्ये द्वे मान्ये स्त्रीगुणभूषणे । लक्ष्मीसरस्वतीतुल्ये भगिन्यौ वृष्णिजन्मनाम् ॥१५॥ राज्ञो भोजकवृष्णेर्या पत्नी पद्मावती सुतान् । उग्रसेनमहासेनदेवसेनानसूत सा ॥१६॥ सुवसोस्स्वभवत्सूनुः कुञ्जरावर्त्तवर्तिनः । बृहद्रथ इति ख्यातो मागधेशपुरेऽवसत् ॥१॥ तस्मादप्यङ्गजो जातस्ततो दृढेरथोऽङ्गजः । तस्मान्नरवरो जज्ञे ततो दृढ रथस्ततः ॥१८॥ जातः सुखरथस्तस्माद्दीपनः कुलदीपनः । सूनुः सागरसेनोऽस्मान्सुमित्रो वप्रथुस्ततः ॥१९॥ विन्दुसारः सुतस्तस्मादेवगर्भस्तदर्भकः । ततः शतधनुर्वीरो धनुर्धरपुरःसरः ॥२०॥ क्रमात् शतसहस्रेषु व्यतिक्रान्तेषु राजसु । जातो निहतशत्रुः स सुतः शतपतिनृपः ॥२१॥ जातो बृहद्रथो राजा ततो राजगृहाधिपः । तस्य सूनुर्जरासन्धो वशीभूतवसुंधरः ॥२२॥ स रावणसमो भूत्या त्रिखण्डमरताधिपः । नवमः प्रतिशत्रूणां सुरश्रीसदृशोजसाम् ।।२३॥ मध्ये कालिन्दसेनाख्या महिषी महिषीगणा । तनयाः सनयास्तस्य ते कालयवनादयः ॥२४॥ अपराजित इत्याद्या भ्रातरश्चक्रवर्तिनः । हरिवंशमहावृक्षशाखायाः फलितात्मनः ॥५॥ एकस्या एकवीरोऽयं धारको धरणीपतिः । बहुविद्याधरेन्द्रागां दक्षिणश्रेग्युपाश्रिताम् ॥२६॥ संहति नृपसिंहोऽसौ शास्ति राजगृहे स्थितः । उत्तरापथभूपालाः दक्षिणापथभूभृतः ॥२७॥
पूर्वापरसमुद्रान्ता मध्यदेशाश्च तद्वशाः । भूचरैः खेचरैः सर्वैः शेखरीकृतशासनः ॥२८॥ ९ अभिचन्द्र और १० वसुदेव । ये सभी पुत्र योग्य दशाके धारक, महाभाग्यशाली और सार्थक नामोंसे युक्त थे ॥१३-१४॥ उक्त पुत्रोंके सिवाय कुन्ती और मद्री नामको दो कन्याएँ भी थीं जो अतिशय मान्य थीं, स्त्रियोंके गुणरूपी आभूषणोंसे सहित थी, लक्ष्मी और सरस्वतीके समान जान पड़ती थीं और समुद्रविजयादि दश भाइयोंको बहनें थीं ॥१५॥
राजा भोजकवृष्णिकी जो पद्मावतो नामकी पत्नी थी उसने उग्रसेन, महासेन तथा देवसेन नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये थे ।।१६।। राजा वसुका जो सुवसु नामका पुत्र, कुंजरावतपुर ( नागपुर ) में रहने लगा था उसके बृहद्रथ नामका पुत्र हुआ और वह मागधेशपुरमें रहने लगा।।१७। बृहद्रथके दृढ रथ नामका पुत्र हुआ। दृढ रथके नरवर, नरवरके दृढरथ, दृढ रथके सुखरथ, सुखरथके कुलको दीप्त करनेवाला दीपन, दीपनके सागरसेन, सागरसेनके सुमित्र, सुमित्रके वप्रथु, वप्रथुके विन्दुसार, विन्दुसारके देवगर्भ और देवगर्भके शतधनु नामका वीर पुत्र हुआ। यह शतधनु धनुर्धारियों में सबसे श्रेष्ठ था ॥१८-२०॥ तदनन्तर क्रमसे लाखों राजाओंके व्यतीत हो जानेपर उसो वंशमें निहतशत्रु नामका राजा हुआ। उसके शतपति और शतपतिके बृहद्रथ नामका पुत्र हुआ। यह राजगृह नगरका स्वामी था। बृहद्रथके पृथिवीको वश करनेवाला जरासन्ध नामका पुत्र हुआ ॥२१-२२॥ वह विभूतिमें रावणके समान था, तीन खण्ड भरतका स्वामी था और देवोंके समान प्रतापी प्रतिनारायणोंमें नौंवाँ नारायण था ॥२३॥ अनेक स्त्रियोंके बीच उसकी कालिन्दसेना नामकी पट्टरानी थी जो पट्टरानियोंके समस्त गुणोंसे सहित थी। राजा जरासन्धके कालयवन आदि अनेक नीतिज्ञ पुत्र थे॥२४॥ चक्रवर्ती जरासन्धके अपराजित आदि अनेक भाई थे जो हरिवंशरूपी महावृक्षकी शाखापर लगे हुए फलोंके समान जान पड़ते थे ।।२५॥ राजा जरासन्ध अपनी अद्वितीय माताका अद्वितीय वीर पुत्र था । वह राजसिंह, राजगृह नगरमें स्थिर रहकर ही दक्षिण श्रेणी में रहनेवाले समस्त विद्याधर राजाओंके समूहपर शासन करता था। उत्तरापथ और दक्षिणापथके समस्त राजा, पूर्व-पश्चिम समुद्रोंके तट तथा मध्यके समस्त देश उसके वशमें थे। समस्त भूमिगोचरी और समस्त विद्याधर उसकी आज्ञाको शेखरके समान शिरपर धारण करते १. दशया अर्हाः योग्याः पूज्याश्च । २. दृढरथोग्रजः म. । ३. नयेन सहिताः सनयाः । ४. भूभृताम् म. ।
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हरिवंशपुराणे चावर्तिश्रियो मर्ता बिभत्तीन्द्रस्य विभ्रमम् । जातु शौर्य पुरोद्याने गन्धमादननामनि ॥२९॥ रात्रौ प्रतिमया तस्थौ सुप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः । पूर्ववैराद्यतेस्तस्य चक्रे यक्षः सुदर्शनः ॥३०॥ अग्निपातं महावात मेधवृष्ट्यादिदुःसहम् । उपसर्ग स जित्वाप केवलं 'घातिघात कृत् ॥३१॥ तद्वन्दनार्थमिन्द्रौघाः सौधर्माद्याश्चतुर्विधैः । देवैः सह समागत्य तेऽर्चयित्वा ववन्दिरे ॥३२॥ वृष्णिरप्यागतो मक्त्या पुत्रदारबलान्वितः । संपूज्यानम्य सौम्यं तं निजभूमावुपाविशत् ॥३३॥ सावधाने स्थिते धर्मदत्तकणे कृताञ्जलौ । जगजने जगादेत्थं सुप्रतिष्टमुनीश्वरः ॥३४॥ धर्मास्त्रिवर्गनिष्पत्तिस्त्रिषु लोकेषु माषिता । ततस्तामिच्छता कार्यः सततं धर्मसंग्रहः ॥३५॥ धर्मो धामनि संधत्ते शर्माधारे शरीरिणम् । निर्मितो वाङ्मनःकायकर्ममिः शुमवृत्तिमिः ॥३६॥ धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमहिंसासंयमस्तपः । तस्य लक्षणमुद्दिष्टं सद्दृष्टिज्ञानलक्षितम् ॥३७॥ धर्मो जगति सर्वेभ्यः पदार्थेभ्य इहोत्तमः । कामधेनुः स धेनूनामप्यनूनसुखाकरः ॥३८॥ धर्म एव परं लोके शरणं शरणार्थिनाम् । मृत्युजन्मजरारोगशोकदुःखार्कतापिनाम् ॥३९॥ विश्वाभ्युदयसौख्यानां मनुजामरवर्तिनाम् । धर्म एव मतो हेतुर्निश्रेयससुखस्य च ॥४०॥ नामिना मापितो धर्मः समन्वन्तरवर्तिनाम् । एकविंशेन नाथेन का तीर्थस्य सांप्रतम् ॥११॥ पञ्चकल्याणपूजाना स्वर्गावतरणादिपु । भाजनं यो बभूवान तेन धर्मोऽयमीरितः ॥४२॥ महावतानि साधनामहिंसा सत्यभाष गम् । अस्तेयं ब्रह्मचर्य च निर्मूर्छा'चेति पञ्चधा ॥४॥
थे ||२६-२८|| वह चक्रवर्तीकी लक्ष्मीका स्वामी था तथा इन्द्रको शोभाको धारण करता था। कदाचित् शौर्यपुरके उद्यान में गन्धमादन नामक पर्वतपर रात्रिके समय सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे। पूर्व वैरके कारण सुदर्शन नामक यक्षने उन मुनिराजपर अग्निवर्षा, प्रचण्ड वाय तथा मेघवृष्टि आदि अनेक कठिन उपसर्ग किये परन्तु उन सबको जीतकर घातिया कर्मों का क्षय करनवाल उक्त मुनिराजने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।।२९-३१॥ उनको वन्दनाके लिए सौधर्म आदि इन्द्रों के समूह, चारों निकायके देवोंके साथ वहाँ आये और सबने भक्तिपूर्वक पूजा कर केवली भगवान्को नमस्कार किया ॥३२॥ शौर्यपुरका राजा अन्धकवृष्णि भी अपने पुत्रोंस्त्रियों तथा सेनाओंके साथ आया और भक्तिपूर्वक सुप्रतिष्ठ केवलीकी पूजा-वन्दना कर अपने स्थानपर बैठ गया ||३३।। जब जगत् के जीव धर्मोपदेश सुनने के लिए कान देकर तथा हाथ जोड़कर सावधानोके साथ बैठ गये तब सुप्रतिष्ठ मुनिराजने इस प्रकार उपदेश देना प्रारम्भ किया ॥३४॥
उन्होंने कहा कि तीनों लोकोंमें त्रिवर्गको प्राप्ति धर्मसे ही कही गयी है इसलिए उसकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सद। धर्मका संग्रह करना चाहिए ।।३५।। शुभ दृत्तिसे युक्त मन, वचन, कायके द्वारा किया हुआ धर्म, प्राणीको सुखके आधारभूत स्थान-स्वर्ग अथवा मोक्षमें पहुंचा देता है ।।३६|| धर्म उत्कृष्ट मंगलस्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे सहित अहिंसा, संयम
और तप उस धर्मके लक्षण बतलाये गये हैं ॥३७।। इस संसारमें धर्म सब पदार्थोंसे उत्तम है, यह धेनुओंमें कामधेनु है तथा उत्कृष्ट सुखको खान है ।।३८|| जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदिसे उत्पन्न दुःखरूपी सूर्यसे सन्तप्त शरणार्थी जनोंके लिए लोकमें धर्म ही उत्तम शरण है ॥३९|| मनुष्यों और देवोंमें पाये जानेवाले समस्त अभ्युदय सम्बन्धी सुख और मोक्ष सम्बन्धी सुखका कारण धर्म हो माना गया है ।।४०|| जो स्वर्गावतरणादिके समय पंचकल्याणक पूजाओंके पात्र थे ऐसे इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान् नमिनाथने इस युगमें अपने समयवर्ती जीवोंके लिए जो धर्म कहा था वह इस प्रकार है ॥४१-४२।। उन्होंने मुनियोंके लिए १ अहिंसा, २ सत्य भाषण, १. घातिनां घातं करोतीति घातिघातकृत् । २. पुत्रदाराबलान्वित: म.। ३. शरीरिणाम् म. । ४. -वतिना म. । ५. अपरिग्रहः ।।
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अष्टावशः सर्गः
गुप्तिश्च विविधा प्रोक्का पञ्चधा समितिस्त्विदम् । सर्वसावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं मतं सतः ॥१४॥ पञ्चधाणुवतं प्रोक्तं त्रिविधं च गुणवतम् । शिक्षावतं चतुर्मेदं धर्मोऽयं गृहिणां स्मृतः ॥४५॥ हिंसादेर्देशतो मुक्तिरणुव्रतमुदीरितम् । दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिश्च गुणवतम् ॥४६॥ सामायिकं त्रिसंध्यं तु प्रोषधातिथिपूजनम् । आयुरन्ते च सल्लेखः शिक्षाव्रतमितीरितम् ॥१७॥ मांसमद्यमधुयूतक्षी रिवृक्षफलोज्झनम् । वेश्यावधूरतित्याग इत्यादिनियमो मतः ॥४८॥ इदमेवेति तरवार्थश्रद्धानं ज्ञानदर्शनम् । शङ्काकाङ्क्षाजुगुप्सान्यमतशंसास्तवोज्झनम् ॥४९॥ तथोपगृहन मार्गभ्रंशिनां स्थितियोजनम् । हेतवो दृष्टिसंशुद्ध वात्सल्यं च प्रभावना ॥५०॥ साभादभ्युदयोपायः पारम्पर्येण मुक्तये । गृहिधर्मोऽत्र मौनस्तु साक्षान्मोक्षाय कल्पते ॥५१।। स धर्मो मानुषे देहे प्राप्यते नान्यजन्मनि । मानुषस्तु भवो दुःखाल्लभ्यते भवसङ्कटे ॥५२॥ स्थावरत्रसकायेषु चतुर्गतिषु देहिनः । कर्मोदयवशात्क्लेशानश्नन्तः पर्यटन्त्यमी ॥५३॥ पृथिव्यप्लेजसा काये मरुतां च वनस्पतेः । स्पर्शनैकेन्द्रियो जीवो दीर्घकालमटाट्यते ॥५४॥ सन्ति चानन्तभेदास्ते जीवाः कर्मकलङ्किताः । ये त्रसस्वमनापन्नाः कुनिगोदनिवासिनः ।।५५।। कुयोन्यशीतिलक्षासु चतुरभ्यधिकास्वमी। अनेककुलकोटोषु बम्भ्रम्यन्ते तनूभृतः ॥५६॥
३ अचौर्य, ४ ब्रह्मचर्य और ५ अपरिग्रह ये पांच महाव्रत, १ मनोगुप्ति, २ वचनगुप्ति और ३ काय- . गुप्ति ये तीन गुप्तियाँ, १ ईर्या, २ भाषा, ३ एषणा, ४ आदान निक्षेपण और ५ प्रतिष्ठापन- ये पांच समितियां और विद्यमान समस्त सावद्य योगका त्याग-यह धर्म बतलाया है ।।४३-४४।। तथा गृहस्थोंके लिए पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त यह बारह प्रकारका धर्म कहा है ॥४५|| हिंसादि पापोंका एक देश छोड़ना अणुव्रत कहा गया है, दिशा देश और अनर्थदण्डोंसे विरत होनेको गुणव्रत कहते हैं और तीनों सन्ध्याओंमें सामायिक करना, प्रोषधोपवास क अतिथिपूजन करना और आयके अन्तमें सल्लेखनाधारण करना इसे शिक्षाव्रत कहते हैं ॥४६-४७॥ मद्य-त्याग, मांस-त्याग, मधु-त्याग, द्यूत-त्याग, क्षीरिफल-त्याग, वेश्या-त्याग तथा अन्यवधू-त्याग आदि नियम कहलाते हैं ॥४८|| 'तत्त्व यही है' इस प्रकार ज्ञान और श्रद्धान होना सो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है। शंका, आकांक्षा, जुगुप्सा तथा अन्य मतको प्रशंसा और स्तुतिका छोड़ना, उपगृहन, मार्गसे भ्रष्ट होनेवालोंका स्थितीकरण करना, वात्सल्य और प्रभावना ये सब सम्यग्दर्शनको शुद्ध करनेके हेतु हैं ।।४९-५०॥
गृहस्थ धर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदयका कारण है और परम्परासे मोक्षका कारण है परन्तु मुनि धर्म मोक्षका साक्षात् कारण है ॥५१॥ वह मुनिधर्म मनुष्य शरीरमें ही प्राप्त होता है अन्य जन्ममें नहीं और मनुष्य-जन्म संकटपूर्ण संसार में बड़े दुःखसे प्राप्त होता है ॥५२॥ ये प्राणी कर्मोदयके वशीभूत हो स्थावर तथा त्रसकायोंमें अथवा नरकादि चतुर्गतियोंमें क्लेश भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं ॥५३।। मात्र स्पर्शन इन्द्रियको धारण करनेवाला एकेन्द्रिय जीव पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके शरीरमें दीर्घकाल तक भ्रमण करता रहा है ।।५४॥ कर्मकलंकसे कलंकित ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने आज तक सपर्याय नहीं प्राप्त की और आगे भी उसी निगोद पर्यायमें निवास करते रहेंगे ॥५५॥ ये प्राणी चौरासी लाख कुयोनियों तथा अनेक कुलकोटियोंमें निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥५६।।
१. मुनेरयं मौनः मुनिसम्बन्धी । २. अत्थि अणन्ता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंक-सुपउरा णिगोदवासं ण मंचंति ॥ गो. जी. का.।
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हरिवंशपुराणे 'प्रत्येकं सप्तलक्षाः स्युनित्येतरनिगोदयोः । पृथिवीवायुतेजोऽम्मःकायेष्वपि तथैव ताः ॥५७॥ 'ता वनस्पतिकायेषु दश षड् विकलेन्द्रिये । द्विःसप्त नुश्चतस्रस्तास्तिर्यग्नारकनाकिनाम् ॥५८॥ द्वाविंशतिपृथिव्यङ्गा लक्षाः सप्ताम्बुवायुजाः । तेजस्कायिकजीवानां त्रिलक्षाः कुलकोटयः ॥५९।। वनस्पतिजलक्षास्ता अष्टाविंशतिरीरिताः । द्वित्रीन्द्रियेषु सप्ताष्टौ चतुरिन्द्रियजा नव ॥६॥ अर्धत्रयोदश प्रोक्ता लक्षा जलचरेष्वपि । पक्षिपु द्वादशैव स्युश्चतुष्पारसु दशाङ्गिषु ॥६१।। नवोर परिसपेषु मनुजेषु चतुर्दश । नारकामरभेदेषु विंशतिः पञ्च षड् युताः ॥२॥ कोटीकोटो च लक्षाश्च नवतिर्नवभिः सह । पञ्चाशच सहस्राणि कुलकोटयः समासतः ॥६३॥ द्वाविंशतिसहस्राणि वत्सराणि खरक्षितेः । आयुर्मुदुपृथिव्यास्तु द्वादश प्राणधारिणाम् ॥६४॥ सप्ताप्कायिकजीवानां त्रीणि वायुमयाङ्गिनाम् । अहोरात्रास्त्रयस्तेजोमयानां समय मताः ॥६५॥ दशवर्षसहस्राणि वनस्पतिमयाङ्गिनाम् । द्वादश द्वीन्द्रियाणां च वर्षाण्यायुरुदीरितम् ॥६६॥ दिनान्येकोनपञ्चाशस्त्रीन्द्रियाणां प्रकीर्तितम् । चतुरिन्द्रियजीवानां षण्मासाः परमायुषः ॥६७॥ द्वासप्ततिसहस्राणि वर्षाण्यपि च पक्षिणाम् । 'द्वचत्वारिंशदब्दानां सहस्राण्यहिदेहिनाम् ॥६॥ नव पूर्वाङ्गमानं स्यादुरसा परिसर्पिणाम् । पूर्वकोटी मनुष्याणां मत्स्यानां चापि जीवितम् ॥१९॥
वे कुयोनियाँ नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पथिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें प्रत्येकको सात-सात लाख होती हैं ॥५७।। वनस्पतिकायिकोंकी दश लाख, विकलेन्द्रियोंकी छह लाख, मनुष्योंकी चौदह लाख, तिर्यंच, नारकी और देवोंकी प्रत्येककी चार-चार लाख होती हैं ।।५८।। पृथिवीकायिक जीवोंकी बाईस लाख, जलकायिक और वायुकायिककी प्रत्येककी सात-सात लाख, अग्निकायिककी तीन लाख, वनस्पतिकायिकको अट्ठाईस लाख, दो इन्द्रियोंको सात लाख, तीन इन्द्रियोंकी आठ लाख, चौइन्द्रियोंकी नौ लाख, जलचरोंकी साढ़े बारह लाख, पक्षियोंकी बारह लाख, चौपायों की दश लाख, छातीसे सरकनेवालोंकी नौ लाख, मनुष्योंकी चौदह लाख, नारकियोंको पचीस लाख और देवोंकी छब्बीस लाख कुलकोटियाँ हैं। संक्षेपसे ये सब कुलकोटियां साढ़े निन्यानबे लाख हैं।।५९-६३॥ खर पृथिवीको बाईस हजार वर्ष, कोमल पृथिवीको बारह हजार वर्ष, जलकायिक जीवोंको सात हजार वर्ष, वायुकायिक जीवोंकी तीन हजार वर्ष, तेजस्कायिक जीवोंकी तीन दिन-रात, वनस्पतिकायिक जीवोंकी दश हजार वर्ष, दो इन्द्रिय जोवोंको बारह वर्ष, तीन इन्द्रिय जोवोंको उनचास दिन, चार इन्द्रिय जीवों को छह माह, पक्षियोंको बहत्तर हजार वर्ष, साँपोंकी १. णिच्चिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिदियेसु छच्चेव ।
सुरणिरय तिरिय चउरो चोद्दस मणुए सदसहस्सा ।। गो. जी. । २. बावीस सत्त तिण्णि य सत्त य कुलकोडि सयसहस्साई।
णेया पुढवि दगागणि वाउकायाण परिसंखा ॥११३।। [ कोडिसयसहस्साई सत्तट्ट णव य अट्ठवीसाई। वेइंदिय तेइंदिय चउरिदिय हरिदकायाणं ॥११४॥ ] अद्धत्तेरस वारस दमयं कूलकोडि सदसहस्साई । जलचर पक्खि च उप्पय उरपरिसप्पेसु णव होति ॥११४॥ छप्पंचाधिय वीस बारस कुलकोडि सदसहस्साई। सुरणेरइयणराणं जहाकम होंति णेयाणि ॥११५।। एया य कोडिकोडो सत्ताणउदीय सदसहस्साई ।
पणं कोडि सहस्सा सवंगीणं कुलाणं य ॥११६।। गो. जी. । ३. द्विसप्तद्विश्चतस्रस्तास-म, !
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अष्टादशः सर्गः
२६७ भौमा मसूरसंस्थाना जीवा आप्यास्तृणाम्बुवत् । तैजसाः सूचिसंस्थानाः पताकावच्च वायुजाः ॥७॥ बहुसंस्थानभाजस्तु वनस्पतिमवाङ्गिनः । विज्ञेया हुण्डसंस्थाना विकलेन्द्रियनारकाः ॥७॥ षटसंस्थानभृतो मास्तिर्यञ्चः कथितास्तथा। समेन चतुररण संस्थानेन युताः सुराः ॥७२॥ देहः सूक्ष्मनिगोदस्य भागोऽसंख्येय अङ्गलः । अपर्याप्तस्य जातस्य तृतीयसमयेऽल्पशः ॥७३॥ स एवैकेन्द्रियादोनां देहः स्यादल्पमानतः । पञ्चेन्द्रियावसानानां सूक्ष्मोदारप्रभेदिनाम् ।।७४॥ सहस्रयोजनं पद्मं सगव्यूतं प्रमाणतः । समस्तैकेन्द्रियोत्कृष्टदेहमानमिदं मतम् ॥७५॥ उत्कर्षाद् द्वीन्द्रियेषु स्यात् शङ्को द्वादशयोजनः । त्रीन्द्रियोङ्गी ब्रिगव्यूतो भ्रमरो योजनाङ्गकः ॥७६॥ सहस्रयोजनो मत्स्यः सपर्याप्तः स्वयंभुवः । सिक्थप्रमाणकोऽत्यल्पः प्राणी जलचरः स्मृतः ॥७७॥ संमूच्र्छनजसत्वानां खजलस्थलचारिणाम् । तिरश्चां तु वितस्तिः स्यादपर्याप्तशरीरिणाम् ॥८॥ अपर्याप्ताः पुनः सत्त्वा ये जलस्थलगर्मजाः । संमूच्र्छनोत्थपर्याप्ताः खगा जलचरास्तथा ॥७९॥ धनुःपृथक्त्वमुत्कर्षात् खगाश्चापि च गर्भजाः । पर्याप्ताश्चाप्यपर्याप्ता देहमानं वहन्ति ते ॥८॥
जलगर्भजपर्याप्ताः स्युः पञ्चशतयोजनाः । त्रिपल्यायुतियञ्चस्निगव्यूताः प्रमाणतः ॥८॥ बयालीस हजार वर्ष, छातीसे सरकनेवालोंकी नौ पूर्वांग, मनुष्यों और मत्स्योंको एक करोड़ वर्ष पूर्वको उत्कृष्ट आयु है ॥६४-६९।। पृथिवीकायिक जीव मसूरके आकार हैं, जलकायिक तृणके अग्र भागपर रखी बूंदके समान हैं, तैजस्कायिक जीव खड़ी सूइयोंके सदृश हैं, वायुकायिक जीव पताकाके समान हैं, वनस्पतिकायिक जीव अनेक आकारके धारक हैं। विकलेन्द्रिय तथा नारको जीव
संस्थानसे यक्त हैं ॥७०-७१।। मनष्य और तिर्यंच छहों संस्थानके धारक कहे गये हैं और देव केवल समचतुरस्र संस्थानसे युक्त बतलाये गये हैं ।।७२।। सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवका शरीर अंगुलके असंख्यातवें भाग है और वह उत्पत्न होनेके तीसरे समयमें जघन्य अवगाहनारूप होता है ।।७३॥ सूक्ष्म और स्थूल भेदोंको धारण करनेवाले एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तकका शरीर यदि छोटेसे छोटा होगा तो अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होगा इससे छोटा नहीं ॥७४।। कमल प्रमाणकी अपेक्षा एक हजार योजन तथा एक कोश विस्तारवाला है। समस्त एकेन्द्रिय जीवोंमें देहका उत्कृष्ट प्रमाण यही माना गया है ।।७५।। दोइन्द्रिय जीवोंमें सबसे बड़ी अवगाहना शंखकी है और वह बारह योजन प्रमाण है। तीन इन्द्रियोंमें सबसे बड़ा कानखजूरा है और वह तीन कोश प्रमाण है। चौइन्द्रियोंमें सबसे बड़ा भ्रमर है और वह एक योजनचार कोश प्रमाण है तथा पंचेन्द्रियों में सबसे बड़ा स्वयम्भरमण समुद्रका राघव मच्छ है और वह एक हजार योजन प्रमाण है। पंचेन्द्रियों में सूक्ष्म अवगाहना सिक्थक मच्छकी है ॥७६-७७।। सम्मूच्र्छनजन्मसे उत्पन्न अपर्याप्तक जलचर, थलचर और नभचर तिर्यंचोंकी जघन्य अवगाहना एक वितस्ति प्रमाण है ॥७८॥ गर्भजोंमें अपर्याप्तक जलचर, स्थलचर, सम्मच्छेनोंमें पर्याप्तक जलचर, नभश्चर तथा गर्भ जोंमें पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकारके नभश्चर, तिर्यंच, उत्कृष्ट रूपसे पृथक्त्व धनुष प्रमाण परीरकी अवगाहना धारण करते हैं ॥७९-८०।। गर्भजन्मसे उत्पन्न पर्याप्तक जलचर जोव पांच सायोजन विस्तारवाले हैं। जिन मनुष्य और तिर्यंचोंको आयु तीन पल्यको है उनकी अव१. पृथिवीकायिकाः । २. जलकाथिकाः। ३. अग्निकायिकाः । ४. वायुकायिकाः । मसुरंतुबिन्दु सूई. कलाबधयसण्णिहो हवे देहो। पुढवीआदिच उण्हं तरुतसकाया अणेयविहा ।।१९८।। गो. जी.। ५. सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदिय समयम्हि । अंगुल असंखभागं जहण्णमुक्कस्सयं मच्छे ॥९४।। गो. जी. । ६. साहिय सहस्समेकं वारं कोसूणमेकमेक्कं च । जोयणसहस्सदीहं पम्मे वियले महामच्छे ॥९५॥ विति च प पुण्ण जहण्णं अणुंधरी कुंथुकाणमच्छोसु । सिच्छयमच्छे विदंगुलसंखे संखगुणिदकमा ॥९६॥ गो. जी. । ७. जलधरा -म.।
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हरिवंशपुराणे
पञ्चचापशतोत्सेधा उत्कर्षान्मारकाः सुराः । पञ्चविंशतिचापाः स्युरायुस्तेषां पुरा यथा ॥२॥ पर्याप्तयः षडाहारशरीरेन्द्रियगोचराः । आनप्राणमनोभाषाभेदेस्ताः परिभाषिताः ॥३॥ स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं तथैव तत् । इन्द्रियपञ्चकं प्रोक्तं स्थावरत्रसगोचरम् ॥४॥ लब्धिश्चैवोपयोगश्च भावेन्द्रियमिहोदितम् । द्रव्येन्द्रियं तु निवृत्तिः सहोपकरणमतम् ॥५५॥ स्पर्शनं नैकसंस्थानं रसनं तु क्षुरप्रवत् । घ्राणं चानुकरोस्येवमतिमुक्तकचन्द्रिकाम् ॥८६॥ चक्षुर्मसूरमन्वेति श्रोत्रं तु यवनालिकाम् । स्वाकारेणेति संस्थानं तद्रव्येन्द्रियगोचरम् ॥७॥ धनुःशतानि चत्वारि स्पर्शनेन्द्रियगोचरः । एकेन्द्रियस्य चोस्कृष्टस्ततो यावदसंज्ञिनाम् ॥८॥ अष्टौ षोडश संख्यातो द्वात्रिंशद द्विगुणान्यपि । चतुःषष्टिःशतं दण्डा घ्राणान्ते द्विरसंज्ञिनः ॥८॥ चतुःपञ्चाशता सार्धमेकानत्रिंशदीक्षते । शतानि योजनानां तु चक्षुषा चतुरिन्द्रियः ॥१०॥ योजनानां शतान्यकन्यनं षष्टिः सहाष्टभिः । असंज्ञिचक्षुर्विषयो योजनं श्रोत्रगोचरः ॥६॥ स्पर्श रसं च गन्धं च नवयोजनमात्रगम् । संज्ञी यथास्वमादत्ते शब्दं द्वादशयोजनम् ॥१२॥
सौ योजन विस्तारवाले हैं। जिन मनुष्य और तिर्यश्चोंकी आयु तीन पल्यकी है उनकी अवगाहना तीन कोश प्रमाण है ।।१॥ नारकी उत्कृष्टतासे पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं, और देव पच्चीस धनुष प्रमाण है । इनकी आयु पहलेके समान है ॥२॥
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छास, भाषा और मनके भेदसे पर्याप्तियाँ छह कही गई हैं ॥३॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ कही गई हैं। इनमें स्थावर जीवोंके केवल स्पर्शन इन्द्रिय और त्रसजीवोंके यथाक्रमसे सभी इन्द्रियाँ पाई जाती हैं ।।४।। भावेन्द्रिय
और द्रव्येन्द्रियके भेदसे इन्द्रियाँ दो प्रकारकी हैं। इनमें भावेन्द्रियाँ लब्धि और उपयोग रूप हैं तथा द्रव्येन्द्रियाँ निर्वृति और उपकरण रूप मानी गई हैं ॥५॥ स्पर्शन इन्द्रिय अनेक आकारवाली है, रसना खुरपीके समान है, घ्राण अतिमुक्तक-तिल पुष्पका अनुकरण करती है, चक्षु मसूरका अनुसरण करती है और कर्ण इन्द्रिय यवकी नलीके समान है। इस प्रकार द्रव्येन्द्रियों का आकार कहा ।।८६-८७॥ एकेन्द्रिय जीवकी स्पर्शन इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय चार सौ धनुष है । उसके आगे असैनी पञ्चेन्द्रिय तक दूना-दूना होता जाता है ॥८॥ इस प्रकार द्वीन्द्रियके स्पर्शनका विषय आठ सौ धनुष, त्रीन्द्रियके सोलह सौ धनुष, चतुरिन्द्रियके बत्तीस सौ धनुष और असैनी पञ्चेन्द्रियके चौंसठ सौ धनुष है। रसना इन्द्रियका विषय द्वीन्द्रिय जीवके चौंसठ धनुष, त्रीन्द्रियके एक सौ अट्ठाईस धनुष, चतुरिन्द्रियके दो सौ छप्पन धनुष, और असैनी पञ्चेन्द्रियके पाँच सौ धनुष है। घ्राण इन्द्रियका विषय त्रीन्द्रिय जीवके सौ धनुष, चतुरिन्द्रियके दो सौ धनुष और असैनी पञ्चेन्द्रियके चार सौ धनुष प्रमाण है ॥८|| चतुरिन्द्रिय जीव अपनी चक्षुरिन्द्रियके द्वारा उनतीस सौ चौवन योजन तक देखता है ।।६०॥ और असैनी पञ्चेन्द्रियके चतुका विषय उनसठ सौ साठ योजन है। एवं असैनी पञ्चेन्द्रियके श्रोत्रका विषय एक योजन है ॥६१।। सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव नौ योजन दूर स्थित स्पर्श, रस और गन्धको यथायोग्य ग्रहण कर सकता है
१. ययौ म०। २. आहारसरीरिंद्रियपजत्तीबाणपाणभासमणो। चत्तारि पंच छप्पिय एइंदिय वियल सरणीणं ॥११८|| गो० जी० । ३. लन्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् त० सू०। ४. निवृत्ति म०। निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् त० सू० ।
५. चक्खू सोदं घाणं जिन्भायारं मसूर जवणाली।
अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेयस ठाणं ।। ६. धणुवीसड दसय कदी जोयण छादारल हीणतिसहस्सा। असहस्स धणु विसया दुगुणा अस रिणत्ति ||१६७॥
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अष्टादशः सर्गः
२६९ सहस्रैः सप्तभिः सन्ना चत्वारिंशत्सहस्रकैः । त्रिषष्ट्या च द्विशत्या च योजनैश्चक्षुषेक्षते ॥१३॥ इत्यनेकविकल्पेऽस्मिन् संसारे सारवर्जिते । मोक्षसाधनतः सारं मानुष्यं दुर्लभं च तत् ॥९॥ दुष्कर्मोपशमाल्लब्ध्वा तन्मानुष्यं कथञ्चन । यस्नो भवविरक्तन विधेयो मुक्तये विदा ॥१५॥ अथात्रावसरेऽपृच्छन्नत्वा केवलिनं भवान् । पूर्वानन्धकवृष्णिः स्वानित्युवाच च सर्ववित् ॥१६॥ साकेते रत्नवीर्यस्य राज्ञो राज्ये जिताहिते । तार्थ वृषमनाथस्य वर्तमाने महोदये ॥९॥ श्रेष्टी सुरेन्द्रदत्तोऽभूद्वात्रिंशत्कोटिभिर्धनी । तस्य जैनस्य मित्रं च रुद्रदत्तोऽभवद्विजः ।।५।। तिथिपर्वचतुर्मासी जिनपूजार्थमस्य सः । दत्त्वार्थं द्वादशाब्दान्तं वणिग्यातो वणिज्यया ॥१९॥ स द्यूतवेश्याव्यसनी विनाश्य द्रविणं द्विजः । चौर्यगृहीतमुक्तोऽगादुल्कामुखवनं खलः ॥१०॥ स हि मुष्णन् सह व्याधैर्लोकं ब्याधिनिमो हतः । सेनान्या श्रेणिकेनागान्नरकं रौरवं ततः ॥१०॥ 'देवस्वस्य विनाशेन त्रयस्त्रिंशदुदन्यताम् । समं कालं महादुःखं प्राप्योद्वाभ्रमद् भवे ॥१०२॥ पापस्योपशमात् पश्चादुदमद् गजपुरे पुरे । कापिष्टलायनाभिख्यादनुमत्यामिह द्विजः ॥१०॥
और बारह योजन दूर तकके शब्दको सुन सकता है ।।९२॥ सैनी पंचेन्द्रिय जीव अपने चक्षुके पारा सैंतालीस हजार दो सौ त्रेशठ योजनकी दूरीपर स्थित पदार्थको देख सकता है ॥९॥ इस प्रकार यह असार संसार अनेक विकल्पोंसे भरा हुआ है। इसमें मोक्षका साधक होनेसे मनुष्य पर्याय ही सार है परन्तु वह अत्यन्त दुर्लभ है ।।९४।। दुष्कर्मोंका उपशम होने से यदि किसी तरह मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई है तो बुद्धिमान् मनुष्यको संसारसे विरक्त होकर मुक्ति प्राप्तिके लिए प्रयत्न करना चाहिए ।।९५॥
__ अथानन्तर इसी बीचमें केवली भगवान्को नमस्कार कर अन्धकवृष्णिने अपने पूर्वभव पूछे और सर्वज्ञ सुप्रतिष्ठ केवली उसके पूर्वभवोंका वर्णन इस प्रकार करने लगे ॥९६|| जब भगवान् वृषभदेवका महाप्रभावशालो तीर्थ चल रहा था तब अयोध्या नगरीमें राजा रत्नवीर्य राज्य करता था। उसके निष्कण्टक राज्यमें एक सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था जो बत्तीस करोड़ दीनारोंका धनी था, जैनधर्मका परम श्रद्धालु था और रुद्रदत्त ब्राह्मण उसका मित्र था ॥९७-९८।। कदाचित् सुरेन्द्रदत्त सेठ बारह वर्ष तक अष्टमी, चतुर्दशी, आष्टाह्निक पर्व तथा चौमासोंमें जिनपूजाके लिए उपयुक्त धन, रुद्रदत्तको देकर व्यापारके लिए बाहर चला गया ॥९९।। ब्राह्मण रुद्रदत्त बड़ा दुष्ट था। उसने जुआ तथा वेश्या व्यसनमें पड़कर वह धन शीघ्र ही नष्ट कर दिया। जब धन नष्ट हो गया तब चोरी करने लगा। चोरीके अपराधमें पकड़ा गया और जब छूटा तब उल्कामुख नामक वनमें जाकर रहने लगा ॥१००।। वहां वह भीलोंके साथ मिलकर लोगोंको लूटने लगा और अपने दुष्कर्मसे लोगोंके लिए व्याधिस्वरूप हो गया। अन्तमें श्रेणिक नामक सेनापतिके हाथसे मरकर गैरव नामक सातवें नरक गया ||१०|| देवद्रव्यके हडपनेसे वह तैंतीस सागर तक करकके भयंकर दुःख भोगकर वहाँसे निकला और संसारमें भ्रमण करता रहा ॥१०२॥ कदाचित् पाप कमंका उपशम होनेसे वह हस्तिनागपुरमें कापिष्ठलायन नामक ब्राह्मणकी अनुमति नामक स्त्रीसे गौतम नामक ब्राह्मण-पुत्र हुआ। वह महादरिद्र था, उत्पन्न होते ही उसके माता-पिता मर गये
१. सण्णिस्स वार सोदे तिण्हं णव जोयणाणि चक्खुस्स ।
सत्तेताल सहस्सा बेसद तेसटिमदिरेया ।।१६८।। तिण्णिसयसठि विरहिद लक्खं दसमूलताडिदे मूलं ।
णवगुणिदे सठिहिदे चक्खुप्फासस्स अद्धाणं ॥१६९॥ गो. जी.। २. वणिज्यातो म.। ३. देवद्रव्यस्य ।
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हरिवंशपुराणे
निःश्रीगौतमनामासौ कृतमातृपितृक्षयः । साधुं भुञ्जानमद्राक्षीद् भिक्षार्थी पर्यटन् वदुः ॥ ३०४ ॥ समुद्रदत्तनामानमनुगम्य तमाश्रमे । जगादात्मसमं यूयं कुरुध्वं मां बुभुक्षितम् ॥१०५॥ भव्य मसौ बुद्ध्वा दीक्षां तस्मै ददौ गुरुः । पापं वर्षसहस्रेण विघ्नकृत् सोऽप्यशीशमत् ॥ १०६॥ स श्रीगौतमसंज्ञाकः प्राप्तोऽक्षीणमहानसम् । पदानुसारिणीं लब्धि बीजबुद्धिरसद्धिमान् ॥ १०७ ॥ आराध्याराधनां सम्यक् सुविशालमगाद् गुरुः । शिष्यो वर्षसहस्राणि पञ्चाशत् स तपोऽतपत् ॥ १०८ ॥ उदियाय स तत्र सुविशाले विशालधीः । स्थिति संमानयन्मान्यामष्टाविंशतिसागरैः ॥१०९॥ अहमिन्द्रसुखं भुक्त्वा सोऽवतीर्य ततो नृपः । संजातोऽन्धकवृष्णिस्त्वमहं तु भवतो गुरुः ॥ ११० ॥ अप्राक्षीत् पूर्वजन्मानि दुःखितः क्षितिपः पुनः । स्वपुत्राणां दशानां च केवली च जगाविति ॥ १११ ॥ सद्भदिलपुरे राजा नाम्नो मेघरथोऽभवत् । मार्या तस्य सुभद्राख्या तयोर्दृढरथः सुतः ॥ ११२ ॥
I
यो राजसमस्तस्य भार्या नन्दयशाः सुते । सुदर्शना च सुज्येष्ठा धनदत्तस्य सूनवः ॥ ११३ ॥ धनश्च जिनदेवौ च पालान्तास्ते त्रयो मताः । अहंदासः प्रसिद्धश्च जिनदासस्तथा परः ।। ११४ ॥ अर्हन्त इति ख्यातो जिनदत्तः परः स्मृतः । प्रियमित्रः प्रतीतोऽन्यस्तथा धर्मरुचिध्वनिः ।। ११५ ।। सुमन्दरगुरोः पार्श्व प्रवत्राज नरेश्वरः । धनदत्तोऽपि पुत्रैस्तैर्नवभिः सह दीक्षितः ।। ११६ ॥ सुदर्शनार्थिकापार्श्वे सुभद्रा च सुदर्शना । सुज्येष्ठा च तपो ज्येष्टं सहैव प्रतिपेदिरे ।। ११७ || धनदत्तो गुरुश्चैव वाराणस्यां नृपस्तथा । केवलज्ञानमुत्पाद्य विहृत्य वसुधां क्रमात् ॥ ११८ ॥
२७०
थे तथा भीख मांगता हुआ वह इधर-उधर घूमता-फिरता था। एक बार उसने समुद्रदत्त नामक मुनिराजको आहार करते देखा । आहारके बाद वह उनके पीछे लग गया तथा आश्रम में पहुँचने पर उनसे बोला कि मैं भूखा मरता हूँ आप मुझे अपने समान बना लीजिए || १०३ - १०५ ॥ मुनिराजने उसे भव्य प्राणी जानकर दीक्षा दे दी और उसने भी दीक्षा लेकर एक हजार वर्षकी कठिन तपस्या से विघ्नकारक पापोंका उपशम कर दिया || १०६ || तपस्याके प्रभावसे उक्त गौतम मुनि, बीजबुद्धि तथा रसऋद्धिसे युक्त हो गये और अक्षीणमहानस एवं पदानुसारिणी ऋद्धि भी उन्होंने प्राप्त कर ली ||१०७ || गुरु समुद्रदत्त मुनि, अच्छी तरह आराधनाओंकी आराधना कर छठे ग्रैवेयक के सुविशाल नामक विमानमें अहमिन्द्र हुए और शिष्य गौतम मुनिने पचास हजार वर्ष तप किया ॥१०८॥ अन्तमें विशाल बुद्धिके धारक गौतम मुनि भी अट्ठाईस सागरकी सम्भावनीय आयु प्राप्तकर उसी सुविशाल विमान में उत्पन्न हुए || १०९ || अहमिन्द्रके सुख भोगनेके बाद वहाँसे चलकर गौतमका जीव तो अन्धकवृष्णि हुआ है और तेरा गुरु मुनि समुद्रदत्तका जीव मैं सुप्रतिष्ठ हुआ हूँ ॥११०॥
तदनन्तर दुःखी होते हुए राजा अन्धकवृष्णिने अपने दशों पुत्रोंके पूर्व भव पूछे सो केवली भगवान् इस प्रकार कहने लगे ॥ १११ ॥ उन्होंने कहा कि किसी समय सद्भद्रिलपुर नगर में राजा मेघरथ रहता था, उसकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था और उन दोनोंके दृढ़रथ नामका पुत्र था ॥ ११२ ॥ उसी नगर में राजाकी तुलना करनेवाला धनदत्त नामका सेठ रहता था उसकी स्त्रीका नाम नन्दयशा था । नन्दयशासे उसके सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामकी दो कन्याएँ तथा धनपाल, जिनपाल, देवपाल, अद्दास, जिनदास, अद्दत्त, जिनदत्त, प्रियमित्र और धर्मरुचि ये नौ पुत्र उत्पन्न हुए ||११३ - ११५ ॥ कदाचित् राजा मेघरथने सुमन्दर गुरुके पास दीक्षा ले ली । यह देख सेठ धनदत्त भी अपने नौ ही पुत्रोंके साथ दीक्षित हो गया ॥ ११६ ॥ । और सुदर्शना नामक आर्थिक के पास सुभद्रा सेठानी तथा उसकी सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक दोनों पुत्रियोंने साथ ही साथ दीक्षा धारण कर ली ||११७|| कदाचित् धनदत्त सेठ, सुमन्दर गुरु और मेघरथ राजा - तीनों ही मुनि १. सुरद्धिमान् म. । २. षष्ठग्रैवेयके विशालनाम्नि विमाने । ३. श्रेष्ठी । ४. सुस्येष्टा म । ५. विहृता म. ।
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अष्टादशः सर्गः
सप्तभिः पञ्चभिः पूंज्या वर्षैर्द्वादशमिश्च ते । अन्ते सिद्धशिलारूढाः सिद्धा राजगृहे पुरे ॥ ११९॥ अन्तर्वनी प्रसूता सा पूर्वनन्दयशाः सुतम् । धनमित्रं यथा योग्यं संस्थज्य तपसि स्थिता ॥ १२०॥ पुत्रान् सिद्ध शिलारूढान् प्रायोपगमनस्थितान् । वन्दित्वा पुत्रमातृत्वमावृणोत् स्नेहमोहिता ॥ १२१ ॥ स्नेह गहरमोहिन्यौ भगिन्यौ च तदैच्छताम् । सोदरत्वं मवेऽन्यत्र किं वा स्नेहस्य दुष्करम् ॥१२२॥ माता सुताः समाराध्य देवा भूत्वाच्युतेऽखिलाः । द्वाविंशतिसमुद्रान्तं कालं भुक्त्वा परं सुखम् ॥ १२३ ॥ अवतीर्य ततो भूमिं देवीदुहितृदेहजाः । तबैवं भूप ! चित्रा हि परिणामवशाद् गतिः ॥ १२४॥ बमाण भगवानन्ते वसुदेव मवान्तरम् । प्रणिधानपरोस्केर्ण नरदेवसमान्तरे ॥ ३२५॥ कश्चिद्भवाब्धिदुःखोर्मिनिमग्नोन्मग्नताकुलः । प्राणी प्राप युगच्छिद्रं कीलवत् नृभवान्तरम् ॥ १२६ ॥ मागधाभिधदेशेऽसौ शालिग्रामेऽग्रजन्मनोः । अभूदुर्विधैयोस्तोकं 'स्तोकं नोपनयत् सुखम् ॥१२७॥ गर्भस्थेऽपि पिता तस्मिन्नर्भकेऽमृत मातृका । दुर्भगस्याष्टवर्षस्य 'निर्मा मातृष्वसा शुचा ॥ १२८ ॥
२७१
बनारस आये और वहाँ केवलज्ञान उत्पन्न कर पृथिवीपर विहार करने लगे ।। ११८ || पूजनीय धनदत्त, सुमन्दर गुरु और मेघरथ मुनि क्रमसे सात वर्ष, पाँच वर्ष और बारह वर्ष तक पृथिवीपर विहार कर अन्तमें राजगृह नगरसे सिद्धशिलापर आरूढ़ हुए - मोक्ष पधारे ॥ ११९ ॥ उस समय सेठ धनदत्तकी स्त्री नन्दयशा गर्भवतो थी इसलिए दीक्षा नहीं ले सकी थी परन्तु जब उसके धनमित्र नामका पुत्र हो गया और वह योग्य बन गया तब वह भी उसे छोड़ तप करने लगो ॥१२०॥
एक दिन सेठ धनदत्तके पुत्र धनपाल आदि नौके- नौ मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर सिद्धशिलावर विराजमान थे। मुनियोंकी माता आर्यिका नन्दयशाने उन्हें देख वन्दना की और स्नेहसे मोहित हो निदान किया कि मैं अग्रिम भवमें भी इनकी माता बनूं ॥ १२१ ॥ मुनियोंकी बहन सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक आर्यिकाओंने भी स्नेहरूपी गर्त में मोहित हो निदान किया कि ये अग्रिम भव में भी हमारे भाई हों । सो ठोक ही है क्योंकि स्नेहके लिए क्या कठिन है ? ॥१२२॥ अन्तमें 'समाधि धारण कर माता, पुत्र और पुत्रियाँ - सबके सब अच्युत स्वर्ग में देव हुए। तदनन्तर बाईस सागर तक उत्कृष्ट सुख भोगकर वहाँसे चले और पृथिवीपर आकर हे राजन् ! तुम्हारी स्त्री, त्रियाँ तथा पुत्र हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि परिणामोंके अनुसार नाना प्रकारकी गति होती ही है । भावार्थ - नन्दयशाका जीव तो तुम्हारी रानी सुभद्रा हुआ है, सुदर्शना और सुज्येष्ठाके जीव क्रमसे कुन्ती ओर माद्री हुए हैं तथा धनपाल आदिके जीव वसुदेवके सिवाय नो पुत्र हुए हैं ॥१२३-१२४।।
तदनन्तर भगवान् सुप्रतिष्ठ केवली, ध्यानमें तत्पर एवं कान खड़े कर बैठे हुए मनुष्य और देवोंकी उस सभा में वसुदेवके भवान्तर कहने लगे - ||१२५ || जिस प्रकार समुद्रको लहरोंमें तैरती हुई कील एके छिद्रको बड़ी कठिनाईसे प्राप्त कर सकती है उसी प्रकार संसार-सागरको दुःखरूपी लहरोंमें डूबता और उबरता हुआ यह प्राणी मनुष्य भवको बड़ी कठिनाईसे प्राप्त कर पाता है ॥ १२६ ॥ | इसी पद्धतिसे वसुदेवका जीव मागध देशके शालिग्राम नामक नगर में रहनेवाले अत्यन्त ब्राह्मण और ब्राह्मणीके यहाँ ऐसा पुत्र हुआ जिसे थोड़ा भी सुख प्राप्त नहीं था || १२७|| जब वह गर्भ में था तब पिता मर गया । और उत्पन्न होते ही माता मर गयी इसलिए मौसीने इसका पालन-पोषण किया परन्तु वह लगभग आठ वर्षका ही हो पाया था कि उसकी मौसी भी शोकके
१. पूजा म. । २. परोत्कर्म म. । ३. दरिद्रयोः । ४. पुत्रः । तोकः क. । ५. इतः आरभ्य १३१ श्लोकपर्यन्ताः श्लोकाः 'ख' पुस्तके न सन्ति । 'क' पुस्तकेऽपि पश्चात् केनापि पादटिप्पण्यां योजिताः । ६. शोकेन मातृष्व
सापि निर्भा दीप्तिरहिता जाता मृतेत्यर्थः ।
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हरिवंशपुराणे पुरे राजगृहे सोऽथ मातुलस्य गृहेऽवसत् । भर्तुःस्वस्रीय इत्येष पितृष्वस्रानुपालितः ॥१२९॥ मलग्रस्तशरीरोऽसावुग्रगन्धोऽजपोतवत् । विकीर्णशीर्णकेशायः कुचेलः पिङ्गलेक्षणः ॥१३०॥ दुहितर्मातुलस्यासौ वान्छन् दमरकश्रुतेः । ताभिर्जुगुप्सुभिर्दुःखी स्वगृहाद्विनिघाटितः ॥१३१॥ दुर्भाग्याग्निशिखालीढः स्थाणुरेष 'मलीमसः । मर्तुमिच्छन् पतङ्गाभो वेभारे साधुभितः ॥१३२।। निन्दित्वात्मानमाकर्ण्य धर्माधर्मफलं ततः । प्रावाजीद् गुरुपादान्ते शान्त: संख्याख्ययोगिनः ॥ ३३॥ चचार गुरुवंदेशादाशापाशविनाशनः । तपोऽन्य इश्वरं चारुचारित्रज्ञानदर्शनः ॥१३॥ ननन्द नन्दिषेणाख्यस्तपसोत्पन्नलब्धिभिः । एकादशाङ्गभृत्साधुः सोढाशेषपरीषहः ॥१३५॥ उपवासविधिर्यो यः शासनेऽन्यातिदुष्करः । तस्य धैर्यवतः साधोः स सर्वः सुकरोऽभवत् ॥१३६॥ आचार्यग्लानशैक्ष्यादिदशभेदमुदीरितम् । वैयावृत्यतपश्चक्रे सविशेषमसावृषिः ॥१३७॥ महालब्धिमतस्तस्य वैयावृत्योपयोगि यत् । वस्तु तचिन्तितं हस्ते भेषजाद्याशु जायते ॥१३॥ तपो वर्षसहस्राणि बहूनि तपतोऽस्य च । वैयावृत्यं तपः शक्रः शशंस सुरसंसदि ॥१३॥ काले संप्रति साधूनां वैयावृत्यं करोति यः । नन्दिषेणः परो जातो जम्बूद्वीपस्य भारते ॥१४॥ यद्येन चिन्तितं पथ्यमनुलाधसुदृष्टिना । तत्तस्य क्षिप्रमक्षणं स संपादयति क्षमी ॥१४॥
कारण प्राणरहित हो गयो ॥१२८।। अब वह राजगृह नगरमें मामाके घर रहने लगा। वहाँ 'यह हमारे पतिका भानजा है' यह सोचकर बुआने उसका पालन-पोषण किया ।।१२९।। इसका शरीर मलसे ग्रस्त था. शरीरसे छागके बच्चेके समान तीव्र गन्ध आती थी, केश रूखे तथा बिखरे हए थे. वह मैले-कुचैले वस्त्र पहने रहता था और उसकी आँखें स्वभावसे ही पीली थीं ॥१३०|| इतनेपर भी वह अपने मामा दमरककी पुत्रियोंके साथ विवाह करना चाहता था। परन्तु विवाह करना तो दूर रहा घृणा करनेवाली उन पुत्रियोंने उसे घरसे निकाल दिया जिससे वह बहुत दुःखी हुआ ॥१३१।। अन्त में वह दुर्भाग्यरूपी अग्निकी शिखाओंसे झुलसकर दूंठके समान मलिन हो गया
और पतंगकी तरह कूदकर मरनेकी इच्छासे वैभार गिरिपर गया परन्तु मुनियोंने उसे रोक लिया ॥१३२॥ तदनन्तर धर्म-अधर्मका फल सुनकर उमने अपने-आपकी बहुत निन्दा की और शान्त हो संख्य नामक मुनिराजके चरण मूलमें दीक्षा धारण कर ली ।।१३३।। गुरुके सम्यक् उपदेशसे आशारूपी पाशको नष्ट कर वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रका धारक हो गया और अन्य मनुष्योंके लिए दृश्चर तप तपने लगा ॥१३४|| उसका नन्दिषेण नाम था. वह तपके प्रभावसे उत्पन्न ऋद्धियोंसे युक्त हो गया, ग्यारह अंगका धारी एवं समस्त परीषहोंको सहनेवाला उत्तम साधु हो गया ।।१३५।। शास्त्रोंमें जो-जो उपवास दूसरोंके लिए अत्यन्त कठिन थे वे सब उस धैर्यशाली साधुके लिए सरल हो गये ||१३६।। आचार्य, ग्लान, शैक्ष्य आदिके भेदसे जिसके दश भेद बताये गये हैं उस वैयावृत्य तपको वह विशेष रूपसे करता था ॥१३७॥ वह मुनि बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंसे युक्त था इसलिए वैयावृत्यमें उपयोग आनेवाली जिस औषधि आदिका वह विचार करता था वह शीघ्र ही उसके हाथमें आ जाती थी॥१३॥ इस प्रकार मुनि नन्दिषेणको तप करते हुए जब कई हजार वर्ष बीत गये तब एक दिन इन्द्रने देवोंको सभामें उसके वेयावत्य तपकी प्रशंसा की ॥१३९।। इस समय जम्बू द्वीपके भरत क्षेत्रमें जो साधुओंकी वैयावृत्य करता है वह नन्दिषेण मुनि सबसे उत्कृष्ट है ।।१४०।। क्योंकि रोगसे पीड़ित मुनि जिस पथ्यकी इच्छा करता है उसे क्षमाको धारण करनेवाला नन्दिषेण मुनि शीघ्र ही पूर्ण कर देता है ॥१४१।। गृहस्थकी तो बात ही क्या १. मणीमयः म.। मलीमयः ग., ङ.। २. वृतः म.। ३. अस्मादग्रे 'तपोलब्धिप्रभावेन वैयावृत्यं करोति सः इति 'ख' पुस्तकेऽधिकः । ४. रोगयुक्तसुदृष्टिना 'उल्लाघो निर्गतो गदात' इति कोषः। न उल्लाघोऽनुल्लाघः स चासौ सुदृष्टिश्च तेन ।
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अष्टादशः सर्गः
२७३
प्रासुकद्रव्ययोगेन वैयावृत्योद्यतस्य हि । संयतस्यापि नो बन्धो निर्जरैव तु जायते ॥१४२॥ 'धर्मसाधनमाद्यं हि शरीरमिह देहिनाम् । तस्य धारणमाधेयं यथाशक्ति च शासने ।।१४३।। सम्यग्दृष्टिरशेषोऽपि मन्दग्लानादिरादरात् । पर्युपासनया नित्यमुपचर्यः सुदृष्टिना ॥१४॥ प्रतीकारसमर्थोऽपि यत्सुदृष्टिमुपेक्षते। व्याधिक्लिष्टमसौ नष्टः सम्यक्त्वस्यापबृंहकः ॥१४५।। यन्नोपयुज्यते यस्य धनं वा वपुरेव वा । स्वशासनजने तेन तस्य किं बन्धहेतुना ॥१४६।। तदेव हि धनं तस्य वपुर्वा सर्वथा मतम् । यद्यस्य शासनस्थानां यथास्वमुपयुज्यते ॥१४॥ शक्तस्योपेक्षमाणस्य सददष्टिजनमापदि । का वा कठिनचित्तस्य जिनशासनभक्तता ॥१४८॥ सम्यक्त्वशुद्विशुद्ध तु जैने भक्तिविलोपने । पुंसो मिथ्याविनीतस्य का वा दर्शनशुद्धिता ॥१४९।। बोधिलाभनिमित्ताया दृष्टिशुद्धेविबाधने । पुनर्बोधिपरिप्राप्तिदुर्लभा मवसंकटे ।। १५०॥ बोधिलाभपरिप्राप्तावसत्यां मुक्तिसाधनम् । कुतो वृत्तमभावेऽस्य कुतो मुक्तिस्तदर्थिनः ॥१५॥ मुक्त्यमावे कुतः सौख्यमनन्तमनपायि च । सौख्याभावे कुतः स्वास्थ्यं स्वास्थ्यामावे कुतः कृती॥१५२॥ अतः सर्वात्मना भाव्यं यथास्वं स्वहितैषिणा । वैयावृत्योद्यतेनाऽत्र यतिना गृहिणा तथा ॥१५३॥ शरीरं दर्शनं ज्ञानं चारित्रं परमं तपः । वैयावृत्यकृता सर्व स्थापितं हि परात्मनोः ॥१५॥ शासनस्थितिविद् विद्वानुपकुर्वन् परं स्वयम् । निरपेक्षोपकारो वः परात्मलघुमोक्षमाग ॥१५५॥
प्रासुक द्रव्यके द्वारा वैयावृत्य करने में तत्पर रहनेवाले मुनिको भी उससे बन्ध नहीं होता किन्तु निर्जरा ही होती है ।।१४२।। इस संसारमें शरीर ही प्राणियोंका सबसे पहला धर्मका साधन है इसलिए यथाशक्ति उसकी रक्षा करनी चाहिए। यह आगमका विधान है ॥१४३।। मन्द शक्ति अथवा बीमार आदि जितने भी सम्यग्दृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि मनुष्यको उन सबको वैयावृत्य द्वारा निरन्तर सेवा करनी चाहिए॥१४४।। जो प्रतिकार करने में समर्थ होकर भी रोगसे दुःखी सम्यग्दृष्टिकी उपेक्षा करता है वह पापी है तथा सम्यग्दर्शनका घात करनेवाला है ।।१४५।। जिसका धन अथवा शरीर सहधर्मी जनोंके उपयोगमें नहीं आता उसका वह धन अथवा शरीर किस कामका? वह तो केवल कर्मबन्धका ही कारण है ॥१४६॥ जिसका जो धन अथवा जो शरीर सहधर्मी जनोंके उपयोगमें आता है यथार्थमें वही धन अथवा वही शरीर उसका है ॥१४७॥ जो समर्थ होकर भी आपत्तिके समय सम्यग्दृष्टिको उपेक्षा करता है उस कठोर हृदय वालेके जिनशासनकी क्या भक्ति है ? कुछ भी नहीं है ॥१४८।। जो सम्यग्दर्शनको शुद्धतासे शुद्ध सहधर्मीकी भक्ति नहीं करता है वह झूठ-मूठका विनयी बना फिरता है उसके सम्यग्दर्शनको शुद्धि क्या है! ॥१४९।। यदि बोधिको प्राप्तिमें निमित्तभूत दर्शनविशुद्धिमें बाधा पहुँचायी जाती है तो फिर इस संसारके संकटमें पुनः बोधिकी प्राप्ति दुर्लभ ही समझनी चाहिए ॥१५०।। यदि बोधिकी प्राप्ति नहीं होती है तो मुक्तिका साधनभूत चारित्र कैसे हो सकता है ? और जब चारित्र नहीं है तब मुक्तिके अभिलाषी मनुष्यको मुक्ति कैसे मिल सकती है ? ॥१५१।। मुक्तिके अभावमें अनन्त एवं अविनाशी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? सुखके अभावमें स्वास्थ्य कैसे मिल सकता है ? और स्वास्थ्यके अभावमें यह जीव कृत्यकृत्य कैसे हो सकता है ? ॥१५२॥ इसलिए आत्महित चाहनेवाला चाहे मुनि हो चाहे गृहस्थ, उसे सब प्रकारसे अपनो शक्तिके अनुसार वैयावृत्य करने में उद्यत रहना चाहिए ॥१५३॥ जो मनुष्य वैयावृत्य करता है वह अपने तथा दूसरेके शरीर, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं उत्तम तप आदि सभी गुणोंको स्थिर करता है ॥१५४।। जिन-शासनकी रीतिको जाननेवाला जो विद्वान् परका उपकार करता हुआ स्वयं प्रत्युपकारको अपेक्षासे रहित होता है वह शीघ्र ही स्वपर आत्माका मोक्ष प्राप्त १. 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' कुमारसम्भवे । २. हानिकारकः । ३. बन्धुहेतुना म., क. । ४. शासनस्थानं म.। ५. दर्शनज्ञानं म.।
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२७४
हरिवंशपुराणे वैयावृत्यप्रवृत्तो यः शासनातिमावितः । न स शक्यः सुरै रोर्बु किं पुनः क्षुद्रजन्तुमिः ॥५६॥ नन्दिपेणमुनिश्चैष तथाविध इति स्तुते । सौधर्मेन्द्रेण देवास्तं प्रशशंसुः प्रणामिनः ॥१५॥ मुनिधैर्यपरीक्षार्थं तत्रैको विबुधस्तदा । मुनिरूपधरः प्राह नन्दिषेणमिति श्रितः ॥१५८॥ वैयावृत्यमहानन्द नन्दिषेण मुने शृणु । व्याधिव्यथितदेहस्य देहि मे किंचिदौषधम् ॥१५९॥ इत्युक्तस्स तमाहैवमविकल्पानुकम्पया । ददामि वत ते साधो रुचिः कस्मिन्निहाशने ॥१६॥ पूर्वदेशजशालीनामोदनः सुरभिः शुभः । पञ्चालदेशमुद्गानां सूपः स्वादुरसान्वितः ॥१६॥ हैयङ्गवीनमुत्तप्तमपरान्तभुवां गवाम् । पयः कलिङ्गधेनूनां सुसृष्टं व्यञ्जनान्तरम् ॥१६२॥ लभ्येत यदि साधु स्यात् श्रद्धा ह्यत्र ममाधिका । इत्युक्तश्चानयामीति जगाम श्रद्धयान्वितः ॥१६३॥ विरुद्ध देशवस्तूनां प्रार्थनेऽप्यविषण्णधीः । गत्वा गोचरवेलायामानीय सहसा ददौ ॥१६४॥ उपभुक्तानपानोऽसौ शरीरान्तर्मलाविलः । धौतस्तेन स्वहस्ताभ्यां निशि निर्विचिकित्सया ॥१६५॥ अभग्नोत्साहमालोक्य नन्दिषेणमनिन्दितम् । वयावृत्यकृतं प्रोचे दिव्यरूपधरः सुरः ॥१६॥ यथा देवसभेऽस्तोषीद भवन्तं मघवानृषे । वैयावृत्योद्यतो लोके तथैव भगवान् भवान् ॥१६॥ अहो लब्धिरहो धैर्यमहो निर्विचिकित्सता । अहो शासनवात्सल्यमशल्यं तव सन्मुनेः ॥१६८॥
अन्येषामपि यद्येषा मनीषा स्यान्मनीषिणाम् । कालत्रये तपस्यत्र तेषां शासनभक्तता ।।१६९॥ करता है ।।१५५।। जो जिनशासनके अर्थको उत्कट भावना करता हुआ वैयावृत्य करने में प्रवृत्त रहता है उसे देव भी रोकनेके लिए समर्थ नहीं हैं फिर क्षुद्र जीवोंकी तो बात ही क्या है ॥१५६।। यह नन्दिषेण मुनि ऐसे ही उत्तम मुनि हैं इस प्रकार सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुति किये जानेपर सब देवोंने उनकी प्रशंसा की और परोक्ष नमस्कार किया ॥१५७। उन्हीं देवोंमें एक देव, मुनिके धैर्यकी परीक्षाके लिए मुनिका रूप रख नन्दिषेण मुनिराजके पास पहुंचा और इस प्रकार कहने लगा ।।१५८॥ हे वैयावृत्यमें महान् आनन्द धारण करनेवाले नन्दिषेण मुनि ! मेरा शरीर व्याधिसे पीड़ित हो रहा है इसलिए मुझे कुछ ओषधि दीजिए॥१५९॥ उसके इस प्रकार कहनेपर नन्दिषेण मुनिने अपनी अखण्ड अनुकम्पासे कहा कि हे साधो ! मैं ओषधि देता हूँ परन्तु यह बताओ कि तुम्हारी किस भोजनमें रुचि है ? ॥१६०।। मुनि रूपधारी देवने कहा-पूर्वदेशके धानका शुभ एवं सुगन्धित भात, पंचाल देशको मूंगकी स्वादिष्ट दाल, पश्चिम देशकी गायोंका तपाया हुआ घी, कलिंग देशकी गायोंका मधुर दूध और नाना प्रकारके व्यंजन यदि मिल जावें तो अच्छा हो क्योंकि मेरी श्रद्धा इन्हीं चीजोंमें अधिक है । इस प्रकार कहनेपर 'मैं अभी लाता हूँ' यह कहकर नन्दिषेण मुनि बड़ी श्रद्धाके साथ उक्त आहार लेनेके लिए चल दिये ॥१६१-१६३॥ विरुद्ध देशकी वस्तुओंकी चाह होनेपर भी उनके मनमें कुछ भी खेद उत्पन्न नहीं हुआ और गोचरी वेलामें जा कर तथा उक्त सब आहार लाकर उन्होंने शीघ्र ही उस कृत्रिम मुनिको दे दिया ।।१६४।। कृत्रिम मुनिने उस आहार पानीको ग्रहण किया परन्तु रात्रि में शरीरके अन्तर्गत मलसे उसका समस्त शरीर मलिन हो गया और नन्दिषेण मुनिने बिना किसी ग्लानिके उसे अपने हाथोंसे धोया ॥१६५।। तदनन्तर जिनका उत्साह भग्न नहीं हुआ था, तथा जो बराबर वैयावृत्य कर रहे थे ऐसे प्रशंसनीय नन्दिषेण मुनिको देखकर दिव्य रूपको धारण करनेवाले देवने कहा कि हे ऋषे! देवोंकी सभामें इन्द्रने आपकी जिस प्रकार स्तुति की थी मैं देख रहा हूँ कि आप उसी तरह वैयावृत्य करने में उद्यत हैं ॥१६६-१६७॥ अहो ! आपकी ऋद्धि, आपका धैर्य, आपकी ग्लानि जीतनेको क्षमता और संशयरहित आपका शासन वात्सल्य सभी आश्चर्यकारी हैं, आप उत्तम मुनिराज हैं ॥१६८|| यदि तप करते समय अन्य बुद्धिमान् मनुष्योंकी भी इसी प्रकार त्रिकालमें वैयावृत्य करनेकी बुद्धि हो जावे तो उसे उनकी १. स्तुतेः म. । २. श्रौतस्तेन म. । ३. सन्मने म. ।
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अष्टादशः सर्ग:
२७५ इति स्तुत्वा मुनि नस्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य सः । स्वर्गी स्वर्गमगान्मार्ग जैनेन्द्रमतिवर्तयन् ॥१७॥ पञ्चत्रिंशरसहस्राणि वर्षाण्यतिगमय्य सः। प्रायोपगमनं भेजे षण्मासावधि धीरधीः ॥१७१॥ संन्यस्तवपुराहारः स्वपरास्तप्रतिक्रियः । श्रीसौभाग्यनिदानेन स्वं बबन्ध सुमोहतः ॥१७॥ निन्दितं नाकरिष्यच्चेन्निदानं स मुनिस्तदा । अबध्यत तदा शक्त्या तीर्थकृनाम तद्धवम् ॥१७३॥ स चाराध्य महाशुक्र शक्रतुल्यस्ततोऽभवत् । तत्र तस्थौ सुखं कालं सार्द्ध षोडशसागरम् ॥१७॥ स भुक्तसुरसौख्यस्ते ततः प्रच्युत्य पार्थिव । पार्थिवो वसुदेवोऽयं सुभद्रायामभूत्सुतः ॥१७५॥ इति श्रुत्वा भवान् पूर्वान् वृष्णिमासुताः स्वकान् । धर्मसंवेगसंपन्नाः संजाता नृसुरास्तथा ॥१७६॥ सुप्रतिष्ठं प्रणम्येयुस्त्रिदशा नृपतिः पुनः । समुद्रविजयं राज्ये साभिषेकमतिष्ठपन् ॥१७७॥ समय॒ वसुदेवं च समुद्रविजयाय सः । सुप्रतिष्ठस्य पादान्ते निष्क्रान्तस्तद्भवान्तकृत् ॥१७८॥ राज्ये भोजकवृष्णिश्च मथुरायां निधाय सः । उग्रसेनं समग्रेऽयं निर्ग्रन्थवतमग्रहीत् ॥१७॥
पृथिवीछन्दः समुद्रविजयः शिवां विहितपट्टबन्धी प्रियां
बधूनिवहमुख्यतामधिगमय्य राज्यस्थितिम् । स्थिरां स परिपालयन् सहजबन्धुभव्याम्बुजः
प्रतापममिवर्धयन्नुदयनैर्जिनाकों यथा ॥१८॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती समुद्रविजयराज्यलाभवर्णनो नामाष्टादशः सर्गः ॥१८॥ शासन भक्ति समझना चाहिए ॥१६९|| इस प्रकार वह देव, मुनिराजको स्तुति कर तथा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिन-शासनकी प्रभावना करता हुआ स्वर्गको चला गया ॥१७०|| अत्यन्त धीर बुद्धिको धारण करनेवाले नन्दिषेण मुनिने तपश्चरण द्वारा पैंतीस हजार वर्ष बिताकर अन्तिम समय छह माहका प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ॥१७१।। उन्होंने शरीर और आहारका त्याग कर दिया, वे अपने शरीरकी वैयावृत्ति न स्वयं करते थे न दूसरेसे कराते थे किन्तु इतना होनेपर भी मोहकी तीव्रतासे उन्होंने 'मैं अग्रिम भवमें लक्ष्मीमान् तथा सौभाग्यवान् होऊँ' इस निदानसे अपनी आत्माको बद्ध कर लिया ॥१७२।। यदि वे मुनि उस समय यह निन्दित निदान नहीं करते तो अपनी सामर्थ्यसे अवश्य ही तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध करते ॥१७३॥ तदनन्तर वह आराधनाओंकी आराधना कर महाशुक्र स्वर्गमें इन्द्र तुल्य देव हुआ और वहां साढ़े सोलह सागर तक सुखसे विद्यमान रहा ॥१७४।। हे राजन् ! वही पुत्र देवोंके सुख भोगकर अन्तमें वहाँसे च्युत हो तेरी सुभद्रा रानोसे यह पृथिवीका अधिपति वसुदेव नामका पुत्र हुआ है ॥१७५।। इस प्रकार अन्धकवृष्णि, उसकी सुभद्रारानी तथा समुद्रविजय आदि पुत्र सुप्रतिष्ठ केवलीसे अपने-अपने पूर्वभव सुनकर धर्म और संवेगको प्राप्त हुए। इनके सिवाय जो वहाँ मनुष्य तथा देव थे वे भी धर्म और संवेगको प्राप्त हुए। इनके सिवाय जो वहाँ मनुष्य तथा देव थे वे भी धर्म और संवेगको प्राप्त हए ॥१७६।। सुप्रतिष्ठ स्वामीको नमस्कार कर देवलोग अपने-अपने स्थानपर चले गये। तदनन्तर संसारका अन्त करनेवाले राजा अन्धकवृष्णिने समुद्रविजयका अभिषेक कर उसे राज्य-सिंहासनपर बैठाया और वसुदेवको समुद्रविजयके लिए सौंपकर सुप्रतिष्ठ केवलीके पादमूलमें दीक्षा धारण कर ली ॥१७७-१७८॥ उधर भोजकवष्णिने भी मथराके समग्र राज्यपर उग्रसेनको बैठाकर निग्रन्थ व्रत धारण कर लियामुनि दीक्षा ले ली ॥१७९॥ राजा समुद्रविजयने अपनी प्रियरानी शिवादेवीको पट्ट बाँधकर समस्त स्त्रियोंमें मुख्यता प्राप्त करा दी। तदनन्तर जिस प्रकार जिनेन्द्ररूपी सूर्य, अष्ट प्रातिहार्य रूप अभ्युदयसे प्रभावको बढ़ाते हुए भव्य जोवरूपी कमलोंको प्रसन्न करते हैं उसी प्रकार राज्य मर्यादाकी रक्षा करनेवाले राजा समुद्रविजय भी अपनी अनुपम विभूतिसे प्रतापको बढ़ाते हुए अपने बन्धुरूपी कमलोंको प्रसन्न करने लगे ॥१८०॥ इस प्रकार अरिष्टनेमि, पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें समुद्रविजयके
लिए राज्य प्राप्तिका वर्णन करनेवाला अठारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१८॥
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एकोनविंशः सर्गः अथाह गणनाथाद्यः शृणु श्रेणिक वर्ण्यते । चेष्टितं वसुदेवस्य वसुधाविजया जम् ॥१॥ समुद्रविजयो भूभृदष्टानां नवयौवने । भ्रातणां राजपुत्रीभिः सत्कल्याणमकारयत् ॥२॥ उवाह तिमक्षोभ्यस्तत; स्तिमितसागरः । स्वयंप्रमा प्रमानूनां सुनीतां हिमवानपि ॥३॥ सिताख्यां विजयः ख्यातां प्रियालापां तथाचलः । उपयेमे युवा धीरो धारणश्च प्रभावतीम् ॥४॥ कालिङ्गी पूरणश्चार्वीमभिचन्द्रश्च सुप्रमाम् । अष्टौ स्वापु महादेव्यस्त्वष्टानामपि ताः स्मृताः ॥५॥ कलागुणविदग्धानां तेषामासीत् सयोषिताम् । अन्योन्यप्रेमबद्ध नामनन्यसदृशी रतिः ॥६॥ तदा देवकुमाराभो वसुदेवः श्रिया श्रितः । शौर्यपुयां च चिक्रीड कुमारक्रीडया युतः ॥७॥ रूपलावण्यसौभाग्यभाग्यवैदग्ध्यवारिधिः । जहार जनचेतांसि कुमारो मारविभ्रमः ॥८॥ चतुणां लोकपालानां वेषमादाय हारिणम् । इन्द्रादिदिक्षु निःक्षुद्रः क्रमात्पुयां विनिर्ययो ।।९।। *निर्याति सूर्यदीप्ताङ्गे चन्द्रसौम्यमुखाम्बुजे । तत्र शौर्य पुरे स्त्रीणां मवत्याकुलता परा ॥१०॥ संघट्टः पुरनारीणां वसुदेवदिवाया। जायतेऽर्णववेलायां पूर्णचन्दोदये यथा ॥११॥ भूमौ रथ्या यथा स्त्रीमिस्त्यक्तप्रस्तुतकर्मभिः । प्रासादेषु गवाक्षाश्च सञ्छाद्यन्ते दिदृक्षमिः ।। १२॥ सौभाग्यहृतचेतस्कं बहिरन्तरितस्ततः । बभूव पुरमुभ्रान्तं वसुदेवकथामयम् ॥१३॥
अथानन्तर गौतम गणधरने कहा कि है श्रेणिक ! अब वसुदेवकी पृथिवी तथा विजयाचं सम्बन्धी चेष्टाओंका वर्णन करता हूँ सो सुन ॥११॥ राजा समुद्रविजयने अपने आठ छोटे भाइयोंके नवयौवन आनेपर उनका राजपुत्रियोंके साथ विवाह करा दिया ॥२॥ अक्षोभ्यने धृतिको, स्तिमितसागरने उत्कृष्ट प्रभाको धारण करनेवाली स्वयंप्रभाको, हिमवानने सुनीताको, विजयने सिताको, अचलने प्रियालापाको, युवा तथा धोर वीर धारणने प्रभावतीको, पूरणने कालिंगीको, और अभिचन्द्रने सुप्रभाको विवाहा। ये आठों स्त्रियाँ अक्षोभ्य आदि कुमारोंकी आठ महादेवियाँ थी तथा अनेकों स्त्रियोंमें प्रधान मानी गयी थीं ॥३-५॥ जो कला तथा अनेक गुणोंमें चतुर थे, अपनी-अपनी स्त्रियोंसे सहित थे और पारस्परिक प्रेमसे आपसमें बँधे हुए थे ऐसे उन सब भाइयोंमें परस्पर बेजोड़ प्रेम था ।।६।। उस समय लक्ष्मीसे सेवित वसुदेव, देव कुमारके समान जान पड़ते थे और बालक्रीड़ासे युक्त हो शौर्यपुरी नगरीमें यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥७॥ रूप, लावण्य, सौभाग्य, भाग्य और चतुराईसे सागर तथा कामदेवके समान सुन्दर वसुदेव जनताके चित्तको हरण करते थे ॥८॥ अतिशय उदार वसुदेव क्रम-क्रमसे चार लोकपालोंका मनोहर वेष रखकर पूर्व आदि दिशाओंमें निकलते थे ॥९॥ जिनका शरीर सूर्यके समान देदीप्यमान था तथा मुख कमल चन्द्रमाके समान सौम्य था ऐसे वसुदेव जब उस शौर्यपुरमें बाहर निकलते थे तब स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो जाती थी ॥१०|| जिस प्रकार पूर्णचन्द्रका उदय होनेपर समुद्रकी वेलामें संघट्ट मच जाता है उसी प्रकार वसुदेवको देखनेकी इच्छासे नगरकी स्त्रियोंमें संघट्ट मच जाता था-उनकी बड़ी भोर इकट्ठी हो जाती थी ।।११।। उनके बाहर निकलते ही देखनेके लिए इच्छुक स्त्रियाँ अपने प्रारब्ध कार्यों को छोड़कर पृथिवीपर तो गलियोंको रोक लेतो थीं और ऊपर महलोंके झरोखोंको आच्छादित कर लेती थीं ॥१२॥ वसुदेवके सौभाग्यसे जिसका चित्त हरा गया था १. गोतमः । २. विवाहम् । ३. निर्गच्छति सति । ४. सूर्यवत् दीप्तमङ्गं यस्य तस्मिन् । ५. चन्द्रवत् सौम्यं मुखाम्बुजं यस्य तस्मिन् । ६. पूर्णचन्द्रोदयं यथा म.। ७. प्रारब्ध म.।
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एकोनविंशः सर्गः
२७७ अन्यदा पुरवृद्धास्ते समुद्र विजयं नृपम् । नत्वा व्यजिज्ञपग्निस्थमुपांशु 'पिशुनान्तराः ॥१४॥ अभयं नः प्रदाय त्वं शृणु विज्ञापनं विमो । युक्तं वा यदि वायुकं बालस्येव वचः पिता ॥१५॥ नृपस्त्वं रक्षणाक्षणां भूपो रक्षणतो भुवः । त्वमेव जगतो राजा राजन् ! प्रकृतिरञ्जनात् ॥१६॥ स्वयि राजनि राजन्ते जनितप्रमदाः प्रजाः । अक्षुद्रोपद्वाः पूर्व पितरीव तवाधुना ॥१७॥ उर्वरा सर्वसस्यौपः शालिग्रीह्यादिभिर्वरैः । अवग्रहोज्झितैर्धत्ते प्रतिवर्षमवन्ध्यताम् ॥१॥ यथा कृषिस्तथास्यर्थ वणिज्या फलति प्रभो । क्रय विक्रयबाहुल्याद् वणिजां राज्यमूर्जितम् ॥१०॥ घटोऽन्यो घटपूरं हि गोमहिष्युद्घधेनवः । दुहन्ति सततं दुग्धं प्रभूताः सुहितास्तृणैः ॥२०॥ गृहार्थमन्नमस्यल्प प्रसाधितमयत्नतः । नान्तमेति दिनान्तेऽपि दानधर्मात्मभुक्तिभिः ।।२१।। स्वस्वभावविभक्तान्यभावे षष्टेयब्दवस्तुनि' । त्वत्प्रमावाचिरस्थैर्यः कालो दुन्दुभिरेव नः ॥२२॥ एवं सति सुख दुःखं स्वल्पं तदपि भूपते । न प्रकाशयितुं शक्यं यथात्मोदरपाटनम् ॥२३॥
ऐसा समस्त नगर उस समय भीतर-बाहर उद्भ्रान्त हो गया था तथा जहां-तहाँ एक वसुदेवको ही कथा सुनाई देती थी ॥१३॥ तदनन्तर किसी समय जिनके हृदय मात्सर्यसे परिपूर्ण थे ऐसे वृद्धजन राजा समुद्रविजयके पास जाकर तथा नमस्कार कर एकान्तमें इस प्रकार निवेदन करने लगे ॥१४॥
उन्होंने कहा कि हे प्रभो ! जिस प्रकार बालकके वचन चाहे युक्त हों चाहे अयुक्त, उन्हें पिता सुनता ही है उसी प्रकार आप हम लोगोंको अभय देकर हमारे वचन सुनिए। हमारे वे वचन भले ही युक्त हों अथवा अयुक्त हों ।।१५।। हे नाथ ! आप मनुष्योंकी रक्षा करते हैं इसलिए नृप हैं, पृथिवीकी रक्षा करते हैं इसलिए भूप हैं और प्रजाको अनुरंजित करते हैं इसलिए आप ही राजा हैं ॥१६॥ जिस प्रकार पहले आपके पिताके राज्य-कालमें प्रजा सानन्द तथा क्षुद्र उपद्रवोंसे रहित थी उसी प्रकार इस समय आपके राज्य-कालमें भी प्रजा सानन्द तथा क्षुद्र उपद्रवोंसे रहित है ॥१७॥ यहाँको उपजाऊ भूमि वर्षाके प्रतिबन्धसे रहित शालि, ब्रीहि आदि सब प्रकारके उत्तमोत्तम धान्योंके समूहसे प्रतिवर्ष सफलताको धारण करती है ।॥१८॥ हे प्रभो! जिस प्रकार खेतो सफल रहती है उसी प्रकार वाणिज्य भी सफल रहता है। आपका राज्य व्यापारियों के क्रय-विक्रयकी अधिकतासे अत्यधिक सम्पन्न हो रहा है ॥१९॥ घटके समान बड़े-बड़े स्तनोंको धारण करनेवाली एवं हरे-भरे तृणोंसे सन्तुष्ट बहुत-सी गायें, भंसे और उत्तम जातिको धेनुएँ निरन्तर घड़े भरभरकर दूध देती हैं ॥२०॥ घरके उपयोगके लिए साधारण रीतिसे तैयार किया हुआ थोड़ा-सा अन्न भी, दानके समय धर्मात्माओंके भोजनमें आनेसे सायंकालतक भी समाप्त नहीं होता ॥२१॥ हे नाथ ! साठ संवत्सरी रूप जो वस्तु है उसमें स्वभाववश ही अन्यथा परिणमन होता रहता है परन्तु आपके प्रभावसे हमलोगोंका तो दुन्दुभि नामक काल ही चिरकालसे स्थिर है । भावार्थज्योतिष-शास्त्रके अनुसार साठ संवत्सर होते हैं जो क्रमसे परिवर्तित होते रहते हैं, उनमें हानिलाभ सभी कुछ होते हैं। परन्तु उन संवत्सरोंमें एक दुन्दुभि नामका संवत्सर भी होता है जिसमें प्रजाका समय आनन्दसे बीतता है। प्रजाके लोग राजा समुद्रविजयसे कह रहे हैं कि यद्यपि संवत्सर परिवर्तनशील हैं परन्तु हमारे लिए आपके प्रभावसे दुन्दुभि नामक संवत्सर ही चिरस्थायी होकर आया है ।।२२।। हे राजन् ! इस प्रकार सुखके रहते हुए थोड़ा-सा दुःख भी है परन्तु जिस
१. पिहितान्तरा: म. । २. विज्ञापनां म. । ३. प्रमदाः सफलाः म.। ४. वृष्टिप्रतिबन्धरहितः । ५. सुतप्ताः । ६. क्षयकृन्नास्ति षष्टिसंवत्सरीरूपे काले सत्यपि इति ख. पुस्तकं विहाय सर्वत्र टिप्पणी। ७. 'सर्वसस्ययुता धात्री पालिता धरणीधरैः। पूर्वदेशविनाशः स्यात्तत्र दुन्दुभिवत्सरे'॥ इति वर्षप्रबोधे ।
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२७८
हरिवंशपुराणे इत्याकर्ण्य नृपः प्राह पौरप्राग्रहरानिति । ब्रूत वीतभया दुःखं यूयं मह्यं हिता यदि ॥२४॥ आधिाधिरिवाल्पोऽपि हृदये कृतसंनिधिः । प्राणकारणमप्यन्नं प्रतिहन्ति न संशयः ॥२५॥ इत्युक्तास्तेन ते प्रोचुरिति विस्रम्भमागताः । दुविज्ञप्तिमिमा राजन् निर्बुध्यस्व प्रजाहितम् ॥२६॥ वसुदेवकुमारस्य नित्यं निःसरतः पुरात् । रूपदर्शनविभ्रान्ता विस्मरन्ति वपुः स्त्रियः ॥२७॥ निर्गमे च प्रवेशे च कुमारस्यान्यदङ्गनाः । न पश्यन्ति न शृण्वन्ति भवन्ति विकलेन्द्रियाः ॥२८॥ तिष्ठन्तु तावदन्यानि स्वानुष्टेयानि योषिताम् । स्तनंधयस्तनादानं रागान्धानां सुविस्मृतम् ॥२९॥ अतिरूपतमो धीरः स्वभावस्वच्छमानसः । सर्वोपधाविशुद्धारमा कुमारः शीलशेखरः ॥३०॥ नृप ! कस्य न विज्ञातस्समस्ते वसुधातले । तथापि किं वयं कुर्मो चित्तोद्धान्तममृत्पुरम् ॥३१॥ यदत्र युक्तमाधातुं तत्त्वमेव निरूपय । यथास्वन्तं पुरस्येश ! कुमारस्य च जायते ॥३२॥ तन्निशम्य वचो राजा विचिन्त्य चिरमारमनि । तथेति प्रतिपद्यतान् विससर्ज ययुश्च ते ॥३३॥ पर्यट्य चिरमागत्य प्रणतं भ्रातरं नृपः । आलिङ्ग्याङ्क तमारोप्य स्नेहेनाघ्राय मस्तके ॥३४॥ श्रोन्तोऽत्यन्तं कुमार ! त्वं चिरं श्रान्त्वा वनान्तरम् । विवर्ण! क्षत्पिपासात ! किमित्येवं चिरायितम्॥३५॥
वातातपपरिम्लानः शिरःशेखरनीरुचिः । अगणय्य वपुःखेदं पर्यटस्यटनप्रियः ॥३६॥ प्रकार अपना पेट फाड़कर नहीं दिखाया जा सकता उसी प्रकार वह थोड़ा-सा दुःख भी नहीं प्रकट किया जा सकता ।।२३।।
__इस प्रकार सुनकर राजा समुद्रविजयने नगरके वृद्धजनोंसे कहा कि यदि आप लोग हमारा हित चाहते हैं तो निर्भय होकर वह दुःख कहिए॥२४।। क्योंकि हृदयमें रहनेवाली छोटी-सी मानसिक व्यथा भी शारीरिक व्यथाके ही समान, प्राण-रक्षाका कारण जो अन्न है उसे भी छुड़ा देती है इसमें संशय नहीं है। भावार्थ-मानसिक पीड़ाके कारण मनुष्य खाना-पीना भी छोड़ देता है ।।२५।। इस प्रकार समुद्रविजयके कहनेपर प्रजाके लोग विश्वस्त हो कहने लगे। उन्होंने कहा कि हे राजन् ! हमारी विज्ञप्ति, विज्ञप्ति नहीं किन्तु दुर्विज्ञप्ति है परन्तु प्रजाके हितके लिए उसे अवश्य सुनिए ।॥२६॥ वसुदेवकुमार प्रतिदिन नगरसे बाहर निकलते हैं जिससे नगरकी स्त्रियाँ उनका रूप देखकर पागल-सी हो जाती हैं और अपने शरीरको सुध-बुध भूल जाती हैं ॥२७॥ कुमारके बाहर निकलने और भीतर प्रवेश करनेके समय स्त्रियाँ इन्द्रियोंसे रहित जैसी हो जाती हैं इसलिए वे न अन्य किसीको देखती हैं और न अन्य कुछ सुनती हो हैं ॥२८॥ स्त्रियोंके अपने करने योग्य दूसरे काम तो दूर रहें परन्तु रागान्ध होकर वे छोटे-छोटे बच्चोंके लिए स्तन देनादूध पिलाना भी भूल जाती हैं ।।२९।। हे राजन् ! यद्यपि कुमार वसुदेव, अत्यन्त सुन्दर, धीरवीर, स्वभावसे स्वच्छ हृदयके धारक, सर्वप्रकारसे विशुद्ध आत्मासे युक्त और शीलके शिरोमणि हैं ।।३०।। यह समस्तं पृथिवीतलपर किसे नहीं विदित है ? फिर भी हम क्या करें ? नगरवासियोंका चित्त उद्भ्रान्त हो रहा है ॥३१॥ हे स्वामिन् ! हम लोगोंने अपनी मनोव्यथा कही अब यहाँ जो कुछ करना उचित हो तथा जिससे नगर और कुमार दोनोंका परिणाम अच्छा हो वह आप ही कहिए ॥३२॥ राजा समद्रविजयने नगरवासियोंकी बात सुनकर चिरकाल तक अपने-आपमें उसका विचार किया, उसके बाद सबको आश्वासन देकर विदा किया और आश्वासन पाकर नगरवासी यथास्थान चले गये ॥३३।। उसो समय भाई वसुदेवने चिरकाल तक भ्रमण करनेके बाद आकर राजा समुद्रविजयको प्रणाम किया। समुद्रविजयने उनका आलिंगन कर गोदमें बैठाया और स्नेहसे मस्तक सूंघते हुए कहा कि कुमार! तुम चिरकाल तक वनके मध्य में भ्रमण करनेसे अत्यन्त थक गये हो। देखो, तुम्हारा वर्ण फीका पड़ गया है और तुम भूख-प्याससे पीड़ित जान पड़ते हो। १. शोभनपरिणामः । २. भ्रान्तोऽत्यन्तं म. । ३. परिम्लानशिरः -म. ।
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एकोनविंशः सर्गः
२७९
स्नानमोजनवेलाया मा कृतास्त्वमतिक्रमम् । अद्य प्रभृति शुद्धान्तवनान्तेष्वारमाधुना ॥३७॥ इति राजानु भक्तमनुशिष्य शिवागृहम् । सप्तकक्षापरिक्षेपि तं गृहीत्वा करेऽविशत् ॥३८॥ स्नात्वा भुक्त्वा स तेनामा कृतरक्षाविधिः स्वयम् । तदलक्षितसंकेतो बभूव नृपतिः सुखी ॥३९॥ कुमारोऽपि शिवादेव्याः स वनोद्यानभूमिषु । क्रीडन्नाटयसुगीतायैर्विनोदैश्चावसत्सदा ॥४०॥ एकदा तु शिवादेव्यै समालम्मनमेकया। कुब्जया नीयमानं तां खलीकृत्य जहार सः ॥४१॥ सा जगाद ततो रुष्टा कुमार! तव चेष्टितैः । ईदृशैरेव संप्राप्तो बन्धनागारमीदृशम् ॥४२॥ स तां पप्रच्छ शङ्कावान् कुब्जे ! किमिति जल्पितम् । न्यवेदयच्च सा तस्मै यथावन्नृपमन्त्रणम् ॥४३॥ ततः स्वं वञ्चनं ज्ञात्वा विमनाः स नृपं प्रति । सद्मनश्छद्मना दक्षो निरगान्नगरात्ततः ॥४४॥ गत्वैकानुचरो मन्त्रसाधनव्याजवान्निशि । श्मशाने चैकदेशस्थं तं कृत्वोत्तरसाधकम् ॥४॥ किंचिद्रे निवेश्यैकं मृतकं भूषणेनिजैः । विभूष्य चितिकामध्ये निक्षिप्य वदति स्म सः ॥४६॥ आर्यस्तातसमो राजा पौराश्च पिशुनाश्चिरम् । सुखं जीवन्तु संतुष्टाः प्रविष्टोऽहं हुताशनम् ॥४७॥ इत्युक्त्वोच्चैः प्रधाव्यासौ प्रदाग्निप्रवेशनम् । अन्तर्धानं गतो दूरं भुजिष्योऽपि पुरं ततः ॥४८॥ वसुदेवस्य वृत्तान्ते तदभृत्येन निवेदिते । सपोरान्तःपुरभ्रातृवृष्णिवर्गस्तदा नृपः ॥४९॥
इतनी देर तुमने किस लिए की ? वायु तथा घामसे तुम मुरझा गये हो, तुम्हारे शिरका सेहरा भी कान्तिहीन हो गया है, तुम घूमनेके ऐसे शौकीन हो कि शरीरके खेदकी परवाह न कर घूमते रहते हो ? अब आजसे स्नान तथा भोजनके समयका उल्लंघन नहीं करना तथा आजसे अन्तःपुरके भीतर जो बगीचा है उसीमें क्रीड़ा करना ।।३४-३७|| इस प्रकार राजा समुद्रविजय भक्तिसे भरे हुए छोटे भाई वसुदेबको समझाकर तथा हाथ पकड़कर सात कक्षाओंसे घिरे हए शिवादेवीके महलमें प्रविष्ट हुए ॥३८॥ वहां वसुदेवके साथ ही उन्होंने स्नान किया, भोजन किया तथा 'वे वहीं रहे' इस बातकी स्वयं ऐसी व्यवस्था कर दो कि जिसका वसुदेवको कुछ भी संकेत मालूम नहीं हआ। यह सब कर राजा समद्रविजय सुखी हए-निश्चिन्त हो गये ॥३९॥ और कमार वसुदेव भी शिवादेवीके बगीचोंमें नाट्य-संगीत आदि विनोदोंसे क्रीड़ा करते हुए सदा रहने लगे ॥४०॥
अथानन्तर एक दिन अन्तःपरकी एक कब्जादासी शिवादेवीके लिए विलेपन लिये जा रही थो सो कुमारने उसे तंग कर छीन लिया। इससे रुष्ट होकर कुब्जाने कहा कि कुमार ! ऐसी ही चेष्टाओंसे तुम इस प्रकार बन्धनागारको प्राप्त हो--कैद किये गये हो ॥४१-४२।। कुब्जाकी बात सुनकर शंकायुक्त हो वसुदेवने. उससे पूछा कि कुब्जे ! तूने यह क्या कहा ?-तेरे कहनेका क्या तात्पर्य है ? तब उसने राजाकी जो सलाह थी वह ज्योंकी-त्यों कुमारको बता दी ।।४३।। तदनन्तर 'हमारे प्रति धोखा किया गया' यह जानकर कुमार राजासे विमुख हो गये। वे चतुर तो थे ही इसलिए छलपूर्वक घरसे तथा नगरसे बाहर निकल गये ॥४४॥ वे मन्त्रसिद्धिका बहाना बना एक नौकरको साथ लेकर रात्रिके समय श्मशानमें गये। वहाँ नौकरको एक स्थानपर बैठाकर तथा 'जब मैं पुकारूँ उत्तर देना' ऐसा संकेतकर कुछ दूर अकेले गये। वहाँ एक मुर्दाको अपने आभूषणोंसे अलंकृत कर तथा उसे एक चितापर रखकर उन्होंने कहा कि पिताके समान पूज्य राजा और चुगली करनेवाले नगरवासी सन्तुष्ट होकर चिरकाल तक सुखसे जीवित रहें; मैं अग्निमें प्रविष्ट हो रहा हैं। इस प्रकार जोरसे कहकर तथा 'दौड़कर अग्निमें प्रवेश किया है' यह दिखाकर अन्तर्हित हो दूर चले गये। इस घटनाके बाद वह नौकर भी नगरमें वापस आ गया ॥४५-४८|| नौकर द्वारा वसुदेवका वृत्तान्त कहे जानेपर राजा समुद्रविजय उसी समय नगरवासी, अन्तःपुर, १. न्नाद्य- म.। २. शङ्कासात् म.। ३. वचनं म. । ४. अनुचरोऽपि ।
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२८०
हरिवंशपुराणे संप्राप्य प्रातराक्रन्दमुखरो वीक्ष्य भस्मनि । कुमारामरणं तत्र रुदित्वा मृत इत्यसौ ॥५०॥ पात्तापहतो दुःखी स कृतोचिततक्रियः । निन्दन् मन्दोद्यमः स्वं च वञ्चितोऽहमिति स्थितः ॥५१॥ वसुदेवस्तु निःशङ्को गृहीत्वा पश्चिम दिशम् । द्विजवेषधरो धीरो योजनानि बहन्ययात् ॥५२॥ प्रापद् विजयखेटाख्यं पुरं खेटपुरोपमम् । क्षत्रियान्वयजेनात्र दृष्टो गन्धर्वसूरिणा ॥५३॥ सग्रीव इत्यनग्राही गान्धर्वाथिजनस्य सः । वीक्ष्यैवाकारमेतस्य वशीकृत इवामवत् ॥५४॥ कन्यानन्यसमा तस्य सोमा सोमसमानना । अन्या विजयसेनाख्या रूपपारमिते शभे ॥५५॥ गन्धर्यादिकलापारं प्राप्तयोः स तयोः पिता । गान्धर्व योऽनयोर्जेता स भत्तत्यमिमन्यते ॥५६॥ लक्ष्य योगेन यत्र यत्र तयोर्जयः । तत्र तत्र समामध्ये ते जिगाय स यादवः ॥५॥ सुगीवेण सतोषेण कन्ये दत्तं ततः शभे । परिणीय मुदा रेमे प्रासादवरभूमिषु ॥५४॥ सूनं विजयसेनायानुत्पाद्याक्रासंज्ञकम् । शौरिः शौर्यसहायोऽयादविज्ञातविनिर्गतः ॥५९॥ गच्छन्मार्गवशात् क्वापि प्रविवेश महाटवीम् । अपश्यच्च सरो रम्यं हंससारसवारिजैः ॥६॥ नाम्ना त स जलावर्तमवगाह्य महासरः । शीतं प्रपाय पानीयं सस्नौ तत्र चिरन्तनम् ॥११॥
जल गुरजनि?ष समवादयदुन्नतः । निशम्य रवमुत्तस्थौ तत्र सुप्तो महागजः ॥६॥ भाई तथा अन्य यदुवंशियोंके साथ श्मशान गये। उस समय सबके मुखसे रोनेकी ध्वनि निकल रही थी। जब प्रातःकाल राखमें कुमारके आभूषण देखे तब 'कुमार निश्चित ही मर गये हैं'
यह जानकर सब रोने लगे। राजा समुद्रविजय पश्चात्तापसे पीड़ित हो बहुत दुःखी हुए। उन्होंने ___ मरणोत्तर कालको सब क्रियाएं कीं, अपने-आपकी बहुत निन्दा की और हम भाईसे वंचित हुए हैं इस खेदसे उनका उद्यम कुछ मन्द पड़ गया ॥४९-५१॥
इधर धोर-वीर वसुदेव निःशंक हो पश्चिम दिशाकी ओर चल पड़े और एक ब्राह्मणका वेष रखकर बहुत योजन दूर निकल गये ॥५२॥ चलते-चलते वे देवोंके नगरके समान सुन्दर विजयखेट नामक नगरमें पहुंचे। वहाँ क्षत्रियवंशमें उत्पन्न सुग्रीव नामका एक गन्धर्वाचार्य रहता था। वह गन्धर्वाचार्य संगीत विद्याके इच्छक मनुष्योंका बडा उपकारी था तथा वसदेवका रूप देखकर उनका वशीभूत जैसा हो गया ॥५३-५४॥ उस गन्धर्वाचार्यकी, रूपमें अपनी शानी न रखनेवाला चन्द्रमुखी सोमा और विजयसेना नामकी दो उत्तम पुत्रियाँ थीं। ये पुत्रियां सौन्दर्यको परम सोमाको प्राप्त हुई-सो जान पड़तो थीं ॥५५॥ ये कन्याएँ गन्धर्व आदि कलाओंकी परम सीमाको प्राप्त थीं इसलिए उनके पिता सुग्रोवने अभिमानवश ऐसा विचार कर लिया था कि जो गन्धर्व-विद्यामें इन दोनोंको जीतेगा वही इनका भर्ता होगा ॥५६॥ लक्ष्यलक्षणके योगसे अन्यत्र जिन-जिन विषयोंमें उन दोनों कन्याओं की जीत हुई थी उन्हीं-उन्हीं विषयोंमें सभाके बीच वसुदेवने उन कन्याओं को पराजित कर दिया ।।५७।। तदनन्तर सुग्रीवने सन्तुष्ट होकर अपनी दोनों कन्याएँ वसुदेवके लिए दे दी। वसुदेव उन्हें विवाह कर महलकी उत्तम भूमियोंमें आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने लगे !।५८।। शूरवोरता ही जिनकी सहायक थी ऐसे वसुदेव, विजयसेना नामक स्त्रो में अक्रूर नामक पुत्र उत्पन्न कर अज्ञात रूपसे बाहर निकल गये ।।५९|| मार्गके अनुसार भ्रमण करते हुए उन्होंने एक बहुत बड़ी अटवीमें प्रवेश किया और वहाँ हंस, सारस तथा कमलोंसे सुशोभित एक सुन्दर सरोवर देखा ॥६०॥ जलावर्त नामके उस महासरोवर में प्रवेश कर वसुदेवने ठण्डा पानी पिया तथा चिरकाल तक स्नान किया ॥६१।। तदनन्तर अतिशय उन्नत शरीरके धा वहाँ जलको इस तरह बजाया कि जिससे मृदंगके समान शब्द निकलता था। उस शब्दको सुनकर वहाँ सोया हुआ एक बड़ा हाथी उठकर खड़ा हो गया ॥६२।। मारनेके लिए आनेवाले उस हाथीको - चन्द्रतुल्यवदना। २. नाम्नान्तः स- म. । ३. पीत्वा । ४. समबाहयदुन्नतः म. ।
सुदेवने
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एकोनविंशः सर्गः
आपतन्तं स तं हन्तु वञ्चयन्नविदक्षिणः । चिक्रीड दन्तिदन्ताग्रे दोलाप्रेङ्खनमाचरन् ॥६३॥ वशीकृत्य वशी शीतकरशीकरशोभितम् । आरुह्यास्फाल्य हस्तेन हस्तिनं निश्चलं स्थितम् ॥ ६४ ॥ विस्मितः स्वयमेवासौ सशिरःकम्पमुत्करः । अरण्यरुदितं जातमित्यचिन्तयदेककः ||६५ || अभविष्य दिमक्रीडा यदि शौर्यपुरे स्वियम् । अभविष्यत्ततो लोको मुखरः साधुकारतः ||६६|| इति ध्यायन्तमेवैनं जतुर्गजमस्तकात् । सौम्यरूपधरौ धीरौ विद्याधरकुमारकौ ||६७ || नीत्वा तं कुञ्जरावतं नगरं विजयार्द्धजम् । चक्रतुर्व हिरुद्याने सर्वकामिकनामनि ॥ ६८ ॥ अशोकानोकहस्याधः शोकक्लेशविवर्जितम् । वसुदेवं सुखासीनं नवा ताविदमूचतुः || ६९ || स्वामिन्नश निवेगस्य विद्याधरमहेशिनः । शासनात्वमिहानीतो जानीहि श्वशुरः स ते ॥७०॥ अर्माली कुमारोऽहं वायुवेगोऽयमित्यमुम् । निवेद्य पुरमेकोऽगादस्थादेकोऽत्र पालकः ।। ७१ ।। दिष्ट्या वं वर्द्धसे स्वामिन्नानीतो द्विपमर्दनः । घोरः शूरोऽभिरूपश्च विनीतो नवयौवनः ।। ७२ ।। नवेति ज्ञापितस्तेन स प्रमोदवशो नृपः । अङ्गस्पृष्टं ददजातः परिधानावशेषकः ||७३|| ततः समङ्गलं तेन नगरं स प्रवेशितः । अलंकृतवपुः पौरनरनारीभिरीक्षितः ॥७४॥ प्रशस्त तिथिनक्षत्रमुहूर्त्त करणोदये । कन्यामशनिवेगस्य 'श्यामां श्यामामुवाह सः ||७५ || रेमे कामं स कामिन्या कलागुणविदग्धया । तया तदा तदुग्रविद् मुखपङ्कजषट्पदः ।।७६ ||
छलकर अतिशय चतुर वसुदेव उसके दांतोंके अग्रभागपर झूला - सा झूलते हुए क्रीड़ा करने लगे || ६३॥ तदनन्तर जो चन्द्रमा के समान जल के कणोंसे सुशोभित था, ऐसे निश्चल खड़े हुए उस हाथीको वश कर जितेन्द्रिय वसुदेव हाथसे उसका आस्फालन करते हुए उसपर सवार हो गये ||६४॥ उस समय एकाकी वसुदेव स्वयं आश्चर्यं से चकित हो तथा हाथ ऊपरको उठा शिर हिलाते हुए मनमें इस प्रकार विचार करने लगे कि मेरा यह कार्य अरण्यरोदन जैसा हुआ || ६५ || यदि यह हस्तिक्रीड़ा शौर्यपुर में हुई होती तो लोग धन्यवादसे मुखर हो जाते अथवा यह संसार धन्यवादकी ध्वनि गूँज उठता || ६६ || वसुदेव इस प्रकार विचार कर रहे थे कि उसी समय सौम्यरूपके धारक दो धीर-वीर विद्याधरकुमार हाथी के मस्तक से उन्हें हर ले गये || ६७ || और विजयाधं पर्वतके कुंजरावतं नगर में ले जाकर उसके सर्वकामिक नामक बाह्य उपवनमें छोड़ दिया ॥ ६८ ॥ वहाँ जब वसुदेव अशोक वृक्षके नीचे शोक और क्लेशसे रहित सुखसे बैठ गये तब उन दोनों विद्याधर कुमारोंने नमस्कार कर कहा ||६९ || कि हे स्वामिन्! तुम अशनिवेग नामक विद्याधर राजाकी आज्ञासे यहाँ लाये गये हो उसे तुम अपना श्वसुर समझो ॥७०॥ अचिमाली नामका कुमार और यह दूसरा वायुवेग है । इस तरह वसुदेवसे कहकर उनमें से एक तो नगरको ओर चला गया और एक रक्षा करता हुआ वहीं खड़ा रहा ||७१ || 'हे स्वामिन्! आप भाग्यसे बढ़ रहे हैं । हाथीको मर्दन करनेवाला, धीर-वीर, शूरवीर, सुन्दर, विनीत और नवयौवनसे सुशोभित वह कुमार यहाँ लाया जा चुका है' इस प्रकार नमस्कार कर जब उसने राजासे कहा तो राजा आनन्दसेविभोर हो गया । उसने मात्र वस्त्र शेष रखकर शरीरपरके सब आभूषण उसे पुरस्कारमें दे दिये ||७२-७३॥ तदनन्तर जिसका शरीर अलंकृत था और नगरके नर-नारी जिसे बड़ी उत्सुकतासे देख रहे थे ऐसे वसुदेवको राजाने मंगलाचार पूर्वक नगरमें प्रविष्ट कराया || ७४ ॥ वहाँ उत्तम तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त और करणका उदय होनेपर वसुदेवने राजा अशनिवेगकी यौवनवती श्यामा नामक कन्याको विवाहा || ७५ || जो कलाओं और गुणोंमें अत्यन्त चतुर थी ऐसी उस कन्या के साथ वसुदेव इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे । अधिक क्या कहें उस समय वसुदेव उसके अतिशय
।
१. परिधानं वर्जयित्वा सर्वं ददौ । २. यौवनवतीं ।
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हरिवंशपुराणे
सा सप्तदशतन्त्रीक वादयन्ती प्रियामुना । विपञ्चीं तोषिणावाचि वृणीष्व वरमित्यरम् ॥ ७७ ॥ सा प्रणम्य वरं वव्रे निशायां यदि वा दिवा । मया विनेश ! न स्थेयं स प्रसादवरोऽस्तु मे ॥ ७८ ॥ शृणु कारणमेतस्य वरस्य वरणे प्रिय । रिपुरङ्गारको रन्ध्र त्वां हरेदिति मे भयम् ॥ ७९ ॥ अस्तीह निरोद्गीतं किन्नरोद्गीतसद्गुणम् । वैताढ्य दक्षिणश्रेण्यां नगरं नगशेखरम् ॥८०॥ अर्चिर्माली प्रभुस्तत्र खेचराचितशासनः । प्रिया प्रभावती पुत्रौ वेगान्तौ ज्वलनाशनी ॥८१॥ राज्यं प्रज्ञप्तिविद्यां च दत्वासौ ज्येष्ठसूनवे । युवराज्यं कनिष्ठाय दीक्षितोऽरिंद मान्तिके ॥ ८२ ॥ तनयोऽङ्गारको राज्ञो 'विमलायामभूत्ततः । अहं त्वशनिवेगस्य सुप्रभायां प्रभोऽभवम् ॥ ८३ ॥ 'राजा राज्यं च मत्पित्रे प्रज्ञप्तिं च स्वसूनवे । दत्त्वा जग्राह जैनेन्द्रीं दीक्षां कल्याणदायिनीम् ॥ ८४ ॥ नाम्ना चाङ्गारको दुष्टो युवराजोऽतिगर्वितः । निर्घाट्याशु नृपं देशात्पाप्मा राज्यं जहार सः ॥ ८५ ॥ तिष्ठत्यत्र पिता भ्रष्टः कुञ्जरावर्त्तपत्तने । नरकुञ्जर ! चिन्तार्त्तः पञ्जरस्थशकुन्तवत् ॥ ८६ ॥ अन्यदाष्टापदं यातो दृष्ट्वा गिरिसमागतम् । चारणश्रमणं नत्वा ज्ञात्वा त्रैलोक्यदर्शिनम् ॥ ८७ ॥ देदीप्यमान मुखरूपी कमलके भ्रमर हो गये ||७६ || एक दिन उसने सत्रह तारवाली वीणा बजायी जिससे वसुदेव बहुत ही प्रसन्न हुए । और प्रसन्न होकर बोले कि प्रिये ! तुम शीघ्र ही वर माँगो ||७७ || इसके उत्तर में उसने नमस्कारकर वसुदेवसे यह उत्तम वर माँगा कि हे स्वामिन् ! चाहे दिन हो चाहे रात्रि, आप मेरे बिना अकेले न रहें यही उत्तम वर मुझे दीजिए || ७८ || हे प्रिय ! मेरे इस वरदान माँगनेका कारण भी सुनिए ? वह कारण यही है कि मेरा शत्रु अंगारक अवसर पोकर तुम्हें हर ले जा सकता है यह भय मुझे लगा हुआ है || ७९ || इसका स्पष्ट विवरण इस प्रकार है
विजयार्ध पर्वतकी इस दक्षिण श्रेणीपर, किन्नर देव जिसके सद्गुणोंकी प्रशंसा करते हैं तथा जो विजयाधं पर्वतके मुकुटके समान जान पड़ता है ऐसा किन्नरोद्गीत नामका नगर है ||८०|| उस नगर में विद्याधरोंपर पूर्ण शासन चलानेवाला अर्चिमाली नामका राजा था । उसकी प्रभावती स्त्री है और उसके ज्वलनवेग तथा अशनिवेग नामके दो पुत्र हैं ||८१|| राजा अर्चिमाली, बड़े पुत्र के लिए राज्य तथा प्रज्ञप्ति विद्या और छोटे पुत्र के लिए युवराज पद देकर अरिन्दम गुरु के पास दीक्षित हो गया || ८२|| हे नाथ ! आगे चलकर राजा ज्वलनवेगकी विमला रानीके अंगारक नामका पुत्र हुआ और युवराज अशनिवेगको सुप्रभा स्त्रीसे में श्यामा नामकी पुत्री हुई ॥ ८३ ॥ तत्पश्चात् राजा ज्वलनवेगने भी मेरे पिता अशनिवेगके लिए राज्य और अपने पुत्रके लिए ज्ञप्ति विद्या देकर कल्याणदायिनी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली || ८४|| युवराज अंगारक प्रकृतिका बड़ा दुष्ट तथा गर्वीला है इसलिए उस पापीने हमारे पिताको शीघ्र ही देशसे निकालकर राज्य छीन लिया है ॥८५॥ हे नरकुंजर ! अब मेरे पिता राज्यसे भ्रष्ट हो इसी कुंजरावतं नगरमें रहते हैं और पिंजड़े में स्थित पक्षी के समान निरन्तर चिन्तासे दुःखी रहते हैं ||८६|| किसी एक १. दिशायां म । २. नगरशेखरम् म. । ३. ज्वलनवेगः अशनिवेगश्च । ४ वितीर्य म. । ५. विशालायां ख. । ६. घपुस्तके इत्थं पाठ:
सोऽन्यदाशनिवेगाय मत्पित्रे राज्यमूजितम् । प्रज्ञप्तियुवराज्यं चाङ्गारकाय सुसूनवे ॥
दत्त्वा जग्राह जैनेन्द्रों दीक्षां कर्मविनाशिनीम् । नाम्ना चाङ्गारको दुष्टो युवराजोऽन्यदा मम ॥ निर्धाट्य पितरं देशात्प्राज्यं राज्यं जहार सः । म पुस्तके एवं पाठः-
राज्यं ज्वलनवेगोऽन्ते दत्त्वा मज्जनकाय सः । प्रज्ञप्तियौवराज्यं च सूनवे मुनितामितः ॥ अङ्गारकोऽपि संग्रामे प्रज्ञः प्रज्ञतिविद्यया । निर्वाध्य मे पितुः शीघ्रं राज्यं प्राज्यं जहार सः ॥ ७. जातो म । ८. दृष्ट्वांगिरसमागतं क. ।
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एकोनविंशः सर्गः
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पिता मे पृष्टवानेवं भगवन् ! दिव्यचक्षुषा । राज्यं पश्यसि मेऽवश्यं स्थाने नाथ ! पुनर्न वा ॥ ८८ ॥ कथितं मुनिना दिव्यचक्षुरुन्मील्य निर्मलम् । श्यामायास्तव कन्यायाः पत्या राज्यपुनर्भवः ॥ ८९ ॥ पुनः पृष्टे कथं नाथ ! ज्ञायत इति स स्फुटम् । तेनोक्तं यो जलावर्त्ते मदेममदमर्दनः ॥९०॥ भविता तव कन्यायाः श्यामायाः पतिरित्यलम् । तदादेशात्सरस्यां च द्वौ द्वौ तत्र नभश्वरौ ॥ पित्रा नित्यं नियुक्तो मे तव स्थानगवेषणे ॥९१॥ लब्धस्त्वमचिरेणैव मन्मनोरथसारथिः । जायते जातुचिन्नाथ ! न हि मिथ्या मुनेर्वचः ॥ ९२ ॥ अङ्गारकेण वृत्तान्तो निश्चितः स्यात्स हि द्विषन् । धूमायमानमूर्त्तिर्नो धूमकेतुरिवोत्थितः ॥९३॥ अविद्याकुशलं वासी महाविद्यात्रलोद्धतः । विद्यावत्या मया मुक्तं कदाचित्स हरेदरिः ॥ ९४ ॥ श्यामाया वचनं श्रुत्वा कोऽत्र दोषस्तथास्त्विति । स्मेरः स्मेरमुखीं गाढं प्रियामुपजुगूह सः ॥९५॥ सविशेषमसौ तत्र विद्याधरजगद्गतम् । हृथं गान्धर्वविज्ञानं शिशिक्षे क्षतमत्सरः ॥ ९६ ॥ निःप्रमादतया याति तयोः काले कदाचन । चिराय सुरतक्रीडाखिन्नयोर्निशि सुप्तयोः ॥९७॥ संगत्याङ्गारकः स्वैरं विश्लिष्या इलेष बन्धनम् । श्यामायाः शयनात् जहे गरुडो वा नृपोरगम् ॥९८॥ दिन मेरे पिता कैलास पर्वतपर गये थे वहाँ पर्वतपर आये हुए एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजके दर्शन कर पिताने उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर मुनिराजको त्रैलोक्यदर्शी जानकर पिताने पूछा कि हे भगवन् ! आप तो अवधिज्ञानरूपी नेत्रसे मेरे राज्यको अवश्य ही देख रहे हैं । हे नाथ ! कृपा कर कहिए मुझे पुनः राज्य प्राप्त होगा या नहीं ? ||८७-८८ || इसके उत्तरमें मुनिराजने अतिशय निर्मल अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्रको खोलकर कहा कि जो तुम्हारी श्यामा नामकी कन्या है उसके पति द्वारा तुम्हें पुनः राज्यकी प्राप्ति होगी ||८९|| पिताने इसके उत्तर में पुनः पूछा कि हे नाथ ! श्यामा कन्याका पति कौन होगा ? यह स्पष्ट किस तरह जाना जावेगा ? तब मुनिराजने कहा कि जलावर्त नामक सरोवर में जो मदोन्मत्त हाथी के मदका मर्दन करेगा वही तुम्हारी श्यामा कन्याका पति होगा यही उसकी पर्याप्त पहचान है । मुनिराजके आदेशसे उसी समय से पिताने जलावतं नामक सरोवरपर आपकी स्थितिका अन्वेषण करनेके लिए दो विद्याधर नियुक्त कर दिये ||९०-९१ ॥ और उसके फलस्वरूप शीघ्र ही आपकी प्राप्ति हो गयी है । हे नाथ! आप मेरे मनरूपी रथके सारथि हैं— उसे आगे बढ़ानेवाले हैं। यथार्थमें मुनिराजके वचन कभी मिथ्या नहीं होते || १२|| अंगारकको इस वृत्तान्तका निश्चित ही पता चल गया होगा क्योंकि वह हम लोगोंसे सदा द्वेष रखता है और हम लोगोंको नष्ट करनेके लिए सदा धूमिल अग्निके समान उद्यत रहता है ||१३|| वह महाविद्याके बलसे उद्धत है और आप विद्या में कुशल नहीं हैं । यद्यपि में विद्यासे युक्त होनेके कारण आपकी रक्षा करने में समर्थ हूँ तो भी यदि कदाचित् आप मेरे बिना रहेंगे तो वह आपको हर ले जा सकता है । हे नाथ ! इसी भयके कारण मैंने आपसे वर मांगा है कि आप चाहे दिन हो चाहे रात, कभी मेरे बिना न रहें ||९४|| श्यामाके उक्त वचन सुनकर वसुदेवने कहा कि ऐसा ही हो इसमें क्या दोष है । यह कहकर मन्द मन्द हंसते हुए वसुदेवने मुसकराती हुई प्रियाका गाढ़ आलिंगन किया ||९५|| वहाँ रहकर वसुदेवने ईर्ष्या रहित हो विद्याधर लोक सम्बन्धी सुन्दर गन्धर्व विद्याको विशेषता के साथ सीखा ॥ ९६ ॥
तदनन्तर उन दोनोंका समय सदा सावधानी के साथ बीत रहा था । एक दिन रात्रिके समय चिरकाल तक सम्भोग क्रीड़ासे खिन्न होकर दोनों सोये हुए थे ||९७|| कि अंगारकने स्वच्छन्दतासे आकर उनके आलिंगन सम्बन्धी बन्धनको अलग कर दिया और जिस प्रकार गरुड़ साँपको ले उड़ता है उसी प्रकार वह श्यामाकी शय्यासे राजा वसुदेवको ले उड़ा ||९८|| अपने आपको हरा १. वर्त्तनः म । २. तवास्थातां म । ३. इवार्थे वा प्रयोगः ।
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हरिवंशपुराणे
स्वं बुद्ध्वा हियमाणं खे खेचरं स निरीक्षितम् । कस्त्वं हरसि मां पाप मुञ्च मुञ्चेति भाषणः ॥१९॥ बुद्ध्वाप्यङ्गारकं शत्रु श्यामया कथिताकृतिम् । नावधीद् बद्धमुष्टिः खादधःपतनशङ्कया ॥१०॥ तावच्च सहसा बुद्ध्वा खड गखेटकहस्तया । वेगिन्या प्राप्तया रुद्धः शौरिबध्वा स शूरया ॥१०१॥ तिष्ठ तिष्ठ दुराचार चौरखेचर निघृण । हरसि प्राणनाथं मे जीवन्त्यां मयि भोः कथम् ॥१.२॥ राज्यस्थोऽपि न संतुष्टः सदास्मदुःखचिन्तकः' । चिरेणाद्य मया दृष्टः क्व प्रयासि मृतोऽधुना ॥१०३॥ इति व्याहृत्य रुद्ध्वाग्रे खड गमुद्गीर्य तां स्थिताम् । बमाण 'रिपुरात्मानं रक्षन् राक्षसरूक्षवाक् ॥१०४॥ श्यामिके स्त्रीवधो लोके गर्हितोऽपसराधमे । स्वसापि मे कथं हस्तो हन्तुमुद्यच्छतु त्वकाम् ॥१०५॥ का स्त्री का वा स्वसा भ्राता को 4 कार्याभिलाषिणः । वैरिणो ननु हन्तारो हन्तव्या नात्र दुर्यशः ॥१०६॥ सिंही व्याघ्री च किं पुंसां मारयन्ती न मार्यते । वृथा न्यायविचारोऽयं जहि यद्यस्ति पौरुषम् ॥१०७॥ विद्याशाखाबलेनोत्था रुद्धमागां जघान सः । खड गधाराशिलाघातैः श्यामामङ्गारकोत्करः ॥१०८॥
प्रतिघातमनेकाभूत्खड्गखेटकसंकटा । खड गस्यूतस्फुलिङ्गाङ्गमङ्गारकमथाकरोत् ॥१०९॥
मायायुद्धमिदं दृष्ट्वा तयोः स हृदये रिपुम् । दृढमुष्टिप्रहारेण प्राणसंदेहमावहत् ॥१०॥ हुआ जानकर वसुदेवने आकाशमें उस विद्याधरसे कहा कि अरे पापी! तू कौन मझे हरे लिये जा रहा है छोड़-छोड़ ॥९१॥ यद्यपि वसुदेवने उसे जान लिया था कि यह श्यामाके द्वारा बताये हुए आकारको धारण करनेवाला शत्रु अंगारक है फिर भी आकाशसे नीचे गिरनेकी आशंकासे उन्होंने उसे मुट्ठियोंकी मारसे मारा नहीं ॥१००।। इतनेमें ही सहसा जागकर तथा तलवार और ढाल
थमें ले वीरांगना श्यामाने बड़े वेगसे जाकर उसे रोका ॥१०१ श्यामाने ललकारते हए कहा कि ठहर, ठहर. अरे दराचारी.निर्दय! चोर विद्याधर ! त मेरे जीवित रहते हए मेरे प्राणनाथको कैसे हर सकता है ? ॥१०२॥ तू राज्यपर बैठकर भी सन्तुष्ट नहीं हुआ। सदा हमारे दुःखका ध्यान रखता है ! तू आज मुझे चिरकाल बाद दिखा है, कहाँ जाता है ? तू अभी मारा जाता है ॥१०३।। यह कहकर श्यामाने उसका मार्ग रोक लिया और तलवार उभारकर वह उसके आगे खड़ी हो गयी। तदनन्तर राक्षसके समान रुक्ष वचनोंका प्रयोग करनेवाला शत्रु अपनी रक्षा करता हुआ श्यामासे बोला ॥१०४॥ अरी नीच श्यामा ! संसारमें स्त्रीका मारना निन्दित समझा जाता है इसलिए तू सामनेसे हट जा । तू मेरी बहन भी है अतः तुझे मारनेके लिए मेरा हाथ कैसे उठे ?॥१०५॥ अथवा कार्यके इच्छुक मनुष्योंके लिए क्या स्त्री ? क्या बहन ? क्या भाई ? उन्हें तो जो वैरी अपना घात करे उसका अवश्य ही घात करना चाहिए इसमें कुछ भी अपयश नहीं है ।।१०६॥ क्या पुरुषोंको मारनेवाली सिंही और व्याघ्री नहीं मारी जाती? इसलिए न्यायका विचार करना व्यर्थ है । यदि तुझमें पौरुष है तो मार ॥१०७॥
तदनन्तर जिसने विद्यारूपी शाखाके बलसे उठकर अंगारकका मार्ग रोग रखा था ऐसी श्यामाको अंगारोंके समूहके समान उग्र अंगारक, तलवारको धार और पत्थरोंकी चोटसे मारने लगा ॥१०८।। प्रत्येक चोटके समय तलवार और ढालकी करारी टक्कर होती थी। कुछ समय बाद श्यामाने तलवारसे निकले हुए तिलंगोंके द्वारा अंगारकके शरीरको आच्छादित कर दिया ॥१०९॥ श्यामा और अंगारकके इस माया युद्धको देखकर कुमार वसुदेवने भी शत्रुके हृदयपर अपनी मुट्टियोंसे इतना दृढ़ प्रहार किया कि उसे प्राणोंका सन्देह उत्पन्न कर दिया ॥११०।।
१. दुःखचिन्तक म.। २. रिपुमात्मानं म.। ३. -मुद्यत्कृतित्विकाम् म. । ४. अङ्गारकस्य उत् ऊर्ध्वः करो हस्त: अङ्गारकोत्करः अन्यत्र अङ्गारकसमूहः । ५. घातं घातं प्रति, प्रतिघातम् । अन्योऽन्यप्रतिघातोऽभूत्खड़गखेटकसंकट: म.।
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एकोनविंशः सर्गः
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मुक्तश्च दु:खिना खिन्नः स खे श्यामामियुक्तया । स्वपुरं नीयमानोऽसौ तया खावनिरुद्गतः ॥११॥ 'खेटेऽस्यैवात्र लाभोऽस्ति भविष्यो मुञ्च सांप्रतम् । मञ्चितो यादवेन्द्रोऽसौ तया श्यामलछायया ॥११२॥ समय तं स्वविद्याया जगाम स्वगृहं प्रति । विद्यया पर्णलध्वायं गां शनैः पर्णवल्लघुः ॥१३॥ बाह्योद्यानेऽथ चम्पायाः पतितोऽम्बुजसंगमे । सरस्थम्बुरुहच्छन्ने तदुत्तीर्य तटीमितः ।।११४॥ मानस्तम्भादिसंलक्ष्यं वासपूज्यजिनालयम् । परीत्य तत्र वन्दित्वा दीपिकोज्ज्वलितेऽवसत् ।।११५।। देवार्चनार्थमायातं प्रत्यूषे द्विजमत्र सः । अपृच्छद्विषयः कोऽयं पुरीयं चेति सोऽवदत् ।।११६।। अङ्गो जनपदश्चम्पापुरी त्रिभुवनश्रता । किं न वेसि किमाकाशात्पतितस्त्वं महामते ॥११७॥ सत्यमेतद् द्विज! ज्ञातं किमु ज्योतिषविद् भवान् । अस्ति संवादि ते ज्ञानं नान्यथा जिनशासनम्॥११८॥ हृतो यक्षकुमारीभ्यां रूपलोभान्नमस्तलात् । च्युतश्च पतितो भूमावन्योन्यकलहे तयोः ॥११९॥ इत्युत्तरमसौ दत्वा विप्रवेषधरोऽमवत् । पुरी विशन् विशालाक्षो गन्धर्वनगरीनिमाम् ॥१२॥ लोकं वीक्ष्य तु तत्रासौ वीणाहस्तमितोऽमुतः। अप्राक्षीद्विप्रमेकं हि बम्भ्रमीतीति किं जनः ॥१२१।। सोऽब्रवीचारुदत्ताख्यः कुबेरविमवः प्रभुः । पुर्यामिभ्यपतिस्तस्य तनया रूपगर्विता ॥२२॥ नाम्ना गन्धर्वसेनेति गान्धर्वपथपण्डिता । गान्धर्व योऽत्र मे जेता स भर्तेत्यवतिष्ठते ।।१२३॥ तदर्थमत्र लोकोऽयं मिलितो लोमनोदितः । वीणावादनविज्ञानो नानादेशसमागतः ॥१२४॥
अन्तमें दुःखी होकर अंगारकने कुमारको छोड़ दिया। नीचे गिरनेके भयसे कुमार कुछ खिन्न हुए परन्तु श्यामाके द्वारा नियुक्त श्यामलछाया नामको दासी उन्हें बीच में हो संभालकर अपने नगर ले जाने लगी। उस समय यह आकाशवाणी हुई कि कुमारको इसो ग्राममें लाभ होनेवाला है इसलिए इस समय यहीं छोड़ दो। आकाशवाणीके अनुसार श्यामलछाया कुमारको अपनी पर्णलध्वी नामक विद्याके लिए सौंपकर अपने घर चली गयी और कुमार उस पर्णलघ्वो विद्याके द्वारा पत्तेके समान लघु शरीर होकर धीरे-धीरे पृथिवीकी ओर आये ॥१११-११३।। तदनन्तर कुमार वसुदेव, चम्पानगरीके बाह्योद्यानमें कमलोंसे ढंका हुआ जो कमल सरोवर था उसमें गिरे। तालाबसे निकलकर वे तटपर आये ।।११४|| सरोवरके तटपर मानस्तम्भ आदिसे युक्त श्रीवासुपूज्य भगवान्का मन्दिर था। वसुदेवने पास जाकर प्रदक्षिणा दी, वन्दना की और उसके बाद दीपिकाओंके प्रकाशसे प्रकाशित उसी मन्दिरमें वह बस गये ॥११५।। प्रात:काल भगवानकी पूजाके लिए एक ब्राह्मण आया तो वसुदेवने उससे पूछा कि यह कौन देश है ? तथा कौन नगरी है ? इसके उत्तरमें ब्राह्मणने कहा कि यह अंगदेश है और यह तीन लोक में प्रसिद्ध चम्पा नगरी है । इसे क्या तुम नहीं जानते ? अरे महाविद्वन् ! क्या तुम यहां आकाशसे पड़े हो ? ||११६-११७।। इसके उत्तरमें वसुदेवने कहा कि हे ब्राह्मण ! आपने बिलकुल ठीक जाना । क्या आप ज्योतिष जानते हैं ? आपका ज्ञान संवादीयथार्थज्ञान है। अहा ! जिनशासन अन्यथा नहीं हो सकता ।।११८॥ रूपके लोभसे दो यक्ष कुमारियां मुझे हरकर ले गयी थीं; उनका आपसमें झगड़ा होने लगा और मैं छूटकर आकाशसे पृथिवीपर गिरा हूँ !|११९|| यह उत्तर देकर विशाल नेत्रोंके धारक वसुदेवने ब्राह्मणका वेष रख गन्धर्वनगरीके समान उस चम्पापुरीमें प्रवेश किया ॥१२०॥ वहां उन्होंने जहां-तहाँ वीणा हाथमें लिये मनुष्योंको देखकर एक ब्राह्मणसे पूछा कि ये लोग इधर-उधर क्यों घूम रहे हैं ? ।।१२।।
ब्राह्मणने कहा कि इस नगरीमें कुबेरके समान वैभववाला एक चारुदत्त नामका सेठ रहता है। उसकी गन्धर्वसेना नामकी पुत्री है। वह पुत्री सौन्दर्यके गर्वसे युक्त है, गन्धर्वशास्त्रमें अत्यन्त निपुण है तथा उसने यह नियम किया है कि जो मुझे गन्धर्वशास्त्र-संगीतशास्त्रमें जीतेगा वह मेरा पति होगा ।।१२२-१२३।। लोभसे प्रेरित, वीणा बजानेमें निपुण, तथा नाना देशोंसे आये हुए ये १. खेटस्यैवात्र म. । २. समर्पितः म., ग., ङ. ।
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हरिवंशपुराणे
रूपलावण्यसौभाग्यसागरप्लवकारिणी। हारिणो हरिणीनेत्रा कन्या व्यामोहयजगत् ॥१२५॥ कन्यार्थी च यशोऽर्थी च वीणाविधिविशारदः । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो जयार्थी हि जनः स्थितः॥१२६॥ मासे मासे समाजश्च भवत्यत्र कलाविदाम् । सदा जयपताकाया ही कन्या सरस्वती ।।१२७॥ समाजः समतीतश्च शस्तनेऽहनि सांप्रतम् । गुणनैकमनस्कानां पुनर्मासेन जायते ॥१२८॥ उपाध्यायः प्रसिद्धोऽत्र किन्नामा सांप्रतं पुरि । वदेति तेन पृष्टश्च जगौ सुग्रीव इत्यसौ ॥१२९॥ ऊचे गत्वेति सुग्रीवममिवाद्य गृहीच सः । गौतमो गोत्रतस्तेऽहं कर्तुमिच्छामि शिष्यताम् ॥१३०॥ अभिरूपोऽतिमुग्धोऽयमिति मत्वा दयावता । प्रतिपन्नश्च तत्रास्थावीणया हासयन् जनम् ॥१३॥ संप्राप्ते दिवसे तस्मिन् समाजोऽभूत्स पूर्ववत् । वसुदेवोऽपि संविश्य पश्यति स्म महाजनम् ॥१३॥ सा चुक्षोभ सभा लोकैर्वाद्यश्रवणवेदिभिः । कौतूहलिभिरन्यैश्च महाकोलाहलाकुलैः ॥ ३३॥ ततः कन्या समामध्यमविशद्विशदप्रमा। स्वलंकृता दिवो मध्य प्रावृषीव शतदा ॥१३४॥ वीणावाद्यविदग्धेषु जितेषु बहुषु क्रमात् । गन्धर्वसेनया यद्वन्मूर्तगान्धर्वविद्यया ॥१५॥ वसुदेवः समासीनस्ततः सोऽपि वरासने । समानीताः समानीताः वीणाः स समदूषयत् ॥१३६॥ सुघोषाख्यां ततो वीणां दत्तां गन्धर्वसेनया। सुसप्तदशतन्त्रीको संताड्य मुदितोऽवदत् ॥१३७॥ साध्वी साध्वी सुवीणेयं प्रवीणे ! दोषवर्जिता । वद गान्धर्वसेने ! ते गेयवस्तु मनीषितम् ॥१३८॥
लोग उसी कन्याके लिए यहाँ इकट्ठे मिले हैं ।।१२४।। रूप-लावण्य और सौभाग्यके सागरमें तैरनेवाली इस मृगनेत्री मनोहर कन्याने समस्त संसारको व्यामोहित कर रखा है ।।१२५॥ यहाँ जो भी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य रहता है वह कन्याका अर्थी, यशका अर्थी, वीणा बजाने में निपुण और विजयका अभिलाषी है ॥१२६।। यहां एक-एक महीने में कलाके जानकार मनुष्योंकी सभा जुड़ती है जिससे सदा जयपताकाको हरनेवाली यही कन्यारूपी सरस्वती रहती है-सदा इसीको जीत होती है ॥१२७॥ पिछले दिन ही यहाँ गुणी मनुष्योंकी सभा जुड़ी थी अब एक माह बाद फिरसे होगी ॥१२८॥ यह सुन वसुदेवने उस ब्राह्मणसे पूछा कि इस नगरीमें संगीतका प्रसिद्ध विद्वान कौन है ? यह कहो? इसके उत्तर में ब्राह्मणने कहा कि इस समय सुग्रीव संगीतका सबसे अधिक प्रसिद्ध विद्वान् है ॥१२९॥
तदनन्तर वसुदेव घरके लोगोंकी तरह सुग्रीवके पास चले गये और उसे नमस्कार कर बोले कि मैं गौतम गोत्री हूँ तथा आपकी शिष्यता करना चाहता हूँ॥१३०॥ यह परम सुन्दर तथा भोला-भाला है यह मानकर सुग्रीवने दयापूर्वक उन्हें स्वीकार कर लिया-अपना शिष्य बना लिया। और वे अपनी उलटी-सीधो वीणासे सबको हँसाते हुए वहाँ रहने लगे ॥१३१॥ दिन आनेपर पहलेकी भांति फिरसे विद्वानोंकी सभा हई: वसदेव भी उस सभामें प्रविष्ट होकर विशाल जन-समूहको देखने लगे ॥१३२।। वह सभा बाजा सुननेकी कलासे युक्त तथा बहुत भारी कोलाहल करनेवाले अन्य कौतूहली मनुष्योंसे क्षोभको प्राप्त हो रही थी ॥१३३॥ तदनन्तर जिस प्रकार वर्षाऋतुमें बिजली आकाशके मध्यमें प्रवेश करती है उसी प्रकार निर्मल कान्तिकी धारक एवं उत्तमोत्तम आभूषणोंसे अलंकृत कन्याने सभाके मध्य में प्रवेश किया ।।१३४।। मूर्तिमती गन्धर्व विद्याके समान कन्या गन्धर्वसेनाके द्वारा जब क्रम-क्रमसे वीणा बजाने में निपुण बहुत-से विद्वान् जीत लिये गये तब वसुदेव भी उत्तम आसनपर आसीन हुए। उस समय वसुदेवको अनेक वीणाएं दी गयी पर उन सबको दोषयुक्त बता दिया ॥१३२-१३६।। अन्तमें गन्धर्वसेनाने अपनी सुघोषा नामको सतरह तारोंवाली वीणा उन्हें दी। उसे बजाकर वे प्रसन्न होते हुए बोले कि यह वीणा १. हरिणी म.। २. व्यमोहय जगत् म.। ३. हासयज्जनम् म.। ४. विद्युत् । ५. समानीताः समानीतां वीणा: म.।
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एकोनविंशः सर्गः
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मृदूपवीणयाम्येषामादेशस्थानमयतः । विदुषां दीयतां मेऽद्य गेयवस्तुनि पण्डिते ॥१३९॥ साऽऽह विष्णुकुमारस्य बलिबन्धनकारिणः । त्रिविक्रमकृतौ गोतं हाहातुम्बुरुनारदैः ॥१४॥ यत्तदद्य त्वया वस्तु वाद्यतां वाद्यविद् यदि । पुराणप्रतिबद्धं हि गेयवस्तु प्रशस्यते ॥१४१॥ 'ततं चाप्यवनद्धं च धनं सुषिरमित्यपि । यथास्वं लक्षणैर्युक्तमातोद्यं स्याच्चतुर्विधम् ॥१४२॥ ततं तन्त्रीगतं तेषामवनद्धं हि पौष्करम् । घनं तालस्ततो वंशस्तथैव सुषिराख्यया ॥१४३॥ प्राणिप्रीतिकरं प्रायः श्रवणेन्द्रियतपणात् । गान्धर्वदेहसंबद्धं ततं गान्धर्वमीरितम् ॥१४॥ वीणा वंशश्च गानं च तस्य योनिरितीरितम् । गान्धर्व त्रिविधं चैतत्स्वरतालपदे गतम् ॥१४५॥ वैणाश्चापि च शारीरा द्विविधास्तु स्वराः स्मताः । विधानं लक्षणं चापि तेषामिति निरूपितम् ॥१४६।।। अति[श्रुतिवृत्तिस्वरग्रामवर्णालंकारमूर्च्छनाः । धातुसाधारणाद्याचे दारुवोणास्वराः स्मृताः ॥१४॥ जातिवर्णस्वरग्रामस्थानसौधारण[साधारण] क्रियाः । सालंकारविधिश्चायं शारीरस्वरगोचरः ॥१४॥ अति जाति तद्धितवृत्तानि संधिस्वरविभक्तयः । नामाख्यातोपसर्गाद्या वर्णाद्यास्ते पदे विधिः ॥१४९।।
आवापश्चापि निःक्रामो विक्षेपश्च प्रवेशनम् । शम्यातील परावतः संनिपातः सवस्तुकः ॥१५ ॥ बहुत अच्छी है, बहुत अच्छी है, हे चतुरे ! यह वीणा निर्दोष है। हे गन्धर्वसेने ! कह तुझे कौनसी गेय वस्तु पसन्द है ? तू गेय वस्तुओंमें पण्डित है अतः मुझे आदेश दे मैं इन विद्वानोंके आगे कोमल-कान्त वीणा बजाता हूँ ॥१३७-१३९॥ इसके उत्तर में गन्धर्वसेनाने कहा कि बलिको बांधनेवाले विष्णुकुमार मुनिने जब अपनी तोन डगोंका कर्तव्य दिखाया था तब हाहा, तुम्बुरु तथा नारदने जो गेय वस्तु गायी थो यदि आप वाद्य विद्याके जानकार हैं तो वही वस्तु आज बजाइए क्योंकि पुराणसे सम्बन्ध रखनेवाली गेय वस्तु ही प्रशंसनीय होती है ॥१४०-१४१।। गन्धर्वसेनाका आदेश पाकर वसुदेव संगीत विद्याका निम्नप्रकार वर्णन करने लगे
१. तत, २ अवनद्ध, ३ घन और ४ सुषिरके भेदसे बाजे चार प्रकारके हैं। ये सभी बाजे यथायोग्य अपने-अपने लक्षणोंसे युक्त हैं ॥१४२।। जो तारसे बजते हैं ऐसे वीणा आदि तत कहलाते हैं। जो चमड़ेसे मढ़े जाते हैं ऐसे मृदंग आदि अवनद्ध कहलाते हैं। काँसेके झांझ, मजीरा आदि घन कहलाते हैं और बांसुरी आदिको सुधिर कहते हैं ।।१४३।। इनमें तत नामका वादित्र कर्णइन्द्रियको तृप्त करनेवाला होनेसे प्रायः प्राणियोंके लिए अधिक प्रीति उपजानेवाला है तथा गन्धर्व शरीरके साथ सम्बद्ध होनेसे गान्धर्व नामसे प्रसिद्ध है ।।१४४|| गान्धर्वकी उत्पत्तिमें वीणा, वंश और गान ये तीन कारण हैं तथा स्वरगत, तालगत और पदगतके भेदसे वह तीन प्रकारका माना गया है ॥१४५।। वैण और शारीरके भेदसे स्वर दो प्रकारके माने गये हैं और उनके भेद तथा लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं ॥१४६॥ श्रुति, वृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मच्छना, धातु और साधारण आदि वैण स्वर माने गये हैं और जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण क्रिया और अलंकार विधि ये शारीर स्वरके भेद कहे हैं ॥१४७-१४८|| जाति, तद्धित, छन्द, सन्धि, स्वर, विभक्ति, सुबन्त, तिङन्त, उपसर्ग तथा वर्ण आदि पदगत गान्धर्वको विधि हैं और आवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेशन, शम्याताल, परावर्त, सन्निपात, सवस्तुक १. ततं चैवावनद्धं च घनं सुषिरमेव च । चतुर्विधं तु विज्ञेयमातोद्यं लक्षणान्वितम् ॥१॥
ततं तन्त्रीगतं ज्ञेयमवनद्धं तु पोस्करम् । धनं तालस्तु विज्ञेयः सुषिरो वंश उच्यते ॥२॥ नाट्य-शास्त्र, अ. २८ २. 'ज्याश्च' ख. पुस्तके। ३. सौवरणक्रियाः ख., म. । सोवारण- क.। ४. आवायश्चापि म., घ.। ५. तालप्रक्षेपः आवापः । ६. तालनिष्कासनं क्रमः। ७. तिर्यक्चालनं विक्षेपः । ८. पुनस्तत्र प्रवेशः प्रवेशनम् । ९. उभयोस्तालयोः सदृशो शब्दवृत्तिः शम्यातालम । १०. वामहस्तेन दक्षिणतालास्ताटनं परावतः । ११. संनिपातः शब्दसाम्यम् । १२. सवस्तुकः सलघुकः ।
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हरिवंशपुराणे
मन्त्राविदार्यगलया [मात्राविदार्याङ्गलया ] गतिप्रकरणं यतिः । गीती च मार्गावयवाः पादभागाः सपाणयः ॥ १५१ ॥
द्वाविंशतिप्रमाणोऽयं विधिस्तालगतस्तदा । गन्धर्वसंग्रहस्तत्र प्रयुक्तस्तेन विस्तरः || १५२ || "पजाप्यषमश्चैव गान्धारो मध्यमोऽपि च । पञ्चमो धैवतश्च स्यान्निषादः सप्तमः स्वरः || १५३ || वादी चापि च संवादी तौं विवाद्यनुवादिनौ । प्रयुक्ता वसुदेवेन चत्वारोऽमी यथाक्रमम् ॥ १५४ ॥ संवादो मध्यमग्रामे पञ्चमस्यर्षभस्य च । षड्जग्रामे च षड्जस्य संवादः पञ्चमस्य च ॥ १५५ ॥ षड्जश्वचतुःश्रुतिश्च स्यादृषभविश्रुतिस्तथा । गान्धारो द्विश्रुतिश्चैव मध्यमश्च चतुःश्रुतिः ॥ १५६ ॥ चतुर्भिः पञ्चमश्चैव द्विश्रुतिधैवतस्तथा । त्रिश्रुतिश्च निषादोऽपि षड्जग्रामे स्वरास्त्वमी ॥१५७॥ चतुःश्रुतिश्च विज्ञेयो मध्यमे मध्यमाश्रयः । द्विश्रुतिश्चैव गान्धार ऋषमस्त्रिश्रुतिः स्मृतः ॥१५८॥ षड्जश्चतुःश्रुतिश्चैत्र निषादो द्विश्रुतिस्तथा । चैत्रतस्त्रिश्रुतिर्ज्ञेयः पञ्चमस्त्रिश्रुतिस्तथा ॥१५९॥ द्वाविंशतिस्त्विमा वेद्याः श्रुतयोऽत्र निदर्शनात् । द्वैग्रामिक्यस्तथैव स्युर्मूच्र्छनास्तु चतुर्दश ॥ १६० ॥ आदावुत्तरमन्द्रा स्याद् रजनी चोत्तरायता । चतुर्थी शुद्धषड्जा तु पञ्चमी मत्सरीकृता ॥ १६१ ॥
मात्रा, अविदायें, अंग, लय, गति, प्रकरण, यति, दो प्रकारकी गीति, मागं, अवयव, पादभाग और पाणि । ये तालगत गान्धवके बाईस प्रकार हैं । इस प्रकार गान्धवं ( तत ) वाद्यका जितना विस्तार है वसुदेवने उस सबका प्रयोग किया अर्थात् तदनुसार वीणा बजायी ॥ १४२ - १५२ ॥ दूसरी तरहसे स्वर १ षड्ज, २ ऋषभ, ३ गान्धार, ४ मध्यम, ५ पंचम, ६ धैवत और ७ निषादके भेदसे सात प्रकारके हैं। इन स्वरोंके प्रयोग करनेके वादी, संवादी ", विवादी और अनुवादी ये चार प्रकार हैं सो वसुदेवने इन चारों प्रकारोंका यथाक्रमसे प्रयोग किया ||१५३-१५४|| मध्यम ग्राम में पंचम और ऋषभ स्वरका तथा षड्ज ग्राम में षड्ज तथा पंचम स्वरका संवाद होता है || १५५ ।। षड्जग्रामके षड्ज स्वरमें चार, ऋषभ में तीन, गान्धार में दो, मध्यम में चार, पंचम में चार, धैवत में दो और निषादमें तीन श्रुतियाँ होती हैं ।। १५६ - १५७ ॥ मध्यम ग्रामके मध्यम स्वरमें चार, गान्धारमें दो, ऋषभमें तीन, षड्जमें चार, निषादमें दो, धैवतमें तीन, पंचम में तीन श्रुतियाँ होती हैं || १५८ - १५९ ।। इस प्रकार षड्ज और मध्यम - दोनों ग्रामोंमें प्रत्येककी बाईस बाईस श्रुतियाँ होती हैं एवं उक्त दोनों ग्रामोंकी मिलकर चौदह मूर्च्छनाएँ कही गयी हैं ॥ १६० ॥ इनमें पहली उत्तरभद्रा, दूसरी रजनी, तीसरी उत्तरायता, चौथी शुद्धषड्जा, पाँचवीं मत्सरीकृता, १. खड्गश्चापि म । २. आवापस्त्वथ निष्क्रामो विक्षेपश्च प्रवेशकः । शभ्यातालः सन्निपातः परिवर्तः सवस्तुकः ||१५|| मात्राविदार्यङ्गुलया यतिः प्रकरणं तथा । गीतयोऽवयवा मार्गा पादभागाः सपाणयः । इत्येकविंशको ज्ञेयो विधिस्तालगतो बुधैः || १६ || नाट्यशास्त्र अध्याय २८ । ३. षड्जश्च ऋषभश्चैव गान्धारो मध्यमस्तथा । पञ्चमो धैवतश्चैत्र निषादः सप्त च स्वराः ।। १९ ।। चतुविधत्वमेतेषां विज्ञेयं श्रुतियोगतः । वादी चैवाथ संवादी अनुवादी विवाद्यपि ||२०|| ४. 'रागोत्पादनशक्तेर्वदनं तद्योगतो वादी' । वादी राजा स्वरस्तस्य संवादी स्यादमात्यवत् । शत्रुर्विवादी तस्य स्यादनुत्रादो तु भृत्यवत् ।। ५. श्रुतयोऽष्टौ द्वादश वा भवन्ति मध्ये ययोः स्वरयोः । संवादिनौ तु कथितौ परस्परं निषादगान्धारी ( ।। संगीतदर्पणे १ - ६ - ६९ ॥ ) ६. ग्रामः स्वराणां समूहः स्यान्मूच्र्छनादेः समाश्रयः । तौ द्वौ घरातले तत्र स्यात् षड्जग्राम आदिमः || द्वितीयो मध्यमग्रामः (संगीतमहोदधौ १-७-५) । ७ षड्जश्चतुः श्रुतिर्ज्ञेय ऋषभस्त्रिश्रुतिः स्मृतः । द्विश्रुतिश्चापि गान्धारो मध्यमश्च चतुःश्रुतिः ॥ २३ ॥ चतुःश्रुतिः पञ्चमः स्यात् त्रिश्रुतिधैवतस्तथा । द्विश्र ुतिस्तु निषादः स्यात् षड्जग्रामे स्वरान्तरे ॥ २४ ॥ ना. शा. अ. २८ । ८. चतुःश्र ुतिस्तु विज्ञेयो मध्यमः पञ्चमः पुनः । त्रिश्रुतिधैवतस्तु स्याच्चतुः श्रुतिक एव च ॥ २५ ॥ निषादषड्जो विज्ञेयौ द्विचतुःश्रुतिसंभवो । ऋषभस्त्रिश्रुतिश्च स्यात् गान्धारो द्विश्रुतिस्तथा ॥ २६ ॥ ना. शा. अ. २८ ।
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एकोनविंशः सर्गः
२८९
अश्वक्रान्ता तथा षष्ठी सप्तमी चामिरुद्गता । षड्जप्रामाश्रिता ह्येता विज्ञेयाः सप्त मूर्च्छनाः ॥ १६२ ॥ सौवीरी हरिणाश्वा च स्यात्कलोयवना [कलोपनता ] तथा । शुद्धमध्यमसंज्ञा च मार्गवी पौरवी तथा ॥ १६३ ॥ रिप्यका [हृष्यका] सप्तमी चेति मूर्च्छनाः सप्त वर्णिताः । मध्यमग्रामसंभूता बोद्धव्या बुद्धसत्तमैः ॥ १६४॥ षड्जेनोत्तरमन्द्रां स्यादृषभेनामिरुद्गता । अश्वक्रान्ता तु गान्धारे मध्यमे मत्लरीकृता ॥ १६५ ॥ पञ्चमे शुद्धषड्जा स्याद्धैवते चोत्तरायता । निषादे रजनी ज्ञेया इत्येताः सप्त मूर्च्छनाः ॥ १६६ ॥ मध्यमग्रामजाश्वापि मध्यमे गन्धरर्षभैः । षड्जेन च निषादेन धैवतेन च मूर्च्छनाः ॥ १६७॥ पञ्चमेन च विज्ञेया सौवीर्याथा यथाक्रमम् । रिष्यकान्ता [हृष्यकान्ता] इतोमाश्च ताश्चतुर्दश मूर्च्छनाः ॥ १६८॥ पट्चैकस्वरास्तानाः [ षट्पञ्चकस्वरास्तासां ] षाडवौडवसंश्रयाः ।
साधारणकृताश्चैव काललीसमलंकृताः ॥ १६९ ॥
I
आन्तरस्वरसंयुक्ता मूर्च्छना ग्रामयोर्द्वयोः । द्विधैकमूर्च्छनासिद्धिर्यथायोगट ११७०॥ तानाश्चतुरशीतिः स्युः पञ्चषट्स्वरसंभवाः । ते पञ्चत्रिंशदेकान्नपञ्चाशश्च यथाक्रमम् ॥ ३७१ ॥
छठी अश्वक्रान्ता और सातवीं आभिरुद्गता ये सात षड्ज ग्रामकी मूच्छंताएं हैं ॥१६१-१६२॥ और पहली सौवीरी, दूसरी हरिणाश्वा, तीसरी कलोपनता, चौथो शुद्धमध्यमा, पाँचवीं मागंवी, छठी पौरवी और सातवीं रिष्यका ( हृष्यका ) ये सात मूर्च्छनाएं मध्यम ग्राम में विद्वज्जनोंके द्वारा जानने योग्य हैं ॥१६३-१६४॥ षड्ज स्वरमें उत्तरमन्द्रा, ऋषभमें आभिरुद्गता, गान्धारमें अश्वकान्ता, मध्यममें मत्सरीकृता, पंचममें शुद्ध षड्जा, धैवतमें उत्तरायता और निषादमें रजनी मूर्च्छना होती है । ये मूर्च्छनाएँ षड्जग्राम सम्बन्धिनी हैं ।। १६५-१६६ ।। अब मध्यमै ग्राम सम्बन्धिनी मूच्र्छनाएं कहते हैं । मध्यम ग्रामके मध्यम, गान्धार, ऋषभ, षड्ज, निषाद, धैवत और पंचम स्वरमें क्रमसे सौवीरीको आदि लेकर हृष्यका तक सात मूच्र्छनाएँ होती हैं अर्थात् मध्यममें सौवीरी, गान्धारमें हरिणाश्वा, ऋषभमें कलोपनता, षड्जमें शुद्धमध्यमा, निषादमें मागंवी, धैवतमें पौरवी और पंचममें हृष्यका मूच्र्छना होती है। इस प्रकार दोनों ग्रामोंकी ये चौदह मूच्र्छनाएँ हैं" ।। १६७-१६८ ।। इन चौदह मूर्च्छनाओंके षाडव, औडव, साधारण-कृत और काकलीके भेद से चार-चार स्वर होते हैं । इस तरह इनके छप्पन स्वर हो जाते हैं । जिसकी उत्पत्ति छह स्वरोंसे होती है उसे षाडव और जिसको पाँच स्वरोंसे उत्पत्ति होती है उसे ओडव कहते हैं ' || १६९ || षड्ज मध्यम इन दोनों ग्रामोंकी मूच्र्छनाएँ अनन्तर स्वरसे भी संयुक्त होती हैं तथा इनका यथायोग्य मेल होनेपर एक मूच्र्छना दो रूप हो जाती है इसकी सिद्धि भी बतायी गयी है ||१०|| तान चौरासी प्रकारकी हैं इनमें पाँच स्वरोंसे उत्पन्न होनेवाली पैंतीश और छह स्वरोंसे उत्पन्न १. आधा ह्युत्तरमन्द्रा स्याद् रजनी चोत्तरायता । चतुर्थी शुद्धषड्जा तु पञ्चमी मत्सरीकृता ॥२७॥ अश्वक्रान्ता तु षष्ठी स्यात् सप्तमी चाभिरुद्गता । षड्जग्रामाश्रिता एता विज्ञेयाः सप्तमूर्च्छनाः ||२८|| नाट्य-शास्त्र अध्याय २८ । २ सौवीरी हरिणाश्वा च स्यात् कलोपनता तथा । चतुर्थी शुद्धमध्या तु मार्गवी पांरवी तथा ||२९|| हृष्यका चैव विज्ञेया सप्तमी द्विजसत्तमाः । मध्यमग्रामजा होता विज्ञेयाः सप्त मूर्च्छनाः ||३०|| ना. शा. अ २८ । ३. तत्र षड्जग्रामे - षड्जेनोत्तरमन्द्रा, निषादेन रजनी, धैवतेनोत्तरायता, पञ्चमेन शुद्धषड्जा, मध्यमेन मत्सरीकृता, गान्धारेणाश्वक्रान्ता, ऋषभेणाभिरुद्गता इति । ना. शा. पृ. ३२० । ४ अथ मध्यमग्रामे - मध्यमेन सौवीरी, गान्धारेण हरिणाश्वक्रान्ता ऋषभेण कलोपनता, षड्जेन शुद्धमध्यमा, निषादेन मार्गी, धैवतेन पौरवी, पञ्चमेन हृष्यका इति ना. शा. पू. ३२० । ५ एवमेताः क्रमयुताः षट्पञ्चाशत् स्वराः स्मृताः । षाडवोडवित संज्ञिताः पूर्णाः साधारणकृताश्चेति चतुविधाश्चतुर्दशमूर्च्छनाः । ना. शा. पृ. ३२० । ६. षट्पञ्चकस्वरास्तासां षाडवोडुवितस्मृताः । साधारणकृताश्चेति काकली संमलंकृताः ।। ७. अन्तरस्वरसंयुक्ता मूर्च्छना ग्रामयोर्द्वयोः॥ ३२॥ द्विविधैकमूर्च्छना सिद्धिः इत्यादि व्याख्यानेन नाट्यशास्त्रस्य ३२० पृष्ठे स्पष्टीकृतम् ।
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हरिवंशपुराणे अन्तरस्वरसंयोगो नित्यमारोहिसंश्रयः । कार्योऽह्यल्पविशेषेण नावरोही कदाचन ॥१२॥ क्रियमाणोऽवरोही स्यादल्पो वा यदि वा बहु । याति रागं श्रुतिश्चैव नयते स्वं ततः स्वरः [जातिरागं श्रुतिञ्चैव नयते त्वन्तरस्वरः] ॥१७॥
षाड्जी स्यादार्षमी चैव धैवत्यथ निषादजा।
सुषड्जा दिव्य [सुषड्जोदीच्य] वा चैव तया वै षड्जकैशिकी ॥१७॥ षड्जमध्या तथा चैव षड्जग्रामसमाश्रया'। जातयोऽष्टौ दशोद्दिष्टा मध्यमग्रामजाश्रिताः ॥१७५॥
गान्धारी मध्यमा चैव गान्धारी दिव्यवा [ गान्धारोदीयवा ] तथा । पञ्चमी रक्तगान्धारी तथान्या रक्तपञ्चमी ॥१७६॥ मध्यमोदिव्यवा [ मध्यमोदीच्यवा] चैव नन्दयन्ती तथैव च ।
कर्मारवी च विज्ञेया तथान्ध्री कैशिकी तथा ॥१७७॥ स्वरसाधारणगतास्तिस्रो ज्ञेयास्तु जातयः । मध्यमा षड़जमध्या च पञ्चमी चेति सूरिभिः ॥१८॥ ताश्चापि द्विविधाः शुद्धा विकृताश्च प्रकीर्तिताः । अपरस्परनिष्पक्ष ज्ञेयाश्चैव तु जातयः ॥१७९॥ अपृथग्लशणैर्युक्ता द्वैग्रामिक्यः स्वरप्लुताः । चतस्रो जातयो नित्यं ज्ञेयाः सप्तस्वरा बुधैः ॥१८॥ चतस्रः षटस्वराश्चान्या दश पञ्चस्वराः स्मृताः । मध्यमोदीच्यवा चैव तथा वैषडजकैशिकी ॥१८॥
होनेवाली उनचास हैं ॥१७१॥ अन्तर स्वरका संयोग सदा आरोही अवस्थामें ही करना चाहिए अवरोही अवस्थामें थोड़ा या बहुत किसी भी रूपमें कभी भी नहीं करना चाहिए ॥१७२॥ क्योंकि यदि अवरोही अवस्थामें थोड़ा या बहुत अन्तर स्वरका संयोग किया जाता है तो उस समय अन्तर स्वर जातिके राग और श्रुति दोनोंको समाप्त कर देता है ॥१७३।। अब दोनों ग्रामोंकी जातियोंका वर्णन करते हैं, उनमें षड्ज ग्रामसे सम्बन्ध रखनेवाली १ षाड्जी, २ आर्षभी, ३ धैवती, ४ निषादजा, ५ सुषड्जा, ६ उदीच्यवा, ७ षड्जकैशिकी और ८ षड्जमध्या ये आठ जातियाँ हैं एवं नीचे लिखी दश जातियां मध्यमग्रामके आश्रित हैं-१ गान्धारी, २ मध्यमा, ३ गान्धारोदीच्यवा, ४ पंचमी, ५ रक्तगान्धारी, ६ रक्तपंचमी, ७ मध्यमोदीच्यवा, ८ नन्दयन्ती, ९ कर्मारवी, १० आन्ध्री, ११ कैशिकी। दोनों ग्रामोंकी मिलाकर अठारह जातियां होती हैं ॥१९४-१७७॥ इन जातियों में मध्यमा, षड्जमध्या और पंचमी ये तीन जातियाँ साधारण स्वरगत हैं ॥१७८॥ ये जातियां शुद्ध और विकृतके भेदसे दो प्रकारकी कही गयी हैं । जो परस्परमें मिलकर उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा पृथक-पृथक् लक्षणोंसे युक्त हैं वे शुद्ध कहलाती हैं और जो समान लक्षणोंसे युक्त हैं वे विकृत कहलाती हैं । विकृत जातियां दोनों ग्रामोंकी जातियोंसे मिलकर बनती हैं तथा दोनोंके स्वरोंसे आप्लुत रहती हैं। इन जातियोंमें चार जातियां सात स्वरवाली, चार जातियाँ छह स्वरवाली और शेष दश जातियाँ पाँच स्वरवाली कही गयी हैं। मध्यमो. दीच्यवा, षडजकैशिकी, कर्मारवी और गान्धारपंचमी ये चार जातियां सात स्वरवाली हैं। १. तत्र मूर्च्छनातानाश्चतुरशीतिः । तत्रैकोनपञ्चाशत् षट्स्वराः, पञ्चत्रिंशत् पञ्चस्वराः । नाट्यशास्त्र पृ. ३२० 'मूर्च्छना एव तानाः स्युः शुद्धा आरोहणाश्च ताः' । ( नारदपुराणे ) 'विस्तार्यन्ते प्रयोगाय मूर्च्छनाः शेषसंश्रयाः । तानास्तेषनपञ्चाशत् सप्तस्वरसमुद्भवाः ॥ (संगीतदामोदरे १-३५)। २. अन्तरस्वरसंयोगो नित्यमारोहिसंश्रयः । कार्यस्त्वल्पो विशेषेण नावरोही कदाचन ॥ क्रियमाणोऽवरोही स्यादल्पो वा यदि वा बहू ।' जातिरागं श्रुतिश्चैव नयन्ते त्वन्तरे स्वराः ॥३५।। नाटयशास्त्र अध्याय २८ । ३. नाट्यशास्त्रे तु षड्जग्रामाश्रिताः सप्त, मध्यमग्रामाश्रितास्त्वेकादश जातयो निर्दिष्टाः । ( श्लोका अष्टाविंशाध्याये ३६-४२)। ४. स्वरसाधारणगतास्तिस्रो ज्ञेयास्तु जातयः । मध्यमा पञ्चमी चैव षड्जमध्या तथैव च ॥३६॥ ना. शा. अ.२८ ।
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एकोनविंशः सर्गः कर्मारवी च संपूर्णा तथा गान्धारपञ्चमी । षड्जान्ध्री नन्दयन्ती च गान्धारोदीच्यवा तथा ॥१८२॥ चतस्रः षट्स्वरा ह्येताः शेषाः पञ्चस्वरा दश । नैषादो वार्षमी चैव धैवती षड्जमध्यमा ॥१८३॥ षड्जौदीच्यवती चैव पञ्च षड जाश्रया स्मृताः । गान्धारी रक्तगान्धारी मध्यमा पञ्चमी तथा ॥१८॥ कैशिकी चेति विज्ञेया पञ्चैता मध्यमाश्रयाः । यास्ताः पञ्चस्वरा ज्ञेया याश्चैताः षट्स्वराः स्मृताः।।१८५॥ कदाचित् पाडवीभूनाः कदाचिच्चौडवीकृताः । षड् जग्रामेऽपि संपूर्णा विज्ञेया बहु[षड ज] कैशिकी॥१८६॥ षट्स्वराश्चैव विज्ञे या षडजे ता गानयोगतः। संपूर्णा मध्यमग्रामे ज्ञेया कर्मारवी तथा ॥१८७॥ गान्धारपञ्चमी चैव मध्यमोदीच्यवा तथा । पुनश्च षट्स्वरोपेता गान्धारोदीच्यवा तथा ॥१८॥ आन्ध्री च नन्दयन्ती च मध्यमग्रामसंश्रयाः । एवमेता बुधैज्ञेया द्वैग्रामिक्यो हि जातयः ॥१८॥ 'षट्स्वरे सप्तमस्वंशो नेष्यते षड जमध्यमः । संवादिलोपा गान्धारस्तत्रैव न विशिष्यते ॥१९०॥ गान्धारी रक्तगान्धारी कैशिकीनां च पञ्चमः । षड जायाश्चैव गान्धारी मानसं विद्धि षाडवम् ॥१९॥ षाडवे धैवतो नास्ति षड जोदीच्या वियोगतः । संवादिलोपात्सप्तैताः षट्स्वरेण विवर्जिताः ।। १५२।। आसां तु रक्तगान्धार्याः षड जमध्यमपञ्चमाः । सप्तमश्चैव विज्ञेयो येषु नौडवितं मवेत् ॥१९३॥ द्वौ षडजमध्यमावंशौ गान्धारोऽथ निषादवान् । ऋषभश्चैव पञ्चम्याः कैशिक्याश्चैव धैवतः ॥१९४॥
षड्जा, आन्ध्री, नन्दयन्ती और गान्धारोदीच्यवा ये चार जातियां छह स्वरवाली हैं और शेष दश जातियाँ पाँच स्वरवाली हैं। नैषादी, आर्षभी, धैवती, षड्जमध्यमा और षड्जोदीच्यवती ये पांच जातियाँ षडजग्रामके आश्रित हैं और गान्धारी, रक्तगान्धारी. मध्यमा. पचमी तथा कै ये पाँच मध्यमग्रामके आश्रित हैं । इन जातियों में जो पांच स्वरवाली ( ओडव) और छह स्वरवाली ( षाडव ) जातियाँ कही गयी हैं वे कदाचित् क्रमसे षाडव ( छह स्वरवाली ) और ओडव ( पनि स्वरवाली ) हो जाती हैं । षड्जग्राममें सात स्वरवाली षड्जकैशिकी जाति होती है और गानके योगसे छह स्वरवाली भी होती है। मध्यमग्राममें सात स्वरवाली कर्मारवी, गान्धारपंचमी और मध्यमोदीच्यवा होतो हैं और छह स्वरवाली गान्धारोदीच्यवा, आन्ध्री एवं नन्दयन्ती जातियां होती हैं। इस तरह विद्वानोंके द्वारा ये दोनों ग्रामोंकी जातियाँ जानने योग्य हैं ॥१७९-१८९।। जहाँ छह स्वर होते हैं वहां षड्जमध्यम स्वर उसका सप्तांश नहीं होता और संवादीका लोप हो जानेसे वहाँ गान्धारस्वर विशेषताको प्राप्त नहीं होता ||१९०॥ गान्धारी. रक्तगान्धारी. कै और षड्जामें पंच स्वर नहीं होता तथा षाडवको गान्धारीका हृदय जानना चाहिए ।।१९१।। षाडवमें धैवत स्वर नहीं रहता क्योंकि वहां षड्जोदीच्यवा जातिका वियोग हो जाता है । एवं ये सात जातियां संवादोका अभाव होनेसे छह स्वरोंसे वजित रहती हैं ॥१९२॥ इनमें-से रक्तगान्धारी जातिमें षड्ज, मध्यम और पंचमस्वर सप्तमस्वर रूप हो जाते हैं तथा इनमें औडवित नहीं रहता ।।१९३।। षड्ज, मध्यम, गान्धार, निषाद और ऋषभ ये पांच अंश पंचमी जातिमें रहते हैं और कैशिकीमें धैवतके साथ छह रहते हैं। ये बारहों जातियाँ पंचस्वरमें सदा वर्जनीय मानी गयी हैं। किन्तु इनमें जो औडवितसे रहित हैं उनका स्वरके आश्रय निरन्तर प्रयोग करना १. निषादवृषभी म. । २. षोडशीभूता कदाचित् षाडवोकृताः म.। 'कदाचित् षाडवीभूता कदाचिच्वौडवीकृता' ना. शा. अ. २८। ३. षड्जग्रामे तु विज्ञेया सम्पूर्ण षड्जकैशिका ॥६१॥ ना. शा. अ. २८ । ४. ग्रामे च. म.। ५. षड्जग्रामे तु विज्ञ या षाडव्येका षट्स्वराश्रया ॥५९॥ ना. शा. अ. २८ । ६. सम्पूर्णा मध्यमग्रामे ज्ञ या कारवी तथा ॥६॥ मध्यमोदीच्यवा चैव तथा गान्धारपञ्चमी । ना. शा. न. २८ । ७. एवमेता बुधै या द्वैग्रामिक्यश्च जातयः ॥६२।। ना. शा. अ. २८ । ८. षट्स्वयें सप्तमांशा तु नेष्यते षड्जमध्यमा। संवादिलोपाद् गान्धारस्तत्रैव न भविष्यति ॥६३।। ना. शा. अ. २८ ।
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हरिवंशपुराणे एवं तु द्वादशवेह वाः पञ्च स्वरे सदा । यास्तु नौडविता नित्यं कर्तव्या हि स्वराश्रयाः ॥१९५॥ सर्वस्वराणां नाशस्तु विहितस्त्वथ जातिषु । न मध्यमस्य नाशस्तु कर्तव्यो हि कदाचन ॥१९६॥ सर्वस्वराणां प्रवरो झनाशान्मध्यमः स्मृतः । गान्धर्वकल्पे विहिते समस्तेष्वपि मध्यमः ॥१९७॥ जातीनां लक्षणं तारो मन्द्रो न्यासादिरेव च । अल्पत्वं च बहुत्वं च षाडवौडविते तथा ॥५९८॥ एवमेता बुधैज्ञेया जातयो दशलक्षणाः । यथा यस्मिन् रसे यावदिति तत्प्रतिपाद्यते ॥१९९॥ यस्मिन् भवति रागश्च यस्माच्चैव प्रवर्तते । मन्द्रश्च तारमन्द्रश्च योऽत्यर्थमुपलभ्यते ॥२०॥ प्रहोपन्यासविन्याससंन्यासन्यासगोचरः । अनुवृत्तिश्च या चेह सोऽशः स्यादशलक्षणः ॥२०१॥ 'संसारोत्साचलस्थानमल्पत्वं दुर्बलासु च । द्विविधोत्तरमार्गस्तु जातीनां व्यक्तिकारकः ॥२०२॥ (?)
वं' पसरो नास्ति न्यासौ तु द्वाववस्थितौ । गान्धारो न्यासलिङ्ग तु दृष्टमार्षभमेव च ॥२०३॥(?) ग्रहस्तु सर्वजातीनामंशवत् परिकीर्तितः । यत्प्रवृत्ते भवेदंशः सोऽशो ग्रह विकल्पितः ॥२०४॥ 'द्वैनामिकीनां जातीनां सर्वासा चैव नित्यशः । अंशास्त्रिषष्टिविज्ञेयास्तासां वै षट सु संग्रहः ॥२०५॥ मध्यमोदीच्यवायास्तु नन्दयन्त्यास्तथैव च । ततो गान्धारपञ्चम्यां पञ्चमोऽशो ग्रहस्तथा २०६॥ धैवत्याश्च तथा वधशौ विज्ञ यो धैवतर्षमौ । पञ्चम्याश्च तथा ज्ञेयौ ग्रहांशी पञ्चमर्षमौ ॥२०७॥ गान्धारोदीच्यवायाश्च ग्रहांशी पड जमध्यमौ । आर्षभ्यास्तु तथा चैव विज्ञेया धैवतर्षमौ ॥२०८॥
चाहिए ॥१९४-१९५।। जातियोंमें समस्त स्वरोंका नाश किया जा सकता है परन्तु मध्यमस्वरका नाश कभी नहीं करना चाहिए ॥१२६॥ क्योंकि मध्यम स्वरका कभी नाश नहीं होता इसलिए । वह समस्त स्वरोंमें प्रधान स्वर माना गया है। साथ ही यह मध्यमस्वर गान्धर्व कल्पके समस्त भेदोंमें भी स्वीकृत किया गया है ।।१९७।। १ तार, २ मन्द्र, ३ न्यास आदि (४ उपन्यास, ५ ग्रह, ६ अंश) ७ अल्पत्व, ८ बहत्व, ९षाडव और १० औडवित ये जातियों के नाम हैं ॥१८॥ इस प्रकार विद्वानों द्वारा ये दश जातियां जानने योग्य हैं। उन जातियोंका जिस रसमें जितना प्रयोग होता है उसका कथन किया जाता है ॥१९९।। राग जिसमें रहता है, राग जिससे प्रवृत्त होता है, जो मन्द्र अथवा तारमन्द्र रूपसे अधिक उपलब्ध होता है, जो ग्रह उपन्यास, विन्यास, संन्यास और न्यासरूपसे अधिक उपलब्ध होता है, तथा जो अनुवृत्ति पाई जाती है वह दश प्रकारका अंश कहलाता है ।।२००-२०१।। संचार, अंश, बलस्थान, दुर्बल स्वरोंका अल्पता और नाना प्रकारका अन्तर मार्ग ये जातियोंको प्रकट करनेवाले हैं ।।२०२।। मन्द्रमें अंश नहीं होता परन्तु न्यासमें दो अंश होते हैं। गान्धार ग्रह तथा न्यासमें आर्षभ अंश देखा जाता है ।।२०३।। समस्त जातियोंमें जिस प्रकार अंश स्वीकार किया गया है उसी प्रकार ग्रह भी माना गया है। जिस ग्रहके प्रवृत्त होनेपर जो अंश होता है वह अंश उसी ग्रहसे विकल्पित माना जाता
योक सदा वेशठ अंश जानना चाहिए और जातियाका संग्रह छह स्वरोंमें माना गया है ॥२०५|| मध्यमोदीच्यवा, नन्दयन्ती और गान्धार पंचमीमें पंचम अंश तथा पंचम ही ग्रह रहता है॥२०६।। धैवतीमें धैवत और ऋषभ ये दो अंश तथा दो ग्रह और पंचमीमें पंचम तथा ऋषभ दो अंश और दो ग्रह जानना चाहिए ॥२०७।। गान्धारो१. संचारोंऽशबलस्थानमल्पत्वं दुर्बलेषु च । विविधोऽन्तरमार्गस्तु जातीनां व्यक्तिकारकः ॥९१॥ अ. २८ नाट्यशास्त्रे एवं पाठः । २. मन्द्रो ांशपरो नास्ति न्यार तु द्वौ व्यवस्थितौ । गान्धारे च ग्रहे न्यासे दृष्टमार्षभदैवतम् ॥९४।। नाट्य अ. २८ । ३. ग्रहस्तु सर्वजातीनामंश एव हि कीर्तितः। यत्प्रवृतं भवेद्गानं सोऽशो ग्रहविकल्पितः ॥७१। ना. शा. अ. २८ । ४. द्वेग्रामिकीना जातानां सर्वासामपि नित्यशः । अंशास्त्रिषष्टिविज्ञेयास्तासां चैव तथा ग्रहः ॥७५॥ ना. शा. अ. २८ । ५. नाट्यशास्त्रस्य अष्टाविंशतितमाघ्यायस्थ ७६-७८ श्लोकाः द्रष्टव्याः ।
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एकोनविंशः सर्गः निषादः षाडवश्चैव गान्धारोऽथर्षभस्तथा । तथैव षड्जकैशिक्याः षड जगान्धारमध्यमाः ॥२०९॥ तिसृणामपि जातीनां ग्रहा न्यासाश्च कीर्तिताः । गान्धार ऋषभश्चैष निषादः पञ्चमस्तथा ॥२१०॥ ग्रहायंशाश्च चत्वारस्तथैवान्त्याः प्रकीर्तिताः । षड् जश्चाप्युषमश्चैव मध्यमः पञ्चमस्तथा ॥२११॥ मध्यमायां ग्रहांशी तु गान्धारो धैवतस्तथा । निषादषड जगान्धारा मध्यमाः पञ्चमस्तथा ॥२१२॥ गान्धारो रक्तगान्धार्या गृहांशाः परिकीर्तिताः । अञ्चितर्षमयोगास्तु कैशिकांशा ग्रहास्तथा ॥२१॥ स्वराः सर्वे च विज्ञयाः ग्रहांशी षड जमध्यमौ । एवं त्रिषष्टिविज्ञेया प्रहाश्चांशाः स्वजातिषु ।।२१४॥ अंशवच्च ग्रहा ज्ञेयाः सर्वास्वपि हि जातिपु । सर्वासामेव जातीनां त्रिजात्यास्तु गुणाः स्मृताः ॥२१५।। षड गुणास्तेषु विज्ञेया वर्द्धमानाः स्वरास्तथा । एकस्वरो द्विस्वरश्च त्रिस्वरोऽथ चतुःस्वरः ।।२१६।। पञ्चस्वरस्तथा चे षट्स्वरः सप्तकस्तथा । पूर्वमुक्तमिदं त्वाप्तां ग्रहांशपरिकल्पनम् ।।२१७।। पञ्चैव तु भवेत् षड जे निषादर्षभहीनतः । उपन्यासा भवन्त्यत्र गान्धारः पञ्चमस्तथा ॥२१॥ न्यासश्नात्र भवेत् षष्ठो लोपो वै सप्तमर्षमौ । गान्धारस्य तु बाहुल्यं तत्र कार्य प्रयोक्तृमिः ॥२१॥ आर्षम्यास्तु तथा स्वंशी निषादो धैवतस्तथा । एतावन्तो [पन्यासा न्यासश्चाप्यार्षमस्तथा ॥२२०।। धैवत्या धैवतश्चैव न्यासश्चैवार्षभः स्मृतः । उपन्यासा भवन्त्यत्र धैवतर्षभपञ्चमाः ॥२२॥ षड जपञ्चमहीनं च पञ्चस्वयं विधीयते । पञ्चमं च विना चैव षाडवः परिकीर्तितः ॥२२॥ आरोहणीयौ तौ कायौं लडनीयौ तथैव च । निषादश्चर्ष मश्चैव गान्धारो बलवास्तथा ।।२२३।।
दोच्यवामें षड़ज और मध्यम ये दो अंश तथा ग्रह हैं। आर्षभोमें धैवत, ऋषभ और निषाद ये तीन अंश और ग्रह हैं। नैषादिनीमें षाडव, मान्धार और ऋषभ ये तीन अंश और ग्रह हैं। इसी प्रकार षड्ज कैशिकी में षड्ज, गान्धार और मध्यम ये तीन अंश तथा ग्रह हैं ।।२०८-२०२|| तीनों जातियोंके ग्रह और न्यास कहे जा चुके हैं। गान्धार, ऋषभ, निपाद और पंचम ये चार ग्रहके आदि अंश हैं तथा षड्ज, ऋषभ, मध्यम और पंचम ये अन्त्य अंश कहे गये हैं ।।२१०-२११।। मध्यमा जातिमें गान्धार और धैवत ये दो ग्रह एवं अंश हैं। निषाद, षड्ज, गान्धार, मध्यम और पंचम ये रक्तगान्धारोके ग्रह और अंश हैं। कैशिकीमें ऋषभ योगके साथ समस्त ग्रहोंसे युक्त समस्त स्वर हैं । इसमें षड्ज और मध्यम ये दो ग्रह और अंश है । इस प्रकार अपनी-अपनी जातियों में त्रेसठ ग्रह तथा इतने ही अंश जानना चाहिए ॥२१२-२१४|| समस्त जातियों में अंशोंके ही मान ग्रह जानना चाहिए । समस्त जातियोंके गण विजातीय होते हैं ॥२१५।। इनमें एक से लेकर बहते. बढ़ते छहगुने स्वर हो जाते हैं और वे एक स्वर, दो स्वर, तीन दर, चार स्वर, पाँच स्वर, छह स्वर और सात स्तर-इस क्रमसे होते हैं। इन जातियोंमें ग्रह और अंश कल्पना पहले कही जा चुकी है ।।२१६-२१७॥ षड्ज में निपाद और ऋपभ को छोड़कर शेप पाँच स्वर होते हैं और वहाँ गान्धार तथा पंचम उपन्यास होते हैं। षष्ठ स्वर न्यास होता है एवं ऋषभ तथा सप्तम स्वरका लोप होता है। इसमें प्रयोक्ताओंको गान्धारकी बहुलता करनी चाहिए ।।२१८-२१९।। आपभीमें निषाद और धैवत ये दो अंश तथा ये ही दो उपन्यास होते हैं और आपभ न्यास होता है ॥२२०॥ धैवतीमें धैवत और आर्षभन्यास तथा धैवत, ऋषभ और पंचम ये उपन्यास होते हैं ।।२२१।। इसमें षड्ज और पंचमको छोड़कर पाँच स्वरोंका प्रयोग किया जाता है तथा पंचमको छोड़कर शेष षाडव कहा जाता है ॥२२२।। पूर्वोक्त पंचस्वर्य और पाडव आरोहणीय और लंघनीय दोनों प्रकारके हैं। इसी प्रकार निषाद, ऋषभ और बलवान् १. कैशिकी सग्रहास्तथा ख. । २. नेषादिन्या निषादस्तु गान्धारश्चार्षभस्तथा ।
अंशाश्च षड्जकैशिक्या: पड़ जगान्धारपञ्चमाः ॥७९॥-ना. शा. अ. २८ ।
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हरिवंशपुराणे निषादश्च 'निषादांशो गान्धारश्चर्षभस्तथा । एवमेते ह्युपन्यासा न्यासश्चैव तु सप्तमः ॥२२४॥ धैवस्या अपि कर्त्तव्यौ षाडवौडवितो तथा । तद्वच्च लङ्घनीयौ तु बलवन्तौ तथैव च ॥२२५।। अंशास्तु षड जकैशिक्या ज्ञयौ गान्धारपञ्चमौ । उपन्यासाश्च विज्ञेयाः षड जपञ्चममध्यमाः ॥२२६॥ गान्धारश्च भवेन्न्यासो हीनस्वयं नवात्र तु । दौर्बल्यं चात्र कर्तव्यं धैवतस्यर्षमस्य च ॥२२७॥ षड जश्च मध्यमश्चैव निषादो धैवतस्तथा । षड जगोदाच्यवांशास्तु न्यासश्चैवात्र मध्यमः ॥२२८॥ उपन्यासस्तथा चैव धैवतः षडज एव तु । परस्परांशातिगामश्छन्दतश्च विधीयते ॥२२॥ पञ्चमर्षभहीनं तु पञ्चस्वयं तु तत्र वै । पड जश्चाप्यर्षभश्चैव गान्धारश्च बली भवेत् ॥२३०॥ षडजमध्यास्तु सर्वेषामुपन्यासास्तथैव च । षड जश्च सप्तमश्चैव न्यासौ कार्यों प्रयोत्कृभिः ॥२३१।। गान्धारसप्तमोपेतं पञ्चस्वयं च तद भवेत् । षाडवः सप्तमोपेतः कार्यश्चैवात्र योगतः ॥२३२॥ सर्वस्वराणां संचार इष्टवस्तु विधीयते । पड जग्रानाश्रया येताः विज्ञ याः सप्त जातयः ॥२३३॥ गान्धार्याः पञ्चधैवांशा धैवतर्षभर्जिताः । पड जश्व पञ्चमश्चैव ह्युपन्यासाः प्रकीर्तिताः ॥२३४॥ गान्धारोऽत्र भवेन्न्यासो पाडवर्षभसंभवः । धैवतर्षभहीनं च तथा चौडवितं भवेत् ॥२३५॥ लहनीयौ च तो नित्यमार्षमाद्धवतं व्रजेन् । इति गान्धारविहितः स्वरन्यासांशसंचरः ॥२३६।। लक्षणं रकगान्धार्या एवं तत्समतां गतम् । बलवांश्चैव तत्र स्याद्रवतः पञ्चमस्तथा ॥२३॥ गान्धारपड जयोश्चात्र संचारो ह्युमयं विना । उपन्यासः समव्यस्तु मध्यमस्तु विधीयते ।।२३८॥
गान्धारोदीच्यवायास्तु विज्ञ यौ षड्जमध्यमौ । सप्तमश्च ततोऽन्यत्र षट्स्वर्यमृषभं विना ।।२३९।। गान्धार भी आरोहणीय तथा लंघनीय दोनों प्रकारके हैं ॥२२३॥ निषाद, निषादका अंश, गान्धार और ऋषभ इस प्रकार ये उपन्यास हैं परन्तु सप्तम स्वर न्यास ही होता है ॥२२४।। धेवती जातिमें भी षाडव और औडवितका प्रयोग करना चाहिए। ये दोनों ही पूर्वकी भाँति लंघनीय तथा आरोहणीय होते हैं ।।२२५।। षड्ज कैशिकीके गान्धार और पंचम ये ग्रहांश हैं तथा षड्ज, पंचम और मध्यम ये उपन्यास हैं ।।२२६।। यहाँपर गान्धार चाहे हीन स्वरवाला हो चाहे अधिक स्वरवाला हो न्यास होता है साथ ही इसके यहाँ धैवत तथा ऋषभ स्वर में दुर्बलताका प्रयोग करना चाहिए ।।२२७।। षड्ज, मध्यम, निषाद और धैवत .. ये षड्जोदीच्यवाके अंश हैं, मध्यम न्यास हैं और धैवत तथा षड्ज उपन्यास हैं। यहाँ छन्दके अनुसार परस्परके अंशोंमें व्यतिक्रम भी हो जाता है ।।२२८-२२९|| जहाँ पंचम और ऋषभको छोड़कर शेष पाँच स्वर होते हैं वहाँ षड़ज, ऋषभ और गान्धार बलवान होते हैं ॥२३०॥ षडज और मध्यम सबके उपन्यास हैं तथा षड्ज और सप्तम सबके न्यास हैं ॥२३१॥ पंचस्वयं गान्धार और सप्तम स्वरसे युक्त होता है तथा षाडवको सप्तम स्वरसे युक्त अवश्य करना चाहिए ।।२३२।। इन समस्त स्वरोंका संचार इच्छानुसार किया जाता है। ये सात जातियाँ षड्ज ग्रामके आश्रय रहती हैं ।।२३३।। गान्धारी जातिमें धैवत और ऋषभको छोड़कर शेष पाँच ही अंश रहते हैं । षड्ज और पंचम उपन्यास होते हैं ।।२३४।। इसमें षाडव और ऋषभसे उत्पन्न गान्धार न्यास होता है तथा धैवत और ऋषभसे रहित औडवित होता है ॥२३५।। यहाँ ऋषभ और धैवत नियमसे लंघनीय माने गये हैं और जब लंघन होता है तो ऋषभसे धैवतकी ओर ही होता है। इस प्रकार गान्धारी जातिके स्वर न्यास और अंशोंके संचारका वर्णन किया ॥२३६।। रक्तगान्धारीका लक्षण इसी-गान्धारीके समान होता है। विशेषता यह है कि इसमें धैवत और पंचम स्वर बलवान् होते हैं ॥२३७॥ यहाँ धेवत और पंचमके बिना गान्धार और षड्जका संचार होता है, तथा मध्य सहित मध्यम उपन्यास होता है ॥२३८॥ गान्धारोदोच्यवामें षड़ज, मध्यम और सप्तम १. निषादोऽसौ म. । २. पञ्चमं यत्त म. । ३. गान्धारं सप्तमोपेतं म.। ४. यवस्वयं ग.। ५. "गान्धारसप्तमोपेतं पञ्चस्वयं विधीयते" नाट्यशास्त्रे। ६. उपन्यासो मध्यमस्तु म.।
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एकोनविंशः सर्गः
२९५
कार्यः स्वन्तरमार्गश्च न्यासोऽपन्यास एव च । गान्धारोदीच्यवायास्तु तत्र सर्वो विधिः स्मृतः || २४०॥ मध्यमायाः भवेदंशौ विना गान्धारसप्तमौ । एक एव ह्यपन्यासो न्यासश्चैव तु मध्यमः || २४१॥ गान्धारसप्तमापेतं पञ्चस्वयं विधीयते । षट्स्वरं चाप्यगान्धारं कर्त्तव्यं तु प्रयोगतः ॥ २४२ ॥ षडजमध्यमयोश्चाऽत्र कार्य बाहुल्यमेव हि । गान्धारलङ्घनं चात्र नित्यं कार्यं प्रयोक्तृभिः ॥ २४३ ॥ मध्यमोदीच्यवायाः स्यादेको ह्यंशस्तु मध्यमः । शेषो विधिश्व कर्त्तव्यो मध्यमायास्तु यो भवेत् ॥ २४४॥ 'द्वावंशावथ पञ्चम्यामृषभः पञ्चमस्तथा । अपन्यासो भवेदेको न्यासश्चैव तु पञ्चमः ॥२४५॥ मध्यमाया विधिर्योत्र पाडवोडविते तथा । दौर्बल्यं चात्र कर्त्तव्यं षड जगान्धारपञ्चमैः ॥ २४६॥ कुर्यादत्र त संचारं पञ्चमस्यर्षभस्य च । । गान्धारगमनं चैव कुर्यादपि च पञ्चमैः ॥ २४७ ॥ अथ गान्धारपञ्चम्याः पञ्चमोऽशः प्रकीर्त्तितः । पञ्चमश्चर्षभश्चैव ह्यपन्यासः प्रकीर्त्तितः ॥२४८|| न्यासश्चैवात्र गान्धारः स च पूर्वस्वरो भवेत् । पञ्चम्यास्त्वथ गान्धार्याः संचरः संविधीयते ।। २४९ ।। ऋषभः पञ्चमश्चैव गान्धारोऽथ निषादवान् । चत्वारोऽशास्तथा ह्यान्ध्रया अपन्यासास्त एव च ॥ २५० ॥ गान्धारश्च तथा न्यासः षड जापेतश्च षाडवः । गान्धारर्षभयोश्वापि संचरस्तु परस्परम् || २५१|| सप्तमस्य च षष्ठस्य न्यासगत्यनुपूर्वशः । षड जस्य लङ्घनं चात्र नास्ति चौडवितं तथा ।। २५२ ।।
४
अंश जानना चाहिए। इसमें ऋषभके बिना छह स्वर होते हैं ॥ २३९ ॥ | इसमें अन्तरमार्ग, न्यास और अपन्यास करना चाहिए तथा उनमें गान्धारोदीच्यवाकी सब विधि स्मरणमें रखना चाहिए || २४०|| मध्यमामें गान्धार और सप्तमको छोड़कर षड्ज, ऋषभ, मध्यम, पंचम और धैवत ये पाँच अंश होते हैं। इसमें एक मध्यम ही अपन्यास तथा न्यास रहता है || २४१ || यहाँ गान्धार और सप्तमसे रहित पंचस्वयं किया जाता है और कभी प्रयोगवश गान्धारको छोड़कर षट्स्वयं भी किया जाता है || २४२ || इसमें प्रयोक्ताओं को षड्ज और मध्यम स्वरकी बहुलता करनी चाहिए तथा गान्धार स्वरका लंघन निरन्तर करना चाहिए - उसे छोड़ते रहना चाहिए || २४३ || मध्यमोदीच्यवा में एक ही मध्यम अंश होता है और शेष विधि जो मध्यमामें होती है वह इसमें करनी चाहिए || २४४ || पंचमी जातिमें ऋषभ और पंचम ये दो अंश होते हैं तथा ये ही दो अपन्यास होते हैं परन्तु न्यास एक पंचम ही होता है || २४५ || मध्यमाकी जो विधि बता आये हैं वह तथा षाडव और ओडवित इसमें भी जानना चाहिए तथा इसमें षड्ज गान्धार और पंचम स्वरको दुर्बल करना चाहिए ॥ २४६ ॥ | यहाँ पंचम और ऋषभ स्वरका संचार करना चाहिए तथा पंचम स्वर के साथ गान्धार स्वरका भी संचार किया जा सकता है || २४७॥ गान्धार पंचमीका एक पंचम अंश ही कहा गया है तथा पंचम और ऋषभ ये दो उसके अपन्यास कहे गये हैं || २४८ ॥ इसमें गान्धार न्यास होता है और वह अपने पूर्व स्वरको लिये हुए होता है। पंचमी और गान्धारी जातिका परस्पर संचार भी किया जाता है || २४९ || आन्ध्री जातिके ऋषभ, पंचम, गान्धार और निषाद ये चार अंश हैं तथा ये ही चार अपन्यास हैं || २५० ॥ गान्धार न्यास है, तथा षड्जसे रहित षाडव - षड्स्वयं है । यहाँ गान्धार और ऋषभ स्वरका परस्पर संचार होता है ।। २५१ ॥ कभी-कभी न्यासकी गतिके अनुसार षष्ठ और सप्तम स्वरका भी संचार होता है। इसमें षड्ज १. द्वादशावथ म. । द्वावंशावय पञ्चम्या भवतः पञ्चमर्षभो । अपन्यासो निषादश्च पञ्चमर्षभसंयुतः ॥ १२३ ॥ न्यासः पञ्चम एव स्यात् मध्यमर्षभहीनता । दुर्बलाश्चात्र कर्त्तव्या षड्जगान्धारमध्यमाः ||१२४॥ कुर्याच्चाप्यत्र संचारं मध्यमस्यर्षभस्य च । गान्धारगमनं चापं सप्तमात् संप्रयोजयेत् ॥ १२५ ॥ - ना. शा. अध्याय २८ । कैशिक्यास्तु भवन्त्यंशाः सर्वे चर्षभवर्जिताः । एत एवं ह्यपन्यासा न्यासो गान्धारसप्तमौ ॥१३७॥ धैवतेंऽशे निषादे च न्यासः पञ्चम इष्यते । - ना. शा. २८ अ । २. पञ्च दोषाः प्रकीर्तिताः म. ग. । ३. न्यासश्चैवानुगान्धारः म., ग. । ४. चैते ह्युपन्यासा ग । चैव ह्युपन्यासा म. ।
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हरिवंशपुराणे
'नन्दयत्या अपि न्यासा अंशाश्चापि तथैव च । गान्धारो मध्यमचैव पञ्चमश्चैव नित्यशः ॥ २५३॥ न पड जो लङ्घनीयोंऽशो न चान्ध्रीसंचरः स्मृतः । लङ्घनं ह्यर्षभस्यात्र तच्च मन्द्रगतं स्मृतम् ॥ २५४॥ तारे चापि ग्रहे कार्यस्तथा न्यासश्च नित्यशः । कर्मारण्यास्तथा ह्यंश ऋषमः पञ्चमस्तथा ॥ २५५॥ धैवतश्च निषादोsपि ह्यपन्यासः प्रकीर्त्तितः । पञ्चमश्च भवेन्न्यासो होनस्वर्यस्तथैव च ॥ २५६॥ गान्धारस्य विशेषेण सबंतो गमनं भवेत् । कैशिक्यास्तु सपड जायाः सर्वे चैवार्षभं विना ॥ २५७ ॥ एत एत ह्युपन्यासा गान्धारः सप्तमो भवेत् । धैवते सनिषादे च न्यासः पञ्चम एव च ॥ २५८ ॥ अपन्यासः कदाचित् स ऋषभोऽभिविधीयते । व्यार्षभं षाडवं चात्र धैवतश्वर्षभं विना ॥ २५९ ॥ तथा’नौडवितं कुर्याद्वलिनश्चान्त्यपञ्चमाः । दौर्बल्यमृषभस्यात्र लङ्घनं च विशेषतः ॥ २६०॥ सषड जो मध्यमश्चात्र संचारस्तु विधीयते । यथारसं बुधैर्योज्या जातयः स्वरसंचराः ॥ २६१ ॥ इत्यादि स यथायोग्यं तथा गन्धर्वविस्तरे । सुगीते वसुदेवेन श्रोतारो विस्मयं ययुः ॥२६२॥ तुम्बुरुर्नारदः किंवा गन्धर्वः किन्नरो ह्ययम् । वीणावादनमीदृक्षं कुतोऽन्यस्येति वेदनम् ॥ २६३ ॥ विष्णुगीत क्रमदेशस्थान गीतं सुवीणया । श्रुत्वा गन्धर्वसेनाऽभूद् विस्मिता च निरुत्तरा ॥ २६४ ॥ तथा जयपताकायां वसुदेवेन संसदि । गृहीतायां समुत्तस्थौ गम्भीरः साधुनिस्वनः ॥२६५॥ अनुरागवतो व वसुदेवं स्वभावतः । कण्ठे 'कण्ठगुणं कन्या कुर्वती तस्य संसदि ॥ २६६ ॥
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स्वरका लंघन और औडवित नहीं होता ।। २५२ || जो न्यास अंश तथा अपन्यास आन्ध्री जातिके हैं वे ही नन्दयन्ती भी हैं । इसमें गान्धार, मध्यम और पंचम स्वर नित्य रहते हैं || २५३ ॥ | इसमें षड्ज स्वर लंघनीय नहीं हैं और न आन्ध्रोके समान इसमें संचार ही होता है। इसमें ऋषभ स्वरका लंघन होता है और वह मन्द्रगति के समय होता है || २५४|| तार ग्रहमें भी निरन्तर उसीके अनुरूप न्यास करना चाहिए। कर्मारवी जाति में ऋषभ, पंचम, धैवत और निषाद ये चार अंश कहे गये हैं तथा ये हो चार अपन्यास बतलाये गये हैं । इसमें पंचम न्यास होता है और वह हीनस्वयं होता है ।। २५५-२५६ ।। यहाँ गान्धार स्वरका विशेष रूप से सर्वत्र गमन होता है । षड्जा सहित कैशिकी में ऋषभको छोड़कर शेष सभी अंश और अपन्यास माने गये हैं । गान्धार और सप्तम में दो न्यास हैं परन्तु धैवत और निषाद अंशमें एक पंचम ही न्यास होता है ।। २५७ - २५८।। कभी-कभी इसमें ऋषभ भी न्यास हो जाता है । इसमें षाडव ऋषभसे रहित होता है तथा धैवत ऋषभके बिना प्रयुक्त होता है । यहाँ ओडवित नहीं करना चाहिए, अन्तिम और पंचम स्वरको बलवान् करना चाहिए तथा ऋषभको दुर्बल करना चाहिए और उसीका विशेष रूपसे लंघन करना चाहिए ।। २५९ - २६० ।। इसमें षड्ज और मध्यमका संचार किया जाता है । इस प्रकार स्वरोंमें संचार करनेवाली जातियां कहीं । विद्वान् इनका रसके अनुसार प्रयोग करें || २६१ ॥
इस प्रकार गन्धर्व शास्त्र के विस्तार के साथ जब वसुदेवने यथायोग्य उत्तम गाना गाया तब सभी श्रोता आश्चर्यको प्राप्त हो गये || २६२|| लोग कहने लगे कि यह क्या तुम्बुरु है ? या नारद है ? या गन्धर्व है ? अथवा किन्नर है क्योंकि ऐसी वीणा बजाना किसी दूसरेको कहाँ आ सकती है ? ।।२६३।। बलिको बाँधते समय नारद आदिने विष्णुकुमार मुनिका जिस रूपसे स्तवन किया था वसुदेवने वीणा बजाकर वही गाया जिसे सुनकर गन्धर्वसेना आश्चयंसे चकित एवं निरुत्तर हो गयी || २६४ || इस प्रकार जब सभामें विजयपताका वसुदेवने ग्रहण की तब चारों ओरसे 'साधु-साधु' 'ठीक-ठीक' का जोरदार शब्द गूँज उठा || १६५ || स्वाभाविक अनुरागसे भरी
१. मन्द्रयन्त्या म । २. धैवतं सनिषादे च म ग । ३. विगतम् आर्षभं यस्मात् तत् । ४ तथा चौडवितं तिश्नात्र पञ्चमः म । ५. विस्तारे म । ६ मालाम् ।
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एकोनविंशः सर्गः गन्धर्व इव देवोऽसौ वृतो गन्धर्वकन्यया । गान्धर्वसेनया हर्षसंबन्धं जगतो व्यधात् ॥२६॥ चारुदत्तस्ततस्तुष्टो यथोक्तविधिना ततः । 'विवाहं मगधाधीश निरवतयदेतयोः ॥२६॥ सुग्रीवश्च यशोग्रोव उपाध्यायौ च कन्यके । वितीर्य वसुदेवाय नितान्तं तोषमापतुः ॥२६९॥ कलागुणविदग्धाभिस्ताभिरानकदुन्दुभिः । रामाभिरमिरामानिश्चिरं चिक्रीड तत्र सः ॥२७॥
स्रग्धरावृत्तम् लब्ध्वा लुब्धेन रन्ध्र कथमपि हरता वैरिणा खेऽतिदूरं
नीस्वा मुक्तं पतन्तं गतशरणमधः पद्मखण्डोपधानम् । कृत्वा यः शीघ्रमस्मिन्झटिति घटयति प्राज्यलाभैः पुमांसं
कत्तु भव्यस्तमेकं पथि जिनकथिते धर्मबन्धुं यतध्वम् ॥२७१॥
इत्यरिष्टनेमिप्राणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो गान्धर्वसेनावर्णनो नाम
एकोनविंशतितमः सर्गः ॥१९॥
गन्धर्वसेनाने सभामें ही वसुदेवके गलेमें माला डालकर उनका वरण किया ॥२६६।। उस समय गन्धर्व-कन्यासे वृत गन्धर्वके समान गन्धर्वसेनासे वृत वसुदेवने समस्त जगत्को हर्षित कर दिया ।।२६७।। तदनन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! कन्याके पिता चारुदत्तने सन्तुष्ट होकर दोनोंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया ।।२६८॥ उपाध्याय सुग्रीव और यशोग्रीव भी अपनीअपनी कन्याएँ वसदेवके लिए प्रदान कर सन्तोषको प्राप्त हए ॥२६९।। अनेक कलाओं और गणों में चतुर उन सुन्दर स्त्रियों के साथ वसुदेव वहां चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहे ॥२७०|| लोभसे भरा वैरी विद्याधर छिद्र पा जिसे हरकर आकाशमें बहुत दूर ले गया और वहाँसे अशरण अवस्थामें जिसे कमल वन में नीचे छोड़ा ऐसे पुरुषको भी जो शीघ्र ही उत्कृष्ट लाभोंसे युक्त करता है हे भव्यजनो! तुम जिन-कथित मागंमें उस एक धर्मरूप बन्धुको प्राप्त करनेका प्रयत्न करो ॥२७ ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
गान्धर्वसेना कन्याका वर्णन करनेवाला उन्नीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥१९॥
O
१. विवाहो मगधाधीशो (?) म. । २. वसुदेवः ।
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विंशतितमः सर्गः
अथापृच्छत्पृथुश्रीकः श्रेणिकोऽत्र गणेश्वरम् । कथं विष्णुकुमारेण विभो वलिरबध्यत ॥१॥ अभणीद्गणमुख्यश्च शृणु श्रेणिक ! वैष्णवीम् । दृष्टिशुद्धिकरीं श्रब्यां सस्कथा कथयामि ते ॥२॥ उज्जयिन्यामभूद्राजा श्रीधर्मा नाम विश्रुतः । श्रीमती श्रीमती तस्य महादेवी महागुणा ॥३॥ चत्वारो मन्त्रिणश्चास्य मन्त्रमागविदो बलिः । बृहस्पतिश्च नमुचिः प्रह्लाद इति चाञ्चितः ॥४॥ अन्यदा तपारस्थः ससप्तशतसंयतः । आगस्याकम्पनस्तस्थौ बाह्योद्याने महामुनिः ॥५॥ वन्दनार्थ नृपो लोकं निर्यान्तमिव सागरम् । प्रासादस्थस्तदालोक्य मन्त्रिणोऽच्छदित्यसौ ॥६॥ अकालयात्रया लोकः क यातीति ततो बलिः । राजनज्ञानिनो द्रष्टुं श्रमणानित्यवेदयत् ॥७॥ ततो जिगमिषू राजा निषिद्धोऽपि बलाद् ययौ । मन्त्रिणोऽपि सहागस्य दृष्ट्वा किंचिदवीवदन् ॥८॥ गुर्वादेशाच्च सङ्घोऽपि स्थितो मौनमुपाश्रितः । यान्तः प्रतिनिवृत्यामी संमुखं वीक्ष्य योगिनम् ॥९॥ 'अनूनुदन्नृपाध्यक्षं मिथ्यामार्गविमोहिताः । प्रमाणमार्गतस्तान् स जिगाय श्रुतसागरः ॥१०॥ स्थितं प्रतिमया रात्री जिघांसूस्तांश्च तदिवा । देवतास्तम्भितान् दृष्ट्वा राजा देशादपाकरोत् ॥११॥ तदा नागपुरे चक्री महापद्म इतीरितः । अष्टौ च कन्यकास्तस्य ताश्च विद्याधरैहताः ॥१२॥
अथानन्तर विशाल लक्ष्मीके धारक राजा श्रेणिकने गौतम गणधरसे पूछा कि हे विभो ! विष्णु कुमार मुनिने बलिको क्यों बांधा था ? ||१|| इसके उत्तरमें गौतम गणपतिने कहा कि हे श्रेणिक ! तू सम्यग्दर्शनको शुद्ध करनेवाली विष्णुकुमार मुनिको मनोहारिणी कथा सुन, मैं तेरे लिए कहता हूँ ॥२॥
किसी समय उज्जयिनी नगरमें श्रीधर्मा नामका प्रसिद्ध राजा रहता था। उसकी श्रीमती नामको पटरानी थी। वह श्रीमती वास्तवमें श्रीमती-उत्तम शोभासे सम्पन्न और महा गुणवती थी ॥३॥ राजा श्रीधर्माके बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद ये चार मन्त्री थे। ये सभी मन्त्री मन्त्र मार्गके जानकार थे ॥४॥ किसी समय श्रुतके पारगामो तथा सात सौ मुनियोंसे सहित महामुनि अकम्पन आकर उज्जयिनीके बाह्य उपवनमें विराजमान हुए ॥५॥ उन महामुनिकी वन्दनाके लिए नगरवासी लोग सागरकी तरह उमड़ पड़े। महलपर खड़े हुए राजाने नगरवासियोंको देख मन्त्रियोंसे पूछा कि ये लोग असमयको यात्रा द्वारा कहाँ जा रहे हैं ? तब बलिने उत्तर दिया कि हे राजन् ! ये लोग अज्ञानी दिगम्बर मुनियोंकी वन्दनाके लिए जा रहे हैं ॥६-७॥ तदनन्तर राजा श्रीधर्माने भी वहाँ जानेकी इच्छा प्रकट की। यद्यपि मन्त्रियोंने उसे बहुत रोका तथापि वह जबर्दस्ती चल ही पड़ा। अन्तमें विवश हो मन्त्री भी राजाके साथ गये और मुनियोंके दर्शन कर कुछ विवाद करने लगे ॥८-९|| उस समय गुरुको आज्ञासे सब मुनि संघ मौन लेकर बैठा था इसलिए ये चारों मन्त्री विवश होकर लौट आये। लौटकर आते समय उन्होंने सामने एक मुनिको देखकर राजाके समक्ष छेड़ा। सब मन्त्री मिथ्यामार्गमें मोहित तो थे ही इसलिए श्रुतसागर नामक उक्त मुनिराजने उन्हें जीत लिया ॥१०॥ उसी दिन रात्रिके समय उक्त मुनिराज प्रतिमा योगसे विराजमान थे कि सब मन्त्री उन्हें मारनेके लिए गये परन्तु देवने उन्हें कोलित कर दिया। यह देख राजाने उन्हें अपने देशसे निकाल दिया ॥११॥
___ उस समय हस्तिनापुरमें महापद्म नामक चक्रवर्ती रहता था। उसकी आठ कन्याएं थीं १. उज्जयिन्यां भवेद्राजा म. । २. श्रीधर्मो म. । ३. निर्यातमिव म. । ४. अनूनुदं म. ।
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विशतितमः सर्गः
आनीताः शशीलास्ताः संवेगिन्यः प्रववजुः । तेऽपि संवेगिनोऽष्टौ च खे वराः तपसि स्थिताः ॥१३॥ चक्रवर्ती च तद्धेतोः पद्मं लक्ष्मीमतीसुतम् । ज्येष्ठं राज्ये निधायान्त्यदेहोऽदीक्षिष्ट विष्णुना ॥१७॥ तपो विष्णुकुमारोऽसौ रत्नत्रयधरस्तपन् । निधिर्बभूव लब्धीनां नदीनां वा नदीपतिः ॥१५॥ नवराज्यस्थमागस्य पधं वलिपुरोगमाः । मन्त्रिणोऽशिश्रियन् देशकालावस्थाविदस्तथा ॥१६॥ स्थितं सिंहबलं दुर्गे पद्म वल्धुपदेशतः । गृहीत्वाह गृहाणेष्टं वरीत्वेन बलिं तदा ॥१७॥ तं प्रणम्य विदग्धोऽसौ हस्तन्यासं न्यधाद् वरम् । ततः संतोषिणां तेषां काले याति कदाचन ॥१८॥ आगत्याकम्पनाचार्यस्तदा नागपुरं शनैः । मुनीनामयहीद योगं चातुर्मास्यावधिं बहिः ॥१५॥ ततस्ते मन्त्रिणो भीताः शङ्काविषमुपागताः । तदपाकरणोपायं चिन्तयन्ति स्म सस्मयाः ॥२०॥ अब्रवीद् वलिराश्रित्य पद्मं राजन् ! वरस्वया । दत्तः स दीयतां मेऽद्य राज्यं सप्तदिनावधि ॥२॥ दत्तं गृहाण ते राज्य मित्युक्त्वाऽदृश्यवस्थितः । राज्यस्थोऽपि वलिस्तेषामुपद्रवमकारयत् ॥२२॥ यतीनभ्यन्तरो कृस्य परितोऽहनिशं कृतम् । पत्रधूमादिकोच्छिष्टशरावोसर्जनादिकम् ॥२३॥ उपसर्गसहास्तेऽपि कायोत्सर्गेण योगिनः । तस्थुः सालम्बमादाय प्रत्याख्यानं ससूरयः ॥२४॥ तस्मिन् काले गुरुर्विष्णोमिथिलायामवस्थितः । दिव्यज्ञानी जगौ ध्यात्वा स संयुक्तोऽनुकम्पया ॥२५॥
और आठ विद्याधर उन्हें हरकर ले गये थे। शुद्ध शोलको धारण करनेवालो वे कन्याएँ जब वापस लायी गयीं तो उन्होंने संसारसे विरक्त हो दोक्षा धारण कर ली। उधर संसारसे विरक्त हो वे आठ विद्याधर भी तप करने लगे ॥१२-१३।। इस घटनासे चरमशरोरी महापद्म चक्रवर्ती भी संसारसे विरक्त हो गया जिससे उसने लक्ष्मीमती रानीसे उत्पन्न पद्म नामक बड़े पुत्रको राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णु कुमारके साथ दीक्षा धारण कर ली ।।१४।। जिस प्रकार सागर नदियोंका भाण्डार होता है उसी प्रकार रत्नत्रयके धारी एवं तप तपनेवाले विष्णुकुमार मुनि अनेक ऋद्धियोंके भाण्डार हो गये ॥१५।। देशकालको अवस्थाको जाननेवाले वलि आदि मन्त्री नये राज्य पर आरूढ़ राजा पद्मको सेवा करने लगे ॥१६।। उस समय राजा पद्म, वलि मन्त्रीके उपदेशसे किले में स्थित सिंहबल राजाको पकड़ने में सफल हो गया इसलिए उसने वलिसे कहा कि वर मांगकर इष्ट वस्तुको ग्रहण करो ॥१७॥ वलि बड़ा चतुर था इसलिए उसने प्रणाम कर उक्त वरको राजा पद्मके हाथमें धरोहर रख दिया अर्थात् 'अभी आवश्यकता नहीं है जब आवश्यकता होगी तब मांग लूंगा' यह कहकर अपना वर धरोहर रूप रख दिया। तदनन्तर वलि आदि चार मन्त्रियोंका सन्तोषपूर्वक समय व्यतीत होने लगा ॥१८॥
अथानन्तर किसी समय धीरे-धीरे विहार करते हुए अकम्पनाचार्य, अनेक मुनियोंके साथ हस्तिनापुर आये और चार माहके लिए वर्षायोग धारण कर नगरके बाहर विराजमान हो गये ॥१९|| तदनन्तर शंकारूपो विषको प्राप्त हुए बलि आदि मन्त्री भयभीत हो गये और अहंकार के साथ उन्हें दूर करनेका उपाय सोचने लगे ॥२०॥ वलिने राजा पद्मके पास आकर कहा कि राजन् ! आपने मुझे जो वर दिया था उसके फलस्वरूप सात दिनका राज्य मुझे दिया जाये ।।२१।। 'सँभाल, तेरे लिए सात दिनका राज्य दिया' यह कहकर राजा पद्म अदृश्यके समान रहने लगा।
और वलिने राज्य सिंहासनपर आरूढ़ होकर उन अकम्पनाचार्य आदि मुनियोंपर उपद्रव करवाया ॥२२।। उसने चारों ओरसे मुनियोंको घेरकर उनके समीप पत्तोंका धुआँ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिकवाये ।।२३।। अकम्पनाचार्य सहित सब मुनि 'यदि उपसर्ग दूर होगा तो आहार-विहार करेंगे अन्यथा नहीं' इस प्रकार सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहते हुए कायोत्सर्गसे खड़े हो गये॥२४|उस समय विष्णुकुमार मुनिके अवधिज्ञानी गुरु मिथिला नगरोमें थे। १. वलस्तदा म. । २. कृतः म. ।
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हरिवंशपुराणे आचार्याकम्पनादीनां ससप्तशतयोगिनाम् । वर्ततेऽवृत्तपूर्वोऽयमुपसर्गोऽद्य दारुणः ॥२६॥ क्षुल्लकः पुष्पदन्तस्तं क्व नाथेत्यतिसंभ्रमः । अप्राक्षोदित्यथ प्राह स हास्तिनपुरे स्फुटम् ॥२७॥ कुतोऽपवर्त्तते नाथ स इत्युक्ते जगौ गुरुः । प्राप्तवैक्रियसामर्थ्याद्विष्णोर्जिष्णोविष्यतः ॥२४॥ तस्मै स क्षुल्लको गत्वा तमुदन्तं न्यवेदयत् । विक्रियालब्धिसद्भावपरीक्षामकरोन्मुनिः ।।२९।। बाहुः प्रसारितस्तेन गिरिभित्तौ विमिद्यताम् । 'अरुद्धप्रसरो दूरं सहसाप्सु यथा तथा ॥३०॥ ज्ञात लब्धिपरिप्राप्तिर्जिनशासनवत्सलः । गत्वा पद्मं मुनिः प्राह प्रणतं प्रणतप्रियः ॥३१॥ पद्मराज ! किमारब्धं भवता राज्यवर्तिना । न वृत्तं कौरवेष्वत्र कदाचिदपि यद्धवि ॥३२॥ अनार्यजनसंवृत्तमुपसर्ग तपस्विनाम् । निवर्तयेन्नृपस्तस्य प्रवृत्तिस्तु कुतस्तत: ॥३३॥ निर्वाप्यते ज्वलन्नाग्निर्जलेन सुमहानपि । उत्तिष्ठेद् यद्यसौ तस्मात्तस्य शान्तिः कुतोऽन्यतः ॥३४॥ नेन्वाज्ञाफलमैश्वर्यमाज्ञादुर्वृत्तशासनम् । ईश्वरः स्थाणुरप्युक्तः क्रियाशून्यो यदीश्वरः ॥३५॥ तन्निवर्त्तय दुर्वृत्ताद्वलिमाशु पशूपमम् । प्रद्वेषः कोऽस्य मित्रारिसमभावेषु साधुषु ॥३६॥ साधोः शीतलशीलस्य तापनं न हि शान्तये । गाढतप्तो दहत्येव तोयात्मा विकृतिं गतः ॥३७॥
वे अवधिज्ञानसे विचार कर तथा दयासे युक्त हो कहने लगे कि हा! आज अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियोंपर अभूतपूर्व दारुण उपसर्ग हो रहा है ।।२५-२६।। उस समय उनके पास पुष्पदन्त नामका क्षुल्लक बैठा था। गुरुके मुखसे उक्त दयाद्रं वचन सुन उसने बड़े सम्भ्रमके साथ पूछा कि हे नाथ ! वह उपसर्ग कहाँ हो रहा है ? इसके उत्तरमें गुरुने स्पष्ट कहा कि हस्तिनापुरमें।।२७।। क्षुल्लकने पुनः कहा कि हे नाथ ! यह उपसर्ग किससे दूर हो सकता है ? इसके उत्तरमें गुरुने कहा कि जिसे विक्रिया ऋद्धिकी सामर्थ्य प्राप्त है तथा जो इन्द्रको भी धौंस दिखानेमें समर्थ है ऐसे विष्णुकुमार मनिसे यह उपसर्ग दर हो सकता है॥२८॥ क्षल्लक पुष्पदन्तने उसी समय जाकर विष्णकमार मुनिसे यह समाचार कहा और उन्होंने 'विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई है या नहीं ?' इसकी परीक्षा की ॥२२॥ उन्होंने परीक्षाके लिए सामने खड़ी पर्वतकी दीवालके आगे अपनी भुजा फैलायी सो वह भुजा, पर्वतकी उस दीवालको भेदन कर बिना किसी रुकावटके दूर तक इस तरह आगे बढ़ती गयो जिस तरह मानो पानीमें ही बढ़ी जा रही हो ॥३०॥
तदनन्तर जिन्हें ऋद्धिको प्राप्तिका निश्चय हो गया था, जो जिनशासनके स्नेही थे और नम्र मनुष्योंके लिए अत्यन्त प्रिय थे ऐसे विष्णुकुमार मुनि उसी समय विनयावनत राजा पद्मके पास जाकर उससे बोले कि हे पद्मराज! राज्य पाते ही तुमने यह क्या कार्य प्रारम्भ कर रखा ? ऐसा कार्य तो रघुवंशियोंमें पृथिवीपर कभी हुआ ही नहीं ।।३१-३२।। यदि कोई दुष्टजन तपस्वीजनोंपर उपसर्ग करता है तो राजाको उसे दूर करना चाहिए। फिर राजासे ही इस उपसर्गकी प्रवृत्ति क्यों हो रही है ? ॥३३॥ हे राजन् ! जलतो हुई अग्नि कितनी ही महान् क्यों न हो अन्त में जलके द्वारा शान्त कर दी जाती है फिर यदि जलसे ही अग्नि उठने लगे तो अन्य किस पदार्थसे उसकी शान्ति हो सकती है ? ॥३४।। निश्चयसे ऐश्वर्य, आज्ञारूप फलसे सहित है अर्थात् ऐश्वर्यका फल आज्ञा है और आज्ञा दुराचारियोंका दमन करना है, यदि ईश्वर-राजा इस क्रियासे शून्य है-दुष्टोंका दमन करनेमे समर्थ नहीं है तो फिर ऐसे ईश्वरको स्थाणु-ठूठ भी कहा है अर्थात् वह नाममात्रका ईश्वर है ॥३५॥ इसलिए पशुतुल्य वलिको इस दुष्कार्यसे शीघ्र ही दूर करो। मित्र और शत्रुओंपर समान भाव रखनेवाले मुनियोंपर इसका यह द्वेष क्या है ? ॥३६।। शीतल स्वभावके धारक साधुको सन्ताप पहुँचाना शान्तिके लिए नहीं है क्योंकि जिस प्रकार अधिक तपाया हुआ पानी विकृत होकर जला ही देता है उसी प्रकार अधिक १. अरुद्ध: प्रसरः म. । २. न त्वाज्ञा म. । ३. उक्तक्रियाशन्यो म.। ४. शीतलशीतस्थ म. ।
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विशतितमः सर्गः
३०१ धीराः प्रच्छन्नसामर्थ्या 'गाढावष्टब्धमूर्त्तयः । साधवोऽपि कदाचित् स्युर्दाहका ननु चाग्निवत् ॥ ३८ ॥ तेन ते यावदायाति नापायो वल्युपेक्षणम् । नृप ! तावन्निवर्त्तस्व मोपेक्षस्व स्वतोऽन्यतः ॥३९॥ पद्मस्ततो नतः प्राह नाथ ! राज्यं मया वलेः । सप्ताहावधिकं दत्तं नाधिकारोऽधुनात्र मे ||४०॥ त्वमेव भगवन् ! गत्वा शाधि ते कुरुते वचः । वलिर्दाक्षिण्यतोऽक्षूणादित्युक्ते वलिमाप सः ॥४३॥ आह चैनमथो साधो ! किं दिनार्द्धनिमित्तकम् । संवर्द्धनमधर्मस्य कुरुषे कर्म गर्हितम् ॥४२॥ तपःकमैकनिष्ठैस्तैः किमनिष्टमनुष्ठितम् । वरिष्टेन स्वया येषु कनिष्ठेनेव यत्कृतम् ॥४३॥ स्वकर्मबन्धभीरुत्वान्नान्यानिष्टं कदाचन । तपस्विनो विचेष्टन्ते मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ ४४ ॥ तदिस्थमुपशान्तेषु न ते युक्तं दुरीहितम् । उपसंहर शान्त्यर्थमुपसर्गं प्रमादजम् ॥४५॥ ततो वलिरुवाचामी यान्ति मे यदि राज्यतः । तदा निरुपसर्गः स्यादन्यथा तदवस्थितिः ॥४६॥ विष्णुरूचे स्वयोगस्था न यान्ति पदमप्यतः । कुर्वन्त्यमी तनुत्यागं न व्यवस्थितिलङ्घनम् ॥४७॥ अनुमन्यस्व मे भूमिं स्थातुं तेषां पदत्रयम् । मातिकर्कशमात्मानं कुर्व याचकयाचितः ॥४८॥ अनुमन्याब्रवीदित्थं तद्द्बहिः परमध्यमी । यद्यतीयुस्ततो दण्ड्या न मे दोषोऽत्र विद्यते ॥४९॥ तदा हि पुरुषो लोके प्रत्यवायेन युज्यते । यदा प्रच्यवते वाक्यात् न तु वाक्यस्य पालकः ॥५०॥
दुःखी किया हुआ साधु विकृत होकर जला ही देता है - शाप आदिसे नष्ट ही कर देता है ||३७|| जो धीर-वीर हैं, जिनकी सामर्थ्यं छिपी हुई है और जिन्होंने अपने शरीरको अच्छी तरह वश कर लिया है ऐसे साधु भी कदाचित् अग्निके समान दाहक हो जाते हैं ||३८|| इसलिए हे राजन् ! जबतक तुम्हारे ऊपर कोई बड़ा अनिष्ट नहीं आता है तबतक तुम वलिके इस कुकृत्यके प्रति की जानेवाली अपनी उपेक्षाको दूर करो। स्वयं अपने तथा आश्रित रहनेवाले अन्य जनोंके प्रति उपेक्षा न करो ||३९||
तदनन्तर राजा पद्मने नम्रीभूत होकर कहा कि हे नाथ! मैंने वलिके लिए सात दिनका राज्य दे रखा है इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है ||४०|| हे भगवन् ! आप स्वयं ही जाकर उसपर शासन करें। आपके अखण्ड चातुर्यसे वलि अवश्य ही आपकी बात स्वीकृत करेगा । राजा पद्मके ऐसा कहने पर विष्णुकुमार मुनि वलिके पास गये ||४१|| और बोले कि हे भले आदमी ! आधे दिन के लिए अधर्मको बढ़ानेवाला यह निन्दित कार्य क्यों कर रहा है ? ||४२ || अरे ! एक तपरूप कार्यमें ही लीन रहनेवाले उन मुनियोंने तेरा क्या अनिष्ट कर दिया जिससे तूने उच्च होकर भी नीचकी तरह उनपर यह कुकृत्य किया ||४३|| अपने कर्मबन्धसे भीरु होनेके कारण तपस्वी मन, वचन, कायसे कभी दूसरेका अनिष्ट नहीं करते ||४४ || इसलिए इस तरह शान्त मुनियोंके विषय में तुम्हारी यह दुश्चेष्टा उचित नहीं है । यदि शान्ति चाहते हो तो शीघ्र ही इस प्रमादजन्य उपसर्गका संकोच करो || ४५ ॥ तदनन्तर वलिने कहा कि यदि ये मेरे राज्यसे चले जाते हैं तो उपसर्ग दूर हो सकता है अन्यथा उपसर्ग ज्योंका-त्यों बना रहेगा || ४६ || इसके उत्तर में विष्णुकुमार कहा कि ये सब आत्मध्यानमें लीन हैं इसलिए यहाँसे एक डग भी नहीं जा सकते । ये अपने शरीरका त्याग भले ही कर देंगे पर व्यवस्थाका उल्लंघन नहीं कर सकते ||४७ || उन मुनियोंके ठहरनेके लिए मुझे तीन डग भूमि देना स्वीकृत करो। अपने आपको अत्यन्त कठोर मत करो । मैंने कभी किसीसे याचना नहीं की फिर भी इन मुनियोंके ठहरनेके निमित्त तुमसे तीन डग भूमिकी याचना करता हूँ अतः मेरी बात स्वीकृत करो ||४८|| विष्णुकुमार मुनिको बात स्वीकृत करते हुए ao कहा कि यदि ये उस सीमाके बाहर एक डगका भी उल्लंघन करेंगे तो दण्डनीय होंगे इसमें मेरा अपराध नहीं है || ४९ || क्योंकि लोकमें मनुष्य तभी आपत्तिसे युक्त होता है जब वह अपने १. सुगाढा बद्ध - म ।
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हरिवंशपुराणे तं छलव्यवहारस्थमविनेयमनार्जवम् । दुष्टाहिमिव दुःशीलं वशीकत्तं प्रचक्रमे ॥५१॥ मिनोमि पाप ! पश्य त्वं पदत्रयमितीरयन् । व्यजम्मत महाकायो ज्योतिःपटलमास्पृशन् ॥५२॥ मेरावेकक्रमो न्यस्तो द्वितीयो मानुषोत्तरे । अलाभादवकाशस्य तृतीयोऽभ्रमदम्बरे ॥५३॥ तदा विष्णोः प्रभावेण क्षुभिते भुवनत्रये । किमेतदितिध्वाना जाताः किंपुरुषादयः ॥५४॥ अनुकर्ण मुनेस्तस्य वीणावंशादिवादिनः । मदुगीताः सनारीकाः जगुर्गन्धर्वपूर्वकाः ॥५५॥ तस्य रक्ततलः पादो भ्रमन् स्वैरं नभस्यभात् । संगीतकिन्नरादिस्त्रीमुखाब्जनखदर्पणः ॥५६॥ संक्षोभ मनसो विष्णो प्रमो संहर संहर । तपःप्रभावतस्तेऽद्य चलितं भुवनत्रयम् ॥५॥ देवविद्याधरैवीं रैः श्रव्यगान्धर्ववीणिभिः । सिद्धान्तगीतिकागानरुच्चराकाशचारणः ॥५॥ इति प्रसाद्यमानोऽसौ शनैः संहृत्य विक्रियाम् । स्वभावस्थोऽभवद्भानुयथोत्पातशमेस्थितः ॥५१॥ उपसर्ग विनाश्याशु वलिं बद्ध्या सुरास्तदा। विनिगृह्य दुरात्मानं देशाद् दूरं निराकिरन् ॥६॥ वीणाघोपोत्तरश्रेणी खगानां किन्नरैः कृता । सिद्धकूटे महाघोषा सुघोषा दक्षिणे तटे ॥६॥ कृत्वा शासनवात्सल्यमुपसर्गविनाशनात् । विष्णुः स्वगुरुपादान्ते विक्रियाशल्यमुजहौ ॥१०॥
वचनसे च्युत हो जाता है। अपने वचनका पालन करनेवाला मनुष्य लोकमें कभी आपत्तियुक्त नहीं होता ।।५०||
___ तदनन्तर जो कपट-व्यवहार करने में तत्पर था, शिक्षाके अयोग्य था, कुटिल था और दुष्ट साँपके समान दुष्ट स्वभावका धारक था ऐसे उस वलिको वश करनेके लिए विष्णुकुमार मुनि उद्यत हुए ॥५१।। 'अरे पापी! देख, मैं तोन डग भूमिको नापता हूँ' यह कहते हुए उन्होंने अपने शरीरको इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिष्पटलको छूने लगा ॥५२।। उन्होंने एक डग मेरुपर रखी दूसरी मानुषोत्तरपर और तीसरी अवकाश न मिलनेसे आकाशमें ही घूमती रही ।।५३॥ उस समय विष्णुके प्रभावसे तीनों लोकोंमें क्षोभ मच गया। किम्पुरुष आदि देव 'क्या है ? क्या है ?' यह शब्द करने लगे ॥५४॥
वीणा-बाँसुरी आदि बजानेवाले कोमल गीतोंके गायक गन्धर्वदेव अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ उन मुनिराजके समीप मनोहर गीत गाने लगे ॥५५॥ लाल-लाल तलुएसे सहित एवं आकाश में स्वच्छन्दतासे घूमता हुआ उनका पैर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था और उसके नख संगीतके लिए इकट्ठी हुईं किन्नरादि देवोंकी स्त्रियोंको अपना-अपना मुख-कमल देखनेके लिए दर्पणके समान जान पड़ते थे ॥५६|| 'हे विष्णो ! हे प्रभो ! मनके क्षोभको दूर करो, दूर करो, आपके तपके प्रभावसे आज तीनों लोक चल-विचल हो उठे हैं' इस प्रकार मधुर गीतोंके साथ वीणा बजानेवाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धान्त शास्त्रको गाथाओंको गानेवाले एवं बहुत ऊंचे आकाशमें विचरण करनेवाले चारण ऋद्धिधारी मुनियोंने जब उन्हें शान्त किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रियाको संकोच कर उस तरह स्वभावस्थ हो गये-जिस तरह कि उत्पातके शान्त होनेपर सूर्य स्वभावस्थ हो जाता है-अपने मूल रूपमें आ जाता है ॥५७-५९|| उस समय देवोंने शीघ्र ही मुनियोंका उपसर्ग दूर कर दुष्ट वलिको बांध लिया और उसे दण्डित कर देशसे दूर कर दिया ॥६०|| उस समय किन्नरदेव तीन वीणाएँ लाये थे उनमें घोषा नामकी वीणा तो उत्तरश्रेणी में रहनेवाले विद्याधरोंको दी। महाघोषा सिद्धकूटवासियोंको और सुघोषा दक्षिणतटवासी विद्याधरोंको दो ॥६१।। इस प्रकार उपसर्ग दूर करनेसे जिनशासनके प्रति वत्सलता प्रकट करते हुए विष्णुकुमार मुनिने सीधे गुरुके पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रियाको शल्य छोड़ी ॥६२।।
१. यथोत्पातः समोत्थितः म. ।
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विशतितमः सर्गः
३०३ तपो घोरमसौ कृत्वा कृत्वान्तं घातिकर्मणाम् । विहृत्य केवली विष्णुर्मोक्षमन्ते ययौ विभुः ॥६३॥ इदं विष्णुकुमारस्य चरितं 'दुरिताशनम् । यः शृणोति जनो भक्त्या दृष्टिशुद्धिं श्रयेत सः ॥६॥
शार्दूलविक्रीडितम् स्वस्थानाचलयेदलं गुरुतरान् कामन्दरान्मन्दरी
__श्चन्द्रार्कानपि पातयेस्करबलव्यापारतः पारतः। तोयेशान् विकिरेदुपप्लवयुतानि मुक्तये मुक्तये
साधुः स्यात् किमु दुष्करं जिनतप:श्रीयोगिनां योगिनाम् ॥६५॥
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो विष्णुकुमारमाहात्म्यवर्णनो
नाम विंशः सर्गः ॥२०॥
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स्वामी विष्णुकुमार, घोर तपश्चरण कर तथा घातिया कर्मोका क्षय कर केवलो हुए और विहार कर अन्तमें मोक्षको प्राप्त हुए ॥६३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य विष्णुकुमार मुनिके इस पापापहारी चरितको भक्तिपूर्वक सुनता है वह सम्यग्दर्शनको शुद्धिको प्राप्त होता है ॥६४॥ साधु चाहे तो अतिशय विशाल मन्दराचलोंको भी स्वेच्छानुसार भयसे अपने स्थानसे विचलित कर सकता है, हथेलियोंके व्यापारसे सूर्य और चन्द्रमाको भी आकाशसे नीचे गिरा सकता है, उपद्रवोंसे युक्त लहराते हुए समुद्रोंको भी बिखेर सकता है और जो मुक्तिका पात्र नहीं है उसे भी मुक्ति प्राप्त करा सकता है, सो ठीक ही है क्योंकि जिनशासन प्रगीत तपोलक्ष्मोके धारक योगियों के लिए क्या कठिन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं॥६५॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
विष्णुकुमारका वर्णन करनेवाला बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२०॥
१. दुरितनाशनम् म. । २. पातयेऽम्बरतल -म.। ३. व्यापारतोपारतः क.।
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एकविंशतितमः सर्गः
अथ गान्धर्वसेन तां कथंचित्खेचरान्वयाम् । अतिराजविभूतिं च चारुदत्तं निरूप्य सः ॥१॥ चारुगोष्ठीसुखास्वादश्चारुदत्तं यदूत्तमः । उदारचरितोऽपृच्छदुदारचरितप्रियः ॥२॥ 'प्रतीक्ष्य कथमीदृश्यः सादृश्य परिवर्जिताः । देवपौरुषसूचिन्यः संपदो भवतार्जिताः ॥३॥ वद विद्याधरी चेयं कुतः स्तुत्या तवास्पदे । न्यवसद् वसुमिः पूर्ण वर्षकर्णामृतं मम ॥४॥ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै प्रहृष्टमतिरादरात् । साधु पृष्टमिदं धीर ! वच्मि ते शृणु वृत्तकम् ॥५॥ आसीदव वेश्येशश्चम्पायां सुमहाधनः । भानुदत्त इति ख्यात: सुभद्रा तस्य भामिनी ॥६॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धिनानाणुव्रतधारिणोः । काले याति सुखाम्भोधिमग्नयोयौवनस्थयोः ॥७॥ चिरायति तयोश्चित्तनयनामतवर्षिणि । साक्षाद्गृहिफले श्रीमदपत्यमुखपङ्कजे ॥८॥ अर्हदायतने पूजां कुर्वाणावन्यदा च तौ । चारणश्रमणं दृष्ट्वा पुत्रोत्पत्तिमपृच्छताम् ॥९॥ अचिरेणेव तेनापि यतिना कृपया तयोः । प्रधानसुतसंभूतिरादिष्टा पृष्टमात्रतः ॥१०॥ उत्पन्नश्चाचिरेणाहं तयोः प्रीतिकरः सुतः । चारुदत्ताभिधानश्च कृतः कृतमहोत्सवः ॥११॥ कृताणुव्रतदीक्षश्च ग्राहितः सकलाः कलाः । बालचन्द्रः परां वृद्धिं बान्धवाम्मोनिधेरधात् ॥१२॥
अथानन्तर जिन्हें उत्तमोत्तम गोष्ठियोंके सुखका स्वाद था, जो स्वयं उदार चरितके धारक थे और उदारचरितके धारक मनुष्योंके लिए अत्यन्त प्रिय थे ऐसे यदुवंशशिरोमणि तरह विद्याधरोंके कूलमें उत्पन्न गान्धर्वसेनाको एवं राजाओंकी विभूतिको तिरस्कृत करनेवाले चारुदत्तको देखकर उनसे पूछने लगे कि हे पूज्य ! जो अपनी तुलना नहीं रखती तथा जो आपके भाग्य और पुरुषार्थ दोनोंको सूचित करनेवाली हैं ऐसी ये सम्पदाएं आपने किस तरह प्राप्त की ? कहिए कि यह प्रशंसनीय विद्याधरी, धन-धान्यसे परिपूर्ण आपके भवनमें निवास करती हुई मेरे कानोंमें अमृतकी वर्षा क्यों कर रही है ? ॥१-४॥ वसुदेवके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर चारुदत्त बहुत ही प्रसन्न हुआ और आदरके साथ कहने लगा कि हे धोर! तुमने यह ठीक पूछा है । अच्छा, ध्यानसे सुनो मैं तुम्हारे लिए अपना वृत्तान्त कहता हूँ ।।५।।
इसी चम्पापुरीमें अतिशय धनाढ्य भानुदत्त नामक वैश्यशिरोमणि रहता था। उसकी स्त्रीका नाम सुभद्रा था ॥६॥ सम्यग्दर्शनको विशुद्धताके साथ नाना अणुव्रतोंको धारण करनेवाले सुखरूपी सागरमें निमग्न एवं पूर्ण यौवनसे सुशोभित उन दोनोंका समय सुखपूर्वक बीत रहा था॥७॥ तदनन्तर किसी समय जब कि उन दोनोंके चित्त और नेत्रोंके लिए अमृत बरसानेवाला एवं गृहस्थीका साक्षात् फलस्वरूप, भाग्यशाली पुत्रका मुख कमल विलम्ब कर रहा था अर्थात् उन दोनोंके जब पुत्र उत्पन्न होनेमें विलम्ब दीखा तब वे दोनों मन्दिरमें पूजा कर रहे थे उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शन कर उन्होंने उनसे पुत्रोत्पत्तिकी बात पूछी ॥८-९।। पूछते हो उन मुनिराजने दोनों दम्पतियोंपर दया कर कहा कि तुम्हारे शीघ्र ही उत्तम पुत्रकी उत्पत्ति होगी।॥१०॥ और कुछ ही समय बाद उन दोनों दम्पतियोंके आनन्दको बढ़ानेवाला मैं पुत्र हुआ। मेरा चारुदत्त नाम रखा गया तथा मेरे जन्मका बड़ा उत्सव मनाया गया ॥११॥ अ की दीक्षाके साथ-साथ जिसे समस्त कलाएँ ग्रहण करायी गयी थीं ऐसा वह बालकरूपी चन्द्रमा परिवाररूपी समुद्रको वृद्धि करने लगा । भावार्थ-वह बालक ज्यों-ज्यों कलाओंको ग्रहण करता जाता था त्यों-त्यों १. पूज्य !
ज
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एकविंशतितमः सर्गः
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वराहगोमुखाभिख्यहरिसिंहतमोऽन्तकाः । मरुभूतिरिति प्रीता वयस्या मेऽभवंस्तदा ॥१३॥ तैः सह क्रीडया यातो निम्नगा रत्नमालिनीम् । 'अपादोपहतं पश्यन् दम्पत्योः पुलिने पदम् ॥१४॥ जातविद्याधराशङ्काः प्रगत्यानुपदं च तम् । रतशय्यामपश्याम श्यामले कदलीगृहे ॥१५॥ रतिव्यतिकरम्लानपुष्पपल्लवतल्पतः । अल्पमन्तरमन्विष्य सुमहागहनं वनम् ॥१६॥ दृष्टो विद्याधरो वृक्षे कोलितो लोहकोलकैः । पाश्र्वखेटकखड गाग्रव्यग्ररक्तनिरीक्षणः ॥१७॥ तिस्रः खेटकसंगूढा गृहीत्वौषधिवर्तिकाः । चालनोत्कीलनोन्मूलब्रणरोहाः कृता मया ॥१८॥ निःकीलो निव्रणश्चासौ गृहीत्वा खड्गखेटको । निरुत्तरः खमुत्पत्य दधावोत्तरया दिशा ॥१९॥ प्रलापानुपदं गत्वा हियमाणां द्विषा प्रियाम् । विमोच्यादाय तामेत्य मामवीचन्महादरः ॥२०॥ भद्र ! दत्ता यथा प्राणा म्रियमाणाय मे त्वया । तथैव दीयतामाज्ञा वद किं विदधामि ते ॥२१॥ वैताढयस्ति नृपः श्रेण्या दक्षिणस्यां हि दक्षिणः । महेन्द्रविक्रमो नाम्ना नगरे शिवमन्दिरे ॥२२॥ तस्यामितगतिर्नाम्ना तनयोऽहमतिप्रियः । मित्रं मे धूमसिंहश्च गौरमुण्डश्च खेचरः ॥२३॥ हीमन्तं पर्वतं ताभ्यामागतेन मयान्यदा । यौवनश्रियमारूढा दृष्टा तापसकन्यका ॥२४॥ हिरण्यरोमतनया शिरीषसुकुमारिका । जहार हृदयं हृद्या नाम्ना मे सुकुमारिका ॥२५॥
बन्धुजनोंका हर्षरूपी सागर वृद्धिंगत होता जाता था ॥१२॥ उस समय वराह, गोमुख, हरिसिंह, तमोऽन्तक और मरुमूति ये पांच मेरे मित्र थे जो मुझे अतिशय प्रिय थे ॥१३॥ एक बार उन मित्रोंके साथ क्रीड़ा करता हुआ मैं रत्नमालिनी नदी गया। वहाँ मैंने किनारेपर किसी दम्पतीका एक ऐसा स्थान देखा जिसपर पहुँचनेके लिए पैरोंके चिह्न नहीं उछले थे ॥१४॥ हम लोगोंको विद्याधर दम्पतीकी आशंका हुई इसलिए कुछ और आगे गये। वहां जाकर हम लोगोंने हरे-भरे कदली गृहमें उस विद्याधर दम्पतीकी रति-शय्या देखी ॥१५॥ रति सम्बन्धी कार्यसे जिसके फूल और पल्लव मुरझा रहे थे ऐसी उस रतिशय्यासे कुछ दूर आगे चलनेपर एक बड़ा सघन वन दिखा ॥१६॥ वहां एक वृक्षपर लोहको कीलोंसे कोलित एक विद्याधर दिखाई दिया। उस विद्याधरके लाल-लाल नेत्र समीपमें पड़ी हुई ढाल और तलवारके अग्रभागमें व्यग्र थे अर्थात् वह बार-बार उन्हीं की ओर देख रहा था ॥१७॥ उसके इस संकेतसे मैंने ढालके नीचे छिपी हुई चालन, उत्कीलन और उन्मूलव्रणरोह नामक तीन दिव्य ओषधियां उठा लीं। और चालन नामक ओषधिसे मैंने उस विद्याधरको चलाया, उत्कीलन नामक ओषधिसे उसे कीलरहित किया तथा उन्मूलनव्रणरोह नामक ओषधिसे कील निकालनेका घाव भर दिया ॥१८॥ ज्यों ही वह विद्याधर कीलरहित एवं घावरहित हुआ त्यों हो ढाल और तलवार लेकर चुपचाप आकाशमें उड़ा और उत्तर दिशाको ओर दौड़ा ।।१९।। जिस ओरसे रोनेका शब्द आ रहा था वह उसी ओर दौड़ता गया और शत्रुके द्वारा हरी हुई अपनी प्रियाको छुड़ा लाया। प्रियाको लाकर वह वहीं आया और बड़े आदरके साथ मुझसे बोला कि हे भद्र ! जिस प्रकार आज मुझ मरते हुएके लिए आपने प्राण दिये हैं उसी प्रकार आज्ञा दीजिए । कहिए मैं आपका क्या प्रत्युपकार करूं ? ॥२०-२१॥
विजयाधं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक शिवमन्दिर नामका नगर है। उसमें महेन्द्रविक्रम नामका सरल राजा है। उसी महेन्द्रविक्रम राजाका मैं अतिशय प्यारा अमितगति नामका पुत्र हूँ। धूमसिंह और गौरमुण्ड नामके दो विद्याधर मेरे मित्र हैं ॥२२-२३।। किसी समय उन दोनों मित्रोंके साथ मैं ह्रीमन्त नामक पर्वतपर आया। वहां एक हिरण्यरोम नामका तापस रहता था। उसको पूर्ण यौवनवती एवं शिरीषके फूलके समान सुकुमार सुकुमारिका नामकी सुन्दर कन्या थी।
१. आपदोपहतं म., घ. । २. पार्वे खेटक- म. । ३. -माज्ञां म.।
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हरिवंशपुराणे गाढाकल्पकशल्याय पित्रा मे याचित्ता च सा । संवृत्तश्चोमयोराश विवाहः परमोत्सवः ॥२६॥ धूमसिंहोऽपि चामष्यां साभिलाषोऽमिलक्षितः । अप्रमत्ततया चाहं विहरामि तया सदा ॥२७॥ रममाणोऽद्य तेनाहं कीलितो मोचितस्त्वया । हृतासौ मोचिता शत्रोर्मयेयं सुकुमारिका ॥२८॥ तदेष योज्यतामद्य जनः कर्मणि वाञ्छिते । वयोज्येष्ठोऽपि तं कुर्वे प्राणदस्यानुवर्त्तनम् ॥२९॥ मवतोद्धतशल्यं मां जीवन्तमिह जन्मनि । कृतप्रत्युपकारं ते प्रतीह्यद्धतशल्यकम् ॥३०॥ इति प्रियंवदोऽवादि स्त्रीसखः खेचरी मया । कृतं कृतं हि मे सर्व त्वया सद्भावदर्शिना ॥३१॥ शुद्धं दर्शयता भावं वद किं न कृतं त्वया । तदेवोपकृतं पुंसां यत् सद्भावदर्शनम् ॥३२॥ पुण्यवान् ननु पूज्योऽहं तत्तवानघदर्शनम् । जातं मे सुलभं लोके सामान्यनरदुर्लभम् ॥३३॥ सर्वसाधारणं नणामवस्थान्तरवर्तनम् । त्वं विषण्णमना मा भूः कीलितोऽस्मीति वैरिणा ॥३४॥ उपकारमतिस्तात ! यदि मां प्रति ते ततः । मय्यपत्यमतिः कार्या त्वया नित्यमितीरिते ॥३५॥ वाढमित्यभिधायासौ नाम गोत्रं च मे ततः । पृष्ट्वामिधाय मापृच्छय स्वोसखः स खमुद्ययौ ॥३६॥ प्रविष्टाश्च वयं चम्पां विद्याधरकथारताः । दृष्टश्रतानुभूतं हि नवं तिकरं नृणाम् ॥३७॥ "ऊढा च यौवनस्थेन नाम्ना मित्रवती मया। सर्वार्थस्य सुमित्राया मातुलस्य तनूभवा ॥३८॥ शास्त्रव्यसनिनो मेऽभून्नात्मस्त्रीविषयेऽपि धीः । शास्त्रव्यसनमन्येषां व्यसनानां हि बाधकम् ॥३९॥
वह मेरे देखने में आयो और देखते ही साथ उसने मेरा मन हर लिया ॥२४-२५।। मैं वहाँसे चला तो आया परन्तु उसकी प्राप्तिको उत्कण्ठारूप शल्य मेरे मनमें बहुत गहरी लग गयी। अन्तमें पिताने मेरे लिए उस कन्याकी याचना की और शीघ्र ही दोनोंका बड़े उत्सवके साथ विवाह हो गया ॥२६|| चूंकि मुझे दिखा कि मेरा मित्र धूमसिंह भी इस सुकुमारिकाको पानेकी अभिलाषा रखता है इसलिए मैं सदा प्रमादरहित होकर इसके साथ विहार करता हूँ ॥२७॥ परन्तु आज मैं इसके साथ रमण कर रहा था कि वह धूमसिंह मुझे कीलित कर इस सुकुमारिकाको हर ले गया। आपने मुझे छुड़ाया और मैं इसे शत्रुसे छुड़ा लाया हूँ |२८|| इसलिए आज इस जनको ( मुझे) इच्छित कार्यमें लगाइए । क्योंकि आप मेरे प्राणदाता हैं इसलिए अवस्थामें ज्येष्ठ होनेपर भी मैं आपकी सेवा करूँगा ॥२९।। यद्यपि आपने मेरी शल्य निकालकर मुझे जीवित किया है तथापि यथार्थमें मेरी शल्य तभी निकलेगी जब मैं आपका प्रत्युपकार कर लँगा ॥३०॥
इस प्रकार स्त्रीसहित मधुर वचन बोलनेवाले उस विद्याधरसे मैंने कहा कि जब आप मेरे प्रति इस तरह शुभ भाव दिखला रहे हैं तब मेरा सब काम हो चुका। कहिए शुद्ध अभिप्रायको दिखाते हुए आपने मेरा क्या नहीं किया है ? मनुष्योंको जो शुभ भावको दिखाना है वही तो उनका उपकार है ॥३१-३२।। हे निष्पाप ! निश्चयसे मैं आज पुण्यवान् और पूज्य हुआ हूँ क्योंकिसंसारमें अन्य सामान्य मनुष्योंके लिए दुलंभ आपका दर्शन मुझे सूलभ हआ है ।।३३।। मनुष्योंकी अवस्थाओंका पलटना सर्वसाधारण बात है इसलिए मैं शत्रुके द्वारा कीलित हुआ। यह सोचकर आप खिन्नचित्त न हों ॥३४॥ हे तात ! यदि आपकी मेरे प्रति उपकार करनेकी भावना ही है तो आप मुझे सदा अपना पुत्र समझिए। इस प्रकार मेरे कहनेपर उसने कहा कि बहुत ठीक है। तदनन्तर वह मेरा नाम और गोत्र पूछकर स्त्री सहित आकाशमें उड़ गया ॥३५-३६।। और हम लोग उसी विद्याधरकी कथा करते हुए चम्पा नगरीमें प्रविष्ट हुए सो ठोक ही है क्योंकि देखीसुनी और अनुभवमें आयी नूतन वस्तु ही मनुष्योंको सुखदायक होती है ॥३७॥
तरुण होनेपर मैंने अपने मामा सर्वार्थकी सुमित्रा स्रोसे उत्पत्र मित्रवती नामक कन्याके साथ विवाह किया ॥३८॥ क्योंकि मुझे शास्त्रका व्यसन अधिक था इसलिए अपनी वीके विषयमें १. वर्धनं म.। २. मां पृच्छय क., ख., ग., घ, । मा = माम् + आपृच्छय, इतिच्छेदः । ३. रूढा स.।
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एकविंशतितमः सर्गः
रुद्रदत्तः पितृव्यो मे बहुव्यसनसक्तधीः । संमान्य योजितो मात्रा कामुक व्यवहारवित् ॥ ४० ॥ आसीत्कलिङ्गसेनात्र गणिका गणनायिका । सुता वसन्तसेनास्या वसन्तश्रीरिव श्रिया ॥ ४१॥ कन्यासी नृत्यगीतादिकलाकौशलशालिनी । सौरूप्यस्य परा कोटियौंवनस्य नवोन्नतिः ॥ ४२ ॥ नृत्यारम्भेऽन्यदा तस्या रुद्रदत्तेन संगतः । ससाहित्यजनाकीर्णे स्थितोऽहं नृत्यमण्डपे ॥ ४३ ॥ सूचनाटकच्या जातिमुकुलाञ्जलिम् । व्यकिरत् प्रविकासं च प्राप्तेषु मुकुलेषु च ॥४४॥ सुष्ठुकारे प्रयुक्तेऽस्याः कैश्चित्साहित्यवर्त्तिभिः । मया विकासकालज्ञमालाकारस्य योजिते ॥ ४५॥ तस्या दत्ते बुधैस्तस्मिन्नङ्गुष्ठेऽभिनये कृते । नापितस्य मया दत्त े नखमण्डलशोधिनः ॥ ४६ ॥ कुक्षेगर्मक्षिकायाश्च व्युदासामिनये कृते । पूर्ववत् तैः कृते प्राप्तगोपालस्य मया पुनः ॥ ४७ ॥ रसभावविवेकस्य व्यञ्जिका सा च संप्रति । सुष्ठुकारमदात्प्रीता स्वाङ्गुलिस्फोटकारिणी ॥ ४८ ॥ ततः सर्वस्य लोकस्य पश्यतो मम संमुखम् । ननाट नाटकं हारि सानुरागवशा च सा ॥ ४९ ॥ उपसंहृतनृत्या च निजप्रासादवर्त्तिनी । स्वमात्रेऽकथयद्भावमिति साकल्पकातुरा ॥५०॥ दह जन्मनि मे मातश्चारुदत्तात्परस्य न । संकल्पस्तेन तेनारं मां योजयितुमर्हसि ॥ ५१ ॥ माता ज्ञात्वा सुताचित्तं चारुदत्तस्य योजने । दानमानादिनाभ्यर्च्य रुद्रदत्तमयोजयत् ॥५२॥ तेन चाहमुपायेन पृष्ठतश्चाग्रतः पथि । गजौ प्रयोज्य तद्वेश्यावेश्म जातु प्रवेशितः ॥५३॥
मेरी कुछ भी रुचि नहीं थी सो ठीक ही है क्योंकि शास्त्रका व्यसन अन्य व्यसनोंका बाधक है ||३९|| मेरा एक रुद्रदत्त नामका काका था जो अनेक व्यसनोंमें आसक्त था तथा कामीजनोंके समस्त व्यवहारको जाननेवाला था । मेरी माताने उसे मेरे साथ लगा दिया ||४०|| इसी चम्पा नगरी में एक कलिंगसेना नामकी वेश्या थी जो समस्त वेश्याओं की शिरोमणि थी और उसकी वसन्तसेना नामकी पुत्री थी जो शोभामें वसन्तकी लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी || ४१ ॥ वह वसन्तसेना नृत्य-गीत आदि कलाओं सम्बन्धी कौशलसे सुशोभित थी, सौन्दर्यकी परम सीमा थी और यौवनकी नूतन उन्नति थी ॥ ४२ ॥ किसी एक दिन वसन्तसेनाका नृत्य प्रारम्भ होनेवाला था । उसके लिए मैं भी रुद्रदत्तके साथ साहित्यिक जनोंसे भरे हुए नृत्य-मण्डपमें बैठा था ||४३|| वह सूची नृत्य करना चाहती थी। उसके लिए उसने सुइयोंके अग्रभागपर अंजलि भरकर जाति पुष्पों की बोंड़ियाँ बिखेर दीं और गायनके प्रभावसे जब सब बोंड़ियाँ खिल गयीं तो सभा में बैठे हुए कितने ही लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। मैं जानता था कि पुष्पोंके खिलनेसे कौन-सा राग होता है, इसलिए मैंने उसे मालाकार रागका संकेत कर दिया । सूची नृत्यके बाद उसने अंगुष्ठ नृत्य किया तो सभाके विद्वान् उसकी प्रशंसा करने लगे । परन्तु मैंने नखमण्डलको शुद्ध करनेवाले नापित रागका संकेत कर दिया । तदनन्तर उसने गो और मक्षिकाकी कुक्षिका अभिनय किया तो अन्य लोग उसकी प्रशंसा करने लगे । परन्तु मैंने गोपाल रागका संकेत कर दिया। इस प्रकार रस और भाव के विवेकको प्रकट करनेवाली उस वसन्तसेनाने प्रसन्न हो अपनी अंगुलियां चटकातो हुई मेरी बहुत प्रशंशा की । तदनन्तर अनुरागसे भरी हुई उक्त वेश्याने सब लोगोंके देखते-देखते मेरे सामने सुन्दर नृत्य किया ||४४-४९ || नृत्य समाप्त कर वह अपने घर गयी और तीव्र उत्कण्ठा से आतुर हो अपनी माता से कहने लगी कि हे माता ! इस जन्ममें मेरा चारुदत्त के सिवाय किसी दूसरेके साथ समागमका संकल्प नहीं है इसलिए मुझे शीघ्र ही चारुदत्तके साथ मिलानेके योग्य हो ||५०-५१ || माताने पुत्रोका अभिप्राय जानकर चारुदत्त के साथ मिलाने के लिए दान-सम्मान आदिसे सन्तुष्ट कर रुद्रदत्तको नियुक्त किया अर्थात् इस कार्यका भार उसने रुद्रदत्त के लिए सौंप दिया || ५२ || किसी दिन में रुद्रदत्तके साथ मार्ग में जा रहा था कि उसने उपाय कर मेरे आगे १. प्रविकासात्प्राकू ग. |
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हरिवंशपुराणे
कृतसंकेतया पूर्व कृतः कालिङ्गसेनया । स्वागतासनदानाद्यैरुपचारोऽत्र चावयोः ॥ ५४ ॥ द्यूते तत्रोत्तरीयं च 'रौद्रदत्त' जितं तथा । ततोऽहमुद्यतो रन्तुमपसार्य तमेतया ॥ ५५॥ वसन्तसेनया घृतादपसार्य स्वमातरम् । कृता दुरोदरक्रीडा मया सह विदग्धया ॥ ५६ ॥ आसक्तश्च चिरं तत्र पायितोऽतिपिपासितः । मतिमोहनयोगेन वासितं शिशिरोदकम् ॥५७॥ अतिविस्रम्भतस्तस्यामनुरागे ममोद्गते । करग्रहणमेतस्या जनन्या कारितोऽस्म्यहम् ॥५८॥ वसता तत्र वर्षाणि मया द्वादश विस्मृतौ । पितरौ मित्रवत्यामा कार्येष्वन्येषु का कथा ॥ ५९ ॥ वृद्धसेवाविवृद्धा मे गुणास्तरुणिसेवया । दोषैरुपचितैश्छन्नाः सजना इव दुर्जनैः ॥ ६० ॥ स्वर्णषोडशकोटीषु प्रविष्टासु निजं गृहम् । दृष्ट्वा कालिङ्ग सेनान्ते मित्रवत्या विभूषणम् ॥ ६१ ॥ जगौ वसन्तसेनां तामेकान्ते मन्त्रकोविदा । दुहितर्हितमाभाषे कर्ण मद्वचनं कुरु ॥६२॥ गुरुवाक्यामृतं मन्त्रं सदाभ्यस्यति यो जनः । तमनर्थग्रहा दूराद् ढौकन्ते न कदाचन ॥६३॥ जानास्येव जघन्यां नो वृत्तिं यद्वित्तवान् प्रियः । हेयः पीलितसारः स्यादिश्वलक्तकवन्नरः ॥६४॥ तनुलग्नमलंकारं चारुदत्तस्य भार्यया । प्रेषितं प्रेक्ष्यकारुण्याद् व्यसर्जयमहं पुनः ॥ ६५॥ तदस्य पीतसारस्य कुरु तावद्विमोक्षणम् । सारवन्तं नरं स्वम्यं नवेक्षुमिव भक्षय ॥ ६६ ॥
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और पीछे दो-दो हाथियोंको लड़ा दिया और सुरक्षा पानेके लिए मुझे उस वेश्या के घर प्रविष्ट करा दिया || ५३ | | कलिंगसेना वेश्याको इस बातका पहलेसे ही संकेत कर दिया गया । इसलिए उसने स्वागत तथा आसन आदिके द्वारा हम दोनोंका सत्कार किया || ५४ || तदनन्तर कलिंगसेना और रुद्रदत्तका जुआ प्रारम्भ हुआ सो कलिंगसेनाने जुआमें रुद्रदत्तका दुपट्टा तक जीत लिया। तब मैं रुद्रदत्तको हटाकर कलिंगसेनाके साथ जुआ खेलनेके लिए उद्यत हुआ || ५५ || मुझे उद्यत देख वसन्तसेनासे भी नहीं रहा गया। इसलिए वह चतुरा अपनी माताको अलग कर मेरे साथ जुआ खेलने लगी ||५६ || मैं जुआ खेलनेमें चिरकाल आसक्त रहा। इसी बीच मुझे जोरकी प्यास लगी तो उसने बुद्धिको मोहित करनेवाले योगसे सुवासित ठण्डा पानी मुझे पिलाया || ५७ || अतिशय विश्वासके कारण जब उसपर मेरा अनुराग बढ़ गया तब उसकी माताने मुझे उसका हाथ पकड़ा दिया || १८ || मैं उसमें इतना आसक्त हुआ कि उसके घर बारह वर्षं तक रहा। इस बीचमें मैंने अपने माता-पिता तथा प्रिय स्त्री मित्रवतीको भी भुला दिया। फिर अन्य कार्योंकी तो कथा ही क्या थी ? ॥५९॥ वृद्धजनोंकी सेवासे पहले जो मेरे गुण वृद्धिको प्राप्त हुए थे वे तरुणीकी सेवा उत्पन्न हुए दोषोंसे उस तरह आच्छादित हो गये जिस तरह कि दुर्जनोंसे सज्जन आच्छादित हो जाते हैं ||६०|| हमारे पिता सोलह करोड़ दीनारके धनी थे। सो जब सब धन क्रम-क्रमसे कलिंगसेनाके घर आ गया और अन्त में मित्रवतीके आभूषण भी आने लगे तब यह देख मन्त्र करने में निपुण कलिंगसेना एक दिन एकान्त में वसन्तसेनासे बोली कि बेटी ! में हितकी बात कहती हूँ सो मेरे वचन कानमें धर ॥ ६१-६२ ॥ जो मनुष्य गुरुजनोंके वचनामृतरूप मन्त्रका सदा अभ्यास करता है अनर्थरूपी ग्रह सदा उससे दूर रहते हैं, कभी उसके पास नहीं आते || ६३ || तू हम लोगों की इस जघन्य वृत्तिको जानती ही है कि धनवान् मनुष्य ही हमारा प्रिय है। जिसका धन खींच लिया है ऐसा मनुष्य ईखके छिलके के समान छोड़ने योग्य होता है || ६४ || आज चारुदत्तकी भार्या ने अपने शरीरका आभूषण उतारकर भेजा था सो उसे देख मैंने दयावश वापस कर दिया है ||६५ || इसलिए अब सारहीन ( निर्धन ) चारुदत्तका साथ छोड़ और नयी ईखके समान किसी दूसरे सारवान् (सधन) मनुष्यका उपभोग कर || ६६॥
१. रुद्रदत्तस्येदं रौद्रदत्त ं, उत्तरीयं वस्त्रम् । २. जघन्यातो वृत्तिर्यद्वित्तवान् प्रियः म । ३. प्रेप्य म. ।
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एकविंशतितमः सर्गः
३०९ शङ्कनेव ततः कर्णे ताडिता सातिपीडिता । जगाद मातरं मातः किमिदं गदितं त्वया ॥७॥ कौमारं पतिमुज्झित्वा चारुदत्तं चिरोषितम् । कुबेरेणापि मे कार्य नेश्वरेण परेण किम् ॥६॥ प्राणैरपि हि मे 'नार्थश्चारुदत्तवियोजकैः । मैवं वोचः पुनर्मातर्यदि मे जीवितं प्रियम् ॥१९॥ पूरितं कोटिशो द्युम्नैह ते तद्गृहागतैः । तथापि तजिहासाभूदकृतज्ञा हि योषितः ॥७०॥ कलापारमितस्याम्ब रूपातिशययोगिनः । सद्धर्मदर्शिनो मेऽस्य स्यात्यागस्त्यागिनः कुतः ॥७॥ अत्यासतामिति ज्ञात्वा कृत्वा तदनुवर्तनम् । चिन्तयन्ती स्थितोपायमावयोः सा वियोजने ॥७२॥ आसने शयने स्नाने भोजने चापि युक्तयोः । योगेनायुज्य नौ निद्रामहं रात्रौ बहिः कृतः ॥७३॥ निद्रापाये गृहं गत्वा मर्तृनिःक्रान्तिदुःखिनीम् । अपश्यं मातरं दुःखी भार्या च कृतरोदनाम् ॥७॥ ततः कृततदाश्वासः प्रियालंकारहस्तकः । उशीरावर्त्तमायातो मातुलेन वणिज्यया ॥५॥ क्रीत्वा तत्र च कापसिं ताम्रलिप्तं प्रगच्छतः । देवकालनियोगेन सोऽप्यदाहि दवाग्निना ॥७६॥ मुक्त्वा मातुलमश्वेन पूर्वाशां गच्छतो मृतः । सोऽपि पद्भ्यां ततो यातः प्रियङ्ग नगरं श्रमी ॥७॥ सुरेन्द्रदत्तनाम्नाहं पितृमित्रेण वीक्षितः। विश्रान्तः कतिचित्तत्र दिनानि सुखसंगतः ॥८॥
कलिंगसेनाकी बात सुनकर वसन्तसेनाको इतना तोव्र दुःख हुआ मानो उसके कानमें कीला ही ठोक दिया हो। उसने मातासे कहा कि हे मातः ! तूने यह क्या कहा ? ॥६७॥ कुमारकालसे जिसे स्वीकार किया तथा चिरकाल तक जिसके साथ वास किया उस चारुदत्तको छोड़कर मुझे कुबेरसे भी क्या प्रयोजन है ? फिर दूसरे धनाढ्य मनुष्यको तो बात ही क्या है ? ॥६८॥ अधिक क्या कहूँ चारुदत्तके साथ वियोग करानेवाले इन प्राणोंसे भी मुझे प्रयोजन नहीं है । हे मातः ! यदि मेरा जीवन प्रिय है तो अब पुनः ऐसे वचन नहीं कह ॥६९।। अरे ! उसके घरसे आये हुए करोड़ों दीनारोंसे तेरा घर भर गया फिर भी तुझे उसके छोड़नेकी इच्छा हुई सो ठोक ही है क्योंकि खियां अकृतज्ञ होती हैं ॥७०।। हे मातः! जो कलाओंका पारगामी है, अत्यन्त रूपवान् है, समीचीन धर्मको जाननेवाला है एवं अतिशय त्यागी-उदार है, उस चारुदत्तका त्याग में कैसे कर सकती हूँ ? ७१॥ इस प्रकार वसन्तसेनाको मुझमें अत्यन्त आसक्त जान कलिंगसेना उस समय तो कुछ नहीं कह सकी, उसोकी हांमें हाँ मिलाती रही परन्त मनमें हम दोनोंको वियक्त करनेका उपाय सोचती रही ॥७२।। हम दोनों आसनपर बैठते समय, शय्यापर सोते समय, स्नान करते समय और भोजन करते समय साथ-साथ रहते थे इसलिए उसे वियुक्त करनेका अवसर नहीं मिलता था। एक दिन उसने किसी योग ( तन्त्र ) द्वारा हम दोनोंको निद्रामें निमग्न कर रात्रिके समय मुझे घरसे बाहर कर दिया ॥७३॥ निद्रा दूर होनेपर मैं घर गया। मेरे पिता मुनिदीक्षा ले चुके थे इसलिए मेरी माता और स्त्री बहुत दुःखी थीं। वे विलख-विलखकर रोने लगीं उन्हें देख मैं भी बहुत दुःखी हुआ ॥७४।। तदनन्तर माता और स्त्रीको धैर्य बंधाकर तथा स्त्रीके आभूषण हाथमें ले व्यापारके निमित्त मैं अपने मामाके साथ उशीरावर्त देश आया ॥७५॥ वहां कपास खरीदकर बेचनेके लिए मैं ताम्रलिप्त नगरको ओर जा रहा था कि भाग्य और समयकी प्रतिकूलताके कारण वह कपास दावानलसे बोचमें ही जल गया ॥७६।। मैंने. मामाको वहीं छोड़ा और घोड़ापर सवार हो मैं पूर्व दिशाको ओर चला परन्तु घोड़ा बीचमें ही मर गया इसलिए पैदल चलकर थका-मांदा प्रियंगुनगर पहुंचा ॥७७|| उस समय प्रियंगुनगरमें मेरे पिताका मित्र सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था। उसने मुझे देखकर बड़े सुखसे रखा और कुछ दिन तक मैंने वहाँ विश्राम किया ।।७८॥ वहाँसे मैं समुद्रयात्राके लिए गया सो छह बार मेरा जहाज १. नाथश्चारुदत्तो वियोजकः म.। २. अन्यासक्ता-म. । ३. नि:क्रान्त म. । ४. कृतरोदनीम् म.। ५. प्रियाया अलंकारा हस्ते यस्यासौ।
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३१०
हरिवंशपुराणे समुद्रयात्रया यातः षट् कृत्वो भिन्ननौस्थितिः । अष्टकोटीश्वरश्वाहममवं मिन्नपात्रकः ॥७९॥ आसाद्य फलकं कृच्छादुत्तीर्य मकरालयम् । प्राप्तो राजपुरं तत्र परिव्राजकमैक्षिषि ॥८॥ तेनाहं शान्तवेषेण श्रान्तो विश्रान्तिमाहितः। रसलोभेन च विश्वास्य कान्तारं च प्रवेशितः ॥१॥ मुग्धः सदग्धिको रज्ज्वा परिवाजावतारितः । प्रविष्टोऽहं बिलं' मीम प्रेरितो रसतृष्णया ।।८।। रसाया मूलमासाद्य रज्ज्वारूढो दृढासनः । आददानो रसं पुंसा निषिद्धस्तत्र केनचित् ।।८३।। मा स्पाक्षीस्त्वं रसं भद्र ! रौद्रं यदि जिजीविषुः । स्पृश्येत चेन्न जीवन्तं मुञ्चति क्षयरोगवत् ॥८४॥ ततश्चकितचित्तोऽहमवोचं तमिति द्रुतम् । त्वं भोः कः केन वा क्षिप्त इहेयुक्तो जगाद सः ॥८५।। उज्जयिन्या वणिग्मिन्नपात्रोऽपात्रेण लिङ्गिना । रसमादाय निक्षिप्तो रसराक्षसवक्षसि ।।८६॥ स्वगस्थिशेषभूतोऽहं रसभुक्तो व्यवस्थितः । ममातो निर्गमो भद्र ! मृतस्यैव न जीवतः ।।८७।। संपृएस्तेन मोः कस्त्वमित्यवोचमहं पुनः । चारुदत्तो वणिक् क्षिप्तः परिवाजा तवारिणा ॥४८॥ प्रियवादाति विश्वस्य वकवृत्तेर्दुरात्मनः । अधोऽधोऽनुचरो मुग्धः पततीति किमद्भुतम् ।।८।। पूरयित्वा रसं तेन रज्जुमारोप्य चालितम् । एकामाकृष्य कृत्त्वैकां कृतार्थः स खलो गतः ॥१०॥ पतितस्य तटे तेन पुंसा निर्गमनाय मे। उपायः साधुनावाचि ततश्चेति कृपावता ॥११॥
फट गया। अन्तमें जिस किसी तरह मैं आठ करोड़का स्वामी होकर लौट रहा था कि फिर भी जहाज फट गया और सारा धन समुद्र में डूब गया ।।७९।। भाग्यवश एक तख्ता पाकर बड़े कष्टसे मैंने समुद्रको पार किया। समुद्र पारकर मैं राजपुर नगर आया और वहाँ एक संन्यासीको मैंने देखा ।।८०॥ मैं थका हुआ था इसलिए शान्तवेषको धारण करनेवाले उस संन्यासीने मुझे विश्राम कराया। तदनन्तर रसका लोभ देकर एवं विश्वास दिलाकर वह मुझे एक सघन अटवीमें ले गया ॥८१।। मैं भोला-भाला था इसलिए उस संन्यासीने एक तूमड़ी देकर मुझे रस्सीके सहारे नीचे उतारा जिससे मैं रसको तृष्णासे एक भयंकर कुएंमें जा घुसा ।।८२।। पृथिवीके तलमें पहुंचकर रस्सीपर अपना दृढ़ आसन जमाये हुए जब मैं रस भरने लगा तब वहाँ स्थित किसी पुरुषने मुझे रोका ॥८३॥ उसने कहा कि हे भद्र! यदि तु जीवित रहना चाहता है तो इस भयंकर रसका स्पर्श मत कर। यदि किसी तरह इसका स्पर्श हो जाता है तो क्षयरोगको तरह यह जीवित नहीं छोड़ता ॥८४॥ तदनन्तर आश्चर्यचकित हो मैंने उससे शीघ्र ही इस प्रकार पूछा कि महाशय ! तुम कौन हो? और किसने तुम्हें यहाँ डाल दिया है ? मेरे यह कहनेपर वह बोला कि मैं उज्जयिनीका एक वणिक हूँ। मेरा जहाज फट गया था इसलिए एक अपात्र साधुने रस लेकर मझे रसरूपी राक्षसके वक्षःस्थलपर गिरा दिया है ।।८५-८६॥ रसके उपभोगसे मेरी चमड़ी तथा हड्डो ही शेष रह गयो है। हे भद्र ! मेरा तो यहांसे निकलना तभी होगा जब मैं मर जाऊँगा जीवित रहते मेरा निकलना नहीं हो सकता ॥८७।। उस मनुष्यने मझसे भी पूछा कि तुम कौन हो? तब मैंने कहा कि मैं चारुदत्त नामका वणिक् हूँ और जो तुम्हारा शत्रु था उसो संन्यासाने मुझे यहाँ गिराया है।।८८।। 'यह प्रियवादी है' इसलिए बगलेके समान मायाचारी दुष्ट मनुष्यका विश्वास कर उसके पीछे-पीछे चलनेवाला मूढ़ मनुष्य यदि नीचे-नीचे गिरता है तो इसमें आश्चर्य हो क्या है ? ॥८९।। अन्तमें मैंने तूमड़ीमें रस भरकर तथा रस्सीमें बाँधकर उसे चलाया। जिस रस्सीमें रसको तूमड़ो बंधी थी उस रस्सीको तो उस संन्यासीने खींच लिया और जिसके सहारे मुझे ऊपर चढ़ना था उसे काट दिया। इस प्रकार अपने मनोरथको सिद्ध कर वह दुष्ट वहाँसे चला गया॥९०॥ जब मैं किनारेपर जा पड़ा तब उस सज्जन पुरुषने दयायुक्त हो मेरे लिए निकलनेका मार्ग बतलाया ॥९१।
१. -मादृतः म. । २. कूपम् ग. टि. । ३. मूलमाशाया म. । ४. स्पृशेत म. । स्पृशत ग. । ५. छित्त्वा।
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एकविंशतितमः सर्गः गोधैका रसपानाय साधोऽत्रावतरिष्यति । सुस्वा शीघ्रं हि तत्पुच्छं धृत्वा निर्गच्छ निश्चयम् ॥१२॥ तदेत्युक्तवते धर्म तस्मै सम्यक्रवपूर्वकम् । सप्रपञ्चमुवाचाहं सहपञ्चनमस्कृतिम् ॥१३॥ परेधुश्च रसं पीत्वा गच्छन्त्याः पुच्छमाश्वहम् । गोधाया धृतवान् दोामाकृष्टश्च बहिस्तया ॥१४॥ तटोपाटितगात्रोऽहं बहिर्मुक्तोऽतिमूच्छितः । विबुद्धश्च पुनर्जन्म जातमिति व्यचिन्तयम् ॥१५॥ शनैरुत्थाय गच्छन्तमन्वधावद् यमोपमः । महिषो वनमध्ये मां प्रविष्टोऽहं गुहां ततः ॥९६॥ प्रसुप्तोऽजगरस्तत्र मयाक्रान्तः समुत्थितः । अमिधान्तमत्युग्रं सोऽगृहीन्महिषं मुखे ॥१७॥ यावच्चोद्धतयोर्युद्धं वर्तते विषमं तयोः । तावत् तत्पृष्ठमाक्रम्य निर्गतोऽहमतिद्वतम् ॥१०॥ विनिःसृत्य महारण्याद् प्रत्यन्तग्राममाप्नुयाम् । काकतालीयतस्तत्र रुद्रदत्तं ददर्श तम् ॥१९॥ क्षुत्पिपासातिहरणं कृत्वासौ मे ततोऽब्रवीत् । चारुदत्त! विषादं मा कार्षीत्वं शृणु मे वचः ॥१०॥ सुवर्णद्वीपमाविश्य समुपायं धनं महत् । प्रत्येष्यावः पुनर्यन रक्ष्यते कुलसंततिः ॥१०१॥ एकवाक्यतया तेन यातौ चैरावती नदीम् । उत्तीर्य गिरिकुटं च गिरिं वेत्रवनं वनम् ॥१०२॥ टङ्कणं देशमासाद्य क्रीवाजौ गतिदक्षिणौ । गतौ वामपथेनातिविषमेण शनैः शनैः ॥१०३॥ अतिलङ्घय समां प्राह रुद्रदत्तोऽन्विताद। चारुदत्त ! पशून् हत्वा कृत्वा मस्त्राप्रवेशनम् ॥१०४॥
आस्वहे तत्र नौ द्वीपे भारुण्डाश्चण्डतुण्डकाः । गृहीत्वामिषलोभेन पक्षिणः प्रक्षिपन्ति हि ॥१०५॥ उसने कहा कि हे सत्पुरुष ! रस पीनेके लिए यहाँ एक गोह आवेगी सो तुम सरककर यदि शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ लोगे तो निश्चय ही बाहर निकल जाओगे ॥१२॥ वह उस पुरुषका अन्तिम समय था इसलिए इस प्रकार निकलनेका मार्ग बतलानेवाले उस पुरुषके लिए मैंने सम्यग्दर्शनपूर्वक विस्तारके साथ धर्मका उपदेश दिया और पंच नमस्कार मन्त्र भी सुनाया ॥९३॥ दूसरे दिन रस पीकर जब गोह जाने लगी तब मैंने दोनों हाथोंसे शीघ्र ही उसकी पूंछ पकड़ ली और वह मुझे बाहर खींच लायी ॥९४॥ किनारोंकी रगड़से मेरा शरीर छिन्न-भिन्न हो गया था इसलिए उस गोहने जब मुझे बाहर छोड़ा तब मैं अत्यन्त मूच्छित हो गया। सचेत होनेपर मैंने विचार किया कि मेरा पुनर्जन्म ही हुआ है ।।९५।। धीरे-धीरे उठकर मैं आगे चला तो वनके बीचमें यमराजके समान भयंकर भैंसाने मेरा पीछा किया। अवसर देख मैं एक गुहामें घुस गया ॥१६॥ उस गुफामें एक अजगर सो रहा था। मेरा पैर पड़नेपर वह जाग उठा और सामने दौड़ते हुए उस भयंकर भैंसेको उसने अपने मुखसे पकड़ लिया ॥१७॥ भैंसा और अजगर दोनों ही अत्यन्त उद्धत थे इसलिए जबतक उन दोनों में युद्ध हुआ तबतक मैं उसकी पीठपर चढ़कर बड़ी शीघ्रतासे बाहर निकल आया ॥९८॥ उस महावनसे निकलकर मैं समीपवर्ती एक गाँव में पहुँचा तो काकतालीयन्यायसे ( अचानक ) मैंने वहाँ अपने काका रुद्रदत्तको देखा ॥९९।। मैं कई दिनका भूखा-प्यासा था इसलिए रुद्रदत्तने मेरी भूख-प्यासकी बाधा दूर कर मुझसे कहा कि चारुदत्त ! खेद मत करो मेरे वचन सुनो ॥१००|| हम दोनों सुवर्णद्वीप चलकर तथा बहुत भारी धन कमाकर चम्पापुरी वापस आवेंगे जिससे अपने कुलकी रक्षा होगी ।।१०१॥
तदनन्तर रुद्रदत्तके साथ एक सलाह हो जानेपर दोनों वहां से चले और ऐरावती नदीको उतरकर तथा गिरिकूट नामक पर्वत और वेत्रवनको उल्लंघकर टंकण देशमें जा पहुंचे। वहाँ मार्ग अत्यन्त विषम था इसलिए चलने में चतुर दो बकरा खरीदकर तथा उनपर सवार हो धीरे-धीरे आगे गये ॥१०२-१०३॥ तदनन्तर समभूमिको उल्लंघकर रुद्रदत्तने बड़े आदर के साथ मुझसे कहा कि चारुदत्त ! अब आगे मागं नहीं है इसलिए इन बकरोंको मारकर तथा इनकी भस्त्रा ( भाथड़ी) । बनाकर उनमें हम दोनों बैठ जावें। तीक्ष्ण चोंचोंवाले भारुण्ड पक्षी मांसके लोभसे हम दोनोंको
१. आशु + अहम् । २. वनवध्ये म. ।
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हरिवंशपुराणे
निषिद्धोऽपि बधाद्ररौद्रो रुद्रदत्तोऽवधीन्निजम् । अजं मदीयमप्यन्तं निनाय विनयच्युतः ॥ १०६ ॥ यान मार्यते तावत्पूर्वमेव प्रतीकृतः । मार्यमाणाय चादायि तस्मै पञ्चनमस्कृतिः ॥१०७॥ rai कृत्वा खं मामन्तस्तस्य निधाय सः । प्रविश्य स्वयमन्यस्यां शस्त्रहस्तो व्यवस्थितः ॥ १०८ ॥ भारुण्डैश्चण्डतुण्डाभ्यां भने नीते विहायसा । मखा काणेन मेऽन्यत्र नीत्वा क्षिप्ता क्षितौ ततः ॥ १०९॥ वेगाद्विपाद्यतां भखां निर्गतः स्वर्गसंनिभम् । रत्नरश्मिभिरुद्दीप्तमपश्यं द्वीपमायतम् ॥ ११०॥ पश्यता च दिशो रम्या पर्वताग्रे जिनालयः । प्रेक्षितो मरुदुद्धूर्तपताकाभिरिवानटन् ॥ १११ ॥ तंत्रातापनयोगस्थश्चारणः श्रमणोऽन्तिके । वीक्षितो वीक्ष्य यं प्राप प्रागप्राप्तं परं सुखम् ॥ ११२ ॥ ततः पर्वतमारुह्य त्रिः परीत्य जिनालयम् । वन्दिता जिनचन्द्राणां कृत्रिमाः प्रतिमा मया ॥ ११३ ॥ योगस्थो योगभक्त्याऽसौ वन्दितश्च मुनिर्मया । समाप्तनियमश्चाह दत्त्रासीनस्तदाशिषम् ॥ ११४ ॥ कुशली चारुदत्तात्र कुतः स्वप्न इवागमः । प्राकृतस्य यथा पुंसः सहायरहितस्य ते ॥ ११५ ॥ कुशलं नाथ ! युष्माकं प्रसादादिति वादिना । नत्वा विस्मितचित्तेन मयापृच्छयत सन्मुनिः ॥ ११६॥ प्रत्यभिज्ञा कुतो नाथ तव मद्विषया च ते । अपूर्वदर्शनं मन्ये मान्यमान्यस्य पावनम् ॥ ११७ ॥ इति पृष्टेन तेनोक्तं चम्पायां यस्तदा द्विषा । खेचरोऽमित गत्याख्यः कीलितो मोचित स्वया ॥ ११८ ॥
३१२
उठाकर सुवर्णद्वीपमें डाल देंगे ||१०४ - १०५ ।। रुद्रदत्त बड़ी दुष्ट प्रकृतिका था इसलिए मेरे रोकनेपर भी उसने अपना बकरा मार डाला और विनय से च्युत हो मेरे बकराका भी अन्त कर दिया ॥ १०६ ॥ मेरा बकरा जबतक मारा नहीं गया तबतक मैंने पहले उसके मारनेका पूर्णं प्रतिकार कियारुद्रदत्तको मारनेसे रोका परन्तु जब मारा ही जाने लगा तब मैंने उसे पंचनमस्कार मन्त्र ग्रहण करा दिया ॥ १०७॥ रुद्रदत्त ने मृत बकरोंकी भाथड़ियाँ बनायीं और एकके भीतर छुरी देकर मुझे बैठा दिया तथा दूसरी में वह स्वयं हाथमें छुरी लेकर बैठ गया || १०८॥ तदनन्तर भारुण्ड पक्षी पैनी चोंचोंसे दबाकर दोनों भस्त्राओंको आकाशमें ले गये । मेरी भाथड़ी एक काना भारुण्ड पक्षी ले गया था इसलिए उसने दूसरी जगह ले जाकर पृथिवीपर गिरा दी ॥ १०९ ॥ | मैं वेगसे उस भाथड़ीको चीरकर जब बाहर निकला तो मैंने रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान स्वर्गके समान एक विस्तृत द्वीप देखा ॥११०॥ उस द्वीपकी सुन्दर दिशाओंको देखते हुए मैंने पर्वतके अग्रभागपर एक जिनमन्दिर देखा जो हवासे उड़ती हुई पताकाओंसे ऐसा जान पड़ता था मानो नृत्य ही कर रहा हो ॥ १११ ॥ उसी जिनमन्दिर के समीप मैंने आतापन योगसे स्थित एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजको देखा । उन मुनिराजको देखकर मुझे ऐसा उत्तम सुख प्राप्त हुआ जैसा कि पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ॥ ११२ ॥
तदनन्तर पर्वतपर चढ़कर मैंने जिनमन्दिरकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और श्री जिनेन्द्र भगवान्को कृत्रिम प्रतिमाओंकी वन्दना की ।। ११३ ॥ प्रतिमाओंकी वन्दना के बाद मैंने ध्यानमें लीन मुनिराजकी भी मुनिभक्ति के कारण वन्दना की । जब मुनिराजका नियम समाप्त हुआ तब वे मेरे लिए आशीर्वाद देकर वहीं बैठ गये और मुझसे कहने लगे कि चारुदत्त ! कुशल तो हो ? यहाँ स्वप्नकी तरह तुम्हारा आगमन कैसे हुआ ? तुम एक साधारण पुरुषकी तरह हो तथा कोई तुम्हारा सहायक भी नहीं दिखाई देता । ११४- ११५ || 'हे नाथ! आपके प्रसादसे कुशल है' यह कहकर मैंने उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर आश्चर्यसे चकित होते हुए मैंने उन उत्तम मुनिराज से पूछा कि हे नाथ! आपको मेरी पहचान कैसे हुई ? हे माननीयोंके माननीय ! मैं तो आपके इस पवित्र दर्शनको अपूर्व ही मानता हूँ ।।११६-११७। इस प्रकार पूछनेपर मुनिराजने कहा कि मैं वही अमितगति नामका विद्याधर हूँ जिसे चम्पापुरीमें उस समय शत्रुने कोल दिया था और तुमने १. सशस्त्रां-म., ग. । २. -दुद्भत म । ३. तत्र तापन म । ४. पुंसां ग ।
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एकविंशतितमः सर्गः
राज्ये संस्थाप्य मां प्राज्ये सम्यग्दर्शनभावितम् । गुरोहिरण्यकुम्भस्य समीपे प्रावजत् पिता ॥११९॥ भार्या विजयसेना मे नाम्नान्यासीन्मनोरमा । ख्याता गान्धर्वसेनाख्या प्रथमायामभूत्सुता ॥१२०॥ इतरस्यामभूत्पुत्रो ज्येष्टो सिंहयशःश्रुतिः। वाराहग्रीवनामान्यो विनयादिगुणाकरः ॥१२१॥ राज्ये तो यौवराज्ये च स्थापयित्वा यथाक्रमम् । 'गुरोरेव गुरोरन्ते प्रव्रज्यां श्रितवानहम् ॥१२॥ कम्भकण्टकनामायं ढेपः सागरवेष्टितः । गिरिः कर्कोटकश्चात्र चारुदत्तागतः कथम् ॥१२३॥ इत्युक्ते यतिनाद्यन्तां सुखदुःखविमिश्रिताम् । कथंकथमहं तस्मै कथामकथयन्निजाम् ॥१२४|| तदा विद्याधरौ द्वौ तं मुनि पुत्रौ नमस्तलात् । अवतीर्य ववन्दाते वन्दनीयमनिन्दिती ॥२५॥ कुमारी! चारुदत्तोऽयं भ्राता यो वा मयोदितः । इत्युक्ते मां परिष्वज्य स्थितानुक्त्वा बहुप्रियम् ॥१२६॥ तावच्च द्वौ विमानायादवतीर्य सुरौ पुरा। मां प्रणम्य मुनि पश्चान्नवासीनी ममाग्रतः ॥१२७॥ अक्रमस्य तदा हेतुं खेचरौ पर्चपृच्छताम् । देवावृषिमतिक्रम्य प्राग्नतौ श्रावकं कुतः ॥ १२८॥ त्रिदशावूचतुहें तुं जिनधर्मोपदेशकः । चारुदत्तो गुरुः साक्षादावयोरिति बुध्यताम् ॥१२९।। तत्कथं कथमित्युक्त छाग पूर्वः सुरोऽमणीत् । श्रयतां मे कथा तावत् कथ्यते खेचरी! स्फुटम् ॥१३॥ वाराणस्यां पुरागार्थवेदव्याकरणार्थवित् । ब्राह्मण: सोमशर्मासीत्सोमिला तस्य माहना ॥१३१॥ तयोर्दुहितरौ भद्रा सुलसा च सुयौवने । वेदव्याकरणादीनां शास्त्राणां पारगे परे ॥१३२।।
जिसे छड़ाया था ||११८|| उस घटनाने मेरे हृदयमें सम्यग्दर्शनका भाव भर दिया था। कुछ समय बाद हमारे पिताने विशाल राज्यपर मुझे बैठाकर हिरण्यकुम्भ नामक गुरुके पास दीक्षा ले ली ॥११९।। मेरी विजयसेना और मनोरमा नामकी दो स्त्रियां थीं उनमें पहली विजयसेनाके गान्धर्वसेना नामकी पुत्री हुई और दूसरी मनोरमाके सिंहयश नामका बड़ा और वाराहग्रीव नामका छोटा इस प्रकार दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र विनय आदि गुणोंकी खान थे ।।१२०-१२१|| एक दिन मैंने क्रमसे बड़े पुत्रको राज्यपर और छोटे पुत्रको युवराज पदपर आरूढ़ कर अपने पितारूप गुरुके समीप ही दीक्षा धारण कर ली ।।१२२।। हे चारुदत्त ! यह समुद्रसे घिरा हुआ कुम्भकण्टक नामका द्वीप है और यह कर्कोटक नामका पर्वत है यहाँ तुम कैसे आये ? ॥१२३।। मुनिराज के ऐसा कहनेपर मैंने आदिसे लेकर अन्त तक सुख-दुःखसे मिली हुई अपनी समस्त कथा जिस-किसी तरह उनके लिए कह सुनायो ॥१२४।। उसी समय मुनिराजके दोनों उत्तम विद्याधर पुत्रोंने आकाशसे नीचे उतरकर उन वन्दनीय मुनिराजको वन्दना को-उन्हें नमस्कार किया ॥१२५।। मुनिराजने दोनों पुत्रोंको सम्बोधते हुए कहा कि हे कुंमारो ! जिसका पहले मैंने कथन किया था यह वही तुम्हारा भाई चारुदत्त है। मुनिराजके ऐसा कहनेपर दोनों विद्याधर मेरा आलिंगन कर प्रिय वचन कहते हुए समीप हो बैठ गये ।।१२६।। उसी समय दो देव विमानके अग्रभागसे उतरकर पहले मुझे और बादमें मुनिराजको नमस्कार कर मेरे आगे बैठ गये ||१२७।। विद्याधरोंने उस समय इस अक्रमका कारण पूछा कि हे देवो! तुम दोनोंने मुनिराजको छोड़कर श्रावकको पहले नमस्कार क्यों किया? ॥१२८॥ देवोंने इसका कारण कहा कि इस चारुदत्तने हम दोनोंको जिनधर्मका उपदेश दिया है इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरु है यह समझिए ॥१२९|| यह कैसे ? इस प्रकार कहनेपर जो पहले बकराका जीव था वह देव बोला कि हे विद्याधरो ! सुनिए, मैं अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ ॥१३०॥
किसी समय बनारसमें पुराणोंके अर्थ, वेद तथा व्याकरणके रहस्यको जाननेवाला एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था उसकी ब्राह्मणीका नाम सोमिला था ॥१३१॥ उन दोनोंके भद्रा और सुलसा नामकी दो यौवनवती पुत्रियाँ थीं। जो वेद, व्याकरण आदि शास्त्रोंकी परम पार१. पितुरेव । २. सौमिल्ला म. । ३. भामिनी म.। ब्राह्मणी (ग. टि.)।
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हरिवंशपुराणे
कुमार्यावेव बैराग्यात् परिव्राजकतां श्रिते । सुप्रसिद्धिं गते भूमौ जित्वा वादेषु वादिनः ॥ १३३॥ याज्ञवल्क्य इति ख्यातः परिव्राट् पर्यटन् धराम् । वाराणसीं तदायासोत्तजिगीषामनीषया ॥ १३४॥ सुलसा जल्पकालेऽस्य सावलेपा सभान्तरे । स्यां शुश्रूषाकरी जेतुरिति संग रमग्रहीत् ॥१३५॥ पूर्वपक्षमुपन्यस्तं तया न्यायविदां पुरः । संदृष्य याज्ञवल्क्यस्तं स स्वपक्ष मतिष्ठपत् ॥ १३६ ॥ याज्ञवल्क्यो वृतो वादे सुपराजितया तया । विषयामिषलुब्धस्तो सस्मरां समरीरमत् ॥ १३७ ॥ सुलसायाज्ञवल्क्यौ तौ जनयित्वा शुभं शिशुम् । अश्वत्थतरुमूलस्थं कृत्वा यातौ कृपाच्युतौ ॥१३८॥ तत्रोत्तानशयं मद्रा दृष्ट्वा श्वत्थफलादिनम् । पिप्पलादामित्रानेन व्याहूयैनमवीत् ॥१३९॥ पारगः सर्वशास्त्राणामेकदा पृच्छदित्यसौ । मातः ! किमभिधानो मे पिता जीवति वा न वा ॥ १४० ॥ तयोक्तं ते पिता पुत्र ! याज्ञवल्क्यः कनीयसी । मम तेन जिता वादे सुलसा जननी तव ॥ १४१ ॥ जातमात्रमपत्राणं त्वां तौ पुत्र ! तयोरधः । मुक्त्वा मुक्तकृपौ पापौ यातावद्यापि जीवतः ।।१४२।। स्तनैरन्य स्त्रियाः क्लेशान्मया समभिवर्द्धितः । कर्म पूर्वं कृतं पुत्र ! पितरौ तु स्मरातुरौ ॥ १४३ ॥ इत्याकर्ण्य तदा तस्याः 'कर्णदाह करं वचः । तद्वार्त्ताकर्णनोस्कर्णो लब्धवर्णो रुषा स्थितः || १४४|| लब्धवा रुषा गस्वास जित्वा जनकं ततः । शुश्रूषां च तयोश्व के मिथ्याविनयपूर्वकम् ॥ १४ ॥ स मातृपितृसेवाख्यं पिप्पलादः स्वयं कृतम् । 'ऋतु प्रवर्त्य तौ निन्ये समन्युमृस्युगोचरम् ॥१४६॥ गामिनी थीं || १३२ || उन दोनों पुत्रियोंने कुमारी अवस्था में ही वैराग्यवश परिव्राजककी दीक्षा ले ली और दोनों शास्त्रार्थमें अनेक वादियोंको जीतकर पृथिवी में परम प्रसिद्धिको प्राप्त हुईं ॥१३३॥ किसी समय पृथिवीपर घूमता हुआ याज्ञवल्क्य नामका परिव्राजक उन्हें जीतने की इच्छासे बनारस आया || १३४|| शास्त्रार्थंके समय अहंकारसे भरी सुलसाने सभाके बीच यह प्रतिज्ञा की कि जो मुझे शास्त्रार्थमें जीतेगा मैं उसीकी सेविका ( स्त्री ) बन जाऊँगी || १३५ || शास्त्रार्थं शुरू होनेपर सुलसाने न्याय विद्या के जानकार विद्वानोंके आगे पूर्व पक्ष रखा परन्तु याज्ञवल्क्यने उसे दूषित कर अपना पक्ष स्थापित कर दिया || १३६ || सुलसा शास्त्रार्थमें हार गयी इसलिए उसने याज्ञवल्क्यको वर लिया - अपना पति बना लिया । याज्ञवल्क्य विषयरूपी मांसका बड़ा लोभी था तथा सुलसाको भी कामेच्छा जागृत हो उठी इसलिए दोनों मनमानी क्रीड़ा करने लगे ||१३७ || सुलसा और याज्ञवल्क्यने एक उत्तम पुत्रको जन्म दिया परन्तु वे इतने निर्दयी निकले कि उस सद्योजात पुत्रको पीपल के वृक्ष के नीचे रखकर कहीं चले गये ||१३८ || वह पुत्र पीपलके नीचे चित्त पड़ा था तथा मुखमें पड़े हुए पीपल के फलको खा रहा था । सुलसाकी बड़ी बहन भद्रा उसे इस दशा में देख उठा लायी और उसका पिप्पलाद नाम रखकर उसका पोषण करने लगी || १३९ || समय पाकर पिप्पलाद समस्त शास्त्रोंका पारगामी हो गया। एक दिन उसने भद्रासे पूछा कि मातः ! मेरे पिताका क्या नाम है ? वे जीवित हैं या नहीं ? || १४०|| भद्राने कहा कि बेटा ! याज्ञवल्क्य तेरा पिता है। उसने मेरी छोटी बहन सुलसाको शास्त्रार्थ में जीत लिया था वही तेरी माता है ॥ १४१ ॥ हे बेटा ! जब तू पैदा ही हुआ था तथा कोई तेरा रक्षक नहीं था तब तुझे एक वृक्षके नीचे छोड़कर वे दोनों दयाहीन पापी चले गये थे और आज तक जीवित हैं || १४२ || मैंने दूसरी स्त्रीके स्तन पिलापिलाकर तुझे बड़े क्लेशसे बड़ा किया है। हे पुत्र ! तूने पहले ऐसा ही कर्म किया होगा यह ठीक है परन्तु कहना पड़ेगा कि तेरे माता-पिता बड़े कामी निकले || १४३ || उस समय कानों में दाह उत्पन्न करनेवाले भद्राके पूर्वोक्त वचन सुनकर विद्वान् पिप्पलादको बड़ा क्रोध आया और उसकी बात सुनकर उसके कान खड़े हो गये || १४४ || पता चलाकर वह अपने पिता याज्ञवल्क्यके पास गया और रोषपूर्वक उसे शास्त्रार्थमें जीतकर झूठ-मूठकी विनय दिखाता हुआ मातापिताकी सेवा करने लगा || १४५|| पिप्पलाद माता-पिता के प्रति क्रोधसे भरा था इस
१. कर्णशूलकरं ग । २. कर्तुं म ।
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एकविंशतितमः सर्ग: पिप्पलादस्थ शिष्योऽहं जडो ग्रन्थेन वाग्वलिः । तदर्शनं समर्थ्यागान्नरकं घोरवेदनम् ॥१४७॥ ततो निर्गत्य जातोऽस्मि पड़वारानजपोतकः । हुतश्च यज्ञविद्याज्ञैर्यज्ञ पर्वतदशिते ॥१४८।। सप्तमेऽपि च वारेऽहं देशे टङ्कणकेऽभवत् । अज एव निजैः पापैः प्रेरितः प्राणिघातजैः ॥१४९॥ चारुदत्तेन में जैनो धर्मोऽदर्शि निरञ्जन: । दत्तः पञ्चनमस्कारो मरणे करुणावता ॥१५०॥ जातोऽहं जिनधर्मेण सौधर्म विवुधोत्तमः । चारुदत्तो गुरुस्तेन प्रथमो नमितो मया ॥१५॥ इत्युक्त्या विरते तस्मिन्नितरोऽपि सुरोऽब्रवीत् । श्रयतां चारुदत्तो मे यथाभूद्धर्मदेशकः ॥१५२॥ रसको परिवाजा पातितः पतिताय मे । सद्धम वणिजेऽवोचच्चारुदत्तः कृपापरः ॥१५३॥ मृतो गृहीतधर्मोऽहं सौधर्मेऽभवमुत्तमः । सुरस्तेन गुरुः पूर्व चारुदत्तो नतो मया ।।१५४॥ पापकूपे निमग्नेभ्यो धर्महस्तावलम्बनम् । ददता कः समो लोके संसारोत्तारिणा नृणाम् ॥१५५॥ अक्षरस्यापि चैकस्य पदाधस्य पदस्य वा । दातारं विस्मरन् पापी किं पुनधर्मदेशिनम् ॥१५६॥ पूर्व कृतोपकारस्य पुंसः प्रत्युपकारतः । कृतित्वमुपकार्यस्य नान्यथेति विदो विदुः ॥१५७॥
तकतौ शक्तिवैकल्ये कुलीनः स कथं न यः । सद्भावं दर्शयेत्तस्मै स्वाधीनं विगतस्मयः ॥१५८॥ लिए उसने मातृ-पितृ सेवा नामका एक यज्ञ स्वयं चलाया और उसे कराकर दोनोंको मृत्युके अधीन कर दिया ।।१४६। मैं उसी पिप्पलादका वाग्वलि नामका शिष्य था। उससे शास्त्र पढ़कर मैं जड़-विवेकहीन हो गया था और उसीके मतका समर्थन कर घोर वेदनाओंसे भरे नरकमें उत्पन्न हुआ ॥१४७|| नरकसे निकलकर मैं छह बार बकराका बच्चा हुआ और छहों बार यज्ञ विद्याके जाननेवाले लोगोंने मुझे पर्वत द्वारा दिखाये हुए यज्ञमें होम दिया ।।१४८।। सातवीं बार भी मैं प्राणिघातसे उत्पन्न हुए अपने पापोंसे प्रेरित हो टंकणक देशमें बकरा ही हुआ ।।१४९|| उस समय दयालु चारुदत्तने मुझे पापरहित जैनधर्म दिखलाया तथा मरणकालमें पंच नमस्कार मन्त्र दिया ॥१५०।। जिनधर्मके प्रभावसे मैं सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हुआ है। इस प्रकार चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥१५१।। यह कहकर जब वह देव चुप हो गया तब दूसरा देव बोला कि सुनिए चारुदत्त जिस तरह मेरा धर्मोपदेशक है वह मैं कहता हूँ ॥१५२।।
मैं पहले वणिक् था। एक परिव्राजकने मुझे रसकूपमें गिरा दिया। पीछे चलकर उसी परिव्राजकने चारुदत्तको भी उसी रसकप में गिरा दिया। मेरी दशा मरणासन्न थी इसलिए यहाँ दयायुक्त होकर मुझे समीचीन धर्मका उपदेश दिया ॥१५३।। चारुदत्तके द्वारा बताये हुए उस समीचीन धर्मको ग्रहण कर मैं मरा और मरकर सौधर्म स्वर्गमें उत्तम देव हुआ। इस तरह चारुदत्त मेरा साक्षात् गुरु है और इसीलिए मैंने उसे पहले नमस्कार किया है ॥१५४|| जो पापरूपी कुएँमें डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथका सहारा देता है तथा संसार-सागरसे पार करनेवाला है उस मनुष्य के समान संसारमें मनुष्योंके बीच दूसरा कौन है ? ॥१५५।। एक अक्षर, आधे पद अथवा एक पदको भी देनेवाले गुरुको जो भूल जाता है वह भी जब पापी है तब धर्मोपदेशके दाताको भूल जानेवाले मनुष्यका तो कहना ही क्या है ? ॥१५६।। जिसका पहले उपकार किया गया है ऐसे उपकार्य मनुष्यकी कृतकृत्यता प्रत्युपकारसे ही होती है अन्य प्रकारसे नहीं, ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं ।।१५७॥ प्रत्युपकारकी शक्तिका अभाव होनेपर जो अहंकाररहित होता हुआ अपने उपकारोके प्रति अपना शुभ अभिप्राय नहीं दिखलाता है वह कुलीन कैसे हो सकता है ? भावार्थ-प्रथम पक्ष तो यही है कि अपना उपकार करनेवाले मनुष्यका
अवसर आनेपर प्रत्युपकार किया जावे। यदि कदाचित् प्रत्युपकार करनेकी सामर्थ्य न हो तो . १. निरते म.। २. -तारणं म. । ३. पदार्थस्य म.।
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हरिवंशपुराणे इत्युक्त्वा महतीमृद्धिं मुनिखेचरसंनिधौ । संप्रदयं तदा देवी देवदेवीविमानकैः ॥१५॥ वस्त्रैरग्निविशोभ्यमा भूषामाल्यविलेपनैः । भूषयित्वा ससत्कारममाषेतां सुभूषणः ॥१६०॥ आदेशो दीयता स्वामिन् कर्तव्ये समुपस्थिते । चम्पां किं प्राप्य सेऽद्यैव सद्यो भूर्यर्थसंगतः ॥१६१॥ इत्युक्तेन मया प्रोक्तं वजतं निजमास्पदम् । स्मरणानन्तरं देवी पुनरागम्यतामिति ॥१६२॥ यथादेशमिति प्रोच्य प्राञ्जलि प्रणिपत्य तौ। मुनि मां च समापच्छय प्रयातो त्रिदिवं निजम् ॥१६३॥ अहं च मुनिमानम्य विमानेन विहायसा । खेचराभ्यां सहायातः प्राविशं शिवमन्दिरम् ॥१६॥ तत्र स्वर्ग इवातिष्ठन् सुखेन खचरार्चितः । जन्मान्यदिव च प्राप्तः शृण्वन् निजयशो जनात् ॥१६५॥ अन्यदा मातृपुत्रास्ते मयामा संप्रधारणम् । चक्रर्गान्धर्वसेनाख्यां कुमारी संप्रदर्य मे ॥१६६॥ चारुदत्त ! शृणु श्रीमानेकदावधिचक्षुषम् । राजेति पृष्टवान् भर्ता को में दुहितुरीक्ष्यते ॥१६७॥ सोऽवोचच्चारुदत्तस्य गृहे गान्धर्वपण्डितः। जेतास्या मविता तेऽसौ कन्याया यादवः पतिः ॥१६८॥ इत्याकयं तदा तेन राज्ञा प्रव्रजतापि च । स्थिरीकृतमिदं कार्य प्रमाणं स्वं ततोऽसि नः ॥१६९।। दिष्टयाभ्युपगतं तत्तु बन्धुकार्य मया ततः । धाव्यादिपरिवाराढ्या कन्येयं मे समर्पिता ॥१७०॥
कन्याया भ्रातरौ नानारत्नस्वर्णादिसंपदाम् । वृतौ खेचरवाहिन्या सज्जौ चम्पागमं प्रति ॥१७१॥ उपकर्ताके प्रति नम्रताका भाव अवश्य ही दिखलाना उचित है ॥१५८|| इस प्रकार कहकर उन दोनों देवोंने उस समय मुनिराज तथा विद्याधरोंके समीप देव-देवियों तथा विमान आदिके द्वारा अपनी बड़ी भारी ऋद्धि दिखलाकर अग्निमें शुद्ध किये हुए वस्त्र, आभूषण, माला, विलेपन आदिसे मेरा बहुत सत्कार किया तथा उत्तमोत्तम आभूषणोंसे विभूषित कर मुझसे कहा कि हे स्वामिन् ! जो भी कार्य करने योग्य हो उसके लिए आप आज्ञा दीजिए। क्या आज शीघ्र ही आपको बहुत भारी धन-सम्पदाके साथ चम्पापुरी भेज दिया जाये ? ॥१५९-१६१॥ इसके उत्तर में मैंने कहा कि इस समय आप अपने-अपने स्थानपर जाइए । जब मैं आपका स्मरण करूँ तब पुनः आइए ।।१६२।।
। आज्ञा' यह कहकर मझे तथा मनिराजको हाथ जोडकर नमस्कार किया एवं मुझसे तथा मुनिराजसे पूछकर वे अपने स्वर्ग चले गये ॥१६३।। देवोंके चले जानेपर मैंने भी मुनिराज को नमस्कार किया और विद्याधरोंके साथ विमानपर बैठकर उनके शिवमन्दिर नगर में प्रवेश किया ॥१६४॥ शिवमन्दिर नगर स्वर्गके समान जान पड़ता था। मैं उसमें सुखसे रहने लगा। अनेक विद्याधर मेरी सेवा करते थे। वहां रहते हुए मुझे ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरे ही जन्मको प्राप्त हुआ है। वहां प्रत्येक मनुष्यसे मेरा यश सूनाई पड़ता था ।।१६५।।
एक दिन वे दोनों कुमार अपनी माताके साथ मेरे पास आये तथा मेरे लिए कुमारी गान्धर्वसेनाको दिखाकर मेरे साथ इस प्रकार सलाह करने लगे ।।१६६।। उन्होंने कहा कि हे चारुदत्त ! सुनो, एक समय लक्ष्मीसे सुशोभित राजा अमितगतिने अवधिज्ञानी मुनिराजसे पूछा था कि आपके दिव्यज्ञानमें हमारी पुत्री गान्धर्वसेनाका स्वामी कौन दिखाई देता है ? ||१६७।। मुनिराजने कहा था कि चारुदत्तके घर गान्धवं विद्याका पण्डित यदुवंशी राजा आवेगा वही इस कन्याको गन्धर्वविद्यामें जीतेगा तथा वही इसका पति होगा ॥१६८|| मुनिराजके वचन सुनकर राजाने उस समय इस कार्यका निश्चय कर लिया था। यद्यपि राजा अमितगति इस समय दीक्षा लेकर मुनि हो गये हैं तथापि उस समय उन्होंने इसका पूर्ण भार आपके ही ऊपर रखनेका निश्चय किया था इसलिए हम लोगोंको आप ही प्रमाणभूत हैं ॥१६९।। इसके उत्तरमें भाग्यवश प्राप्त हुए इस भाईके कार्यको मैंने स्वीकृत कर लिया। तदनन्तर धाय आदि परिवारके साथ यह कन्या मेरे लिए सौंप दी गयी ॥१७०।। नाना रत्न तथा सुवर्णादि सम्पदासे युक्त कन्याके दोनों भाई विद्या१. व्रजतो म.। २. के मे म.। ३ परिवाराद्या म.।
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एकविंशतितमः सर्गः
मित्रकार्यमुक्त मित्रदेवौ मया स्मृतौ । स्मरणादेव संप्राप्तौ निधिहस्तौ ममान्तिकम् ॥ ३७२ ॥ चारविमानेन साकं गान्धर्वसेनया । आनीय मित्रदेवी मां भूत्या विस्मयनायया ॥१७३॥ सुव्यवस्थाप्य चम्पायामक्षयैर्निधिभिः सह । नत्वा देवौ गतौ स्वर्गं खेचरौ च निजास्पदम् ॥ १७४।। मातुलं मातरं पत्नी बन्धुवर्गं च सादरम् । दृष्ट्वा तुष्टमतिं प्राप्तं प्राप्तोऽहं सुखितां पैराम् ॥१७५॥
शुश्रूषाकरी व मदगुवत संगताम् । श्रुत्वा वसन्तसेनां च प्रीतः स्वीकृतवानहम् ||३७६ ।। दतं किमिच्छकं दानं दीनानाथाङ्गितर्पणम् । विश्वस्मै बन्धुलोकाय दीयते स्म यथेप्सितम् ||१७७।। एस यादव ! संबन्धः कथितस्ते मयाखिलः । खेचरेन्द्रकुमार्या मे विभवस्य च संभवः || १७८ || यदर्थं रक्षिता कन्या स त्वं प्राप्तोऽसि धन्यया । कृतकृत्यः कृतश्चाहं भवता यदुनन्दन ! || १७९ ।। प्रत्यासन्नापवर्गस्य मग स्वर्गस्वपरिवभिः । तपःस्थस्योदितश्चेतो यतिष्ये च तपस्यहम् || १८०|| इति गान्धर्वसेनायाः श्रुत्वा संबन्धमादितः । चारुदत्तस्य चोत्साहं तुष्टस्तुष्टाव यादवः || १८१॥ अहो चेष्टितमार्यस्य महौदार्यसमन्वितम् । अहो पुण्यबलं गण्यमनन्यपुरुषोचितम् ||१८|| न हि पौरुपमीदृक्षं विना दैवबलं तथा । ईदृक्षान् विभवान् शक्याः प्राप्तुं ससुरखेचराः ||१८३॥ श्रुत्वेति चारुदत्तीयमात्मीयं च विचेष्टितम् । तस्मै गान्धर्व सेनादिपर्यन्तं यादवोऽवदत् ॥१८४||
धरोंकी सेना साथ लेकर चम्पानगरीके प्रति आनेके लिए तैयार हो गये ॥ १७१ ॥ उसी समय मित्रका कार्य करने के लिए उद्यत दोनों मित्र देवोंका मैंने स्मरण किया और स्मरणके बाद ही वे दोनों देव निधियाँ हाथ में लिये हुए मेरे पास आ पहुँचे ॥ १७२ ॥ | वे देव, गान्धर्वसेना के साथ मुझे सुन्दर हंस विमान में बैठाकर आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली सम्पदा सहित चम्पानगरी ले आये । यहाँ आकर अक्षय निधियोंके द्वारा उन्होंने मेरी सब व्यवस्था की । तदनन्तर नमस्कार कर देव स्वर्ग चले गये और दोनों विद्याधर अपने स्थानपर गये ॥ १७३ - १७४।। में मामा, माता, पत्नी तथा अन्य बन्धुवर्गसे बड़े आदरसे मिला, सबको बड़ा सन्तोष हुआ और मैं भी बहुत सुखी हुआ || १७५ || 'वसन्तसेना वेश्या, अपनी माँके घरसे आकर सासकी सेवा करती रही है तथा अणुव्रतोंसे विभूषित हो गयी है' यह सुनकर मैंने बड़ो प्रसन्नतासे उसे स्वीकृत कर लिया-अपना बना लिया || १७६ ॥ मैंने दीन तथा अनाथ मनुष्यों को सन्तुष्ट करनेवाला किमिच्छक दान दिया और समस्त कुटुम्बी जनोंके लिए भो उनको इच्छानुसार वस्तुएँ दीं ।। १७७ || इस प्रकार हे यादव ! विद्याधर कुमारीका मेरे साथ जो सम्बन्ध है तथा इस विभवकी जो मुझे प्राप्ति हुई है वह सब मैंने आपसे कहा है ।। १७८ ॥
हे यदुनन्दन ! जिनके लिए यह कन्या रखी गयी थी इस भाग्यशालिनी कन्याने उन्हींतुमको प्राप्त किया है इसलिए कहना पड़ता है कि आपने मुझे कृतकृत्य किया है ॥ १७९ ॥ तपस्वियोंने बताया है कि मेरा मोक्ष निकट है और तप धारण करनेसे इस भवके बाद तुझे स्वर्गं प्राप्त होगा इसलिए अब मैं निश्चिन्त होकर तपके लिए ही यत्न करूँगा || १८० ॥ इस प्रकार वसुदेव, गान्धर्वसेनाका आदिसे लेकर अन्त तक सम्बन्ध तथा चारुदत्तका उत्साह सुनकर बहुत सन्तुष्ट हुए और चारुदत्त की इस तरह स्तुति करने लगे कि अहो ! आपकी चेष्टा अत्यधिक उदारतासे सहित है, अहो ! आपका असाधारण पुण्यबल भी प्रशंसनीय है। बिना भाग्यबलके ऐसा पौरुष होना कठिन है और बिना भाग्यबलके साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है देव तथा विद्याधर भी ऐसे विभवको प्राप्त नहीं हो सकते ।।१८१-१८३ ॥
इस प्रकार चारुदत्तका वृत्तान्त सुनकर वसुदेवने उसके लिए गान्धर्वसेना आदिकी प्राप्तिपर्यन्त अपना भी समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १८४ ॥
१. परं म ।
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हरिवंशपुराणे इत्यन्योन्यस्वरूपज्ञा रूपविज्ञानसागराः । त्रिवर्गानुभवप्रीताश्चारुदत्तादयः स्थिताः ॥१८५।।
शार्दूलविक्रीडितम् क्षीणार्थोऽपि पयोधिमप्यधिगतः कूपावतीर्णोऽप्यतो
दुर्लध्येऽपि च संचरन् गिरितटे द्वीपान्तरे वा पुमान् । लक्ष्मी धर्मसखः प्रयाति निखिला पापव्यपायाद्यत
स्तद्धर्म जिनबोधितं बुधजनाश्चिन्वन्तु चिन्तामणिम् ।।१८६।।
इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती चारुदत्तचरित्रवर्णनो नाम
एकविंशतितमः सर्गः ॥२१॥
इस प्रकार आपसमें एक दूसरेके स्वरूपको जाननेवाले रूप तथा विज्ञानके सागर और त्रिवर्गके अनुभवसे प्रसन्न चारुदत्त आदि सुखसे रहने लगे ॥१८५॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! धर्मात्मा मनुष्य भले ही अत्यन्त निर्धन हो गया हो, समुद्र में भी गिर गया हो, कुएंमें भी उतर गया हो, पर्वतके अलंध्य तटपर भी विचरण करने लगा हो और दूसरे द्वीपमें भी जा पहुंचा हो तो भी पाप नष्ट हो जानेसे सम्पूर्ण लक्ष्मीको प्राप्त होता है इसलिए हे विद्वज्जनो! जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रतिपादित धर्मरूपी चिन्तामणि रत्नका संचय करो ॥१८६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें चारुदत्तके
चरित्रका वर्णन करनेवाला इक्कीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥
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द्वाविंशतितमः सर्गः चम्पायां रममाणस्य सह गान्धर्वसेनया । वसुदेवस्य संप्राप्तः फाल्गुनाष्टदिनोत्सवः ॥१॥ देवा नन्दीश्वरं द्वीपं खेचरा मन्दरादिकम् । यान्ति वन्दारवः स्थानमानन्दं दधतस्तदा ॥२॥ जन्मनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणप्राप्तितोऽहंतः । वासुपूज्यस्य पूज्या तां चम्पा प्रापुः स्फुरदगृहाम् ॥३॥ आगच्छन्ति तदा कतु जिनेन्द्रमहिमोत्सवम् । सर्वत: पुत्रदाराद्यैर्भूचराश्च नभश्चराः ॥४॥ चम्पावासी जनः सर्वो निश्चक्राम सराजकः । प्रतिमा वासुपूज्यस्य पूज्यां पूजयितुं बहिः ।।५।। रथैः केचिद्गजैः केचित् वाजियुग्यादिमिः परे । निर्यान्ति स्त्रीजनाः पुर्या यात्रायां चित्रभूषणाः ॥१॥ शौरिरश्वरथारूढः साई गान्धर्वसेनया । जिनं पूजयितुं पुर्या निर्यातोऽसौ सपर्यया ॥ ॥ भटमण्डलमध्यस्थो गच्छन् जिनगृहातः । मातङ्गकन्यकावेषां नृत्यत्कन्यां निरैक्षत ॥४॥ नीलोत्पलदलश्यामां वृत्तोत्तुङ्गपयोधराम् । भूषाविद्युल्लताश्लिष्टी योषां वा प्रावृषः श्रियम् ॥९॥ सुबन्धुकाधरच्छायां सुपद्मपदपाणि काम् । पुण्डरीकदर्श दृश्यां मूर्त्तामिव शरन्छियम् ॥१०॥ श्रियं हियं ति बुद्धिं लक्ष्मी चापि सरस्वतीम् । स्वयं जिनेन्द्रभक्त्ये नृत्यन्त मतिरूपिणीम् ॥११॥ स्थितो रङ्गविमागेऽत्र गायकः सपरिग्रहः । मृदङ्गी पणवी चैव दर्दुरी कंसवादकः ॥१२॥
अथानन्तर कुमार वसुदेव चम्पापुरीमें गान्धर्वसेनाके साथ क्रीड़ा करते हुए रहते थे कि उसी समय फाल्गुन मासकी अष्टाह्निकाओंका महोत्सव आ पहुँचा ॥१॥ वन्दनाके प्रेमी एवं हृदयमें आनन्दको धारण करनेवाले देव नन्दीश्वर द्वीपको तथा विद्याधर सुमेरु पर्वत आदि स्थानोंपर जाने लगे ॥२॥ भगवान् वासुपूज्यके गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकोंके होनेसे पूज्य एवं देदीप्यमान गृहसे सुशोभित चम्पापुरीमें भी देव और विद्याधर आये ॥३।। उस समय श्री जिनेन्द्र भगवान्की पूजाका उत्सव करनेके लिए भूमिगोचरी और विद्याधर राजा अपनी स्त्रो तथा पुत्र आदिके साथ सर्व ओरसे वहां आये थे ॥४॥ चम्पापुरीके रहनेवाले सब लोग भी राजाको साथ ले श्री वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमाको पूजनेके लिए नगरसे बाहर गये ||५|| उस समय नाना प्रकारके आभूषणोंको धारण करनेवाली स्त्रियाँ नगरसे बाहर जा रही थीं। उनमें कितनी ही हाथीपर बैठकर तथा कितनी ही घोड़े एवं बेल आदिपर बैठकर जा रही थीं ॥६॥ कुमार वसुदेव भी गान्धर्वसेनाके साथ घोड़ोंके रथपर आरूढ़ हो श्रीजिनेन्द्र देवकी पूजा करनेके लिए सामग्री साथ लेकर नगरीसे. बाहर निकले ॥७॥ अनेक योद्धाओंके मध्यमें जाते हुए कुमार वसुदेवने वहां जिनमन्दिरके आगे मातंगकन्याके वेषमें नृत्य करती हुई एक कन्याको देखा ॥८॥ वह कन्या नील कमल दलके समान श्याम थी, गोल एवं उठे हुए स्तनोंसे युक्त थी तथा बिजलीके समान चमकते हए आभूषणोंसे सहित थी इसलिए हरी-भरी, ऊंचे मेघोंसे यक्त एवं चमकती हई बिजलीसे युक्त वर्षा ऋतुकी लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ॥९॥ अथवा उसके ओठ बन्धूकके पुष्पके समान लाल थे, उसके हाथ-पैर उत्तम कमलके समान थे और नेत्र सफेद कमलके समान थे, इसलिए वह साक्षात् मूर्तिमती शरद् ऋतुको लक्ष्मीके समान दिखाई देती थी ॥१०॥ अथवा वह रूपवती कन्या जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिसे स्वयं नृत्य करतो हुई श्री, धृति, बुद्धि, लक्ष्मी एवं सरस्वती देवीके समान जान पड़ती थी॥११॥ नृत्यकी रंगभूमिमें गानेवाले अपने परिकरके साथ स्थित थे। मृदंग, पणव, दर्दुर, झांझ, विपंची और वीणा बजानेवाले बादक तथा उत्तम १. जिनगृहागतः म. । २. जिनेन्द्रभक्तेव म. ।
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हरिवंशपुराण
वैपवैणिकचैष कुतुपः परिभाषितः । उद्यमाधममध्याभिः स्थितः प्रकृतिभिर्युतः ॥१३॥ कुतुपेषु यथास्थानं सुप्रयुक्तं प्रयोक्तृभिः । अलातचक्रप्रतिमं गानं वाद्यं च नाटकम् ॥१४॥ रसामिनयभावानामभिव्यक्ति सुनर्त्तकी । सा कुर्वाणा रथस्थेन शौरिणैक्षि सजानिना ॥१५॥ रूपविज्ञानपाशेन तं बबन्धाशु सा स ताम् । बन्धव्यबन्धकत्वं तावन्योन्यस्य तदापतुः ॥ १६ ॥ ततो गान्धर्वसेनाभूदीर्ष्याकुञ्चितलोचना । विपक्षस्य हि सांनिध्य मक्षिसंकोचकारणम् ॥१७॥ सापायमत्र वित्रास कोपायं च चिरस्थितम् । मन्वाना सारथिं साह धन्विनो रथिनः प्रिया ॥१८॥ क्षिप्रमस्मात्प्रदेशात्त्वं रथं प्रेरय सारथे । शर्कराप्यलमास्वादान्नाददाति रसान्तरम् ॥१९॥ इत्युक्त नोदय द्वेगसारथी रथमाप सः । जिनवेश्म तमास्थाप्य तौ प्रविष्टौ प्रदक्षिणम् ॥ २० ॥ क्षीरेक्षुरसधारौधैर्धृ तदध्युदकादिभिः । अभिषिच्य जिनेन्द्राचमर्चितां नृसुरासुरैः ॥ २१ ॥ हरिचन्दनगन्धाढ्यैर्गन्धशाल्यक्षताक्षतैः । पुष्पैर्नानाविधैरुद्वैधूपैः कालागुरुद्भवैः ॥२२॥ दीपैर्दीप्रशिखाजालैर्नैवेद्यैर्निरवद्यकैः । तावानर्चतुरचा तामर्चनाविधिकोविदौ ॥ २३ ॥ समपादौ पुरः स्थित्वा जिनार्चनकृताञ्जली । उच्चार्योपांशु पाठेन प्रागोर्या पथदण्डकम् ॥२४॥ नृत्य करनेवाले कुतुप उत्तम, मध्यम और जघन्य प्रकृतिके साथ युक्त थे। इनमें जो अच्छे-अच्छे प्रयोग दिखलानेवाले थे वे यथास्थान अलातचक्र के समान - व्यवधानरहित गायन-वादन और नर्तनके प्रयोग दिखला रहे थे ॥१२- १४ || इस प्रकार रस, अभिनय और भावोंको प्रकट करनेवाली उस नर्तकीको प्रिया गान्धवंसेनाके साथ रथपर बैठे हुए कुमार वसुदेवने देखा || १५ || देखते ही उस नर्तकीने कुमारको और कुमारने उस नतंकी को अपने-अपने रूप तथा विज्ञानरूपी पाशसे शीघ्र ही बाँध लिया । उस समय वे दोनों ही आपस में बन्धव्य और बन्धक दशाको प्राप्त हुए थे अर्थात् एक-दूसरेको अनुरागरूपी पाशमें बाँध रहे थे ||१६|| यह देख गान्धर्वसेनाने अपने नेत्र ईर्ष्या से संकुचित कर लिये सो ठीक ही है क्योंकि विरोधीका सन्निधान नेत्र संकोचका कारण होता ही है ॥ १७॥ 'यहाँ अधिक ठहरना हानिकर एवं भयको उत्पन्न करनेवाला है' ऐसा मानती हुई गान्धर्वसेनाने सारथीसे कहा कि हे सारथे ! तुम इस स्थान से शीघ्र ही रथ ले चलो क्योंकि शक्कर भी अधिक खानेसे दूसरा रस नहीं देती ।।१८ - १९ ।। गान्धवंसेनाके ऐसा कहनेपर सारथीने रथको वेगसे बढ़ाया और सब जिनमन्दिर जा पहुँचे । वहाँ रथको खड़ा कर वसुदेव और गान्धर्वसेनाने मन्दिरमें प्रवेश किया, तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और दूध, इक्षुरसको धारा, घी, दही तथा जल आदिके द्वारा मनुष्य, सुर एवं असुरोंके द्वारा पूजित जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाका अभिषेक किया ॥ २० - २१ ॥ । दोनों ही पूजाकी विधिमें अत्यन्त निपुण थे इसलिए उन्होंने हरिचन्दनको गन्ध, धानके सुगन्धित एवं अखण्ड चावल, नाना प्रकारके उत्तमोत्तम पुष्प, कालागुरु, चन्दनसे निर्मित उत्तम धूप, देदोप्यमान शिखाओंसे युक्त दीपक और निर्दोष नैवेद्यसे जिन प्रतिमाकी पूजा की ।। २२-२३॥ पूजाके बाद वे सामायिकके लिए उद्यत हुए सो प्रथम ही दोनों पैर बराबर कर जिनप्रतिमा के आगे हाथ जोड़कर खड़े हो गये । तदनन्तर ईर्यापथ दण्डका मन्द स्वर से उच्चारण कर कायोत्सर्ग करने लगे । कायोत्सर्गके द्वारा उन्होंने ईर्यापथ शुद्धि की । तत्पश्चात् १. नटपेटक (ग. टि. ) । २. नटपेटकेषु ( ग. टि ) | ३. -मास्वाद्य नाददति म । ४. उपांशु इत्यप्रकाशोच्चारणरहरस्ययोः । ५ प्रयोगस्त्रिविधो ह्येषां विज्ञेयो नाटकाश्रयः । ततं चैवावनद्धं च तथा नाट्यकृतश्च सः ॥ ३ ॥ तते कुतपविन्यासो गायनः सपरिग्रहः । वैपञ्चिको वैणिकश्च वंशवादक एव च ||४|| मार्दङ्गिकः पाणविकस्तथा दार्दुरिको बुधैः । अनाविद्धविधावेष कुतपः समुदाहृतः ॥ ५ ॥ उत्तमाधममध्याभिस्तथा प्रकृतिभिर्युतः । कुतपो नाट्य योगेऽत्र नानादेशसमाश्रयः ॥ ६ ॥ एवं गानं च नाट्यं च वाद्यं च विविधाश्रयम् । अलातचक्रप्रतिमं कर्तव्यं नाट्ययोक्तृभिः ॥७॥ - नाट्यशास्त्र, अध्याय २८ ।
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द्वाविंशतितमः सर्गः
कायोत्सर्गविधानेन शोधितेर्यापथौ पथि । जैनेऽतिनिपुणौ क्षोण्यां निषेण्णौ पुनरुत्थितौ ॥२५॥ पुण्यपञ्चनमस्कारपदपाठपवित्रितौ । चतुरुत्तममाङ्गल्यशरणप्रतिपादिनी ॥ २६ ॥
वर्धतृतीयेषु सप्ततिशतात्मके । धर्मक्षेत्रे त्रिकालेभ्यो जिनादिभ्यो नमोऽस्त्विति ॥२७॥ सामायिकं करोमीति सर्व सावद्ययोगकम् । संप्रत्याख्यामि कार्य च तावदित्युज्झिताङ्गकौ ॥२८॥ शत्रौ मित्रे सुखे दुःखे जोविते मरणेऽपि वा । समतालाभलाभे मे तावदित्यन्तराशयौ ॥ २९ ॥ सप्तप्राणप्रमाणं तु स्थित्वा कृत्वा शिरोऽञ्जलिम् । इत्युदाहरतां श्रव्यं तौ चतुर्विंशतिस्तवम् ॥१०॥ ऋषभाय नमस्तुभ्यमजिताय नमो नमः । शम्भवाय नमः शश्वदभिनन्दन ! ते नमः ॥३१॥ नमः सुमतिनाथाय नमः पद्मप्रभाय ते । नमः सुपार्श्व विश्वेशे नमश्चन्द्रप्रमार्हते ॥३२॥ नमस्ते पुष्पदन्ताय नमः शीतलतायिने । नमोऽस्तु श्रेयसे श्रीशे श्रेयसे श्रितदेहिनाम् ॥३३॥ नमोऽस्तु वासुपूज्याय सुपूज्याय जगत्त्रये । वर्तते यस्य चम्पायां निःकम्पोऽयं महामहः ॥३४॥ विमलाय नमो नित्यमनन्ताय नमो नमः । नमो धर्मजिनेन्द्राय शान्तये शान्तये नमः ॥३५॥ कुन्थुनाथाय तथाराय नमस्त्रिधा । मल्लये शल्यमल्लाय मुनिसुव्रत ! ते नमः ॥३६॥
जिनेन्द्र प्रदर्शित मार्ग में अतिशय निपुणता रखनेवाले दोनों, नमस्कार करनेके लिए जमीनपर पड़ गये, फिर उठकर खड़े हुए। पंच नमस्कार मन्त्र के पाठसे अपने-आपको उन्होंने पवित्र किया, अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवलिप्रज्ञप्त धर्म ये चार ही संसार में उत्तम पदार्थ हैं, चार ही मंगल हैं और इन चारोंकी शरण में हम जाते हैं इस प्रकार उच्चारण किया । 'अढ़ाई द्वीपके एक सौ सत्तर धर्मक्षेत्रों में जो तीर्थंकर आदि पहले थे, वर्तमान में हैं और आगे होंगे उन सबके लिए हमारा नमस्कार हो' यह कहकर उन्होंने निम्नांकित नियम ग्रहण किया कि हम जबतक सामायिक करते हैं तबतक के लिए समस्त सावद्य योग और शरीरका त्याग करते हैं - यह नियम लेकर उन्होंने शरीरसे ममत्व छोड़ दिया और शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा लाभ-अलाभमें मेरे समता भाव हो ऐसा मनमें विचार किया । तदनन्तर सात श्वासोच्छ्वास प्रमाण खड़े रहकर उन्होंने शिरोनति की और उसके बाद चौबीस तीर्थंकरोंके सुन्दर स्तोत्रका उच्चारण किया || २४-३० || चौबीस तीर्थंकरोंका स्तोत्र इस प्रकार था -
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हे ऋषभदेव ! तुम्हें नमस्कार हो, हे अजितनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे शम्भवनाथ ! तुम्हें निरन्तर नमस्कार हो, हे अभिनन्दन नाथ ! तुम्हें नमस्कार हो ||३१|| हे सुमतिनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे पद्मप्रभ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे जगत् के स्वामी सुपार्श्वनाथ ! तुम्हें नमस्कार हो, हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! तुम्हें नमस्कार हो ||३२|| हे पुष्पदन्त ! तुम्हें नमस्कार हो, हे शीतलनाथ ! आप रक्षा करनेवाले हैं अतः आपको नमस्कार हो, हे श्रेयांसनाथ ! आप अनन्त चतुष्ट्यरूप लक्ष्मीके. स्वामी हैं तथा आश्रित प्राणियोंका कल्याण करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥ ३३ ॥ जिनका चम्पापुरीमें यह अचल महोत्सव मनाया जा रहा है तथा जो तीनों जगत् में पूज्य हैं ऐसे वासुपूज्य भगवान् के लिए नमस्कार हो ||३४|| हे विमलनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे अनन्तनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे धर्मंजिनेन्द्र ! आपको नमस्कार हो, हे शान्तिके करनेवाले शान्तिनाथ ! आपको नमस्कार हो ||३५|| हे कुन्थुनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे अरनाथ ! आपको नमस्कार हो, हे मल्लिनाथ ! आप शल्यों को नष्ट करनेके लिए मल्लके समान हैं अतः
१. निष्पन्नो म. ग. । २. 'चत्तारि मंगलं – अरहन्ता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा — अरहन्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पवज्जामि अरहन्ते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि । ३. विश्वस्य ईट् विश्वेट् तस्मै । ४. श्रिया ईट् श्रीट् तस्मै ।
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हरिवंशपुराणे नमोऽस्तु नमिनाथाय नतत्रिभुवेनेशिने । यस्येदं वर्तते तीथं सांप्रतं भरतावनौ ॥३७॥ अरिष्टनेमिनाथाय भविष्यत्तीर्थकारिणे । हरिवंशमहाकाशशशाङ्काय नमो नमः ॥३८॥ नमः पार्श्वजिनेन्द्राय श्रीवीराय नमोऽस्तु ते । सर्वतीर्थङ्कराणां च गणेन्द्रेभ्यो नमः सदा ॥३९॥ कृत्रिमा कृत्रिमेभ्यश्च सदनेभ्योऽहंतां नमः । भवनत्रयवर्तिभ्यः प्रतिबिम्बेभ्य एव च ॥४॥ इत्थं कृत्वा स्तवं मक्या तौ प्रहृष्टतनूरुहौ । प्रणेमतुः शिरोजानुकरस्पृष्टधरातली ॥४१॥ पूर्ववत्पुनरुत्थाय कायोत्सर्जनयोगतः । पुण्यं पञ्चगुरुस्तोत्रमुदे चीचरतामिति ॥४२॥ अहंद्यः सर्वदा सर्वसिद्धेभ्यः सर्वभमिषु । आचार्यभ्य उपाध्यायसाधुभ्यश्च नमो नमः ॥४३॥ परीत्य जिष्णुधिष्ण्यं तौ रथमारुह्य हारिणौ । प्रविष्टौ दम्पती चम्पां संपदा परया ततः ॥४४॥ नर्तकीप्रेक्षणक्षिप्तचक्षरिङ्गितलक्षितः । स तां प्रणाममात्रेण मानिनीमनयदशम् ॥४५॥ विपक्षप्रेक्षणासक्तिसापराधेऽपि भर्तरि । स्त्रीणां प्रणयकोपस्य प्रणामो हि निवर्तकः ॥४६॥ अथ विद्याधरी वृद्धा वृद्धा विद्येत्र रूपिणी । तत्कन्य यान्य दोत्सृष्टा त्रिपुण्डकृतमण्डना ॥४७॥ एकान्ते सुस्थितं हयें कथंचिञ्चित्तहारिणी। दत्ताशीः शौरिमाहेवमालीना संमुखासने ॥४८॥
पुराणवस्तुनो वीर ! विस्तरस्तव चेतसि । शुद्धादर्शतले यद्वद् यद्यपि प्रतिभासते ॥४१॥ आपको नमस्कार हो, हे मुनिसुव्रतनाथ ! आपको नमस्कार हो ॥३६।। जिन्हें तीन लोकके स्वामी सदा नमस्कार करते हैं और इस समय भरत क्षेत्रमें जिनका तीर्थ चल रहा है उन नमिनाथ भगवान्के लिए नमस्कार हो ॥३७॥ जो आगे तीर्थकर होनेवाले हैं तथा जो हरिवंशरूपी महान् आकाशमें चन्द्रमाके समान सुशोभित होंगे उन अरिष्टिनेमिको नमस्कार हो ॥३८॥ श्रीपार्वजिनेन्द्रके लिए नमस्कार हो, श्रीवर्धमान स्वामीको नमस्कार हो, समस्त तीर्थंकरोंके गणधरोंको नमस्कार हो. श्रीअरहन्त भगवान के त्रिलोकवर्ती कृत्रिम अकृत्रिम मन्दिरों तथा प्रतिबिम्बोंके लिए नमस्कार हो॥३९-४०|| इस प्रकार स्तवन कर भक्तिके कारण जिनके शरीरमें रोमांच उठ रहे थे ऐ वसुदेव तथा गान्धर्वसेनाने मस्तक, घुटने तथा हाथोंसे पृथिवीतलका स्पर्श करते हुए प्रणाम किया ॥४१॥ तदनन्तर पहलेके समान खड़े होकर कायोत्सर्ग किया और पुण्यवर्धक पंच नमस्कार मन्त्रका उच्चारण किया ॥४२॥ पंच नमस्कार मन्त्र पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि अरहन्तोंको सदा नमस्कार हो, समस्त सिद्धोंको नमस्कार हो, और समस्त पृथिवीमें जो आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबके लिए नमस्कार हो ॥४३॥ अन्तमें जिन-मन्दिरकी प्रदक्षिणा देकर सुन्दर शरीरके धारक दोनों दम्पति रथपर सवार हो बड़े वैभवके साथ चम्पापुरीमें प्रविष्ट हए ।।४४। नत्यकारिणीको देखते समय कुमार वसुदेवके नेत्रोंमें जो विकार हुआ था वह गान्धर्वसेनाको दृष्टिमें आ गया था इसलिए वह उनसे मान करने लगी थी परन्तु कुमारने प्रणाम कर उसे वश कर लिया।॥४५।। सो ठीक ही है क्योंकि सपत्नीक देखने में आसक्ति होनेसे पतिके सापराध होनेपर भी हाथ जोड़कर किया हुआ नमस्कार स्त्रियोंके मानको दूर कर देता है ॥४६॥
अथानन्तर किसी समय कुमार वसुदेव महलके एकान्त स्थानमें अच्छी तरह बैठे थे कि उस नृत्य करनेवाली कन्याके द्वारा भेजी हुई एक वृद्धा विद्याधरी उनके पास आयी। वह वृद्धा त्रिपुण्डाकार तिलकसे सुशोभित थी, कुमार वसुदेवके चित्तको हरनेवाली थी. और मूर्तिमती वार्धक्य विद्याके समान जान पड़ती थी। उसने आते ही कुमारको आशीर्वाद दिया और सामनेके आसनपर बैठकर कुमारसे इस प्रकार कहना शुरू किया ।।४७-४८॥ हे वीर ! यद्यपि आपके हृदयमें शुद्ध दर्पणतलके समान पुराणोंका विस्तार प्रतिभासित हो रहा है तथापि मैं विद्याधरोंसे १. नमस्त्रिभुवने सदा ख., ग., घ., ङ. । नमितस्त्रिभुवने सदा म. । २. -मुदरीरचतामिति म. । ३. जिनगृहम् । ४. वसुदेवम् ।
से कुमार
पा
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द्वाविंशतितमः सर्गः
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तथाप्यनूद्यते वस्तु मया विद्याधरश्रितम् । रोचिपौषधिनाथस्य स्पृष्टं किं नौषधिः स्पृशेत् ॥५०॥ प्रदर्शितजगजीव्या युगाद्यो वृषभेश्वरः । भरतेश्वरविन्यस्तराज्योऽसौ प्रावजद् यदा ॥५१॥ राजछत्रोग्रमोजाद्यास्तदा तत्तपसि स्थिताः । चतुःसहस्रसंख्या ये प्राग्भग्नाश्च परीषहैः ॥५॥ तेषां मध्ये तु यौ भग्नौ नमिचिन मिरित्युभौ । भ्रातरौ पादयोलग्नौ भर्तुस्तस्थतुरर्थिनौ ॥५३॥ धरणेन शरण्येन निर्गत्य धरणैः सह । दित्यदित्यभिधानाभ्यां देवीभ्यामागतेन तौ ॥५४॥ आश्वास्य जिनभक्तन विद्याकोशो जिनान्तिके । ताभ्यां प्रदापितस्तेन स्वदेवीभ्यां महात्मना ॥५५॥ विद्यानामदितिस्त्वष्टौ निकायान् प्रददौ तदा । गान्धर्वसेनकचासौ विद्याकोशः प्रकाशितः ॥५६॥ मनश्च मानवस्तत्र निकायः कौशिकस्तदा । गौरिकव गान्धारो भूमितुण्डश्च खण्डितः ॥५७॥ निकायौ चापरौ ख्याती मूलवीर्यकशङ्कको । ते चार्यादित्यगन्धर्वास्तथा व्योमचराः स्मृताः ॥५८॥ दित्या चाष्टी निकायास्ते वितीर्णाः पन्नगामिधाः । मातङ्गः पाण्डुकः कालः स्वपाकः पर्वतोऽपि च ॥५९॥ वंशालय: पांशुमूलो वृक्षमूलस्तथाष्टमः । दैत्यपनगमातङ्गनामतः परिमाषिताः ॥६॥ पोडशानां निकायानामिमा विद्याः प्रकीर्तिताः । सर्वविद्याप्रधानत्वं याः प्रपद्य व्यवस्थिताः ॥११॥ प्रज्ञप्ती रोहिणी विद्या विद्या चाङ्गारिणीरिता । महागौरी च गौरी च सर्वविद्याप्रकर्षिणी ॥६॥ महाश्वेतापि मायूरी हारी निर्वज्ञशावका । सा तिरस्करिणी विद्या छायासंक्रामिणी परा ।।६३॥
कुष्माण्डगणमाता च सर्वविद्याविराजिता । कष्माण्डदेवी च देवदेवो नमस्कृता ॥६४॥ सम्बन्ध रखनेवाली एक बात आपसे कहती हूँ और यह उचित भी है क्योंकि ओषधियोंका नाथ-चन्द्रमा अपनी किरणोंसे जिसका स्पर्श कर चुकता है क्या सामान्य ओषधि उसका स्पर्श नहीं कर सकती ? अर्थात् अवश्य कर सकती है ? भावार्थ-बड़े पुरुष जिस वस्तुको जानते हैं उसे छोटे पुरुष भो जान सकते हैं ।।४९-५०॥ जिस समय जगत्को आजीविकाका उपाय बतलाने वाले, युगके आदिपुरुष भगवान् वृषभदेव भरतेश्वरके लिए राज्य देकर दीक्षित हुए थे उस समय उनके साथ उग्रवंशीय, भोजवंशीय आदि चार हजार क्षत्रिय राजा भी तपमें स्थित हुए थे परन्तु पीछे चलकर वे परोषहोंसे भ्रष्ट हो गये। उन भ्रष्ट राजाओंमें नमि और विनमि ये दो भाई भी थे। ये दोनों राज्यकी इच्छा रखते थे इसलिए भगवान के चरणोंमें लगकर वहीं बैठ गये ।।५१-५३।। उसी समय रक्षा करने में निपुण जिन-भक्त धरणेन्द्रने अनेक धरणों-देवविशेषों और दिति तथा अदिति नामक अपनी देवियोंके साथ आकर नमि, विनमिको आश्वासन दिया और अपनी देवियोंसे उस महात्माने वहीं जिनेन्द्र भगवान्के समीप उन दोनोंके लिए विद्याकोश-विद्याका भाण्डार दिलाया ।।५४-५५।। अदिति देवीने उन्हें विद्याओंके आठ निकाय दिये तथा गान्धर्वसेनक नामका विद्याकोश बतलाया ॥५६॥ विद्याओंके आठ निकाय इस प्रकार थे-१ मनु, २ मानव, ३ कौशिक, ४ गौरिक, ५ गान्धार, ६ भूमितुण्ड, ७ मूलवीर्यक और ८ शंकुक। ये निकाय आर्य, आदित्य, गन्धर्व तथा व्योमचर भी कहलाते हैं ।।५७-५८॥ धरणेन्द्रकी दूसरी देवो दितिने भी उन्हें १ मातंग, २ पाण्डुक, ३ काल, ४ स्वपाक, ५ पर्वत, ६ वंशालय, ७ पांशुमूल और ८ वृक्षमूल ये आठ निकाय दिये। ये निकाय दैत्य, पन्नग और मातंग नामसे कहे जाते हैं ॥५९-६०॥ इन सोलह निकायोंकी नीचे लिखी विद्याएँ कही गयी हैं जो समस्त विद्याओंमें प्रधानताको प्राप्त कर स्थित हैं ॥६१॥ प्रज्ञप्ति, रोहिणो, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निवंज्ञशावला, तिरस्करिणो, छायासंक्रामिणी, कूष्माण्ड गणमाता, सर्वविद्याविराजिता, आयं कूष्माण्डदेवी, अच्युता, आर्यवती, गान्धारी, निवृति, दण्डाध्यक्षगण, दण्डभूत१. ओषधिनाथस्य चन्द्रस्य रोचिषा कान्त्या स्पृष्टमिति संबन्धः । शोचिषौषधिनाथस्य ख., ग., घ., ङ. । २. जीवो ग., ड.। ३. सर्वविद्यापकर्षिणी म.। ४. तिरस्कारिणी म.।
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हरिवंशपुराणे अच्युतार्यवती चापि गान्धारी निवृतिः परा । दण्डाध्यक्षगणश्चापि दण्डभूतसहस्रकम् ॥६५।। भद्रकाली महाकाली काली कालमुखी तथा । एवमाद्याः समाख्याता विद्या विद्याधरेशिनाम् ॥६६।। एकपर्वा द्विपर्वा च त्रिपर्वा दशपर्विका । शतपर्वा सहस्राख्या लक्षपर्वावलक्षिता ॥६॥ उत्पातिन्यश्च ताः सर्वास्निपातिन्यस्तथापि च । धारिण्यन्तर्विचारिण्यो जलाग्निगतिदक्षिणाः ॥६८॥ निःशेषेषु निकायेषु नानाशक्तिसमन्विताः । नानामगनिवासिन्यो नानौषधिविदस्तथा ॥६९॥ सर्वार्थसिद्धा सिद्धार्था जयन्ती मङ्गला जया । संक्रामिण्यः प्रहाराणामशय्याराधनी तथा ॥७॥ विशल्यकारिणी चैव व्रणसंरोहिणी तथा । सवर्णकारिणी चैव मृतसंजीवनी परा ॥७॥ सर्वाः परमकल्याण्यः सर्वा मन्त्रपरिष्कृताः। सर्वविद्याबलैर्युकाः सर्वलोकहितावहाः ॥७२॥ सर्वाः पठित विद्यास्ता विद्या दिव्यौषधिस्तथा । धरणो लमये तस्मै ददौ विनमयेऽप्यसौ ॥७३॥ धरणेन्द्रवितीणे च विजयाधे धराधरे । नमिर्दक्षिणमागेऽस्थादुत्तरे विनमिस्तथा ॥७॥ नानाजनपदोपेतौ मित्रवान्धवसंस्तुतौ । सुखेन तस्थतुर्वीरौ तौ श्रेण्योरुभयोरुमौ ॥७५॥ ओषधीश्चापि विद्याश्च सर्वेभ्यो ददतुश्च तौ । विद्यानिकायसंज्ञाभिः ख्याताः विद्याधराश्च ते ॥७६॥ गौरीणां गौरिका वेद्या मनूनां मनुनामकाः । गान्धारीणां च गान्धारा मानवीनां च मानवाः ॥७७॥ कौशिकीनां च विद्यानां वेद्याः कौशिकनामकाः । भमितुण्डकविद्यायां भूमितुण्डाः प्रभाषिताः ॥७॥ तथैव मूलवीर्यास्तु मूरवीर्यकखेचराः । शङ्कुकानां च विद्यानां शङ्खकाः खेचराः स्मृताः ॥७९॥ विद्यानां पाण्डुकीनां च पाण्डुकेयाः प्रभाषिताः । कालाः कालकविद्यानां स्वपाकानां स्वपाकजाः ॥८॥ मातङ्गीनां च विद्यानां मातङ्गा नामतो मताः । पर्वतानां च विद्यानां पार्वतेयाः खचारिणः ॥८॥ वंशालयानां विद्यानां वंशालयगणः स्मृतः । पांशुमूलकविद्यानां विज्ञेयाः पांशुमूलिकाः ॥८२॥ विद्यानां वृक्षमूलानां खेचरा वार्भमूलिकाः । एवं ते क्रमशः प्रोक्ता निकायानां खचारिणः ॥८३॥
दशोत्तरशतं तेषां नगराणि खगामिनाम् । षष्टिरुत्तरमागे स्युः पञ्चाशद्दक्षिणे पुनः ॥४४॥ सहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली और कालमुखी-इन्हें आदि लेकर विद्याधर राजाओंकी अनेक विद्याएँ कही गयी हैं ।।६२-६६।। इनके सिवाय एकपर्वा, द्विपर्वा, त्रिपर्वा, दशपर्वा, शतपर्वा, सहस्रपर्वा, लक्षपर्वा, उत्पातिनी, त्रिपातिनी, धारिणी, अन्तर्विचारिणी, जलगति और अग्निगति ये विद्याएं समस्त निकायोंमें नाना प्रकारकी शक्तियोंसे सहित हैं, नाना पर्वतोंपर निवा वाली हैं एवं नाना ओषधियोंकी जानकार हैं ।।६७-६९।। सर्वार्थसिद्धा, सिद्धार्था, जयन्ती, मंगला, जया, प्रहारसंक्रामिणी, अशय्याराधिनी, विशल्यकारिणी, व्रणरोहिणी, सवर्णकारिणी और मृतसंजीवनी-ये सभी विद्याएँ परम कल्याणरूप हैं, सभी मन्त्रोंसे परिष्कृत हैं, सभी विद्याबलसे युक्त हैं, सभी लोगोंका हित करनेवाली हैं। ये ऊपर कही हुई समस्त विद्याएँ तथा दिव्य ओषधियाँ धरणेन्द्रने नमि और विनमिको दी ॥७०-७३।। धरणेन्द्र के द्वारा दिये हुए विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें नमि रहता था और उत्तर श्रेणी में विनमि निवास करता था ॥७४॥ नाना देशवासियोंसे सहित एवं मित्र तथा बन्धुजनोंसे परिचित दोनों वीर विजयार्धको दोनों श्रेणियोंमें सुखसे निवास करने लगे ॥७५|| इन दोनोंने सब लोगोंको अनेक ओषधियां तथा विद्याएँ दी थी इसलिए वे विद्याधर उन्हीं विद्या-निकायोंके नामसे प्रसिद्ध हो गये ॥७६|| जैसे गौरी विद्यासे गौरिक, मनुसे मनु, गान्धारीसे गान्धार, मानवीसे मानव, कौशिकोसे कौशिक, भूमितुण्डकसे भूमितुण्ड, मूलवीर्यसे मूलवीर्यक, शंकुकसे शंकुक, पाण्डु कोसे पाण्डुकेय, कालकसे काल, श्वपाकसे श्वपाकज, मातंगोसे मातंग, पर्वतसे पार्वतेय, वंशालयसे वंशालय गण, पांशुमूलसे पांशुमूलिक और वृक्षमूलसे वार्भमूल-इस प्रकार विद्यानिकायोंसे सिद्ध होनेवाले विद्याधरोंका क्रमसे उल्लेख किया ।। ७७-८३ ।। विद्याधरोंकी कुल नगरियां एक सौ दश दश हैं, उनमें उत्तर भागमें १. अच्युतावती ग.। २. अशब्दाराधिनी ख. ।
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द्वाविंशतितमः सर्गः
आदित्यनगरं रम्यं पुरं गगनवल्लभम् । पुरो चमरचम्पा च पुरं गगनमण्डलम् ॥ ८५॥ विजयं बैजयन्तं च शत्रुंजयमरिंजयम् । पद्मालं केतुमालं च रुद्राचं च धनंजयम् ॥ ८६ ॥ वस्वीकं सारनिवहं जयन्तमपराजितम् । वराहं हस्तिनं सिंहं सौकरं हस्तिनायकम् ||८७|| पाण्डुकं कौशिकं वीरं गौरिकं मानवं मनुः । चम्पा काञ्चनमैशानं मणिवज्र जयावहम् ॥८८॥ नैमिषं हास्तिविजयं खण्डिका मणिकाञ्चनम् । अशोकं वेणुमानन्दं नन्दनं श्रीनिकेतनम् ॥ ८९ ॥ अग्निज्वाल महाज्वालं माल्यं तत्पुरनन्दिनी । विद्युत्प्रभं महेन्द्र च विमलं गन्धमादनम् ||१०|| महापुरं पुष्पमालं मेघमालं शशिप्रभम् । चूडामणिं पुष्पचूडं हंसगर्भ बलाहकम् ||११|| वंशालयं सौमनसं तथैव परिकीर्त्तितम् । विजयार्धोत्तर श्रेण्यां षष्टिरिष्टा इमाः पुरः ॥ ९२ ॥ रथनूपुरमानन्दं चक्रबालमरिंजयम् । मण्डितं बहुकेश्वाख्यं नगरं शकटा मुखम् ॥ ९३ ॥ पुरं गन्धसमृद्धं च नगरं शिवमन्दिरम् । वैजयन्तं रथपुरं श्रीपुरं रत्नसंचयम् ॥९४॥ आषाढं मानवं सूर्य स्वर्णनाभं शतह्रदम् । अङ्गावतं जलावत्तं तथावत्तं बृहद्गृहम् ॥१५॥ शङ्खवज्रं च नाभान्तं मेघकूटं मणिप्रभम् । कुञ्जरावर्त्तनगरं तथैवासितपर्वतम् ||१६|| सिन्धुकक्षं महाकक्षं सुकक्षं चन्द्रपर्वतम् । श्रीकूटं गौरिकूटं च लक्ष्मीकूटं धराधरम् ||१७|| कालकेशपुरं रम्यं पार्वतेयं हिमाह्वयम् । किन्नरोद्गीतनगरं नभस्तिलकनामकम् ॥९८॥ मगधासारनलकां पांशुमूलं परं तथा । दिव्यौषधं चार्कमूलं तथैवोदयपर्वतम् ॥ ९९ ॥ विख्यातामृतधारं च मातङ्गपुरमेव च । भूमिकुण्डलकूटं च जम्बूशङ्कुपुरं परम् ॥१००॥ श्रेण्यां तु दक्षिणस्यां हि पुराण्येतानि पर्वते । शोभया स्वर्गतुल्यानि पञ्चाशच्चैव संख्यया ॥ १०१ ॥ पुरेषु तेषु च स्तम्भास्त निकायाख्ययाहिताः । ऋषभाधीश नागेशदित्यदित्यर्चयाङ्किताः ॥ १०२ ।।
साठ हैं और दक्षिण भागमें पचास हैं ॥ ८४ ॥ १ आदित्यनगर, २ गगनवल्लभ, ३ चमरचम्पा, ४ गगन मण्डल, ५ विजय, ६ वैजयन्त, ७ शत्रुंजय, ८ अरिंजय, ९ पद्माल, १० केतुमाल, ११ रुद्राश्व, १२ धनंजय, १३ वस्वोक १४ सारनिवह, १५ जयन्त, १६ अपराजित, १७ वराह, १८ हास्तिन, १९ सिंह, २० सोकर, २१ हस्तिनायक, २२ पाण्डुक, २३ कौशिक, २४ वीर, २५ गौरिक, २६ मानव, २७ मनु, २८ चम्पा, २९ कांचन, ३० ऐशान, ३१ मणिव्रज, ३२ जयावह, ३३ नैमिष, ३४ हास्तिविजय, ३५ खण्डिका, ३६ मणिकांचन, ३७ अशोक, ३८ वेणु, ३९ आनन्द, ४० नन्दन, ४१ श्रीनिकेतन, ४२ अग्निज्वाल, ४३ महाज्वाल, ४४ माल्य, ४५ पुरु, ४६ नन्दिनी, ४७ विद्युत्प्रभ, ४८ महेन्द्र, ४९ विमल, ५० गन्धमादन, ५१ महापुर, ५२ पुष्पमाल, ५३ मेघमाल, ५४ शशिप्रभ, ५५ चूडामणि, ५६ पुष्पचूड़, ५७ हंसगर्भ, ५८ वलाहक, ५९ वंशालय, और ६० सौमनस-ये साठ नगरियाँ विजयार्धकी उत्तर श्रेणीमें हैं ॥। ८५ - ९२ ।। और १ रथनूपुर, २ आनन्द, ३ चक्रवाल, ४ अरिंजय, ५ मण्डित, ६ बहुकेतु, ७ शकटामुख, ८ गन्धसमृद्ध, ९ शिवमन्दिर, १० वैजयन्त, ११ रथपुर, १२ श्रीपुर, १३ रत्नसंचय, १४ आषाढ़, १५ मानस, १६ सूर्यपुर, १७ स्वर्णनाभ, १८ शतह्रद, १९ अंगावर्त, २० जलावर्त, २१ आवर्तपुर, २२ बृहद्गृह, २३ शंखवज्र, २४ नाभान्त, २५ मे कूट, २६ मणिप्रभ, २७ कुंजरावर्त, २८ असितपर्वत, २९ सिन्धुकक्ष, ३० महाकक्ष, ३१ सुकक्ष, ३२ चन्द्रपर्वत, ३३ श्रीकूट, ३४ गौरिकूट, ३५ लक्ष्मीकूट, ३६ धराधर, ३७ कालकेशपुर, ३८ रम्यपुर, ३९ हिमपुर, ४० किन्नरोद्गीतनगर, ४१ नभस्तिलक, ४२ मगधासारनलका, ४३ पांशुमूल, ४४ दिव्योषध, ४५ अर्कमूल, ४६ उदयपर्वत, ४७ अमृतधार, ४८ मातंगपुर, ४९ भूमिकुण्डलकूट तथा ५० जम्बूशंकुपुर ये पचास नगरियाँ विजयार्धकी दक्षिण श्रेणी में हैं । ये सभी नगरियाँ शोभामें स्वर्ग के तुल्य जान पड़ती हैं ॥९३ - १०१ ॥ उन नगरियोंमें विद्याधर निकायोंके नामसे युक्त तथा भगवान् वृषभदेव, धरणेन्द्र और उसकी दिति-अदिति देवियोंको प्रतिमाओंसे सहित अनेक स्तम्भ खड़े किये गये हैं ॥ १०२ ॥
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हरिवंशपुराणे
सुनवो विनमेर्युक्ता विनयेन नयेन च । नानाविद्याकृतोद्योता जाता: सबहुशस्ततः ॥ १०३॥ संजयोऽरिंजय नाम्ना शत्रुंजयधनंजयौ । मणिचूलो हरिश्मश्रुर्मेघानीकः प्रभञ्जनः || १०४ || चूडामणिः शतानीकः सहस्रानीकसंज्ञकः । सर्वजयो वज्रबाहुर्महाबाहुररिंदमः || १०५ || इत्यादयस्तु ते स्तुत्वा उत्तरश्रेणिभूषणाः । भद्रा कन्या सुभद्रान्या स्त्रीरत्नं भरतस्य सा ॥ १०६ ॥ नमस्तु तनया जाता बहुशो बहुशोचिषः । रविस्तनयसोमचं पुरुहूतोंऽशुमान् हरिः ॥१०७॥ जयः पुलस्त्यो विजयो मातङ्गो वासवादयः । कन्या कनकपुञ्जश्रीः कन्या कनकमञ्जरी ॥ १०८ ॥ नमिश्च विनमिः पश्चाद्विपश्चित्पुत्रमण्डले । न्यस्तविद्याधरैश्वर्यौ निवृत्तौ जिनदीक्षितौ ॥ १०९ ॥ मातङ्गो विनमेः सूनुः सूनवस्तस्य भूरिशः । तत्पुत्रपौत्रसंतानो जातः स्वर्मोक्षसाधनः ॥ ११०॥ जिनस्य ह्येकविंशस्य तीर्थे मातङ्गवंशजः । राजा प्रहसितो जातः पुरे ह्यमितपर्वते ॥ १११ ॥ श्रीमातङ्गान्वयव्योमपतङ्गस्य प्रतापिनः । अहं हिरण्यवत्याख्या विद्यावृद्धास्य मामिनी ॥ २॥ पुत्रो मे सिंहदंष्ट्राख्यस्तस्य नीलाञ्जना प्रिया । नीलनीरजनीलाभा कन्या नीलयशास्तयोः ॥ ११३ ॥ 'अनीलयशसस्तस्याः कुरुशील कलागुणैः । कृतोद्यमं मया वंशो वर्णितो लब्धवर्णया ॥ ११४ ॥ हरिवंशनभश्चन्द्र ! चन्द्रमुख्यावलोकितः । नृत्यन्त्या त्वं तयेत्य वासुपूज्य महाहवे ॥ ११५ ॥ तव दर्शनमतस्याः सुखहेतुरभूद् यथा । दुःखहेतुस्तथैवाद्य वर्तते विरहे स्मृतम् ॥ ११६ ॥ न सा स्नाति न सा भुङ्क्ते न सा वक्ति न चेष्टते । सानङ्गशरशल्या च जीवतीति महाद्भुतम् ॥ ११७ ॥
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तदनन्तर राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन. चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वजय, वज्रबाहु, महाबाहु और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ये सभी पुत्र विनय एवं नीतिज्ञानसे सहित थे, नाना विद्याओंसे प्रकाशमान थे और उत्तरश्रेणी के उत्तम आभूषणस्वरूप थे । पुत्रोंके सिवाय भद्रा और सुभद्रा नामकी दो कन्याएँ भी हुईं। इनमें सुभद्रा भरत चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी ।। १०३ - १०६ ॥ इस प्रकार नमिके भी रवि, सोम, पुरुहूत, अंशुमान्, हरि, जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग तथा वासव आदि अत्यधिक कान्तिके धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नामकी दो कन्याएँ हुई ||१०७ - १०८ ॥ आगे चलकर परम विवेकी नाम और विनमि, पुत्रों के ऊपर विद्याधरोंका ऐश्वर्यं रखकर संसार से विरक्त हो गये और दोनोंने जिन दीक्षा धारण कर ली ॥ १०९ ॥ राजा विनमिके पुत्रों में जो मातंग नामका पुत्र था उसके बहुत से पुत्र-पौत्र तथा प्रपोत्र आदि हुए और वे अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग तथा मोक्ष गये ।। ११० ।। इस तरह बहुत दिन के बाद इक्कीसवें तीर्थंकरके तीर्थमें असितपर्वत नामक नगर में मातंग वंशमें एक प्रहसित नामका राजा हुआ। वह बड़ा प्रतापी था और मातंग वंशरूपी आकाशका मानो सूर्य था । उसीकी मैं हिरण्यवती नामको स्त्री हूँ और विद्यासे मैंने वृद्ध का रूप धारण किया है ।। १११-११२ ॥ सिंहदंष्ट्र नामका मेरा पुत्र है और नीलांजना उसको स्त्री है । उन दोनोंकी नील कमलके समान नोली आभासे युक्त नीलयशा नामकी एक पुत्री है । मुझे बोलने का अभ्यास है इसलिए मैंने उद्यम कर कुल, शील, कला तथा अनेक गुणोंके द्वारा उज्ज्वल यशको धारण करनेवाली उस कन्याके वंशका वर्णन किया है ।। ११३ ११४ ।। हे हरिवंशरूपी आकाशके चन्द्र ! वह चन्द्रमुखी कन्या आष्टाह्निक पर्वके समय श्री वासुपूज्य भगवान् के पूजा महोत्सव में इस चम्पापुरीमें आयी थी और मन्दिरके आगे जब नृत्य कर रही थी तब उसने आपको देखा था ॥ ११५ ॥ हे कुमार ! इस कन्या के लिए उस समय आपका दर्शन जैसा सुखका कारण हुआ था वैसा ही आज विरहकाल में दुःखका कारण हो रहा है ।। ११६ ॥ न वह स्नान करती है, न खातो है, न बोलती
१. बहुरोचिषः म । २. तनयः सोमश्च ग. । ३. विद्यावृद्धस्य म । ४. अनीलममलिनं यशो यस्यास्तस्याः ।
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द्वाविंशतितमः सर्गः
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तस्यामेतदवस्थायां कुलमस्माकमाकुलम् । न वेत्ति किं करोमोति पितृमातृपुरोगमम् ॥११८॥ कन्याया मानसं प्रश्ने घोतितं कुलविद्यया । पद्मिन्येवान्यथाभूत्या युवमातङ्गदूषितम् ॥११॥ ततो विनिश्चितास्माभिर्यादवस्य तवेप्सया। मत्तमातङ्गगामिन्याः कन्याया हृदयव्यथा ॥१२०॥ आगतास्मि ततो नेतं भवन्तं तन्न यादव। सा तवैव विदोद्दिष्टा तदेहि परिणीयताम् ॥१२॥ स श्रत्वा तदवस्यां तां चेतश्वोरणकारिणीम् । सोत्कण्ठितोऽपि तत्काले नैच्छञ्चम्पाविनिर्गमम् ॥१२२॥ आगमिष्याम्यहं तावत्वं तां तावत्तनूदरीम् । अम्ब ! बिम्बाधरां गत्वा ममोदन्तेन सान्त्वय ॥१२३॥ सेत्युक्त्यानुज्ञया मुक्ता दत्ताशीरेवमस्त्विति । मनोरथरथारूढा गत्वा कन्यामसान्त्वयत् ॥१२४॥ स्नात्वा पयोधरोन्मुक्तवसुदेवो नवोदकैः । कृत्वा पयोधराश्लेषं कान्तया शयितोऽन्यदा ॥१२५॥ मीमदर्शनयाकृष्टकरो वेताल कन्यया । विबुद्धोऽताडयन्मुग्धो भुजेन दृढमुष्टिना ॥१२६॥ नीतश्च निशि निस्त्रिंशनराकारभृता तया । रथ्यामार्गेण दुहिं महापितृवनं यदुः ॥१२॥ मातङ्गीमिभृशं भृङ्गीसंगताङ्गप्रभारममिः । संगताभिनितज्ञोऽत्र मातङ्गी शौरिक्षत ॥१२८॥
एहि स्वागतमिस्याह सा हसन्ती तमेतया । 'सिक्तो वेतालविद्याभिर्ह सन्त्यन्तरधीयत ॥१२९॥ है और न कुछ चेष्टा ही करती है। कामके बाणरूपी शल्योंसे छिदी हई वह कन्या जोवित है यही बड़े आश्चर्यकी बात है ।।११७॥ उसको इस दशामें माता-पिताको लेकर हमारा समस्त कुल व्याकुल हो रहा है तथा वह यह भी नहीं जानता है कि क्या करूँ ? ॥११८।। जब मैंने उसके हृदयका हाल जानने के लिए कल-विद्यासे पछा तो उसने यह प्रकट किया कि हाथीके द्वारा नष्ट की हुई कमलिनीके समान इसका हृदय किसी युवा पुरुषके द्वारा दूषित किया गया है ।।११९|| तदनन्तर मैंने निश्चय कर लिया कि मत-मतंगजके समान चलनेवाली कन्याके हृदयको पीड़ा आपकी ही इच्छासे है। भावार्थ -- उसके हृदयकी पीड़ा आपके ही कारण है ।।१२०।। हे यादव ! मैं आपको वहां ले जानेके लिए आयो हूँ, निमित्तज्ञानीने भी वह आपकी ही बतलायी है अतः आप चलें और उसे स्वीकार करें ।।१२१।। कुमार वसुदेव अपने चित्तको चुरानेवाली नीलंयशाकी वह अवस्था सुन जानेके लिए यद्यपि उत्कण्ठित हो गये तथापि उस समय उन्होंने चम्पापुरीसे बाहर जाना ठीक नहीं समझा ॥१२२॥ और यही उत्तर दिया कि हे अम्ब! मैं आऊँगा तुम तबतक जाकर उस कृशोदरी बिम्बोष्ठीको मेरा समाचार सुनाकर सान्त्वना देओ ॥१२३।। कुमारने इस प्रकारको आज्ञा देकर जिसे छोड़ा था ऐसी वृद्धा स्त्रीने 'तथास्तु' कहकर उन्हें आशीर्वाद दिया और मनोरथरूपी रथपर आरूढ़ हो जाकर कन्याको सान्त्वना दी ॥१२४॥
तदनन्तर किसी समय वसुदेव, मेघों द्वारा छोड़े हुए नूतन जलसे स्नान कर कान्ता गान्धर्वसेनाके साथ उसके स्तनोंका गाढ़ालिंगन करते हुए शयन कर रहे थे ॥१२॥ कि एक भयंकर आकारवाली वेताल-कन्याने आकर उनका हाथ खींचा। वे जाग तो गये पर यह नहीं समझ सके कि इस समय क्या करना चाहिए फिर भी दृढ़ मुट्ठियोंवाली भुजासे उन्होंने उसे खूब पीटा ||१२६|| इतना होनेपर भी दुष्ट मनुष्यको आकृतिको धारण करनेवाली वह कन्या उन्हें मजबूत पकड़कर रात्रिके समय गलीके मार्गसे श्मशान ले गयी ॥१२७॥ हृदयकी चेष्टाओंको जाननेवाले कुमारने वहाँ भ्रमरीके समान काली-काली मातंगियोंसे युक्त एक मातंगीको देखा। उस मातंगीने हंसकर कूमारसे कहा कि आइए आपके लिए स्वागत है। यह कहकर वेताल विद्याओंसे उसने इनका अभिषेक कराया और उसके बाद वह हँसती हुई अन्तहित हो गयी ॥१२८-१२९॥ तदनन्तर उसने असली रूपमें प्रकट होकर कहा कि कुमार, मुझे मातंगी मत समझो, मैं हिरण्यवती हूँ। मैंने कार्य सिद्ध १. यादवश्च म.। २. संगीताङ्गम.। ३. वसुदेवः । ४. हसन्तीतिमेनया ग.। ५. सिना म. ख, । ६. अन्तहिता बभूव।
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हरिवंशपुराणे
मातङ्ग इति मा मंस्था त्वं हिरण्यवतीत्यहम् । कल्पो मातङ्गविद्यायाः शौरेऽयं कार्यसाधनः ॥१३०॥ सेयं स्वा नाप्तितो म्लाना वाला चेतोमलिम्लुचम् । बाला वष्टि दृढं नेतुं बाहुपाशेन बन्धनम् ॥१३॥ तमित्युक्त्वान्तिकं प्रातां सा नीलयशसं जगी। वल्लभः स्पृश सोऽयं ते करेण करपल्लवम् ॥१३२॥ साऽनुज्ञाता करेणास्य प्रस्विन्नावयवा करम् । प्रसारिताङ्गलिं बाला स्वेदिनस्तादृशाऽग्रहीत् ॥१३॥ तयोः प्रेमतरुः सिक्तस्तनुस्पर्शसुखाम्भसा । रोमाञ्चव्यपदेशेन व्यमुचत् 'कर्कशाङ्कुरान् ॥१३॥ पाणिग्रहणमाचं हि तदेवासीत्तदा तयोः । भावाद्रकृतयोः पश्चाद्भाविता व्यावहारिकम् ॥१३५॥ सद्यो विद्याधरीवृन्दं खमुत्पत्य ततोऽखिलम् । शोरिणा सह संहृष्टमुत्तर दिशमुद्ययौ ॥१३६॥ भूषौषधिप्रभापिण्डखण्डितध्वान्तसन्ततिः । रेजे खे खेचरस्त्रीणां संहतिस्तडितां यथा ॥१३७॥ सदा शौरिरिवार्कोऽपि करसम्पर्कमात्रतः । प्राग्नीलाशावधूवक्त्रमकरोत् प्रभयोज्ज्वलम् ॥१३॥ अोदितो बभौ भानुः पाटलः प्राग्वधूमुखे । दिवसस्य स्फुरद्वाढमर्धदष्ट इवाधरः ॥१३६॥ सर्वोदितमभात्प्राच्या मुखमण्डलमण्डनम् । मार्तण्डमण्डलं यद्वत्सौवर्ण कर्णकुण्डलम् ॥१४॥ रविणा शौरिणेवाशु भुवनद्योतकारिणी । द्यावापृथिव्यौ विस्पष्टे द्राग दृष्टिप्रसरे कृते ॥१४१॥ शौरि हिरण्यवत्याह महारण्यनगावृतम् । अधः पश्यसि यं भूमौ कुमार ! गिरिमुलतम् ॥१४२॥ श्रीमन्तं प्रवदन्तीम हीमन्तं नामतो गिरिम् । तप:श्रीमन्तमाधत्ते लोकं हीमन्तमप्ययम् ॥१४॥
करनेके लिए मातङ्ग विद्याके प्रभावसे यह वेष रक्खा था ॥१३०॥ यह कहकर उसने पासमें बैठी नीलंयशाकी ओर संकेत कर कहा कि देखो यह वही बाला नीलंयशा है जो हृदयको चुरानेवाले आपको न पाकर मुरझा गई है। यह वाला आपको अपने बाहुपाशसे बाँधना चाहती हैआपका आलिङ्गन करना चाहती है ।।१३१।। कुमारसे इतना कहकर हिरण्यवतीने पासमें बैठी हुई नीलंयशासे भी कहा कि यही तेरा वह स्वामी है अपने हाथसे इसके हस्त पल्लवका स्पर्श कर ॥१३२।। इस प्रकार हिरण्यवतीकी आज्ञा पाकर कुमारी नीलंयशाने कुमार वसुदेवके फैलाये हुए हाथको अपने हाथसे पकड़ लिया । उस समय एक दूसरेके स्पर्शसे दोनोंके शरीरसे पसीना छूट रहा था ॥१३३॥ उन दोनोंका प्रेमरूपी वृक्ष शरीरके स्पर्शजन्य सुखरूपी जलसे सींचा गया था इसलिए वह रोमाञ्चके बहाने कठोर अङ्कुरोको प्रकट कर रहा था ।।१३४॥ वे दोनों ही स्नेहसे आर्द्रचित्त थे इसलिए उनका प्रथम पाणिग्रहण उसी समय हो गया था और व्यावहारिक पाणिग्रहण पीछे होगा ॥१३५।। तदनन्तर हर्षसे भरा विद्याधरियोंका समस्त समूह शीघ्र ही कुमार वसुदेवके साथ आकाशमें उड़कर उत्तर दिशाकी ओर चल दिया ॥१३६॥ आभूषण तथा
औषधियोंकी प्रभासे अन्धकारको सन्ततिको नष्ट करता हुआ वह विद्याधरियोंका समूह आकाशमें बिजलियोंके समूहके समान सुशोभित हो रहा था ॥१३७॥ उस समय जिस प्रकार कुमार वसुदेवने हाथके स्पर्शमात्रसे नीलंयशाके मुखको प्रभासे उज्ज्वल कर दिया था उसी प्रकार सूर्यने भी अपनी किरणोंके स्पर्श मात्रसे पूर्व दिशारूपी स्त्रीके मुखको प्रभासे उज्ज्वल कर दिया था ।।१३८॥ उस समय पूर्व दिशाके अग्रभागमें आधा उदित हुआ लाल-लाल सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो दिवसरूपी युवाके द्वारा आधा डसा हुआ पूर्व दिशारूपी स्त्रीका लाल अधर ही हो ॥१३६॥ थोड़ी देर बाद जब सूर्यमण्डल पूर्ण उदित हो गया तब ऐसा जान पड़ने लगा मानो पूर्व दिशारूपी स्त्रीके मुखमण्डलको अलंकृत करनेवाला सुवर्णमय कानोंका कुण्डल ही हो ॥१४०॥ कुमार वसुदेवके समान संसारको प्रकाशित करनेवाले सूर्यने जब शीघ्र ही आकाश और पृथिवीको स्पष्ट कर दिया तथा उनकी ओर शीघ्र ही दृष्टिका प्रसार होने लगा ॥१४१॥ तब हिरण्यवतीने वसुदेवसे कहा कि हे कुमार ! नीचे पृथिवीपर महावनके वृक्षोंसे घिरे हुए जिस उन्नत पर्वतको देख रहे हो उस शोभासम्पन्न पर्वतको लोग हीमन्त गिरि कहते हैं। यह पर्वत लज्जासे युक्त मनुष्यको भी ।
१. कर्कराङ्कुरान् म० । २. समूहः । ३. समूहः ।
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द्वाविंशतितमः सर्गः
३२९ श्यामयाशनिवेगस्य दुहित्राङ्गारकः खगः । युद्ध खण्डितविद्योऽत्र विद्यासिद्धिं प्रतिस्थितः ॥१४४॥ दर्शनेन तवास्याशु किल विद्या प्रसिद्धयति । तदास्यानुग्रहेच्छा चेद्देहि देहि स्वदर्शनम् ॥१४५॥ इत्युक्तो विदितश्यामाक्षेमवार्त्तः स तोषवान् । जगाद किमनिष्टेन दृष्टेनाङ्गारकेण मे ॥१४६॥ कालातिपातिभिर्व्यथैः क्रीडितैरिह किं कृतैः । प्रयामो वयमास्स्व त्वं पश्यामः इवासुरं पुरम् ॥१४॥ एवमस्त्विति नीत्वासौ स्थापितोऽसितपर्वते । कृत विद्याधरीरक्षो बाह्योद्याने मनोहरे ॥१४॥ प्रविष्टा तुष्टचित्ता च निजं नीलयशाः पुरम् । शौरिसंकथया तस्थौ तत्समागमकाङ्क्षया ॥१४९॥ सुस्नातोऽलंकृतो भूत्या महत्या स रथस्थितः । प्रवेशितः पुरं वीरः खेचरैः स्वर्गसंनिमम् ॥१५॥ दृष्टः सप्रश्रयं श्रीमानवितृप्तविलोचनैः । जनैः ससिंहदंष्ट्रः स तुष्टान्तःपुरपूर्वकैः ॥१५१॥ ततः पुण्यदिने पुण्यपूर्ण योः पूर्णरूपयोः। विधिपूर्व तयोवृत्तं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥१५२॥ स नीलयशसा शौरि गरेऽसितपर्वते । रत्येव सहितः कामः कामभोगानसेवत ॥१५॥
शार्दूलविक्रीडितम् . नीलं नीलयशोयशो न जनितं स्त्रीभिर्यतः स्वर्गुणैः
शौरेः शौर्यशरीरिणो हि न यशः कृष्णीकृतं खेचरैः ।
उस शोभासम्पन्न पर्वतको लोग ह्रीमन्त गिरि कहते हैं। यह पर्वत लज्जासे युक्त मनुष्यको भी तपरूपी लक्ष्मीसे युक्त कर देता है ॥१४२-१४३।। यहाँ अशनिवेगकी पुत्री श्यामाने युद्ध में जिसकी विद्या खण्डित कर दी थी ऐसा अंगारक नामका विद्याधर विद्या सिद्ध करनेके लिए स्थित है। आपके दर्शनसे इसे शीघ्र विद्या सिद्ध हो जावेगी इसलिए यदि इसका उपकार करनेकी आपकी इच्छा है तो इसे अपना दर्शन दें ॥१४४-१४५॥ हिरण्यवतीके इस प्रकार कहनेपर प्रियतमा श्यामाके कुशल समाचार जानकर कुमार बहुत सन्तुष्ट हुए और कहने लगे कि अंगारक तो हमारा शत्रु है इसको देखनेसे क्या लाभ है ? ॥१४६।। इस पर्वतपर की हुई समयको बितानेवाली व्यर्थकी क्रीड़ाओंसे मुझे क्या प्रयोजन है ? यदि तुम्हें रहना इष्ट है तो रहो मैं तो जाता हूँ और श्वसुरके नगरको देखता हूँ ॥१४७।। कुमारके ऐसा कहनेपर हिरण्यवतीने 'एवमस्तु' कहा अर्थात् जैसा आप चाहते हैं वैसा ही करती हूँ। यह कह उसने असितपर्वत नगर ले जाकर उन्हें नगरके बाहर एक सुन्दर उद्यानमें ठहरा दिया तथा रक्षाके लिए विद्याधरियोंको नियुक्त कर दिया ॥१४८।। कुमारी नीलंयशा प्रसन्नचित्त हो अपने नगरमें प्रविष्ट हुई और कुमारके समागमकी आकांक्षा तथा उन्हींकी कथा करती हुई रहने लगी ॥१४९॥ तदनन्तर बड़े वैभवके साथ जिन्हें स्नान कराया गया था तथा उत्तमोत्तम आभूषण पहनाये गये थे ऐसे वीर कुमार वसुदेवको रथपर बैठाकर विद्याधरोंने स्वर्ग तुल्य नगर में प्रविष्ट कराया ।।१५०|| वहाँ कुमारका मनोहर रूप देखदेखकर जिसके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे ऐसे नीलंयशाके पिता सिहदंष्ट्रा तथा सन्तोषसे युक्त अन्त:पुरको आदि लेकर समस्त लोगोंने बड़े विभवके साथ श्रीमान् बसुदेवको देखा ।।१५१॥ तदनन्तर जो पुण्यसे परिपूर्ण थे और जिनका रूप चरम सीमाको प्राप्त था ऐसे कुमार वसुदेव और नीलयशाका पाणिग्रहण मंगल किसी पवित्र दिन विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ ॥१५२।। तत्पश्चात् जिस प्रकार कामदेव अपनो स्त्री रतिके साथ इच्छानुसार भोगोंका सेवन करता है उसी प्रकार कुमार वसुदेव असितपवंत नगरमें नीलंयशाके साथ इच्छानुसार भोगोंका सेवन करने लगे ॥१५३।। गौतम स्वामी कहते हैं कि चूंकि वहाँकी स्त्रियां अपने गुणोंसे नीलंयशाके यशको मलिन नहीं कर सकी थीं और न विद्याधर ही पराक्रमी वसुदेवके यशको कलंकित कर सके थे इसलिए वहाँ प्रेम१. तवास्या- म.। २. श्वसुरस्येदम् श्वासुरम् म.। ३. रथः स्थितः म. । ४. -जितः म.।
४२
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३३०
हरिवंशपुराणे तत्तत्र स्थितयोस्तयोः सुखरसं प्रेमप्रसकारमनोः
साकल्येन जनो जिनप्रवचनज्ञो हि प्रवक्तुं क्षमः ॥१५४॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती नीलयशोलाभवर्णनो
नाम द्वाविंशः सर्गः ॥२२॥
पूर्वक रहनेवाले वसुदेव और नीलंयशाको जो सुख उपलब्ध था उसका सम्पूर्ण रूपसे वर्णन करने के लिए जिन प्रवचनका ज्ञाता श्रुतकेवली ही समर्थ हो सकता है ।।१५४।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें नीलंयशाके
लाभका वर्णन करनेवाला बाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२२॥
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त्रयोविंशः सर्गः
प्रासादस्थोऽन्यदा श्रुत्वा महाकलकलध्वनिम् । इत्यपृच्छत्प्रतीहारी शौरिः पार्श्वव्यवस्थिताम् ॥१॥ कुतो हेतोरयं लोको वर्तते मुखरोऽखिलः । इत्युक्ता सावदत्तस्मै वृत्तवृत्तान्तवेदिनी ॥२॥ शृणु देवास्ति शैलेऽस्मिन् नगरं शकटामुखम् । तस्येशो नीलवान नाम्ना व्योमगानामधीश्वरः ॥३॥ नीलस्तस्य सुतः कन्या मान्या नीलाञ्जनाभिधा। कुमारकन्ययोवृत्ता संकथा च तयोरिति ॥४॥ पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता मविता तयोः । अविवादो विवाहोऽत्र गोत्रप्रीतौ परस्परम् ॥५॥ ऊढायाः सिंहदंष्ट्रण श्वशुरेण तवामुना । सेयं नीलाञ्जनायाश्च जाता नीलयशाः सुता ॥६॥ नीलस्योदूढभार्यस्य नीलकण्ठस्तु यः सुतः । जातोऽस्मै याचते स्मैतां स नीलयशसं तदा ॥७॥ सिद्धादेशस्य सत्साधोरादेशात्त बृहस्पतेः । दत्तेयं तेऽर्द्धचक्रेशपिने पित्रा यशस्विने ॥८॥ 'पितापुत्रौ च तौ नीलनीलकण्ठौ सभान्तरे । खलौ च सिंहदंष्ट्रण व्यवहारं श्रिताविमौ ॥९॥ न्यायेन च तयोरत्र जितयोः श्वशुरेण ते । उच्चैः खेचरलोकेन कृतः कलकलध्वनिः ॥१०॥ इति श्रत्वा प्रतीहार्या वचः सूर्यपुरोद्भवः । कृतस्मितमुखं तस्थौ स नीलयशसा सह ॥११॥ प्राप्तां घनकृताश्लेषां प्रावृषं विषयप्रियाम् । शुक्लापाङ्गस्वनैहृद्यां सोऽन्वमतां वधूमिव ॥१२॥
परन्तु
अथानन्तर-किसी समय महलके ऊपर बैठे हुए कुमारने लोगोंका बहुत भारी कोलाहल सुनकर पासमें बैठी प्रतीहारीसे पूछा कि ये समस्त लोग किस कारण कोलाहल कर रहे हैं ? कुमारके इस प्रकार कहनेपर अतीत वृत्तान्तको जाननेवाली प्रतीहारीने कहा कि हे देव ! सुनिए, इस पर्वतपर एक शकटामख नामका नगर है उसका स्वामी विद्याधरोंका अधिपति नीलवान् नामका विद्याधर है ॥१-३॥ राजा नीलवान्के नोल नामका पुत्र और नीलांजना नामकी माननीय पुत्री इस प्रकार दो सन्तान हैं। एक बार नील और नीलांजनाके बीच यह बात हुई कि यदि मेरे पूत्र हो । और तम्हारे पत्री हो तो परस्पर गोत्रको प्रीति बनाये रखनेके लिए दोनोंका विवादरहित विवाह होगा ॥४-५।। नीलांजनाको तुम्हारे श्वसुर सिंहदंष्ट्रने विवाहा था और उससे यह नीलयशा नामकी पुत्री हुई थी ॥६॥ कुमार नोलका भी विवाह हुआ और उसके नीलकण्ठ नामका पुत्र हुआ। पूर्व वार्ता के अनुसार नीलने अपने पुत्र नीलकण्ठके लिए सिंहदंष्ट्रसे नीलयशाकी याचना की ॥७॥
दंष्टने अमोघवादी बहस्पति नामक मनिराजके कथनानसार यह कन्या आपके लिए दी है। आप अर्धचक्रवर्तीके यशस्वी पिता हैं ।।८। आज दुष्ट प्रकृतिके धारक पिता-पुत्र-नील और नीलकण्ठने सभाके बीच सिहदंष्ट्र के साथ विवाद ठाना था परन्तु तुम्हारे श्वसुर-सिहदंष्ट्रने उन दोनोंको न्याय मार्गसे जीत लिया इसलिए विद्याधरोंने बहुत भारी कलकल शब्द किया है ॥९-१०।। इस प्रकार प्रतीहारीके वचन सुनकर कुमार वसुदेव मुसकराये और नीलयशाके साथ पहलेको तरह रहने लगे ।।११||
तदनन्तर वर्षा ऋतु आयी, सो कुमार वसुदेवने स्त्रीके समान उसका अनुभव किया क्योंकि जिस प्रकार स्त्री घनकृताश्लेषा-गाढ़ आलिंगनसे युक्त होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी घनकृताश्लेषा-मेघकृत आलिंगनसे युक्त थी। जिस प्रकार स्त्री विषय-प्रिया-विषयोंसे प्रिय होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी विषय-प्रिया-देशोंके लिए प्रिय थी। और जिस प्रकार स्लो शुक्ला१. सुताः म. । २. पितृपुत्री ख., म. । ३. वसुदेवः । ४. विषया भोग्यवस्तूनि अन्यत्र जनपदाः । ५. मयूरकेकाध्वनिभिः, पक्षे कटाक्षस्वनः ।
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३३२
हरिवंशपुराणे
प्राप्तः शरदृतुर्दृप्तः शरपुङ्खकरस्ततः । गुञ्जम॒ाज्यया सजः प्राज्यबाणासनश्रिया ॥१३॥ काले विद्याधरास्तत्र स्वविधौषधिसिद्धथे। निगृहोतमनोवेगा मनोवेगा विनिर्ययुः ॥१४॥ तदा तौ दम्पती शैलं ह्रीमन्तं हामवर्षिणौ । प्रयातौ विद्ययाश्लिष्टौ घनं विद्युद्घनौ यथा ॥१५।। 'असपत्नसपत्नीकतापसस्त्राधसम् । असिधारावतं तीन चरन्तमिव संततम् ।।१६।। मधुपानमदोन्मत्तपतत्रिमधुपारवः । विध्यतो मदनस्येव स शरज्यारवैर्युतः ॥१७॥ अवतीणी तमुद्गन्धिसप्तपर्णावतंसकम् । हारिणं वर्णयन्तौ तौ मरुघृणितभूरुहम् ॥१८॥ परिभ्रम्य चिरं शोभां पश्यन्तौ तृप्तिवर्जितौ। गिरेः सानुषु रम्येषु रम्येते स्म सस्मरौ ।।१९।। तयोः संभोगसंमारः पुष्पपल्लवकल्पिते । तल्पेऽनल्पोऽपि खेदाय समजायत नो तदा ॥२०॥ चिरेण रतिसंभोगसंभूतस्वेदभूषितौ । निष्क्रान्तौ कदलोगेहात् तौ रक्तान्तविलोचनौ ॥२१॥ मुक्तककारवं तत्र चित्रगात्रमपश्यताम् । कलापिनमकस्मात्ती मयूरं मत्तलोचनम् ॥२२॥ शोभया'हृतचित्तं तमुत्कादिरसुः सकौतुका । स्कन्धमारोप्य तेनासी नीता नीलयशा नमः ।।२३।। नीचेन नीलकण्ठेन नीलकण्ठवपु ता । हृतायां विह्वलो वध्वां वसुदेवोऽभ्रमद्वने ॥२४॥
पाङ्गस्वनैहंद्या-सफेद-सफेद कटाक्षों और मधुर वाणीसे मनोहर होती है उसी प्रकार वर्षाऋतु भी शुक्लापाङ्गस्वनैहृद्या-मयूरोंकी वाणीसे मनोहर थी॥१२॥ वर्षा के बाद, जो बाणोंको मूठको हाथमें धारण कर रहा था तथा गुंजार करते हुए भ्रमररूपी डोरीसे युक्त उत्तम बाणासन जाति के वृक्षरूपी बाणासन-धनुषकी शोभासे युक्त था ऐसे अहंकारी सुभटके समान शरद् ऋतु आयो ।।१३।। उस समय मनके समान तीव्र वेगको धारण करनेवाले विद्याधर अपनी-अपनी विद्याओं और ओषधियोंकी सिद्धिके लिए मनके वेगको नियन्त्रित कर बाहर निकले ||१४|| उस समय इच्छानुसार कामभोग
वाले एवं विद्याके द्वारा अत्यन्त आलिगित दोनों दम्पती--कुमार वसूदेव और नीलयशा भी ह्रीमन्त पर्वतकी ओर गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानो परस्परमें गाढ़ आलिंगनको प्राप्त एवं इच्छानुसार वर्षा करते हुए बिजली और मेघ ही पर्वतकी ओर जा रहे हों ॥१५।। उस पर्वतका मध्य भाग वैरिरहित सपत्नीक तपस्वियोंकी स्त्रियोंको धारण करता था इसलिए ऐसा जान पडता था मानो निरन्तर अतिशय कठिन असिधारावतका ही आचरण कर रहा हो ॥१६|| वह पवंत जगह-जगह मधुपानके मदसे उन्मत्त पक्षियों और भ्रमरोंके शब्दसे युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो कामीजनोंकों वेधनेवाले कामदेवके बाण और प्रत्यंचाके शब्दोंसे ही युक्त हो ॥१७|| उत्कट सुगन्धिसे युक्त सप्तपर्णवन जिसकी शोभा बढ़ा रहा था, जो स्वयं सुन्दर था तथा वायुसे जिसके वृक्ष हिल रहे थे ऐसे ह्रीमन्त पर्वतपर उतरकर वे दोनों उसकी प्रशंसा करने लगे। चिरकाल तक इधर-उधर भ्रमण कर शोभाको देखते हुए वे तृप्त ही नहीं होते थे अतः कामाकुलित होकर दोनोंने पर्वतके सुन्दर शिखरोपर बार-बार रमण किया था ॥१८-१९|| उन्होंने पुष्प और पतोंसे निर्मित शय्यापर अत्यधिक सम्भोग किया था फिर भी वह उस समय उनके खेदके लिए नहीं हुआ था ।।२०।। जो रतिक्रीड़ासे उत्पन्न पसीनासे सुशोभित थे तथा जिनके नेत्रोंके कोण लाल-लाल हो रहे थे ऐसे वे दोनों चिरकाल बाद कदली गृहसे बाहर निकले ॥२१।। बाहर निकलते ही उन्होंने एक ऐसा मयूर देखा जो केका वाणी छोड़ रहा था, चित्र-विचित्र शरीरसे युक्त था, शिखण्डोंसे सहित था और जिसके नेत्र अत्यन्त मत्त थे ।॥२२॥ शोभासे चित्तको हरण करनेवाले उस मयूरको देखकर जो अत्यन्त उत्कण्ठित थो तथा कौतुकवश जो उसे पकड़ लेना चाहती थी ऐसी नीलयशाको कन्धेपर बैठाकर वह मयूर आकाशमें ले गया ||२३|| यथार्थमें वह मयूर नहीं था किन्तु मयूरका १. असमत्ना ये सपत्नीकतापसास्तेषां स्त्रिय इति असपत्नसपत्नीकतापसस्त्रियस्तासां धरमुरो वक्षो यस्य पर्वतस्य स तम् । २. मनोहरम् । ३. हृतचित्ता तां म. । ४. मयुराकारधारिणा ।
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त्रयोविंशः सर्गः
३३३
गोष्ठे गोपवधूधूतक्षुत्पिपासापरिश्रमः । उषित्वा प्रातरुत्थाय स प्रायाइक्षिणां दिशम् ॥२५॥ पुरं गिरितट तत्र वप्रप्राकारवेष्टितम् । दृष्टा हृष्टः प्रविष्टोऽसौ विशिष्टजनतावृतम् ॥२६॥ वेदाध्ययन नि?षमुखरीकृतदिग्मुखे । तत्रापृच्छ सरं कंचिदिति शौरिः सकौतुकः ॥२७॥ किं केनात्र महादानं माहनेभ्यः' प्रवर्तितम् । येनामी मिलिता विश्वे मेदिन्या वेदवेदिनः ॥२८॥ सोऽवोचद्वसुदेवोऽत्र मोजकोऽस्यास्ति कन्यका । सोमश्रीरिव सोमश्रीः कलावेदविशारदा ॥२९॥ जेता वेदविचारेऽस्याः यः स भर्ता भविष्यति । इति दैवज्ञवाक्येन संहता वैदिकी प्रजा ॥३०॥ जघनस्तनमारा" तनुमध्यातिरूपिणी । भरक्षमस्य नो विद्मः कस्योपरि पतिष्यति ॥३१॥ श्रुत्वैवं शब्दमात्रेण सा कन्या श्रोत्रहारिणी । हंसीव राजहंसस्य चक्रे सोस्कण्ठितं मनः ॥३२॥ ब्रह्मदत्तमुपाध्यायं सोऽभ्युपेत्य निवेद्य च । गोत्रसंचारणं वेदानहोऽध्यापय मामिति ॥३३॥ आषांस्त्वमिह किं वेदान् धर्मानविजिगांससे । अनार्षानथवा वेदानित्यवादीदसौ गुरुः ॥३४॥ कथं वैविध्यमेतेषामिति पृष्टोऽवदत्पुनः । प्रहृष्टहृदयोऽत्यर्थ यथार्थवचनो द्विजः ॥३५॥ षटकर्मसु प्रजाः प्राप्ताः कल्पवृक्षपरिक्षये। यः शशास पुरा वेदेत्रिमिवर्णरिवाश्रिताः ॥३६॥
हिमविन्ध्यस्तनामोगा रौप्यपर्वतहारिणीम् । वार्धिकाचीगुणां राजा योऽन्वभूद्वसुधावधूम् ॥३७॥ शरीर धारण करनेवाला नीच नीलकण्ठ था । उसके द्वारा स्त्रीके हरे जानेपर वसुदेव विह्वल होकर वनमें घूमते रहे ॥२४॥ वह भूखे थे इसलिए गोपोंकी एक बस्ती में गये वहाँ गोपोंकी स्त्रियोंने उनकी भूख-प्यासकी बाधा तथा परिश्रमको दूर किया। उस बस्तीमें रातभर रहकर वे प्रातःकाल दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये ॥२५॥ वहाँ धूलिकुट्टिम तथा प्राकारसे वेष्टित गिरितट नामक नगरको देखकर वसुदेवने हर्षित हो उसमें प्रवेश किया। उस समय वह नगर विशिष्ट जनसमूहसे व्याप्त था तथा वेद-पाठकी ध्वनिसे उसकी समस्त दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं। वहाँ कौतुकसे भरे वसुदेवने किसी मनुष्यसे इस प्रकार पूछा ॥२६-२७|| क्या यहाँ ब्राह्मणोंके लिए किसीने महादान किया है ? जिससे वेदोंको जाननेवाले पृथिवीके समस्त ब्राह्मण यहां आकर इकट्ठे हुए हैं ॥२८॥ उस मनुष्यने कहा कि यहां एक वसुदेव नामक ब्राह्मण रहता है। उसके एक सोमश्री नामको कन्या है जो चन्द्रमाके समान सुन्दर और अनेक कला तथा वेद-शास्त्रमें निपुण है ॥२९॥ ज्योतिषीने कहा है कि जो इसे वेदोंके विचारमें जीत लेगा वही इसका पति होगा इसीलिए यह वेदोंको जाननेवाली प्रजा इकट्ठी हुई है ॥३०॥ स्थूल नितम्ब और स्तनोंके भारसे पीड़ित, कमरकी पतली यह अतिशय सुन्दरी कन्या, भार धारण करने में समर्थ किस भाग्यशालीके ऊपर गिरती है यह हम नहीं जानते ॥३१॥ यह सुनकर जिस प्रकार शब्दमात्रसे कानोंको हरनेवाली हँसी राजहंसके मनको उत्कण्ठित कर देती है उस प्रकार चर्चामात्रसे कानोंको हरनेवाली उस कन्याने वसुदेवके मनको उत्कण्ठित कर दिया ॥३२॥
_____ तदनन्तर कुमारने ब्रह्मदत्त नामक उपाध्यायके पास जाकर तथा उसे अपना गोत्र बताकर प्रार्थना की कि आप हमें वेद पढ़ा दीजिए ॥३३॥ इसके उत्तरमें ब्रह्मदत्तने कहा कि यहाँ तुम धर्मको प्रकट करनेवाले आषं वेदोंको पढ़ना चाहते हो या अनार्ष वेदोंको ? ॥३४॥ यह सुन कुमारने फिर पछा कि दो वेद कैसे? कुमारके इस तरह पूछनेपर अत्यन्त प्रसन्न चित्त एवं यथार्थवादी उपाध्याय पुनः इस प्रकार कहने लगा कि युगके आदिमें कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेपर जिन्होंने शरणागत प्रजाको असि-मषि आदि छह कार्योंका उपदेश दिया था तथा अपने पूर्वज्ञानके आधारपर उनमें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णोंका विभाग किया था ।।३५-३६॥ जिन्होंने राजा बनकर हिमाचल और १. ब्राह्मणेभ्यः क.। माहवेभ्यः म.। २. सोमस्येव चन्द्रस्येव श्रीर्यस्याः सा। ३. वैदिकप्रजाः ग.। ४. नाहाध्यापय मामिति क. । ५. रौप्यपर्वत एव हारो यस्याः सा ताम् ।
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३३४
हरिवंशपुराणे
राज्ये पुत्रशतं प्राज्ये संस्थाप्य भरतादिकम् । यो मुमुक्षुर्विनिःक्रान्तः सचतुनृ सहस्रकः ॥ ३८ ॥ "यश्चचार चतुर्वेदस्तपो दुश्चरमात्मभूः । धीरो वर्षसहस्रं वै पराजितपरीषहः ॥३१॥ समुत्पादित कैवल्य वेदनेत्रेक्षिताखिलः । धर्मतोर्थेन यश्चक्रे धर्मक्षेत्रं खलोज्झितम् ॥४०॥
द्वौ धर्माश्रम धौं गृहिश्रमणसंश्रयौ । स्वर्गापवर्गसौख्यस्य सिद्धयेऽदर्शयन्मुनिः ॥४१॥ द्वादशाङ्गविकल्पेषु वेदेषु यतिवृत्तिषु । अन्तर्गता गृहस्थानां यथोक्ताचारदर्शिता ॥ ४२ ॥ गुणशिक्षाव्रतस्थानामनेकनियमश्रिताम् । तेन ये दर्शिता वेदा ऋषभप्रभुणार्षकाः ॥ ४३ ॥ तानधीत्य तदुक्तेन विधिना भरतार्चितः । धर्मयज्ञानयष्टाद्ययुगे विप्रगणोऽखिलः ॥ ४४ ॥ अनार्षाणां तु वेदानामुत्पत्तिरभिधीयते । ऐदंयुगीनविप्राणां तापयं यत्र वर्त्तते ॥ ४५ ॥ भूप धारणयुग्मेsभृत्पुरे यो रणभूमिषु । अयोधनतया योधैरयोधन इतीरितः ॥ ४६ ॥ भूषितादित्यवंशस्य सोमवंशतनूद्भवा । दितिस्तस्य महादेवी तृणविन्दोः कनीयसी ॥ ४५ ॥ सायोषिद्गुणमञ्जूषामसूत सुकसां सुताम् । यौवने च पिता तस्याः स्वयंवरमचीकरत् ॥ ४८॥ आगताश्च समाहूताः पृथिव्यां पृथुकीर्त्तयः । स्वयंवरार्थितो भूपाः सादराः सगरादयः ॥ ४९ ॥ सगरस्य प्रतीहारी नाम्ना मन्दोदरी दितेः। गृहं गतान्यदाश्रवादेकान्ते वचनं दितेः ॥ ५० ॥
विन्ध्याचल रूप स्तनोंसे युक्त, विजयार्धरूपी हारसे सुशोभित और सागर रूपी मेखलासे अलंकृत पृथिवीरूपी स्त्रीका उपभोग किया था ||३७|| जिन्होंने अन्तमें विरक्त हो श्रेष्ठ राज्यपर भरतादिक सौ पुत्रोंको आसीन कर चार हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण की थी ||३८|| जो स्वयं प्रतिबुद्ध थे, धोर-वीर थे, परीषहोंके जेता थे और जिन्होंने चार ज्ञानके धारक होकर एक हजार वर्ष तक कठिन तप किया था ||३९|| जिन्होंने उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी नेत्रके द्वारा समस्त पदार्थों को जान लिया था तथा धर्मरूप तीर्थंके द्वारा जिन्होंने धर्मक्षेत्रको दुष्टोंसे रहित कर दिया था ||४०|| जिन्होंने स्वर्ग और मोक्षसुखकी प्राप्ति के लिए गृहस्थ और मुनियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले दो धर्माश्रम दिखलाये थे ||४१ || जिन्होंने मुनिधर्मका वर्णन करनेके लिए द्वादशांगरूप वेदोंका निर्माण किया था तथा उन्हीं वेदोंके अन्तर्गत ( उपामकाध्ययनांग ) गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके धारक एवं अनेक नियमों का पालन करनेवाले गृहस्थोंके भी आचारका वर्णन किया था। उन्हीं भगवान् वृषभदेव के द्वारा उस समय जो वेद दिखाये गये थे वे आपं वेद कहलाते हैं ॥ ४२-४३॥ युगके आदि भरत चक्रवर्तीने जिसका सम्मान किया था ऐसा समस्त ब्राह्मणोंका समूह उन्हीं आप वेदोंका अध्ययन कर उन्हींमें बतायी हुई विधिसे धर्मं यज्ञ करता था || ४४ || अब जिनमें इस युगके ब्राह्मणोंका तात्पर्य है उन अनाषं वेदोंकी उत्पत्ति कही जाती है ॥४५॥
धारण-युग्म नगर में एक राजा रहता था जिसे युद्ध भूमि में अयोध्य होने के कारण योधा लोग अयोधन कहते थे ||४६ || सूर्यवंशको अलंकृत करनेवाले राजा अयोधनकी महारानीका नाम दिति था । यह दिति चन्द्रवंशकी लड़की थी तथा चन्द्रवंशी राजा तृणविन्दुकी छोटी बहन थी ॥४७॥ महारानी दितिने कदाचित् स्त्रियोंके गुणोंकी पिटारीस्वरूप सुलसा नामको कन्याको जन्म दिया। जब वह यौवनवती हुई तब पिताने उसका स्वयंवर करवाया ||४८ || और पृथिवीके यशस्वी राजाओंको बुलवाया जिससे विशाल यशके धारक, स्वयंवर के अभिलाषी एवं आदरसे युक्त सगर आदि राजा वहां आ पहुँचे || ४९||
एक दिन राजा सगरको मन्दोदरी नामकी प्रतीहारी रानी दिति के घर गयी थी, वहाँ उसने एकान्त में दिति यह वचन सुने कि बेटी सुलसा ! तू मुझसे बहुत स्नेह करती है क्योंकि पुत्रांका
१. यश्चत्वारश्चतुर्वेद- म. । २. धर्मं तीर्थं म । ३. -णार्षभाः म । ४. - नयच्छाद्य -म. ।
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त्रयोविंशः सर्गः सुलेसे ! शृणु वस्से मे वचस्त्वं मातृवत्सले । स्तन्यानुसारिणी स्नेहव्यक्तिर्मातरि यन्मता ॥५१॥ जातः सर्वयशोदव्यां तृणविन्दोममाग्रजात् । स्थितः क्षत्रमधिक्षिप्य श्रिया नु मधुपिङ्गलः ॥५२॥ पूर्वमेव मया तस्मै मनसा त्वं निरूपिता । मन्मनोरथमेवातः पूरय स्वं स्वयंवरे ॥५३॥ इत्युक्त्वा सुलसा साश्र मातरं प्राह सा वरा । मारोदर्मातरिष्टं ते कुर्वे राजन्यसंनिधौ ॥५४॥ इत्युक्तमखिलं श्रुत्वा गत्वा मन्दोदरी रहः । कन्यास्वीकारचित्ताय सगराय न्यवेदयत् ॥५५॥ ततः पुरोहितेनाशु सगरो विश्वभूतिना । नरलक्षणविज्ञापि रहः शास्त्रमकारयत् ॥५६॥ स्वयंवरघरोत्खातलोहमञ्जूषिकोद्धृतम् । अदर्शयत्पुरो राज्ञां पुस्तकं धूमधूसरम् ॥५७॥ स्वयंवरार्थिनां तेषां पुरः पुस्तकमुच्चकैः । अवाचयत्पुरोधाश्च लक्षणश्रवणार्थिनाम् ॥५४॥ मत्स्यशङ्खांकुशाद्यको पद्मगर्मनिमोदरौ । सुपाणिभागशोभाढ्यौ सुश्लिष्टाङ्गुलिपर्वको ॥५५॥ स्निग्धताम्रनखौ पादौ गूढगुल्फो सिरोज्झितौ । सोष्णौ कूर्मोन तौ स्वेदमुक्ती स्तां पृथिवीपतेः ॥६०॥ सूर्पाकारौ सिरानद्धौ वक्रो रूमनखौ स्मृतौ । पादौ पापवतः पुंसः संशुष्को विरलाङ्गुली ॥६१॥ सच्छिद्रौ सकषायौ च वंशच्छेदकरौ तु तौ । हिंस्रस्य दग्धमच्छायौ पीतौ गम्येत रोषिणः ॥६२॥ अल्पातितनुरोमानुवृत्तजङ्घा सुजानवः । वृत्तोरवः शुभा निन्द्याः शुष्कजङ्घोरुजानवः ॥६३॥
माताके ऊपर जो स्नेह होता है वह दूधके अनुसार प्रकट होता है, इसलिए तू मेरी बात सुन ।।५०-५१।। मेरे बड़े भाई राजा तृणविन्दुको सर्वयशा देवीसे उत्पन्न हुआ मधुपिंगल नामका पुत्र है जो अपनी शोभासे समस्त राजाओंका तिरस्कार कर स्थित है-सबसे अधिक सुन्दर एवं प्रतापी है ॥५२॥ मैंने पहले ही उसके लिए तेरे देनेका मनमें संकल्प कर लिया था। इसलिए तू स्वयंवरमें मेरा ही मनोरथ पूर्ण कर ॥५३।। इस प्रकार कहकर माता दिति आंसू छोड़ने लगी। माताको रोती देख कन्या सुलसाने कहा कि हे माता! तू रो मत । मैं राजाओंके सामने जो तुझे इष्ट है वही करूँगो-तेरे कहे अनुसार मधपिंगलको हो वरूंगी ॥५४|| मन्दोदरीने यह सब सना और जाकर कन्याकी प्राप्तिके लिए उत्कण्ठित राजा सगरके लिए एकान्तमें कह सुनाया ॥५५।।
तदनन्तर राजा सगरने शीघ्र ही अपने विश्वभूति नामक पुरोहितसे एकान्तमें मनुष्योंके लक्षणोंको बतानेवाला एक शास्त्र बनवाया ॥५६॥ और उसे धूमसे धूसरित कर तथा लोहेकी सन्दुकमें भरवाकर स्वयंवरकी भूमिमें गड़वा दिया। जब स्वयंवरका दिन आया तब सगरने स्वयंवरकी भूमिको खुदवाकर लोहेका वह सन्दूक निकलवाया और उससे उक्त शास्त्र निकालकर राजाओंके आगे दिखाया ॥५७॥ स्वयंवरमें जो राजा आये थे, वे मनुष्योंके लक्षण सुनना चाहते थे। इसलिए उन सबके आगे पुरोहितने जोर-जोरसे उस शास्त्रको बाँचना शुरू किया ।५८।। उसमें लिखा था कि राजाके पैर मछली, शंख तथा अंकुश आदिके चिह्नोंसे युक्त होते हैं, कमलके भीतरी भागके समान उनका मध्य भाग होता है, एड़ियोंको उत्तम शोभासे वे सहित होते हैं, उनकी अंगुलियोंके पौरा एक दूसरेसे सटे रहते हैं, उनके नख चिकने एवं लाल होते हैं, उनकी गाँठें छिपी रहती हैं, वे नसोंसे रहित होती हैं, कुछ-कुछ उष्ण होते हैं, कछुएके समान उठे होते हैं और पसीनासे युक्त रहते हैं ।।५९-६०॥ पापी मनुष्यके पैर सूपाके आकार, फैले हुए, नसोंसे व्याप्त, टेढ़े, रूखे नखोंसेयुक्त, सूखे एवं विरल अंगुलियोंवाले होते हैं ॥६१।। जो पैर छिद्र सहित एवं कषैले रंगके होते हैं वे वंशका नाश करनेवाले माने गये हैं। हिंसक मनुष्यके पैर जली हुई मिट्टोके समान और क्रोधी मनष्यके पैर पीले रंगके जानना चाहिए ॥६२॥ जिनकी पिण्डलियां थोडे एवं अत्यन्त सक्षम रोमोंसे युक्त और ऊपर-ऊपर गोल होती जाती हैं, जिनके घुटने अच्छे हैं और जाँघे गोल हैं वे १. सुलसे ! शृणु वृत्तं मे वत्से त्वं मातृवत्सले म. । २. सूत्यानुसारिणी म.। ३. जन्मता क., घ., अ. । ४. स्थितं क्षेत्रमधिक्षिप्य म.। ५. कन्यायाः स्वीकारे चित्तं यस्य स तस्मै ।
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हरिवंशपुराणे एकैकं कृपके रोम राज्ञां दे द्वे सुमेधसाम् । म्यादीनि जडनिस्वानां केशाश्चैवंफलाः स्मृताः ॥६॥ अल्पं दक्षिणतो वक्रं स्थूल ग्रन्थि शुभं शिशोः । शिश्न तद्विपरीतं तु विपरीतफलं मतम् ॥६५॥ म्रियन्ते स्वल्पवृषणा विषमैः स्त्रीबलाश्च तैः । समैभू पाश्चिरायुष्काः प्रलम्बवृषणा नराः ॥६६॥ सशब्द पुत्राः सुखिनो विपरीतास्तु दुःखिनः । द्वयादिप्रदक्षिणावर्त्तधाराः श्रीशास्तु नेतरे ॥६॥ स्थूल स्फिक्च पुमान्निःस्वो मांसलस्फिक सुखी भवेत् 'माण्डकास्फग नरा व्याघ्रादुद्धतस्फिग्मृतिं व्रजेत् ॥६॥ राजा सिंहकटिः प्रोक्को वानरौष्ट्रकटिर्धनी । समोदरः सुखी दु:खी घटोरुपिठरोदरः ॥६९॥ संपूर्णेनिनः पावनिम्नवरभोगिनः । कक्षिमिश्च तथा निम्नर्भोगिनः समकुक्षयः ॥७॥ उन्नतैः कुक्षभिभूपाः कुधना विषमैश्च तैः । सर्पोदरा दरिद्रास्तु भवन्ति बहुभोजनाः ॥७॥ विस्तीर्णोन्नतगम्भीरवृत्तनाभिः सुखी नरः । निम्नाल्पादृश्यनामिस्तु कथितः क्लेशभाजनः ॥७॥ शूलबाधाश्च दारिद्रयं विषमा बलिमध्यमाः। सा वामदक्षिणावर्ता'साध्यां मेधां करोति च ॥७३॥
कुरुते भूति नाभिः पद्म कर्णिकया सभा। आयतोपर्यधःपाइर्वा वित्तगोमच्चिरायुषः ॥४॥ शुभ हैं-अच्छे पुरुष हैं और जिनकी पिण्डलियाँ, घुटने तथा जाँघे सूखी हैं वे निन्दनीय हैं ॥६३|| राजाओंके एक रोम-कूपमें एक रोम होता है, विद्वानोंके एक रोम-कूपमें दो रोम होते हैं और मूखं तथा निर्धन मनुष्योंके एक रोम-कूपमें तोनको आदि लेकर अनेक रोम होते हैं। रोमोंके समान ही केशोंका भी फल समझना चाहिए ॥६४॥ बच्चेका लिंग यदि छोटा, दाहिनी ओर कुछ टेढ़ा और मोटी गाँठसे युक्त है तो शुभ है और इससे विपरीत अशुभ है ॥६५॥ जिन मनुष्योंके वृषण ( अण्डकोष ) अत्यन्त छोटे होते हैं वे शीघ्र मर जाते हैं, जिनके विषम-एक छोटे एक बड़े होते हैं वे स्त्रियोंपर अपना बल रखते हैं-स्त्रियोंको वश करनेवाले होते हैं, जिनके एक बराबर होते हैं वे राजा होते हैं और जिनके नीचेकी ओर लटकते रहते हैं वे दीर्घजीवी होते हैं ॥६६।। पेशाब करते समय जिनका मूत्र शब्दसहित निकलता है वे सुखी होते हैं और जिनका मूत्र शब्दरहित निकलता है वे दुखी होते हैं। पेशाब करते समय जिनके मूत्रकी पहली और दूसरी धारा दाहिनी ओर पड़ती है वे लक्ष्मीके स्वामी होते हैं और जिनकी धारा इसके विपरीत पड़ती है वे निर्धन होते हैं ॥६७।। जिस पुरुषका नितम्ब स्थूल होता है वह दरिद्र होता है, जिसका पुष्ट होता है वह सुखी होता है और जिसका मण्डूकके समान ऊंचा उठा होता है वह व्याघ्रसे मृत्युको प्राप्त होता है ।।६८|| जिसकी कमर सिंहकी कमरके समान पतली होती है वह राजा होता है और जिसकी कमर वानर अथवा ऊंटको कमरके समान होती है वह धनी होता है। जिसका पेट न छोटा न बड़ा किन्तु समान होता है वह सुखी होता है और जिसका पेट घड़ा अथवा मटकाके समान हो वह दुखी होता है ॥६९॥ जिनकी पसलियां भरी हुई हों वे सुखी होते हैं और जिनकी पसलियाँ नोची तथा टेढ़ी हों वे भोगरहित होते हैं। जिनकी कँख नीची हो वे भोगरहित होते हैं, जिनकी कुँख सम हों वे भोगी होते हैं, जिनकी कँख उठी हुई हों वे राजा होते हैं और जिनकी कँख विषम हों वे निर्धन होते हैं। जिसकी उदर सर्पके समान लम्बा हो वे दरिद्र तथा बहुत भोजन करनेवाले होते हैं ।।७०-७१।। जिनको नाभि .चौड़ी, ऊंची, गहरी और गोल होती है वह सुखी होता है और जिसकी नाभि छोटी तथा कछ-कछ दीखनेवाली होती है वह क्लेशका पात्र होता है ॥७२॥ यदि मध्य भागकी रेखाएँ विषम हैं, तो वे शूलकी बाधा तथा दरिद्रताको उत्पन्न करती हैं और वही रेखा यदि बायीं और दाहिनी ओर आवर्ती-भवरोंसे युक्त हैं तो उत्तम बुद्धिको करती हैं ॥७३।। कमलकी कणिकाके समान नाभि मनुष्यको राजा बना देती है और जिसका ऊपर, नीचे तथा आजू-बाजूका भाग विस्तृत हो ऐसी नाभि मनुष्यको धनवान् १. साव्यं म.। २. पाश्र्व म..
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त्रयोविंशः सर्गः
३३७ 'शास्त्रार्थी स्त्रीप्रियो नित्यमाचार्यो बह्वपत्यकः । एकद्वित्रिचतुर्मिः स्याद् बलिमिः क्षितिपोऽवलिः॥५॥ ज्ञयाः स्वदारसंतष्टा ऋमिलिमिनराः। अगम्यगामिनः पापा विषमलिमिः पुनः ॥७॥ "मांसलैम दुमिः पादक्षिणावर्तरोमभिः । भूपास्तद्विपरीतैस्तु परप्रेष्यकरा नराः ॥७॥ सुमगाः स्युरनुख़्तैश्चूचुकैः पीचरैर्नराः । दीर्घेश्च विषमैमा जायन्ते धनवर्जिताः ॥७॥ मांसल हृदयं राज्ञां पृथूनतमवेपनम् । विपरीतमपुण्यानां खररोममिराचितम् ॥७९॥ वक्षोभिश्च समैरान्याः पीनैः शूरास्त्वकिंचनाः। तनुभिर्विषमैनिःस्वास्तथा शस्त्रान्तजीविताः ॥८॥ पीनेन जानुना ह्याढ्यो भोगवानुन्नतेन तु । निःस्वो निम्नास्थिनद्धेन विषमो विषमेण ना ॥८॥ नित्यमस्वेदनाः कक्षाः पीनोलतसुगन्धयः । निश्चेतव्या धनेशानां संकुलाः समरोमभिः ॥४२॥ निःस्वस्य चिपिटा प्रीवा संशुष्का च सिराचिता । कम्बुग्रीवो नृपः शूरो महिषग्रीवमानवः ॥४३॥ अरोमशममग्नं च पृष्टं शुमकरं मतम् । रोमशं चातिभुग्नं च न शुभावहमिष्यते ॥४॥ अल्पावमांसलौ भुग्नी रोमशावधनस्य तु । सुश्लिष्टौ मांसलावंसौ शौर्यवित्तवतां नृणाम् ॥४५॥ पीनौ समौ प्रलम्बी च करौ करिफरोपमौ । नृपाणामधनानां तु नृणां हस्वौ च रोमशौ॥८६॥ दीर्घा दीर्घायुषां पुंसां करशाखाः सुकोमलाः । सुमगानामवलिताः सूक्ष्मा मेधाविना पुनः ॥८॥
गोमान् और दीर्घजीवी करती है ।।७४।। जिसके एक वलि होती है वह शास्त्रार्थी होता है, जिसके दो वलि होती हैं वह निरन्तर स्त्रीका प्रेमी होता है, जिसके तीन वलि होती हैं वह आचार्य होता है और जिसके चार वलि होती हैं वह बहुत सन्तानवाला होता है और जिसके एक भी वलि नहीं होती वह राजा होता है ।।७५।। जिन मनुष्योंकी वलि सीधी होती हैं वे स्वदार-सन्तोषी होते हैं और जिनको वलि विषम होती हैं वे अगम्यगामी एवं पापी होते हैं ॥७६।। जिन मनुष्योंके पसवाड़े पुष्ट, कोमल एवं दाहिनी ओर आवर्ताकार रोमोंसे सहित होते हैं वे राजा होते हैं और जिनके इनसे विपरीत होते हैं वे दूसरोंके आज्ञाकारी किंकर होते हैं ।।७७|| जिन मनुष्योंके स्तनोंके अग्रभाग छोटे
और स्थूल हों वे उत्तम भाग्यशाली होते हैं और जिनके दीर्घ अथवा विषम होते हैं वे निर्धन होते हैं ।।७८॥ राजाओंका हृदय पुष्ट, चौड़ा, ऊँचा और कम्पनसे रहित होता है तथा पुण्यहीन मनुष्योंका हृदय इससे विपरीत तीक्ष्ण रोगोंसे व्याप्त होता है ।।७९|| जिनके वक्षःस्थल सम हों वे सम्पत्तिशाली होते हैं, जिनके स्थूल हों वे शूर-वीर किन्तु निर्धन होते हैं और जिनके कृश तथा विषम हों वे निर्धन एवं शस्त्रसे मरनेवाले होते हैं ।।८०।। जो मनुष्य स्थूल घुटनेसे सहित होता है वह धनाढ्य होता है, जिसका घुटना ऊँचा उठा होता है वह भोगी होता है, जिसका गहरा तथा हड्डियोंसे बद्ध रहता है वह निर्धन होता है और जिसका विषम होता है वह विषम ही रहता है ।।८।। धनाढय मनुष्योंको बगले निरन्तर पसीनासे रहित, पुष्ट, ऊंची, सुगन्धित और समान रोमोंसे व्याप्त रहती हैं ।।८।। निर्धन मनुष्यको गरदन चपटी, सूखी एवं नसोंसे व्याप्त रहती है। इसके विपरीत शंखके समान गरदनवाला मनुष्य राजा होता है और भैसेके समान गरदनवाला मनुष्य शूरवीर होता है ।।८३।। जो पोठ रोमरहित एवं सीधी हो वह शुभ मानी गयी है तथा जो रोमोंसे व्याप्त और अत्यन्त झुको हुई हो वह अच्छी नही मानी गयी है ।।८४॥ निर्धन मनुष्यके कन्धे छोटे, अपुष्ट, नीचेकी ओर झके हए और रोमोंसे व्याप्त होते हैं तथा पराक्रमी और धनवान मनुष्योंके कन्धे सटे हुए एवं पुष्ट होते हैं ।।८५।। राजाओंके हाथ स्थूल, सम, लम्बे और हाथीको सूंड़के समान होते हैं परन्तु निर्धन मनुष्योंके हाथ छोटे और रोमोंसे युक्त रहते हैं ।।८।। दीर्घायु मनुष्योंकी अंगुलियां १. शास्त्रार्थस्त्रीप्रियो म.। २. बलिरहितः । ३. अन्यदाररता नीचा वजिता विषमनराः ख.। ४. अस्य श्लोकस्य स्थाने 'ख' पुस्तके इत्थं पाठः 'स्थूलश्च मृदुभिः पादक्षिणावर्तरोमभिः । राजा भवति मोऽसावन्यथा किंकरो भवेत ॥ ७७॥ ५. -जीविनः म.। ६. चातिभग्नं म. । ७. भग्नौ म.।
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हरिवंश पुराणे
स्थूला धनविमुक्तानां चिपिटाः प्रेष्यकारिणाम् । आढ्याः कपिकरा मर्त्याः क्रूरा व्याघ्रकराः स्मृताः ॥ ८८ ॥ निगूढ गूढ सुश्लिष्टसंधिसंमणिबन्धनैः । भूपः दारिद्र्ययुक्तास्तैः सशब्दैश्च श्लथैस्तथा ॥ ८९ ॥ निम्नैः करतलैः क्लीबाः पितृवित्तविवर्जिताः । धनिनः संभृतैर्निम्नैः प्रोत्तानैस्तु प्रदायकाः ॥ ९० ॥ लाक्षाभैरीश्वरा निस्स्वा विषमैर्विषमाश्च तैः । अगम्यगामिनः पीतैरूक्षै रूपविवर्जिताः ॥९१॥ तुषच्छविनखैः क्लीबाः स्फुटितैर्वित्तवर्जिताः । आताम्रैश्च चमूनाथाः कुनखैः परितर्किणः ॥९२॥ अङ्गुष्ठजैर्यवैराढ्याः पुत्रिणोऽङ्गुष्ठमूलजैः । निम्नाति स्निग्धरेखामिर्धनिनो व्यत्ययेऽन्यथा ॥ ९३ ॥ सुघनाङ्गुलयोऽर्थाढ्या विरलाङ्गुलयोऽन्यथा । तिस्रः करमिता रेखा नृपतेर्मणिबन्धनात् ॥९४॥ प्रदेशिनीं सृता रेखा लक्षणं परमायुषः । छिन्नाभिस्ताभिरूनामिरायुरूनं निरूपितम् ॥ ९५ ॥ असिशक्तिगदा कुन्तचक्रतोमरपूर्विकाः । कथयन्ति चमूनाथं कररेखाः परिस्फुटम् ॥ ९६ ॥ कृशैस्तु चिबुकैदीर्घे निस्स्वा धन्यास्तु मांसलैः । ओष्ठैरस्फुटितात्रक्रर्भूपा बिम्बफलोपमैः ॥९७॥ तीक्ष्णदंष्ट्राः समाः स्निग्धा विशदा दशना घनाः । जिह्वा रक्ता च दीर्घा च श्लक्ष्णा मोगवतां नृणाम् ॥ ९८ ॥ आननं संभृतं सौम्यं समं राज्ञामवक्रकम् । दुर्भगानां बृहद्वक्त्रं शठानां परिमण्डलम् ||१९||
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लम्बी तथा अत्यन्त कोमल होती हैं, भाग्यशाली मनुष्योंकी बलिरहित और बुद्धिमान् मनुष्यों की छोटी-छोटी होती हैं ||८७|| निर्धन मनुष्योंके हाथ स्थूल रहते हैं, सेवकों के हाथ चिपटे होते हैं, वानरोंके समान हाथवाले मनुष्य धनाढ्य होते हैं और व्याघ्रके समान हाथवाले मनुष्य शूर-वीर होते हैं ||८८|| जिनकी कलाइयाँ अत्यन्त गूढ़ एवं सुश्लिष्ट सन्धियोंसे युक्त होती हैं वे राजा होते हैं और जिनकी कलाइयां ढोली तथा शब्दोंसे सहित हैं वे दरिद्रतासे युक्त होते हैं ||८९ || जिनकी हथेलियाँ गहरी - भीतरको दबी हुई हों वे नपुंसक तथा पिताके धनसे रहित होते हैं, जिनकी हथेलियां भरी हुईं तथा गहरी हों वे धनाढ्य होते हैं और जिनकी हथेलियाँ ऊपरको उठी हुई हों वे दानी होते हैं ||१०|| जिनकी हथेलियाँ लाखके समान लाल हों वे धनाढ्य होते हैं, जिनकी विषम होती हैं वे दरिद्र तथा विषस होते हैं, जिनकी पीली हों वे अगम्यगामी होते हैं और जिनकी रूक्ष होती हैं वे सौन्दर्य से रहित कुरूप होते हैं ॥ ९१ ॥ जिनके नख तुषके समान हों वे नपुंसक, जिनके फटे हों वे निर्धन, जिनके कुछ-कुछ लाल हों वे सेनापति और जिनके भद्दे हों वे तर्क-वितर्क करनेवाले होते हैं ||१२|| जिनके अँगूठेपर यवका चिह्न हो वे धनाढ्य होते हैं, जिनके अंगूठेके मूलमें यवका चिह्न हो वे अधिक पुत्रवाले होते हैं, जिनके अंगूठेमें गहरी तथा चिकनी रेखाएँ होती हैं वे धनाढ्य होते हैं और जिनके इससे विपरीत रेखाएँ हैं वे निर्धन होते हैं ॥९३॥ | जिनकी अँगुलियाँ अत्यन्त सघन होती हैं वे धन-सम्पन्न होते हैं और जिनको अंगुलियाँ विषम होती हैं वे निर्धन होते हैं । जिनकी कलाई से लेकर हाथ तक तीन रेखाएँ होती हैं वे राजा होते हैं ||१४|| प्रदेशिनी अँगुली तक लम्बी रेखा दीर्घायुका चिह्न है अर्थात् जिसकी रेखा कनिष्ठासे लेकर प्रदेशिनी तक लम्बी चली जाती है वह दीर्घायु होता है और जिसकी रेखाएँ कटी तथा छोटी होती हैं वह अल्प आयुका धारक होता है || ९५ ॥ तलवार, शक्ति, गदा, भाला, चक्र और तोमर आदि रेखाएँ हाथमें हों तो वे स्पष्ट कहती हैं कि यह व्यक्ति सेनापति होगा || ९६ || जिनकी दाढ़ी पतली और लम्बी होती है वे दरिद्र होते हैं तथा जिनको पुष्ट होती है वे धनी होते हैं । जिनके ओठ बिना फटे, सीधे और बिम्बीफलके समान लाल होते हैं वे राजा होते हैं ||२७|| जिनकी डाढ़े तीक्ष्ण, सम और स्निग्ध होती हैं, दांत सफेद और सघन रहते हैं एवं जीभ लाल, लम्बी और कोमल होती है वे भोगी होते हैं ||१८|| जिनका मुख भरा हुआ, सौम्य, सम और कुटिलता रहित होता है वे राजा होते हैं । जिनका मुख बहुत बड़ा होता है वे अभागे होते हैं और जिनका मुख गोलाकार होता है वे मूर्ख १. संवृत - म., ग. । २. प्रदेशिनी स्मृता म । ३. उष्टैरस्फुटिता वक्त्रैर्भूपा म ।
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त्रयोविंशः सर्गः
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स्त्रीवस्त्रमनवस्यानां निम्नं वक्त्रं च निश्चितम् । ह्रस्वं कृपणमर्त्यानां दीर्घमद्रव्य भागिनाम् ॥ १०० ॥ शङ्कुकर्णाः महीपालाः रोमकर्णाश्विरायुषः । ऋज्वी समपुटा नासा स्वल्पच्छिद्रा च भोगिनाम् ॥ १०१ ॥ सुकृत्क्षुतं' धनेशानां द्विह्निः शास्त्रवतां विदुः । संहतं च प्रमुक्तं च विदितं चिरजीविनाम् ॥१०२॥ रक्तान्तैः पद्मपत्रामैत्रः श्रीधनभागिनः । गजेन्द्रवृषनेत्रास्तु भवन्ति वसुधाधिपाः ॥ १०३ ॥ अमङ्गलदृशः पापाः पिङ्गलासंगसंगिनः । असंमान्याः सदा पुंसामदृश्याश्च विशेषतः || १०४ || मानसैर्वाचिकैः कायैः पापैः संचर्चिताः सदा । दुर्जना दुर्भगाः क्रूराः पापा मार्जारलोचनाः ॥१०५॥ लक्षणानां समस्तानां गुणदोषविचिन्तने । चक्षुर्लक्षणमेवात्र पर्याप्तं फलसाधने ।। १०६ ।। मानोन्मानस्वरं देहं गतिसंहतिमन्वयम् । सारं वर्ण बुधो दृष्ट्वा प्रकृतिं च वदेत्फलम् ||१०७ || इति प्रवाच्यमानेऽसौ पुस्तके मधुपिङ्गलः । नेत्रदोषकृताशङ्को निर्गत्य सद्सोऽगमत् ||१०८ || सुलसां च परित्यज्य प्रव्रज्य नवयौवनः । मुनिचर्याश्रितो देशान् पर्यटन्मधुपिङ्गलः ॥ १०९ ॥ इतः सुलसदम्भोजलोचनां सुलसां स्वयम् । प्राप्तः स्वयंवरे दक्षः सगरः सुखमन्वभूत् ॥ ११० ॥ तदात्वेऽभ्येति शब्दश्चेद् वैदग्ध्यमभिकथ्यते । नातिगूढतया जन्तुरायस्यां तु दुरन्तताम् ॥ १११ ॥ सामुद्रिकोऽन्यदाद्वाक्षीन्निःसंगमधुपिङ्गलम् । मध्याह्नो पुरि कस्यांचित्पारणार्थं मुपागतम् ॥। ११२ ।।
होते हैं ||१९|| सन्तान - रहित मनुष्योंका मुख स्त्रीके समान तथा नीचा होता है । कंजूस मनुष्यों का मुख छोटा और निर्धन मनुष्योंका मुख लम्बा होता है ॥१००|| जिनके कान कीलाके समान हों वे राजा होते हैं, जिनके कानोंपर रोम होते हैं वे दीर्घायु होते हैं, जिनकी नाक सीधी समान पुटवाली एवं छोटे छिद्रोंसे युक्त होती है वे भोगी होते हैं ॥ १०१ ॥ जिनको एक छींक आवे वे धनाढ्य, जिनको दो-तीन छींकें एक साथ आवें वे विद्वान् तथा जिनको लगातार अनेक खुली छींकें आवें दीर्घायु होते हैं || १०२ || जिनके नेत्र अन्तमें लाल और कमलपत्रके समान हों वे लक्ष्मीमान् और जिनके गजेन्द्र एवं बेलके समान 'वे राजा होते हैं ।। १०३ ॥ जो मनुष्य पिंगलवर्णके नेत्रोंसे युक्त हैं वे अमांगलिक और पापी हैं उनके साथ न कभी बात करना चाहिए और न उनकी ओर खासकर देखना चाहिए || १०४ || जिनके नेत्र मार्जारके नेत्रोंके समान रहते हैं वे सदा मानसिक, वानिक और कायिक पापोंसे युक्त होते हैं तथा दुर्जन, अभागे, क्रूर और पापी माने गये हैं ||१०५|| समस्त लक्षणोंके गुण और दोषका विचार करते समय चक्षुके लक्षणका पूर्ण विचार करना चाहिए क्योंकि फलकी सिद्धिके लिए यही पर्याप्त कारण है || १०६ ।। विद्वान्को चाहिए कि वह मनुष्य के मान, उन्मान, देह, चाल-ढाल, वंश, उत्तमवर्ण और प्रकृतिको देखकर फलका प्रतिपादन करे || १०७॥
इस प्रकार पुस्तक बाँचे जानेपर मधुपिंगलको यह आशंका हो गयी कि हमारे नेत्रमें दोष है इसीलिए वह सभासे निकलकर चला गया || १०८ । । यद्यपि मधुपिंगल नवयौवन से युक्त था तथापि सुलसाको छोड़कर दीक्षित हो गया और मुनिचर्याको धारण कर अनेक देशों में विहार करने लगा ||१०९ || इधर राजा सगर बड़ा चतुर था इसलिए वह कमलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली सुलसाको स्वयंवरमें स्वयं प्राप्त कर सुखका उपभोग करने लगा ||११०|| आचार्य कहते हैं कि ऐसी प्रवृत्ति तत्काल तो चतुराई कही जाती है परन्तु वह सदा छिपी नहीं रहती इसलिए इसका करनेवाला प्राणी आगामी कालमें अवश्य ही दुष्परिणामको प्राप्त होता है - उसका खोटा फल भोगता है ।१११ ॥
तदनन्तर एक दिन मध्याह्न के समय पारणाके लिए किसी नगर में आये हुए दिगम्बर मुद्रा
१. कृतं म । २. सुलसतो सुशोभमाने अम्भोजलोचने यस्याः सा ताम् ।
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हरिवंशपुराणे
पादमस्तकपर्यन्तान्निरूपयावयवान्यतेः । सशिरःकम्पमाहासौ महाविस्मयसंगतः ।। १६३॥ तिलमात्रोऽपि देहस्य नेक्ष्यतेऽवयवो मुनेः । सामुद्रया सुदृष्ट्या यः शुद्धया परिदूष्यते ॥ ११४॥ तिष्ठत्वन्यदिहामुष्य सल्लक्षणकदम्बकम् । राज्यं सौभाग्यमप्याह मधुपिङ्गलनेत्रता ।। ११५।। ईदृग्लक्षणयुक्तोऽपि यदयं नवयौवने । परिभ्रमति मिक्षार्थी तद्दिक् सामुद्रशास्त्रकम् ॥ ११६॥ यद्येष दग्धदैवेन कदर्थयितुमर्थितः । तस्किमर्थमनिन्द्येन लक्षणौघेन चर्चितः ॥११७॥ अथवा दुःखभीरुत्वान्न स्पृशन्ति सुखैषिणः । फलितामपि दुष्पाकां विषवल्लीमिव श्रियम् ||११८|| शुभलक्षणपूर्णस्य पुनः शुद्धान्वयस्य हि । युज्यते क्षपतोऽमुष्य मुमुक्षोदक्षया धृतिः ॥ ११९॥ सामुद्रिकवचः श्रुत्वा नरः कश्चिदुवाच तम् । किं सामुद्रिकवार्त्तास्य न श्रुता विश्रुतावनी ॥१२०॥ मिलितैः खलभूपालैः सुलसायाः स्वयंवरे । चक्षुर्लक्षणहीनोऽयमिति संसदि दूषितः ॥ १२१ ॥ यथैव सूचकः पुंसां पृष्ठमांसस्य खादकः । निन्दितः स्वप्रशंसी च तथैव किल पिङ्गलः ॥ १२२ ॥ परप्रमाणको मुग्धो मत्वात्मानमलक्षणम् । मधुपिङ्गः शुमाक्षोऽयं विलक्षस्तपसि स्थितः ॥ १२३॥ प्रमादालस्यदर्पेभ्यो ये स्वतो नागमेक्षिणः । ते शदैविप्रलभ्यन्ते दृष्टादृष्टार्थगोचरे ॥ १२४॥ स्वयंवरे नरश्रेष्ठः कन्यया सगरो वृतः । वृतः क्षत्रमूहेन मोगासकोऽवतिष्ठते ॥ १२५ ॥
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धारी मधुगलको एक सामुद्रिकशास्त्रीने देखा ॥ ११२ ॥ वह पैरसे लेकर मस्तक तक मुनिराजके समस्त अवयवों को देखकर बहुत भारी आश्चर्य में पड़ गया और शिर हिलाता हुआ कहने लगा कि इन मुनि शरीरमें तिल बराबर भी ऐसा अवयव नहीं दिखाई देता जो सामुद्रिक शास्त्रको शुद्ध दृष्टिसे दूषित किया जा सके अर्थात् जिसमें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोष बताया जा सके ||११३-११४|| इनके शरीर में जो उत्तमोत्तम अन्य लक्षणोंका समूह है वह तो एक ओर रहे एक नेत्रोंकी पोलाई ही इनके राज्य तथा सौभाग्यको सूचित कर रही है ।। ११५|| क्योंकि ऐसे लक्षणोंसे युक्त होनेपर भी जब यह नयो जवानीमें भिक्षा के लिए इधर-उधर भ्रमण कर रहा है तब ऐसे सामुद्रिक शास्त्रको धिक्कार हो ||११६ || यदि दुर्देव इसे पीड़ित ही करना चाहता है तो फिर निर्दोष लक्षणोंके समूहसे इसे युक्त क्यों किया ? ॥ ११७ ॥ अथवा यह भी हो सकता है कि जो मनुष्य सुख की इच्छा रखते हैं वे दुःखसे भयभीत होनेके कारण फलोंसे लदी किन्तु खोटा फल देनेवाली विष लता के समान प्राप्त हुई लक्ष्मीको छूते भी नहीं ॥। ११८ || यथार्थ में यह मुनि शुभ लक्षणोंसे पूर्णं और शुद्ध कुलका है तथा मोक्षकी इच्छासे तप कर रहा है इसलिए इसका दीक्षा द्वारा सन्तोष धारण करना युक्त ही है ॥ ११९॥
सामुद्रिक के उक्त वचन सुनकर किसी मनुष्यने उससे कहा कि क्या आपने इसके सामुद्रिक शास्त्रकी बात सुनी नहीं ? वह तो समस्त पृथिवो में प्रसिद्ध है || १२० || सुलसा के स्वयंवर में इकट्ठे हुए दुष्ट राजाओंने 'यह नेत्रके लक्षणोंसे हीन है' यह कहकर इसे सभामें दूषित ठहराया था || १२१ ।। उस समय कहा गया था कि जिस प्रकार पीठ पीछे दूसरेकी बुराई करनेवाला चुगल और अपनी प्रशंसा स्वयं करनेवाला मनुष्य निन्दित है उसी प्रकार यह पिंगल भी निन्दित है - दोपयुक्त है || १२२|| यह मधुपिंगल भोला-भाला था तथा दूसरोंको प्रमाण मानता था इसलिए शुभ नेत्रोंका धारक होनेपर भी अपने आपको अशुभ लक्षणवाला मान बैठा और लज्जित हो तप करने लगा || १२३ || ठीक ही है जो मनुष्य प्रमाद, आलस्य और अहंकार के कारण स्वयं शास्त्रों को नहीं देखते हैं वे देखे-अनदेखे पदार्थों के विषय में धूर्तों के द्वारा ठगे जाते हैं ||१२४ || मधुपिंगलके चले जानेपर कन्याने स्वयंवर में राजा सगरको वर लिया जिससे वह क्षत्रियों के समूहसे घिरा भोगों में आसक्त है ॥ १२५ ॥
१. क्षपितेऽग । क्षिपितेऽ ङ । ऽन्नयतो ख. । २. वृतक्षत्र - म. ।
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त्रयोविंशः सर्गः
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इति श्रुत्वा महाक्रोधः स मृत्वा मधुपिङ्गलः । जातो वननिकायेपु' महाकोलोऽधमामरः ॥१२६॥ अहो कषायपानस्य वैषम्यं यद्विरोधिनः । सम्यक्त्वौषधिपानस्य जातमत्यन्तदूषणम् ॥१२७॥ सुलसापहृतिं ध्यावा सोपायो सगरेण सः । क्रोधाग्निना महाकालो जज्वाल हृदये भृशम् ॥१२८॥ स्त्रीवैरविषदग्धस्य हृदयस्य विदाहिनः । स दाहोपशमं कत्तुं न शशाक शमाम्बुना ॥१२९॥ अचिन्तयदसौ येन शत्रोदुःखपरम्परा । जायते दीर्घसंसारे तमुपायं करोम्यहम् ॥१३०॥ प्राणी प्रत्यपकाराय चेष्टते ह्यपकारिणः । तैरुपायैर्यकर्याति मूढधीः स्वयमप्यधः ॥१३१॥ आगतश्च महाकालः क्षत्रक्रोधेन दीपितः । नारदेन जितं जल्पे पश्यति स्म स पर्वतम् ॥ ३२॥ शाण्डिल्याकृतिरूपोऽद्य तस्य विश्व समाह सः । मागाः पर्वत ! निर्वेद जल्पेऽहं जित इत्यलम् ॥१३३॥ धौचनाम्नो गुरोः शिष्यः शाण्डिल्योऽहं पिता च ते । वैन्यश्चापि तथोदञ्चः प्रावृतश्चैव पञ्चमः ॥१३॥ सूनोः क्षीरकदम्बस्य भवतो यः पराभवः । स ममैव ततोऽस्याहं मार्जनाय समुद्यतः ॥१३५॥ सहायं मां परिप्राप्य कुरु क्षेत्रमकण्टकम् । मरुत्सखस्य रौद्रस्य शिखिनः किमु दुष्करम् ॥१३६॥ इति पर्वतमामाष्य पुरस्कृत्य स दुष्टधीः । सक्षन्नं भरतक्षेत्रं चक्रे व्याधिशताकुलम् ॥१३७॥ चक्रे व्याधिविनाशाय शान्तिकर्म च पर्वतः । विश्वासेन ततो लोकः शरणं प्रतिपद्यते ॥१३८॥
यह सुनकर मधुपिंगलको बहुत भारी क्रोध उत्पन्न हुआ और उसी समय मरकर वह व्यन्तर देवोंमें महाकाल नामका नीच देव हआ ॥१२६।। आचार्य कहते हैं कि अहो! कषैले शरबतकी बड़ी विषमता है क्योंकि वह सम्यग्दर्शनरूपी ओषधिके शरबतको अत्यन्त दूषित कर देता है। भावार्थ-जिस प्रकार कषैला रस पीनेसे उसके पूर्व पिया हुआ मोठा रस दूषित हो जाता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायोंकी तीव्रतासे सम्यग्दर्शनरूप ओषधिका रस दूषित हो जाता है-सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाता है, यह बड़े आश्चर्यकी बात है ।।१२७|| राजा सगरने उपाय भिड़ाकर सुलसाका अपहरण किया था इसका ध्यान आते ही महाकाल, हृदय में क्रोधरूपी अग्निसे अत्यन्त जलने लगा ॥१२८॥ उसका हृदय स्त्रीके वैररूपी विषसे जलकर तीव्र दाह उत्पन्न कर रहा था इसलिए वह शान्तिरूपी जलसे उसकी दाहको शान्त करनेके लिए समर्थ नहीं हो सका ॥१२९॥ वह विचार करने लगा कि जिससे शत्रको दोघं संसारमें दुःखोंकी परम्परा प्राप्त होती रहे मैं उसो उपायको करता हूँ ॥१३०|| आचार्य कहते हैं कि यह प्राणी अपने अपकारी मनुष्यका उन उपायोंसे अपकार करने की-बदला लेनेकी चेष्टा करता है कि जिनसे वह मूर्ख स्वयं नोचेकी ओर जाता है-अधोगतिको प्राप्त होता है ।।१३१॥ इस प्रकार राजा सगरके ऊपर क्रोधसे देदीप्यमान होता हुआ महाकाल पृथिवीपर आया और आते ही उसने शास्त्रार्थ में नारदके द्वारा जीते हुए पर्वतको देखा ॥१३२।। महाकालने शाण्डिल्यका रूप धारण कर पर्वतको विश्वास दिलाते हुए उससे कहा कि हे पर्वत ! तुम इस बातका खेद मत करो कि मैं शास्त्रार्थमें हार गया हूँ ॥१३३।। ध्रौव्य नामक गुरुके मैं शाण्डिल्य, तुम्हारे पिता क्षीरकदम्बक, वैन्य, उदंच और प्रावृत ये पांच शिष्य थे ।।१३४|| तुम क्षीरकदम्बकके पुत्र हो इसलिए जो तुम्हारा पराभव है वह मेरा पराभव है और इसीलिए मैं उसे दूर करनेके लिए उद्यत हूँ ॥१३५॥ तुम मेरी सहायता पाकर अपने क्षेत्रको निष्कण्टक करो, क्योंकि वायुसे प्रज्वलित भयंकर अग्निको क्या कार्य कठिन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥१३६।। इस प्रकार दुर्बुद्धि के धारक महाकालने पर्वतसे कहकर तथा उसे आगे कर राजाओं सहित समस्त भरत क्षेत्रको सैकड़ों बीमारियोंसे व्याकुल कर दिया ॥१३७|| उन बीमारियोंको नष्ट करनेके लिए पर्वत शान्तिकर्म करता था जिससे लोग विश्वास कर उसकी
१. व्यन्तरदेवेषु । अवनिकायेषु म. । २. महाकायो म.। ३. परम्परां म.। ४. वादे ।
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हरिवंशपुराणे सगरः क्षत्रलोकेन सहोपेत्य तमादरात् । होममन्त्रविधानश्च बभूव विगतज्वरः ॥१३९॥ हिंसानोदनयानार्षान् ऋरान् ऋरः स्वयंकृतान् । वेदानध्यापयन् विप्रान् क्षिप्रं देवोऽनयदशम् ॥१४॥ अश्वमेधोऽजगोमेधो यागो यागफलैषिणाम् । दर्शितः क्षत्रियादीनां साक्षात्प्रत्ययकारिणाम् ॥१४१॥ सूयन्ते यत्र राजानः शतशोऽपि सहस्रशः । राजसूयक्रतुस्तेन दर्शितो राजवैरिणा ॥१४२॥ प्राग्दिवाकरदेवाख्यः खे वरो नारदान्वितः । पापविघ्नकरस्तेन विघ्नितः सुरमायया ॥४३॥ अणिमादिगुणोत्कृष्टे विकुर्वाणे सुराधमे । विद्याबलसमृद्धोऽपि मानुषः किं करिष्यति ॥१४४॥ घातयित्वा बहून् जीवान् ब्राह्मणादिभिरुद्यतैः । यष्टेऽयष्टं स दुष्टस्तान् स्वपरानिष्टकृत्सुरः ॥१४५॥ इष्ट्वा च सगरं यागे सुलसां च कृपोज्झितः । हिंसानन्दं परिप्राप्तः प्रयातश्च निजं पदम् ॥१४६॥ प्रवर्तिताश्च ते वेदा महाकालेन कोपिना । विस्तारितास्तु सर्वस्यामवनौ पर्वतादिभिः ॥१४७॥ नारदस्य सुतायासौ खेचरोऽपि सुदृष्टये। सुतां परमकल्याणी ददौ विद्यासमन्विताम् ॥१४॥ अन्वये तनुजातेयं क्षत्रियायां सुकन्यका । सोमश्रीरिति विख्याता वसुदेवद्विजन्मनः ॥१४९।। करालब्रह्मदत्तेन मुनिना दिव्यचक्षुषा । वेदे जेतुः समादिष्टा महतः सहचारिणी ।।१५०॥ इति श्रुत्वा तदाधीत्य सर्वान् वेदान् यदूत्तमः । जित्वा सोमश्रियं श्रीमानुपयेमे विधानतः ॥१५॥ वरे प्रेम वरं जातं नववध्वा यथा दृढम् । वरस्यापि तथा तस्यां तत्र का सुखवर्णना ॥१५२।।
शरणमें आने लगे ॥१३८॥ राजा सगर भी अनेक राजाओंके साथ आदरपूर्वक उसके पास आया और बताये हुए होम तथा मन्त्र-विधानसे नीरोग हो गया ।।१३९|| दुष्ट महाकाल देव हिंसाकी प्रेरणा देनेके लिए स्वयं बनाये हए अनार्ष वेद ब्राह्मणोंको पढाता था और उन्हें शीघ्न अपने वश कर लेता था ॥१४०॥ उसने यज्ञके फलकी इच्छा रखनेवाले एवं साक्षात् विश्वास करनेवाले क्षत्रिय आदि जनोंको अश्वमेध, अजमेध तथा गोमेध यज्ञ बतलाये ॥१४१।। जिसमें सैकड़ों-हजारों राजा होमे जाते थे ऐसा राजसूय यज्ञ भी उस राजाओंके वैरी महाकालने दिखलाया था ।।१४२॥ यद्यपि प्रागदिवाकर देव नामका विद्याधर नारदके साथ आकर महाकालके इस पाप कार्यमें विघ्न करनेके लिए उद्यत था तथापि देवकी मायाने उसके इस कार्यमें विघ्न डाल दिया ॥१४३।। सो ठोक ही है क्योंकि अणिमादि गुणोंसे उत्कृष्ट नीच देव जब अपनी विक्रिया दिखानेमें तत्पर है तब मनुष्य विद्याबलसे समृद्ध होनेपर भी क्या कर सकता है ? ||१४४|| इस प्रकार निज और परका अहित करनेवाले उस दुष्ट देवने आज्ञापालन करने में उद्यत ब्राह्मण आदिके द्वारा बहत जीवोंका घात कराकर उन्हें यज्ञमें होम दिया। यही नहीं उस निर्दयने राजा सगर और सुलसाको भी यज्ञमें होम दिया और इस प्रकार हिंसानन्द नामक रौद्र ध्यानको प्राप्त होता हुआ अपने स्थानपर चला गया ।।१४५-१४६।। क्रोधसे युक्त महाकाल देवने उन अनार्ष वेदोंको चलाया और पर्वत आदिने समस्त पृथिवीपर उनका विस्तार किया ।।१४७|| नारदका एक सम्यग्दृष्टि पुत्र था। उसे प्रागदिवाकर देव नामक विद्याधरने विद्याओंसे सहित अपनी परम कल्याणी पुत्री प्रदान की थी ॥१४८|| उसी वंशमें वसुदेव ब्राह्मणको क्षत्रिया स्त्रीसे यह सोमश्री नामकी उत्तम कन्या उत्पन्न हई है ॥१४९।। करालब्रह्मदत्त नामक अवधिज्ञानी मनिराजने कहा था कि जो इसे वेदोंमें जीतेगा उसी महापुरुषकी यह स्त्री होगी ।।१५०॥
यह सुनकर श्रीमान् कुमार वसुदेवने उस समय समस्त वेदोंका अध्ययन किया और सोमश्रीको जीतकर विधिपूर्वक उसके साथ विवाह किया ॥१५१।। जिस प्रकार नववधूका कुमार वसुदेवमें दृढ़ प्रेम था उसी प्रकार कुमार वसुदेवका भी नववधूमें दृढ़ प्रेम था। इसलिए उनके .
१. सुरोत्कृष्ट म.। २. यष्टे यष्टा स दुष्टस्तां म.। ३. वसुदेवः । ४. परिणीतवान् ।
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त्रयोविंशः सर्गः
पृथ्वीच्छन्दः रहस्यकृत वक्षसा घनपयोधरोत्पीडनं
चुचुम्ब सकचग्रहं जघनमाजघानाधरम् । ददंश नृवरो वरः सनखपातमस्या वधू
विवेद मदनातुरा न च तथाविधं बाधनम् ।।१५३।। चचार खचरीसख: खचरलोकलोकाधिकः
स्वरूपगुणसंपदारतिपु दक्षिणो यो युवा । स्वतन्त्रजिनभक्तयारमदतीव सोमश्रिया
पुरे गिरितटामिधे सुमतिचारुयोषित्सखः ।।१५४।।
इति अरिष्टनेमिप्राणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती सोमश्रीलाभवर्णनो नाम
त्रयोविंशः सर्गः ॥२३॥
सुखका क्या वर्णन किया जाये ? ||१५२।। कुमार वसुदेवने एकान्त स्थानमें अपने वक्षःस्थलसे उसके स्थूल स्तनोंका पोडन किया, केश खींचते हुए चुम्बन किया, नखक्षत करते हुए नितम्बका आस्फालन किया और अधरको ईसा परन्तु कामातुर सोमश्रीने उस प्रकारको बाधाको कुछ भी नहीं जाना ॥१५३॥ जो अपने सौन्दर्य तथा गुणरूपी सम्पदाके द्वारा विद्याधरोंसे भी श्रेष्ठ थे, जो विद्याधरियोंके साथ भ्रमण करते थे. जो रतिक्रिया में अत्यन्त कुशल एवं युवा थे और जो सुबुद्धिरूपी सुन्दर स्त्रीके सखा थे, ऐसे कुमार वसुदेवने गिरितट नामक नगरमें स्वतन्त्र एवं जिनभक्त रमणी सोमश्रीके साथ अत्यधिक क्रीड़ा की ॥१५४।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें सोमश्रीके
लाभका वर्णन करनेवाला तेईसवाँ सर्ग समाप्त हा ॥२३॥
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चतुर्विशः सर्गः अथासावेकदा शौरिरिन्द्र शर्मोपदेशतः । उद्याने साधयन् विद्यां निशि धूःनिरोक्षितः ॥१॥ आरोग्य शिविका क्वापि दरं नीतो दिवानने । अपमृत्य ततो यातो नगरं तिलवस्तुकम् ॥२॥ बाह्यचैत्यगृहोद्याने रात्रौ सुप्तः प्रबोधितः । केनचिद्राक्षसेनेव पुंसा मानुषभक्षिणा ।।३।। भो ! मो! बुध्यस्व बुध्यस्व कस्त्वं स्वपिषि मानुष । व्याघ्रस्येव क्षुधार्तस्य ममास्ये पतितः स्वयम् ॥४॥ विनिद्रो रौद्रनादेन शौरिः शूरतरोऽमुना । जिघांसन्तं भुजेनारिमाजघान भुजेन सः ।।५।। दृढ मुष्टिघनावातघोरनिर्घोषभीषणम् । भूतं भूतलसंक्षोभं युद्धमुद्धतयोस्तयोः ॥६॥ चिरेण दानवाकारो यादवेन बलीयसा । निहत्य मल्लयुद्धेऽसौ मोचितः प्रियजीवितम् ।।७।। प्रभाते पौरलोकस्तं नराशिनरनाशनम् । रथेन पुरमावेश्य सत्पौरुषमपूजयत् ॥८॥ कन्याः पञ्चशतान्यत्र रूपलावण्यवाहिनीः । कुलशीलवतीलब्ध्वा तत्र तावदतिष्ठपत् ॥९॥ कुतस्त्योऽयं नृमांसादः पुरुषः परुषाशयः । इति तेन तदा पृष्टंवृद्ध रिति निवेदितम् ॥१०॥ आसीन्नृपः कलिङ्गषु पुरे काञ्चननामनि । जितशत्रगणः ख्यातो जितशत्ररभिख्यया ॥१॥ आसीदयममोघाज्ञः स्वदेशे देशपालकः । जीवघातनिवृत्तेच्छः सर्वत्रामयघोषणः ॥१२॥
अथानन्तर एक समय कमार वसदेव, इन्द्रशर्मा ब्राह्मणके उपदेशसे गिरितट नगरके उद्यानमें रातको विद्या सिद्ध कर रहे थे कि कुछ धूर्तोंने उन्हें देख लिया ॥१।। वे उन्हें पिछली रात्रिमें पालकीपर बैठाकर कहीं दूर ले गये। वसुदेव वहाँसे चलकर तिलवस्तु नामक नगर पहुँचे ।।२।।
और वहाँ नगरके वाहर जो चैत्यालय था उसके उद्यानमें रात्रिके समय सो गये, वहां राक्षसके समान एक मनुष्यभक्षी पुरुषने आकर उन्हें जगाया ॥३॥ वह कहने लगा कि अरे मनुष्य ! जागजाग, तू यहाँ कौन सो रहा है ? भूखसे पीड़ित बाघके समान मेरे मुखमें तू स्वयं आकर पड़ा है ॥४॥ शूर-वीर वसुदेव उस भयंकर शब्दसे जाग उठे। जब मनुष्यभक्षी पुरुष अपनी भुजासे वसुदेवको मारनेके लिए उद्यत हुआ तब उन्होंने भी अपनी भुजाओंसे उसे कसकर पिटाई लगायी ॥५।। तदनन्तर प्रबल शक्तिको धारण करनेवाले उन दोनोंके बीच पृथिवीको कंपा देनेवाला युद्ध हुआ। उनका वह युद्ध मुट्ठियोंके प्रबल प्रहारसे उत्पन्न घोर शब्दसे भयंकर था ॥६॥ वसुदेव बहुत बलवान् थे इसलिए उन्होंने बहुत देर तक युद्ध करनेके बाद उस दानवाकार मनुष्यको मल्लयुद्धमें मारकर प्राण-रहित कर दिया ||७|| जब प्रातःकाल हुआ तब नगरवासी लोग, उत्तम पौरुषके धारी एवं नरभोजी मनुष्यको नष्ट करनेवाले वसुदेवको रथपर बैठाकर नगरमें ले गये और उन्होंने वहाँ उनका बहुत सम्मान किया ॥८॥ कुमार वसुदेव उस नगरमें रूप और सौन्दर्यको धारण करनेवाली कुल और शीलसे सुशोभित पांच सौ कन्याएँ प्राप्त कर वहीं रहने लगे ॥२॥ मनुष्योंके मांसको खानेवाला यह दुष्ट मनुष्य यहाँ कहाँसे आया था ? इस प्रकार वसुदेवके पूछनेपर वहाँके वृद्धजनोंने इस प्रकार कहा ॥१०॥
कलिंग देशके कांचनपुर नामक नगरमें शत्रुओंके समूहको जीतनेवाला एक जितशत्रु नामका राजा था ।।११।। अपने देशमें उस राजाको आज्ञाका कोई भी उल्लंघन नहीं करता था। वह नीतिपूर्वक देशका पालन करता था, उसको इच्छा जीव-हिंसासे दूर रहती थी तथा समस्त १. पश्चिमरात्री। २. जातम् । ३. मनुष्यभक्षिमनुष्यनाशकं-वसुदेवम् । ४. स्थितवान् । ५. जितः शत्रुगणो येन सः ।
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चतुर्विशः सर्गः तनयस्तस्य सौदासः स मांसरसलालसः । मायूरमासमात्रायाः पितुराज्ञामदापयत् ॥१३॥ प्रत्यहं शिखिना मांसं सूपकारेण संस्कृतम् । भक्षयस्यप्रकाशं तत् प्रासादान्तरवस्थितः ॥१४॥ कदाचित्त हृते मासे मार्जारेण पुरो बहिः । सूपकारो गतोऽपश्यन्मृतं शिशुमुपांशु च ॥१५॥ आनीयादारसुसंस्कृत्य सौदासोऽप्यघसन्मुदा। अपृच्छच्च स तं मांसं कस्येदमिति सादरः ॥१६॥ अशितानि पुरा भद्र ! पिशितानि बहुनि मोः । न शतांशेन तान्यस्य स्पृशन्ति स्म रसान्तरम् ॥१७॥ सत्यं ब्रूहि हितं साधो ! सत्यमस्मन्न ते भयम् । इत्युक्तः सोऽवदत्सर्व नीत्या युक्तः स्वचेष्टितम् ॥१८॥ सौदासोऽपि च तत् श्रुत्वा सूपकारं शशास सः। तुष्टोऽस्मि मर्त्यमांसं मे नित्यमानीयतामिति ॥१९॥ पितर्युपरते तावत्सौदासेऽपि पदस्थिते । सोपायं सूपकारोऽभूदन्वहं शिशुमारकः ॥२०॥ प्रत्येक प्रत्यहं हानिमपत्यानामवेक्ष्य वै । परीक्ष्य भक्षको लोकैराशु देशादपाकृतः ॥२१॥ रन्ध्र व्याघ्र बदापत्य निशि नीत्वा नु मानुषान् । दिवारण्ये चरः कुर्याद् व्यसनोपहतो न किम् ॥२२॥ असाध्यो लोकवित्रासी स एष भवताधुना । प्रापितः साधुना मृत्युमसाधारणशक्तिना ॥२३॥ इत्यावेद्य वयोवृद्धाः सौदासस्य कुचेष्टितम् । वस्त्रमाल्यविभूषायः पूजयन्ति स्म यादवम् ॥२४॥ लेभे च सोऽचलग्रामे सार्थवाहस्य देहजाम् । वेदसामपुरं चामा प्रयातो वनमालया ॥२५॥
राज्यमें उसने अभयकी घोषणा करा रखी थी॥१२॥ उसका एक सौदास नामका पुत्र था। वह मांस खानेका बड़ा लम्पट था इसलिए उसने पितासे मयूरका मांस खानेकी आज्ञा प्राप्त कर ली थी ॥१३॥ प्रतिदिन रसोइया उसे मयूरका मांस तैयार कर देता था और वह उसे महलके भीतर छिपकर खाया करता था॥१४|| किसी एक दिन तैयार मांसको बिल्ली उठा ले गयी जिससे मांसको तलाशमें रसोइया नगरके बाहर गया। वहां उसने एक मरा हआ बालक देखा जिसे वह छिपाकर ले आया और अच्छी तरह तैयार कर उसे सौदासके लिए दे दिया। सौदासने उस मांसको बड़ी प्रसन्नतासे खाया और आदरपूर्वक उस रसोइयासे पूछा कि यह मांस किसका है ? ॥१५-१६।। वह कहने लगा कि हे भद्र ! मैंने पहले बहुत-से मांस खाये हैं पर वे इस मांसके रसके सौंवें भागका भी स्पर्श नहीं करते ॥१७॥ हे भले आदमी ! जो बात सत्य और हितकारी हो वह कहो। यह सच है कि तुम्हें मुझसे कुछ भी भय नहीं है। इस प्रकार कहनेपर नीतिसे युक्त रसोइयाने अपनी सब चेष्टा सौदासके लिए बतला दी ॥१८॥ रसोइयाकी बात सुनकर सोदासने उसकी बहत प्रशंसा की और कहा कि मैं तुम्हारे ऊार बहुत सन्तुष्ट हूँ, तुम प्रतिदिन मेरे लिए मनुष्यका ही मांस लाया करो ॥१९॥
तदनन्तर पिताके मरनेपर सौदास राज्य-सिंहासनपर आरूढ़ हुआ और उसका रसोइया किसी उपायसे प्रतिदिन बच्चोंको मारने लगा ॥२०॥ 'प्रतिदिन एक-एक बच्चेकी हानि होती जा रही है' यह देख नगरवासी लोगोंमें खलबली मच गयी। उन्होंने परीक्षा कर सौदासको शिशु-भक्षक पाया। और उसे शीघ्र ही देशसे बाहर खदेड़ दिया ॥२१॥ अब वह अवसर देख व्याघ्रकी तरह रात्रिमें झपाटा मारकर मनुष्योंको ले जाता है और दिन-भर जंगलमें रहता है सो ठोक ही है क्योंकि व्यसनमें पड़ा मनुष्य क्या नहीं करता है ? ॥२२॥ हे कुमार ! लोगोंको भयभीत करनेवाला यह वही सौदास था। यह हम लोगोंके लिए असाध्य था परन्तु असाधारण शक्तिको धारण करनेवाले आपने उसे आज यमलोक पहुंचा दिया ॥२३॥ इस प्रकार नगरके वयोवृद्ध लोगोंने सौदासको कुचेष्टाओंका वर्णन कर वस्त्र, माला तथा आभूषण आदिसे वसुदेवका खूब सत्कार किया ॥२४॥
तदनन्तर वहाँसे चलकर कुमार वसुदेवने अचलग्रामके सेठकी वनमाला नामक पुत्रीको प्राप्त किया-उसके साथ विवाह किया और वहांसे वनमालाके साथ चलकर वे वेदसामपुर
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हरिवंशपुराणे तत्पुराधिपतिं युद्धे स जिस्वा कपिलश्रुतिम् । उवाह विधिना वीरस्तरकन्या कपिलामिधाम् ॥२६॥ तस्यामजनयत्पुत्रं प्रसिद्धं कपिलाख्यया । प्रीतिं श्वसुरपुत्रेण प्राप्तश्चांशुमता पराम् ॥२०॥ वारिबन्धेऽन्यदा गन्धगजेन' हियमाणकः । दृढमुष्टिर्जघानेभं नीलकण्ठः शुचाभवत् ॥२०॥ पतितश्च शनैः शौरिस्तडागाम्मस्यनाकुलः । अटव्याश्च विनिष्क्रम्य गतः शालगुहां पुरीम् ॥२९॥ तत्र पद्मावती लेभे धनुर्वेदोपदेशतः । जित्वा जयपुरेशं च तत्सुतामपि लब्धवान् ॥३०॥ साकमंशुमता यातो मद्रिलाख्यपुरं परम् । पौण्ड्रश्च नृपतिस्तत्र दुहिता चारुहासिनी ॥३१॥ दिव्यौषधिप्रभावेन सा युववेषधारिणी। तेन विज्ञातवृत्तान्ता परिणीतातिहारिणी ॥३२॥ पुत्रं पात्रं श्रियां तस्यां स पौण्डमुदपादयत् । निशि हंसापदेशेन हृतश्चाङ्गारकारिणा ॥३३॥ विसृष्टश्चापि गङ्गायां पपात वियतः शनैः । अपश्यत्पुरं प्रातरिलावर्धनसंज्ञकम् ॥३४॥ तत्रापणे निविष्टोऽसौ वणिग्दत्तचरासने । आपणः क्षणमात्रेण पूर्यते स्म धनैश्च सः ॥३५॥ तत्प्रभावमसौ बुद्ध्वा वणिग्नीत्वा स्वमन्दिरम् । ददौ रत्नवतीं यूने कन्या धन्याय संपदा ॥३॥ भुञ्जानः स तया दिव्यान् भोगानन्तरवर्जितान् । यातः शक्रमहं द्रष्टुमेकदा तु महापुरम् ॥३॥ पुरो बहिरसी दृष्ट प्रासादान् विपुलान् बहुन् । पृष्टवानिति केनामी किमर्थ वा निवेशिताः ॥३८॥
पहुंचे ॥२५।। वीर वसुदेवने वेदसामपुरके राजा कपिलमुनिको युद्धमें जीतकर उसको कपिला नामक पुत्रीके साथ विधि-पूर्वक विवाह किया ।।२६।। वहाँ कपिलाके भाई अंशुमान नामक साले के साथ वसुदेव परम प्रीतिको प्राप्त हुए जिससे वहाँ रहकर उन्होंने कपिलाके कपिल नामक पुत्र उत्पन्न किया ।।२७।। एक दिन जिस नीलकण्ठने पहले नीलयशाका अपहरण किया था वह गन्धहस्तीका रूप धरकर वेदसामपुरमें आया। उसे बन्धनमें डालनेके लिए जब वसुदेव उसपर आरूढ़ हुए तो उन्हें वह हरकर आकाशमें ले गया। यह देख वसुदेवने उसे मट्रियोंके दढ प्रहारसे खब पीटा जिससे शोकवश वह गन्धहस्तीका रूप छोड़कर नोलकण्ठ हो गया ॥२८॥ वसुदेव धीरे-धीरे तालाबके जलमें गिरे और बिना किसी आकुलताके अटवीसे निकलकर शालगुहा नामक नगरीमें पहुँच गये ||२९|| वहाँ धनुर्वेदके उपदेशसे उन्होंने पद्मावती नामकी कन्या प्राप्त को। वहांसे चलकर जयपुर गये और वहाँके राजाको जीतकर उसकी कन्या भी प्राप्त की ॥३०॥ वहांसे चलकर वे अपने साले अंशुमान्के साथ भद्रिलपुर नामक श्रेष्ठ नगर गये । वहाँ उस समय पौण्ड्र नामका राजा राज्य करता था। उसकी चारुहासिनी नामकी एक कन्या थी, वह कन्या दिव्य ओषधिके प्रभावसे सदा युवाका वेष धारण करती थी। वसुदेवको इसका पता लग गया इसलिए उन्होंने उस अतिशय सुन्दरी कन्याके साथ विवाह कर लिया ।।३१-३२।। तथा कुछ समय बाद उस कन्यामें उन्होंने लक्ष्मीका पात्र एक पौण्ड्र नामका पुत्र उत्पन्न किया। एक दिन वसुदेव रात्रिके समय शयन कर रहे थे कि उनका वैरी अंगारक उन्हें हंसका रूप धरकर हर ले गया ॥३३|| जब उससे छूटे तो धीरे-धीरे आकाशसे गंगा नदीमें गिरे। उसे पार कर जब किनारेपर आये तो सवेरा होते ही उन्होंने इलावधन नामका नगर देखा ॥३४॥ वहां वे एक दुकानमें सेठके द्वारा दिये हुए उत्तम आसनपर बैठ गये। उनके बैठते ही क्षणमात्रमें वह दुकान धनसे भर गयी ॥३५।। इसको सेठ, वसुदेवका ही प्रभाव जानकर उन्हें अपने घर ले गया तथा वहाँ ले जाकर उसने भाग्यशाली तरुण वसुदेवके लिए अपनी रत्नवती कन्या प्रदान की ॥३६|| वसुदेव रत्नवतीके साथ निरन्तराय दिव्य भोगोंको भोगते हुए वहीं रहने लगे। तदनन्तर वे एक समय इन्द्रध्वज विधान देखनेके लिए महापुर नगर गये ॥३७।। वहां उन्होंने नगरके बाहर बहुत-से बड़े-बड़े महल देखकर किसी मनुष्यसे पूछा कि ये महल किसने किस लिए बनवाये हैं ? ॥३८॥ मनुष्यने कहा कि राजा सोमदत्तने अपनी १. गन्धगजेन्द्रह्रियमाणकः घ. । २. स चाभवत् म. । ३. तत्रता- म. । ४. युवन्वेष- म., क., ग., घ., ङ. ।
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चतुर्विशः सर्गः
३४७ तेनोक्तं सोमदत्तेन राज्ञा कन्यास्वयंवरे । कारिता बहुशश्चित्राः प्रासादाः पृथिवीभृताम् ॥३९।। स्वयंवरविधेः कन्या कुतश्चिदपि हेतुतः । विरक्ताभूदतः सर्वे राजानश्च विसर्जिताः ॥४०॥ इस्याकर्ण्य स तस्याश्च चिन्तयन्मनसो गतिम् । पश्यमिन्द्र महं तत्र शौरियावदवस्थितः ॥४१।। तावञ्च सहसा प्राप्ताः सरक्षाः नृपतिस्त्रियः । इन्द्रध्वजं च वन्दित्वा प्रस्थिताः स्वगृहं पुनः ॥४२॥ आलानस्तम्भमामज्य तदा स समदद्विपः । मारयन्सहसागच्छन्मान्मृत्युरिव स्वयम् ॥४३।। लोकस्य मार्यमाणस्य महाकलकलध्वनिः । दिशो दश तदा व्यार रखतः पश्यतः पथि ॥४॥ प्राप्तश्च मत्तमातङ्गो वेगी प्रवहणान्यसौ । कन्या प्रवहणाच्चैका पपात समया क्षितौ ॥४५॥ करिणं निर्मदीकृस्य तां ररक्ष मयाकुलाम् । पश्यतः सर्वलोकस्य कृतक्रीडः स यादवः ।।४।। परित्यज्य गज श्रान्तं कन्यां भयविमूच्छिताम् । समाश्वासयदुत्थाय सा तमैक्षिष्ट रूपिणम् ॥४७॥ दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य वाष्पाकुलविलोचना । पानता करं तस्य जग्राह स्पर्शसौख्यदम् ॥४८॥ गते शौरौ यथास्थानं धात्री वृद्धा महत्तराः । प्रगृह्य कन्यकां तां च ययुरन्तःपुरालयम् ।।४।। ततः कुबेरदत्तस्य भवने कृतभूषणम् । शौरिमेत्य प्रतीहारी राजादेशात्ततोऽवदत् ॥५०॥ ज्ञातमेव हि ते नूनं वृत्तं देव ! यथा नृपः । सोमदत्तः प्रिया चास्य पूर्णचन्द्रेति कीर्तिता ॥५१॥ नाम्ना भूरिश्रवाः पुत्रः सोमश्रीस्तनयानयोः । अस्याः स्वयंवराथं च समाहृता नरेश्वराः ॥५२॥ सोमश्रीनिशि हर्म्यस्था देवागमनदर्शनात् । जातिस्मरणसंयुक्ता मुमूर्छ प्रेमवाहिनी ॥५३॥
कन्याके स्वयंवरमें आनेवाले राजाओंके ठहरनेके लिए ये नाना प्रकारके महल बनवाये थे।॥३९|| परन्तु कन्या, किसो कारण स्वयंवरको विधिसे विरक्त हो गयो इसलिए स्वयंवर नहीं हो पाया और सब लोग विदा कर दिये गये ॥४०॥ यह सुनकर कुमार वसुदेव, उस कन्याके मनकी गतिका विचार करते हुए इन्द्रध्वज विधान देखनेके लिए ज्यों ही बैठे त्यों ही रक्षकोंके साथ राजाकी स्त्रियां सहसा वहाँ आ पहुँची। कुछ समय बाद वे खियाँ इन्द्रध्वज विधानको नमस्कार कर अपने घरकी ओर चलीं ॥४१-४२।। उसी समय बन्धनका खम्भा तोड़कर एक मदोन्मत्त हाथी साक्षात् मृत्यु ( यम ) की तरह मनुष्योंको मारता हुआ वहाँ आ पहुँचा ।।४३।। उस समय जो लोग मारे जा रहे थे तथा जो मार्ग में यह सब देखते हुए चिल्ला रहे थे उनका बहुत भारी कलकल शब्द दशों दिशाओंमें व्याप्त हो गया ॥४४॥ वह मदोन्मत्त हाथो बड़े वेगसे उन खियोंके वाहनोंके समोप आया जिससे भयभीत हो एक कन्या वाहनसे नीचे पृथिवीपर गिर पड़ी ।।४५।। यह देख कुमार वसुदेवने उस हाथोको मदरहित कर भयसे घबड़ायी हुई उस कन्याकी रक्षा की और सब लोगोंके देखते-देखते वे उस हाथोके साथ क्रीड़ा करने लगे ॥४६॥ तदनन्तर जब हाथी थक गया तो उसे छोड़ उन्होंने भयसे मूच्छित कन्याको सान्त्वना दी। कन्याने उठकर सुन्दर रूपके धारक वसुदेवको देखा । देखते ही वह गरम और लम्बी साँस भरने लगी, उसके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त हो गये तथा लज्जासे नम्रीभूत होकर उसने स्पर्शजन्य सुखको देनेवाला कुमारका हाथ पकड़ लिया ।।४७-४८।।
तदनन्तर वसुदेव यथास्थान चले गये और वृद्धा धाय, तथा कुलकी बड़ी-बूढो स्त्रियां उस कन्याको लेकर अन्तःपुर चली गयीं ॥४९।। तत्पश्चात् एक दिन कुमार वसुदेव कुबेरदत्त सेठके घर आभूषण आदि धारण कर बैठे थे कि इतने में राजाको आज्ञासे उनको द्वारपालिनी आकर कहने लगी कि हे देव ! यह समाचार आपको अच्छी तरह विदित ही है कि यहाँका राजा सोमदत्त है और उसको रानी पूर्णचन्द्र नामसे प्रसिद्ध है ।।५०-५१।। इन दोनोंके भूरिश्रवा नामका पुत्र और सोमश्री नामकी कन्या है। कन्या सोमश्रीके स्वयंवरके लिए राजाने अनेक राजाओंको बुलाया था ॥५२॥ परन्तु सोमश्री रात्रिके समय महलके ऊपर बैठी थी वहाँ देवोंका आगमन देख वह
१. विमोचना म.। २. भुवने म.।
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हरिवंशपुराणे लब्धसंज्ञा समुत्थाय ध्यायन्ती स्वर्गिणं पतिम् । स्नानाशननिवृत्तेच्छा मौनव्रतमशिश्रियत् ॥५४॥ एकान्ते पृष्टया कृच्छ्रात् कथितं च ममानया । पूर्वजन्मनि देवेन सह क्रीडितमात्मनः ॥१५॥ पूर्वप्रच्युतदेवस्य हरिवंशे समुद्भवः। विज्ञातश्चानया देव्या सस्यात् केवलिमाषितात् ॥५६॥ समागमश्च विज्ञातः पत्या हस्तिमयच्छिदा । संवादे चाधुना जाते सा ते वाञ्छति संगमम् ॥५०॥ राज्ञा मद्वचनाज्ज्ञात्वा प्रेषिताहं तवान्तिकम् । सौम्य ! सोमश्रिया सार्क मज वीवाहमङ्गलम् ॥५८॥ इत्यावेदितसंबन्धः स तुष्टोऽन्धकवृष्टिजः । सोमश्रियमुवाहेष्टां सोमदत्ततनूभवाम् ॥५९॥ स्वास्यारविन्दसौगन्ध्यमकरन्दोपयोगिनोः । काले याति सुखे तावत् सोमश्रीवसुदेवयोः ॥६॥ अथ कोऽप्येकदा भर्तुर्भुजपक्षरशायिनीम् । सोमश्रियं श्रियं वारिरहरन्निशि खेचरः ॥६॥ विबुद्धस्तु पतिः पत्नीमपश्यन् परमाकुलः । सोमश्रीः क्व गतासि त्वमेह्येहीति जुहाव ताम् ॥६२॥ वजोऽनन्तरमेषाहमिति दत्वा वचः श्रिताम् । खेटस्वसारमद्राक्षीस्सोमश्रीरूपवर्तिनीम् ॥६३॥ निष्क्रान्तासि बहिः कान्ते किमर्थमिति नोदिता । धर्मशान्त्यर्थमित्याह सोमश्रीरिव सा स्वयम् ॥६४॥ कृतरूपपरावर्तिः शौरिरूपवशीकृता । कन्यामावमुदस्यैनमरीरमदरिस्वसा ।।६५।। नित्यशो भुक्तभोगा च सुप्ते पत्यो स्वपित्यसौ। प्राक प्रबुद्धा करोत्यूरूपादसंवाहनादिकम् ॥६६॥
जाति स्मरणसे यक्त हो गयी और अपने पर्व पतिके प्रेमको प्रकट करती हई मच्छित गयी ॥५३।। जब वह सचेत हुई तो उठकर अपने देव पतिका ध्यान करने लगी और स्नान, भोजन आदिकी इच्छा छोड़ मौन लेकर बैठ गयी ।।५४।। एकान्तमें मैंने उससे पूछा तो उसने बड़ी कठिनाईसे मुझे बताया कि पूर्वजन्ममें मैंने देवके साथ क्रीड़ा की थी, उसने यह भी बताया कि जब मैं देवी थी और वह देव मुझसे पहले ही वहांसे च्युत हो गया तब केवली भगवान् के सत्य कथनसे मुझे मालूम हुआ था कि वह देव हरिवंशमें उत्पन्न हुआ है तथा हाथीके भयको नष्ट करनेवाले उस पतिके साथ मेरा पुनः समागम होगा। इस समय केवली भगवान्का कथन ज्योंका-त्यों मिल गया है अर्थात् जैसा उन्होंने बताया था वैसा ही हुआ है इसलिए वह आपके समागमकी इच्छा करती है ॥५५-५७॥ मेरे कथनसे सब समाचार जानकर राजाने मुझे आपके पास भेजा है इसलिए हे सौम्य ! मेरी यही प्रार्थना है कि आप सोमश्रीके साथ विवाह मंगलको प्राप्त हों ॥५८॥
इस प्रकार पूर्व भवका सम्बन्ध बतलानेपर वसुदेव बहुत ही सन्तुष्ट हुए और उन्होंने राजा सोमदत्तकी पुत्री सोमश्रीके साथ जो कि उनकी पूर्वभवको प्रिय स्त्री थी विवाह कर लिया ॥५९॥ तदनन्तर जब अपने मुख कमलको सुगन्धि और मकरन्दका उपयोग करनेवाले सोमश्री और वसुदेवका काल सुखसे व्यतीत हो रहा था तब एक दिन रात्रिके समय पतिके भुजपंजर में शयन करनेवाली लक्ष्मीके समान सुन्दर सोमश्रीको कोई विद्याधर वैरी हर ले गया ॥६०-६१।। जब वसुदेव जागे तब पत्नीको न देख बहुत व्याकुल हुए और 'हे सोमश्री ! तू कहाँ गयो ? जल्दी आओ, आओ' इस प्रकार उसे पुकारने लगे ॥६२॥ जिस विद्याधरने सोमश्रीका हरण किया था उसकी बहनने वसुदेवके पास आकर सोमश्रीका रूप धारण कर लिया और उनके पुकारते ही कहा कि 'मैं यह तो हूँ' इस प्रकार उत्तर देकर पासमें खड़ी हुई तथा सोमश्रीका रूप धारण करनेवाली विद्याधरकी बहनको वसुदेवने देखा ।।६३।। उसे देखकर कुमारने पूछा कि हे प्रिये ! बाहर किस लिए गयी थीं ? इसके उत्तरमें उसने स्वयं सोमश्रीके समान कहा कि गरमी शान्त करनेके लिए गयी थी ॥६४।। इस प्रकार वसुदेवके रूपसे वशीभूत हुई शत्रुको बहन रूप बदलकर तथा अपना कन्याभाव छोड़कर उनके साथ क्रीड़ा करने लगी ॥६५।। वह प्रतिदिन भोग भोगनेके बाद पति जब सो जाते थे तब सोती थी और उनके पहले ही जागकर जघा तथा पैर आदिका मर्दन करने लगती थी ॥६६॥
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चतुर्विशः सर्गः
३४९ अन्यदा तु विबुद्धोऽसौ प्रथमं कथमप्यथ । सोमश्रीरूपमुक्का तां ददर्श शयितां निशि ॥६७॥ धीरो विस्मययुक्तस्तां सहसा स्वयमुस्थिताम् । अप्राक्षीद् ब्रह्महो का त्वं सोमश्रीरिव वर्तसे ॥६॥ सा प्रणम्यामणीसौम्य ! दक्षिणश्रेण्यवस्थितम् । स्वर्णामं पुरमस्येशश्चित्तवेगो नभश्चरः ॥१९॥ परन्यङ्गारवती तस्य प्रत्यङ्ग संगतप्रमा। सूनुर्मानसवेगोऽस्याः सुता वेगवती त्वहम् ॥७०॥ राज्यं मानसवेगे च पिता न्यस्य तपस्यया । पापस्योपशमं कतं तपोवनमुपाविशत् ॥७१॥ नीता मानसवेगेन सोमश्रीः स्वपुरं परम् । आय ! तिष्ठति तत्रासौ शीलवेलावलम्बिनी ।।७।। तस्याः प्रसादने तेन प्रयुक्ताहमशक्तितः । स्वस्प्रियायाः सखी जाता सत्वशीलवशीकृता ।।७३॥ वार्तानिवेदनायाहं प्रेषिताश तया तदा । स्वस्कलत्रत्वमायाता विचित्राश्चित्तवृत्तयः ॥४॥ इत्यावेद्य तदादेशाद्वेगवस्या निवेदितम् । सक्रमं पितृबन्धुभ्यः सोमश्रीहरणादिकम् ॥७५॥ श्रुत्वा च तत्तथा तेऽपि विषण्णमतयः स्थिताः । वेगवस्यपि पस्यामा प्रकृत्या चिरमारमत् ॥७॥ तया सह सुखं तस्य रममाणस्य भोगिनः । संप्राप्तो माधवी मासो मधुमत्तमधुव्रतः ॥७॥ कदाचित्सह सुप्तोऽसौ तया सुरतखिन्नया। हृतो मानसवेगेन खेचरेण निशि द्रुतम् ॥७८॥ ताडितश्च विबुद्धेन खेचरो दृढमुष्टिना । तेन गङ्गाजले तं च मुमोच मयविह्वलः ॥७९॥ विद्या साधयतस्तत्र स्कन्धे विद्याधरस्य सः । पपात नमसस्तस्य विद्यासिद्धिस्तथोदिता ॥८॥ सिद्धविद्यः प्रणम्यासौ प्रयातो यदुनन्दनम् । कन्या विद्याधरी चैनं निनाय खचराचलम् ॥१॥
अथानन्तर किसी दिन वसुदेव उससे पहले जाग गये और रात्रिके समय सोमश्रीका रूप छोड़कर सोती हुई उस स्त्रीको उन्होंने असली रूपमें देख लिया ॥६७।। यह देख धीर-वीर ' वसुदेव आश्चर्यमें पड़ गये। उसी समय वह स्त्री भी सहसा जाग उठी। वसुदेक्ने उससे पूछा कि
अहो! तू सोमश्रीके समान कौन है ? ॥६८|| इसके उत्तरमें उसने प्रणाम कर कहा कि हे सौम्य ! दक्षिण श्रेणीमें एक स्वर्णाभ नामका नगर है। इसका स्वामी मनोवेग नामका विद्याधर है ॥६९।। मनोवेगकी अंगारवती नामको अत्यन्त सुन्दर पत्नी है । उसके मानसवेग नामका पुत्र और वेगवती नामकी मैं पुत्री हूँ ॥७०।। हमारे पिता मानसवेगको राज्य देकर तपस्यासे पापका उपशम करनेके लिए तपोवन में चले गये ॥७१।। हे आर्य! हमारा भाई मानसवेग, सोमश्रीको हरकर अपने श्रेष्ठ नगरको ले गया जहाँ वह शीलकी मर्यादाका अवलम्बन लेकर विद्यमान है॥७२॥ मानसवेगने प्रसन्न करनेके लिए मुझे नियुक्त किया था पर मैं इस कार्य में समर्थ नहीं हो सकी अतः आपकी प्रियाके सत्त्व और शील गुणसे वशीभूत हो उसकी सखी बन गयो |॥७३॥ उस समय शीघ्रतासे अपना समाचार देने के लिए उसने मुझे आपके पास भेजा था पर मैं आपकी स्त्री बन गयो सो ठीक ही है क्योंकि चित्तवृत्तियाँ नाना प्रकारको होती हैं ।।७४।। इस प्रकार वेगवतीने कुमारको सब समाचार बताकर उनकी आज्ञानुसार सोमश्रीके पिता तथा भाई आदिको भी उसके हरण आदिके सब समाचार क्रमसे सुनाये ॥७५||- जिन्हें सुनकर वे सब खेदखिन्न हुए। इधर वेगवती भी अपने असली रूपमें रहकर चिरकाल तक पतिके साथ क्रीड़ा करती रही ॥७६॥
अथानन्तर जब भोगी वसुदेव वेगवतीके साथ सुखसे कोड़ा करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे तब वसन्तका महीना आ पहुंचा और भ्रमर मधु पो-पोकर उन्मत्त होने लगे ॥७७|| कदाचित् वसुदेव सम्भोगसे खिन्न हुई वेगवतीके साथ सो रहे थे कि रात्रिके समय मानसवेग विद्याधर उन्हें शीघ्र ही हर ले गया। जागनेपर उन्होंने मुट्टियोंके दृढ़ प्रहारसे उसे इतना पीटा कि उसने भयसे विह्वल हो उन्हें गंगाके जलमें छोड़ दिया ॥७८-७९|| उस समय गंगाके जलमें बैठकर एक विद्याधर विद्या सिद्ध कर रहा था सो वसुदेव आकाशसे उसके कन्धेपर गिरे और उनके
गिरते ही उस विद्याधरको विद्या सिद्ध हो मयी ।।८०॥ विद्या सिद्ध होनेपर वह विद्याधर तो
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३५०
हरिवंशपुराणे तदनन्तरमाकीर्ण खेचरैर्नमसस्तलम् । पुष्पाणि पञ्चवर्णानि मुञ्चद्भिः प्रणतैः पुरः ॥४२॥ प्रवेशितः पुरं सोऽथ रथेन रविरोचिषा । तूर्यशङ्खनिनादेन पूरिताखिल दिङ्मुखम् ॥४३॥ कन्यां मदनवेगां च मदनोपमविभ्रमः । उपयेमे मुदा दत्ता खगैर्दधिमुखादिभिः ॥८॥ बिभ्राणो वसुदेवोऽत्र भावं मदनवेगजम् । चिक्रीड निविडस्तन्या चिरं मदनवेगया ॥४५॥
द्रुतविलम्बितवृत्तम् अनुमवन्तममुं जिनधर्मजं शमनुषङ्ग जे मङ्गजगोचरम् ।
रतिषु लब्धवरा वरमङ्गना जनकबन्धविमोक्षमयाचत ॥८६॥ इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती मदनवेगालाभवर्णनो नाम
चतुर्विशतितमः सर्गः ॥२४॥
वसुदेवको प्रणाम कर चला गया और एक विद्याधर कन्या उन्हें विजयाध पर्वतपर ले गयी ।।८।। उनके वहाँ पहुँचते ही आकाश विद्याधरोंसे व्याप्त हो गया। वे विद्याधर उस समय पांच रंगके फूलोंकी वर्षा कर रहे थे तथा सामने आ-आकर प्रणाम करते थे ।।८२।। तदनन्तर उन विद्याधरोंने सूर्यके समान देदीप्यमान रथपर बैठाकर वसुदेवका नगरमें प्रवेश कराया। उस समय तुरही और शंखोंके शब्दसे दशों दिशाएँ भर गयी थीं ।।८३।। वहाँ कामदेवके समान सुन्दर शरीरके धारक वसुदेवने, दधिमुख आदि विद्याधरोंके द्वारा प्रदत्त मदनवेगा नामक कन्याके साथ हर्षपूर्वक विवाह किया ।।८४।। और वहीं रहकर कामके वेगसे उत्पन्न भावको धारण करते हुए वसुदेवने पोनस्तनी मदनवेगाके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा को ||८५||
कदाचित् कुमार वसुदेव, जिनधर्मके प्रसादसे मदनवेगाके साथ कामजनित सुखका उपभोग कर रहे थे कि रतिकालमें मदनवेगाने उन्हें अत्यन्त आनन्द दिया इसलिए प्रसन्न होकर उन्होंने मदनवेगासे कहा कि 'प्रिये ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ जो वर माँगना हो मांगो।' इस प्रकार वह वर पाकर मदनवेगाने उनसे यही वर माँगा कि हमारे पिता बन्धनमें पड़े हैं सो उन्हें छुड़ा दीजिए ।।८।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मदनवेगाके
लाभका वर्णन करनेवाला चौबीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२४॥
१. कामवेगोत्पन्नं ।
२. समसुर्ख गज म.।
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पञ्चविंशः सर्गः
भ्राता मदनवेगायाः श्रित्वा दधिमुखोऽन्यदा । पितृबन्धविमोक्षार्थी संबन्धं शौरयेऽवदत् ॥१॥ शृणु देव ! नमेवंशे संख्यातीतेषु राजसु । अरिञ्जयपुराधीशो मेघनादोऽभवन्नृपः ॥२॥ पद्मश्रीस्तस्य कन्याभूत् सा च नैमित्तिकैः पुरा । स्त्रीरत्नं भवितेत्येवमादिष्टा चक्रवर्तिनः ॥३॥ नभस्तिलकनाथश्च प्रियपूर्वमनेकशः । वज्रपाणिरिति ख्यातस्तामयाचत रूपिणीम् ॥४॥ अलाभे च ततस्तस्या स रुष्टो दुष्टखेचरः । युद्धे जेतुमशक्तोऽगादकृतार्थो निजं पुरम् ॥५॥ मेघनादोऽपि तस्काले जातकेवललोचनम् । मुनिमभ्यय॑ पप्रच्छ नृसुरासुरसंसदि ॥६॥ प्रभो ! मे दुहितुर्भर्त्ता भविता मरतेऽत्र कः । इति पृष्टोऽवदत्सोऽपि वरमन्वयपूर्वकम् ॥७॥ कौरवान्वयसंभूतो भूतो गजपुरे नृपः । कार्तवार्य इति ख्यातिं बिभ्रद्वीर्यसमुद्धतः ॥८॥ सोऽवधीत् कामधेन्वर्थ जमदग्नि तपस्विनम् । क्रोधात्परशुरामस्तं जघान पितृधातिनम् ॥९॥ क्षत्रियेषु तथाऽन्येषु सकलत्रेषु शत्रुणा । क्रुद्धेन दत्तयुद्धेषु मार्यमाणेषु भूरिषु ॥१०॥ अन्तर्वस्नी तदा पत्नी कार्तवीर्यस्य कानरा । तारा रहसि निःसृत्य प्राविशत्कौशिकाश्रमम् ॥११॥ वसन्ती तत्र सा मीरुः प्रसूता तनयं शुभम् । क्षत्रियत्रासनिर्भेदमष्टमं चक्रवर्तिनम् ॥१२॥
अथानन्तर किसी दिन मदनवेगाका भाई दधिमुख अपने पिताको बन्धनसे छुड़ानेकी इच्छा करता हुआ कुमार वसुदेवके पास आकर निम्नांकित सन्दर्भ कहने लगा ॥१॥ उसने कहा कि हे देव ! सुनिए. नमिके वंशमें असंख्यात राजाओंके हो जानेसे अरिजयपुरका स्वामी राजा मेघनाद हुआ ||२|| उसके एक पद्मश्री नामकी कन्या थी। उस कन्याके विषयमें निमित्तज्ञानियोंने बताया था कि यह चक्रवर्तीकी स्त्री-रत्न होगी ॥३॥ उसीके समयमें नभस्तिलक नगरका राजा वज्रपाणि भी हुआ। उसने रूपवती पद्मश्री कन्याकी पहले अनेक बार याचना की परन्तु जब वह उसे नहीं प्राप्त कर सका तो उस दुष्ट विद्याधरने रुष्ट होकर युद्ध ठान दिया। मेघनाद प्रबल शक्तिका धारक था इसलिए वज्रपाणि उसे युद्ध में जीत नहीं सका फलस्वरूप वह कार्यमें असफल हो अपने नगरको वापस लौट गया ॥४-५|| उसी समय किन्हीं मुनिराजको केवलज्ञानरूपी लोचनकी प्राप्ति हुई सो उनकी पूजाके अर्थ अनेक मनुष्य, देव और धरणेन्द्रोंकी सभा जुटी। उस सभामें केवली भगवान्की पूजा कर मेघनादने उनसे पूछा कि हे प्रभो! इस भरत क्षेत्रमें मेरी पुत्रीका भर्ता कौन होगा? इस प्रकार पूछनेपर केवलज्ञानी मुनिराजने उसके योग्य वर और उसके कूलका निरूपण किया ॥६-७||
उन्होंने कहा कि हस्तिनापुर नगरमें कौरववंशमें उत्पन्न हुआ कार्तवीर्य नामका एक राजा था जो पराक्रमसे बहुत ही उद्दण्ड था |८|| उसने कामधेनुके लोभसे जमदग्नि नामक तपस्वीको मार डाला था। जमदग्निका लड़का परशुराम था वह भी बड़ा बलवान् था अतः उसने क्रोधवश पिताका घात करनेवाले कार्तवीर्यको मार डाला ॥९।। इतनेसे ही उसका क्रोध शान्त नहीं हआ अतः उसने क्रुद्ध होकर युद्ध में स्त्री-पुत्रों सहित और भी अनेक क्षत्रियोंको मार डाला। इस तरह जब वह अनेक क्षत्रियोंको मार रहा था तब राजा कार्तवीर्यको गर्भवती तारा नामकी पत्नी भयभीत हो गुप्त रूपसे निकलकर कौशिक ऋषिके आश्रममें जा पहुंची ॥१०-११॥ वहां भय सहित निवास करती हुई तारा रानीने एक पुत्र उत्पन्न किया जो क्षत्रियोंके त्रासको नष्ट करनेवाला १. पितृबन्धु म.। २. यमदग्नि क., ख., ग. ।
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हरिवंशपुराणें
यस्माद्भूमिगृहे जातः सुभौमस्तेन भाषितः । कौशिकस्याश्रमे रम्ये प्रच्छन्नो वर्धतेऽधुना ॥१३॥ स हन्ता जामदग्न्यस्य षड्खण्डपतिरूर्जितः । दुहितुर्भविता भर्त्ता भवतोऽल्पैर्दिनैरिह || १४ || सप्तकृत्वः कृतान्ताभः स कृत्वा क्षत्रमारणम् । रामोऽपि निभृतं चेतो धत्ते द्विजहितेऽधुना ॥ १५ ॥ एवमेकातपत्रायां पृथिव्यां जमदग्निजः । प्रतापाग्निपरीताशः पूरिताशी विजृम्भते ॥१६॥ सुभौमे वर्धमाने तु तापसाश्रमवासिनि । उत्पाताः शतशो जाता जामदग्नयगृहेऽधुना ॥ ५७॥ आशङ्कितः स नैमित्तं पृच्छति स्म सविस्मयः । उत्पाताः कथयन्तीमे किमनिष्टमिति श्रुतम् ॥१८॥ स आह वर्धते बैरो भवतोऽन्तर्हितः क्वचित् । विज्ञेयः कथमित्युक्ते प्राह नैमित्तिकस्ततः ॥ १९॥ तक्षत्रियसङ्घानां दंष्ट्रा यस्य जिघत्सतः । पायसवेन वर्त्तन्ते स एवारिस्तवोद्धतः ॥ २० ॥ इति श्रुत्वा रु 'जिज्ञासुः शत्रुं क्षत्रियपुङ्गवम् । विशालां 'सत्रशालां तामाश्वेव समचीकरत् ॥२१॥ सत्रमध्ये व्यवस्थाप्य दंष्ट्रामस्तिभाजनम् । निरूपिततदध्यक्षो यत्नवानवतिष्ठते ॥२२॥ आकर्ण्य मेघनादस्तं कृत्वा केवलिवन्दनाम् । गत्वा गजपुरं शीघ्रं पश्यति स्म कुमारकम् ॥२३॥ शस्त्रशास्त्रार्णवस्यान्ते वर्त्तमानमधिश्रियम् । ज्वलत्प्रतापममितो मानुमन्तमिवोदितम् ॥२४॥ शनैः स प्रेरितस्तेन वृत्तान्तविनिवेदिना । अहितेन्धनदाहाय वायुनेव तनूनपात् ॥ २५ ॥ आजगाम च तेनैव सह शत्रुगृहं गृहात् । बुभुक्षुरुपविष्टश्व दर्भासनपरिग्रहः ॥२६॥
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आठवाँ चक्रवर्ती होगा ||१२|| क्योंकि वह पुत्र भूमिगृह - तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए 'सुभीम' इस नामसे पुकारा जाने लगा । इस समय वह बालक कौशिक ऋषिके रमणीय आश्रम में गुप्त रूपसे बढ़ रहा है || १३ || वही कुछ ही दिनों में परशुरामको मारने वाला बलशाली चक्रवर्ती होगा और वही तुम्हारी कन्याका पति होगा || १४ || परशुराम यमराजके समान क्रूर है वह सात बार क्षत्रियोंका अन्त कर इस समय ब्राह्मणोंके हितमें अपना मन लगा रहा है || १५ || इस तरह जिसने प्रतापरूपी अग्निसे समस्त दिशाओंको व्याप्त कर दिया है तथा मनोवांछित दान देकर जिसने याचकोंकी आशाएँ पूर्ण कर दी हैं ऐसा परशुराम इस समय एकछत्र पृथिवीपर निरन्तर वृद्धिको प्राप्त हो रहा है ॥ १६ ॥
इधर तपस्वीके आश्रम में निवास करनेवाला सुभीम जैसे-जैसे बढ़ने लगा उधर परशुराम के घर वैसे-वैसे ही सैकड़ों उत्पात होने लगे ||१७|| उत्पातोंसे आशंकित एवं आश्चर्यचकित हो उसने निमित्तज्ञानी से पूछा कि ये उत्पात मेरे किस अनिष्टको कह रहे हैं ? || १८ || निमित्तज्ञानीने कहा कि आपका शत्रु कहीं छिपकर वृद्धिको प्राप्त हो रहा है । वह कैसे जाना जा सकता है ? इस प्रकार परशुराम के पूछने पर निमित्तज्ञानीने पुन: कहा कि ||१९|| तुम्हारे द्वारा मारे ! हुए क्षत्रियों की डाढ़ें जिसके भोजन करते समय खीर रूपमें परिणत हो जावें वही तुम्हारा उद्दण्ड शत्रु है ||२०|| यह सुनकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ शत्रुको जानने की इच्छा करते हुए परशुरामने शीघ्र ही एक विशाल दानशाला बनवायी ||२१|| और दानशालाके मध्य में डाढ़ोंसे भरा बरतन रखकर उसके अध्यक्षको सब वृत्तान्त समझा दिया जिससे वह यत्नपूर्वक वहाँ सदा अवस्थित रहता है ||२२|| यह सब समाचार सुन राजा मेघनाद केवलीकी वन्दना कर शीघ्र ही हस्तिनापुर गया और वहाँ उसने कुमार सुभीमको देखा || २३ | | उस समय सुभीम कुमार शस्त्र और शास्त्ररूपी सागरके अन्तिम तटपर विद्यमान था, अधिक शोभासे युक्त था, सब ओर उसका देदीप्यमान प्रताप फैल रहा था, और वह उदित होते हुए सूर्यके समान जान पड़ता था || २४|| जिस प्रकार ईन्धनको नष्ट करने के लिए वायु अग्निको प्रेरित कर देती है उसी प्रकार पूर्ववृत्तान्त सुनानेवाले राजा मेघनादने उसे शत्रुरूपी ईन्धनको जलानेके लिए धीरेसे प्रेरित कर दिया || २५ || वह उसी समय घरसे १. जिघांसुः म. । २. भोजनशालाम् । ३. शत्रुमध्ये क । ४. निरूपितं तदध्यक्ष क. ।
५. अग्निः ।
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पञ्चविंशः सर्गः
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'दंष्ट्रामाजनमग्रेऽस्य द्विजानासनवर्तिनः । विन्यस्तं तत्प्रभावेण दंष्ट्राः पायसतां ययुः ॥२७॥ ततोऽध्यक्ष नरैराशु रामाय विनिवेदितम् । स जिघांसुस्तमागच्छत्परशुव्यग्रपाणिकः ॥२८॥ भुआनः पायसं पाठयां सभौमो हन्यमानकः । जघानारितयैवाशु चक्रत्वपरिवृत्तया ॥२९॥ तं चतुदंशरत्नानि निधयो नव भेजिरे । द्वात्रिंशच सहस्राणि नृपाश्चक्रिणमष्टमम् ॥३०॥ स्त्रीरत्नलाभतुष्टेन मेघनादोऽपि चक्रिणा । नीतो विद्याधरेशित्वमवधीद्वज्रपाणिकम् ॥३१॥ एकविंशतिवारांश्च चक्रवर्त्यपि रोषणः । चक्रेणाब्राह्मणां क्षोणी शठं प्रतिशठस्ततः ॥३२॥ षष्टिवर्षसहस्राणि जीवित्वा तृप्तिवर्जितः । सुभौमः सार्वभौमोऽन्ते सप्तमी पृथिवीं गतः ॥३३॥ 'संताने मेघनादस्य विद्याबलसमुद्धतः । प्रतिशत्ररभूत्वष्ठस्त्रिखण्डाधिपतिबंलिः ॥३४॥ नन्दश्च पुण्डरीकश्च हलचक्रधरौ ततः । अभूतां निहतस्ताभ्यां बलिभ्यां बलिराहवे ॥३५॥ बलेवंशे समुत्पन्नः सहस्रग्रीवखेचरः । परः पञ्चशतग्रीवो द्विशतग्रीव इत्यतः ॥३६॥ एवमादिष्वतीतेषु खेवरेषु बहुष्वभूत् । विद्युद्वेगः पितास्माकं श्वसुरस्तव यादव ॥३७॥ सोऽन्यदा मुनिमप्राक्षीदवधिज्ञानचक्षुषम् । पतिर्मदनवेगायाः कोऽस्त्वस्या भगवन्निति ॥३८॥ मुनिराह भवत्सुनोर्विद्या साधयतो निशि । चण्डवेगस्य यः स्कन्धे गङ्गास्थस्य पतिष्यति ॥३९॥ तं निश्चिस्य पिता पुत्रं चण्डवेगं न्ययोजयत् । गङ्गायां चण्डवेगायो विद्याराधनकर्मणि ॥४०॥
निकल राजा मेघनादके साथ शत्रुके घर जा पहुंचा और भूखा बन दर्भका आसन ले परशुरामकी दानशालामें भोजनार्थं जा बैठा ।।२६।। ब्राह्मणके अग्रासनपर बैठे हुए कुमार सुभौमके आगे डाढ़ोंका पात्र रखा गया और उसके प्रभावसे समस्त डाढ़ें खीर रूपमें परिणत हो गयों ॥२७|| तदनन्तर अध्यक्षके आदमियोंने शीघ्र ही जाकर परशुरामके लिए इसकी सूचना दी और परशुराम उसे मारनेकी इच्छासे फरसा हाथमें लिये शीघ्र ही वहां आ पहुंचा ।।२८। जिस समय सुभौम थालीमें आनन्दसे खीरका भोजन कर रहा था उसी समय परशुरामने उसे मारना चाहा। परन्तु सुभौमके पुण्य प्रभावसे वह थालो चक्रके रूपमें परिवर्तित हो गयी और उसीसे उसने शीघ्र ही परशुरामको मार डाला ।।२९।। सुभौम अष्टम चक्रवर्तीके रूपमें प्रकट हुआ। चौदह रत्न, नौ निधियां और मुकुटबद्ध बत्तीस हजार राजा उसको सेवा करने लगे ॥३०॥ स्त्रोरत्नके लाभसे सन्तुष्ट हुए चक्रवर्ती सुभौमने मेघनादको विद्याधरोंका राजा बना दिया जिससे शक्तिसम्पन्न हो उसने वज्रपाणिको मार डाला ॥३१॥ तदनन्तर शठके प्रति शठता दिखानेवाले सुभौम चक्रवर्तीमे भी क्रोधयुक्त हो चक्ररत्नसे इक्कीस बार पृथिवीको ब्राह्मण-रहित किया ॥३२॥ चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष तक जीवित रहा परन्तु तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ इसलिए आयुके अन्तमें मरकर सातवें नरक गया ॥३३।। राजा मेघनादको सन्ततिमें आगे चलकर छठा राजा बलि हुआ। बलि विद्याबलसे उद्दण्ड था, और तीन खण्डका स्वामी प्रतिनारायण था ॥३४|| उसी समय नन्द और पुण्डरीक नामक बलभद्र तथा नारायण विद्यमान थे और अतिशय बलके धारक इन्हीं दोनोंके द्वारा युद्ध में बलि मारा गया ॥३५|| बलिके वंशमें सहस्रगीव, पंचशतग्रीव और द्विशतग्रीवको आदि लेकर जब बहुत-से विद्याधर राजा हो चुके तब हे यादव ! विद्युद्वेग नामका राजा उत्पन्न हुआ। वह विद्युद्वेग हमारा पिता है तथा आपका श्वसुर है ॥३६-३७|| एक दिन राजा विद्युद्वेगने अवधिज्ञानी मुनिराजसे पूछा कि हे भगवन् ! हमारी इस मदनवेगा पुत्रीका पति कौन होगा ? ॥३८॥ मुनिराजने कहा कि रात्रिके समय गंगामें स्थित होकर विदा सिद्ध करनेवाले तुम्हारे चण्डवेग नामक पुत्रके कन्धेपर जो गिरेगा उसीकी यह स्त्री होगी ॥३९।। यह निश्चय करके पिताने अपने चण्डवेग नामक १. दंष्ट्राभोजन म.। २. पात्र्या। ३. तथैवाशु म.। ४. तथा म.। ५. सर्वस्याः भूमेरधिपः सार्वभौमः चक्रवर्ती । ६. सन्तानो म. । ७. हलशक्रधरौ म.।
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हरिवंशपुराणे
नमस्तिलकनाथश्च खेटस्त्रिशिखरः खलः । याचित्वैनां स्वपुत्राय सूर्यकाय न लब्धवान् ॥४१॥ युद्धे रन्ध्रमसौ लब्ध्वा बध्वास्मजनकं व्यधात् । वैरानुबन्धबुद्धि स्तं बन्धनागारवत्तिनम् ॥४२॥ संप्राप्तश्च त्वमस्माभिः सांप्रतं पुरुविक्रमः । श्वशुरस्यारिबद्धस्य कुरु बन्धविमोक्षणम् ॥४३॥ पूर्वजानां च दत्तानि सुभौमेन प्रसादिना । विद्यास्त्राणि गृहाणेश ! शात्रवस्य जिघांसया ॥४४॥ श्रुत्वा दधिमुखस्योक्तं वसुदेवः प्रतापवान् । श्वशुरस्य विमोक्षार्थ मतिमात्मनि चादधे ॥४५॥ चण्डवेगस्ततस्तस्मै विद्यास्त्राणि बहून्यसौ । विधिपूर्व ददौ यूने सेवितानि सुरैः सदा ॥४६॥ अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम्ना लोकोत्सादनमप्यतः । आग्नेयं वारुणं चास्त्रं माहेन्द्रं वैष्णवं तथा ॥४७॥ यमदण्डमथैशानं स्तम्भनं मोहनं तथा । वायव्यं जम्मणं चापि बन्धनं मोक्षणं ततः ॥४८॥ विशल्यकरणं चास्त्रं व्रणसंरोहणं तथा । सर्वास्त्रच्छादनं चैव छेदन हरणं परम् ॥४९॥ एवमाद्यानि चान्यानि सरहस्यानि यादवः । चण्डवेगवितीर्णानि जग्राहास्त्राणि सादरः ॥५०॥ स्वयमेव बलोद्रेकात् करत्रिशिखरो बलैः । युयुत्सुरागमक्षिप्रं चण्डवेगपुरान्तिकम् ॥५१॥ गत्वा बध्यः स्वयं प्राप्तः समीपमिति तोषवात् । शौरिः श्वशुरपुत्रादिबलेनामा विनिर्ययौ ॥५२॥ खेचराणां निकायस्य मध्ये स यदुनन्दनः । कल्प्यवासिनिकायस्य पुरन्दर इवाबभौ ॥५३॥ खे मातङ्गनिकायस्य मध्ये त्रिशिखरो बमौ । रौद्रासुरनिकायस्य यथैव चमरासुरः ॥५४॥ विमानैश्च महामानैर्गजैश्च मदमत्सरैः । तुरङ्गैर्वायुवेगैश्च बलयोः स्थगित नभः ॥५५॥
पुत्रको तेज वेगसे युक्त गंगा नदी में विद्या सिद्ध करनेके कार्यमें नियुक्त किया ॥४०॥ नभस्तिलक नगरका राजा त्रिशिखर नामका दुष्ट विद्याधर, अपने सूर्यक नामक पुत्रके लिए इस कन्याको कई बार याचना कर चुका था पर इसे प्राप्त नहीं कर सका ॥४१॥ इसलिए सदा वर रखता था। एक दिन युद्धमें अवसर पाकर उसने हमारे पिताको बाँधकर कारागृहमें डाल दिया ।।४२।। इस समय प्रबल पराक्रमको धारण करनेवाले आप हम सबको प्राप्त हुए हैं इसलिए शत्रुके द्वारा बन्धनको प्राप्त अपने श्वसुरको शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त करो ॥४३॥ सुभौम चक्रवर्तीने प्रसन्न होकर हमारे पूर्वजोंके लिए जो विद्यास्त्र दिये थे हे स्वामिन् ! शत्रुका धात करनेकी इच्छासे उन्हें ग्रहण कीजिए॥४४॥
इस प्रकार दधिमुखके कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेवने श्वसुरको छुड़ानेके लिए मनमें विचार किया ॥४५॥ तदनन्तर चण्डवेगने युवा वसुदेवके लिए देव जिनकी सदा सेवा करते थे ऐसे बहुत-से विद्यास्त्र विधिपूर्वक प्रदान किये ॥४६॥ उनमें से कुछ विद्यास्त्रोंके नाम ये हैं-ब्रह्मशिर, लोकोत्सादन, आग्नेय, वारुण, माहेन्द्र, वैष्णव, यमदण्ड, ऐशान, स्तम्भन, मोहन, वायव्य, जृम्भण, बन्धन, मोक्षण, विशल्यकरण, व्रणरोहण, सर्वास्त्रच्छादन, छेदन और हरण ॥४७-४९।। इस प्रकार इन्हें आदि लेकर चलाने और संकोचनेको विधि सहित अन्य अनेक विद्यास्त्र वण्डवेगने कुमार वसुदेवके लिए दिये और उन्होंने आदरके साथ उन्हें ग्रहण किया ॥५०॥ उस समय बलको अधिकतासे युद्धकी इच्छा रखता हुआ दुष्ट त्रिशिखर, स्वयं ही सेनाओंके साथ शीघ्र चण्डवेगके नगरके समीप आ पहुँचा ॥५१॥ 'जिसे जाकर बाँधना था वह स्वयं ही पास आ गया' यह विचारकर सन्तुष्ट होते हुए वसुदेव, अपने सालों आदिकी सेनाके साथ बाहर निकले ॥५२॥ विद्याधरोंके झुण्डके बीच वह वसुदेव कल्पवासी देवोंके समूहके बीच इन्द्र के समान सुशोभित हो रहे थे॥५३॥ और आकाशमें खड़े मातंग जातिके विद्याध रोंके बीच त्रिशिखर क्रूर असुरोंके बीच में स्थित चमरेन्द्रके समान सुशोभित हो रहा था ॥५४॥ दोनों ही सेनाओंके बड़े-बड़े विमानों, मदोन्मत्त हाथियों और वायुके समान वेगशाली घोड़ोंसे आकाश आच्छादित हो गया ॥५५।। शस्त्र-समूहकी किरणोंसे जिन्होंने सूर्यको किरणोंको आच्छादित कर दिया था तथा जो तुरही आदि वादित्रोंके शब्दसे १. शक्त्यतिरेकात् । २. सह । ३. आच्छन्नम् ।
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पञ्चविंशः सर्गः
शस्त्रजालकरच्छन्नचण्डांशुकरयोरभूत् । तूर्यादिरवतोषिण्योः संघातो व्योम्नि सेनयोः ॥ ५६ ॥ आकर्णाकृष्टको दण्डमण्डलोन्मुक्त सायकैः । अभिद्यत नृणां बाह्या नान्तःस्था हृदयस्थली ॥५७॥ अच्छिद्यन्त शिरांस्प्रचक्रधाराभिराहवे । शशिशङ्खविशुद्धानि न यशांसि मनस्विनाम् ॥ ५८ ॥ पपात सुमटः खड्गधारापातेन मूर्च्छितः । अनेकरणनियू ढप्रतापस्तु न संयुगे ॥ ५९ ॥ घोरमुद्गरघातेन चक्षुर्बभ्राम मानिनः । विपक्षस्य जयोद्ग्रासघस्मरं तु न मानसम् ॥६०॥ गजाश्त्ररथपादातं यथास्त्रं सुमनोरथम् । युयुधे युधि धैर्येण शौर्येण च विशेषितम् ॥ ६१॥ शस्त्रार्थैः प्राकृतैर्योधाः कृतयुद्ध महोत्सवाः । युद्ध श्रमविनिर्मुक्ताश्विरं युयुधिरेऽधिकम् ॥६२॥ सौकाङ्गागारिनीलकण्ठपुरोगमाः । पुरस्कृत्य जिताश्चण्डाश्चण्ड वेगेन वेगिना ॥६३॥ जवनाश्वरथारूढं नानाशस्त्रास्त्र भीषणम् । अभेदधिमुखं शौरिं प्राप्तस्त्रिशिखरोऽभितः ॥ ६४ ॥ प्राकृतास्त्रैस्तयोरासीत्प्रथमं प्रधनं महत् । परस्परशरासारख्याप्ताशान्तान्तरिक्षयोः ॥६५॥ क्षिप्रं चिक्षेप चाग्नेयमस्त्रं शौरिर्धनुर्धरः । रौद्रज्वालाकुलेनाशु तेनादाहि रिपोर्बलम् ॥ ६६ ॥ अस्त्रेण वारुणेनारिर्विध्याप्याग्नेयमाहवे । मोहनेन महास्त्रेण शौरिसैन्यं व्यमोहयत् ॥ ६७ ॥ चित्तप्रसादनेनाशु मोहनास्त्रमपास्य सः । शौरिर्व्यनाशयद् व्योम्ति वायव्येन च वारुणम् || ६८॥ क्षिप्रं क्षिप्रं निरस्यासावस्त्रमस्त्रेण वैरिणः । माहेन्द्रास्त्रेण चिच्छेद शिरस्तस्य यदूत्तमः ॥ ६९ ॥ तस्मिन्नस्तमिते दीप्ते क्षिप्रं शेषा नभश्वराः । नेशुराशाः परित्यज्य रखावित्र करोत्कराः ॥७०॥
अपना सन्तोष प्रकट कर रही थीं ऐसो दोनों सेनाओंकी आकाशमें मुठभेड़ हुई || ५६ || कानों तक खींचे 'हुए धनुष-मण्डलोंसे छूटे बाणोंसे मनुष्यों के बाह्य हृदय तो खण्डित हुए परन्तु अन्तर्मन हृदय नहीं || ५७ ॥ युद्ध में चक्रों की तीक्ष्ण धाराओंसे तेजस्वी मनुष्योंके शिर तो कटे थे परन्तु चन्द्रमा और शंखके समान उज्ज्वल यश नहीं ||५८ || युद्ध में तलवारकी धारके पड़ने से मूच्छित हुआ Da तो गिरा था, परन्तु अनेक युद्धों में वृद्धिको प्राप्त हुआ प्रताप नहीं ||५९ ॥ मुद्गरकी भयंकर चोटसे अभिमानीका नेत्र तो घूमने लगा था परन्तु शत्रुकी विजयरूपी उत्कृष्ट ग्रासको खानेवाला मन नहीं ||३०|| युद्धस्थलमें धीरता और शूरता से विशेषताको प्राप्त हुई हाथी, घोड़ा, रथ और पयादोंकी - चतुरंगिणी सेना, अपनो-अपनी इच्छानुसार यथायोग्य रीतिसे युद्ध कर रही थी ||६१|| जो योद्धा पहले साधारण शस्त्रोंसे युद्धका महोत्सव मनाया करते थे वे भी उस समय युद्धजन्य परिश्रमसे रहित हो चिरकाल तक अधिक युद्ध करते रहे || ६२॥ सौपक, अंगार, वेगारि तथा नीलकण्ठ आदि शत्रुपक्षके जो प्रमुख शूरवीर थे वेगशाली चण्डवेगने सामना कर उन सबको जीत लिया ॥ ६३ ॥ तदनन्तर जो वेगशाली घोड़ों के रथपर आरूढ़ थे, नाना शस्त्र और अस्त्रोंसे भयंकर थे, तथा जिनके आगे रथ हाँकनेके लिए दधिमुख विद्यमान था ऐसे वसुदेव के सामने त्रिशिखर आया || ६४ || परस्परको बाण वर्षासे जिन्होंने दिशाओंके अन्त तथा आकाशको व्याप्त कर रखा था ऐसे उन दोनों का पहले तो साधारण शस्त्रोंसे महायुद्ध हुआ किन्तु पीछे धनुर्धारी वसुदेवने शीघ्र ही आग्नेय अस्त्र छोड़ा जिसकी भयंकर ज्वालाओंसे शत्रुकी सेना तत्काल जलने लगी ।।६५-६६।। उधर शत्रुने वारुणास्त्र के द्वारा आग्नेयास्त्रको बुझाकर मोहन नामक महा अस्त्रसे वसुदेवकी सेनाको विमोहित कर दिया || ६७ || इधर वसुदेवने चित्तप्रसादन नामक अस्त्रसे मोहनास्त्रको दूर हटा दिया और आकाशमें वायव्य अस्त्र चलाकर वारुणास्त्रको नष्ट कर दिया || ६८ || इस प्रकार अपने प्रतिद्वन्द्वी शस्त्रसे शत्रुके शस्त्रको शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर वसुदेवने माहेन्द्रास्त्र के द्वारा शत्रुको काट डाला ||६९ || जिस प्रकार सूर्यके अस्त होनेपर किरणोंके समूह दिशाएँ छोड़कर १. युद्धभ्रम - म. । २. शौर्यकांगारि म ।
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हरिवंशपुराणे ततः शौरिः समस्तैस्तैरात्मीयैः खेचरैर्वृतः । श्वसुरं बन्धनागाराद्विमोच्य स्वपुरं ययौ ॥७॥
दोधकवृत्तम्
दुर्जयमप्यरिलोकमनेकैः शौर्यसखो निखिलं खचरौघैः। आशु विजित्य जनो जिनधर्मादाश्रयतामिह याति बहूनाम् ॥७२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो मदनवेगालाभत्रिशिखरवधवर्णनो
नाम पञ्चविंशः सर्गः ॥२५॥
नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार देदीप्यमान त्रिशिखिरके अस्तमित होते ही शेष विद्याधर दिशाएँ ( अथवा अभिलाषाएं) छोड़कर नष्ट हो गये-भाग गये ||७०॥ तदनन्तर अपने पक्षके समस्त विद्याधरोंसे घिरे हुए वसुदेव, कारागृहसे श्वसुरको छुड़ाकर अपने नगर वापस गये ॥७१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्मके प्रसादसे एक प्रतापी मनुष्य, अनेक विद्याधरोंके समूहसे दुर्जेय समस्त शत्रुओंको शीघ्र ही जीतकर बहुत-से मनुष्योंकी आश्रयताको प्राप्त हो जाता है-उनके द्वारा सेवनीय हो जाता है अतः सदा जिनधर्मको उपासना करनी चाहिए ॥७२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मदनवेगाके
लाभ और त्रिशिखिरके वधका वर्णन करनेवाला पचीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥
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षड्विंशः सर्गः
'शौरमंदनवेगायां मदनप्रतिमोऽभवत् । अनावृष्टिरिति ख्यातस्तनयो नयविबली ॥१॥ सस्त्रीकाः खेचरा याताः सिद्धकूटजिनालयम् । एकदा वन्दितुं सोऽपि शौरिः मदनवेगया ॥२॥ कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् । तस्थुः स्तम्भानुपाश्रित्य बहुवेषा यथायथम् ॥३॥ विद्यद्वेगोऽपि गौरीणां विद्यानां स्तम्भमाश्रितः । कृतपूजास्थितिः श्रीमान् स्वनिकायपरिष्कृतः ॥४॥ पृष्टया वसुदेवेन ततो मदनवेगया। विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीत्तिताः ॥५॥ अस्मदीयं विमो स्तम्भं ये श्रिताः पद्मपाणयः । पद्ममालाधरास्तेऽमी गौरिकाख्या नभश्चराः ॥६॥ रक्तमालाधराश्चैते रक्तकम्बलवाससः। गान्धारस्तम्भमाश्रित्य गान्धाराः खेचराः स्थिताः ॥७॥ नानावर्णमयस्वर्णपीतकौशेयवाससः । मानवस्तम्भमेत्यामी स्थिता मानवपुत्रकाः ॥८॥ किंचिदारक्तवस्त्रा ये लसन्मणिविभूषणाः । मानस्तम्ममिता ह्येते खेचरा मनुपुत्रकाः ॥९॥ विचित्रौषधिहस्तास्तु विचित्राभरणस्रजः । ओषधिस्तम्भमायाता मूलवीर्या नभश्चराः ॥१०॥ सर्वत्र्तुकुसुमामोदकाञ्चनामरणस्त्रजः । अन्तभूमिचरा ह्येते ये स्तम्भे भूमिमण्डके ।।११॥ विचित्रकुण्डलाटोपा ये नामाङ्गदभूषणाः । शङ्कुस्तम्माश्रितास्तेऽमी शङ्ककाः खचराः प्रभो ॥१२॥ आबद्धमुकुटापीडविलसन्मणिकुण्डलाः । ये तेऽमी कौशिकाः खेटाः कौशिकस्तम्ममाश्रिताः ॥१३॥
अथानन्तर कुमार वसुदेवसे मदनवेगामें कामदेवके समान सुन्दर अनावृष्टि नामका नीतिज्ञ और बलवान् पुत्र उत्पन्न हुआ ॥१॥ एक दिन अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ विद्याधर सिद्धकूट जिनालयको वन्दना करनेके लिए गये सो कुमार वसुदेव भी मदनवेगाके साथ वहां पहुंचे ॥२।। नाना प्रकारके वेषोंको धारण करनेवाले विद्याधर जिनेन्द्र भगवानकी पूजा कर तथा प्रतिमा-गहोंकी वन्दना कर यथायोग्य स्तम्भोंका आश्रय ले बैठ गये ॥३।। शोभासम्पन्न विद्युद्वेग भी भगवान्की पूजा कर अपने निकायके लोगोंके साथ गौरो विद्याओंके स्तम्भका सहारा ले बैठ गया ।।४।। तदनन्तर वसुदेवने मदनवेगासे विद्याधर निकायोंका परिचय पूछा सो वह यथायोग्य इस प्रकार उनका वर्णन करने लगी ॥५॥
उसने कहा कि हे नाथ ! जो ये हाथमें कमल लिये तथा कमलोंकी माला धारण किये हमारे खम्भाके आश्रय बैठे हैं वे गौरिक नामके विद्याधर हैं ॥६॥ ये लाल मालाएं धारण किये तथा लाल कम्बलके वस्त्रोंको पहने हुए गान्धार खम्भाका आश्रय ले गान्धार जातिके विद्याधर बैठे हैं ||७|| ये जो नाना वर्णों से युक्त एवं सुवर्णके समान पीले वस्त्रोंको धारण कर मानव स्तम्भके सहारे बैठे हैं वे मानवपुत्रक विद्याधर हैं ॥८॥ जो कुछ-कुछ लाल वस्त्रोंसे युक्त एवं मणियोंके देदीप्यमान आभूषणोंसे सुसज्जित हो मानस्तम्भके सहारे बैठे हैं वे मनुपुत्रक विद्याधर हैं ॥९॥ नाना प्रकारकी ओषधियां जिनके हाथमें हैं तथा जो नाना प्रकारके आभूषण और मालाएं पहनकर ओषधि स्तम्भके सहारे बैठे हैं वे मूलवीर्य विद्याधर हैं ॥१०॥ सब ऋतुओंके फूलोंकी सुगन्धिसे युक्त स्वर्णमय आभरण और मालाओंको धारण कर जो भूमिमण्डक स्तम्भके समीप बैठे हैं वे अन्तर्भूमिचर विद्याधर हैं ॥११॥ हे प्रभो ! जो चित्र-विचित्र कुण्डल पहने तथा सर्पाकार बाजू-बन्दोंसे सुशोभित हो शंकु स्तम्भके समीप बैठे हैं वे शंकुक नामक विद्याधर हैं ॥१२॥ जिनके मुकुटोंपर सेहरा बंधा हुआ है तथा जिनके मणिमय कुण्डल देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसे ये कौशिक स्तम्भके आश्रय कौशिक १. शौरिमंदन -म.। २. विद्याधराः।
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हरिवंशपुराणे
अमी विद्याधरा झार्याः समासेन समीरिताः। मातङ्गानामपि स्वामिन् निकायान् शृणु वच्मि ते ॥१४॥ नीलाम्बुदचयश्यामा नीलाम्बरवरस्त्रजः । अमी मातङ्गनामानो मातङ्गस्तम्भसंगताः ॥१५॥ श्मशानास्थिकृतोत्तंसा भस्मरेणुविधूसराः । श्मशाननिलयास्त्वेते श्मशानस्तम्भसंश्रिताः ॥१६॥ नीलवंडूर्यवर्णानि धारयन्त्यम्बराणि ये: पाण्डुरस्तम्भमेत्यामी स्थिताः पाण्डकखेचराः ॥१७॥ कृष्णाजिनधरास्वेते कृष्णचर्माम्बरस्रजः । कालस्तम्भं समभ्येत्य स्थिताः कालश्वपाकिनः ॥१८॥ पिङ्गलैमधयुकास्तप्तकाञ्चनभूषणाः । श्वपाकीनां च विद्यानां धिताः स्तम्भं श्वपाकिनः ॥१९॥ पंत्रिपर्णाशुकच्छन्नविचित्रमुकुटस्रजः । पार्वतेया इति ख्याताः पार्वतं स्तम्भमाश्रिताः ॥२०॥ वंशीपत्रकृतोत्तंसाः सर्व कुसुमस्रजः । वंशस्तम्भाश्रिताश्चैते खेटा वंशालया मताः ॥२१॥ महाभुजगशोभाङ्कसंदष्टवरभूषणाः । वृक्षमूलमहास्तम्भमाश्रिता वार्भमूलिकाः ॥२२॥ स्ववेषकृतसंचाराः स्वचिह्नकृतभूषणाः । समासेन समाख्याता निकायाः खचरोद्गताः ॥२३॥ इति भार्योपदेशेन ज्ञातविद्याधरान्तरः । शौाितो निजं स्थानं खेचराश्च यथायथम् ॥२४॥ शौरिर्मदनवेगां तामेकदा तु कुतश्चन । एहि वेगवतीत्याह सापि रुष्टाविशद्गृहम् ॥२५॥ प्रज्वाल्यात्रान्तरे गेहान् शौरि त्रिशिखराङ्गना। श्रिवा मदनवेगाभां सूर्पणख्याहरच्छलात् ॥२६॥
जातिके विद्याधर बैठे हैं ॥१३॥ हे स्वामिन ! अभी मैंने संक्षेपसे आर्य विद्याधरोंका वर्ण है अब आपके लिए मांतग विद्यावरोंके भी निकाय कहती हूँ सो सुनिए ॥१४॥
जो नील मेघोंके समूहके समान श्याम वर्ण हैं तथा नीले वस्त्र और नीली मालाएं पहने हैं वे मातंग स्तम्भके समीप बैठे मातंग नामके विद्याधर ॥१५॥ जो श्मशानकी हडि निर्मित आभूषणोंको धारण कर भस्मसे धूलि-धूसर हैं वे श्मशान स्तम्भके आश्रय बैठे हुए श्मशाननिलय नामक विद्याधर हैं ।।१६।। जो ये नीलमणि एवं वैडूर्यमणिके समान वस्त्रोंको धारण किये हुए हैं तथा पाण्डुर स्तम्भके समीप आकर बैठे हैं वे पाण्डुक नामक विद्याधर हैं ॥१७॥ जो ये काले मृगचर्मको धारण किये तथा काले चमड़ेसे निर्मित वस्त्र और मालाओंको पहने हुए कालस्तम्भके पास आकर बैठे हैं वे कालश्वपाकी विद्याधर हैं ॥१८।। जो पीले-पीले केशोंसे युक्त हैं, तपाये हुए स्वर्णके आभूषण पहने हैं और श्वपाको विद्याओंके स्तम्भके सहारे बैठे हैं वे श्वपाको विद्याधर हैं ॥१९।। जो वृक्षोंके पत्तों के समान हरे रंगके वस्त्रोसे आच्छादित है तथा नाना प्रकारके मुकूट और मालाओको धारण कर पावंत स्तम्भके सहारे बैठे हैं वे पार्वतेय नामसे प्रसिद्ध हैं ॥२०॥ जिनके आभूषण बाँसके पत्तोंके बने हुए हैं तथा जो सब ऋतुओंके फूलोंकी मालाओंसे युक्त हो वंशस्तम्भके आश्रय बैठे हैं वे वंशालय विद्याधर माने गये हैं ।।२१।। जिनके उत्तमोत्तम आभूषण महासर्पोके शोभायमान चिह्नोंसे युक्त हैं तथा जो वृक्षमूल नामक महास्तम्भोंके आश्रय बैठे हैं वे वार्भमूलिक नामक विद्याधर हैं ।।२२।। जो अपने-अपने निश्चित वेषमें ही भ्रमण करते हैं तथा जो आभूषणोंको अपनेअपने चिह्नोंसे अंकित रखते हैं ऐसे इन विद्याधरोंके निकायोंका संक्षेपसे वर्णन किया प्रकार आर्या मदनवेगाके कथनसे विद्याधरोंका अन्तर जानकर वसूदेव अपने स्थानपर चले गये तथा अन्य विद्याधर भी यथायोग्य अपने-अपने स्थानोंको ओर रवाना हुए ॥२४॥
अथानन्तर एक दिन कुमार वसुदेवने किसी कारणवश मदनवेगासे 'आओ वेगवति !' यह कह दिया जिससे रुष्ट होकर वह घरके भीतर चली गयी ॥२५।। उसी समय विशिखर विद्याधरको विधवा पत्नी शूर्पणखो, मदनवेगाका रूप धरकर तथा अपनी प्रभासे महलोंको एकदम
१. पर्णपत्रांशुक-म., पत्रपर्णांशुक-ग. । २. गताः म. । ३. गेहात म. । ४. सूर्यनख्य-म., ख. ।
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षडविंशः सर्गः
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अन्तरिक्षे मुमुक्षस्तमद्राक्षीद द्वागधोऽन्तरे । रिपुं मानसवेगाख्यमकस्मात्समुपस्थितम् ॥२७॥ विमुच्य 'वियतः शौरिमारणे विनियुज्य तम् । यथेष्टं सा गता सोऽपि पपात तृणकूट के ॥२८॥ गीयमानं नरैः श्रुत्वा जरासन्धयशः सितम् । ज्ञात्वा राजगृहं तुष्टः प्रविष्टः पुरमुत्तमम् ॥२९॥ यते जिरवा हिरण्यस्य कोटिमत्र जनार्य सः । त्यागशीलो ददी सर्वा सर्वस्मै तामितस्ततः ॥३०॥ जरासन्धस्य हन्तारमीदग्ना जनयिष्यति । इति नैमित्तिकादेशादीदुगन्विष्यते तदा ॥३॥ दृष्ट्वा च तं तदाध्यक्षमस्वारुद्धृतनुश्च सः । नीस्वा मुक्तो गिरेरग्रान् म्रियतामिति तत्क्षणे ॥३२॥ ततः पतनसौ वेगाद्वेगवत्या तो बलाद । नीयमानस्तया क्वापि चिन्तामेतामुपागतः ॥३३॥ भारुण्डैरण्डजैः पूर्व चारुदत्तो यथाहृतः । तथाहमपि नूनं तैर्दुरन्तं किं नु मे भवेत् ॥३४॥ दुरन्ता बन्धुसंबन्धा दुरन्ता मोगसंपदः । दुरन्ताः कान्तिकायाश्च तथापि स्वन्तधीर्जनः ॥३५॥ पुण्यपापकृदेकोऽयं भोक्ता च सुखदुःखयोः । जायते म्रियते चात्मा तथापि स्वजनोन्मुखः ॥३६॥ त एव सुखिनो धीरास्त एव स्वहिते स्थिताः । विहाय भोगसंबन्धान ये स्थिता मोक्षवर्मनि ॥३७॥ भोगतृष्णोमिनिमग्ना वयं तु गुरुकमेकाः । संसारसुखदुःखातो मुहुः कुमो विवर्तनम् ॥३८॥ इत्यादि चिन्तयन् वोरो वेगवत्या गिरेस्तटे । अवतायैष भस्त्रायाः समाकृष्य बहिः कृतः ॥३९॥
प्रज्वलित कर छलसे वसुदेवको हर ले गयी ।।२६।। वह उन्हें आकाशमें ले जाकर छोड़ना ही चाहती थी कि उसे नोचे आकाशमें अकस्मात् आता हुआ कुमारका वैरी मानसवेग विद्याधर दिखा। आकाशसे छोड़कर कुमारको मार दिया जाये इस कार्यमें मानसवेगको नियुक्त कर सूर्पणखी यथेष्ट स्थानपर चली गयो और कुमार घासकी गंजीपर नीचे गिर गये ॥२७-२८॥ वहाँ मनुष्यों के द्वारा गाये हुए जरासन्धके उज्ज्वल यशको सुनकर कुमारने जान लिया कि यह राजगृह नगर है अतः उन्होंने सन्तुष्ट होकर उस उत्तम नगर में प्रवेश किया ॥२९।। राजगृह नगरमें कुमारने जुए में एक करोड स्वर्णकी मद्राएं जीतीं और दानशील बनकर सबकी सब यहाँ-वहाँ समस्त लोगोंको बाँट दीं ॥३०॥ निमित्तज्ञानियोंने जरासन्धको बतलाया था कि जो जुएमें एक करोड़ सुवर्ण मुद्राएं जीतकर बाँट देगा वह तुम्हें मारनेवाले पुत्रको उत्पन्न करेगा। निमित्तज्ञानियोंके आदेशानुसार वहां उस समय ऐसे व्यक्तिको खोज हो रही थी ॥३१।। जरासन्धके अधिकारियोंने वसुदेवको देखकर पकड़ लिया और 'तत्काल मर जाये' इस भावनासे उन्हें एक चमड़ेकी भाथड़ीमें बन्द कर पहाड़की चोटीसे नीचे छोड़ दिया ॥३२॥ वसुदेव नीचे गिर हो रहे थे कि अकस्मात् वेगवतीने वेगसे आकर जोरसे उन्हें पकड़ लिया। जब वेगवती उन्हें पकड़कर कहीं ले जाने लगी तब वे मनमें ऐसा विचार करने लगे कि देखो! जिस प्रकार पहले भारुण्ड पक्षी चारुदत्तको हर ले गये थे उसी प्रकार जान पड़ता है मझे भी भारुण्ड पक्षी हरकर लिये जा रहे हैं. न जानें अब क्या दःख होता है ? ॥३३-३४।। ये बन्धुजनोंके सम्बन्ध दुरन्त-दुःखदायक हैं, भोग सम्पदाएँ दुरन्त हैं, और कान्तिपूर्ण शरीर भी दुरन्त है फिर भी मूर्ख प्राणी इन्हें स्वन्त - सुखदायक समझता है ।।३५।। वह जीव अकेला ही पुण्य और पाप करता है, अकेला ही सुख और दुःख भोगता है, और अकेला हो पैदा होता तथा मरता है फिर भी आत्मीयजनोंके संग्रह करनेमें तत्पर रहता है ॥३६॥ वे ही धोर, वीर मनुष्य सुखी हैं और वे ही आत्महितमें लगे हुए हैं जो भोगोंसे सम्बन्ध छोड़कर मोक्षमार्गमें स्थित हैं ॥३७|| हमारे कर्म बड़े वजनदार हैं इसलिए हम भोग तृष्णारूपी तरंगोंमें डूब रहे हैं तथा सुख-दुखको प्राप्ति में हो बार-बार परिभ्रमण करते-फिरते हैं ।।३८॥
तदनन्तर इस प्रकार चिन्तन करते हुए वोर वसुदेवको वेगवतीने पर्वतके तटपर उतारा
१. वियति म. । २. ईदृशो नरः । ३. पतदसौ म. । ४. यथादृतः म. ।
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हरिवंशपुराणे
पतिं वेगवती दृष्ट्वा रुरोद विरहाकुला । परिष्वज्य स तां मेने स्वपराङ्गसुखासिकाम् ॥४०॥ ततस्तेन प्रिया पृष्टा तस्मै सर्वं न्यवेदयत् । हृते मर्त्तरि यद्वृत्तं सुखदुःखं निजास्पदे ॥४१॥ द्वयोरन्वेषितः श्रेण्योर्यथारण्यपुरादिषु । पर्यटन्त्या चिरं क्षेत्रं भारताख्यमशेषतः ॥ ४२ ॥ पाइ मदनवेगायाः पत्युर्दर्शनमेतया । वियोगमपि काङ्क्षत्या स्वस्याः स्थानमलक्षितम् ॥४३॥ श्रित्वा मदनवेगाया रूपं त्रिशिखभार्यया । सूर्पणख्या हृतिं चाख्यत्खमुत्क्षिप्य जिघांसया ॥४४॥ अमुतोऽधित्यकातस्त्वमापत्य विष्टतो मया । तीर्थं पञ्चनदं चात्रिं होमन्तमधितिष्ठसि ॥४५॥ इत्यावेदितवृत्तान्तः स तया चन्द्रवक्त्रया । रेमे तत्र धुनीधीरध्वानहारिषु सानुषु ॥४६॥ सोsटन् यदृच्छयाद्राक्षीनागपाशवशां दृढम् । धन्यां कन्यां यथा वन्यां नागपाशवशां वशाम् ॥४७॥ तदार्द्रहृदये नद्वाँ तामुद्यन्मुखकान्तिकाम् । व्यपाशयदसौ पाशात्पापपाशाद् यथा यतिः ॥४८॥ मुक्तबन्धा च नत्वा सा तमचिन्तितबान्धवम् । प्रसादात्तव मे नाथ ! सिद्धा विद्येत्यभाषत ॥ ४९ ॥ शृणु स्वं दक्षिणश्रेण्यां पुरे गगनवल्लभे । विद्युदंष्ट्रान्दयोत्थाहं बालचन्द्रा नृपात्मजा ॥५०॥ साधयन्ती महाविद्यां नयां विद्याभृतारिणा । नागगशैरहं बद्धा मोचिता भवता विभो ॥५१॥ अन्ववायेऽस्मदीयेऽन्या कन्या केतुमतीत्यभूत् । मोचिताहमिवाकाण्डे पुण्डरीकार्धचक्रिणा ॥५२॥
और भाथड़ीसे खींचकर बाहर निकाला ||३९|| पतिको देख वेगवती विरहसे आकुल हो रोने लगी और वसुदेवने भी उसका आलिंगन कर उसे स्वपरके शरीरके लिए सुख देनेवाली माना ||४०|| तदनन्तर वसुदेवके द्वारा पूछी प्रिया वेगवतीने पतिके हरे जानेपर अपने घर जो सुख-दुख उठाया था वह सब उनके लिए कह सुनाया || ४१|| उसने कहा कि मैंने आपको विजयाधंकी दोनों श्रेणियों में खोजा, अनेक वन और नगरोंमें देखा तथा समस्त भरत क्षेत्रमें चिरकाल तक भ्रमण किया परन्तु आपको प्राप्त न कर सकी ||४२|| बहुत घूमने-फिरनेके बाद मैंने मदनवेगाके पास आपको देखा । सो देखकर यह विचार किया कि यहाँ रहते हुए भले ही आपके साथ वियोग रहे पर आपके दर्शन तो पाती रहूँगी । इसी विचारसे मैंने वहाँ अलक्षित रूपसे रहने की इच्छा की परन्तु त्रिशिखरकी भार्या शूर्पणखी मदनवेगाका रूप धरकर आपके पास आयी और मारने की इच्छासे हरकर आपको आकाशमें ले गयी ||४३-४४ || उधर उस पर्वतको चोटोसे आप नीचे गिराये जा रहे थे कि मैंने बीचमें ही लपककर आपको पकड़ लिया। इस समय आप पंचनद तीर्थं और हीमन्त नामक पर्वतपर विराजमान हैं || ४५ || इस प्रकार चन्द्रमुखी वेगवतीसे सब समाचार जानकर वसुदेव, नदियोंके गम्भीर शब्दसे सुन्दर हीमन्त पर्वतकी अधित्यकाओंपर क्रीड़ा करने लगे ||४६ || एक दिन कुमार वसुदेव अपनी इच्छानुसार वहाँ घूम रहे थे कि उन्होंने नागपाशसे बँधी हुई वनकी हतिनीके समान, नागपाशसे मजबूत बँधी हुई एक भाग्यशालिनी सुन्दर कन्याको देखा || ४७|| उसे देखते ही कुमारका हृदय दयासे आर्द्र हो गया इसलिए उन्होंने जिस प्रकार मुनि संसारके प्राणियों को पापरूपी पाशसे मुक्त कर देते हैं उसी प्रकार मुखकी फैलती हुई कान्तिसे युक्त उस बन्धनबद्ध कन्याको बन्धन से मुक्त कर दिया || ४८ ॥ बन्धन से छूटते ही उस कन्याने अतर्कित बन्धु - वसुदेवको नमस्कार किया और कहा कि हे नाथ! आपके प्रसादसे मेरी विद्या सिद्ध हो गयी है || ४९ ॥ सुनिए, मैं दक्षिण श्रेणीपर स्थित गगनवल्लभ नगरकी रहनेवाली राजकन्या हूँ, मेरा नाम बालचन्द्रा है ओर में विद्युदंष्ट्र के वंश में उत्पन्न हुई हूँ ||५० ॥ में नदी में बैठकर महाविद्या सिद्ध कर रही थी कि एक शत्रु विद्याधरने मुझे नागपाशसे बांध दिया और हे प्रभो ! आपने मुझे उस बन्धनसे मुक्त किया है ||५१ || हमारे वंश में पहले भी एक केतुमती
१. करिणीम् । २. नद्याम् म । ३. भविता म. ।
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षड्विंशः सर्गः
- ३६१ तस्यैव साभवत्पनी निःसपत्नं यथा तथा । अवश्यम्भाविनी पत्नी तवाहमिति बुध्यताम् ॥५३॥ त्वं गृहाण विमो विद्या विद्याधरसुदुर्लभाम् । इत्युक्तः सोऽवददेया वेगवत्यै ममेच्छया ॥५४॥ लब्धादेशा तथेत्युक्त्वा ततो वेगवतीमसौ । खमुरिक्षप्य ययौ कन्या पुरं गगनवल्लभम् ॥५५॥
शालिनीच्छन्दः विद्यादानं बालचन्द्राभिधाना विद्यां दत्वा कन्यका वेगवत्यै । सद्यो जाता मुक्तशल्या च जैन्यो विद्याधर्यः साधयन्स्यभ्युपेतम् ॥५६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसँग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती बालचन्द्रादर्शनवर्णनो नाम
षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
नामकी कन्या हो गयी है। उसे मेरे ही समान पुण्डरीक नामक अर्धचक्रोने अचानक आकर बन्धनसे मुक्त किया था और वह जिस प्रकार उसी अर्धचक्रीकी निविरोध पत्नी हो गयी थी उसी प्रकार में भी आपकी पत्नी अवश्य होनेवाली हूँ। यह आप निश्चित समझ लीजिए ॥५२-५३।। हे नाथ! आप विद्याधरोंके लिए अतिशय दुर्लभ इस विद्याको ग्रहण कीजिए । कन्याके इस प्रकार कहनेपर कुमार वसुदेवने कहा कि वह विद्या मेरी इच्छासे वेगवतीके लिए देने योग्य है ।।५४|| कुमारकी आज्ञा पाकर उसने 'तथास्तु' कह वेगवतीके लिए वह विद्या दे दी और तदनन्तर आकाशमें उड़कर वह गगनवल्लभ नगरको चली गयी ॥५५॥ कुमारी बालचन्द्रा, वेगवतीके लिए विद्यारूपी दान देकर शीघ्र ही निःशल्य हो गयो सो ठीक ही है क्योंकि जिनधर्मकी उपासना करनेवाली विद्याधरियां अपने मनोरथको शीघ्र ही सिद्ध कर लेती हैं ॥५६॥ इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें बालचन्द्राके
दर्शनका वर्णन करनेवाला छब्बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२६॥
१.निःसपत्नी म.। २. इत्युक्तोऽसौ वदद्देया म., क.,ख.। ३. नगरवल्लभम् म.। ४. विद्या क., ख.,।
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सप्तविंशः सर्गः
गोतमोऽत्रान्तरे पृष्टः स्वस्थेन मगधेशिना । विद्युदंष्ट्रो मुने ! कोऽसौ कीदृगाचरणोऽपि वा ॥ १ ॥ इत्युक्तो सोऽवदद्वंशे नमेर्गगनवल्लभे । विद्युदंष्ट्रोऽभवद् भर्त्ता श्रेण्योरद्भुतविक्रमः ॥२॥ अपरेभ्यो विदेहेभ्यः सोऽन्यदानीय योगिनम् । संजयन्तमिहोदारमुपसर्गमकारयत् ॥३॥ हेतुना केन नाथेति प्रश्नितः कौतुकाद् गणी । पुराणं संजयन्तस्य जगौ पापविनाशनम् ॥४॥ इहापरविदेहेऽस्ति विषयो गन्धमालिनी । वीतशोका पुरींहात्र वैजयन्तोऽभवन्नृपः ॥५॥ सर्वश्रीरिति भार्यास्य स्वयं श्रीरिव रूपिणी । संजयन्तजयन्ताख्यौ तस्याश्च तनयौ शुभौ ॥ ६ ॥ विहरन्नन्यदा यातः स्वयंभूस्तीर्थं कृत्ततः । धर्मं श्रुत्वा पिता पुत्रौ ते त्रयोऽपि प्रवव्रजुः ॥७॥ तेषां विहरतां सार्धं पिहितास्रवसूरिणा । संजातं वैजयन्तस्य केवलं घातिघातिनः ॥ ८ ॥ चतुर्णिकाय देवेषु वन्दमानेषु तं मुनिम् । जयन्तो वीक्ष्य धरणं निदानी' धरणोऽभवत् ॥९॥ स्वपुर्याश्च मनोहर्याः श्मशाने भीमदर्शने । सप्ताहप्रतिमो योगी संजयन्तोऽन्यदा स्थितः ॥१०॥ भद्राले वने स्त्रीभिर्विद्युदंष्ट्रोऽन्यदा चिरम् । रन्त्वा गच्छत्पुरं दृष्ट्वा संजयन्तं यदृच्छया ॥११॥ पूर्ववैरवशात्कुद्धस्तमानीयात्र भारते । वैताढ्यदक्षिणोपान्ते गिरौ वरुणनामनि ॥ १२ ॥
अथानन्तर इसी बीच में निश्चिन्ततासे बैठे हुए राजा श्रेणिकने गौतम स्वामीसे पूछा कि हे मुनिनाथ ! विद्युद्दंष्ट्र कौन था ? और उसका आचरण कैसा था ? ||१|| इस प्रकार पूछनेपर गौतम स्वामी कहने लगे कि नमिके वंश में गगनवल्लभ नामक नगर में एक विद्युद्दंष्ट्र नामका विद्याधर हो गया है जो दोनों श्रेणियोंका स्वामी था तथा अद्भुत पराक्रमसे युक्त था || २ || एक समय वह पश्चिम विदेह क्षेत्र से संजयन्त नामक मुनिराजको अपने यहां उठा लाया और उनपर उसने घोर उपसर्ग कराया ||३|| यह सुन राजा श्रेणिकने कौतुकवश फिर पूछा कि हे नाथ! विद्युद्दंष्ट्रने संजयन्त मुनिराजपर किस कारण उपसगं कराया था ? इसके उत्तरमें गणधर भगवान् संजयन्त मुनिका पापनाशक पुराण इस प्रकार कहने लगे ||४||
हे राजन् ! इसी जम्बू द्वीपके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें एक गन्धमालिनी नामका देश है । उसमें वीतशोका नामकी नगरी है। उस नगरीमें किसी समय वैजयन्त नामका राजा राज्य करता था || ५ | उसकी सर्वश्री नामकी रानी थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो शरीरको धारण करनेवाली साक्षात् लक्ष्मी हो। इन दोनोंके संजयन्त और जयन्त नामके दो उत्तम पुत्र थे ||६|| किसी एक समय विहार करते हुए स्वयम्भू तीर्थंकर वहाँ आये। उनसे धर्म श्रवण कर पिता और दोनों पुत्र - तीनोंने दीक्षा धारण कर ली ||७|| अपने पिहितास्रव नामक आचार्य के साथ वे तीनों मुनि विहार करते थे । कदाचित् घातिया कर्मोंको नष्ट करनेवाले वैजयन्त मुनिको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ||८|| केवलज्ञानके उत्सव में जब चारों निकायके देव मुनिराज वैजयन्तकी वन्दना कर रहे थे तब धरणेन्द्रको देख जयन्त मुनिने धरणेन्द्र होनेका निदान किया और उसके फलस्वरूप वे मरकर धरणेन्द्र हो भी गये ||९|| किसी समय जयन्तके बड़े भाई संजयन्त मुनिराज अपनी वीतशोका नामक सुन्दर नगरीके भीमदर्शन - भयंकर श्मशान में सात दिनका प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे ||१०|| उसी समय विद्युद्दंष्ट्र, भद्रशाल वनमें अपनी स्त्रियोंके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने नगरकी ओर लौट रहा था कि अचानक उसकी दृष्टि संजयन्त मुनिराजपर पड़ी ||११|| पूर्वं वैरके कारण कुपित हो वह उन्हें उठा लाया और भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजया १. निदानधरणो ङ. ।
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सप्तविंशः सर्गः हरिद्वती'सरिचण्डवेगा गजवतीति च । तथा कुसुमवत्यन्या या सुवर्णवतो च सा ॥१३॥ पञ्चानां सङ्गमे तासां प्रदोषसमये स तम् । स्थापयित्वा समं गत्वा प्रत्यूषेऽक्षोभयस्खगान् ॥१४॥ राक्षसोऽद्य महाकायः स्वप्नेऽदर्शि मया निशि । क्षयकृत्स किलास्माकं निहन्मस्तं खगा लघु ॥१५॥ इति प्रणोद्य तैः साकमुद्यतैर्विविधायुधैः । सोऽवधीनिर्ववौ तीर्थे शीतले शीतलस्य सः ॥१६॥ तच्छरीरस्य पूजार्थ धरणेन्द्रः समागतः । रुष्टो हृस्वाखिला विद्यास्तं हन्तं स समुद्यतः ॥१७॥ आदित्याभस्तमागत्य लान्तवेन्द्रो न्यवारयत् । मा मा प्राणिवधं कार्षीधरणेन्द्र ! फणीन्द्र ! मोः॥१८॥ स्वमहं च खगेन्द्रोऽयं संजयन्तश्च संसृतौ । बद्धवैरा वयं सर्वे यथा भ्रान्तास्तथा ऋणु ॥१९॥ अत्रास्ति भरतक्षेत्रे विषयः शकटश्रुतिः । पुरं सिंहपुरं तत्र सिंहसेनो नृपोऽमवत् ॥२०॥ रामदत्ता प्रिया तस्य कलागुणविभूषणा । धात्री निपुणमत्याख्या निपुणा निपुणेष्वपि ॥२१॥ सत्यवादी नरेन्द्रस्य श्रीभूत्याख्यः पुरोहितः। अलुब्ध इति स ख्यातः श्रीदत्ता तस्य माहनी ॥२२॥ माण्डशालाः समस्तासु दिशासु नगरस्य सः । कारयित्वा वणिग्वगविश्वासं कुरुतेतराम् ॥२३॥ वणिक सुमित्रदत्तोऽस्ति पद्मखण्डे पुरोधसि । रत्नानि पञ्च विन्यस्य यातः पोतेन तृष्णया ॥२४॥
भिन्नपात्रः स चागत्य याचित्वा तान्यलब्धवान् । पुरोहितप्रमाणश्च राजलोकैनिराकृतः ॥२५॥ पर्वतके दक्षिण भागके समीप वरुण नामक पर्वतपर उन्हें ले गया ॥१२॥ हरिद्वती, चण्डवेगा, गजवती, कुसूमवती और सूवर्णवती इन पाँच नदियोंका जहाँ समागम हआ है वहाँ सायंकालके समय उन्हें रखकर चला गया और प्रातःकाल उसने विद्याधरोंको यह कहकर क्षुभित कर दिया कि आज रात्रिको मैंने स्वप्न में एक महाकाय राक्षस देखा है। वह राक्षस हम लोगोंका क्षय करनेवाला होगा। इसलिए हे विद्याधरो! चलो उसे शीघ्र ही मार डालें ॥१३-१५॥ इस प्रकार विद्याधरोंको प्रेरित कर उसने नाना प्रकारके शस्त्र धारण करनेवाले विद्याधरोंके साथ उन्हें मार डाला। मुनिराज संजयन्त भी अन्तिम समय केवलज्ञान प्राप्त कर श्री शीतलनाथ भगवान्के शान्तिदायक तीर्थमें निर्वाणको प्राप्त हुए ॥१६॥ तदनन्तर उनके शरीरकी पूजाके लिए जयन्तका जीव-धरणेन्द्र आया सो विद्युइंष्ट्र की इस करतूतसे वह बहुत ही रुष्ट हुआ। वह विद्युदंष्ट्रकी समस्त विद्याओंको हरकर उसे मारनेके लिए उद्यत हुआ ही था कि उसी समय आदित्याभ दिवाकर देव नामक लान्तवेन्द्रने वहाँ आकर 'हे धरणेन्द्र ! हे फणीन्द्र ! व्यर्थ हो जीव हिंसा न करो' इन शब्दों द्वारा उसे हिंसासे रोक दिया ॥१७-१८॥ तुम, मैं, यह विद्याधरोंका राजा विद्युइंष्ट्र और संजयन्त इस प्रकार हम सब वैर बांधकर संसारमें जिस तरह भटकते रहे हैं वह मैं कहता हूँ सो सुनो ||१९||
__ इसी भरत क्षेत्रमें एक शकट नामका देश है। उसके सिंहपुर नगरमें किसी समय सिंहसेन नामका राजा राज्य करता था ।।२०।। सिंहसेनको कला और गुणरूपी आभूषणोंसे सुशोभित रामदत्ता नामकी स्त्री थी तथा निपुणमति नामको एक धाय थी जो निपुण मनुष्योंमें भी अतिशय निपुण थी ॥२१॥ राजाका एक श्रीभूति नामका पुरोहित था जो अपनेको सत्यवादी प्रकट करता था तथा लोकमें अलुब्ध-निलोभ है इस तरह प्रसिद्ध था। उसको ब्राह्मणीका नाम श्रीदत्ता था ॥२२॥ वह श्रोभूति नगरको समस्त दिशाओंमें भाण्डशालाएँ-धरोहर रखनेके स्थान बनवाकर व्यापारी वर्गका बहुत विश्वासपात्र बन गया था ।।२३।। उसी समय पद्मखण्ड नामक नगरमें एक सुमित्रदत्त नामक वणिक् रहता था। वह किसी समय अपने पांच रत्न श्रीभूति पुरोहितके पास रखकर तृष्णावश जहाज द्वारा कहीं गया था ॥२४॥ भाग्यवश उसका जहाज फट गया। १. शरच्चन्द्रवेगा म. | २. 'लघु क्षिप्रमरं द्तम्' इत्यमरः । ३. निर्वाणं प्राप्तवान् । ४. महाथ ख. ग., ङ., माहाथं म. । ५. माहिनी म. ! ब्राह्मणी ।
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हरिवंशपुराणे
प्रत्याशादग्धचित्तश्च नृपांगारसमीपगम् । उच्चैस्तरुं समारुह्य पूरकरोतीति नित्यशः ॥२६॥ सिंहसेनो महाराजो रामदत्ता कृपावती । साधुलोकस्तथान्योऽपि शृणोतु कृपया युतः ॥ २७ ॥ मासे पक्षेऽह्नि चामुष्मिन् श्रीभूतेः सत्यतो मया । पचैवंविधरत्नानि हस्ते न्यस्तानि तान्यसौ ॥२८॥ प्रदातुं नेच्छतोदानीमतिलुब्धमतिर्मम । इति प्रत्यूषवेलायां नित्यं पूरकृत्य यात्यसौ ॥२९॥ बहुत्वेवमतीतेषु मासेषु नृपमेकदा रात्रौ प्रियावदद्राजन्नन्यायोऽयमहो महान् ॥३०॥
foot दुर्बलाश्चापि लोके सन्ति तदत्र किम् । बलिनां दुर्बला हस्तैर्लमन्ते नैव जीवितुम् ॥३१॥ दुर्बलस्य वराकस्य हृतान्यस्य बलीयसा । रत्नानि तानि दाप्यन्तां यदि तेऽस्ति कृपा प्रभो ॥ ३२ ॥ राजा प्राह प्रिये ! वार्घौ भिन्नपात्रोऽयमत्रपः । अर्थनाशे ग्रही जातः प्रलपत्य विदुःखितः ॥३३॥ इत्युक्ता सा जगौ राजन्नैषोऽर्थं प्रहदूषितः । यतो नियमितालापस्तस्वतस्तत्परीक्ष्यताम् ॥३४॥ इस्याकर्ण्य नृपोऽपृच्छत्तमुपांशु दिनानने । अपहृते स्म स द्रोही कुतो लुब्धस्य सत्यता ॥३५॥ ततो द्यूतच्छलेनैव स परोक्षितुमुद्यतः । राज्ञी तं तु पुराप्राक्षीत् रात्रौ भुक्तमलक्षिता ॥३६॥ गत्वा निपुणमत्या च राजपल्या निदेशतः । याचिता नो ददौ तानि साभिज्ञानमपि प्रिया ॥३७॥ द्यूते निर्जितमादाय ब्रह्मसूत्रं ययाच सा । धात्री तथापि नो लेभे पत्यादेशो हि तादृशः ॥ ३८ ॥
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लौटकर उसने पुरोहितसे अपने रत्न माँगे परन्तु प्राप्त नहीं कर सका । राजद्वारमें उसने प्रार्थना की परन्तु पुरोहितको प्रमाण माननेवाले राज- कर्मचारियोंने उसे तिरस्कृत कर भगा दिया ||२५|| अन्तमें बदलेको आशासे जिसका चित्त जल रहा था ऐसा सुमित्रदत्त वणिक् राजमहल के समीप एक ऊँचे वृक्षपर चढ़कर प्रतिदिन यह कहता हुआ रोने लगा कि महाराज सिंहसेन, दयावती रानी रामदत्ता तथा अन्य सज्जन पुरुष दयायुक्त हो मेरी प्रार्थना सुनें । मैंने अमुक मास और पक्ष के अमुक दिन श्रीभूति पुरोहितकी सत्यवादितासे प्रभावित होकर उसके हाथमें इस इस प्रकारके पांच रत्न रखे थे परन्तु इस समय वह अत्यन्त लुब्ध होकर मेरे वह रत्न देना नहीं चाहता है । इस प्रकार प्रतिदिन प्रातःकाल के समय रोकर वह यथास्थान चला जाता था || २६ - २९ ।। इस प्रकार उसे रोते-रोते जब बहुत महीने बीत गये तब एक दिन प्रिया रामदत्तारात्रि के समय राजासे कहा कि हे राजन् ! यह बड़ा अन्याय है । लोकमें बलवान् और दुर्बल सभी होते हैं तो क्या बलवानोंके हाथसे दुर्बल मनुष्य जीवित नहीं रह सकते ? ||३०-३१|| इस बेचारे दुर्बल रत्न अतिशय बलवान् पुरोहितने हड़प लिये हैं । इसलिए हे प्रभो ! यदि इसपर आपको दया आती है तो इसके रत्न दिलाये जावें ||३२|| राजाने कहा कि हे प्रिये ! समुद्र में इसका जहाज फट गया था, इसलिए यह निर्लज्ज धन नष्ट हो जानेके कारण अतिशय दुःखी हो पिशाचसे आक्रान्त हो गया है और उसी दशामें कुछ बकता रहता है ||३३|| इस प्रकार राजाका उत्तर पाकर रामदत्ताने कहा कि हे राजन् ! यह धनरूपी पिशाचसे आक्रान्त नहीं है क्योंकि यह प्रतिदिन एक ही बात कहता है अतः इसकी परीक्षा की जाये || ३४|| यह सुनकर राजाने प्रातःकाल एकान्तमें पुरोहितसे पूछा परन्तु वह द्रोही सर्वथा मेंट गया सो ठीक ही है क्योंकि लोभी मनुष्य के सत्यता कैसे हो सकती है ? ||३५|| तदनन्तर राजा जुआके छलसे ही पुरोहितकी परीक्षा करनेके लिए उद्यत हुआ । रानी रामदत्ताने जुआ खेलने के पूर्व ही किसी बहाने पुरोहित से पूछ लिया था कि आज आपने रात्रिमें क्या भोजन किया था ? || ३६ || रानी रामदत्ताको आज्ञा पाकर निपुणमति धायने जाकर पुरोहितको स्त्रोसे रत्न माँगे और पहचान के लिए रात्रि के भोजनकी बात बतायी परन्तु पुरोहितकी स्त्रीने रत्न नहीं दिये ||३७|| अबकी बार जुआमें जीता हुआ जनेऊ ले जाकर निपुणमतिने पुरोहितको स्त्रीसे रत्न माँगे परन्तु फिर भी वह उन्हें प्राप्त
१. याचितानि म. |
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सप्तविंशः सर्ग:
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पतिनामाङ्कितां दृष्टा मुद्रिका तान्यदात् प्रिया । वचनाद्रामदत्ताया तं चाप्युपसंहृतम् ॥३९॥ व्यामिश्राण्यपि सदस्नः परकीयैरसौ वणिक । स्वरत्नान्येवमादाय राजपूजामवाप्तवान् ॥४०॥ परस्वहरणप्रीतः सर्वस्वहरणं द्विजः । गोमयादनमप्याप्य मल्लमुष्टिहतो मृतः ॥४१॥ अर्थध्यानाविलचासौ सपोगन्धननामकः । भाण्डागारान्तरे जज्ञे राज्ञो द्रोही हताशकः ॥४२॥ स्थापितोऽन्यः पदे तस्य द्विजो धम्मिल्लसंज्ञकः । मिथ्यावृष्टिरदिष्टार्थ' प्रति प्रायः किलोद्यतः ॥४३॥ पद्मखण्डपुरं गत्वा जैनीमतोऽप्यसो वणिक् । दानी चासीन्निदानी च देत्तापुत्रत्ववाञ्छया ॥४४॥ समित्रदत्तिका तस्य भार्या मृत्वा विरोधिनी । व्याघ्रीभता चखादादौ तं साधोतये गतम् ॥४५॥ सोऽभवद्रामदत्तायाः पुत्रः सस्नेहबन्धनः । सिंहचन्द्र इतीन्द्रत्वमगणय्य निदानतः ॥४६॥ पूर्णचन्द्र इतीन्द्राभः कनीयान् तस्य जातवान् । जातौ च तौ क्षितौ ख्याती सूर्याचन्द्रमसौ यथा ॥४७॥ भाण्डागारप्रविष्टं च सिंहसेनमगन्धनः । दष्टवान् दुष्टसर्पोऽसावेकदा वैरभावतः ॥४८॥ मन्त्रैर्गरुडदण्डेन महागारुडिकेन तु । अगन्धनादयः सर्पास्तदाहूय प्रणोदिताः ॥३९॥ तिष्ठत्वेकोऽपराधी हि शेषा यान्तु यथागतम् । इत्युक्तोऽगन्धनोऽतिष्ठद् यातास्त्वन्ये पृदाकवः ॥५०॥
नहीं कर सको सो ठोक हो है क्योंकि उसके लिए पतिकी आज्ञा ही वैसी थी ॥३८॥ तीसरी बार पतिके नामसे चिह्नित अंगूठो देखकर पुरोहितको खोने वे रत्न दे दिये। उसी समय रानी रामदत्ताको आज्ञानुसार जुआ बन्द कर दिया गया ॥३९॥ यद्यपि राजाने वणिक्के उन रत्नोंको दूसरेके रत्नोंके साथ मिलाकर दिया था तथापि वणिकने अपने हो रत्न पहचानकर उ और इस सचाईके कारण राजासे सम्मानको भी प्राप्त किया ॥४०॥ दूसरेका धन हरण करने में प्रीतिका अनुभव करनेवाले पुरोहितका सब धन छीन लिया गया, उसे गोबर खिलाया गया और मल्लोंके मुक्कोंसे पिटवाया गया जिससे वह मर गया ॥४१।। चूंकि वह धनके आतंध्यानसे कलुषित चित्त होकर मरा था इसलिए राजाके भाण्डार गहमें अगन्धन नामका साँप हआ और अ दुष्टताके कारण राजासे सदा द्रोह रखने लगा ॥४२॥ श्रीभूति पुरोहितके स्थानपर धम्मिल्ल नामक दूसरा ब्राह्मण रखा गया परन्तु वह भी मिथ्यादृष्टि था और प्रायः नहीं कहे कार्यको करनेके लिए उद्यत रहता था ॥४३|| सुमित्रदत्त वणिक रत्न लेकर अपने पद्मखण्डपुर नगरको चला गया। यद्यपि वह जैन था-जन धर्मके स्वरूपको समझता था तथापि 'मैं रानी रामदत्ताका पुत्र होऊं ऐसा उसने निदान बांध लिया और इसी इच्छासे वह खूब दान करने लगा ।।४४।। वणिक्को स्त्री सुमित्रदत्तिका जो सदा उससे विरोध रखती थी मरकर एक पर्वतपर व्याघ्री हुई। एक दिन सुमित्रदत्त किन्हीं मुनिराजकी वन्दनाके लिए उसी पर्वतपर गया था सो उस व्याघ्रीने उसे खा लिया। वह रामदत्ताका पुत्र हुआ। यद्यपि वह अपने पुण्य बलसे इन्द्र हो सकता था तथापि निदानके द्वारा इन्द्रत्वको उपेक्षा कर राजपुत्र ही हुआ। उसका सिंहचन्द्र नाम रखा गया तथा वह रामदत्ताके स्नेह-बन्धनसे युक्त था-उसे अतिशय प्यारा था ।।४६॥ सिंहचन्द्रके, इन्द्रके समान आभावाला पूर्णचन्द्र नामका एक छोटा भाई भी हुआ। ये दोनों भाई पृथिवीपर सूर्य-चन्द्रमाके समान प्रसिद्ध थे ॥४७|| एक समय राजा सिंहसेन कार्यवश भाण्डागारमें प्रविष्ट हुए सो वहां पूर्व वैरके कारण पुरोहितके जोव अगन्धन नामक दुष्ट साँपने उन्हें काट खाया ||४८|| उसी नगर में एक गारुडिक विद्या (सर्प उतारनेको विद्या) का अच्छा जानकार गरुडदण्ड रहता था। उसने मन्त्र अगन्धनको आदि लेकर समस्त सर्पोको बुलाकर उनसे कहा कि तुम लोगोंमें जो एक अपराधी सर्प है वही यहाँ ठहरे, बाकी सब यथास्थान चले जावें । गरुडदण्डके ऐसा कहनेपर राजाको १. रदृष्टार्थ म.। २. रामदत्तायाः पुत्रोऽहं भवेयमिति वाञ्छया निदानयुक्तोऽभूत् । ३. सिंहसेनं स गन्धनः म. । ४. सर्पाः।
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हरिवंशपुराणे उपसंहर हे दुष्ट ! स्वविसृष्टं विषं लघु । नोपसंहर्तुमिच्छा चेत्प्रविशाशु हुताशनम् ॥५१।। इत्युक्तो नोपसंहृत्य विषं विषधरो रुषा । ज्वलत्कृशानुमाविश्य मृत्वाभच्चमरी मृगी ॥५२॥ सिंहसेनो मृतो जातः स हस्ती सल्लकीवने । शाखामृगस्तु धम्मिल्लः का वा मिथ्यादृशा गतिः ॥५३॥ रामदत्तासुतौ राजयुवराजौ नयान्वितौ । शशासतुरिलां वेलावलयावधिका विभू ॥५४॥ पोदने पूर्णचन्द्रो यो या हिरण्यवती च तौ । पितरौ रामदत्ताया जिनशासनभावितौ ॥५५।। राहुभद्रमुनेः पावें प्रव्रज्यावधिमैरिपता । दत्तवत्यार्यिकापावें माताधत्तार्यिकाव्रतम् ॥५६।। पूर्णचन्द्र मुनेः श्रुत्वा रामदत्ताम्बिकायिका । प्रवृत्तिं रामदत्ताया गत्वा बोधयतिस्म ताम् ॥५७॥ प्रावजद्रामदत्ता सा संसारमयवेदिनी । राहभद्रगुरोरन्ते सिंहचन्द्रोऽपि बोधितः ॥५॥ पूर्णचन्द्रस्तु राज्यस्थः प्रतापप्रणताहितः । भोगासक्तो बभूवासौ संयक्त्वव्रतवर्जितः ॥५९॥ एकदा रामदत्तार्या सिंहचन्द्रं तावधिम् । पप्रच्छ चारणं नत्वा स्वमातृसुतजन्म सा ॥६॥ स प्राह भरतेऽत्रैध विषये कोसलामिधे । बभूव वर्द्धकिग्रामे विप्रो नाम्ना मृगायणः ॥६॥
ब्राह्मस्य स्वभावेन मधुरा मधुरामिधा । सुता च वारुणी यूनां वारुणीव मदावहा ॥६२॥ काटनेवाला अगन्धन सर्प रह गया बाकी सब चले गये ॥४९-५०॥ गरुडदण्डने उसे ललकारते हुए कहा कि अरे दुष्ट ! अपने द्वारा छोड़े हुए विषको शीघ्र ही खींच और यदि खींचनेकी इच्छा नहीं है तो शीघ्र ही अग्निमें प्रवेश कर ॥५१।। गरुडदण्डके इस प्रकार कहनेपर उस अगन्धन सर्पने क्रोधके कारण विष तो नहीं खींचा पर जलती हुई अग्निमें प्रवेश कर मरण स्वीकार कर लिया और मरकर वह चमरी मृग हुआ ॥५२॥ विषके वेगसे मरकर राजा सल्लकी वनमें हाथी हुआ और जिसे श्रीभूतिके स्थानपर रखा गया था वह धम्मिल्ल मरकर उसी वनमें वानर हुआ सो ठीक ही है क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवोंकी और गति हो ही क्या सकती है ।।५३।। रामदत्ताके सिंहचन्द्र
और पूर्णचन्द्र नामक दोनों नीतिज्ञ एवं सामर्थ्यवान् पुत्र क्रमसे राजा और युवराज बनकर समुद्रान्त पृथिवीका पालन करने लगे ॥५४॥
पोदनपुर नगरमें जो राजा पूर्णचन्द्र और रानी हिरण्यवती थी वे रानी रामदत्ताके मातापिता थे और वे दोनों ही जिनशासनकी भावनासे युक्त थे ॥५५।। एक बार रामदत्ताके पिता पूर्णचन्द्रने राहुभद्र मुनिके समीप दीक्षा ले अवधिज्ञान प्राप्त किया और माता हिरण्यवतीने दत्तवती आर्यिकाके समीप दीक्षा ले आर्यिकाके व्रत धारण कर लिये ॥५६॥ कदाचित् रामदत्ता की माता हिरण्यवती आर्यिकाने अवधिज्ञानी पूर्णचन्द्र मुनिसे रामदत्ताका सब समाचार सुना और जाकर उसे सम्बोधित किया-समझाया ।।५७।। माताके मुखसे उपदेश श्रवण कर रामदत्ता संसारसे भयभीत हो उठी जिससे उसने उसी समय दीक्षा ले ली। हिरण्यवतीने रामदत्ताके पुत्र सिंहचन्द्रको भी समझाया जिससे उसने भी राहभद्र गुरुके समीप दीक्षा ले ली ॥५८|| सिंहचन्द्रके बाद प्रतापके द्वारा शत्रुओंको नम्रीभूत करनेवाला युवराज पूर्णचन्द्र राज्य-सिंहासनपर आरूढ़ हुआ परन्तु वह सम्यग्दर्शन और व्रतसे रहित होनेके कारण भोगोंमें आसक्त हो गया ।।५९|| एक बार आर्यिका रामदत्ताने अवधिज्ञानी एवं चारण ऋद्धिके धारक सिंहचन्द्र मुनिको नमस्कार कर उनसे अपना, अपनी माताका तथा अपने पुत्रोंका पूर्वभव पछा ॥६०॥
इसक उत्तरम मुनिराज कहने लगे कि इसी भरतक्षेत्रके कोसल देशमें एक वर्धकि नामका ग्राम था और उसमें मृगायण नामका एक ब्राह्मण रहता था ।।६१।। ब्राह्मणको ब्राह्मणोका नाम मधुरा था जो न केवल नामसे ही मधुरा थी किन्तु स्वभावसे भी मधुरा थी। उन दोनोंके एक वारुणी नामको पुत्री थी जो तरुण मनुष्योंके लिए वारुणी-मदिराके समान मद उत्पन्न करनेवाली १. वतीत्यसो म.। २. प्रतापेन प्रणताः अहिताः शत्रवो येन सः । ३. मदिरेव ।
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सप्तविंशः सर्गः
मृत्वा मृगायणो राज्ञः साकेतेऽतिबलस्य सः । हिता हिरण्यवत्येषा श्रीमत्याश्च सुताभवत् ॥६३॥ मधुरा त्वं रामदत्ताभः पूर्णचन्द्रस्तु वारुणी । वणिक्सुमित्रदत्तोऽहं सिंहचन्द्रस्तवात्मजः ॥ ६४॥ 'दष्टः श्रीमतिपूर्वेण भुजगेन पिता गजः । संजातो ग्राहितो धर्म मया स मदवारणः ॥ ६५ ॥ दुर्भुजङ्गचरी मृखा चमरी चमरातुरा । रौद्रः कुक्कुटसर्पोऽभूद् रुक्षपक्षपरिग्रहः ॥ ६६ ॥ सोपवासव्रतश्रान्तः स विश्रान्तमदः करी । ग्रस्तः कुक्कुटसर्पेण सहस्रारमगात्सुधीः ॥ ६७ ॥ विमाने श्रीप्रभे तत्र श्रीधरः श्रीधरोऽमरः । अप्सरोभिरमा भोगी धर्मेण रमतेऽधुना ॥ ६८ ॥ क्रोधाद् धम्मिल्लपूर्वेण मर्कटेन हतस्तदा । पापः कुक्कुटसर्पोऽगात्पृथिवीं बालुकाप्रभाम् ॥ ६९॥ म्लेच्छः शृगालदत्तस्तद्दन्तिदन्तास्थिमौक्तिकम् । दत्तवान् धनमित्राय पूर्णचन्द्राय वाणिजः ॥७०॥ दन्तास्थिभिरयं तुष्टः कारयित्वा नृपासनम् । हारभारं तु मुक्ताभिरथास्ते तद्विभर्त्ति तम् ॥७१॥ अहो संसारवैचित्र्यं देहिनामिह मोहिनाम् । पितुरङ्गानि जायन्ते भोगाङ्गानि पराङ्गवत् ॥७२॥ निशम्य शमिनो वाक्यं रामदत्ता प्रमादिनम् । तदशेषमुदाहृस्य पूर्णचन्द्रमबोधयत् ॥७३॥ दानपूजा तपः शीलसम्यक्त्वमनुपालय सः । कल्पे तस्मिन् विमानेऽभूद्वैडूर्यप्रभनामनि ॥ ७४ ॥ रामदत्ताऽपि सम्यक्त्वास्त्रेणमुत्सृज्य तत्र तु । प्रभंकरविमानेऽभूद्देवः सूर्यप्रभाभिः ॥ ७५ ॥ सिंह चन्द्रमुनिः सम्यगाराधितचतुष्टयः । ग्रैवेयकेऽहमिन्द्रोऽभूत्स प्रीतिकरसंज्ञके ॥ ७६ ॥
थी || ६२ ॥ मृगायण मरकर साकेत नगर में राजा अतिबल और उसकी रानी श्रीमतीके तुम्हारी माँ हिरण्यवती हुआ है ||६३ || उसकी मधुरा ब्राह्मणी तू रामदत्ता हुई है, वारुणीका जीव तेरा छोटा पुत्र पूर्णचन्द्र हुआ है, और वणिक् सुमित्रदत्तका जीव में तेरा सिचन्द्र नामका पुत्र हुआ हूँ ||६४॥ पिता सिंहसेनको श्रीभूतिके जीव अगन्धन सपने डँस लिया था इसलिए मरकर वे हाथी हुए थे। मैंने उन्हें हाथी की पर्याय में श्रावकका धर्मं धारण कराया था ||६५ || श्रीभूति पुरोहितका जीव साँप हुआ था फिर चमरी मृग हुआ। तदनन्तर चमरमृगके लिए आतुर होता हुआ मरकर रूखे पंखों को धारण करनेवाला दुष्ट कुक्कुट सर्प हुआ || ६६ || पिताका जीव जो हाथी हुआ था वह उपवासका व्रत लेकर शिथिल पड़ा हुआ था और उसका सब मद सूख गया था उसी दशा में पुरोहितके जीव कुक्कुट सर्पने उसे डँस लिया जिससे वह अच्छे परिणामोंसे मरकर सहस्रार स्वर्ग गया || ६७॥ वह वहाँ श्रीप्रभ नामक विमानमें लक्ष्मीको धारण करनेवाला श्रीधर नामका देव हुआ है और इस समय धर्मके प्रभावसे भोगोंसे युक्त हो अप्सराओंके साथ रमण कर रहा है || ६८|| धम्मिल्लका जीव जो मर्कट हुआ था उसने हाथीका घात करनेवाले कुक्कुट सर्पको क्रोधवश मार डाला जिससे वह मरकर बालुकाप्रभा नामक तीसरे नरक में गया || ६९ || किसी श्रृंगालदत्त नामक भीलने उस हाथी दांत, हड्डी और मोती इकट्ठे कर धनमित्र सेठके लिए दिये और धनमित्रने राजा पूर्णचन्द्र के लिए समर्पित किये ॥ ७० ॥ राजा पूर्णचन्द्र उन्हें पाकर बहुत सन्तुष्ट हुआ । उसने दाँतों की हड्डियोंसे सिंहासन बनवाया है और मोतियोंसे बड़ा हार तैयार करवाया है। इस समय वह उसी सिंहासनपर बैठता है और उसी हारको धारण करता है || ७१ || अहो ! मोही प्राणियोंकी संसारकी विचित्रता तो देखो कि जहाँ अन्य प्राणियोंके अंगके समान पिताके अंग भी भोगके साधन हो जाते हैं || ७२ || मुनिराज सिंहचन्द्रके वचन सुनकर आर्यिका रामदत्ताने जाकर प्रमादमें डूबे पूर्णचन्द्रको वह सब बताकर अच्छी तरह समझाया ||७३ || जिससे वह दान, पूजा, तप, शील और सम्यक्त्वका अच्छी तरह पालन कर उसी सहस्रार स्वर्गके वैडूर्यप्रभ नामक विमानमें देव हुआ ||७४ || रामदत्ता भी सम्यग्दर्शन के प्रभावसे स्त्री पर्यायको छोड़कर उसी सहस्रार स्वर्गके प्रभंकर नामक विमान में सूर्यप्रभ नामका देव हुई || ७५ || और सिंहचन्द्र मुनि भी अच्छी तरह चार
१. दृष्टः म. । २. लक्ष्मीधरः । ३ एतन्नामधेयः । ४. वाच्य म. ।
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हरिवंशपुराणे सूर्यप्रमसुरश्च्युत्वा जम्बूद्वीपस्य भारते । वैताब्यदक्षिणश्रेण्यां धरणीतिलके पुरे ॥७॥ भभृतोऽतिबलस्थामस्सम्यक्त्वच्युतिदोषतः । सुलक्षणमहादेव्यां श्रीधराख्या शरीरजा ॥७८॥ अलकापतये दत्ता सा सुदर्शनभूभुजे । स वैडूर्यविमानेशस्तस्यां जाता यशोधरा ॥७९॥ दत्तायामुत्तरश्रेण्यां प्रभाकरपुरेशिने । सूर्यावर्ताय जातोऽस्या सुतोऽसौ श्रीधरोऽमरः ॥८॥ तस्मै तु रश्मिवेगाय राज्यं दत्वा पिता ततः । मुनिचन्द्रसमीपेऽसौ मोक्षार्थी तपसि स्थितः ॥८१॥ गुणवत्यार्यिकापाश्व श्रीधरा सयशोधरा । सम्यग्दर्शनसंशुद्धा प्रवज्यां प्रत्यपद्यत ||८२॥ रश्मिवेगोऽन्यदा यातः सिद्धकूटं ववन्दिषुः । हरिचन्द्रमुनेस्तत्र धर्म श्रुत्वामवद्यतिः ।।८३।। काञ्चनाख्यगुहायां तं स्वाध्यायध्वनिपावनम् । आयें ते वन्दितुं याते रश्मिवेगं महामुनिम् ।।८।। बालुकाप्रभभमेर्यो निर्यातो नारकश्चिरम् । स संसृत्य गुहायां हि जातः सोऽजगरोऽत्र तु ॥८५॥ कायोत्सर्गस्थितं साधुमुपसर्गनिरीक्षणात् । आर्ये च ते सप्रर्यादे सोऽगिलद्विपुलोदरः ।।८६॥ रश्मिवेगो मृतः कल्पे कापिष्टे श्रेष्ठधीरभूत् । अर्कप्रमस्तथात्रायें विमाने रुचके सुरौ ।।८७॥ महाशत्रुरसौ मृत्वा रौद्रध्यानदुराशयः । पङ्कप्रभां भुवं प्राप्तः पापपङ्ककलङ्कितः ॥८॥ प्रीतिकरविमानेशः सिंहवन्द्रचरइच्युतः । अपराजितसुन्दयोः पुत्रश्चक्रपुरेऽजनि ॥८॥ चक्रायुधाभिधानस्य चित्रमालास्य मामिनी । तस्यामर्कप्रभश्च्युत्वा जातो वज्रायुधः सुतः ॥१०॥
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आराधनाओंकी आराधना कर प्रीतिकर नामक ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुए ॥७६|| रामदत्ताका जीव जो सूर्यप्रभ देव हुआ था वहाँ उसका सम्यग्दर्शन छूट गया था इसलिए आयु पूर्ण होनेपर वहाँसे च्युत हो वह विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर जो धरणीतिलक नामका नगर है उसके राजा अतिबलकी सुलक्षणा नामक महादेवीके श्रीधरा नामको पुत्री हुआ ||७७-७८|| श्रीधरा, अलका नगरीके स्वामी राजा सुदर्शनको दी गयी और उसके पूर्णचन्द्रका जीव जो वैडूर्यप्रभ विमानका स्वामी था वहांसे चयकर यशोधरा नामकी पुत्री हुआ ।।७९|| यशोधरा, उत्तर श्रेणीपर स्थित प्रभाकरपुरके स्वामी राजा सर्यावर्तके लिए दी गयी और उसके राजा सिंहसेनका जीव जो श्रीधर देव हुआ था वह वहाँसे चयकर रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ ||८०।। तदनन्तर जब राजा सूर्यावर्त मोक्षकी अभिलाषासे उस रश्मिवेग पूत्रके लिए राज्य देकर मुनिचन्द्र गुरुके समीप तप करने लगा तब श्रीधरा और यशोधराने भी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो गुणवती आर्यिकाके पास दीक्षा ले ली ।।८१-८२।। एक समय रश्मिवेग वन्दना करनेकी इच्छासे सिद्धकूट गया था कि वहां हरिचन्द्र मुनिसे धर्म श्रवण कर मुनि हो गया ॥८३॥ एक दिन महामुनि रश्मिवेग, कांचन नामक गुहामें स्वाध्याय करते हुए विराजमान थे कि श्रीधरा और यशोधरा नामकी आयिकाएं उनकी वन्दनाके लिए वहां गयीं ।।८४।। श्रीभूति पुरोहितका जीव जो बालुकाप्रभा पृथिवीमें नारको हुआ था वह चिरकालके बाद वहाँसे निकलकर तथा संसारमें परिभ्रमण कर उसी गुहामें अजगर हुआ था ।।८५।। उपसर्ग आया देख मुनि रश्मिवेग कायोत्सर्ग में स्थित हो गये और दोनों आयिकाओंने भी सावधिक संन्यास ले लिया। विशाल उदरका धारक वह अजगर उन तीनोंको निगल गया ॥८६|| रश्मिवेग मरकर कापिष्ठ स्वर्गमें उत्तम बद्धिके धारक अर्कप्रभ देव हए और दोनों आयिकाएँ भी उसी स्वर्गके रुचक विमानमें देव हुई ॥८७॥ जिसका हृदय रौद्रध्यानसे दूषित था ऐसा महाशत्रु अजगर पापरूपी पंकसे कलंकित हो मरकर पंकप्रभा नामक चौथी पृथिवीमें उत्पन्न हुआ ||८८|सिंहचन्द्रका जीव जो प्रीतिकर विमानका स्वामी था वह वहाँसे च्युत हो चक्रपुर नामक नगरके राजा अपराजित और रानी सुन्दरीके चक्रायुध नामका पुत्र हुआ। चक्रायुधकी स्त्री चित्रमाला थी और उसके मुनि रश्मिवेगका जोव ( रानी रामदत्ताका पति राजा सिंहसेनका १. जातः म.। २. वन्दितुमिच्छुः ।
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सप्तविंशः सर्गः श्रीधरापूर्वको देवः पृथिवीतिलके पुरे । प्रियंकरातिवेगाभ्यां रत्नमालाभवत्सुता ॥११॥ वज्रायुधाय सा दत्ता तस्यां रत्नायुधः सुतः । जातो यशोधरापूर्वः' सुरः पूर्वसुकर्मणः ।।१२।। चक्रायुधः श्रियं न्यस्य सुते वज्रायुधे तपः । पिहितास्रवपादान्ते कृत्वान्
•। शिहितावदान्ते करवान्ते निर्वतिं श्रितः ॥२३॥ वज्रायुधोऽपि विन्यस्य राज्यं रत्नायुधे तपः । दधे राज्यमदोन्मत्तः स च मिथ्यात्वमागतः ॥९॥ जलावगाहनायास्य राजहस्त्यन्यदा गतः। मुनिदर्शनतः स्मत्वा जातिं नापः पिबत्यसौ ।।९५।। तस्य मेघनिनादस्य राज्ञा कृत्यमजानता । वज्रदत्तमुनिः पृष्टः कारणं प्रत्यभाषत ॥१६॥ चित्रकारपुरेऽत्राभूत्प्रीतिभद्रो नरेश्वरः । दयिता सुन्दरी तस्य पुत्रः प्रीतिकरस्तयोः ।।१७।। चित्रबुद्धिस्तथा मन्त्री कमला तस्य कामिनी । विचित्रमतिरित्यासीत्तनयः सनयोऽनयोः ॥९॥ अमात्यराजपुत्रौ तौ श्रुत्वा तु तपसः फलम् । श्रुतसागरपादान्ते युवानौ तपसि स्थितौ ॥१९॥ तौ च निर्वाणधामानि पश्यन्ती कान्तदर्शनौ । साकेतमन्यदा यातौ नानाविधतपोधनौ ।।१०।। गणिकां बुद्धिसेनाख्या तत्र दृष्ट्वातिरूपिणीम् । भग्नः कर्मवशालाग्न्यान्मन्त्रिपुत्रस्त्वपत्रपः ॥१.१॥ राज्ञः स गन्धमित्रस्य सूपकारपदे स्थितः । मांसपाकविशेषज्ञो लेभे तां गणिकां ततः ॥१०॥
स भुक्त्वामानया कामं सर्वतोऽविरतात्मकः । मांसाशनप्रियो मत्वा सप्तमी पृथिवीमितः ॥१०॥ जीव ) अकंप्रभ देव कापिष्ठ स्वगंसे च्युत हो वज्रायुध नामका पुत्र हुआ ॥८९-९०॥ श्रीधरा आयिकाका जीव जो कापिष्ठ स्वर्गमें देव हआ था. वहाँसे च्यत हो पथिवीतिलक नगर में राजा प्रियंकर और अतिवेगा रानीके रत्नमाला नामकी पुत्री हुआ ॥९१।। रत्नमाला वज्रायुधके लिए दी गयी और उसके आर्यिका यशोधराका जीव जो कापिष्ठ स्वर्गमें देव हुआ था वहाँसे च्युत हो पूर्व पुण्यके उदयसे रत्नायुध नामका पुत्र हुआ ॥९२॥ चक्रायुध, वज्रायुध पुत्रके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर पिहितास्रव मुनिके पादमूलमें तप करने लगा और अन्तमें निर्वाणको प्राप्त हुआ ||९३।। राजा वज्रायुधने भी राज्यका भार रत्नायुध पुत्रके लिए सौंपकर तप धारण कर लिया। परन्तु रत्नायुध राज्यके मदसे उन्मत्त हो मिथ्यादृष्टि हो गया ॥९४|| राजा रत्नायुधका एक मेघनिनाद नामका मुख्य हस्ती था। एक समय वह जलावगाहनके लिए गया था परन्तु बीचमें मुनिराजका दर्शन होनेसे उसे जाति स्मरण हो गया जिससे उसने पानी नहीं पिया ॥९५॥ राजा रत्नायुध मेघनिनादके इस कार्यको नहीं समझ सका इसलिए उसने वज्रदत्त नामक मुनिराजसे इसका कारण पूछा। उत्तरमें मुनिराज कहने लगे ॥१६॥
___ इसी भरत क्षेत्रके चित्रकारपुर में एक प्रीतिभद्र नामका राजा रहता था। उसकी सुन्दरी नामकी स्त्री थी और दोनोंके प्रीतिकर नामका पुत्र था ।।९७।। राजा प्रीतिभद्रका एक चित्रबुद्धि नामका मन्त्री था । मन्त्रीकी स्त्रीका नाम कमला था और दोनोंके विचित्रमति नामका नीतिवेत्ता पुत्र था ||२८|| राजपत्र प्रीतिकर और मन्त्रिपुत्र विचित्रमति दोनोंने एक बार श्रुतसागर मुनिसे तपका फल सुना और दोनों ही युवावस्थामें उनके चरणोंके समीप रहकर तप करने लगे ॥१९॥ जो देखने में बहुत सुन्दर थे और नाना प्रकारका तपश्चरण ही जिनका धन था ऐसे वे दोनों मुनि एक समय सिद्ध क्षेत्रोंके दर्शन करते हुए साकेत नगर पहुँचे ॥१००। साकेतनगरमें एक बुद्धिसेना नामकी वेश्या बहुत सुन्दरी थी। उसे देखकर मन्त्रिपुत्र विचित्रमति कर्मोदयके कारण मुनिपदसे भ्रष्ट हो गया और उसने निर्लज्ज हो मुनिपद छोड़ दिया ॥१०१॥ विचित्रमति, मुनिपदसे भ्रष्ट हो राजा गन्धमित्रका रसोइया बन गया। वह मांस बनाने में अत्यन्त निपुण था। इसलिए अपनी कलासे राजाको प्रसन्न कर उसने वरस्वरूप वह वेश्या प्राप्त कर ली ॥१०२॥ जिसकी आत्मा समस्त पापोंसे अविरत थी-जिसे किसी भी पापके करने में संकोच नहीं था तथा जो मांस १. यशोधरापूर्व म. । २. मृत्वान्ते म. ग. । ३. अपगता त्रपा लज्जा यस्य सः।
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हरिवंशपुराणे उद्वापि ततो भारवा संसारं सारवर्जितम् । जातः पापविशेषेण मारणो मत्तवारणः ॥१०४॥ साधुदर्शनयोगेन जातिस्मृतिमुपागतः । निन्दन् मन्दरुचिः कर्म गजोऽयमुपशान्तवान् ॥१०५॥ तदाकर्ण्य करीन्द्रोऽसौ नरेन्द्रश्च यतेर्वचः। मिथ्याकलङ्कमुत्सृज्य जातौ श्रावकतायुजौ ॥१०६॥ पङ्कप्रमाविनिर्यातो नारकोऽप्यमवत्पुनः । मङ्गीदारुणयोाधो नामकर्मातिदारुणः ॥१०॥ वने प्रियङ्गखण्डेऽसौ वज्रायुधमहामुनिम् । व्याधो विव्याध योगस्थं सोऽपि सर्वार्थसिद्धि मैत् ॥१०॥ महातमःप्रमा प्राप्तो मृत्वा व्याधोऽतिदारुणः । दुःखमन्वमवत्सोऽस्यां घोरं मुनिवधोद्भवम् ॥१०९॥ मुस्वा श्रावकधर्मेण रत्नमालाच्युतेऽमरः । जातो रस्नायुधश्चापि तत्रैव सुरसत्तमः ॥११॥ द्वीपे च धातकीखण्डे पूर्वमेरोश्व पश्चिमे । विदेहे गन्धिलादेश राज्ञोऽयोध्यापतेः सुतौ ॥१११॥ अर्हदासस्य तौ देवी सुव्रताजिनदत्तयोः । जातो वीतभयः सीरी चक्री चात्र विभीषणः ॥१२॥ पृथ्वी रत्नप्रभा यातो जीवितान्ते विभीषणः । अनिवृत्तिमुनेस्स्वन्ते कृत्वा वीतमयस्तपः ॥११३॥ जातः स लान्तवेन्द्रोऽहमादित्यामो मयाप्यसौ । नारको बोधितो गत्वा विमीषणचरस्ततः ॥११॥ जम्बूद्वीपविदेहे यो विषयो गन्धमालिनी । तत्र रौप्यगिरौ चारौं चारुखेचरगोचरे ॥११५॥
प्राणी श्रीधर्मणः पूर्वः श्रीदत्तायामजायत । श्रीदामनामधेयोऽसौ मया मेरी प्रबोधितः ॥११॥ खानेका प्रेमी हो चुका था ऐसा विचित्रमति उस वेश्याके साथ इच्छानुसार भोग भोगकर मरा और मरकर सातवें नरक गया ॥१०३।। वहाँसे निकलकर इस असार संसारमें भटकता रहा । अब किसी पाप विशेषके कारण आपका हिंसाशील मदोन्मत्त हाथी हुआ है ।।१०४|| मुनिराजके दर्शनका योग पाकर यह जाति-स्मरणको प्राप्त हआ है और इसीलिए संसारमें मन्दरुचि हो अपने कार्यको निन्दा करता हुआ शान्त हो गया है ।।१०५।। वज्रदत्त मुनिराजके उक्त वचन सुनकर वह मेघनिनाद हाथी और राजा रत्नायुध दोनों ही मिथ्यात्वरूपी कलंकको छोड़ श्रावकके व्रतसे युक्त हो गये ॥१०६॥ श्रीभूति पुरोहितका जीव, जो अजगर पर्यायसे पंकप्रभा पृथिवीमें गया था वह वहांसे निकलकर मंगी और दारुण नामक भील-भीलनीके नाम और कार्य दोनोंसे ही अतिदारुण पुत्र हुआ। भावार्थ-उस पुत्रका नाम अतिदारुण था और उसका काम भी अति दारुण-अत्यन्त कठोर था ॥१०७। एक दिन राजा सिंहसेनके जीव वज्रायुध महामुनि प्रियंगुखण्ड नामक वनमें ध्यानारूढ़ थे कि उस अर्तिदारुण भीलने उन्हें मार डाला। महामुनि मरकर सर्वार्थसिद्धि गये और वह अतिदारुण भील मरकर महातमःप्रभा नामक सातवीं पृथिवीमें गया जहां मुनिवधसे उत्पन्न घोर दुःख उसे भोगना पड़ा ॥१०८-१०९।। रत्नमाला, मरकर श्रावक धर्मके प्रभावसे अच्युत स्वर्गमें देव हुई तथा रत्नायुध भी उसी स्वर्गमें उत्तम देव हुआ ॥११०॥ धातकोखण्ड द्वीपमें पूर्व मेरुके पश्चिम विदेहमें एक गन्धिला नामका देश है। उसकी अयोध्या नगरीमें राजा अर्हद्दास राज्य करते थे। उनकी सुव्रता और जिनदत्ता नामको दो रानियाँ थीं। रत्नमाला और रत्नायुधके जीव जो अच्युत स्वर्गमें देव हुए थे वहाँसे च्युत हो उन्हीं दोनों रानियोंके क्रमसे वीतभय नामक बलभद्र और विभीषण नामक नारायण हुए ॥१११-११२॥ इनमें विभीषण तो आयुका अन्त होनेपर रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवीमें उत्पन्न हुआ और वीतभय अनिवृत्ति मुनिके समीप तप कर आदित्याभ नामका लान्तवेन्द्र हुआ। वह लान्तवेन्द्र मैं ही हूँ। मैंने रत्नप्रभा पृथिवीमें जाकर विभीषणके जीव नारकीको अच्छी तरह समझाया ॥११३-११४।। तदनन्तर इसो जम्बू द्वीपके विदेह क्षेत्रमें जो गन्धमालिनी नामका देश है उसमें विद्याधरोंके मनोहर-मनोहर निवासोंसे युक्त एक अतिशय सुन्दर विजयाध पर्वत है। उसी विजयार्धपर श्रीधर्म राजा और श्रीदत्ता नामकी रानी रहती थी। विभीषणका जीव नारकी, १. अगच्छत् । २. विजयार्धपर्वते । ३. सुन्दरे । ४. गोचरः म., ग. ।
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सप्तविंशः सर्गः
अनन्तमतिसंज्ञस्य गुरोः कृत्वातिशिष्यताम् । स चन्द्राभविमानेन्द्रो ब्रह्मलोकेऽभवत्सुरः ||११७॥ व्याधपूर्वोऽपि सप्तम्या निःसृत्य भुजगोऽभवत् । रत्नप्रभां प्रविश्यैत्य भ्रान्स्वा तिर्यक्षु दुःखमाक् ॥ ११८ ॥ स भूतरमणाटव्यामैरावत्यास्तटेऽभवत् । तोकं' कनककेश्यां तु तापसस्य खमालिनः ।। ११९ ।। स पञ्चाग्नितपः कुर्वन् मृगशृङ्गो मृगोपमः । चन्द्राभं खेचरं दृष्ट्वा खेचर तं यदृच्छया ।। १२० ।। निदानी वज्रदंष्ट्रस्य विद्युदंष्ट्रोऽयमात्मजः । जातो विद्युत्प्रभागर्मे विद्याविद्योतितोद्यमः ॥१२१॥ वज्रायुधचरश्च्युत्वा जातः सर्वार्थसिद्धितः । संजयन्तः फणीन्द्रस्त्वं जयन्तो ब्रह्मलोकतः ||१२२|| एकजन्मापकारेण बहुजन्मसु वैरधीः || अवधीत् सिंहसेनं तं श्रीभूतिचरजीवकः ।। १२३ ।। नतोऽस्य घनवैरेण कोपनिघ्नस्य को गुणः । जातः प्रत्युत जातोऽयं सौख्यविघ्नकृदात्मनः ॥। १२४।। उपलभ्य मतं जैनं गजों जन्मनि पञ्चमे । निर्वैरो निर्वृतोऽहिस्त्वं संसरत्येष वैरभाक् ।। १२५ ।। वैरबन्धमिति ज्ञात्वा घोरसंसारवर्धनम् । धरणेन्द्र ! विमुञ्च स्वं तथा मिथ्यात्वमप्यरम् ।। १२६ ॥ इत्यादित्याभदेवेन धरणेन्द्रः प्रबोधितः । मुक्तवैरः स सम्यक्त्वं जग्राह भवतारणम् ॥ १२७ ॥ ततः खण्डितविद्यास्ते छिन्नपक्षाः खगा यथा । खिन्नोद्यमास्तदेत्युक्ता धरणेन्द्रण | खेचराः ॥ १२८ ॥ प्रतिमां व्योमगाः सर्वे संजयन्तस्य पावनीम् । शैले स्थापयतात्राशु पञ्चचापशतोच्छ्रय। म् ||१२९ ।।
नरक से निकलकर इन्हीं दोनोंके श्रीदाम नामका पुत्र हुआ । यह श्रीदाम मुझे एक बार सुमेरु पर्वत पर मिला तो वहाँ भी मैंने उसे समझाया ।। ११५ - ११६ ।। जिससे अनन्तमति गुरुका शिष्य बनकर वह ब्रह्मलोक स्वर्ग में चन्द्राभ विमानका स्वामी देव हुआ है ।। ११७|| श्रीभूतिका जीव जो पहले भील था सातवीं पृथिवीसे निकलकर सर्पं हुआ । फिर रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवीमें गया, वहाँसे निकलकर तिर्यंचोंमें भ्रमण कर दुःख भोगता रहा ||११८॥ तदनन्तर भूतरमण नामक अटवो में ऐरावती नदीके किनारे खमाली नामक तापसकी कनककेशो स्त्रीसे पुत्र उत्पन्न हुआ | | ११९ || वह मृगके समान था तथा मृगशृंग उसका नाम था । एक बार वह पंचाग्नि तप तप रहा था कि उसकी दृष्टि स्वेच्छा से आकाश में विचरण करते हुए चन्द्राभ नामक विद्याधरपर पड़ी। विद्याधरको देखकर उसने विद्याधर होनेका निदान किया और उसके फलस्वरूप वह राजा वज्रदंष्ट्र की विद्युत्प्रभा रानोके गर्भसे, जिसका उद्यम विद्याओंसे प्रकाशमान है ऐसा यह विद्युद्दंष्ट्र नामका पुत्र हुआ है || १२०-१२१ ॥ वज्रायुधका जीव सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर संजयन्त हुआ है और ब्रह्मलोकसे चयकर जयन्तका जीव तू धरणेन्द्र हुआ है || १२२|| देखो वैरकी महिमा, राजा सिंहसेनने श्रीभूति पुरोहितका एक जन्म में अपकार किया था पर उसी अपकारसे वैर बाँधकर श्रीभूतिके जीवने अनेक जन्मों में सिंहसेनका वध किया || १२३ ॥ तीव्र वैरसे क्रोधके वशीभूत हो श्रीभूतिके जीवने सिंहसेनका अनेक बार घात किया अवश्य पर उससे उसे क्या लाभ हुआ ? प्रत्युत उसका यह कार्यं अपने ही सुखको नष्ट करनेवाला हुआ || १२४॥ सहसेनका जीव तो जब हाथी था तभी जैनधर्मं प्राप्तकर वैर रहित हो गया था और उसके फलस्वरूप पाँचवें भवमें संजयन्त पर्यायसे मोक्ष चला गया है पर तू नागेन्द्र होकर भी वैरको धारण कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है ।। १२५ || हे धरणेन्द्र ! इस प्रकार वैर भावको घोर संसारका वर्धक जानकर तू छोड़ दे और सबका मूल जो मिथ्यादर्शन है उसका भी शीघ्र त्याग कर दे || १२६|| इस प्रकार आदित्याभ देवके द्वारा प्रबोधको प्राप्त हुए धरणेन्द्रने सब वैर-भाव छोड़कर संसारसागर से पार करानेवाला सम्यग्दर्शन धारण कर लिया ॥ १२७॥
तदनन्तर विद्याओंके खण्डित हो जानेसे जो पंख कटे पक्षियोंके समान खेदखिन्न हो रहे थे ऐसे उन विद्याधरोंसे धरणेन्द्र ने कहा कि हे समस्त विद्याधरो ! तुम सब शीघ्र ही इस पर्वतपर १. पुत्र: । 'पुत्रः सुनूरपत्यं च तुक्तोकं चात्मजः प्रज्ञा' इत्यमरः । २. भूतपूर्वो वज्रायुध इति वज्रायुधवरः ।
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हरिवंशपुराणे
तस्याश्चरणमूले वः पुरश्चरणकारिणाम् । कालेन महता क्लेशाद्विद्याः सिद्धयन्तु नान्यथा ॥ १३० ॥ इतः प्रभृति च स्त्रीणां विद्युष्ट्रस्य संततौ । प्रज्ञप्तिरोहिणीगौर्यः सिद्ध्यन्तु न नृणां तु ताः ॥ १३१ ॥ इत्युक्तमनुमन्यैते खगाः प्रणतिपूर्वकम् । विद्याः स्वा लेभिरे भूयो यथास्वं च ययुः सुराः ॥ १३२॥ खेचराः स्थापयांचक्रुस्तां यतेः प्रतियातनाम् । नानोपकरणां तत्र हेमरत्नमयीं गिरौ ॥ १३३ ॥ हृतविद्या यतस्तत्र होमन्तस्तस्थुरानताः । विद्याधरास्ततः शैलं होमन्तं तं जना जगुः ॥१३४॥ भूभृतो रनवीर्यस्य मथुरायां पृथुश्रियः । स मेरुर्मेघमालायां लान्तवेन्द्रोऽभवत्सुतः || १३५|| अमितप्रमया तस्य प्रिययालाभि भूपतेः । धरणेन्द्रचरः पुत्रो मन्दरश्चन्द्र सुन्दरः ।। १३६ । युवानौ तौ ततो भुक्त्वा कामभोगान् यथेप्सितान् । श्रेयसो जिनचन्द्रस्य शिष्यतामुपजग्मतुः ॥ १३७॥ स मे निष्कम्पः प्राप्य केवलसंपदम् । निर्ववौ तु गणेन्द्रत्वं मन्दरो मन्दरोपमः ॥ १३८ ॥
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रथोद्धतावृत्तम्
संजयन्तचरितं जगत्त्रये सुप्रसिद्धमतिभक्तिमावतः ।
संभवन्तु भुवि मव्यजन्तवः संस्मरन्तु जिनतां यियासवः ॥१३९॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो संजयन्तपुराणवर्णनो नाम सप्तविंशः सर्गः ॥ २७॥ O
संजयन्त स्वामीको पाँच सौ धनुष ऊँची प्रतिमा स्थापित करो। उसी प्रतिमाके पादमूलमें उनकी सेवा करते हुए तुम लोगोंको बहुत समय बाद बड़े कष्टसे विद्याएँ सिद्ध होंगी अन्य प्रकारसे नहीं ||१२८ - १३० ।। आजसे विद्युद्दंष्ट्र के वंश में केवल स्त्रियोंको ही प्रज्ञप्ति, रोहिणी और गौरी नामकी विद्याएँ सिद्ध हो सकेंगी पुरुषों को नहीं ॥ १३१|| इस प्रकार धरणेन्द्रकी आज्ञाको विद्याधरोंने नमस्कारपूर्वक स्वीकार किया तथा यथायोग्य विधिसे अपनी विद्याएं पुनः प्राप्त कीं। यह सब होनेके बाद देव यथास्थान चले गये ||१३२ || विद्याधरोंने धरणेन्द्रकी आज्ञानुसार उस पर्वतपर नाना उपकरणोंसे युक्त एवं सुवर्ण और रत्नोंसे निर्मित संजयन्त स्वामीकी प्रतिमा स्थापित करायो ||१३३ || विद्याओंके हरे जानेसे लज्जित हो नीचा मस्तक किये हुए विद्याधर चूंकि उस पर्वतपर बैठे थे इसलिए लोग उस पर्वतको ह्रीमन्त कहने लगे || १३४|| मथुरा में विशाल लक्ष्मीका धारक रत्नवीर्यं नामका राजा रहता था । उसकी मेघमाला नामकी स्त्री थी, आदित्याभ नामका लान्तवेन्द्र उन्हीं दोनोंके मेरु नामका पुत्र हुआ || १३५|| उसी राजा रत्नवीर्यकी दूसरी स्त्री अमितप्रभा थी, उसके धरणेन्द्रका जीव चन्द्रमाके समान सुन्दर मन्दर नामका पुत्र हुआ || १३६ ।।
तदनन्तर युवा होनेपर दोनोंने इच्छानुसार कामभोगोंका उपभोग किया और उसके बाद दोनों ही, श्री श्रेयान्सनाथ जिनेन्द्रके शिष्य हो गये - दीक्षा लेकर मुनि हो गये ||१३७|| उनमें मेरु पर्वतके समान निष्कम्प मेरु मुनिराज केवलज्ञानरूपी सम्पत्तिको प्राप्त कर मोक्ष चले गये और मन्दरगिरिको उपमाको धारण करनेवाले मन्दर मुनिराज श्रेयान्सनाथ भगवान् के गणधर हो गये ||१३८ || गौतम स्वामी कहते हैं कि इस पृथिवीपर जो भव्य जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करना चाहते हैं वे तीनों लोकोंमें अतिशय प्रसिद्ध संजयन्त स्वामीके इस चरितका उत्कट भक्ति-भावसे आदर करें तथा उसीका अच्छी तरह स्मरण करें || १३९ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें संजयन्त पुराणका वर्णन करनेवाला सत्ताईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||२७||
१. यातुमिच्छवः ।
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अष्टाविंशः सर्गः
अतः परं' परं शौरेः शृणु श्रेणिक ! चेष्टितम् । वेगवत्या वियुक्तस्य पुण्यपौरुषयोगिनः ॥१॥ पर्यटन्नटवीं वीरस्तापसाश्रममश्रमः । प्रविष्टोऽपश्यदाविष्टविकथान् तत्र तापसान ॥२॥ राजयुद्धकथासक्ताः यूयं किमिति तापसाः । तापसास्तपसा युक्तास्तपो वाक्संयमादिकम् ॥३॥ इति पृष्टा जगुस्ते तं विशिष्टजनवत्सलाः । नवप्रव्रजिता वृत्तिं मौनी विद्मो वयं न भोः ॥४॥ श्रावस्त्यामस्ति विस्तीर्णय शस्तीर्णमहार्णवः । एणीपुत्र इति क्षोणीपतिरक्षीणपौरुषः ॥५॥ प्रियङ्गुसुन्दरी तस्य दुहिता लोकसुन्दरी । तस्याः स्वयंवराथं तु तेनाहूता वयं नृपाः ॥६॥ केनापि हेतुना कोऽपि न वृतो वृतया श्रिया । कन्यया वन्यहस्तिन्या वन्येतरगजो यथा ॥७॥ भपाः संमय भयांसो विलक्षा लोभलक्षिताः। कन्यापित्रा ततः सत्रा सद्यो योद्धं समुद्यताः ॥८॥ तेन भोः क्षुमितान्याशु सहस्राणि महीभुजाम् । संकोचिानि संग्रामे नेत्राणि रविणा यथा ।।९।। तुङ्गाभिमानिनः केचिद् भङ्गाङ्गीकरणाक्षमाः । रणाङ्गणगता भूपाः प्राणान् सद्यो हि तस्यजुः ।।१०॥ विश्वेऽप्यश्वरवात्तस्मात्सहस्रकरतो वयम् । ध्वान्तोघा इव भीता भोः प्रविष्टा गह्वरं वनम् ।।११।। कुरु धर्मोपदेशं मो धर्मतत्वमजानताम् । त्वं वचोमि
वोऽभिलक्ष्यसे ।।१२।।
अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब तुम वेगवतीसे रहित तथा पुण्य और पुरुषार्थके समागमको प्राप्त वसुदेवका आगेका चरित सुनो ॥१॥ एक दिन बिना किसी थकावटके अटवीमें भ्रमण करते हुए वीर वसुदेवने तपस्वियोंके आश्रममें प्रवेश किया और वहाँ विकथा करते हुए तापसोंको देखा ।।२।। कुमारने उनसे कहा-अये तापसो! आप लोग इस तरह राज-कथा और युद्ध-कथामें आसक्त क्यों हैं ? क्योंकि तापस वे कहलाते हैं जो तपसे युक्त हों और तप वह कहलाता है जिसमें वचन संयम आदिका पालन किया जाय अर्थात् वचनोंको वशमें किया
३॥ इस प्रकार कहनेपर विशिष्ट आगन्तुकसे स्नेह रखनेवाले उन तपस्वियोने कहा कि हमलोग अभी नवीन ही दीक्षित हुए हैं। इसलिए मुनियोंकी वृत्तिको जानते नहीं हैं ।।४।। इसी श्रावस्ती नगरीमें विस्तृत यशसे समुद्रको पार करनेवाला एवं अखण्ड पौरुषका धारक एक एणीपुत्र नामका राजा है ।।५।। उसकी लोकमें अद्वितीय सुन्दरी प्रियंगुसुन्दरी नामकी कन्या है। उसके स्वयंवरके लिए एणीपुत्रने हम सब राजाओंको बुलाया था॥६॥ परन्तु किसी कारणवश, जिस प्रकार वनकी हस्तिनी वनके हस्तीके सिवाय किसी दूसरे हस्तीको नहीं वरती है उसी प्रकार उस शोभासम्पन्न कन्याने किसोको नहीं वरा ||७|| तदनन्तर जो कन्याके लोभसे युक्त थे, परन्तु उसके प्राप्त न होनेसे मन-ही-मन लज्जित हो रहे थे, ऐसे बहुतसे राजा मिलकर कन्याके पिताके साथ शीघ्र ही युद्ध करनेको तैयार हो गये ||८॥ परन्तु जिस प्रकार एक ही सूर्य हजारों नेत्रोंको अकेला हो संकोचित कर देता है उसी प्रकार उस अकेले एणीपुत्रने हजारों राजाओंको शीघ्र ही क्षुभित कर संकोचित कर दिया ||९|| उत्कट अभिमानसे भरे कितने ही राजाओंने जो पराजयको स्वीकृत करने में समर्थ नहीं थे, युद्धके मैदानमें जाकर शीघ्र ही प्राण त्याग दिये ॥१०॥ जिस प्रकार सूर्यसे डरकर अन्धकारके समूह सघन वनमें जा घुसते हैं उसी प्रकार हम सब भी घोड़ोंको हिनहिनाहटसे
से डरकर इस सघन वनमें आ घुसे हैं ।।११।। भो महाशय ! हम लोग धर्मका कुछ भी
१. श्रेष्ठम् । २. -दाविष्टदिग्वासांस्तत्र क., ग. घ.,ङ,। ३. रणाङ्गीकरणक्षमाः क., भङ्गाङ्गीकरणक्षमाः म.।
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हरिवंशपुराणे पृष्टस्तथा तथा शौरिस्तेषां धर्म द्विधाभ्यधात् । यतिश्रावकभेदज्ञाः श्रामण्यं ते यथा ययुः ॥१३॥ प्रियङ्गसुन्दरीलाभलोभेन यदुनन्दनः । श्रावस्ती वस्तुविस्तारविश्रु तां तामशिश्रियत् ॥१४॥ बाह्योद्याने च तत्रासो कामदेवगृहऽग्रतः । त्रिपादं कृत्रिमं हेमं महामहिषमक्षत ॥१५॥ पप्रच्छ विप्रमेकं भो किमेष महिषस्त्रिपाद् । निर्मितो रत्ननिर्माणो भाव्यमत्र हि हेतुना ॥१३॥ स प्राहैवमिहैवामूत्पुर्यां भूपतिरार्यकः । इक्ष्वाकुर्जितशत्रुस्तत्पुत्रश्चापि मृगध्वजः ॥१७॥ श्रेष्ठी तु कामदत्तोऽत्र गोष्टं द्रष्टुं गतोऽन्यदा । पपात पादयोस्तस्य कृपणो महिषोऽल्पकः ॥१८॥ ततश्चाश्चर्यकृत् कार्य यथास्वं स्वामिनाऽमुना । पिण्डारी दण्डस्तित्र पृष्टः कारणमब्रवीत् ॥१९॥ उत्पन्नदिन एवास्योपरि करुणा मेऽभवत् । वने दृष्ट्वा मुनि नत्वा पृष्टवान् तमहं पुनः ॥२०॥ अस्योपरि किमर्थ मे करुणा महती मुने । स बमाग मुनिझमी शृणु गोपाळ ! निश्चितम् ॥२१॥ एकस्यामेव चामुष्यां महिष्यामेष जातवान् । पञ्च कृत्वो वराकस्तु जातो जातो हतस्त्वया ॥२२॥ वारे षष्टे तु तनिष्टकनिष्ठस्य तवैषकः । सहसोथार संत्रस्तः पादयोः पतितः शिशुः ॥२३॥ कृपया स मयाऽत्रायं पुत्रवत्परिपालितः । जीवितार्थी तवेदानीं पतितः पादयोरिह ॥२४॥ श्रुत्वैवं कृपया तेन समानीतः पुरीमसौ। अमयं राजलोकेभ्यो लब्ध्वावर्द्धिष्ट मद्रकः ॥२५॥
तत्त्व नहीं जानते। इसलिए आप हम लोगोंको धर्मका उपदेश दोजिए। आपके मधुर वचनोंसे पता चलता है कि आपने धर्मका तत्त्व अच्छी तरह देखा है ।।१२।। इस प्रकार उन सबके पूछनेपर वसुदेवने उन्हें श्रावक और मुनिके भेदसे दोनों प्रकारका धर्म बतलाया जिससे वे मुनि और श्रावकके भेदको अच्छी तरह जानकर यथार्थ साधु अवस्थाको प्राप्त हुए ॥१३॥
तदनन्तर प्रियंगुसुन्दरीके लाभके लोभसे प्रेरित हो कुमार वसुदेवने वस्तुओंके विस्तारसे प्रसिद्ध उस श्रावस्ती नगरीमें प्रवेश किया ॥१४॥ वहाँ उन्होंने बाह्य उद्यानमें कामदेवके मन्दिरके आगे निर्मित तीन पाँवका एक बड़ा भारी सुवर्णमय भैंसा देखा ||१५|| उसे देखकर उन्होंने एक ब्राह्मणसे पूछा कि हे महानुभाव ! यहाँ यह रत्नमयो तीन पाँवोंका भैंसा किसलिए बनाया गया है ? इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिए ।।१६।। ब्राह्मणने कहा कि इस नगरमें पहले शत्रुओंको जीतनेवाला एक इश्वाकुवंशीय जितशत्रु नामका उत्तम राजा था और उसका मृगध्वज नामक पूत्र था ।।१७|| इसी नगर में एक कामदत्त नामका सेठ रहता था। वह एक समय गोशाला देखनेके गया तो वहाँ एक दीन-हीन छोटा-सा भैंसा उसके चरणोंपर आ गिरा ॥१८॥ उसका यह आश्चर्यजनक कार्य देख सेठने गोशालाके अधिकारी पिण्डार नामक गोपालसे इसका कारण पूछा ॥१९॥ गोपालने कहा जिस दिन यह उत्पन्न हुआ था उसी दिनसे इसपर मुझे बहुत दया उत्पन्न हुई थी इसलिए मैंने वनमें विराजमान मुनिराजके दर्शनकर नमस्कार पूर्वक उनसे इसके विषयमें पूछा था ॥२०॥ कि हे मुनिनाथ ! इसके ऊपर मेरे हृदयमें बहुत भारी दया क्यों उत्पन्न हुई है ? इसके उत्तरमें ज्ञानी मुनिराजने कहा था कि हे गोपाल ! सुन, मैं इसका कारण कहता हूँ॥२१।। यह बेचारा इसी एक भैसके पाँच बार उत्पन्न हुआ और उत्पन्न होते ही तू ने इसे मार डाला ।।२२।। अब छठवीं बार भी उसी भैसके उत्पन्न हुआ है, अबकी बार इसे जाति स्मरण हुआ है इसलिए भयभीत हो सहसा उठकर तेरे पैरोंपर आ गिरा था। छोटे बच्चोंका संरक्षण भी तो तेरे हो आधीन था ।।२३।।
मुनिराजके उक्त वचन सुनकर मैंने यहां पुत्रवत् इसका पालन किया है। अब जीवित रहने की इच्छासे यह यहाँ आपके चरणों में भी गिरा है ॥२४॥ गोपालके वचन सुनकर वह सेठ
उस भैसके बच्चेको अपने साथ नगर ले गया और राज-कर्मचारियोंसे उसे अभय
१. पेण्डारो म.। २. वनं म,। ३. ममषक: म.।
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अष्टाविंशः सर्गः
३७५ अन्यदान्यभवोपात्तवैरबन्धानुबन्धतः । पादं चकर्त्त चक्रेण महिषस्य मृगध्वजः ॥२६॥ राज्ञा विज्ञाय 'चाज्ञप्ते मृगध्वजवधे रुषा। छद्मना मन्त्रिणा नीत्वारण्ये श्रामण्यमापितः ॥२७॥ भद्रके भद्रभावेन मृते चाष्टादशेऽहनि । द्वाविंशे केवली जातः शुद्धध्यानान्मृगध्वजः ॥२८॥ चतुर्णिकायदेवैः स मत्यैश्च कृतपूजनः । संपृष्टो वैरसंबन्धः पित्रा नु जित शत्रुणा ॥२९॥ मृगध्वजमुनिः प्राह देवदानवमानवैः । कथाकेर्णनसंतुष्टचित्तकर्णपुटैर्वृतः ।।३०।। प्रतिशत्रुस्त्रिपिष्टस्य द्रोह्यभूदलकापुरे । अश्वग्रीव इति ख्यातो विद्याधरमहेश्वरः ॥३१॥ सचिवस्तस्य निस्तीर्णतर्कमार्गमहार्णवः । हरिश्मश्रुवदस्पृश्यो हरिश्मश्रु इति श्रुतः ॥३२॥ नास्तिकैकान्तवादी स प्रत्यक्षकप्रमाणकः । प्रत्यक्षानुपलभ्यं यत्तन्नास्तीत्यभ्युपेतवान् ॥३३॥ चतुर्मतसमूहेऽस्मिन् किवादी मदशक्तिवत् । चैतन्यशक्तिरत्यन्तमसत्येव भवत्यसौ ॥३४॥ आत्मेति व्यवहारोऽत्र लोकस्य व विरुध्यते । न भूतव्यतिरिक्तोऽस्ति संसार्यनुएलब्धितः ॥३५॥ पुण्यापुण्यविधाता यो भोक्ता च सुखदुःखयोः । इष्टो जैस्तस्य वा दृष्टेरभावात् पारलौकिकः ॥३६॥ नारकस्वर्गतिर्यक्त्वविकल्पोऽज्ञविकल्पितः । भोगाधिष्ठात्रधिष्ठानः परलोको न विद्यते ॥३०॥
दिलाकर उसका भद्रक नाम रख दिया। भद्रक दिन-प्रति-दिन बडा होने लगा ॥२५।। किसी समय राजपुत्र मृगध्वजने अन्य भवसम्बन्धी वैरके संस्कारसे चक्रके द्वारा उस भैंसेका एक पांव काट डाला ||२६|| राजाको जब इस बातका पता चला तो उसने क्रोधमें आकर मगध्वजको मारनेका आदेश दे दिया । मन्त्री बुद्धिमान् था इसलिए उसने मृगध्वजको मारा तो नहीं किन्तु किसी छलसे वनमें ले जाकर उसे मुनि दीक्षा दिला दी ॥२७।। भद्रक शुभ परिणामोंसे अठारहवें दिन मर गया और बाईसवें दिन निर्मल ध्यानके प्रभावसे मृगध्वज मुनि केवलज्ञानी हो गये ॥२८॥ चारों निकायके देव तथा मनुष्योंने आकर मृगध्वज केवलीकी पूजा की। तदनन्तर पिता जितशत्रुने मृगध्वज केवलीसे मृगध्वज तथा भैसेके वैरका सम्बन्ध पूछा ।।२९।। तदनन्तर कथाके सुननेसे जिनके चित्त तथा हृदय प्रसन्न हो रहे थे ऐसे देव, दानव और मानवोंसे घिरे मृगध्वज मुनि इस प्रकार कहने लगे ॥३०॥
किसी समय अलका नगरीमें प्रथम नारायण त्रिपिष्टका प्रतिशत्र-प्रतिनारायण, अश्वग्रीव नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंका राजा रहता था ॥३१।। उसका हरिश्मश्रु नामका एक मन्त्री था जिसने तर्कशास्त्र रूपी महासागरको पार कर लिया था और सिहकी मूंछके समान जिसका स्पर्श करना कठिन था ॥३२॥ हरिश्मश्रु एकान्तवादी नास्तिक तथा सिर्फ प्रत्यक्षको प्रमाण माननेवाला था इसलिए जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं दिखती थी उसे वह 'है ही नहीं' ऐसा मानता था ॥३३॥ उसका कहना था कि जिस प्रकार आटा आदिमें मद शक्ति पहले नहीं थी किन्तु विभिन्न वस्तुओंका संयोग होनेपर नवीन हो उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंके समूह स्वरूप इस शरीरमें जो पहले बिलकुल ही नहीं थी ऐसी नवीन ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।।३४॥ इसी चैतन्य शक्तिमें 'यह आत्मा है' ऐसा लोगोंका व्यवहार विरुद्ध नहीं होता अर्थात् उस चैतन्य शक्तिको लोग आत्मा कहते रहें इसमें कोई विरोधकी बात नहीं है। यथार्थमें पृथिव्यादि भूतोंसे अतिरिक्त कोई संसारी आत्मा नहीं है क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती.॥३५॥ पुण्य-पापका कर्ता, सुख-दुःखका भोक्ता और परलोकमें जानेवाला जो अज्ञानी जनोंने मान रखा है वह नहीं है क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता ॥३६॥ भोगोंके अधिष्ठाता-आत्माके रहनेका आधार, तथा नरक देव और तिथंचोंके भेदसे युक्त जिस परलोकको कल्पना अज्ञानी जनोंने कर रखी है वह नहीं १. चाज्ञप्ते{ग •मः । २. वर्णन म. । ३. सिंहश्मश्रु वत् । ४. इष्टाज्ञः म. ।
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हरिवंशपुराणे
ज्ञानवृत्तिविशेषस्य शक्यो यश्च विनिश्चितः । मोक्षो मोक्तुरभावात्स न युक्तो निःप्रमाणकः ॥ ३८ ॥ भूतसंश्लेषजातस्य भूतविश्लेषनाशिनः । सुखिनश्चिद्विशेषस्य संयमो भोगनाशनः ॥ ३९॥ इत्येकान्त कुतर्केण रञ्जितः सचिवः स च । आगमानुमितिज्ञेय जीवाद्यर्थात् परोचनः ॥ ४० ॥ परलोककथापोढदुःकथामूढमानसः । कामभोगैकनिष्टोऽभूत्कनिष्ठो धर्मदूषकः || ४१|| नास्तिकस्य तथा तस्य प्रेत्यभावापलापिनः । तीर्थं कृच्चक्रवर्त्त्यादिमहापुरुषदूषिणः ॥ ४२ ॥ हरिश्मश्रदुरीहस्य हरिकण्ठोऽपि नास्तिकः । धर्मकुण्ठोऽपि भावेन नित्याविष्टोऽवतिष्ठते ॥४३॥ अश्वोवो हतो युद्धे त्रिपिष्टेन तमस्तमः । विजयेन हरिश्मश्रुः प्राविशन्नरकं ततः ॥ ४४ ॥ चिरं संसृत्य जातोऽहं हयग्रीवो मृगध्वजः । हरिश्मश्रुः पुना राजन् भद्रको महिषोऽधुना ॥४५॥ पूर्वकोपानुबन्धेन मयैव महिषो हतः । अकामनिर्जरातोऽभूलोहिताख्यो महासुरः ॥ ४६ ॥ आगतो चन्दनाभक्त्या देवभूत्याधुना युतः । आस्तेऽयमत्र जातेन मित्रभावेन भावितः ॥ ४७॥ क्रोधानुबन्धमित्येकं सत्त्वान्धीकरणक्षमम् । विनियम्य महाराज ! शाम्यन्तु शिवकाङ्क्षिणः ॥ ४८ ॥ राजाद्याः प्राव्रजन् श्रुत्वा प्रशान्तो महिषासुरः । निःशल्यो लौल्यमुज्झित्वा रराज सलभाजनः ॥ ४९ ॥ 'गताः केवलिनं नत्वा ससुरासुरमानवाः । यथास्वं स्थानमन्ये च सिद्धस्थानं मृगध्वजः ॥ ५० ॥
३७६
है ||३७|| विशिष्ट ज्ञानवान् मनुष्यों को ही जिसकी प्राप्ति शक्य एवं सुनिश्चित की गयी है ऐसा मोक्ष मानना भी निष्प्रमाण है क्योंकि जब मुक्त होनेवाला आत्मा ही नहीं है तब मोक्षका मानना उचित कैसे हो सकता है ? ||३८|| जो भूतोंके संयोगसे उत्पन्न होता है और भूतोंके वियोगसे नष्ट हो जाता है ऐसे सुख उपभोक्ता चेतनके लिए संयम धारण करना भोगोंको नष्ट करना है ॥ ३९ ॥ इस प्रकार जो एकान्त मत रूपी कुतर्कों से रंगा हुआ था, आगम तथा अनुमान प्रमाणके द्वारा ज्ञेय जीवादि पदार्थों से सदा पराङ्मुख रहता था, परलोक सम्बन्धी कथाओंसे रहित दुष्ट कथाओं में ही जिसका मन मूढ रहता था और जो धर्मकी निन्दा करता रहता था ऐसा वह क्षुद्र मन्त्री निरन्तर काम भोगों में ही आसक्त रहता था ।४० - ४१ ॥ नास्तिक, परलोक के अपलापी, तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती आदि महापुरुषों को दोष लगानेवाले और खोटी चेष्टासे युक्त हरिश्मश्रु मन्त्री के संसर्गसे अश्वग्रीव भी नास्तिक बन गया जिससे वह भी धर्मसे विमुख एवं भवों द्वारा पिशाचादिसे निरन्तर आक्रान्त हुए समान रहने लगा ।। ४२-४३ ।। तदनन्तर किसी समय युद्ध में अश्वग्रीवको त्रिपिष्ट नारायणने और हरिश्मश्रुको विजय बलभद्रने मार गिराया जिससे वे दोनों ही मरकर तमस्तमः नामक सातवें नरक गये ||४४|| हे राजन् ! चिर काल तक अनेक योनियों में भ्रमण कर अश्वग्रीवका जीव तो मैं मृगध्वज हुआ हूँ और हरिश्मश्रुका जीव इस समय भद्रक नामका भैंसा हुआ है ॥४५॥ पूर्व क्रोध के संस्कारसे मैंने ही उस भैंसेको मारा था और अकामनिर्जराके प्रभावसे वह लोहित नामका असुर हुआ है ||४६ ॥ | वह लोहितासुर इस समय वन्दनाको भक्तिसे यहाँ आया है और देवोंकी विभूति से युक्त हो मित्र भावसे यहीं बैठा है | ! ४७|| हे महाराज ! यह क्रोधका संस्कार प्राणीको अन्धा बना देने में समर्थ है इसलिए जो मोक्षकी इच्छा रखते हैं वे इसे रोककर शान्त हों ||४८|| मृगध्वज केवली के मुखसे यह वृत्तान्त सुन जितशत्रुको आदि लेकर कितने ही राजाओं ने दीक्षा ले ली । महिषासुर शान्त हो गया और सभाके लोग लोलुपता छोड़, शल्य रहित हो सुशोभित होने लगे ||४९|| तदनन्तर देव-दानव और केवलीको नमस्कार कर यथायोग्य अपनेअपने स्थानपर चले गये और केवली मृगध्वज सिद्ध स्थानपर जा विराजे ॥५०॥ गौतम स्वामी
१. ज्ञेयो जीवाद्यर्यात् म । २. कामभोगैः कनिष्ठोऽभूत् म । ३. प्रत्याभावाप - म । ४ अश्वग्रीवोऽपि । ५. लोहिताक्षो क. । ६. गत्वा म. ।
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अष्टाविंशः सर्गः
३७७
आर्यागीतिच्छन्दः . 'महिषमृगध्वजवृत्तं यः सततं शुद्धवृत्तमनसि धत्ते । स भजति दृष्टिविशुद्धिं जिनदृष्टपदार्थगोचरां भव्यजनः ॥५१
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती मगध्वजमहिषोपाख्यानवर्णनो नाम
अष्टाविंशः सर्गः ॥२८॥
कहते हैं कि जो भव्य जीव इस महिषासुर और मृगध्वजके वृत्तान्तको सदा अपने शुद्ध हृदयमें धारण करता है वह जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा इष्ट पदार्थोंको विषय करनेवाली दर्शनविशुद्धिसम्यग्दर्शनकी निर्मलताको प्राप्त होता है ।।५१||
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मृगध्वज और
महिषके चरितका वर्णन करनेवाला अट्ठाईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२८॥
१. महिषध्वज म. ।
४८
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एकोनत्रिंशः सर्गः
कामदत्तो जिनागारपुरो लोकप्रवेशने । मगध्वजस्य प्रतिमा स न्यधान्महिषस्य च ॥१॥ अव कामदेवस्य रतेश्च प्रतिमा व्यधात् । जिनागारे समस्तायाः प्रजायाः कौतुकाय सः ॥२॥ कामदेवरतिप्रेक्षाकौतुकेन जगजनाः । जिनायतनमागत्य प्रेक्ष्य तत्प्रतिमाद्वयम् ॥३॥ संविधानकमाकर्ण्य तद् भागकमगध्वजम् । बहवः प्रतिपद्यन्ते जिनधर्ममहर्दिवम् ॥४॥ प्रसिद्धं च गृहं जैनं कामदेवगृहाख्यया । कौतुकागतलोकस्य जातं जिनमताप्तये ॥५॥ व्यतिक्रान्तेषु बहुषु संजातपुरुषेष्विह । कामदेवामिधः श्रेष्ठी कामदत्तान्वयेऽधुना ॥६॥ रूपयौवनसंपूर्णा पूर्णचन्द्रसमानना । कन्या बन्धुमती तस्य बन्धुलोकातिनन्दिनी ॥७॥ आदिष्टः पितृपृष्टेन दैवज्ञेन नरो वरः । तस्याः स्मरगृहद्वारमुद्घाटय स्मरपूजनः ॥८॥ एवंविधवचः श्रुत्वा तद्गृहद्वारमेत्य सः । द्वात्रिंशदर्गलादुर्गमुद्घाटय सहसाविशत् ॥९॥ ततोऽभ्यर्च्य जिनेन्द्रार्चाः सोऽर्चयत् सरतिस्मरम् । चैत्यार्चनार्थमेतेन कामदेवेन वीक्षितः ॥१०॥ तेन नैमित्तिकादेशसंवादमुदितात्मना । दत्ता बन्धुमती तस्मै बन्धुराधरबन्धुरा ॥११॥ कामदः कामदेवेन कामदेवस्य कामिनः । जामाता कामदेवामः कोऽपि दत्त इतीदशी ॥१२॥ वार्ता प्रादुरभूत्पुर्यामतस्तस्यामितोऽमुतः । राज्ञान्तःपुरपोरैश्च दृष्टः स्वैरमसौ ततः ॥१३॥
अथानन्तर सेठ कामदत्तने, जहां लोगोंका आना-जाना अधिक था ऐसे स्थानपर नगरमें जिनमन्दिरके आगे मृगध्वज केवलीकी प्रतिमा और महिषकी मूर्ति स्थापित की ॥१॥ सेठने इसी मन्दिरमें समस्त प्रजाके कौतकके लिए कामदेव और रतिकी भी मति बनवायी ॥२॥ कामदेव और रतिको देखनेके कोतूहलसे जगत्के लोग जिन-मन्दिरमें आते हैं और वहां स्थापित दोनों प्रतिमाओंको देखकर मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त सुनते हैं जिससे अनेकों पुरुष प्रति. दिन जिनधर्मको प्राप्त होते हैं॥३-४॥ यह जिनमन्दिर कामदेवके मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध और कौतुकवश आये हुए लोगोंको जिनधर्मकी प्राप्तिका कारण है ॥५॥ उसी कामदत्त सेठके वंशमें अनेक लोगोंके उत्पन्न हो चुकनेके बाद इस समय एक कामदेव नामका सेठ उत्पन्न हुआ है ॥६॥ उसको रूप और योवनसे पूर्ण, पूर्ण चन्द्रमाक समान मुखवाली तथा बन्धुजनोको आनन्दित करनेवाली बन्धुमती नामकी एक कन्या है ॥७॥ पिताके पूछनेपर निमित्तज्ञानीने बताया था कि जो मनुष्य कामदेवके मन्दिरका दरवाजा खोलकर कामदेवकी पूजा करेगा वही इसका पति होगा ||८||
ब्राह्मणके इस प्रकारके वचन सुन वसुदेव कामदेवके मन्दिरके द्वारपर पहुँचे और बत्तीस अर्गलाओंसे दुर्गम उस द्वारको खोलकर शीघ्र ही भीतर जा पहुंचे ॥९॥ भीतर जाकर वसुदेवने प्रथम तो जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाओंकी पूजा की और उसके बाद रति सहित कामदेवको पूजा की। उसी समय कामदेव सेठ प्रतिमाओंको पूजाके लिए मन्दिरमें आया था सो उसने वसुदेवको देखा ॥१०॥ तदनन्तर निमित्तज्ञानीके आदेशकी सचाईसे जिसकी आत्मा प्रसन्न हो रही थी ऐसे कामदेव सेठने सुन्दर ओठोंसे सुशोभित अपनी बन्धुमती कन्या वसुदेवके लिए प्रदान कर दी ।।११।। उसी समय नगरीमें चारों ओर यह समाचार फैल गया कि वरके अभिलाषी सेठ कामदेवके लिए कामदेवने, मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला एवं कामदेवके समान आभावाला कोई अद्भुत जामाता
१. निमित्तज्ञेन, ज्योतिर्विदा ।
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एकोनत्रिशः सर्गः
प्रियसुन्दरी तं च कथंचिदवलोक्य सा । अनुरक्ता तथा जाता विरक्ताभूद् यथाम्भसि || १४ || रहस्यावाह्य चापृच्छ्य तां स्वां बन्धुमतीं सखीम् । पत्युर्वल्लमिकासि त्वं वैदग्ध्यं चास्य कीदृशम् ॥ १५ ॥ सास्यै मुग्धावदत्तस्य विदुग्घस्य विचेष्टितम् । तथा यथा गता मोहं स्वसंवेद्य सुखासिकम् ॥१६॥ साभिमानमुद्स्यान्तं तस्ये द्वाःस्थमजीगमत् । तत्समागममिच्छाशु स्त्रीवधं वेत्यनुत्तरम् ||१७|| अन्याय्यमुमयं चैतदिति संचित्य यादवः । व्याजेन केनचिद्दक्षः कालक्षेपमयोजयत् ॥१८॥ लब्धप्रत्याशया कन्या शौरिविन्यस्तधीरसौ । शयने निशि संपूर्ण मन्यमाना मनोरथम् ॥ १९॥ बन्धुमत्युपगूढाङ्गं सुप्तमन्धकवृष्णिजम् । ज्वलनप्रमनागस्त्री रात्रौ दिव्या व्यबोधयत् ||२०|| विबुद्धो देहभूषाभाभासिताखिलदिङ्मुखाम् । तां दृष्ट्वा नागचिह्नां स्त्रीं केयमत्रेत्यचिन्तयत् ॥२१॥ आहूतश्च तथा धीरः प्रियालापविदग्धया । अशोकवनिकां नीत्वा नीत्याभाषि विनीतया ||२२|| शृणु त्वं धीर ! विश्रब्धो ममागमनकारणम् । तयेते श्रवणे येन तवामृतरसेन वा ॥ २३ ॥ आसीदमोघविक्रान्तिः समाक्रान्तारिमण्डलः । अमोघदर्शनो नाम्ना नरेन्द्रश्चन्दने वने ॥ २४ ॥ कान्ता चारुमतिश्चारुश्चारुचन्द्रोऽस्य देहजः । नीतिपौरुषसंपन्नो नवयौवनभूषितः ||२५|| रङ्गसेना च गणिका कलागुणगणान्विता । सुता कामपताकास्याः कामस्येव पताकिका ||२६||
३७९
दिया है। इस समाचारसे प्रेरित होकर राजाने, उसके अन्तःपुरकी स्त्रियोंने, तथा नगरवासी लोगोंने इच्छानुसार वसुदेवको देखा ॥१२- १३ ॥ राजपुत्री प्रियंगुसुन्दरीने भी उन्हें किसी तरह देख लिया और देखकर वह उनपर इतनी अनुरक्त हो गयी कि पानीसे विरक्त हो गयी अर्थात् भोजन पानीसे भी उसे अरुचि हो गयी ||१४|| प्रियंगुसुन्दरीने अपनी सखी बन्धुमतीको एकान्तमें बुलाकर उससे पूछा कि हे सखी! तुम पतिको बहुत प्यारी हो, कहो इनकी चतुराई कैसी है ? || १५ || भोलीभाली बन्धुमतीने चतुर वसुदेवकी चेष्टाओंका प्रियंगुसुन्दरीके लिए इस ढंगसे वर्णन किया कि वह एकदम स्वसंवेद्य सुखसे युक्त मोहको प्राप्त हो गयी || १६ || निदान प्रियंगुसुन्दरीने अभिमान छोड़कर द्वारपालको यह संदेश देकर वसुदेवके पास भेजा कि या तो हमारे साथ समागम करो या शीघ्र ही हत्या स्वीकृत करो ||१७|| 'यह दोनों ही काम अनुचित है' यह विचारकर वसुदेव चिन्तामें पड़ गये । अन्तमें वे चतुर तो थे ही इसलिए किसी बहाने उन्होंने कुछ समय तक ठहरनेका समाचार कहला भेजा || १८ || वसुदेव में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसी प्रियंगुसुन्दरीको उनकी प्राप्तिकी आशा हो
और इस आशा वह रात्रिके समय शय्या पर अपने मनोरथको पूर्ण हुआ हो मानने लगी ||१९|| एक दिन रात्रिके समय कुमार वसुदेव बन्धुमतीका गाढ़ आलिंगन कर सो रहे थे कि एक ज्वलनप्रभा नामकी दिव्य नागकन्याने आकर उन्हें जगा दिया ||२०|| कुमार जाग गये और शरीर तथा आभूषणोंकी कान्तिसे जिसने समस्त दिशाओंको प्रकाशित कर दिया था तथा जिसके शिरपर नागका चिह्न था ऐसी उस स्त्रीको देखकर वे विचार करने लगे कि यह कौन स्त्री यहाँ आयी है ? ॥२१॥ उसी समय प्रिय वार्तालाप करनेमें निपुण नागकन्याने धीर, वीर कुमारको बुलाया और बड़ी विनयके साथ नीतिपूर्वक अशोकवाटिकामें ले जाकर कहा कि हे धीर ! निश्चिन्त होकर मेरे आनेका कारण सुनिए। वह कारण कि जिससे तुम्हारे कान अमृत रसके समान तृप्त हो जावेंगे ||२२-२३॥
हे धीर वीर कुमार ! चन्दनवन नामक नगरमें, अमोघ शक्तिका धारक एवं शत्रुमण्डलको वश करनेवाला अमोघदर्शन नामका राजा था || २४|| उसकी चारुमति नामकी स्त्री थी और दोनोंके नीति तथा पुरुषार्थंसे युक्त नवयौवनसे सुशोभित चारुचन्द्र नामका पुत्र था || २५ || उसी नगरमें कला और गुणोंके समूहसे सहित एक रंगसेना नामकी वेश्या थी और उसकी कामपताका १. तस्या म । २. नागश्री म. । ३ वनितां म
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हरिवंशपुराणे
प्राविशद् यागदीक्षायै क्षितिपो धर्ममोहितः । तापसाः कौशिकायाश्च तदायाता जटाधराः ॥ २७॥ नृत्यन्या च नृपादेशात् तया कामपताकया । व्यक्तं कामपताकाखं हरन्त्या हृदयं नृणाम् ॥२८॥ शास्त्रकौशलतायुक्तो मूलपत्रफलाशनः । कौशिकः क्षुभितो यत्र तत्रान्यस्य तु का कथा ||२९|| यागकर्मणि निर्वृत्ते सा कन्या राजसूनुना । स्वीकृता तापसा भूयं भक्तं कन्यार्थमागताः ॥३०॥ कौशिकायात्र तैस्तस्यां याचितायां नृपोऽवदत् । कन्या सोढा कुमारेण यातेत्युक्तास्तु ते ययुः ||३१|| सर्पोभूयापि हन्तव्यो मया त्वमपि भूपते । आक्रुश्य कौशिको यातः क्लिशितेनान्तरात्मना ||३२|| अभिषिच्य नृपखस्तो धरित्रीधरणे सुतम् । अव्यक्तगर्भया देव्या सहाभूत्तापसस्तथा ॥३३॥ तापस्यपि सुतां लेभे तानसाश्रमभूषिणीम् । ऋषिदत्ताख्यया ख्यातां भूषितामप्यभिख्यया ॥ ३४ ॥ अणुव्रतानि सा लेभे चारणश्रमणान्तिके । यौवनं च नवं यूनां मनोनयनबन्धनम् ॥३५॥ शान्तायुधसुतः श्रीमान् श्रावस्तीपतिरेकदा । शीलायुध इति ख्यातस्तं यातस्तापसाश्रमम् ॥ ३६ ॥ एकयैव कृतातिथ्यस्तया तापसकन्यया । रुच्याहारैर्मनोहारिसवल्कलकुचश्रिया ॥३७॥ अतिविश्रम्भतः प्रेम तयोरप्रतिरूपयोः । विभेद निजमर्यादां चिरं समनुपालिताम् ||३८|| गतो रहसि निःशङ्कां निःशङ्कस्तामसौ युवा । अरीरमद् यथाकामं कामपाशवशो वशाम् ॥३९॥
३८०
नामकी पुत्री थी जो सचमुच ही कामकी पताकाके समान जान पड़ती थी ||२६|| एक बार धर्मअधर्म विवेकसे रहित राजा अमोघदर्शनने यज्ञदीक्षा के लिए प्रवेश किया। उसी समय जटाओंको धारण करनेवाले कौशिक आदि ऋषि भी आये ||२७|| उस यज्ञोत्सव में राजाकी आज्ञासे कामपताकाने नृत्य किया । ऐसा नृत्य, कि मनुष्योंके हृदयको हरण करती हुई उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं यथार्थ में कामकी पताका ही हूँ ॥ २८॥ उस नृत्यको देखकर शास्त्रोंकी निपुणतासे युक्त तथा वृक्षोंके मूल पत्र और फलोंको खानेवाला कौशिक ऋषि भी क्षोभको प्राप्त हो गया तब अन्य - की तो कथा ही क्या थी ? || २९ ॥ यज्ञ कार्यं समाप्त होनेपर राजपुत्र चारुचन्द्रने उस कन्या - कामपताकाको स्वीकृत कर लिया। उसी समय कौशिक ऋषिके शिष्य कुछ तापस राजाको भक्त जान कन्या की याचना करनेके लिए वहाँ आये ||३०|| जब उन्होंने कौशिक ऋषिके लिए कामपताकाकी याचना की तब राजाने कहा कि वह कन्या तो राजकुमारने विवाह ली है । आपलोग जावें । राजाके इस प्रकार कहनेपर वे तापस चले गये ||३१|| कन्याके न मिलनेसे कौशिककी आत्मामें बड़ा संक्लेश उत्पन्न हुआ। वह राजाके पास गया और 'हे राजन् ! तूने मुझे कन्या नहीं दी है इसलिए मैं सर्प बनकर भी तुझे मारूंगा' इस प्रकार आक्रोशपूर्ण वचन कहकर चला आया ||३२|| राजा कौशिक के आक्रोशपूर्णं वचन सुनकर डर गया इसलिए पुत्रका राज्याभिषेककर अव्यक्त गर्भवाली रानी चारुमतिके साथ तापस हो गया ||३३|| कुछ समय बाद तापसी चारुमतिने तपस्वियोंके आश्रमको सुशोभित करनेवाली, एवं अनुपम शोभासे सुशोभित ऋषिदत्ता नामकी कन्याको जन्म दिया ||३४|| कन्या ऋषिदत्ताने एक बार चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के समीप अणुव्रत धारण किये । धीरे-धीरे उस कन्याने तरुण पुरुषोंके मन और नेत्रोंको बाँधनेवाला नवयौवन प्राप्त किया ||३५|| एक समय शान्तायुधका पुत्र, लक्ष्मीसे सुशोभित एवं शीलायुध नामसे प्रसिद्ध श्रावस्तीका राजा तपस्वियोंके उस आश्रम में पहुंचा ॥ ३६ ॥ उसे देख अकेली ऋषिदत्ता कन्याने रुचिवर्धक उत्तम आहार देकर उसका अतिथि सत्कार किया । कन्या ऋषिदत्ता सुन्दरी तो थी ही उसपर वल्कलों के कारण उसके स्तनोंकी शोभा और भी अधिक मनोहारिणी हो गयी थी ||३७|| फल यह हुआ कि अनुपम रूपको धारण करनेवाले उन दोनोंके प्रेमने विश्वासकी अधिकतामें चिरकालसे पाली हुई अपनी-अपनी मर्यादा तोड़ दी ||३८|| कामपाशसे बँधा युवा शीलायुध निःशंक १. सा + ऊठा इतिच्छेदः । २. अतिविश्रमतः म. ।
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एकोनत्रिंशः सर्गः
३८१ व्यजिज्ञपत् ततस्तं सा साध्वी साध्वसपूरिता' । ऋतुमत्यार्यपुत्राहं नदि स्यां गर्मधारिणी ॥४०॥ तदा वद विधेयं मे किमिहाकुलचेतसा । पृष्टस्तयाँ स तामाह माकुला म प्रिये ! शृणु ॥४॥ इक्ष्वाकुकुलजो राजा श्रावस्त्यामस्तशात्रवः । शीलायुधस्त्वयावश्यं द्रष्टव्योऽहं सपुत्रया ॥४२॥ इत्याश्वास्य रहस्येनामाश्लिष्य विरहासहः । तावन्निजबलं प्राप्तं तापसाश्रमगोचरम् ॥४॥ दृष्ट्वा तुष्टेन तेनामा प्रविष्टो नगरीमसौ । याते नृपे तया पित्रोर्विनिगृह्य ततस्त्रपाम् ॥४४॥ निवेदितमिदं वृत्तं लोकवृत्तविदग्धया। अन्तर्वनो रहःपत्नी निस्पस्य नृपस्य सा॥४५।। असूत सुतमुद्गीणमिव पित्रानुहारिणम् । प्रसूतिक्लेशतः सा च प्रसूतिसमनन्तरम् ॥४६॥ मृता नागवधूर्जाता ज्वलनप्रभवल्लमा। साहं सम्यक्त्वयोगेन भवप्रत्ययसावधिः ॥४७॥ कृपास्नेहवशात्प्राप्ता पितृपुत्रतपोवनम् । आश्वास्य शोकसंतप्तौ पितरौ पृथुकं तकम् ॥४८॥ एणीस्वरूपिणी स्तन्यपानतोऽवर्द्धयत्ततः । पिता कौशिकपूर्वेण दंदशूकेन वैरिणा ॥४९॥ स दष्टोऽमोघमन्त्रेण जीवितं प्रापितो मया। धर्मोपदेशदानेन दुर्मोचक्रोधदूषितः ॥५०॥ मयासौ ग्राहितो धर्ममयासी गतिमचिंताम् । गताहं पुत्रमादाय तापसीवेषधारिणी ॥५१॥
सोपचारं नृपं दृष्ट्वा तमवोचं नयान्वितम् । तनयस्तव राजेन्द्र ! राजलक्षणराजितः ॥५२।। होकर एकान्तमें ऋषिदत्ताके पास चला गया और शंकारहित एवं वशीभूत ऋषिदत्ताके साथ उसने इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥३९॥ तदनन्तर भयसे युक्त हो तापसी ऋषिदत्ताने राजासे कहा कि हे आर्यपुत्र ! मैं ऋतुमती हूँ यदि गर्भवती हो गयी तो युझे क्या करना होगा सो बताओ। इस प्रकार व्याकुल चित्तसे युक्त ऋषिदत्ताके पूछनेपर शीलायुधने कहा कि हे प्रिये ! व्याकुल मत होओ। सुनो, मैं शत्रुओंको नष्ट करनेवाला, इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न हुआ श्रावस्तीका राजा शीलायुध हूँ। पुत्रके साथ-साथ तुम मुझे अवश्य ही दर्शन देना अर्थात् पुत्र प्रसवके बाद श्रावस्ती आ जाना ॥४०-४२।। इस प्रकार आश्वासन देकर तथा एकान्तमें आलिंगन कर विरहसे उत्कण्ठित होता हुआ वह जानेके लिए उद्यत ही था कि इतनेमें उसकी सेना तपस्वियोंके आश्रममें आ पहुंची ।।४३।। सेनाको देख राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसके साथ नगरीको लौट आया। तदनन्तर राजाके चले जानेपर लोकव्यवहारको जाननेवाली ऋषिदत्ताने लज्जा छोड़कर मातापिताके लिए यह वृत्तान्त सुना दिया और कह दिया कि मैं निर्लज्ज राजा शीलायुधकी एकान्तमें पत्नी बन चुकी हूँ और गर्भवती हो गयी हूँ॥४४-४५॥ तदनन्तर नव मास व्यतीत होनेपर ऋषिदत्ताने सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया जो बिलकुल पिताके अनुरूप था और ऐसा जान पड़ता था मानो पिताके द्वारा ही प्रकट किया गया हो। प्रसूतिके समय ऋषिदत्ताको क्लेश अधिक हुआ था इसलिए वह प्रसूतिके बाद ही मर गयी और सम्यग्दर्शनके प्रभावसे ज्वलनप्रभवल्लभा नामकी नागकुमारी उत्पन्न हुई। वही मैं हूँ, मुझे देव पर्यायके कारण भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी प्रकट हुआ है ।।४६-४७। इसलिए उससे पूर्वभवकी सब बात जानकर दया और स्नेहके वशीभूत हो मैं पिता और पुत्रके तपोवनमें गयी। वहां शोकसन्तप्त माता-पिताको आश्वासन देकर मैंने अपने उस पुत्रको मृगीका रूप रख दूध पिला-पिलाकर बड़ा किया। तदनन्तर कोशिक ऋषिका जीव निदानके कारण सर्प हुआ था सो उसने पूर्व वैरके कारण हमारे पिताको डस लिया परन्तु मैंने अमोघमन्त्रसे उन्हें जीवन प्राप्त करा दिया-अच्छा कर दिया। मेरे पिता यद्यपि जो छूट न सके ऐसे क्रोधसे दूषित थे तथापि धर्मोपदेश देकर मैंने उन्हें धर्म ग्रहण करा दिया जिससे वे मरकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। तत्पश्चात् तापसीका वेष धारणकर और उस पुत्रको लेकर मैं राजा शीलायुधके पास गयी ।।४८-५१॥ राजा शीलायुध बड़ी विभूतिसे युक्त तथा १. भयपूरिता। २. चेतसः म., ग.। ३. तथा म., ग.। ४. पुत्रम् । 'पोतः पाकोभको डिम्भः पृथुकः शावकः शिशुः' इत्यमरः । ५. स्वार्थेऽकप्रत्ययः।
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हरिवंशपुराणे
गृहाण गृहिणीत्यक्तमेणीपुत्राख्यमेतकम् । इत्युक्तेन तु तेनोक्तमपुत्रस्य कुतः सुतः ||५३ ॥ कथं वा तापसि ! प्राप्तो दारकोऽयं त्वया वद । वृत्तं मया समस्तं तत्सामिज्ञानं ततोऽकथि ॥ ५४ ॥ देवीस्वं च निजं येन स राजात्मजमग्रहीत् । वर्धमानस्य तस्याहं पुत्रस्नेहेन मोहिना ॥५५॥ जातानुपालिनी नित्यं राज्ञश्चेप्सितदायिनी । एणीपुत्रमसौ राजा स्वराज्ये न्यस्य पण्डितः ॥ ५६ ॥ प्रव्रज्य मुनिमार्गस्थः स्वर्गलोकमवाप्तवान् । जाता च तनया पश्चादेणीपुत्रस्य रूपिणी ॥ ५७ ॥ प्रियङ्गुसुन्दरीनाम्ना प्रियङ्गुश्यामवर्तिनी । स्वयंवरविधौ धीरा प्रत्याख्यातवती च सा ||१८|| भूमौ राजसुतान् काम सौख्य भोगविरागिणी । अद्राक्षीद् बन्धुमत्यामा त्वां सा राजगृहे यदा ॥ ५९ ॥ ततः परमधत्ताङ्गमनङ्गशरशल्यितम् । तद् विधत्स्व तथा वीर ! वचनान्मम संगमम् || ६० ॥ अदत्तेति न चाशङ्क्यं तुभ्यं दत्ता मया हि सा । अस्य राजकुलस्याहं प्रमाणं कार्यंवस्तुनि ||६१ ॥
तो मया वितीर्णेयं वितीर्णा पितृबान्धवैः । समागमस्तु वामस्तु देवतासुगृहे ततः ॥६२॥ 'श्वस्तम्यां कृतसंकेतो रजन्यां सुविनिश्चितः । अमोघदर्शनं देव ! देवतानामतो भवान् ||६३॥ वरिस्वा वरमादत्स्व यत् किंचिदिह वाञ्छितम् । इत्युक्तेनैव सावाचि वाचा विनयपूर्वया ||६४ ॥ कृतस्मरणया देवि ! स्मर्तव्योऽमोघसस्मिते । एवमुक्ता च तेनासावेवमस्त्विति देवता ॥६५॥
३८२
परम नीतिज्ञ था उसे देखकर मैंने कहा कि हे राजेन्द्र ! यह राजाओंके लक्षणोंसे युक्त आपका पुत्र है || २ || यह आपकी मृत स्त्री द्वारा । छोड़ा गया है और एणीपुत्र इसका नाम है । इसे आप ग्रहण कीजिए । मेरे इस प्रकार कहनेपर राजा शीलायुधने कहा कि मैं तो पुत्रहीन हूँ । मेरे पुत्र कहाँ से आया ? ||५३ || हे तापसि ! ठीक-ठीक बता यह पुत्र तुझे कैसे प्राप्त हुआ है ? राजाके इस प्रकार पूछने पर मैंने अभिज्ञान-परिचायक घटनाओं के साथ-साथ वह सब वृत्तान्त कह ' दिया || ५४ || और यह भी कह दिया कि मैं मरकर देवी हुई हूँ । मेरे इस कथनपर विश्वास कर राजा शीलायुधने वह पुत्र ले लिया । पुत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगा और मैं मोहयुक्त पुत्रस्नेहके कारण उसकी निरन्तर रक्षा करने लगी । राजा शीलायुधकी जो इच्छा होती थी उसकी मैं तत्काल पूर्ति कर देती थी । कदाचित् परम विवेकी राजा शीलायुध, उस एणीपुत्रको अपने राज्यपर पदारूढ़ कर दीक्षा ले मुनि हो गया और मरकर स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ । पश्चात् राजा एणीपुत्रके प्रियंगुपुष्पके समान श्यामवर्ण, अतिशय रूपवती, प्रियंगुसुन्दरी नामकी पुत्री हुई । राजा एणीपुत्रने उसका स्वयंवर किया परन्तु कामभोगसे विरक्त उस धैर्यशालिनीने पृथिवीतल के समस्त राजकुमारोंका निराकरण कर दिया अर्थात् किसीके साथ विवाह करना स्वीकृत नहीं किया । तदनन्तर जिस दिनसे उसने राजमहल में बन्धुमती के साथ आपको देखा है उसी दिन से वह कामके बाणोंसे अत्यन्त सशल्य शरीरको धारण कर रही है इसलिए हे वीर ! मेरे कहने से तू उसके साथ समागम कर ।।५५-६०।। वह कन्या अदत्ता है किसीके द्वारा दी नहीं गयी है-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैंने तेरे लिए वह कन्या दी है । इस राजकुलके करने योग्य कार्योंमें मैं प्रमाणभूत हूँ अर्थात् समस्त कार्य मेरी ही सम्मतिसे होते हैं || ६१ || इसलिए मैंने तुझे यह कन्या दी मानो इसके पिता और भाइयोंने ही दी है । अतः कामदेवके मन्दिर में तुम दोनोंका समागम हो और इसके लिए कलकी रातका संकेत निश्चित किया गया है । हे देव ! देवताओंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता इसलिए आप मुझसे वर माँगकर इस संसारमें जो कुछ भी आपको इष्ट हो वह प्राप्त करो । नागकुमारीके इस प्रकार कहने पर वसुदेवने विनयपूर्णं वचनों द्वारा उससे कहा कि हे अमोघ मुस्कानको धारण करनेवाली देवि ! मैं यही वर चाहता हूँ कि जब मैं आपका स्मरण करूँ तब आप मेरा ध्यान रखें । वसुदेव के इस प्रकार कहनेपर उसने 'एवमस्तु' कहा ||६२ - ६५।। १. मोहिनी म । २. युवयोः । ३. आगामिन्याम् । ४. संमिते म. ।
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३८३
एकोनत्रिंशः सर्गः अन्तर्धान मिता सोऽपि निजवासमुपागमत् । दैवतोक्तविधानेन देवताया गृहे ततः ॥६६॥ प्रियङ्गसुन्दरी शौरी रहसि प्रत्यपद्यत । सा गन्धर्व विवाहाप्ता 'विहसन्मुखपङ्कजा ।।६७।। रमिता यदुसूर्येण पमिनीव तदा बभौ । प्रियङ्गुसुन्दरीसमन्यहान्यस्य बहून्यगुः ॥६॥ अन्योन्यप्रेमबद्धस्य मिथुनस्य रहस्यतः । कृतं देवतया योगं राज्ञा ज्ञात्वानुरूपयोः ॥६९।। तोषीलोकप्रकाशार्थ तद्विवाहमकारयत् । ततः सर्वस्य लोकस्य विदितो यदुनन्दनः ॥७॥ रेभ प्रियङ्गसुन्दर्या सुन्दर्या सह सुन्दरः । रूपयौवनहारिण्या शच्येव कौशिको यथा ॥७॥
पृथिवीच्छन्दः स राजसुतया तया प्रथमबन्धुमत्यापि च
प्रतीतगुणसंपदा गुणकलाकलापश्रिया। क्रमेण रनिगोचरे रहसि सेव्यमानः पुरी
मिमां जिनगृहाचिंता सुचिरमध्युवासार्चितः ॥७२॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती बन्धुमतीप्रियङ्गसुन्दरीलाभवर्णनो नाम
एकोनत्रिंशः सर्गः ॥२९॥
उक्त वरदान देकर देवी अन्तहित हो गयी और वसुदेव अपने निवास स्थानपर आ गये। तदनन्तर देवीसे कहे अनुसार कुमार वसुदेव एकान्त पाकर कामदेवके मन्दिरमें प्रियंगुसुन्दरीके पास गये । कुमारको देख प्रियंगुसुन्दरीका मुख-कमल खिल उठा और गन्धर्व विवाहसे उन्होंने उसे स्वीकृत किया ॥६६-६७।। उस समय वसुदेवरूपी सूर्यके द्वारा रमणको प्राप्त हुई प्रियंगुसून्दरो कमलिनीके समान सुशोभित हो रही थी। इस प्रकार प्रियंगुसुन्दरीके घरमें वसुदेवके बहुत दिन निकल गये ॥६८|तदनन्तर परस्परके प्रेमसे बँधे हुए इस दम्पतिका यह समागम रहस्यपूर्ण रीतिसे देवीने कराया है-यह जानकर राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसने लोकमें प्रकट करनेके लिए उस अनुरूप दम्पतीका विवाह करा दिया। विवाहके पश्चात् सुन्दर वसुदेव सब लोगोंकी जानकारीमें रूप और यौवनके द्वारा मनको हरण करनेवाली सुन्दरी प्रियंगुसुन्दरीके साथ, इन्द्राणीके साथ इन्द्रके समान रमण करने लगे ॥६९-७१।। इस प्रकार जिनको गुणरूपी सम्पदाएं प्रसिद्ध थीं तथा जो गुण और कलाओंके समूहसे लक्ष्मोके समान जान पड़ती थी ऐसी बन्धुमती तथा राजपुत्री प्रियंगुसुन्दरी एकान्त पूर्ण रतिगृहमें क्रमसे जिनकी सेवा करती थीं तथा जो नगरवासियोंके द्वारा अत्यन्त सम्मानको प्राप्त थे ऐसे कुमार वसुदेवने जिन-मन्दिरोंसे सुशोभित इस श्रावस्ती नगरीमें चिरकाल तक निवास किया ॥७२।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें बन्धुमती और
प्रियंगुसन्दरीके लाभका वर्णन करनेवाला उनतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२९॥
१. गन्धर्वविवाहादिसहसन् म.। २. इन्द्रः 'महेन्द्रगुग्गुलूलूकव्यालग्राहिषु कौशिकः' इत्यमरः ।
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त्रिंशः सर्गः
अथ 'कार्तिकराकायां चिरक्रीडातिखेदकः । प्रियङ्गसुन्दरीगाढभुजबन्धवशः प्रियः ॥१॥ सुखनिद्राप्रसुप्तोऽसौ विबुद्धश्च कुतश्चन । अद्राक्षीद रूपिणीमेकां कन्यामन्यामिव श्रियम् ॥२॥ अप्राक्षीत् पुण्डरीकाक्षि ! का स्वमत्रेत्यसौ हि सा । ज्ञास्यसे हि कुमारेति तमाहय विनिर्ययौ ॥३॥ व्यपनीय प्रियाश्लेषमेषोऽनुपदवीमयात् । रम्यहचूतलासीना हेतुं साह निजागमे ॥४॥ आर्यपुत्र ! शृणु श्रीमन् समाधाय निजं मनः । वचो मदीयमप्राप्यवस्तुप्रापणकारणम् ॥५॥ इहास्ति दक्षिणश्रेण्या देशे गान्धारनामनि । पुरं गन्धसमृद्धाख्यं गन्धाराख्यस्तु तत्पतिः ॥६॥ पृथिवीति महादेवी पृथिवीवास्य वल्लभा । सुता प्रमावती तस्य श्रीरिवाहं प्रभावती ॥७॥ गता मानसवेगस्य स्वर्णनाभपुरं परम् । ज्ञात्वाङ्गारवती वार्ता दुहितुः पृष्टवस्यहम् ॥८॥ प्रवृत्तिवेगवत्यास्तु तरसखीभिर्ममोदिता। संगमो यदुचन्द्रेण चित्राया इव च त्वया ॥९॥ तत्रैव नगरे या सा शुद्धशीलविभूषणा । त्वन्नामग्रहणाहारा सोमश्रारवतिष्टते ॥१०॥ त्वद्वियोगमहादुःखपाण्डुगण्डालकान्तया । कान्तया प्रहिता तेऽहं संदेशप्रापिणो तया ॥११॥ शीलप्राकाररक्षाहमलच्यानुनयैररेः । आर्यपुत्रावतिष्ठेयं शत्रुस्थाने कियचिरम् ॥१२॥
- अथानन्तर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन चिरकाल तक क्रीड़ा करनेसे अतिशय खिन्न कुमार वसुदेव प्रियंगुसुन्दरीमें प्रगाढ़ भुजबन्धनसे बँधे सुखकी नींद सो रहे थे कि किसी कारण जाग पड़े। जागते ही उन्होंने सामने खड़ी द्वितीय लक्ष्मीके समान अतिशय रूपवती एक कन्या देखी ॥१-२॥ कुमारने उससे पूछा कि हे कमललोचने ! यहाँ तुम कौन हो ? उत्तरमें कन्याने कहा कि हे कुमार ! थोड़ी देर बाद मेरा सब वृत्तान्त जान लोगे। अभी मेरे साथ आइए-इस प्रकार कुमारको बुलाकर वह कन्या बाहर चली गयी ॥३॥ कुमार भी प्रियाका आलिंगन दूरकर उसके पीछे-पीछे चल दिये । बाहर जाकर वह सुन्दर महलके फर्सपर बैठ गयी और अपने आनेका कारण इस प्रकार कहने लगी ।।४।।
हे आर्यपुत्र ! हे श्रीमन् ! अपना मन स्थिरकर अप्राप्य वस्तुकी प्राप्तिमें कारणभूत मेरे वचन सुनिए ।।५।। इस विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके गान्धार देशमें एक गन्धसमृद्ध नामका नगर है उसका स्वामी राजा गन्धार है ॥६॥ • उसकी पृथिवी नामकी स्त्री है जो उसे पृथिवीके ही समान प्यारी है। मैं उन दोनोंकी साक्षात् लक्ष्मीके समान कान्तिमती प्रभावती नामकी पुत्री हूँ ॥७॥ मैं एक दिन मानसवेगके स्वर्णनाभ नामक उत्तम नगरको गयी थी। वहां मैंने मानसवेगकी माता अंगारवतीको जानकर उससे उसकी पुत्री वेगवतीका वृत्तान्त पूछा ॥८॥ वेगवतीकी सखियोंने मुझे उसका समाचार बताया और साथ ही यह भी बताया कि जिस प्रकार चन्द्रमाके साथ चित्रा नक्षत्रका संगम होता है उसी तरह आपके साथ उसका संगम हुआ है ।।९।। उसी नगरमें शुद्ध शील ही जिसका आभूषण है तथा आपका नाम ग्रहण करना ही जिसका आहार है ऐसी सोमश्री भी रहती है ।।१०।। जिसकी अलकावलीके छोर आपके वियोगजन्य महा दुःखसे सफेद-सफेद दिखनेवाले गालोंपर लटक रहे हैं ऐसी आपकी उस सोमश्री प्रियाने मुझे सन्देश लेकर आपके पास भेजा है ॥११।। उसने कहलाया है कि हे आर्यपुत्र ! यद्यपि मैं शत्रुको अनुनयविनयके द्वारा अलंघनीय शीलरूपी प्राकारके अन्दर सुरक्षित हूँ तथापि इस तरह मुझे यहाँ १. कार्तिकपूर्णिमायाम् । २. श्रीमान् म.। ३. ज्ञात्वाङ्गारवती म. ।
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त्रिंशः सर्गः
३८५
रक्षिता शत्रमात्राहं पुत्रतर्जनशीलया। प्राणिनी 'प्राणनाथातो मोचनीया लघु स्वया ॥१३॥ अविरामवियोगाया मा कदाचिदिहैव मे । स्याद्विपत्तिरतो वीर ! मोपेक्षिष्ठाः कठोरधीः ॥१४॥ साश्रलोचनयाजनमिति संदिष्टमिष्टया । निवेद्यासीस्कृतार्थाहं कृत्यं पस्यौ स्वयि स्थितम् ॥१५॥ न चागम्यमगस्थानमिति चिन्स्यं स्वया यतः। नेष्ये निमेषमात्रेण तत्र स्वाहं यथेप्सितम् ॥११॥ साभिज्ञानममिज्ञोऽसौ तं निशम्य निशाम्यताम् । प्राह प्रापय सौम्यास्ये सोमश्रीधाम मां दुतम्॥१७॥ सा प्राप्तानुमतिः प्रीता खमुक्षिप्य प्रभावती । विद्याप्रभावसंपन्ना ययौ विद्युदिवोदिता ॥१०॥ अन्योन्याङ्गसमासंगात् संगताङ्गरुहो च तौ । खमुल्लङ्घ्य लघु प्राप्तौ स्वर्णनाभपुरं वरम् ॥१९॥ प्रवेशितस्तया नस्तरसनांशुक्रया गृहम् । अप्रकाशमसौ देवः सोमश्रियमवैक्षत ॥२०॥ प्रलम्बालककाम्लानकपोलवदनश्रियम् । स्वान्तभ्रान्तालिसम्लानिसपमामिव पभिनीम् ॥२१॥ देवदर्शनपर्यन्तवेणीबन्धेन संगताम् । तनुना सेतुबन्धेन धुनीमिव तदन्तिकम् ॥२२॥ ताम्बूलरागनिमुनकिंचिधूसरिताधराम् । म्लानामीषत्परिम्लानपल्लवामिव वल्लरीम् ॥२३॥ अभ्युस्थितां विभुं वीक्ष्य पोनपाण्डुपयोधराम् । तुष्टः सोमश्रियं दृष्ट्वा शारदीमिव स श्रियम् ॥२४॥
आलिलिङ्गतुरन्योऽन्यं गाढं रोमाञ्चकर्कशौ । पुनर्विरहभीरुत्वादेकतामिव तौ गतौ ॥२५॥ कितनी देर तक रहना होगा ? ॥१२॥ पुत्रको डांटनेवाली शत्रुकी माता ही मेरी रक्षा कर रही है इसीलिए अबतक जीवित हूँ। हे प्राणनाथ ! इस शत्रुसे आप मुझे शीघ्र छुड़ाइए ।।१३।। निरन्तर वियोग सहते-सहते कदाचित् मेरी यहींपर मृत्यु न हो जावे इसलिए हे वीर ! कठोर बुद्धि होकर मेरी उपेक्षा न कीजिए ॥१४॥ इस तरह जिसके नेत्र सदा आंसुओंसे युक्त रहते हैं ऐसी सोमश्री द्वारा भेजा हुआ सन्देश सुनाकर मैं कृत-कृत्य हुई हूँ। अब जो कुछ करना हो वह आपपर निर्भर है आप उसके पति हैं ।।१५।। आप यह नहीं सोचिए कि वह पर्वतका स्थान मेरे लिए अगम्य है क्योंकि आपकी इच्छा होते ही मैं निमेष मात्रमें आपको वहां ले चलूँगी ॥१६॥ बुद्धिमान् वसुदेवने अनेक परिचायक चिह्नोंके साथ श्रवण करने योग्य बातको सुनकर उससे कहा कि हे सौम्यवदने ! तुम मुझे शीघ्र ही सोमश्रीके घर पहुंचा दो ॥१७॥ कुमारको अनुमति पाते ही विद्याके प्रभावसे सम्पन्न प्रभावती उन्हें लेकर आकाशमें उस तरह जा उड़ी जिस तरह मानो बिजली ही कौंध उठी हो ॥१८॥ परस्परके अंग-स्पर्शसे जिन्हें रोमांच निकल आये थे ऐसे वे दोनों, आकाशको उल्लंघकर शीघ्र ही स्वर्णनाभपुर नामक उत्तम नगरमें जा पहुंचे ॥१९॥ तदनन्तर जिसका कटिसूत्र और वस्त्र कुछ-कुछ नीचेकी ओर खिसक गया था ऐसी प्रभावतीने गुप्त रीतिसे वसुदेवको सोमश्रोके घर जा उतारा। वहां पहुंचते ही कुमारने सोमश्रीको देखा ॥२०॥ उस समय विरहके कारण सोमश्रीको बुरी हालत थी। चारों ओर लटकते हुए बालोसे उसके विरहपाण्डु मुखकी शोभा मलिन हो गयी थी इसलिए समीपमें भ्रमण करते हए भौरोंसे मलिन-कमलसे यक्त कमलिनीके समान जान पडती थी ।।२१।। वह पतिका दर्शन होनेकी अवधि तक बाँधे हुए वेणी बन्धनसे युक्त थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो पतले पुलसे युक्त नदी हो हो। उसका अधरोष्ठ ताम्बूलकी लालिमासे रहित होनेके कारण कुछ-कुछ मटमैला हो गया था इसलिए वह कुछ कुम्हलाये हुए पल्लवको धारण करनेवाली म्लान लताके समान जान पड़ती थी ॥२२-२३॥ पतिको आया देख जो उठकर खड़ी हो गयी थी तथा जो स्थूल एवं पाण्डुवर्ण पयोधरों-स्तनोंको धारण करनेके कारण स्थूल धवल पयोधरों-मेघोंको धारण करनेवाली शरद् ऋतुकी शोभाके समान जान पड़ती थी ऐसी सोमश्रीको देखकर कुमार वसुदेव बहुत ही सन्तुष्ट हुए ॥२४॥ जिनके शरीर रोमांचोंसे कर्कश हो १. प्राणनाथोऽतो म.। २. नेष्यम् म., ग.। ३. निशाम्य म.। ४. प्रभावतीम् म.। ५. प्रलम्बालसकाम्लान म.। ६. सम्लान क.।
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३८६
हरिवंशपुराणे
साधुसाधितकार्या सा तामाश्लिष्य प्रमावतीम् । सखीं प्रागसमां श्रव्यैर्वचनैरभ्यनन्दयत् ॥२६॥ रूपं नाम च तस्यासौ निजं कृत्वा प्रभावती। आपृच्छय दम्पती मुक्त्वा ययावात्मीयमास्पदम् ॥२७॥ धाम्नि मानसवेगस्य परावर्तितरूपभृत् । सोमश्रिया सहाहानि न्यवसत्कतिचिद् यदुः ॥२८॥ एकदा प्राग विबुद्धासौ प्रकृतिस्थाकृतिं पतिम् । दृष्ट्वारुदविषद्मीत्या प्रमादपरिशङ्किनी ॥२९॥ अपृच्छच्च विबुद्धोऽसौ किमर्थ रोदिषि प्रिये । आह 'रूपपरावृत्तिमपश्यन्ती तवेत्यसौ ॥३०॥ मा भैषीरेष विद्यानां स्वभावः स्वपतां वपुः । अपसृत्यावतिष्ठन्ते संश्रयन्ते सुजाग्रताम् ॥३१॥ इत्युक्त्वा सुपरावृत्यरूपं पूर्ववदेव सः । वसुदेवोऽवसत्तत्र यथेष्टं प्रियया युतः ॥३२॥ ततो मानसवेगेन कथंचिदुपलक्षिनः । वैजयन्तीपति पत्न्या बलसिंहमसौ श्रितः ॥३३॥ तस्य न्यायपरस्याग्रे व्यवहारे पराजितः। मायो मानसवेगोऽसौ विलक्षो योदधुमुत्थितः ॥३४॥ शौरिपक्षतया केचित् खचराः समवस्थिताः । ततोऽभू दुग्रसंग्रामः शौरिमानसवेगयोः ॥३५॥ वेगान वेगवतीमात्रा जामात्रे धनुरर्पितम् । दिव्यं दिव्यशरापूर्ण शरधिद्वयसंयुतम् ॥३६॥ प्रज्ञप्तिश्च प्रभावत्या विज्ञाय लधु योजिता । तत्प्रभावादसौ संख्ये बबन्ध रिपुखेचरम् ॥३७॥ तन्मात्रा याचितः शौरिः पुत्रभिक्षां दयापरः । सोमश्रीदर्शनं नीत्वा मुमोच खचराधिपम् ॥३८॥
रहे थे ऐसे दोनोंने परस्पर गाढ़ आलिंगन किया, उस समय आलिंगनको प्राप्त हुए दोनों ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनः विरह न हो जाये इस भयसे एकरूपताको ही प्राप्त हो गये थे ॥२५।। अच्छी तरह कार्य सिद्ध करनेवाली प्राणतुल्य प्रभावती सखीका आलिंगन कर सोमश्रीने मनोहर वचनों द्वारा उसका अभिनन्दन किया-मीठे-मीठे वचन कहकर उसे प्रसन्न किया ॥२६॥ वसुदेवके आनेका रहस्य प्रकट न हो जाये इस विचारसे प्रभावती वसुदेवको अपना रूप तथा अपना नाम देकर दोनों दम्पतीसे पूछकर एवं उनसे विदा लेकर अपने स्थानपर चली गयो। भावार्थ-प्रभावतीने अपनी विद्याके प्रभावसे वसुदेवको प्रभावती बना दिया ॥२७॥ इस प्रकार परिवर्तित रूपको धारण करनेवाले कुमार वसुदेवने मानसवेगके घर सोमश्रीके साथ कितने ही दिन निवास किया ॥२८॥
एक दिन सोमश्री पहले जाग गयी और पति-वसुदेवको अपने स्वाभाविक वेषमें देख शत्रुके भयसे किसी विपत्तिकी आशंका करती हुई रोने लगी ॥२९।। इतने में कुमार भी जाग गये और उसे रोती देख पूछने लगे कि हे प्रिये ! किस लिए रोती हो ? सोमश्रीने उत्तर दिया कि आपका रूप परिवर्तित नहीं देख रही हूँ यही मेरे रोनेका कारण है ॥३०॥ कुमारने कहा कि डरो मत, विद्याओंका यह स्वभाव है कि वे सोते हुए मनुष्योंके शरीरको छोड़कर पृथक् हो जाती हैं और जागनेपर पुनः आ जाती हैं ॥३१॥ इस प्रकार कहकर तथा पहलेके ही समान रूप बदलकर कुमार वसुदेव प्रिया सोमश्रीके साथ वहाँ रहने लगे ॥३२॥
तदनन्तर एक दिन मानसवेगने किसी तरह कुमार वसुदेवको देख लिया जिससे 'कमार • वसुदेव हमारी स्त्री सोमश्रीके साथ रूप बदलकर रहता है' यह शिकायत लेकर वह पत्नीके साथ वैजयन्ती नगरीके राजा बलसिंहके पास गया ॥३३॥ राजा बलसिंह न्यायपरायण पुरुष था इसलिए जब उसने इस शिकायतकी छानबीन की तो मानसवेग हार गया। हार जानेसे मानसवेग बहुत ही लज्जित हुआ और वसुदेवके साथ युद्ध करनेके लिए उठ खड़ा हुआ ॥३४॥ यह देख कितने ही विद्याधर वसुदेवका पक्ष लेकर खड़े हो गये। तदनन्तर वसुदेव और मानसवेगका युद्ध हुआ ॥३५॥ वेगवतीकी माताने जमाई वसुदेवके लिए एक दिव्य धनुष तथा दिव्य बाणोंसे भरे हुए दो तरकस दे दिये और प्रभावतीने युद्धका समाचार जानकर शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नामकी विद्या दे दी। उसके प्रभावसे कुमारने मानसवेगको युद्धमें शीघ्र ही बांध लिया ॥३६-३७॥ तदनन्तर १. सुपरावृत्ति रूपं म., ग. । २. -दुपलक्षितम् ग. । ३. पत्या ग, । ४. वेदात् म. । ५. युद्धे ।
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त्रिंशः सर्गः
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तेन मानसवेगेन बन्धुभावमुपेयुषा । सपत्नीको विमानेन प्रापितः स महापुरम् ॥३९॥ सोमश्रीबन्धुमिस्तत्र जाते तस्य समागमे । गतो मानसवेगोऽपि स्वस्थानं तद्वचःस्थितः॥४०॥ श्रुतानुभूतवार्तादिप्रश्नप्रकथनात्मनोः । याति कामरसक्षिप्तचेतसोः समयस्तयोः ॥४॥ अश्वरूपधरेणासावेकदा सूर्पकारिणा । हरता नभसः क्षिप्तो गङ्गायामतपद् यदुः॥४२॥ स तामुत्तीर्य संप्राप्तस्तापसाश्रममत्र च । निरीक्ष्योन्मादिनी नारी नरास्थिमयशेखराम् ॥४३॥ पप्रच्छ तापसं कंचित् कस्येयं युवतिर्वरा । परिभ्रमति विभ्रान्ता महोन्मादवशा वशा ॥४४॥ तस्मै सोऽकथयद् राज्ञो जरासन्धस्य देहजा । नाम्ना केतुमतीयं च जितशत्रनृपप्रिया ॥४५॥ मन्त्रवादिपरिवाजा वराकी स्ववशीकृता। हतस्यास्यास्थिमालां च मालीकृत्याटति क्षितिम् ॥४६॥ इत्याकर्ण्य कृपायुक्तो महामन्त्रप्रभावतः । आवेशपूर्वकं तस्याः स चक्र ग्रहनिग्रहम् ॥४७॥ शौरिस्तदा नियुक्तस्तु जरासन्धस्य मानवैः । पुरं राजगृहं नीतः परिवार्योपकार्यपि ॥४८॥ तानवोचदसौ राज्ञः कोऽपराधो मया कृतः । ब्रत मे येन नीयेऽहं तद्राजपुरुषाः रुषा ॥४९॥ इत्युक्ता इत्यवोचस्ते यो राजदुहितुग्रहम् । व्युदस्यति मवेत्सोऽत्र राजारिजनकः किल ॥५०॥ इत्यावेद्य वधस्थानं नीतो नीचैन रैर्वृतः। खमुक्षिप्यापनीतः प्राक् केनचित्खचरेण सः ॥५१॥
उक्तश्च वीर! विद्धि त्वं प्रमावस्याः पितामहम् । मां मगोरथनामानं स्वन्मनोरथपूरकम् ॥५२॥ मानसवेगकी माताने कुमारसे पुत्र भिक्षा मांगो जिससे दयायुक्त हो कुमारने उसे सोमश्रीके पास ले जाकर छोड़ दिया ॥३८|| इस घटनासे मानसवेग कुमारका गहरा बन्धु हो गया और विमान द्वारा सोमश्री सहित वसुदेवको उनके अभीष्ट स्थान महापुर नगर तक पहुँचाने गया ॥३९॥ वहाँ पहुंचनेपर वसुदेवका सोमश्रीके बन्धुओंके साथ समागम हो गया और मानसवेग भी उनका आज्ञाकारी हो अपने स्थानपर वापस चला गया ॥४०॥ तदनन्तर सनी एवं अनुभवी बातोंके प्रश्नोत्तर करना ही जिनका काम शेष था और जिनके चित्त कामरसके आधीन थे ऐसे उन दोनों दम्पतियोंका समय सुखसे व्यतीत होने लगा ॥४१।।
___ अथानन्तर एक समय कुमारका शत्रु राजा त्रिशिखरका पुत्र सूर्पक अश्वका रूप रखकर कुमारको हर ले गया और आकाशसे उसने नोचे गिरा दिया जिससे वे गंगा नदीमें जा गिरे।॥४२॥ गंगा नदीको पारकर कुमार वसुदेव तापसोंके एक आश्रममें पहुंचे। वहां उन्होंने मनुष्योंको हड्डियोंका सेहरा धारण करनेवाली एक पागल स्त्रोको देखकर किसी तापससे पूछा कि यह सुन्दरी युवती किसकी स्त्री है जो मदोन्मादके वश हो पागल हस्तिनीके समान इधर-उधर घूम रही है ।।४३-४४॥ तापसने कहा कि यह राजा जरासन्धकी पुत्री केतुमती है और राजा जितशत्रुको विवाही गयी है ।।४५|| इस बेचारीको एक मन्त्रवादी परिव्राजकने अपने वश कर लिया था वह मर गया इसलिए उसकी हड्डियों के समूहकी माला बनाकर यह पृथिवीपर घूमती रहती है ।।४६।। यह सुनकर वसुदेवको दया उमड़ पड़ी और उन्होंने महामन्त्रोंके प्रभावसे शीघ्र ही केतुमतीके पिशाचका निग्रह कर दिया ।।४७।। वहाँ वसुदेवकी खोजमें जरासन्धके आदमी पहलेसे ही नियुक्त थे इसलिए यद्यपि कुमार उपकारी थे तथापि वे उन्हें घेरकर राजगृह नगर ले गये ॥४८॥ उनको ले जानेवाले लोगोंसे वसुदेवने पूछा कि हे राजपुरुषो ! बताओ तो सही मैंने राजाका कौन-सा अपराध किया है जिससे मैं इस तरह क्रोधपूर्वक ले जाया जा रहा हूँ ॥४२।। इस प्रकार कहनेपर राजपुरुष बोले कि जो राजपुत्रीके पिशाचको दूर करेगा वह राजाको घात करनेवाले शत्रुका पिता होगा ॥५०॥ इस प्रकार कहकर नीच मनुष्योंसे घिरे वसुदेव वधस्थान पर ले जाये गये परन्तु वध होनेके पहले हो कोई विद्याधर उन्हें झपटकर आकाशमें ले गया ॥५१॥ उस विद्याधरने १. कामरसाक्षिप्तचेतसोः म. । २. क्षिप्रो म. । ३. नीयेयं म. ।
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हरिवंशपुराणे प्रमावतीसमीपं त्वं मया नीतिज्ञ ! नीयसे । इति प्रियवचोवाची निनाय खचराचलम् ॥५३॥ प्राप्य गन्धसमृद्धं च नगरं नगमूर्धनि । प्रवेशितो महाभूत्या विद्याधरजनैर्वृतः ॥५४॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगे 'योगे कृते ततः । पितृबन्धुजनैः शौरिप्रमावस्योः प्रहृष्टयोः ॥५५॥ प्रागेव मदनावेशपरस्परवशारमको । वधूवरौ वरौ वृत्तौ भोगसागरवर्तिनौ ॥५६॥
रथोद्धतावृत्तम् संप्रयुक्तमपि वल्लभैः सदा विप्रयोजयति पापकृत्परम् । पूर्वतोऽपि शतशोऽतिवल्लभैयुज्यते तु जिनधर्मकृत्पुरा ॥५७॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती प्रभावतीलाभवर्णनो नाम
त्रिंशः सर्गः ॥३०॥
कुमारको सम्बोधते हुए कहा कि हे वीर ! तुम मुझे प्रभावतीका पितामह जानो, भगीरथ मेरा नाम है और तुम्हारे मनोरथको पूर्ण करनेवाला हूँ॥५२॥ हे नीतिज्ञ ! मैं तुम्हें प्रभावतीके पास लिये जाता हूँ-इस प्रकार मधुर वचन कहता हुआ वह विद्याधर उन्हें विजया पर्वतपर ले गया ॥५३।। वहां पर्वतके मस्तकपर एक गन्धसमृद्ध नामक नगर था। उसमें अनेक विद्याधरोंसे घिरे हुए वसुदेवका उसने बड़े वैभवके साथ प्रवेश कराया ॥५४॥ तदनन्तर प्रशस्त तिथि और नक्षत्रके योगमें प्रभावतीके पिता तथा बन्धुजनोंने हर्षसे युक्त वसुदेव और प्रभावतीका विवाहोत्सव किया ॥५५॥ वसुदेव और प्रभावतीके हृदय कामके आवेशसे पहले ही एक दूसरेके वशीभूत थे। अतः अब वर-वधू बनकर दोनों भोगरूपी सागरमें निमग्न हो गये ॥५६॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि पापी मनुष्य प्रियजनोंके साथ संयोगसे प्राप्त हुए अन्य मनुष्यको सदा प्रियजनोंसे वियुक्त करता है तथापि पूर्वभवमें जिनधर्मको धारण करनेवाला मनुष्य पूर्वकी अपेक्षा सैकड़ों बार अतिशय प्रियजनोंके साथ संयोगको प्राप्त होता है ॥५७।। इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें प्रभावतीके
लाभका वर्णन करनेवाला तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३०॥
१. योग म.। संबन्धे कृते सतीत्यर्थः।
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एकत्रिंशत्तमः सर्गः अथ हय॑तले सुप्तः प्रभावत्या सहान्यदा । सूर्पकेण हृतः शौरिबुबुधे स चिरेण खे ॥१॥ जघान मुष्टिघातेन विद्विषं चामुचत् स खात् । गोदावर्याः पपातायं हृदे देहसुखावहे ॥२॥ तत्र कुण्डपुरे लेभे कन्या पद्मरथस्य सः । माल्यकौशलयोगेन कलाकौशलशालिनीम् ॥३॥ ततोऽपि नीलकण्ठेन नीत्वा मुक्तोऽपतद् यदुः । चम्पासरसि संप्राप्तस्तस्यां सोऽमात्यदेहजाम् ॥४॥ जलक्रीडारतस्तत्र स हृतः सूर्पकारिणा । विमुक्तश्च पपातासौ भागीरथ्यां मनोरथी ॥५॥ पर्यटन्नटवीं तत्र म्लेच्छराजेन वीक्षितः । परिणीय सुतां तस्य जराख्यां तत्र चावसत् ॥६॥ जरत्कुमारमुत्पाद्य तस्यामुन्नतविक्रमः । अवन्तिसुन्दरी प्राप शूरसेन च शंसिताम् ॥७॥ पुरुषान्वेषिणीमन्या कन्या जीवद्यशःश्रुतिम् । उपयम्यापराश्चासावरिष्टपुरमाययौ ॥८॥ राजा तत्र तदा धीरो रुधिरो युधि रोधनः । तस्य मित्रा महादेवी देवीव द्युतिसंपदा ॥९॥ ज्येष्ठो हिरण्यनाभाख्यस्तनयो नैयवित्तयोः । रणशौण्डो महासत्त्वः शस्त्रशास्त्रे कृतग्रहः ॥१०॥ . कलापारमिता रूपयौवनोदयधारिणी । तनया रोहिणीनाम्ना रोहिणीव यशस्विनी ॥११॥
___ अथानन्तर-किसी समय कुमार वसुदेव प्रभावतीके साथ महलमें सो रहे थे कि उसी समय उनका वैरी सूर्पक उन्हें हरकर आकाशमें ले गया । कुछ देर बाद जब उनकी नींद खुली तो मुक्कोंके प्रहारसे उन्होंने शत्रुको पीटना शुरू किया। मुक्कोंकी मारसे घबड़ाकर सूपंकने उन्हें आकाशसे छोड़ दिया जिससे वे शरीरको सुख पहुँचानेवाले गोदावरीके कुण्डमें गिरे ।।१-२॥ वहांसे निकलकर वे कुण्डपुर ग्राममें पहुँचे। वहाँका राजा पद्मरथ था। उसकी कला-कौशलसे सुशोभित एक सुन्दरी कन्या थी। उस कन्याको प्रतिज्ञा थी कि जो मुझे माला गूंथने में पराजित करेगा उसीके साथ मैं विवाह करूंगी। कुमार वसुदेवने उसे माला गूंथनेका कौशल दिखाकर प्राप्त किया-उसके साथ विवाह किया ॥३।। एक दिन कुमारका शत्रु नीलकण्ठ वहांसे भी उन्हें हरकर ले गया तथा आकाशमें ले जाकर उसने छोड़ दिया। भाग्यवश कुमार चम्पानगरीके तालाबमें गिरे । वहांसे निकलकर उन्होंने चम्पापुरीमें प्रवेश किया तथा वहाँके मन्त्रीको पुत्रीके साथ विवाह किया ॥४॥ एक दिन कुमार चम्पानगरीमें जलक्रीड़ा कर रहे थे कि वैरी सूर्पक फिर हर ले गया। अबकी बार उससे छटकर अनेक मनोरथोंको धारण करनेवाले कमार : नदीमें गिरे ॥५।। वहाँसे निकलकर वे अटवीमें घूमने लगे। वहां म्लेच्छोंके. राजाने उन्हें देखा जिससे वे म्लेच्छराजकी जरा नामक कन्याको विवाहकर वहीं रहने लगे ॥६॥ उन्नत पराक्रमको धारण करनेवाले वसुदेवने उस कन्यामें जरत्कुमार नामका पुत्र उत्पन्न किया। उसी समय कुमारने अवन्तिसुन्दरी और शूरसेना नामकी उत्तम कन्याको भी प्राप्त किया ॥७॥ तदनन्तर पुरुषको खोजनेवाली जीवद्यशा नामकी कन्याको एवं अनेक कन्याओंको विवाह कर कुमार वसुदेव अरिष्टपर नामक नगर आये ।।८॥ उस समय वहाँ युद्ध में शत्रुओंको रोकनेवाला धीर-वीर रुधिर नामका राजा था। उसकी मित्रा नामकी महारानी थी जो कान्तिरूपी सम्पदासे देवीके समान जान पड़ती थी ॥५॥ उन दोनोंके नीतिका वेत्ता, रण-निपुण, महापराक्रमी एवं शस्त्र और शास्त्रका अभ्यास करनेवाला हिरण्य नामका ज्येष्ठ पुत्र था ॥१०॥ और कलाओंकी पारगामिनी, रूप तथा यौवनके अभ्युदयको धारण करनेवाली, रोहिणी नामकी पुत्री थी। वह १. अपराः अन्याः कन्याः विवाह्य असो अरिष्टपुरम् आययो । २. नीतिज्ञः ।
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३९०
हरिवंशपुराणे
स्वयंवरविधौ तस्याः संगताः सकलाः नृपाः । जरासन्धं पुरोधाय समुद्रविजयादयः ॥१२॥ तत्र चित्रमणिस्तम्मधारितेषु यथाक्रमम् । ते मञ्चेपु समासीना नृपा भूषितविग्रहाः ॥१३॥ वसुदेवोऽपि तत्रैव 'भ्रात्रलक्षितवेषभृत् । तस्थौ पाणविकान्तःस्थो गृहीतपणवोऽग्रणीः ॥१४॥ ततः स्वयंवरान्तभूभागं सौभाग्यभूमिका । प्रविष्टा रोहिणी कन्या रोहिणीवातिरूपिणी ॥१५॥ तदा च सर्वभूपालैर्बलितैरलमाकुलैः । सालोकि युगपन्नेत्रैरर्चयद्भिरिवाम्बुजः ॥१६॥ तद्पश्रवणाद् येषां परा प्रीतिरभूत्पुरा । सा रूपदर्शनात्तेषां महत्त्वमगमत्परम् ॥१७॥ श्रुतितूलततौ वृद्धो योऽनुरागतनूनपात् । दर्शनेन्धनदीप्तस्य तस्य वृद्धिः किमुच्यताम् ॥१८॥ शङ्खतूर्यरवस्यान्ते ततो धात्री पवित्रवाक । धृतप्रसाधनां कन्यां मान्यामाहामितो नृपान् ॥१९॥ आतपत्रमिदं यस्य चन्द्रमण्डलपाण्डुरम् । त्रिखण्डजयतो लब्धं यशः स्वमिव शोभते ॥२०॥ यस्य चाज्ञाकराः सर्वे भूचरास्तु नमश्चराः । वसुंधरेश्वरः सोऽयं जरासन्धोऽवतिष्ठते ॥२१॥ वृणीष्द रोहिणीशं तं नृपं त्वल्लाभलोभतः । रोहिणीसंगमुज्झित्वा क्षितिं चन्द्रमिवागतम् ॥२२ तस्मिन्नरागिणीं बुद्ध्वा रोहिणी साह सात्त्विका । जरासन्धसुतास्वेते वृणीष्वषु हृदि स्थितम् ॥२३॥ धात्री चेतोविदूचे तां मथुरानाथमग्रतः । उग्रसेननृपं पश्य रोचते यदि ते सुते ॥२४॥
पुत्री सचमुच ही रोहिणी ताराके समान कीर्तिमती थी ॥११॥ रोहिणीके स्वयंवरमें जरासन्धको आगे कर समुद्रविजय आदि समस्त राजा आये ॥१२।। शोभित शरीरको धारण करनेवाले राजा लोग स्वयंवर मण्डपमें नाना प्रकारके मणिमयो खम्भोंसे सुशोभित मंचोंपर यथाक्रम बैठ गये ।।१३।। भाइयोंकी पहचानमें न आ सके ऐसे वेषको धारण करनेवाले कुमार वसुदेव भी स्वयंवरमें गये और पणव नामक बाजा बजानेवालोंके पास जाकर बैठ गये। उस समय कुमार अपने हाथमें पणव नामक बाजा लिये हए थे और उसके बजानेवालों में सबसे अग्रणी जान पड़ते थे ॥१४॥
तदनन्तर सौभाग्यकी भूमि और रोहिणी-ताराके समान अतिशय रूपवतो रोहिणी कन्याने स्वयंवरके भीतर प्रवेश किया ॥१५॥ उस समय समस्त राजाओंने मुड़-मुड़कर, आकुलतासे युक्त नेत्रों द्वारा एक साथ उसका अवलोकन किया। उस समय उसकी ओर देखनेवाले राजा ऐसे जान पड़ते थे मानो नेत्ररूपी कमलोंसे उसको पूजा हो कर रहे हों ॥१६॥ जिन राजाओंको पहले उसका रूप सुनकर परम प्रीति उत्पन्न हुई थी अब उसका रूप देखकर उन राजाओंको वह परम प्रीति और भी अधिक महत्त्वको प्राप्त हो गयो ||१७|| सो ठीक ही है क्योंकि जो अनुरागरूपी अग्नि श्रवणरूपो रूईको सन्ततिमें लगकर धीरे-धीरे सुलग रही थी वह यदि दर्शनरूपी इंधनको पाकर एकदम प्रज्वलित हो उठे तो उसकी वृद्धिका क्या कहना है ? ||१८|| तदनन्तर जब शंख और तुरही आदि वादित्रोंका शब्द शान्त हुआ तब पवित्र वचन बोलनेवाली धाय, अलंकारोंको धारण करनेवाली माननीय कन्याको राजाओंके सम्मुख ले जाकर कहने लगी॥१९|| कि हे पुत्रि ! जिसका यह चन्द्र-मण्डलके समान सफेद छत्र, तीन खण्डोंकी विजयसे प्राप्त यशरूपी धनके समान सुशोभित हो रहा है और समस्त भूमिगोचरी तथा विद्याधर राजा जिसके आज्ञाकारी हैं ऐसा यह वसुधाका स्वामी राजा जरासन्ध बैठा है ।।२०-२१॥ हे रोहिणी ! तुझे पानेके लोभसे रोहिणीका समागम छोड़कर पृथिवीपर आये हुए चन्द्रमाके समान जान पड़ता है ऐसे इस राजा जरासन्धको त स्वीकृत कर ॥२२॥ सत्त्वगणको धारण करनेवाली धायने जब देखा अनुराग जरासन्धमें नहीं है तब उसने आगे बढ़कर कहा कि ये जरासन्धके पुत्र हैं। इनमें से जो तुझे पसन्द हो उसे वर ॥२३॥ उनमें भी जब अनुराग नहीं देखा तब चित्तको जाननेवाली धायने आगे १. भ्रातृभिरलक्षितं वषं बिभर्तीति भ्रात्रलक्षितवेषभृत् । २. तनो म.। श्रुतिकुलतनो ग.। ३. रोहिणी शान्तम् म.।
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एकत्रिंशतमः सर्गः
३९१ लब्धधीः साह शौर्यादीन् पश्य सौर्य पुराधिपान् । मालामारोपयामीषामेकस्य रुचितस्य ते ॥२५॥ इत्युक्त तेषु चेतोऽस्या बमार गुरुगौरवम् । ततोऽदर्शयदेषास्यै पाण्डं विदुरमप्यतः ॥२६॥ दमघोषं यशोघोषं दत्तवक्त्रं सुविक्रमम् । शल्यं शल्यमिवारीणां तथ्यं शत्रुजयं नृपम् ॥२७॥ चन्द्राभं चन्द्रवस्कान्तं मुख्यं कालमुखं ततः । पौण्डूं च पुण्डरीकाक्षं मत्स्यं मात्सर्यवर्जितम् ॥२८॥ संजयं च जये सक्तं सोमदत्तं नृपोत्तमम् । तत्पुत्रं भ्रातृभिर्युक्तं भूरिश्रवसमाश्रवम् ॥२९॥ सूनुनांशुमतास्यन्तं कपिलं विपुलक्षणम् । तथा पद्मरथं भूपं सोमकं सोमसौम्यकम् ॥३०॥ देवकं देवनाथाभं श्रीदेवं श्रीवधूश्रितम् । प्रदर्य तान् नृपानित्थं वंशस्थानादिशंसिनी ॥३१॥ अन्यानपि च कन्यायै धात्री सा न्यायविजगौ । एतावन्तो नृपा बाले मुख्याः किमिदमास्यते ॥३२॥ कुरु कन्ये गुणं कण्ठे चित्तस्थस्येह कस्यचित् । त्वत्सौभाग्यगुणाकृष्टराजमस्यास्य संनिधौ ॥३३॥ त्वं प्रकाशय सौभाग्य कस्यचिञ्चित्तहारिणः । योग्यभर्तृ परिप्राप्तिचित्तचिन्तास्तनिद्रयोः ॥
वृतयोग्यवरा पित्रोर्मुग्धे कुरु सुखासिकाम् ॥३४॥ एवमुक्तावदस्कन्यां साधु मातरुदीरितम् । किंतु स्वदर्शितेष्वेषु न मनो रज्यते क्वचित् ॥३५॥
दर्शनानन्तरं यत्र स्नेहोऽभिव्यज्यते हृदि । पौनरुक्त्यं भवेद्वाच्यं तत्राप्यत्राप्यतर्षता ॥३६॥ बढ़कर कहा कि हे बेटी ! यह आगे मथुराके स्वामी राजा उग्रसेन बैठे हैं यदि तेरी रुचि हो तो इसकी ओर देख ।।२४।। तदनन्तर विवेकवती धायने आगे बढ़कर कहा कि सौर्यपुरके स्वामी समुद्रविजय आदिको देख, यदि तेरी रुचि हो तो इनमें से किसी एकके गले में माला डाल ||२५|| धाय
र कहनेपर कन्याके चित्तने उन सबके ऊपर गुरुके समान गौरव धारण किया अर्थात् उन्हें गरु समझकर प्रणाम किया। तदनन्तर धायने कन्याके लिए राजा पाण्डको दिखाया और उसके बाद विदुरको भी दिखलाया ॥२६॥ जब उसे इनमेंसे किसीपर भी कन्याका अनुराग नहीं दिखा तब उसने यशकी घोषणा करनेवाले दमघोष, अतिशय पराक्रमी दत्तवक्त्र, शत्रुओंके लिए शल्यके समान दुःख देनेवाले शल्य, सार्थक नामको धारण करनेवाले शत्रुजय, चन्द्रमाके समान सुन्दर चन्द्राभ, अतिशय मुख्य कालमुख, कमलके समान नेत्रोंको धारण करनेवाले पौण्ड्र, मात्सर्यसे रहित मत्स्य, विजय प्राप्त करने में लीन संजय, राजाओंमें उत्तम सोमदत्त, भाइयों सहित सोमदत्तका आज्ञाकारी पुत्र भूरिश्रवा, अंशुमान् नामक पुत्रसे सहित तथा अतिशय विशाल नेत्रोंको धारण करनेवाला राजा कपिल, राजा पद्मरथ, सोम-चन्द्रमाके समान सौम्य राजा सोमक, इन्द्रके समान आमाको धारण करनेवाला देवक और लक्ष्मीरूपी वधूसे सेवित श्रीदेव राजाको दिखाया तथा इन सब राजाओंको दिखाकर उनके वंश और स्थान आदिका भी वर्णन किया ॥२७-३१।। तदनन्तर न्यायको जाननेवाली धायने कन्याके लिए और भी अनेक राजाओंका परिचय देते हुए कहा कि हे बाले ! मुख्य इतने ही हैं। इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी है ? इनमेंसे जो भी तेरे हृदयमें स्थित हो-जिसे तू चाहती हो उसके कण्ठमें माला डाल दे। ये सभी राजा तेरे सौभाग्यरूपी गुणसे आकर्षित होकर इधर तेरे समीप स्थित हैं इनमें जो तुम्हारे चित्तको हरण करनेवाला हो उसके सौभाग्यको प्रकाशित कर। हे मग्धे! तेरे लिए योग्य भर्ताकी प्राप्तिकी चिन्तासे तेरे माता-पिताको निद्रा नष्ट हो गयी है सो योग्य वरको स्वीकार कर उन्हें सुखी बना ॥३२-३४॥धायके इस प्रकार कहनेपर कन्याने उत्तर दिया कि हे मातः ! आपने ठीक कहा है किन्तु आपके द्वारा दिखाये हुए इन राजाओंमें-से किसीपर मेरा मन अनुरक्त नहीं हो रहा है ।।३५।। देखनेके बाद ही जिसके ऊपर हृदयमें स्नेह प्रकट हो जाता है उसे वरनेके लिए वचन पुनरुक्त होता है तथा आन्तरिक स्नेहके प्रकट होनेपर ही स्त्री-पुरुष दोनोंमें सन्तोषका अनुभव होता है ।।३६।। इन १. शूल्यं म. । २. -माश्रयं म. । ३. षट्पादोऽयं श्लोकः । ४. कन्यां म. । ५. -प्यनर्थता म. ।
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हरिवंशपुराणे
न रागो न च विद्वेषो न मोहो न च शून्यता । मुनेरिव ममामीषु जातोपेक्षा कुतोऽप्यहो ॥३७॥ यद्यमीभ्यः परः कोऽपि विधिना मे विधित्सितः । वरस्तं दर्शयत्वद्य विधिरेव जगद्गुरुः ॥ ३८ ॥ तद्वचोऽनन्तरं कन्या शुश्राव पणवध्वनिम् । श्रव्यं श्रवणमार्गेण गत्वा चेतोऽतिकर्षिणम् ॥३९॥ इतः पश्य वरारोहे ! स्वन्मनोहरणक्षमम् । राजहंसमिति स्पष्टं बमाण पणवः स हि ॥ ४० ॥ परावृत्य ततः कन्या पश्यन्ती सा व्यलोकत । राजलक्षणसंयुक्तं वसुदेवं 'वसूपमम् ॥४१॥ अन्योन्य दृष्टिसंपात निशातेशर संपदा । मनो मनसिजश्चक्रे ततो जर्जरितं तयोः ।। ४२ ।। आसाद्य सा ततस्तस्य भूषणस्वनहारिणी । कण्ठे कण्ठगुणं चक्रे स्तनचक्रेण संनता ॥४३॥ मञ्चस्थस्योपकण्ठेऽस्य समासीना व्यराजत । रोहिणी हारिणी तारा रोहिणीव कलावतः ॥ ४५ ॥ नवसंगम संजातसाध्वसेन सकम्पना । कन्या सा स्वाङ्गसंगेन तस्याङ्गसुखमाहरत् ||४५ || तं स्वयंवरमालोक्य केचिदूचुरिदं नृपाः । जातोऽनुरूपयोर्योगो रत्नकाञ्चनयोरिव || ४६ || अहो नैपुण्यमेतस्याः कन्याया यदयं नृपः । कोऽपि गूढकुलः श्रीमान् प्रधानपुरुषो वृत्तः ||४७ | मात्सर्योपहतास्त्वन्ये जगुः पाणविकं वरम् । कुर्वन्त्या पश्यतात्यन्तमन्यायः कन्यया कृतः ||४८|| परामृतिमिमां राज्ञां नैव युक्तमुपेक्षितुम् । सर्वदातिप्रसंगः स्यादेवं सति महीतले || ४९|| कुलीनानां समाजेऽस्मिन् परस्यावसरोऽस्य कः । वक्तु वा वक्तुकामश्चेत्कुलीनः कुलमात्मनः ||५०|| न चेदेवं करोत्येष कोऽपि नीचान्वयोद्भवः । कुट्यतां राजपुत्रस्य कन्याप्यस्त्विह कस्यचित् ॥५१॥
राजाओंपर मुझे न राग है, न द्वेष है, न मोह है और न शून्यता है । अहो ! मुनिके समान मेरी इन सबपर किसी कारणसे उपेक्षा हो गयी है ||३७|| यदि विधाताने इन सबसे बढ़कर कोई दूसरा वर मेरे लिए बनाना चाहा है तो जगत्का गुरु विधाता ही आज उस वरको दिखलावे ||३८|| इतना कहने के बाद ही कन्याने, कणं मार्गसे भीतर जाकर चित्तको खींचनेवाली पणवकी मधुर ध्वनि सुनी ||३९|| वह ध्वनि मानो स्पष्ट रूपसे यही कह रही थी कि हे सुन्दरि ! तुम्हारे मनको हरण करनेवाला राजहंस इधर बैठा है, अतः इस ओर देखो ||४०|| तदनन्तर ज्योंही कन्याने मुड़कर उस ओर देखा, त्यों ही उसे राजलक्षणोंसे युक्त कुबेरके समान वसुदेव दिखे ||४१ | | उसी क्षण कामदेवने परस्पर दृष्टि सम्मिश्रणरूप तीक्ष्ण बाणों की सम्पदासे दोनोंका मन जर्जरित कर दिया ||४२|| तदनन्तर जो आभूषणोंके शब्दसे अतिशय मनोहर जान पड़ती थी और स्तनचक्रके भारसे नीचे की ओर झुक रही थी ऐसी रोहिणीने पास जाकर वसुदेवके गलेमें माला डाल दी ||४३|| मंचपर आसीन वसुदेवके समीप बैठी हुई रोहिणी, चन्द्रमाके समीप स्थित रोहिणी ताराके समान मनोहर जान पड़ती थी ||४४|| नवीन समागमसे उत्पन्न भयके कारण जिसका शरीर कुछ-कुछ काँप रहा था ऐसी रोहिणीने अपने शरीरके स्पशंसे वसुदेवके शरीरको सुख उत्पन्न कराया ||४५|| उस स्वयंवरको देखकर कितने ही राजा यह कहने लगे कि अहो ! जिस प्रकार रत्न और सुवर्णका संयोग होता है उसी प्रकार यह दोनों योग्य वरवधूका संयोग हुआ है ||४६ || अहो ! इस कन्याकी चतुराई देखो कि जिसने छिपे कुलसे युक्त लक्ष्मी-सम्पन्न एवं प्रधान पुरुषरूप इस किसी अनिवर्चनीय राजाको वरा है || ४७|| मात्सर्यसे पीड़ित अन्य राजा लोग यह कह रहे थे कि देखो पणववादकको वर बनाती हुई कन्याने यह बड़ा अन्याय किया है ||४८ || राजाओं को इस पराभवकी उपेक्षा करना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा होनेसे तो पृथिवीतलपर सदा अतिप्रसंग होने लगेगा - कुल मर्यादाकी सब व्यवस्था ही भंग हो जायेगी ||४९ || कुलीन मनुष्योंकी इस सभा में इस अकुलीन मनुष्यका असर ही क्या था ? अथवा यह कुलीन है और अपना कुल बताना चाहता है तो बतावे ||१०|| यदि यह ऐसा नहीं करता है-अपना कुल १. 'वसुर्मयूखाग्निधनाधिपेषु' इति वैजयन्ती । २. तीक्ष्ण । ३. चन्द्रस्य । ४. -रिमं म ।
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एकत्रिशत्तमः सर्गः
३९३ वसुदेवस्ततो धीरः प्रोवाच क्षुभितान् नृपान् । श्रूयतां क्षत्रियदृतः साधुमिश्च वचो मम ॥५॥ स्वयंवरगता कन्या वृणीते रुचिरं वरम् । कुलीनमकुलीनं वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे ॥५३॥ अक्षान्तिस्तत्र नो युक्ता पितुओतुर्निजस्य वा । स्वयंवरगतिज्ञस्य परस्येह च कस्यचित् ॥५४॥ कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः । कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोऽस्ति कश्चन ॥५५॥ तदत्र यदि सौभाग्यमविज्ञातस्य मेऽनया। अमिव्यक्तं न वक्तव्यं भवद्भिरिह किंचन ॥५६॥ अथ पौरुषदर्पण कश्चिदत्र न शाम्यति । शमयामि तमाकर्णकृष्टमुक्तः शिलीमुखैः॥५७॥ तच्छ्र स्वाशु जरासन्धः क्रुद्धः प्राह नृपान् नृपाः । गृह्यतामयमुद्वृत्तो रुधिरश्च सपुत्रः ॥५॥ क्षुमिताः पूर्वमेवासन द्विगुणं चक्रिवाक्यतः । खलप्रकृतयो भूपाः समद्धाः यो मुद्यताः ॥५॥ साधुप्रकृतयः केचित्तत्र क्षत्रियपुङ्गवाः । तस्थुः पापनिवृत्तेच्छाः पृथक् स्वबलसंगताः ॥६॥ पक्षास्तु रुधिरस्यैके प्रतिपक्षबिभित्सया। संनय सहसा प्राप्ताः रुधिरारुणवीक्षणाः ॥६॥ रथं हिरण्यनामः स्वं तस्थावारोप्य रोहिणीम् । समस्तबलसंयुक्तो रुधिरोऽपि वरं वरम् ॥६॥ रुधिरो मधुरैर्वाक्यैर्निजयोधानबोधयत् । यूयं महारथा युद्धे कुरुवं युक्तमात्मनः ॥६३॥
वरेण श्वशुरोवाचि पूज्य ! मे स्यन्दनं द्रुतम् । समर्पय महानेकशस्त्रास्त्रपरिपूरितम् ॥६॥ नहीं बतलाता है तो यह कोई नीच कुल में उत्पन्न हुआ है अतः इसे यहांसे हटा दिया जाये और यह कन्या किसी राजपुत्रको दे दी जाये॥५१॥
तदनन्तर धीर-वीर वसुदेवने क्षोभको प्राप्त हुए राजाओंसे कहा कि अहंकारसे भरे क्षत्रिय तथा सज्जन पुरुष हमारे वचन सुनें ॥५२॥ स्वयंवरमें आयी हुई कन्या अपनी इच्छाके अनुरूप कुलीन अथवा अकुलीन वरको वरती है। स्वयंवरमें कुलीन अथवा अकुलीनका कोई क्रम नहीं है ॥५३॥ इसलिए कन्याके पिता, भाई अथवा स्वयंवरकी विधिको जाननेवाले किसी अन्य महाशयको इस विषय में अशान्ति करना योग्य नहीं है ॥५४॥ कोई महाकलमें उत्पन्न होकर भी दुभंग-स्त्रीके लिए अप्रिय होता है और कोई नीच कुलमें उत्पन्न होकर भी सुभग-स्त्रोके लिए प्रिय होता है। यही कारण है कि इस विषयमें कुल और सौभाग्यका कोई प्रतिबन्ध नहीं है ॥५५।। इसलिए यदि इस कन्याने मुझ अपरिचितका सौभाग्य प्रकट किया है तो इस विषयमें आप लोगोंको कुछ नहीं कहना चाहिए ॥५६॥ इतनेपर भी यदि कोई पराक्रमके गर्वसे यहाँ शान्त नहीं होता है तो मैं कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणोंसे उसे शान्त कर दूंगा ।।५७॥ वसुदेवके उक्त वचन सुनकर राजा जरासन्ध शीघ्र ही कुपित हो उठा। उसने राजाओंसे कहा कि इस उद्दण्डको तथा पुत्र सहित राजा रुधिरको पकड़ लो ।।५८|| दुष्ट स्वभावके राजा पहले हीसे कपित थे फिर चक्रवर्तीका आदेश पाकर तो दूने कुपित हो गये। तदनन्तर वे दुष्ट राजा तैयार होकर युद्धके लिए उद्यत हो गये ।।५९|| वहाँ जो सज्जन प्रकृतिके राजा थे वे पापसे निःस्पृह हो अपनी-अपनी सेना लेकर अलग खड़े हो गये ॥६०|| जो क्षत्रिय रुधिरके पक्षके थे वे क्रोधसे रक्तके समान लाल-लाल नेत्र करते हुए, शत्रुको घायल करनेकी इच्छासे शीघ्र ही तैयार होकर वहां पहुंचे ॥६१।। राजा रुधिरका पुत्र स्वर्णनाभ रोहिणीको अपने रथपर चढ़ाकर खड़ा हो गया और समस्त सेनासे युक्त राजा रुधिर उत्कृष्ट वर-वसुदेवको अपने रथपर सवार कर खड़ा हो गया ॥६२।। रुधिरने मीठे-मीठे शब्दों द्वारा अपने योद्धाओंको सम्बोधते हए कहा कि हे महारथियो! तुम लोग युद्ध में अपने अनुरूप ही कार्य करो-जैसा तुम लोगोंका नाम है वैसा ही कायं करो ॥६३॥ वसुदेवने अपने श्वसुर-राजा रुधिरसे कहा कि हे पूज्य ! आप मुझे अनेक १. •मुद्वृत्ता म. । २. सुपुत्रकः म. । ३. महारथो म. । ४. युद्धः कुरुध्वं युद्धमात्मनः ग. ।
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हरिवंशपुराणे 'कान्दिशीकान् करोम्यय यद्भुतं क्षत्रियानमून् । संख्येऽप्रख्यातवंशस्य सहन्तां मे शरानमी ॥६५॥ इत्युक्त रुधिरोऽतोषि पुरुषान्तरवीक्षणात् । अढौकर्यदृढास्त्रात्यं जवनाश्वमहारथम् ॥६६॥ खेटो दधिमुखः शौरि शूरो रथारस्थितः । मनोरथ इव प्राप्तस्तदा दिव्यास्त्रमासुरः ॥६७॥ प्रणतन स तं प्राह रथमारोह मे तम् । सारथिस्तव युद्धेऽहं जहि शत्रुकदम्बकम् ॥६॥ भारुरोह रथं शौरिस्तस्य तुष्टः परिष्कृतः । चापी च कवची चित्रशरसंघातसंकुलम् ॥६९॥ द्विसहस्ररथं सैन्यं षट्सहस्रमदद्विपम् । चतुर्दशसहस्राइवं लक्षात्मकपदातिकम् ॥७०॥
रौधिरं युधि सानिध्यं शौरेराशु तदाश्रितम् । शत्रुसैन्यविनाशाय कृतनिश्चयमावभी ॥१॥ चतुरङ्गेण तेनाशु बलेन बलशालिना । अदृष्टपारमभ्याञ्च शौरिः शत्रुबलोदधिम् ॥७२॥ संपातश्च तयोर्जातः सेनयोश्चतुरङ्गयोः । समुद्रघोषयोः शङ्खतूर्यादिरवरौद्रयोः ॥७३॥ हस्त्यश्वरथपादातमौचित्येन यथायथम् । हस्त्यश्वरथपादातमभ्येत्यायुध्यदाहवे ॥७॥ नीरन्ध्रशरजालेन नभोरन्ध्रपिधायिना । न सहस्रकरोऽदर्शि रणेऽन्यत्र कथैव का ॥७५॥ असिचक्रगदाघातरक्तधारान्धकारिते। निरुद्धः पादसंचारो रणे तेजोनिधेरपि ॥७६॥ पतनिर्मतमातङ्गः पर्वतैरिव सर्वतः । नरैरश्वै रथै?षः शीर्यमाणैर्महानभूत् ॥७७॥
अख-शखोंसे भरा हुआ रथ शीघ्र ही दीजिए ॥६४॥ जिससे मैं इन क्षत्रियोंको शीघ्र ही पलायमान कर दें। ये लोग युद्ध में जिसके कूलका पता नहीं ऐसे मेरे बाणोंको सहन करें ॥६५।। वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर राजा रुधिर बहुत सन्तुष्ट हुआ। वह पुरुषोंके अन्तरको समझनेवाला जो था। तदनन्तर उसने मजबूत अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त एवं वेगशाली घोड़ोंसे जुता हुआ महारथ बुलाया ॥६६॥ उसी समय शूर,वीर, उत्तम रथपर स्थित तथा दिव्य अस्त्रोसे देदीप्यमान दधिमुख नामका विद्याधर मनोरथके समान कुमार वसुदेवके पास आ पहुँचा ॥६७॥ और नम्र होकर बोला कि आप शीघ्र ही मेरे रथपर चढ़ जाइए। युद्ध में में आपका सारथी रहूँगा। आप इच्छानुसार शत्रुओंके समूहको नष्ट कीजिए ॥६८|| उसके वचन सुनकर वसुदेव बहुत सन्तुष्ट हुए और धनुष हाथमें ले तथा कवच धारण कर नाना प्रकारके बाणोंके समूहसे भरे हुए उसके रथपर चढ़ गये ॥६९।। विसमें दो हजार रथ थे, छह हजार मदोन्मत्त हाथी थे; चौदह हजार घोड़े थे और एक लाख पैदल सैनिक थे। ऐसी राजा रुधिरकी विशाल सेना, शत्रु सेनाके नाशका दृढ़ निश्चय कर शीघ्र ही कुमार वसुदेवके समीप आ गयी ।।७०-७१।। उस बलशाली चतुरंग सेनाके साथ वसुदेव शीघ्र ही, जिसका अन्त नहीं दिखाई देता था ऐसे शत्रुकी सेनारूपी समुद्रके सम्मुख गये ॥७२।।
. तदनन्तर समुद्रके समान शब्द करनेवाली एवं शंख, तुरही आदिके शब्दोंसे भयंकर दोनों चतुरंग सेनाओंमें मुठभेड़ शुरू हुई ।।७३॥ हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिक यथायोग्य रीतिसे हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिकोंके सामने जाकर रणक्षेत्रमें युद्ध करने लगे ।।७४।। आकाश-विवरको आच्छादित करनेवाले सघन बाणोंके समूहसे उस समय युद्ध में सूर्य भी दिखाई नहीं देता था फिर अन्य पदार्थोंकी तो बात ही क्या थी ? ।।७५।। तलवार, चक्र और गदाके प्रहारसे निकलती हुई खूनकी धाराओंसे जहां अन्धकार फैल रहा था ऐसे उस रणक्षेत्रमें सूर्यका भी पादसंचार-किरणोंका संचार रुक गया था। पक्षमें अतिशय तेजस्वी मनुष्यका पैदल आनाजाना रुक गया था ॥७६|| वहाँ सब ओर पर्वतोंके समान बड़े-बड़े हाथी गिर रहे थे तथा मनुष्य, घोड़े और रथ जीर्ण-शीर्ण होकर धराशायी हो रहे थे। इन सबसे वहाँ बहुत भारी शब्द हो रहा
१. भयगृतान् । २. आढोक्य म.। ३. यावनाश्व-म.। ४. रथवरं स्थितः म.। ५. रुधिरस्येदं रोधिरं । १. मध्यं च म. । अभ्याञ्च संमुखं जगाम । ७. अभ्येत्य + अयुध्यत् + आहवे। ८. रणेऽन्यत्रव म.।
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एकत्रिशत्तमः सर्गः
३९५ अथ सेनामुखं खिमं चिरं कृतरणं निजम् । शौरिहिरण्यनामश्च साधारयितुमुद्यतौ ॥७॥ तो दृष्टिमुष्टिसंधानप्रयोगानमिलक्षितौ । शरैश्छादयितुं लग्नौ पैरयोधानितस्ततः ॥७९॥ न नागो न रथो नाश्वो न नरो वा महाहवे । यो न जर्जरितस्ताभ्यां मुञ्चनयां निशितान् शरान् ॥८॥ द्विट्प्रयुक्तशरासारं वायव्यास्त्रेण सोऽकिरत् । शौरिर्माहेन्द्रवाणेन निचकर्त्त धज्यपि ॥८॥ छत्राणि शशिशुभ्राणि शत्रूणां स यशांसि च । सुतुङ्गान्मूर्धजान्मान्यान् शरपातैरपातयत् ॥४२॥ युध्यमाने तथा तस्मिन् वीरे वीरमयानके । हिरण्यनामवीरेण रणे पौण्डः पुरस्कृतः ॥८॥ कुमाग्योस्तयोस्तत्र सुमहारथवर्तिनोः । शरैयुद्धमभूद्रौद्रं यथा सिंहकिशोरयोः ॥८॥ अपातयद ध्वज छत्रं सैधिरिः सारथिं रिपोः । रथस्य तुरगान वेगादध्यक्षांश्च शरैः शितैः ॥८५॥ ततश्चण्डरुषा पौण्ड्रो वज्रदण्डनिभैः शरैः । कृतानुरूपमस्यारेः स चकार तदेव हि ॥८६॥ ततो हिरण्यनाभोऽपि बिभेद कवचं द्विषः । केतुं छत्रं च बाणौधै रथसारथिवाजिनः ॥८७॥ विरथीकृत्य पौण्ड्रोऽपि तमाशु शितसायकैः । सद्यः प्राणहरं तस्य संधत्ते यावदाशुगम् ॥४८॥ वसुदेवोऽर्द्धचन्द्रेण तावच्छिवास्य तद्धनः । चक्रे हिरण्यनामं च स्वरयास्व रथे स्थिरे ॥८॥ छायमाने तथा पौण्डे शौरिणा शरवर्षिणा। ववृषुः शरसंघातानेकीभूय बहुद्विषः ॥१०॥ शरैः शरान निवासी बिभेद निशितैः शरैः । शत्रु शत्रुवितीर्णोच्चैः साधुकारः पदे पदे ॥११॥
था ।।७७॥ तदनन्तर चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद जो खेद-खिन्न हो गया था ऐसी अपनी सेनाके अग्रभागको सहारा देनेके लिए वसुदेव और स्वर्णनाभ दोनों ही उद्यत हुए ॥७८॥ दृष्टिको अपहरण करनेवाले प्रयोगसे जिन्हें कोई देख नहीं पाता था ऐसे ये दोनों ही जहां-तहाँ बाणोंके द्वारा शत्र-पक्षके योद्धाओंको आच्छादित करने लगे ॥७९॥ उस महायद्धमें न ऐसा हाथी था, न रथ था, न घोड़ा था और न मनुष्य ही था जो तीक्ष्ण बाणोंको छोड़नेवाले उन दोनोंके द्वारा जर्जरित न किया गया हो ।।८०॥ कुमार वसुदेव शत्रुके द्वारा चलाये हुए बाणोंकी वर्षाको तो वायव्य अस्त्रसे तितर-बितर कर देते थे और अपने माहेन्द्र बाणसे शत्रुओंके धनुष तकको तोड़ देते थे ॥८१। उन्होंने बाणोंके प्रहारसे शत्रुओंके चन्द्रमाके समान सफेद छत्र, उज्ज्वल यश तथा अतिशय उन्नत माननीय शिरके बालोंको नीचे गिरा दिया ।।८२।। इधर वीरोंको भय उत्पन्न करनेवाले शूरवीर वसुदेव इस प्रकार भयंकर युद्ध कर रहे थे और उधर वीर स्वर्णनाभने युद्धक्षेत्रमें पौण्ड्र राजाको अपने सामने किया ।।८३|| जिस प्रकार सिंहके दो बच्चोंका भयंकर युद्ध होता है उसी प्रकार अतिशय महान् रथपर बैठे हुए उन दोनों कुमारोंमें भी बाणों द्वारा भयंकर युद्ध होने लगा ॥८४|| स्वर्णनाभने देखते-देखते तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुको ध्वजा, छत्र, सारथि और रथके घोड़ोंको शीघ्र ही नीचे गिरा दिया ॥८५।। तदनन्तर राजा पौण्ड्रने भी अत्यन्त कुपित हो वज्रदण्डके समान तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुकी नकल करते हुए उसकी ध्वजा, छत्र, सारथि और घोड़ोंको धराशायी कर दिया ॥८६।। तत्पश्चात् स्वर्णनाभने भी बाणोंके समूहसे शत्रुके कवच, पताका, छत्र, रथ, सारथि,
और घोड़ोंको काट डाला ॥८७॥ यह देख पौण्ड्रने भी तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा स्वर्णनाभ को शीघ्र ही रथ-रहित कर तत्काल ही उसके प्राणोंको हरण करनेवाला बाण ज्योंही धनुषपर चढ़ाया त्योंही वसुदेवने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसके धनुषको काट डाला और शीघ्रताके साथ स्वर्णनाभको अपने स्थिर रथपर चढ़ा लिया ॥८८-८९॥ तदनन्तर लगातार बाण वर्षा करनेवाले वसुदेवने जब पौण्ड्रको आच्छादित कर लिया तब बहुत-से शत्रु एक होकर-मिलकर वसुदेवपर बाणोंके समूहकी वर्षा करने लगे ॥९०॥ परन्तु फिर भी वसुदेव अपने बाणोंसे शत्रुके बाणोंका निवारण १. शनैः म. । २. परं योघानितस्ततः म.। ३. रुधिरस्यापत्यम् पुमान् रोधिरिः। ४. शितिसायकैः म.। . ५. त्वरयाश्वरथे म.।
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हरिवंशपुराणे अथ साधुनृपैस्तत्र न्यायविद्भिरितीरितम् । न द्रष्टव्यमिदं युद्धमेकस्य बहूमिः सह ॥१२॥ ततो जगौ जरासन्धो धर्मयुद्धदिदृक्षया । अनेन सह कन्यार्थमेकैको युध्यतामिति ॥९॥ ततः शत्रुजयो लग्नः शौरिणा योद्धमुद्यतः । शेषास्तु प्रेक्षका जाता क्षत्रियाः क्षेतमत्सराः ॥९॥ शरान् शत्रुजयोरिक्षप्तान् शौरिः प्रक्षिप्य दूरतः । तं ध्वस्तरथसंनाहं विह्वलीकृत्य मुक्तवान् ॥१५॥ दत्तवक्त्रस्ततो दत्तचिरयुद्धो महोद्धतः । विरथीकृत्य निर्मुक्तो निःसारीकृतपौरुषः ॥१६॥ रिपुं कालमुखं प्राप्तं रणे कालमिवोद्धतम् । प्राणशेषमसौ कृत्वा विससोंर्जितो यदुः ॥९७॥ शल्यं रथेन संप्राप्तं तीक्ष्णसायकमोचकम् । जम्मणास्त्रेण रौद्रेण बबन्धान्धकवृष्णिजः ॥९८॥ समुद्रविजयं प्राह जरासन्धस्ततो द्रुतम् । त्वं हरास्य रणे दपं पार्थिवाविशारदः ॥९९॥ अपि न्यायविदुत्तस्थौ स राजा राजशासनात् । युद्धे प्रायोऽनुवर्तन्ते प्रभु न्यायविदोऽपि हि ॥१०॥ समुद्रविजयादेशात्पुनः सारथिना रथः । दधावोच्चैर्ध्वजच्छत्री वासुदेवरथं 'प्रति ॥१०॥ दृष्ट्वा ज्येष्टरथं दूरात् कनीयान् सारथिं जगौ । ज्यायांसं मम जानीहि समद्रविजयं विमम् ॥१०॥ मन्दमत्र गुरौ वाह्यो रथो दधिमुख ! त्वया । सापेक्षं हि मया योध्यमनेन गुरुणा रणे ।।१०३॥ यथोद्दिष्टं ततस्तेन रथः सारथिना रणे । नोदितोऽपि ययौ मन्दः स्यन्दनं गुर्वधिष्ठितम् ॥१०॥
कर तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुपर प्रहार करते रहे। उस समय कुमारकी कुशलतासे प्रसन्न होकर शत्रु भी उन्हें पद-पदपर साधु-साधु-बहुत अच्छा बहुत अच्छा कहकर धन्यवाद दे रहे थे ॥११॥
अथानन्तर जो वहाँ न्याय-नीतिके जाननेवाले सज्जन राजा थे उन्होंने कहा कि हम लोगोंको यह युद्ध नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह एकका अनेकके साथ हो रहा है-एकके ऊपर अनेक व्यक्ति प्रहार कर रहे हैं इसलिए यह अन्यायपूर्ण युद्ध है ।।९२।। तदनन्तर धर्म-युद्ध देखनेकी इच्छासे जरासन्धने कहा कि अच्छा, कन्याके लिए इसके साथ एक-एक राजा यद्धक तत्पश्चात् जरासन्धका आदेश पाकर राजा शत्रुजय कुमार वसुदेवके साथ युद्ध करनेके लिए उठा और शेष राजा मत्सररहित हो युद्ध देखने लगे ॥९४॥ कुमारने शगुंजयके द्वारा चलाये हुए बाणोंको दूर फेंककर उसके रथ और कवचको तोड़ डाला तथा उसे मूच्छित कर छोड़ दिया ॥१५॥ तदनन्तर मदसे उद्धत राजा दत्तवक्त्र युद्ध करने लगा परन्तु कुमारने उसका भी रथ तोड़ डाला और उसके पौरुषको निःसार कर उसे भगा दिया ॥९६|| तदनन्तर जो यमराजके समान उद्धत था ऐसा कालमुख युद्धके लिए सामने आया सो अतिशय बलवान् वसुदेवने उसे भी प्राण-शेष कर छोड़ दिया ॥९७।। अब रथपर सवार हो तीक्ष्ण बाणोंको छोड़ता हुआ शल्य सामने आया सो वसुदेवने- उसे भी अतिशय भयंकर ज़म्भण नामक अस्त्रसे बांध लिया ॥९८|
तदनन्तर जरासन्धने समुद्रविजयसे कहा कि हे राजन् ! तुम अस्त्र-विद्यामें अत्यन्त निपुण हो इसलिए शीघ्र ही युद्ध में इसका गर्व हरण करो ॥९९|| यद्यपि समुद्रविजय न्याय-नीतिके वेत्ता थे-युद्ध नहीं करना चाहते थे तथापि राजा जरासन्धकी आज्ञासे उठे सो ठीक ही है क्योंकि युद्धके विषयमें न्यायके वेत्ता मनुष्य भी प्रायः अपने स्वामीका ही अनुसरण करते हैं ।।१०।। तत्पश्चात् समुद्रविजयकी आज्ञा पाकर सारथिके द्वारा चलाया हुआ रथ, ऐसा रथ कि जिसपर बहुत ऊंची ध्वजा और छत्र लगा हुआ था, वसुदेवके रथकी ओर दौड़ा ॥१०१॥ वसुदेवने दूरसे ही बड़े भाईके रथको देखकर अपने सारथिसे कहा कि इन्हें तुम मेरे बड़े भाई समुद्रविजय जानो ॥१०२।। हे दधिमुख ! ये हमारे पितातुल्य हैं अतः तुम्हें इनके आगे रथ धीरे-धीरे ले जाना चाहिए। मुझे रणभूमिमें इनके साथ इनकी रक्षाका ध्यान रखते हुए ही युद्ध करना चाहिए॥१०३॥ सारथि-दधिमुखने, वसुदेवकी आज्ञानुसार ही रथ चलाया जिससे वह प्रेरित होनेपर भी १. क्षत्रमत्सराः म.। २. वसुदेवं रथं म. ।
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एकत्रिंशत्तमः सर्गः निजसारथिमाजिस्थः समुद्रविजयो जगौ । भद्र ! योधमिमं दृष्ट्वा सस्नेहं मे मनः कुतः ॥१०५॥ दक्षिणाक्षिभुजास्पन्दो बन्धुसंबन्धगन्धनः । युधि बध्यस्य सांनिध्ये वद संबध्यते कथम् ।।१०६।। सुनिमित्तविसंवादो नानुभूतश्च जातुचित् । विरुद्ध देशकालत्वात्संवादोऽपि न युज्यते ।।१०७॥ इत्युक्त सोऽवदत् स्वामिन्नभ्यमित्रमितस्य ते । अवश्यं बन्धुसंबन्धो जितजेयस्य जायते ॥१०॥ परै राजन्नजय्यस्य राजलोकस्य संनिधौ । परस्य विजये पूजा राजाजादवाप्स्यसि ।।१०९।। सोऽभिनन्दिततद्वाच्यः कार्मुकी तं सकार्मुकम् । शरधेः शरमुद्धत्य जगादोतसायकम् ।।११०॥ भी धीर ! ते यथादृष्टं मृधे धनुषि कौशलम् । तथा निर्वहणं तस्य त्वं कुरुष्व ममाग्रतः ॥११॥ शौर्यशैल ! तवोत्तङ्गभानशृङ्गमनावृतम् । आवृणोमि शरैमघैः समुद्रविजयस्त्वहम् ॥११२॥ कुमारः स्वरभेटेन जगौ किं नो बहूदितः । आवयोरिह राजेन्द्र ! रणे व्यक्तिभविष्यति ॥१३॥ समुद्र विजयस्त्वं चेत्संग्रामविजयस्त्वहम् । न चेत्प्रत्येषि तक्षिप्रं क्षिप संधाय सायकम् ॥१४॥ इत्युक्त मुक्तमाध्यस्थ्यो वैशाखस्थानमास्थितः । संधाय शरमाक्रष्य विव्याध क्रोधतो नृपः ॥११५॥ प्रतिक्षिप्तेन स क्षिप्रमाशुगेन तमाशुगम् । दूरादेव च विच्छेद वैशाखस्थानमण्डितः ॥११६॥ मुक्तान्मुक्कान्नृपेणासाविपूनिषुमिराहवे । प्रत्युन्मुक्तरतिक्षिप्रं दूरादेव निराकरोत् ॥११७॥
वायव्यवारुणायैस्तौ दिव्यास्त्रैरत्रकोविदौ । युयुधाते नृदेवानां साधुकारैः स्तुती चिरम् ॥११८॥ समुद्रविजयसे अधिष्ठित रथकी ओर धीरे-धीरे ही चला ॥१०४॥ युद्ध के मैदानमें आनेपर राजा समद्रविजयने अपने सारथिसे कहा कि हे भद्र! इस योद्धाको देखकर मेरा मन स्नेहयक्त क्यों हो रहा है ? ॥१०५।। दाहिनी आँख तथा भुजा भी फड़क रही है जो बन्धुके समागमको सूचित करनेवाली है परन्तु युद्धके मैदानमें जब कि शत्रु सामने खड़ा है इस शकुनकी संगति कैसे बैठ सकती है तुम्हीं कहो ॥१०६।। उत्तम शकुनोंमें विसंवाद-विरोधका कभी अनुभव नहीं किया और देश तथा कालके विरुद्ध होनेसे निमित्तोंका संवाद भी संगत नहीं जान पड़ता ।।१०७।। समुद्रविजयके इस प्रकार कहनेपर सारथिने कहा कि हे स्वामिन् ! अभी आप शत्रुके सामने खड़े हैं जब इसे आप जीत लेंगे तब अवश्य ही बन्धु-समागम होगा ॥१०८।। हे राजन् ! यह शत्र दूसरोंके द्वारा अजेय है अतः इसके जीत लेनेपर आप राजाओंके समक्ष राजाधिराज जरासन्धसे अवश्य ही विशिष्ट सम्मानको प्राप्त करेंगे ॥१०॥
समुद्रविजयने सारथिके वचनोंकी प्रशंसा कर धनुष उठाया और तरकशसे बाण निकालकर धनुष हाथमें ले बाण निकालकर खड़े हुए कुमार वसुदेवसे कहा कि हे धीर! युद्ध में तुम्हारे धनुषका जैसा कौशल देखा है अब मेरे आगे वैसा हो उसका समारोप करो-उसी प्रकारकी कुशलता दिखाते रहो तो जानें ॥११०-१११।। हे शूरवीरताके पर्वत ! तुम्हारा अतिशय उन्नत यह मानरूपी शिखर अभी तक अनाच्छादित है सो मैं बाणरूपी मेघोंसे अभी आच्छादित करता हूँ, मैं समुद्रविजय हूँ ।।११२।। कुमारने आवाज बदलकर कहा कि हे राजेन्द्र ! हम लोगोंको बहुत कहनेसे क्या लाभ है ? युद्ध में ही हम दोनोंकी प्रकटता हो जायेगी-जो जैसा होगा वह वैसा सामने आ जावेगा ।।११३।। यदि आप समुद्रविजय हैं तो मैं संग्रामविजय हूँ। यदि आपको प्रतीति न हो तो शीघ्र ही धनुषपर बाण रखकर छोडिए ॥११४|| वसदेवके इस प्रकार करनेपर जिनकी मध्य छूट गयी थी तथा जो वैशाख आसनसे खड़े थे ऐसे राजा समुद्रविजयने डोरीपर बाण रखकर तथा खींचकर क्रोधवश जोरसे मारा ॥११५।। उधर वैशाख आसनसे सुशोभित वसुदेवने शीघ्र ही बदलेमें चलाये हुए बाणसे समुद्रविजयके उस बाणको दूरसे ही काट डाला ॥११६।। इस प्रकार राजा समुद्रविजयने युद्ध में जितने बाण छोड़े उन सबको बदले में छोड़े हुए बाणोंके द्वारा वसुदेवने बहुत शीघ्र दूरसे ही निराकृत कर दिया ||११७।। तदनन्तर जो अस्त्र-विद्यामें निपुण थे और राजा लोग १. युद्धस्थः ।
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हरिवंशपुराणे ज्येष्ठो मुमोच यान् बाणान् योद्धसारथिवाजिनाम् । तान् कनिष्ठोऽच्छिनद्बाणैवैनतेय इवोरगान् ॥११९॥ एकैकं स त्रिधा छित्त्वा क्षुरप्रं भ्रातृयोजितम् । युवा विव्याध तस्यास्त्रै रथसारथिवाजिनः ॥१२०॥ दृष्ट्वास्त्रकौशलं तस्य शशंसुरवनीश्वराः । शिरष्कम्पाङ्गलिस्फोटसाधुवादविधायिनः ॥१२१॥ ज्यायानज्ञातसंबन्धः पुनः संधाय सायकम् । दिव्यमस्त्रसहस्राणां सहस्रममुचद् रुषा ॥१२॥ अस्त्रं ब्रह्मशिरः शीघ्रमस्त्रच्छादनमप्यसौ। युवा क्षिप्त्वाच्छिनद्रौद्रं ज्यायसा क्षिप्तसायकम् ॥१२३॥ परं कौशलमस्त्रेपु वसुदेवस्य यद्रणे । चिच्छेदास्त्राणि चित्राणि ररक्ष च निजाग्रजम् ॥१२॥ इत्थं कृतरणक्रीडः कनीयान् ज्यायसे ततः। प्रजिघाय धनस्नेहः स्वनामाकं शनैः शरम् ॥१२५॥ अनुकूलमिषं राजा तमादायेत्यवाचयत् । अज्ञातो निर्गतो योऽसौ महाराज ! तवानुजः ।।१२६॥ सोऽयं वर्षशतेऽतीते संप्राप्तः स्वजनान्तिकम् । पादप्रणाममद्यायं वसुदेवः करोति ते ॥१२॥ भ्रातृस्नेहसमुद्रेकारसमुद्रविजयस्ततः । क्षिप्तचापो रथात्तर्णमुत्तीर्याप निजानुजम् ॥१२८॥ उत्तीर्णः स्यन्दनादाशु वसुदेवोऽपि दूरतः । प्रणतः पादयोस्तेन दोर्ध्यामालिङ्ग्य चोद्धतः ॥१२९॥ आश्लिष्य रुदतोमा॑त्रोः साश्रुलोचनयोस्तयोः । प्राप्याक्षुभ्यादयः सर्वे कण्ठलग्नास्ततोऽरुदन् ॥१३०॥
'साधु-साधु' शब्द कहकर जिनकी स्तुति कर रहे थे ऐसे उन दोनोंने वायव्य तथा वारुण आदि अस्त्रोंसे चिरकाल तक युद्ध किया ॥११८|| योद्धा, सारथि और घोड़ोंको लक्ष्य कर बड़े भाई जिन बाणोंको छोड़ते थे छोटे भाई उन्हें अपने बाणोंसे उस तरह छेद डालते थे जिस तरह कि गरुड़ सोको छेद डालता है ॥११९।। तदनन्तर युवा वसुदेवने भाईके द्वारा चलाये हुए एक-एक बाणके तीन-तीन टुकड़े कर अपने अस्त्रोंसे उनके रथ, सारथि और घोड़ोंको छेद डाला ॥१२०।। वसुदेवके अस्त्र-कौशलको देखकर राजा लोग उनकी बड़ी प्रशंसा कर रहे थे। उस समय कितने ही राजा अपना शिर हिला रहे थे, कोई अंगुलियां चटका रहे थे और कोई मुखसे साधु-साधु शब्दका उच्चारण कर रहे थे। ॥१२१।। बड़े भाईको इस बातका पता नहीं था कि इसके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है इसलिए उन्होंने क्रोधमें आकर वसुदेवपर हजारों अस्त्रोंसे युक्त दिव्य रौद्रास्त्र छोड़ा परन्तु कुमार वसुदेवने भी शीघ्र ही अस्त्रोंको आच्छादित करनेवाला ब्रह्मशिर नामक अस्त्र छोड़कर बड़े भाईके द्वारा छोड़े हुए उस रौद्रास्त्रको बीचमें ही काट डाला ॥१२२-१२३॥ वसुदेवका संग्राममें शस्त्र चलानेका कौशल परम प्रशंसनीय था क्योंकि उन्होंने नाना प्रकारके शस्त्रोंको तो काट दिया था परन्तु अपने बड़े भाईको सुरक्षित रखा था ॥१२४।।
इस प्रकार रणकोड़ा करते-करते जिनका हृदय स्नेहसे भर गया था ऐसे वसुदेवने बड़े भाईके पास अपने नामसे चिह्नित बाण भेजा। उनका वह बाण मन्दगतिसे गमन करता हआ बड़े भाईके पास पहुँचा ॥१२५॥ राजा समुद्रविजयने उस अनुकूल बाणको लेकर उसमें लिखा हुआ यह समाचार पढ़ा कि 'हे महाराज ! जो अज्ञात रूपसे निकल गया था वही मैं आपका छोटा भाई वसुदेव हूँ। सौ वर्ष बीत जानेके बाद वह आज आत्मीय जनोंके समीप आया है । हे आर्य ! वह आपके चरणोंमें प्रणाम करता है ।।१२६-१२७।। तदनन्तर भ्रातृ-स्नेहकी प्रबलतासे समुद्रविजयने अपने हाथका धनुष दूर फेंक दिया और वे शीघ्र ही रथसे उतरकर छोटे भाईके पास जा पहुँचे ।।१२८।।
इधर वसुदेव भी शीघ्र ही रथसे उतरकर दूरसे ही उनके चरणोंमें गिर गये । समुद्रविजयने दोनों भुजाओंसे उठाकर उनका आलिंगन किया ।।१२९।। दोनों भाई एक दूसरेका आलिंगन कर रोने लगे और उनके नेत्रोंसे आँसू टप-टप गिरने लगे। उसी समय
१. निजं म.
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एकत्रिंशत्तमः सर्गः
श्वसुरास्तस्य यावन्तः सपुत्रास्तत्र संगताः । वान्धवाश्चापरे लग्ना रुरुदू रणरङ्गगाः ॥ १३१ ॥ जरासंधादयस्तुष्टा दृष्ट्वा भ्रातृसमागमम् । शशंसू रोहिणीं कन्यां तद्भ्रातृपितृबान्धवाः ॥१३२॥ यथास्वं शिबिरस्थानं दिनान्ते ते ययुर्नृपाः । वसुदेवकथासेक्ता निशा निन्युर्दिनान्यपि ॥ १३३ ॥ ततस्तिथौ प्रशस्तायां रोहिणी चन्द्रसंगमे । रोहिणीमुपयेमेऽसौ समुद्र विजयानुजः ॥ १३४ ॥ दृष्ट्वा विवाहमुर्वीशास्तुष्टिपुष्टिसमन्विताः । वर्षं तस्थुर्जरासन्धसमुद्र विजयादयः ॥ १३५॥ कृतसाहाय्यकः संख्ये वसुदेवः सुपूजितः । आपृच्छ्य प्रययौ प्रीतो निजं दधिमुखः पदम् ॥ १३६ ॥ वरो नववधूहारिवक्त्राम्भोजमधुव्रतः । न सस्मार स्मरासक्तः पूर्वं भुक्तवधूलताः ॥ १३७ ॥ शार्दूलविक्रीडितम्
प्रादुर्भूतसमस्त भूतलमहाभूपाल लोकैः समं
संभूयाद्भुतविक्रमैकशरणप्राणै प्राङ्गणे ।
प्रारब्धोऽप्यतिलुब्धबुद्धिभिरभूज्जय्यो न यद्दोः सखः
शौरिः शौर्यं गिरिजिनोक्ततपसस्तप्तस्य तत्प्राभवम् ॥१३८॥ इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ रोहिणीस्वयंवर - भ्रातृसमागमवर्णन नाम एकत्रिंशः सर्गः ॥ ३१ ॥
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गये और
आदि शेष भाई भी आ सब गले लगकर रोने लगे ||१३०|| उस समय युद्धभूमि में वसुदेव के जितने श्वसुर, साले तथा अन्य बन्धुजन थे वे सब उनसे लिपटकर रोने लगे ||१३१ ॥ जरासन्ध आदि राजा, भाइयोंके इस समागमको देखकर बहुत ही सन्तुष्ट हुए। रोहिणी के भाई, पिता तथा अन्य सम्बन्धी जन उसकी बहुत प्रशंसा करने लगे ||१३२॥
तदनन्तर सायंकाल के समय सब राजा लोग अपने-अपने शिविरोंमें गये और वसुदेवकी ही कथा में आसक्त हो दिन तथा रात्रियाँ व्यतीत करने लगे ॥ १३३॥ तत्पश्चात् शुभ तिथिमें जब कि चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्रपर था वसुदेवने रोहिणीको विधिपूर्वक विवाहा || १३४|| जरासन्ध तथा समुद्रविजय आदि राजा उस विवाहोत्सवको देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और एक वर्ष तक वहीं राजा रुधिरके यहां रहे आये ||१३५ ॥ युद्ध में जिसने सहायता की थी तथा वसुदेवने जिसका अच्छा सम्मान किया था ऐसा दधिमुख वसुदेवसे आज्ञा लेकर प्रसन्न होता हुआ अपने स्थानपर चला गया ।। १३६ ।। कामासक्त वसुदेव नवीन स्त्रीके सुन्दर मुख कमलके भौंरे बन गये थे इसलिए उन्होंने पहले भोगी हुई स्त्रीरूपी लताओंका स्मरण भी नहीं किया || १३७|| गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो शूरवीरताके पर्वत वसुदेव यद्यपि रणांगणमें अकेले ही थे केवल भुजाएँ ही उनकी सहायक थीं और अद्भुत पराक्रमके धारक, अतिशय लोभी पृथिवीतलके समस्त राजाओंने एक साथ मिलकर उन्हें पराजित करना चाहा था तथापि वे उन्हें पराजित नहीं कर सके सो यह अच्छी तरह हुए जिनेन्द्रकथित तपका ही प्रभाव समझना चाहिए || १३८ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें रोहिणीका स्वयंवर और भाइयोंके समागमका वर्णन करनेवाला इकतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ ३१ ॥
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१. शक्तो म. । २. वसुदेवः स पूजितः । म. वसुदेवेने सुपूजितः शिष्टाचारीकृत इत्यर्थः ।
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द्वात्रिंशः सर्गः
अथ सा रोहिणी मत्र विचित्रे शयनेऽन्यदा । प्रसुप्ता चतुरः स्वप्नान् ददर्श शुभसूचिनः ॥ १ ॥ रुन्द्र' चन्द्रसमच्छायं गजेन्द्रं मन्द्रगर्जितम् । समुद्रं सान्द्रनिर्घोषं ' महोधोच्चैर्महोर्मिकम् ॥२॥ चन्द्र चन्द्रमुखी पूर्णं दृष्ट्वा पूर्णमनोरथा । कुन्दशुभ्रं मृगेन्द्रं सा ददर्शास्यप्रवेशिनम् ॥३॥ विबुद्धा च प्रभाते तान् विबुद्धाम्बुजलोचना । पत्ये न्यवेदयत्सोऽस्या इति स्वप्नफलं जगी ॥ ४ ॥ उत्पत्स्यते सुतः क्षिप्रं धीरोऽलङ्ध्यः शशिप्रभः । एकवीरो भुवो भर्त्ता प्रिये ! ते जनताप्रियः ॥ ५ ॥ इति पत्या समादिष्टं श्रुत्वा स्वप्नफलं शुभम् | हारिणी रोहिणी हृष्टा शिश्रिये श्रियमैन्दवीम् ॥६॥ च्युत्वा कल्पान्महाशुक्रान्महासामानिकः सुरः । गर्भेऽभूदिह रोहिण्या धरण्या इव सन्मणिः ॥७॥ ततः पूर्णेषु मासेषु सुखं संपूर्णदोहला । सासूत सुतमृक्षेषु शुभेपु शशिसंनिभम् ||८|| तस्य जन्मोत्सवं दृष्ट्वा जरासन्धपुरःसराः । यथास्थानं ययुः प्रीताः पार्थिवाः कृतपूजनाः || ९ || अमिरामः स रामाख्यां प्रख्याप्य पृथिवीतले । वर्द्धते वर्द्धयन् प्रीतिं पित्रोर्बन्धुजनस्य च ॥१०॥ श्रीमण्डपस्थितान् सर्वानेकदा रौधियपदे । समुद्र विजयाद्यांस्तान् वसुदेवहितोद्यतान् ॥ ११ ॥ खावतीर्णाभिनन्द्यैका दिव्या विद्याधरी श्रिता । वसुदेवमितः प्राह सुखासनकृतासना ।।१२।।
अथानन्तर किसी समय वह रोहिणी अपने भर्ता - वसुदेवके साथ विचित्र शय्यापर शयन कर रही थी कि उसने शुभको सूचित करनेवाले चार स्वप्न देखे || १ || पहले स्वप्न में उसने गम्भीर गर्जन करता हुआ चन्द्रमाके समान सफेद विशाल हाथी देखा। दूसरे स्वप्न में पर्वत के समान ऊँची एवं बड़ी-बड़ी लहरोंसे युक्त अत्यधिक शब्द करनेवाला समुद्र देखा। तीसरे स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमाको देखकर चन्द्रमुखी रोहिणीका मनोरथ पूर्ण हो गया और चौथे स्वप्न में उसने मुखमें प्रवेश करता हुआ कुन्दके समान सफेद सिंह देखा || २ - ३ || प्रातः कालके समय जागनेपर जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान सुशोभित थे ऐसी रोहिणीने वे स्वप्न पति के लिए बतलाये और पतिने उनका यह फल बताया कि हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही ऐसा पुत्र होगा जो धीर, वीर, अलंघ्य, चन्द्रमाके समान कान्तिवाला, अद्वितीय वीर, पृथिवीका स्वामी और जनताका प्यारा होगा ||४-५ || इस प्रकार पतिके द्वारा बताये हुए स्वप्नोंका शुभ फल सुनकर सुन्दरी रोहिणी हर्षित हो उठी तथा चन्द्रमाको शोभा धारण करने लगी || ६ || उसी समय महासामानिक देव महाशुक्र स्वर्गसे च्युत होकर रोहिणी के गर्भ में उस तरह स्थित हो गया जिस तरह कि पृथिवीके गर्भ में उत्तम मणि स्थित होता है ||७||
तदनन्तर जिसके समस्त दोहला पूर्ण किये गये थे ऐसी रोहिणीने सुखसे नौ माह पूर्ण होनेपर शुभ नक्षत्रों में चन्द्रमाके समान सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया ||८|| जो जरासन्ध आदि राजा एक वर्षसे राजा रुधिरके यहाँ रह रहे थे उस पुत्रका जन्मोत्सव देखकर प्रसन्न होते हुए अपनेअपने स्थानपर गये । जाते समय राजा रुधिरने उन सबका खूब सत्कार किया ||२|| वह बालक अत्यन्त सुन्दर था इसलिए पृथिवीतलपर अपना 'राम' नाम प्रसिद्ध कर माता-पिता और बन्धुजनोंकी प्रीतिको बढ़ाता हुआ दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा ||१०||
तदनन्तर एक समय कुमार वसुदेवके हित में उद्यत समुद्रविजय आदि सभी भाई राजा रुधिरके घर श्रीमण्डपमें बैठे थे कि एक दिव्य विद्याधरी आकाशसे उतरकर वहाँ आयी और १. रुद्रं ग म । २. चन्द्रं म । ३ महीन्द्रोच्चै म । ४. विकसितकमलनयना ।
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द्वात्रिंशः सर्गः
देव ! वेगवती पत्नी बालचन्द्रा च मे सुता । पादयोस्तव संपत्य वान्छति प्रियदर्शनम् ॥१३॥ कुमारी स्वद्गतप्राणा बालचन्द्रावतिष्ठते । गत्वा तां त्वं विवाह्याशु कुरु तच्चित्तनिर्वृतिम् ॥ १४ ॥ तदाकर्ण्य वचस्तेन दृष्टिज्येष्ठे समर्पिता । अभिप्रायविदा तेन लध्वेहीति' विसर्जितः ॥ १५ ॥ तमादाय गता सापि पुरं गगनवल्लभम् । समुद्र विजयाद्याश्च ययुः शौर्य पुरं नृपाः ॥ १६॥ भार्यां वेगवतीं दृष्ट्वा शौरिर्गगनबल्लभे । बाल चन्द्रामुवाहात्र पूर्णचन्द्रसमाननाम् ॥ १७ ॥ नववध्वा तया सार्धं वेगवत्या च हृद्यया । रममाणोऽवसत्तत्र दिनानि कतिचित्सुखी ॥१८॥ ताभ्यां जिगमिषोस्तस्य शीघ्रं शौर्यपुरं पुरम् । चक्रे वनवती देवी विमानं रत्नभास्वरम् ॥ १९ ॥ पिता का दंष्ट्रोऽथ परिवारं ददौ परम् । समस्तं बालचन्द्राया वेगवत्याश्च सोऽग्रजः ॥ २० ॥ कामगेन विमानेन सोऽनेन वनितासखः । अरिंजयपुरं गत्वा विद्युद्वेगं निरैक्षत ॥२१॥ प्रियां मदनवेगां तामनावृष्णि च देहजम् । आदायाशु विमानेन तेनैव वियदुद्ययौ ॥२२॥ पुरं गन्धसमृद्धं द्राक् श्रीसमृद्धमवाप्य सः । सुतां गान्धारराजस्य पश्यति स्म प्रभावतीम् ॥२३॥ समारोप्य विमाने तां परिवारसमन्विताम् । प्राप्तः प्राप्त महाहर्पः सहसासितपर्वतम् ॥२४॥ सिंहदंष्ट्रात्मजां दृष्ट्वा स नीलयशसं प्रियाम् । तत्रारमत्तया चित्रं प्रवियुक्तसमेतया ॥ २५ ॥ तामध्यादाय संप्राप्तः किन्नरोद्गीतमत्र च । नीलोत्पलदलश्यामां कामं श्यामाममानयत् ॥ २६ ॥
सबको अभिनन्दनकर सुखदायक आसनपर बैठ गयी। कुछ समय बाद उसने वसुदेवको लक्ष्य कर कहा कि हे देव ! आपकी पत्नी वेगवती तथा हमारी पुत्री बालचन्द्रा आपके चरणोंमें गिरकर आपका प्रिय दर्शन करना चाहती हैं ॥११- १३|| कुमारी बालचन्द्राके प्राण एक आपमें ही अटक रहे हैं इसलिए शीघ्र जाकर उसे विवाहो और उसका चित्त सन्तुष्ट करो || १४ || विद्याधरीके वचन सुनकर कुमार वसुदेवने अपनी दृष्टि बड़े भाई समुद्रविजयपर डाली और अभिप्रायको जाननेवाले बड़े भाई भी 'जल्दी जाओ' कहकर उन्हें छोड़ दिया - विद्याधरीके साथ जानेकी अनुमति दे दी ||१५|| तदनन्तर विद्याधरी वसुदेवको लेकर गगनवल्लभपुर गयी और समुद्रविजय आदि राजा शौर्यपुर चले गये ||१६|| वसुदेवने गगनवल्लभ नगरमें अपनी प्रिया वेगवती से मिलकर पूर्णचन्द्रके समान मुखवाली बालचन्द्राको विवाहा ||१७|| और विवाह के बाद वे नयी वधू बालचन्द्रा तथा हृदयको अत्यन्त प्रिय लगनेवाली वेगवतीके साथ क्रीड़ा करते हुए कुछ दिन तक वहीं सुखसे रहे आये ||१८|| कुछ दिन बाद कुमार वमुदेवने उन दोनों स्त्रियों के साथ शीघ्र ही शोयंपुर लोटने की इच्छा प्रकट की जिससे एणीपुत्रकी पूर्वं भत्रकी माँ वनवतो देवीने रत्नोंसे देदीप्यमान एक विमान रचकर उन्हें दे दिया || १९|| यह देख बालचन्द्राके पिता कांचनदंष्ट्र तथा वेगवतीके बड़े भाई मानसवेगने समस्त परिवार के साथ बालचन्द्रा और वेगवतीको कुमार के लिए सौंप दिया ||२०|| कुमार, दोनों स्त्रियोंको साथ ले इच्छानुसार चलनेवाले विमानके द्वारा अरिंजयपुर नगर गये और वहां जाकर विद्युद्वेगसे मिले ||२१|| वहाँसे प्रिया मदनवेगा और अनावृष्णि नामक उसके पुत्रको लेकर वे शीघ्र ही उसी विमानसे आकाशमें उड़ गये ||२२|| तदनन्तर शीघ्र ही लक्ष्मीसे समृद्ध गन्धसमृद्ध नामक नगरमें जाकर वे गान्धार राजाकी पुत्री प्रभावती से मिले ||२३|| तत्पश्चात् परिवार सहित उसे विमानमें बैठाकर महान् हर्षको प्राप्त होते हुए वे असितपर्वत नामक नगर में पहुँचे ||२४|| वहाँ राजा सिंहदंष्ट्र की पुत्री प्रिया नीलंयशासे मिले और बियोगके बाद मिली हुई उस नीलंयशाके साथ नाना प्रकारकी क्रोड़ा करने लगे ||२५|| तत्पश्चात् उसे साथ ले किन्नरोद्गीत नामक नगर पहुँचे और वहाँ नील कमलकी कलिकाओंके समान श्यामवर्णं श्यामा नामक स्त्रीको उन्होंने अच्छी तरह
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१. शीघ्रमागच्छेत्युक्त्वा विसर्जितः । २ सार्द्धं म । ३. या नागदेवता पूर्वं प्रोक्ता सैव वनवतीत्यपरनामधेया । ४. निरीक्ष्यत म. क. । ५. चित्तं प्रवियुक्तं समेतया म. 1
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हरिवंशपुराणे श्यामामादाय संप्राप्तः श्रावस्तीममयत्ततः । प्रियङ्गसुन्दरी शौरिस्तां च बन्धुमती प्रियाम् ॥२७॥ महापुरासमादाय सोमश्रियमसौ प्रियाम् । इलावर्धनतो निन्ये मान्या रस्नावती च ताम् ॥२८॥ नगरे मद्रिलाभिख्ये गृहीत्वा चारुहासिनीम् । पौण्इं संस्थाप्य तत्रैव गत्वा जयपुरं ततः ॥२९॥ अश्वसेनामुपादाय गत्वा शालगुहं पुरम् । पन्नावतीं समादाय वेदसामपुरं ययौ ॥३०॥ कपिलं तत्र पुत्रं स्वमभिषिच्य ततोऽपि च । गृहीत्वा कपिला प्रापदचलग्राममन च ॥३१॥ मित्रश्रियं प्रगृह्यागान्नगरं तिलवस्तुकम् । कन्यापञ्चशतं प्राही पुरं गिरितटं गतः ॥३२॥ ततः सोमश्रिया युक्तश्वम्पां प्राप महापुरीम् । अतोऽमात्यसुतां निन्ये सह गन्धर्वसेनया ॥३३॥ पुरे विजयखेटे च सूनुमकरदृष्टिकम् । दृष्ट्वा विजयसेना स निन्ये कुलपुरं ततः ॥३४॥ पद्मश्रियमुपादाय तथैवावन्तिसुन्दरीम् । सूरसेना सपुत्रां च जरा जीवद्यशोऽन्विताम् ॥३५॥ गृहीत्वान्याः स्वमार्याः स वसुदेवः ससंमदः । आययौ प्रमदं प्राप्तो विमानेनाशुगामिना ॥३६॥ आससाद विमानं तच्चारुसंगीतसंगतम् । आशु शौर्यपुरं सूर्यविमानमिव मास्वरम् ॥३०॥ ततो वनवती देवी समुद्रविजयं स्वयम् । प्राग दृष्टयावर्धयत्तुष्ट्या वसुदेवागमाप्तया ॥३८॥ कारयित्वा ततः पौरैः पुरशोभा नृपो मुदा । निर्ययो बन्धुमिः साद्धं तस्यामिमुखमादृतैः ॥३९॥ सोऽवतीर्य विमानाग्रादग्रजान् गुरुबान्धवान् । प्रणनाम प्रियायुक्तः प्रणतः प्रणयात् परैः ॥४०॥ देव्यः शिवादयो ननं सयोषं साश्रलोचनाः । तमाश्लिष्याशिषो भूयः खेऽविश्लेषफला ददुः ॥४१॥
सम्मानितयथायोगजनताजनितादरः । स रेमे रोहिणीशोऽस्मिन् बन्धुसिन्धुहितोदयः ॥४२॥ मनाया-प्रसन्न किया ।।२६।। तदनन्तर श्यामाको लेकर श्रावस्ती पहुंचे। वहांसे प्रियंगुसुन्दरी और बन्धुमतीको साथ ले महापुर गये । महापुरसे प्रिया सोमश्रीको लेकर इलावर्धनपुर पहुंचे। वहांसे माननीय रत्नावतीको लेकर भद्रिलपुर गये। वहाँसे चारुहासिनीको साथ लेकर तथा उसके पत्र पौण्डुको वहीं बसाकर जयपुर गये । वहाँसे अश्वसेनाको साथ ले शालगुह नगर पहुँचे। वहाँसे पद्मावतीको लेकर वेदसामपुर गये ॥२७-३०|| वहां अपने कपिल नामक पुत्रका राज्याभिषेक कर कपिलाको साथ ले अचलग्राम आये ॥३१॥ वहांसे मित्रश्रीको लेकर तिलवस्तु नगर गये वहां पांच सौ कन्याओंको ग्रहणकर गिरितट नगर पहुंचे ॥३२।। वहाँसे सोमश्रीको साथ ले चम्पापुरी पहुँचे । वहाँसे मन्त्रीकी पुत्री और गन्धर्वसेनाको साथ ले विजयखेट नगर गये । वहाँ अक्रूरदृष्टि नामक पुत्रसे मिल कर तथा विजयसेनाको साथ लेकर कुलपुर पहुंचे ॥३३-३४॥ वहाँसे पद्मश्री, अवन्तिसुन्दरी, पुत्र सहित सूरसेना, जरा, जीवद्यशा तथा अपनी अन्य स्त्रियोंको साथ ले हर्षित होते हुए शीघ्रगामी विमानसे वापस आये ॥३५-३६।। जो सुन्दर संगीतसे युक्त, तथा सूर्यके विमानके समान देदीप्यमान था ऐसा उनका वह विमान शीघ्र ही शौर्यपुर आ पहुँचा ॥३७॥
तदनन्तर वनवती देवीने स्वयं ही पहलेसे आकर वसुदेवके आगमनसे उत्पन्न हर्षसे राजा समुद्रविजयको वृद्धिंगत किया-वसुदेवके आगमनका समाचार सुनाकर प्रसन्न किया ॥३८॥ तत्पश्चात् राजा समुद्रविजय, प्रजाजनोंसे नगरकी शोभा कराकर बड़े हर्षसे आदरसे युक्त बन्धुजनोंके साथ कुमार वसुदेवको लेनेके लिए उनके सम्मुख गये ॥३९॥ वसुदेवने अपनी समस्त स्त्रियों सहित विमानसे उतरकर बड़े भाइयों तथा अन्य गुरुजनोंको प्रणाम किया तथा अन्य लोगोंने प्रेमपूर्वक वसुदेवको प्रणाम किया ॥४०॥ जिनके नेत्रोंमें हर्षके अश्रु भर रहे थे ऐसी शिवा आदि महारानियोंने स्त्रियों सहित नमस्कार करते हुए वसुदेवका आलिंगन कर आकाशकी ओर मुंह कर बार-बार यही आशीर्वाद दिया कि अब पुनः वियोग न हो ॥४१॥ कुमारने आगत जनताका यथायोग्य सम्मान किया और जनताने भी उनके प्रति आदरका भाव प्रकट किया। १. धनवती म.।
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४०३
द्वात्रिंशः सर्ग: समुद्रविजयं दृष्ट्वा वसुदेवं च देवता' । ययौ वनवतीप्रीता निजं स्थानं हितोथता ॥४३॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् लोकः शौर्य पुरोद्भवोऽपि च तदा शौर्यार्जितं निर्जित
क्ष्माभृच्चक्रमुदारचारुचरितं विद्याधरीवल्लभम् । देवाभं वसुदेवमाप्तविभवं दृष्ट्वातितुष्टोऽगदोद्
धर्मस्यैष जिनोदितस्य महिमा पूर्वार्जितस्येत्यसौ ॥४॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती सकलबन्धुवधूसमागमवर्णनो
नाम द्वात्रिंशः सर्गः ॥३२॥ समाप्तं चेदं विद्याधरकाण्डम्
तदनन्तर जिनका उदय, बन्धरूपी सागरके लिए हितकारी था ऐसे रोहिणीश-कुमार वसुदेव ( पक्षमें चन्द्रमा ) शौर्यपुरमें रहते हुए क्रीड़ा करने लगे ॥४२॥ सदा हित करनेमें उद्यत रहनेवाली वनवती देवी समुद्रविजय और वसुदेवको देखकर बहुत प्रसन्न हुई और अन्तमें उनसे पूछकर अपने स्थानको चली गयी ॥४३॥ जो शूर वीरतासे बलिष्ठ थे, जिन्होंने राजाओंके समूहको जीत लिया था, जो उदार एवं सुन्दर चरित्रसे युक्त थे, विद्याधरियोंके स्वामी थे, देवतुल्य थे, और महान् वैभवको प्राप्त थे ऐसे वसुदेवको देखकर उस समय शौर्यपुरके लोग अत्यन्त सन्तुष्ट हो यही कहते थे कि यह पूर्पोपार्जित जैनधर्मकी ही महिमा है ॥४४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें समस्त माइयों और वियों के समागमका वर्णन करनेवाला बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।।३।।
विद्याधर काण्ड समाप्त
१. वसुदेवः पक्षे चन्द्रः । २. वेगवती ग., क., ङ. ।
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त्रयस्त्रिंशः सर्गः
अथ स प्रार्थितः प्राज्यैः पार्थिवः पार्थिवात्मजैः । शस्त्रोपदेशमातन्वन्नास्ते सूर्यपुरे यदुः ॥ १ ॥ *जातु कंसादिभिः शिष्यैर्धनुर्वेदविचक्षणैः । गतो राजगृहं शौरिर्जरासन्धदिदृक्षया ॥२॥ अश्रौषीद् घोषणां राज्ञः पुरे राजकराजिते । सावधानस्य लोकस्य समाकर्णयतस्तदा ॥३॥ यः सिंहरथमुवृत्तं तं सिंहपुरवासिनम् । सत्यसिंहरथारूढमारूढपुरुपौरुषम् ॥४॥ जीवग्राहं गृहीत्वासौ दर्शयिष्यति मेऽग्रतः । स एव पुरुषो लोके शूरः शूरतरोऽपि च ॥५॥ तस्य मानधनस्यान्ते पीतशत्रुयशोऽम्बुधेः । आनुषङ्गिक मध्ये तत्फल मन्य सुदुर्लभम् ॥ ६ ॥ जीवद्यशसमाशान्तविश्रान्तयशसं गुणैः । सुतामीप्सितदेशेन सह दास्यामि सुन्दरीम् ॥७॥ श्रुत्वा तां घोषणां श्रव्यां वीरैकरसभावितः । कंसेनाग्रायद्वीरः पताकां यदुनन्दनः ॥८॥ arita समारुह्य विद्यासिंहमयं रथम् । सिंहश्रृङ्खलमच्छेत्सीत् शरैस्ते हरयोऽप्यगुः ॥९॥ शत्रुमुत्प्लुत्य कंसस्तं बबन्ध गुरुशासनात् । दृष्ट्वा कंसस्य कौशल्यं वसुदेवो जगौ तकम् ॥१०॥
अथानन्तर राजा वसुदेव, श्रेष्ठ राजपुत्रों द्वारा प्रार्थित होनेपर उन्हें शस्त्र विद्याका उपदेश देते हुए सूर्यपुरमें रहने लगे || १|| किसी दिन कुमार वसुदेव, धनुर्विद्यामें प्रवीण अपने कंस आदि शिष्यों के साथ, राजा जरासन्धको देखने की इच्छासे राजगृह नगर गये ||२|| उस समय वह राजगृह नगर बाहर से आये हुए अनेक राजाओंके समूहसे शोभित था । उसी समय वहां सावधान होकर श्रवण करनेवाले लोगोंके लिए राजा जरासन्धकी ओरसे निम्नांकित घोषणा दी गयी थी जिसे वसुदेवने भी 'सुना ||३|| घोषणा में कहा गया था कि "सिंहपुरका स्वामी राजा सिंहरथ बड़ा उद्दण्ड है, वह वास्तविक सिंहोंके रथपर सवारी करता है और उत्कट पराक्रमका धारक है । जो मनुष्य उसे जीवित पकड़कर हमारे सामने दिखावेगा वही पुरुष संसार में शूर और अतिशय शूरवीर समझा जावेगा ||४ - ५ || शत्रुके यशरूपी सागरको पीनेवाले उस पुरुषको सम्मानरूपी धन तो समर्पित किया ही जावेगा उसके बाद यह अन्य जन दुर्लभ आनुषंगिक फल भी प्राप्त होगा ||६|| गुणों के कारण जिसका यश दिशाओंके अन्तमें विश्राम कर रहा है तथा जो अद्वितीय सुन्दरी है ऐसी अपनी जीवद्यशा नामकी पुत्री भी मैं उसे इच्छित देशके साथ दूँगा” ||७||
उस हृदयहारी घोषणाको सुनकर वीर-रसमें पगे हुए धीर-वीर वसुदेवने कंससे पताका ग्रहण करवायी । भावार्थ- वसुदेवने प्रेरित कर कंससे, सिंहरथको पकड़नेकी प्रतिज्ञास्वरूप पताका उठवायी ||८|| तदनन्तर वसुदेव, कंसको साथ ले विद्यानिर्मित सिंहों के रथपर सवार हो सिंहपुर गये। जब सिंहरथ, सिंहोंके रथपर बैठकर युद्धके लिए वसुदेवके सामने आया तब उन्होंने बाणोके द्वारा उसके सिंहोंकी रास काट डाली जिससे उसके सिंह भाग गये ||९|| उसी समय कंसने गुरुकी आज्ञासे उछलकर शत्रुको बाँध लिया । कंसकी चतुराई देख वसुदेवने उससे कहा
१. पार्थिवैः म । २. शास्त्रोपदेश - म । ३. राजकेन - राजसमूहेन राजिते - शोभिते । ४. समाकर्ण्य यतस्तदा
म. ।५ - माक्रान्तम ।
* म पुस्तके प्रथमश्लोकादनन्तरं निम्नाङ्कितः पलोको दृश्यते-
दृष्ट्वा कंसस्य कौशल्यं वसुदेवो जगी तकम् । वरं वृणीष्व तेनोक्तं तिष्ठत्वार्य तवान्तिकम् ॥२॥
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त्रयस्त्रिंशः सर्गः वरं वृणीष्व तेनोक्तं तिष्ठाचार्य तवौकसि' । दर्शितो वसुदेवेन जरासन्धाय सोऽप्यरिः ॥११॥ दृष्ट्वा च तेन तुष्टेन सुतोपनयनं प्रति । वसुदेवः समादिष्टः कंसेनारग्रहं जगौ ॥१२॥ पृष्टः कसो नृपेणाख्यत् स्वजातिमिति भूपते । मम मञ्जोदरी माता कौशाम्ब्यां सीधुकारिणी ॥१३॥ कंसवाक्यमिति श्रस्वा ततो राजेत्यचिन्तयत् । आकृतिः कथयत्यस्य नायं सीधुकरीसुतः ॥१४॥ आनीनयन्नृपं मक्ष कौशाम्ब्यास्तां निजैस्ततः । प्राप्ता मञ्जोदरी त्वात्तमंजूषानाममुद्रिका ॥१५॥ पृष्टा पूर्वापरं राज्ञा व्यजिज्ञपदिति प्रभो । यमुनायाः प्रवाहेऽयं लब्धो मंजूषया सह ॥१६॥ संवद्धितः शिशू राजन् मया कारुण्ययुक्तया । उपालम्भसहस्राणां भूयो माजनभूतयाँ ॥१७॥ स्वभावाच्चण्डतुण्डोऽयमर्मकान् दुर्भगोऽर्मकः । रमयन्न शिरस्ताडाविना क्रीडति पुण्यवान् ॥१॥ गृहं सीधु गृहीत्यर्थ वेश्यानां बालिकाः श्रिताः। पाणिनाऽऽकृष्य वेणीस्ताः सुखलीकृत्य मुञ्चति ॥१९॥ लोकोपालम्मतो भीत्या मयकायं निराकृतः । कृतवान् शस्त्रशिक्षार्थी शिष्यतां किल कस्यचित् ॥२०॥ कंसमाषिका ह्येषा माता तिष्ठति नाहकम् । तदगुणरस्य दोषैर्वा न स्पृश्ये स्पृश्यतामियम् ॥२१॥ इत्युक्ते देर्शितायां च तया तस्यां व्यलोकत । तन्नाममुद्रिका राजा ततो वाचयति स्म सः ॥२२॥ गर्भस्थोऽपि सुतोऽत्युग्रः पद्मावत्युग्रसेनयोः । जीवताद्वरमात्मीयैः कर्मभिः कृतरक्षणः ॥२३॥
वाचयित्वेति विज्ञाय राजा स्वस्रीयमात्मनः । हृष्टः कन्यां ददौ तस्मै संपन्नगुणसंपदाम् ॥२४॥ कि वर मांग। कंसने उत्तर दिया कि हे आर्य ! अभी वर आपके ही घर रहने दीजिए। वसुदेवने शत्रको ले जाकर जरासन्धको दिखा दिया ॥१०-११॥ शत्रको सामने देख जरासन्ध सन्तुष्ट हआ और वसुदेवसे बोला कि तुम पुत्री जीवद्यशाके साथ विवाह करो। इसके उत्तर में वसुदेवने कह दिया कि शत्रुको कंसने पकड़ा है मैंने नहीं ॥१२॥ राजा जरासन्धने जब कंससे उसकी जाति पूछी तब उसने कहा कि हे राजन् ! मेरी माता मंजोदरी कौशाम्बी में रहती है और मदिरा बनानेका काम करती है ।।१३।। तदनन्तर कंसके वचन सुनकर राजा इस प्रकार विचार करने लगा कि इसको आकृति कहती है कि यह मदिरा बनानेवालीका पुत्र नहीं है॥१४॥ तत्पश्चात् राजा जरासन्धने अपने आदमी भेजकर शीघ्र ही कौशाम्बीसे मंजोदरीको बलाया और मंजोदरी मंजषा तथा नामकी मुद्रिका लेकर वहां आ पहुंची ।।१५।। राजाने उससे पूर्वापर कारण पूछा तो वह कहने लगी कि हे प्रभो ! मैंने यमुनाके प्रवाहमें इसे मंजूषाके साथ पाया था ॥१६॥ हे राजन्, इस शिशुको देखकर मुझे दया आ गयी अतः पीछे चलकर हजारों उपालम्भोंका पात्र बनकर भी मैंने इसका पालन-पोषण किया ।।१७। यह बालक स्वभावसे ही उग्रमुख है-कठोर शब्द बकनेवाला है। यद्यपि यह पुण्यवान् है तो भी अभागा जान पड़ता है। यह बच्चोंके साथ खेलता था तो उनके शिरमें थप्पड़ लगाये बिना नहीं खेलता था। मदिरा खरीदनेके लिए घरपर वेश्याओंकी लड़कियां आती थीं तो हाथसे उनकी चोटियां खींचकर तथा उन्हें तंग करके ही छोड़ता था ॥१८-१९|| इसकी इस दुष्प्रवृत्तिसे मेरे पास लोगोंके उलाहने आने लगे जिनसे डरकर मैंने इसे निकाल दिया। यह शस्त्र विद्या सीखना चाहता था इसलिए किसोका शिष्य बन गया ॥२०॥ यह कांसको मंजूषा ही इसकी माता है मैं नहीं हूँ ,अतः इसके गुण अथवा दोषोंसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। लीजिए यह मंजूषा है-यह कहकर उसने साथ लायो हुई मंजूषा राजाको दिखा दो। जब मंजूषा खोली गयो तो उसमें उसके नामकी मुद्रिका दिखी। राजा-जरासन्ध उसे लेकर बाँचने लगा ॥२१-२२॥ उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावतीका पुत्र है। जब यह गर्भमें स्थित था तभीसे अत्यन्त उग्र था। इसकी उग्रतासे भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है, यह जीवित रहे तथा इसके अपने कर्म ही इसकी रक्षा करें ॥२३॥ मुद्रिकाको बांचकर राजा जरासन्ध समझ गया कि यह हमारा भानजा है अतः उसने हर्षित होकर उसे १. तवान्ति के म., ख. । २-३. रंजोदरो म. । ४. भीतया म. । ५. सोधुनो मद्यस्य गृहीतिस्तदर्थम् ।
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हरिवंशपुराणे
सद्योजातं पिता न मुक्तवानिति स क्रुधा । वरीत्वा मधुरां लब्ध्वा सर्वसाधनसंगतः ॥२५॥ कंसः कालिन्दसेनाया सुतया सह निर्घृणः । गत्वा युद्धे विनिर्जित्य बबन्ध पितरं व्रतम् ॥ २६ ॥ महोग्रो भग्नसंचारमुग्रसेनं निगृह्य सः । अतिष्ठिपत् कनिष्ठाशः स्वपुरद्वारगोचरे ||२७|| वसुदेवोपकारेण हृतः प्रत्युपकारधीः । न वेत्ति किं करोमीति किंकरत्वमुपागतः ||२८|| अभ्यर्थ्य गुरुमानीय मथुरां पृथुभक्तितः । स्वसारं प्रददौ तस्मै देवकीं गुरुदक्षिणाम् ॥ २९|| आस्ते कंसोपरोधेन मथुरायां ततो यदुः । प्रदीव्य दिव्यदीप्त्यासौ देवक्या हारिवाक्यया ||३०|| सूरसेनमहाराष्ट्रराजधानीं द्विषंतपः । शशास मथुरां कंसो जरासन्धातिवल्लभः ||३१|| जातुचिन्मुनि वेलायामतिमुक्तकमागतम् । कंसज्येष्ठं मुनिं नवा पुरः स्थित्वा सविभ्रमम् ||३२|| सन्ती नर्मभावेन जगौ जीवद्यशा इति । आनन्दवखमेतत्ते देवक्याः स्वसुरीक्ष्यताम् ॥३३॥ तस्या निर्बन्धचित्ताया प्रमत्ताया निवृत्तये । वचोगुप्तिमसौ भित्त्वा संसारस्थितिविजगौ ॥ ३४ ॥ अहो क्रीडनशीलायास्तवेयमतिमूढता । शोकस्थाने प्रपन्नासि यदानन्दमनन्दिनि ॥ ३५ ॥ मविता यो हि देवक्या गर्भेऽवश्यमसौ शिशुः । पत्युः पितुश्च ते मृत्युरितीयं भवितव्यता ॥३६॥ ततो मीतमतिर्मुक्त्वा मुनिं साश्रुनिरीक्षणा । गत्वा न्यवेदयत्पत्ये सत्यं हि यतिभाषितम् ॥३७॥
४०६
गुणरूपी सम्पदा से सम्पन्न अपनी जीवद्यशा पुत्री दे दी ||२४|| पिताने मुझे उत्पन्न होते ही नदी में छोड़ दिया था । यह जानकर कंसको बड़ा क्रोध आया इसलिए उसने जरासन्धसे मथुराका राज्य मांगा और जरासन्धने दे भी दिया । उसे पाकर सब प्रकारकी सेनासे युक्त कंस जीवद्यशा के साथ मथुरा गया। वह निर्दय तो था ही इसलिए वहां जाकर उसने पिता उग्रसेनके साथ युद्ध ठान दिया तथा युद्धमें उन्हें जीतकर शीघ्र ही बांध लिया ।। २५-२६ ।। तत्पश्चात् जो प्रकृतिका अत्यन्त उग्र था और जिसकी आशाएँ अत्यन्त क्षुद्र थीं ऐसे उस कंसने अपने पिता राजा उग्रसेनका इधर-उधर जाना बन्द कर उन्हें नगर के मुख्य द्वारके ऊपर कैद कर दिया ||२७||
वसुदेवके उपकारका आभारी होनेसे कंस उनका प्रत्युपकार तो करना चाहता था पर यह नहीं निर्णय कर पाता था कि मैं इनका क्या प्रत्युपकार करूँ। वह सदा अपने-आपको वसुदेवका किंकर समझता था ||२८|| एक दिन वह प्रार्थनापूर्वक बड़ी भक्तिसे गुरु वसुदेवको मथुरा ले आया और वहाँ लाकर उसने उन्हें गुरु-दक्षिणास्वरूप अपनी देवकी नामक बहन प्रदान कर दी ||२९|| तदनन्तर वसुदेव, कंसके आग्रहसे, सुन्दर कान्तिकी धारक एवं मधुर वचन बोलनेवाली देवकी के साथ क्रीड़ा करते हुए मथुरामें ही रहने लगे ||३०|| शत्रुओंको सन्तप्त करनेवाला एवं जरासन्धको अतिशय प्रिय कंस, शूरसेन नामक विशाल देशकी राजधानी मथुराका शासन करने लगा ||३१॥ एक दिन कंसके बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि आहारके समय राजमन्दिर आये सो कंसकी स्त्री जीवद्यशा नमस्कार कर विभ्रम दिखाती हुई उनके सामने खड़ी हो गयी और हँसती हुई क्रीड़ा भावसे कहने लगी कि यह आपकी बहन देवकीका आनन्द वस्त्र है इसे देखिए ।। ३२-३३॥ संसारकी स्थितिको जाननेवाले मुनिराज, उस निर्मंर्याद चित्तकी धारक एवं राज्यवैभवसे मत्त जीवद्याको रोकने के लिए अपनी वचनगुप्ति तोड़कर बोले कि अहो ! तू हँसी कर रही है परन्तु यह तेरी बड़ी मूर्खता है। तू दुःखदायक शोकके स्थान में भी आनन्द प्राप्त कर रही है ।। ३४-३५ ।। तू वह निश्चित समझ, कि इस देवकी के गर्भसे जो पुत्र होगा वह तेरे पति और पिताको मारनेवाला होगा। यह ऐसी ही होनहार है-इसे कोई टाल नहीं सकता ||३६||
यह सुनते हो जीवद्यशा भयभीत हो उठी, उसके नेत्रोंसे आँसू निकलने लगे। वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पतिके पास गयो और 'मुनिके वचन सत्य ही निकलते हैं' यह विश्वास १. रीक्षताम् क., ग.
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त्रयस्त्रिशः सर्गः
४०७
श्रुत्वा कंसोऽपि शङ्कावानाशु गत्वा पदानतः । वसुदेवं वरं वने तीव्रधीः सत्यवाग्व्रतम् ॥३८॥ स्वामिन् ! वरप्रसादो मे दातव्यो भवता ध्रुवम् । प्रसूतिसमये वासो देवक्या मद्गृहेऽस्त्विति ॥३९॥ सोऽप्यविज्ञातवृत्तान्तो दत्तवान् वरमस्तधीः । नापायः शक्यते कश्चिस्सोदरस्य गृहे स्वसुः ॥४०॥ पश्चाद्विदितवृत्तान्तः पश्चात्तापहतान्तरः । सहकारवनान्तस्थमतिमुक्तकमासवान् ॥४॥ देवक्या सह वन्दित्वा चारणश्रमणं स तम् । दत्ताशिषमुपासृत्य पप्रच्छ मनसि स्थितम् ॥४२॥ भगवन्नन कंसोऽयं कृतेनान्यत्र जन्मनि । पितुरेव रिपुर्जातः कर्मणा केन दुर्मतिः ॥१३॥ कथं वा मम पुत्रोऽस्य कंसस्य मविता विभो । हिंसकः पापचित्तस्य वद वाञ्छामि वेदितुम् ॥४४॥ इति पृष्टो मुनिः प्राह स दीप्तावधिलोचनः । संशयच्छेदिनी यस्मात्प्रवृत्तिर्दिव्यचक्षुषः ॥४५॥ आकर्णयस्व देवानांप्रिय ! सर्वजनप्रियः । कथयामि यथाप्रश्न वस्तु जिज्ञासितं नृप ॥४६॥ मथुरायामिहैवासीदुनसेने तु राजनि । प्राक् पञ्चाग्नितपोनिष्ठो वशिष्ठो नाम तापसः ॥४७॥ एकपादस्थितश्चासावूर्वबाहुबूंहजटः । यमुनायास्तटे सोऽज्ञः तपस्तपति तापसः ॥४८॥
जमाकर उसने सब समाचार कह सुनाया ॥३७।। स्त्रीके मुखसे यह समाचार सुनकर कंसको भी शंका हो गयी। वह तीक्ष्ण बुद्धिका धारक तो था ही इसलिए शीघ्र ही उपाय सोचकर सत्यवादी वसुदेवके पास गया और चरणोंमें नम्रीभूत होकर वर मांगने लगा ॥३८|| उसने कहा कि हे स्वामिन् ! मेरा जो वर आपके पास धरोहर है उसे दे दीजिए और वह वर यही चाहता हूँ कि 'प्रसूतिके समय देवकीका निवास मेरे हो घरमें रहा करे' ॥३९।। वसुदेवको इस वृत्तान्तका कुछ भी ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने निर्बुद्धि होकर कंसके लिए वह वर दे दिया। भाईके घर बहनको कोई आपत्ति आ सकती है यह शंका भी तो नहीं की जा सकती? ॥४०॥ पीछे जब उन्हें इस वृत्तान्तका पता चला तो उनका हृदय पश्चात्तापसे बहुत दुःखी हुआ। वे उसी समय आम्रवनके मध्यमें स्थित चारण ऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराजके पास गये और देवकीके साथ प्रणाम कर समीपमें बैठ गये। मुनिराजने दोनोंको आशीर्वाद दिया। तदनन्तर वसुदेवने उनसे अपने हृदयमें स्थित निम्नांकित प्रश्न पूछा ॥४१-४२।।
हे भगवन् ! कंसने अन्य जन्ममें ऐसा कौन-सा कम किया कि जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिताका ही शत्रु हुआ। इसी प्रकार हे नाथ ! मेरा पुत्र इस पापी कंसका विघात करनेवाला कैसे होगा ?—यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए ॥४३॥ अतिमुक्तक मुनिराज देदीप्यमान अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे और अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्रके धारक पुरुषोंकी वाणी चूंकि संशयको नष्ट करनेवाली होती है इसलिए कुमार वसुदेवके पूछनेपर मुनिराज कहने लगे ॥४४॥
हे देवोंके प्रिय ! राजन् ! सुन, तेरा प्रश्न सब लोगोंके लिए प्रिय है इसलिए मैं तेरे प्रश्नके अनुसार तेरी जिज्ञासित वस्तुको कहता हूँ॥४५।। इसी मथुरा नगरीमें जब राजा उग्रसेन राज्य करता था तब पहले पंचाग्नि तप तपनेवाला एक वशिष्ठ नामक तापस रहता था ॥४६॥ वह अज्ञानी यमुना नदीके किनारे तप तपता था, एक पावसे खड़ा रहता था, ऊपरको ओर भुजा उठाये रहता था और बड़ी-बड़ी जटाओंको धारण करता था ॥४७॥ वहांपर लोगोंको पनिहारिनें पानीके लिए आती थीं। एक दिन जिनदास सेठकी प्रियंगुलतिका नामकी पनिहारिन भी वहाँ आयो। हितको बुद्धि रखनेवाली अन्य पनिहारिनोंने प्रियंगुलतिकासे कहा कि हे प्रियंगुलतिके ! १. अत्र क. ग. ङ. पुस्तकेषु एवंविधः पाठः-'पश्चाद्विदितवृत्तान्तः पश्चात्तापहतान्तरः। देवकी रुदमानासो निजनाथं जगाद सा ॥४१॥ बहवो नन्दनास्तेऽस्मिन् किं करिष्याम्यहं पुनः। तच्छ त्वा स बनान्तस्थमतिमुक्तकमाप्तवान् ॥४२॥'
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हरिवंशपुराणे जलाथं तत्र लोकानां घटदासीभिः सा तथा । भणिता जिनदासस्य चेटिकाहितबुद्धिभिः ॥४९॥
तेके स्वस्य प्रणामं कुरु सत्वरम् । सा चावादीन्न मे भक्तिरस्योपरि करोमि किम् ॥५०॥ ततो हठान्नामितामिः' सा जगौ धीवरस्य हे। पातिताहं पदद्वन्द्वेश्रवणा । मूढधीः ॥५॥ गतो राजसमीपेऽसौ जगावाक्रोशितोऽप्यहम् । श्रेष्ठिना जिनदत्तेन मो प्रमो कारणं विना ॥५२॥ राज्ञा ह्यानाय पृष्टोऽसौ जिनदत्तो बमाण तम् । अस्य मे दर्शनं नास्ति किं शाप्यमब्रवीन्मनिः ॥५३॥ शापितश्चास्य दास्याहं पृष्टाचानाय्य तेन सा । कथं न नमसे पापे मुनि निन्दयसि क्रुधा ॥५४॥ तयोक्तंन मुनिस्वेष धीवरोऽस्ति प्रभो कुधीः । जटाभारस्य नो अस्य शुद्धिः कुत्रापि दृश्यते ॥५५।। शोधिते बहयो मत्स्याः सूक्ष्मास्तेभ्यश्च निर्गताः । लजितो हसितो लोकैम॒षावादी स्वसौ मुनिः ॥५६॥ यदा स परीक्षितो राज्ञा तदा कोपं विधाय सः । प्रकाशित निजाज्ञानो मथुरायां विनिर्गतः ॥५७।। वाराणसी समासाद्य समासादितनिश्चयः । गत्वा बाह्यं च गङ्गायाः संगमे कुरुते तपः ।।५८॥ वीरभद्रगुरुश्चागात् सपञ्चशतशिष्यकः । तद्देशं तत्र चैकेन नवप्रव जितेन सः ॥५॥ प्रशंसितो वशिष्ठोऽयमहो घोरतपा इति । वारितः स तपः कीदृगज्ञानस्येति सूरिणा ॥६॥ वशिष्ठेन किमज्ञोऽहमित्युक्तो गुरुरब्रवीत् । त्वं षड्जीवनिकायानां पीडनादज्ञ इत्यसौ ॥६१।।
पञ्चाग्नितपसि प्रायो नियोगो दहनस्य हि । दह्यन्ते तेन चावश्यं पञ्चै कविकलेन्द्रियाः ॥१२॥ तू शीघ्र ही इस साधुको नमस्कार कर। उत्तरमें प्रियंगुलतिकाने कहा कि इसके ऊपर मेरी भक्ति बिलकुल नहीं है। मैं क्या करूं? ॥४८-४९॥ तदनन्तर अन्य पनिहारिनोंने प्रियंगुलतिकाको जबरदस्ती उस साधुके चरणोंमें नमा दिया । प्रियंगुलतिकाने रुष्ट होकर कहा कि अहो ! तुम लोगोंने मुझे धीवरके चरणों में गिरा दिया। प्रियंगुलतिकाके उक्त वचन सुनते ही मूर्ख साधु कुपित हो उठा ॥५७-५१॥ वह सीधा राजा उग्रसेनके पास गया और कहने लगा कि हे प्रभो ! जिनदत्त सेठने मुझे बिना कारण ही गाली दी है ॥५२॥ राजाने जिनदत्त सेठको बुलाकर पूछा ता उसने कहा कि नाथ ! मैंने तो इसे देखा भी नहीं है फिर गाली तो दूर रही है। इसके उत्तर में साधुने कहा कि इसकी दासीने गाली दी है। राजाने दासीको बुलाकर क्रोध दिखाते हुए पूछा कि अरी पापिन ! तू इस साधुको नमस्कार क्यों नहीं करती? उलटी निन्दा करती है ? ॥५३-५४॥
दासीने कहा कि प्रभो ! यह साधु नहीं है यह तो मूर्ख धीवर है। इसकी जटाओंमें कहीं भी शुद्धता नहीं दिखाई देती ॥५५।। साधुको जटाएं शोधी गयीं तो उनसे बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियां निकल पड़ीं। इससे साधु बहुत लज्जित हुआ और यह 'असत्यवादी है' यह कहकर लोगोंने उसकी बहुत हँसी उड़ायी ।।५६|| जब राजाने उसकी परीक्षा ली तो वह क्रोध कर अपना अज्ञान प्रकट करता हुआ मथुरासे बाहर चला गया ॥५७॥ और बनारस जाकर वहाँ रहनेका उसने निश्चय कर लिया। अब वह बनारसके बाहर जाकर गंगाके किनारे तप करने लगा|॥५८।। किसी एक दिन वहां अपने पांच सौ शिष्यों के साथ वीरभद्र मुनिराज आये। उनके संघके एक नवदीक्षित मुनिने वशिष्ठकी तपस्या देख, 'अहा! यह घोर तपस्वी वशिष्ठ है' इस प्रकार उसकी प्रशंसा की। अरे अज्ञानीका तप कैसा ?' यह कहते हुए आचार्यने उस नवदीक्षित मुनिको प्रशंसा करनेसे रोका ।।५९-६०॥ वशिष्ठने पूछा कि 'मैं अज्ञानी कैसे हूँ ?' इसके उत्तरमें आचार्यने कहा कि तम छह कायके जीवीको पीड़ा पहुंचाते हो इसलिए अज्ञानी हो ॥६॥ पंचाग्नि तपमें अग्निका संसर्ग अवश्य रहता है और उस अग्निके द्वारा पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय १. नामिता आभिः । २. श्रवणाददुष्टो क., ग.। ३. प्रभोऽहं कारणाद्विना म. । ४. राज्ञानाय्य म. 1 ५. ख. पुस्तक एकोनपञ्चाशत्तमात षट्पञ्चाशत्तमपर्यन्ताः श्लोका न सन्ति । तत्स्थाने निम्नाङ्गितः पाठोऽधिको वर्तते-'श्रेष्ठिनो जिनदत्तस्य भृत्ययाज्ञान इत्यसो। हेतोः कुतोऽप्यधिक्षिप्तः प्रियङ गुलतिकाख्यया ॥ क्रुद्धो राजानमद्राक्षोद राज्ञा चापि परीक्षितः ॥ ६ बाह्यश्च म., ग.।
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पृथिव्यप्तेजसा वायोः प्राणिनां च वनस्पतेः । प्रघाते ज्ञानहीनस्य कुतः स्यात् प्राणिसंयमः ॥१३॥ विरागस्यापि मिथ्याद्गज्ञानचारित्रमानिनः । संज्ञानपूर्वको जन्तोः कुतश्चेन्द्रियसंयमः ॥६॥ केवलं कायसंतापं भजमानस्य मानिनः । सम्यकसंयमहीनस्य तापस्य मुक्तये कुतः ॥१५॥ जैन एव हि सन्मार्ग संयमस्तप एव च । दर्शनं चापि चारित्रं ज्ञानं चाशेषभासनम् ॥६६॥ अवेहि तापसात्मीयं पितरं व्यालतां गतम् । ज्वालाधूमावलीव्याप्ते दह्यमानमिहेन्धने ॥६॥ इत्युक्ते तापसः काष्टं कुठारेण विपाट्य सः । ददर्श दंदशूकं तं दह्यमानं तदाकुलम् ॥६८॥ कृततापसधर्मस्य ब्रह्मास्यस्वपितुर्गतिम् । कुत्सितामवगम्यासावज्ञत्वं चापि चास्मनः ॥६९॥ ज्ञात्वा च जैनधर्मस्य ज्ञानपूर्वकता तथा । वीरभद्रगुरोरन्ते 'वशिष्ठोऽधिष्ठितस्तपः ॥७॥ एको लाभान्तरायस्य कर्मणः परिपाकतः । तपस्यतामभूत् साधुः स मिक्षालब्धिवजितः ॥७॥ स पर्युपासनातोरागमागमनाय च । शिवगुप्तयतेर्यत्नात् गरुणापि समर्पितः॥७२॥ संतप्तं च स षण्मासान् वीरदत्ते न्ययोजयत् । तथा सोऽपि सुमत्याख्ये षण्मासान् सोऽप्यपालयत् ॥७३॥ यतिधर्मविधानज्ञः परीषहसहस्ततः । बभूवैकविहारी स वशिष्ठो विदितः क्षिती॥७॥ मथुरायामथ संप्राप्तो विहरन् स महातपाः । पूज्यते च प्रजापालप्रजामिर्गुरुवत्तया ॥७५॥
जीव अवश्य जलते हैं ॥६२॥ पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरों तथा अन्य त्रस प्राणियोका विघात होनेसे अज्ञानी जीवके प्राणिसंयम कैसे हो सकता है॥६३॥ इसी प्रकार जो विरक्त होकर भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको माननेवालाले उसके सम्यग्ज्ञानपूर्वक होनेवाला इन्द्रिय संयम भी कैसे हो सकता है ? ॥६४॥ जो केवल कायक्लेश तपको प्राप्त है, मानसे भरा हुआ है और समीचीन संयमसे रहित है उसकी तपस्या मुक्तिके लिए कैसे हो सकती है ? ॥६५।। एक जैन मार्ग हो सन्मार्ग है, उसी में संयम, तप, दर्शन, चारित्र और समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान प्राप्त हो सकता है ॥६६॥ हे तापस ! तुम जानते हो तुम्हारा पिता मरकर साँप हुआ है और ज्वालाओं तथा धूमकी पंक्तिसे व्याप्त इसी इंधनमें जल रहा है ॥६७॥ आचार्यके इस प्रकार कहनेपर तापसने कुल्हाड़ासे उस काष्ठको चीरकर देखा तो उसके अन्दर सांप जलता हुआ छटपटा रहा था ॥६८॥ तदनन्तर आचार्यने फिर कहा कि तेरे पिताका नाम ब्रह्मा था और वह तेरे ही समान तापसके धर्मका पालन करता था। उसीसे उसकी यह कुगति हुई है । आचार्यके मुखसे यह सब जानकर वशिष्ठ तापसको जान पड़ा कि मैं अज्ञानी हैं और जैनधर्म सम्यग्ज्ञानसे परिपूर्ण है । अतः उसने उन्हीं वीरभद्र गुरुके पास जैन दीक्षा धारण कर ली ॥६९-७०।। उनके साथ अनेक मुनि तपस्या करते थे परन्तु लाभान्तराय कर्मके उदयसे उन सबमें एक वशिष्ठ मुनि ही भिक्षाके लाभसे वजित रह जाते थे अर्थात् उन्हें भिक्षाकी प्राप्ति बहुत कम होती थी ॥७१।। तदनन्तर वीरभद्र गुरुने सेवाके निमित्त और आगमका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करनेके लिए वशिष्ठ मुनिको यत्नपूर्वक शिवगुप्त यतिको सौंप दिया ॥७२।। छह महीने तक तप करनेके बाद शिवगुप्त यतिने वशिष्ठ मुनिको वीरदत्त नामक मुनिराजके लिए सौंप दिया। वीरदत्त मुनिने भी छह माह अपने पास रखकर उन्हें सुमति नामक मुनिके लिए सौंप दिया और सुमति मुनिने भी छह माह तक उनका अच्छी तरह पालन किया ||७३।। तदनन्तर अनेक गुरुओंके पास रहनेसे जो मुनि-धर्मको विधिको अच्छी तरह जानने लगे थे और परीषह सहन करनेका जिन्हें अच्छा अभ्यास हो गया था ऐसे वशिष्ठ मुनि पृथिवीपर प्रसिद्ध एकविहारी हो गये-अकेले ही विचरण करने लगे ||७४||
___अथानन्तर महातपस्वी वशिष्ठ मुनि कदाचित् विहार करते हुए मथुरा आये सो राजा १. वशिष्ठः तपोऽधिष्ठितवान् इत्यर्थः । २. तपः कुर्वतामन्येषां मध्ये । तपस्यन्समभूत् साधुः क. ।
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हरिवंशपुराणे
तापनयोगं तं मुदा पर्वतमस्तके | सप्तैत्योचुस्तपोवश्याः किं कुर्मस्तेऽथ देवताः ॥ ७६ ॥ कर्तव्यं मम नास्तीति स निषिध्य तपोधनः । व्यसर्जयद्धि तद्वश्या गताश्च वनदेवताः ॥७७॥ मासोपवासिने तस्मै निःस्पृहाय तपस्विने । पारणास्ववदानाय स्पृहयन्त्यखिलाः प्रजाः ॥७८॥ उग्रसेनोऽन्यदा दातु पारणां तमयाचत । न्यवारयत्तदा दातृन् मथुरावासिनोऽखिलान् ॥७९॥ पारणासु नृपस्तस्य विसस्मार तिसृष्वपि । दूताग्निद्विरदक्षो भव्यासंगेन प्रमादवान् ॥८०॥ अटित्वा मधुरां सर्वामलाभे श्रमपीडितः । श्रमणोऽन्ते विशश्राम नगरद्वारि सोऽन्यदा ॥ ८१ ॥
तं दृष्ट्वा 'केनचित्प्रोक्तं हा कष्टं भूभृता कृतम् । मिक्षां स्वयं न दत्तोऽस्मै परानपि निषिद्धवान् ॥८२॥ तदाकर्ण्य रुषा तेन ध्यातास्ताः पूर्वदेवताः । कार्यं कुर्यात मेऽन्यस्मिन् जन्मनीति विनिर्ययौ ॥ ८३ ॥ निकारायोग्रसेनस्य प्रकृतोप्रनिदानतः । स मिथ्यात्वमितो मृत्वा पद्मावत्युदरेऽवसत् ॥ ८४ ॥ तस्मिन् गर्मस्थिते देवीमेकान्ते कृशविग्रहाम् । नृपः पप्रच्छ तां कान्ते दौहृद्यं ते किमित्यसौ ॥ ८५ ॥ नाथावाच्यमचिन्त्यं च गर्भदोषेण चिन्तितम् । इत्युक्ते स स्वयावश्यं वाच्यमित्यवदन्नृपः ॥ ८६ ॥
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तथा प्रजाने बड़ी प्रतिष्ठाके साथ उनकी पूजा की ||७५ || एक समय वे बड़ी प्रसन्नता से पर्वतके मस्तकपर आतापन योग धारण कर विराजमान थे कि उनके तपसे वशीभूत हुईं सात देवियाँ पास आकर कहने लगीं कि हम लोग आपका क्या कार्यं करें ? ||७६ || तपोधन वशिष्ठ मुनिने यह कहकर उन देवियों को वापस कर दिया कि मेरा कोई काम नहीं है । अन्तमें उनके आधीन हुईं वे वन-देवियाँ चलो गयीं ॥७७॥ आहारकी इच्छासे रहित वशिष्ठ मुनि एक मासके उपवासका नियम लेकर तपस्या कर रहे थे, इसलिए समस्त प्रजा पारणाओंके समय उन्हें आहार देना चाहती थी || ७८ || परन्तु राजा उग्रसेनने किसी समय नगरवासियोंसे यह याचना की कि मासोपवासी मुनिराज के लिए पारणाओंके समय में ही आहार दूँगा और इसी भावनासे उसने मथुरामें रहनेवाले सब दाताओंको आहार देनेसे रोक दिया ॥७९॥ मुनिराज एक-एक मास बाद तीन बार पारणाओंके लिए आये परन्तु तीनों बार राजा प्रमादी बन आहार देना भूल गया। पहली पारणाके समय जरासन्धका दूत आया था सो उसकी व्यवस्था में निमग्न हो आहार देना भूल गया। दूसरी पारणाके समय आग लग गयी सो उसको व्यवस्था में संलग्न होनेसे प्रमादी हो गया और तीसरी पारणा के समय नगर में हाथीने क्षोभ मचा दिया इसलिए उसके व्यासंगसे प्रमादी हो आहार देना भूल गया ||८०|| मुनि आहार के लिए समस्त मथुरा नगरी में घूमे परन्तु कहीं आहार प्राप्त नहीं हुआ । अन्तमें श्रमसे पीड़ित हो नगरके द्वारमें विश्राम करने लगे ॥ ८१ ॥ | उन्हें देख किसी नगरवासीने कहा कि हाय बड़े खेदकी बात राजाने कर रक्खी है-इन मुनिराजके लिए वह स्वयं आहार देता नहीं है तथा दूसरोंको मना कर रखा है ॥८२॥ यह सुनकर मुनिराजको क्रोध आ गया। उन्होंने उसी समय पहले आयी हुईं देवियोंका स्मरण किया । स्मरण करते ही देवियाँ आ गयीं। उन्हें देख मुनिने कहा कि 'आप लोग अन्य जन्ममें मेरा काम करें ।' मुनिकी आज्ञा स्वीकृत कर देवियाँ वापस चली गयीं और मुनि वनको ओर प्रस्थान कर गये॥ ८३ ॥ राजा उग्रसेनका अपमान करने के लिए वशिष्ठ मुनिने यह उग्र निदान बांध लिया कि में उग्रसेनका पुत्र होकर इसका बदला लूँ । निदान के कारण वे मुनि पदसे भ्रष्ट हो मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गये और उसी समय मरकर राजा उग्रसेनकी रानी पद्मावतीके उदर में निवास करने लगे ॥ ८४ ॥ जब कंसका जीव पद्मावतीके गर्भमें था तब पद्मावतीका शरीर एकदम दुर्बल हो गया। एक दिन राजाने उससे एकान्तमें पूछा कि कान्ते ! तुम्हारा दोहला क्या है ? जिसके कारण तुम सूखकर काँटा हुई जा पद्मावतीने कहा कि हे नाथ ! गर्भके दोषसे मुझे जो दोहला हुआ है वह न तो
रही हो ॥८५॥ कहने योग्य है
१. विवृद्धस्या ग. ( ? ) । २. प्रोक्तो म. ।
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त्रयस्त्रशः सर्गः
सास्य निर्बन्धतो वाचा दुःखगद्गदया गदीत् । विपाठ्य जठरं पातुं रुधिरं तव मे स्पृहा ॥ ८७ ॥ सचिवोपायतस्तस्या दौर्हृदे विहिते ततः । असूत तनयं देवी भ्रकुटीकुटिलाननम् ॥ ८८ ॥ गर्भप्रभृतिरौद्रं तं कंस मंजूषिका कृतम् । देव्यमोचयदेकान्ते प्रवाहे यामुने भयात् ॥ ८९ ॥ अवीवृदसौ लब्ध्वा कौशाम्ब्यां सीधुकारिणी । कृतकंसामिधं शेषं तवापि विदितं नृप ॥ ९० ॥ निदानदोषदुष्टोऽयं कृतवान् पितृनिग्रहम् । उग्रसेननृपं चापि मोचयिष्यति ते सुतः ॥९१॥ नृपोक्तः कंससंबन्धः पितृबन्धनिबन्धनः । वच्मि ते पुत्रसंबन्धं शृणु संधाय मानसम् ॥ ९२ ॥ देवक्याः सप्तमः सूनुः शङ्खचक्रगदासिभृत् । निहत्य कंसपूर्वारीन् निःशेषां भोक्ष्यति क्षितिम् ॥ ९३ ॥ चरमोत्तम देहास्तु शेषाः षडपि सूनवः । न तेषामेपमृत्युः स्यादाधिव्याधिमतस्त्यज ॥९४॥ रामभद्रसमेतानां तेषां जन्मान्तराणि ते । भणामि शृणु सस्त्रीकश्चित्तप्रीतिकराण्यहम् ॥९५॥ शूरसेननृपे पाति मथुरां मानुरित्यभूत् । इभ्यो द्वादशकोटीशो यमुना तस्य मासिनी ॥ ९६ ॥ सुभानुर्मानुकीर्तिश्च मानुषेणस्तथा परः । शूरश्च सूरदेवश्च शूरदत्तस्तथैव च ॥ ९७ ॥ शूरसेनश्च सप्तैते यमुनाभानुसूनवः । अभिरामाः स्वभावेन तेऽन्योऽन्यानुगतास्तदा ॥९८॥ कालिन्दी तिलका कान्ता श्रीकान्ता सुन्दरी द्युतिः । चन्द्रकान्ता च तत्कान्ता क्रमेण कुलबालिकाः॥ ९९ ॥ मनुः प्राजदन्तेऽसौ गुरोरभयनन्दिनः । तथा यमुनदत्तापि जिनदत्तार्थिकान्तिके ॥१००॥
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और न विचार करने योग्य है । रानीके इस प्रकार कहनेपर राजाने कहा कि वह दोहला तुम्हें अवश्य कहना चाहिए || ८६ ।। राजाका हठ देख उसने दुःखसे गद्गद वाणी द्वारा कहा कि हे नाथ ! मेरी इच्छा है कि मैं आपका पेट फाड़कर आपका रुधिर पीऊँ ॥ ८७॥ तदनन्तर मन्त्रियोंके उपायसे उसका दोहला पूर्ण किया गया। नौमाह बाद रानी पद्मावतीने ऐसा पुत्र उत्पन्न किया जिसका मुख भौंहोंसे अत्यन्त कुटिल था ॥८८॥ चूँकि वह बालक गर्भसे हो अत्यन्त रौद्र था इसलिए रानी पद्मावतीने भयसे उसे •काँसको मंजूषामें बन्द कर एकान्त में यमुनाके प्रवाहमें छुड़वा दिया ॥ ८९ ॥ वह मंजूषा बहती - बहती कोशाम्बी नगरी पहुँची । वहाँ एक कलारिनने उसे पाकर पुत्रका कंस नाम रखा तथा उसका पालन-पोषण किया । हे राजन् ! इसके आगेका सब समाचार तुम्हें विदित ही है ॥९०॥ निदानके दोषसे दूषित होकर इसने पिताका निग्रह किया है । आगे चलकर तुम्हारा पुत्र उसे मारेगा और उसके पिता राजा उग्रसेनको भी बन्धन से छुड़ावेगा ॥ ९१ ॥ हे राजन् ! कंसने अपने पिताको बन्धनमें क्यों डाला इसका कारण बतलानेवाला कंसका वृत्तान्त कहा। अब तेरे पुत्रोंका वृत्तान्त कहता हूँ सो मनको स्थिर कर सुन ॥ ९२ ॥
देवकीका सातवां पुत्र शंख, चक्र, गदा तथा खड्गको धारण करनेवाला होगा और वह कंस आदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथिवीका पालन करेगा ॥९३॥ शेष छहों पुत्र चरम-शरीरी होंगे । उनको अपमृत्यु नहीं हो सकेगी, अतः चिन्तारूपी व्याधिका त्याग करो || ९४ || मैं रामभद्र (बलदेव) सहित उन सबके पूर्वभव तुम्हें कहता हूँ सो अपनी स्त्रीके साथ श्रवण करो । अवश्य ही उन सबके पूर्वभव तेरे चित्तको प्रीति करनेवाले होंगे ॥९५॥
जब राजा शूरसेन मथुरापुरीकी रक्षा करते थे तब यहाँ बारह करोड़ मुद्राओंका अधिपति भानु नामका सेठ रहता था । उसकी स्त्रीका नाम यमुना था || ९६ || उन दोनोंके सुभानु, भानुकीर्ति, भानुषेण, शूर, सूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन ये सात पुत्र उत्पन्न हुए। ये सातों भाई अत्यन्त सुन्दर तथा स्वभावसे ही एक दूसरेके अनुगामी थे ।।९७-९८ ।। उन सातों पुत्रोंकी क्रमसे कालिन्दी, तिलका, कान्ता, श्रीकान्ता, सुन्दरी, द्युति और चन्द्रकान्ता ये सात स्त्रियाँ थीं जो उच्च कुलोंकी कन्याएँ थीं ||१९|| कदाचित् भानु सेठने अभयनन्दी गुरुके समीप और उसकी स्त्री यमुनाने १. यमुनाया इदमिति यामुनं तस्मिन् यामुने । २. तेषामपि म. ।
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हरिवंशपुराण द्यूतवेश्याप्रसङ्गेन विनाश्य द्रविणं पितुः । चौथं भ्रातरः सर्वे गतास्तूजयिनी पुरीम् ॥१.१॥ कनीयांसं महाकाले संतत्यथै निधाय ते । प्राविशन् निशि निःशङ्काः पुरी षडपि चेतरे ॥१०२॥ कमलायास्तदा भर्ता राजान वृषमध्वजः । वप्रश्रीवल्लभस्तस्य 'दृढमुष्टिर्भटोत्तमः ॥१०॥ स वज्रमुष्टये मङ्गी स्वाङ्गजायाङ्गजातये । राज्ञा विमलचन्द्रेण विमलाजामदापयत् ॥१०॥ सातिवल्लमिका तस्य 'वल्लकीवाङ्गवतिनी। श्वश्रं शुश्रषया मनी संगता नानुवर्तते ॥१०५॥ अन्तःकलुषिणी सास्याः सततापायचिन्तती। उपायं चिन्तयन्त्यास्ते छद्मना तद्वियोजने ॥१०६॥ सा वसन्तोत्सवे रन्तु वनं प्रमदपूर्वकम् । दाङमामन्वेहि मङ्गीति राज्ञामा प्रागतेऽङ्गजे ॥१०॥ माल्यदानापदेशेन तामादिष्टां वधू कुधीः । संदष्टां दंदशकेन धूपिनेन घटोदरे ॥१०॥ मूर्च्छिता विषवेगेन ३वर्भूत्यैरजीहरत् । श्मशानं तन्महाकालं कालस्यापि भयंकरम् ॥१०९॥ स रात्री गृहमागत्य ज्ञात्वा वृत्तान्तमाविशत् । महाकाल महास्नेहाइन्वेष्टं स्वप्रियां प्रियः ॥११॥
खड्गदीप्रकरः सोऽयं तच्छ्मशानमशङ्कितः । रात्री प्रतिमयापश्यद् वरधर्ममुनि स्थितम् ॥११॥ जिनदत्ता आयिकाके समीप दीक्षा ले ली ।।१००|| सातों भाइयोंने जुआ और वेश्या व्यसनमें फंसकर पिताका सब धन नष्ट कर दिया। जब उनके पास कुछ भी नहीं रहा तब सब भाई चोरी करनेके लिए उज्जयिनी नगरी गये ॥१०१।। उज्जयिनीके बाहर एक महाकाल नामका वन है। वहाँ सन्ततिकी रक्षाके लिए छोटे भाईको रखकर शेष छहों भाई निःशंक हो रात्रिके समय नगरीमें प्रविष्ट हुए ॥१०२।। उस समय उज्जयिनीका राजा वृषभध्वज था। उसकी स्त्रीका नाम कमला था। राजा वृषभध्वजका दृढ़मुष्टि नामका एक उत्तम योद्धा था। उसकी स्त्रीका नाम वप्रश्री था। उन दोनोंको वज्रमुष्टि नामका पुत्र था । युवा होनेपर जब वह कामसे पीड़ित हुआ तब उसने राजा विमलचन्द्रसे उनकी विमला रानीसे उत्पन्न मंगी नामक पुत्री उसके लिए दिलवा दी ॥१०३-१०४|| मंगी वचमुष्टि के लिए बहुत प्यारी थी। वह वीणाकी तरह सदा उसीके साथ रहती थी और शुश्रुषासेवासे युक्त हो सासके अनुकूल आचरण नहीं करती थी अर्थात् सासकी कभी सेवा नहीं करती थी। इसलिए उसकी सास मन ही मन बहुत कलुषित रहती थी और निरन्तर उसके नाशका उपाय सोचती रहती थी। एक दिन वह छलसे उसके मारनेका उपाय सोचती हुई बैठी थी कि इतनेमें वसन्तोत्सवका समय आ गया और उसका पुत्र वज्रमुष्टि प्रमदवनमें कोड़ा करनेके लिए राजाके साथ पहले चला गया तथा मंगीसे कह गया कि हे मंगि! तू शीघ्र ही मेरे पीछे बा जाना ॥१०५-१०७।। इधर सासने मंगीको वसन्तोत्सवमें नहीं जाने दिया। उस दुर्बुद्धिने एक घड़े
पिन जातिका जहरीला सॉप पहलेसे बुला रखा था। अवसर देख उसने मंगोसे कहा कि तू वसन्तोत्सवमें नहीं जा सकी है इसलिए दुःखी न हो। मैंने तेरे लिए पहलेसे ही सुन्दर माला बला रखी है। जा उस घड़ेमें-से निकालकर पहिन ले। भोली-भाली मंगीने मालाके लोभसे घड़ेमें ज्योंही हाथ डाला त्योंही उस धूपिन सर्पने उसे डंस लिया ॥१०८॥ मंगी विषके वेगसे तुरन्त ही मूच्छित हो गयी और सासने उसे अपने भृत्यों द्वारा उस महाकाल नामक श्मशानमें जो यमराजके लिए भी भय उत्पन्न करनेवाला था छुड़वा दिया ||१०९||
वज्रमुष्टि जब रात्रिको घर आया और सब वृत्तान्त उसे मालूम हुआ तो वह बड़े स्नेहसे अपनी प्रिया मंगीको ढूंढ़नेके लिए महाकाल श्मशान में जा घुसा ॥११०।। उस समय उसके हाथमें एक चमकती हुई तलवार थी। उसोके बलपर वह निःशंक होकर श्मशानमें घुसा जा रहा था। आगे चलकर उसने उस श्मशानमें रात्रि-भरके लिए प्रतिमा योग लेकर विराजमान वरधर्म १. दृष्टमुष्टि -म. । २. वीणेव । ३. श्वश्रूशुश्रूषया म., ग. । ४. सकृतापाय -ग. । ५. राज्ञा अमा = सहेत्यर्थः । ६. रात्रिप्रतिमया-म., ख., ग. ।
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त्रयस्त्रशः सर्गः
त्रिः परीत्य स तं नत्वा जगौ ते पादपूजनम् । कुर्वे पद्मसहस्त्रेण मुने ! मङ्गीं लभे यदि ॥ ११२ ॥ उक्त्वेति प्रगती लब्ध्वा स तामानीय मानिनीम् । महामुनिपदस्पर्शानिर्विषां विदधे वधूम् ॥ ११३ ॥ मुनिपादोपकण्ठेऽसौ तावत्तिष्ठेत्युदीर्यं ताम् । सुदर्शनं सरो यातः पद्मानामानिनीषया ॥ ११४ ॥ शूरसेनस्तमादर्य महास्नेहं प्रियां प्रति । स जिज्ञासुर्मनस्तस्था रूपी रूपमदर्शयत् ॥ ११५ ॥ गूढधीः कृतसल्लापस्तया सकृतमन्त्रणः । तस्य दर्शनमात्रेण जातासौ कामविह्वला ॥ ११६ ॥ तमागत्याब्रवीद् देव ! मामिच्छ कृपयान्वितः । स बमाण करोम्येवं कथं भर्तरि जीवति ॥ ११७ ॥ बिभेम्यतः प्रियेऽवश्यं वीर्यान्वितभटादहम् । त्वं मा कुर्वीर्मयं नाथ ! सा तं प्राह सुरक्तधीः ॥११८॥ असिना घातयाम्येनं तेनाभ्युपगतं तथा । तत्र गूढतनुस्तस्थौ तत्कृतं तद्दिदृक्षया ॥ ११९ ॥ आगत्याभ्यर्च्य साध्वंही नमतोऽस्य शिरस्यसिः । मुक्तस्तया निरुद्धो द्वाक् शूरसेनेन तेन सः ॥१२०॥ अन्तर्हितवपुर्यातः शूरसेनो विरक्तधीः । ततोऽनु मायया मङ्गी तस्य स्पर्शेण शङ्किता ।। १२१ ॥ स्वदोषच्छादनायासौ पपात धरणीतले । मर्त्रा पृष्टा प्रिये किं नु केनचिद् भीषितात्र हि ॥ १२२ ॥ न किंचिदपि चात्यत्र तां प्रबोध्य भयातुराम् । वज्रमुष्टिर्मुनिं नत्वा सकान्तः स्वगृहं गतः ॥ १२३ ॥
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मुनिराजको देखा ॥ १११ ॥ उसने तीन प्रदक्षिणाएं देकर मुनिराजको नमस्कार किया और कहा कि मुनिराज ! यदि मैं मंगीको प्राप्त कर सका तो एक हजार कमलोंसे आपके चरणोंकी पूजा करूँगा ||११२ || इस प्रकार कहकर वह ज्योंही आगे बढ़ा त्योंही उसे उसकी स्त्री मंगी मिल गयी । वह उसे मुनिराज के पास ले आया और उनके चरणोंके स्पर्शसे उसने उसे विष रहित कर लिया ॥ ११३ ॥ तदनन्तर 'जबतक मैं न आ जाऊँ तबतक तुम मुनिराजके चरणोंके समीप बैठना' इस प्रकार मंगोसे कहकर वज्रमुष्टि कमल लानेकी इच्छासे सुदर्शन नामक सरोवर की ओर चला गया | ११४ || पास ही छिपा हुआ शूरसेन मंगीके प्रति वज्रमुष्टिका महान् स्नेह देख चुका था इसलिए उसने उसके मनका भाव जाननेको इच्छासे उसे अपना रूप दिखाया । वह सुन्दर तो था हो ||११५|| वह अपने अभिप्रायको छिपाकर उसके साथ मीठी-मीठी बातचीत और गुप्त सलाह करने लगा। मंगी उसे देखते ही कामसे विह्वल हो गयी ॥ ११६ ॥ उसी विह्वल दशा में उसने शूरसेनके पास जाकर कहा कि हे देव ! आप कृपा कर मुझे स्वीकृत कीजिए। मंगीकी प्रार्थना सुनकर शूरसेनने कहा कि जबतक तुम्हारा पति जीवित है तबतक मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ ? है प्रिये ! मैं इस शक्तिशाली सुभटसे अवश्य ही डरता हूँ। इसके उत्तरमें अनुरागसे भरी मंगीने कहा कि हे नाथ! आप इसका भय नहीं कीजिए। मैं इसे तो तलवारसे अभी मार डालती हूँ । शूरसेनने उत्तर दिया कि यदि ऐसा है तो मुझे स्वीकार है। इस प्रकार कहकर वह उसका वह कार्य देखने की इच्छा से वहीं छिपकर खड़ा हो गया ।। ११७-११९ ।।
तदनन्तर वज्रमुष्टिने आकर मुनिराजके चरणोंकी पूजा की और पूजा करनेके बाद ज्योंही वह नमस्कार करने लगा त्योंही मंगीने उसके शिरपर तलवार छोड़ना चाही, परन्तु शूरसेनने शीघ्र ही आकर तलवार छीन ली || १२० || शूरसेनको यह दृश्य देखकर संसारसे वैराग्य हो आया, इसलिए वह अपने-आपको प्रकट किये बिना ही वहाँसे चला गया। मंगी उसके स्पशंसे शंकित हो गयी, इसलिए अपना दोष छिपाने के लिए वह माया बताती हुई पृथिवी तलपर गिर पड़ी ।
मुष्टिको मंगी इस दुष्कृत्यका पता नहीं चल पाया। इसलिए वह उससे पूछता है कि प्रिये ! क्या यहाँ तुम्हें किसी ने डरा दिया है ? यहाँ भयका तो कुछ भी कारण दिखाई नहीं देता । इस प्रकार भयसे पीड़ित मंगीको सचेत कर वज्रमुष्टिने मुनिराजको नमस्कार किया और तदुपरान्त वह स्त्रीको साथ ले घर चला गया ॥ १२१-१२३॥
१. यदा म. । २. तत्कृत्यं म. । ३. मुनिचरणी ।
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हरिवंशपुराणे चौरास्ततः समागत्य चौर्याल्लब्धधनं तदा । विभज्य समभागेन स्वं गृहाणेति तं जगुः ॥१२४॥ अमिच्छन् शूरसेनोऽपि जगौ दारार्थमर्थिनः । घटन्तेऽनर्थकार्य ते वज्रमुष्टिस्त्रियः समाः ॥१२५॥ दृष्ट्वा श्रुत्वा च वृत्तान्तं षट् कनिष्ठाः विरागिणः । प्रावजन् वरधर्मान्ते ज्येष्ठेभ्योऽप्यनयद् धनम् ॥१२६॥ सप्तसु श्रुतवार्तासु निष्क्रान्तास्वथ तास्वपि । तस्यैव स गुरोरन्ते सुभानुः प्रावजसुधीः ॥१२७॥ मुनीन् कालान्तरेणामूनागतान् वीक्ष्य सूरिणा । दीक्षाहेतुमसौ पृष्ट्वा वज्रमुष्टिरदीक्षत ॥५२८॥ भायिकास्तास्तथा पृष्ट्वा जिनदत्तापुरःसरा । मङ्गी संस्मृतवृत्तान्ता प्रवद्राज दृढव्रता ॥१२९।। भृतघोरतपोभाराः सर्वेऽप्याराध्य तेऽभवन् । सौधर्म चाणवायुकास्त्रायस्त्रिंशत्सुरोत्तमाः ।।१३०॥ पूर्वस्मिन् धातकीखण्डे भारते रौप्यपर्वते । च्युत्वा दक्षिणश्रेण्यां च नित्यालोकपुरोत्तमे ॥१३॥ चित्रचूलमनोहर्योज्येष्ठश्चित्राङ्गदोऽङ्गजः । जज्ञे त्रिद्वन्दगर्भास्तु क्रमेणैव तथोत्तरे ॥१३२।। कान्तौ गरुडसेनौ द्वौ गरुडध्वजवाहनौ। चूलौ मणिहिमादी च व्योमानन्दचरौ वरौ ॥१३३।। अभिरूपतमाः सर्वे भूरिविद्योद्यताः स्थिताः। चित्रचूलसुता मूनि ते चूलामणयो नृणाम् ।।१३४॥ राजा मेघपुरे चैव सर्वश्रीशो धनंजयः। धनश्रीरिति विख्याता तस्य कन्यातिरूपिणी ॥१३५॥
तदनन्तर शूरसेनके जो छह भाई चोरी करनेके लिए गये थे उन्होंने चोरीसे प्राप्त हुए धनके बराबर हिस्से कर शूरसेनसे कहा कि अपना हिस्सा उठा लो ॥१२४।। शूरसेनने हिस्सा लेने के प्रति अनिच्छा प्रकट करते हुए कहा कि लोग खियोंके पीछे ही नाना प्रकारके अनर्थ करते हैं और स्त्रियाँ वज्रमुष्टिकी स्त्रीके समान होती हैं ।।१२५।। इस वृत्तान्तको देख-सुनकर छह छोटे भाइयोंने विरक्त होकर उसी समय वरधर्म गुरुके समीप दीक्षा ले ली और बड़ा भाई स्त्रियोंके पास धन ले गया ॥१२६।। जब उन भाइयोंकी सातों स्त्रियोंने यह वृत्तान्त सुना तो उन्होंने भी विरक्त हो दीक्षा ले ली। अन्तमें बड़े भाई सुभानुकी बुद्धि भी ठिकाने आ गयी इसलिए उसने भी उन्हीं वरधर्म गुरुके पास दीक्षा ली ॥१२७॥ __अथानन्तर किसी समय अपने गुरुके साथ विहार करते हुए वे सातों मुनि उज्जयिनी आये। उनके दर्शन कर वज्रमुष्टिने उनसे दीक्षा लेनेका कारण पूछा। उत्तरमें उन्होंने वज्रमुष्टि और मंगीका सब वृत्तान्त कह सुनाया जिसे सुन वज्रमुष्टिको बहुत खेद हुआ तथा उसी समय उसने दीक्षा ले ली ॥१२८॥ उसी समय आर्यिका जिमदत्ताके साथ विहार करती हुई पूर्वोक्त सात आर्यिकाएं भी उज्जयिनी आयीं। मंगीने उनसे दीक्षाका कारण पूछा। उन्होंने जो उत्तर दिया उसे सुनकर मंगीको अपना पिछला सब वृत्तान्त स्मृत हो गया इसलिए उसने भी दृढ़ व्रत धारण कर दीक्षा ले ली ।।१२९।। तदनन्तर घोर तपके भारको धारण करनेवाले सातों मुनिराज आयुके अन्तमें समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्गमें एक सागरकी आयुवाले त्रायस्त्रिंश जातिके उत्तम देव हुए ॥१३०।। धातकीखण्ड द्वोपके पूर्व भरतक्षेत्रमें जो विजयाधं पर्वत है उसकी दक्षिण श्रेणी में एक
क नामका नगर है॥१३॥ उसमें किसी समय राजा चित्रचल राज्य करता था उसकी स्त्रीका नाम मनोहरी था। बड़े भाई सुभानुका जीव उन्हीं दोनोंके चित्रांगद नामका पुत्र हुआ और शेष छह भाइयोंके जीव भी उन्हींके क्रम-क्रमसे तीन युगलोंके रूपमें गरुडकान्त, सेनकान्त, गरुडध्वज, गरुडवाहन, मणिचूल और हिमचूल नामके छह पुत्र हुए। ये सभी आकाशमें आनन्दसे विचरण करते थे तथा अत्यन्त उत्कृष्ट थे ॥१३२-१३३॥ चित्रचूलके ये सभी पुत्र अत्यन्त सुन्दर थे, अनेक विद्याओंके प्राप्त करने में उद्यत थे और मनुष्योंके मस्तकपर चूडामणिके समान स्थित थे ॥१३४।। उसी समय मेघपुर नगरमें सर्वश्री नामका स्त्रोका स्वामी धनंजय नामका राजा राज्य करता था। राजा धनंजय और रानी सर्वश्रीके एक धनश्री नामको अत्यन्त रूपवती कन्या १. ज्येष्ठश्चासौ इभ्यश्चेति ज्येष्ठेभ्यः। २. यज्ञे म.।
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त्रयस्त्रिंशः सर्गः स्वयंवरमगुस्तस्या विश्व विद्याधरास्मजाः । तत्रारममैथुनं वव्रे कन्यासी हरिवाहनम् ॥१३६।। वयं स्वयंवरव्याजात् स्वविवाहाय मायया । समाहृता इति क्रुद्धास्तपित्रे गगनायनाः ।।१३७॥ परस्परवधं चक्रुस्ते तस्कन्यार्थिनस्ततः । चित्रचूलसुता निन्धं दृष्ट्वा क्षत्रवधं तकम् ॥१३॥ पापहेतुं विनिन्द्याक्षविषयान् विषमानमी । भूतानन्दजिनस्यान्ते प्रव्रज्या ते प्रपेदिरे ॥१३९॥ सप्ताप्याराध्य माहेन्द्रे सप्ताब्ध्युपमजीविताः । सामानिकसुरा भूत्वा सुखं बुभुजिरे चिरम् ।।१४०॥ ततश्च्युत्वाग्रजोऽत्रैव भारते हस्तिनाह्वये । नगरे श्रेष्ठिनः शङ्खो बन्धुमत्यामभूत्सुतः ॥१४१॥ इतरे गङ्गदेवस्य तत्पुरेशस्य भूपतेः । नन्दना नन्दयशसो द्वन्द्वभूतास्तु जज्ञिरे ॥१४२॥ गङ्गश्च गङ्गदत्तश्च गङ्गरक्षितकस्तथा । नन्दश्चापि सुनन्दश्च नन्दिषेणश्च सुन्दरः ॥१४॥ सप्तमस्तु सुतो देव्या गर्भ दौर्भाग्यदग्धया । त्यक्तः संवर्धितश्चासौ धाश्या रेवतिकाख्यया ॥१४४॥ शङ्को यातोऽन्यदादाय तं निर्नामकनामकम् । हृद्यं मनोहरोद्यानं पौरलोकसमाकुलम् ॥१४५॥ भुञ्जानानाह राजन्याँस्तत्र राजसुतैः सह । भोक्तुं नाहूयते कस्मादयं निर्नामकोऽनुजः ॥१४६॥ आहूतस्तैरसो भोक्तुमासीनः सोदरैः सह । राज्या चागतया मात्रा कोपापादेन ताडितः ॥१४॥ धिग मधेतोरयं दुःख निर्नामा प्राप्तवानिति । दुःखी शङ्कस्तमादाय गत्वा राजादिमिर्वने ॥१४८॥ थी ॥१३५।। धनश्रीका किसी समय स्वयंवर किया गया, स्वयंवरमें समस्त विद्याधरोंके पत्र गये परन्तु कन्याने उनमें अपने पिताके भानजे हरिवाहनको वरा ॥१३६।। 'जब इसे अपने सम्बन्धीके साथ ही विवाह करना था तो स्वयंवरके बहाने छलपूर्वक हम लोगोंको क्यों बुलाया'-यह कहते हए अन्य विद्याधर कन्याके पितापर कद्ध हो गये ॥१३७॥ तदनन्तर उस कन्याकी इच्छा रखते
विद्याधर परस्पर एक-दुसरेका वध करने लगे। राजा चित्रचलके पूत्र भी स्वयंवर में गये थे। इस निन्दनीय क्षत्रिय-वधको देखकर वे विचार करने लगे कि अहो ! ये इन्द्रियोंके विषम विषय हो पापके कारण हैं। इस प्रकार इन्द्रियोंके विषयोंकी निन्दा कर भूतानन्द जिनराजके समीप दीक्षित हो गये ॥१३८-१३९॥ सातों मुनिराज अन्तमें समाधि धारण कर माहेन्द्र स्वर्गमें सात सागरको आयुके धारक सामानिक जातिके देव हुए और वहांको विभूतिसे चिरकाल तक सुख भोगते रहे ॥१४०॥
___तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर बड़े भाईका जीव इसी भरतक्षेत्रके हस्तिनापुर नगरमें किसी सेठको बन्धुमती स्त्रीसे शंख नामका पुत्र हुआ ॥१४१॥ शेष छह भाइयोंके जीव इसी नगरके राजा गंगदेवकी नन्दयशा रानीसे तीन युगलके रूपमें गंग, गंगदत्त, गंगरक्षित, नन्द, सुनन्द और नन्दिषेण नामके छह सुन्दर पुत्र हुए ॥१४२-१४३।। रानी नन्दयशाके गर्भ में जब सातवां पुत्र आया तब उसके अत्यन्त दुर्भाग्यका उदय आ गया। उससे दुखी होकर उससे उत्पन्न होनेपर उस पुत्रको छोड़ दिया, निदान, रेवती नामक धायने पालन-पोषण कर उसे बड़ा किया ॥१४४॥ रानी नन्दयशाके इस त्याज्य पुत्रका नाम निर्नामक था। यह निर्नामक, श्रेष्ठिपुत्र शंखको बड़ा प्रिय था। एक दिन शंख, निर्नामकको साथ लेकर नागरिक मनुष्योंसे भरे हुए मनोहर उद्यानमें गया ।।१४५।। वहाँ राजा गंगदेवके छहों पुत्र एक साथ भोजन कर रहे थे। उन्हें देख शंख ने कहा कि यह निर्नामक भी तो तुम्हारा छोटा भाई है, इसे भोजन करनेके लिए क्यों नहीं बुलाते ?॥१४६।। शंखकी बात सुन राजपुत्रोंने निर्नामकको बुला लिया और वह भाइयोंके साथ भोजन करनेके लिए बैठ गया। उसी समय उसकी माता रानी नन्दयशा कहींसे आ गयी और उसने क्रोधसे आगबबूला हो उसे लात मार दी ॥१४७|| इस घटनासे शंखको बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा कि मेरे निमित्तसे ही निर्नामकको यह दुःख उठाना पड़ा है अतः मुझे धिक्कार है। अन्तमें वह दुखी १. पितुर्भगिनीपुत्रम् इति ग पुस्तके टिप्पणी। २. जातो म, । ३. राज्ञामागतया म. ।
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हरिवंशपुराणे दुमणर्षिमेकान्ते दृष्टा नत्वा स पृष्टवान् । निर्नामकस्य जन्मानि सावधिः सोऽभ्यधान्मुनिः ॥१४॥ आसीच्चित्ररथो राजा नगरे गिरिपूर्वके । कामिनी गुणिनी यस्य कान्ता कनकमालिनी ॥१५॥ मांसप्रियस्य तस्यासीत्सूदोऽमृतरसायनः । राज्ञा च मांसपाकज्ञो दशग्रामेश्वरः कृतः ॥१५॥ मांसदोषं नृपः श्रुत्वा सुधर्मास्त्रिशतैर्नृपैः । क्षिप्त्वा मेघरथे लक्ष्मीमदीक्षिष्ट मुमुक्षया ॥५२॥ नवराजेन सूदोऽपि श्रावकेन सता ततः । निर्मदीकृत्य मास्पाको ग्राममात्रातिः कृतः ॥१५३॥ सूदेन कुपितेनासौ मुनिर्मासनिषेधनः । कट्वालाम्बुविषाहारं दत्त्वा प्राणर्वियोजितः ॥१५॥ उर्जयन्तगिरी मृत्वा स्वयोगादूर्जितादभूत् । द्वात्रिंशदब्धितुल्यायुः सोऽहमिन्द्रोऽपराजिते ॥१५॥ सूपकारो मृतः प्राप पृथिवीं बालुकाप्रभाम् । त्रिसमुद्रोपमं कालं नारकं दुःखमन्वभूत् ॥५६॥ ततश्चोद्वयं पर्यटय तिर्यग्गतिमहाटवीम् । सोऽङ्गो मलयराष्ट्रान्तःपलाशग्रामवर्तिनोः ॥१५॥ कुटुम्बिनोर्जडप्रायोयक्षिलायक्षदत्तयोः । यक्षस्वावरजो नाम्ना सूनुर्यक्षलिकोऽमवत् ।।१५।। स भ्रात्रा वार्यमाणोऽपि पर्यटन शकटं शठः । उपरिष्टात्तदान्धाहेरवाहयदनिष्टकृत् ॥१५९।। मग्नमोगा भुजङ्गी तु म्रियमाणातिदुःखतः । अकामनिर्जरायोगात् मानुष्यगतिमार्जयत् ।।१६०१
मृत्वा श्वेताम्बिकापुर्यां वासवस्य महीपतेः । जाता वसुन्धरागमें देवी नन्दयशा त्वियम् ।। १६९।। होता हआ निर्नामकको लेकर राजा आदिके साथ वनमें गया ॥१४८॥ वहाँ एकान्तमें द्रुमषेण नामक मुनिराजको देखकर शंखने उनसे निर्नामकके पूर्वभव पूछे । मुनिराज अवधिज्ञानी थे अत: उसके भवान्तर इस प्रकार कहने लगे ॥१४९।।
गिरिनगर नामक नगरमें राजा चित्ररथ रहता था, उसकी कनकमालिनी नामकी गुणवती एवं सुन्दरी स्त्री थी ॥१५०॥ राजा चित्ररथ मांस खानेका बड़ा प्रेमी था, उसका एक अमतरसायन नामका रसोइया था जो मांस पकाना बहत अच्छा जानता था। उसकी कलासे प्रसन्न होकर राजाने उसे दश ग्रामोंका स्वामी बना दिया था ॥१५१।। एक दिन राजाने सुधर्म नामक मुनिराजसे मांस खानेके दोष सुने जिससे प्रभावित होकर उसने राज्य-लक्ष्मीको मेघरथ नामक पुत्रके लिए सौंप दी और स्वयं मोक्ष प्राप्त करनेको इच्छासे तीन सौ राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर लो ॥१५२॥ नवीन राजा मेघ रथ श्रावक बन गया इसलिए उसने मांस पकानेवाले रसोइयाको अपमानित कर केवल एक ग्रामका स्वामी कर दिया ॥१५३॥ इस घटनासे रसोइया बड़ा कुपित हुआ। उसने सोचा कि मेरे अपमानका कारण मांसका निषेध करनेवाले ये मुनि ही हैं इसलिए उसने कड़वी तूमड़ीका विषमय आहार देकर मुनिको प्राण रहित कर दिया ॥१५४॥ मुनिराजका समाधिमरण ऊर्जयन्तगिरिपर हुआ था। प्रबल आत्मध्यानके प्रभावसे वे मरकर अपराजित नामक अनुत्तर विमानमें बत्तीस सागरको आयुके धारक अहमिन्द्र हुए ॥१५॥ रसोइया मरकर तीसरी बालकाप्रभा पथिवीमें गया और वहां तीन सागर तक नरकके तीव्र दुःख भोगता रहा ॥१५६।। वहाँसे निकलकर तिर्यंच गतिरूपी महाअटवीमें भ्रमण करता रहा। एक बार वह मलय देशके अन्तर्गत पलाश नामक ग्राममें रहनेवाले यक्षदत्त और यक्षिला नामक दम्पतीके यक्षलिक नामका पुत्र हआ। यह यक्षलिक स्वभावसे ही मूर्ख था। और यक्षस्व नामक बड़े भाईसे छोटा था ॥१५७-१५८॥ एक बार दुष्ट यक्षलिक गाड़ीपर बैठा कहीं जा रहा था। सामने मार्गमें एक अन्धी सर्पिणी पड़ी थी। बड़े भाईके रोकनेपर अनिष्टकारी यक्षलिकने उसपर गाड़ी चढ़ा दी जिससे उसका फग कट गया। तोव दुःखसे वह मरणोन्मुख हो गयी। उसी समय अकामनिर्जराके कारण उसने मनुष्यगतिका बन्ध कर लिया ॥१५९-१६०॥ तदनन्तर सर्पिणी मरकर श्वेताम्बिका पुरीमें वहाँके राजा वासवकी स्त्री वसुन्धराके गर्भ में नन्दयशा १. उपरिष्टात्ततो ग्राहे म., ख., ग.। २. वसुन्धरीगर्भे-म. ।
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त्रयस्त्रिशः सर्गः
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सोऽयं यक्षलिको नाम्ना निर्नामा मुनिमारणात् । निर्दयत्वाच्च पूर्वत्र मात्रा विद्वेषतां गतः ॥१६॥ श्रुस्वा तद्विशतक्षत्रै राजा संसारभीरुधीः । देवनन्दे श्रियं न्यस्य तस्यान्ते दीक्षितो मुनेः ॥१६३।। राजपुत्राश्च ते सर्वे श्रेष्ठी शङ्खश्च दीक्षितः । सुनिर्मलं तपश्चक्रुर्मवचक्रनिवृत्तये ॥१६॥ राज्ञी चापि सधात्रीका बन्धुमत्या सहाश्रिता । प्रव्रज्यां सुव्रतार्यान्ते सुव्रतव्रातभूषिताम् ॥१६५॥ कुर्वनिर्नामकस्तीव्र सिंहनिःक्रीडितं तपः । निदानमकरोदन्यजनने जनकान्तताम् ॥१६६॥ धात्री मानुष्यकं प्राप्ता पुरे भद्रिलसाह्वये । सुदृष्टिश्रेष्टिनो भार्या वर्तते ह्यलकाभिधा ॥१६७॥ गङ्गाद्या देवकीगमें षडपि द्वन्द्वमाविनः । उत्पत्स्यन्ते क्रमणैव विक्रमैकमहार्णवाः ॥१६॥ हारिणा स्वर्गिणा धात्री सुत्रामादेशकारिणा । प्राप्स्यन्ते जातिमात्रेण तत्राप्स्यन्ति च यौवनम् ॥१६९॥ नृपदत्तोऽग्रजस्तेषां देवपालस्तथापरः । तृतीयोऽनीकदत्तस्तु तुरीयोऽनीकपालकः ॥१७॥ 'शत्रुघ्नो जितशत्रुस्ताविति नामभिरीरिताः । रूपेण सदृशाः सर्वे भविष्यन्ति तवारमजाः ॥१७॥ हरिवंशशशाङ्कस्य जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। शिष्यतां ते करिष्यन्ति गमिष्यन्ति च निवृतिम् ॥१७२।। आगत्य देवकीगर्भे निर्नामा सप्तमः सुतः । उत्पद्यं भविता वीरो वासुदेवोऽत्र मारते ॥१७३।।
शार्दूलविक्रीडितम् श्रुत्वा कंसमवान्तरं तदुदयं संचिन्त्य पुण्योदयात्
सोपेक्षान्तरमित्रतामुपगतोऽप्यत्राभवत्कालवित् । नामकी पुत्री हुई ॥१६१॥ और यक्षलिक निर्नामक हुआ, इस यक्षलिकने रसोइयाकी पर्यायमें मुनिराजको मारा था तथा सपिणीके साथ अत्यन्त निर्दयताका व्यवहार किया था इसलिए माता नन्दयशाके साथ विद्वेषको प्राप्त हुआ है ॥१६२॥ यह सुनकर राजा गंगदेव संसारसे भयभीत हो गया और अपने देवनन्द नामक पुत्रको राज्यलक्ष्मी सौंपकर दो सौ राजाओंके साथ उन्हीं मनिके समीप उसने दीक्षा धारण कर ली।।१३।। समस्त राजपूत्रों और श्रेष्ठिपुत्र शंखने भी दीक्षा ले ली तथा सब, संसारचक्रसे निवृत्त होनेके लिए निर्मल तप करने लगे ॥१६४॥ रानी नन्दयशाने रेवती धाय और बन्धुमती सेठानीके साथ सुव्रता नामक आर्यिकाके समीप उत्तम व्रतोंके समूहसे सुशोभित दीक्षा धारण कर ली ।।१६५॥ निर्नामकने मुनि होकर सिंहनिष्क्रीडित नामक कठिन तप किया था और यह निदान बांध लिया कि मैं जन्मान्तरमें नारायण होऊं ॥१६६|| रेवती धाय मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भद्रिलसा नगरमें सुदृष्टि नामक सेठको अलका नामकी स्त्री हुई है ।।१६७|| गंग आदि छह पुत्रोंके जीव युगलिया रूपसे देवकीके गर्भ में क्रम-क्रमसे उत्पन्न होंगे और वे पराक्रमके महासागर-अत्यन्त पराक्रमी होंगे ||१६८|| इन्द्रका आज्ञाकारी हारी नामका देव उन पुत्रोंको उत्पन्न होते ही धायके जीव अलकाके पास पहुंचा देगा; वहीं वे यौवनको प्राप्त करेंगे ॥१६९।। उन पुत्रोंमें बड़ा पुत्र नृपदत्त, दूसरा देवपाल, तीसरा अनीकदत्त, चौथा अनीकपालक, पांचवां शत्रुघ्न और छठा जितशत्रु नामसे प्रसिद्ध होगा। तुम्हारे ये सभी पुत्र रूपसे अत्यन्त सदृश होंगे अर्थात् समान रूपके धारक होंगे ॥१७०-१७१।। ये सभी कुमार हरिवंशके चन्द्रमा, तीन जगत्के गुरु श्री नेमिनाथ भगवान्को शिष्यताको प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे ॥१७२॥ निर्नामकका जीव देवकीके गर्भ में आकर सातवाँ पुत्र होगा। वह अत्यन्त वीर होगा तथा इस भरत क्षेत्रमें नौवाँ नारायण होगा ॥१७३।। जिनमतको लक्ष्मीकी प्रशंसा करनेवाले कालज्ञ वसुदेव, मुनिराजके मुखसे कंसके भवान्तर तथा पुण्यके उदयसे प्राप्त हुए उसके अभ्युदयको सुनकर उसके साथ उपेक्षापूर्ण मित्रताको प्राप्त हुए अर्थात् उन्होंने मित्रता १. जनानां मध्ये कान्ततां मनोज्ञताम् (क. टि. ) जनकान्तिकम् म., ग., ङ., ख.। २. क्रमेणैक-म. । ३. यातमात्रेण म., क.। ४. शत्रुघ्न-म.। ५. देवकीसुतः म. ।
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हरिवंशपुराणे
आकर्ण्यष्टसुतप्रियासुचरितं चामुत्र चेहात्र च
प्राप्तः संमदमुन्नतं जिनमतश्रीशंसनो यादवः ॥१७४॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती कं सोपाख्यानबलदेववासुदेवदेवकीतनयागारचरितवर्णनो नाम त्रयस्त्रिशः सर्गः ||३३||
तो पूर्ववत् बनाये रखी परन्तु उसमें उपेक्षा का भाव आ गया। वे अपने आठों पुत्र तथा प्रिया देवकी के पूर्वभव एवं वर्तमान भव सम्बन्धी चरितको सुनकर अत्यधिक हर्षको प्राप्त हुए ।। १७४।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में कंसका उपाख्यान तथा बलदेव, वासुदेव और देवकीके अन्य पुत्रोंके गृह चरितका वर्णन करनेवाला तैंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३३॥
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चतुस्त्रिंशः सर्गः
स्ववंशमाविनं श्रुत्वा जिनेन्द्र देवकीप्रियः । हृष्टः श्रेणिक ! नत्वेति पृष्टवानतिमुक्तकम् ॥१॥ कथं नाथ! जिनो भावी हरिवंशविशेषकः । चरितं श्रोतुमिच्छामि तस्येत्युक्तेश्वदन्मुनिः ॥२॥ द्वीपेऽत्रैव सुपद्मायां शीतोदायास्त्वंपाक्तटे । अभूत् सिंहपुरे भूभृदर्हदासो महाहिंतः ॥३॥ जायास्य जिनदत्तासौ कृतोरुजिनपूजना । लेभे श्रीममृगेन्द्रार्कचन्द्र सुस्वप्नदृक् सुतम् ॥४॥ अपराजित इत्याख्यां स परैरपराजितः । पितृभ्यां लम्मितो द्यावापृथिव्योः प्रथितस्ततः ॥५॥ पुत्री चक्रभृतस्तत्र पवित्रगुणमालिनीम् । कन्यां प्रीतिमती मान्यामुपयेमे स यौवने ॥६॥ तमन्योऽन्यातिशोयिन्यो मानिन्यो गुणमण्डनाः । कन्याश्चारमन् धन्याः सहस्रगणनाः पतिम् ॥७॥ राजा मनोहरोद्याने वन्यं देवैर्विवन्दिषुः । अन्येद्युः ससुतो यातो जिनं विमलवाहनम् ॥८॥ प्रवद्राज नृपोऽस्यान्ते पञ्चराजशतान्वितः । बभ्रेऽपराजितो राज्यं सम्यक्त्वं चैव निर्मलम् ॥९॥ जिनेन्द्रपितृनिर्वाणं गन्धमादनपर्वते । श्रत्वा कृस्वाष्टमं भक्तं कृतनिर्वाणमक्तिकः ॥१०॥ जिनाचा चैत्यगेहाचा समय॑ धनदार्पिताम् । आसीनो जातु जायाभ्यो धर्म सप्रोषधोऽवदत् ॥११॥
अथानन्तर,गोतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! 'तीर्थकर भगवान् अपने वंशमें उत्पन्न होनेवाले हैं। यह सुनकर कुमार वसुदेव बहुत ही हर्षित हुए और उन्होंने उसी समय अतिमुक्तक मुनिराजको नमस्कार कर इस प्रकार पूछा कि 'हे नाथ ! हरिवंशके तिलकस्वरूप जिनेन्द्र भगवान् किस प्रकार होंगे? मैं उनका चरित सुनना चाहता हूँ।' कुमार वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर अतिमुक्तक मुनिराज कहने लगे ॥१-२॥
इसी जम्बूद्वापके विदेह क्षेत्रमें शीतोदा नदोके दक्षिण तटपर सुपद्मा नामका देश है। उसमें सिंहपुर नामका नगर है। और उसमें किसी समय राजा अहंद्दास रहता था जो अत्यन्त योग्य
था ॥३।। जिनेन्द्र भगवान्की महापूजा करनेवाली जिनदत्ता उसकी स्त्री थी। एक बार उसने ' लक्ष्मी, हाथी, सिंह, सूर्य और चन्द्रमा ये पांच शुभ स्वप्न देखनेके बाद उत्तम पुत्र प्राप्त किया।॥४॥
चूंकि वह पुत्र दूसरोंके द्वारा कभी पराजित नहीं होता था इसलिए माता-पिताने उसका 'अपराजित' नाम रखा। अपराजित आकाश और पथिवी दोनोंमें ही अत्यन्त प्रसिद्ध था ॥५॥ यौवन काल आनेपर अपराजितने चक्रवर्तीकी पवित्र गणोंकी मालासे सहित, प्रीतिमती नामको माननीय कन्याके साथ विवाह किया ॥६|| इसके सिवाय जो परस्पर एक दूसरेकी शोभाका उल्लंघन कर रही थीं, माननीय थीं एवं गुणरूपी आभूषणोंसे सुशोभित थीं ऐसी सौभाग्यशालिनी एक हजार कन्याएँ उसे और भी क्रीड़ा कराती थीं ॥७॥ किसी एक दिन राजा अहंद्दास, मनोहर नामक वनमें देवोंके द्वारा वन्दनीय विमलवाहन भगवान्को वन्दना करनेके लिए अपने पुत्र सहित गया ।।८॥ उपदेशसे प्रभावित होकर राजा अर्हद्दासने पांच सौ राजाओंके साथ उन्हीं भगवान्के समीप दीक्षा ली। पिताके दीक्षा लेनेके बाद युवराज अपराजितने राज्य एवं निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया ।।९।। एक दिन अपराजितने सुना कि गन्धमादन पर्वतपर जिनेन्द्र विमलवाहन और पिता अहंद्दासको मोक्ष प्राप्त हो गया है। यह सुनकर उसने तीन दिनका उपवासकर निर्वाण भक्ति को ।।१०।। एक बार राज अपराजित, कुबेरके द्वारा समर्पित जिन-प्रतिमा एवं चैत्यालयमें विराजमान अर्हत्प्रतिमाकी पूजा कर उपवासका नियम ले मन्दिरमें बैठा हुआ अपनी १. दक्षिणतटे । २. शयिनो क., ख., म. । ३. चारीरमद्धन्याः म.। ४. प्रोषधोऽबुधत् म. । प्रौषधोऽब्रुवत् ख., ग., घ., ङ.।
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४२०
हरिवंशपुराणे काले तत्र मुनी व्योम्नश्चारणाववतेरतुः । नत्वा क्षितौ सुखासीनौ पप्रच्छेति कृताञ्जलिः ॥१२॥ तोषः साधुषु मे नाथौ ! जैनस्याकृत्रिमो युवाम् | अपूर्वो वीक्ष्य किं जातः सहजस्नेहवर्मनः ॥१३॥ अस्ति तत्पूर्वसंबन्धः स्नेहाधिक्यप्रबोधनः । राजनित्याह तत्राद्यः स्रवन्निव गिरामतम् ॥१४॥ पाश्चात्यपुष्करार्द्धस्य विदेहस्यापरस्य हि । रौप्यानेरुत्तरश्रेण्यामस्ति गण्यपुरं पुरम् ॥१५॥ सूर्याभो विभुरस्यासीत्सूर्याभ इति भूपतिः । धारिणी धारिणीवार्या गृहिणी तस्य हारिणी ॥१६॥ पुत्रास्त्रयस्तयोश्चिन्तामनश्चपलपूर्वकाः । गत्यन्ता वे वन्तस्ते स्नेहवन्तः सुपौरुणाः ॥१७॥ तत्रैवारिंजयो राजा पुरेऽरिंजयसंज्ञके । कन्यारयाजितसनाया जाता प्रीतिमती वरा ॥१८॥ सिद्धविद्या प्रसिद्धासौ स्त्रैणगर्हणकारिणी । गुरं प्राह बरं देहि पितरेकममीप्सितम् ॥१५॥ कन्याकूतविदूचे स वृणीव वरमीप्सितम् । तपसोऽन्यमितीदं च श्रुत्वाह प्रोतिमत्यपि ॥२०॥ तपो वरप्रसादो मे पितयदि न दीयते । गतियुद्धे विजेत्रेऽहं देयेत्येष वरोऽस्तु मे ॥२१॥ तथास्त्वित्यभिधायासावाजुहाव नभश्वरान् । स्वयंवरे स्वकन्याया गतियुद्धजिगीषया ॥२२॥ विश्वान् विद्याधरान् प्राप्तान् प्राह कन्यापिता सतः । गतियुद्ध समर्थोऽस्या ददातु दुहितुर्मम ॥२३॥
मेरं प्रदक्षिणीकृत्य कृत्वा जिनवरार्चनम् । प्राप्तस्येह द्वयोः पूर्वमेकस्य विजयो मतः ॥२४॥ स्त्रियोंके लिए धर्मोपदेश कर रहा था ॥११॥ कि उसी समय दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आकाशसे नीचे उतरे। जब दोनों मुनिराज पृथ्वीतलपर सुखसे विराजमान हो गये तव राजा अपराजितने हाथ जोड़ नमस्कार कर उनसे इस प्रकार पूछा-||१२||
हे नाथ ! वैसे तो जैनधर्मके साधुओंको देखकर मुझे अकृत्रिम-स्वाभाविक आनन्द होता ही है परन्तु आप दोनोंके दर्शन कर आज अपूर्व ही आनन्द हो रहा है तथा मेरा स्वाभाविक स्नेह उमड़ पड़ा है सो इसका कारण क्या है ? ||१३|| उन मुनियोंमें जो बड़े मुनि थे वे अपनी वाणीसे अमृत झराते हुएके समान बोले कि हे राजन् ! पूर्वभवका सम्बन्ध ही स्नेहकी अधिकताको प्रकट करनेवाला है। मैं पूर्वभवका सम्बन्ध कहता हूँ सो सुनो-||१४।।
पश्चिम पुष्करार्धके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें जो रूप्याचल है उसकी उत्तर श्रेणी में एक गण्यपुर नामका नगर है ॥१५॥ उस नगरका स्वामी सूर्याभ था जो सचमुच हो सूर्याभ-सूर्यके समान आभावाला था और धारिणी उसकी स्त्री थी जो दूसरी धारिणो-पृथिवीके समान जान पड़ती थी और आर्य तथा अत्यन्त सुन्दरी थी ।।१६।। उन दोनोंके चिन्तागति, मनोगति और चपलगति नामके तीन पुत्र थे, जो अतिशय वेगशाली, स्नेहवान् और उत्तम पराक्रमसे युक्त थे ॥१७॥ उसी समय अरिजयपुरमें राजा अरिजय रहता था उसकी अजितसेना नामकी स्त्री थी और उससे उसके प्रीतिमती नामकी उत्तम कन्या उत्पन्न हुई थी ॥१८॥ प्रीतिमतीको अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं, वह अत्यन्त प्रसिद्ध थी और स्त्रो पर्यायकी सदा निन्दा करती रहती थी। एक दिन उसने अपने पितासे कहा कि हे पिताजी ! मुझे एक इच्छित वर दीजिए ।।१९।। पिता कन्याके भावको जानता था इसलिए उसने कहा कि तपके सिवाय और जो कुछ वर तुझे इष्ट हो सो मांग ले। पिताका उत्तर सुनकर प्रोतिमतीने कहा कि हे पिताजी! यदि तप करनेका वर आप नहीं देते हैं तो यह वर मुझे अवश्य दोजिए कि गतियुद्धमें जीतनेवालेके लिए हो मैं दो जाऊं ॥२०-२१॥ 'तथास्तु' कहकर पिताने कन्याका वर स्वीकृत कर लिया और गतियुद्ध में जीतने की इच्छासे अपनी कन्याका स्वयंवर रचकर उसमें विद्याधरोंको आमन्त्रित किया ।। २२।। तदनन्तर जब सब विद्याधर आ गये तब कन्याके पिताने सबको लक्ष्य बनाते हुए कहा कि आप लोगों में जो भी समर्थ हो वह मेरी पुत्रीके लिए गतियुद्धका अवसर देवे ।। २३ ।। गतियुद्धका रूप यह है कि वर और कन्या जो भी, मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देकर तथा श्री १. सूर्याभवितु-म. (?) । २. मनोहारिणी। ३. नभश्चरं म.। ४. गतियुद्ध म. ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
४२१ जीयेत येन कन्येयं गतियुद्धेऽतिवेगिना । परिणेया तेन वीरेण मन्मनोरथपूरिणा ॥२५॥ श्रत्वेति खेचरास्तस्थुर्जात्वा विद्याधिकाममूम् । विद्यावेगोद्यता बोद्धमुत्तस्थुर्धारिणीसुताः ॥२६॥ ततः परिकरं बद्ध्वा चेतसा च समं तदा । करमास्फाल्य लोकेन मुक्ता माध्यस्थ्यमीयुषा ॥२७॥ अहंयवो दधावुस्ते सार्द्धम पथं पथा । मरुतां मेरुमुद्दिश्य हरन्तो मरुतां स्यम् ॥२८॥ अतिक्रम्य तथा कन्या परीत्य सुरपर्वतम् । भद्रशालवनेऽभ्यर्च्य जिनार्चाः प्राइन्यवर्तत ॥२१॥ वेगश्रमागतस्वेदलवमुक्ताफलाचिंता । प्राप्य नत्वा ददो पित्रे सिद्धशेषां प्रमोदिने ॥३०॥ ततोलमधजया पित्रा मुक्ता मुक्तहिकस्पृहा । 'निर्वृत्त्यन्ते प्रववाज व्रतवातविभूषिता ॥३॥ गतियुद्धे जितास्तेऽपि चिन्तागत्यादयस्तया । दीक्षा दमवरस्यान्ते प्रयोऽपि भ्रातरो दधुः ॥३२॥ अन्ते माहेन्द्रकल्पान्ते प्राप्तसप्ताब्धिजीविनः । सामानिकास्त्रयोऽप्यत्र दिव्यं बुभुजिरे सुखम् ॥३३॥ प्रच्यत्य पुष्कलावत्यामुदकश्रेण्यां ततो नृप । मध्यमावरजी जातौ पुरे गगनवल्लभे ॥३०॥ सुतौ गगनसुन्दयाँ गगनेन्दोः क्रमेण तौ। प्रथमोऽमितवेयाख्योऽमिततेजास्ततोऽनुजः ॥३५॥ दीक्षित्वा पुण्डरीकिण्यां स्वयंप्रमजिनान्तिके। श्रुत्वा पूर्वभवांस्तस्मात्तावावामिह पार्थिव ॥३६॥
पूर्व प्रच्युत्य माहेन्द्रास्प्रजातमपराजितम् । ज्यायांसं द्रष्टुमायातौ त्वां चिन्तागतिपूर्वकम् ॥३७॥ जिनेन्द्र देवकी पूजा कर सबसे पहले वापस आ जावेगा उसी एककी जीत समझो जावेगी ॥२४|| इस प्रकार अत्यन्त वेगसे गमन करनेवाले जिस वीरके द्वारा गतियुद्ध में यह कन्या जोती जावेगी मेरे मनोरथको पूर्ण करनेवाले उसी वीरके द्वारा यह कन्या विवाहने योग्य है ।। २५ ॥ यह सुनकर अन्य विद्याधर उसे अधिक विद्यावती जान चुप-चाप बैठे रहे परन्तु विद्याके वेगसे उद्यत धारिणीके पुत्र चिन्तागति, मनोमति और चपलगति गतियुद्ध करनेके लिए उठकर खड़े हो गये ।। २६ ।। तदनन्तर मनके साथ-साथ परिकर बाँधकर जब सव तैयार हो गये तब मध्यस्थता को प्राप्त हुए लोगोंने हाथ हिलाकर उन्हें छोड़ा ।। २७ ।। अहंकारसे वे चारों व्यक्ति अपने वेगसे वायुके वेगको रोकते हुए, मेरुको लक्ष्य कर आकाशमें दौड़े और आधे मार्ग तक तो साथ-साथ दौड़ते रहे परन्तु उसके बाद कन्याने उन्हें पीछे छोड़ दिया और वह मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देकर तथा भद्रशालवनमें विद्यमान जिन-प्रतिमाओंकी पूजा कर पहले वापस लौट आयी ।।२८-२९ ।। वेगके श्रमसे उत्पन्न पसोनाके कणोंसे जो मोतियोंके समान सुशोभित हो रही थी ऐसी कन्याने आकर पिताके लिए नमस्कार किया एवं पूजाके शेषाक्षत भेंट किये। पुत्रोको विजयसे पिताको अधिक हर्ष हुआ ॥ ३० ॥
तदनन्तर गतियुद्धमें जिसे विजय प्राप्त हुई थी और इस लोक सम्बन्धी भोगोंकी इच्छा जिसकी छूट चुकी थी ऐसी कन्या प्रीतिमतीके लिए पिताने तप धारण करने की अनुमति दे दी जिससे उसने व्रतोंके समूहसे सुशोभित हो निर्वृत्ति नामक आर्यिकाके समीप दीक्षा धारण कर ली ॥३१॥ गतियुद्ध में प्रीतिमतीके द्वारा पराजित चिन्तागति आदि तीनों भाइयोंने भी दमवर मुनि राजके समीप दीक्षा धारण कर ली ॥३२॥ आयुके अन्तमें तीनों भाई माहेन्द्र स्वर्गके अन्तिम पटलमें सात सागरको आयु प्राप्त कर सामानिक जातिके देव हुए और वहाँके दिव्य सुखका उपभोग करने लगे ॥३३।। तदनन्तर हे राजन् ! पुष्कलावती देशके विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में जो गगनवल्लभ नामका नगर है उसमें राजा गगनचन्द्र रहते हैं और स्वीका नाम गगनसुन्दरी है। मध्यम तथा छोटे भाईके जीव माहेन्द्र स्वगंसे च्युत होकर उनके क्रमसे हम अमितवेग और अमिततेज नामक पुत्र हुए हैं ॥३४-३५।। पुण्डरीकिणी नगरीमें स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर उनसे हमने अपने पूर्व भव सुने । हे राजन् ! हमें स्वयंप्रभ जिनेन्द्र ने बताया कि तुम्हारे बड़े भाई चिन्तागतिका जीव माहेन्द्र स्वर्गसे पूर्व ही च्युत होकर १. मरुतां पथा = आकाशेन । २. निर्वृत्तिनामिकार्यिकासमीपे। ३. नृपः म. ग. ।
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४२२
हरिवंशपुराणे अरिष्टनेमिनामाईन् भविता मरतावनी । हरिवंशमहावंशे त्वमितः पञ्चमे भवे ॥३८॥ आयुर्मासावशेषं ते सांप्रतं पथ्यमात्मनः । क्रियतामिति तावुक्त्वा तमापृच्छ्य गती यती ॥३९॥ श्रवणीयं वचः श्रत्वा चारणश्रमणस्य सः। प्रहृष्टोऽपि चिरं दध्यौ तपःकालव्यतिक्रमम् ॥४०॥ अष्टाहं प्रविधायासौ जिनेन्द्रमहमन्ततः । प्रीतिंकरे श्रियं न्यस्य शरीरादिषु निस्पृहः ॥४॥ स द्वाविंशस्यहोरात्रो प्रायोपगमनाञ्चितौ। आराध्यापाच्युतेन्द्रवं द्वाविंशत्यब्धिजीवितः ॥४२॥ च्युत्वा गजपुरे जज्ञे जिनेन्द्रमतमावितः । श्रीचन्द्रश्रीमतोसूनुः सुप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः ॥४३।। सुप्रतिष्ठं प्रतिष्ठाय राज्ये श्रीचन्द्रचन्द्रमाः । सुमन्दिरगरोरन्ते दीक्षित्वा मोक्षमाप्तवान् ॥४४|| श्रीचन्द्रात्मजराजोऽसौ दानं मासोपवासिने । यशोधराय दत्त्वाप वसुधारादिपञ्चकम् ॥४५॥ कार्तिक्यामन्यदा रात्रावष्टस्त्रीशतवेष्टितः । तिष्ट-पतनमुल्काया दृष्टया लक्ष्मी सुदृष्टये ॥४६॥ सुनन्दासूनवे दत्वा सुमन्दिरमहागुरोः । सुप्रतिष्ठोऽप्यदीक्षिष्ट दृष्ट्वोल्कासदृशीं श्रियम् ॥४७॥ चतुःसहस्रख्याताः सहस्रकिरणौजसः । प्रातिष्टन्त तपस्युप्रे सुप्रतिष्ठेन पार्थिवाः ॥४८॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यविवृद्धिमान् । अध्यैष्ट सोऽङ्गापूर्वाणि सरहस्यान्यतन्द्रितः ॥४९॥ तपोविधिविशेषः स सर्वतोभद्रपूर्वकैः । वपुर्विभूषयांचवे सिंहनिःक्रीडितोत्तरैः ।।५।।
श्रवणादपि पापघ्नानुपवासमहाविधीन् । शृणु यादव ! ते वच्मि समाधाय मनः क्षणम् ॥५१॥ यहाँ अपराजित राजा हुआ है सो उसे देखने के लिए हम दोनों आये हैं ।।३६-३७|| हे अपराजित ! तुम इससे पांचवें भवमें भरतक्षेत्रके हरिवंश नामक महावंशमें अरिष्टनेमि नामक तीर्थंकर होओगे ॥३८॥ इस समय तुम्हारी आयु एक माहकी शेष रह गयो है इसलिए आत्महित करो। यह कहकर तथा राजा अपराजितसे पूछकर दोनों मुनिराज विहार कर गये ॥ ३९ ॥ चारणऋद्धिधारी मुनिराजके श्रवण करने योग्य वचन सुनकर राजा अपराजित हर्षित होता हुआ भी चिरकाल तक इस बातको चिन्ता करता रहा कि अहो ! मेरा तप करनेका समय व्यर्थ ही निकल
। ४०॥ वह आठ दिन तक जिनेन्द्र भगवानको पजा करता रहा और अन्तमें प्रीतिकर नामक पुत्रके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर शरीरादिसे निःस्पृह हो गया ॥४१॥ तत्पश्चात् प्रायोपगमन संन्याससे सुशोभित बाईस दिन रात तक चारों आराधनाओंकी आराधना कर वह अच्युत स्वर्गमें बाईस सागरको आयुका धारक इन्द्र पदको प्राप्त हुआ ।। ४२ ॥ वहांसे चयकर नागपुर में श्रीचन्द्र और श्रीमतीके सुप्रतिष्ठ नामका पुत्र हुआ। वह सुप्रतिष्ठ जिनेन्द्रमतकी भावनासे युक्त था ॥ ४३ ॥ राजा श्रीचन्द्ररूपी चन्द्रमा, सुप्रतिष्ठ पुत्रको राज्यसिंहासनपर प्रतिष्ठित कर सुमन्दिर नामक गुरुके पास दीक्षा ले मोक्ष चले गये ।। ४४ । एक दिन राजा सुप्रतिष्ठने मासोपवासी यशोधर मुनिराजके लिए दान देकर रत्नवीष्ट आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥४५॥
कदाचित् राजा सुप्रतिष्ठ कातिककी पूर्णिमाकी रात्रिमें अपनी आठ सौ स्त्रियोंसे वेष्टित हो महलकी छतपर बैठा था। उसी समय आकाशसे उल्कापात हुआ। उसे देख वह राज्यलक्ष्मीको उल्काके समान ही क्षणभंगुर समझने लगा। इसलिए अपनी सुनन्दा रानीके पुत्र सुदृष्टिके लिए राज्यलक्ष्मी देकर उसने सुमन्दिर नामक महागुरुके समीप दीक्षा ले ली ।। ४६-४७।। राजा सुप्रतिष्ठके साथ, सूर्यके समान तेजस्वो चार हजार राजाओंने भी उग्र तप धारण किया था ॥४८॥ मुनिराज सुप्रतिष्ठने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य की वृद्धिसे युक्त हो आलस्य छोड़ गूढार्थसहित ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोका अध्ययन किया तथा सर्वतोभद्रको आदि लेकर सिंहनिष्क्रीडितपर्यन्त विशिष्ट तपोंसे अपने शरीरको विभूषित किया ।।४९-५०।। हे यादव ! श्रवण मात्रसे भी पापोंको नष्ट करनेवाली, उन उपवासोंको महाविधि, मैं तेरे लिए कहता हूँ सो तू क्षण-भरके लिए मन स्थिर कर सुन ॥५१॥ १. हितम् । २. महिमां ततः म.। ३. आराध्य आप अच्युतेन्द्रत्वम् इति पदच्छेदः ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
४२३
एकादिपूपवासेषु पञ्चान्तेपु यथाक्रमम् । अन्तयोः कृतयोरादौ शेषमङ्गसमुद्भवे ।।५।। कल्पितश्चतुरस्रोऽयं प्रस्तारः पञ्चमङ्गकः । सर्वतोऽप्युपवासाश्च गण्याः पञ्चदशात्र हि ॥५३॥ पञ्चभिर्गणितास्ते स्युः संख्यया पञ्चसप्ततिः । ताडिताः पञ्चभिः पञ्च पारणाः पञ्चविंशतिः ॥५४।। सर्वतोमदनामायमुपवासविधिः कृतः । विधत्ते सर्वतोमद्रं निर्वाणाभ्युदयोदयम् ॥५५॥ पञ्चादिषु नवान्तेषु मदोत्तरवसन्तकः । विधिस्तत्रोपवासास्तु पञ्चत्रिंशत्सम परम् ॥५६॥ सप्तान्तेष्वेकपूर्वेषु प्रस्तारे सप्तमङ्ग के । आद्ययोः कृतयोरन्ते सर्वभङ्गेष्वनुक्रमम् ॥५७।। अष्टाविंशतिरिष्टास्ते सर्वतः सप्तपारणाः । स महासर्वतोभद्रः सर्वतोभद्रसाधनः ॥५८॥ पञ्चाद्या यत्र रूपान्ता द्वयाद्यास्ते चतुरन्तकाः। व्याद्या रूपान्तकाः स त्रिलोकसारः स्मृतो विधिः ।।५९॥
सर्वतोभद्र-पाँच भंगका एक चौकोर प्रस्तार बनावे और एकसे लेकर पांच तकके अंक उसमें इस तरह भरे कि सब ओरसे गिननेपर पन्द्रह-पन्द्रह उपवासोंकी संख्या निकल आवे। इन पन्द्रह उपवासोंमें पाँच भंगोंका गुणा करनेसे उपवासोंकी संख्या पचहत्तर और पांच पारणाओंमें पांच भंगोंका गणा करनेसे पारणाओंको संख्या पचीस निकलती है। यह सर्वतोभद्र नामका उपवास है तथा इसकी विधि यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा। इसी प्रकार आगेके भंगोंमें भी समझना चाहिए। यह सर्वतोभद्र व्रत सो दिन में होता है और निर्वाण तथा स्वर्गादिककी प्राप्तिरूप समस्त कल्याणोंको प्रदान करता है॥५२-५५॥
वसन्तभद्र-एक सोधी रेखामें पाँचसे लेकर नो तक अंक लिखे। उन सबका जोड़ पैंतीस होता है। इस प्रकार वसन्तभद्र व्रतमें ३५ उपवास होते हैं। उनका क्रम यह है कि पांच उपवास एक पारणा, छह उपवास एक पारणा, सात उपवास एक पारणा, आठ उपवास एक पारणा और नौ उपवास एक पारणा। इस व्रतमें उपवासोंके ३५ और पारणाओंके ५ इस तरह चालीस दिन लगते हैं ॥५६॥ सर्वतोभद्रयन्त्र
वसन्तभद्रयन्त्र उपवास १
उपवास ५ ६ ७ ८ ९ पारणा १ १ १ १ १ पारणा १ १ १ १ १ उपवास ४ पारणा १११११ उपवास २ पारणा उपवास ५ पारणा ११ १११ उपवास ३ पारणा १ १ १ १ १
महासर्वतोभद्र -सात भंगोंवाला एक चौकोर प्रस्तार बनावे। उसमें एकसे लेकर सात तकके अंक इस रीतिसे लिखे कि सब ओरसे संख्याका जोड़ अट्ठाईस-अट्ठाईस आवे। एक-एक भंगमें अट्ठाईस-अट्ठाईस उपवास और सात-सात पारणाएँ होती हैं। सातों भंगोंको मिलाकर एक सौ छियानबे उपवास और उनचास पारणाएं होती हैं। इसके उपवास और पारणाओंकी विधि पहलेके समान जानना चाहिए। यह महासर्वतोभद्र नामका व्रत कहलाता है तथा सब प्रकारके कल्याणोंका करनेवाला है। इसमें दो सौ पैंतालीस दिन लगते हैं ॥५७-५८।।।
त्रिलोकसारविधि-जिसमें नोचेसे पाँचसे लेकर एक तक, फिर दोसे लेकर चार तक और उसके बाद तीनसे लेकर एकतक बिन्दु रखी जावें वह त्रिलोकसार विधि है। इसका प्रस्तार
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हरिवंशपुराणे
प्रस्तारश्चास्य विन्यस्य त्रिलोका कृतिरत्र तु । धारणाः पारणाश्चापि त्रिंशदेकादशक्रमात् ॥ ६० ॥ फलमस्य विधेः श्रेष्ट कोष्टबीजादिबुद्धयः । त्रिलोकसारभूतं च त्रिलोकशिखरे सुखम् || ६१॥ क्रमेणाद्यन्तमध्येषु यः पञ्चैकोपवासकः । वज्रमध्यो विधिः स स्याद् गण्याः पारणधारणाः ।। ६२ ।। शक्रचक्रिगणेशत्वं समनः पर्ययोऽवधिः । प्रज्ञाश्रमणतो मोक्षो वज्रमध्यविधेः फलम् ||६३ || द्वयाद्यास्ते यत्र पञ्चान्ता द्वयन्ताश्च चतुरादयः । विधिमृदङ्गमध्योऽयं मृदङ्गाकृतिरिष्यते ।। ६४ ।।
४२४
तीन लोकके आकार बनाना चाहिए। इसमें तीस धारणाएँ अर्थात् तीस उपवास और ग्यारह पारणाएँ होती हैं । उनका क्रम यह है पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा । इस विधि में इकतालीस दिन लगते हैं । इस विधिका फल कोष्ठवीज आदि ऋद्धियां तथा तीन लोकके शिखरपर तीन लोकका सारभूत मोक्ष सुखका प्राप्त होना है ।। ५९-६१ ॥
महासर्वतोभद्रयन्त्र
उपवास १ २ ३ ४ ५
१
७
१
२
१
४
पारणा १ १ १ १
५
६
१
१
१
७
१
१
१
उपवास ३ ४ पारणा १ उपवास ५ ६ पारणा १ १ उपवास ७ पारणा १ १ उपवास २ ३ पारणा १
१
२
३
१
१
४
५
१
१
१
६
७
उपवास ४ ५ वारणा १
१
१
१
२ ३
उपवास ६ ७ १ पारणा १ १ १
१ १
१
६
१
१
१
६
१
१
१
३
१
५
१
७
१
२
१
४
१
७
१
२
१
४
१
६
१
१
१
३
१
५
१
त्रिलोकसारविधियन्त्र
०
० ०
० ० ० Co
।
वज्रमध्यविधि - जिसमें आदि और अन्तमें पाँच-पाँच तथा बीचमें घटते घटते एक बिन्दु रह जाये वह वज्रमव्यविधि है इसमें जितनी बिन्दुएँ हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएँ जानना चाहिए। इनका क्रम इस प्रकार है-पांच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा । इस व्रतमें उनतीस उपवास और नो पारणाएँ होती हैं तथा अड़तीस दिनमें समाप्त होता है । इन्द्र, चक्रवर्ती और गणधरका पद, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि और मोक्षका प्राप्त होना इस वज्रमध्यविधिका फल है ।। ६२-६३||
० ० o ० ०
मृदंगमध्यविधि - जिसमें दोसे लेकर पांच तक और चारसे लेकर दो तक बिन्दुएँ रखी जावें वह मृदंगाकार प्रस्तारसे युक्त मृदंगमध्यविधि है। इसमें जितनी बिन्दुएँ हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएं जानना चाहिए। इनका क्रम यह है- दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा । इस प्रकार इस
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चतुर्विंशः सर्गः क्षीरसावित्वमक्षीणमहानसगुणादिकाः । लब्धयोऽधिरन्ते च फलं निर्वाणमस्य च ॥६५॥ पञ्चादयो द्विपर्यन्ताः पञ्चान्ता द्वयादयः परे । विधिरजमध्योऽस्य फलं चानन्तरं श्रतम् ॥१६॥ 'चतुर्थकानि यत्र स्युश्चतुर्विशतिरेव सा । एकावली फलं तस्याः सुखमेकावलीस्थितम् ॥१७॥
व्रतमें तेईस उपवास और सात पारणाएं होती हैं तथा तीस दिनमें समाप्त होता है। क्षीरस्रावित्व, अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, अवधिज्ञान और अन्तमें मोक्ष प्राप्त होना इस व्रतका फल है ।।६४-६५॥ वज्रमध्यविधियन्त्र -
मृदङ्गमध्यविधियन्त्र - ० ० ० ० ० ० ० ० ०
००० ० ० ०
० ० ०
००००० मुरजमध्यविधि-जिसमें पांचसे लेकर दो तक, दोसे लेकर पांच तक बिन्दुएं हों वह मुरजमध्यविधि कहलाती है। इसमें जितनी बिन्दुएँ हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं समझनी चाहिए । इनका क्रम यह है कि पांच उपवास एक पारणा, चार उपवा पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा है। इस प्रकार इसमें अट्ठाईस उपवास और आठ पारणाएँ हैं तथा छत्तीस दिनमें समाप्त होता है। इसका फल मृदंगमध्यविधिके समान है ।।६६||
मुरजमध्यविषियन्त्र -
० ० ० ० ० एकावलीविधि-जिसमें चौबीस उपवास और चौबीस पारणा हों वह एकावलीविधि है। इसमें एक उपवास तथा एक पारणाके क्रमसे चौबीस उपवास और चौबीस पारणाएँ होती हैं। यह व्रत अड़तालीस दिनमें समाप्त होता है तथा अखण्ड सुखको प्राप्ति होना इसका फल है ।।६७॥
एकावलीयन्त्र -
१. विधिरन्ते म.। २. उपवासाः ।
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४२६
हरिवंशपुराणे यत्र षष्ठोपवासाः स्युश्चत्वारिंशत्तथाष्ट च । द्विकावलीयमुद्गीता लोकद्विकसुखावली ॥१८॥ एकाचा यत्र पञ्चान्ता एकान्ताश्चतुरादिकाः । मुक्ताबलीयमाख्याता ख्याता मुक्तावली यथा ।।६९॥ नान्तरीयकमेतस्या लोकालंकरणं फलम् । मुकालयपरिप्राप्तिरन्ते चास्यन्तिकं फलम् ॥७॥ पञ्चान्ता यत्र चैकाद्याः पञ्चायेकान्तिका पुनः । रत्नावलीयमस्याश्च फलं रत्नावलीगुणाः ॥७॥
द्विकावलीविधि-जिसमें अड़तालीस वेला और अड़तालीस पारणाएं हों वह द्विकावलीविधि कही गयी है । यह दोनों लोकोंमें सुखको देनेवाली है। इसमें एक वेलाके बाद एक पारणा होती है । यह व्रत छयानबे दिनमें पूर्ण होता है ।।६८।।
३ द्विकावलीयन्त्र - २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २
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मुक्तावली विधि-जिसमें एकसे लेकर पांच तक और चारसे लेकर एक तक बिन्दुए हों वह मुक्तावली विधि है। यह मोतियोंकी मालाके समान प्रसिद्ध है। इसमें जितनी बिन्दुएं हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएं होती हैं। इस प्रकार इस व्रतमें पचीस उपवास और नो पारणाएँ होती हैं। उनका क्रम यह है-एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पांच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, और एक उपवास एक पारणा। यह व्रत चौंतीस दिन में पूर्ण होता है। इसका साक्षात् फल यह है कि इस व्रतको करते ही मनुष्य समस्त लोगोंका अलंकारस्वरूप श्रेष्ठ हो जाता है और अन्त में सिद्धालयकी प्राप्तिस्वरूप आत्यन्तिक फलको प्राप्ति होती है ॥६९-७०||
रत्नावली विधि-जिसमें एकसे लेकर पांच तक और पांचसे लेकर एक तक बिन्दुएं हों वह रत्नावली विधि है। इसका फल रत्नावलीके समान अनेक गुणोंकी प्राप्ति होना है। इसमें जितनी बिन्दुएं हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जानना चाहिए। उनका क्रम यह है-एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा। इस प्रकार इसमें तोस उपवास और दस पारणाएं होती हैं। यह व्रत चालीस दिनमें पूर्ण होता है ॥७॥ मुक्तावलीविधियन्त्र -
रत्नावलीविधियन्त्र -
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१. दिनद्वयोपवासाः।
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चतुस्त्रिंशः सर्गः
४२७
इन्द्रवज्रावृत्तम् रूपान्तराः पञ्चदशावसाना रूपान्तराः षोडश यत्र चाग्रे। रूपोनकास्तत्परमन्तरूपाः मुक्तावलीयं खलु रत्नपूर्वा ॥७२।।
उपजातिवृत्तम् द्विशत्यशीतिश्चतुरुत्तराः स्युरत्रोपवासाः परिगण्यमानाः । एकोनषष्टिश्च हि भुक्तिकालाः फलं तु रत्नत्रयसारलब्धिः ।।७३।।
शार्दूलविक्रीडितम एको द्वौ च नव त्रिकाण्यपि ततश्चैकादिमिः षोडश
प्राज्ञैस्ते गणिताश्चतुस्विकयुतं त्रिंशस्त्रिकाण्येव तु । रत्नमुक्तावलीविधि-एक ऐसा प्रस्तार बनाया जावे जिसमें रूप अर्थात् एक-एकका अन्तर देते हुए एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंक लिखे जावें। उसके आगे एक-एकका अन्तर देकर सोलह लिखे जावें और उसके आगे एक-एकका अन्तर देते हुए एक-एक कम कर अन्तमें एक आ जावे
लिखे। इसमें प्रारम्भमें प्रथम अंकसे दसरा अंक लिखते समय बीचमें और अन्तमें दोसे प्रथम अंक लिखते समय बीचमें पुनरुक्त होनेके कारण एकका अन्तर नहीं देवे। इस व्रतमें सब अंकोंका जोड़ करनेपर दो सौ चौरासी उपवास और उनसठ पारणाएं होती हैं। उस उपवासमें तीन सौ तैंतालीस दिन लगते हैं। इसका फल रत्नत्रयकी प्राप्ति है। इसकी विधि यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, एक उपवास एक पारणा आदि ||७२-७३।।
कनकावलीविधि-जिसमें एकका अंक, दो का अंक, नौ बार तीनका अंक, फिर एकसे लेकर सोलह तकके अंक, फिर चौंतीस बार तीनके अंक, सोलहसे लेकर एक तकके अंक, नौ बार तीनके अंक तथा दो और एकका अंक लिखा जावे अर्थात् इस क्रमसे चार सौ चौंतीस उपवास और अठासी पारणाएं की जावें वह कनकावली व्रत है। लोकान्तिक देव पदकी प्राप्ति होना अथवा संसारका अन्तकर मोक्ष प्राप्त करना इस व्रतका फल है। इसका क्रम यह है कि एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा आदि। इस व्रतके उपवासोंकी गणना निकालनेकी दूसरी विधि यह है कि एकसे लेकर सोलह तक दो बार संख्या लिखे और उसे आपसमें
रत्नमुक्तावलीयन्त्र -
१२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९११०१११११२११३ ११४११५ ११६ १११११११११११११११११११११११११ १ १ १ १ ११५११४११३ ११२१११११०१९१८१७१६१५१४ १३१२१ कनकावलीयन्त्र -
१ २ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९१० ११ १२ १३ १४ १५ १६ ३ ३
३ ३ ३ ३ ३ ३ ३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३३ १११ ११ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ३३३१६१५१४१३१२१११०९८७६ ५४३२१३३३३३३३ ३ ३ २.१
१. रूपान्तराख्यं च दशा ख. । २. -स्तद्गणिता म.।
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४२८
हरिवंशपुराणे रूपान्तान्यपि षोडशप्रभृतयो रन्ध्र 'त्रिकं द्वय कर्क
यत्रषा कनकोवली प्रकुरुते लोकान्तिकत्वं फलम् ॥७॥ द्विध्ने संकलिते हि षोडशगते त्रिनात्मकोच्चैश्चतुः
पञ्चाशत् त्रिकयोज्ययोजितचतुःशल्याश्चतुस्त्रिंशता । द्विध्नैकादश षोडशान्वितचतुस्विंशद्दिनैः साशन -
वर्ष द्वादशवासरैरमिहिताः पञ्चेह मासा विधौ ॥७५।। एकद्वित्रिचतुर्द्विकानि सहितैस्ते षोडशैकादिभि
विज्ञेयानि सितं चतुर्द्विकयुतं त्रिंशद्विकान्यादरात् । एकान्ता खलु षोडशादय इह ह्यष्टौ द्विकान्येव त विदयकोऽपि च यत्र ते प्रकथिता रत्नावलीयं परा ॥७६॥
स्रग्धरावत्तम् षटपञ्चाशदद्विकोत्थे द्विकपरिगुणिते मिश्रिते षोडशोत्थ
द्वासप्तत्या द्विशत्याशनिरसनगणो गण्यते मिश्रितेऽस्मिन् ।
जोड़ देनेपर जितनी संख्या हो उसमें चौवनके तिगुने एक सौ बासठ और मिला दें। ऐसा करनेसे चार सौ चौंतीस उपवास निकल आते हैं और अठासी स्थान होनेसे अठासी पारणाएँ होती हैं। इस कनकावली विधिमें एक वर्ष पाँच मास और बारह दिन लगते हैं ।।७४-७५।।
दूसरे प्रकारको रत्नावलीविधि-जिसमें रत्नोंके हारके समान एक प्रस्तार बनाकर बायीं ओर पहले बेलाका सूचक दो बिन्दुओंका एक द्विक लिखे, फिर दो बेलाओंके सूचक दो द्विक लिखे, फिर तीन बेलाओंके सूचक तीन द्विक लिखे, फिर चार बेलाओंके सूचक चार द्विक लिखे। इसके आगे एक उपवासको सूचक एक बिन्दु लिखे, उसके बाद दो उपवासोंकी सूचक दो बिन्दुएं बराबरीपर लिखे। तदनन्तर इसके आगे इसी प्रकार तीन आदि उपवासोंकी सूचक सोलह तक बिन्दुएं रखे। फिर वे बायीं ओरसे दाहिनी ओर गोलाकार. बढ़ते हुए बत्तीस बेलाओंके बत्तीस द्विक लिखे और उनके नीचे चार बेलाओंके सूचक चार द्विक लिखे। तीस द्विकके ऊपर सोलह आदि उपवासोंके सूचक सोलहसे लेकर एक तक बराबरीपर सोलह पन्द्रह आदि बिन्दुएँ रखे। और उसके आगे आठ बेलाओंके सूचक आठ द्विक, तीन बेलाओंके सूचक तीन द्विक, दो बेलाओंके सूचक दो द्विक तथा एक बेलाका सूचक एक द्विक लिखे। इस व्रतमें छप्पन द्विकके द्विगुणित एक सौ बारह तथा दोनों ओरकी षोडशियोंके दो सौ बहत्तर इस प्रकार सब मिलाकर तीन सौ चौरासी उपवास और अठासी स्थानोंके अठासी भुक्तिकाल होते हैं। यह व्रत एक वर्ष तीन माह और बाईस दिनमें पूरा होता है तथा रत्नत्रयरूपी तेजको बढ़ानेवाला है अर्थात् इस व्रतके फलस्वरूप रत्नत्रयमें निर्मलता आती है। इसकी विधि इस प्रकार है-एक बेला एक पारणा, एक बेला एक पारणा, इस क्रमसे दश बेला दश पारणा, फिर एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा इस क्रमसे सोलह उपवास तक बढ़ाना चाहिए। फिर एक बेला एक पारणा इस क्रमसे तीस बेला तीस पारणा, फिर षोडशीके सोलह उपवास एक पारणा, पन्द्रह उपवास एक पारणा, इस क्रमसे एक उपवास एक
१. द्विकं श्येककं म.। २. एकः द्वौ, नववारं त्रयः, एकः द्वौ त्रयः इत्यादि षोडशपर्यन्ताः, ततः चतुस्त्रिशद्वार उपवासत्रिक ( तेला) ततः षोडश पञ्चदश इत्याद्यकपर्यन्ताः, ततः नववार उपवासत्रिकं ततो द्वावेकश्च इति कनकावली। ३. पारणादिवसः। ४. कनकावलीसमयः एको वर्षः पञ्चमासाः द्वादशदिनानि । ५. गिरि क., म.। ६. अन्तं।
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चतुस्त्रिंशः सर्गः
४२९ अष्टाशीत्या समाहैरिह भवति विधाकालसंख्याप्यहोमि
विंशत्या त्रिरत्नातिकृतिसुकृते वर्षमेकं त्रिमास्या ॥७॥ पारणा तक आना चाहिए। फिर एक बेला एक उपवासके क्रमसे बारह बेला और बारह पारणाएं तत्पश्चात् नीचेके चार बेला और चार पारणाएं करनी चाहिए ।।७६-७७।।
द्वितीयरत्नावलीयन्त्र -
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४०
१. विधो ग. म. । २. रत्नावली समय एको वर्षस्त्रयो मासा द्वाविंशतिदिनानि ।
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हरिवंशपुराणे
अनुष्टुप्
द्वौ द्वौ चैकादयः शस्ताः पञ्चपर्यवसानकाः । हीने ह्युभयतः षष्टिः सिंहनिष्क्रीडिते विधौ ॥७८॥ त एक चाष्टपर्यन्ता नवं च शिखराः पुनः । मध्यमेऽप्युपवासाः स्युखि पञ्चाशं शतं स्फुटम् ॥७९॥
४३०
सिंहनिष्क्रीडित विधि - सिंहनिष्क्रीडित व्रत जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है, उनमें हीन अर्थात् जघन्य सिंहनिष्क्रीडित व्रतका क्रम इस प्रकार है। एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एक से लेकर पाँच तकके अंक दो दो वार आ जावें तथा वे पहलेके अंकोंमें दो-दो अंकोंकी सहायता से एक-एक बढ़ता और घटता जाय इस रीतिसे लिखे जावें । पुनः पाँचसे लेकर एक तक के अंक भी दो-दो बार पूर्वोक क्रमसे लिखे जावें । समस्त अंकोंका जोड़ करनेपर जितनी संख्या हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएँ जानना चाहिए। इस व्रतके प्रस्तारका आकार यह है
१ १ १ १ १ १ २ १ ३ २
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१ १ ४ ३ ५ ४ ५ ५
१ १ १ १ १ १ ४ ५ ३ ४ २ ३ १ २ १
इसमें पहले एक उपवास एक पारणा और दो उपवास एक पारणा करना चाहिए। फिर दो में से एक उपवासका अंक घट जानेसे एक उपवास एक पारणा, दोमें एक उपवासका अंक बढ़ जाने से तीन उपवास एक पारणा, तोनमें एक उपवासका अंक घट जानेसे दो उपवास एक पारणा, तीनमें एक उपवासका अंक बढ़ जानेसे चार उपवास एक पारणा, चारमें से एक उपवासका अंक घट जानेसे तीन उपवास एक पारणा, चारमे एक उपवासका अंक बढ़ जानेसे पांच उपवास एक पारणा, पाँच में से एक उपवासका अंक कमा देनेपर चार उपवास एक पारणा, चारमें एक उपवासका अंक बढ़ा देनेपर पाँच उपवास एक पारणा होती है । यहाँपर अन्तमें पाँचका अंक आ जानेस पूर्वार्ध समाप्त हो जाता है । आगे उलटी संख्यास पहले पाँच उपवास एक पारणा करनी चाहिए | पश्चात् पांचमे से एक उपवासका अंक कमा देनेपर चार उपवास एक पारणा, चार में एक उपवासका अक बढ़ा देनेपर पाँच उपवास एक पारणा, चारमें से एक उपवासका अंक घटा देनेपर तीन उपवास एक पारणा, तीनमें एक उपवासका अंक बढ़ा देनेपर चार उपवास एक पारणा, तीन में से एक उपवासका अंक घटा देनेपर दो उपवास एक पारणा, दोमें एक उपवासका अंक बढ़ा देनेसे तोन उपवास एक पारणा, दोमें से एक उपवासका अंक घटा देनेपर एक उपवास एक पारणा, फिर दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा करना चाहिए। इस जघन्य सिंहनिष्क्रीडित व्रतमें समस्त अंकोंका जोड़ साठ होता है इसलिए साठ उपवास होते हैं और स्थान बोस हैं इसलिए पारणाएं बीस होती हैं । यह व्रत अस्सी दिनमें पूर्ण होता है ॥७८॥ मध्यम सिंहनिष्क्रीडित विधि - मध्यम सिंहनिष्क्रीडित व्रत में एकसे लेकर आठ अंक तकका प्रस्तार बनाना चाहिए और उसके शिखरपर नौ अंक लिखना चाहिए। उसके बाद उलटे क्रमसे एक तकके अंक लिखना चाहिए । यहाँ भी जघन्य निष्क्रीडितके समान दो-दो अंकों की अपेक्षा एक-एक उपवासका अंक घटाना-बढ़ाना चाहिए। इस रीतिसे लिखे हुए समस्त अंकों का जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएँ समझनी चाहिए। इस तरह इस व्रतमें एक सो त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएं होती हैं। यह व्रत एक सौ छियासी दिन में पूर्ण होता है । इसका प्रस्तार इस प्रकार है - ॥ ७९ ॥
१ १ १
१
१
८
२ १ ३
१
७
१. त्वेकादयः म ।
१ १ १ १ १ १ २ ४
१
१
८ ६
१ १
७ ५
३ ५ ४ ६ ५ ७
१
६
१ १ १ १ १ १ १ १
६ ८
७ ८ ९
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४
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१
१
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चतुस्त्रिंशः सर्गः
पूर्वे पञ्चदशान्तास्तु शिखरे षोडशाधिकाः । उस्कृष्ट तत्र ते वेद्याः षण्णवस्या चतुःशती ॥८॥
उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित विधि-उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित व्रतमें एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंकोंका प्रस्तार बनाना चाहिए और उसके शिखरमें सोलहका अंक लिखना चाहिए। उसके बाद उलटे क्रमसे एक तकके अंक लिखना चाहिए। यहाँपर भी जघन्य और मध्यम सिंहनिष्क्रीडितके समान दो-दो अंकोंकी अपेक्षा एक-एक उपवासका अंक घटाना-बढ़ाना चाहिए। इस रीतिसे लिखे हुए समस्त अंकोंका जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाननी चाहिए। इस तरह इस व्रतमें चार सौ छियानबे उपवास और इकसठ पारणाएं होती हैं। यह व्रत पाँच सौ सत्तावन दिनमें पूर्ण होता है। इसका प्रस्तार इस प्रकार है---||८||
१ २ १ ३ २ ४ ३ ५ ४ ६ ५ ७ ६ ८ ७ ९ ८१० ९ ११ १० १२ ११
१३ १२ १४ १३ १५ १४ १५ १६ १५ १४ १५ १३ १४ १२ १३
११ १२ १० ११ ९ १० ८ ९ ७ ८ ६ ७ ५ ६ ४ ५ ३ ३ २ ३ १ २ १
विशेष-७८, ७९, ८०वें श्लोकोंका एक सीधा-साधा अथं इस प्रकार भी हो सकता है विद्वज्जन इसपर विचार करें
जघन्य सिंहनिष्क्रीडित विधिमें एकसे लेकर पांच तकके अंक दो-दोकी संख्यामें लिखें और उसके बाद उलटे क्रमसे पांचसे एक तक के अंक दो-दोको संख्यामें लिखें। दोनों ओरके सब अंकोंका जोड़ कर देनेपर साठ उपवास और बीस पारणाएं होती हैं ॥७८॥
मध्यम सिंहनिष्क्रीडितमें एकसे लेकर आठ तकके अंक दो-दोकी संख्यामें लिखें और उनके ऊपर शिखरस्थानपर नौका अंक लिखे फिर उलटे क्रमसे एक तकके अंक दो-दोकी संख्या में लिखे। सब अंकोंका जोड़ करनेपर एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएं आती हैं ॥७९।।
उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडितमें एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंक दो-दोकी संख्यामें लिखे और उसके ऊपर शिखरस्थानपर सोलहका अंक लिखे फिर उलटे क्रमसे एक तकके अंक दो-दोकी संख्या में लिखे सब अंकोंका जोड़ करनेपर चार सौ छियानबे उपवास और इकसठ पारणाएं होती हैं।
इनके प्रस्तार इस कमसे जानना चाहिए
जघन्य सिंहनिष्क्रीडित
११२२३३४४५५
५५४४३३२२११
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४३२
हरिवंशपुराणे
मध्यम सिंहनिष्क्रीडित
११२२३३४४५५६६७७८८
८८७७६६५५४४३३२२११ ११११११११११११११११
उत्कृष्टसिंहनिष्क्रोडिति
११११११११११११ ११ ११ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ . ११२२३ ३ ४ ४५५६६७७८८९९ १० १० ११ ११ १२ १२ १३ १३ १४ १४ १५ १५ ॥
.१५ १५ १४१४१३ १३ १२ १२ १११११०१०९९८८७७६६ ५ ५ ४ ४ ३ ३ २२११
सिंहनिष्कीडित व्रतमें कल्पना यह है कि जिस प्रकार सिंह किसी पर्वतपर क्रम-क्रमसे चढ़ता हुआ उसके शिखर पर पहुंचता है, बादमें क्रम-क्रमसे नीचे उतरता है उसी प्रकार मुनिराज क्रम-क्रमसे उपवास करते हुए तपरूपी पवंतके शिखर चढ़ते हैं और उसके बाद क्रम-क्रमसे नीचे उतरते हैं।
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चतुस्त्रिंशः सर्गः
आर्या पञ्चानां संकलिते चतुर्मणो षष्टिरेवमष्टानाम् । नवमिमिश्रितमध्यः पञ्चदशानां च षोडशमिः ॥८॥
अनुष्टुप विंशतिश्च त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिश्च पारणाः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टसिंह निष्क्रीडितं क्रमात् ।।८।। वज्रसंहननोऽनन्तवीर्य सिंह इवामयः । अणिमादिगुणः सिद्धयेत्फलेनास्य नरोऽचिरात् ॥८॥
हरिणीच्छन्दः प्रतिदधिमुखं चत्वारस्ते निरस्तमनोमलाः प्रतिरतिकरं चाष्टौ यत्र ह्य पोषितवासराः । प्रतिदिशमथो षष्ठं काय तथा जनकान्प्रति व्रतविधिरयं श्रेष्ठो नन्दीश्वरो जिनचक्रिकृत् ॥४॥
ग्रन्थकर्ताने तीनों प्रकारके सिंहनिष्क्रीडित व्रतोंकी संख्या और पारणा गिननेकी एक सरल रीति यह भी बतलायी है कि जघन्यसिंहनिष्क्रोडित व्रतमें एकसे लेकर पांच तकके अंक लिखकर सबको जोड़ ले फिर उसमें चारका गुणा कर दे। जैसे एकसे लेकर पांच तकके अंकोंका जोड़ पन्द्रह होता है उसमें चारका गुणा करनेपर उपवासोंको संख्या साठ आती है । मध्यमसिंहनिष्क्रोडित व्रतमें एकसे लेकर आठ तकके अंक लिखकर सबको जोड दे फिर उसमें चारका गर कर दे और शिखरके नौ अलगसे जोड़ दे। जैसे-एकसे लेकर आठ तकके अंकोंका जोड़ छत्तीस होता है उसमें चारका गुणा करनेपर एक सौ चवालोस आते हैं उसमें शिखरके नौ जोड़ देनेपर उपवासोंकी संख्या एक सौ श्रेपन होती है। उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडितमें एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंक लिखकर उनका जो जोड़ हो उसमें चारका गुणा करे फिर शिखरके सोलह अलगसे जोड़ दे । जैसे एकसे पन्द्रह तकके अंकका जोड़ एक सौ बीस होता है। उसमें चारका गुणा करनेपर चार सौ अस्सी होते हैं। उसमें शिखरके सोलह जोड़ देनेपर उपवासोंकी संख्या चार सौ छ्यानबे होती है ।।८१॥ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित व्रतोंकी पारणाएं क्रमसे बीस, तैंतीस और इकसठ होती हैं ॥८२॥ इस व्रतके फलस्वरूप मनुष्य वज्रवषभनाराच संहननका धारक, अनन्तवीयंसे सम्प सिंहके समान निर्भय और अणिमा आदि गुणोंसे युक्त होता हुआ शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है । ८३॥
नन्दीश्वर व्रतविधि-नन्दीश्वर द्वीपको एक-एक दिशामें चार-चार दधिमुख हैं इसलिए
नन्दीश्वर व्रतविधि
यन्त्र
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४३४
हरिवंशपुराणे
रथोद्धता मेरुषु प्रतिवनं तु षष्ठतः प्रत्यगारमदिता चतुर्थकान् ।
मेरुपङक्तिविधिरेषु मेरुषु प्रापयिष्यति महामिषेचनम् ॥८५।। प्रत्येक दधिमुखको लक्ष्य कर मनकी मलिनताको दूर करते हए चार उपवास करना चाहिए। एक-एक दिशामें आठ-आठ रतिकर हैं इसलिए प्रत्येक रतिकरको लक्ष्य कर आठ उपवास करना चाहिए । एक-एक दिशामें एक-एक अंजनगिरि है इसलिए उसे लक्ष्य कर एक बेला करना चाहिए। इस प्रकार एक दिशाके बारह उपवास एक बेला और तेरह पारणाएँ होती हैं। यह व्रत पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाके क्रमसे चारों दिशाओंमें करना चाहिए। इसमें अड़तालीस उपवास, चार बेला और बावन पारणाएं हैं। इस तरह यह व्रत एक सौ आठ दिनमें पूर्ण होता है। यह नन्दीश्वर व्रत अत्यन्त श्रेष्ठ है और जिनेन्द्र तथा चक्रवर्तीके करानेवाला है ।।८४||
__ मेरुपंक्तिव्रत विधि-जम्बूद्वीपका एक, धातकीखण्ड पूर्वदिशाका एक, धातकीखण्ड पश्चिम दिशाका एक, पुष्कराधं पूर्व दिशाका एक और पुष्करार्ध पश्चिम दिशाका एक इस प्रकार कुल पांच मेरु पर्वत हैं। प्रत्येक मेरु पर्वतपर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चार वन हैं और एक-एक वनमें चार-चार चैत्यालय हैं। मेरुपंक्तिवतमें वनोंको लक्ष्य कर बेला और
मेरुपंक्तिवत यन्त्र
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१. ८० उपवासाः २० षष्ठानि ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
उपजातिः
चतुश्चतुर्थान्वितषष्ठकेन त्रिषष्टितावेष्टनभागषष्ठे ।
विमानपङ्क्तिर्विधिरस्य कर्ता विमान पङ्क्तीश्वर भावकर्ता ॥ ८६ ॥
चैत्यालयोंको लक्ष्य कर उपवास करने पड़ते हैं। इस प्रकार इस व्रतमें पाँचों मेरु सम्बन्धी अस्सी चैत्यालयोंके अस्सी उपवास और बीस वन सम्बन्धी बीस बेला करने पड़ते हैं तथा सो स्थानोंकी सौ पारणाएँ होती हैं। इसमें दो सौ बीस दिन लगते हैं । व्रत, जम्बूद्वीपके मेरुसे शुरू होता है । इसमें प्रथम ही भद्रशाल वनके चार चैत्यालयोंके चार उपवास; चार पारणाएँ और वनसम्बन्धी एक बेला, एक पारणा होती है । फिर नन्दन वनके चार चैत्यालयोंके चार उपवास, चार पारणाएँ और वन सम्बन्धी एक बेला एक पारणा होती है । फिर सोमनस वनके चार चैत्यालयोंके चार उपवास चार पारणाएँ और वन सम्बन्धी एक बेला एक पारणा होती है । तदनन्तर पाण्डुक वनके चार चैत्यालयोंके चार उपवास चार पारणाएँ और वन सम्बन्धी एक बेला एक पारणा होती है । इसी क्रमसे धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व और पश्चिम मेह तथा पुष्करार्धं द्वीपके पूर्व और पश्चिम मेरु सम्बन्धी उपवास बेला और पारणाएँ जानना चाहिए। यह मेरुपंक्तिव्रत, मेरु पर्वतपर महाभिषेकको प्राप्त कराता है अर्थात् इस व्रतका पालन करनेवाला पुरुष तीर्थंकर होता है ||८५॥ विमानपंक्ति विधि - इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकके भेदसे विमान तीन प्रकारके हैं । इन्द्रक विमान बीचमें है और श्रेणीबद्ध विमान चारों दिशाओं में श्रेणीरूपसे स्थित हैं । ऋतु विमानको आदि लेकर इन्द्रक विमानोंकी संख्या त्रेसठ है । विमानपंक्तिव्रतमें इनकी चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध विमानोंकी अपेक्षा चार उपवास, चार पारणाएँ और इन्द्रककी अपेक्षा एक बेला एक पारणा होती है । इस तरह त्रेसठ इन्द्रक विमानोंकी चार-चार श्रेणियोंकी अपेक्षा चार-चार उपवास होनेसे ये दो सौ बावन उपवास तथा त्रेसठ इन्द्रक सम्बन्धी त्रेसठ बेला होते हैं । त्रेसठ बेलाके बाद एक तेला होता है इस प्रकार उपवास २५२ बेला ६३ और तेला १ सब मिलाकर तीन सौ सोलह स्थान होते हैं अत: इतनी ही पारणाएँ होती हैं। यह व्रत पूर्व, दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशाके क्रमसे होता है । चारों दिशाओंके चार उपवासके बाद बेला होता है । इसमें कुल छह सौ सत्तानबे दिन लगते हैं । यह व्रत विमानोंकी ईश्वरता प्राप्त करानेवाला है अर्थात् इस व्रतका करनेवाला मनुष्य विमानोंका स्वामी होता है || ८६ ॥
विमानपंक्तियन्त्र --
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१. ६८७ दिनेषु समाप्यते अत्र ३१६ स्थानानि ।
ه
. ६३ x ४ = २५२ उपवास ६३x १.
६३ वेला
१ तेला
३१६ ३१६ पारणा
४३५
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हरिवंशपुराणे
रथोद्धता रूपमादिरधि यत्र पञ्च ते त्रिस्ततो भवति रूपमप्यतः । शातकुम्भविधिरेष संभवे शातकुम्मसुखदस्तृतीयके ॥४७॥
शातकुम्भ विधि-शातकुम्भ विधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारको है उनमें जघन्य शातकुम्भ विधि इस प्रकार है । एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एकसे लेकर पांच तकके अक्षर पांच, चार, तीन, दो, एकके क्रमसे लिखे। तदनन्तर प्रथम अंक अर्थात् पांच को छोड़कर अवशिष्ट अंकोंको चार, तीन, दो, एकके क्रमसे तीन बार लिखे। सब अंकोंका जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाने। इस विधिमें पैंतालीस उपवास और सत्तरह पारणाएं हैं, यह बासठ दिनमें पूर्ण होता है। प्रस्तारका आकार इस प्रकार है
५ ४ ३ २ १ ४ ३ २ १ ४ ३ २ १ ४ ३ २ १
मध्यमशातकुम्भ विधि-एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एकसे लेकर नौ पर्यन्त तकके अंक नौ, आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन, दो, एकके क्रमसे लिखे । तदनन्तर प्रथम अंक अर्थात् नोको छोड़कर आठ-सात आदिके क्रमसे अवशिष्ट अंकोंको तीन बार लिखे। सब अंकोंका जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाने। इस व्रतमें एक सौ त्रेपन उपवास और तैंतीस पारणाएं हैं। यह व्रत एक सौ छियासी दिन में पूर्ण होता है। इसका प्रस्तार इस प्रकार है
९
८
७
६
५
४
३
२
१
८
७
६
५
४
३
२
१
८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १
उत्कृष्ट शातकुम्भ विधि-एक ऐसा प्रस्तार बनावे जिसमें एकसे लेकर सोलह तकके अंक सोलह पन्द्रह चौदह आदिके क्रमसे एक तक लिखे फिर प्रथम अंकको छोड़कर अवशिष्ट अंकोंका जितना जोड़ हो उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जाने। इस व्रतमें चार सौ छियानबे उपवास और इकसठ पारणाएँ हैं। यह विधि पांच सौ सन्तावन दिनमें पूर्ण होती है। इसका प्रस्तार इस प्रकार है
ह
३
२
१
१५
१४
१३
१२ ११
१० ९
८
७
१
१५
१४ १३
१२ ११ १० ९
६ ८
५ ७
४ ६
३ ५
२ ४
३
२
१
१५
१४ १३ १२ ११
१० ९ ८७ ६५ ४ ३ २१
यह विधि सुवर्णमय कलशोंसे अभिषेक सम्बन्धी सुखको देनेवाली है। यह इन १. ४५ उपवासाः १७ पारणाः ।
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कवल १ उपवास ...
आर्या
एकादयः प्रणीता विधयोऽमी शातकुम्भपर्यन्ताः । पञ्चनवषोडशान्ता भवन्त्यपि प्रथममध्यमोत्कृष्टाः ॥ ८८ ॥ उपजातिवृत्तम्
यथोक्तमेषां हि तपोविधीनां विधेरशक्तरुपवाससंख्या । यथात्मशक्ति स्वहितप्रवृत्तैश्चतुर्थषष्ठाष्टमतोऽपि पूर्या ॥ ८९ ॥ स्रग्धरा
योऽमावस्योपवासी प्रतिपदि कवलाहारमात्रः पुरस्ता
सद्वृद्धया पौर्णमास्यामुपवसनयुतोद्धासयन् ग्रासमध्रे । साभावस्योपवासः स मजति तपसश्चन्द्रगत्यानुपूर्या
पोंकी विधि कही है परन्तु जो मनुष्य इनके करनेमें असमर्थ हैं वे अपनी शक्तिके अनुसार आत्महित में प्रवृत्त होते हुए उपवास, बेला तथा तेलाके द्वारा भी उपवासोंकी निश्चित संख्या पूरी कर सकते हैं ||८७-८९ ।।
कवल २
चान्द्रायणविधि - चान्द्रायण व्रत चन्द्रमाकी सुन्दर गतिके अनुसार होता है। इस व्रतका करनेवाला अमावस्या के दिन उपवास करता है फिर प्रतिपदाको एक कवल - एक ग्रास मात्र आहार लेता है । तदनन्तर द्वितीयादि तिथियों में एक-एक ग्रास बढ़ाता हुआ चतुर्दशीको चौदह कवलका आहार करता है। पूर्णिमाके दिन उपवास करता है फिर चन्द्रमाकी कलाओंके अनुसार
कवलचान्द्रायणविधियन्त्र -
कयल 2
कथल ४
चाय चान्द्रायणस्य प्रविततयशसः कर्तृणः कर्तृभावम् ॥ ९० ॥
कथल ५
कवल ५
कवल ७
कवल ८
चतुस्त्रिंशः सर्गः
A
कवल ९
केवल १०
कवल ११
कवल १३
कवल १२
कवल १४
उपवास
१४ केवल
१३ कवल
१२ कवल
११ कवल
१५ कवल
कवल
कंवल
७ कवल
६ कवल
५ केवल
४ कवल
३ कवल
४३७
कवस
1 कवल
१. १५३ उपवासाः ३३ पारणाः । २. ४९६ उपवासाः ६१ पारणाः । ३. अमावस्यायामुपवास: प्रतिपदि एककवलाहारः एवं क्रमेण चतुर्दश्यां चतुर्दशकवलाहारः तत उपवासः कृष्णप्रतिपदि चतुर्दशकवलाहारः एवमूनक्रमेण पुनरमावस्यायामुपवासः । ★ एक हजार चावलोंका एक कवल होता है । अतः एक हजार चावलों का जितना परिमाण हो उतना कवल बनाना चाहिए ।
....... उपवास
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४३८
हरिवंशपुराणे
रथोद्धता प्रागुपोष्य कवलस्य भोजनं सप्तमान्तमपि सैकवृद्धिकम् । सप्तकृत्व इति यत्र तु क्रिया सप्तसप्तमतपोविधिस्वसौ ॥११॥
आर्या अष्टाष्टमनवनवमौ दशदशमैकादशो विधयः । द्वात्रिंशद्वात्रिंशद्विध्यन्ता एवमात्मका बोध्याः ॥१२॥
अनुष्टुप एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ता भुक्तिपिण्डकाः । प्रत्येक सप्तमान्ताः स्युः सप्तसप्तमकेऽथवा ॥१३॥ अष्टान्तादिषु विज्ञेयः शेषेष्वपि विधिस्वयम् । क्रमेणकोपवासादिकवलक्रमसंज्ञकः ॥१४॥
आर्या आचाम्लवर्धमाने भवन्ति सौवीरभुक्तयस्त्वेकाद्याः । सोपोषिता दशान्ता दशादयश्चापि रूपान्ताः ।।१५।। निर्विकृति पूर्वार्धः सैकस्थानस्तु पश्चिमाश्च ।
आचाम्लवर्धमानाः क्रमेण विधयो विधेयास्ते ॥१६॥ एक-एक कवल घटाता हुआ चौदह, तेरह, बारह आदि कवलोंका आहार लेता है और अन्त में अमावास्याको पुनः उपवास करता है । यह व्रत इकतीस दिन में पूर्ण होता है और यशको विस्तृत करनेवाला है अतः इस व्रतको करनेवाला यशको प्राप्त होता है ॥९॥
सप्तसप्तमतपोविधि-जिसमें पहले दिन उपवास और उसके बाद एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए आठवें दिन सात ग्रासका आहार लिया जाय फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए अन्तिम दिन उपवास किया जाय। इसी प्रकारको क्रिया सात बार की जाय । वह सप्तसप्तमविधि है ॥११॥
अष्टअष्टम, नवनवमादिविधि-सप्तसप्तमविधिके अनुसार अष्टअष्टम, नवनवम, दशदशम, एकादशएकादश और द्वादशद्वादशको आदि लेकर द्वात्रिंशद्वात्रिंशद् तककी विधि भी इसी प्रकार जानना चाहिए। जितनेवीं विधि प्रारम्भ की जावे उसमें प्रथम दिन उपवास रखकर एकएक ग्रास बढ़ाते हुए उतने ग्रास तक आहार लेना चाहिए। फिर एक-एक ग्रास घटाते हुए एक ग्रास तक आवे और अन्तिम दिनका उपवास रखना चाहिए। मनुष्यका स्वाभाविक भोजन बत्तीस ग्रास बतलाया है, अतः यह व्रत भी बत्तीस ग्रास तक ही सीमित रखा गया है ।।९२॥ अथवा सप्तसप्तमविधिका एक दूसरा क्रम यह भी बतलाया गया है कि पहले दिन उपवास न कर क्रमसे एक, दो, तीन, चार, पांच, छह और सात कवलका आहार ले जब एक दौर पूर्ण हो जावे तो यही क्रम फिर करे। इस तरह सात बार इस क्रमके कर चुकनेपर यह व्रत पूर्ण होता है ।।१३।। अष्टअष्टम आदि विधियोंमें भी यही क्रम जानना चाहिए। इनमें क्रमसे एक उपवाससे प्रारम्भ कर एक-एक ग्रास बढ़ाते जाना चाहिए ॥१४॥
आचाम्लवर्धमानविधि-आचाम्लवर्धमान विधिमें पहले दिन उपवास करना चाहिए दूसरे दिन एक बेर बराबर भोजन करना चाहिए, तीसरे दिन दो बेर बराबर, चौथे दिन तीन बेर बराबर इस तरह एक-एक बेर बराबर बढ़ाते हुए ग्यारहवें दिन दस बेर बराबर भोजन करना चाहिए फिर दशको आदि लेकर एक-एक बेर बराबर घटाते हुए दशवें दिन एक बेर बराबर भोजन करना चाहिए और अन्तमें एक उपवास करना चाहिए। इस व्रतके पूर्वार्धके दश दिनोंमें निर्विकृति-नीरस भोजन लेना चाहिए और उत्तराद्धंके दश दिनोंमें इक्कट्ठाणाके साथ अर्थात् भोजनके लिए बैठनेपर पहली बार जो भोजन परोसा जाये उसे ग्रहण करना चाहिए। दोनों ही १. प्रथमदिने उपवासः पुनरेकैकवृद्धिक्रमेण अष्टमदिवसे सप्तकवलाहारः पुन: निक्रमेणोपवासः एवं सप्तवारं कर्तव्यम् ।
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चतुरंशः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम्
अष्टाविंशतिरिष्टसाधनमतौ चैकादशाङ्गेषु ते
द्वाविष्टौ परिकर्मणोऽष्टसहिताशीतिस्तु सूत्रस्य हि । एकौ चाद्यनुयोग केवल कृतौ द्विःसप्तपूर्वेष्वमी
षट्पञ्चावधिचूलिके श्रुतविधौ द्वौ तौ मन:पर्यये ॥ ९७ ॥ उपजातिः प्रत्येकमष्टावुपवासभेदा निश्शङ्किताद्यष्टगुणव्यपेक्षाः । त्रिदर्शनानामपि ते विधेयास्तपोविधौ दर्शने शुद्धिसंज्ञे ||१८|| शार्दूलविक्रीडितम् द्वावेकः पुनरेक एव हि परे पञ्चेक एकः क्रमात्
पोढ़ा बाह्यतपस्यमी क्रमगताः पुण्योपवासाः पृथक् । मन्तःस्थे दश साधिकाइच नवमिस्त्रिंशदश व्याहृताः
पञ्च द्वौ पुनरेक एव च तपः शुद्धौ विधेया विधौ ॥१९॥ अनुष्टुप
चतुर्दशस्वहिंसाथं जीवस्थानेषु माविताः । त्रियोगनव कोटिहना ते षडविंशं शतं स्फुटम् ॥१००॥ अर्धी भोजनका परिमाण ऊपर लिखे अनुसार ही समझना चाहिए। ये आचाम्ल वर्धमान तपकी विधियाँ क्रमसे करनी चाहिए ।। ९५-९६ ।।
श्रतविधि - श्रुतविधि उपवासमें मतिज्ञानके अट्ठाईस, ग्यारह अंगोंके ग्यारह, परिकर्मके दो, सूत्र के अठासी, प्रथमानुयोग और केवलज्ञानके एक-एक, चौदह पूर्वोके चौदह, अवधिज्ञानके छह, चूलिकाके पाँच और मन:पर्ययज्ञानके दो इस प्रकार एक सौ अट्ठावन उपवास करने पड़ते हैं । एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा होती है इसलिए यह व्रत तीन सौ सोलह दिनोंमें पूर्ण होता है ॥९७॥
४३९
दर्शनशुद्धि विधि - दर्शनविशुद्धि नामक तपकी विधिमें औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन सम्यग्दर्शनोंके निःशंकित आदि आठ-आठ अंगोंकी अपेक्षा चोबीस उपवास होते हैं। एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा होती है । इस तरह यह व्रत अड़तालीस दिनमें समाप्त होता है ॥ ९८ ॥
तपःशुद्धि विधि - बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे तपके दो भेद हैं । उनमें बाह्य तपके अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह भेद हैं और आभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और कायोत्सगं ये छह भेद हैं । इनमें अनशनादि बाह्य तपोंके क्रमसे दो, एक, एक, पाँच, एक और एक इस प्रकार ग्यारह पवित्र उपवास होते हैं और प्रायश्चित्त आदि छह अन्तरंग तपोंके क्रमसे उन्नीस, तीस, दश, पांच, दो और एक इस प्रकार सड़सठ उपवास होते हैं। दोनों भेदोंके मिलाकर अठहत्तर उपवास होते हैं। ये सब उपवास पृथक्-पृथक् होते हैं अर्थात् एक उपवासके बाद एक पारणा होती है ॥९९॥ चारित्रशुद्धि विधि-व महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति के भेदसे चारित्रके तेरह भेद हैं | चारित्रशुद्धि विधि में इन सबकी शुद्धि के लिए पृथक्-पृथक् उपवास करनेकी प्रेरणा दी गयी है । १. १५८ उपवासस्थानानि । २. २४ उपवासस्थानानि । ३. अहिंसा व्रतोपवासाः १४ x ९ = १२६ । * कुछ लोग अठहत्तर उपवासोंके बारह स्थान मानते हैं अर्थात् पारणाएं केवल बारह ही होती हैं। ऐसा अर्थ करते हैं परन्तु इस अर्थ में पृथक् शब्द निरर्थक जाता है और आभ्यन्तर तपोंमें उन्नीसके बाद एक पारणा तथा उसके बाद तीस उपवास लगातार करना अत्यन्त कष्टसाध्य है ।
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हरिवंशपुराण 'मास्वपक्षपैशुन्यक्रोधलोमात्मशंसनैः । द्वासप्ततिर्नवधनैस्ते परनिन्दान्वितैरिति ॥१०॥ प्रामारण्यखलैकान्तैरन्यत्रोपध्यभुक्तकैः । सपुष्टग्रहणः प्राग्ववासप्ततिरमी मताः ॥१०२॥ नदेवाचित्ततिर्यस्त्रीरूपैः पञ्चेन्द्रियाहतैः । नवघ्नः ब्रह्मचयः स्युः शतं तेऽशीतिमिश्रितम् ।।१०३॥
उपजातिः चतुष्कषाया नव नोकषाया मिथ्यात्वमेते द्विचतुःपदे च । क्षेत्रं च धान्यं च हि कुप्यभाण्डे धनं च यानं शयनासनं च ॥१०॥ अन्तर्बहिर्मेदपरिग्रहास्ते रन्धैश्चतुर्विंशतिराहतास्तु । ते द्वे शते षोडशसंयुते स्युर्महायते स्यादुपवासभेदाः ।।१०५॥
अनुष्टुप् षष्टे दशोपवासाः स्युरनिच्छा नव कोटिमिः । प्रत्येकं नव विज्ञेया त्रिगुप्तिसमितित्रिके ||१०६॥ प्रथम ही अहिंसा महाव्रत है सो १ बादर एकेन्द्रियपर्याप्तक, २ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, ३ सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, ४ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, ५ द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, ६ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, ७ त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, ८ त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, ९ चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, १० चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, ११ संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, १२ संज्ञो पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, १३ असंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और १४ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक। इन चौदह प्रकारके जोवस्थानोंकी हिंसाका त्याग मन-वचनकाययोग तथा कृत कारित अनुमोदना इन नौ कोटियोंसे करना चाहिए। इस अभिप्रायको लेकर प्रथम अहिंसा व्रतके एक सौ छब्बीस उपवास होते हैं और एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा होनेसे एक सौ छब्बीस ही पारणाएं होती हैं ॥१०॥
दूसरा सत्य महावत है सो १ भय, २ ईर्ष्या, ३ स्वपक्ष पुष्टि, ४ पेशुन्य, ५ क्रोध, ६ लोभ, ७ आत्मप्रशंसा और ८ परनिन्दा-इन आठ निमित्तोंसे बोले जानेवाले असत्यका पूर्वोक्त नौ कोटियोंसे त्याग करना चाहिए। इस अभिप्रायको लेकर द्वितीय सत्य महाव्रतके बहत्तर उपवास होते हैं तथा उपवासके बाद एक-एक पारणा होनेसे बहत्तर ही पारणाएं होती हैं ।।१०१॥
तीसरा अचौर्य महाव्रत है सो १ ग्राम, २ अरण्य, ३ खलिहान, ४ एकान्त, ५ अन्यत्र, ६ उपधि, ७ अभुक्तक और ८ पृष्ठ ग्रहण-इन आठ भेदोंसे होनेवाली चोरीका पूर्वोक्त नौ कोटियोंसे त्याग करना चाहिए। इस अभिप्रायको लेकर तृतीय अचौर्य महाव्रतमें बहत्तर उपवास होते हैं तथा प्रत्येक उपवासकी एक-एक पारणा होनेसे बहत्तर ही पारणाएँ होती हैं ॥१०२॥
चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है सो मनुष्य, देव, अचित्त और तियंच इन चार प्रकारको स्त्रियोंका प्रथम ही स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों और तदनन्तर पूर्वोक्त नौ कोटियोंसे त्याग करना चाहिए। इस अभिप्रायको लेकर ५४४ % २०४९% १८० एक सौ अस्सो उपवास होते हैं और इतनी ही पारणाएँ होती हैं ॥१०३।। पांचवां परिग्रह त्याग महाव्रत है । सो चार कषाय, नो नोकषाय और एक मिथ्यात्व इन चौदह प्रकारके अन्तरंग और दोपाये, ( दासो-दास आदि ) चौपाये, (हाथी-घोड़ा आदि ) खेत, अनाज, वस्त्र, बर्तन, सुवर्णादि धन, यान (सवारो), शयन और आसन-इन दस प्रकारके बाह्य, दोनों मिलाकर चौबीस प्रकारके परिग्रहका नौ कोटियोंसे त्याग करना चाहिए। इस अभिप्रायको लेकर परिग्रहत्याग महाव्रतमें दो सौ सोलह उपवास होते हैं और उतनी ही पारणाएँ होती हैं ॥१०४-१०५।। छठा रात्रिभोजन त्याग महाव्रत यद्यपि तेरह प्रकारके चारित्रोंमें परिगणित नहीं है तथापि गृहस्थके सम्बन्धसे मुनियोंपर भी असर आ सकता है अर्थात् गृहस्थ द्वारा रात्रिमें बनायो हुई वस्तुको मुनि जान-बूझकर ग्रहण करे तो उन्हें रात्रिभोजनका दोप लग सकता है । १. वीप्सा म. । २-७२ उपवासाः । २. ३--१२ उपवासाः ६-१८० । ३. संपुष्टग्रहणः म. । ४. नृदेवचित्र ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
आर्या मावोपमाव्यवहारप्रतीत्यसंभावनासुमाषाबाम् । जनपदसंवृतिनामस्थापनारूपा दश नवघ्नाः ॥१०॥
अनुष्टुप् षट्चत्वारिंशदोषानेषणासमिती मतान् । नवघ्नान् विनितुं कार्यास्तावन्त उपवासकाः ॥१०॥ प्रयोदशविधस्यैव चारित्रस्य विशुद्धये । विधौ चारित्रशुद्धौ स्युरुपवासाः प्रकीर्तिताः ॥१०॥
आयो निर्विकृतिपश्चिमार्धावकस्थान तथोपवासश्च । आचाम्ल-भुक्तमेकं तपोविधिस्स्वेककल्याणः ॥१०॥
अनुष्टुप पञ्चकृत्वः कृतावश्यः पञ्चकल्याण उच्यते । चतुर्विशतिसंख्यान् स कार्यस्तीर्थकरान् प्रति ॥११॥ तुर्यव्रतोपवासैस्तु शीलकल्याणको विधिः । पञ्चविंशतिसंख्यैस्तैर्भावनाविधिरिष्यते ॥१२॥
इस प्रकारके रात्रिभोजनका नौ कोटियोंसे त्याग करना चाहिए तथा अनिच्छा-दूसरेकी जबर्दस्तीसे भी रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिए। इस भावनाको लेकर रात्रिभोजन त्याग व्रतमें दश उपवास होते हैं और दश ही पारणाएँ होती हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीन गुप्तियों तथा ईर्या, आदान, निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति इन तीन समितियोंमें प्रत्येकके नौ कोटियोंकी अपेक्षा नौ-नौ उपवास होते हैं अर्थान् तीन गुप्तियोंके सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएं हैं तथा उपरिकथित तीन समितियोंके भी सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएं जाननी चाहिए ॥१०६||
भाषा समितिमें १ भाव सत्य, २ उपमा सत्य, ३ व्यवहार सत्य, ४ प्रतीत सत्य, ५ सम्भावना सत्य, ६ जनपद सत्य, ७ संवृत्ति सत्य, ८ नाम सत्य, ९ स्थापना सत्य और १० रूप सत्य इन दश प्रकार सत्य वचनोंका नौ कोटियोंसे पालन करना पड़ता है। इस अभिप्रायको लेकर भाषासमितिमें नब्बे उपवास होते हैं तथा इतनी ही पारणाएं होती हैं ॥१०७॥
और एषणा समितिमें नो कोटियोंसे लगनेवाले छियालीस दोषोंको नष्ट करनेके लिए चार सौ चौदह उपवास होते हैं तथा उतनी ही पारणाएं होती हैं ॥१०८॥ इस प्रकार तेरह प्रकारके चारित्रको शुद्ध रखनेके लिए चारित्र शुद्धि व्रतमें सब मिलाकर एक हजार दो सौ चौंतीस उपवास कहे हैं तथा इतनी हो पारणाएं कही गयी हैं। इस व्रतमें छह वर्ष दश माह आठ दिन लगते हैं ॥१०९||
एककल्याण विधि-पहले दिन नीरस आहार लेना; दूसरे दिन, दिनके पिछले भागमें अर्ध आहार लेना, तीसरे दिन एकस्थान-इक्काट्ठाना करना अर्थात् भोजनके लिए बैठनेपर एक बार जो भोजन सामने आवे उसे ही ग्रहण करना, चौथे दिन उपवास करना और पांचवें दिन आचाम्लइमलीके साथ केवल भात ग्रहण करना, यह एककल्याणककी विधि है ॥११०॥
चकल्याण विधि-जो विधि एककल्याण व्रतमें कही गयी है उसे समता, वन्दना आदि आवश्यक कार्य करते हुए पांच बार करना सो पंचकल्याणक विधि है। यह पंचकल्याणक विधि चौबीस तीथंकरोंको लक्ष्य करके करना चाहिए ।।११।।
शील कल्याणक विधि-चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रतमें जो एक सो अस्सी उपवास बतलाये हैं उनमें उपवास कर लेनेपर शील कल्याणक विधि-व्रत पूर्ण होता है। एक उपवास एक पारणा, दूसरा उपवास दूसरी पारणा, इस क्रमसे करनेपर इस व्रतमें ३६० दिन लगते हैं।
भावनाविधि-अहिंसादि महाव्रतोंमें प्रत्येक व्रतकी पांच-पांच भावनाएं हैं। एकत्रित करने
१. पश्चिमाद्वारकस्थानं म.। पश्चिमाहारकस्थानं ङ.। २. कृतावश्या म., ग.।
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४४२
हरिवंशपुराणे पञ्चविंशतिकल्याणभावनाविधिरत्र तः । तावद्भिरेव बोद्धव्यो विद्वद्भिरुपवर्णितः ॥११॥ सम्यक्त्वविनयज्ञानशीलसत्वश्रुतश्रुताः । समित्येकान्तगुप्तीनां भावना धर्म्यशुक्लगाः ॥१४॥ संक्लेशेच्छानिरोधस्य संवरस्य च भावनाः । प्रशस्तयोग संवेगकरुणोद्वेगभावनाः ॥१५॥ मोगसंसारनिर्वेदभक्तिवैराग्यमोक्षजाः । मैञ्युपेक्षा प्रमोदान्ताः ख्याताः कल्याणमावनाः ॥१६॥ प्रतीत्य सप्तभूमीनां जघन्यपरमायुषाम् । चतुर्दशोपवासास्तु विधेया विधिवबुधैः ॥११७॥ तिर्यग्गतावपर्याप्तपर्याप्तानां नृणां गतौ । प्रत्येकमपि चत्वार ऐशानान्ते प्रबुद्धयः ॥११८॥ द्वाविंशतिरतस्तूमच्युतान्तेष्वमी ततः । वेयकेषु कर्तव्य अष्टादश नवस्वपि ॥१९॥ द्वौ नवानुदिशेष्वेतौ हो वानुत्तरपञ्चके । अष्टाषष्टिरमी सर्वे स्युर्दुःखहरणे विधौ ॥१२०॥ नामत्रिणवतित्वादीरुत्तरप्रकृतीः प्रति । ते चत्वारिंशदष्टामिः कर्मक्षयविधौ स तम् ॥१२॥
पर पांच व्रतोंकी पचीस भावनाएँ होती हैं। उन्हें लक्ष्य कर पचीस उपवास करना तथा एकएक उपवासके बाद एक-एक पारणा करना, यह भावना विधि नामका व्रत है। यह पचास दिनमें पूर्ण होता है ॥११२॥
पंचविंशति कल्याण भावना विधि-पचीस कल्याण भावनाएं हैं, उन्हें लक्ष्य कर पचीस उपवास करना तथा उपवासके बाद पारणा करना यह पंचविंशति कल्याण भावना व्रत विद्वानोंके द्वारा कहा गया है ॥११३।। १. सम्यक्त्व भावना, २. विनय भावना, ३. ज्ञान भावना, ४. शील भावना, ५. सत्य भावना, ६. श्रुत भावना, ७. समिति भावना, ८. एकान्त भावना, ९. गुप्तिभावना, १०. ध्यानभावना, ११. शुक्ल ध्यान भावना, १२. संक्लेश निरोध भावना, १३. इच्छा निरोध भावना, १४. संवर भावना, १५. प्रशस्तयोग, १६. संवेग भावना, १७. करुणा भावना, १८. उद्वेग भावना, १९ भोगनिर्वेद भावना, २०. संसारनिर्वेद भावना, २१. भुक्तिवैराग्य भावना, २२. मोक्षभावना, २३. मैत्री भावना, २४. उपेक्षा भावना और २५. प्रमोद भावना, ये पचीस कल्याण भावनाएँ हैं ॥११४-११६।।
दुःखहरण विधि-दुःखहरण विधिमें सर्वप्रथम विद्वानोंको सात भूमियोंकी जघन्य और उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा चौदह उपवास करना चाहिए ॥११७|| तदनन्तर तियंचगतिके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंकी द्विविध आयुकी अपेक्षा चार उपवास करना चाहिए। उसके बाद मनुष्यगतिके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंकी द्विविध आयुकी अपेक्षा चार उपवास करना चाहिए। फिर देवगतिमें ऐशान स्वर्ग तकके दो, उसके आगे अच्युत स्वर्ग तकके बाईस, फिर नौ ग्रैवेयकोंके अठारह, नौ अनुदिशोंके दो और पंचानुत्तर विमानोंके दो इस प्रकार सब मिलाकर अड़सठ उपवास करना चाहिए। इस व्रतमें दो उपवासके बाद एक पारणा होती है। इस तरह अड़सठ उपवास और चौतीस पारणा दोनोंको मिलाकर यह विधि एक सौ दो दिन में पूर्ण होती है। इस विधिके करनेसे सब दुःख दूर हो जाते हैं ।।११८-१२०॥
कर्मक्षय विधि-कर्मक्षय विधिमें नाम कमको तेरानबे प्रकृतियोंको आदि लेकर समस्त कर्मोंकी जो एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ हैं उन्हें लक्ष्य कर एक सौ अड़तालीस उपवास करना चाहिए । इसमें एक उपवासके बाद एक पारणा होती है। इस प्रकार उपवास और पारणा दोनोंको मिलाकर दो सौ छियानबे दिनमें यह व्रत पूर्ण होता है। इस व्रतके प्रभावसे कर्मोका क्षय होता है ।।१२१॥ १. प्रसुप्तयो संवेग-म. । प्रशस्तप्रयोगसंवेग ग.। २. कारणोद्वेग ग., म., क.। ३. प्रमादान्ताः ग., म.। ४. प्रशमान्ते म. । ५. प्रबुद्धयन् ? म. प्रबुद्धयः ग.। ६. परमूवं ग. । ७. नामतस्त्रिनवत्वादी-म. ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
आर्या कल्याणातिविशेषैः प्रतिकार्यैः प्रातिहार्यकारणगः । जिनगुणसम्पत्तिस्तैः पञ्चतुस्त्रिंशदष्टषोडशमिः ॥१२२॥
अनुष्टुप् द्वात्रिंशता चतुःषष्टया ह्यष्टोत्तरशतेन तैः । दिव्यलक्षणपक्तिः स्यादिव्यातिमहतः परा ॥१२३॥ स्यात्परस्परकल्याणा चतुर्विंशतिवारतः । आदौ षष्ठोपवासः स्यात्समाप्तावष्टमस्तथा ॥२४॥
जिनेन्द्रगुणसंपत्ति विधि-जिसमें पांच कल्याणकोंके पांच, चौंतीस अतिशयोंके चौंतीस, आठ प्रातिहार्योंके आठ और सोलह कारण भावनाओंके सोलह इस प्रकार वेशठ उपवास किये जावें तथा एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा की जावे उसे जिनेन्द्र गुण सम्पत्ति व्रत कहते हैं। यह व्रत एक सौ छब्बीस दिन में पूर्ण होता है। इस व्रतके प्रभावसे जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् इसका आचरण करनेवाला तीर्थंकर होता है ॥१२२।।
दिव्यलक्षण पंक्ति विधि-बत्तीस व्यंजन, चौंसठ कला और एक सौ आठ लक्षण इस प्रकार दो सौ चार लक्षणोंकी अपेक्षा जिसमें दो सौ चार उपवास किये जावें उसे दिव्यलक्षण विधि कहते हैं। इसमें एक उपवासके बाद एक पारणा होतो है अतः दोनोंके मिलाकर चार सौ आठ दिनमें यह व्रत पूर्ण होता है। इस व्रतके प्रभावसे यह जीव अत्यन्त महान् होता है तथा उसके अत्यन्त श्रेष्ठ दिव्य लक्षणोंकी पंक्ति प्रकट होती है ॥१२३॥
'धर्मचक्र विधि-धर्मचक्रमें हजार अराएँ होती हैं। उनमें प्रत्येक अराकी अपेक्षा एक उपवास लिया गया है, इसलिए इस व्रतमें हजार उपवास हैं तथा स्थान भी हजार हैं इसलिए पारणा भी हजार समझनी चाहिए। इस तरह उपवास और पारणा इसमें कुल दो हजार हैं। एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपवास एक पारणा इसो क्रमसे इस व्रतका आचरण करना चाहिए। इस व्रतके आदि और अन्तमें एक-एक वेला करना आवश्यक है। यह व्रत दो हजार चार दिनमें समाप्त होता है और इससे धर्मचक्रको प्राप्ति होती है।
परस्पर कल्याण विधि-पांच कल्याणकोंके पाँच उपवास, आठ प्रातिहार्योके आठ और चौंतीस अतिशयोंके चौंतीस इस प्रकार ये सैंतालीस उपवास हैं। इन सैंतालीसको चौबीस बार गिननेपर जितनी संख्या सिद्ध हो उतने तो इस विधिमें उपवास समझना चाहिए और जितने स्थान हों उतनी पारणा जाननी चाहिए। सैंतालीसको चौबीस बार गिननेसे ग्यारह सौ अट्ठाईस होते हैं, इसलिए इतने तो उपवास समझना चाहिए और स्थान भी ग्यारह सौ अट्ठाईस हैं इसलिए इतनी ही पारणा जाननी चाहिए । इस प्रकार इस व्रतमें कुल उपवास और पारणा दो हजार दो सो छप्पन हैं। इसके आचरण करनेको विधि एक उपवास एक पारणा, पुनः एक उपनास एक पारणा इस प्रकार है। यह व्रत दो हजार दो सौ छप्पन दिन में समाप्त होता है। इसके प्रारम्भमें एक वेला और अन्तमें एक तेला करना पड़ता है। यह व्रत आचरण करनेवालेका कल्याण करनेवाला १. धर्मचक्र विधिका वर्णन करनेवाला श्लोक हमारे द्वारा उपलब्ध प्रतियों में नहीं है परन्तु थोमान् स्व. पं. गजाधरलालजीने अपने अनुवादमें उसका वर्णन किया है तथा श्लोकका नम्बर भी दिया है अतः उनके द्वारा उपलब्ध प्रतियोंमें वह श्लोक होगा। इसी भावनासे हमने अनुवादमें उक्त पण्डितजी के अनुवादसे उक्त व्रतकी विधि अंकित की है। २. इस व्रतकी विधि भी पण्डित गजाधरलालजीके अनुवादके आधारपर ही लिखी है। उनके अनुवादमें 'आदो षष्ठोपवासः स्यात्समाप्तावष्टमस्तथा' इस पंक्तिका अनुवाद इस व्रतकी विधिसे हटकर आगे बढ़ गया है, उसे इसमें शामिल किया गया है।
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हरिवंशपुराणे विधीनामिह सर्वेषामेषा हि च प्रदर्शना । एकश्चतुर्थकामिख्यो द्वौ षष्ठं तु योऽष्टमः । दशमाद्यास्तथा वेद्याः षण्मास्यन्तोपवासकाः ॥२५॥
आर्या पञ्चदशीपर्यन्ता उपवासाः प्रतिपदादितिथिषु कार्याः । बहुभेदा विज्ञेया जिनमार्गे सर्वसौख्यसंपन्नाः ॥१२६॥ माद्रपदशुक्लपक्षे सप्तम्यामप्यनन्तफेलंसुखफलदः । परिनिर्वाणाख्यविधिः प्रतिवर्षमुपोषणीयस्तु ॥१२७॥
शालिनी एकादश्यां प्रातिहार्यप्रसिद्धः तुल्यां पल्यैः शं फलस्यस्य चैव । एकादश्यां कृष्णजायामशीतिः षट् पूर्वाशं संविधत्ते ह्यनन्तम् ॥१२८॥
अनुष्टुप् शुद्धस्य मार्गशीर्षस्य तृतीयस्यामनन्तकृत् । विमानपङ्क्तिवैराज्यः चतुर्थ्या षष्ठतो विधिः ।।१२९।।
एतेषु विधयः कार्या यथाशक्ति शरीरिमिः । स्वर्गापवर्गसौख्यस्य पारम्पर्येण हेतवः ॥१३०॥ है ॥१२४।। इस प्रकरणमें ऊपर जितनी विधियोंका वर्णन किया गया है उन सबमें सामान्य रूपसे यह दिखा देना आवश्यक है कि जहाँ उपवासके लिए चतुर्थक शब्द आया है वहाँ एक उपवास, जहां षष्ठ शब्द आया है वहां दो उपवास और जहाँ अष्टम शब्द आया है वहां तीन उपवास समझना चाहिए। इसी प्रकार दशमको आदि लेकर छह मासपर्यन्तके उपवासोंकी संज्ञा जाननी चाहिए ॥१२५॥ प्रतिपदासे लेकर पञ्चदशी तककी तिथियोंमें उपवास करना चाहिए। ये उपवास अनेक भेदोंको लिये हुए हैं और जैन मार्गमें इन्हें सब प्रकारके सुखोंसे सम्पन्न करनेवाला कहा है ॥१२६॥ प्रतिवर्ष भादों सदी सप्तमीके दिन उपवास करना चाहिए। यह परिनिर्वाण नामक विधि है तथा अनन्त सुखरूपी फलको देनेवाली है ॥१२७।। भादों सुदी एकादशीके दिन उपवास करनेसे प्रातिहार्य प्रसिद्धि नामकी विधि होती है तथा यह पल्यों प्रमाणकाल तक सुखरूपी फलको फलती है। हर एक मासकी कृष्ण पक्षको एकादशियोंके दिन किये हुए छियासी उपवास अनन्त सुखको उत्पन्न करते हैं ॥१२८॥ मार्गशीर्ष सुदी तृतीयाके दिन उपवास करना अनन्त मोक्ष फलको देनेवाला है तथा इसी मासकी चतुर्थीके दिन वेला करनेसे विमान पंक्ति वैराज्य नामकी विधि होती है और उसके फलस्वरूप विमानोंकी पंक्तिका राज्य प्राप्त होता है ।।१२९।। इन ऊपर कही हुई विधियोंमें मनुष्योंको यथाशक्ति विधियाँ करनी चाहिए क्योंकि वे साक्षात् और परम्परासे स्वर्ग १. प्रतिपदादिषु च कार्या-क.।' २. फलसुखदः म.। ३. विंशति सप्ताधिकाश्चाष्टौ क., ड. । * अस्मिन् प्रकरणे क., ङ., ग. पुस्तकेषु पार्श्वभागे निम्नाङ्किताः श्लोकाः समाबद्धाः सन्ति परं तु रचनाशैथिल्यात्ते ग्रन्थाङ्गभूताः सन्तीति न प्रतिभान्ति । पश्चात् केनचित् योजिता इति प्रतीयते । पं. गजाधरलालेन तु स्वकृतानुवादे प्रवेशितास्ते
भाद्रपदकृष्णपक्षे षष्ट्यां सूर्यप्रभस्त्रयोदश्याम् । चन्द्रप्रभनामा च ज्योतिर्माला च पल्यं तु ॥ ततः कृष्णद्वादश्यां नन्दीश्वर इत्युदीरितानन्तफलः ।
कार्तिकशुक्लतृतीयामधिष्ठितश्चापि विविधसर्वार्थविधिः ।। श्री पं. गजाधरलालेन अन्येऽपि द्वित्रा: श्लोका अनूदिताः येषु कुमारसंभव-सुकुमारविध्योरुल्लेखः कृतः कितूपलब्धपुस्तकेषु ते श्लोका नावलोकिताः, मुम्बईस्थ सरस्वतीभवनपुस्तकेऽपि एते श्लोका न सन्ति ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
इत्युक्तविधिर्त्तासौ सुप्रतिष्ठो यतिस्तदा । बबन्ध तीर्थकृन्नाम शुद्धैः षोडशकारणैः ॥ १३१ ॥
आर्या निशङ्काद्यष्टगुणा जिनकथिते मोक्षसत्पथे श्रद्धा ।
दर्शन विशुद्धिरास्तीर्थ करप्रकृतिकृद्धेतुः ॥१३२॥ ज्ञानादिषु तद्वत्सु च महादरो यः कषायविनिवृत्या | तीर्थंकर नामहेतुः स विनयसंपन्नताभिख्यः ॥ १३३ ॥ itsarरक्षायां काय मनोवचनवृत्तिरनवद्या | वेद्यो मार्गोद्युक्तैः स शुद्धेः शीलव्रतेष्वनतिचारः ॥१३४॥ अज्ञाननिवृत्तिफले प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणज्ञाने । नित्यमभियुक्ततोक्तस्तज्ज्ञैर्ज्ञानोपयोगस्तु ॥१३५॥ जन्मजरामरणामथमानसशारीरदुःखसंभारात् । संसाराद्भीरुवं संवेगो विषयतृट्छेदो ॥१३६॥ आहाराभयदानं तद्दिनभवदुः खमुद्यथायोगम् । संसारदुःखहरणं ज्ञानमहादानमिष्यते त्यागः ॥ १३७॥ अनिगूहितवीर्यस्य हि विशरारु शरीरमशुचि मृतकामम् । संयोजयतः कार्ये तपोऽपि मार्गानुगावेशः ॥ १३८ ॥ भाण्डागार हुताशोपशमनवजातविघ्नमनुपद्य । संधारण हि तपसः साधूनां स्यात्समाधिरिह ॥ १३९ ॥ गुणवत्साधुजनानां क्षुधातृषाव्याधिजनितदुःखस्य । व्यपहरणे व्यापारो वैव्यावृत्त्यं व्यसुद्रव्यैः ॥ १४०॥
और मोक्ष सम्बन्धी सुख के कारण हैं १३०|| इस प्रकार कही हुई विधियोंके कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनिराजने उस समय निर्मल सोलह कारण भावनाओंके द्वारा तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया ॥ १३१ ॥ जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कथित समीचीन मोक्षमार्ग में निःशंकता आदि आठ गुणोंसे सहित जो श्रद्धा है उसे दर्शनविशुद्धि कहते हैं । यह तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धका प्रथम कारण है || १३२॥ ज्ञानादि गुणों और उनके धारकोंमें कषायको दूर कर जो महान् आदर करना है वह तीर्थंकर प्रकृति के बन्धमें कारणभूत विनयसम्पन्नता नामकी दूसरी भावना है ॥ १३३॥ शीलव्रतोंकी रक्षा में मन, वचन और कायकी जो निर्दोष प्रवृत्ति है उसे मार्ग में उद्युक्त पुरुषों को शुद्ध शीलव्रतेष्वनतीचार नामकी भावना जाननी चाहिए || १३४|| अज्ञानकी निवृत्तिरूप फलसे युक्त तथा प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंसे सहित ज्ञानमें निरन्तर उपयोग रखना सो अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भावना है ।। १३५ ॥ जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि शारीरिक और मानसिक दुःखोंके भारसे युक्त संसारसे भयभीत होना सो विषयरूपी तृषाको छेदनेवाली संवेग भावना है || १३६ || जिस दिन आहार ग्रहण किया जाता है उस दिन एवं पर्याय सम्बन्धी दुःखको दूर करनेवाला आहारदान, अभयदान और संसारके दुःखको हरनेवाला ज्ञान महादान शक्तिके अनुसार देना सो त्याग नामकी भावना है ॥ १३७ ॥ ज्ञक्तिको नहीं छिपानेवाले एवं विनाशीक, अपवित्र और मृतकके समान शरीरको कार्य में लगानेवाले पुरुषका मोक्षमार्गके अनुरूप जो उद्यम है वह तप नामको भावना है ॥ १३८ ॥ भण्डार में लगी हुई अग्निको उपशान्त करनेके समान आगत विघ्नों को नष्ट कर साधुजनोंके तपकी रक्षा करना सो साधुसमाधि नामकी भावना है || १३९ || गुणवान् साधुजनोंके क्षुधा, तृषा, व्याधि १. शुद्धशक्तिव्रते - म., ख. । २. प्रासुकद्रव्यैः ( क. ड. टि. ) वसुद्रव्यैः म. ।
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हरिवंशपुराणे
अर्हत्सु योऽनुरागो यश्चाचार्ये बहुश्रुते यच्च । प्रवचन विनयश्चासौ चातुर्विध्यं भजति 'भक्तेः ॥ १४१ ॥ आवश्यक क्रियाणां षण्णां काले प्रवर्तन नियते । तासां सापरिहाणिज्ञेया सामायिकादीनाम् ॥ १४२ ॥ सावद्ययोगविरहं सामायिकमेकभावगं चित्तम् । गुणकीर्तिस्तीर्थं कृतां चतुरादे विंशतेः स्तवकः ॥ १४३॥ द्वयासना यासु शुद्धा द्वादशवर्ताः प्रवृत्तिषु प्राज्ञैः । सशिरश्चतुरानतिकाः प्रकीर्तिता वन्दना वन्द्याः ॥१४४॥ द्रव्ये क्षेत्रे काले मावे च कृतप्रमादनिर्हरणम् । वाक्काय मनः शुद्धया प्रणीयते तु प्रतिक्रमणम् ॥ १४५ ॥ आगन्तुकदोषाणां प्रत्याख्यानं तु वर्ण्यतेऽपोहः । कायोत्सर्गः "काये मितकालं निर्ममत्वं तु ॥ १४६ ॥ परमतभेदसमर्थज्ञानतपो जिनमहाम हैजंगति । मार्गप्रभावना स्यात्प्रकाशनं मोक्षमार्गस्य ॥ १४७॥ धेनोरिव निजवत्से सौत्सुक्यधियः सधर्मणि स्नेहः । प्रवचनवत्सलता स्यात्सस्नेहः प्रवचने यस्मात् ॥ ४८ ॥ तीर्थकर नामकर्मणि पोटश तत्कारणान्यमून्यनिशम् । व्यस्तानि समस्तानि च भवन्ति सद्भाव्यमानानि ॥ १४९ ॥
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आदिसे उत्पन्न दुःखको प्रासुक द्रव्योंके द्वारा दूर करनेका प्रत्यक्ष करना सो वैयावृत्य भावना है || १४०|| अर्हन्त में जो अनुराग है, आचार्यमें जो अनुराग है, बहुश्रुत - अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी में जो अनुराग है और प्रवचनमें जो विनय है वह क्रमसे अर्हद् भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन भक्ति नामक चार भावनाएं हैं ||१४१ || सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं की नियत समय में प्रवृत्ति करना सो आवश्यकापरिहाणि नामक भावना ।। १४२ ।। समस्त सावद्य योगों का त्याग कर चित्तको एक पदार्थ में स्थिर करना सो सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरोंके गुणोंका कथन करना सो स्तुति है || १४३ || जिन प्रवृत्तियों में दो आसन, निर्दोष बारह आवर्त और चार शिरोनतियां की जाती हैं उन्हें विद्वज्जन वन्दनीय वन्दना कहते हैं ॥ १४४॥ द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव के विषय में किये हुए प्रमादका मन, वचन, कायकी शुद्धिसे निराकरण करना सो प्रतिक्रमण है || १४५ || आगन्तुक - आगामी दोषोंका निराकरण करना प्रत्याख्यान कहलाता है । और निश्चित समय तक शरीर में ममताका त्याग करना कायोत्सगं है ॥१४६॥ अन्य मतोंके खण्डन करने में समर्थ ज्ञान, तपश्चरण एवं जिनेन्द्र भगवान्की महामह-पूजाओंसे संसार में मोक्षमार्गका प्रकाश करना मार्ग प्रभावना है || १४७|| जिस प्रकार गायका अपने बछड़ेमें स्नेह होता है उसी प्रकार उत्सुकतासे युक्त बुद्धिवाले मनुष्यका सहधर्मी भाईमें जो स्नेह है उसे प्रवचन वात्सल्य कहते हैं क्योंकि सहधर्मी से जो स्नेह है वह प्रवचन से ही स्नेह है || १४८|| सत्पुरुषोंके द्वारा निरन्तर चिन्तन की हुई उक्त सोलह भावनाएं, पृथक-पृथक् अथवा समुदाय रूपसे तीर्थंकर नामकर्मके बन्धकी कारण हैं ॥ १४९ ॥
१. भक्ति: म. । २
क्रियते म. ।
३. चतुरादिविंशतिस्तवक: म., क., ख. । ४. वण्यंते यो ज्ञे म. । ५. कालो म । ६. मितकार्य म । ७. सद्भिः भव्यमानानि सद्भाव्यमानानि ( क. टि. ) ।
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चतुस्त्रिशः सर्गः
शार्दूलविक्रीडितम् त्रैलोक्यासनकम्पेशक्तसुबृहत्पुण्यप्रकृत्यात्मकः
प्रत्याख्याय स सुप्रतिष्ठसुमुनिर्भक्तं ततो मासिकम् । आराध्याथ चतुर्विधा बुधनुतामाराधना शुद्धधी
त्रिंशज्जलधिस्थितिः पुरुसुखं स्वर्ग जयन्तं 'श्रितः ॥१५॥ भुक्रवा संसृतिसारसौख्यमतुलं तत्राहमिन्द्रोचितं
सज्ज्ञानत्रयदृष्टनेत्रसकर्ल त्रैलोक्यतत्त्वस्थितिः । च्युरवातो मविता समुद्रविजयादेव्या शिवायां शिवो
नेमीशो हरिवंशशैलतिलको द्वाविंशसंख्यो जिनः ॥१५१॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती महोपवासविधिवर्णनो नाम
चतुस्त्रिशः सर्गः ॥३०॥
इस प्रकार तीनों लोकोंके आसनोंको कम्पित करने में समर्थ तीर्थंकर प्रकृतिनामक महापुण्य प्रकृतिके बन्ध करनेवाले सुप्रतिष्ठ मुनिराजने, एक मासके आहारका त्याग कर दिया तथा विशुद्ध बुद्धिके धारक हो विद्वज्जनोंके द्वारा स्तुत चार प्रकारकी आराधनाओंकी अच्छी तरह आराधना को जिससे बाईस सागरको स्थितिके धारक हो विशाल सुखसे युक्त जयन्त स्वर्ग ( जयन्त नामक अनुत्तर विमान ) में उत्पन्न हुए ॥१५०॥ अब जिन्होंने तोन सम्यग् ज्ञानरूपी नेत्रोंसे तीन लोकके पदार्थोंकी स्थितिको देख लिया है ऐसे सुप्रतिष्ठ मुनिराज, जयन्त विमानमें अहमिन्द्रोंके योग्य, संसारके सारभूत अनुपम सुखका उपभोग कर वहाँसे च्युत होंगे और राजा समुद्रविजयकी शिवा देवीसे हरिवंशरूपी पर्वतके तिलकस्वरूप नेमोश्वर नामके कल्याणकारी बाईसवें तं होंगे ॥१५१॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें महोपवास
विधिका वर्णन करनेवाला चौंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३४॥
१. सक्त-म., ख.। २. स्थितः म.। ३. मुक्त्वा म.। ४. त्रैलोक्यनेत्र म.।
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पञ्चत्रिंशः सर्गः
उपेन्द्रवज्रा अरिष्टनेमेश्चरितं निशम्य यदुः परं श्रेणिक संप्रहृष्टः । प्रणम्य मावादतिमुक्तकर्षि जगाम कान्तासहितो निशान्ते ।।१।। यथापुरा तौ मथुरासुपुर्या यथेष्टमाक्रीडनयातिसक्तौ । सुदम्पती तस्थतुरिष्टभोगी सशङ्ककंसेन समय॑मानौ ।।२।। बभार गर्भ युगलात्मकं सा सुदेवकी कंसमयस्य हेतुम् । सहायमावो हि विपक्षयोगान्महामयस्योपनिपातहेतुः ॥३॥ अथ प्रसूती सुतयुग्ममस्याः सुरेण संक्रामितमिन्द्र वाक्यात् । सुनैगमेतिश्रुतिना सुमद्रं सुभदिलोद्भूतपुरोक्तधाश्याः ॥४॥ प्रजातमात्रं खलु दैवयोगात सुदृष्टिजायाव्यसुपुत्रयुग्मम् । स देवकीसूतिगृहे निधाय जगाम देवो निजदेवलोकम् ॥५॥ प्रविश्य कंसः स्वसृसूतिगेहं निरीक्ष्य निर्जीवित जीवयुग्म । । प्रगृह्य पादेषु निराद सैद्रः शिलातले ताडितवान् सशङ्कः ॥६॥ क्रमेण स द्वन्द्वयुगं प्रयातं निनाय देवोऽप्यलका सुकामाम् । पुनश्च कंसोऽप्यसुविप्रयुक्तमताडयत्पूर्ववदेव पापी ॥७॥ पडप्य विघ्ना वसुदेवपुत्राः स्वपुण्यरक्ष्यास्त्वलकातिहृद्याः ।
पुरोक्तसंज्ञाः सुखलालितास्ते शनैरवर्धन्त ततोऽतिरूपाः ॥८॥ अथानन्तर गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार अतिमुक्तक मुनिराजसे भगवान् अरिष्टनेमिका चरित सुनकर वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए और भावपूर्वक मुनिराजको नमस्कार कर स्त्री सहित अपने घर चले गये ॥१॥ जिन्हें भोग अत्यन्त इष्ट थे ऐसे दोनों दम्पति इच्छानुसार क्रीड़ामें आसक्त होते हुए मथुरापुरीमें पहलेके समान रहने लगे और मृत्युको शंकासे शंकित कंस इनकी निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करने लगा ॥२॥ तदनन्तर देवकीने कंसके भयका कारण युगल सन्तानरूप गर्भ धारण किया सो ठीक ही है क्योंकि शत्रुओंमें परस्परके मिल जानेसे जो सहाय भाव उत्पन्न होता है, वह शत्रुके लिए महाभयकी प्राप्तिका कारण हो जाता है ।। ३ ।। तत्पश्चात् प्रसूति कालके आनेपर जब देवकीके यगल पुत्र उत्पन्न हए तब इन्द्रकी आज्ञासे सनैगम नामका देव उन उत्तम युगल पुत्रोंको उठाकर सुभदिल नगरके सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका ( पूर्वभवकी रेवती धायका जीव ) के यहां पहुंचा आया। उसी समय अलकाके भी युगालिया पुत्र हुए थे परन्तु भाग्यवश वे उत्पन्न होते ही मर गये थे। नैगम देव उन दोनों मृत पुत्रों को उठाकर देवकी के प्रसूति गृहमें रख आया और उसके बाद अपने स्वर्ग लोकको चला गया ।।४-५ ॥ शंकासे युक्त कंसने बहनके प्रसूतिका गृहमें प्रवेश कर उन दोनों मृतक पुत्रोंको देखा और भीलके समान रौद्रपरिणामी हो पैर पकड़कर उन्हें शिलातलपर पछाड़ दिया ।। ६ ।। तदनन्तर देवकीने क्रम क्रमसे दो युगल और उत्पन्न किये सो देवने उन्हें भी पुत्रोंकी इच्छा रखनेवाली अलका सेठानीके पास भेज दिया। इधर पापी कंसने भी उन निष्प्राण पुत्रोंको पहले के समान ही शिलापर पछाड़ दिया ।। ७ ।। तदनन्तर अपना पुण्य हो जिनकी रक्षा कर रहा था, जो अलका सेठानीके १. -दतिमुक्तिकर्षि म.। २. -तिशक्तो ग., घ., ङ,। ३. भृत ।
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पचत्रिशः सर्गः
प्रवर्धमानेष्वथ तत्र तेषु सुदृष्टिसुश्रावकभूतिवृद्धिः । अपूर्वनानाविधत्रस्तुलाभैस्तदात्यशेतापरभूपैभूतीः ॥९॥ इतोऽपि देवक्यपि भर्तृवाक्यादपाकृतापत्य वियोगदुःखा । शनैः प्रपेदे प्रतिपत्कलेव दिनोत्तरैः पूर्ववदेव कान्तिम् ॥१०॥ अथैकदा चन्द्रसिते निशान्ते निशान्तकान्ते शयने शयाना । ददर्श सप्तोदयशंसिनः सा पदार्थकान् स्वप्न इमान्निशान्ते ॥११॥ प्रदीप्तमुद्यन्तमिनं तमोऽन्तं समञ्चकान्तं शशिनं प्रपूर्णम् । श्रियं सदिग्नागमहाभिषेकां विमानमाकाशतलान्नमच्च ॥१२॥ ज्वलद्बृहज्ज्वालहुताशमुच्चैः सुरध्वजं रत्नमरीचिचक्रम् | मृगाधिपं चाननमाविशन्तं निशाम्य सौम्या बुबुधे सकम्पा ॥१३॥ अपूर्व सुस्वप्नविलोकनात्सा सविस्मया हृष्टतनूरुहा तानू ।
जगौ प्रभाते कृतमङ्गलाङ्गा समेत्य पत्येऽभिदधे स विद्वान् ॥१४॥ प्रतापविध्वस्तरिपुः सुतस्ते प्रियोऽतिसौभाग्ययुतोऽभिषेकी । दिवोऽवतीर्यातिरुचिः स्थिरोऽमीर्भविष्यति क्षिप्रमिनो' जगत्याः ॥१५॥
लिए अत्यन्त प्रिय थे, जिनके नृपदत्त, देवपाल, अनीकदत्त, अनीकपाल, शत्रुघ्न और जितशत्रु ये नाम पहले कहे जा चुके थे, जिनका सुखपूर्वक लालन-पालन हो रहा था, तथा जो अत्यन्त रूपवान् थे ऐसे वसुदेवके छहों पुत्र धीरे-धीरे वृद्धिको प्राप्त होने लगे ॥ ८ ॥ तदनन्तर उन पुत्रोंके वृद्धिगत होनेपर सुदृष्टि सेठको नाना प्रकारकी अपूर्वं अपूर्व वस्तुओं का लाभ होने लगा और उसके वैभवकी वृद्धि उस समय अन्य राजाओंके वैभवको भी अतिक्रान्त कर दिया ॥ ९ ॥ इधर पतिके कहने से जिसने सन्तान वियोगजन्य दुःखको दूर कर दिया था ऐसी देवकी भी धीरे-धीरे प्रतिपदकी चन्द्रकला के समान दिनोंदिन पहले की ही कान्तिको प्राप्त हो गयी ॥ १० ॥
तदनन्तर एक दिन देवकी, चन्द्रमाके समान सफेद भवनमें प्रातः कालके समान सुन्दर शय्या पर शयन कर रही थी कि उसने रात्रिके अन्तिम प्रहरमें अभ्युदयको सूचित करनेवाले निम्नलिखित सात पदार्थं स्वप्न में देखे || ११|| पहले स्वप्न में उसने अन्धकारको नष्ट करनेवाला उगता हुआ सूर्य देखा। दूसरे स्वप्न में उसीके साथ अत्यन्त सुन्दर पूर्ण चन्द्रमा देखा। तीसरे स्वप्नमें दिग्गज जिसका अभिषेक कर रहे थे ऐसी लक्ष्मी देखी। चौथे स्वप्न में आकाश तलसे नीचे उतरता हुआ विमान देखा। पांचवें स्वप्न में बड़ी-बड़ी ज्वालाओंसे युक्त अग्नि देखी । छठे स्वप्नमें ऊँचे आकाशमें रत्नोंकी किरणोंसे युक्त देवोंकी ध्वजा देखी और सातवें स्वप्न में अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ एक सिंह देखा । इन स्वप्नोंको देखकर सौम्यवदना देवकी भय से काँपती हुई जाग उठी ||१२-१३ || अपूर्वं एवं उत्तम स्वप्न देखनेसे जिसे विस्मय उत्पन्न हो रहा था, जिसके शरीरमें रोमांच निकल आये थे, और जिसने प्रातःकालके समय शरीरपर मंगलमय अलंकार धारण कर रखे थे ऐसी देवकीने जाकर पतिसे सब स्वप्न कहे और विद्वान् पति - राजा वसुदेवने इस प्रकार उनका फल कहा ॥ १४ ॥
"हे प्रिये ! तुम्हारे शीघ्र ही एक ऐसा पुत्र होगा जो समस्त पृथिवीका स्वामी होगा। तुमने.. पहले स्वप्न में सूर्य को देखा है इससे सूचित होता है कि वह अपने प्रतापसे शत्रुओं को नष्ट करनेवाला होगा। दूसरे स्वप्न में पूर्ण चन्द्रमा देखा है उसके फलस्वरूप वह सबको प्रिय होगा। तीसरे
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१. भूपभूमि: म. । २. सूर्यम् । ३. समन्तकान्तं म । ४. इन: स्वामी । 'राजाधिपः पतिः स्वामी भर्तेन्द्र इन ईशिता' इति धनञ्जयः ।
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हरिवंशपुराणे
निशम्य सा स्वप्नफलं स्वभर्तुस्तथास्त्विति प्रीतिमतिप्रपथ । व्यवस्थिता गर्भमधन चाशु जगद्धितं यौरिव तापशान्यै ॥१६॥ यथा यथासौ परिवर्धतेऽस्याः प्रवर्धमानाङ्गमनः सुखायाः । तथा तथावर्धत भूतधात्र्यां जनस्य सर्वस्य च सौमनस्यम् ॥१७॥ ररक्ष गर्भ प्रसवव्यपेक्षः स्वसुः स संक्षोभगतस्तु कंसः । दिनानि मासानसमञ्जसात्मा गुणानपेक्ष्यो गणयन्नलक्ष्यः ॥ १८ ॥ अथोदपादि श्रवणे तु पक्षे ह्यधोक्षजो भाद्रपदस्य शुक्ले । पवित्रयन् द्वादशिकां तिथिं तामलक्षितः सप्तम एव मासे ॥१९॥ सशङ्खचक्रादिसुलक्षिताङ्गः स्फुरन्महानीलमणिप्रकाशः ।
स देवकीसूतिगृहं स्वदीप्स्या प्रदीप्तिमान् द्योतयति स्म कृष्णः ॥ २०॥ स्वपक्षगेहेषु तदाविरासन् स्वतो निमित्तानि शुभावहानि । विपक्षगेहेषु मयावहानि प्रभावतस्तस्य नरोत्तमस्य ॥२१॥ तदा च सप्ताहमहातिवर्ष प्रवर्तमाने निशि जातमात्रम् । हली स्वपित्रा विवृतातपत्रं हरिं गृहीत्वा गृहतो निरैद् द्राक् ॥ २२ ॥
स्वप्न में दिग्गजों द्वारा लक्ष्मीका महाभिषेक देखा है इससे जान पड़ता है कि वह अत्यन्त सौभाग्यशाली एवं राज्याभिषेकसे युक्त होगा। चौथे स्वप्न में आकाशसे नीचे आता हुआ विमान देखा है उससे प्रकट होता है कि वह स्वर्गसे अवतीर्ण होगा । पाँचवें स्वप्न में देदीप्यमान अग्नि देखी है इसके फलस्वरूप वह अत्यन्त कान्तिसे युक्त होगा । छठे स्वप्न में रत्नोंकी किरणोंसे युक्त देवोंकी ध्वजा देखी है इसके फलस्वरूप वह स्थिर प्रकृतिका होगा और सातवें स्वप्न में मुखमें प्रवेश करता हुआ सिंह देखा है इससे जान पड़ता है कि वह निर्भय होगा ||१५||
इस प्रकार पतिके मुखसे स्वप्नोंका फल सुनकर 'तथास्तु' - ऐसा ही होगा - कहती हुई वह अत्यधिक प्रीतिको प्राप्त हुई । तदनन्तर जिस प्रकार आकाश, सन्तापकी शान्तिके लिए जगत् हितकारी मेघको धारण करता है उसी प्रकार उसने शीघ्र ही जगत्का हित करनेवाला गर्भ धारण किया || १६ || जिसके शारीरिक और मानसिक सुखकी वृद्धि हो रही थी ऐसी देवकीका वह गर्भ ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों पृथिवीपर समस्त मनुष्योंका सौमनस्य बढ़ता जाता था ॥ १७॥ परन्तु कंसका क्षोभ उत्तरोत्तर बढ़ता जाता था । फलस्वरूप जिसकी आत्मा अत्यन्त नीच थी, जो गर्भस्थ बालकके गुणों की अपेक्षा नहीं रखता था और जो अलक्ष्यरूपसे गर्भके महीनों तथा दिनोंकी गिनती लगाता रहता था ऐसा कंस, प्रसवकी प्रतीक्षा करता हुआ बहुतके गर्भंकी रक्षा कर रहा था अर्थात् उसपर पूर्ण देख-रेख रखता था |१८|| सब बालक नो मासमें ही उत्पन्न होते हैं परन्तु कृष्ण श्रवण नक्षत्र में भाद्रमासके शुक्लपक्षको द्वादशी तिथिको पवित्र करते हुए सातवें ही मास में अलक्षित रूप से उत्पन्न हो गये ||१९|| जिनका शरीर शंख-चक्र आदि उत्तमोत्तम लक्षणोंसे युक्त था, जिनके शरीरसे देदीप्यमान महानीलमणिके समान प्रकाश प्रकट हो रहा था और जो प्रकृष्ट कान्तिसहित थे ऐसे कृष्णने अपनी कान्तिसे देवकीके प्रसूतिका गृहको प्रकाशमान कर दिया था ||२०|| उस समय उस पुरुषोत्तमके प्रभावसे स्नेही बन्धुजनों के घरोंमें अपने आप अच्छे-अच्छे निमित्त प्रकट हुए और शत्रुओंके घरों में भय उत्पन्न करनेवाले निमित्त प्रकट हुए ॥ २१ ॥ न दिनों सात दिनसे बराबर घनघोर वर्षा हो रही थी फिर भी उत्पन्न होते ही बालक कृष्णको बलदेवने उठा लिया और पिता वसुदेवने उनपर छत्ता तान दिया एवं रात्रि के समय ही दोनों १. प्रीतमतिः प्रपद्य म । २. अथोदयादिश्रमणे म. । ३. प्रदीपवान् म. । प्रदीपमान् ग. ।
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पश्चत्रिंशः सर्गः
४५१
अलक्षितः कंसमटैः प्रसुप्तः प्रसुप्तपौरे समये पुरस्य । स गोपुरद्वारकपाटसंधि विपाव्य विष्णुक्रमयुग्मसंगात् ॥२३॥ पयःकणे घ्राणपुटं प्रविष्टे शिशोस्तडिद्वातगमीरनादे। क्षते चिरञ्जीव जयस्वविघ्नस्त्वमित्यनुश्रत्य तदोपरिष्टात् ॥२॥ प्रियोग्रसेनेन नृपेण दत्तां प्रियाशिर्ष तोषयुतोऽगदीत्तम्। रहस्यरक्षा क्रियतां प्रतीक्ष्य विमुक्तिरस्मात्तव दैवकेयात् ॥२५॥ प्रवर्धता भ्रातृशरीरजायाः सुतोऽयमज्ञातमरेरितीष्टम् । तदौग्रसेनीमभिवन्द्य वाचममू विनिर्जग्मतुराशु पुर्याः ॥२६॥ ज्वलद्विषाणो वृषमः पुरस्तात्प्रदीपयन्मार्गमगात्स तूर्णम् । महानुभावाद्यमुना हरेर्दाग् बभूव विच्छिन्नमहाप्रवाहा ॥२७॥ धुनी समुत्तीय ततोऽभिगम्य वनं च वृन्दावनमत्र गोष्ठे । सुनन्दगोपं सयशोदमाप्तं क्रमागतं तौ निशि दृष्टवन्तौ ॥२८॥ समय ताभ्यामहरस्यभेदं प्रवर्द्धनीयं निजपुत्रबुद्धया। शिशं विशालेक्षणमीक्षणानां महामृतं कान्तिमयं स्रवन्तम् ॥२९॥ ततश्च तत्कालभवां यशोदाशरीरजां विश्वसनाय शत्रोः।
अरं समादाय समेत्य देव्यै प्रदाय तौ तस्थतरप्रलक्ष्यौ ॥३०॥ शीघ्र ही घरसे बाहर निकल पड़े ।।२२।। उस समय समस्त नगरवासी सो रहे थे तथा कंसके सुभट भी गहरी नींदमें निमग्न थे इसलिए कोई भी उन्हें देख नहीं सका। गोपुर द्वारपर आये तो किवाड़ बन्द थे परन्तु श्रीकृष्णके चरणयुगलका स्पर्श होते ही उनमें निकलने योग्य सन्धि हो गयी
जिससे सब बा
उस समय पानीकी एक बूंद बालकको नाकमें घुस गयी जिससे उसे छींक आ गयी। उस छींकका शब्द बिजली और वायुके शब्दके समान अत्यन्त गम्भीर था। उसी समय ऊपरसे आवाज आयी कि 'तू निर्विघ्न रूपसे चिरकाल तक जीवित रह ।' गोपुर द्वारके ऊपर कंसके पिता राजा उग्रसेन रहते थे। उक्त आशीर्वाद उन्हींने दिया था। उनके इस प्रिय आशीर्वादको सुनकर बलदेव तथा वसुदेव बहुत प्रसन्न हुए और उग्रसेनसे कहने लगे कि हे पूज्य ! रहस्यको रक्षा की जाये। इस देवकीके पुत्रसे तुम्हारा छुटकारा होगा ।।२४-२५॥ इसके उत्तरमें उग्रसेनने स्वीकृत किया कि 'यह हमारे भाईकी पत्रीका पत्र शत्रसे अज्ञात रहकर वद्धिको प्राप्त हो।' उस समय उग्रसेनके उक्त वचनकी प्रशंसा कर दोनों शीघ्र ही नगरीसे बाहर निकल गये ॥२६॥ उस समय, जिसके सोंग देदीप्यमान थे ऐसा एक बैल आगे-आगे मार्ग दिखाता हुआ बड़े वेगसे जा रहा था। यमुनाका अखण्ड प्रवाह बह रहा था परन्तु श्रीकृष्णके प्रभावसे उसका महाप्रवाह शीघ्र ही खण्डित हो गया ॥२७|| तदनन्तर नदीको पार कर वे वृन्दावनकी ओर गये। वहाँ गांवके बाहर खिरकामें अपनी यशोदा स्त्रोके साथ सुनन्द नामका गोप रहता था। वह वंश-परम्परासे चला आया इनका बड़ा विश्वासपात्र व्यक्ति था। बलदेव और वसुदेवने रात्रिमें ही उसे देखा और दोनोंको पुत्र सौंपकर कहा कि देखो भाई! यह पुत्र विशाल नेत्रोंका धारक है तथा नेत्रोंके लिए कान्तिरूपी महाअमृतको वरसानेवाला है। इसे अपना पुत्र समझकर बढ़ाओ और यह रहस्य किसीको प्रकट न हो सके इस बातका ध्यान रखो ।।२८-२९।। तदनन्तर उसी समय उत्पन्न हुई यशोदाकी पुत्रीको लेकर दोनों शीघ्र ही वापस आ गये और शत्रुको विश्वास दिलानेके लिए उसे रानी देवकीके लिए देकर गुप्त रूपसे स्थित हो गये ॥३०॥ १. पूज्य ? प्रतीक्ष म.।
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४५२
हरिवंशपुराणे
स्वसुः प्रसूतिं प्रतिविद्ये कंसः प्रसूत्यगारं 'विघृणः प्रविश्य । विलोक्य बालामं मलाममुष्याः पतिः कदाचित्प्रमवेदरिमें ॥३१॥ विचिन्त्य शङ्काकुलितस्तदेति निरस्तकोपोऽपि स दीर्घदर्शी । स्वयं समादाय करेण तस्याः प्रणुद्य नासां चिपिटीचकार ॥३२॥ स देवकी मानस तापकारी सुतान्तदर्शी किल निर्वृतारमा | अतिष्ठदन्तर्हितरौद्रभावः सुखेन तावत्कतिचिद्दिनानि ॥ ३३ ॥ ततो व्रजस्थः कृतजातकर्मा स्तनंधयोऽसौ कृत कृष्णनामा । प्रवर्धते नन्दयशोदयोस्तु प्रवर्धयन् प्रीतिमभूतपूर्वाम् ॥ ३४ ॥ गदासिचक्राङ्कुशशङ्खपद्मप्रशस्त रेखारुणपाणिपादः । स गोपगोपीजनमानसानि सकामसुत्तानशयो जहार ॥ ३५ ॥ सुरूपमिन्दीवरवर्णशोभं स्तनप्रदानव्यपदेश गोध्यः । अहंयवः पूर्णपयोधरास्तमतृप्तनेत्राः पपुरेकतानम् ॥ ३६ ॥ इतः कदाचिद्वरुणेन कंसो निमित्तविज्ञेन हितैषिणोक्तः । नृपैधते ते रिपुत्र कश्चित्पुरे वने वा परिमृग्यतां सः ॥ ३७ ॥ ततोऽष्टमाख्यानशनं तपोऽसौ चकार कंसो रिपुनाशबुद्ध्या । पुराभ्युपेतार्थ समर्थनाय सुदेवताः प्रोचुरुपेत्य वास्तम् ॥३८॥ पुरातपःसाधितदेवतास्ता इमा वयं ते वद वस्तु कृत्यम् । विहाय itaraपाणी क्षणेन कः कंसरिपुर्निरस्यः ॥ ३९ ॥
तदनन्तर बहनकी प्रसूतिका समाचार पाकर निर्दय कंस प्रसूतिका - गृहमें घुस गया । वहाँ निर्दोष कन्याको देखकर यद्यपि इसका क्रोध दूर हो गया था तथापि दीर्घदर्शी होनेके कारण उसने विचार किया कि कदाचित् इसका पति मेरा शत्रु हो सकता है । इस शंकासे आकुलित होकर उसने उस कन्याको स्वयं उठा लिया और हाथसे मसलकर उसकी नाक चपटी कर दी ||३१-३२|| इस प्रकार देवकीके मनको सन्ताप करनेवाले कंसने जब देखा कि अब इसके पुत्र होना बन्द हो गया है तब वह सन्तुष्ट हो हृदयकी क्रूरताको छिपाता हुआ कुछ दिनों तक सुखसे निवास करता रहा ||३३|| तदनन्तर जिसका जातसंस्कार कर कृष्ण नामे रखा गया था ऐसा व्रजवासी बालक नन्द और यशोदाकी अभूतपूर्वं प्रीतिको बढ़ाता हुआ सुखसे बढ़ने लगा ||३४|| जब वह बालक चित्त पड़ा हुआ गदा, खड्ग, चक्र, अंकुश, शंख तथा पद्म आदि चिह्नोंकी प्रशस्त रेखाओंसे चिह्नित लाल-लाल हाथ-पैर चलाता था तब गोप और गोपियों के मनको बरबस खींच लेता था || ३५|| नील कमल जैसी सुन्दर शोभाको धारण करनेवाले उस मनोहर बालकको, पूर्ण स्तनोंको धारण करनेवाली गोपिकाएँ स्तन देने के बहाने अतृप्त नेत्रोंसे टकटकी लगाकर देखती रहती थीं ||३६||
इधर किसी दिन कंसके हितैषी वरुण नामक निमित्तज्ञानीने उससे कहा कि राजन् ! यहाँ . कहीं नगर अथवा वनमें तुम्हारा शत्रु बढ़ रहा है उसकी खोज करनी चाहिए ॥ ६७॥ तदनन्तर शत्रुके नाशकी भावनासे कंसने तीन दिनका उपवास किया सो पूर्व भवमें इसने जिन देवियों को यह कहकर वापस कर दिया था कि अभी कुछ काम नहीं है अगले भवमें आवश्यकता पड़े तो सहायता करना । वे देवियां पूर्व स्वीकृत कार्यको सिद्ध करनेके लिए आकर कंससे कहने लगों कि
१. विज्ञ म. । २. विगता घृणा दया यस्य सः विघृणः म., ग । ३ चिपिटींचकार म । ४ बलभद्रनारायणी मुक्त्वा ।
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पञ्चत्रिंशः सर्गः
जगावसौ कोऽपि ममास्ति वैरी प्रवर्धमानः क्वचिदप्यलक्ष्यः । तमाशु यूयं परिमृग्य मृत्योर्मुखे कुरुध्वं करुणानपेक्षाः ॥४०॥ इतीरितं ताः प्रतिपद्य याताः प्रदृश्य चैकोग्रशकुन्तरूपा । प्रनुद्य हन्त्री हरिणात्ततुण्डा प्रचण्डनादा प्रणनाश भीता ॥ ४१ ॥ कुपूतना पूतनभृतमूर्तिः प्रपाययन्ती सविषस्तनौ तम् । स देवताधिष्टितनिष्ठुरास्यो व्यरीरटच्चूचुकचूपणेन ॥ ४२ ॥ स्वपन्निषीदन्नुरसा प्रसर्पन् पदं ददन्नस्खलितं प्रधावन् । कलाभिलापो नवनीतमद्यन्नजोगम जिष्णुरहर्दिनानि ॥ ४३ ॥ अनःशरीरामपरां पिशाचीं स चापतन्तीं धनपादघाती । विभीमञ्जाञ्जनशैलशोमी पृथूदयस्तां पृथुकोऽपि कोऽपि ॥ ४४ ॥ यशोदया दामगुणेन जातु यदृच्छयोदूखलबद्धपादः । निपीडयन्तौ रिपुदेवतागौ न्यपातयत्तौ जमलार्जुनौ सः ॥४५॥ सुनन्दगोपेन यशोदया च सुदृष्टशेोक्तिः शुभशैशवादौ । सविस्मिताभ्यामभिनन्द्यमानो बालः स दृश्यो ववृधे वनान्ते ॥४६॥ स गोपतिं दृप्तमशेष घोषमितस्ततो दृष्टमुदग्र घोषम् । महार्णवं वा प्रतिपूर्ण यन्तं जघान कण्ठोद्बलनात्सुकण्ठः ॥४७॥
ये हम सब तुम्हारे पूर्वं भवके तपसे सिद्ध हुई देवियां हैं। आपका जो कार्य हो वह कहिए, बलभद्र और नारायणको छोड़कर कंसका कौन-सा शत्रु क्षण-भर में नष्ट करने योग्य है सो बताओ ॥ ३८-३९॥ कंसने कहा कि हमारा कोई वैरी कहीं गुप्त रूपसे बढ़ रहा है सो तुम लोग दयासे निरपेक्ष हो शीघ्र ही पता लगाकर उसे मृत्युके मुखमें करो - उसे मार डालो ||४०|| इस प्रकार कंसके द्वारा कथित बातको स्वीकृत कर वे देवियाँ चली गयीं। उनमें से एक देवी शीघ्र ही उग्र-- भयंकर पक्षीका रूप दिखाकर आयो और चोंच द्वारा प्रहार कर बालक कृष्णको मारनेका प्रयत्न करने लगी परन्तु कृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर इतनी जोरसे दबायी कि वह भयभीत हो प्रचण्ड शब्द करती हुई भाग गई || ४१ || दूसरी देवी पूतन भूतका रूप रखकर कुपूतना बन गयी और अपने विष सहित स्तन उन्हें पिलाने लगी । परन्तु देवताओंसे अधिष्ठित होनेके कारण श्रीकृष्णका मुख अत्यन्त कठोर हो गया था इसलिए उन्होंने स्तनका अग्रभाग इतने जोरसे चूसा कि वह बेचारी चिल्लाने लगी ||४२ ॥ बालक कृष्ण कभी तो सोता था, कभी बैठता था, कभी छातीके बल सरकता था, कभी लड़खड़ाते पैर उठाता हुआ चलता था, कभी दौड़ा-दौड़ा फिरता था, कभी मधुर आलाप करता था और कभी मक्खन खाता हुआ दिन-रात व्यतीत करता था ||४३|| तीसरी पिशाची शकटका रूप रखकर उनके सामने आयी परन्तु कृष्ण बालक होनेपर भी अत्यन्त निर्भय थे, अंजनगिरिके समान शोभायमान थे और अत्यधिक अभ्युदयको धारण करनेवाले कोई अनिर्वचनीय पुरुष थे इसलिए उन्होंने जोरकी लात मारकर ही उसे नष्ट कर दिया || ४४ || किसी दिन उपद्रवकी अधिकता के कारण यशोदाने कृष्णका पैर रस्सीसे कंसकर ओखली में बांध दिया था। उसी दिन शत्रुकी दो देवियाँ जमल और अर्जुन वृक्षका रूप रखकर उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगीं परन्तु कृष्णने उस दशामें भी दोनों देवियोंको गिरा दिया - मार भगाया ॥ ४५ ॥ शुभ बाल्यकालके प्रारम्भमें ही सुनन्दगोप और यशोदाने जिसकी अद्भुत शक्ति देखी थी तथा आश्चर्यं से चकित हो जिसकी प्रशंसा की थी ऐसा वह दर्शनीय - मनोहर बालक वनके मध्य में बढ़ने लगा ||४६ || एक
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१. भूषणेन म । २. ददन्संस्खलितं क. । ३. अतः शरीरां म । शकटरूपामित्यर्थः । ४. कोपी ग. । ५. सुदृष्टिशक्ति: ग. । ६. वनान्तरे ग. ।
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हरिवंशपुराणे कुदेवपाषाणमयातिवईरनाकुलो व्याकुलगोकुलाय । दधार गोवर्धनमूर्ध्वमुच्चैः स भूधरं भूधरणोरुदोर्ध्याम् ॥४८॥ भमानुषं कृष्णविचेष्टितं तस्सकर्णमाकर्ण्य बलेने वर्ण्यम् । कृतोपवासव्यपदेशतोऽगाद्मजं सवित्री सुतदर्शनाय ॥१९॥ सुकण्ठगोपालकैलोपगीतं सुतारघण्टाध्वनिगोधनाढ्यम् । महीध्रपादे वनरन्ध्रमोगात्पुरन्धिरध्यास्य' परां तिं सा ॥५०॥ क्वचिञ्चितं स्निग्धसुकृष्णवर्णैः क्वचिच्च सोद्यबलमद्रशुभैः। गवां गणैर्वीक्ष्य वनं जहर्ष भवत्यपत्यप्रतिमं हि हृष्टयै ॥५१॥ तृणाम्बुतृप्ता: स्तनलग्नवत्साः प्रदुह्यमानाश्च परा घटोनीः । ददर्श गा गोष्ठगतास्तदैषा प्रवृत्तरोमाञ्चसुखाभिरामा ॥५२॥ सवत्सधेनुध्वमयोऽतिधीरा रवाश्च गोपीदधिमन्थनोरथाः । मनोऽमिजह हरिमातुरुञ्चैर्गमीरनादा न हरन्ति किं वा ॥५३॥ ततोऽमिनन्दी हृदि नन्दगोपो यशोदयोपेत्य यशोविशुद्धाम् । स देवकी स्वामिनिका निकायैर्मनस्विनी भक्तियुतो ननाम ॥५४॥
दिन छठी देवी बैलका रूप बनाकर आयो । वह बैल बड़ा अहंकारी था, गोपालोंकी समस्त बस्तीमें जहाँ-तहां दिखाई देता था, जोरदार शब्द करता था और सबको डुबोते हुए महासागरके समान जान पड़ता था परन्तु सुन्दर कण्ठके धारक कृष्णने उसकी गरदन मोड़कर उसे नष्ट कर दिया
भगा दिया ॥४७॥ सातवीं देवीने पाषाणमयी तीन वर्षासे कृष्णको मारना चाहा परन्तु वे उस वर्षासे रंचमात्र भी व्याकुल नहीं हए प्रत्यत उन्होंने घबड़ाये हए गोकूलकी रक्षा करनेके लिए पृथिवीका भार धारण करनेसे विशाल अपनी दोनों भुजाओंसे गोवर्धन पर्वतको बहुत ऊँचा उठा लिया और उसके नीचे सबकी रक्षा की ॥४८॥
जब कृष्णकी इस लोकोत्तर चेष्टाका पता कानों-कान बलदेवको चला तब उन्होंने माता देवकीके सामने इसका वर्णन किया। उसे सुन वह किये हुए उपवासके बहाने पुत्रको देखनेके लिए व्रज-गोकुलकी ओर गयो॥४९॥ वहां पर्वतकी शाखापर स्थित, सुन्दर कण्ठके धारक गोपालकोंके मुख गोतसे झंकृत एवं घण्टाओंके जोरदार शब्दोंसे सहित गोधनसे युक्त वनखण्डमें बैठकर यह परम सन्तोषको प्राप्त हुई ॥५०॥ कहीं तो वह वन, कृष्णके रंगके समान स्निग्ध एवं उत्तम कृष्ण वर्णवालो गायोंके समहसे व्याप्त था और कहीं बलभद्रके समान सफेद वर्णवाली गायोंके समहसे युक्त था। उसे देख माता देवकी बहुत ही प्रसन्न हुई सो ठीक ही है क्योंकि पुत्रकी समानता प्राप्त करनेवाली वस्तु भी हर्षके लिए होती है ।।५१॥ जो घास और पानीसे सन्तुष्ट थीं, जिनके थनोंसे बछड़े लगे हुए थे, गोपाल लोग जिन्हें दुह रहे थे तथा घड़ोंके समान जिनके बड़े-बड़े स्तन थे ऐसी गोशालाओंमें खड़ी एक-से बढ़कर एक सुन्दर गायोंको देखकर माता देवकोके रोमांच निकल आये और वह सुखसे सुशोभित होने लगी ॥५२।। उस समय वहां बछड़ोंके साथ गायोंके रंभानेकी ध्वनि फैल रही थी तथा गोपियों द्वारा दही मथे जानेका जोरदार शब्द प्रसरित हो रहा था। उन सबसे देवकीका मन अत्यधिक हरा गया सो ठीक ही है क्योंकि गम्भीर शब्द क्या नहीं हरते हैं ? ॥५३॥ तदनन्तर जो मन ही मन अत्यधिक हर्षित हो रहा था, ऐसे नन्द गोपने यशोदाके साथ आकर, यशसे विशुद्ध, अनेक लोगोंके समूहसे सहित, गौरवशालिनी स्वामिनी देवकीको भक्ति
१. बलरामेण । २. माता देवकी। ३. कपोलगीतं घ.। ४. मागा म.। ५. रध्यास म.। ६. दृष्टये म.। ७. रामाः म.।
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पात्रशः सर्गः
सुपीतवासोयुगलं वसानं वनेवतंसीकृतवर्हिवर्हम् । अखण्डनीलोत्पलमुण्डमालं सुकण्ठिकाभूषितकम्बुकण्ठम् ॥ ५५ ॥ सुवर्णकर्णामरणोज्ज्वलामे सुबन्धुजीवालिक मुच्छमौलिम् । हिरण्यरो चिर्वयेप्रकोष्ठ सुपादगोपाळ कसानुवंशम् ॥ ५६ ॥ यशोदयानीय यशोदयाढ्यं प्रणामितं पुत्रमसौ सवित्री । सुगोपवेषं निकटे निषण्णं परामृशन्तो चिरमालुलोके ॥५७॥ जगौ च देवी विपिनेऽपि वासस्तवेदृशापश्यदृशो यशोदे । यशस्विनि इलाध्यतमो जगत्यां न राज्यलामोऽभिमतोऽनपत्यः ॥ ५८॥ जगाद गोपी भवती यथाह तथैव मे स्वामिनि सत्यमेतत् । तथैव संतोषविशेषपोषी प्रियाशिषा जीवतु नित्यभृत्यः ॥५९॥ इहान्तरे सा सुतदर्शनेन सुनिर्भरप्रस्नुतसुस्तनौ तौ ।
शशाक नो संवरितं क्षरन्तौ न संवृतिः स्यात्सति चित्तभेदे ॥ ६० ॥ रिपोर्मयात्पुत्र वियोजितोऽसि न दुष्टबुद्धयेति विशुद्धिमन्तः । स्तनक्षररक्षीरनिभेन राशी प्रदर्शयन्तीव तदा रराज ॥ ६१ ॥ प्रकाशमीरुः सहसा ततोऽसौ हलायुधः क्षीरघटेन दक्षः । तदाभ्यषिञ्चत्स्वयमञ्चितास्थां न मुह्यति प्राप्तकृतौ कृती हि ॥ ६२ ॥
पूर्वक नमस्कार किया ॥५४॥ तत्पश्चात् जो पीले रंगके दो वस्त्र पहने हुए था, वनके मध्य में मयूर - पिच्छको कलंगी लगाये हुए था, अखण्ड नील कमलको माला जिसके शिरपर पड़ी हुई थी, जिसका शंख के समान सुन्दर कण्ठ उत्तम कण्ठीसे विभूषित था, सुवर्णके कर्णाभरणोंसे जिसकी आभा अत्यन्त उज्ज्वल हो रही थी, जिसके ललाटपर दुपहरियाके फूल लटक रहे थे, जिसके शिरपर ऊंचा मुकुट बँधा हुआ था, जिसकी कलाइयोंमें सुवर्णके देदीप्यमान कड़े सुशोभित थे, जिसके साथ अनेक सुन्दर गोपाल बालक थे एवं जो यश और दयासे सहित था ऐसे पुत्रको लाकर यशोदाने देवकीके चरणोंमें प्रणाम कराया। उत्तम गोपके वेषको धारण करनेवाला वह पुत्र प्रणाम कर पासमें ही बैठ गया । माता देवकी उसका स्पर्श करती हुई चिरकाल तक उसे देखती रही ॥५५-५७॥ देवकीने यशोदासे कहा कि हे यशस्विनि यशोदे ! तू ऐसे पुत्रका निरन्तर दर्शन करती है अतः तेरा वनमें भी रहना प्रशंसनीय है। यदि पृथिवीका राज्य भी मिल जाये पर सन्तान न हो तो वह राज्य अच्छा नहीं लगता ||५८|| इसके उत्तर में गोपी यशोदाने कहा कि हे स्वामिनि ! आपने जैसा कहा है यह वैसा ही सत्य है । मेरे मनके सन्तोषको अत्यधिक रूपसे पुष्ट करनेवाला यह सदाका दास आपके प्रिय अशीर्वादसे चिरंजीव रहे यही प्रार्थना है ||५९ ॥
इसी बीच पुत्रको देखनेसे देवकी रानीके दोनों स्तन अत्यधिक दूधसे परिपूर्ण हो गये । वह उन झरते हुए स्तनोंको रोकने में समर्थ नहीं हो सकी सो ठीक हो है क्योंकि चित्तमें भेद पड़ जानेपर किसी बातका छिपाना नहीं हो सकता ||६०|| उस समय स्तनोंसे झरते हुए दूध के बहाने रानी, 'हे पुत्र ! शत्रुके भयसे मैंने तुझे वियुक्त किया है दुष्ट बुद्धिसे नहीं' अपने अन्तरंगको इस विशुद्धिको दिखाती हुई समान सुशोभित हो रही थी ||६१ || 'कहीं रहस्य न खुल जाये' इससे भयभीत हो बुद्धिमान् बलदेवने उसी समय स्वयं ही दूधके घड़ेसे प्रेमपूर्ण माताका अभिषेक कर दिया - उसके ऊपर दूधसे भरा घड़ा उड़ेल दिया सो ठीक ही है क्योंकि कुशल मनुष्य अवसर के १. वलयः प्रकोष्ठं म. । २. सानुवंशे म. । ३. यशश्च दया चेति यशोदये ताभ्याम् आढ्य सहितम् । ४. दोषी म. । ५. प्रस्तुत म । ६. मञ्चितास्था ग. ।
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हरिवंशपुराणे
ततो हरिप्रेक्षणलब्धसौख्यां' हली समानीय समाप्तकार्याम् । प्रवेश्य साध्वीं मथुरां पुनस्तं न्यवेदयद्वृत्तमपि स्वपित्रे ॥ ६३ ॥ कलागुणान् प्रत्यहमेत्य दक्षमशिक्षय केशवमाशु शीरी । स्थिरोपदेशे प्रणते न शिष्ये गुरूपदेशाः क्षपयन्ति कालम् ॥ ६४ ॥ स बालभावात्सु कुमारभावस्तथैवमुद्भिन्नकुचाः कुमारः । सुयौवनोन्मादभराः 'सुरासैररीरमत्कैलिषु गोपकन्याः ॥६५॥ कराङ्गुलिस्पर्शसुखं स रासेष्वजीजनद्गोपवधूजनस्य । सुनिर्विकारोऽपि महानुभावो मुमुद्रिकानन्द मणिर्यथार्घ्यः ॥ ६६ ॥ यथा हरौ भूरिजनानुरागो जगाम वृद्धिं हृदि वृद्धिसूची । तथास्य तेने विरहानुरागो विहारकाले विरहातुरस्य ॥६७॥ द्विषं तमन्वेष्टुमितः प्रविष्टः स शङ्कया कंसरिपुः कदाचित् । व्रजं निजैरावजदच्युतोऽस्मात्पुरोऽभ्युपायाद्गमितो जनन्या ॥ ६८ ॥ सत्र स्पष्टकृताट्टहासां कुराक्षसी रुक्षनिरीक्षणास्याम् । अधोक्षजो वीक्ष्य विवृद्धकायां शरीरयष्ट्य विकृतां जघान ॥ ६९ ॥
अनुसार कार्य करनेमें कभी नहीं चूकते || ६२ || तदनन्तर कृष्णके देखनेसे जिसे सुख प्राप्त हुआ था और जिसके दुग्धाभिषेकका कार्य समाप्त हो चुका था ऐसी साध्वी माता देवकोको लाकर बलदेवने मथुरापुरी में प्रविष्ट कराया और इसके बाद उन्होंने यह समाचार अपने पिता वसुदेवके लिए भी सुनाया ॥ ६३॥
कृष्ण अत्यन्त चतुर थे अतः बलदेवने प्रतिदिन जा-जाकर उन्हें शीघ्र ही कलाओं और गुणोंकी शिक्षा दी थी सो ठीक ही है क्योंकि स्थिर रूपसे उपदेश ग्रहण करनेवाले विनयी शिष्य के मिलने पर गुरुओंके उपदेश व्यर्थं ही समय नहीं नष्ट करते अर्थात् शीघ्र ही उसे निपुण बना देते हैं ||६४|| कुमारके समान अत्यन्त निर्विकार अथवा अत्यन्त कोमल हृदयको धारण करनेवाले वह कुमार कृष्ण, क्रीड़ाओंके समय अतिशय यौवनके उन्मादसे भरी एवं प्रस्फुटित स्तनोंवाली गोपकन्याओं को उत्तम रासों द्वारा क्रोड़ा कराते थे || ६५ ॥ | वे रासक्रीड़ाओंके समय गोपबालाओंके लिए अपने हाथ की अंगुलियोंके स्पर्शसे होनेवाला सुख उत्पन्न कराते थे परन्तु स्वयं अत्यन्त निर्विकार रहते थे । जिस प्रकार उत्तम अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणि स्त्रीके हाथ की अंगुलिका स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है उसी प्रकार महानुभाव कृष्ण भी गोपबालाओंकी हस्तांगुलिका स्पर्श करते हुए भी निर्विकार रहते थे || ६६ || क्रीड़ाके समय कुमार कृष्ण से मिलने पर वृद्धिको सूचित करनेवाला मनुष्योंका अत्यधिक अनुराग जिस प्रकार हृदयमें वृद्धिको प्राप्त होता था उसी प्रकार उनके विरह्कालमें विरहसे पीड़ित मनुष्योंका विरहानुराग भी वृद्धिको प्राप्त होता था । भवार्थ - खेल के समय कृष्णको पाकर जिस प्रकार लोगोंको प्रसन्नता होती थी उसी प्रकार उनके अभाव में लोगों को विरहजन्य सन्ताप भी होता था ॥ ६७॥
कृष्णकी लोकोत्तर चेष्टाएँ सुन एक दिन कंसको इनके प्रति सन्देह हो गया और वह वैरी जान इन्हें खोजने के लिए गोकुल आया । कृष्ण अपने सखाओंके साथ उसके समीप आ रहे थे— परन्तु माताने कोई उपाय रच उन्हें आत्मीय जनोंके द्वारा नगरके बाहर व्रजको भेज दिया || ६८ || व्रजमें एक ताडवी नामकी पिशवी आयी जो जोर-जोर से अट्टहास कर रही थी, जिसके नेत्र और मुख दोनों ही अत्यन्त रूक्ष थे, जिसका शरीर अत्यन्त बढ़ा हुआ था और जिसकी शरीरयष्टि १. सौख्या म । २. सुराश - म । सुन्दर रासक्रीडाभिः । ३ जनन्या : म. 1 ४. नाटवीं म ।
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पञ्चत्रिंशः सर्गः सुशाल्मलीखण्डसुमण्डपस्य'सुदुर्भरास्तम्मततिं परेषाम् । तमुक्षिपन्तं स्वदयं विदित्वा भ्यवर्तयत्सा जननी विशङ्का ॥७॥ निवृत्त्य कंसः पुंरि घोषणां स्वैरघोषयदेवविदुक्तकारो। गवेषणार्थ द्विषतो निजस्य स पापशापाभिमुखः सुखार्थी ॥१॥ भुजङ्गशय्यामिह सिंहवाहं शरासनं चाप्यजितं जयान्तम् । सपाञ्चजन्याब्जमथारुहेद्यः करोत्यधिज्यं परिपरयेच्च ॥७२॥ ददाति तस्मै पुरुषोत्तमाय पराजिताशेषपराक्रमाय । अलभ्यलार्म समभीष्टमिष्टः प्रहृष्टकंसः पुरुषान्तरज्ञः ॥७३॥ इति प्रवृत्तिश्रवणात्प्रवृत्तास्ततस्तदारोहणपूर्विकासु । क्रियासु निस्तर्जितवृत्तयश्च महीक्षितो जग्मुरतो विलक्षाः ॥७॥ अथानयभानुरुपेन्द्रमर्थी सहोदरोऽसौ खलु कंसवध्वाः । तदीयसामर्थ्यमुदीक्ष्य जातु प्रजाततोषो मथुरापुरी ताम् ॥७५॥ महाहिशय्यामिह सज्जितां तां विलोक्य चन्द्रव्यपदेशपृष्टाम् । समारुहद्भीषणभोगिभोगां स्वभावशय्यामिव शौरिराशु ॥७६॥
अत्यन्त विकृत थी कृष्णने उसे देखते ही मार भगाया ॥६९।। व्रजमें एक शाल्मली वृक्षकी लकड़ीका मण्डप तैयार हो रहा था वहां उसके ऐसे बड़े-बड़े खम्भोंका समूह पड़ा था जिसे दूसरे लोग उठा नहीं सकते थे परन्तु कृष्णने उन्हें अकेले ही उठाकर ऊपर चढ़ा दिया। यह जान माताने निःशंक हो उन्हें व्रजसे वापस लौटा लिया ॥७०|| दुष्ट एवं सुखार्थी कंसको जब कृष्ण गोकुलमें नहीं मिले तब वह मथुरा लौट आया। उसी समय उसके यहाँ सिंहवाहिनी नागशय्या, अजितंजय नामका धनुष और पांचजन्य नामका शंख ये तोन अद्भत पदार्थ प्रकट हुए। कंसके ज्योतिषीने बताया कि 'जो कोई नागशय्यापर चढ़कर धनुषपर डोरी चढ़ा दे और पांचजन्य शंखको फूंक दे वही तुम्हारा शत्रु है', अतः ज्योतिषीके कहे अनुसार कार्य करनेवाले कंसने अपने शत्रुकी तलाश करनेके लिए आत्मीय जनोंके द्वारा नगरमें यह घोषणा करा दी कि 'जो कोई यहाँ आकर सिंहवाहिनी नागशय्यापर चढ़ेगा, अजितंजय धनुषको डोरीसे सहित करेगा और पांचजन्य शंखको
॥ वह पूरुषोंमें उत्तम तथा सबके पराक्रमको पराजित करनेवाला समझा जावेगा। पुरुषोंके अन्तरको जाननेवाला कंस उसपर बहुत प्रसन्न होगा, अपने आपको उसका मित्र समझेगा तथा उसके लिए अलभ्य इष्ट वस्तु देगा' ॥७१-७३।।
___ कंसकी यह घोषणा सुन अनेक राजा मथुरा आये और नागशय्यापर चढ़ने आदिको क्रियाओंमें प्रवत्ति करने लगे परन्तु सब भयभीत हो लज्जित होते हए चले गये ॥७४॥ एक दिन कंसकी स्त्री जीवद्यशाका भाई भानु, किसी कार्यवश गोकुल गया। वहां कृष्णका अद्भत पराक्रम देख वह बहुत प्रसन्न हुआ और उन्हें अपने साथ मथुरापुरी ले आया ।।७५॥
यहां, जिसके समीपका प्रदेश अत्यन्त सुसज्जित था, जिसका पृष्ठ भाग चन्द्रमाके समान उज्ज्वल था एवं जिसके ऊपर भयंकर सर्पोके फण लहलहा रहे थे ऐसी महानाग शय्यापर कृष्ण
कमाल.
१. सुदुर्भरास्तम्भततिः म.। २. पुरघोषणां म.। ३. देवविदुक्त-म. । ४. सिंहवाह म.। ५. स रुषान्तरज्ञः म.। ६. निस्तेजितवृत्तयः ग, । ७. सज्जितान्तं म.। ८. चेन्द्रस्य पदे स पृष्ट्वा म. (?)। चेन्द्रस्य पदेश दृष्ट्वा ग. (?)।
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४५८
हरिवंशपुराणे धनुस्ततोऽधिज्यमसौ व्यधत्त भुजङ्गमोद्गीणविकीर्णधूमम् । अपूरयच्छङ्खमखेदमाशाः प्रपूरयन्तं निखिला निनादैः ॥७७॥ जनस्तदालोक्य तदातिलोकं तदीयमाहात्म्यमुदीयमानम् । अघोषयरक्षुब्धसमुद्रघोषो महानहो कोऽप्ययमित्यशेषः ॥७॥ कुकंसशङ्कां वहताग्रजेन निजेन नीत्या प्रहितो हरिस्तु । महानुकूलो व्रजमात्मनीनैः सहाव्रजत्तीव्रगुणानुरागैः ॥७९॥
शालिनीच्छन्दः गर्भाधानात्पूर्वमा प्रसूतेराबद्धान्तर्वैरभावोऽपि शत्रुः । मत्तः कुर्यात्कि झुदात्तस्य पुंसो जैनाद्धर्मात् पूर्वजन्मप्रयातात् ॥८॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती कृष्णबालक्रीडावर्णनो
नाम पञ्चविंशः सर्गः ॥३५॥
स्वाभाविक शय्याके समान शीघ्र चढ़ गये ॥७६॥ तदनन्तर उन्होंने सांपोंके द्वारा उगले हुए धूम को बिखेरनेवाले धनुषको प्रत्यंचासे युक्त किया और शब्दोंसे समस्त दिशाओंको भरनेवाले शंखको खेद रहित-अनायास ही पूर्ण कर दिया ।।७७॥ उस समय कृष्णके प्रकट होते हुए लोकोतर माहात्म्यको देखकर समस्त लोगोंने घोषणा की कि अहो, क्षुभित समुद्रके समान शब्द करनेवाला यह कोई महान् पुरुष है ।।७८! कृष्णका यह पराक्रम देख बड़े भाई बलदेवको दुष्ट कंससे आशंका हो गयी इसलिए उन्होंने महान् आज्ञाकारी कृष्णको, साथ-साथ जानेवाले गुणोंके तीव्र अनुरागी आत्मीय जनोंके साथ व्रजको भेजा। भावार्थ-बलदेवने कंससे शंकित हो कृष्णको अकेला नहीं जाने दिया किन्तु 'यह बहुत गुणी है, इसलिए सब लोग इसे भेजने जाओ' यह कहकर अपने पक्षके बहुत-से लोगोंको उनके साथ कर दिया ।।७९।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो पूर्व जन्ममें प्राप्त हुए जैन धर्मसे उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ है उस मनुष्यका मदोन्मत्त शत्रु क्या कर सकता है ? भले ही वह गर्भाधानसे पूर्व और जन्मके पहले ही हृदयमें वैरभाव बाँधकर बैठा हो ॥८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कृष्णकी
बालक्रीड़ाओंका वर्णन करनेवाला पैंतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ।॥३५॥
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षट्त्रिंशः सर्गः
मालिनीच्छन्दः अथ विरुवदलिज्यारूढबाणासनायां कलरवकलहंसीशङ्कशय्याश्रितायाम् । रिपुशिखिमदपक्षक्षोदपक्षोदयायां शरदि हरिनवश्रीलीलयाध्यासितायाम् ॥१॥ धननिवहविधातायौरमाञ्चन्द्रहासा विघटितघनपङ्का मेदिनी काशहासा । कतिपयदिनभाविप्रौढकंसाभिवातप्रकटितहरिहासाकारविद्योततीव ( वद्योतने सा) ॥२॥ विपुलपुलिनफेनव्याजतः स्वच्छनद्यः सहजजलसरस्यः पुण्डरीकापदेशात् । सितकुसुमनिभेन स्वैर्वनान्तैश्च शैला हरियश इव शुभ्रं दाग्दधाना विरेजः ॥३॥ फलकु चगुरुभाराकान्तिराक्रान्त सस्यप्रचुररुचिरकासत् कन्जुकोद्रासमाना। प्रमदवशविकासिन्युर्वरा सर्वतोऽभादभिनवहरिकण्ठाश्लेषणोत्कण्ठितेव ॥४॥ प्रसवभरविभूति व्यग्रताव्यग्रगर्मग्रहणसमयहृष्यद्गोवृषोद्घोषघोषाः । शरदि हृदयतोषं पोषयन्तिस्म विष्णोः प्रसभमिह रिपूर्णा पेषर्ण घोषयन्तः ॥५॥ विदितहरिसमीहश्चापि कंसस्तदानीं पुनरपि तदपायोपायधीगोपवर्गम् ।
कमलहरणहेतोर्दुर्गमभ्यङ्गभौजां हृदमपि विषमाहि प्राहिणोधामुनं सः ॥६॥
अथानन्तर गूंजते हुए भ्रमररूपी प्रत्यंचासे युक्त बाणासन जातिके वृक्षरूपी धनुषसे सुशोभित, कबूतररूपी शंख और कलहंसरूपी शय्यासे सहित तथा शत्रुरूपी मयूरोंके मद और पंखोंको नष्ट करनेवाली शरद् ऋतु आयो सो ऐसी जान पड़ती थी मानो कृष्णकी नवीन लक्ष्मीकी लोलासे ही सहित हो। भावार्थ-जिस प्रकार कृष्णने उज्ज्वल नागशय्यापर आरूढ़ हो शंख बजाया था और धनुष धारण किया था उसी प्रकार वह शरद् ऋतु भी कलहंसरूपी नागशय्यापर आरूढ़ हो कबूतररूपी शंखको बजा रही थी तथा बाणासन वृक्षरूपी धनुषको धारण कर
थी ॥१॥ उस समय आकाशमें मेघोंका समह नष्ट हो गया था तथा चन्द्रमाका प्रकाश फैलने लगा था इसलिए वह अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। इसी प्रकार 'पृथिवीकी विपुल कीचड़ नष्ट हो गयी थी तथा उसपर काशके फूल-फूल उठे थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कुछ दिन बाद जो अतिशय बलवान् कसका घात होनेवाला है उससे प्रकट होनेवाले कृष्णके अट्टहासको ही पहलेसे धारण करने लगी हो ॥२॥ उस समय स्वच्छ नदियोंमें विशाल पुलिनोंको टक्करसे फेन निकल रहा था, स्वाभाविक जलसे भरे सरोवरोंमें सफेद-सफेद कमल फूल रहे थे और पर्वतोंके अपने वनोंमें सफेद-सफेद फूल खिल उठे थे उनसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उन सबके बहाने श्रीकृष्णके शुक्ल यशको ही शोघ्र धारण कर रहे हों ॥३॥ फलरूपी स्तनोंके भारी भारसे आक्रान्त, सर्वत्र व्याप्त धानकी सातिशय कान्तिरूपी चोलीसे सुशोभित और हर्षातिरेकसे सब ओर विकसित-नये-नये अंकुरों को धारण करनेवाली उपजाऊ भूमिरूपी रमणी उस समय नये राजा श्रीकृष्णके कण्ठालिंगनके लिए उत्सुकके समान जान पड़ती थी ॥४॥ उस शरद् ऋतुमें सन्ततिके भाररूप विभूतिसे प्राप्त होनेवाली व्यग्रतासे व्यग्र एवं गर्भधारणके योग्य समय पाकर हर्षित होने वाली गायों और बैलोंके जोरदार शब्द श्रीकृष्णके हृदय सम्बन्धी सन्तोषको मानो इसलिए ही बरबस पुष्ट कर रहे थे कि वे उनके शत्रुओंके नष्ट होने की घोषणा कर रहे थे ।।५।।
यद्यपि कंस, श्रीकृष्णकी चेष्टाको जान चुका था तथापि उनके नष्ट करनेके उपायोंमें बुद्धि लगानेवाले उस दुष्टने फिर भी उस समय कमल लानेके लिए समस्त गोपोंके समूहको यमुनाके १. भासा ग, घ, ङ.। २. केन म.। ३. शोभमान । ४. तोष-म.। ५. तदपायेपापधी-म.. ६. मत्यङ्ग-म.। ७. विषमा अहयो यस्मिन् । ८. प्रेषयामास । ९. यमुनाया इर्द यामुनम् ।
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हरिवंशपुराणे निजभुजबलशाली हेलयैवावगाह्य हृदमपि कुपितोत्थं कालियाहिं महोग्रम् । फणमणिकिरणौधोद्गीर्णवह्निस्फुलिङ्गव्यतिकरमतिकृष्णं मंभु कृष्णो ममर्द ॥७॥ तटरुहविटपाग्रव्यग्रगोपप्रणादस्फुटहलधरधीरध्वानसंहृष्टदेहः । भुजनिहतभुजङ्गः संसमुच्छित्य पद्मानुपतटमटतिस्म द्राक् मरुत्वानिवासी ॥४॥ प्रविलसदतिमास्वत्पीतवासा बलेन प्रमदमरवशेन प्रोल्लसन्मेचकेन । सरमसमुपगूढश्चोढतोऽमाद्भुजाभ्यामसितसितशिलाग्रेणेव सोऽब्दः सविद्युत् ॥९॥ निहितकमलमारान् गोपकैरप्रतोरिः परगुणमसहिष्णुः सोष्णमुच्छ्वस्य दृष्टा । सममणदिति शीघ्रं नन्दगोपात्मजायाः सरभसमिह गोपा मल्लयुद्धाय सन्तु ॥१०॥ इति विहितमहाज्ञो मल्लयुद्धाय मल्लानतिकठिनकनिष्ठज्येष्ठमध्यप्ररूढान् । द्रुततरमुपकण्ठे स्वस्य चक्रे स चक्रक्रकचनिशितचित्तः कर्तुकामस्तदानीम् ॥११॥ चरितमिदमकालक्षेपि विज्ञाय शत्रोः स्थिरमतिवसुदेवश्चाप्यनावृष्टियुक्तः । ज्ञपयितुमपि सर्व ज्येष्ठवर्ग स वार्तामगमयदिह शीघ्रं संनिधानाय तस्य ॥१२॥ विदितरिपुविचेष्टास्ते नव ज्येष्ठमुख्या रथतुरगपदातिप्रोन्मदेभैः स्वसैन्यैः ।
सरमसमभिजग्मुमतलं भूषयन्तः शठहृदयमकस्मात्सस्मयं दारयन्तः ॥१३॥ उस ह्रदके सम्मुख भेजा जो प्राणियोंके लिए अत्यन्त दुर्गम था और जहाँ विषम साँप लहलहाते रहते थे ॥६॥
अपनी भुजाओंके बलसे सुशोभित कृष्ण अनायास ही उस ह्रदमें घुस गये और जो कुपित होकर सामने आया था, महाभयंकर था, फणपर स्थित मणियोंकी किरणोंके समूहसे जो अग्निके तिलगोंकी शोभा प्रकट कर रहा था तथा अत्यन्त काला था ऐसे कालिय नामक नागका उन्होंने शीघ्र ही मर्दन कर डाला ||७|| किनारेके वृक्षकी शाखाओंपर चढ़े धबड़ाये हुए गोपोंकी जय-जयकार तथा बलभद्रके गम्भीर शब्दसे जिनका समस्त शरीर रोमांचित एवं हर्षित हो रहा था तथा भुजाओंसे जिन्होंने कालिय भुजंगको नष्ट किया था ऐसे श्रीकृष्ण कमल तोड़कर वायुके समान शोघ्र ही तटके समीप आ गये ॥८॥ देदीप्यमान पीताम्बरसे सुशोभित श्रीकृष्ण ज्यों ही ह्रदसे बाहर निकले त्यों ही आनन्दके समूहसे विवश, नीलाम्बरसे सुशोभित बलभद्रने दोनों भुजाओंसे उनका गाढालिंगन किया। उस समय नीलाम्बरधारी गौरवणं बलभद्रसे आलिंगित पीताम्बरधारी श्याम सलोने कृष्ण, ऐसे जान पड़ते थे जैसे बिजली सहित श्याम मेघ, काली और सफेद शिलाओंके अग्रभागसे आलिगित हो रहा हो ।।९।।
दूसरोंके गुणोंको सहन नहीं करनेवाला वैरी कंस, गोपालोंके द्वारा सामने रखे हुए कमलोंके समूहको देखकर गरम-गरम उच्छ्वास भरने लगा। तदनन्तर उसने शीघ्र ही यह आज्ञा दी। नन्द गोपके पुत्रको आदि लेकर समस्त गोप यहां मल्लयुद्धके लिए अविलम्ब तैयार हो जावें ॥१०॥ इस प्रकार मल्लयुद्ध के लिए कड़ी आज्ञा देकर चक्र और करोंतके समान तीक्ष्ण चित्तका धारक कंस मल्लयुद्ध के लिए इच्छुक हो शीघ्र ही अत्यन्त बलवान् छोटे-बड़े और मध्यम श्रेणीके मल्लोंको उसी समय बुलाकर अपने पास रख लिया ॥११॥ स्थिर बुद्धिके धारक वसुदेवने, अपने अनावृष्टि पुत्रके साथ सलाहकर शत्रुकी इस चेष्टाको तत्काल समझ लिया और अपने समस्त बड़े भाइयोंको बतलाने तथा उन्हें शीघ्र ही मथुरामें उपस्थित होनेके लिए खबर भेज दी ॥१२॥ जिन्होंने शत्रुकी चेष्टाको जान लिया था ऐसे वसुदेवके नौ ही बड़े भाई, रथ, घोडे. पदाति और
१. शीघ्रम् म.। २. भेदः म.। ३. वायुरिव ( ग- टि.)।
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षत्रिंशः सर्गः
४६१
चिरवियुतकनीयोदर्शनव्याजतस्तान् पृथुतरमथुरा तामागतान् यादवेन्द्रान् । अभिमुखमपशङ्कोऽवेत्य कंसः सशङ्को निभृतकृतनतिः प्रावेशयत्सानुजान् सः ॥१४॥ पुरु पुरगृहशोभादर्शनात्तृप्तनेत्रास्तदधिरतिनियुक्तावासकास्ते यथेष्टम् । प्रतिदिनमुपसेव्या दानमानप्रणामैः प्रणयमिव वहन्तस्तस्थुरन्तर्विदाहोः ॥१५॥ हलभृदवकृतार्थो मल्लयुद्धाभिलाषं वृषधवलविशेषोऽत्यन्तविज्ञो विधिस्सुः । अतिनिपुणमतिस्तां संनिधौ तस्य धीरो वदति लघु यशोदां स्नानमाकल्पयेति ॥१६॥ चिरयसि किमिति स्वं विस्मृतात्मीयदेहे न सकृदसकृदुक्ता न स्वभावं जहासि । न हि शुचिशुमशुक्त्युत्पादितोदारमुक्कामणिरतिभृतवेला चापलं स्वं जहाति ॥१७॥ इति सह चिरवासेऽप्युक्तपूर्वा न जातु ह्यतिचकितमया सा साश्रुनेत्रा निरुक्तिः । द्रुततरमुपकल्प्य स्नानमन्नप्रसिद्धय प्रकृतमकृत यत्नं स्नातुमेतौ नदी तौ ॥१८॥ अवददिति बलस्तं कृष्णमेकान्तवर्ती किमिति मुखमिदं ते दीर्घनिश्वाससास्रम् ।
हिमहतरुचिपनच्छायमच्छायमद्य प्रथयति पृथुमन्तस्तापमाचक्ष्व हेतुम् ॥१९॥ मदोन्मत्त हाथियोंसे युक्त अपनी सेनाओंके द्वारा पृथिवीतलको भूषित करते और अकस्मात् आगमनसे दुष्ट कंसके अहंकारपूर्ण हृदयको विदीर्ण करते हुए शीघ्र ही मथुराकी ओर चल पड़े ॥१३॥
यदुवंशी राजाओंको विशाल मथुरा नगरीको ओर आया देख यद्यपि कंस शंकासे युक्त हो गया था तथापि जब उसे यह बताया गया कि ये चिरकालसे वियुक्त छोटे भाई-वसुदेवको देखनेके लिए आये हैं तब उसने निःशंक हो सामने जाकर उनका स्वागत किया, उन्हें अच्छी तरह नमस्कार किया और छोटे भाइयोंसे सहित उन समस्त भाइयोंका नगरमें प्रवेश कराया ॥१४॥ विशाल मथुरा नगरीके घरोंकी शोभा देखनेसे जिनके नेत्र सन्तुष्ट हो गये थे तथा नगरीके अधिपति-कंसने जिन्हें उत्तमोत्तम भवन प्रदान किये थे, ऐसे वे सब यदुवंशी राजा मथुरा नगरीमें रहने लगे। कंस दान, मान तथा नमस्कारके द्वारा प्रतिदिन उनकी सेवा करता था। यद्यपि वे बाह्य में ऐसी चेष्टा दिखाते थे जैसे प्रेम ही धारण कर रहे हों तथापि अन्तरंगमें अत्यधिक दाह रखते थे ॥१५॥
तदनन्तर जिन्होंने समस्त कार्यका अच्छी तरह निश्चय कर लिया था, जिनके अवयव वृषभके समान सफेद थे, जो अत्यन्त विज्ञ थे, जिनकी बुद्धि अत्यन्त निपुण थी और जो कृष्णके हृदयमें यद्धकी अभिलाषा उत्पन्न करना चाहते थे ऐसे धीर-वीर बलभद्रने गोकल जाक सामने ही यशोदासे कहा कि जल्दी स्नान कर ।।१६।। क्यों इस तरह देर कर रही है, तू अपने शरीरकी सम्भालमें ही भूली हुई है, एक बार नहीं अनेक बार कहा फिर भी अपनी आदत नहीं छोड़ती। ठीक ही है उज्ज्वल एवं शुभ शुक्तियोंके द्वारा उत्तम मुक्तामणियोंको उत्पन्न करनेवाली समुद्रकी वेला अपनी चंचलता नहीं छोड़ती है। चिरकाल तक साथ-साथ रहनेपर भी बलभद्रने यशोदासे ऐसे कटुक वचन पहले कभी नहीं कहे थे इसलिए वह बहुत ही चकित तथा भयभीत हो गयो । यद्यपि उसने कहा कुछ नहीं फिर भी उसके नेत्रोंसे आंसू निकल आये। वह चुपचाप शीघ्र ही स्नान कर भोजन बनानेके लिए प्रकृत-अवसरानुकूल यत्न करने लगी। इधर कृष्ण और बलभद्र दोनों स्नान करनेके लिए नदी चले गये ।।१७-१८॥
एकान्तमें पहुंचनेपर बलभद्रने कृष्णसे कहा कि आज तुम्हारा यह मुख लम्बी-लम्बी साँसों तथा अश्रुओंसे युक्त क्यों है ? तुषारसे कुम्हलाये हुए कमलके समान कान्तिसे रहित तुम्हारा यह १. तदधिपतिना कसेन नियुक्ताः प्रदत्ता आवासा येभ्यस्ते । २. हृदये मात्सर्योपेताः। ३. हलधृदवधृतार्थो म , ख.। ४. वृषलवधविशेषोदन्तविज्ञो म., ख. ।
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हरिवंशपुराणे प्रणयसहितमिस्थं प्रश्नितः प्राह कृष्णः प्रहसितमुखपनं पद्ममालोक्य वाक्यम् । शृणु वचनमिहार्य त्वं मदीयं प्रसिद्धं स्फुटवदनविकाराल्लक्षितं चित्तदुःखम् ॥२०॥ श्रुतगुरुरसि विद्वान् वेत्सि लोकानुवृत्तिं त्वमुपदिशसि मार्ग चार्यवयं पुरस्य । तदिह मण सुपूज्यां युज्यते मे यशोदामतिपरुषवचोभिस्ते तिरस्कर्तमद्य ॥२१॥ इति सुविहितमन्यु गङ्गदत्तं गदन्तं हृषिततनुरुहोऽसौ गाढमाश्लिष्य दोाम् । अवददविरलाश्रुपातसंसूचितान्तःकरणविशदवृत्तिः सर्ववृत्तान्तमस्मै ॥२२॥ मुनिवचनमवन्ध्यं तजरासन्धजायाः पटुमदवशवृत्तेहँ तुतो वृत्तमादौ । निधनमपि च षण्णां देवकीगर्भजानां क्षुमितहृदयकंसापादितं कोपहेतुम् ॥२३॥ प्रसवसमयतोऽर्वाग्गोकुले लीनवृत्ति रिपुविहितमनेकापायमप्यत्र बाल्यात् । प्रभृति सकलमग्रे मल्लसंग्राममुग्रं विरचितमवधार्य द्विड्वधेऽधत्त चित्तम् ॥२४॥ हरिरिति हरिवंशं रौहिणेयादशेषं पितृजनगुरुबन्धुं भ्रातृवर्ग विदित्वा । प्रेमदमुरुमुवाह श्रीमुखाम्भोजलक्ष्मी हरिरिव गुरुभूभृद्भरिरक्षासनाथः ॥२५॥ हितसहजतयोत्थस्नेहसंपृक्तमावौ सुसरिति यमुनायां तौ महामीनलीलौ ।
जलविहरणदक्षौ स्नानमासेव्यसेव्यौ निजसदनमगातामन्वितौ गोपवर्गः ॥२६॥ मख किसी भारी मानसिक सन्तापको प्रकट कर रहा है सो उसका कारण कहो ॥१९।। इस प्रकार प्रेमसहित पूछे हुए कृष्णने, प्रसन्न मुख कमलसे युक्त बलभद्रकी ओर देखकर यह वचन कहे कि हे आर्य ! मेरे वचन सुनिए। मेरे मुखपर प्रकट हुए विकारसे मेरा मानसिक दुःख प्रकट हो रहा है, यह ठीक है। आप शास्त्रज्ञानसे श्रेष्ठ विद्वान् हैं, लोककी रीतिको जानते हैं और हे पूज्य ! आप नगरवासी लोगोंको श्रेष्ठ उपदेश देते हैं फिर यह तो बताइए कि आज आपको हमारी पूज्य माता यशोदाका अत्यन्त कठोर वचनोंसे तिरस्कार करना क्या उचित था? ॥२०॥ इस प्रकारके वचनों द्वारा शोक प्रकट करते हुए कृष्णका बलभद्रने दोनों भुजाओंसे गाढ़ आलिंगन कर लिया। हर्षसे उनका शरीर रोमांचित हो गया। तदनन्तर अविरल अश्रुधारासे हृदयकी स्वच्छ दृत्तिको सूचित करते हुए उन्होंने कृष्णके लिए सब वृत्तान्त कह सुनाया ।।२१।। उन्होंने सबसे पहले तीव्र अहंकारको वशीभूत जरासन्धकी पुत्री कंसकी स्त्री जीवद्यशाके लिए अतिमुक्तक मुनिने जो अवन्ध्य-सत्य वचन कहे थे वे सुनाये। तदनन्तर क्षुभितहृदय कंसने देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए छह पुत्रोंको अपनी जानमें मार डाला यह क्रोधवर्धक समाचार सुनाया। फिर, तुम प्रसवके समयसे पहले ही उत्पन्न हुए थे और उत्पन्न होते ही तुम्हें हम गोकुलमें छिपाकर यशोदाके यहां रख गये थे यह कहा। तदनन्तर बाल्यकालसे ही लेकर शत्रुने मारनेके जो नाना साधन जुटाये उनका निरूपण किया। अन्तमें यह बताया कि इस समय कंस भयंकर मल्लयुद्धका निश्चय कर तुम्हारे मारनेमें चित्त लगा रहा है ।।२२-२४।। इस प्रकार ज्योंही कृष्णने बड़े भाई बलभद्रसे समस्त हरिवंश, पिता, गुरु, बन्धु तथा भाइयोंका हाल जाना त्योंही वे आनन्दसे अत्यधिक मुख-कमलकी शोभाको धारण करने लगे-हर्षातिरेकसे उनके मुख-कमलकी लक्ष्मी खिल उठी। और वे बड़े भाईरूपी पर्वतसे प्राप्त अत्यधिक रक्षासे युक्त हो सिंहके समान सुशोभित होने लगे ॥२५॥
तदनन्तर जन्मजात हितबुद्धिसे उत्पन्न स्नेहसे जिनके अन्तःकरण परस्पर मिल रहे थे, जो महामच्छोंकी लीला धारण कर रहे थे एवं जलक्रीड़ामें जो अत्यन्त चतुर थे ऐसे दोनों भाइयोंने यमुना नदीमें स्नान किया। तत्पश्चात् गोप समूहसे सेवनीय दोनों भाई उन्हीं गोपोंके १. बलम् । २. विष्णुं कृष्णमित्यर्थः । ३. बलात् । ४. प्रमदपुरु-म.। ५. लक्ष्मीहरिरिव म. ।
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षत्रिंशः सर्गः शुभपरिमलसद्यस्तापहैयङ्गवीनस्फुटसुरससुसूपव्यञ्जनक्षीरदध्ना'। विरचितमणिभूमौ हेमपान्यां सहेतौ मृदुविशदसुसिक्थं शालिमक्तं हि भुक्त्वा ॥२७॥ "सुमृदुसुरभिगन्ध्युद्वर्तितास्यस्वपाणी स्वकरकिसलयौ तौ दिग्धदिव्यानुलिप्तौ ।
[स्वकरकिसलयात्तोदिग्धदिव्यानुलेपौ] दलितहरितपूगैलादिताम्बूलरागप्रविततमुखरागाद्भासमानाधरोष्टौ ॥२८॥ विविधकरणदक्षी मल्लविद्यानवद्यौ कृतचलनसुवेषौ नीलपीताम्बराभ्याम् । बृहदुरसि विधायोदारसिन्दूरधूलीरभिनववनमालामालतीमुण्डमालौ ॥२९॥ स्थिरमनसि विधाय ध्वंसनं कंसशत्रोश्चलचरणनिघातैर्धारिणी क्षोमयन्तौ । 'सममरमतिघोरैमलवेषैः सवर्गः पुरममि मथुरां तौ चेलतुर्गापवर्गः ॥३०॥ अभिपतदुरगेन्द्र रासमं दूरसन्तं पथि हि पुरनिवेशे विघ्नयन्तं बृहध्वम् । विवृतवदनरन्धं चापतन्तं दुरन्तं कुतुरगमवधीत्तं केशवः केशिनं सः ॥३१॥ नगरमभिविशन्तौ द्वारितौ वारणेन्द्रावविरतमदलेखामण्डितापाण्डुगण्डौ । युगपदरिनियोगादापतन्तौ विदित्वा तुतुषतुरिव दृष्टा युद्धरङ्गादिमल्लौ ॥३२॥
साथ-साथ अपने घर आ गये ॥२६॥ घरपर दोनों साथ-साथ मणिजटित भूमिमें गये और वहाँ उन्होंने साथ-ही-साथ, जिसके सीथ अत्यन्त कोमल और उज्ज्वल थे ऐसा शालिधानका भात, शुभ सुगन्धित एवं तत्काल तपाये हुए धीसे स्वादिष्ट दाल, शाक, दूध और दहीके साथ जोमा। जोमनेके बाद अत्यन्त कोमल और सुगन्धित चन्दनादि द्रव्योंके चूर्णसे कुल्ला किया, हाथों में उन्हींका उद्वर्तन किया, अपने कर-किसलयमें लेकर गाढ़ा-गाढ़ा सुन्दर लेप लगाया, कटी हुई हरी सुपारी तथा इलायची आदिसे युक्त पान खाया। पानकी लालीसे उनके मुखकी स्वाभाविक लाली और भी अधिक बढ़ गयी जिससे उनके अधर तथा ओठ अत्यन्त सुन्दर दिखने लगे ॥२७-२८|| तदनन्तर जो नाना आसनोंके लगाने में चतुर थे, मल्लविद्याके निर्दोष ज्ञाता थे, नीलाम्बर और पीताम्बर धारण कर जिन्होंने चलनेके योग्य सुन्दर वेष धारण किया था, लम्बेचौड़े वक्षस्थलपर उत्तम सिन्दूरकी रज लगाकर जिन्होंने नूतन वनमाला और मालतीका सेहरा धारण किया था, और जो अपने दृढ़ मनमें वैरी कंसके मारनेका निश्चय कर चंचल चरणोंके आघातसे पृथिवीको कम्पित कर रहे थे ऐसे दोनों भाई, अतिशय भयानक मल्लोंके वेगसे युक्त एवं अपने-अपने वर्गके लोगोंसे सहित गोपोंके साथ शोघ्र ही मथुराकी ओर चले ।।२९-३०॥ मार्गमें कंसक भक्त एक असुरने नागका रूप बनाया, दूसरेने कटु शब्द करनेवाले गधाका और तीसरेने दुष्ट घोड़ेका रूप बनाया तथा नगर-प्रवेशमें विघ्न डालते हुए सबके-सब मुंह फाड़कर सामने आये परन्तु कृष्णने उन सबको मार भगाया ॥३१॥
नगरमें प्रवेश करते हुए दोनों भाई जब द्वारपर पहुंचे तो शत्रुकी आज्ञासे उनपर एक साथ चम्पक और पादाभर नामक दो हाथी हूल दिये गये। उन हाथियों के भूरे रंगके गण्डस्थल, निरन्तर झरती हुई मदको रेखाओंसे सुशोभित थे। उन हाथियोंको सामने आते जानकर दोनों भाई ऐसे सन्तुष्ट हुए जैसे युद्धकी रंगभूमिमें आगत प्रथम मल्लोंको देखकर ही सन्तुष्ट हो रहे
१. हैयङ्गवीनं म.। २. दध्नः म.। ३. भुक्तम् ग.1 ४. २८-२९ श्लोकयोः स्थाने ख पुस्तके एवं पाठः-सुमदुसुरभिगन्ध्युदर्तनोद्वतितास्यस्वकर किसलयो 'ती मल्लविद्यानवद्यौ। कृतचलनसूवेषौ नीलपीताम्बराम्यां बृहदुरसि विधायोदारसिन्दूरधूलीः ।। अभिनववनमालामालतीमुण्डमालो दरदलितसुबिम्बोद्भासमानाधरोष्ठो। ५. पलित म.। ६. समम् अरम् इतिच्छेदः । ७. वारितो म.।
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हरिवंशपुराणे
सललितमितस्थौ चम्पकं शीरपाणिः 'फणिरिपुरपि नागं तत्र पादामराख्यम् । अभवदभिनवं तद्विस्मयापादि पुंसां नरवरकरिमलद्वन्द्वयोर्द्वन्द्वयुद्धम् ॥३३॥ दृढपदहतिगाढाक्रान्ति चोत्पाटयन्तौ कुटिलितकेररुद्धान् दन्तिदन्तानमाताम् । पृथु भुजबललोलोत्पाट्यमानाग्रबन्धक्षितिभृदुरगवेष्टप्रौढवंशाङ्कुरान् वा ॥३४॥ अदयमथसमूलोन्मूलितोल्लासिता भस्वरदन परिघातैर्घोर निर्घातघोषैः । विरसविरटिते मौ तौ निहस्य प्रविष्टौ पुरमुरुरववेलाक्ष्वेडितास्फोटगोपैः (१) ॥३५॥ कमलकिसलयोद्यत्तोरणद्वारशोभां नृपजनपदशुम्भच्चक्रवालालयालिम् । भुजशिखरनिघृष्टज्येष्ठ मल्लांसकूटौ विशदमविशतां तौ तां महारङ्गभूमिम् ॥ ३६॥ स्वचरणभुजदण्डाकुञ्चिताकारशोमान्यभिनय दृढदृष्टिक्षेपरम्याणि रेजुः । चलित चलनवस्त्रप्रान्तकान्तानि रङ्गे हरिहलधर हेलावल्गितास्फोटितानि ॥३७॥ रिपुरयमिह कंसोऽयं जरासन्धलोकः सलिलधिविजयाद्यास्ते दशामी सपुत्राः । सहलिसहरिचका लोकिनो लाङ्गलोरथं प्रतिपुरुष मशेषं संज्ञयादर्शय तान् ॥ ३८ ॥
हों ||३२|| उनमें से बलभद्र तो बड़ी सुन्दरताके साथ चम्पक हाथीके सामने अड़ गये और कृष्ण पादाभर हाथी के सामने जा डटे । तदनन्तर नर मल्ल और हस्तिमल्लोंकी जोड़ियों में ऐसा मल्लयुद्ध हुआ जो देखनेवाले मनुष्योंके लिए बिलकुल नया तथा आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला था ||३३|| यद्यपि हाथियोंने अपने दांत टेढ़ी सूँड़ोंसे छिपा रखे थे तथापि उन दोनोंने उन्हें पैरोंके मजबूत प्रहार और बहुत भारी चपेटसे उखाड़ लिया था । उस समय वे हाथियोंके दांत ऐसे जान पड़ते थे मानो अत्यधिक बाहुबलकी लीलासे जिसका अग्रभाग उखाड़ा जा रहा था ऐसे किसी पर्वत के साँपों से घिरे हुए बड़े बांसोंके अंकुरोंका समूह हो हो ||३४||
तदनन्तर निर्दयतापूर्वक जड़से उखाड़े हुए अपने सुशोभित दांतोंके परिघातसे जो भयंकर वज्रपात के समान जोरदार -- विरस शब्द कर रहे थे ऐसे उन दोनों हाथियोंको मारकर दोनों भाई नगर में प्रविष्ट हुए । उस समय वह मथुरा नगर जोरसे जय-जयकार करनेवाले गोपोंसे व्याप्त होनेके कारण बहुत बड़ा जान पड़ता था ( ? ) ||३५||
तदनन्तर कमलकी कलिकाओंसे जिसके तोरण द्वारकी शोभा बढ़ रही थी एवं जिसके भीतर घेरकर बैठे हुए राजाओं तथा नगरवासियोंसे सुशोभित, कुश्ती के लिए गोलाकार स्थान बनाये गये थे ऐसी बहुत बड़ी रंगभूमि में दोनों भाई, अपने कन्धोंसे बड़े-बड़े मल्लोंके उन्नत कन्धोंको धक्का देते हुए, हर्षपूर्वक प्रविष्ट हुए || ३६ | | उस समय रंगभूमि में अपने चरणों और भुजदण्डोंके संकोच तथा विस्तारसे जिनकी शोभा बढ़ रही थी, जो अभिनयके अनुरूप दृष्टिके दृढ़ निक्षेपसे अत्यन्त रमणीय थीं एवं हिलते हुए चंचल वस्त्रोंके छोरसे जो सुन्दर थीं ऐसी कृष्ण और बलभद्रकी क्रीडापूर्वक उछलना तथा ताल ठोकना आदि चेष्टाएँ अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं ||३७|| रंगभूमिमें पहुँचते ही बलभद्रने 'यह यहाँ शत्रु कंस बैठा है, ये जरासन्धके आदमी हैं और ये अपनेअपने पुत्रों सहित समुद्रविजय आदि दशों भाई विराजमान हैं' इस प्रकार इशारेसे कृष्णको समस्त मनुष्यों का परिचय करा दिया। वे समस्त लोग भी उसी गोलकी ओर देख रहे थे जो बलभद्र तथा कृष्ण से सहित था ||३८||
३. पाठ्यमानारवाद्येक., ग., ड.,
१. कृष्णः। २. कररुद्धादन्ति म. । कररुद्धो दन्तिदन्तावभाताम् क. । म. । ४. चेष्ट-म. । ५. ल्लासिताम - ख, ग, घ, ड. । ६. निर्घोषघोषैः - म. । ७. समुद्रविजयादयः म. । ८. सहलसहरिवकालोकिनो म. ।
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षत्रिंशः सर्गः
४६५ बहुजनपदराजप्राज्यलोकावलोके क्षुमितसकलमल्लास्फोटवल्गाभिरामे । क्रमगहितमिहान्ये तावदादेशमाजो वनमहिषविदृप्ता मल्लयुद्धं प्रचक्रुः ॥३९॥ अथ गिरिगुरुमित्तिम्यूढवक्षोविभागस्फुटदृढभुजयेन्त्रोत्पीलितोद् दृप्तमल्लम् । हरिमभि खलकंसोऽयुक्त चाणूरमल्लं विषमितविषदृष्टया पृष्ठतो मुष्टिकं च ॥४०॥ खरनखरकठोरी मुष्टिबन्धौ विधाय प्रकटितपटुसिंहाकारसंस्थानभेदौ । स्थिरचरणनिवेशौ शौरिचाणूरमल्लावनिभृतममिलग्नौ मुष्टिसंघट्टयुद्धे ॥४१॥ कुलिशकठिनमुष्टिं मुष्टिकं पृष्ठतस्तं समपतितुसकामं राममलः सलीलम् । अलमलमिह तावत्तिष्ट तिष्ठेति साशी:शिरसि करतलेनाक्रम्य चक्रे गतासुम् ॥४२॥ हरिरपि हरिशक्तिः शक्तचाणूरकं तं द्विगुणितमुरसि स्वे हारिहुङ्कारगर्मः । व्यतनुत भुजयन्त्राक्रान्तनीरन्ध्रनिर्यद्वहलरुधिरधारोद्गारमुद्गीर्णजीवम् ॥४३॥ दशशतहरिहस्तिप्रोबलौ साधिषूभावितिहठहतमल्लौ वीक्ष्य तौ शीरिकृष्णौ । प्रचलितवति कंसेशातनिस्त्रिंशहस्ते व्यचलदखिलरङ्गाम्भोधिरुत्तुङ्गानादः॥४४॥ अभिपतदरिहस्तारखड्गमाक्षिप्य केशेष्वतिढमतिगृह्याहत्य भूभौ सरोषम् । विहितपरुषपादाकर्षणस्तं शिलायां तदुचितमिति मत्वास्फाल्य हत्वा जहास ॥४५॥
अथानन्तर जहां अनेक नगरवासी और राजा आदि श्रेष्ठ पुरुष देखनेके लिए एकत्रित थे तथा क्षोभको प्राप्त हुए समस्त मल्लोंकी उछल-कूद एवं तालके शब्दोंसे जो अत्यधिक मनोहर जान पड़ता था ऐसे अखाड़ेमें बारी-बारीसे कंसकी आज्ञा पाकर अन्य अनेक मल्ल जंगली भैंसाओंके समान अहंकारी हो मल्ल-युद्ध करने लगे ॥३९|| जब साधारण मल्लोंका युद्ध हो चुका तब दुष्ट कंसने कृष्णसे लड़नेके लिए उस चाणूर मल्लको आज्ञा दी जो पर्वतकी विशाल दीवालके समान विस्तृत वक्षःस्थलसे युक्त था और जिसने अपने मजबूत भुजयन्त्रसे बड़े-बड़े अहंकारी मल्लोंको पेल डाला था। यही नहीं, पीछेसे मुष्टिक मल्लको भी उसने उनपर रूर पड़नेके लिए अपनी विषम-विषमयी दृष्टि से इशारा कर दिया ॥४०॥
थ सिहके समान आकार और खड़े होनेकी मुद्रा विशेषको प्रकट करनेवाले कृष्ण और चाणूर मल्ल, स्थिर चरण रख एवं तीक्ष्ण नखोंसे कठोर मुट्ठियां बांधकर अविराम रूपसे मुष्टि-युद्ध में जुट गये-परस्पर मुक्केबाजी करने लगे ॥४१॥ वज्रके समान कठोर मुट्ठिका धारक मुष्टिक मल्ल पीछेसे मुट्ठिका प्रहार करना ही चाहता था कि इतने में बलभद्र मल्लने शीघ्रतासे 'बस-बस ! ठहर-ठहर !' यह कहते हुए चवड़े और शिरमें जोरसे मुक्का लगाकर उसे प्राणरहित कर दिया ॥४२।। इधर सिंहके समान शक्तिके धारक एवं मनोहर हुंकारसे युक्त श्रीकृष्णने भी चाणूर मल्लको जो उनसे शरीरमें दूना था अपने वक्षःस्थलसे लगाकर भुजयन्त्रके द्वारा इतने जोरसे दबाया कि उससे अत्यधिक रुधिरको धारा बहने लगी और वह निष्प्राण हो गया ॥४३॥ कृष्ण और बलभद्र में एक हजार सिंह और हाथियोंका बल था। इस प्रकार अखाडे में जब उन्होंने हठपूर्वक कंसके दोनों प्रधान मल्लोंको मार डाला तो उन्हें देख, कंस हाथमें पैनी तलवार लेकर उनकी ओर चला। उसके चलते ही समस्त अखाड़ेका जनसमूह समुद्रकी नाई जोरदार शब्द करता हुआ उठ खड़ा हुआ ॥४४॥ कृष्णने सामने आते हुए शत्रुके हाथसे तलवार छीन ली और मजबूतीसे उसके बाल पकड़ उसे क्रोधवश पृथिवीपर पटक दिया। तदनन्तर उसके कठोर पैरोंको खींचकर 'उसके योग्य यही दण्ड है' यह विचार उसे पत्थरपर पछाड़कर मार डाला । कंसको मारकर कृष्ण हंसने लगे ॥४५॥ १. पीलितं दृप्तमल्लं क., पीडितो दृष्टमल्लं म., ख.। २. अयुङ्क्त = योजितवान्, युक्तचाणूर-म.' ३. पद म. । ४. मृतम् । ५. हरेः सिंहस्येव शक्तिर्यस्य सः । ६. शाल-म. । ७. कोशेषु म.।
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हरिवंशपुराणे क्षुभितमभिपतन्तं कंससैन्यं च रामः कुटिलभृकुटिमञ्चस्तम्भमुत्पाव्य कोपात् । . कुलिशसदृशघातः सर्वतो गर्वदत्तैरकृत कृतविरावं कान्दिशीकं क्षणेन ॥४६॥ यदुपु विषमदृष्टिष्वेककालं बलः स्वश्चलितजलधिनादैरुत्थितेषूद्धतेषु । क्षुमितमपि समस्तं कंसकार्ये नियुक्तं व्यनशदवशमत्तं तज्जरासन्धसैन्यम् ॥४७॥ रथमथ चतुरे इवं तावनावृष्टियुक्तौ सपदि सममिरूढी मल्लनेपथ्ययुक्तौ । सदनमगमतां तत्पैतृकं यादवोधैर्जलधिविजयपूर्वैः पूर्णमुर्वीभृदीशैः ॥४८॥ क्रमयुतमवनत्या पूजयित्वा दशाहप्रभृतिगुरुजनान् तौ तत्र दत्ताशिषौ तैः । चिरविरहजमन्तस्तापमस्तं स्वयोगप्रथमसलिलधारासंगती निन्यतुस्तम् ॥४९॥ वसुनिभवसुदेवो देवकी दात्मजस्य प्रशमितरिपुवढेवीक्ष्य विश्रब्धमास्यम् । सुखमतुलमभातामेकनासा व कन्या भुवि सुतसहजानां संप्रयोगः सुखाय ॥५०॥ गतनिगलकलङ्कः कंसशङ्काविमुक्तश्विरविरहकृशाङ्गं राज्यलक्ष्मीकलत्रम् । यदुनिवहनियोगादुग्रसेनस्तदानीमभजत मथुरायां कसमाथिप्रदत्तम् ॥५१॥ स्वजननिजवधूनां क्रन्दनायः सभावे श्रितवति लघु कंसेऽप्यङ्गसंस्कारमन्त्यम् । यदपु कुपितचित्ता प्राप जीवद्यशाश्च स्वकपितुरुपकण्ठे वाष्पसंरुद्धकण्ठा ॥५२॥
कसकी सेना क्षुभित हो सामने आयी तो उसे देख रामकी भौंहें कुटिल हो गयीं। उन्होंने उसी समय क्रोधवश मंचका एक खम्भा उखाड़ लिया और गर्वसे सब ओर दिये हुए उसके वनतुल्य कठोर आघातोंसे चिल्लाती हुई उस सेनाको क्षणभरमें खदेड़ दिया ॥४६।। कंसके कार्यमें नियुक्त जरासन्धको स्वच्छन्द एवं मदोन्मत्त सेना यद्यपि क्षुभित हुई थी तथापि ज्योंही विषम दृष्टिके धारक शक्तिशाली यादव लोग चंचल समुद्रके समान शब्द करनेवाली अपनी-अपनी सेनाओंके साथ एक ही समय उठ खड़े हुए त्योंही वह समस्त सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयो ॥४७॥
तदनन्तर मल्लके वेषसे युक्त दोनों भाई अनावृष्टिके साथ-साथ, चार घोड़ोंसे वाहित रथपर सवार हो अपने पिताके घर गये। पिताकां वह घर समुद्रविजय आदि राजाओं तथा अन्य अनेक यदुवंशियोंके समूहसे भरा हुआ था ॥४८|| वहाँ जाकर दोनों भाइयोंने क्रमसे समुद्रविजय आदि गुरुजनोंको नमस्कार कर उनकी पूजा की तथा गुरुजनोंने उन्हें आशीर्वाद दिया। इस प्रकार अपने संयोगरूप प्रथम जलकी धारासे युक्त दोनों भाइयोंने चिर कालके विरहसे उत्पन्न सबके मानसिक सन्तापको अस्त कर दिया ।।४९|| कुबेरकी उपमा धारण करनेवाले वसुदेव और देवकी, शत्रुरूपी अग्निको शान्त करनेवाले पुत्रके मुखको निःशंक रूपसे देखकर अनुपम सुखको प्राप्त हुए। इसी प्रकार कंसने जिसकी नाक चिपटी कर दी थी उस कन्याने भी भाईका मुख देख अनुपम सूखका अनुभव किया सो ठोक ही है क्योंकि संसारमें पुत्र-पुत्रियोंका समागम सुखके लिए होता ही है ।।५०॥ जिनकी बेड़ियोंका कलंक नष्ट हो गया था और जो कंसकी शंकासे विमुक्त हो चुके थे ऐसे राजा उग्रसेन उस समय यादवोंकी आज्ञासे कृष्णके द्वारा प्रदत्त, चिरकालीन विरहसे दुबलीपतली राज्यलक्ष्मीरूपी स्त्रीका मथुरामें पुनः उपभोग करने लगे। भावार्थ-कृष्णने राजा उग्रसेनकी बेड़ी काटकर उन्हें पुनः मथुराका राजा बना दिया और वे चिरकाल के विरहसे कृश राज्यलक्ष्मीका पन: सेवन करने लगे ॥५१॥ उधर कुटुम्बी जन तथा अपनी स्त्रियोंके रुदन आदिसे सहित कंस जब अन्तिम शारीरिक संस्कारको प्राप्त हो चुका तथा यादवोंके ऊपर जिसका चित्त अत्यन्त
१. मञ्चस्तम्भमुत्पाद्य म. । २. चतुरस्रम् म.। ३. यादवाद्ये क. । ४. संयोग म. । ५. 'वसुर्मयूखाग्निधनाधिपेषु' इति कोशः । ६. चित्ताः म. । ७. प्राप्य म. । ८. जीवद्यशायाः म. ।
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षत्रिंशः सर्गः
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अथ गगनसमुद्र मोदरङ्गत्तरङ्गे त्वरितगतिरनूनामुद्वहन्मीनलीलाम् । खचरनृपतिदूतोऽलोकि लोकैः समस्तैः स्फुरितमणिविभूषो माथुरैरुन्मुखाब्जैः ॥५३॥ तनुविशददुकूलश्चन्दना कृताङ्गः स्फुट इव कलहंसो मानसस्तानसेवी। सुरसरितमिवाप्तो माथुरी सोऽथ रथ्यां दिशि दिशि धृतशोभा संचरद्राजहंसैः ॥५४॥ परिषदमथ दत्तद्वारपालप्रवेशो यदुभिरवहितात्मा भूषितां संप्रविश्य । कृतविनतिनिषण्णो विष्णुमूचेऽरिजिष्णुं प्रभुमवसरवेदी यादवानां समक्षम् ॥५५॥ शृणुत विनुत राजा राजतादौ सुकेतुर्नमिविनमिकुलश्रीवैजयन्तीसुकेतुः । अधिवसति रथं यो नूपुरं चक्रवालं पुरमिह नयदक्षो दक्षिणश्रेण्यधिष्ठम् ॥५६॥ जलजशयनचापैस्त्वां परीक्ष्यामुनाहं तव निकटमिहाशु-प्रेषितः प्रेमपूर्वम् । भज वरदवृतस्त्वं सत्यभामावरवं खचरभुवनभूत्यै सर्वकल्याणमूलम् ॥५॥ सकलयदुमनोज्ञं दूतवाक्यं निशम्य प्रतिवचनमुपेन्द्रोऽदादिति प्रीतचित्तः । 'खगधनपतिसृष्टा रत्नशैले मयि द्राक निपततु वसुधारा सत्यभामाभिधाना ॥५८॥
कुपित हो रहा था एवं आसुओंसे जिसका गला रुंधा हुआ था ऐसी जीवद्यशा अपने पिता जरासन्धके पास पहुंची ॥५२॥
अथानन्तर किसी समय ऊपरकी ओर मुख कमल किये हुए मथुरा निवासी समस्त लोगोंने आकाशमें विद्याधरोंके राजा सुकेतुका दूत देखा। वह दूत हर्षसे लहराते हुए आकाशरूपी समुद्र में बड़े वेगसे आ रहा था, मच्छको उत्कट लीलाको धारण कर रहा था, और देदीप्यमान मणियोंके आभूषणोंसे युक्त था ।।५३।। उसका शरीर चन्दनसे आर्द्र था तथा वह महीन और श्वेत वस्त्र पहने था इसलिए मानसरोवर में स्नान करनेवाले हंसके समान जान पड़ता था। वह शीघ्र ही प्रत्येक दिशाओंमें विचरण करनेवाले श्रेष्ठ राजाओं (पक्षमें राजहंस पक्षियों) से गंगा नदीके समान सुशोभित मथुरा नगरीकी गलीमें आया ॥५४॥ तदनन्तर द्वारपालने जिसे प्रवेश दिया था ऐसा वह दूत, यादवोंसे सुशोभित सभामें सावधानोसे प्रविष्ट हो नमस्कार कर बैठ गया। फिर कुछ देर बाद अवसरको जाननेवाले उस दूतने यादवोंके समक्ष, शत्रुओंको जीतनेवाले कृष्णसे निम्नांकित वचन कहे ॥५५।। उसने कहा कि हे राजाओंके द्वारा स्तुत ! आप मेरी प्रार्थना सुनिए-विजयाध पर्वतके ऊपर एक सुकेतु नामका राजा है जो नमि और विनमिकी कुललक्ष्मीकी मानो विजय-पताका है, नीतिमें अत्यन्त चतुर है और दक्षिण श्रेणीमें स्थित रथनूपुरचक्रवाल नामक नगरमें रहता है ।।५६।। शंख फूकना, नागशय्यापर चढ़ना और धनुष चढ़ाना इन लक्षणों से आपकी परीक्षा कर उसने शीघ्र ही प्रेमपूर्वक मुझे यहाँ आपके पास भेजा है तथा कहलाया है कि यद्यपि आप उत्तमोत्तम वस्तुओंको प्रदान करनेवाले लोगोंसे घिरे रहते हैं तथापि मेरी एक तुच्छ प्रार्थना है वह यह कि आप मेरी पुत्री सत्यभामाको स्वीकृत कर लें। आपका यह कार्य विद्याधर लोकके वैभवको बढ़ानेवाला एवं समस्त कल्याणोंका मूल होगा ॥५७॥ समस्त यादवोंके लिए रुचिकर दूतके वचन सुनकर प्रसन्नचित्त कृष्णने यह उत्तर दिया कि विद्याधरोंके राजा सुकेतुरूपी कुबेरके द्वारा रची सत्यभामा नामक रत्नोंकी धारा मुझ रत्नाचलपर शीघ्र ही पड़े। भावार्थमुझे सत्यभामाका वर होना स्वीकृत है अथवा कुछ पुस्तकोंमें धनपतिके स्थानपर नगपति पाठ है इसलिए इस श्लोकका यह अर्थ भी होता है कि विद्याधररूपी विजयाध पर्वतके द्वारा रची सत्यभामारूपी जलकी धारा मुझ रत्नाचलपर शीघ्र ही पड़े ।।५८।।
१. खगनगपतिसृष्टा ग.।
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४६८
हरिवंशपुराणे
प्रतिविहितसुपूजः खेचरेन्द्रस्य दूतः प्रमुदितमतिरिश्वा स्वास्पदं स्वामिनेऽसौ । वरगुणनुतपूर्व सर्वकार्यस्य सिद्धिं सममणदिति तोषी' तोषिणे सप्रियाय ॥ ५९ ॥ भुवि हरिबलदेवौ भ्रातरौ भ्राजमानौ प्रतिहतपरतेजोरूपकान्ती विदित्वा । निजवचनहरा स्यात्खेचरेन्द्रः सुकेतुः खचरप-रतिमालश्चागतौ कन्यकाभ्याम् ॥६०॥ र तिमिव रतिमाको रूपतो रेवतीं स्वां दुहितरमतिकान्तां देहजां ज्यायसेऽदात् । अतिमुदितसुकेतुः सत्यभामां प्रभायाः स्वयमुपपदवत्या गर्मज केशवाय ॥ ६१ ॥ कुचकलशकलं त्रोदारभारातिखिन्नाः शिथिलवसन काञ्ची केशपाशोत्तरीयाः । ननृतुरिह विवाहे नूपुरारावरम्याः क्षितिचरखचराणां योषितः शोचिवेषाः ॥६२॥ प्रथमनववधूकौ नीलपीताम्बरौ तौ विविधमणिविभूषाज्योतिरुद्भासिताङ्गौ । यदुनृपतिपरीतौ वीक्ष्य पुत्रावतोषीद्यदुयुवतिसमग्रा रोहिणी देवकी च ॥ ६३ ॥ प्रथम मदनरङ्गे शाङ्गिणः सत्यभामा हृदयमहरदिष्टश रेवती शीरपाणेः । गुणित गुणकलानां सुप्रेयोगैस्तयोस्तावचितकरणकाले न स्खलन्ति प्रगत्माः ॥ ६४ ॥ अथ सकलुषमावा सा जरासन्धराजं जलनिधिमिव वेला व्याकुला क्षोभयन्ती । अतिविततत मालोन्नील केशाप्य रोदीद्यदुकुल कृतदोषं कंसयोषिद्वदन्ती ॥ ६५ ॥
तदनन्तर कृष्णकी ओरसे जिसका सत्कार किया गया था और जिसकी बुद्धि अत्यन्त प्रसन्न थी ऐसा राजा सुकेतुका वह दूत अपने स्थानपर चला गया। वहां जाकर उसने पहले कृष्ण के उत्तम गुणोंकी स्तुति की, उसके पश्चात् सन्तुष्ट होकर, वल्लभाके साथ बैठे ! हुए सन्तोषी राजा सुकेतु के लिए सर्व कार्यके सिद्ध होने की सूचना दी || ५९ ॥ ' पृथिवीपर श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों अत्यन्त देदीप्यमान हैं तथा शत्रुओंके तेज, रूप और कान्तिको खण्डित करनेवाले हैं' इस प्रकार अपने दूतके मुख से जानकर विद्याधरोंका राजा सुकेतु और उसका भाई रतिमाल अपनी-अपनी कन्याओं के साथ मथुरा आ पहुँचे ||६० || रतिमालकी कन्याका नाम रेवती था और वह रूपमें साक्षात् रतिके समान जान पड़ती थी । रतिमालने अपनी वह सुन्दर कन्या बड़े भाई बलभद्रके लिए दी और अत्यन्त प्रसन्न सुकेतुने स्वयंप्रभा रानीके गर्भ से उत्पन्न अपनी सत्यभामा नामक पुत्री कृष्ण के लिए दी || ६१ ॥ इस विवाह - मंगलके अवसरपर जो स्तनरूपी कलश और नितम्बोंके बहुत भारी भारसे खिन्न थीं, जिनके वस्त्र, मेखला, केशपाश और उत्तरीय वस्त्र शिथिल हो रहे थे, जो नूपुरोंकी झनकारसे मनोहर जान पड़ती थीं और उज्ज्वल वेषको धारण करनेवाली थीं ऐसी भूमिगोचरी एवं विद्याधरोंकी स्त्रियोंने नृत्य किया था ||६२|| जो पहली पहली नयी वधुओंसे सहित थे, नील और पीत वस्त्र धारक थे, नाना प्रकारके मणिमय आभूषणोंकी कान्तिसे जिनके शरीर देदीप्यमान हो रहे थे तथा जो चारों ओर बैठे हुए यदुवंशी राजाओंसे घिरे हुए थे ऐसे अपने पुत्रों को देखकर यादवोंकी स्त्रियोंसे युक्त रोहिणी तथा देवकी अत्यधिक सन्तुष्ट हो रही थीं ॥ ६३॥ प्रथम समागम में ही सत्यभामाने कृष्णके तथा अतिशय प्रिय रेवतीने बलभद्रके हृदयको हर लिया था । इसी प्रकार कृष्ण तथा बलभद्रने भी अभ्यस्त गुण और कलाओंके उत्तमोत्तम प्रयोगोंसे उन का हृदय हर लिया था सो ठीक ही है क्योंकि चतुर मनुष्य उचित कार्यके करने के समय कभी नहीं चूकते हैं ||६४||
तदनन्तर जिसका हृदय अत्यन्त कलुषित था, जो अत्यधिक व्याकुल थी और जिसके तमाल पुष्पके समान काले-काले केश बिखरे हुए थे ऐसी कंसकी स्त्री जीवद्यशा, राजा जरासन्धके पास जाकर यदुवंशियोंके द्वारा किये हुए दोषका बखान करती हुई रोने लगी तथा जिस प्रकार वेला १. तेषां म । २. तोषणे म., ग. । ४. नितम्ब । ५. सुप्रयोगौ तयो-म. । ६. तमालानील- म. |
३. हरबलदेवो म. ।
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त्रिशः सगः
त्वयि सकलधरित्रीं शासति ध्वस्तनाथा कथमहमुपयाता तात वैधव्यदुःखम् । इदमपि खलु सोठं वैरनिर्यातनार्थं मदमुदितयदूनां रक्तपक्कैः शिरोभिः ॥ ६६ ॥ दुहितुरिति विलापप्रायमाकर्ण्य वाक्यं नरपतिरुदवोचन्मुञ्च बालेऽतिशोकम् । जगति हि भवितव्यं माविनो दैवयोगादगणितपरवीर्यं दैवमत्र प्रधानम् ॥ ६७ ॥ पशुरपि निरपायं निर्गमोपायमार्ग विस्मृशति वधशङ्कः क्षेत्रमादौ विविक्षुः । स्फुटमिदमपि वृत्तं विस्मृतं मर्तुकामैस्तव पतिमतिमत्तैर्यादवैर्मारयद्भिः ॥ ६८ ॥ तव पदशरणास्तेऽकष्टका यद्यपि स्युः सहबलकुलशाखास्ते तथाप्याशु वरसे । श्रुतिपथमनिवृत्ताः सन्ति मैक्रोधवर्षदेवदहन शिखाभिर्भस्मिता ध्वस्तसंज्ञाः ॥ ६९ ॥ प्रियवचनपयोभिर्देहजाक्रोधवह्निप्रततिमुपशमय्य क्षुब्धकोपानलः सः । यवननिधनकालं कालकल्पं तनूजं यदुजनिधन हेतोरादिदेशांशु राजा ॥ ७० ॥ चलजलधिसमानेनाभ्यमित्रं बलेन द्विपचतुरतुरङ्गस्यन्दनाथेन गत्वा । स लघु दश च सप्तायुप्रयुद्धानि युद्ध वा यदुभिरतुलमालावर्त शैले ननाश ॥ ७१ ॥ पुनरपि जितजेयं भ्रातरं मागधी द्रागजितमपरपूर्व प्राहिणोत्प्राणतुल्यम् । प्रलयशिखिशिखालीघस्मरः स स्वयोगात्स्वबल पवननुन्नो 'द्विट्जगद्मासलोलः ||१२||
समुद्रको क्षुभित कर देती है उसी प्रकार उसने राजा जरासन्धको क्षुभित कर दिया || ६५ ॥ वह कह रही थी कि हे तात! जब आप समस्त पृथिवोका शासन कर रहे हैं तब में पतिरहित हो वैधव्य के दुःखको कैसे प्राप्त हो गयी ? हे पिताजी ! अब तक मैंने जो यह वैधव्यका दुःख सहा है वह गर्वसे फूले यादवोंके रक्तरूप पंकसे युक्त शिरोंसे वैरका बदला चुकाने के लिए ही सहा है || ६६ || इस प्रकार प्रायः विलापसे युक्त पुत्रीके वचन सुनकर राजा जरासन्धने कहा कि बेटी ! अत्यधिक शोक छोड़ । इस संसारमें जो होता है वह होनहार देवके योगसे ही होता है । दूसरोंकी शक्तिका तिरस्कार करनेवाला देव ही इस संसार में प्रधान है ||६७|| खेतमें घुसनेका इच्छुक पशु भी वधकी शंका कर सबसे पहले निकलनेके लिए निरुपद्रव मार्गका विचार कर लेता है परन्तु तेरे पतिको मारते हुए इन अत्यन्त मत्त यादवोंने इस स्पष्ट बातको भो भुला दिया इससे सिद्ध है कि ये मरना चाहते हैं ||६८ || हे वत्से ! ये भले अब तक तेरे चरणको शरण प्राप्त कर निष्कण्टक रहे हों और भले ही ये बल तथा कुलकी शाखाओंसे युक्त हों परन्तु यह निश्चित है कि ये शीघ्र ही मेरे क्रोधसे बरसनेवाली दावानलकी ज्वालाओंसे भस्म होनेवाले हैं, इनका नाम भी नष्ट हो जानेवाला है और ये श्रवण मागंको अतिक्रान्त कर चुके हैं- अब इनका नाम भी नहीं सुनाई देगा ॥ ६९ ॥
४६९
इस प्रकार प्रिय वचनरूपी जलके द्वारा पुत्रीकी क्रोधाग्निके समूहको शान्त कर क्षोभको प्राप्त हुए क्रोधानलसे युक्त राजा जरासन्धने यादवोंको मारनेके लिए यमराजके तुल्य अपने कालयवन नामक पुत्रको शीघ्र ही आदेश दिया || ७०॥ कालयवन, चंचल समुद्र के समान दिखनेवाली हाथी, घोड़ा और रथ आदिसे युक्त सेनाके साथ शीघ्र ही शत्रुके सम्मुख चला और यादवोंके साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध कर अतुलमालावतं नामक पर्वतपर नष्ट हो गया - मर गया ॥ ७१ ॥ तदनन्तर राजा जरासन्धने शीघ्र ही अपने भाई अपराजितको भेजा जो कि शत्रुओंको जीतनेवाला था, प्राणोंके तुल्य था, अपने संयोगसे प्रलय कालको अग्निकी शिखाओंके समूहको नष्ट करनेवाला था, अपनी सेनारूपी प्रबल पवनसे प्रेरित था, और शत्रुरूपी जगत्के ग्रसनेके लिए सतृष्ण
१. शरणाशा कण्टका म. क., ग, ड. । २. मतिमत्ताः क, ख, ग, ड, म. । ३. न क्रोध - क. । ४. व्युग्रयुद्धानि म । ५ द्विट्गजग्रास - ग. ।
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हरिवंशपुराणे तुमुलरणशतानि त्रीणि 'स प्रीणितास्तैर्यदुभिररिषु चत्वारिंशतं षट् च युद्ध वा । श्रमनुदमिव वीरो वीरशय्यां यशस्वी हरिशरमुखपीतप्राणसारोऽध्यशेत ॥७३॥ प्रमदमथ वहन्तः संततं संवसन्तो हैरिपुरि मथुरायां माथुरैः पौरलोकः । हरिहलधरवीरावार्यवीर्यावलेपप्रतिहतरिपुशङ्काः शौरयो रेमिरेऽमी ॥७४॥ शमयति रिपुलोकोदारदावावलेपं जनयति जनबन्धुर्वन्धुलोकप्रहर्षम् । जिनमतघनचर्यावारिधाराततिर्भूवलयफलसमृद्धिः श्रीयशोमालिनीयम् ॥७५॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ कंसापराजितवधवर्णनो नाम
षट्त्रिंशः सर्गः।
था ॥७२॥ वीर अपराजितने सन्तुष्ट होकर शत्रुओंके बीच यादवोंके साथ तीन सौ छियालीस बार युद्ध किया परन्तु अन्तमें वह श्रीकृष्णके बाणोंके अग्रभागसे निष्प्राण हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। पृथिवीपर पड़ा यशस्वी अपराजित ऐसा जान पड़ता था मामो थकावटको दूर करनेवाली वीरशय्यापर ही शयन कर रहा हो ||७३।। अथानन्तर जो निरन्तर हर्षको धारण कर रहे थे, कृष्णपुरी मथुरामें निवास करते थे और कृष्ण तथा बलभद्रके अवायं वीर्यके गर्वसे जिनकी शत्रुकी शंका नष्ट हो गयी थी ऐसे यादव लोग मथुरावासी नागरिक जनोंके साथ क्रीड़ा करने लगे ॥७४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो समस्त जीवोंके लिए बन्धुके समान है, पृथिवीमण्डलके फलोंकी समृद्धिको बढ़ानेवाली है तथा लक्ष्मी और यशकी मालासे सहित है ऐसी यह जिनेन्द्र मतरूपी मेघके जलको धारा शत्रुसमूहरूपी प्रचण्ड दावानलके गर्वको शान्त करती है और बन्धुजनोंके प्रकृष्ट बहुत भारी हर्षको उत्पन्न करती है ।।७५॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कंस और
अपराजितके वधका वर्णन करनेवाला छत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥२६॥
१. सप्रीणितास्ते म.। २. वंशहेतोः ख., संवहन्तो म., क.। शं वहन्ता ग.। ३. हरिरिपु म., हरिपुर म.।
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सप्तत्रिंशः सर्गः
वंशस्थवृत्तम् अथात्र यवृत्तमतीव पावनं पुरैव तु श्रेणिक लोकहर्षणम् । दशाह मुख्यस्य 'सुसौर्यवासिनः शृणु प्रवक्ष्येऽवहितस्तदद्भुतम् ॥३॥ जिनस्य नेमेस्त्रिदिवावतारतः पुरैव षण्मासपुरस्सरा सुरैः । प्रवर्तिता तजननावधिहे हिरण्यवृष्टिः पुरुहूतशासनात् ॥२॥ तया पतन्त्या वसुधारयाधभातत्रिकोटिसंख्यापरिमाणया जगत् । प्रतपितं प्रत्यहमर्थि सर्वतः क पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम् ॥३॥ दिशा मुखेभ्यः समितास्तदाश्रिता दिशां कुमार्यः परिचर्यया शिवाम् । दिशां च चक्रस्य जयं जगत्त्रये दिशन्त्यपत्येन जिनेन जिष्णुना ॥५॥ समेत्य पत्यातिशयप्रदर्शनादतीव संहृष्टमतिः शिवान्यदा।। ददर्श सा सुसमिमान् निशान्तरे प्रशंसितान् स्वप्नवरान् हि षोडश ॥५॥ समन्ततोऽश्रान्तमदाम्बुनिझरः प्रतिध्वनिम्याप्तदिगिन्द्र पो द्विपः । तया तमालासितभृङ्गाङकृतिरलोकि कैलास इवाचलाचलः ॥६॥ सुशृङ्गमुत्तुङ्ग ककुत्खनखुरं प्रलम्बसास्नायतबालधीक्षणम् ।
सितं घनोद्रेकितधीरमम्बिकामहोक्षमक्षिप्रियमैक्षत क्षणम् ॥७॥ अथानन्तर-गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! दशा)में मुख्य सौर्यपुर निवासी राजा समुद्रविजयके यहां भगवान्के गर्भ में आनेके पहलेसे हो जो लोकको हर्षित करनेवाला परम पवित्र आश्चर्य हुआ था उसे मैं कहता हूँ सो सावधान होकर सुनो ॥१।। भगवान् नेमि जिनेन्द्रके स्वर्गावतारसे छह माह पहलेसे लेकर जन्मपर्यन्त-पन्द्रह मास तक इन्द्रको आज्ञासे राजा समुद्रविजयके घर देवोंने धनकी वर्षा जारी रखी ॥२॥ वह धनको धारा प्रतिदिन, तीन बार साढ़े तीन करोड़की संख्याका परिमाण लिये हुए पड़ती थी और उसने सब ओर याचक जगत्को सन्तुष्ट कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि धनकी वर्षा करनेवालोंको पात्र भेद कहां होता है ?|३|| उस समय पूर्वादि दिशाओंके अग्रभागसे आयी हुई दिक्कुमारी देवियां परिचर्या द्वारा माता शिवादेवीकी सेवा कर रही थीं और उससे यह सूचित कर रही थीं कि जो विजयी जिन बालक माताके गर्भ में आनेवाला है उसने तीनों जगत् में समस्त दिशाओंके समूहको जीत लिया है ॥४॥ पतिके साथ मिलकर नाना प्रकारके अतिशय देखनेसे जिसकी बुद्धि अत्यन्त हर्षित हो रही थी ऐसी शिवादेवीने एक दिन रात्रिमें सोते समय नीचे लिखे सोलह उत्तम स्वप्न देखे ॥५॥
पहले स्वप्नमें उसने इन्द्रका वह ऐरावत हाथी देखा जिसके सब ओरसे निरन्तर लगातार मदरूपी जलके निर्झर झर रहे थे, जिसने अपनी ध्वनिसे दिशाओंको व्याप्त कर रखा था, जिसपर तमालक समान काल-काले भ्रमर झंकार कर रहे थे और जो कैलास पर्वतके समान स्थिर था॥६॥ दूसरे स्वप्न में अम्बिकाका वह महावृषभ देखा जिसके सुन्दर सींग थे, जिसकी कांदोल ऊंची उठ रही थी, जिसके खुर पृथिवीको खोद रहे थे, जिसकी सास्ना-गलकम्बल अत्यन्त लम्बी थी, जिसकी पूँछे और आंखें अत्यन्त दीघं थीं, जो रंगमें सफ़ेद था, मेघकी गर्जनाके समय गम्भीर १. सुशौर्यवासिनः घ. । २. सुप्तं यथा स्यात्तथा । पूततमान्-ख. । स्वप्न इमान् म. । ३. अचलाचलः इति, अचलाचल: स्थिर इत्यर्थः । चलाचल: ख., चलाऽमलः क. इवाचलोऽचल: ग.।
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४७२
हरिवंशपुराणे
विलङ्घितक्ष्माभृतमग्रशैलगं मृगाङ्कलेखाङ्कुशदंष्ट्रमायतम् । दिगन्तविश्रान्तनिनादमाविशत् शरत्पयोदामभिभारिमैक्षत ॥ ८ ॥ महेमकुम्भामकुचामिभैः शुभैः कृताभिषेकां कुटगन्धवारिभिः । केरश्रिताम्भोजपुटां ददशं सा विकासिपद्मासनवर्तिनीं श्रियम् ॥९॥ स्रजौ प्रलम्बे विमलाम्बरे वरे रजोरुणीभूतषडङ्घ्रिमण्डले । भुजे निजे वा कुसुमातिकोमले सजागरेवादहिता व्यलोकत ॥१०॥ निरस्य नैशं निशितैरुपागतं करैस्तमोजाळमलं निशाकरम् । निरभ्रिते व्योम्नि प्रपश्यति स्म स्थिरागृहासं रजनीवरस्त्रियाः ॥ ११ ॥ दिनं दिनं दृश्यमुखं दिवाकरं सुसान्ध्यसिन्दूरपरागपिञ्जरम् । पुरन्दराशा सुपुरन्धिनन्दनं चिरं धृतं दृष्टिसुखं ददर्श सा ॥ १२ ॥ तडिच्चाङ्गं सरसीवराङ्गनाविलोलसल्लो चनयुग्ममायतम् । परस्परस्नेहमरं तयारमद् व्यलोकि सन्मत्स्ययुगं विमत्सरम् ॥१३॥ सुसौर माम्मो भरकुम्भयुग्मकं मुखाहिताम्भोरुहमम्बुजेक्षणा । सुशातकुम्भात्मकमभ्यलोकत स्वभावसूद्यत्कुचकुम्भसंनिमम् ॥१४॥ शुभाम्बुपूर्ण जलपुष्पराजितं सुराजहंसादिविहङ्गसंगतम् ।
३
महासरोऽदर्शि ततो मनोहरं मनो निजं वा शुचि निर्मलं तथा ॥ १५॥
शब्द कर रहा था तथा नेत्रोंके लिए अत्यन्त प्रिय था || ७|| तीसरे स्वप्न में एक ऐसा सिंह देखा जो को लांघनेवाला था, पर्वतके अग्रभागपर स्थित था, चन्द्रमाकी कला अथवा अंकुशके समान दौढ़ों को धारण करनेवाला था, शरीरका अत्यन्त लम्बा था, जिसका शब्द दिशाओंके अन्तमें विश्राम कर रहा था और जो शरद् ऋतुके घुमड़ते हुए मेघ के समान सफेद था ||८|| चौथे स्वप्न में वह लक्ष्मी देखी जो किसी बड़े हाथीके गण्डस्थलोंके समान स्थूल स्तनोंसे युक्त थी, शुभ हाथी घड़ों में रखे हुए सुगन्धित जलसे जिसका अभिषेक कर रहे थे, जो अपने हाथमें कमल लिये हुए थी और खिले हुए कमलोंके आसनपर बैठी थी || ९ || पाँचवें स्वप्न में जागती हुईके समान सावधान शिवादेवीने निर्मल आकाशमें लटकती हुई दो ऐसी उत्तम मालाएँ देखीं जिन्होंने अपने परागसे भ्रमरोंके समूहको लाल-लाल कर दिया था और जो अपनी भुजाओंके समान फूलोंसे भी कहीं अधिक सुकोमल थीं ( पक्षमें फूलोंके द्वारा अत्यन्त कोमल थीं ) ||१०|| छठे स्वप्न में उसने निरभ्र आकाशके बीच ऐसा चन्द्रमा देखा जो अपनी तीक्ष्ण किरणों ( पक्षमें हाथों ) से रात्रिके सघन अन्धकारके समूहको नष्ट कर उदित हुआ था और रात्रिरूपी स्त्रीके स्थिर अट्टहासके समान जान पड़ता था || ११|| सातवें स्वप्न में ऐसा सूर्य देखा जिसका मुख सम्पूर्ण दिन दर्शनीय था, जो सन्ध्याकी लालीरूपी सिन्दूरकी परागसे पिंजर वर्णं था, पूर्व दिशारूपी स्त्रीके पुत्रके समान जान पड़ता था और नेत्रों के लिए चिरकाल तक सुख उत्पन्न करनेवाला था || १२ || आठवें स्वप्न में उसने मत्स्योंका वह युगल देखा जो बिजलीके समान चंचल शरीरका धारक था, सरसीरूपी उत्तम स्त्रीके चंचल एवं समीचीन नेत्रोंके युगल के समान जान पड़ता था, लम्बा था, पारस्परिक स्नेहसे भरा हुआ था, क्रीड़ा कर रहा था और ईर्ष्यासे रहित था || १३|| नौवें स्वप्न में कमललोचना शिवादेवीने अत्यन्त सुगन्धित जलसे भरे हुए दो ऐसे कलश देखे जिनके मुखपर कमल रखे हुए थे, जो उत्तम स्वर्णसे निर्मित थे और स्वभावसे उठते हुए कुचकलशके समान जान पड़ते थे ||१४|| तदनन्तर दशवें स्वप्न में उसने एक ऐसा बड़ा सरोवर देखा जो शुभ जलसे भरा हुआ था, कमलोंसे सुशोभित था, राजहंस आदि उत्तम पक्षियोंसे युक्त था, मनको हरण करनेवाला था और अपने १. विलम्बित - म. । २. करोद्धृताम्भोजपुटां ख । ३. सुसाध्य म । ४. मुखावहिताम्भोरुह - म. ।
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सप्तत्रिंशः सर्गः
४७३
प्रपूर्णितोत्तङ्गतरङ्गमङ्गरं प्रवालमुकामणिपुष्पशोमितम् । महार्णवं फेनिल मुन्दनं भ्रमद्विभीषणग्राहगृहं निरैक्षत ॥१६॥ नखानदंष्ट्रादृढदृष्टिमासुरज्वलत्सटाटोपयगेन्द्रधारितम् । मणिप्रभारक्षितदिग्वधु मखं ददर्श सिंहासनमासनं श्रियः ॥१॥ विचित्रमति ध्वजकोटिसंचलं सुवैजयन्तीभुजमालयानरत् । प्रलम्बमुकामणिमालिकोज्ज्वलं विमानमालोकि तया नमस्तले ॥१८॥ 'फणामणिद्योतविभिन्नभूतमःफर्णन्द्रकन्याकलगोर संकुलम् । ज्वलन्मणि क्षि भवः समुद्गतं फणीन्द्रभास्वद्भवनं महत्तया ॥१०॥ सपद्मरागोज्ज्वलवज्रपूर्वकं प्रकृष्टमाणिक्यमहाशिवाकुलम् । व्यलोकतेन्द्रायुधरुद्धदिङ्मुखं सुरत्नराशिं गगन स्पृशं शिवा ॥२०॥ शिखाकरालं शिखिनं मुखं दिशा प्रकाशयन्तं शुचिशोचिषा निशि । ददर्श संदर्शितसौम्यविग्रहं सविग्रहा श्रीरिव तोषपोपिणी ॥२१॥ अनन्तरं स्वप्नगणस्य कम्पयन् सुरासनान्याविशदम्बिकाननम् ।
सितमरूपो भगवान् दिवश्च्युतः प्रकाशयन् कार्तिक शुक्लषष्टिकाम् ॥२६॥ मनके समान पवित्र एवं निर्मल था ॥१५।। ग्यारहवें स्वप्न में एक ऐसा महासागर देखा जो उठती हई ऊंची-ऊंची लहरोंसे भंगुर था, मूंगा, मोती, मणि और पुष्पोंसे सुशोभित था, फेनसे युक्त था, उद्धत था, तथा घूमते हुए भयंकर मगरमच्छोंका घर था ।।१६।। बारहवें स्वप्नमें लक्ष्मीका आसनभूत एक ऐसा सिंहासन देखा जिसे नखोंके अग्रभाग एवं डाँढोंसे मजबूत, दृष्टिसे देदीप्यमान और चमकती हुई सटाओंसे युक्त सिंह धारण किये हुए थे तथा मणियोंकी कान्तिसे जिसने दिशारूप स्त्रियोंके मुखको रक्त वर्ण कर दिया था |१७|| तेरहवें स्वप्न में उसने आकाशतलमें ऐसा विमान देखा जो नाना प्रकारके बेल-बटोंसे यक्त था. ध्वजाओं के अग्रभागसे चंचल था. उत्तम पताकारूपी भुजाओंको मालासे जो नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था, और जो लटकतो हुई मोतियों और मणियोंकी गालाओंसे उज्ज्वल था !|१८|| चौदहवें स्वप्नमें उसने नागेन्द्रका एक ऐसा विशाल देदीप्यमान भवन देखा जो फणाओंपर स्थित मणियोंके प्रकाशसे पृथिवीके अन्धकारको नष्ट करनेवाली नागकन्याओंके मधुर संगीतसे व्याप्त था, देदीप्यमान मणियोंसे जगमगा रहा था और पृथिवीसे ऊपर प्रकट हुआ था ।।१९।। पन्द्रहवें स्वप्न में शिवा देवीने उत्तम रत्नोंकी एक ऐसी राशि देखी जो पद्मरागमणि तथा चमकते हुए हीरोंके सहित थी, उत्तमोत्तम मणियोंकी बड़ी-बड़ी शिखाओंसे व्याप्त थी, इन्द्र-धनुषसे दिशाओंके अग्रभागको रोकनेवाली थी, तथा आकाशका स्पर्श कर रही थी ।।२०।। और शरीरधारिणी लक्ष्मीके समान सन्तोषको पुष्ट करनेवाली शिवा देवीने सोलहवें स्वप्न में ऐसी अग्नि देखी जो शिखाओंसे भयंकर थो, रात्रिके समय अपनी उज्ज्वल किरणोंसे दिशाओंके अग्रभागको प्रकाशित कर रही थी तथा अपना सौम्य रूप दिखला रही थी॥२२॥ इस प्रकार स्वप्न दर्शन के बाद कार्तिक शुक्ला षष्ठोके दिन देवोंके आसनोंको कम्पित करते हुए भगवान्ने स्वर्गसे च्युत हो सफेद हाथीका रूप धरकर माताके मुख में प्रवेश किया। भावार्थआनुपूर्वी नामकर्मके उदयसे भगवान्के आत्म-प्रदेशोंका आकार तो पूर्व शरीरके समान ही रहता है। यहां जो 'सफेद हाथीका रूप धरकर' कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि माताने सोलह स्वप्न देखने के बाद देखा था कि एक सफेद हाथी आकाशसे उतरकर हमारे मुखमें प्रविष्ट हुआ १. द्विज-(?) म. । २. फणामणीनां द्योतेन विभिन्नं भूतमो याभिः तथाभूता या फणीन्द्रकन्यास्तासां कलं मधुरं यद् गीतं तेन संकुलम् । ३. शुभा म.। ४. शुचिरोचिषां म. ।
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૪૭૪
हरिवंशपुराणे
पुनः पुनर्जागरणेन सान्तराननन्तरायानिति तान् विलोक्य सा । विनिद्रनेत्रा जयगीतमङ्गलैरनालसा तल्पतलं ततोऽस्यजत् ॥२३॥ प्रभातकाले कृतमङ्गलाङ्गिका कुतूहलादेस्य पतिं प्रणामिनी । क्रमेण तान् स्वप्नवरान्न्यवेदयत् प्रसन्नधीरित्यगदीस तत्फलम् ॥ २४ ॥ प्रिये यदुत्पत्तिमियं वदस्यहर्दिनं पतन्ती वसुवृष्टिरद्भुता । सुदिक्कुमार्यो भवतीमुपासते यदर्थमास्थात्वयि सोऽथ तीर्थकृत् ॥ २५॥ किमत्र ते स्वप्नफलं निगद्यते वरोरु यतीर्थंकरप्रसूरसि । प्रपत्स्यते सोऽपि महान् महीयसां जगत्त्रये यत्तदवेहि कथ्यते ॥ २६ ॥ 'अनेक पोऽनेकै पलोकनादलं विलम्बितानेकपविभ्रमो गतैः । जगत्त्रये ते तनयस्तन्दरि प्रकाममेकाधिपतित्वमेष्यति ॥२७॥ अलंकरिष्यत्यकलङ्कध्धीः कुलं जगत्त्रयं चात्र जगद्गुरुर्गुणैः ।
गवां कुलं वा वृषभो वृषेक्षणाद्वृषेक्षणः स्कन्धष्टतिः सुतस्तव ॥ २८॥ महावलेपानखिलाननेकपान् करिष्यते सिंहवदुज्झितोन्मदान् । अनन्तवीर्यः स हि सिंहदर्शनात् महैकधोरोऽन्ते तपोवनेश्वरः ॥२९॥
है ||२२|| इस प्रकार बार-बार जागनेसे जिनमें अन्तर पड़ रहा था ऐसे पूर्वोक्त निरन्तरायनिर्विघ्न सोलह स्वप्नोंको देखकर जय-जयकार और मंगलमय संगीतसे माता शिवा देवीके नेत्र निद्रारहित हो गये तथा आलस्यरहित होकर उसने शय्या छोड़ दी ||२३|| प्रातः काल होनेपर जिसने शरीरपर मंगलमय अलंकार धारण किये थे ऐसी शिवादेवी ने कुतूहलवश पतिके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया तथा रात्रिमें देखे हुए सब स्वप्न क्रम-क्रमसे सुना दिये । तदनन्तर प्रसन्न बुद्धिके धारक राजा समुद्रविजयने उन स्वप्नोंका इस प्रकार फल कहा - ॥२४॥
हे प्रिये ! यह प्रतिदिन पड़नेवाली आश्चर्यकारिणी धनकी वृष्टि जिसकी उत्पत्ति कह रही है, तथा दिक्कुमारी देवियां जिसके लिए आपकी सेवा करती हैं वह तीर्थंकर आज तुम्हारे गर्भ में आकर विराजमान हुआ है ||२५|| हे सुन्दर जाँघोंवाली प्रिये ! यहाँ तेरे स्वप्नोंका फल क्या कहा जाये ? क्योंकि तू तीर्थंकरकी माता है । तेरे तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न होगा । यद्यपि स्वप्नोंका इतना ही फल पर्याप्त है तथापि वह तीनों लोकोंका परम गुरु जिस फलको प्राप्त होगा वह कहा जाता है सो समझ ||२६||
हे कृशोदरि ! तूने स्वप्न में अनेकप- हाथी देखा है उसका फल यह है कि तेरा पुत्र अनेकप—- अनेक जीवोंकी रक्षा करनेवाला होगा। अपनी चालसे हाथीकी चालको विडम्बित करनेवाला होगा और तीनों जगत् में इच्छाके अनुरूप एक आधिपत्यको प्राप्त होगा ||२७|| हे प्रिये ! बैल देखने से तेरा पुत्र निर्मल बुद्धिका धारक, तथा जगत्का गुरु होगा और जिस प्रकार बैल गायोंके कुलको अलंकृत करता है उसी प्रकार वह गुणोंसे अपने कुल तथा तीनों जगत्को अलंकृत करेगा । वह बैलके समान उज्ज्वल नेत्र तथा उन्नत कन्धोंको धारण करनेवाला होगा ||२८|| सिंह देखने से वह अनन्त वीर्यका धारक होगा और जिस प्रकार सिंह मदोन्मत्त हाथियोंको मदरहित कर देता है उसी प्रकार वह अत्यधिक गर्वको धारण करनेवाले समस्त पुरुषोंको गर्वरहित कर देगा। वह महान्, अद्वितीय धीर, वीर और अन्तमें तपोवनका स्वामी होगा अर्थात् दीक्षा लेकर कठिन तपश्चरण
१. स हि म. । २. अनेकान् पाति रक्षतीति अनेकपः । ३. हस्तिदर्शनात् । ४. विलम्बितोऽनुकृतः अनेकपस्थ हस्तिनो विभ्रमो येन सः । ५. धीरोग्रतपोवनेश्वरः क. ।
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सप्तत्रिशः सर्गः
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यदैक्षि लक्ष्मीरभिषेकिणी ततः प्रसूतमात्रस्य गिरीन्द्रमस्तके । सुरासुरेन्द्रर्दयितेऽभिषिच्यते गिरिस्थिरः क्षीरसमुद्रवारिभिः ॥३०॥ स्रजोः सुगन्धायतयोः प्रदर्शनाजगत्त्रयव्यापियशाः सुगन्धिमा । निरन्तरं लोकमलोकमप्यसावनन्तदृग्ज्ञानदृशा तनिष्यति ॥३१॥ स चन्द्रसंदर्शनतः सुदर्शने 'महादयाचन्द्रिकया सुदर्शनः । जिनेन्द्रचन्द्र जगतां तमोऽन्तकृन्निरन्तरालादकरो भविष्यति ॥३२॥ समस्ततेजस्विजनस्य भूयसा निजेन तेजांसि विजित्य तेजसा । जगन्ति तेजोनिधिरर्कदर्शनाकरिष्यति ध्वस्ततमांसि ते सुतः ॥३३॥ सुखं कृतक्रीडझषद्वयक्षणादवाप्य सौख्यं विषयोपभोगजम् । अनन्तमन्ते सुखमाप्स्यति ध्र शिवालयेऽसौ शिवदेवि! नन्दनः ॥३४॥ सुपूर्णकुम्भद्वयदर्शनात्ततो गृहं प्रपूर्ण निधिमिर्भविष्यति।। जगन्मुदापूर्णमनोरथस्य हि प्रभावतस्तस्य शरीरजस्य ते ॥३५॥ विचित्रपुष्पाम्बुजखण्डदर्शनादशेषसल्लक्षणलक्षितः सुतः । विदाहितृष्णातृषितान्वितृष्णधीरिहैव निर्वाणमयान् करिष्यति ॥३६॥ महासमुद्रस्य महामृतात्मनः समुद्रगम्भीरमतिर्विलोकनात् । श्रताम्बुधि नीतिमहासरिद्वितं स पाययिष्यत्युपदेशकृजनान् ॥३०॥ सुरत्नसिंहासनदर्शनेन स स्फुरन्मणिद्योतितिरीटपाणिभिः ।
परीतमारोक्ष्यति देवदानवैः पराय॑सिंहासनमूर्ध्वशासनः ॥३८॥ करेगा ।।२९॥ हे वल्लभे ! जो तूने अभिषेकसे युक्त लक्ष्मी देखी है उसका फल यह है कि उत्पन्न होते ही तेरे पुत्रका सुरेन्द्र और असुरेन्द्र सुमेरु पर्वतके मस्तकपर क्षीरसागरके जलसे अभिषेक करेंगे और वह पर्वतके समान स्थिर होगा ॥३०॥ सुगन्धित मालाओंके देखनेसे यह सूचित होता है कि वह पुत्र तीनों जगत्में व्याप्त यशसे सहित होगा, उत्तम सुगन्धिको प्राप्त
गा और अपने अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शनरूपो दष्टिके द्वारा समस्त लोक और अलोकको भी व्याप्त करेगा ॥३१॥ हे सुन्दरि ! चन्द्रमाके देखनेसे वह जिनेन्द्र चन्द्र, अत्यधिक दयारूपी चन्द्रिकासे सुन्दर होगा, जगत्के अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला होगा और समस्त जगत्के निरन्तर आह्लादको करनेवाला होगा ॥३२।। सूर्यके देखनेसे तेरा वह पुत्र तेजका भाण्डार होगा, और अपने बहुत भारी तेजके द्वारा समस्त तेजस्वी जनोंके तेजको जीतकर तीनों लोकोंको अन्धकारसे रहित करेगा॥३३।। हे शिव देवि ! सुखसे क्रीड़ा करती हुई मछलियोंका युगल देखनेसे यह सूचित होता है कि तुम्हारा पुत्र विषयोंके उपभोगसे उत्पन्न सुखको पाकर अन्तमें मोक्षके अनन्त सुखको अवश्य ही प्राप्त होगा ॥३४॥ सुवर्ण कलशोंका युगल देखनेसे यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा पुत्र हर्षपूर्वक जगत्के मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला होगा और उसके प्रभावसे यह घर निधियोंसे परिपूर्ण हो जायेगा ।।३५।। नाना प्रकारके पुष्पोंसे युक्त कमल सरोवरके देखनेसे तुम्हारा वह पुत्र समस्त उत्तम लक्षणोंसे युक्त होगा, तृष्णारहित बुद्धि का धारक होगा और अत्यधिक दाह उत्पन्न करनेवाली तृष्णारूपी प्याससे पीड़ित मनुष्योंको इसी संसारमें सन्तोषसे युक्त-सुखी करेगा ॥३६।। अमृतमय महासागरके देखनेसे यह सूचित होता है कि तुम्हारा पुत्र समुद्रके समान गम्भीर बुद्धिका धारक होगा, तथा उपदेश देकर जगत्के जीवोंको कीर्तिरूपी महानदियोंसे परिपूर्ण श्रुतज्ञानरूपो सागरका पान करायेगा ॥३७॥ उत्तम रत्नोंसे जटित सिंहासन देखनेसे यह प्रकट १. महोदयाचन्द्रिकया म. । महोदयचन्द्रिकया ग. । २. विषयोपयोगजं म. । ३. श्रुताम्बुधिर्नीति म. ।
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हरिवंशपुराणे विमाननाथामरनाथकोटिमिः प्रपूजिताघ्रिः सुविमानदर्शनात् । 'विमानसाधिः महतो महोदयो विमानमुख्यादवतीर्णवानिह ॥३९॥ भवेत्तु भेत्ता भवपारस्य स फणीन्द्र निर्यद्भवनावलोकनात् । सुतोऽन्वितश्चापि मतितावधिप्रधाननेत्रत्रितयेन जायते ॥४०॥ बहुप्रकारस्फुरदंशुरञ्जितं धुरनराशिप्रविलोकनारसुतम् । प्रतीहि नानागुणरत्नराशिना श्रयिष्यमाणं शरणाश्रिताश्रयम् ॥४१॥ शिखावलीलोढनमस्तलोज्ज्वलत्प्रदक्षिणावर्तविधूमवहितः । निरीक्षिताद्ध्यानमहाहुताशनः स कर्मक सकलं प्रवक्ष्यति ॥४२॥ किरीटसत्कुण्डलपूर्वभूषणाः प्रभावतस्तस्य मदीयशासनम् । अलंकरिष्यन्त्यनुकूलसेवकाः सुरेश्वराः प्राकृतपार्थिवा इव ॥४३॥ श्लथारमधम्मिल्ललसन्निजस्रजः समेखलानपुरमजुशिक्षिताः । प्रसाधनादावनुमावतोऽस्य ते सुरेन्द्रसुन्दर्य उपासनोद्यताः ॥४४॥ जनिष्यमाणेन जिनेन्द्रभानुना प्रतीहि तेनात्र पवित्रकर्मणा।
स्ववंशमात्मानमिमं च मां जगत्पवित्रितं भूषितमुद्धतं तथा ॥४५॥ होता है कि तुम्हारे पुत्रकी आज्ञा सर्वोपरि होगी और वह देदीप्यमान मणियोंसे जगमगाते मुकुटोंपर हाथ लगाये हुए देव-दानवोंसे घिरे उत्तम सिंहासनपर आरूढ़ होगा ॥३८॥ उत्तम विमानके देखनेसे यह सूचित होता है कि विमानोंके स्वामी इन्द्रोंकी पंक्तियोंसे उसके चरण पूजित होंगे, वह मानसिक व्यथासे रहित होगा, महान् अभ्युदयका धारक होगा और बहुत बड़े मुख्य विमानसे वह यहाँ अवतार लेगा ॥३१॥
___ नागेन्द्रके निकलते हुए भवनको देखनेसे यह प्रकट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र संसाररूपी पिंजड़ेको भेदनेवाला होगा और मति श्रुत तथा अवधिज्ञानरूपी तीन प्रमुख नेत्रोंसे युक्त होगा ॥४०॥ आकाशमें रत्नोंकी राशि देखनेसे तुम यह विश्वास करो कि तुम्हारा पुत्र बहुत प्रकारकी देदीप्यमान किरणोंसे अनुरंजित होगा, नाना प्रकारके गुणरूपी रत्नोंकी राशि उसका आश्रय लेगी और वह शरणागत जोवोंको आश्रय देनेवाला होगा ॥४१॥ और ज्वालाओंके समूहसे व्याप्त आकाशमें देदीप्यमान तथा दक्षिणावर्तसे युक्त निर्धूम अग्निके देखनेसे यह सिद्ध होता है कि तुम्हारा पुत्र ध्यानरूपी महाप्रचण्ड अग्निको प्रकट कर समस्त कर्मोके वनको जलावेगा ॥४२॥
हे प्रिये ! उस पुत्रके प्रभावसे मुकुट तथा उत्तम कुण्डल आदि आभूषणोंसे सुशोभित इन्द्र साधारण राजाओके समान अनुकूल सेवक होकर मेरी आज्ञाका अलंकृत करेंगे ।।४३।। अपनी चोटीमें गुंथी हुई जिनकी निजको मालाएं ढोली हो रही हैं तथा जो मेखला और नूपुरोंकी मनोहर झकारसे युक्त हैं ऐसी इन्द्रको इन्द्राणियां इसके प्रभावसे सजावट आदिके कार्यमें तेरी सेवा करनेके लिए सदा उद्यत रहेंगी ॥४४॥ हे प्रिये ! यहाँ पवित्र कर्म करनेवाला जो जिनेन्द्ररूपी सूर्य उत्पन्न होनेवाला है उससे तुम अपने वंशको, अपने आपको, इस मुझको तथा समस्त जगत्को पवित्रित भूषित एवं संसार-सागरसे उद्धृत समझो ॥४५।।
१. विमाननाथोऽमरनाथ-म.। २. विगतो मानसाधिः मानसी व्यथा यस्य सः। ३. एकोनचत्वारिंशत्तमः श्लोकः 'ग' पुस्तके एवं पठितः-'विमानसंदर्शनतो नुता नतो विमाननाथामरनाथकोटिभिः। प्रपूजितांहिमहतो महोदयो विमानमुख्यादवतीर्णवानिह ।।३९।। ४. मुद्धतं म, ।
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सप्तत्रिंशः सर्गः
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निशम्य सा स्वप्नफलं पतीरितं प्रतुष्टचित्ता सुतमकवर्तिनम् । विचिस्य चक्रे जिनपूजनादिकाः क्रियाः प्रशस्ता जनतामनोहराः ॥४६॥ 'जिनोद्भवे स्वप्नफलानुकीर्तनं पवित्रसुस्तोत्रमिदं दिने दिने ।
प्रमातसंध्यासमये पठन् जनः स्मरंश्च शृण्वन् श्रयते जिनश्रियम् ॥४७॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती स्वप्नफलकथनो नाम
सप्तत्रिंशः सर्गः।
इस प्रकार पतिके द्वारा कहे हुए स्वप्न के फलको सुनकर रानी शिवादेवीका चित्त बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। और पूर्वोक्त गुण विशिष्ट पुत्र मेरी गोदमें आ ही गया है, ऐसा विचारकर वह समस्त जनसमूहके मनको हरनेवाली जिनपूजा आदि उत्तम क्रियाएँ करने लगीं ॥४६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य, जिनेन्द्र भगवान्के जन्मसे सम्बद्ध स्वप्नोंके फलका वर्णन करनेवाले इस स्तोत्रका प्रतिदिन प्रातः-सन्ध्याके समय पाठ करता है, स्मरण करता है, अथवा श्रवण करता है वह जिनेन्द्र भगवान्की लक्ष्मीको प्राप्त होता है ।।४७॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें स्वप्नों के
फलका वर्णन करनेवाला संतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३७॥
१. जिनोद्भवस्वप्नफलानुकीर्तनं क. ।
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अष्टत्रिंशः सर्गः
पृथिवीच्छन्दः जिनेन्द्रपितरौ ततो धनपतिः सुरेन्द्राज्ञया स्वभक्तिमरतोऽपि च स्वयमुपेत्य' तीर्थोदकैः । शुभैः सममिषिच्य तौ सुरभिपारिजातोद्भवैः सुगन्धवरभूपणैर्भुवनदुर्लभैः प्रार्चयत् ॥१॥ पुरैव परिशोधिते विदितदिक्कुमारीगणैर्बभार विमलोदरे प्रथमगर्भमुद्यत्प्रभम् । स्वबन्धुजनसिन्धुवृद्धिकरमस्ततापोदयं शिवाय जगतां शिवा शशिनमम्बरश्रीरिव ॥२॥ चकार न वियोजितत्रिवलिभङ्गशोभामसौ न च श्वसनबाधिताधरसुपल्लवां' नालसाम् । स्तनस्तवकभारनम्रननुमध्यसुस्त्रीलतां नितान्तकृपयेव तां फलमरो न चावाधत ॥३॥ निगूढनिजगर्मसंमवतनोरिव व्यक्तये पयोधरभरो ययावतितरां पयःपूर्णताम् । तदहनगौरवादिव विशेषविस्तीर्णतां जगाम जघनस्थकी निविडमेखलाबन्धना ॥४॥ मनो भुवनरक्षणे सकलतत्त्वसंवीक्षणे वचोऽपि हितभाषणे निखिलसंशयोत्पेषणे । वपुर्वतविभूषणे विनयपोषण चोचितं बभूव जिनवैभवादतितरां शिवायास्तदा ॥५॥ महामृतरसाशनैः सुरवधूमिरापादितैरनन्तगुणकान्तिवीर्य करण: समास्वादितः । जिनेन्द्रजननीतनुस्तनुरपि प्रमाभिर्दिशो दशापि कनकप्रमा विदधतीव विधुबभौ ॥६॥
तदनन्तर इन्द्रकी आज्ञा और अपनी भक्तिके भारसे कुबेरने स्वयं आकर शुभ तीर्थजलसे भगवान्के माता-पिताका अच्छी तरह अभिषेक किया और मनोज्ञ कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न अन्यजनदुर्लभ सुगन्ध और उत्तमोत्तम आभूषणोंसे उनकी पूजा को ॥१॥ जिस प्रकार आकाशकी लक्ष्मी अपने निर्मल उदरमें चन्द्रमाको धारण करती है उसी प्रकार भगवान्की माता शिवादेवीने प्रसिद्ध दिक्कुमारी देवियोंके द्वारा पहलेसे ही शुद्ध किये हुए अपने निर्मल उदर में जगत् के कल्याणके लिए सर्वप्रथम उस गर्भको धारण किया जो उठती हई प्रभासे युक्त था, अपने बन्धुजनरूपी समुद्रकी वृद्धिको करनेवाला था, तथा सन्तापके उदयको दूर करनेवाला था ॥२॥ उस गर्भरूपी फलके भारने अत्यधिक दयासे प्रेरित होकर ही मानो स्तनरूपी गुच्छोंके भारसे नम्रीभूत एवं पतली कमरवाली शिवादेवीरूपी लताको रंचमात्र भी बाधा नहीं पहुंचायी थी। न तो उसकी त्रिवलिरूपी तरंगकी शोभाको नष्ट किया था, न श्वासोच्छ्वाससे उसके अधररूपी पल्लवको बाधित किया था और न उसे आलस्यसे युक्त ही होने दिया था ॥३॥ अपने अत्यन्त गूढ़ गर्भ में भगवान्के शरीरकी जो उत्पत्ति हुई थी उसे प्रकट करनेके लिए ही मानो शिवादेवीके स्तनोंका भार अत्यधिक दूधसे परिपूर्णताको प्राप्त हो गया था तथा मेखलाके सघन बन्धनसे युक्त उसकी नितम्बस्थली उस स्तनके भारको धारण करनेके गौरवसे ही मानो अत्यधिक विस्तृत हो गया थी |४|| उस समय भगवान् के प्रभावसे शिवादेवीका मन संसारको रक्षा करने तथा समस्त तत्वोंके अव. लोकन करने में अभ्यस्त रहता था, वचन सब प्रकारके संशयको नष्ट करनेवाले हितकारो भाषणमें अभ्यस्त रहता था और शरोर व्रतरूपी आभूषणके धारण करने तथा विनयके पोषण करने में अभ्यस्त रहता था ।।५॥ भगवान्की माता, देवांगनाओंके द्वारा सम्पादित एवं अनन्तगुणी कान्ति और बलको बढ़ानेवाला अमृतमय आहार करती थी इसलिए उनका शरीर कृश होनेपर भी अपनी प्रभासे दशों दिशाओंको सुवर्ण जैसी कान्तिका धारक करता हुआ बिजलीके समान सुशो
१. -मुदेत्य म. । २. पल्लवं म.। ३. संदीक्षणे ग.।
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अष्टत्रिंशः सर्गः
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करीन्द्रमकरस्फुरत्तरगतुङ्गमीनावली महारथसुयानपात्रनृपवाहिनीसंमुखैः।। विशद्भिरनुकूलगः समभिवधितोऽद्धोमिमिः समुद्रविजयोऽन्वहं पृथुसमुद्रलीला वहन् ॥७॥ जिनेशजनको जगदलयवेलयाभ्यर्चितौ परस्परविवर्धमानपृथुसंमदी नित्यशः । महेन्द्रवरशासनामिरतदेवदेवीकृतप्रभूतिविमवान्वितौ गमयतः स्म मासान्नव ॥८॥ ततः कृतसुसंगमे निशि निशाकरे चित्रया प्रशस्तसमवस्थिते अहगणे समस्ते शुभे । असूत तनयं शिवा शिवदशुद्ध वैशाखजे त्रयोदशतिथौ जगजयनकारिणं हारिणम् ॥५॥ विवोधशुचिचक्षुषा दशशताष्टसलक्षणः सुलक्षितसुनीलनीरजवपुर्वपुर्बिभ्रता । जिनेन निजैशोचिषा बहु। णीकृतं मण्डलं प्रसूतिभवनोदरे मणिगणप्रदीपार्चिषाम् ॥१०॥ विपाण्डरपयोधरा दिवमखण्डचन्द्रानना निशि स्फुरिततारकानिकरमण्डनां हारिणीम् । तरङ्गभुजपञ्जरोदरविवतिनी स्वेच्छया चुचुम्ब मदनाम्बुधिः सति जिनेन्द्रचन्द्रोदये ॥१७॥ गमीरगिरिराजनामिकुलशैलकण्ठाकुलस्तनोच्छ्वलद्वाहिनीनिवहहारभाराधरा। चचाल कृतनेर्तनेव मुदितात्र जम्बूमती समुद्रवलयाम्बरा रणितवेदिकामेखला ॥१२॥
भित हो रहा था ॥६।। हाथीरूपी मगरमच्छों, उछलते हुए उन्नत अश्वरूपी मीन-समूहों, बड़ेबड़े रथरूपी जहाजों, राजाओंकी सेनारूपो नदियों और जहां-तहां प्रवेश करते हुए मित्रोंरूपी तरंगोंसे प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हए राजा समुद्रविजय उस समय सचमुच ही विशाल समुद्र की शोभाको धारण करते हुए वृद्धिंगत हो रहे थे |७|| इस प्रकार जो जगद्वलयरूपी वेलासे पूजित थे, परस्परमें जिनका विशाल हर्ष निरन्तर बढ़ रहा था और जो इन्द्रकी आज्ञामें लीन देवदेवियोंके द्वारा को हुई विभूतिसे सहित थे ऐसे भगवान्के माता-पिताने गर्भके नौ माह सानन्द व्यतीत किये ॥८॥
तदनन्तर वैशाख शुक्ल त्रयोदशीको शुभ तिथिमें रात्रिके समय जब चन्द्रमाका चित्रा नक्षत्रके साथ संयोग था और समस्त शभग्रहोंका समह जब यथायोग्य उत्तम स्थानोंपर स्थित था तब शिवादेवीने समस्त जगतको जीतनेवाले अतिशय सन्दर पत्रको उत्पन्न किया ॥९॥ जो ज्ञानरूपी उज्ज्वल नेत्रोंके धारक थे तथा एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त नील कमलके समान सुन्दर शरीरको धारण कर रहे थे ऐसे जिनबालकने अपनी कान्तिके द्वारा, प्रसूतिकागृहके भीतर व्याप्त मणिमय दीपकोंके कान्तिसमूहको कई गुणा अधिक कर दिया था |१०|| उस समय जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमाका उदय होनेपर जो धवल पयोधर-मेघोंको धारण करनेवाली थो ( पक्षमें धवल स्तनोंसे युक्त थी) अखण्ड-पूर्ण चन्द्रमा ही जिसका मुख था, (पक्षमें पूर्ण चन्द्रमाके समान जिसका मुख था ), देदीप्यमान ताराओंके समूह ही जिसके आभूषण थे, ( पक्षमें देदीप्यमान ताराओंके समहके समान जिसके आभूषण थे), जो अत्यन्त सुन्दरी थी (पक्षमें हारसे सुशोभित थी), और जो तरंगरूपी भुजपंजरके मध्यमें वर्तमान थी. ऐसी-आकाशरूपी स्त्रीका मदनरूपी महासागरने अपनी इच्छानुसार चुम्बन किया था ॥११॥
उस समय जो सुमेरुरूपी गम्भीर नाभिसे युक्त थी, कुलाचलरूपी कण्ठ और स्तनोंसे सहित थी, बहती हुई नदियोंके समूहरूपी हारके भारको धारण करनेवाली थी, समुद्रका घेरा ही जिसका वस्त्र था तथा शब्दायमान वेदिका ही जिसकी मेखला थी, ऐसी जम्बूद्वीपकी भूमि चल-विचल हो गयी जिससे ऐसी जान पड़तो थी मानो हर्षके वशीभूत हो नृत्य ही कर रही
१. समभिवधितः + अद्धा + ऊमिभि: इतिच्छेदः । समभ्यवर्धतोोमिभिः ग.। २. शुच्यग्रज-म.। शुद्धयग्रज क., ख.। ३. जिनरोचिषा म.। ४. भवनोपरे म.। ५. मण्डनाहारिणीम् म.। ६. वर्तनव ग. ।
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हरिवंशपुराणे अनुत्तरमुखोल्ज्वलः शिवपदोत्तमाङ्गस्तदा नवानुदिशसद्धनुर्नवविमानकग्रीवकः । सुकल्पवपुरन्तराधरजगत्कटीजङ्घकस्त्रिलोकपुरुषोऽचलस्कटिकरो नटिस्वा स्फुटम् ॥१३॥ अभूद्भवनवासिनां जगति तारशङ्कस्वनो रराट पटहः पटुटिति भौमलोकेऽखिले । रवेर्जगति सिंहनाद उरुघोषघण्टानदासुकल्पभवने जिनप्रभववैभवाद्वै स्वयम् ॥१४॥ जगस्त्रितयवासिनश्चलितमौलिसिंहासनास्ततोऽसुरसुराधिपाः प्रणिहितावधिस्वेक्षणाः । प्रबुध्य जिनजन्म जातपुरुसंमदाः संपदा प्रचेलुरिह भारतं प्रति चतुर्णिकायामरैः ॥१५॥ विशुद्धतमदृष्टयो मुकुट कोटिसंघट्टित-स्फुरस्कटकरवरश्मिखचिताखिलाशामुखाः । प्रणेमुरहमिन्द्रदेवनिवहास्तु तत्र स्थिताः पदान्यभिसमेत्य सप्त हरिविष्टरेभ्यो जिनम् ॥१६॥ क्षितेरसुरनागविद्युदनलानिलद्वीपसत्सुपर्णसुमहोदधिस्तनितदिक्कुमाराभिधाः । समुद्ययुरितस्ततो भवनवासिनो भास्वरास्तदा विदधतो दिशो दश दशप्रकारामराः ॥१७॥ सुकिंपुरुषकिन्नरामरमहोरगा राक्षसाः पिशाचसुरभूरिभूतवरयक्षगन्धर्वकाः । मनोहरणदक्षगीतबहनृत्युक्ताङ्गनाः समीयुरिह मध्यलोकरतयोऽष्टधा व्यन्तराः ॥१८॥ गणश्च शुचिशोचिषां प्रथितपञ्चधाज्योतिषां ग्रहसंशशिमास्करप्रतततारकाख्यापुषाम् ।
बभौ युगपदापतन्नि जविमानकेभ्योऽधिकं विधातुमिव चोद्यतो जगदिहापरं ज्योतिषाम् ॥१९॥ हो ॥१२।। जो अनुत्तर विमानरूपी मुखसे उज्ज्वल था, मोक्षरूपी मस्तकसे सहित था, नो अनुदिशरूपी ठोड़ोसे युक्त था, नौ ग्रेवेयकरूपी ग्रीवाको धारण करनेवाला था, स्वर्गरूपी शरीरसे सहित था, तथा मध्यम लोकरूपी कमर और अधोलोकरूपी जंघाओंसे युक्त था ऐसा तीन लोकरूपी पुरुष उस समय चंचल हो उठा था सो ऐसा जान पड़ता था मानो कमरपर हाथ रखकर नृत्य ही कर रहा हो ॥१३।। उस समय जिनेन्द्र भगवान्के जन्मके प्रभावसे भवनवासी देवोंके लोकमे अपने आप शंखोंका जोरदार शब्द होने लगा। समस्त व्यन्तर देवोंके लोकमें शीघ्र ही जोरदार पटह शब्द होने लगे । सूर्यलोकमें सिंहनाद होने लगा और कल्पवासी देवोंके भवनोंमें विशाल शब्द करनेवाले घण्टा बज उठे ।।१४।। तदनन्तर जिनके मुकुट और सिंहासन कम्पायमान हो रहे थे, जिन्होंने अपने अवधिज्ञानरूपो नेत्रको प्रयुक्त किया था, और उसके द्वारा जिनेन्द्र भगवान्के जन्मको जानकर जिन्हें अत्यधिक हर्ष उत्पन्न हुआ था, ऐसे तीनों लोकोंमें रहनेवाले सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र चतुर्णिकायके देवोंको साथ ले बड़ी विभूतिसे भरत क्षेत्रकी ओर चल पड़े ॥१५॥ हाथ जोड़कर मस्तकसे लगाते समय मुकुटोंके अग्रभागसे टकराये हुए कटकोंके रत्नोंको किरणोंसे जिन्होंने समस्त दिशाओंके अग्रभाग व्याप्त कर दिये थे ऐसे अत्यन्त शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारक अहमिन्द्र देव, यद्यपि अपने-अपने हो निवासस्थानोंमें स्थित रहे थे तथापि उन्होंने सिंहासनोंसे सात कदम सामने आकर जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया था ।।१६।। असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार, द्वीपकुमार, महोदधिकुमार, स्तनितकुमार और उदधिकुमार ये दश प्रकारके भवनवासो देव, दशों दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए जहां-तहां पृथिवीसे ऊपर आने लगे ।।१७।। जिनकी स्त्रियाँ मनको हरण करने में दक्ष, गीत तथा नाना प्रकारके नृत्योंसे युक्त थीं, ऐसे किंपुरुष, किन्नर, महोरग, राक्षस, पिशाच, भूत, यक्ष और गन्धर्व ये मध्यलोकमें विशिष्ट प्रोतिके रखनेवाले आठ प्रकारके व्यन्तर देव चारों ओरसे आने लगे ॥१८॥ उज्ज्वल किरणोंसे युक्त ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और तारा नामको धारण करनेवाले पाँच प्रकारके प्रसिद्ध ज्योतिषो देवोंका समूह एक साथ अपने-अपने विमानोंसे यहाँ आता हुआ ऐसा सुशोभित होने लगा मानो वह पृथिवीपर एक दूसरा ही ज्योतिषलोक बनानेके लिए उद्यत हुआ हो ॥१९|| १. चतुनिकायामराः क.। २. शुचिरोचिषां म. ।
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अष्टत्रिंशः सर्गः
४८१ यथास्वमपि सप्तमिः प्रथमकल्पनाथादयोऽप्यनीकनिवहता युगपदव्युतेन्द्रोत्तराः । प्रतिस्वमपि सप्तभिः सकलकल्पजैः षोडश प्रमोदवशवर्तिनः समभिजग्मुरिन्द्राः सुरैः ॥२०॥ अनेकमुखेदत्तसत्कमलखण्डपत्रावलीसुरूपसुरसुन्दरीललितनाटकोद्भासिनम् । हिमाद्रिमिव जङ्गमं निजवधूमिरैरावतं करीन्द्रमधिरूढवानभिरराज सौधर्मपः ॥११॥ अनीकमथ यौवज रचितसप्तकक्षान्तरं गृहीतवलयाकृतिप्रकृतिपौरुषाधिष्ठितम् । परीत्य कुलिशायुधं कुलिशपूर्वशस्त्राटवीनिरुद्धगगनान्तरं भृशमशोभत त्रैदशम् ॥२२॥ जवेन लघु लङ्घयदुतसमारणं हेषितप्रयोजितवियोजितत्रिभुवनान्तरालं तथा । बृहदबहिरवर्तत प्रविततं हयानोकमप्यरं गगनवारिधेरधितरङ्गारङ्गायितम् ॥२३॥ सुमुग्धमुखकोशकैर्नयनपुण्डरीकैनिजैर्ललस्ककुदवालधिश्रुतिसुगात्रसास्नापुरैः । सुवर्णखुरशृङ्गकः प्रतिवृषं वृषानीकमप्युवाह परितः स्थितं विपुलकान्तिमिन्दुप्रभाम् ॥२४॥ विभिन्नमपि सप्तधा स्वयमभेद्यमप्यद्रिमिनभोवलयसागरे त्रिदशयानपात्रायितम् । प्रभाविजित विस्फरविरथं रथानीकमप्यमादतिमनोहरं वलयवत्परिक्षेपकम् ॥२५॥ विकर्णघनशीकरैः करिभिरूवलीलाकरैः प्रवृत्तगुरुगजितैर्गुरुतरै रिवाम्भोधरैः । महामरुदधिष्टितैः सुघटितं गजानीकमप्यनेकरचनान्तरं व्यतनुत श्रियं प्रावृषः ॥२६॥ स्वरैरपि च सप्तमिर्मधुरमुर्छनाकोमलैः सवीणवरवंशतालरवमिश्रितैराश्रितः।
प्रपूर्णभुवनोदरं बहिरतोऽप्यनीकं बभौ युवत्यमरबन्धुरं तिकरं तु गन्धर्वजम् ॥२७॥ जो यथायोग्य अपनी-अपनी सात प्रकारकी सेनाओंके सहित थे, ऐसे प्रथम स्वर्गसे लेकर सोलहवें स्वर्ग तकके सोलह इन्द्र, आनन्दके वशीभूत हो समस्त स्वर्गाके देवोंके साथ यहां आ पहुँचे ॥२०॥ सौधर्मेन्द्र अपनी स्त्रियोंके साथ उस ऐरावत नामक गजराजपर बैठा हुआ सुशोभित हो रहा था, जो चलते-फिरते हिमालयके समान जान पड़ता तथा अनेक मुखोंके भीतर दाँतोंपर विद्यमान कमल-समूहकी कलिकाओंपर नृत्य करती हुई देवांगनाओंके सुन्दर नृत्यसे सुशोभित था ॥२१॥ इन्द्रको चारों ओरसे घेरे हुए देवोंकी वह सेना सुशोभित हो रही थी जिसने सात कक्षाओंका विभाग किया था, जो गोल. आकारके सहित थी, स्वाभाविक पुरुषार्थसे युक्त थी, तथा वच आदि शस्त्रोंके वनसे जिसने आकाशके अन्तरालको रोक रखा था ॥२२॥ तदनन्तर घोड़ोंकी बहुत बड़ो विराट सेना थी जो अपने वेगसे शीघ्रगामी वायुको शीघ्र ही जीत रही थी। जो अपनी हिनहिनाहटसे तोन लोकके अन्तरालको संयुक्त तथा वियुक्त कर रही थी, और आकाशरूपी समुद्रकी उठतो हुई तरंगोंके समूहके समान जान पड़ती थी ॥२३।। तदनन्तर बैलोंकी वह सेना चारों ओर खड़ी थी जो कि सुन्दर मुख, सुन्दर अण्डकोश, नयन कमल, मनोहर कांदौल, पूंछ, शब्द, सुन्दर शरीर, सास्ना, सुवर्णमय खुर और सींगोंसे युक्त थी तथा अत्यधिक कान्तिसे
त चन्द्रमाको प्रभाका धारण कर रहा था ॥२४॥ तदनन्तर रथोकी वह सेना भी सुशोभित हो रही थी जो स्वयं सात प्रकारसे विभिन्न होनेपर भी पर्वतोंसे अभेद्य थी, आकाशरूपी सागरमें जो देवोंके यानपात्रके समान जान पड़ती थी, प्रभासे जिसने: सूर्यके देदीप्यमान रथको जीत लिया था, जो अत्यन्त मनोहर थी और जिसका घेरा वलयके समान सुशोभित था ॥२५॥ तत्पश्चात् जो चारों ओर जलके छींटोंकी वर्षा कर रहे थे, जिनके शुण्डादण्ड ऊपरकी ओर उठे हुए थे, जो बहुत भारी गर्जना कर रहे थे, जो आकारमें बहुत भारी थे, एवं जो बड़े-बड़े देवोंसे अधिष्ठित थे, ऐसे मेघोंकी समानता धारण करनेवाले हाथियोंसे रचित, अनेक प्रकारकी रचनाओंसे युक्त हाथियोंकी सेना भी वर्षा ऋतुकी शोभा विस्तृत कर रही थी ॥२६॥ हाथियोंकी १. दम्तसत्कमल म., दन्तदन्तसरकमल ग. । २. योषजं म., ख. । देवजं घ. । ३. प्रघोषित ग. । ४. कोशिकर्नयन म. । कोशकर्नयन ग. । ५. पटैः ग.। ६. अपूर्णभुवनोपरम् म.।
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हरिवंशपुराणे समस्तरसपुष्टिकं वलयहारिगात्रोस्करैर्मनःकुसुममञ्जरीरमरभूरुहामाहरत् । प्रवृत्यरुजतकीमयमनीकमप्यम्बरे नितम्बभरमन्थर निचितमाविरासीत्तथा ॥२८॥ सहस्रगुणितोदिता चतरक्षीतिरेषु स्फुटं प्रमाणमपि सप्तसु प्रथमसप्तकक्षास्वतः। परं द्विगुणमेतदेव सकलेषु कक्षान्तरेष्वनीकवलयेष्वियं क्रमभिदासमाप्तः स्थितिः ॥२९॥ यथायथमनीकिनः सकलनाकलोकाधिपा जिनेन्द्रजननाभिषेककरणाय यावद्वियत् । वितत्य पुरमानजन्ति मुदितास्तु तावदिशा कुमार्य उपकुर्वते निखिलजातकर्मादृताः ॥३०॥ तथाहि विजया स्मृता जगति वैजयन्ती परा परोक्तिरपराजिता प्रवदिता जयन्ती वरा । तथैव सह नन्दया मवति चापरानन्दया सनन्धभिधवर्धना हृदयनन्दिनन्दोत्तरा ॥३॥ कुचानिव निजानिमा विगलदङ्गशृङ्गारसद्रसेन भरितान् भृशं विपुलतुङ्गभृङ्गारकान् । समूहुरभिरामकानमलहारमारोज्ज्वला ज्वलन्मणिविभूषणश्रवणकुण्डलोद्भासिताः ॥३२॥ तथैव सयशोधरा प्रथितसुप्रबुद्धामरी सुकीर्तिरपि सुस्थिता प्रणिधिरत्र लक्ष्मीमती। विचित्रगुणचित्रया सह वसुंधरा चाप्यमू गृहीतमणिदर्पणा दिश इवेन्दुमत्यो वभुः ॥३३॥ इला नवमिकासुरासहितपीतपद्मावती तथैव पृथिवी परप्रवरकाञ्चना चन्द्रिका ।
प्रमास्फुटिततारकामरणभूषिता मास्वराः सचन्द्ररजनीनिमा तसितातपत्रा बभुः ॥३४॥ सेनाके बाद गन्धर्वोकी वह सेना सुशोभित हो रही थी जिसने मधुर मूर्छनासे कोमल वीणा, उत्कृष्ट बांसुरी और तालके शब्दसे मिश्रित सातों प्रकारके आश्रित स्वरोंसे जगत्के मध्यभागको पूर्ण कर दिया था, जो देव-देवांगनाओंसे सुशोभित थी एवं सबको आनन्द उत्पन्न करनेवाली थी ॥२७॥ गन्धर्वो की सेनाके बाद उत्कृष्ट नृत्य करनेवाली नर्तकियोंकी वह सेना भी आकाशमें प्रकट हुई थी जो कि.नितम्बोंके भारसे मन्द-मन्द चल रही थी, समस्त रसोंको पुष्ट करनेवाली थी और वलयोंसे सुशोभित अपने शरीरोंसे देवरूपी वृक्षोंके मनरूपी पुष्पमंजरीको ग्रहण कर रही थी ॥२८॥ प्रत्येक मेनामें सात-सात कक्षाएं थीं। उनमें से प्रथम कक्षामें चौरासी हजार घोड़े, बैल आदि थे फिर दूसरी-तीसरी आदि कक्षाओं में क्रमसे दूने-दूने होते गये थे ।।२९।।।
__ अपनी-अपनी सेनाओंसे युक्त समस्त इन्द्र, भगवान्का जन्माभिषेक करनेके लिए आकाशमें व्याप्त हो जब-तक सूर्यपुर आते हैं तब-तक प्रसन्नतासे युक्त एवं आदरसे भरी दिक्कुमारी देवियां भगवान्का समस्त जातकर्म करने लगीं ॥३०॥ देवियोंमें निर्मल हारोंके धारण करनेसे सुशोभित एवं चमकते हुए मणियोंके आभूषण और कानोंके कुण्डलोंसे विभूषित, जगत्-प्रसिद्ध विजया, वैजयन्ती, अपराजिता, जयन्ती, नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्धना और हृदयको आनन्दित करनेवाली नन्दोत्तरा नामकी देवियां अपने स्तनोंके समान स्थूल, तथा अंगसे विगलित होते हुए शृंगार रसके समान निर्मल जलसे भरी हुई बड़ी ऊँची झारियाँ लिये हुए थों ॥३१-३२।। यशोधरा, सुप्रसिद्धा, सुकीर्ति, सुस्थिता, प्रणिधि, लक्ष्मीमती, विचित्र गुणोंसे युक्त चित्रा और वसुन्धरा ये देवियां मणिमय दर्पण लेकर खड़ी थीं और चन्द्रमासे यक्त दिशाओंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥३३||
इला, नवमिका, सुरा, पीता, पद्मावती, पृथ्वी, प्रवरकांचना और चन्द्रिका नामकी
भासे देदीप्यमान ताराओंके समान आभषणोंसे सुशोभित तथा देदीप्यमान थीं। ये देवियां भगवान्की मातापर सफेद छत्र लगाये हुए थीं और चन्द्रमाके सहित रात्रियोंके समान १. बलमहारि-म.। २. प्रनृत्यपुरुनर्तकी म.। ३. मप्यम्बर-म.। ४. करुणाय म.। ५. परा म. । ६. पीठपद्मावती म.।
देवियां, प्रभासे देदीप
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अष्टत्रिशः. सर्गः
श्रिया च धृतिराशया च वरवारुणी पुण्डरीकिणी. स्फुरदलम्बुसा च सह मिश्रकेशी हिया । सचामरकराइमा बभुरुदारफेनावलीतरङ्ग कुलसंकुला इव कुलापगाः संगताः ॥ ३५ ॥ कनकनकचित्रया सहितया पुनश्चित्रया त्रिलोकसुर विश्रुतत्रिशिरसा च सूत्रामणिः । कुमार्य इव विद्युतो विलसितैर्जिनस्थान्तिके तमोनुद इवाबभुर्जलधरस्य विद्युल्लताः ॥ ३६ ॥ सहैव रुचकप्रभा रुचकया तदाद्याभया परा च रुचकोज्ज्वला सकलविद्युदग्रेसराः । दिशां च विजयादयो युवतयश्चतस्रो वरा जिनस्य विदधुः परं सविधि जातकर्मश्रिताः ॥ ३७॥ चतुर्विधसुरासुरा लघु समेत्य तावत्परं कुबेरजनिताद्भुतप्रथमशोममुच्चैर्ध्वजम् । परीत्य जिनभक्तितस्त्रिदशनाथलोकश्रियं विजेतुमिव चोद्यतं ददृशुरादृताः सेन्द्रकाः ॥ ३८ ॥ प्रविश्य नगरं ततः शतमखः स्वयं सत्सखः शिवास्पदसमीपगः स्थितिविदादिदेशादृताम् । शचीं शुचिमचापकां समुपनेतुमीशं शिशुं प्रसूतिगृहमाविशन्निति तदा बभौ सादरा ॥ ३९ ॥ विकृत्य सुरमायया शिशुमिहापरं निद्रया प्रयोज्य जिनमातरं प्रणतिपूर्वकं यत्नतः । प्रगृह्य मृदुपाणिना शिशुमदादसौ स्वामिने प्रणम्य शिरसा ददावमरराट् कराभ्यां जिनम् ॥ ४०॥ "जितेन्दु मुखचन्द्रकं विजितपुण्डरीकेक्षणं विशेषविजितासितोत्पलवनश्रियं तं श्रिया । निरीक्ष्य जितेपद्मपाणिचरणं सहस्रेक्षणः सहस्रगणनेक्षणैरपि ययौ न तृप्तिं तदा ॥ ४१ ॥
जान पड़ती थीं ||३४|| श्रो, धृति, आशा, वारुणी, पुण्डरीकिणी, अलम्बुसा, मिश्रकेशी और ही आदि देवियाँ हाथोंपर चामर लिये खड़ी थीं तथा अधिक फेनावली और तरंगों से युक्त आयी हुई कुलनदियों - गंगा आदि नदियोंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥ ३५ ॥ देदीप्यमान कनकचित्रा, चित्रा, तीन लोकके देवोंमें प्रसिद्ध त्रिशिरा और सूत्रामणि, ये विद्युत्कुमारी देवियाँ उस समय जिनेन्द भगवान् के समीप अपनी चेष्टाओंसे ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो मेघके समीप अन्धकारको नष्ट करनेवाली बिजलीरूपी लताएँ ही हों || ३६ | उस समय समस्त विद्युत्कुमारियोंमें प्रधान रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और रुचकोज्ज्वला तथा दिक्कुमारियों में प्रधान विजय आदि चार देवियां विधिपूर्वक भगवान्का जातकर्म कर रही थीं ||३७||
भगवान् के जन्मोत्सवके पूर्व ही कुबेरने सूर्यपुरकी अद्भुत शोभा बना रखी थी । उसके महलोंपर बड़ी-बड़ी ऊँची-ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही थीं तथा वह इन्द्रलोककी शोभाको जीतनेके लिए उद्यत सरीखा जान पड़ता था । अपने-अपने इन्द्रों सहित चारों निकायोंके सुर और असुर आदर के साथ शीघ्र ही आकर जिनेन्द्र भगवान्की भक्ति से उस नगरकी तीन प्रदक्षिणाएँ दे उसकी शोभा देखने लगे ||३८|| तदनन्तर सज्जनोंक सखा और मर्यादाको जाननेवाला इन्द्र नगर में प्रवेश कर शिवादेवीके महलके समीप खड़ा हो गया और हींसे उसने आदरसे युक्त, पवित्र एवं चंचलता से रहित इन्द्राणीको जात बालकके लानेका आदेश दिया। पतिको आज्ञानुसार इन्द्राणीने प्रसूतिकागृह में प्रवेश किया। उस समय आदरसे भरी इन्द्राणी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ||३९|| वहां उसने यत्नपूर्वक जिन-माताको प्रणाम कर मायामयी निद्रामें सुला दिया तथा देव- मायासे एक दूसरा बालक बनाकर उनके समीप लिटा दिया। तदनन्तर इन्द्राणीने कोमल हाथों से जिन बालकको उठाकर अपने स्वामी - इन्द्र के लिए दे दिया और देवोंके राजा इन्द्रने शिरसे जिन - बालकको प्रणाम कर दोनों हाथोंसे उन्हें ले लिया ||४०|| जिन्होंने अपने मुखरूपी चन्द्रमाके द्वारा चन्द्रमाको जीत लिया था, नेत्रोंसे पुण्डरीक -- सफेद कमलको जीत लिया था, शरीरकी कान्तिसे नील कमलोंके वनको शोभाको प्रमुख रूप से पराजित कर दिया था और अपने हाथों तथा पैरोंसे कमलोंको पराभूत कर दिया था ऐसे जिनेन्द्र बालकको उस समय इन्द्र एक हजार नेत्रोंसे भी देखकर तृप्तिको प्राप्त नहीं हुआ उसकी देखनेकी उत्कण्ठा ज्यों१. स्थितिविद् + आदिदेश + आदृताम् । २. जिनेन्द्रमुख-म., ग. । ३. जिनपद्म-म. ।
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हरिवंशपुराणे
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विधाय से सुरद्विपस्फटिकभूभृतो मस्तके जिनेन्द्र शिशुमिन्द्रनीलमणितुङ्गचूडामणिम् । चचाल चलचामरातपनिवारणोच्चैरुचिश्चलोर्मिकुलसंकुलो जलनिधिर्यथा फेनिलः ॥ ४२ ॥ सुरेभवदनत्रिके दशगुणे द्वयोश्चाष्ट ते रदाः प्रतिरदं सरः सरसि पद्मिनी तत्र च । मवन्ति मुखसंख्यया सहितपद्मपत्राण्यपि प्रशस्तरसभाविता प्रतिदलं नटस्यप्सराः ॥ ४३ ॥ तथाविधविभूतिभिः समुपगम्य मेरुं सुराः परीत्य पृथु पाण्डुकाख्यवनखण्डमभ्येत्य ते । जिनेन्द्र मतिरुद्वपाण्डुक शिलातले कोमले सुपञ्चशतकार्मुको च्चहरिविष्टरेऽतिष्ठपन् ॥४४॥ ततश्च धृतपूजनोपकरणेषु देवाङ्गनागणेषु परितः स्थितेष्व भिनवोत्सवानन्दिषु ।
सुकुतपोरकटप्रकटनाटकेषु स्फुटप्रकृष्टरस मात्र हावलयरञ्जितस्त्रर्गिषु ॥४५॥ रटत्पटहशङ्खशब्दहरिनादभेरीरवै गिरीन्द्र सुबृहद्गुहाप्रतिनिनादसंवर्धितः । दिगन्तर विसर्पिभिर्जिनगुणैरिव प्रस्फुटैरशेषभुवनोदरे श्रुतिसुखावहैः पूरिते ॥ ४६ ॥ नभस्तल मितस्ततः स्थगयति स्फुरत्सौरभे विचित्रपटवाल धूप पटले सुपुष्पोत्करे । सुगन्धयति बन्धुरे परमगन्धहृद्ये दिशां मुखानि मुखपाण्डुकप्रमवमातरिश्वन्यलम् ॥४७॥ गृहीत बहुविग्रहः सुरपरिग्रहो वासवः समारभत भक्तितो जिनमहाभिषेकं स्वयम् । विधातुममराहृतैस्तु मणिहेमकुम्भच्युतैः पयोमयपयोनिधेः शुभपयोभिरुद्गन्धिमिः ॥ ४८ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ]
की यों बनी रही ||४१ || वह इन्द्र जिनके मस्तकपर इन्द्रनील मणिका ऊँचा चूड़ामणि सुशोभित हो रहा था, ऐसे जिन - बालकको ऐरावत हाथीरूपी स्फटिकमय पर्वतके मस्तकपर विराजमान कर चला । उस समय वह इन्द्र चंचल चामर और छत्रोंसे अतिशय शोभायमान था और उनसे ऐसा जान पढ़ता था मानो चंचल तरंगोंके समूहसे युक्त फेनसे भरा समुद्र ही चला जा रहा हो ॥४२॥
ऐरावत हाथीके बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुखमें आठ-आठ दाँत थे, प्रत्येक दांतपर एक-एक सरोवर था, प्रत्येक सरोवरमें एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस पत्र थे और एक-एक पत्रपर उत्तम रससे भरी हुई एक-एक अप्सरा नृत्य कर रही थी ||४३|| उस प्रकारकी लोकोत्तर विभूतिके साथ देव लोग मेरु पर्वत के समीप पहुंचे तथा उसकी परिक्रमा देकर पाण्डुक नामक विशाल वनखण्ड में प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने विशाल पाण्डुकशिलाके ऊपर जो पांच सौ धनुष ऊंचा सिंहासन है उसपर जिन बालकको विराजमान किया ॥ ४४ ॥
तदनन्तर पूजाके उपकरणोंको धारण करनेवाले एवं नवीन उत्सवसे आनन्दित देवांग - नाओंके समूह जब चारों ओर खड़े थे, स्पष्ट तथा श्रेष्ठ रस, भाव, हाव और लयसे देवोंको अनुरंजित करनेवाले श्रेष्ठ नृत्यकारोंके समूह जब नृत्य कर रहे थे, सुमेरु पर्वतकी सुविशाल गुफाओं गूंजने वाली प्रतिध्वनिसे वृद्धिगत, दिशाओंके अन्तरालमें फैलनेवाले, जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंके समान अत्यन्त प्रकट, एवं कानोंको सुख देनेवाले बजते हुए नगाड़ों और शंखोंके शब्द तथा सिंहनाद और भेरियोंकी ध्वनियोंसे जब संसारका मध्यभाग परिपूर्ण हो रहा था, प्रकट होती हुई सुगन्धिसे युक्त, नाना प्रकारके पटवास, धूपोंके समूह और उत्तमोत्तम पुष्पोंके समूह जब इधर-उधर आकाशतलको व्याप्त कर रहे थे, और मुखरूपी पाण्डुक वनसे उत्पन्न उत्कृष्ट गन्धसे हृदयको प्रिय लगनेवाली सुन्दर वायु जब दिशाओंके मुखको अत्यन्त सुगन्धित कर रहो
१. चूलार्माण क, ख, ग । २. भाविताः म. ग. । ३. नटन्त्यप्सराः म, ग. । ४, मतिरुद्र म. । ५. नाटक पेटकः (ग. टि. ) 1
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अष्टत्रिशः सर्गः
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बहुत्रिदशपङ्क्तिभिः प्रमदपूरिताभिर्नभः स्फरन्मणिगणोज्ज्वलस्कलशपाणिभिः सर्वतः । सुमेरुगिरिपञ्चमाम्बुनिधिमध्यमध्यासितं रराज बहुरज्जुमिस्तदिव नीयमानं तदा ॥४९॥ गृहाण कलशं लघु क्षिप नयाशु संधारय प्रभु च मम संमुखं त्वमिति कर्णरम्यारवैः करास्करमितस्ततः सुरगणस्य कुम्भावली श्रिया श्रयति पाण्डुकं वनमिवोरुहंसावलो ॥५०॥ 'सुवर्णमणिरत्नरौप्यमयकुम्भकाल्यो बभुः प्रवेगमरुतां वशा रविशशाङ्कमाला यथा । सुपक्षपुटदीप्तिभिः खचितदिङमुखाः खे रयोत्पतद्गरुडहंसपङ्क्तय इव ययानेकशः ॥५१॥ शताध्वरभुजोतैलधरैरिवोद्गजितैः सहस्रगणनैर्घटैः शुचिपयोभिरावर्जितैः । जिनोऽभिषमाप्नुवन् धवलमदिराज व्यधाद्दधाति धवलात्मतामधवलो हि शुद्धाश्रयात् ॥५२॥ सतोपमपरेऽपि ते निखिलकल्पनाथादयो यथेष्टमभिषेचनं विदधुरम्बुभिनिर्मलैः । जिनस्य जिनशासनाधिगमशस्तरागोदयाः प्रकाशिततनूरुहास्तनुतरात्मजन्माब्धयः ॥५३॥ ततः सुरपतिस्त्रियो जिनमुपेत्य शच्यादयः सुगन्धितनुपूर्व कैमृदुकराः समुद्वर्तनम् । प्रचक्ररभिषेचनं शुभपयोभिरुच्चैघंटैः पयोधरमरैनिजैरिव समं समार्जितैः ॥५४॥
थो तब अनेक शरीरोंको धारण करनेवाले इन्द्रने देवोंके साथ भक्तिपूर्वक, देवोंके द्वारा लाये हुए, मणिमय और सुवर्णमय कुम्भोंसे च्युत, अत्यन्त सुगन्धित क्षीरसागरके शुभ जलसे जिनेन्द्र भगवान्का स्वयं महाभिषेक करना शुरू किया ।।४५-४८|| उस समय सुमेरु पर्वत और क्षीरसागरके मध्य आकाशमें, हर्षसे भरी एवं देदीप्यमान मणियोंके समूहसे उज्ज्वल कलश हाथमें लिये देवोंकी पंक्तियां सब ओर खड़ी थीं उनसे उस समय वह आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत-सी रस्सियोंसे बांधकर कहीं ले जाया जा रहा हो ।।४९।। उस समय वहाँ 'कलश लो, जल्दी दो, और तुम भगवान्को शीघ्र ही मेरे सम्मुख धारण करो' इस प्रकार कानोंके लिए प्रिय शब्द हो रहे थे। तथा वह कलशोंकी पंक्ति देव-समूहके एक हाथसे दूसरे हाथमें जाती हुई शोभापूर्वक पाण्डुक वनमें ऐसी प्रवेश कर रही थी मानो बड़े-बड़े हंसोंकी पंक्ति ही प्रवेश कर रही हो ।।५०॥ आकाशमें वेगशाली देवोंके वशीभूत (हाथोंमें स्थित ) सुवर्ण, मणि, रत्न और चांदीसे निर्मित कलशोंकी पंक्तियां आकाशमें ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो सुन्दर पंखोंकी कान्तिसे दिशाओंको व्याप्त करती हुई वेगसे उड़नेवाले गरुड़ और हूंसोंको अनेक पंक्तियां हो हों ।।५१।। इन्द्रकी भुजाओंके द्वारा उठाये हुए, मेघोंके समान गर्जना करनेवाले एवं उज्ज्वल जलसे भरे हुए हजार कलशोंसे अभिषेकको प्राप्त होनेवाले भगवान्ने मेरुपर्वतको सफेद कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि शुद्ध पदार्थके आश्रयसे अशुद्ध भी शुद्धताको प्राप्त हो जाता है। भावार्थ-भगवान्के अभिषेक जलसे मेरु पर्वत सफेद-सफेद दिखने लगा ||५२।।
जिनशासनकी प्राप्तिसे जिनके प्रशस्त रागका उदय हो रहा था, जिनके शरीरमें रोमांच प्रकट हुए थे और जिनका संसाररूपी सागर अत्यन्त अल्प रह गया था ऐसे अन्य समस्त स्वर्गोंके इन्द्रोंने भी बड़े सन्तोषके साथ इच्छानुसार निर्मल जलसे जिनेन्द्र भगवान्का अभिषेक किया था ॥५३।। तदनन्तर कोमल हाथोंको धारण करनेवाली शची आदि इन्द्राणियोंने आकर सुगन्धित द्रव्योंसे भगवान्को उद्वर्तन-उबटन किया और अपने ही स्तनोंके समान सुशोभित एक साथ उठाये हुए, शुभ जलसे परिपूर्ण कलशोंके द्वारा उनका अभिषेक किया ॥५४॥
१. तदवनीयमानं म.। २. सूवर्णमयरूपकान्तिमय-म.। ३. प्रवेगमरतां म.। ४. -माप्नुयादवल-म.। ५. समस्तदेवेन्द्रादयः। ६. जन्माषयः म. ।
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हरिवंशपुराणे कुलमणिभूषणनगनुलेपनोद्भासितं प्रयोज्य शुमपर्वतं विभुमरिष्टनेम्याख्यया । सुरासुरगणास्ततः स्तुतिभिरिस्थमिन्द्रादयः परीत्य परितुष्ट्रवुर्जिनमिनं सुपृथ्वीश्रियाम् ॥५५॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती जन्माभिषेकवर्णनो
नामाष्टत्रिंशः सर्गः ॥३८॥
तदनन्तर इन्द्र आदि समस्त सुर और असुरोंके समूहने उत्तम वस्त्र, मणिमय आभूषण, माला तथा विलेपनसे सुशोभित, कल्याणके पर्वत, एवं अतिशय विशाल लक्ष्मीके स्वामी श्री जिनेन्द्र देवका अरिष्टनेमि नाम रखकर उनकी प्रदक्षिणा दी और उसके बाद नाना प्रकारको स्तुतियोंसे उनका स्तवन किया ।।५५।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें भगवान के
जन्माभिषेकका वर्णन करनेवाला अड़तीसवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥३८॥
१. जिनमिति म.। २. श्रियम् म., ग. ।
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एकोनचत्वारिंशः सर्गः 'सकलश्रुतमत्यवधिप्रविकासिविशुद्ध विलासनिनिद्रा विशिष्ट
विलोचनदृष्टिविदृष्टसमस्तचराचरतश्वजगत्रितय । त्रितयारमकदर्शनबोधचरित्रविनिर्मलरत्नविराजितपूर्व
भवोग्रतपोयुतषोडशकारणसंचिततीर्थकरप्रकृते ॥१॥ प्रकृतेः स्थितितोऽनुभवाच विशिष्टतराद्भुतपुण्यमहोदय
मारुतवेगविचालितदेवनिकायकुलाचरसेवितपादयुग। युगमुख्य मुखाम्बुजदर्शनतृप्तिविवर्जितमव्यमधुव्रतधीर
तरस्तवनध्वमिबृंहितदुन्दुमिनादनिवेदितशुद्धयशः ॥२॥ यशसा धवलीकृतजन्मपवित्रितमारतवर्ष महाहरिवंश
महोदयशैलशिखामणिबाल दिवाकरदीप्तिजितावपुः । वपुषाधिककान्तिभृताजितपूर्णशशाङ्क, विभो ! हरिनीलमणि
द्यतिमण्डलमण्डितदिङमुखमण्डल नेमिजिनेन्द्र ! नमो भवते ॥३॥ मवतेह भुवां त्रितये मवता गुरुणा परमेश्वर विश्वजनीन
महेच्छधिया प्रतिपादितमप्रतिमप्रतिमारहितम् । हितमुक्तिपथं प्रथितं विधिवत् प्रतिपद्य विधाय तपो विविधं
विधिना प्रविधूय कुकर्ममलं सकलं भवि भव्यजनः प्रणतः ॥४॥ इन्द्र, नेमि जिनेन्द्रकी इस प्रकार स्तुति करने लगा- हे प्रभो! आपने समस्त) श्रुतज्ञान, मतिज्ञान और अवधिज्ञानसे विकसित, शुद्ध चेष्टाओंके धारक, जागरूक एवं विशिष्ट पदार्थोंको. दिखलानेवाली दृष्टिके द्वारा समस्त चराचर पदार्थोंसे युक्त तीनों जगत्को अच्छी तरह देख लिया है। आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके भेदसे त्रिविधताको प्राप्त निर्मल रत्नोंसे सुशोभित पूर्वभव सम्बन्धी उग्र तपसे युक्त सोलह कारण भावनाओंके द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृतिका संचय किया है ।।१।। उसी तीर्थंकर प्रकृतिकी स्थिति तथा अनुभागबन्धके कारण अत्यन्त विशिष्ट एवं अद्भुत पुण्यके महोदयरूपी वायुके वेगसे आपने देवसमूहरूपी कुलाचलोंको विचलित किया है। उन्होंने आपके चरण युगलकी सेवा की है। आप युगमें मुख्य हैं तथा आपके मुख कमलके देखने सम्बन्धी तृप्तिसे रहित भव्यजीवरूपी भ्रमरोंके अत्यधिक स्तवनोंको ध्वनिसे वृद्धिंगत दुन्दुभियोंके शब्दसे आपका शुद्ध यश प्रकट हो रहा है ।।२।। हे नाथ ! आपने यशसे शुक्लीकृत जन्मसे समस्त भारतवर्षको पवित्र किया है । अत्यन्त श्रेष्ठ हरिवंशरूप विशाल उदया
खामणिस्वरूप बालदिनकर-जैसो कान्तिसे आपने सूर्यके शरीरको जीत लिया है। है विभो ! आपने अधिक कान्तिको धारण करनेवाले शरीरके द्वारा पूर्णचन्द्रको जीत लिया है एवं इन्द्रनील मणि-जैसी कान्तिके समूहसे आपने समस्त दिशाओंके मुखमण्डलको सुशोभित कर दिया है इसलिए हे नेमि जिनेन्द्र ! आपको नमस्कार हो ॥३॥ हे परमेश्वर ! हे विश्वजनीन ! हे अप्रतिम-हे अनुपम ! आप तीनों लोकोंके गुरु हैं, एवं उत्कट बुद्धिके धारक हैं। यहां उत्पन्न होते ही आपने अनुपम, प्रसिद्ध एवं मोक्षका जो हितकारी मार्ग बतलाया है उसे स्वीकारकर तथा नाना प्रकारका तपकर भव्य नोव समस्त पापकर्मरूपो मलको विधिपूर्वक नष्ट कर
१. त्रोटकद्वयनिर्मितः कश्चित् छन्दो-विशेषः (?)। २. तीर्थकरनाम्नः स्थितेरनुभागोदयाच्च (ग. टि.) । ३. विधायि म.।
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हरिवंशपुराणे प्रणतप्रिय ! संप्रति जन्मजरामरणामयभीममहामवदुःख..
समुद्रमपारमतीत्य समेष्यति मोक्षमशेषजगच्छिखरम् । शिखराग्रसमग्रगुणाश्रयसिद्धमहापरमेष्ठिमहोपचयं
प्रर्वदन्ति च यं मुनयः परमं पदमेकमिहाक्षरमात्महितम् ॥५॥ महितं महतां महदात्मगतं सततोदयमन्तविवर्जितमूर्जित
सत्त्वसुखं प्रतिलभ्यमलभ्यमभव्यजनैः खलु यत्र सुखम् । सुखमत्र यदीश्वरविश्वजगत्प्रभुताप्रतिबद्धमपि त्रिदशे
न्द्रनरेन्द्र पुरस्सरदेवमनुष्यविशेषमहाभ्युदयप्रमवम् ॥६॥ प्रभवप्रलयस्थितिधर्मपदार्थनिरूपणने पुणशासन शासन
नावकशासनसेवनयैव भविष्यति नान्यमताश्रयतः । श्रयतामिति निश्चयमेत्य मवन्ति भवस्यविभूति मतिप्रेवणाः
सततं तनुभृन्निवहा भवि येऽत्र त एव जिनेन्द्र कृतित्वमिताः ॥७॥ प्रियसर्वहितार्थवचोविमवं विभवं सरभीकृतदिग्विवरं
वरसंहतिसंस्थितिरूपयुतं युतसर्वसुलक्षणपङ्क्तिरुचिम् । रुचिमत्पयसा समदेहरसं रसभावविदं मलमुक्ततर्नु
तनुजस्विदिहीनमनन्ततया ततया संहितं भुवि वीर्यतया ॥८॥
तोटकवृत्तम् यतयात्मधियाँ जितनात्मभुवं भुवमव्यतरां सुखसस्यभृताम् ।
भृतविश्व ! भवन्तमनन्तगुणं गुणकाइक्षितया वयमीश नताः ॥९॥ पृथिवीमें वन्दनीय होंगे ॥४॥ हे प्रणतप्रिय ! हे भक्तवत्सल ! अब आप जन्म-जरा-मरणरूपी रोगोंसे भयंकर संसाररूपी महादुःखके अपार सागरको पार कर मोक्षस्वरूप, समस्त लोककी उस शिखरको प्राप्त होंगे जहाँपर उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त समस्त गुणोंके आधारभूत सिद्ध भगवानरूप महापरमेष्ठी विराजमान रहते हैं और जिसे मुनिगण उत्कृष्ट, अद्वितीय, अविनाशी एवं आत्म-हितकारी पद कहते हैं ।।५।। जहांका उत्तम, महान् , आत्मगत, निरन्तर उदयमें रहनेवाला, अन्तरहित और अनन्त बलसम्पन्न सुख महापुरुषोंको ही प्राप्त हो सकता है .अभव्य जीवोंको नहीं। हे स्वामिन् ! आप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाले पदार्थोंके निरूपण करने में निपुण शासनका उपदेश करनेवाले हैं। इस संसारमें समस्त जगत्को प्रभुतासे सम्बद्ध एवं इन्द्र, नरेन्द्र आदि देव और मनुष्योंके विशेष महान् अभ्युदयोंका कारणभूत जो सुख है वह भी आपके
सेवासे ही प्राप्त होगा। अन्य मतोंके आश्रयसे नहीं। इसलिए सब आपका ही आश्रय लेवें इस प्रकार आपके विषयमें निश्चय-दृढ़ श्रद्धाको प्राप्त कर जो प्राणी इस पृथिवीमें नर्ग्रन्थ बुद्धिके धारण करने में प्रवीण होते हैं-निग्रंन्थ मुद्रा धारण करते हैं हे जिनेन्द्र ! वे ही प्राणी इस संसारमें कृतकृत्यताको प्राप्त होते हैं ॥६-७॥ हे भगवन् ! आप प्रिय एवं सर्वहितकारी वचनोंके वैभवसे सहित हैं, संसारका अन्त करनेवाले हैं, आपने दिशाओंके अन्तरालको सुगन्धित कर दिया है, आप उत्कृष्ट संहनन, उत्कृष्ट संस्थान और उत्कृष्ट रूपसे युक्त हैं, आप समस्त लक्षणोंसे सुशोभित हैं, आपके शरीरका रस-रुधिर दूधके समान है, आप रस और भावको जाननेवाले हैं, आपका शरीर मलसे रहित है, पसीनासे रहित है, आप पृथिवीमें व्याप्त अनन्त बलसे सहित हैं ॥८॥ आपने संयमरूप आत्मबुद्धिसे कामदेवको जीत लिया है। आप सुखरूपी १. प्रणतिप्रिय म। २. प्रविदन्ति म.। ३. प्रतिबुद्धमपि म.। ४. -त्यभिभूति म.। ५. नति ग.। ६. -महितम् ग.। ७ जिनयात्मभुवम् । ८. कामदेवम् (ग. टि.)। ९. सुखसस्यभृतम् ।
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एकोनचत्वारिंशः सर्गः
दोधकवृत्तम्
योजनभूरिसहस्त्रनभोगं भोगकरत्वमिवाचलनाथम् । नाथ ! परं स्नपनासनमिद्धमिद्धमतिः कुरुते क उदारः ॥ १० ॥
ईदृशमीश विभुत्वममानं मानधनामरमानवमान्यम् । मान्यतमोऽन्यतमो भुवि नो को नाकमवोऽपि जिनैति यथा त्वम् ॥१३॥ शैशव एव जनातिगसत्त्वः सस्वहितो भुवनत्रयनूतः । नूतनमक्तिभरेण नतानां तानवमानससौख्यकरें स्त्वम् ॥ १२॥ कामकरीन्द्रमृगेन्द्र नमस्ते क्रोधमहाहिविराज नमस्ते । मानमहीधरवज्र नमस्ते लोभमहावनदाव नमस्ते ॥ १३ ॥ ईश्वरताधरधीर नमस्ते विष्णुतया युत देव नमस्ते । अहं दचिन्त्यपदेश नमस्ते ब्रह्मपदप्रतिबन्ध नमस्ते ॥१४॥ सत्यवचोनिवहैः सुरसंघा इत्यमिनुस्य जिनं प्रणिपत्य । तारकमुप्रभवाद्वरमेकं याचितवन्त इनं वरबोधिम् ॥ १५ ॥
४८९
सस्यसे परिपूर्ण एवं अत्यन्त रक्षणीय भूमिको रक्षा करनेवाले हैं । हे सबके रक्षक भगवन् ! इस तरह आप अनन्त गुणोंके धारक हैं । हे नाथ! आपके गुणोंकी अभिलाषासे हम आपके प्रति नम्रीभूत हैं - आपको नमस्कार करते हैं ||९|| हे नाथ ! यह अनेकों हजार योजन ऊँचा पर्वतोंका राजा सुमेरु पर्वत भी मानो आपके योगका साधन हो गया। सो आपके सिवाय प्रचण्ड बुद्धको धारण करनेवाला ऐसा कौन महापुरुष है जो इसे श्रेष्ठ तथा देदीप्यमान स्नानपीठ बना सकने को समर्थ है ॥१०॥
६२
हे ईश ! यह आपका ऐश्वयं अपरिमित है, मानरूपी धनके धारक बड़े-बड़े देव तथा मनुष्योंके द्वारा माननीय है । हे जिनेन्द्र ! इस संसार में स्वर्ग में उत्पन्न होनेवाला भी ऐसा कौन दूसरा माननीय पुरुष है जो आपके समान ऐश्वर्यको प्राप्त कर सके ॥ ११॥ हे भगवन् ! बाल्यकाल में भी आप लोकोत्तर पराक्रमके धारक हैं, प्राणियोंके हितकारक हैं, तीनों लोकोंके द्वारा स्तुत हैं तथा आप नूतन भक्तिके भारसे नम्रीभूत मनुष्योंके लिए शारीरिक और मानसिक सुखके करनेवाले हैं ||१२|| हे प्रभो ! आप कामरूपी गजराजको नष्ट करनेके लिए सिंहके समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आप क्रोधरूपी महानागको वश करनेके लिए पक्षिराज —- गरुड़ के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो । आप मानरूपी पर्वतको चकनाचूर करने के लिए वज्रके समान हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप लोभरूपी महावनको भस्म करने के लिए दावानल के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ||१३|| आप ईश्वरताके धारण करने में धीर-वीर हैं अतः आपको नमस्कार हो । हे देव ! आप विष्णुतासे युक्त हैं अतः आपको नमस्कार हो । आप अर्हन्तरूप अचिन्त्य पदके स्वामी हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप ब्रह्मपदको प्राप्त करनेवाले हैं अतः आपको नमस्कार हो ||१४|| इस प्रकार सत्य वचनोंके समूहसे देवोंने भगवान्की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया तथा भयंकर संसारसे पार करनेवाले भगवान् से उन्होंने यही एक वर मांगा कि हे भगवन् ! हम लोगोंको उत्तम बोधिकी प्राप्ति हो ॥ १५ ॥
१. ना पुरुषः भट: किनामधेय इत्यर्थः । २ नाकभुवोऽपि ग. । ३. मानव म. ४. शारीरिक मानसिकसौख्यविधायकः । ५. क्रोधमहानागगरुड़ । ६. ब्रह्मपथप्रतिबन्ध म., ग.
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४९०
हरिवंशपुराणे
वृत्तानुगन्धिगद्यम्
अथ मथितमहामृताम्भोधिसंशुद्धपीयूषपिण्डातिपा नातिदोष विराजीर्यमाणेष्विवोद्गीर्यमाणेषु तत्खण्डखण्डेषु, शंखेषु खे खेदमुक्तः सुरैस्तोषपोषादनीषन्मनीषैर्भृशं पूर्यमाणेषु तद्यथा वाद्यमानोरु गम्भीरभेरीमृदङ्गानकादिप्रभूताततातोद्यशब्देषु संवृत्तजैनेन्द्र जन्माभिषेकोत्सवोद्घोषणायेव निश्शेषलोकान्तदिक्चक्रवालान्तराक्रान्तिमभ्युत्थितेषु प्रनृत्यत्सु विद्याधरवातदेवाङ्गनातुङ्गसंगीतनादाभिरामातिशृङ्गारहास्याद्भुतोचद्रसोदारवं गङ्गसत्वस्फुटाहायहार्यात्मदिव्या भिनेयप्रवृत्ताप्सरोवृन्दबन्धेषु सौधर्मकल्पाधिपः संभ्रमाद्विभ्रमभ्राजमानोद्यदैरावतस्कन्धमारोप्य संवृत्यधीरं जिनेन्द्र सितच्छत्रशोमं चलच्चामरालीभिरावीज्यमानं प्रगीताप्सरो लोकसंगोयमानातिशुद्धात्मकीर्तिं चचाल चलेन्द्रादैनीकैरशेषैरशेषं नभोभागमापूर्य शौर्यशैलैरलं यादवेन्द्रमृगेन्द्रैरिवाध्यासितं प्रथितविबुधनिकायैः पथि प्रस्थितैः सप्रमोदैः प्रणामप्रणुतिप्रगीतिप्रयोगप्रवृत्तैर्यथायोगमभिनन्द्यमानो महानन्दमापादयन् पादपद्मोपसेवासनाथस्य नाथखिलोकामराधीशलोकस्य लोकातिवर्तिप्रवृत्तं परम्पारमैश्वर्यं मत्यद्भुतं संदधानः, शिवानन्दनो, नन्द वर्धस्व जीवेति वेत्यादि पुण्याभिधानैस्तदा स्तूयमानः कुलाद्विप्रसूतिप्रभूताच्छतोयापगावीचिसंतान संसर्गशीतात्मना भोगभूमूरुहाण
अथानन्तर खेद रहित एवं विशाल बुद्धिके धारक देव सन्तोषको अधिकतासे आकाश में जिन शंखोंको अधिक मात्रामें फूँक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अमृतके महासागरके मथनेसे जो अत्यन्त शुद्ध अमृतका पिण्ड निकला था उसे अधिक मात्रामें पी जानेके दोषसे देव लोग चिरकाल तक पचा नहीं सके इसलिए उन्होंने उगल दिया हो उसी पीयूष - पिण्डके टुकड़े हों । शंखोंके शब्दोंके साथ-साथ बजाये जानेवाले अत्यधिक गम्भीर ध्वनि से युक्त भेरी, मृदंग तथा पटह आदिको एवं अधिक मात्रासे बजनेवाली बाँसुरी और वीणाके शब्द, 'श्री जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेकका उत्सव हो चुका है' इसकी घोषणा करनेके लिए ही मानो जब समस्त लोकके अन्त तक एवं समस्त दिशाओंके अन्तरालमें व्याप्त होनेके लिए उठ रहे थे । और जब विद्याधरोंके समूह एवं देवांगनाओंके उन्नत संगीतमय शब्दोंसे सुन्दर श्रेष्ठ शृंगार, हास्य और अद्भुत रससे परिपूर्ण वाचिक, आंगिक, सात्त्विक और आहार्य इन चार प्रकारके अपने सुन्दर दिव्य अभिनेयोंके प्रकट करनेमें प्रवृत्त अप्सराओंके समूह सुन्दर नृत्य कर रहे थे। तब सोधमं स्वगंका इन्द्र, सम्भ्रम पूर्वक विभ्रमोंसे शोभायमान उठते हुए ऐरावत हाथी के कन्धेपर धीर-वीर जिनेन्द्रको विराजमान कर सुमेरु पर्वत से उस शौर्यपुरकी ओर चला जो शूरवीरताके पर्वत एवं सिहोंके समान बलवान् यादववंशी राजाओंसे अधिष्ठित था । उस समय जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर सफेद छत्र सुशोभित हो रहा था, चंचल चमरोंकी पंक्तियाँ उनपर ढोरी जा रही थीं, और प्रकृष्ट गीतोंसे युक्त अप्सराओंके समूह उनकी अत्यन्त विशुद्ध कीर्ति गा रहे थे । सौधर्मेन्द्र ने उस समय समस्त आकाशको सब प्रकारकी सेनाओंसे पूर्णं कर रखा था। मार्गमें चलते हुए, हर्षंसे परिपूर्ण, प्रणाम, स्तुति तथा संगीतके प्रयोग में लीन प्रसिद्ध देवोंके समूह भगवान्का यथायोग्य अभिनन्दन कर रहे थे । त्रिलोक सम्बन्धी इन्द्रोंका समूह भगवान के चरणकमलोंको सेवामें तत्पर था और भगवान् उसे महान् आनन्द प्राप्त करा रहे थे । इस प्रकार जो लोकोत्तर एवं अत्यन्त आश्चर्यकारी परम ऐश्वर्यको धारण कर रहे थे, शिवादेवी के पुत्र थे, 'समृद्धिको प्राप्त होओ' 'बढ़ते रहो' 'जीवित रहो' इत्यादि पुण्य शब्दोंसे उस समय जिनकी स्तुति हो रही थी, कुलाचलोंसे उत्पन्न अत्यधिक स्वच्छ जलसे युक्त महानदियोंकी तरंगों के संसर्गसे शीतल, भोगभूमि सम्बन्धी कल्पवृक्षोंके रंग-बिरंगे पुष्प-समूहके संयोगसे आश्चर्यकारी सुगन्धिको धारण करनेवाले तथा खेद दूर करने के लिए सम्भ्रमपूर्वक बहुत १. चक्रवालोत्तराक्रान्ति म. । २. वाराङ्ग म. । ३. दनेकै म । ४. - मापूर्वशैले-म. ।
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एकोनचत्वारिंशः सर्गः
४९१ विचित्रप्रसूनप्रतानप्रसंगेन सौगन्ध्यमत्यद्भुतं बिभ्रता संभ्रमेणातिदूराच्च खेदापनोदार्थमभ्युस्थितेनेव मित्रेण गात्रानुकूलेन मन्दानिलेन प्रभुस्तीर्थ कृत्कोमलाङ्गः समालिङ्ग्यमानो मनोहारिबाल्यानुरूपाम्बरोद्भासिभूषाविशेषोद्धमाल्योज्ज्वलो बालकल्पद्रुमोदामशोमातिशायी घनश्याममूर्तिः सितोद्गन्धिसच्चन्दनेनोपदिग्धः स्फरस्सान्द्रचन्द्रातपाश्लिष्टरुन्द्रेन्द्रनीलाद्रिलक्ष्मीधरो देवसेनावृतः शीघ्रमुलध्य काष्ठामुदीचीमधिष्ठानमात्मीयमुच्चैवजनातवादित्रधीरध्वनिण्याप्तदिकचक्रवालाम्बरं दिव्यगन्धाम्बुवर्षाभिषिक्तापतरपुष्पवर्षोपरुद्धोरुरथ्यापथं श्रीनिधानं विधानेन माङ्गल्यसंसंगिना चारुसौर्य पुरं प्रापदैश्वर्यमाश्चर्य भूतं भुवि प्राकटं विश्वलोकस्य कुर्वन्नसौ नेमिनाथः। जिनशिशुमशिशुश्रियं शौरिसौर्यप्रजाशुंमदम्भोजिनीबालमास्वन्तमुत्तुङ्गमातङ्गराजोत्तमाङ्गस्थमादाय तं मातुरुत्संगमानीय शक्रः स्वयंविक्रियाशक्तियुक्तः सहस्रं भुजा मासुरांसस्थलश्रीपुर्षा स'प्रकृत्य प्रसार्योरुसौन्दर्यसंदर्भगर्भामरस्त्रीसंहस्राणि चित्रं प्रनृत्यन्ति बिभ्रझुजेष्वग्रतो यादवानां मुदा पश्यतां विश्वकाश्यप्यधीशत्वलाभादपि प्राज्यलाभं हृदि ध्यायतां स्फारिताक्षं क्षणारब्धसत्ताण्डवाखण्डशोभाप्रयोगान्वितं वायेजातिप्रतानप्रवृद्धाभिनेयं सम्रक्षोमलीलं सदिकचक्रभेदं सभूमिप्रपात महानन्दसनाटकं राज्यदक्षो ननाट स्फुटीभूतनानारसोदारभावं ततोऽहंदगुरुं देवराजः प्रणम्य प्रपूज्यान्य
दूरसे सम्मुख आये हुए मित्रके समान, शरीरके अनुकूल मन्द-मन्द समीरसे जिनका आलिंगन हो रहा था, जो प्रभु थे, तीर्थंकर थे, कोमल शरीरके धारक थे, जो मनको हरण करनेवाले तथा बाल्य अवस्थाके अनुरूप वस्त्रोंसे सुशोभित विशिष्ट आभूषणोंसे युक्त थे, देदीप्यमान मालाओंसे उज्ज्वल थे, बाल कल्पवृक्षको उत्कृष्ट शोभाको तिरस्कृत करनेवाले थे, मेघके समान श्याममूर्तिके धारक थे, सफेद एवं उत्कृष्ट गन्धसे युक्त उत्तम चन्दनसे लिप्त थे और इसके कारण जो उदित होती हुई सघन चांदनीसे आलिंगित प्रगाढ़ इन्द्रनीलमणिके पर्वतको शोभाको धारण कर रहे थे, और देवोंकी सेनासे आवृत थे ऐसे नेमिजिनेन्द्र शीघ्र ही उत्तर दिशाको उल्लंघ कर अपने उस सौर्यपुर नगरमें जा पहुंचे जहांको दिशाओंका अन्तराल और आकाश ऊंचीऊंची ध्वजाओंके समूह तथा वादित्रोंको गम्भीर ध्वनिसे व्याप्त था, जहांके बड़े-बड़े मार्ग, दिव्य और सुगन्धित जलको वृष्टिसे सींचे जाकर फूलोंकी पड़ती हुई वर्षासे रुके हुए थे, जो लक्ष्मीका भण्डार था तथा मंगलाचारमय विधि-विधानसे सुन्दर था, उस समय भगवान् नेमिनाथ पृथिवीपर समस्त लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाले आश्चर्यको प्रकट कर रहे थे।
बालक होनेपर भी जिनकी शोभा बालकों जैसी नहीं थी अर्थात् जो प्रकृतिसे वयस्कके समान सुन्दर थे। जो कृष्ण तथा सौर्यपुरकी प्रजारूपी शोभायमान कमलिनीको विकसित करनेके लिए बालसूर्य थे और जो अतिशय ऊचे ऐरावत-गजराजके मस्तकपर विराजमान थे ऐसे जिन-बालकको लेकर इन्द्रने उन्हें माताको गोदमें दिया। तदनन्तर विक्रिया शक्तिसे युक्त इन्द्रने स्वयं देदीप्यमान कन्धोंकी शोभाको पुष्ट करनेवाली हजार भुजाएं बनाकर उन्हें
नपर अत्यधिक सौन्दर्यसे युक्त नाना प्रकारका नत्य करनेवाली हजारों देवियोंको धारण किया। तत्पश्चात् इस लीलाको जब सामने बैठे हुए यादव लोग बड़े हर्षसे देख रहे थे तथा अपने हृदयमें जब इसे समस्त पृथ्वीके स्वामित्वके लाभसे भी अधिक समझ रहे थे तब राज्यमें दक्ष इन्द्रने महानन्द नामका वह उत्तम नाटक किया जिसने सबके नेत्रोंको विस्तृत कर दिया था, अर्थात् जिसे सब टकटकी लगाकर देख रहे थे। उत्सवपूर्वक प्रारम्भ किये हुए उत्तम ताण्डव नृत्यको अखण्ड शोभाके प्रयोगसे सहित था, नाना प्रकारके वादित्रोंको जातियोंके
१. प्रकृत्यपसार्यो म. । ३. प्रयातं म.।
२. बाह्यजातिप्रतानप्रवृत्ताभिनेयं म., वाद्यजतिप्रभानुप्रवृद्धाभिनेयं ग. ।
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हरिवंशपुराणे मत्यैरनध्यरलभ्यैर्विभूषादिभिर्मूषयित्वा जिनस्यामृताहारमुथत्कराङ्गुष्ठके दक्षिणे न्यस्य रक्षानिमित्तं वयस्यान् कुमारान् सुराणां सुरेन्द्रः कुमारस्य सम्यग्निरूप्याप्रमत्तं कुबेरं वयोभेदकाल योगं विभोः क्षेमयोग्यं विधेयं समस्तं त्वयेति स्थिरं ज्ञापयित्वा समापृच्छय जैनौ गुरू तावनुज्ञा ततः प्राप्यसंप्राप्तलामः कृतार्थ निर्ज मन्यमानो यथायातमन्यैरशेषैः सुरेन्द्रश्चतुर्मेददेवानुगैर्यातवान् सिद्धयात्रस्ततो दिक्कुमार्योऽपि संवृत्तकार्याः समासाद्य तामार्यपुत्रीं सपुत्रीं शिवां संप्रणम्य प्रहृष्टाः प्रजग्मुनिजस्थानदेशान् दिशस्ता दश द्योतयन्स्यः शरीरप्रमाभिर्जगन्नेमिचन्द्रोऽपि शुभ्रर्गुणग्रामसान्द्रांशुजालैः समाहादयन् बालभावेऽप्यबालक्रियो लालितो बन्धुवर्गामरैर्वर्द्धमानो रराज श्रिया।
स्तवनमिदमरिष्टनेमीश्वरस्येष्टजन्भाभिषेकाभिसंबन्धमाकान्तलोकत्रयातिप्रभावस्य पापापनोदस्य पुण्यैकमार्गस्य संसारसारस्य मोक्षोपकण्ठस्य भव्यप्रजानां प्रमोदस्य कर्तुः प्रमादस्य हतुर्धर्मस्योपनेतुर्मुदा यमाणस्य स्मर्यमाणस्य च संकीर्त्यमानस्य संकीर्तनं पठ्यमानं समाकर्ण्यमानं सदा चिन्त्यमानं
समूहसे जिसमें अभिनेय अंश वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे, जो भौंहोंके क्षोभकी लीलासे सहित था, दिङमण्डलके भेदसे सहित था, पथ्वीके प्रतापसे सहित था, और नाना रसोंके कारण जिसमें उदारभाव प्रकट हो रहा था।
तदनन्तर इन्द्रने भगवान्के माता-पिताको प्रणाम किया, उनकी पूजा की, अन्य मनुष्योंके लिए दुष्प्राप्य अमूल्य आभूषण आदिसे उन्हें विभूषित किया, रक्षाके निमित्त जिनेन्द्रके दाहिने हाथ अंगूठेमें अमृतमय मुख्य आहार निक्षिप्त किया। क्रीड़ाके लिए भगवान्को समान अवस्थाको धारण करनेवाले देवकुमारोंको उनके पास नियुक्त किया, कुबेरको यह आज्ञा दी कि तुम भगवान्की अवस्था, काल और ऋतुके अनुकूल उनके कल्याणके योग्य समस्त व्यवस्था करना । इस प्रकार इन्द्र यह आज्ञा देकर भगवान्के माता-पितासे पूछकर तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ चार निकायके देवोंसे अनुगत समस्त इन्द्रोंके साथ जैसा आया था मा चला गया । इन्द्रकी यात्रा सफल हुई।
तदनन्तर अपना-अपना कार्य पूरा कर दिक्कुमारी देवियोंने आर्यपुत्री, जिनबालक सहित माता-शिवादेवीके पास आकर उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद वे प्रकृष्ट हर्षसे युक्त अपने शरीरकी प्रभाओंसे दशों दिशाओंको देदीप्यमान करती हुई अपने-अपने स्थानोंपर चली गयीं। इधर गुण-समूहरूपी किरणोंके समूहसे समस्त जगत्को आनन्दित करनेवाले, बालक होनेपर भी वृद्धा-जैसी क्रियासे युक्त, बन्धुवर्ग तथा देवोंके द्वारा लालित नेमिजिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए लक्ष्मीसे सुशोभित होने लगे।
गौतम स्वामी कहते हैं कि यह स्तवन उन नेमिजिनेन्द्रके जन्माभिषेकसे सम्बन्ध रखनेवाला है जिनके सातिशय प्रभावने तीनों लोकोंको व्याप्त कर रखा है, जो पापको दूर करनेवाले हैं, एक पुण्यका हो मार्ग बतानेवाले हैं, संसारमें सारभूत हैं, मोक्षके निकट हैं, भव्य जीवोको हर्ष उत्पन्न करनेवाले हैं, प्रमादको हरनेवाले हैं, धर्मका उपहार देनेवाले हैं, सब लोग बड़े हर्षसे जिनका नाम श्रवण करते हैं, जिनका स्मरण करते हैं और जिनका अच्छी तरह कोर्तन करते हैं। पढ़ा गया, सुना गया और सदा चिन्तवन किया गया यह स्तोत्र इस लोकमें साक्षात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी सम्पत्तिको करता है, मानसिक और शारीरिक सुख प्रदान करता है, शान्ति करता है, पुष्टि करता है, तुष्टि और
१. मुख्यं म.। २. क्रियोल्लालितो ग. ।
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एकोनचत्वारिंशः सर्गः
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सम्यक्त्वज्ञान चारित्ररत्नत्रयस्यामिसंपरकरं 'चैत्तशारीरसौख्यप्रदं शान्तिकं पौष्टिकं तुष्टिसंपत्ति संपादि साक्षादिहामुत्र चानेक कल्याणसंप्राप्तिहेतोः प्रपुण्यास्त्रत्रस्य स्वयं कारणं वारणं सर्वपापात्रवाणां सहस्रस्य विध्वंसकरणं दारुणस्यापि पूर्वत्र सर्वत्र चानेहसि स्नेहमोहादिभावेन संचितस्यैनसः । स्तोत्रमुख्यं जिनेन्द्रे विधेयादिदं मक्तिभारं परम् ।
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ जन्माभिषेके इन्द्रस्तुतिवर्णनो नाम एकोनचत्वारिंशः सर्गः ॥ ३९ ॥ |
O
सम्पत्तिको सम्पन्न करता है तथा परलोक में अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति में कारणभूत उत्कृष्ट पुण्या
का स्वयं कारण है, समस्त पाप कर्मोंके हजारों प्रकारके आस्रवोंका निवारण करता है और पूर्वभव में सर्वदा स्नेह तथा मोह आदि भावोंसे संचित भयंकर से भयंकर पापोंका नाश करता है । यह मुख्य स्तोत्र, जिनेन्द्र भगवान् में सातिशय भक्ति उत्पन्न करे ।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जन्माभिषेक के समय इन्द्र द्वारा कृत स्तुतिका वर्णन करनेवाला उनतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||३९||
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१. चैवं म । २. स्नेहमोदिभावेन म । ३. जिनेन्द्र ग. ।
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चत्वारिंशः सर्गः अथ श्रुत्वा जरासन्धो भ्रातुर्वधमसौ मृधे । शोकसिन्धौ निमग्नोऽरिक्रोधपोतेन धारितः ॥१॥ समस्तयदुनाशाय समस्तनयपौरुषः । सोऽभ्यमित्रममीगन्तुं मित्रवर्गमजिज्ञपत् ॥२॥ प्रमोस्तस्य समादेशासानादेशाधिपा नृपाः । चतुरङ्गबलोत्तमाः श्रिताः स्वामिहितैषिणः ॥३॥ दत्तप्रयाणमेनं स्वनन्तसैन्याब्धिवर्तिनम् । विविदुर्यदुशार्दूलाश्चतुराश्चारचक्षुषः ॥४॥ ततः श्रुतवयोवृद्धा वृष्णिभोजकुलोत्तमाः । कर्तुमारेभिरे मन्त्रमिति तत्वनिरूपिणः ॥५॥ त्रिखण्डाखण्डिताज्ञोऽन्यैः प्रचण्डचण्डशासनः । चक्रखड्गगदादण्डरस्नाद्यस्वबलोद्धतः ॥६॥ कृतज्ञः कृतदोषेषु प्रणतेषु कृतक्षमः । अस्मास्वनपकारः प्रागुपकारकतत्परः ॥७॥ जामातृभ्रातृघातोस्थपराभवरजोमलम् । प्रमाष्टुं कोपवानस्मान्मागधोऽभ्येत्य बिभ्यतः ॥८॥ दैवपौरुषसामर्थ्य मस्मदीयमतिस्मयः । प्रकटीभूतमप्येष पश्यापि न पश्यति ॥९॥ कृष्णस्य पुण्यसामर्थ्य पौरुषं च बलस्य च । बाल्यादारभ्य निःशेषमिदं परमवैभवम् ॥१०॥ नेमितीर्थकरस्यापि देवेन्द्रासनकम्पिनः । प्रभुत्वं च स्फुटीभूतं बालस्यापि जगस्त्रये ॥११॥
अथानन्तर-युद्ध में भाईका वध सुनकर शोकरूपी सागरमें डूबता हुआ जरासन्ध, शत्रुओंपर उत्पन्न हुए क्रोधरूपी जहाजके द्वारा बचाया गया था। भावार्थ-भाई अपराजितके मरनेसे जरासन्धको जो दुःख हुआ था उससे वह अवश्य ही मर जाता परन्तु शत्रुओंसे बदला लेनेके क्रोधने उसकी रक्षा कर दी ॥१॥ समस्त नय और पराक्रममें निपुण जरासन्धने समस्त यादवोंका नाश करनेके लिए मनमें पक्का विचार कर लिया और निर्भीक हो शत्रुके सम्मुख जानेके लिए मित्रोंके समूहको आज्ञा दे दो ॥२।। स्वामीकी आज्ञा पाकर उसके हितकी इच्छा करनेवाले नाना देशोंके राजा अपनी-अपनी चतुरंग सेनाओंसे युक्त हो आ पहुंचे ॥३॥ इधर अनन्त सेनारूपी
सन्धने जब यादवोंकी ओर प्रयाण किया तब गप्तचररूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले चतुर यादवोंने शीघ्र ही उसका पता चला लिया ॥४॥ तदनन्तर जो शास्त्र और अवस्थामें वृद्ध थे तथा पदार्थका यथार्थ स्वरूप निरूपण करनेवाले थे ऐसे वृष्णिवंश एवं भोजवंशके प्रधान पुरुष इस प्रकार मन्त्र करनेके लिए तत्पर हुए ॥५॥
वे कहने लगे कि तीन खण्डोंमें इसकी आज्ञा अन्य पुरुषोंके द्वारा कभी खण्डित नहीं हुई। यह अत्यन्त उग्र है, इसका शासन भी अत्यन्त उग्र है, चक्र, खड्ग, गदा तथा दण्डरल आदि अस्त्रोंके बलसे यह उद्धत है, किये हुए उपकारको माननेवाला है, जो मनुष्य अपराध कर नम्रीभूत हो जाते हैं उनपर यह क्षमा कर देता है, हम लोगोंका इसने पहले कभी अपकार नहीं किया, उपकार करने में ही निरन्तर तत्पर रहा है किन्तु अब माता और भाईके वधसे उत्पन्न पराभवरूपी रजके मलको दूर करनेके लिए क्रोधयुक्त हुआ है और भयभीत होते हुए हम लोगोंके सम्मुख आ रहा है ॥६-८॥ यह इतना अहंकारी है कि हम लोगोंकी देव और पुरुषार्थ सम्बन्धी सामर्थ्यको जो कि अत्यन्त प्रकट है देखता हुआ भी नहीं देख रहा है ।।९॥ कृष्णके पुण्यका सामर्थ्य और बलरामका पौरुष-यह सब परम वैभव बालक अवस्था ही से प्रकट हो रहा है। इन्द्रोंके आसनको कम्पित कर देनेवाले नेमिनाथ तीर्थंकर यद्यपि इस समय बालक हैं तथापि उनका प्रभुत्व तीनों जगत्में प्रकट हो चुका है। वह यह भी नहीं सोच रहा है कि जिस तीर्थकरका पालन १. रणे । २. अस्मास्वनपकारेषु प्रागुपकारतत्परः ( म. टि.)। ३. पूर्ण इत्यपि (म. टि.)।
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चत्वारिंशः सर्गः
यस्यानुपालन व्यग्राः समग्रा लोकपालिनः । तत्तीर्थं कृस्कुले को वा मानुषोऽपकरिष्यति ॥१२॥ करेण कः स्पृशेदज्ञः कृशानु मकृशाचिंषम् । तीर्थकृद्बलकृष्णान् वा कोऽभ्येति विजिगीषया ॥१३॥ प्रतिशत्रुरयं राजा जरासन्धोऽस्य हिंसकौ । ध्रुवमत्र समुद्भूतौ रामनारायणाविमौ ॥ १४ ॥ तदत्र यावदापस्य सपक्षः कृष्णपावके । प्रतिशत्रुपतङ्गोऽयं भस्मीभवति न स्वयम् ॥ १५ ॥ तादाशु वयं शूरं शौरिमस्मद्वशं परम् । विगृह्यासनयोगेन योजयामो जयोन्मुखम् ॥१६॥ स्वीकृत्य वारुणीमाशां कानिचिद्दिवसानि वै । विगृह्यासनमेवं हि कार्यसिद्धिरसंशया ॥ १७ ॥ आसीनानेवमप्यस्मानभ्येति यदि मागधः । रणातिथ्यं प्रकृत्यैनं प्रेषयामो रणप्रियम् ॥ १८ ॥ इति संमय ते मन्त्रं प्रकाश्य कटके स्वके । आनन्दिनीनिनादेन प्रयाणकमजिज्ञपन् ॥ १९ ॥ भेर्यास्तस्या रवं श्रुत्वा चतुरङ्गबलं ततः । यदु मोज कुलक्ष्माभृरप्रधानमचलद्बलम् ॥२०॥ माधुर्यः शौर्यपूर्यश्च वीर्यपूर्यः प्रजास्तदा । समं स्वाम्यनुरागेण स्वयमेव प्रतस्थिरे ॥२१॥ प्रजाः प्रकृतिभिः सर्वाश्चातुर्वर्णाः सधार्मिकाः । प्रस्थानं मेनिरे स्थानादुद्यानक्रीडया समम् ॥२२॥ अष्टादशेति संख्याताः कुलकोट्यः प्रमाणतः । अप्रमाणधनाकीर्णा निर्यान्ति स्म यदुप्रियाः ॥ २३ ॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगवारादिलब्धयः । सुलब्धसुकुला भूपा जग्मुरल्यैः प्रयाणकैः ॥ २४ ॥ देशानुल्लङ्घ्य निःशेषान् प्रतीचीं प्रति गच्छताम् । बभूव विपुलस्तेषामुपान्ते विन्ध्यपर्वतः ॥ २५॥ गजाननरम्यस्य सिंहशार्दूलशालिनः । शृङ्गालीढाम्बरस्यास्य श्रीर्जहार मनो नृणाम् ॥ २६ ॥
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करने के लिए समस्त लोकपाल व्यग्र रहते हैं उस तीर्थंकरके कुलका कौन मनुष्य अपकार कर सकेगा? ऐसा कौन अज्ञानी है जो बड़ी-बड़ी ज्वालाओंको धारण करनेवाली अग्निका हाथसे स्पर्श करेगा और ऐसा कोन बलवान् है जो जीतनेकी इच्छासे तीर्थंकर, बलभद्र और कृष्णका सामना करेगा ? || १० - १३|| यह राजा जरासन्ध प्रतिनारायण है और इसके मारनेवाले ये बलभद्र तथा नारायण यहाँ निश्चित ही उत्पन्न हो चुके हैं || १४ || इसलिए जबतक यह प्रतिनारायणरूपी पतंग, अपने पक्षों (सहायकों, पक्षमें पंखों ) के साथ आकर कृष्णरूपी अग्नि में स्वयं भस्म नहीं हो जाता है तबतक हम लोग शीघ्र ही विग्रहके बाद अन्यत्र आसन ग्रहण कर शूर-वीर कृष्णको विजयके सम्मुख करें। इस समय हम लोगोंको पश्चिम दिशाका आश्रय कर कुछ दिनों तक चुप बैठ रहना उचित क्योंकि ऐसा करने से कार्यकी सिद्धि निःसन्देह होगी ।।१५-१७॥ हम लोग इस तरह शान्तिसे चुप रहेंगे फिर भी यदि जरासन्ध हमारा सामना करेगा तो हम लोग युद्ध द्वारा सत्कार कर उसे यमराजके पास भेज देंगे || १८ उन्होंने वह मन्त्रणा अपने कटकमें प्रकट की और भेरीके शब्दसे दे दी ||१९|| भेरीका शब्द सुनकर यादव और भोजवंशी राजाओंकी चतुरंग सेना चल पड़ी ||२०| मथुरा, शौयँपुर और वीर्यंपुरकी प्रजाने स्वामीके अनुरागसे साथ ही प्रस्थान कर दिया ||२१|| धर्मात्माजनोंसे युक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि चारों वर्णकी प्रजाने राजा, मन्त्री आदि प्रकृतिके साथ होनेवाले उस प्रस्थानको ऐसा माना जैसे अपने स्थानसे वनक्रीड़ाके लिए ही जा रहे हैं ||२२|| उस समय अपरिमित धनसे युक्त अठारह करोड़ यादव शौर्यंपुरसे बाहर निकले थे ||२३|| उत्तम तिथि, नक्षत्र, योग और वार आदिको प्राप्त हुए वे उच्चकुलीन राजा, छोटे-छोटे पड़ावों द्वारा गमन करते थे ||२४|| तदनन्तर अनेक देशों का उल्लंघन कर जब वे पश्चिम दिशा की ओर गमन कर रहे थे तो विशाल विन्ध्याचल पर्वत उनके समीपस्थ हुआ अर्थात् क्रमशः गमन करते हुए वे विन्ध्याचल के समीप जा पहुँचे || २५ || जो हाथियोंके वनोंसे सुन्दर था, सिंह और व्याघ्रोंसे १. पालने व्यग्राः म. । २. वसुदेवजं कृष्णम् । ३. रणः प्रियो यस्य तं यममित्यर्थः । ४. भेरीशब्देन । ५. ‘स्वाम्यमात्यं सुहृत्कोषराष्ट्रदुर्गबलानि च । राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च ' ॥ इत्यमरः ।
इस प्रकार परस्पर सलाह कर नगरमें प्रस्थान करनेकी आज्ञा
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हरिवंशपुराणे
अनुवर जरासन्धं तत्रायातं निशम्य ते । प्रत्यैक्षन्त महोत्साहा यदवोऽपि युयुत्सवः ॥ २७॥ अल्पमन्तरमालोक्य देवताः सेनयोस्तयोः । भरतार्द्ध निवासिन्यः कालदैवनियोगतः ॥२८॥ विकृत्य दिम्यसामर्थ्यादन्तरे चितिकाश्च ताः । अग्निज्वालापेरतांस्तान् दर्शयचक्रिरेऽरेये ॥ २९ ॥ चतुरङ्गबलं तच दद्यमानमितस्ततः । पश्यति स्म जरासन्धो ज्वालालीकीढविग्रहम् ॥३०॥ ज्वालारुतुपथस्तत्र विश्रान्तनिजसाधनः । अपृच्छदतीमेकां स्थविरीभूय देवताम् ॥३१ ॥ दह्यते विपुलः कस्य स्कन्धावारोऽयमाकुलः । किमर्थं रोदिषि त्वं च वद वृद्धे ! यथास्थितम् ॥३२॥ इति पृष्टा समाचष्टे तस्मायस्त्राविलेक्षणा । शोकं निगृह्य कृच्छ्रेण रुद्धे कण्ठेऽपि मन्युना ॥३३॥ वदामि शृणु तेजस्विन् ! यथादृष्टं यतो जनः । निवेद्य महते दुःखान्महतोऽपि विमुच्यते ॥ ३४ ॥ अस्ति राजगृहे राजा जरासन्ध इति श्रुतिः । सत्यसन्धः स यः शास्ति सागरान्तां वसुंधराम् ॥ ३५॥ वाडवाचिश्छलेनास्य नूनमम्बुनिधावपि । प्रज्वलन्ति द्विषां शान्त्यै प्रतापदहनार्चिषः ॥३६॥ आत्मापराधबाहुल्यास्सशल्यहृदयास्ततः । यादवाः क्वापि संत्रस्ताः प्रयान्तः प्रियुजीविताः ॥ २७॥ ते काश्यप्यामपश्यन्तः सन्तः सशरणं क्वचित् । प्रविश्य दहनं याताः शरणं मरणं परम् ॥ ३८ ॥ कुल क्रमागता तेषां भुजिष्या भूभुजामहम् । स्वामिदुर्मृतिदुःखार्ता रोदिमि प्रियजीविता ॥ ३९ ॥
सुशोभित था, और अपनी चोटियोंसे आकाशका चुम्बन कर रहा था ऐसे उस विन्ध्याचलको शोभाने मनुष्योंका मन हर लिया ||२६|| 'मार्ग में पीछे-पीछे जरासन्ध आ रहा है' यह सुनकर अत्यधिक उत्साहसे भरे हुए यादव लोग भी युद्धकी इच्छा करते हुए उसकी प्रतीक्षा करने लगे ||२७|| उन दोनोंकी सेनाओंमें थोड़ा अन्तर देखकर समय और भाग्यके नियोगसे अर्धभरत क्षेत्र में निवास करनेवाली देवियोंने अपने दिव्य सामथ्यसे विक्रिया कर बहुत-सी चिताएँ रच दीं और शत्रुके लिए यह दिखा दिया कि यादव लोग अग्निकी ज्वालाओंसे व्याप्त हैं ||२८-२९ ॥ जरासन्धने, ज्वालाओंके समूहसे जिसका शरीर व्याप्त था ऐसो जलती हुई चतुरंग सेनाको जहाँतहाँ देखा ||३०|| ज्वालाओंसे जब जरासन्धका मार्ग रुक गया तब उसने अपनी सेना वहीं ठहरा दो और बुढ़ियाका रूप धरकर रोती हुई एक देवीसे पूछा कि 'हे वृद्धे ! यह किसका विशाल कटक व्याकुल हो जल रहा है ? और तू यहाँ क्यों रो रही है ? सब ठीक-ठीक कह' । उस समय वृद्धाके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे तथा उसका कण्ठ यद्यपि शोकसे रुँधा हुआ था तथापि जरासन्धके इस प्रकार पूछनेपर बड़ी कठिनाईसे शोकको रोककर वह कहने लगी ।।३१-३३ ||
हे प्रतापी राजन् ! मैंने जो कुछ देखा है वह कहती हूँ क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जो मनुष्य महापुरुषके लिए अपना दुःख निवेदन करता है वह बड़े-से-बड़े दुःखसे विमुक्त हो जाता है— छूट जाता है ||३४|| राजगृह नगर में जरासन्ध नामका एक वह सत्यप्रतिज्ञ राजा है जो समुद्रान्त पृथिवीका शासन करता है ||३५|| जान पड़ता है कि उसकी प्रतापरूपी अग्निकी ज्वालाएं शत्रुओंको शान्त करनेके लिए बड़वानलके छलसे समुद्र में भी देदीप्यमान रहती हैं || ३६ || अपने अपराधोंकी बहुलतासे यादव लोग जरासन्धकी ओरसे सदा सशत्यहृदय रहते थे इसलिए उससे भयभीत हो प्राण बचाने के लिए कहीं भाग निकले। परन्तु समस्त पृथिवी में जब उन्होंने कहीं किसीको शरण देनेवाला नहीं देखा तब वे अग्निमें प्रवेश कर मरणकी ही उत्तम शरण में जा पहुँचे अर्थात् अग्निमें जलकर निःशल्य हो गये || ३७-३८ || मैं उन राजाओंकी वशपरम्परासे चली आयी दासी हूँ । मुझे अपना जीवन प्रिय था इसलिए मैं उनके साथ नहीं जल सकी परन्तु अपने स्वामीके कुभरणके दुःखसे दुःखी होकर रो रही हूँ ||३९|| जिनके पीछे जरासन्ध
१. परीतास्तान् म. । २. चक्रिरे २ये म. ।
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चत्वारिंशः सर्गः
यादवाः कौरवा मोजाः प्रजाः प्रकृतिभिः सह । अनुलग्नजरासन्धाः प्रलीना हुतभुग्मुखे ॥४०॥ अहं तु दुःखसंभारनिलयीकृतविग्रहा । सग्रहेव वियोगार्त्ता प्राणिमि प्राणवल्लभा ॥४१॥ श्रुत्वेति जरतीवाक्यं जरासन्धोऽतिविस्मितः । श्रयान्धकवृष्णीनामन्वयान्तममन्यत ॥४२॥ द्राग् निवृत्य निजं स्थानं सोऽध्यास्य सह बान्धवैः । विपन्नेभ्यो जलं दत्वा कृतकृत्य इव स्थितः ॥४३॥ यदवोऽपि ययुः स्वेच्छमुपकण्ठमुदन्वतः । एलावनलतासंगसद्गन्धानिल वीजितम् ॥४४॥ अपरार्णवमासृत्य दूरदेशनिवेशनाः । यथास्वं ते नृपास्तस्थुः प्रजाः प्रकृतयस्तथा ॥४५॥
शार्दूलविक्रीडितम्
पाणिग्राहितयानुमार्गमघृणो लग्नोऽति निर्बंन्धतः
संघान् परनाशमाशु कुपितः कर्त्तुं च मर्त्तु स्वयम् । ज्वालारुद्धपथो न्यवर्त्तत रिपुर्यद्धन्य सर्व क्रिया
स्तज्जैनाः कथयन्ति तावदनयोः पुण्योदयः श्रूयताम् ॥४६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती हरिवंशयादवप्रस्थानवर्णनो नाम चत्वारिंशः सर्गः ॥४०॥
O
लगा हुआ था ऐसे यदुवंशी, कुरुवंशी तथा भोजवंशी राजाओंकी प्रजा अपने मन्त्री आदिके साथ अग्नि मुखमें प्रविष्ट हो चुकी है ||४०|| परन्तु मुझ अभागिनीको अपने प्राण प्यारे रहे इसलिए मेरा शरीर दुःखके भारका स्थान हो रहा है तथा उन सबके वियोगसे दुःखी हो मैं पिशाचसे ग्रस्त - की तरह सांसें भर रही हूँ - जी रही हूँ ||४१ ॥
वृद्धाके इस प्रकार वचन सुनकर जरासन्ध बहुत विस्मित हुआ और उसके वचनों का विश्वास कर अन्धकवृष्णियों के वंशका नाश मानने लगा ॥४२॥ वह उसी समय अपने स्थानपर वापस लौट आया और वहाँ रहकर मृतक जनोंके लिए बन्धुजनोंके साथ जलांजलि देकर कृतकृत्यकी तरह निश्चिन्ततासे रहने लगा ||४३|| उधर यादव लोग भी अपनी इच्छानुसार इलायचीके वनकी लताओंके समागम से सुगन्धित वायुके द्वारा वीजित समुद्रके तटपर जा पहुँचे ॥४४॥ इस प्रकार पश्चिम समुद्र के पास आकर दूर देश में ठहरे हुए वे सब राजा, प्रजा तथा मन्त्री आदि लोग यथायोग्य स्थानों में स्थित हो गये || ४५ ||
गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, अत्यन्त निर्दय और कुपित जरासन्ध अत्यधिक हठसे मागंमें यादवों के पीछे लगा और शत्रुका नाश करने तथा स्वयं मरनेके लिए शीघ्र दौड़ा परन्तु ज्वालाओंसे मार्ग रुक जानेके कारण चूँकि लौट आया इसलिए समस्त उत्तम क्रियाओंको करने वाले जिनेन्द्र भक्त जन कहते हैं कि वह उन दोनोंका पुण्योदय ही श्रवण करने योग्य था । भावार्थअपने-अपने पुण्योदयसे ही दोनोंकी रक्षा हुई थी ||४६ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें हरिवंश और यादवोंके प्रस्थानका वर्णन करनेवाला चालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||४०||
१. क्रियस्त - ग.
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एकचत्वारिंशः सर्गः
दिदृक्षया ततो याताः क्षत्रियाः क्षुब्धतोयधेः । ते दशार्हमहाभोजविष्णुनेमीश्वरादयः ॥१॥ ततः शीकरिणं मत्तमिव दिक्करिणं मुहुः । झषस्फुरणलीलेषदुन्मीलननिमीलनम् ॥२॥ महत्खस्पर्द्धयेवोर्ध्वमूर्मिदोर्मण्डलैश्चलैः । आस्फालयितुमाकाशमाशानुगतमूर्जितम् ॥३॥ घूर्णमानमुदीर्णोग्रमकरग्राहविग्रहम् । 'मकराकरमैक्षन्त मकरीकरिणीवृतम् ॥४॥ अलब्धपारमुयुक्तरप्यनुत्पन्नबुद्धिमिः । अतिगम्भीरतायोगादलचितनिजस्थितिम् ॥५॥ तुङ्गमङ्गतरङ्गोद्यदङ्गपूर्णमहार्णसम् । पुराणमार्गसंपातनदीमुखमनोहरम् ॥६॥ अनात्ममहाररनमुक्ताकरमनादिकम् । वैपुल्यस्वच्छतासंगादङ्गीकृतनमःश्रियम् ॥७॥
तदनन्तर समुद्रविजय आदि दशार्ह, महाभोज, वृष्णि, कृष्ण तथा नेमिजिनेन्द्र आदि क्षत्रिय लहराते हुए समुद्रको देखनेकी इच्छासे उसके समीप गये ॥१॥ उस समय उस समुद्र में जहाँ-तहाँ जलके छींटे बिखर रहे थे। उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो मदोन्मत्त दिग्गज ही हो और मछलियोंके बार-बार उछलने तथा नीचे आनेकी लीलासे ऐसा जान पड़ता था मानो नेत्रोंको कुछ-कुछ खोल रहा हो और बन्द कर रहा हो ॥२॥ वह समुद्र ऊंची उठती हुई अपनी चंचल तरंगरूपी भुजाओंके समूहसे ऐसा जान पड़ता था मानो विशाल आकाशसे ईर्ष्या कर समस्त दिशाओंसे युक्त आकाशका आस्फालन करनेके लिए ही उद्यत हुआ हो ॥३।। जो लहरोंसे चारों ओर घूम रहा था, जिसके भीतर बड़े-बड़े भयंकर मगर-मच्छ उछल-कूद कर रहे थे, एवं जो मकरी-रूपी हस्तिनियोंसे घिरा हुआ था ऐसे समुद्रको उन सबने देखा ॥४|| उस समय वह समुद्र, जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा निरूपित शास्त्र-रूपी सागरके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार
उद्योग करने पर भी जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागरका पार प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसी प्रकार बद्धिहीन ( नौकानिर्माण आदिकी बुद्धिसे रहित ) मनुष्य उद्यम करनेपर भी उस समुद्रका पार नहीं प्राप्त कर पा रहे थे। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागरको अपनी स्थिति, अत्यन्त गम्भीरताके योगसे अलंधित है अर्थात् उसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता है उसी प्रकार उस समुद्रकी अपनी स्थिति भी अत्यधिक गम्भीरता-गहराईके योगसे अलंधित थी अर्थात् उसे लांघकर कोई नहीं जा सकता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर, उत्कृष्ट भंगरूपी तरंगोंसे युक्त अंग-द्वादशांगरूपी महाजलसे युक्त है उसी प्रकार वह समुद्र भी ज्वारभाटा, तरंग तथा फेन आदि उठते हुए अंगोंसे पूर्ण महाजलसे युक्त था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर पुराणोंमें निरूपित नाना मार्गों के समूहरूपी नदियोंके अग्रभागसे मनोहर है उसी प्रकार वह समुद्र भी पुराण-जीर्ण-शीर्ण मार्गको बहाकर लानेवाले नदियोंके अग्रभागसे मनोहर था अर्थात् उसमें अनेक नदियाँ आकर मिल रही थीं। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर सर्वश्रेष्ठ आत्मद्रव्य, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी महारत्न तथा मुक्त जोवरूपी मुक्ताफलोंका आकर-खान है उसी प्रकार वह समुद्र भी अमूल्य-श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त बड़े-बड़े रत्न तथा मुक्ताफलोंका आकर-खान था: जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अनादिक है-अर्थ सामान्यको दृष्टिसे अनादि है
१. वजितम् क.।
२. मकराकार म. ।
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४९९
एकचत्वारिंशः सर्गः आत्मान्तःस्थापितानन्तजीवरक्षादृढव्रतम् । अलचितपदं सर्वैर्वादिमिर्विजिगीषुभिः ॥८॥ निरस्यन्तमनन्तानुबन्धितापमुपाश्रिताम् । मुखेन स्पर्शनेनापि स्वावगाहेन किं पुनः ॥९॥ निशम्यार्णवमुद्गीर्णमिव शास्त्रार्णवं जिनैः । पिप्रिये राजकं राजदाकीर्णकुसुमाञ्जलिः ॥१०॥ नेमिनाथागमोद्भूतसंमदेनेव भरिणा । नृत्यन्निवोर्मिदीर्वाचिर्बभौ शङ्खस्वनोद्धरः ॥११॥ प्रवालमौक्तिकरय स्वतरङ्गकरैः किरन् । स्वागतं व्याजहारेव हरये मुखरोम्बुधिः ॥१२॥ यगप्रधानमम्मोधिलं वीक्ष्य झषेक्षणः । अम्मःस्थलैः समद्यद्भिरभ्युत्तिष्टन्निवाबभौ ॥१३॥ समुद्र विजयाक्षोभ्यमोजादिविषया मुदम् । आविष्कुर्वन्निवाभात्स्वा समुद्रः फेनमण्डलैः ॥१४॥
उसी प्रकार वह समुद्र भी *अनादिक-असदृश जलसे युक्त है। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर विशालता और निर्दोषताके संयोगसे आकाशकी लक्ष्मीको स्वीकृत करता हैआकाशके समान जान पड़ता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने विस्तार और स्वच्छताके कारण आकाशकी लक्ष्मीको स्वीकृत कर रहा था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने भीतर अनन्त जीवोंकी रक्षारूप दृढ़ व्रतको धारण करता है अर्थात् अनन्त जीवोंकी रक्षारूप सुदृढ़ व्रतको धारण करनेका उपदेश देता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने भीतर रहनेवाले अनन्त जीवोंकी रक्षारूप दृढव्रतको धारण करता था-अपने भीतर रहनेवाले अनन्त जीवोंकी रक्षा करता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर, विजयको इच्छा रखनेवाले समस्त वादियोंके द्वारा अलंधित पद है अर्थात् समस्त वादी उसके एक पदका भी खण्डन नहीं कर सकते हैं उसी प्रकार वह समुद्र भी बक-झक करनेवाले समस्त विजयाभिलाषी लोगोंके द्वारा अलंधित पद था अर्थात् उसके एक स्थानका भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने मुख अथवा स्पर्शसे ही शरणागत मनुष्योंके अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी सन्तापको दूर करता है फिर अपने अवगाहन, मनन, चिन्तन आदिके द्वारा तो कहना ही क्या है ? उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने अग्रभाग अथवा स्पर्शसे ही समीपमें आये हुए मनुष्योंके अगणित एवं सन्ततिबद्ध सन्तापको दूर करता था फिर अपने अवगाहनकी तो बात ही क्या थी? इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा निरू पित शास्त्र-रूपी सागरके समान उस समुद्रको देखकर वह राजाओंका समूह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उस समय वह समुद्र बिखरी हुई पूष्पांजलियोसे सुशोभित हो रहा था, तरंगोंसे लहरा रहा था और शंखोंके शब्दसे व्याप्त था। इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् नेमिनाथके आगमनसे उत्पन्न अत्यधिक हर्षसे ही उसने पुष्पांजलियाँ बिखेरी हों, तरंगरूपी भुजाओंको ऊपर उठाकर वह नृत्य कर रहा हो और शंखध्वनिके बहाने हर्षध्वनि कर रहा हो ।।५-११॥ वह अपने तरंगरूपी हाथोंके द्वारा मंगा और मोतियोंका अर्घ्य बिखेर रहा था तथा गर्जनासे मुखर होनेके कारण मानो कृष्णके लिए स्वागत शब्दका उच्चारण ही कर रहा हो ।।१२।। उस समुद्रमें मछलियाँ उछल रही थीं उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह मछलियांरूपी नेत्रोंसे युगके प्रधान श्री बलदेवको देखकर उछलते हए जलसे उठकर उनका सत्कार ही कर रहा हो ॥१३।। समुद्रमें जो फेतोंके समूह उठ रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रविजय, अक्षोभ्य तथा भोजक वृष्णि आदि राजाओंको देख उनके निमित्तसे होनेवाले अपने हर्षको ही प्रकट कर रहा हो ॥१४॥
१. -मुपाश्रितम् म.। * न विद्यते आदिः सदृशो यस्य तत् अनादि, तथाभूतं कं जलं यस्मिन् सः अनादिकः तम् ।
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५००
हरिवंशपुराणे ततस्तिथी प्रशस्तायां कृतमङ्गलसंनिधिः । कृष्णः स्थानेप्सया चक्रे सबलोऽष्टमभक्तकम् ॥१५॥ दभशय्याश्रिते तस्मिन् कृतपञ्चगुरुस्तवे । नियमस्थितया धीरे समुद्रस्य तटे स्थिते ॥१६॥ गोतमाख्यः सुरो वार्द्धि सौधर्मेन्द्रनिदेशतः । न्यवर्तयदरं शक्तः कृतकालान्तरस्थितिम् ॥१७॥ वासुदेवस्य पुण्येन मक्त्या तीर्थकरस्य च । सद्यो द्वारवती चक्रे कुबेरः परमा पुरीम् ॥१८॥ नगरी द्वादशायामा नवयोजनविस्तृतिः । वज्रप्राकारवलया समुद्रपरिखावृता ॥१९॥ रत्नकाञ्चननिर्माणैः प्रासादैर्बहुमूमिकः । रुन्धाना गगनं रेजे साऽलकेव दिवश्च्युता ॥२०॥ वापीपुष्करिणीदीर्घदीर्घिकासरसोह्रदैः । पद्मोत्पलादिसंछन्नरक्षया स्वादुवारिभिः ॥२१॥ भास्वत्कल्पलतारूढकल्पवृक्षोपशोमितैः । नागवल्लीलवङ्गादिपूगादीनां च सदनैः ॥२२॥ प्रासादाः संगतास्तस्या हेमप्राकारगोपुराः । सर्वत्र सुखदा रेजुर्विचित्रमणिकुट्टिमाः ॥२३॥ रथ्याभिरमिरामान्तःप्रपाभिश्च सदादिभिः । राज्ञां सर्वप्रजानां च वासयोग्या व्यराजत ॥२४॥ सर्वरत्नमयैस्तुङ्गजिनेन्द्रभवनैरसौ । प्राकारतोरणोपेतै रेजे सोपवनैः पुरी ॥२५॥ आग्नेयादिषु मध्येऽस्या दिक्ष प्रासादपतयः । समद्रविजयादीनां दशानां क्रमतो बभुः ॥२६॥ तन्मध्ये सर्वतोमद्रः कल्पवृक्षलतावृतः । प्रासादः केशवस्याभात्तदाष्टादशभूमिकः ॥२७॥ अन्तःपुरसुतादीनां योग्याः प्रासादमालिकाः । शौरिसौधमुपाश्रित्य परितोऽतिबभासिरे ॥२८॥
तदनन्तर किसी प्रशस्त तिथिमें मंगलाचारकी विधिको जाननेवाले कृष्णने अपने बड़े भाई बलदेवके साथ स्थान प्राप्त करनेकी अभिलाषासे अष्टमभक्त अर्थात् तीन दिनका उपवास किया ॥१५॥ तत्पश्चात् पंचपरमेष्ठियोंका स्तवन करनेवाले धीर-वीर कृष्ण, जब समुद्रके तटपर नियमों में स्थित होनेके कारण डाभको शय्यापर उपस्थित थे तब सौधर्मेन्द्र की आज्ञासे गोतम नामक शक्तिशाली देवने आकर समुद्रको शीघ्र ही दूर हटा दिया। वह समुद्र वहां कालान्तरमें आकर स्थित हो गया था ॥१६-१७॥ तदनन्तर श्रीकृष्णके पुण्य और श्री नेमिनाथ तीर्थंकरकी सातिशय भक्तिसे कुबेरने वहां शीघ्र ही द्वारिका नामको उत्तम पुरीकी रचना कर दी ॥१८॥ वह नगरी बारह योजन लम्बी, नी योजन चौड़ी, वज्रमय कोटके घेरासे युक्त तथा समुद्ररूपी परिखासे घिरी हुई थी ॥१९॥ रत्न और स्वर्णसे निर्मित अनेक खण्डोंके बड़े-बड़े महलोंसे आकाशको रोकती हुई वह द्वारिकापुरी आकाशसे च्युत अलकापुरीके समान सुशोभित हो रही थी ।।२०।। कमल तथा नीलोत्पलों आदिसे आच्छादित, स्वादिष्ट जलसे युक्त वापी, पुष्करिणी, बड़ी-बड़ी वापिकाएँ, सरोवर और ह्रदोंसे युक्त थी ॥२१॥ देदीप्यमान कल्पलताओंसे आलिंगित कल्पवृक्षोंके समान सुशोभित पान-लौंग तथा सुपारी आदिके उत्तमोत्तम वनोंसे सहित थी ॥२२॥ वहाँ सुवर्णमय प्राकार और गोपुरोंसे युक्त बड़े-बड़े महल विद्यमान थे तथा सभी स्थानोंपर सुख देनेवाले रंग-बिरंगे मणिमय फर्श शोभायमान थे ॥२३|| जिनके बीच-बीच में प्याऊ तथा सदावर्त आदिका प्रबन्ध था ऐसी लम्बी-चौड़ी सड़कोंसे वह नगरी बहुत सुन्दर जान पड़ती थी तथा वह राजाओं और समस्त प्रजाके निवासके योग्य सुशोभित थी ॥२४॥ सब प्रकारके रत्नोंसे निर्मित प्राकार और तोरणोंसे युक्त एवं बाग-बगीचोंसे सहित ऊंचे-ऊँचे जिनमन्दिरोंसे वह नगरी अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥२५॥ इस नगरीके बीचोंबीच आग्नेय आदि दिशाओंमें समुद्रविजय आदि दशों भाइयोंके क्रमसे महल सुशोभित हो रहे थे ।।२६॥ उन सब महलोंके बीचमें कल्पवृक्ष और लताओंसे आवृत, अठारह खण्डोंसे युक्त श्रीकृष्णका सर्वतोभद्र नामका महल सुशोभित हो रहा था ।।२७|| अन्तःपुर तथा पुत्र आदिके योग्य महलोंकी पंक्तियां श्रीकृष्णके भवनका
१. -रभिरामाभिः क.।
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एकचत्वारिंशः सर्गः
५०१ स्वान्तःपुरगृहालीमिः प्रासादः परिवारितः । शुशुभे बलदेवस्य वाप्युधानादिभूषितः ॥२९॥ तत्प्रासादपुर-शसभामण्डपसन्निभः । श्रीसमामण्डपोऽमासीन्मार्तण्डकरखण्डनः ॥३०॥ उग्रसेनादिभपानां योग्या भवनकोटयः । साष्टकक्षान्तरास्तत्र सर्वेषामपि रेजिरे ॥३१॥ अशक्यवर्णनो दिव्यां बहुद्वारवतीं पुरीम् । निर्माय वासुदेवाय राजराजो न्यवेदयत् ॥३२॥ किरीटं वरहारं च कौस्तुभं पीतवाससी । भषानक्षत्रमालादि वस्तु लोके सुदुर्लभम् ॥३३॥ गदां कुमुद्वतीं शक्ति खड्ग नन्दकसंज्ञकम् । शाङ्ग धनुश्च तूणीरयुग्मं वज्रमयान् शरान् ॥३४॥ सर्वायुधयुतं दिव्यं रथं सगरुडध्वजम् । चामराणि सितच्छत्रं हरये धनदो ददौ ॥३५॥ मेचकं वस्त्रयुगलं मालां च मुकुट गदाम् । लाङ्गलं मुसलं चापं सशरं शरधिद्वयम् ॥३६॥ रथं दिव्यास्त्रसंपूर्णमच्चस्तालध्वजोर्जितम् । कुबेरः कामपालाय ददौ छत्रादिभिः सह ॥३७॥ भ्रातरोऽपि दशास्तेि वस्त्रामरणपूर्वकैः । संप्राप्तपूजनास्तेन मोजाद्याश्च नृपाः कृताः ॥३०॥ तीर्थकृत्पुनरन्यूनर्वयोयोग्यैः सुवस्तुमिः । प्राज्यैः पूजनमेवासौ किं तत्र बहुवर्णनैः ॥३९॥ प्रविशन्तु पुरी सर्वे भवन्त इति रैपतिः । तानुक्त्वा पूर्णभद्रं च संदिश्यांन्तर्हितः क्षणात् ॥४०॥ ततो यादवसङ्घास्तावमिषिच्याम्बुधेस्तटे । जयशब्देन संघुष्य हृष्टा हलगदाधरौ ॥४१॥ विविशुभरिकां भूत्या चतुरङ्गबलान्विताः । सप्रजाः कृतपुण्यास्ते प्राप्तां दिवमिव स्वयम् ॥४२॥ पूर्णमद्रोपदिष्टेषु भद्रेपु मवनेष्वमी। यथायथं सुखं तस्थुः प्रजाश्च निजसंस्थया ॥४३॥
आश्रय कर चारों ओर सुशोभित हो रही थीं ॥२८॥ अन्तःपुरके घरोंकी पंक्तियोंसे घिरा एवं वापिका तथा बगीचा आदिसे विभूषित बलदेवका भवन सुशोभित हो रहा था ॥२९॥ बलदेवके महलके आगे एक सभामण्डप सशोभित था जो इन्द्र के सभामण्डपके समान था और दीप्तिसे सूर्यको किरणोंका खण्डन करनेवाला था ।।३०॥ उस नगरीमें उग्रसेन आदि सभी राजाओंके योग्य महलोंकी पंक्तियाँ सुशोभित थीं जो आठ-आठ खण्डकी थीं ॥३१॥ जिसका वर्णन करना शक्य नहीं था तथा जो अनेक द्वारोंसे युक्त थी ऐसी सुन्दर नगरीकी रचना कर कुबेरने श्रीकृष्णसे निवेदन किया अर्थात् नगरो रची जानेकी सूचना श्रीकृष्णको दी ॥३२॥ उसी समय कुबेरने श्रीकृष्णके लिए मुकुट, उत्तम हार, कौस्तुभमणि, दो पीत-वस्त्र, लोकमें अत्यन्त दुर्लभ नक्षत्रमाला आदि आभूषण, कुमुदती नामकी गदा, शक्ति, नन्दक नामका खड्ग, शाङ्ग नामका धनुष, दो तरकश, वज्रमय बाण, सब प्रकारके शस्त्रोंसे युक्त एवं गरुड़की ध्वजासे युक्त दिव्य रथ, चमर और श्वेत छत्र प्रदान किये ॥३३-३५|| साथ ही बलदेवके लिए दो नील-वस्त्र,
मकूट, गदा, हल, मसल, धनुष-बाणोंसे यक्त दो तरकश, दिव्य अस्त्रोंसे परिपूर्ण एवं तालको ऊंची ध्वजासे सबल रथ और छत्र आदि दिये ॥३६-३७|| समुद्रविजय आदि दसों भाई तथा भोज आदि राजाओंका भी कुबेरने वस्त्र, आभरण आदिके द्वारा खूब सत्कार किया ॥३८॥ श्री नेमिनाथ तीर्थंकर अपनी अवस्थाके योग्य उत्तमोत्तम वस्तुओंके द्वारा पूजाको प्राप्त हुए ही थे। इस विषयका अधिक वर्णन करनेसे क्या प्रयोजन है ? ॥३९॥ 'आप सब लोग नगरीमें प्रवेश करें' इस प्रकार सबसे कहकर और पूर्णभद्र नामक यक्षको सन्देश देकर कुबेर क्षणभरमें अन्तहित हो गया ॥४०॥
तदनन्तर यादवोंके संघने समुद्रके तटपर श्रीकृष्ण और बलदेवका अभिषेक कर हर्षित हो उनकी जयजयकार घोषित की ॥४१|| तत्पश्चात् जिन्होंने पुण्यका संचय किया था ऐसे श्रीकृष्ण आदिने चतुरंग सेना और समस्त प्रजाके साथ, प्राप्त हुए स्वर्गके समान उस द्वारिकापुरीमें बड़े वैभवसे प्रवेश किया ॥४२॥ पूर्णभद्र यक्षके द्वारा बतलाये हुए मंगलमय भवनोंमें प्रजाके १. अष्टखगाः ( ग. टि.)। २. कुबेरः। ३. बलभद्राय । ४. कुबेरः । ५. यथा स्वेच्छं म. ।
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५०२
हरिवंशपुराणे माथुराः सौर्यजा वीर्यपुरपौराः पुरा यथा । यथास्वं कृतसंकेतसंनिवेशा ययुधतिम् ॥४४॥ पुर्यामर्धचतुर्थानि दिनानि धनदाज्ञया । यक्षा ववृषुरक्षीणधनधान्यादि धामसु ॥४५॥ तत्र स्थितस्य कृष्णस्य प्रतापेन वशीकृताः । अपरान्तिकभूपालाः शासनं प्रतिपेदिरे ॥४६॥ बहुराजसहस्राणां तनयाः स सहस्रशः । परिणीय ततो रेमे यथेष्टं द्वारिकापतिः ॥४७॥ तत्र नेमिकुमारोऽपि कुमार इव चन्द्रमाः । संवर्धते स्म निःशेषकलानिलय विग्रहाः ॥४८॥ दशाहवदनाम्मोजविकासकरणोदयः । बालमानुर्बमासेऽसौ ज्योतिधूततमस्तरः ॥१९॥ रामदामोदरानन्दं प्रत्यहं प्रतिवर्धयन् । चकार क्रीडितं बाल्ये पौरनेत्रमनोहरम् ॥५०॥ समस्तयदुपत्नीनां कराकरमितस्ततः । अलंकुर्वन्नलंरूपी स ययौ यौवनोदयम् ॥५१॥ प्रव्यक्तलक्षणे तत्र यूनि श्यामाम्बुजेक्षणे । विश्रान्तदृष्टिमन्यत्र नेतुं शेकुर्न योषितः ॥५२॥ जिनरूपशरो दूराजगतो हृदयस्थलीम् । बिभेद न पुनर्जेंनी पररूपशरायतिः ॥५३॥ नोपमा जिनरूपस्य नोपमेयं क्षितौ यतः। उपमानोपमेयार्थ खिद्यते स्म हरिस्ततः ॥५४॥ स्वान्तरङ्गजनैर्जातु क्रियमाणासु केलिषु । स्वविवाहकथास्वीशः स्मेरास्यो लजते स्वयम् ॥५५॥ बोधत्रयाम्बुनि—तमोहनीयकलङ्कजम् । न तस्य भूतिधूलीभिधूसरीकृतमान्तरम् ॥५६॥
सब लोग अपने परिवारके साथ यथायोग्य सुखसे ठहर गये ॥४३॥ मथुरा, सूर्यपुर और वीर्यपुरके निवासी लोग अपने-अपने मोहल्लोंके पूर्व-जैसे ही नाम रखकर यथायोग्य सन्तोषको प्राप्त हुए ॥४४॥ कुबेरकी आज्ञासे यक्षोंने इस नगरीके समस्त भवनोंमें साढ़े तीन दिन तक अटूट धन-धान्यादिकी वर्षा की थी ॥४५॥ जब श्रीकृष्ण वहां रहने लगे तब उनके प्रतापसे वशीभूत हो पश्चिमके राजा उनकी आज्ञा मानने लगे ॥४६॥ तदनन्तर द्वारिकापुरीके स्वामी श्रीकृष्ण अनेक राजाओंकी हजारों कन्याओंके साथ विवाह कर वहां इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥४७॥
जिनका शरीर समस्त कलाओंका स्थान था ऐसे नेमिकुमार भी वहां बालचन्द्रमाके समान दिनों-दिन बढ़ने लगे ॥४८॥ जिनका उदय यादवोंके मुख-कमलको विकसित करनेवाला था, एवं जिन्होंने अपनी ज्योतिसे अन्धकारके समूहको नष्ट कर दिया ऐसे नेमिकुमाररूपी बालसूर्य अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥४९॥ प्रतिदिन बलभ और श्रीकृष्णके आनन्दको बढ़ाते हुए नेमिकुमार बाल्य अवस्थामें नगरनिवासी लोगोंके नेत्र और मनको हरण करनेवाली क्रीड़ा करते थे ॥५०॥ अतिशय रूपके धारक भगवान् नेमिनाथ जहां-तहाँ समस्त यादवोंकी स्त्रियोंके एक हाथसे दूसरे हाथको सुशोभित करते हुए यौवन अवस्थाको प्राप्त हुए ॥५१॥ जिनके शरीरमें अनेक शुभ लक्षण प्रकट थे, तथा जिनके नेत्र नील कमलके समान थे ऐसे युवा नेमिकुमारपर लगी दृष्टिको स्त्रियाँ दूसरी जगह ले जाने में समर्थ न हो सकीं ॥५२॥ भगवान्के रूपरूपी बाणने दूरसे ही जगत्के जीवोंको हृदयस्थलीको भेद दिया था परन्तु उनको हृदयस्थलोको दूसरोंका रूपरूपी बाणोंका समूह नहीं भेद सका था। भावार्थ-यौवन प्रकट होनेपर भी भगवान्के हृदय में कामकी बाधा उत्पन्न नहीं हुई थी ॥५३॥ चूंकि पृथिवीतलपर भगवान्के रूपकी न उपमा थी न उपमेय ही था इसलिए भगवान्के रूपके विषयमें उपमान और उपमेयके लिए इन्द्रको खेदखिन्न होना पड़ा ॥५४॥ क्रीड़ाओंके समय अपने कुटुम्बी जनोंके द्वारा अपने विवाहको चर्चा की जानेपर नेमिजिनेन्द्र मन्द-मन्द मुसकराते हुए स्वयं लज्जित हो उठते थे ॥५५॥ तीन ज्ञानरूपी जलके द्वारा जिसके भीतरका मोहरूपी कलंक धुल गया था ऐसा भगवान्का अन्तःकरण वैभवरूपी धूलसे धूसर नहीं हुआ॥५६॥ १. सौरजा म., ग. । २. वीरपुर म., ग.। ३. पूर्वपूर्वस्वनाम्ना ( ग. टि. )।
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५०३
एकचत्वारिंशः सर्गः
शालिनीच्छन्दः 'जैनैर्वाणवैष्णवैले मद्देश्चन्द्रालोकप्राकटैः सद्गुणौधैः ।
'स्पृष्टात्यर्थ हृष्टलोकोर्मिरामावलेवाब्धेरिका द्वारकान्ता ॥५॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती द्वारवतीनिवेशवर्णनो
नाम एकचत्वारिंशः सर्गः ॥३५॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि जो नेमिजिनेन्द्र, भोजक वृष्णि, कृष्ण और बलभद्रके उत्तम गुणोंके समूहरूपी प्रकट चांदनीसे स्पृष्ट थी, जिसमें हर्षसे भरे लोग तरंगोंके समान उछल रहे थे तथा जो द्वारोंसे सुन्दर थी ऐसी द्वारिकापुरी समुद्रको वेलाके समान अत्यधिक पुशोभित हो रही थी ॥५७॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें द्वारिकापुरोका
वर्णन करनेवाला इकतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४॥
१. नेमिजिनसंबन्धिभिः । २. वृष्णीनामिमे वास्तिः । ३. विष्णोरिमे वैष्णवास्तैः श्रीकृष्णसंबन्धिभिः । ४. बलभद्रस्येमे बालभद्रास्तैः । ५. स्पष्टात्यर्थ म.। ६. द्वारः कान्ता मनोहरा।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
अथ सभ्यसमाकीर्णामन्यदा यादवीं समाम् । आजगाम नभोगामी नारदो नमसो मुनिः ॥१॥ आपिशङ्गजटाभारश्मश्रुकूर्चः शशिद्युतिः । विद्युद्वलयविद्योतिशारदाम्बुधरोपमः ॥२॥ विचित्रवर्णविस्तीर्णयोगपट्टविभूषितः । परिवेषवतो बिभ्रदौषधीशस्य विभ्रमम् ॥३॥ 'चलद्दुकूलकोपीनपरिधानपरिच्युतः । दिवोऽनुग्रहबुद्धयेव जगतः कल्पपादपः ॥४॥ देहस्थितेन शुद्धेन त्रिगुणेनोज्ज्वलोकृतः । यज्ञोपवीतसूत्रेण स रत्नत्रितयेन वा ॥५॥ असाधारणरूपेण गौरवाधानहेतुना । नैष्ठिकब्रह्मचर्येण पाण्डित्येनेव मण्डितः ॥६॥ शुद्धप्रकृतिरस्यन्तमरिषड्वर्गवर्जितः । राज्योदय इवोदारो राजलोकस्य पूजितः ॥७॥ द्वारिकाविभवालोकस्वशिरकम्पविग्रहम् । तेऽवतीर्ण तमालोक्य सहसोत्थाय पार्थिवाः ॥८॥ नमस्यासनदानादि सोपचारेण सक्रमम् । पूजयन्ति स्म संमानमात्रेण परितोषिणम् ॥९॥ जिनकृष्णबलालोकसंमाषणसुखामृतम् । पीत्वाप्यतृप्तनेत्रस्तमध्यतिष्ठत्समार्णवम् ॥१०॥ पूर्वापरविदेहाना जिनेन्द्राणां कथामृतैः । समेरुवन्दनोदन्तैमनोऽमीषामतर्पयत् ॥११॥
अथानन्तर किसी समय आकाशमें गमन करनेवाले नारद मुनि आकाशसे उतरकर सभासदोंसे भरी हुई यादवोंकी सभामें आये ॥१॥ उन नारदजीकी जटाएं, दाढ़ी और मूछ कुछकुछ पीले रंगकी थी तथा वे स्वयं चन्द्रमाके समान शुक्ल कान्तिके धारक थे इसलिए बिजलियोंके समूहसे सुशोभित शरद् ऋतुके मेघके समान जान पड़ते थे ।।२।। वे रंग-बिरंगे एक विस्तृत योगपट्टसे विभूषित थे इसलिए परिवेष ( मण्डल ) से युक्त चन्द्रमाको शोभा धारण कर रहे थे ॥३॥ उनका कौपीन और चद्दर हवासे मन्द-मन्द हिल रहा था इसलिए वे उनसे ऐसे जान पड़ते थे मानो जगत्का उपकार करनेकी इच्छासे आकाशसे कल्प वृक्ष ही नीचे आ गिरा हो ॥४।। वे अपने शरीरपर स्थित तीन लरके उस शुद्ध यज्ञोपवीत सूत्रसे अत्यन्त उज्ज्वल थे जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन गुणोंके समान जान पड़ता था ॥५॥ वे जिस प्रकार असाधारण पाण्डित्यसे सुशोभित थे उसी प्रकार गौरवको उत्पत्तिके असाधारण कारणरूप नैष्ठिक ब्रह्मचर्यसे सुशोभित थे ॥६॥ वे राजाओंके उत्कृष्ट राज्योदयके समान समस्त राजाओंके पूजनीय थे क्योंकि जिस प्रकार राज्योदय शद्धप्रकृति अर्थात भ्रष्टाचार-रहित मन्त्री आदि प्रकृतिसे सहित होता है उसी प्रकार नारद भी शुद्धप्रकृति अर्थात् निर्दोष स्वभावके धारक थे और राज्योदय जिस प्रकार शत्रओंके षड्वर्गसे रहित होता है उसी प्रकार नारद भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अन्तरंग शत्रुओंसे रहित थे ॥७॥ द्वारिकाका वैभव देख, आश्चर्यसे जिनका शिर तथा शरीर कम्पित हो रहा था ऐसे नारदजीको आकाशसे नीचे उतरते देख सब राजा लोग सहसा उठकर खड़े हो गये ॥८॥ सम्मान मात्रसे सन्तुष्ट हो जानेवाले नारदजीको सबने नमस्कार तथा आसन-दान आदि उपचारोंसे क्रमपूर्वक सम्मान किया ॥९|| श्री नेमिजिनेन्द्र, कृष्ण नारायण और बलभद्रके दर्शन तथा सम्भाषणसे उत्पन्न सुखरूपी अमृतका पान करके भी जिनके नेत्र तृप्त नहीं हुए थे ऐसे नारद मुनि सभारूप सागरके मध्य में अधिष्ठित हुए-विराजमान हुए ।।९-१०॥ तत्पश्चात् नारदने पूर्व-पश्चिम विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंको
१. चलढुकूलकोपोनपरिधानपरिच्युतः ग., घ, ङ., म. । २. पार्थिवः म. ।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
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प्रस्तावेऽत्र गणिज्येष्ठं श्रेणिकोऽपृच्छदित्यसौ । क एष नारदो नाथ ! कुतो वाऽस्य समुद्भवः ॥१२॥ गण्युवाच वचो गण्यः शृणु श्रेणिक मण्यते । उत्पत्तिरन्त्यदेहस्य नारदस्थ स्थितिस्तथा ॥१३॥ आसीत्सौर्य पुरस्यान्ते दक्षिणे तापसाश्रमः । वसन्ति तापसास्तस्मिन् फलमूलादिवृत्तयः ॥१४॥ सुमित्रस्तापसस्तत्र स सोमयशसि स्त्रियाम् । उञ्छवृत्तिः शशिच्छायं पुत्रमेकमजीजनत् ॥१५॥ तमुत्तानशयं यावत्तौ संस्थाय तरोरधः । उच्छवृत्त्यर्थमायातौ नगर क्षुत्पिपासितौ ॥१६॥ संक्रीडमानमेकान्ते तावत्तं जम्मकामराः । दृष्ट्वा पूर्वभवस्नेहान्नीत्वा वैताड्यपर्वतम् ॥१७॥ मणिकाञ्चनपंज्ञायां गुहायां तत्र तं शिशुम् । कल्पवृक्ष
दव्याहारैरवर्द्धयन् ॥१८॥ स्वेष्टाय तेऽष्टनर्षाय सरहस्यं जिनागमम् । देवास्तस्मै ददुस्तुष्टा विद्या चाकाशगामिनीम् ॥१९॥ नारदो बहविद्योऽसौ नानाशास्त्रविशारदः । संयमासंयम लेभे साधुः साधुनिषेवया ॥२०॥ कन्दर्पस्य विजेतापि कन्दर्पनिमविभ्रमः । सकन्दर्पप्रियो हासलीलोभल्लोमवर्जितः ॥२१॥ अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव नि:कषायोऽप्यसौ क्षिती। रणप्रेक्षाप्रियः प्रायो जातो जल्पाकमास्करः ॥२२॥ जिनजन्माभिषेकादिमहातिशयदर्शने । कुतूहलितया लोकं परिभ्रमति विभ्रमी ॥२३॥
कथारूप अमृतसे तथा मेरु पर्वतकी वन्दनाके समाचारोंसे उन सबके मनको सन्तुष्ट किया ॥११।।
इसी अवसरमें राजा श्रेणिकने गौतम गणधरसे पूछा कि हे नाथ ! यह नारद कौन है ?
की उत्पत्ति किससे हई है ? इसके उत्तरमें पूज्य गणधर देव कहने लगे कि हे श्रेणिक! चरमशरीरो नारदकी उत्पत्ति तथा स्थिति कहता हूँ सो श्रवण कर ॥१२-१३।।
___ सौर्यपुरके पास दक्षिण दिशामें एक तापसोंका आश्रम था उसमें फल-मूल आदिका भोजन करनेवाले अनेक तापस रहते थे ।१४।। वहीं उञ्छ वृत्तिसे आजीविका करनेवाले एक सुमित्र नामक तापसने अपनी सोमयशा नामक स्त्रीमें चन्द्रमाके समान कान्तिवाला एक पुत्र उत्पन्न किया ॥१५॥
भूख और प्याससे पीड़ित सुमित्र, और सोमयशा, दोनों दम्पती चित्त सोनेवाले उस बच्चेको एक वृक्षके नीचे रखकर उञ्छ वृत्तिके लिए जबतक नगरमें आये तबतक एकान्तमें क्रीड़ा करते हुए उस बालकको देखकर जम्भक नामक देव पूर्वभवके स्नेहसे उठाकर वैताड्यपर्वतपर ले गये। वहां उन्होंने मणिकांचन नामक गुहामें उस बालकको रखकर कल्प वृक्षोंसे उत्पन्न दिव्य आहारसे उसका पालन-पोषण किया ॥१६-१८॥ वह बालक देवोंको बहुत ही इष्ट था इसलिए जब वह आठ वर्षका हुआ तब उन्होंने सन्तुष्ट होकर उसे रहस्यसहित जिनागम और आकाशगामिनी विद्या प्रदान की ॥१९।। वही नारदके नामसे प्रसिद्ध हुआ। नारद अनेक विद्याओंका ज्ञाता तथा नाना शास्त्रोंमें निपुण था। वह साधुके वेषमें रहता था तथा साधुओंकी सेवासे उसने संयमासंयम-देशव्रत प्राप्त किया था। वह कामको जीतनेवाला होकर भी कामके समान विभ्रमको धारण करता था, कामी मनुष्योंको प्रिय था, हास्यरूप स्वभावसे युक्त था, लोभसे रहित था, चरमशरीरी था, यद्यपि स्वभावसे ही निष्कषाय था तथापि पृथ्वीमें युद्ध देखना उसे बहुत प्रिय था, अधिकतर वह अधिक बोलनेवालोंमें शिरोमणि था, और जिनेन्द्र भगवान्के जन्माभिषेक आदि महान् अतिशयोंके देखनेका कुतूहली होनेसे विभ्रमपूर्वक लोकमें परिभ्रमण करता रहता था ॥२०-२३॥
१. चरमशरीरस्य (ग. टि.,म. टि.)। नारदस्य चरमशरीरत्वमाम्नायविरुद्धमस्ति । २२ तमे श्लोकेऽपि 'अन्त्यदेहः' इत्यस्य स्थाने 'अत्यदेहः' इति पाठो योजनीयः (प. ला.)। २. कन्दर्पेण सह वर्तन्ते इति सकन्दपस्तेिषां प्रियः (ग. टि.)। ३. वाचालभानुः (ग. टि.)।
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हरिवंशपुराणे
स एष नारदो राजन् परिपृच्छय यदूत्तमान् । केशवान्तःपुरं द्रष्टुं प्रविष्टोऽन्तःपुरालयम् ॥२४॥ तत्र विष्णोर्महादेवीं प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् । धृतप्रसाधनां साध्वी करस्थे मणिदर्पणे ॥२५॥ प्रेक्षमाणां निजं रूपं सत्यभामा विदूरतः । अद्राक्षीन्नारदः साक्षाद् दृष्टेरतिमिव स्थिताम् ॥२६॥ स्वरूपालोकनाक्षिप्तचेतसा सत्यया यतिः । न दृष्टः सहसा रुष्टो निर्जगाम ततो द्रुतम् ॥२७॥ दध्याविति स लोकेऽस्मिन् सविद्याधरभूचराः। मामुत्थाय नमस्यन्ति राज्ञामन्तःपुरस्त्रियः ॥२८॥ सत्यभामा स्वियं रूपमदगर्वितमानसा । धिग मां नालोकतेस्मापि पृष्टा विद्याधरात्मजा ॥२९॥ तदस्या रूपसौभाग्यगर्वपर्वतचूरणम् । प्रतिपक्षवधूवज्रसंपातेन करोम्यहम् ॥३०॥ रूपसौभाग्यतो ह्यन्यो सत्यभामातिशातिनीम् । हरिलघु लभेत् कन्यां बहुरत्ना वसंधरा ॥३१॥ ततः पश्यामि भाभाया निश्वासश्याममाननम् । कुतोऽनर्थविमोक्षः स्यात् कुपिते मयि नारदे ॥३२॥ इति ध्यायन् खमुत्पत्य कुण्डिनाख्यमयात्पुरम् । यत्र भीष्मो नृपस्तिष्टत्यरिभीष्मो महान्वयः ॥३३॥ रुक्मीति तनयस्तस्य नयपौरुषपोषणः । रुक्मिणी च शुमा कन्या कलागुणविशारदा ॥३४॥ तां ददर्श च शुद्धान्ते शुद्धान्तःकरणः श्रिताम् । पितृस्वस्रानुरागिण्या संध्ययेवोदयश्रियम् ॥३५॥ सौलक्षण्यं च सौरूप्यं सौभाग्यं त्रिजगद्गतम् । गृहीत्वेव हरे पुण्यैः परमैस्तां विनिर्मिताम् ॥३६॥ पाणिपादमुखाम्भोजजङ्घोरुजघनश्रिया । रोमराजिभुजानाभिकुचोदरतनुविषा ॥३७॥
हे राजन् ! यह वही नारद, यादवोंसे पूछकर श्रीकृष्णका अन्तःपुर देखने के लिए अन्तःपुरके महलमें प्रविष्ट हुआ ।।२४।। उस समय कृष्णको महादेवी सत्यभामा, जो उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय थी, आभूषणादि धारण कर हाथमें स्थित मणिमय दर्पण में अपना रूप देख रही थी। नारदने उस साध्वीको दूरसे ही देखा। वह उनकी दृष्टिके सामने साक्षात् रतिके समान जान पड़ती थी। अपना रूप देखने में जिसका चित्त उलझा हुआ था ऐसी सत्यभामा नारदको न देख सकी इसलिए वह सहसा रुष्ट हो वहांसे शीघ्र ही बाहर निकल आये ॥२५-२७|| बाहर आकर वह विचार करने लगे कि इस संसारमें समस्त विद्याधर और भूमिगोचरी राजा तथा उनके अन्तःपुरोंकी स्त्रियां उठकर मुझे नमस्कार करती हैं परन्तु यह विद्याधरकी लड़की सत्यभामा इतनी ढीठ है कि इसने सौन्दर्यके मदसे गर्वितचित्त हो मेरी ओर देखा भी नहीं अतः इसे धिक्कार है ।।२८-२९।। अब मैं सपत्नीरूपी वज्रपातके द्वारा इसके सौन्दर्य, सौभाग्य और गवरूपी पर्वतको अभी हाल चूर-चूर करता हूँ ॥३०॥ रूप और सौभाग्य में सत्यभामाको अतिक्रान्त करनेवाली अन्य कन्याको श्रीकृष्ण शीघ्र ही प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि यह पथ्वी अनेक रत्नोंसे यक्त है। सपलीके आनेपर मैं सत्यभामाके मुखको श्वासोच्छ्वाससे मलिन देखूगा। मुझ नारदके कुपित होनेपर इसका अनर्थसे छुटकारा कैसे हो सकता है ? ॥३१-३२॥ इस प्रकार विचार करते हुए नारद आकाशमें उड़कर उस कुण्डिनपुरमें जा पहुंचे, जहां शत्रुओंके लिए भयंकर महाकुलीन राजा भीष्म रहते थे ॥३३॥ उनके नीति और पौरुषको पुष्ट करनेवाला रुक्मी नामका पुत्र था तथा कला और गुणोंमें निपुण रुक्मिणी नामकी एक शुभ कन्या थी ॥३४॥ निर्मल अन्तःकरणके धारक नारदने, राजा भीष्मके अन्तःपुरमें, अनुराग-प्रेमको धारण करनेवाली फुआसे युक्त उस रुक्मिणी नामक कन्याको देखा जो अनुराग-लालिमाको धारण करनेवाली सन्ध्यासे युक्त सूर्यको उदयकालीन लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ॥३५।। वह कन्या ऐसी जान पड़ती थी मानो तीनों जगत्के उत्तम लक्षण, उत्तम रूप और उत्तम भाग्यको लेकर नारायण-कृष्णके उत्कृष्ट पुण्यके द्वारा ही रची गयी हो ॥३६॥ वह कन्या अपने हाथ, पैर, मुखकमल, जंघा और स्थूल नितम्बकी शोभासे,
१. सन्तापेन म., ग. ।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
५०७ भ्रूकक्षिशिरःकण्ठघोणाधरपुटामया' । अभिभूयोपमाः सर्वाः स्थितां जगति तो पराम् ॥३८॥ दृष्ट्वाऽसौ विस्मितो दध्यौ दृष्टानेकाङ्गनोत्तमः । अहो रूपस्य पर्यन्ते कन्येयं वर्तते भुवि ॥३९॥ संयोज्य हरिणा कन्यामनन्यसदृशीमिमाम् । भनज्मि सत्यभामाया रूपसौभाग्यदुर्मदम् ॥४०॥ इति ध्यायन्तमायातं नारदं वीक्ष्य रुक्मिणी । अभ्युत्तस्थौ रणभषा स्वभावविनयैकमः ॥४१॥ साञ्जलिः प्रणनामासौ प्रत्युपेत्य तमादरात् । द्वारिकापतिपत्याप्त्या सोऽभ्यनन्दयदानताम् ॥४२॥ प्रश्नितेन तया तेन द्वारावत्या विकीर्तने । कृतेऽनुरागिणी कृष्णे रुक्मिणी नितरामभूत् ॥४३॥ कृष्णं भीष्मसुताचित्तमित्तौ नारदचित्रकृत् । वर्णरूपवयोविद्धं विलिख्य बहिरुद्ययौ ॥४४॥ विलिख्य पट्टके स्पष्टं रुक्मिण्या रूपमद्भुतम् । हरयेऽदर्शयद्गत्वा चित्तसंमोहकारणम् ॥१५॥ दृष्टा चित्रगतां कन्यां श्यामां स्त्रीलक्षणाञ्चिताम् । पप्रच्छ हरिरिस्येवं द्विगुणादरसंगतः ॥४६॥ कस्येयं भगवन् ! कन्या विचित्रा पट्टके त्वया । दुष्करं मानुषी क्षिप्रवाँ विचित्रा सुरकन्यका ॥४७॥ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै यथावृत्तमवञ्चकः । श्रत्वा सौरिरपि प्राप्तश्चिन्तां कन्याकरग्रहे ॥४८॥ काले पितृवसा तस्मिन्नेकान्ते हितकाम्यया । रुक्मिणीमित्यमाषिष्ट सर्ववृत्तान्तवेदिनी ॥४९॥ आकर्णय वचो बाले कदाचिदतिमुक्तकः । दिव्यचक्षरिहायातस्त्वां दृष्टाऽवददित्यसौ ॥५०॥
रोमराजि, भुजा, नाभि, स्तन, उदर तथा शरीरकी कान्तिसे, भौंह, कान, नेत्र, शिर, कण्ठ, नाक और अधरोष्ठकी आभासे संसारको समस्त उपमाओंको अभिभूत-तिरस्कृत कर उत्कृष्ट-रूपसे स्थित थी ॥३७-३८|| अनेक उत्तमोत्तम स्त्रियों को देखनेवाले नारद उस कन्याको देखकर आश्चयम पड़ गये तथा इस प्रकार विचार करने लगे कि 'अहो! यह कन्या तो पृथिवीपर रूपकी चरम सीमामें विद्यमान है-सबसे अधिक रूपवतो है ॥३९|| जो अपनो सानी नहीं रखती ऐसी इस कन्याको कृष्णके साथ मिलाकर मैं सत्यभामाके रूप तथा सौभाग्य-सम्बन्धी दुष्ट अहंकारको अभी हाल खण्डित किये देता हूँ' ॥४०॥
इस प्रकार विचार करते हुए नारदको आये देख, शब्दायमान भूषणोंसे युक्त तथा स्वाभाविक विनयकी भूमि रुक्मिणी उठकर खड़ी हो गयी ॥४१॥ उसने हाथ जोड़कर बड़े आदरसे सम्मुख जाकर नारदको प्रणाम किया तथा नारदने भी 'द्वारिकाके स्वामी तुम्हारे पति हों' इस आशीर्वादसे उस नम्रीभूत कन्याको प्रसन्न किया ।।४२।। उसके पूछनेपर जब नारदने द्वारिकाका वर्णन किया तब वह कृष्णमें अत्यन्त अनुरक्त हो गयी ॥४३।। अन्तमें नारदरूपी चित्रकार, रुक्मिणीके हृदयको दीवालपर वर्ण, रूप तथा अवस्थासे युक्त कृष्णका चित्र खींचकर बाहर चले गये ॥४४॥
बाहर आकर नारदने रुक्मिणीका आश्चर्यकारी रूप स्पष्ट रूपसे चित्रपर लिखा और चित्तमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाला वह रूप उन्होंने जाकर श्रीकृष्णके लिए दिखाया ॥४५|| नवयौवनवती तथा स्त्रियोंके लक्षणोंसे युक्त उस चित्रगत कन्याको देखकर कृष्णने दुगुने आदरसे युक्त हो नारदसे इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह किसकी विचित्र कन्या आपने चित्रपटपर अंकित की है ? यह तो मानुषीका तिरस्कार करनेवाली कोई विचित्र देव-कन्या जान पड़ती है ।।४६-४७|| कृष्णके इस प्रकार पूछनेपर छल-रहित नारदने सब समाचार ज्योंका-त्यों सुना दिया तथा उसे सुनकर कृष्ण उसके साथ विवाह करनेकी चिन्ता करने लगे ॥४८॥
उधर सब समाचारको जाननेवाली फुआने हितको इच्छासे एकान्तमें ले जाकर योग्य समयमें रुक्मिणीसे इस प्रकार कहा कि हे बाले ! तू मेरे वचन सुन । किसी समय अवधि-ज्ञानके धारक अतिमुक्तक मुनि यहाँ आये थे। उन्होंने तुझे देखकर कहा था कि 'यह कन्या स्त्रियोंके १. पुटोभया म.। २. द्वारिकापतिरेव पतिस्तस्याप्तिः प्राप्तिस्तया । ३. क्षिप्ता म.।
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हरिवंशपुराणे
स्वालक्षणवती लक्ष्मीरिव वक्षःस्थलाश्रिता । बालेयं वासुदेवस्य भविष्यति भविष्यतः ॥ ५१ ॥ षोडशानां सहस्राणां विष्णोः स्त्रीगुणसंयुजाम् । अन्तरन्तः पुरस्त्रीणां प्रभुत्वमियमेष्यति ॥५२॥ इत्यादिश्य तदा यातः सिद्धादेशो महामुनिः । कथा चान्तर्हिता विष्णोः कियन्संचिदनेहसम् ॥ ५३ ॥ पुनर्जन्मकथेवेयं नारदेन कथा कृता । यदि सत्यमिदं सर्वं सत्यं वेद्मि मुनेर्वचः ॥ ५४ ॥ एवं पुनः शिशुपालाय बाले ! बान्धवतां युजे । सुप्रभुत्वभृता भ्रात्रा रुक्मिणा' किल दयसे ॥५५ ॥ विवाहसमयस्तेऽपि प्रत्यासन्नस्तु वर्तते । अद्य श्वो वा त्वदर्थं च शिशुपालः किलैष्यति ॥५६॥ विदर्भपतिपुत्री तन्निशम्य वचनं जगौ । कथमस्य मुनेर्वाक्यमन्यथा भवति क्षितौ ॥५७॥ तन्मदीयमभिप्रायं कथंचिदपि सत्वरम् । द्वारिकापतये यत्नात् प्रापयेति स मत्प्रियः ॥ ५८ ॥ इति श्रुत्वा मनोज्ञात्वा कन्यकायाः पितृष्वसा । विससर्ज रहस्येनं लेखमाप्तेन सत्वरम् ॥ ५९ ॥ स्वन्नामग्रहणाहारप्रीणितप्राणधारिणी । हरे ! काङ्क्षति ते रक्ता रुक्मिणी हरणं श्वया ॥ ६० ॥ शुक्लाष्टम्यां हि माघस्य यदि माधव ! रुक्मिणीम् । त्वमेत्य हरसि क्षिप्रं तवेयमविसंशयम् ॥ ६१ ॥ अन्यथा तु वितीर्णायाश्चैद्याय गुरुबान्धवैः । स्वद्लाभे मवेदस्याः शरणं मरणं हरे ! ॥६२॥ नागवल्यपदेशेन बाह्योद्यानस्थितामिमाम् । तदवश्यं त्वमागत्य स्वीकुरुष्व कृपापरः ॥६३॥ लेखार्थमिति तवार्थमधिगम्य स माधवः । सावधानमनास्तस्थौ रुक्मिणीहरणं प्रति ॥ ६४ ॥
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उत्तम लक्षणोंसे युक्त है अतः लक्ष्मीके समान होनहार नारायण श्रीकृष्णके वक्षःस्थलका आलिंगन प्राप्त करेगी । कृष्णके अन्तःपुरमें स्त्रियोंके योग्य गुणोंसे युक्त सोलह हजार रानियां होंगी, उन सबमें यह प्रभुत्वको प्राप्त होगी - उन सबमें प्रधान बनेगी।' इस प्रकार कहकर अमोघवादी मुनिराज उस समय चले गये और कुछ समय तक कृष्णकी चर्चा अन्तर्हित रही आयी । परन्तु आज नारदने पुनर्जन्मको कथाके समान यह कथा पुनः उठायी है । यदि यह सब सत्य है तो में समझती हूँ कि मुनिराजके उक्त वचन सत्य ही निकलेंगे । परन्तु हे बाले ! विचारणीय बात यह है कि तेरा भाई रुक्मी जो अत्यधिक प्रभावको धारण करनेवाला है वह तुझे बन्धुपनेको धारण करनेवाले शिशुपालके लिए दे रहा है । तेरे विवाहका समय भी निकट है और आज-कलमें तेरे लिए शिशुपाल यहाँ आनेवाला है ॥४९-५६॥
फुआके ऐसे वचन सुन रुक्मिणीने कहा कि मुनिराजके वचन पृथिवीपर अन्यथा कैसे हो सकते हैं || ५७॥ इसलिए आप मेरे अभिप्रायको किसी तरह शीघ्र ही प्रयत्न कर द्वारिकापतिके पास भेज दीजिए। वही मेरे पति होंगे ॥५८॥ कन्याके यह वचन सुनकर तथा उसका अभिप्राय जानकर फुआने शीघ्र ही एक विश्वासपात्र आदमीके द्वारा गुप्त रूपसे यह लेख श्रीकृष्ण के पास भेज दिया || ५९ || लेखमें लिखा था कि हे कृष्ण ! रुक्मिणी आपमें अनुरक्त है तथा आपके नामग्रहणरूपी आहारसे सन्तुष्ट हो प्राण धारण कर रही है । यह आपके द्वारा अपना हरण चाहत है । हे माधव ! यदि माघ शुक्ला अष्टमीके दिन आप आकर शीघ्र ही रुक्मिणीका हरण कर ले जाते हैं तो निःसन्देह यह आपकी होगी । अन्यथा पिता और बान्धवजनोंके द्वारा यह शिशुपाल के लिए दे दी जायेगी और उस दशा में आपकी प्राप्ति न होनेसे मरना ही इसे शरण रह जायेगा अर्थात् यह आत्मघात कर मर जायेगी । यह नागदेवकी पूजाके बहाने आपको नगरके बाह्य उद्यान में स्थित मिलेगी सो आप दयालु हो अवश्य ही आकर इसे स्वीकृत करें ।। ६०-६३॥ इस प्रकार लेखके यथार्थं भावको ज्ञात कर कृष्ण, रुक्मिणीका हरण करने के लिए सावधानचित्त हो गये ॥ ६४ ॥
१. रुक्मिणी म. । २. दीयते म. ।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
कन्यादान कृतारम्भविदर्भेश्वरवाक्यतः । चेदीनामीश्वरः प्राप्तो वैदर्मपुरमादरात् ॥ ६५ ॥ बलेन महता तस्य चतुरङ्गेण रागिणा । मण्डिताशान्तरं जातं कुण्डिनं नगरं तदा ॥६६॥ इतश्चावसरज्ञेन नारदेन रहस्यरम् । चोदितो हरिरप्याप्तो गूढवृत्तः सहाग्रजः ॥ ६७ ॥ दत्त नागवलिः कन्या पुरोपवनवर्तिनी । पितृष्वस्त्रादिभिर्युक्ता माध्वेन निरीक्षिता ॥ ६८ ॥ श्रुतीन्धनसमृद्धोऽनुरागबन्धहुताशनः । अतिवृद्धिं तदा प्राप्तस्तयो दर्शनवायुना ॥ ६९ ॥ कृतोचितकथस्तत्र रुक्मिणीमाह माधवः । त्वदर्थमागतं भद्रे ! विद्धि मां हृदयस्थितम् ॥ ७० ॥ सत्यं यदि मयि प्रेम त्वया बद्धमनुत्तरम् । तदेहि रथमारोह मन्मनोरथपूरणि ॥ ७१ ॥ पितृष्वस्त्राऽपि सावाचि योऽतिमुक्तकभाषितः । स एव तव कल्याणि वरः पुण्यैरिहाहृतः ॥ ७२ ॥ यत्रापि पितरौ मद्रे ! दातारौ दुहितुर्मतौ । तत्राऽपि विधिपूर्वी तौ ततो ज्येष्ठो विधिर्गुरुः ॥ ७३॥ सानुरतां त्रपायुक्तां श्रीमत्यास्तनयां ततः । रथमारोपयद्दोर्भ्यामुत्क्षिप्यामीलितेक्षणः ॥७४॥ निर्वाह कस्तयोरासीत्तदान्योन्यसुखावहः । सर्वाङ्गीणस्तनुस्पर्शः प्रथमो मन्मथार्त्तयोः ॥ ७५ ॥ सुगन्धिमुखनिश्वासस्तयोरन्योन्ययोगतः । वास्यवासक्रमावस्थो वशीकरणतामगात् ॥७६॥ विमुखीकृतचैद्येन संमुखीकृतविष्णुना । विधिनैकेन रुक्मिण्यास्तत्कल्याणमनुष्ठितम् ॥७७॥
इधर कन्यादानकी तैयारी करनेवाले विदर्भेश्वर - राजा भीष्मके कहे अनुसार शिशुपाल आदर के साथ कुण्डिनपुर जा पहुंचा ||६५ || उस समय उसकी रागसे युक्त बहुत भारी चतुरंगिणी सेनासे कुण्डिनपुर के दिग्दिगन्त सुशोभित हो उठे ||६६ || इधर अवसरको जाननेवाले नारदने शीघ्र ही आकर एकान्तमें कृष्णको प्रेरित किया सो वे भी बड़े भाई बलदेवके साथ गुप्त रूप से कुण्डिनपुर आ पहुँचे || ६७ || रुक्मिणी नागदेवकी पूजा कर फुआ आदिके साथ नगरके बाह्य उद्यानमें पहले से ही खड़ी थी सो कृष्णने उसे अच्छी तरह देखा || ६८ || उन दोनोंकी जो अनुरागरूपी अग्नि एक दूसरे के श्रवणमात्र ईंधन से युक्त थी वह उस समय एक दूसरेको देखने रूप वासे अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त हो गयी || ६९ || कृष्णने यथायोग्य चर्चा करनेके बाद वहाँ रुक्मिणीसे कहा कि 'हे भद्रे ! मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ और जो तुम्हारे हृदय में स्थित है वही मैं हूँ || ७० || यदि सचमुच ही तूने मुझमें अपना अनुपम प्रेम लगा रखा है तो हे मेरे मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली प्रिये ! आओ रथपर सवार होओ' ||७१ || फुआने भी रुक्मिणीसे कहा कि हे कल्याणि ! अतिमुक्तक मुनिने जो तुम्हारा पति कहा था वही यह तुम्हारे पुण्यके द्वारा खींचकर यहाँ लाया गया है ||७२ || हे भद्रे ! जहाँ माता-पिता पुत्रोके देनेवाले माने गये हैं वहाँ वे कर्मोके अनुसार ही देनेवाले माने गये हैं इसलिए सबसे बड़ा गुरु कर्म ही है || ७३||
तदनन्तर जिनके नेत्र कुछ-कुछ निमीलित हो रहे थे ऐसे श्रीकृष्णने अनुराग और लज्जासे युक्त रुक्मिणीको अपनी दोनों भुजाओंसे उठाकर रथपर बैठा दिया || ७४|| कामकी व्यथासे पोड़ित उन दोनोंका जो सर्व प्रथम सर्वांगीण शरीरका स्पर्श हुआ था वह उन दोनोंके लिए परस्पर सुखका देनेवाला हुआ था || ७५ || उन दोनोंके मुखसे जो सुगन्धित श्वास निकल रहा था वह परस्पर मिलकर एक दूसरेको सुगन्धित कर रहा था तथा एक दूसरेको वश में करने के लिए वशीकरणमन्त्रपने को प्राप्त हो रहा था || ७६ || रुक्मिणीका वह कल्याण, शिशुपालको विमुख और कृष्णको सम्मुख करनेवाले एक विधि - पुराकृत कर्मके द्वारा ही किया गया था । भावार्थरुक्मिणीका जो कृष्ण के साथ संयोग हुआ था उसमें उसका पूर्वकृत कर्म ही प्रबल कारण था क्योंकि उसने पूर्वनिश्चित योजनाके साथ आये हुए शिशुपालको विमुख कर दिया था और अना
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१. शिशुपालः 1 २ शोभितदिगन्तरालम् । ३. कृष्णरुक्मिण्योः । ४. कल्याणवरः म । ५. तनया म. 1 ६. - रासीदन्योन्य म. ।
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हरिवंशपुराणे रुक्मिणः शिशुपालस्य भीष्मस्थ च हरिस्ततः । रुक्मिणीहरणोदन्तं दत्त्वा रथमचोदयत् ॥७८॥ पाञ्चजन्यमतो दध्मौ मुखरीकृतदिग्मुखम् । सुघोषं तु बलः शङ्ख चुक्षोभारिबलं ततः ॥७९॥ रुक्मी विदितवृत्तान्तः शिशुपालश्च सत्वरौ । धीरौ धीरौ परिप्राप्ती रथिनौ रथिनौ प्रति ॥८॥ रथैः षष्टिसहस्रस्तैः करिणामयुतेन च । त्रिभिः शतसहस्रश्च वाजिनां वायुरंहसाम् ॥४१॥ असिचक्रधनुःपाणिबहुलक्षपदातिभिः । ग्रसमानौ दिशो शेषा निकटत्वमुपागतौ ॥८२॥ अर्धासनसुखासीनां सान्वयन् मीष्मजा हरिः । ग्रामाकरसरःसिन्धुर्दर्शयन् प्रययौ शनैः ॥८३॥ अथ रौद्रं बलं प्राप्तमन्वीक्ष्य हरिणेक्षणा । रुक्मिण्युवाच भरिमपायपरिशङ्किनी ॥८॥ भ्राता मे कुपितः प्राप्तः संप्रत्येष' महारथः । शिशुपालश्च तन्नार्थ न मन्ये स्वन्तमात्मनः ॥८५॥ युवयोः पृथुसेनाभ्यामाभ्यां जाते महारणे । विजयं प्रति संशोतिरहो मे मन्दमाग्यता ॥८६॥ ब्रुवाणामिति तां शार्टी मा भैषीमदुमानसे । बहुत्वेन किमन्येषां मयि सत्ववति स्थिते ॥८७ ॥ इत्युक्त्वाऽसौ क्षुरप्रेण क्षिप्रमप्राकृतास्ववित् । अयस्नेनैव चिच्छेद तालवृक्षं पुरःस्थितम् ॥८॥ अङ्ग लीयकनद्धं च वज्रं संचूर्ण्य पाणिना । तस्याः संदेहमामूलं चिच्छेद यदुनन्दनः ॥४९॥
ततः सा प्राञ्जलिः प्राह प्रियसामर्थ्य वेदिनी । नाथ ! यस्नेन मे भ्राता रक्षणीयस्त्वयाहवे ॥१०॥ यास आये हुए श्रीकृष्णको सम्मुख कर दिया था ।।७७||
तदनन्तर श्रीकृष्णने रुक्मिणीके भाई रुक्मी, शिशुपाल और भीष्मको रुक्मिणीके हरणका समाचार देकर अपना रथ आगे बढ़ा दिया ॥७८।। उसी समय श्रीकृष्णने दिशाओंको मुखरित करनेवाला अपना पांचजन्य और बलदेवने अपना सुघोष नामका शंख फूंका जिससे शत्रुकी सेना क्षोभयुक्त हो गयी ।।७९।। समाचार मिलते ही रुक्मी और शिशुपाल दोनों धीर-वीर, बड़ी शीघ्रतासे रथोंपर सवार हो, धीर-वीर एवं रथोंपर सवार होकर जानेवाले कृष्ण और बलदेवका
करनेके लिए पहुंचे ॥८०|| साठ हजार रथों. दश हजार हाथियों, वायके समान वेगशाली तीन लाख घोड़ों और खड्ग, चक्र, धनुष, हाथमें लिये कई लाख पैदल सिपाहियोंके द्वारा शेष दिशाओंको ग्रस्त करते हुए वे दोनों वीर निकटताको प्राप्त हुए ।।८१-८२।। इधर अर्धासनपर बैठी रुक्मिणीको सान्त्वना देते एवं ग्राम, खानें, सरोवर तथा नदियोंको दिखाते हुए श्रीकृष्ण धोरे-धीरे जा रहे थे ।।८३॥
तदनन्तर भयंकर सेनाको आयी देख मृगनयनी रुक्मिणी अनिष्टकी आशंका करती हुई स्वामीसे बोली कि 'हे नाथ ! क्रोधसे युक्त यह मेरा भाई महारथी रुक्मी और शिशुपाल अभी हाल आ रहे हैं इसलिए मैं अपना भला नहीं समझती ॥८४-८५॥ विशाल सेनासे युक्त इन दोनोंके साथ एकाकी आप दोनोंका महायद्ध होनेपर विजयमें सन्देह है। अहो! मैं बडी मन्द भाग्यवती हूँ' ॥८६-८७॥ इस प्रकार कहती हुई रुक्मिणीसे श्रीकृष्णने कहा कि 'हे कोमल हृदये ! भयभीत न हो, मुझ पराक्रमीके रहते हुए दूसरोंकी संख्या बहुत होनेपर भी क्या हो सकता है ?' इस प्रकार कहकर असाधारण अस्त्रके जाननेवाले श्रीकृष्णने अपने बाणसे सामने खड़े हुए तालवृक्षको अनायास ही काट डाला ॥८८॥ और अंगूठीमें जड़े हुए हीराको हाथसे चूर्ण कर उसके सन्देहको जड़-मूलसे नष्ट कर दिया ॥८९॥
तदनन्तर इन कार्योंसे पतिको शक्तिको जाननेवाली रुक्मिणीने हाथ जोड़कर कहा कि १. संप्रत्येव म.। २. सन्नाथ क.। ३. सप्ताशीतितमात् श्लोकादग्रे घ., ग., ङ., म. पुस्तकेषु निम्नाङ्किता श्लोको अधिकावुपलभ्यते।
तयोक्तं मुनिरादेशः सप्ततालानजन पुमान । यश्छिनत्येकबाणेन स हरि न्यथा शुभे ॥१॥ तद्वचः शौरिणा श्रुत्वा क्रमेणाक्रम्य तत्स्थिरम् । स चिच्छेद क्षुरप्रेणाप्यनृ जुतालमण्डलीम् ।।२।।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः
एवमस्त्विति संत्रस्तां सान्त्वयित्वा प्रियां हरिः । न्यवर्त्तयद्रथं वेगादभ्यमित्रं हली तथा ॥९१॥ रुष्टयोः शरजालेन द्विष्टसैन्यं ततोऽनयोः । श्लिष्टं ननाश विध्वस्त क्लिष्टदर्पमभिद्भुतम् ॥ ९२ ॥
हरिणेव रणे रौद्र हरिण दमघोषजः । हलिना भीष्मजो राजा भीष्माकारः पुरस्कृतः ॥९३॥ द्वन्द्वयुद्धे शिरस्तु शिशुपालस्य पातितम् । दिष्णुना यशसा साकं सायकेन विदूरतः ॥ ९४ ॥ हली जर्जरितं कृत्वा रथेन सह रुक्मिणम् । प्राणशेषमपाकृत्य कृती कृष्णयुतो ययौ ॥९५॥ रुक्मिणी परिणीयासौ गिरौ रैवतके हरिः । विभूत्या परया तुष्टः सबन्धुरविशत् पुरीम् ॥ ९६॥ स्वं विवेश गृहं शीरी रेवतीदर्शनोत्सुकः । शार्ङ्गपाणिरपि प्रीतो नववध्वा युतो निजम् ॥९७॥ पृथिवीच्छन्दः
अनेकरथचक्रचूर्णि विजिगीपुतेजोहरं निरीक्ष्य शिशुपालघाति चरितं हरेराहवे । वपुः स्वमुपसंहरन् करसहस्रतीक्ष्णोऽप्यरं गतोऽस्तगिरिगह्वरं ग्रहणशङ्कयेवांशुमान् ॥९८ ॥ अनेन घनरागिणा समनुवर्त्तिता रागिणी महोदयनिषेविणाप्यनुरतेन पूर्वं तु या । तयाऽस्तमितसंपदं तमनुवृत्तया संध्या कुसुम्भकुसुमामया तदनुरक्तता दर्शिता ॥ ९९॥
हे नाथ! आपके द्वारा युद्धमें मेरा भाई यत्नपूर्वक रक्षणीय है अर्थात् उसकी आप अवश्य रक्षा कीजिए ||१०|| 'ऐसा ही होगा' इस प्रकार भयभीत प्रियाको सान्त्वना देकर श्रीकृष्ण तथा बलभद्रने बड़े वेगसे शत्रुकी ओर अपने रथ घुमा दिये ॥ ९१ ॥ तदनन्तर रोषसे भरे हुए इन दोनों
बाणों समूहसे मुठभेड़ को प्राप्त हुई शत्रुकी सेना चारों ओर भागकर नष्ट हो गयी तथा उसका सब अहंकार नष्ट-भ्रष्ट हो गया || १२ || भयंकर युद्धमें सिंहके समान शूर-वीर कृष्णने शिशुपालको और बलदेवने भयंकर आकारको धारण करनेवाले भीष्मपुत्र राजा रुक्मीको सामने किया ॥९३॥ द्वन्द्व-युद्ध में श्रीकृष्ण ने अपने बाणके द्वारा यशके साथ-साथ शिशुपालका ऊँचा मस्तक दूर जा गिराया ||१४|| और बलदेवने रथके साथ-साथ रुक्मीको इतना जर्जर किया कि उसके प्राण ही शेष रह गये । तदनन्तर कुशल बलदेव कृष्णके साथ वहाँसे चल दिये ||९५ || रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर श्रीकृष्णने विधि पूर्वक रुक्मिणी के साथ विवाह किया और उसके पश्चात् उत्कृष्ट विभूति - से सन्तुष्ट हो भाई -बलदेवके साथ द्वारिकापुरीमें प्रवेश किया ||२६|| रेवतीके देखनेके लिए उत्सुक बलदेवने अपने महल में प्रवेश किया और प्रीतिसे युक्त कृष्णने भी नववधूके साथ अपने महल में प्रवेश किया ||९७||
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तदनन्तर सूर्य अस्त होनेके सम्मुख हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध में अनेक रथोंके चक्र को चूर्ण करनेवाला, विजिगीषु राजाओंके तेजको हरनेवाला एवं शिशुपालका घात करनेवाला कृष्णका चरित देखकर वह अपने आपके पकड़े जानेकी आशंकासे भयभीत हो गया था इसीलिए तो हजार किरणोंसे तीक्ष्ण होनेपर भी वह अपने शरीरको संकुचित कर अस्ताचलकी गुफा में चला गया था ||२८|| प्रातःकाल के समय राग ( प्रेम - पक्षमें ललाई ) से युक्त जिस सन्ध्याको सूर्यंने महाने उदय ( उदय - पक्ष में वैभव ) के धारक होनेपर भी तीव्र राग (प्रेम-पक्ष में ई) हो अपने बदलैके प्रेमसे अच्छी तरह अनुवर्तित किया था अर्थात् सन्ध्याको रागयुक्त देख अपने आपको भी रागयुक्त किया था उस सन्ध्याने अब सायंकाल के समय कुसुम्भके फूलके समान लाल वर्ण हो किरणरूप सम्पत्तिके नष्ट हो जानेपर भी सूर्यके प्रति अपनी अनुरक्तता दिखलायी थी । भावार्थ - 'सूर्यने महान् अभ्युदयसे युक्त होनेपर भी मेरे प्रति राग धारण
१. शान्तयित्वा म. । २. दस्य मित्रं म. । म. । ७ घात – म., ग. ।
३. सिंहेनेव । ४. कृष्णेन । ५. शिशुपालः । ६. द्वन्द्वयुक्ते
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हरिवंशपुराणे
ततोऽञ्जनमहारजोमलिनमूर्त्तिभिर्मोहनैः प्रभञ्जनवशैरिव प्रतिभयावहैरुद्ध तैः । तमःपटलपातकैरभिपतद्भिरत्युन्मुखैः खलैरिव निरन्तरैर्जगदमिहुतं च द्रुतम् ॥१००॥ किरनमृतदीधितिर्बहुलमन्धकारं करैः तृषेव जनलोचनैः सपदि पीयमानस्ततः । जगन्मदन दीपनस्तपनजातसंतापनुत् सुखाय सुखिनामपि प्रकटमुज्जगामोदयम् ॥ १०१ ॥ विकास मगमद् विधोः कुमुदिनी करामर्शनाज्जगत्यखिलजन्तुभिः सह निजप्रियाप्रोषितैः । तदा न खलु पद्मिनी विरहदीप्तचक्राह्वयैरहो प्रमदहेतवोऽपि सुखयन्ति नो दुःखितान् ॥ १०२ ॥ प्रदोषसमये ततो मुषितमानिनीमान के प्रवृत्तवति दम्पतिप्रमदसंपदापादने । सुधाधवलचन्द्रिकाधवलितेषु हर्म्येषु ते मनोज्ञवनितासखास्तु परिरेभिरे यादवाः ॥ १०३ ॥ मुरारिरपि रुक्मिणीतनुलताद्विरेफस्तदा चिरं रमितया तयारमत रम्यमूत्तिनिशि । अशेत शयनस्थले मृदुनि गूढगूढाङ्गनाघेनस्तनभुजाननै स्पर्श लब्धनिद्रासुखः ॥ १०४॥ ततः प्रमितयामिनी निखिलयामभेदा मदप्रसुप्त यदुकामिनीजनमियेव नीचोच्चकैः । क्रमेण पटुपक्षपातसुभगाश्चुकूजुः कलं क्षपाक्षय निवेदिनो विविधचूडकाः कुक्कुटाः ॥ १०५ ॥ तथा प्रथमबुद्धया प्रथमसंध्य येवोषसि प्रशस्तकरपद्मया विहितदेहसंवाहनः । विबुध्य हरिराश्रितां श्रियमिव व्यलोकिष्ट तां रतिव्यतिकरस्फुरत्परिमलां हिया संनताम् ॥ १०६॥
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किया था इसलिए इस विपत्तिके समय मुझे भी इसके प्रति राग धारण करना चाहिए' यह विचारकर ही मानो सन्ध्याने सूर्यास्त के समय लालिमा धारण कर ली ||१९|| तदनन्तर अंजनकी महारजके समान काले, मोह उत्पन्न करनेवाले, प्रचण्ड पवनके समान भयंकर, उद्धत, सब ओर फैलनेवाले, उन्मुख एवं अन्तर-रहित अन्धकारके समूहरूपी पापोंसे जगत् शीघ्र ही ऐसा आच्छादित हो गया मानो दुर्जनोंसे ही व्याप्त हुआ हो ॥१००॥ तत्पश्चात् जो अपनी किरणोंसे गाढ़ अन्धकारको दूर हटा रहा था, मनुष्योंके नेत्र तृषासे पीड़ित होकर ही मानो जिसका शीघ्र पान कर रहे थे, जो जगत् के जीवोंको कामकी उत्तेजना करनेवाला था और जो सूर्यं से उत्पन्न हुए सन्तापको नष्ट कर रहा था ऐसा चन्द्रमा सुखी मनुष्योंके सुखको और भी अधिक बढ़ाने के लिए उदयको प्राप्त हुआ ॥ १०१ ॥ उस समय जगत् में समस्त जीवोंके साथ-साथ, चन्द्रमाकी किरणों के स्पर्शसे कुमुदिनी विकासको प्राप्त हुई और अपनी प्रियासे वियुक्त विरहसे देदीप्यमान चक्रवाकों के साथ-साथ कमलिनी विकासको प्राप्त नहीं हुई सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी मनुष्योंको हर्षंके कारण सुख नहीं पहुँचा सकते || १०२ || तदनन्तर मानवती: स्त्रियोंके मानको हरनेवाले एवं दम्पतियोंको हर्षरूपी सम्पत्ति के प्राप्त करानेवाले प्रदोष कालके प्रवृत्त होनेपर वे यादव अपनी सुन्दर स्त्रियोंके साथ चूनाके समान उज्ज्वल चांदनीसे शुभ्र महलोंमें क्रीड़ा करने लगे ॥१०३॥ जो रुक्मिणीके शरीररूपी लतापर भ्रमर के समान जान पड़ते थे ऐसे सुन्दर शरीरके धारक कृष्ण भी रात्रि के समय चिरकाल तक रमण की हुई रुक्मिणी के साथ क्रीड़ा करते रहे और क्रीड़ाके अनन्तर कोमल शय्यापर उसके गाढ़ आलिंगित स्थूल स्तन, भुजा और मुखके स्पर्शसे निद्रा सुखको प्राप्त कर सो रहे ||१०४ || तदनन्तर रात्रि के समस्त भेदोंको जाननेवाले, उत्तम पंखोंकी फड़फड़ाहटसे सुन्दर, रात्रिके अन्तकी सूचना देनेवाले और नाना प्रकारको क ँगियोंसे युक्त मुर्गे पहले नीची ओर बादमें ऊँची ध्वनिसे सुन्दर बांग देने लगे सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'मदमें सोयी हुई यदुं स्त्रियाँ जाग न जायें' इस भयसे ही वे एक साथ न चिल्लाकर क्रम-क्रम से चिल्लाते थे ।। १०५ || प्रातः कालमें प्रातः सन्ध्याके समान रुक्मिणी पहले जाग गयी और अपने उत्तम करकमलोंसे कृष्णका शरीर दबाने लगी। उसके कोमल हाथोंका
१. सखा सुमुखिनामपि म., ग, घ । २. जघनस्तन ग. । ३. अत्र छन्दोभङ्गः ।
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द्वाचत्वारिंशः सर्गः प्रभातपटहस्फुटध्वननशसंगीतकप्रघोषघनगर्जिताम्बुधिनिनादिनी द्वारिका । गृहं गृहमितोऽमुतो बुधितराजलोकामवद् यथायथमनुष्ठितस्वकनियोगसर्वप्रजा ॥१०॥ परैर्घटितमप्यतो विघटयन पदार्थ सटिस्युपेत्य 'घटयन्पटुर्विघटितं समर्थक्रियः । परं भुवनचक्षुरुज्ज्वलमनिद्रमभ्युद्यो यथा जिनवचःपयो विधिरिवाऽथ वा मानुमान् ॥१०८॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती रुक्मिणीहरणवर्णनो नाम
द्वाचत्वारिंशः सर्गः ॥४२॥
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स्पर्श पा श्रीकृष्ण भी जाग गये और जागकर उन्होंने रतिक्रीड़ाके कारण जिसके शरीरसे सुगन्धि निकल रही थी तथा जो लज्जासे नम्रीभूत थी ऐसी रुक्मिणीको पासमें बेठी लक्ष्मीके समान देखा ॥१०६|| उस समय द्वारिकापुरी प्रातःकालके नगाड़ोंके जोरदार शब्दों, शंखों, मधुर संगीतों
घोंकी उत्कृष्ट गर्जनाके समान समुद्रको गम्भीर गर्जनाके शब्दोंसे गूंज उठी। इधर-उधर घर-घर राजा और प्रजाके लोग जाग उठे तथा यथायोग्य अपने-अपने कार्योंमें सब प्रजा लग गयी ॥१०७।। तदनन्तर जो शीघ्र ही आकर दूसरोंके द्वारा संयोजित पदार्थको यहांसे दूर हटा रहा था, तथा दूसरोंके द्वारा वियोजित पदार्थको मिला रहा था, अत्यन्त चतुर था, समर्थ था, जगत्का उज्ज्वल एवं जागृत रहनेवाला उत्कृष्ट नेत्र था, जो जिनेन्द्र भगवान्के वचनमार्गके समान था अथवा विधाताके समान था ऐसा सूर्य उदयको प्राप्त हुआ। भावार्थ-रात्रिके समय चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र आदि कान्तिमान् पदार्थ अपने साथ अन्धकारको भी थोड़ा-बहुत स्थान दे देते हैं पर सूर्य आते ही साथ उस अन्धकारको पृथिवीतलसे दूर हटा देता है। इसी प्रकार रात्रिके समय चकवा-चकवी परस्पर वियुक्त हो जाते हैं परन्तु सूर्य उदय होते ही उन्हें मिला देता है॥१०८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें रुक्मिणी
हरणका वर्णन करनेवाला बयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४२॥
१. प्रतिपत्य दुर्विघटितं म., ख., घ., ङ. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः सत्यभामागृहाभ्यर्णमाकीर्ण व्यसंपदा । धिष्ण्यं विष्णुर्ददौ दिव्यं रुक्मिण्यै परिवारवत् ॥१॥ महत्तरप्रतीहारीभृत्यादिपरिवारिता । यानाश्वरथयुग्यादि पत्या गौरविताऽतुषत् ॥२॥ ज्ञात्वा भामा हरीष्टां तां भामा मासातिशायिनीम् । सा सेाऽपि हरि धीरा रहः क्रीडास्वरीरमत् ॥३॥ एकदा मुखताम्बूलं निष्टयतं भीप्सजन्मना । सोऽशुकान्तेन संगोप्य सत्यभामागृहं गतः॥४॥ स्वभावमुखसौगन्ध्यबद्धभ्रान्तालिमण्डलम् । अहरत्सत्यमामा तद् भ्रान्त्या सद्गन्धवस्त्विति ॥५॥ वर्णगन्धाढयमापिष्य समालमत चादरात् । हसिता हरिचन्द्रण सा चुक्रोश तमीय॑या ॥६॥ सौभाग्यातिशयं सत्या सपन्या हरिचेष्टितैः । विदित्वा रूपलावण्यं द्रष्टुमभ्युत्सुकाऽमवत् ॥७॥ अवदच्च पति नाथ ! रुक्मिणी मम दशय । श्रोत्रयोरिव संहृष्टिं नेत्रयोरपि मे कुरु ॥८॥ प्रतिपद्य स तदवाक्यमन्तगूढो विनिर्गतः । मणिवाप्यास्तटे कान्ता संस्थाप्य पुनरागतः ॥९॥ आनयामि तवाभीष्टां विशोद्यानमिति प्रियाम् । संप्रेष्यानुगतस्तस्थौ गुल्मसंगूढविग्रहः ।।१०।। तावच्च मणिवाप्यन्ते मणिभूषणधारिणीम् । पादाग्रेण स्थितां चूतलतामालम्ब्य पाणिना ॥३१॥ प्रोल्लमत्स्थूलधम्मिल्ला वामहस्तेन बिभ्रतीम् । स्तनमारनतामूलफलन्यस्तायतेक्षणाम् ॥१२॥
श्रीकृष्णने सत्यभामाके महलके पास, नाना प्रकारको सम्पदाओंसे व्याप्त एवं योग्य परिजनोंसे सहित एक सुन्दर महल रुक्मिणीके लिए दिया ॥१॥ उसे महत्तरिका, द्वारपालिनी तथा सेवक आदि परिजनोंसे युक्त किया। नाना प्रकारके वाहन घोड़े, रथ, बैल आदि दिये तथा पट्टरानी पदसे उसका गौरव बढ़ाया जिससे वह बहुत ही सन्तुष्ट हुई ॥२॥ इधर सत्यभामाको जब पता चला कि श्रीकृष्ण समस्त स्त्रियोंको अतिक्रान्त करनेवाली एक स्त्री लाये हैं और वह उन्हें अत्यधिक प्रिय है तब वह ईर्ष्यासे सहित होनेपर भी बड़ी धीरतासे उन्हें नाना प्रकारकी क्रीड़ाओंमें रमण कराने लगी ॥३॥
एक दिन कृष्ण रुक्मिणीके द्वारा उगले हुए मुखके पानको वस्त्रके छोरमें छिपाकर सत्यभामाके घर गये। वह पान स्वभावसे ही सुगन्धित था और उसपर रुक्मिणीके मुखको सुगन्धिने चार चाँद लगा दिये थे इसलिए उसपर भ्रमरोंका समूह आ बैठा था। 'यह कोई सुगन्धित पदार्थ है' इस भ्रान्तिसे सत्यभामाने उसे ले लिया और उत्तम वर्ण तथा गन्धसे युक्त उस पानके उगालको अच्छी तरह पीसकर अपने शरीरपर लगा लिया। यह देख श्रीकृष्णने उसकी खूब हंसी उड़ायी जिससे वह ईर्ष्यावश उनके प्रति आगबबूला हो गयी ॥४-६।।
___ कृष्णकी चेष्टाओंसे सौतके सौभाग्यका अतिशय जानकर सत्यभामा उसका रूप-लावण्य देखने के लिए उत्सुक हो गयी ।।७।। और एक दिन पतिसे बोली कि 'हे नाथ ! मुझे रुक्मिणी दिखलाइए, कानोंकी तरह मेरे नेत्रोंको भी हर्ष उपजाइए' |८|| सत्यभामाकी बात स्वीकृत कर वे हृदयमें कुछ रहस्य छुपाये हुए गये और मणिमय वापिकाके तटपर रुक्मिणीको खड़ा कर पुनः सत्यभामाके पास आ गये ।।९।। तदनन्तर 'तुम उद्यानमें प्रवेश करो, मैं तुम्हारी इष्ट रुक्मिणीको अभी लाता हूँ' यह कहकर उन्होंने सत्यभामाको तो आगे भेज दिया और आप स्वयं पीछेसे जाकर किसी झाड़ीके ओटमें शरीर छिपाकर खड़े हो गये ।।१०।। मणिमय आभूषणोंको धारण करनेवालो रुक्मिणी मणिमय वापिकाके समीप एक हाथसे आम्रकी लता पकड़कर पंजोंके बल
१. परिचारवत् घ.। २. परिवारताः मः। ३. सत्यभामा। ४. रुक्मिण्या। ५. सोऽशुकान्त्येन म.।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
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निरूपय रुक्मिणी सत्या देवतामिव रूपिणीम् । देवतेयमिति ध्यात्वा विकीर्य कुसुमाञ्जलिम् ॥ १३ ॥ निपत्य पादयोस्तस्याः स्वसौभाग्यमयाचत । विपक्षस्य तु दौर्भाग्यमीयशल्यकलङ्किता ॥ १४॥ अन्तरेऽत्र हरिः सत्यां हारिस्मितमुखोऽवदत् । अपूर्वं दर्शनं स्वस्रोरहो वृत्तं नयान्वितम् ॥१५॥ श्रुत्वा तत्सत्यभामोचे ज्ञाततत्त्वा रुपान्विता । किं भवान्नयदिच्छं नौ दर्शनं किं तवेति तम् ॥ १६॥ कृतकृष्णवचा भामां रुक्मिणी विनयात्ततः । ननाम कुलजातानां विनयः सहजो मतः ॥ १७ ॥ विहृत्य चिरमुद्यानं लतामण्डपमण्डितम् । ताभ्यामघोक्षजो यातो निवृत्तो भवनं निजम् ॥ १८ ॥ ताभ्यामेकदिनौपम्यमनेकेषु दिनेष्वतः । तस्य यात्सु सुखाम्भोधिवत्तिः शौर्यशालिनः ॥१९॥ दुर्योधनोऽन्यदा दूतं हरये प्रियपूर्वकम् । प्रजिघाय धनस्नेहः स हास्तिनपुराधिपः ॥ २० ॥ यः प्रागुत्पत्स्यते यस्या रुक्मिणीसत्यभामयोः । सूनुरुत्पत्स्यमानायाः स वरो दुहितुर्मम ॥२१॥ इति दूतवचः श्रुत्वा प्रीतः संपूज्य तं हरिः । विससर्ज स पत्येऽतः कार्यसिद्धिं न्यवेदयत् ॥२२॥ तां वार्त्तामुपलभ्याऽसौ मामा ' भीष्मात्मजान्तिकम् । व्यसृजन्निजदूतीताः पादयोः प्रणता जगुः ॥२३॥ स्वामिनि ! स्वामिनी नस्त्वामिति वक्ति वचो वरम् । अवतंसमिव श्लाध्यं कुरु कर्णे मनस्विनी ॥ २४ ॥ आवयोः प्रथमं यस्यास्तनयोऽत्र भविष्यति । सुतां दुर्योधनस्यासौ भाविनीं परिणेष्यति ॥ २५ ॥
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खड़ी थी। उस समय वह अपनी अतिशय सुशोभित बड़ी मोटी चोटी बायें हाथसे पकड़े थी । स्तनों के भारसे वह नीचेको झुक रही थी तथा ऊपर लगे हुए फलपर उसके बड़े-बड़े नेत्र लग रहे थे । देवीके समान सुन्दर रूपको धारण करनेवाली रुक्मिणीको देखकर सत्यभामाने समझा कि 'यह देवी है' इसलिए उसने उसके सामने फूलोंकी अंजलि बिखेरकर तथा उसके चरणोंमें गिरकर अपने सौभाग्य और सोतके दौर्भाग्यकी याचना की। वह ईर्ष्यारूपी शल्यसे कलंकित जो थी || ११ - १४ | इसी समय मन्द मन्द मुसकाते हुए श्रीकृष्णने आकर सत्यभामा से कहा कि अहा ! दो बहनों का यह नीतियुक्त अपूर्व मिलन हो लिया ? || १५ || श्रीकृष्ण के वचन सुन सत्यभामा सब रहस्य जान गयी ओर कुपित हो बोली कि अरे ! क्या आप हैं ? हम दोनोंका इच्छानुरूप दर्शन हो इसमें आपको क्या मतलब ? || १६ || तदनन्तर कृष्णके वचन स्वीकारकर रुक्मिणीने सत्यभामाको विनयपूर्वक नमस्कार किया सो ठीक ही है क्योंकि उच्च कुल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के विनय स्वभावसे ही होता है ||१७|| श्रीकृष्ण लतामण्डपोंसे सुशोभित उद्यान में उन दोनों रानियों के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने महल में लौट गये || १८ ||
तदनन्तर सुखसागर में निमग्न एवं पराक्रमसे सुशोभित कृष्णके अनेक दिन उन दोनों रानियोंके साथ जब एक दिनके समान व्यतीत हो रहे थे तब एक दिन अत्यधिक स्नेह से युक्त हस्तिनापुरके राजा दुर्योधनने इस प्रिय समाचार के साथ कृष्णके पास अपना दूत भेजा कि 'आपकी रुक्मिणी और सत्यभामा रानियों में से जिसके पहले पुत्र उत्पन्न होगा वह यदि मेरे पुत्री उत्पन्न हुई तो उसका पति होगा ' ॥ १९ - २१ ॥ दूतके उक्त वचन सुनकर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूतका सम्मान कर उसे विदा किया। दूतने भी अपने स्वामी के लिए कार्य सिद्ध होने का समाचार कह सुनाया ||२२||
यह समाचार सुनकर सत्यभामाने रुक्मिणी के पास अपनी दूतियां भेजीं और वे रुक्मिणी के चरणों में नम्रीभूत हो कहने लगीं कि हे स्वामिनि ! हम लोगोंकी स्वामिनि -- सत्यभामा आपसे कुछ उत्तम वचन कह रही हैं सो हे मानवति ! आभरणकी तरह उस प्रशंसनीय वचनको आप कानमें धारण करें - श्रवण करें। वह वचन यह है कि 'हम दोनों में से जिसके पहले पुत्र होगा वह दुर्योधनकी होनहार पुत्रीको विवाहेगा यह निश्चित हो चुका है । उस विवाह के समय जिनके पुत्र
१. - दित्थं म । २. तवेरितं ग । ३. कृतकृष्णवचो भामा म ग । ४. भीष्मजान्तिकं म. ।
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हरिवंशपुराणे तत्रापत्यविहोनाया विलूनालकबल्लरीम् । 'स्नास्यतस्तामधः कृत्वा पादयोस्तु वधूवरौ ॥२६॥ प्रशस्यं च यशस्यं च यशोभागिनि भागिनि । यदि ते रोचते कार्यमिदमायेंऽनुमन्यताम् ॥२७॥ कर्णामृतमिवाकर्ण्य तन्निवृत्य जगावसौ । तथाऽस्त्विति ततो गत्वा ताः स्वामिन्यै न्यवेदयन् ॥२८॥ रुक्मिणी तु शिरःस्नाता शयिता शयने निशि । स्वप्ने हंसविमानेन विजहार किलाम्बरे ॥२९॥ विबुद्धा च समाचख्यौ पत्ये स्वप्नमसौ जगौ । सुपुत्रस्ते वियच्चारी भविताऽत्र महानिति ॥३०॥ वचः पत्युरसौ श्रुत्वा विकासमगमद् वधूः । तेजसाऽशुमतः श्लिष्टा पभिनीव दिनानने ॥३॥ अवतीर्याऽच्युतेन्द्रस्तु रुक्मिणीगर्ममाश्रितः । पूरयन् परमानन्दमुपेन्द्रस्य जनस्य च ॥३२॥ तत्काले सत्यभामापि शिरसस्नातवती सती । अधत्त स्वश्च्युतं गर्म सुतं सुस्वप्नपूर्वकम् ॥३३॥ वर्धमानौ च तो गर्मों वर्धमानयशोलतौ । वर्द्धमानां मुदं मात्रोः पितुश्चाकुरुतां पराम् ॥३४॥ पूर्वप्रसवमासेऽत्र प्रसूता रुक्मिणी सुतम् । नरलक्षणसंपूर्ण सत्यापि युगपन्निशि ॥३५॥ प्रहिताश्च हितास्ताभ्यां युगपन्निशि वर्द्धकाः । शिरोऽन्ते सत्यया विष्णोः पादान्ते तस्थुरन्यया ॥३॥ प्रबुद्धश्च हरिर्दिष्टपै रुक्मिणीपुत्रजन्मना । आनन्दितो ददौ तेभ्यः स्वास्पृष्ट विभूषणम् ॥३०॥
परावृत्य पुनः पश्यन् सत्यमामाजनैः स्तुतः । पुत्रोत्पत्त्या ददौ तुष्टस्तेभ्योऽप्यर्थ जनार्दनः ॥१८॥ न होगा उसकी कटी हुई केश-लताको पैरोंके नीचे रखकर वधू और वर स्नान करेंगे'। यह कार्य बहुत ही प्रशस्त तथा यशको बढ़ानेवाला है इसलिए हे यशस्विनि ! हे भाग्यशालिनि ! हे आयें ! यदि आपको रुचता है-अच्छा लगता है तो स्वीकृति दीजिए ।।२३-२७॥ कानोंके लिए अमृतके समान आनन्द देनेवाले उस वचनको सुनकर रुक्मिणीने सन्तुष्ट हो 'तथास्तु' कह दिया और दूतियोंने जाकर अपनी स्वामिनी-सत्यभामाके लिए वह समाचार कह सुनाया ॥२८॥
तदनन्तर चतुर्थ स्नानके बाद रुक्मिणी जब रात्रिमें शय्यापर सोयी तब उसने स्वप्नमें हंसविमानके द्वारा आकाशमें विहार किया ॥२९॥ जागनेपर उसने वह स्वप्न पतिदेव श्रीकृष्णके लिए कहा और उसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि तुम्हारे आकाशमें विहार करनेवाला कोई महान् पुत्र होगा ॥३०॥ पतिके वचन सुनकर रुक्मिणी, प्रातःकालके समय सूर्यको किरणोंसे संसर्गको प्राप्त हुई कमलिनीके समान विकासको प्राप्त हुई ॥३१॥ तदनन्तर श्रीकृष्ण तथा अन्य समस्त जनोंके परम आनन्दको बढ़ाता हुआ अच्युतेन्द्र, स्वर्गसे अवतार ले रुक्मिणीके गर्भमें आया ॥३२॥
उसी समय सत्यभामाने भी शिरसे स्नान कर उत्तम स्वप्नपूर्वक स्वर्गसे च्युत हुए पुत्रको गर्भमें धारण किया ॥३३॥ जिनकी यशरूपी लता बढ़ रही थी ऐसे बढ़ते हुए दोनों गर्भोने अपनीअपनी माताओं और पिताके परम आनन्दको वृद्धिगत किया ॥३४॥ प्रसवका महीना पूर्ण होनेपर रुक्मिणीने उत्तम मनुष्यके लक्षणोंसे युक्त पुत्र उत्पन्न किया और उसीके साथ-साथ सत्यभामाने भी रात्रिमें उत्तम पुत्रको जन्म दिया ॥३५॥ दोनों ही रानियोंने हितके इच्छुक एवं शुभ समाचार देनेवाले पुरुष रात्रिके ही समय एक साथ श्रीकृष्णके पास भेजे। उस समय श्रीकृष्ण शयन कर रहे थे इसलिए सत्यभामाके द्वारा भेजे सेवक उनके सिरके पास और रुक्मिणीके द्वारा भेजे सेवक उनके चरणोंके समीप खड़े हो गये ॥३६॥ जब श्रीकृष्ण जगे तो पहले उनकी दृष्टि चरणोंके पास खड़े सेवकोंपर पड़ी। उन्होंने भाग्य-वृद्धिके लिए पहले रुक्मिणीके पुत्र-जन्मका समाचार सुनाया जिससे प्रसन्न होकर कृष्णने उन्हें अपने शरीरपर स्थित आभूषण पुरस्कार में दिये ॥३७॥ तदनन्तर जब कृष्णने मुड़कर दूसरी ओर देखा तो सत्यभामाके सेवकजनोंने उनकी स्तुति कर उन्हें
१. स्नास्येते म., ख., आस्येते ग., अ., प.। २. न्यवेदयत् म.। ३. हरिदृष्ट्ये म. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
५१७ तस्यामेव च वेलायो बलवान् नमसा व्रजन् । धूमकेतुर्विमानस्थो धूमकेतुरिवासुरः ॥३९॥ स्तम्भितेन विमानेन कथंचिदपि विस्मितः । अधोऽवलोकमानोऽसौ विभङ्गज्ञानलोचनः ॥४०॥ रुक्मिण्याः सुतमालोक्य रोषाऽरुणनिरीक्षणः । दर्शनेन्धनसंदीप्तपूर्ववैरविभावसुः ॥४१॥ महारक्षाधिकारस्य परिवारजनस्य सः । रुक्मिण्याश्च महानिद्रां निपात्यापत्यपातकः ॥४२॥ शिशुमुद्धत्य बाहुभ्यां महीध्रमिव गौरवात् । नमः समुद्ययौ नीलो 'नीलबुद्धिमहासुरः ॥४३॥ हस्ताभ्यां किमु मृदुनामि पूर्ववैरिगमेनकम् । खगेभ्यो नखनिर्भिन्नं खे वलि विकिमि किम् ॥४४॥ नक्रचक्रमहारौद्रे मकरग्राहसंकुले । पातयामि समुद्रे किं भद्रं मे द्रोहिणं रिपुम् ॥४५॥ अथवा मांसपिण्डेन मारितेनामुनाऽत्र किम् । त्यतश्चापेतरक्षस्तु स्वयमेव मरिष्यति ॥४॥ इति संचिन्त्य पुण्येन शिशोरेव महासुरः । पश्यन्नवततारातो विदूरखदिराटवीम् ।।४।। अधस्तक्षशिलायास्तं निधायाकमाशु सः। धूमकेतुरिवादृश्यो धूमकेतुरभूत्ततः ॥४८॥ तदनन्तरमेवात्र मेघकूटपुराधिपः । कालसंवर इत्याख्यः साद्धं कनकमालया ॥४९॥ प्राप्तो मौमविहारेण विमानेन वियच्चरः । शिशोस्तस्य प्रभावेण खण्डितास्य गतिस्तदा ॥५०॥ किमेतदित्यसौ ध्यात्वा परं विस्मयमागतः । अवतीर्य शिलां पृथ्वीमुच्छवसन्तीं व्यलोकत ॥५१॥ समुक्षिप्य शिलो स्वरमपसार्य स दृष्टवान् । अक्षताङ्गमनगाभमभकं कनकप्रभम् ॥५२॥
सत्यभामाके पुत्रोत्पत्तिका समाचार सुनाया जिससे सन्तुष्ट होकर कृष्णने उन्हें भी पुरस्कारमें धन दिया ॥३८॥
उसी समय अग्निके समान देदीप्यमान धूमकेतु नामका एक महाबलवान् असुर विमानमें बैठकर आकाशमार्गसे जाता हुआ रुक्मिणीके महलपर आया ॥३९।। आतेके ही साथ उसका विमान रुक गया जिससे कुछ आश्चर्यमें पड़कर वह नीचेकी ओर देखने लगा। वह विभंगावधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाला था ही इसलिए उसके द्वारा रुक्मिणीके पुत्रको देख क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये और दर्शनरूपी ईन्धनसे उसकी पूर्व वैररूपी अग्नि भड़क उठी। उस
आते ही कडी रक्षामें नियक्त पहरेदारोंको, परिवारके लोगोंको तथा स्वयं रुक्मिणीको महानिद्रामें निमग्न कर पुत्रको उठा लिया और वजनमें पर्वतके समान भारी उस पुत्रको दोनों भुजाओंसे लेकर वह मलिनबुद्धि एवं श्यामरंगका धारक महाअसुर आकाशमें उड़ गया ॥४०-४३।। आकाशमें ले जाकर वह विचार करने लगा कि इस पूर्व भवके वैरीको क्या मैं हाथोंसे मसल डालू ? या नखोंसे चीरकर आकाशमें पक्षियोंके लिए इसकी बलि बिखेर हूँ ? अथवा मुझसे द्रोह करनेवाले इस क्षुद्र शत्रुको नाकोंके समूहसे महाभयंकर एवं मगरों और ग्राहोंके समूहसे भरे हुए समुद्रमें गिरा दूँ ? अथवा यह मांसका पिण्ड तो है ही । इसके मारनेसे क्या लाभ है ? यह रक्षकोंसे रहित ऐसा ही छोड़ दिया जायेगा तो अपने-आप मर जायेगा ।।४४-४६।। बालकके पुण्यसे इस प्रकार विचार करता वह महासुर जा रहा था कि दूरसे खदिर अटवीको देख वह नीचे उतरा ॥४७॥ और वहाँ तक्षशिलाके नीचे उस बालकको रखकर वह धूमकेतु नामका असुर, धूमकेतु ताराके समान शीघ्र ही अदृश्य हो गया ।।४८।।
तदनन्तर उसी समय मेघकूट नगरका राजा कालसंवर, अपनी कनकमाला रानीके साथ पृथिवीके समस्त स्थलोंपर विहार करता हुआ विमान-द्वारा आकाश-मागसे वहां आया सो बालकके प्रभावसे उसकी गति रुक गयी ॥४९-५०|| 'यह क्या है' इस प्रकार विचारकर कालसंवर परम आश्चर्यको प्राप्त हआ। नीचे उतरकर उसने हिलती हुई एक बडी मोटी शिला देखी ॥५॥ स्वेच्छासे शिला हटाकर जब उसने देखा तो उसके नीचे अक्षत शरीर, कामदेवके समान आभा१. मलिनाशयः । २. पक्षिम्यः । ३. त्यक्तश्चापदरक्षस्तु म.। ४. विशालाम् ।
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हरिवंशपुराणे गृहीत्वा करुणोपेतः प्रियायै दातुमुद्यतः । तनयस्तेऽनपत्याया गृहाणेति प्रियंवदः ॥५३॥ प्रसार्य करयुग्मं सा पुनः संकोच्य कोविदा । अनिच्छन्तीव संतस्थे खेचरी दीर्घदर्शिनी ॥५४॥ प्रिये ! किमिदमित्युक्ते सा जगौ तव सूनवः । महाभिजनसंपन्नाः सन्ति पञ्चशतानि ते ॥५५॥ तैरज्ञातकुलं दृप्तैस्ताब्यमानं शिरस्य मुम् । न शक्नोमि तदा द्रष्टुं तन्मे वरमपुत्रता ॥५६॥ इत्युक्त सान्त्वयित्वा तां गृहीत्वा कर्णपत्रकम् । युवराजोऽयमित्युक्त्वा पट्टमस्य बबन्ध सः ॥५७।। ततो जग्राह तुष्टा सा तनयं नयशालिनी । सपुत्रौ तौ प्रविष्टौ च मेघकूटपुरं परम् ।।५८॥ गूढगर्भा महादेवी प्रसूता तनयं शुभम् । इति वात्तां पुरे कृत्वा कोविदः कालसंवरः ॥५९।। नृत्य द्विद्याधरीवृन्दै सिञ्जसिञ्जीरबन्धुरम् । तस्य पुण्यनिधानस्य जन्मोत्सवमकारयत् ॥६०॥ प्रकृष्टद्युम्नधामत्वात् प्रद्युम्न इति संज्ञितः । कुमारो वर्द्धते तत्र कुमारशतसेवितः ॥६॥ इतश्च रुक्मिणी सूनुं विबुद्धा नेक्षते यदा । वृद्धधात्रीभिरित्युच्चः सह द्रष्टं ततस्तदा ॥१२॥ विललाप च हा पुत्र ! हृतः केनापि वैरिणा । विधिना निधिमादय नेत्रं मेऽपहृतं कथम् ॥६३।। वियोजिता मया नूनमपत्येन भवान्तरे । काचन स्त्री न हीदृकं भवेरफलमहेतुकम् ॥६४॥ विलापमिति कुर्वन्त्यां रुक्मिण्यां करुणावहम् । रोदनध्वनिरुत्तस्थौ परिवारस्य मांसलः ॥६५॥
वाला एवं सुवर्ण के समान कान्तिमान् वह बालक देखा ॥५२॥ दयासे युक्त हो कालसंवरने उस बालकको उठा लिया और 'तुम्हारे पुत्र नहीं है इसलिए यह तुम्हारा पुत्र हुआ, लो' इस प्रकार मधुर शब्द कहकर अपनी प्रियाको देनेके लिए उद्यत हुआ ।।५३।। पहले तो विद्याधरी कनकमालाने दोनों हाथ पसार दिये पर पीछे चतुर एवं दूर तक देखनेवाली उस विद्याधरीने अपने हाथ संकोच लिये और इस प्रकार खड़ी हो गयी मानो पुत्रको चाहती ही न हो ॥५४॥ 'प्रिये ! यह क्या है ?' इस प्रकार पतिके कहनेपर उसने कहा कि आपके उच्च कुलमें उत्पन्न हुए पांच सौ पुत्र हैं ॥५५॥ सो जब वे इस अज्ञात कुलवाले पुत्रको अहंकारसे उन्मत्त हो शिरमें थप्पड़ मारेंगे तब मैं वह दृश्य देखनेको समथं न हो सकूँगी इसलिए मेरा निपूती रहना ही अच्छा है ॥५६॥
रानीके इस प्रकार कहनेपर कालसंवरने उसे सान्त्वना दी और कानका सूवर्ण-पत्र ले 'यह युवराज है' ऐसा कहकर उसे पट्ट बाँध दिया ॥५७।। तदनन्तर नीति-निपुण कनकमालाने सन्तुष्ट होकर वह पुत्र ले लिया। और पुत्रसहित दोनों मेघकूट नामक श्रेष्ठ नगरमें प्रविष्ट हुए ॥५८॥ अतिशय निपुण राजा कालसंवरने नगरमें यह घोषणा कराकर कि 'गूढ गर्भको धारण करनेवाली महादेवी कनकमालाने आज शुभ पुत्रको जन्म दिया है' पुण्यके भण्डारस्वरूप उस पुत्र का जन्मोत्सव कराया। जन्मोत्सवमें विद्याधरियोंके समूह नृत्य कर रहे थे और उनके नूपुरोंकी रुनझन न्यारी ही शोभा प्रकट कर रही थी ॥५९-६०॥ स्वर्णके समान श्रेष्ठ कान्तिका धारक होनेसे उसका प्रद्युम्न नाम रखा गया। वहां सैकड़ों विद्याधर-कुमारोंके द्वारा सेवित होता हुआ वह प्रद्युम्नकुमार दिनों-दिन बढ़ने लगा ॥६॥
_ इधर द्वारिकापुरीमें जब रुक्मिणी जागृत हुई तो उसने पुत्रको नहीं देखा। तदनन्तर वृद्ध धायोंके साथ उसने उसे जहाँ-तहाँ देखा पर जब प्रयत्न सफल नहीं हुआ तब वह जोर-जोरसे इस प्रकार विलाप करने लगो कि हाय पुत्र ! तुझे कौन हर ले गया है ? विधाताने मेरे नेत्रोंको निधि दिखाकर क्यों छीन ली है ? अवश्य ही मैंने दूसरे जन्ममें किसी स्त्रीको पुत्रसे वियुक्त किया होगा नहीं तो कारणके बिना यह ऐसा फल कैसे प्राप्त होता ? ॥६२-६४॥ रुक्मिणीके इस प्रकार करुण विलाप करनेपर परिवारके लोग भी रोने लगे और इस तरह रोनेका एक जोरदार शब्द उठ खड़ा हुआ ॥६५॥ १. शान्तयित्वा म. । २. पुरम् म.। ३. वृन्दं सिञ्जत् म., ग. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
ततो विदितवृत्तान्तो वासुदेवः सबान्धवः । संप्राप्य सहसा तत्र कलत्रः 'सुकलत्रिभिः || ६६ || आक्रन्दनस्वनप्राप्तसंक्रन्दनपुरःसरः । निनिन्द भुजवीर्यं स्वं प्रमादं च सनन्दकः ||६७ || अवदच्च वचो दक्षो दैवपौरुषयोः परम् । दैवमेव परं लोके धिक् पौरुषमकारणम् ||६८|| अन्यथा कथमुत्खातखड्गधारावभासिनः । हियेत वासुदेवस्य ममापि तनयः परैः || ६९|| इत्यादि बहुवादी स रुक्मिणीमाह मा प्रिये । शोकिनी भूरिहात्यर्थं धीरे ! धारय धीरताम् ॥७०॥ नाल्पः कल्पच्युतः पुत्रो जातस्तव ममापि यः । भवितव्यमिहैतेन भुवने भोगभागिना ॥७१॥ गवेषयामि तल्लोके तं लोकनयनोत्सवम् । सूक्ष्मदृष्टिरिवोबिम्बं प्रतिपञ्चन्दमम्बरे ॥७२॥ सान्त्वयित्वा संघौतकपोलयुगलां प्रियाम् । माधवोऽन्वेषणे सूनोरुपायपरमोऽभवत् ॥ ७३ ॥ काले तत्र हरिं प्राप्तो नारदोऽनारतोद्यमः । श्रुतवार्त्तश्च शोकेन क्षणं निश्चलतां गतः ॥७४॥ आननानि यदूनां स पश्यति स्म सविस्मयः । क्लान्तानि हिमदग्धानि पद्मानीव समन्ततः ॥ ७५ ॥ ततो निरस्तमन्युश्च प्रत्युवाच जनार्दनम् । वीर ! शोककलिं मुञ्च सुतवार्त्तामहं लभे ॥७६॥ योsतिमुक्तक इत्यासीदवधिज्ञानवान् मुनिः । स केवलमयं नेत्रं लब्ध्वा निर्वाणमाश्रितः ॥७७॥ aist नेमकुमारोऽत्र ज्ञानत्रयविलोचनः । जानन्नपि न स ब्रूयान्न विद्मो केन हेतुना ॥ ७८ ॥ अतः पूर्वविदेहेषु गत्वा सीमन्धरं जिनम् । संपृच्छ्य पुत्रवात ते प्रापयामीति नारदः ॥७९॥ दत्तोत्तरो विनिर्गत्य रुक्मिणीभवनं गतः । शोकप्रालेयनिर्दग्धं दृष्ट्वा तन्मुखपङ्कजम् ॥८०॥
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तदनन्तर सब वृत्तान्त जानकर भाई- बान्धवों एवं अन्य सुन्दर स्त्रियोंके साथ कृष्ण भी वहाँ शीघ्र आ पहुँचे । रोनेका शब्द सुनकर बलदेव भी आ गये। अपने नन्दक नामक खड्गको हाथ में लिये श्रीकृष्ण अपनी भुजाओंके पराक्रम तथा अपने प्रमादको निन्दा करने लगे || ६६-६७ || वचन बोलने में अतिशय चतुर श्रीकृष्ण कहने लगे कि 'दैव और पुरुषार्थमें देव हो परम बलवान् है । संसार में इस अकारण पुरुषार्थको धिक्कार है || ६८ || अन्यथा उभारी हुई तलवारकी धारासे सुशोभित मुझ वासुदेवका भी पुत्र दूसरोंके द्वारा किस प्रकार हरा जाता ?" ॥ ६९ ॥ इत्यादि बहुत बोलनेवाले श्रीकृष्णने रुक्मिणीसे कहा कि 'हे प्रिये ! इस विषय में अधिक शोकयुक्त न होओ। हे धीरे ! धीरता धारण करो ||७० || जो पुत्र स्वर्गं से च्युत हो तुम्हारे और हमारे उत्पन्न हुआ है वह साधारण पुत्र नहीं है । उसे इस संसार में अवश्य ही भोगोंका भोगनेवाला होना चाहिए || ७१ || इसलिए जिस प्रकार सूक्ष्म दृष्टि मनुष्य आकाशमें सूक्ष्म विम्बको धारण करनेवाले प्रतिपदाके चन्द्रमाको खोजते हैं उसी प्रकार में लोगोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले तेरे पुत्रको लोक में सर्वत्र खोजता हूँ ॥७२॥
इस प्रकार आँसुओंसे जिसके दोनों कपोल धुल रहे थे ऐसी प्रिया रुक्मिणीको शान्त कर श्रीकृष्ण पुत्रके खोजने में उपाय करने लगे ||७३ | | उसी समय निरन्तर उद्यम करनेवाले नारद ऋषि वहाँ श्रीकृष्णके पास आये और सब समाचार सुनकर शोकसे क्षणभरके लिए निश्चलताको प्राप्त हो गये ||७४|| उन्होंने सब ओर तुषारसे जले कमलोंके समान मुरझाये हुए यादवोंके मुख बड़े आश्चर्यके साथ देखे ||७५ ।। तदनन्तर शोक दूर कर नारदने कृष्णसे कहा कि 'हे वीर ! शोक छोड़ो, मैं पुत्रका समाचार लाता हूँ ||७६ || यहाँ जो अवधिज्ञानी अतिमुक्तक मुनिराज थे वे तो केवलज्ञानरूपी नेत्रको प्राप्त कर मोक्ष जा चुके हैं ||७७|| और जो तीन ज्ञानके धारक नेमिकुमार हैं वे जानते हुए भी नहीं कहेंगे । किस कारणसे नहीं कहेंगे ? यह हम नहीं जानते। इसलिए मैं पूर्वविदेह क्षेत्र में जाकर तथा सीमन्धर भगवान् से पूछकर पुत्रका सब समाचार तेरे लिए प्राप्त कराऊँगा' ||७८-७९ ॥ श्रीकृष्णका उत्तर पा नारद वहाँसे निकल रुक्मिणीके भवन पहुँचे और १. सुनितम्बयुक्तैरित्यर्थः । सकलत्रिभिः म. ग. । २. नन्दकनामखड्गसहितः । ३ तल्लोकं म. ।
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हरिवंशपुराणे
शोकवानपि चित्तेन बहिधयंमुपाश्रितः । अभ्युत्थायार्चितस्तस्या न्यषीदन्निकटासने ॥४१॥ सा तं पितृसमं दृष्ट्वा रुरोदोन्मुक्तकण्ठकम् । सजनोपनिधौ शोकः पुराणोऽपि नवायते ॥८२॥ तस्याः शोकसमुद्रं स प्रक्षिपन्निव दक्षिणः । आह्लादयन्मनोऽवादीदिति नारदसंमुनिः ॥८३॥ त्यज रुक्मिणि ! शोक वं क्वचिज्जीवति ते 'सुतः । कथंचिदपि नीतोऽपि केनचित्पूर्ववैरिणा ॥८॥ दीर्घजीवितसद्भावं ननु तस्य महात्मनः । निवेदयति संभूतिर्वासुदेवात् त्वयि ध्रुवम् ॥८५॥ संयोगाश्च वियोगाश्च प्राणिनां प्राणवत्सले । वरसे भवन्ति संसारे सुखदुःखविधायिनः ॥८६॥ तत्र कर्मवशज्ञानां ज्ञानोन्मीलितधीदृशाम् । प्रभवन्ति न ते वसे यदूनामिव शत्रवः ॥८७॥ जिनशासनतत्त्वज्ञा संसृतिस्थितिवेदिनी । मा भूः शोकवशा वातां त्वत्सुतस्य लभे लघु ॥८८॥ इति तां नारदस्तन्वीमनुशिष्य वचोऽमतः । प्रयातो वियदुत्पत्य सीमन्धरजिनान्तिकम् ॥८९।। 'विषये पुष्कलावत्या नृसुरासुरसेवितम् । नगर्या पुण्डरीकिण्यामहन्तं स तमैक्षत ॥१०॥ कृताञ्जलिपुटस्तोत्रपवित्रीकृतवाग्मुखः । प्रणम्य जिनमासीनः स नरेन्द्र समान्तरे ॥११॥ तत्र पद्मरथश्चक्री पञ्चचापशतोच्छितिः । दशचापोच्छतिं पश्यन्नारदं नरशंसितम् ॥१२॥ कौतुकास्करपद्माभ्यामास्थायापृच्छदीश्वरम् । माकृतिरयं नाथ ! कीटः किमभिधानकः ॥१३॥ ततः प्राह जिनस्तत्त्वं जम्बूद्वीपस्य भारते । नारदो वासुदेवस्य नवमस्य हितोद्यतः ॥१४॥
वहाँ शोकरूपी तुषारसे जले हुए रुक्मिणीके मुख-कमलको देख स्वयं हृदयसे शोक करने लगे परन्तु बाह्यमें धैर्यको धारण किये रहे। रुक्मिणीने उठकर उनका सत्कार किया। अनन्तर वे उसीके निकट आसनपर बैठ गये ॥८०-८१॥ रुक्मिणी पिताके तुल्य नारदको देखकर गला फाड़-फाड़कर रोने लगी सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंके समीप पुराना शोक भी नवीनके समान हो जाता है ।। ८२।। अत्यन्त चतुर नारदमुनि, उसके शोक-सागरको हलका करनेके लिए ही मानो मनको आनन्दित करते हुए इस प्रकार वचन बोले ॥८३॥
हे रुक्मिणी ! तू शोक छोड़, तेरा पुत्र कहीं जीवित है भले ही उसे पूर्वभवका कोई वैरी किसी तरह हरकर ले गया है। श्रीकृष्णसे तुझमें जो उसकी उत्पत्ति हुई है यही उस महात्माके दीर्घायुष्यको सूचित कर रही है ।।८४-८५॥ हे प्रिय पुत्री! तू जानती है कि इस संसारमें प्राणियोंको सुख-दुःख उत्पन्न करनेवाले संयोग और वियोग होते ही रहते हैं ।।८६|| परन्तु जो कर्मों की अधीनताको जाननेवाले हैं एवं ज्ञानके द्वारा उन्मीलित बुद्धिरूपो नेत्रोंको धारण करनेवाले हैं ऐसे यादवोंके ऊपर वे संयोग और वियोग शत्रुओंके समान अपना प्रभाव नहीं जमा सकते हैं ॥८७|| तू तो जिन-शासनके तत्त्वको जाननेवाली एवं संसारको स्थितिकी जानकार है अतः शोकके वशीभूत मत हो। मैं शीघ्र ही तेरे पुत्रका समाचार लाता हूँ ॥८८॥ इस प्रकार वचनरूपी अमृतसे उस कृशांगीको समझाकर नारदमुनि आकाशमें उड़ सीमन्धर भगवान् के समीप जा पहुंचे ॥८९॥ वहाँ पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिणी नगरीमें मनुष्य, सुर और असुरोंसे सेवित सीमन्धर जिनेन्द्रके उन्होंने दर्शन किये ॥९०॥ हाथ जोड़ मुखसे पवित्र स्तोत्रका उच्चारण कर उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया और उसके बाद वे राजाओंकी सभामें जा बैठे ॥९१।।
वहाँ उस समय पांच सौ धनुषकी ऊंचाईवाला पद्मरथ चक्रवर्ती बैठा था। दश धनुष ऊँचे नर-प्रशंसित नारदको देखते ही उसने उन्हें कौतुकवश अपने हस्त-कमलोंसे उठाकर भगवान्से पूछा कि हे नाथ! यह मनुष्यके आकारका कीड़ा कौन-सा है ? और इसका क्या नाम है? ॥९२-९३।। तदनन्तर सीमन्धर भगवान्ने सब रहस्य कहा । उन्होंने बताया कि यह जम्बूद्वीपके , भरत क्षेत्रके नौवें नारायणके हितमें उद्यत रहनेवाला नारद है ।। ९४ ।।
१. सुतं म. । २. विषयेषु म. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
किमर्थमागतो भर्त्तरिहायमिति पृच्छते । मूलतः कथितं सर्वं चक्रिणे धर्मचक्रिणा ॥९५॥ प्रद्युम्न इति नाम्नाऽसौ पितृभ्यां योक्ष्यते पुनः । संप्राप्ते षोडशे वर्षे प्राप्तषोडशलामकः ॥ ९६ ॥ स प्रतिमहाविद्याप्रद्योतितपराक्रमः । देवानामपि सर्वेषामजय्योऽत्र भविष्यति ॥ ९७ ॥ कीदृशं चरितं तस्य हृतो वा केन हेतुना । इति पृष्टो जिनोऽभाणोत्तस्मै नारदसंनिधौ ॥ ९८ ॥
भारतवर्षेऽभूद्विषये मगधामिधे । शालिग्रामेऽग्रजन्मासौ सोमदेव इति श्रुतः ॥ ९९ ॥ अग्निला ब्राह्मणी तस्य स्वाहेवाग्नेः सुखावहा । अग्निभूतिरभूत्तस्या वायुभूतिश्च नन्दनः ॥ १०० ॥ भूमौ भूमौ वेदवेदार्थकोविदौ । छादितान्यद्विजच्छायौ यथा शुक्रबृहस्पती ॥१०१॥ वेदार्थ मावना जातजातिवादातिगवितौ । वाचाटौ चाटुभिः पित्रोर्लालितौ भोगतत्परौ ॥ १०२ ॥ द्विवर्ष स्त्रीषु स्वर्गत्रुद्धिं प्रकृत्य तौ । जातावस्यन्तविद्विष्टौ परलोककथां प्रति ॥ १०३ ॥ अन्यदागस्य संघेन महता नन्दिवर्द्धनः । तत्रोद्याने गुरुस्तस्थौ श्रुतसागरपारगः ||३०४ || तद्वन्दनार्थमद्वन्द्वं चातुर्वर्ण्य महाजनम् । निर्गच्छन्तं समालोक्य कारणं तावपृच्छताम् || १०५ ।। निवेदितं ततस्ताभ्यां द्विजेनैकेन साधुना । महच्छ्रमणसंघस्य वन्दनार्थमिति स्फुटम् ॥१०६॥ अस्मत्परः परः कोऽपि वन्दनीयोऽस्ति भूतले । पश्यामस्तस्य माहात्म्यमिति तौ मानिनौ गतौ ।। १०७ ॥
यह सुन चक्रवर्तीने फिर पूछा कि हे स्वामिन् ! यह यहाँ किसलिए आया है ? इसके उत्तर में धर्मचक्र प्रवर्तक सीमन्धर भगवान्ने चक्रवर्ती के लिए प्रारम्भसे लेकर सब समाचार कहा । साथ ही यह भी कहा कि उस बालकका प्रद्युम्न नाम है। वह सोलहवाँ वर्ष आनेपर सोलह लाभोंको प्राप्त कर अपने माता-पिता के साथ पुनः मिलेगा। प्रज्ञप्ति नामक महाविद्यासे जिसका पराक्रम चमक उठेगा ऐसा वह प्रद्युम्न इस पृथिवीपर समस्त देवोंके लिए भी अजय्य हो जावेगा ।। ९५-९७ ।। चक्रवर्तीने फिर पूछा - 'प्रभो ! प्रद्युम्नका चरित कैसा है ? और वह किस कारण से हरा गया ?' इसके उत्तर में सीमन्धर जिनेन्द्रने चक्रवर्ती के लिए नारदके सन्निधानमें प्रद्युम्नका निम्न प्रकार चरित कहा ||१८||
भरतक्षेत्र सम्बन्धी मगध देशके शालिग्राम नामक गांव में सोमदेव नामका एक ब्राह्मण रहता था || ९९|| अग्निकी स्वाहाके समान उसकी अग्निला नामकी ब्राह्मणी थी जो उसे बहुत ही सुख देनेवाली थी । उस ब्राह्मणीसे सोमशर्मा के अग्निभूति और वायुभूति नामके दो पुत्र हुए ॥१००॥ ये दोनों ही पुत्र, पृथिवीपर वेद तथा वेदार्थ में अत्यन्त निपुण हो गये । इन्होंने अपने प्रभावसे अन्य ब्राह्मणोंकी प्रभाको आच्छादित कर दिया तथा शुक्र और बृहस्पति के समान देदीप्यमान होने लगे || १०१ ॥ वेदार्थको भावनासे उत्पन्न जातिवादसे गर्वित, बकवास करनेवाले, माता-पिता के प्रिय वचनोंसे पले-पुसे ये दोनों पुत्र भोग-वासनामें तत्पर हो गये । जब वे सोलह वर्ष के हुए तो स्त्रियोंको ही स्वर्गं समझने लगे और परलोककी कथासे अत्यन्त द्वेष करने लगे ॥ १०२ - १०३ ॥
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तदनन्तर किसी समय श्रुतरूप सागरके पारगामी नन्दिवर्धन नामके गुरु विशाल संघ के साथ आकर शालिग्राम के बाहर उपवनमें ठहर गये ||१०४ ॥ चारों वर्णके महाजन आकुलतारहित हो उनकी वन्दना के लिए जा रहे थे सो उन्हें देख दोनों ब्राह्मण-पुत्रोंने उसका कारण पूछा || १०५ ॥ तदनन्तर एक सरलस्वभावी ब्राह्मणने उन्हें स्पष्ट बताया कि मुनियोंका एक बड़ा संघ आया है । उसीकी वन्दना के लिए हम लोग जा रहे हैं ॥ १०६ ॥ ब्राह्मणका उत्तर सुन दोनों पुत्र विचारने लगे कि 'पृथिवीतलपर हम लोगोंसे बढ़कर दूसरा वन्दनीय है ही कौन ? चलो हम भी उसका माहात्म्य देखें इस प्रकार विचारकर मानसे भरे दोनों पुत्र उपवनकी ओर चले ||१०७|| १. पृच्छति म. । २. 'महाश्रमण संघस्य' इति सुष्ठु भाति ।
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हरिवंशपुराणे प्राप्तावपश्यतां विप्राववधिज्ञानचक्षुषम् । जनसागरमध्यस्थं साध्विन्द्रं धर्मवादिनम् ।।१०।। महिषाभ्यामिव क्षोमो माभूदाभ्यामिहाधुना । सद्धर्मश्रवणस्येति शुश्रहितबुद्धिना ॥१०॥ साधुनावधिनेत्रेण दूरात्सात्यकिना तकौ । इत आगम्यतां विप्रावित्याहूतौ पुरस्थितौ ॥११०॥ ततो लोकस्तकौ दृष्ट्वा सावष्टम्भौ यतेः पुरः। आपुपूर पयःपूरैः प्रावृषीव महानदः ।।११।। अतः प्राह यतिः प्राप्ती कुतः पण्डितमानिनौ । प्राहतुस्तौ न किं ज्ञाती शालिग्रामादिहागतौ ।।११२।। सात्यकिः प्राह सत्यं भोः शालिग्रामादुपागती। किंत्वनाद्यन्तसंसारे संसरन्तौ कुतो गतेः ॥११३।। अन्यस्यापि च दुर्बोधमेतदित्युदिते यतिः । नैवमित्यगदीद विप्रौ ! यतां कथयाम्यहम् ॥११४॥ ग्रामस्यास्यैव सीमान्ते शृगालौ कर्मनिर्मिती । युवां परस्परप्रीतौ जातौ जन्मन्यनन्तरे ॥११५।। आसीत्प्रवरको नाम्ना ग्रामेऽत्रव कृषीबलः । विप्रः प्रकृष्य स क्षेत्रं महावर्षानिलार्दितः ॥११६॥ मुक्त्वोपकरणं क्षेत्रे वटवृक्षतलेऽखिलम् । कम्पमानशरीरोगात् क्षुद्रोगातिवशीकृतः ॥११७॥ सप्ताहोरात्रवर्षण प्राणिसंहारकारिणा । आोपकरणं ताभ्यां तिर्यग्भ्यां भक्षितं क्षुधा ॥११॥ जातोदरमहाशूलौ प्रसह्यासह्य वेदनाम् । अकामनिर्जरायोगादर्जितेनोर्जितायुषा ।।११९॥
उस समय अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक, साधुशिरोमणि नन्दिवर्धनगुरु, समुद्र के समान अपार जनसमूहके मध्यमें स्थित हो धर्मका उपदेश दे रहे थे। जब दोनों ब्राह्मण उनके पास पहुंचे तब 'भैंसाओंके समान इन दोनोंसे इस समय यहां समीचीन धर्मके श्रवणमें बाधा न आवे' इस प्रकार श्रोताओंका हित चाहनेवाले अवधिज्ञानी सात्यकि मुनिने उन दोनों ब्राह्मणोंको दूरसे देख 'हे ब्राह्मणो ! यहां आइए' इस तरह बुला लिया और आकर वे उनके सामने बैठ गये ।।१०८-११०॥ तदनन्तर उन अहंकारी ब्राह्मणोंको सात्यकि मुनिराजके सामने बैठा देख, लोगोंने आ-आकर उनके सामनेकी भूमिको उस प्रकार भर दिया जिस प्रकार कि वर्षाऋतुमें महानद जलके प्रवाहसे भर देता है। भावार्थ-कौतुकसे प्रेरित हो लोग मुनिराजके पास आ गये ॥१११॥
तदनन्तर मनिराजने कहा कि विद्वानो! आप लोग कहां से आये हैं ? इसके उत्तर में ब्राह्मणोंने कहा कि क्या आप नहीं जानते इसो शालिग्रामसे आये हैं ॥११२॥ सात्यकि मुनिराजने कहा कि हाँ यह तो सत्य है कि आप शालिग्रामसे आये हैं परन्तु यह तो बताइए कि इस अनादिअनन्त संसारमें भ्रमण करते हुए आप किस गतिसे आये हैं ? ||११३।। ब्राह्मणोंने कहा कि यह बात तो हम लोग ही क्या दूसरेके लिए भी दुर्जेय है अर्थात् इसे कोई नहीं जान सकता। . तब मुनिराजने कहा कि हे ब्राह्मणो! सुनो, यह बात नहीं है कि कोई नहीं जान सकता, सुनिए, मैं कहता हूँ ॥११४॥
तुम दोनों भाई इस जन्मसे पूर्व जन्ममें इसी शालिग्रामको सीमाके निकट अपने कमसे दो शृगाल थे और दोनों ही परस्परकी प्रीतिसे युक्त थे ॥११५।। इसी ग्राममें एक प्रवरक नामका ब्राह्मण किसान रहता था। एक दिन वह खेतको जोतकर निश्चिन्त हुआ ही था कि बड़े जोरसे वर्षा होने लगी तथा तीव्र आंधी आ गयी। उनसे वह बहुत पीड़ित हुआ, उसका शरीर कांपने लगा और भूख-रूपी रोगने भी उसको खूब सताया जिससे वह खेतके पास ही वटवृक्षके नीचे अपना चमड़ेका उपकरण छोड़कर घर चला गया ॥११६-११७|| प्राणियोंका संहार करनेवाली वह वर्षा लगातार सात दिन-रात तक होती रही। इस बीचमें दोनों शृगाल भूखसे अत्यन्त व्याकुल हो उठे और उन्होंने उस किसानका वह भीगा हुआ उपकरण खा लिया ॥११८॥ कुछ समय बाद पेटमें बहुत भारी शुलकी वेदना उठनेसे उन दोनों शृगालोंको असह्य वेदना सहन करनी पड़ी। अकामनिर्जराके योगसे उन्हें प्रशस्त आयुका बन्ध हो गया
१. सगीं । २. आययुश्च म. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
कालं कृत्वा युवां जातौ जातिगौरवगवितौ । अग्निभूतिर्मरुभूतिः सोमदेवस्य देहजी ||१२० || पापपाकेन दौर्गत्यं सौगत्यं पुण्यपाकतः । जीवानां जायते तत्र जातिगर्वेण किं वृथा ।। १२१|| प्राप्तः पामरको दृष्ट्वा क्रोष्टारौ नष्टजीवितौ । दृती कृत्वा कृती गेहे तिष्ठतोऽद्यापि तद्वृती ॥१२२॥ सोऽपि 'मृत्वा सुतस्यैव सुतो भूत्वातिमानवान् । जातिस्मरः स्मरच्छायो मृषा मूक इव स्थितः ।। १२३ ।। स एष बन्धुमध्यस्थो मामतीव विलोकते । इत्युक्त्वाहूय तं मूकं सात्यकिः सत्यवाग् जगौ ||१२४।। स एवं पामरको विप्रः प्राप्तस्तोकस्य तोकत । म् । शोकं च मूकभावं च मुञ्च मुञ्च वचोऽमृतम् ॥१२५॥ जायतेऽत्र नटस्येव संसारे स्वाभिभृत्ययोः । पितृपुत्रकयोर्मातृभार्ययोश्च विपर्ययः ।। १२६ ।। घटीयन्त्रघटीजाले जटिले कुटिले भवे । उत्तराधर्यमायान्ति जन्तवः सततभ्रमाः ।।१२७।। इति विज्ञाय निस्सारं घोरं संसारसागरम् । कुरु पुत्र ! दयामूलं व्रताख्यं सारसंग्रहम् ॥ १२८ ॥ इति साक्षात्कृते तेन प्रत्यये यतिना द्विजः । पपात पादयोस्तस्य प्रदक्षिणपुरःसरम् ||१२९ ।। आनन्दास्र परीताक्षः पुनरुत्थाय विस्मयी । जगाद गद्गदालापः कृताञ्जलिपुटालिकः ।। १३०॥ अहो सर्वज्ञकल्पस्त्वं वस्तुनस्तत्त्वमीश्वरः । अत्रैस्थः पश्यसि स्पैष्टं जगस्त्रितयगोचरम् ॥१३१॥ उन्मीलितं मनोनेत्रमज्ञानपटलाविलम्। त्वया नाथ ! ममेहाद्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।। १३२ ।।
और उसके फलस्वरूप मरकर वे सोमदेव ब्राह्मणके जातिके गर्वसे गर्वित अग्निभूत और वायुभूति नामके तुम दोनों पुत्र हुए ||११९ - १२०|| पापके उदयसे प्राणियोंको दुर्गति मिलती है और पुण्यके उदयसे सुगति प्राप्त होती है इसलिए जातिका गर्व करना वृथा है ॥ १२१ ॥ वर्षा बन्द होनेपर जब किसान खेतपर पहुंचा तो वहाँ मरे हुए दोनों शृगालोंको देखकर उठा लाया और उनकी मशकॅ बनवाकर कृत-कृत्य हो गया। वे मशकें उसके घरमें आज भी रखी हैं ॥ १२२ ॥ तीव्र मानसे युक्त प्रवरक भी समय पाकर मर गया और अपने पुत्रके ही पुत्र हुआ। वह काम देवके समान कान्तिका धारक है तथा जाति स्मरण होनेसे झूठ-मूठ ही गूँगाके समान रहता है || १२३|| देखो, वह अपने बन्धुजनोंके बीच में बैठा मेरी ओर टकटकी लगाकर देख रहा है । इतना कहकर सत्यवादी सात्यकि मुनिराजने उस गूँगेको अपने पास बुलाकर कहा कि तू वही ब्राह्मण किसान अपने पुत्रका पुत्र हुआ है । अब तू शोक और गूंगेपनको छोड़ तथा वचनरूपी अमृतको प्रकट कर स्पष्ट बात-चीत कर अपने बन्धुजनोंको हर्षित कर ॥१२४ - १२५ ॥ इस संसार में नटके समान स्वामी और सेवक, पिता और पुत्र, माता तथा स्त्री में विपरीतता देखी जाती है अर्थात् स्वामी सेवक हो जाता है, सेवक स्वामी हो जाता है, पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र पिता हो जाता है, और माता स्त्री हो जाती है, स्त्री माता हो जाती है || १२६ ।। यह संसार रेंट में लगी घटियोंके जालके समान जटिल तथा कुटिल है । इसमें निरन्तर भ्रमण करनेवाले जन्तु ऊँच-नीच अवस्थाको प्राप्त होते ही हैं || १२७|| इसलिए हे पुत्र ! संसाररूपी सागरको निःसार एवं भयंकर जानकर दयामूलक व्रतका सारपूर्ण संग्रह कर ॥ १२८ ॥ इस प्रकार मुनिराजने जब उसके गूँगेपनका कारण प्रत्यक्ष दिखा दिया तब वह तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में गिर पड़ा || १२९ | | उसके नेत्र आनन्द के आंसुओंसे व्याप्त हो गये । वह बड़े आश्चयंके साथ खड़ा हो हाथ जोड़ मस्तकसे लगा गद्गद वाणीसे कहने लगा || १३० ||
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'भगवन्! आप सर्वज्ञके समान हैं, ईश्वर हैं, यहाँ बैठे-बैठे ही तीनों लोक सम्बन्धी वस्तुके यथार्थं स्वरूपको स्पष्ट जानते हैं ॥ १३१ ॥ हे नाथ ! मेरा मनरूपी नेत्र अज्ञानरूपी पटलसे मलिन हो रहा था सो आज आपने उसे ज्ञानरूपी अंजनकी सलाईसे खोल दिया
१. पुत्रस्य । २. पुत्रताम् । ३. अत्रेत्यं म. ग. । ४. स्पृष्टं म ।
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हरिवंशपुराणे अनादौ भवकान्तारे महामोहान्धकारिते । भ्रमतो मे मुने! जातो बन्धुस्त्वं मार्गदर्शनः ॥१३३॥ प्रसीद भगवन् ! दीक्षां देहि दैगम्बरीमिति । प्रसाद्य गुरुमासाद्य जग्राहानुमतां सताम् ॥१३४॥ चरितं तस्य विप्रस्य श्रुत्वा दृष्ट्वा च तादृशम् । श्रामण्यं केचिदापन्नाः केचित् श्रावकतां पराम् ॥१३५॥ तावग्निवायुभूती तु विलक्षौ लोकगर्हितौ । स्वनिकेतं पुनर्याती पितृभ्यामपि निन्दितौ ॥१३६॥ कायोत्सर्गस्थितं रात्रौ मुनिमेकान्तवर्तिनम् । जिघांसू खड्गहस्तौ तौ यक्षेण स्तम्भितौ स्थितौ ॥३०॥ प्रभाते च जनो दृष्ट्वा तौ यतेः पार्श्वयोः स्थितौ। निनिन्द निन्दिताचारौ तावेतौ पातकाविति ॥१३॥ तावचिन्तयतां साधोः प्रमावोऽयमहो महान् । आवामयत्नतो येन स्तम्मिती स्तम्भतां गतौ ॥१३९॥ कथंचिद् यदि मोक्षः स्यादस्माकं कृच्छुतोऽमुतः । जिनधर्म प्रपत्स्यामो दृष्टसामर्थ्यमित्यपि ॥१४॥ तावत्तद्व्यसनं कृत्वा पितरौ शीघ्रमागतौ । पादलग्नौ मुनिं तं तौ प्रसादयितुमुद्यतौ ॥१४१॥ करुणावानसौ योगी योगं संहृत्य सुस्थितः । क्षेत्रपाल कृतं ज्ञात्वा तमाह विनयस्थितम् ॥ ५४२॥ क्षम्यतां यक्ष ! दोषोऽयमनयोरनयोद्भवः । कर्मप्रेरितयोः प्रायः कुरु कारुण्यमङ्गि नोः ॥१४३॥ इत्यासाद्य मुनेराज्ञां राज्ञामिव नियोगतः । यथाज्ञापयसीत्युक्त्वा विससर्ज स तौ तदा ॥१४॥
है ।।१३२।। महामोहरूपी अन्धकारसे व्याप्त इस अनादि संसार-अटवीमें भ्रमण करते हुए मुझे आपने सच्चा मार्ग दिखलाया है इसलिए हे मुनिराज! आप ही मेरे बन्धु हैं ॥१३३।। हे भगवन् ! प्रसन्न होइए और मुझे दैगम्बरी दीक्षा दीजिए !' इस प्रकार गुरुको प्रसन्न कर तथा उनके निकट आ उस गूगे ब्राह्मणने सत्पुरुषोंके लिए इष्ट दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली ।।१३४|| उस ब्राह्मणका पूर्वोक्त चरित सुनकर तथा देखकर कितने ही लोग मुनिपदको प्राप्त हो गये और कितने ही श्रावक अवस्थाको प्राप्त हुए ॥१३५।।।
अग्निभूति और वायुभूति अपने पूर्वभव सुन बड़े लज्जित हुए। लोगोंने भी उन्हें बुरा कहा इसलिए वे चुप-चाप अपने घर चले गये। वहां माता-पिताने भी उनकी निन्दा की ॥१३६।। रात्रिके समय सात्यकि मुनिराज कहीं एकान्तमें कायोत्सर्ग मुद्रासे स्थित थे सो उन्हें अग्निभूति और वायुभूति तलवार हाथमें ले मारना ही चाहते थे कि यक्षने उन्हें कोल दिया जिससे वे तलवार उभारे हुए ज्योंके-त्यों खड़े रह गये ॥१३७॥ प्रातःकाल होनेपर लोगोंने मुनिराजके पास खड़े हुए उन दोनोंको देखा और 'ये वही निन्दित कार्यके करनेवाले पापी ब्राह्मण हैं' इस प्रकार कहकर उनकी निन्दा की ।।१३८॥ अग्निभूति, वायुभूति सोचने लगे कि देखो, मुनिराजका यह कितना भारी प्रभाव है कि जिनके द्वारा अनायास ही कोले जाकर हम दोनों खम्भे-जैसी दशाको प्राप्त हुए हैं ॥१३९।। उन्होंने मनमें यह भी संकल्प किया कि यदि किसी तरह इस कष्टसे हम लोगोंका छुटकारा होता है तो हम अवश्य ही जिनधर्म धारण करेंगे क्योंकि उसकी सामर्थ्य हम इस तरह प्रत्यक्ष देख चुके हैं ॥१४०॥
उसी समय उनका कष्ट सुन उनके माता-पिता शीघ्र दौड़े आये और मुनिराजके चरणोंमें गिरकर उन्हें प्रसन्न करनेका उद्यम करने लगे ॥१४१॥ करुणाके धारक मुनिराज अपना योग समाप्त कर जब विराजमान हुए तब उन्होंने यह सब क्षेत्रपालके द्वारा किया जान विनयपूर्वक बैठे क्षेत्रपालसे कहा कि-'यक्ष ! यह इनका अनीतिसे उत्पन्न दोष क्षमा कर दिया जाये। कर्मसे प्रेरित इन दोनों प्राणियोंपर दया करो' ॥१४२-१४३॥ इस प्रकार राजाओंको आज्ञाके समान मुनिराजकी आज्ञा प्राप्त कर 'जैसी आपकी आज्ञा हो' यह कह क्षेत्रपालने दोनोंको छोड़ दिया ॥१४४॥
१. प्रासाद्य म , ग,। २. वत्ति नौ म., ग.। ३. जिघांसो म., ग. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्ग: मुनिमासाद्य तौ धर्म श्रुत्वा द्विविधमप्यतः । अणुव्रतानि संगृह्य श्रावकत्वमुपागतौ ॥१४५॥ अनपाल्य चि धर्म सम्यग्दर्शनभावितो। कालेन कालधर्मण जाती सौधर्मवासिनी ॥१४६॥ अश्रद्धाय मतं जैनं पितरौ तु मृतौ तयोः । 'जातौ कुयोनिपान्थौ तौ यतो मिथ्यात्वमोहितौ ॥१४७॥ देवी देवसुखं भुक्त्वा च्युत्वाऽयोध्यानिवासिनः । जाती समुद्रदत्तस्य धारियां श्रेष्टिनः सुतौ ॥१४८॥ पूर्णभद्रस्तयोज्येष्ठो मणिमद्रोऽनुजोऽभवत् । अविराधितसम्यक्त्वौ तौ च शासनवत्सलौ ॥१४९॥ गुरोर्महेन्द्रसेनाच्च धर्म श्रुत्वा पितानयोः । तत्पुरेश्वरराजश्च भव्याश्चान्ये प्रवव्रजुः ॥१५०॥ अन्यदा मुनिपूजार्थ रथेन प्रस्थिती पुरः। चाण्डालं सारमेयीं च तौ दृष्टा स्नेहमागतौ ॥१५॥ वन्दित्वा तद्गुरुं भक्त्या पृच्छतः स्म सविस्मयौ । शुनीचाण्डालयोः स्नेहः स्वामिन्नौ किमभूदिति॥१५२॥ गुरुराहावधिज्ञानज्ञातलोकत्रयस्थितिः । विप्रजन्मनि यौ तौ वां पितरौ ताविमौ यतः ॥१५३॥ निशम्येति गरं नत्वा गत्वा तो धर्ममचतुः । मवान्तरकथाप्रायमुपशान्तौ ततस्तकौ ॥१५४॥ निर्वेदी दीनतां त्यक्त्वा त्यक्त्वाहारं चतुर्विधम् । मासेन श्वपचो मृत्वा भूत्वा नन्दीश्वरोऽमरः ॥१५५॥ सारमेयी पुरेऽनव राजपुत्रित्वमागताम् । अबोधयदसावेत्य स्वयंवरगतां सतीम् ॥१५६॥
तदनन्तर मुनिराजके समीप आकर अग्निभूति, वायुभूतिने मुनि और श्रावकके भेदसे दो रका धर्म श्रवण किया और अणव्रत धारण कर श्रावक पद प्राप्त किया ||१४५॥ सम्यग्दर्शनकी भावनासे युक्त दोनों ब्राह्मणपुत्र चिरकाल तक धर्मका पालन कर मृत्युको प्राप्त हो सौधर्म स्वर्गमें देव हुए ॥१४६।। उनके माता-पिताको जैनधर्मकी श्रद्धा नहीं हुई इसलिए वे मिथ्यात्वसे मोहित हो मरकर कुगतिके पथिक हुए ॥१४७।।
अग्निभूति, वायुभूतिके जीव जो सौधर्म स्वर्गमें देव हुए थे, स्वर्गके सुख भोग, वहाँसे च्युत हुए और अयोध्या नगरीमें रहनेवाले समुद्रदत्त सेठकी धारिणी नामक खोसे पुत्र उत्पन्न हुए ॥१४८।। उनमें बड़े पुत्रका नाम पूर्णभद्र और छोटे पुत्रका नाम मणिभद्र था। इस पर्यायमें भी दोनोंने सम्यक्त्वकी विराधना नहीं की थी तथा दोनों ही जिन-शासनसे स्नेह रखनेवाले थे||१४२|| तदनन्तर काल पाकर इन दोनोंके पिता, अयोध्याके राजा तथा अन्य भव्य जीवोंने महेन्द्रसेन गुरुसे धर्म श्रवण कर जिन-दीक्षा धारण कर ली ॥१५०।। किसी समय पूर्णभद्र और मणिभद्र, रथपर सवार हो मुनिपूजाके लिए नगरसे जा रहे थे सो बीचमें एक चाण्डाल तथा कुत्तीको देखकर स्नेहको प्राप्त हो गये ॥१५१॥ ।
मुनिराजके पास जाकर दोनोंने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया। तदनन्तर आश्चर्यसे युक्त हो उन्होंने पूछा कि हे स्वामिन् ! कुत्ती और चाण्डालके ऊपर हम दोनोंको स्नेह किस कारण उत्पन्न हुआ? ॥१५२।।
अवधिज्ञानके द्वारा तीनों लोकोंको स्थितिको जाननेवाले मुनिराजने कहा कि ब्राह्मणजन्ममें तुम्हारे जो माता-पिता थे वे ही ये कुत्ती और चाण्डाल हुए हैं सो पूर्वभवके कारण इनपर तुम्हारा स्नेह हुआ है ।।१५३।। इस प्रकार सुनकर तथा मुनिराजको नमस्कारकर दोनों भाई कुत्ती और चाण्डालके पास पहुंचे। वहाँ जाकर उन्होंने उन दोनोंको धमका उपदेश दिया तथा पूर्वभवको कथा सुनायी जिससे वे दोनों ही शान्त हो गये ॥१५४|| चाण्डालने संसारसे विरक्त हो दोनता छोड़ चारों प्रकारके आहारका त्याग कर दिया और एक माहका संन्यास ले मरकर नन्दीश्वर द्वीपमें देव हुआ ॥१५५।। कुत्ती इसी नगरमें राजाकी पुत्री हुई। इधर राजपुत्रीका स्वयंवर हो रहा था। जिस समय वह स्वयंवरमें स्थित थी उसी समय पूर्वोक्त नन्दीश्वर देवने
१. याती म., ग.।
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हरिवंशपुराणे ज्ञातसंसारनिःसारा सम्यक्त्वपरिभाविता । सितैकवसना कन्या प्रावजन्नवयौवना ॥१५७॥ अनुष्ठाय चिरं श्रेष्टं श्रावकवतमुत्तमम् । संलिख्य भ्रातरौ जातौ सौधर्मे सुरसत्तमौ ॥१५॥ घ्युत्वा पुनरयोध्यायां हेमनामस्य भूपतेः । धरावत्यां सुतौ भूतौ मधुकैटभनामको ॥१५९॥ अभिषिच्य मधं राज्ये यौवराज्ये च कैटमम् । हेमनामो महाभागो व्रतं जैनेन्द्रमग्रहीत् ॥१६॥ मधुकैटभवीरौ तावेकवीरौ धरातले । भूतावद्भुततेजस्कौ सूर्याचन्दमसाविव ॥१६॥ अक्षुण्णः क्षुद्रसामन्तैरन्धकार इवैतयोः । गिरिदुर्गमुपाश्रित्य भीमकः प्रत्यवस्थितः ॥१२॥ तद्वशीकरणार्थ तौ चेलतुर्मधुकैटमौ । प्राप्तौ वटपुरं यत्र वीरसेनोऽवतिष्ठते ॥१६॥ अभ्युद्गतेन तेनासौ प्रीतेन मधुरादरात् । सान्तःपुरेण वीरेण स्वामिभक्स्यातिमानितः ॥१६॥ चन्द्रामा चन्द्रिकेवास्य मानिनी रूपमानिनी । अहरन्मधुराजस्य मनो मधुरमाषिणी १६५॥ शस्त्रशास्त्रकठोरापि चन्द्रामादर्शनान्मधोः । आर्द्रभावमगाद् बुद्धिश्चन्द्रकान्तशिला यथा ॥१६॥ राज्यं यदनया युक्तं रूपसौमाग्ययुक्तया । सुखाय तदहं मन्ये वियुक्तं तु विषोपमम् ॥१६॥ चन्द्रामयोपगूढस्य महोदयमहीभृतः। संपूर्णस्येव चन्द्रस्य कलकोऽप्यतिशोभते ॥१६॥
आकर उसे सम्बोधा ॥१५६।। जिससे संसारको असार जान सम्यक्त्वकी भावनासे युक्त उस नवयौवनवती राजपुत्रीने एक सफेद साड़ीका परिग्रह रख आयिकाको दीक्षा ली ॥१५७||
पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दोनों भाई चिरकाल तक श्रावकके उत्तम एवं श्रेष्ठ व्रतका पालन कर अन्तमें सल्लेखना द्वारा सौधर्म स्वर्गमें उत्तम देव हुए ॥१५८|| पश्चात् स्वर्गसे च्युत होकर अयोध्या नगरोके राजा हेमनाभकी धरावती रानीमें मधु और कैटभ नामक पुत्र हुए॥१५९।। तदनन्तर किसी दिन राज्यगद्दोपर मधुका और युवराजपदपर कैटभका अ कर महानुभाव राजा हेमनाभने जिनदीक्षा धारण कर ली ॥१६०॥ मधु और कैटभ पृथिवीतलपर अद्वितीय वीर हुए । वे दोनों सूर्य और चन्द्रमाके समान अद्भुत तेजके धारक थे ॥१६१॥
तदनन्तर जो क्षुद्र सामन्तोंके द्वारा वशमें नहीं किया जा सका था ऐसा अन्धकारके समान भयंकर भीमक नामका एक राजा पहाड़ी दुर्गका आश्रय पा मधु और कैटभके विरुद्ध खड़ा हुआ सो उसे वश करनेके लिए दोनों भाई चलें। चलते-चलते वे उस वटपुर नगरमें पहुंचे जहां वीरसेन राजा रहता था ॥१६२-१६३।। प्रसन्नतासे युक्त राजा वीरसेनने सम्मुख आकर बड़े आदरसे मधुकी अगवानी की और स्वामि-भक्तिसे प्रेरित हो अपने अन्तःपुरके साथ उसका खूब सम्मान किया ॥१६४॥
राजा वीरसेनकी एक चन्द्राभा नामकी स्त्री थी जो चन्द्रिकाके समान सुन्दर और मानवती थी। म
थी। मधर-मधर भाषण करनेवाली उस चन्द्राभाने राजा मधका मन हर लिया ॥१६५|| जिस प्रकार अत्यन्त कठोर चन्द्रकान्तमणिकी शिला, चन्द्रमाको देखनेसे, आर्द्रभावको प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार शस्त्र और शास्त्रोंके अभ्याससे अत्यन्त कठोर होनेपर भी मधु राजाकी बुद्धि चन्द्राभाको देखनेसे आर्द्रभावको प्राप्त हो गयी ॥१६६|| वह विचार करने लगा कि जो राज्य, रूप और सौभाग्यसे युक्त इस चन्द्राभासे सहित है उसे ही मैं सुखका कारण मानता हूँ और इससे रहित राज्यको विषके समान समझता हूँ ॥१६७॥ जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमाका कलंक भी सुशोभित होता है उसी प्रकार चन्द्राभाके द्वारा आलिंगित मुझ राजाधिराजका कलंक भी शोभा
। भावार्थ-परस्त्रीके सम्पर्कसे यद्यपि मेरा अपवाद होगा-मैं कलंकी कहलाऊँगा तथापि चन्द्रमाके कलंकके समान मेरा वह कलंक शोभाका ही कारण होगा ॥१६८॥ जिस प्रकार
१. सल्लेखनां कृत्वा । २. अक्षुद्रः म., ग. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्ग:
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चन्द्रामासंगसंजातविकासस्य सुगन्धिताम् । कुमुदाकरराजस्य पङ्कगन्धो न बाधते ॥१६९॥ इति संचित्य रागान्धः स तस्या हरणे मनः । न्यधत्त मधुरुर्वीशो मतिमानपि मान्यपि ॥१७०॥ ततो भीमकमुदवृत्तं वशीकृत्य कृती मधुः । अयोध्यापुरमागत्य चन्द्रामाहृतमानसः ॥१७१॥ सान्तःपुरान् स्वसामन्तान् स्वपुरं स्वपुरस्थितान् । सत्वरं सत्त्वसंपन्नः समाहूय यथायथम् ॥१७२॥ सर्वान् संपूज्य संपूज्य विचित्राम्बरभूषणः । विससर्ज निजावासान् प्रसादालादिताननान् ॥१७३॥ अतिसंमान्य सस्त्रीकं तथा वटपुरेश्वरम् । अजीगमदतिप्रीतं प्रीतिपूर्व निजास्पदम् ॥१७४।। चन्द्राभायास्तु यद् योग्यमद्याप्याभरणं वरम् । न सजमिति तावरसा तेन रुद्ध्वा निजीकृता ॥१७॥ प्रभुत्वमखिलस्त्रीणां महादेवीपदेन सः । दत्त्वा कामान् यथाकामं न्यषेवत तया मधुः ॥१७॥ तस्याः कौमारमर्त्ता तु वियोगानलदीपितः । उन्मत्तता परां प्राप्तः पर्यटन् क्षितिमाकुलः ॥१७७।। चन्द्राभालापवार्तिः पुररथ्यास पर्यटन् । धूसरो वीक्षितो जातु प्रासादस्थितया तया ।।१७८॥ जातकारुण्ययावाचि मधुराजस्ततोऽनया। नाथ ! पूर्वपतिं पश्य भ्रमन्तं मे प्रलापिनम् ॥१७१।। तस्मिन्नवसरे चण्डैस्तैः कश्चित्पारदारिकः । गृहीत्वा दर्शितस्तस्मै नृपाय न्यायवेदिने ॥१८॥ किमहो देवदण्डोऽस्य तेनोक्तं सोऽपराधवान् । अत्यन्तपापभागेष तस्मादस्य विधीयते ॥१८॥
चन्द्रिकाके संगसे विकसित कुमुदवनकी सुगन्धिको कीचड़की दुर्गन्ध नष्ट नहीं कर सकती उसी प्रकार चन्द्राभाके संगसे प्रफुल्लित मेरी कीर्तिको अपवादरूपी कीचड़की दुर्गन्ध नष्ट नहीं कर सकेगी ॥१६९॥ राजा मधु यद्यपि बहुत बुद्धिमान् और अभिमानी था तथापि रागसे अन्धा होनेके कारण उसने उक्त विचार कर चन्द्राभाके हरण करने में अपना मन लगाया-उसके हरनेका मनमें पक्का निश्चय कर लिया ॥१७॥
तदनन्तर उच्छृङ्खल राजा भीमकको वशकर कृतकृत्य होता हुआ राजा मधु अयोध्या नगरीमें वापस आ गया। वहां चूकि चन्द्राभाके द्वारा उसका मन हरा गया था इसलिए उसने बड़े उत्साहसे युक्त हो अपने समस्त सामन्तोंको अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ शीघ्र ही अपने नगरमें बुलाया और यथायोग्य नाना प्रकारके वस्त्राभूषणोंसे सबका सत्कारकर उन्हें अपने-अपने घर विदा कर दिया। स्वामीके द्वारा यह सत्कार प्राप्तकर सबके मुख प्रसन्नतासे विकसित हो रहे थे। वटपुरका राजा वीरसेन भी अपनी स्त्री चन्द्राभाके साथ वहां आया था सो राजा मधुने उसका बहुत भारी सत्कार कर उसे यह कहकर अपने घरके लिए विदा कर दिया कि चन्द्राभाके योग्य आभूषण अभी तक तैयार नहीं हो सके हैं इसलिए तैयार होनेपर भेज देंगे। भोला-भाला वीरसेन चला गया और चन्द्राभाको रोककर राजा मधुने अपनी स्त्री बना ली। महादेवीका पद देकर उसने चन्द्राभाको समस्त स्त्रियोंका प्रभुत्व प्रदान किया। इस प्रकार वह उसके साथ मनचाहे भोग भोगने लगा ॥१७१-१७६।। इधर चन्द्राभाका पहलेका पति उसकी विरहरूपी अग्निसे प्रदीप्त हो अत्यधिक उन्मत्तताको प्राप्त हो पृथिवीपर बड़ी व्यग्रतासे इधर-उधर घूमने लगा ॥१७७॥ एक दिन वह 'चन्द्रामा चन्द्राभा' इस प्रकारके आलापकी वार्तासे दुखी हुआ धूलि-धूसरित हो नगरको गलियोंमें घूम रहा था कि महलपर खड़ी चन्द्राभाने उसे देख लिया॥१७८॥ देखते ही के साथ उसके हृदय में दया उमड़ आयी। उसने पास ही बैठे राजा मधुसे कहा कि हे नाथ ! देखो यह मेरा पूर्व पति कैसा प्रलाप करता हुआ घूम रहा है ।।१७९।।
उसी अवसरपर कुछ क्रूर कर्मचारियोंने परस्त्रीसेवन करनेवाले किसी पुरुषको पकड़कर न्यायके वेत्ता राजा मधुके लिए दिखाया और कहा कि हे देव ! इसके लिए कौन-सा दण्ड योग्य है ? राजा मधुने उत्तर दिया कि यह अपराधी अत्यन्त पापी है इसलिए इसके हाथ पांव तथा १. यातकारुण्यया म., ग.। २. किमिह म. ।
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हरिवंशपुराणे
हस्तपादशिरच्छेदं देहदण्डं भयास्पदम् । देव्या चोक्तं तदा देव ! अयं दोषो न किं तव ॥१८॥ तद्वचसा स म्लानो हि हिमानीहतपनवत् । चिन्तयेदनया तथ्यं ममोक्तं हितमिच्छया ।।१८।। परस्त्रीहरणं सत्यं दुर्गतेदुःखकारणम् । ज्ञात्वा विरागिणं कान्तमूचे सापि विरागिणी ॥१८४।। कि मोगैरीदृशैः कृत्यं परस्त्रीविषयैः प्रमो । किंपाकसदृशैः स्वामिन् ! दुःखदैः प्रीणकैरपि ।।४५|| मोगास्ते स्वपरयोयें नोपतापस्य हेतवः । सम्मताः साधुलोकस्य नेतरे विषयात्मकाः ॥१८६।। इति प्रबोध्यमानोऽयं मधुश्चन्द्रामया शनैः । मुमोच सुदृढीभूतं मोहकादम्बरोमदम् ।।१८७।। जगाद च स तां देवी प्रसन्नमतिरादरात् । साधु ! साधु ! स्वया साधि ! प्रतिपादितमत्र मे ॥१८॥ न युक्तमीदशं कर्म पुंसामाचरितु सताम् । परपीडाकरं वाढं परत्रेह च पापकृत् ॥१८॥ मादक्षोऽपि यदीदक्षं कर्म लोकविगर्हितम् । करोति तत्र किं वाच्यमव्युत्पन्नः पृथग्जनः ।।१९०॥ स्वकलत्रेऽपि यत्रायं रागोऽत्यर्थ निषेवितः । कर्मबन्धस्य हेतुः स्यात् किं पुनः परयोषिति ।।१९।। ज्ञानाङ्कशनिरुद्धोऽपि मनोमत्तमहाद्विपः । उरथेन नयत्युग्रः किमत्र कुरुते बुधः ।।।१२।। निरुद्धय निशितैर्दण्डैरनङ्कुशमनोगजम् । प्रवर्तयन्ति ये माग केचिदेवात्र ते भटाः ॥१९३।। दण्डैर्मनोगजो मत्तो रतिवासितया हृतः । यावन्न युज्यते तावत् कुतस्तस्य मदक्षतिः ॥१९॥ प्रयत्नेन मनोहस्ती यावन्नात्र वशीकृतः । तावदारोहकस्यापि भयायैव न शान्तये ॥१९५॥
शिर काटकर इसे भयंकर शारीरिक दण्ड दिया जाये। देवी चन्द्राभाने उसी समय कहा कि हे देव ! क्या यह अपराध आपने नहीं किया है ? आपने भी तो परस्त्रीहरणका अपराध किया है ।।१८०-१८२॥ चन्द्राभाके उक्त वचन सुनते ही राजा मधु तुषारसे पीड़ित कमलके समान म्लान हो गया-उसके मुखको कान्ति नष्ट हो गयो । वह विचार करने लगा कि मेरा हित चाहने वाली इस चन्द्राभाने यह सत्य ही कहा है ॥१८३॥ सचमुच ही परस्त्रीहरण दुर्गतिके दुःखका कारण है। पतिको विरागी देख चन्द्राभाने भी विरक्त हो कहा कि हे प्रभो! इन परस्त्रीविषयक भोगोंसे क्या प्रयोजन है ? हे नाथ! ये भोग यद्यपि वर्तमानमें सुख पहुंचानेवाले हैं तथापि परिपाक कालमें किपाक फलके समान दुःखदायी हैं । सज्जन पुरुषोंको वे ही भोग इष्ट होते हैं जो निज और पर के सन्तापके कारण नहीं हैं । अन्य विषयरूप भोगोंको सत्पुरुष भोग नहीं मानते ॥१८४-१८६॥
चन्द्राभाके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर राजा मधुने धीरे-धीरे मोहरूपी मदिराके सुदृढ़ मदको छोड़ दिया ॥१८७॥ और बड़ी प्रसन्नतासे आदरपूर्वक उससे कहा कि ठीक, ठोक, हे साध्वि ! तुमने बहुत अच्छी बात कही ॥१८८। यथार्थमें सत्पुरुषोंको ऐसा काम करना उचित नहीं जो परलोक तथा इस लोकमें दूसरोंको पीड़ा पहुँचानेवाला तथा पापको बढ़ानेवाला हो ।।१८९॥ जब मेरे जैसा प्रबुद्ध व्यक्ति भी ऐसा लोक-निन्द्य कार्य करता है तब अविवेकी साधारण मनुष्यको तो बात ही क्या है ? ॥१९०॥ जहां अपनी स्त्रीके विषयमें भी सेवन किया हुआ यह अत्यधिक राग कमंबन्धका कारण है वहां परस्त्रीविषयक रागको तो कथा ही क्या है ? ॥१९१॥ यह मनरूपी मदोन्मत्त महा हाथी ज्ञानरूपी अंकुशसे रोके जानेपर भी इस जीवको कुमार्गमें ले जाता है। यहां विद्वान् क्या करे ? ॥१९२।। जो इस अनंकुश मनरूपी गजको तीक्ष्ण दण्डोंसे रोककर सुमार्गमें ले जाते हैं ऐसे शूर-वीर पुरुष संसारमें विरले ही हैं ।।१९३|| रतिरूपी हस्तिनीके द्वारा हरा हुआ यह मनरूपी मत्त हाथी जबतक इन्द्रिय-विजयरूपी दण्डोंसे युक्त नहीं किया जाता है तबतक इसके मदका नाश कैसे हो सकता है ? ॥१९४|| यह मनरूपी हाथी जबतक प्रयत्नपूर्वक वशमें नहीं किया गया है तबतक यह चढ़नेवालेके लिए भयका ही कारण रहता है, शान्तिका नहीं ॥१९५।।
१. तद्वचसामलाभो हि हेमन्ते पद्मवन्नृपः ग.। २. मदक्षितिः म., ग. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
सुवशस्तु मनोहस्ती तपोमयरणक्षितौ । पापसेनां निगृह्णाति साध्वाधोरणनोदितः ॥ ९९६ ॥ शब्दरूप रसस्पर्शगन्धसस्याभिलाषिणः । हृषीक मृगयूथस्य मनोमारुतहारिणः ॥ १९७॥ निरुध्य प्रसभं धैर्यं दृढवातुरया चितम् । चिरसंचितपापस्य करोमि तपसा क्षयम् ॥१९८॥ इत्याभाष्य मनोवेगं निगृह्य विदधे मधुः । धियं बोधपयोधौ तां तापस्ये तापशान्तये ॥ १९९॥ आगस्य च तदाऽयोध्यां नाम्ना त्रिमलवाहनः । मुनिर्मुनिसहस्रेण सहस्राम्रवनेऽवसत् ॥ २००॥ मधुः सकैटभः श्रुत्वा तमयात्लवधूजनः । प्रपूज्य विधिना धर्म शुश्राव च विशेषतः ॥ २०१ ॥ भोगसंसारशारीर पुरवैराग्यसंगतः । प्रवव्राज सह भ्रात्रा क्षत्रियैर्बहुभिर्मधुः ॥ २०२ ॥ विशुद्धान्वय संभूताः शतशोऽथ सहस्त्रशः । प्राव्रजन् व्रतशीलाढ्याश्चन्द्रामाद्या नृपस्त्रियः ॥२०३॥ माधवोऽपि निजं राज्यं ररक्ष कुलवर्धनः । वर्धमानः शरीरेण पौरुषेण जयेन च ॥ २०४ ॥ चक्रतुस्तौ तपो घोरं राजानौ मधुकैटभौ । व्रतगुप्तिसमित्याढ्यौ निर्ग्रन्थौ ग्रन्थवर्जितौ ॥ २०५ ॥ एक एव तयोरासीदङ्गोपाङ्गपरिग्रहः । न बाह्याभ्यन्तरासंगादङ्गोपाङ्गपरिग्रहः ॥ २०६ ॥ षष्टाष्टमादिषण्मासपर्यन्तोपोषितावृषी । निःशेषैरागमोक्तस्तौ चक्रतुः कर्मनिर्जराम् ॥२०७॥ उत्तुङ्गगिरिश्टङ्गेषु तयोरातापनस्थयोः । स्वेदस्य बिन्दवः पेतुर्विलीनस्येव कर्मणः ॥ २०८ ॥ वर्षा जीवरक्षार्थं वृक्षमूलस्थयोर्वपुः । युधीव शरधाराभिर्न मिन्नं धृतिकण्टकम् ॥ २०९ ॥
इसके विपरीत अच्छी तरह वशमें किया हुआ मनरूपी हाथी, साधुरूपी महावतके द्वारा प्रेरित हो तपरूपी रणभूमि में पापरूपी सेनाको अच्छी तरह रोक लेता है || १९६ || शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्धरूपी धान्यकी अभिलाषा रखनेवाले एवं मनरूपी वायुसे प्रेरित हो चौकड़ी भरनेवाले इस इन्द्रियरूपी मृगोंके झुण्डके संचित धैर्यको ध्यानरूपी मजबूत जालसे जबरदस्ती रोककर मैं तपके द्वारा चिरसंचित पापका अभी हाल क्षय करता हूँ ।।१९७-१९८|| इस प्रकार कहकर तथा मनके वेगको रोककर राजा मधुने ज्ञानरूपी जलसे धुली हुई अपनी बुद्धिको सन्तापकी शान्तिके लिए तपश्चरण में लगाया ॥ १९९ ॥
उसी समय विमलवाहन नामक मुनिराज एक हजार मुनियोंके साथ अयोध्या नगरी में आकर उसके सहस्राम्रवनमें ठहर गये || २००|| मुनियोंके आगमनका समाचार सुन राजा मधु, अपने छोटे भाई कैटभ और स्त्रीजनोंके साथ उनके दर्शन करनेके लिए गया । विधिपूर्वक उनकी पूजा कर उसने विशेष रूप से धर्मश्रवण किया || २०१ ॥ तथा भोग, संसार, शारीरिक सुख एवं नगर आदिसे विरक्त हो उसने भाई कैटभ तथा अन्य अनेक क्षत्रियोंके साथ जिन दीक्षा ले ली || २०२|| विशुद्ध कुलमें उत्पन्न तथा व्रत और शीलसे युक्त चन्द्राभा आदि सैकड़ों-हजारों रानियाँ भी दीक्षित हो गयीं - आर्यिका बन गयीं ॥ २०३ || राजा मधुके बाद उसका पुत्र कुलवर्धन, जो शरीर, पुरुषार्थं तथा विजयसे निरन्तर बढ़ रहा था अपने कुलकी रक्षा करने लगा || २०४ ||
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राजा मधु और कैटभ घोर तप करने लगे । वे व्रत गुप्ति और समिति से युक्त थे तथा परिग्रहसे रहित निर्ग्रन्थ- मुनिराज थे || २०५ ॥ उस समय उन दोनोंके एक अंगोपांग ही परिग्रह था अथवा बाह्य और आभ्यन्तर आसक्तिका अभाव होनेसे अंगोपांग भी परिग्रह नहीं था || २०६ || वे दोनों मुनि वेला-तेलाको आदि लेकर छह-छह माह के उपवास करते थे और आगममें प्रतिपादित समस्त आचरणोंसे कर्मोंकी निर्जरा करते थे || २०७|| जब कभी वे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की चोटियोंपर आतापन योग लेकर विराजमान होते थे तब उनके शरीर से पसीनाकी बूँदें टपकने लगती थीं और ऐसो जान पड़ती थीं मानो कर्म ही गल-गलकर नीचे गिर रहे हों || २०८ || वर्षाऋतु जीवोंकी रक्षा
१. जलधाराभिः पक्षे बाणधाराभिः । २. धैर्यकवचयुक्तम् ।
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हरिवंशपुराणे
यामिनीषु मनीषिभ्यां हैमनीषु हिमानिलाः । सेहिरे प्रतिमास्थाभ्यां देहच्छायाग्जिनीप्लुषः ॥२१०॥ अनुप्रेक्षामिरुद्धाभिर्धर्मचारित्रशुद्धिभिः । चक्रतुः संवरं धीरौ परोषहजयेन च ॥ २११ ॥ स्वाध्याय ध्यानयोगस्थौ बैय्यावृत्यक्रियोद्यतौ । रत्तत्रयविशुद्धया तौ दृष्टौ दृष्टान्ततां गतौ ॥ २१२ ॥ बहुवर्षसहस्राणि संचितोरुतपोधनौ । मधुकैटभयोगीशौ शल्यदोषविवर्जितौ ॥ २१३ ॥ अन्ते संमेदमारुह्य प्रायोपगमनेन तौ । मासक्षपणयोगेन समाराध्योज्झिताङ्ग कौ ॥ २१४ ॥ आरणाच्युतकल्पे ताविन्द्रसामानिकौ प्रभू । देवीदेवसहस्राणां 'जातौ प्रत्येकमीश्वरौ ॥ २१५ ॥ द्वाविंशतिपयोराशिप्रमाणपरमायुषौ । बुभुजाते सुखं सम्यक् सम्यग्दर्शन मावितौ ॥ २१६ ॥ अवतीर्यं मधुर्जातो रुक्मिणीकुक्षि भूमणिः । कृष्णस्य मारते पुत्रो नाम्ना प्रद्युम्न इत्यसौ ॥२१७॥ कैटभोऽपि दिवइच्युत्वा भ्रातास्यैव भविष्यति । जाम्बवत्यां महादेव्यां शम्बः कृष्णनिमद्युतिः ॥२१८॥ जन्मान्तरमहाप्रीत्या परस्परहितोद्यतौ । धीरौ चरमदेहौ तौ शम्बप्रद्युम्नसुन्दरौ ॥ २१९ ॥ कान्ताविरह संतापादार्तध्यानपरायणः । भ्रान्त्वा संसारकान्तारं चिरं वटपुरप्रभुः || २२० ॥ मनुष्यभावमापन्नः स भूत्वाऽज्ञानतापसः । धूमकेतुरिवोद्दीप्तो धूमकेतुरभूत्सुरः ।। २२१ ।।
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के लिए वे विहार बन्द कर वृक्षोंके नीचे विराजमान रहते थे। उस समय धैर्यरूपी कवचको धारण करनेवाला उनका शरीर युद्धमें बाणोंकी पंक्तिके समान जलकी धाराओंसे खण्डित नहीं होता था । भावार्थ - वर्षा योगके समय वे वृक्षोंके नीचे बैठते थे और जलकी अविरल धाराओंको बड़े
के साथ सहन करते थे || २०९ || हेमन्त ऋतुकी रात्रियों में वे प्रतिमा योगसे विराजमान रहकर शरीर की कान्तिरूपी कमलिनीको जलानेवाली तुषार वायुको बड़ी शान्तिसे सहन करते थे || २१०|| वे दोनों धीर, वीर, मुनिराज, उत्तम अनुप्रेक्षाओं, दशधर्मों, चारित्रको शुद्धियों और परीषह जयके द्वारा संवर करते थे || २११ || वे स्वाध्याय, ध्यान तथा योग में स्थित रहते थे, वैयावृत्त्य करने में उद्यत रहते थे और रत्नत्रयकी विशुद्धता के द्वारा दृष्टान्तपनेको प्राप्त देखे गये थे || २१२ || इस प्रकार अनेक हजार वर्षं तक जिन्होंने तपरूपी विशाल धनका संचय किया था और जो शल्यरूपी दोषसे सदा दूर रहते थे ऐसे मधु और कैटभ मुनिराज अन्तमें सम्मेदाचलपर आरूढ़ हुए और वहां एक महीने का प्रायोपगमन संन्यास लेकर उन्होंने समाधिपूर्वक शरीरका त्याग किया ।। २१३-२१४॥ शरीर त्यागकर वे आरण और अच्युत स्वर्गमें हजारों देव-देवियोंके स्वामी इन्द्र और सामानिक देव हुए || २१५ || वहां बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयुको धारण करनेवाले वे दोनों सम्यग्दृष्टि देव स्वर्गके उत्तम सुखका उपभोग करने लगे || २१६॥
उनमें जो मधुका जीव था वह स्वर्गसे च्युत हो भरत क्षेत्रमें कृष्ण नारायणकी रुक्मिणी रानीके उदररूपी भूमिका मणि बन प्रद्युम्न नामक पुत्र हुआ || २१७ || और जो कैटभका जीव था वह भी स्वर्गसे च्युत हो कृष्णकी जाम्बवती पट्टरानी में कृष्णके समान कान्तिको धारण करनेवाला प्रद्युम्नका शम्ब नामका छोटा भाई होगा || २१८ || प्रद्युम्न और शम्ब दोनों ही भाई अत्यन्त धीरवीर चरमशरीरी एवं सुन्दर थे और दूसरे जन्मसम्बन्धी महाप्रीतिके कारण परस्पर एक दूसरेके हित करने में उद्यत रहते थे ॥ २१९ ॥
वटपुरका स्वामी राजा वीरसेन चन्द्राभाके विरहजन्य सन्तापसे आतंध्यान में तत्पर रहता हुआ चिर काल तक संसाररूपी अटवीमें भ्रमण करता रहा || २२० || अन्तमें मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर वह अज्ञानी तापस हुआ और आयुके अन्तमें मरकर धूमकेतु - अग्नि के समान प्रचण्ड धूमकेतु नामका देव हुआ || २२१||
१. याती म. ।
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त्रिचत्वारिंशः सर्गः
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प्रास्त्रीवैरानुबन्धेन स प्रबोधमुपेयुषा । शिशुं व्ययोजयन्मात्रा धिग्वरं पापवर्धनम् ।।२२२॥ प्रद्युम्नो रक्षितोऽपायात्स्वपुण्यः पूर्वसंचितैः । पुण्यानामेव सामर्थ्यमपायपरिरक्षणे ॥२२३।। सीमंधरजिनेन्द्रेण तदानीमिति भाषितम् । श्रुत्वा पद्मरथश्चक्री प्रणनाम प्रमोदवान् ॥२२४॥ नारदोऽपि जिनं नस्वा प्रमोदेन वशीकृतः । समुत्पत्य मरुन्मार्गे मेघकूटं समाययौ ॥२२५।। कालसंवरमानन्ध पुत्रलाभोरसवेन सः । देवी कनकमालां च स्तुत्वा पुत्रवतीं मुहुः ।।२२६।। रुक्मिण्यास्तनुजं दृष्ट्वा कुमारशतसेवितम् । गूढवृत्तप्रमोदेन रोमाञ्चमभजत्परम् ।।२२७।। प्रणामेनार्चितस्तेषां दत्त्वाशिषमतिदूतम् । वियदुत्पत्य संप्राप्तो द्वारिकां नारदो मुनिः ॥२२॥ यथागतं यथादृष्टं यथाश्रुतमशेषतः । स प्रद्युम्नकथां कृत्वा यादवेभ्यो मुदं ददौ ॥२२९॥ देवीं च रुक्मिणीं दृष्ट्वा विकासिमुखपङ्कजः । सीमंधरजिनेन्द्रोक्तं प्रतिपाद्य पुनर्जगौ ॥२३०॥ दृष्टो रुक्मिणि ते पुत्रो मया क्रीडन् कुमारकः । खचरेशगृहे देवकुमार इव रूपवान् ॥२३ ॥ लब्धषोडशलामोऽयं कृतप्रज्ञप्तिसंग्रहः । अमोघं षोडशे वर्षे समेष्यति सुतस्तव ॥२३२॥ 'तस्यागमनवेळायामुद्याने तव रुक्मिणि । शिखी कृजिष्यतेऽस्युच्चैरकाले प्रियसूचनः ॥२३३॥ शुष्का तद्गतवेलायामुद्यानमणिवापिका । सुतागमनवेलायां पूर्यते साम्बुजाम्बुना ॥२३४॥ तव शोकापनोदाय शोकापनुदसूचकः । अशोकः पादपोऽकाले मुञ्चत्यङ्कुरपल्लवान् ॥२३५॥
ज्यों ही उसे पूर्वजन्मसम्बन्धी वैरका स्मरण आया त्यों ही उसने बालक प्रद्युम्नको मातासे वियुक्त कर दिया सो आचार्य कहते हैं कि पापको बढ़ानेवाले इस वैर-भावको धिक्कार है ।।२२२।। अपने पूर्व-संचित पुण्यने प्रद्युम्नकी मृत्युसे रक्षा की सो ठीक ही है क्योंकि अपायसे रक्षा करने में पुण्यकी ही सामर्थ्य कारण है ।।२२३।। इस प्रकार उस समय सीमन्धर जिनेन्द्रके द्वारा प्रतिपादित प्रद्युम्नका चरित श्रवण कर चक्रवर्ती राजा पद्मरथने बड़ी प्रसन्नतासे जिनेन्द्र भगवान्को प्रणाम किया ॥२२४॥
इधर आनन्दके वशीभूत हुए नारद, सीमन्धर जिनेन्द्रको नमस्कार कर आकाशमार्गमें जा उड़े और मेघकूट नामक पर्वतपर आ पहुंचे ।।२२५।। वहां पुत्रलाभके उत्सवसे नारदने कालसंवर राजाका अभिनन्दन किया तथा पुत्रवती कनकमाला नामकी देवीको स्तुति की ।।२२६।। सैकड़ों कुमार जिसकी सेवा कर रहे थे ऐसे रुक्मिणो-पुत्रको देख नारदको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे प्रसन्नताके वेगको मनमें छिपाये हुए परम रोमांचको प्राप्त हुए ॥२२७|| कालसंवर आदिने नमस्कार कर नारदका सम्मान किया। तदनन्तर आशीर्वाद देकर वे बहुत ही शोघ्र आकाशमें उड़कर द्वारिका आ पहुँचे ।।२२८॥ वहां आकर जिस प्रकार गये, जिस प्रकार देखा और जिस प्रकार सुना वह सब प्रकट कर नारदने प्रद्युम्नकी कथा कर यादवोंके लिए हर्ष प्रदान किया ।।२२९।। तदनन्तर जिनका मुखकमल खिल रहा था ऐसे नारदने रुक्मिणी रानीको देखकर उसे सीमन्धर जिनेन्द्रके द्वारा कहा सब समाचार कह सुनाया ॥२३०।। अन्तमें उन्होंने कहा कि हे रुक्मिणि ! मैंने विद्याधरोंके राजा कालसंवरके घर क्रीड़ा करता हुआ तुम्हारा पुत्र देखा है। यह देवकुमारके समान अत्यन्त रूपवान् है ।।२३१।। सोलह लाभोंको प्राप्त कर तथा प्रज्ञप्तिविद्याका संग्रह कर तुम्हारा वह पुत्र सोलहवें वर्षमें अवश्य ही आवेगा ॥२३२।
हे रुक्मिणि ! जब उसके आनेका समय होगा तब तेरे उद्यानमें असमयमें हो प्रिय समाचारको सूचित करनेवाला मयूर अत्यन्त उच्च स्वरसे शब्द करने लगेगा ॥२३३॥ तेरे उद्यानमें जो मणिमयी वापिका सूखी पड़ी है वह उसके आगमनके समय कमलोंसे सुशोभित जलसे भर जावेगी ॥२३४।। तुम्हारा शोक दूर करनेके लिए, शोक दूर होनेकी सूचना देनेवाला अशोक वृक्ष १. सुतागमन ख., घ, ।
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हरिवंशपुराणे
मूकीभूय स्थितास्तावद्यावत्प्रद्युम्नदूरता । प्रत्यासने पुनका मूकमावं विमुञ्चति ॥२३६॥ सुतागमनवेलैतैनिमित्तैर्लक्ष्यता स्फुटैः । सीमंधरविभोर्वाक्यं मान्यथामस्त मानिता ॥२३७॥ आकर्ण्य नारदीयं तद्रुक्मिणी वचनं हितम् । श्रद्धाय प्रणतावोचदिति सा प्रस्तुतस्तनी ॥२३॥ बन्धुकार्यमिदं साधु वात्सल्योद्यतचेतसा । कृतं त्वयाद्य मे सद्यो भगवन्परदुष्करम् ॥२३॥ पुत्रशोकाग्निदग्धाहं निरालम्बा स्वया मुने । दत्वा साधारिता धीर ! नाथ ! हस्तावलम्बनम् ॥२४॥ प्रोक्तं सीमंधरेशेन सर्वज्ञेनेह यद्यथा । तत्तथास्ति ममावश्यं जीवन्त्याः पुत्रदर्शनम् ॥२४१॥ जीवामि जिनवाक्येन कठिनोभूतमानसा । व्रज त्वमधुना स्वेच्छं पुनदर्शनमस्तु ते ॥२४॥ सप्रणाममिति प्रोक्तो दत्ताशीनारदो ययौ । मुक्तशोका हरेरिच्छां पूरयन्तीव सा स्थिता ॥२४३॥
द्रुतविलम्बितवृत्तम् 'मनुजदेवनरामरमर्त्यजं विबुधजं च शिवाभ्युदयावहम् । मदनशम्बपुराचरितं जनश्वरतु भक्तिमना जिनशासने ॥२४॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो शम्ब प्रद्युम्नवर्णनो नाम
त्रिचत्वारिंशः सर्गः ॥४३॥
असमय में ही अंकुर और पल्लवोंको धारण करने लगेगा ॥२३५।। तेरे यहाँ जो गूगे हैं वे तभी तक गूंगे रहेंगे जबतक कि प्रद्युम्न दूर है। उसके निकट आते ही वे गूंगापन छोड़ देवेंगे ॥२३६।। इन प्रकट हुए लक्षणोंसे तू पुत्रके आगमन का समय जान लेना। सीमन्धर भगवान्के वचनोंको अन्यथा मत मान ।।२३७।। इस प्रकार नारदके हितकारी वचन सुन रुक्मिणीके स्तनोंसे दूध झरने लगा। वह श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर इस प्रकार कहने लगी कि हे भगवन् ! वात्सल्य प्रकट करने में जिनका चित सदा उद्यत रहता है ऐसे आपने आज यह मेरा उत्तम बन्धुजनोंका ऐसा कार्य किया है जो दूसरोंके लिए सर्वथा दुष्कर है ।।२३८-२३९॥ हे मुने ! हे धीर! हे नाथ ! मैं पुत्रको शोकाग्निमें निराधार जल रही थी सो आपने हाथका सहारा दे मुझे बचा लिया है ।।२४०।। सीमन्धर भगवान्ने जो कहा है वह वैसा ही है और मुझे विश्वास हो गया है कि मेरे जोते रहते अवश्य ही पुत्रका दर्शन होगा ॥२४१।मैं अपना हृदय कठोर कर जिनेन्द्र भगवान्के कहे अनुसार जीवित रहूंगी। अब आप इच्छानुसार जाइए और मुझे आपका दर्शन फिर भी प्राप्त हो इस बातका ध्यान रखिए ॥२४२।। इस प्रकार नारदसे निवेदन कर रुक्मिणीने उन्हें प्रणाम किया और नारद आशीर्वाद देकर चले गये। तदनन्तर रुक्मिणी शोक छोड़ श्रीकृष्णकी इच्छाको पूर्ण करती हुई पूर्वको भांति रहने लगी ।।२४३।।
__ इस सर्गमें कुमार प्रद्युम्न और शम्बके पूर्वभवोंका चरित लिखा गया है जिसमें उनके मनुष्यसे देव, देवसे मनुष्य, मनुष्यसे देव, देवसे मनुष्य, पुनः मनुष्यसे देव और देवसे मनुष्य तकका चरित बताया गया है तथा यह भी बताया गया है कि ये दोनों अन्तमें मोक्षके अभ्युदयको प्राप्त करेंगे इसलिए जिनशासनमें भक्ति रखनेवाले भव्यजन इस चरितका अच्छी तरह आचरण करेंध्यानसे इसे पढ़ें-सुनें ॥२४४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें शम्ब
__ और प्रद्युम्नका वर्णन करनेवाला तैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४३।।
१. विप्रपुत्रौ, सौधर्मे देवी, श्रेष्ठिनो मणिभद्रपूर्णभद्रो पुत्रौ, पुनः सौधर्मे देवी, मधुकैटभी, अच्युते देवो ततः प्रद्युम्नशम्बकुमारो-(ग. टि.)।
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चतुश्चत्वारिंशः सर्गः
भामायास्तनुजः श्रीमान् भानुभामण्डलद्युतिः । भानुर्नाम्ना महिम्नासौ ववृधे बालभानुबत् ॥१॥ भानुना वर्धमानेन भानुभानुनिभौजसा । सूनुना सत्यमामाया मानशैलः प्रवर्धितः १२॥ अन्यदा नारदोऽवादि कृष्णेन भगवन् ! कुतः । आगतोऽस्यधुनास्यं ते कथयत्यधिको मुदम् ॥॥ सोऽवोचदक्षिणश्रेण्यामस्ति जम्बूपुरे खगः । जाम्बवः शिवचन्द्रास्य चन्द्रास्या वल्लभा तयोः ॥४॥ विश्वक्कृतयशाः पुत्रो विश्वक्सेन इतिश्रुतिः । कन्या जाम्बवती नाम्ना श्रीरिव स्वयमागता ॥५॥ जाह्नवीमवतीणां तु सखीभिः स्नातुमुद्यताम् । चन्द्रलेखामिवोदारां कान्ततारामिरावृताम् ॥६॥ गङ्गाद्वारगेतामङ्गतुङ्गच्छन्नपयोधराम् । हर वीर पराशक्यां जाम्बर्वस्येव वाहिनीम् ॥७॥ इति नारदवाक्येन सस्नेहेन हरिस्तदा । प्रोद्दीपितः समुत्तस्थौ घृतेनेव हुनाशनः ॥८॥ अनावृष्टिबलोपेतस्तं प्रदेशमितोऽचिरात् । प्रारब्धमजनकोडामपश्यत्कन्यको हरिः ॥०॥ सहसा कन्ययादर्शि हरिरिन्दीवरतिः । ततोऽङ्गजेन तौ विद्धौ शरैः पञ्चभिरेकदा ॥१०॥ दोामालिङ्गय तां गाः सुखामोलितलोचनाम् । आमीलितेक्षणो जह हेपितश्रीरसिद्वियम् ॥१५॥
रानी सत्यभामाका जो पुत्र था वह श्रीमान् तथा सूर्यके प्रभामण्डलके समान देदीप्यमान था इसलिए उसका भानु नाम रखा गया। वह भानु प्रातःकालके सूर्यके समान अपनी महिमासे बढ़ने लगा ॥१॥ सूर्यको किरणोंके समान तेजका धारक भानु ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता था त्यों-त्यों सत्यभामाका मानरूपी पर्वत बढ़ता जाता था ॥२॥ तदनन्तर किसी समय नारद कृष्णकी सभामें आये तो कृष्णने उनसे पूछा-भगवन् ! इस समय कहाँसे आ रहे हैं ? आपका मुख किसी बड़े भारी हर्षको प्रकट कर रहा है॥३॥ नारदने कहा-विजयार्ध पर्वतको दक्षिणश्रेणीमें एक जम्बपूर नामका नगर है। उसमें जाम्बव नामका विद्याधर रहता है, उसकी शिवचन्द्रा नामकी चन्द्रमुखी भार्या है। उन दोनोंके सब ओर यश को फैलानेवाला विश्वक्सेन नामका पुत्र तथा जाम्बवती नामको कन्या है। जाम्बवती क्या है मानो स्वयं आयी हुई लक्ष्मी ही है ॥४-५॥ वह इस समय सखियोंके साथ स्नान करने के लिए गंगा नदीमें उतरो है और सुन्दर ताराओंसे घिरी चन्द्रमाकी कलाके समान उत्तम जान पड़ती है। वह गंगाके द्वारमें स्थित है तथा ऊंचे उठे वस्त्राच्छादित स्तनोंसे युक्त है। वह जाम्बव नाम पर्वतसे निकली नदीके समान है एवं दूसरेके लिए प्राप्त करना अशक्य है अथवा अपने पिता जाम्बवकी सेनाके समान दूसरेके लिए वश करना अशक्य है ॥६-७॥
___इस प्रकार स्नेहसे युक्त नारदके इन वचनोंसे श्रीकृष्ण उस समय उस प्रकार उत्तेजित हो उठे जिस प्रकार कि घोसे अग्नि उत्तेजित हो उठती है ॥८॥ वे *अनावृष्टि और उसकी सेनाको साथ ले शीघ्र ही उस स्थानकी ओर चल पड़े। वहाँ जाकर उन्होंने स्नान-क्रीड़ाको प्रारम्भ करनेवाली जाम्बवतोको देखा ।।९। उसी समय सहसा नील कमलके समान कान्तिके धारक श्रीकृष्णपर कन्या जाम्बवतीकी दृष्टि भी जा पड़ी। तदनन्तर कामदेवने एक ही साथ अपने पाँचों बाणोसे दोनोको वेध दिया ॥१०॥ अवसर देख श्रीकृष्णने श्री, रति और ह्रीदेवीको लज्जित करनेवाली जाम्बवतीका दोनों भुजाओंसे गाढ़ आलिंगन किया। तदनन्तर जिनके नेत्र कुछ-कुछ निमीलित हो रहे थे ऐसे श्रीकृष्ण, स्पर्शजन्य सुखसे निमीलित नेत्रोंवाली उस कन्याको हर १. सूर्यकिरणतुल्यतेजसा । २. गङ्गाद्वारवती ख.। ३. तुङ्गवत्तपयोधरां म.। ४. जाम्बवो नाम पर्वतः तस्य वाहिनी नदी तामिव । * अथवा अनावृष्टि और बलदेवको साथ ले।
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हरिवंशपुराणे
सखीनामभवत्तङ्गस्तत्र चाक्रन्दनस्वनः । समीपशिविरव्यापी कन्याहरणकारणः ॥१२॥ श्रत्वा कन्यापिता क्रद्धः खड्गोद्यतकरः खगेट । खमुत्पत्य लघु प्राप्तः कनत्खेटकहस्तकः ॥१३॥ अनावृष्टिस्ततस्तस्य खेटको खड्गपाणिकम् । रणातिथ्यं स खे कृत्वा बबन्ध खचराधिपम् ॥१४॥ आनीय नीतिविद्वीरो विष्णवे तमदर्शयत् । सूनुं जामातरि न्यस्य स ययौ तपसे वनम् ॥१५॥ जाम्बवत्या विवाहेन परमानन्दमाश्रितः । विश्वक्सेनयुतो विष्णुभरिकामगमन्निजाम् ॥१६॥ प्रासादस्योपकण्ठे च रुक्मिण्या मुदितात्मनः । प्रासादं प्रददौ दिव्यं जाम्बवत्यै जनार्दनः ॥१७॥ संमान्य भ्रातरं तस्या विसृज्य निजमास्पदम् । अरीरमदिमा भोगी भोगै तलदुर्लभैः ।।१८।। परस्परगृहाजवगत्यागमनवर्धिता । रुक्मिणीजाम्बवत्याः प्राग्जाता प्रीतिरखण्डिता ॥१९॥ श्लक्षणधीः श्लक्ष्णरं माख्यो राजाभूसिंहलेश्वरः । तद्वशीकृतये शौरिर्जातु दूतमजीगमत् ।।२०।। गत्वागत्याशु दूतस्तं प्रतिकूलमवेदयत् । लक्ष्मणां लक्षणोपेतां तत्कन्यो चापि शाङ्गिणः ॥२१।। सत्वरं स ततो गवा हलिना सह संमदी । समुद्र स्नातुमायातामद्राक्षीदायतेक्षणाम् ।।२२।। द्रुमसेनं महावीयं हत्वा सेनापतिं युधि । हृत्वा चेतः स्वरूपेण रूपिणीमहरत्पुनः ॥२३॥ उपयम्य समानीय लक्ष्मणां लक्ष्मणप्रभुः । जाम्बवत्या गृहाभ्यर्णगृहे रमयति स्म ताम् ॥२४॥
लाये ॥११॥ उसी समय वहाँ कन्या हरणके कारण उसकी सखियोंका जोरदार रोनेका शब्द हआ जो समीपवर्ती शिविरमें फैल गया ॥१२॥ शब्दको सुन, क्रोधसे भरा कन्याका पिता विद्याधरोंका राजा जाम्बव. हाथमें तलवार और देदीप्यमान ढाल ले आकाश-मार्गसे चलकर शीघ्र ही वहां आ पहुंचा ॥१३।। उसे आया देख आकाशगामी अनावृष्टिने आकाशमें कुछ देर तक तो उसका युद्धके द्वारा अतिथि-सत्कार किया। तदनन्तर हाथमें तलवारको धारण करनेवाले उस विद्याधर राजा जाम्बवको उसने बाँध लिया ॥१४॥ नीतिके ज्ञाता वीर अनावृष्टिने उसे लाकर श्रीकृष्णको दिखाया। इस घटनासे राजा जाम्बवको वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे वह अपने पुत्र विश्वक्सेनको श्रीकृष्णके अधीन कर तपके लिए वनको चला गया ॥१५॥ जाम्बवतीके विवाहसे परम आनन्दको प्राप्त हुए श्रीकृष्ण विश्वक्सेनको साथ ले अपनी द्वारिका नगरीको चले गये ॥१६॥ जाम्बवतीके आगमनसे रुक्मिणीको भी हर्ष हुआ, इसलिए श्रीकृष्णने रुक्मिणोके महलके समीप ही जाम्बवतीके लिए सुन्दर महल दिया ॥१७॥
जाम्बवतीके भाई विश्वक्सेनका सम्मान कर उसे अपने स्थानपर विदा किया और पृथिवीतलमें दुर्लभ भोगोंसे जाम्बवतीके साथ कोड़ा करने लगे ॥१८॥ रुक्मिणी और जाम्बवतीमें जो प्रोति प्रथम उत्पन्न हुई थो वह परस्पर एक-दूसरेके महलमें आने-जानेसे बढ़ती गयी तथा अखण्ड रूपमें परिणत हो गयी ॥१९॥
उसी समय सिंहलद्वीपमें सूक्ष्मबुद्धिका धारक श्लक्ष्णरोम नामका राजा रहता था। उसे वश करने के लिए किसी समय कृष्णने अपना दूत भेजा ॥२०॥ दूतने वहां जाकर और शीघ्र ही वापस आकर श्रीकृष्णको उसके प्रतिकूल होनेको खबर दी और साथ ही यह भी खबर दी कि उसके उत्तम लक्षणोंसे युक्त एक लक्ष्मणा नामकी कन्या है ।।२१।। तदनन्तर हर्षसे युक्त श्रीकृष्ण बलदेवके साथ शीघ्र ही वहां गये। वहाँ जाकर उन्होंने स्नान करनेके लिए समुद्र में आयी हुई दीर्घलोचना लक्ष्मणाको देखा ॥२२।। तदनन्तर अपने रूपसे उसके चित्तको हरकर और महाशक्तिशाली द्रुमसेन नामक सेनापतिको युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उस रूपवती लक्ष्मणाको हर लाये ॥२३।। द्वारिकामें लाकर उसके साथ विधिपूर्वक विवाह किया और जाम्बवतीके महलके समीप उसे महल
१. समुत्पत्य म. । २. सुरूपेण घ. । ३. स रमतिस्म क., ख., ग. ।
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चतुश्चत्वारिंशः सर्गः
तस्या भ्राता महासेनः समागत्य नतो हरिम् । संमान्य मानिना मुक्तः सिंहलद्वीपमभ्यगात् ॥ २५॥ राष्ट्रवर्धन इत्यासीत्सुराष्ट्राधिपतिर्नृपः । अजाखुरी पुरी चास्य विनया वनितोत्तमा ||२६|| तस्यां नमुचिनाम्नाभूत्तनयो नयविक्रमी । तजया च सुसीमाख्या सुपीमा वसुधा यथा ॥ २७ ॥ युवराजः स नमुचिः क्षितिविश्रुतपौरुषः । राज्ञोऽवमन्यते मान्यानभिमानमहागिरिः ||२८|| नमुचिश्व सुसीमा च समुद्र स्नातुमागतौ । हितेन हरये तेन नारदेन निवेदितौ ॥२९॥ प्रभासतीर्थ तीरस्थसैन्यं तं सीरिणा हरिः । गत्वा निहत्य हृत्वा तां कन्यां द्वारवतीमगात् ||३०|| लक्ष्मणाभवनाभ्यणं सौत्रणं भुवनोत्तमम् । दत्वा सौवं यथारंस्त सीमन्तिन्या सुसीमया ॥ ३१ ॥ राष्ट्रवर्धनराजोऽपि सुतायै सुपरिच्छदम् । प्रजिघाय रथेभादिप्राभृतं प्रभवे तथा ॥३२॥ सिन्धुदेशाधिपो मेरुरिक्ष्वाकुकुलवर्धनः । पुरे वीतभये चासोच्चन्द्रवत्यस्य मामिनी ॥ ३३ ॥ गौरी नामाभवत्तस्यां गौरी वर्णेन कन्यका । गौरीव रूपिणी बिंद्या गौरीतिरहितेव सा ॥ ३४ ॥ दूतप्रेषणपूर्वं स मेरुः प्रेषयति स्म ताम् । नैमित्तिकवचःस्मर्ता हरये हरिणेक्षणाम् ॥३५॥ परिणीय हरिगौरी मनोहरणकारिणीम् । सुसीमासदनाभ्यणं प्रादात्प्रासादमुच्चकैः ॥३६॥ अरिष्टपुरनाथस्य सीरिणो मातुलस्य तु । राज्ञो हिरण्यनाभस्य श्रीकान्तायां सुयोषिति ॥ ३७॥
दे रमण करने लगे ||२४|| लक्ष्मणाका भाई महासेन कृष्णके पास आकर नम्रीभूत हुआ और मानी कृष्ण के द्वारा सम्मान पूर्वक विदा पाकर अपने सिंहलद्वीपको चला गया ॥ २५ ॥
५३५
उसी समय सुराष्ट्र देशमें एक राष्ट्रवर्धन नामका राजा था । अजाखुरी उसकी नगरी थी और विनया नामकी रानी थी जो समस्त स्त्रियोंमें उत्तम थी ||२६|| विनया नामक रानीसे उसके नमुचि नामका पुत्र हुआ था जो नीति और पराक्रमका भण्डार था । इसी प्रकार एक सुसीमा नामकी पुत्री थी जो कि उत्तम सोमासे युक्त पृथिवीके समान जान पड़ती थी ||२७|| युवराज नमुचिका पराक्रम समस्त पृथिवीमें प्रसिद्ध था । वह अभिमानका मानो बड़ा ऊँचा पर्वत था और माननीय राजाओं का निरन्तर तिरस्कार करता रहता था ||२८|| एक दिन युवराज नमुचि और उसकी बहन सुसीमा दोनों ही स्नान करनेके लिए समुद्रतटपर आये । इधर हितकारी नारदने श्रीकृष्ण के लिए उन दोनोंकी खबर दी ||२९|| श्रीकृष्ण खबर पाते ही बलदेवके साथ वहाँ गये और प्रभास तीर्थ के तीरपर जिसकी सेना ठहरी हुई थी ऐसे उस नमुचिको मारकर तथा कन्या सुसीमाको हरकर द्वारिका आ गये ||३०|| वहाँ लक्ष्मणाके भवनके समीप सुवर्णमय उत्तम महल देकर उसके साथ इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ||३१|
तदनन्तर सुसीमा के पिता राजा राष्ट्रवर्धनने भी पुत्री के लिए उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण और श्रीकृष्ण के लिए रथ, हांथी आदिकी भेंट भेजी ||३२||
उसी समय सिन्धुदेशके वीतभय नामक नगरमें इक्ष्वाकु वंशको बढ़ानेवाला मेरु नामका राजा रहता था, उसकी चन्द्रवती नामकी भार्या थी ||३३|| उससे उसके एक गौरी नामकी कन्या उत्पन्न हुई थी जो गौरवर्णकी थी, रूपवती गौर विद्याके समान थी अथवा ईतियोंसे रहित पृथिवी समान जान पड़ती थी ||३४|| निमित्तज्ञानीने बताया था कि यह नौंवें नारायण श्री कृष्ण को स्त्री होगी, इसलिए उसके वचनोंका स्मरण रखनेवाले राजा मेरुने पहले तो श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और उसके बाद मृगलोचना गौरीको भेजा ||३५|| श्रीकृष्णने मनको हरनेवाली गौरीको विवाहकर उसके लिए सुसीमाके भवन के समीप ऊँचा महल प्रदान किया || ३६ ||
उसी समय बलदेव के मामा राजा हिरण्यनाभ अरिष्टपुर नगरमें राज्य करते थे । उनकी १. यथा म. । २. ईतिरहिता गौरिव पृथिवी इव । ३. हरिणेक्षणा म । ४. मनोहरणसारिणीं म ।
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हरिवंशपुराणे
पद्मावतीं समुत्पन्नां कन्यां पद्मामिव स्वयम् । स्वयंवरगतां श्रुत्वा संप्राप्तौ रामकेशवौ ॥३८॥ गौरवमौ दृष्टावनावृष्टिपुरस्सरौ । प्रीत्या हिरण्यनाभेन स्वजनस्नेहवर्धनी ॥ ३९ ॥ पित्रा हिरण्यनाभस्य सत्रा प्राव्रजदग्रजः । पुरैव रेवतो नाम्ना महिम्ना यो वनश्रितः ॥४०॥ चतस्रस्तत्सुताः कन्या रेवती बन्धुमत्यपि । सीता राजीवनेत्रा च ता दत्ताः सोरिणे पुरा ॥ ४१ ॥ स्वयंवरे प्रवृत्तेऽत्र हृत्वा पद्मावतीं हठात् । रणशौण्डान्ममर्दाशु शौरिराहवदक्षिणः ॥ ४२ ॥ परिणीय सभाय तौ भ्रातरौ भ्रातृभिर्युतौ । द्वारिकामरे मायातावरंसात सुरोपमौ ॥ ४३ ॥ गौरीगृहसमीपे च पद्मावत्यै गृहं हरिः । प्रदाय प्रमदोपेतः प्रसादपरमोऽभवत् ॥४४॥ नयाँ पुष्कलावत्यां गान्धारविषयेऽमवत् । भूभृदिन्द्रगिरिस्तस्य मेरुसत्यभिधा प्रिया ॥ ४५॥ सुतो हिमगिरिस्तस्यां जातो हिमगिरिस्थिरः । गान्धारी दुहिता चार्वी गन्धर्वादिकलाधिका ॥ ४६ ॥ भ्रात्रा हयपुरीन्द्राय सुमुखाय ततो हरिः । दीयमानां विदिखना 'नारदादरमागतात् ||४७|| गत्वा हिमगिरिं हत्वा प्रतिकूलं रणाजिरे । तां हृत्वानीय सौम्यास्यामुपयम्य ससंमदः ||४८ || पद्मावत्या गृहोपान्ते गान्धार्यै भवनं वरम् । वितीर्य धैर्यसंपन्नामेनां भोगैरमानयत् ||४९ || महादेवीभिरिष्टाभिरष्टभिरवरोधने । प्रसाधिताभिराशाभिरिव तामिरुपासितः ||५०|| विन्दन् मोगफलं भूरि गोविन्दः पुण्यवृक्षजम् । संददज्जनतानन्दं ननन्द पुरुषौरुषः || ५१ ||
५३६
श्रीकान्ता नामकी उत्तम स्त्री थी । उससे उनके पद्मावती नामकी कन्या उत्पन्न हुई थी जो साक्षात् लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी । ' उसका स्वयंवर हो रहा है' यह सुनकर अनावृष्टि के साथ-साथ बलदेव और कृष्ण भी वहाँ गये || ३७-३८ || आत्मीयजनोंके साथ स्नेह बढ़ानेवाले इन दोनों को राजा हिरण्यनाभने बड़े गौरव और प्रेमके साथ देखा ||३९|| हिरण्यनाभका बड़ा भाई रेवत जो पिता के साथ पहले ही दीक्षित हो वनमें रहने लगा था उसकी चार कन्याएँ १ रेवती, २ बन्धुमती, ३ सीता और ४ राजीवनेत्रा बलदेवके लिए पहले ही दी जा चुकीं ॥४० - ४१ ॥ जब पद्मावतीका स्वयंवर होने लगा तब युद्धनिपुण श्रीकृष्ण, उसे हठपूर्वक हर ले आये और रणमें जिन्होंने शूरवीरता दिखायी उन्हें शीघ्र ही नष्ट कर डाला ||४२॥ तदनन्तर विवाह कर अपनी-अपनी स्त्रियोंको साथ लिये दोनों भाई, भाइयोंके साथ शीघ्र ही द्वारिका आये और देवोंके समान क्रीड़ा करने लगे ||४३|| हर्षित श्रीकृष्ण गौरीके महलके समीप पद्मावतीके लिए महल देकर बहुत प्रसन्न हुए ॥४४॥
उसी समय गान्धार देशकी पुष्कलावती नगरी में एक इन्द्रगिरि नामका राजा रहता था । उसकी मेरुसती नामकी स्त्री थी। उससे उसके हिमगिरिके समान स्थिर हिमगिरि नामका पुत्र था और गान्धारी नामकी सुन्दरी पुत्री थी जो गन्धर्व आदि कलाओं में अत्यन्त निपुण थी ।। ४५-४६ ।। शीघ्रता से आये हुए नारदसे श्रीकृष्णको जब यह विदित हुआ कि गान्धारीका भाई उसे हयपुरीके राजा सुमुखको दे रहा है तब वे शीघ्र ही जाकर रणांगण में प्रतिकूल . हिमगिरिको मारकर गान्धारीको हर लाये एवं उस सौम्यमुखी के साथ विवाह कर बहुत हर्षित हुए ||४७-४८। उन्होंने पद्मावती के महलके समीप गान्धारीके लिए उत्तम महल दिया और उस धैर्यशालिनीको उत्तम भोगोंसे सम्मानित किया ||४९ || इस प्रकार जो वशीकृत आठ दिशाओंके समान उन आठ इष्ट पट्टरानियोंसे अन्तःपुर में सदा सेवित रहते थे, जो पुण्यरूपी वृक्षसे उत्पन्न भोगरूपी विशाल फलका उपभोग करते थे, जन-समूहको आनन्द प्रदान करते थे, एवं प्रबल पराक्रम के धारक थे ऐसे श्रीकृष्ण समृद्धिको प्राप्त हुए ||५०-५१ ।। गौतमस्वामी
१. अरं शीघ्रम् । २. नारदात् + अरम् + आगतात् ।
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५३७
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः
द्रुतविलम्बितम् कृतरणं परिभूय' पुरःस्थितं रिपुगणं तृणवरक्षणमात्रतः । वरवधूवररत्नमयत्नतः श्रयति भव्यजनो जिनधर्मकृत् ॥५२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती जाम्बवत्यादिमहादेवीलाभवर्णनो नाम
चतुश्चत्वारिंशः सर्गः॥४४॥
कहते हैं कि जिनधर्मको धारण करनेवाला भव्य जीव युद्ध में सामने खड़े शत्रुओंके समूहको क्षणमात्रमें तृणके समान पराजित कर अनायास ही उत्तमोत्तम स्त्रीरूपी रत्नोंको प्राप्त कर लेता है ।।५२।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जाम्बवती
आदि महादेवियों के लाभ का वर्णन करनेवाला चवालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४४।।
१. प्रविभूय म., ग.।
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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः
अथ प्राप्ता महावास्तदा द्वारवतीं पुरीम् । भागिनेया दशार्हाणां प्रसिद्धाः पञ्च पाण्डवाः ॥१॥ युधिष्ठिरोऽर्जुनो ज्येष्ठो भीमसेनो महाबलः । नकुलः सहदेवश्च पञ्चैते पाण्डुनन्दनाः ॥ २ ॥ 'मागधोऽत्रान्तरेऽप्राक्षीत्प्राञ्जलिर्गणनायकम् । अन्वये भगवन् ! कस्य पाण्डुः पाण्डवनन्दनाः ॥३॥ गण्याह कुरुराजानामन्ववाये महोदये । शान्तिकुन्थ्वरनामानो यत्र तीर्थंकरास्त्रयः ॥ ४ ॥ आदितः कुरुवंश्यानां चतुर्वर्गोपसेविनाम् । कतिचिन्मागधाख्यामि शृणु नामानि भूभृताम् ॥५॥ कुरुजाङ्गलदेशस्य कुरुभूमिसमस्य हि । अभूतां भूषणे भूपौ यौ हास्तिनपुरे परे ॥ ६ ॥ श्रेयान् सोमप्रमश्चेति कुरुवंशविशेषकौ । नाभेयसमकालौ तौ दानधर्मस्य नायकौ ॥ ७ ॥ तत्र सोमप्रभस्याभूत्कुमारो 'जयनायकः । मेघस्वरस्स एवात्र भरतेन कृताभिधः ॥ ८ ॥ तस्मात्कुरुरभूत्तस्मात्कुरुचन्द्रस्तु नन्दनः । ततः शुभंकरो राजा जातो धृतिकरस्ततः ॥ ९॥ राज्ञां कोटिषु कालेन समतीतासु भूरिषु । जिनान्तरेषु चानेकसागरोपमकोटिषु ॥ १० ॥ धृतिदेवो धृतिकरो गङ्गदेवादयस्तथा । धृतिमित्रष्टतिक्षेम सुवत व्रातमन्दराः ॥ ११ ॥ श्रीचन्द्रसुप्रतिष्ठाथा व्यतीताः शतशो नृपाः । धृतपद्मो घृतेन्द्रश्च धृतवीर्यः प्रतिष्ठितः ॥ १२ ॥ इत्यादिषु व्यतीतेषु धृतिदृष्टिष्टेतिद्युतिः । धृतिप्रीतिकराद्याश्च व्यतीताः कुरुवंशजाः ॥ १३ ॥ ततो भ्रमरघोषाख्यो हरिघोषो हरिध्वजः । सूर्यघोषः सुतेजाश्च पृथुश्च पृथिवीपतिः ॥ १४॥ इमवाहननामाद्याः समतीतास्ततो नृपाः । विजयाख्यो महाराजो जयराजस्ततोऽभवत् ॥१५॥
अथानन्तर किसी दिन यादवोंके भानेज महापराक्रमी, राजा पाण्डुके पुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन, महाबलवान् भीमसेन, नकुल और सहदेव ये पांचों पाण्डव द्वारिकापुरी आये ॥ १-२ ॥ इसी बीच में राजा श्रेणिकने हाथ जोड़कर गौतमगणधरसे पूछा कि हे भगवन् ! पाण्डु और पाण्डव किसके वंश में उत्पन्न हुए हैं ? || ३ || गौतमस्वामीने कहा कि पाण्डु और पाण्डव कुरुवंशमें हुए हैं जिसमें कि शान्ति, कुन्थु और अर ये तीन तीर्थंकर हुए हैं ||४|| हे मगधेश्वर ! अब मैं प्रारम्भसे लेकर चतुर्वर्गकी सेवा करनेवाले कुरुवंशी राजाओंके कुछ नाम कहता हूँ सुनो ||५||
शोभा में देवकुरु - उत्तरकुरुकी तुलना करनेवाले कुरुजांगल देशके हस्तिनापुर नगर में जो आभूषणस्वरूप श्रेयान् और सोमप्रभ नामके दो राजा हुए थे वे कुरुवंशके तिलक थे, भगवान् वृषभदेवके समकालीन थे और दानतीर्थंके नायक थे || ६ - ७|| उनमें सोमप्रभके जयकुमार नामका पुत्र हुआ। वह जयकुमार ही आगे चलकर भरत चक्रवर्तीके द्वारा 'मेघस्वर' इस नामसे सम्बोधित किया गया ||८|| जयकुमारसे कुरु पुत्र हुआ । कुरुके कुरुचन्द्र, कुरुचन्द्र के शुभंकर और शुभंकर के धृतिकर पुत्र हुआ ||९॥
तदनन्तर कालक्रमसे अनेक करोड़ राजा और अनेक सागर प्रमाण तीर्थंकरोंका अन्तराल काल व्यतीत हो जानेपर धृतिदेव, धृतिकर, गंगदेव, धृतिमित्र, धृतिक्षेम, सुव्रत, व्रात, मन्दर, श्रीचन्द्र और सुप्रतिष्ठ आदि सैकड़ों राजा हुए। तदनन्तर धृतपद्म, धृतेन्द्र, धृतवीर्यं प्रतिष्ठित आदि राजाओंके हो चुकनेपर धृतिदृष्टि, धृतिंद्युति, धृतिकर, प्रीतिकर आदि हुए ||१० - १३|| तत्पश्चात् भ्रमरघोष, हरिघोष, हरिध्वज, सूर्यघोष, सुतेजस्, पृथु और इभवाहन आदि राजा हुए। तदनन्तर विजय, महाराज और जयराज हुए ॥१४- १५ ।। इनके । पश्चात् उसी
१. श्रेणिकः । २. जननायकः म । ३. धृतिक्षेत्र म. ।
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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः
५३९ ततः सनत्कुमारोऽभूञ्चतुर्थश्चक्रवर्तिनाम् । रूपपाशसमाकृष्टसुरबोधितदीक्षितः ॥१६॥ सुकुमारः सुतस्तस्य तस्माद्वरकुमारकः । विश्वो वैश्वानरश्चामद्विश्वकेतुर्ब्रहदध्वजः ॥१७॥ विश्वसेनस्ततो जातो यस्यैरा प्राणवल्लभा । तत्सुतः पञ्चमश्चक्री शान्तिः षोडशतीर्थकृत् ॥१८॥ नारायणो नरहरिः प्रशान्तिः शान्तिवर्धनः । शान्तिचन्द्रः शशाङ्काङ्कः कुरुश्च कुरुवंशजाः ॥१९॥ एवमाद्ये वतीतेषु सूर्योऽभूद्यस्य भामिनी । श्रीमती तीर्थकृत्कुन्थुस्तयोश्चक्रधरोऽपि सः ॥२०॥ अतिक्रान्तेषु भूपेषु ततोऽपि बहुषु क्रमात् । राजा सुदर्शनो जातो यस्य मित्रा प्रियागना ॥२१॥ तयोरर इति ख्यातः सप्तमश्चक्रवर्तिनाम् । कृती तीर्थकराणांच यतोऽष्टादशसंख्यकः ॥२२॥ ततः सुचारुश्चारुश्च चारुरूपोऽथ वीर्यवान् । चारुपास्तथान्येषु समतीतेषु राजसु ॥२३॥ पद्ममालः सुभौमश्च जातः पद्मरथो नृपः । ततश्चक्री महापद्मो विष्णुपद्मो तु तत्सुतौ ॥२४॥ सुपद्मः पद्मदेवश्च कुलकीर्तिस्ततः परः । कीर्तिः सुकीर्तिकीर्ती तौ वसुकीर्तिश्च वीर्यवान् ॥२५॥ वासुकि सवाभिख्यो वसुः सुवसुरेव च । पुरुवंशश्रियो नाथः श्रीवसुश्च वसुंधरः ॥२६॥ जज्ञे वसुरथस्तस्मादिन्द्रवीयश्च वीर्यवान् । चित्रो विचित्रो वीर्योऽथ विचित्रोऽपि महाबलः ॥२७॥ ततो विचित्रवीर्योऽभत्ततश्चित्ररथो नृपः । महारथो वृतरथो वृषानन्तो वृषध्वजः ॥२८॥ श्रीव्रतो व्रतधर्मा च धृतो धारण एव च । महासरः प्रतिसरः शरः पारशरो नृपः ॥२९॥ . शरद्वीपश्च राजासौ द्वीपो द्वीपायनो नृपः । सुशान्तिः शान्तिभद्रश्च शान्तिषणश्च भपतिः ॥३०॥ भर्ता योजनगन्धाया राजपुत्र्यास्तु शन्तनुः । तनयः शन्तनोभूभृद्धतव्यास इति स्मृतिः ॥३१॥
तधर्मा ततस्तस्य तनयोऽपि तोदयः । ततेजा तयशा तमानो तो नृपः ॥३२॥ ततोऽपि धृतराजोऽभत्तस्य तिस्रः प्रियाङ्गनाः । अम्बिकाम्बालिकाम्बाख्या वेद्यामिजनसंभवाः ॥३३॥ धृतराष्ट्रश्च पाण्दुश्च विदुरश्च विदां वरः । यथाक्रमममी तासां तिसृणां तनयास्त्रयः ॥३॥
वंशमें चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए जो रूपपाशसे खिंचकर आये हुए देवोंके द्वारा सम्बोधित हो दीक्षित हो गये थे ॥१६॥ सनत्कुमारके सुकुमार नामका पुत्र हुआ। उसके बाद वरकुमार, विश्व, वैश्वानर, विश्वकेतु और बृहद्ध्वज नामक राजा हुए। तदनन्तर विश्वसेन राजा हुए जिनकी स्त्रीका नाम ऐरा था। इन्हींके पंचम चक्रवर्ती और सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ हुए ॥१७-१८॥ इनके पश्चात् नारायण, नरहरि, प्रशान्ति, शान्तिवर्धन, शान्तिचन्द्र, शशांकांक और कुरु राजा हुए ॥१९|इत्यादि राजाओंके व्यतीत होनेपर इसी वंशमें सूर्य नामक राजा
जनकी स्त्रीका नाम श्रीमती था। उन दोनोंके भगवान कन्थनाथ उत्पन्न हए जो तीर्थंकर भी थे और चक्रवर्ती भी थे ।।२०।। तदनन्तर क्रम-क्रमसे बहुत राजाओंके व्यतीत हो जानेपर सुदर्शन नामक राजा हुए जिनकी स्त्रीका नाम मित्रा था। इन्हीं दोनोंके सप्तम चक्रवर्ती अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ हुए ॥२१-२२।। उनके बाद सुचारु, चारु, चारुरूप और चारुपद्म राजा हुए। तदनन्तर अन्य राजाओंके हो चकनेपर इसी वंशमें पद्ममाल, सुभौम और पद्मरथ राजा हुए। उनके बाद महापद्म चक्रवर्ती हुए । उनके विष्णु और पद्म नामक दो पुत्र हुए ।।२३-२४।। तदनन्तर सुपद्म, पद्मदेव, कुलकोति, कीर्ति, सुकीति, कीर्ति, वसुकीर्ति, वासुकि, वासव, वसु, सुवसु, श्रीवसु, वसुन्धर, वसुरथ, इन्द्रवीर्य, चित्र, विचित्र, वीर्य, विचित्र, विचित्रवीर्य, चित्ररथ, महारथ, धृतरथ, वृषानन्त, वृषध्वज, श्रीव्रत, व्रतधर्मा, धृत, धारण, महासर, प्रतिसर, शर, पारशर, शरद्वीप, द्वीप, द्वोपायन, सुशान्ति, शान्तिभद्र, शान्तिषेण, योजनगन्धा राजपुत्रीके भर्ता शन्तनु और शन्तनुके राजा धृतव्यास पुत्र हुए ॥२५-३१।। तदनन्तर धृतधर्मा, धृतोदय, धृततेज, धृतयश, धुतमान और धृत हुए। धृतके धृतराज नामक पुत्र हुआ। उसको अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा नामकी तीन स्त्रियाँ थीं जो उच्चकुलमें उत्पन्न हुई थीं ॥३२-३३।। उनमें अम्बिकासे धृतराष्ट्र,
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५४०
हरिवंशपुराणे मीष्मोऽपि शन्तनोरेव संताने रुक्मणः पिता । यस्य गङ्गाभिधा माता राजपुत्री पवित्रधीः ॥३५॥ धृतराष्ट्रस्य तनया दुर्योधनपुरस्सराः । नयपौरुषसंपन्नाः परस्परहिते रताः ॥३६॥ पाण्डोः कुन्त्यां समुत्पन्नः कर्णः कन्याप्रसंगतः । युधिष्ठिरोऽर्जनो मीम ऊढायामभवंस्त्रयः ॥३७॥ नकुलः सहदेवश्च कुलस्य तिलको सुतौ । मद्यामद्रिस्थिरौ जातो पञ्च ते पाण्डुनन्दनाः ॥३८॥ पाण्डौ स्वर्ग गते देव्या भव्यां च जिनधर्मतः । पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च राज्येऽभवन्विरोधिनः ॥३९॥ विमज्य कौरवं राज्यं भुञ्जतां समभागतः । पञ्चानामेकतस्तेषामितरेषां तथैकतः ॥४०॥ भीष्मश्च विदुरो द्रोणो मध्यस्थाः शकुनिः पुनः । मन्त्री दुर्योधनस्येष्टाः शशरोमादयस्तथा ॥४१॥ अजयं सह कर्णेन वयं दुर्योधनस्य तु । जरासन्धेन नैभृत्यं निभृतस्याभवत्तराम् ॥४२॥ मार्गवाचार्यकं द्रोणो धनुर्वेदविशारदः । कौन्तेयधार्तराष्ट्राणां चक्रे मध्यस्थभावतः ॥४३॥ मार्गवाचार्यवंशोऽपि शृणु श्रेणिक वर्ण्यते । द्रोणाचार्यस्य विख्याता शिष्याचार्य परम्परा ॥४४॥ आत्रेयः प्रथमस्तत्र तच्छिष्यः कौथुमिः सुतः । तस्याभूदमरावतः सितस्तस्यापि नन्दनः ॥४०॥ वामदेवः सुतस्तस्य तस्यापि च कपिष्ठलः । जगत्स्थामा सरवरस्तस्य शिष्यः शरासनः ॥४६॥ तस्माद्रावण इत्यासीत्तस्य विद्रावणः सुतः । विद्रावणसुतो द्रोणः सर्वभार्गववन्दितः ॥४७॥ अश्विन्यामभवत्तस्मादश्वत्थामा धनुर्धरः । रणे यस्य प्रतिस्पर्धी पार्थ एव धनुर्धरः ॥४८॥
अम्बालिकासे पाण्डु और अम्बासे ज्ञानिश्रेष्ठ विदुर ये तीन पुत्र हुए ॥३४॥ भीष्म भी शन्तनुके ही वंशमें उत्पन्न हुए थे। धृतराजके भाई रुक्मण उनके पिता थे और पवित्र बुद्धिको धारण करनेवाली राजपुत्री गंगा उनकी माता थी ॥३५॥ राजा धृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र थे जो नय-पौरुषसे युक्त तथा परस्पर एक दूसरेके हित करनेमें तत्पर थे ।।३६।। राजा पाण्डुकी स्त्रीका नाम कुन्ती था, जिस समय राजा पाण्डुने गन्धर्व विवाह कर कुन्तीसे कन्या अवस्थामें सम्भोग किया था उस समय कर्ण उत्पन्न हुए थे और विवाह करने के बाद युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम
तीन पत्र हए ॥३७॥ इन्हीं पाण्डको माद्री नामकी दूसरी स्त्री थी उससे नकल और सहदेव ये दो पुत्र उत्पन्न हुए। ये दोनों ही पुत्र कुलके तिलकस्वरूप थे और पर्वतके समान स्थिर थे। युधिष्ठिरको आदि लेकर तीन तथा नकुल और सहदेव ये पाँच पाण्डव कहलाते थे ।।३८|| जब राजा पाण्डु और रानी माद्री जिन-धर्मके प्रसादसे स्वर्गवासी हो गये तब पाण्डव और दुर्योधनादि धार्तराष्ट्र राज्य-विषयको लेकर एक दूसरेके विरोधी हो गये ॥३९॥ जब इनका विरोध बढ़ने लगा तब भीष्म, विदुर, द्रोण, मन्त्री शकुनि तथा दुर्योधनके मित्र शशरोम आदिने मध्यस्थ बनकर कौरवोंके राज्यके बराबर दो भाग कर दिये। एक भाग युधिष्ठिर आदि पाँच पाण्डवोंको मिला और दूसरा भाग दुर्योधन आदि सौ कौरवोंको प्राप्त हआ ॥४०-४१।।
इधर दुर्योधनकी कर्णके साथ उत्तम मित्रता हो गयी और जरासन्धके साथ स्थिर बैठकें होने लगीं ॥४२॥ द्रोणाचार्य धनुर्विद्यामें अत्यन्त निपुण थे और वे मध्यस्थ-भावसे पाण्डवों तथा कौरवोंके लिए भार्गवाचार्यका काम करते थे अर्थात् दोनोंको समान रूपसे धनुर्विद्याका उपदे देते थे ॥४३॥ गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! द्रोणाचार्यकी शिष्य और आचार्योकी परम्परा तो प्रसिद्ध है अतः उसे छोड़ भार्गवाचार्यकी वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ उसे सुन ।।४४॥ भार्गवका प्रथम शिष्य आत्रेय था, उसका शिष्य कोथुमि पुत्र था, कौथुमिका अमरावर्त, अमरावर्तका सित, सितका वामदेव, वामदेवका कपिष्ठल, कपिष्ठलका जगत्स्थामा, जगत्स्थामाकार सरवरका शरासन, शरासनका रावण, रावणका विद्रावण और विद्रावणका पुत्र दोणाचार्य था जो समस्त भार्गव वंशियों के द्वारा वन्दित था-सब लोग उसे नमस्कार करते थे।४५-४७॥ द्रोणाचार्य
१. नैर्वत्यं ग.। २. कौण्डिनिः म.। ६. कपिष्टकः म,।
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१४१
पञ्चचत्वारिंशः सर्गः पार्थप्रतापविज्ञानमात्सर्योपहता अथ । दुर्योधनादयः कतु संधिदूषणमुद्यताः ॥४९॥ पञ्च कौरवराज्यार्धमेकतः शतमेकतः । भुञ्जन्ति किमितोऽन्यत्स्यादन्याय्यमिति ते जगुः ॥५०॥ समुद्रा इव चस्वारस्ततः परुषवायुभिः । अपि प्रसन्नगम्मोराः क्षुमिताः पाण्डुनन्दनाः ॥५१॥ छादयामि द्विषच्छेलं शरधाराभिरुच्छ्रुितम् । इत्युत्थितोऽर्जुनोऽम्भोदः शमितोऽग्रजवायुना ॥५२॥ दृष्ट्या दहामि दायादशतमित्युदितं ब्रुवन् । मन्त्रेणाशीशमज्ज्यायान् स्फुरदीमभुजङ्गमम् ॥५३॥ अहितापकुलान्ताय नकुलोऽपि कृतोद्यमः । ज्येष्ठेन सनयं रुद्धो भुजपन्जरयन्त्रितः ॥५४॥ मस्मयामि लघु द्वेषिवनखण्डमिति ज्वलन् । अशामि ज्येष्ठमेघेन सहदेवदवानलः ॥५५॥ वसतां शान्तचित्तानां दिनैः कतिपयैरपि । प्रसुप्तानां गृहं तेषां दीपितं धृतराष्ट्रजैः ॥५६॥ विबुध्य सहसा मात्रा सत्रा ते पञ्चपाण्डवाः । सुरङ्गया विनिःसृत्य गताः काप्यपमीरवः ॥५॥
ततोऽपरागो लोकस्य जातो दुर्योधनं प्रति । क वा पापानुरागाव्ये नापरागः सतो भवेत् ॥५॥ को अश्विनी नामक स्त्रीसे अश्वत्थामा नामक पुत्र हुआ था। यह अश्वत्थामा बड़ा धनुर्धारी था और युद्ध में एक अर्जुन ही उसका प्रतिस्पर्धी था-अर्जुन ही उसकी बराबरी कर सकता था अन्य नहीं ॥४८॥
तदनन्तर अर्जुनके प्रताप और विज्ञानसे ईर्ष्या रखनेवाले दुर्योधन आदि कौरव सन्धिमें दोष लगानेके लिए उद्यत हो गये अर्थात् अर्जुनके लोकोत्तर प्रताप और अनुपम सूझ-बूझसे ईर्ष्या कर कौरव लोग राज्यके विषयमें पहले जो सन्धि हो चुकी थी उसमें दोष लगाने लगे ।।४९।। वे कहने लगे कि कोरवोंके आधे राज्यको एक ओर तो सिर्फ पांच-पाण्डव भोगते हैं और एक ओर आधे राज्यको हम सो भाई भोगते हैं-इससे बढ़कर अन्यायपूर्ण कार्य और क्या होगा? ॥५०॥ दुर्योधनादिकका यह विचार पाण्डवोंने भी सुना। पाण्डवोंमें युधिष्ठिर शान्तिप्रिय व्यक्ति थे अतः उन्होंने इस ओर कुछ ध्यान नहीं दिया परन्तु शेष चार पाण्डव प्रसन्न तथा गम्भीर होनेपर भी उस तरह क्षोभको प्राप्त हो गये जिस तरह कि प्रचण्ड वायुसे चारों दिशाओंके चार समुद्र क्षोभको प्राप्त हो जाते हैं ॥५१॥ अर्जुनरूपी मेघ यह कहता हुआ उठकर खड़ा हो गया कि मैं उठते हुए इस शत्रुरूपी पर्वतको बाणरूपी जलकी धारासे अभी हाल आच्छादित किये देता हूँ परन्तु युधिष्ठिररूपी वायुने उसे शान्त कर दिया ।।५२॥ भीमरूपी भुजंग यह कहकर उठ खड़ा हुआ कि मैं सो-के-सौ हिस्सेदारोंको अपनी दधिसे अभी भस्म किये देता हूँ परन्त बडे भाई यधिष्ठिरने उसे मन्त्रके द्वारा शान्त कर दिया ॥५३॥ नकुल भी, नकूल ( नेवला) के समान शत्रुरूपी सोके सन्तापदायी कुलका अन्त करनेके लिए उद्यम करने लगा परन्तु अग्रज-युधिष्ठिरने उसे अपने भुजरूपो पिंजरेमें कैद कर रोक रखा ॥५४॥ और सहदेवरूपी दावानल यह कहता हुआ देदीप्यमान होने लगा कि मैं शत्रुरूपी वनखण्डको अभी हाल भस्म किये देता हूँ परन्तु बड़े भाईयुधिष्ठिररूपी मेघने उसे शान्त कर दिया ॥५५॥
तदनन्तर सब पाण्डव शान्तचित्त होकर रहने लगे। कुछ दिनों बाद जब वे गहरी नींदमें सो रहे थे तब कौरवोंने उनके घरमें आग लगवा दी ॥५६॥ सहसा उनकी नींद खुल गयी और पांचोंके पांच पाण्डव माताको साथ ले सुरंगसे निकलकर निर्भय हो कहीं चले गये ॥५७॥ इस घटनासे जनताका दुर्योधनके प्रति विद्वेष उमड़ पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि पापमें अनुराग रखनेवाले किस पुरुषपर सज्जनोंको विद्वेष नहीं होता? अर्थात् सभीपर होता है ॥५८।। १. राज्यार्थं म., ग.। २. अहितानां शत्रूणामपकृष्टं कुलमपकुलं तस्यान्तस्तस्मै, पक्षे तापेनोपलक्षितं कुलं तापकुलं अहीनां सर्पाणां यत् तापकुलं तस्यान्तस्तस्मै । ३. नकुलः पाण्डव: पक्षे नकुलो जन्तुविशेषः । ४. शान्तः कृतः।
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हरिवंशपुराणे
प्रलीनानेव तान्मत्वा पाण्डवान् गोत्रजास्ततः । निवृत्ता इव ते तस्थुः कृतकालोचितक्रियाः ॥ ५९ ॥ नदीं गङ्गां समुत्तीर्य कौन्तेयास्तु महाधियः । कृतवेषपरावर्तास्ते पूर्वां दिशमाश्रिताः ॥ ६० ॥ कुन्तीगतिवशेनैते गच्छन्तः सुखमिच्छया । कौशिकाख्यां पुरीं प्राप्ता वर्णो यत्र नरेश्वरः ॥ ६१ ॥ तस्य प्रभावती मार्या सुता कुसुमकोमला । जनानुरागतस्तांस्तान् श्रुत्वा दृष्टवती तदा ॥६२॥ युधिष्ठिरकुमारेन्दुदर्शनेन सुदर्शना । कन्या कुमुद्वतो धन्या विकासमगमत्परम् ॥६३॥ अचिन्तयदसौ तस्य भाविनी प्रियभामिनी । इह जन्मनि मे भूयादयमेव परो वरः ॥ ६४॥ ज्ञात्वाभिप्रायमस्याः स संजातप्रेमबन्धनः । आशाबन्धं प्रदर्श्यागात्संज्ञयैव करग्रहे ॥ ६५॥ प्रतीक्षमाणया तस्य तथा भूयः समागमम् । नीयते स्म विनोदैः स्वैः कालः कन्याजनोचितैः ॥६६॥ ततस्ते ललिताकाराः स्वभावेन सहोदराः । द्विजवेषभृतो जग्मुर्जनचित्तापहारिणः ॥६७॥ आसनं शयनं तेषां भोजनं च मनोहरम् । सुखेनैव सुपुण्यानामचिन्तितमभूत्तदा ॥ ६८ ॥ पुनस्तापसवेषेण प्राप्ताः श्लेष्मान्तकं वनम् । ते तापसाश्रमे रम्ये विशश्रमुरिहार्चिताः ॥ ६९॥ वसुंधरपुरेशस्य विन्ध्यसेनस्य देहजा । वसन्तसुन्दरीनाम्ना नर्मदाजास्ति तत्र च ॥ १० ॥ युधिष्ठिराय सा दत्ता पुरैव गुरुभिर्वरा । दग्धवार्तामुपश्रुत्य निन्दितस्वपुराकृता ॥ ७१ ॥ जन्मान्तरेऽपि काङ्क्षन्ती तस्य कान्तस्य दर्शनम् । तपश्चरितुमारब्धा तत्र सा तापसाश्रमे ॥७२॥
५४२
तदनन्तर कुटुम्बके लोगोंने समझा कि पाण्डव तो इसी आगमें भस्म हो चुके हैं इसीलिए वे मरणोत्तरकाल होनेवाली क्रियाओंको कर निश्चिन्त - जैसे होकर रहने लगे ॥ ५९ ॥
इधर महाबुद्धिमान् पाण्डव गंगा नदीको पार कर तथा वेष बदलकर पूर्व दिशाकी ओर गये || ६० || माता कुन्ती धीरे-धीरे चल पाती थी इसलिए वे उसकी चालके अनुसार इच्छापूर्वक सुखसे धीरे-धीरे चलते हुए उस कौशिक नामकी नगरीमें पहुँचे जहां वर्णं नामका राजा रहता था ॥ ६१ ॥ राजा वर्णकी स्त्रीका नाम प्रभावती था और उससे उसके कुसुमकोमला नामकी पुत्री उत्पन्न हुई थी । पाण्डवोंपर लोगोंका अधिक अनुराग था इसलिए कुसुमकोमलाने भी उनका नाम सुना तथा उन्हें देखा || ६२ ॥ | वह भाग्यशालिनी सुन्दर कन्यारूपी कुमुदिनी, युधिष्ठिररूपी चन्द्रमाको देखनेसे परम विकासको प्राप्त हो गयी ||६३ || जो युधिष्ठिरकी प्रिय स्त्री होनेवाली थी ऐसी कन्या कुसुमकोमला उन्हें देख मनमें विचार करने लगी कि इस जन्ममें मेरे यही उत्तम पति हों ||६४॥ कन्याके अभिप्रायको जानकर युधिष्ठिर के भी प्रेमरूपी बन्धन समुत्पन्न हो गया और वे इशारे से विवाहकी आशा दिखा आगे चले गये || ६५ ॥ कुसुमकोमला, उनके पुनः समागमकी प्रतीक्षा करती हुई कन्याजनोंके योग्य विनोदोंसे समय बिताने लगी ॥६६॥
तदनन्तर जो स्वभावसे ही सुन्दर आकारके धारक थे ऐसे वे पांचों भाई ब्राह्मणका वेषं रख, मनुष्योंके चित्तको हरते हुए आगे चले ||१७|| वे सब महापुण्यशाली जीव थे इसलिए उस अज्ञातवास के समय भी उन्हें मनोहर आसन, शयन और भोजन सुखपूर्वक अचिन्तित रूपसे प्राप्त होते रहते थे || ६८|| तत्पश्चात् वे तापसके वेषमें श्लेष्मान्तक नामक वनमें पहुँचे वहाँ तापसोंके सुन्दर तपोवनमें उन्होंने विश्राम किया और तापसोंने उनका अच्छा सत्कार किया ।। ६९ ।। उस आश्रम में वसुन्धरपुरके राजा विन्ध्यसेनकी वसन्तसुन्दरी नामकी पुत्री, जो कि नर्मदा नामक स्त्रीसे उत्पन्न हुई थी रहती थी ॥७०॥ यह कन्या गुरुजनोंने युधिष्ठिर के लिए पहले ही दे रखी थी परन्तु जब उनके जल जानेका समाचार सुना तब वह अपने पूर्वकृत कर्मकी निन्दा करती हुई इस इच्छासे कि 'उन प्राणनाथका दर्शन इस जन्म में न हो सका तो जन्मान्तर में हो', तपस्वियोंके उस आश्रम में तप करने लगी थी ।।७१-७२ ॥ १. -मासुताः म । २ तास्तान् म । ३. नर्मदायाश्च तत्र च क । नर्मदायास्ति ग, घ, ङ. ।
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पत्रचत्वारिंशः सर्गः
उदाररूपलावण्या दुकूलपटसाटिका । जटिला वटशाखेव स्निग्धच्छाया म्यराजत ॥७३॥ आकर्णायतनेत्राभ्यां स्वधरेण मुखेन्दुना । जघनस्तनमारेण मनो हरति तापसी ॥७॥ पूज्या तापसलोकस्य सकलस्य तपोवनम् । अकरोत्पावनं तन्वी चन्द्रलेखेव निर्मला ॥७५॥ कौन्तेयानां कृतातिथ्या तापसोचितवृत्तिमिः । जहार हारिवाक्यासौ क्षुत्पिपासापथश्रमम् ॥७६॥ कुन्ती पप्रच्छ तां प्रीत्या बाले ! कमलकोमले। नवे वयसि वैराग्यं कुतो जातेमतिव्रते ॥७॥ इति सानुनयं प्रष्टा राजपुत्री जगौ गिरा । मनो मधुरया तेषां हरन्ती हरिणेक्षणा ॥७॥ साधु पृष्टं त्वया पूज्ये ! श्रूयतामत्र कारणम् । सज्जनो हि मनोदुःखं निवेदितमुदस्यति ॥७९॥ कौरवाय पुरैवाहं कौन्तेयायाग्रजाय हि । स्वभावोदारचेष्टाय गुरुभिर्विनिवेदिता ॥४०॥ समातृभ्रातृकस्यास्य मदपुण्यप्रभावतः । श्रुत्वा वार्ता जनेभ्यो या न स्मर्तुमपि शक्यते ॥४१॥ दाहदुःखमृतं कान्तं युक्तं तेनैव वर्मना । अनुमत तु तापस्ये शक्तिहीनतया स्थिता ॥८॥ निशम्येति वचः सौम्या सा जगौ माविनी स्नुषाम् । कृतं भद्रं स्वया मद्रे कुर्वन्त्या प्राणरक्षणम् ॥४३॥ अन्यथा चिन्तयत्येष मित्रे मित्रजनो जने । अन्यथा विधिरप्यस्मादयंते दीर्घदर्शिता ॥४४॥ कल्याणहेतवः प्राणाः कल्याणि! मम वाक्यतः । तपस्यस्यापि धार्यन्तां जीवन्नी मद्रमाप्स्यसि ॥८५॥
वह अतिशय रूप और लावण्यकी धारक थी. सन्दर स्वच्छ साडीसे सशोभित थी. शिरपर जटाएं रखाये हुई थी और स्निग्ध कान्तिसे सहित थी इसलिए पायोंको धारण करनेवाली स्निग्ध छायासे सहित वटवृक्षको शाखाके समान सुशोभित हो रही थी ॥७३|| वह तापसी कानों तक लम्बे नेत्र, सुन्दर ओठ, मुखरूपी चन्द्रमा एवं नितम्ब और स्तनोंके भारसे सबका मन हरती थी ॥७४|| वह समस्त तापसोंके द्वारा पूज्य थी, चन्द्रमाकी कलाके समान कृश तथा निर्मल थी और अपने आवाससे उस तपोवनको पवित्र करती थी ॥७५।। मधुर वचन बोलनेवाली उस तापसीने तापसोंके योग्य वृत्तिसे पाण्डवोंका अतिथि-सत्कार किया तथा उनकी भूख-प्यास और मार्गको थकावटको दूर किया ॥७६।।
एक दिन कुन्तीने बड़े प्रेमसे उससे पूछा कि हे कमलके समान कोमलांगो बेटी ! तुझे नयी अवस्थामें ही वैराग्य किस कारणसे हो गया है जिससे तूने यह कठिन व्रत धारण कर रखा है ? ||७७|| इस प्रकार स्नेहके साथ पूछी जानेपर मृगनेत्री राजपुत्री मनोहर वाणीसे उनका मन हरती हुई बोली कि हे पूज्ये ! आपने ठीक पूछा है, मेरे वैराग्यका कारण सुनिए क्योंकि सज्जन पुरुष बताये हुए मनके दुःखको दूर कर देते हैं ॥७८-७९॥ मेरे गुरुजनोंने मुझे स्वभावसे उत्तम चेष्टाके धारक पाण्डवोंके बड़े भाई युधिष्ठिरके लिए पहले ही दे रखा था ॥८०॥ परन्तु मेरे पापके प्रभावसे माता और भाइयोंके साथ उनके विषयका जो समाचार लोगोंसे सुना है उसका स्मरण भी नहीं किया जा सकता ॥८१॥ 'मेरा पति दाहके दुःखसे मरा है इसलिए मुझे भी उसी मार्गसे मरना युक्त था परन्तु मैं शक्तिहीन होनेके कारण उस मार्गसे मर नहीं सकी इसलिए तपस्या करने लगी हूँ' ॥८२॥
___ तापसीके वचन सुन उसे होनहार पुत्रवधू जान सौम्य स्वभावकी धारक कुन्तीने कहा कि हे भद्रे ! तूने बहुत उत्तम किया जो प्राणोंकी रक्षा की ॥८३॥ मित्रजन, मित्रजनके विषयमें कुछ अन्य विचार करते हैं और भाग्य उससे विपरीत कुछ अन्य ही कार्य कर देता है इसलिए दीर्घदर्शिताकी आकांक्षा की जाती है ।।८४॥ हे कल्याणि ! प्राण कल्याणके कारण हैं इसलिए मेरे
१. सुष्ठ अधरः स्वधरः तेन । २. जातमितिव्रते म.। ३. दूरीकरोति । ४. चिन्तयत्येषा म., प., ग., ङ। ५. दयते म., घ., ग., ङ:
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हरिवंशपुराणे
तदेवान्ववदत्पाण्डोः प्रथमस्तनयो यतः । धर्मं चाकथय युक्तमणुशीलगुणवतैः ॥ ८६ ॥ परस्परं समालापे मनः प्रीतिकरेऽनयोः । वर्तमाने तदा कन्या मनसामन्यतेति सा ॥८७॥ राजलक्षणयुक्तः स किं स्यादेष युधिष्ठिरः । समातृकोऽनुशास्तीह मामतीव कृपान्वितः ॥ ८८ ॥ सर्वथा मम पुण्येन गण्येन तपसापि च । सत्यसन्धः प्रियो जीव्यादनाह तिरिहोद्यमी ॥ ८९ ॥
१४४
यासवस्तु युक्तानां पुनर्दर्शनमस्त्विति । सम्मानिताः प्रियाला पैरयुरस्थाश्च साशया ॥ ९० ॥ समुद्रविजयः श्रुत्वा स्वसृस्वस्त्रीयमारणम् । मारणाय कुरूणां स प्राप्तः कुपितमानसः ॥९१॥ जरासन्धस्ततः प्राप्य स्वयमेव महादरः । यदूनां कौरवाणां च संधिमापाद्य यातवान् ॥९२॥ इतोऽपि तापसाकारं त्यक्त्वेति द्विजवेषिणः । प्रयान्तो भ्रातरः कुन्त्या प्रापुरीहापुरं परम् ॥ ९३ ॥ मीमसेनो महाभीमं भृङ्गामं भृङ्गराक्षसम् । मनुजाशनमुद्वास्य 'तत्रास त्रासमङ्गिनाम् ॥९४॥ वीतभीभ्यः प्रजाभ्यस्ते प्राप्तपूजाः समातृकाः । व्रजन्तः स्वेच्छया प्रापुस्त्रिशृङ्गाख्यं महापुरम् ॥ ९५ ॥ प्रचण्डवाहनस्तत्र प्रचण्डश्चण्डकर्मणाम् । आसीनृपतिरस्येष्टा वनिता विमलप्रभा ॥ ९६ ॥ रूपातिशय संपूर्णाः पूर्णचन्द्रसमाननाः । कलापारमिताः सर्वास्तयोर्दुहितरो दश ||१७||
कहने से तू तपस्या करती हुई भी इन्हें अवश्य धारण कर । यदि जीवित रहेगी तो कल्याणको अवश्य प्राप्त करेगी ॥८५॥ पाण्डुके प्रथम पुत्र - युधिष्ठिर ने भी माता कुन्तीके ही वचनोंका अनुवाद किया - वही बात कही और अणुव्रत, शीलव्रत तथा गुणव्रतोंसे युक्त धर्मका उपदेश दिया ॥८६॥ उस समय युधिष्ठिर तथा कन्याका, मनमें प्रीति उत्पन्न करनेवाला जो परस्पर वार्तालाप हुआ था उससे कन्याने मनमें यह समझा अर्थात् यह शंका उसके मनमें उत्पन्न हुई कि क्या यह राजाओंके लक्षणोंसे युक्त वही युधिष्ठिर हैं जो दयासे युक्त हो माताके साथ यहाँ मुझे अत्यधिक उपदेश दे रहे हैं ? मेरे पुण्य अथवा गणनीय आदरणीय तपसे ही यहां प्रकट हुए हैं। ये दृढ़प्रतिज्ञ और उद्यमी प्रिय, कुमार यहाँ बिना किसी आघातसे चिर काल तक जीवित रहें ।८७-८९ ॥
युधिष्ठिर आदि पाण्डव जब वहांसे जाने लगे तब उस कन्याने 'आप शिष्ट जनोंका फिरसे दर्शन प्राप्त हो' यह कह मधुर वार्तालापसे उनका सम्मान किया। वे चले गये और कन्या युधिष्ठिरकी प्राप्तिको आशासे उसी तपोवनमें रहने लगी ॥९०॥ इधर जब राजा समुद्रविजयने सुना कि दुर्योधनने हमारी बहन तथा भानजोंको महलमें जलाकर मार डाला है तब वे कुपित हो कौरवोंको मारनेके लिए आये ॥९१॥ तदनन्तर महान् आदरसे युक्त जरासन्धने स्वयं आकर यादवों और कौरवोंके बीच सन्धि करा दी। सन्धि कराकर जरासन्ध अपनी राजधानीको चला गया ॥ ९२ ॥
इधर पाण्डव तापसोंका वेष छोड़ सामान्य ब्राह्मणके वेषमें विचरण करने लगे और माता कुन्ती के साथ चलते-चलते सब ईहापुर नामक उत्तम नगर में पहुँचे ॥ ९३ ॥ वहाँ एक भ्रमर के समान काला भृंगराक्षस नामका महाभयंकर नरभोजी राक्षस मनुष्योंको दुःखी कर रहा था सो भीमसेनने उसे नष्ट कर वहाँके निवासियोंका भय दूर किया ||१४|| जिनका भय नष्ट हो गया था ऐसे प्रजाके लोगोंने मातासहित पाण्डवोंका खूब सत्कार किया । तदनन्तर इच्छानुसार चलते हुए वेटिंग नामक महानगर में पहुँचे ||९५|| वहां क्रूरकर्मा मनुष्योंके लिए तीव्र दण्ड देनेवाला प्रचण्डवाहन नामका राजा था। उसकी विमलप्रभा नामको प्रिय स्त्री थी ॥ ९६ ॥ उन दोनों के दश पुत्रियाँ थीं जो सबकी - सब रूपके अतिशयसे युक्त, पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली और १. - दन्याहति म । २. सम्मानिता म । ३. ९१-९२ - तमौ श्लोको कन्पुस्तके केनापि रेखां दत्त्वा न्यक्कृतौ ।
४. तत्र + आस । तत्र = नगरे, अङ्गिनां त्रासम्, आस = क्षिप्तवान् । ५. प्राप्तपूजा म. ।
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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः भाचा गुणप्रमा तासु सुप्रभा हीश्रियौ रतिः । पद्मा चेन्दीवरा विश्वाचर्या चाशोकया सह ॥१८॥ युधिष्ठिराय ताः सर्वाः पूर्वमेव निवेदिताः । लब्ध्वा तस्यान्यथा वार्तामणुव्रतधराः स्थिताः ॥१९॥ इभ्योऽपि प्रियमित्राख्यस्तत्र पुर्या सपर्यया । अन्ववर्तत कौन्तेयान पुरुषान्तरविद्धनी ।।१०।। सोमिनी मामिनी तस्य कन्या नयनसुन्दरी । सौन्दर्येण स्वरूपेण नयनानन्ददायिनी ॥१०॥ युधिष्टिराय वीराय प्रागेव प्रतिपादिता । राजपुध्यो यथा पूर्वास्तथा सा तद्गता स्थितां ॥१०॥ राजा सभार्य इभ्यश्च महापुरुषवेदिनौ । कुन्तीपुत्राय ताः कन्या ज्यायसे दातुमिच्छतः ॥१०३।। तास्तु निश्चिन्तचित्तत्वादन्यलोकगतोऽपि हि । स एष पतिरस्माकमिति नेच्छन्ति तं द्विजम् ।।१०४॥ ततोऽपि नगराधाता नगराजस्थिरात्मकाः । प्राप्ताश्चम्पापुरी तेऽमी कर्णो यत्र महानृपः ॥१०५॥ तत्र मीमो महानागं पुरमध्ये मदोत्कटम् । प्रकोढ्य निर्मदीचक्रे कर्णसंक्षोमकृत्कृती ॥१०॥ ततोऽपि वैदिश याता पुरं सुरपुरोपमम् । राजा वृषध्वजो यत्र युवराजो दृढायुधः ॥१०॥ दिशावली प्रिया राज्ञो दिशानन्दा तु नन्दना । दिशासु विदिताकारा दिशामिव विशुद्धता ॥१०॥ मीमो राजगृहे राज्ञा गम्मीरस्वरदर्शनः। अदृश्यत दृशां कान्तो भिक्षार्थी किल रूपवान् ।।१०९।।
कलाओंमें पारंगत थीं ॥९७॥ उनके नाम थे-१ गुणप्रभा, २ सुप्रभा, ३ ह्री, ४ श्री, ५ रति, ६ पद्मा, ७ इन्दीवरा, ८ विश्वा, ९ आचर्या और १० अशोका। इनमें गुणप्रभा ज्येष्ठ थी॥९८॥ ये सभी कन्याएं पहले युधिष्ठिरके लिए प्रदान की गयी थीं परन्तु बादमें उनका अन्यथा समाचार प्राप्त कर वे अणुव्रतोको धारण करनेवाली श्राविकाएं बन गयी थी ।।९९|| उसी त्रिशृंगपुरमें एक प्रियमित्र नामका सेठ रहता था जो बहुत भारी धनी तथा पुरुषोंके अन्तरको समझनेवाला था। पाण्डवोंको विशिष्ट पुरुष समझ उसने उनका बहत सत्कार किया ॥१०॥ उसकी सोमिनी नामकी स्त्रो थी और उससे उसके स्वरूप तथा सौन्दर्यसे नेत्रोंको आनन्द देनेवाली नयनसुन्दरी नामकी कन्या हुई थी॥१०१।। यह कन्या वीर युधिष्ठिरके लिए पहले ही दे दी गयी थी इसलिए वह भी पूर्वोक्त राजपुत्रियोंके समान अणुव्रत धारण कर रहती थी॥१०२॥ राजा प्रचण्डवाहन और अपनी स्त्रीसहित सेठ प्रियमित्र, ब्राह्मणवेषधारी पाण्डवोंको महापुरुष समझते थे इसलिए ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिरके लिए वे सब कन्याएं देना चाहते थे ॥१०३।। परन्तु कन्याओंने अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि 'युधिष्ठिर भले ही परलोक चले गये हों पर इस भवमें वे ही मेरे पति हैं अन्य नहीं।' इस निश्चयसे उन्होंने ब्राह्मणवेषधारी युधिष्ठिरको अन्य पुरुष समझ स्वीकृत नहीं किया ॥१०४॥
तदनन्तर सुमेरुके समान स्थिरचित्तके धारक वे सब पाण्डव उस नगरसे भी चल दिये और चलते-चलते चम्पापुरीमें पहुँचे जहाँ महाराजा कर्ण राज्य करते थे ॥१०५।। वहाँ एक मदोन्मत्त बड़ा हाथी नगरमें उपद्रव मचा रहा था सो कुशल भीमने क्रीड़ा कर उसे मदरहित कर दिया । भीमकी यह वीरता देख कर्णको क्षोभ उत्पन्न हुआ ॥१०६॥ वहांसे चलकर वे इन्द्रपुरके समान सुन्दर वैदिशपुर पहुंचे। उस समय वहाँका राजा वृषध्वज था और युवराज दृढायुध था ॥१०७॥ राजा वृषध्वजको रानीका नाम दिशावली था और उसके दिशानन्दा नामकी पुत्री थी। दिशाओंकी विशुद्धताके समान दिशानन्दाको सुन्दरता समस्त दिशाओंमें प्रसिद्ध थी॥१०८॥ एक दिन गम्भीर स्वर और गम्भीर दृष्टिको धारण करनेवाले, नेत्रप्रिय रूपवान् भीम भिक्षाकी
१. विश्वाचार्या म. । २. युधिष्ठिरस्य । ३. कौन्तेया म. । ४. स्थिताः म.। ५. निश्चित म.। ६. नगराज इव सुमेरुरिव स्थिर आत्मा येषां ते । ७. प्रक्रीडन् क.। ८. वर्ण-म.। ९. जाताः क., ग., घ.. म.। १०. दृशा कान्ता म. ।
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हरिवंशपुराणे
ज्ञात्वा महानरं तं च कन्यामादाय तां नृपः । सान्तःपुरः पुरः स्थित्वा जगाद मधुरं वचः ॥११०॥ तवानुरूपकन्येयं दीयते प्रतिपद्यताम् । मिक्षा प्रसारय श्रीमन् पाणिं पाणिग्रहं प्रति ॥११॥ अपूर्वेयमहो भिक्षा नेदृशी प्रति सांप्रतम् । स्वातन्त्र्यमिति सभाष्य गत्वा तेभ्यो न्यवेदयत् ॥११२॥ साधे मासमिह स्थित्वा पुरे जग्मुरभी ततः । तरोत्य(?)नर्मदां नर्मप्रवणां विन्ध्यमाविशन् ॥१३॥ संध्याकारेऽन्तरद्वीपे संध्याकारे पुरे नृपः । हिडम्बवंशसंभूतः सिंहवोषोऽवतिष्ठते ॥११॥ देवी सुदर्शना तस्य सुता हृदयसुन्दरी । मेघवेगः त्रिकूटेन्द्रो याचित्वा तां न लब्धवान् ।।११५।। यो हनिष्यति तं विन्ध्ये गदाविद्याप्रसाधकम् । भर्ता हृदयसुन्दर्या इति नैमित्तिकागमः ।।११६॥ द्रुमकोटरमध्यास्य साधयन्तं खगं गदाम् । तयैव गदया सागं मीमोऽ पीपतदेकदा ॥११७॥ ततो हृदयसुन्दर्या भीमसेनस्य संगमः । हैडिम्बेन च संबन्धः संबभूव महोत्सवः ॥११॥ विहृत्य विविधान् देशान् दाक्षिणात्यान् महोदयाः । ते हास्तिनपुरं गन्तुं प्रवृत्ताः पाण्डुनन्दनाः।।११९।। प्राप्ता मार्गवशाद्विश्वे माकन्दी नगरी दिवः । प्रतिच्छन्दस्थितिं दिव्यान् दधाना देवविभ्रमान् ॥१२०॥ दुपटोऽस्यास्तदा भूपस्तस्य मोगवती प्रिया । धृष्टद्युम्नादयः पुत्राः प्रत्येकं दृष्टशक्तयः ॥१२॥
अभिलाषासे राजमहलमें गये। वहाँ राजा वृषध्वजने उन्हें देखा ॥१०९॥ देखते ही उसने समझ लिया कि यह कोई महापुरुष है इसलिए वह कन्या दिशानन्दाको लेकर अपने अन्तःपुरके साथ भीमके आगे खड़ा हो गया और इस प्रकारके मधुर वचन कहने लगा ॥११०॥ 'हे श्रीमन् ! यह कन्या ही आपके लिए अनुरूप भिक्षा है इसलिए इसे स्वीकृत कीजिए, पाणिग्रहणके लिए हाथ पसारिए' ॥१११॥ भीमने कहा कि 'अहा! यह भिक्षा तो अपूर्व रही, इस समय ऐसी भिक्षा स्वीकृत करने के लिए मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। उक्त उत्तर दे भीमने अपने आवासस्थानपर आकर युधिष्ठिर आदिके लिए यह समाचार सुनाया ॥११२।। तदनन्तर ये सब इस नगरमें डेढ़ मास तक रहे। उसके बाद क्रीड़ाओंके प्रदान करने में निपुण नर्मदा नदीको पार कर विन्ध्याचलमें प्रविष्ट हुए ॥११३।। विन्ध्याचलके बीच सन्ध्याके आकारका एक अन्तरद्वीप था। उसके सन्ध्याकार नामक नगरमें हिडिम्बवंशमें उत्पन्न राजा सिंहघोष रहता था ॥११४|| उसकी सुदर्शना नामकी स्त्री थी और उससे हृदयसुन्दरी नामकी पुत्री उत्पन्न हई थी। त्रिकूटाचलका स्वामी मेघवेग उस हृदयसुन्दरीको चाहता था और उसके निमित्त उसने राजा सिंहघोषसे याचना भी की थी परन्तु वह उसे प्राप्त नहीं कर सका ।।११५।। हृदयसुन्दरीके विषयमें निमित्तज्ञानियोंने यह कहा था कि "विन्ध्याचलपर गदाविद्याको सिद्ध करनेवाले विद्याधरको जो मारेगा वही हृदयसुन्दरीका पति होगा' ॥११६॥ भीमने विन्ध्याचलपर जाकर देखा कि एक विद्याधर वक्षकी कोटरमें बैठकर गदाको सिद्ध कर रहा है। देखते ही भीमने वह गदा हाथमें ले ली और उसीके प्रहारसे उस वृक्षको एक साथ गिरा दिया ॥११७।। तदनन्तर भीमका हृदयसुन्दरीके साथ समागम हुआ। हिडिम्बवंशी राजा सिंहघोषके साथ पाण्डवोंका यह सम्बन्ध महान् हर्षका कारण हुआ ॥११८॥
तदनन्तर महान् अभ्युदयको धारण करनेवाले पाण्डव दक्षिणके नाना देशोंमें बिहार कर हस्तिनापुर जानेके लिए उद्यत हुए ॥११९|| मार्गके वश चलते-चलते वे सब, स्वर्गके प्रतिबिम्बको धारण करनेवाली माकन्दी नगरी पहुंचे। उस समय सुन्दर शरीरसे सुशोभित पाण्डव देवोंके विभ्रमको धारण कर रहे थे-देवोंके समान जान पड़ते थे ।।१२०।। वहाँका राजा द्रुपद था, उसकी स्त्रीका नाम भोगवती था और उन दोनोंके धृष्टद्युम्न आदि अनेक १. भिक्षां क., ख., ग., घ.। २. श्रीमान् म., श्रीमन् ख., थ.। ३. हतिष्यति म. । ४. सवृक्षं । ५. पातयामास । ६. सोऽङ्गं भीमोऽपापट्यदेकदा म. । ७. दिव्यां म.। ८. देवविभ्रमाः म. दिव्यां दधानां देवविभ्रमाः घ.।
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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः
रूपलावण्य सौभाग्यकलालंकृतविग्रहा । द्रौपदी तनया तस्य द्रुपदस्योपमोज्झिता ॥ १२२ ॥ तस्याः कृते कृताः सर्वे 'मनोजेन नृपात्मजाः । सग्रहा इव याचन्ते नानोपायनपाणयः ॥ १२३ ॥ दाक्षिण्यभङ्गभीतेन द्रुपदेन ततो नृपाः । विश्वे चन्द्रकवेधार्थमाहूताः कन्यकार्थिनः ॥ १२४ ॥ द्रौपदीप्रहवश्यानां काश्यप्यामिह भूभृताम् । कर्णदुर्योधनादीनां माकन्द्यां निवहोऽभवत् ॥ १२५॥ सुरेन्द्रवर्धनः खेन्द्रः स्वसुतावरमार्गणैः । धनुर्गाण्डीवमादेशाद्दिव्यं तत्र तदाऽकरोत् ॥ १२६॥ चण्डगाण्डीव कोदण्डमण्डलीकरणक्षमः । राधावेधसमर्थो यो द्रौपद्याः स भवेत्पतिः ॥ १२७ ॥ इतीमा घोषणां श्रुत्वा द्रोणकर्णादयो नृपाः । समेत्य मण्डलीभूय कोदण्डमभितः स्थिताः ॥ १२८॥ देवताधिष्ठितायास्तैश्वापयष्टेः प्रदर्शनम् । आसीत्सत्या इवाशक्यं स्पर्शनाकर्षणे कुतः ॥ १२२ ॥ भाविना स्वामिना पश्चादर्जुनेन सदर्जुना । दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा तदाकृष्टा स सतीव वशं स्थिता ॥१३०॥ आरोग्याकृष्य पार्थेन धनुर्ज्या स्फालिताक्षिभिः । भ्रान्तं वधिरितं कर्णैः कर्णादीनां पदध्वनौ ॥ १३१ ॥ वितर्कः कर्कशं दृष्ट्वा तं तेषामित्यभूदयम् । सहजैः सहजैश्वर्यो मृत्वोत्पन्नः किमर्जुनः ॥१३२॥ धन्विनः स्थानमन्यस्य सामान्यस्येदृशं कुतः । अहो दृष्टिरहो मुष्टिरहो सौष्ठवमित्यपि ॥ १३३ ॥
पुत्र थे जो एकसे एक बढ़कर बलवान् ॥ १२१ ॥ राजा द्रुपदकी एक द्रौपदी नामकी पुत्री भी थी जिसका शरीर रूप लावण्य, सौभाग्य तथा अनेक कलाओंसे अलंकृत था एवं जो अपने सौन्दयंके विषय में सानी नहीं रखती थी ॥१२२॥ कामदेवने सब राजपुत्रोंको उसके लिए पागल सा बना दिया था इसलिए वे नाना प्रकारके उपहार हाथमें ले उसकी याचना करते थे || १२३|| तदनन्तर 'किस किससे बुराई की जाये' यह विचार दाक्षिण्य-भंगसे भयभीत राजा द्रुपदने कन्याकी इच्छा रखनेवाले सब राजकुमारोंको चन्द्रक यन्त्रका वेध करनेके लिए आमन्त्रित किया || १२४ || इस पृथिवीपर द्रौपदीरूप ग्रहके वशीभूत हुए कर्ण, दुर्योधन आदि जितने राजा थे उन सबका झुण्ड माकन्दी नगरी में इकट्ठा हो गया || १२५ | | उसी समय सुरेन्द्रवर्धन नामका एक विद्याधर राजा अपनी पुत्री के योग्य वर खोजने के लिए वहां आया और उसने राजा द्रुपदकी आज्ञासे गाण्डीव नामक धनुषको वरकी परीक्षाका साधन निश्चित किया || १२६ | | उस समय यह घोषणा की गयी कि 'जो अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुषको गोल करने एवं राधावेध ( चन्द्रकवेध ) में समर्थ होगा वही द्रौपदीका पति होगा' || १२७|| इस घोषणाको सुनकर वहां जो द्रोण तथा कर्ण आदि राजा आये थे वे सब गोलाकार हो धनुषके चारों ओर खड़े हो गये || १२८ || परन्तु सती स्त्री के समान देवोंसे अधिष्ठित उस धनुष-यष्टिका देखना भी उनके लिए अशक्य था फिर छूना और खींचना तो दूर रहा ||१२९||
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तदनन्तर जब सब परास्त हो गये तब द्रौपदीके होनहार पति एवं सदा सरल प्रकृतिको धारण करनेवाले अर्जुनने उस धनुष-यष्टिको देखकर तथा छूकर ऐसा खींचा कि वह सती स्त्रीके समान इनके वशीभूत हो गयी || १३०|| जब अर्जुनने खींचकर उसपर डोरी चढ़ायी और उसका आस्फालन किया तो उसके प्रचण्ड शब्द में कर्णं आदि राजाओंके नेत्र फिर गये तथा कान बहरे हो गये || १३१|| तीक्ष्ण आकृतिके धारक पार्थको देखकर कर्ण आदिके मनमें यह तर्क उत्पन्न हुआ कि क्या स्वाभाविक ऐश्वयंको धारण करनेवाला अर्जुन अपने भाइयोंके साथ मरकर यहाँ पुनः उत्पन्न हुआ है ? ||१३२|| अर्जुनके सिवाय अन्य सामान्य धनुर्धारीका ऐसा खड़ा होना कहाँ सम्भव है ? अहा ! इसकी दृष्टि, इसकी मुट्ठी और इसकी चतुराई - सभी आश्चयंकारी हैं ॥१३३॥
१. मनोवेगैर्नृपात्मजाः म. क. । २. पृथिव्याम् 'क्षोणी ज्या काश्यपी क्षितिः' इति धनंजयः । ३. सदा सर्वदा ऋजुना सरलेन । ४. क्षिति: म. ( ? ) ।
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हरिवंशपुराणे
भ्रमच्चक्रसमारूढो बाणं संधृत्य दक्षिणः । लक्ष्यं चन्द्रकवेधाख्यं विव्याध नृपसंनिधौ ॥१३४॥ द्रौपदी च द्रुतं माल कन्धरेऽभ्येत्य बन्धुरे । अकरोत्करपद्माभ्यामर्जुनस्य वरेच्छया ॥ १३५ ॥ विप्रकीर्णा तदा माला सहसा सहवर्तिनाम् । पञ्चानामपि गात्रेषु चपलेन नभस्वता ॥ १३६॥ ततश्चपललोकस्य तत्त्वमूढस्य कस्यचित् । वाचो विचेरुरित्युच्चैर्वृताः पञ्चानयेत्यपि ॥१३७॥ सद्गन्धस्य सुवृक्षस्य तुङ्गस्य फलितस्य सा । पुष्पितेव लताभासीदर्जुनस्याङ्गमाश्रिता ॥ १३८॥ ततः कुन्त्याः समीपं सा धीरमञ्जीरबन्धना । अग्रतः पश्यतां राज्ञां नोतानीतिविदां विदा || १३९ ॥ संनह्यते नृपाः केचिदनुयाता युयुत्सवः । निषिद्धा अपि यत्नेन दुपदेन नयैषिणा ॥ १४० ॥ अर्जुनेन च भीमेन धृष्टद्युम्नेन च त्रिभिः । धन्विभिर्दूरतो रुद्धा नाभितः पदमप्यदुः ॥ १४१ ॥ धृष्टद्युम्नरथस्थेन स्वनामाङ्कः किरीटिना । द्वौणस्याङ्के शरः क्षिप्तः सर्वसंबन्धवाचकः ॥१४२॥ द्रोणश्वत्थामवीराभ्यां भीष्मेण विदुरेण च । वाचितः सर्वसंबन्धः प्रमदं प्रददौ परम् ॥१४३॥ द्रुपदस्य सगोत्रस्य द्रोणादीनां च सौख्यतः । शङ्खवादित्रनिर्घोषा जाताः पाण्डवसंगमे ॥१४४॥ जातबान्धवसंबन्धे परमानन्ददायिनि । संवृत्या नन्दिताः पञ्च तेऽमी दुर्योधनादिभिः ॥१४५॥ द्रौपदी दीपिकेवासी स्नेहसंभारपूरिता । पाणिग्रहणयोगेन दिदीपेऽर्जुनधारिता ॥ १४६ ॥
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उधर राजा लोग ऐसा विचार कर रहे थे इधर अत्यन्त चतुर अर्जुन डोरीपर बाण रख झटसे चलते हुए चक्रपर चढ़ गया और राजाओंके देखते-देखते उसने शीघ्र ही चन्द्रकवेध नामका लक्ष्य बेध दिया || १३४|| उसी समय द्रौपदीने शीघ्र ही आकर वरको इच्छासे अर्जुनकी झुकी हुई सुन्दर ग्रीवामें अपने दोनों कर-कमलोंसे माला डाल दी || १३५ || उस समय जोरदार वायु चल रही थी इसलिए वह माला टूटकर साथ खड़े हुए पाँचों पाण्डवोंके शरीरपर जा पड़ी ||१३६|| इसलिए विवेकहीन किसी चपल मनुष्यने जोर-जोरसे यह वचन कहना शुरू कर दिया कि इसने पाँच कुमारोंको वरा है || १३७|| जिस प्रकार किसी सुगन्धित, ऊँचे एवं फलोंसे युक्त वृक्षपर लिपटी फूली लता सुशोभित होती है उसी प्रकार अर्जुनके समीप खड़ी द्रौपदी सुशोभित हो रही थी || १३८|| तदनन्तर कुशल अर्जुन नूपुरोंके निश्चल बन्धन से युक्त उस द्रौपदीको अनीतिज्ञ राजाओं के आगेसे उनके देखते-देखते माता कुन्तीके पास ले चला ॥ १३९ || युद्ध करनेके लिए उत्सुक राजाओं को यद्यपि नीतिचतुर राजा द्रुपदने रोका था तथापि कितने ही राजा जबर्दस्ती अर्जुनके पीछे लग गये ॥१४०॥ परन्तु अर्जुन, भीम और धृष्टद्युम्न इन तीनों धनुर्धारियोंने उन्हें दूरसे ही रोक दिया । ऐसा रोका कि न आगे न पीछे कहीं एक डग भी रखनेके लिए समर्थं नहीं हो सके || १४१ ||
तदनन्तर धृष्टद्युम्न के रथपर आरूढ़ अर्जुनने अपने नाम से चिह्नित एवं समस्त सम्बन्धों को सूचित करनेवाला बाण द्रोणाचार्यकी गोद में फेंका || १४२ ॥ द्रोण, अश्वत्थामा, भीष्म और विदुरने जब उस समस्त सम्बन्धों को सूचित करनेवाले बाणको बाँचा तो उसने सबको परम हर्षं प्रदान किया || १४३ ॥ पाण्डवोंका समागम होनेपर राजा द्रुपद, कुटुम्बी जन, तथा द्रोणाचार्य आदिको जो महान् सुख उत्पन्न हुआ था । उससे शंख और बाजोंके शब्द होने लगे || १४४ || परम आनन्दको देनेवाले भाइयोंके इस समागमपर दुर्योधन आदिने भी ऊपरी स्नेह दिखाया और पांचों पाण्डवोंका अभिनन्दन किया || १४५ || जिस प्रकार स्नेहतेल समूहसे भारी दीपिका किसीके पाणिग्रहण - हाथमें धारण करनेसे अत्यधिक देदीप्यमान होने लगती है उसी प्रकार स्नेह-प्रेमके भारसे भरी द्रौपदी, पाणिग्रहण - विवाहके योगसे
१. विव्याथ म. । २. वाचोदितोरु म, घ. । ३. धीरगा जीवबन्धना म. 1 म. । सौख्यतः घ., ख. । ६. निर्घोषाज्जाताः म. ।
४. प्रपदो म । ५. सौख्यतां
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पञ्चचत्वारिंशः सर्गः विवाहमङ्गलं दृष्ट्वा द्रौपद्यर्जुनयोर्नृपाः। 'प्रयाताः पाण्डवैर्युक्तः स्थानं दुर्योधनोऽप्यगात् ॥१७॥ अर्धराज्यविभागेन ते हास्तिनपुरे पुनः । तस्थुर्दुर्योधनाद्याश्च पाण्डवाश्च यथायथम् ॥१८॥ आनाय्यानाय्यवृत्तोऽसौ ज्येष्ठं कन्याः पुरातनीः । विवाह्य सुखिताश्चक्रे मीमसेनो निजोचिताः॥१४९॥ स्नुषाबुद्धिरभूत्तस्यां ज्येष्ठयोरर्जुन स्त्रियाम् । द्रौपद्यां यमलस्यापि मातरीवानुवर्तनम् ॥१५०॥ तस्याः श्वसुरबुद्धिस्तु पाण्डाविव तयोरभूत् । अर्जुनप्रेमसंरुद्धमौचित्यं देवरद्वये ॥१५॥ अत्यन्तशुद्ध वृत्तेषु येऽभ्याख्यानपरायणाः । तेषां तत्प्रमवं पापं को निवारयितुं क्षमः ॥१५२॥ सद्भूतस्यापि दोषस्य परकीयस्य माषणम् । पापहेतुरमोघः स्यादसद्भूतस्य किं पुनः ॥१५॥ प्राकृतानामपि प्रीत्या समानधनता धने । न स्त्रीषु त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धानां किमुच्यते ॥१५॥ महापुरुषकोटीस्थकूट दोषविमाषिणाम् । असतां कथमायाति न जिह्वा शतखण्डताम् ॥१५५॥ वक्ता श्रोता च पापस्य यन्नात्र फलमश्नुते । तदमोघममुत्रास्य वृद्धपर्थमिति बुद्धयताम् ।।१५६॥ वक्तः श्रोतुश्च सद्बुद्धया यथा पुण्यमयी श्रुतिः । श्रेयसे विपरीताय तथा पापमयी श्रतिः ॥१५७॥
अर्जुनके द्वारा धारण की हुई अत्यधिक देदीप्यमान होने लगी ॥१४६॥ राजा लोग द्रौपदी और अर्जुनका विवाह-मंगल देखकर अपने-अपने स्थानपर चले गये और दुर्योधन भी पाण्डवोंको साथ ले हस्तिनापुर पहुंच गया ॥१४७॥ दुर्योधनादि सौ भाई और पाण्डव आधे-आधे राज्यका विभाग कर पुनः पूर्वकी भाँति रहने लगे ॥१४८॥ उज्ज्वल चारित्रके धारक युधिष्ठिर तथा भीमसेनने पहले अज्ञातवासके समय अपने-अपने योग्य जिनकन्याओंको स्वीकृत करनेका आश्वासन दिया था उन्हें बुलाकर तथा उनके साथ विवाह कर उन्हें सुखी किया ॥१४९|| द्रौपदी अर्जुनकी स्त्री थी, उसमें युधिष्ठिर और भीमको बहू-जैसी बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल उसे माताके समान मानते थे ॥१५०॥
द्रौपदीकी भी पाण्डुके समान युधिष्ठिर और भीममें श्वसुर बुद्धि थी और सहदेव तथा नकुल इन दोनों देवरोंमें अर्जुनके प्रेमके अनुरूप उचित बुद्धि थो ॥१५१॥ गौतम-स्वामी कहते हैं कि जो अत्यन्त शुद्ध आचारके धारक मनुष्योंकी निन्दा करनेमें तत्पर रहते हैं उनके उस निन्दासे उत्पन्न हुए पापका निवारण करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥१५२।। दूसरेके. विद्यमान दोषका कथन करना भी पापका कारण है फिर अविद्यमान दोषके कथन करनेकी तो बात ही क्या है ? वह तो ऐसे पापका कारण होता है जिसका फल कभी व्यर्थ नहीं जाता-अवश्य ही भोगना पड़ता है ।।१५३।। साधारणसे-साधारण मनुष्योंमें प्रीतिके. कारण यदि समानधनता होती है तो धनके विषयमें ही होती है स्त्रियोंमें नहीं होती। फिर जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हैं उनकी तो बात ही क्या है ? ||१५४॥ महापुरुषोंकी कोटिमें स्थित पाण्डवोंके मिथ्या दोष कथन करनेवाले दुष्टोंकी जिह्वाके सौ खण्ड क्यों नहीं हो जाते? ॥१५५॥ पापका वक्ता और श्रोता जो इस लोकमें उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है वह मानो परलोकमें वृद्धिके लिए ही सुरक्षित रहता है ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ-जिस पापका फल वक्ता और श्रोताको इस जन्ममें नहीं मिल पाता है उसका फल परभवमें अवश्य मिलता है और ब्याजके साथ मिलता है ॥१५६।। सद्बुद्धिसे पुण्यरूप कथाओंका सुनना वक्ता और श्रोताके लिए जिस
कल्याणका कारण माना गया है उसी प्रकार पापरूप कथाओंका सनना उनके लिए अकल्याणका कारण माना गया है ॥१५७॥ इसलिए असत्यरूप दोषसे उद्धत वाणीको छोड़ो, और
१. आयाताः पाण्डवैर्युक्ता म., घ. । २. सहदेवनकुलयोः म.। ३. योऽभ्याख्यान-म.। ४. स्त्रीचरित्रलोकेषु म., घ. ।
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५५०
हरिवंशपुराणे
द्रुतविलम्बितवृत्तम् स्यजत वाचमसत्यमलोद्धतां भजत 'सत्यवचोनिरवद्यताम् । 'निजयशोविशदा सगुणोद्यतां विजयिनी स्विह विश्वविदोदिताम् ॥१५८॥ सुभृतमाचरणं शरणं मवेदसुभृतां विपदीह पराभवे । सुचरितस्य फलं नयपौरुषं परिभवत्यहितस्य हि तां रुषम् ॥१५९॥ शिखिशिखावलिधर्मघनागमः परनिराकरणैकजिनागमः । विविधलामनिधिर्धियतां जनैव्रतविधिः श्रुतवतिकृताञ्जनैः ॥१६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो कुरुवंशोत्पत्तिपाण्डवधार्तराष्ट्राणां च
पार्थद्रौपदीलाभवर्णनो नाम पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ॥४५॥
सत्य वचनसे उत्पन्न उस निर्मलताका सेवन करो जो अपने यशसे विशद है, गुणी मनुष्योंके प्राप्त करनेमें उद्यत है। इस लोकमें विजय प्राप्त करानेवाली है और सर्वज्ञदेवके द्वारा निरूपित है ॥१५८॥ इस संसारमें विपत्ति और पराभवके समय अच्छी तरहसे आचरित अपना आचरण ही प्राणियोंके लिए शरण है क्योंकि सदाचारका फल जो नीति और पौरुष है वह शत्रुके उस रोषको परिभूत कर देता है-दूर कर देता है ॥१५९।। जो अग्निकी शिखावलीसे वर्धमान धर्मरूपी ग्रीष्म कालको नष्ट करनेके लिए वर्षा ऋतुके समान है, दूसरोंका निराकरण करनेके लिए एक जिनागम है, और नाना प्रकारके लाभोंका भण्डार है, ऐसा व्रतविधान, श्रुतरूपी अंजनकी शलाकाका प्रयोग करनेवाले मनुष्योंके द्वारा अवश्य ही धारण करने योग्य है ॥१६०॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कुरुवंशकी उत्पत्ति, पाण्डव और धार्तराष्ट्रोंके समागम तथा अर्जुनको द्रौपदीके लामका
वर्णन करनेवाला पैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हआ ॥४५॥
१. सत्यवचसः निरवद्यता तां। २. निजयशोविशदाशगुणोद्यतां म.। निजयशो विशदं न गणोद्यतां क.। ३. अथवा विजयिनीं त्विह वित्थ विदोऽद्य ताम् इति पाठः क पुस्तकटिप्पणकृत इह संगतः लोके, हे विदः हे पण्डिताः अद्य अधुना, ताम् वाचं, विजयिनीं वित्थ जानीथ । ४. पुराभवे ख., ङ.। ५. व्रतविधिश्रुतवतिक. व्रतविधिप्रतिपादकश्रुतवा कृतमञ्जनं यः इति क-प्रति टिप्पणी।
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षट्चत्वारिंशः सर्गः
१
अथ मानितबन्धूनां पाण्डवानां गजाह्वये । नगरे नगधीराणां काले गच्छति भोगिनाम् ॥१॥ प्रत्यहं परया भूत्या वर्धमानानमूनमी । पञ्चापि शतमालोक्य पूर्ववञ्चलिताः स्थितेः ॥२॥ तं शकुन्युपदेशेन सद्यो द्यूते विजित्य सः । पञ्चज्येष्टं शतज्येष्ठः सानुजं सानुजोऽगदीत् ॥३॥ गन्तव्यं यत्र ते नाम श्रूयते न युधिष्ठिर । स्थातव्यं सत्यसंधेन त्वया प्रच्छन्नवर्तिमा ॥४॥ इत्युक्तं प्रतिपद्यासौ शमितभ्रातृमण्डलः । निरैत्परिच्छदं त्यक्त्वा द्वादशाब्दष्टतावधिः ॥ ५ ॥ अनुयातार्जुनं प्रेम्णा प्रमदेन च पूरिता । द्रौपदीन्दुमिव ज्योत्स्ना कृतकृष्णनिजस्थिति ( ? ) ॥६॥ ततस्ते धैर्य संपन्नाः सुवीर्या नरकुञ्जराः । क्रमेण सहिताः प्राप्ता रम्यां कालाञ्जलाटवीम् ॥ ७ ॥ प्रकीर्णकासुरीसूनुः सुतारस्तत्र खेचरः । असुरोहीतनगरादागत्य रमते तदा ॥८॥ कान्तया कुसुमावल्या रममाणं वनान्तरे । किरातवेषिणं कान्तं युक्तं शावर विद्यया ॥९॥ किरातवेषभृत्परन्या सह क्रीडन् यदृच्छया । ददर्श खेचरं चापी चापिनं स धनंजयः ॥१०॥ अकस्माच्च तयोर्जाते दर्शने सहसानयोः । बभूव विषमं युद्धं दिव्येषुच्छन्न दिङ्मुखम् ॥१३॥ भुजयुद्धे ततो लग्ने भुजेन दृढमुष्टिना । जघानोरसि तं पार्थः खचरं बलिनं बली ॥१२॥
अथानन्तर बन्धुओं का सम्मान करनेवाले पर्वतोंके समान धीर-वीर पाण्डवोंका भोग भोगते हुए हस्तिनापुर में सुखसे समय व्यतीत होने लगा ॥ १ ॥ पाँचों पाण्डव उत्कृष्ट विभूतिसे प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हो रहे थे, उन्हें देख सो कौरव पहले के समान पुनः मर्यादासे विचलित हो गये ॥२॥ एक बार शकुनिके उपदेशसे दुर्योधनने युधिष्ठिरको शीघ्र ही जुआमें जीत लिया । जीत लेने पर अपने छोटे भाइयोंके साथ मिलकर दुर्योधनने भीमसेन आदि छोटे भाइयोंसे युक्त युधिष्ठिरसे कहा कि हे युधिष्ठिर ! चूँकि तुम सत्यवादी हो - तुम्हारे द्वारा की हुई प्रतिज्ञा कभी मिथ्या नहीं होती इसलिए तुम्हें अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार यहाँसे चला जाना चाहिए और छिपकर वहाँ रहना चाहिए जहाँसे तुम्हारा नाम भी सुनाई न दे सके ||३४|| दुर्योधनके इस कथनको सुनकर यद्यपि भीमसेन आदि भाइयोंको क्षोभ उत्पन्न हुआ तथापि युधिष्ठिर उन्हें शान्तु कर बारह वर्ष की लम्बी अवधिके लिए सब राज्य-पाट छोड़ हस्तिनापुरसे बाहर निकल गय ॥ जिस प्रकार चाँदनी चन्द्रमाके पीछे-पीछे चलती है उसी प्रकार प्रेम और हर्षसे भरी द्रौपदी अर्जुनके पीछे-पीछे चलने लगी ||६||
तदनन्तर धैर्यंसे सम्पन्न, उत्तम शक्तिसे सुशोभित एवं एक-दूसरे के हित करनेमें तत्पर वे सब श्रेष्ठ पुरुष क्रम-क्रमसे कालांजला नामक अटवी में पहुँचे ||७|| उस समय वहाँ प्रकीर्णकासुरीका पुत्र सुतार नामका विद्याधर असुरोद्गीत नामक नगरसे आकर क्रीड़ा कर रहा था !! ८ || वह शावरी विद्यासे युक्त था अत: किरातका सुन्दर वेष रख अपनी कुसुमावली नामक स्त्रीके साथ क्रीड़ा कर रहा था || ९ || उसकी स्त्री भी किरातका वेष रखे थी और दोनों इच्छानुसार साथसाथ क्रीड़ा कर रहे थे । धनुर्धारी अर्जुनने धनुर्धारी उस विद्याधरको देखा ॥ १० ॥ उन दोनोंने ज्योंही अकस्मात् एक-दूसरे को देखा त्योंही उनमें भयंकर युद्ध होने लगा । ऐसा युद्ध कि जिसमें दिशाएँ दिव्य वाणोंसे आच्छादित हो गयीं ॥ ११ ॥ तदनन्तर उन दोनोंमें बाहुयुद्ध होनेपर बलवान्
दुर्योधनः । ५. वैरिणा म । ६ प्रतिपाद्यासो म. ।
१. परमा म. । २. कौरवाः । ३ युधिष्ठिरं । ४ ७. अनुजाता - म., घ. ।
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हरिवंशपुराणे
पतिभिक्षां ययाचेऽसावर्जुनं कुसुमावली | मुक्तः स तं प्रणम्यागाद्रौप्यार्दक्षिणां क्षितिम् ॥१३॥ गता क्रमेण ते धीराः पुरं मेघदलाभिधम् । सिंहो नरेश्वरो यत्र कान्ता कनकमेखला ॥ १४ ॥ तनया कनकावर्ता तयोरत्यन्त सुन्दरी । मेघेभ्यो लकयोश्चारुलक्ष्मीः कान्ता शरीरजा ॥१५॥ ते चादेश वशात्कन्ये भीमो भीमांसवेषभृत् । मिक्षार्थमागतो लेभे पुण्यस्य किमु दुष्करम् ॥ १६ ॥ विश्रम्य तत्र ते सौम्या दिनानि कतिचित्सुखम् । याताः क्रमेण पुन्नागा विषयं कौशलाभिधम् ॥१७॥ स्थित्वा तत्रापि सौख्येन मासान् कतिपयानपि । प्राप्ता रामगिरिं प्राग् यो रामलक्ष्मणसेवितः ॥ १८ ॥ चैत्यालया जिनेन्द्राणां यत्र चन्द्रार्कमासुराः । कारिता रामदेवेन संभान्ति शतशो गिरौ ॥१९॥ नानादेशगतैव्यैर्वन्थन्ते या दिने दिने । वन्दितास्ता जिनेन्द्राणां प्रतिमाः पाण्डुनन्दनैः ॥ २०॥ चित्रं चिक्रीड तत्राद्वौ द्रौपद्या सहितोऽर्जुनः । लतागृहेषु रम्येषु सीतयेव रघूत्तमः ॥२१॥ अविज्ञात सुखच्छेदा स्वेच्छया विहृतिं श्रिताः । निन्युरेकादशाब्दानि धन्यास्ते मान्यचेष्टिताः ॥२२॥ अतः परं पुनः प्राप्ता विराटपुटभेदनम् । विराटो यत्र राजासौ मार्या यस्य सुदर्शना ॥२२॥ अव्यक्ताः पाण्डवास्तत्र द्रौपदी च विचक्षणा । विराटनगरे तस्थुर्विराटस्या तिपूजिताः ॥ २४॥ यथायथं विनोदेन तत्र संवसतां सताम् । प्रयाति सुखिनां काले प्रमादरहितात्मनाम् ॥ ३५॥
५५२
अर्जुन दृढ़ मुट्ठी बांधकर उस बलवान् विद्याधरकी छातीपर भुजासे मजबूत प्रहार किया । जिससे घबड़ाकर विद्याधरकी स्त्री कुसुमावली अर्जुनसे पतिकी भिक्षा मांगने लगी । फलस्वरूप अर्जुनने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम कर विजयाधं पर्वतको दक्षिण श्रेणी में चला गया ॥ १२-१३॥ तदनन्तर वे धीर-वीर क्रम-क्रमसे मेघदल नामक उस नगर में पहुँचे जहाँ सिंह नामका राजा राज्य करता था। राजा सिंहकी स्त्रीका नाम कनकमेखला था और उन दोनोंके कनकावर्ता नामकी अत्यन्त सुन्दरी कन्या थी । उसी नगरी में मेघ नामक सेठ और अलका नामक सेठानीके चारुलक्ष्मी नामकी एक सुन्दर कन्या और थी ॥१४- १५ ॥ निमित्तज्ञानीके आदेशानुसार भिक्षाके लिए गये हुए भयंकर कन्धोंको धारण करनेवाले भीमसेनने उन दोनों कन्याओंको प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्यके लिए क्या कार्यं कठिन है ? || १६ || सौम्य प्रकृतिके धारक उन श्रेष्ठ पुरुषोंने कुछ दिन तक वहां विश्राम किया । तदनन्तर क्रम-क्रमसे चलकर वे कौशल नामक देश में पहुँचे ॥१७॥ वहाँ भी कुछ महीने तक सुखसे ठहरकर वे उस रामगिरि पर्वतपर पहुंचे जो कि पहले राम और लक्ष्मणके द्वारा सेवित हुआ था || १८|| तथा जिस पर्वतपर रामचन्द्रजीके द्वारा बनवाये हुए चन्द्रमा और सूर्यके समान देदीप्यमान, सैकड़ों जिन मन्दिर सुशोभित हो रहे ये ||१९|| नाना देशोंसे आये हुए भव्य जीव प्रतिदिन जिन - प्रतिमाओं की वन्दना करते थे, पाण्डवोंने भी उन प्रतिमाओं को बड़ी भक्तिसे वन्दना की ||२०|| जिस प्रकार सीता के साथ रामचन्द्रजीने कीड़ा की थी उसी प्रकार उस पर्वत के सुन्दर-सुन्दर लतागृहोंमें अर्जुन द्रौपदीके साथ नाना प्रकारकी क्रीड़ा करता था || २१|| जिन्होंने कभी सुखके विच्छेदका अनुभव नहीं किया था, जो स्वेच्छा से जहाँ-तहाँ विहार करते थे और मान्य चेष्टाओंके धारक थे ऐसे उन भाग्यशाली पाण्डवोंने उस पर्वतपर ग्यारह वर्षं व्यतीत कर दिये ||२२||
तदनन्तर वहाँ से चलकर वे उस विराटनगर में पहुँचे जहां विराट नामका राजा रहता था। राजा विराटकी स्त्रीका नाम सुदर्शना था || २३ || पाण्डव और अत्यन्त कुशल द्रौपदी - सब अपने-आपको छिपाकर राजा विराटसे सम्मानित हो विराटनगर में रहने लगे ||२४|| इस प्रकार विनोदपूर्वक वहाँ रहते हुए प्रमादरहित पाण्डवोंका सुखसे समय बीतने लगा ||२५|| अब इनसे सम्बन्ध रखनेवाली दूसरी घटना लिखी जाती है
१. मधह्यालकया-ग, घ, ङ. । २. पुरुषश्रेष्ठाः । ३. संभाति म । ४. गच्छति सति ।
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षट्चत्वारिंशः सर्गः
५५३ चूलिका नगरी राजा चूलिकस्तस्य कामिनी । विकचा विकचाब्जास्या शतपुत्रपविनिता ॥२६॥ कोचकः प्रथमस्तेषां प्रथमश्चण्डकर्मणाम् । रूपयौवनविज्ञानशौर्यद्रव्यमदाविलः ॥२७॥ विराटनगरं जातु स्वसारं स सुदर्शनाम् । आगतो द्रष्टुमत्रतां दृष्टवान् द्रौपदी सतीम् ॥२८॥ गन्धयुकिविशेषेण सुगन्धीकृतदिड मुखाम् । रूपलावण्यसौभाग्यगुणपूरितविग्रहाम् ॥२९॥ तस्यां दर्शनमात्रेण मानिनोऽपि मनोगतम् । दैन्यमन्यत्र यातस्य तस्य तन्मयतां गतम् ॥३०॥ अनेझोपाययोगैस्तामुपलोमयतामुना । स्वतोऽपि परतोऽप्यस्या नालाभि हृदये स्थितिः ॥३१॥ प्रत्याख्यातस्य पृष्टस्य तृणीभूतस्य तस्य सा । निर्बन्धं भीमसेनाय शैलन्ध्री तं न्यवेदयत् ॥३॥ ततः कुपितचित्तोऽसौ शैलन्ध्रीवेषभृदबली । प्रदोषे कृतसंकेतमेकान्ते मदनातुरम् ॥३३॥ वारीबन्धमिवायातं स्पर्शान्धं गन्धवारणम् । कण्ठे जग्राह बाहुभ्यां स्पर्शामीलितलोचनाम् ॥३४॥ भुमी निपात्य पादाभ्यामरस्याक्रम्य कामिनम् । पिपेष मुष्टिनिर्धातैर्निर्घातरिव भूधरम् ॥३५॥ तथा तस्य तदा श्रद्धां प्रपूर्य परयोषिति । अमुचद् व्रज पापेति दयमानो महामनाः ॥३६॥ महावैराग्यसंपन्नस्ततो विषय हेतुकम् । प्राबजस्कीचकः श्रित्वा मुनीन्द्रं रतिवर्धनम् ॥३७॥
इसी पथिवीतलपर एक चलिका नामकी नगरी थी। उसके राजाका नाम चलिक था। राजा चूलिकको, विकसित कमलके समान मुखवाली एवं सौ पुत्रोंसे पवित्र विकचा नामकी स्त्री थी ॥२६|| विकचाके सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े पुत्रका नाम कीचक था। यह कीचक क्रूरकर्मा मनुष्योंमें अग्रणी था तथा रूप, यौवन, विज्ञान, शूर-वीरता और धनके मदसे मलिन था ॥२७।। एक बार वह कीचक, अपनी बहन सुदर्शनाको देखनेके लिए विराटनगर आया। वहां उसने द्रौपदीको देखा ॥२८॥ उस समय द्रौपदी किसी विशिष्ट सुगन्धित पदार्थके संयोगसे समस्त दिशाओंको सुगन्धित कर रही थी एवं रूप, लावण्य, सौभाग्य आदि गुणोंसे उसका शरीर परिपूर्ण था ॥२९|| यद्यपि कीचक मानी था तथापि उसका मन देखते ही द्रौपदीके विषयमें दोनताको प्राप्त हो गया। वह वहाँसे अन्यत्र जाता था तब भी उसका मन द्रौपदीके साथ तन्मयताको ही प्राप्त रहता था ॥३०॥ कीचकने अनेक उपायोंसे द्रौपदीको स्वयं लुभाया तथा दूसरोंके द्वारा भी उसे प्रलोभन दिखलाये पर वह उसके हृदयमें स्थितिको प्राप्त न कर सका ॥३१॥ द्रौपदी उसे तृणके समान तुच्छ समझती थी और उसे मना भी कर चुकी थी पर वह अपनी धृष्टता नहीं छोड़ता था अतः विवश हो शैलन्ध्रो ( सैरन्ध्री ) का वेष धारण करनेवाली द्रौपदीने एक दिन उसकी इस दुहंठकी शिकायत भीमसेनसे कर दी ॥३२॥ फिर क्या था, भीमसेनका हृदय क्रोधसे उबल उठा। उन्होंने कामातुर कीचकको द्रौपदीके द्वारा सायंकालके समय एकान्त स्थानमें मिलनेका संकेत करा दिया और आप स्वयं शैलन्ध्री ( द्रौपदी ) का वेष रख उस स्थानपर पहुँच गये। आप
पन्त बलवान् तो थे ही ॥३३।। जिस प्रकार हस्तिनीके स्पर्शसे अन्धा मदोन्मत्त हाथी बन्धनके स्थानमें स्वयं आ जाता है उसी प्रकार मदनातुर कीचक उस संकेत-स्थानमें स्वयं आ गया। तदनन्तर स्पर्शजन्य आनन्दके अतिरेकसे जिसके नेत्र निमीलित हो रहे थे ऐसे उस कीचकके कण्ठेको द्रौपदीका वेष धारण करनेवाले भीमसेनने अपनी दोनों भुजाओंसे आलिंगित किया और पृथिवीपर पटककर उसकी छातीपर दोनों पैरोंसे चढ़ गये। जिस प्रकार वज्राघातसे किसी पर्वतको चूर-चूर किया जाता है उसी प्रकार मजबूत मुक्कोंके प्रहारसे उसे चूर-चूर कर दिया। इस प्रकार उसकी परस्रो विषयक आकांक्षाको पूर्ण कर महामना भीमसेनने दयायुक्त हो 'अरे पापी जा' यह कह उसे छोड़ दिया ॥३४-३६।।
तदनन्तर विषयोंका प्रत्यक्ष फल देख कीचकको उनसे अत्यन्त वैराग्य उत्पन्न हो गया १. विज्ञानं शौर्य म. । २. द्रौपदीमयताम् ।
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५५४
हरिवंशपुराणे अनुप्रेक्षामिरारमानं भावयन् मावशुद्धितः । रत्नत्रयमसौ शुद्धं श्रुतवान् कर्तुमुद्यतः ॥३८॥ कीचकं शतसंख्यास्ते भ्रातरो भ्रान्तचेतसः। अदृष्ट्वा कुपिता 'दुष्टाश्चितकाग्निमचिन्वत ॥३९|| तत्र चिंक्षिप्सवः पापाः शैलन्ध्रीं बलशालिनः । क्षिप्तास्ते तत्र भीमेन भस्मसादावमागताः॥४०॥ एकेनैवाहूयं नीतास्ते भीमेन मदोद्धताः । बहवोऽपि हि हिंस्यन्ते सिंहेनैकेन दन्तिनः ॥४१॥ अथासौ कीचकः साधुरेकान्तोद्यानमध्यगः । पर्यङ्कासनयोगस्थो यक्षेणैक्षि कदाचन ॥४२॥ तस्य चित्तपरीक्षार्थ द्रौपदीवेषमाश्रितः । निशोथेऽदर्शयद्रपमात्मनो मदनालसम् ॥४३॥ साधुना वधिरेणेव रम्यालापश्रुतौ स्थितम् । रूपं दृष्टिविलासाढ्यामन्धेनेव मनोहरम् ॥४४॥ गुप्तेन्द्रियकलापस्य मनःशुद्धि मुपेयुषः । साधोस्तस्य समुत्पन्नमवधिज्ञानलोचनम् ॥४५॥ उपसंहृतयोगं तं प्रणम्यासौ सुरस्ततः । मुनिमक्षमयन्नाथ क्षमस्वेति पुनः पुनः ॥४६॥ पुनः प्रणम्य पप्रच्छ द्रौपदीमोहकारणम् । कारणेन विना न स्यात्तादृग्मोहसमुद्भवः ॥४७॥ कतिचित्पूर्वजन्मानि द्रौपद्याः स्वस्य चेत्यसौ। कीचकाख्योऽवदद्योगी यक्षाय प्रणतात्मने ॥४८॥ तरङ्गिणीसरित्तीरे वेगवत्याश्च संगमे । म्लेच्छोऽहमभवद्गीद्रः क्षुद्रः क्षद्रासुमद्विपुः ॥४९॥
जिससे उसने रतिवर्धन नामक मुनिराजके पास जाकर दीक्षा धारण कर ली ॥३७|| कीचक मुनि अनुप्रेक्षाओंके द्वारा आत्माकी भावना करते-आत्माका स्वरूप विचारते, शास्त्रोंका स्वाध्याय करते और भाव-शुद्धिके द्वारा रत्नत्रयको शुद्ध करनेके लिए उद्यम करने लगे ॥३८॥ कीचकके सौ भाइयोंने जब कीचकको नहीं देखा तो वे बहुत ही घबड़ाये। उन्होंने जहाँ-तहाँ उसकी खोज की पर कहीं नहीं दिखा। उसी समय उन्हें एक जलती हुई चिताकी अग्नि दिखी। किसीने बता दिया कि वह कीचककी ही चिता है, यह सुन वे सब भाई बहुत ही कुपित हुए। वे सोचने लगे कि कीचकको यह दशा इस शैलन्ध्रीने ही की है इसलिए वे कुपित होकर उसे (शलन्ध्रीका वेष धारण करनेवाले भीमको) उसी चितामें डालनेकी इच्छा करने लगे। परन्तु भीमसेनने उनकी बलवत्ता ठिकाने लगा दी और एक-एक कर सबको जलती हुई उस चितामें डाल दिया जिससे सब जलकर राख हो गये ॥३९-४०।। देखो, एक ही भीमसेनने मदसे उद्धत हुए अनेक पुरुषोंको नामावशिष्ट कर दिया-मरणको प्राप्त करा दिया सो ठोक ही है क्योंकि एक सिंह अनेकों हाथियोंको नष्ट कर देता है ॥४१॥
___ अथानन्तर किसी दिन कीचक मुनि एकान्त उपवन के मध्य में विराजमान थे। वे उस समय पद्मासनसे योगारूढ हो निश्चल बैठे थे कि एक यक्षने उन्हें देखा ॥४२॥ उनके चित्तकी परीक्षा करनेके लिए वह यक्ष आधी रातके समय द्रौपदीका रूप रख उनके पास पहुंचा और कामसे अलसाया हुआ रूप उन्हें दिखाने लगा ॥४३॥ परन्तु मुनिराज कीचक, उसके सुन्दर आलापके सुननेमें बहिरे-जैसे हो गये और दृष्टिके विलाससे युक्त उसका मनोहर रूप देखनेके लिए अन्धेके समान हो गये ॥४४॥ जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंके समूहकी अच्छी तरह रक्षा को थी तथा जो मनकी शुद्धिको प्राप्त हो रहे थे ऐसे उन कीचक मुनिराजको उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया ॥४५॥ तदनन्तर ध्यान समाप्त होनेपर यक्षने उन्हें प्रणाम किया और 'हे नाथ! क्षमा कीजिए' इस प्रकार बार-बार कहकर उनसे क्षमा मांगी ॥४६॥ तत्पश्चात् यक्षने पुनः नमस्कार कर उनसे द्रौपदीके प्रति मोह उत्पन्न होनेका कारण पूछा क्योंकि बिना कारणके उस प्रकारके मोहकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ॥४७॥ उत्तरस्वरूप मुनिराज कोचक, नम्रीभूत यक्षके लिए अपने तथा द्रौपदोके कु पूर्वभव इस प्रकार कहने लगे ॥४८॥ - एक समय मैं, तरंगिणी नामक नदीके तटपर जहाँ वेगवती नामक नदीका संगम होता १. दृष्टा म., घ. । २. विक्षिप्सवः म. । ३. नामावशेष मरणमित्यर्थः ( ग. टि.)। ४. विलासाभ्या-म. ।
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षट्चत्वारिंशः सर्गः साधुदर्शनतः शान्तः 'प्रापमर्यमनुष्यताम् । धनदेवः पिता चात्र माता मे सुकुमारिका ॥५०॥ कुमारदेवसंज्ञोऽहं मात्रा च मम सुव्रतः । मारितः साधुराहारं दत्त्वा विषविमिश्रितम् ॥५१॥ प्रविश्य नरकं पापा दुःखं साधुवधोद्भवम् । अनुभूय पुनस्तिर्यगनारकेष्वटतिस्म सा ॥५२॥ अव्रतोऽहमपि भ्रान्त्वा संसारं तीव्रवेदनम् । मातरिश्वतया वृत्तो(?) नुमोहोमातरिश्वभिः ॥५३॥ सितेन तापसेनान्ते जनितो मधुसंज्ञकः । तापस्यां मृगशृङ्गिण्यां प्रवृद्धस्तापसाश्रमे ॥५४॥ मुनेविनयदत्तस्य दानमाहात्म्यदर्शनात् । प्रव्रज्य स्वर्गमारुह्य जातोऽहं कीचकश्च्युतः ॥५५॥ चिरं पर्यट्य संसारं सुदःखं सकमारिका । मानुषी दुर्भगीमता भताभतासुखावहा ॥५६॥ सा चानुमतिका नाम्ना सनिदानतपोयुता । जातेयं द्रौपदी तेन मोहोऽस्या मे महानभूत् ॥५७॥
वसन्ततिलकावृत्तम् माता स्वसा च तनुजा प्रियकामिनीत्वं मातृस्वसृत्वदुहितृत्वमुपैति पत्नी । संसारचक्रपरिवर्तिनि जीवलोके ही संकरव्यतिकरी नियती भवेताम् ॥५८॥ वैचित्र्यमेतदवगम्य मवस्य भव्या वैराग्यमेत्य सुखतो महतोऽप्यमुष्य । संसारकारणनिवृत्तधियः सुवृत्ता मोक्षार्थमेव महता तपसा यतन्ताम् ॥५५॥ इत्यादि तस्य वचनं मुनिकोचकस्य श्रुत्वा सुरः सुरवधूभिरमा तदानीम् । सम्यक्त्वरनवरभषणभूषितात्मा नत्वा गुरुंधतियुतोऽन्तरधादनान्ते ॥६॥
था, क्षुद्र मनुष्योंका वैरी क्षुद्र नामका म्लेच्छ था, उस समय मेरे परिणाम अत्यन्त रौद्र रूप थे ॥४९|| एक बार अचानक ही मनिराजके दर्शन कर मैं अत्यन्त शान्त हो गया और वैश्य कूलमें मनुष्य पर्यायको प्राप्त हुआ। इस समय मेरे पिता धनदेव और माता सुकुमारिका थी तथा मेरा निजका नाम कुमारदेव था। एक बार मेरी माताने विष मिला आहार देकर एक सुव्रत नामक मुनिको मार डाला ||५०-५१।। उसके फलस्वरूप वह पापिनी नरक पहुंची और वहाँ मुनिके घातसे उत्पन्न दुःख भोगकर तिर्यंच तथा नरकगतिके दुःख भोगती रही ।।५२।। मैं भी संयमसे रहित था इसलिए तीव्र वेदनावाले संसारमें भटककर पापरूपी पवनसे प्रेरित हुआ अपनी माताके जीवके कुत्ता हुआ। तदनन्तर तापसोंके किसी तपोवनमें सित नामक तापसके द्वारा मृगशृंगिणी नामक तापसीके मधु नामका पुत्र हुआ तथा तापसोंके आश्रममें ही मैं वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥५३-५४॥ एक दिन किसी श्रावकने विनयदत्त नामक मुनिराजको आहार दान दिया। उसका माहात्म्य देख मैंने दीक्षा ले ली और उसके फलस्वरूप स्वर्गारोहण कर वहाँसे च्युत होता हुआ कीचक हुआ ||५५।। माता सुकुमारिका चिरकाल तक भ्रमण कर संसारमें तीव्र दुःख भोगती रही। अन्तमें वह दौर्भाग्यसे युक्त दुःखोंको भोगनेवाली मानुषी हुई ॥५६॥ अनुमतिका उसका नाम था। अन्तमें वह निदान सहित तपसे युक्त हो द्रौपदी हुई है। इसी कारण इसमें मुझे मोह उत्पन्न हो गया था ।।५७|| देखो, माता बहन हो जाती है, पुत्री प्रिय स्त्री हो जाती है, और स्त्री, माता, बहन तथा पुत्रीपनेको प्राप्त हो जाती है। आश्चर्यकी बात है कि संसाररूपी चक्रके साथ घूमनेवाले जीवोंमें संकर और व्यतिकर नियमसे होते रहते हैं ।।५८॥ इसलिए हे भव्यजनो ! संसारकी इस विचित्रताको अच्छी तरह समझकर वैषयिक सुखसे भले ही वह कितना ही महान् क्यों न हो विरक्त होओ और संसारके कारणोंसे विरक्त हो सदाचारके धारी बन विशाल तपसे मोक्षके लिए ही यत्न करो ॥५९||
इस प्रकार कीचक मुनिके वचन सुन उस यक्षने अपनी देवियोंके साथ-साथ अपनी १. वैश्यकुलम् 'ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः' इत्यभिधानात् । 'अर्यः स्वामिवैश्ययोः' इति पाणिनिसूत्रम् । -मार्यमनुष्यताम् म., क., ख., ग., ध.। २. पापपवनैः। ३. भूतामाता सुखावहा घ. ।
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हरिवंशपुराणे संपूज्यमानचरणो न कृत्वा तपो द्विविधमन्तरमूढधीर्यः । लोके प्रकाश्य जिनमार्गमनर्गलं संप्राप्तं परं पदमनत्ययमात्मशुद्धया ॥६१॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती कीचकनिर्वाणगमनो नाम
षट्चत्वारिंशः सर्गः ॥४६॥
आत्माको उस समय सम्यग्दर्शनरूपी उत्कृष्ट रत्नोंके आभूषणोंसे आभूषित किया। तदनन्तर वह बड़े हर्षसे मुनिराजको नमस्कार कर वनके अन्तमें अन्तहित हो गया-छिप गया ॥६०|| गौतम स्वामी कहते हैं कि अन्तरंगमें विवेक बुद्धि को धारण करनेवाला जो मनुष्य, अन्तरंग और बहिरंगके भेदसे दोनों प्रकारका तप करता है वह मनुष्य देव तथा असुरोंके समूहसे पूजित-चरण होता हुआ लोकमें निर्बाध जिनमार्गको प्रकाशित करता है और आत्मशुद्धिके द्वारा अविनाशी परम पदको प्राप्त होता है ।।६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें कीचकके
निर्वाण गमनका वर्णन करनेवाला छयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४६॥
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
कीचकानुवृत्तान्ते गोग्रहे तदनन्तरे । वृत्ते भीमार्जुनो ग्राग्निभस्मिताविनान्तरं ॥ १ ॥ अभिन्ननिजमर्यादा मिन्नदुश्शासनान्तराः । पाण्डवाः पाण्डुभवने 'संहताः 'सुनया इव ॥२॥ संपूर्णावयोगत्वा धर्मराजस्य ते युधि । सह दुर्योधनेनास्थुः संमता मुनयो यथा ॥ ३ ॥ ततः पूरितसर्वाशाः सर्वार्थामृतवर्षिणः । तेऽप्यूनुष्पदमत्युच्चैः प्रावृषेण्या इवाम्बुदाः ॥४॥ ● तत्प्रसाद्यापि चुक्षोभ गान्धारीयशतं पुनः । नेयस्य जलवर्गस्य सुप्रसादः कियश्चिरम् ॥५॥ कृते दायादवर्गेण पूर्ववत्संधिदूषणे । प्रशमय्य तनून् भ्रातॄन् प्रागिवासौ युधिष्टिरः ॥ ६ ॥ अनिच्छन् स्वच्छधीर्घोरः कृपावान् कौरवाहितम् । मात्रा भ्रात्रादिभिभूयः श्रितवान् दक्षिणां दिशम् ॥७॥ सविन्ध्यवनमध्यास्य तपस्यन्तं निजाश्रमे । दृष्ट्वा विदुरमानम्य शशंस सानुजैः सह ॥ ८ ॥ कृतार्थं पूज्य ते जन्म संपरित्यज्य संपदः । स्थितोऽभयो जिनेन्द्रोक्ते मोक्षमार्गे महातपाः ||९|| विशुद्धं दर्शनं यत्र तत्त्वश्रद्धानलक्षणम् । ज्ञानं सर्वार्थविद्योति चारित्रमनवद्यकम् ||१०||
अथानन्तर कीचक के छोटे भाइयोंका वृत्तान्त और उसके बाद जिसमें भीम तथा अर्जुनकी कोपाग्निसे शत्रुरूपी वनका अन्तराल भस्म हो गया था ऐसा गायोंका पकड़ना आदि घटनाएँ हो चुकीं तब अपनी मर्यादाको खण्डित न करनेवाले होकर भी दुःशासन ( खोटा शासन अथवा दुःशासन नामक कौरव के अन्तरको ) विदीर्णं करनेवाले पाण्डव समीचीन नयोंके समान एक-दूसरेके अनुकूल रहते हुए अपने पिता पाण्डुके भवनमें एकत्रित हुए ॥१-२॥ अबतक उनकी अज्ञात निवासकी अवधि पूर्ण हो चुकी थी इसलिए धर्मराज - युधिष्ठिरकी आज्ञा भीमसेन आदि, युद्ध में दुर्योधनके साथ जा खड़े हुए और जिस प्रकार मुनि सबको सम्मत – इष्ट होते हैं उसी प्रकार वे पाण्डव भी सबको सम्मत – इष्ट थे || ३ || तदनन्तर जिस प्रकार समस्त दिशाओंको पूर्ण करके और सर्वहितकारी जलकी वर्षा करनेवाले वर्षाकालिक मेघ अत्यन्त उन्नत उत्तम पदको प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले एवं समस्त अर्थंरूपी अमृतकी वर्षा करनेवाले वे पाण्डव भी अत्यन्त उच्च पदको प्राप्त हुए । भावार्थ- पाण्डव हस्तिनापुर आकर रहने लगे और सबकी दृष्टिमें उच्च माने जाने लगे ||४||
तदनन्तर दुर्योधनादिक सौ भाई ऊपरसे उन्हें प्रसन्न रखकर हृदयमें पुनः क्षोभको प्राप्त होने लगे - भीतर ही भीतर उन्हें परास्त करनेके उपाय करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इधरउधर बहनेवाले जल में स्वच्छता कितने समय तक रह सकती है ? ॥५॥ दुर्योधनादिकने पहले के समान फिरसे सन्धिमें दोष उत्पन्न करना शुरू कर दिया और उससे भीम, अर्जुन आदि छोटे भाई फिरसे उत्तेजित होने लगे परन्तु युधिष्ठिर उन्हें शान्त करते रहे || ६ || स्वच्छ बुद्धिके धारक, धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवोंका कभी अहित नहीं विचारते थे इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुनः दक्षिण दिशा की ओर चले गये ||७|| चलते चलते युधिष्ठिर विन्ध्यवन में पहुँचे । वहाँ अपने आश्रममें रहकर तपस्या करनेवाले विदुरको देखकर उन्होंने अपने सब भाइयोंके साथ उन्हें नमस्कार किया और उनकी इस प्रकार स्तुति की ॥८॥ हे पूज्य ! आपका ही जन्म सफल है जो आप सम्पदाओं का परित्याग कर जिनेन्द्रोक्त मोक्षमार्ग में महातप करते हुए निर्भय स्थित है ||९|| जिस मार्ग में तत्वश्रद्धानरूप निर्मल सम्यग्दर्शन, समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करने१. संहृताः म. । २. सुघना इव म. । ३. ऊनुः प्राप्ताः (ङ. टि. ) तेप्यनुष्पदं - म । ४ प्रासाद्यापि म. ध. ।
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हरिवंशपुराणे
व्रत गुप्तिस मित्यक्ष कषायजयसंयमाः । यत्र मार्गे स्थितास्तत्र सिद्ध्यन्ति त्वादृशोऽचिरात् ॥ ११॥ इति मार्गस्तुतिं कृत्वा तं च स्तुत्वा कृतानतिः । द्वारिकां ज्ञातिभिर्ज्ञातः संविवेश सहानुजैः ॥ १२॥ उत्सवः परमो जातः स्वसृस्वस्त्रीय संगमे । समुद्रविजयादीनां दशानां चिरदर्शिनाम् ॥१३॥
मशहरिरामादिदशार्ह सुतसुन्दराः । अन्तःपुराणि सर्वाणि प्रजाश्च तुतुषुस्तदा ॥१४ ॥ यथाक्रममशेषाणां दर्शने दर्शनोत्सवे । जाते परस्परं तेषां स्वजनानां सुखावहे ॥ १५ ॥
दुपाण्डववगतौ मेनाते मिलितौ मुदा । अपकारमपि त्यक्त्वा सूपकारं परैः कृतम् ॥ १६ ॥ ततः प्रासादवर्येषु पञ्च पञ्चसु विष्णुना । निरूपितेषु ते तस्थुः सर्वभोगप्रदायिषु ॥ १७ ॥ ज्येष्ठो लक्ष्मीमती लेभे भीमः शेषवतीं ततः । सुभद्रामर्जुनः कन्यां कनिष्ठौ विजयां रतिम् ॥१८॥ दशार्हतनयास्तास्ते परिणीय यथाक्रमम् । रेमिरेऽमूमिरिष्टाभिः पाण्डवास्त्रिदशोपमाः ॥ १९ ॥ कथेयं कुरुवीरस्य कथिता ते समासतः । प्रद्युम्नस्याधुना वच्मि शृणु श्रेणिक चेष्टितम् ॥ २० ॥ विजयार्ध गिरौ रम्ये प्रद्युम्नोऽसौ कलागुणैः । विधुवबन्धुमुद्वाधिं सहावर्धत वर्धयन् ॥ २१ ॥ विद्याधरोचिता विद्या स विद्याधरपुत्रकः । वियद्यानादिका बाल्ये जग्राहाशु महोद्यमः ॥ २२ ॥ बाल्यादारभ्य लावण्यरूपसौभाग्य पौरुषैः । सोऽरिमित्रन रस्त्रीणामस्त्री धूर्त मनोऽहरत् ॥ २३ ॥ यौवनं स परिप्राप्तः प्राप्तसर्वास्त्रकौशलः । हृदयेषु युवा यूनां प्रहरन्नपि वल्लमः ॥२४॥
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वाला ज्ञान और निर्दोष चारित्र प्रतिपादित है एवं व्रत, गुप्ति, समिति तथा इन्द्रिय और कषायको जीतनेवाले संयमका निरूपण किया गया है उस मार्ग में स्थित हो आप जैसे महानुभाव शीघ्र ही सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं ।। १०-११ || इस प्रकार जिनेन्द्रोक्त मागं तथा महामुनि विदुरको स्तुति कर युधिष्ठिर द्वारिका पहुँचे । यादवोंको पाण्डवोंके आगमनका जब पता चला तो उन्होंने इनका बड़ा स्वागत किया और छोटे भाइयोंके साथ युधिष्ठिरने द्वारिकामें प्रवेश किया ॥ १२॥ समुद्रविजय आदि दशों भाइयोंने बहन तथा अपने भानजोंको बहुत समय के बाद देखा था इसलिए इन सबके समागमसे उन्हें परम हर्षं हुआ || १३|| भगवान् नेमिनाथ, कृष्णा, बलदेव आदि समस्त यादव कुमार, समस्त अन्तःपुर और प्रजाके सब लोग उस समय बहुत ही सन्तुष्ट हुए ||१४|| नेत्रोंको आनन्द देनेवाला पाण्डवों तथा समस्त स्वजनों का वह दर्शन -- परस्परका मिलना सबके लिए सुखदायी हुआ || १५ || यादव और पाण्डव परस्पर मिलकर हर्षसे ऐसा मानने लगे किं शत्रुओंने हमारा अपकार नहीं उपकार ही किया है । भावार्थ -- यदि दुर्योधनादिक अपकार न करते तो हम लोग इस तरह परस्पर मिलकर आनन्दका अनुभव नहीं कर सकते थे, अतः उनका किया अपकार अपकार नहीं प्रत्युत उपकार है ऐसा सब लोग मानने लगे || १६ |
तदनन्तर श्रीकृष्ण के द्वारा दिखलाये हुए भोगोपभोगकी सब सामग्रीसे युक्त पांच उत्तमोत्तम महलों में पांचों पाण्डव पृथक्-पृथक् रहने लगे ||१७|| युधिष्ठिरने लक्ष्मीमती, भीमने शेषवती, अर्जुनने सुभद्रा, सहदेवने विजया और नकुलने रति नामक कन्याको प्राप्त किया ||१८|| यथाक्रम से पूर्वोक्त यादव- कन्याओंको विवाह कर देवोंकी उपमाको धारण करनेवाले पाण्डव उन इष्ट स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करने लगे ||१९|| गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने तेरे लिए संक्षेपसे कुरुवीरकी कथा कही । अब मैं प्रद्युम्नकी चेष्टाएँ कहता हूँ सो सुन ||२०||
अत्यन्त रमणीय विजयार्धं पर्वतपर कलारूपी गुणोंके द्वारा बन्धु-जनोंके हर्षरूपी सागरको बढ़ाता हुआ प्रद्युम्न चन्द्रमाके समान बढ़ने लगा ||२१|| विद्याधरपुत्र प्रद्युम्नने बड़े उद्यम के साथ बाल्यकालमें ही आकाशगामिनी आदि विद्याधरोंके योग्य विद्याओंको शीघ्र ही सीख लिया था ||२२|| वह बाल्य अवस्थासे ही लेकर अस्त्र के समान अपने लावण्य, रूप, सौभाग्य और पौरुषके द्वारा शत्रु मित्र पुरुष तथा स्त्रियोंके मनको हरण करता था ।। २३ ॥ वनको प्राप्त होते ही प्रद्युम्न समस्त अस्त्र-शस्त्रों में कुशल हो गया । अपने सौन्दर्यके कारण
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
मन्मथ मदनः कामः कामदेवो मनोभवः । इत्यन्वर्थाभिधानः स नानङ्गोऽनङ्गनामकः ॥ २५॥ युद्धे सिंहरथं जित्वा जितपञ्चशतात्मजम् । कालसंवरभूपाय सकामोऽदर्शयत्कृती ॥ २६ ॥ तादृशं तनयं दृष्ट्वा संतुष्टः कालसंवरः । मेने श्रेणीद्वयं दृप्तं वशीकृतमिवात्मनाम् ॥२७॥ महाराज्यपदोदारफलपुष्पं नृपोऽस्य सः । यौवराजमहापहं बबन्ध च विधानतः ॥ २८ ॥ शतानि तनयाः पञ्च कालसंवरभूभृतः । चिन्तयन्ति ततोऽपायं मदनस्य समन्ततः ॥ २९|| आसने शयने वस्त्रे ताम्बूलेऽशनपानके । नालं छलयितुं ते तं छलान्वेषणतत्पराः ॥३८॥ अन्यदा तु विनीतोऽसौ नोतो नीत्यानुकूलकः । कुमारस्तैः कुमारौघैः सिद्धायतनगोपुरम् ||३१|| नोदितस्तैः समारूढो गोपुराग्रं सवेगवान् । विद्याकोशं तिरीटं च लेभे तद्वासिनोऽमरात् ||३२|| प्रविष्टश्च पुनर्वेगान्महाकालगुहामसौ । खड्गं सखेटकं लेभे छत्रचामरसंयुतम् ||३३|| लेभे नागगुहायां च पादपीठं सुराद्वरम् । नागशय्यासनं वीणां विद्यां प्रासादकारिणीम् ||३४|| मकरध्वजमुत्तुङ्कं वाप्यां युद्धे जितात्सुरात् । अग्निकुण्डेऽग्निसंशोध्यं वस्त्रयुग्ममवाप्य सः ||३५|| मेषाकृति गिरौ लेभे कर्णकुण्डलयोर्द्वयम् । मौलिं चामृतमालां च पाण्डुके मर्कटामरात् ||३६||
तरुण प्रद्युम्न यद्यपि अन्य युवाओंके हृदयपर प्रहार करता था - उनमें मात्सर्यं उत्पन्न करता था तथापि वह सबको प्रिय था ||२४|| मन्मथ, मदन, काम, कामदेव और मनोभव इत्यादि सार्थंक नामों से वह युक्त था । यद्यपि वह अनंग - शरीरसे रहित नहीं था तथापि लोग उसे अनंग कहते थे । भावार्थ-प्रद्युम्न कामदेव पदका धारक था । साहित्य में कामका एक नाम अनंग है इसलिए प्रद्युम्न भी अनंग कहलाता था || २५ || अतिशय कुशल प्रद्युम्नने, पाँच सौ पुत्रोंको जीतनेवाले सिंहरथको युद्ध में जीतकर कालसंवरको दिखा दिया । भावार्थ - उस समय एक सिंहरथ नामका विद्याधर कालसंवरके विरुद्ध था उसे जीतने के लिए उसने अपने पाँच सौ पुत्र भेजे थे परन्तु सिंहरथने उन सबको पराजित कर दिया था । प्रद्युम्न ऐसा कुशल शूरवीर था कि उसने उसे युद्ध में जीतकर कालसंवरके आगे डाल दिया ||२६|| ऐसे वीर पुत्रको देखकर कालसंवर बड़ा सन्तुष्ट हुआ और विजयार्धकी दोनों श्रेणियोंको अपने वशीभूत मानने लगा ||२७|| इसी से प्रभावित हो राजाने प्रद्युम्न के लिए विधि-विधानपूर्वक युवराज पदका वह महापट्ट बांध दिया जो महाराज्यपदरूपी उत्कृष्ट फलके लिए पुष्पके समान था ||२८|| इस घटनासे राजा कालसंवरके जो पाँच सौ पुत्र थे वे सब ओरसे प्रद्युम्नके नाशका उपाय सोचने लगे ||२९|| वे निरन्तर छलके खोजने में तत्पर रहने लगे। परन्तु बैठने, सोने, वस्त्र, पान तथा भोजन, पानी आदि के समय वे उसे छलने के लिए समर्थं नहीं हो सके ||३०||
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किसी एक समय नीति के अनुकूल आचरण करनेवाले कुमारोंके समूह, विनीत प्रद्युम्नकुमारको सिद्धायतनके गोपुर के समीप ले गये और इस प्रकारकी प्रेरणा करने लगे कि 'जो इस गोपुर के अग्रभागपर चढ़ेगा वह उसपर रहनेवाले देवसे विद्याओंका खजाना तथा मुकुट प्राप्त करेगा' | साथियोंसे इस प्रकार प्रेरित हो कुमार वेगसे गोपुरके अग्रभागपर चढ़ गया और वहाँके निवासी देवसे विद्याओं का खजाना तथा मुकुट ले आया ॥ ३१-३२ ॥ तदनन्तर भाइयोंसे प्रेरित हो वेगसे महाकाल नामक गुहा में घुस गया और वहांसे तलवार, ढाल, छत्र तथा चमर ले आया ||३३|| वहाँसे निकलकर नागगुहा में गया और वहाँके निवासी देवसे उत्तम पादपीठ, नागशय्या, आसन, वीणा तथा भवन बना देनेवाली विद्या ले आया ||३४|| वहाँसे आकर किसी वापिका में गया और युद्ध में जीते हुए देवसे मकरके चिह्नसे चिह्नित ऊँची ध्वजा प्राप्त कर निकलीं । तदनन्तर अग्निकुण्ड में प्रविष्ट हुआ सो वहांसे अग्निसे शुद्ध किये दो वस्त्र ले आया ॥ ३५॥ तत्पश्चात् मेषाकृति पर्वतमें प्रवेश कर कानोंके दो कुण्डल ले आया । उसके बाद पाण्डुक नामक वनमें प्रवेश कर वहाँ के निवासी मर्केट नामक देवसे मुकुट और अमृतमयी माला लेकर लौटा ||३६||
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हरिवंशपुराणे विद्याकरिवरं प्राप कपित्थवनदेवतः । वल्मीके क्षुरिको चापि कवचं मुद्रिकादिकम् ॥३७॥ शरावपर्वते लेभे कटिसूत्रमुरश्छदम् । कामः कटककेयूरकण्ठिकाभरणं शुमम् ॥३८॥ शूकरासुरत: शडं दिव्यं प्राप शरासनम् । हारं सुरेन्द्रजालं च मनोवेगाद्विकीलितात् ॥३९॥ मनोवेगरिपोर्लेभे बसन्त खचरात्ततः । कन्या नरेन्द्रजालंच तयोः सख्यस्य कारकः ।।४०॥ चापं च कौसुमं प्रापदर्जनो मवनाधिपात् । उन्मादमोहसंतापमदशोककरान शरान् ।।४१॥ अन्यां नागगुहां यातश्चन्दनागुरुमालिकाः । पौष्पं छत्रं च शयनं लेभे तत्र तु पार्थिवात् ॥४२॥ स दुर्जयवने लेभे जयन्तगिरिवर्तिनी । खेटवायुसरस्वस्यो रतिं कामः शरीरजाम् ।।४३॥ षोडशेष्वपि चैतेषु लाभस्थानेषु मन्मथम् । लब्धानेकमहालाभं दृष्टा विस्मितमानसाः ॥४४।। ज्ञात्वा पुण्यस्य माहात्म्यं कुमाराः संवरादयः । शंश्रित्वा मदनेनामा निजं नगरमाययुः ॥४५॥ लब्धं दिव्यं रथं शुभैर्वृषेव्यू ढमधिष्ठितः । चापी पञ्चशरी छवी ध्वजी दिव्यविभूषणी ॥४६॥ मनो हरन्नरस्त्रीणां मदनो मदनेषुमिः । मेघकूटं प्रविष्टोऽसौ कुमारशतवेष्टितः ॥१७॥ सप्रणामस्ततो दृष्ट्वा प्रद्युम्नः कृष्णसंवरम् । धिष्ण्यं कनकमालायाः प्रस्थितः स रथे स्थितः ॥४८॥ तथा च स्थितनेपथ्यं नेत्रपथ्यं न दूरतः । दृष्टा कनकमाला तं भावं कमपि संश्रिता ॥४०॥ स्थादुत्तीर्य विनतं शंसिस्वाघ्राय मस्तके । आसयित्वान्तिके तं सास्पर्शयन्मृदुपाणिना॥५०॥
कपित्थ नामक वनमें गया तो वहाँके निवासी देवसे विद्यामय हाथी ले आया। वल्मीक वनमें प्रवेश कर वहाँके निवासी देवसे छुरी, कवच तथा मुद्रिका आदि ले आया ॥३७॥ शराव नामक पर्वतमें वहां के निवासी देवसे कटिसूत्र, कवच, कड़ा, बाजूबन्द और कण्ठाभरण आदि प्राप्त किये ॥३८॥ शूकर नामक वनमें शूकरदेवसे शंख और सुन्दर धनुष प्राप्त किया तथा वहींपर कीले हुए मनोवेग नामक विद्याधरसे हार और इन्द्रजाल प्राप्त किया ॥३९॥ मनोवेगका वैरी वसन्त विद्याधर था, कुमारने उन दोनोंकी मित्रता करा दी इसलिए उससे एक कन्या तथा नरेन्द्रजाल प्राप्त किया ॥४०॥ आगे चलकर एक भवनमें प्रवेश कर उसके अधिपति देवसे पुष्पमय धनुष और उन्माद, मोह, सन्ताप, मद तथा शोक उत्पन्न करनेवाले बाण प्राप्त किये ||४१।। तदनन्तर एक दूसरी नागगुहामें गया तो वहाँके स्वामी देवसे चन्दन तथा अगुरुकी मालाएँ. फलोंका छत्र और फलोंकी शय्या प्राप्त की ॥४२॥ तदनन्तर जयन्तगिरिपर वर्तमान दुर्जय नामक वनमें गया और वहाँसे विद्याधर वायु तथा उसकी सरस्वती नामक स्त्रीसे उत्पन्न रति नामक पुत्री लेकर लौटा ॥४३॥ इस प्रकार इन सोलहों लाभके स्थानोंमें जिसे अनेक महालाभोंकी प्राप्ति हुई थी ऐसे प्रद्युम्न कुमारको देखकर संवर आदि कुमारोंके चित्त आश्चर्यसे चकित हो गये। तदनन्तर पुण्यका माहात्म्य समझ शान्ति धारण कर वे प्रद्युम्नके साथ अपने नगर वापस आ गये ।।४४-४५।। जो प्राप्त हुए सफेद बैलोंसे जुते दिव्य रथपर आरूढ़ था, धनुष, पांच बाण, छत्र, ध्वजा और दिव्य आभूषणोंसे आभूषित था तथा कामके बाणोंसे पुरुष और स्त्रियोंके मनको हर रहा था ऐसे प्रद्युम्नने सैकड़ों कुमारोंसे परिवृत हो मेघकूट नामक नगरमें प्रवेश किया ॥४६-४७॥
। उसने नमस्कार कर कालसंवरके दर्शन किये और उसके बाद उसी भांति रथपर बैठा हुआ कनकमालाके घरकी ओर प्रस्थान किया ।।४८।। उस प्रकारको बेषभूषासे युक्त तथा नेत्रोंके लिए आनन्ददायी प्रद्युम्नको समीप आया देख कनकमाला किसी दूसरे ही भावको प्राप्त हो गयो ॥४९|| रथसे नीचे उतरकर नम्रीभूत हुए प्रद्युम्नकी कनकमालाने बहुत प्रशंसा की, उसका मस्तक सूंघा, उसे पासमें बैठाया और कोमल हाथसे उसका स्पर्श
१. संशित्वा म., ग.। २. सह ।
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
१६१ गाढमोहोदयात्तस्यास्ततः परवशात्मनः । कर्षन्तो हृदयक्षोणी प्रवृत्ता दुर्मनोरथाः ॥५१॥ स्वाङ्गैरस्याङ्गसङ्गं या लभेत शयने सकृत् । कामिनी भुवने सैका शेषास्त्वाकृतिमात्रकम् ॥५२॥ रूपलावण्यसौभाग्यवैदग्ध्यं गुणगोचरम् । 'कामाश्लेषस्य सौलभ्ये दौलभ्ये स्यात्तणं तु मे ॥५३॥ इतिप्रवृत्तसंकल्पामसंमाविततन्मनाः । तां प्रणम्य स लब्धाशीः प्रद्युम्नः स्वगृहं गतः ॥५४॥ इतिप्रबलदुःखेयं खेचरी निखिलाः क्रियाः । विसस्मार स्मराश्लेषसुखलाभ मनोरथा ॥५५॥ अस्वस्थामपरेास्तां प्रद्युम्नो द्रष्टुमागतः । अद्राक्षीद्विसिनीपत्रपर्यस्ततनुमाकुलाम् ॥५६॥ पृच्छति स्म स त कामः शरीरास्वास्थ्यकारणम् । इङ्गितैराङ्गिकैः सापि वाचिक्यैश्च व्यबोधयत् ॥५॥ वैपरीत्यं ततो ज्ञात्वा निन्दित्वा कर्मचेष्टितम् । स मात्रपत्यसंबन्धप्रत्यायनपरोऽभवत् ॥५॥ सापि तस्मै यथावृत्तमादिमध्यावसानतः । अटवीलामसंवृद्धिविद्यालाभानवेदयत् ॥५९॥ स्वसंबन्धं ततः श्रुत्वा संदिग्धार्थमतिर्गतः । दृष्ट्वा सागरचन्द्राख्यं मुनि चैत्यगृहे मुदा ॥६॥ नत्वा पृष्ट्वा ततो ज्ञात्वा सर्वान् पूर्वमवान्निजान् । तथा कनकमालायाश्चन्द्राभायाः पुरा भवे ॥६॥
सम्यग्दर्शनसंशुद्धो ज्ञातप्रज्ञप्तिलामकः । गत्वा शीलधनोप्राक्षीन्मदनो मदनातुराम्॥६२॥ किया ॥५०॥ तदनन्तर मोहका तीव्र उदय होनेसे उसको आत्मा विवश हो गयी और हृदयरूपी भूमिको खोदते हुए अनेक खोटे विचार उसके मनमें उठने लगे ॥५१॥ वह विचारने लगी कि जो स्त्री शय्यापर अपने अंगोंसे इसके अंगोंके स्पर्शको एक बार भी प्राप्त कर लेती है संसारमें वही एक स्त्री है अन्य स्त्रियां तो स्त्री की आकृतिमात्र हैं ॥५२॥ यदि मुझे प्रद्युम्नका आलिंगन प्राप्त होता है तो मेरा रूप, लावण्य, सौभाग्य तथा चातुर्य सफल है और दुर्लभ रहता है तो यह सब मेरे लिए तृणके समान तुच्छ है ।।५३।। जिसके मनमें कनकमालाके ऐसे विचारोंको कल्पना भी नहीं थी ऐसा प्रद्युम्न, पूर्वोक्त संकल्प-विकल्प करनेवाली कनकमालाको प्रणाम कर तथा आशीर्वाद प्राप्तकर अपने घर चला गया ।।५४||
उधर प्रद्युम्नके आलिंगनजन्य सुखको प्राप्त करनेकी जिसको लालसा लग रही थी ऐसी विद्याधरी कनकमाला प्रबल दुःखसे दुःखी हो सब काम-काज भूल गयो ॥५५।। दूसरे दिन उसके अस्वस्थ होनेका समाचार पा प्रद्युम्न उसे देखने गया तो क्या देखता है कि कनकमाला कमलिनीके पत्तोंकी शय्यापर पड़ी हुई बहुत व्याकुल हो रही है ॥५६॥ प्रद्युम्नने उससे शरीरको अस्वस्थताका कारण पूछा तो उसने शरीर और वचनसम्बन्धी चेष्टाओंसे अपना अभिप्राय प्रकट किया ।।५७|| तदनन्तर इस विपरीत बातको जानकर और कर्मको चेष्टाओंको निन्दा कर प्रद्युम्न उसे माता और पुत्रका सम्बन्ध बतलाने में तत्पर हुआ ॥५८॥ इसके उत्तरमें कनकमालाने भी उसे आदि, मध्य और अन्त तक जैसा वृत्तान्त हुआ था वह सब बतलाते हुए कहा कि तू मुझे अटवीमे किस प्रकार मिला, किस प्रकार तेरा लालन-पालन हुआ और किस प्रकार मुझे विद्याओंका लाभ हुआ ॥५९|| कनकमालासे अपना सम्बन्ध सुन प्रद्युम्नके मनमें संशय उत्पन्न हुआ जिससे वह स्पष्ट पूछनेके लिए जिन-मन्दिरमें विद्यमान सागरचन्द्र मुनिराजके पास गया और हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार कर उसने उनसे अपने सब पूर्वभव पूछे । पूर्वभव ज्ञात कर उसे यह भी मालूम हो गया कि यह कनकमाला पूर्वभवमें चन्द्राभा थी॥६०-६१॥ शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारक प्रद्युम्नको मुनिराजसे यह भी विदित हुआ कि तुझे कनकमालासे प्रज्ञप्ति विद्याका लाभ होनेवाला है। तदनन्तर शीलरूपी
धारण करनेवाले प्रद्युम्नने जाकर कामसे पीड़ित कनकमालासे प्रज्ञप्ति विद्याके विषयमें पूछा ।।६२॥
१. प्रद्युम्नालिङ्गनस्य । २. लाभः मनोरथा म.। ३. -राङ्गितैः म. घ., ङ,-रागितैः ग.। ४. सोऽपि म.। ५. मदनातुरम् म..
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हरिवंशपुराणे
दृष्ट्वा हृष्टा जगौ तं सा श्रृणु काम भणामि ते । गौरीं प्रज्ञप्तिविद्यां च त्वं गृहाण यदीच्छसि ॥ ६३ ॥ ततः प्रसाद इच्छामि दीयतामितिवादिने । ददौ विधियुते विद्ये विद्याधरदुरासदे ॥ ६४ ॥ प्रसारितकरो विद्ये गृहीत्वा प्रमदी स ताम् । प्राणविद्याप्रदानान्मे गुरुस्त्वमिति सद्वचाः ॥ ६५॥ त्रिःपरीत्य प्रणम्याघ्रे स्थितः सुकरशेखरः । अपत्योचितमादेशं याचित्वा स्वोचितं ययौ ॥ ६६ ॥ छद्मिताहमिति ज्ञात्वा सातिकोपवशासतः । कक्षवक्षः कुचोद्देशान् नखक्षतभृतोऽकरोत् ॥६७॥ सादर्शयच्च पत्येऽङ्गं नाथ प्रद्युम्नचेष्टितम् । पश्येत्यपत्यसंभारं प्रत्येतिस्म स चापि तत् ॥ ६८ ॥ आहूय रहसि क्रुद्धः पुत्रपञ्चशतानि सः । आदिदेशान्यदुर्बोधं प्रद्युम्नो मार्यतामिति ॥ ६९ ॥ लब्धादेशास्ततस्तुष्टास्ते तमादाय सादराः । अन्येद्युरगमन्पापा वापीं कालाम्बुनामिकाम् ॥७०॥ निपत्य युगपत्सर्वे तस्योपरि जिघांसवः । प्राचूचुदन् जलक्रीडां वाप्यां कुर्म इति द्विषः ।।७१ || कर्णे कथितमेतस्य ततः प्रज्ञप्तिविद्यया । याथातथ्यमिति क्रोधादन्तर्हिततनुः क्षणात् ॥ ७२ ॥ पपात माया वायां निर्धाता इव निर्घृणाः । तेऽपि सर्वे समं पेतुरस्योपरि जिघांसवः ॥७३॥ ऊर्ध्वपादानधोवस्त्रानेकशेषानमूनसौ । स्तम्भयित्वानुजं कृत्वा पञ्चचूडमजीगमत् ॥७४॥
प्रद्युम्नको आया देख कनकमालाने उससे कहा कि हे काम ! मैं एक बात कहती हूँ सुन, यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्याएँ कहती हूँ- बतलाती हूँ - तू ग्रहण कर ||६३|| तदनन्तर 'यह आपकी प्रसन्नता है, मैं आपको चाहता हूँ, विद्याएँ मुझे दीजिए' इस प्रकार कहनेवाले प्रद्युम्नके लिए कनकमालाने विद्याधरोंको दुष्प्राप्य दोनों विद्याएँ विधिपूर्वक दे दीं ||६४|| हाथ फैलाकर दोनों विद्याओंको ग्रहण करता हुआ प्रद्युम्न बड़ा प्रसन्न हुआ। जब वह विद्याएँ ले चुका तब इस प्रकारके उत्तम वचन बोला कि 'पहले अटवीसे लाकर आपने मेरी रक्षा की अतः प्राणदान दिया और अभी विद्यादान दिया - इस तरह प्राणदान और विद्यादान देनेसे आप मेरी गुरु हैं'। इस प्रकारके उत्तम वचन कह तीन प्रदक्षिणाएँ दे वह हाथ जोड़ शिरसे लगाकर सामने खड़ा हो गया और पुत्रके उचित जो भी आज्ञा मेरे योग्य हो सो दीजिए, इस प्रकार याचना करने लगा । कनकमाला चुप रह गयी और प्रद्युम्न थोड़ी देर वहाँ रुककर चला गया ।। ६५-६६ ।। ' मैं इस तरह इसके द्वारा छलो गयी हूँ' यह जान कनकमालाने तीव्र क्रोधवश अपने कक्ष, वक्षःस्थल तथा स्तनोंको स्वयं ही नखोंके आघातसे युक्त कर लिया || ६७ || और पतिके लिए अपना शरीर दिखाते हुए कहा कि हे नाथ ! अपत्यजनों के योग्य ( ? ) यह प्रद्युम्नकी करतूत देखो । पतिने भी खोके इस प्रपंचपर विश्वास कर लिया || ६८ || राजा कालसंवर इस घटना से बहुत ही क्रुद्ध हुआ । उसने एकान्तमें बुलाकर अपने पांच सौ पुत्रोंसे कहा कि 'जिस तरह किसी अन्यको पता न चल सके उस तरह इस प्रद्युम्नको मार डाला जाये' || ६९ ॥
तदनन्तर पिताकी आज्ञा पा हर्षसे फूले हुए वे पापी कुमार बड़े आदर से दूसरे दिन प्रद्युम्नको साथ लेकर कालाम्बु नामक वापिका पर गये ||७० || और एक साथ सब प्रद्युम्नपर कूदकर उसके घातकी इच्छा रखते हुए उसे बार-बार प्रेरित करने लगे कि चलो वापीमें जलक्रीड़ा करें ॥७१॥ उसी समय प्रज्ञप्ति विद्याने प्रद्युम्नके कानमें सब बात ज्योंकी-त्यों कह दी। सुनकर प्रद्युम्नको बहुत क्रोध आया और वह उसी क्षण मायासे अपना मूल शरीर कहीं छिपा कृत्रिम शरीरसे वापिकामें कूद पड़ा । उसके कूदते ही वज्र के समान निर्दय एवं मारने के इच्छुक सब कुमार एक साथ उसके ऊपर कूद पड़े ।।७२-७३ | प्रद्युम्नने एकको शेष बचा सभी कुमारों को ऊपर पैर और नीचे मुख कर कोल दिया और एक भाईको पांच चोटियोंका धारक बना खबर देनेके लिए कालसंवर के पास भेज दिया ॥७४॥
१. कचोद्देशान् म. । २. जिधित्सवः म । ३. कर्णो म. ।
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
५६३ पुत्रोदन्तं ततः श्रुत्वा द्विगुणक्रोधदीपितः । समय सर्वसैन्येन संप्राप्तः कालसंवरः ।।७५।। विद्याविकृतसैन्येन प्रद्यम्नेन ततश्चिरम् । युद्ध्वामन्नोऽति भग्नेच्छः स गत्वा कृष्णसंवरः ॥७६॥ ऊचे कनकमाला तां देहि प्रज्ञप्तिमित्यरम् । स्तन्येन सह बाल्येऽस्मै मया दत्तेति सावदत् ।।७७॥ ज्ञातमायादुरीहोऽसौ पुनरागत्य मानवान् । युध्यमानोऽमुना बद्धो निहितो हि शिलातले ॥७८।। तदानीमेव संप्राप्तो नारदोऽतिविशारदः । प्रद्यम्नेन कृताभ्यर्चः संबन्धमखिलं जगौ ॥७९॥ कालसंवरमुन्मुच्य क्षमयित्वा ततोऽवदत् । पूर्वकर्मवशेच्छाया मातु, क्षम्यतामिति ॥८॥ 'निरुपायानुपायज्ञो मुक्त्वा पञ्चशतान्यपि । भ्रातृस्नेहपरः कामः क्षमयित्वा पुनः पुनः ।।८१॥ आपृष्टेन स तुष्टेन कालसंवरभूभृता । विसृष्टो रुक्मिणीकृष्णदर्शनोत्सुकमानसः ॥८२॥ प्रणम्य पितरं स्नेहाशारदेन सहाम्बरम् । अथारूढो विमानेन द्वारिकागमन प्रति ॥८३।। संकथाभिविचित्रामिनभस्यागच्छतोस्तयोः । अतिक्रान्तेमपुरयोः सैन्यं दृष्टिपथेऽभवत् ।।८।। कस्येदमटवीमध्ये पूज्य सैन्यमधो महत् । पश्चिमाशामुखं याति क किमर्थमतिद्वतम् ॥८५॥ संपृष्टः कामदेवेन नारदोऽप्यगदीदिति । शृणु काम कथालेशं कथयामि तवाधुना ॥८६॥ अस्ति दुर्योधनो राजा कुरुवंशविभूषणः । दुर्योधनो द्विषां युद्धे स हास्तिनपुरे वरे ॥८७।।
तदनन्तर पुत्रोंका समाचार सुन द्विगुणित क्रोधसे देदीप्यमान होता हुआ कालसंवर युद्धको तैयारी कर सब सेनाके साथ वहां पहुंचा ॥७५।। उधर प्रद्युम्नने भी विद्याके प्रभावसे एक सेना बना ली सो उसके साथ चिर काल तक यद्ध कर कालसंवर हार गया और जीवनको आशा छोड़ जाकर कनकमालासे बोला कि 'तू मुझे शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नामक विद्या दे।' कनकमालाने कहा कि 'मैं तो बाल्य अवस्थामें दूधके साथ वह विद्या प्रद्युम्नके लिए दे चुकी हूँ' ॥७६-७७।। तदनन्तर स्त्रीको मायापूर्ण दुश्चेष्टाको जानकर मानी कालसंवर पुनः युद्ध के मैदानमें आकर युद्ध करने लगा और प्रद्युम्नने उसे बांधकर एक शिलातलपर रख दिया ॥७८।। उसी समय अत्यन्त निपुण नारदजी वहां आ पहुंचे। प्रद्युम्नने उनका सम्मान किया। तदनन्तर नारदने सब सम्बन्ध कहा ॥७॥ तदनन्तर राजा कालसंवरको बन्धनसे मुक्त कर प्रद्युम्नने क्षमा मांगते हुए उनसे कहा कि माता कनकमालाने जो भी किया है वह पूर्व कर्मके वशीभूत होकर ही किया है अतः उसे क्षमा कीजिए ||८०|| उपायके ज्ञाता प्रद्यम्नने जिनका कछ भी उपाय नहीं चल रहा था ऐसे। कुमारोंको भी छोड़ दिया और भ्रातृस्नेहके प्रकट करने में तत्पर हो उनसे बार-बार क्षमा मांगी ॥८॥
तदनन्तर रुक्मिणी और कृष्णके दर्शनके लिए जिसका मन अत्यन्त उत्सुक हो रहा था ऐसे प्रद्युम्नने जानेके लिए राजा कालसंवरसे आज्ञा मांगी और उसने भी सन्तुष्ट होकर उसे विदा कर दिया ।।८२॥ तत्पश्चात् स्नेहपूर्वक पिताको प्रणाम कर प्रद्युम्न, द्वारिका जानेके लिए नारदके साथ-साथ विमान द्वारा आकाशमें आरूढ़ हुआ ।।८३|| नाना प्रकारकी कथाओंके द्वारा आकाशमें आते हुए दोनों जब हस्तिनापुरको पार कर कुछ आगे निकल आये तब एक सेना उनके दृष्टिपथमें आयो-एक सेना उन्हें दिखाई दी ।।८४॥ सेनाको देख प्रद्युम्नने नारदसे पूछा कि 'हे पूज्य ! यह अटवीके बीच नीचे किसकी बड़ी भारी सेना विद्यमान है ? इस सेनाका मुख पश्चिम दिशाको ओर है। यह बड़ी तेजीसे कहां और किसलिए जा रही है ?' इस प्रकार प्रद्युम्नके पूछनेपर नारदने कहा कि हे प्रद्युम्न ! सुनो, मैं इस समय तुझसे एक कथाका कुछ अंश कहता हूँ ॥८५-८६॥
कुरुवंशका अलंकारभूत एक दुर्योधन नामका राजा है जो युद्ध में शत्रुओके लिए सचमुच
१. निरपायानु. म., घ.।
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हरिवंशपुराणे
अग्रजाय मया देया रुक्मिणीसत्यमामयोः । दुहितेति प्रतिज्ञातं पूर्व प्रीतेन तेन च ।।८८|| अग्रजस्त्वं ततो जातो विष्णवे विनिवेदितः । भानुश्च सत्यमामायास्तदनन्तरमान्तरैः ॥८९|| अकस्माद् गच्छता क्वापि हृतस्त्वं धूमकेतुना । विषण्णा रुक्मिणी जाता सत्यमामा तु तोषिणी ॥१०॥ अविज्ञातभवद्वातॊ दुर्योधनयशोधनः । कन्यकामुदाधि नाम्ना भानवे प्राहिणोदसौ ॥११॥ भाविनीन ततः सेयं महासाधनरक्षिता । द्वारिकां प्रस्थिता कन्या भानवे किल भाविनी ॥९२।। श्रत्वा नारदमाकाशे स्थापयित्वा क्षणं ततः । सोऽवतीर्य पुरस्तस्थौ शाबरं वेषमाश्रितः ।।१३।। केशवेन वितीण मे शुल्क दत्वा तु गम्यताम् । इत्युक्त कैश्चिदित्युक्तं प्रार्थ्यतां प्रार्थितं तव ॥१४॥ यदत्र निखिले सैन्ये सारभूतमितीरिते । ईरितं सारभूतात्र कन्यकेति समन्युमिः ॥९५।। यद्येवं दीयतां मह्यं सैवेत्युक्ते जगुः परे । विष्णुना जनितो न त्वं स प्राह जनितस्विति ॥१६॥ असंबद्धप्रलापस्य पृष्टतां पश्यतेति ते । धनुःकोटिभिरुत्सार्य प्रवृत्ता गन्तुमुद्यताः ॥१७॥ ततः शाबरसेनाभिविद्यया विकृतात्मभिः । दुर्योधनबलं जित्वा कन्यामादाय खं श्रितः ॥९८॥ दिव्यरूपं तमालोक्य कन्या त्यक्तभया ततः । हृष्टा नारदवाक्येन बुद्ध तत्त्वा समाश्वसीत् ॥९९।।
ही दुर्योधन है (जिसके साथ युद्ध करना कठिन है) और वह हस्तिनापुर नामके उत्तम नगरमें रहता है ॥८७|| एक बार पहले प्रसन्न होकर उसने कृष्णसे प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे कन्या हुई और आपकी रुक्मिणी तथा सत्यभामा रानियोंके पुत्र हुए तो जो पुत्र पहले होगा उसके लिए मैं अपनी कन्या दूंगा ॥८८।। तदनन्तर रुक्मिणीके तुम और सत्यभामाके भानु साथ ही साथ उत्पन्न हुए परन्तु रुक्मिणीके सेवकोंने कृष्ण महाराजके लिए पहले तुम्हारी खबर दी इसलिए तुम 'अग्रज' घोषित किये गये और सत्यभामाके स्वजनोंने पीछे खबर दी इसलिए उसका पुत्र भानु 'अनुज' घोषित किया गया ।।८९।। तदनन्तर अकस्मात् कहीं जाता हुआ धूमकेतु नामका असुर तुम्हें हर ले गया इसलिए तुम्हारी माता रुक्मिणी बहुत दुखी हुई और सत्यभामा सन्तुष्ट हुई ॥९०। जब आपका कुछ समाचार नहीं मिला तब यशरूपो धनको धारण करनेवाले दुर्योधनने अपनी उदधिकुमारी नामकी कन्या सत्यभामाके पुत्र भानुके लिए भेज दी ॥११॥ हे स्वामिन् ! नाना भावोंको धारण करनेवाली यह वही कन्या बड़ी भारी सेनासे सुरक्षित हो द्वारिकाको जा रही है तथा सत्यभामाके पुत्र भानुकी स्त्री होनेवाली है ।।१२।।
यह सुन प्रद्युम्नने नारदको तो वहीं आकाशमें खड़ा रखा और आप उसी क्षण नीचे उतरकर भीलका वेष रख सेनाके सामने खड़ा हो गया ॥९३॥ वह कहने लगा कि 'कृष्ण महाराजने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है वह देकर जाइए'। भीलके इस प्रकार कहनेपर कुछ लोगोंने कहा कि 'माँग क्या चाहता है' ? ॥९४॥ भीलने उत्तर दिया कि 'इस समस्त सेनामें जो वस्तु स त हो वही चाहता हूँ। उसके इस प्रकार कहनेपर लोगोंने क्रोध दिखाते हए कहा कि 'सेनामें सारभूत तो कन्या है' । भीलने फिर कहा कि 'यदि ऐसा है तो वही कन्या मुझे दी जाये' । यह सुन लोगोंने कहा कि 'तू विष्णु-कृष्णसे उत्पन्न नहीं हुआ है'-कन्या उसे दी जायेगी जो विष्णुसे उत्पन्न होगा। भीलने जोर देकर कहा कि 'मैं विष्णुसे उत्पन्न हुआ हूँ'। 'इस असम्बद्ध बकनेवालेकी धृष्टता तो देखो' यह कह उसे धनुषकी कोटीसे अलग हटाकर लोग ज्योंही आगे जानेके लिए उद्यत हुए त्योंही वह विद्याके द्वारा निर्मित भोलोंकी सेनासे दुर्योधनकी सेनाको जीतकर तथा कन्या लेकर आकाशमें जा पहुंचा ॥९५-९८॥ विमानमें पहुंचकर प्रद्युम्नने अपना असली रूप रख लिया अतः सुन्दर रूपको धारण करनेवाले उसको देखकर कन्या निर्भय हो गयो और नारदके कहनेसे यथार्थ बातको जान हर्षित हो सुखको सांस लेने लगी ॥१९॥ १. हतस्त्वं म. । २. भाविनीव म., ख. । भाविनी + इन इतिच्छेदः ।
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
विमानं कामगं कामः समारुह्य समं तथा । नारदेन च संप्राप्तो द्वारिकां हारहारिणीम् ॥ १०० ॥ अपश्यत्स विदूरेण सागरेण गरीयसा । प्राकारेण च तां गुप्तां गोपुराट्टालसंकुलाम् ।। १०१ ।। बाह्यबाह्यालिकां मानुरश्वव्यायामहेतुना । निर्गतोऽदर्शि कामेन गगनस्थविमानिना || १०२ || तुरगस्त्वरया दिव्य स्थविराकारधारिणा । नीतो भानुकुमारार्थमारूढस्तं स हारिणम् ||१०३ ।। बाह्यमानेन तेनासौ कुमारः कामरूपिणा । खकीकृत्य चिरं नीतः स्थविशन्तं निजेच्छया ॥ १०४ ॥ अवतीर्णस्तो भानुरहो कौशलमित्यलम् । हसितः साट्टहासेन करास्फालनकारिणा ॥ १०५ ॥ जरारोप्यमाणस्तु भानुलोकेन तं चिरम् । खलीकृत्य व्यलीकेन व्याकाश्वस्थः स्वयं ययौ ॥ १०६॥ माया मर्कटमायाश्वैर्मामोपवनभङ्गकृत् । अशोषयन्महावापीं मायया मदनस्तदा ॥ १०७॥ मक्षिकादंशमशकैः सकरस्पन्दनं नृपम् । निवर्त्य द्वारि चिक्रीड खरमेषरथी चिरम् ॥१०८॥ व्यामोह्य पौरलोकं च विविधक्रोडया चिरम् । वसुदेवेन संक्रीड्य मेषयुद्धेन संमदी ॥ १०९ ॥ भोजनेऽग्रासने विप्रः सत्यायाः सोऽग्रजन्मनः । खलीकृत्यासनैर्ल मैश्छर्दिकाहारकोऽगमत् ॥ ३३० ॥
अथानन्तर कन्या उदधिकुमारी और नारद मुनिके साथ, इच्छानुकूल गमन करनेवाले विमानपर आरूढ़ होकर प्रद्युम्न, द्वारोंसे सुन्दर द्वारिका नगरी जा पहुँचा || १०० || दूरसे ही उसने विशाल सागर और कोटसे सुरक्षित एवं गोपुर और अट्टालिकाओसे व्याप्त द्वारिकाको देखा ||१०१|| उसी समय सत्यभामाका पुत्र भानुकुमार, घोड़ेको व्यायाम करानेके लिए नगरीके बाह्य मैदान में आया था उसे प्रद्युम्नने देखा । देखते ही वह विमानको आकाशमें खड़ा रख पृथिवीपर आया और वृद्धका रूप रख सुन्दर घोड़ा लेकर भानुकुमारके पास पहुँचा । बोला कि मैं यह घोड़ा भानुकुमार के लिए लाया हूँ । देखते ही भानुकुमार उस सुन्दर घोड़ापर सवार हो गया ||१०२-१०३|| इच्छानुकूल रूपको धारण करनेवाले उस घोड़ेने भानुकुमारको बहुत देर तक तंग किया और बाद में वह भानुकुमारको साथ ले अपनी इच्छानुसार उस वृद्धके पास ले आया । भानुकुमार घोड़ासे नीचे उतर आया और वृद्धने अट्टहास कर तथा हाथसे घोड़ाका आस्फालन कर व्यंग्यपूर्ण भाषा में हंसी उड़ाते हुए भानुकुमारसे कहा कि अहो ! घोड़ाके चलानेमे आपकी बड़ी चतुराई है ? || १०४ - १०५॥। साथ ही वृद्धने यह भी कहा कि में बहुत बूढ़ा हो गया हूँ स्वयं मुझसे घोड़ापर बैठते नहीं बनता । यदि कोई मुझे बैठा दे तो मैं अपना कौशल दिखाऊँ । साथ ही भानुकुमार के लोग उसे घोड़ापर चढ़ानेके लिए उद्यम करने लगे परन्तु प्रद्युम्नने अपना शरीर इतना भारी कर लिया कि उन अनेक लोगोंको उसका उठाना दुर्भर हो गया। इस प्रकार अपनी मायासे उन सब लोगोंको तंग कर वह वृद्ध रूपधारी प्रद्युम्न उस घोड़ेपर स्वयं चढ़ गया और अपना कौशल दिखाता हुआ चला गया || १०६ || तदनन्तर उसने मायामयी वानरों और मायामयी चोड़ोंसे सत्यभामाका उपवन उजाड़ डाला तथा मायासे उसकी बड़ी भारी वापिका सुखा दी || १०७ || नगरके द्वारपर राजा श्रीकृष्ण आ रहे थे उन्हें देख उसने मायामयी मक्खियों ओर डांस-मच्छरोंको इतनी अधिक संख्या में छोड़ा कि उनका आगे बढ़ना कठिन हो गया और हाथ हिलाते हुए उनसे लौटते ही बना । तदनन्तर वह गधे और मेढ़के रथपर सवार हो नगरमें चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा || १०८|| इस प्रकार नाना तरहकी क्रीड़ाओंसे नगरवासियों को मोहित कर उसने बड़ी प्रसन्नतासे अपने बाबा वसुदेव के साथ मेषबुद्ध से क्रीड़ा की || १०९ ||
तदनन्तर सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणोंका भोज होनेवाला था सो प्रद्युम्न एक ब्राह्मणका रूप रख सबसे आगेके आसनपर जा बैठा। एक अपरिचित ब्राह्मणको आगे बैठा देख सब ब्राह्मण कुपित हो गये तब लगे हुए आसनोंसे उसने उनं ब्राह्मणों को खूब तंग किया । १. यथेच्छगामि । २. प्रद्युम्नः । ३. दिव्यस्थविराकारम, ग. ।
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हरिवंशपुराणे
विकृत्य क्षौल्लकं वेषं मातृमोदकभक्षिणा । 'मामादेशकरस्तेन नापितश्च तिरस्कृतः ॥११॥ संकर्षणस्य हवेच्छां पादाकर्षणकारिणः । आरराम चिरं स्वेच्छं लोकविस्मयकृस्कृती ॥११२॥ प्रद्युम्नागमचिह्नानि पूर्वोक्तानि तदा परम् । प्रस्तुतस्तनकुम्भाया मातुरध्यक्षतां ययुः ॥१३॥ साऽतोऽचिन्तयदत्यन्तविस्मिता मे सुतो न्वयम् । कृतरूपपरावृत्तिरागतः षोडशाब्दके ॥११॥ तां प्रद्युम्नकुमारोऽपि तत्क्षणं प्रकृतिस्थितः । सुतस्नेहमितीरित्वा मातरं प्रणनाम सः ॥११५॥ "सानन्दा साकुलाक्षी तं रुक्मिणो तनयं नतम् । परिष्वज्य जहौ दुःखमश्रुभिः सहसा चितम् ॥१६॥ दर्शनामृत सिक्काया पुलकन्यपदेशतः । प्रत्यङ्गरोमकूपेभ्यः सुतस्नेह इवोद्ययौ ॥११७॥ तयोः कुशलसंप्रश्ने संवृत्ते मातृपुत्रयोः । माता पुत्रमवोचत्तं चित्तनिर्वृत्तिदायिनम् ॥११८॥ धन्या कनकमालासौ पुत्र ! पुत्रफलं यया । बालक्रीडावलोकाख्यमनुभूतं शिशोस्तव ॥११९॥ इत्युक्त प्रणिपत्यासी जगाद नयनोत्सवः । बालभावमहं मातर्दर्शयामीह दृश्यताम् ॥१२॥ ततः स तत्क्षणं जातस्तदहर्जातदारकः । आस्वादितकराङ्गुष्ठः प्रोत्फुल्लनयनोत्पलः ॥१२॥
तत्पश्चात् उस विप्रभोजमें जितना भोजन बना था वह सब प्रद्युम्नने खा लिया। जब कुछ भी न बचा तो सत्यभामाको कृपण बता खाये हुए भोजनको वमन द्वारा वहीं उगल वह वहाँसे बाहर चला गया ॥११०।। अब वह क्षुल्लकका वेष रख माता रुक्मिणीके महलमें गया, वहां उसने माता रुक्मिणीके द्वारा दिये हए लड्डू खाये। उसी समय सत्यभामाका आज्ञाकारी नाई रुक्मिणीके शिरके बाल लेनेके लिए उसके घर आया सो प्रद्युम्नने सब समाचार जान उसका खूब तिरस्कार किया ।।१११।। सत्यभामाकी शिकायत सुन बलदेव रुक्मिणीके महलपर आनेको उद्यत हुए तो प्रद्युम्न एक ब्राह्मणका रूप रख द्वारपर पैर फैलाकर पड़ रहा । बलदेवने उसे दूर हटनेके लिए कहा पर वह टससे मस नहीं हआ और कहने लगा कि आज सत्यभामाके घर बहत भोजन कर आया हूँ हमसे उठते नहीं बनता। कुपित हो बलदेवने उसको टांग पकड़कर खींचना चाहा पर उसने विद्याबलसे टांगको इतना मजबूत कर लिया कि वे खींचते-खींचते तंग आ गये। इस प्रकार नाना विद्याओंमें कुशल प्रद्युम्न अपनी इच्छानुसार लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ।।११२॥
उसी समय, प्रद्युम्नके आनेके जो चिह्न पहले नारदने कहे थे वे माता रुक्मिणीको प्रत्यक्ष दिखने लगे और उसके स्तनरूपी कलशोंसे अत्यधिक दूध झरने लगा ॥११३॥ अस्यन्त आश्चर्यमें पड़कर वह विचार करने लगी कि कहीं सोलह वर्ष व्यतीत होनेके बाद मेरा पुत्र ही तो रूप बदलकर नहीं आ गया है ? ||११४॥ उसी क्षण प्रद्यम्नने भी अपने असली रूपमें प्रकट हो पूत्रका स्नेह प्रकट कर माताको प्रणाम किया ॥११५॥ पुत्रको देखते ही रुक्मिणी आनन्दसे भर गयी, उसके नेत्र हर्षके आँसुओंसे व्याप्त हो गये और वह नभ्रीभूत पुत्रका आलिंगन कर चिरसंचित दुःखको आँसुओंके द्वारा तत्काल छोड़ने लगी ॥११६।। पुत्रके दर्शनरूपी अमृतसे सींची हुई रुक्मिणीके शरीरमें प्रत्येक रोम-कूपसे रोमांच निकल आये थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पुत्रका स्नेह ही फूट-फूटकर प्रकट हो रहा हो ॥११७।। तदनन्तर जब माता और पुत्र परस्पर कुशल समाचार पूछ चुके तब माताने चित्तके लिए अत्यधिक सन्तोष प्रदान करनेवाले पुत्रसे कहा कि हे पूत्र ! वह कनकमाला धन्य है जिसने तेरी बाल्य अवस्थाकी बाल-क्रीडाओंके देखने रूप पूत्र जन्मके फलका उपभोग किया ॥११८-११९।। माताके इतना कहते ही नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाले प्रद्युम्नने नमस्कार कर कहा कि हे मातः ! मैं यहां ही अपनी बाल-चेष्टाएँ दिखलाता हूँ, देख । ।।१२०।। तदनन्तर वह उसी क्षण एक दिनका बालक बन गया और नेत्ररूपी नील कमलको १. नामादेश-म.। २. परे म., ग. । ३. सुतो नु + अयम् इतिच्छेदः । ४. सानन्दसाकुलाक्षी म. ।
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सप्तचत्वारिंशः सर्गः
ततः स्तनंधयो जातो गृहीतस्तन चूचुकः । तथोत्तानशयो मातुः करपल्लव सौख्यदः ॥ १२२ ॥ संसर्पन्नुरसा जातस्तथोत्तिष्टन्पतन्पुनः । मातुः कराङ्गुलौ लग्नो मणिकुट्टिमसर्पणः ॥ १२३ ॥ पांशुक्रीडां विधायाम्बाकण्ठलग्नो व्यधात्सुखम् । कलालापस्मिताह्लादिवदनो वदनेक्षणः ॥ १२४॥ मनोहर शिशुक्रीडापूरिताम्वामनोरथः । स्वभावस्थितदेहस्थो नत्वा विज्ञाप्य तां सुतः ॥ १२५॥ क्षिप्रमुत्क्षिप्य बाहुभ्यां वियति प्रकटस्थितः । जगाद श्रूयतां सर्वैरिह यादवपार्थिवैः ॥ १२६॥ युष्माकं तामेव लक्ष्मीरिव हरेः प्रिया । हियते रुक्मिणी देवी यादवाः परिरक्ष्यताम् ॥ १२७ ॥ इत्युक्त्वा शङ्खतापूर्य नारदोदधिकन्ययोः । विमाने स्थापयित्वा तां युद्धार्थं वियति स्थितः ॥१२८॥ विनिर्ययुस्ततः पुर्यायोद्धुं सन्ना यादवाः । चतुरङ्गबलोपेताः पञ्चायुधविचक्षणाः ॥ १२९ ॥ विद्याबलेन निश्शेपं कामो बादवाधनम् । मोहयित्वाम्वरस्थेन युयुधे हरिणा चिरम् ॥ १३८॥
कौशल्ये कृते कृष्णस्य सूनुना । प्रौढदृष्टी महादोभ्यां योद्धुं वीरौ समुच्छ्रितौ ॥ १३१ ॥ विशुकनारदेनोभो वियत्यागत्य वेगिना । वारितौ तौ पितापुत्रसंबन्धविनिवेदिना ॥ १३२ ॥ ततः प्रणतमाश्लिष्य प्रद्युम्नं प्रमदी हरिः । आनन्दाश्रुपताक्षः समयोजयदाशिषा ॥ १३३॥ माया शायितं सैन्यं समुत्थाप्य सविद्यया । तुष्टो बान्धवलोकेन मदनः प्राविशत्पुरीम् ॥ १३४॥ ते जातपुत्रसमागमे । तदाचीकरतां तोषादुत्सवं वत्सवत्सले ॥१३५॥
फुला-फुलाकर हाथका अंगूठा चूसने लगा || १२१|| कुछ देर बाद वह माता के स्तनका चूचक मुँहमें दावकर दूध पीने लगा तथा चित्त लेटकर माताके कर-पल्लवोंको सुख उपजाने लगा || १२२ ॥ फिर छाती के बल सरकने लगा । पुनः उठनेका प्रयत्न करता परन्तु फिर नीचे गिर पड़ता । तदनन्तर माताकी हाथकी अँगुली पकड़ मणिमय फशंपर चलने लगा || १२३|| तदनन्तर धूलिमें खेलता-खेलता आकर माताके कण्ठसे लिपटकर उसे सुख उपजाने लगा और कभी माता के मुखकी ओर नेत्र लगा मुसकराता हुआ तोतली बोली बोलने लगा || १२४|| इस प्रकार मनोहर बालकीड़ाओंसे माताका मनोरथ पूर्ण कर वह अपने असली रूपमें आ गया और नमस्कार कर बोला कि मैं तुझे आकाश में लिये चलता हूँ || १२५||
तदनन्तर वह दोनों भुजाओंसे शीघ्र ही रुक्मिणीको ऊपर उठा आकाशमें खड़ा हो कहने लगा कि 'समस्त यादव राजा सुनें। मैं तुम लोगोंके देखते-देखते लक्ष्मीकी भांति सुन्दर श्रीकृष्णकी प्रिया रुक्मिणीको हरकर ले जा रहा हूँ। हे यादवो ! शक्ति हो तो उसकी रक्षा करो' ।। १२६-१२७।। इस प्रकार कहकर तथा शंख फूंककर उसने रुक्मिगीको तो विमानमें नारद और उदधिकुमारोके पास बैठा दिया और स्वयं युद्ध के लिए आकाशमें आ खड़ा हुआ || १२८|| तदनन्तर चतुरंग सेनाओंसे सहित और पाँचों प्रकारके शस्त्र चलाने में निपुण यादव राजा, युद्धके लिए तैयार हो नगरीसे बाहर निकले || १२९ || प्रद्युम्न विद्याबलसे यादवोंकी सब सेनाको मोहित कर आकाश में स्थित कृष्णके साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा || १३० || अन्तमें प्रद्युम्नने जब कृष्णके अस्त्र- कौशलको निष्फल कर दिया तब प्रौढ़ दृष्टिको धारण करनेवाले दोनों वीर अपनी बड़ी-बड़ी भुजाओं से युद्ध करने के लिए उद्यत हुए || १३१ ॥ उसी समय रुक्मिणीके द्वारा प्रेरित नारदने आकाशमें शीघ्र ही आकर पिता-पुत्रका सम्बन्ध बतला दोनों वीरोंको युद्ध करनेसे रोका || १३२ ॥ तदनन्तर नम्रीभूत पुत्रका आलिंगन कर श्रीकृष्ण परम हर्षको प्राप्त हुए और हपके आँसुओंसे नेत्रोंको व्याप्त करते हुए उसे आशीर्वाद देने लगे ||१३३|| तत्पश्चात् मायासे सुलायी हुई सेनाको विद्यासे उठाकर प्रद्युम्नने सन्तुष्ट हो बन्धुजनोंके साथ-साथ नगरी में प्रवेश किया || १३४ ॥ | जिन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी ऐसी पुत्रवत्सला रानी रुक्मिणी और जाम्बवतीने उस समय हर्षसे बहुत
१. प्रमदं म ।
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हरिवंशपुराणे
मान्यो मान्याभिरन्यस्त्रीहोकेरीभिरसौ ततः । मनोभूर्वं रकन्यामिः कल्याणममजत्परम् ॥ १३६ ॥
पृथिवी च्छन्द:
कनत्कनकमालया कनकमालया सेशया
विवाहसमयाप्तया सममिदृष्टकख्याणकः ।
विवाह्य विधिना वधूरुदधिपूर्विका मन्मथो
जिनेन्द्रवरशासनोर्जित सुखोदयः सोऽन्वभूत् ॥ १३७ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ कुरुवंशप्रद्युम्नमातृपितृसमागमवर्णनो नाम सप्तचत्वारिंशः सर्गः ॥४७॥
O
उत्सव कराया || १३५ ॥ तदनन्तर मान्य प्रद्युम्नकुमार अन्य स्त्रियोंको लज्जा उत्पन्न करनेवाली उत्तमोत्तम मान्य कन्याओं के साथ उत्तम विवाह - मंगलको प्राप्त हुआ || १३६ || गौतम स्वामी कहते हैं कि स्वर्णकी देदीप्यमान मालासे युक्त रानी कनकमालाने अपने पति कालसंवर विद्याधरके साथ विवाह के समय आकर जिसके विवाहरूप कल्याणको देखा था एवं जिनेन्द्र भगवान् के उत्कृष्ट शासन के प्रभाव से जिसे बहुत भारी सुखकी प्राप्ति हुई थी ऐसा प्रद्युम्नकुमार उदधिकुमारी आदि कन्याओंको विधिपूर्वक विवाहकर उनका उपभोग करने लगा || १३७ ||
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें कुरुवंश तथा प्रद्युम्नका माता-पिता के साथ समागमका वर्णन करनेवाला सैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ ४७ ॥
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१. श्रीकरीभिम. ग. । २. ईशेन पत्या सह वर्तमाना सेशा तया । सेवया म ।
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अष्टचत्वारिंशः सर्गः अथ शम्बस्य संमृति सुभानोश्च यथाक्रमम् । कथयामि यथावृत्तं शृणु श्रेणिक हारिणीम् ॥१॥ देवः कैटभपूर्तोऽसौ पूर्वमतोऽच्युतोद्भवः । हरये हारिणं हारं ददौ भामासुतार्थिने ॥२॥ प्रदोषसम्ये हारं तं प्रशस्न प्रयोगतः । सत्यारूपधरां भुक्त्वा लेभे जाम्बवती हरेः ॥३॥ कैटमश्च तदा च्युत्वा पुण्यादप्रच्युतोदयः । धितो जाम्बवतीगर्भ सागता च निजं गृहम् ।।४।। हरि सत्यापि संग्राप्ता संग्रामसदनोदया। रमिता च दधे गर्भ सा स्वर्गच्युतसर्मकम् ॥५॥ वर्धते स्म ततो हर्षों गर्भयोर्वर्धमानयोः । पितृमातृसबन्धूनां सिन्धूनामिव चन्द्रयोः ॥६॥ पूर्णपु नवमासेपु शम्बं जाम्बवती सुतम् । सुपुवे सत्यमामापि सुभानुं भानुमास्वरम् ।।७।। हश प्रद्यम्नशम्वाभ्यां रुक्मिणी जाम्बवत्यपि । मामा भानुसुमानुभ्यां श्रिताभ्यामुदयश्रियम् ॥८॥ हरेरण्यास्वपि स्त्रीपु जाताः पुत्रा यथायथम् । यदूनां हृदयानन्दाः सत्यसत्त्वयशोऽधिकाः ॥९।। दशम्यः क्रीडासु सर्वासु कुमारशतसेवितः । जित्वा सुभानुमाक्रम्य विक्रमी रमतेतराम् ॥१०॥ रुक्मिणी शैक्मिणेयाय वैदर्मी रुक्मिणः सुताम् । ययाचे न ददौ कन्यां सोऽपि पूर्वविरोधतः ॥११॥ गन्ना मातङ्गवेषेण शम्बप्रद्युम्नसंवरौ । बलादाहरतां कन्यां रुक्मिणं परिभूय तौ ॥१२॥
अथानन्तर गौतम गणधरने कहा कि हे श्रेणिक ! अब मैं आगमानुसार क्रमसे शम्ब तथा सुभानु कुमारकी मनोहर उत्पत्तिका वर्णन करता हूँ तुम सुनो ॥१॥
राजा मधुका भाई कैटभ जिसका पहले वर्णन आ चुका है, अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था। जब उसकी वहांकी आयु समाप्त होनेको आयी तब वह सत्यभामाके लिए पुत्रकी इच्छा रखनेवाले श्रीकृष्णके लिए एक सुन्दर हार दे गया ॥२॥ सायंकालके समय प्रद्युम्नके प्रयोगसे सत्यभामाका रूप धारण कर रानी जाम्बवतीने कृष्णके साथ उपभोग कर वह हार प्राप्त कर लिया ।। ३ ॥ पुण्यके उदयसे उसी समय अखण्ड अभ्युदयको धारण करनेवाला कैटभका जीव स्वर्गसे च्युत हो जाम्बवतोके गर्भ में आ गया। गर्भ धारण कर रानी जाम्बवती अपने घर आ गयी ।। ४ ।। तदनन्तर सत्यभामा भी कृष्णके पास पहुंची और कामके उदयको प्राप्त हो श्रीकृष्णके साथ रमण कर उसने भी स्वर्गसे च्युत किसी शिशुको गर्भमें धारण किया ।।५।। तदनन्तर दोनों रानियोंका गर्भ बढ़ने लगा और जिस प्रकार चन्द्रमाओंके बढ़नेपर समुद्रोंका हर्ष बढ़ने लगता है उसी प्रकार उन दोनों रानियोंके गर्भके बढ़नेपर माता-पिता तथा कुटुम्बी जनोंका हर्ष बढ़ने लगा ॥६॥ तदनन्तर नौ माह पूर्ण होनेपर रानी जाम्बवतीने शम्ब नामक पुत्रको और रानी सत्यभामाने सूर्यके समान देदीप्यमान सुभानु नामक पुत्रको उत्पन्न किया ।।७।। इधर अभ्युदयको प्राप्त प्रद्युम्न और शम्बसे रुक्मिणी तथा जाम्बवती हर्षको प्राप्त हुई उधर भानु और सुभानुसे सत्यभामा भी अत्यधिक हर्षित हुई ।।८।। कृष्णको अन्य स्त्रियों में भी यथायोग्य अनेक पुत्र उत्पन्न हुए जो यादवोंके हृदयको आनन्द देनेवाले तथा सत्य, पराक्रम और यशसे अत्यधिक सुशोभित थे ।।९।। सैकड़ों कुमारोंसे सेवित पराक्रमी शम्ब, समस्त क्रीड़ाओंमें सुभानुको दबा देता था और उसे जीतकर सातिशय कोड़ा करता था ।।१०॥
रुक्मिणीके भाई रुक्मीकी एक वैदर्भी नामकी कन्या थी। रुक्मिणीने उसे माँगा परन्तु रुक्मीने पूर्व विरोधके कारण उसके लिए वह कन्या न दी ॥११॥ यह सुन शम्ब और प्रद्युम्न दोनों भीलके वेषमें गये और रुक्मीको पराजित कर बलपूर्वक उस कन्याको हर १. स्वबन्धूनां म. ।
कविता
लिए
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हरिवंशपुराणें
परिणीय ततः कामः कन्यामन्यामिव श्रियम् । अरीरमदरं भोगैर्द्वारिकायां मनोरमैः ||१३| दक्षो जिल्ला सुभानुं तं द्यूते प्रेक्षण केक्षणे । शम्बो ददाति सर्वस्य लोकस्य सकलं धनम् ॥ १४ ॥ क्रीडया स पुनर्जिग्ये पक्षिणोर्बहुजल्पिनोः । गन्धयुक्तिप्रयोगेण पुनः सदसि शार्ङ्गिणः ॥ १५ ॥ अग्निशोध्येन दिव्येन सवस्त्रयुगलेन तम् । दिव्यालंकारयोगेन जिगाय सदसि प्रभोः ॥१६॥ बलदर्शन तो जित्वा तमसौ हृष्टविष्णुतः । मासं लब्ध्वा पुना राज्यं चक्रे दुर्ललिताः क्रियाः ||१७|| ताडितः पुनरुद्वृत्तः पित्रा प्रणयकोपिना । 'युग्येन कन्यकारूपः सत्योत्संगमतोऽविशत् ||१८|| सत्या सुतार्थमानीतां विवाह्य वरकन्यकाम् | आविश्वकार रूपं स्वं शम्बो लोकस्य पश्यतः ||१९|| एकस्यामेव रात्रौ तु कन्यकानां शतेन सः । कल्याणस्नानकं स्नात्वा भातृसौख्यकरोऽभवत् ||२०|| सत्यभामादिदेवीनां कुमाराः शतशस्तदा । विवाह्य बहुशः कन्याश्चिक्रीडुः शक्रकीर्तयः ॥ २१ ॥ क्रीडापूर्व गतो गेहमन्यदा मान्यमात्मनः । पितामहमिति प्राह शम्बः प्रणतिपूर्वकम् ||२२|| युष्माभिः सर्वकालेन क्लेशेन खचराङ्गनाः । पर्यटद्भिः क्षितौ लब्धाः पूज्यपूज्या मनोरमाः ||२३|| अक्लेशेनैकरात्रेण मया तु गृहवर्तिना । परिणीताः शतं कन्याः पश्यतान्तरमावयोः ||२४|| वसुदेवस्ततः प्राह वत्स त्वमिषुवत्पुनः । क्षिप्तोऽपि गृहमध्येऽपि दूरमन्तरमावयोः ||२५||
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लाये ||१२|| तदनन्तर दूसरी लक्ष्मी के समान सुन्दर उस कन्याको विवाहकर प्रद्युम्न द्वारिका नगरी में उसे मनोहर भोगोंसे शीघ्र ही कोड़ा कराने लगा || १३|| शम्ब जुआ खेलने में बहुत चतुर था । एक दिन उसने सबके देखते-देखते जुआ में सुभानुका सब धन जीत लिया और सब लोगोंको बांट दिया ॥१४॥ नाना प्रकारकी बोली बोलनेवाले पक्षियोंकी क्रीड़ासे शम्बने सुभानु कुमारको जीत लिया । एक कृष्णकी सभामें दोनों कुमारोंके बीच सुगन्धिकी परखमें शास्त्रार्थं हो पड़ा जिसमें शम्बने सुभानुको पुनः हरा दिया || १५ || एक बार उसने अग्नि में शुद्ध किये हुए दो दिव्य वस्त्रों तथा दिव्य अलंकारोंको प्राप्त कर राजा कृष्णको सभामें सुभानुको जीत लिया ॥ १६ ॥ एक बार अपना बल दिखाकर उसने सुभानु कुमारको ऐसा जीता कि कृष्ण महाराज उसपर एकदम प्रसन्न हो गये । कृष्णने उससे वर मांगनेका आग्रह किया जिससे एक माहका राज्य प्राप्त कर उसने बहुत विपरीत क्रियाएँ कीं ॥ १७॥ प्रणय कोपको धारण करनेवाले कृष्णने उस दुराचारी शम्बको बहुत ताड़ना दी। एक दिन शम्बकुमार कन्याका रूप धारण कर रथमें सवार हो सत्यभामा की गोद में जा प्रविष्ट हुआ ॥ १८ ॥ सत्यभामाने समझा कि यह कन्या मेरे पुत्र सुभानुके लिए ही लायी गयी है इसलिए उसने सुभानुके साथ विवाह करा दिया परन्तु विवाह के बाद ही शम्बकुमार ने लोगोंके देखते-देखते अपना असली रूप प्रकट कर दिया || १९|| उसने एक ही रात्रिमें सौ कन्याओं के साथ विवाह सम्बन्धी मांगलिक स्नान कर अपनी माता जाम्बवतीको बहुत सुखी किया ||२०|| इन्द्रके समान कीर्तिको धारण करनेवाले सत्यभामा आदि रानियों के सैकड़ों कुमार भी उस समय अनेक कन्याओंको विवाह कर इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे ॥ २१ ॥ एक दिन शम्ब अपने मान्य पितामह वसुदेव के घर गया और प्रणाम कर क्रीड़ापूर्वक इस प्रकार कहने लगा - हे पूज्य ! आपने पृथिवीपर बहुत समय तक क्लेश उठाते हुए भ्रमण किया तब कहीं आप विद्याधरोंकी पूज्य एवं मनोहर कन्याएँ प्राप्त कर सके परन्तु मैंने घर बैठे बिना किसी क्लेश के एक ही रात्रिमें सो कन्याओंके साथ विवाह कर लिया। आप हम दोनोंके अन्तरको देखिए ।। २२-२४ ॥ यह सुन वसुदेवने कहा कि वत्स ! तू बाणके समान दूसरेसे ( प्रद्युम्नसे) प्रेरित हो चलता है और फिर तेरी चाल भी कहाँ है ? सिर्फ घर में ही । इसीलिए हम दोनों में बहुत अन्तर
१. रथेन ( ग. टि. ) । प्रेरितश्चलसि (ग. टि. )
२. वरकन्यकाः म. । ३. कल्याणस्नातकं म. । ४. वाणवत्परप्रेरितः प्रद्युम्न.
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अष्टचत्वारिंशः सर्गः
मया खेटपुराम्भोधिमकरेण समं निजम् । द्वारिकाकूपमण्डूकः पण्डितम्मन्य मन्यसे ॥ २६ ॥ अनुभूतं श्रुतं दृष्टं यन्मयातिमनोहरम् । विद्याधरपुरेष्वेतदन्येषामतिदुर्लभम् ॥२७॥ इत्युक्ते प्रणतेनोक्तः शम्बेनानकदुन्दुभिः । शुश्रूषाम्यार्य वृत्तं ते भव्यतामिति सादरम् ॥ २८ ॥ स प्राहानन्दभेर्या एवं वत्स बोधय यादवान् । कथयामि समस्तानां सहैव चरितं निजम् ॥२९॥ तथा कृते समस्तेभ्यो यादवेभ्यः सविस्तरम् । कलत्रादिसमेतेभ्यो वृत्तं तेनाकथि स्वकम् ॥३०॥ लोकालोकविभागोतिं हरिवंशानुकीर्तनम् । स्वक्रीडा सौर्यलोकोक्तिनिर्गमं च ततो निजम् ॥ ३१ ॥ इत्यादि चरितं दिव्यं दिव्यमानुषसंभवम् । प्रद्युम्नशम्बसंभूतिभूतिपर्यवसानकम् ॥३२॥ वसुदेवस्य सर्वोऽपि सर्वविद्याधरीमयः । अन्तःपुरजनो हृष्टः श्रुतस्मरणसंगतः ॥३३॥ श्रुत्वा सभाजनाचापि वृद्धस्त्रीयुवबालकाः । यदवोऽन्तः पुराण्येषां कुरवो द्वारिकाजनाः ॥ ३४ ॥ विस्मयं परमं प्राप्ताः शशंसुः संशयोज्झिताः । वसुदेवं शिवाद्याथ देव्यः पीतकथारसाः ॥३५॥ यथायथं नृपा जग्मुरावासान्वासिताम्बराः । अन्तःपुराणि सर्वेषां रक्षितानि सुरक्षकैः ॥ ३६ ॥ कथा पुनर्नवीभूता प्रतिवेश्म दिने दिने । जाता जनस्य साश्चर्या वसुदेवमयी कथा ॥ ३७ ॥ नत्वा पृष्टवते भूयः श्रेणिकाय गणी जगौ । कुमारान् कतिचित्पुर्यामिति वीरवचःक्रमात् ॥ ३८ ॥
है ॥२५॥ मैं विद्याधरोंके नगररूपी समुद्रोंका मगर हूँ और तू द्वारिकारूपी कूपका मेढक है फिर भी है पण्डितमन्य ! तू अपने आपको मेरे समान मानता है ||२६|| मैंने विद्याधरोंके नगरोंमें जो कुछ अनुभव किया, देखा तथा सुना है वह अत्यन्त मनोहारी है और दूसरोंके लिए अतिशय दुर्लभ है ||२७|| वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर शम्बने नमस्कार कर आदरपूर्वक उनसे कहा कि हे आर्य ! मैं आपका वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ कृपा कर कहिए ||२८|| इसके उत्तर में वसुदेवने कहा कि हे वत्स ! तू आनन्दभेरी बजवाकर समस्त यादवोंको इसकी सूचना दे । सबके लिए मैं साथ हो अपना चरित्र कहूँगा ||२९|| तदनन्तर आनन्दभेरीके बजवानेपर जब स्त्री-पुत्रादि सहित समस्त यादव एकत्रित हो गये तब वसुदेवने उनके लिए विस्तारपूर्वक अपना सब वृत्तान्त कहा ॥३०॥ उन्होंने लोकालोकके विभागका वर्णन किया, हरिवंशकी परम्पराका निरूपण किया, अपनी क्रीड़ाओंका कथन किया, सौर्यपुरके लोगोंने राजा समुद्रविजयसे मेरी क्रोड़ाओंसे होनेवाली लोगोंको विपरीत चेष्टाएँ कहीं, तदनन्तर मैं छलसे सौर्यपुरसे निकलकर बाहर चला गया""" यह निरूपण किया । इस प्रकार प्रद्युम्न और शम्बकी उत्पत्ति तथा उनकी विभूतिपर्यन्त अपना मनुष्य तथा विद्याधरोंसे सम्बन्ध रखनेवाला दिव्य चरित कह सुनाया ||३१-३२|| वसुदेव के अन्तःपुरमें जो विद्याधर स्त्रियाँ थीं वे सब उनका यह चरित सुन पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करती हुई अत्यन्त हर्षित हुईं ||३३|| सभासद् लोग, वृद्ध पुरुष, स्त्री, युवा, बालक, समस्त यदुवंशी, इनके अन्तःपुर, पाण्डव तथा द्वारिकाके अन्य लोग, वसुदेवके उक्त चरितको सुनकर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए और शिवा आदि देवियां वसुदेवके इस कथारूपी रसका पान कर संशय रहित हो उनको प्रशंसा करने लगीं ।।३४-३५ ॥ सुगन्धित वस्त्रोंको धारण करनेवाले सब राजा यथायोग्य अपनेअपने स्थानोंपर चले गये और सबके अन्तःपुर भी पहरेदारोंसे सुरक्षित हो अपने-अपने स्थानोंपर पहुँच गये ||३६|| अनेक आश्चर्योंसे युक्त वसुदेवकी कथा फिरसे ताजी हो गयी और पुनः प्रतिदिन घर-घर होने लगी ||३७||
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तदनन्तर नमस्कार कर पूछनेवाले राजा श्रेणिकके लिए गौतम गणधर, भगवान् महावीर स्वामीकी दिव्यध्वनिके अनुसार कुछ कुमारोंका इस प्रकार वर्णन करने लगे ||३८||
१. समात्तानां म । २ यादवोऽन्तः - म । ३. भूपः म. ।
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हरिवंशपुराणे उग्रसेनस्य तनया धरो गुणधरोऽपि च । युक्तिको दुर्धरश्चापि सागरश्चन्द्रसंज्ञकः ॥३९॥ उग्रसेनपितृव्यस्य शान्तनस्य सुतास्त्वमी । महासेन शिविस्वस्थविषदानन्तमित्रकाः' ॥४०॥ महासेनस्य तनयः सुषेण इति नामतः । हृदिको विषमित्रस्य शिवः सत्यक इत्यसौ ॥४१॥ हृदिकास्कृतिधर्मासौ दृढधर्मा च देहजः । सत्यकाद्वज्रधर्मोऽभूदसंगस्तु तदङ्गजः ॥४२॥ समुद्रविजयोद्भता महासत्यदढाधिकाः । नेमयोऽरिष्टनेमीशः सनेमिर्जयसेनकः ॥४३॥ महीजयः सुफल्गु श्च तेजःसेनो मयस्तथा । मेघाख्यः शिवनन्दश्च चित्रको गौतमादयः ॥४४॥ अक्षोभ्यस्योद्धवः सुनूर्वचःक्षुमितवारिधिः । अम्भोधिजलधी चान्यौ वामदेवदृढव्रतौ ॥४५॥ तनयाः पञ्च विख्याता जाताः स्तिमितसागरात् । ऊर्मिमान् वसुमान्वीरः पातालस्थिर इत्यमी ॥४६॥ विद्यत्प्रभो नरपतिर्माल्यवान् गन्धमादनः । इत्यमी सस्यसत्वाख्यास्त्रयो हिमवतः सुताः ॥४७॥ विजयस्यापि षट पुवा निष्कम्पोऽकम्पनो 'बलिः । युगन्तः केशरी धीमानलम्बुष इति श्रताः ॥४८॥ महेन्द्रो मलयः सह्यो गिरिः शैलो नगोऽचलः । इत्येतेऽन्वर्थनामानः सप्ताचलशरीरजाः ॥४९॥ धरणस्यात्मजाः पञ्च वासुकिः स धनंजयः । कर्कोटकः शतमुखो विश्वरूपश्च नामतः ॥५०॥ दुष्पूरो दुर्मुखामिख्यो दुर्दों दुर्धरोऽपि च । सूनवः पूरणस्यामी चस्वारश्चतुरक्रियाः ॥५१॥ पुत्राः षडभिचन्द्रस्य चन्द्रनिर्मलकीर्तयः । चन्द्रः शशाङ्कचन्द्राभौ शशी सोमोऽमृतप्रभः ॥५२॥ तनया वसुदेवस्य बहुसंख्या महाबलाः । नामतः कतिचिद्वच्मि श्रणु श्रेणिक तानहम् ॥५३॥ पुत्री विजयसेनाया अकरकरनामको । ज्वलनानिलवेगाख्यौ श्यामाख्यायाः शरीरजी ॥५४॥ पुत्राः गन्धर्वसेनायास्त्रयो लोका इव त्रयः । वायुवेगोऽमितगतिर्महेन्द्र गिरिरित्यसौ ॥५५॥
धर, गुणधर, युक्तिक, दुर्धर, सागर और चन्द्र ये राजा उग्रसेनके पुत्र थे ।।३९।। महासेन, शिवि, स्वस्थ, विषद और अनन्तमित्र ये उग्रसेनके चाचा राजा शान्तनके पुत्र थे ।।४०|| इनमें महासेनके सुषेण, विषमित्रके हृदिक, शिविके सत्यक, हृदिकके कृतिधर्मा और दृढधर्मा, सत्यकके वज्रधर्मा और वज्रधर्माके असंग नामका पुत्र हुआ ॥४१-४२।। राजा समुद्रविजयके महानेमि, सत्यनेमि, दृढनेमि, भगवान् अरिष्टनेमि, सुनेमि, जयसेन, महीजय, सुफल्गु, तेजःसेन, मय, मेघ, शिवनन्द, चित्रक और गौतम आदि अनेक पुत्र हुए ॥४३-४४|| अक्षोभ्यके, अपने वचनोंसे समुद्रको क्षुभित करनेवाला उद्धव, अम्भोधि, जलधि, वामदेव और दृढव्रत ये पांच पुत्र प्रसिद्ध थे। स्तिमितसागरसे ऊर्मिमान्, वसुमान्, वीर और पातालस्थिर ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे ।।४५-४६।। राजा विद्युत्प्रभ, माल्यवान्, और गन्धमादन ये तीन हिमवत्के पुत्र थे तथा ये तीनों ही सत्यव्रत और पराक्रमसे युक्त थे ।।४७|निष्कम्प, अकम्पन, वाल, युगन्त, केशरिन् और बुद्धिमान् अलम्बुष ये छह पुत्र विजयके प्रसिद्ध थे ।।४८॥ महेन्द्र, मलय, सह्य, गिरि, शैल, नग और अचल, सार्थक नामोंको धारण करनेवाले ये सात पुत्र अचलके थे ||४९|| वासुकि, धनंजय, कर्कोटक, शतमुख और विश्वरूप ये पाँच पुत्र धरणके थे ॥५०॥ दुष्पूर, दुर्मुख, दुर्दर्श और दुधंर, चतुर क्रियाओंको धारण करनेवाले ये चार पुत्र पूरणके थे ॥५१॥ चन्द्र, शशांक, चन्द्राभ, शशिन्, सोम और अमृतप्रभ चन्द्रमाके समान निर्मल कीतिको धारण करनेवाले ये छह पुत्र अभिचन्द्रके थे ॥५२॥ और वसुदेवके महाबलवान् अनेक पुत्र थे। हे श्रेणिक ! मैं यहां उनमें से कुछके नाम कहता हूं सो सुन ॥५३॥
वसुदेवको विजयसेना रानीसे अक्रूर और क्रूर नामके दो पुत्र हुए थे। श्यामा नामक रानीसे ज्वलन और अग्निवेग ये दो पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥५४॥ गन्धर्वसेनासे वायुवेग, अमितगति और महेन्द्रगिरि ये तीन पुत्र हुए थे। ये तीनों पुत्र ऐसे जान पड़ते थे मानो तीनों लोक ही १. विषादानन्त-म.। २. बलः म.। २. युगान्तः म.।
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अष्टचत्वारिंशः सर्गः
अमात्य दुहितुर्जाताः पद्मावत्याः सुतास्त्रयः । दारुर्वृद्धार्थनामा च दारुक इत्युदीरिताः ॥ ५६ ॥ at नीलयशसः पुत्रौ धीरौ सिंहमतङ्गजौ । नारदो मरुदेवोऽपि सोमश्रीतनयौ वरौ ॥ ५७ ॥ "मित्रश्रियः सुमित्राख्यः कपिलः कपिलात्मजः । पद्मश्च पद्मकाख्यश्च पद्मावत्याः शरीरजौ ॥५८॥ अश्वसेनोऽश्वसेनाया पौण्ड्राया पौण्ड्र एव तु । रत्नगर्भः सुगर्भश्च रत्नवस्याः सुतौ मतौ ॥५९॥ सोमदत्तसुतायास्तु चन्द्रकान्तशशिप्रभो । वेगवान्वायुवेगश्च वेगवत्यास्तनूभवौ ॥६०॥ दृष्टिमुष्टिनावृष्टि हिममुष्टिश्च ते त्रयः । पुत्रा मदनवेगाया मदनप्रतिमागताः ।। ६१ ।। बन्धुषेणस्तथा सिंहसेनो बन्धुमतीसुतौ । प्रियङ्गसुन्दरीसूनुः शीलायुध इति श्रुतिः || ६२ || ated प्रभावत्या न्वारः पिङ्गलस्तथा । जरत्कुमारवाहीको जरायास्तनयौ स्मृतौ ॥ ६३ ॥ अवन्त्याः सुमुखश्चैव दुर्मुखश्च महारथः । रोहिण्या बलदेवश्च सारणश्च विदूरथः || ६४ || तनूजौ बालचन्द्राया वज्रदंष्ट्रामितप्रभौ । देवकीतनुजो विष्णुरितीमे वसुदेवजाः ||६५|| उन्मुण्टो निषधश्चासौ प्रकृतिद्युतिरप्यतः । चारुदत्तो ध्रुवः पाठः स शक्रन्दुमनोऽपि च ॥ ६६ ॥ श्रीध्वज नन्दनचैव धीमान् दशरथस्तथा । देवनन्दश्व विख्यातो विद्रुमः शन्तनुः परः ।। ६७ ।। पृथुः शतधनुश्चैव नरदेवो महाधनुः । रोमशैत्यादयः पुत्रा बहवो बलिनस्तथा ||६८ || भानुः सुभानुभीमौ च महामानुसुभानुकौ । बृहद्रथश्चाग्निशिखो विष्णुसंजय एव च ॥ ६० ॥ अकम्पनो महासेनो धीरो गम्भीरनामकः । उदधिगतमश्चापि वसुधर्मा प्रसेनजित् ॥ ७० ॥ सूर्यश्व चन्द्रवर्मा च चारुकृष्णश्च विश्रुतः । सुचारुर्देवदत्तश्च भरतः शङ्खसंज्ञकः ।।७१ || प्रद्युम्नशम्बनामाद्याः केशवस्य शरीरजाः । शस्त्रास्त्रशास्त्रनिष्याताः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ७२ ॥ तेषां पुत्राश्च पौत्राश्व यादवानां यशस्विनाम् । पैतृस्वस्त्रीयाः स्वस्त्रीयाः कुमारास्ते सहस्रशः ॥७३॥
हो || ५५ || मन्त्रीको पुत्री पद्मावतीसे दारु, वृद्धार्थ और दारुक ये तीन पुत्र हुए ||५६ || नीलयशा के सिंह और मतंगज ये दो धीर-वीर पुत्र थे । सोमश्रीके नारद और मरुदेव ये दो पुत्र थे || ५७॥ मित्रश्री से सुमित्र, कपिलासे कपिल और पद्मावतीसे पद्म तथा पद्मक ये दो पुत्र हुए थे ||१८|| अश्वसेना से अश्वसेन, पौण्ड्रासे पौण्ड्र और रत्नवतीसे रत्नगर्भ तथा सुगर्भं ये दो पुत्र हुए थे ||१९|| सोमदतकी पुत्री से चन्द्रकान्त और शशिप्रभ तथा वेगवतीसे वेगवान् और वायुवेग ये दो पुत्र हुए थे ॥ ६०||
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दृढमुष्टि, अनावृष्टि और हिममुष्टि ये तीन पुत्र मदनवेगासे उत्पन्न हुए थे। ये तीनों ही पुत्र कामदेवकी उपमाको प्राप्त थे || ६१ ॥ बन्धुषेण और सिंहसेन ये बन्धुमती के पुत्र थे तथा शीलायुध प्रियंगसुन्दरीका पुत्र था || ६२ || रानी प्रभावतीसे गन्धार और पिंगल ये दो तथा रानी जरासे जरत्कुमार और वालीक ये दो पुत्र हुए थे || ६३ || अवन्तीसे सुमुख, दुर्मुख और महारथ, रोहिणीसे बलदेव, सारण तथा विदूरथ, बालचन्द्रासे वज्रदंष्ट्र और अमितप्रभ और देवकीसे कृष्ण पुत्र हुए थे । इस प्रकार वसुदेव के पुत्रोंका वर्णन किया ।।६४-६५ ।।
मुण्ड, निषेध, प्रकृतिद्युति, चारुदत्त, ध्रुव, पीठ, शकन्दमन, श्रीध्वज, नन्दन, धीमान्, दशरथ, देवनन्द, विद्रुम, शन्तनु, पृथु, शतधनु, नरदेव, महाधनु और रोमशैत्यको आदि लेकर बलदेव के अनेक पुत्र थे ||६६ - ६८ ॥ भानु, सुभानु, भीम, महाभानु, सुभानुक, बृहद्रथ, अग्निशिख, विष्णुंजय, अकम्पन, महासेन, धीर, गम्भीर, उदधि, गौतम, वसुधर्मा, प्रसेनजित्, सूर्य, चन्द्रवर्मा, चारुकृष्ण, सुचारु, देवदत्त, भरत, शंख, प्रद्युम्न तथा शम्ब आदि कृष्णके पुत्र थे। ये सभी पुत्र शस्त्र, अस्त्र तथा शास्त्रमें निपुण और युद्ध में कुशल थे || ६९-७२ ।। उन यशस्वी यादवों के पुत्र
१. मित्राश्रयः म. ।
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हरिवंशपुराणे तिस्रः कोव्योऽधकोटी च कुमाराणां महौजसाम् । मनोभवस्वरूपाणां रमन्ते रमणप्रियाः ॥७॥
___शार्दूलविक्रीडितम् नित्यं द्वारवती पुरी परिगता वीरैः कुमारैरिमै
निर्गच्छद्भिरितस्ततो रथगजारूढैर्विशद्भिस्तथा । नानावेषधरैः प्रचण्डचरितैः पौरप्रजाह्लादिभिबभ्राजे भवनामरैरिव पुरी पाताललोकस्थिता ॥७५॥
स्रग्धराच्छन्दः प्रायः स्वर्गच्युतानां जिनपथचरितोदारपुण्योदयानां
कानां कीयमानं चरितमिदमिह श्रीकुमारोत्तमानाम् । संशृण्वन्त्येकमत्या मतिविमवयुताः श्रद्धाना जना ये
कौमारं यौवनं च व्यपगमितरुजस्ते वयो निर्विशन्ति ।।७६॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ यदुकुलकुमारोद्देशवर्णनो नाम
अष्टचत्वारिंशः सर्गः ॥४८॥
और पौत्र, बुआके लड़के तथा भानजे भी हजारोंकी संख्यामें थे ॥७३॥ इस प्रकार सब मिलाकर महाप्रतापी तथा कामदेवके समान सुन्दर रूपको धारण करनेवाले साढ़े तीन करोड़ कुमार, क्रीड़ाके प्रेमी हो निरन्तर क्रीड़ा करते रहते थे ॥७॥
निरन्तर रथ तथा हाथियोंपर सवार हो बाहर निकलते तथा भीतर प्रवेश करते हुए, नाना वेषोंके धारक, प्रबल पराक्रमी और नगरवासी प्रजाको आनन्द उत्पन्न करनेवाले इन वीर कुमारोंसे युक्त द्वारावती नगरी उस समय भवनवासी देवोंसे युक्त पातालपुरीके समान सुशोभित हो रही थी ।।७५।। गौतम स्वामी कहते हैं कि प्रायः स्वर्गसे च्युत होकर आये हुए तथा जिनेन्द्रप्रणीत मार्गका अनुसरण करनेसे सातिशय पुण्यका संचय करनेवाले इन प्रशंसनीय उत्तम यदुकुमारोंके इस कहे जानेवाले चरितको जो बुद्धिमान् मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सुनते हैं तथा श्रद्धान करते हैं वे समस्त रोगोंको दूर कर कौमार और योवन अवस्थाका उपभोग करते हैं-उनकी वृद्धावस्था छूट जाती है ।।७६।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें यदुवंशके
कुमारोंका नामोल्लेख करनेवाला अड़तालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥४८॥
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एकोनपञ्चाशः सर्गः
नेकुंटकच्छन्दः अथ मधुसूदनावरजया वरया जगतामवितथकन्यया शशिविशुद्ध यशायरया । प्रथितसुदुर्भरप्रथमयौवनभूरिभरः प्रकटममारि हारिगुणभूषणभूषितया ॥१॥ नखमणिमण्ड लेन्दुललिताङ्गलिपल्लवयोरकृतकरक्तताहमितभास्वदलतकयोः । मृदुपदपद्मयोः प्रपदमागसमोन्नतयोगति यदीययोरुपमयापगतं त्रपया ॥२॥ दृढगुणगूढगुल्फनिजजानमनोहरयोः प्रतिपदमानुपूर्व्यपरिवृत्तविलोमशयोः । निरुपमजयोर्जधनभूरिभरक्षमयोः संविरसमलयोन हि यदीयकयोरुपमा ॥३॥ मृदुपरिवृत्तपाण्डुरगुणं विगलदहलस्थिर वरकान्तिदीप्तिरसपूरितमूरुयुगम् । करिकरयष्टिवृत्तकदलीमृदिमानमतिप्रथितमतीत्य सत्यगुणचारि यदीयमभात ।।४।। बहुरसपूर्ण वर्णकुलशैलभवप्रमदाप्रमदविधायिपुण्यसरितः कलहंसगतेः । गुरुजघनस्थली पुलिनभूमिरभूमिरसौ कुसुमरथस्य शुम्भितनितम्बता विवमौ ।।५।। तनुमृदुरोमराजिलतयातिविनीलरुचा जननयनाभिरामनिज नाभिगभीरत या । तनुमध्यबन्धनवलित्रयविचित्रतया ललितवधूजनेष्वतिविराजितसत्रनया” ॥६॥
अथानन्तर कृष्णकी छोटी बहन जगत में उत्तम, चन्द्रमाके समान निर्मल यशको धारण करनेवाली एवं मनोहर गुणरूपी आभूषणोंसे भूषित यशोदाको पुत्रो ( जो कृष्णके बदले में आयी थी )ने अतिशय प्रसिद्ध प्रथम यौवनके बहुत भारी भारको धारण किया ।।१।। जिनके अंगुलिरूपी पल्लव श्रेष्ठ नखरूपी चन्द्रमण्डलसे सुशोभित थे, जिन्होंने अपनी स्वाभाविक ललाईसे देदीप्यमान महावरकी हँसी की थी, तथा जो अग्रभागमें समान रूपसे ऊँचे उठे हुए थे ऐसे उसके कोमल चरण-कमलोंकी उपमा उस समय लज्जासे ही मानो संसारमें कहीं चली गयी थी। उसके कोमल चरण-कमल अनुपम थे ॥२॥ जो अत्यन्त मजबूत एवं गूढ गाँठों और घुटनोंसे मनोहर थी, उत्तरोत्तर बढ़ती हुई गोलाईसे सुशोभित एवं रोमरहित थी, नितम्बोंका बहुत भारी भार धारण करने में समर्थ थी, और जो परस्परके प्रतिस्पर्धी मल्लके समान जान पड़ती थी ऐसी उसकी अनुपम जंघाओंकी उस समय कहीं उपमा नहीं रही ॥३॥ जो कोमल गोल और शुभ्र थे, जिनसे अत्यधिक स्थायी एवं श्रेष्ठ कान्ति चू रही थी, जो दीप्तिरूपी रससे परिपूर्ण थे, हाथीकी सूड और गोल कदलीको सुकुमारताको उल्लंघन कर विद्यमान थे, अतिशय प्रसिद्ध थे और यथार्थ गुणोंसे युक्त थे, ऐसे उसके दोनों ऊरु उस समय अत्यधिक सुशोभित होने लगे ॥४॥ कलहंसके समान सुन्दर चालसे सुशोभित उस कन्याकी स्थूल जघनस्थली, अनेक रसोंसे परिपूर्ण वर्णवाले कुलाचलोंसे उत्पन्न स्त्रियोंके लिए हर्ष उत्पन्न करने वाले पुण्यरूपी, नदीकी उस पुलिन भूमि-तट भूमिके समान सुशोभित होने लगी जो कामकी अभूमि-अगोचर तथा नितम्बरूपी सुन्दर तटोंसे युक्त थी ।।५॥ वह कन्या, सूक्ष्म, कोमल और अत्यन्त काली रोमराजिसे, मनुष्योंके नेत्रोंको १. "हयदशभिर्नजो अजजला गुरु नर्कुटकम्" इति लक्षणात् (वृत्तरत्नाकरस्य)। २. यशोदायाः कन्यया (ङ. टि.)। ३. वरनिर्मलपल्लवयोः क., अतिनिर्मल ङ., रतिनिर्मल-म.। ४. अकृतकरकृता हसित (?) म.। ५. प्रमदभागसमन्वितयोः म., पादस्याग्रं प्रपदः। ६. सविरसमत्ययोः क., सविरसमल्पयोः म. । ७. स्थिरकर-क., ख., ङ., म.। ८. नितम्बतटेव बभौ म.। ९. विनीतरुचा म.। १०. -मत्रपया म. ।
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हरिवंशपुराणे उरसि नितान्तनीलनिजचूचुकयोरसको कठिनसुवृत्तपीवरपयोधरयोमरतः । अमृतरसभंयक्षरणमीहरिनीलमणिस्थिरतरमुद्रिकोत्कनककुम्भवहेव बमौ ॥७॥ भुजलतयोः शिरीषमृदुपीनवरांसकयोः वरकमलप्रभापटलपाटलपल्लवयोः । कुरुवकताम्रकम्रनखपुष्पकयोवंपुषस्वनुकृतमुद्रकोशकरशाखकयोविवभौ ॥८॥॥ अकठिनकम्बुकण्ठचिबुकापरबिम्बफलप्रह सितपाण्डुगण्डकुटिल ललाटतटीद्विगुणितकोमलोत्पल सुनालसुकर्णभृता चिरमनयात्यमासि धवलासितदीर्घदृशा ॥९॥ प्रमितशिरस्यतिभ्रमरकान्तिकनरकुटिलप्रकटकटीतटीपतितकेशकलापमसौ । शशिवदना प्रकाशमवहद्विहसदशना प्रशिथिलकामपाश मिव लोकवशीकरणम् ॥१०॥ करपदमुद्रिकाकटकनूपुरपूर्वकसअथित चतुर्दशाभरणभूषणभूततनुः। प्रविलसदङ्गरागमृदुवस्त्रमहाबगियं स्थगयति कन्यकोचितसुखा वपुषा युवतीः ॥११॥ पितृसुतपूर्वकस्य यदुसर्वकुलस्य जनैरुचितसपर्यया विहितगौरवभूमिरसौ। सकलकलाकलगुणकलापमहावसतिः सकलसरस्वती स्वयमिव स्वजनोपविधी ॥१२॥ इति समये प्रयाति तु कदाचिदसौ प्रणतैरुपहसिता प्रयाभिरवशाबलराजसुतैः । बिचिपिटनासिकं रहसि दर्पणके स्वमुखं स्फुटमवलोक्य तद्भवविरागमगास्त्रपिता ॥१३॥
आनन्द देनेवाली अपनी नाभिकी गहराईसे और शरीरके मध्यमें स्थित त्रिवलियों-तीन रेखाओंकी विचित्रतासे संसारकी समस्त सुन्दर स्त्रियोंके बीच अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥६॥ वक्षःस्थलपर अत्यन्त नील चूचुकसे युक्त कठोर गोल और स्थूल स्तनोंका भार धारण करनेसे वह कन्या ऐसी सुशोभित होने लगी मानो 'अमृत रसका घर खिरकर कहीं नष्ट न हो जाये' इस भयसे इन्द्रनील मणिकी मजबूत मुहरसे युक्त देदीप्यमान सुवर्णके दो कलश ही धारण कर रही हो ॥७॥ शिरीषके फूलके समान कोमल मोटी और उत्तम कन्धोंसे युक्त, उत्तम कमलकी कान्तिके समूहके समान लाल-लाल हथेली रूप पल्लवोंसे सहित, कुरुबकके फूलके समान लाल एवं सून्दर नखरूपी पुष्पोंसे सुशोभित तथा मंगकी कोशोंका अनुकरण करनेवाली युक्त भुजारूपी लताओंसे वह अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥८॥ कोमल शंखके समान कण्ठ, ठुड्डी, अधरोष्ठरूपी विम्बीफल, प्रकृष्ट हास्यसे युक्त श्वेत कपोल, कुटिल भौंहें, ललाट तट एवं द्विगुणित कोमल नील कमलको उत्तम डण्ठलके समान कानोंको धारण करनेवाली और सफेद काले तथा विशाल नेत्रोंसे सहित वह कन्या चिर काल तक अत्यधिक सुशोभित होने लगी ॥९॥ हास्ययुक्त दांतोंसे सहित वह चन्द्रमुखी कन्या, सुन्दर शिरपर भ्रमरोंको कान्तिको तिरस्कृत करनेवाले देवीप्यमान घुघराले एवं विस्तृत कटि-तटपर पड़े प्रकाशमान उस केशसमूहको धारण कर रही थी, जो लटकते हुए काम-पाशके समान लोगोंको वश करनेवाला था ॥१०॥ हाथ और पैरों में स्थित अंगूठी, कड़े तथा नूपुर आदि समीचीन एवं प्रसिद्ध चौदह आभरणोंसे जिसका शरीर आभूषणस्वरूप हो रहा था, जो शोभायमान अंगराग, कोमल वस्त्र और महामालाओंको धारण कर रही थी तथा जिसे कन्याओंके उचित समस्त सुख उपलब्ध थे ऐसी वह कन्या अपने शरीरके द्वारा संसारकी अन्य युवतियोंको आच्छादित कर रही थी-तिरस्कृत कर रही थी ॥११॥ वह पिता, पुत्र आदि समस्त यदुवंशके मनुष्योंके द्वारा योग्य सत्कारके द्वारा किये हुए गौरवकी भूमि थी. समस्त कलाओं और मनोहर गुणोंके समूहकी महावसतिका थी और कुटुम्बी जनोंके समीप स्वयं शरीरधारिणो सरस्वतीके समान जान पड़ती थी॥१२॥
इस प्रकार समय व्यतीत होनेपर कदाचित् बलदेवके पुत्रोंने आकर उसे नमस्कार किया १. क्षयो निवासः ( क, टि.)। २. वपुषस्तनुकृत-म., वपुषास्वनकृत-इ.। ३. प्रसहित म. । ४. युवती म. ।
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एकोनपश्चाशः सर्गः
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पुरि विरताजिकागणमहत्तरिकापदया प्रतधरपादमूलमितया सह मुवतया । सुगुरुरपृच्छयत प्रणतया निजपूर्वकृतं स्फुरदवधीक्षणः क्षणमसाविति तां न्यगदीत् ॥१४॥ तव दुहितः सुराष्ट्रविषये विषयेन्द्रियजैविंगतभवे सुखैरतिविमूर्छितमूढधिया। 'पहषतयाभिरूपपदमुद्रहतामभृता नभृतमनशं निभृतमात्ममनोनयनम् ॥१५॥ अतिविषमं तपो घटयतो मृतशायिकया शकटमृषेरुपर्युपरि हितं तदा त्वकया। विमृदितनासिकापुटतटस्य मुनेः स्खलनं मनसि न जातमीषदपि धीरतया तया ॥१६॥ अजनितजीवघातगुणतो नरके पतनं तव हि मनाग्न जातमृषिगात्रवधादिह तु । अजनि विनासिकस्य वदनस्य महाविकृतिः फलति फलं स्वकर्मजगतां हि यथाविहितम् ॥१७॥ सकृदपि जीवघातकृदधादसकृत्परतः परवशघातदुःखममियास्यति जन्तुरिह । अवयवघातकृत् सकृदपि स्वकृतेरसकृदवयवघातमेष्यति सदेति जिनस्य वचः ॥१८॥ वचनमनस्तनुभिरमियः परुषाः पुरुषाः पुरुषवधादिषु प्रभुतया प्रयतन्त इह । दुरितमहाप्रभुः परभवेषु जनेषु पुनः प्रभवति दुःखदानचतुरश्चतुरेष्वपि हि ॥१९॥
और जाते समय अपने अल्हड़ स्वभावसे उसे 'चिपटी नाकवाली' कहकर चिढ़ा दिया। उसने एकान्तमें दर्पणमें प्रतिबिम्बित चिपटी नाकसे युक्त अपना मुख देखा जिससे वह लज्जित होती हुई उस पर्यायसे विरक्त हो गयी ॥१३॥ उसने नगरमें विद्यमान आयिकाओंके समूहकी प्रधान सुव्रता नामक गणिनीके चरणोंको शरण प्राप्त की और उन्हें साथ लेकर वह व्रतधर नामक मुनिराजके चरणमूलमें गयो। उन्हें नमस्कार कर उसने उक्त मुनिराजसे पूछा कि 'हे भगवन् ! मैंने पूर्वभवमें क्या पाप किया था जिससे मुझे यह कुरूप प्राप्त हुआ है।' इसके उत्तरमें अवधिज्ञानरूपी नेत्रको विकसित करनेवाले मुनिराज उससे इस प्रकार कहने लगे-॥१४॥
हे पुत्री ! पूर्वभवमें तेरा जीव सुराष्ट्र देशमें उत्तम रूपको धारण करनेवाला पुरुष था। वहाँ विषय और इन्द्रियजन्य सूखोंसे अत्यन्त मढ़ बुद्धि होनेके कारण वह क्रूरतावश विषयोंमें स्वच्छन्द हुए अपने मन और नेत्रोंको स्वाधीन नहीं रख सका ॥१५॥ एक बार एक मुनि मृतशय्यासे अत्यन्त विषम तप तप रहे थे। तूने उनपर अपनी गाड़ी चला दी जिससे उनकी नाक पिचक गयी। मुनिराजने अपने मनमें बहुत भारी धीरता धारण कर रखी थी इसलिए इस घटनासे उनके मनमें कुछ भी क्षोभ उत्पन्न नहीं हुआ ॥१६॥ मुनिराजके जीवका घात नहीं हुआ था इसलिए तेरा नरक वास नहीं हुआ। किन्तु उनके शरीरका कुछ घात हुआ था इसलिए इस जन्ममें तेरा मुख नासिकासे रहित हो महाविकृत हुआ है। ठीक ही है संसारमें जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है ॥१७॥ जिनेन्द्र भगवान्का यह कहना है कि जो प्राणी इस संसारमें एक बार भी किसी जीवका घात करता है वह उसके पापसे पर-भवमें दूसरोंके द्वारा घात होनेके दुःखको प्राप्त होगा और जो किसीके अवयवका एक बार भी घात करता है वह अपने किये पापके अनुसार अनेक बार अवयवके घातको प्राप्त होगा ॥१८॥ जो क्रूर मनुष्य, प्रभुताके कारण निर्भय हो मन, वचन, कायसे मनुष्य आदि प्राणियोंके वधमें प्रयत्न करते हैं परभवोंमें वे कितने ही चतुर क्यों न हों दुःख देनेमें चतुर पापरूपी महाप्रभु उनपर बार-बार अपना प्रभाव जमाता है-उन्हें बार-बार दुःख देता है ॥१९॥ इसलिए स्वपर हितको चाहनेवाले प्राणियोंको भले ही वे राजा क्यों न हों सदा परहिंसा आदि पापोंसे दूर रहना चाहिए।
१. सुरगुरु म. । २. विगतभये म., ङ. । ३. कठोरतया ( क. टि.) । पुरुषतया म., ख., ङ. । ४. निवभृतं म., ङ.। ५. रभि यः पुरुषाः परुषाः म.। ६. दुःखदानचरश्चतुरेष्वपि हि म. ।
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हरिवंशपुराणे
अत इह जन्तुभिः परवधादिनिवृत्तिपरैः स्वपरहितैः सदापि भवितव्यमपि प्रभुभिः । न हि पद्धत मभृतामिह संसरतां 'स्वकृतभुजां सतां प्रतिभवति सदा प्रभुता ॥ २० ॥ इति वचनं गुरोरमिनिशम्य कृतावनतिः प्रगतवती तथा सह महत्तरिकार्यिकया ।
धाद्विमोच्य हिसकाखिलबन्धुजनं सितवसनावृतस्तनमरोद्धृतकालकचा ॥२१॥ व्यपहृतभूषणस्त्रगियमात्मकराङ्गुलि मिर्निक चित केशमारनिखिलोत्खननं तु तदा | प्रविदधती बभौ कुसुमकोमलबाहुलता स्फुटमिव धीकुटीकुटिल शल्यकुलोद्धरणम् ॥२२॥ जघनमुरः कुचावुदरमाचरणं च वपुः सुमृदुदुकूल कैकवसनेन कृतावरणम् । "सुविदधती सती चिरमराजत सा च तदा वृतसिकतास्थलाच्छपयसा शरदीव नदी ॥ २३ ॥ स्वजन कृताभिनिष्क्रमणपूजनिकां जनिकां पुरुतपसां निशाम्य नवसंयतिकां हितकाम् । अजनि महाजनस्य सकलस्य तदेतिमतिः सधृतिः सरस्वती किमु तपस्यति किं नु रतिः ॥ २४॥ व्रत गुणसंयमोपवसनादितपोभिरसौ प्रतिदिन भावनाभिरपि भावितभावयुता । वसति तपस्यया वसतिरागमगीतगिरां पुरुगुणसंयुता गणनिवासगता सततम् ॥ २५॥ बहुषु तु वर्ष वासर गणेषु गतेषु ततो जिनजननामिनिष्क्रमण निर्वृति भूमिपु सा । कृतविहृतिः कदाचन गता पृथुसार्थवशान्निज सहधर्मिणीमिरुरुविन्ध्यमहागहनम् ॥ २६ ॥
क्योंकि संसार में भ्रमण करनेवाले प्राणी अपने द्वारा किये हुए कर्मोंका फल भोगते हैं उनकी प्रभुता - राज्य अवस्था सदा स्थित नहीं रहती ||२०||
इस प्रकार गुरुके वचन सुन वह, सुव्रत गणिनीके साथ चली आयी और समस्त बन्धु जनों का त्यागकर उसने सफेद साड़ीसे स्तनोंको ढक तथा काले केशोंको उखाड़कर आर्थिक का व्रत धारण कर लिया || २१ || जिसने आभूषण और मालाएँ उतारकर फेंक दी थीं तथा जिसकी बाहुरूपी लताएँ फूलोंके समान कोमल थीं ऐसी वह कन्या उस समय अपने हाथकी कोमल अंगुलियों अपने बँधे हुए समस्त बालोंको उखाड़ती हुई ऐसी जान पड़ती थी मानो बुद्धिरूपी कुटीके भीतर विद्यमान शल्यों के समूहको ही उखाड़ रही हो ॥ २२॥ जघन, वक्षःस्थल, स्तन, उदर और चरणोंपर्यन्त समस्त शरीरको एक अत्यन्त कोमल वस्त्रसे आच्छादित करती हुई वह सती उस समय चिरकाल तक शरद् ऋतुकी उस नदी के समान सुशोभित हो रही थी जिसने स्वच्छ जलसे अपने बालुमय स्थलको ढक रखा था ||२३|| कुटुम्बी-जनोंने जिसकी दीक्षा-कालीन पूजा की थी और जो बड़े-बड़े तपोंको जन्म देनेवाली थी ऐसी उस नव दीक्षिता आर्यिकाको देखकर उस समय समस्त महाजनोंके हृदय में यही बुद्धि उत्पन्न होती थी कि क्या यह धैर्यंसहित सरस्वती है। अथवा रति तपस्या कर रही है ||२४|| व्रत, गुण, संयम तथा उपवास आदि तपों एवं प्रतिदिन भायी जानेवाली अनित्य आदि भावनाओंसे जो विशुद्ध भावोंको प्राप्त हुई थी, जो आगमोक्त अनेक पाठोंकी वसतिका थी, उत्तमोत्तम गुणोंसे सहित थी, और सदा आर्यिकाओंके समूहके साथ निवास करती थी ऐसी वह आर्यिका तपस्या करती हुई रहती थी ||२५||
तदनन्तर बहुत वर्षों और दिनोंके समूह व्यतीत हो जानेपर वह जिनेन्द्र भगवान् के जन्म, दीक्षा और निर्वाण कल्याणक की भूमियोंमें विहार कर किसी समय बहुत बड़े संघकी प्रेरणा से अपनी सहधर्मिणियोंके साथ विन्ध्याचलके विशाल वनमें जा निकली ||२६|| और रात्रिके
१. सुकृत—क., ङ., म. । २. कुचा म. । ३. धीरेव कुटी तत्र कुटिलशल्यकुलस्योद्धरणं पुनः त्रोटनं कुर्वती इति क पुस्तके टिप्पणी । - मिवोद्धरणं म., बलोद्धरणं ङ. । ४. स्वविदधती म । ५ पुरुतपसं क., ख., ङ, म. । ६. संयता म ङ. ।
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एकोनपञ्चाशः सर्गः
निशि निशितासिनिर्मलनिशातमनास्त्वसकौ प्रतिपथमास्थिता प्रतिमया प्रतिमाप्रतिमा । वरवरसेनया स्फुटमदर्शि निशानिभया बहुधनसार्थं पातविषये द्रुतमागतया ॥२७॥ इह वनदेवता स्थितवतीयमिति प्रणतैः शरशतैरितिस्ववरदानमयाच्यत सा । भगवति वः प्रसादनिरुपद्रविणो द्रविणं यदभिलभेमहि प्रथमकिङ्करका वयकम् ॥ २८ ॥ इति तु वनेचरैः कृतमनोरथकैः पृथुकैः प्रबलतया सुसार्थममितः पुनरापतितैः । विनिहतसार्थं सार्थकतयान्तमितैः प्रतिमास्थितियुत संयतास्थितिभुवीदमदर्शि तु तैः ॥ २९ ॥ प्रशमसमाधिभागनशनस्थितिमा मरणादुपगत पुण्डरीका दुरुपल्लवे चण्डतया । स्वयमुपपद्य सा दिवमगात्प्रतिमाप्तमृतिर्मधुमथनस्वसा स्खलति न स्थितितः सजनः ॥३०॥ नखमुखर्दष्ट्रिका विकटकोटिविपाटितया यदपि कलेवरखण्डमुपार्जितधर्मतया । मृतिमितया विमुक्तमविमुक्तसमाधितया तदपि कराङ्गुलित्रिकशेषमशेषमभूत् ॥३१॥ रुधिरविलिप्ते गुप्तपथभूतलमाकुलिताः सकलमितस्ततस्तदभिवीक्ष्य तदा शबराः । धृतिरिह वध्यते वरददेवतया रुधिरे इति विनिधाय दैवतमदस्त्रिकराङ्गुलिभिः ॥३२॥ वनमहिषं निपात्य विषमं विषमाः परितः परुषकिरातका रुधिरमांसवलिप्रकरम् । “विचकरुरुन्मग्न मशक मक्षिकमक्षिविषं प्रविततविस्रगन्धदुरभीकृतदिग्वलयम् ॥१३॥
समय, तीक्ष्ण तलवारके समान निर्मल एवं निर्विकल्प चित्तको धारण करनेवाली वह प्रतिमातुल्य आर्यिका किसी मार्ग के सम्मुख प्रतिमायोगसे विराजमान हो गयी। उसी समय किसी बहुत धनी संघपर आक्रमण करने के लिए रात्रिके समान काली भीलोंकी एक बड़ी सेना शीघ्रतासे वहां आयी और उसने प्रतिमायोगसे विराजमान उस आर्यिकाको देखा ||२७|| 'यह यहाँ वनदेवो विराजमान है' यह समझकर सैकड़ों भीलोंने नमस्कार कर उससे अपने लिए यह वरदान मांगा कि 'हे भगवति ! यदि आपके प्रसादसे निरुपद्रव रहकर हम लोग धन प्राप्त कर सकेंगे तो हम आपके पहले दास होंगे ||२८|| इस प्रकारका मनोरथ कर भीलोंका वह विशाल समूह बड़ी मजबूती से चारों ओरसे यात्रियोंके उस संघपर टूट पड़ा और उसे मारकर तथा लूटकर कृतकृत्य होता हुआ जब वह वापस समीपमें आया तो उसने प्रतिमायोगसे स्थित आर्यिकाके खड़े होने के स्थानपर यह देखा ||२९|| जब भील लोग आर्यिका के दर्शन कर आगे बढ़ गये तब वहाँ एक सिंहने आकर उनपर घोर उपसगं शुरू कर दिया । उपसर्ग देख उन्होंने बड़ी शान्तिसे समाधि धारण की ओर मरण पर्यन्तके लिए अनशनपूर्वक रहनेका नियम ले लिया । तदनन्तर प्रतिमायोगमें ही मरणकर वे स्वर्ग गयीं सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरुष अपनी मर्यादासे कभी विचलित नहीं होते ||३०|| निरन्तर धर्मंका उपार्जन करनेवाली एवं गृहीत समाधिको न छोड़नेवाली उस आर्यिकाका शरीर सिंहके नख, मुख और डाढ़ोंके अग्रभागसे विदीर्ण होनेके कारण यद्यपि छूट गया था तथापि उसके हाथकी तीन अँगुलियाँ वहाँ शेष बच रही थीं यही तीन अंगुलियां उन भीलों को दिखाई दीं ||३१|| खूनसे विलिप्त होनेके कारण जिसका मार्ग अन्तर्हित हो गया था ऐसी वहाँको समस्त भूमिको उन भीलोंने उस समय बड़ी आकुलतासे यहां-वहां देखा पर कहीं उन्हें वह आर्यिका नहीं दिखी। अन्तमें उन्होंने निश्चय किया कि वरदान देनेवाली वह देवी इस रुधिर में हो सन्तोष धारण करती है इसलिए हाथकी उन तीन अँगुलियोंको वहीं देवता रूपसे विराजमान कर दिया और बड़े-बड़े जंगली भैंसाओं को मारकर उन विषम एवं क्रूर भीलोंने सब
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१. प्रतिपथया स्थिता प्रविशया प्रतिमा । २ रात्रिप्रभातुल्यया - कृष्णया । ३. विनिहितम, क., ख., ङ. । ४. उपगतसिंहात् । ५ द्रुतपल्लवचण्डतया म । ६. विलुप्त - म. । ७. विचकरु रुद्रमग्नशकमक्षिक म. विचकरुरुद्रमद्य शशक मक्षिक ग. ।
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हरिवंशपुराणे सुगतगताममूं परमकारुणिकां तपसा जगति जनस्ततः प्रभृति निरागसमत्र जडः । वनचरदर्शितेन नु पथा नरकाभिमुखः पिशितवशो निहन्ति हि पशून् महिषप्रभृतीन् ॥३४॥ न हि महिषास्रपानविधिका न हि शूलकरा न हि सरदुर्गतावपि परस्परघातकता। रचयति मित्तिमात्रमुपलभ्य कविः कवितां सदसतीं यथा च लिखति स्फुटचित्रकरः ॥३५॥ सदपि दुरीहितं रहसिजं हि परस्य परैः सदसि निगद्यमानमधमावहतीति सताम् । मतमिदमस्य तु प्रकटनं जगतामसतो न नरकपातहेतुरिति कस्य सतो वचनम् ॥३६॥ अवितथमित्यमी वितथमेव शठाः कवयः स्वपरमहारयो विदधते विकथाकथनम् । परवधकापथेषु भुवि तेषु तथेति जनः सुर-रव-मूढधीः पतति गडरिकाकटवत् ॥३७॥ क्व परदयापरः परमधर्मपथो भुवने विधिवदनुष्ठितस्तनुभृतां सुखदः प्रकटः । क्व च परघातजो नरकहेतुरधर्मकलिः कुकविविकल्पितः खलकलौ खलु धर्मतया ॥३८॥ प्रकटितलोकपालचरिताः खललोकभयात्तनुभृदनुग्रहं विदधतः परिरक्षणतः । समहिषमेषघातमधिदैवमत्र नृपाः विदधति यत्र तत्र कुजनेषु तु कैव कथा ॥३९॥ कथमपि कार्यसिद्धिमुपलभ्य हि देवघशात्प्रतिनिधिदेवताकृतमिति प्रतिपद्य नरः । निजवपुरायुधैः सुविनिकृत्य ददद्रुधिरं परतनुकतने भवति वा स कथं सघृगः ॥४०॥
ओर खून एवं मांसको बलि चढ़ाना शुरू कर दी। इस बलिदानसे वहाँ मक्खियाँ और मच्छर उतराने लगे, वह स्थान आँखोंके लिए विषके समान दिखाई पड़ने लगा। तथा फैली हुई सड़ी बाससे वहाँको दिशाएँ दुर्गन्धित हो गयों ॥३२-३३।। यद्यपि वह आर्यिका परम दयालु थी, निष्पाप थी और तपके प्रभावसे उत्तम गतिको प्राप्त हई थी तथापि इस संसारमें मांसके लोभी मूर्ख जन भीलोंके द्वारा दिखलाये हुए मार्गसे चलकर उसी समयसे भैंसा आदि पशुओंको मारने लगे ॥३४॥ उत्तम देवगतिकी बात छोड़िए निकृष्ट देवगतिमें भी कोई देव भैंसाओंका रुधिर पान करनेवाले एवं हाथोंमें त्रिशूल धारण करनेवाले नहीं हैं और न उनमें परस्पर एक दूसरेका मारना ही है फिर भी कवि स्फुट चित्रकारके समान जरा-सी भित्तिका आधार पा सत्पुरुषाको भी दूषण लगानेवाली कविता लिख डालते हैं ।।३५।।
दूसरेकी एकान्तमें होनेवाली सत्य कुचेष्टाका भी सभा दूसरोंके द्वारा कहा जाना पाप बन्धका कारण है-यह सत्पुरुषोंका मत है। फिर किसीके अविद्यमान दोषको संसारके सामने प्रकट करना नरकगतिका कारण नहीं है यह किस सत्पुरुषका वचन है ? अर्थात् किसीका नहीं ॥३६।। स्व-परके महावैरी ये धूर्त कवि असत्यको सत्य है ऐसा बताकर विकथाओंका कथन करते हैं और 'ये देवताओंके वचन है' ऐसा समझ मूर्ख प्राणी पृथिवीपर, परका वध करना आदि कुमार्गों में भेड़िया-धसानके समान गिरते चले जाते हैं ॥३७|| विधिपूर्वक आराधना करनेपर प्राणियोंको सुख देनेवाला, परजीवोंको दयामें तत्पर संसारमें प्रकट हुआ परम धर्मका मार्ग कहाँ ? और दुष्ट कलिकालमें कुकवियोंके द्वारा धर्मरूपसे कल्पित, परघातसे उत्पन्न, नरकका कारण अधर्मकी कलह कहाँ ? भावार्थ-धर्म और अधर्ममें महान् अन्तर है।।३८॥ जिन्होंने लोकपालका चरित प्रकट किया है और जो दुष्टजनोंके भयसे रक्षाकर जीवोंपर सदा अनुग्रह करते हैं ऐसे राजा भी जहाँ इस संसारमें देवताओंको लक्ष्य कर भैंसा तथा मेष आदि जन्तुओंका घात करते हैं वहाँ अन्य क्षुद्र मनुष्योंको तो कथा ही क्या है ?||३९|| भाग्यवश किसी तरह कार्यकी सिद्धिको पाकर 'यह प्रतिनिधिभूत देवताके द्वारा ही कार्य सिद्ध हुआ है' ऐसा मान जो मनुष्य शस्त्रोंसे अपने ही शरीरको चीर खूनकी बलि देने लगता है वह दूसरोंके शरीरके छेदने में दयासहित कैसे हो सकता है ? भावार्थ-मनुष्यकी १. निष्पापाम् । २. महिषास्त्रपानवधिका म.। ३. -मावहतीहि म. । ४. खलु लोकभयात्तनु-मः ।
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एकोनपञ्चाशः सर्गः विपुलसपर्यया प्रणतलोकसुतोषितया विगतविपर्ययत्वगुणया जगतीष्टवरः । यदि हि वितीर्यते वरदया वरदेवतया न भवति कश्चिदप्यभिमतेन जनो विकलः ॥४१॥ प्रतिनिधिराश्रयश्च सधनस्य परस्य कृतिः प्रतिदिनदीपतैलवलिपुष्पविधिः परतः । अथ च वरं परस्य नियतं प्रददाति वृतं जडजनदेवता जगति हास्यमिदं परमम् ॥४२॥ प्रतिकृतिरर्चिता भुवि कृतार्थजिनाधिपतेरधिगतभक्तिभिर्द्रविणभावविधार्चनया। फलति फलं परत्र परिणामविशेषवशादमिमतकल्पवृक्षलतिकेव जनाभिमतम् ॥४३॥ 'अपथनिपातपातनघनानुमतैरशुभैस्विमिरशुभास्रवो भवति दुर्गतिहेतुरलम् । पथि यतिभाषिते स्वकृतकारकतानुमतेर्भवति शुमास्रवः सुगति हेतुरपीह शुभैः ॥४४॥ मनसि शुभे निजे वचसि वा वपुषि प्रगुणे किमिति न पुण्यमेव जगदेकगतं कुरुते । घटयति पापमेव विगुणेस्तु कृतैः करणैर्गुरुतरमत्र कारणमहो गुरुकर्मकृतम् ॥४५॥ तिमिरमरं त्रिमूढिमयमत्र दृढं जगतः स्थगयदलं पवित्रनेत्रमनौषधकम् ।
तदिह जनो दिदृक्षुरपि तत्वमतत्त्वमपि प्रतिपदमाकुल: किमु निरूपयितुं क्षमते ॥१६॥ कार्यसिद्धि तो अपने पूर्वकृत कर्मके अनुसार होती है परन्तु देवताकी प्रतिनिधि रूप मूर्तिकी उपासना करनेवाला मनुष्य उस सिद्धिको उस मूर्ति के द्वारा किया हुआ मानता है इसलिए प्रसन्न होकर शस्त्रोंसे ही अंगोंको छेदकर खूनकी बलि देने लगता है। जो अपने ही अंगोंको छेद डालता है उसे दूसरेके अंग छेदनेमें दया कहाँ हो सकती है ? ॥४०॥ नम्रीभूत मनुष्योंने बहुत बड़ी पूजासे जिसे अच्छी तरह सन्तुष्ट कर लिया है और जिसका विद्वेषरूप विपरीत गुण दूर हो गया है ऐसी वर देनेवाली उत्कृष्ट देवीके द्वारा यदि संसारमें इष्ट वर दिया जाता है तो किसी भी मनुष्यको इष्ट सामग्रीसे रहित नहीं होना चाहिए। भावार्थ-जब सभी लोग पूजाके द्वारा देवताको सन्तुष्ट कर उससे इष्ट वरदान प्राप्त कर सकते हैं तब सभीको इष्ट वस्तुओंसे भरपूर होना चाहिए ।।४१।। जिसकी मूर्ति और मन्दिरका निर्माण अन्य धनवान् मनुष्यका कार्य है, तथा जिसकी प्रतिदिन काम आनेवाली दीप, तेल, बलि, पुष्प आदिकी विधि सदा दूसरोंसे पूर्ण होती है वह मूखंजनोंकी देवता दूसरोंके लिए मांगा हआ वरदान निश्चित रूपसे देती है यह संसारमें बडी हँसीकी बात है। भावार्थ-जो अपनी मूर्ति और मन्दिर स्वयं नहीं बना सकती तथा प्रतिदिन उपयोगमें आनेवाले दीपक, तेल, नैवेद्य और फूल आदिके लिए जिसे दूसरोंका मुंह देखना पड़ता है वह दूसरोंके लिए क्या वरदान देगी? ॥४२॥ पृथिवीपर भक्तजनों द्वारा द्रव्य, भाव, पूजासे पूजी हुई कृतकृत्य जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमा, अपने-अपने विशिष्ट परिणामोंके अनुसार परभवमें इष्ट कल्पवृक्षको लताके समान मनुष्योंके इष्ट मनोरथरूप फलको फलती है ।।४३।। कुमार्गमें स्वयं प्रवृत्त होना, दूसरेको प्रवृत्त कराना और प्रवृत्त होते हुए को अनुमति देना इन तीन अशुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभ कर्मोंका आस्रव होता है जो कि दुर्गतिका मुख्य कारण है और मुनिराजके द्वारा बताये हुए मार्गमें स्वयं प्रवृत्त होना, दूसरेको प्रवृत्त कराना और प्रवृत्त होते हुए को अनुमति देना इन तीन शुभ प्रवत्तियोंसे शभ कर्मोका आस्रव होता है जो कि सुगतिका मख्य कारण है ॥४४|| इस प्रकार जब अपने ही शुभ मन, शुभ वचन और शुभ कायसे पुण्यबन्ध होता है और वे शुभ मन आदि अपने अधीन हैं तब संसारके समस्त प्राणी एक पुण्य कर्मको ही क्यों नहीं करते? किन्तु उसके विपरीत किये हुए निरर्थक कार्योंसे पाप ही क्यों करते हैं ? अहो ! जान पड़ता है कि इसमें पूर्वबद्ध बहुत भारी कर्मोके द्वारा किया हुआ बहुत बड़ा कारण है ।।४५।। अहो ! देवमूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता और गुरु१. विधार्थतया म., विधार्थनया ग.। २. अपथनिघातनिघातन-म., ग.। ३. प्रगुणो म.। ४. विगुणैः मरुतः म.।
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हरिवंश पुराणे
अतिनिचिताग्निवायुजलभूमिळतातरुभिः क्षितिरपचेतनैश्च गृहकल्पितदैवतकैः । रविविधुतारकाग्रहगणैर्जननेत्र पथैर्गगनमतोऽस्तु मूढिरिह कस्य जनस्य न वा ॥४७॥ सदसदनेकमेकमथ नित्यमनित्यमपि स्वकपररूपभेदमपि शेषमशेषपरम् । गुणगुणिकार्यकारणभिदाद्यखिलात्मतया जगदिदमित्यमी नियमिनी दृढमूढतया ॥ ४८ ॥ यदि च परस्परव्युदसनव्यसनाः स्युर्मृषा स्फुटमितरेतरेक्षणतया नमृषा हि तथा । निगमन संग्रह व्यवहृतिप्रमुखाश्च नयाः सकलनयप्रमाणपरिनिश्चित वस्तुनि याः ॥ ४९ ॥ 'पुरुषपुरस्सरेऽभिरुचिरन्यनिवृत्तिरुचेर्मुनिपति शासनाभिनिरतस्य जनस्य हि सा । सुगतिमयत्नतो विशति सिद्धिसुखान्वयिनीं शुभमखिलार्थगोचरमुदारचरित्रमपि ॥ ५० ॥ व्रतगुणशील राशिरतिघोरतपो विविधं विमलमिदं यतो भवति दर्शनशुद्धियुतम् । "जनन जरामृतिक्षयकरीं सुखदां भुवि तां भजतु जनस्ततो जिनगुणग्रहणाभिरता ॥५१॥ इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो दुर्गोत्पत्तिवर्णनो नामैकोनपञ्चाशः सर्गः ॥ ४९ ॥
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मूढ़ता इन तीन मूढ़ताओंरूप अन्धकारका समूह बहुत प्रबल है, वह जगत् के जीवोंके पवित्र नेत्रको अच्छी तरह आच्छादित कर रहा है और इसकी कोई ओषधि भी नहीं है । इसी अन्धकारके कारण देखनेका इच्छुक मनुष्य भी पद-पदपर आकुल होता हुआ तत्त्व और अतत्त्वको देखने में क्या समर्थ हो पाता है ? अर्थात् नहीं हो पाता ||४६ || यह पृथिवी अग्नि, वायु, जल, भूमि, लता और वृक्षोंसे तथा मन्दिरों में कल्पित अचेतन देवोंसे व्याप्त है और आकाश मनुष्योंके नेत्रगोचर सूर्य, चन्द्र, तारा तथा ग्रहों के समूह से व्याप्त है इसलिए इनके विषयमें किसे मूढता नहीं होगी ? भावार्थपृथिवी और आकाश कल्पित देवताओंसे भरे हुए हैं इसलिए विवेकसे विचारकर यथार्थं देवका निर्णय करना चाहिए ॥४७॥ यह संसार कथंचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् एक है, कथंचित् अनेक है, कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, कथंचित् स्वरूप है, कथंचित् पररूप है, कथंचित् सान्त है, कथंचित् अनन्त है, और गुण गुणी तथा कार्य-कारणके भेदसे अनेक रूप है फिर भी ये संसार के प्राणी गाढ़ मूढ़ताके कारण एकान्तवादमें निमग्न हैं ||४८ || समस्त नों और प्रमाणोंके द्वारा निश्चित वस्तुके विषय में जो नैगम, संग्रह तथा व्यवहार आदि प्रमुख नय माने गये हैं वे यदि परस्पर में एक दूसरेका निषेध करते हैं तो मिथ्या हैं और परस्पर एक दूसरे पर दृष्टि रखते हैं तो समीचीन हैं || ४९ || अन्य देवताओंकी रुचिसे रहित एवं जिनेन्द्र भगवान् के शासन में निरत मनुष्यकी जो जीव आदि तत्त्वोंमें प्रगाढ़ श्रद्धा है उसकी वही श्रद्धा बिना किसी प्रयत्न के मोक्ष सुखसे सम्बन्ध जोड़नेवाली सुगति अथवा सम्यग्ज्ञानको और शुभ एवं समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले उत्कृष्ट चारित्रको भी प्राप्त होती है । भावार्थ मनुष्यकी श्रद्धारूप परिणति ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रकी प्राप्तिका कारण है ||५० ॥ यह व्रत गुण और शीलकी राशि तथा नाना प्रकारका अत्यन्त घोर तप चूंकि दर्शनकी शुद्धिसे युक्त होनेपर ही निर्मल होता है इसलिए जिनेन्द्र भगवान् के गुण ग्रहण करनेमें तत्पर मनुष्यको चाहिए कि वह जन्म, बुढ़ापा और मृत्युका क्षय करनेवाली एवं सुखदायो दर्शनकी शुद्धिका आराधन करे - अपने सम्यग्दर्शनको निर्मल बनावे ॥ ५१ ॥
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इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में दुर्गाकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला उनचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ || ४९||
१. पुरुषपुरस्सरोभि- म. । २. मुनिपतिशासनाशासनाभिरतस्य म. । ३. सिद्धिसुखान्वयिनं म. क. ४. भवपारमपारमनन्तं यियासु च चेन्मनः म ङ । अस्मिन् पाठे छन्दोभङ्गः अनन्तपदस्य वैयथ्यं च वर्तते ।
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पञ्चाशत्तमः सर्गः इतः 'केनापि वणिजा झनध्यैर्मणिराशिमिः । जरासन्धो नूपो दृष्टः स्वक्रयाणकहेतुना ॥१॥ दृष्टा कस्मात्समानीताः प्रोवाच मगधेश्वरः । द्वारवत्याः प्रमो एते यत्र राजाऽच्युतो बली ॥२॥ यादवेन्द्र शिवादेव्योनें मिस्तीर्थकरोऽभवत् । मासान् पञ्चदश तत्र रत्नवृष्टिः कृता सुरैः ॥३॥ यादवानां च माहात्म्यं श्रस्वा राजगृहाधिपः । वणिजः तार्किकेभ्यश्च जातः कोपारुणेक्षणः ॥४॥ यदुवृद्धिमिति श्रुत्वा श्रुतवृद्धि विलोचनम् । प्रणम्य गणिनं भूपः श्रेणिकोऽपृच्छदित्यसौ ॥॥ मणिराशिविवाभ गुणमरीचिषु । प्रख्यातेष्वखिले लोके यादवेष्वतिभूरिषु ॥६॥ अनेकाहवनियंढदृढवीर्ये हरौ श्रुते । किमचेष्टत राजासौ भगवन्मगधाधिपः ॥७॥ ततो गणभृदाचख्यावनयोर्नरमुख्ययोः । वृत्तं श्रेणिकभूपाय शुश्रूषावहितात्मने ॥८॥ बुद्धवार्तो जरासन्धः सन्धि प्रति पराङमुखः । प्रमुख्यमन्त्रिमिः सत्रा मन्त्रमारमते स्म सः॥१॥ उपेक्षिताः कुतो हेतोर्मन्त्रिणो भणतारयः । वाधौं प्रवृद्धसंतानास्तरङ्गा इव मङ्गुराः ॥१०॥ मन्त्रिणो हि प्रमोश्चक्षनिर्मलं चारचक्षषः। ते कथं स्वामिनं स्वं च वञ्चयन्ति पुर स्थिताः ॥११॥ यदि नाम महैश्वर्यप्रमत्तेन मया द्विषः । नालक्ष्यन्त प्रतन्वामा युष्मामिस्तु कथं तु ते ॥१२॥ नोच्छिोरन्महोद्योगैर्जातमात्रा यदि द्विषः । दुःखयन्ति दुरन्तास्ते व्याधयः कुपिता इव ॥१३॥ ___इधर कोई एक वणिक् अपना खरीदा हुआ माल बेचनेके लिए बहुत-से अमूल्य मणि लेकर राजा जरासन्धसे मिला ॥१॥ उन मणियोंको देखकर राजा जरासन्धने उससे पूछा कि ये मणि तुम कहाँसे लाये हो ? इसके उत्तरमें वणिक्ने कहा कि हे स्वामिन् ! ये मणि उस द्वारिकापुरीसे आये हैं जहां अत्यन्त पराक्रमी राजा कृष्ण रहते हैं ।।२।। यादवोंके स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवा देवीके जब नेमिनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे तब पन्द्रह मास तक देवोंने रत्नवृष्टि की थी ॥३।। उन्हीं रत्नोंमें-से ये रत्न लाया हूँ। वणिक् तथा मन्त्रियोंसे इस प्रकार यादवोंका माहात्म्य सुनकर जरासन्ध क्रोधसे लाल-लाल नेत्रोंका धारक हो गया ||४|| इस प्रकार यादवोंकी वृद्धि सुनकर राजा श्रेणिकने श्रुतज्ञान रूपी नेत्रके धारक गौतम गणधरको नमस्कार कर पूछा कि हे भगवन् ! महागुण रूपी किरणोंसे सुशोभित, समुद्र में मणियोंकी राशिके समान समस्त लोकमें प्रख्यात अत्यधिक यादवोंमें जब जरासन्धने अनेक युद्धोंमें जिनका दृढ़ पराक्रम परिपूर्णताको प्राप्त हो चुका था ऐसे कृष्णका नाम सुना तब उसको क्या चेष्टा हुई ? सो कृपा कर कहिए ।।५-७|| तदनन्तर गौतम गणधर, श्रवण करनेके लिए उत्सुक राजा श्रेणिकके लिए दोनों नर- श्रेष्ठ-जरासन्ध और कृष्णका चरित इस प्रकार कहने लगे--||८||
यादवोंका समाचार जानकर जरासन्ध सन्धिसे विमुख हो गया और मुख्य मन्त्रियों साथ मन्त्र करने लगा ॥९॥ उसने पूछा कि हे मन्त्रियो! बताओ तो सही समुद्रमें बढ़ती हुई तरंगोंके समान भंगुर शत्रु आजतक उपेक्षित कैसे रहे आये ? ॥९-१०|| गुप्तचर रूपी नेत्रोंसे युक्त राजाके मन्त्री ही निर्मल चक्षु हैं फिर वे सामने खड़े रहकर स्वामीको तथा अपने-आपको क्यों धोखा देते हैं ? ॥११॥ यदि महान् ऐश्वर्यसे मत्त रहनेवाले मैंने उन शत्रुओंको नही देखा तो आप लोगोंसे अदृष्ट कैसे रह गये ? आप लोगोंने उन्हें क्यों नहीं देखा ? ||१२।। यदि शत्रु उत्पन्न होते १. केनचिद्वणिजा अनर्धे०, म., ख., घ.। २. स्वक्रियाणक-म. । ३. 'नारायणः क्षमा शास्ति द्वारावत्याः प्रभो बली' म. । ४. कोपारुणो दशोः ग.। ५. भगवान्मगधाधिपः । ६.-मारम्यते स्म सः म. । ७. भरतारयः म.। ८. महाद्विषः म. ।
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हरिवंशपुराणे कंसं जामातरं हत्वा भ्रातरं चापराजितम् । प्रविष्टाः शरणं दुष्टा यादवा यादसांपतिम् ॥१४॥ यथप्यनवगाह्याब्धिगम्भीरोदरमाश्रिताः । उपायानायनि:कृष्टा वध्यास्ते मे झषा यथा ॥१५॥ द्वारिकामधितिष्ठन्तः संतिष्ठन्ते कुतोऽभयाः । तावदेव हि ते यावन्न मे कोपानलो ज्वलेत् ॥१६॥ इयन्तं कालमज्ञाता ज्ञातिभिः सह सुस्थिताः । ज्ञातानामधुना तेषां सुस्थितिमद्विषां कुतः ॥१७॥ साम्नश्चोपादानस्य न ते स्थानं कृतागसः । ततो सुष्माभिरेकान्तात्स्थाप्यता भेददण्डयोः ॥१८॥ दण्डोपायपधानं तं स्वामिनं मन्त्रिणस्ततः । प्रशाम्य प्रणताः प्रोचुः प्रसादपदवीस्थिताः ॥१९॥ आकय॑तां यथा नाथ विदन्तोऽपि वयं द्विषाम् । द्वारिकायां महावृद्धिं कालयापनया स्थिताः ॥२०॥ यादवान्वयसंभूताः स्वर्मुवामपि दुर्जयाः । श्रीनेमिर्वासुदेवश्च बलदेवश्च ते त्रयः ॥२॥ स्वर्गावतारकाले यः पूजितो वसुवृष्टिभिः । सुरेन्द्ररभिषिक्तश्च जिनो जन्मनि 'मन्दरे ॥२२॥ स कथं युधि जीयेत भवतामररक्षितः । युक्तेनापि समस्तेन राजकेन भुवस्तले ॥२३॥ बलकेशवयोश्चापि सामर्थ्य भवता न किम् । तच्छुतं बहुयुद्धेषु शिशुपाल वधादिषु ॥२४॥ यत्पक्षाः पाण्डवाश्चण्डाः प्रतारार्जितकीर्तयः । विद्याधराश्च बहवो वैवाहिकपथस्थिताः ॥२५॥ को ट्यो यत्र कुमारागां प्रसिद्धा रणशालिनाम् । स्वामिन्नर्धचतुर्थास्ते जीयन्ते यादवाः कथम् ॥२६॥ अन्त स्थान प्यपां पत्युस्तान कदाचिदपेक्षया । मद्धता इति मामंस्था नयमार्गविदो यदुन् ॥२७॥
ही महान् प्रयत्नपूर्वक नष्ट नहीं किये जाते हैं तो वे कोपको प्राप्त हुई बीमारियों के समान दुःख देते हैं और उनका अन्त अच्छा नहीं होता ।।१३।। ये दुष्ट यादव मेरे जमाई कंस और भाई अपराजितको मारकर समद्रकी शरणमें प्रविष्ट हए हैं ॥१४॥ यद्यपि वे प्रवेश करनेके अयोग्य समुद्रके मध्य भागमें स्थित हैं तथापि उपाय रूपी जलसे खींचकर मछलियोंके समान मेरे वध्य हैं ।।१५।। द्वारिकामें रहते हुए वे निर्भय क्यों हैं ? अथवा वे तभीतक निर्भय रह सकते हैं जबतक कि मेरी क्रोधाग्नि प्रज्वलित नहीं हई है ॥१६॥ इतने समयतक मझे उनका पता नहीं था इसलिए अपने कुटुम्बीजनोंके साथ वे सुखसे रहे आये पर अब मुझे पता चल गया है इसलिए उनका सुखपूर्वक रहना कैसे हो सकता है ? ॥१७॥ तीव्र अपराध करनेवाले वे साम और दानके स्थान नहीं हैं इसलिए आपलोग एकान्तरूपसे उन्हें भेद और दण्डके ही पक्षमें रखिए ॥१८॥
___ तदनन्तर प्रधान रूपसे दण्डको ही उपाय समझनेवाले स्वामी जरासन्धको शान्त कर प्रसादके मार्ग में स्थित मन्त्रियोंने नम्रीभूत हो कहा कि हे नाथ ! हमलोग शत्रुओंकी द्वारिकामें होनेवाली महा वृद्धिको जानते हुए भी समय व्यतीत करते रहे इसका कारण सुनिए ॥१२-२०।। यादवोंके वंश में उत्पन्न हए श्री नेमिनाथ तीर्थंकर श्री कृष्ण और बलदेव ये तीन महानुभाव इतने बलवान् हैं कि मनुष्योंकी तो बात ही क्या देवोंके लिए भी उनका जीतना कठिन है ।।२१।। स्वर्गावतारके समय जो रत्नोंकी वृष्टिसे पूजित हुआ था, जन्मके समय इन्द्रोंने सुमेरु पर्वतपर जिसका अभिषेक किया था और देव जिसकी सदा रक्षा करते हैं वह नेमि जिनेन्द्र यद्धमें आपके द्वारा कैसे जीता जा सकता है अथवा पथिवी तलके समस्त राजा भी इकट्ठे होकर उसे कैसे जीत सकते हैं ? ॥२२-२३।। शिशुपालके वधको आदि लेकर जो अनेक युद्ध हए उनमें क्या आपने बलदेव और कृष्णकी उस लोकोत्तर सामथ्र्यको नहीं सुना ? ||२४|| प्रतापसे कीतिको उपाजित करनेवाले महातेजस्वी पाण्डव तथा विवाह सम्बन्धसे अनुकूलता दिखलानेवाले अनेक विद्याधर इस समय जिनके पक्षमें हैं ।।२५।। और जिनके साढ़े तीन करोड़ कुमार रणविद्यामें कुशल हैं वे यादव कैसे जीते जा सकते हैं ? ॥२६॥ नय मार्गके जानकार १. प्रति म । २. द्वारिकावधि तिष्ठन्तः म., ग.। ३. मन्त्रिणस्तथा म.। ४. महावृद्धिः म.। ५. दुर्जयां म । ६ मन्दिर छ । मन्दरे- मेरी
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पञ्चाशत्तमः सर्गः
दैवकालबलोपेता देवताकृतरक्षणाः। सुप्तव्याघ्रोपमा देव ! तावत्तिष्टन्तु यादवाः ॥२८॥ आस्महे वयमप्यत्र कालयापनया प्रभो ! । स्वाज्ञ स्वपर कालानां याप्यावस्था हि शस्यते ॥२९॥ अनयावस्थयासीने त्वयि तेषां प्रकोपिनाम् । द्विषां प्रतिविधानाय प्रतिपद्यस्व पौरुषम् ॥३०॥ इत्यादि मन्त्रिभिः पथ्यं तथ्यं विज्ञापितं प्रभुः । नाग्रहीत्क्षयकाले हि ग्राही ग्राहं न मुश्चति ॥३॥ सचिवानपकाश प्रकोपाय नृपो द्विषाम् । दूतं सोऽजितसेनाख्यं प्राहिणोद्वारिका पुरीम् ॥३२॥ स प्राच्यानां प्रतीच्यानामपाच्यानां च भूभृताम् । उदीच्यानामगस्थानां मध्यदेशाधिवासिनाम् ॥३३।। चतुरजाबलेशानी शासनानतिलजिनाम् । दूतानजीगमरिक्षप्रमायान्विति पराक्रमी ॥३४॥ दृतदर्शनमात्रेण कर्णदुर्योधनादयः । ते संप्राप्ता जरासंधं सत्यसंधाहितैषिणः ॥३५॥ नृपैस्तैरनुयातोऽसौ तनयायेमहाबलैः । निमित्तैर्वार्यमाणोऽपि प्रतस्थेऽरिजिगीषया ॥३६॥ स दूतोऽजितसेनोऽपि स्वामिकार्यहितः पुरीम् । सुद्वारां द्वारिका प्राप सुकृतीव दिवं कृती ॥३७॥ प्रविश्य नगरी रम्यामनेकाद्भुतसंकुलाम् । दृश्यमानो जनः पौरैराससाद नृपालयम् ॥३८॥ अशेषयादवाकीणां भोजपाण्डवसंयताम् । समां स प्राविशदविष्णोः प्रतीहारनिवेदितः ।।३।। कृतप्रणतिरध्यास्य दापितासनमग्रत तं प्रारभत स्वामिबललामावलेपतः ॥१०॥ आकर्ण्यतां समाधाय मनः सकलयादवैः । यया शास्ति महाराजो मागधः परमेश्वरः ॥४१॥
यदु किसी समय किसी अपेक्षा समुद्रके मध्य जाकर रहे थे। वे 'हमसे भयभीत हैं' ऐसा मत समझिए ॥२७॥ इसलिए हे देव ! जो देव और कालके बलसे सहित हैं, देव जिनकी रक्षा करते हैं और जो सोते हुए सिंहके समान हैं ऐसे यादव उधर द्वारिकामें सुखसे रहें और इधर हम लोग भी समय व्यतीत करते हुए सुखसे रहें क्योंकि हे उत्तम आज्ञाके धारक ! प्रभो ! जिसमें अपना और परका समय सुखसे व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय कही जाती है ।।२८-२९॥ आपके इस अवस्थासे रहनेपर भी यदि वे क्रोध करते हैं तो उनका प्रतिकार करनेके लिए पुरुषार्थको स्वीकृत करो ॥३०॥ इसे आदि लेकर मन्त्रियोंने यद्यपि हितकारी एवं सत्य निवेदन किया तथापि जरासन्धने उसे कुछ भी ग्रहण नहीं किया सो ठीक ही है क्योंकि विनाशके समय हठी मनुष्य अपना हठ नहीं छोड़ता ॥३१॥
राजा जरासन्धने मन्त्रियोंको अनसुना कर शत्रुओंको शीघ्र ही कुपित करनेके लिए अजितसेन नामक दूतको द्वारिकापुरी भेजा ॥३२॥ पराक्रमी राजा जरासन्धने चतुरंग सेनाओंके स्वामी, एवं आज्ञाका उल्लंघन न करनेवाले पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं, पर्वतों एवं मध्यदेशके निवासी राजाओंको 'आप लोग जल्दी आइए' यह कहकर दूत भेजे ॥३३-३४॥ दूतको देखते ही सत्यप्रतिज्ञ एवं हितको चाहनेवाले कर्ण, दुर्योधन आदि राजा, जरासन्धके पास आ पहुंचे ॥३५।। उक्त राजा तथा महाबलवान् पुत्र आदि कुटुम्बीजन जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा जरासन्ध, खोटे निमित्तोंसे रोके जानेपर भी शत्रुओंको जीतनेकी इच्छासे चल पड़ा ॥३६॥
___उधर जिस प्रकार पुण्य कार्य करनेवाला कुशल मनुष्य स्वर्ग जा पहुंचता है उसी प्रकार स्वामोके कार्यमें लगा हुआ अजितसेन दूत भी उत्तमोत्तम द्वारोंसे युक्त द्वारिका नगरीमें जा पहँचा ॥३७॥ अनेक आश्चर्यकारी रचनाओंसे व्याप्त सुन्दर द्वारिकापुरीमें प्रवेशकर नगरवासीजनोंके द्वारा देखा गया वह दूत क्रम-क्रमसे राजमहल में पहुंचा ॥३८॥ द्वारपालके द्वारा सूचना देनेपर उसने समस्त यादवोंसे व्याप्त एवं भोज और पाण्डवोंसे युक्त श्रीकृष्णकी सभामें प्रवेश किया ॥३९॥ प्रणाम करनेके बाद आगे दिलाये हुए आसनपर बैठकर उसने स्वामीके बलकी प्राप्तिसे उत्पन्न धमण्डसे इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥४०॥
वह बोला कि राजाधिराज महाराज जरासन्ध जो आज्ञा देते हैं उसे समस्त यादव मन
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हरिवंशपुराणे
यूयमेव स्फुटं व्रत किमनिष्टं कृतं मया । युष्माकं येन साशङ्काः प्रविष्टाः सागरोदरम् ॥४२॥ सापराधतया यूयं यद्यप्युद्भूतभीतयः । दुर्गं श्रितास्तथाप्यस्मन्नभयं नमतैत्य माम् ॥ ४३ ॥ अथ दुर्गबलायूयं तिष्ठतानतिवर्जिताः । एषोऽहं सागरं पीत्वा बलैः कुर्वे कदर्थनाम् ॥ ४४ ॥ अज्ञातावस्थितीनां च कालदेशबलं बलम् । अधुना ज्ञातवार्तानां कालदेशवलं कुतः ॥४५॥ वचोहरवचः वा कुपिता निखिला नृपाः । कृष्णादयो जगुस्तत्र भृकुटीकुटिलाननाः ॥४६॥ भायात्यासनकालोऽसौ समस्तबलसंयुतः । रणातिथ्यं ददामोऽस्मै सङ्ग्रामोत्कण्ठिता वयम् ॥ ४७ ॥ इत्युक्त्वा स विसृष्टस्तै रूक्षवाग्वज्रताडितः । गत्वा स्वस्वामिने पूर्व निवेद्य कृतितां गतः ॥ ४८ ॥ विमला मलशार्दूलाः समुद्रविजयं ततः । मन्त्रिणो मन्त्रनिपुणाः संमन्त्र्येति व्यजिज्ञपन् ॥ ४९ ॥ शान्तये साम लोकस्य स्यात्स्वपक्षविपक्षयोः । मागधेन समं साम तस्माद्राजन् प्रयुज्महे ॥५०॥ ज्ञातिवर्गः समस्तोऽयं कुमारनिकरादिकः । अपायबहुले युद्धे संशयः कुशलं प्रति ॥५१॥ सन्ति योधा यथास्माकममोघशरवर्षिणः । साधनो मागधस्यापि तथैव भुवि विश्रुतः ॥ ५२ ॥ तदेकस्यापि हि ज्ञातेरपायो रणमूर्धनि । यथा शत्रोस्तथास्माकमतिदुःखकरो भवेत् ॥५३॥ अतो विश्वजनीनार्थं साम तावत्प्रशस्यते । तदर्थं प्रेष्यतां दूतो 'मागधान्तिकमस्मयात् ॥५४॥
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स्थिर कर सुनें ॥ ४१ ॥ उनका कहना है कि आप ही लोग स्पष्ट बताओ कि मैंने आपका क्या अनिष्ट किया है ? जिससे कि भयभीत हो आप लोग समुद्रके मध्यमें जा बसे हो || ४२ || यद्यपि अपराधी होनेके कारण भयभीत हो तुम लोगोंने दुर्गंका आश्रय लिया है तथापि मुझसे तुम्हें भय नहीं है, तुम लोग आकर मुझे नमस्कार करो ||४३|| यदि दुर्गका बल पा तुम लोग बिना नमस्कार किये यहाँ रहोगे तो यह मैं समुद्रको पीकर सेनाओंके द्वारा तुम्हारी अभी हाल दुर्दशा कर दूँगा ||४४ || जबतक तुम्हारे यहाँ रहने का पता नहीं था तभी तक तुम्हें काल और देशका बल, बल था पर आज पता चल जानेपर काल और देशका बल कैसे रह सकता है ? || ४५||
दूतके उक्त वचन सुनकर कृष्ण आदि समस्त राजा कुपित हो उठे और भौंहोंसे मुखको कुटिल करते हुए कहने लगे कि जिसकी मृत्यु निकट आ पहुँची है ऐसा तुम्हारा राजा समस्त सेनाओं के साथ आ रहा है सो युद्धके द्वारा हम उसका सत्कार करेंगे। हम लोग संग्रामके लिए उत्कण्ठित हैं ||४६-४७|| इस प्रकार कहकर यादवोंने दूतको विदा किया। वह उनके रूक्ष वचनरूपी वज्रसे ताड़ित होता हुआ द्वारिकासे चलकर अपने स्वामीके पास गया और सब समाचार कहकर कृतकृत्यताको प्राप्त हुआ ||४८|| तदनन्तर दूतके चले जानेपर मन्त्र करने में निपुण विमल, अमल और शार्दूल नामक मन्त्रियोंने सलाह कर राजा समुद्रविजयसे इस प्रकार निवेदन किया || ४९||
हे राजन् ! क्योंकि साम, स्वपक्ष और परपक्षके लोगोंको शान्तिका कारण होगा इसलिए हम लोग जरासन्धके साथ सामका ही प्रयोग करें। यह जो कुमारोंका समूह आदि है वह सब स्वजनों का समूह है । अपायबहुल युद्धमें इन सबकी कुशलताके प्रति सन्देह है ||५०-५१ ।। जिस प्रकार हमारी सेनामें अमोघ बाणोंकी वर्षा करनेवाले योद्धा हैं उसी प्रकार जरासन्धकी सेना भी पृथिवीमें प्रसिद्ध है ||५२ || युद्धके अग्रभाग में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु हो जायेगी तो वह जिस प्रकार शत्रुके लिए दुःखका कारण होगी उसो प्रकार हमारे लिए भी दुःखका कारण हो सकती है || ५३ || इसलिए सबकी भलाई के लिए साम हो प्रशंसनीय उपाय है । अतः अहंकारको छोड़कर साम- शान्ति के लिए जरासन्धके पास दूत भेजा जाये ||१४|| हाँ, सामके द्वारा शान्त करनेपर भी
१. पूर्वी म. । २. दण्डस्य म. । ३ माघवान्तिक-म ।
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पञ्चाशत्तमः सर्गः
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मागधः शाम्यमानोऽपि साम्ना यदि न शाम्यति । तदा तदुचितं कुर्मः को दोषः सामयोजने ॥ ५५ ॥ इति मन्त्रिभिरामन्त्रय राजा विज्ञापितस्तदा । को दोष इति संमन्त्र्य लोहजङ्घमजीगमत् ॥ ५६॥ स दक्षः शौर्य संपन्नः कुमारो नीतिलोचनः । जगाम निजसैन्येन जरासन्धेन सन्धये ॥ ५७ ॥ पूर्वमालवमासाद्य कृतसैन्यनिवेशनः । प्राप्तौ कान्तारमिक्षार्थं कान्तारे सार्थयोगिनी ॥ ५८ ॥ मासोपवासिनी दृष्ट्वा तिलकानन्दनन्दकौ । प्रतिगृह्यान्नपानाद्यैः पञ्चाश्चर्याणि लब्धवान् ॥५९॥ तीर्थं देवावताराख्यं ततः प्रभृति भूतले । मूतं भूतसहस्राणां पापोपशमकारणम् ॥ ६० ॥ दूतो गत्वा जरासन्धं संधानं प्रत्य संमुखम् । प्रत्यबोधयदेकान्ते प्रतिबोधनपण्डितः ॥ ६१॥ लोहजङ्घवचोऽत्यन्तप्रसन्नः प्रतिपन्नवान् । स सन्धानं जरासन्धः षण्मासावधिकं ततः ॥६२॥ दूतः पूजां नृपात्प्राप्य स प्राप्य द्वारिकां ततः । समुद्रविजयाद्यथं निवेद्य स्थितवान् कृति ॥ ६३ ॥ साम्येनैव ततो वर्षे सामग्री प्रत्यपेक्षया । पूर्णे 'पूर्ण महासन्धो महासामन्तसंततिः ॥६४॥ जरासन्धोऽत्र संप्राप्तः सैन्यसागररुद्धदिक् । कुरुक्षेत्रं महाक्षत्रप्रधानप्रधनोचितम् ॥ ६५ ॥ पूर्वमभ्येत्य तत्रैव केशवोऽपरसागरः । तस्थावापूर्यमाणः सन् वाहिनीनिवहैर्निजैः ॥६६॥ तत्रापाच्या नृपाः केचिदुदीच्याश्चापरान्तिकाः । संबन्धिनः सृता विष्णुं सकलैः स्वबलैर्युताः ॥ ६७ ॥
यदि जरासन्ध शान्त नहीं होता है तो हम लोग फिर उसके अनुरूप कार्य करेंगे। इस प्रकार साम उपाय अवलम्बन करनेमें क्या दोष है ? ।। ५५ ।।
इस प्रकार मन्त्र कर मन्त्रियोंने जब राजा समुद्रविजयसे कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि 'क्या दोष है ?' दूत भेजा जाये । इस प्रकार सलाह कर उन्होंने लोहजंघ कुमारको भिजवा दिया || ५६ ॥ कुमार लोहजंघ बहुत ही चतुर, शूर-वीर और नीतिरूपी नेत्रका धारक था । वह अपनी सेना ले जरासन्धके साथ सन्धि करनेके लिए चला ||१७|| पूर्वमालव देशमें पहुँचकर उसने वहाँ वनमें अपनी सेनाका पड़ाव डाला, वहाँ साथ-साथ विचरनेवाले तिलकानन्द और नन्दन नामक दो मुनिराज आये । वे दोनों मुनि मासोपवासी थे और 'वनमें आहार मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं' यह नियम ले वनमें विहार कर रहे थे । उन्हें देख कुमार लोहजंघने उन्हें पडगाहकर आहार दिया और उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्यं प्राप्त किये || ५८-५९ ।। उसी समय से वह स्थान पृथिवीतलपर 'देवावतार' नामक तीर्थ बन गया और हजारों प्राणियोंके पाप शान्त होनेका कारण हो गया || ६०॥
जरासन्ध यद्यपि सन्धि करनेके पक्षमें नहीं था तथापि समझाने में चतुर दूत लोहजंघने जाकर उसे एकान्त में समझाया || ६१ || लोहजंघके वचनोंसे जरासन्ध बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए सन्धि स्वीकृत कर ली ||६२|| तदनन्तर राजा जरासन्धसे सम्मान प्राप्त कर लोहजंघ द्वारिका वापस लौट आया ओर समुद्रविजय आदिके लिए सब समाचार सुनाकर कृतकृत्य हो सुख से रहने लगा || ६३ ||
तदनन्तर युद्ध की तैयारीका ध्यान रख यादवोंने एक वर्ष शान्तिसे व्यतीत किया । इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण हो जानेपर महाप्रतिज्ञाको पूर्ण करनेवाला जरासन्ध बड़े-बड़े सामन्तोंके समूहसे युक्त तथा सेनारूपी सागरसे दिशाओंको व्याप्त करता हुआ बड़े-बड़े राजाओंके युद्धके योग्य कुरुक्षेत्रके मैदान में आ पहुँचा || ६४-६५ || अपनी सेनारूपी नदियोंके समूहसे भरे हुए कृष्णरूपी दूसरे सागर भी पहले ही आकर वहाँ आ जमे थे ||६६|| उस समय कृष्ण सम्बन्धी कितने ही दक्षिण-उत्तर और पश्चिमके राजा अपनी-अपनी समस्त सेनाओं के
१. पूर्णमहासन्धी म. । २. महासामन्तसन्नतिः म. ।
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हरिवंशपुराणे
दशार्हाः सान्वना भोजाः पाण्डवाश्चापि बान्धवाः । अन्ये च नृपशार्दूलाः प्रसिद्धा हरये हिताः ॥ ६८ ॥ अक्षौहिणीपतिस्तत्र समुद्रविजयो नृपः । उग्रसेनोऽग्रणीः पुंसां तथैवाक्षौहिणीप्रभुः ॥ ६९ ॥ मेरुक्षौहिणीस्वामी श्रीमानिक्ष्वाकुवंशजः । भक्षौहिण्यर्धनाथस्तु राष्ट्रवर्धनभूपतिः ॥७०॥ तथाक्षौहिणीनाथः सिंहलानामधीश्वरः । राजा पद्मरथश्चापि तत्समानबलो बली ॥७१॥ दायादः शकुनेवरश्चारुदत्तः पराक्रमी । अक्षौहिणी चतुर्थांशपतिः कृष्णहितेरितः ॥ ७२ ॥ बर्वरा यमनाभीराः काम्बोजा द्रविडा नृपाः । अन्ये च बहवः शूराः शौरिपक्षमुपाश्रिताः ॥७३॥ अक्षौहिण्यो 'बहुगुणा जरासन्धमुपागताः । चक्ररत्नप्रभावेण वक्षीभावित भारतम् ॥ ७४ ॥ अक्षौहिणीप्रमाणं तु सप्रमाणमुदीरितम् । वाजिवारणपत्तीनां स्थानां गणनायुतम् ॥ ७५ ॥ "नवहस्तिसहस्राणि नवलक्षा रथा मताः । नय कोट्यस्तुरङ्गास्तु शतकोट्यो नरा नव ॥ ७६ ॥ दुष्वतिरथो नेभिस्तथैव बलकेशवौ । अतिक्रम्य स्थितान् सर्वान् मारतेऽतिरथांस्तु ते ॥७७॥ समुद्रविजयो राजा वसुदेवो युधिष्ठिरः । भीमकर्णार्जुना रुक्मी रोक्मणेयश्च सत्यकः ॥ ७८ ॥ धृष्टद्युम्नोऽप्यनावृष्टिः शल्यो भूरिश्रवा नृपः । राजा हिरण्यनामश्च सहदेवश्च सारणः ॥७९॥ शस्त्रशास्त्रार्थनिपुणाः पराङ्मुखदयापराः । महावीर्या महाधैर्या राजानोऽमी महारथाः ॥ ८० ॥ अक्षोभ्यपूर्व काश्चाष्टौ शम्बो मोजो विदूरथः । द्रुपदः सिंहराजोऽपि शल्यो वज्रः सुयोधनः ॥८१॥
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साथ आकर कृष्णसे आ मिले ||६७ | | दशाह, सान्त्वना देनेवाले भोज और पाण्डव आदि बन्धुजन तथा अन्य अनेक उत्तमोत्तम प्रसिद्ध राजा श्रीकृष्णके हितकी इच्छा करते हुए आ मिले ||६८ || वहीं राजा समुद्रविजय एक अक्षौहिणीके स्वामी थे, पुरुषोंमें अग्रेसर राजा उग्रसेन भी एक अक्षौहिणीका स्वामी था और इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजा मेरु भी एक अक्षौहिणीका अधिपति था । राष्ट्रवर्धन देशका राजा आधी अक्षौहिणीका स्वामी था || ६९-७० || सिंहल देशका राजा आधी अक्षौहिणीका प्रभु था और बलवान् राजा पद्मरथ भी उसीके समान --अर्ध अक्षौहिणी प्रमाण सेनासे युक्त था || ७१ || शकुनिका भाई वीर पराक्रमी चारुदत्त जो कि कृष्ण के हित में सदा तत्पर रहता था, एक चौथाई अक्षौहिणीका स्वामी था ॥ ७२ ॥ वर्वर, यमन, आभीर, काम्बोज और द्रविड़ आदि अन्य शूर-वीर राजा कृष्णके पक्षमें आ मिले ||७३ ||
उस ओर चक्ररत्नके प्रभावसे भरतक्षेत्रको वश करनेवाले राजा जरासन्धको भी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ प्राप्त थीं ॥७४॥ घोड़े, हाथी, पैदल सैनिक तथा रथोंकी गणनासे युक्त अक्षौहिणी सेनाका प्रमाण इस प्रकार कहा गया है ।।७५ || जिसमें नो हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ-सौ करोड़ पैदल सैनिक हों उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं ||७६ || यादवोंमें कुमार नेमि, बलदेव और कृष्ण ये तीनों अतिरथ थे । ये तीनों भारतवर्ष में जितने अतिरथ थे उन सबको अतिक्रान्त कर उन सबमें श्रेष्ठ थे ॥७७॥ राजा समुद्रविजय, वसुदेव, युधिष्ठिर, भीम, कणं, अर्जुन, रुक्मी, प्रद्युम्न, सत्यक, धृष्टद्युम्न, अनावृष्टि, शल्य, भूरिश्रवसु, राजा हिरण्यनाभ, सहदेव और सारण, ये सब राजा महारथ थे । ये सभी शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण, पराङ्मुख, जीवोंपर दया करने में तत्पर, महाशक्तिमान् और महाधैर्यशाली थे । ७८- ८० ॥ समुद्रविजयसे छोटे और
१. वरगुणा म. । २. अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या ह्यष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः ॥ एवमेव रथानां तु संख्यानं कीर्तितं बुधैः । पञ्चषष्टिसहस्राणि षट्शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथतुरङ्गमैः ॥ नृणां शतसहस्राणि सहस्राणि तथा नव । शतानि त्रीणि चान्यानि पञ्चाशच्च पदातयः ॥ इत्यमरकोशटीकायाम् । भारते अक्षौहिणीप्रमाणम् - अक्षौहिण्याः प्रमाणं तु खाङ्गाष्टकद्विकैर्गजैः । रथैरेतैर्हयैस्त्रिघ्नैः पञ्चघ्नेश्च पदातिभिः । गजाः २१८७०, रथाः २१८७०, अश्वाः ६५६१०, नराः १०९३५० इति ।
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पचाशत्तमः सर्गः
पौण्ड्रः पद्मरथश्चापि कपिलो मगदत्तकः । क्षेमधूर्त इमे सर्वे समाः समरथा रणे ॥४२॥ महानेमिधराक्ररनिषधोल्मुकदुर्मुखाः । कृतवर्मा वराटाख्यश्वारुकृष्णश्च यादवाः ॥ ८३ ॥ शकुनिर्यवनो मानुदुश्शासन शिखण्डिनौ । वाह्लीकसोमदत्तश्च देवशर्मा वकस्तथा ॥ ८४ ॥ वेणुदारी च विक्रान्तो राजानोऽर्धरथा इमे । विचित्रयोधिनो घोराः संग्रामेष्वपराङ्मुखाः ॥ ८५॥ अतः परं नृपाः सर्वे कुलमानयशोधनाः । रथिनः प्रथिताश्वामी यथायोग्यं बलद्वये ॥ ८६ ॥ अर्णवोपमयोस्तत्र तदाभ्यर्णनिवेशयोः । सेनयोस्तूर्णमागत्य कर्णस्याभ्यर्णमाकुला ॥ ८७ ॥ कुन्ती निष्णात संबन्धतनयानुमता मता । कानीन स्नेहसंभारपरायत्तशरोरिका ||८८ ॥ कण्ठलग्ना रुदन्ती तं प्रतिबोधयति स्म सा । मातापुत्रस्वसंबन्धमादिमध्यावसानतः ॥ ८९ ॥ ततः कम्बलवृत्तान्त कुरुवंशावतारवित् । कुन्तीपाण्डुसुतस्वं तु निश्चिकायात्मनस्तदा ॥ ९० ॥ सान्तःपुरेण कर्णेन निर्णीत निजबन्धुना । पूजिताम्रात्मजं कुन्ती जगाद जनितादरा ॥ ९१ ॥ उत्तिष्ठ पुत्र गच्छामो यत्र ते भ्रातरोऽखिलाः । तिष्ठन्त्युत्कण्ठिताश्चान्ये वैकुण्ठप्रमुखा निजाः ॥९२॥ कुरूणामीश्वरः पुत्र स्वमेव मुवि सांप्रतम् । कृष्णस्य रामभद्रस्य सम्प्रति प्राणवत् प्रियः ॥ ९३॥ त्वं राजावरजाग्रस्ते छत्रधारी युधिष्ठिरः । भीमश्चामरधारी तु मन्त्रिमुख्यो धनंजयः ॥ ९४ ॥ नकुलः सहदेवेन प्रतीहारः सहस्फुटम् । अहं तु जननी नीव्या नित्यं तव हितोद्यता ॥ ९५ ॥
वसुदेवसे बड़े अक्षोभ्य आदि आठ भाई, शम्ब, भोज, विदूरथ, द्रुपद, सिहराज, शल्य, वज्र, सुयोधन, पौण्ड्र, पद्मरथ, कपिल, भगदत्त और क्षेमधूर्त ये सब समरथ थे तथा युद्ध में समान शक्तिके धारक थे ॥ ८१-८२ ॥ महानेमि, धर, अक्रूर, निषेध, उल्मुक, दुर्मुख, कृतवर्मा, वराट, चारुकृष्ण, शकुनि, यवन, भानु, दुश्शासन, शिखण्डी, वाह्लीक, सोमदत्त, देवशर्मा, वक, वेणुदारी और विक्रान्त ये राजा अर्धरथ थे । ये सभी राजा आश्चर्यकारक युद्ध करनेवाले एवं धीर-वीर थे तथा युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होते थे ॥ ८३-८५ ॥ इनके सिवाय कुल, मान और यशरूपी धनको धारण करनेवाले समस्त राजा रथी नामसे प्रसिद्ध थे । ये राजा यथायोग्य दोनों ही सेनाओं में थे ॥ ८६ ॥
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समुद्र समान दोनों पक्षकी सेनाएँ जब पास-पास आ गयीं तब कुन्ती बहुत घबड़ायी । वह शीघ्र ही कणके पास गयी। वहां जाने में उसे युधिष्ठिर आदि पुत्रोंने अनुमति दे दी थी। उस समय कन्या अवस्थाके पुत्र कर्णके ऊपर जो उसका अपार स्नेह था उससे उसका शरीर विवश हो रहा था । उसने कणके कण्ठसे लगकर रोते-रोते आदि, मध्य और अन्तमें जैसा कुछ हुआ वह सब अपना माता और पुत्रका सम्बन्ध बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि मैंने तुझे उत्पन्न होते ही लोकलाज के भयसे कम्बल में लपेटकर छोड़ दिया था। कर्ण कम्बलके वृत्तान्तको जानता था और यह भी जानता था कि कुरुवंशमें मेरा जन्म हुआ है । अब कुन्ती के कहने से उसने निश्चय कर लिया कि मैं कुन्ती और पाण्डुका पुत्र हूँ ।।८७ - ९० ।। अपने बन्धुजनोंका निर्णय कर कने अपनी समस्त स्त्रियों के साथ कुन्तीकी पूजा की । तदनन्तर आदर दिखाती हुई कुन्तीने अपने प्रथम पुत्र कणसे कहा कि हे पुत्र ! उठ, वहां चलें जहाँ तेरे सब भाई तथा श्रीकृष्ण आदि अपने अन्य आत्मीय जन तेरे लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं ||९१-९२ || हे पुत्र ! इस समय पृथिवीपर कुरुओंका स्वामी तू ही है और कृष्ण तथा बलदेवके लिए प्राणोंके समान प्रिय है ||९३|| तू राजा है, तेरा छोटा भाई युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगावेगा, भोभ चँवर ढोरेगा, धनंजय मन्त्री होगा, सहदेव और नकुल तेरे द्वारपाल होंगे और नीतिपूर्वक निरन्तर हित करनेमें उद्यत मैं तेरी माता हूँ ।।९४-९५।।
१. कृतवर्या म. ।
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हरिवंशपुराणे इति मातृवचः श्रुत्वा भ्रातृस्नेहवशोऽपि सः । जरासन्धोपकारैस्तैः स्वामिकार्यधरोऽवदत् ॥१६॥ पितरौ भ्रातरो लोके बान्धवाश्च सुदुर्लमाः । यद्यस्त्येवं तथाप्यत्र प्रस्तावे समुपस्थिते ॥१७॥ स्वामिकाय परित्यज्य बन्धुकार्यमसांप्रतम् । अप्रशस्यं च हास्यं च संमुखे सांप्रतं रणे ॥९॥ एतावदत्र कार्य तु युद्धे भ्रातृवशादृते । योद्धव्यमन्ययोधैर्हि स्वामिकार्यकृता मया ॥९९॥ निवृत्ते युधि जीवामो यदि दैववशाद्वयम् । मविता 'निश्चितोऽस्माकमम्ब भ्रातृसमागमः ॥१०॥ प्रयाहि भ्रातृबन्धूनामेत देव निवेद्यताम् । इत्युक्त्वा पूजिता गत्वा कुन्ती सर्व तथाकरोत् ॥११॥ जरासन्धबले तत्र समभूमागवतिनी। चक्रव्यूहो द्विषां जित्यै रचितः कुशलैन पैः ॥१०२॥ चक्रस्यारसहस्रे हि राजैकैकः समास्थितः । तस्य राजसहस्रस्य करिणां तु शतं शतम् ॥३॥ एकैकस्य नरेन्द्रस्य द्विसहस्ररथाः स्थिताः । वाजिपञ्चसहस्राणि भटानां तानि षोडश ॥१०॥ अतश्चतुर्थमागेन संयुताः सपदि स्थिताः । नरेन्द्राः षट् सहस्राणि निविष्टास्तत्र नेमिषु ॥१०५॥ मध्यत्वं च समासाद्य सुस्थितो मागधः स्वयम् । राजपञ्चसहस्रः स श्रीमान् कर्णपुरस्सरेः॥१०६॥ तस्यैव मध्यभामे तु सैन्यं गान्धारसैन्धवम् । दुर्योधनसमेतं तु धार्तराष्ट्रशतं स्थितम् ॥१०॥ मध्ये च मध्यदेशास्तु स्थितास्तत्र नरेश्वराः । पूर्वभागे स्थितास्तस्य शेषा नृपगणास्तथा ॥१०॥ कुलमानधरा धीरा नरेशा बलशालिनः । पञ्चाशत्सकलव्यूहा नेमिसंधिष्ववस्थिताः ॥१०९॥ अन्तरान्तरसंस्थास्तु गुल्मैगुल्मैनरोत्तमैः । व्यूहस्य बाह्यतश्चापि नानान्यूहैर्नृपाः स्थिताः ॥१०॥
इस प्रकार माताके वचन सुनकर यद्यपि कणं भाइयोंके स्नेहसे विवश हो गया परन्तु जरासन्धने उसके प्रति जो उपकार किये थे उनसे स्वामीके कार्यका विचार करता हुआ बोला कि लोकमें माता-पिता, और भाई-बान्धव अत्यन्त दुर्लभ हैं यह बात यद्यपि ऐसी ही है, परन्तु इस अवसरके उपस्थित होनेपर स्वामीका कार्य छोड़ भाइयोंका कार्य करना अनुचित है, अप्रशस्त है और इस समय जबकि युद्ध सामने है हास्यका कारण भी है ।।९६-९८|| इस समय तो स्वामीका कार्य करता हुआ मैं इतना ही कर सकता हूँ कि युद्ध में भाइयोंको छोड़कर अन्य योद्धाओंके साथ युद्ध करूं ॥९९|| युद्ध समाप्त होनेपर यदि भाग्यवश हम लोग जीवित रहेंगे तो हे मां! हमारा भाइयोंके साथ समागम अवश्य ही होगा। तू जा और भाई-बान्धवोंको इतनी खबर दे दे। इस प्रकार कहकर कर्णने माता कुन्तीकी पूजा की और कुन्तीने जाकर उसके कहे अनुसार सब कार्य किया ॥१००-१०१।। उधर समान भूभागमें वर्तमान राजा जरासन्धकी सेनामें कुशल राजाओंने शत्रुओंको जीतने के लिए चक्रव्यूहकी रचना की ॥१०२।। उस चक्रव्यूहमें जो चक्राकार रचना की गयी थी उसके एक हजार आरे थे, एक-एक आरेमें एक-एक राजा स्थित था, एक-एक राजाके सौ-सौ हाथी थे, दो-दो हजार रथ थे, पांच-पांच हजार घोड़े थे और सोलह-सोलह हजार पैदल सैनिक थे ।।१०३-१०४॥ चक्रकी धाराके पास छह हजार राजा स्थित थे और उन राजाओंके हाथी, घोड़ा आदिका परिमाण पूर्वोक्त परिमाणसे चौथाई भाग प्रमाण था ॥१०५|| कर्ण आदि पांच हजार राजाओंसे सुशोभित राजा जरासन्ध स्वयं उस चक्रके मध्यभागमें जाकर स्थित था॥१०६।। गान्धार और सिन्ध देशकी सेना, दुर्योधनसे सहित सौ कौरव, और मध्यदेशके राजा भी उसी चक्रके मध्यभागमें स्थित थे ॥१०७-१०८।। कुलके मानको धारण करनेवाले धीर, वीर, पराक्रमी पचास राजा अपनी-अपनी सेनाके साथ चक्रधाराको सन्धियोंपर अवस्थित थे॥१०९|| आरोंके बीच-बीचके स्थान अपनी-अपनी विशिष्ट सेनाओंसे युक्त राजाओंसे सहित थे। इनके सिवाय व्यूहके १. अयुक्तम् । २. निश्चयोऽस्माक-म.। ३. जयनं जितिः तस्यै । नित्यै म.। ४. नेमिसन्धिष्विव स्थिताः म., ग. । ५. एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः । त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ तिसभिः पत्तिभिः सेनामुखं, त्रिभिः सेनामुखैर्गुल्मः, गुल्मत्रयेण गणः । इत्यमरटीकायाम् ।
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पशाशत्तमः सर्गः
चक्रव्यूहस्तदा दक्षे रचितोऽसौ व्यराजत । स्वसाधनमनस्तोषी परसाधनमीतिकृत् ॥११॥ चक्रव्यूह विदित्वा तं वसुदेवो विनिर्मितम् । चकार गरुडव्यूह तद्भेदाय विशारदः ॥१२॥ अर्ध कोटीकुमाराणां मुखे तस्य महात्मनाम् । स्थापिता रणश राणां नानाशस्त्रास्त्रधारिणाम् ॥१३॥ बली हलधरस्तत्र शाङ्गपाणिश्च मूर्धनि । स्थितावतिरथौ वीरौ स्थैर्यान्निर्जितभूधरौ ॥११॥ अक्रूरः कुमु दो वीरः सारणो विजयो जयः । पद्मो जरत्कुमारोऽपि सुमुखोऽपि च दुर्मुखः ॥११५॥ सूनुर्मदनवेगाया दृढमुष्टिमहारथः । विदूरथोऽप्यनावृष्टिर्वसुदेवस्य 'येऽङ्गजाः ॥११६॥ रथरक्षान्वितौ रामकृष्णयोः पृष्ठरक्षिणः । रथकोट्या समेतस्तु पृष्टेभोजः प्रतिष्ठितः ॥१७॥ पृष्टरक्षानृपास्तस्य मोजस्य नृपतेस्ततः । धारणः सागरश्चान्ये रणशौण्डा व्यवस्थिताः ॥११॥ दक्षिणं पक्षमाश्रित्य सुतैः साकं महारथैः । समुद्रविजयोऽतिष्टबलेन महता वृतः ॥११९।। तत्पक्षरक्षणे दक्षाः कुमारा रिपुमारणाः । सत्यनेमिमहानेमिर्दृढनेमिः सुनेमिना ॥१२॥ नमिर्महारथश्चापि जयसेनमहीजयो। तेजःसेनो जयः सेनो नयो मेघो महाद्यतिः ॥१२॥ दशाश्चिापि विख्याताः शतशोऽन्ये च भूभृतः । रथकोटीचतुर्मागसहिताः समवस्थिताः ॥१२२॥ वामपक्षमुपाश्रित्य रामस्य तनयाः स्थिताः । पाण्डवाश्च महात्मानः पण्डिता युद्धकर्मणि ॥१२३।। उल्मुको निषधश्चापि प्रकृतिद्युतिरप्यतः । सत्यकः शत्रुदमनः श्रीध्वजो ध्रुव इत्यपि ॥१२४॥ राजा दशरथश्चापि देवानन्दोऽथ शन्तनुः । आनन्दश्च महानन्दश्चन्द्रानन्दो महाबलः ॥१२५॥
पृथुः शतधनुश्चापि विपृथुश्च यशोधनः । दृढबन्धोऽनुवीर्यश्च सर्वशस्त्रभृतांवरः ॥१२॥ बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकारके व्यूह बनाकर स्थित थे ॥११०।। इस प्रकार चतुर राजाओंके द्वारा रचित, अपनी सेनाके मनको सन्तुष्ट करनेवाला और शत्रुकी सेनाके मनमें भय उत्पन्न करनेवाला वह चक्रव्यूह उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥१११॥
इधर रचना करनेमें निपुण वसुदेवको जब पता चला कि जरासन्धकी सेनामें चक्रव्यूहकी रचना की गयी है तब उसने भी चक्रव्यूहको भेदनके लिए गरुड़-व्यूहकी रचना कर डाली ॥११२॥ उदात्तचित्त, रणमें शूर-वीर तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंको धारण करनेवाले पचास लाख यादव कुमार उस गरुड़के मुखपर खड़े किये गये ।।११३॥ धीर-वीर एवं स्थिरतासे पर्वतको जीतनेवाले अतिरथ, पराक्रमी बलदेव और श्रीकृष्ण उसके मस्तकपर स्थित हुए ॥११४॥ अक्रूर, कुमुद, वीर, सारण, विजय, जय, पद्म, जरत्कुमार, सुमुख, दुर्मुख, मदनवेगा पुत्र महारथ दृढमुष्टि, विदूरथ और अनावृष्टि ये जो वसुदेवके पुत्र थे वे बलदेव और कृष्णके रथको रक्षा करनेके लिए उनके पृष्ठरक्षक बनाये गये। एक करोड़ रथोंसे सहित भोज, गरुड़के पृष्ठ भागपर स्थित हुआ ॥११५-११७॥ राजा भोजकी पृष्ठ-रक्षाके लिए धारण तथा सागर आदि अन्य अनेक रणवीर राजा नियुक्त हुए ॥११८।। अपने महारथी पुत्रों तथा बहुत बड़ी सेनासे युक्त राजा समुद्रविजय उस गरुड़के दाहिने पंखपर स्थित हुए ।।११९।। और उनकी आजू-बाजूकी रक्षा करनेके लिए चतुर, शत्रुओंको मारनेवाले सत्यनेमि, महानेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, महारथी नमि, जयसेन, महीजय, तेजसेन, जय, सेन, नय, मेघ, महाद्युति आदि दशा हं ( यादव ) तथा सैकड़ों अन्य प्रसिद्ध राजा पचीस लाख रथोंके साथ स्थित हुए ।।१२०-१२२॥ बलदेवके पुत्र और युद्ध कार्यमें निपुण महामना पाण्डव गरुड़के बायें पक्षका आश्रय ले खड़े हुए ॥१२३॥ इन्हींके समीप उल्मक, निषध, प्रकृतिद्युति, सत्यक, शत्रुदमन, श्रीध्वज, ध्रुव, राजा दशरथ, देवानन्द, शन्तनु, आनन्द, महानन्द, चन्द्रानन्द, महाबल, पृथु, शतधनु, विपृथु, यशोधन, दृढ़बन्ध और सब प्रकारके शस्त्रोंसे आकाशको १. मुख्ये म. । २. तेऽङ्गजाः म. । ३. पृष्ठभोजः म. । जयसेनो । ५. शतघनश्चापि म. ।
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हरिवंशपुराण
अनेकरथलक्षास्ते शस्त्रास्त्रेषु कृतश्रमाः । धार्तराष्ट्रवधं युद्धे समाधाय व्यवस्थिताः || १२७ || पृष्ठे चन्द्रयशा भूपः सिंहलो वर्वरोऽपि च । कम्बोजाः केरलाश्चापि कुशला द्रमिलास्तथा ।। १२८ ॥ रथषष्टिसहस्रस्तु शान्तनः समवस्थितः । पक्षिणो रक्षिणो ह्येते स्थिता विक्रमशालिनः ॥ १२९ ॥ अशितश्चापि भानुश्च तोमर ः समरप्रियः । संजयोऽकल्पितश्चापि मानुर्विष्णु बृंहध्वजः || १३०|| शत्रुंजयो महासेनो गम्भीरो गौतमोऽपि च । वसुधर्मादयश्चापि कृतवर्मा प्रसेनजित् ॥ १३१ ॥ "दृढवर्मा च विक्रान्तश्चन्द्रवर्मा च पार्थिवः । एते गणसहायास्तु कुलं रक्षन्ति शाङ्गिणः ।। १३२ ।। visit गरुडन्यूहो वसुदेवेन निर्मितः । महारथकृतोत्साहश्चक्रव्यूहं बिमित्सति ॥ १३३ ॥
५९२
शालिनीच्छन्दः
चक्रव्यूहे दुर्विगाहे कृतेऽपि व्यूहे व्यूहे पक्षिराजेऽपि दक्षः । युद्धे जेता नायकः कश्चिदेको धर्मात्प्रायादर्जिता ज्जैनमार्गे ॥ १३४ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो चक्रगरुडव्यूहवर्णनो नाम पञ्चाशत्तमः सर्गः ॥ ५०॥
O
भर देनेवाले अनुवीयं स्थिति थे । ये सभी कुमार अनेक लाख रथोंसे युक्त थे, शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करनेवाले थे, तथा युद्धमें कौरवोंके वधका निश्चय किये हुए थे ।। १२४ - १२७॥ इनके पीछे राजा चन्द्रयश, सिंहल, वर्वर, कम्बोज, केरल, कुशल ( कोसल ) और द्रमिल देशोंके राजा तथा शान्तन साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित थे। इस प्रकार ये बलशाली राजा उस गरुड़की रक्षा करते हुए स्थित थे । १२८ - १२९ ॥ इनके सिवाय अशित, भानु, युद्धका प्रेमी तोमर, संजय, अकल्पित, भानु, विष्णु, बृहद्ध्वज, शत्रुंजय महासेन, गम्भीर, गौतम, वसुधर्मादि, कृतवर्मा, प्रसेनजित्, दृढवर्मा, विक्रान्त और चन्द्रवर्मा आदि राजा अपनी-अपनी सेनाओंसे युक्त हो श्रीकृष्ण के कलकी रक्षा करते थे ॥१३०-१३२ ।। जिसके भीतर स्थित महारथी राजा उत्साह प्रकट कर रहे थे, ऐसा यह वसुदेवके द्वारा निर्मित गरुड़व्यूह, जरासन्धके चक्रव्यूहको भेदने की इच्छा कर रहा था ॥ १३३ ॥ | गौतम स्वामी कहते हैं कि दोनों पक्षके चतुर मनुष्योंने उस ओर यद्यपि दुःखसे प्रवेश करने योग्य चक्रव्यूह और इधर गरुड़-व्यूहकी रचना को थी तथापि जिनेन्द्र प्रदर्शित मार्गमें चलकर संचित किये हुए धर्मके प्रभावसे युद्ध में कोई एक नायक ही विजयी होगा ऐसा मैं समझता हूँ ॥ १३४ ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में चक्रव्यूह और गरुड़व्यूहका वर्णन करनेवाला पचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||५० ॥
१. धार्तराष्ट्रा वधं म., ग । २. दृढवर्या म. । ३ दृढसहायस्तु म । ४. तर्कयामि ।
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एकपश्चाशत्तमः सर्गः
अन्नान्तरे सह प्राप्ताः समुद्रविजयं नृपाः । विद्याधरसमस्तास्ते वसुदेवहितैषिणः ॥१॥ श्वसुरोऽशनिवेगोऽसौ हरिग्रीवो वराहकः । सिंहदंष्ट्रः खगेन्द्र श्च विधुद्वेगो महोद्यमः ॥२॥ तथा मानसवेगश्च विद्युदंष्ट्रः खगाधिपः । राजा पिङ्गलगान्धारो नारसिंहो नरेश्वरः ॥३॥ 'इत्याद्या धार्यमातङ्गा वासुदेवार्थसिद्धये। वसुदेवं पुरस्कृत्य समुद्र विजयं श्रिताः ॥४॥ तान् संमान्य यथायोग्यं समुद्र विजयादयः । सिद्धार्था वयमद्येति प्रहृष्टमनसो जगुः ॥५॥ वसुदेवरिपूणां ते खगाना क्षोभमूचिरे । जरासन्धार्थसिद्धयर्थ तेषामागमनं तथा ॥६॥ तच्छु त्वा यादवाः सर्वे संमन्व्यानकदुन्दुभिम् । प्रद्युम्नशम्बसंयुक्तं सपुत्रं तैरमामुचन् ॥७॥ जिनकेशवरामादीन् परिष्वज्य स वेगवान् । पुत्रनप्तृखगैः साकं खचराचलमाययौ ॥८॥ सिंहविद्यारथं दिव्यं दिव्यास्त्रपरिपूरितम् । धनदेवसमानीतमारुरोह हलायुधः ॥९॥ गारुडं रथमारूढस्तथा गरुडकेतनः । नानाप्रहरणैर्दिव्यैः परिपूर्ण जयावहम् ॥१०॥ मातल्यधिष्टितं सास्त्रं सुत्रामप्रहितं रथम् । नेमीश्वरः समारूढो यदूनामर्थसिद्धये ॥११॥ सेनानां नायकं शूरमनावृष्टिं कपिध्वजम् । अभ्यषिञ्चन्नृपाः सर्वे समुद्र विजयादयः ॥१२॥ राजा हिरण्यनाभस्तु मामधेन महाबलः । सेनापतिपदे शीघ्रमभिषिक्तस्तदा मुदा ॥१३॥ युद्धे भेयस्तथा शङ्खा नेदु/रं बलद्वये । चतुरङ्गं बलं योद्धमाससाद परस्परम् ॥१४॥
अथानन्तर इसी बीचमें वसुदेवका हित चाहनेवाले नीचे लिखे समस्त विद्याधर एक साथ मिलकर समुद्रविजयके पास आ पहुँचे ।।१।। वसुदेवका श्वसुर अशनिवेग, हरिग्रीव, वराहक, सिंहदंष्ट्र, महापुरुषार्थी विद्युद्वेग, मानसवेग, विद्युदंष्ट्र, पिंगलगान्धार और नारसिंह इन्हें आदि लेकर आर्य और मातंगजातिके अनेक विद्याधर राजा श्रीकृष्णको भलाईके लिए आ पहुंचे और वसदेवको आगे कर राजा समुद्रविजयसे जा मिले ॥२-४।। समुद्रविजय आदि उनका यथार सम्मान कर हर्षितचित्त होते हुए कहने लगे कि अब हम लोग कृतार्थ हो गये ॥५॥ उन आगत विद्याधरोंने कहा कि इस युद्धसे वसुदेवके विरोधी विद्याधरोंमें बड़ा क्षोभ हो रहा है और वे जरासन्धकी कार्यसिद्धिके लिए आनेवाले हैं ।।६।। यह सुनकर सब यादवोंने परस्पर सलाह की और विद्याधरोंको शान्त करनेके लिए उन्होंने उन्हीं विद्याधरोंके साथ प्रद्युम्न, शम्ब एवं अनेक पुत्रों-सहित वसुदेवको विजयाधंके लिए छोड़ा ॥७॥ वसुदेव भी भगवान् नेमिनाथ, कृष्ण, बलदेव आदिका आलिंगन कर कुछ पुत्रों, पोतों और विद्याधरोंके साथ शीघ्र ही विजयाधंकी ओर चल पड़े ।।८। उसी समय कुबेरके द्वारा समर्पित, दिव्य अत्रोंसे परिपूर्ण सिंहविद्याके दिव्य रथपर बलदेव आरूढ़ हुए ॥९॥ गरुडांकित पताकासे सुशोभित कृष्ण, नाना प्रकारके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे पूर्ण विजय प्राप्त करानेवाले गरुड़ विद्याके रथपर सवार हुए ॥१०॥ और भगवान् नेमिनाथ, इन्द्रके द्वारा प्रेषित, मातलि नामक सारथिसे युक्त, तथा अस्त्र-शस्त्रसे पूर्ण रथपर यादवोंकी कार्यसिद्धिके लिए आरूढ़ हुए ॥११॥ समुद्रविजय आदि समस्त राजाओंने वानरकी ध्वजासे युक्त, वसुदेवके शर-वीर पूत्र अनावृष्टिको सेनापति बनाकर उसका अभिषेक किया ॥१२॥
उधर राजा जरासन्धने भी हर्षपूर्वक महाबलवान् राजा हिरण्यनाभको शीघ्र ही सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया ।।१३।। दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध के समय बजनेवाली भेरियाँ और शंख गम्भीर शब्द करने लगे तथा दोनों ओरकी चतुरंग सेना युद्ध करनेके लिए परस्पर एक-दूसरेके १. -चार्य म., घ.। २. वसुदेवः 'वसुदेवोऽस्य जनकः स एवानकदुन्दुभिः' इत्यमरः । ३. जयावहः म. ।
४. चतुरङ्गबलं म.। Jain Education Internation194
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हरिवंशपुराणे
अन्योन्याह्वानपूर्वं ते योद्धुं लग्ना यथायथम् । 'राजानः क्रोधसंभारभ्रूमङ्गविषमाननाः ॥ १५ ॥ गजा गजैः समं लग्नास्तुरङ्गास्तुरगैः सह । रथा रथैः समं योद्धुं पत्तयः पत्तिभिः सह ॥ १६ ॥ ज्वार रथनिर्घोषैर्गजानां गर्जितेन च । मटानां सिंहनादैश्व दलन्तीव दिशो दश ॥ १७ ॥ ततः परबलं दृष्ट्वा प्रबलं स्वबलाशनम् । नेमिपार्थबलाधीशा वृषहस्तिकपिध्वजाः ॥ १८ ॥ ताक्ष्य केतुमनोभिज्ञाः स्वयं योद्धुं समुद्यताः । ऊरीकृत्य सुसन्नाहाचक्रव्यूहस्य भेदनम् ॥१९॥ दध्मौ नेमीश्वरः शङ्खं शाक्रं शत्रुभयावहम् । देवदत्तं पृथापुत्रः सेनानीश्च बलाहकम् ॥२०॥ शङ्खाना निनदं श्रुत्वा ततो व्याप्तदिगन्तरम् । स्वसैन्येऽभून्महोत्साहः परसैन्ये महामयम् ॥ २१ ॥ मध्यं बिभेद सेनानीर्ने मिर्द क्षिणतः क्षणात् । अपरोत्तरदिग्भागं चक्रव्यूहस्य पाण्डवः ॥ २२ ॥ सेनानीः परसेनान्या नेमिनाथोऽपि रुक्मिणा । पार्थो दुर्योधनेनासौ सधैर्येण पुरस्कृतः ॥ २३ ॥ महायुद्धमभूत्तस्य ततस्तेषां यथायथम् । 'सगन्धबलयुक्तानां पञ्चायुधविवर्षिणाम् ॥२४॥ नारदोऽप्सरसां संधै रेण नमसि स्थितः । मुञ्चन् पुष्पाणि तुष्टात्मा ननर्त कलहप्रियः ॥ २५ ॥ निपात्य शरवर्षेण रुक्मिणं चिरयोधनम् । रिपुराजसहस्राणि नेमिश्चिक्षेप संयुगे ॥ २६ ॥ समुद्रविजयाद्याश्च भ्रातरस्तत्सुतास्तथा । यथायथं रणे प्राप्ता निन्युर्मुत्युमुखं रिपून् ॥२७॥ रामकृष्णसुतैः संख्ये निःसंख्यशरवर्षिभिः । यथेष्टं क्रीडितं मेवैः पर्वतेष्विव वैरिषु ॥ २८ ॥ पाण्डवानां सपुत्राणां धृतराष्ट्रसुतैः सह । कदनं यद् बभूवात्र तत्कः कथयितुं क्षमः ॥२९॥
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सामने आ गयीं ॥१४॥ क्रोधकी अधिकतासे भौंहे टेढ़ी हो जानेके कारण जिनके मुख विषम हो रहे थे ऐसे दोनों पक्षके राजा परस्पर एक-दूसरेको ललकारकर यथायोग्य युद्ध करने लगे ||१५|| हाथी हाथियों के साथ, घोड़े घोड़ोंके साथ, रथ रथोंके साथ और पैदल पैदलोंके साथ युद्ध करने लगे ॥ १६ ॥ उस समय प्रत्यंचाओंके शब्द, रथोंकी चीत्कार, हाथियोंकी गर्जना और योद्धाओं के सिंहनादसे दशों दिशाएं फटी-सी जा रही थीं ॥१७॥
तदनन्तर शत्रुसेनाको प्रबल और अपनी सेनाको नष्ट करती देख, बेल, हाथी और वानरकी ध्वजा धारण करनेवाले नेमिनाथ, अर्जुन और अनावृष्टि, कृष्णका अभिप्राय जान स्वयं युद्ध करनेके लिए उद्यत हुए और चक्रव्यूहके भेदन करनेका निश्चय कर पूर्ण तैयारीके साथ आगे बढ़े ।। १८-१९।। भगवान्ने शत्रुओंको भय उत्पन्न करनेवाला अपना शाक ( इन्द्रप्रदत्त ) नामक शंख फूँका, अर्जुनने देवदत्त और सेनापति अनावृष्टिने बलाहक नामका शंख बजाया ||२०|| तदनन्तर इन शंखोंके दिगन्तव्यापी शब्द सुनकर अपनी सेनामें महान् उत्साह उत्पन्न हुआ और शत्रुकी सेना में महाभय छा गया || २१|| सेनापति अनावृष्टिने चक्रव्यूहका मध्य भाग, भगवान् नेमिनाथने दक्षिण भाग और अर्जुनने पश्चिमोत्तर भाग क्षण भरमें भेद डाला ||२२|| सेनापति अनावृष्टिका जरासन्धके सेनापति हिरण्यनाभने, भगवान् नेमिनाथका रुक्मीने और धैर्यशाली दुर्योधनने अर्जुनका सामना किया ||२३|| तत्पश्चात् अहंकारपूर्ण सेनासे युक्त एवं पाँचों प्रकारके शस्त्र बरसानेवाले उन वीरों का यथायोग्य महायुद्ध हुआ ||२४|| अप्सराओंके समूहके साथ आकाशमें दूर खड़ा कलहप्रिय नारद पुष्पवर्षा करता हुआ हर्षसे नाच रहा था || २५ || भगवान् नेमिनाथने चिरकाल तक युद्ध करनेवाले रुक्मीको बाण-वर्षासे नीचे गिराकर हजारों शत्रुराजाओं को युद्ध में तितर-बितर कर दिया ||२६|| इसी प्रकार समुद्रविजय आदि भाइयों तथा उनके पुत्रोंने युद्ध में पहुँचकर शत्रुओंको मृत्युके मुख में पहुंचाया ||२७|| युद्ध में असंख्यात बाणोंकी वर्षा करनेवाले बलदेव और कृष्णके पुत्रों, पर्वतोंपर बहुत भारी जलवर्षा करनेवाले मेघोंके समान शत्रुओंके बीच इच्छानुसार क्रीड़ा की ||२८|| पुत्रों सहित पाण्डवों का धृतराष्ट्र के पुत्रोंके साथ जो युद्ध हुआ था उसे कहने के लिए कौन
१. राजानं म. । २. समालग्ना म. । ३. बलाहकः । ४. संबन्ध म., क., ग. । ५. युद्धे ।
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एकपञ्चाशत्तमः सर्गः
५९५ युधिष्ठिरोऽत्र शल्येन मीमो दुश्शासनेन तु । सहदेवः शकुनिना ह्युलूको नकुलेन हि ॥३०॥ दुर्योधनार्जुनौ योद्धं लग्नौ युद्ध ततस्तयोः । बभूव भूतवित्रासी शरसन्धानदक्षयोः ॥३१॥ निहताः पाण्डवैः केचिद् धृतराष्ट्रशरीरजाः । रणे दुर्योधनाद्यास्तु केचिजीवन्मृताः कृताः ॥३२॥ आकर्णाकृष्टचापौधैः कर्णोऽभिमुखमागतान् । योधान् बिभेद संग्रामे कृष्णपक्षाननेकशः ॥३३॥ द्वन्द्वयुद्धे तदा जाते बहुभूतक्षयावहे । सेनापत्योरभद्रौद कदनं विविधायुधैः ॥३४॥ हिरण्यनाभवीरेण स सप्तमिः शरैः शतैः । नवत्या सप्तविंशत्याविद्धोऽनावृष्टिराहवे ॥३५॥ प्रजघान शतेनासौ सहस्रेण च पत्रिणाम् । अनावृष्टिर्हिरण्याभं कुशलः प्रतिकर्मणि ॥३॥ यादवस्य ध्वजं तुङ्गं चिच्छेद रुधिरात्मजः । सोऽपि चास्य बिभेदाशु चापं छत्रं च सारथिम् ॥३७॥ धनुरन्यदुपादाय शरवर्ष ववर्ष सः । परिघं तु यदुः क्षिप्त्वा रथं शत्रोरपातयत् ॥३८॥ खड्गखेटकहस्तं तं आपतन्तमरिय॑दुः । खड्गखेटकहस्तोऽगाथादुत्तीर्य संमुखः ॥३९॥ प्रहारवञ्चनादानलाघवातिशयात्मनोः । असियुद्धममृद्घोरं सेनापत्योस्ततस्तयोः ॥४०॥ वार्णयखड्गधातेन प्रदत्तेन भुजे रिपुः । छिन्नबाहुद्वयोरस्कः पपात वसुधातले ॥४१॥ हते सेनापतौ तन्त्र चतुरङ्गबलं दुतम् । विद्रुतं शरणं प्राप्तं जरासन्धं महारणे ॥३२॥ तुष्टोऽनावृष्टिरप्याशु रथमारुह्य सैनिकैः । स्तूयमानो गतोऽभ्याशं रामकेशवयोस्ततः ॥४३॥ बलकेशववीराभ्यां वृषहस्तिकपिध्वजाः । चक्रव्यूहस्य भेत्तारः परिष्वक्ता महौजसः ॥४४॥
समर्थ है ? ।।२९।। युधिष्ठिर शल्यके साथ, भीम दुःशासनके साथ, सहदेव शकुनिके साथ और उलूक नकुलके साथ युद्ध कर रहे थे । ॥३०।। तदनन्तर दुर्योधन और अर्जुन युद्ध करनेके लिए तत्पर हुए सो बाणोंके चढ़ानेमें चतुर उन दोनोंका भूतोंको भयभीत करनेवाला भयंकर युद्ध हुआ ॥३१॥ पाण्डवोंने युद्ध में धृतराष्ट्र के कितने ही पुत्रोंको मार डाला और दुर्योधन आदि कितने ही पुत्रोंको जीवित रहते हुए भी मृतकके समान कर दिया ॥३२।। कर्णने, युद्ध में आये हुए कृष्णके पक्षके अनेक योद्धाओंको कान तक खोंचे हए बाणोंके समहसे नष्ट कर डाला ||३३|| उस समय जब दोनों ओरसे अनेक प्राणियोंका क्षय करनेवाला द्वन्द्व युद्ध हो रहा था तब दोनों पक्षके सेनापतियोंका नाना प्रकारके शस्त्रोंसे भयंकर यद्ध हा ||३४|| वीर हिरण्यनाभने यदधमें यादव सेनापति अनावष्टिको सात-सौ नब्बे बाणों द्वारा सत्ताईस बार घायल किया॥३५|| और बदला लेने में कुशल हिरण्यनाभने भी एक हजार बाणों द्वारा उसे सौ बार घायल किया ॥३६।। रुधिरके पुत्र हिरण्यनाभने अनावृष्टिकी ऊंची ध्वजा छेद डाली और अनावृष्टिने शीघ्र ही उसके धनुष, छत्र और सारथिको भेद डाला ॥३७।। हिरण्यनाभने दूसरा धनुष लेकर बाणोंकी वर्षा शुरू की और अनावृष्टिने परिघ फेंककर शत्रुका रथ गिरा दिया ॥३८।। अब हिरण्यनाभ तलवार और ढाल हाथमें ले सामने आया तो अनावृष्टि भी तलवार और ढाल हाथमें ले रथसे उतरकर उसके सामने गया ।।३९।। तदनन्तर प्रहारके बचाने और प्रहारके देनेको बहुत भारी कुशलतासे युक्त दोनों सेनापतियोंमें भयंकर खड्ग
युद्ध होता रहा ॥४०॥
____ अन्तमें अनावृष्टिने हिरण्यनाभकी भुजाओंपर तलवारका घातक प्रहार किया जिससे उसकी दोनों भुजाएँ कट गयीं, छाती फट गयो और वह प्राणरहित हो पृथ्वीपर गिर पड़ा ।।४१।। सेनापतिके मरनेपर उसको चतुरंग सेना शीघ्र ही भागकर युद्ध में जरासन्धकी शरणके पहुँची ॥४२।। तदनन्तर सैनिक लोग जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसा अनावृष्टि, सन्तुष्ट हो शीघ्र ही रथपर बैठकर बलदेव और कृष्णके समीप गया ।।४३।। बलदेव और श्रीकृष्णने चक्रव्यूहको
१. निहिताः म. । २. भयावहं । ३. जरासंधमहारणे म.। ४. समीपं म. ।
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हरिवंशपुराणे
पृथ्वीच्छन्दः विषादविषदूषितं मगधराजसैन्यं ततो निवेशमगर्मन्निजं लघु दिवाकरेऽस्तङ्गते । नितान्तपृथुहर्षपूर्णमतिघूर्णमानार्णव-प्रमाणमरिमङ्गतो यदुयबलं जिनश्रीयुतम् ॥४५॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो हिरण्यनाभवधवर्णनो
नामैकपञ्चाशत्तमः सर्गः ॥५१॥
भेदनेवाले महापराक्रमो नेमिनाथ अर्जुन और अनावृष्टिका आलिंगन किया ॥४४॥ तदनन्तर उधर सूर्यास्त होनेपर विषादरूपी विषसे दूषित जरासन्धकी सेना शीघ्र ही अपने निवासस्थानपर चली गयी और इधर जिनराज श्री नेमिनाथ भगवान्की लक्ष्मीसे युक्त यादवोंकी सेना, शत्रुके नाशसे अत्यधिक हर्षित एवं लहराते हुए समुद्रके समान झूमतो हुई अपने निवासस्थानपर आ गयो॥४५॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें हिरण्यनाभके
वधका वर्णन करनेवाला इक्यावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥५१॥
१. मगमं निजे म.।
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द्वापञ्चाशः सर्गः
अन्येद्युर्द्युद्युमणिद्योतद्योतिते भुवनोदरे । संनद्वौ निर्गतौ योद्धुं बलैर्मागध माधवौ ॥ १ ॥ विधाय पूर्ववद् ब्यूहौ बलद्वयमधिष्ठितम् । नानाराजन्यविन्यासमन्योन्यं हन्तुमुद्यतम् ॥२॥ रथस्थो मागधो युद्धे हंसकं निजमन्त्रिणम् । अन्तिकस्थमिति प्राह यादवानभिवीक्ष्य सः ॥३॥ प्रत्येकं नाम चिह्नाद्यैर्यदूनां चश्व हलक । किमन्यैरत्र निहतैरित्युक्ते संजगाविति ॥४॥ फेनपुञ्जप्रतीकाशैर्हयैः काञ्चनदामभिः । रथोऽर्करथवदृश्यः कृष्णस्य गरुडध्वजः ॥५॥ शुकवर्णसमैरश्वैर्युक्तोऽयं स्वर्णशृङ्खलैः । अरिष्टनेमिवीरस्य वृषकेतुर्महारथः ॥ ६॥ कृष्णदक्षिणपाश्र्वेश्वरिष्टवर्णैस्तुरङ्गमैः । रथस्तालध्वजो राजन् बलदेयस्य राजते ॥७॥ कृष्ण हयैर्युक्तो भ्राजतेऽयं महारथः । अनीकाधिपतेरत्र कपिकेतूपलक्षितः ॥ ८ ॥ नील केसर बाला ग्रैर्हयै है मपरिष्कृतैः । रथो युधिष्टिरस्यायं पाण्डवस्य विराजते ॥९॥ शशाङ्कविशदैरश्वै मातरिश्वजवैर्वृतः । गजध्वजयुतो माति सव्यसाचिरथो महान् ॥१०॥ नीलोत्पलनिभैरेप युक्तो ययुभिरीक्ष्यते । रथो वृकोदरस्यापि मणिकाञ्चनभूषणः ॥ ११ ॥ शोणवर्णैर्हयैर्भाति समुद्रविजयस्य हि । मध्ये यादवसैन्यानां महासिंहध्वजो रथः ॥१२॥ अक्रूरस्य कुमारस्य रथोऽसौ कदलीध्वजः । सबलैर्वाजिभिर्भाति रुक्मविद्रुममास्वरः ॥१३॥
दूसरे दिन जब संसारका मध्य भाग सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित हो गया तब जरासन्ध और कृष्ण युद्ध करनेके लिए तैयार हो अपनी-अपनी सेनाओंके साथ बाहर निकले ||१|| तदनन्तर जो पहले के समान व्यूहों की रचना कर स्थित थीं और जिनमें अनेक राजा लोग यथास्थान स्थित थे ऐसी दोनों सेनाएँ परस्पर एक दूसरेका घात करने के लिए उद्यत हुईं ||२|| युद्ध के मैदान में आकर रथपर बैठा जरासन्ध, यादवोंको देखकर अपने समीपवर्ती हंसक मन्त्रीसे बोला कि हे हंसक ! यादवों में प्रत्येकके नाम-चिह्न आदि तो बता. जिससे में उन्हींको देखूं अन्य लोगोंके मारने से क्या लाभ है ? इस प्रकार कहनेपर हंसक बोला- ॥३-४॥
हे स्वामिन्! जिसमें सुवर्णमयी सांकलोंसे युक्त फेनके समान सफेद घोड़े जुते हुए हैं और जिसपर गरुड़की ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह सूर्यके रथके समान देदीप्यमान कृष्णका रथ दिखाई दे रहा है ||५|| जो सुवर्णमयी साँकलोंसे युक्त तोते के समान हरे रंगके घोड़ोंसे युक्त है तथा जिसपर बेलकी पताका फहरा रही है ऐसा यह शूर-वीर अरिष्टनेमिका रथ है || ६ || हे राजन् ! जो कृष्णकी दाहिनी ओर रीठाके समान वर्णवाले घोड़ोंसे जुता हुआ है तथा जिसपर तालकी ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बलदेवका रथ सुशोभित हो रहा है ||७|| इधर यह कृष्णवर्णके घोड़ोंसे युक्त एवं वानरको ध्वजासे सहित जो बड़ा भारी रथ दिखाई दे रहा है वह सेनापतिका रथ है || ८|| उधर सुवर्णमयी सांकलोंसे युक्त, गरदनके नीले-नीले बालोंवाले घोड़ोंसे जुता हुआ यह पाण्डु राजाके पुत्र युधिष्ठिरका रथ सुशोभित हो रहा है ||९|| जो चन्द्रमाके समान सफेद एवं वायुके समान वेगशाली घोड़ोंसे जुता हुआ है तथा जिसपर हाथीकी ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह बड़ा भारी अर्जुनका रथ है ||१०|| जो नील कमलके समान नीले-नीले घोड़ोंसे युक्त है तथा जिसपर मणिमय और सुवर्णमय आभूषण सुशोभित हैं ऐसा यह भीमसेनका रथ है ॥ ११ ॥ वह यादवोंकी सेना के बीच में लाल रंगके घोड़ोंसे जुता हुआ तथा बड़े-बड़े सिंहोंकी ध्वजासे युक्त समुद्रविजयका रथ सुशोभित हो रहा है || १२|| वह कुमार अक्रूरका रथ सुशोभित है जो कदलीकी १. मुद्यतो म । २. अश्वः ।
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हरिवंशपुराणे
हयैस्तित्तिरकल्माषैः सत्यकस्य महारथः । महानेमिकुमारस्य कौमुदैर्वाजिमी रथः ॥ १४ ॥ चामीकरबृहद्दण्डपताकाध्वजभूषितः । 'शुकतुण्डनिभैरश्वै मजस्यैष महारथः ॥ १५॥ अश्वैः कनकपृष्ठ्यैर्यो युक्तैर्माति महारथः । असौ जरत्कुमारस्य मृगकेतोर्विराजते ॥१६॥ शुक्लः सोमसुतस्यैष सिंहलस्य विराजते । काम्बोजैर्वाजिभिर्युक्तो रथोऽश्वरथमास्वरः ॥ १७॥ अश्वैरारक्तस बलैर्मरुराजस्य राजते । रथः काञ्चनचित्राङ्गः शंशुमाराकृतिध्वजः ॥१८॥ रथः पद्मरथस्यैष पद्माभैस्तुरगैर्युतः । शोमते रणशूरस्यं बलानामग्रतः स्थितः ॥ १९ ॥ 3 पारावतनिभैः पत्रैः सारणस्य त्रिहायनैः । तपनीयच्छदैर्माति रथोऽसौ पुष्करध्वजः ॥ २० ॥ शशलोहितसंकाशैर्वाजिभिः पञ्चहायनैः । रथो नग्नजितः सूनोर्मेरुदत्तस्य काशते ॥२१॥ वाजिभिः पञ्चवर्णैर्यो रथो भाति रविप्रभः । विदूरथकुमारस्य जवनः कलशध्वजः ॥२२॥ सर्ववर्ण निभैरश्वैर्यादवानां तरस्विनाम् । न शक्यन्ते रथाः प्रोक्तुं शतशोऽथ सहस्रशः ॥२३॥ अस्माकं नृपवीराणां रथान् वेत्सि यथायथम् । कुमाराणां च सर्वेषां नानाचिह्नान्महारथान् ॥२४॥ क्षत्रियैर्बहुभिर्युक्तो नानादेशसमागतैः । शोभते भवतो व्यूहो रिपुसेनाभयंकरः ॥ २५ ॥ तदाकर्ण्य निजं प्राह सारथिं मगधेश्वरः । यादवान् प्रति शोघ्रं त्वं रथं नोदय सारथे ! ॥ २६॥ नोदितेऽथ रथे तेन लग्नश्छादयितुं नृपेट् । यादवानमितः सर्वान् शरासारैर्निरन्तरैः ॥२७॥
५९८
ध्वजा सहित है, बलवान् घोड़ोंसे युक्त है तथा सुवर्ण और मूँगाओंसे देदीप्यमान हो रहा है ||१३|| तीतरके समान मटमैले घोड़ोंसे युक्त रथ सत्यकका है और कुमुदके समान सफेद घोड़ोंसे जुता रथ महानेमिकुमारका है ॥ १४॥ जो सुवर्णमय विशाल दण्डकी पताकासे शोभित है तथा तोतेकी चोंचके समान लाल-लाल घोड़ोंसे युक्त है ऐसा यह भोजका महारथ है ।। १५ ।। जो सुवर्णमय पलान से युक्त जुते हुए घोड़ोंसे सुशोभित है ऐसा वह हरिणकी ध्वजाके धारक जरत्कुमारका रथ सुशोभित हो रहा है ॥ १६ ॥ | वह जो काम्बोजके घोड़ोसे युक्त, सूर्यके रथके समान देदीप्यमान सफेद रंगका रथ सुशोभित हो रहा है वह राजा सोमके पुत्र सिंहलका रथ है ॥ १७॥ जो सुवर्णमय आभूषणों से चित्र-विचित्र शरीरके धारक कुछ-कुछ लाल रंगके घोड़ोंसे जुता हुआ है तथा जिसपर मत्स्यकी ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह मरुराजका रथ सुशोभित हो रहा है ||१८|| यह जो कमलके समान आभावाले घोड़ोंसे जुता, सेनाओंके आगे स्थित है वह रणवीर राजा पद्मरथका रथ सुशोभित है ॥ १९ ॥ वह जो सुवर्णमयी झूलोंसे युक्त कबूतरके समान रंगवाले तीन वर्षके घोड़ोंसे जुता, एवं कमलकी ध्वजासे सहित रथ सुशोभित हो रहा है वह सारणका है ||२०|| जो सफेद और लाल रंगके पांच वर्षके घोड़ोंसे जुता है ऐसा वह नग्नजित् के पुत्र मेरुदत्तका रथ प्रकाशमान है ||२१|| जो पांच वर्णके घोड़ोंसे जुता है, सूर्यके समान देदीप्यमान है और जिसपर कलशकी ध्वजा फहरा रही है ऐसा यह कुमार विदूरथका वेगशाली रथ सुशोभित है ||२२|| इस प्रकार बलवान् यादवोंके रथ सब रंगके घोड़ोंसे सहित हैं तथा वे सैकड़ों या हजारों की संख्या में हैं, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ||२३|| अपने पक्षके शूर-वीर राजाओं तथा समस्त राजकुमारोंके नाना चिह्नोंसे युक्त रथोंको आप यथायोग्य जानते ही हैं ||२४|| नाना देशोंसे आये हुए अनेक क्षत्रियोंसे युक्त आपका यह व्यूह अत्यन्त शोभित हो रहा है तथा शत्रु सेना के लिए भय उत्पन्न कर रहा है ||२५||
यह सुनकर जरासन्धने अपने सारथिसे कहा कि हे सारथि ! तू मेरा रथ शीघ्र ही यादवों की ओर ले चल ||२६|| तदनन्तर सारथिने रथ आगे बढ़ाया और जरासन्ध लगातार
१. शुकदण्ड- म । २. मनुराजस्य क., मेरुराजस्य म । ३. पारावती म । ४. बृहद्ध्वजः म ख 1 ५. रथान् म. ।
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द्वापश्चाशः सर्गः
जरासन्धसुतास्तत्र यादवैः सह कोपिनः । यथायथं स्थादिस्था रणक्रीडा प्रचक्रिरे ॥२८॥ स कालयवनः काल इव स्वयमुपागतः । गजं सलयनामानमारूडो युयुधेऽधिकम् ॥२९॥ सहदेव इति ख्यातो द्रुमसेनो दुमस्तथा । जलचित्रादिको केतू धनुर्धरमहीजयौ ॥१०॥ स मानुः काञ्चनरथो दुर्धरो गन्धमादनः । सिंहाङ्कश्चित्र माली च महीपालबृहद्ध्वजौ ॥३१॥ सुवीरादित्यनागाख्यो सत्यसत्त्वसुदर्शनी । धनपालशतानीको महाशुक्रमहावसू ॥३२॥ वीराख्यो गङ्गदत्तश्च प्रवरः पार्थिवाभिधः । चित्राङ्गदो वसुगिरिः श्रीमान् सिंहकटिः स्फुटः ॥३३॥ मेघनादमहानादौ सिंहनादवसुध्वजौ । वज्रनाममहाबाहू जितशत्रुपुरंदरौ ॥३४॥ अजिताजितशत्रू च देवानन्दशतद्रुतौ । मन्दरो हिसवान्नाम्ना तौ विद्युत् केतुमालिनौ ॥३५॥ कर्कोटकदृषीकेशौ देवदत्तधनंजयो । सगरस्वर्णबाहू च मद्यवानच्युतोऽपि च ॥३६॥ दुर्जयो दुर्मुखश्चापि तथा वासुकिकम्बलौ । त्रिशिरा धारणामिख्यो माल्यवान् संभवामिधः ॥३७॥ महापद्मो महानागो महासेनो महाजयः । वासदो वरुणाभिख्यः शतानीकोऽपि भास्करः ॥३८॥ गरुत्मान् वेणुदारी च वासुवेगशशिप्रभो। वरुणादित्यधर्माणी विष्णुस्वामी सहस्रदिक ॥३९॥ केतुमाली महामाली चन्द्रदेवो बृहद्वलिः । सहस्ररश्मिरर्चिष्मान् जघ्नुर्मागधसूनवः ॥४०॥ 'पतन् मनुजमातङ्गतुरङ्गरथसंकटे । स कालयवनो युद्धे निरुद्धो वसुदेवजैः ॥४१॥ तेषां तस्य च संग्रामो यशःसंग्रहकारिणाम् । अन्योन्याक्षेपिवाक्याला प्रवृत्तो वार्तसंकथम् ॥४२॥ छन्ना तेन कुमाराणां शिरोमी रुधिरारुणः । चक्रनाराचनिभिन्नैः पङ्कजैरिव भूरभात् ॥४३॥ सारणेन कुमारेण स कालयवनो रुषा । नीतः खड्गप्रहारेण कालस्य सदनं चिरात् ॥४४॥
नोपर स्थित
बाणोंको वर्षासे समस्त यादवोंको आच्छादित करने लगा ॥२७॥ रथ आदि वाहनों क्रोधसे भरे जरासन्धके पुत्र भी यादवोंके साथ यथायोग्य रणक्रीड़ा करने लगे॥२८॥ राजा जरासन्धका सबसे बड़ा पुत्र कालयवन जो आये हुए साक्षात् यमराजके समान जान पड़ता था, मलय नायक हाथीपर सवार हो अधिक युद्ध करने लगा ॥२९|| इसके सिवाय सहदेव, द्रुमसेन, द्रुम, जलकेतु, चित्रकेतु, धनुर्धर, महीजय, भानु, कांचनरथ, दुर्धर, गन्धमादन, सिंहांक, चित्रमाली, महीपाल, बृहद्ध्वज, सुवीर, आदित्यनाग, सत्यसत्त्व, सुदर्शन, धनपाल, शतानीक, महाशुक्र, महावसु, वीराख्य, गंगदत्त, प्रवर, पार्थिव, चित्रांगद, वसुगिरि, श्रीमान्, सिंहकटि, स्फुट, मेघनाद, महानाद, सिंहनाद, वसुध्वज, वज्रनाभ, महाबाहु, जितशत्रु, पुरन्दर, अजित, अजितशत्रु, देवानन्द, शतद्रुत, मन्दर, हिमवान्, विद्युत्केतु, माली, कर्कोटक, हृषीकेश, देवदत्त, धनंजय, सगर, स्वर्णबाहु, मद्यवान, अच्युत, दुर्जय, दुर्मख, वासुकि, कम्बल, त्रिशिरस, धारण, माल्यवान, सम्भव. महापद्म. महानाग, महासेन, महाजय, वासव, वरुण, शतानीक, भास्कर, गरुत्मान्, वेणुदारी, वासुवेग, शशिप्रभ, वरुण, आदित्यधर्मा, विष्णुस्वामी, सहस्रदिक्, केतुमाली, महामाली, चन्द्रदेव, बृहद्वलि, सहस्ररश्मि और अचिष्मान् आदि जरासन्धके पुत्र प्रहार करने लगे ॥३०-४०॥ गिरते हुए मनुष्य, हाथी, घोड़े और रथोंसे व्याप्त युद्ध में कालयवनको वसुदेवके पुत्रोंने घेर लिया ।।४१।। तदनन्तर यशका संग्रह करनेवाले एवं एक-दूसरेके प्रति निन्दात्मक वाक्योंका प्रयोग करनेवाले उन कुमारों
और कालयवनका भयंकर संग्राम हुआ। संग्रामके समय वे अहंकारवश व्यर्थको डींगे भी हांक रहे थे ॥४२॥ कालयवनने चक्र, नाराच आदि शस्त्रोंसे कितने ही कुमारोंके शिर छेद डाले जिससे खूनके लथ-पथ उन कटे हुए शिरोंसे पृथ्वो ऐसी सुशोभित होने लगी मानो कमलोंसे ही सुशोभित हो रही हो ।।४३।। यह देख कुमार सारणने क्रोधमें आकर एक ही तलवारके प्रहारसे कालयवनको
१. महीधरौ म. । २. विष्णु-म. । ३. जघ्नो म. । ४. तपन म. ।
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६००
हरिवंशपुराणे कृष्णेनामिमुखीभूता मागधस्य सुताः परे। शूरा मृत्युमुखं नीतास्तेऽर्धचन्द्रः शिरश्छिदा ॥४५! ततः स्वयं जरासन्धः कृष्णस्यामिमुखं रुषा । दधाव धनुरास्फाल्य रथस्थो रथवर्तिनः ॥४६॥ अन्योन्याक्षेपिणोर्युद्धं तयोरुद्धतवीर्ययोः । अस्पैः स्वामाविकैर्दिव्यैरभूदस्यन्तभीषणम् ॥४॥ अस्त्रं नागसहस्राणां सृष्टप्रज्वलनप्रभम् । माधवस्य वधायासौ क्षिप्रं चिशेप मागधः ॥४॥ अमूढमानसः शौरि गनाशाय गारुडम् । अस्त्रं चिक्षेप तेनाशु ग्रस्तं नागास्त्रमग्रतः ॥१९॥ अस्त्रं संवर्तकं रौद्रं विससर्ज स मागधः । तन्महाश्वसनास्त्रेण माधवोऽपि निराकरोत् ॥५०॥ वायव्यं व्यमुचच्छस्त्रमस्त्रविन्मगधेश्वरः । अन्तरिक्षेण वास्त्रेण व्याक्षिपत्तदधोक्षजः ॥५१॥ अग्निसात्करणे सक्तमस्त्रमाग्नेयमुज्ज्वलम् । मागधक्षिप्तमाक्षिप्तं वारुणास्त्रेण शौरिणा ॥५२॥ अस्त्रं वैरोचनं मुक्तं मागधेन्द्रेण रोषिणा। उपेन्द्रेणापि तदुरान्माहेन्द्रास्त्रेण दारितम् ॥५३॥ राक्षसास्त्रं रिपुक्षिप्तं क्षिप्रं नारायणो रणे । क्षिप्त्वा नारायणास्त्रेण सोऽरीणां तिमाहरत् ॥५४॥ तामसास्त्रं परिक्षिप्तं मास्करास्त्रेण सोऽमिनत् । अश्वग्रीवास्त्रमत्युग्रं दागब्रह्मशिरसारुणत् ॥५५॥ दिव्यान्यन्यानि चास्त्राणि क्षिप्तानि प्रतिशत्रुणा । प्रतिक्षिप्य निरायामो वासुदेवोऽवतिष्ठते ॥५६॥ तथा व्यर्थप्रयासोऽसौ क्षितिक्षिप्तशरासनः । रक्ष्यं यक्षसहस्रेण चक्ररस्नमचिन्तयत् ॥५७।।
चिरकालके लिए यमराजके घर भेज दिया ।।४४।। जरासन्धके शेष शूर-वीर पुत्र युद्ध के लिए सामने आये तो अर्धचन्द्र बाणोंके द्वारा शिर काटनेवाले कृष्णने उन्हें मृत्युके मुखमें पहुंचा दिया ।।४५।।
तदनन्तर स्वयं जरासन्ध, क्रोधवश धनुष तानकर रथपर सवार हो, रथपर बैठहए कृष्णके सामने दौड़ा ।।४६।। दोनों ही एक-दूसरेके प्रति तिरस्कारके शब्द कह रहे थे तथा दोनों ही उत्कट वीर्यके धारक थे इसलिए दोनोंमें स्वाभाविक एवं दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे भयंकर युद्ध होने लगा ॥४७|| उधर जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिए शीघ्र हो अग्निके समान देदीप्यमान प्रभाका धारक नागास्त्र छोड़ा ॥४८॥ इधर सावधान चित्तके धारक कृष्णने नागास्त्रको नष्ट करनेके लिए गारुड़ अस्त्र छोड़ा और उसने शोघ्र ही आगे बढ़कर उस नागास्त्रको ग्रस लिया ।।४९।। जरासन्धने प्रलयकालके मेघके समान भयंकर वर्षा करनेवाला संवतंक अस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने भी महाश्वसन नामक अनके द्वारा तीव्र आँधी चलाकर उसे दूर कर दिया ॥५०॥ अस्त्रोंके प्रयोगको जाननेवाले जरासन्धने वायव्य अत्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने अन्तरीक्ष अनके द्वारा उसका तत्काल निराकरण कर दिया ॥५१॥
जरासन्धने जलाने में समर्थ देदीप्यमान आग्नेय बाण छोड़ा तो कृष्णने वारुणालके द्वारा उसे दूर कर दिया ॥५२।। क्रोधमें आकर जरासन्धने वैरोचन शस्त्र छोड़ा तो श्रीकृष्णने माहेन्द्र अखसे उसे दूरसे ही नष्ट कर दिया ॥५३|| शत्रुने युद्ध में राक्षसबाण छोड़ा तो कृष्णने शीघ्र ही नारायण अस्त्र चलाकर शत्रुओंके छक्के छुड़ा दिये ॥५४॥ जरासन्धने तामसान चलाया तो कृष्णने भास्कर अनके द्वारा उसे नष्ट कर दिया । और जरासन्धने अश्वग्रीव नामक अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र चलाया तो कृष्णने ब्रह्मशिरस नामक शस्त्रसे उसे तत्काल रोक दिया॥५५॥ इनके सिवाय शत्रुने और भी दिव्य अस्त्र चलाये परन्तु कृष्ण उन सबका निराकरण कर ज्योंके-त्यों स्थिर खड़े रहेउनका बाल भी बांका नहीं हुआ ॥५६॥
इस प्रकार जब जरासन्धका समस्त प्रयास व्यर्थ हो गया तब उसने धनुष पृथ्वीपर फेंक दिया और हजार यक्षोंके द्वारा रक्षित चक्ररत्नका चिन्तवन किया ॥५७॥ चिन्तवन
३. उपेन्द्रेण च दारितं ख.।
४. शौरिणां म.।
१. भीषणः म.। २. व्याक्षिप्यत्तदधोक्षजः क.। ५. चिक्षेपारुणदारुणः म.। ६.ऽधितिष्ठते म.।
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द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः
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चिन्तानन्तरमेवात्र सहस्रकिरणप्रभम् । चक्रं दिकचक्रविद्योति मागधस्य करे स्थितम् ॥५॥ नानास्त्रव्यर्थताक्रुद्धश्चक्रं 'प्रभ्रश्य मागधः । माधवं प्रतिचिक्षेप क्षिप्रं भ्रूभङ्गभीषणः ॥५९॥ नभस्यागच्छतस्तस्य विच्छायीकृतभास्वतः । यथास्वं चिक्षिपुः सर्वे चक्राण्यन्येऽपि मभृतः ॥६॥ शाङ्गो शक्तिगदाद्यानि हलं समुसलं हली । गदा वृकोदरः पार्थो नानास्त्राण्यत्रपार्थिवः ॥६१॥ सेनानीः परिघं शक्ति युधिष्ठिरनृपस्तथा । तस्य तु प्रतिघातार्थमुद्गीर्णाशीसमं ययौ ॥६२॥ समुद्र विजयाक्षोभ्यप्रभृतिभ्रातरो भृशम् । अप्रमत्ता महास्त्राणि प्रतिचक्रं प्रचिक्षिपुः ॥६॥ नेमीशस्त्ववधिज्ञातमाविकार्यगतिस्थितिः । चक्रस्याभिमुखश्चक्रे विष्णुनैव सह स्थितिम् ॥६॥ वार्यमाणं तु तच्चक्रमस्वचक्रेण भूभृताम् । विस्फुरद्विस्फुलिङ्गौघं शनैरागत्य मित्रवत् ॥६५॥ सह प्रदक्षिणीकृत्य भगवन्नमिना हरिम् । तत्करे दक्षिणे तस्थौ शङ्खचक्राशाङ्किते ॥६६॥ ब्योम्नि दुन्दमयो नेदरपतन्पुष्पवृष्टयः । नवमी वासुदेवोऽयमिति देवा जस्तदा ॥६॥ सुगन्धितायुभिः सार्धमनुकूलरलं तदा । हृदयैर्यदुवीराणां समुच्छ्वसितमायुधम् ॥६८॥ 'चक्रहस्तं हरिं दृष्टा संयुगे मगधाधिपः । दध्यौ चक्रपरावृत्तिरन्यथेयमभूदिति ॥१९॥ चक्रविक्रमसंभारसमाक्रान्तदिगन्तरः । त्रिखण्डाधिपतिश्चण्डो जातः खण्डितपौरुषः ॥१०॥ चतुरङ्गबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृत्तावदेवात्र यावद्दवबलं परम् ॥७॥ दैवे तु विकले कालपौरुषादिनिरर्थकः । इति यत्कथ्यते विद्भिस्तत्तथ्यमिति नान्यथा ॥२॥
करते ही सूर्यके समान देदीप्यमान तथा दिशाओंके समूहको प्रकाशित करनेवाला चक्ररत्न जरासन्धके हाथमें आकर स्थित हो गया ॥५८॥ नाना शस्त्रोंके व्यर्थ हो जानेसे जिसका क्रोध बढ़ रहा था तथा जो भृकुटिके भंगसे अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था, ऐसे जरासन्धने घुमाकर शीघ्र ही वह चक्ररत्न कृष्णकी ओर फेंका ।।५९|| जिसने अपनी कान्तिसे सूर्यको फीका कर दिया था ऐसे आकाश में आते हुए उस चक्ररत्नको नष्ट करनेके लिए कृष्णपक्षके अन्य समस्त राजाओंने भी यथायोग्य चक्र छोड़े ॥६०॥ श्रीकृष्ण शक्ति तथा गदा आदि लेकर, बलदेव हल और मूसल लेकर, भीमसेन गदा लेकर, अस्त्रविद्याके राजा अर्जुन नाना अस्त्र लेकर, सेनापति-अनावृष्टि परिघ लेकर और युधिष्ठिर प्रकट हुए साँपके समान शक्तिको लेकर आगे आये ॥६१-६२।। समुद्रविजय तथा अक्षोभ्य आदि भाई अत्यन्त सावधान होकर उस चक्ररत्नकी ओर महा अस्त्र छोड़ने लगे ॥६३।। किन्त भगवान नेमिनाथ, अवधि-ज्ञानके द्वारा आगामी कार्यको गतिविधिको अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे कृष्णके साथ ही चक्ररत्नके सामने खड़े रहे ॥६४॥ राजाओंके अस्त्रसमूह जिसे रोक रहे थे तथा जिससे देदीप्यमान तिलगोंके समूह निकल रहे थे ऐसा वह चक्ररत्न मित्रके समान धीरेधोरे पास आया और भगवान् नेमिनाथके साथ-साथ कृष्णकी प्रदक्षिणा देकर शंख, चक्र और अंकुशसे चिह्नित कृष्णके दाहिने हाथमें स्थित हो गया ॥६५-६६।। उसी समय आकाशमें दुन्दुभि बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी, और 'यह नौवां नारायण प्रकट हुआ है' इस प्रकार देव कहने लगे ॥६७|| अनुकूल एवं सुगन्धित वायु बहने लगी तथा वीर यादवोंके अस्त्र उनके हृदयोंके साथसाथ उच्छ्वसित हो उठे ॥६८॥ संग्राममें कृष्णको चक्र हाथमें लिये देख, जरासन्ध इस प्रकार विचार करने लगा कि हाय यह चक्र चलाना भी व्यर्थ हो गया ॥६९।। चक्ररत्न और पराक्रमके समूहसे जिसने समस्त दिशाओंको व्याप्त कर रखा था तथा जो तीन खण्डका शक्तिशाली अधिपति था ऐसा मैं आज पौरुषहीन हो गया-मेरा पुरुषार्थ खण्डित हो गया ||७०|| 'जबतक देवका बल प्रबल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र एवं पुरुषार्थ कार्यकारी होते हैं ।।७१॥ और दैवके निबंल होनेपर काल तथा पुरुषार्थ आदि निरर्थक हो जाते हैं...' यह जो विद्वानों द्वारा कहा १. प्रणम्य म.। २. मागधं म.। ३. चक्रहस्तहरि म.।
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हरिवंशपुराणे
गर्मेश्वरोऽहमन्येषामलङ्कयो महतामपि । प्रारब्धो जेतुमल्पेन गर्भादिक्लेशिना कथम् ॥७३॥ मज्जेतापि यदीदृक्षो दृष्टोऽत्र विधिना ततः । किमर्थं क्लेशितो बाल्ये गोकुले धिग्विधीहितम् ॥७४॥ लोकान्धीकरणे दक्षां धीरधैर्य विलोपिनीम् । बन्धकीमिव धिग्लक्ष्मीं परसंक्रमकाङ्क्षिणीम् ॥७५॥ ध्यायन्नित्यादि निश्चित्य मृत्युकालमुपस्थितम् । प्रकृत्यैव जरासन्धः कृष्णमित्याह निर्भयः ॥ ७६ ॥ क्षिप चक्रं किमर्थं त्वं गोप ! कालमुपेक्षसे । कालस्योरक्षेपको मुग्ध ! दीर्घसूत्री विनश्यति ॥७७॥ इत्युक्तस्तं प्रति प्राह प्रकृत्या प्रश्रयी हरिः । चक्रवत्यहमुद्भूतः शासने मम तिष्ठ मोः ॥७८॥ अपकारे प्रवृत्तस्त्वमस्माकं यद्यपि स्फुटम् । तथापि मृष्यतेऽस्माभिर्नतिमात्रप्रसादिभिः ॥७९॥ तथोदितः स तं प्राह प्रसभं 'गर्वनिर्भरः । चक्रं नालातचक्रं मे किमनेन स्मयं गतः ॥८०॥ अथवा दृष्ट कल्याणः स्वल्पेनाल्पः स्मयी भवेत् । न महान् दृष्टकल्याणः सस्मयो 'महतापि हि ॥ ८१ ॥ सह दशा चक्रे चक्रेणानेन च त्वकम् । नृपचक्रेण त्वामाशु समुद्रे प्रक्षिपामि भोः ||२|| इत्युक्ते कुपितश्चक्री चक्रं प्रभ्राम्य सोऽमुचत् । भूभृतस्तेन गत्वारं वक्षोभित्तिरभिद्यत ॥८३॥ आगतं च पुनः पाणि चक्रपाणेः क्षणेन तत् । प्रयुक्तस्य कृतार्थस्य कालक्षेपो हिं निष्फलः ॥८४॥ पाञ्चजन्यं हरिः शङ्खं दध्मौ यदुमनोहरम् । नेमिपार्थबलाग्रण्यो गण्या दष्मु निजाम्बुजम् ||८५||
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है
जाता है वह सत्य ही कहा जाता है रंचमात्र भी अन्यथा नहीं है || ७२ || मैं गर्भ से ही ईश्वर था और बड़ेसे-बड़े लोगों के लिए अलंघनीय था फिर भी गर्भके प्रारम्भसे ही क्लेश उठानेवाले एक छोटे-से व्यक्ति के द्वारा क्यों जीता जा रहा हूँ ? || ७३|| यदि ऐसा साधारण व्यक्ति भी, विधाताके द्वारा मेरा जीतनेवाला देखा गया था तो फिर इसे बाल्य अवस्था में गोकुल में नाना क्लेश क्यों उठाने पड़े ? इसलिए विधिकी इस चेष्टाको धिक्कार ||७४ || जो लोगोंको अन्धा बनानेमें दक्ष है, धीर-वीर मनुष्यों के भी धैर्यंको नष्ट करनेवाली है तथा जो वेश्या के समान अन्य पुरुषके पास जानेको इच्छा रखती है ऐसी इस लक्ष्मीको धिक्कार है ||७५ || इत्यादि विचार करते-करते जरासन्धको यद्यपि यह निश्चय हो चुका था कि हमारा मरणकाल आ चुका है तथापि वह प्रकृति से निर्भय होने के कारण कृष्णसे इस प्रकार बोला || ७६ || अरे गोप ! तू चक्र चला, व्यर्थ ही समयकी उपेक्षा क्यों कर रहा है ? अरे मूर्ख ! समयकी उपेक्षा करनेवाला दीर्घसूत्री मनुष्य अवश्य ही नष्ट होता है ||७७|| जरासन्धके इस प्रकार कहनेपर स्वभावसे विनयी कृष्णने उससे कहा कि मैं चक्रवर्ती उत्पन्न हो चुका हूँ इसलिए आजसे मेरे शासन में रहिए || ७८ || यद्यपि यह स्पष्ट है कि तुम हमारा अपकार करने में प्रवृत्त हो तथापि हम नमस्कार मात्रसे प्रसन्न हो तुम्हारे अपकारको क्षमा किये देते हैं ||७९|| श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर अहंकारसे भरे हुए जरासन्धने जोर देकर कहा - अरे यह चक्र तो मेरे लिए अलात चक्रके समान है तू इससे अहंकारको क्यों प्राप्त हो गया है ? ॥८०॥ अथवा जिसने कभी कल्याण देखा ही नहीं ऐसा क्षुद्र मनुष्य थोड़ा-सा वैभव पाकर ही अहंकार करने लगता है और जिसने कल्याण देखा है ऐसा महान् पुरुष बहुत भारी वैभव पाकर भी अहंकार नहीं करता ॥८१॥ मैं तुझे यादवोंके साथ, इस चक्र के साथ तथा तेरी सहायता करने - वाले अन्य राजाओंके साथ शीघ्र ही समुद्रमें फेंकता हूँ || ८२|| जरासन्धके इस प्रकार कहने पर चक्रवर्ती कृष्णने कुपित हो घुमाकर चक्ररत्न छोड़ा और उसने शीघ्र ही जाकर जरासन्धकी वक्षःस्थलरूपी भित्तिको भेद दिया ॥ ८३ ॥ वह चक्ररत्न जरासन्धको मारकर क्षण भरमें पुनः कृष्ण के हाथमें आ गया सो ठीक ही है क्योंकि भेजे हुए व्यक्तिके कृतकार्य हो चुकनेपर कालक्षेप करना निष्फल है || ८४ ॥ कृष्णने यादवोंके मनको हरण करनेवाला अपना पांचजन्य शंख फूँका १. क्लेदिना म । २. वैश्यामिव । ३. गर्भनिर्भर: म । ४. महतामपि म, ङ, ख । ५. वक्रेण ङ ६. प्रभृत्य ङ । ७. प्रभूतः म. 1
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द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः
वादित्रध्वनयो धीरा क्षुभिताब्धिस्वनोपमाः । प्रभूताः प्रादुरभवंस्तथैवाभयघोषणाः ॥ ८६ ॥ स्वसैन्यं परसैन्यं च संन्यस्तस्वभयं ततः । अनुक्तमप्यभूदेत्य वासुदेवस्य शासने ॥८७॥ नृपो दुर्योधनो द्रोणस्तथा दुश्शासनादयः । निर्विण्णा विदुरस्यान्ते जैनीं दीक्षां प्रपेदिरे ॥ ८८ ॥ कर्णः सुदर्शनोद्याने दीक्षां दमवरान्तिके । जग्राह रणदीक्षान्ते निर्वाणफलदायिनीम् ॥८९॥ तत्सुवर्णाक्षरं यत्र कर्णकुण्डलमस्यजत् । कर्णः कर्णसुवर्णाख्यं स्थानं तत्कीर्तितं जनैः ॥९०॥ गतो मातलिरापृच्छ्य सेवेयं स्वामिनोऽन्तिकम् । यादवाः शिविरस्थानं निजं जग्मुः सपार्थिवाः ॥ ९१ ॥
पृथ्वीच्छन्दः
निरीक्ष्य मधुसूदनेन युधि मारते मागधं हतं दिनकृदम्बुधावकृत मज्जनं सज्जनः । शुचा प्रकरोदनादिव दधन्मुखं दिग्मुखैर्जपाकुसुमपाटलं स्विच जलाअलेर्दित्सया ॥९२॥ व्रजन्ति खलु जन्तवः कृतशुभोदये संपदा प्रचण्डपुरुषान्तराक्रमणकारिणीं तरक्षये । भजेद्विपदमप्यतो जनमते जना निर्मलं कुरुध्वमपुनर्भवप्र भवहेतुभूतं तपः ॥ ९३ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती जरासन्धवधवर्णनो नाम द्वापञ्चाशत्तमः सर्गः ॥ ५२ ॥
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और भगवान् नेमिनाथ, अर्जुन तथा सेनापति अनावृष्टिने भी अपने-अपने शंख फूंके ॥ ८५॥ क्षोभको प्राप्त समुद्रके शब्दके समान बाजोंके गम्भीर शब्द होने लगे और चारों ओर अभय घोषणाएँ प्रकट की गयीं ॥ ८६ ॥ जिससे स्वसेना और परसेना अपना-अपना भय छोड़ बिना कुछ कहे हीचुपचाप आकर श्रीकृष्णकी आज्ञाकारिणी हो गयीं ||८७|| राजा दुर्योधन, द्रोण तथा दुःशासन आदिने संसारसे विरक्त हो मुनिराज विदुरके समीप जिनदीक्षा धारण कर ली ॥८८॥ राजा कर्णंने भी रणदीक्षाके बाद सुदर्शन नामक उद्यानमें दमवर मुनिराजके समीप मोक्षफलको देनेवाली दीक्षा ग्रहण कर ली ॥८९॥ राजा कर्णने जिस स्थानपर सुवर्णके अक्षरोंसे भूषित कणकुण्डल छोड़े थे उस स्थानको लोग कर्ण-सुवर्णं कहने लगे ॥९०॥ 'क्या मैं अपने स्वामीको सेवा करू ?' यह पूछकर मातलि अपने स्वामी इन्द्र के पास चला गया और यादव भी अन्य राजाओंके साथ अपनेअपने शिविर में चले गये ॥९१॥
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उस समय सूर्य अस्त हो गया और सन्ध्याकी लालिमा दशों दिशाओंमें फैल गयी, उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो संग्राम में श्रीकृष्ण द्वारा मारे गये जरासन्धको देखकर सहृदय सूर्य पहले तो शोकके कारण खूब रोया इसलिए उसका मुख जपाकुसुमके समान लाल हो गया और पश्चात् जलांजलि देनेकी इच्छासे उसने समुद्र में मज्जन किया है ॥ ९२ ॥ गोतम स्वामी कहते हैं कि ये संसारके प्राणी, शुभ कर्मका उदय होनेपर बड़े से बड़े पुरुषोंपर आक्रमण करनेवाली सम्पदा
प्राप्त होते हैं और शुभ कर्मका उदय नष्ट होनेपर विपत्तियाँ भी भोगते हैं इसलिए हे भक्तजनो ! जनमत में स्थिर हो मोक्ष प्राप्तिमें कारणभूत निर्मल तप करो ॥९३॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें जरासन्धके वधका वर्णन करनेवाला बावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||५२ ||
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त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः अथाभ्युदयमभ्येते हरिदश्वे हराविव । परालङ्घयमहातेजः' प्रसाधितहरिन्मुखे ॥१॥ कृतेषु व्रणभङ्गेपु प्रवीराणामितोऽमुतः । संस्कारेषु तथान्त्येषु जरासन्धादिभूभृताम् ॥२॥ आस्थाने ते यथास्थानं समुद्रविजयादयः । राजानो हरिणासीना वसुदेवागमोन्मुखाः ॥३॥ किमयं क्षेमवार्ता नो नाद्याप्यान दुन्दुभेः । सपुत्रनप्तृकस्यादि गतस्यति हि खैचरम् ॥४॥ इत्यन्योन्याश्रितालापास्ते नृपा यावदासते । धेनुवत्ससमस्वान्ता बालवृद्धपुरःसराः ॥५॥ तावदुद्योतिताशास्ता विद्याधर्यः खविद्युतः । वेगवत्या सहागय नागवध्वा कृताशिषः ॥६॥ 'जारद्य कृतार्था वो गुरुदत्ताशिषोऽखिलाः । सुतेन मागधो ध्वस्तो यच्च पित्रा नमश्चराः ॥७॥ सपुत्रनप्तृकः क्षेमी क्षेमिणां प्रणयी स वः । यथाज्येष्ठं नमस्यध्रीन् सुतानाश्लेषयत्यपि ॥८॥ इति श्रुत्वा प्रमोदेन ते प्रकृष्टतनूरुहाः । पप्रच्छुः खेचरास्तेन विजिताः कथमित्यमूः ॥९॥ ऊचे वनवती देवी वसुदेवहितोद्यता । श्रयतां वसुदेवस्य रणे सामर्थ्य मित्यसौ ॥२०॥ गत्वा स विजयार्धादि श्वसुरस्यालपूर्वकः । एकीभूय खगैः खेटानरुणगणदक्षिणः ॥१६॥ समग्रबलयुक्तास्ते ततस्तेन पुरस्कृताः । रणे मागधसाहाय्यं विरहय्य युधि स्थिताः ॥१२॥
__ अथानन्तर दूसरे दिन, शत्रुओंके द्वारा अलंध्य महातेजके द्वारा दिशाओंके मुखको अलंकृत करनेवाले कृष्णके समान जब सूर्य उदयको प्राप्त हुआ तब इधर यादवोंकी सेनामें सुभटोंके घाव अच्छे किये गये और उधर जरासन्ध आदि राजाओंके अन्तिम संस्कार सम्पन्न किये गये ॥१-२॥ एक दिन समुद्रविजय आदि राजा, सभामण्डपमें कृष्णके साथ यथास्थान बैठे हुए वसुदेवके आग. मनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ॥३॥ वे परस्परमें चर्चा कर रहे थे कि पुत्र और नातियोंके साथ विजयाधं पर्वतपर गये हुए वसुदेवको बहुत समय हो गया पर आज तक उनकी कुशलताका समाचार क्यों नहीं आया ? ॥४॥ इस प्रकार जो परस्पर वार्तालाप कर रहे थे, जिनके हृदय गाय और बछड़ेके समान स्नेहसे सराबोर थे एवं जो बालक और वृद्धजनोंसे युक्त थे ऐसे सब राजा यथास्थान बैठे ही थे कि उसी समय आकाशमें चमकती हुई बिजलीके समान, अपने उद्योत से दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली अनेक विद्याधरियां वेगवतो नागकुमारीके साथ वहां आ पहुंची और आशीर्वाद देती हुई कहने लगी कि आप लोगोंको गुरुजनोंने जो आशीर्वाद दिये थे वे आज सब सफल हो गये। इधर पुत्रने जरासन्धको नष्ट किया है तो उधर पिताने विद्याधरोंको नष्ट कर दिया है ।।५-७॥ पुत्र और नातियोंसे सहित तथा आप लोगोंके स्नेहसे युक्त वसुदेव अच्छी तरह हैं और अपनेसे ज्येष्ठ जनोंके चरणोंमें प्रणाम और पुत्रोंके प्रति आलिंगनका सन्देश कह रहे हैं ॥८॥ विद्याधरियोंके मुख से यह समाचार सुनकर हर्षकी अधिकतासे जिनके रोमांच निकल आये थे ऐसे सब राजाओंने उनसे पूछा कि वसुदेवने विद्याधरोंको किस प्रकार जीता था? ॥९॥ यह सून वसूदेवके हित करने में उद्यत रहनेवाली नागकुमारी देवीने कहा कि वसुदेवने रणमें जो सामर्थ्य दिखायी उसे ध्यानसे सुनिए ॥१०॥ युद्ध में निपुण वसुदेवने विजयाधं पर्वतपर जाकर अपने श्वसुर और साले आदि विद्याधरोंसे मिलकर यहाँ आनेवाले विद्याधरोंको रोका ॥११॥ तदनन्तर समग्र सेनासे युक्त उन विद्याधरोंका जब वसुदेवने रणमें सामना किया तो वे जरासन्धकी सहायता छोड़कर स्वयं युद्ध में संलग्न हो गये ।। ६२ ।। १. महत्तेजः म.। २. व्रजभञ्ष म., ख.। ३. तथान्येषु म., क.। ४. जग्म-म। ५. धनवत ६. हितोद्यताः म.। ७. युक्तांस्ते म. I.
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त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः
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बलद्वयस्य संपाते जाते तत्र ततोऽन्वभूत् । प्रजानां प्रलयाशङ्का भयव्याकुलचेतसाम् ॥१३॥ द्वन्द्वयुद्धे प्रवृत्तेऽतो नृवाजिरथहस्तिनाम् । अन्योन्यं न्यायतोऽन्योन्यमयधीत्सैन्ययोर्द्वयम् ॥१४॥ आनकेन सपुत्रेण प्रद्युम्नेनामिमानिना । तथा शम्बेन पक्षेण खेचराणां जनेन च ॥१५॥ हेतिज्वालावहैरेमिः शत्रुभूभृ स्कदम्बकम् । भस्मीकुर्वद्भिरुभूतैर्लोलैदावानलायितम् ॥१६॥ अत्रान्तरे सुरैस्तुष्टैस्तस्मिनुघुटमम्बरे २ । नवमो वासुदेवोऽभूद्वसुदेवस्य नन्दनः ॥१७॥ निहतश्च जरासन्धस्तच्चक्रणव संयुगे । वर्गुणद्वेष। वासुदेवेन चरिना ॥१८॥ इत्युक्त्वा वसुदेवस्य रथस्योपरि पातिता । नानारत्नमयी वृष्टिः कौमुदीव दिवः सुरैः ॥१९॥ गिरस्ता मरुतां श्रुत्वा ततस्ते रिपुखे वराः । त्रस्ताः शरणमायाता वसुदेवमितोऽमुतः ॥२०॥ वसुदेवस्य पुत्राणां शम्बप्रद्युम्नवारयोः । वसुदेवमुपाश्रित्य कन्या विद्याधरा ददुः ॥२१॥ वयं तु वसुदेवोक्ता युष्मदन्तिकमागताः । क्षेमोदन्तं तथैवास्य निवेदयितुमागताः ॥२२॥ नानाविद्याधराधाशा नानाप्राभृतपणयः । आनकेन सहायान्ति ते नारायणभक्तितः ॥२३॥ यावद्वनवती तेषामितीष्टं कथयत्यसो । तावद्विमानसंघातैः खेटानामावृतं नमः ॥२४॥ अवतीर्य विमानेभ्यो वसुदेवानुयायिनः । वासुदेवं बलोपेतं प्रणेमुः प्राभृतान्विताः ॥२५॥ अभ्युत्थाय ततो भक्तौ पितरं रामकेशवौ । प्रणेमतुरनेनापि तावाश्लिस्वामिनन्दितौ ॥२६॥ ज्येष्टानपूजयत्सर्वान्प्रणम्यानकदुन्दुभिः । प्रद्युम्नाद्या यथायोग्य प्रणेमुर्गुरुबान्धवान् ॥२७॥
यथाक्रमं नमोशनाः केशवेन बलेन च । प्रतिसम्मानिताः सर्व सफलं जन्म मेनिरे ॥२८॥ तत्पश्चात् वहां जब दोनों सेनाओंमें घोर युद्ध होने लगा तब लोगोंको प्रलयकी आशंका होने लगी और उनके चित्त भयसे व्याकुल हो उठे ||१३|| हाथी, घोडे, रथ और प्यादोंका द्वन्द्व यद्ध होनेपर दोनों सेनाएं परस्पर न्यायपूर्वक एक-दूसरेका वध करने लगीं ।।१४।वसुदेव, उनके पुत्र, अभिमानी प्रद्यम्न, शम्ब तथा पक्षके अनेक विद्याधर ये सब शस्त्ररूपी ज्वालाओंको धारण कर शत्रुरूपी राजाओंके समूहको भस्म कर रहे थे एवं बड़ी चपलताके.साथ सामने आये थे इसलिए दावानलके समान जान पड़ते थे ॥१५-१६।। इसी अवसरपर सन्तुष्ट हए देवोंने आकाशमें यह घोषणा की कि वसुदेवका पुत्र कृष्ण नौवाँ नारायण हुआ है और उसने चक्रधारी होकर अपने गुणोंमें द्वेष रखनेवाले प्रतिशत्रु जरासन्धको उसीके चक्रसे युद्ध में मार डाला है। यह कहकर देवोंने आकाशसे चाँदनीके समान नानारत्नमयी वृष्टि वसुदेवके रथपर करनी प्रारम्भ कर दो ॥१७-१९।। तदनन्तर शत्रु विद्याधर देवोंकी उक्त वाणी सुनकर भयभीत हो गये और जहाँतहाँसे एकत्रित हो वसुदेवकी शरणमें आने लगे ।।२०।। उन्होंने वसुदेवके पास आकर उनके पुत्रोंको एवं प्रद्युम्न कुमार और शम्ब कुमारको अपनी अनेक कन्याएं प्रदान की ॥२१॥ हम लोग वसुदेवकी प्रेरणा पाकर यह कुशल समाचार सुनाने के लिए आपके पास आयी हैं ॥२२॥ नारायणकी भक्तिसे प्रेरित हुए अनेक विद्याधर राजा, नाना प्रकारके उपहार हाथमें लिये वसुदेवके साथ आ रहे हैं ।।२३।। इस प्रकार वनवती ( नागकुमारो) देवी जबतक उन्हें यह इष्ट समाचार सुनाती है तबतक विद्याधरों के विमानोंके समूहसे आकाश व्याप्त हो गया ॥२४॥ वसुदेवके अनुयायी विद्याधरोंने विमानोंसे उतरकर बलदेव और कृष्णको नमस्कार किया तथा नाना प्रकारके उपहार समर्पित किये ।।२५।। तदनन्तर भक्तिसे भरे बलदेव और नारायणने पिताको नमस्कार किया और पिताने भी दोनोंका आलिंगन कर उनकी बहुत प्रशंसा की ॥२६।। वसुदेवने समुद्रविजय आदि समस्त गरुजनोंको प्रणाम किया एवं प्रद्यम्न आदिने भी गरुजनों एवं भाई-बान्धवोंको यथायोग्य नमस्कार किया ||२७|| नारायण और बलभद्रने यथायोग्य जिनका सत्कार किया था ऐसे समस्त विद्याधरोंने अपना-अपना जन्म सफल माना ॥२८॥
१. चेतसा म.। २. नुत्कृष्टसंगरे म.। ३. प्रभुतपाणयः म. । ४. यावद्धनवती म..
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हरिवंशपुराणे समस्तबलसंयुक्तौ प्रतीची बलकेशवौ । प्रयातौ प्रमदापूर्णौ पूर्णसर्वमनोरथौ ॥२९॥ 'आनन्दं ननृतुर्यत्र यादवा मागधे हते । आनन्दपुरमित्यासीत्तत्र जैनालयाकुलम् ॥३०॥ ततश्चक्रमहं कृत्वा सर्वरनान्वितो हरिः । दक्षिणं मारतं जिग्ये सदेवासुरमानुषम् ॥३१॥ वरष्टामिरिष्टाथैसे व्यमानोऽनुवासरम् । जितजेयो ययौ कृष्णः स कोटिकशिला प्रति ॥३२॥ यतस्तस्यामदारायामनेका ऋषिकोटयः । सिद्धास्ततः प्रसिद्धात्र को कोटिकशिला शिला ॥३३॥ शिलायां तत्र कृत्वादी पवित्रायां बलिक्रियाम् । दोामुक्षिपतिस्मासी तां विष्णुश्चतुरङ्गलम् ॥३४॥ सा शिला योजनोच्छ्राय समायोजनविस्तृता । अर्धभारतवर्षस्थदेवतापरिरक्षिता ॥३५॥ तदबाहनोर्ध्वमुरिक्षता त्रिपृष्ठेन शिला पुरा । मूर्द्धदघ्नं द्विपृष्ठेन कण्ठदनं स्वयंभुवा ॥३६॥ वक्षोद्वयमुरिक्षप्ता च पुरुषोत्तमचक्रिणा । क्षिप्ता पुरुषसिंहेन हृदयावधि हारिणी ॥३७॥ पुण्डरीकः कटीमात्रमूरुद्रघ्नं हि दत्तकः । जानुमानं च सौमित्रिः कृष्णोऽधाच्चतुरङ्गलम् ॥३८॥ प्रधानपुरुषादीनां सर्वेषां हि युगे युगे। मिद्यते कालभेदेन शक्तिः शक्तिमतामपि ॥३९॥ शिलाबलेन विज्ञातो महाकायबलो बलैः । सोऽनुयातो ययौ चक्री द्वारिका प्रतिबान्धवैः ॥४०॥ प्रविष्टश्च विशिष्टानामाशीभिरभिनन्दितः । द्वारिका द्वारकान्तां स कृतशोमा दिवं यथा ॥४१॥ यथायोग्यं समोग्यास्ते भूनभोयानभूभृतः । प्रासादेषु स्थिताः सुस्था द्वारिकायां यथाविधि ॥४२॥
तदनन्तर जिनके सर्व मनोरथ पूर्ण हो गये थे तथा जो हर्षसे परिपूर्ण थे ऐसे बलदेव और नारायणने समस्त सेनाको साथ ले पश्चिम दिशाकी ओर प्रस्थान किया ॥२९॥ जरासन्धके मारे जानेपर यादवोंने जिस स्थानपर आनन्द-नृत्य किया था वह स्थान आनन्दपुरके नामसे प्रसिद्ध और जेन-मन्दिरोंसे व्याप्त हो गया ॥३०॥ तदनन्तर सब रत्नोंसे सहित नारायणने, चक्ररत्नको पूजा कर देव, असुर और मनुष्योंसे सहित दक्षिण भरतक्षेत्रको जीता ॥३१॥ लगातार आठ वर्षों तक प्रतिदिन मनोवांछित पदार्थोंने जिनकी सेवा की थी और जीतने योग्य समस्त राजाओंको जिन्होंने जीत लिया था ऐसे श्रीकृष्ण अब कोटिक शिलाकी ओर गये ॥३२॥ चूंकि उस उत्कृष्ट शिलापर अनेक करोड़ मुनिराज सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हुए हैं इसलिए वह पृथ्वीमें कोटिक शिलाके नामसे प्रसिद्ध है ॥३३॥ श्रीकृष्णने सर्व-प्रथम उस पवित्र शिलापर पूजा की और उसके बाद अपनो दोनों भुजाओंसे उसे चार अंगुल ऊपर उठाया ॥३४॥ वह शिला एक योजन ऊंची, एक योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी है तथा अर्ध भरतक्षेत्र में स्थित समस्त देवोंके द्वारा सुरक्षित है ॥३५॥ पहले त्रिपृष्ठ नारायणने इस शिलाको जहांतक भुजाएँ ऊपर पहुंचती हैं वहांतक उठाया था। दूसरे द्विपष्ठने मस्तक तक, तीसरे स्वयम्भने कण्ठ तक, चौथे पुरुषोत्तमने वक्षःस्थल तक, पांचवें नृसिंहने हृदय तक, छठे पुण्डरीकने कमर तक, सातवें दत्तकने जाँघों तक, आठवें लक्ष्मणने घुटनों तक और नवें कृष्ण नारायणने उसे चार अंगुलं तक ऊपर उठाया था ।।३६-३८।। क्योंकि युग-युगमें कालभेद होनेसे प्रधान पुरुषको आदि लेकर सभी शक्तिशाली मनुष्योंकी शक्ति भिन्न-भिन्न रूप होती आयी है ॥३९॥ शिला उठानेके बलसे समस्त सेनाने जान लिया कि श्रीकृष्ण महान् शारीरिक बलसे सहित हैं। तदनन्तर चक्ररत्नको धारण करनेवाले श्रीकृष्ण बान्धवजनोंके साथ द्वारिकाकी ओर वापस आये ॥४०॥ वहां वृद्धजनोंने नाना प्रकारके आशीर्वादोंसे जिनका अभिनन्दन किया था ऐसे श्रीकृष्ण नारायणने मनोहर गोपुरोंसे सुन्दर एवं स्वर्गके समान सजी हुई द्वारिकापुरीमें प्रवेश किया ॥४१॥ जो भूमिगोचरी और विद्याधर राजा उनके
१. आनन्दे ननदु-म.। २. सेवमानो नु वासरम् म.। ३. लोके कोटिशिला शिला म.। ४. योजनोच्छाया समा- म.। ५. सानुयातो म..
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त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः
अभिषिक्तौ ततः सर्वैर्भूपैर्भूचरखेचरैः । भरतार्धविभुत्वे तौ प्रसिद्धौ रामकेशवौ ॥४३॥ संस्थाप्य सहदेवं स चक्री राजगृहे नृपम् । मागधानां चतुर्भागं ददौ तस्मै गतस्मयः ||४४ || उग्रसेनसुतायादाद्वारा मथुरां पुरीम् । स महानेमये शौर्यनगरं प्रददौ नृपः ||४५|| श्रीहास्तिनपुरं प्रीत्या पाण्डवेभ्यः प्रियं हरिः । कोशलं रुक्मनामाय रुधिरात्मजसूनवे ||४६ || भूचरान् खेचरान्भूपानौचित्येन समागतान् । स्थानेषु स्थापनां चक्रे चक्रपाणिर्यथायथम् ॥४७॥ विसृष्टाश्च यथास्थानं यातास्ते पाण्डवादयः । आरेमुर्द्वारिकायां तु यादवास्त्रिदशा यथा ||४८|| वसन्ततिलका
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चक्र सुदर्शनमदृष्टमुखं रिपूणां शाङ्गं धनुर्ध्वननधूत विपक्षपक्षम् ।
सौनन्दकोऽपि च गदापि च कौमुदी सा मोघेतरा रिपुषु शक्तिरमोघमूला ॥४९॥ शङ्खश्च शङ्खखचितस्य स पाञ्चजन्यः श्रीकौस्तुभो मणिरसावनणुप्रतापः ।
४.
रत्नानि सप्त महितानि हरेर्हितानि व्यामान्ति दिव्यमयमूर्तियुतानि तानि ॥ ५० ॥ दिव्यायुधं हलमभादपराजिताख्यं दिव्या गदामुसलशक्त्यवतंसमालाः । रत्नानि पञ्च महितानि हलायुधस्य हेलाविधूतरिपुमण्डलविभ्रमस्य ॥ ५१ ॥ राज्ञां स षोडशसहस्रगुणैगुणज्ञगन्यैर्गुणी प्रणतमूर्धभिरर्धचक्री |
साथ लौटकर आये थे उन्हें यथायोग्य भोग्य सामग्री दी गयी और वे द्वारिकापुरीके महलोंमें विधिपूर्वक निश्चिन्ततासे ठहराये गये थे || ४२ ॥
तदनन्तर समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंने अतिशय प्रसिद्ध बलदेव और श्रीकृष्णको अर्धं भरतक्षेत्र के स्वामित्वपर अभिषिक्त किया अर्थात् राज्याभिषेक कर उन्हें अर्धं भरतक्षेत्रका स्वामी घोषित किया ||४३|| तत्पश्चात् चक्ररत्नके धारक श्रीकृष्णने जरासन्धके द्वितीय पुत्र सहदेवको राजगृहका राजा बनाया और उसे निरहंकार होकर मगध देशका एक चौथाई भाग प्रदान किया ||४४ || उग्रसेनके पुत्र द्वारके लिए मथुरापुरी दो, महानेमिके लिए शपुर दिया || ४५||
पाण्डवोंके लिए प्रीतिपूर्वक उनका प्रिय हस्तिनापुर दिया और राजा रुधिरके नाती रुक्मनाभ के लिए कोशल देश दिया ||४६ || इस प्रकार चक्रपाणि - श्रीकृष्णने आये हुए समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओंकी यथायोग्य स्थानों पर स्थापना की -- यथायोग्य स्थानोंका उन्हें राजा बनाया || ४७|| तदनन्तर श्रीकृष्णसे विदा लेकर पाण्डव आदि यथास्थान चले गये और यादव देवोंके समान द्वारिकामें क्रीड़ा करने लगे ||४८||
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शत्रुओंका मुख नहीं देखनेवाला सुदर्शन चक्र, अपने शब्दसे शत्रुपक्षको कम्पित करनेवाला शार्ङ्गधनुष, सौनन्दक खड्ग, कौमुदी गदा, शत्रुओंपर कभी व्यर्थ नहीं जानेवाली अमोघमूला शक्ति, पांचजन्य शंख और विशाल प्रतापको प्रकट करनेवाला कौस्तुभ मणि; शंखके चिह्नसे चिह्नित श्रीकृष्ण के ये सात रत्न थे । ये सातों रत्न देवोंके द्वारा पूजित, अतिशय हितकारी और दिव्य आकारसे युक्त होते हुए अत्यन्त सुशोभित थे ||४९-५० || शत्रु समूह के विभ्रमको अनायास हो नष्ट करनेवाले बलदेवके, अपराजित नामक दिव्य हल, दिव्य गदा, दिव्य मुसल, दिव्य शक्ति और दिव्य माला ये पाँच रत्न थे । बलभद्रके भी ये पांचों रत्न देवोंके द्वारा पूजित थे ॥ ५१ ॥ गुणोंको जाननेवाले, गणनीय एवं नतमस्तक सोलह हजार प्रमुख राजा और आठ हजार
१. सुतायाद्वीराय क., सुतायादाद्वराय म. । खचितस्य (क. टि. ) ।
२. कोशलां म ।
३. सुखं म । ४. शङ्खाख्येन लक्षणे
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हरिवंशपुराणे भक्कैस्तदर्धगणनैर्गणबद्धदेवैराज्ञाकरैः सुखमसेवत सेव्यमानः ॥५२॥ शाङ्गी स षोडशसहस्रवराङ्गनानां देवाङ्गनाललितविभ्रमहारिणोनाम् । संधैः क्रमेण रतियूपनिषेविताङ्गो रेमे तदर्धगणनैस्तु हली सुदारैः ॥५३॥
मालिनीच्छन्दः हिमशिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरत्सु प्रिययुवतिसहाया यादवा द्वारिकायाम् । जिनमतकृतधर्मा योग्यदेशेषु मोगैरविरतरतिरागा रेमिरे सार्वभौमाः ॥५४॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती कृष्णविजयवर्णनो नाम
त्रिपञ्चाशत्तमः सर्गः ॥५३॥
आज्ञाकारी, भक्त, गणवद्ध देव जिनको निरन्तर सेवा करते थे ऐसे श्रीकृष्ण सुखका उपभोग करते थे ॥५२॥ रतिकाल में देवांगनाओंके समान सुन्दर हाव-भावोंसे मनको हरनेवाली सोलह हजार स्त्रियाँ श्रीकृष्णके शरीरकी सेवा करती थीं और उनसे आधी अर्थात आठ हजार उत्तम स्त्रियाँ बलदेवके शरीरकी सेवा करती थीं। श्रीकृष्ण और बलदेव अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥५३|| गौतम स्वामी कहते है कि जो जिन-धर्मको धारण करनेवाले थे, जिनके रति और रागमें कभी व्यवधान नहीं पड़ता था, प्रिय युवतियाँ ही जिनकी सहायक थीं और जो समस्त भूमिके अधिपति थे ऐसे यादव लोग, द्वारिकापुरोमें हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा और शरद् ऋतुके योग्य स्थानोंमें मनचाहे भोग भोगते हुए क्रीड़ा करते थे ॥५४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें
कृष्णविजयका वर्णन करनेवाला तिरपनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।।५।।
१.गुणनेः क., ख., ग.,घ.।
२. योगे: म..
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चतुःपञ्चाशः सर्गः
श्रेणिकेन पुनः पृष्टश्चेष्टितं पाण्डवोद्भवम् । संदेहध्वान्तघातार्को गौतमः स जगी गणी ॥१॥ स्थितेषु हास्तिनपुरे पाण्डवेषु यथाक्रमम् । निजस्वामिपरिप्राप्त्या तुतुषुः कुरवोऽधिकम् ॥२॥ सौराज्ये पाण्डुपुत्राणां वर्तमाने सुखावहे । सर्वे वर्णाश्रमा राष्ट्र धार्तराष्ट्रान् विसस्मरः ॥३॥ अखण्डतगतिः प्राप्तः कदाचित्पाण्डवास्पदम् । नारदश्चण्डचित्तोऽसी प्रकृत्या कलहप्रियः ॥४॥ आदरेण स तैर्दृष्टः प्रविशन्निस्सरन्नपि । व्यग्रयालंकृतौ तन्व्या द्रौपद्या तु न लक्षितः ॥५॥ ततो जज्वाल कोपेन तैलासंगादिवानलः । सजनावसरज्ञो न प्राणी संमानदुःखितः ॥६॥ स तदुःखविधानाय कृतेच्छः कृतनिश्चयः । धातकीखण्डपूर्वार्धमारतं प्रति खे ययौ ॥७॥ अङ्गेध्वमरकायां पुरि शङ्काविवर्जितः । स्त्रीलोलं पद्मनामाख्यं सामिख्यं दृष्टवानपम् ॥८॥ तेनान्तःपुरमात्मीयमात्मीयस्यास्य दर्शितम् । पृष्टश्च दृष्टमीदृक्षं स्त्रीरूपं क्वचिदित्यसौ ॥९॥ पर्यस्तं मन्यमानोऽयं पायसेऽभिमतं घृतम् । द्रौपदीरूपलावण्यं लोकातीतमवर्णयत् ॥१०॥ तं द्रौपदीमयं 'ग्राहं ग्राहयित्वा स नारदः । द्वीपक्षेत्रपुरावासकथनः क्वापि यातवान् ॥११॥ आराधयदसौ तीवतपसा द्रौपदीप्सया । सुरं संगमकाभिख्यं पातालान्तर्वासिनम् ॥१२॥ आराधितेन देवेन पद्मनामपुरी निशि । सा सुप्तव समानीता पार्थस्य वनिता प्रिया ॥१३॥
अथानन्तर राजा श्रेणिकने पुनः पाण्डवोंको चेष्टा पूछी सो सन्देहरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए सूर्यके समान गौतम गणधर इस प्रकार कहने लगे ॥शा
जब पाण्डव हस्तिनापुरमें यथायोग्य रीतिसे रहने लगे तब कुरु देशकी प्रजा अपने पूर्वस्वामियोंको प्राप्त कर अत्यधिक सन्तुष्ट हुई ॥२॥ पाण्डवोंके सुखदायक सुराज्यके चालू होनेपर देशके सभी वर्ण और सभी आश्रम धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदिको सर्वथा भूल गये ||३|| एक दिन सर्वत्र बे-रोक-टोक गमन करनेवाले, क्रुद्ध हृदय और स्वभावसे कलहप्रेमी नारद, पाण्डवोंके घर आये ॥४।। पाण्डवोंने नारदको बहुत आदरसे देखा परन्तु जब वे द्रौपदीके घर गये तब वह आभूषण धारण करने में व्यग्र थी इसलिए कब नारदने प्रवेश किया और कब निकल गये यह वह नहीं जान सकी ॥५॥ नारदजी, द्रौपदोके इस व्यवहारसे तेलके संगसे अग्निके समान, क्रोधसे जलने लगे सो ठोक हो है क्योंकि जो प्राणी सम्मानसे दुखी होता है वह सज्जनोंके भी अवसरको नहीं जानता ॥६॥ उन्होंने द्रौपदीको दुःख देनेका दृढ़ निश्चय कर लिया और उसी निश्चयके अनुसार वे पूर्वधातकीखण्डके भरत क्षेत्रकी ओर आकाशमें चल पड़े ॥७॥ वे निःशंक होकर अंग देशकी अमरकंकापुरीमें पहुंचे और वहां उन्होंने स्त्रीलम्पट, पद्मनाभ नामक शोभासम्पन्न राजाको देखा ॥८॥ राजा पद्मनाभने नारदको आत्मीय जान, अपना अन्तःपुर दिखाया और पूछा कि ऐसा स्त्रियोंका रूप आपने कहीं अन्यत्र भी देखा है ? ॥९॥ राजा पद्मनाभके प्रश्नको खोरमें पड़े घोके समान अनुकूल मानते हुए नारदने द्रौपदीके लोकोत्तर सौन्दर्यका वर्णन इस रीतिसे किया कि उसने उसे द्रौपदीरूपी पिशाचके वशीभूत कर दिया अर्थात् उसके हृदयमें द्रौपदीके प्रति अत्यन्त उत्कण्ठा उत्पन्न कर दो। तदनन्तर द्रौपदीके द्वौपक्षेत्र, नगर तथा भवनका पता बताकर वे कहीं चले गये ॥१०-११|| पद्मनाभने द्रौपदीके प्राप्त करनेकी इच्छासे तीब्र तपके द्वारा पाताललोकमें निवास करनेवाले संगमक नामक देवको आराधना की ॥१२॥ तदनन्तर आराधना १. सशोभम् 'अभिख्या नामशोभयोः' इत्यमरः । २. ग्राह्यं म.।
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हरिवंशपुराणे
निवेदिता सुरेणासौ भवनोद्यानवर्तिनी । अद्राक्षीद् द्रौपदीं गत्वा साक्षादिव सुराङ्गनाम् ॥१४॥ प्रबुद्धा सर्वतोभद्रे शयने सा पुनः पुनः । स्वपित्येव विनिद्रापि स्वप्नोऽयमिति शङ्किनी ॥ १५ ॥ विनिमीलितनेत्राया ज्ञास्वाकृतमसौ नृपः । शनैः समीपमाश्रित्य वदति स्म प्रियंवदः ॥ १६ ॥ आयताक्ष निरीक्षस्व नैष स्वप्नो घटस्तनि । द्वीपोऽयं धातकीखण्डः पद्मनाभस्त्वहं नृपः ॥ १७ ॥ नारदेन समाख्यातं तव रूपं मनोहरम् । मयाराधितदेवेन त्वं मदर्थमिहाहृता ॥ १८॥
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श्रुत्वा चकितचित्ता सा किमेतदिति वादिनी । अचिन्तयदहो दुःखं दुरन्तं मे समागतम् ॥१९॥ पार्थदर्शन पर्यन्तमाहारस्यागमात्मनि । कृत्वा पार्थविमोच्यं च वेणीबन्धं दधार सा ॥ २० ॥ द्रौपदीशील निर्भेदवज्रप्राकारमध्यगा । पद्मनाभमुवाचेत्थं 'वाध्यमानं मनोभुवा ॥२१॥ भ्रातरौ रामकृष्णौ मे भर्ता पार्थो धनुर्धरः । मर्त्तुज्येष्ठौ महावीरावनुजौ च यमोपमौ ॥२२॥ जलस्थलपथैस्तेषामनिवारितगोचराः । विचरन्ति भुवं सर्वां मनोरथरया रथाः ॥ २३॥ क्षेमं यदि 'नृपैतेभ्यो वाञ्छसि त्वं सबान्धवः । तद्विसर्जय मां शीघ्रमाशीविषवधूपमाम् ॥२४॥ इस्युक्तोऽन्यनिवृत्तेच्छः स्वग्राहं नैष मुञ्चति । यदा तदा दृढा प्राह प्रत्युत्पन्नमतिः सती ॥२५॥ मासस्याभ्यन्तरे भूप यदोह स्वजना मम । नागच्छन्ति तदा त्वं मे कुरुष्व यदभीप्सितम् ॥२६॥ तथास्त्विति निगद्यैतां पद्मनाभोऽनुवर्तयन् । सान्तःपुरः प्रियशतैर्विलोभनपरः स्थितः ॥२७॥
किया हुआ वह देव रात्रिके समय सोती हुई द्रोपदीको पद्मनाभकी नगरी में उठा लाया ||१३|| देवने लाकर उसे भवनके उद्यानमें छोड़ दिया और इसकी सूचना राजा पद्मनाभको कर दी । राजा पद्मनाभने जाकर साक्षात् देवांगना द्रौपदीको देखा ॥ १४ ॥ यद्यपि दोपदी अपनी सर्वतोभद्र शय्यापर जाग उठी थी और निद्रारहित हो गयी थी तथापि 'यह स्वप्न है' इस प्रकार शंका करती हुई बार-बार सो रही थी || १५|| नेत्रोंको बन्द करनेवाली द्रौपदीका अभिप्राय जानकर राजा पद्मनाभ धीरेसे उसके पास गया और प्रिय वचन बोलता हुआ इस प्रकार कहने लगा ॥१६॥ उसने कहा कि हे विशाललोचने! देखो, यह स्वप्न नहीं है । हे घटस्तनि ! यह धातकीखण्डद्वीप है और में राजा पद्मनाभ हूँ ||१७|| नारदने मुझे तुम्हारा मनोहर रूप बतलाया था और मेरे द्वारा आराधित देव मेरे लिए तुम्हें यहाँ हरकर लाया है ॥१८॥ यह सुनकर उसका हृदय चकित हो गया तथा यह 'क्या है' इस प्रकार कहती हुई वह विचार करने लगी कि अहो ! यह मुझे दुरन्त दुःख आ पड़ा है ||१९|| 'जबतक अर्जुनका दर्शन नहीं होता तबतक के लिए मेरे आहारका त्याग है' ऐसा नियम लेकर उसने अर्जुनके द्वारा छोड़ने योग्य वेणी बाँध ली ||२०|| तदनन्तर शीलरूपी वज्रमय कोटके भीतर स्थित द्रौपदी कामके द्वारा पीड़ित होनेवाले राजा पद्मनाभसे इस प्रकार बोली ||२१|| कि बलदेव और कृष्णनारायण मेरे भाई हैं, धनुर्धारी अर्जुन मेरा पति है, पतिके बड़े भाई महावीर भीम और अर्जुन अतिशय वीर हैं और पतिके छोटे भाई सहदेव और नकुल यमराजके समान हैं ||२२|| जल और स्थलके मार्गों से जिन्हें कोई कहीं रोक नहीं सका ऐसे मनोरथके समान शीघ्रगामी उनके रथ समस्त पृथिवीमें विचरण करते हैं ||२३|| इसलिए हे राजन् ! यदि तू भाई- बान्धवों सहित, इनसे अपना भला चाहता है तो सर्पिणी के समान मुझे शीघ्र ही वापस भेज दे ||२४|| जिसकी अन्य सब इच्छाएँ दूर हो चुकी थीं ऐसे पद्मनाभने द्रौपदीके इस तरह कहनेपर भी जब अपना हठ नहीं छोड़ा तब परिस्थितिके अनुसार तत्काल विचार करनेवाली द्रौपदीने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया || २५ || कि हे राजन् ! यदि मेरे आत्मीयजन एक मासके भीतर यहाँ नहीं आते हैं तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह मेरा करना ||२६|| 'तथास्तु' - 'ऐसा हो' इस प्रकार कहकर 'पद्मनाभ अपनी स्त्रियोंके साथ उसे अनुकूल करता १. वाच्यमानं म । २. नृपैस्तेभ्यो म ।
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चतुःपञ्चाशः सर्गः
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विस्रब्धा मयमुज्झित्वा स्थित्वा साश्रुविलोचना । विविहार निराहारा पत्युः पन्थानमीक्षते ॥२८॥ अदृश्यायामकस्मात्तु तस्यां पाण्डवपञ्चकम् । किंकर्तव्यतया मूढमभूद्स्यन्तमाकुलम् ॥२९॥ निरुपायास्ततो गत्वा चक्रिणे ते न्यवेदयन् । दुःखी सयादवः सोऽत्र क्षेत्रेष्त्रश्रावयत्तदा ॥ ३० ॥ क्षेत्रान्तरहृतां मत्वा केनचित्क्षुद्रवृत्तिना । तत्प्रवृत्तिपरिप्राप्तौ यादवास्ते सतत्पराः ॥ ३१ ॥ आस्थानस्थितमागस्य कदाचिन्नारदो हरिम् । पूजितो यदुलोकस्य जगादेति प्रियोदितः ||३२|| ईक्षिता धातकीखण्डे कृष्णा कृष्णकृशाङ्गिका । पुर्याममरकङ्कायां पद्मनामस्य सद्मनि ||३३|| अनारतगलद्वाष्पधाराविलविलोचना । सा तस्यान्तः पुरस्त्रीभिः सादरामिरुपास्यते || ३४॥ शीलमात्रमहाश्वासा दीर्घनिश्वासमोचिनी । सत्सु बन्धुषु युष्मासु कथमास्ते रिपोर्गृहे ||३५|| लब्ध्वेति द्रौपदीवार्तां हरिप्रभृतयस्तदा । शशंसुर्नारदं हृष्टाः सापकारोपकारिणम् ॥ ३६ ॥ द्रौपदीहरणं कृत्वा क प्रयाति स दुष्टधीः । प्रेषयामि दुराचारं मृत्यवे मृत्युकाङ्क्षिणम् ||३७|| इति द्विष्ट द्विषे कृष्णः कृष्णामानेतुमुद्यमी । दक्षिणो दक्षिणाम्भोधेस्तटं सशकटो गतः || ३८ ॥ लवणाब्धिपतिं देवं सुस्थितं नियमस्थितम् । आराध्य पाण्डवैः सार्धं धातकीखण्डमीप्सयां ॥ ३९॥ देवेन नीयमानः सन् रथैः षड्भिः सपाण्डवः । द्रागुलस्याब्धिमापतद्धतिकीखण्डभारतम् ||४०||
और सैकड़ों प्रिय पदार्थोंसे लुभाता हुआ रहने लगा ||२७|| द्रौपदी भय छोड़कर विश्वस्त हो गयी और निरन्तर अश्रु छोड़ती तथा आहार-विहार बन्द कर पतिका मार्ग देखने लगी ॥२८॥
इधर जब द्रौपदी अकस्मात् अदृश्य हो गयी तब पांचों पाण्डव किंकर्तव्यविमूढ़ हो अत्यन्त व्याकुल हो गये ॥ २९ ॥ तदनन्तर जब वे निरुपाय हो गये तब उन्होंने श्रीकृष्णके पास जाकर सब समाचार कहा । उसे सुनकर यादवों सहित श्रीकृष्ण बहुत दुःखी हुए और उसी समय उन्होंने समस्त भरत क्षेत्रमें यह समाचार श्रवण कराया ||३०|| जब भरत क्षेत्रमें कंहीं पता नहीं चला तब उन्होंने समझ लिया कि कोई क्षुद्र वृत्तिवाला मनुष्य इसे हरकर दूसरे क्षेत्रमें ले गया है। इस तरह समस्त यादव उसका समाचार प्राप्त करने में तत्पर हो गये ||३१|
किसी दिन श्रीकृष्ण सभामण्डपमें बैठे हुए थे कि उसी समय नारदजी वहाँ आ पहुँचे । समस्त यादवोंने उनका सम्मान किया । तदनन्तर प्रिय समाचार सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैंने द्रौपदीको धातकीखण्ड द्वीपकी अमरकंकापुरीमें राजा पद्मनाभके घर देखा है । उसका शरीर अत्यन्त काला तथा दुर्बल हो गया है, उसके नेत्र निरन्तर पड़ती हुई अश्रुधारासे व्याप्त रहते हैं और राजा पद्मनाभके अन्तःपुरकी स्त्रियां बड़े आदर के साथ उसकी सेवा करती रहती हैं || ३२-३४ ।। उसे इस समय अपने शीलव्रतका ही सबसे बड़ा भरोसा है तथा वह लम्बी-लम्बी श्वास छोड़ती रहती है । आप जैसे भाइयोंके रहते हुए वह शत्रुके घरमें क्यों रह रही है ? ||३५|| इस प्रकार द्रौपदीका समाचार पाकर उस समय कृष्ण आदि बहुत हर्षित हुए और अपकारके साथ-साथ उपकार करनेवाले नारदकी प्रशंसा करने लगे ||३६|| 'वह दुष्ट द्रोपदीका हरणकर कहाँ जावेगा ? मृत्युके इच्छुक उस दुराचारीको अभी यमराजके घर भेजता हूँ' ||३७|| इस प्रकार शत्रुके प्रति द्वेष प्रकट करते हुए श्रीकृष्ण द्रोपदीको लानेके लिए उद्यत हुए और रथपर बैठकर दक्षिण समुद्रके तटपर जा पहुँचे ||३८|| वहाँ जाकर उन्होंने धातकीखण्ड द्वीपको प्राप्त करने की इच्छासे पाण्डवों के साथ नियममें स्थित लवणसमुद्र के अधिष्ठाता देवकी अच्छी तरह आराधना की ||३९|| तदनन्तर लवणसमुद्रका अधिष्ठाता देव पांच पाण्डवों सहित कृष्णको छह रथोंमें ले
१. विनिहारा म । २. द्रौपदी । ३ - कारिणाम् म । ४. -काङ्क्षिणाम् म. । ५. सशकटः सरथः इत्यर्थः । ६. वीप्सया क., खण्डेप्सया ख. ।
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हरिवंशपुराणे
पुर्यास्तेऽमरकङ्काया बहिरुद्यानवर्तिनः । कृष्णाद्याः पद्मनाभाय तन्नियुक्तेर्निवेदिताः ॥४१॥ चतुरङ्गबलं तस्य पुर्या निर्यातमुद्धतम् । भ्रातृभिः पञ्चभिर्युद्धे भग्नं नगरमाविशत् ||४२ || नृपः स नगरद्वारं पिधाय सनयः स्थितः । अलध्ये पाण्डुपुत्राणां ततश्चक्री स्वयं रुषा ।। ४३ ।। बिभेद पादनिर्घातैर्निर्घातैरिव नागरीम् । बहिरन्तर्भुवं विश्वां भ्रश्यत्प्राकारगोपुराम् ||४४|| पतत्प्रासादशा लौघैर्भ्राम्यन्मत्तेमवाजिनि । विप्रलाप महारावे पुरे जाते जनाकुले ||४५ || सपौरान्तःपुरो राजा निरुपायो भयाकुलः । प्रविष्टः शरणं द्रोही द्रौपदीं द्रुतमानतः ॥ ४६ ॥ क्षम्यतां क्षम्यतां सौम्ये ! देवि ! देवतया समे । दाप्यतामभयं मेऽद्य सवाच्यस्य पतिव्रते ! ॥ ४७॥ तं सा कृपावती प्राह द्रौपदी शरणागतम् । गच्छ भ्रकुंसवेषेण शरणं चक्रवर्तिनः ॥ ४८ ॥ कृतदोषेष्वपि प्रायः प्रणतेषु नरोत्तमाः । सकृपाः स्युर्विशेषेण भीरुवेषेषु भीरुषु ॥ ४९ ॥ सस्त्रीकः स्त्रीकृताकारः श्रुत्वा पार्थाङ्गनाप्रणीः । प्रविष्टः शरणं गत्वा विष्टरश्वसं नृपः ॥५०॥ दस्वासावभयं तस्य शरणागतभीहरः । विससर्ज निजं स्थानं स्थाननामादिभेदिनम् ॥५१॥ "कृष्णा कृष्णपदं नत्वा क्षेमदानपुरस्सरम् । प्रायुक्त विनयं योग्यं पञ्चस्वपि यथाक्रमम् ॥५२॥ आश्लिष्य दयितां पार्थो विरहग्यथितां ततः । स्वयं प्रस्वेदिहस्ताभ्यां तद्वेणीमुदमोचयत् ॥ ५३ ॥
६१२
गया और इस तरह वे शीघ्र ही समुद्रका उल्लंघन कर धातकीखण्ड द्वीपके भरत क्षेत्रमें जा पहुँचे ||४०|| वहाँ जाकर ये अमरकंकापुरीके उद्यानमें ठहर गये और राजा पद्मनाभ द्वारा नियुक्त पुरुषोंने उसे खबर दी कि कृष्ण आदि आ पहुँचे हैं ॥ ४१ ॥ खबर पाते ही उसकी उद्धत चतुरंग सेना नगरीसे बाहर निकली परन्तु पाँचों पाण्डवोंने युद्ध में उसे इतना मारा कि वह भागकर नगर में जा घुसी ||४२ ॥ राजा पद्मनाभ बड़ा नीतिज्ञ था इसलिए वह नगरका द्वार बन्द कर भीतर रह गया । नगरका द्वार लाँघना जब पाण्डवोंके वशकी बात नहीं रही तब श्रीकृष्ण ने स्वयं पैरके आघातोंसे द्वारको तोड़ना शुरू किया। उनके पैरके आघात क्या थे मानो वज्रके प्रहार थे। उन्होंने नगरकी समस्त बाह्य तथा आभ्यन्तर भूमिको तहस-नहस कर डाला । प्राकार और गोपुर टूटकर गिर गये। बड़े-बड़े महल और शालाओंके समूह गिरने लगे जिससे मदोन्मत्त हाथी और घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगे, नगरमें सर्वत्र हाहाकारका महान् शब्द गूंजने लगा और मनुष्य घबड़ाकर बाहर निकल आये ||४३ - ४५ ॥ जब द्रोही राजा पद्मनाभ निरुपाय हो गया तब वह भयसे व्याकुल हो नगरवासियों और अन्तःपुरकी स्त्रियों को साथ ले शीघ्र ही द्रौपदीकी शरण में पहुँचा और नम्रीभूत होकर कहने लगा कि हे देवि ! तू देवताके समान है, सौम्य है, पतिव्रता है, मुझ पापीको क्षमा करो, क्षमा करो और अभय दान दिलाओ ||४६-४७॥ द्रौपदी परम दयालु थी इसलिए उसने शरण में आये हुए पद्मनाभसे कहा कि तू स्त्रीका वेष धारण कर चक्रवर्ती कृष्णकी शरण में जा । क्योंकि उत्तम मनुष्य नमस्कार करनेवाले अपराधी जनों पर भी प्रायः दया सहित होते हैं, फिर जो भीरु हैं अथवा भीरुजनोंका वेष धारण करते हैं उनपर तो वे और भी अधिक दया करते हैं ।।४८-४९ ।। यह सुनकर राजा पद्मनाभने स्त्रीका वेष धारण कर लिया और स्त्रियों को साथ ले तथा द्रौपदीको आगे कर वह श्रीकृष्णकी शरण में जा पहुँचा ॥५०॥ श्रीकृष्ण शरणागतोंका भय हस्नेवाले थे इसलिए उन्होंने उसे अभय दान देकर अपने स्थानपर वापस कर दिया, केवल उसके स्थान तथा नाम आदिमें परिवर्तन कर दिया ॥ ५१ ॥ द्रौपदीने कुशल प्रश्नपूर्वक श्रीकृष्णके चरणों में नमस्कार किया और पांचों पाण्डवोंके साथ यथायोग्य विनयका व्यवहार किया ॥५२॥ तदनन्तर अर्जुनने विरहसे पीड़ित वल्लभाका आलिंगन कर
१. नागरम् म. । २. - वेदिनम् क। ३. द्रोपदी ।
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चतुःपञ्चाशः सर्गः
६१३ स्नास्वा भुक्त्वा कृतातिथ्या मनसा पाण्डवैः सह । निवेद्य निजदुःखं सा मुमोचाः' समं ततः ॥५४॥ स्यमारोग्य तो वाधौं दध्मौ शङ्ख निजं हरिः । आपुपूरे दिशां चक्रं चक्रिशङ्खस्य निस्वनः ॥५५॥ कपिलो वासुदेवोऽपि तदा चम्पाबहिःस्थितम् । जिनं नन्तुं गतोऽपृच्छत् श्रुत्वा तं कम्पितक्षितिम् ॥५६॥ केनायं परितः शङ्ख नाथ ! मत्समशक्तिना। न चाद्य मादृशोऽस्तीह भारते मदधिष्ठिते ॥५॥ जिनेन कथिते तरवे प्रश्नितोत्तरवादिना । दिदृक्षस्तं यियासुः स माषितो धर्मचक्रिणा ॥५॥ नान्योन्यदर्शनं जातु चक्रिणां धर्मचक्रिणाम् । हलिना वासुदेवानां त्रैलोक्ये प्रतिचक्रिणाम् ॥५९॥ गतस्य चिह्नमात्रेण तव तस्य च दर्शनम् । शङ्खास्फोटनिनादैश्च रथध्वजनिरीक्षणः ॥६॥ भायातस्य ततस्तस्य कपिलस्यानुयादवम् । साफल्यमभवद्गजिनोक्तिविधिनाम्बुधौ ॥६॥ आगत्य कपिलश्चम्पामसांप्रतविधायिनम् । कोपादमरककेश केशवः सोऽत्यतर्जयत् ॥६२॥ पूर्वेणव क्रमेणामी लघृत्तीर्णा महार्णवम् । वेलातटे विशश्राम केशवः पाण्डवा गताः ॥६३॥ नौमिर्गको समुनीर्य तस्थुस्ते दक्षिणे तटे । व्यपनीता च भीमेन क्रीडाशीलेन नौस्तटी ॥६॥ आगतोऽनुपदं विष्णुः कृष्णया सहितस्तदा । अप्राक्षीत्कथमुत्तीर्णा गङ्गा यूयमितीमिकाम् ॥६५॥ वृकोदरोऽवदहोमिरिति जिज्ञासरीहितम् । स सत्यमिति मत्वा तदुत्तरीतुमिति त्वरी ॥६६॥
पसीनासे भीगे हुए दोनों हाथोंसे स्वयं उसकी वेणी खोली ॥५३॥ द्रौपदीने पाण्डवोंके साथ स्नान किया, भोजन किया, हृदयसे सबका अतिथि-सत्कार किया, उनके सामने अपना दुःख निवेदन किया और अश्रुधाराके साथ-साथ सब दुःख छोड़ दिया। भावार्थ-पाण्डवोंके सामने सब दुःख प्रकट कर वह सब दुःख भूल गयी ॥५४॥
तदनन्तर कृष्णने द्रोपदीको रथमें बैठाकर समुद्रके किनारे आ इस रीतिसे अपना शंख बजाया कि उसका शब्द समस्त दिशाओंमें व्याप्त हो गया ॥५५।। उस समय वहाँ चम्पा नगरीके बाहर स्थित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करने के लिए धातकीखण्डका नारायण कपिल
या था उसने पृथिवीको कम्पित करनेवाला शंखका उक्त शब्द सुनकर जिनेन्द्र भगवान्से पूछा कि हे नाथ ! मेरे समान शक्तिको धारण करनेवाले किस मनुष्यने यह शंख बजाया है। इस समय मेरे द्वारा शासित इस भरतक्षेत्रमें मेरे समान दूसरा मनुष्य नहीं है ।।५६-५७॥ प्रश्नका उत्तर देनेवाले जिनेन्द्र भगवान्ने जब यथार्थ बात कही तब कृष्णको देखनेकी इच्छा करता हुआ वह वहाँसे जाने लगा। यह देख जिनेन्द्र भगवान्ने कहा कि हे राजन् ! तीन लोकमें कभी चक्रवर्ती-चक्रवर्तियोंका, तीर्थंकर-तीर्थंकरोंका, बलभद्र-बलभद्रोंका, नारायण-नारायणोंका और प्रतिनारायण-प्रतिनारायणोंका परस्पर मिलाप नहीं होता। तुम जाओगे तो चिह्न मात्रसे ही उसका और तुम्हारा मिलाप हो सकेगा। एक दूसरेके शंखका शब्द सुनना तथा रथोंकी ध्वजाओंका देखना इन्हीं चिह्नोंसे तुम्हारा और उसका साक्षात्कार होगा ॥५८-६०॥ तदनन्तर कपिल नारायण, श्रीकृष्णको लक्ष्य कर आया और जिनेन्द्र भगवान्के कहे अनुसार उसका दूरसे ही समुद्र में कृष्णके साथ साक्षात्कार हुआ ॥६१॥ कपिल नारायणने चम्पा नगरीमें वापस
कर अनुचित कार्य करनेवाले अमरकंकापुरीके स्वामी राजा पद्मनाभको क्रोधमें आकर बहुत डांटा ॥६॥ कृष्ण तथा पाण्डव पहलेकी ही भांति महासागरको शीघ्र ही पार कर इस तटपर आ गये। वहां कृष्ण तो विश्राम करने लगे परन्तु पाण्डव चले आये ॥६३|| पाण्डव नौकाके द्वारा गंगाको पार कर दक्षिण तटपर आ ठहरे। भीमका स्वभाव क्रीड़ा करनेका था इसलिए उसने इस पार आनेके बाद नौका तटपर छिपा दी॥६५॥ पोछे जब द्रौपदीके साथ कृष्ण आये और
१. मुमोचास्रः म.। २. दध्यो म.। ३. त्रैलोक्य-म.। ४. क्रोडाशैलेन म., क. ।
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६१४
हरिवंशपुराणे रथमुद्धृत्य हस्तेन साश्वसारथिमच्युतः । जानुदन्नमिवोत्तीणस्ता जङ्घाभ्यां भुजेन च ॥६॥ ततो विस्मिततुष्टास्ते स्वरयाभ्येत्य सन्मताः। 'शक्त्यमिज्ञाः स्तुतिव्यग्राः समाश्लिष्यन्नधोक्षजम् ॥६॥
वंशस्थवृत्तम् स्वयं कृतं नर्म ततो वृकोदरः स्वयं च विश्वश्रुतया जगाद सः। तदैष कृष्णोऽतिविरक्ततामगाददेशकालं न हि नर्म शोभते ॥६॥ अमानुषं कर्म जगत्यनेकशः कृतं मया दृष्टवतामपि स्वयम् । मदीयसामर्थ्य परीक्षणक्षमं किमत्र गङ्गीत्त रणे कुपाण्डवाः ॥७॥ निगद्य तानेवमसौ जनार्दनः सहैव सैरेत्य तु हास्तिनं पुरम् । सुभद्रया लब्धसुतार्यसूनवे वितीर्य राज्यं विससर्ज तान् क्रुधा ॥७॥ समस्तसामन्तकृतानुयानकः कृताभियानो यदुभिः कृतार्थकः । प्रविश्य कृष्णो नगरी गरीयसी निजां निजस्त्रीनिवहानमानयत् ॥७२॥ सुतास्तु पाण्डोर्ह रिचन्द्रशासनादकाण्ड एवाशनिपातनिष्ठुरात् । प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां जनेन काष्ठा मथुरा न्यवेशयन् ।।७३॥ समुद्रवेलासु मनोहरासु ते लवङ्गकृष्णागुरुगन्धवायुषु ।
सुचन्दनामोदितदिक्षु दक्षिणा विजहरुच्चमलयाद्रिसानुषु ।।०४।। उन्होंने पूछा कि आप लोग इस गंगाको किस तरह पार हुए हैं ? तो कृष्णकी चेष्टाको जाननेके इच्छुक भीमने कहा कि हम लोग भुजाओंसे तैरकर आये हैं। श्रीकृष्ण भीमके कथनको सत्य मान गंगाको पार करनेकी शीघ्रता करने लगे॥६५-६६।। श्रीकृष्णने घोड़ों और सारथीके सहित रथको एक हाथपर उठा लिया और एक हाथ तथा दो जंघाओंसे गंगाको इस तरह पार कर लिया जिस तरह मानो वह घोंटू बराबर हो हो ॥६७|| तदनन्तर आश्चर्यसे चकित और आनन्दसे विभोर पाण्डवोंने शीघ्र ही सामने जाकर नम्रीभूत हो श्री कृष्णका आलिंगन किया और उनकी अपूर्व शक्तिसे परिचित हो वे उनकी स्तुति करने लगे ॥६८।। तत्पश्चात् भीमने सबको सुनाते हुए स्वयं कहा कि यह तो मैंने हंसी की थी। यह सुन, श्रीकृष्ण उसी समय पाण्डवोंसे विरक्तता को प्राप्त हो गये सो ठोक ही है क्योंकि बिना देश-कालकी हंसी शोभा नहीं देती ॥६९|| कृष्णने पाण्डवोंको फटकारते हुए कहा कि अरे निन्द्य पाण्डवो! मैंने संसारमें तुम लोगोंके देखते-देखते अनेकों बार अमानुषिक कार्य किये हैं फिर इस गंगाके पार करने में कौन-सी बात मेरी परीक्षा करने में समर्थ थी? ॥७०।। इस प्रकार पाण्डवोंसे कहकर वे उन्हींके साथ हस्तिनापुर गये और वहाँ सुभद्राके पुत्र आर्य-सूनुके लिए राज्य देकर उन्होंने पाण्डवोंको क्रोधवश वहाँसे विदा कर लिया ॥७१||
तदनन्तर समस्त सामन्त जिनके पीछे-पीछे चल रहे थे और यादवोंने सम्मुख आकर जिनका अभिनन्दन किया था ऐसे कृतकार्य श्रीकृष्णने विशाल द्वारिका नगरीमें प्रवेश कर अपनी स्त्रियोंके समूहको प्रसन्न किया ॥७२।। असमयमें वज्रपातके समान कठोर कृष्णचन्द्रको आज्ञासे पाण्डव, अपने अनुकूल जनोंके साथ दक्षिण दिशाकी ओर गये और वहाँ उन्होंने मथुरा नगरी बसायी ॥७३॥ वहां वे दक्षिण दिशामें लौंग और कृष्णागरुकी सुगन्धित वायसे व्याप्त समद्रके मनोहर तटोंपर तथा उत्तम चन्दनसे दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली मलयगिरिको ऊंची-ऊंची चोटियोंपर विहार करने लगे ॥७४।।
१. शक्तिभिक्ष्याः म. । २. निवहाद्यमानयत् म. ।
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चतुःपञ्चाशः सर्ग: क वार्धिनम्बू दुममण्डिता क्षितिः क धातकीखण्डधरा दुरासदा।
गतागतादर्थगतिस्तथापि तु प्रसिद्धयति प्राक्तनजैनधर्मतः ॥७५।। इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो द्रौपदीहरणाहरणदक्षिणमथुरानिवेशवर्णनो
नाम चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥५४॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, कहां तो लवणसमुद्र और जम्बू वृक्षसे सुशोभित जम्बूद्वीपकी भूमि और कहाँ अत्यन्त दुर्गम धातकीखण्डकी भूमि ? फिर भी पूर्वकृत जैनधर्मके प्रभावसे वहाँ यातायातके द्वारा कार्यको सिद्धि हो जाती है ।।७५।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें द्रौपदीका हरण, पुनः उसका ले आना तथा दक्षिण-मथुराके बसाये जानेका वर्णन
करनेवाला चौवनवाँ सर्ग समास हुला ||५||
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
द्रुतविलम्बितवृत्तम् अथ स नेमिकुमारयुवान्यदा धनदसंभृतवस्त्रविभूषणैः । स्रगनुलेपनकैरतिराजितो नृपसुतः प्रथितैः परिवारितः ॥१॥ समविशस्समदेभगतिर्नुपरमिगतः 'प्रणतश्चलितासनैः । 'कुसुमचित्रसमां बलकेशवप्रभृतियादवकोटिमिराचिताम् ॥२॥ हरिकृताभिगतिहरिविष्टरं स तदलङकुरुते हरिणा सह । श्रियमुवाह परां तदलं तदा तहरिद्वयहारि यथासमम् ।।३।। सदसि सभ्यकथामृतपायिमिः प्रकटशौर्यशरीरविभूतिमिः । सह हरिनुंवरैः समुपासित-क्षणमरंस्त रुचा स्थगिताखिलः ॥४।। बलवतां गणनास्वथ केचन प्रतिशशंसुरतीव किरीटिनम् । युधि युधिष्ठिरमुग्रवृकोदरं युगलमुद्धतमप्यपरे परान् ॥५॥ हलधरं बलवन्तमलं तथा हरिमथोतदुर्धरभूधरम् । स्वबलदर्शनतत्परराजकं चलयितुं स्वपदात्तु सशायिकम् ।।६।। हरिसभागतराजकमारतोरिति निशम्य सलीलदृशा हली। जिनमदीक्ष्य जगी जिननेमिना भगवता न समोऽस्ति जगस्त्रये ।।७।।
अथानन्तर एक दिन कुबेरके द्वारा भेजे हुए वस्त्र, आभूषण, माला और विलेपनसे सुशाभित, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध राजाओंसे घिरे एवं मदोन्मत्त हाथीके समान सुन्दर गतिसे युक्त युवा नेमिकुमार, बलदेव तथा नारायण आदि कोटि-कोटि यादवोंसे भरी हुई कुसुमचित्रा नामक सभामें गये। राजाओंने अपने-अपने आसन छोड़ सम्मुख जाकर उन्हें नमस्कार किया। श्रीकृष्णने भी आगे आकर उनकी अगवानी की। तदनन्तर श्रीकृष्णके साथ वे उनके आसनको अलंकृत करने लगे। श्रीकृष्ण और नेमिकुमारसे अधिष्ठित हुआ वह सिंहासन, दो इन्द्रों अथवा दो सिंहोंसे अधिष्ठितके समान अत्यधिक शोभाको धारण करने लगा ॥१-३॥ सभाके बीच, सभ्यजनोंकी कथारूप अमृतका पान करने वाले एवं अत्यधिक शूर-वीरता और शारीरिक विभूतिसे युक्त अनेक राजा जिनकी उपासना कर रहे थे और अपनी कान्तिसे जिन्होंने सबको आच्छादित कर दिया था ऐसे नेमिकुमार श्रीकृष्णके साथ क्षण-भर क्रोड़ा करते रहे ॥४॥
तदनन्तर बलवानोंकी गणना छिड़नेपर कोई अर्जुनकी, कोई युद्ध में स्थिर रहनेवाले यधिष्ठिरकी. कोई पराक्रमो भीमकी. कोई उद्धत सहदेव और नकलको एवं लोगोंकी, अत्यन्त प्रशंसा करने लगे ॥५॥ किसीने कहा बलदेव सबसे अधिक बलवान् हैं तो किसीने दुर्धर गोवर्धन पर्वतको उठानेवाले एवं अपना बल देखने में तत्पर राजाओंके समूहको अपने स्थानसे विचलित करनेके लिए बाण धारण करनेवाले श्रीकृष्णको सबसे अधिक बलवान् कहा ॥६॥ इस प्रकार कृष्णको सभामें आगत राजाओंकी तरह-तरहकी वाणी सुनकर लीलापूर्ण दृष्टिसे भगवान् नेमिनाथकी ओर देखकर कहा कि तीनों जगत्में इनके समान १. प्रणतं क., ख.। २. कुसुमचित्रानाम्नी सभाम् । ३. स्वपदं तु सशामकं क. ।
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पञ्चपञ्चाशः सर्ग:
करतलेन महीतलमुद्धरेजलनिधीनपि प्रचलयेद् गिरिराजमवज्ञया ननु जिनः कतमः परमोऽमुतः ॥८॥ इति निशम्य वचोऽथ निशाम्य तं स्मितमुखो हरिरीशमुवाच सः । किमिति युष्मदुदारवपुर्बलं भुजरणे भगवन् न परीक्ष्यते ॥९॥ सह ममामिनयोर्ध्वमुखो जिनः किमिहमल्लयुधेति तमबवीत् । भुजबलं भवतोऽप्रज बुध्यते चलय मे चरणं सहसासनात् ॥१०॥ परिकरं पग्विध्य तदोस्थितो भुजबलेन जिनस्य जिगीषया । चलयितुं न शशाक पदाङ्गुलिप्रमुखमस्य नखेन्दुधरं हरिः ॥११॥ श्रमजवारिलवाञ्चितविग्रहः प्रबलनिश्वसितोच्छ्वसिताननः । बलमहो तव देव जनातिगं स्फुटमिति स्मयमुक्तमुवाच सः ॥१२॥ 'बलरिपुश्च तदा चलितासनः स्वयमुपेत्य सुरैः सहसा सह । कृतजिनार्चनकः कृतसंस्तवः कृतनतिः प्रययौ पदमारमनः ॥१३॥ निजमगारमगाजिनचन्द्रमाः परिवृतः क्षितिपैः क्षपितस्मयः । हरिरपि स्फुटमात्मनि शङ्कितः क्लिशितधीहि जिनेष्वपि शकते ॥१४॥ उपचरखनुवासरमादरात् प्रियशर्जिनचन्द्रमसं हरिः।। प्रणयदर्शनपूर्वकमर्चयन् स्वयमनर्धगुणं जिनमुन्नतम् ॥१५॥
दूसरा बलवान् नहीं है ॥७॥ ये अपनी हथेलीसे पृथिवीतलको उठा सकते हैं, समुद्रोंको शीघ्र ही दिशाओंमें फेंक सकते हैं और गिरिराजको अनायास ही कम्पायमान कर सकते हैं। यथार्थमें ये जिनेन्द्र हैं, इनसे उत्कृष्ट दूसरा कोन हो सकता है ? ||८|| इस प्रकार बलदेवके वचन सुन कृष्णने पहले तो भगवान्की ओर देखा और तदनन्तर मुसकराते हुए कहा कि हे भगवन् । यदि आपके शरीरका ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहु-युद्धमें उसकी परीक्षा क्यों न कर ली जाये ? ||९|| भगवान्ने कछ खास ढंगसे मख ऊपर उठाते हए कृष्णसे कहा कि मझे इस विषयमें मल्ल यद्धकी क्या आवश्यकता है ? हे अग्रज ! यदि आपको मेरी भुजाओंका बल जानना ही है तो सहसा इस आसनसे मेरे इस पैरको विचलित कर दोजिए ॥१०॥ श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर भुजबलसे जिनेन्द्र भगवान्को जीतनेकी इच्छासे उठ खड़े हुए परन्तु पैरका चलाना तो दूर रहा नखरूपी चन्द्रमाको धारण करनेवाली पैरकी एक अंगुलिको भी चलानेमें समर्थ नहीं हो सके ॥११|| उनका समस्त शरीर पसीनाके कणोंसे व्याप्त हो गया और मुखसे लम्बी-लम्बी सांसें निकलने लगीं। अन्तमें उन्होंने अहंकार छोड़कर स्पष्ट शब्दोंमें यह कहा कि हे देव ! आपका बल लोकोत्तर एवं आश्चर्यकारी है ॥१२।। उसी समय इन्द्रका आसन कम्पायमान हो गया और वह तत्काल ही देवोके साथ आकर भगवान की पूजा-स्तुति तथा नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया ॥१३॥ उधर कृष्णके अहंकारको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा अनेक राजाओंसे परिवृत हो अपने महलमें चले गये और इधर कृष्ण भी अपने आपके विषयमें शंकित होते हुए अपने महल में गये सो ठीक ही है क्योंकि संक्लिष्ट बुद्धिके धारक पुरुष जिनेन्द्र भगवान्के विषयमें भी शंका करते हैं। भावार्थकृष्णके मनमें यह शंका घर कर गयो कि भगवान् नेमिनाथके बलका कोई पार नहीं है अतः इनके रहते हुए हमारा राज्य-शासन स्थिर रहेगा या नहीं? ॥१४॥ उस समयसे श्रीकृष्ण, उत्तम-अमूल्य
१. शीघ्रम् । २. समाभिनयो-म. । ३. तदोक्तितो म. । ४. नखेन्दुहरि म.। ५.-मुच्छवसितासनः म., क.। ६. इन्द्रः । ७. ज्ञपितस्मयः म.। ८. -मर्थयन् म.।
७८
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हरिवंशपुराणे अथ पुनर्विजयानगोत्तरे पुरवरेऽभिधया श्रुतशोणिते । जगति बाण इति प्रथितः खगः स खलु तिष्ठति गर्वितमानसः ॥१६॥ स्वयमुषा दुहितास्य खगेशिनो गुणकलामरणाविदितावनौ । मदनसूनुमुदारगुणेः श्रुतं 'तमनिरुद्धमधत्त चिरं हृदि ॥१७॥ सुमृदुनापि तदा मृदुनि स्वयं विनिहितेन कृतं तनुतापनम् । मनसि संवसता कुटिलभ्रवः कुटिलवृत्तिरनेन निजीकृता ॥१८॥ अनुदितेन परस्य महाधिना कृशतरां परिपृच्छय हि तां हिताम् । निशि निनाय सखी खचरीवरं खचरलोकमनङ्गशरीरजम् ॥१९॥ प्रतिविबुध्य युवा सहस्सा ह्युषामुषसि रत्नमयूखचिते गृहे । मृदुतले शयने शयितः स्वयं स खलु पश्यति तत्र तु कन्यकाम् ॥२०॥ गुरुनितम्बधनस्तनमारिणी सुतनुमध्यबलित्रयहारिणीम् । सुपरिदश्य सतां सुविहारिणी चिरमचिन्तयदङ्गजधारिणीम् ॥२१॥ हरति केयमिह प्रवरा मनो हरिवधूरुत नागवधूरियम् । न हि मनुष्यवधूमहमीदृशीं क्वचिदपीह कदाचन दृष्टवान् ॥२२॥ पदमपीदमपूर्वमिवेक्ष्यते मयनहारिसुरेन्द्रपदोपमम् । किमिह सत्यमसत्यमिदं तु किं भ्रमति हि स्वपता भुवनं मनः ॥२३॥
गुणोंसे युक्त जिनेन्द्ररूपी उन्नत चन्द्रमाको बड़े आदरसे प्रतिदिन सेवा-शुश्रूषा करते हुए प्रेमप्रदर्शनपूर्वक उनकी पूजा करने लगे ॥१५।।
अथानन्तर विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में श्रुतशोणित नामका एक नगर है, उस समय उसमें बाण नामका एक महा अहंकारी विद्याधर रहता था ।।१६।। राजा बाणके गुण और कलारूपी आभूषणोंसे युक्त तथा पृथिवीमें सर्वत्र प्रसिद्ध उषा नामकी एक पुत्री थी जो अपने उदार गुणोंसे विख्यात प्रद्युम्नके पुत्र अनिरुद्धको चिरकालसे अपने हृदयमें धारण कर रही थी ।।१७।। यद्यपि कुमार अनिरुद्ध अत्यन्त कोमल शरीरका धारक था तथापि कुटिल भौंहोंवाली उषाके हृदय में वास करते हुए उसने कुटिलवृत्ति अंगीकृत की थी इसीलिए तो उसके शरीरमें उसने भारी सन्ताप उत्पन्न किया था ॥१८॥ यद्यपि कुमारी उषा अपने मनको महाव्यथा दूसरेसे कहती नहीं थी तथापि भीतर ही भीतर वह अत्यन्त दुबंल हो गयी थी। एक दिन उसकी सखीने अपना हित करनेवाली उस उषासे पूछकर सब कारण जान लिया और वह रात्रिके समय अनिरुद्धको विद्याधरियोंसे श्रेष्ठ विद्याधरलोकमें ले गयी ॥१९॥ प्रातःकालके समय जब सहसा युवा अनिरुद्धकी नींद खुली तब उसने अपने आपको रत्नोंकी किरणोंसे व्याप्त महलमें कोमल शय्यापर सोता हुआ पाया। जागते ही उसने एक कन्याको देखा ॥२०॥ वह कन्या स्थूल नितम्ब और निविड़ स्तनोंके भारसे युक्त थी, पतली कमर और त्रिबलिसे सुशोभित थी, सत्पुरुषोंके मनको हरण करनेवाली थी
और काम अथवा रोमांचोंको धारण करनेवाली थी। उसे देख अनिरुद्ध विचार करने लगा कि यह यहां कौन उत्तम स्त्रो मेरा मन हरण कर रही है ? क्या यह इन्द्राणी है ? अथवा नाग-वधू है ? क्योंकि ऐसी मनुष्यकी खो तो मैंने कभी भी कहीं भी नहीं देखी है ॥२१-२२॥ इन्द्रके स्थानके समान नेत्रोंको हरण करनेवाला यह स्थान भी तो अपूर्व ही दिखाई देता है। यहाँ दिखाई देनेवाला यह सत्य है ? या असत्य है ? यथार्थमें सोनेवालोंका मन संसारमें भ्रमण करता
१. वरणादि म.। २. तमनुरुद्ध म.। ३. प्रद्युम्नपुत्रम् । ४. इन्द्राणी।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
इति वितर्कमतर्कितदर्शनं सुपरिबोध्य तया तमयोजयत् । रहसि कन्यकया कृतककणं विदितचित्रपदादिकलेखिका ॥२४॥ अविरहं सुरतामृतपायिनोरमृतपायिवधूवरयोरिव । वरवधूवरयोः समये तयोर्ब्रजति वृत्तमिदं विदितं हरेः ॥२५॥ हरिरतो बलशम्बमनोमवप्रभृतिभिर्यदुभिः सह संगतः । मदनजानयनं प्रति यातवान् खगपवाणपुरं स विहायसा ॥२६॥ नरतुरङ्गरथद्विपसंकुले युधि विजित्य स तत्र खगाधिपम् । तमनिरुद्धमुषासहितं हि तं निजनिवासपुरं हरिरामयत् ॥२७॥ विरहदुःखमपोद्य ततोऽखिलः शमनिरुद्धसमागमसंभवम् । अनुदिनं स्वजनो जनतासखः सुखमरंस्त समस्तसुखाश्रयः ॥२८॥ निजवधूजनलालितनेमिना हरिरमा नृपपौरपयोधिना । कुसमितोपवनं समधी ययौ विदितरैवतकं रमणेच्छया ॥२९॥ पृथुभिरश्वरथै र्ययुरीश्वरा रुचिरभूषणनेमिवकाच्युताः ।
तसितातपबारणहारिणो वृषमतालबृहद्गरुडध्वजाः ॥३०॥ दशदशाह कुमारगणावृतः करितुरङ्गरथैर्मदयन् जनम् । कुसुमबाणधनुर्मकरध्वजैः पथि रथेन ययौ मकरध्वजः ॥३१॥ पुरजनोऽथ यथार्हसुवाहनैर्विविधवस्त्रविभूषणभूषितः । हरिपुरस्सरराजवधूजनः पथि जगाम तथा शिविकादिमिः ॥३२॥
रहता है ।।२३।। अतकित वस्तुओंको देखकर कुमार इस प्रकार विचार कर हो रहा था कि इतने में चित्रलेखा सखी आयी और सब समाचार बता एकान्तमें कंकण बन्धन कराकर उस कन्याके साथ मिला गयी ॥२४॥ तदनन्तर देव-देवांगनाओंके समान निरन्तर सुरतरूपी अमृतका पान करनेवाले उन दोनों स्त्री-पुरुषोंका समय सुखसे व्यतीत होने लगा। इधर श्रीकृष्णको जब अनिरुद्धके हरे जानेका वृत्तान्त विदित हुआ तब वे बलदेव, शम्ब और प्रद्युम्न आदि यादवोंके साथ मिलकर अनिरुद्धको लानेके लिए आकाशमार्गसे विद्याधरोंके राजा बाणकी नगरी पहुंचे ॥२५-२६॥ और मनुष्य, घोड़े, रथ और हाथियोंसे व्याप्त युद्ध में विद्याधरोंके अधिपति बाणको जीतकर उषासहित अनिरुद्धको अपने नगर वापस ले आये ॥२७॥ तदनन्तर अनिरुद्धके समागमसे समुत्पन्न सुखको पाकर सब लोगोंका विरहजन्य दुःख दूर हो गया और समस्त सुखोंके आधारभूत स्वजन और पुरजन सुखसे क्रीड़ा करने लगे ।।२८।।
अथानन्तर एक समय वसन्त ऋतुके आनेपर श्रीकृष्ण, अपनी स्त्रियोंसे लालित भगवान् नेमिनाथ, राजा महाराजा और नगरवासीरूपी सागरके साथ, जहाँ उपवन फूल रहे थे ऐसे गिरनार पर्वतपर क्रीड़ा करनेकी इच्छासे गये ॥२९॥ जो धारण किये हुए सफेद छत्रोंसे सुशोभित थे, तथा बैल, ताल और गरुड़को ध्वजाओंसे युक्त थे ऐसे सुन्दर भूषणोंसे विभूषित भगवान् नेमिनाथ, बलदेव ओर श्रीकृष्ण पृथक्-पृथक् बड़े-बड़े घोड़ोंके रथोंपर सवार हो एकके बाद एक जा रहे थे ॥३०॥ उनके पीछे समुद्रविजय आदि दश यादवोंके कुमारोंसे परिवृत प्रद्युम्न, मार्गमें फूलोंके बाण, धनुष तथा मकर चिह्नांकित ध्वजासे मनुष्योंको आनन्दित करता हुआ हाथी और घोडोंके रथोंपर सवार हो जा रहा था ॥३॥॥ उसके पीछे नाना प्रकारके वस्त्राभषणोंसे विभषित नगरवासी लोग यथायोग्य उत्तमोत्तम वाहनोंपर सवार होकर चल रहे थे और इनके बाद कृष्ण १. चित्रलेखा नाम सखी। २. -विदित-म.। ३. संगतः म. । ४. खगक म.। ५. रश्वयुत-म. ।
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हरिवंशपुराणे उपचितो जनताभिरसौ गिरिः श्रियमुवाह सहोपवनैस्ततः । सुरगिरेः सुरसंगवधूजनैरुपचितस्य चितस्य वनान्तरैः ॥३३॥ 'समपनीतयथोचितवाहना वनविहारमतो जनताखिला । सपदि कर्तमसावुपचक्रमे गिरिनितम्बवनेषु यथायथम् ॥३४॥ सुरमिपुष्परजःसुरमौ श्रमव्यपगमध्यसने श्वसने दिशः । वहति शीतलदक्षिणमारुते स्मररतिश्रम एव नृणामभूत् ॥३५॥ रसितचूतलतारसकोकिलाः कलरवा: कलकण्ठतया गिरौ । जनमनास्यपहर्तुमतिक्षमाः परिचुकूजुरिह स्मरदीपिताः ॥३६॥ मधुलिहां मधुपानजुषां कुलैः कुरवका वकुलाः सुभगाः कृताः । द्विपदषट्पदभेदवता रवैः श्रयति वाश्रय आश्रयिणो गुणान् ॥३७॥ करिकटेष्वयुगच्छदगन्धिषु स्थितिमपास्य मदभ्रमराः श्रिताः । ससहकारसुरद्रुममञ्जरीरमिनवासु रतिर्महती भवेत् ॥३८॥ कुसुममारभृतः प्रणता भृशं प्रणयभङ्गमियेव नता द्रुमाः। युवतिहस्तधुताः कुसुमोच्चयेऽतनुसुखं 'तरुणा इव भेजिरे ॥३९॥ अनतिनम्रतया निजशाखया कथमपि प्रमदाकरलब्धया । तरुगणः कुसुमग्रहणेऽभज दृढकचग्रहसौख्यमिव प्रभुः ॥४०॥
आदि राजाओंकी स्त्रियां पालको आदिपर सवार हो मार्गमें प्रयाण कर रही थीं ॥३२।। उस समय जन-समूहसे व्याप्त और उपवनोंसे सुशोभित गिरनार पर्वत, देव-देवियोंसे व्याप्त एवं नाना वनोंसे युक्त सुमेरु पर्वतकी शोभाको धारण कर रहा था ॥३३॥ समीप पहुंचनेपर सब लोग यथायोग्य अपने-अपने वाहन छोड़, पर्वतके नितम्बपर स्थित वनोंमें शीघ्र ही इच्छानुसार विहार करने लगे ॥३४॥ उस समय वासन्ती फूलोंकी परागसे सुगन्धित, श्रमको दूर करनेवाली, ठण्डी दक्षिणकी वायु सब दिशाओं में बह रही थी इसलिए मनुष्योंके कामभोग-सम्बन्धी श्रम ही शेष रह गया था शेष सब श्रम दूर हो गया था ॥३५॥ आम्रलताओंके रसका आस्वादन करनेवाली, सुन्दर कण्ठसे मनुष्योंका मन हरण करनेमें अत्यन्त दक्ष और कामको उत्तेजित करने में निपुण मधुरभाषी कोकिलाएं उस समय पवंतपर चारों ओर कुहू कुहू कर रही थीं ||३६।। मधुपान करनेमें लीन भ्रमरोंके समूहसे कुरवक और मौलिश्रीके वृक्ष तथा द्विपद अर्थात् स्त्री-पुरुष अथवा कोकिल आदि पक्षी और षट्पद अर्थात् भ्रमरोंके शब्दसे वनके प्रदेश, अत्यन्त मनोहर हो गये थे सो ठीक ही है क्योंकि आश्रय, आश्रयो-अपने ऊपर स्थित पदार्थके गुण ग्रहण करता ही है ॥३७|| मदपायी भ्रमर, सप्तपर्ण पुष्पके समान गन्धवाले हाथियोंके गण्डस्थलोंपर स्थितिको छोड़कर आम्र और देवदारुकी मंजरियोंपर जा बैठी सो ठीक ही है क्योंकि नवीन वस्तुओंसे अल्पाधिक प्रीति होती ही है ॥३८॥ फूलोंके भारको धारण करनेवाले वृक्ष अत्यन्त नम्रीभूत हो रहे थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्नेह-भंगके भयसे ही नम्रीभूत हो रहे थे। वे ही वृक्ष पुष्पावचयनके समय जब युवतियोंके हाथोंसे कम्पित होते थे तब तरुण पुरुषोंके समान अतनु-बहुत भारी अथवा कामसम्बन्धी सुखको प्राप्त होते थे ॥३९|| फूल चुनते समय वृक्षोंकी ऊंची शाखाओंको स्त्रियां किसी तरह अपने हाथसे पकड़कर नीचेकी ओर खींच रही थी उससे वे नायकके समान स्त्री द्वारा केश
१. समय म.। २. रसितः स्वादितः चूतलतारसो यैस्ते, ते च ते कोकिलाश्च इति- ३. -माश्रयिणो म. । ४. मदं भ्रमराश्रिताः म.। ५. युवतिहस्तयुता म.। ६. अतनुसुखं महासुखं कामसुखं वा ।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
'वनपरिभ्रमसौख्यमितस्ततः समनुभूय चिरं वनितासखः । युवजनः कुसुमोत्करकल्पितेऽभजत तल्पतले सुरतामृतम् ॥४१॥ प्रतिवनं प्रतिगुल्मलतागृहं प्रतितरु प्रतिवापि विहारतः । विषयसौख्यमसेवत सौख्यवान खिलयादव पौरजनो मधौ ॥४२॥ द्विगुणिताष्टसहस्रवधूगणैर्बहुगुणीकृतभोगनभोगतः ।
सुमधुमाधवमासममानयत् सुभगताघरमाधव चन्द्रमाः ॥४३॥ पतिनिदेशजुषो हरियोषितो मुषितमानवमानसवृत्तयः । सह विजहुरैधीश्वरनेमिना तरुलतारमणीयवनेषु ताः ॥४४॥ "वनलता कुसुमस्तबकोच्चये मधुमदालसमानसलोचना । मुखसुगन्धितया मुखरालिभिर्वलयिताघृत काचन देवरम् ॥४५॥ उरसि चुम्बति तं कठिनस्तनो स्पृशति काचन जिघ्रति तं परा । मृदुकरण करे परिगृह्य तं शशिमुखं कुरुतेऽभिमुखं परा ॥ ४६ ॥ विटपकैरपि सालतमालजैर्व्य जनकैरिव काश्चिदवीजयन् । विदधुरस्य परास्त्ववतंसकश्रियमशोकतरोर्नवपल्लवैः ॥ ४७ ॥ विरचितां कुसुमैर्विविधैः स्रजं निजपरिष्वजनस्पृहया परा । शिरसि मालयति स्म गले परा कुरवकान्यपरा शिरसेऽकिरत् ॥ ४८ ॥ इति वसन्तमनन्तमसौ युवा हरिवधूभिरमा प्रतिमानयन् । स ऋतुना तदनन्तरभाविना विभुरसेव्यत सेवकवृत्तिना ॥४९॥
खींचने के सुखका अनुभव कर रहे थे ||४०|| तरुण पुरुष, स्त्रियोंके साथ चिरकाल तक जहाँ-तहाँ वन-भ्रमणके सुखका 'उपभोग कर फूलोंके समूह से निर्मित शय्याओं पर सम्भोगरूपी अमृतका सेवन करने लगे ||४१|| उस वसन्त ऋतु में सुखसे युक्त समस्त यादव, प्रत्येक वन, प्रत्येक झाड़ी, प्रत्येक लतागृह, प्रत्येक वृक्ष और प्रत्येक वापीमें विहार करते हुए विषय सुखका सेवन कर रहे थे ||४२ || सोलह हजार स्त्रियोंके द्वारा अनेकरूपताको प्राप्त भोगरूपी आकाशमें विद्यमान एवं सौन्दर्यको धारण करनेवाले श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमाने भी वसन्तऋतुके उस चैत्र वैशाख मासको बहुत अच्छा माना था ||४३|| मनुष्यको मनोवृत्तिको हरण करनेवाली श्रीकृष्णकी स्त्रियाँ, पतिकी आज्ञा पाकर वृक्षों और लताओंसे रमणीय वनोंमें भगवान् नेमिनाथके साथ क्रीड़ा करने लगीं ||४४ ॥ मधुके मदसे जिसका हृदय और नेत्र अलसा रहे थे ऐसी किसी स्त्रीको वन-लताओंके फूलोंके गुच्छे तोड़ते समय मुखकी सुगन्धिसे प्रेरित गुनगुनाते हुए भ्रमरोंने घेर लिया इसलिए उसने भयभीत हो देवरनेमिनाथको पकड़ लिया || ४५|| कोई कठिनस्तनी वक्षःस्थलपर उनका चुम्बन करने लगी, कोई उनका स्पर्श करने लगी, कोई उन्हें सूंघने लगी, कोई अपने कोमल हाथसे उनका हाथ पकड़ चन्द्रमाके समान मुखके धारक भगवान् नेमिनाथको अपने सम्मुख करने लगी ||४६|| कितनी ही स्त्रियाँ साल और तमाल वृक्षकी छोटी-छोटी टहनियोंसे पंखोंके समान उन्हें हवा करने लगीं । कितनी ही अशोक वृक्षके नये-नये पल्लवोंसे कर्णाभरण अथवा सेहरा बनाकर उन्हें पहनाने लगीं ||४७|| कोई अपने बालिंगनकी इच्छासे नाना प्रकारके फूलोंसे निर्मित माला उनके शिरपर पहनाने लगी, कोई गलेमें डालने लगी और कोई उनके शिरको लक्ष्य कर कुरवकके पुष्प फेंकने लगी ||४८|| इस प्रकार युवा नेमिनाथ कृष्णकी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करते हुए उस वसन्तको ऐसा समझ रहे थे जैसे उसका कभी अन्त ही आनेवाला न हो । तदनन्तर वसन्तके बाद आनेवाली १. नवपरिभ्रम - म । २. वनलताः म । ३. लोचना: म ।
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हरिवंशपुराणे प्रतिदिनं वसति स्म हरिस्तदा खरनिदाघमृतं प्रतिमानयन् । स्वधतिकारिणि रैवतके गिरौ शिशिरशीकरनिर्झरहारिणि ॥५०॥ हरिवधूनिवहरुपरोधतः' प्रकृतिरागपरागपराङ्मुखः । शिशिरवारिणि तत्र जलास्पदे जलविहारमसंवत तीर्थकृत् ॥५१॥ तरणदूरनिमजनकक्रियाः सलिलयन्त्रकराश्च परस्परम् ।। यदुनृपस्य मुदा वरयोषितः प्रतिविचिक्षिपुरम्बुमुखाम्बुजे ॥५२॥ विभुमपि प्रति ता व्यकिरन्नपः करतलाञ्जलिमिर्जलयन्त्रकैः । प्रलघु तेन तु ताः किरतापगाः जलधिनेव मुहुर्विमुखीकृताः ।।५३॥ अजनि मजनक जनरअनं न खलु केवलमेवमनीदृशम् । अपि तु चित्रसमालमनैर्धमत्परिमलैरपि तजलरञ्जनम् ॥५४॥ उदतरत् प्रभुणा तरुणीघटा गतनिदाघजधर्मघनश्रमा । मृदितपुष्करिणी करिणी चिरादिव महाकरिणा करिणीघटा ॥५५॥ च्युतवतंसविशेषकमाकुलं तरलदृष्टि विधूसरिताधरम् । शिथिलमेखलमिष्टकचग्रहं रत इवाप पुरन्ध्रिकुलं श्रियम् ॥५६॥ परिजनाहृतवस्त्रविभूषणैस्तदनुभूषिततोषितयोषितः । विभवपुर्वसनैः सममार्जयन सुपरिधाय परं परिधानकम् ॥५७॥
ग्रीष्म ऋतु सेवककी तरह भगवान्की सेवा करने लगी ।।४९।।
उस समय तीक्ष्ण गरमोसे युक्त ग्रीष्म ऋतुको अच्छा मानते हुए श्रीकृष्ण उसी गिरनार पर्वतपर प्रतिदिन निवास करने लगे क्योंकि वह उन्हें बहत ही आनन्दका कारण था और ठण्डे जलकणोंसे युक्त निझरोंसे मनोहर था ॥५०॥ यद्यपि भगवान् नेमिनाथ स्वभावसे ही रागरूपी परागसे पराङ्मुख थे तथापि श्रीकृष्णके स्त्रियोंके उपरोधसे वे शीतल जलसे भरे हुए जलाशयमें जलक्रीड़ा करने लगे ॥५१॥ यदु नरेन्द्रकी उत्तम स्त्रियां कभी तैरने लगती थीं, कभी लम्बी-लम्बी डुबकियां लगाती थीं, कभी हाथमें पिचकारियां ले हर्षपूर्वक परस्पर एक-दूसरेके मुखकमलपर पानी उछालती थीं ।।५२।। वे अपनी हथेलीकी अंजलियों और पिचकारियोंसे जब भगवान्के ऊपर जल उछालने लगी तो उन्होंने भी जल्दी-जल्दी पानी उछालकर उन सबको उस तरह विमुख कर दिया जिस तरह कि समुद्र अपने जलकी तीव्र ठेलसे जब कभी नदियोंको विमुख कर देता है-उलटा लौटा देता है॥५३॥ उनका वह
नका वह ऐसा अनुपम स्नान न केवल जनरंजन-मनुष्योंको राग-प्रीति उत्पन्न करनेवाला हुआ था किन्तु फैलती हुई सुगन्धिसे युक्त नाना प्रकारके विलेपनोंसे जल रंजन-जलको रंगनेवाला भी हुआ था ॥५४॥ जिस प्रकार कमलोंके समूहको मर्दन करनेवाली एक चंचल सैंडसे युक्त हस्तिनियोंका समूह जलाशयमें किसी महाहस्तीके साथ चिरकाल तक तैरता रहता है उसी प्रकार वह तरुण स्त्रियोंका समूह अपने हाथ चलाता और कमलोंके समूहको मर्दित करता हुआ चिर काल तक तैरता रहा। इस जल-क्रीड़ासे उनका ग्रीष्मकालीन घामसे
पन्न समस्त भय दर हो गया था ॥५५॥ उस समय स्त्रियोंके कर्णाभरण गिर गये थे, तिलक मिट गये थे, आकुलता बढ़ गयी थी, दृष्टि चंचल हो गयी थी, ओठ धूसरित हो गये थे, मेखला ढीली हो गयी थी और केश खुल गये थे इसलिए वे सम्भोगकाल-जैसी शोभाको प्राप्त हो रही थीं ॥५६।। तदनन्तर परिजनोंके द्वारा लाये हुए वस्त्राभूषणोंसे विभूषित स्त्रियोंने, सन्तुष्ट होकर वस्त्रोंसे भगवान्का शरीर पोंछा और उन्हें दूसरे वस्त्र पहनाये ॥५७।। १. -रुपरोधितः म., ङ. । २. स्वमुखवारिसुसेकवधूजनाः म., ङ. । ३. सता म. । ४. गतिनिदाघज म. ।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
सपदिमुक्तजलाम्बरपीलने स्फुटकटाक्षगुणेन विलासिना । मधुरिपुस्थिरगौरव भूमिकामतुलजाम्बवतीं समनोदयत् ॥ ५८ ॥ कृतकको पविकारकटाक्षिणी सललितभ्रु विलोक्य तु चक्षुषा । विभुमुवाच वचः पथपण्डिता त्वरितजाम्बवती स्फुटिताधरा ॥ ५९ ॥ जगकोटिमणिद्युतिमण्डलद्विगुणिताङ्गतिरीटमणिप्रभः । सम िस कौस्तुभासुरः स्वहरिवाहमहाशयनं हरिः ॥ ६० ॥ घननिनादतताम्बरमम्बुज' जगति पूरयते निजमम्बुमाः । कठिनशार्ङ्गधनुः सगुणं करोत्यखिलभूपविभुः सुभगाङ्गनः ॥ ६१॥ पतिरसौ मम सोऽपि कदाचन प्रति न शास्ति हि वेदृशशासनम् । तदिह कश्चिदयं किल शास्ति मामपि भवान् सजलाम्बरपीलने ॥ ६२॥ इति निशम्य तु काश्चन तद्वचः प्रतिजगुर्जगतीपतियोषितः । किमिति नाथमधिक्षिपसि त्रिभू प्रभुमनन्तगुणं विगतत्र ॥ ६३ ॥ कियदिदं जगतीपतिपौरुषं जगति दुष्करमित्यभिधाय सः । सरभसं पुरमेत्य नृपालयं द्रुतगतिः प्रविवेश हसन्मुखः ॥६४॥ चल भुजङ्गमभोगविभूषणं तदधिरुह्य महाशयनं हरेः । करोद्विगुणं सगुणं धनुस्तमपि शङ्खमपूरयदीश्वरः ॥ ६५ ॥
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भगवान् ने जो तत्काल गीला वस्त्र छोड़ा था उसे निचोड़ने के लिए उन्होंने कुछ विलासपूर्ण मुद्रा कटाक्ष चलाते हुए कृष्णकी प्रेमपात्र एवं अनुपम सुन्दरी जाम्बवतीको प्रेरित किया || ५८॥ भगवान्का अभिप्राय समझ शीघ्रता से युक्त तथा नाना प्रकारके वचन बनाने में पण्डित जाम्बवती बनावटी क्रोधसे विकारयुक्त कटाक्ष चलाने लगी, उसका ओष्ठ कम्पित होने लगा एवं हाव-भावपूर्वक भौंहें चलाकर नेत्रसे भगवान् की ओर देखकर कहने लगी कि ||५९ || जिनके शरीर और मुकुट मणियोंकी प्रभा करोड़ों सर्पोंके मणियोंके कान्तिमण्डलसे दूनी हो जाती है, जो कौस्तुभ मणिसे देदीप्यमान हैं, जो महानागशय्यापर आरूढ़ हो जगत् में प्रचण्ड आवाजसे आकाशको व्याप्त करनेवाला अपना शंख बजाते हैं, जो जलके समान नीली आभाको धारण करनेवाले हैं, जो अत्यन्त कठिन शाङ्गनामक धनुषको प्रत्यंचासे युक्त करते हैं, जो समस्त राजाओंके स्वामी हैं और जिनकी अनेक शुभ-सुन्दर स्त्रियाँ हैं वे मेरे स्वामी हैं किन्तु वे भी कभी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं देते फिर आप कोई विचित्र ही पुरुष जान पड़ते हैं जो मेरे लिए भी गीला वस्त्र निचोड़नेका आदेश दे रहे हैं ||६०-६२ || जाम्बवतीके उक्त शब्द सुनकर कृष्णको कितनी ही स्त्रियोंने उसे उत्तर दिया कि अरी निर्लज्ज ! इस तरह तीन लोकके स्वामी और अनन्तगुणोंके धारक भगवान् जिनेन्द्रको तू क्यों निन्दा कर रही है ? ||६३ || जाम्बवतीके वचन सुन भगवान् नेमिनाथने हँसते हुए कहा कि तूने राजा कृष्णके जिस पौरुषका वर्णन किया है संसार में वह कितना कठिन है ? इस प्रकार कहकर वे वेगसे नगरकी ओर गये और शीघ्रता से राजमहल में घुस गये || ६४ || वे लहलहाते सर्पोंकी फणाओंसे सुशोभित श्रीकृष्णकी विशाल नागशय्यापर चढ़ गये । उन्होंने उनके शाङ्गं धनुषको दूना कर प्रत्यंचासे युक्त
१. शङ्ख । २. पूरयते च निजाम्बुभा: म., पूरयते च जिनाधिपैः घ., पूरयते निजमाम्बुजा : ग. पूरयते निजमाम्बुभाः ङ. ख. । ३. कोऽपि म । ४. -दीश्वरम् म. ।
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हरिवंशपुराणे
मुखरशङ्खरवेण दिशां मुखान्यखिलमम्बरमम्बुनिधिश्व भूः । निखिल मेतदतीव विपूरितस्फुटदिवस्फुटमाविरभूत्तदा ॥ ६६ ॥ पटुमदाः करिणः क्षुभिता निजानभिबमन्जुरितस्तत आश्रयान् । त्रुटितबन्ध तुरङ्गगमकोटयः पुरि सहेषित का स्त्वरितोऽभ्रमन् ॥ ६७ ॥ भवनकूटतटान्यपतन् हरिः स्वकमकर्षदसिं क्षुभिता समा । पुरजनः प्रलयागमशङ्कया मयमगात् परमाकुलितस्तदा ॥ ६८ ॥ हरिरवेत्य निजाम्बुजनिस्वनं त्वरितमेत्य कुमारमवज्ञया । स्फुरदहीशमहाशयने स्थितं परिनिरीक्ष्य नृपैः सुविसिस्मिये ॥ ६९ ॥ परुषजाम्बवतीवचसो रुषा स्फुटमवेस्य कुमारकृतं हरिः । परितुतोष सबन्धुरधीशितुर्वि कृतिरप्यतितोषकरी तदा ॥७०॥ कृतपरिष्वजनः स्वजनैः स तं समभिपूज्य युवानमगाद्गृहम् । स्वयुवतिं प्रति दीपितमन्मथं समवबुध्य हरिर्मुमुदेऽधिकम् ॥७१॥ सविधियाचितभोजसुता करग्रहण हेतु विबोधित बान्धवः ।
नरपतीन् सकलान् सकलत्रकानकृत सन्निहितान् कृतगौरवः ॥७२॥ विहिततरसमयोचितमज्जनौ परमरूपधरौ घृतमण्डनौ । पुरि यथास्वमगारमधिष्ठितौ जनमनोऽहरतां सुवधूवरौ ॥७३॥
कर दिया और उनके पांचजन्य शंखको जोरसे फूँक दिया || ६५ || शंखके उस भयंकर शब्दसे दिशाओंके मुख, समस्त आकाश, समुद्र, पृथिवी आदि सभी चीजें व्याप्त हो गयीं और उससे ऐसी जान पड़ने लगीं मानो शंखके शब्दसे व्याप्त होनेके कारण फट ही गयी हों || ६६ || अत्यधिक मदको धारण करनेवाले हाथियोंने क्षुभित होकर जहाँ-तहाँ अपने बन्धनके खम्भे तोड़ दिये । घोड़े भी बन्धन तुड़ाकर हिनहिनाते हुए नगर में इधर-उधर दौड़ने लगे ||६७|| महलोंके शिखर और किनारे टूट-टूटकर गिरने लगे । श्रीकृष्णने अपनी तलवार खींच ली । समस्त सभा क्षुभित हो उठी, और नगरवासी जन प्रलयकालके आनेकी शंकासे अत्यन्त आकुलित होते हुए भयको प्राप्त हो गये ||६८|| जब कृष्णको विदित हुआ कि यह तो हमारे ही शंखका शब्द है तब वे शीघ्र ही आयुधशाला में गये और नेमिकुमारको देदीप्यमान नागशय्यापर अनादरपूर्वक खड़ा देख अन्य राजाओं के साथ आश्चर्य करने लगे || ६९ || ज्यों ही कृष्णको यह स्पष्ट मालूम हुआ कि कुमारने यह कार्य जाम्बवतीके कठोर वचनोंसे कुपित होकर क्रिया है त्यों ही बन्धुजनोंके साथ उन्होंने अत्यधिक सन्तोषका अनुभव किया। उस समय कुमारकी वह क्रोधरूप विकृति भी कृष्णके लिए अत्यन्त सन्तोषका कारण हुई थी ||७०||
अपने स्वजनोंके साथ कृष्णने युवा नेमिकुमारका आलिंगन कर उनका अत्यधिक सत्कार किया और उसके बाद वे अपने घर गये । घर जानेपर जब उन्हें विदित हुआ कि अपनी स्त्रीके निमित्त से उन्हें कामोद्दीपन हुआ है तब वे अधिक हर्षित हुए ॥७१॥ श्रीकृष्णने नेमिनाथके लिए विधिपूर्वक भोजवंशियोंकी कुमारी राजीमतीकी याचना की, उसके पाणिग्रहण संस्कारके लिए बन्धुजनोंके पास खबर भेजी और स्त्रियोंसहित समस्त राजाओं को बड़े सम्मान के साथ बुलाकर अपने निकट किया ॥ ७२ ॥ उस समयके योग्य जिनका स्नपन किया गया था, जो परम रूपको धारण कर रहे थे, जिन्होंने उत्तमोत्तम आभूषण धारण किये थे और जो अपने-अपने नगरमें अपने-अपने घर स्थित थे ऐसे उत्तम वधू और वर मनुष्योंका मन हरण कर रहे थे ||७३||
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पनपञ्चाशः सर्गः
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ऋतृरियाय स धर्ममयस्ततो भुवि धनागमकालमयादिव। नभसि दीनमदर्शि धनावली मरुपथे पथिकैस्तृषितैरपि ॥७॥ प्रथमगर्जितशीतपयःकणा जलमुचां 'शिखिचातकसौख्यदाः। भुवि बभूवुरशेषवियोगिनां द्विगुणतापजुषामतिदुःसहाः ॥७५॥ दवदिवाकरदग्धवनावलीप्रथमनिर्गतवाष्पसुसौरभे। अभवतामिव सौहृददर्शने नभसि वर्षति मेघकदम्बके ।।७।। चलतडिरसबलाकबलाहके सुरपचापधरे शरवर्षिणी। क्षितिरभारसुरगोपशतैश्चिता पतितपान्थमनोभिरिवामितः ॥७॥ कुटजनीपकदम्बकदम्बकैः कुसुमितैः ककुभैः ककुभोऽखिलाः । नवशिलीन्ध्रदलैश्च मनोहराः सवनरन्ध्रगिरिक्षितयो बभुः ॥७॥ घनघनाघनगर्जिततर्जिता मुखरबाहुटतावलयारवेः। युवतयः प्रियकण्ठदृढग्रहैर्विदधुरुग्रमयग्रहनिग्रहम् ।।७।। गिरिशिलातपयोगविमोचितास्त्रिविधयोगधरा मुनयो वने। शिशिरमारुतवर्षसहक्षमास्तरुलताभिमुखास्ववतस्थिरे।।८।। पृथुरथं चतुरश्वयुतं तदा ध्वजपताकिनमर्करथप्रभम् । समधिरुह्य सनेमियुवान्वितो नृपसुतैश्चलितो वनभूमिकाम् ॥८॥
तदनन्तर अब पृथिवीपर वर्षाकाल आनेवाला है इस भयसे ही मानो ग्रीष्म ऋतु कहीं चली गयी। आकाशमें मेघमाला छा गयी और उसे मरुस्थलके पथिक प्यासे होनेपर भी बड़ी दीनतासे देखने लगे ॥७४॥ मेघोंकी प्रथम गर्जनाके जो शब्द और शीतल जलके छींटे क्रमसे मयूरों तथा चातकोंको सुखदायी थे वे ही पृथिवीपर दूने सन्तापको प्राप्त समस्त विरही मनुष्योंके लिए अत्यन्त दुःसह हो रहे थे ।।७५|| सावन के महीने में जब मेघोके समूह बरसने लगे तब दावानल और सूर्यके कारण दग्ध वनपंक्तिसे जो सर्वप्रथम वाष्प ( भाप ) और सोंदी-सोंदी सुगन्धि निकली वह ऐसी जान पड़ने लगी मानो मेघरूपी मित्रके दिखनेसे ही वनावलोके वाष्प-हर्षाव और सुखोच्छ्वासकी सुगन्धि निकलने लगी हो ॥७६।। चंचल बिजली और बलाकाओंसे सहित, मेघ जब इन्द्रधनुषरूपी धनुषको धारण कर शर अर्थात् बाण (पक्षमें जल ) की वर्षा करने लगे तब सैकड़ों इन्द्रगोपोंसे व्याप्त पृथिवी ऐसी जान पड़ने लगी मानो जहां-तहाँ पथिक जनोंके गिरे हुए अनुरागी हृदयोंसे ही व्याप्त हो रही हो ॥७७|| समस्त दिशाएं फूले हुए कुटज, कदम्ब और कोहाके वृक्षोंसे मनोहर दिखने लगी तथा वन, गतं और पर्वतोंसे सहित समस्त भूमि शिलीन्ध्रके नये-नये दलोंसे सुशोभित हो उठी ॥७८|| मेघोंकी. घनघोर गर्जनासे डरी हुई युवतियां, भुजाओंकी खनकती हुई चूड़ियोंके शब्दसे युक्त पतियोंके कण्ठके दृढालिंगनसे अपने तीव्र भयरूपी पिशाचका निग्रह करने लगीं। भावार्थ- मेघगर्जनासे भयभीत स्त्रियाँ पतियोंके कण्ठका दृढालिंगन करने लगीं ॥७९॥ आतापन, वर्षा और शिशिरके भेदसे तीन प्रकारके योगको धारण करनेवाले मुनियोंका उस समय पर्वतकी शिलाओंपर होनेवाला आतापन योग छुट गया था इसलिए वे वनमें शीत, वायु और वर्षाको बाधा सहन करते हुए वृक्ष और लताओंके नोचे स्थित हो गये। भावार्थ - मुनिगण वृक्षोंके नीचे बैठकर वर्षायोग धारण करने लगे ।।८०|| ऐसी ही वर्षाऋतुमें एक दिन युवा नेमिकुमार, ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित सूर्यके रथके समान १. दिवि चातक क., भुवि चातक छ। २. कर्तपदम । ३. श्रावणमासे । ४. सुरचापवरे क., ङ., म. । ५. 'इन्द्रः ककुभोऽर्जुनः' इत्यमरः । 'कोहा' इति हिन्दी।
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हरिवंशपुराणे
मुदितभोजसुतान गराङ्गनातृषितनेत्रनिपीतवपुर्जलः । विपुलराजपथेन स तैरगात् सकृपयेव मनोहरदर्शनः ॥ ८२ ॥ जलनिधिर्मुखरः स्वतरङ्ग कैलं कितनर्तनदोर्भिरिवाकुलैः । अतितरां विबमौ विभुसन्निधी विधृतनर्तननर्तके वत्तदा ॥ ८३ ॥ उपवनं समुपेत्य वनश्रियं सपदि यूनि विलोकयतीश्वरे । वितताखवनद्रुमजातयो विचकरुः कुसुमाञ्जलिमानताः || ८४ || स खलु पश्यति तत्र तदा वने विविधजातिभृतस्तृणमक्षिणः । भविकम्पितमानस गावकान् पुरुषरुद्धमृगानतिविह्वलान् ॥ ८५ ॥ लघु निरुध्य रथं स हि सारथिं निजनिनादजिताम्बुदनिस्वनः । अपि विदन्नवदन्मृगजातयः किमिह रोघमिमाः प्रतिलम्भिताः ॥ ८६ ।। अकथयत् प्रणतः स कृताञ्जलिः क्षितिभुजामिह मांसभुजां विभो । तव विवाहविधौ मृगरोधनं विविधमांसनिमित्तमनुष्टितम् ॥८७॥ इति निशम्य निशाम्य मृगवजान् प्रत्र तिभूतदयास्थितमानसः । नृपसुतानभिवीक्ष्य विभुर्जगावभिनिबोधवितुम्मणसावधिः ॥ ८८ ॥ गृह मरण्यमरण्य तृणोदकान्यशनपानमतीय निरागसः । मृगकुलस्य तथापि वधो नृभिर्जगति पश्यत निर्घृणतां नृणाम् ||८९ |
देदीप्यमान एवं चार घोड़ोंसे जुते रथपर सवार हो अनेक राजकुमारोंके साथ वनभूमिकी ओर चल दिये || ८१ ॥ प्रसन्नतासे युक्त राजीमती तथा नगरकी स्त्रियोंने अपने प्यासे नेत्रोंसे जिनके शरीररूपी जलका पान किया था एवं जिसका दर्शन मनको हरण कर रहा था ऐसे नेमिनाथ भगवान्, उन राजकुमारों के साथ विशाल राज-मागंसे दर्शकोंपर दया करते हुए के समान धीरेधीरे गमन कर रहे थे || ८२ ॥ | उस समय समुद्र, सुन्दर नृत्यमें व्यस्त भुजाओंके समान अपनी चंचल तरंगोंसे शब्दायमान हो रहा था और भगवान्के समीप आनेपर नाना प्रकारके नृत्यों को धारण करनेवाले नर्तक के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था || ८३ || उपवन में पहुँचकर युवा नेमकुमार शीघ्र ही वनकी लक्ष्मीको देखने लगे और वनके नाना वृक्षोंकी पंक्तियाँ अपनी शाखारूप भुजाएँ फैलाकर नम्रीभूत हो उनपर फूलोंकी अंजलियां बिखेरने लगीं ||८४ ॥ उसी समय उन्होंने वनमें एक जगह भयसे जिनके मन और शरीर कांप रहे थे, जो अत्यन्त विह्वल थे, पुरुष जिन्हें रोके हुए थे और जो नाना जातियोंसे युक्त थे ऐसे तृणभक्षी पशुओं को देखा ॥८५॥ यद्यपि भगवान्, अवधिज्ञानसे उन पशुओंको एकत्रित करनेका कारण जानते थे तथापि उन्होंने शीघ्र ही रथ रोककर अपने शब्दसे मेघध्वनि को जीतते हुए, सारथिसे पूछा कि ये नाना जाति के पशु यहाँ किसलिए रोके गये हैं ? || ८६ ॥ सारथिने नम्रीभूत हो हाथ जोड़कर कहा कि हे विभो ! आपके विवाहोत्सव में जो मांसभोजी राजा आये हैं उनके लिए नाना प्रकारका मांस तैयार करने के लिए यहाँ पशुओंका निरोध किया गया है || ८७|| इस प्रकार सारथिके वचन सुनकर ज्यों ही भगवान्ने मृगोंके समूहकी ओर देखा त्यों ही उनका हृदय प्राणिदयासे सराबोर हो गया । वे अवधिज्ञानी थे ही इसलिए राजकुमारोंकी ओर देखकर इस प्रकार कहने लगे कि वन ही जिनका घर है, वनके तृण और पानी हो जिनका भोजन-पान है और जो अत्यन्त निरपराध हैं ऐसे दीन मृगोंका संसार में फिर भी मनुष्य वध करते हैं । अहो ! मनुष्यों की निर्दयता तो
१. विधुत नर्तकनर्तन म., ङ. । २. सहसारथि म. ।
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पञ्चपश्चाशः सर्गः
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रणमुखेषु रणार्जितकोर्तयः करितुरङ्गरथेष्वपि निर्भयान् । अभिमुखानमिहन्तुमधिष्ठितानमिमुखाः प्रहरन्ति न हीतरान् ॥१०॥ शरभसिंहवनद्विपयूथपान् प्रकुपितान् परिहृस्य विदूरतः ।। मृगशशान् पृथुकान् प्रहरत्यमून् कथमिवान पुमान्न विलजते ॥९॥ चरणकण्टकवेधभयागटा विदधते परिधानमुपानहाम् । मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतः प्रहरन्ति हि ॥९२।। विषयसौख्यफलप्रसवोदयः प्रथम एष मृगौघवधोऽधमः । अनुभवे पुनरस्य रसप्रदे षडसुकायनिपीडनमध्यधि ॥१३।। विपुलराज्यपदस्थितिमिच्छता सकलसत्त्ववधोऽभिमुखीकृतः । दुरितबन्धफलस्तु वधो ध्रुवं कटुफला स्थितिरस्य परा' यतः ॥१४॥ प्रकृतिदेशरसानुभवस्थिति प्रचितबन्धचतुष्कवशीकृतः । भजति दुर्गतिषु क्रमतो भ्रमन् विविधदुःखमयं भवभृद्गणः ।।५५।। प्रतिभवं मयदुःखखनीयुतैर्विषयजैः कुसुखैरतिभावितः । नरमवेऽप्यसुमानतिमोहितो न यतते भवदुःखनिवृत्तये ॥१६॥ भवसुखानि बहिर्विषयोद्भवान्यतिमहान्स्यपि सन्ततिमन्स्यपि । भवभूतो न भवन्ति हि तुष्टये जलनिधेरिव सिन्धुशतान्यपि ।।१७।।
देखो ॥८८-८९।। रणके अग्रभागमें जिन्होंने कीर्तिका संचय किया है ऐसे शूरवीर मनुष्य हाथी, घोड़े और रथ आदिपर सवार हो निर्भयताके साथ मारनेके लिए सामने खड़े हए लोगोंपर ही उनके सामने जाकर प्रहार करते हैं अन्य लोगोंपर नहीं ।।९.०॥ जो पुरुष अत्यधिक क्रोधसे युक्त शरभ, सिंह तथा जंगली हाथियों आदिको दूरसे छोड़ देते हैं और मृग तथा खरगोश आदि क्षुद्र प्राणियोंपर प्रहार करते हैं उन्हें लज्जा क्यों नहीं आती? ॥९१।। अहा ! जो शूरवीर पैरमें कांटा न चुभ जाये इस भयसे स्वयं तो जूता पहनते हैं और शिकारके समय कोमल मृगोंको सैकड़ों प्रकारके तीक्ष्ण शस्त्रोंसे मारते हैं यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥९२।। यह निन्द्य मृग-रमूहका वध प्रथम तो विषयसुखरूपी फलको देता है परन्तु जब इसका अनुभाग अपना रस देने लगता है तब उत्तरोत्तर छह कायका विघात सहन करना पड़ता है। भावार्थ--हिंसक प्राणी छड़कायके जीवोंमें उत्पन्न होता है और वहाँ नाना जीवोंके द्वारा मारा जाता है ||९३।। यह मनुष्य चाहता तो यह है कि मुझे विशाल राज्यकी प्राप्ति हो पर करता है समस्त प्राणियोंका वध सो यह विरुद्ध बात है क्योंकि प्राणिवधका फल तो निश्चय ही पापबन्ध है और उसके फलस्वरूप कटुक फलको ही प्राप्ति होती है राज्यादिक मधुर फलको नहीं ॥९४।। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकारके बन्धके वशीभूत हुआ यह प्राणियोंका समूह क्रम-क्रमसे दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करता हुआ नाना प्रकारके दुःख भोगता रहता है ।।९५॥ यह प्राणी प्रत्येक भवमें भय और दुःखको खानसे युक्त विषय-सम्बन्धी खोटे सुखोंसे प्रभावित रहा है और आज मनुष्यभवमें भी इतना अधिक मोहित हो रहा है कि संसार-सम्बन्धी दुःखको दूर करनेके लिए यत्न ही नहीं करता ॥१६॥
जिस प्रकार सैकड़ों नदियां समुद्रके सन्तोषके लिए नहीं हैं उसी प्रकार बाह्य विषयोंसे उत्पन्न, सन्ततिबद्ध, बहुत भारी संसारसुख भी प्राणीके सन्तोषके लिए नहीं हैं ।।९७।।
१. वरा म.। २. स्थितिः प्रचित म. । ३. विषमजः म.। ४. सन्ततितान्यपि म. ।
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हरिवंशपुराणे खचरदेवनृपामरजन्मजं नृपजयन्तविमानभवोद्भवम् । न हि सुखं' बहु सागरजीविनः समनुभूतमभून्मम तृप्तये ।।९।। कतिपयाहमवं वत किं पुनः सुलभमप्यतिमानुषमप्यलम् । भवति तृप्तिकरं मम सांप्रतं सुखमसारमसारतयायुषः ॥९९।। अत इदं क्षयि तापकरं सुखं विषयजं प्रविहाय महोद्यमः । क्षयविमुक्तमतापजमात्मजं शिवमुखं महता तपसार्जये ।।१०।। इति तदा मनसा वचसा समं सुपरिचिन्तयति ध्रुवमीश्वरे । शशिनिभाः खलु पञ्चमकल्पजास्तुषितवयरुणार्क पुरस्सराः ॥१०॥ लघु समेत्य नता नतमौलयः कृतकराञ्जलयस्त्रिदशा जगुः । समय एष विभो भरतेऽधुना त्वमिह वर्तय तीर्थमिति प्रभम् ॥१०२॥ प्रतिविबुद्धपथः स्वयमेव स प्रतिवियोधकदेवगिरोऽस्य ताः । अनुवदन्त्यपि ताः पुनरुक्ततां फलति चावसरे पुनरुक्तता ॥१०३।। लघु विमुच्य मृगान् मृगबान्धवो नृपसतैः प्रविवेश पुरं प्रभः । सपदि तत्र नृपासनभूषणं नुनुवुरेत्य पुरेव सुरेश्वराः ।।१०४।। तमुपवेश्य ततः स्नपनासने समुपनीतपयःपयसा सुरैः । सममिषिच्य विभूष्य सुरोचितस्रगनुलेपनवस्त्र विभूषणैः ।।१०५।। सुहरिविष्टरवर्तितमीश्वरं हरिबलान्वितमपसुरासुराः ।
बभुरतीव तदा परितः स्थिता प्रथममेरुमिवोरुकुलाचलाः ।।१०६।। औरकी बात जाने दो मैंने स्वयं सागरों पर्यन्त विद्याधरेन्द्र, देवेन्द्र और नरेन्द्रके जन्ममें राजाओं तथा जयन्त विमानमें समुत्पन्न सुखका उपभोग किया है पर वह मेरी तृप्तिके लिए नहीं हुआ ॥९८॥ यद्यपि मुझे लोकोत्तर सुख सुलभ है तथापि वह कुछ ही दिन ठहरनेवाला है, निःसार है और मेरी आयु भी असार है अतः वह मेरे लिए तृप्ति करनेवाला कैसे हो सकता है ? ||९९।। इसलिए मैं इस विनाशीक एवं सन्तापकारी विषयजन्य सुखको छोड़कर महान् उद्यम करता हुआ अत्यधिक तपसे अविनाशी, असन्तापसे 'उत्पन्न आत्मोत्थ मोक्ष सुखका उपार्जन करता हूँ ॥१००।। भगवान् उस समय मन-वचनसे इस प्रकारका विचार कर ही रहे थे कि उसी समय पंचम स्वर्गमें उत्पन्न, चन्द्रमाके समान श्वेतवर्ण तुषित, वह्नि, अरुण, आदित्य आदि लौकान्तिक देव शीघ्र ही आ पहुंचे और मस्तक झुकाकर तथा हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे कि हे प्रभो! इस समय भरतक्षेत्र में तीर्थ प्रवर्तानेका समय है इसलिए तीर्थप्रवृत्त कीजिए॥१०१-१०२॥ भगवान स्वयं ही मार्गको जानते थे इसलिए लोकान्तिक देवोंके उक्त वचन यद्यपि पुनरुक्त बातका ही कथन करते थे तथापि अवसरपर पुनरुक्तता भी फलीभूत होती है ॥१०३।। मृगोंके हितैषो भगवान्ने शीघ्र ही मृगोंको छोड़ दिया और राजकुमारोंके साथ स्वयं नगरीमें प्रवेश किया। नगरीमें जाकर वे राज्यसिंहासनको अलंकृत करने लगे और इन्द्रोंने पहलेके समान आकर उनकी स्तुति की ॥१०४।। तदनन्तर इन्द्रोंने उन्हें स्नानपीठपर विराजमान कर देवोंके द्वारा लाये हुए क्षीरोदकसे उनका अभिषेक किया और देवोंके योग्य माला, विलेपन, वस्त्र एवं आभूषणोंसे विभूषित किया ॥१०५॥ उत्तम सिंहासनके ऊपर विराजमान भगवान्को घेरकर
१. सुसंभवसागरजीवितः म.। २. पञ्चमस्वर्गोत्पन्ना लौकान्तिकदेवाः । ३. ननृतुरेत्य म., रुरुचुरेत्य क. । ४. हरियुगा-म., ड.।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः जिगमिषु तपसे जिनमादृता हरिपुरःसरभोजयदूत्तमाः । अनुनयैर्न निरोधुमलं तदा प्रबलसिंहमिवोद्धतपारम् ।।१०७।। पितृपुरःसरबन्धुजनं जिनः सुपरिबोध्य जगरिस्थतिकोविदः । धनदशिल्पिकृतां शिविका पदैरगमदुत्तरकुर्वमिधानिकाम्।।१०८॥ ध्वजसितातपवारणमण्डितां सुमणिभित्तिमुपाहितभक्तिकाम् ।। विविधरूपधरामधिरूढवान् विधुरिवोदयभूधरभित्तिकाम् ।।१०९॥ क्षितिभृतः क्षितितः शिविकां शिवामुदहरन् प्रथमाः प्रथमं ततः । सुरपथे सुरनाथपुरोगमाः सुरवराः सुखमू हुरमूं मुदा ॥11॥ अमवदूर्द्ध वमु दारमुदा' रवः सुरगणैर्विहितो "विहितोऽश्रियाम् । श्रुतिमधोमुखरो मुखरोदितो व्यथितभोजगतो जगतोऽरुणत् ।।११।। ननृतुरप्सरसः "सहसा रसैः "सशिखि साप्सरसः सह सारसैः । "यमभिसाम रसंघनताङ्गतं तमिव शान्तरसं धनतागतम् ।।११२॥
खड़े हुए कृष्ण, बलभद्र आदि अनेक राजा और सुर-असूर ऐसे जान पड़ते थे जैसे प्रथम सुमेरुको घेरकर स्थित कुलाचल ही हों ।। १०६ ॥ जिस प्रकार पिंजरेको तोड़कर निकलनेवाले बलवान् सिंहको कोई अनुनय-विनयके द्वारा रोकने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार तपके लिए जानेके इच्छुक भगवान्को श्रीकृष्ण भोजवंशी तथा यदुवंशी आदि कोई भी रोकने में समर्थ नहीं हो सके ॥१०७||
तदनन्तर संसारकी स्थितिके जानकार जिनेन्द्र भगवान् पिता आदि परिवारके लोगोंको अच्छी तरह समझाकर कुबेररूप शिल्पीके द्वारा निर्मित उत्तरकुरु नामकी पालकीकी ओर पैदल ही चल पड़े ।।१०८|| वह पालकी ध्वजाओं और सफेद छत्रसे मण्डित थी, उत्तम मणिमय दीवालोंसे युक्त थी। उत्तमोत्तम बेल-बूटोंसे सहित थी, और विविध रूपको धारण कर रही थी। जिस प्रकार उदयाचलकी भित्तिपर चन्द्रमा आरूढ होता है उसी प्रकार भगवान भी उस पालकीपर आरूढ़ हो गये ॥१०९॥ तदनन्तर सबसे पहले कुछ दूर तक पृथिवीपर तो श्रेष्ठ राजा लोगोंने उस कल्याणकारिणी पालकोको उठाया और उसके बाद इन्द्र आदि उत्तमोत्तम देव उसे बड़े हर्षसे आकाशमें ले गये ॥११०॥ उस समय आकाशमें तो अत्यधिक आनन्दसे देवोंके द्वारा किया हुआ वह शब्द व्याप्त हो रहा था जो श्रीहीन मनुष्योंके लिए हितकारी नहीं था और नीचे पृथिवीपर दुःखसे पीड़ित भोजवंशके लोगोंका जोरदार करुणक्रन्दन मुखसे रुदन करनेवाले जगत्के जीवोंके कर्ण-विवरको प्राप्त कर रहा था ॥१११।। जिनके शरीरको देवोंका समूह नमस्कार कर रहा था तथा जो निविडताको प्राप्त हए शान्त रसके समान जान पड़ते थे ऐसे उन भगवान नेमिनाथके सम्मुख, जिस प्रकार जलके सरोवरके निकट मयूर और सारस नृत्य करते हैं उसी प्रकार अप्सराओंका समूह नाना रसोंको प्रकट करता हुआ बड़ी शीघ्रतासे नृत्य कर रहा था
१. कुर्वभिधातक म.। २. उत्कटहर्षेण । ३. शब्दः । ४. कृतः। ५. विगतं हितं यस्मात् सः । ६. श्रियां श्रीरहितानां भाग्यहीनानामित्यर्थः । ७. व्यधिसुवो म., ख., ग., घ.; व्यघिस्रुवो क., व्यधिसुवो जगतो म.। ८. जगतः म.। ९. सुराङ्गनाः । १०. झटिति । ११. सशिखमाप्सरसः म., शिखिभिः सदृशं यथा स्यात्तथा सशिखि मयूरसदृशम् । १२. अभिरुपलक्षितं सरः साप्सरः तस्य । १३. सार्धम् । १४. सारसैः जलपक्षिभिः। १५. यमभि यत्संमुखम् । १६. अमरसङ्घन नतं अङ्गं यस्य तस्य भावः अमरसङ्घनतांगता, तया सहितः तम् । १७. घनतां निविडतां गतं प्राप्त शान्तरसमिव ।
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हरिवंशपुराणं
" गिरिमितः सहितामरसेनया जिनवरः स हि तामरसेन या । समरुन्तिर्गिरिराद्रुचमूर्जयन्त इति योऽस्ति हि पापचमूर्जयन् ।। ११३ || रविनिशाकरयोरुभया न्तयोर्विचरतोस्तिमिरोरुभयान्तयोः । दिवि न यत्र महात्मनिदर्शनं किमिह तुङ्गतयास्य निदर्शनम् ।।११४ ।। मुखनिर्झरपात पतस्त्रिभिर्मुखरस प्रदचूतलताफलैः । कुसुमनिर्भर पादपजातिभिः कुसुमनोरहितोऽतिविराजते ॥ ११५ ॥ "मणिसुवर्णसुवर्णधराधरे विविधधः तुरसौघधराधरे ।
शिखर रञ्जितकिन्नरदेवके वनभुवा हृतधीनरदेवके ॥ ११६ ॥
उपवने ' वृजिने शिविकामतः सुमतमाप्य जिनेशिविकामतः ।
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11
हितो 'हरिणा हरिः स निदधे सहितो हरिणा" हरिः ॥११७॥
||११२|| इस प्रकार जो पापोंकी सेनाको जीत रहे थे वे जिनेन्द्र भगवान् कमलके समान कान्तिकी धारक हितकारी देवसेना के साथ सुमेरु पर्वत के समान कान्तिवाले गिरनार पर्वतपर पहुँचे ||११३॥
जिस पर्वत पर रात्रि और दिनके अन्तमें अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल के समय आकाश में विचरनेवाले एवं अन्धकारसे होनेवाले विशाल भयका अन्त करनेवाले सूर्य और चन्द्रमा महान् स्वरूपका दर्शन नहीं हो पाता उस गिरनार पर्वतका यहाँ ऊंचाईमें उदाहरण ही क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । भावार्थ - यह पर्वत इतना ऊँचा है कि उसपर प्रातःकाल और सायंकाल के समय सूर्य और चन्द्रमाका दर्शन ही नहीं हो पाता । वह गिरनार पर्वत कुत्सित फूलों से रहित था, और शब्दायमान किरणोंके गिरने के स्थान में उड़नेवाले पक्षियों, मुखमें मधुर रसको देनेवाले आम्रलताके फलों एवं फूलोंसे लदे नाना प्रकारके वृक्षोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ।। ११४- ११५ ।।
तदनन्तर जो मणियों और सुवर्णके कारण सुमेरु गिरिके समान जान पड़ता था, जो नाना प्रकारकी धातुओंके रंगके समूहसे उपलक्षित भूमिको धारण कर रहा था, जो अपने शिखरोंसे किन्नर देवोंकों अनुरक्त कर रहा था, और जो वनकी वसुधासे मनुष्य तथा देवोंकी बुद्धिको हरण कर रहा था ऐसे गिरनार पर्वतके उस निष्कलंक उपवन में जिसमें कि वानरसे रहित एकाकी सिंह विचरण करता था विष्णु-कृष्णसहित इन्द्रने वीतराग जिनेन्द्रकी
१. हि यः पापचमूः पापसेना: जयन् स हि जिनवर, या तामरसेन कमलेन समरुचिः सदृशकान्तिः तया, सहितामरसेनया हितेन सहिता सहिता सा चासो अमरसेना च तया सार्धं गिरिरारुचं गिरिराज् मेरुस्तस्य रुगिव रुग्यस्य तं, ऊर्जयन्त इति प्रसिद्धगिरिम् इतः प्राप्तः । २ उभयान्तयोः - उभयोनिशादिवसयोरन्तयोः । दिवि विचरतोः, तिमिरात् अन्धकारात् यद् उरु विपुलं भयं तस्य अन्तो विनाशो याभ्यां तयोः रविनिशाकरयोः यत्र गिरी महात्मदर्शनं न विद्यते अस्य गिरेः तुङ्गतमा कि निदर्शनं किमुदाहरणम् । ३. निर्झर - म । ४ कुत्सितपुष्परहितो यो गिरिः मुखरेषु निर्झरपातेषु विद्यमाना पतत्रिणः तैः मुखे प्रारम्भे रसप्रदानि यानि चूतलताफलानि तैः कुसुमानि च निर्झराश्च पादपजातयश्च तैः, अतिविराजते नितरां शोभते । ५. मणिभिः सुवर्णैश्च सुवर्णधराधरः यः सुमेरुपर्वतस्तस्मिन् विविधधातुरसोधेन नानाधातु रससमूहे
पलक्षिता या घरा तस्या घरः तस्मिन् शिखरैः रञ्जिताः किन्नरदेवा यस्मिन् तस्मिन् वनभुवा, कान्तारभूम्या हृतधिया वशीभूता नरदेवा यस्मिन् तस्मिन् । ६. निष्पापे । ७. जिनेशी चासो विकामश्च तस्मात् । ८. मर्कटेन रहितः । ९. सिंहः । १०. विष्णुना । ११. इन्द्रः ।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः इह जहौ 'वसुधाशिविकासनं पुरुतपोऽधि सुधाशिविकासनम् । नमिसमः स 'शिलातलमाययावपगमार्थमिलातलमायया ॥११८॥ 'स्त्रजमिनोऽथ सबस्त्रमलंकृतीरपामय्य सवस्त्रम लंकृती । प्रविलसत्कमलासनधीरतः प्रियवधूकमलासनधीरतः ॥११९॥ मृदुकराङ्गलिभीरुचिरासितान् घनकचानतिमीरुचिरासितान्। व्युदहरदृढपञ्चपरिग्रहैः स रहितः सपं च परिग्रहैः ॥२०॥ "नपसहस्रममा नमिना तपः श्रितमिवैनममानमिनातपः । तपति नातपवारणवारितः 'प्रपदातपवारणवारितः ॥१२१॥ निकचितां कचसम्पदमात्मना प्रकुटिलां गतकोपदमात्मना । व्यपनयन्निव शल्यपरम्परां नृपगणः श्रियमैत् स्त्रपरम्पराम् ॥१२२॥
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सम्मति पाकर वह पालको रख दी ।।११६-११७।। उस उपवन में पहुँचकर भगवान्ने विशाल तप धारण करनेके उद्देश्यसे देवोंको हर्षित करनेवाले पृथ्वीपर विद्यमान पालकी रूपी आसनको छोड़ दिया और स्वयं पृथ्वीतल की मायाका परित्याग करनेके लिए नमिनाथ भगवान्के समान शिलातलपर जा पहुंचे ॥११८॥ तदनन्तर जो अतिशय बुद्धिमान् थे, जिनकी पद्मासन और धीरता अत्यन्त शोभायमान थी तथा जो प्रियस्त्री, एवं राज्यलक्ष्मीके त्यागकी बुद्धिमें रत -- लीन थे ऐसे भगवान नेमिनाथने परदाके अन्दर माला, वस्त्र और सब अलंकार उतारकर परिग्रहसे रहित तथा दयासे युक्त होकर कोमल अंगुलियोंसे युक्त सुदृढ़ पंचमुट्ठियोंसे उन सघन केशोंको तत्काल उखाड़कर फेंक दिया जो अत्यन्त सुन्दर और काले थे एवं अतिशय भीरु मनुष्य ही अपने शरीरमें जिनका चिरकाल तक स्थान बनाये रखते हैं ॥११९-१२०।। भगवान् नमिनाथने जिस तपको धारण किया था उसी तपको एक हजार राजाओंने भी भगवान नेमिनाथके साथ धारण किया था उस समय मानरहित भगवान्को सूर्यका आताप सन्तप्त नहीं कर सका था क्योंकि इन्द्रके द्वारा लगाये हुए छत्रसे वह रुक गया था अथवा छत्ररूपी जल वहां पड़ रहा था उसके प्रभावसे सूर्यजन्य आताप उन्हें दुखी करने में समर्थ नहीं हो सका था ।।१२१।। उस समय क्रोधरहित इन्द्रिय-दमनसे युक्त अपने आपके द्वारा शिरपर बद्ध कुटिल केशोंको उखाड़ता हुआ राजाओंका समूह ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो चिरकालसे साथ लगी हुई कुटिल शल्योंकी परम्पराको
१. वसुधायां विद्यमानं यत् शिविकारूपं आसनं तत् । २. विशालतपःसम्मुखम् । ३. देवहर्षकम् । ४. शिलातलम आययौ इति पदच्छेदः । ५. इलातले या माया तया सह । ६. सजमितोऽथ म । ७. अथ अलम । अत्यर्थ कृती पण्डित: स इनः स्वामी, सवस्त्रं यथा स्यात्तथा वस्त्रस्य नेपथ्यमध्ये इत्यर्थः । स्रज बस्नं अलंकृती: अलंकारांश्च अपगमय्य त्यक्त्वा कथंभूतः इनः ? कमलासनं च धीरता च इति कमलासनधीरते प्रविलसन्त्यो कमलासनधीरते यस्य सः, प्रियवधूश्च कमला च लक्ष्मीश्च तयोः, असनस्य त्यागस्य धियां रतः तत्परः। ८. मदवः कराङगल्यो येष तैः, दढषञ्चपरिग्रहै: दृढपञ्चमष्टिभिः । ९. रुचिरा मनोहरा: असिता: कृष्णाश्च ये तान । १०. अति भीरुषु चिरं आसितं स्थानं येषां तान्, घनकचान सान्द्रकेशान् । ११. नमिनाथेन इव अनेन नेमिनाथेन अमा सह नपसहस्रं तपः थितम् । अमानं मानरहितं एनम् जिनम् इनातप: सूर्यधर्मः न तपति स्म । आतपवारणेन छत्रेण वारितः सन् । १२. आतप-धारणं च तद् वारि च इत्यात पवारणवारि प्रपतच्च तत् आतपवारणवारि च तस्मात् । १३. गतः कोपो यस्मिन् एवंभूतो यो दमः इन्द्रियवशीकार: स आत्मा स्वरूपं यस्य तेन, एवंभूतेन आत्मना शल्यपरम्परामिव, निकचितां निवद्धां कुटिलां बक्रां कचसम्पदं व्यपनयन् दूरीकुर्वन्, नृपगणः स्वपरम्परां श्रियं ऐत् प्रापत् ।
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हरिवंशपुराणे
७
मणिगणांशुल सस्पटलीकृतान् 'जिनकचान्कुलिशी' पटलीकृतान् । अकृत दुग्ध महोदधौ वपुरलं समये 'समहो दधौ ॥ १२३ ॥ "समवतारमिनोङ्गिकृपावनं स्वकृत वस्त्रभयस्य सुपावनम् । सपदि यत्र तत्र यथाश्रुतं जगति तीर्थमभूच्च यथाश्रुतम् ॥ १२४ ॥ यतिषु 'बोधचतुष्क विराजितस्त्रिदश को टिमहाकविराजितः । विधुरिवोपगतग्रहतारकः प्रभुरमादपरिग्रहतारकः ॥१२५॥ नमसि शुक्लतुरीयतया तिथौ क्रमभृतीशिनि षष्टतयातिथौ । विहितनिष्क्रमणे नृसुराऽसुराः सुविदधुर्महमेषु सुरासुराः ॥ १२६ ॥ मदनभङ्गकृतप्रभवे भवे भवभृतां शरणाय हितेहिते ।
तरुषे वितृषे मुनये नये स्थितवते नम इत्यसुराः सुराः ॥१२७॥ स्तवनपूर्वममी च समन्ततः प्रणतिमेत्य नृपाश्च समं ततः । 'स्वहृदयस्थतपः स्थित नेमयः स्वपदमीयुररिस्थितने मयः ॥ १२८ ॥
१२
ד.
ही उखाड़कर फेंक रहा हो || १२२ | | इन्द्रने भगवान् के केशों को इकट्ठा कर मणिसमूहकी किरणोंसे सुशोभित पिटारे में रखकर उन्हें क्षीरसागरमें क्षेप दिया। उस समय भगवान् अतिशय तेजसे युक्त शरीर धारण कर रहे थे || १२३|| भगवान् नेमिनाथने जिस स्थानपर जीवदयाकी रक्षा करनेवाला, एवं अत्यन्त पवित्र वस्त्ररूप परिग्रहका त्याग किया था वह शीघ्र ही संसार में शास्त्र सम्मत प्रसिद्ध तीर्थस्थान बन गया || १२४ | | उस समय चार ज्ञानसे सुशोभित करोड़ों देवरूपी महाकवियोंसे विभूषित और परिग्रहरहित मनुष्योंको संसारसे तारनेवाले भगवान् अनेक मुनियोंके बीच, ग्रहों और ताराओंके मध्य में स्थित चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे || १२५ || अतिथि भगवान् ने सावन सुदी चौथ के दिन बेलाका नियम लेकर दीक्षा धारण की थी इसलिए उस दिन अनेक उत्तम वस्तुओंका त्याग करनेवाले मनुष्य, देव तथा असुरोंने दीक्षा कल्याणकका उत्सव किया था || १२६ ||
तदनन्तर सुर और असुर भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगे - हे भगवन् ! आप कामदेवका पराजय करने में समर्थ हैं, हितकारी चेष्टाओंसे युक्त संसारी प्राणियोंके शरणभूत हैं-रक्षक हैं, क्रोधसे रहित हैं, तृष्णासे रहित हैं, उत्तम नयमें स्थित है - नयका पालन करनेवाले हैं और मुनि हैं - मनन-शील हैं अतः आपको नमस्कार हो । इस प्रकार साथ-साथ स्तुति कर तथा सब ओरसे नमस्कार कर अपने हृदयोंमें तपस्वी नेमिनाथ भगवान्को धारण करनेवाले एवं चक्र में स्थित नेमि चक्रधाराके समान प्रवर्तक राजा तथा सुर-असुर अपने-अपने स्थानपर चले गये ।। १२७-१२८ ||
१. जिनकचा म. 1 २. इन्द्रः । ३. पुञ्जकृतान् । ४. इन्द्रः । ५. दुग्धमये महोदधौ क्षीरसागरे । ६. तस्मिन् समये जिनः अलमत्यन्तं समहः तेजोयुक्तं वपुः दधौ । ७ स इनः भगवान् अङ्गिकृपावनं अङ्गिषु या कृपा तस्या अवनं रक्षकं सुपावनं अतिशयपावित्र्यकारणम्, वस्त्रमयस्य वस्त्रादिपरिग्रहस्य, समवतारं त्यागं सपदि, यत्र स्वकृत सुष्ठु अकृत कृतवान्, यथाश्रुतं शास्त्रानुसारं तीर्थमभूत् । ८. मतिषु म । ९. अपरिग्रहाणां तारकः अपरिग्रहतारकः । १०. श्रावणे मासे प्रतिपदादिक्रमणशुक्लपक्षस्य चतुर्थ्यां तिथो, अतिथी ईशिनि नेमिनाथे षष्टतया दिनद्वयोपवासेन विहितनिष्क्रमणे कृतदीक्षाग्रहणे सति नुसुरासुराः महम् उत्सवं सुविदधुः, सुरासु शोभनद्रव्येषु रा रान्तीति राः दातारः । ११. स्वहृदयस्थः तपः स्थितो नेमि: नेमिजिनेन्द्रः येषां ते । १२. अरि चक्रं तस्मिन् विषये स्थित नेमयः स्थितचक्रधाराः इत्यर्थतः एवंभूताः नृपाः स्वपदम् ईयुः ।
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पञ्चपञ्चाशः सर्गः
पुरि वितीर्य नु तत्र जिनाय ताः सुपरमान्नमथावृजिनाय ताः । प्रवरदत्त इतो महिमा हिताः सुरगणः सुमहामहिमाहिताः ॥१२९॥ पथि तपस्यति तत्र कृते हिते नृपसता मनसि पितेहिते। न्यभृत तापमपारवियोगिनी कुमुदिनीव दिवारवियोगिनी ॥१३०॥ प्रबलशोकवशा प्रविलापिनी शिथिलभूषणकेशकलापिनी । परिजनेन वृता प्ररुरोद सा करुणशब्दतता व्युरुरोद सा ॥१३॥ विधिमुपालमते वरहारिणं वरवधूवरमप्यतिहारिणम् । जघनपीनपयोधरहारिणी' नयनवारिकणाविलहारिणी ॥१३२॥ शमितशोकमरा वचनैर्हितैर्गुरुजनस्य तपोवचनैहि तैः । मतिमधत्त तपस्यनपायिनि प्रशमसौख्यतपस्यनपायिनि ॥१३३॥
शालिनी-छन्दः
''राजीमत्याश्चारुराजीवलक्ष्मी-राजीमस्याः पाणिपादस्य कान्तया । तापस्यान्तं ज्ञातयोऽवेत्य'वृत्तं तापस्यान्तं मानसस्यापुरन्ते ॥१३४॥
तदनन्तर जब पापरहित भगवान् आहार लेनेके लिए द्वारिकापुरीमें आये तब उत्तम तेजके धारक प्रवरदत्तने उन्हें उत्तम खीरका आहार देकर देवसमूहके द्वारा महिमासे युक्त, हितकारी अद्भत महिमा-प्रतिष्ठा प्राप्त को ॥१२९।। जब भगवान नेमिनाथ किये हए उस हितकारी मार्गमें तपस्या करने लगे तब अपार वियोगसे युक्त राजपूत्री राजीमती अपने से युक्त मनमें दिनके समय सूर्यके संयोगसे सहित कुमुदिनीके समान सन्तापको धारण करने लगी ।।१३०॥ राजीमती, प्रबल शोकके वशीभूत थी, निरन्तर विलाप करती रहती थी, उसके आभूषण और केशोंका समूह शिथिल हो गया था तथा वह करुण शब्दोंसे आकाश और पृथ्वीके विशाल अन्तरालको व्याप्त करनेवाले परिजनोंसे घिरकर अत्यधिक रोती रहती थी ॥१३१॥ नितम्ब और स्थूल स्तनों से सुन्दर तथा अश्रुकणोंसे व्याप्त हारको धारण करनेवाली वह राजीमती कभी तो वरको हरनेवाले अपने दुर्दैवको उलाहना देती थी और कभी अत्यन्त मनोहर वरको दोष देती थी ।।१३२॥ तदनन्तर तप धारण करनेकी प्रेरणा देनेवाले गुरुजनोंके उन हितकारी वचनोंसे जब उसके शोकका भार शान्त हो गया तब उसने अपाय-बाधासे रहित, शान्तिरूप सुखके दायक, एवं दुर्भाग्यको दूर करनेवाले तपमें बुद्धि लगायी-तप धारण करनेका विचार किया ॥१३३।। हाथों और पांवोंकी कान्तिसे सुन्दर कमल सम्बन्धी शोभाके समूहको धारण करनेवाली राजमतीने जो वृत्त-चारित्र धारण किया है वह उसके तापदुःखको अन्त करनेवाला हे ऐसा जानकर अन्तमें उसके कुटुम्बोजन मानसिक सन्तापके अन्त
१. अवजिनाय पापरहिताय ता इति महिमाशब्दस्य विशेषणम् अत्र आकारान्तमहिमाशब्दः प्रयुक्तः । २. करुणशब्देन तते अतिशयेन व्याप्ते अतोव उरू रोदसी द्यावाभूमी येन स तेन, परिजनेन । ३. वरं हरतीति वरहारो तं विधिम् इत्यस्य विशेषणम् । ४. अतिमनोहरम् । ५. नितम्बस्थूलकुचमनोहरा । ६. नयनवारिकणैः आविलो मलिनो हारो विद्यते यस्याः सा । ७. तपसि विषये वचनं भणनं येषां तैः, तपःप्रेरणादायिभिः । ८. हि निश्चयेन तैः प्रसिद्धः । ९. स्थायिनि । १०. अपकृष्टः अयो भाग्यं अपायः, न विद्यतेऽपायो यस्मिन् तस्मिन् । ११. चारु राजीवस्य सुन्दरसरोरुहस्य लक्ष्मीराजी शोभापङ्क्तिः विद्यते यस्याः तस्याः । १२. ज्ञात्बा।
८.
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हरिवंशपुराणे स्त्रीणामाथं पारतलयं 'विदुःखं दौलभ्येऽमूर्भर्तुरङ्ग विदुः खम् । सापत्न्यं वा पुष्पवस्वं च वान्ध्यं वैधव्ये वा सूतिरोगेऽपि वान्ध्यम् ॥१३५॥ दौर्भाग्ये वा भाग्यहीने स्वनाथे स्त्रीगर्भत्वे 'मत्रपत्ये स्वनाथे । गर्मनावे गर्ममारे वियोगे जीवना मर्मरोगाभियोगे ॥१३६॥ स्यान्मिथ्यात्वं स्त्रीत्वहेतुः स्वतन्त्रं वस्त्रस्येवातानतिर्यक् स्वतन्त्रम् । स्त्रीदुःखानामन्तकृद्भव्यसत्वैजैनी दृष्टिः सेव्यतां सेव्यसत्त्वैः ।। १३७॥
इत्यरिएनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ भगवन्निष्क्रमणकल्याणवर्णनो नाम
पञ्चपञ्चाशः सर्गः ॥५५॥
को प्राप्त हुए ॥१३४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि ये स्त्रियां नाना दुःख उठाती हैं। सबसे पहले तो इन्हें परतन्त्रताका विशिष्ट दुःख है, फिर पतिके दुर्लभ होनेपर शरीरको शून्य-व्यर्थ समझती हैं। फिर सपत्नीके होनेका, ऋतुमती होनेका, वन्ध्या होनेका, विधवा होनेका, प्रसूतिकालमें रोग हो जानेका, अन्धा होनेका, दौर्भाग्य होनेका, भाग्यहीन पतिके मिलनेका, लड़कीलड़की ही, गर्भमें आनेका, बार-बार मृत सन्तानके होनेका, बिलकुल अनाथ हो जानेका, गर्भ धारण करनेका, पतिके जीवित रहते हुए भी उसके साथ वियोग होनेका, अथवा किसी मर्मान्तक रोगके हो जानेका दुःख सहन करती है ॥१३५-१३६॥ जिस प्रकार आतान-वितानभूत तन्तु वस्त्रके स्वतन्त्र कारण हैं, उसी प्रकार मिथ्यादर्शन स्त्रीपर्यायका स्वतन्त्र कारण है, इसलिए सेवनीय शक्तिके धारक भव्य-जीवोंको स्त्री-सम्बन्धी दुःखोंका अन्त करनेवाले सम्यग्दर्शनकी सेवा करनी चाहिए ॥१३७॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें भगवान के
दीक्षा-कल्याणका वर्णन करनेवाला पचपनवाँ सर्ग समाप्त हआ ।।५५।।
१. विविधं दुःखं विदुःखम् । २. भतुरने क., अमू: स्त्रियः भर्तुः दौलम्ये सति अङ्गं स्वकीयं शरीरं खं शून्यं व्यर्थमिति यावत् विदुः जानन्ति । ३. वन्ध्यायाः भावो वान्ध्यम् । ४. वा अथवा अन्धाया भावः
रि। ६. मर्तृ मरणशीलम् अपत्यं तस्मिन् । ७. सुष्ठु अनाथः तस्मिन् स्वनाथे सति । ८. जीवंश्चासौ भर्ता च जीवद्भर्ता तेन । ९. वस्त्रस्य यथा आतानभूताः तिर्यग्भूताश्च ये तन्तवः ते स्वतन्त्र कारणं भवन्ति तथा मिथ्यात्वं स्त्रीत्वस्य स्वतन्त्रं कारणमस्तीत्यर्थः ।
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षट्पञ्चाशः सर्गः
अथ नेमिमुनीन्द्रोऽपि रत्नत्रयतपःश्रिया । व्रतगुप्तिस मित्युच्चै रेजे सोढपरोषहः ॥ १॥ अप्रशस्त पोह्यासावतं रौद्रं च शुकुधीः । ध्यानं धर्म्यं च शुक्लं च प्रशस्तं ध्यातुमुद्यतः ॥२॥ "ध्यानमेकाग्रचिन्ताया घनसंहननस्य हि । निरोधोऽन्तर्मुहूर्तं स्याच्चिन्ता स्यादस्थिरं मनः ॥३॥ तत्रार्तिरर्दनं वाधा ह्यातं तत्रभवं पुनः । सुकृष्णनीलकापोतलेश्याबलसमुद्भवम् ॥४॥ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्यमाक्रन्दनादिकम् । परश्रीविस्मयप्रापं विषयासंजनादिकम् ॥५॥ तदात्मनः स्वयं वेद्यं परेषामानुमानिकम् । अभ्यन्तरं चतुर्भेदं स्वलक्षणसमन्वितम् ॥६॥ विषयस्यामनोज्ञस्य यदनुत्पत्तिचिन्तनम् । उत्पन्नस्य वियोगाय संकल्पाध्यवसायकम् ॥७॥ मनोज्ञविप्रयोगस्य यच्चानुत्पत्तिचिन्तनम् । उत्पन्नस्यान्तचिन्ता च चातुर्विध्य मितीरितम् ॥८॥ तत्रामनोज्ञदुःखस्य साधनं चेतनादिकम् । मर्त्यादि विषशस्त्रादि बाह्यमेतदुदीरितम् ॥९॥ आध्यात्मिकं तु वातादिप्रकोपजमनेकधा । कुक्ष्याक्षिदन्तशूलादिशारीरमतिदुस्सहम् ॥१०॥ शोकारतिमयोद्वेगविषादविषदूषितम् । जुगुप्सादौर्मनस्यादि मानसं दुःखसाधनम् ॥११॥ सर्वस्यास्यामनोज्ञस्य माभूदुत्पत्तिरित्यलम् । चिन्ताप्रबन्ध आद्यं स्यादार्तध्यानं महाविर्लेम् ॥१२॥
अथानन्तर - व्रत गुप्ति और समितियोंसे उत्कृष्टताको प्राप्त एवं परीषहों को सहन करनेवाले मुनिराज नेमिनाथ रत्नत्रय और तपरूपी लक्ष्मीसे सुशोभित होने लगे ॥१॥ उज्ज्वल बुद्धिके धारक भगवान्, आतं और रौद्र नामक अप्रशस्त ध्यानको छोड़कर धम्यंध्यान और शुक्लध्यान नामक प्रशस्त ध्यानोंका ध्यान करनेके लिए उद्यत हुए ॥ २ ॥ उत्तमसंहननके धारक पुरुषकी चिन्ताका किसी एक पदार्थमें अन्तर्मुहूर्तके लिए रुक जाना सो ध्यान है और चिन्ताका अर्थ चंचल मन है || ३ || पीड़ाको आर्ति कहते हैं। आर्तिके समय जो ध्यान होता है उसे आतंध्यान कहते हैं । यह आर्तध्यान अत्यन्त कृष्ण, नील और कापोत लेश्याके बलसे उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥ बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे आतंध्यान दो प्रकारका है। उनमें रोना आदि तथा दूसरेकी लक्ष्मी देखकर आश्चर्य करना और विषयोंमें आसक्त होना आदि बाह्य आतंध्यान है ।। ५ ।। अपने आपका आर्तध्यान स्वसंवेदनसे जाना जाता है और दूसरोंका अनुमानसे । आभ्यन्तर आर्तध्यानके चार भेद हैं जो नीचे लिखे अनुसार अपने-अपने लक्षणोंसे सहित है ॥ ६ ॥ अभीष्ट वस्तुको उत्पत्ति न हो ऐसा चिन्तवन करना सो पहला आर्तध्यान है। यदि अनिष्ट वस्तु उत्पन्न हो चुकी है तो उसके वियोगका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आतंध्यान है । इष्ट विषयका कभी वियोग न हो ऐसा चिन्तवन करना सो तीसरा आर्तध्यान है और इष्ट विषयका यदि वियोग हो गया है तो उसके अन्तका विचार करना यह चौथा आतंध्यान है ॥७-८|| अमनोज्ञ दुःखके बाह्य साधन चेतन और अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं । उनमें मनुष्य आदि तो चेतन साधन हैं और विष-शस्त्र आदि अचेतन साधन हैं || ९ || अन्तरंग साधन भी शारीरिक और मानसिकके भेदसे दो प्रकारका है । वात आदिके प्रकोप से उत्पन्न उदर शूल, नेत्र शूल, दन्त-शूल आदि नाना प्रकारको दुःसह वीमारियां शारीरिक साधन हैं ||१०|| और शोक, अरति, भय, उद्वेग, विषाद आदि विषसे दूषित जो जुगुप्सा तथा दोमनस्य - बेचैनी आदि विकार हैं वे मानसिक दुःखके साधन हैं ||११|| 'सभी प्रकारके अमनोज्ञ - अनिष्ट विषयोंकी उत्पत्ति नहीं हो' इस प्रकार बार-बार चिन्ता करना सो
१. रौद्रयं म । २. 'उत्तमसंहननस्यैकाग्र चिन्तानिरोधे ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्'१ - त. सू. । ३. विस्मयं प्राप्तं म., विस्मयप्रायः क. । ४. यत्रानुत्पत्ति म । ५ तत्रामनोज्ञस्य दुःखस्य म. ।
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हरिवंशपुराणे
उत्पन्नस्यास्य चामावः कथं मे स्यादितीदृशम् । संकल्पाध्यवसानं तु द्वितीयं तत्प्रकीर्तितम् ॥१३॥ पशुपुत्रकलन्नादि मनोज्ञं सुखसाधनम् । बाह्यं स्यानधान्यादि सचेतनमचेतनम् ॥१४॥ आध्यात्मिकं च पित्तादि साम्यादारोग्यमाझिाकम् । मानसं सौमनस्यादि रत्यशोकाभयादिकम् ॥१५॥ विप्रयोगश्च मे माभूदैहिकामुत्रकस्य तु । मनोज्ञस्येति संकल्पस्तृतीयं चार्तमुच्यते ॥१६॥ मनोज्ञविप्रयोगस्य पूर्वोत्पन्नस्य यत्पुनः । अभावेऽध्यवसानं तु तुर्यमार्तमनोज्ञजम् ॥१७॥ अधिष्टानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि । 'परोक्षं मिश्रको भावः षड्गुणस्थानभूमिकम् ॥१८॥ रुद्रः कराशयः प्राणी रौद्रं तत्रभवं ततः । हिंसासंरक्षणस्तेयमृषानन्देश्चतुर्विधम् ॥१९॥ आनन्दोऽभिरुचियेषां हिंसादिषु यथायथम् । हिंसानन्दादयस्तेऽतो निरुच्यन्ते समासतः ॥२०॥ लक्षणं द्विविधं तत्र पारुष्याक्रोशनादिकम् । स्वसंवेद्यं परैर्मयं बाझमाध्यात्मिकं पुनः ॥२१॥ स्यात्संरम्भसमारम्मारम्मलक्षणमात्मना । हिंसायां रंजनं तीव्र हिंसानन्दं तु नन्दितम् ॥२२॥ श्रद्धेयं परलोकस्य स्वविकल्पितयुक्तिमिः । विप्रलम्भनसंकल्यो मृषानन्दं सुनन्दितम् ।।२३।। प्रतीक्षया प्रमादस्य परस्वहरणं प्रति । प्रसह्य हरणं ध्यानं स्तेयानन्दमुदीरितम् ॥२४॥ स्वपरिग्रह भेदे तु चेतनाचेतनात्मनि । संरक्षणामिधानं तु स्वस्वामित्वाभिचिन्तनम् ॥२५॥
पहला मलिन आर्तध्यान है ॥१२॥ यदि किसी प्रकारके अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयकी उत्पत्ति हो गयी है तो उसका अभाव किस प्रकार होगा? इसी बातका निरन्तर संकल्प करना दूसरा आर्तध्यान कहा गया है ॥१३॥ मनोज्ञ सुखके बाह्य साधन चेतन-अचेतनके भेदसे दो प्रकारके हैं। उनमें पशु, स्त्री, पुत्र आदि सचेतन साधन हैं और धन-धान्यादि अचेतन साधन हैं ॥१४॥ आभ्यन्तर साधन भी शारीरिक और मानसिकके भेदसे दो प्रकारके हैं। इनमें पित्त आदिको समतासे जो आरोग्य अवस्था है वह शारीरिक साधन है और रति, अशोक, अभय आदिसे उत्पन्न जो सौमनस्य आदि है वह मानसिक साधन है॥१५॥ मुझे इस लोक-सस्बन्धी और परलोकसम्बन्धी इष्ट विषयका वियोग न हो ऐसा संकल्प करना तीसरा आर्तध्यान कहलाता है ॥१६॥ और पहल उत्पन्न इष्ट विषयके वियोगके अभावका संकल्प करना-बार-बार चिन्तवन करना चौथा आतंध्यान है ॥१७॥ इस आर्तध्यानका आधार प्रमाद है, फल तिर्यच गति है। यह परोक्ष क्षायोपशमिक भाव है और पहलेसे लेकर छठे गुणस्थान तक पाया जाता है ।।१८।।
क्रूर अभिप्रायवाले जीवको रुद्र कहते हैं। उसके जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। यह हिंसानन्द, चौर्यानन्द, मृषानन्द और परिग्रहानन्दके भेदसे चार प्रकारका है ।।१९।। जिनको हिसा आदिमें आनन्द अर्थात् अभिरुचि होती है वे संक्षेपसे हिंसानन्द आदि कहे जाते हैं ॥२०॥ बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे रौद्रध्यानके दो भेद हैं। उनमें क्रू र व्यवहार करना तथा गाली आदि अशिष्ट वचन बकना, बाह्य रौद्रध्यान है। अपने-आपमें पाया जानेवाला रौद्रध्यान स्वसंवेदनसे जाना जाता है-स्वयं ही अनुभवमें आ जाता है और दूसरेमें पाया जानेवाला रौद्रध्यान अनुमानसे जाना जाता है। हिंसा आदि कार्यों में जो संरम्भ, समारम्भ और आरम्भरूपी प्रवृत्ति है वह आभ्यन्तर आतंध्यान है। इसके हिंसानन्द आदि चार भेद हैं जिनके लक्षण इस प्रकार हैं। हिंसामें तीन आनन्द मानना सो हिंसानन्द नामक पहला रौद्रध्यान है ॥२१-२२॥ श्रद्धान करने योग्य पदार्थों के विषयमें अपनी कल्पित युक्तियोंसे दूसरोंको ठगनेका संकल्प करना मृषानन्द नामका दूसरा रौद्र ध्यान है ॥२३॥ प्रमादपूर्वक दूसरेके धनको जबरदस्ती हरनेका अभिप्राय रखना सो स्तेयानन्द नामका तीसरा रौद्रध्यान कहा गया है ॥२४॥ और चेतन, अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रहकी रक्षाका निरन्तर अभिप्राय रखना तथा मैं इसका १. परोक्षमिश्रको भावः क. । २. सविकल्पित म. ।
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षट्पञ्चाशः सर्गः
सुकृष्णनील कापोतबलाधानं प्रमादगम् । अधःपचगुणस्थानं रौद्रध्यानचतुष्टयम् ॥२६॥ अन्तर्मुहूर्तकालं तु दुर्धरत्वादतः परम् । क्षयोपशमभावस्तु परोक्षज्ञानभावतः ॥२७॥ भावलेश्याकषायस्वातन्त्र्यादौदयिकोऽपि वा । उत्तरं फलमेतस्य नारकी गतिरुच्यते ॥२८॥ परिहारौद्रे द्वे पापध्याने मुमुक्षवः । श्रम्यंशुक्लधियः सन्तु शुद्धभिक्षादिभिक्षवः ॥ २९ ॥ एकान्तं प्रासुकं क्षेत्रं क्षुद्रोपद्रववर्जितम् । दिव्यं संहननं द्रव्यं काकोऽत्युष्णादिवर्जितः ॥ ३० ॥ भावशुद्धिरपि श्रेष्टा यदा भवति योगिनः । आरभेत तदा ध्यानं सर्वद्वन्द्वसहः स हि ॥३१॥ गम्मीरः स्तम्भमूर्तिः सन् पर्यङ्कासनबन्धनः । नात्युन्मील निमीलश्च दत्तदन्ताप्रदन्तकः ॥३२॥ निवृत्तकरणग्रामव्यापारः श्रुतपारगः । मन्दं मन्दं प्रवृत्तान्तः प्राणापानादिसंचरः ॥३३॥ नाभेरुद्ध्वं मनोवृतिं मूर्ध्नि वा हृदि वालिके । मुमुक्षुः प्रणिधायाक्षं ध्यायेद् ध्यानद्वयं हितम् ॥३४॥ बाह्यात्मिकमावानां याथात्म्यं धर्म उच्यते । तद्धर्मादनपेतं यद्धस्यं तदुद्ध्यानमुच्यते ॥ ३५॥ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदतः । सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता ॥३६॥ " जम्माजम्माक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता । निभृताङ्गवतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीर्तितम् ॥३७॥
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तथा मैं इसका स्वामी हूँ और यह मेरा स्व है इस प्रकार बार-बार चिन्तवन करना सो परिग्रह संरक्षणानन्द नामका चौथा रौद्रमें चारों प्रकारका ध्यान है ||२५|| यह रौद्रध्यान तीव्र कृष्ण, नील तथा कापोत लेश्मा बलसे होता है, प्रमादसे सम्बन्ध रखता है और नीचेके पाँच गुण स्थानोंमें होता है ||२६|| इसका काल अन्तर्मुहूर्त है क्योंकि इससे अधिक एक पदार्थ में उपयोगका स्थिर होना दुर्धर है । यह परोक्ष ज्ञानसे होता है अतः क्षयोपशमभाव रूप है ॥२७॥ भावलेश्या और कषायके आधीन होता है इसलिए औदार्यकभाव रूप भी है । इस ध्यानका उत्तर फल नरकगति है ॥२८॥ जो पुरुष मोक्षाभिलाषी हैं वे आर्तरौद्र नामक दोनों अशुभ ध्यानोंको छोड़ शुद्ध भिक्षाको ग्रहण करनेवाले भिक्षु-मुनि होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें अपनी बुद्धि लगावें ||२९|| जिस समय एकान्त, प्रासुक तथा क्षुद्र जीवोंके उपद्रवसे रहित क्षेत्र, दिव्य संहनन - आदिके तीन संहनन रूप द्रव्य, उष्णता आदिको बाधासे रहित काल और निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठभाव, इस प्रकार क्षेत्रादि चतुष्टय रूप सामग्री मुनिको उपलब्ध होती है तब समस्त बाधाओंको सहन करनेवाला मुनि प्रशस्त ध्यानका आरम्भ करता है ॥ ३०-३१ ॥ ध्यान करनेवाला पुरुष, गम्भीर, निश्चल शरीर और सुखद पर्यंकासन से युक्त होता है। उसके नेत्र न तो अत्यन्त खुले होते हैं और न बन्द ही रहते हैं ||३२|| नीचे के दांतोंके अग्रभागपर उसके ऊपरके दाँत स्थित वह इन्द्रियोंके समस्त व्यापारसे निवृत्त हो चुकता है, श्रुतकां पारगामी होता है, धीरे-धीरे श्वासोच्छ्वासका संचार करता है ॥३३॥ मोक्षका अभिलाषी मनुष्य अपनी मनोवृत्तिको नाभिके ऊपर मस्तकपर, हृदयमें अथवा ललाटमें स्थिर कर आत्माको एकाग्र करता हुआ धर्म्यंध्यान और शुक्लध्यान इन दो हितकारी ध्यानोंका चिन्तवन करता है ||३४|| बाह्य और आध्यात्मिक भावोंका जो यथार्थभाव है वह धर्म कहलाता है, उस धर्मंसे जो सहित है उसे धम्यंध्यान कहते हैं ||३५|| बाह्य और आभ्यन्तर के भेदसे धम्यंध्यानका लक्षण दो प्रकारका है। शास्त्रके अर्थंकी खोज करना, शीलव्रतका पालन करना, गुणोंके समूहमें अनुराग रखना, अँगड़ाई, जमुहाई, छींक, डकार और श्वासोच्छ्वासमें मन्दता होना, शरीरको निश्चल रखना तथा आत्माको व्रतोंसे युक्त करना, यह धर्म्यध्यानका बाह्य लक्षण है । और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदिके भेदसे दश प्रकार
१. ललाटे वा । वालके म, घ । २. भंजाजृम्भा म, क्षितोद्गार म., ख. ।
* १. अपाय विचय, २ उपाय विचय, ३ जीव विचय, ४. अजीव विचय, ५. विपाक विचय, ६. वैराग्य विचय, ७. भव विचय, ८. संस्थान विचय, ९. आशा विचय और १०. हेतु विचय 1
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हरिवंशपुराणे दशधाध्यात्मिकं धर्म्यमपायविचयादिकम् । अपायो रहो विचयो मीमांसास्तीति तत्तथा ॥३८॥ संसारहेतवः प्रायस्त्रियोगानां प्रवृत्तयः। अपायो वर्जन तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ॥३९॥ चिन्ताप्रबन्धसंबन्धः शुमलेश्यानुरञ्जितः । अपायविचयाख्यं तत्प्रथमं धय॑मीप्सितम् ॥४०॥ उपायविचयं तासां पुण्यानामात्मसारिकया। उपायः स कथं में स्वादिति संकल्पसंततिः ॥४॥ अनादिनिधना जीवा द्रव्यादन्यथान्यथा । असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणाः ॥४२॥ अचेतनोपकरणाः स्वकृतोचितभोगिनः । इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् ॥४३॥ द्रव्याणामप्य जीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् । स्वभावचिन्तनं धयमजीबविचयं मतम् ॥४४॥ यच्चतुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु । विपाकचिन्तनं धयं विपाकविचयं विदुः ॥४५॥ शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरित्यादि विरागविचयं स्मृतम् ॥४६॥ प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुनः॥४७॥ 'सुप्रतिष्ठितमाकाशमाकाशे वलयत्रयम् । संस्थानध्यानमित्यादि संस्थानविचयं स्थितम् ॥४८॥ अतीन्द्रियेषु मावेषु बन्धमोक्षादिषु स्फुटम् । जिनाज्ञानिश्चयध्यानमाज्ञाविचयमीरितम् ॥४९॥ तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात् । सन्मार्गाश्रयणव्यानं यद्धेतुविचयं तु तत् ॥५०॥ अप्रमत्तगुणस्थानभूमिकं ह्यप्रमादजम् । पीतपद्मल सल्लेश्याबलाधानमिहाखिलम् ॥५॥
का है। इनमें अपायका अर्थ त्याग है और मीमांसाका अर्थ विचार है ॥३६-३८॥ मन, वचन और काय इन तीन योगोंकी प्रवृत्ति ही प्रायः संसारका कारण है सो इन प्रवृत्तियोंका मेरे अपाय-त्याग किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रकार शुभ लेश्यासे अनुरंजित जो चिन्ताका प्रबन्ध है वह अपाय विचय नामका प्रथम धबध्यान माना गया है ।।३९-४०॥ पुण्यरूप योग प्रवृत्तियोंको अपने आधीन करना उपाय कहलाता है। यह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है इस प्रकारके संकल्पोंकी जो सन्तति है वह उपाय विचय नामका दूसरा धर्म्यध्यान है ।।४१।। द्रव्याथिक नयसे जीव अनादि निधन हैं-आदि-अन्तसे रहित हैं और पर्यायार्थिक नयसे सादिसनिधन हैं। असंख्यात प्रदेशी हैं, अपने उपयोगरूप लक्षणसे सहित हैं, शरीररूप अचेतन उपकरणसे युक्त हैं और अपने द्वारा किये हुए कर्मके फलको भोगते हैं.""इत्यादि रूपसे जीवका जो ध्यान करना है वह जीव विचय नामका तीसरा धय॑घ्यान है ।।४२-४३।। धर्म-अधर्म आदि अजीव द्रव्योंके स्वभावका चिन्तन करना यह अजीव विचय नामका चौथा धर्म्यध्यान है ॥४४॥ ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकारके बन्धोंके विपाकफलका विचार करना सो विपाक विचय नामका पांचवां धबध्यान है ॥४५॥ शरीर अपवित्र है और भोग किंपाक फलके समान तदात्व मनोहर हैं इसलिए इनसे विरक्त बुद्धिका होना ही श्रेयस्कर है " इत्यादि चिन्तन करना सो विराग विचय नामका छठा धम्यध्यान है ।।४६|| चारों गतियोंमें भ्रमण करनेवाले इन जीवोंकी मरनेके बाद जो पर्याय होती है उसे भव कहते हैं। यह भव दुःखरूप है । इस प्रकार चिन्तवन करना सो भव विचय नामका सातवां धर्म्य-ध्यान है ||४७|| यह लोकाकाश अलोकाकाशमें स्थित है तथा चारों ओरसे तीन वातवलयोंसे वेष्टित है इत्यादि लोकके संस्थान-आकारका विचार करना सो संस्थान विचय नामका आठवां धर्म्यध्यान है ।।४८॥ जो इन्द्रियोंसे दिखाई नहीं देते ऐसे बन्ध, मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञाके अनुसार निश्चयका ध्यान करना सो आज्ञा विचय नामका नौवाँ धबध्यान है ।।४९|| और तर्कका अनुसरण करनेवाले पुरुष स्याद्वादको प्रक्रियाका आश्रय लेते हुए समीचीन मार्गका आश्रय करते हैं-उसे ग्रहण करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतु विचय नामका दसवां धर्म्यध्यान है ॥५०॥ १. मपि जीवानां म.। २. भावादिविचयं म.। ३. स्वप्रतिष्ठित -क.। ४. पितपद्मस्य सल्लेश्या क. ।
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षट्पचाशः सर्गः
कालभावविकल्पस्थं धर्म्यध्यानं दशान्तरम् । स्वर्गापवर्गफलदं ध्यातव्यं ध्यानतत्परैः ॥ ५२ ॥ शुक्लं शुचित्व संबन्धाच्छीचं दोषाथपोढता । शुक्लं परमशुक्लं च प्रत्येकं ते द्विधा मते ॥५३॥ सवीचारविवीचारपृथक्स्वैक्यवितर्क के । सूक्ष्मोच्छिन्नक्रियापूर्वप्रतिपातिनिवर्तके ॥५४॥ लक्षणं द्विविधं बाह्यं 'जम्भाजृम्भाद्यपोहनम् । प्राणापानप्रचारस्याव्यक्त्युच्छिन्न प्रहृष्यतः || ५५|| परेषामनुमेयं स्यात्स्वसंवेद्यं यदात्मनः । आध्यात्मिकं तयोरेव लक्षणं प्रतिपाद्यते ।। ५६ ।। पृथग्भावः पृथक्त्वं हि नानात्वमभिधीयते । वितर्को द्वादशाङ्गं तु श्रुतज्ञानमनाविलम् ||५७|| अर्थव्यन्जनयोगानां वीचारः संक्रमः क्रमात् । ध्येयोऽर्थो व्यञ्जनं शब्दो योगो वागादिलक्षणः ॥ ५८ ॥ पृथक्त्वेन वितर्कस्य विचारोऽर्थादिषु क्रमात् । यस्मिन्नास्ति तथोक्तं तत्प्रथमं शुद्धमिष्यते ॥५९॥ 'तद्यथा पूर्व विध्यायन्नविक्षिप्तमना मुनिः । ब्रम्याणुं चापि भावाणुमेकमालम्ब्य संवृतः ॥ ६०॥ अतीक्ष्णेनापि शस्त्रेण शनैश्छिन्दन्निव द्रुमम् । मोहस्योपशमं कुर्वन् क्षयं वा बहुनिर्जरः ॥६३॥
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यह दश प्रकारका धध्यान अप्रमत्त गुणस्थानमें होता है, प्रमादके अभावसे उत्पन्न होता है, पीत और पद्मनायक शुभ लेश्याओंके बलसे होता है, काल और भावके विकल्पमें स्थित है तथा स्वर्ग और मोक्षरूप फलको देनेवाला है। ध्यानमें तत्पर मनुष्योंको यह ध्यान अवश्य ही करना चाहिए । भावार्थं - यहां उत्कृष्टताको अपेक्षा धर्म्यध्यानको सातवें अप्रमत्त - गुणस्थानमें बताया है परन्तु सामान्य रूपसे यह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है और स्वर्गका साक्षात् तथा मोक्षका परम्परासे कारण है ॥५१-५२ ।।
जो शुचित्व अर्थात् शौचके सम्बन्धसे होता है वह शुक्लध्यान कहलाता है । दोष आदिकका अभाव हो जाना शौच है । यह शुक्ल और परम शुक्लके भेदसे दो प्रकार है तथा शुक्ल और परम शुक्ल दोनोंके दो-दो भेद माने गये हैं ॥५३॥ पृथक्त्व वितर्क वीचार और एकत्व वितर्क ये दो भेद शुक्लध्यानके हैं और सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति तथा व्युपरत क्रिया निर्वात ये दो परम शुक्लध्यानके भेद हैं ||१४|| बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे शुक्लध्यानका लक्षण दो प्रकारका कहा गया है । इनमें श्वासोच्छ्वासके प्रचारकी अव्यक्त अथवा उच्छिन्नदशासे युक्त मनुष्य जो अंगड़ाई और जमुहाई आदिका छूट जाना है वह बाह्य लक्षण है एवं अपने-आपको जिसका स्वसंवेदन होता है तथा दूसरेको जिसका अनुमान होता है वह आध्यात्मिक लक्षण है । आगे उन शुक्ल और परम शुक्ल ध्यानोंका आध्यात्मिक लक्षण कहा जाता है ॥५५-५६॥ पृथग्भाव अथवा नानात्वको पृथक्व कहते हैं । निर्दोष द्वादशांग - श्रुतज्ञान वितर्क कहलाता है । अर्थ, व्यंजन ( शब्द ) और योगोंका जो क्रमसे संक्रमण होता है उसे वीचार कहते हैं । जिस पदार्थका ध्यान किया जाता है वह अर्थं कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्दको व्यंजन कहते हैं और वचन आदि योग हैं ||५७-५८ || जिसमें वितर्क ( द्वादशांग ) के अर्थादिमें क्रमसे नानारूप परिवर्तन हो वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामका पहला शुक्लध्यान माना जाता है ॥५९॥ इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चल चित्रका धारक कोई पूर्वविद् मुनि द्रव्याणु अथवा भावाणुका अवलम्बन कर ध्यान कर रहा है सो जिस प्रकार कोई अतीक्ष्ण - भोथले शस्त्रसे किसी वृक्षको धीरेधीरे काटता है उसी प्रकार वह विशुद्धताका वेग कम होनेसे मोहनोय कर्मके उपशम अथवा
१. जम्भास्तम्भा - म. । २. स्या व्युत्पन्नाप्रहृष्यत: म. । ३. प्रतिपद्यते म । ४. 'वितर्कः श्रुतम् त, सू. अ. ९ । ५. 'वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः त. सू. अ. ९ । ६. तत्र द्रव्यं परमाणुं वा ध्यायन्नाहितवितर्कसामर्थ्यादर्थव्यञ्जने कायवचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनापि शस्त्रेण चिरात्तरं छिन्दन्निव मोहप्रकृती रुपशमयन् क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग भवति । स. सि. अ. ९ ।
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हरिवंशपुराणे व्यावव्यान्तरं याति पर्यायं चान्यपर्ययात् । व्यञ्जनाद् व्यजनं योगायोगान्तरमुपैति यत् ॥६॥ शुक्लं तस्प्रथमं शुक्लतरलेश्याबलाश्रयम् । श्रेणीद्वयगुणस्थानं क्षयोपशमभावकम् ॥६३॥ सर्वपूर्वधरस्येदमन्तमौहर्तिकस्थिति । श्रेणीद्वयवशाद्वेद्यं स्वर्गमोक्षफलप्रदम् ।।६४॥ एकत्वेन वितर्कोऽस्ति यस्मिन्वीचारवर्जिते । तदेकरववितर्कावीचारं शुक्लं तदुत्तरम् ॥६५॥ एकमेवाणुपर्यायं 'विषयीकृत्य वर्तते । 'मोहादिघातिघातीदं पूर्विणः स कृती ततः ॥६॥ ज्ञानदर्शनसम्यक्त्ववीर्य चारित्रपूर्वकैः । मासते क्षायिकैर्भावस्तीर्थकृद्वान्यकेवली ॥६॥ सोऽर्चनीयोऽभिगम्यश्च त्रिभुवा परमेश्वरः । देशोनां विरहत्येकां पूर्वकोटी प्रकर्षतः ॥६८। अन्तर्मुहूर्तशेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुल्यस्थितिवेद्यादित्रितयश्च तदा पुनः ॥६९।। समस्तं वाङ्मनोयोगं काययोगं च वादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोग स्वभावतः ।।७०॥ तृतीयं शुक्लसामान्यात्प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति ध्यानमास्कन्तुमर्हति ॥१॥ सोऽन्तर्मुहर्तशेषायुरधिकान्यत्रिकस्थितिः । यदा भवति योगीशस्तदा स्वाभाव्यतः स्वयम् ।।७२॥ स्वोपयोगविशेषस्य विशिष्टकरणस्य हि । सामायिकसहायस्य महासंवरसंगतेः ।।७।।
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शमको धीरे-धीरे करता है। कर्मोकी अत्यधिक निर्जराको करता हुआ वह मुनि द्रव्यसे द्रव्यान्तरको, पर्यायसे पर्यायान्तरको, व्यंजनसे व्यंजनान्तरको और योगसे योगान्तरको प्राप्त होता है ॥६०-६२॥ वह प्रथम शुक्लध्यान शुक्लतर लेश्याके बलसे होता है। उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी- दोनों गुणस्थानोंमें होता है । क्षायोपशमिक भावसे सहित है। समस्त पूर्वोके ज्ञाता मुनिके यह ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक रहता है तथा दोनों श्रेणियोंके वशसे यह स्वर्ग और मोक्ष रूप फलको देनेवाला है। भावार्थ--उपशम श्रेणीमें होनेवाला शुक्लध्यान स्वर्गका कारण है और क्षपकश्रेणीमें होनेवाला मोक्षका कारण है ।।६३-६४।।
जिसमें वीचार-अर्थादिके संक्रमणसे रहित होनेके कारण एक रूपमें ही वितर्कका उपयोग होता है अर्थात् वितर्कके अर्थ एवं व्यंजन आदिपर अन्तर्मुहूर्त तक चित्तको गति स्थिर रहती है वह एकत्व वितर्क वीचार नामका दूसरा शुक्लध्यान है ॥६५।। यह ध्यान एक ही अणु अथवा पर्यायको विषय कर प्रवृत्त होता है। मोह आदि घातिया कर्मोंका घात करनेवाला है, पूर्व धारीके होता है और इस ध्यानके प्रभावसे ध्यान करनेवाला कुशल मुनि ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, वीर्य और चारित्र आदि क्षायिक भावोंसे सुशोभित होने लगता है। अब वह तीर्थंकर अथवा सामान्य केवली हो जाता है। वह सबके द्वारा पूज्य एवं सेवनीय हो जाता है और तीन लोकोंका परमेश्वर हो उत्कृष्ट रूपसे देशोन कोटिवर्ष पूर्व तक विहार करता रहता है ॥६६-६८||
जब उन केवली भगवान्की आयु अन्तर्मुहूर्तकी शेष रह जाती है तथा आयुके बराबर ही वेदनीय आदि तीन अघातिया कर्मोको स्थिति अवशिष्ट रहती है तब वे समस्त वचन योग, मनोयोग और स्थूल काय योगको छोड़कर स्वभावसे ही सामान्य शुक्लकी अपेक्षा तीसरे और विशेष-परमशक्लकी अपेक्षा प्रथम सक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामक ध्यानको प्राप्त करने योग्य होते हैं ॥६९-७१।। जब उन केवली भगवान्की स्थिति अन्तर्मुहूर्तको हो और शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थिति अधिक हो तब वे स्वभाववश अपने-आप चार समयों द्वारा आत्मप्रदेशोंको फैलाकर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक पूरण कर तथा उतने हो समयोंमें उन्हें संकुचित कर सब कर्मोंको स्थिति एक बराबर कर लेते हैं । इस क्रियाके
१. विषमीकृत्य म.। २. -घातपातीदं म.। ३. स्थितः म.। ४. महासंवरसंगते म. ।
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षट्पञ्चाशः सर्गः
६४१
शक्तस्य शातने शेषकर्मणां परिपाचने । दण्डं चापि कपाटं च प्रतरं लोकपूरणम् ॥७॥ चतुर्भिः समयैः कृत्वा स्वप्रदेशविसर्पणात् । तावद्भिरेव संहृत्य कृतकर्मसमस्थितिः ॥७५॥ पूर्वकायप्रमाणः सन् भूत्वा निष्ठापयमिदम् । प्रथमं शुक्लमध्यास्ते द्वितीयं परमं पुनः ॥७॥ स्वप्रदेशपरिस्पन्दयोगप्राणादिकर्मणाम् । समुच्छिन्नतयोक्तं तत्समुच्छिन्नक्रियाख्यया ॥७॥ सर्वबन्धास्त्रवाणां हि निरोधस्तत्र यत्नतः । अयोगस्य यथाख्यातचारित्रं मोक्षसाधनम् ॥७८॥ अयोगकेवळी ह्यारमा प्रध्वस्ताखिलकर्मकः । जात्यहेमवदुद्भूतचेतनाशक्तिमास्वरः ॥७॥ सिद्धयन्निहैव संसिद्धस्वोर्ध्वव्रज्यास्वभावतः । पूर्वप्रयोगासंगस्वबन्धच्छेदस्वहेतुतः ।।८०॥
अग्नेः शिखावदाविद्धचक्रालाम्बुवदुस्पतन् । एरण्डबीजबच्चोद्धर्व लोकं समयतो व्रजेत् ॥८॥ धर्मास्तिकायामावान्न लोकान्तमतिगच्छति । धाम्नि संतिष्ठतेऽतोऽग्रे सोऽनन्तसुखसंततिः ॥८॥ चतुर्वर्गे हि देहिभ्यो मोक्षोऽतिशयतो हितः । स चोक्तादेव सद्ध्यानात्स्वकर्मक्षयलक्षणः ॥८३॥ कर्मप्रकृस्यभावो हि मोक्षोऽनन्तसुखावहः । स यस्नायत्नसाध्यत्वाद्विधा मवति देहिनः ॥८॥ चरमोत्तमदेहस्य प्रागसत्वादयस्नतः । गस्यन्तरायुषामेषामभावो भवतीतरः ॥४५॥
उच्यते तु गुणस्थानात्सम्यग्दृष्टेरसंयतात् । समारभ्याप्रमत्तान्ते कचिदेवात्र मानुषः ॥८॥ समय उनका उपयोग विशेष अपने-आपमें होता है, वे विशिष्ट करण अर्थात् भावका अवलम्बन करते हैं, सामायिक भावसे युक्त होते हैं, महासंवरसे सहित होते हैं-नवीन काँका आस्रव प्रायः बन्द कर देते हैं और सत्तामें स्थित कर्मोंके नष्ट करने तथा उदयावलीमें लानेमें समर्थ रहते हैं। यह सब करनेके बाद जब वे पुनः पूर्व शरीर प्रमाण हो जाते हैं तब प्रथम परम शुक्लध्यानको पूर्ण कर द्वितीय परमशुक्लध्यानको प्राप्त होते हैं ।।७२-७६।। आत्मप्रदेशोंके.परिस्पन्दरूप योग तथा कायबल आदि प्राणोंके समुच्छिन्न-नष्ट हो जानेसे यह ध्यान समुच्छिन्नक्रिय नामसे कहा गया है ।।७७॥ इस ध्यानके समय यत्नपूर्वक समस्त कर्मोके बन्ध और आस्रवोंका निरोध हो चुकता है। ध्याता अयोग-योगरहित हो जाता है और उसके मोक्षका साक्षात् कारण परम यथाख्यातचारित्र प्रकट हो जाता है ॥७८॥ वह अयोगकेवली आत्मा, समस्त कर्मोको नष्ट कर सोलहवानीके स्वर्णके समान प्रकट हुई चेतनाशक्तिसे देदीप्यमान हो उठता है ।।७२।। इसी समय वह सिद्ध होता हुआ अनादि सिद्ध ऊध्वंगमन स्वभाव, पूर्व प्रयोग, असंगत्व और बन्धच्छेद रूप हेतुओंसे अग्निशिखा, आविद्धकुलालचक्र, व्यपगतलेपालाबु और एरण्डबीजके समान ऊपरको जाता हुआ एक समय मात्रमें ऊर्ध्वलोकके अन्तमें पहुंच जाता है ।।८०-८१॥ धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे सिद्धात्मा लोकान्तको उल्लंघन कर आगे नहीं जाता। वह उसो स्थानपर अनन्त सुखका उपभोग करता हुआ विराजमान हो जाता है ।।८।। चारों वर्गों में प्राणियोंके लिए मोक्ष ही अतिशय हितकारी है, अपने समस्त कर्मोका क्षय हो जाना मोक्षका लक्षण है और ऐसा मोक्ष ऊपर कहे हुए समीचीन ध्यानसे हो प्राप्त होता है ।।८३।। कर्मप्रकृतियोंका अभाव हो जाना ही अनन्त सुखका देनेवाला मोक्ष है । वह कर्म प्रकृतियोंका अभाव यत्नसाध्य तथा अयत्नसाध्यको अपेक्षा दो प्रकारका है। चरमशरोरी जीवक भुज्यमान आयुको छोड़कर अन्य आयुओका जो अभाव है वह अयत्नसाध्य अभाव है क्योंकि इनकी सत्ता पहलेसे आती नहीं है और चरमशरीरीके नवीन बन्ध होता नहीं है। अब यत्नसाध्य प्रकृतियोंका अभाव किस तरह होता है यह कहते हैं ।।८४-८५॥ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान तक किसी गुणस्थानमें कम१. सोऽयोग म.। २. गतिभ्रमैः म.। ३. 'पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च' । त. सू. । 'आविद्धकुलालचक्रवदव्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च' ॥त. सू. । ४. सद्ध्यातात् म.। ५. -रसंयतान म.। ६. समारभ्य प्रवर्तन्ते क.। ७. क्वचिदेकत्र म.।
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हरिवंशपुराणे
मोहस्य प्रकृतीः सप्त क्षपयित्वा विशुद्धधीः । सम्यग्दर्शन मर्काभं क्षायिकं प्रतिपद्यते ॥ ८७ ॥ आरोढा क्षपकश्रेणीमप्रमत्तः प्रकृत्य सः । अथाप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणत्वकृत् ॥ ८८ ॥ अपूर्वकरणो भूत्वा स पापप्रकृतिस्थितिम् । तनूकृत्यानुभागं चानिवृत्तिकरणाप्तितः ॥ ८९ ॥ अनिवृत्ति गुणस्थाने क्षपकव्यपदेशभाक् । शुक्लध्यानान लाक्रान्तकर्मप्रकृतिकक्षकः ॥९०॥ सन्निद्रानिद्राप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिभिः । दुर्गती सानुपूर्वी के पूर्वां जातिचतुष्टयीम् ॥९१॥ सत्यावरा योद्योतसूक्ष्मसाधारणाभिधाः । सहैव क्षपयत्येताः षोडश प्रकृतीः कृती ॥९२॥ 'अत्रैवातः परं स्थानं कषायाष्टकमस्यति । ततो नपुंसकं वेदं स्त्रीवेदं च ततः परम् ॥ ९३॥ * वेदे नोकराणां षट्कं प्रक्षिप्य वै सह । निरस्याक्षिप्य पुंवेदं क्रोधसंज्वलनाने ||१४|| मानसंज्वलते तं च मायासंज्वलने त्वमुम् । लोभसंज्वलने खेनं निक्षिप्य दहति क्रमात् ॥ ९५ ॥ लोभसंज्वलनं सूक्ष्मं कृत्वा सूक्ष्मकषायगः । लोभसंज्वलनस्यान्तमन्ते कृत्वा विमोहकम् ॥ ९६ ॥ भूत्वा क्षीणकषायस्योपान्तिमें समयेऽस्यति । निद्रां च प्रचलामन्त्ये ज्ञानावृत्यन्तराययोः ॥ ९७ ॥ प्रत्येकं प्रकृतीः पञ्च चतस्रो दर्शनावृतेः । दग्ध्वैकत्ववितर्काग्नेः सयोगः केवली भवेत् ॥९८॥ सद्धेयं चाप्यसद्वेद्यं नामदेवगतिश्रुतिः । औदारिकशरीरादिनाम्ना पञ्चतयं तथा ॥ ९९ ॥ संघातपञ्चकं चापि पुनर्बन्धकपञ्चकम् । वैक्रियौदारिकाहारकायाङ्गोपाङ्गकत्रिकम् ॥१००॥ संस्थाननामषट्कं च षट्संहनननाम च । वर्णपञ्चकनामापि रसपञ्चकनाम च ॥ १०१ ॥
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भूमिका मनुष्य मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियों का क्षय कर विशुद्ध बुद्धिका धारक होता हुआ सूर्यके समान क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है ।।८६-८७।। तदनन्तर सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपक श्रेणीमें चढ़कर अथाप्रवृत्तकरण ( अधःप्रवृत्तकरण ) को करके उसके बाद अपूर्वकरणको करता है ||८८|| फिर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होकर पापप्रकृतियोंको स्थिति तथा अनुभागको क्षीण करता हुआ अनिवृत्तिकरणको प्राप्त होता है || ८५ ॥ तदनन्तर अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानमें क्षपक संज्ञाको प्राप्त होता हुआ कर्मप्रकृतिरूप वनको शुक्लध्यानरूपी असे आक्रान्त करता है ||१०|| फिर सत्तामें स्थित निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी, तियंचगति, तियंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चार जातियाँ, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका एक साथ क्षय करता है ।।९१-९२ ॥ इसी गुणस्थान में सोलह प्रकृतियोंके क्षयके बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण नामक आठ कषायों को नष्ट करता है। फिर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदको नष्ट कर हास्यादि छह नोकपायोंको पुंवेदमें डालकर एक साथ नष्ट करता है । फिर पुंवेदको संज्वलन क्रोधरूपी अग्नि में, संज्वलन क्रोधको संज्वलन मानमें, संज्वलन मानको संज्वलन माया में और संज्वलन मायाको संज्वलन लोभमें डालकर क्रमसे दग्ध करता है ॥९३-९५ ॥ फिर संज्वलन लोभको और भी सूक्ष्म कर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थान में पहुँचता है। इसके अन्त में संज्वलन लोभका अन्त कर मोहकर्मका बिलकुल अभाव कर चुकता है ||१६|| फिर क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती होकर एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यानरूपी अग्निसे इसके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचलाको तथा अन्त समय में ज्ञानावरण और अन्तरायको पाँच-पाँच और दर्शनावरणको चार प्रकृतियों को जलाकर सयोगकेवली होता है ॥ ९७-९८ ।। तदनन्तर सयोगकेवली गुणस्थानको उल्लंघ कर जब आगामी गुणस्थानको प्राप्त होता है तब अयोगकेवली होकर अहंन्त अवस्थाके उपान्त्य समय में सातावेदनीय और असातावेदनीयमेंसे कोई एक देवगति, औदारिक शरीरको आदि लेकर पांच शरीर, पांच संघात, पाँच बन्धन,
१. अत्रैवान्तः परं म । २. पुंवेदक । ३. वितर्काग्निः म ।
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षट्पञ्चाशः सर्गः अष्टधा स्पर्शनामापि गन्धनाम पुनर्द्विधा । तत्प्रायोग्यानुपूर्वी च नामदेवगतेः पुनः ॥१०२।। नामागुरुलघृच्छ्वासपरधातोपघातकम् । प्रशस्ताशस्तभेदस्थं विहायोगति नाम च ॥१०३॥ प्रत्येककायापर्याप्तस्थिरास्थिरशुभाशुमम् । तथा दुर्भगनामापि पुनः सुस्वरदुस्वरम् ॥१०४॥ अनादेयायशःकीर्तिनाम निर्माणनाम च । प्रकृतीसप्ततिं नोचैर्गोत्रेण सुपिण्डिताः ॥१०५॥ सयोगकेवलिस्थानमतीत्य पदमास्थितः । अयोगकेवली हन्ति स्वोपान्त्यसमयेऽहंतः ।।१०६।। वेद्यमेकं मनुष्यायुमनुष्यगतिरेव च । तत्प्रायोग्यानुपूर्वी च जातिः पञ्चेन्द्रियामिधा ॥१०॥ त्रसबादरपर्याप्तसुमगादेयसंज्ञिका । उच्चैर्गोत्रं यशःकीर्तिस्तत्तीर्थक्षरनाम च ॥१०॥ एतास्त्रयोदश ख्याताः प्रकृतीः प्रकृतिस्थिरः । अयोगकेवली हन्ति चरमे समये ततः ॥१०९|| सहस्वोच्चारणावृत्तीः पञ्च स्थित्वा स्वकालतः । सिद्धिः सादिरनन्ता स्यादनन्तगुणसन्निधिः ॥११॥ धर्म्यध्यानप्रकारं स ध्यायन्नेमिर्यथोचितम् । षट्पञ्चाशदहोरात्रकालं सुतपसानयत् ॥१११॥
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पांच वर्ण, पांच रस, आठ स्पर्श, दो गन्ध, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उच्छ्वास, परघात, उपघात, प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारको विहायोगति, प्रत्येक शरीर, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति, निर्माण और नीच गोत्र इन बहत्तर प्रकृतियोंको नष्ट करता है ।।९९-१०६।। फिर अन्त समयमें सातावेदनीय, असातावेदनीयमें से एक, मनुष्य आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, उच्चगोत्र, यशस्कीर्ति और तीर्थंकर इन तेरह प्रकृतियोंको नष्ट करता है। अयोगकेवली गुणस्थानमें यह जीव प्रदेशपरिस्पन्दका अभाव हो जानेके कारण स्वभावसे स्थिर रहता है ॥१०७-१०९।। अ इ उ ऋ लु इन पांच लघु अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थानमें रहकर यह जीव सिद्ध हो जाता है। जीवको यह सिद्धि सादि तथा अनन्त है और अनन्त गुणोंके सन्निधानसे युक्त है ।।११०॥
भगवान् नेमिनाथने धर्म्यध्यानके पूर्वोक्त दस भेदोका यथायोग्य ध्यान करते हुए, छद्मस्थ
१. कर्माभावो द्विविधः-यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति । तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्यः असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते-असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु चतुर्ष गुणस्थानेषु कस्मिश्चित्सप्तप्रकृतिप्रक्षयः क्रियते । निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगुद्धिनरकगतितिर्यग्गत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिनरकगतितिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणसंज्ञिकानां षोडशानां कर्मप्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसाम्परायस्थाने युगपत्क्षयः क्रियते । नपुंसकवेदः स्त्रीवेदश्च तत्रैव क्षयमुपयाति । नोकषायषटकं च सहकेनैव प्रहारेण विनिपातयति । ततः पुंवेदसंज्वलनक्रोधमानमायाः क्रमेण तत्रैवात्यन्तिकं ध्वंसमास्कन्दन्ति । लोभसंज्वलनः सूक्ष्मसाम्परायान्ते यात्यम्तम् । निद्राप्रचले क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थस्योपान्त्यसमये प्रलयमुपव्रजतः । पञ्चानां ज्ञानावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां पञ्चानामन्तरायाणां च तस्यैवान्त्यसमये प्रक्षयो भवति । अन्यतरवेदनीयदेवगत्यौदारिकवैक्रियिकाहारकर्तजसकामणशरीरसंस्थानषट्कोदारिकवैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गषट्संहननपञ्चप्रशस्तवर्णपञ्चाप्रशस्तवर्णगन्धद्वयपञ्चप्रशस्तरसपञ्चाप्रशस्तरसस्पर्शाष्टकदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्ध्या गुरुलघूपधातपरधातोच्छ्वासप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तकप्रत्येकशरीरस्थिरास्थिरशुभाशुभदुर्भगसुस्वरदुःस्वरानादेयायशः - कीतिनिर्माणनाम नीचैर्गोत्राख्या द्वासप्ततिप्रकृतयोऽयोगकेवलिनमपान्त्यसमये विनाशमुपयान्ति । अन्यतरवेदनीयमनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूयंत्रसबादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकोतितीर्थङ्करनामोच्चर्गोत्रसंज्ञिकानां त्रयोदशानां प्रकृतीनामयोगकेवलिनश्चरमसमये विच्छेदो भवति ।।
-सर्वार्थसिद्धि म. १०, सूत्र. २
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हरिवंशपुराणे पूर्वाह्नेऽश्वयुजस्यातः शुक्लप्रतिपदि प्रभुः । शुक्लध्यानाग्निना दग्ध्वा चतुर्घातिमहावनम् ।।११२।। अनन्तकेवलज्ञानदर्शनादिचतुष्टयम् । त्रैलोक्येन्द्रासनाकम्पि संप्रापत्परदुर्लभम् ॥११३॥
स्रग्धरावृत्तम् घण्टारावोरुसिंहस्फुटपटहरवोदारशस्वनैस्तां
जैनी कैवल्यलब्धि सकलसुरगणा द्राग्विदित्वा यथास्वम् । इन्द्राः सिंहासनोच्चैर्मुकुटविचलनैः स्वान् प्रयुज्यावधीन् स्वैः
प्राप्तानीकैः सहायुः क्षुमितसलिलधिवातविद्भिस्त्रिलोक्याः ।।११।। आपूवार्यवेगैर्गननजलनिधिं वाहनाना समूहै।
सप्तानीकैरनेकैस्त्रिदशपतिगणस्तं परीत्य प्रपेदे । प्रोच्चैर्मूर्धावलेप गिरिपतिमधिपस्नानकल्याणमात्रं
भूयः कल्याणकण्ठे गुणभरणगुणादूर्जयन्तं जयन्तम् ।।११५।। मन्दारादि दुमाणां सुरमितककुमा पुष्पवृष्टया सुराणां
दिव्यस्त्रीगीतमुर्छन्मुखरितभुवनैर्दुन्दुभीनां निनादैः । भेत्रा लोकस्य शोकं फलकुसुमभृताशोकशाखाभृता च
___ श्वेतच्छत्रप्रयेण त्रिभुवनविभुताचिह्वभूतोरुभूम्ना ॥११६।। हंसालीपातलीलैध लिखचलैश्चामराणां सहस्रः
भाभिर्मामण्डलेन प्रतिहतविकसद्भानुमामण्डलेन ।
अवस्थाके छप्पन दिन समीचीन तपश्चरणके द्वारा व्यतीत किये ।।१११।। तदनन्तर आश्विन शुक्ल प्रतिपदाके दिन प्रातःकालके समय भगवानने शक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा चार घातियारूपी महावनको जलाकर तीन लोकके इन्द्रोंके आसन कंपा देनेवाले एवं अन्य जनदुर्लभ, केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि अनन्तचतुष्टय प्राप्त किये ॥११२-११३॥ घण्टाओंके शब्द, विशाल सिंहनाद, दुन्दुभियोंके स्पष्ट शब्द और शंखोंकी भारी आवाजसे समस्त देवोंने शीघ्र ही निश्चय कर लिया कि जिनेन्द्र भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है तथा इन्द्रोंने भी सिंहासन और उन्नत मुकुटोंके कम्पित होनेसे अपने-अपने अवधिज्ञानका प्रयोग कर उक्त बातका ज्ञान कर लिया। तदनन्तर तीनों लोकोंके इन्द्र, समुद्रोंके समूहको क्षभित करनेवाली अपनी-अपनी सेनाओंके साथ गिरनार पर्वतकी ओर चल पड़े ॥११४॥
उस समय इन्द्रोंने अवार्य वेगसे युक्त वाहनोंके समूह और सात प्रकारकी अनेक सेनाओंसे आकाशरूपी समुद्रको व्याप्त कर दिया और आकर गिरनार पर्वतको तीन प्रदक्षिणाएं दीं। उस समय वह पर्वत, ऊंचे शिखरका अभिमान धारण करनेवाले गिरिराज-सुमेरु पर्वतको भी जीत रहा था क्योंकि सुमेरु पर्वतपर तो भगवान्का मात्र जन्मकल्याणक सम्बन्धी अभिषेक हुआ था और गिरनार पर्वतपर दीक्षाकल्याणकके बाद पुनः ज्ञानकल्याणक होनेसे अनेक गुण प्रकट हुए थे ॥११५।। देवलोग, दिशाओंको सुगन्धित करनेवाले मन्दार आदि वृक्षोंके फूलोंकी वर्षा करने लगे। देवांगनाओंके सुन्दर संगीतसे मिश्रित दुन्दुभियोंके शब्द संसारको मुखरित करने लगे। लोगोंके शोकको नष्ट करनेवाला फल और फूलोंसे युक्त अशोक वृक्ष प्रकट हो गया। तीन लोककी विभुताके चिह्नस्वरूप श्वेत छत्रत्रय सिरपर फिरने लगे। हंसावलीके पातके समान सुशोभित एवं पर्वतको भूमिको सफेद करनेवाले हजारों चमर ढलने लगे। अपनी कान्तिसे देदीप्यमान सूर्यको प्रभाके समूहको पराजित करनेवाला भामण्डल प्रकट हो गया। नाना रत्नसमूहकी किरणोंसे १. -वद्भिः म. । २. -रनीकैः म. ।
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षट्पनाशः सर्गः नानारत्नौघरोचिर्जनितसुरधनुर्हेमसिंहासनेन
भाषाभेदस्फुरन्स्या स्फुरणविरहितस्वाधरोद्भाषया च ॥१७॥ . अष्टामिः प्रातिहायरतिशमितपरैः स्वैविशेषैरशेषैः
कर्मापायस्वमावत्रिदिवपतिमवैस्तैश्चतुस्त्रिंशता च । त्रैलोक्योद्धारणाय प्रकृतितरतिर्नेमिनाथो जगत्या
द्वाविंशो हारिवंशो गुणगणदिनकृतीर्थकृत्प्रादुरासीत् ॥११॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती भगवन्नेमिनाथ
केवलज्ञानवर्णनो नाम षटपञ्चाशः सर्गः ॥५६॥
इन्द्रधनुषको उत्पन्न करनेवाला स्वर्ण-सिंहासन आविर्भूत हो गया और नाना भाषाओंके भेदसे युक्त एवं ओठोंके स्फुरणसे रहित दिव्यध्वनि खिरने लगी। इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रातिहार्यों, दूसरोंको अत्यन्त शान्त करनेवाली अपनी समस्त विशेषताओं और केवलज्ञान-सम्बन्धी, जन्मसम्बन्धी तथा देवकृत चौंतीस अतिशयोंसे विभूषित, तीन लोकके उद्धारके लिए स्वाभाविक धैर्यके धारक और अनेक गुणोंके समूहको प्रकट करनेके लिए सूर्यके समान, हरिवंशके शिरोमणि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् पृथिवीपर प्रकट हुए ॥११६-११८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें भगवान् नेमिनाथके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला छप्पनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥५६॥
१. प्रकृत-म.। २. हरिवंशे भवो हारिवंशः। ३. गुणगुणबृहत्तात् म., घ.। जिनगुणगुणभृत्त-क.
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सप्तपश्चाशः सर्गः समवादि समापादि शरणं शरणं क्षणात् । त्रिजगत्प्राणिनां देवः पाकशासनशासनात् ॥१॥ सर्वो द्वारवतीलोको यदुभोजकुलाम्बुधिः । आरुरोह निरिं भूत्या रामकेशवपूर्वकः ॥३॥ अवलोक्य जिनेन्द्रस्य शरण समवाकिम् । बहिरन्तःपरं प्रारद्विस्मयं जनसागरः ॥३॥ यादृशी समवस्थानभूमिस्तीर्थकतामिह । तादृशी श्रोतृलोकस्य समासेन निगद्यते ॥४॥ भूमेः स्वभावभूताया दिव्यारस्निप्रमोच्छितिः । भूमिस्तावत्समुच्छाया कल्पभूमिरुपर्यतः ॥५॥ स्वर्गश्रियं श्रिया जेत्री चतुरस्रा सुखप्रदा । सैकानद्वादशाद्यात्मयोजनां कालदेशतः ॥६॥ उच्चैर्गन्धकुटीदेशकर्णिका पद्ममूर्तिवत्' । माति भूमिरसो बाह्य भूश्रीपत्रपरम्परा ॥७॥ इन्द्रनीलमयी भूमिर्बाह्यादर्शतलोपमा । भूयसामपि भूयस्त्वं विशतां विदधाति या ॥६॥ दूरादिन्द्रादयो यस्यां मानयन्ति नमस्यया । मानार्हास्त्रिजगन्नाथं साभूर्मानाङ्गणामिधा ॥९॥ महादिक्षु चतस्रोऽस्या गव्यूतिद्वयविस्तृताः। वीथ्यस्तन्मध्यगानीयुर्मानपीठान्पुरः प्रमान् ॥१०॥ स्वोत्सेधत्रिगुणात्मीयविस्तराण्युक्तिविस्तरैः । सौवर्णरत्नमूर्तीनि मान्यन्ते नृसुरासुरैः ॥११॥ नृसुरामानवस्तम्भानास्थायार्चन्ति यत्र भूः । सा त्वास्थानाङ्गणाभिख्या ज्वलल्लौहितरत्नभा ॥१२॥ मध्ये वीथि चतस्रोऽत्र त्रिभङ्गा हैमपीठिकाः । भान्त्युरोद्वयसोच्छायाः वृत्ताः क्रोशार्धविस्तृताः ॥१३॥
अथानन्तर देवोंने इन्द्रकी आज्ञासे क्षण-भर में तीन जगतके जीवोंके लिए शरणभत समवशरणकी रचना कर दी ॥१॥ बलदेव और कृष्णको आदि ले यादव और भोजवंशके सागरस्वरूप समस्त द्वारिका निवासी बड़े वैभवके साथ गिरिनार पर्वतपर चढ़े और भीतर-बाहर जिनेन्द्र भगवानका समवशरण देखकर वह जनताका अपार सागर परम आश्चर्यको प्राप्त हुआ ॥२-३।। तीर्थंकरोंकी समवसरण भूमि जैसी होती है उसका यहाँ संक्षेपसे श्रोताओंके लिए वर्णन किया जाता है ॥४॥
समवसरणको दिव्य भूमि स्वाभाविक भूमिसे एक हाथ ऊंची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है ||५|| यह भूमि अपनी शोभासे स्वर्गलक्ष्मीको जीतनेवाली. चौकोर, सुखदायी और देशकालके अनुसार बारह योजनसे लेकर एक योजन तक विस्तारवाली होती है। भावार्थ-समवसरण भूमिका उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कमसे-कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है ।।६।। यह भूमि कमलके आकारको होती है इसमें गन्धकुटो तो कणिकाके समान ऊँची उठी होती है और बाह्य भूमि कमलदलके समान विस्तृत है ।।७।। यह इन्द्रनीलमणिसे निर्मित होती है, इसका बाह्य भाग दर्पणतलके समान निर्मल होता है और प्रवेश करनेवाले बहुतसे जीवोंको एक साथ स्थान देनेवाली रहती है |८|| जिसमें मानके योग्य इन्द्र आदि देव त्रिलोकीनाथ-भगवान्की दूरसे ही पूजा करते हैं वह मानांगण नामकी भूमि है ॥९|| इस भूमिको चारों महादिशाओंमें दो-दो कोश विस्तृत चार महावीथियाँ हैं। ये वीथियां अपने मध्य में स्थित चार मानस्तम्भोंके पीठ धारण करती हैं ॥१०॥ ये पीठ अपनी ऊंचाईसे तिगुने चौड़े एवं सुवर्ण और रत्नमयी मूर्तियोंके धारक होते हैं तथा मनुष्य, सुर, असुर सभी आकर इन्हें नमस्कार करते हैं ।।११।। जहां स्थित होकर मनुष्य और देव, मानस्तम्भोंकी पूजा करते हैं वह आस्थानांगणा नामकी भूमि देदीप्यमान लाल मणियोंको कान्तिको धारण करती है ।।१२।। वीथियोंके मध्यमें
तीन कटनीदार चार सुवर्णमयी पीठिकाएँ हैं जो छाती बराबर ऊंची हैं और आधा कोश चौड़ी . १. पद्मरूपवत् क. । २. वाद्य भू म., बाह्याभू क. । ३. पुरः प्रमाः क., ख., ग., म. । ४. मध्ये वापि म. ।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः
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चापोनपीठिकाव्यासा योजनाम्यधिकोच्छ्याः । शुम्भिता मानवस्तम्भाश्चत्वारः पीठिकास्वधि ॥११॥ द्विषड्योजनदृश्यास्ते पालिकास्याम्बुजस्थिताः : वज्रस्फटिकवेड्यंमूलमध्याप्रविग्रहाः ॥१५॥ द्विसहस्राश्रयो नानारनरश्मिविमिश्रिताः । चतुर्दिसूर्ध्वसिद्धार्चाः रत्न भूतोरुपालिकाः ॥१६॥ पालिकामुखपमस्थतपनीयस्फुरद्घटाः । घटास्याबद्धफलकाः श्रीमामामिषवश्रियः ॥१७॥ श्रीचूलारत्नमाचकमास्यर्विशतियोजनाः । साभिमानमनोदेवमानवस्तंभना वभुः ॥१८॥ ततः सरांसि चत्वारि शुम्मदम्मोजमांज्यलम् । हंससारसंचक्राह्वारावरम्यककुप्स्वलम् ॥१९॥ अतो वज्रमयो वप्रो वक्षोदनो घनद्युतिः । द्विगुणीभूतविस्तारः परीयाय समन्ततः ॥२०॥ परीत्य परिखातोऽस्थाज्जलप्रममणिक्षित: । जानुदनाम्बुगम्भीरा कृष्णसाटीव भूस्त्रियाः ॥२१॥ हेमाम्भोजररजःपुञ्जपिञ्चरी माविताम्मसि । स्वच्छायां दिङ्मुखान्यस्यां साङ्गरागाणि चात्यभान् ॥२२॥ वल्लीवनमतोऽप्यन्तः परीत्य स्थितमित्यमात् । कुसुमामोदिता शान्तं शकुन्तालिकुलाकुलम् ॥२३॥ प्राकारोऽन्तः परीयाय कनस्कनकमास्वरः । विजयादिबृहद्रौप्यचतुर्गोपुरमण्डितः ॥२४॥ तत्र दौवारिका भौमाः कटकादिविभूषणाः । प्रभावोत्सारितायोग्या मुद्रोद्भुतपाणयः ॥२५॥
हैं ॥१३।। उन पीठिकाओंपर चार मानस्तम्भ सुशोभित हैं जो पीठिकाओंकी चौड़ाईसे एक धनुष कम चौड़े हैं और एक योजनसे कुछ अधिक ऊंचे हैं ॥१४॥ वे मानस्तम्भ बारह योजनकी दूरीसे दिखाई देते हैं। पालिकाके अग्रभागपर जो कमल हैं उन्हींपर स्थित हैं, उनका मूलभाग हीराका, मध्यभाग स्फटिकका और अग्रभाग वैडूर्यमणिका बना हुआ है ।।१५।। हर एक मानस्तम्भ दो-दो हजार कोणोंसे सहित हैं-दो-दो हजार पहलके हैं, नाना रत्नोंकी किरणोंसे मिले हुए हैं, उनकी चारों दिशाओंमें ऊपर सिद्धोंकी प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं ।।१६।। पालिकाओंके अग्रभागपर जो कमल हैं उनपर सुवर्णके देदीप्यमान घट हैं, उन घटोंके अग्रभागसे लगी हुई सीढ़ियां हैं, तथा उन सीढ़ियोंपर लक्ष्मीदेवीके अभिषेककी शोभा दिखलायी गयी है ॥१७॥ वे मानस्तम्भ लक्ष्मीदेवीके चूड़ारत्नके समान अपनी कान्तिके समूहसे बीस योजन तकका क्षेत्र प्रकाशमान करते रहते हैं तथा जिनका मन अहंकारसे युक्त है ऐसे देव और मनुष्योंको वहीं रोक देनेवाले हैं ||१८|| उन मानस्तम्भोंकी चारों दिशाएँ हंस, सारस और चकवोंके शब्दोंसे अत्यन्त सुन्दर हैं तथा उनमें खिले हुए कमलोंसे युक्त चार सरोवर हैं ॥१९॥
सरोवरोंके आगे एक वज़मय कोट है जो छाती बराबर ऊंचा है, अत्यन्त कान्तिसे युक्त है, ऊंचाईसे दूना चौड़ा है और चारों ओरसे घेरे हुए हैं ॥२०॥ इस कोटको चारों ओरसे घेरकर एक परिखा स्थित है जिसकी भूमि जलके समान कान्तिवाले मणियोंसे निर्मित है, उसमें घुटनों प्रमाण गहरा पानी भरा है तथा वह पृथिवीरूपी स्त्रीकी नीली साड़ीके समान जान पड़ती है ॥२१॥ वह परिखा अत्यन्त स्वच्छ है तथा उसका जल स्वर्णमय कमलोंकी परागके समूहसे पीला-पीला हो रहा है अतएव उसमें प्रतिबिम्बित दिशारूप स्त्रियोंके मुख अंगरागसे सहितके समान जान पड़ते हैं ॥२२॥ उसके आगे चारों ओरसे घेरकर स्थित लताओंका वन सशोभित है जो फलोंके द्वारा दिशाओंके अन्त भागको सगन्धित कर रहा है तथा पक्षियों और भ्रमरोंके समूहसे व्याप्त है ।।२३।। उसके आगे देदीप्यमान सुवर्णके समान चमकीला, एवं विजय आदि चांदोके बड़े-बड़े चार गोपुरोंसे सुशोभित कोट, चारों ओरसे घेरे हुए हैं ।।२४।। उन गोपुरोंपर व्यन्तर जातिके देव द्वारपाल हैं जो कटक आदि आभूषणोंसे सुशोभित हैं, अपने प्रभावसे अयोग्य
१. योजनान्यधिको-म.। २. रत्नभूजोढपालिकाः ङ.। -ऽरत्नभूतोनुपालिकाः क.। ३. चत्वारः म.। ४. -ज्याल । ५. ककुरचलं क., ख. । ६. सुखायां क. । सुखयां घ. । ७. कुसुमामादिता सान्तं म. ।
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हरिवंशपुराणे मणितोरणपाद्वेषु गोपुराणां स्फुरत्विषाम् । छत्रचामरभृङ्गारपूर्वाष्टशतकान्यमान् ॥२६॥ तगोपुरपुरो मान्ति प्रेक्षाशालास्त्रिभूमिकाः । द्विर्वीिथ्यंतयोनूस्यद्वात्रिंशत्सुरकन्यकाः ॥२७॥ भात्यशोकवनं प्राच्या सप्तवर्णवनं स्वपाक् । प्रतीच्यां चम्पकवनमुदीच्यामाम्रसद्वनम् ॥२०॥ ससिद्धप्रतिमोऽशोकः सप्तपर्णश्च चम्पकम् । तथैवाम्रतरुस्तेषां वनानामधिपाः क्रमात् ॥२९॥ त्रिकोणाः मण्डलाकाराश्चतुरस्नाश्च वापिकाः । वनेषु रस्नेत व्यन्ताशुद्धस्फटिकभूमयः ॥३०॥ विश्वाः सतोरणाः लक्ष्यास्तीर्थ्यास्तूच्चैर्वराण्डकैः । मण्डितागाहमानेष्वगाधा द्विक्रोशविस्तृताः ॥३१॥ नन्दा नन्दोत्तरानन्दानन्दवत्यमिनन्दिनी । नन्दघोषेत्यमूर्वाप्यः षडशोकवनस्थिताः ॥१२॥ विजयाभिजया जैत्री वैजयन्त्यपराजिताः । जयोत्तरेति षड्वाप्यः सप्तपर्णवनाश्रिताः ॥३३॥ कुमुदा नलिनी पद्मा पुष्करा विकचोपला । कमलेल्यपि षड्वाप्यश्चम्पकाख्यवने मताः ॥३४॥ प्रभासा मास्वती मासा सुप्रमा भानुमालिनी। स्वयंप्रभेति षड्वाप्यः सहकारवनोदिताः ॥३५॥ उदयो विजयः प्रीतिः ख्यातिश्चेति क्रमोदितैः । फलैः पूर्वादयो वाप्यः पूज्यन्ते तत्फलार्थिभिः ॥३६॥ तद्वापीपुष्पसंदोहं यथोक्तं प्राप्य भाक्तिकाः । आस्तूपं क्रमशोभ्यर्च्य विशन्ति क्रमकोविदाः ॥३७॥ अन्तरेणोदयं प्रीति चाभितस्त्रिभुवोऽध्वसु । मान्ति नाटकशालास्ता हाटकोज्ज्वलमूर्तयः ॥३८॥ अध्यर्धक्रोशविस्तारा द्वात्रिंशज्योतिषां स्त्रियः । तद्भुवो रस्ननिर्माणाः स्वच्छस्फटिकभित्तयः ॥३९॥
व्यक्तियोंको दूर हटाते रहते हैं तथा जिनके हाथ मुद्गरोंसे उद्धत होते हैं ॥२५॥ देदीप्यमान कान्तिसे युक्त उन गोपुरोंके मणिमय तोरणोंकी दोनों ओर छत्र, चमर तथा शृंगार आदि अष्टमंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ संख्यामें सदा सुशोभित रहते हैं ॥२६॥ उन गोपुरोंके आगे वीथियोंकी दोनों ओर तीन-तीन खण्डकी दो-दो नाट्यशालाएँ हैं जिनमें बत्तीस-बत्तीस देव-कन्याएं नृत्य करती हैं ।।२७।। तदनन्तर पूर्वदिशामें अशोक वन, दक्षिणमें सप्तपर्ण वन, पश्चिममें चम्पक वन और उत्तरमें आम्रवन सुशोभित है ॥२८॥ इन चारों वनोंमें अशोक वनका अशोक वक्ष सप्तपर्ण वनका सप्तपर्ण वृक्ष, चम्पक वनका चम्पक वृक्ष और आम्रवनका आम्रवृक्ष स्वामी हैं। ये स्वामी वृक्ष सिद्धकी प्रतिमाओंसे सहित हैं अर्थात् इनके नीचे सिद्धोंकी प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं ॥२९|| उन वनोंमें तिकोनी, चौकोनी और गोलाकार अनेक वापिकाएं हैं। उन वापिकाओंके तट रत्ननिर्मित हैं तथा उनकी भूमि शुद्ध स्फटिकसे निर्मित है। ये सभी वापिकाएं तोरणोंसे युक्त हैं, दर्शनीय हैं, सीढ़ियोंसे युक्त हैं, ऊँचे-ऊंचे बरण्डोंसे सुशोभित हैं, प्रवेश करनेमें गहरी हैं और दो कोश चौड़ी हैं ॥३०-३१।। नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा, नन्दवती, अभिनन्दिनी, और नन्दघोषा ये छह वापिकाएँ अशोक वनमें स्थित हैं ॥३२॥ विजया, अभिजया, जेत्री, वैजयन्ती, अपराजिता और जयोत्तरा ये छह वापिकाएँ सप्तपर्ण वनमें स्थित हैं ॥३३।। कुमुदा, नलिनी, पद्मा, पुष्करा, विश्वोत्पला और कमला ये छह वापियाँ चम्पक वनमें मानी गयी हैं ॥३४।। और प्रभासा, भास्वतो, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा ये छह वापियां आम्रवनमें कही गयी हैं ।।३५।। पूर्व आदि दिशाओंकी वापिकाएं क्रमसे उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फल देती हैं तथा इन फलोंके इच्छुक मनुष्य इन नापिकाओंकी पूजा करते हैं ॥३६॥ क्रमके जाननेवाले भक्तजन उन वापिकाओंसे यथोक्त फूलोंका समूह प्राप्त कर स्तूपों तक क्रम-क्रमसे जिनेन्द्र प्रतिमाओंकी पूजा करते हुए आगे प्रवेश करते हैं ॥३७॥ उदय और प्रीतिरूप फलको देनेवाली वापिकाओंके बीचके मार्गके दोनों ओर तीन खण्डको सुवर्णमय देदीप्यमान बत्तीस नाट्यशालाएं है ॥३८|| ये नाट्यशालाएं डेढ़ कोश चौड़ी हैं,
१. ससिद्धप्रतिमाशोकः म. । २. रत्नतद्योना म. । ३. वाराण्डकैः ङ.। अण्डकः हंसादिपक्षिभिः ङ. ठि. ।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः तासु भक्त्या प्रनृत्यन्ति द्वात्रिंशज्ज्योतिषां स्त्रियः । हावमावविलासाळ्या रसपुष्टिसपुष्टयः ॥४०॥ सचतुर्गोपुरातोऽपि पर्येति वनवेदिका । दिव्या वज्रमयी वीथीपार्श्वयोर्ध्वजपतयः ॥४१॥ त्रिदण्डविस्तृताश्चित्राः पीठिकाः प्रतिभक्तिगाः । योजना|च्छुितास्तासु वंशा रस्नात्मपूर्वकाः ॥४२॥ सदग्रपालिकानवफलकाधिष्ठिता ध्वजाः । महान्तो दश चिम्राः सस्किङ्किणीचित्रपट्टकाः ॥४॥ शिखिहंसगरुत्मत्वकसिंहममकराम्बुजैः । वषरूपेण चक्रेण समधिष्ठितमूर्तयः ॥४॥ तेषामष्टशतं जातिविशश्च चतु:शती । ध्वजसंख्या मवेदेषां सामान्येन समासतः ॥४५॥ सद्वात्रिंशत्सहस्राः स्युर्लक्षाः पञ्चाशदष्ट च । साधिका ध्वजसंख्येयं सैकदिक्का द्विसंगुणा ॥४६॥ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि लक्षा षट्षष्टिरष्टसु । ध्वजकोट्यश्वतस्रः स्युश्चतुर्दिक्ष्वपि साधिकाः ॥४७॥ प्रीतिकल्याणमध्ये स्युरमितः पञ्चभूमिकाः । नृत्तशालाः प्रनृत्यन्ति यत्र भावनयोषितः ॥४८॥ प्राकारोऽन्तः परोयाय द्वितीयो हेमनिर्मितः । पञ्चभूमिकरत्नश्रीचतुर्गोपुरभूषितः ॥४९॥ हटवाटकपीठस्थाः कम्बुकण्ठगुणोज्ज्यलाः । शातकुम्ममयाः कुम्माः साम्भोजास्याः सहाम्भसः ॥५०॥ शोमन्ते तद्विपावषु द्वौ द्वौ मङ्गलदर्शनाः । वेत्रदण्डधरा द्वास्थास्तवाःसु भवनाधिपाः ॥५१॥ पुरस्ताद्गोपुराणाचनाटकवेश्मनी । पुरस्तात्त ततो हैमौ द्वौ द्वौ धूपघटौ स्फुटौ ॥५२॥ चतुर्दिसिद्धरूपाढयं द्विह्निः सिद्धार्थपादपम् । कल्पवृक्षवनं तत्र वीथ्यन्तेषु यथायथम् ॥५३॥
नाना प्रकारके बेलबटोंसे सुशोभित हैं और उनकी भमियां रत्नोंकी बनी हैं तथा उनकी दोवालें स्वच्छ स्फटिकसे निर्मित हैं ॥३९॥ उनमें ज्योतिषी देवोंकी बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती हैं जो हाव, भाव और विलाससे युक्त तथा शृंगार आदि रसोंकी पुष्टिसे सुपुष्ट होती हैं ॥४०॥ उसके आगे चार गोपुरोंसे युक्त अत्यन्त सुन्दर वज्रमयी वनवेदी है जो पूर्वोक्त वनोंको चारों ओरसे घेरे हुए है। चार गोपुरोंके आगे चार वीथियाँ हैं और उनके दोनों पसवाड़ोंमें ध्वजाओंकी पंक्तियां फहराती रहती हैं ॥४१॥ प्रत्येक विभागमें उन ध्वजाओंकी पृथक्-पृथक् पीठिकाएं हैं जो तीन धनुष चौड़ी हैं, चित्र-विचित्र हैं तथा उनपर आधा योजन ऊंचे रत्नमयी बांस लगे हुए हैं ॥४२॥ उन बांसोंके अग्रभागपर जो पटिया लगे हैं उनमें दश प्रकारकी रंग-बिरंगो, छोटी-छोटी घण्टियों और चित्रपट्टकोंसे युक्त बड़ो ध्वजाएं फहराती रहती हैं ॥४३।। वे दस प्रकारको ध्वजाएँ क्रमसे मयूर, हंस, गरुड़, माला, सिंह, हाथी, मकर, कमल, बैल और चक्रके चिह्नसे चिह्नित होती हैं ॥४४॥ एक दिशामें एक जातिकी ध्वजाएँ एक सौ आठ होती हैं और चारों दिशाओंकी मिलकर एक जातिको चार सौ बत्तीस होती हैं। यह इनकी सामान्य रूपसे संक्षेपमें संख्या बतलायी है ॥४५॥ विशेष रीतिसे एक दिशामें एक करोड़ सोलह लाख चौंसठ हजार हैं और चारों दिशाओंमें चार करोड़ अड़सठ लाख छत्तीस हजार कुछ अधिक हैं ॥४६-४७॥
प्रीति और कल्याणरूप फल देनेवाली वापिकाओंके बीचके मार्गमें दोनों ओर पांच खण्डकी नृत्यशालाएँ हैं जिनमें भवनवासी देवोंकी देवांगनाएँ नृत्य करती हैं ॥४८॥ नृत्यशालाओंके आगे पांच-पांच खण्डके रत्नमयी चार गोपुरोंसे विभूषित स्वर्णनिर्मित दूसरा कोट है ॥४९॥ गोपुरोंके दोनों पसवाड़ोंमें देदीप्यमान सुवर्णके पीठोंपर स्थित, शंखके समान सुन्दर कण्ठोंमें पड़ी मालाओंसे सुशोभित मुखोंपर कमल धारण करनेवाले एवं जलसे भरे स्वर्णनिर्मित मंगलकलश दोदोकी संख्या में सुशोभित हैं। इस दूसरे कोटके द्वारोंपर भवनवासी देवोंके इन्द्र द्वारपाल हैं जो बेंतकी छड़ी धारण किये हुए पहरा देते हैं ॥५०-५१॥ गोपुरोंके आगे दो-दो नाट्यशालाएं हैं और उनके आगे स्वर्णनिर्मित दो-दो धूपघट रखे हुए हैं ॥५२॥ उससे आगे चारों दिशाओंमें सिद्धों
१. विलासाद्या म.। २. वनदेविका म.। ३. वृत्त शाला: म. ।
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हरिवंशपुराणे
सचतुर्गों पुरातोऽन्तर्वेदिका वनपाततः । तोरणान्तरिताः सार्वाः स्तूपा नव नवाध्वसु ॥ ५४ ॥ पद्मरागमहास्तूपपर्यंन्तेषु सभागृहाः । हेमरत्नमयाचिंत्रा मुनिदेवगणोचिताः ॥ ५५ ॥ नमःस्फटिकनिर्माणस्ततः सालस्तृतीयकः । चतुश्चिश्रमहारत्न सप्तभूमिकगोपुरः ॥५६॥ विजय विश्रुतं कीर्तिविमलोदयविश्वध्रुक् । वासवीर्यं वरं चेति पूर्वाख्या ख्यापिताष्टधा ॥५७॥ ● बैजयन्तं शिवं ज्येष्ठं वरिष्ठानवधारणम् । याम्यमप्रतिघं चेति दक्षिणाख्याष्टधा मताः ॥ ५८ ॥ जयन्तामितसारं च सुधामाक्षोभ्य सुप्रभम् । वरुणं वरदं चेति पश्चिमाख्याष्टधा स्मृताः ॥५९॥ अपराजितम चख्यमतुलार्थममोधकम् । उदयं चाक्षयं दोदक्कौबेरं पूर्णकामकम् ॥६०॥ सुरत्नासनमध्यस्था द्रष्टृणां भवदर्शिनः । तद्द्वारोमयपार्श्वेषु भान्ति मङ्गलदर्पणाः ॥ ६१ ॥ यैः प्रध्वस्तमहाध्वान्तप्रमावलय भास्वरैः । भास्वतो भासमुद्भूय भासन्ते गोपुराण्यलम् ॥६२॥ विजयादिपुरद्वाःसु द्वाःस्थास्तिष्ठन्ति कल्पजाः । यथायथं ज्वलद्भूषा जयकल्याणकारिणः ॥ ६३॥ शालास्त्रयोऽप्यमी त्वेकद्वित्रिक्रोशोच्छ्रयोन्मिताः । मूलमध्योपरिष्या सैस्तदर्धार्धसुसंमिताः ॥६४॥ स्वरस्नित्रयहीनोक्तप्रमाणजगतीतलाः । 'हस्तोद्विद्वाक्षं विस्तीर्णव्यामार्धकपिशीर्षकाः ॥ ६५ ॥ ततोऽप्यन्तर्वणं नानातरुवल्लीगृहाकुलम् । मञ्चप्रेङ्खागिरिप्रेक्षागृह कोटिविराजितम् ॥ ६६ ॥ वेदिकाबद्धवीथीषु कल्याणादिजयाजिरम् । कदल्यः कदलीकल्पाः प्रकाशन्तेऽन्तरस्थिताः ॥६७॥
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की प्रतिमाओंसे युक्त, दो-दो सिद्धार्थं वृक्षोंसे सहित कल्पवृक्षोंका वन वीथियोंके अन्त में यथारीति स्थित हैं || ५३ ॥ तदनन्तर चार गोपुरोंसे सहित, वनकी रक्षा करनेवाली अन्तर्वेदिका है और मार्गों में तोरणोंसे युक्त, सबका भला करनेवाले नौ-नो स्तूप हैं ॥५४॥ वे स्तूप पद्मराग मणियोंसे निर्मित होते हैं तथा उनके समीप स्वर्ण और रत्नोंके बने, मुनियों और देवोंके योग्य नाना प्रकारके सभागृह रहते हैं || ५५ || सभागृहोंके आगे आकाशस्फटिक मणिसे बना, नाना प्रकारके महारत्नोंसे निर्मित सात खण्डवाले चार गोपुरोंसे सुशोभित तीसरा कोट है ॥ ५६ ॥ इस कोटके पूर्वं द्वारके विजय, विश्रुत, कीर्ति, विमल, उदय, विश्वधुक्, वासवीर्यं और वर ये आठ नाम प्रसिद्ध हैं ||१७|| दक्षिण द्वारके वैजयन्त, शिव, ज्येष्ठ, वरिष्ठ, अनघ, धारण, याम्य और अप्रतिघ ये आठ नाम कहे गये हैं ||५८ || पश्चिम द्वारके जयन्त, अमितसार, सुधाम, अक्षोभ्य, सुप्रभ, वरुण और वरद ये आठ नाम स्मरण किये गये हैं ||५९ ॥ और उत्तर द्वारके अपराजित, अर्थ, अतुलार्थ, उदक, अमोघक, उदय, अक्षय और पूर्णकामक ये आठ नाम हैं ||६०|| उन द्वारोंके पसवाड़ोंमें उत्तम रत्नमय आसनोंके मध्य में स्थित मंगलरूप दर्पण सुशोभित हैं जो देखनेवालोंके पूर्वं भव दिखलाते हैं ||६१॥ ये दर्पण गाढ़ अन्धकारको नष्ट करनेवाले कान्तिके समूह से सदा देदीप्यमान रहते हैं और उनसे गोपुर सूर्यको प्रभाको तिरस्कृत कर अतिशय शोभायमान होते हैं ||६२|| विजयादिक गोपुरों में यथायोग्य 'जय हो' 'कल्याण हो' इन शब्दोंका उच्चारण करनेवाले एवं देदीप्यमान आभूषणोंसे युक्त कल्पवासी देव द्वारपाल रहते हैं ||६३|| ये तीनों कोट एक कोश, दो कोश और तीन कोश ऊँचे होते हैं तथा मूल, मध्य और ऊपरी भागमें इनकी चौड़ाई ऊँचाईसे आधी होती है ॥६४॥ इन कोटोंके जगतीतलों का प्रमाण अपनी ऊंचाईसे तीन हाथ कम कहा गया है और उनके ऊपर बने हुए बन्दरके शिरके आकारके कंगूरे एक हाथ तथा एक वितस्ति चौड़े और आधा वेमा ऊँचे कहे गये हैं || ६५ ॥ उसके आगे नाना वृक्षों और लतागृहोंसे व्याप्त, मंच, प्रेागिरि और प्रेक्षागृहोंसे सुशोभित अन्तर्वण है || ६६ || वेदिकाओंसे बद्ध वीथियोंके बीचमें कल्याणजय नामका आंगन है और उसमें शाल्मली वृक्षके समान ऊँचे एवं अन्तरसे स्थित केला
१. वनपाठतः म. (?) । २. चित्रमुनि - म । ३. चतुचित्रा म । ४. वैजयन्त्यम् । ५. परिन्यासै - म., क., ङ. । ६. हस्तोद्विद्वाक्ष म । ७ विस्तीर्णाक्षान्तराः म., ख । ८. व्यासार्ध ख ।
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सप्तपश्चाशः सर्गः
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अन्तर्नाटकशाला स्यात्तत: कल्याणसप्रमाः । लोकपालविलासिन्यो यत्र नृस्यन्ति सन्ततम् ॥६८॥ तदन्तरे भवत्यन्यत्पीठं पीठगुणास्पदम् । प्रोदंशुरत्नजालास्ततिमिरावलिमण्डलम् ॥६९॥ सिद्धार्थपादपाः सन्ति सिद्धरूपविराजितैः । विटपैाप्य दिक्प्रान्तमिच्छयेव स्थितास्ततः ॥७॥ स्तूपा द्वादशभूभूषा भूषयन्त्यथ मन्दिरम् । हिरण्मया महामेरुं चत्वारो मेरवो यथा ॥७॥ चतुर्दिग्गोपुरद्वारवेदिकालंकृताः शुभाः । चतस्रो दिवथ ज्ञेयाश्चतसृष्वपि वापिकाः ॥७२॥ नन्दाभद्राजयापूर्णेत्यभिख्यामिः क्रमोदिताः । यजलाभ्युक्षिताः पूर्वा जाति जानन्ति जन्तवः ॥७३॥ ताः पवित्रजलापूर्णसर्वपापरुजाहराः । परापरमवाः सप्त दृश्यन्ते यासु पश्यताम् ॥७॥ अथ गव्यूतमुद्विद्धं योजनाधिकविस्तृतम् । कटोमावरण्डस्थकदलीध्वजसंकुलम् ॥७५॥ निरन्तरविशन्निर्यजनद्वारोच्चतोरणम् । त्रिलोकविजयाधानमहो भाति जयाजिरम् ॥७६॥ मुक्ताबालुकविस्तीर्णप्रवालसिकतान्तरम् । सुरत्नकुसुमैश्चित्रं हेमाम्भोजैस्तदर्चितैः ॥७॥ तपनीयरसालिप्तस्तपनैरिव भूगतैः । तत्र तत्र यथादेश्यं मण्ड्यन्ते पृथुमण्डलैः ॥७॥ प्रासादैमण्डपैश्चान्यैः सुखावासैः सुशोभते । देवासुरनरापूर्णस्तत्र तत्र विचित्रितम् ॥७९॥ क्वचिदालेख्य हृद्यानि वेश्मानि क्वचिदन्तरे । पुराणाद्भुतमतीनि चित्राख्यानान्वितानि च ॥८॥ कचित्पुण्यफलप्राप्त्या पापपाकेन च क्वचित् । धर्माधर्मगतिं साक्षादर्शयन्तीव पश्यतः ॥८॥
के वक्ष प्रकाशमान हो रहे हैं॥६७॥ तदनन्तर उन्हीं के भीतर नाटकशाला है जिसमें सवर्णके समान कान्तिकी धारक लोकपाल देवोंको देवांगनाएं निरन्तर नृत्य करती रहती हैं ॥६८॥ उनके मध्यमें श्रेष्ठ गुणोंका स्थान तथा ऊंची उठनेवाली किरणोंसे सुशोभित रत्नावलीसे अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाला दूसरा पीठ है ।।६९।। उसके आगे सिद्धार्थवृक्ष हैं जो सिद्धोंकी प्रतिमाओंसे सुशोभित शाखाओंसे इच्छापूर्वक ही मानो दिशाओंको व्याप्त कर स्थित हैं ॥७०॥ उसके आगे एक मन्दिर है जिसे पृथ्वीके आभरणस्वरूप बारह स्तूप उस तरह सुशोभित करते रहते हैं जिस तरह कि सुवर्णमय चार मेरु पर्वत जम्बूद्वीपके महामेरुको सुशोभित करते रहते हैं ॥७१।। इनके आगे चारों दिशाओंमें शुभ वापिकाएं हैं जो चारों दिशाओंमें बने हुए गोपुर-द्वारों और वेदिकासे अलंकृत हैं ॥७२॥ नन्दा, भद्रा, जया और पूर्णा ये चार उनके नाम हैं। उन वापिकाओंके जलमें स्नान करनेवाले जीव अपना पूर्व-भव जान जाते हैं ।।७।। वे वापिकाएं पवित्र जलसे भरी एवं समस्त पापरूपी रोगोंको हरनेवाली हैं। इनमें देखनेवाले जीवोंको अपने आगे-पीछेके सात भव दिखने लगते हैं ॥७४।। वापिकाओंके आगे एक जयांगण सुशोभित है जो एक कोश ऊंचा है, एक योजनसे कुछ अधिक चौड़ा है, कटि बराबर ऊंचे बरण्डोंपर स्थित कदली-ध्वजाओंसे व्याप्त है, जिनमें मनुष्य निरन्तर प्रवेश करते और निकलते रहते हैं ऐसे द्वारों और उच्च तोरणोंसे युक्त है, तीन लोकको विजयका आधार है, उसमें बीच-बीचमें मूंगाओंकी लाल-लाल बालूका अन्तर देकर मोतियोंकी सफेद बालू बिछी हुई है, उत्तम रत्नमय पुष्पों और रखे हुए सुवर्णकमलोंसे चित्र-विचित्र है। उस जयांगणके भूभाग, जहाँ-तहाँ सुवर्ण रससे लिप्त अतएव पृथिवीपर आये हुए सूर्योंके समान दिखनेवाले विशाल वर्तुलाकार मण्डलोंसे सुशोभित हैं। जहां-तहाँ नाना प्रकारके चित्रों को त्रित वह जयांगण, देव, असुर और मनुष्योंसे परिपूर्ण भवनों, मण्डपों तथा अन्य सुखक : । सस्थानोंसे सुशोभित है ।।७५-७९।। कहीं चित्रोंसे सुन्दर और कहीं पुराणोंमें प्रतिपादित आश्चर्यकारी विभूतिसे युक्त तथा नाना प्रकारके कथानकोंसे सहित भवन बने हैं ॥८०॥ वे भवन कहीं पुण्यके फलकी प्राप्तिसे देखनेवाले लोगोंको धर्मका साक्षात् फल
१. भूभागा क.।
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हरिवंशपुराणे
दानशीलतपः पूजाप्रारम्भास्तत्फलानि च । तद्वियोगविपत्तीश्च तानि श्रद्धापयन्त्यमून् ||८२॥ स्फुरत्पुलकसंसक्तमुक्तादामोन्मिषन्मणिः । पताका घण्टिकारोवरमणीयानिले रिता ॥८३॥ उदंशुरत्नमालेव स्फुरन्ती वीचिरर्णवे । वीक्ष्यते व्योमनीन्द्राद्यः कौतुकाद्येन चामितः ॥ ८४ ॥ राजतीन्द्रध्वजः सोऽयं तन्मध्ये हेमपीठिका | भलंकुर्वन् यथामूर्ती देहो देवजयश्रियः ||२५|| ततः स्तम्भसहस्रस्थो मण्डपोऽस्ति महोदयः । नाम्ना मूर्तिमती यत्र वर्तते श्रुतदेवता ॥ ८६ ॥ तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरैर्बहुश्रुतैर्वृतः । श्रुतं व्याकुरुते यत्र श्रायसं श्रुतकेवली ॥८७॥ तदर्धमानाश्वत्वारस्तत्परीवारमण्डपाः । आक्षेपण्यादयो येषु कथ्यन्ते कथकैः कथाः ||८८ ॥ तत्प्रकीर्णकवासेषु चित्रेष्वाचक्षते स्फुटम् । ऋषयः स्वष्टमर्थिभ्यः केवलादिमहर्द्धयः || ८९ ।। तपनीयमयं पीठं ततश्चित्रलताचितम् । यत्तद्वल्युपहारेण यथाकालं समर्च्यते ||१०|| "पीठाई श्रीपदद्वारं सरत्नकुसुमोस्करम् । मण्डलैः पूर्यते मध्ये मार्ग चन्द्रार्कस प्रभैः ॥ ९१ ॥ अभितः स्वाख्यया द्वौ तं मण्डपौ स्तः प्रभासकौ । अभ्यध्वं राजतो यत्र निधीशौ कामदायिनौ ।। ९२ || प्रेक्षाशाले विशाले स्तः प्रमदाख्ये ततोऽन्तरे । यत्र कल्पनिवासिन्यो नृत्यन्त्यप्सरसः सदा ॥ ९३ ॥ विजयाजिरकोणेषु विलसत्केतुमालिनः । चत्वारो योजनोद्विन्दा लोकस्तूपा भवन्त्यमी ॥ ९४ ॥
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दिखलाते हैं तो कहीं पापका परिपाक दिखाकर अधर्मका साक्षात् फल दिखलाते हैं || ८१ ॥ वे भवन, उन दर्शकजनों को दान, शील, तप और पूजाके प्रारम्भ तथा उनके फलोंकी एवं उनके अभाव में होनेवाली विपत्तियोंकी श्रद्धा कराते हैं ॥ ८२ ॥ | उस जयांगण के मध्य में सुवर्णमय पीठको अलंकृत करता हुआ इन्द्रध्वज सुशोभित होता है जो ऐसा जान पड़ता है मानो भगवान्को विजयलक्ष्मीका मूर्तिधारी शरीर ही हो । उस इन्द्रध्वजमें देदीप्यमान गोले, लटकती हुई मोतियों की माला और जगमगाते हुए मणियोंसे युक्त एक पताका लगी रहती है । वह पताका वायुसे कम्पित होने के कारण घण्टियोंके शब्दसे अत्यन्त रमणीय जान पड़ती है । ऊपर उठती हुई किरणोंसे युक्त रत्नों की माला से सुशोभित वह पताका जब आकाशमें फहराती है तब ऐसी जान पड़ती है मानो समुद्रसे लहर ही उठ रही हो । इन्द्रादिक देव उसे बड़े कौतुकसे देखते हैं ।।८३-८५ ।।
उसके आगे एक हजार खम्भोंपर खड़ा हुआ महोदय नामका मण्डप है जिसमें मूर्तिमती श्रुतदेवता विद्यमान रहती है || ८६ | | उस श्रुतदेवताको दाहिने भाग में करके, बहुश्रुतके धारक अनेक धीर-वीर मुनियोंसे घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुतका व्याख्यान करते हैं || ८७ || महोदय मण्डप आधे विस्तारवाले चार परिवार मण्डप और हैं जिनमें कथा कहनेवाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएं कहते रहते हैं ||८८ || इन मण्डपोंके समीपमें नाना प्रकारके फुटकर स्थान भी बने रहते हैं जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियोंके धारक ऋषि इच्छुकजनोंके लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं ||८९ ॥
उसके आगे नाना प्रकार की लताओंसे व्याप्त एक सुवर्णमय पीठ रहता है जिसकी भव्यजीव नाना प्रकार की समयानुसार पूजा करते हैं ||१०|| उस पीठका श्रीपद नामका द्वार है जो रत्नों और फूलोंके समूहसे युक्त है तथा जो मार्ग के बीच में बने हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान देदीप्यमान मण्डलोंसे परिपूर्ण है ||२१|| उस द्वारके दोनों ओर प्रभासक नामके दो मण्डप हैं जिनमें मागँके सम्मुख, इच्छानुसार फल देनेवाले निधियों के स्वामी दो देव सुशोभित रहते हैं ||९२ ॥ उनके आगे प्रमदा नामकी दो विशाल नाट्यशालाएं हैं जिनमें कल्पवासिनी अप्सराएं सदा नृत्य करती रहती हैं ||१३|| विजयांगणके कोनोंमें चार लोकस्तूप होते हैं जिनपर पताकाओं की पंक्तियाँ
१. रावो म., क., ङ । २. म. । ५. पीठा म., ङ । ६
लेरिताः म. क., ङ. । ३ वीभिता ख., वीक्षिता म । ४. हेमपीठिका मध्ये मार्गश्चन्द्रार्क - म. क., ङ. । ७. अत्यध्वं म । ८. तमोऽम्बरे म, ।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः
अधोवेत्रासनाकारा झल्लरीसममध्यगाः । उर्व मृदङ्गसंस्थानाः स्वान्ततालामनालिकाः ॥९५।। स्वच्छस्फटिकरूपास्ते सुव्यक्तान्तनिदेशकाः । दृश्यते लोकविन्यांसो यत्रादर्शतले यथा ॥२६॥ मध्यलोकस्वरूपान्तर्व्यक्तनिर्माणमूर्तयः । मध्यलोका इति ख्याताः सन्ति स्तूपास्ततः परे ॥९॥ मन्दरस्तूपनामानो मन्दराकारमास्वराः । चतुःकाण्डचतुर्दिक्ष चैत्या भान्ति ततोऽपरे ॥९८१ ततोऽन्तःकल्पवासाख्याः कल्पवासिनिवेशिनः । स्तूपास्ते कल्पवासद्धिं साक्षात्कुर्वन्ति पश्यताम् ॥९९।। ग्रेवेयकपरास्तेऽन्ये नाम्ना स्तूपास्तथाविधाः । ततो ग्रैवेयकाभिख्यां दर्शयन्तीव मानवान् ॥१०॥ नवानुदिशनामानस्ततः स्तूपा विराजते । नवानुदिशमध्यक्ष पश्यन्ते यत्र प्राणिनः ॥१०॥ विजयादिचतुर्दिका विमानोद्भासिनस्ततः । सर्वार्थदायिनः सन्ति स्तूपाः सर्वार्थसिद्धयः ॥१०॥ सिद्धस्तूपाः प्रकाशन्ते ततोऽन्ये स्फटिकामलाः । यत्रैव दर्पणच्छाया दृश्यते सिद्धरूपभाक् ।।१०३|| मव्यकूटाख्यया स्तूपा भास्वत्कूटास्ततोऽपरे । यानभव्या न पश्यन्ति प्रभावान्धीकृतेक्षणाः ॥१०॥ प्रमोहा नाम सन्त्यन्ये स्तूपा यत्र प्रमोहिताः । विस्मरन्ति यथाग्राहं चिराभ्यस्तं च देहिनः ॥१०५।। प्रबोधाख्या भवन्त्यन्ये स्तूपा यत्र प्रबोधिताः । तत्त्वमासाद्य संसारान्मुच्यन्ते साधवो ध्रुवम् ॥१०६॥ एवमन्योऽन्यसंसक्तवेदिकातोरणोज्ज्वलाः । दश स्तूपाः समुत्तुङ्गाः राजन्त्यापरिधेः क्रमात् ॥१०॥ ततोऽस्ति क्रोशविस्तार परिधिर्धनुरुच्छितिः । यत्र मण्डलभूवायं परियन्ति नरामराः ।।१०।।
फहराती रहती हैं, तथा जो एक योजन ऊंचे रहते हैं ।।९४॥ ये लोकस्तूप, नीचे वेत्रासनके समान, मध्यमें झालरके समान, ऊपर मृदंगके समान और अन्तमें तालवृक्षके समान लम्बी नालिकासे सहित हैं ॥९५।। इनका स्वच्छ स्फटिकके समान रूप होता है, अतः इनके भीतरकी रचना अत्यन्त स्पष्ट रहती है। इन स्तूपों में लोककी रचना दर्पणतलके समान स्पष्ट दिखाई देती है ॥९६।। इन स्तूपोंके आगे मध्यलोक नामसे प्रसिद्ध स्तूप हैं जिनके भीतर मध्यलोककी रचना स्पष्ट दिखती है॥९७|| आगे मन्दराचलके समान देदीप्यमान मन्दर नामके स्तुप हैं जिनपर चारों दिशाओंमें भगवान्की प्रतिमाएं सुशोभित हैं ॥९८।। उनके आगे कल्पवासियोंकी रचनासे युक्त कल्पवास नामक स्तूप हैं जो देखनेवालोंको कल्पवासी देवोंकी विभूति साक्षात् दिखाते हैं ।।९९|| उनके आगे ग्रैवेयकोंके समान आकारवाले ग्रैवेयक स्तप हैं जो मनुष्यों को मानो ग्रेवेयकोंकी शोभा ही दिखाते रहते हैं ॥१००|| उनके आगे अनुदिश नामके नौ स्तूप सुशोभित हैं जिनमें प्राणी नौ अनुदिशोंको प्रत्यक्ष देखते हैं ॥१०१।। आगे चलकर जो चारों दिशाओं में विजय आदि विमानोंसे सुशोभित हैं ऐसे समस्त प्रयो नोंको सिद्ध करनेवाले सर्वार्थसिद्धि नामके स्तूप हैं ॥१०२॥ वनके आगे स्फटिकके समान निर्मल सिद्धस्तूप प्रकाशमान हैं जिनमें सिद्धोंके स्वरूपको प्रकट करनेवाली दर्पणोंकी छाया दिखाई देती है ॥१०३।। उनके आगे देदीप्यमान शिखरोंसे युक्त भव्यकूट नामके स्तूप रहते हैं जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते क्योंकि उनके प्रभावसे उनके नेत्र अन्धे हो जाते हैं ॥१०४॥ उनके आगे प्रमोह नामके स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग अत्यधिक विभ्रममें पड़ जाते हैं और चिरकालसे अभ्यस्त गृहीत वस्तुको भी भूल जाते हैं ।।१०५।। आगे चलकर प्रबोध नामके अन्य स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग प्रबोधको प्राप्त हो जाते हैं और तत्त्वको प्राप्त कर साधु हो निश्चित हो संसारसे छूट जाते हैं ।।१०६।। इस प्रकार जिनकी वेदिकाए एक दूसरेसे सटी हुई हैं तथा जो तोरणोंसे समुद्भासित हैं ऐसे अत्यन्त ऊँचे दशस्तूप क्रम-क्रमसे परिधि तक सुशोभित हैं ॥१०७। इसके आगे एक कोट रहता है जो एक कोश चौड़ा तथा एक धनुष ऊंचा होता है १. नवानुदिश अध्यक्षं घ., म. । नवानुदिशनामानि ड.। नवानामनुदिशानां समाहारो नवानुदिश ग. । २. यत्र पश्यन्ति प्राणिनः इति पाठः सुष्ठ प्रतिभाति । ३. चतुर्दिक्ष ग., ख. । ४. सिद्धिदाः म. । ५. यथाग्राह्य ङ. । ६. मुच्यते म.। ७. राजन्त्या: परिधेः म.। ८. विस्तारं म. ।
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हरिवंशपुराणे बाह्याः सप्तदश न्यस्ता गव्यूतवृतमेकतः । कर्णिकाथ तदन्तस्था ज्ञेया सार्वत्रियोजना ॥१०९॥ परिवेष इवाक यः परिधिः' परिवेष्टते । चित्ररत्नमयोऽन्तस्थं मासुरं परिमण्डलम् ॥११०॥ निर्मित्सानन्तरं भर्तुर्वजस्योत्पद्यते पुरम् । दिव्यं तत्र प्रभावो हि मनसा ज्ञायिना महान् ॥१११॥ त्रिलोकसारं श्रीकान्तं श्रीप्रभं शिवमन्दिरम् । त्रिलोकीलोककान्तिश्री श्रीपुरं त्रिदशप्रियम् ॥११२॥ लोकालोकप्रकाशा द्यौरुदयोऽभ्युदयावहम् । क्षेमं क्षेमपुरं पुण्यं पुण्याहं पुष्पकास्पदम् ॥११३॥ भुवः स्वर्भूस्तपः गत्यं लोकालोकोत्तमं रुचिः । रुचावहमुदारधिं दानधर्मपुरं परम् ॥११॥ श्रेयः श्रेयस्करस्तीथं तीर्थावहमदग्रहम् । विशालचित्रकूट धीश्रीधरं च त्रिविष्टपम् ॥११५॥ मङ्गलोत्तमकल्याणशरणादिपुराणि पूः । जयापराजितादित्यजयन्त्यचलसंपुरम् ॥१६॥ विजयं तं जयन्तामं विमलं विमलप्रभम् । कामभूगगनामोगं कल्याणं कलिनाशनम् ॥१७॥ पवित्रं पञ्चकल्याणं पद्मावतः प्रमोदयः । पराय॑मण्डिता वासी महेन्द्र महिमालयम् ॥११८॥ स्वायम्भुवं सुधाधात्री शुद्धावासः सुखावती । विरजा वीतशोकार्थविमला विनयावनिः ॥११९॥ भूतधात्री पुराकल्पः पुराणं पुण्यसंचयः । ऋषीवती यमवती रस्नवत्याजरामरा ॥१२॥ प्रतिष्ठा ब्रह्मनिष्टोवों केतुमालिन्यरिन्दमम् । मनोरमं तमःपारमरस्नीरत्नसंचयम् ॥१२॥ अयोध्यामृतधानीति समं ब्रह्मपुराख्यया । जाताह्वयमुदात्तार्थ तस्कल्पज्ञेरुदोर्यते ॥१२२॥ अथ त्रैलोक्यसारैकसंदोहमयमद्भुतम् । माति भर्तृप्रभावोत्थं तत्पदं बहुविस्मयम् ॥१२३॥ कृतावधानस्तत्सिद्धिं भूयः स्रष्टापि चिन्तयन् । ध्रुवं मोमुह्यतेऽन्यस्य तथा चेत्तत्र का कथा ॥१२४॥
और उसके मण्डलकी भूमिको बचाकर मनुष्य तथा देव प्रदक्षिणा देते रहते हैं ।।१०८|| इस परिधिमें बाहरकी ओर सत्रह कणिकाए हैं जो एक-एक कोश विस्तत हैं और भीतरकी ओर एक कर्णिका है जो साढ़े तीन योजन विस्तारवाली है ( ? )॥१०९॥ जिस प्रकार परिवेश सूर्यको घेरता है उसी प्रकार चित्र-विचित्र रत्नोंसे निर्मित यह परिधि भीतरके देदीप्यमान मण्डलको घेरे रहती है ॥११०॥ वहां गणधर देवकी इच्छा करते ही एक दिव्य पुर बन जाता है सो ठीक ही है क्योंकि मनःपर्यय ज्ञानके धारक जीवोंका प्रभाव महान् होता है ॥१११॥ वह पुर कल्पके ज्ञाता मनुष्यके द्वारा त्रिलोकसार, श्रीकान्त, श्रीप्रभु, शिवमन्दिर, त्रिलोकीश्री, लोककान्तिश्री, श्रीपुर, त्रिदशप्रिय, लोकालोकप्रकाशाद्यौ, उदय, अभ्युदयावह, क्षेम, क्षेमपुर, पुण्य, पुण्याह, पुष्पकास्पद, भुवःस्वर्भूः, तपःसत्य, लोकालोकोत्तम, रुचि, रुचादह, उदाद्धि, दानधर्मपुर, श्रेय, श्रेयस्कर, तीर्थ, तीर्थावह, उदग्रह, विशाल, चित्रकूट, धीश्रीधर, त्रिविष्टप, मंगलपुर, उत्तमपुर, कल्याणपुर, शरणपुर, जयपुरी, अपराजितापुरी, आदित्यपुरी, जयन्तीपुरी, अचलसंपुर, विजयन्त, विमल, विमलप्रभ, कामभू, गगनाभोग, कल्याण, कलिनाशन, पवित्र, पंचकल्याण, पद्मावत, प्रभोदय, पराध्यं, मण्डितावास, महेन्द्र, महिमालय, स्वायम्भुव, सुधाधात्री, शुद्धावास, सुखावती, विरजा, वीतशोका, अर्थविमला, विनयावनि, भूतधात्री, पुराकल्प, पुराण, पुण्यसंचय, ऋषीवती, यमवती, रत्नवती, अजरामरा, प्रतिष्ठा, ब्रह्मनिष्ठोर्वी, केतुमालिनी, अरिन्दम, मनोरम, तमःपार, अरत्नी, रत्नसंचय, अयोध्या, अमृतधानी, ब्रह्मपुर, जाताह्वय और उदात्तार्थ नामसे कहा जाता है ॥११२-१२२॥ भगवान के प्रभावसे उत्पन्न वह नगर, तीन लोकके समस्त श्रेष्ठ पदार्थों के समूहसे युक्त, आश्चर्यस्वरूप एवं बहुत भारी आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ सुशोभित होता है ।।१२३॥ उसका बनानेवाला कुबेर भी एकाग्रचित्त हो उसके बनानेका पुनः
१. परिधेः म., ङ.। २. परिवेष्ठयते म., परिविष्यते ङ.। ३. महत् म.। ४. रिषीवती क., ङ.। ५. केतुमालिन्यनिन्दितम् म.। ६. ब्रह्मपराख्यया क., ङ.।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः
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दशषोडशभिस्तस्य सुवर्णमणिजातिमिः । यथास्थानं स्वयं चित्रं निर्माणममिराजते ॥१२५॥ तलं तिस्रो जगत्यश्च तत्र क्रोशार्धविस्तृताः। उपर्युपरि तत्र स्यात्परिहाणिश्च तावती ॥१२६॥ तासां वज्रमयी सिद्धिश्चित्ररत्नोज्ज्वला भुवाम् । यत्प्रभा शक्रचापानि तनोति परितः परा ॥१२७॥ उरोदना वरण्डास्ते भूषयन्ति ज्वलत्प्रमाः। जगतीर्यत्र राजन्ते कदल्यो धनुरन्तराः ॥१२८॥ त्रिंशदक्षमितैः' कूटैर्द्विगुणायतकोष्टकैः । द्विगुणैयते तासु दशदण्डान्तरास्थितैः ॥१२९॥ द्वौ द्वौ दौवारिकावासावभितः स्तस्तदन्तिके । यत्र वैश्रवणस्यार्थः प्रतिद्वारं प्रकाशते ।।१३०॥ कूटानां सप्तशत्यासु द्वासप्तत्यधिका क्रमात् । चत्वारिंशदष्टयुक्ता कोष्टकानां च सा गणिः ॥१३१॥ द्वाविंशतिशतान्याहुर्विशानि जगतीत्रये । कूटसंख्या समासेन कोष्ठकानां च तावती ॥१३२॥ एकाष्टलोकमीमगा नवैकद्विचतुर्भियः । षडस्तिखैकमङ्गाः स्युर्जगतीकेतवः क्रमात् ॥१३३।। वियद्योनिमीभङ्गश्रेणयः पूर्वकूटगाः । भूषण्मण्डगलव्योमखोरक्रमा मध्यकूटगाः ॥१३४॥ खाटाष्टचतुरस्त्यक्षीण्यन्तकूटगता ध्वजाः । कोष्टगास्तत्र तत्रामी माव्यन्ते ते द्विसंगुणाः ॥१३५॥ लक्षा षडशिंतिज्ञेयाः सहस्राणां च विंशतिः । षटपञ्चाशद्विशत्यामा तत्सर्वकदलीगणः ॥१३६॥ तत्र सस्वेददेशेषु मण्डपा रत्नमण्डिताः । द्वयेकगन्यूतविस्तारसमुत्सेधाश्चकासति ॥ १३७॥ तदर्धव्यासनिर्माणशिखरान्तरवासिनः । सन्ति सन्मङ्गलोद्भासि मूर्तयोर्चा जिनेश्वराः ॥१३॥
विचार करे तो वह भी नियमसे भूल कर जायेगा फिर अन्य मनुष्यको बात ही क्या है ? ॥१२४॥ उस नगरका निर्माण यथास्थान छब्बीस प्रकारके सवर्ण और मणियोंसे चित्र-विचित्र है अतः अत्यधिक सुशोभित होता है ।।१२५।। उसके तलभागमें तीन जगती रहती हैं जो आधा-आधा कोश चौड़ी होती हैं और ऊपर-ऊपर उन जगतियोंमें उतनी ही हानि होती जाती है ॥१२६।। उन जगतियोंकी रचना वज्रमयी एवं चित्र-विचित्र रत्नोंसे उज्ज्वल है और उनकी श्रेष्ठ कान्ति चारों ओर इन्द्रधनुषोंको विस्तृत करती रहती है ॥१२७॥ छाती प्रमाण ऊंचे तथा देदीप्यमान प्रभाके धारक बरण्डे उन जगतियोंको सुशोभित करते रहते हैं तथा उनपर एक धनुषके अन्तरसे स्थित सुशोभित पताकाएं हैं ॥१२८॥ उन जगतियोंमें तीस-तीस वितस्तियोंके कूट और उनसे द्विगुण आयामवाले दश-दश धनुषोंके अन्तरसे थित कोष्ठक रहते हैं ॥१२९॥ उन जगतियोंके समीप दोनों ओर द्वारपालोंके दो-दो आवासस्थान हैं जिनमें प्रत्येक द्वारपर कुबेरकी अपूर्व धनराशि प्रकाशमान है ।।१३०॥ प्रत्येक जगतीके कूटोंकी संख्या सात सौ बहत्तर है तथा कोष्ठकोंकी संख्या अड़तालीस है ॥१३॥ संक्षेपसे तीनों जगतियोंकी कूटसंख्या बाईस सौ बीस है और कोष्ठोंकी संख्या उसी प्रमाणसे है ।।१३२।। प्रथम जगतीमें बत्तीस हजार तीन सौ इक्यासी, दूसरीमें चौबीस हजार दो सौ उन्नीस और तीसरीमें इकतीस हजार छप्पन ध्वजाए रहती हैं ॥१३३।। पूर्व कूटोंमें दो लाख बत्तीस हजार चार सौ सत्तर, मध्यम कूटोंमें सात लाख इकसठ हजार एक सौ, और अन्तिम कूटोंमें दो लाख चौवन हजार आठ सौ अस्सी और कोष्ठकोंमें दूनी-दूनी हैं ॥१३४-१३५।। इस प्रकार समस्त ध्वजाओंकी संख्या छब्बीस लाख बीस हजार दो सौ छप्पन है ॥१३६॥ वहाँ सस्वेद-जलसिक्त प्रदेशों में रत्नोंसे मण्डित अनेक मण्डप हैं जो दो कोस चौडे और एक कोस ऊँचे हैं ।।१३७।। जिनकी रचना मण्डपोंसे आधी चौड़ी है, ऐसे शिखरोंके मध्य भागमें
१. वितस्ति ( ङ. टि.)। २. ३२३८१ । ३. २४२१९ । ४. ३१०५६ । ५. २३२४७० । ६. ७६११०० । ७. २५४८८० । भूपदेन सप्त, षट्पदेन षट, मण्ड: पिच्छवाची तेन एकः, गल: कण्ठवाची तेन एकः, व्योमखपदाभ्यां शन्यद्वयम्, यद्यपि सर्वत्र अङ्कानां वामतो गतिरिति नियम: तथापि अत्र उत्क्रमशब्देन उपरि उल्लेखः तेन पूर्वोक्ता संख्या निःसरति । ८. अमा-सह । ९. संस्वेददेशेषु म. ।
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हरिवंशपुराणे तत्रस्था अपि तद्देशाद्विनिष्क्रम्य नमस्यमी । यथोपदिष्टा दृश्यन्ते संमुखीभूय पश्यताम् ॥१३९॥ पीठानि त्रीणि भास्वन्ति चतुर्दिक्ष भवन्ति तु । चत्वारि च सहस्राणि धर्मचक्राणि पूर्वके ॥१४॥ द्वितीये तु महापीठे शिखिहंसध्वजेतरे । अष्टौ तिष्ठन्ति दिग्भागान्भासयन्तो महाध्वजाः ॥१४१॥ अग्रे श्रीमण्डपोद्भासी प्रासादो बहमङ्गलः । गन्धकुळ्यमिधानः स्यात्तत्र सिंहासनं विभोः ॥१४॥ तत्रासीनं जिनाधीशं नृसुरासुरकोटयः । तुष्टवुस्तुष्टचित्तास्ता मकुटन्यस्तपाणयः ॥१४३॥ विजयस्व महादेव ! विजयस्व महेश्वर । विजयस्व महाबाहो ! विजयस्व महेक्षण ॥१४४॥ इत्यादि स्तुतिकोटीनामन्ते प्रव्रज्य तत्क्षणात् । गणिनामग्रणीर्जातो वरदत्तो गणाधिपः ॥१४५॥ षट्सहस्रनृपस्त्रीमिः सह राजीमती तदा । प्रव्रज्याग्रेसरी जाता सर्यिकाणां गणस्य तु ॥१४६॥ यतिवर्गादयः सर्वे गणा द्वादश ते ततः । प्रणिपत्य यथास्थानं तं प्रमं समुपासते ॥१४॥ परिपर्यध्वनस्तस्मिन्पदेषु द्वादशस्वमी। पूर्वदक्षिणभागादिष्वासतेऽग्रप्रदक्षिणम् ।।१४८॥ तत्र प्रत्यक्षधर्माणो धर्मशांशा इवामलाः । 'भासन्ते वरदस्याग्रे वरदत्तादियोगिनः ।।१४९।। मर्तुर्या भूतयो बाह्यास्तदन्तर्भूतितः प्रति । राजन्ते कल्पवासिन्यो युक्ता स्तन्मूर्तयो यथा ।।१५०॥
हीदयाक्षान्तिशान्त्यादिगुणालंकृतसंपदः । समेत्योपविशन्त्यार्या सद्धर्मतनया यथा ॥१५१।। विराजमान जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाएं हैं जो उत्तम मंगल द्रव्योंसे सुशोभित हैं ॥१३॥ यद्यपि ये प्रतिमाएं अपने-अपने स्थानपर स्थित हैं तथापि सामने खड़े होकर देखनेवालोंको ऐसी दिखाई देती हैं मानो उन स्थानोंसे निकलकर आकाशमें ही विद्यमान हों ॥१३९।।
वहाँ चारों दिशाओं में देदीप्यमान तीन पीठ होते हैं उनमें पहले पीठपर चार हजार धर्मचक्र सुशोभित हैं ।।१४०|| दूसरी पीठपर मयूर और हंसोंकी ध्वजाओंसे भिन्न आठ प्रकारको महाध्वजारों दिशाओंको सुशोभित करती हुई विद्यमान हैं ।।१४१॥ तीसरी पीठपर श्रीमण्डपको सुशोभित करनेवाला अनेक मंगलद्रव्योंसे सहित गन्धकुटी नामका प्रासाद है उसमें भगवान्का सिंहासन रहता है ।।१४२।। उस सिंहासनपर विराजमान जिनेन्द्रदेवको सन्तुष्ट चित्तके धारक मनुष्य, सुर और असुरोंके झुण्डके झुण्ड मुकुटोंपर हाथ लगाकर स्तुति करते थे ।।१४३।। वे कह रहे थे कि हे महादेव ! आपकी जय हो। हे महेश्वर ! आप जयवन्त हों, हे महाबाहो ! आप विजयी हों, हे विशालनेत्र ! जयवन्त हों ॥१४४॥ इत्यादि करोड़ों स्तवनोंके बाद वरदत्तने तत्काल दीक्षा ले लो और गणोंके स्वामी प्रथम गणधर हो गये ॥१४५॥ उसी समय छह हजार रानियोंके साथ दीक्षा लेकर राजीमती आयिकाओंके समूहकी प्रधान बन गयो ॥१४६।। मुनिसमूहको आदि लेकर बारह गण भगवान् नेमिनाथको प्रणाम कर यथास्थान उनकी उपासना करते थे ॥१४७॥
मार्गके चारों ओर घेरकर बारह सभाएं उनकी पूर्व, दक्षिण आदि दिशाओंमें मुनिसमूहको आदि लेकर बारह गण विराजमान थे ॥१४८॥ वहाँ उत्कृष्ट वरको प्रदान करनेवाले भगवान् नेमिनाथके आगे वरदत्तको आदि लेकर अनेक मुनि सुशोभित थे जो धर्मके स्वरूपको प्रत्यक्ष करनेवाले एवं अत्यन्त निर्मल धर्मेश्वरके अंशके समान जान पड़ते थे ॥१४९॥ उनके आगे कल्पवासिनो देवियां सुशोभित थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो भगवान्की बाह्याभ्यन्तर विभूतियाँ ही उनका रूप रखकर स्थित हों ॥१५०॥ उनके बाद तीसरी सभामें लज्जा, दया, क्षमा, शान्ति आदि गुणरूपी सम्पत्तिसे सुशोभित आर्यिकाएं विराजमान थीं जो समीचीन धर्मकी पुत्रियोंके समान
१. तत्रस्थापि । २. दिग्भागा म.। ३. मण्डपोहासी म., ङ । ४. श्रुति म.। ५. भासते म.। ६. व्यक्तं तन्मूर्तयो यथा म., ड. । ७. तद्धर्म ख. ।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः
'योतिर्मण्डलवासिन्यो मर्तृज्योतिष्टमप्रभाः । अभिनन्द्य तदुद्भूतविभाभासश्चकासति ।।१५२।। वनश्रयो यथा मूर्ता वानव्यन्तरयोषितः । वन्यपुष्पलतानम्रा नमन्ति वरदक्रमम् ॥ १५३ ॥ भवनालयवासिन्यो भगवत्यतिभक्तयः । स्वर्भूर्भुवो यथा लक्ष्म्यः समया तं समासते ।।१५४।। भावनाः पापबन्धस्य छेत्तारं निकषा सते । बिभ्यतः स्वभवाद्भास्वत्कणारत्न विमारुणाः ||१५५ || व्यन्तराः सुन्दराकारा मन्दरस्येव कल्पकाः । भवन्ति मर्तुराकल्पाः सुमनोमाळमारिणः || १५६ || परमेश्वरभास्वप्रमा भास्करादयः । ज्योतिर्गणाः प्रमावृद्धि प्रार्थयन्ते तमानताः ।। १५७॥ सौन्दर्येशाः सुखात्मानो मागा भर्तुरिवोद्यताः । स्वर्भुवः प्रतिभासन्ते सहस्राक्षपुरस्सराः ।। १५८।। दानपूजा दिवमांशा देहवन्तो यथामलाः । वरदं वरिवस्यन्ति नृपाश्चक्रधरादयः ।। १५९ ।। अविद्यावैरमायादिदोषापायाप्ततद्गुणाः । हरीभाया विमान्त्यन्ये तिर्यचस्तादृशो यथा ॥ १६०॥ एवं द्वादशवर्गीयैर्द्वादशाङ्गगुणोपमैः । परीत्योक्तक्रमादीशो गणैरेभिरुपासितः ||१६|| पारमेष्ट्यमनन्यस्थं ख्यापयनासनश्रिया । चामरैरमरोद्भूतैः क्रमस्यैः सुमहेशिताम् ।। १६२ ।।
जान पड़ती थीं ॥ १५१ ॥ चौथी सभा में प्रशंसनीय एवं अपने-आपसे निकलनेवाली प्रभासे सुशोभित ज्योतिषी देवोंकी स्त्रियाँ बैठी थीं जो भगवान्को कान्तिके समान जान पड़ती थीं ॥ १५२॥ पाँचवीं सभा में मूर्तिधारिणी वनकी लक्ष्मीके समान सुन्दर वनवासी व्यन्तर देवोंकी स्त्रियां स्थित थीं तथा वे वन पुष्पलताओंके समान नम्रीभूत हो भगवान्के चरणोंको नमस्कार कर रही थीं ।। १५३ || छठी सभा में भगवान्की अत्यधिक भक्तिसे युक्त भवनवासी देवोंकी अंगनाएँ स्थित थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्वर्ग, भूमि और अधोलोककी लक्ष्मियाँ ही भगवान् के समीप आकर बैठी हैं ।। १५४ || सातवीं सभा में फणाके समान देदीप्यमान रत्नोंकी कान्तिसे लाल-लाल दिखनेवाले भवनवासी देव, अपने संसारसे भयभीत होते हुए, पापबन्धका छेदन करनेवाले भगवान् के समीप विद्यमान थे ।। १५५ ॥ आठवीं सभा में सुन्दर आकारके धारक व्यन्तर देव बैठे थे |
भगवान् के आभूषणस्वरूप थे, तथा फूलों की मालाओंको धारण करनेवाले मन्दरगिरिके समान जान पड़ते थे || १५६ ॥ नवमी सभा में, जिनकी अपनी प्रभा भगवान्की प्रभामें निमग्न हो गयी थी ऐसे सूर्य आदि ज्योतिषी देवोंके समूह नम्रीभूत हो भगवान् से अपनी प्रभावृद्धिकी प्रार्थना कर रहे थे || १५७॥ दसवीं सभा में सौन्दयंके स्वामी, सुखी एवं ऊपर उठे हुए भगवान् के अंशोंके समान इन्द्र आदि कल्पवासी देव सुशोभित हो रहे थे || १५८ || ग्यारहवीं सभा में चक्रवर्ती आदि राजा भगवान् की उपासना करते थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शरीरधारी दान-पूजा आदि धर्मोके निर्मल अंश ही हो ॥ १५९ ॥ तथा बारहवीं सभामें, जिन्हें अविद्या, वैर, माया आदि दोषोंके नष्ट हो जानेसे विद्या, क्षमा आदि तत्तद्गुण प्राप्त हुए थे ऐसे सिंह, हाथी आदि तिथंच विद्यमान थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उन्हींके समान दूसरे तियंच हों । भावार्थतिच अपनी स्वाभाविक कुटिलताको छोड़कर तदाकार होनेपर भी ऐसे लगते थे जैसे ये वे न हों दूसरे ही हों ॥ १६० ॥ इस प्रकार द्वादशांगके गुणोंके समान बारह सभाओं - सम्बन्धी बारह गण, प्रदक्षिणा रूपसे भगवान्की उपासना करते थे || १६१ ॥
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भगवान् नेमिनाथ, अपने सिंहासनकी शोभासे दूसरोंमें न पाये जानेवाले परमेष्ठीपनाको ख्यापित कर रहे थे । क्रमपूर्वक ढोरे जानेपर देवोपनीत चमरोंसे महेशिताको, तीन चन्द्रमाके
१. ज्योतिर्मण्डल- क. । २. भगवत्पतिभक्तयः म., भगवत्यविभक्तयः ङ. । ३. समयान्तं म, तं भगवतः समय समीपे 'अभितः परितः समयानिकषाहाप्रतियोगेऽपि' इति द्वितीया । ४. मन्दरेस्येव म. । ५. सौन्दर्येण म. । ६. स्वर्गोत्पन्नाः कल्पवासिदेवाः ।
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हरिवंशपुराणे
त्रिलोकाधीशितां छत्रत्रयेणेन्दुनयविषा। मामण्डलेन भाधिक्यं भवान्तरतमश्छिदा ॥१६३।। सर्व कुसुमेनान्यसर्वशोकापहारिताम् । अशोकेनामिपूज्यत्वं' सुमनोवृष्टिपूजया ।।१६४॥ सार्वस्वममयाधानघोषणेन जयश्रियाम् । नन्दिमङ्गलघोषेण साधुचित्ताभिनन्दिनम् ॥१६५॥ भास्माधीनाः प्रतीहाराः प्रातिहार्यगुणोद्भवैः । मूषितोऽष्टमहोदनप्रातिहायॆमहेश्वरः ।।१६६।। लोकानां भूतये भूतिमात्मीयां सकलां दधत् । सर्वलोकातिवर्तिन्या मासास्थामधिष्ठितः ॥१६७॥ अयमास्ते समप्रारमा स्वार्थकामाः ससंभ्रमाः । एतैत नमतेशानमित्याह्नानं सघोषणम् ॥१६८॥ वर्तयन्ति सरास्तस्मिन्मण्डले तदन दूतम् । समन्तात्तत्समायान्ति भूतिमिर्नुसुरासुराः ॥१६॥ तददष्टिगोचरे मडक्ष वाहनेभ्योऽवतीर्यते । मानाङ्गणमथास्थाय पूर्व साञ्जलिमौलिमिः ॥१७॥ तत्र बाह्ये परित्यज्य वाहनादिपरिच्छदम् । विशिष्टककुदैर्युक्ता मानपीठ परीत्य ते ॥१७१॥ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा मानस्तम्मनमादितः । उत्तमाः प्रविशत्यन्तरुत्तमाहितभक्तयः ॥१७२।। पापशीला विकर्माणाः शूद्राः पाखण्डपण्डकाः । विकलाङ्गेन्द्रियोभ्रान्ताः परियन्ति बहिस्ततः ।।१०३॥ छत्रचामरभृङ्गाराद्यवहाय जयाजिरे । आप्तरनुगताः कृत्वा विशन्त्यञ्जलिमीश्वराः ॥१७॥
समान कान्तिको धारण करनेवाले छत्रत्रयसे तीन लोकके स्वामित्वको, संसारके आन्तरिक अन्धकारको नष्ट करनेवाले भामण्डलसे कान्तिकी अधिकताको, सब ऋतुओंके फूलोंसे युक्त अशोक वृक्षके द्वारा अन्य समस्त जीवोंके शोक दूर करनेकी सामथ्यंको, पुष्पवृष्टिरूप पूजाके द्वारा पूज्यताको, अभयोत्पत्तिकी घोषणा करनेवाली दिव्यध्वनिसे जयलक्ष्मीको सर्वहितकारिताको और आनन्ददायी मंगलमय वादित्रोंके नादसे साधुजनोंके चित्तको आनन्दित करने की सामर्थ्यको प्रकट कर रहे थे ॥१६२-१६५॥ जो आत्माके आधीन हो उन्हें प्रतीहार कहते हैं। इस प्रकार आत्माधीन गुणोंसे उत्पन्न अष्ट महाप्रातिहार्योंसे भगवान् नेमिनाथ सुशोभित हो रहे थे॥१६६॥ आत्मोत्थ समस्त विभूतिको धारण करनेवाले भगवान् सर्वलोकातिवर्ती दीप्तिसे लोगोंका कल्याण करनेके लिए समवसरणमें विराजमान हुए ॥१६७॥ उस समय देव लोग घोषणाके साथ यह कहकर जीवों
न कर रहे थे कि हे आत्महितके इच्छुक भव्यजनो! सम्पूर्ण विकसित आत्माको धारण करनेवाले केवली भगवान् यह विराजमान हैं, शीघ्रतासे यहां आओ-आओ और इन्हें नमस्कार करो ॥१६८।। इस प्रकार जब देवोंने आह्वान किया तब शीघ्र ही मनुष्य, देव और असुर वैभवके साथ सब ओरसे समवसरणमें आने लगे ॥१६९।।
समवसरणके दृष्टिगोचर होते ही वे मानांगणमें खड़े हो सबसे पहले हाथ जोड़ मस्तकसे लगाकर वाहनोंसे नीचे उतरते हैं ।।१७०॥ तदनन्तर वाहन आदि परिग्रहको बाहर छोड़कर विशिष्ट राज्यचिह्नोंसे युक्त हो मानपीठकी प्रदक्षिणा देते हैं ॥१७१|| प्रदक्षिणाके बाद सबसे पहले मानस्तम्भको नमस्कार करते हैं तदनन्तर हृदयमें उत्तम भक्तिको धारण करते हुए उत्तम पुरुष भीतर प्रवेश करते हैं ॥१७२॥ और पापी, विरुद्ध कार्य करनेवाले, शूद्र, पाखण्डी, नपुंसक, विकलांग, विकलेन्द्रिय तथा भ्रान्त चित्तके धारक मनुष्य बाहर ही प्रदक्षिणा देते रहते हैं ।।१७३।। सुरेन्द्र, असुरेन्द्र तथा नरेन्द्र आदि उत्तम पुरुष छत्र, चमर और शृंगार आदिको जयांगणमें छोड़
१. पुज्यन्ते म.। २. अधिष्ठितं म.। ३. सार्थकामाः म.। ४. विशिष्टकाकूदै-म. 'स्त्री ककुत ककुदोऽप्यस्त्रो वृषाङ्गे राज्यलक्ष्मणि' इति विश्वलोचनः । ५. मानस्तम्भमनादितः म.। ६. नपुंसकाः (ङ. टि.) पाण्डवाः म., ग.। ७ मिच्छाइट्टि अभव्वा तेसुमसण्णी ण होंति कहआई। तह य अणज्झवसाया संदिद्धा विविहविवरीदा ॥९३२॥ त्रैलोक्यप्रज्ञप्तौ चतुर्थ अधिकारः। मिथ्यादृष्टिरभन्योऽसंज्ञी जीवोऽत्र विद्यते नैव । यश्चानध्यवसायो यः सन्दिग्धो विपर्यस्तः ॥५८॥-समवसरणस्तोत्र।
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सप्तपञ्चाशः सर्गः
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प्रविश्य विधिवद्भक्त्या प्रणम्य मणिमौलयः । चक्रपीठं समारुह्य परियन्ति त्रिरीश्वरम् ।।१७५।। पूजयन्तो यथाकामं स्वशक्तिविभवार्चनैः । सुरासुरनरेन्द्राद्याः नामादेशं नमन्ति च ।।१७६।। ततोऽवतीर्य सोपानैः स्वैः स्वैः स्वाञ्जलिमौलयः । रोमाञ्चव्यक्तहर्षास्ते यथास्थानं समासते ।।१७७।। अभ्यक विकसद्भाति कमलाकरमण्डलम् । यथा तथा जिनाभ्यक तद्गणाम्बुजमण्डलम् ।।१७॥ सा सेना सर्वतः सर्वा प्रविशन्ती तदास्पदम् । नालं पूरयितुं पूर्णा नदीव वरुणास्पदम् ॥३७९।। नियंदायद्विशत्पश्यत्परीयत्प्रीणदानमत् । स्तुवदीशं सतां वृन्दं सततं तत्र वर्तते ॥१८॥ न मोहो न मय द्वेषौ नोत्कण्ठारतिमत्सराः । अस्यां मद्रप्रभावेण जम्माजम्भा न संसदि ॥१८१॥ निद्रातन्द्रापरिक्लेशक्षुत्पिपासासुखानि न । नास्त्यन्यच्चाशिवं सर्वमहरेव च सर्वदा ॥१८२।।
मालिनीच्छन्दः समवसरणभूमौ बाह्यभूत्येकभूमौ स्थितवति मुनिनाथेऽत्रान्तरङ्गाङ्गिपूतौ । पिबति तृषितनेत्रदिशानां गणानां समितिरमृतरूपं जैनरूपाम्बुराशिम् ॥१८३।। इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती समवसरणवर्णनो नाम
सप्तपञ्चाशः सर्गः ॥५७॥
आप्तजनोंके साथ हाथ जोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं ।।१७४|| मणिमय मुकुटोंको धारण करनेवाले वे सब, भीतर प्रवेश कर विधिपूर्वक प्रणाम करते हैं और चक्रपीठपर आरूढ़ होकर भगवान् जिनेन्द्रको तीन बार प्रदक्षिणा देते हैं ॥१७५।। इच्छानुसार अपनी शक्ति और विभवके अनुकूल सामग्रीसे पूजा करते हुए अपने नामका उल्लेख कर नमस्कार करते हैं ॥१७६।। तदनन्तर जिन्होंने अपनी अंजलियाँ मस्तकसे लगा रखी हैं और रोमांचोंसे जिनका हर्ष प्रकट हो रहा है ऐसे वे सब अपनी-अपनी सीढ़ियोंसे नीचे उतरकर सभाओंमें यथास्थान बैठते हैं ।।१७७|| जिस प्रकार सूर्यके सम्मुख खिला हुआ कमलोंका समूह सुशोभित होता है उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवानरूपी सूर्यके सम्मुख वह गणरूपी-द्वादश सभारूपी कमलोंका समूह सुशोभित हो रहा था ।।१७८।। जिस प्रकार नदी समुद्रको भरनेमें समर्थ नहीं है उसी प्रकार सब ओरसे समवसरणमें प्रवेश करती हुई वह सेना उसे भरने में समर्थ नहीं थी ॥१७९|| वहां बाहर निकलता, आता, प्रवेश करता, दर्शन करता, प्रदक्षिणा देता, सन्तुष्ट होता. भगवानको प्रणाम करता और उनकी स्तुति करता हआ सज्जनोंका समूह सदा विद्यमान रहता है ॥१८०॥ समवसरणके भीतर भगवान्के प्रभावसे न मोह रहता है, न राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, न उत्कण्ठा, रति एवं मात्सर्यभाव रहते हैं, न अंगड़ाई और जमुहाई आती है, न नींद आती है, न तन्द्रा सताती है, न क्लेश होता है, न भूख लगती है, न प्यासका दुःख होता है और न सदा समस्त दिन कभी अन्य समस्त प्रकारका अमंगल ही होता है ।।१८१-१८२।। बाह्य विभूतिके अद्वितीय स्थान समवसरण भूमिमें जब अन्तरंग आत्माकी पवित्रतासे युक्त भगवान् विराजमान होते हैं तब बारह सभाओंका समूह अपने तृषित नेत्रोंसे उनके अमृतरूप सौन्दर्य सागरका पान करता है ॥१८३।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें
समवशरणका वर्णन करनेवाला सत्तावनवाँ सर्ग समाप्त हा ॥५७।।
१. तद्गुणाम्बुज-म. । २. नास्त्यम्य शिवं म., नास्त्यन्यथा क.। ३. आतंकरोगमरणप्पुत्तीओ वेरकामबाधाओ। तण्हाक्षुहपीडाओ जिणमाहप्पेण ण हवंति ॥१३३॥ *.प्र.। ४. गादिप्ती म. ।
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अष्टपश्चाशः सर्गः एवं नित्योत्सवानन्तकल्याणकास्पदे पदे । लोके धर्म प्रशुश्रषौ कृताञ्जलिपुटे स्थिते ॥१॥ वदतां वरमानम्य वरदत्तो गणाग्रणीः । हितं पप्रच्छ भव्यानां समस्तानां जिनेश्वरम् ॥२॥ तत्प्रश्नानन्तरं धातुश्चतुर्मुखविनिर्गता। चतुर्मुखफला सार्था चतुर्वर्णाश्रमाश्रया ॥३॥ चतुरस्रानुयोगानां चतुर्णामेकमातृका । चतुर्विधकथावृत्तिश्चतुर्गतिनिवारिणी ॥४॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताष्टनवास्पदा । अपर्यायापि सत्तेवानन्तपर्यायभाविनी ।।५।। अहितं शातयन्ती सा रोचयन्ती हितं सदा । स्थापयन्ती च तत्पात्रे धारयन्ती यथायथम् ॥६॥ वारयन्त्यशुभादाशु पूरयन्ती शुभं परम् । श्लथयन्त्यर्जितं कर्म ग्लपयन्ती प्रभावतः ॥७॥ समन्ततः शिवस्थानाद्योजनाधिकमण्डले । भत्रैवात्रैव वृत्तेति तत्र तत्रास्ति तादशी ॥४॥
इस प्रकार नित्य उत्सव और अनन्त कल्याणोंके एक स्थानस्वरूप समवशरणमें जब धर्म सुननेके इच्छुक जीव हाथ जोड़कर बैठ गये तब वरदत्त गणधरने वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्री नेमि जिनेन्द्रको नमस्कार कर समस्त भव्यजीवोंका हित पूछा। भावार्थ-हे भगवन् ! समस्त जीवोंके लिए हितरूप क्या है, ऐसा प्रश्न किया ॥१-२॥ गणधरके उक्त प्रश्नके अनन्तर भगवान्की दिव्यध्वनि खिरने लगी। भगवान्की वह दिव्यध्वनि चारों दिशाओंमें दिखनेवाले चार मुखोंसे निकलती
र पुरुषार्थरूप चार फको देनेवाली थी, सार्थक थी, चार वर्ण और आश्रमोंको आश्रय देनेवाली थी, चारों ओर सुनाई पड़ती थी, चार अनुयोगोंकी एक माता थी, आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजिनी और निर्वेदिनी इन चार कथाओंका वर्णन करनेवाली थी, चार गतियोंका निवारण करनेवाली थी। एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ और नौका स्थान थी, अर्थात् सामान्य रूपसे एक जीवका वर्णन करनेवाली होनेसे एकका स्थान थी, श्रावक मुनिके भेदसे दो प्रकारके धर्मका अथवा चेतन-अचेतन और मूर्तिक-अमूर्तिकके भेदसे दो द्रव्योंका निरूपक होनेसे दोका स्थान थी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्ररूपी रत्नत्रय अथवा चेतन, अचेतन और चेतनाचेतन द्रव्योंका वर्णन करनेवाली होनेसे तीनका स्थान थी, चार गति, चार कषाय अथवा मिथ्यात्वादि चार प्रत्ययोंका निरूपण करनेवाली होनेसे चारका स्थान थी, पांच अस्तिकाय अथवा प्रमाद-सहित मिथ्यात्वादि पांच प्रत्ययोंका वर्णन करनेवाली होनेसे पांचका स्थान थी, छह द्रव्योंका वर्णन करनेवाली होनेसे छहका स्थान थी, सात तत्त्वोंकी निरूपक होनेसे सातका स्थान थी, आठ कर्मोंका निरूपण करनेवाली होनेसे आठका स्थान थी और सात तत्त्व तथा पुण्य-पाप इन नो पदार्थोंका वर्णन करनेवाली होनेसे नौका स्थान थी। पर्याय-रहित होनेपर भी सत्ताके समान अनन्त पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली थी, अहितको नष्ट करनेवाली थी, सदा हितकी रुचि उत्पन्न करनेवाली थी, हितका स्थापन करनेवाली थी, पात्रमें यथायोग्य हितको अपने प्रभावसे धारण करनेवाली थी, अशुभसे शीघ्र हटानेवाली थी, उत्कृष्ट शुभको पूर्ण करनेवाली थी, अजित कर्मको शिथिल करनेवाली अथवा बिलकुल ही नष्ट करनेवाली थी। जहां भगवान् विराजमान थे वहांसे चारों ओर एक योजनके घेरामें इतनी स्पष्ट सुनाई पड़ती थी जैसे यहीं उत्पन्न हो रही हो। वह दिव्य ध्वनि जैसी उत्पत्तिस्थानमें सुनाई पड़ती थी वैसी ही एक योजनके घेरामें सर्वत्र सुनाई पड़ती थी-उसमें हीनाधिकता नहीं मालूम होती थी, मधुर १. प्रकर्षेण श्रोतुमिच्छौ। २. -मानत्य म., क., ग.। ३. विनिर्गते म.। ४. संसारः संसारकारणमहितम् (क. टि.)। ५. मोक्षो मोक्षकारणं हितम् ज. । ६. तादृशं क., ग., म ।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
मधुरस्निग्धगम्भीरदिव्योदात्तस्फुटाक्षरम् । वर्ततेऽनन्यवृत्तैका तत्र साध्वी सरस्वती ||९|| भावाभावद्वयाद्वैतभावबद्धा जगत्स्थितिः । भहेतुर्दृश्यते तस्यामनाथा पारिणामिकी ||१०|| अस्त्यारमा परलोकोऽस्ति धर्माधर्मौ स्त एव च । तयोः कर्तास्ति भोक्तास्ति चास्ति नास्तीति यत्पदम् ॥ ११॥ स्वयं कर्म करोत्यामा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्राम्यति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ||१२|| अविद्यारागसंक्लिष्टो बम्भ्रमीति' भवार्णवे । विद्यावैराग्यशुद्धः सन् सिद्धयत्यविकल स्थितिः ॥१३॥ इत्याध्यात्म विशेषस्य दीपिका दीपिकेव सा । रूपादेः शमयत्याशु तमिस्रं तत्र सन्ततम् ||१४|| अनानात्मापि तद्वृत्तं नाना पात्रगुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नाना दिव्यमम्बु यथावनी ||१५|| सावधानसभान्तस्थं ध्वान्तं सावरणं ध्वनिः । जैनोत्य कमिनदिव्यो विश्वात्मेत्यादिभासनः ।। १६ ।। भवपद्वतिपान्थस्य भव्यताशुद्वियोगिनः । देहिनः पुरुषार्थोऽत्र प्रेक्षितो मोक्षलक्षणः ॥१७॥ उपायस्तस्य मोक्षस्य ध्यानाध्यानैकहेतुतः । प्राक्सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रितयात्मकः ||८|| सम्यग्दर्शन मत्रेष्टं तत्त्वश्रद्धानमुज्ज्वलम् । व्यपोढसंशयाद्यन्तैर्निश्शेषमलसङ्करम् ||१९|| तच्च दर्शन मोहान्धक्षयोपशममिश्रजम् । क्षायिकाद्यं त्रिधा द्वेधा निसर्गाधिगमत्वतः ॥ २०॥ स्निग्ध, गम्भीर, दिव्य, उदात्त और स्पष्ट अक्षरोंसे युक्त थी, अनन्यरूप थी, एक थी और साध्वीअतिशय निर्मल थी ||३९||
६
भगवान् की उस दिव्यध्वनिमें जगत्की वह स्थिति दिख रही थी जो भाव और अभाव के अद्वैत-भाव से बंधी हुई है अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे भावरूप और पर्यायार्थिक नयसे अभावरूप है, अहेतुक है - किसी कारणसे उत्पन्न नहीं है, अनादि है और पारिणामिको है - स्वतः सिद्ध है ॥१०॥ आत्मा है, परलोक है, धर्म और अधर्मं है, यह जीव उनका कर्ता है, भोक्ता है तथा संसारके सब पदार्थं अस्तिरूप और नास्तिरूप हैं, यह कथन भी उसी दिव्यध्वनिमें दिखाई देता था || ११ || यह जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में घूमता है और स्वयं उससे मुक्त होता है ॥ १२ ॥ अविद्या तथा रागसे संक्लिष्ट होता हुआ संसार-सागरमें बार-बार भ्रमण करता है और विद्या तथा वैराग्यसे शुद्ध होता हुआ पूर्णस्वभाव में स्थित हो सिद्ध हो जाता है ||१३|| इस अध्यात्म-विशेषको प्रकट करनेके लिए वह दीपिकाके समान थी तथा रूप आदि गुणोंके विषयमें जो अज्ञानान्धकार विस्तृत था उसे शीघ्र ही दूर कर रही थी ||१४|| जिस प्रकार आकाशसे बरसा पानी एकरूप होता है परन्तु पृथिवीपर पड़ते ही वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान्की वह वाणी यद्यपि एकरूप थी तथापि सभा में पात्रके गुणों के अनुसार वह नानारूप दिखाई दे रही थीं ॥ १५ ॥ संसारके जीवादि समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली भगवान्को वह दिव्यध्वनि सूर्यको पराजित करनेवाली थी तथा सावधान होकर बैठी हुई सभा अन्तःकरण में स्थित आवरण- सहित अज्ञानान्धकारको खण्ड-खण्ड कर रही थी ॥ १६ ॥ भगवान् कह रहे थे कि संसारके मार्गका जो पथिक भव्यतारूपी शुद्धिसे युक्त होता है उसीके मोक्ष पुरुषार्थ देखा गया है । भावार्थ - मोक्षकी प्राप्ति भव्य जीवको ही होती है ॥ १७॥ उस मोक्षका उपाय ध्यान और अध्ययन रूप एक हेतुसे प्राप्त होता है तथा सबसे पूर्वं वह, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनके समुदायरूप है || १८ || उनमें जीवादि सात तत्त्वोंका, निर्मल तथा शंका आदि समस्त अन्तरंग मलोंके सम्बन्धसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है ।। १९ ।। वह सम्यग्दर्शन, दर्शनमोहरूपी अन्धकारके क्षय, उपशम तथा क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, क्षायिक आदिके भेदसे तीन प्रकारका है और निसगंज तथा अधिगमजके भेद
६६१
१. द्वैते भावबद्धा म. । २. अतिशयेन भूयो भूयो वा भ्रमतीति ( क. टि. ) । ३. भास्वन: म । ४. हेतुनः म. । ५. संशयाद्यन्तनिः शेष-म । ६. क्षायिकत्वं म. ।
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हरिवंशपुराणे जीवाजीवास्रवा बन्धसंवरौ निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि श्रद्धयानि स्वलक्षणः ॥२१॥ जीवस्य लक्षणं लक्ष्यमुपयोगोऽष्टधा स च । मतिश्रुतावधिज्ञानद्विपर्यय पूर्वकः ॥२२॥ इच्छा द्वेषः प्रयत्नश्च सुखं दुःखं चिदात्मकम् । आत्मनो लिङ्गमेतेन लिङ्ग यते चेतनो यतः ॥२३।। न पृथिव्यादिभूतानां जीवः संस्थानमात्रकः । तदवस्थास्य कायस्य चैतन्यव्यभिचारिणः ॥२४॥ पिष्टकिण्वोदकाद्यषु मद्याङ्गषु पृथग्भवेत् । शक्तः लेशो मदं कर्ता कायाङ्गेषु तु नास्ति सः ॥२५ । चैतन्योत्पत्यभिव्यक्तो चतु तेभ्य इच्छताम् । तेलस्य सिकतादिभ्यो व्यक्त्युत्पत्ती न किं मते ॥२६॥ अनादिनिधनो जन्तुरेति गत्यन्तरादिह । याति गत्यन्तरं चातो निजकर्मवशो भवे ।२७।। एतावानेव पुरुषो योवान्प्रत्यक्षगोचरः । इत्यादिरपसंवादः स्वपराहितवादिनाम् ॥२८॥ न संविझात्रमात्मा स्यासंवित्तो क्षणिकात्मनि । अनुसन्धानधीलोपं व्यवहारविलोपतः ॥२९॥ द्रव्यभूतः स्वयं जीवो ज्ञाता द्रष्टास्ति कारकः । मोक्ता मोक्ता व्ययोत्पादध्रौव्यवान् गुणवान् सदा ॥३०॥ असंख्यातप्रदेशात्मा ससंहारविसर्पणः । स्वशरीरप्रमाणस्तु मुक्तवर्णादिविंशतिः ॥३॥
से दो प्रकारका है ॥२०॥ जीव, अजोव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं; इनका अपने-अपने लक्षणोंसे श्रद्धान करना चाहिए ।।२२। जीवका लेक्षण उपयोग है और वह उपयोग आठ प्रकारका है। उपयोगके आठ भेदों में मति, श्रत और अवधि ये तीन, सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान-दोनों रूप होते हैं ।।२२।। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और दुःख ये सब चिदात्मक हैं ये ही जीवके लक्षण है, क्योंकि इनसे ही चैतन्यरूप जीवकी पहचान होती है ।।२३।। पृथिवी आदि भूतोंकी आकृति मात्रको जीव नहीं कहते; क्योंकि वह तो इसके शरीरको अवस्था है। शरीरका चैतन्यके साथ अनेकान्त है अर्थात् शरीर यही रहा आता है और चैतन्य दूर हो जाता है ॥२४|| आटा, किण्व ( मदिराका बीज ) तथा पानी आदि मदिराके अंगोंमें मद उत्पन्न करने वाली शक्तिका अंश पृथक् होता है, परन्तु शरीरके अवयवोंमें चैतन्य शक्ति पृथक् नहीं होती। भावार्थ-आटा आदि मदिराके कारणोंको पृथक्-पृथक् कर देनेपर भी उनमें जिस प्रकार मादक शक्तिका कुछ अंश बना रहता है उस प्रकार शरीर के अंगोंको पृथक्-पृथक् करनेपर उनमें चैतन्य शक्तिका कुछ अंश नहीं रहता इससे सिद्ध होता है कि चैतन्य शरीरके अंगोंका धर्म नहीं है, किन्तु उनसे पृथक् द्रव्य है ॥२५।। जो पृथिवी आदि चार भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति मानते हैं उनके मतमें बालू आदिसे तेलको उत्पत्ति अश्वा अभिव्यक्ति क्यों नहीं मान ली जाती है ? भावार्थ-जिस प्रकार बालू आदिसे तेलको उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं ह सकती उसो प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं हो सकती ॥२६॥ यह जीव इस संसारमें अनादि निधन है, निजकर्मसे परवश हुआ यह यहाँ दूसरी मतिसे आता है और कर्मके परवश हुआ दूसरी गतिको जाता है ।।२७॥ जितना यह प्रत्यक्ष गोचर दिखाई देता है इतना ही नीव है - अतोत अनागत कालमें इसकी सन्तति नहीं चलती इत्यादि कथन निज-परका अहित करनेवाले जीवोंका ही विरुद्ध कथन है ।।२८॥ क्षण-क्षणमें जो संविद् ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है उतना ही आत्मा है ऐसा कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि संवित्तिको क्षणिक मान लेनेपर आगे-पीछेको कड़ो जोड़नेवाली बुद्धिका लोप हो जायेगा और उसके लोप होनेपर लेने-देने तथा कर्ता-कर्म आदि व्यवहारका हो लोप हो जायेगा ।।२९। इससे सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं द्रव्यरूप है, ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, कर्मोका नाश करनेवाला है, उत्पाद-व्ययरूप है, सदा गुणोंसे सहित है, असंख्यात प्रदेशी है, संकोच विस्तार
१. भ्रान्तो म. । २. भवेत् ङ., म.। ३. सत्यभूतः म. ।
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अष्टपश्चाशः सर्ग:
श्यामाककणमात्रो न न चाकाशाणुमात्रकः । नाङ्गठपर्वमानो वा न पञ्चशतयोजनः ॥३२॥ देहे देहे 'सवृत्तित्वे प्रदेशः सकलैः सह । न स्वार्थ प्रतिपद्येत स्पर्शनं चक्षुरादिवत् ॥३३॥ परिमाणमहत्त्वेऽपि योजनेषु बहुष्वपि । 'स्पर्शनं न समन्तः स्याञ्चक्षुषेवार्थदर्शनम् ॥३॥ तथा सति विरोधः स्यादृष्टेष्टाभ्यां पुमानयम् । देहमानोऽधिगन्तव्यः सर्वस्यानुमवात्तथा ॥३५॥ स गतीन्द्रियषटकाययोगवेदकषायतः । ज्ञानसंयमसम्यक्त्वलेश्यादर्शनसंशिभिः ॥३६॥ भव्यत्वाहारपर्यन्तमार्गणाभिः स मृग्यते । चतुर्दशभिराख्यातो गुणस्थानैश्च चेतनः ॥३॥ प्रमाणनयनिक्षेपसत्संख्यादिकिमादिमिः । संसारी प्रतिपत्तव्यो मुक्तोऽपि निजसद्गुणैः ॥३८॥ नयोऽनेकात्मनि द्रव्ये नियतैकारमसंग्रहः । द्रव्यार्थिको यथार्थोऽन्यः पर्यायाथिक एव च ॥३९॥ 'ज्ञेयो मूलन यावेतावन्योन्यापेक्षिणौ मतौ । सम्यग्दृष्टास्तयो दाः संगता नैगमादयः ॥४०॥ "नैगमः संग्रहश्चात्र व्यवहारर्जुसूत्रको । शब्दः सममिरूढाख्य एवंभूतश्च ते नयाः ॥४१॥
रूप है, अपने शरीर प्रमाण है और वर्णादि बीस गुणोंसे रहित है ॥३०-३१॥ न यह आत्मा सावांके कणके बराबर है, न आकाशके बराबर है, न परमाणुके बराबर है, न अंगूठाके पोराके बराबर है और न पांच सौ योजन प्रमाण है ॥३२॥ यदि आत्माको सावांके कण, अंगुष्ठ-पर्व अथवा परमाणुके समान छोटा माना जायेगा तो आत्मा प्रत्येक शरीरमें उसके खण्ड-खण्ड रूप प्रदेशोंके साथ ही रह सकेगा, समस्त प्रदेशोंके साथ नहीं और इस दशामें जहां आत्मा न रहेगा वहांकी स्पर्शन इन्द्रिय अपना कार्य नहीं कर सकेगी। जिस प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियां शरीरके किसी निश्चित स्थानमें ही कार्य कर सकती हैं उसी प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय भी जहां आत्मा होगा वहीं कार्य कर सकेगी सर्वत्र नहीं। इसी प्रकार आत्माका परिमाण यदि शरीरसे अधिक माना जायेगा तो अनेकों योजनों तक जहाँ कि शरीर नहीं है मात्र आत्माके प्रदेश हैं, वहाँ सब ओर क्या पदार्थका स्पर्शन होने लगेगा? और इस दशामें जिस प्रकार चक्षुके द्वारा योजनोंकी दूरी तक पदार्थोंका अवलोकन होता है उसी प्रकार योजनोंकी दूरी तक पदार्थका स्पर्शन भी होने लगेगा और ऐसा माननेपर प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनोंसे विरोध आता है इसलिए शरीरके प्रमाण ही आत्माको मानना चाहिए। सबका अनुभव भी इसी प्रकारका है॥३३-३५॥ वह जीव गति, इन्द्रिय, छह काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओंसे खोजा जाता है तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंसे उसका कथन किया गया है ॥३६-३७॥ प्रमाण, नय, निक्षेप, सत्, संख्या और निर्देश आदिसे संसारी जीवका तथा अनन्त ज्ञान आदि आत्मगुणोंसे मुक्त जीवका निश्चय करना चाहिए ॥३८॥ वस्तुके अनेक स्वरूप हैं उनमें से किसी एक निश्चित स्वरूपको ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय कहलाता है। इसके द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो भेद हैं। इनमें द्रव्यार्थिक नय यथार्थ है और पर्यायाथिक नय अयथार्थ है ॥३९।। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये ही दो मूल नय हैं तथा दोनों ही परस्पर सापेक्ष माने गये हैं। अच्छी तरह देखे गये नेगम, संग्रह आदि नय इन्हीं दोनों नयोंके भेद हैं ॥४०॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ और
१. देहे देहसवृत्तित्वे क.। २. शकलैः ङ., ख.। ३. स्पर्शनं न तस्य स्याच्चक्ष ङ., समं तस्य चक्षुषेवार्थख., ग.। ४. राख्यातगुण-म., ङ., ग. । ५. सामान्यलक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापण-प्रवण-प्रयोगो नयः। स द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्चेति (स. स.)। ६. दो चेव मूलिमणया भणिया दवत्थपज्जयत्थगया । अण्णं असंखसंखा ते तब्भेया मुणेयव्वा ॥११॥-लघुनयचक्रसंग्रह । ७. नैगमसंग्रहव्यवहाजु सूत्रशब्दसमभिरूडैवंभूता नया:-त. सू. ।
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हरिवंशपुराणे
यो द्रव्यार्थिकस्याद्या भेदाः सामान्यगोचराः । स्युः पर्यायार्थिकस्यान्ये विशेषविषया नयाः ॥४२॥ अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । उदाहरणमस्येष्ठं प्रस्थौदनपुरस्सरम् ॥४३॥ 'आक्रान्तभेदपर्यायमेकध्यमुपनीय यत् । समस्तग्रहणं तत्स्यात्सद्द्रव्यमिति संग्रहः ॥ ४४ ॥ 'संग्रहाक्षिप्तसत्ता देवहारो विशेषतः । व्यवहारो यतः सत्तां नयत्यन्तविशेषताम् ॥४५ ॥ "वक्रं भूतं भविष्यन्तं त्यक्त्वर्जुसूत्रपातवत् । वर्तमानार्थपर्यायं सूत्रयन्नृजुसूत्रकः ॥४६॥ "लिङ्गसाधनसंख्यानका लोपग्रहसङ्करम् । यथार्थशब्दनाच्छन्दो न वष्टि ध्वनितन्त्रकः ॥४७॥
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एवंभूतये सात नय हैं ॥ ४१ ॥ इनमें प्रारम्भके तीन नय द्रव्यार्थिक नयके भेद हैं और वे सामान्यको विषय करते हैं तथा अवशिष्ट चार नय पर्यायार्थिक नयके भेद हैं और वे विशेषको विषय करते हैं ||४२ || पदार्थंके संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नय नैगम नय कहलाता है । प्रस्थ तथा ओदन आदि इसके स्पष्ट उदाहरण हैं । भावार्थ- जो नय अनिष्पन्न पदार्थके संकल्पमात्रको विषय करता है वह नैगम नय कहलाता है, जैसे कोई प्रस्थकी लकड़ी लेनेके लिए जा रहा है उससे कोई पूछता है कि कहाँ जा रहे हो, तो वह उत्तर देता है कि प्रस्थ लेने जा रहा हूँ । यद्यपि जंगलमें प्रस्थ नहीं मिलता है वहांसे लकड़ी लाकर प्रस्थ बनाया जाता है तथापि नेगम नय संकल्प मात्रका ग्राहक होनेसे ऐसा कह देता है कि प्रस्थ लेनेके लिए जा रहा हूँ । इसी प्रकार कोई ओदन - भात बनाने के लिए लकड़ी, पानी आदि सामग्री इकट्ठी कर रहा है उस समय कोई पूछता है कि क्या कर रहे हो ? तो वह उत्तर देता है कि ओदन बना रहा हूँ । यद्यपि उस समय वह ओदन नहीं बना रहा है तथापि उसका संकल्प है इसलिए नैगम नय ऐसा कह देता है कि ओदन बना रहा हूँ ||४३|| अनेक भेद और पर्यायोंसे युक्त पदार्थको एकरूपता प्राप्त कराकर समस्त पदार्थका ग्रहण करना संग्रह नय है; जैसे सत् अथवा द्रव्य । भावार्थ- संसारके पदार्थ अनेक रूप हैं उन्हें एकरूपता प्राप्त कराकर सत् शब्दसे कहना । इसी प्रकार जीव, अजीव आदि अनेक भेदोंसे युक्त पदार्थोंको 'द्रव्य' इस सामान्य शब्दसे कहना यह संग्रह नय है || ४४||
भेद करना व्यवहार नय है, तक ले जाता है । भावार्थकि वह सत्, द्रव्य और गुणके
संग्रह नयके विषयभूत सत्ता आदि पदार्थोंके विशेष रूपसे क्योंकि व्यवहार नय सत्ताके भेद करता-करता उसे अन्तिम भेद जैसे संग्रह नयने जिस सत्को ग्रहण किया था व्यवहार नय कहता है भेदसे दो प्रकारका है । अथवा संग्रह नयने जिस द्रव्यको विषय किया था व्यवहार नय कहता है कि उस द्रव्य जीव और अजीवके भेदसे दो भेद हैं। इस प्रकार यह नय पदार्थ में वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ तक भेद करना सम्भव है ||४५ ||
पदार्थकी भूत-भविष्यत् पर्यायको वक्र और वर्तमान पर्यायको ऋजु कहते हैं । जो नय पदार्थको भूत-भविष्यत्रूप वक्र पर्यायको छोड़कर सरल सूत्रपातके समान मात्र वर्तमान पर्यायको ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय कहलाता है । भावार्थ - इसके सूक्ष्म और स्थूल के भेदसे दो भेद हैं । जीवकी समय-समय में होनेवाली पर्यायको ग्रहण करना सूक्ष्म ऋजुसूत्र नयका विषय है और देव, मनुष्य आदि बहुसमयव्यापी पर्यायको ग्रहण करना स्थूल ऋजुसूत्र नयका विषय है ||४६ || यौगिक अर्थका धारक होनेसे शब्द नय, लिंग, साधन - कारक, संख्या - वचन, काल और उपग्रह
१. पढमतया दव्त्रत्थी पज्जयगाही य इयरजे भणिया । ते चदु अत्यपधाणा सपधाणा हु तिष्णियरा ॥ न च । २. अनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्र ग्राही नैगमः । ३ स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रह्णसंग्रहः । * संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । ५. ऋजु प्रगुणं सृत्रयति तन्त्रयते इति ऋजुः । ६. लिङ्गसंख्या साधनादि - व्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दकम् । ७. आकाङ्क्षति 'वष्टि भागुरिल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ' प्रयोगः । वृष्टि - क., ङ. ग. । ८. शब्दशास्त्राधीनः ।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः 'शब्दभेदेऽर्थभेदार्थी व्यक्तपर्यायशब्दकः । नयः सममिरूढोऽर्थो नानासममिरोहणात् ॥४८॥
पदके व्यभिचारको नहीं चाहता अर्थात् लिंग संख्या आदिके भेदसे होनेवाले दोषको वह सदा दूर करता है। वह व्याकरणशास्त्रके आधीन रहता है। भावार्थ-जैसे लिंगव्यभिचार-'पुष्यस्तारका नक्षत्रम्' यहाँ पुंलिंग पुष्यका, स्त्रीलिंग तारका अथवा नपुंसक लिंग नक्षत्रके साथ सम्बन्ध हो जाता है, लिंगभेद होनेपर भी विशेषण-विशेष्यभावमें अन्तर नहीं आता। साधनव्यभिचारसाधन कारकको कहते हैं, इसका उदाहरण 'सेना पर्वतमधिवसति' है। यहाँ पर्वत शब्द अधिकरणकारक है अतः उसमें सामान्य नियमके अनुसार सप्तमी विभक्ति आना चाहिए तथापि अधि उपसर्गपूर्वक वस् धातुका प्रयोग होनेसे कर्मकारकमें आनेवाली द्वितीया विभक्ति हो गयी फिर भी अर्थ अधिकरणकारकके अनुसार ही- 'सेना पर्वतपर रहती है' होता है। संख्याव्यभिचार--- संख्या वचनको कहते हैं, इसके उदाहरण हैं 'जलमापो, वर्षाः ऋतुः, आम्राः वनम्, वरणाः नगरम्' यहाँपर 'जलम्' एकवचन है फिर भी उसका पर्याय 'आपः' यह नित्य बहुवचनान्त शब्द दिया जा सकता है। 'वर्षाः' बहुवचन है और 'ऋतुः' एकवचन है फिर भी इनका विशेष्यविशेषण भाव हो सकता है। इसी प्रकार शेष उदाहरण भी समझ लेना चाहिए। कालव्यभिचार-भूत, भविष्यत् और वर्तमानके भेदसे कालके तीन भेद हैं इनमें परस्पर विरुद्ध कालोंका भी प्रयोग होता है, जैसे 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' यह उदाहरण है। यहाँ विश्वदृश्वाका अर्थ होता है 'विश्वं दृष्टवान्' इति विश्वदृश्वा-जिसने विश्वको देख लिया। परन्तु यहांपर विश्वदृश्वा इस भूतकालिक कर्मका जनिता इस भविष्यत्कालिक क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है। उपग्रहव्यभिचार-आत्मनेपद, परस्मैपद आदि पदोंको उपग्रह कहते हैं। शब्दनय परस्मैपदके स्थानपर आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थानपर परस्मैपदके प्रयोगको जो कि व्याकरणके अनुसार होता है स्वीकृत कर लेता है। जैसे तिष्ठति, संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, रमते, विरमति, उपरमति आदि । यहाँ 'तिष्ठति में परस्मैपदका प्रयोग होता है परन्तु सम् और प्र उपसर्ग लग जानेसे संतिष्ठते तथा प्रतिष्ठतेमें आत्मनेपद हो गया। 'रमते' यह आत्मनेपदका प्रयोग है परन्तु 'विरमति में वि उपसर्ग और 'उपरमति'में उप उपसर्ग लग जानेसे परस्मैपद प्रयोग हो जाता है। लिंगादिके व्यभिचारके समान शब्दनय पुरुष व्यभिचारको भी नहीं मानता जैसे 'एहि मन्ये रथेन यास्यति, नहि यास्यति, यातस्ते पिता'-यहाँपर 'मन्यसे' इस मध्यमपुरुषके बदले हास्यमें 'मन्ये' इस उत्तमपुरुषका प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह है कि शब्दनय व्याकरणके नियमोंके आधीन है, अतः वह सामान्य नियमोंके विरुद्ध प्रयोग होनेसे आनेवाले दोषको स्वीकृत नहीं करेगा ||४७||
जो शब्दभेद होनेपर अर्थभेद स्वीकृत करता है अर्थात् एक पदार्थके लिए अनेक पर्यायात्मक शब्द प्रयुक्त होनेपर उनके पृथक्-पृथक् अर्थको स्वीकृत करता है वह समभिरूढ़नय है, जैसे लोकमें देवेन्द्रके लिए इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दका प्रयोग आता है परन्तु समभिरूढ़नय इन सबके पृथक्-पृथक् अर्थको ग्रहण करता है। वह कहता है कि जो परम ऐश्वर्यका अनुभव करता है वह इन्द्र है, जो शक्तिसम्पन्न है वह शक है और जो पुरोंका विभाग करनेवाला है वह पुरन्दर है, इसलिए इन भिन्न-भिन्न पर्याय शब्दोंसे सामान्य देवेन्द्रका ग्रहण न कर उसकी भिन्नभिन्न विशेषताओंका ग्रहण करता है। अथवा जो नाना अर्थोंका उल्लंघन कर एक अर्थको
१. 'नानार्थसमभिरोहणात समभिरूढः' अथवा 'अर्थगत्यर्थः शब्दप्रयोगः' अथवा 'यो यत्राभिरूढः स तत्र समेत्याभिमुख्येनारोहणात् समभिरूढः' ।
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हरिवंशपुराणे 'यदेन्दति तदेवेन्द्रो नान्यदेति क्रियाक्षणे । वाचकं मन्यते वेवैवम्भूतो यथार्थवाक् ॥४९॥
म्यस्यानन्तशक्तित्वात्प्रतिशक्तिमिदा श्रिताः । उत्तरोत्तरसूक्ष्मार्थगोचराः सप्त सन्नयाः ॥५०॥ अर्थशब्दप्रधानस्वायम्दान्ताः पञ्चधा नयाः । संग्रहादिनयाः षोढा प्रत्येकं स्यः शतानि ते ॥५१॥ यावन्तोऽपि वयोमार्गास्तावन्तो यज्ञयास्ततः । इयन्त इति संख्यानं नयानां नास्ति तत्त्वतः ॥५२॥ धर्माधमौं तथाकाशं पुदगलः काल एव च । पञ्चाप्यजीवतत्वानि सम्यग्दर्शनगोचराः ॥५३॥ गतिस्थित्योनिमित्तं तो धर्माधौं यथाक्रमम् । नमोऽवगाहहेतुस्तु जीवाजीवद्वयोस्सदा ॥५४॥ पूरणं गलनं कुर्वन् पुदगलोऽनेकधर्मकः । सोऽणुसंघाततः स्कन्धः स्कन्धभेदादणुः पुनः ॥५५॥ वर्तनालक्षणो लक्ष्यः समयादिरनेकधा । कालः कलनधर्मेण सपरवापरत्वक: ॥५६॥
मुख्यतासे ग्रहण करता है वह समभिरूढ़नय है, जैसे गो शब्द कोशमें वचन आदि अनेक अर्थोंमें प्रसिद्ध है किन्तु लोकमें वह अधिकतासे पशु अर्थमें ही प्रयुक्त होता है। अथवा जो शब्दके निरुक्त-प्रकृति-प्रत्ययके संयोगसे सिद्ध होनेवाले अर्थको न मानकर उसके चालू वाच्यार्थको ही माना है वह समभिरूढनय है. जैसे गौ शब्दका निरुक्त अर्थ गच्छतीति गौः जो चले वह है, परन्तु लोकमें इस मर्यकी उपेक्षा कर पशु विशेषको गौ कहते हैं, वह चलती हो तब भी गो है और बैठी या खड़ी हो तब भी गौ है ।।४८॥
जो पदार्थ जिस क्षणमें जेसी क्रिया करता है उसी क्षणमें उसको उस रूप कहना, अन्य क्षणमें नहीं, यह एवंभूतनय है। यह नय पदार्थके यथार्थ स्वरूपको कहता है जैसे 'इन्दतीति इन्द्रः' जिस समय इन्द्र ऐश्वर्यका अनुभव करता है उसी समय इन्द्र कहलाता है अन्य समयमें नहीं ॥ ४९ ॥
द्रव्यको अनन्त शक्तियां हैं। ये सातों नय प्रत्येक शक्तिके भेदोंको स्वीकृत करते हुए उत्तरोतर सूक्ष्म पदार्थको ग्रहण करते हैं ॥५०॥ इन *नयोंमें कितने ही नय अर्थप्रधान हैं और। ही शब्दप्रधान हैं, इसलिए प्रारम्भसे लेकर शब्दनय तक पांच प्रकारके नय और संग्रहको आदि लेकर अन्त तक छह प्रकारके नय अर्थात् नैगमादि सातों नयोंमें प्रत्येक सैकड़ों प्रकारके हैं ॥५१॥ क्योंकि जितने वचनके मार्ग-भेद हैं उतने नय हैं इसलिए नय इतने हैं। इस प्रकार यथार्थमें नयोंकी संख्या निश्चित नहीं है ॥५२॥
धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये पांचों अजीव तत्त्व हैं तथा सम्यग्दर्शनके विषयभूत हैं ॥५३॥ इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमसे गति और स्थितिके निमित्त हैं अर्थात् धर्म द्रव्य जीव और पुद्गलके गमनमें निमित्त है तथा अधर्ममें द्रव्य उन्हींको स्थितिमें निमित्त है। आकाश. जीव और अजीव दोनों द्रव्योंके अवगाहमें निमित्त है ॥५४|| पूगल द्रव्य पूरण गलन क्रिया करता हुआ वर्णादि अनेक गुणोंसे युक्त है। उसके दो भेद हैं, स्कन्ध और परमाणु । बहुत-से परमाणुओंके संयोगसे स्कन्ध बनता है और स्कन्धमें भेद होते-होते परमाणुकी उत्पत्ति होती है ॥५५॥ जो वर्तना लक्षणसे सहित है वह काल द्रव्य है। इसके समय आदि अनेक भेट हैं। परिवर्तनरूप धर्मसे सहित होनेके कारण काल द्रव्य परत्व और अपरत्व व्यवहारसे युक्त है ॥५६॥
१. येनात्सना भूतस्तेनैवात्मनाध्यवसाययतीति एवंभूतः-स. सि.। २. भिदा म.। ३. संग्रहादितया म., ङ., क.। ४. जावदिया वयनविहा तावदिया चेव होंति णयवादा । ५. परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः । ते अत्र कालोपकरणात्कालकृते गोते । एते ते वर्तनादयः उपकाराः कालस्यास्तित्वं गमयन्ति । ननु वर्तनाग्रहणमेवास्तु तदभेदाः परिणामादयः-(क. टि.)। * नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजु ये चार अर्थनय है तथा शेष तीन शब्दनय हैं।
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अष्टपश्चाशः सर्गः
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कायवाङ्मनसां कर्म योगः स पुनराम्रवः । शुभः पुण्यस्य गण्यस्य पापस्याशुभलक्षणः ॥५॥ 'सकपायाकषायौ द्वौ स्वामिनावात्रवस्य सः । मि उपशान्तकषायादेरकषायस्य योगिनः । आस्रवः स्वामिनोऽन्त्यस्य स्यादोर्यापथकर्मणः ॥५॥ इन्द्रियाणि कषायाश्च हिंसादीन्यव्रतान्यपि । साम्परायिककर्मद्वाः स्याक्रियापञ्चविंशतिः ॥६॥ चैत्यप्रवचनार्हत्सदगुरुपूजादिलक्षणा । सा सम्यक्स्वक्रिया ख्याता सम्यक्त्वपरिवर्धिनी ॥६॥ प्रवृत्तिरकृतादन्यदेवतास्तवनादिका । सा मिथ्यात्वक्रिया ज्ञेया मिथ्यात्वपरिवर्धिनी ॥६२॥ कायाज्ञादिसरन्येषां गमनादिप्रवर्तनम् । सा प्रयोगक्रिया वेद्या प्रायोऽसंयमवधिनी ॥६३॥ आभिमुख्यं प्रति प्रायः संयतस्याप्यसंयमे । समादानक्रिया प्रोक्ता प्रमादपरिवर्धिनी ॥६॥ ईर्यापथनिमित्ता या सा प्रोक्तर्यापथक्रिया । एताः पञ्चक्रिया हेतुरानवे साम्परायिके ॥६५॥ क्रोधावेशवशात्प्रादुर्भता प्रादोषिकी क्रिया । योऽभ्युद्यमः प्रदुष्टस्य सतस्सा कायिकी क्रिया ॥६६॥ क्रियाधिकारिणीत्युक्ता हिंसोपकरणहात् । दुःखोत्पत्तिः स्वतन्त्रत्वाक्रियान्या पारितापिकी ॥६७॥ इन्द्रियायुर्बलप्राणवियोगकरणारिक्रया। प्राणातिपातिकी नाम्ना पञ्चवाध्यात्मिकाः क्रियाः ॥६॥ रागादींकृतचित्तत्वात्प्रशस्तस्य प्रमादिनः । रम्यरूपावलोकान्याभिप्रायो दर्शनक्रिया ॥६॥
काय, वचन और मनको क्रियाको योग कहते हैं। वह योग ही आस्रव कहलाता है। उसके शुभ और अशुभके भेदसे दो भेद हैं। उनमें शुभयोग शुभास्रवका और अशुभयोग अशुभास्रवका कारण है ।।५७।। आस्रवके स्वामी दो हैं-सकषाय ( कषायसहित ) और अकषाय ( कषायरहित )। इसी प्रकार आस्रवके दो भेद हैं-साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव । मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर सूक्ष्मकषाय गुणस्थान तकके जोव सकषाय हैं और वे प्रथम साम्परायिक आस्रवके स्वामी हैं तथा उपशान्तकषायको आदि लेकर सयोगकेवली तकके जीव अकषाय हैं और ये अन्तिम ईर्यापथ आस्रवके स्वामी हैं। [ चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भी अकषाय हैं परन्तु उनके योगका अभाव हो जानेसे आस्रव नहीं होता ] ॥५८-५९|| पाँच इन्द्रियां, चार कषाय, हिंसा आदि पाँच अव्रत और पचोस क्रियाएँ ये साम्परायिक आस्रवके द्वार हैं॥६०|| इनमें पांच इन्द्रियाँ, चार कषाय और पाँच अव्रत प्रसिद्ध हैं, अतः इन्हें छोड़कर पचीस क्रियाओंका स्वरूप कहते हैं। प्रतिमा, शास्त्र, अर्हन्त देव तथा सच्चे गुरु आदिकी पूजा, भक्ति आदि करना सम्यक्त्वको बढ़ानेवाली सम्यक्त्वक्रिया है ॥६१॥ पापके उदयसे अन्य देवताओंकी स्तुति आदिमें प्रवृत्ति करना मिथ्यात्वको बढ़ानेवाली मिथ्यात्व क्रिया है ॥६२|| गमनागमनादिमें प्रवृत्ति करना सो प्रायः असंयमको बढ़ानेवालो प्रयोग क्रिया है ।।६३।। संयमी पूरुषका प्रायः असंयमकी ओर सम्मख होना प्रमादको बढ़ानेवाली समादान क्रिया है ॥६४।। जो क्रिया ईर्यापथमें निमित्त है वह ईर्यापथ क्रिया है । ये पाँच क्रियाएं साम्परायिक आस्रवकी हेतु हैं ॥६५।। क्रोधके आवेशसे जो क्रिया होती है वह प्रादोषिकी क्रिया है । दोषसे भरा मनुष्य जो उद्यम करता है वह कायिकी क्रिया है ।।६६|| हिंसाके उपकरण-शस्त्र आदिके ग्रहणसे जो क्रिया होती है वह क्रियाधिकरिणी क्रिया है। स्व-परको दुःख उत्पन्न करनेवाली पारितापिकी क्रिया है ॥६७।। इन्द्रिय, आयु और बल प्राणका वियोग करनेवाली क्रिया प्राणातिपातिकी है। ये पांच आध्यात्मिक क्रियाएँ हैं ॥६८|| चित्तके रागसे आद्रं हो जानेके कारण जब उत्तम पुरुष प्रभादो बन, किसी सुन्दर रूपके देखनेको अभिलाषा करता है
१. 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' ॥१॥ २. 'स आस्रवः' ।।२।। ३. 'शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' ॥३॥ ४. 'सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः' ॥४॥ त. सू. अ. ६ ५ इन्द्रियकषायावतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥५॥ त सू. अ. ६ । ६. प्रशक्तस्य म., ङ. ।
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દ૬૮
हरिवंशपुराणे सचेतनानुबन्धो यः 'स्प्रष्टव्येऽतिप्रमादिनः । सा स्पर्शनक्रिया ज्ञेया कर्मोपादानकारणम् ॥७॥ उत्पादनादपूर्वस्य पापाधिकरणस्य तु । पापास्रवकरी प्रायः प्रोक्ता प्रत्यायिकी क्रिया ॥७१॥ स्त्रीपंसपशुसंपातिदेशेऽन्तर्मलमोक्षणम् । क्रिया साधुजनायोग्या सा समन्तानुपातिनी ॥७२॥ अप्रमृष्टाप्रदृष्टायो निक्षेपोऽङ्गादिनः क्षितौ । अनाभोगक्रिया सा तु पञ्चैता अपि दुरिक्रयाः ॥७३॥ परेणैव तु निर्वा या स्वयं क्रियते क्रिया। सा स्वहस्तक्रिया बोध्या पूर्वोक्तास्रवर्धिनी ॥७४॥ पापादानादिवृत्तीनामभ्यनुज्ञानमात्मना । सा निसर्गक्रिया नाम्ना निसर्गणास्रवावहा ॥७५॥ पराचरितसावधक्रियादेस्तु प्रकाशनम् । विदारणक्रिया सान्यधीविदारणकारिणी ॥७६॥ यथोक्काज्ञानसक्तस्य कर्तुमावश्यकादिपु । प्ररूपणान्यथा मोहादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ॥७७॥ 'शाठ्यालस्याद्धि शास्त्रोक्तविधिकर्तव्यतां प्रति । अनादरस्त्वनाकाक्षा-क्रिया पञ्चक्रिया इमाः ॥७८॥ आरम्भे क्रियमाणेऽन्यः स्वयं हर्षः प्रमादिनः । सा प्रारम्भक्रियात्यन्तं तात्पर्य वा छिदादिषु ॥७९॥ सा पारिग्राहिकी ज्ञेया परिग्रहपरा क्रिया। मायाक्रियापि च ज्ञानदर्शनादिषु वञ्चना ॥८॥ या मिथ्यादर्शनारम्भदृढीकरणतत्परा । प्रोत्साहनादिनान्यस्य सा मिथ्यादर्शनक्रिया ॥८१॥
कर्मोदयवशात्पापादनिवृत्तिरपि क्रिया। अप्रत्याख्यानसंज्ञा सा पञ्चामूरास्रवक्रियाः ॥१२॥ तब उसके दर्शन क्रिया होती है ।।६९|| वही मनुष्य जब अत्यधिक प्रमादी बन स्पर्श करने योग्य पदार्थका बार-बार चिन्तन करता है तब कर्मबन्धमें कारणभूत स्पर्शन क्रिया होती है ।।७०॥ पापके नये-नये कारण उत्पन्न करनेसे पापका आस्रव करनेवाली जो क्रिया होतो है वह प्रत्यायिकी क्रिया कही गयी है ।।७१।। स्त्री-पुरुष और पशुओंके मिलने-जुलने आदिके योग्य स्थानपर शरीर-सम्बन्धी मल-मूत्रादिको छोड़ना समन्तानुपातिनी क्रिया है। यह क्रिया साधुजनोंके अयोग्य है ।।७२।। बिना शोधी, बिना देखी भूमिपर शरीरादिका रखना अनाभोगक्रिया है। ये पांचों ही क्रियाएं दुष्क्रियाएं कहलाती हैं ।।७३।। दूसरेके द्वारा करने योग्य क्रियाको स्वयं अपने हाथसे करना यह पूर्वोक्त आस्रवको बढ़ानेवाली स्वहस्तक्रिया है ॥७४॥ पापोत्पादक वृत्तियोंको स्वयं अच्छा समझना निसर्गक्रिया है, यह स्वभावसे ही आस्रवको बढ़ानेवाली है ।।७५|| दूसरेके द्वारा आचरित पापपूर्ण क्रियाओंका प्रकट करना यह दूसरेकी बुद्धिको विदारण करनेवाली विदारण क्रिया है ॥७६|| आगमकी आज्ञाके अनुसार आवश्यक आदि क्रियाओंके करने में असमर्थ मनुष्यका मोहके उदयसे उनका अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ।।७७।। अज्ञान अथवा आलस्यके सहित
रण शास्त्रोक्त विधियोंके करने में अनादर करना अनाकांक्षाक्रिया है, इस प्रकार ये पाँच क्रियाएं हैं ॥७८॥
दसरोंके द्वारा किये जानेवाले आरम्भमें प्रमादी होकर स्वयं हर्ष मानना अथवा छेदन-भेदन आदि क्रियाओंमें अत्यधिक तत्पर रहना प्रारम्भ क्रिया है ।।७९।। परिग्रहमें तत्पर जो क्रिया है वह पारिग्रहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमें जो छलपूर्ण प्रवृत्ति है वह मायाक्रिया है ॥८०॥ प्रोत्साहन आदिके द्वारा दूसरेको मिथ्यादर्शनके प्रारम्भ करने तथा उसके दृढ़ करनेमें तत्पर जो क्रिया है वह मिथ्यादर्शन क्रिया है ।।८१।। कर्मोदयके वशीभूत होनेसे पापसे निवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान किया है। इस प्रकार आस्रवको बढ़ानेवाली ये पाँच क्रियाएँ हैं । इस प्रकार पांच-पाँचके पचीस क्रियाओंका वर्णन किया ॥८२।।
१. स्प्रष्टव्योऽतिप्रमादिनः म.। २. दर्शनक्रिया म.। ३. वरेणैव म.। ४. सान्या धोविदारण- म., ङ. । ५. यथोक्तादान- । ३. सा व्यालस्याद्धि म., साद्यालस्याद्धि. क., ङ.। ७. हर्षप्रमादिनः । ८ वाञ्छितादिषु म., क., ङ., ख.। ९. पारिग्राहिणी म., क., ङ.।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
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'मन्दमध्यातितीवत्वात्परिणामस्य देहिनाम् । मन्दो मध्योऽतितीवः स्यादान हेतुभेदतः ॥८३॥ जीवाधिकरणश्चाप्यजीवाधिकरणोऽपि सः । आस्रवो भिद्यते द्वेधा जीवाधिकरणास्रवाः ॥८४॥
तैः संरम्भसमारम्भैः सारम्भस्त्रिकृतादिमिः । त्रियोगैश्च कषायैश्च षट्त्रिंशत्पृथगास्रवाः ॥८५॥ “निर्वर्तना च निक्षेपोऽजीवाधिकरणास्रवाः । संयोगश्च निसर्गश्च द्विचतुद्वित्रिभेदिनः ॥४६॥ निर्वतंनाधिकरणं मुलोत्तरगुणा द्विधा । शरीरवाइमनःप्राणापानादीनां च तो गुणौ ।।८७॥ सहसादुःप्रमृष्टानामोगसाप्रत्यवेक्षितैः । भेदैश्चतुर्विधैस्तन्निक्षेपाधिकरणं पुनः ॥४८॥
जीवोंके परिणाम मन्द, मध्य और तीव्र होते हैं इसलिए हेतुमें भेद होनेसे आस्रव भी मन्द, मध्यम और तीव्र होता है ।।८३।। जीवाधिकरण और अजीवाधिकरणके भेदसे आस्रवके दो भेद हैं। जीवाधिकरण आस्रवके मूलमें तीन भेद हैं-१ संरम्भ, २ समारभ्भ और ३ आरम्भ । इनमें से प्रत्येकके कृत, कारित, अनुमोदना-तीन, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तीन और क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय-चार इनसे परस्पर गणित होनेपर छत्तीस-छत्तीस भेद होते हैं। तीनोंके मिलाकर एक सौ आठ भेद हो जाते हैं। भावार्थ---किसी कार्यके करने का मनमें विचार करना संरम्भ है। उसके साधन जुटाना समारम्भ है और कार्यरूपमें परिणत करना आरम्भ है। स्वयं कार्य करना कृत है, दूसरेसे कराना कारित है और कोई करे उसमें हर्ष मानना अनुमति है। मनसे किसी कार्यका विचार करना मनोयोग है, वचनसे प्रकट हरना वचनयोग है और कायसे कार्य करना काययोग है। क्रोध कषायसे प्रेरित हो किसी कार्यको करना क्रोध कषाय है, मानसे प्रेरित हो करना मान कषाय है, मायासे प्रेरित हो करना माया कषाय है और लोभसे प्रेरित होकर करना लोभ कषाय है। मूलमें संरम्भ आदिके भेदसे आस्रव तीन प्रकारका होता है, इनमें से प्रत्येकका भेद कृत, कारित अनुमोदनाको अपेक्षा तीन प्रकारका होता है, फिर यही तीन भेद तीन योगके निमित्तसे होते हैं, इसलिए तीनका तीनमें गुणा करनेपर नो भेद होते हैं। तदनन्तर यही नौ भेद क्रोधादि कषायकी अपेक्षा चार-चार प्रकारके होते हैं इसलिए नौमें चारका गुणा करनेपर छत्तीस भेद होते हैं। छत्तीस भेद संरम्भके, छत्तीस समारम्भके और छत्तीस आरम्भके, तीनोंको मिलाकर एक सौ आठ भेद होते हैं। अथवा दूसरी तरहसे संरम्भादि तीनमें कत. कारितादिका गणा करनेपर नौ भेद हए, उनमें तीन योगका गणा करनेपर सत्ताईस हुए और उसमें क्रोधादि चार कषायका गुणा करनेपर एक सौ आठ भेद होते हैं। ये सब परिणाम जीवकृत हैं अतः इन्हें जीवाधिकरण आस्रव कहते हैं ।।८४-८५।। दो प्रकारको निर्वतंना, चार प्रकारका निक्षेप, दो प्रकारका संयोग और तीन प्रकारका निसर्ग ये अजीवाधिकरण आस्रवके भेद हैं ।।८६|| मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तनाके भेदसे निवर्तनाके दो भेद हैं। शरीर, वचन, मन तथा श्वासोच्छ्वास आदिको रचना होना मूलगुण निर्वर्तना है और काष्ठ, पाषाण, मिट्टी आदिसे चित्राम आदिका बनाना उत्तरगुण निवर्तना है ।।८७॥ सहसा निक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण, अनाभोग निक्षेपाधिकरण और अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण इन चार भेदोंसे निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका होता है । शीघ्रतासे किसी वस्तुको रख देना सहसा निक्षेप है। दुष्टतापूर्वक साफ की हुई भूमि में किसी वस्तुको रखना दुष्प्रमृष्ट निक्षेप है।
१. तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः।। ६॥ त.सू.अ.६। २. अधिकरणं जीवाजीवाः ॥७॥ त. सू. अ. ६ । ३. आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चकशः ॥८॥ त. सू. अ. ६। ४. निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्वित्रिभेदाः ।।९।। त. सू. अ. ६ । ५. परम् सांप्रत्यवेदितो म.।
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हरिवंशपुराणे
भक्तपानोपकरणसंयोगद्वितयात्मना । तद्द्वैविध्यं हि संयोगकारणस्य च कीर्तितम् ॥ ८९ ॥ यन्निसर्गाधिकरणं तत्त्रैविध्यं प्रपद्यते । वाङ्मनः काय पूर्वैस्तु निसर्गैस्तत्प्रवर्तनैः ॥ ९० ॥ कर्मावाणां भेदोऽयं सामान्येन निरूपितः । भेदः कर्मविशेषाणामास्रवस्य विशिष्यते ॥ ९१ ॥ 'प्रदोषनिह्न वादनविघ्नासादनदूषणाः । ज्ञानस्य दर्शनज्ञानावृत्योरास्त्रव हेतुतः ॥ ९२ ॥ 'दुःखशोकवधाकन्दतापाः सपरिदेवनाः । असद्वेद्यास्रवद्वाराः स्वपरोभयवर्तिनः ॥ ९३ ॥ 'दया सकलभूतेषु वतिष्वत्य नुरागता । सरागसंयमो दानं शान्तिः शौचं यथोदितम् ॥९४॥ अर्हस्पूजादितात्पर्यं बालवृद्धतपस्विषु । वैश्यावृत्यादयो वेद्याः सद्वेद्यास्त्रवहेतवः ।। ९५ ।।
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अव्यवस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तुको रख देना अनाभोग निक्षेप है और बिना देखी-शोधी भूमि में किसी वस्तुको रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है ||८८ || भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग से संयोगाधिकरण आस्रव दो प्रकारका कहा गया है। भोजन और पानको अन्य भोजन तथा पानमें मिलाना भक्तपान संयोग है तथा बिना विवेकके उपकरणोंका परस्पर मिलना उपकरण संयोग है जैसे शीतस्पर्शयुक्त पीछोसे घाममें सन्तप्त कमण्डलुका सहसा पोंछना आदि ॥८६॥ वा निसर्ग, मनोनिसर्ग और कार्यनिसर्गके भेदसे निसर्गाधिकरण आस्रव तीन रूपताको प्राप्त होता है । वचनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको वा निसर्ग कहते हैं, मनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको मनोनिसर्ग कहते हैं और कायको स्वच्छन्द प्रवृत्तिको काय निसर्ग कहते हैं ||१०|| इस प्रकार यह सामान्य रूप से कर्मास्रत्रोंका भेद कहा। अब ज्ञानावरणादिके भेदसे युक्त विशिष्ट कर्मोंके आस्रवका भेद कहा जाता है || ९१ ॥ ज्ञानके विषय में किये हुए प्रदोष, निह्नव, आदान, विघ्न, आसादन और दूषण ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शन के विषय में किये हुए प्रदोष आदि दर्शनावरणके आस्रव हैं । मोक्षके साधनभूत तत्त्वज्ञानका निरूपण होनेपर कोई मनुष्य चुपचाप बैठा है परन्तु भीतर ही भीतर उसका परिणाम कलुषित हो रहा है इसे प्रदोष कहते हैं। किसी कारण से 'मेरे पास नहीं है' अथवा 'मैं नहीं जानता हूँ' इत्यादि रूपसे ज्ञानको छिपाना निह्नव है । मात्सर्यके कारण देने योग्य ज्ञान भी दूसरेको नहीं देना सो अदान है। ज्ञानमें अन्तराय डाल देना विघ्न है । दूसरे के द्वारा प्रकाशमें आने योग्य ज्ञानको काय और वचनसे रोक देना आसादन है और प्रशस्त ज्ञानमें दोष लगाना दूषण है ||१२||
वेदनीय कर्मके दो भेद हैं- १ असातावेदनीय और २ सातावेदनीय। इनमें से निज, पर और दोनों के विषय में होनेवाले दुःख, शोक, वध, आक्रन्दन, ताप और परिदेवन ये असातावेदनीयके आस्रव हैं । पीड़ारूप परिणामको दुःख कहते हैं । अपने उपकारक पदार्थोंका सम्बन्ध नष्ट हो जानेपर परिणामोंमें विकलता उत्पन्न होना शोक है। आयु, इन्द्रिय तथा बल आदि प्राणोंका वियोग करना वध है । सन्ताप आदिके कारण अश्रुपात करते हुए रोना आक्रन्दन है । लोकमें अपनी निन्दा आदिके फैल जानेसे हृदयमें तीव्र पश्चात्ताप होना ताप है । और उपकारीका वियोग होनेपर उसके गुणों का स्मरण तथा कीर्तन करते हुए इस तरह विलाप करना जिससे सुननेवाले दयार्द्र हो जावें उसे परिदेवन कहते हैं ॥ ९३ ॥ समस्त प्राणियोंपर दया करना, व्रतो जनोंपर अनुराग रखना, सरागसंयम, दान, क्षमा, शौच, अहंन्त भगवान् की पूजामें तत्पर रहना और बालक तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति आदि करना सातावेदनीय१. तत्प्रदोष निवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १० ॥ त. सू. अ. ६ । २. निह्नवादाने म., ङ. । ३. दुःखशोकतापाक्रन्दनवघपरिदेव नान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥११॥ त. सू. अ. ६ । ४. भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ||१२|| त. सू. अ. ६ ।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः 'केवलिश्रुतसंघेषु धर्मदेवेष्ववर्णवाक् । हेतुर्दर्शनमोहस्याप्यास्रवस्य निरूपितः ॥१६॥ उदयात्तु कषायाणां परिणामोऽपि तीवकः । हेतुश्चारित्रमोहस्य नानाभेदास्रवस्य तु ॥१७॥ तत्र स्वान्यकषायाणामुत्पादेन समुद्धता । कषायवेदनीयस्य हेतुः सद्वृत्तदूषणम् ॥९८॥ प्रहासशीलतादिः स्याद्धर्मोपहसनादिमिः । सहास्यवेदनीयस्य महानवनिबन्धनम् ॥९५॥ विचित्रक्रीडनासक्ति तशीलाधरोचनम् । रत्याख्यवेदनीयस्य हेतुः स्यादास्रवो महान् ॥१०॥ परारतिविधानं च रतेरपि विनाशनम् । अरतेवेंदनीयस्य हेतुर्दुश्शीलसेवनम् ॥१०॥ स्वशोकोत्पादनं चान्यशोकवृदयभिनन्दनम् । कुशोकवेदनीयस्य नित्यमानवकारणम् ॥१.२॥ मयोत्पादनमन्येषां स्वमयस्य च भावनम् । भयाख्यवेदनीयस्य सन्ततो हेतुरास्रवे ॥१०३॥ कुशलाचरणाचारजुगुप्सापरिवादिता । जुगुप्सावेदनीयस्य हेतुरासवगोचरः ॥१०॥ अतिसंधानपरता परस्यालीकवादिता । प्रवृद्धरागतादि स्त्रीवेदनीयस्य कारणम् ॥१०५॥ सानुस्सेकतनुक्रोधस्वदारपरितोषिताः । हेतुः पुंवेदनीयस्य कर्मणः संसृतौ मतः ॥१०६॥ प्राचुर्य च कषायाणां गुह्याङ्गव्यपरोहणम् । परस्त्रीसक्तिरन्त्यस्य वेदनीयस्य हेतवः ॥१०॥
के आस्रव हैं ॥९४-९५।। केवली, श्रुत, संघ, धर्म तथा देवका अवर्णवाद करना-झूठे दोष लगाना दर्शन मोहनीय कर्मके आस्रवके हेतु कहे गये हैं। केवली कवलाहारसे जीवित रहते हैं इत्यादि असद्भूत दोषोंका निरूपण करना केवलीका अवर्णवाद है। शास्त्रमें मांस भक्षण आदि निषिद्ध कार्योंका उल्लेख है इत्यादि कहना श्रतका अवर्णवाद है। ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियोंका समूह संघ कहलाता है-इनके दोष कहना अर्थात् ये शरीरसे अपवित्र हैं, शूद्र-तुल्य हैं, नास्तिक हैं, आदि कहना संघका अवर्णवाद है। जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ धर्म निर्गुण है और उसके पालन करनेवाले असुर होते हैं इत्यादि कहना धर्मका अवर्णवाद है और देव मांस-मदिराका सेवन करते हैं, इत्यादि कहना देवका अवर्णवाद है ॥९६॥ कषायके उदयसे जो तीन परिणाम होता है वह चारित्र मोहके नानाप्रकारके आस्रवोंका कारण है ॥९७|| चारित्र मोहनीयके कषायवेदनीय और अकषायवेदनीयकी अपेक्षा दो भेद हैं। इनमें से निज तथा परको कषाय उत्पन्न कर उद्धत वृत्तिका धारण करना तथा तपस्विजनोंके सम्यक् चारित्रमें दूषण लगाना कषायवेदनीयके आस्रव हैं। धर्मका उपहास आदि करनेसे हास्यरूप स्वभावका होना अर्थात् धर्मकी हंसी उड़ाकर प्रसन्नताका अनुभव करना हास्य अकषायवेदनीयका आस्रव है ।।९८-१००। दूसरोंको अरति उत्पन्न करना, रतिको नष्ट करना और दुष्ट स्वभावके धारक जनोंकी सेवा करना रति नामक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ॥१०१॥ अपने-आपको शोक उत्पन्न करना तथा दूसरोंके शोककी वृद्धि देख प्रसन्नताका अनुभव करना शोक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।। १०२।। दूसरोंको भय उत्पन्न करना तथा अपने भयको चिन्ता करना भय अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।।१०३।। उत्तम आचरण करनेवाले मनुष्योंके आचारमें ग्लानि करना तथा उनको निन्दा करना जुगुप्सा अकषायवेदनीयका आस्रव है ।।१०४॥ दूसरेको धोखा देने में अत्यधिक तत्पर रहना, असत्य बोलना तथा रागकी अधिकता होना स्त्री अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ॥१०५।। नम्रतासे सहित होना, क्रोधकी न्यूनता होना और अपनी स्त्रीमें सन्तोष रखना ये संसारमें पुंवेद अकषायवेदनीयके आस्रव माने गये हैं ।।१०।। कषायोंकी प्रचुरता होना, गुह्य अंगोंका छेदन करना तथा परस्त्री में आसक्ति रखना ये नपुंसक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।।१०७||
१ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१३॥ त. सू. अ. ६ । २. कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥ त. सू. अ. ६ । ३. सद्वृत्तभुषणम् । ४. निन्दनम् म. ।
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हरिवंशपुराणे 'नारकस्यायुषो योगो बबारम्भपरिग्रहैः । तैर्यग्योनस्य माया तु हेतुरास्रवणस्य सः ॥१०॥ *मानुषस्यायुषो हेतुरल्पारम्मपरिग्रहः । संतुष्टत्वावतत्वादि मार्दवं च स्वभावतः ॥१०९॥
सम्यक्त्वं च व्रतित्वं च बालतापस्ययोगिता । अकामनिर्जरा चास्य देवस्यानवहेतवः ॥१०॥ 'स्वयोगवक्रता चान्यविसंवादनयोगिता । हेतुर्नाम्नोऽशुभस्यैव शुमस्यातिसुयोगता ॥११॥
तथा जामविशेषस्य तीर्थकृत्त्वस्य हेतवः । सदर्शनविशुद्धघाद्याः षोडशातिविनिर्मलाः ॥१२॥ "सद्गुणाच्छादनं निन्दा परेषां स्वस्य शंसनम् । असद्गुणसमाख्यानं नीचैर्गोत्रास्त्रवावहाः ॥११३॥
सनीचैर्वृत्त्यनुत्सेको हेतुरुक्तविपर्ययः । उच्चैर्गोत्रेऽन्तरायस्य" दानविघ्नादिकर्तृता ॥११४॥ शुभः पुण्यस्य सामान्यादारूवः प्रतिपादितः । तद्विशेषप्रतीत्यर्थमिदं तु प्रतिपद्यते ॥११५॥ "हिंसानृतवचश्चौर्याब्रह्मचर्यपरिग्रहात् । विरतिशतोऽणु स्यात्सर्वतस्तु महद्वतम् ॥११६॥ "महाणवतयुक्तानां स्थिरीकरणहेतवः । व्रतानामिह पञ्चानां प्रत्येकं पञ्च भावनाः ॥११७॥
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बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह रखना नरकायुका आस्रव है। मायाचार तिथंच आयुका आस्रव है ॥१०८।। थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह रखनेसे मनुष्य आयुका आस्रव होता है। सन्तोष धारण करते हुए अव्रत अवस्था होना तथा स्वभावसे कोमल परिणामी होना भी मनुष्यायके आस्रव हैं ॥१०९|| सम्यग्दर्शन, व्रतीपना, बालतप तथा अकामनिर्जरा ये देवायके आस्रव हैं ॥११॥
___अपने योगोंकी कुटिलता और दूसरोंके साथ विसंवाद ये अशुभ नामकर्मके आस्रव हैं और अपने योगोंकी सरलता तथा विसंवादका अभाव होना शुभ नामका आस्रव है ॥११॥ नामकर्मका विशेष भेद जो तीर्थंकर प्रकृति है उसके आस्रव, अत्यन्त निर्मलताको प्राप्त दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाएँ हैं ।।११२॥ दूसरोंके विद्यमान गुणोंको छिपाना, अपनी प्रशंसा करना तथा अपने अविद्यमान गुणोंका कथन करना ये नीचगोत्रकर्मके आस्रव हैं ॥११३|| विनयपूर्ण प्रवृत्ति करना तथा अहंकार नहीं करना उच्चगोत्रके आस्रव हैं और दान आदिमें विघ्न करना अन्तरायकर्मके आस्रव हैं ।।११४।।
पुण्यकर्मका जो शुभास्रव होता है उसका सामान्यरूपसे वर्णन ऊपर किया जा चुका है। अब उसकी विशेष प्रतीतिके लिए यह प्रतिपादन किया जा रहा है ॥११५॥ हिंसा, झठ, चोरी, कुशील और अपरिग्रह इन पांच पापोंसे विरक्त होना सो व्रत है। वह व्रत अणुव्रत और महाव्रतके भेदसे दो प्रकारका है। उक्त पापोंसे एकदेश विरत होना अणुव्रत है और सर्वदेश विरत होना महाव्रत है ।।११६।। महाव्रत और अणुव्रतसे युक्त मनुष्योंको अपने व्रतमें स्थिर रखनेके लिए उक्त पांचों व्रतोंमें प्रत्येककी पाँच-पांच भावनाएं कही जाती हैं ॥११७।।
१, बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥१५॥ २. माया तैर्यग्योनस्य ॥१६॥ ३. अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥१७॥ ४. निश्शीलवतित्वं च सर्वेषाम् ।।१९।। ५. स्वभावमार्दवं च ॥१८॥ ६ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ ७. सरागसयमसंयमासंयमकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ॥२०॥ ८. योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ ९. तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ १०. दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीथकरत्वस्य ॥२४॥ त. सू. अ. ६ । ११. परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।।२५।। १२. तद्विपर्ययो नीचैवत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ १३. विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥ त. सू. अ. ६ । १४. हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२।। त. सु. अ. ७ । १५. तत्स्थै र्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
६७३ सुवाग्गुप्तिमनोगुप्ती स्वकाले वीक्ष्य भोजनम् । द्वे चेर्यादाननिक्षेपसमिती प्राग्वतस्य ताः ॥११॥ स्वक्रोधलोममीरुत्वहास्यहानोद्वभाषणाः । द्वितीयस्य व्रतस्यैता भाषिताः पञ्च भावनाः ॥११९॥ शून्यान्यमोचितागारवासान्यानुपरोधिताः । भैक्ष्यशुद्धयविसंवादौ तृतीयस्य व्रतस्य ताः ॥१२०॥ स्त्रीरागकथाश्रत्या रम्याङ्गेक्षाङ्गसंस्कृतः । रसपूर्वरतस्मृत्योस्त्यागस्तुर्यव्रतस्य ताः ॥१२१॥ 'इष्टानिष्टेन्द्रियार्थेषु रागद्वेषविमुक्तयः । यथास्वं पञ्च विज्ञेयाः पञ्चमवतमावनाः ॥१२२॥ "हिंसादिष्विह चामुष्मिन्नपायावद्यदर्शमम् । व्रतस्थैर्यार्थमेवात्र मावनीयं मनीषिभिः ॥१२३॥ दुःखमेवेति चाभेदादसवेद्यादिहेतवः । नित्यं हिंसादयो दोषा भावनीयाः मनीषिभिः ॥१२४॥ 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यं च यथाक्रमम् । सत्त्वे गुणाधिक क्लिष्टे ह्यविनेये च भाष्यते ॥१२५॥
स्वसंवेगविरागाथं नित्यं संसारभीरुभिः। जगत्कायस्वभावौ च मावनीयौ मनस्विमिः ॥१२६॥ "इन्द्रियाद्या दश प्राणाः प्राणिभ्योऽत्र प्रमादिना । यथासंभवमेषां हि हिंसा तु व्यपरोपणम् ॥१२७॥
१२२॥
सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, भोजनके समय देखकर भोजन करना ( आलोकितपान भोजन ), ईर्या-समिति और आदाननिक्षेपण समिति ये पांच अहिंसा व्रतकी भावनाएं हैं ॥११८।। अपने क्रोध, लोभ, भय और हास्यका त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना ( अनुवीचिभाषण) ये पांच सत्यव्रतको भावनाएं हैं ।।११९|| शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पांच अचौर्य व्रतकी भावनाएं हैं ॥१२०॥ स्त्री-रागकथा श्रवण त्याग, अर्थात् स्त्रियोंमें राग बढानेवाली कथाओंके पुननेका त्याग करना, उनके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग करता, शरीरकी सजावटका त्याग करना, गरिष्ठ रसका त्याग करना एवं पूर्व कालमें भोगे हुए रतिके स्मरणका त्याग करना ये पाँच ब्रह्मचर्य व्रतको भावनाएँ हैं ॥१२१॥ पंच इन्द्रियोंके इष्टअनिष्ट विषयामे यथायोग्य राग-द्वषका त्याग करना ये पाच अपरिग्रह व्रतको भावनाएं हैं ||१२ बद्धिमान मनष्योंको व्रतोंकी स्थिरताके लिए यह चिन्तवन भी करना चाहिए कि हिंसादि पाप करनेसे इस लोक तथा परलोकमें नाना प्रकारके कष्ट और पापबन्ध होता है ॥१२३॥ अथवा नीतिके जानकार पुरुषोंको निरन्तर ऐसी भावना करनी चाहिए कि ये हिंसा आदि दोष दुःख रूप ही हैं। यद्यपि ये दुःखके कारण हैं दुःखरूप नहीं परन्तु कारण और कार्यमें अभेद विवक्षासे ऐसा चिन्तवन करना चाहिए ।।१२४|| मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चार भावनाएं क्रमसे प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवोंमें करना चाहिए। भावार्थ-किसी जीवको दुःख न हो ऐमा विचार करना मैत्री भावना है। अपनेसे अधिक गुणी मनुष्योंको देखकर हर्ष प्रकट करना मोद भावना है। दुःखी मनुष्योंको देखकर हृदयमें दयाभाव उत्पन्न होना करुणा भावना है और अविनेयमिथ्यादृष्टि जीवोंमें मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है ।।१२५।। अपनी आत्मामें संवेग और वैराग्य उत्पन्न करने के लिए संसारसे भयभीत रहनेवाले विचारक मनुष्योंको सदा संसार और शरीरके स्वभावका चिन्तवन करना चाहिए ॥१२६।।
इस संसारमें प्राणियोंके लिए यथासम्भव इन्द्रियादि दश प्राण प्राप्त हैं। प्रमादी बनकर १. स्ववाग म. । २. वाङमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ ३. क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पञ्च ॥५॥ ४. शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥६॥ ५. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ ६. मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ ७. हिसादिविहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ ८. दुःखमेव वा ॥१०॥ ९. मैत्रोप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥ १०. स्वसंवेगादिरागार्थ म., जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ ११. प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥
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हरिवंशपुराणे प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्माय वियोजनम् । प्राणानां तु प्रमत्तस्य समितस्य न बन्धकृत् ॥१२॥ स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्स्यारमा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ॥१२९॥ सदर्थमसदर्थ च प्राणिपीडाकरं वचः । असत्यमनृतं प्रोक्तमृतं प्राणिहितं वचः ॥१३०॥ अदत्तस्य स्वयं प्राहो वस्तुनश्चौर्यमीर्यते । संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तियत्र तत्र तत् ॥१३१॥ अहिंसादिगुणा यस्मिन् वृहन्ति ब्रह्मतत्वतः। अब्रह्मान्यत्तु रत्यथं स्त्रीपुंसमिथुनेहितम् ॥१३२॥ गवाश्वमणिमुक्तादौ चेतनाचेतने धने । बाह्येऽबाह्ये च रागादौ हेयो मूर्छा परिग्रहः ॥१३३।। तेभ्यो विरतिरूपाण्यहिंसादीनि व्रतानि हि । महत्त्वाणुत्वयुक्तानि यस्य सन्ति व्रती तु सः ।।१३४॥ सत्यपि व्रतसंबन्धे निश्शल्यस्तु व्रती मतः । मायानिदानमिथ्यात्वं शाल्यं शल्यमिव त्रिधा ॥१३५॥ "सागारश्चानगारश्च द्वाविह व्रतिनौ मतौ। सागारोऽणुव्रतोऽत्र स्यादनगारो महाव्रतः ।।१३६॥ सागारो रागमावस्थो वनस्थोऽपि कथंचन । निवृत्तरागभावो यः सोऽनगारो गृहोषितः ॥१३७॥ सस्थावरकायेषु सकायापरोपणात् । विरतिः प्रथमं प्रोक्तमहिंसाख्यमणुव्रतम् ।।१३८॥
उनका विच्छेद करना सो हिंसा पाप है ॥१२७।। प्राणियोंके दुःखका कारण होनेसे प्रमादी मनुष्य जो किसीके प्राणोंका वियोग करता है वह अधर्मका कारण है-पापबन्धका निमित्त है परन्तु समितिपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले प्रमादरहित जीवके कदाचित् यदि किसी जीवके प्राणोंका वियोग हो जाता है तो वह उसके लिए बन्धका कारण नहीं होता है ।।१२८॥ प्रमादो आत्मा अपनी आत्माका अपने-आपके द्वारा पहले घात कर लेता है पीछे दूसरे प्राणियोंका वध होता भी है और नहीं भी होता है ॥१२९॥ विद्यमान अथवा अविद्यमान वस्तुको निरूपण करनेवाला प्राणि-पीड़ा. कारक वचन असत्य अथवा अनत वचन कहलाता है। इसके विपरीत जो वचन प्राणियोंका हित करनेवाला है वह ऋत अथवा सत्यवचन कहलाता है ।।१३०॥ बिना दी हुई वस्तुका स्वयं ले लेना चोरी कही जाती है। परन्तु जहाँ संक्लेश परिणामपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं चोरी होती है ।।१३१॥ जिसमें अहिंसादि गुणोंको वृद्धि हो वह वास्तविक ब्रह्मचर्य है। इससे विपरीत सम्भोगके लिए स्त्री-पुरुषोंकी जो चेष्टा है वह अब्रह्म है ॥१३२॥ गाय, घोड़ा, मणि, मुक्ता आदि चेतन, अचेनरूप बाह्य धनमें तथा रागादिरूप अन्तरंग विकारमें ममताभाव रखना परिग्रह है। यह परिग्रह छोड़ने योग्य है ।।१३३॥ इन हिंसादि पांच पापोंसे विरत होना सो अहिंसा आदि पांच व्रत हैं। ये व्रत महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके हैं तथा जिसके ये होते हैं वह व्रती कहलाता है ।।१३४|| व्रतका सम्बन्ध रहनेपर भी जो निःशल्य होता है वही व्रती माना गया है। माया, निदान और मिथ्यात्वके भेदसे शल्य तीन प्रकारको है। यह शल्य, शल्य अर्थात् काँटोंके समान दुःख देनेवाली है ॥१३५।।
सागार और अनगारके भेदसे व्रती दो प्रकारके माने गये हैं। इनमें अणुव्रतोंके धारी सागार कहलाते हैं और महाव्रतोंके धारक महाव्रती कहे जाते हैं ॥१३६।। जो मनुष्य राग-भावमें स्थित है वह किसी तरह वनमें रहनेपर भी सागार-गृहस्थ है और जिसका रागभाव दूर हो गया है वह घरमें रहनेपर भी अनगार है ॥१३७।। त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो १. उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमणट्टाणे । आवादे धेज्जलिंगों मरेज्जातज्जोगमासेज्ज ॥१॥ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुह सोवि देसिदो समए । मुच्छापरिग्गहो ति य अज्झप्पज्जाणदो भणिदो ॥२॥ सर्वार्थसिद्धौ उद्धृतम् । २. प्राण्यङ्गहरणात् म.। ३. यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । ४. अदत्तादानं स्तेयम् । ५. मैथुनमब्रह्म। ६. अब्रह्मण्यं तु क., अब्रह्मान्यस्तु म., ङ.। ७. हेये म., ङ.। ८. मूपिरिग्रहः। ९. निःशल्यो व्रती । १०. यतः म.। ११. अगार्यनगारश्च । १२. अणुव्रतोऽगारी ।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
यद्रागद्वेषमोहादेः परपीडाकरादिह । अनृताद्विरतिर्यत्र तद्वितीयमणुव्रतम् ॥ १३९ ॥ परद्रव्यस्य नष्टादेर्महतोऽल्पस्य चापि यत् । अदत्तत्वेऽस्य मादाने तत्तृतीयमणुव्रतम् ॥ १४०॥ दारेषु परकीयेषु परित्यक्तरतिस्तु यः । स्वदारेष्वेव संतोषस्तच्चतुर्थमणुव्रतम् ॥ १४१ ॥ स्वर्णदास गृहक्षेत्रप्रभृतेः परिमाणतः । बुद्धचेच्छापरिमाणाख्यं पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥१४२॥ गुणव्रतान्यपि त्रीणि पञ्चाणुव्रतधारिणः । शिष्या (क्षा) व्रतानि चत्वारि भवन्ति गृहिणः सतः ॥ १४३॥ यः प्रसिद्धेरभिज्ञानैः कृतावध्यनतिक्रमः । दिग्विदिक्षु गुणेष्वाद्यं वेद्यं दिग्विरतिर्व्रतम् ॥ १४४॥ ग्रामादीनां प्रदेशस्य परिमाणकृतावधि । बहिर्गतिनिवृत्तिर्या तद्देशविरतिर्व्रतम् ॥ १४५ ॥ पापोपदेशोऽपध्यानं प्रमादाचरितं तथा । हिंसाप्रदानमशुम श्रुतिश्वापीति पञ्चधा ॥१४६॥ पापोपदेश हेतुर्योऽनर्थदण्डोऽपकारकः । अनर्थदण्डविरतिव्रतं तद्विरतिः स्मृतम् ॥ १४७॥ पापोपदेश आदिष्टो वचनं पापसंयुतम् । यद्वणिग्वधकारम्भपूर्व सावद्यकर्मसु ॥ १४८॥ अपध्यानं जयः स्वस्य यः परस्य पराजयः । वधबन्धार्थहरणं कथं स्यादिति चिन्तनम् ॥ १४९ ॥ वृक्षादिच्छेदनं भूमिकुट्टनं जलसेचनम् । इत्याद्यनर्थकं कर्म प्रमादाचरितं तथा ॥ १५० ॥ विषकण्टकशस्त्राभिरज्जुदण्डकशादिनः । दानं हिंसाप्रदानं हि हिंसोपकरणस्य वै ॥ १५१ ॥ हिंसा रागादिसंवर्धिदुः कथाश्रुति शिक्षयोः । पापबन्धनिबन्धो यः स स्यात्पापाशुभश्रुतिः ॥ १५२॥ माध्यस्थ्यैकत्वगमनं देवतास्मरणस्थितेः । सुखदुःखारिमित्रादौ बोध्यं सामायिकं व्रतम् ॥१५३॥
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प्रकारके हैं। इनमें से त्रसकायिक जीवोंके विघातसे विरत होना पहला अहिंसाणुव्रत कहा गया है || १३८ || जिसमें राग, द्वेष, मोहसे प्रेरित हो पर पीड़ाकारक असत्य वचनसे विरति होती है वह दूसरा सत्याणुव्रत है || १३९ || दूसरेका गिरा पड़ा या भुला हुआ द्रव्य चाहे अधिक हो चाहे थोड़ा बना दी हुई दशामें उसको नहीं लेना तीसरा अचौर्याणुव्रत है || १४०|| परस्त्रियों में राग छोड़कर अपनी स्त्रियोंमें ही जो सन्तोष होता है वह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥ १४१ ॥ सुवर्णं, दास, गृह तथा खेत आदि पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक परिमाण कर लेना इच्छापरिमाण नामका पाँचवाँ अणुव्रत है || १४२ ||
पाँच अणुव्रतोंके धारक सद्गृहस्थके तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी होते हैं ||१४३॥ दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध चिह्नों द्वारा की हुई अवधिका उल्लंघन नहीं करना सो दिव्रत नामका पहला गुणव्रत है || १४४|| दिग्वतके भीतर यावज्जीवनके लिए किये हुए बृहत् परिमाणके अन्तर्गत कुछ समय के लिए जो ग्राम-नगर आदिकी अवधि की जाती है उससे बाहर नहीं जाना सो देशव्रत नामका दूसरा गुणव्रत है || १४५ || पापोपदेश, अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसादान और दुःश्रुति पाँच प्रकारके अनर्थदण्ड हैं । जो पापके उपदेशका कारण है वह अपकार करनेवाला अनर्थदण्ड है उससे विरत होना सो अनर्थदण्ड त्याग नामका तीसरा गुणव्रत है ।। १४६-१४७।। afण तथा वधक आदिके सावद्य कार्योंमें आरम्भ करानेवाले जो पापपूर्ण बचन हैं वह पापोपदेश अनर्थं दण्ड है || १४८ || अपनी जय, दूसरेकी पराजय तथा वध, बन्धन एवं धनका हरण आदि किस प्रकार हो ऐसा चिन्तन करना सो अपध्यान है || १४९ ॥ वृक्षादिकका छेदना, पृथिवीका कूटना, पानीका सींचना आदि अनर्थक कार्यं करना प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है ॥ १५० ॥ विष, कण्टक, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, दण्ड तथा कोड़ा आदि हिंसा के उपकरणोंका देना सो हिंसादान नामका अनर्थदण्ड है || १५१ ॥ हिंसा तथा रागादिको बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओंके सुनने तथा दूसरोंको शिक्षा देने में जो पापबन्धके कारण एकत्रित होते हैं वह पापसे युक्त दुः नामका अनर्थदण्ड है ।। १५२ ॥
देवताके स्मरण में स्थित पुरुषके सुख-दुःख तथा शत्रु मित्र आदिमें जो माध्यस्थ्य भावकी १. बुद्धेच्छा म., क., ङ. । २. पापोपदेशो हेतुर्यो ड. । ३. शिक्षया म. 1४. स्थितिः म ।
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हरिवंशपुराणे चतुराहारहानं यन्निरारम्भस्य पर्वसु । स प्रोषधोपवासोऽक्षाण्युपेत्यास्मिन्वसन्ति यत् ॥१५॥ गन्धमाल्यानपानादिरुपमोग उपेत्य यः । भोगोऽन्यः परिभोगो यः परित्यज्यासनादिकः ॥१५५॥ परिमाणं तयोर्यत्र यथाशक्ति यथायथम् । उपमोगपरीभोगपरिमाणवतं हि तत् ॥५५६॥ मांसमद्यमधुबूतवेश्यास्त्रीनक्तभुक्तितः । विरति नियमो ज्ञेयोऽनन्तकायादिवर्जनम् ॥१५७॥ स संयमस्य वृद्धि चर्यमततीत्यतिथिः स्मृतः । प्रदानं संविभागोऽस्मै यथाशुद्धियथोदितम् ॥१५॥ मिक्षौषधोपकरगप्रतिश्रयविभेदतः । संविभागोऽतिथिभ्यस्तु चतुर्विध उदाहृतः ॥१५९॥ सम्यक्कायकषायाणां बहिरन्तर्हि लेखना । सल्लेखनापि कर्तव्या कारणे मारणान्तिकी ॥१६॥ रागादानामनुत्तावागमोदितवर्मना । अशक्यपरिहारे हि सान्ते सल्लेखना मता ॥१६१॥ अष्टौ निश्शतादीनामष्टानां प्रतियोगिनः । सम्यग्दृष्टरतीचारास्त्याज्याः शङ्कादयः सताम् ॥१६२॥ पञ्च पञ्च त्वतीचारा व्रतशीलेषु भाषिताः । यथाक्रमममी वेद्याः परिहार्याश्च तद्वतैः ॥१६३॥
गतिरोधको बन्धो धो दण्डातिताडना । कर्णाद्यवयवच्छेदोऽप्यतिभ रातिरोपणम् ॥१६४॥ प्राप्ति है उसे सामायिक नामका पहला शिक्षाव्रत जानना चाहिए ॥१५३।। दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चार पर्वके दिनोंमें निरारम्भ रहकर चार प्रकारके आहारका त्याग करना सो प्रोषधोपवास नामका दुसरा शिक्षाबत है। जिसमें इन्द्रियाँ बाह्य-संसारसे हटकर आत्माके समीप वास करती है वह उपवास कहलाता है ।।१५४॥ गन्ध, माला, अन्न, पान आदि उपभोग हैं और आसन आदिक परिभोग हैं। पास जाकर जो भोगा जाता है वह उपभोग कहलाता है और जो एक बार भोगकर छोड़ दिया जाता है तथा पुनः भोगने में आता है वह परिभोग कहलाता है। जिस में उपभोग तथा परिभोगका यथाशक्ति परिमाण किया जाता है वह उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत है ।।१५५-१५६।। मांस, मदिरा, मधु, जुआ, वेश्या तथा रात्रिभोजनसे विरत होना एवं काम आदि जीवोंका त्याग करना सो नियम कहलाता है ॥१५७।। जो संयमकी वृद्धिके लिए निरन्तर भ्रमण करता रहता है वह अतिथि कहलाता है उसे शुद्धिपूर्वक आगमोक्त विधिसे आहार आदि देना अतिथिसंविभाग व्रत है ।।१५८|| भिक्षा, औषध, उपकरण और आवासके भेदसे अतिथि संविभाग चार प्रकारका कहा गया है ।।१५९।। मृत्युके कारण उपस्थित होनेपर बहिरंगमें शरीर और अन्तरंगमें कषायोंका अच्छी तरह कृश करनी सल्लेखना कहलाती है। व्रती मनुष्यको मरणान्तकालमें यह सल्लेखना अवश्य ही करनी चाहिए ।।१६०।। जब अन्त अर्थात् मरणका किसी तरह परिहार न किया जा सके तब रागादिकी अनुत्पत्तिके लिए आगमोक्त मार्गसे सल्लेखना करना उचित माना गया है ॥१६१।।
निशंकित आदि आठ अंगों के विरोधी शंका, कांक्षा आदि आठ दोष सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं। सत्पुरुषोंको इनका त्याग अवश्य ही करना चाहिए ।।१६२।। पाँच अणुव्रत तथा सात शील व्रतोंमें प्रत्येकके पाँच-पांच अतिचार होते हैं। यहाँ यथाक्रमसे उनका वर्णन किया जाता है। तद्-तद् व्रतोंके धारक मनुष्योंको उन अतिचारोंका अवश्य ही परिहार करना चाहिए ।।१६३॥ जीवोंकी गतिमें रुकावट डालनेवाला बन्ध, दण्ड आदिसे अत्यधिक पीटनावध, कान आदि अवयवांका छेदना, अधिक भार लादना और भूख आदिकी बाधा करनेवाला
१. इन्द्रियाणि। २. अल्पफर बहुविघातान्मलकाकनवनीत कादीनि संधानकादीनि, बहुजन्तुयोनिस्थानानि, अतोऽन्यदनिष्ठा न्निवर्तनम् (क. टि.)। ३. मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता-त. सू. । ४. रागादीनां समुत्पत्ता-म. । ५. तत्त्वार्थ सूत्रे तु पञ्चैव अतिचारा: प्रतिपादिताः । तथाहि-'शंका-कांक्षा-विचिकित्सान्यदृष्टि प्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचारा:'-त. सू.। ६. कर्णाद्यपनयच्छेदो । ७. वधबन्धच्छेदिताभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥२५॥
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अष्टपञ्चाशः सर्ग:
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अन्नपाननिरोधस्तु क्षुद्बाधादिकरोऽगिनाम् । अहिंसाणुव्रतस्योक्ता अतिचारास्तु पञ्च ते ॥१५॥ अतिसन्धापनं मिथ्योपदेश इह चान्यथा । यदभ्युदयमोक्षार्थक्रियास्वन्यप्रवर्तनम् ॥१६६॥ रहोभ्याख्यानमेकान्तस्त्रीपुंसेहाप्रकाशनम् । कूटलेखक्रियाम्येन स्वनुक्तस्य स्वलेखनम् ॥१६॥ विस्मृतन्यस्तसंख्यस्य स्वल्पं स्वं संप्रगृह्णतः । न्यासापहार एतावदित्यनुज्ञापकं वचः ॥१६॥ साकारमन्त्रभेदोऽसौ भ्रूविक्षेपादिकेङ्गित्तैः । पराकूतस्य बुद्ध्वाविर्भावनं यदसूयया ॥१६९॥ यत्सत्याणुव्रतस्यामी पञ्चातीचारकाश्विरम् । परिहार्याः समर्यादैर्विचार्याचर्यवेदिभिः ॥१७॥
धस्तेनप्रयोगस्तैराहृतादानमात्मनः । अन्यो विरुद्ध राज्यातिक्रमश्चाक्रमकक्रये ॥११॥ हीनेन दानमन्येषामधिनात्मनो ग्रहः । प्रस्थादिमानभेदेन तुलाद्युन्मानवस्तुनः ॥१२॥ रूपकैः कृत्रिमैः स्वर्णैर्वचनः प्रतिरूपकः । व्यवहारस्त्वतीचारास्तृतीयाणुव्रतस्य ते ॥१७३॥ 'परविवाहकरणमनङ्गक्रीडया गती। गृहीतागृहीतत्वोः कामतीव्रामिवेशनम् ॥१७॥ एते स्वदारसन्तोषव्रतस्याणुव्रतात्मनः । अतीचाराः स्मृताः पञ्च परिहार्याः प्रयत्नतः ॥१७५॥
अन्नपानका निरोध ये पांच अहिंसाणुव्रतके अतिचार कहे गये हैं ॥१६४-१६५॥ मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये पांच सत्याणुव्रतके अतिचार हैं। किसीको धोखा देना तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करानेवाली क्रियाओंमें दूसरोंकी अन्यथा प्रवृत्ति कराना मिथ्योपदेश है। स्त्री-पुरुषोंकी एकान्त चेष्टाको प्रकट करना रहोभ्याख्यान है। जो बात दूसरेने नहीं कही है उसे उसके नामपर स्वयं लिख देना कूटलेखक्रिया है। कोई मनुष्य धरोहरमें रखे हुए धनकी संख्या भूलकर उससे स्वल्प ही धनका ग्रहण करता है तो उस समय ऐसे वचन बोलना कि 'हां इतना ही था ले जाओ' यह न्यासापहार है। भौंहका चलना आदि चेष्टाओंसे दूसरेके रहस्यको जानकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकार मन्त्रभेद है। मर्यादाके पालक तथा आचार शास्त्रके ज्ञाता मनुष्योंको विचार कर इन अतिचारोंका अवश्य ही परिहार करना चाहिए ।।१६६-१७०।। स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्ध राज्यातिक्रम, होनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये पांच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। कृत कारित अनुमोदनासे चोरको चोरीमें प्रेरित करना स्तेनप्रयोग है। चोरोंके द्वारा चुराकर लायी हुई वस्तुका स्वयं खरीदना तदाहृतादान है । आक्रमणकर्ताकी खरीद होनेपर स्वकीय राज्यकी आज्ञाका उल्लंघन कर विरुद्ध राज्यमें आना-जाना, अपने देशको वस्तुएं वहाँ लेजाकर बेचना विरुद्ध-राज्यातिक्रम नामका अतिचार है। प्रस्थ आदि मानमें भेद और तुला आदि उन्मानमें भेद रखकर हीन मानोन्मानसे दूसरोंको देना और अधिक मानोन्मानसे स्वयं लेना होनाधिक मानोन्मान नामका अतिचार है। कृत्रिममिलावटदार सोना, चाँदी आदिके द्वारा दूसरोंको ठगना प्रतिरूपक नामका अतिचार है ॥१७१-१७३॥ परविवाहकरण, अनंगक्रीड़ा, गृहीतेत्वरिकागमन, अगृहीतेत्वरिकागमन और कामतीव्राभिनिवेश ये पांच स्वदारसन्तोषव्रतके अतिचार हैं। प्रयत्नपूर्वक इनका परिहार करना चाहिए। अपनी या अपने संरक्षणमें रहनेवाली सन्तानके सिवाय दूसरेकी सन्तानका विवाह कराना परविवाहकरण है। काम-सेवनके लिए निश्चित अंगोंके अतिरिक्त अंगोके द्वारा काम सेवन करना
१. विचार्याचार्यवेदिभिः म.। २. मिथ्योपदेशरहोम्याख्यानकटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥ -त. सू अ. ७ । ३. मुह्यन्तं स्वयमेव प्रयुङ्क्ते अन्येन वा प्रयोजयति, प्रयुक्तमनुमन्यते वा यतः स स्तेनप्रयोगः (क. दि.)। ४. मित्येषा-म., क., ङ.। ५. स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ । ६. परविवाहकरणेत्वरिकापरिगहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाकामतीवाभिनिवेशाः ॥ २८ ।।
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हरिवंशपुराणे
हिरण्यस्वर्णयोवस्तु क्षेत्रयोर्धनधान्ययोः । दासीदासाद्ययोः पञ्च कुप्यस्यैते व्यतिक्रमाः ॥ १७६ ॥ दिग्विरस्यतिचारोऽवस्तिर्यगूर्ध्वव्यतिक्रमाः । लोभात्स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चधा ॥ १७७॥ ● प्रेष्यप्रयोगानयन पुद्गलक्षेपलक्षणाः । शब्दरूपानुपातौ द्वौ तद्देशविरतिर्धते ॥ १७८ ॥ पञ्च कन्दर्प कौरकुच्च मौखर्याणि तृतीयके । असमीक्ष्याधिकरणोपभोगादिनिरर्थने ॥ १७९ ॥
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अनंगक्रीड़ा है। दूसरेके द्वारा गृहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके यहाँ जाना गृहीतेश्वरिकागमन है । दूसरे द्वारा अगृहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके यहाँ जाना अगृहीतेत्वरिकागमन है । और स्वस्त्रीके साथ भी काम सेवनमें अधिक लालसा रखना कामतीव्राभिनिवेश है ।।१७४ - १७५ ।। हिरण्यसुवणं, वास्तु-क्षेत्र, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य -- बर्तन, चाँदी आदिको हिरण्य तथा सोना व सोने के आभूषण आदिको सुवर्ण कहते हैं । रहने के मकानको वास्तु और गेहूँ, चना आदिके उत्पत्ति स्थानोंको क्षेत्र कहते हैं। गाय, भैंस आदिको धन तथा गेहूं, चना आदि अनाजको धान्य कहते हैं । दासी दास शब्दका अर्थ स्पष्ट है। बर्तन तथा वस्त्रको कुप्य कहते हैं। इनके प्रमाणका उल्लंघन करना सो हिरण्यसुवर्णातिक्रम आदि अतिचार होते हैं || १७६।।
अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, ऊर्ध्वव्यतिक्रम, स्मृत्यन्तराधान और क्षेत्रवृद्धि ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार हैं। लोभके वशीभूत होकर नीचेकी सीमाका उल्लंघन करना अधोव्यतिक्रम है, समान धरातल की सीमाका उल्लंघन करना तिर्यग्व्यतिक्रम है । ऊपरको सीमाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है । की हुई सीमाको भूलकर अन्य सीमाका स्मरण रखना स्मृत्यन्तराधान है तथा मर्यादित क्षेत्रकी सीमा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है || १७७॥ प्रेष्य प्रयोग, आनयन, पुद्गल क्षेप, शब्दानुपात और रूपानुपात ये पाँच देशव्रतके अतिचार हैं । मर्यादाके बाहर सेवकको भेजना प्रेष्यप्रयोग है । मर्यादासे बाहर किसी वस्तुको बुलाना आनयन है । मर्यादा के बाहर कंकड़-पत्थर आदिका फेंकना पुद्गलक्षेप है, मर्यादाके बाहर अपना शब्द भेजना शब्दानुपात है और मर्यादाके बाहर काम करनेवाले लोगोंको अपना रूप दिखाकर सचेत करना रूपानुपात है || १७८||
कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखयं, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये पाँच अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार हैं। रागकी उत्कष्टतासे हास्यमिश्रित भण्ड वचन बोलना कन्दर्प है । शरोरसे कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है । आवश्यकतासे अधिक बोलना मौखयं है । प्रयोजनका विचार न रख आवश्यकता से अधिक किसी कार्य में प्रवृत्ति करना-कराना असमीक्ष्याधिकरण है और उपभोग - परिभोगकी वस्तुओंका निरर्थक संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है || १७९ || मनोयोग दुष्प्रणिधान, वचनयोग दुष्प्रणिधान, काययोग दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पांच सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार हैं । मनको अन्यथा चलायमान करना मनोयोगदुष्प्रणिधान है, वचनकी अन्यथा प्रवृत्ति करना - पाठका अशुद्ध उच्चारण करना वचनयोग दुष्प्राणधान है । कायको चलायमान करना काययोग दुष्प्रणिधान है । सामायिकके प्रति आदर वा उत्साह नहीं होना- बेगार समझकर करना अनादर है और चित्तको एकाग्रता न होनेसे सामायिककी विधि या पाठका भूल जाना अथवा कार्यान्तर में उलझकर सामायिकके समयका स्मरण
१. क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकु प्यप्रमाणातिक्रमाः ।। २९ ।। २ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥ ३० ॥ ३. आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपात पुद्गलक्षेपा: ।। ३१ ।। स्मृत्यन्तराध्यानं क. । ४. कन्दपंकौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
योगनिःप्रणिधानानि त्रीण्यनादरता च ते । पञ्च स्मृत्यनुपस्थानं स्युः सामायिकगोचराः ॥१८॥ अनवेक्ष्य मलोत्सर्गादानसंस्तरसंक्रमाः । स्युः प्रोषधोपवासस्य ते नै काम्यमनादरः ॥१८१॥ 'सचित्ताहारसंबन्धसन्मिश्राभिषवास्तु ते । उपमोगपरीभोगे दुष्पक्काहार एव च ॥१८२॥
ते सञ्चित्तेन निक्षेपः सचित्तावरणं परम् । व्यपदेशश्च मात्सयं कालातिक्रमतातिथौ ॥१८३॥ "आशंसे जीविते मृत्यौ निदानं दोनचेतसः। सुखानुबन्धमित्रानुरागी सल्लेखनामला: ॥१८४॥ सम्यग्ज्ञानादिवृद्ध धादिस्वपरानुग्रहेच्छया । दानं त्यागोऽतिसंर्गाख्यः प्रासुकं स्वस्य पात्रगम् ॥१५॥ विधिदेय विशेषाभ्यां दातृपात्रविशेषतः । भेदः फलस्य भूम्यादेर्मेदासस्यद्धिभेदवत् ॥१८६॥ प्रतिग्रहादिषु प्रायः सादरानादरत्वतः । दानकाले विधौ भेदः फलभेदस्य कारकः ॥१८॥ तपःस्वाध्यायवृद्धयादेदेयभेदोऽपि हेतुतः' । एक हि साम्यकृद्देयं ततो वैषम्यकृत्परम् ॥१८॥
नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है ।।१८०।। बिना देखी हुई जमीनमें मलोत्सर्ग करना, बिना देखे किसी वस्तुको उठाना, बिना देखी हुई भूमिमें बिस्तर आदि बिछाना, चित्तकी एकाग्रता नहीं रखना और व्रतके प्रति आदर नहीं रखना ये पाँच प्रोषधोपवास व्रतके अतिचार हैं ॥१८१|| सचित्ताहार, सचित्त सम्बन्धाहार, सचित्त सन्मिश्राहार, अभिषवाहार और दुष्पक्वाहार ये पाँच उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रतके अतिचार हैं। सचित्त-हरी वनस्पति आदिका आहार करना सचित्ताहार है। सचित्तसे सम्बन्ध रखनेवाले आहार-पानको ग्रहण करना सचित्त सम्बन्धाहार है । सचित्तसे मिली हुई अचित्त वस्तुका सेवन करना सचित्तसन्मिश्राहार है। गरिष्ठ पदार्थों का सेवन करना अभिषवाहार है और अधपके अथवा अधिक पके आहारका ग्रहण करना दुष्पक्वाहार है ।।१८२।। सचित्त-निक्षेप, सचित्तावरण, पर-व्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रमता ये पाँच अतिथिसंविभाग व्रतके अतिचार हैं । हरे पत्ते आदिपर रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है। हरे पत्ते आदिसे ढका हुआ आहार देना सचित्तावरण है। अन्य दाताके द्वारा देय वस्तुका देना परव्यपदेश है। अन्य दाताओंके गुणको नहीं सहन करना मात्सर्य है और समय उल्लंघन कर देना कालातिक्रम है ।।१८३।। जीविताशंसा, मरणाशंसा, निदान, सुखानुबन्ध और मित्रानुराग ये पाँच सल्लेखनाके अतिचार हैं। क्षपकका दीनचित्त होकर अधिक समय तक जीवित रहनेकी आकांक्षा रखना जीविताशंसा है। पीड़ासे घबड़ाकर जल्दी मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा है। आगामी भोगोंकी आकांक्षा करना निदान है। पहले भोगे हुए सुखका स्मरण रखना सुखानुबन्ध है और मित्रोंसे प्रेम रखना मित्रानुराग है ।।१८४।। सम्यग्ज्ञानादि गुणोंकी वृद्धि आदि स्व-परके उपकारकी इच्छासे योग्य पात्रके लिए प्रासुक द्रव्यका देना त्याग कहलाता है, इसका दूसरा नाम अतिसगं भी है ।।१८५।। जिस प्रकार भूमि आदिके भेदसे धान्यकी उत्पत्ति आदिमें भेद होता है उसी प्रकार विधि द्रव्य दाता और पात्रकी विशेषतासे दानके फलमें भेद होता है ॥१८६|| दानके
पडगाहने आदिकी क्रियाओंमें आदर या अनादरके होनेसे दानकी विधिमें भेद हो जाता है और वह फलके भेदका करनेवाला हो जाता हैं ।।१८७|| तप तथा स्वाध्यायकी वृद्धि आदिका कारण होनेसे देयमें भेद होता है । यथार्थमें एक पदार्थ तो ऐसा है जो लेनेवालेके लिए समताभावका करनेवाला होता है और दूसरा पदार्थ ऐसा है जो विषमताका करनेवाला होता है। इसलिए
१. योगदुष्प्रणिधानानादरस्मत्यनुपस्थानानि ॥ ३३॥ २. अप्रवेक्ष्य ख.। ३. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मत्यनुपस्थानानि ॥३४॥ ४. सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पवाहराः ॥३५॥ ५. सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः ।।३६॥ ६. अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः ( का. टि.) ७. जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥३७॥ ८. निसर्गाख्यः म.। ९. अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८॥ १०, विधिद्रव्यदातपात्र विशेषात्तद्विशेषः ॥३९।। ११. हेतुता म., ङ. ।
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हरिवंशपुराणे
अनसूयाविषादादिरसूयादिपरस्स्वयम् । दायकस्य विशेषोऽपि विचित्रा हि मनोगतिः ॥१८९॥ मोक्षकारणभूतानां दानानां धारणे सताम् । तारतम्यं मन:शुद्ध विशेषः पात्रगोचरः ॥१९॥ पुण्यासवः सुखानां हि हेतुरभ्युदयावहः । हेतुः संसारदुःखानामपुण्यास्रव इष्यते ॥१९१॥ 'मिथ्यादर्शनमात्मस्थं हिंसाद्य विरतिस्तथा । प्रमादश्च कपायश्च योगो बन्धस्य हेतवः ।।१९२॥ हन्मिथ्यादर्शनं द्वेधा निसर्गान्योपदेशतः । मिथ्याकर्मोदयादाद्यं तत्त्वाश्रद्धानलक्षणम् ।।१९३।। परोपदेशपूर्व तु चतुर्धा मतभेदतः । क्रियावाद्यक्रियाबादिविनयाज्ञानिकत्वतः ।।१९४।। एकान्त विपरीतत्वविनयाज्ञानसंशयः । निमित्तः पञ्चधा चापि मिथ्यादर्शनमिष्यते !!१९५।। द्विषोढाऽविरतिज्ञेया प्रमादोऽनेकधा स्थितः । नवमि! कषायैस्तु कषायाः पञ्चविंशतिः ॥१९६॥ *चत्वारः स्युर्मनोयोगा वाग्योगाश्च तथैव ते । काययोगास्तु पञ्चापि मता योगास्त्रयोदश ।।१९७॥
देय द्रव्य में भेद होनेसे दानके फलमें भो भेद होता है ॥१८८|| कोई दाता तो ईर्ष्या, विषाद आदि दुर्गुणोंसे रहित होता है और कोई दाता ईष्या आदि दुर्गुणोंसे युक्त होता है। यही दाताकी विशेषता है। यथार्थमें मनको गति विचित्र होती है ।।१८९॥ मोक्षके कारणभूत दानोंके ग्रहण करनेमें सत्पुरुषों के मनकी शद्धिका जो तारतम्य-हीनाधिकता है वह पात्रकी विशेषता है॥१९॥ पुण्यास्रव अनेक कल्याणोंको प्राप्ति करानेवाला होनेसे सुखोंका कारण कहा जाता है और पापास्रव संसारके दुःखोंका कारण माना जाता है ।।१९।। इस प्रकार आस्रव तत्त्वका वर्णन होनेके बाद भगवान्की दिव्य ध्वनिमें बन्ध तत्त्वका वर्णन प्रारम्भ हुआ।
आत्मपरिणामोंमें स्थित मिथ्यादर्शन, हिंसा आदि अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके कारण हैं ||१९२।। इनमें मिथ्यादर्शन, निसर्गज ( अगृहीत ) और अन्योपदेशज (गहीत ) के भेदसे दो प्रकारका है। मिथ्यात्वकके उदयसे जो तत्त्वका अश्रद्धान होता है वह निसर्गज मिथ्यादर्शन है ॥१९३।। और परोपदेशपूर्वक होनेवाले अतत्त्व श्रद्धानको अन्योपदेशज मिथ्यादर्शन कहते हैं। इसके क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिक और अज्ञानीके भेदसे चार भेद हैं ॥१९४| इनके सिवाय एकान्त, विपरीत, विनय, अज्ञान और संशय इन निमित्तोंकी अपेक्षा मिथ्यादर्शन पांच प्रकारका भी माना जाता है। वस्तु अनेक धर्मात्मक है परन्तु उसे एक धर्मरूप हो श्रद्धान करना एकान्त मिथ्यादर्शन है, जैसे वस्तु नित्य ही है अथवा अनित्य ही है। वस्तुका जैसा स्वरूप है उससे विपरीत श्रद्धान करना सो विपरीत मिथ्यादर्शन है जैसे हिंसामें धर्म मानना, सग्रन्थवेषसे मोक्ष मानना आदि। देव-अदेव, और तत्त्व अतत्त्वका विवेक न रखकर सबको एकसा मानना तथा सबकी भक्ति करना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। हिताहितको परीक्षा-रहित अज्ञानमूलक रूढिवश श्रद्धान करना सो अज्ञान मिथ्यादर्शन है और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र मोक्षका मार्ग है या नहीं ? अहिंसामें धर्म है या हिंसामें । इस प्रकार सन्देह रूप श्रद्धान करना संशय मिथ्यादर्शन है ॥१९५।। पाँच स्थावर और त्रस इन छह कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं करना, तथा पांच इन्द्रिय और मनको वश नहीं करना यह बारह प्रकारकी अविरति है। प्रमाद अनेक प्रकारका है और नौ नोकषायोंको साथ मिलाकर अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ आदिके भेदसे कषायके पच्चीस भेद हैं ।।१९६।। सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोगके भेदसे मनोयोग चार प्रकारके हैं। सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग
१. अनुसूया म.। २. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥१॥ त सू अ.८। ३. चत्वारो मनोयोगाः चत्वारो वाग्योगाः पञ्चकाययोना इति त्रयोदश विकल्पो योगः । आहारककाययोगाः आहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते सम्भवात् पञ्चदशापि भवन्ति-स. सि. अ.८ ।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः समस्तव्यस्तरूपास्तु पञ्चैते बन्धहेतवः । मिथ्यादृष्टेर्हि पञ्चोवं चत्वारस्त्रिषु पश्चिमाः ॥१९॥ विरस्यविरतिमिश्राः प्रमादाद्यास्त्रयः परे । संयतासंयतस्योक्ताः कर्मबन्धस्य हेतवः ॥१९९॥ प्रमत्तसंयतस्यापि योगान्तात्रय एव ते । तत ऊवं चतुर्णा तु कषायायोगसंगताः ॥२०॥ शान्तक्षीणकषायौ तौ सयोगकेवली तथा । बन्धका योगतन्मात्रादयोगो नैव बन्धकः ॥२०॥ कषायकलुषो ह्यात्मा कर्मणो योग्यपुद्गलान् । प्रतिक्षणमुपादत्ते स बन्धो नेकधा मतः ॥२०॥ प्रकृतिश्च स्थितिश्चापि स बन्धोऽनुभवस्ततः । प्रदेशबन्धभेदेन चातुर्विध्यं प्रपद्यते ॥२०३॥ प्रकृतिः स्यात्स्वभावोऽत्र निम्बादेस्तिक्ततादिवत् । कर्मणामिह सर्वेषां यथास्वं नियता स्थिता । २०४॥ अज्ञानं प्रकृतिज्ञया ज्ञानावरण कर्मण: । दृश्यार्थादर्शनं दृश्या दर्शनावरणस्य सा ॥२०५॥ सदसल्लक्षणस्यापि वेदनीयस्य कर्मणः । संवेदनं विदां वेद्यं प्रकृतिः सुख-दुःखयोः ॥२०६॥ दृष्टादर्शनमोहस्य तत्त्वाश्रद्धानमेव सा । तथा चारित्रमोहस्य महतोऽसंयमः सदा ॥२०७॥ प्रकृतिः प्रतिपन्ना तु भवधारणमायुषः । देवनारकनामादिकरणं नामकर्मणः ॥२०॥
और अनुभव वचनयोगके भेदसे वचनयोगके चार भेद हैं। तथा औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, वैक्रियिक काययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग और कार्मण काययोगके भेदसे काययोगके पाँच भद हैं। इस प्रकार सब मिलाकर योगके तेरह भेद हैं। भावार्थ-प्रमत्त संयत गुणस्थानमें आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोगकी भी सम्भावना रहती है इसलिए उन्हें मिलानेपर योगके पन्द्रह भेद हो जाते हैं ॥१९७|| ये मिथ्यादर्शनादि पांच समस्त और व्यस्त रूपसे बन्धके कारण हैं। अर्थात् कहीं सब बन्धके कारण हैं और कहीं कम । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पांचों ही बन्धके कारण हैं। उसके तीन गुणस्थानोंमें मिथ्यादर्शनको छोड़कर अन्तिम चार बन्धके कारण हैं ।।१९८।। संयतासंयत नामक पंचम गुणस्थानमें विरति, अविरति, मिश्रित तथा प्रमाद आदि तीन कर्मबन्धके हेतु कहे गये हैं ॥१९९|| प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानवर्ती जीवके प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्धके कारण हैं। इसके आगे चार गुणस्थानोंमें अर्थात् सातवेंसे लेकर दसवें गुणस्थान तक कषाय और योग ये दो बन्धके कारण हैं ।।२००।। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली इन तीन गुणस्थानोंके जीवमात्र योगके निमित्तसे कर्मबन्ध करते हैं । अयोगकेवली भगवान् योगका भी अभाव हो जानेसे कर्मोका बन्ध नहीं करते हैं ।।२०१॥
___कषायसे कलुषित जीव प्रत्येक क्षण कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। वही बन्ध कहलाता है। यह बन्ध अनेक प्रकारका माना गया है ।।२०२।। सामान्यरूपसे बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार भेदोंको प्राप्त होता है ॥२०३|| प्रकृतिका अर्थ स्वभाव होता है। जिस प्रकार नीम आदिकी प्रकृति तिक्तता आदि है उसी प्रकार समस्त कर्मोको अपनी-अपनी प्रकृति नियतरूपसे स्थित है ॥२०४॥ जैसे ज्ञानावरण कर्मकी प्रकृति अज्ञान अर्थात् पदार्थका ज्ञान नहीं होने देना। दर्शनावरण कर्मकी प्रकृति पदार्थोंका अदर्शन अर्थात् दर्शन नहीं होने देना है ।।२०५॥ साता, असातावेदनीय कर्मको प्रकृति ज्ञानी मनुष्योंको क्रमसे सुख और दुःखका वेदन कराना है ॥२०६॥ दर्शनमोहकी प्रकृति तत्त्वका अश्रद्धान कराना है तथा अतिशय महान चारित्रमोह कर्मकी प्रकृति सदा असंयम उत्पन्न करना है ॥२०७|| आयकर्मको प्रकृति भवधारण करना है। नामकर्मको प्रकृति जीवमें देव, नारकी आदि संज्ञाएं उत्पन्न करना है ।।२०८।। १. सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥ त. सू. अ. ८। २. प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ॥३॥ त. सू. अ.८।
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हरिवंशपुराणे गोत्रस्योच्चैश्च नीचैश्च स्थानसंशब्दनं तथा । अन्तरायस्य दानादिविघ्नानां करणं घनम् ॥२०॥ तदेवं लक्षणं कार्य यत्तत्प्रक्रियते ततः । प्रकृतिस्तत्स्वभावस्य तथैवाप्रच्युतिः स्थितिः ॥२१०॥ यथाजागोमहिष्यादिक्षीराणां स्वस्वभावतः । माधुर्यादच्युतिस्तद्वत्कर्मणां प्रकृतिस्थितिः ॥२१॥ तीवमन्दादिमावेन क्षीरे रसविशेषवत् । कर्मपुद्गलसामर्थ्यविशेषोऽनुभवो मतः ॥२१२॥ कर्मवपरिणत्यात्मपुद्गलस्कन्धसंहतेः । प्रदेशः परमाण्वात्मपरिच्छेदावधारणा ॥२१३॥ 'प्रकृतेः सप्रदेशाया नित्यं योगनिमित्तता । स्थितेः सानुभवायास्तु स्यात्कषाय निमित्तता ॥२४॥ अनेनावियते ज्ञानमावृणोतीति वा स्वयम् । ज्ञानावरणमाख्यातं दर्शनावरणं तथा ॥२१५॥ वेद्यते वेदयत्येवं वेदनीयमनेन वा । मोद्यते मोहयत्येवं मोहनीयमपीरितम् ॥२१॥ नारकादिमवानेति स्वनेनेत्यायुरित्यपि । नम्यतेऽनेन वात्मानं नमयत्यपि नाम तत् ॥२१७॥ गूयते शब्द्यते गोत्रमुच्चैर्नीचैश्च यत्नतः । अन्तरायोऽन्तरं मध्यं देयादेरेति यत्नतः ॥२१८॥ एकात्मपरिणामेन गृह्यमाणा हि पुद्गलाः । नानाकर्मत्वमायान्ति प्रभुक्तान्नरसादिवत् ॥२१९॥ मूलप्रकृतिभेदोऽयमष्टभेदः प्रभावितः । उत्तरप्रकृतीनां तु भेदोऽतः परमुच्यते ॥२२॥
गोत्र कमकी प्रकृति उच्च और नीच व्यवहार कराना है तथा अन्तराय कर्मकी प्रकृति दान आदिमें तीव्र विघ्न करना है ।।२०९॥ इसलिए ऐसा लक्षण करना चाहिए कि कर्मोके द्वारा जो किया जाता है वही प्रकृतिबन्ध है और उनका अपने स्वभावसे च्युत नहीं होना सो स्थितिबन्ध है ॥२१०॥
___ जिस प्रकार बकरी, गाय तथा भैंस आदिके दूध अपने-अपने स्वभावसे ही माधुर्य गुणसे च्युत नहीं होते हैं उसी प्रकार कम भी अपनी-अपनी प्रकृतिसे च्युत नहीं होते हैं ।।२११।।।
___जिस प्रकार दूधमें रसविशेष, तीव्र अथवा मन्द आदि भावसे रहता है उसी प्रकार कर्मरूप पुद्गलमें भी सामर्थ्य-विशेष तीव्र अथवा मन्द आदि भावसे रहता है। यही अनुभवबन्ध माना गया है ।।२१२॥ आत्माके कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्धोंके समूहमें परमाणुके प्रमाणसे कल्पित परिच्छेदों-खण्डोंकी जो संख्या है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है ॥२१३।। प्रकृति और प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होते हैं तथा स्थिति और अनुभवबन्ध कषायके निमित्तसे माने गये हैं ॥२१४॥
जिसके द्वारा ज्ञान ढंका जाये अथवा जो स्वयं ज्ञानको ढाँके वह ज्ञानावरण कम है। इसी प्रकार दर्शनावरण कर्मकी निरुक्तिका जानना चाहिए अर्थात् जिसके द्वारा दर्शन ढंका जाये अथवा जो स्वयं दर्शनको ढाँके उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।।२१५॥ जिसके द्वारा सुखदुःखका वेदन-अनुभव कराया जाये अथवा जो स्वयं सुख-दुःखका अनुभव करे वह वेदनीय कर्म है। जिसके द्वारा जीव मोहित किया जाये अथवा जो स्वयं मोहित करे वह मोहनीय कम है ।।२१६।। जीव जिसके द्वारा नरकादि भवको प्राप्त कराया जाये अथवा जो स्वयं नारकादि भवको प्राप्त हो वह आय कम है। आत्मा जिसके द्वारा नाना नामोंको प्राप्त कराया जाये अथवा जो स्वयं आत्माको नाना नामोंसे युक्त करे वह नामकर्म है ।।२१७।। आत्मा जिसके द्वारा प्रयत्नपूर्वक उच्च अथवा नीच कहा जाता है वह गोत्र कहलाता है और जो यत्नपूर्वक देय आदिके बीच में आ जाता है वह अन्तराय कर्म है ॥२१८॥ जिस प्रकार एक बार खाया हुआ अन्न रस, रक्त आदि नानारूपताको प्राप्त होता है, उसी प्रकार एक आत्मपरिणामके द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गल नाना कर्मरूपताको प्राप्त हो जाते हैं ।।२१९॥ यह आठ
१. जोगा पयडि-पदेशा ठिदिअणुभागा कसायदो होति । अपरिणदुच्छिण्णेमु य बंधदिदिकारणं णत्थि ।। गो. कर्म.॥
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
पञ्चधा ज्ञानावरणं नवधा दर्शनावृतिः । द्विधा तु वेदनीयं स्यान्मोहोऽष्टाविंशतिस्थितिः ॥२२१॥ आयुश्चतुर्विधं नाम द्विचत्वारिंशदीरितम् । द्विविधं गोत्रमुद्गीतमन्तरायस्तु पञ्चधा ॥२२२॥ मतिश्रुतावधिज्ञानमनःपर्ययकेवलैः। आवृत्यैरावृतीः पञ्च झुत्तरप्रकृतीर्विदुः ॥२२३॥ द्रव्यार्थादेशतः 'शक्तर्मनापर्ययकेवली। अभव्योऽप्यस्ति यत्तत्स्थं ज्ञानावरणपञ्चकम् ॥२२४॥ व्यक्तियोग्यत्वसद्भावापेक्षा भव्यस्य मव्यता । कैवल्यव्यक्त्य योग्यत्वादमव्यस्य रामव्यता ॥२२५॥ चक्षुषोऽचक्षुषो दृष्टेरवधेः केवलस्य च । चत्वार्यावरणान्येवं निद्राद्यैः पञ्चमिव ॥२२६॥ मदखेदविनोदार्थः स्वापो निद्राधिकस्वतः । उपयुपरि तदवृत्तिनिद्रानिद्रामिधीयते ॥२२७॥
प्रकारका मूल प्रकृतिबन्ध कहा गया है, अब इसके आगे उत्तर प्रकृतियोंके भेद कहे जाते हैं ।।२२०।।
ज्ञानावरण पाँच प्रकारका है, दर्शनावरण नौ प्रकारका है, वेदनीय दो प्रकारका है, मोहनीय अट्ठाईस प्रकारका है, आयु चार प्रकारका है, नाम बयालीस प्रकारका है, गोत्र दो प्रकारका कहा गया है और अन्तराय पाँच प्रकारका है ।।२२१-२२२।। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पांच आवरण करने योग्य गुण हैं। इन्हें आवरण करनेवाले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण कर्मको उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥२२३।। द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा शक्तिरूपसे अभव्य जीव भी मनःपर्यय और केवलज्ञानसे युक्त है, अतः उसके भी ज्ञानावरणके पांचों भेद स्थित हैं ॥२२४॥
भव्य जीवकी भव्यता उक्त गुणोंके प्रकट होनेकी योग्यताके सद्भावकी अपेक्षा रखती है और अभव्य जीवकी अभव्यता केवलज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञानके प्रकट होनेकी योग्यता न होनेकी अपेक्षासे है। भावार्थ-किसीने प्रश्न किया था कि जब भव्य और अभव्य दोनोंके ही मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानकी शक्ति विद्यमान है तब इनमें भव्यता और अभव्यताका भेद कैसे हुआ? इसका उत्तर ग्रन्थकर्ताने दिया है कि भव्य जीवके उन शक्तियोंकी प्रकटता हो जाती है और अभध्य जीवके उनकी प्रकटता नहीं होती ||२२५।।
चक्षुर्दशनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार आवरण तथा निद्रा आदिक पाँच अर्थात् निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्राएं सब मिलाकर दर्शनावरण कर्मकी नौ उत्तर प्रकृतियां हैं। जो जीवके चक्षुर्दशनचक्षुइन्द्रियसे होनेवाले सामान्य अवलोकनको प्रकट न होने दे वह चक्षुर्दर्शनावरण है । जो अचक्षुर्दर्शन-चक्षुको छोड़कर अन्य इन्द्रियों तथा मनसे होनेवाले सामान्य अवलोकनको प्रकट न होने दे वह अचक्षुर्दर्शनावरण है । जो अवधिदर्शन-अवधिज्ञानके पहले प्रकट होनेवाले सामान्य अवलोकनको न होने दे यह अवधिदर्शनावरण है और जो केवलदर्शन-केवलज्ञानके साथ होनेवाले सामान्यावलोकनको न होने दे वह केवलदर्शनावरण है ॥२२६।। मद तथा खेदको दूर करनेके लिए सोना निद्रा कहलाती है । ऊपर-ऊपर अधिक रूपसे निद्राका आना निद्रानिद्रा कही जाती
१. शक्तिर्मन: म., ख., ङ. । २. अभव्याप्यस्ति क., ङ। अत्र चोद्यते-अभव्यस्य मनःपर्ययज्ञानशक्तिः केवलज्ञानशक्तिश्च स्याद्वा न वा ? यदि स्यात् तस्याभव्यत्वाभावः । अथ नास्ति तत्रावरणद्वयकल्पना व्यर्थति ? उच्यते-आदेशवचनान्न दोषः । द्रव्यार्थादेशान्मनःपर्ययकेवलज्ञानशक्तिसंभवः। पर्यायार्थादेशात्तच्छक्त्यभावः। यद्येवं भव्याभव्यविकल्पो नोपपद्यते; उभयत्र तच्छक्तिसद्भावात् । न शक्तिभावाभावापेक्षया भव्याभव्यविकल्प इत्युच्यते । कुतस्तहि ? व्यक्तिसद्भावासद्भावापेक्षया । स. सि. अ. ८ सूत्र ६ ।
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हरिवंशपुराणे
श्रमादिप्रमवात्मानं प्रचला प्रचलयत्यलम् । सा पुन: पुनरावृत्ता प्रचलाप्रचलाभिधा ॥२२८॥ स्त्यानगृद्धिर्ययास्त्याने स्वप्ने गृध्यति दीप्यते । आस्मा यदुदयाद्रौद्रं बहुकर्म करोति सा ॥२२९॥ शारीरं मानसं सौख्यं दुःखं चोदयते ययोः । स्यातां ते वेदनीये स्तः सातासाते यथाकमम् ॥२३॥ सम्यक्त्वं चापि मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वमित्यदः । दृश्यं दर्शनमोहस्य ह्यत्तरं प्रकृतित्रिकम् ॥२३॥ शुभात्मपरिणामेन निरुद्धस्वरसे स्थिते । मिथ्यात्वे श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वप्रकृतिर्भवेत् ॥२३२॥ मिथ्यात्वे त्वर्धसंशुद्ध कोद्रवे मदशक्तिवत् । शुद्धाशुद्धात्मको भावः सम्यग्मिथ्यात्वमुच्यते ॥२३३॥ द्वेधा चारित्रमोहस्तु नोकषायकषायतः । नवधा नोकषायोऽत्र कषायाः षोडशोदितः ॥२३४॥ उदयाद्यस्य हासाविर्भावो हास्यं तदुत्सुकः । यस्योदयादतिः सा स्यादरतिस्त द्विपर्ययः ॥२३५॥ शोचनं यद्विपाकात्स शोक उद्वेग कृद्भयम् । स्वदोषगोपनं यस्य जुगुप्सा सा जुगुप्सिता ॥२३॥ भावांस्त्रैणान्यतो याति स स्त्रीवेदोऽतिगर्हितः । पुन्नपुंसकवेदी स्तः पौंस्नान्नापुंसकात् यतः ॥२३७॥
है ।।२२७|| थकावट आदिसे उत्पन्न होनेवाली जो निद्रा जीवको बैठे-बैठे ही अत्यधिक चपल कर देवे वह प्रचला है। प्रचला जब बार-बार अधिक रूपमें आती है तब प्रचलाप्रचला कहलाने लगती है ।।२२८|| जिसके द्वारा आत्मा स्त्यान अर्थात् सोते समय गृद्धता करने लगे-किसी कर्ममें सचेष्ट हो जावे और जिसके उदयसे यह जीव अत्यधिक कठिन काम कर ले वह स्त्यानगृद्धि है। यह पाँच प्रकारको निद्रा, दर्शनावरण कर्मके उदयसे आती है और इन निद्राओंके माध्यमसे दर्शनावरण कर्म आत्माके दर्शनगुणको घातता है ।।२२२|| वेदनीय कर्मके दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। जिनके उदयसे शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं वे यथाक्रमसे सातावेदनीय और असातवेदनीय कहलाते हैं ॥२३०।।
मोहनीय कर्मके मूलमें दो भेद हैं-१. दर्शनमोहनीय, २. चारित्रमोहनीय। इनमें से दर्शनमोहनीयको सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व ये तीन उत्तर प्रकृतियाँ हैं ।।२३१|| आत्माके शुभ परिणामोंसे जब मिथ्यात्वप्रकृतिका स्वरस-फल देनेको शक्ति रुक जाती है तब श्रद्धान करनेवाले जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होता है। इस प्रकृतिके उदयसे आत्माका श्रद्धानगुण तिरोहित नहीं होता किन्तु चल, मल, अगाढ़ दोषोंसे दूषित हो जाता है ।।२३२।। मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे श्रद्धान गुण विकृत हो जाता है और अतत्त्व श्रद्धानरूपी परिणति हो जाती है। अर्ध शुद्ध कोदोंकी मदशक्तिके समान मिथ्यात्व प्रकृतिके अर्द्ध शुद्ध होनेपर जीवका जो शुद्ध और अशुद्ध भाव एक साथ प्रकट होता है वह सम्यमिथ्यात्व कहलाता है। सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीवके परिणाम दही और गुड़के मिश्रित स्वादके समान श्रद्धान और अश्रद्धान रूप होते हैं ॥२३३॥
नोकषाय और कषायके भेदसे चारित्रमोहके दो भेद हैं। इनमें नोकषायके नौ और कषायके सोलह भेद कहे गये हैं ॥२३४।। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद ये नौ नोकषायके भेद हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके उदयसे उत्सुक होता हुआ हास्य प्रकट हो वह हास्यकम है। जिसके उदयसे रति-प्रीति उत्पन्न हो वह रति कर्म है। जिसके उदयसे अरति-अप्रीति उत्पन्न हो वह अरति है। जिसके उदयसे शोक हो वह शोक है । जो उद्वेग-भय उत्पन्न करनेवाला है वह भय है। जिसके उदयसे अपने दोष छिपाने में प्रवृत्ति हो वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे यह जीव स्त्रीके भावको अर्थात् पुरुषसे रमने की इच्छाको प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषके भावको अर्थात् स्त्रीसे रमनेकी इच्छाको प्राप्त होता है वह पुरुषवेद है। और जिसके उदयसे नपुंसकके भावको-अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनोंसे रमनेकी इच्छाको प्राप्त होता है वह नपुंसक वेद है ।।२३५-२३७||
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
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कषायाः क्रोधमानौ च मायालोमौ च घातकाः । सम्यक्त्वस्य सवृत्तस्य तत्रानन्तानुबन्धिनः ॥ २३८ ॥ यदीयोदयतो ह्यात्मा प्रत्याख्यातुं न शक्नुयात् । हिंसादीन्युदयांस्ते स्युरप्रत्याख्यानसंज्ञकाः ४ २३ ॥ यदीयोदयतो जीवः संयमं न प्रपद्यते । ते क्रोधमानमायायाः प्रत्याख्यान विनिःश्रुताः ॥२४१ ॥ यदीयोदयतो वृत्तं यथाख्यातं न जायते । ज्वलन्तः संयमेनामा ख्याताः 'संज्वलनास्तु ते ॥ २४५॥ नारकं नरकोद्भूतं तैर्यग्योनं च मानुषम् । दैवं चायुर्भवेत्तेषु चतुर्विधमितीरितम् ॥ २४२ ॥ यदीयोदयतो जन्तुर्भवान्तरमियति सा । गतिश्चतुर्विधा देवनरकादिविभेदतः ॥ २४३ ॥ आत्मनो नरकादिश्वं यन्निमित्तं प्रजायते । तत्स्यान्नरकगत्यादि गतिनाम चतुर्विधम् ॥ २४४॥ गतिकीकृतार्था सा साम्येनाभ्यभिचारिणा । जातिस्तस्या निमित्तं तु जातिनामात्र पञ्चधा ॥२४५॥ एकेन्द्रियादिकां जातिमुदयाद्यस्य जन्तवः । प्रयान्त्येन्द्रियाद्येतज्जातिनामाभिधीयते ॥ २४६ ॥ शरीरपञ्चकस्यास्य निवृत्तिर्यस्य चोदयात् । औदारिकशरीरादि नाम पञ्चविधं तु तत् ॥ २४५॥ अङ्गोपाङ्गविवेकः स्याच्छरीराणां यतस्तु तत् । त्रिधाङ्गोपाङ्गनामाख्य मौदारिकपुरस्सरम् || २४८ ॥ चक्षुरादीन्द्रियस्थानप्रमाणे जात्यपेक्षया । ये निर्मापयतस्ते स्तो नाम्ना निर्माणनामनी ॥ २४९ ॥
कषायके मूल में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेदसे चार भेद हैं। फिर प्रत्येकके क्रोध, मान, माया और लोभकी अपेक्षा चार-चार भेद हैं । इस प्रकार कषाय कुल सोलह भेद हैं । इनमें से अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्रके घातक हैं ||२३८ || जिसके उदयसे आत्मा हिंसादि रूप परिणतियोंका त्याग करनेमें समर्थ न हो सके वे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ||२३९ || जिनके उदयसे जीव संयमको प्राप्त न हो सके वे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ॥ २४०॥ और जिनके उदयसे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता तथा जो संयम के साथ विद्यमान रहते हैं वे संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ||२४१||
नारक, तैर्यग्योन, मानुष और देवके भेदसे आयु कर्म चार प्रकारका कहा गया है । आयु कर्मके उदयसे यह जीव नारकादि पर्यायोंमें उत्पन्न होता है
|| २४२ ||
जिसके उदयसे जीव भवान्तरको प्राप्त होता है वह गति नाम कर्म है । देव तथा नारकादिके भेदसे गति नाम कमं चार प्रकारका है || २४३|| जिसके निमित्तसे आत्मामें नरकादि पर्याय प्रकट होती है वह चार प्रकारका नरकादि नाम कर्म है || २४४ || उन नरकादि गतियों में जो अविरोधी समान धर्मसे आत्माको एक रूप करनेवाली अवस्था है उसे जाति कहते हैं । उस जातिका जो निमित्त है वह जाति नाम कर्म कहा जाता है इसके एकेन्द्रिय जाति आदि पांच भेद हैं || २४५|| जिसके उदयसे जोव एकेन्द्रियादि जातिको प्राप्त होते हैं वह एकेन्द्रियादि जाति नाम कर्म कहलाता है ||२४६॥
जिसके उदयसे औदारिक आदि पांच शरीरोंकी रचना होती है वह औदारिक शरीरादि पाँच प्रकारका शरीर नाम कम है || २४७ || जिसके उदयसे शरीरोंमें अंगोपांगका - विवेक होता है वह औदारिक शरीरांगोपांगको आदि लेकर तीन प्रकारका अंगोपांग नाम कर्म है || २४८ || जो जातिको अपेक्षा चक्षु आदि इन्द्रियोंके स्थान और प्रमाणका निर्माण करते हैं वे
१. यस्यान्तो नास्ति सोऽनन्तः संसारस्तस्य कारणत्वात् मिथ्यात्वमपि अनन्तं तदनुबध्नन्तीत्यनन्तानुबन्धिनः । २. ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं तस्यावरणं यैस्तेऽप्रत्याख्नानावरणाः । ३ प्रत्याख्यानं चारित्रं तस्यावरणं यैस्ते प्रत्याख्यानावरणाः । ४. नामैकदेशेन सर्वदेशग्रहणात् सम् पदेन संयमस्य ग्रहणं तेन सह ज्वलतीति संज्वलनम् । ५. एकीगतार्था म. । ६. यदपेक्षया म, ङ.
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हरिवंशपुराणे
कर्मोदयवशोपात्तपुद्गलान्योन्यबन्धनम् । शरीरेषूदयाथस्य मबेबन्धननाम तत् ॥२५०।। यस्योदयाच्छरीराणां नीरन्ध्रान्योन्यसंहतिः । संघातनाम तन्नाम्ना संघातानामनस्ययात् ॥२५१।। शरीराकृति निर्वृत्तिर्यतो भवति देहिनाम् । संस्थाननाम तत् षोढा संस्थानकरणार्थतः ॥२५२।। समादिचतुरस्रोतो न्यग्रोधपरिमण्डलम् । स्वातिसंस्थाननामापि कुब्जवामनहुण्डकम् ॥२५३।। यतो भवति सुश्लिष्टमस्थिसंधानबन्धनम् । तस्संहनननामापि नाम्ना षोढा विभज्यते ॥२५४।। तद्वज्रर्षमनाराचवज्रनाराचकोलकाः । सनाराचार्धनागचाः सासंप्राप्तस्पाटिकाः ॥२५५।। स्पर्शनस्योदयाद्यस्य प्रादुर्भावेन भूयते । स्पर्शनाम मवत्येतत्प्रविमक्तमिवाष्टधा ।।२५६।। ख्यातं कर्कशनामैकं मृदुनाम तथापरम् । गुरुनाम लघुस्निग्धरूक्षशीतोष्णनाम च ॥२५७।।
स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माणके भेदसे दो प्रकारके निर्माण नाम कम हैं ॥२४९||* जिसके उदयरो, कर्मोदयके वशसे प्राप्त पुद्गलोंका परस्पर संश्लेष होता है वह बन्धन नाम कर्म है। इसके
औदारिक शरीर बन्धन आदि पांच भेद हैं ॥२५०॥ जिसके उदयसे शरीरके प्रदेशोंका परस्पर छिद्ररहित संश्लेष होता है वह संघात नाम कम है । संघातोंका कभी अत्यय-विघटन नहीं होता इसलिए संघात नाम सार्थक है। इसके औदारिक शरीर संघात आदि पांच भेद हैं ॥२५१।। जिसके उदयसे जीवोंके शरीरकी आकृतिकी रचना होती है वह संस्थान नाम कर्म है। संस्थान अर्थात् आकृतिको करे सो संस्थान है यह संस्थान शब्दकी निरुक्ति है। वह संस्थान, समचतुरस्र संस्थान, न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान और हुण्डक संस्थानके भेदसे छह प्रकारका होता है। जिसके उदयसे सुडौल-सुन्दर शरीरकी रचना हो वह समचतुरस्र संस्थान नाम कर्म है। जिसके उदयसे शरीरके अवयव न्यग्रोध-वट वृक्षके समान नाभिसे नीचे छोटे और नाभिसे ऊपर बडे हों वह न्यग्रोध परिमण्डल नाम कम है। जिसके उदयसे शरीरकी रचना स्वाति-सांपकी वामीके समान नाभिके नीचे विस्तृत और नाभिसे ऊपर संकुचित हो वह स्वाति नाम कर्म है। जिसके उदयसे शरीरमें कूबड़ निकल आवे वह कुब्जक संस्थान है। जिसके उदयसे शरीर वामन-बोना हो वह वामन नाम कर्म है और जिसके उदयसे शरीरकी आकृति बेडौल हो वह हुण्डक संस्थान नाम कर्म है ।।२५२-२५३।।
जिसके उदयसे हड्डियोंका परस्पर मिलन और बन्धन अच्छी तरह होता है वह संहनन नाम कर्म है। इसके वज्रर्षभनाराच संहनन, वज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन और असंप्राप्तसृपाटिका संहनन ये छह भेद हैं। जिसके उदयसे वज्रके वेष्टन, वज्रकी कीलियां और वज्रके हाड़ हों उसे वज्रर्षभनाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदयसे कीलियां और हाड़ तो वज्रके हों परन्तु वेष्टन वज्रके न हों वह वजनाराचसंहनन है। जिसके उदयसे हाड़ तथा सन्धियोंकी कीलें तो हों परन्तु वज्रमय न हों इसी तरह वेष्टन भी वज्रमय न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं। जिसके उदयसे हड्डियाँ आधी कीलोंसे सहित हों उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं । जिसके उदयसे हाड़ परस्पर कोलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं और जिसके उदयसे हाड़ोंकी सन्धियां कीलोंसे रहित हों तथा मात्र नसों और मांससे बँधी हों उसे असंप्राप्तसृपाटिका संहनन कहते हैं ॥२५४-२५५।। जिसके उदयसे शरीरमें स्पर्शको उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नाम कर्म है। यह कड़ा, कोमल, गुरु,
१. संघाता नाम सत्तया म. | संघाता नाम सत्वयात् घ., ङ., ग. । संघाता नाम सत्वया स.. २. तत्संहारनामापि म.। * निर्माण नाम कर्मके दो भेद अवश्य हैं परन्तु बयालीस भेदोंकी गणनामें उसका एक भेद ही परिगणित है।
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
यद्धतुरसभेदः स्याद्रसनाम सदीरितम् । कटुतिक्तकषायाम्लमधुरध्वनिनाम तत् ॥२५८॥ यस्योदयाद्भवेद्गन्धो गन्धनाम तदुच्यते । द्विविधं तत्तु बोद्धव्यं सुरभ्यसुरमीति च ॥२५९॥ यद्धेतुवर्णभेदस्तद्वर्णनामाख्यपञ्चधा । कृष्णनीलस्वरक्तत्वपीतशुक्लस्वयोगतः ॥२६॥ उदयाद्यस्य पूर्वात्मशरीराकृत्यसंक्षयः । चतुर्गत्यानुपूज्यं तत्तथा गुरुलघूदितम् ॥२६१॥ यस्योदयादयोवत्त गुरुत्वान्न पतत्यधः । न गच्छति पुमानूर्व लधुवादकतूलवत् ॥२६२॥ स्वकतो बन्धनाथैः स्यादुपघातो यतस्तु तत् । उपघातं समुदिष्टं पटघातं पराद्वधः॥२३॥ यदीयोदयनिर्वृत्तं भवस्यातपनं महत् । आदित्यवद्वर्तमान मतमातपनाम तत् ॥२६॥ यद्धेतुद्योतनं देहे वेद्यमुद्योतनाम तत् । चन्द्रखद्योतकायेषु वर्तमानं यदीक्ष्यते ॥२६५॥ उच्छवासकारणं यत्तु मतमुच्छ्वासनाम तत् । बिहायोगतिराकाशे शस्ताशस्तगतिप्रभुः ॥२६६॥ तत्प्रत्येकशरीराख्यं नाम स्वत्र शरीरकम् । सदैकात्मोपमोगस्य हेतुनिर्वतते यतः ॥२६॥ साधारणमनेकेषामेकं यस्माच्छरीरकम् । साधारणशरीराख्यं नाम तद्भोगकारणम् ॥२६८॥ उदयाद्यस्य जीवानां द्वीन्द्रियादिषु जन्म यत् । प्रसनाम विपर्यत्वं स्थावराख्यं तु नाम रत् ॥२६॥
सर्वप्रीतिकरो यस्मात्प्राणी सुभगनाम तत् । यतोऽप्रीतिकरोऽन्येषां नाम्ना दुर्भगनाम तत् ॥२७॥ लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्णके भेदसे आठ प्रकारका है ॥२५६-२५७।। जिसके निमित्तसे रसमें भेद होता है वह रस नाम कर्म कहा गया है। इसके कटुक, तिक्त, कषाय, आम्ल और मधुरके भेदसे पांच भेद हैं ।।२५८।। जिसके उदयसे गन्ध होता है वह गन्ध नाम कम है। इसके सुगन्ध र दुर्गन्धको अपेक्षा दो भेद जानना चाहिए ॥२५९|| जिसके निमित्तसे वर्णमें भेद होता है वह वर्ण नाम कर्म है। यह कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्लके भेदसे पाँच प्रकारका है ॥२६०।। जिसके उदयसे विग्रह गतिमें पूर्व शरीरको आकृतिका विनाश न हो वह नरकगत्यानुपूव्यं आदिके भेदसे चार प्रकारका आनुपूयं नाम कम है। जिसके उदयसे यह जीव भारीपनके कारण लोहेके समान नीचे नहीं गिरता है और लघुपनके कारण आकको रुईके समान ऊपर नहीं उड़ता है वह अगुरु लघु नाम कमं कहा गया है ।।२६१-२६२।। जिसके उदयंसे अपने ही बन्धन आदिसे अपना ही घात होता है वह उपघात नाम कर्म कहा गया है और जिसके उदयसे दूसरोंका घात होता है वह परघात नाम कम है ॥२६३।। जिसके उदयसे शरीरमें सूर्यके समान बहुत भारी आतापकी उत्पत्ति होती है वह आताप नाम कर्म माना गया है इसका उदय सूर्यके विमान में स्थित बादरपृथिवीकायिक जीवोंके ही होता है। इसकी विशेषता यह है कि यह मूलमें ठण्डा होता है और इसकी प्रभा उष्ण होती है ।।२६४।। जिसके उदयसे शरीरमें विशिष्ट प्रकारका प्रकाश होता है वह उद्योत नाम कर्म है। यह उद्योत चन्द्रमाके विमानमें स्थित बादरपृथिवोकायिक जीव तथा जुगनू आदिमें देखा जाता है ।।२६५।। जो उच्छ्वासका कारण है वह उच्छ्वास नाम कम माना गया है तथा जो आकाशमें प्रशस्त एवं अप्रशस्त गति कराने में समर्थ है वह विहायोगति नाम कर्म है ॥२६६।। जिसके उदयसे ऐसे शरीरकी रचना हो जो सदा एक ही आत्माके उपभोगका कारण हो वह प्रत्येकशरीर नाम कर्म है ॥२६७।। जिसके उदयसे एक ही शरीर अनेक जोवोंके उपभोगका कारण होता है वह साधारण नाम कर्म है ॥२६८॥ जिसके उदयसे जीवोंका द्वीन्द्रियादिक जीवोंमें जन्म होता है वह वसनाम कर्म है। जिसके उदयसे इसके विपरीत सिर्फ एकेन्द्रिय जीवोंमें जन्म हो वह स्थावर नाम कर्म है ।।२६९।। जिसके निमित्तसे यह जीव समस्त प्राणियोंके लिए प्रीति करनेवाला होता है वह सुभग नाम कर्म है। जिसके निमित्तसे दूसरोंको १. कट्वातिक्त म.। २. शरीराकृतिसंक्षयः म., क., ङ.। ३. परैर्वधः क.। ४. भवत्यापतनं म.। ५. मतं सातप-म., ङ.। ६. यदीक्षते म.। ७. सदवात्मोपभोगस्य म, ङ.।
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हरिवंशपुराणे
मनोज्ञस्वरनिर्वृत्तिर्यतः सुस्वरनाम तत् । अनिष्टस्वर हेतुर्यत्प्रोक्तं दुःस्वरनाम तत् ॥ २७१॥ यतस्तु रमणीयत्वं शुभनाम तदीरितम् । अतिवैरूप्यहेतुश्च नामाशुभमशोभनम् ॥ २७२॥ 'यत्तु सूक्ष्मशरीरस्य कारणं सूक्ष्म नाम तत् । परवाधा कृतो हेतुः शरीरस्य तु बादरः ॥ २७३ यदाहारादिपर्याप्तिभेदनिर्वृतिकारणम् । पर्याप्तिनाम तन्नाम्ना षड्विधमुदितं बुधैः ॥ २७४॥ आहारस्य शरीरस्य प्राणापानेन्द्रियस्य च । पर्याप्त्यमावहेतुस्तु भाषाया मनसोऽपरम् ॥ २७५॥ कारणं स्थिरभावस्य स्थिरमस्थिरमन्यथा । नामादेयमनादेयं सप्रभाप्रमदेहकृत् ॥ २७६॥ हेतुः पुण्यगुणाख्यातेः यशः कीर्तिरितीर्यते । अयशः कीर्तिनामापि तद्विपर्यासकारणत् ॥ २७७॥
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अप्रीति उत्पन्न करनेवाला हो वह दुर्भाग नाम कर्म है || २७० || जिससे मनोज्ञ स्वरकी रचना होती है वह सुस्वर नाम कर्म है । जो अनिष्ट स्वरका कारण है वह दुःस्वर नाम कर्म है || २७१ || जिससे शरीरमें रमणीयता प्रकट होती है वह शुभ नाम कर्म है । जो अत्यन्त विरूपताका कारण है वह दुःखदायी अशुभ नाम कर्म है || २७२ || जो सूक्ष्म शरीरका कारण है वह सूक्ष्म नाम कर्म है । जो दूसरोंको बाधा करनेवाले शरीरका हेतु है वह बादर नाम कम है || २७३ || जो आहार आदि पर्याप्तियोंकी रचनाका कारण है वह पर्याप्त नाम कर्म | विद्वानोंने इसके आहारपर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ये छह भेद कहे हैं || २७४ ||
जो आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, इन्द्रिय, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियोंके अभावका कारण है वह अपर्याप्ति नाम कर्म है । भावार्थ - विग्रह गतिके बाद उत्पत्ति स्थान में पहुँचने पर ग्रहण किये हुए आहार-वर्गंणाके परमाणुओंमें खल रसभाग रूप परिणमन करनेकी tant शक्तिकी पूर्णताको आहारपर्याप्ति कहते हैं । जिन परमाणुओं को खल रूप परिणमाया था उन्हें हड्डो आदि कठोर अवयव रूप तथा जिन्हें रसरूप परिणमाया था उन्हें रुधिर आदि तरल अवयव रूप परिणमावनेकी शक्तिकी पूर्णताको शरीरपर्याप्ति कहते हैं। शरीर रूप परिणत परमाणुओं में स्पर्शनादि इन्द्रियोंके आकार परिणमावने की शक्तिकी पूर्णताको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं। भीतरकी वायुको बाहर छोड़ना और बाहरकी वायुको भीतर खींचनेकी शक्तिको पूर्णताको श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं । भाषावगंणाके परमाणुओंको शब्द रूप परिणामावनेको शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं । और मनोवगंणाके परमाणुओंको हृदय-क्षेत्र में स्थित आठ पांखुड़ीके कमलाकार द्रव्यमनरूप परिणामावनेकी शक्तिकी पूर्णताको मनःपर्याप्ति कहते हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीवके भाषा और मनको छोड़कर चार पर्याप्तियाँ होती हैं । द्वन्द्रियसे लेकर असैनीपंचेन्द्रिय तक मनको छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं और सैनी पंचेन्द्रिय जीवके सभी पर्याप्तियाँ होती हैं । जिसके उदयसे ये पर्याप्तियाँ पूर्ण होतो हैं वह पर्याप्त नाम कर्म है और जिसके उदयसे एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती वह अपर्याप्तक नाम कर्म है। यहाँ अपर्याप्तक शब्दसे लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी विवक्षा है, निर्वृत्यपयप्तककी नहीं । क्योंकि वह कर्मोदयकी अपेक्षा तो पर्याप्तक ही है सिर्फ निर्वृत्ति-रचनाको अपेक्षा लघु अन्तर्मुहूर्त के लिए अपर्याप्तक होता है || २७५ ॥ जो धातु- उपधातुओं की स्थिरताका कारण है वह स्थिर नाम कर्म है और जो इससे विपरीत अस्थिरताका कारण है वह अस्थिर नाम कम है, जो प्रभापूर्ण शरोरका कारण है वह आदेय नाम कर्म है और जो प्रभा-रहित शरीरका कारण है वह अनादेय नाम कर्म है || २७६ || जो पुण्यरूप गुणोंकी प्रसिद्धिका कारण है वह
१. यत्र म., ङ. । २. पर्याप्तिभावहेतुस्तु क. । ३. भाषायां म ।
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८२
अष्टपञ्चाशः सर्गः हेतुस्तीर्थकरत्वस्य सत्तीर्थकरनाम तत् । नाम्नः प्रकृतिभेदाविनवतिस्तुत्तरोत्तराः ॥२८॥ गोत्रमुच्चैश्च नीचैश्च तत्र यस्योदयास्कुले । पूजिते जन्म तत्तच्चैर्नीचर्नीचकुलेषु तत् ॥१०॥ दीयते दातुकामैर्न लन्धुकामैर्न लभ्यते । यदुदयात्प्रणीतौ तौ दानलाभान्तरायको ॥२८०॥ मोक्नुकामोऽपि नो भुङ्क्ते नोपभुने तथेच्छुकः । यदेतावन्तरायौ तौ ज्ञेयौ भोगोपमोगयोः ॥२८॥ तथोत्सहितुकामो यो यतो नोस्सहते स हि । वीर्यान्तराय एषोऽसौ बन्धः प्रकृतिलक्षणः ॥२८॥ स्थितिबन्धविकल्पस्तु जवन्योत्कृष्टभेदवान् । अष्टानां कर्मणामेषां द्विविधोऽपि निरूप्यते ॥२३॥ 'ज्ञानदर्शनसंवृत्योर्वेदनीयान्तराययोः । सागरोपमकोटीना कोव्यस्त्रिंशस्परा स्थितिः ॥२४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नामगोग्रयोः । संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येयं ज्ञेया पर्याप्तकस्य तु ॥२८५॥ आयुषस्तु त्रयस्त्रिशत्सागरोपमिका परा । स्थितिः सा वेदनीयस्य मुहर्ता द्वादशावरा ॥२६॥ साष्टावेव मुहर्ता स्याजघन्या नामगोत्रयोः । पञ्चानामपि शेषाणां स्थितिरन्तरमहर्तिका ॥२७॥
यशःकीर्ति नामकर्म कहलाता है और जो इससे विपरीत अपयशका कारण है वह अपयशस्कीर्ति नामकर्म है ।२७७॥ और जो तीर्थंकर पर्यायका कारण है वह तीर्थंकर नामकर्म है यह सातिशय पुण्य प्रकृति है । इस प्रकार नामकर्मकी तिरानबे उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥२७८||
गोत्रकर्मके दो भेद हैं-१. उच्च गोत्र और २, नीच गोत्र । जिसके उदयसे लोकपूज्य कुलमें जन्म होता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं और जिसके उदयसे नीच कुलोंमें जन्म होता है वह नीच गोत्र है ॥२७९॥
___ अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं-१. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय। जिसके उदयसे जीव दान करनेकी इच्छा करते हुए भी दान न कर सके वह दानान्तराय है। जिसके उदयसे लाभकी इच्छा रखते हुए भी लाभ प्राप्त न कर सके वह लाभान्तराय है ।।२८०॥ जिसके उदयसे जीव, भोगकी इच्छा रखता हुआ भी भोग नहीं सकता वह भोगान्तराय है। जिसके उदयसे उपभोगकी इच्छा रखता हया भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगान्तराय है ।।२८१।। और जिसके उदयसे कार्यों में उत्साहित होता हुआ भी उत्साह प्रकट नहीं कर सकता वह अन्तराय नामका कर्म है। इस प्रकार यह प्रकृतिबन्धका निरूपण किया ।।२८२।। अब स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं। आठों कर्मोंका स्थितिबन्ध, जघन्य और उत्कृष्टको अपेक्षासे दो प्रकारका कहा जाता है ।।२८३॥
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ो सागर है ॥२८४॥ मोहनीय कर्मको सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है और नाम तथा गोत्र कर्मकी बीस कोड़ाकोड़ो सागर है। यह उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके ही बंधती है ।।२८५॥
आयुकमंको उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है। वेदनीय कमको जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्रको आठ मुहूर्त है तथा शेष पाँच कर्मोकी अन्तर्मुहूतं है ।।२८६-२८७।।
१. तदुच्चैः म. । २. आदितस्तिसुणामन्तरायस्य च त्रयस्त्रिशत्सागरोपमा कोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादश- . महर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नामगोत्रयोरष्टो ॥१९॥ शेषाणामन्तर्मुहर्ता ॥२०॥-त. सू. अ. ८। तीसं कोडाकोडी तिघादितदियेसु वीसणामदुगे । सत्तरि मोहे सुद्धं उवही आउस्स तेतीसं ॥१२७।। वारस य वेयणीये णामे गोदे य अटु य मुहुत्ता । गो. क. ।। भिण्णमुहुतं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥१३९।।
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६९०
हरिवंशपुराणे कषायतीव्रमन्दादिमावास्रवविशेषतः । विशिष्टपाक इष्टस्तु 'विपाकोऽनुभवोऽथवा ॥२८॥ स द्रव्यक्षेत्रकालोक्तमवभावविभेदतः । विविधो हि विपाको यः सोऽनुभावः समुच्यते ॥२८९॥ प्रकृष्टोऽनुभवः पुण्यप्रकृतीनां शुमो यथा । अशुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुमवस्तथा ॥२९०॥ अशुभप्रकृतीनां तु परिणामविशेषतः । प्रकृष्टोऽनुभवोऽन्यासां निकृष्टोऽनुमवस्तथा ॥२९१॥ स्वमुखेनानुभूयन्ते मूलप्रकृतयोऽखिलाः । उत्तरास्तुल्यजातीया द्वयान्मोहायुषी विना ॥२९२॥
कषायोंकी तीव्रता, मन्दता आदि भावास्रवकी विशेषतासे जो उनका विशिष्ट परिपाक होता है उसे अनुभव कहते हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावकी विभिन्नतासे कर्मोंका जो विविध-नाना प्रकारका परिपाक होता है वह अनुभवबन्ध कहलाता है ॥२८८-२८ परिणामोंसे जिस प्रकार पुण्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है उसी प्रकार पाप प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है और अशुभ परिणामोंकी विशेषतासे जिस प्रकार अशुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है उसी प्रकार शुभ प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है। भावार्थ-प्रत्येक समय पुण्य और पाप प्रकृतियोंका अनुभव बन्ध जारी रहता है। जिस समय शुभ परिणामोंकी प्रकर्षता होती है उस समय पुण्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है और पाप प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव होता है। इसी प्रकार जिस समय अशुभ परिणामोंकी विशेषतासे पापप्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव होता है उस समय पुण्यप्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है ।।२९०-२९१॥ ।
कर्मोकी समस्त मूल प्रकृतियाँ स्वमुखसे ही अनुभव में आती हैं-अपना फल देती हैं और मोहनीय तथा आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंकी तुल्य जातीय प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख-दोनों रूपसे अनुभवमें आती हैं-फल देती हैं। भावार्थ --- जिस प्रकृतिका जिस रूप बन्ध हुआ है उसका उसी रूप उदय आना स्वमुखसे उदय आना कहलाता है और अन्य प्रकृति रूप उदय आना परमुखसे उदय आना कहलाता है। कर्मोंकी ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियाँ सदा स्वमुखसे ही उदयमें आती हैं अर्थात् ज्ञानावरणका उदय दर्शनावरणादि रूप कभी नहीं होता है परन्तु उत्तर प्रकृतियोंमें एक कर्मकी प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख दोनों रूपसे फल देती हैं। जैसे वेदनीय कमंकी साता वेदनीय और असाता वेदनीय ये दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं । इनमें सातावेदनीयका उदय साता रूप भी आ सकता है और असाता रूप भी आ सकता है। इसी प्रकार असाता वेदनीयका उदय असाता रूप भी आ सकता है और साता रूप भी। जिस समय अपने रूप उदय आता है उस समय स्वमुखसे उदय आना कहलाता है और जिस समय अन्य रूप उदय आता है उस समय परमुखसे उदय आना कहलाता है। विशेषता यह है कि मोहनीय कर्मके जो दर्शनमोह और चारित्र-मोह भेद हैं उनकी प्रकृतियाँ परस्पर एक दूसरे रूपमें उदय नहीं आती-सदा
१. विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ त. सू. अ.८॥ विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्तकषायतोत्रमन्दादिभावास्रवविशेषाद् विशिष्टः पाको विपाकः। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविधः पाको विपाकः । २. 'शुभाद्यथा' इति सम्यक्प्रतिभाति । ३. शुभपरिणामानां प्रकर्षभावाच्छुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः । अशुभप्रकृतीनां निकृष्टः । अशुभपरिणामानां प्रकर्षभावादशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः । शुभप्रकृतीनां निकृष्टः । स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां
नां स्वमखेनैवानभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमखेनापि भवति आयदर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुमनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहश्चारित्रमुखेन, चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन । स. सि. सूत्र ॥२१॥
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अष्टपञ्चाशः सर्गः
"कर्मणोऽनुभवात्तस्मात्तपसश्चापि निर्जरा । विपाकजा तु तत्रैका परा चाप्यविपाकजा ॥२९३॥ संसारे भ्रमतो जन्तोः प्रारब्धफलकर्मणः । क्रमेणैव निवृत्तिर्या निर्जराऽसौ विपाकजा ॥२९४॥ यत्तूपायविपाचयं तदात्रादिफलपाकवत् । अनुदीर्णमुदीर्याशु निर्जरा त्वविपाकज ॥ २९५ ॥ सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशकाः । घनाङ्गुलस्यासंख्येय भागैक्षेत्रावगाहिनः ॥२९६॥ एकद्वित्र्यादिसंख्येयसमयस्थितयः सदा । प्रदेशबन्ध संतानेऽप्यासते कर्मपुद्गलाः ॥२९७॥ ● शुभायुर्नामगोत्राणि सद्वेद्यं च चतुर्विधः । पुण्यबन्धोऽन्यकर्माणि पापबन्धः प्रपञ्चितः ॥ २९८ ॥ "आस्रवस्य निरोधस्तु संवरः परिभाष्यते । स भावद्रव्यभेदाभ्यां द्वैविध्येन निरुच्यते ॥ २९९॥ "क्रियाणां भवहेतूनां निवृत्तिर्भाव संवरः । तत्कर्म पुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः ॥ ३०० ॥
स्वमुख ही उदय आती हैं परन्तु इन भेदोंकी जो अवान्तर उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनका दोनोंसे उदय आता है। इसी प्रकार आयु कर्मकी उत्तर प्रकृतियों का सदा स्वमुखसे ही उदय आता है परमुखसे नहीं । जैसे नरकायका सदा नरकायु रूप ही उदय आता है अन्य रूप नहीं ||२९२ ||
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विपाकसे और तपसे कर्मोंकी निर्जरा होती है । इस निर्जरामें एक निर्जरा तो विपाकजा है। और दूसरी अविपाकजा है । भावार्थ - निर्जराके विपाकजा और अविपाकजाके भेदसे दो भेद हैं || २९३ || संसारमें भ्रमण करनेवाले जीवका कर्म जब फल देने लगता है तब क्रमसे ही उसकी निवृत्ति होती है, यही विपाकजा निर्जरा कहलाती है || २९४ || और जिस प्रकार आम आदि फलोंको उपाय द्वारा असमय में ही पका लिया जाता है उसी प्रकार उदयावलीमें अप्राप्त कर्म की तपश्चरण आदि उपायसे निश्चित समयसे पूर्व ही उदीरणा द्वारा जो शीघ्र ही निर्जरा की जाती है वह अविपाकजा निर्जरा है || २९५ ॥
आत्माके समस्त प्रदेशोंके साथ कर्मपरमाणुओंका जो बन्ध है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है । इस प्रदेशबन्धको सन्तति में अनन्तानन्त प्रदेशोंसे युक्त घनांगुलके असंख्येय-भाग प्रमाणक्षेत्रमें अवगाढ एक, दो, तोन आदि संख्यात समयोंको स्थितिवाले कर्मरूप पुग्दल आत्माके समस्त प्रदेशों में सदा विद्यमान रहते हैं ।। २९६ - २९७॥ उपर्युक्त कर्मबन्ध, पुण्यबन्ध और पापबन्धके भेदसे दो प्रकारका है, उनमें शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र और सद्वेद्य ये चार पुण्यबन्धके भेद हैं और शेष कर्म पापबन्ध रूप हैं ||२९८||
आस्रवका रुक जाना संवर कहलाता है । यह भावसंवर और द्रव्यसंवरके भेदसे दो प्रकारका कहा जाता है ||२९९|| संसारकी कारणभूत क्रियाओंका रुक जाना भावसंवर है और कमरूप
१. ततश्च निर्जरा । २. तपसा निर्जरा च । त. सू. । ३. तत्र चतुर्गतावनेकजातिविशेषावघूर्णिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । ४. यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनु दीणं बलादुदीर्योदयावल प्रविश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा ॥ स. सि. अ. ८ सू. २३ ॥ ५. भागे क्षेत्रा - क. ङ. म. । ६. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ २४॥-त. सू. अ. ८ । 'ते खलु पुद्गलस्कन्धा अभव्यानन्तगुणा: सिद्धानन्तभागप्रमितप्रदेशा घनाङ्गुलस्यासंख्य भागक्षेत्रावगाहितः एकद्वित्रिचतुः संख्यासंख्येयसमयस्थितिकाः पञ्चवर्णपञ्चरस द्विगन्धवतुःस्पर्शस्वभावा अष्टविधकर्म प्रकृतियोग्या योगवशादात्मनात्मसात् क्रियन्ते ॥ स. सि. ।। ७. 'शुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्' ॥२५॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥ त. सू. । ८ आस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ त. सू. अ. ९ । ९. तत्र संसारनिमित्त क्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः । तन्निरोधे तत्पूर्वकर्म पुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः ॥ स. सि. ॥
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६९२
हरिवंशपुराणे 'त्रिसंख्या गुप्तयः पञ्चसंख्याः समितयस्तथा । दशद्वादशधर्मानुप्रेक्षाश्चारित्रपञ्चकम् ॥३०॥ द्वाविंशतिभिदा मिन्नपरीषहजयोऽपि च । हेतवः संवरस्यैते सप्रपञ्चाः समन्विताः ॥३०२॥ बन्धहेतोरभावाद्धि निर्जरातश्च कर्मणाम् । कास्न्येन विप्रमोक्षस्तु मोक्षो निर्ग्रन्थरूपिणः ॥३०३॥ जीवादिसप्ततत्त्वानामेतेषां ज्ञानसंगतम् । श्रद्धानं तच्चरित्रं च साक्षान्मोक्षस्य साधनम् ॥३०॥ भवेनैकेन मार्गस्थाः केचिरसप्ताष्टभिः परे । भुक्तस्वर्गसुखा भव्याः सिद्धयन्ति ध्यानिनः सदा ॥३०५॥ इति श्रुत्वा जिनेन्द्रोक्तं मोक्षमार्गमनाविलम् । प्रणेमुर्दादशगणाः प्रकृताञ्जलयो विभुम् ॥३०६॥ ते सम्यग्दर्शनं केचित्संयमासंयम परे । संयम केचिदायाताः संसारावासभीरवः ॥३०७॥ द्वे सहस्र नरेन्द्रास्ते कन्याश्च नृपयोषितः । सहस्राणि बहून्यापुः संयम जिनदेशितम् ॥३०८॥ 'शिवा च रोहिणी देवी देवकी रुक्मिणी तथा । देव्योऽन्याश्च सुचारित्रं गृहिणां प्रतिपेदिरे ॥३०९॥ यदुमोजकुलप्रष्टा राजानः सुकुमारिकाः। जिनमार्गविदो जाता द्वादशाणुव्रतस्थिताः ॥३१०॥ कृतपूजाः सुरैरिन्द्राः प्रणम्य जिनभास्करम् । प्रयाताः स्वास्पदं रामकेशवाद्याश्च यादवाः ॥३११॥
शार्दूलविक्रीडितम् विश्वाशा विशदाः शरद्विदधती धौतं पयोदैस्तथा
विस्पष्टग्रहतारकाकुसमितं रम्यं नभोमण्डलम् ।
पुग्दल द्रव्यके ग्रहणका विच्छेद हो जाना द्रव्यसंवर है ॥३००।। तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियां, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, पांच चारित्र और बाईस परिषहजय ये अपने अवान्तर विस्तारसे सहित संवरके कारण हैं ॥३०१-३०२॥ निग्रन्थ मुद्राके धारक मुनिके बन्धके कारणोंका अभाव तथा निर्जराके द्वारा जो समस्त कर्मोंका अत्यन्त क्षय होता है वह मोक्ष कहलाता है ।।३०३।। इन जीवादि सात तत्त्वोंका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षका साक्षात् साधन है ॥३०४|| मोक्षमार्गमें स्थित कितने ही अन्य जीव एक ही भवमें सिद्ध हो जाते हैं और कितने ही भव्य स्वर्गके सुख भोगकर सदा यात्माका ध्यान करते हुए सात-आठ भवमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।।३०५॥
इस प्रकार नेमि जिनेन्द्रके द्वारा कहा हआ निर्मल मोक्षमार्ग सुनकर बारह सभाओंके लोगोंने हाथ जोड़कर भगवान्को नमस्कार किया ॥३०६|| श्रोताओं में से कितने ही लोगोंने सम्यग्दर्शन धारण किया, कितने ही लोगोंने संयमासंयम प्राप्त किया और संसारवाससे डरनेवाले कितने ही लोगोंने पूर्ण संयम-मुनिव्रत स्वीकृत किया ॥३०७।। उस समय दो हजार राजाओंने, दो हजार कन्याओंने एवं हजारों रानियोंने जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहे हुए पूर्ण संयमको प्राप्त किया ॥३०८॥ शिवा देवी, रोहिणी, देवकी, रुक्मिणी तथा अन्य देवियोंने श्रावकोंका चारित्र स्वीकृत किया ॥३०९।। यदुकुल और भोजकुलके श्रेष्ठ राजा तथा अनेक सुकुमारियां जिनमार्गको ज्ञाता बन बारह अणव्रतोंकी धारक हो गयीं ॥३१०|| जो देवोंके साथ पूजा कर चके थे, ऐसे इन्द्र तथा बलभद्र और कृष्ण आदि यादव, जिनेन्द्ररूपी सूर्यको नमस्कार कर अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥३११॥
तदनन्तर जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल कर रही है, मेघोंके द्वारा धुले हुए सुन्दर १. स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ॥२॥ त. सू. अ. ९ । २. बन्धहेत्वभावनिर्जराम्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।। त. सू. अ. १०। ३. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।। त. सू. अ. १ । ४. प्रकृत्याञ्जलयो म. । ५. ३.९, ३१०, ३११ तमाः श्लोकाः ङ. ख. पुस्तकयोन सन्ति क पुस्तकेऽपि पश्चात् योजिताः सन्ति ।
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अष्ट पश्चाशः सर्गः 'बन्धूकाजसुसप्तपर्णसुरमिप्रत्यग्रपुष्पाञ्जलिं
मुञ्चन्ती जिनपादयोरुपगता मक्तव लोकत्रयी ॥३२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती श्रीनेमिनाथधर्मोपदेशवर्णनो नाम
अष्टपञ्चाशः सर्गः ॥५८॥
आकाशमण्डलको जो निर्मल ग्रहों और ताराओंसे पुष्पित बना रही थी एवं जो बन्धूक, कमल और सप्तपर्णके सुगन्धित नूतन फूलोंकी अंजलि छोड़ रही थी ऐसी शरऋतु, भक्तिसे भरी लोकत्रयोके समान जिनेन्द्रदेवके चरणोंके समीप आयी ॥३१२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें श्रीनेमिनाथ
भगवानके धर्मोपदेशका वर्णन करनेवाला अंठानवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥५०॥
O
१. बन्धुकाज्वसुसप्तपर्ण म., ख.।
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एकोनषष्टितमः सर्गः विहारामिमुखेऽगाग्राजिनेन्द्रेऽवतरिष्यति । स्वर्गाग्रादिव भूलोकं समुद्धतु मवोदधेः ॥१॥ गृह्यतां गृह्यतां काम्यं यथाकाममिहार्थिमिः । इति नित्यं धनेशेन घुष्यते कामघोषणा ॥२॥ कामदा कामवद्भूमिः कल्प्यते मणिकुट्टिमा । माङ्गल्यविजयोद्योग विभोः किं वा न कल्प्यते ॥३॥ महाभूतानि सर्वाणि मैतुर्भूतहितोद्यमे । सर्वभूतहितानि स्युस्तादृशी खलु सार्वता ॥४॥ प्रावृषेण्याम्बुधारेव वसुधारा वसुन्धराम् । दिवोऽन्वर्थाभिधानत्वं नयतीन्यपतस्पर्थि ॥५॥ प्रादुःष्यन्ति सुराः सद्यः प्रणामचलमौलयः । मासा व्याप्य दिशो मर्तुः प्रभाकारानुरागिणः ॥६॥ ये द्वे [यद् द्वे] पूर्वोत्तरे पङ्क्ती हेमाम्बुजसहस्रयोः । सहस्रपत्रं तत्पूतं भुवः कण्ठे गुणाकृती ॥७॥ पद्मरागमयं भास्वच्चित्ररत्नविचित्रितम् । प्रवृत्तप्रतिपत्रस्थपद्मामागमनोहरम् ॥८॥ सहस्राक्षसहस्राक्षिभृङ्गावलिनिषेवितम् । देवासुरनरालोकमधुपापानमण्डलम् ॥९॥ 'पद्मोद्भासि परं पुण्यं पद्मयानं प्रकाशते । सद्यो योजनविष्कम्भं तच्चतुर्भागकणिकम् ॥१०॥ महिमाने सुरेशाष्टमूर्तिस्पष्टगुणश्रियः । वसवोऽष्टौ पुरोधाय वासवं वरिवस्यया ॥११॥
अथानन्तर जिस प्रकार पहले संसार-समुद्रसे प्राणियोंको पार करनेके लिए भगवान् स्वर्गके अग्रभागसे पृथिवी लोकपर अवतीर्ण हुए थे, उसी प्रकार जब विहारके लिए सम्मुख हो गिरनार पर्वतके शिखरसे नीचे उतरनेके लिए उद्यत हुए तब कुबेरने निरन्तर यह मनचाही घोषणा शुरू कर दी कि जिस याचकको जिस वस्तुकी इच्छा हो वह यहाँ आकर उसे इच्छानुसार ले ॥१-२॥ उस समय कामधेनुके समान इच्छित पदार्थ प्रदान करनेवाली मणिमयी भूमि बनायी गयी । सो ठीक ही है क्योंकि भगवान्के मंगलमय विजयोद्योगके समय क्या नहीं किया जाता? अर्थात् सब कुछ किया जाता है ॥३॥ जब कि भगवान्का समस्त भूतों-प्राणियोंके हितके लिए उद्यम हो रहा था तब पृथिवी, जल, अग्नि और वायुरूप चार महाभूत भी समस्त भूतों-प्राणियों के हितकर हो गये सो ठीक ही है क्योंकि भगवान्की सर्वहितकारिता वैसी ही अनुपम थी ॥४॥ धनकी बड़ी मोटी धारा वर्षा ऋतुके मेघकी जलधाराके समान पृथिवीके वसुन्धरा नामको सार्थकता प्राप्त कराती हुई आकाशसे मार्गमें पड़ने लगी ॥५॥ प्रणाम करनेसे जिनके मस्तक चंचल हो रहे थे तथा जो भगवान्की प्रभा और आकारमें अनुराग रखते थे ऐसे देव अपनी कान्तिसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए शीघ्र ही प्रकट होने लगे ॥६॥ सर्व-प्रथम देवोंने एक ऐसे सहस्रदल पवित्र कमलकी रचना की जो पूर्व और उत्तरकी ओर स्वर्णमय हजार-हजार कमलोंकी दो पंक्तियां धारण करता था तथा वे पंक्तियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथिवीरूपी स्त्रीके कण्ठमें पड़ी दो मालाएँ ही हों |७|| वह कमल पद्मराग मणियोंसे निर्मित था, देदीप्यमान नाना प्रकारके रत्नोंसे चित्रविचित्र था, प्रत्येक पत्रपर स्थित लक्ष्मीके भागसे मनोहर था, इन्द्रके हजार नेत्ररूपी भ्रमरावलीसे सेवित था, देव, धरणेन्द्र और मनुष्योंके नेत्ररूपी भ्रमरोंके लिए मानो मधुगोष्ठीका स्थान था, लक्ष्मीसे सुशोभित था, परम पुण्यरूप था, एक योजन विस्तृत था और उसके चौथाई भाग प्रमाण उसकी कर्णिका-डण्ठल थी॥८-१०॥ यह कमल पद्मयानके नामसे प्रसिद्ध था। सेवा द्वारा इन्द्रको आगे कर आठ वसु उस पद्मयानके आगे-आगे चल रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्रके अणिमा, महिमा आदि आठ गुण ही मूर्तिधारी हो चल रहे हों। वे वसु यह कहते हुए १. पर्वताग्रात्-गिरनारशिखरतः । २. कर्तुं -म. घ. । ३. द्यते क.। ४. नयतीति पतत्यपि क. । ५. प्राङ्मख्यन्ति । ६. जयोद्भासि इत्यपि पाठः इति क. पुस्तकपार्वे लिखितम् ।
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एकोनषष्टितमः सर्गः जय प्रसीद मर्तुस्ते वेला लोकहितोद्यमे । जातायेत्यानमन्तीशं स हि विश्वसृजो विधिः ॥१२॥ ततः प्रक्रमते 'शम्भुरारोढु पन यानकम् । तरक्षणं भूयते भूम्या हृष्टसंभ्रान्तयापि च ॥१३॥ 'विजयी विहरत्येष विश्वेशो विश्वभूतये । धर्मचक्रपुरस्सारी त्रिलोकी तेन संपदा ॥१४॥ वर्धतां वर्धतो नित्यं निरीतिमरुतामिति । श्रयतेऽस्यम्बुदध्वानः प्रयाणपटहध्वनिः ॥१५॥ वीणानेणुमृदङ्गोरुमल्लरोशकाहलैः । सूर्यमङ्गलघोषोऽपि पयोधिमधिगर्जति ॥१६॥ संकथाक्रोशगीताट्टहासैः कलकलोत्तरैः । द्यावापृथिव्यौ प्राप्नोति 'प्रास्थानिकमहारवः ॥१७॥ वला गायन्ति किन्नयों नृत्यन्स्यप्सरसो दिवि । स्पृशन्यातोद्यमानर्ता गन्धर्वादय इत्यपि ॥१८॥ स्तुवन्ति मङ्गलस्तोत्रैर्जयमङ्गलपूर्वकैः । तत्र तत्र सतां वन्द्यं 'वन्दिनो नृसुरासुराः ॥१९॥ चित्रश्चित्तहरैर्दिव्यैर्मानुषैश्च समन्ततः । नृत्यसङ्गीतवादित्रैर्भूतलेऽपि प्रभूयते ॥१०॥ पालयन्ति ''सदिग्भागैर्लो कपालाः सभूतयः । मर्तृसेवा हि भृत्यानां स्वाधिकारेषु सुस्थितिः ॥२१॥ धावन्ति परितो देवाके चिद्भासुरदर्शनाः। हिंसया ज्यायसः सर्वानुत्सार्योत्सार्य दूरतः ॥२२॥ उदस्तैरत्नवलय-चिहस्तैः कृताञ्जलिः । भने प्रीतस्तदोदन्वान्वेलामा नमस्यति ॥२३॥
भगवान्को प्रणाम करते जा रहे थे कि हे भगवन् ! आप जयवन्त हों, प्रसन्न होइए, लोकहितके लिए उद्यम करनेका आज समय आया है। यथार्थ में वह सब भगवान्का माहात्म्य था ॥११-१२।। तदनन्तर उस पद्मयानपर भगवान् जिनेन्द्र आरूढ़ हुए थे और उस समय पृथिवी हर्षसे झूमती हुई-सी जान पड़ती थी ॥१३।। उस समय मेघोंके शब्दको पराजित करनेवाला देव-दुन्दुभियोंका यह प्रयाणकालिक शब्द सुनाई पड़ रहा था कि धर्मचक्रको आगे-आगे चलानेवाले ये जगत्के स्वामी विजयी भगवान् सब जीवोंके वैभवके लिए विहार कर रहे हैं। इनके इस विहारसे तीन लोकके जीव सम्पत्तिसे वृद्धिको प्राप्त हों अर्थात् सबकी सम्पदा वृद्धिंगत हो, और सब अतिवृष्टि आदि ईतियोंसे रहित हों ॥१४-१५|| उस समय वीणा, बांसुरी, मृदंग, विशाल झालर, शंख और काहलके शब्दसे युक्त तुरहीका मंगलमय शब्द भी समुद्रको गर्जनाको तिरस्कृत कर रहा था ।।१६।। प्रस्थान कालमें होनेवाला बहुत भारी शब्द, उत्तम कथा, चिल्लाहट, गीत, अट्टहास तथा अन्य कल-कल शब्दोंसे आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर रहा था ॥१७॥ आकाशमें किन्नरियाँ मनोहर गान गाती थीं, अप्सराएं नृत्य करती थीं, झूमते हुए गन्धर्व आदि देव तबला बजा रहे थे और नमस्कार करते हुए मनुष्य, सुर तथा असुर, सज्जनोंके द्वारा वन्दनीय भगवान्को नमस्कार करते हुए जय-जयको मंगलध्वनिपूर्वक मंगलमय स्तोत्रोंसे जहां-तहाँ उनकी स्तुति कर रहे थे ॥१८-१९|| पृथिवीतलपर भी सब ओर मनुष्य चित्तको हरनेवाले नाना प्रकारके दिव्य नृत्य, संगीत और वादित्रोंसे युक्त हो रहे थे ।।२०॥ विभूतियोंसे सहित लोकपाल समस्त दिग्भागोंके साथ सबकी रक्षा कर रहे थे । सो ठीक ही है क्योंकि अपने-अपने नियोगोंपर अच्छी तरह स्थित रहना ही भृत्योंकी स्वामि-सेवा है ।।२१।। देदीप्यमान दृष्टिके धारक कितने ही देव समस्त हिंसक जीवोंको दूर खदेड़कर चारों ओर दौड़ रहे थे ।।२२।। उस समय प्रसन्नतासे भरा समुद्र, रत्नरूप वलयोंसे सुशोभित ऊपर उठे हुए तरंगरूपी हाथोंसे अंजलि बांधकर वेलारूपो मस्तकसे १. क., ख., ग., घ., ङ., सर्वपुस्तकेषु 'सिन्धुरारोढुं' इति पाठो विद्यते, परं तस्यार्थसंगतिर्न प्रतिभाति । अतः मैसूरस्थित-प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरस्थितपुस्तके समुपलब्धः 'शम्भुरारोढं' इति पाठः स्वीकृतः । अत्र शम्भुपदं जिनेन्द्रवाचकम् । २. द्विष्ट ग., ङ., इष्ट म., क.। 'हृष्टसंभ्रान्तयापि च' इति पाठोऽपि मैसूरस्थितपुस्तके समपलब्धः । ३. विजये क., ङ., म. । ४. विचरत्येष क. । ५. दिवःपथिव्यौ म., क., ड.। ६. प्रस्थानीकमहारवः म.। ७. फल्गु म.। ८. मानार्ता म., क., ङ,। ९. वन्दिता म.। १०. प्रभूतये म. । ११. सदिग्नागै -म. । १२. हिंसापापीयसः । हिसयान्वयि सर्वा क.।
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हरिवंशपुराणे
"विलम्बित सहस्त्रार्कयुगपत्पतनोदयैः । नमतानन्दितालोकनामोन्नामैः पदे पदे ॥२४॥ सुराणां भूतल स्पर्शिम कुटैर्बहुकोटिभिः । भूः पुरःसोपहारेव शोमतेऽम्बुजकोटिभिः ॥१५॥ कान्तिकः पुरो यान्ति लोकान्तम्यापितेजसः । लोकेशस्य यथालोकाः पुरोगा मूर्तिसंभवाः ॥ १६ ॥ पद्मा सरस्वतीयुक्ता परिवारात्तमङ्गका । पद्महस्ता पुरो याति परोत्य परमेश्वरम् ॥२०॥ "प्रसीदेत इतो देवेश्यानम्य प्रकृताञ्जलिः । तद्भूमिपतिभिः सार्धं पुरो याति पुरन्दरः ॥ २८ ॥ एवमीशस्त्रिलोकेशपरिवारपरिष्कृतः । लोकानां भूतये भूतिमुद्वहन् सार्वलौकिकीम् ॥ २९ ॥ पद्मकेतुः पवित्रात्मा परमं पद्मयानकम् । भव्यपद्मकसद्बन्धुर्यं दारोहति तरक्षणात् ॥३०॥ जय नाथ जय ज्येष्ठ जय लोकपितामह । जयात्मभूर्जयात्मेश जय देव जयाच्युत ॥३१॥ जय सर्वजगद्बन्धो नय सद्धर्मनायक । जय सर्वशरण्य श्रीर्जय पुण्यजयोत्तम ॥ ५२ ॥
७
● इत्युदीर्णसुकृद्घोषो रुन्धानां रोदसी स्फुटः । 'जयत्युच्चोऽतिगम्भीरो घनाघनघनध्वनिः ॥३३॥
मानो भगवान् के लिए नमस्कार ही कर रहा था || २३ ||
उस समय डग-डगपर भगवान्को नमस्कार करनेवाले देवोंके करोड़ों देदीप्यमान मुकुटोंका बहुत भारी प्रकाश बार-बार नीचेको झुकता और बार-बार ऊपरको उठता था । उससे ऐसा पड़ता था मानो हजारों सूर्योका एक साथ पतन तथा उदय हो रहा हो। उन्हीं देवोंके जब करोड़ों मुकुट पृथिवीतलका स्पर्श करते थे तब भगवान् के आगेकी भूमि ऐसी सुशोभित होने लगती थी मानो उसपर करोड़ों कमलोंकी भेंट ही चढ़ायी गयी हो || २४ - २५ || जिनका तेज लोकके अन्त तक व्याप्त था, ऐसे लोकान्तिक देव भगवान् के आगे-आगे चल रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो लोक स्वामी भगवान् जिनेन्द्रका प्रकाश ही मूर्तिधारी हो आगे-आगे गमन कर रहा था ||२६|| जिनके परिवारकी देवियोंने मंगल द्रव्य धारण कर रखे थे, तथा जिनके हाथोंमें स्वयं कमल विद्यमान थे, ऐसी पद्या और सरस्वती देवी, भगवान्को प्रदक्षिणा देकर उनके आगे-आगे चल रही थीं ||२७|| 'हे देव ! इधर प्रसन्न होइए, इधर प्रसन्न होइए ।' इस प्रकार नमस्कार कर जिसने अंजलि बांध रखी थी ऐसा इन्द्र तद्-तद् भूमिपतियोंके साथ भगवान्के आगे-आगे चल रहा था ||२८||
इस प्रकार जो तीनों लोकोंके इन्द्र तथा उनके परिवारसे घिरे हुए थे, लोगोंकी विभूतिके लिए जो समस्त लोकको विभूतिको धारण कर रहे थे, जो कमलकी पताकासे सहित थे, जिनकी आमा अत्यन्त पवित्र थी, और जो भव्य जीवरूपी कमलोंको विकसित करने के लिए उत्तम सूर्यके समान थे, ऐसे भगवान् नेमि जिनेन्द्र जिस समय उस पद्मयानपर आरूढ़ हुए उसी समय देवोंने मेघ गर्जनाके समान यह शब्द करना शुरू कर दिया कि हे नाथ! आपकी जय हो, हे ज्येष्ठ ! आपकी जय हो, हे लोकपितामह ! आपकी जय हो, हे आत्मभू ! आपकी जय हो, हे आत्मेश ! आपकी जय हो, हे देव ! आपकी जय हो, हे अच्युत ! आपकी जय हो । हे समस्त जगत्के बन्धु ! आपकी जय हो, है समीचीन धर्मके स्वामी ! आपकी जय हो, हे सबके शरणभूत लक्ष्मीके धारक ! आपकी जय हो, हे पुण्यरूप ! आपकी जय हो, हे उत्तम ! आपकी जय हो । इस प्रकार उठा हुआ पुण्यात्माजनोंका जोरदार, अत्यन्त गम्भीर एवं मेघ गर्जनाको तुलना करनेवाला वह शब्द आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त करता हुआ अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। २९-३३||
१. डलयोरभेदात् विलम्बितपदेन विडम्बितस्य ग्रहणम् । २ पतनोदयोः म । ३. नन्दितस्य समृद्धस्य आलोकस्य नामोन्नामैः । ४. शूराणाम् म. । ५. लोकान्तस्थापित - म । ६. प्रसीदेति द्रुतो देवे क. । ७. इत्युदीर्णासकृद्घोषः म । ८. जयत्युच्चेति-म. ।
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एकोनषष्टितमः सर्गः स देवः सर्वदेवेन्द्रध्याहतालोकमङ्गलः । तन्मौलिभ्रमरालीठभ्रमरपादपयोरुहः ॥३४॥ तत्पयोरुहवासिन्या पायानन्दयज्जगत् । व्यहरत् परमोभूतिभूतानामनुकम्पया ॥३५॥ देवमार्गोस्थिते दिव्ये विन्यस्याब्जे पदाम्बुजम् । स्वच्छाम्भोवाङमुखाम्मोजप्रतिबिम्बभिणि प्रभुः ॥३६॥ उद्यतस्तस्य लोकार्थ राजराजः पुरस्सरः । राजते राजयन्मार्ग पुरोमानोर्यथारुणः ॥३॥ पदवी जातरूपाको स्फरन्मणिविभषणा। श्लाघते सा सती मने स्वमने मामिनी यथा ॥१८ परितः परिमार्जन्ति मरुतो मधुरेरणः । अवदातक्रियायोगैः स्वां वृत्ति साधवो यथा ॥३९॥ अभ्युबन्ति सुरास्तत्र गन्धाम्भोऽम्बुदवाहनाः । स्फुरस्सौदामिनीदीप्तिभासिताखिलदिङमुखाः ।।४०॥ मन्दारकुसुमैमत्तभ्रमभ्रमरचुम्बितैः । नन्यते सुरसंघातैर्मागों मार्गविदुद्यमे ॥४१ ज्योतिर्मण्डलसंकाशैः सौवर्णरसमलैः । सलग्नः शोभते मार्गो रनचूर्णतलाचितैः ॥४२॥ गुह्यकाश्चित्रपत्राणि चिन्वते कौकुमै रसैः । "चित्रकर्मज्ञता चित्रां स्वामाचिस्यासवो" यथा ॥४३॥ कदलीनालिकेरेक्षुक्रमुकायैः क्रमस्थितैः । "सपत्रैर्मार्गसीमापि रम्यारामायते हुयी ॥४॥
तदनन्तर समस्त इन्द्र जिनके जय-जयकार और मंगल शब्दोंका उच्चारण कर रहे थे, जिनके चलते हुए चरणकमल उन इन्द्रोंके मुकुटरूपी भ्रमरोंसे व्याप्त थे, जो उन कमलोंमें निवास करनेवाली लक्ष्मीसे समस्त जगत्को आनन्दित कर रहे थे, और जो अत्यन्त उत्कृष्ट विभूतिके धारक थे, ऐसे भगवान् नेमि जिनेन्द्र जीवोंपर दया कर विहार करने लगे ॥३४-३५|| वे प्रभु,
में. स्वच्छ जलके भीतर पडते हए मख-कमलके प्रतिबिम्बकी शोभाको धारण करनेवाले दिव्य कमलपर अपने चरणकमल रखकर विहार कर रहे थे ॥३६॥ उस समय भगवान्के दर्शन करनेके लिए उद्यत एवं उनके आगे-आगे चलनेवाला कुबेर मार्गको सुशोभित करता हुआ ऐसा जान पड़ता था जैसा सूर्यके आगे चलता हुआ उसका सारथि अरुण हो ॥३७।। भगवान्के विहारका वह मार्ग सुवर्णमय था एवं देदीप्यमान मणियोंके आभूषणसे सहित था। इसलिए अपने पतिके लिए स्थित, सुवर्णमय शरीरकी धारक एवं देदीप्यमान मणियोंके आभूषणोंसे सुशोभित पतिव्रता स्त्रीके समान प्रशंसनीय था ॥३८॥ जिस प्रकार मुनिगण निर्मल क्रियाओंसे अपनी वृत्तिको सदा साफ करते रहते हैं-निर्दोष बनाये रखते हैं उसी प्रकार पवनकुमार देव वायुके
-मन्द झोकोंमें उस मार्गको साफ बनाये रखते थे ॥३९॥ कौंधती हई बिजलीको चमकसे समस्त दिशाओंके अग्रभागको प्रकाशित करनेवाले मेघवाहन देव उस मार्गमें सुगन्धित जल सींचते जाते थे ॥४०॥
मोक्षमार्गके ज्ञाता भगवान्के विहारकालमें, देवोंके समूह, जिनपर मदोन्मत्त भौंरे मंडरा रहे थे ऐसे मन्दार वृक्षके पुष्पोंसे मार्गको सुशोभित कर रहे थे ॥४१॥ वह मार्ग, गले हुए सोनेके रसके उन मण्डलोंसे जिनके कि तलभाग रत्नोंके चूर्णसे व्याप्त थे एवं नक्षत्रोंके समूहके समान जान पड़ते थे, अतिशय सुशोभित हो रहा था ॥४२॥ गुह्यक जातिके देव केशरके रससे नाना प्रकारके बेल-बूटे बनाते जाते थे मानो वे अपनी चित्रकर्मको नाना प्रकारको कुशलताको हो प्रकट करना चाहते थे ॥४३।। मार्गके दोनों ओरको सीमाएं क्रमपूर्वक खड़े किये हुए पत्रोंसे युक्त केला, नारियल, ईख तथा सुपारी आदिके वृक्षोंसे सुन्दर बगीचोंके समान जान पड़ती
१. व्याहृतालोक म., ङ.। २. विहरत् क., ङ.। ३. स्वच्छाम्भोवत्-ख.। ४. थिति क., घुणिप्रभुः ख.। ५. राजराजपुरस्सरः म.। ६. मनोहरप्रेरणः । ७. वाहनः म.। ८. तलोचितः म.. तलाश्चितैः क.। ९. कुंकुमैः म.। १०. चित्रकर्मकृताम् म., ख., ङ.। ११. चिक्षासवो यथा म., घ., ग.। १२. सम्पन्नम., ख., ङ.।
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हरिवंशपुराणे तत्राक्रीडपदानि स्युः सुन्दराणि निरन्तरम् । यत्र 'हृष्टाः स्वकान्तामिराक्रोड्यन्ते नरामराः ॥४५॥ मोग्यान्यपि यथाकामं मगोगिनां भोगभूमिवत् । सर्वाण्यन्यूनभूतीनि संभवन्स्यन्तरेऽन्तरे ॥४६।। योजनत्रयविस्तारो मार्गो मार्गान्तयोर्द्वयोः । सीमानौ द्वे अपि ज्ञेये गम्यूतिद्वयविस्तृते ॥४॥ तोरणैः शोमते मार्गः करणैरिव कल्पितैः । दृष्टिगोचरसंपनैः सौवणैरष्टमङ्गलैः ॥४८॥ कामशाला विशालाः स्युः कामदास्तत्र तत्र च । भागवस्यो यथा मूर्ताः कामदा दानशक्तयः ।।४।। तोरणान्तरभूतुगसमस्तकदलीध्वजैः । संछन्नोऽध्वा धनच्छायो रुणद्धि सवितुश्छविम् ।।५०॥ वनवासिसुरैर्वन्यमञ्जरीपुजपिजरः । स्वपुण्यप्रचयाकारः कल्प्यते पुष्पमण्डपः ॥५१॥ युक्तो रत्नलताचित्रभित्तिमिः सद्वियोजनः । चन्द्रादित्यप्रभारोचिर्मण्डलोपान्तमण्डितः ॥५२॥ घण्टिकाकलनिदिर्घण्टानादेनिनादयन् । दिशो 'मुक्कागुणामुक्तप्रान्तमध्यान्तरान्तरः ॥५३॥ सद्गन्धाकृष्टसंभ्रान्तभृजमालोलसद्यतिः । वियतीशयशोमूर्तवितानच्छविरीक्ष्यते ॥५४॥. सोत्तम्मस्तम्मसंकाशेः स्थूलमुक्कागुणोद्भवः । चतुर्मिर्दाममि ति विद्मान्तान्तराचितैः ॥५५॥ तस्यान्तस्थो दयामूर्तिः प्रयाति दमिताहितः । हिताय सर्वलोकस्य स्वयमीशः स्वयंप्रभः ।।५६॥ थीं ॥४४॥ मार्ग में निरन्तर सुन्दर क्रोड़ाके स्थान बने हुए थे जिनमें हर्षसे भरे मनुष्य और देव अपनी खियोंके साथ नाना प्रकारको क्रीड़ा करते थे ॥४५।। जिस प्रकार भोग-भूमिमें भोगी जीवोंको इच्छानुसार भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार उस मार्गमें भी, बीच-बीच में भोगी जीवोंको उत्कृष्ट विभूतिसे युक्त सब प्रकारको भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती रहती थीं ॥४६।। भगवान्के विहारका वह मार्ग तीन योजन चौड़ा बनाया गया था तथा मार्गके दोनों ओरकी सीमाएँ दो-दो कोस चौड़ी थों ।।४७।। वह मार्ग, जगह-जगह निर्मित तोरणों तथा दृष्टिमें आनेवाले सुवर्णमय अष्टमंगलद्रव्योंसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्रियोंसे ही सुशोभित हो रहा हो ॥४८॥ मार्गमें जगहजगह भोगियोंको इच्छानुसार पदार्थ देनेवाली बडी-बड़ी कामशालाएँ बनी हई थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो इच्छानुसार पदार्थ देनेवाली भगवान्को मूर्तिमती दानशक्तियाँ ही हों ॥४९|| तोरणोंको मध्यभूमिमें जो ऊंचे-ऊँचे केलेके वृक्ष तथा ध्वजाएं लगी हुई थीं उनसे आच्छादित हुआ मार्ग इतनी सघन छायासे युक्त हो गया था कि वह सूर्यकी छविको भी रोकने लगा था ॥५०॥ वनके निवासी देवोंने वनकी मंजरियोंके समूहसे पीला-पीला दिखनेवाला पुष्पमण्डप तैयार किया था जो उनके अपने पुण्यके समूहके समान जान पड़ता है ॥५१॥ वह पुष्पमण्डप रत्नमयी लताओंके चित्रोंसे सुशोभित दीवालोंसे युक्त था, दो योजन विस्तारवाला था, चन्द्रमा और सूर्यको प्रभाके कान्तिमण्डलसे समीपमें सुशोभित था, छोटी-छोटी घण्टियोंकी रुनझुन और घण्टाओंके नादसे दिशाओंको शब्दायमान कर रहा था. उसके दोनों छोर तथा मध्यका अन्तर मोतियोंकी मालाओंसे युक्त था, उत्तम गन्धसे आकर्षित हो सब ओर मंडराते हुए भ्रमरोंके समूहसे उसको कान्ति उल्लसित हो रही थी, आकाशमें उसका चंदेवा भगवान्के मूर्तिक यशके समान दिखाई देता था, उस मण्डपके चारों कोनोंमें ऊँचे खड़े किये हुए खम्भोंके समान सुशोभित, बड़े-बड़े मोतियोंसे निर्मित तथा बीच-बीचमें मूगाओंसे खचित चार मालाएं लटक रही थीं, उनसे वह अधिक सुशोभित हो रहा था। दयाकी मूर्ति, अहितका दमन करनेवाले,
यं ईश एवं स्वयं देदीप्यमान भगवान् नेमि जिनेन्द्र उस मण्डपके मध्य में स्थित हो समस्त जीवोंके हितके लिए विहार कर रहे थे ।।५२-५६।। १. दृष्टा म. । २. सर्वाण्यनूनभूतीनि ख. । ३. सीमानौ द्वावपि ज्ञेयौ क., ख., ङ. । ४. कारण म. । गव्यूतिद्वयविस्तृतो म., क., ड., ख. । ५. घटिकाकलनिर्बादी म.। ६. मुक्तागणामुक्तं प्रातमध्वान्ततान्तरः म.। ७. स्वोत्तम्भस्तम्भ-म.। ८. -तराविलैः क. । ९. दयिताहितः म. ।
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एकोनषष्टितमः सर्गः
५
पश्यन्त्यात्ममवान् सर्वे सप्त सप्त परापरान् । यत्र तद्भासतेऽत्यकं पश्चाद्भामण्डलं प्रभोः || ५७॥ "त्रिलोकीवान्तसाराभात्युपर्युपरि निर्मला । त्रिच्छश्री सा जिनेन्द्र श्रीस्त्रैलोक्येशित्वशंसिनी ॥ ५८ ॥ चामराण्यभितो भान्ति सहस्राणि दमेश्वरम् । स्वयंवीज्यानि शैलेन्द्रं हंसा इव नमस्तले || ५९ ॥ ऋषयोऽनुव्रजन्तीशं स्वर्गिणः परिवृण्वते । प्रतीहारः पुरो याति वासवो वसुभिः सह ॥ ६० ॥ ततः केवललक्ष्मीतः प्रतिपद्या प्रकाशते । साकं शच्या त्रिलोकोरुभूतिर्लक्ष्मीः समङ्गला ॥ ६१ ॥ श्रीनाथैस्ततः सर्वैर्भयते पूर्णमङ्गलैः । मङ्गलस्य हि माङ्गल्या यात्रा मङ्गलपूर्विका ॥ ६२ ॥ शङ्खपद्मौ ज्वलन्मौलिसाथयौ सवकामदौ । निधिभूतौ प्रवर्तेते हेमरत्नप्रवर्षिणौ ॥ ६३ ॥ भास्वत्फणामणिज्योतिदीपिका मान्ति पन्नगाः । हतान्धतमसज्ञानदीपदीप्स्य नुकारिणः ॥ ६४ ॥ विश्वे वैश्वानरा यान्ति धृतधूपघटोद्धताः । यद्गन्धो याति लोकान्तं जिनगन्धस्य सूचकः ॥ ६५ ॥ सौम्याग्नेयगुणा देवभक्ताः सोमदिवाकराः । स्वप्रभामण्डलादर्श मङ्गलानि वहन्त्यहो ॥ ६६ ॥ तपनीय मछर्न मस्तपनरोधिभिः । तपनैरेव सर्वत्र संरुद्धमिव दृश्यते ॥ ६७॥
उसी पुष्पमण्डपमें भगवान् के पीछे सूर्यको पराजित करनेवाला भामण्डल सुशोभित होता था जिसमें सब जीव अपने आगे-पीछेके सात-सात भव देखते हैं ॥५७॥ भगवान् के शिरपर ऊपरऊपर अत्यन्त निर्मल तीन छत्र सुशोभित हो रहे थे जिनमें तीनों लोकों के द्वारा सार तत्त्व प्रकट किया गया था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह जिनेन्द्र भगवान्की लक्ष्मी तीन लोकके स्वामित्वको सूचित ही कर रही थी ||१८|| भगवान् के चारों ओर अपने-आप दुलनेवाले हजारों चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे आकाशतलमें मेरु पर्वत के चारों ओर हंस सुशोभित होते हैं ॥५९॥
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ऋषिगण भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे थे, देव उन्हें घेरे हुए थे और इन्द्र प्रतिहार बनकर आठ वसुओं के साथ भगवान् के आगे-आगे चलता था ॥ ६० ॥ इन्द्रके आगे तीन लोककी उत्कृष्ट विभूतिसे युक्त लक्ष्मी नामक देवी, मंगलद्रव्य लिये शची देवीके साथ-साथ जा रही थी और वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के प्रतिविम्बके समान जान पड़ती थी || ६१ ॥ तदनन्तर श्रीदेवीसे सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे सो ठीक ही है क्योंकि मंगलमय भगवान्की मंगलमय यात्रा मंगलद्रव्योंसे युक्त होती ही है ||६२|| उनके आगे, जिनपर देदीप्यमान मुकुटके धारक प्रमुख देव बैठे थे ऐसी शंख और पद्म नामक दो निधियां चलती थीं। ये निधियों समस्त जीवोंको इच्छित वस्तुएँ प्रदान करनेवाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नोंकी वर्षा करती जाती थीं ॥ ६३ ॥ उनके आगे फणाओं पर चमकते हुए मणियोंकी किरणरूप दीपकोंसे युक्त नागकुमार जातिके देव चलते थे और वे अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले केवलज्ञानरूपी दीपकको दीप्तिका अनुकरण करते हुए-से जान पड़ते थे || ६४ ||
उनके आगे धूपघटोंको धारण करनेवाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे । उन धूपघटोंकी गन्ध लोकके अन्त तक फैल रही थी और वह जिनेन्द्र भगवान्की गन्धको सूचित कर रही थी ||६५|| तदनन्तर शान्त और तेजरूप गुणको धारण करनेवाले, भगवान्के भक्त, चन्द्र और सूर्य जातिके देव अपनी प्रभाके समूहरूप मंगलमय दर्पणको धारण करते हुए चल रहे थे || ६६ ॥ उस समय सन्तापके रोकने के लिए सुवर्णमय छत्र लगाये गये थे, उनसे सर्वत्र ऐसा जान पड़ता
१. त्रिलोकीवात्तसारा - क. । २. त्रयाणां छत्राणाम् समाहारः त्रिछत्री । ३. त्रिछत्रीशो ख. । ४. प्रतिपद्या ख. । प्रतिप्राज्या क । ५. साकं सच्या त्रिलोकोरुभूतिलक्ष्मीः क. । ६. धूतधूमघटोद्धताः म. । ७ मङ्गलादर्शमङ्गलानि क., ङ. । ८. तपनीयैरेव म., ख., ङ.
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७००
हरिवंशपुराणे पताकाहस्तविक्षेपैः संतयं परवादिनः । दयामूर्ता इवेशांसा नृत्यन्ति जयकेतवः ॥१८॥ वैभवी विजयाख्यातिवैजयन्ती पुरेडिता। राजते त्रिजगक्षेत्रकुमुदामलचन्द्रिका ॥६९॥ भुवःस्वर्भूनिवासिन्यो भुवि यद्व्यन्तरा स्थिताः । नरीनृत्यन्ति देव्योऽग्रे प्रेमानन्दरसाष्टकम् ॥७॥ आमन्द्रमधुरध्वानाम्याप्तदिग्विदिगन्तरा । धीरं नानद्यते नान्दी जित्वा प्रावृधनावलीम् ॥७॥ जिताकर्को धर्मचक्रार्कः सहस्रारांशुदीधितिः। याति देवपरीवारो 'वियतातितमोपहः ॥७२॥ लोकानामेकनाथोऽयमेतैत ममतेति च । घुष्यते स्तनितैर?षणामयघोषणा ॥७३॥ मर्तृप्रमावसदृशा सत्पूर्व व्याप्य दिक्पथे । प्रकुर्वन्ति जयाह्वानं धावन्त: प्रथमोत्तमाः ॥७४।। देवयानामिमा दिव्यामन्वेत्य परमाद्भुताम् । अद्भुतान्यर्थदृष्टयादिसर्वाण्यसुभृतां भुवि ।।७५।।
आधयो नैव जायन्ते व्याधयो व्यापयन्ति न । ईतयश्चाज्ञया भतु नेति तद्देशमण्डले ॥७६।। अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि शृण्वन्ति वधिराः श्रुतिम् । मूकाः स्पष्टं प्रभाषन्ते विक्रमन्ते च पङ्गवः ।।७।।
नात्युष्णा नातिनीताः स्युरहोरात्रादिवृत्तयः । अन्यच्चाशुभमत्येति शुभ सर्व प्रवर्धते ।।७।। था मानो आकाश सूर्योसे ही व्याप्त हो रहा हो ॥६७।। जगह-जगह विजय-स्तम्भ दिखाई दे रहे थे, उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पताकारूपी हाथोंके विक्षेपसे पर-वादियोंको परास्त कर दयारूपी मूर्तिको धारण करनेवाले भगवान्के मानो कन्धे ही नृत्य कर रहे हों ॥६८।। आगे-आगे भगवान्की विजय-पताका फहराती हुई सुशोभित थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन जगत्के नेत्ररूपी कुमुदोंको विकसित करने के लिए निर्मल चांदनी ही हो ॥६९॥ जो देवियां अधोलोक और ऊध्वंलोकमें निवास करती हैं तथा पृथिवीपर नाना स्थानोंमें निवास करनेवाली हैं वे भगवान्के आगे प्रेम और आनन्दसे आठ रस प्रकट करती हुई नृत्य कर रही थीं ।।७०|| जिसने अपनी गम्भीर और मधुर ध्वनिसे समस्त दिशाओं और विदिशाओंके अन्तरको व्याप्त कर रखा था ऐसी नान्दी-ध्वनि ( भगवत्स्तुतिकी ध्वनि) वर्षा ऋतकी मेघावलीको जीतकर बड़ी गम्भीरतासे बार-बार हो रही थी ॥७१॥ जिसने अपनी प्रभासे सूर्यको जीत लिया था, जो हजार अररूप किरणोंसे सहित था, देवोंके समूहसे घिरा हुआ था और अत्यधिक अन्धकारको नष्ट कर रहा था ऐसा धर्मचक्र आकाश-मार्गसे चल रहा था ।।७२।। आगे-आगे चलनेवाले स्तनितकुमार देव अभय घोषणाके साथ-साथ यह घोषणा करते जाते थे कि 'ये भगवान् तीन लोकके स्वामी हैं, आओ, आओ और इन्हें नमस्कार करो' ॥७३।। उस समय बहुत-से उत्तम भवनवासी देव, भगवान् नेमिनाथके प्रभावके अनुरूप दिशाओं और मार्गको अच्छी तरह व्याप्त कर दोड़ते हुए जय-जयकार करते जाते थे।७४॥ जो जोव अनेक आश्चर्योंसे भरी हुई भगवान्की इस दिव्ययात्रामें साथ-साथ जाते थे, पृथिवीपर उन्हें अर्थ-दृष्टिको आदि लेकर समस्त आश्चर्योंकी प्राप्ति होती थी। भावार्थउन्हें चाहे जहां धन दिखाई देना आदि अनेक आश्चर्य स्वयं प्राप्त हो जाते थे ॥७५॥ जिस देशमें भगवान्का विहार होता था उस देशमें भगवान्की आज्ञा न होनेसे ही मानो किसीको न तो आधि-व्याधि-मानसिक और शारीरिक पीड़ाएं होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियां हो व्याप्त होती थीं ॥७६॥ वहाँ अन्धे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गूंगे स्पष्ट बोलने लगते थे और लंगड़े चलने लगते थे ॥७७॥ वहां न अत्यधिक गरमी होती थी, न अत्यधिक ठण्ड पड़ती थी, न दिन-रातका विभाग होता था, और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते
१. परिवादिनः म. । २. इवेशांशा म. । ३. विभोरियं वैभवी । ४. 'आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात्प्रयुज्यते । देवद्विजनपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता ॥' ५. यति म., क.। ६. वियतीति म.। ७. आवयो व म. । ८.नः म.। ९. विक्रयन्ते च मः।
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एकोनषष्टितमः सर्गः
भूवधूः सर्वसम्पन्न सस्यरोमाञ्चकञ्चुका । करोत्यनुजहस्तेन मर्तुः पादग्रहं मुदा ||३९|| जिनार्कपादसंपर्क प्रोत्फुल्ल कमलावलीम् । प्रथयत्युद्वहन्ती यौरस्थायिसरसीश्रियम् ॥८०॥ सर्वेत्युक्ताः समात्मानः समदृष्टेश्वरेक्षिताः । ऋतवः सममंत्रन्ते निर्विकल्पा हि सेशिता ।। ८१ ।। निधानानि निधीरन्नान्याकराण्यमृतानि च । सूयते तेन विख्याता रत्नसूरिति मेदिनी ।। ४२ ।। 'अन्तकोऽन्तकजिद्वीर्यपराजितपराक्रमः । चर्मचक्रोजिते लोके नाकाले करमिच्छति ॥८३॥ काल: काळ हरस्याचामनुकूल भयादिव । प्रविहाय स्ववैषम्यं पूज्येच्छामनुवर्तते ||२४|| 'सस्थाकाः सर्वे सुखं विन्दन्ति देहिनः । सैषा विश्वजनीना हि विभुता भुवि वर्तते ॥ ८५|| जन्मानुबन्धवैशे यः सर्वोऽहिनकुलादिकः । तस्यापि जायतेऽजयं संगतं सुगताज्ञया ॥25॥ गन्धवाहो वहद्गन्धं भर्तुस्तं कथमाप्नुयात् । अचण्डः सेवते' सेवा शिक्षयन्ननुजीविनः ||२७|| रजस्तिगिरिकापायवैमल्यामरणस्विषः | दिक्कन्याः पुष्पजापैस्तं पूजयन्ति दिशां पतिम् ||८||
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थे । सब ओर शुभ ही शुभ कार्योंकी वृद्धि होती थी || ७८ || उस समय सर्व प्रकारकी फली फूली धान्यरूपी रोमांचको धारण करनेवाली पृथिवीरूपी स्त्री कमलरूपी हाथोंके द्वारा बड़े हर्षसे भगवानरूपी भर्तारके पादमर्दन कर रही थी || ७९ || जिनेन्द्ररूपी सूर्यके पादरूपी किरणोंके सम्पर्कसे फूली हुई कमलावलीको धारण करनेवाला आकाश उस समय चलते-फिरते तालाबकी शोभाको विस्तृत कर रहा था ||८०|| उस समय बिना कहे ही समस्त ऋतुएँ एक साथ वृद्धिको प्राप्त हो रही थीं, सो ऐसी जान पड़ती थीं मानो समदृष्टि भगवान् के द्वारा अवलोकित होनेपर वे समरूपी ही हो गयी थीं । यथार्थ में स्वामीपना तो वही है जिसमें किसीके प्रति विकल्प - भेदभाव न हो ||८१|| उस समय पृथिवी जगह-जगह अनेक खजाने, निधियाँ, अन्न, खानें और अमृत उत्पन्न करती थीं इसलिए 'रत्नसू' इस नामसे प्रसिद्ध हो गयी थी || ८२ ॥ अन्तकजित् - यमराजको जीतनेवाले भगवान् के वीर्यसे जिसका पराक्रम पराजित हो गया था ऐसा यमराज, धर्मचक्रसे सबल संसारमें असमय में करग्रहण करनेकी इच्छा नहीं करता था । भावार्थ - जहाँ भगवान्का धर्मचक्र चलता था वहाँ किसीका असमय में मरण नहीं होता था || ८३ ॥ काल ( यम ) को हरनेवाले हैं। ( पक्षमें समयको हरनेवाले ) भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध आचरण न हो जाये, इस भयसे काल ( समय ) अपनी विषमताको छोड़कर सदा भगवान्की इच्छानुसार ही प्रवृत्ति करता था । भावार्थ --काल, सर्दी- गरमी, दिन-रात आदिको विषमता छोड़ सदा एक समान प्रवृत्ति कर रहा धा ||८४|| भगवान् विहार क्षेत्र में स्थित समस्त त्रस, स्थावर जीव सुखको प्राप्त हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि संसारमें विभुता वही है जो सबका हित करनेवाली हो ॥८५॥ जो सांप, नेत्रा आदि समस्त जीव जन्मसे ही वैर रखते थे उन सभी में भगवान्की आज्ञासे अखण्ड मित्रता हो गयी थी || ८६ ॥ भगवान्की बहती हुई गन्धको, पवन किस प्रकार प्राप्त कर सकता है इस प्रकार अनुजीवी जनों को सेवाकी शिक्षा देता हुआ वह शान्त होकर भगवान्की सेवा कर रहा : था । भावार्थ - उस समय शीतल, मन्द सुगन्धित पवन भगवान् की सेवा कर रहा था सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह सेवकजनों को सेवा करनेकी शिक्षा ही दे रहा था || ८७|| धूलिरूपी अन्धकारके नष्ट हो जाने से प्रकट हुई निर्मलतारूपी आभरणोंकी कान्तिसे युक्त दिशारूपी कन्याएँ
७०१
१. कमलावली म. । २. प्रथयन्त्युद्वहन्ती म., क., ङ. । ३. स्वर्वेत्युक्ताः म । सर्वे अत्युक्ताः इति पदच्छेदः, उक्त अतिक्रान्ता इति अत्युक्ताः अकथिता एवेत्यर्थः । ४. निर्विकम्पा म., क, ख, ङ. ५. सूयन्ते म., क., ख., ङ., । ६. अन्ते कौन्तकजिद् म । ७. तत्र स्थावरकाः म । ८. तत्कथाप्नुयात् म. । तत्कथयाप्नुयात् क. । ९. सेव्यते क. । सेहते ख. ।
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हरिवंशपुराणे नमः स्वच्छतरं स्पष्टतारातरलभासुरम् । सर: शरत्प्रसन्नाम्मः कुमुदिव दृश्यते ।।८।। दूराच्चाल्पधियः सर्वे नमन्ति किमुतेतरे । चतुरास्यश्चतुर्दिक्षु छायादिरहितो विभुः ॥१०॥ भुक्त्यमावो जिनेन्द्रस्योपसर्गस्य तथैव च । अहो लोकैकनाथस्य माहात्म्यं महदद्भुतम् ॥११॥ शुभंयवो नमन्त्येत्याहंयवोऽपि प्रवादिनः । अवसानाद्भुतं चैतन्निर्द्वन्द्वं प्राभवं हि तत् ॥१२॥ यस्यां यस्यां दिशीशः स्यास्त्रिदशेशपुरस्सरः। तस्यां तस्यां दिशीशाः स्युः प्रत्युद्याताः सपूजनाः ॥१३॥ यतो यतेश्च यातीशस्तदीशाश्च समङ्गलाः । अनुयान्त्याश्च सोमानः सार्वभौमो हि तादृशः ।।९।। त्रिमार्गगा प्रयास्येवं देवसेना स्वमार्गगा । पवित्रयति भूलोकं पवित्रेण प्रभाविता ॥९५।। तस्यामेकः समुत्तङ्गो मादण्डो दण्डसंनिमः । अधरोपरिलोकान्तः प्राप्तः प्रत्यागतांशुभिः ॥९६।। त्रिगुणीकृततेजस्कः स्थूलदृश्यः स्वतेजसा । भासते भास्करादन्याज्ज्योतिष्टोमतिरस्करः ॥९॥ आलोको यस्य लोकान्तव्यापी निःप्रतिबन्धनः । धवस्तान्धतमसो भास्वत्प्रकाशमतिवर्तते ।।९८॥ तस्यान्तस्तेजसो मर्ता तेजोमय इवापरः । रश्मिमालिसहस्रकरूपाकृतिरनाकृतिः ॥१९॥
फूलोंके जापसे भगवान्की पूजा कर रही थीं ॥८८|| अत्यन्त स्वच्छ और जगमगाते हुए ताराओंसे देदीप्यमान आकाश, उस सरोवरके समान दिखायी देता था जिसका जल शरद् ऋतुके कारण स्वच्छ हो गया था तथा जिसमें कुमुदोंका समूह विद्यमान था ।।८२|| उस समय अन्यकी तो बात ही क्या थी अल्पबद्धिके धारक तिर्यंच आदि समस्त प्राणी भगवानको दरसे ही नमस्कार करते थे। भगवान् चतुर्मुख थे इसलिए चारों दिशाओंमें दिखाई देते और छाया आदिसे रहित थे ॥१०॥ भगवान् नेमि जिनेन्द्रके भोजन तथा सब प्रकारके उपसर्गोंका अभाव था सो ठीक हो है क्योंकि लोकके अद्वितीय स्वामीका ऐसा आश्चर्यकारी अद्भुत माहात्म्य होता ही है ॥९१। जिनका कल्याण होनेवाला था ऐसे प्रवादी लोग, अहंकारसे युक्त होनेपर भी आ-आकर भगवान्को नमस्कार करते थे सो ठीक ही है क्योंकि उन जैसा प्रभाव अन्तमें आश्चर्य करनेवाला एवं प्रतिपक्षीसे रहित होता ही है ॥१२॥ जिनके आगे-आगे इन्द्र चल रहा था ऐसे भगवान् जिस-जिस दिशामें पहुंचते थे उसी-उसी दिशाके दिक्पाल पूजनकी सामग्री लेकर भगवान्की अगवानीके लिए आ पहुंचते थे ॥९३॥ भगवान् जिस-जिस दिशासे वापस जाते थे उस-उस दिशाके दिक्पाल मंगल द्रव्य लिये हुए अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् उसी प्रकारके सार्वभौम थे-समस्त पृथिवीके अधिपति थे ॥९४।। त्रिमार्गगा अर्थात् गंगानदी अपने निश्चित तीन मार्गोंसे चलती है परन्तु वह देवोंकी सेना बिना मार्गके ही चल रही थीउसके चलनेके मार्ग अनेक थे। इस तरह वह सेना अतिशय पवित्र भगवान्से प्रभावित हो पृथिवीलोकको पवित्र कर रही थी ।।९५॥ उस देवसेनाके बीच दण्डके समान एक बहुत ऊंचा कान्तिदण्ड विद्यमान था जो नीचेसे लेकर ऊपर लोकके. अन्त तक फैला था और वापस आयी हई किरणोंसे यक्त था ॥९६॥ अन्य तेजधारियोंकी अपेक्षा उस कान्तिदण्डका तेज तिगन था। अपने तेजके द्वारा वह बड़ा स्थूल दिखाई देता था और सूर्यके सिवाय अन्य ज्योतिषियोंके समूहको तिरस्कृत करनेवाला था ॥९७|| उस कान्तिदण्डका प्रकाश लोकके अन्त तक व्याप्त था, रुकावटसे रहित था, गाढ़ अन्धकारको नष्ट करनेवाला था, और सूर्य के प्रकाशको अतिक्रान्त करनेवाला था ॥९८॥ उस कान्तिदण्डके बीच में पुरुषाकार एक ऐसा दूसरा कान्तिसमूह दिखाई देता था जो तेजका धारक था, अन्य तेजोमयके समान जान पड़ता था, एक
१. नयन्ति म.। २. अनुयान्त्या स्वंसोमानः ख. । अनुपान्त्या स्वसीमानः म.। ३. यातश्च क. । जातस्य ङ.. ४. प्रयान्त्येव क. । ५. भास्करादन्याज्ज्योतिष्टोमविरस्करः म. ख. । ६. नराकृतिः ङ. ।
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एकोनषष्टितमः सर्गः परितो भामिसत्सर्पद्धनो मर्तुमहोदयः । मासिगम्यूतिविस्तारो युक्तोच्छायस्तनूद्धवः ॥१०॥ दृश्यते दृष्टिहारीव सुखदृश्यः सुखावहः । पुण्यमूर्तिस्तदन्तस्थः पूज्यते पुरुषाकृतिः ।।१०१॥ काधियोऽपुण्यजन्मानः स्वापुण्यजरुषान्विताः । न पश्यन्ते च तद्भासं मानुभासमुलूकवत् ॥१०२।। तिश्यन्ती रवेस्तेजः पूरयन्ती दिशोऽखिलाः । तत्प्रमा भानवीयेव पूर्व व्याप्नोति भूतलम् ॥१०॥ तस्याश्चानुपदं याति लोकेशो लोकशान्तये । लोकानुदासयन् सर्वानतिदीधितिमत्प्रभः ।।१०४॥ आसंवत्सरमारमाङ्गः प्रथयन्प्रामवीं गतिम् । मासते रनवृष्टयाध्वामरोत्यैरावतो यथा ।।१०५।। अनुबन्धावनिप्रख्यं दिवि मार्गादि दृश्यते । त्रिलोकातिशयोद्भूतं तद्धि प्रामवमद्भुतम् ॥१०६॥ पटुभवन्ति मन्दाश्च सर्वे 'हिंस्रास्त्वपर्धयः । खेदस्वेदार्तिचिन्तादि न तेषामस्ति तरक्षणे ॥१०॥ विहारानुगृहीतायां भूमौ न डमरादयः । दशाभ्यस्तयुगं(?)भर्तुरहोऽत्र महिमा महान् ॥१०॥
विभूत्योद्धतया भूत्यै जगतां जगतां विभुः । निजहार भुवं मव्यान् बोधयन् बोधदः क्रमात् ।।१०९।। हजार सूर्यके समान कान्तिका धारक था, जिससे बढ़कर और दूसरी आकृति नहीं थी, जो चारों
ओर फैलनेवाली कान्तिसे घनरूप था, भगवान्के महान् अभ्युदयके समान था, जिसकी कान्तिका विस्तार एक कोस तक फैल रहा था, जो भगवान्की ऊंचाईके बराबर ऊंचा था, दृष्टिको हरण करनेवाला था, सुखपूर्वक देखा जा सकता था, सुखको उत्पन्न करनेवाला था, पुण्यकी मूर्तिस्वरूप था और सबके द्वारा पूजा जाता था ।।९९-१०१।। जिस प्रकार उल्लू सूर्यको प्रभाको नहीं देख पाते है उसी प्रकार दुर्बुद्धि, पापी एवं अपने पापसे उत्पन्न क्रोधसे युक्त पुरुष उस कान्ति-समूहको नहीं देख पाते हैं ।।१०२।। उस कान्ति-समूहमें से एक विशेष प्रकारको प्रभा निकलती थी जो सूर्यके तेजको आच्छादित कर रही थी, समस्त दिशाओंको पूर्ण कर रही थी और सूर्यको प्रभाके समान पृथिवीतलको पहलेसे व्याप्त कर रही थी ॥१०३।। उस प्रभाके पीछे, जो समस्त लोकोंको प्रकाशित कर रहे थे तथा जिनको प्रभा अत्यधिक किरणोंसे युक्त थी ऐसे भगवान् नेमि जिनेन्द्र, लोकशान्तिके लिए-संसारमें शान्तिका प्रसार करनेके लिए विहार कर रहे थे ॥१०४॥ जिस मार्गमें भगवान्का विहार होता था वह मार्ग, अपने चिह्नोंसे एक वर्ष तक यह प्रकट करता रहता था कि यहां भगवान्का विहार हुआ है तथा रत्नवृष्टिसे वह मार्ग ऐसा सुशोभित होता था जैसा नक्षत्रोंके समूहसे ऐरावत हाथी सुशोभित होता है ॥१०५।। जिस प्रकार विहारसे सम्बन्ध रखनेवाली पृथिवीमें मार्ग आदि दिखलाई देते हैं उसी प्रकार आकाशमें मार्ग आदि दिखाई देते हैं सो ठोक ही है क्योंकि तीन लोकके अतिशयसे उत्पन्न भगवान्का वह अतिशय ही आश्चर्यकारी था ॥१०६।। उस समय मन्द बुद्धि मनुष्य तीक्ष्ण बुद्धिके धारक हो गये थे। समस्त हिंसक जीव प्रभावहीन हो गये थे और भगवान्के समीप रहनेवाले लोगोंको खेद, पसीना, पीड़ा तथा चिन्ता आदि कुछ भी उपद्रव नहीं होता था ।।१०७।। भगवान्के विहारसे अनुगृहीत भूमिमें दो सौ योजन तक विप्लव आदि नहीं होते थे। अथवा दशसे गुणित युग अर्थात् पचास वर्ष तक उस भूमिमें कोई उपद्रव आदि नहीं होते थे। भावार्थ--जिस भूमि में भगवान्का विहार होता था वहाँ ५० वर्ष तक कोई उपद्रव दुर्भिक्ष आदि नहीं होता था। यह भगवान्की बहुत भारी महिमा ही समझनी चाहिए ॥१०८।। इस प्रकार उत्कृष्ट विभूतिसे युक्त, बोधको देनेवाले जगत्के स्वामी भगवान् नेमिनाथने भव्य जीवोंको सम्बोधित करते हुए, जगत्के वैभवके लिए क्रमसे पृथिवीपर विहार किया ॥१०९।। १. भाति तूत्सर्पद्धनो ख,, म., ङ. । २. राशिगव्यूत-क., ख., म. । ३. युक्तोच्छायतनूद्भवः म.। ४. रत्नवृष्ट्या वा परीत्यरावतो म., ख.। रत्नवृष्ट्या वा भरतरावतो यथा क.। ५ प्रभोरिदं प्राभवम् प्रभुसंबन्धीत्यर्थः । ६. हिंस्रास्रपर्धय: म., ख., ड., क.। ७. खेदः स्वेदार्ति- म.। ८. न चैषामस्ति म. । 2. देशाम्यस्तयुगं ङ. । द्विशतयोजन ( म. टि. ) अत्र 'शताम्यस्तयुगं' इति पाठः सम्यक् प्रतिभाति ।
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हरिवंशपुराणे
सुराष्ट्रमरस्यलाटोरुसूरसेनपटचरान् । कुरुजाङ्गलपाञ्चालकुशाग्रसगधाजनान् ॥१०॥ अङ्गवनकलिङ्गादीन्नानाजनपदान् जिनः । विहरन् जिनधर्मस्थांश्चक्रे क्षत्रियपूर्वकान् ॥११॥ ततो मलयनामानं देशमागत्य स क्रमात् । सहस्राम्रवने तस्थौ पुरे भदिलपूर्वके ।।११२।। पूर्ववद्रचिते तत्र चतुर्भेदैः सुरासुरैः । समवस्थानभूभागे जिनोऽभाद् गणवेष्टितः ।।११३॥ तत्पुराधिपतिः पौण्डः पौरलोकसमन्वितः । सस्तुतिर्जितमानम्य समासीनः कृताञ्जलिः ।। ११४।। देवक्यास्तनया ये षट सुदृष्ट्यलकयोः स्थिताः । पुत्रप्रीतिं प्रकुर्वाणास्तेऽपि तत्रैव संगताः ।।१५५॥ प्रत्येक योषितस्तेषां द्वात्रिंशदगणना गुणः । रूपादिमिरपीन्द्रस्य जयन्त्यः शुचयः शचीम् ।।११।। अवतीर्य रथेभ्यस्ते षडभ्यः षडपि सोदराः। नत्वा नुत्या जिनं राज्ञा सहासीना महौजसः ।।११७॥ जिनः श्रावधर्म च सम्यग्दर्शनभूषितम् । यतिधर्म च कर्मघ्नं जगाद सदसे तदा ।।११।। ततो विदिततत्त्वार्थाः श्रत्वा धर्मामृतं जिनात् । जातसंपारनिर्वदा बन्धुभ्यो विनिवेद्य ते ॥११९|| जिनपादान्तिके दीक्षां मोक्षलक्ष्मीविधायिनीम् । भारः सहनिस्संगा: षडपि प्रतिपेदिरे ।।१२।। द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं लब्धबीजादिबुद्धयः । अधिगम्य तपो घोरं चक्रुस्ते राजसूनवः ॥१२१॥ षष्टादयः सहामीषां धारणापरणा सह । योगास्त्रैकालिकाः साकं साकं शय्यासनकियाः ॥१२२॥ तेषां चरमदेहानां तपतां परमं तपः । देहानां परमा कान्तिः पूर्वतोऽपि विवर्धते ॥१२३॥ उपमानोपमेयत्वमन्योन्यस्य तपस्यमी । सबाह्याभ्यन्तरे प्रापुस्तीर्थ कृत्पदसेवकाः ॥१२४॥
सुराष्ट्र, मत्स्य, लाट, विशाल शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल, पांचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि नाना देशोंमें विहार करते हुए भगवान्ने क्षत्रिय आदि वर्णोको जैनधर्ममें स्थित किया ।।११०-१११।।।
तदनन्तर विहार करते-करते भगवान् मलय नामक देशमें आये और उसके भद्रिलपुर नगरके सहस्राम्रवनमें विराजमान हो गये ॥११२। पहलेकी तरह चारों प्रकारके देवोंने वहांपर भी समवसरणकी रचना कर दो और उसमें गणधरोंसे वेष्टित भगवान् सुशोभित होने लगे ॥११३॥ उस नगरका राजा पौण्ड, नगरवासियोंके साथ समवसरणमें आया और हाथ जोड़ स्तुति करता हआ जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर मनुष्योक काठमें बठ गया ॥११४॥ देवकीक जो छह पूत्र सुदृष्टि सेठ और अलका सेठानीकी पुत्रप्रीतिको बढ़ाते हुए उनके यहाँ रहते थे वे भी समवसरणमें आये ॥११५।। उनमें से प्रत्येककी बत्तीस-बत्तीस स्त्रियाँ थीं जो अत्यन्त उज्ज्वल थीं और अपने रूप आदि गुणोंसे इन्द्रकी इन्द्राणीको भी जीतती थीं ॥११६॥ बहुत भारी तेजको धारण करनेवाले वे छह भाई अपने-अपने पृथक्-पृथक् छहों रथोंसे नीचे उतरकर समवसरण गये और जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर राजाके साथ मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये ॥११७।। उस समय भगवान्ने सभामें स्थित लोगोंके लिए सम्यग्दर्शनसे सुशोभित श्रावकधर्म और कर्मोका नाश करनेवाले मुनिधर्मका उपदेश दिया ॥११८॥ तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान्से धर्मरूप अमृतका श्रवण कर जिन्होंने तत्त्वके वास्तविक स्वरूपको जान लिया था ऐसे छहों भाई संसारसे विरक्त हो उठे और बन्धुजनोंको इसकी सूचना दे जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके समीप निर्ग्रन्थ हो एक साथ मोक्ष लक्ष्मीको प्रदान करनेवाली दीक्षाको प्राप्त हो गये ॥११९-१२०॥ जिन्हें बीज-बुद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त हुई थीं ऐसे उन राजकुमारोंने द्वादशांग श्रुतज्ञानका अभ्यास कर घोर तप किया ॥१२१॥ इन छहों मुनियोंके बेला आदि उपवास, उनकी धारणाएँ, पारणाएँ, त्रैकालिक योग तथा शयन, आसन आदि क्रियाएँ साथ-साथ ही होती थीं ।।१२२।। उत्कृष्ट तप तपनेवाले उन चरमशरीरी मुनियोंके शरीरकी उत्कृष्ट कान्ति पहलेसे भी अधिक बढ़ गयी थी ॥१२३।। तोयंकर भगवान्के चरणोंकी सेवा करनेवाले ये छहों मुनि, बाह्याभ्यन्तर तपमें परस्पर एक-दूसरेके उपमानोपमेयको
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एकोनषष्टितमः सर्गः तथाविधमहाभूत्या विहत्य स महीं जिनः । आगत्य समवस्थानेनोर्जयन्तमभूषयन् ॥१२५॥ इन्द्रायैनिदशैस्तस्मिन्नुपेन्द्रायैश्च यादवैः । द्वारिकापौरलोकेन सेव्यमानो जिनो बभौ ॥१२६॥ एकादश गणाधीशा वरदत्तादयस्तदा । श्रुतज्ञानसमुद्रान्तर्दशिनोऽत्र विरेजिरे ॥१२॥ चतुःशतानि तत्रान्ये मान्याः पूर्वधराः सताम् । एकादशसहस्राष्टशतसंख्यास्तु शिक्षकाः ॥१२८॥ शतान्यवधिनेवास्तु केवलज्ञानिनोऽपि च । ते पञ्चदशसंख्यानाः प्रत्येकमुपवर्णिताः ॥१२९॥ मस्या विपुलया युक्ता शतानि नव संख्यया । वादिनोऽष्टौ शतानि स्युरेकादश तु वैक्रियाः ॥१३०॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि राजीमत्या सहायिकाः । लक्षकैकोनसप्तत्या सहस्रः श्रावकाः स्मृताः ॥१३१॥ षटत्रिंशच्च सहस्राणि लक्षाणां त्रितयं तथा । सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः श्राविकाः श्रावकव्रताः ॥१३॥ पूर्ववत्तीर्थकृन्मेषस्तृषितान भव्यचातकान् । वर्षन् धर्मामृतं दिव्यं दिव्यध्वनिरतर्पयत् ॥१३३॥
इति दुरापमहोदयपर्वते जिनरवौ स्थितवत्यमितोदये। विकसति प्रकृताञ्जलिकुड़मलं सकललोकसरोजबुधाम्बुजम् ॥१३॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती भगवविहारवणंनो नाम
कोनषष्टितमः सर्गः ॥५९॥
प्राप्त हो रहे थे ॥१२४॥
तदनन्तर उस प्रकारकी महाविभूतिके साथ पृथिवीपर विहार कर भगवान् ऊर्जयन्त गिरि-गिरनार पर्वतपर आये और समवसरणके द्वारा उसे सुशोभित करने लगे ॥१२५।। इन्द्रादिक देवों, कृष्ण आदि यादवों और द्वारिकावासी नागरिक जनोंसे जिनकी सेवा हो रही थी ऐसे भगवान नेमि जिनेन्द्र उस ऊर्जयन्त गिरिपर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ॥१२६।। उस समय समवसरणमें श्रुतज्ञानरूपी समुद्रके भीतरी भागको देखनेवाले वरदत्त आदि ग्यारह गणधर सुशोभित थे ॥१२७॥ भगवान्के समवसरणमें सज्जनोंके माननीय चार सौ पूर्वधारी, एक हजार आठ सो शिक्षक, पन्द्रह सो अवधिज्ञानी, पन्द्रह सौ केवलज्ञानी, मौ सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी, आठ सो वादी और ग्यारह सो विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनिराज थे ॥१२८-१३०॥ राजीमतीको साथ लेकर चालीस हजार आर्यिकाएं, एक लाख उनहत्तर हजार श्रावक और सम्यग्दर्शनसे शुद्ध तथा श्रावकके व्रत धारण करनेवाली तीन लाख छत्तीस हजार श्राविकाएं वहां विद्यमान २॥१३१-१३२॥ दिव्यध्वनिके धारक भगवान् तीथंकररूपी मेघ, धर्मरूपी दिव्य अमृतकी वर्षा करते हुए, प्यासे भव्यजीवरूपी चातकोंको पहलेकी तरह तृप्त करने लगे ॥१३३॥
इस प्रकार अपरिमित अभ्युदयके धारक नेमिजिनेन्द्ररूपी सूर्यके दुर्लभ महोदयसे युक्त ऊर्जयन्त पर्वतरूपी उदयाचलपर स्थित होते ही अंजलिरूपी कमलको धारण करनेवाले समस्त लोकरूपी सरोवरमें उत्पन्न हुए विद्वज्जनरूपी कमल प्रफुल्लित हो गये ॥१३४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें भगवानके
विहारका वर्णन करनेवाला उनसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ॥५५॥
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षष्टितमः सर्गः
अथ धर्मकथाछेदे प्रणिपत्य जिनेश्वरम् । कृताञ्जलिरपृच्छत् सा देवकी विनयं श्रिता ॥१॥ भगवन् मवने मेऽद्य जातरूपमनोहरम् । मुनियुग्मं प्रविश्य 'त्रिरुपर्युपरि भुक्तवान् ॥२॥ भगवन् भुक्तिवेलायामेकस्यामेकभुक्तये । बहुकृत्वो गृहं वेकं यतयः प्रविशन्ति किम् ॥३॥ अथातिशयरूपत्वाधतियुग्मत्रयं मया । भ्रान्त्या नालक्षि मे स्नेहो देहजेष्विव तेष्वभूत् ॥४॥ इत्युक्तेऽकथयन्नाथस्तनयास्ते षडप्यमी । युग्मत्रयतया सूता मवस्या कृष्णपूर्वजाः ॥५।। देवेन रक्षिताः कंसात् सुदृष्टयलकयोः पुनः । सुतत्वेन च वृद्धास्ते पुरे भदिलनामनि ॥६॥ धर्म श्रुत्वा समं सर्वे मम शिष्यत्वमागताः । कृत्वा कर्मक्षयं सिद्धिं यास्यन्त्यत्रैव जन्मनि ॥७॥ स्नेहोऽपत्यकृतोऽमीषु मवत्याः समभूदतः । धर्मचारिषु सर्वेषु स्नेहः किमुत सूनुषु ॥८॥ प्रणनाम ततस्तुष्टा देवकी देहजान्मुनीन् । यादवाश्च समस्तास्ते कृष्णाधास्तुष्टुवुर्नताः ॥९॥ प्रणम्यात्ममवान् पृष्टो जिनेन्द्रः सत्यमामया । यदुलोकामराध्यक्षं दिव्यचक्षुर्जगाविति ॥१०॥ प्राग्मद्रिलपुरेऽत्राभून्मरीचिकपिलासुतः । काव्यकृत्पण्डितंमन्यो विप्रो मुण्डशलायनः ॥११॥
अथानन्तर धर्मकथा पूर्ण होनेपर विनयको धारण करनेवाली देवकीने हाथ जोड़कर भगवान्को नमस्कार किया और उसके बाद यह पूछा कि भगवन् ! आज सुवर्णके समान सुन्दर दो मुनियोंका युगल मेरे भवनमें तीन बार आया और फिर-फिरसे उसने, तीन बार आहार लिया। हे प्रभो! जब मनियोंके भोजनकी बेला एक है और एक ही बार वे भोजन करते हैं तब मनि एक ही घरमें अनेक बार क्यों प्रवेश करते हैं ? ॥१-३॥ अथवा यह भी हो सकता है कि वह तीन मुनियोंका युगल हो और अत्यन्त सदश रूप होनेके कारण मैं भ्रान्तिवश उन्हें देख नहीं सकी हूँ। परन्तु इतना अवश्य है कि मेरा उन सबमें पुत्रोंके समान स्नेह उत्पन्न हुआ था ॥४॥
देवकीके इस प्रकार कहनेपर भगवान्ने कहा कि ये छहों मुनि तेरे पुत्र हैं और कृष्णके पहले तीन युगलके रूपमें तूने इन्हें उत्पन्न किया था ॥५॥ देवने कंससे इनको रक्षा की और भद्रिलपुरमें सुदृष्टि सेठ तथा अलका सेठानीके यहां पुत्ररूपसे इनका लालन-पालन हुआ ॥६॥ धर्म श्रवण कर ये सबके सब एक साथ मेरी शिष्यताको प्राप्त हो गये-मुनि हो गये और कर्मोंका क्षय कर इसी जन्ममें सिद्धिको प्राप्त होंगे ॥७॥ तेरा इन सबमें जो स्नेह हुआ था वह अपत्यकृत थापुत्र होनेसे किया गया था सो ठीक ही है क्योंकि समस्त धर्मात्मा जनोंमें प्रेम होता है फिर जो पुत्र होकर धर्मात्मा हैं उनका तो कहना ही क्या है ? ॥८॥ तदनन्तर देवकीने सन्तुष्ट होकर उन पुत्ररूप मुनियोंको नमस्कार किया तथा कृष्ण आदि समस्त यादवोंने नम्रीभूत होकर उनकी स्तुति की ॥९॥
तत्पश्चात् कृष्णकी पट्टरानी सत्यभामाने भगवान्को प्रणाम कर अपने पूर्वभव पूछे । उत्तरमें दिव्य नेत्र-केवलज्ञानके धारक भगवान् यादवों और देवोंके समक्ष इस प्रकार उसके पूर्वभव कहने लगे ॥१०॥
पहले भद्रिलपुर नगरमें मण्डशलायन नामका एक ब्राह्मण रहता था जो मरीचि ब्राह्मण और कपिला ब्राह्मणीका पुत्र था, काव्यको रचनामें निपुण था और अपने-आपको पण्डित मानता १. वारत्रयम् । २. गृहेत्वेकम् म. ।
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षष्टितमः सर्ग:
७०७ पुष्पदन्तजिनेन्द्रस्य तीर्थे व्युच्छेदभावतः । अभावे जिनमार्गज्ञभव्यानां मरतक्षितौ ॥१२॥ गोभूकन्याहिरण्यादिदानानि विषयातुरः । पापबन्धनिमित्तानि विप्रः प्रज्ञाप्य सोऽवनौ ॥१३॥ मोहयित्वा जडं लोक राजलोकपुरोगमत् । प्रवृत्तः पापवृत्तेषु सप्तमी पृथिवीमितः ॥१४॥ उद्वापि परिभ्रम्य तिर्यनारकयोनिषु । काकतालोययोगेन मानुषत्वमुपागतः।।१५।। गन्धावतीसरित्तीरे गन्धमादनपर्वते । व्याधः पर्वतको नाम्ना वल्लरीवल्लमोऽभवत् ॥१६॥ श्रीधरं धर्मसंज्ञं चचारणश्रमणौ गिरौ । दृष्ट्वोपशमकृत्वाभ्यां प्रेषितं धर्मकालमाक् ।।१७।। ज्योतिर्मालाख्यखेचर्यामलकायां महाबलात् । जातः शतबलिभ्राता स पुत्रो हरिवाहनः ॥१८॥ राजा राज्ये नियोज्यैतौ प्रव्रज्य श्रीधरान्तिके । प्रव्रज्यायाः फलं मुख्यं मोक्षसौख्यमवाप सः ॥१९॥ निर्वासितो विरोधस्थो ज्येष्टेन हरिवाहनः । मगलीदेशशैलेऽस्थादम्बुदावर्तनामनि ॥२०॥ श्रीधर्मानन्तवीर्याख्यौ चारणौ वीक्ष्य तत्र सः। प्रव्रज्याराध्य स प्रापत् कल्पमैशानमेव च ॥२१॥ भुक्त्वा देवसुखं देवश्च्युत्वा संक्लेशभावतः । जाता स्वयंप्रभागमे मामा स्वं हि सुकेतुतः ॥२२॥ अत्र जन्मनि कृत्वान्ते तपो भूत्वाऽमरोत्तमः । च्युत्वा जैनं तपः कृत्वा निर्वाणसुखमाप्स्यति ॥२३॥
आकत्मिमवानेवं ज्ञात्वारमासन्ननिर्वृतिम् । भाननाम जिनाधीशं सत्यमामा प्रमोदिनी ॥२४॥ था ॥११॥ श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्रके तीर्थमें धर्मका व्यच्छेद हो जानेसे जब भरतक्षेत्रकी भूमिमें जिनमार्गके ज्ञाता भव्य जीवोंका अभाव हो गया तब उस विषयोंसे पीड़ित ब्राह्मणने पृथिवीपर पापबन्धमें कारणभूत गाय, कन्या तथा सुवर्ण आदिसे दानकी प्रवृत्ति चलायी ॥१२-१३।। मूर्ख जनोंको मोहित कर वह राजपुरुषोंके आगे तक पहुँच गया अर्थात् क्रम-क्रमसे उसने राजा-प्रजा सभीको अपने चक्रमें फंसा लिया और पापाचारमें प्रवृत्त हो अन्तमें वह सातवें नरक गया ॥१४॥ वहाँसे निकलकर भी तिर्यंच और नारकियोंकी योनिमें परिभ्रमण करता रहा। तदनन्तर कदाचित् काकतालीयन्यायसे मनुष्य पर्यायको प्राप्त हुआ ॥१५॥ गन्धावती नदीके किनारे गन्धमादन पवंतपर बह वल्लरी नामक स्त्रीका स्वामी पर्वतक नामका भील हआ॥१६॥ कदाचित् उस पवंतपर श्रीधर और धर्म नामके दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये। उनके दर्शन कर इसके परिणामोंमें कुछ शान्ति आयी जिससे मुनियोंने उससे उपवास कराया। अन्तमें वह धर्मपूर्वक मरणको प्राप्त
जया, पर्वतकी अलका नगरीमें महाबल नामक विद्याधरसे ज्योतिर्माला नामकी विद्याधरोमें शतबलीका भाई हरिवाहन नामका पुत्र हुआ ॥१७-१८॥ कदाचित् राजा महाबल, शतबली और हरिवाहन नामक दोनों पुत्रोंको राज्य-कार्यमें नियुक्त कर श्रीधर गुरुके पास दीक्षित हो गया और दीक्षाका मुख्य फल मोक्षसम्बन्धी सुख उसे प्राप्त हो गया ॥१९॥ किसी कारण शतबली और हरिवाहनमें विरोध पड़ गया जिससे बड़े भाई शतबलीने उसे निकाल दिया। निर्वासित हरिवाहन भगलीदेशके अम्बुदावर्त नामक पर्वतपर स्थित था ॥२०॥ उसी समय वहाँ श्रीधर्म और अनन्तवीर्य नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये। उनके दर्शन कर हरिवाहनने दीक्षा ले ली और अन्त में सल्लेखना धारण कर वह ऐशान स्वर्गको प्राप्त हुआ ॥२१॥ हरिवाहनके जीव देवने वहां देवोंके सखोंका उपभोग किया परन्त संक्लेशमय परिणाम होनेके कारण वहाँसे च्युत होकर राजा सुकेतुको रानी स्वयंप्रभाके गर्भ में तू सत्यभामा नामकी कन्या हुई ॥२२॥ इस जन्ममें तपकर तू अन्तमें उत्तम देव होगी और वहाँसे च्युत हो जिनेन्द्र प्रणीत तप कर मोक्ष सुखको प्राप्त होगी ॥२३॥
इस प्रकार अपने भव सुनकर तथा निकट कालमें हमें मोक्ष प्राप्त होनेवाला है यह जानकर सत्यभामाने हर्षित हो भगवान्को नमस्कार किया ॥२४॥ १. पुरोगमम् म.। २. चारणश्रवणो म., ङ,।
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हरिवंशपुराणे रुक्मिण्यापि ततः पृष्टः पूर्वजन्मानि सर्ववित् । अवोचदिति 'लोकेऽसौ प्रणिधानपरे स्थिते ॥२५।। अत्रैव भरतक्षेत्रे विषये मगधाभिधे । ब्राह्मणी सोमदेवस्य लक्ष्मीग्रामेऽग्रजन्मनः ॥२६॥ आसीलक्ष्मीमती नाम्ना लक्ष्मीरिव सुलक्षणा । रूपाभिमानतो मूढा पूज्यान्न प्रतिमन्यते ॥२७॥ धृतप्रसाधना वक्त्रं कदाचिञ्चित्तहारिणी । नेत्रहारिणि चन्द्राभे पश्यन्ती मणिदर्पणे ॥२८॥ समाधिगुप्तनामानं तपसातिकृशीकृतम् । साधं मिक्षागतं दृष्ट्वा निनिन्द विचिकित्सिता ॥२९॥ मुनेनिन्दातिपापेन सप्ताहाभ्यन्तरे च सा । क्लिन्नोदुम्बरकुष्ठेन प्रविश्याग्निमगान्मृतिम् ॥३०॥ सहार्ता सा खरी भूत्वा मृत्वा लवणभारतः । शूकरी मानदोषेण जाता राजगृहे पुरे ॥३१॥ वराकी मारिता मृत्वा गोष्टेऽजायत कुक्कुरी । गोष्ठागतेन सा दग्धा परुषेण दवाग्निना ॥३२॥ त्रिपदाख्यस्य मण्डूक्यां मण्डकग्रामवासिनः । मत्स्यबन्धस्य जाता सा दुहिता पूतिगन्धिका ॥३३।। मात्रा त्यक्ता स्वपापेन पितामद्या प्रवर्धिता । निष्कुटे वटवृक्षस्य जालेनाच्छादयन्मुनिम् ॥३४॥ बोधितावधिनेत्रेण प्रभाते करुणावता । धर्म समाधिगुप्तेन प्रोक्तपूर्वमवाग्रहीत् ॥३५।। पुरं सोपारकं याता तत्रार्याः समुपास्य सा । ययौ राजगृहं तामि: कुर्वाणाचाम्लवर्धनम् ॥३६॥
तदनन्तर रानी रुक्मिणीने भी अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थोंके ज्ञाता भगवान् नेमिनाथ, इस प्रकार कथन करने लगे। उस समय समस्त लोग सुननेके लिए एकाग्रचित्त होकर बैठे थे॥२५॥
इसी भरत क्षेत्रके मगध देशमें एक लक्ष्मी नामका ग्राम है। उसमें एक सोमदेव नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी लक्ष्मीमती नामकी ब्राह्मणी थी जो कि लक्ष्मीके समान उत्तम लक्षणोंकी धारक थी और अपने रूपके अभिमानसे मूढ़ होकर पूज्य जनोंको भी कुछ नहीं समझती थी ॥२६-२७॥ चित्तको हरण करनेवाली वह लक्ष्मीमती. एक दिन आभषण धारण कर नेत्रों प्रिय तथा चन्द्रमाके समान आभावाले मणिमय दर्पणमें अपना मुख देख रही थी उसी समय तपसे अतिशय कृश समाधिगुप्त नामके मुनि भिक्षाके लिए आये। उन्हें देख ग्लानियुक्त हो उसने उनकी निन्दा को ।।२८-२९॥ मुनिनिन्दाके बहुत भारी पापसे वह सात दिनके भीतर ही उदुम्बर कुष्ठसे पीड़ित हो गयी और इतनी अधिक पीड़ित हुई कि वह अग्निमें प्रवेश कर मर गयो । ३० ।। आर्तध्यानके साथ मरकर वह गधी हुई। उसपर नमक लादा जाता था। सो उसके भारसे मरकर वह मान कषायके दोषसे राजगृह नगरमें शूकरी हुई ।।३१।। उस बेचारीको भी लोगोंने मार दिया जिससे मरकर वह गोष्ठ-गायोंके रहनेके स्थानमें कुत्ती हुई। एक दिन उस गोष्ठमें भयंकर दावाग्नि लग गयी जिससे वह कुत्ती उसी दावाग्निमें जल गयी ॥३२॥ और मरकर मण्डूकग्राममें रहनेवाले त्रिपद नामक धीवरकी मण्डूकी नामक स्त्रीसे पूतिगन्धिका नामक पुत्री हुई ॥३३।। अपने पापके उदयसे माताने उसे छोड़ दिया अर्थात् उसकी माता मर गयी जिससे दादोने उसका पालन-पोषण किया। एक दिन इसके घरके उपवनमें वही समाधिगुप्त मुनिराज विहार करते हुए आये और वटवृक्षके नीचे विराजमान हो गये। रात्रिके समय शीतकी अधिकता देख पूतिगन्धाने उन मुनिराजको जालसे ढक दिया ।। ३४ ॥ मुनिराज अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे इसलिए उन्हें उसकी दशा देख दया आ गयी। उन्होंने उसे समझाया और उसके पूर्व भव सुनाये जिससे उसने धर्म धारण कर लिया ॥ ३५ ॥ एक बार वह पूतिगन्धा सोपारक नगर गयी। वहाँ आर्यिकाओंकी उपासना कर वह उन्हींके साथ आचाम्ल नामका तप करती हुई
१. लोकेशो म. । २. सा ह्यातन ख., ङ, म.। ३. जाताथ म., घ. । ४. सोपानकम् क. । ५. समुपास्यया म.. क., ङ., ख.।
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अत्र शिद्धशिलां वन्द्यां वन्दित्वा च स्थिता सती । कृत्वा नीळगुहायां सा सती सल्लेखनां मृता ॥३७॥ अच्युतेन्द्रमहादेवी नाम्ना गगनवल्लमा । वल्लभामवदुत्कृष्टस्त्रीस्थितिस्तत्र देव्यसौ ||३८|| ततोऽवतीर्य भीष्मस्य श्रीमत्यां वं सुताभवः । नगरे कुण्डिनाभिख्ये रुक्मिणी रुक्मिणः स्वसा ||३९|| कृत्वा चात्र भवे भव्ये प्रव्रज्यां विबुधोत्तमः । च्युत्वा तपश्च कृत्वात्र नैर्ग्रन्थ्यं मोक्ष्यसे ध्रुवम् ॥४०॥ भीष्मा भीष्मसंसारभीरुराकर्ण्य सा भवान् । ज्ञात्वासन्नस्वमोक्षातिं प्रणनाम प्रभु मुदा ॥ ४१॥ जाम्बवत्या जिनः पृष्टस्तस्याः प्राह पुराभवम् । संसारमयभीतानां सन्निधौ निखिलाङ्गिनाम् ॥४२॥ सुतासीत् पुष्कलावत्या जम्बूद्वीपस्य देविलात् । नगयां वीतशोकायां देवमत्यां यशस्विनी ॥ ४३ ॥ गृहपत्यात्मजायास "गृहपस्य शरीरजा । दत्ता सुमित्रसंज्ञाय मृते तत्र सुदुःखिता ॥४४॥ जैन जिनदेवेन जिनधर्मोपदेशिना । शाम्यमाना न सम्यक्त्वं लेभे मोहोदयादसौ ॥४५॥ दानोपवासविधिना लौकिकेन मृता सती । नन्दने व्यन्तरस्यासीत् सा भार्या मेरुनन्दना ॥ ४६॥ त्रिंशद्वर्षसहस्राणि लब्धाशीतियुतानि तत् । भोगं भुक्त्वा चिरं कालं संसारं संससार सा ॥४७॥ gistraतक्षेत्रे पुरे विजयपूर्वके । बन्धुषेणस्य भूपस्य बन्धुमत्याः सुताभवत् ॥४८॥ नाम्ना बन्धुयशाः कन्या श्रोमत्या प्रोषधव्रतम् । कन्यया जिनदेवस्य प्रतिपद्य मृताभवत् ॥ ४९ ॥ धनदस्य प्रिया पत्नी नामतः सा स्वयंप्रभा । च्युत्वातः पुण्डरीकिण्यां जम्बूद्वीपे पृथौ पुरि ॥ ५० ॥
राजगृह नगर चलो गयो ||३६|| वहाँ वन्दना करने योग्य जो सिद्धशिला थी उसकी वन्दना कर वहीं नीलगुहा में रहने लगी और सल्लेखना धारण कर मृत्युको प्राप्त हुई ||३७|| मरकर वह सोलहवें स्वर्गमें अच्युतेन्द्रकी गगनवल्लभा नामकी अतिशय प्रिय महादेवी हुई । सोलहवें स्वर्ग में स्त्रियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्यकी है सो वह उसी उत्कृष्ट स्थितिकी धारक हुई थी ||३८|| वहाँ से चय कर तू कुण्डिनपुर में राजा भीष्मकी श्रीमती रानीसे रुक्मीकी बहन रुक्मिणी नामकी पुत्री हुई है ||३९|| इस उत्तम पर्याय में तू दीक्षा धारण कर उत्तम देव होगी और वहांसे च्युत हो निर्ग्रन्थ तपश्चरण कर निश्चित ही मोक्ष प्राप्त करेगी ||४०|| अपने पूर्व भव सुनकर रुक्मिणी भयंकर संसार से भयभीत गयी और अपने लिए निकट कालमें मोक्ष प्राप्त होगा यह जानकर बड़े हर्षसे उसने भगवान्को नमस्कार किया ||४१ ||
तदनन्तर कृष्णकी तीसरी पट्टरानी जाम्बवतीने श्री नेमिजिनेन्द्र से अपने पूर्वभव पूछे सो संसारसे भयभीत समस्त प्राणियोंके समक्ष वे उसके पूर्वंभव इस प्रकार कहने लगे ||४२|| जम्बूद्वीपकी पुष्कलावती देशमें एक वीतशोका नामकी नगरी थी। उसमें देविल नामका एक गृहस्थ रहता था । उसकी देवमती नामको स्त्रीसे तु यशस्विनी नामकी पुत्री हुई थी ||४३|| यशस्विनी, गृहपति ( गहोई ) की लड़की थी और गृहपति ( गहोई ) के पुत्र सुमित्र के लिए दी गयी थी । परन्तु पतिके मर जानेपर वह बहुत दुःखी हुई || ४४ || जिनधर्मका उपदेश देनेवाले किसी जिनदेव नामक जेनने उसे उपदेश देकर शान्त किया परन्तु मोहके उदयसे वह सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं कर सकी || ४५ ॥ वह पतिव्रता लौकिक दान तथा उपवास करती रही और उनके प्रभावसे मरकर नन्दन वनमें व्यन्तर देवकी मेरुनन्दना नामकी स्त्री हुई || ४६ || तीस हजार अस्सी वर्ष तक वहाँके भोग भोगकर वह चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करती रही ||४७|| तदनन्तर इसी जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्र में विजयपुर नगरके राजा बन्धुषेणकी बन्धुमती नामक स्त्रीसे बन्धुयशा नामकी कन्या हुई । बन्धुयशाने कन्या अवस्था में ही श्रीमती नामक आर्यिकासे जिनदेव प्ररूपित प्रोषधव्रत धारण किया था इसलिए वह मरकर कुबेरको स्वयंप्रभा नामकी स्त्री हुई। आयुके अन्तमें वहाँसे च्युत हो
१. सिद्धशिला वन्द्या म. । २. दुत्कृष्टा म., क., ङ. । ३. मोक्षाप्तिः म । ४. गृहपतेः ङ. |
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हरिवंशपुराणे वज्रमुष्टेः सुभदायां सुमतिस्तनयामवत् । सुन्दर्यायिकया पाश्र्वे करवा रत्नावलीतपः ॥५१॥ सा त्रयोदशपल्यायुब्रह्मेन्द्रामाङ्गनामवत् । च्युतातो दक्षिणश्रेण्या विजयार्धस्य भारते ॥५२॥ नगरे जाम्बवाभिख्ये जाम्बवस्य खगेशिनः । जाम्बवत्या प्रियायां त्वं जाता जाम्बवती सुता ॥५३॥ तपस्तपस्विनी कृत्वा भूत्वा कल्पामरोत्तमः । च्युत्वा नृपात्मजो भूत्वा तपसा सिद्धिमेष्यति ॥५४॥ सेत्युक्त त्यतसंशीतिः शीलालंकृतिशालिनी । प्रणम्य जिनमासीना मन्वाना भवनिर्गमम् ॥५५॥ जननानि जिनो पृष्टो विनयेन सुसीमया । सभाजनमनोह्लादजननध्वनिनाब्रवीत् ॥५६॥ धातकीखण्डपूर्वार्धमेरुपूर्व विदेहजे । 'विषये मङ्गलावत्यां नगरे रत्नसंचये ॥५॥ भूपतिर्विश्वसेनोऽभूद्भार्यास्यानुन्धरीरिता । अमात्यः श्रावकोऽस्यैव विश्रुतः सुमतिश्रुतिः ॥५८॥ पद्मसेनेन निहतोऽयोध्याधिपतिना युधि । विश्वसेनोऽस्य जायायै सोऽमात्यो धर्ममब्रवीत् ॥५॥ मोहादप्राप्तसम्यक्त्वा विजयद्वारवासिनः । मृत्वा ज्वलितवेगाभूद् व्यंतरी विजयस्य सा ॥६॥ दशवर्षसहस्राणि भुक्त्वा तत्र सुखं ततः । च्युता चिरं परिभ्रम्य मीमं संसारसागरम् ॥६॥ जम्बूद्वीपविदेहेऽतः सीताया दक्षिणे तटे । रम्ये रम्याभिधे क्षेत्रे शालिग्रामे महाधने ॥६२॥
जम्बूद्वीपकी पुण्डरीकिणी नामक विशालपुरीमें वज्रमुष्टिको सुभद्रा स्त्रीसे सुमति नामकी पुत्री हुई। वहां उसने सुन्दरी नामक आर्यिकासे प्रेरित हो उनके समीप रत्नावली नामका तप किया जिसके प्रभावसे मरकर वह तेरह पल्यकी आयुकी धारक ब्रह्मेन्द्रकी प्रधान इन्द्राणी हुई। तदनन्तर वहाँसे भी च्युत होकर भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें जाम्बव नामक नगरके विद्याधर राजा जाम्बवकी जाम्बवती नामक रानीसे तू जाम्बवतो नामकी पुत्री हुई ।।४८-५३।। इस भवमें तू तपस्विनी होकर तप करेगी और स्वर्गका उत्तम देव होकर वहाँसे च्युत हो राजपुत्र होगी। तदनन्तर तपके द्वारा मोक्षको प्राप्त होगी ।।५४।। इस प्रकार भगवान्के द्वारा अपने पूर्वभव 'कहे जानेपर जिसका सब संशय दूर हो गया था तथा जो शीलरूपी अलंकारसे सुशोभित थी ऐसी जाम्बवती रानी जिनेन्द्र देवको प्रणाम कर 'मैं संसारसे पार हो गयी' ऐसा मानती हुई सुखसे आसीन हुई ॥५५॥
तदनन्तर सुशीला नामक चौथी पट्टरानीने विनयपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्से अपने भवान्तर पूछे सो भगवान् सभासदोंके मनको आनन्द उत्पन्न करनेवाली दिव्यध्वनिसे उसके भवान्तर इस प्रकार वर्णन करने लगे
धातकीखण्ड द्वीपके पूर्वार्धमें जो मेरु पर्वत है उससे पूर्वकी ओरके विदेह क्षेत्रमें एक मंगलावतो नामका देश है । उसके रत्नसंचय नामक नगरमें किसी समय विश्वसेन राजा रहता था उसको स्त्रीका नाम अनुन्धरी था। इसी राजाका एक सुमति नामका प्रसिद्ध मन्त्री था जो श्रावक धर्मका प्रतिपालक था ॥५६-५८|| कदाचित् अयोध्याके राजा पद्मसेनने राजा विश्वसेनको युद्ध में प्राणरहित कर दिया जिससे उसकी स्त्री अनुन्धरी बहुत दुःखी हुई। सुमति मन्त्रीने उसे धमका उपदेश दिया परन्तु मोहके कारण वह सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं हो सकी और आयके अन्तमें मरकर विजयद्वारपर निवास करनेवाले विजय नामक व्यन्तर देवकी ज्वलनवेगा नामको व्यन्तरी हुई ।।५९-६०॥ दश हजार वर्ष तक वहाँके सुख भोगकर वह वहांसे च्युत हुई और चिरकाल तक भयंकर संसार-सागरमें परिभ्रमण करती रही ।।६१।। तदनन्तर जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके दक्षिण तटपर एक रम्य नामका सुन्दर क्षेत्र है । उसके महाधनसम्पन्न शालिग्राम नामक नगरमें एक यक्षिल नामका गृहपति रहता था। उसकी स्त्रीका नाम देवसेना था।
१. सुन्दर्यायिकायाः ख. । २. विजयो म. (?) । ३. विदेहेन्तः म. ।
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षष्टितमः सर्गः
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सुताभूदेवसेनायां यक्षिलस्य गृहेशिनः । यक्षाराधनतो लब्धा यक्षदेवी स्वनामतः ॥६३॥ सा यक्षगृहपूजार्थमन्यदा प्रगतात्र च । धर्मसेनगुरोरन्ते धर्म शुश्राव गौरवात् ॥६४॥ आहारदानमस्मै सा पात्रायातिथयेऽन्यदा । दत्वा भक्तिमती कन्या पुण्यबन्धं बबन्ध च ॥६५॥ सखीमिः क्रीडितं याता कदाचिद्विमलाचलम् । तत्र चाकालवर्षण पीडिता प्राविशद् गुहाम् ॥६६॥ तत्र सिंहेन संत्रस्ता ग्रस्ता त्यक्तारमविग्रहा। बभूव हरिवऽसौ द्विपल्योपमजीविता ॥६७॥ ज्योतिर्लोकमतो गत्वा पल्पोपमसमस्थितिः। तच्च्युत्वा पुष्कलावत्यां जम्बूद्वीपस्य मारते ॥६॥ वीतशोकाभिधानायामशोकस्य महीपतेः। श्रीमत्यामभवत् कन्या श्रीकान्ता नामतः सुता ॥६९॥ जिनदत्तायिकोपान्ते विनिष्क्रम्य कुमारिका । रत्नावलिं तपः कृत्वा माहेन्द्राधिपतेः प्रिया ॥७॥ भूत्वैकादशपल्यायुर्मुक्त्वा स्वर्गसुखं च्युता । सुज्येष्टायां सुराष्ट्रेषु राष्ट्रवर्धनभूभृतः ॥७॥ सुसीमा तनयाभस्त्वं नगरे गिरिपूर्वके । देवो मृत्वा तपः शक्त्या मोक्ष्यसे नृभवे ततः ॥७२॥ निशम्यात्मभवानित्थं सुसीमा सौम्यमानसा । प्रकृष्टासन्ननिष्ठेति निष्ठितार्थ ननाम सा ॥७३॥ पृष्टो लक्ष्मणया गत्वा जिनः प्रोवाच तद्भवान् । जिनाः सर्वहिताः सर्वे यत्प्रश्नोत्तरवादिनः ॥७॥ द्वीपेऽस्मिन् कच्छकावस्यां सीताया उत्तरे तटे । राजारिष्टपुरे ह्यासीद्वासवो वासवोपमः ॥७५॥
सुमित्राख्या प्रियास्यासौ वन्दितुं साङ्गनो ययौ । गुरुं सागरसेनाख्यं सहस्राम्रवनस्थितम् ॥७६॥ ज्वलनवेगाका जीव इन्हीं दोनोंके एक पुत्री हुआ। वह पुत्री चूंकि यक्षकी आराधनासे प्राप्त हुई थी इसलिए उसका यक्षदेवी यही नाम प्रसिद्ध हो गया ।। ६२-६३।। किसी समय वह यक्षदेवी, यक्षगृहकी पूजाके लिए गयी थी। वहाँ उसने धर्मसेन गुरुके समीप बड़े गौरवसे धर्म उपदेश सुना ॥६४।। किसी दिन उस भक्तिमती कन्याने उक्त मुनिके लिए आहार दान दिया और उसके फलस्वरूप पूण्यबन्ध बांधा ॥६५|| किसी समय वह यक्षदेवी सखियोंके साथ क्रीडा करनेके लिए विमल नामक पर्वतपर गयी थी वहाँ अकाल वर्षासे पीड़ित होकर वह एक गुफामें घुस गयी ॥६६।। उस गुफामें पहलेसे सिंह बैठा था सो उस सिंहने देखते ही यक्षदेवीको खा लिया। यक्षदेवी अपना शरीर छोड़ हरिवर्ष क्षेत्रमें दो पल्यकी धारक आर्या हुई ॥६७॥ वहांसे चयकर वह ज्योतिष लोकमें एक पल्यकी आयुवाली देवी हुई। तदनन्तर वहाँसे च्युत हो जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके पुष्कलावती देशमें वीतशोका नामक नगरीके राजा अशोककी श्रीमती नामक रानीसे श्रीकान्ता नामकी पुत्री हुई ॥६८-६९।। श्रीकान्ताने कुमारी अवस्थामें ही जिनदत्ता आर्यिकाके पास दीक्षा लेकर रत्नावली नामका तप किया और उसके फलस्वरूप वह माहेन्द्रस्वर्गके इन्द्रको ग्यारह पल्यकी आयुवाली प्रिय देवी हुई। स्वर्गके सुख भोगकर वहांसे च्युत हुई और सुराष्ट्र देशके गिरिनगरमें राष्ट्रवर्धन राजाकी सुज्येष्ठा नामक रानीसे तू सुसीमा नामकी पुत्री हुई है। अब तू तपकी शक्तिसे देव होगी और तदनन्तर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेगी ।।७०-७२॥ इस प्रकार अपने भव श्रवण कर तथा अपना संसार अत्यन्त निकट जानकर सुसीमा बहुत प्रसन्न हुई और उसने कृतकृत्य भगवान् नेमिजिनेन्द्रको नमस्कार किया ॥७३॥
तदनन्तर लक्ष्मणा नामक पाँचवीं पट्टरानीने नमस्कार कर भगवान्से अपने पूर्वभव पूछे सो भगवान् उसके पूर्वभव कहने लगे। चूँकि समस्त तीर्थंकर भगवान् प्रश्नोंका उत्तर, निरूपण करते हैं इसलिए वे सर्वहितकारी कहलाते हैं ।।७४। उन्होंने कहा कि इसी जम्बूद्वीपकी सीता नदीके उत्तर तटपर एक कच्छकावती नामका देश है। उसके अरिष्टपुर नगरमें किसी समय इन्द्रकी उपमाको धारण करनेवाला एक वासव नामका राजा रहता था। उसकी सुमित्रा नामकी वल्लभा थी। एक दिन वह अपनी वल्लभाके साथ, सहस्राम्र वनमें स्थित सागरसेन नामक
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हरिवंशपुराणे धर्म श्रुत्वा गुरो राजा राज्ये विन्यस्य देहजम् । वसुसेनमदीक्षिष्ट न पत्नी पुत्रमोहतः ॥७॥ पतिपुत्रवियोगोग्रशोकदुःखहता मृता। 'पुलिन्दीत्वं गता दृष्ट्वा नन्दिमद्रं खचारणम् ॥७॥ अवधिज्ञानिनं श्रुत्वा तस्मारपूर्वभवं हि सा । स्मृतपूर्वभवामृत्वा त्रिदिनानशनवता ॥७९॥ नारदस्यामवद्देवी नामतो मेघमालिनी। च्युत्वा च भरतक्षेत्रे रोष्याद्रदक्षिणे तटे ॥८॥ सानुन्धयां महेन्द्रस्य पुरे चन्दनपूर्वके । सुता कनकमालाभद्विद्याधरमनोहरा ॥८॥ हरिवाहनविद्येशं महेन्द्रनगरेश्वरम् । वृत्वा स्वयंवरे कन्या मान्या जातास्य वल्लमा ॥४२॥ अन्यदा चैत्यपूजार्थ सिद्धकूटमियं गता । श्रुत्वा च चारणाजातिमार्या मुक्तावली तपः ॥८॥ कृत्वा सनत्कुमारेन्द्रवल्लभाभृत् सुराङ्गना । नवपल्योपमायुष्का सौख्यं भुक्त्वात तश्च्युता ॥८४॥ जातात्र श्लक्ष्णरोम्णस्त्वं कुरुमत्यां सुता भवे । तृतीये मुक्तिरित्युक्त लक्ष्मणा प्रणता प्रभुम् ॥४५॥ स गान्धार्या कृते प्रश्ने तद्भवान्भगवान् जगौ । नगयों कोशलेवासीदयोध्यायां महीपतेः ॥८६॥ महिषी रुद्रदत्तस्य विनयश्री श्रुताख्यया । श्रीधराय ददौ दानं पस्या सिद्धार्थके वने ॥७॥ मृत्वोत्तरकुरुष्वासीदानापल्यत्रयस्थितिः । पल्याष्टभागतुल्यायुः सातश्चन्द्रमसः प्रिया ॥८॥
मनिराजकी वन्दना करने के लिए गया |७५-७६।। राजा वासव, मनिराजसे धर्मश्रवण कर विरक्त हो गया और वससेन नामक पुत्रको राज्यभार सौंपकर दीक्षित हो गया परन्तु पूत्रके मोह हसे रानी सुमित्रा दीक्षा नहीं ले सकी ॥७७||
__ कदाचित् पुत्रका भी वियोग हो गया अतः पति और पुत्रके वियोगजन्य तीव्र शोकसे उत्पन्न दुःखसे पीड़ित होकर वह मर गयो और मरकर भीलिनी पर्यायको प्राप्त हुई। एक दिन उस भीलिनीने अवधिज्ञानके धारक नन्दिभद्र नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजके दर्शन कर उनसे अपने पूर्वभव सुने । पूर्वभवोंको स्मरण कर उसने तीन दिनका अनशन किया
और मरकर नारद नामक देवकी मेघमालिनी नामकी स्त्री हुई। वहांसे च्युत होकर भरत क्षेत्रके दक्षिण तटपर चन्दनपुर नामक नगरमें राजा महेन्द्रकी अनुन्धरी रानीसे विद्याधरोंके मनको हरण करनेवाली कनकमाला नामकी पुत्री हुई ॥७८-८१॥ कनकमाला स्वयंवरमें महेन्द्र नगरके राजा हरिवाहन विद्याधरको वरकर उसकी माननीय वल्लभा हो गयी ।।८२॥ किसी समय कनकमाला जिन-प्रतिमाओंकी पूजा करने के लिए सिद्धकूट गयी थी। वहां चारण ऋद्धिके धारक मुनिराजसे अपने पूर्वभव श्रवण कर वह आर्यिका हो गयी और मुक्तावली नामका तपकर सनत्कुमार स्वर्गके इन्द्रकी प्रियदेवी हुई। वहां उसकी नौ पल्यकी आयु थी। सुख भोगकर वह वहांसे च्युत हो यहाँ राजा श्लक्ष्णरोमकी कुरुमती रानीसे लक्ष्मणा नामकी पुत्री हुई है। तीसरे भवमें तेरी मुक्ति होगी। इस प्रकार भवान्तर कहे जानेपर लक्ष्मणा रानीने भगवान् नेमिजिनेन्द्रको नमस्कार किया ||८३-८५॥
तदनन्तर कृष्णकी छठो पट्टरानी गान्धारीके द्वारा प्रश्न किये जानेपर भगवान् उसके पूर्वभव कहने लगे। उन्होंने कहा कि कोशल देशकी अयोध्या नगरीमें किसी समय रुद्रदत्त नामका राजा रहता था। उसकी विनयश्री नामकी रानी थी। उसने एक समय सिद्धार्थक नामक वनमें अपने पतिके साथ, श्रीधर नामक मुनिराजके लिए आहार दान दिया ।।८६-८७।। दानके प्रभावसे मरने के बाद वह उत्तरकुरुमें तीन पल्यको आयुकी धारक आर्या हुई। उसके बाद पल्यके आठवें भाग बराबर आयुकी धारक चन्द्रमाकी प्रिया हुई ॥८८। तदनन्तर इसी विजयार्धकी उत्तर श्रेणीमें
१. शवरीपर्यायं । २. चारणमुनि । ३. मृत्वा निन्दितानशनवता म.। ४. कृत्वा म. ।
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पष्टितमः सर्गः
ततश्चात्रोत्तर श्रेण्यां पुरे गगनवल्लभे । विद्युद्वेगस्य कन्याभूद्विद्युन्मत्यां महाद्युतिः ॥ ८९ ॥ विनयश्रीगुणैः ख्याता नित्या लोकपुरेशिनः । महेन्द्रविक्रमस्यैषा योषिद्गुणसमन्विता ॥ ९० ॥ चारणश्रमणाभ्यां तु धर्मं श्रुत्वा स मन्दरे । राज्ये नियोज्य निष्क्रान्तो नन्दनं हरिवाहनम् ॥९१॥ विनयश्रीस्तु कृत्वासौ सर्वभद्रमुपोषितम् । पञ्चपल्यस्थितिर्जाता सौधर्मेन्द्रस्य वल्लभा ॥ ९२ ॥ पुर्यां स्वं पुष्कलावत्यां गान्धारेषु दिवश्च्युता । गान्धारीन्द्रगिरे राज्ञो मेरुमत्यामभूत्सुता ॥९३॥ तृतीयभवसिद्धिस्त्वमित्युक्ते सानमज्जिनम् । गौर्या विज्ञापितो नत्वा तद्भवानाह विश्ववित् ॥९४॥ इभ्यस्येभ्य पुरेऽत्राभूद्ध नदेवस्य कामिनी । यशस्विनी स्थिता हयें चारणौ वीक्ष्य साम्बरे ॥९५॥ सस्मार स्वभवान् सर्वान् धातकीखण्डमण्डले । पूर्वस्य मन्दरस्यासं विदेहेष्वपरेष्वहम् ॥९६॥ आनन्द श्रेष्ठिनः पत्नी नन्दशोकपुरेऽर्हते । मितसागरनाम्नेऽत्र दानं दत्वा सभर्तृका ॥ ९७ ॥ पञ्चाश्चर्याण्यहं प्रापं कृतानि त्रिदशैर्मुदा । पीत्वाकाशोदकं भर्त्रा सविषं मृतवत्यमा ॥९८ ॥ मूत्वा देवकुरुष्वासमैशानेन्द्र प्रिया ततः । जातात्राहमिति ज्ञात्वा सा संवेगपरा यतिम् ॥९९॥ नत्वा सुभद्रनामानं प्रोषधव्रतमग्रहीत् । मृत्वा शक्रस्य देव्यासीत्पञ्चपल्यसमस्थितिः ॥ १००॥
गगनवल्लभ नगर के स्वामी राजा विद्युद्वेगकी विद्युन्मती नामक रानीसे महाकान्तिको धारक विनयश्री नामको कन्या हुई । यह कन्या गुणोंसे अत्यन्त प्रसिद्ध थी और नित्यालोक नगरके स्वामी राजा महेन्द्रविक्रमको गुणवती स्त्री हुई। कदाचित् सुमेरु पर्वतपर चारण ऋद्धिके धारक युगल मुनियों से धर्मं श्रवण कर राजा महेन्द्रविक्रम संसारसे विरक्त हो गया और उसने हरिवाहन नामक पुत्रको राज्य कार्य में नियुक्त कर दीक्षा धारण कर ली ।।८९-९१ ।। विनयश्रीने भी संसार से विरक्त हो सर्वभद्र नामक उपवास किया और उसके प्रभावसे वह पाँच पल्यकी स्थितिकी धारक सौधर्मेन्द्रकी देवी हुई ||९२ || अब तू स्वगंसे च्युत होकर गान्धार देशकी पुष्कलावती नगरीमें राजा इन्द्रगिरिकी मेरुमती नामक रानीसे गान्धारी नामकी पुत्री हुई || ९३ || तू तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करेगी। इस प्रकार अपने भवान्तरके कहे जानेपर गान्धारीने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया । तदनन्तर कृष्णकी सातवीं पट्टरानी गौरीने नमस्कार कर अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थोंको जाननेवाले भगवान् इस प्रकार उसके पूर्वभव कहने लगे ||२४||
इस भरत क्षेत्रके इभ्यपुर नगर में किसी समय धनदेव नामका एक सेठ रहता था। उसकी यशस्विनी नामकी स्त्री थी । एक दिन यशस्विनी अपने महलको छतपर खड़ी थी वहाँ उसने आकाशमें जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनि देखे ||१५|| उन्हें देखते उसे अपने समस्त पूर्वभवोंका स्मरण हो गया । उसे मालूम हो गया कि मैं धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुकी पश्चिम दिशामें विद्यमान विदेह क्षेत्रके अन्तर्गत नन्दशोक नामक नगर में आनन्द नामक सेठकी पत्नी थी । वहाँ मैंने अपने पति के साथ, मितसागर नामक मुनिराजके लिए आहार दान दिया। जिसके फलस्वरूप मैं हर्षपूर्वं देवोंके द्वारा किये हुए पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। कदाचित् हम दोनोंने आकाशसे पड़ता हुआ वर्षाका पानी पिया। वह पानी विष सहित था इसलिए पतिके साथ मेरा मरण हो गया ।। ९६-९८ ।
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मरकर मैं देवकुरुमें आर्या हुई । उसके बाद ऐशानेन्द्रकी प्रिया हुई और उसके बाद यहाँ यशस्विनी हुई हूँ । इस प्रकार जानकर संसारसे भयभीत होती हुई यशस्विनीने सुभद्र नामक मुनिराजको नमस्कार कर उनसे प्रोषधवत ग्रहण किया । तदनन्तर मरकर पाँच पल्यकी आयुकी धारक प्रथम स्वर्ग के इन्द्रकी इन्द्राणी हुई । ९९-१०० ।।
१. सर्वज्ञः, नेमिजिनेन्द्रः ।
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हरिवंशपुराणे
egeवाभूदिह कौशाम्ब्यां सुमित्रायां सुभद्रतः । इभ्याद्धर्ममतिर्नाम्ना कन्या धर्ममतिः सदा ॥ १०१ ॥ जिनमस्यायिकापावें तपो जिनगुणाभिधम् । गृहीत्वोपोष्य जातासि महाशुक्रेन्द्र वल्लभा ॥ १०२॥ एकविंशतिपल्यायुश्च्युत्वा चन्द्रमतिस्त्रियाम् । गौरी त्वं वीतशोकायां मेरुचन्द्रादभूत्सुता ॥ १०३ ॥
सिद्धिस्त्रिभिस्ते स्यादित्युक्ते सा नता विभुम् । प्रणिपत्य ततः पृष्टः पद्मावत्या भवान् जगौ ॥ १०४ ॥ उज्जयिन्यामि हैवासीदपराजितभूभृतः । तनया विनयश्रीः सा विजयावनिताङ्गजा ॥१०५॥ हस्तिशीर्षपुराधीशं हरिषेणमसौ पतिम् । प्राप्ता पतियुता दानं वरदत्ताय संददौ ॥ १०६ ॥ कालागुरुकधूपेन भर्ना गर्भगृहे मृता । भूत्वा हैमवते भुक्त्वा सुखं पल्यसमस्थितिः ॥ १०७ ॥ जाता चन्द्रप्रभादेवी ततश्चन्द्रस्य वल्लमा । पल्योपमाष्टभागायुरतश्च्युत्वा तु भारते ॥ १०८ ॥ ग्रामेऽभूच्छाल्मलीखण्डे मगधेषु गृहेशिनोः । दुहिता पद्मदेवीति देविलाजयदेवयोः ॥ १०९ ॥ 'आचार्याद्वरधर्माख्यादेकदा व्रतमग्रहीत् । यावज्जीवं न मक्ष्यं मे फलमज्ञातमप्यसौ ॥ ११० ॥ 'प्रचण्डः शाल्मलीखण्डे ग्रामेऽवस्कन्ददानतः । अकाण्डे चण्डबाणाख्यो व्याधमुख्योऽहरज्जनम् ॥ १११ ॥ वन्दिगेहे गृहीत्वा तां पद्मदेवीं स्वदारताम् । निनीषुः शीलवत्यासौ प्रत्याख्यातोऽनया नयात् ॥ ११२ ॥ स राजगृहनाथेन राज्ञा सिंहरथेन तु । हठेन निहतोऽरण्येऽशरण्ये जनताभ्रमत् ॥११३॥
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वहाँसे च्युत हो कौशाम्बी नगरी में सुभद्र सेठकी सुमित्रा नामकी बीसे सदा धर्ममें बुद्धि लगानेवाली धर्ममति नामकी कन्या हुई || १०१ || धर्ममतिने जिनमति आर्थिक के पास जिनगुण नामका तप लेकर उपवास किये और उनके फलस्वरूप वह महाशुक स्वर्गके इन्द्रकी वल्लभा हुई ||१०२ || वहाँ उसकी इक्कीस पल्यकी आयु थी । वहाँसे च्युत होकर अब तू वीतशोका नगरीमें राजा मेरुचन्द्रकी चन्द्रमति खोसे गौरी नामकी पुत्री हुई है || १०३ || तीन भवमें तुझे मुक्तिकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार कहे जानेपर गौरीने नम्रीभूत होकर भगवान्को प्रणाम किया । तदनन्तर कृष्णकी आठवीं पट्टरानी पद्मावतीने भी अपने पूर्वभव पूछे जिसके उत्तर में भगवान् उसके पूर्वंभव इस प्रकार कहने लगे ॥ १०४ ॥
इसी भरत क्षेत्रकी उज्जयिनी नगरी में किसी समय अपराजित नामका राजा रहता था । उसकी स्त्री विजया थी और उन दोनोंके विनयश्री नामकी पुत्री थी || १०५ || विनयश्री हस्तिनापुरके राजा हरिषेण पतिको प्राप्त हुई थी अर्थात् उसका विवाह हस्तिनापुरके राजा हरिषेण के साथ हुआ था । एक दिन उसने पतिके साथ, वरदत्त मुनिराज के लिए आहार दान दिया ॥ १०६॥ कदाचित् वह अपने पति के साथ गर्भगृहमें शयन कर रही थी कि कालागुरुकी धूपसे उसका प्राणान्त हो गया । मरकर वह हैमवत क्षेत्रमें एक पल्यको आयुवाली आर्या हुई । वहाँके सुख भोगकर वह चन्द्रदेवकी चन्द्रप्रभा नामकी देवी हुई। वहां पल्यके आठवें भाग उसकी आयु थी । वहाँसे च्युत हो भरतक्षेत्रके मगध देश सम्बन्धी शाल्मली खण्ड नामक ग्राम में देविला और जयदेव नामक दम्पतीके पद्मदेवी नामकी पुत्री हुई || १०७ - १०९ || एक समय उसने वरधर्मं नामक आचार्यसे यह व्रत लिया कि मैं जीवन पर्यन्त अज्ञात फलका भक्षण नहीं करूँगी ||११० || किसी एक दिन असमय में चण्डबाण नामक शक्तिशाली भील शाल्मली खण्ड ग्रामपर आक्रमण कर वहाँकी समस्त प्रजाको हर ले गया ।। १११|| साथ ही पद्मदेवीको भी पकड़कर अपने कारागार में ले गया। वह उसे अपनी स्त्री बनाना चाहता था परन्तु शीलवती पद्मदेवीने किसी नीतिसे उसका निराकरण कर दिया ॥ ११२ ॥ उसी समय राजगृहके राजा
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१. नु म । २. आचार्यद्भूतमर्धाख्यात् क, ख, ग, ङ, आचार्यादूरधर्माख्यात् म. । म., क., ख., ङ । ४ वस्कन्दनामतः म. क., ङ । ५. स्तरण्ये क . ।
३. प्रचण्डशाल्मली
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पष्टितमः सर्गः
क्षुत्पीडिता जनास्तत्र दिग्मूढा मूढबुद्धयः । मृगा इव मृता दुःखात् किंपाकफल भक्षिणः ॥ ११४ ॥ अनास्वाद्य फलान्येषा 'पद्मदेवी दृढव्रता । प्रत्याख्यायैकपल्यायुरन्ते हैमवतेऽभवत् ॥११५॥ देवी स्वयंप्रभस्यातो व्यन्तरस्य स्वयंप्रमा । स्वयंभूरमणद्वीपे स्वयंप्रभगिरावभूत् ॥ ११६ ॥ ततश्चागस्य भरते जयन्तनगरेशिनः । श्रीमत्यां विमलश्रीः सा श्रीधरस्य सुताभवत् ॥ ११७ ॥ प्रादायि मेघनादाय सा मद्रिलपुरेशिने । लेभे च तनयं ख्यातं मेघघोषाख्ययावनौ ॥११८॥ मर्तरि स्वर्ग सापि पद्मावस्यायिकान्तिके । आचाम्लवर्धमानाख्यं तपः कृत्वा दिवं ययौ ॥ ११९॥ सा सहस्रारकरूपस्य पत्युर्मृत्वा कामिनी । नवपञ्चकपल्यैस्तु तुल्यं कालमजीगमत् ॥ १२० ॥ जातास्य ततश्च्युत्वा त्वमरिष्टपुरेशिनः । श्रीमत्यां स्वर्णनाभस्य सुता पद्मावती श्रुता ।। १२१ ॥ तपसा नाकमारुह्य देवश्च्युत्वा तपोबलात् । सेत्स्यति त्वमिति प्रोक्ते श्रुत्वा सा जिनमानमत् ॥ १२२॥ रोहिणीदेवकीपूर्वा देव्योऽन्येऽपि च यादवाः । पृष्ट्वा श्रुत्वा स्वजन्मानि जाता संसारभीरवः ॥ १२३॥ नुत्वा नत्वा जिनेन्द्रं तं सुरासुराश्व यादवाः । यान्ति स्वस्थानमायान्ति पूजनार्थं पुनः पुनः ॥ १२४॥ विजहार पुनर्देशान् जिनो भव्य हिताय सः । सूर्यस्येव हि चर्यासीजगत् कार्याय वैभवी ॥ १२५ ॥ इतश्च वसुदेवाभं वासुदेवमनः प्रियम् । सुतं गजकुमाराख्यं देवकी सुषुवे शुभम् ॥ १२६ ॥
सिंहरथने हठपूर्वक उस भीलको मार डाला जिससे उसके बन्धन में स्थित शाल्मलीखण्ड ग्रामकी समस्त जनता छूटकर शरणरहित वनमें इधर-उधर भ्रमण करने लगी ||११३ || मूढबुद्धि लोग दिशाभ्रान्ति होनेसे उस वन में मृगोंकी भाँति भटक गये और भूखसे पीड़ित हो किपाक फल खाकर दुःखसे मर गये ||११४ || पद्मदेवी अपने व्रतमें दृढ़ थी इसलिए उसने अज्ञात फल होने से उन फलोंको नहीं खाया और संन्यास मरण कर वह अन्तमें हैमवत क्षेत्रमें एक पल्यको
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युवाली आय हुई ||११५|| तदनन्तर स्वयंभूरमण द्वीपके स्वयम्प्रभ नामक पर्वतपर स्वयम्प्रभ नामक व्यन्तर देवकी स्वयम्प्रभा नामको देवी हुई ||११६ || वहांसे आकर भरत क्षेत्रसम्बन्धी जयन्त नगर के स्वामी राजा श्रीधरकी श्रीमती नामक रानीसे विमलश्री नामकी पुत्री हुई ॥११७॥ विमलश्री, भद्विलपुरके राजा मेघनादके लिए दी गयी। उसके संयोगसे उसने पृथिवीपर मेघघोष नामसे प्रसिद्ध पुत्र प्राप्त किया ||११८।। कदाचित् पतिका स्वर्गवास हो जानेपर उसने पद्मावती आर्थिक के समीप दीक्षा लेकर आचाम्लवर्धन नामका तप तपा और उसके प्रभावसे वह स्वर्ग गयी ॥ ११९ ॥ | स्वर्ग में वह सहस्रार स्वर्गके इन्द्रकी प्रधान देवी हुई ओर पैंतालीस पल्य प्रमाण वहाँका काल व्यतीत करती रही || १२०|| अब वहाँसे च्युत होकर तू अरिष्टपुरके राजा स्वर्णनामकी श्रीमती रानीसे पद्मावती नामकी पुत्री हुई है ।। १२१ ॥ तपकर तु स्वगंमें देव होगी और वहांसे च्युत हो तपके सामर्थ्य से मोक्ष प्राप्त करेगी। इस प्रकार कहे जानेपर अपने भवान्तर सुन पद्मावतीने नेमि जिनेन्द्रको नमस्कार किया || १२२||
रोहिणी, देवकी आदि देवियों और अन्य यादवोंने भी अपने-अपने भव पूछे तथा श्रवण कर वे संसारसे भयभीत हुए || १२३|| इस प्रकार सुर, असुर तथा यादव लोग जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति कर तथा उन्हें नमस्कार कर अपने-अपने स्थानपर चले जाते थे और पूजाके लिए बारबार आ जाते थे || १२४ ॥ तदनन्तर नेमि जिनेन्द्रने भव्य जीवोंके हितके लिए पुनः अनेक देशों में विहार किया सो ठीक ही है क्योंकि उनकी चर्या सूर्यके समान जगत् के हित के लिए ही थी || १२५ ॥ इधर देवकीने कृष्ण के पश्चात् गजकुमार नामका एक दूसरा पुत्र उत्पन्न किया जो वसुदेवके समान कान्तिका धारक था, श्रीकृष्णको अत्यन्त प्रिय था एवं अन्यन्त शुभ था ॥ १२६॥ १. पद्मादेवी म. । २. बुद्ध्वा म । ३. विभोरियं वैभवी ।
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हरिवंशपुराणे यौवनं स परिप्राप्तः कन्याजनमनोहरम् । ततोऽस्मै वरयांचके चक्री राजकुमारिकाः ॥१२७।। भभिरूपतरां कन्यां सोमशर्माग्रजन्मनः । प्रजातां क्षत्रियायां च सोमाख्यां वृतवान् हरिः ।।१२८॥ विवाहारम्भसमये मुदिताखिलयादवे । जाते जिनपतिः प्राप्तो विहरन् द्वारिका तदा ।।१२९।। समागत्योपविष्टं तमद्रौ रैवतिके विभुम् । वन्दितुं निर्ययुः सर्वे यादवा बहुमङ्गलाः ॥१३०॥ दृष्ट्वा गजकुमारस्तमाटोपं द्वारिकोद्भवम् । पृष्ट्वा कञ्जुकिनं जैनं विवेद हितमादितः ॥१३॥ ततो गजकुमारोऽपि प्रयातो वन्दितं जिनम् । रथेनादित्यवर्णन हर्षाद्रोमाञ्चमुद्वहन् ।।१३२।। आर्हन्त्यविभवोपेतं गणे-दशभिवृतम् । जिनं नत्वोपविष्टोऽसौ कुमारश्चक्रपाणिना ॥१३३॥ जगाद भगवांस्तत्र नृसुरासुरसंसदि । संसारतरणोपायं धर्म रत्नत्रयोज्ज्वलम् ।।१३४॥ प्रस्तावे हरिरमाक्षीजिनेन्द्रं प्रणिपत्य सः । अत्यन्तादरपूर्णेच्छः श्रोतृलोकहितेच्छया ।।१५।। अर्हतां चक्रिणामर्धचक्रिणां सीरधारिणाम् । उत्पत्ति प्रतिशत्रूणां जिनानामन्तराणि च ॥१३६॥ यथाप्रश्नमितस्तस्मै संभूति विष्णवे ततः । त्रिषष्टियुगमुख्यानां प्रोवाच पुरुषेशिनाम् ।।१३७॥ आद्यो वृषभनाथोऽभूद जितः संभवः प्रभुः । अभिनन्दननाथश्च सुमतिः पद्मसंप्रमः ।।१३८॥ सुपार्श्वनामधेयोऽन्यश्चन्द्रप्रभ इतीश्वरः । सुविधिः शीतल: श्रेयान् वासुपूज्यश्च पूजितः ।।१३९।।
जब गजकुमार कन्याओंके मनको हरण करनेवाले यौवनको प्राप्त हुआ तब कृष्णने उत्तमोत्तम राजकुमारियोंके साथ उसका विवाह कराया ॥१२७|| सोमशर्मा ब्राह्मणकी एक सोमा नामको अत्यन्त सुन्दर कन्या थी जो उसकी क्षत्रिया स्त्रीसे उत्पन्न हुई थी। श्रीकृष्णने गजकुमारके लिए उसका भी वरण किया ।।१२८॥
जब उसके विवाहके प्रारम्भका समय आया तब समस्त यादव अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसी समय विहार करते हुए भगवान् नेमिनाथ द्वारिकापुरी आये ।।१२९|| जब भगवान् आकर गिरनार पर्वतपर विराजमान हो गये तब समस्त यादव अनेक मंगल द्रव्य लिये हुए उनकी वन्दना करनेके लिए नगरसे बाहर निकले ॥१३०॥ द्वारिकामें होनेवाले इस आटोप (हलचल ) को देखकर गजकुमारने किसी कंचुकीसे पूछा और प्रारम्भसे ही जिनेन्द्र भगवान्की समस्त हितकारी चेष्टाको जान लिया ॥१३१।। तदनन्तर गजकुमार भी हर्षसे रोमांच धारण करता हुआ सूर्यके समान वर्णवाले रथपर सवार हो जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करनेके लिए गया ।।१३२॥ वहाँ आर्हन्त्य लक्ष्मीसे युक्त तथा बारह सभाओंसे घिरे हुए जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर गजकुमार श्रीकृष्णके साथ मनुष्योंकी सभामें बैठ गया ॥१३३॥ भगवान् नेमि जिनेन्द्रने, मनुष्य, सुर तथा असुरोंकी उस सभामें उस धर्मका निरूपण किया जो संसार-सागरसे पार होनेका एकमात्र उपाय था एवं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयसे उज्ज्वल था ॥१३४॥ अवसर आनेपर अत्यन्त आदरसे पूर्ण इच्छाके धारक श्रीकृष्णने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर श्रोताओंके हितकी इच्छासे तीर्थंकरों, चक्रवतियों, अर्ध चक्रवतियों, बलभद्रों और प्रतिनारायणोंकी उत्पत्ति तथा तीर्थंकरोंके अन्तरालको पूछा ॥१३५-१३६॥
तदनन्तर भगवान प्रश्नके अनुसार श्रीकृष्णके लिए त्रेशठ शलाकापूरुषोंमें प्रमुख चौबीस तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति इस प्रकार कहने लगे ।। १३७ ।। उन्होंने कहा कि इस युगमें सबसे पहले तीर्थकर वृषभनाथ हुए। उनके पश्चात् क्रमसे अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपाश्वनाथ, चन्द्रप्रभ, सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ,
१. निर्ययो म.। २. दृष्ट्वा म. । ३. तीर्थकृताम् । ४. नारायणानाम् । ५. बलभद्राणाम् । ६. उत्पत्ति: म.। ७. प्रतिनारायणानाम् । ८. च विशेषतः म., घ. ।
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षष्टितमः सर्गः
७१७ विमलोऽनन्तजिद्धर्मः शान्तिः कुन्थुररो जिनः । मल्लिः शल्यकुशोद्धारो मुनीन्द्रो मुनिसुव्रतः ।।१४०॥ नमिश्च निवृतो नेमिवर्तमानोऽहमत्र तु । पाश्चापि महावीरो मवितारौ जिनेश्वरौ ॥१४१॥ जम्बूद्वीपविदेहेऽष्टौ मरते पञ्च ते जिना । सप्तव धातकीखण्डे चत्वारः पुष्करार्धजाः ॥१४॥ प्राग्मवे पुण्डरीकिण्यां वृषमः शान्तिरीश्वरः । अजितस्तु सुसीमायां क्षेमपुर्यामरो जिनः ॥१४३॥ रनसंचयजः कुन्थुः संभवश्वामिनन्दनः । मल्लिश्च वीतशोकायां जम्बूद्वीपविदेहजाः॥१४॥ चम्पायामिह कौशाम्ब्यां गजाहनगरेऽपि ते-ऽयोध्यायां भरतक्षेत्रे छत्राकारपुरे क्रमात् ॥१४५॥ मुनिसुव्रतनाथश्च नमिर्ने मिजिनस्तथा । पाख्यिश्च महावीरः पञ्चामी पूर्वजन्मनि ॥१४६॥ पुण्डरीकिण्यखण्डश्रीः सुसीमाक्षेमपुर्यपि । धातकीखण्डपूर्वाध सक्रम रत्न संचयम् ।।१४७॥ सुमत्यादिचतुर्णा च पुरः पूर्वत्र जन्मनि । सुविध्यादिचतुर्णा च पूर्वपुष्फरजास्त्वमू ॥१४॥ तथैव धातकोखण्डे पश्चादैरावतक्षितौ । अनन्तजिदमत्पूर्वमरिष्टपुरसंभवः ॥१४९।। पूर्वार्धभारते तस्य विमलस्तु महापुरे । मद्रिलादौ पुरे धर्मस्तम नामान्यमूनि तु ॥१५॥ वज्रनामिरभूदायो विमलस्तदनन्तरः । विपुलो वाहनान्तोऽन्यो महाबल इतीरितः ॥१५॥ परोऽतिबल इत्यासीदपराजित इत्यतः । नन्दिषेणस्तथा पयो महापद्मः स्मृतः परः ॥१५२।। पद्मगुल्मोऽपि नलिनगुल्मः पनोत्तरः परः । पद्मासनः पुनः पद्मस्तथा दशरथो नृपः ।।१५३॥ राजा मेघरथः सिंहरथो धनपतिः परः । नाम्ना वैश्रवणो राजा श्रीधर्माख्यस्ततः परः ॥१५॥
वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तजित्, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, शल्यरूपी कुशको निकालनेवाले मल्लिनाथ, मुनियोंके स्वामी मुनि सुव्रतनाथ और नमिनाथ तीर्थकर हुए हैं। ये सभी निर्वाणको प्राप्त हो चुके हैं। बाईसवां तीर्थकर मैं नेमिनाथ अभी वर्तमान है और पार्श्वनाथ तथा महावीर ये दो तीर्थंकर आगे होंगे ॥१३८-१४१।। इन तीर्थंकरोंमें-से आठ. तीर्थकर पूर्वभवमें जम्बूद्वीपके विदेहक्षेत्रमें, पांच भरतक्षेत्रमें, सात धातकी-खण्डमें और चार पुष्कराधमें उत्पन्न हुए थे ॥१४२।। जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न हुए आठ तीर्थंकरोंका विवरण इस प्रकार हैवृषभनाथ और शान्तिनाथ पूर्वभवमें जम्बूद्वीपसम्बन्धी विदेहक्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरीमें, अजितनाथ सुसीमा नगरीमें, अरनाथ क्षेमपुरीमें, कुन्थुनाथ, सम्भवनाथ और अभिनन्दननाथ रत्नसंचय नगरमें और मल्लिनाथ वीतशोका नगरीमें उत्पन्न हुए थे ॥१४३-१४४।। भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए पांच तीर्थकर इस प्रकार हैं-मुनि सुव्रतनाथ चम्पापुरीमें, नमिनाथ कौशाम्बी नगरीमें, नेमिनाथ हस्तिनापुरमें, पार्श्वनाथ अयोध्यामें और महावीर छत्राकारपुरमें पूर्वभवमें उत्पन्न हुए थे ॥१४५-१४६।।
___धातकीखण्ड द्वीपके पूर्वाधंमें जन्म लेनेवाले सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ इन चार तीर्थंकरोंको पूर्वभवको नगरियां क्रमसे अखण्ड लक्ष्मीकी धारक पुण्डरीकिणीपुरी, सुसीमापुरी, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं। सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयोनाथ और वासुपूज्य इन चार तीर्थंकरोंकी पूर्व जन्मकी नगरियां क्रमसे पूर्व पुष्कराधसम्बन्धी पुण्डरीकिणी, सुसोमा, क्षेमपुरी और रत्नसंचयपुरी थीं ॥१४७-१४८|| अनन्तजित् ( अनन्तनाथ ) भगवान् पूर्वभवमें धातकीखण्ड द्वीपके पश्चिम ऐरावत क्षेत्र-सम्बन्धी अरिष्टपुर नगरमें उत्पन्न हुए थे ॥१४९॥ विमलनाथ पूर्वाधसम्बन्धी भरत-क्षेत्रके महापुर नगरमें और धर्मनाथ भद्रिलपुर नगरमें उत्पन्न हुए थे। इन तीर्थंकरोंके पूर्वभवके नाम इस प्रकार हैं-१. वज्रनाभि, २. विमल, ३. विपुलवाहन, ४. महाबल, ५. अतिबल, ६. अपराजित, ७. नन्दिषेण, ८. पम, ९. महापन, १०. पद्मगुल्म,
१. पदः म.।
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हरिवंशपुराणे सिद्धार्थः सुप्रतिष्ठोऽहमानन्दो नन्दनो नृपः । पूर्वजन्मनि नामानि जिनानामानुपूर्वतः ॥१५५॥ चक्री पूर्वधरः पूर्वो महामाण्डलिकाः परे । एकादशाङ्गिनः स्वाङ्गः सर्वेऽपि कनकप्रभाः ॥१५६।। सिंह निष्क्रीडितं कृत्वा प्रायोपगमनं गताः । मासक्षपणतः सर्वे यथास्वं स्वर्गलोकगाः॥१५७॥ वज्रसेन इति ख्यातस्तथारिन्दमसंज्ञकः । स्वयंप्रमामिधश्चाऽन्यः परो विमलवाहनः ।।१५८॥ सूरिः सीमन्धराभिख्यो गुरुश्च पिहिसानवः । अरिंदममुनिर्मान्यो वन्दनीयो युगंधरः ।।१५९। सार्वः सर्वजनानन्दोऽप्युमयानन्दनामकः । वज्रदत्तोऽपरो वेद्यो वज्रनामिरमिष्टतः ॥१६॥ सर्वगुप्तस्त्रिगुप्ताव्यश्चित्तरक्षामिधः परः । विमलाचारसंपनो मान्यो विमलवाहनः ॥१६१॥ गुरुर्घनरथाभिख्यः संवरःसंवरान्वितः । वरधर्मस्त्रिलोकीड़यः सुनन्दो नन्दसंज्ञकः ॥१६॥ व्यतीतशोकनामान्यो दामरः प्रौष्ठिल: परः । जिनानां गुरवोऽमी न क्रमेणातीतजन्मनि ॥१६३॥ वृषो धर्मश्च शान्तिश्च कुन्थुः सर्वार्थसिद्धितः । चत्वारः प्रच्युता ज्ञेया विजयादमिनन्दनः ॥१६॥ चन्द्रप्रभसुमत्याख्यौ वैजयन्ताजयन्ततः । नेम्यरौ नमिमल्लीशावपराजिततश्च्युतौ ॥१६५॥ आरणात्पुष्पदन्तेशः शीतलेशोऽच्युताच्च्युतः । पुष्पोत्तरविमानेशः श्रेयोऽनन्ती च सन्मतिः ॥१६६॥ सहस्रारात्त विमलश्रीपार्श्वमुनिसुव्रताः । क्रमारसंभवसुपार्श्वपाप्रमजिनाः पुनः ॥१६॥ अधो मध्योपरिप्रख्यग्रेवेयकपरिच्युताः । वासुपूज्यो महाशुक्रादितितीर्थकृता दिवः ॥१६८॥ वृषमश्चैत्र कृष्णस्य नवम्यामुदपद्यत । माघशुक्लनवम्यां तु तथैवाजिततीर्थकृत् ॥१६९॥
११. नलिनगुल्म, १२. पद्मोत्तर, १३. पद्मासन, १४. पद्म, १५. दशरथ, १६. मेघरथ, १७. सिंहरथ, १८. धनपति, १९. वैश्रवण, २०. श्रीधर्म, २१. सिद्धार्थ, २२. सुप्रतिष्ठ, २३. आनन्द और २४. नन्दन ॥१५०-१५५।। इनमें भगवान् वृषभनाथ पूर्वभवमें चक्रवर्ती तथा चौदह पूर्वोके धारक थे और शेष तीर्थंकर महामण्डलेश्वर और ग्यारह अंगके वेत्ता थे। उक्त सभी तीर्थकर पूर्वभवमें अपने शरीरोंकी अपेक्षा सुवर्णके समान कान्तिवाले थे॥१५६।। सभी तीर्थंकरोंने पूर्वभवमें सिंहनिष्क्रीडित तपकर एक महीनेके उपवासके साथ प्रायोपगमन संन्यास धारण किया था और सभी यथायोग्य स्वर्गगामी थे-अपनी-अपनी साधनाके अनुसार स्वर्गों में उत्पन्न हुए थे ॥१५७|| तीर्थंकरोंके पूर्व जन्मके गुरु क्रमसे १. वज्रसेन, २. अरिन्दम, ३. स्वयम्प्रभ, ४. विमलवाहन, ५. सीमन्धर, ६. पिहितास्रव, ७. अरिन्दम, ८. युगन्धर, ९. सबका हित करनेवाले सवंजनानन्द, १०. उभयानन्द, ११. वज्रदत्त, १२. वज्रनाभि, १३. सर्वगुप्त, १४. त्रिगुप्त, १५. चित्तरक्ष, १६. निर्मल आचारसे सहित माननीय विमलवाहन, १७. घनरथ, १८. संवरसे सहित संवर, १९. तीन लोकके द्वारा स्तुति करनेके योग्य वरधर्म, २०. सुनन्द, २१. नन्द, २२. व्यतीतशोक, २३. दामर
और २४. प्रोष्ठिल थे ।।१५८-१६३।। वृषभनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ और कुन्थुनाथ ये चार तीर्थंकर सर्वार्थसिद्धिसे, अभिनन्दन विजय विमानसे, चन्द्रप्रभ और सुमतिनाथ वैजयन्त विमानसे, नेमि और अरनाथ जयन्त विमानसे, नमि और मल्लिनाथ अपराजित विमानसे, पुष्पदन्त आरण स्वर्गसे, शीतलनाथ अच्युत स्वर्गसे, श्रेयोनाथ, अनन्तनाथ और महावीर पुष्पोत्तर विमानसे, विमलनाथ, पार्श्वनाथ और मुनिसुव्रतनाथ सहस्रार स्वर्गसे, सम्भवनाथ, सुपार्श्वनाथ और पद्मप्रभ क्रमशः अधोग्रेवेयक, मध्यप्रैवेयक और उपरिम |वेयकसे तथा वासुपूज्य महाशुक्र स्वर्गसे चयकर भरतक्षेत्रमें उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार ऋषभादि तीर्थंकरोंके पूर्वभवके स्वर्ग कहे जाते हैं ॥१६४-१६८||
भगवान् वृषभनाथ चैत्र कृष्ण नवमीके दिन उत्पन्न हुए थे। अजितनाथ माघ शुक्ल
१. साङ्गः म..
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उस्पनो मार्गशीर्षस्य पौर्णमास्यां हि संभवः । द्वादश्यां माघशुक्लस्य जिनेन्द्रस्त्वमिनन्दनः ॥१७॥ सुमतिः श्रावणस्यासीदेकादश्यां सितास्मनि । उर्जकृष्णप्रयोदश्यां पद्मप्रभजिनेश्वरः ॥१७॥ द्वादश्यां ज्येष्ठमासस्य शुक्लायां सप्तमो जिनः । पौषस्य कृष्णपक्षेऽभूदेकादश्यां जिनोऽष्टमः ॥१.२॥ सुविधिर्मार्गशीर्षस्य शुक्ल प्रतिपदि प्रभुः । शीतलो माघकृष्णस्य द्वादश्याममवजिनः ॥१७३॥ फाल्गुनासितपक्षेऽमदेकादश्यां जिनोऽपरः । पक्षेऽत्रैव चतुर्दश्यां वासुपूज्यजिनेश्वरः ॥१७४॥ माघशुक्लचतुर्दश्यां विमलो विमलास्मकः । द्वादश्यां ज्येष्ठ कृष्णस्य संजातोऽमन्त जिजिनः ॥१७५॥ माघशुकृत्रयोदश्यां जज्ञे धर्मो जिनाधिपः । ज्येष्ठ कृष्णचतुर्दश्यां शान्तिनाथश्च शान्तिकृत् ॥१७६॥ कुन्थुवैशाखमासस्य शुक्लायां प्रतिपद्यमत् । मार्गशीर्षस्य शुक्लायां चतुर्दश्यामरो जिनः ॥१७॥ एकादश्यां तु तस्यैव शुक्लायां मल्लिरीश्वरः । शुक्लायामाश्वयुज्यां च द्वादश्यां मुनिसवतः ॥१७॥ जातश्च कृष्णदशम्यामाषाढस्य नमिर्जिनः । नेमिवैशाखशुकृस्य त्रयोदश्यां जिनेश्वरः ॥१७९॥ स कृष्णकादशी पार्श्वः पौषमासस्य भषयन् । शुक्लत्रयोदशी वीरश्चनस्य निजजन्मना ॥१८॥ पितरौ जन्मनक्षत्रं जन्मभमि जिनेशिनाम् । चैत्यवृक्षं च निर्वाणममि वच्मि निबुध्यताम् ॥१८॥ विनीता मरुदेवी च नामियग्रोधपादपः । कैलासश्चोत्तराषाढावृषभो वृषभो नृणाम् ॥१८२॥ अयोध्या विजया राजा जितशत्रुर्जिनोऽजितः । संमेदः संमदायास्तु रोहिणी विषमच्छदः ॥१८३॥ श्रावस्ती संमवः सेना जितारिः शालपादपः । ज्येष्ठा नक्षत्रमेनासि संमेदश्च पुनन्तु वः ॥१८४॥ सरल: संवरोऽयोध्या सिद्धार्था च पुनर्वसुः । जिनोऽमिनन्दनः शैलः स एवास्तु मुदे सताम् ॥१८५॥
नवमीके दिन, सम्भवनाथ मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमाके दिन, अभिनन्दननाथ माघ शुक्ल द्वादशीके दिन, सुमतिनाथ श्रावण शुक्ल एकादशीके दिन, पद्मप्रभ कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीके दिन, सुपार्श्वनाथ ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके दिन, चन्द्रप्रभ पौष कृष्ण एकादशीके दिन, सुविधिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदाके दिन, शीतलनाथ माघ कृष्ण द्वादशीके दिन, श्रेयोनाथ फाल्गुन कृष्ण एकादशीके दिन, वासुपूज्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशीके दिन, निर्मल आत्माके धारक विमलनाथ माघ शुक्ल चतुर्दशीके दिन, अनन्तनाथ ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशीके दिन, धर्मनाथ माघ शुक्ल त्रयोदशीके दिन, शान्तिके करनेवाले शान्तिनाथ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन, कुन्थुनाथ वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन, अरनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशीके दिन, मल्लिनाथ मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशीके दिन, सुव्रतनाथ आसोज शुक्ल द्वादशीके दिन, नमिनाथ आषाढ़ कृष्ण दशमीके दिन और नेमिनाथ वैशाख शुक्ल त्रयोदशीके दिन उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार पार्श्वनाथ पौष कृष्ण एकादशीको और महावीर चैत्र शुक्ल त्रयोदशीको अपने जन्मसे अलंकृत करते हुए उत्पन्न होंगे ॥१६९-१८०॥ अब चौबीस तीर्थकरोंके माता-पिता, जन्मनक्षत्र, जन्मभूमि, चैत्यवृक्ष और निर्वाणभूमिको कहते हैं सो ज्ञात करो ॥१८॥
जिनकी जन्मनगरी विनीता-अयोध्या, माता मरुदेवी, पिता नाभि, चैत्यवृक्ष वट, निर्वाणभूमि कैलास और जन्मनक्षत्र उत्तराषाढ़ था। वे वृषभनाथ भगवान् मनुष्योंमें अत्यन्त श्रेष्ठ थे॥१८२॥ जिनकी जन्मनगरी अयोध्या, माता विजया, पिता राजा जितशत्रु, निर्वाणक्षेत्र सम्मेदाचल, जन्म नक्षत्र रोहिणी और चैत्यवृक्ष सप्तपणं था, वे अजितनाथ भगवान् सबके हर्षके लिए हों ॥१८३।। श्रावस्ती नगरी, सेना माता, जितारि पिता, शाल चैत्यवृक्ष, ज्येष्ठा जन्मनक्षत्र, सम्मेदाचल निर्वाणक्षेत्र और सम्भवनाथ जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे पापोंको पवित्र करें ॥ १८४ ।। चैत्यवृक्ष सरल, पिता संवर, माता सिद्धार्था, अयोध्या नगरी, पुनर्वसु नक्षत्र, अभिनन्दन जिनेन्द्र १. कार्तिकशुक्लद्वादश्याम् । २. चोत्तराषाढवृषभः म., ख.।
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हरिवंशपुराणे मेघप्रमो मघायोध्या प्रियङ्गश्च सुमङ्गला । सुमतिः 'सुमतिं नित्यं संमेदश्च दिशन्तु वः ॥१८॥ कौशाम्बी धरणश्चित्रा सुसीमा जिनपुङ्गवः । पद्मप्रमः प्रियङ्गश्च मङ्गलं वः स पर्वतः ॥१८॥ पृथिवी सुप्रतिष्ठोऽस्य काशी वा नगरी गिरिः। स विशाखा शिरीषश्च सुपार्श्वश्च जिनेइतरः ॥१८॥ वन्द्या चन्द्रपुरो चन्द्रप्रमो नागतरुगिरिः । सोऽनुराधा महासेनो लक्ष्मणा जननी सताम् ॥१८९॥ काकन्दी पुष्पदन्तश्च रामा सुग्रीवभूपतिः । मूलभं शालिवृक्षश्च सगिरिभृतयेऽस्तु वः ॥१९०॥ महिला प्रथमाषाढा प्लक्षो दृढरथो नृपः । सुनन्दा शीतलः शैलः स एव हितचेतसः ॥१९१॥ विष्णुश्रीविष्णुराजश्च सिंहनादपुरं जिनः । श्रावणः श्रेयान् शं दद्यस्तिन्दुकः स च भूधरः ॥१९२॥ चम्पा जन्मनि मुक्तोऽभद्वासुपूज्यो जयाधिपः । पाटला वसुपूज्यश्च पूज्याः शतभिषापि च ॥१९३॥ शर्मा च कृतवर्मा च जम्बूः प्रोष्ठपदोत्तरा । काम्पिल्यं स गिरिः शल्यं विमलचोद्धरन्तु वः ॥१९४॥ साकेता सिंहसेनश्च रेवत्यश्वस्थपादपः । पान्तु सर्वयशाः सोऽदिरनन्तश्चापि वः सदा ॥१९५॥ धर्मश्च दधिपर्णश्च मानुराजश्च सुव्रता । पुष्यो रनपुर सोऽदिर्ध बुद्धिं ददातु वः ॥१९॥ ऐरा च विश्वसेनश्च भरणीमपुरं तरुः। नन्दीश्च शान्तिनाथश्च सोडगः शान्ति दिशन्तु वः ॥१९॥ सोऽगो नागपुरं सूर्यः श्रीमती कृत्तिका तथा । तिलकश्च तकः कुन्थुर्मथ्नन्तु दुरितानि वः ॥१९॥
और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सज्जनोंके आनन्दके लिए हों ॥१८५॥ मेघप्रभ पिता, मघा नक्षत्र, अयोध्या नगरी, प्रियंगु वृक्ष, सुमंगला मातो, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और सुमति जिनेन्द्र ये सब तुम्हें सुमति-सद्बुद्धि प्रदान करें ।।१८६।। कौशाम्बी नगरी, धरण पिता, चित्रा नक्षत्र, सुसीमा माता, पद्मप्रभ जिनेन्द्र, प्रियंगु वृक्ष और सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलरूप हों ॥१८७॥ पृथिवी माता, सुप्रतिष्ठ पिता, काशी नगरी, सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र, विशाखा नक्षत्र, शिरीष वृक्ष और सुपाश्वं जिनेन्द्र ये सब तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप हों ॥१८८।। चन्द्रपुरी नगरी, चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र, नागवृक्ष, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, अनुराधा नक्षत्र, महासेन पिता और लक्ष्मणा माता ये सब सज्जनोंके लिए वन्दना करने योग्य हैं ।।१८९॥ काकन्दी नगरी, पुष्पदन्त भगवान्, रामा माता, सुग्रीव पिता, मूल नक्षत्र, शालि वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हारे वैभवके लिए हों ॥१९०॥ भद्रिला पुरी, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, प्लक्ष वृक्ष, दृढरथ राजा पिता, सुनन्दा माता, शीतलनाथ जिनेन्द्र और सम्मेदगिरि निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारा हित चाहनेवाले हों ॥१९१॥ विष्णुश्री माता, विष्णुराज पिता, सिंहनाद पुर, श्रवण नक्षत्र, श्रेयांस जिनेन्द्र, तेंदूका वृक्ष और सम्मेदशिखर पर्वत ये सब तुम्हें सुख प्रदान करें ॥१९२॥ जन्मभूमि तथा निर्वाणभूमि चम्पानगरी, वासुपूज्य जिनेन्द्र, जया माता, चैत्यवृक्ष पाटला, वसुपूज्य पिता और शतभिषा नक्षत्र ये सब पूजनीय हैं ॥१९३।। शर्मा माता, कृतवर्मा पिता, जामुन चैत्यवृक्ष, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, काम्पिल्य नगरी, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और श्री विमलनाथ भगवान् ये सब तुम्हारे शल्यको दूर करें ॥ १९४ ॥ अयोध्या नगरी, सिंहसेन पिता, रेवती नक्षत्र, पीपल चैत्यवृक्ष, सर्वयशा माता, सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र और अनन्तनाथ जिनेन्द्र ये सदा तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करें ॥ १९५ ॥ धर्मनाथ जिनेन्द्र, दधिपर्ण चैत्य वृक्ष, भानुराज पिता, सुव्रता माता, पुष्य नक्षत्र, रत्नपुर नगर और सम्मेदशिखर सिद्धिक्षेत्र ये सब तुम्हें धर्मबुद्धि देवें ॥ १९६ ।। ऐरा माता, विश्वसेन पिता, भरणी नक्षत्र, हस्तिनापुर नगर, नन्दी चैत्यवृक्ष, शान्तिनाथ जिनेन्द्र और सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हें शान्ति प्रदान करें ॥ १९७ ॥ सम्मेदशिखर निर्वाणक्षेत्र, हस्तिनापुर नगर, सूर्य पिता, श्रीमती माता, कृत्तिका नक्षत्र, तिलक वृक्ष
१. सुमतिनित्यं म. । २. सर्मा च ङ, म.। ३. इभपुरं-हस्तिनापुरम् । ४. स एव वृक्षः ।
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षष्टितमः सर्गः
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'चूतो गजपुरं मित्रा पार्थिवश्च सुदर्शनः । संमेदो रोहिणी चारो दुरितं दारयन्तु वः ॥१९॥ मिथिला रक्षिता कुम्भो जिनेन्द्रो मल्लिरश्विनी । अशोकश्च तरुः सोऽदिरशोकाय भवन्तु वः ॥२०॥ पद्मावतो सुमित्रोऽस्तु कुशागानगरं भुदे। चम्पकः श्रवणक्ष च सोऽद्रिवों मुनिसुव्रतः ॥२०११ सिथिला विजयो वा वकुलो नमिरश्विनी । नमयन्तु महामानं संमेदश्च महीधरः ॥२०२॥ नेमिः सूर्यपुरं चित्रा मुद्रविजयः शिवा । ऊर्जवन्तो जयं तेऽमी मेषशृङ्गो दिशन्तुः वः ॥२०॥ वाराणसी च वर्मा च विशाखा च धवाहिपः । अश्वसेननृपः पाश्र्वः सम्मेदश्च मुदेऽस्तु वः ॥२०४॥ शालः कुण्डपुरं वीरः सिद्वार्थः प्रियकारिणो । उत्तराफाल्गुनी पावा पापानि घ्नन्तु वः सदा ॥२०५॥ चैत्यवृक्षस्नु कीरस्य द्वात्रिंशद नुरुच्छुितः । देहात्सेधाच्च शेषाणां स द्वादशगुणो मतः ॥२०६॥ सपाश्वशोऽनुराधायां ज्येष्टासु च शशिप्रमः । श्रयानपि धनिष्टासु वासुपूज्योऽश्विनीषु सः ॥२०७॥ भरणीषु जिगे मल्लिौर: स्वातिषु सिद्धिमाक् । जन्मनक्षत्रवर्गेषु शेषाणां परिनिर्वृतिः ॥२०॥ शान्तिन्थ्वरनामानस्तीर्थकृञ्चक्रवर्तिनः । शेषास्तीर्थकराः सर्वे पृथिवीपतयो नृपाः ॥२०१॥ चन्द्राम एव चन्द्राभः सुविधिः शङ्खसत्प्रमः । प्रियङ्गमञ्जरीपुञ्जवर्णः सुपार्वतीर्थ कृत् ॥२१०॥ मेघश्यामवपुः श्रीमान् पार्श्वस्तु धरणस्तुतः । पद्मगर्भनिभाभश्च पद्मप्रभजिनाधिपः ॥२१॥
और कुन्थुनाथ भगवान् ये तुम्हारे पापोंको नष्ट करें ।।१९८।। आम्र वृक्ष, हस्तिनापुर नगर, मित्रा माता, सुदर्शन राजा पिता, सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र, रोहिणी नक्षत्र और अरनाथ जिनेन्द्र ये सब तम्हारे पापको खण्डित करें ॥१९९|| मिथिला नगरी, रक्षिता माता, कुम्भ पिता, मल्लिनाथ जिनेन्द्र, अश्विनी नक्षत्र, अशोक वृक्ष और सम्मेद शिखर निर्वाण क्षेत्र ये सब तुम्हारे अशोकशोक दूर करनेके लिए हों ॥२००|| पद्मावती माता, सुमित्र पिता, कुशाग्र नगर, चम्पक वृक्ष, श्रवण नक्षत्र और सम्मेद शिखर पर्वत ये सब तुम्हारे हर्षके लिए हों ॥२०१।। मिथिला नगरी, विजय पिता, वप्रा माता, वकुल वृक्ष, नमिनाथ जिनेन्द्र, अश्विनी नक्षत्र और सम्मेद शिखर पर्वत महामानी मनुष्य को आपके समक्ष नम्रीभूत करें ॥२०२।। नेमिनाथ भगवान्, सूर्यपुर नगर, चित्रा नक्षत्र, समद्रविजय पिता, शिवा माता, ऊर्जयन्त पर्वत और मेषशृंग ( मेढ़ासिंगी) वृक्ष ये सब तुम्हारे लिए जय प्रदान करें ॥२०३।। वाराणसी नगरी, वर्मा माता, विशाखा नक्षत्र, धव चैत्यवृक्ष, असेन राजा पिता, पार्श्वनाथ जिनेन्द्र और सम्मेद शिखर निर्वाणक्षेत्र ये सब तुम्हारे आनन्दके लिए हों ।।२०४|| शाल वृक्ष, कुण्डपुर नगर, वीर जिनेन्द्र, सिद्धार्थ पिता, प्रियकारिणी माता, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, और पावापुरी निर्वाणक्षेत्र ये सब सदा तुम्हारे पापोंको नए करें ॥२०५।।
___भगवान् महा रीरका चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊंचा होगा और शेष तीर्थंकरोंके चैत्यवृक्षोंकी ऊंचाई उनके शरीर की ऊँचाईसे बारहगुनी मानी गयी है ।।२०६।। सुपार्श्वनाथ भगवान् अनुराधा नक्षत्र में, चन्द्रप्रभ ज्येष्ठा नक्षत्र में, श्रेयोनाथ धनिष्ठा नक्षत्रमें, वासुपूज्य अश्विनी नक्षत्रमें, मल्लि
क्षत्र में, महावीर स्वाति नक्षत्र में निर्वाणको प्राप्त हए हैं और शेष तीर्थंकरोंका निर्वाण अपने-अपने जन्म नक्षत्रों में ही हुआ है ।।२०७-२०८|| शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ ये तीन तीर्थ कर तथा चक्रवर्ती हुए तथा शेष सब तीर्थंकर सामान्य राजा हुए ।।२०९|| चन्द्रप्रभ भगवान् चन्द्रमाके समान आभावाले, सुविधिनाथ शंखके समान कान्तिके धारक, सुपाश्वनाथ प्रियंगवृक्षको मंजरी के समूहके समान हरितवर्ण, धरणेन्द्र के द्वारा स्तुत श्रीमान् पार्श्वजिनेन्द्र मेघके समान श्यामल शरीर, पद्मप्रभ जिनराज पद्मगर्भके समान लालवर्ण, वासुपूज्य जिनेन्द्र रक्त पलाश
१. भूतो क., ङ.। २. प्रतिष्ठासु म. ।
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हरिवंशपुराणे रक्तकिंशुकपुष्पाभो वासुपूज्यो जिनेश्वरः । नीलाञ्जनाचलच्छायो मुनीन्द्रो मुनिसुव्रतः ॥२१२॥ नीलकण्ठस्फुरत्कण्ठरुचिर्नेमिः समीक्षितः । सुतप्तकनकच्छायाः शेषास्तु जिनपुङ्गवाः ॥२१३॥ 'निष्क्रान्तिर्वासुपूज्यस्य मल्ले मिजिनान्त्ययोः । पञ्चानां तु कुमाराणां राज्ञां शेषजिनेशिनाम् ॥२१४॥ वृषमस्य विनीतायां परिनिष्क्रमणं तथा । नेमेस्तु द्वारवत्यां तु शेषाणां जन्मभूमिषु ॥२१५।। निष्क्रान्तिः सुमतेभक्त्वा मल्ले साष्टममक्तका । तथा पार्श्वजिनस्यापि जयाजस्य चतुर्थका ॥२१६॥ षष्ठभक्तभृतां दीक्षा शेषाणां तीर्थदर्शिनाम् । श्रेयः सुमतिमल्लीशां पूर्वाह्न नेमिपार्श्वयोः ॥२१७॥ अन्येषामपराह्ने तां वीरो ज्ञातृवनेऽश्रयत् । क्रीडोद्याने जयासूनुः स सिद्धार्थवने वृषः ।।२१८॥ धर्मस्तु वप्रकास्थाने विंशो नीलगुहाश्रये । पाश्र्यो मनोरमोद्याने तपोभागाश्रमाश्रये ॥२१९॥ सहस्राम्रवनाद्येषु पुरोधानेषु ममिषु । शेषतीर्थकृतां वेधं परिनिष्क्रमणं बुधैः ॥२२०॥ सुदर्शना तु शिविका सुप्रमा तदनन्तरा । सिद्धार्थाचार्थसिद्धा च तत्रामयश्री प्रभा ॥२२१॥ सा निवृत्तिकरी षष्टी सप्तमी सुमनोरमा । परा मनोहरा सूर्यप्रभाशुक्रप्रभा परा ॥२२२॥ ततः परेण विज्ञेया शिविका विमलप्रमा। पुष्पामा देवदत्ताख्या परा सागरपत्रिका ॥२२३॥ नागदत्तामिधा चान्या चा: सिद्धार्थसिद्धिका । विजया वैजयन्ती च जयन्ताख्यापराजिता ॥२२४॥ नाम्नोत्तरकुरुश्चान्या दिव्या देवकुरुश्रुतिः । विमलामा च चन्द्राभा जिनानां शिविकाः क्रमात् ॥२२५॥
पुष्पके समान लालवणं, मुनियोंके स्वामी मुनिसुव्रतनाथ नीलगिरि अथवा अंजनगिरिके समान नीलवर्ण, नेमिनाथ नीलकण्ठ मयूरके सुन्दर कण्ठके समान नीलवर्ण और शेष जिनेन्द्र तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिवाले कहे गये हैं ।।२१०-२१३|| वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान इन पांच तीर्थंकरोंने कुमारकालमें ही दीक्षा धारण को थी और शेष तीर्थंकरोंने राजा होनेके बाद दीक्षा धारण की थी ॥२१४॥
भगवान् वृषभदेवका दीक्षाकल्याणक विनीतामें, नेमिनाथका द्वारवतीमें और शेष तीर्थंकरोंका अपनी-अपनी जन्मभूमिमें हुआ था ।।२१५|| सुमतिनाथ और मल्लिनाथने भोजन करनेके बाद दीक्षा धारण की थी तथा दीक्षाके बाद तीन दिनका उपवास लिया था। पार्श्वनाथ तथा वासुपूज्य भगवान्ने दीक्षाके बाद एक दिनका उपवास धारण किया था और शेष तीर्थंकरोंने दो दिनका उपवास लिया था। श्रेयोनाथ, सुमतिनाथ, मलिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ तीर्थंकरोंने दिनके पूर्वाह्नकालमें और अन्य तीर्थंकरोंने अपराह्न कालमें दीक्षा धारण की थी। भगवान् महावीरने ज्ञातृवनमें, वासुपूज्यने क्रीडोद्यानमें, वृषभदेवने सिद्धार्थ वनमें, धर्मनाथने वप्रका स्थानमें, मुनि सुव्रतनाथने नीलगुहाके समीप, पार्श्वनाथने तापसोंके तपोवनके समीप मनोरम नामक उद्यानमें और शेष तीर्थंकरोंने सहस्राम्रवनको आदि लेकर नगरके उद्यानोंमें दीक्षा धारण की थी ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिए ।।२१६-२२०।। १ सुदर्शना, २ सुप्रभा, ३ सिद्धार्थ, ४ अर्थसिद्धा, ५ अभयंकरी, ६ निवृत्तिकरी, ७ सुमनोरमा, ८ मनोहरा, ९ सूर्यप्रभा, १० शुक्रप्रभा, ११ विमलप्रभा, १२ पुष्पाभा, १३ देवदत्ता, १४ सागरपत्रिका, १५ नागदत्ता, १६ सिद्धार्थसिद्धिका, १७ विजया, १८ वैजयन्ती, १९ जयन्ता, २० अपराजिता, २१ उत्तर
१. द्वौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलो द्वाविन्द्रनीलप्रभो, द्वौ बन्धूकसमप्रभो जिनवृषौ द्वौ च प्रियङ्गुप्रभो। शेषाः षोडशजन्ममृत्युरहिताः संतप्तहेमप्रभास्ते संज्ञानदिवाकराः सुरनुताः सिद्धि प्रयच्छन्तु नः ॥६॥ चैत्यभक्तिः। २. णेमीमल्ली वीरो कुमारकालम्मि वासुपुज्जो य । पासो वि य गहिदतवा सेसजिणा रज्जचरिमम्मि ॥६७१॥. त्रै., अ. ४। ३. जयासूनोः वासुपूज्यस्य । ४. तीर्थदर्शिनाः म. । * भगवान् ऋषभदेवकी दीक्षा लेनेके बाद छह माहकी अनशनकी कथा सर्वत्र प्रसिद्ध है।
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षष्टितमः सर्गः
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दीक्षा कृष्णनवम्यां तु चैत्रस्य वृषभेशिनः । मुनिसुव्रतदीक्षास्यां वैशाखस्य बभूव सा ॥२२६॥ वैशाखस्येव शुद्धस्य प्रतिपद्यभिनन्द्यते । कुन्थोनिष्क्रमणं लोके नवम्यां सुमतेः पुनः ॥२२७॥ द्वादश्यां ज्येष्ठ कृष्णस्य त्रयोदश्यां च संक्रमम् । अनन्तस्य च शान्तेश्च परिनिष्क्रमणं स्मृतम् ॥२२८॥ द्वादश्यां ज्येष्ठकृष्णस्य सुपार्श्वस्य जिनेशिनः । नमेराषाढकृष्णस्य दशम्यां कथितं हि तत् ॥२२९॥ नेमेः सितचतुथ्यों तु श्रावणस्योपवर्णितम् । पद्माभस्य त्रयोदश्या कृष्णायां कार्तिकस्य तु ॥२३०॥ कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य दशम्यां सुमतेस्तु तत् । शुक्लप्रतिपदि प्रोनं पुष्पदन्त जिनाशनः ॥२३१॥ तस्यैवारो दशम्यां तु पौर्णमास्यां च संभवः । एकादश्यां तु मल्लीशः परिनिष्क्रमणं श्रिताः ॥२३२॥ पौषस्य कृष्णपक्षस्य ोकादश्यां सुकालजम् । ज्ञेयं निष्क्रमणं चन्द्रप्रभपार्श्वजिनेन्द्रयोः ॥२३३॥ माघस्य कृष्णपक्षस्य द्वादश्यां शीतलस्य च । विमलस्य सितायां हि चतुर्थी परिकीर्तितम् ॥२३४॥ अजितस्य नवम्चां तु द्वादश्याममिनन्दनः । धर्मस्य तु त्रयोदश्यां परिनिष्क्रमणं मतम् ॥२३५॥ फाल्गुनासितपक्षस्य त्रयोदश्यां जिनेशिनः । श्रेयसो वासुपूज्य स्य चतुर्दश्यां तदीरितम् ॥२३६॥ वर्षेण पारणाद्यस्य जिनेन्द्रस्य प्रकीर्तिता । तृतीयदिवसेऽन्येषां पारणाः प्रथमा मताः ॥२३७॥ आद्येनेचरसो दिव्यः पारणायां पवित्रितः । अन्यैर्गोक्षीरनिष्पन्नपरमान्नमलालसैः ॥२३८॥ श्रीहास्तिनपुरं रम्यमयोध्यानगरी शुभा । श्रावस्ती च विनीता च पुरं विजयपूर्वकम् ॥२३९॥
कुरु, २२ देवकुरु, २३ विमला और २४ चन्द्राभा ये क्रमसे ऋषभादि तीर्थंकरोंकी शिविकापालकियोंके नाम हैं ॥२२१-२२५।।
चैत्र कृष्ण नवमीको भगवान् वृषभदेवकी, वैशाख कृष्ण नवमीको मुनिसुव्रतनाथकी, वैशाख सुदी प्रतिपदाके दिन कुन्थुनाथकी, वैशाख सुदी नवमीके दिन सुमतिनाथकी, ज्येष्ठकृष्ण द्वादशीके दिन अनन्तनाथ जिनेन्द्रकी, ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशीके दिन शान्तिनाथको, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशीके दिन सुपाश्वं जिनेन्द्रकी, आषाढ़ कृष्ण दशमीके दिन नमिनाथकी, सावन सुदी चतुर्थीको नेमिनाथकी, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशीको पद्मप्रभकी, मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीको सुमतिनाथकी, मार्गशीर्ष सुदी प्रतिपदाके दिन पुष्पदन्त जिनेन्द्रकी, मार्गशीर्ष सुदी दशमीको अरनाथकी, मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमाको सम्भवनाथकी, मार्गशीर्ष सुदी एकादशीको मल्लिनाथकी, पौषकृष्ण एकादशीको चन्दप्रभ और पाश्वनाथको, माघ कृष्ण द्वादशीको शीतलनाथकी, माघ शुक्ल चतुर्थीको विमलनाथकी, माघ शुक्ल नवमीको अजितनाथकी, माघ शुक्ल द्वादशीको अभिनन्दननाथको, माघ शुक्ल त्रयोदशीको धर्मनाथकी, फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशीके दिन श्रेयांसनाथकी और फाल्गन कृष्ण चतुर्दशीके दिन वासुपूज्य भगवान की दीक्षा हुई थी ॥२२६-२३६॥ श्री आदि जिनेन्द्रकी प्रथम पारणा एक वर्षमें [ मल्लिनाथ और पार्श्वनाथकी चौथे दिन ] तथा शेष तीर्थंकरोंकी तीसरे दिन हुई थी। भावार्थ-आदि जिनेन्द्रने छह माहका योग लिया था और छह माह विधि न मिलनेसे भ्रमण करते रहे इसलिए एक वर्ष बाद उन्हें आहार मिला। मल्लिनाथ और पाश्वनाथने दीक्षाके समय तीन दिनके उपवासका नियम लिया था इसलिए उन्हें चौथे दिन आहार मिला और शेष तीर्थंकरोंने दो दिनका उपवास किया था ।। २३७ ।। श्री आदिनाथ भगवान्ने पारणाके दिन उत्तम इक्षुरसको पवित्र किया था और शेष तीर्थंकरोंने लालसासे रहित हो गो-दुग्धके द्वारा निर्मित खीरके द्वारा आहार किया था ।। २३८ ॥ १ श्रीसुन्दर हस्तिनापुर, २ शुभ अयोध्या, ३ श्रावस्ती, ४ विनीता, ५ विजयपुर, ६ मंगलपुर, ७ पाटली
१. पारणा प्रथमा मता म.। २. एक्कवरिसेण उसहो उच्छ रसं कूणइ पारणं अवरे । गोक्खीरे णिप्पणं अण्णं बिदियम्मि दिवसम्मि ॥ ४ अ., ६७१ गाथा., त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ।
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७२४
हरिवंशपुराणे पुरं मङ्गलकं नाम्ना पाटलीखण्डसंज्ञकम् । पद्मखण्डपुरं कान्तं तथा श्वेतपुरं परम् ॥२४०॥ अरिष्टपुरमिष्टं तु सिद्धार्थपुरमप्यतः । महापुरमतो नाम्ना स्फुटं धान्यवटं पुरम् ॥२४॥ वर्धमानपुरं ख्यातं पुरं सौमनसाह्वयम् । मन्दरं हास्तिनपुरं तथा चक्र पुरं माम् ॥२४२॥ मिथिला राजगृहकं पुरं वीरपुरं तथा । पुरी द्वारवती काम्यकृतं कुण्डपुरं पुरम् ॥२४३॥ चतुर्विंशतिसंख्यानां संख्यातानि यथाक्रमम् । जिनानां वृषभादोनां पारणानगराणि तु ॥२४४॥ स श्रेयान् ब्रह्मदत्तश्च सुरेन्द्र इव संपदा । राजा सुरेन्द्र दत्तोऽन्य इन्द्रदत्तश्च पन्नकः ॥२४५॥ सोमदत्तो महादत्तः सोमदेवश्च पुष्पकः । पुनर्वसः मनन्दश्च जयश्चापि विशाखकः ॥२४६॥ धर्मसिंहः पमित्रश्च धर्ममित्रोऽपराजितः । नन्दिषेणश्च वृषभदत्तो दत्तश्च सन्मयः ॥२४॥ वरदत्तश्च नृपतिर्धन्यश्च वकुलस्तथा । पारणास जिनेन्द्रेभ्यो दायकाश्च त्वमी स्टताः ॥२४॥ सर्वेषामादिभिक्षासु दातारोऽपि जिनेशिनाम् । सर्वासु वर्धमानस्य वसधारानियोगतः ॥२४९ ॥ अर्धत्रयोदशोत्कर्षाद्वसुधारासु कोटयः । तावन्त्येव सहस्राणि दशघ्नानि जघन्यतः ॥२५०॥ आद्यौ द्वौ दायको श्यामौ ज्ञेयावत्यौ च वर्णतः । शेषास्तु दायकाः सर्वे संतप्तकनकप्रभाः ॥२५॥ तपस्थिताश्च ते केचित्सिद्धास्तेनैव जन्मना । जिनान्ते सिद्धिरन्येषां तृतीये जन्मनि स्मृताः ॥२५२॥ वृषभमल्लीशपाश्र्वानामष्टमेन चतुर्थतः । जयाजस्य ययुः शेषाश्छद्मस्था हानिषष्टतः ॥२३॥ ज्ञानाप्तिः पूर्वतालेन्त्या दृषस्य सकटामुखे । ऊर्जयन्ते गिरी नेमेः पार्श्वस्याप्याश्रान्तिके ॥२५४॥ वीरस्य केवलोत्पाद जुकूलासरित्तटे । अन्येषां तु जिनेन्द्राणां स्योद्यानेषु यथायथम् ॥२५॥
खण्ड, ८ पद्मखण्डपुर, ९ श्वेतपुर, १० अरिष्टपुर, ११ सिद्धार्थपुर, १२ महापुर, १३ धान्यवटपुर, १४ वर्धमानपुर, १५ सोमनसपुर, १६ मन्दरपुर, १७ हस्तिनापूर, १८ चक्रपुर, १९ मिथिला, २० राजगृह, २१ वीरपुर, २२ द्वारवती, २३ काम्यकृति और २४ कुण्डपुर ये यथाक्रमसे वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरोंके प्रथम पारणाके दिन प्रसिद्ध हैं ।।२३९-२४४॥ १ राजा श्रेयांस, २ ब्रह्मदत्त, ३ सम्पत्तिके द्वारा सुरेन्द्रकी समानता करनेवाला राजा सुरेन्द्रदत्त, ४ इन्द्रदत्त, ५ पद्मक, ६ सोमदत्त, ७ महादत्त, ८ सोमदेव, ९ पुष्पक, १० पुनर्वसु, ११ सुनन्द, १२ जय, १३ विशाख, १४ धर्मसिंह, १५ सुमित्र, १६ धर्ममित्र, १७ अपराजित, १८ नन्दिषेण, १२ वृषभदत्त, २० उत्तम नीतिका धारक दत्त. २१ वरदत्त, २२ नपति, २३ धन्य और २४ बकूल ये वृषभादि ताथकरा प्रथम पारणाओंके समय दान देनेवाले स्मरण किये गये हैं ।।२४५-२४८|| समस्त तीर्थंकरोंकी आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामीकी सभी पारणाओंमें नियमसे रत्तवृष्टि हुआ करती थी। वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टतासे साढ़े बारह करोड और जघन्य रूपसे साढे बारह लास प्रमाण होती थी ||२४९-२५०।। इन दाताओंमें आदिके दो दाता और अन्तके दो दाता श्यामवर्णके थे और शेष सभी दाता तपाये हए सूवर्णके समान वर्णवाले थे ।।२५१।। इनम श्वरण कर उसी जन्मसे मोक्ष चले गये और कितने ही जिनेन्द्र भगवान्के मोक्ष जानेके बाद तीसरे भवमें मोक्ष गये ॥२५२॥
वृषभनाथ, मल्लिनाथ, और पार्श्वनाथको तेलाके बाद, वासुपूज्यको एक उपवासके बाद और शेष तीर्थकरोंको वेलाके बाद केवलज्ञानको प्राप्ति हुई थी ।। २५३ ।। वृषभनाथ भगवान्को पूर्वताल नगरके शकटामुख वनमें, नेमिनाथको गिरिनार पर्वतपर, पाश्र्वनाथ भगवान्को आश्रमके समीप, महावीर भगवान्को ऋजुकूला नदीके तटपर और शेष तीर्थंकरोंको
१. काम्या कृतं म. । २. सव्वणपारणदिणे णिबडइ वररयणवरिसमंवरदो। पणघणहददहलक्खं जेटुं अवरं सहस्सभागं च ।।६०२॥ अ. ४ त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ।
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षष्टितमः सर्गः
वृषभस्य श्रेयसो मल्लेः पूर्वाह्णे नेमिपार्श्वयोः । केवलोत्पत्तिरन्येषामपराह्णे जिनेशिनाम् ॥ २५६ ॥ फाल्गुने कृष्णपक्षस्य स्वेकादश्यां वृषो भृतः । द्वादश्यां केवलं मल्लिः षष्ट्यां तु मुनिसुव्रतः ॥ २५७॥ सप्तम्यामेव संप्राप्तः पक्षे तत्रैव केवलम् । सुपार्श्वजिनचन्द्र चन्द्रप्रमजिनस्तदा ॥ २५८ ॥ चतुर्थ्यां चैत्र कृष्णस्य पार्श्वदेवस्य केवलम् । अमावास्यामनन्तस्य जिनेन्द्रस्य तदिष्यते ॥ २५९॥ पक्षे सिते तृतीयस्यां नमः कुन्धोश्व केवलम् । दशम्यां सुमतेर्जातं पद्मप्रभजिनस्य च ॥ २६०॥ ज्ञेयं वैशाखशुकस्य दशम्य वीरकेवलम् । सितेऽश्वयुजि पक्षेऽभून्नेमस्तत्प्रतिपद्दिने ॥ २६१ ॥ कार्तिकासित पञ्चम्यां शस्त्रवस्य सितात्मनि । सुविधेस्तु तृतीयस्यां तद्द्वादश्यामरस्य तु ॥ २६२॥ पुण्यकृष्ण चतुर्दश्यां शीतलः केवलं श्रितः । दशम्यां विमलः शुक्ले शान्तिरेकादशे दिने ॥ २६३ ॥ अजितोऽत्र चतुर्दश्यां केवलं प्रत्यपद्यत । अभिनन्दनधर्माख्यौ पौर्णमास्यामवाप तु ॥ २६४ ॥ ज्ञानोत्पत्त्या त्वमावास्या माघस्य श्रेयसा कृता । श्रेयसी वासुपूज्येन द्वितीया शुक्लपक्षजा ॥ २६५॥ माघकृष्णचतुर्दश्यां वृषस्य परिनिर्वृतिः । फाल्गुनस्यासिते पक्षे चतुर्थ्यां पद्मभासिनः ॥ २६६॥ षष्ट्यां सुपार्श्वनाथस्य द्वादश्यां मौनिसुती । सितफाल्गुन पञ्चम्यां मल्लिश्रीवासुपूज्ययोः ॥ २६७॥ अमावस्या तु चैत्रस्य निर्वृताभ्यां पवित्रिता । अनन्तारजिनेन्द्राभ्यां शुक्लपक्षस्य तु क्रमात् ॥ २६८ ॥ पञ्चम्यामजितः षष्ट्यां संभवः परिनिर्वृतः । दशम्यां सुमतिर्नाथः सुरनाथगणस्तुतः ॥२६९॥ वैशाखस्यापुनात्सिद्ध्या नमिः कृष्णचतुर्दशीम् । सितां प्रतिपदं कुन्धुः सप्तमीममिनन्दनः ॥२७०॥
अपने-अपने नगरके उद्यानमें ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था || २५४ - २५५॥ वृषभनाथ, श्रेयांसनाथ, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ भगवान्को पूर्वाह्न कालमें तथा शेष तीर्थंकरोंको अपराह्न कालमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति हुई थी || २५६॥
७२५
फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन वृषभनाथ, फाल्गुन कृष्ण द्वादशीके दिन मल्लिनाथ, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन मुनिसुव्रतनाथ, फाल्गुन कृष्ण सप्तमीके दिन सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ, चैत्र कृष्ण चतुर्थीके दिन पार्श्वनाथ, चैत्र कृष्ण अमावास्याके दिन अनन्त जिनेन्द्र, चैत्र शुक्ल तृतीयाके दिन नमिनाथ और कुन्थुनाथ, चैत्रशुक्ल दशमी के दिन सुमतिनाथ और पद्मप्रभ भगवान्, वैशाख शुक्ल दशमी के दिन महावीर, आश्विन शुक्ल प्रतिपदाको नेमिनाथ, कार्तिक कृष्ण पंचमीको सम्भवनाथ, कार्तिक शुक्ल तृतीयाको सुविधिनाथ, कार्तिक शुक्ल द्वादशीको अरनाथ, पोष कृष्ण चतुर्दशीको शीतलनाथ, पौष कृष्ण दशमीको विमलनाथ, पौष शुक्ल एकादशीको शान्तिपौष शुक्ल चतुर्दशीको अजितनाथ, पौष शुक्ल पूर्णिमाको अभिनन्दन और धर्मनाथ, माघकृष्ण अमावसको श्रेयांसनाथ और माघ शुक्ल द्वितीयाको वासुपूज्य भगवान् केवलज्ञानको प्राप्त हुए थे ।। २५७-२६५।।
नाथ,
माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन वृषभनाथका, फाल्गुन कृष्ण चतुर्थीके दिन पद्मप्रभका, फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सुपार्श्वनाथका, फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन मुनिसुव्रतनाथका, फाल्गुन शुक्ल पंचमी के दिन मल्लिनाथ और श्री वासुपूज्यका निर्वाण हुआ है । चैत्रकी अमावास्या निर्वाणको प्राप्त हुए अनन्तनाथ और अरनाथ जिनेन्द्र के द्वारा पवित्र की गयी है । चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन अजितनाथ, चैत्र शुक्ल षष्ठीके दिन सम्भवनाथ और चैत्र शुक्ल दशमीके दिन इन्द्रोंके समूहसे स्तुत सुमतिनाथ निर्वाणको प्राप्त हुए हैं || २६६ - २६९ || वैशाख कृष्ण चतुर्दशीको नमिनाथ भगवान्, वैशाख शुक्ल प्रतिपदाको कुन्थुनाथने और वैशाख शुक्ल सप्तमीको अभिनन्दननाथने अपने निर्वाणसे
१. विमलं म । २. मोनिसुव्रतः म, ख., ङ, मुनिसुव्रतस्येयं मौनिसुव्रती परिनिर्वृतिरित्यनेन संबन्धः । ३. निर्मिताम्यां म, ख. !
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हरिवंशपुराणे
शान्तेः सिद्धितिथिः सिद्धा ज्येष्ठकृष्णचतुर्दशी । तस्य शुक्लचतुर्थी तु धर्मस्य प्रतिपादिता ॥ २७१ ॥ आषाढ कृष्णपक्षस्य विमलस्याष्टमी मता । नेमेः शुक्काष्टमी मान्या निर्वाणतिथिरिष्यते ॥ २७२ ॥ श्रावण शुक्कसप्तम्यां पार्श्वस्य परिनिर्वृतिः । श्रेयसः पौर्णमास्यां तु धनिष्ठासु प्रतिष्ठिता || २७३ || चन्द्रामः शुक्कसप्तम्यां सिद्धो भाद्रपदस्य तु । अष्टम्यां पुष्पदन्तोऽस्य शीतलोऽश्वयुजस्य तु ॥ २७४॥ निर्वृतः सितपञ्चम्यां कृष्णायां परिनिर्वृतिः । श्रीवीरस्य चतुर्दश्यां कार्तिकस्य विनिश्चिता || २७५ || वृषोऽजितोऽपि च श्रेयान् शीतलश्चाभिनन्दनः । सुमतिश्च सुपार्श्वश्च पूर्वाह्णे चन्द्रमस्तथा ।। २७६ ।। संभवः पद्ममासश्च पुष्पदन्तो भवान्तकः । अपराह्णे जिनाः सिद्धा वासुपूज्य जिनस्तथा || २७७ ।। विमलानन्तशान्तीनां कुन्थोर्मलीशविंशयोः । प्रदोषसमये ज्ञेया निर्वृतिर्नेमिपार्श्वयोः ||२८|| धर्मस्यारजिनेन्द्रस्य नमिवोरजिनेन्द्रयोः । प्रत्यूषे सिद्धिरुद्दिष्टा नष्टाष्टविधकर्मणाम् ॥ २७९ ॥
។
'वृषस्य वासुपूज्यस्य नेमेः पर्यङ्कबन्धतः । कायोत्सर्गस्थितानां तु सिद्धिः शेषजिनेशिनाम् ||२८०|| चतुर्दशदिनान्याद्यः संहृत्य विहृतिं जिनः । वीरोहद्वितयं शेषा मासं संहृत्य मुक्तिगाः || २८१|| वीरस्यैकस्य निर्वाणं' षड्विंशतिसहितस्य तु । पार्श्वस्य सह नेमेः षट्त्रिंशता पञ्चभिः शतैः ।।२८२।।
७२६
पवित्र किया है || २७० ॥ ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी शान्तिनाथ भगवान्की, ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी धर्मtreat, आषाढ़ कृष्ण अष्टमी विमलनाथकी और आषाढ़ शुक्ल अष्टमी नेमिनाथ भगवान्की निर्वाणतिथि मानी जाती है || २७१ - २७२ || श्रावण शुक्ल सप्तमीको पार्श्वनाथका और श्रावण शुक्ल पूर्णिमाको धनिष्ठा नक्षत्र में श्रेयांसनाथका निर्वाण हुआ है || २७३।।
भाद्रपद शुक्ल सप्तमीको चन्द्रप्रभ, भाद्रपद शुक्ल अष्टमीको पुष्पदन्त और आश्विन शुक्ल पंचमीको शीतलनाथ निर्वाणको प्राप्त हुए हैं एवं कार्तिक कृष्ण चतुर्दशीको श्री भगवान् महावीरका निर्वाण निश्चित है ॥। २७४ २७५ ।।
वृषभनाथ, अजितनाथ, श्रेयांसनाथ, शीतलनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ पूर्वाह्नकाल में, सम्भवनाथ, पद्मप्रभ, संसार - भ्रमणका अन्त करनेवाले पुष्पदन्त और वासुपूज्य ये अपराह्नकालमें सिद्ध हुए हैं || २७६ - २७७|| विमलनाथ, अनन्तनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथको सायंकाल में मुक्ति जानना चाहिए || २७८ ||
और अष्ट प्रकारके कर्मोंको नष्ट करनेवाले धर्मनाथ, अरनाथ, नमिनाथ और महावोर जिनेन्द्रकी प्रातः कालमें सिद्धि कही गयी है || २७९ ||
भगवान् वृषभनाथ, वायुपुज्य और नेमिनाथ पर्यंक आसन से तथा शेष तीर्थंकर कायोत्सर्गं आसन से स्थित हो मोक्ष गये हैं || २०८||
आदि जिनेन्द्र भगवान् वृषभदेव, मुक्तिके पूर्व चौदह दिन तक विहारको संकोचकर मोक्ष हो गये हैं । भगवान् महावीर दो दिन और शेष तीर्थंकर एक मास पूर्व विहार बन्द कर मोक्षगामी हुए हैं ||२८२ ॥
महावीर भगवान्का एकाकी अकेलेका, पार्श्वनाथका छब्बीस मुनियोंके साथ, नेमिनाथका पाँच सौ छत्तीस मुनियोंके साथ निर्वाण हुआ है ||२८२||
१. उसहो य वासुपुज्जो णेमी पल्लंकबद्धया सिद्धा । काउस्सग्गेण जिणा सेसा मुत्ति समावण्णा. प्र. चतुर्थ अधिकार ॥ १२१०॥ २ उसहो चोद्दमदिवसे दुदिणं वीरेसरस्म से साणं । मासेण य विणिवत्ते जोगादो मुत्तिसम्पण्णो ॥ १२०९ त्रं प्र च अधिकार । ३. निर्वाण: म., ख., ङ । 'मुक्तिः केवल्यनिर्वाणं श्रेयो निःश्रेयसामृतम्' इत्यमरः ।
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षष्टितमः सर्गः
मलिः पञ्चशतैः सिद्धः शान्तिर्नवशतैः सह । सैकैरष्टशतैर्धर्मो द्वादशः सैकषट्शतैः ॥ २८३ ॥ सहस्त्रैर्विमलः षड्भिरनन्तस्तैस्तु सप्तभिः । सप्तमः पञ्चशत्यामा पद्माभोऽष्टशतैस्त्रिभिः ॥ २८४॥ वृषो दशसहखैस्तु मुनिभिर्मुक्तिमाश्रितः । प्रत्येकं तु जिनाः शेषाः सहस्रेण समन्विताः ॥ २८५ ॥ मरतश्चक्रवर्त्याद्यः सगरो मघवस्ततः । सनत्कुमारनामान्यः शान्तिः कुन्धुररस्तथा ॥ २८६ ॥ सुभूमश्च महापद्मो हरिषेणो जयोऽपरः । ब्रह्मदत्तश्च षट्खण्डनाथा द्वादशचक्रिणः ॥ २८७ ॥ त्रिपृष्टश्च द्विष्टश्च स्वयंभूः पुरुषोत्तमः । पुरुषोपपदौ सिंहपुण्डरीकौ प्रचण्डकौ ॥ २८८ ॥ दत्तो नारायणो कृष्णो वासुदेवा नवोदिताः । त्रिखण्ड मरताधीशाः पराखण्डितपौरुषाः ॥ २८९ ॥ विजयोऽचलः सुधर्माख्यः सुप्रमश्च सुदर्शनः । नान्दी च नन्दिमित्रश्च रामः पद्मो बला नव ॥ २९० ॥ अश्वग्रीवो भुवि ख्यातस्तारको मेरुकस्तथा । निशुम्भः शुम्भदम्भोजवदनो मधुकैटभः ॥ २९१॥ बलिः प्रहरणाभिख्यो रावणः खेचरान्वयः' | भूचरस्तु जरासन्धो नवैते प्रतिशत्रवः ॥ २९२॥ ऊर्ध्वगा बलदेवास्ते निनिंदाना भवान्तरे । अधोगाः सनिदानास्तु केशवाः प्रतिशत्रवः ॥ २९३॥ वृषभे भरतश्चक्री सगरोऽप्यजिते जिने । मघवांस्तुर्यश्चकी च धर्मशान्त्यन्तरे मतौ ॥२९४॥ निजं जिनान्तरं ज्ञेयं शान्तिकुन्थ्वरचक्रिणाम् । चक्रवर्ती सुभूमोऽभूदरमल्लि जिनान्तरे ॥ २९५॥ मुनिसुव्रतसल्ल्यन्तर्महापद्मः प्रकीर्तितः । मुनिसुव्रतनम्यन्तर्हरिषेणस्तु चक्रभृत् ॥ २९६॥ नमिनेम्यन्तरे चक्री जयसेनोऽभवत्ततः । ब्रह्मदत्तोऽपि निर्दिष्टो नेमिपाश्र्वजिनान्तरे ॥ २९७ ॥
मल्लिनाथ पाँच सी, शान्तिनाथ नो सो, धर्मनाथ आठ सौ एक, वासुपूज्य छह सौ एक, विमलनाथ छह हजार, अनन्तनाथ सात हजार, सुपाश्वनाथ पाँच सौ, पद्मप्रभ तीन हजार आठ सौ, वृषभनाथ दश हजार और शेष तीर्थंकर एक-एक हजार मुनियोंके साथ मोक्षको प्राप्त हुए हैं ।।२८३ - २८५ ॥
७२७
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिपेण, जय और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती छह खण्डोंके स्वामी हुए ||२८६ - २८७॥ त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष पुण्डरीक, (पुण्डरीक) दत्त, नारायण (लक्ष्मण) और कृष्ण ये नो वासुदेव कहे गये हैं । ये तीन खण्ड भरतके स्वामी होते हैं तथा इनका पराक्रम दूसरोंके द्वारा खण्डित नहीं होता ॥ २८८- २८५९॥
विजय, अचल, सुधमं, सुप्रभ, सुदर्शन, नान्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हैं ||२९० || अश्वग्रीव, पृथिवीमें प्रसिद्ध तारक, मेरुक, निशुम्भ, सुशोभित कमलके समान मुखवाला मधुकैटभ, बलि, प्रहरण, विद्याधर वंशज रावण और भूमिगोचरी जरासन्ध ये नौ प्रतिनारायण हैं ||२९१ - २९२ ।। बलभद्र ऊर्ध्वगामी - स्वर्गं अथवा मोक्षगामी होते हैं तथा भवान्तरमें कोई निदान नहीं बाँधते और नारायण अधोगामी होते हैं एवं भवान्तर में निदान बाँधते हैं ||२९३॥
चक्रवर्ती भरत वृषभनाथ के समयमें हुआ, सगर चक्रवर्ती अजितनाथके कालमें हुआ, मघवा और सनत्कुमार धर्मनाथ तथा शान्तिनाथके अन्तरालमें हुए । शान्ति, कुन्थु और अरनाथ चक्रवर्ती काल अपना-अपना अन्तराल काल है । सुभूम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथके अन्तराल में हुआ । महापद्म मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथके अन्तरालमें हुआ । हरिषेण, मुनिसुव्रत
१. खेचरान्वयाः म. । २. अणिदाणगदा सब्वे बलदेवा केसवा णिदागगदा । उडदंगामी सव्वे बलदेव केसवा अधोगामी ॥। १४३६ . प्र. ४ अधिकार
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हरिवंशपुराणे
अष्टानां सिद्धिरुद्दिष्टा ब्रह्मदत्तसुभूमयोः । सप्तमी मघवांस्तुर्यो तृतीयं कल्पमाश्रितौ ॥ २९८ ॥ श्रेयः प्रभृतिधर्मान्तान् पञ्चापश्यन् बलोर्जितान् । त्रिष्पृष्ठाद्या नृसिंहान्ताः पञ्चसंख्यास्तु केशवाः ॥ २९९॥ पुण्डरीकोडरमल्ल्यन्तर्वासुदेवः प्रकीर्तितः । मुनिसुचतमल्ल्यन्तर्दत्तनामा तु केशवः ॥ ३००॥ मुनिसुव्रतनयोस्तु मध्ये नारायणः स्मृतः । प्रत्यक्षं वन्दको नेमेः कृष्णः पद्मसमन्वितः ॥ ३०१॥ " एकस्य सप्तमी पृथ्वी पञ्चानां षध्युदीरिता । पञ्चम्येकस्य चान्यस्य पर्यन्तस्य तृतीयभूः ॥ ३०२ ॥
3
४
" अष्टानां मुक्तिरुदिष्टा बलानां तु तपोबलात् । अन्तस्य ब्रह्मकल्पस्तु तीर्थे कृष्णस्य सेत्स्यतः ॥३०३॥ 'धनुःशतानि पञ्चाथे हानिः पञ्चाशतोऽष्टसु । दशानां पञ्चसु प्रोक्ता पञ्चानामष्टसु क्षयः ॥ ३०४ ॥ उत्सेधः पार्श्वनाथस्य नवारनिमितस्ततः । वीरस्यारत्नयः सप्त जिनोस्सेधः क्रमादयम् ॥ ३०५ ॥
७२८
और नमिनाथ के अन्तराल में हुआ । जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ पार्श्वनाथ के अन्तर में हुआ और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के अन्तरालमें हुआ है ।। २९४ - २९६ ।। इन बारह चक्रवर्तियों में आठको मुक्ति प्राप्त हुई है, ब्रह्मदत्त और सुभूम सातवीं पृथिवी गये हैं तथा मघवा और सनत्कुमार तीसरे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं ||२९७||
त्रिपृष्ठसे लेकर पुरुषसिंह तकके पाँच नारायणोंने श्रेयांसनाथसे लेकर धर्मनाथ तकके पाँच तीर्थंकरों के अन्तराल कालको बलभद्रोंके साथ देखा है अर्थात् त्रिपृष्ठादि पाँच नारायण और विजय आदि पांच बलभद्र श्रेयांसनाथसे लेकर धर्मनाथ तकके अन्तराल में हुए हैं। पुण्डरीक, अरनाथ और मल्लिनाथके अन्तराल में, दत्त, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथके अन्तराल में, नारायण (लक्ष्मण), मुनि सुव्रतनाथ और नमिनाथके अन्तरालमे हुआ है और कृष्ण पद्मके साथ नेमिनाथको वन्दना करनेवाला प्रत्यक्ष विद्यमान है ही ||२९८-३०१ ।। इन नारायणोंमें प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ सातवीं पृथिवी गया । दूसरेसे लेकर छठे तक पाँच नारायण छठो पृथिवी गये । सातवाँ पाँचवीं पृथिवी गया और आठवाँ तीसरी पृथिवी गया और नौवां भी तीसरी पृथिवी जायेगा ||३०२ ||
प्रारम्भके आठ बलभद्रोंने तपके माहात्म्यसे मुक्ति प्राप्त की है और अन्तिम बलभद्र पाँचवें ब्रह्म स्वर्गं जायेगा। यह वहाँसे आकर जब कृष्ण तीर्थंकर होगा तब उसके तीर्थ में सिद्ध होगा - मोक्ष प्राप्त करेगा || ३०३ ||
वृषभ जिनेन्द्रके शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ धनुष थी, फिर आठ तीर्थंकरोंकी ऊँचाई पचासपचास धनुष कम होती गयी। उसके बाद तीर्थंकरोंकी दस-दस धनुष कम हुई । तदनन्तर आठ तीर्थंकरोंकी पांच-पांच धनुष कम हुई || ३०४ ||
पार्श्वनाथकी नो हाथ और महावीरकी सात हाथ ऊँचाई होगी। इस प्रकार क्रमसे तीर्थंकरोंकी ऊँचाई जानना चाहिए ||३०५ ।।
२. सप्तमी म. । २. पढमहरी सत्तम्मिए पंचच्छट्टाम्मि पंचमी एक्को । एक्को तुरिये चरिमो तदिए णिरए तहेव पडिसत्तु ।।१४३८ ।। त्री. प्र., अ. ४, त्रलोक्यप्रज्ञप्तौ त्रिलोकसारे च लक्ष्मणस्य चतुर्थपृथिवीगमनं प्रख्यातम् । हरिवंशे पद्मचरिते च तृतीयपृथिवीगमनं प्रख्यातम् । ३. णिस्सेयस मट्ठ गया हरिणो चरिमो बम्ह कत्यगदो । तत्तो कालेण मदो सिज्झदि, केहस्स तित्थम्मि । १४३७ ॥ . प्र च अ पंचसयधणुपमाणो उसह जिगिदस्स होदि उच्छेहो । तत्तोपण्णासूणा पियमेण य पुष्पदंतपेरते ।। ५८५ । । एत्तो जाव अनंतं दस दस कोदंडमेत्तपरिहीण । तत्तो णेमि जिणंतं पणपणचावेहिं परिहीणो ||५८६ ॥ णव हत्था पासजिणे सग हत्था वड्ढमाण णामम्मि । एत्तो तित्थयराणं सरीरवण्णं परूवेमो ॥। ५८७ ।। त्रै. प्र. अ. ४ ।
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षष्टितमः सर्गः
पञ्च चापशतान्याद्ये चक्रिण्युत्सेध इष्यते । चतुःशतानि साधनि धनूंषि सगरस्य तु ॥ ३०६ ॥ द्वाचत्वारिंशदिष्टानि सार्धानि तु धनूंष्यतः । सार्धेनैकेन युक्तानि चत्वारिंशद्धनंषि तु ॥ ३०७ ॥ चत्वारिंशदथेोक्तानि पञ्चमस्य तु चक्रिणः । पञ्चत्रिंशत्ततस्त्रिंशदष्टाविंशतिरष्टमे ॥ ३०८ ॥ द्वाविंशतिर्महापद्मे विंशतिश्च चतुर्दश । ततः सप्त धनूंषि स्यादुत्सेधश्चक्रवर्तिनाम् ॥ ३०९ ॥ अशीतिः सप्ततिः षष्टिः पञ्चाशत्पञ्चभिः सह । चत्वारिंशदषि स्युः षड्विंशतिस्ततः परः ॥ ३१०॥ द्वाविंशतिस्तथोक्तानि षोडशापि दशैव तु । उत्सेधो वासुदेवानां बलदेवप्रतिद्विषाम् ॥३११॥ आयुश्चतुरशीतिश्च पूर्वलक्षा जिनेशिनाम् । द्वासप्ततिश्च षष्टिश्च पञ्चाशञ्च यथाक्रमम् ||३.१२ ॥ चत्वारिंशत्तथा त्रिंशद्विंशतिश्व दशैव ताः । लक्षे लक्षं च पूर्वाणां दशानामायुरीरिति ॥ ३१३॥ वर्षलक्षास्ततो लक्ष्या अशीतिश्चतुरुत्तरा । द्वासप्ततिस्ततः पष्टित्रिंशदश तथैककम् ॥३१४॥ ततो वर्षसहस्राणि पञ्चनवतिश्चतुः । अशीतिः पञ्चपञ्चाशस्त्रिंशद्दश तथैककम् ॥३१५॥ ततो वर्षशतं पूर्ण द्वासप्ततिरिति क्रमात् । जिनानामायुराख्यातमायुर्वृद्धिं करोतु वः ॥ ३१६ ॥ लक्षाश्चतुरशीतिस्तु द्वासप्ततिरिति क्रमात् । पूर्वाणां वर्षलक्षास्तु पञ्चत्र्येकाः प्रपञ्चिताः ॥ ३१७॥ ततो वर्षसहस्राणि नवतिः पञ्चभिर्युता । तथा चतुरशीतिः स्यादष्टाषष्टिस्ततः पुनः ॥ ३१८॥ त्रिंशत् षट्विंशतित्रोणि वर्ष सप्तशतानि च । आयुःप्रमाणमेतत्तु कथितं चक्रवर्तिनाम् ॥३१९॥ वर्षाणां चतुरशीतिर्लक्षा द्वासप्ततिस्ततः । षष्टित्रिंशदशतोऽपि पञ्चषष्टिसहस्रकम् ॥ ३२० ॥ द्वात्रिंशद्वादशकं च प्रोक्तं वर्षसहस्रकम् । केशवानां यथासंख्यमायुः संख्या विदां मता ॥ ३२१॥
प्रथम चक्रवर्तीकी ऊँचाई, पांच सौ धनुष, दूसरे सगर चक्रवर्तीकी साढ़े चार सौ धनुष, तीसरेकी साढ़े बयालीस धनुष, चौथेकी साढ़े इकतालीस धनुष, पाँचवेंकी चालीस धनुष, छठेकी पैंतीस धनुष, सातवेंकी तीस धनुप, आठवेंकी अट्ठाईस धनुष, नौवें महापद्मकी बाईस धनुष, दशवेंकी बीस धनुष, ग्यारहवेंकी चौदह धनुष, और बारहवेंकी सात धनुष थी। इस प्रकार चक्रवर्तियोंकी ऊंचाईका वर्णन किया ॥३०६-३०९ ॥
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अस्सी, सत्तर, साठ, पचपन, चालीस, छब्बीस, बाईस, सोलह और दश धनुष यह कमसे नारायण, बलभद्र और प्रतिनारायणोंकी ऊँचाई है ।। ३१०-३११॥
प्रारम्भसे लेकर दशवें तीर्थंकर तककी आयु क्रमसे चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, चालीस लाख पूर्व, तीस लाख पूर्व, बीस लाख पूर्व, दश लाख पूर्व, दो लाख पूर्व और एक लाख पूर्व आयु कही गयी है । ३१२- ३१३॥
तदनन्तर श्रेयांसनाथसे लेकर महावीर पर्यन्तकी आयु क्रमसे चौरासी लाख वर्ष, बहत्तर लाख वर्ष, साठ लाख वर्षं, तीस लाख वर्ष, दश लाख वर्षं, एक लाख वर्ष, पंचानबे हजार वर्षं, चौरासी हजार वर्षं, पचपन हजार वर्ष, तीस हजार वर्ष, दश हजार वर्ष, एक हजार वर्षं, सो वर्षं और बहत्तर वर्षकी है। इस प्रकार क्रमसे तीर्थंकरोंकी आयु कही । यह तुम्हारी आयु वृद्धि करे ।।३१४-३१६।।
चौरासी लाख पूर्व, बहत्तर लाख पूर्व, पाँच लाख, तीन लाख, एक लाख, पंचानबे हजार, चौरासी हजार, अड़सठ हजार, तीस हजार, छब्बीस हजार, तीन हजार और सात सौ वर्षं यह क्रमसे चक्रवर्तियों को आयुका प्रमाण कहा गया है ।। ३१७-३१९ ।।
चौरासी लाख, बहत्तर लाख, साठ लाख, तीस लाख, दश लाख, पैंसठ हजार, बत्तीस हजार, बारह हजार और एक हजार वर्ष यह क्रमसे नौ नारायणोंकी आयुका प्रमाण विद्वानोंके द्वारा माना गया है ।। ३२० - ३२१ ॥
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हरिवंशपुराणें
आयुर्लक्षा बलानां स्युः सप्ताशीतिश्च सप्ततिः । सप्तोत्तरा तथा षष्टिः पञ्चत्रिंशद्दश क्रमात् ॥ ३२९॥ षष्टिवर्षसहस्राणि त्रिंशद्दश च सप्तभिः । द्विशत्याब्दसहस्रं तु तच्चरमस्य बलस्य तु ॥ ३२३॥ वृषाद्याः धर्मपर्यन्ता जिनाः पञ्चदश क्रमात् । निरन्तरास्ततः शून्ये त्रिजिनाशून्ययोर्द्वयम् ॥ ३२४॥ "जिनः शून्यद्वयं तस्माजिनः शून्यद्वयं पुनः । 'जिनः शून्यं जिनः शून्यं द्वौ जिनेन्द्रौ निरन्तरौ ॥३२५॥ चक्रिणौ मरतायौ द्वौ तौ शून्यानि त्रयोदश । षट्चक्रिणत्रिशून्यानि चक्री शून्यं च चक्रभृत् ॥ ३२६ ॥ ततः शून्यद्वयं चक्री शून्यं चक्रधरस्ततः । शून्ययोर्द्वितयं तस्मादिति चक्रधरक्रमःः ॥ ३२७॥॥ शून्यानि दश पञ्चातस्त्रिपृष्टाद्यास्तु केशवाः । शून्यषट्कं ततश्चैकः केशवो व्योमकेशवः ॥३२८॥ त्रिशून्यं केशवश्चैकः शून्यद्वितयमध्यतः । केशवस्त्रीणि शून्यानि केशवानामयं क्रमः ॥ ३२९॥
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सतासी लाख, सत्तर लाख, सड़सठ लाख, पैंतीस लाख, दश लाख, साठ हजार, तीस हजार, सत्रह हजार और बारह सौ वर्षं यह क्रमसे बलभद्रोंकी आयु है || ३२२- ३२३|| तीर्थंकरोंके काल चक्रवर्ती तथा नारायणोंका क्रम जाननेके लिए चौंतीस कोठाका एक यन्त्र बनाना चाहिए | उसके नीचे चौंतीस-चौंतीस कोठाके दो यन्त्र और बनाना चाहिए। ऊपरके यन्त्र में तीर्थंकरोंका, बीचके यन्त्रमें चक्रवर्तियोंका और नीचेके यन्त्रमें नारायणों का विन्यास करे । यन्त्र में तीर्थंकरों के लिए एकका अंक, चक्रवर्तियोंके लिए दोका अंक और नारायणोंके लिए तीनका अंक प्रयुक्त किया जाता है । ऊपरके यन्त्र में ऋषभनाथसे लेकर धर्मनाथ तक पन्द्रह तीर्थंकरोंका क्रमसे विन्यास करना चाहिए अर्थात् प्रारम्भसे लेकर पन्द्रह खानोंमें एक-एक लिखना चाहिए। उसके बाद दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर एक शून्य और फिर लगातार दो तीर्थंकर इस प्रकार तीर्थंकरों का विन्यास करना चाहिए। तदनन्तर नीचेके यन्त्र में भरत आदि दो चक्रवर्ती, फिर तेरह शून्य, फिर छह चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर एक शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर दो शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती और फिर दो शून्य इस प्रकार चक्रवर्तियों का क्रमसे विन्यास करे । तदनन्तर नीचेके यन्त्रमें प्रारम्भमें दश शून्य, फिर त्रिपृष्ट आदि पाँच नारायण, फिर छह शून्य, फिर एक नारायण, फिर एक शून्य, फिर एक नारायण, फिर तीन शून्य, फिर एक नारायण, फिर दो शून्य, फिर एक नारायण और फिर तीन शून्य इस प्रकार क्रमसे नारायणोंका विन्यास करे । इसकी संदृष्टि इस प्रकार है* -
भावार्थ - भरत चक्रवर्ती वृषभनाथके समक्ष, सगर चक्रवर्ती अजितेश्वरके समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती, धर्मनाथ और शान्तिनाथके अन्तराल में हुए हैं । शान्ति,
|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|०|०|१|१|१|०|०|१|०|०|१|०|०/१ ०/१/०/१/१ २/२|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|२|२| २|२| २|२|०|०|०|२| २|२|०|०|२|०|२/०/० |०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|३|३|३| ३ | ३|०|
१. जिने म । २. जिने म । ३. चक्रधराः क्रमात् ङ. ।
* यह प्रकरण तिलोयष्णत्तिके चतुर्थं महाधिकारसे लिया हुआ जान पड़ता है, वहाँ इस प्रकरणकी गाथाएँ इस प्रकार हैं
रिसहेसरस्स भरहो सगरो अजिरासरस्स पच्चक्खं । मघवा सणक्कुमारो दो चक्की धम्म संति विच्चाले ॥ १२८३ ॥ अह संति कुन्थु अर जिण तित्थयरा ते च चक्कवट्टित्ते । एक्को सुभउमचक्की अरमल्लीणंतरायम्मि ।। १२८४ ॥
|०|०|०|३|०|३|०|०|०|३|०|०|३|०|०|०|
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षष्टितमः सर्गः
"पादः कुमारकालः स्यादायुषो वृषमस्य सः । न्यूनः संयमकालस्य राज्यकालस्ततोऽपरः ॥३३०॥
कुन्थु और अर ये तीन स्वयं तीर्थंकर तथा चक्रवर्ती हुए हैं। सुभौम चक्रवर्ती अरनाथ और मल्लिनाथके अन्तराल में, पद्म चक्रवर्ती, मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तरालमें, हरिषेण चक्रवर्ती सुव्रत और नमिनाथ के अन्तरालमें, जयसेन चक्रवर्ती नमिनाथ और नेमिनाथके अन्तरालमें तथा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नेमिनाथ और पार्श्वनाथके अन्तरालमें हुए हैं । यहाँ जो चक्रवर्ती तीर्थंकरोंके समक्ष न होकर अन्तराल में हुए है उनके ऊपर तीर्थंकरोंके कोष्ठक में शून्य रखे गये हैं और जो तीर्थंकरोंके समक्ष हुए हैं उनके ऊपर लीथंकरोंके कोष्ठक में एक लिखा गया है। जिन तीर्थंकरोंके समक्ष चक्रवर्ती हुए हैं उनके नीचे चक्रवर्तीके कोष्ठकमें दोका अंक लिखा गया है और जिनके समक्ष अभाव रहा है उनके नीचे शून्य रखा गया है । इसी प्रकार नारायणोंके विषयमें जानना चाहिए अर्थात् पहलेसे लेकर दशम तीर्थंकर तक तो कोई भी नारायण नहीं हुआ पश्चात् ग्यारहवें से पन्द्रहवें तक पाँच नारायण हुए। तदनन्तर अर और मल्लिनाथके अन्तराल में, मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, सुव्रत और नमिके अन्तरालमें और नेमिनाथके समय में नारायण हुए । जहाँ नारायणों का अभाव है वहाँ कोष्ठकों में शून्य और जहाँ सद्भाव है, वहाँ तीनका अंक लिखा गया है ||३१९ - ३२९||
७३१
भगवान् वृषभदेवकी आयु चौरासी लाख पूर्वकी थी । उसका एक चतुर्थं भाग अर्थात् बीस लाख पूर्वका कुमारकाल था । शेष संयमके कालको घटाकर जो बचता है वह राज्यकाल था । भावार्थ - भगवान् वृषभदेवने बीस लाख पूर्व कुमारकाल बिताया, त्रेसठ लाख पूर्व राज्य किया, एक हजार वर्षं तप किया और एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व केवलीकाल व्यतीत किया ||३३०||
अह पउमचक्कवट्टी मल्ली मुणि सुव्वयाण विच्चाले । सुव्वयणमाण मज्झे हरिसेणो णाम चक्कहरो ॥ १२८५॥ जयसेणचक्कवट्टी पनि मिजिणाणमंतरालम्मि । तह बह्मदत्तणामो चक्कवई मिपासविच्चाले ॥१२८६॥
सहिय तीस कोट्ठा कादव्वा तिरिय रूव पंत्तीए । उड्डणं वे कोट्ठा कादूणं पढमकोट्टे सु ॥ १२८७ ।। पण्णरजिनिदा निरंतरं दोसु सुष्णया तत्तो । तीसु जिणा दो सुण्णा इगि जिण दो सुण्ण एक्क जिणे ॥ १२८८ ॥ दो सुष्णा एक्क जिणो इगि सुण्णो इगि जिणो य इगि सुण्णो । दोण्णि जिणा इदि कोट्ठा निद्दिट्ठा तित्थकत्ताणं ॥ १२८९ ।। दो कोट्ठेसु चक्की सुण्णं तेरससु चक्किणो छक्के । सुण्ण तिय चक्कि सुष्णं दो सुष्णं चक्कि सुण्णो य ।।१२९०॥ चक्की दो सुण्णाई छक्खंडवईण चक्कवट्टीणं । एदे कोट्ठा कमसो संदिट्ठी एक्क दो अंका ।।१२९१।। बलदेववासुदेवप्पडिसत्तूणं जाणावणट्टं संद्दिट्ठी --
पंच जिणि वंदति केसवा पंच अणुपुवीए । सेयंस साभिपहृदि तिविट्टपमुहा य पत्तेक्कं ।। १४१४॥ अरमल्लि अंतराले णादव्वो पुंडरीअणामो सो । मल्लिमुनिसुव्वयाणं विचाले दत्तणामो सो ॥। १४९५ ॥ सुन्वयमि सामीण मज्झे नारायणी समुप्पण्णो । णेमि समयम्मि किष्णो एदे व वासुदेवा य ।। १४१६ ।। दस सुण्णा पंच केसव छस्सुण्णा केसि सुष्ण केसीओ । तिय सुण्ण मेक्क केसी दो सुष्णं एक्क केसि तिय सुण्णं ।। १४१७ ।। तिलोयपण्णत्ति ४ अधिकार ।
१. पढमे कुमारकालो जिणरिसहे बीस पुव्वलक्खाणि । अजिआदिअर जिणंते सगसग आडस्स पादेगो ।। ५८३ ॥ तत्तो कुमार कालो एगसयं सगसहस्स पंचसया । पणुवीतसयं तिसया तीसं तीसं च छक्कस्स ।। ५८४ ।। त्र. प्र., च. अ. ।
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७३२
हरिवंशपुराणे पादोऽष्टादशसंख्यानां पूर्णः शेषजिनेशिनाम् । कुमारकालशेषस्य राज्यसंयमकालता ॥३३१॥ कुमाराणां जिनानां तु संयमानेहसोज्झितः । आयु:कालः स कुमारः पञ्चानामपि वर्ण्यते ॥३३२॥ जिनसंयमकालस्तु पूर्वलक्षाथ सोज्झिता । पूर्वाङ्गेन चतुर्मिश्च ह्यष्टामिद्वादशाङ्गकैः ॥३३३॥ ततः षोडशभिहीनो विंशत्या तु ततः परम् । चतुर्विशतिपूर्वाङ्गैरष्टाविंशतिसंख्यकैः ॥३३४॥ दशानामायुषः पादः पादोनो द्वादशस्य सः। मल्लेवर्षशतेनोनो नेमेवर्षशतैस्विमिः ॥३३५॥ त्रिंशद्वर्षविहीनस्तु प्रत्येक पार्श्ववीरयोः । द्वेधा संयमकालोऽयं छाद्मस्थः केवलो स्थितः ॥३३॥ वृषछद्मस्थकालोऽत्र स्यात्सहस्रवर्षाग्यत: । द्वादशाब्दानि पूर्णानि स्युर्वर्षाणि चतुर्दश ॥३३७॥ ततोऽष्टादशवर्षाणि विंशतिस्तु तत: परे । षण्मासा नव वर्षाणि त्रिचतुस्सिद्विमासकाः ॥३३८॥
अजितनाथसे लेकर अठारहवें अरनाथ तक तीर्थकरोंकी जो पूर्ण आयु थी उसका एक चतुर्थ भाग कुमारकाल था, और पूर्ण आयुमें-से कुमारकाल छोड़ देनेपर जो शेष रहता है वह उनके राज्य तथा संयमका काल था। [अन्तिम छह तीर्थंकरोंका कूमारकाल क्रमसे सौ वर्ष, साढ़े सात हजार वर्ष, अढाई हजार वर्ष, तीन सौ वर्ष, तीस वर्ष और तीस वर्ष था ]* ||३३१।। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पाश्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थकर बाल-ब्रह्मचारी तीर्थकर थे, इसलिए इनकी आयुका जो काल था उसमें संयमका काल कम देनेपर उनका कुमारकाल कहा जाता है ।।३३२।।
श्री वृषभनाथ भगवान्का संयमकाल एक लाख पूर्व था । अजितनाथका एक पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुमतिनाथका बारह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व, अभिनन्दननाथका आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, सुमतिनाथ का बारह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व, पद्मप्रभका सोलह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व, सुपार्श्वनाथका बोस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, चन्द्रप्रभका चौबीस पूर्वांग कम, पुष्पदन्तका अट्ठाईस पूर्वांग कम, वासुपूज्यका पूर्ण आयुका तीन चौथाई भाग, (चौवन लाख वर्ष ) मल्लिनाथका सौ वर्ष कम पूर्ण आयु ( सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष ), नेमिनाथका तीन सौ वर्ष कम पूर्ण आयु ( सात सौ वर्ष ), पार्श्वनाथका तीस वर्ष कम पूर्ण आयु ( सत्तर वर्ष), महावोरका तीस वर्ष कम बहत्तर वर्ष ( बयालीस वर्ष ) और शेष दस तीर्थंकरोंका अपनी आयुका एक चौथाई भाग संयमकाल था। समस्त तीर्थंकरोंका यह संयमकाल छद्मस्थ काल और केवलिकालकी अपेक्षा दो प्रकारका है ।।३३३-३३६।। वृषभनाथका छद्मस्थ काल एक हजार वर्ष, अजितनाथका बारह वर्ष, सम्भवनाथका चौदह वर्ष, अभिनन्दननाथका अठारह वर्ष, सुमतिनाथका बीस वर्ष, पद्मप्रभका छह मास, सुपार्श्वनाथका नौ वर्ष, चन्द्रप्रभका तीन मास, पूष्पदन्तका चार मास, शीतलनाथका तीन मास, श्रेयांसनाथका दो मास, वासुपूज्यका एक मास,
१. कुमारकाल: शेषस्य म. । * तिलोयपण्णत्तिके च. अ. गाथा नं. ५८४ का अनुवाद है । +. नौवें पुष्पदन्तसे लेकर धर्मनाथ तकका छद्मस्थ काल यहाँ ४, ३ आदि मास बतलाया है परन्तु तिलोयपण्णत्तिमें ४, ३ आदि वर्ष बतलाया है । तिलोयपण्णत्तिकी गाथाएँ इस प्रकार हैं --
उसहादीसुवासा सहस्स बारस चउद्दसट्टरसा । बोस छदुमत्थकालो छच्चिय पउमप्पहे मासा ॥६७५।। वासाणि णव सुपासे मासा चंदप्पहम्मि तिणि तदो। चदु तिदु एक्का तिदु इगि सोलस चउवग्ग चउकदी वासा ॥६७६। मल्लिजिणे छद्दिवसा एक्कारस सुयदे जिणे मासा । णमिणाहे णव मासा दिणाणि छप्पण्ण मिजिणे ।।६७७॥ पासजिणे च उमासा वारसवासाणि वड्ढमाणजिणे । एत्तियमेत्ते समये केवलणाणं न ताण उप्पणं ॥६७८॥
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षष्टितमः सर्गः
एकत्रिद्वयेकमासाश्च वर्षाणि त्रिश्च षोडश । षडेकादश संख्याहर्मासा वर्षाण्यतो नव ॥ ३३९॥ षट्पञ्चाशदिनानि स्युर्मासाश्वत्वार एव च । वर्षाणि द्वादशैवातः परं केवलिनो जिनाः ॥ ३४० ॥ आयस्य गणिनो भर्तुरशीतिश्वतुरुत्तरा । नवतिः पञ्चसंयुक्तं शतन्त्रयुत्तरमध्यतः ॥ ३४१॥ शतमेव पुनर्ज्ञेयं षोडशैकादशाधिकम् । पञ्चोत्तरा च नवतिहन्युत्तरा नवतिस्तथा ॥ ३४२ ॥ 'ततोऽष्टकाधिकाशीतिः सप्ततिः सप्तभिर्युता । षट् षष्टिः पञ्च पञ्चाशत्पञ्चाशञ्च ततः परम् ॥ ३४३ ॥ त्रिचत्वारिंशदेवातः षट् त्रिंशस्त्रिंशदन्विता । पञ्चभिस्त्रिंशदप्यस्मादष्टाविंशतिरेव तु ॥ ३४४॥ अष्टादश गणाधीशास्तथा सप्तदश क्रमात् । एकादश दशैव स्युरेकादश च ते पुनः ॥ ३४५॥ आद्यस्याद्यो गणी नाम्ना सेनान्तो वृषभः प्रभोः । सिंहसेनस्ततोऽप्यन्यश्चारुदत्त इतीरितः ॥ ३४६ ॥ वज्रश्च चमरो वज्रचमरो बलिदत्तकौ । वैदर्भश्चानगारश्च कुन्थुश्चापि सुधर्मकः ॥३४७॥
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विमलनाथका तीन मास, अनन्तनाथका दो मास, धर्मनाथका एक मास, शान्ति, कुन्थु और अरनाथका सोलह-सोलह वर्ष, मल्लिनाथका छह दिन मुनिसुव्रतनाथका ग्यारह मास, नमिनाथका नौ वर्ष, नेमिनाथका छप्पन दिन, पार्श्वनाथका चार मास और महावीरका बारह वर्ष है । इस छद्मस्थ कालके बाद सभी तीर्थंकर केवली हुए हैं ||३३७-३४०||
भगवान् ऋषभदेवके चौरासी गणधर थे, अजितनाथके नब्बे, सम्भवनाथ के एक सौ पाँच, अभिनन्दननाथके एक सौ तीन, सुमतिनाथके एक सौ सोलह, पद्मप्रभके एक सौ ग्यारह, सुपावंनाथ पंचानबे, चन्द्रप्रभके तेरानबे, पुष्पदन्तके अठासी, शीतलनाथके इक्यासी, श्रेयांसनाथके सतहत्तर, वासुपूज्य के छयासठ, विमलनाथके पचपन, अनन्तनाथके पचास, धर्मनाथके तैंतालीस, शान्तिनाथके छत्तीस, कुन्थुनाथके पैंतीस, अरनाथके तीस, मल्लिनाथके अट्ठाईस मुनिसुव्रतनाथके अठारह, नमिनाथके सत्तरह, नेमिनाथके ग्यारह, पार्श्वनाथके दस और महावीरके ग्यारह गणधर थे* || ३४१-३४५।।
+ आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम गणधर वृषभसेन, अजितनाथ के सिंहसेन, सम्भवनाथ के चारुदत्त, अभिनन्दन के वज्र, सुमतिनाथके चमर, पद्मप्रभके वज्रचमर, सुपार्श्वनाथके बलि, चन्द्र१. ततोऽष्टैकादशाशीतिः म । २. तिलोयपण्णत्तौ तु शीतलनाथस्थ सप्ताशीतिगणधराः प्रोक्ताः । ३. बलदत्तको ग., ख. ।
★ तिलोयपण्णत्ति में शीतलनाथके ८१ के स्थानपर ८७ गणधर बतलाये हैं । गाथा इस प्रकार है
चुलसीदि णउदि पण तिग सोलस एक्कारसूत्त रसयाई । पणणउदी तेणउदी गणहरदेवा हु अट्ट परि यंतं ।। ९६१ ।। अडसीदो सगसीदी सत्तत्तरि छक्क समाधिया छठ्ठी । पणवण्णा पण्णासा ततो य अनंत परियंतं ।। ९६२ ।। तेदालं छत्तीसा पणतीसा तीस अट्ठबीसा य। अट्ठारह सत्तरसेक्कारस दश एक्कारस य वीरतं ।। ९६३ ।। च. अ.
+ तिणोयपण्णत्ति में अन्तर है-गाथा इस प्रकार हैं
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पढमो हु उससेणो केसरिसेणो य चारुदत्तो य । वज्जचमरो य वज्जो चमरो बलदत्त वेदब्भा ।। ९६४ ॥ जागो कुन्यू धम्मो मन्दिरणामा जओ अरिट्ठो य सेणो चक्कायुषयो सयंभु कुंभो विसाखो य ॥९६५ ॥ मल्लीणमो सुप्पहवरदत्ता सयंभु इंदभूदीओ । उसहादीणं आदिम गणधर णामाणि एदाणि ।। ९६६ ॥ एदे गणधर - णिरूवंमो ।। ९६७ ।। च. अ.
देवास विहु अट्ठरिद्धिसंपण्णा । ताणं रिद्धिसरूवं लव मेत्तं तं ऋषभसेन, केसरीसेन े, चारुदत्त, वज्रचामरें, वज्र, चमर, बलदत्त, वैदर्भ, नागे, कुन्थु, धर्म, मन्दिर, जये, अरिष्ट, सेन", चक्रायुध", स्वयम्भू, कुम्भ" विशाख मल्लि सुप्रभ", वरदत्त, स्वयम्भू ब इन्द्रभूति' ये ऋषभादि तीर्थकरोंके प्रथम गणधरोंके नाम हैं ।
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हरिवंशपुराणे मन्दरार्यो जयोरिष्टसेनश्चक्रायुधस्ततः । स्वयंभूः कुन्थुनामा च विशाखो मल्लिसोमकौ ॥३४८॥ वरदत्तः स्वयंभूः स्यादिन्द्रभूतिर्गणप्रभुः । ऋद्विमिः सप्तभिर्युक्ताः सर्वे ते श्रुतपारगाः ॥३४९॥ वीरस्यै कस्य निष्क्रान्तिस्त्रिशतैर्मल्लिपार्श्वयोः । षडुत्तरैः शतैः षड्भिर्वासुपूज्यजिनस्य तु ॥३५०॥ चतुःसहस्रसंख्यानैर्निष्क्रान्तो वृषभो नृपैः । सहस्रपरिवारास्तु प्रत्येकमितरे जिनाः ॥३५१॥ चतुर्मिरधिकाशीतिः सहस्राणि वृषस्य तु । लक्षं लक्षे ग्रिलक्षाश्च द्विस्त्रिलक्षाः सहस्रकैः ॥३५॥ विंशत्या त्रिंशता युक्तास्तास्तु लक्षात्रयं ततः । सार्धलक्षे पुनर्लक्षे लक्षाशीतिश्चतुर्युता ॥३५३॥ सहस्रणिता सा तु द्वासप्ततिरपीदृशी । अष्टापष्टिश्च षट्पष्टिश्चतुःषष्टिसहस्रकम् ॥३५४॥ द्वाषष्टिश्च सहस्राणि षष्टिः पञ्चादशेव च । चत्वारिंशत्सहस्राणि त्रिंशद्विशतिरेव तु ॥३५॥ अष्टादशसहस्राणि षोडशापि चतुर्दश । सहस्राणि यथासंख्यं गणसंख्या जिनेशिनाम् ॥३५६॥ 'संघः सप्तविधः पूर्वधरशिक्षकभेदतः । सावधिः केवली वादी विक्रिया विपुलायुतः ॥३५७॥
प्रभके दत्तक, पुष्पदन्तके वैदर्भ, शीतलनाथके अनगार, श्रेयांसनाथके कुन्थु, वासुपूज्यके सुधर्म, विमलनाथके मन्दराय, अनन्तनाथके जय, धर्मनाथके अरिष्टसेन, शान्तिनाथके चक्रायुध, कुन्थुनाथके स्वयम्भू, अरनाथके कुन्थु, मल्लिनाथके विशाख, मुनिसुव्रतके मल्लि, नमिनाथके सोमक, नेमिनाथके वरदत्त, पाश्वनाथके स्वयम्भू और महावीरके इन्द्रभूति थे। ये सभी गणधर सात ऋद्धियोंसे युक्त तथा समस्त शास्त्रोंके पारगामी थे ।।३४६-३४९।।
भगवान् महावीरने अकेले ही दीक्षा ली थी अर्थात् उनके साथ किसीने दीक्षा नहीं ली थी। मल्लिनाथ और पार्श्वनाथने तीन-तीन सौ राजाओंके साथ, वासुपूज्यने छह सौ छह राजाओंके साथ, वृषभनाथने चार हजार राजाओंके साथ और शेष तीर्थंकरोंने एक-एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा ली थी ।।३५०-३५१॥
भगवान् ऋषभदेवके समस्त गणों-मुनियोंकी संख्या चौरासी हजार थी। अजितनाथकी एक लाख, सम्भवनाथकी दो लाख, अभिनन्दननाथकी तीन लाख, सुमतिनाथकी तीन लाख बीस हजार, पद्मप्रभको तीन लाख तीस हजार, सुपार्श्वनाथकी तीन लाख, चन्द्रप्रभकी अढ़ाई लाख, पुष्पदन्तको दो लाख, शीतलनाथकी एक लाख, श्रेयांसनाथकी चौरासी हजार, वासुपूज्यको बहत्तर हजार, विमलनाथकी अड़सठ हजार, अनन्तनाथकी छयासठ हजार, धर्मनाथकी चौंसठ हजार, कुन्थुनाथकी साठ हजार, अरनाथको पचास हजार, मल्लिनाथकी चालीस हजार, मुनिसुव्रतनाथकी तीस हजार, नमिनाथको बीस हजार, नेमिनाथको अठारह हजार, पाश्वनाथकी सोलह हजार और महावोरकी चौदह हजार संख्या थी ।।३५२-३५६।।
तीर्थंकर भगवान्का यह संघ १ पूर्वधर, २ शिक्षक, ३ अवधिज्ञानी, ४ केवलज्ञानी, ५ वादी, ६ विक्रियाऋद्धिके धारक और ७ विपुलमतिमनःपर्यय ज्ञानके धारकके भेदसे सात प्रकारका होता
१. पुन्वधरसिक्खकोटीके वलिवेकूविविउलमदिवादी। पत्तेक्कं सत्तगणा सव्वाणं तित्थकत्ताणं ॥ १०९८॥ ति.प., अ. ४ । *. तिलोयपण्णत्तिमें वासुपूज्य भगवान्के सहदीक्षितोंकी संख्या छह सौ छिहत्तर बतलायी है। प्रकरणानुसार गाथा इस प्रकार है--
पवजिदो मल्लिजिणो रायकुमारेहिं तिसयमेत्तेहि। पासजिणोवि तह च्चिय एकक च्चिय वड्ढमाणजिणो ॥६६८। छावत्तरिजद छस्सयसंखेहि वासूपज्जसामी य। उसहो तालसएहिं सेसा पुह-पुह सहस्स मेत्तेहिं ॥६६९।।
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षष्टितमः सर्गः
स्युश्चत्वारि सहस्राणि तथा सप्तशतानि च । पञ्चाशच वृषस्यामी सर्वे पूर्वधरा विभोः || ३५८ ॥ चतुःसहरु गणनाः शतं पञ्चाशदुत्तरम् । शिक्षकाः सावधिज्ञानाः सहस्राणि नव स्मृताः ॥ ३५९ ॥ विंशतिस्तु सहस्राणि पूज्याः केवलिनः सताम् । सहस्राण्येव तावन्ति षट्शतानि च वैक्रियाः ।। ३६० ॥ स्युर्द्वादशसहस्राणि मत्या विपुलया युताः । शतानि सप्तपञ्चाशत्तरसंख्यावादिनोऽपि च ।। ३६१ ।। अजितस्य सहस्राणि त्रीणि सप्तशतानि च । पञ्चाशश्च सतां सेव्याः सभ्यानां पूर्वधारिणः ॥ ३६२ ।। 'शिक्षकाः पातैः सार्धं सहरु ण्येकविंशतिः । चतुःशत्या सहस्राणि नव सावधयो मताः || ३६३।। स्यु विंशतिसहस्राणि केवलाप्तास्तु वैक्रियाः । ज्ञेयास्तावत्सहस्राणि पञ्चाशच चतुःशती ॥। ३६४ ।। द्वादशैव सहस्राणि प्रत्येकं च चतुःशती । मत्या त्रिपुलया युक्ता वादिनो हितवादिनः || ३६५|| 'संभवस्य सहस्रे द्वे शतं पञ्चाशता समम् । पूज्याः पूर्वभृतो ज्ञेयाः पूर्वसद्भाववादिनः ।। ३६६ ।। एकोनत्रिंशता लक्षा सहसैखिशतानि च । संख्या शिक्षकसाधूनां संख्याताः प्रश्रयाश्रिताः || ३६७॥ षट् शतानि सहस्राणि नव सावधयः स्मृताः । तथा दशसहस्राणि पञ्चभिः केवलाश्रिताः ॥ ३६८ ॥ तथैवैकोनविंशत्या सहसैरष्टभिः शतैः । पञ्चाशद्वैक्रियाः प्रोक्ता विक्रियाशक्तिधारिणः ।। ३६९ ।।
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दशसहस्राणि विपुलां मतिमाश्रिताः । शताधिकानि तावन्ति सहस्राणि च वादिनः || ३७०|| शतानि पञ्च तुर्यस्य द्वे सहस्रेऽथ पूर्विणः । द्विलक्षे शिक्षकास्त्रिंशत्सहस्रायद्धितं शतम् ॥ ३७१।। शतान्यष्टौ सहस्राणि नवैवानधिवीक्षणाः । षोडशैव सहस्राणि मुनयः केवलेक्षणाः ।।३७२ || एकान्नविंशतिज्ञेया सहस्राणि तु वैक्रियाः । एकादशसहस्त्राणि पञ्चाशत्षट्शतानि च ॥ ३७३ ॥ विपुलोपगता ये ते बोद्धव्या भव्यदेहिनाम् । वादिनोऽपि च तावन्ति सहस्राणीष्टवादिनः ॥ ३७४ ॥
है || ३५७|| भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में चार हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, चार हजार एक सौ पचास शिक्षक, नो हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार सत्पुरुषोंके द्वारा पूजनीय केवली, बीस हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक, बारह हजार सात सौ पचास विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी और इतने ही वादी थे ।। ३५८-३६१ ।।
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अजितनाथ के समवसरणमें समीचीन सभ्य पुरुषोंके द्वारा सेवनीय तोन हजार सात सौ पचास पूर्वधारी, इक्कीस हजार छह सौ शिक्षक, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, बीस हजार केवली, बीस हजार चार सौ पचास विक्रिया ऋद्धिके धारक, बारह हजार चार सौ विपुलमति ज्ञानके धारक और इतने ही वादी थे । ३६२-३६५॥
सम्भवनाथके समवसरणमें दो हजार एक सौ पचास पूर्वोके सद्भावका निरूपण करनेवाले पूजनीय पूर्वधारी जानने योग्य हैं ||३३६ || एक लाख उनतीस हजार तीन सौ शिक्षक साधुओंकी संख्या स्मरण की गयी है || ३६७ || नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानी माने गये हैं, पन्द्रह हजार केवलज्ञानी स्मृत किये गये हैं || ३६८ || उन्नीस हजार आठ सौ पचास विक्रिया शक्तिको धारण करनेवाले वैक्रिय साधु थे। बारह हजार विपुलमति ज्ञानके धारक थे और बारह हजार एक सौ वादी मुनि थे || ३६९ ||
अभिनन्दननाथ के समवसरण में दो हजार पाँच सौ पूर्वके धारक, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, सोलह हजार केवलज्ञानी, उन्नीस हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, ग्यारह हजार छह सौ पचास विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानी और भव्य जीवोंको हितका उपदेश देनेवाले उतने ही वादी थे । ३७० - ३७४॥
१. संयमस्य म. ( ? ) । २. पूर्वसद्भाववेदिनः म. ।
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हरिवंशपुराणे सुमते सहस्रे तु चतुःशत्यपि पूर्विणः । द्वे लक्षे शिक्षका दृश्याश्चनुःपञ्चाशदेव च ॥३७५।। सहस्राण्यभियुक्तानि पञ्चाशञ्च शतत्रयम् । एकादशसहस्राणि विमलावधयस्तथा ॥३७६।। त्रयोदशसहस्राणि केवलज्ञानदृष्यः । अष्टादशसहस्राणि ततुःशस्यपि वैक्रियाः ॥३७७॥ दृश्या दशसहस्राणि विपुलाप्ताश्चतुःशती। तावन्तो वादिनस्तेभ्यः सर्वे पञ्चाशताधिकाः ॥३७८॥ पद्माभस्य सहस्र द्वे शतानि त्रीणि पूर्विणः । लक्षे द्वे शिक्षकाः षष्टिसहस्राणि नवापि च ॥३१९॥ ज्ञेया दशसहस्राणि मुनयोऽवधिलोचनाः। द्वादशाष्टशतैर्युक्ताः सहस्राण्याप्तकेवलाः ॥३८०॥ षोडशैव सहस्राणि त्रिशती वैक्रिया नव । वादिनो विपुलाप्ताः षट शरयामा दश तानि वै ॥३८१॥ द्वे सहस्र सुपार्श्वस्य त्रिंशता पूर्विणश्चतुः । चत्वारिंशत्सहस्राणि लक्षे नवशतैः सह ॥३८२॥ शिक्षका विंशतिं प्राप्ताः सहस्राणि नवावधिम् । एकादश सहस्राणि त्रिशती केवलान्विताः ॥३८३॥ शतं पञ्चाशता पञ्च सहस्राणि दशापि च । वैक्रियाविपुलाद्याः षट्शती नवसहस्रकैः ॥३८४॥ वादिनोऽष्टसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभस्य तु । पूर्विणो द्वे सहस्रे तु शैक्षा लक्षे चतुःशती ॥३.५॥ संघावष्टसहस्राणि पृथक् सविपुलावधी । दशकेवलिनस्तानि वैक्रियास्तु चतुःशती ॥३८६॥ ज्ञेयाः सप्तः सहस्राणि षट् शतानि च वादिनः । सुविधेः पूर्विणः पञ्च दशशत्युपवर्णिता ॥३८॥ लक्षका पञ्चपञ्चाशसहस्राणि शतानि च । पञ्च शिक्षकसाधूनामवधिज्ञानिनोऽष्ट तु ॥३८८॥ सहस्राणि चतुःशत्या पञ्चशस्या तु सप्त वै । सहस्राण्याप्तकैवल्याः स्युस्त्रयोदश नै क्रियाः ॥३८९।। षट् सहस्राणि विपुलां पञ्चशत्या गतिं श्रिताः । वादिनः षट्शतैः सप्त सहस्राणि विनिश्चिताः ॥३९०॥
सुमतिनाथके समवसरणमें दो हजार चार सौ पूर्वधारी, दो लाख चौवन हजार तीन सो पचास शिक्षक, ग्यारह हजार निर्मल अवधिज्ञानी, तेरह हजार केवलज्ञानी, अठारह हजार चार सो विक्रिया ऋद्धिके धारक, उतने ही विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानके धारक और उनसे पचास अधिक अर्थात् दश हजार चार सौ पचास वादी थे ॥३७५-३७८॥
पद्मप्रभके समवसरणमें दो हजार तीन सौ पूर्वधारी, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षक, दस हजार अवधिज्ञानी, बारह हजार आठ सौ केवलज्ञानी, सोलह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक, नौ हजार वादी और दस हजार छह सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी थे ॥३७९-३८१॥
सुपाश्वनाथके समवसरणमें दो हजार तीस पूर्वधारी, दो लाख चवालिस हजार नौ सौ बीस शिक्षक, नौ हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार तीन सौ केवली, पन्द्रह हजार एक सो पचास विक्रिया ऋद्धिके धारक, नौ हजार छह सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और आठ हजार वादी थे।
चन्द्रप्रभके समवसरणमें दो हजार पूर्वधारी, दो लाख चार सौ शिक्षक, आठ हजार विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी, आठ हजार अवधिज्ञानी, दस हजार केवलज्ञानी, दस हजार चार सौ विक्रियाऋद्धिके धारक और सात हजार छह सौ वादी थे।
सुविधिनाथके समवसरणमें पांच हजार पूर्वधारी, एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षक, आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, सात हजार पांच सौ केवलज्ञानी, तेरह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, छह हजार पांच सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और सात हजार छह सौ वादी थे ॥३८२-३९०॥
१. नवावधेः क. । २. संख्या चाष्ट क.।
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षष्टितमः सर्गः
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शीतलस्य चतुःशत्या सहस्रं पूर्ववेदिन: । द्विशस्यैकानषष्टिस्तु सहस्त्राणि सुशिक्षकाः ॥३९॥ द्विशत्या सावधिः संघः सहस्त्राणि हि सप्त सः। सप्तकेवलिनस्तामि द्वादशतानि वैक्रियाः ॥३९॥ पञ्चशत्या सहस्राणि सप्तैते विपुलेश्वराः । सप्तशत्या सहस्राणि पश्च सद्वादवादिनः ॥३९॥ त्रयोदश शतानि स्युः पूर्विणः श्रेयसोऽष्टभिः । चत्वारिंशत्सहस्वाणि द्विशती बौक्ष्यसाधवः ॥३९॥ सावधिः षट सहस्त्राणि गणः केवलिनामपि । पञ्चशत्या सहस्त्राणि तथैकादन वैक्रियाः ॥३९५॥ ततोऽन्ये षट् सहस्राणि पञ्च तानि ततः परे । शतानि द्वादशैव स्युर्वासुपूज्यस्य पूर्विणः ॥३९६॥ द्विशस्या शिक्षकास्त्रिंशत्सहस्राणि नवापि च । चतुःशत्या सहस्राणि पश्च सावधयो मताः ॥३९॥ सर्वज्ञाः षट् सहस्राणि वैक्रियाः दश षट् परे । वादिनस्तु सहस्त्राणि चत्वारि द्विशती तथा ॥३९८॥ शतान्येकादश ज्ञेया विमलस्य तु पूर्विणः । अष्टात्रिंशत्सहस्राणि पञ्चशत्या तु शक्षकाः ॥३९९।। अष्टशस्या सहस्राणि चत्वार्यवधिलोचनाः । पञ्चशत्या सहस्राणि पञ्च केवलिनो मव ॥१०॥ वैक्रियाश्च सहस्राणि ततोऽन्ये केवलिप्रमाः । वादिनस्त्रिसहस्री च षट्शती च विनिश्चिताः ॥४०॥ पूर्विणोऽनन्तनाथस्य सहस्रगणनाः स्मृताः । पञ्चशस्या सहस्राणि त्रिंशन्नव च शिक्षकाः ॥४०॥ स्याञ्चत्वारि सहस्राणि त्रिशत्या सावधिर्गणः । अन्ये पञ्चाष्टपञ्चत्रिसहस्रान्यन्तके शते ॥४०३।। शतानि नव धर्मस्य पूर्विणः शिक्षकाः पुनः । चत्वारिंशत्सहस्राणि तथा सप्तसतानि च ॥४०॥ षट् शतानि सहस्राणि त्रीणि सावधयः स्मृताः । पञ्चशत्या सहस्राणि चत्वारि सकलेक्षणाः ॥४०५।। सन्तः सप्तसहस्राणि वैक्रिया विपुलान्विताः । पञ्चशत्या तु चत्वारि द्विसहस्रष्टशत्यतः॥४०६॥
शीतलनाथके समवसरणमें एक हजार चार सौ पूर्ववेदी, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक, सात हजार दो सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, बारह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, सात हजार पांच सौ विपुलमतिज्ञानके स्वामी और पांच हजार सात सौ उत्तम वादी थे ॥३९१-३९३॥
श्रेयांसनाथके समवसरणमें तेरह सौ पूर्वधारी, अड़तालीस हजार दो सौ शिक्षक, छह हजार अवधिज्ञानी, छह हजार पांच सौ केवलज्ञानी, ग्यारह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, छह हजार विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और पांच हजार वादी थे।
वासुपूज्यके समवसरणमें बारह सौ पूर्वधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छह हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, छह हजार विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और चार हजार दो सो वादी थे ॥३९४-३९८॥
विमलनाथके ग्यारह सौ पूर्वधारो, अड़तीस हजार पाँच सौ शिक्षक, चार हजार आठ सौ अवधिज्ञानो, पांच हजार पांच सौ केवली, नौ हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, नौ हजार विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और तीन हजार छह सौ वादी निश्चित थे ॥३९९-४०१॥
अनन्तनाथके समवसरणमें एक हजार पूर्वधारी, उनतालीस हजार पांच सौ शिक्षक, चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी, पांच हजार केवलज्ञानी, आठ हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक और तीन हजार दो सौ वादी थे ॥४०२-४०३।।
धर्मनाथके समवसरणमें नौ सौ पूर्वधारी, चालीस हजार सात सो शिक्षक, तीन हजार छह सो अवधिज्ञानी, चार हजार पांच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, चार हजार पांच सौ विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी और दो हजार आठ सौ वादी थे ॥४०४-४०६॥
१. न्यन्तगे म.।
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हरिवंशपुराणे पूर्विणोऽष्टशती शान्तेरष्टशत्यत्र शिक्षकाः । चत्वारिंशत्सहस्रवेक त्रिसहस्रीगणः परः ॥४०७।। चत्वारि षट (च)चत्वारिद्वे सहस्र चतुःशती । कुन्थोस्तु सप्तशत्येव पूर्विणः शिक्षकाः पुनः ॥४०८|| चत्वारिंशत्सहस्राणि त्रीणि पञ्चाशता शतम् । सावधिः पञ्चशत्या तु द्वे सहस्र गणो मतः ।।४०९॥ त्रिसहस्री द्विशत्या तु गणः केवलिनां स्मृतः । शतकं वैक्रियाः पञ्च सहस्राणि च संमताः ॥४१०।। त्रिशत्या त्रिसहस्री तु पञ्चाशद्विपुलेश्वराः । वादिनां जितवादानां सहस्रद्वितयी मता ॥४१॥ 'पूज्याः पूर्वभृतोऽरस्य षट्शती तु दशोत्तरा । शैक्षास्तु पञ्चायत्रिंशत्सहस्ररष्टभिः शतः ॥४१२॥ पञ्चत्रिंशन्मताः सर्वे सावधिः परिषत्पुनः । सकेवलावधि या द्विसहस्त्यष्टशत्यपि ॥४१३॥ वैक्रियास्तु सहस्राणि चत्वारि त्रिशती तथा । सहस्र पञ्चपञ्चाशन्मत्या विपुल यान्विताः ॥४१४॥ शतानि षोडशैव स्युदिन : पटुवादिनः । मल्लेस्तु पूर्विणः सर्वे पञ्चाशत् सप्तशत्यपि ॥४१५।। एकान्नत्रिंशदुद्दिष्टाः सहस्राणि तु शिक्षकाः । द्वाविंशतिः शतानि स्युर्मुनयोऽवधिचक्षुषः ।।४१६।। सहस्रे षट् च शत्यामा पञ्चाशच सकेवलाः । चतुःशत्या सहस्रं तु वैक्रियाः यतयो मताः ॥११७१। द्वे सहस्रे शते द्वे च मता विपुलबुद्धयः । तावन्त एव जेतारो. वादिनः प्रतिवादिनाम् ॥५१॥ मुनिसुव्रतनाथस्य पूर्विणः पञ्चशत्यभूत् । शिक्षकाः शिक्षया युक्ताः सहस्राण्येकविंशतिः ॥४१९।। अष्टादश शतान्येव मताः सावधिकेवलाः । द्वाविंशतिः पञ्चदश द्वादशैतान्यत: परे ॥४२०॥ पञ्चाशता शतानि स्यश्चत्वारि नमिपूर्विणः । षडमिः शतैः सहस्राणि द्वादशैव तु शिक्षकाः ॥१२॥ शतानि षोडश ख्याताः केवलावधिलोचनाः । वैक्रियास्तु शतानि स्युस्तथा पञ्चदशेव तु ॥४२२।।
शान्तिनाथके समवसरण में आठ सौ पूर्वधारी, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक, तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार केवलज्ञानी, छह हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, चार हजार विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और दो हजार चार सो वादी थे।
कुन्थुनाथके समवसरणमें सात सौ पूर्वधारी, तैंतालीस हजार एक सौ पचास शिक्षक, दो हजार पाँच सौ अवधिज्ञानी, तीन हजार दो सौ केवली, पांच हजार एक सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक, तीन हजार तीन सौ पचास विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और दो हजार वादोंको जीतनेवाले वादी थे ।।४०७-४११||
अरनाथके समवसरणमें छह सौ दस पूर्वधारी, पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस शिक्षक, दो हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, इतने ही केवलज्ञानी, चार हजार तीन सो विक्रिया ऋद्धिके धारक, दो हजार पचपन विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और सोलह सौ उत्तम वाद करनेवाले वादो थे।
मल्लिनाथके समवसरणमें सात सौ पचास पूर्वधारी, उनतीस हजार शिक्षक, बाईस सौ अवधिज्ञानी, दो हजार छह सौ पचास केवलज्ञानी, एक हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक, दो हजार दो सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और उतने ही प्रतिवादियोंको जीतनेवाले वादी थे ॥४१२-४१८!
मुनि सुव्रतनाथके समवसरणमें पाँच सौ पूर्वधारो, इक्कीस हजार शिक्षासे युक्त शिक्षक, अठारह सौ अवधिज्ञानी, अठारह सौ केवलज्ञानी, बाईस सो विक्रिया ऋद्धिके धारक, पन्द्रह सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और बारह सौ वादो थे ।।४१९-४२०।।
नमिनाथके समवसरणमें चार सौ पचास पूर्वधारी, बारह हजार छह सौ शिक्षक, सोलह सौ अवधिज्ञानो, सोलह सौ केवलज्ञानी, पन्द्रह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक, बारह सौ पचास
१. पूज्य: म.। २. लोचनाः म.। ३. नमिपविता: म. ।
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षष्टितमः सर्गः
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शतानि द्वादश प्रोक्ताः पञ्चाशद्विपुलेक्षणाः । सहस्रपरिमाणास्तु वादिनोऽप्रतिवादिनः ॥४२३॥ चतुःशतानि नेमेस्तु पूर्विणः शिक्षकाः स्मृताः । एकादश सहस्राणि शतरष्टमिरेव तु ॥४२४॥ सकेवलावधी संघौ सहस्रं पञ्चशत्यपि । सहस्रं वैक्रियाश्चापि शतं च शुभक्रियाः ॥४२५|| शतानि नव विज्ञेयाः शान्ता विपुलबुद्धयः । वादिनोऽष्टौ शतानीह निःप्रतिप्रतिभान्धिताः ॥४२६॥ पञ्चाशस्त्रिशती चापि स्युः पाश्चस्य त पूर्विणः । शैक्षा दश सहस्राणि शतानि नव च स्मृताः ॥४२७।। चतुःशत्या सहस्रं तु निर्मलावधिबोधनाः । सहस्रं केवलालोका वैक्रियाश्च तथा मताः ॥४२८॥ शतानि सप्त पञ्चाशद्विपुलामलबुद्धयः । वादिनः षट् शतानि स्युदिन्यायविधौ बुधाः ॥४२९॥ वर्धमानजिनेन्द्रस्य त्रिशती पूर्वधारिणः । शैक्षा नव सहस्राणि शतानि च नवोदिताः ॥४३०॥ त्रयोदश शतानि स्युरवधिज्ञानिन: परे । ये सप्त नव पञ्च स्युश्चत्वारि च शतानि वै ॥४३॥ आर्यास्तिस्रोऽमवल्लक्षा जिनपञ्चकसंसदि । पञ्चाशदिशतिस्त्रिशस्त्रिशस्त्रिशस्सहस्रकैः ॥१३२॥ चतस्रो विदिता लक्षाः पद्माभस्य समान्तरे । विंशतिश्च सहस्राणि सहस्राणीव रोचिषाम् ॥ ४३३॥ तिस्रस्त्रिंशत्सहस्राणि सप्तमस्य समाम्बुधौ । ततः परं त्रयाणां तास्तिस्रोऽशीतिसहस्रके: ॥४३४॥ स्याविंशतिसहस्रेस्तु लौकान्यस्य संसदि । एका लक्षा त्रयाणां च षड्विकाष्ट सहस्रकैः ॥४३५॥॥ स्युषिष्टिसहस्राणि धर्मस्यापि चतुःशती । शान्तेः षष्टिसहस्राणि शतानां त्रितयं तथा ॥४३६॥
विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और एक हजार प्रतिवादियोंसे रहित वादी थे ॥४२१-४२३।।
नेमिनाथके समवसरणमें चार सौ पूर्वधारी, ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक, एक हजार पांच सौ अवधिज्ञानो, एक हजार पाँच सौ केवली, एक हजार एक सौ शुभविक्रिया करनेवाले विक्रियाऋद्धिके धारक, नौ सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानके धारक और आठ सौ अनुपम प्रतिभासे युक्त वादी थे ॥४२४-४२६।।
पार्श्वनाथके समवसरणमें तीन सौ पचास पूर्वधारी, दस हजार नौ सौ शिक्षक, एक हजार चार सौ निमंल अवधिज्ञानके धारक, एक हजार केवलज्ञानी, एक हजार विक्रिया ऋद्धिके धारक, सात सौ पचास विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी, और छह सो वाद-विवादमें निपुण वादी थे ॥४२७-४२२॥
और वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरणमें तीन सो पर्वधारी. नौ हजार नौ सौ शिक्षक. तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक, पांच सौ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी और चार सौ वादो कहे गये हैं ॥४३०-४३१।।
भगवान् वृषभदेवके समवसरणमें आर्यिकाएं तीन लाख पचास हजार, अजितनाथके समवसरणमें तीन लाख बीस हजार, सम्भवनाथके समवसरणमें तीन लाख तीस हजार, अभिनन्दननाथके समवसरणमें तीन लाख तीस हजार, सुमतिनाथके समवसरणमें तीन लाख तीस हजार, पद्मप्रभके समवसरणमें हजारों किरणोंके समान चार लाख बीस हजार, सुपाश्वनाथके समवसरणमें तीन लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभके समवसरण में तीन लाख अस्सी हजार, पुष्पदन्तके समवसरणमें तीन लाख अस्सी हजार, शीतलनाथके समवसरणमें तीन लाख अस्सी हजार, श्रेयांसनाथके समवसरणमें एक लाख बीस हजार, वासुपूज्यके समवसरणमें एक लाख छह हजार, विमलनाथ
१. वादिनोऽप्रतिवादिनाम् म. । २. विमलबुद्धयः म.। ३. -विमलामल म., क.। * तिलोयपण्णत्ति में श्रेयांसनाथको आयिकाओंको संख्या एक लाख तीस हजार बतलायी है 'तीससहस्स भहियं लक्खं सेयंस देवम्मि ' ॥११७०।। च. अ. ।
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हरिवंशपुराणे
कुन्धोः षष्टिसहस्राणि पञ्चाशच शतत्रयम् । पुनः षष्टिसहस्राणि जिनस्यारस्य संसदि ॥४३७॥ मलेस्तु पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि समान्तरे । सहस्राण्येव पञ्चाशन्मुनिसुव्रतसंसदि ॥ ४३८ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि नमेः पञ्चोत्तराणि ताः । चत्वारिंशत्सहस्राणि नेमेः सदसि ताः स्मृताः ॥ ४३९ ॥ अष्टात्रिं सहस्राणि त्रयोविंशस्य संसदि । पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि चतुर्विंशस्य संमताः ॥ ४४० ॥ तिस्रोऽष्टानां पृथग्लक्षा जिनानां श्रावकाः स्मृताः । द्वे लक्षे च ततोऽष्टानां लक्षाष्टानां मता ततः ॥ ४४१॥ पञ्चलक्षास्तथाष्टानां संसदि श्राविकाः स्मृताः । चतस्रस्तास्ततोऽष्टानां तिस्रोऽष्टानां जिनेशिनाम् ॥४४२॥ सिद्धाः षष्टिसहस्राणि नवशत्या वृषस्य ते । सप्तसप्ततिरन्यस्य सहस्राणि शतान्विताः ॥ ४४३ ॥ शिष्या लक्षा तृतीयस्य सहस्राणि च सप्ततिः । शतं चातः शतं लक्षे सहाशीतिसहस्रकैः ॥ ४४४ || तिस्रो लक्षाः सहस्रं च षट्शतानि ततस्ततः । त्रयोदशसहस्राणि तिस्रो लक्षाश्च षट्शती || ४४५ ॥ पञ्चाशीतिसहस्राणि द्वे लक्षे षट्शती ततः । चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि द्वे लक्षे च ततः परम् ||४४६ ॥ लक्षैकेन विनाशीतिः सहस्राण्यपि षट्शती । ततोऽशीतिसहस्राणि षट्शतानि च निर्वृताः || ४४७।। पञ्चषष्टिसहस्राणि श्रेयसः षट्शती यथा । चतुःपञ्चाशदेव स्यात्सहस्राण्यपि षट्शती ||४४८ ॥ सहस्राण्येक पञ्चाशत् त्रिशती विमलस्य तु । अनन्तस्यापि तावन्ति सहस्राण्येव केवलम् ||४४९।।। धर्मस्यैकान्नपञ्चाशत् सहस्री सप्तशत्यपि । चत्वारिंशत्ततोऽष्टौ च सहस्राणि चतुःशती || ४५० चत्वारिंशत्सहस्राणि षट् चाष्टौ च शतान्यतः । सप्तत्रिंशत्सहस्राणि द्विशत्यरजिनस्य तु ।।४५१ ।। के समवसरण में एक लाख तीन हजार, अनन्तनाथके समवसरण में एक लाख आठ हजार, धर्मनाथके समवसरण में बासठ हजार चार सौ शान्तिनाथ के समवसरण में साठ हजार तीन सौ, कुन्थुनाथके समवसरण में साठ हजार तीन सौ पचास अरनाथके समवरण में साठ हजार, मल्लिनाथ के समवसरण में पचपन हजार, मुनिसुव्रतनाथके समवसरण में पचास हजार, नमिनाथके समवसरण में पैंतालीस हजार, नेमिनाथके समवसरण में चालीस हजार, पार्श्वनाथके समवसरण में अड़तीस हजार और चोबीसवें महावीर भगवान् के समवसरण में पैंतीस हजार आर्यिकाएँ मानी गयी हैं ।।४३२- ४४०॥
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प्रारम्भसे लेकर आठ तीर्थंकरोंके समवसरण में प्रत्येकके तीन-तीन लाख, फिर आठ तीर्थकरों के प्रत्येकके दो-दो लाख और तदनन्तर शेष आठ तीर्थंकरोंके प्रत्येकके एक-एक लाख श्रावक थे ।। ४४१ ।।
इसी प्रकार प्रारम्भके आठ तीर्थंकरोंके समवसरण में प्रत्येककी पाँच-पाँच लाख, फिर आठ तीर्थंकरों की प्रत्येककी चार-चार लाख और तदनन्तर शेष आठ तीर्थंकरोंको प्रत्येककी तीन-तीन लाख श्राविकाएँ थीं ॥४४२॥
भगवान् वृषभनाथके मोक्ष जानेवाले शिष्योंकी संख्या साठ हजार नो सौ, अजितनाथ के सत्तर हजार एक सौ, सम्भवनाथ के एक लाख सत्तर हजार एक सौ, अभिनन्दननाथके दो लाख अस्सी हजार एक सौ, सुमतिनाथके तीन लाख एक हजार छह सो, पद्मप्रभके तीन लाख तेरह हजार छह सौ चन्द्रप्रभके दो लाख चौंतीस हजार, सुविधिनाथके एक लाख उन्यासी हजार छह सौ शीतलनाथके अस्सी हजार छह सो, श्रेयांसनाथ के पैंसठ हजार छह सो, वासुपूज्यके चौवन हजार छह सौ विमलनाथके इक्यावन हजार तीन सो, अनन्तनाथके इक्यावन हजार, धर्मनाथ के उनचास हजार सात सौ शान्तिनाथके अड़तालीस हजार चार सो, कुन्थुनाथके छया
१. शिक्षा म ।
* तिलोयपण्णत्तमें पद्मप्रभ जिनेन्द्र के मुक्त होनेवाले शिष्योंकी संख्या तीन लाख चौदह हजार बतलायी है । 'चोद्दस सहस्स सहिदा पउमप्पह जिणवरस्स तियलक्खा' । १२२० ।। अ च ।
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षष्टितमः सर्गः
अष्टशत्या सहस्राणि ततोऽष्टाविंशतिस्तथा । एकान्नविंशतिस्तस्मात्सहस्राणि शतद्वयम् ॥४५२ ॥ नमेर्नव सहस्राणि षट् शतानि च निर्वृताः । नेमेरष्टौ सहस्राणि षट् सप्त द्वे शते द्वयोः ॥ ४५३॥ यदैव केवलोत्पत्तिः षोडशानां जिनेशिनाम् । तदैव तेषां शिष्याणां सिद्धिः केषांचिदिष्यते ॥ ४५४॥ एकद्वित्रिकषण्मासैरन्येषां शिष्यनिर्वृतिः । एक-द्वि- त्रिचतुवं परपरेषां विनिश्चिता ॥ ४५५॥ त्रिविंशतिसहस्राणि पञ्चानां द्वादशैव तु । तान्येकादशपञ्चानां पञ्चानां दश तान्यतः ॥ ४५६ ॥ अष्टाशीति शतान्येव शिष्याः पञ्चजिनेशिनाम् । षट् सहस्राणि वीरस्य शिष्यास्तेऽनुत्तरोद्भवाः ॥४५७ ॥ ऊर्ध्वग्रैवेयकान्तासु सौधर्मादिषु भूमिषु । शतं त्रीणि सहस्राणि बभूवुर्वृष शिष्यकाः ॥ ४५८ ॥ एकान्नत्रिसहस्राणि द्वितीयस्य दिवं गताः । नवान्यस्य सहस्राणि शिष्या नवशतोयुताः ॥ ४५९॥ नवशत्या सहस्राणि तुरीयस्य तु सप्त वै । ततश्चतुःशतीयुक्ता षट्सहस्त्री दिवंगता ॥४६०॥
लीस हजार आठ सो, अरनाथके सैंतीस हजार दो सौ, मल्लिनाथके अट्ठाईस हजार आठ सौ मुनिसुव्रतनाथके उन्नीस हजार दो सौ, नमिनाथके नो हजार छह सो, नेमिनाथके आठ हजार, पाखंनाथके छह हजार दो सौ और भगवान् महावीर के सात हजार दो सौ हैं ॥ ४४३-४५३ ।।
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किन्हीं आचार्यों का मत है कि- प्रारम्भसे लेकर सोलह तीर्थंकरोंके शिष्य, जिस समय उन्हें केवलज्ञान हुआ था उसी समय सिद्धिको प्राप्त हो गये थे । तदनन्तर चार तीर्थंकरोंके शिष्य क्रमसे एक, दो, तीन और छह मास में सिद्धिको प्राप्त हुए और उनके बाद चार तीर्थंकरोंके शिष्य एक, दो, तीन और चार वर्षमें सिद्धिको प्राप्त हुए * ।।४५४-४५५ ।।
प्रारम्भसे लेकर तीन तीर्थंकरोंके बीस-बीस हजार, फिर पांच तीर्थंकरोंके बारह-बारह हजार, फिर पांच तीर्थंकरोंके ग्यारह ग्यारह हजार, फिर पांच तीर्थंकरोंके दश दश हजार, फिर पाँच तीर्थंकरोंके अठासी अठासी सो और महावीरके छह हजार शिष्य अनुत्तर विमानोंमें उत्पन्न होनेवाले हैं ॥४५६ ॥
सौधर्मं स्वर्गसे लेकर ऊर्ध्वं ग्रैवेयक तकके विमानोंमें भगवान् वृषभदेव के तीन हजार एक सौ, अजितनाथके उनतीस सो, सम्भवनाथके नो हजार नौ सौ, अभिनन्दननाथ के सात हजार नौ सो, सुमतिनाथके छह हजार चार सौ पद्मप्रभके चार हजार चार सौ सुपार्श्वनाथके दो हजार चार सौ चन्द्रप्रभके चार हजार, पुष्पदन्तके नौ हजार चार सौ, शीतलनाथके आठ हजार चार
१. 'णवस्य अब्भहिय दोसहस्साणि' ति प., अ., च ॥१२३३॥
+. भगवान् महावीरके मुक्त होनेवाले शिष्योंकी संख्या तिलोयपण्णत्ति में चवालीस सौ बतलायी है - 'चउदालसया वीरेसरस्स' अ. ।। १२२९ ॥ अ च ।
* इस विषयका तिलोयपण्णत्तिमें इस प्रकार स्पष्टीकरण किया गया है
उसहादि सोलसाणं केवलणाणण्वसूदि दिवसम्मि ।
पढमं चिय सिस्सगणा णिस्सेयस संपयं पत्ता ॥१२३०॥
कुंथु चउक्के कमसो इगि दुति छम्मास समय पेरते ।
मि पहुदि जिणिदेसुं इगि दुति छव्वाससंखाए । १२३१|| अ. चार
अर्थात् ऋषभादिक सोलह तीर्थंकरोंके शिष्यगण केवलज्ञान उत्पन्न होनेके दिन पहले ही निःश्रेयस सम्पदाको प्राप्त हुए । कुन्भुनाथ आदि चार तीर्थंकरोंके शिष्यगण क्रमसे एक, दो, तीन और छह मास तक तथा नमि आदि चार जिनेन्द्रोंके शिष्यगण एक, दो, तीन और छह वर्ष तक निःश्रेयस पदको प्राप्त हुए ।। १२३० - १२३१ ॥
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७४२
हरिवंशपुराणे ततश्चतुःसहस्राणि चतुःशत्यान्वितानि तु । द्विसहस्री चतुःशत्यातः सहस्रचतुष्टयी ॥४६१॥ ततो नव सहस्राणि सहितानि चतुःशतैः । ततोऽष्टौ सप्त षड्वापि सहस्राणि चतुःशतः ॥४६२॥ ततः पञ्चसहस्राणि सप्तशत्या ततोऽपि च । पञ्चैव तु सहस्राणि चत्वारि त्रिशतस्ततः ॥४६३॥ ततस्त्रीणि सहस्राणि शतः षडभिस्ततः पुनः । त्रीण्येव तु सहस्राणि द्विशते च दिवंगताः ॥४६॥ सहस्रद्वितयं चातो द्वयोरष्ट चतुःशतैः । द्वे सहस्र ततोऽन्यस्य सहस्रं षट् शतान्यतः ॥४६५॥ द्विशत्यातः सहस्रं हि सहस्रं केवलं ततः । अष्टौ शतानि वीरस्य शिष्यास्ते स्वर्गगामिनः ॥४६६॥ कोटीलक्षास्तु पञ्जाशस्त्रिंशदश नबाब्धयः । नवतिश्च सहस्राणि नवतिश्च शतान्यपि ॥४६॥ तथा नवशतान्येव नवतिर्नवकोटयः । जिनानां वृषभादीनामन्तराणि नव क्रमात् ॥ ४६८॥ षट्पष्टिवर्षलक्षाभिः षड्विंशतिसहस्रकैः । विहीनाब्दशतेनाब्धिः कोटी दशममन्तरम् ॥४६९॥ चतःपञ्चाशदेवात स्त्रिंशन्नव च सागराः । चत्वारस्ते त्रयस्तूनास्त्रिचतुर्भागमल्यकैः ॥४०॥ पल्याधं च चतुर्भागो हीनकोटीसहस्रकः । कोटीसहस्रमब्दानां चतुर्लक्षाः शतार्धगाः ॥४७१॥ षट् लक्षाः पश्चलक्षाश्च त्रयोऽशीतिसहस्रकः । सार्धसप्तशतान्यर्धतृतीये च शते मते ॥४७॥ 'वर्धमानजिनेन्द्रस्य सहस्राण्येकविंशतिः । तीर्थकालस्तु तावन्ति सहस्राण्यतिदुःषमः ॥४७३॥ 'आदावष्टौ तथान्तेऽष्टावन्युच्छिन्नानि षोडश । मध्ये तु सप्ततीर्थानि व्युच्छिन्नानीह मारते ॥४७४॥
सौ, श्रेयांसनाथके सात हजार चार सौ, वासुपूज्यके छह हजार चार सौ, विमलनाथके पांच हजार सात सो, अनन्तनाथके पांच हजार, धर्मनाथके चार हजार तीन सौ, शान्तिनाथके तीन हजार छह सौ, कुन्थुनाथके तीन हजार दो सौ, अरनाथके दो हजार आठ सौ, मल्लिनाथके दो हजार चार सौ, मुनि सुव्रतनाथके दो हजार, नमिनाथके एक हजार छह सौ, नेमिनाथके एक हजार दो सौ, पार्श्वनाथके एक हजार, और महावीरके आठ सौ शिष्य उत्पन्न हुए हैं ॥४५७-४६६।।
पचास लाख करोड़, तीस लाख करोड, दश लाख करोड़, नौ लाख करोड़, नब्बे हजार करोड़, नौ हजार करोड़, नौ सौ करोड़, नब्बे करोड़ और नौ करोड़ सागर यह क्रमसे वृषभादि नौ तीर्थंकरोंके मुक्त होनेका अन्तरकाल है ॥४६७-४६८।। छयासठ लाख छब्बीस हजार एक सौ कम एक करोड़ सागर प्रमाण दशवां अन्तर है अर्थात् शीतलनाथ भगवान्के मुक्ति जानेके बाद इतना समय बीत जानेपर श्रेयांसनाथ भगवान् मुक्ति गये ।।४६२।। तदनन्तर चौवन, तीस, नो, चार और पौन पल्य कम तीन हजार सागर यह वासुपूज्यसे लेकर शान्ति जिनेन्द्र तकका अन्तरकाल है। तत्पश्चात् अर्धपल्य, एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव पल्य, एक हजार करोड़, चौवन लाख, छह लाख, पांच लाख, तेरासी हजार सात सौ पचास और अढाई सौ वर्ष प्रमाण क्रमसे कुन्थुनाथसे लेकर महावीर पर्यन्तका अन्तर है ।।४७०-४७२।।
महावीर भगवान्का तीर्थकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण पाँचवाँ काल और इतना ही छठा काल इस प्रकार बयालीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥४७३|| आदिके आठ और अन्तके आठ इस प्रकार सोलह तीथं तो इस भरतक्षेत्रमें अविच्छिन्न रूपसे प्रवृत्त हुए परन्तु बीचके सात तीर्थ १. तिलोयपण्णत्ते: चतुर्थमहाधिकारे १२५०-१२७४ गाथासु वृषभादीनां सर्वेषां जिनेन्द्राणां पृथक पृथक तीर्थकालो निरूपितः । इह तु वर्धमानजिनेन्द्रस्यैव निरूपितः 'इगिवीससहस्साणि दुलाल वीरस्स सो कालो' ॥ति. प.॥ २. उच्छण्णो सोधम्मो सुविहिप्पमुहेसु सत्ततित्थेसुं। सेसेसु सोलसे सुं निरंतरं धम्मसंताणं ॥१२७८॥ पल्लस्स पादमद्धं तिचरणपल्लं खु तिचरणं अद्धं । पल्लस्स पादमेत्तं वोच्छेदो धम्मतित्थस्स ।।१२७९।। हुंडावसप्पिणिस्स य दोषेणं सत्त होति विच्छेदा । दिक्खाहि मुहाभावे अत्यमिओ धम्मरविदेओ ।। १२८० ॥ ति. प., ४ अ.।
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षष्टितमः सर्गः
७४३ पादः पल्यस्य पल्या त्रिपादी पल्यमेव तु । त्रिपाद्यधं च पादश्च व्युच्छेदानेहसः क्रमात् ॥४७५॥ आदिवः सप्ततीर्थेषु केवलश्रीनिरन्तरा । चन्द्राभस्य मुनेरन्ते सुविधेर्नवतिर्मता ॥४७६॥ तीर्थे चतुरशीतिस्तु शीतलस्य निरन्तरा । केवलज्ञानिनोऽन्यस्य द्वासप्ततिरुदाहृता ॥४७७॥ चत्वारिंशचतुर्युक्ता वासुपूज्यस्य पूजिता । चतुर्हानिस्तु दशसु द्वयोः केवलिनस्त्रयः ॥४७८॥ वीरकेवलिना कालो द्वाषष्टयब्दानि संस्तुतः । ततो वर्षशतं पूर्ण स्याच्चतुर्दशपूर्विणाम् ॥ ४७९॥ त्रयोऽशीस्या शताब्दानि भवन्ति दशविणाम् । विंशस्यङ्गभृतां युक्ताः कालो वर्षशतद्वयम् ॥४०॥
व्युच्छिन्न होकर पुनः-पुनः प्रवृत्त हुए ॥४७४।। पाव पल्य, अधं पल्यं, पौन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्धपल्य और पाव पल्य, यह क्रमसे व्युच्छिन्न तीर्थोंके विच्छेदकालका प्रमाण है। भावार्थवृषभदेवसे लेकर पुष्पदन्त तक तो तीर्थ अविच्छिन्न रूपसे चलते रहे उसके बाद पुष्पदन्तके तीर्थमें जब पाव पल्य प्रमाण काल बाकी रह गया तब तीर्थ-धर्मका विच्छेद हो गया। तदनन्तर शीतलनाथके केवली होनेपर पुनः तीर्थ प्रारम्भ हुआ, इसी प्रकार धर्मनाथ पर्यन्त ऊपर लिखे अनुसार तीथं विच्छेद समझना चाहिए। शान्तिनाथसे लेकर महावीर पर्यन्त बीचमें तीर्थका विच्छेद नहीं है। महावीरका तीर्थ बयालीस हजार वर्ष तक चलेगा, उसके बाद विच्छिन्न हो जायेगा। तदनन्तर आगामी उत्सपिणो युगमें जब प्रथम तीर्थंकरको केवलज्ञान होगा तब पुनः तीर्थका प्रारम्भ होगा ॥४७५॥
प्रारम्भसे लेकर सात तीर्थंकरोंके तीर्थमें केवलज्ञानरूपो लक्ष्मी निरन्तर विद्यमान रही। उसके पश्चात् चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्तके तीर्थमें नब्बे-नब्बे, शीतलनाथके तीर्थमें चौरासी, श्रेयांसनाथके तीर्थमें बहत्तर, वासुपूज्यके तीर्थमें चौवालीस, फिर विमलनाथसे लेकर नेमिनाथ तक दश तीथंकरोंके तीर्थमें चार-चार कम और अन्तिम दो तीर्थंकरोंके तीर्थमें तीन-तीन केवली अनुबद्ध हुए हैं अर्थात् एकके मोक्ष जानेके बाद दूसरेको केवलज्ञान हो गया है* ॥४७६-४७८॥
महावीर स्वामीके केवलियोंका काल बासठ वर्ष कहा गया है उसके बाद सा वर्ष चौदह पूर्वधारियोंका काल है, तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्ष दश पूर्वधारियोंका समय है, फिर दो सौ बीस वर्ष ग्यारह अंगके पाठियोंका काल है, और इसके बाद एक सौ अठारह वर्ष आचारांगके
* तिलोयपण्णत्तिमें अनुबद्ध केवलियोंका वर्णन करते हुए दो मत दिये हैं। प्रथम मतके अनुसार आदिनाथसे लेकर दसवें तीर्थकर तक प्रत्येकके ८४, श्रेयांस और वासुपूज्यके क्रमसे ७२ और ४४, विमलनाथके ४०, अनन्तनाथके ३६, धर्मनाथके ३२, शान्तिनाथके २८, कुन्थुनाथके २४, अरनाथके २०, मल्लिनाथके १६, मुनिसुव्रतनाथके १२, नमिनाथ के ८, नेमिनाथके ४, पार्श्वनाथके ३ और महावीरके ३ अनुबद्ध केवली है तथा दूसरे मतके अनुसार-आदिनाथसे लेकर सातवें तीर्थंकर तक प्रत्येकके १००, चन्द्रप्रभके ९०, पुष्पदन्तके ९०, शीतलनाथके ९०, श्रेयांसनाथके ९०, वासुपूज्यके ८४, विमलनाथके ४०, अनन्तनाथके ३६, धर्मनाथके ३२, शान्तिनाथके २८, अरनाथके २०, मल्लिनाथके १६, मुनिसुव्रतनाथके १२, नमिनाथ के ८, नेमिनाथके ४, पाश्वनाथके ३ और महावीरके ३ अनुबद्ध केवली हैं । गाथाएं इस प्रकार हैं
दसमंते चउसीदी कमसो अणु बद्ध केवली होति । वाहत्तरि चउदालं सेयंसे वासुपुज्जे य ॥ १२१२ ॥ विमल जिणे चालोसं णवसु तदो चउ विविज्जिदा कमसो। तिण्णि च्चिय पासजिणे तिणि च्चिय वडढमाणम्मि ॥१२१३॥ आ सत्तमेक्क सयं उवरितिए पाउदि णउदि च उसीदी। सेसेसु पुश्वसंखा हवंति अणुबद्धकेवली अहवा ॥१२१४|| ति. प. अ.।
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हरिवंशपुराणे आ वाराणभृताङ्गीतः शतमष्टादशोत्तरम् । त्रिपञ्चैकादश ज्ञेयाः पञ्च चरवार एव ते ॥११॥
वीरस्य गणिनां वर्षाण्यायुानवतिश्चतुः । विंशतिः सप्ततिश्च स्यादशोतिः फतमेव च ॥४८२॥ धारियोंका काल कहा गया है। महावीर स्वामीके केवलियोंकी संख्या तीन', चौदह पूर्वके धारियोंकी संख्या पाँच, दश पूर्वधारियोंकी संख्या ग्यारह , ग्यारह अंगके धारियोंकी संख्या पाँच और आचारांगके पाठियोंको संख्या चार है ।। ४७९-४८१ ॥ महावीर भगवान्के गणधरोंकी आयु १. गोतमस्वामी', सुधर्माचार्य', जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए। २. नन्दो', नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्र बाहु ये पांच चौदह पूर्वके धारी हुए। ३. विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, वंगदेव और सुधर्म ये ग्यारह दश पूर्वधारी हुए। ४. नक्षत्र , जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस ये पांच ग्यारह अंगके धारी हुए। ५. सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचारांगके धारी हुए। ६. यहां तिलोयपण्णत्ति अधिकार ४, गाथा १४७६ से १४९२ तकका प्रकरण विशेष ज्ञानके लिए द्रष्टव्य है
जादो सिद्धो वीरो तहिवसे गोदमो परमणाणी । जादो तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो ॥ १४७६ ॥ तम्मि कदकम्मणासे जंबू सामित्ति केवली जादो । तत्थ वि सिद्धिपवण्णे केवलिषो णत्थि अणबद्धा ॥ १४७७ ॥ वासट्ठीवासाणि गोदम पहदीण णाणवंताणं । धम्मपयट्टण काले परिमाणं पिंडरूवेणं ।। १४७८ ।। कुंडल गिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। चारण रिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य ।। १४७९ ।। पण्ण समणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणिसुं। चरिमो सिरिणामो सुद विणय सुसीलादिसंपण्णो ॥ १४८० ।। मउड घरेसुं चरिमो जिणदिक्खं धरदि चंदगुत्तो य । तत्तो मउडधरा दुप्पव्वज्ज व गेण्हत्ति ।। १४८१ ।। णंदो य शंदिमित्तो विदिओ अवराजिदो तइज्जो य । गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ भद्दवाहुत्ति ॥ १४८२ ॥ पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुवी जगम्मि विक्खादा। ते वारस अंगधरा तित्थे सिरि वड्ढमाणस्स ।। १४८३ ॥ पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । वीदम्मि य पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ।। १४८४।। पढमो विसाहणामो पुटिल्लो खत्तियो जओ णागो । सिद्धत्थो धिदिसेणो विजओ बुद्धिल्लगंगदेवा य ।। १४८५ :। एक्करसो य सुधम्मो दशपुव्वधरा इमे सुविक्खाण । पारंपरिओवगदो तेसीदि सदं च ताण वासाणि ॥ १४८६ ॥ सन्वेसु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरह खेत्तम्मि । वियसंत भव्वकमला ण संति दसपुस्विदिवसयरा ॥ १४८७ ॥ णक्खत्तो जयपालो पंडुयधुवसेण कंस आइरिया । एक्कारसंगधारी पंच इमे वीर तित्थम्मि ॥ १४८८ ।।
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षष्टितमः सर्ग:
७४५
त्रयोऽशीतिश्च नवतिः पञ्चमिः साष्टसप्ततिः। द्वाभ्यां च सप्ततिः षष्टिश्चत्वारिंशच संयुताः ॥४८३॥ षटसु कालेषु पल्याष्टमागे शेषे तृतीयके । भूतिः कुलकराणां च ततोऽपि वृषमस्य तु ॥४८४॥ जन्म क्रमेण शेषाणां जिनानां चक्रवर्तिनाम् । हलिनां वासुदेवानां तुर्य काले विनिश्चितम् ॥४५॥ व्यब्दाष्टमासमासार्धशेषयोरिह कालयोः । तृतीयतर्ययोः सिद्धिः प्रसिद्धा वृषवीरयोः ॥४८६॥ वीरनिर्वाणकाले च पालकोऽत्राभिषिच्यते । लोकेऽवन्तिसुतो राजा प्रजानां प्रतिपालकः ॥४८७॥ षष्टिवर्षाणि सद्राज्यं ततो विषयभूभूजाम् । शतं च पञ्चपञ्चाशद्वर्षाणि तदुदीरितम् ॥४८८॥ चत्वारिंशत्पूरूढानां भूमण्डलमखण्डितम् । त्रिंशत्तु पुष्पमित्राणां षष्टिर्वस्वग्निमित्रयोः ॥४८९॥ शतं रासभराजानां नरवाहनमप्यतः । चत्वारिंशत्ततो द्वाभ्यां चत्वारिंशच्छतद्वयम् ॥४९॥ भद्रवाणस्य तदाज्य गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशश्च वर्षाणि कालविनिरुदाहृतम् ॥१९॥ द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किराजस्य राजता । ततोऽजितंजयो राजा स्यादिन्द्रपुरसंस्थितः ॥४९२॥ कौमार्य मण्डलेशत्वे विजये राज्यसंयमे । चक्रयादीनां यथायोग्यमितः कालो निरूप्यते ॥४९३॥
क्रमसे बानबे वर्ष, चौबीस वर्ष, सत्तर वर्ष, अस्सी वर्ष, सौ वर्ष, तेरासी वर्ष, पंचानबे वर्ष, अठहत्तर वर्ष, बहत्तर वर्ष, साठ वर्ष और चालीस वर्ष है ।।४८२-४८३।। छह कालोंमें-से जब तृतीय कालमें पल्यका आठवां भाग बाकी रहा था तब क्रमसे चौदह कुलकरों और उनके बाद वृषभदेवका जन्म हुआ था। शेष तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलभद्रों और नारायणोंका जन्म चौथे काल में निश्चित है ।।४८४-४८५।। जब तीसरे कालमें तीन वर्ष साढ़े आठ माह बाकी रहे थे तब भगवान् ऋषभदेवका मोक्ष हुआ था और जब चौथे कालमें तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रहे थे तब महावीरका मोक्ष होगा ।।४८६।।
जिस समय भगवान् महावीरका निर्वाण होगा उस समय यहाँ अवन्तिपुत्र पालक नामके राजाका राज्याभिषेक होगा। वह राजा प्रजाका अच्छी तरह पालन करेगा और उसका राज्य साठ वर्ष तक रहेगा। उसके बाद तद्-तद् देशोंके राजाओंका एक सौ पचपन वर्ष तक राज्य होगा ||४८७-४८८।। फिर चालीस वर्ष तक पुरुढ राजाओंका अखण्ड भूमण्डल होगा। तदनन्तर तीस वर्ष तक पुष्पमित्रका, साठ वर्ष तक वसु और अग्निमित्रका, सौ वर्ष तक रासभ राजाओंका, फिर चालीस वर्ष तक नरवाहनका, फिर दो सौ बयालीस वर्ष तक कल्कि राजाका राज्य होगा। उसके बाद अजितंजय नामका राजा होगा जिसकी राजधानी इन्द्रपुर नगर होगी ||४८२-४९२।। अब इनके आगे चक्रवर्ती आदिकी, कूमार अवस्था, मण्डलेश्वर दशा, दिग्विजय, राज्य और संयममें जो काल व्यतीत हुआ है उसका यथायोग्य निरूपण किया जाता है ॥४२३||
दोणि सया वीसजुदा वासाणं ताण पिंड परिमाणं । तेसु अतीदे णस्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥ १४८९ ॥ पढमो सुभद्दणामो जसभद्दो तह य होदि जसबाहू । तुरिमो य लोहणामो एदे आयारअंगधरा ॥ १४९० ।। सेसेक्करसंगाणं चोदसपुत्राणमेक्कदेसघरा। एक्कसयं अटारसवासजुदं वासजुदं ताण परिमाणं ।। १४९१ ।।
-ति. प. अधिकार ४. १. साष्टसप्तभिः म. । २. सप्तभिः म. । ३. अष्टाष्टमास-म. ।
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७४६
हरिवंशपुराणे पूर्वलक्षाः कुमारेऽगुर्भरते सप्तसप्ततिः । वर्षाणां च सहस्रं तु मण्डलाधिपती मतम् ॥४९४॥ पष्टिवर्षसहस्राणि विजयो राज्यमूर्जितम् । एकपूर्वविहीनास्तु पूर्वलक्षाः षडेव तु ॥४९५॥ अङ्गलक्षास्त्रयोऽशीतिर्नवतिर्नवभिः सह । सहस्राणि नवान्यानि शतानि नवतिर्नव ॥४९६॥ दर्षलक्षास्त्रयोऽशीतिस्त्रिंशन्नवसहस्रकैः । चक्रिसंयमकालस्तु पूर्वलक्षेव केवलाः ॥४९७॥ पञ्चाशत्त सहस्राणि पूर्वाणां पूर्वकालयोः । त्रिंशदब्दसहस्राणि विजयः सगरस्य तु ॥४९८॥ एकान्नसप्ततिलंक्षा पूर्वाणां नवतिर्नव । सहस्राणि नवापीह शतानि नवतिर्नव ॥१९९॥ पूर्वाङ्गप्रमितिः पूर्वाः सप्ततिश्च सहस्रकैः । राज्यं लक्षास्त्रयोऽशीतिः पूर्वलक्षव संयमः ॥५०॥ पञ्चविंशतिसंख्याब्दसहस्राणि कुमारकः । मण्डलेशश्च मघवान् जये दशसहस्रवान् ॥५०१॥ तिस्रोऽस्य वर्षलक्षास्तु नवत्यब्दसहस्रकः । राज्यं तपस्तु पञ्चाशत्सहस्राणि तपस्विनः ॥५०२॥ सनस्कुमारकौमार्य मण्डलेशत्वमेव च । सहस्त्राणि तु पञ्चाशद्विजयो दश तानि वै ॥५०३॥ नवस्यब्दसहस्त्राणि राज्यं प्राज्यमुदीरितम् । वर्षलक्षास्ततस्तस्य संयमः संयमात्मनः ॥५०॥ शान्तेर्माण्डलिकत्वे तु पञ्चविंशतिरेव तु । सहस्राण्यष्टशत्येव विजये गदितं परम् ॥५०५॥
पहले भरत चक्रवर्तीका आयुकाल चौरासी लाख पूर्वका था, उसमें सतहत्तर लाख पूर्व तो कुमार कालमें बीते, एक हजार वर्ष मण्डलेश्वर अवस्थामें व्यतीत हुए, साठ हजार वर्ष सक दिग्विजय किया, एक पूर्व कम छह लाख पूर्व चक्रवर्ती होकर राज्य किया तथा एक लाख पूर्व तेरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे पूर्वांग और तेरासी लाख नौ हजार तोस वर्ष पर्यन्त संयमी तथा केवली रहे* ॥४९४-४९७।।
दूसरे सगर चक्रवर्तीकी आयु बहत्तर लाख पूर्व थी उसमें पचास हजार लाख पूर्व तो कमारकालमें बीते. इतने ही मण्डलेश्वर अवस्थामें व्यतीत हए. तीस हजार वर्ष दिग्विजयमें गये, उनहत्तर लाख सत्तर हजार पूर्व, निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे पूर्वांग और तेरासी लाख वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य किया और एक लाख पूर्व तक संयमी रहे ।।४९८-५००॥
__ तीसरे मघवा चक्रवर्तीकी कुल आयु पाँच लाख वर्षकी थी। उसमें पचीस हजार वर्ष कुमारकालमें, पचीस हजार वर्ष माण्डलीक अवस्थामें, दस हजार वर्ष दिग्विजयमें, तीन लाख नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्यकार्यमें और पचास हजार वर्ष संयमी अवस्थामें व्यतीत हुए ॥५०१-५०२।।
चौथे सनत्कुमार चक्रवर्तीको कुल आयु तीन लाख वर्षको थी। उसमें पचास हजार वर्ष कुमारकालमें, पचास हजार वर्ष माण्डलीक अवस्थामें, दस हजार वर्ष दिग्विजयमें, नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्यके उपभोगमें और एक लाख वर्ष संयमो अवस्थामें व्यतीत हुए ॥५०३-५०४॥
पांचवें शान्तिनाथ चक्रवर्तीको कुल आयु एक लाख वर्षकी थी, उसमें पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्थामें, पच्चीस हजार वर्ष माण्डलोक अबस्थामें, आठ सौ वर्ष दिग्विजयमें बीते
१. एकपूर्वाङ्गहीनास्तु म. । २. केवलं क. । ३. सप्तसप्तसहस्रकैः क., सप्तत्यब्दसहस्रः ख. । ४. तिस्रस्तु क. ङ.। ५. सहस्राणि । ६. तु शब्दात् कौमार्य (क. टि.)। * तिलोयपण्णत्तिमें चौरासी लाख पूर्व कुल आयु, सतहत्तर लाख पूर्व कुमारकाल, एक हजार वर्ष मण्डलेश्वर राजा, साठ हजार वर्ष दिग्विजय, इकसठ हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व चक्रवर्ती होकर राज्यकाल और एक लाख पूर्व संयमकाल.बतलाया है। + तिलोयपण्णत्तिमें चक्रवर्ती होकर राज्य करनेका काल तीस हजार वर्ष कम सत्तर लाख पूर्व बतलाया है।
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षष्टितमः सर्गः
७४७ कुन्धोर्मण्डलिकत्वे हि त्रिसहस्रेस्तु विंशतिः । पञ्चाशत्सप्तशस्यामा षट्शती विजयः पुनः ॥५०६॥ अरमाण्डलिकत्वेऽपि सहस्राण्येकविंशतिः । चतःशतानि विजयः शेषः प्रागेव भाषितम् ॥५०॥ सुभौमस्य सहस्राणि पञ्च कौमार्यमिष्यते । विजयः पन्चशस्येव प्रचण्डस्य कुमण्डले ॥५०८॥ द्वापष्टयब्दसहस्राणि तथा पम्वशतानि च । बालत्वे गूढवृत्तस्य तस्य राज्यमिहोर्जितम् ॥५०९॥ शतानि पन्च कौमार्य तथा मण्डलनाथता । महापद्मस्य विजयो वर्षाणां तु शतम्रयम् ॥५१०॥ अष्टादश सहस्राणि राज्यं सप्त शतान्यपि । दशवर्षसहस्राणि संयमः संयमार्थिनः ॥५१॥ हरिषेणस्य कौमार्य त्रिशती पाविंशतिः । पञ्चाशता त विजयस्तस्य वर्षशतं मतम् ॥५॥२॥ पञ्चविंशतिसंख्यानि सहस्राणि तथा शतम् । राज्यं च पञ्चसप्तत्या पश्चाशस्त्रिशती तपः ॥५१३॥
और शेष विवरण तीर्थंकरोंके वर्णनके समयमें कहा जा चुका है ।।५०५।।
छठे कुन्थुनाथ चकवर्तीकी कुल आयु पंचानबे हजार वर्षकी थी, उसमें तेईस हजार सात सो पचास वर्ष कुमारकालमें, इतने ही माण्डलिक अवस्थामें और छह सौ वर्ष दिग्विजय कालमें व्यतीत हुए तथा शेष वर्णन पहले कर चुके हैं ।।५०६।।
सातवें अरनाथ चक्रवर्तीको कुल आयु पचासी हजार वर्षकी थी। उसमें इक्कीस हजार वर्ष कुमार अवस्थामें, इतने ही माण्डलिक अवस्थामें और चार सौ वर्ष दिग्विजयमें व्यतीत हुए। शेष वर्णन पहले किया जा चुका है ॥५०७॥
आठवें सुभौम चक्रवर्तीकी कुल आयु पचासी हजार वर्षकी थी, उसमें पांच हजार वर्ष कुमार अवस्थामें, पांच सौ वर्ष दिग्विजयमें और साढ़े बासठ हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्थामें बीते । ये परशुरामके भयसे आश्रममें पले थे इसीलिए मण्डलीक पद प्राप्त नहीं कर सके। ये पृथिवी मण्डलपर अतिशय तीक्ष्ण प्रकृतिके थे तथा अज्ञानी दशामें रहनेके कारण संयम धारण नहीं कर सके और मरकर सातवें नरक $गये ॥५०८-५०९||
नौवें महापद्म चक्रवर्तीकी आयु तीस हजार वर्षकी थी। उसमें पांच सौ वर्ष कुमार अवस्थामें, पांच सौ वर्ष मण्डलीक अवस्थामें, तीन सौ वर्ष दिग्विजयमें, अठारह हजार सात सो वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्थामें और दस हजार वर्ष संयमी अवस्थामें व्यतीत हुए हैं ।।५१०-५११।।
दसवें हरिषेण चक्रवर्तीको आयु छब्बीस हजार वर्षकी थी। उसमें तीन सौ पचीस वर्ष कुमार अवस्थामें, एक सौ पचास वर्ष दिग्विजयमें, पचीस हजार एक सौ पचहत्तर वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य अवस्थामें और तीन सौ पचास वर्ष संयमी अवस्थामें व्यतीत * शान्तिनाथने चौबीस हजार दो सौ वर्ष तक चक्रवर्ती होकर राज्य भोगा, सोलह वर्ष तक संयमी रहे और सोलह वर्ष कम पचीस हजार वर्ष तक केवली रहे।
कुन्थुनाथने तेईस हजार एक सौ पचास वर्ष तक चक्रवर्ती होकर राज्य किया, सोलह वर्ष संयमी रहे और तेईस हजार सात सौ चौंतीस वर्ष तक केवली रहे। ४ अरनाथने इक्कीस हजार छह सौ वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य भोगा, सोलह वर्ष संयमी रहे और सोलह वर्ष कम इक्कीस हजार वर्ष केवली रहे ।
तिल्लोयपण्णत्तिमें सुभौम चक्रवर्तीकी आयु साठ हजार वर्षको बतायी है। जिसमें पांच हजार वर्ष कुमारकालमें, पांच हजार वर्ष मण्डलीक अवस्थामें, पांच सौ वर्ष दिग्विजयमें और साढ़े उनचास हजार वर्ष राज्य अवस्थामें बीते हैं।
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७४८
हरिवंशपुराणे जयसेनस्य कौमार्य त्रिशती मण्डलेशिता । विजयस्तु शतं राज्यं सहस्त्रं नवशत्यपि ॥५१४॥ चतःशती तपस्तस्य ब्रह्मदत्तकुमारता । अष्टाविंशतिवर्षाणि षट्पञ्चाशस्लमण्डली ।।५१५।। विजयः षोडशाब्दानि षट् शतानि त राजता । ब्रह्मदत्तस्य विज्ञेया केशवानां त कथ्यते ॥५१६।। त्रिपृष्ठस्य सहस्राणि कौमार्य पञ्चविंशतिः । विज्ञेयोऽब्दसहस्रं तु विजयः स्नेहवाहिनः ।।५१७॥ वर्षलक्षास्त्रयोऽशीतिसहस्राणि तु सप्ततिः । चतुर्भिरधिका तस्य राज्य राजकराजितम् ।।५१८॥ द्विपृष्ठस्यापि कौमार्य मण्डलैश्यमपि स्फुटम् । सहस्राणि समाख्यातं प्रत्येक पवविंशतिः ।।५१९।। विजयोऽब्दशतं लक्षा राज्यं तस्यैकसप्ततिः । चत्वारिंशत्सहस्राणि नवतिर्नवशत्यपि ॥५२०॥ द्वादशव सहस्राणि पञ्चशत्या स्वयंभुवः । कोमाय मण्डलेशत्वं विजयो नवतिः पुनः ॥५२॥ एकान्नषष्टिकक्षाश्च चतःसप्ततिरेव च । सहस्राणि शतै राज्यं नवभिर्दश पञ्चकः' (?) ॥५२।। पुरुषोत्तमकौमाय मतं सप्त शतानि तु । अशातिर्विजयस्त्रीणि शतान्यब्दपहस्रकम् ।।५२३।। मण्डलेशत्वमेतद्धि त्रिशल्लक्षा विनैककम् । नवतिश्च सहस्राणि सप्तभिर्नवशत्यपि ॥५२४||
हुए* ||५१२-५१३॥
ग्यारहवें जयसेन चक्रवर्तीकी कुल आयु तीन हजार वर्षको थी। उसमें तीन सौ वर्ष कुमार अवस्थामें. तीन सौ वर्ष मण्डलीक अवस्थामें सौ वर्ष दिग्विजयमें, एक हजार नौ सं वर्ती होकर राज्य अवस्थामें और चार सौ वर्ष संयम अवस्थामें व्यतीत हुए।
और बारहवें ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीको आषु सात सौ वर्षकी थी। उसमें अट्ठाईस वर्ष कुमार अवस्थामें, छप्पन वर्ष मण्डलीक अवस्थामें, सोलह वर्ष दिग्विजयमें और छह सौ वर्ष राज्य अवस्थामें व्यतीत हुए। ये संयम धारण नहीं कर सके और मरकर सातवें नरक गये। इस प्रकार चक्रवतियोंकी आयुका विवरण कहा और नारायणोंको आयुका विवरण कहा जाता है ।।५१४-५१६।।
स्नेहको धारण करनेवाले त्रिपृष्ठ नारायणकी कुल आयु चौरासी लाख वर्षकी थी। उसमें पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्थामें, एक हजार वर्ष दिग्विजयमें और तेरासी लाख चौहत्तर हजार वर्ष राज्य अवस्थामें व्यतीत हुए। ॥५१७-५१८॥
द्विपृष्ठ नारायणकी कुल आयु बहत्तर लाख वर्षकी थी। उसमें पचीस-पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्था तथा मण्डलीक अवस्थामें, सौ वर्ष दिग्विजयमें और इकहत्तर लाख उनचास हजार नौ सौ वर्ष पर्यन्त राज्य किया ।।५१९-५२०॥
__ स्वयम्भू नारायणको कुल आयु साठ लाख वर्षकी थी। उसमें बारह हजार पांच सौ वर्ष कुमार अवस्थामें, इतने ही मण्डलीक अवस्थामें, नब्बे वर्ष दिग्विजयमें और उनसठ लाख चौहत्तर हजार नौ सौ दस वर्ष राज्य अवस्थामें व्यतीत हुए ॥५२१-५२२॥
पुरुषोत्तम नारायणकी कुल आयु तीस लाख वर्षकी थी। उसमें सात सौ वर्ष कुमार अवस्थामें, एक हजार तीन सौ वर्ष मण्डलीक अवस्थामें, अस्सी वर्ष दिग्विजयमें और उनतीस
१. नवभिर्दशवर्षकैः ( ङ. पुस्तके टिप्पण्यां पाठान्तरम् )। *. तिलोयपण्णत्ति में हरिषेण चक्रवर्तीको आयु दस हजार वर्षको बतायी है। उसमें तीन सौ पचीस कुमार अवस्थाम, इतने ही मण्डलीक अवस्थामें, एक सौ पचास दिग्विजयमें, आठ हजार आठ सौ पचास वर्ष राज्य अवस्थामें और तीन सौ पचास वर्ष संयमी अवस्थामें बीते हैं । t. तिलोयपण्णत्तिमें पचीस हजार वर्ष कुमार अवस्थामें, पचीस हजार वर्ष मण्डलीक अवस्था में, एक हजार वर्ष दिग्विजथमें और शेष तेरासी लाख उनचास हजार वर्ष राज्य अवस्थामें व्यतीत हुए ऐसा लिखा है।
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पष्टितमः सर्गः
विंशतिश्चैव वर्षाणि राज्यमत्यन्तमूर्जितम् । पुरुषोत्तमतां भूमौ भूम्ना तस्येह बिभ्रतः ||२५|| कौमार्य त्रिशती पञ्चविंशत्या शतमीरितम् । मण्डलैश्यं हि विजयः सप्ततिः प्रतिपादितः ।। ५२६॥ नवलक्षा सहस्राणि नवर्निव च स्मृता । राज्यं पुरुषसिंहस्य पञ्चभिः पञ्चशत्यपि ।। ५२७|| पञ्चाशता शते द्वेत कौमार्य मण्डलेशता । विजयः षष्टिवर्षाणि विजयोजिततेजसः ||५२८|| चत्वारिंशश्च वर्षाणि स्याच्चत्वारि शतान्यपि । चतुःषष्टिसहस्राणि पुण्डरीकस्य राजता ।। ५२९|| शते दत्तस्य कौमार्य पञ्चाशत्कालयोऽयम् । एकत्रिंशत्सहस्राणि सप्तशत्यापि राजता ।। ५३०|| शतं लक्ष्मणकौमार्य चत्वारिंशद्विजेतृता । एकादश सहस्राष्टशतषष्ट्यब्दराजता ।।५३१|| कुमारकालः कृष्णस्य षोडशाब्दानि षट्युता । पञ्चाशन्मण्डलेशत्वं विजयोऽष्टाब्दकं स्फुटम् ||५३२॥ शतानि नव विंशत्या कृष्णराजस्य संमितिः । तथैकादशरुद्राणां कालसंख्या निरूप्यते || ५३३॥ तीर्थे भीमावर्जाितो वृषमस्याजितस्य तु । जितशत्रुरिति ख्यातो रुद्राख्यः सुविधेः पुनः || ५३४|| विश्वानलस्तु दशमे श्रेयसः सुप्रतिष्टकः । अचलो वासुपूज्यस्य पुण्डरीकस्तु बैमले ।।५३५।।
लाख सन्तानबे हजार नौ सौ बीस वर्षं पृथिवीतलपर नारायणपद धारण करते हुए राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ।।५२३-५२५ ॥
७४९
पुरुषसिंह नारायणकी कुल आयु दस लाख वर्षकी थी। उसमें तीन सौ वर्षं कुमार अवस्था में, एक सौ पचीस वर्ष मण्डलीक अवस्थामें सत्तर वर्ष दिग्विजय में और नो लाख निन्यानबे हजार पाँच सौ पाँच वर्षं राज्य अवस्था में व्यतीत हुए पुण्डरीक नारायणकी कुल आयु पैंसठ हजार वर्षकी थी। उनमें दो सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था में, इतने ही मण्डलीक अवस्थामें, साथ वर्षं दिग्विजय में, और चौंसठ हजार चार सौ चालीस वर्षं राज्य अवस्थामें व्यतीत हुए ।।५२८-५२९ ॥
||५२६-२२७।।
दत्त नारायणकी कुल आयु बत्तीस हजार वर्षकी थी । उसमें सो वर्षं कुमार अवस्था में पचास वर्षं मण्डलीक अवस्था में, पचास वर्ष दिग्विजयमें और इकतीस हजार सात सौ वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत हुए ||५३०||
लक्ष्मण नारायणकी कुल आयु बारह हजार वर्षकी थी । उसमें सौ वर्ष कुमार अवस्था में, चालीस वर्ष दिग्विजयमें और ग्यारह हजार आठ सौ साठ वर्षं राज्य अवस्थामें व्यतीत | हुए ||५३१ ।।
कृष्ण नारायणकी कुल आयु एक हजार वर्षकी है । उसमें सोलह वर्ष कुमार अवस्थामें, छप्पन वर्षं मण्डलीक अवस्थामें, आठ वर्ष दिग्विजय में और नौ सौ बीस वर्ष राज्य अवस्था में व्यतीत होंगे। इस प्रकार नारायणोंके कालका वर्णन किया। अब ग्यारह रुद्रोंके काल और संख्याका वर्णन करते हैं ।। ५३२-५३३||
रुद्र ग्यारह होते हैं । उसमें भगवान् वृषभदेव के तीर्थमें भीमावलि, अजितनाथ के तीर्थ में जितशत्रु, पुष्पदन्तके तीर्थंमें रुद्र, शीतलनाथके तीर्थ में विश्वानल, श्रेयांसनाथके तीर्थमें सुप्रतिष्ठक, वासुपूज्यके तीर्थ में अचल, विमलनाथके तीर्थंमें पुण्डरीक, अनन्तनाथके तीर्थंमें
★ ति प में पुरुषसिंह नारायणका मण्डलीककाल १२५० वर्ष तक और राज्यकाल नो लाख अंठानबे हजार तीन सौ अस्सी वर्ष बतलाया है ।
+ ति प में लक्ष्मणका मण्डलीककाल तीन सौ वर्ष और राज्यकाल ग्यारह हजार पाँच सौ साठ वर्ष बतलाया है ।
५. ति. प. में 'वैश्वानर' नाम आया है ।
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७५०
हरिवंशपुराणे अजितन्धरोऽनन्तस्य धर्मस्याजितनाभिकः । पीठाख्यः शान्तितीर्थेऽभूत् सुतो वीरस्य सत्यकेः ॥५३६॥ भीमाबलेस्तनूत्सेधः पन्चचापशतान्यतः । तान्यर्धपञ्चमान्येकं दशहानिस्त पञ्चसु ॥५३७।। अष्टाविंशतिरन्यस्य चतुर्विंशतिरप्यतः । सप्तैवारत्न योऽन्त्यस्य वपुरुत्सेध इष्यते ॥५३८।। पूर्वाण्यायुस्त्रयोऽशीतिलक्षास्त्वेकसप्ततिः । द्वे लक्षे चैकलक्षा च लक्ष्यालक्ष्यविचक्षणः ॥५३ ।। लक्षाश्चतुरशीतिश्च षष्टिः पञ्चाशदेव च । चत्वारिंशच्च वर्षाणां विंशतिर्लक्षया क्रमात् ॥५४॥ आयुरेकादशस्यापि वर्षाण्येकान्नसप्ततिः । अभिन्नदशपूर्वाणां रुद्राणां रौद्रकर्मणाम् ॥५४१॥ त्रयः कालास्तु सर्वेषां रुद्राणां क्रमशः स्थिताः । कौमारः संयमोपेतो गृहीतोज्झितसंयमः ॥५४२॥ कालस्त्रिभागशेषेण चतुर्णा संयमाधिकः । समा द्वयोस्त्रयोऽप्यन्ये कौमाराधिक इष्यते ॥५४३॥ संयमाधिक एकस्य कौमारोऽन्यस्य साधिकः । दशमस्यापि रुद्रस्य संयमाधिक एव सः ॥५४४॥ वर्षाणि सप्त कौमार्य विंशतिः संयमेऽष्टमिः। एकादशस्य रुद्रस्य चतुस्त्रिंशदसंयमे ॥५४५॥ द्वयोस्तु सप्तमी पृथ्वी पन्चानां षष्ठयधिष्ठितिः । एकस्य पञ्चमी भूमिश्चतुर्थी तु द्वयोस्ततः ॥५४६॥ तृतीयान्त्यस्य निर्दिष्टा यथोदिष्टा इमाः पुनः। भूर्यसंयममाराणां रुद्राणां जन्मभूमयः ॥५४७॥
अजितन्धर, धर्मनाथके तीर्थमें अजितनाभि, शान्तिनाथके तीर्थमें पीठ नामका रुद्र हुआ है तथा महावीरके तीर्थमें सत्यकिपुत्र रुद्र होगा ॥५३४-५३६।।
भीमावलीके शरीरको ऊंचाई पाँच सौ धनुष, जितशत्रुको साढ़े चार सौ धनुष, रुद्रकी सो धनुष, विश्वानलको नब्बे धनुष, सुप्रतिष्ठकको अस्सी धनुष, अचलकी सत्तर धनुष, पुण्डरीककी साठ धनुष, अजितन्धरको पचास धनुष, अजितनाभिकी अट्ठाईस धनुष, पीठकी चौबीस धनुष, और सत्यकिपुत्रकी सात धनुष मानी जाती है ।।५३७-५३८॥
इन रुद्रोंकी आयु क्रमसे तेरासी लाख पूर्व, इकत्तर लाख पूर्व, दो लाख पूर्व, एक लाख पूर्व, चौरासी लाख वर्ष, साठ लाख वर्ष, पचास लाख वर्ष, चालीस लाख वर्ष, बीस लाख वर्ष, दस लाख वर्ष और उनहत्तर वर्ष है। ये सभी रुद्र दश पूर्वके पाठी होते हैं और रोद्र कार्यके करनेवाले हैं ।।५३९-५४१।।
इन सभी रुद्रोंके क्रमसे तीन काल होते हैं-१ कुमारकाल, २ संयमकाल और ३ गृहीत संयमको छोडकर असंयमी होनेका काल ॥५४२॥ इनमें चारका संयमकाल विभाग शेषसे कुछ अधिक था अर्थात् कुमारकाल और असंयमकालसे कुछ अधिक था, दोके तीनों काल बराबर थे, सातवेंका कुमारकाल, आठवेंका असंयमकाल, नौवेंका कुमारकाल, और दसवेंका संयमकाल अधिक था। ग्यारहवें रुद्रका कुमारकाल सात वर्षका, संयमकाल अट्ठाईस वर्षका और असंयमकाल चौंतीस वर्षका होगा। ॥५४३-५४५।। ।
इनमें प्रारम्भके दो रुद्र सातवीं पृथिवी, पाँच रुद्र छठी पृथिवी, एक पांचवीं पृथिवी और दो चौथी पृथिवी गये हैं तथा अन्तिम रुद्र तीसरी भूमिमें जावेगा। उन रुद्रोंके जीवन में असंयमका भार अधिक होता है। इसलिए उन्हें नरकगामी होना पड़ता है ।।५४६-५४५॥
१. ज्ञातव्या (ङ. टि.)। २. 'दशलक्षाप्रमितम्' इति सर्वहस्तलिखितप्रतिषु 'लक्षया' इत्यस्योपरि अंकैलिखितम् । तेसोदी द्वणिसत्तरि दोणि एक्कं च पुग्वलक्खाणि । चुलसीदी सद्विपण्णा चालिस वस्साणि लक्खाणि ॥१४४६॥ बीस दस चेव लक्खा वासा एक्कूणसत्तरी कमसो। एक्कारसरुद्दाणं पमाणमउस्स रिद्दिटुं ।।१४४७।। ३. तूर्यसंयम-ख, तूर्य-ङ चतुर्थव्रतधारिणां नारदानाम् (ङ. टि.)। +यह विषय ति. प. में तीनों कालोंके अलग-अलग अंक देकर स्पष्ट किया गया है (चतुर्थ अधिकार गाथा १४४८ से १४६७ गाथा तक)।
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षष्टितमः सर्गः
७५१
मीमश्चाथ महाभीमो रुद्रनामा तृतीयकः । महारुद्रोऽथ कालश्च महाकालश्व तुर्मुखः ॥५४८॥ नरवक्त्रोन्मुखाख्यौ द्वौ नबैते नारदाः स्मृताः । वासुदेवसमानायुःस्थितिस्तेषां प्रजायते ॥५४९॥ कलहे प्रीतिसंयुक्ताः कदाचिद्धर्मवत्सलाः । सिंहानन्दवशास्त्वेते महाभन्या जिनानुगाः ॥५५०॥ वर्षाणां षटशतीं त्यक्त्वा पञ्चाग्रं मासपञ्चकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽमवत् ॥५५१॥ मुक्तिंगते महावीरे प्रतिवर्षसहस्रकम् । एकको जायते कल्की जिनधर्मविरोधकः ॥५५२॥ इहास्यामवसर्पिण्या यथा तीर्थकरादयः । उत्सर्पिण्यां मविष्यन्त्यां भविष्यन्ति तथा परे ॥५५३॥ मविष्यदुःषमाशेषे सहस्रपरिमाणके । चतुर्दश भविष्यन्ति प्रागिमे कुलकारिणः ॥५५॥ कनकनकसंकाशः कनकः कनकप्रमः । त्रयः कनकपूर्वाः स्युस्ते राजध्वजपुङ्गवाः ॥५५५॥ नलिनीदलसंकाशो नलिनो नलिनप्रभः । नलिनोपपदास्त्वन्ये ते राजध्वजपुङ्गवाः ॥५५६॥ ततः पद्मप्रभो ज्ञेयः पद्मराजस्ततः परः । पद्मध्वजश्व बोद्धव्यः पनपुङ्गव एव च ॥५५७॥ तीर्थकृच्च महापद्मः सुरदेवो जिनाधिपः । सुपार्श्वनामधेयोऽन्यो यथार्थश्च स्वयंप्रमः ॥५५८॥ सर्वात्मभूत इत्यन्यो देवदेवः प्रभोदयः । उदतः प्रश्नकीर्तिश्च जयकीर्तिश्च सुव्रतः ॥५५९॥ अरश्च पुण्यमूर्तिश्च निष्कषायो जिनेश्वरः । विपुलो निर्मलामिख्यश्चित्रगुप्तो परः स्मृतः ॥५६॥
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल. चतमंख. नरवक्त्र और उन्मख.ये नौ नारद माने गये हैं। उनकी आयु नारायणोंकी आयुके बराबर होती है तथा वे नारायणोंके समय ही होते हैं। वे कलहमें प्रीतिसे युक्त होते हैं, कदाचित् धर्मसे भी स्नेह रखते हैं, हिंसामें आनन्द मानते हैं तथा महाभव्य और जिनेन्द्र भगवान्के अनुगामी होते हैं ।।५४८-५५०॥
भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके पश्चात् छह सौ पांच वर्ष पांच मास बीत जानेपर राजा शकर होगा और हजार-हजार वर्ष बाद एक-एक कल्की राजा होता रहेगा जो जैनधर्मका विरोधी होगा ।।५५१-५५२॥ जिस प्रकार इस अवसर्पिणीमें तीर्थंकर आदि हुए हैं उसी प्रकार आगे आनेवाली उत्सर्पिणीमें भी दूसरे-दूसरे तीर्थंकर आदि होंगे ॥५५३॥ जब आनेवाले दुःषमा नामक कालमें एक हजार शेष रह जावेंगे तब पहले क्रमसे ये चौदह कुलकर होंगे-१ देदीप्यमान स्वर्णके समान कान्तिवाला कनक, २ कनकप्रभ, ३ कनकराज, ४ कनकध्वज, ५ कनकपुंगव, ६ कमलिनीके पत्तेके समान वर्णवाला नलिन, ७ नलिनप्रभ, ८ नलिनराज, ९ नलिनध्वज, १० नलिनपुंगव, ११ पद्मप्रभ, १२ पद्मराज, १३ पद्मध्वज और १४ पद्मपुंगव ।।५५४-५५७||
कुलकरोंके बाद क्रमसे निम्नलिखित चौबीस तीर्थंकर होंगे-१ महापद्म, २ सुरदेव, ३ सपावं. ४ स्वयम्प्रभ, ५ सर्वात्मभूत, ६ देवदेव, ७ प्रभोदय, ८ उदंक, ९ प्रश्नकोति, १ कीर्ति, ११ सुव्रत, १२ अर, १३ पुण्यमूर्ति, १४ निष्कषाय, १५ विपुल, १६ निर्मल, १७ चित्रगुप्त,
शकराजाकी उत्पत्तिके विषयमें ति. प. में इस मतके सिवाय निम्नलिखित ३ मतोंका उल्लेख और किया गया है-(१) वीर जिनेन्द्रकी मुक्ति होनेके बाद चार सौ इकसठ वर्ष प्रमाणकाल बीत जानेपर शक राजा उत्पन्न हुआ। (२) नौ हजार सात सौ पचासी वर्ष और पांच मास बीत जानेपर (३) चौदह हजार सात सो तिरानबे वर्ष बीत जानेपर । गाथा निम्न प्रकार है-वीरजिणे सिद्धिगदे चऊसद इगि सट्रिवास परिमाणे। कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ शकराओ ॥१४९६॥ अहवा तीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयब्भहिये। पणसीदिम्मि यतीदे षणमासे सकणिओ जादो ॥१४९७॥ चोदस सहस्स सगसय तेणउदी वासकाल विच्छेदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पणो सगणिओ अहवा ॥१४९८।। णिवाणे वीरजिणे छब्बास सदेसु पंचवरिसेसुं । षणमासेसु गरेसुं संजादो सगणिओ अहवा ॥१४९९।। ति. प. च. अ.।
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७५२
हरिवंशपुराणे समाधिगुप्तनामान्यः स्वयंभूरनिवर्तकः । जयो विमलसंज्ञश्च 'दिव्यपाद इतीरितः ॥५६१॥ चरमोऽनन्तवीर्योऽमी वीर्यधैर्यादिसद्गुणाः । चतुर्विशतिसंख्याना भविष्यत्तीर्थकारिणः ॥५६२॥ मरतो दीर्घदन्तश्च जन्मदन्तश्च चक्रिणः । गूढदत्तोऽपरो नाम्ना श्रीषेण इति विश्रतः ।।५६३॥ श्रीभूतिरितिभूतोऽन्यः श्रीकान्तः पद्मनामकः । महापद्मस्तथैवान्यश्चित्रवाहनसंज्ञकः ॥५६४।। विमुक्कमलसंपर्को नाम्नः विमलवाहनः । अरिष्टसेन इत्येते चक्रिणो द्वादशोदिताः ॥५६५।। नन्दी च नन्दिमित्रश्च नन्दिनो नन्दिभूतिकः । महातिबलनामानौ बलभद्रश्च सप्तमः ।।५६६॥ द्विपृष्टश्च त्रिपृष्ठश्च वासुदेवा नवैव ते । मविष्यन्त्यञ्जनच्छायाश्च्छायाछन्नदिगन्तराः ॥५६७।। चन्द्रश्चापि महाचन्द्रस्तथा चन्द्रधरश्रुतिः । सिंहचन्द्रो हरिश्चन्द्रः श्रीचन्द्रः पूर्णचन्द्रकः ॥५६॥ सुचन्द्रो बालचन्द्रश्च नवैते चन्द्र सप्रमाः । बलाः प्रतिद्विपश्चान्ये नव श्रीहरिकण्ठको ।।५६९।। नीलकण्ठाश्वकण्ठौ च सुकण्ठशिखिकण्ठको । अश्वग्रीवहयग्रीवो मयूरग्रीव इत्यपि ।।५७०।। प्रमदः संमदो हर्षः प्रकामः कामदो मवः । हरो मनोभवो मारः कामो रुद्रस्तथाङ्गजः ॥५७१॥ मव्याः कतिपयैरेव तेऽपि सेत्स्यन्ति जन्मभिः । रत्नत्रयपवित्रालाः सन्तः सन्तो नरोत्तमाः ॥५.२॥
वसन्ततिलकावृत्तम्
वलपरासस.ट.
अन्तर्मुहूर्तमपि लब्धविमुक्तमेकं सम्यक्त्वरत्नमचिरेण विमुक्तिहेतुः । रत्नत्रयस्य तु 'पवित्रतमस्य लोके साक्षाद्भवप्रमथनस्य किमत्र वाच्यम् ॥५.३।।
१८ समाधिगुप्त, १९ स्वयम्भू, २० अनिवर्तक, २१ जय, २२ विमल, २३ दिव्यपाद और २४ अनन्तवीर्य । ये सभी वीयं धैर्य आदि सद्गुणोंसे सहित होते हैं ।।५५८-५६२।।
१ भरत, २ दीर्घदन्त, ३ जन्मदत्त, ४ गूढ़दत्त, ५ श्रीषेण, ६ श्रीभूति, ७ श्रीकान्त, ८ पद्मनामक, ९ महापद्म, १० चित्रवाहन, ११ मलके सम्पर्कसे रहित विमलवाहन और १२ अरिष्टसेन ये होनेवाले बारह चक्रवर्ती कहे गये हैं ।।५६३-५६५।।
१ नन्दी, २ नन्दिमित्र, ३ नन्दिन, ४ नन्दिभूतिक, ५ महाबल, ६ अतिबल, ७ बलभद्र, ८ द्विपृष्ठ और ५ त्रिपृष्ठ ये नौ भविष्यत्कालमें होनेवाले नारायण हैं। ये अंजनके समान कान्तिके धारक होते हैं तथा अपनी कान्तिसे दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त करते हैं ॥५६६-५६७।।
१ चन्द्र, २ महाचन्द्र , ३ चन्द्रधर, ४ सिंहचन्द्र, ५ हरिश्चन्द्र, ६ श्रीचन्द्र, ७ पूर्णचन्द्र, ८ सुचन्द्र और ९ बालचन्द्र ये नौ आगामीकालमें होनेवाले बलभद्र हैं। ये सभी चन्द्रमाके समान कान्तिके धारक होते हैं।
१ श्रीकण्ठ, २ हरिकण्ठ, ३ नीलकण्ठ, ४ अश्वकण्ठ, ५ सुकण्ठ, ६ शिखिकण्ठ, ७ अश्वग्रीव, ८ हयग्रीव और ९ मयूरग्रीव ये नौ प्रतिनारायण होंगे ।।५६८-५७०।।
१ प्रमद, २ सम्मद, ३ हर्ष, ४ प्रकाम, ५ कामद, ६ भव, ७ हर, ८ मनोभव, ९ मार, १० काम और ११ अंगज ये ग्यारह रुद्र होंगे। ये सब भव्य होंगे तथा कुछ ही भवोंमें मोक्ष प्राप्त करेंगे। इनके शरीर भी रत्नत्रयसे पवित्र होंगे तथा उत्तम महापुरुष होगे ।।५७१-५७२।।
एक सम्यग्दर्शनरूपी रत्न अन्तर्मुहूर्त के लिए भी प्राप्त होकर छूट जाता है तो वह भी शीघ्र ही मोक्षप्राप्तिका कारण होता है, फिर संसारमें अतिशय पवित्र एवं साक्षात् भवभ्रमणको नष्ट करनेवाले रत्नत्रयकी तो बात ही क्या है ? ||५७३।।
१. दिव्यवाद म. । २. पवित्रितमस्य म.।
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षष्टितमः सर्गः
वाक्यं त्रिकालविषयार्थनिरूपणार्थ माकर्ण्य कर्ण सुखमित्थमिनस्य भूपाः । कृष्णादयो हरिरविप्रमुखाश्च देवा नत्वा जिनं स्वपदमीयुरूपात्ततस्वाः ||५७०४ ॥
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इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ त्रिषष्टिपुरुष जिनान्तरवर्णनो नाम षष्टितमः सर्गः ॥ ६०॥
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इस प्रकार भगवान् नेमिनाथकी कर्णोको सुख उपजानेवालो एवं त्रिकालविषयक पदार्थोंका वर्णन करनेवाली दिव्यध्वनि सुनकर कृष्ण आदि राजा तथा इन्द्र और सूर्य आदि देव, धर्मके यथार्थं तत्त्वको ग्रहण कर एवं नेमि जिनेन्द्रको नमस्कार कर अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥ ५७४ ।।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में शठ शलाकापुरुषों का चरित्र तथा तीर्थकरों के अन्तरालका वर्णन करनेवाला साठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥ ६० ॥
७५३
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एकषष्टितमः सर्गः
आकृतं श्रेणिकस्याथ ज्ञात्वा गणभृदग्रणीः । वृत्तं गजकुमारस्य जगादेति जगन्नतम् ॥१॥ श्रुत्वा गजकुमारोऽसौ जिनादिचरितं तथा । विमोच्य सकलान् बन्धून् पितृपुत्रपुरस्सरान् ॥२॥ संसारभीरुरासाद्य जिनेन्द्र 'प्रश्रयान्वितम् । गृहीत्वानुमतो दीक्षां तपः कर्तुं समुद्यतः ॥३॥ निरूपितास्त याः कन्याः कुमाराय गजाय ताः । प्रभावत्यादयः सर्वा निर्वेदिन्यः प्रववजुः ।।४।। कुमारश्रमणस्याथ गजस्यैकान्तवर्तिनः । निशीथे प्रतिमास्थस्य सर्वद्वन्द्वसहस्य सः ।।५।। सोमशर्मा सुतात्यागक्रोधाग्निकणदीपितः । अदीदिपदुदाराग्निं शिरसि स्थिरचेतसः ।।३।। दह्यमानशरीरोऽसौ शुक्लध्यानेन कर्मणाम् । अन्तं कृत्वा ययौ मोक्षमन्तकृत्केवली मुनिः ॥७॥ तस्य देहमहं चक्रुः समुपेत्य सुरासुराः । यक्षकिन्नरगन्धर्वमहोरगपुरोगमाः ॥८॥ ज्ञात्वा तन्मरणं दुःखाद् यादवा बहवस्तथा । दशाहांश्च विहायान्त्यं दीक्षिता मोक्षकाइक्षिणः ॥९॥ देव्यः शिवादयो बढ्यो देवकी रोहिणी विना । वसुदेव स्त्रियो विष्णोः कन्याश्चापि प्रवबजुः ॥१०॥ ततः सुरनराभ्यो नानाजनपदान् जिनः । विजहार महाभूत्या मध्यराजी प्रबोधयन् ॥११॥ उदीच्यान्नृपशालान् मध्यदेशनिवासिनः । प्राच्यानपि प्रजायुक्तान् स धर्मे स्थापयन् बहून् ।।१२।।
अथानन्तर श्रेणिकका अभिप्राय जानकर गणधरोंके अधिपति श्री गौतम स्वामीने जगतके द्वारा स्तुत गजकुमारका वृत्तान्त इस प्रकार कहना शुरू किया ॥ १ ॥ वे कहने लगे कि इस प्रकार गजकुमार, तीर्थंकर आदिका चरित्र सुनकर संसारसे भयभीत हो गया और पिता, पुत्र, आदि समस्त बन्धुजनोंको छोड़कर बड़ी विनयसे जिनेन्द्र भगवानके समीप पहुँचा और उनसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण कर तप करनेके लिए उद्यत हो गया ॥ २-३ ॥ गजकुमारके लिए जो प्रभावती आदि कन्याएं निश्चित की गयी थीं उन सभीने संसारसे विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ।। ४ ।।
तदनन्तर किसी दिन गजकुमार मुनि रात्रिके समय एकान्तमें प्रतिमायोगसे विराजमान हो सब प्रकारको बाधाएं सहन कर रहे थे कि सोमशर्मा अपनी पुत्रीके त्यागसे उत्पन्न क्रोधरूपी अग्निके कणोंसे प्रदीप्त हो उनके पास आया और स्थिर चित्तके धारक उन मुनिराजके शिरपर तीव्र अग्नि प्रज्वलित करने लगा ॥५-६॥ उस अग्निसे उनका शरीर जलने लगा। उसी अवस्थामें वे शक्लध्यानके द्वारा कर्मोका क्षय कर अन्तकृत्केवली हो मोक्ष चले गये ॥ ७॥ यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और महोरग आदि सुर और असुरोंने आकर उनके शरीरकी पूजा की ।। ८ ॥ गजकुमार मुनिका मरण जानकर दुःखी होते हुए बहुत-से यादव तथा वसुदेवको छोड़कर शेष समुद्रविजय आदि दशाह मोक्षकी इच्छासे दीक्षित हो गये ॥ ९॥ शिवा आदि देवियों, देवकी और रोहिणोको छोड़कर वसुदेवकी अन्य स्त्रियों तथा कृष्णकी पुत्रियोंने भी दीक्षा धारण कर ली ॥१०॥
तदनन्तर देव और मनुष्योंसे पूजित भगवान् नेमिजिनेन्द्रने, भव्य जीवोंके समूहको प्रकोधित करते हुए, नाना देशों में बड़े वैभवके साथ विहार किया ॥ ११॥ उन्होंने उत्तर दिशाके, मध्यदेशके तथा पूर्व दिशाके प्रजासे युक्त अनेक बड़े-बड़े राजाओंको धर्ममें स्थिर करते हुए विहार
१. प्रश्रयान्वितं यथा स्यात्तथा । २. दीप्तितः म. । ३. शरीरपूजाम् । ४. दुःखा म. । ५. सुरवराभ्यर्यो म.।
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एकषष्टितमः सर्गः
विहृत्य चिरमीशानः पुनरागत्य पूर्ववत् । गिरौ रैवतके तस्थौ समवस्थानमण्डनः ||१३|| तत्र स्थितं जिनेन्द्र सं देवेन्द्राः सान्द्रतेजसः । प्राप्य नत्वा नतिं कृत्वा निजस्थानेषु सुस्थिताः ॥ १४ ॥ वसुदेवो बलः कृष्णः सान्तःपुरसुहृज्जनः । द्वारिकाप्रजया युक्तः प्रद्युम्नादिसुतान्वितः ||१५|| विभूत्या परयागत्य शैवेर्यमभिवन्द्यते । आसीनाः समवस्थाने धर्मं शुश्रूषुरीश्वरात् ||१६|| तत्र धर्मकथान्तेऽसौ जिनं नव्या हलायुधः । पप्रच्छ वस्तुचित्तस्थं करकुड्मलितालिकः ||१७|| नाथ वैश्रवणेनेयं निर्मिता द्वारिकापुरी । कियतानेहसान्तोऽस्याः कृतका हि विनश्वराः ||१८|| निमज्जेत् स्वत एवेयं किमु कालान्तरेऽम्बुधौ । निमित्तान्तरसानिध्ये केनचिद्वा' विनाश्यते ॥१९॥ स्वान्तकाले निमित्तrd को वा कृष्णस्य यास्यति । जातानां हि समस्तानां जीवानां नियता मृतिः ॥ २०॥ संयमप्रतिपत्तिर्वा कालेन कियता प्रभो । कृष्णस्नेहमहापाशबद्धचित्तस्य मे मवेत् ॥२१॥ इति पृष्टो जिनोऽगादी दृष्टाशेषपरापरः । याथातथ्यं यथाप्रश्नं यत्प्रश्नोत्तरवाद्यौ ॥२२॥ पुरीयं द्वादशे वर्षे राम मथेन हेतुना । द्वैपायर्नकुमारेण मुनिना वक्ष्यते रुषा ॥ २३ ॥
कौशाम्बवन सुप्तस्य कृष्णस्य परमायुषः । प्रान्ते जरत्कुमारोऽपि संहारे हेतुतां व्रजेत् ॥ २४॥
१०
● अभ्यन्तरस्य सान्निध्ये हेतोः परिणतेर्वशात् । बाह्यो हेतुर्निमित्तं हि जगतोऽभ्युदये क्षये ॥ २५॥
किया था ।। १२ । चिरकाल तक विहार कर भगवान् पुनः आये और रैवतक ( गिरनार ) पर्वतपर समवसरणको सुशोभित करते हुए विराजमान हो गये ॥ १३ ॥ प्रबल तेजको धारण करनेवाले इन्द्र वहाँ विराजमान जिनेन्द्र भगवान् के पास आये और नमस्कार तथा स्तुति कर अपनेअपने स्थानोंपर बैठ गये ॥ १४ ॥
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अन्तःपुर की रानियों, मित्रजन, द्वारिकाकी प्रजा तथा प्रद्युम्न आदि पुत्रोंसे सहित वसुदेव, बलदेव तथा कृष्ण भी बड़ी विभूतिके साथ आये और भगवान् नेमिनाथको नमस्कार कर समवसरण में यथास्थान बैठ भगवान् से धर्मं श्रवण करने लगे || १५ - १६ ॥ तदनन्तर धर्नकथाके बाद जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर बलदेवने हाथ जोड़ ललाटसे लगा, अपने हृदय में स्थित बात पूछी ॥ १७ ॥। उन्होंने पूछा कि हे भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेरके द्वारा रची गयी है सो इसका अन्त कितने समय में होगा। क्योंकि कृत्रिम वस्तुएँ अवश्य ही नश्वर होती हैं ॥ १८ ॥ यह द्वारिकापुरी कालान्तर में क्या अपने आप ही समुद्रमें डूब जावेगी ? अथवा निमित्तान्तरके सनधान में किसी अन्य निमित्तसे विनाशको प्राप्त होगी ? कृष्णके अपने अन्तकाल में निमित्तपनेको कौन प्राप्त होगा ? क्योंकि उत्पन्न हुए समस्त जीवोंका मरण निश्चित है । हे प्रभो ! मेरा चित्त कृष्णके स्नेहरूपी महापाशसे बँधा हुआ है अतः मुझे संयमको प्राप्ति कितने समय बाद होगी ? ॥१९-२१ ॥ इस प्रकार बलदेवके पूछनेपर समस्त परापर पदार्थोंको देखनेवाले नेमि जिनेन्द्र, प्रश्नके अनुसार यथार्थं बात कहने लगे, सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् प्रश्नोंका उत्तर निरूपण करनेवाले ही थे ॥२२॥
उन्होंने कहा कि हे राम ! यह पुरी बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्तसे द्वैपायन मुनिके द्वारा क्रोधवश भस्म होगी ||२३|| अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बीके वनमें शयन करेंगे और जरकुमार उनके विनाशमें कारणपनेको प्राप्त होगा ||२४|| अन्तरंग कारणके रहते हुए परिणतिवश
१. युक्ताः म. । २. शिवाया अपत्यं पुमान् शैवेयस्तं नेमिनाथम् । ३. धर्मस्थाने म । ४. 'शुश्रुवुरीश्वरात्' इति पाठेन भवितव्यम् । ५ - द्भाविनास्यते भ. । ६. का केन म. । ७. मेऽभवत् म. । ८. द्वीपायन म. । ९. कौशाम्बीवन -ख. । १०. अनन्तरस्य म. ।
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हरिवंशपुराणे
जानन्तो वस्तुसद्भावमतोऽभ्युदयनाशयोः । हर्ष भुवि विषादं च न गच्छन्ति मनस्विनः ॥ २६ ॥ भवतोऽपि तपःप्राप्तिस्तन्निमित्तात्तदा भवेत् । भवपद्धतिमीतस्य ब्रह्मलोकोपपादिनः ॥२७॥ द्वैपायनकुमारोऽसौ रोहिण्याः सोदरो यतिः । तदाकर्ण्य वचो जैनं निर्वेदी तपसि स्थितः ॥ २८ ॥ अवधेः पूरणायातः पूर्व देशमुपेत्य सः । तपश्चरितुमारब्धः कषायतनुशोषणम् ॥ २९ ॥ दुःखी जरत्कुमारश्च दुःखितान् भ्रातृबान्धवान् । परिस्यज्य गतः कापि स हरिर्यत्र नेक्ष्यते ॥ ३० ॥ जरत्कुमारे प्रगते वनमेकाकिनि स्थिते । हरिः स्नेहाकुलो मेने शून्यमात्मानमात्मनि ॥३१॥ चचार मृगसामान्यं विजनो विजनं वनम् । हरिप्राणप्रियः प्राणान् प्रियान् हातुमनाः क्वचित् ॥ ३२ ॥ aisपि जनमानस्य यादवा विविशुः पुरीम् । आगामिदुःखसंभारचिन्ता संतप्तमानसाः ॥३३॥ घोषणां कारयांचक्रे चक्री पुरि बलान्वितः । मद्याङ्गानि च मयानि विसृज्यन्तामिति द्रुतम् ॥३४॥ पिष्टकिण्वादिमचाङ्गैस्ततो मयानि मद्यपैः । क्षिप्तानि सशिला कुण्डे' कादम्बगिरिगह्वरे ॥३५॥ कदम्बवनकुण्डेषु 'मुक्ता कादम्बरी तु या । साइमपाकविशेषस्य हेतुत्वेनावतिष्ठते ॥३६॥ तथान्या घोषणादायि कृष्णेन हितबुद्धिना । द्वारिकायां महापुर्यां स्त्रीणां पुंसां च शृण्वताम् ॥३७॥ पिता मे यदि वा माता सुता चान्तःपुराङ्गना । तपस्यन्तु मते जैने वारयामि न तानहम् ॥३८॥
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बाह्य हेतु जगत् के अभ्युदय तथा क्षयमें कारण होते हैं इसलिए वस्तुके स्वभावको जाननेवाले उत्तम मनुष्य अभ्युदय तथा क्षयके समय पृथिवीपर कभी हर्षं और विषादको प्राप्त नहीं होते ।। २५-२६॥
संसार के मार्ग से भयभीत रहनेवाले आपको भी उसी समय कृष्णकी मृत्युका निमित्त पाकर तपकी प्राप्ति होगी तथा तपकर आप ब्रह्मस्वर्ग में उत्पन्न होंगे ||२७|| द्वैपायनकुमार रोहिणीका भाई - बलदेवका मामा था सो उस समय भगवान् के वचन सुनकर वह संसारसे विरक्त हो मुनि होकर तप करने लगा ||२८|| वह बारह वर्ष की अवधिको पूर्ण करनेके लिए यहांसे पूर्व देशकी ओर चला गया और वहां कषाय तथा शरीरको सुखानेवाला तप करने लगा ||२९|| 'मेरे निमित्तसे कृष्णकी मृत्यु होगी' यह जानकर जरत्कुमार भी बहुत दुःखी हुआ और दुःखसे युक्त भाईबन्धुओंकी छोड़कर वह कही ऐसी जगह चला गया जहाँ कृष्ण दिखाई भी न दें ॥ ३० ॥ जब जरत्कुमार वनमें जाकर अकेला रहने लगा तब स्नेहसे आकुल श्रीकृष्ण ने अपने-आपमें अपनेआपको सूना अनुभव किया ॥ ३१ ॥ जो कृष्णको प्राणोंके समान प्यारा था ऐसा जरत्कुमार कहीं प्रिय प्राणोंको छोड़ने की इच्छासे अकेला ही मृगोंके समान निर्जन वनमें भ्रमण करने लगा ॥३२॥ इधर आगामी दुःखके भारको चिन्तासे जिनके मन सन्तप्त हो रहे थे ऐसे यादव लोग भगवान्को नमस्कार कर नगरीमें प्रविष्ट हुए ||३३|| बलदेवके साथ कृष्णने नगर में यह घोषणा करा दी कि मद्य बनाने के साधन और मद्य शीघ्र ही अलग कर दिये जायें ॥ ३४ ॥ घोषणा सुनते ही मद्यपाय लोगोंने पिष्ट, किण्व आदि मदिरा बनाने के साधनों के साथ-साथ समस्त मदिराको शिलाओं के बीच बने हुए कुण्डसे युक्त कादम्ब गिरिकी गुहा में फेंक दिया ॥ ३५ ॥ कदम्ब वनके कुण्डों में जो मदिरा छोड़ो गयी थी वह अश्मपाक विशेषके कारण उन कुण्डों में भरी रही । भावार्थं - पत्थरको कुण्डियोंमें जिस प्रकार कोई तरल पदार्थ स्थिर रहा आता है उसी प्रकार कदम्ब वनके शिलाकुण्डों में वह मंदिरा स्थिर रही आयी ।। ३६ ।। हितकी इच्छा रखनेवाले कृष्णने समस्त स्त्री-पुरुषोंके सुनते समय द्वारिकापुरीसें दूसरी घोषणा यह टी कि यदि मेरे पिता, माता, पुत्री अथवा अन्तःपुरकी स्त्री आदि कोई भी जिनेन्द्र भगवान्के मतमें दीक्षित हो तप करना चाहें तो में उन्हें मना नहीं करता हूँ- उन्हें तप करनेकी मेरी ओरसे
१. द्वीपायन - म., ख. । २. हरिः प्राणप्रियः म । ३. सशिलाकुण्डकादम्ब - क. । ४. युक्ता म.
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एकपष्टितमः सर्ग:
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ततः प्रद्युम्नमाम्वाद्याः कुमाराश्चरमाङ्गकाः । अन्ये च बहवो यातास्तपोवनमसजिनः ॥३९॥ रुक्मिणीसत्यमामाद्या महादेव्योऽष्ट सस्नुषाः । लब्धानुज्ञा हरेः स्त्रीमिः सपत्नीभिः प्रयव्रजुः ॥२०॥ सिद्धार्थसारथिर्धाता बलदेवेन याचितः । बोधनं व्यसने स्वस्थ प्रतिपद्य तपोऽगृहीत् ॥४१॥ ततः संघेन महता जिनः पल्लवदेशभाक् । बभूव मव्यबोधार्थ भव्याम्भोरुहभास्करः ॥४२॥ राजस्त्रीनरसंघातो यावान् प्रव्रजितस्तदा । जिनेनैव समं सोऽयादुत्तरापथमुद्यमी ॥४३॥ 'वर्षद्वादश चोद्वस्य पुर्याः लोकः क्वचिदने । कृत्वा वासं पुनस्तत्र स्वागतश्च विधेर्दशात् ॥४४॥ इतो द्वारवतीलोकः परलोकमयान्वितः । व्रतोपवासपूजासु सुतरां निरतोऽभवत् ।। ३५॥ द्वैपायनोऽपि महता तपसा सहितस्ततः । व्यतीतं द्वादशं वर्ष मन्वानो भ्रान्तिहेतुना ॥४६॥ व्यतिक्रान्तो जिनादेश इति ध्यात्वा विमूढधीः । संप्राप्तो द्वादशे वर्षे सम्यग्दर्शनदुबलः ॥४७॥ धृतातापनयोगश्च तस्थौ प्रतिमया पथि । द्वारिकाबहिरम्याशे कदाचिन्निकटे गिरेः ॥४८॥ वनक्रीडापरिश्रान्ताः पिपासाकुलिता जलम् । इति कादम्बकुण्डेषु शम्बाद्यास्तां सुरां पपुः ॥४॥ कदम्बवनसंन्यस्ता कदम्बकतया स्थिताम् । पीत्वा कादम्बरी मृष्टां कुमारा विकृति गताः ॥५॥
पूर्ण छूट है ॥३७-३८|| घोषणा सुनते ही प्रद्युम्नकुमार तथा भानुकुमारको आदि लेकर चरमशरीरी कुमार और अन्य बहुत-से लोग परिग्रह का त्याग कर तपोवनको चले गये ||३९|| रुक्मिण। और सत्यभामा आदि आठ पट्टरानियोंने भी आज्ञा प्राप्त कर पुत्रवधुओं तथा अन्य सौतोंके साथ दीक्षा धारण कर ली ।।४०॥ सिद्धार्थ नामका सारथि जो बलदेवका भाई था जब दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक हुआ तब बलदेवने उससे याचना को कि कदाचित् मैं मोहजन्य व्यसनको प्राप्त होऊँ तो मुझे सम्बोधित करना। बलदेवकी इस प्रार्थनाको स्वीकृत कर उसने तप ग्रहण कर लिया ॥४१॥
। तदनन्तर जो भव्यरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान थे ऐसे भगवान् नेमिजिनेन्द्र, भव्य जीवोंको सम्बोधने के लिए बड़े भारी संघके साथ पल्लव देशको प्राप्त हुए ॥४२॥ उस समय जो राजा-रानियों और मनुष्योंका समूह दोक्षित हुआ था वह जिनेन्द्र भगवान्के साथ ही साथ उतरापथकी ओर चलने के लिए उद्यमी हुआ ॥४३॥ द्वारिकाके लोग द्वारिकासे बाहर जाकर बारह वर्ष तक कहीं इनमें रहते आये परन्तु भाग्यकी प्रबलासे वे वहाँ निवास कर फिर वहीं वापस आ गये ||४४|| इधर द्वारिकामें जो लोग रहते थे वे परलोकके भयसे युक्त हो व्रत, उपवास तथा पूजा आदि सत्कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे ।।४५॥
तदनन्तर बहुत भारो तपसे युक्त जो द्वैपायन मुनि थे वे भी भ्रान्तिवश बारहवें वर्षको व्यतीत हुआ मानते हुए बारहवें वर्षमें वहां आ पहुंचे। 'जिनेन्द्र भगवानशा आदेश पूरा हो चुका है' यह विचारकर जिनको बुद्धि विमूढ़ हो रही थी तथा जो सम्यग्दर्शनसे दुबल थे ऐसे द्वैपायन मुनि बारहवें वर्ष में वहीं आ पहुँचे ।।४६-४७|| वे किसी समय द्वारिकाके बाहर पर्वतके निकट, मार्गमें आतापन योग धारण कर प्रतिमायोगसे विराजमान थे ॥४८|| उसी समय वनक्रीड़ासे थके एवं प्याससे पीड़ित शम्ब आदि कुमारोंने कादम्ब वनके कुण्डोंमें स्थित उस शराबको पी लिया ॥४९॥ कदम्ब वनमें छोड़ी एवं कदम्ब रूपसे डबरोंके रूपमें स्थित उस मधुर मदिराको पीकर वे सब कुमार विकार भावको प्राप्त
१ बलदेवनयान्वितः म.। २. प्रतिपाद्य क., ख., घ., म.। ३. पाया-म., याया ख., घ. । ४. वर्षान् द्वादश क., वर्षे द्वादश म. । ५. द्वारवतीम् म. । ६.द्वीपायनोऽपि म.। ७. सुस्वाद्यां तां क. .
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हरिवंशपुराणे वारुणी सा पुराणापि परिपाकवशाद्वशान् । तरुणानकरोद्गाढं तरुणीवारुणेक्षणान् ॥५१॥ असंबद्धानि गायन्तो नृत्यन्तः स्खलितक्रमाः। मुक्तकेशाः कृतोत्तंसाः कण्ठालम्बिवनम्रजः ॥५२॥ आगच्छन्तः मुरः सर्वे दृष्ट्वार्कामिमुखं मुनिम् । प्रत्यभिज्ञाय चावोचन् घूर्णमाननिरीक्षणाः ॥५३॥ सोऽयं द्वैपायनो योगी द्वारवत्याः किलान्तकृत् । मवितास्माकमद्याने व प्रयाति वराककः ॥५४॥ इत्युक्त्वा तं कुमारास्ते लोष्टुमिः सर्वतोऽश्मभिः । प्रजघ्नुनिघृणास्तावद्यावत्पतति भूतले ॥५५॥ क्रोधाधिक्यात्ततो दधे दुष्टोष्ठो भृकुटीकुटीम् । प्रलयाय यदना सः प्रायः स्वतपसोऽपि च ॥५६॥ प्रविष्टास्तु पुरी व्याला व्याला इव चलाचलाः । कुमाराः कश्चिदुक्तं तु दुर्वृत्तं लघु विष्णवे ॥५७॥ बलनारायणौ श्रुत्वा द्वैपायनमुपश्रुतम् । द्वारिकायाः क्षयं प्राप्तं मनाते जिनभाषितम् ॥५८॥ सभ्रमण परिप्राप्तो परित्यक्तपरिच्छदी। मुनि क्षमयितुं क्रोधाज्वलन्तमिव पावकम् ॥५९॥ दृष्टः संक्लिष्टधीस्ताभ्यां भ्रूभङ्गविषमाननः । दुनिरीक्ष्येक्षणः क्षीणः कण्ठप्राणो विभीषणः ॥६०॥ कृताञ्जलिपुटाभ्यां स प्रणिपत्य महादरात् । याच्यते याचना बन्ध्यं जानद्यामपि मोहतः ॥६॥ रक्ष्यतां रक्ष्यता साधो चिरं सुपरिरक्षितः । क्षमामूलस्तपोभारो धक्ष्यते क्रोधवह्निना ॥६२॥ मोक्षसाधनमप्येष तपो दूषयति क्षणात् । चतुर्वर्गरिपुः क्रोधः क्रोधः स्वपरनाशकः ॥६३॥
हो गये ॥५०॥ यद्यपि वह मदिरा पुरानी थी तथापि परिपाकके वशसे उसने तरुण स्त्रीके समान, लाल-लाल नेत्रोंको धारण करनेवाले उन तरुण कुमारोंको अत्यधिक वशीभूत कर लिया ।।५१।। फलस्वरूप वे सब कुमार असम्बद्ध गाने लगे, लड़खड़ाते पैरोंसे नाचने लगे, उनके केश बिखर गये, आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये और उन्होंने अपने कण्ठोंमें जंगली फूलोंकी मालाएं पहन लीं ॥५२।। जब वे सब नगरकी ओर आ रहे थे तब उन्होंने सूर्यके सम्मुख खड़े हुए द्वैपायन मुनिको पहचान लिया। पहचानते ही उनके नेत्र घूमने लगे। उन्होंने आपसमें कहा कि यह वही द्वैपायन योगी है.जो द्वारिकाका नाश करनेवाला होगा। आज यह बेचारा हम लोगोंके आगे कहां जायेगा ? ॥५३-५४।। इतना कहकर उन निर्दय कुमारोंने लुड्डों और पत्थरोंसे उन्हें तबतक मारा जबतक कि वे घायल होकर पृथिवीपर नहीं गिर पड़े ।।५५।। तदनन्तर क्रोधकी अधिकतासे मुनि अपना ओठ डंसने लगे तथा यादवों और अपने तपको नष्ट करनेके लिए उन्होंने भ्रुकुटी चढ़ा ली ॥५६॥ मदमाते हाथियोंके समान अत्यन्त चञ्चल कुमार जब द्वारिकापुरीमें प्रविष्ट हुए तब उनमें से किन्हींने यह दुर्घटना शीघ्र ही कृष्णके लिए जा सुनायी ॥५७।। बलदेव तथा नारायणने द्वैपायनसे सम्बन्ध रखनेवाली इस घटनाको सुनकर समझ लिया कि जिनेन्द्र भगवान्ने जो द्वारिकाका क्षय बतलाया था वह आ पहुंचा है-अब शीघ्र ही द्वारिकाका क्षय होनेवाला है ॥५८|| बलदेव और नारायण घबड़ाहटवश सब प्रकारका परिकर छोड़, क्रोधसे अग्निके समान जलते हुए मुनिको शान्त करनेके लिए, उनसे क्षमा मांगनेके लिए उनके पास दौड़े गये ॥५९।। जिनकी बुद्धि अत्यन्त संक्लेशमय थी, भ्रकूटीके भंगसे जिनका मुख विषम हो रहा था, जिनके नेत्र दुःखसे
ग्य थे. जिनके प्राण कण्ठगत हो रहे थे और जो अत्यन्त भयंकर थे ऐसे द्वैपायन मुनिको बलदेव और कृष्णने देखा। उन्होंने हाथ जोड़कर बड़े आदरसे मुनिको प्रणाम किया और 'हमारी याचना व्यर्थ होगी' यह जानते हुए भी मोहवश याचना की ॥६०-६१।। उन्होंने कहा कि, 'हे साधो ! आपने चिरकालसे जिसको अत्यधिक रक्षा को है तथा क्षमा ही जिसकी जड़ है ऐसा यह तपका भार क्रोधरूपी अग्निसे जल रहा है सो इसकी रक्षा की जाये, रक्षा की जाये ॥६२॥ यह क्रोध मोक्षके साधनभूत तपको क्षण-भरमें दूषित कर देता है, यह धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चारों वर्गोंका शत्रु है तथा निज और परको नष्ट करनेवाला है ॥६३॥
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एकषष्टितमः सर्गः
क्षम्यतां क्षम्यतां मूढः प्रमादबहुलैः कृतम् । दुर्विचेष्टितमस्मभ्यं प्रसादः क्रियतां यते ॥ ६४ ॥ इत्यादिप्रियवादिभ्यां प्रार्थ्यमानोऽनिवर्तकः । सप्राणिद्वारिकादाहे पापधीः कृतनिश्चयः ॥ ६५॥ संज्ञयाऽदर्शयत्ताभ्यामङ्गुलीद्वयदर्शनम् । युवयोरेव मोक्षोऽत्र नान्यस्येति परिस्फुटम् ॥६६॥ "अनिवर्तरोषं तं विदित्वा विदितक्षयौ । विषण्णौ तौ पुरीं यातौ किंकर्तव्यत्वविह्नौ ॥६७॥ तदनेके यादवाश्वरमाङ्गकाः । पुर्या निष्क्रम्य निष्क्रान्तास्तस्थुर्गिरिगुहादिषु ॥ ६८ ॥ मृत्वा क्रोधाग्निनिर्दग्धतपःसारघनश्च सः । बभूवाग्निकुमाराख्यो मिथ्यादृग्भवनामरः ॥ ६९॥ अन्तर्मुहूर्तकालेन पर्याप्तः प्रतिबुद्धवान् । विभङ्गेन विकारं स्वं कृतं यदुकुमारकैः ॥७०॥ रौद्रध्यानं स दध्यौ मे तपस्थस्य निरागसः । हिंसकानां पुरीं सर्वां दहामि सह जन्तुभिः ॥७१॥ इति ध्यात्वा दुर्गा यावदायाति दारुणः । द्वारावत्यां महोत्पातास्तावज्जाताः भयावहाः ॥७२॥ बभूवुः प्रत्यगारं च रोमहर्षविकारिणः । प्रजानां निशि सुप्तानां स्वप्नाश्च मयशंसिनः ॥ ७३ ॥ प्राप्य पापमतिश्चासौ पुरीमारभ्य बाह्यतः । कोपी दग्धुं समारेभे तिर्यग्मानुषपूरिताम् ॥७४ || धूमज्वालाकुलान् वृद्धस्त्रीबालपशुपक्षिणः । नश्यतोऽग्नौ क्षिपत्येष कारुण्यं पापिनः कुतः || ७५|| प्राणिजातस्य सर्वस्य जातवेदसि मज्जतः । आक्रन्दनस्वना जाता येऽत्र जाता न जातुचित् ॥ ७६ ॥
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हे मुनिराज ! प्रमादसे भरे हुए मूर्ख कुमारोंने जो दुष्ट चेष्टा को है उसे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, हम लोगों के लिए प्रसन्न होइए' ||६४ || इत्यादि प्रियवचन बोलनेवाले बलदेव और कृष्णने द्वैपायनसे बहुत प्रार्थना की पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे । उनकी बुद्धि अत्यन्त पापपूर्णं हो गयी थी और वे प्राणियों सहित द्वारिकापुरीके जलानेका निश्चय कर चुके थे ||६५ || उन्होंने बलदेव और कृष्ण के लिए दो अंगुलियां दिखायीं तथा इशारेसे स्पष्ट सूचित किया कि तुम दोनोंका ही छुटकारा हो सकता है, अन्यका नहीं ||६६||
जब बलदेव और कृष्णको यह विदित हो गया कि इनका क्रोध पीछे हटनेवाला नहीं है तब वे द्वारिकाका क्षय जान बहुत दुःखी हुए और किंकर्तव्यविमूढ़ हो नगरीकी ओर लौट आये ||६७|| उस समय शम्बकुमार आदि अनेक चरमशरीरी यादव, नगरी से निकलकर दीक्षित हो गये तथा पर्वतकी गुफा आदिमें विराजमान हो गये ||६८ || क्रोधरूपी अग्निके द्वारा जिनका तपरूपी श्रेष्ठ धन भस्म हो चुका था ऐसे द्वैपायन मुनि मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए ||६९ || वहां अन्तर्मुहूर्त में ही पर्याप्तक होकर उन्होंने यादव कुमारोंके द्वारा किये हुए अपने अपकारको विभंगावधिज्ञानके द्वारा जान लिया ॥७०॥ उन्होंने इस रौद्रध्यानका चिन्तवन किया कि, 'देखो, मैं निरपराधी तपमें लीन था फिर भी इन लोगोंने मेरी हिंसा की अतः मैं इन हिंसकोंकी समस्त नगरीको सब जीवोंके साथ अभी हाल भस्म करता हूँ।' इस प्रकार ध्यान कर क्रूर परिणामोंका धारक वह दुर्वार देव ज्यों ही आता है त्यों ही द्वारिकामें क्षयको उत्पन्न करनेवाले बड़े-बड़े उत्पात होने लगे ||७१-७२ ।। घर-घरमें जब प्रजाके लोग रात्रिके समय निश्चिन्ततासे सो रहे थे तब उन्हें रोमांच खड़े कर देनेवाले भयसूचक स्वप्न आने लगे || ७३ || अन्तमें उस पापबुद्धि क्रोधी देवने जाकर बाहरसे लेकर तियंच और मनुष्योंसे भरी हुई नगरीको जलाना शुरू कर दिया ||७४ || वह धूम और अग्निकी ज्वालाओंसे आकुल हो नष्ट होते हुए वृद्ध, स्त्री, बालक, पशु तथा पक्षियोंको पकड़-पकड़कर अग्निमें फेंकने लगा सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्यको दया कहाँ होती है ? ॥७५॥ उस समय अग्नि में जलते हुए समस्त प्राणियोंकी चिल्लाहट से जो शब्द हुए थे वैसे शब्द इस पृथिवीपर कभी नहीं हुए थे ||७६ || दिव्य
१. अतिवर्तक - म । २. घनश्च यः म । ३. सुदुर्वारो म । ४. ज्वालाकरान् म. । ५. अग्नो ।
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७६०
हरिवंशपुराणे
दिव्येन दह्यमानायां दहनेन तदा पुरि । नूनं वापि गता देवा दुर्वास भवितव्यता ॥७॥ अन्यथा देवराजस्य राजराजेन शासनात् । निर्मिता रक्षिता चासौ दह्यते कथमग्निना ॥७८|| रक्षतां बलकृष्णौ मः चिरेणाग्निभयादितान् । इति स्त्रीबालवृद्धानामालापा ययुराकुलाः ॥७९॥ आकुलो बालकृष्णौ च भित्वा प्राकारमम्बुधेः । विध्यापयितुमालग्नौ प्रवाहस्तं हुताशनम् ॥८॥ सागराम्बुहलाकृष्टं हलिना बलशालिना। जज्वाल ज्वलनस्तेन तेलभावमुपेयुषा ॥८॥ असाध्यतां विदित्वाग्नेर्जनन्यौ जनकं जनम् । सुबहं रथमारोप्य संयोज्य गजवाजिनः ॥४२॥ रथं नोदयतोः क्षोण्या रथचक्राणि पङ्कवत् । निमजन्ति विपरकाळे व गजा वाजिनः क्व च ॥८३॥ स्वयमेव रथं दोामाकृष्य प्रयतोस्तयोः । निरुद्धः कीलयित्वासाविन्द्रकोलेन पापिना ॥४४॥ अवष्टभ्नाति पादेन यावत्कीलं हलायुधः । पिहितं गोपुरद्वारं तावत्येन कोपिना ॥५॥ कपाटं पादघातेन ताभ्यां पातितमाशु तत् । द्विषोक्तं निर्गमोऽन्यस्य युवाभ्यां नानुविद्यते ॥८६॥ ततः पित्रा च मातृभ्यां पुत्रौ यातमितीरिती। विनिश्चित्योपसंहारमात्मीयमिति दुःखिभिः ॥१७॥ भवतोः जीवतोः पुत्रौ कदाचिद्वंशसन्ततिः । न क्राम्येदप्यतो घातमिति तद्वाक्यमस्तकौ ॥४८॥ तान्प्रशाम्य गतौ दीनौ दुःखितौ दुःखपीडितान् । प्रपत्य पादयोर्यातौ गुरुवाक्यकगै पुरः ॥८॥
अग्निके द्वारा जब नगरी जल रही थी तब जान पड़ता था कि देव लोग कहीं चले गये थे सो ठीक ही है क्योंकि भवितव्यता दुनिवार है ।।७७।। अन्यथा इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने जिस नगरीकी रचना को थी तथा कुबेर ही जिसकी रक्षा करता था वह नगरी अग्निके द्वारा कैसे जल जाती? ||७८|| 'हे बलदेव और कृष्ण ! हम लोग चिरकालसे अग्निके भयसे पीड़ित हो रहे हैं, हमारी रक्षा करो' इस प्रकार स्त्री, बालक और वद्धजनोंके घबराहटसे भरे शब्द सर्वत्र व्याप्त हो रहे थे ।।७९|| घबड़ाये हुए बलदेव और कृष्ण कोट फोड़कर समुद्रके प्रवाहोंसे उस अग्निको बुझाने लगे ।।८०॥ बलशाली बलदेवने अपने हलसे समुद्र का जल खींचा परन्तु वह तेलरूपमें परिणत हो गया और उससे अग्नि अत्यधिक प्रज्वलित हो उठी ||८१॥ जब बलदेव और कृष्णको इस बातका निश्चय हो गया कि अग्नि असाध्य है-बुझायो नहीं जा सकती तब उन्होंने दोनों माताओंको, पिताको तथा अन्य बहुत-से लोगोंको रथपर बैठाकर तथा रथमें हाथी और घोड़े जोतकर रथको पृथिवीपर चलाया परन्तु रथके पहिये जिस प्रकार कीचड़में फंस जाते हैं उस प्रकार पथिवो में फंस गये सो ठीक ही है क्योंकि विपत्तिके समय कहाँ हाथी और कहाँ घोड़े काम आते हैं ? ।।८२-८३॥ हाथी और घोड़ोंको बेकार देख जब दोनों भाई स्वयं ही भुजाओंसे रथ खींचकर चलने लगे तब उस पापी देवने वज्रमय कीलसे कोलकर रथको रोक दिया ।।८४॥ जबतक बलदेव पैरके आघातसे कीलको उखाड़ते हैं तबतक उस क्रोधी दैत्यने नगरका द्वार बन्द कर दिया ॥८५।। जब दोनों भाइयोंने पैरके आघातसे द्वारके कपाटको शीघ्र ही गिरा दिया तबतक शत्रुने कहा कि तुम दोनोंके सिवाय किसी अन्यका निकलना नहीं हो सकता ॥८६।।
तदनन्तर अब हम लोगोंका विनाश निश्चित है यह जानकर दोनों माताओं और पिताने दुःखी होकर कहा कि 'हे पुत्रो ! तुम जाओ। कदाचित् तुम दोनोंके जीवित रहते वंश घातको प्राप्त नहीं होगा।' इस प्रकार गुरुजनोंके वचन मस्तकपर धारण कर दोनों भाई अत्यन्त दुःखी हुए तथा दुःखसे पीड़ित दीन माता-पिताको शान्त कर और उनके चरणोंमें गिरकर उनके वचनोंको मानते हए नगरसे बाहर निकल आये ||८७-८९||
१. रक्षता म. । २. च. ख.। ३. भयादिताः म., ख.। ४. वज्रवत्कीलकेन ( ङ. टि.)। ५. पात क.,
ख., ङ.।
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एकषष्टितमः सर्गः
७६१
निर्गत्य निर्गती पुर्या ज्वालालीलीढवेश्मनः । रुदित्वा कण्ठलग्नौ तौ दक्षिणां दिशमाश्रितौ ॥ ९० ॥ इतोऽपि वसुदेवाद्या यादवाश्च तदङ्गनाः । प्रायोपगमनं प्राप्ताः संप्राप्ता बहवो दिवेम् ॥९१॥ केचिच्चरमदेहास्तु बलदेवसुतादयः । गृहीतसंयमा नीता जृम्भकैर्जिनसन्निधिम् ॥ ९२ ॥ यदूनां यादवीनां च धर्म्यभ्यानवशात्मनाम् । सम्यग्दर्शन शुद्धानां प्रायोपगममाश्रिताम् ॥९३॥ बहूनां दह्यमानानामपि देहविनाशनः । ॐ जातो हुताशनो रौद्रो न तु ध्यानविनाशनः ॥ ९४॥ आर्तष्यानकरः प्रायो मिथ्यादृष्टिषु जायते । उपसर्गश्चतुर्भेदो न सद्दृष्टेस्तु जातुचित् ॥९५॥ आगाढे वाप्यनागाढे मरणे समुपस्थिते । न मुह्यन्ति जना जातु जिनशासनभाविताः ॥ ९६ ॥ मिथ्यादृष्टेः सतो जन्तोर्मरणं शोचनाय हि । न तु दर्शनशुद्धस्य समाधिमरणं शुचे ॥९७॥ मृतिर्जातस्यै नियता संसृतौ नियतेर्वंशात् । सा समाधियुजो भूयादुपसर्गेऽपि देहिनः ॥ ९८ ॥ वन्याः शिखिशिखाजा लकवली कृतविग्रहाः । अपि साधुसमाधाना ये त्यजन्ति कलेवरम् ॥९९॥ तपो वा मरणं वापि शस्तं स्वपरसौख्यकृत् । न च द्वैपायनस्येव स्वपरासुखकारणम् ॥१००॥ परस्यापकृतिं कुर्वन् कुर्यादेकत्र जन्मनि । पापी परवधं स्वस्य जन्तुर्जन्मनि जन्मनि ॥१०१॥ कषायवशग: प्राणी हन्ता स्वस्थ भवे भवे । संसारवर्धनोऽन्येषां भवेद्वा वधको न वा ॥ १०२ ॥
ज्वालाओं के समूह से जिसके महल जल रहे थे ऐसी नगरीसे निकलकर दोनों भाई पहले तो गतिहीन हो गये- इस बातका निश्चय नहीं कर सके कि कहाँ जाया जाये ? वे बहुत देर तक एक-दूसरे के कण्ठसे लगकर रोते रहे । तदनन्तर दक्षिण दिशा की ओर चले ||१०|| इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ - अनेक लोग संन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए ||९१ ॥ बलदेव के पुत्रोंको आदि लेकर जो कुछ चरमशरीरी थे उन्होंने वहीं संयम धारण कर लिया और उन्हें जृम्भकदेव जिनेन्द्र भगवान् के पास ले गये ||१२|| जिनकी आत्मा धर्मंध्यानके वशीभूत थी -- जो सम्यक दर्शन से शुद्ध थे, तथा जिन्होंने प्रायोपगमन नामक संन्यास धारण कर रखा था ऐसे बहुत से यादव और उनकी स्त्रियां यद्यपि अग्निमें जल रही थीं तथापि भयंकर अग्नि केवल उनके शरीरको नष्ट करनेवाली हुई, ध्यानको नष्ट करनेवाली नहीं ॥९३ - ९४|| मनुष्य, तिथंच, देव और जड़के भेद से चार प्रकारका उपसगं प्रायः मिथ्यादृष्टि जीवोंको ही आर्तध्यानका करनेवाला होता है, सम्यग्दृष्टि जीवको कभी नहीं ||१५|| जो मनुष्य जिनशासनको भावनासे युक्त हैं वे सम्भावित और असम्भावित किसी भी प्रकारका मरण उपस्थित होनेपर कभी मोहको प्राप्त नहीं होते ॥ ९६ ॥
मिथ्यादृष्टि जीवका मरण शोकके लिए होता है परन्तु सम्यग्दृष्टि जीवका समाधिमरण शोकके लिए नहीं होता ||१७|| संसारका नियम ही ऐसा है कि जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है, अतः सदा यह भावना रखनी चाहिए कि उपसगँ आनेपर भी समाधिपूर्वक ही मरण हो ||१८|| वे मनुष्य धन्य जो अग्निको शिखाओं के समूहसे ग्रस्तशरीर होनेपर भी उत्तम समाधि से शरीर छोड़ते हैं ॥ ९९ ॥ जो तप और मरण निज तथा परको सुख करनेवाला है वही उत्तम है- प्रशंसनीय है, जो तप द्वैपायनके समान निज और परको दुःखका कारण है वह उत्तम नहीं ॥ १००॥
दूसरेका अपकार करनेवाला पापी मनुष्य, दूसरेका वध तो एक जन्ममें कर पाता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म-जन्म में करता है ॥ १०१ ॥ यह प्राणी दूसरोंका वध कर सके अथवा न कर सके परन्तु कषायके वशीभूत हो अपना वध तो भव-भवमें करता है तथा अपने १, दिवः म । २. गमनाश्रिताम् क। ३. यातो म । ४. -र्यातस्य म । ५ तच्च म. ।
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७६२
हरिवंशपुराणे परं हन्मीति संध्यातं लोहपिण्डमुपाददत् । दहत्यात्मानमेवादौ कषायवशगस्तथा ॥१०॥ संसारान्तकरं पुंसामेकेषां परमं तपः । द्वैपायनस्य तज्जातं दीर्घसंसारकारणम् ॥१०॥ जन्तोः को वापराधोऽत्र स्वकर्मवशवर्तिनः। यत्नवानपि यजन्तुर्मोह्यते मोहवैरिणा ॥१०५॥ 'अपाक्रियेतापि परः कथंचिदतितिक्षुणा' । उपक्रियेत यद्यात्मा तथेहपरलोकयोः ॥१०६।। परदुःखविधानेन यत्स्वदुःखपरम्परा । अवश्यम्माविनी तस्मात्तितिक्षैवातिभाव्यताम् ॥१०७।।
शार्दूलविक्रीडितम् क्रोधान्धेन विधेर्वशेन नगरी द्वैपायनेनाखिला
बालस्त्रीपशुवृद्ध लोककलिता द्वाराकुला द्वारिका । मासैः षड्मिरशेषिता विलसिता संत्यज्य जैनं वचो
धिक क्रोधं स्वपरापकारकरणं संसारसंवर्धनम् ।।१०८।।
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती द्वारावतीविनाशवर्णनो
नामैकषष्टितमः सर्गः ॥६॥
संसारको बढ़ाता है ॥१०२।। जिस प्रकार तपाये हुए लोहेके पिण्डको उठानेवाला मनुष्य पहले अपने-आपको जलाता है पश्चात् दूसरेको जला सके अथवा नहीं। उसी प्रकार कषायके वशीभूत हुआ प्राणी 'दूसरेका घात करूँ' इस विचारके उत्पन्न होते ही पहले अपने-आपका घात करता है पश्चात् दूसरेका घात कर सके या नहीं कर सके ।।१०३।। किन्हीं मनुष्योंके लिए यह परम तप संसारका अन्त करनेवाला होता है पर द्वैपायन मुनिके लिए दीर्घ संसारका कारण हुआ ॥१०४॥ अथवा इस संसारमें अपने कर्मके अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले प्राणीका क्या अपराध है ? क्योंकि यत्न करनेवाला प्राणी भी मोहरूपी वरीके द्वारा मोहको प्राप्त हो जाता है ॥१०५॥ असहनशील परुष दसरेका अपकार किसी तरह कर भी सकता है परन्तु उसे अपने-आपका तो इस लोक और परलोकमें उपकार ही करना चाहिए ।।१०६।। क्योंकि दूसरोंको दुःख पहुँचानेसे अपनेआपको भी दुःखकी परम्परा प्राप्त होती है, इसलिए क्षमा अवश्यम्भावी है-अवश्य ही धारण करने योग्य है ऐसा निश्चय करना चाहिए ॥१०७|| गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, विधिके वशीभूत हुए क्रोधसे अन्धे द्वैपायनने जिनेन्द्र भगवान्के वचन छोड़कर बालक, स्त्रो, पशु और वृद्धजनोंसे व्याप्त एवं अनेक द्वारोंसे युक्त शोभायमान द्वारिका नगरीको छह मासमें भस्म कर नष्ट कर दिया सो निज और परके अपकारका कारण तथा संसारको बढ़ानेवाले इस क्रोधको धिक्कार है ॥१०८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें द्वारिकाके
नाशका वर्णन करनेवाला इकसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥६॥
१. अपि क्रियेतापि म.। २. अविचक्षणः ग., अतितिक्षणः म., ख., ङ.। ३. भाष्यताम् म.।
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द्विषष्टितमः सर्गः
पुण्योदयात्पुरा प्राप्तावुन्नतिं यौ जनातिगाम् । चक्रादिरनसंपन्नौ बलिनौ बलकेशवौ ||१|| पुण्यक्षयात्तु तावेव रत्नबन्धुविवर्जितौ । प्राणमात्रपरीवारौ शोकमारवशीकृतौ ॥२॥ प्रस्थितौ दक्षिणामाशां जीविताशावलम्बिनौ | क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ यात सत्काङ्क्षिणौ पथि ॥३॥ उद्दिश्य पाण्डवान् यान्तौ मथुरां दक्षिणामुमौ । हस्तवप्रं पुरं प्राप्तौ तत्रोद्याने हरिः स्थितः || ४ || गतोऽन्नपान मानेतुं कृतसंकेतकोऽग्रजः । वस्त्रसंवृतसर्वाङ्गः प्रविष्टश्व ततः पुरम् ||५|| अच्छदन्तो नृपस्तत्र धार्तराष्ट्रोऽवतिष्ठते । पृथिव्यां प्रथितो धन्वो यदुरन्धदुरन्तधीः ॥ ६ ॥ जनैर्जनितसंघट्टेः रूपपाशवशीकृतैः । प्रविश्य तत्पुरीं वीरो दृश्यमानः सविस्मयैः ||७|| "कण्टकं कुण्डलं चापि दत्वा कस्यचिदापणे । अन्नपानमुपादाय निर्गच्छन् वीक्ष्य रक्षकैः ॥८॥ विज्ञाय बलदेवोऽयमिति राज्ञे निवेदितः । ततस्तेन वधायास्य प्रेषितं सकलं बलम् ||९ ॥ संघभूपुरद्वारे सैन्यस्य बलरोधिनः । बलेन संज्ञयाहूतः कृष्णश्च द्रुतमागतः ॥ १० ॥ "अन्नपानं सुसंस्थाप्य गजस्तम्भं बलोऽग्रहीत् । कृष्णस्तु परिघं घोरं किंचित्कुपितमानसः ॥११॥
जो बलदेव और कृष्ण पहले पुण्योदयसे लोकोत्तर उन्नतिको प्राप्त थे, चक्र आदि रत्नोंसे सहित थे, बलवान् थे, बलभद्र एवं नारायण-पदके धारक थे वे ही अब पुण्य क्षीण हो जाने से रत्न तथा बन्धुजनोंसे रहित हो गये, प्राणमात्र ही उनके साथी रह गये और शोकके वशीभूत हो गये ॥ १-२ ॥
केवल जीवित रहनेकी आशा रखनेवाले दोनों भाई दक्षिण दिशा की ओर चले । वहाँ वे भूख-प्याससे व्याकुल हो मार्गमें किसी उत्तम आश्रयकी इच्छा करने लगे ||३|| पाण्डवोंको लक्ष्य कर वे दक्षिण मथुराकी ओर जा रहे थे कि मार्ग में हस्तवप्र नामक नगर में पहुँचे । वहाँ कृष्ण तो उद्यानमें ठहर गये और बलदेव संकेत कर तथा वस्त्र से अपना समस्त शरीर ढँककर अन्न पानी लेने के लिए नगर में प्रविष्ट हुए ॥ ४-५ ॥ उस नगर में अच्छदन्त नामका राजा रहता था, धृतराष्ट्र के वंशका था, जो पृथिवीमें प्रसिद्ध धनुर्धारी और यादवोंके छिद्र ढूँढनेवाला था ॥ ६॥ वीर बलदेवने ज्यों ही उस नगर में प्रवेश किया त्यों ही उनके रूप-पाशसे वशीभूत हुए लोगों के झुण्ड के झुण्ड आश्चर्यसे चकित हो उन्हें देखने लगे ॥ ७ ॥ बलदेवने बाजारमें किसीके लिए अपना कड़ा और कुण्डल देकर उससे अन्नपान - खाने-पीनेकी सामग्री खरीदो और उसे लेकर जब वे नगर के बाहर निकल रहे थे तब राजाके पहरेदारोंने देखकर तथा 'यह बलदेव है' इस प्रकार पहचान कर राजाके लिए खबर कर दी । फिर क्या था, राजाने उनके वधके लिए अपनी समस्त सेना भेज दी ॥८- ९॥
नगरके द्वारपर बलदेवको रोकनेवाली सेनाकी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी । बलदेवने संकेत से कृष्णको बुलाया और वे शीघ्र ही वहाँ आ गये ||१०|| बलदेवने अन्न-पानको किसी जगह अच्छी तरह रखकर हाथी बाँधनेका एक खम्भा लिया तथा कृष्णने कुछ क्रुद्धचित्त हो भयंकर अर्गल उठाया ॥ ११ ॥
१. प्राप्तामुन्नति म. । २. यत्काङ्क्षिणी म., ख., ङ. । ३. याती ख., ङ, म. । ४. ' स तत्पुरं ' ख. । ५. कण्ठकं म. । ६. अन्नं पानं च सुस्थाप्य म । अन्नं पानं च संस्थाप्य ख. ।
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७६४
हरिवंशपुराणे
चतरङ्गं तत: सैन्यं सनायकमितस्ततः । हन्यमानं ननाशाभ्यां विह्वलीभूतमानसम् ।।१२।। समादायान्नपानं तो निर्गत्य नगरानतः । वनं विजयमागत्य सरो रम्यमपश्यताम् ।।१३।। स्नास्वा सरसि तौ तत्र जिनं नवा मनःस्थितम् । चित्रमभ्यवहृत्यानं पयः पीत्वातिशीतलम् ॥१४॥ विश्रम्य च क्षणं वीरौ प्रयान्तौ दक्षिणां दिशम् । कौशाम्ब्याख्यं वनं भीमं प्रविष्टौ परदुर्गमम् ॥१५|| खगरावखरारावमुखरीकृतदिग्मुखम् । तृष्णार्तमृगयूथानां गम्यं प्रोन्मृगतृष्णकम् ॥१६॥ ग्रीष्मोग्रतापपरुषवहन्मारुतदुस्सहम् । दावदग्धलताजालगुल्मपादपखण्डकम् ।।१७।। असंभाव्याम्भसि भ्राम्यत्श्वापदश्वासशब्दके । वने वनेचरोद्भिन्नकुम्भिकुम्भास्तमौक्तिके ॥१८॥ आरोहति वियन्मध्यं सुतीने तीवेरोचिषि । जगी जनार्दनो ज्येष्ठं गुणज्येष्ठमिति श्रमी ॥१९॥ पिपासाकुलितोऽत्यर्थमार्य शुष्कौष्ठतालुकः । शक्नोमि पदमप्येकं न च यातुमतः परम् ।।२०।। तत्पायय पयः शीतमार्य तृष्णापहारि माम् । सदर्शनमिवानादौ संसारे सारवर्जिते ॥२१॥ इत्युक्त स्नेहसंचारसमाीकृतमानसः । स जगाद बलः कृष्णमुष्णनिश्वासमोचिनम् ॥२२॥ तात शीतलमानीय पानीयं पाययाम्यहम् । त्वं जिनस्मरणाम्मोभिस्तावत्तष्णां विमर्दय ॥२॥ निरस्यति पयस्तृष्णां स्तोका वेलामिदं पुनः । जिनस्मरणपानीयं पीतं तां मूलतोऽस्यति ॥२४॥
तदनन्तर इन दोनोंके द्वारा मार पडनेपर वह चतुरंग सेना अपने सेनापतिके साथ विह्वलचित्त हो इधर-उधर भाग गयी।।१२।।
तदनन्तर अन्न-पान लेकर दोनों भाई नगरसे निकल विजय नामक वनमें आये। वहाँ उन्होंने एक सुन्दर सरोवर देखा ॥१३॥ सरोवरमें स्नान कर हृदयमें स्थित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर नाना प्रकारका भोजन किया, अत्यन्त शीतल पानो पिया और क्षण-भर विश्राम किया। विश्रामके बाद दोनों वीर फिर दक्षिण दिशाकी ओर चले और चलते-चलते दूसरोंके लिए अत्यन्त दुर्गम कौशाम्बी नामके भयंकर वनमें प्रविष्ट हुए ॥१४-१५॥ उस वनकी समस्त दिशाएँ पक्षियों तथा शृगालोंके शब्दोंसे शब्दायमान थीं, प्याससे पीड़ित मृगोंके झुण्ड वहां इधर-उधर फिर रहे थे, बड़ी ऊंचो मृगतृष्णा वहां उठ रही थी, ग्रीष्मके उग्न सन्तापसे कठोर बहती हुई वायुसे वह वन अत्यन्त असह्य था, तथा दावानलसे वहाँको लताओंके समूह, झाड़ियां और वृक्षोंके समूह जल गये थे ॥१६-१७॥
जहां पानीके मिलनेकी कोई सम्भावना नहीं थी, जहाँ दौड़ते हुए जंगली जानवरोंकी श्वासका शब्द हो रहा था, तथा जहां वनेचरोंके द्वारा विदीर्ण किये हुए हाथियोंके गण्डस्थलोंसे बिखरकर मोती इधर-उधर पड़े थे, ऐसे वनमें पहुँचकर जब अत्यन्त तीक्ष्ण सूर्य आकाशके मध्यमें आरूढ़ हो रहा था तब थके हुए कृष्णने गुणोंसे श्रेष्ठ बड़े भाईबलदेवसे कहा कि 'हे आर्य ! मैं प्याससे बहुत व्याकुल हूँ, मेरे ओठ और तालु सूख गये हैं, अब इसके आगे मैं एक डग भी चलनेके लिए समर्थ नहीं हूँ॥१८-२०॥ इसलिए हे आर्य ! अनादि एवं सारहीन संसारमें सम्यग्दर्शनके समान तृष्णाको दूर करनेवाला शीतल जल मुझे पिलाइए '॥२१॥
इस प्रकार कहनेपर स्नेहके संचारसे जिनका मन आर्द्र हो रहा था ऐसे बलदेवने गरम-गरम श्वास छोड़नेवाले कृष्णसे कहा कि 'हे भाई! मैं शीतल पानी लाकर अभी तुम्हें पिलाता हूँ तुम तबतक जिनेन्द्र भगवान्के स्मरणरूपी जलसे प्यासको दूर करो ।। २२-२३ ।। यह पानी तो थोड़े समय तकके लिए ही प्यासको दूर करता है पर जिनेन्द्र भगवान्का स्मरणरूपी
१. प्रयातो म. । २. सूयें। ३. मानसं म.। ४. कृष्णं दोघनिःश्वास ग.। ५. ततः म.।
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द्विषष्टितमः सर्गः
छायायामस्य वृक्षस्य शीवकायामिहास्यताम् । भानयामि जलं तेऽहं शीतलं शीतलाशयात् ॥२५॥ अग्रजः प्रतिपाचवमनुजं मनसा वहन् । जगाम जलमानेतुं निजं श्रममचिन्तयन् ॥२६॥ कृष्णोऽपि च यथोद्दिष्टा तरुच्छायां धनां श्रितः । क्षितौ मृदुमृदि श्लक्ष्णवाससा संवृताङ्गकः ॥२७॥ वामे जानुनि विन्यस्य दक्षिणं चरण क्षणम् । श्रमव्यपोहनायासावशेत गहने हरिः ॥२८॥ तं प्रदेशं तैदैवासौ जरासूनुर्यदृच्छया । एकाकी पर्यटन्प्राप्तो मृगयाव्यसनप्रियः ॥२९॥ यो हरिस्नेहसंमारो हरिप्राणरिरक्षया । द्वारिकाया विनिर्गस्य प्राविशन्मृगवद्वनम् ॥३०॥ स तत्र विधिनानीय तदानीं विनियोजितः । अद्राक्षीदूरतोऽस्पष्टं किंचिदने धनुर्धरः ॥३१॥ मरुञ्चलितवसान्तजनितभ्रान्तिरन्तिके । प्रसुप्तमृगकर्णोऽयं चलतीति विचिन्त्य सः ॥३२॥ गुल्मगूढवपुर्गाढमाकर्णाकृष्टकार्मुकः । विव्याध व्याधीस्तीक्ष्णशरेण चरणं हरे ॥३३॥ "विद्धपादतलः शौरिरुत्थाय सहसाखिलाः । दिशो निरीक्ष्य सोऽदृष्टा परमुच्चैर्जगाविति ॥३४॥ विपादतलोऽहं भो केनाकारणवैरिणा । कथ्यतां कुलमास्मीयं नाम च स्फुटमत्र मे ॥३५॥ अज्ञातकुलनामानं नरं नावधिषं रणे । कदाचिदपि योऽहं ही किं ममेदमुपागतम् ॥३६॥ तद् ब्रवीतु भवान् को मो योऽज्ञातकुलनामकः । अज्ञातवैरसंबन्धो वने जातो ममान्तकः ॥३०॥
पानी पीते ही के साथ उस तृष्णाको जड़-मूलसे नष्ट कर देता है ॥२४॥ तुम यहाँ इस वृक्षकी शीतल छायामें बैठो, मैं तुम्हारे लिए सरोवरसे शीतल पानी लाता हूँ॥२५॥
___ इस प्रकार छोटे भाई कृष्णसे कहकर उसे अपने हृदयमें धारण करते हुए बलदेव अपने श्रमका विचार न कर पानी लेनेके लिए गये ॥२६॥ इधर कृष्ण भी बतायी हुई वृक्षको सघन छायामें जा पहुँचे और कोमल वखसे शरीरको ढंककर मृदु मृत्तिकासे युक्त पृथिवीपर पड़ रहे । उसी सघन वनमें वे थकावट दूर करनेके लिए बायें घुटनेपर दाहिना पांव रखकर क्षण-भरके लिए सो गये ।।२७-२८॥
शिकार-व्यसनका प्रेमी जरत्कुमार अकेला उस वनमें घूम रहा था, सो अपनी इच्छासे उसी समय उस स्थानपर आ पहुँचा ।।२९भाग्यकी बात देखो कि कृष्णके स्नेहभरा जो जरत्कुमार उनके प्राणोंकी रक्षाकी इच्छासे द्वारिकासे निकलकर मगकी तरह वनमें प्रविष्ट हो गया था वही उस समय विधाताके द्वारा लाकर उस स्थानपर उपस्थित कर दिया गया। धनुर्धारी जरत्कुमारने दूरसे आगे देखा तो उसे कुछ अस्पष्ट-सा दिखायी दिया ॥३०-३१।। उस समय कृष्णके वस्त्रका छोर वायुसे हिल रहा था इसलिए जरत्कुमारको यह भ्रान्ति हो गयी कि यह पास ही में सोये हुए मृगका कान हिल रहा है। फिर क्या था झाड़ोसे जिसका शरीर छिपा हुआ था और शिकारीके समान जिसकी क्रूर बुद्धि हो गयी थी ऐसे जरत्कुमारने बड़ी मजबूतीसे कान तक धनुष खींचकर तीक्ष्ण बाणसे कृष्णका पैर वेध दिया ॥३२-३३॥ पदतलके विद्ध होते ही श्रीकृष्ण सहसा उठ बैठे और सब दिशाओं में देखनेके बाद भी जब कोई दूसरा मनुष्य नहीं दिखा तब उन्होंने जोरसे इस प्रकार कहा कि किस अकारण वैरीने मेरा पदतल वेधा है। वह यहां मेरे लिए अपना कुल तथा नाम साफ-साफ बतलाये ॥३४-३५।। जिस मुझने युद्ध में कभी भी अज्ञात-कुल और अज्ञात नामवाले मनुष्यका वध नहीं किया आज उस मेरे लिए यह क्या विपत्ति आ पड़ी ? ॥३६॥ इसलिए कहो कि अज्ञातकुल नामवाले आप कौन हैं ? तथा जिसके वैरका पता नहीं ऐसा कौन इस वनमें मेरा घातक हुआ है ? ॥३७॥
१. संभूतानकः ख., क. । २. श्रमव्यपोहनाय + असो + अशेत । ३. तदेवासी म.। ४. विद्धतालपदः म. । ५. यज्ज्ञात म., क , ङ.।
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हरिवंशपुराणे
इत्युक्त सोऽब्रवीदस्ति हरिवंशोद्भवो नृपः । वसुदेव इति ख्यातः पिता यो हलिचक्रिणोः ॥३८॥ सूनुर्जरत्कुमारोऽस्मि तस्याहमतिवल्लभः । एकवीरो भ्रमाम्यत्र वने भीरुदुरासदे ॥३९॥ सोऽहं नेमिजिनादेशमीरुर्वनचरैर्वने । द्वादशाब्दप्रमाणं च वसाम्यत्र प्रियानुजः ॥१०॥ इयन्तं वसता कालमरण्ये वचनं मया । आर्यलोकस्य कस्यापि न श्रुतं को भवानिह ॥४१॥ इति श्रुत्वा हरित्विा भ्रातरं स्नेहकातरः । एह्यहि भ्रातरत्रेति संभ्रमेण तमाह्वयत् ॥४२॥ सोऽपि ज्ञात्वानुजं प्राप्तो हाकारमुखराननः । क्षितिक्षिप्तधनुर्बाणो निपस्यास्थाच्च पादयोः ॥४३॥ उत्थाप्य तं हरिः प्राह कण्ठलग्नं महाशुचम् । मातिशोकं कृथा ज्येष्ठ दुर्लक्या भवितव्यता ।।४४॥ प्रमादस्य निरासाय निरस्तसुखसंपदा । चिरं पुरुषशार्दूल सेविता वनवासिता ॥४५॥ करोति सजनो यत्नं दुर्यशःपापमीरुकः । देवे तु कुटिले तस्य स यत्नः किं करिष्यति ॥४६॥ ततस्तेन हरिः पृष्टो वनागमनकारणम् । आदितोऽकथयवृत्तं द्वारिकादाहदारुणम् ॥४७॥ श्रुत्वा गोत्रक्षयं सोऽपि प्रलापमुखरोऽवदत् । हा भ्रातः कृतमातिथ्यं मया ते चिरदर्शनात् ॥४८॥ किं करोमि व गच्छामि व लभे चित्तनिर्वृतिम् । दुःखं च दुर्यशो लोके हन्त्रा ते हा मयार्जितम् ॥४९॥ इत्यादि प्रलपनुक्तः कृष्णेनासौ सुचेतसा । प्रलापं त्यज राजेन्द्र कृत्स्नं स्वकृतभुग जगत् ॥५०॥
श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर जरत्कुमारने कहा कि हरिवंशमें उत्पन्न हुए एक वसुदेव नामके राजा हैं जो बलदेव और कृष्णके पिता हैं। मैं जरत्कुमार नामका उन्हींका अतिशय प्यारा पुत्र हूँ। जहां कायर मनुष्य प्रवेश नहीं कर सकते ऐसे इस वनमें मैं अकेला ही वीर घूमता रहता हूँ। नेमिजिनेन्द्रने आज्ञा की थी कि जरत्कुमारके द्वारा कृष्णका मरण होगा सो मैं उनकी इस आज्ञासे डरकर बारह वर्षसे इस वनमें रह रहा हूँ। मुझे अपना छोटा भाई कृष्ण बहुत ही प्यारा था, इसलिए इतने समयसे यहाँ रह रहा हूँ, इस बीचमें मैंने किसी आर्यका नाम भी नहीं सुना। फिर आप यहाँ कौन हैं ? ।।३८-४१॥
जरत्कुमारके यह वचन सुन कृष्णने जान लिया कि यह हमारा भाई है तब स्नेहसे कातर हो उन्होंने 'हे भाई! यहाँ आओ, यहाँ आओ' इस प्रकार संभ्रमपूर्वक उसे बुलाया ॥४२॥ जरत्कुमारने भी जान लिया कि यह हमारा छोटा भाई है तब 'हाय हाय' शब्दसे मुखको शब्दायमान करता हुआ वह वहां आया और धनुष-बाणको पृथिवीपर फेंक श्रीकृष्णके चरणोंमें आ गिरा ॥४३।
कृष्णने उसे उठाया तो वह कण्ठमें लगकर महाशोक करने लगा । कृष्णने कहा कि हे बड़े भाई ! अत्यधिक शोक मत करो, होनहार अलंघनीय होती है ॥४४॥ हे श्रेष्ठ पुरुष ! आपने प्रमादका निराकरण करनेके लिए समस्त सुखसम्पदाओंको छोड़ चिरकाल तक वनमें निवास करना स्वीकृत किया। अपयश और पापसे डरनेवाला सज्जन पुरुष बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करता है परन्तु दैवके कुटिल होनेपर उसका वह यत्न क्या कर सकता है ? ।।४५-४६॥
तदनन्तर जरत्कुमारने कृष्णसे वनमें आनेका कारण पूछा तो उन्होंने प्रारम्भसे लेकर द्वारिकादाह तकका सब दारुण समाचार कह सुनाया ॥४७॥ गोत्रका क्षय सुनकर जरत्कुमार प्रलापसे मुखर होता हुआ बोला कि हा भाई ! चिरकालके बाद आप दिखे और मैंने आपका यह अतिथि-सत्कार किया ! ॥४८॥ मैं क्या करू ? कहाँ जाऊँ ? चित्तकी शान्ति कहाँ प्राप्त करूं? हा कृष्ण ! तुझे मारकर मैंने लोकमें दुःख तथा अपयश दोनों प्राप्त किये ॥४९॥ इत्यादि रूपसे विलाप करते हुए जरत्कुमारसे उत्तम हृदयके धारक कृष्णने कहा कि हे राजेन्द्र ! प्रलापको
१. गोत्रक्षथः म.।
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द्विषष्टितमः सर्गः
७६७
सुखं वा यदि वा दुःख दत्ते कः कस्य संसृतौ । मित्रं वा यदि वामित्रः स्वकृतं कर्म तस्वतः ॥५॥ तोयार्थ मे गतो रामो यावत्रायाति सत्त्वरम् । प्रयाहि तावदक्षान्तिः कदाचित्स्यास्वयि प्रभो ॥५२॥ गच्छ स्वमादितो वातां पाण्डवेभ्यो निवेदय । हितास्तेऽस्मत्कुलस्याप्ताः करिष्यन्ति तव स्थितिम् ॥५३॥ उक्त्वेति कौस्तुभं तस्मै दत्वामिज्ञानमादरात् । परावृत्यान्तरं स्तोकं व्रजेति प्रतिपादितः ॥५४॥ उक्त्वासौ क्षम्यतां देव ममेति करकौस्तुभः । शनैरुद्धृत्य तं बाणं परावृत्तपदोऽगमत् ॥५५॥ तस्मिन्गते हरिस्तीवव्रणवेदनयादितः । उत्तराभिमुखो भूत्वा कृतपञ्चनमस्कृतिः ॥५६॥ कृत्वा नेमिजिनेन्द्राय वर्तमानाय साञ्जलिः । पुनः पुननमस्कारं गुणस्मरणपूर्वकम् ॥५७॥ जिनेन्द्रविहृतिध्वस्तैसमस्तोपद्रवा यतः । ततः कृतशिराः शौरिः क्षितिशय्यामधिश्रितः ॥५॥ वस्त्रसंवृतसर्वाङ्गः सर्वसङ्गनिवृत्तधीः । सर्वत्र मित्रमावस्थः शुभचिन्तामुपागतः ॥५९॥ पुत्रपौत्रकलत्राणि ते भ्रातृगुरुबान्धवाः । अनागत विधातारो धन्या ये तपसि स्थिताः ॥६॥ अन्तःपुरसहस्राणि सहस्राणि सुहृद्गणाः । 'अविधाय तपः कष्टं कई वह्निमुखे मृताः ॥६॥ कर्मगौरवदोषेण मयापि न कृतं तपः । सम्यक्त्वं मेऽस्तु संसारपातहस्तावलम्बनम् ॥१२॥
छोड़ो, समस्त जगत् अपने किये हुए कर्मको अवश्य भोगता है । ५०॥ संसारमें कौन किसके लिए सुख देता है ? अथवा कौन किसके लिए दुःख देता है ? और कौन किसका मित्र है अथवा कोन किसका शत्रु है ? यथार्थमें अपना किया हुआ कार्य ही सुख अथवा दुःख देता हैं* ॥५१॥ बड़े भाई राम मेरे लिए पानी लानेके लिए गये हैं सो जबतक वे नहीं आते हैं तबतक तुम शीघ्र ही यहाँसे चले जाओ। सम्भव है कि वे तुम्हारे ऊपर अशान्त हो जायें ॥५२॥ तुम जाओ और पहलेसे ही पाण्डवोंके लिए सब समाचार कह सुनाओ। वे अपने कुलके हितकारी आप्तजन हैं अतः तुम्हारी अवश्य रक्षा करेंगे ॥५३॥ इतना कहकर उन्होंने पहचानके लिए उसे आदरपूर्वक अपना कौस्तुभमणि दे दिया और कुछ थोड़ा मुड़कर कहा कि जाओ। हाथमें कौस्तुभमणि लेते हुए जरत्कुमारने कहा कि हे देव ! मुझे क्षमा कीजिए । इस प्रकार कहकर और धीरेसे वह बाण निकालकर वह उलटे पैरों वहांसे चला गया ॥५४-५५।।
जरत्कुमारके चले जानेपर कृष्ण व्रणको तीव्र वेदनासे व्याकुल हो गये। उन्होंने उत्तराभिमुख होकर पंच-परमेष्ठियोंको नमस्कार किया ॥५६॥ वर्तमान तीर्थंकर श्री नेमिजिनेन्द्रको हाथ जोड़कर गुणोंका स्मरण करते हुए बार-बार नमस्कार किया ॥५७॥ क्योंकि जिनेन्द्र भगवान्के विहारसे पृथिवीके समस्त उपद्रव नष्ट हो चुके हैं इसलिए शिर रखकर वे पृथ्वीरूपी शय्यापर लेट गये ॥५॥
तदनन्तर जिन्होंने वनसे अपना समस्त शरीर ढंक लिया था, सब परिग्रहसे जिनकी बुद्धि निवृत्त हो गयी थी और जो सबके साथ मित्रभावको प्राप्त थे ऐसे श्रीकृष्ण इस प्रकारके शुभ विचारको प्राप्त हुए ॥५९॥
वे पुत्र, पोते, स्त्रियाँ, भाई, गुरु और बान्धव धन्य हैं जो भविष्यत्का विचार कर अग्निके उपद्रवसे पहले ही तपश्चरण करने लगे ॥६०॥ बड़े कष्टकी बात है कि हजारों खियाँ और हजारों मित्रगण तपका कष्ट न कर अग्निके मुखमें मृत्युको प्राप्त हो गये ॥६१॥ कर्मके प्रबल भारसे मैंने भी तप नहीं किया इसलिए मेरा सम्यग्दर्शन ही मुझे संसारपातसे बचानेके लिए
१. प्रभो क.। २. वेदनमादितः म. । ३. विनतिर्वस्त-म. । ४. अभिधाय म., क., ख., ग., ध.। * को सुख को दुख देत है कर्म देत झकझोर ।
उरी सुरझै आप ही ध्वजा पवनके जोर ॥
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हरिवंशपुराणे
इत्यादि शुभचिन्तात्मा भविष्यत्तीर्थ कृद्धरिः । बद्धायुष्कतया भृत्वा तृतीयां पृथिवीमितः ॥ ६३॥
शादूलविक्रीडितम्
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दक्षो दक्षिणमारतार्धंविभुतामुद्भाव्य 'मव्यप्रजा
पूर्ण
बन्धुबन्धुजनाम्बुधे रहरहर्वृद्धिं विधाय प्रभुः । वर्षसहस्त्रमेकमगमत्संजीव्य कृष्णो गतिं
मोगी स्वाचरणोचितो जिनतथा' यो योक्ष्यते दर्शनात् ॥ ६४ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ हरिगत्यन्तरवर्णनो नाम द्वाषष्टितमः सर्गः ॥६२॥
हस्तावलम्बनरूप हो || ६२ || इत्यादि शुभ विचार जिनको आत्मामें उत्पन्न हो रहे थे, और जो भविष्यत् कालमें तीर्थंकर होनेवाले थे ऐसे श्रीकृष्ण पहलेसे ही बद्धायुष्क होनेके कारण मरकर तीसरी पृथिवीमें गये ||६३ || गौतम स्वामी कहते हैं कि जो आगे चलकर सम्यग्दर्शनके कारण तीर्थंकर पदसे युक्त होंगे वे नीतिनिपुण, भव्य प्रजाके परम बन्धु, भोगी कृष्ण, दक्षिण भरतार्धकी विभुताको प्रकट कर, प्रतिदिन बन्धुजनरूपी सागरकी वृद्धिको बढ़ाकर एवं एक हजार वर्षं तक जीवित रहकर अपने आचरणके अनुरूप तीसरी पृथिवीमें गये ||६४ ||
O
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणर्मे कृष्णके परलोकगमनका वर्णन करनेवाला बासठवाँ पर्व समाप्त हुआ ||६२ ॥
१. सेव्यप्रजां बन्धु क. । २, जनतया म. ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
रथोद्धतावृत्तम्
स्नेहवानथ जलार्थमाकुलो विष्णुमात्मनि वहन् हलायुधः । वारितोऽप्यशकुनैः पदे पदे दूरमन्तरमितो वनान्तरे ॥ १ ॥ धावतोऽस्य मृगयूथवर्त्मना लोभितस्य मृगतृष्णिकाम्मसा | प्रत्यभात दिशां कदम्बकं प्रोत्तरङ्गसरसीमयं तदा ॥ २ ॥ अभ्यलोकि कलिता कलस्वनैश्चक्रवाककलहंससारसैः । सीरिणाथ सरसी तरङ्गिणी भृङ्गनादितसरोजसंकुला ॥३॥ चेतसास्य सहसा तदीक्षणाद्दीर्घमुच्छ्वसितमङ्गसङ्गिना । मारुतेन शिशिरेण सौहृदं संमुखेन गदितं सुगन्धिना ॥४॥ संपतद्भिरमितः पिपासुभिः श्वापदैः समयमीक्षितस्ततः । आससाद सरसों स सादरो वन्यहस्तिमदवारिवासिताम् ॥ ५ ॥ वारि तीर्थमवगाह्य शीतलं संप्रपाय निरपास्य तृड्व्यथाम् । पद्मपत्रटिका स वारिणा संप्रपूर्य परिवृत्य वाससा ॥ ६ ॥ भदधाव पदधूतधूलि मिर्धूसरीकृतशरीरमूर्धजः । कम्पमानहृदयः स शङ्कया प्रत्यपायबहुले वने हरौ ॥ ७ ॥
अथानन्तर स्नेहसे भरे बलदेव जल प्राप्त करनेके लिए बहुत व्याकुल हुए। वे हृदय में कृष्णको धारण किये हुए आगे बढ़े जाते थे । यद्यपि अपशकुन उन्हें पद-पदपर रोकते थे तथापि वे दूसरे वनमें बहुत दूर जा पहुँचे ॥ १ ॥ जिस मागंसे मृगोंके झुण्ड जाते थे बलदेव उसी मागंसे दौड़ते जाते थे और वे जगह-जगह मृगतृष्णाको जल समझकर लुभा जाते थे । उस समय उन्हें समस्त दिशाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो लहराते हुए तालाबोंसे युक्त ही हों ॥ २ ॥ तदनन्तर बलदेवको एक तालाब दिखा जो मधुर शब्द करनेवाले चक्रवाक, कलहंस और सारस पक्षियोंसे युक्त था, तरंगोंसे व्याप्त था एवं भ्रमर - गुंजित कमलोंसे सहित था || ३ || तालाब के देखते ही बलदेवके हृदयने एक लम्बी सांस ली और उसकी शीतल सुगन्धित वायु सम्मुख आकर इनके शरीरसे लग गयी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उसने अपनी मित्रता ही प्रकट की हो ॥ ४ ॥
तदनन्तर चारों ओरसे आनेवाले प्यासे जंगली जानवर जिन्हें भयपूर्ण दृष्टिसे देख रहे थे ऐसे बलदेव जंगली हाथियोंके मदजलसे सुवासित उस सरोवरपर बड़े आदर से जा पहुँचे ॥५॥ उन्होंने घाट में अवगाहन कर शीतल पानी पिया, अपनी प्यासको व्यथा दूर कर और कमलके पत्तीका एक पात्र बनाकर उसे पानीसे भरा तथा कपड़ेसे उसे ढँक लिया ॥ ६ ॥ पानी लेकर वे बड़े वेगसे दौड़े । उस समय पैरोंके आघातसे उड़ी धूलिसे उनके शिरके बाल धूसरित हो गये और 'मैं अनेक विघ्नोंसे भरे वनमें कृष्णको अकेला छोड़ आया हूँ' इस आशंकासे उनका हृदय बार-बार कम्पित हो रहा था ॥ ७ ॥
१. वारितोऽपि शकुनैः म. ।
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'इत्युपपिपि दीर्घमित्या
नोऽवतिष्ठते ॥१०
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हरिवंशपुराणे दूरतस्तमथ तत्र दृष्टवान् संवृताङ्गममितोऽम्बरेण सः। आस्त एव भुवि यत्र शायितः सूरशौरिरिति दीर्घनिद्रया ॥८॥ सुप्त एव सुखनिद्रया हरिः सुप्रबोधमुपगच्छतु स्वयम् । इत्युपेक्ष्य हरिबोधरं तदा तत्प्रबोधनमसौ प्रतीक्षते ॥९॥ वीर ! किं स्वपिषि दीर्घमित्यलं स्वापमुज्झ पिब तोयमिच्छया । इत्युदीर्णमधुरस्वरः पुनः सन्निरुद्धवचनोऽवतिष्ठते ॥१०॥ सीरिणा क्षतजगन्धतस्ततः कृष्णसंवरणवाससोऽन्तरे। संप्रवेशनिजनिर्गमाकुला प्रैक्षि तीक्ष्णमुखकृष्णमक्षिका ॥१॥ संकटोद्घटिततन्मुखो हरिं वीक्ष्य वान्तजनकान्तजीवितम् । हा हतोऽस्मि मृत एव तृष्णया विष्णुरिस्युपरि तस्य सोऽपतत् ॥१२॥ मोहमूढमनसोऽस्य मूर्छया प्राप्तयोपकृतमप्यनिष्टया। स्नेहपाशदृढबन्धनो हली प्राणहानमकरिष्यदन्यया ॥१३॥ बोधमाप्य परितः परामृशन् केशवस्य वपुरात्मपाणिना। पश्यति स्म चरणवणव्रजं तीव्र गन्धरुधिरारुणक्षमम् ॥१४॥ सुप्त एव विषमेषुणा हरिः विद्ध एष चरणेन केनचित् । दुष्प्रबोधहरिमारकोऽत्र कोऽपूर्वमद्य मृगयाफलं श्रितः ॥१५॥
wwwwwwwww तदनन्तर वस्नके द्वारा सब ओरसे जिनका शरीर ढंका था ऐसे कृष्णको बलदेवने दूरसे देखा। देखकर वे सोचने लगे कि मैं शूरवीर कृष्णको जिस भूमिमें सुला गया था यह वहां गहरी नींदमें सो रहा है ॥ ८॥ पास आनेपर उन्होंने विचार किया कि अभी यह सुखनिद्रासे सो रहा है इसलिए स्वयं ही जगने दिया जाये। इस प्रकार कृष्णको जगानेको उपेक्षा कर वे स्वयं ही उनके जागनेकी प्रतीक्षा करने लगे ॥९॥ जब कृष्ण बहुत देर तक नहीं जगे तब बलदेवने कहा, 'वीर ! इतना अधिक क्यों सो रहे हो? बहुत हो गया, निद्रा छोड़ो और इच्छानुसार जल पिओ'। इस प्रकार मधुर स्वरमें एक-दो बार कहकर वे पुनः वचन रोककर चुप बैठ रहे ॥१०॥
तदनन्तर बलभद्रने देखा कि तीक्ष्ण मुखवाली काली एक मक्खी रुधिरकी गन्धसे कृष्णके ओढ़े हुए वस्त्रके भीतर घुस तो गयो पर निकलनेका मार्ग न मिलनेसे व्याकुल हो रही है ॥ ११ ॥ यह देख उन्होंने शीघ्र ही कृष्णका मुख उघाड़ा और उन्हें निष्प्राण देख 'हाय मैं मारा गया' यह कहकर वे एकदम चीख पड़े। 'हाय-हाय ! यह कृष्ण प्याससे मर ही गया है' यह सोच वे उनके शरीरपर गिर पड़े ॥ १२ ॥ कृष्णके मोहसे जिनका मन अत्यन्त मोहित हो रहा था ऐसे बलदेवको तत्काल मूर्छा आ गयी। यद्यपि मूर्छाका आना अनिष्ट था तथापि उस समय उसने इनका बड़ा उपकार किया। अन्यथा स्नेहरूपी पाशसे दृढ़ बंधे हुए बलदेव अवश्य ही प्राण त्याग कर देते ॥ १३ ॥ सचेत होनेपर वे अपने हाथसे चारों ओर कृष्णके शरीरका स्पर्श करने लगे। उसी समय उन्होंने तीव्र गन्धसे युक्त रुधिरसे लाललाल पैरका घाव देखा ॥ १४ ।। और देखते ही निश्चय कर लिया कि सोते समय ही किसीने तीक्ष्ण बाणसे इसे पैरमें प्रहार किया है। जिनका जागना कठिन है ऐसे कृष्णको मारनेवाला
१. सूरिसौरि म.। २. इत्यपेक्ष्य म.। ३. प्रतीक्ष्यते म.। ४. सन्निरुध्य वचनो म., क., ङ.। ५. माकुला: म.। ६. मक्षिका: म., ड.। ७, संघटोद्घटित-म., घ.। ८. एव म. ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
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इत्युदीर्य कुपितो हली बली सिंहनादमकरोद्भयंकरम् । व्यापिनं विपिनदुर्गसंचरव्याघ्रसिंहकरिदर्पशातनम् ॥१६॥ संजगौ च शयितो ममानुजः छद्मना विधिविधानयोगतः । येन केनचिदहेतुवैरिणा संददातु लघु सोऽध दर्शनम् ॥१७॥ 'सुप्तमात्रमपशस्त्रमानतं मुक्तमानमसकृत्पलायिनम् । प्रत्यवाययुतमङ्गनां शिशं घ्नन्ति शत्रुमपि नो यशोधनाः ॥१८॥ उच्चकैरिति गदन् समन्ततः संप्रधाय कियदप्यवान्तरम् । सोऽन्यदीयपदवीमनाप्नुवनस्य कृष्णमुपगृह्य रोदिति ॥१९॥ हा जगरसुभग ! हा जगत्पते ! हा जनाश्रयण ! हा जनार्दन ! हापहाय गतवानसिक मां हानुजैहि लघु हेति चारुदत् ॥२०॥ हारि वारि परितापहारि तं पाययस्यपि विचेतनं मुहुः । क्राम्यतीपदपि तन्न तद्गले दूरमव्यमनसीव दर्शनम् ॥२१॥ मार्टि मार्दवगुणेन पाणिना संमुखं मुखमुदीक्षते मुदा । लेढि जिघ्रति विमूढधीर्वचः श्रोतुमिच्छति धिगात्ममूढताम् ॥२२॥ धौरिवोरुविमवाग्निमस्मिता द्वारिकेति किमिवासि तप्तवान् । अक्षयैर्बहुविधाकश्चिता प्रागिवास्ति ननु मारतावनिः ॥२३॥
कोन पुरुष आज यहां शिकारके फलको प्राप्त हुआ है ? ॥१५॥ इस प्रकार कहकर बलवान् बलदेवने कुपित हो ऐसा भयंकर सिंहनाद किया जो समस्त वनमें व्याप्त हो गया तथा जिसने वनके दुर्गम स्थानोंमें चलनेवाले व्याघ्र, सिंह और हाथियोंका गर्व नष्ट कर दिया ।।१६।। उन्होंने कहा कि भाग्यके फेरसे सोते हुए मेरे छोटे भाईको जिस किसी अकारण वैरीने छलसे मारा है वह आज शीघ्र ही मुझे दर्शन दे-मेरे सामने आवे ॥१७|| यशरूपी धनको धारण करनेवाल शूरवीर ऐसे शत्रुको भी नहीं मारते जो सो रहा हो, शस्त्ररहित हो, नम्रीभूत हो, मानरहित हो, बार-बार पीठ दिखाकर भाग रहा हो, अनेक विघ्नोंसे युक्त हो, स्त्री हो अथवा बालक हो ॥१८॥ इस प्रकार जोर-जोरसे कहते हुए वे इधर-उधर कुछ दूर तक आकर दौड़े भी परन्तु जब उन्हें किसी दूसरेका मार्ग नहीं मिला तब वे कृष्णके पास वापस आकर तथा उन्हें गोदमें लेकर रोने लगे ॥१९॥
हाय जगत्के प्रिय ! हा जगत्के स्वामी! हा समस्त जनोंको आश्रय देनेवाले! हा जनादन ! तू मुझे छोड़ कहां चला गया ? हा भाई ! तू जल्दी आ, जल्दी आ-इस प्रकार कहते हुए वे चिरकाल तक रोते रहे ॥२०॥ वे चेतनाशून्य-निर्जीव कृष्णको सुन्दर एवं सन्तापको दूर करनेवाला पानी बार-बार पिलाते थे परन्तु जिस प्रकार दूरानुदूर भव्यके हृदयमें सम्यग्दर्शन नहीं प्रवेश करता है उसी प्रकार उनके गलेमें वह जल थोड़ा भी प्रवेश नहीं करता था ।।२१।। मढबद्धि बलदेव सामने बैठकर कोमल हाथोंसे उनका मख धोते थे. हर्षपूर्वक उसे देखते थे, चमते थे, सूंघते थे, और वचन सुनने की इच्छा करते थे। आचार्य कहते हैं कि ऐसी आत्म-मूढ़ताको धिक्कार है ।।२२।। 'स्वर्गके समान विशाल वैभवसे युक्त द्वारिकापुरी अग्निसे भस्म हो गयी है इसलिए अब जोनेकी क्या आवश्यकता है' ? यह सोचकर क्या तू तप्त हो रहा है ? अरे नहीं भाई ! नाना प्रकारको अविनाशी खानोंसे युक्त भरत क्षेत्रको भूमि पहलेके समान अब भी मौजूद
१. सुप्तमत्त क.।
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हरिवंशपुराणे भोजराजकुलयादवक्षये भ्रष्टबन्धुरिति किं विमुह्यसि । सत्यसन्ध मयि ते मम त्वयि प्राणितीह सकलास्ति बन्धुता ॥२४॥ पूर्वजन्मसु बहुध्वनारतं पश्यतो हि तव मामिहापि च । एकताननयनस्य नोदभूत्तप्तिरद्य किमिवासि तृप्तवान् ॥२५॥ त्वां पयोर्थमपहाय मोहतो हा गतेन नररत्नभूषणम् । लोकसारमपहारितं मया सन्निधौ तु मम कोऽस्य हारकः ॥२६॥ कंसकोपमदपर्वताशने नमोगविषग्गरुत्मनः । पीतमागधयशोऽम्बुधेरभूदुगोष्पदे वत निमजनं तव ॥२७॥ शार्वरं तिमिरमुग्रतेजसा शात्र स्वमिव निविधूय यः । विष्टपं तपति विष्टरश्रवः पश्य सोऽस्तमुपयात्यहप॑तिः ॥२८॥ दीर्घनिमिव वीक्ष्य संहृतैरस्तमस्तकनिशितैः करैः । स्वां विशोचति रविवां त्रये स्वाप एष तव कस्य नो शुचे ॥२९॥ वारुणीमतिनिषेव्य वारुणश्चक्रवाकनिवहैरुदश्रुमिः । शोचितः पतति भानुमानधः को न वा पतति वारुणीप्रियः ॥३०॥ शोकमारमपनीय सांप्रतं सन्निमजति पयोनिधी रविः । दातुमेष तव वा जलाञ्जलिं कालविद्धि कुरुते यथोचितम् ॥३१॥
है ! ॥२३।। 'भोजराजका कुल तथा समस्त यादवोंका क्षय हो जानेसे मैं बन्धुरहित हो गया हूँ' यह सोचकर क्या तू मोहको प्राप्त हो रहा है ? पर ऐसा करना उचित नहीं। हे दृढ़प्रतिज्ञ ! यदि तू और मैं जीवित हूँ तो समझ कि हमारे समस्त बन्धुओंका समूह जीवित है ।।२४।। अनेकों पूर्व जन्ममें तथा इस जन्ममें भी निरन्तर मेरी ओर तू स्थिर नयन होकर देखता रहा फिर भी तुझे तृप्ति नहीं हुई फिर आज तू तृप्त कैसे हो गया ? ॥२५॥ हाय ! मोहवश तुझे अकेला छोड़ पानीके लिए गये हुए मैंने लोकके सारभूत नररूपी रत्नोंका आभूषण अपहृत करा लिया। अन्यथा मेरे पास रहते इसे हरनेवाला कौन था ? ॥२६|| अरे भाई ! तू तो कंसके क्रोध और मदरूपी पर्वतको नष्ट करनेके लिए वज्रस्वरूप था। भूमिगोचरी और विद्याधररूपी सोको नष्ट करने के लिए गरुडस्वरूप था और जरासन्धके यशरूपी सागरको पीनेवाला था पर खेद है कि तु इस गोष्पदमें डूब गया ॥२७॥
हे नारायण ! देख, जो सूर्य तेरे समान अपने उग्र तेजसे शत्रुतुल्य रात्रिके अन्धकारको नष्ट कर संसारको सन्तप्त करता है वही अब अस्ताचलकी ओर जा रहा है ।।२८। इस सूर्यने तुझे दोघं निद्रामें निमग्न देखकर ही मानो अपने किरणरूपी हाथ अन्य स्थानोंसे संकोच कर अस्ताचलरूपी मस्तकपर रख छोड़े हैं और उनसे ऐसा जान पड़ता है मानो तेरे प्रति शोक ही कर रहा है। सो ठीक ही है क्योंकि तेरा यह सोना तीनों लोकोंमें किसके शोकके लिए नहीं है ? ।।२९।। जो वारुणी-पश्चिम दिशारूपी मदिराका अधिक सेवन कर लाल-लाल हो रहा है तथा आंसुओंसे युक्त चक्रवाक पक्षियोंका समूह जिसकी दशापर शोक प्रकट कर रहा है ऐसा यह सूर्य नीचे गिरा जा रहा है सो ठीक ही है क्योंकि वारुणी ( मदिरा ) का प्रेमी कौन व्यक्ति नीचे नहीं गिरता है ? ॥३०॥ अथवा यह सूर्य, इस समय शोकका भार दूर कर समुद्र में अवगाहन कर रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो स्नान कर तुझे जलांजलि ही देना चाहता है। ठीक
१. मतेन म. । २. वा + अरुण: इतिच्छेदः ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
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सान्ध्यरागपटलेन सर्वतः पश्य संस्थगितमङ्ग विशुपम् । त्वय्यतिस्वपति रोदनोद्गतैरक्षिरागनिवहै रिहाङ्गिनाम् ॥३२॥ देवभक्त मज सांध्यवन्दनां वन्ध्यया किसयि देव ! निदया। संध्ययापि गलितं गलगुचा वेगवद्रविरथा बन्धया ॥३३॥ एकवर्णमखिलं जगत्खला कुर्वती समवसर्पति दुतम् । ध्वान्तसंततिरपेतदर्शना कालवृत्तिरति दुःपमा यथा ॥३४॥ श्वापदानि पदशब्दगन्धतो घ्राणकर्णवलवन्ति विन्दते । एहि दुर्गमिह संश्रयावहे क्षेमतो व्रजति तत्र नौ निशा ॥३५॥ चित्रिते कुसुमचित्रमण्डपे दत्तबन्धुनृपलोकदर्शनः । "श्रीपुषि स्वपिषि यो वधूजनैः सोपधानशयने महामृदौ ॥३६॥ स्वं महीध्रवनरन्ध्रवृत्तिभिमुद्धकाककुलजम्बुकादिभिः।। सोऽद्य भक्षकगणैरुपासितः श्रीपते स्वपिषि शार्करक्षिती ॥३७॥ कालिनीः प्रणयकेलिकोपिनीस्त्वं प्रसाद्य कुपितः प्रसादितः । यः पुरा नयति यामिनी रतैः सोऽद्य किं विगतचेतनात्मना ॥३८॥ चारुवारवनितासुगीतकैर्वन्दिवृन्दपटुपाठनिस्वनैः। यः प्रबोधमुषसि प्रपद्यसे सोऽद्य वीर ! विरसैः शिवास्तैः ॥३१॥
ही है क्योंकि कालको जाननेवाला पुरुष यथायोग्य कार्य करता ही है ॥३१॥ हे भाई ! देख, यह समस्त संसार सन्ध्याकी लालीसे सब ओरसे आच्छादित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे दीर्घ निद्रामें निमग्न होनेपर संसारके सब मनुष्योंके रोदनजन्य नेत्रोंकी लालिमासे ही मानो लाल-लाल हो रहा है ॥३२॥ हे देवभक्त ! यह सन्ध्या भी फीकी पड़ बड़े वेगसे जाते हुए सूर्यके रथके पीछे-पीछे चली जा रही है। उठ सन्ध्या-वन्दन कर। हे देव ! व्यर्थको निद्रासे क्या कार्य सिद्ध होता है ? ॥३३।। जो अतिदुःषमा नामक छठे कालके समान समस्त जगत्को एक वर्ण (ब्राह्मणादि वर्णके भेदसे रहित ) एक वर्णरूप, पक्षमें एक श्यामवर्ण रूप कर रही है, अतिशय दुष्ट है, एवं अपेतदर्शना--सम्यग्दर्शनसे रहित (पक्षमें देखनेकी शक्तिसे रहित ) है ऐसी यह अन्धकारकी सन्तति बड़े वेगसे सब ओर फैल रही है ॥३४॥ देखो, ये घ्राणेन्द्रिय और कर्णेन्द्रियके बलसे युक्त जंगली जानवर अपने पैरोंको गन्ध और शब्दको ग्रहण कर इस ओर आ रहे हैं इसलिए आओ इस दुर्गमें चलें वहाँ अपनी रात्रि कुशलपूर्वक बीत जायेगी ॥३५॥ हे भाई ! जो तू फूलोंसे चित्र-विचित्र, आश्चर्यकारी मण्डपमें बन्धुजनों तथा राजाओंको दर्शन देता था और लक्ष्मीको पुष्ट करनेवाले, अत्यन्त कोमल एवं तकियोंसे सुशोभित शय्यापर स्त्रीजनोंके साथ शयन करता था हे लक्ष्मीपते ! वही तू आज पर्वत और वनको गुफाओंमें रहनेवाले गीध, कोवे तथा शृगाल आदि भक्षक जन्तुओंके समूहसे सेवित होता हुआ कंकरीली-पथरीली भूमिपर सो रहा है ॥३६-३७॥ जो तू पहले प्रणय-क्रीड़ासे कुपित स्त्रियोंको प्रसन्न करता था और तेरे कुपित हो जानेपर वे तुझे प्रसन्न करती थीं और इस तरह रति-क्रीड़ासे रात्रि व्यतीत करता था वही तू आज चेतनासे रहित हो रात्रि व्यतीत कर रहा है ॥३८॥ हे वीर! जो तू पहले प्रातःकालमें सुन्दर वारवनिताओंके सुसंगीतों एवं वन्दीजनोंके उच्च पाठोंके शब्दोंसे प्रबोधको प्राप्त होता
१. किमपि म. । २. रथानुबन्ध्यया म. । ३. प्राणकणबर्लवन्ति म. । ४. श्रीयुषि म., ख.। ५. स्वपिति म.। ६. भसितक्षितौ ङ. । तक्षितक्षितो म., ख. ।
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७७४
हरिवंशपुराणे त्वत्प्रवृत्तिमिव वेदितुं 'पुरः पूर्वमित्रपतिसुप्रयुक्तया । संध्ययाप्युषसि सानुरागया रज्यते शयनतो विरज्यताम् ॥४०॥ अभ्युदेति करभिन्नपङ्कजश्रीसमग्रमुदयाचलादयम् । द्राक् प्रधानपुरुषायतेऽधुना दातुमर्घमिव धर्मदीधितिः ॥४१॥ चाटुकारशतमत्र सीरिणा प्राणवल्लभतया कृतं हरौ। निष्फलं सकलमप्यभूत्पुरा गाढसुप्त इव मुग्धबालके ॥४२॥ तं प्रश्त्य भुजपञ्जरोदरे स्पर्शनेन्द्रियसुखं मजन् शिशोः । अन्मनीव वनमध्यमाट सच्छत्रधारगुरुकंसशङ्कया ॥४३॥ इत्यनेकदिनरात्रियापनैः सोऽत्यतन्द्रितमनोवचोवपुः। प्रत्यहं हरिवपुर्वहन् भ्रमन् प्रत्यपद्यत रतिं न कानने ॥४४॥ तीवधर्मसमयात्यये ततः प्रावृषा शमितघर्मसंपदा। गर्जदम्बुदघटाम्बुवर्षणैः प्रापितं जगदितस्तत: शिवम् ॥४५॥ वासुदेववचनाजरासुतः शावरं विषमवेषमुद्वहन् ।
दाक्षिणा मधुरलोकसंकुलां प्राप पाण्डवपुरीमखण्डितः ॥४६॥ था-जागता था, वही तू आज शृगालियोंके विरस शब्दोंसे प्रबोधको प्राप्त हो रहा है ।।३९।। हे भाई ! अब प्रातःकाल हुआ चाहता है। पूर्व सूर्यरूप पतिके द्वारा प्रेषित अनुरागवती सन्ध्या भी लाल हो रही है सो ऐसी जान पड़ती है मानो तुम्हारा समाचार जाननेके लिए ही सूर्यने उसे पहलेसे भेजा है अतः शय्यासे विरक्त होओ-उठ कर बैठो ॥४०॥ देखो, यह उदयाचलसे सूर्य उदित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो इस समय तुझ प्रधान पुरुषके लिए अपनी किरणोंसे विकसित कमलोंकी लक्ष्मीसे युक्त अर्घ देनेके लिए ही शीघ्रतासे बढ़ा आ रहा है ।।४१॥
बलभद्रको कृष्ण प्राणोंसे अधिक प्यारे थे इसलिए उन्होंने उन्हें जगानेके लिए सैकड़ों प्रिय वचन कहे परन्तु जिस प्रकार पहलेसे प्रगाढ़ नींदमें सोये भोले-भाले बालकके विषयमें कहे प्रिय वचन निष्फल जाते हैं उसी प्रकार उनके वे प्रिय वचन निष्फल गये ||४२|| जिस प्रकार जन्मकालमें कंसके भय से बलभद्रने कृष्णको अपने भजरूप पंजरके मध्य में ले लिया था तथा वसुदेवने उनपर. छत्र लगा लिया था उसी प्रकार अब भी उन्होंने स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी सुखका अनुभव करते हुए उन्हीं भुजरूप पंजरके मध्यमें ले लिया और लेकर वे वनके मध्यमें इधर-उधर घूमने लगे ॥४३॥
इस प्रकार अनेक दिन-रात व्यतीत होनेपर भी उनके मन, वचन और शरीरमें जरा भी आलस्य नहीं आया--वे प्रतिदिन कृष्णके शवको धारण किये हुए वनमें घूमते रहें तथा रंच मात्र भी प्रीतिको प्राप्त नहीं हुए ॥४४॥
___ जब ग्रीष्म ऋतु चली गयी और आतपके वैभवको नष्ट करनेवाली वर्षा ऋतुने गरजते बादलोंकी घटा तथा जलवर्षासे जगत्में, जहां-तहाँ हर्ष प्राप्त करा दिया तब कृष्णके कहे अनुसार भीलके विषम वेषको धारण करता हुआ जरत्कुमार अखण्डित रूपसे सुन्दर लोगोंसे व्याप्त पाण्डवोंको पुरी दक्षिण मथुरामें पहुँचा ।। ४५-४६ ।।
१. परः न.। २. पूर्वमित्रसुपतिप्रयुक्तया क.। ३. सफल. म. । ४. पुरु ङ., पुर म., सच्छत्रधारो गुरुर्वसुदेवो यस्मिन्नटने ( क. टि.)। ५. मथुर म. । ६. प्राप्य म. ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
७७५
सोऽवगाम हरिदतकार्यकृत् प्रश्रयेण विहितोचितस्थितिः । सन्निषण्णमुदपृच्छयतेशितुः क्षेममित्यथ युधिष्ठिरादिभिः ॥४७॥ मन्युरुद्धगलगद्गदस्वरः सन्निवेद्य स जरात्मजो जगौ । द्वारिकास्वजनदाहपूर्वक स्वप्रमादवशतो मृति हरेः ॥१८॥ प्रत्ययाय हरिदत्तकौस्तुभं प्रस्फुरकिरणजालकं पुरः । संप्रदश्य पुरुदुःखपूरितः पूस्कृति व्यतनुतातनुस्वनः ॥४९॥ तरक्षणेलमुदतिष्ठदाकुलः कुन्त्यधिष्ठितकलत्रकण्ठजः । पाण्डुपुत्रभवनेऽखिले रुदत्याकुलस्य जलधेरिव ध्वनिः ॥५०॥ हा प्रधानपुरुषैकधीर हा हा जगदव्यसननोदनोद्यत । हा त्वयीह विधिना किमोहितं हा वतेति रुदितं चिरं त्वभूत् ॥५१॥ संहृतातिबहुरोदनैस्ततः पाण्डवादिबहुबान्धवैर्जगद् । वृत्तवेदिभिरदायि विष्णवे संस्थितस्वजनतृप्तये जलम् ॥५२॥ जारसेयमपनीय पूर्वदुषमीषदधीरिताधिकम् ।
अग्रतस्तममिकृरय पाण्डवा जग्मुरातहलभृद्दिदृक्षया ॥५३॥ कृष्णके दूतका कार्य करनेवाले जरत्कुमारने पाण्डवोंकी सभामें प्रवेश कर विनयपूर्वक दूतकी सब मर्यादाओंका पालन किया। तदनन्तर जब वह सभामें बैठ गया तब युधिष्ठिर आदिने उससे स्वामीकी कुशल-वार्ता पूछो ॥४७॥ शोकसे जिसका कण्ठ रुंध गया था तथा स्वर गद्गद हो गया था ऐसे जरत्कुमारने द्वारिका तथा कुटुम्बीजनोंके जल जाने और अपने प्रमादसे कृष्णके मारे जानेका सब समाचार कह दिया और विश्वास दिलानेके लिए देदीप्यमान किरणोंसे युक्त, कृष्णका दिया कौस्तुभमणि उनके सामने दिखा दिया। तदनन्तर बहुत भारी दुःखसे भरा जरत्कुमार गला फाड-फाडकर जोरसे रोने लगा ॥४८-४९|| उसी समय माता कुन्ती तथा पाण्डवोंकी स्त्रियोंके कण्ठसे उत्पन्न रोनेका विशाल शब्द उठ खड़ा हुआ। यही नहीं, उस समय जो वहां विद्यमान थे वे सभी रोने लगे जिससे पाण्डवोंके भवन में समुद्र-जैसी ध्वनि गूंज उठी ।।५०|| वे सव रोते-रोते कह रहे थे कि 'हा प्रधानपुरुष ! हा अद्वितीय धीर ! हा जगत्का कष्ट दूर करने में सदा उद्यत रहनेवाले ! विधिने तुम्हारे ऊपर यह क्या हाय-हाय, बड़े दुःखकी बात है' इस प्रकार चिरकाल तक रुदन चलता रहा ॥५१॥
तदनन्तर जब रोना-चीखना बन्द हुआ तब जगत्का वृत्तान्त जाननेवाले पाण्डव आदि बान्धवोंने सब ओर घेरकर बैठे आत्मीयजनोंके सन्तोषके अर्थ कृष्णके लिए जल दिया* ॥५२॥ पहलेका निन्द्यवेष दूर कर जिसने मानसिक व्यथाको कुछ-कुछ कम कर दिया था ऐसे
१. स्थितः क.। २. जरात्मको म.। ३. ईषत् किंचित अवधी रितः आधिर्मनोव्यथा येन स तम् कपसमासान्तः । * मृतकके लिए जल देने की पद्धति जैन संस्कृतिमें नहीं है। फिर ग्रन्थकर्ताने इसका वर्णन क्यों किया ? यहाँ उनका यह भाव जान पड़ता है कि पाण्डव आदि स्वयं तो जल देने के पक्षमें नहीं थे किन्तु उस समय उनके दुःखमें समवेदना प्रदर्शित करनेके लिए जो अन्य जनसमूह आकर एकत्रित हो गया था उनकी तृप्तिके लिए पाण्डवोंने कृष्णको जल दिया था। उस समय वैदिक संस्कृतिके अनुसार लोकमें मृतकके लिए जल देने की पद्धति थी और पाण्डव लोककी सब विधियोंको जाननेवाले थे इसलिए लोकाचारसे उन्होंने यह कार्य किया था।
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हरिवंशपुराणे
ते कियद्भिरपि वासरैद्रुतं द्रौपदीप्रभृतिभामिनीजनैः । मातृपुत्रसहिताः ससाधनाः प्राप्य तं ददृशुरादृता वने ॥ ५४ ॥ व्यर्थिकाः शवशरीरगोचरोद्वर्तनस्नपनमण्डनक्रियाः । वर्तयन्तमुपगृह्य तं चिरं बान्धवा रुरुदुरुच्चकैःस्वनाः ॥५५॥ कुन्त्यधीनतनया विनम्य तं बोधयन्ति हरिसंस्क्रियां प्रति । कोपनः स न ददाति याचितस्तं तदा विषफलं शिशुर्यथा ॥ ५६ ॥ सज्ज्यतां सुलघुमज्जनक्रिया पाण्डवास्तदनुपानभोजनम् । नोकुमिच्छति पिपासितः प्रभुः क्षिप्रमित्यभिहिते तथाकृते ॥५७॥ मज्जयत्यभिनिवेश्य विष्टरे भोजयत्यपि स पाययत्यपः । व्यर्थतामपि तदास्य पाण्डवा मेनिरेऽनुचरणाः कृतार्थताम् ॥ ५८ ॥ निन्युरित्थमनुवृत्तितस्तु ते तत्र मेघसमयं बलानुगाः । मोहमेवपटलं बलस्य वा भेत्तुमाविरभवत्तदा शरत् ॥ ५१ ॥ सप्तपर्णसुरभेः सदा तदा वैष्णवस्य वपुषो वपुष्मतः । दूरदेशमगमद्विगन्धता गन्धयोर्हि न तयोः सहस्थितिः ॥ ६० ॥ आययावथ कृतव्यवस्थितिर्भ्रातृपूर्वनिजसारथिः सुरः । सोऽयमाभिमुखकाललब्धितः बोधनाय बलदेवसन्निधिम् ॥ ६१ ॥
जरत्कुमारको आगे कर पाण्डव लोग दुःखसे पीड़ित बलदेवको देखनेकी इच्छासे चले || ५३ ॥ द्रौपदी आदि रानियों, माता-पुत्रों एवं सेना के साथ बड़ी शीघ्रतासे चलकर कुछ दिनों बाद उन्होंने वनमें बलदेवको प्राप्त कर देखा । उस समय बलदेव कृष्णके मृत शरीरको उबटन लगाना, स्नान कराना तथा आभूषण पहनाना आदि व्यर्थं क्रियाएँ कर रहे थे । उन्हें देख सब बन्धुजन आदरके साथ उनसे लिपट गये और उच्च शब्द कर चिरकाल तक रोते रहे ।।५४-५५ ॥ कुन्ती और उनके पुत्रों नमस्कार कर बलदेवसे कृष्णके दाह-संस्कारको प्रार्थना की परन्तु जिस प्रकार बालक विषफलको नहीं देता है उलटा कुपित होता है उसी प्रकार बलदेवने भी मांगनेपर कृष्णका मृतक शरीर नहीं दिया, उलटा क्रोध प्रकट किया || ५६|| बलदेवने कहा कि हे पाण्डवो ! स्नानकी शीघ्र तैयारी करो और फिर उत्तम भोजन-पानकी व्यवस्था करो, हमारा प्रभु ( कृष्ण ) प्यासा है तथा शीघ्र ही भोजन करना चाहता है । बलदेवके इस प्रकार कहनेपर पाण्डवोंने स्नान तथा भोजन - पानकी तैयारी की ॥५७॥
बलदेवने कृष्णको आसनपर बैठाकर नहलाया, भोजन कराया और पानी पिलाया परन्तु उनका वह सब प्रयत्न व्यर्थं गया । यद्यपि पाण्डव भी बलदेवके इस कार्यको व्यर्थ मानते थे तथापि वे उनके कहे अनुसार आचरण कर अपने आपको कृतकृत्य मानते थे ॥५८॥ इस प्रकार बलदेव के पीछे-पीछे चलनेवाले पाण्डवोंने उनके कहे अनुसार कार्य कर उस वनमें वर्षाकाल पूर्ण किया । तदनन्तर उनके मोहरूपी मेघपटलको भेदनेके लिए शरद्काल प्रकट हुआ || ५९ || पहले कृष्ण के शरीर से सदा सप्तपर्णके समान सुगन्धि आती थी परन्तु उस समय दुर्गन्ध आने लगी और वह दुर्गन्ध दूर देश तक फैल गयी सो ठोक ही है क्योंकि दोनों गन्धों की एक साथ स्थिति नहीं होती ॥ ६० ॥
अथानन्तर——कृष्णका भाई सिद्धार्थं, जो सारथि था, मरकर स्वर्ग में देव हुआ था और जिसने दीक्षा लेते समय सम्बोधनेकी व्यवस्था स्वीकृत की थी, काललब्धिको निकटता से
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त्रिषष्टितमः सर्गः
भूभृतोऽतिविषमं तटं रथः संव्यतीत्य दलितः समे पथि । संधिमस्य दधता पुरः पुनर्दर्शितः सपदि तेन सीरिणे ॥ ६२ ॥ सीरिणास गदितस्तटे गिरेः स्यन्दनस्तव ने मज्यते स्म यः । मार्गशीर्णपतितस्य तस्य भो जन्मनीह पुनरुद्गतिः कुतः ॥ ६३ ॥ प्रत्युवाच विबुधो हरेर्म हामारतोमरणपारदर्शिनः । जारसेकरकाण्डकाण्डकापातमात्रपतितस्य सा कुतः ॥ ६४ ॥ इत्युदीर्य मृदुपद्मिनीं पुना रोपयत्यसलिले शिलातले । पर्यपृच्छत्कुतः शिलातले पद्मिनीप्रभव इत्यनेन सः ॥ ६५ ॥ सोत्तरेण तु हलो सुधाशिना सिञ्चता सुचिरशुष्कपादपम् । ● गोकलेवर तृणाम्बुदायिना कृच्छ्रतः प्रतिविबोधितस्तदा ॥ ६६ ॥ सत्यमेव विगतोऽसुभिर्हरिर्यद् ब्रवीषि मम मानुषेदृशम् । सत्यमेतदिह नान्यथेति 'सन् भव्य ! सर्वमगदीर्यथास्थितम् ॥६७॥ सर्वमत्र जिनभाषितं पुरा जानतापि भवता भवस्थितिम् । मासषट्कमतिवाहितं वृथा केशवस्य वहता कलेवरम् ॥६८॥
सम्बोधने के लिए बलदेवके निकट आया || ६१ || उसने एक मायामयी ऐसा रथ बलदेवके लिए दिखाया जो पर्यंत अत्यन्त विषम तटको पार कर तो टूटा नहीं और सम-चौरस मार्गपर आते ही टूट गया । वह देव उस रथको सन्धिको फिरसे ठीक कर रहा था परन्तु वह ठीक होता नहीं था || ६२ ॥ बलदेवने यह देख उससे कहा कि हे भाई! बड़ा आश्चर्य है जो तेरा रथ पर्वतके विषम तटपर तो टूटा नहीं और वह समान मार्ग में टूट गया। अब इसका इस जन्ममें फिरसे खड़ा होना कैसे सम्भव है ? इसे ठीक करनेका तेरा प्रयत्न व्यर्थ है || ६३ || इसके उत्तर में उस देवने कहा कि जो कृष्ण महाभारत जैसे रणका पारदर्शी है अर्थात् उतने विकट युद्ध में जिसका बाल बाँका नहीं हुआ, वह जरत्कुमारके हाथमें स्थित धनुषसे छूटे बाणके लगने मात्रसे नीचे गिर गया। अब इस जन्ममें उसका फिरसे उठना कैसे सम्भव हो सकता है ? || ६४ || इतना कह वह देव, जहाँ पानीका अंश भी नहीं था ऐसे शिलातलपर कोमल कमलिनी लगाने लगा । यह देख बलदेवने पूछा कि शिलातलपर कमलिनीकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ॥ ६५ ॥ इसका उत्तर देवने दिया कि निर्जीव शरीरमें कृष्णकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर देनेके बाद वह एक सूखे वृक्षको सींचने लगा । बलदेवने फिर पूछा- भाई ! सूखे वृक्षको सींचनेसे क्या लाभ है ? इसका देवने उत्तर दिया कि मृत कृष्णको स्नानादि करानेसे क्या लाभ है ? तदनन्तर वह देव एक मरे बैलके शरीरको घास पानी देने लगा। यह देख बलदेवने फिर पूछा कि अरे मूर्ख ! इस मृतक शरीरको घास पानी देनेसे क्या लाभ है ? इसके उत्तरमें देवने कहा कि मृतक कृष्णको आहार-पानी देनेसे क्या लाभ है ? इस प्रकार उस देवने बड़ी कठिनाईसे बलदेवको समझाया || ६६ || प्रतिबोधको प्राप्त हुए बलदेव कहने लगे कि कृष्ण सचमुच ही प्राणरहित हो गया है । हे भद्र मानुष ! तू जो कह रहा है वह ऐसा ही है, यही सत्य है, इसमें रंचमात्र भी अन्यथा बात नहीं है; हे सत्पुरुष ! हे भव्य ! तूने ठीक ही कहा है ||६७ || इसके उत्तर में देवने कहा कि यहाँ जो कुछ हुआ है वह सब नेमिजिनेन्द्र पहले ही
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१. नु म । २. महाभारताम्भरण - म । महाभारतान्तरण - ख । ३. सोऽन्तरे रुत म, ख. । ४. गोकुलेवर - तृणाम्बु- म. । ५. हे मानुष ! ईदृशम् इति च्छेदः, मानुषेदृशी म., क., ङ. । ६. सक. ।
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हरिवंशपुराणे
aisa कस्य बहिरङ्गहिंसकः स्वान्तरङ्गशुभकर्म रक्षकम् । " आयुरेव निजत्राणकारण तत्क्षये भवति सर्वथा क्षयः ॥ ६९ ॥ संपदत्र करिकर्णचञ्चलां संगमाः प्रियवियोग दुःखदाः । जीवितं मरणदुःखनीरसं मोक्षमक्षयमतोऽर्जयेद्बुधः ॥७०॥ पूर्वरूपधरवंशदेवतो लब्धबोधिरिति वीतमोहकः ।
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निर्बभौ हलधरस्तदाधिकं धूतमेघपटलः शशी यथा ॥ ७१ ॥ पाण्डवैः सह जरासुतान्वितैस्तुङ्गयभिख्य गिरिमस्तके ततः । संविधाय हरिदेहसंस्क्रियां जारसेयसुवितीर्णराज्यकः ॥ ७२ ॥ शृगमेवमचलस्य तस्य तैः संगतैः सविततं ततः श्रितः । संगहान कृतनिश्चयो बलो भङ्गुरं समधिगम्य जीवितम् ॥७३॥ पल्लव स्थजिननाथशिष्यतां संसृतोऽस्म्यहमिह स्थितोऽपि सन् । इत्युदीर्य जगृहे मुनिस्थितिं पञ्चमुष्टिभिरपास्य मूर्धजान् ॥ ७४ ॥ पारणा पुरसंप्रवेश ने वैपरीत्यमवगम्य योषिताम् । सत्रियोगभृतो रणव्रती संतुतोष वनभैक्ष्यवर्तनैः ॥ ७५ ॥ पाण्डवास्तु बहुराजकन्यकाः संप्रदाय हरिवंशभूभुजे । पुत्रयोजित निजश्रियोऽगमन् पल्लवाख्यविषयं जिनं प्रति ॥ ७६ ॥
कह चुके थे । संसारकी स्थितिको जानते हुए भी आपने कृष्णका मृतशरीर धारण कर छह माह व्यर्थ ही बिता दिये || ६८ || इस संसार में कौन किसका बहिरंग हिंसक है ? अपना अन्तरंग शुभ कर्म हो रक्षक है। यथार्थ में आयु ही अपनी रक्षाका कारण है, उसका क्षय होनेपर सब प्रकार से क्षय हो जाता है ||६९ || सम्पत्ति हाथी के कानके समान चंचल है। संयोग, प्रियजनोंके वियोग से दुःख देनेवाले हैं और जीवन मरणके दुःखसे नीरस है । एक मोक्ष हो अविनाशी है अतः विद्वज्जनों को उसे ही प्राप्त करना चाहिए ||७० || इस प्रकार पूर्वंरूपको धारण करनेवाले अपने वंशके देवसे जिन्हें रत्नत्रयकी प्राप्ति हुई थी और जिनका मोह दूर हो गया था ऐसे बलदेव, मेघपटलसे रहित चन्द्रमाके समान उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ||७१ ||
तदनन्तर जरत्कुमार और पाण्डवोंके साथ उन्होंने तुंगीगिरिके शिखरपर कृष्णका दाहसंस्कार कर जरत्कुमारको राज्य दिया और जीवनको क्षणभंगुर समझ परिग्रहके त्यागका निश्चय कर साथियों के साथ उसी पर्वत के शिखरका आश्रय लिया । उन्होंने, 'मैं यहाँ रहता हुआ भी पल्लव देशमें स्थित श्री नेमिजिनेन्द्रकी शिष्यताको प्राप्त हुआ हूँ' यह कहकर पंचमुष्टियोंसे शिरके बाल उखाड़कर मुनि दीक्षा धारण कर ली ।। ७२- ७४ ॥ बलदेव शरीरसे अत्यन्त सुन्दर थे । इसलिए पारणाओंके लिए नगर में प्रवेश करते समय स्त्रियोंकी विपरीत चेष्टा होने लगी । यह जान त्रियोगको धारण करनेवाले रणव्रती बलदेव 'यदि वनमें भिक्षा मिले तो लेंगे अन्यथा नहीं' ऐसी प्रतिज्ञा कर सन्तोषको प्राप्त हुए ॥ ७५ ॥ पाण्डवोंने हरिवंशके राजा जरत्कुमार के लिए बहुत-सी राज कन्याएँ दीं, अपने पुत्रोंके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपी ओर उसके बाद जिनेन्द्र भगवान्को लक्ष्य कर सबके सब पल्लव देशको ओर चले गये ॥ ७६ ॥
१. आयुकर्म म । २. संपदोऽत्र करिकर्णचञ्चलाः ख । ३. पूर्वरूपधरवासुदेवतो क । ४. सविततस्ततः स्थितः क. । ५. इत ऊर्ध्व म., क. पुस्तकयोरधोलिखितः पाठोऽधिको वर्तते । 'प्रेष्य सूर्यपुरसंज्ञिकं निजानात्मजांश्च सुनिधाय शासने । त्यक्तरागमपि पाण्डुनन्दनाः संविभज्य निजसंपदो मुदा ॥'
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त्रिषष्टितमः सर्गः
द्रौपदीप्रभृतयस्तदङ्गनाः संयमं प्रति निविष्टबुद्धयः । पाण्डवाननुगता जनन्यपि संसृतौ विगतरूक्षधीं सती ॥७७॥ द्वादशात्मभिदयासतामनुप्रेक्षयानुमतया हलायुधः ।
व्यापृतोऽभवदखण्डित स्थितिः सत्रिदण्डदृढखण्डनोन्मुखः ॥७८॥ तन्त्र नित्यमिति यत्र मूर्च्छना स्थानदेहधनसौख्यबन्धुषु । तंत्र किंचिदपि नास्ति निस्यता आत्मनोऽन्यदिति चिन्तयत्यसौ ॥ ७९ ॥ मृत्युदुःखपरिपीडितस्य मे व्याघ्रवक्त्रमृगशावकस्य वाँ ।
बान्धवा न शरणं धनादि वा धर्मतोऽन्यदिति चिन्तनामितः ॥८०॥ नैयोनि कुल कोटिकूटसंसारचक्रमिह यान्ति जन्तवः । प्रेरिताः कटुककर्मयन्त्रकैः स्वामिभृत्य पितृपुत्रपूर्वताम् ॥ ८१ ॥ एक एव भवत्प्रजायते मृत्युमेति पुनरेक एव तु । धर्ममेकमपहाय नापरः सत्सहाय इति चैकता स्मृतिः ॥ ८२ ॥ नित्यता मम तनोरनित्यता चेतनोऽह्मपचेतना तनुः ।
अन्यता मम शरीरतोऽपि यत्तत्किमङ्ग ! पुनरन्यवस्तुनः ॥ ८३ ॥ शुक्रशोणित कुबीजजन्म के सप्तधातुमय के त्रिदोषके । कः शुचं ' तदनुवाशुचौ शुची रज्यते स्वपरयोः शरीरके ॥ ८४ ॥
ओर जिनकी बुद्धि लग रही थी ऐसी द्रौपदी आदि स्त्रियाँ तथा संसारसे जिसकी बुद्धि विमुख हो गयी थी ऐसी माता कुन्ती भी पाण्डवोंके पीछे-पीछे जा रही थीं ॥७७॥
इधर अखण्ड चारित्रके धारक एवं मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिरूप तीन दण्डों का दृढ़ता के साथ खण्डन करनेमें तत्पर मुनिराज बलदेव, सज्जनोंको इष्ट अनित्यत्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनमें व्याप्त हो गये ||७८ || वे विचार करने लगे कि जिन महल, शरीर, धन, सांसारिक सुख और बन्धुजनोंमें 'ये नित्य हैं', यह समझकर ममताभाव उत्पन्न होता है, उनमें आत्माके सिवाय किसी में भी नित्यता नहीं है, सभी क्षणभंगुर हैं || ७९ || जिस प्रकार व्याघ्र के मुखमें पड़े मृग बच्चे को कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के दुःखसे पीड़ित मेरे लिए धर्मके सिवाय न भाई-बन्धु शरण हैं और न धन ही शरण है। इस प्रकार वे अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करते थे ||८०|| नाना योनियों और कुलकोटियोंके समूहसे, मुक्त इस संसाररूपी चक्रके ऊपर चढ़े प्राणी, महाविषम कर्मरूपी मन्त्रसे प्रेरित हो स्वामी से भृत्य और पितासे पुत्र आदि अवस्थाओको प्राप्त होते हैं ॥ ८१ ॥
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यह जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मृत्युको प्राप्त होता है । एक धर्मको छोड़कर दूसरा इसका सहायक नहीं है । इस प्रकार वे एकत्व अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करते ||२|| मैं नित्य हूँ और शरीर अनित्य है । मैं चेतन हूँ और शरीर अचेतन है । जब शरीरसे
मुझमें भिन्न है ब दूसरी वस्तुओंसे भिन्नता क्यों नहीं होगी ? || ८३|| यह अपना अथवा पराया शरीर रज, वीर्यरूप निन्द्य निमित्तोंसे उत्पन्न है, सप्तधातुओंसे भरा है एवं वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंसे युक्त है इसलिए ऐसा कौन पवित्र आत्मा होगा जो इस अपवित्र शरीर में
१. 'पाण्डवाननुगता जनन्यपि स्निग्धता विगतरूक्षधीस्तु या ' ख. । 'पाण्डवाननुगता विमोहिता संसृतो विगतरूक्षधीषु या ।।' ङ. । २. व्यावृतो म । ३. 'वा स्याद् विकल्पोपमयोरिवार्थेऽपि समुच्चये' इत्यमरः । ४. तदनुगाशुची म. ।
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हरिवंशपुराणे कायवाङ्मनसयोगभेदवानास्त्रवो मवति पुण्यपापयोः । कर्मबन्धदृढशृङ्खलश्चिरं संसरत्यसुभृदुग्रसंसृतौ ॥१५॥ स्याद् द्विधास्रवनिरोधलक्षणः संवरः समितिगुप्तिपूर्वकैः । संवरे सति सनिर्जरेऽसुभृत्सिद्ध्यति स्वकृतकर्मसंक्षयात् ॥८६॥ दुर्गतिष्वकुशलानुवन्धिना संयमान्नु कुशलानुवन्धिनी । निर्जरा निरनुबन्विनी च सा चिन्तिता परमयोगिनामुना ॥८७॥ लोकसंस्थितिरनाद्यनन्तिकालोकगर्भबहुमध्यभागभाक् । अत्र ही षडसुकायसंहतिदुःखिनीति खलु लोकचिन्तना ॥४८॥ स्थावरे उसकुलेऽखिलेन्द्रियैः पूर्णतादिषु सुधर्मलक्षणा । बोधिलब्धिरति दुर्लभा भवेत्सत्समाधिमरणाप्तिसत्फला ॥८९॥ धर्म एष जिलमाषितः शिवप्राप्तिहेतुरवधादिलक्षणः । त्यागतोऽस्य मवदुःखितेत्यनुप्रेक्षिकान्त्य शुभचिन्तनात्मिकाः ॥९॥ इत्यनुश्रुतमनूलधीरनुप्रैक्षिकाधमनुमावयन् मुहः । भ्रातृमोहमजबजयन्मुनिः सद्विविंशतिपरीषहद्विषः ॥११॥
वियोगके समय शोकको प्राप्त होगा और संयोगके समय राग करेगा ? ॥८४॥ काययोग, वचनयोग
और मनोयोग यह तीन प्रकारका योग ही आस्रव है। इसीके निमित्तसे आत्मामें पुण्य और पापकर्मका आगमन होता है। आस्रवके बाद यह जीव कर्मबन्धनरूप दृढ़ सांकलसे बद्ध होकर भयंकर संसारमें चिरकाल तक भ्रमण करता रहता है ||८५|| द्रव्यास्रव और भावास्रवरूप दोनों प्रकारके आसवका रुक जाना संवर है। यह संवर गति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा. परीषहजय और चारित्रसे होता है। निर्जराके साथ-साथ संवरके हो जानेपर यह जोव स्वकृत कर्मोका क्षयकर सिद्ध हो जाता है ॥८६॥ अनुबन्धिनी और निरनुबन्धिनोके भेदसे निर्जराके मूल में दो भेद हैं। फिर अनुबन्धिनी निर्जराके अकुशला और कुशलाके भेदसे दो भेद हैं। नरकादि गतियोंमें जो प्रतिसमय कर्मोंकी निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धिनी निजंरा है और संयमके प्रभावसे देव आदि गतियोंमें जो निजंरा होती है वह कुशलानुबन्धिनी निर्जरा है। जिस निर्जराके बाद पुनः कर्मोका बन्ध होता रहता है वह अनुबन्धिनो निर्जरा है और जिस निर्जराके बाद पूर्वकृत कर्म खिरते तो हैं पर नवीन कर्मोका दन्ध नहीं होता उसे निरनुबन्धिनी निर्जरा कहते हैं।
परम योगी बलदेव मनिराजने इसी निरनदन्धिनी अनुप्रेक्षाका दिन्तवन किया था ॥८७।। लोककी स्थिति अनादि, अनन्त है, यह लोक अलोकाकाशके ठीक मध्यमें स्थित है। इस लोकके भीतर छह कायके जीव निरन्तर दुःख भोगते रहते हैं, ऐसा चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा है ।।८८|| प्रथम तो निगोदसे निकलकर अन्य स्थावरोंमें उत्पन्न होना ही दुर्लभ है फिर सपर्याय पाना दुर्लभ है, त्रसों में भी इन्द्रियोंकी पूर्णता होना दुर्लभ है और इन्द्रियोंकी पूर्णता होनेपर भी समीचीन धर्म जिसका लक्षण है एवं उत्तम समाधिका प्रास होना जिसका फल है ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रयको प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है ।।८९|| जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ यह अहिंसादि लक्षण धर्म ही मोक्षप्राप्तिका कारण है। इससत्याग करनेसे संसारका दःख प्राप्त होता है-इस प्रकार चिन्तवन करना सो अन्तिम धर्मानुप्रेक्षा है ।।२०।। इस प्रकार परम्परासे प्रसिद्ध बारह अनुप्रेक्षाओंका बार-बार चिन्तवन करनेवाले उत्कृष्ट बुद्धिके धारक बलदेव मुनिराजने बाईस परीषहरूपी शत्रुओंको जोतकर भाईके मोहको जीत लिया ।।९।। १. परमयोगिनी शुमा स. । २. स्थावरेऽत्र कुशलेऽखिलेन्द्रियैः क., ङ. ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
बह्वभिग्रहपरिग्रहोज्ज्वलजाठराग्निजठरोपरोधत: ।
मोक्षसाधन तयार्धमुग्व्यधात्त्परीषहजयं महामुनिः ॥ १२ ॥ 'देहगिर्यवयवाट वीप्लुषा दावमूर्तिनिभया पिपासया । निष्प्रतिक्रियधृतिर्न विव्यधे क्षान्तिनोरदघटाभिषिक्तया ॥ २३ ॥ स्थण्डिले निशि दिवा च योगिना तीव्रवातहिमवृष्टय नेहसि । वातवर्षविषमे तरोरधोऽयोधि शीतपुरुषः परीषहः ॥ ९४ ॥ पर्वताग्रशिखरस्थितोऽजयद् प्रैष्ममुष्णमभितः परोषहम् । दावधूमवलयातपत्रै सच्छाययेव विनिवारितातपः ॥ ९५॥ गूढवृत्तिभिरनास्थिजन्तुभिर्गाढपीतरुधिरोऽप्यकम्पितः । सोढवान् दृढमसौ परीषहं प्रौढदंशमशकोपलक्षितम् ॥ ९६ ॥ सोऽङ्गलग्नमनपायमध्य विश्वास्य मेकदिनदुःखपालनम् । सत्कलत्रमिव सत्रपं न्यधान्नाग्रन्यमात्मवशगं परीषहम् ॥ ९७ ॥ ध्यानयोग्य गिरिमार्ग दुर्गंभुव्येक एव हि विहृत्य निग्रहे । धर्मसाधन रतिर्यथा रिपोर्व्यापृतों रतिपरीषहस्य सः ॥ ९८ ॥ भ्रूलताकुटिलचा पयोजित स्त्री कटाक्षशरवर्षिणं वृथा । कुर्वता मदनयोधमूर्जितस्त्रीपरीषहजयः कृतोऽमुना ॥ ९९ ॥
नाना प्रकार के नियम - आखड़ी आदिके लेनेसे उनकी जठराग्नि अत्यधिक प्रज्वलित रहती थी । उतनेपर भी वे मोक्षकी सिद्धिके लिए भूखसे आधा ही भोजन करते थे । इस प्रकार वे महामुनि क्षुधापरीषहको जीतते थे ||१२|| प्रतिकाररहित धैर्यके धारक बलदेव मुनिराज, शान्तिरूपी घनघटासे अभिषिक्त होनेके कारण शरीररूपी पर्वतके अवयवभूत अटवीको जलानेवाली दावानलके समान तीव्र प्याससे पीड़ित नहीं होते थे....इस प्रकार वे तृषापरीषहपर विजय प्राप्त करते थे ॥९३॥ तीव्र वायु और हिमवर्षाके समय रात-दिन खुले चबूतरेपर बैठकर तथा वायु और वर्षा से विषम वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे बैठकर वे कठोर शीत परीषद् के साथ युद्ध करते थे ||९४ || ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतके ऊंचे शिखरपर स्थित होकर वे चारों ओरसे उष्ण परीषह सहन करते थे। उस समय उनके ऊपर दावानलका धुआं छा जाता था, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वे छतरीकी छायासे गरमीकी बाधाको ही दूर कर रहे हों ||१५|| चुपके-चुपके आनेवाले हड्डीरहित जन्तुओं - डाँस, मच्छरोंसे उनका रुधिर खूब पिया गया फिर भी वे निश्चल रहते थे । इस प्रकार उन्होंने दंश, मशक नामक कठिन परीषहको बड़ी दृढ़ता से सहन किया था ||९६ || जो शरीर में संलग्न था, अपायरहित होनेपर भी विश्वासके योग्य नहीं था, जिसका एक दिन भी पालन करना कठिन था एवं जो उत्तम स्त्रीके समान लज्जासे सहित था, ऐसे नाग्न्यपरीषहको वे अपनी इच्छानुसार सहन करते थे ||१७|| वे ध्यानके योग्य पहाड़ी मार्ग एवं वनकी दुर्गंम भूमियों में अकेले ही विहार कर सदा धर्मसाधन में प्रीति रखते थे और शत्रुकी तरह रतिपरीषह के निग्रह करने में संलग्न रहते थे ||१८|| भ्रुकुटि लतारूपी कुटिल धनुषपर चढ़ाये हुए स्त्रियोंके कटाक्षरूपी बाणोंकी वर्षा करनेवाले कामदेवरूपी योधाको व्यर्थ करनेवाले उन मुनिराजने अतिशय बलवान् स्त्री - परीषहको जीता था || ९९||
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१. देहनिर्यदव - ङ. । २. वध्यते म । ३. पत्रसंयायभेव म. । ४. - रनश्च जन्तुभिः म. । ५. दुर्गभूदेक एव म., ङ. । ६. व्यावृतो म. ।
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हरिवंशपुराणे तीर्थभूमिविहतिः ससंयमावश्यकेष्वपरिहाणितो व्रजन् । वाहनाधन भिसध्य चर्यया खिद्यते स्म न परीषहाख्यया ॥१०॥ प्रासुकास्वथ विविक्तभूमिषु ध्यानधौतधिषणो विभूतधीः । क्षेत्रकालनियतासनेत्वसौ बाध्यते स्म न निषद्ययानिशम् ॥११॥ ध्यानतोऽध्ययनतो मुनिः क्रमादल्पकाल नियताल्पनिद्रया। एकपार्श्वकृतभूभिशय्यया 'नावृतोऽपि निशि न प्रपीडितः ॥१०२॥ दुर्जनैनिशितदुर्वचोऽस्साकैराहतोऽपि हृदयेऽतिदुस्सहैः । क्रोशबाधसहनः क्षमावृतः स्यामिति स्मृतिमदत्त धीरधीः ॥१०३॥ अस्त्रशस्त्रनिवर्वपुर्वधः प्राप्यते यदि नु मे तथाप्यलम् । सद्यते वधपरीषहो मयेत्येष बुद्धिमदधादनारतम् ॥१०॥ बाह्यमान्तरमसौ तपश्चरनस्थिशेषवषुषः स्थितिं प्रति । व्यापृतोऽपि समयव्यवस्थया याचनाख्यमजयत्परीषहम् ॥१०५॥ मौनिना निजशरीरदर्शिना संहितेन हितचन्द्रचर्यया। लब्ध्यलब्धिसुधियामुना जितोऽलाभनामविदित: परीषहः ॥१०६॥ रूक्षशीतलविरुद्धभुक्तिजा वातपित्तकफकोपजां रजम् । सोऽप्रतिक्रियतयावधीरयन् रोगसंज्ञमजयत्परीषहम् ।।१०७॥
wwwwwww वे संयमी मनष्योंके आवश्यक कार्यों में हानि न कर सवारी आदिका विचार किये बिना ही तीर्थक्षेत्रोंके लिए विहार करते थे और चर्या-परीषहसे कभी खेदखिन्न नहीं होते थे ॥१००|| प्रासुक और एकान्त भूमियोंमें ध्यान करनेसे जिनकी बुद्धि अत्यन्त निर्मल हो गयी थी तथा जो उत्कृष्ट बुद्धि के धारक थे ऐसे बलदेव मुनिराज, क्षेत्र अथवा कालमें निश्चित आसनोंके बीच निषद्या-परीषहसे कभी दुःखी नहीं होते थे ॥१०१॥ वे मुनि ध्यान और अध्ययनमें सदा निमग्न रहते थे, इसलिए रात्रिके समय क्रम-क्रमसे बहुत थोड़ी निद्रा लेते थे वह भी पृथिवीरूपी शय्यापर एक करवटसे और बिना कुछ ओढ़े हुए"। इस प्रकार वे शय्या-परीषहसे कभी पीड़ित नहीं होते थे ॥१०॥
धीर-वोर बुद्धिको धारण करनेवाले बलदेव मुनिराज दुर्जनोंके द्वारा तीक्ष्ण कुवचनरूपी शस्त्रोंसे हृदयमें घायल होनेपर भी कुवचनोंकी बाधा सहते हुए सदा इस बातका स्मरण रखते थे कि मझे क्षमासे यक्त होना चाहिए ॥१०३॥ वे मनि सदा ऐसी बद्धि धारण करते थे कि
। वे मुनि सदा ऐसी बुद्धि धारण करते थे कि यदि अस्त्र और शस्त्रके समूहसे मेरा शरीर वधको प्राप्त होता है तो भी मुझे अच्छी तरह वध-परीषह सहन करना चाहिए ।।१०४|| बाह्य और आभ्यन्तर तपको करनेवाले वे मुनि, हड्डीमात्र अवशिष्ट शरीरकी स्थिरताके लिए यद्यपि चरणानयोगकी पद्धतिसे उद्यम करते थे..चर्या के लिए जाते थे पर कभी किसीसे आहार आदिकी याचना नहीं करते थे, इस प्रकार वे याचना-परीषहको जीतते थे ।।१०५।। वे मौनसे आहारके लिए विहार करते थे, अपना शरीरमात्र दिखाते थे, चान्द्री-चर्यासे युक्त रहते थे अर्थात चन्द्रमाके समान अमीर-गरीब सभीके घर प्रवेश करते थे और लाभ-अलाभमें प्रसन्न रहते थे, इस प्रकार उन्होंने अलाभ-परीषहको जीत लिया था ।।१०६।। वे रूखे, शीतल एवं प्रकृतिके विरुद्ध आहार तथा वात, पित्त और कफके प्रकोपसे उत्पन्न रोगका प्रतिकार नहीं करते थे। सदा उसकी उपेक्षा ही करते थे। इस प्रकार रोग-परीषहको उन्होंने अच्छी तरह जीत लिया था ॥१०७||
१. व्याप्तोऽपि ख. । २. दनागतं म.। ३. चण्ड- म. ।
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त्रिषष्टितमः सर्गः
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लाक्षलेशतृणशर्करादिमिः कर्कशैः स शयनासनादिषु । पीडितोऽप्यविकृतान्तरस्तृणस्पर्शरूढिमरुणत्परीषहम् ।। १०८॥ अस्पृशन करनखैस्तनुं मुनिः शोमते स्म धवलो मलावृतः । शैलतुङ्गशिखराश्रितो यथा कालमेघपटलावृतः शशी ॥१.१॥ नादरे परकृते कृतादरोऽनादरे च न मनोविकारवान् । शुद्धधीविषहते स्म तत्पुरस्काररूढमपरं परीषहम् ॥११॥ वादिवाग्मिगमको महाकविः सांप्रतं सक शास्त्रविद्धवि । नास्मदन्य इति हि स्सयो मनाक प्रजया न परिषद्यदूषितः ॥११॥ अज्ञ एष न पशुर्न मानुषो वीक्षते न हि न भाषते मृषा । मौनमित्य बुधवाच्य वज्ञयाज्ञानमेष सहते परीषहम् ॥११२॥ वार्तमुग्रतपसा महर्धयः पूर्वमित्यनुपलब्धितोऽधुना । इत्यनुक्तिरतिशुद्धदर्शनोऽदर्शनाख्यससहत्परीषहम् ॥११६॥ इत्यशेषितपरीषहारिणा सीरिणा विषयदोपहारिणा ।
अभ्यतप्यत तपोऽतिहारिणा जैनसञ्चरणभूविहारिणा ॥१४॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती बलदेवतपोवर्णनो नाम
त्रिषष्टितमः सर्गः ॥६३॥
शयन, आसन आदिके समय कठोर लाखके कण, तण तथा कंकड आदिके द्वारा पीडित होनेपर भी उनके अन्तरंगमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं होता था और भी तणस्पर्श-परीषहको अच्छी तरह सहन करते थे ॥१०८।। जो हाथके नाखूनोंसे शरीरका कभी स्पर्श नहीं करते थेनखोंसे शरीरका मल नहीं छुटाते थे ऐसे मैलसे आवृत शुभ्रकाय मुनिराज, पहाड़की ऊँची चोटीपर स्थित काले-काले मेघोंके पटलसे ढंके चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ॥१०९।। यदि दूसरे लोग उनका आदर करते थे, तो उन्हें प्रसन्नता नहीं होती थी और अनादर करते थे तो मनमें विकार भाव नहीं लाते थे। आदर और अनादर दोनोंमें ही अपनी बुद्धिको सदा विशुद्ध रखते थे, इस तरह वे सत्कार पुरस्कार-परीषहको अच्छी तरह सहन करते थे ॥११०।। इस समय पथिवीपर मझसे बढकर न कोई वादी है, न वाग्मी है. न गमक है और न महाकवि है। इस प्रकारके अहंकारको उन्होंने प्रज्ञा-परीषहके द्वारा किंचित् भी दूषित नहीं होने दिया था ॥११॥ यह अज्ञानी न पशु है, न मनुष्य है, न देखता है, न बोलता है, व्यर्थ ही इसने मौन ले रखा है। इस प्रकारके अज्ञानी जनोंके वचनोंकी परवाह न कर वे अज्ञान-परीषहको सहन करते थे ॥११२॥ उग्र तपके प्रभावसे पहले बड़ी-बड़ी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती थीं यह कहना व्यर्थ है क्योंकि आज तक हमें एक भी ऋद्धिकी प्राप्ति नहीं हुई। इस प्रकार शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले बलदेव मुनिराज कभी नहीं कहते थे । इस तरह उन्होंने अदर्शन परीषहको अच्छी तरह सहन किया था ।।११३।। इस प्रकार जिन्होंने परीषहरूपी शत्रुओंको समाप्त कर दिया था। जो पंचेन्द्रियों के विषयरूपी दोषको हरनेवाले थे, शरीरसे अत्यन्त सुन्दर थे, और जिनेन्द्रप्रणीत सम्यक् चारित्रकी भूमिकामें विहार करनेवाले थे ऐसे मुनिराज बलदेवने चिरकाल तक तप किया ॥११४॥ इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहले युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें बलदेवके
तपका वर्णन करनेवाला बेसठवाँ सर्ग समाप्त हआ।।६३॥
१. क., ङ. पुस्तकयोः ११३-११४ श्लोकयोः क्रमभेदो वर्तते ।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
अथ ते पाण्डवाश्चण्डसंसारमयभीरवः । प्राप्य पल्लवदेशेषु विहरन्तं जिनेश्वरम् ॥१॥ चतुर्विधामराकीर्णसमदस्थानमण्डनम् । तं ते वन्दिरे देवं परीत्य परमेश्वरम् ॥२॥ पीत्वा धर्मामृतं लब्धजिनेन्द्रघनकालतः । पूर्वजन्मानि तेऽपृच्छन् जिनेन्द्रोऽप्यगदीदिति ॥३॥ अत्रैव भरतक्षेत्रे चम्पायां मेघवाहने । रक्षति क्षितिपे क्षोगी कुरुवंशविभूषणे ॥४॥ वित्रस्य सोमदेवस्य सोमिलायां यः सुताः । प्रथमः सोमदत्तोऽभूत्स्सोमिल: सोमभूतिना ॥५॥ अग्निभूत्यग्निलोद्भुतास्तेषां मातुलजाः क्रमात् । धनश्रीरपि सोमश्री गश्रीरिति योषितः ॥६॥ शरीरभोगसंसारनिर्वेदं सर्ववेदवित् । सोमदेवः परिप्राप्य प्रावाजीजिनशासने ॥७॥ त्रयोऽत्र भ्रातरस्तेऽपि जिनशासनमाविताः । गृहधर्मरता जाता धर्मकामार्थसेविनः ॥८॥ मिक्षाकालेऽन्यदा तेषां गृहं धर्मरुचिर्यति: । धर्मपिण्ड इवाखण्डः प्रविष्टश्चन्द्रचर्यया ॥९॥ प्रतिगृह्य तमुत्थाय सोमदत्तो यमीश्वरम् । कार्यव्यग्रतया दाने नागश्रियमयोजयत् ॥१०॥ सा स्वपापोदयात्साधी कोपावेशवशाददात् । विषान्नमेष संन्यासकारीसर्वार्थसिद्धिमैत् ॥११॥ नागश्रीदुष्कृतं ज्ञात्वा ते त्रयोऽपि सहोदराः । दीक्षा वरुणगुर्वन्ते निर्विण्णाः प्रतिपेदिरे ॥१२॥ धनश्रीश्चापि मित्रश्रीगुणवत्यार्यिकान्तिके । अदीक्षिषातां निःशेषभववासविषादतः ॥१३॥
अथानन्तर संसारके तीव्र भयसे भयभीत पाण्डव, पल्लव देशमें विहार करते हुए श्री नेमिजिनेन्द्रके समीप पहुंचे। उस समय भगवान् चार प्रकारके देवोंसे व्याप्त समवसरणको सुशोभित कर रहे थे एवं अष्ट प्रातिहार्यरूप परम ऐश्वर्य से युक्त थे। पाण्डवोंने प्रदक्षिणा देकर भगवान्को नमस्कार किया ।। १-२॥ तदनन्तर प्राप्त हुए जिनेन्द्ररूपी वर्षा कालसे धर्मामृतका पान कर उन्होंने अपने पूर्वभव पूछे और श्रीजिनेन्द्र इस प्रकार उनके पूर्वभव कहने लगे ॥ ३ ॥ इसी भरतक्षेत्रकी चम्पानगरीमें जब कुरुवंशका आभूषणस्वरूप राजा मेघवाहन पृथिवीकी रक्षा करता था, तब वहाँ सोमदेव नामका एक ब्राह्मण रहता था। उसकी सोमिला नामकी स्त्री थी और उससे उसके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति नामके तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे ॥४-५|| इन पुत्रोंके मामाका नाम अग्निभूति था, उसकी स्त्री अग्निला थी और उन दोनोंके क्रमसे धनश्री, सोमश्री और नागश्री नामकी तीन कन्याएं उत्पन्न हुई थीं जो कि उक्त तीन पुत्रोंकी क्रमसे स्त्रियां हुई थीं ॥ ६॥ समस्त वेदोंका जाननेवाला ब्राह्मण सोमदेव कदाचित् शरीरभोग
सारसे विरक्त हो जिनधर्ममें दीक्षित हो गया ।। ७॥ सोमदत्त आदि तीनों भाई भी जिनशासनकी भावनासे युक्त थे इसलिए धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका सेवन करते हुए गृहस्थ धर्ममें रत हो गये ॥ ८ ॥
किसी समय धर्मरुचि नामक मुनिराज जो धर्मके अखण्ड पिण्डके समान जान पड़ते थे, भिक्षाके समय चान्द्री-चर्यासे उनके घर प्रविष्ट हुए ॥ ९ ॥ सोमदत्तने उठकर बड़ी विनयसे उन मुनिराजको पडिगाहा। पडिगाहनेके बाद किसी अन्य कार्यमें व्यग्न होनेसे वह तो चला गया और दान देनेके कार्यमें नागश्रीको नियुक्त कर गया ॥ १० ॥ अपने पूर्वकृत पापोदयसे मुनिराजके विषयमें कोपके वशीभूत हो नागश्रीने उन्हें विषमिश्रित अन्नका आहार दिया जिससे वे मनिराज संन्यास मरण कर सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हए ॥ ११॥ नागश्रीके इस दुष्कार्यको जानकर वे तीनों भाई बहुत दुःखी हुए और संसारसे विरक्त हो उन्होंने वरुण गुरुके समीप दीक्षा धारण कर ली ।। १२ ।। धनश्री और मित्रश्रीने भी समस्त संसारवाससे
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चतुःषष्टितमः सर्गः ज्ञानपञ्चकसिद्धये ते दर्शनत्रिकशुद्धये । चारित्रतपसां शुद्ध प्रवृत्ताश्चरणोद्यताः ॥१४॥ स्यात्सामायिकचारित्रं सर्वत्र समभावकम् । सर्वसावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानमखण्डितम् ॥१५॥ स्वप्रमादकृतानर्थप्रबन्धप्रतिलोपने । सम्यक् प्रतिक्रिया या सा छेदोपस्थापना मता ॥१६॥ विशिष्टा परिहारेण शुद्धिर्यत्र प्रतिष्ठिता। परिहारविशुद्धयाख्यं चारित्रं तत्प्रकथ्यते ॥१७॥ संपरायाः कषायास्तु यत्र ते सूक्ष्मवृत्तयः । तत्सूक्ष्मसापरायाख्यं चारित्रं पापनोदनम् ॥१८॥ यथाख्यातमाख्यातमिति वा परिभाषितम् । सुशान्तक्षीण मोहं तच्चारित्रं मोक्षसाधनम् ॥१९॥ तपः षोढा भवेद्वाह्य मथानशनपूर्वकम् । अभ्यन्तरं तपः षोढा प्रायश्चित्तादिकं मतम् ॥२०॥ संयमादिकसध्यानसिद्विदष्टफलाप्तये । रागोच्छित्त्यै तपो नानाविधं शनशनं स्मृतम् ॥२१॥ दोषोपशमसंतोषस्वाध्यायध्यानसिद्धये । संयमायावमोदयं प्रजागरणकारणम् ॥२२॥ भिक्षार्थिमुनिसंकल्पा ये वेश्माामिगोचराः । आशानिवृत्तये वृत्तिपरिसंख्यानमिष्यते ॥२३॥ घृतक्षीरादिवृष्यात्मरसानां विरहः परम् । तपो रसपरित्यागो निद्रेन्द्रियजयाय सः ॥२४॥ पशुस्त्रीप्रविविक्तेषु स्थानेषु प्रासुकेषु यत् । वर्तनं व्रतशुद्धयै तद्विविक्तशयनासनम् ॥२५॥ त्रिकालयोगप्रतिमास्थानपूर्वः स्वयंकृतः । कायक्लेशः सुखत्यागो मोक्षमार्गप्रभावनः ॥२६॥
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विरक्त हो गुणवती आर्यिकाके समीप दीक्षा धारण कर ली ॥१३।। इस प्रकार वे सब, पाँच ज्ञान, तीन सम्यग्दर्शन, चारित्र एवं तपकी शुद्धिके लिए प्रवृत्त हो चारित्रपालन करनेके लिए उद्यत हो गये ||१४।। चारित्रके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पांच भेद हैं। सब पदार्थों में समताभाव रखना तथा सर्वप्रकारके सावद्ययोगका पूर्ण त्याग करना सामायिक चारित्र है ।।१५।। अपने प्रमादके द्वारा किये हुए अनर्थका सम्बन्ध दूर करने लिए जो समीचीन प्रतिक्रिया होती है वह छेदोपस्थापना चारित्र है ।।१६।। जिसमें जोव हिंसाके परिहारसे विशिष्ट शुद्धि होती है वह परिहारविशुद्धि नामका चारित्र कहलाता है ।।१७।। साम्पराय कषायको कहते हैं, ये कषाय जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती है वह पापको दूर करनेवाला सूक्ष्म साम्पराय नामका चारित्र है ।।१८।। जहाँ समस्त मोहकर्मका उपशम अथवा क्षय हो चुकता है उसे यथाख्यात
अथाख्यात चारित्र कहते हैं। यह चारित्र मोक्षका साक्षात् साधन है ||१९|| तपके बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो भेद हैं। इनमें बाह्य तप अनशन आदिके भेदसे छह प्रकारका है और आभ्यन्तर तप भी प्रायश्चित्त आदिके भेदसे छह प्रकारका माना गया है |२०||
संयमको आदि लेकर समीचीन ध्यानकी सिद्धिरूप प्रत्यक्ष फलकी प्राप्तिके लिए तथा रागको दूर करने के लिए आहारका त्याग करना अनशन तप है। यह वेला, तेला आदिके भेदसे नाना प्रकारका स्मरण किया गया है ||२१|| वात, पित्त आदि दोनोंका उपशम, सन्तोष, स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धिके लिए तथा संयमकी प्राप्तिके लिए भखसे कम भोजन करना अवमोदर्य तप है। यह जागरणका कारण है-इस तपके प्रभावसे निद्राको अधिकता दूर हो जाती है ॥२२॥ भोजनविषयक तृष्णाको दूर करने के लिए भिक्षाके अभिलाषो मुनि जो घर तथा अन्न आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले नाना प्रकारके नियम लेते हैं वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है ।।२३।। निद्रा और इन्द्रियों को जोतने के लिए जो घो. दध आदि गरिष्ट रसोंको त्याग किया जाता है वह रसपरित्याग नामका तप है ।।२४।। व्रतकी शुद्धि के लिए पशु तथा स्त्री आदिसे रहित एकान्त प्रासुक स्थानमें उठना, बैठना विविक्तशयनासन तप है ॥२५॥ आतापन, वर्षा और शीत ये तीन योग धारण करना तथा प्रतिमायोगसे स्थित होना इन्हें आदि लेकर बुद्धिपूर्वक जो सुखका त्याग
१. चरणोदिताः ङ.। २. तीक्ष्ण म. ३. -दिष्ट ग. ।
९९
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हरिवंशपुराणे
बाह्यद्रव्यव्यपेक्षत्वात्परप्रत्ययहेतुकः । षविधस्यास्य बाहरवं तपसः प्रतिपादनम् ॥२७॥ मनोनियमनार्थवादाभ्यन्तरमभिष्टतम् । प्रायश्चित्तं कृतावद्यशोधनं नवधाऽत्र तु ॥२८॥ चतुर्धा विनयः पूज्येष्वादरो दशधा पुनः । वैय्यावृत्त्यं 'स्वकायेनान्यद्रव्यैरप्युपासनम् ॥२९॥ स्वाध्यायः पञ्चधा ज्ञानमावनालस्यवर्जनम् । स्वसंकल्पपरित्यागो व्युत्सगो द्विविधः पुनः ॥३०॥ चित्ताक्षेपपरित्यागो ध्यानं चापि चतुर्विधम् । आत रौद्रं च दुर्यानं धर्म्य शुक्ले तु शोभने ॥३१॥ तत्रालोचनकं कृत्स्नं दशदोषविवर्जितम् । प्रमादकृतदोषाणां गुरवे "विनिवेदनम् ॥३२॥ मिथ्या मे दुष्कृताधैर्यत्स्वाभिव्यक्तिप्रतिक्रियम् । दोषव्यपोहनं साधु तत्प्रतिक्रमणं शतम् ॥३३॥ आलोचनाद्यतः शुद्धिः प्रतिक्रमणतोऽपि च । तदुभयं तु तदुद्दिष्टं प्रायश्चित्तं विशुद्धिकृत् ॥३४॥ स्याद्विवेको विभजनं यः संसक्तानपानयोः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः संप्रकीर्तितः ॥३५॥ तपस्स्वनशनायेव प्रायश्चित्तमुदीरितम् । प्रव्रज्याहापनं छेदो दिनमासादिभिर्यतेः ॥३६॥
किया जाता है वह मोक्षमार्गको प्रभावना करनेवाला कायक्लेश नामका तप है ॥२६।। यह
छह प्रकारका तप बाह्यद्रव्यको अपेक्षा रखता तथा पर-कारणांसे होता है, इसलिए इसे बाह्यतप कहा जाता है ।।२७।।
मनका नियमन करने के लिए आभ्यन्तर तप कहा गया है। इसमें किये हुए दोषोंकी शुद्धि
प्रायश्चित्त तप है। यह प्रायश्चित्त आलोचना आदिके भेदसे नौ प्रकारका कहा गया है ॥२८॥
पूज्य पदार्थों में आदर प्रकट करना विनय है। विनयके चार भेद हैं। अपने शरीरसे तथा अन्य द्रव्योंकी सेवा करना वैयावृत्य है, इसके दश भेद हैं ॥२९॥ ज्ञानकी भावनामें आलस्य छोड़ना स्वाध्याय है, इसके पांच भेद हैं । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंमें 'ये मेरे हैं। इस प्रकारके संकल्पका त्याग करना व्युत्सर्ग है, इसके दो भेद हैं ||३०|| और चित्तकी चंचलताका त्याग करना ध्यान है, यह चार प्रकारका होता है। इनमें आतं और रौद्र ये दो ध्यान खोटे ध्यान हैं और धर्म्य तथा शक्ल ये दो उत्तम ध्यान हैं ।।३१।। आलोचनाके नौ भेद इस प्रकार हैं-१ आलोचना. २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप, ७ छेद, ८ परिहार और ९ उपस्थापन । इनमें प्रमादसे किये हुए दोषोंका सम्पूर्ण रूपसे दश प्रकारके दोष छोड़कर गुरुके लिए निवेदन करना आलोचना नामका प्रायश्चित्त है ॥३२।। 'मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु' इत्यादि शब्दोंके द्वारा अपने-आप दोषोंको प्रकट कर उनका दूर करना प्रतिक्रमण नामक प्रायश्चित्त माना गया है ॥३३।। आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनोंसे जो शुद्धि होती है वह विशुद्धिको करनेवाला तदुभय नामका प्रायश्चित्त कहा गया है ।।३४।। संसक्त अन्न-पानका विभाग करना विवेक कहलाता है । भावार्थ-कुछ समयके लिए अपराधी मुनिको इस प्रकारका दण्ड देना कि अन्य निर्दोष मुनियोंके साथ चर्याके लिए न जाओ, अन्य मुनियोंके भोजनके बाद किसी अन्य चौकामें भोजन करो तथा अपने पीछी-कमण्डलु जुदे रखो दूसरोंके पीछी कमण्डलु अपने उपयोगमें न लाओ। इस प्रकारके दण्डको विवेक नामक प्रायश्चित्त कहते हैं। कायोत्सर्ग आदिका करना व्युत्सर्ग कहलाता है ॥३५॥ उपवास आदि तप करना तप नामका प्रायश्चित्त कहा गया है। दिन,
१. स्वकामेन म.। २. समस्तं ( ङ. टि.), कृच्छे म., क., ख.। ३. तत्र गुरुवे प्रमादनिवेदनं दशदोषविजितमालोचनम् 'आकम्पिय अणमाणिय जं दिदै वादरं च सुहमं च । छण्हं सहाउलियं बहजण अव्वत्त तस्सेवी' ॥ इति दस दोसा-स. सि.। ४. विनिवेदितम् ग.। ५. संसक्त्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः-स.सि.।
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चतुःषष्टितमः सर्ग:
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पक्षमासादिभेदेन दूरतः परिवर्जनम् । परिहारः पुनर्दीक्षा स्यादुपस्थापना पुनः ॥३७॥ कालानतिक्रमादौ तु ज्ञानाचारेऽष्टधामते' । यथोक्तग्रहणादियः स ज्ञानविनयो मतः ॥३८॥ अष्टधादर्शनाचारे निशङ्कादिषु संस्थिते । विनयो दर्शने दृश्यो गुणदोषविवेकिता ॥३९॥ त्रयोदशविधोदारचारित्राचारगोचरा । निरतीचारता चारुश्चरित्रविनयः परः ॥४०॥ याः प्रत्यक्षपरोक्षेषु प्रत्युत्थानादिकाः क्रियाः । गुर्वादिषु यथायोग्यं विनयश्चौपचारिकः॥४॥
महोना आदिसे मुनिकी दीक्षा कम कर देना छेद नामका प्रायश्चित है। भावार्थ-मुनियोंमें नवीन दीक्षित मुनि पूर्वदीक्षित मुनिको नमस्कार करते हैं। यदि किसी पूर्वदीक्षित मुनिकी दीक्षा कम कर दी जाती है तो वह नवीन दीक्षित मुनिसे पीछेका दीक्षित हो जाता है; इस तरह उसे, जिससे वह पहले पूजता था उसे पूजना पड़ता है, नमस्कार करना पड़ता है, यह छेद नामका प्रायश्चित्त है ॥३६॥
पक्ष, महीना आदि निश्चित समय तक अपराधी मुनिको संघसे दूर कर देना परिहार नामका प्रायश्चित्त है और फिरसे नवीन दीक्षा देना उपस्थापना नामका प्रायश्चित्त है। जिसे उपस्थापना दण्ड दिया गया है उसे संघके सब मुनियोंको नमस्कार करना पड़ता है, क्योंकि वे अब इससे पूर्वदोक्षित हो जाते हैं और यह नवीन दीक्षित कहलाने लगता है ॥३७॥ __ ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनयके भेदसे विनयतपके चार भेद हैं। इनमें कालानतिक्रमण आदि जो आठ प्रकारका ज्ञानाचार बताया है उसे आगमोक्त विधिसे ग्रहण करना वह ज्ञानविनय है। भावार्थ-१ शब्दाचार, २ अर्थाचार, ३ उभयाचार, ४ कालाचार, ५ विनयाचार, ६ उपधानाचार, ७ बहमानाचार, ८ अनिवाचार ये ज्ञानाचारके आठ भेद हैं। शब्दका शुद्ध उच्चारण करना शब्दाचार है। शुद्ध अर्थका निश्चय करना अर्थाचार है। शब्द और अर्थ दोनोंका शुद्ध होना उभयाचार है। अकालमें स्वाध्याय न कर विहित समय में ही स्वाध्याय करना कालाचार है। विनयपूर्वक स्वाध्याय करना-स्वाध्यायके समय शरीर तथा वस्त्र शुद्ध रखना एवं आसन वगैरहका ठीक रखना विनयाचार है। चित्तकी स्थिरतापूर्वक स्वाध्याय करना उपधानाचार है। शास्त्र तथा गुरु आदिका पूर्ण आदर करना बहुमानाचार है और जिस गुरु अथवा जिस शास्त्रसे ज्ञान हुआ है उसका नाम नहीं छिपाना, उसके प्रति सदैव कृतज्ञ रहना अनिवाचार है। इन आठ ज्ञानाचारोंका विधिपूर्वक पालन करना वह ज्ञानविनय है ॥३८॥
निःशंकित आठ अंगोंके भेदसे दर्शनाचार आठ प्रकारका है, उसमें गुणदोषका विवेक रखना वह दर्शनविनय है ।। ३९ ॥ पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिके भेदसे जो तेरह प्रकारका चारित्राचार है उसमें निरतिचार प्रवृत्ति करना चारित्रविनय है ।। ४० ॥ प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों ही अवस्थाओंमें गुरु आदिके उठनेपर उठकर अगवानी करना, नमस्कार करना आदि जो यथायोग्य प्रवृत्ति की जाती है उसे औपचारिकविनय कहते है ॥४१।।
१. 'अर्थव्यञ्जनतद्वयाविकलताकालोपधप्रश्रयाः । स्वाचार्याधनपह्नवो बहमतिश्चेत्यष्टधा व्याहृतम् ।' रत्नत्रयपूजा 'ग्रन्यार्थोभयपूर्णकाले विनयेन सोप्रधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥३६।। पु. सि.। २. शङ्कादृष्टिविमोहकाङ्क्षणविधिव्यावृत्तिसन्नद्धतां, वात्सल्यं विचिकित्सितादुपरति धर्मोपबहक्रियाम् । शक्त्या शासनदीपनं हितपथाद् भ्रष्टस्य संस्थापन, वन्दे दर्शनगोचरं सुचरितं मून नमन्नादरात् ॥ र. पू.। ३. प्रत्युस्थानादिका क्रिया क,।
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हरिवंशपुराणे आचार्य चाप्युपाध्याये तप:श्रेष्टे तपस्विनि । शिक्षाशीले यती शैक्ष्ये ग्रस्ते ग्लाने रुजादिभिः ॥४२॥ गणे स्थविरसंतानलक्षणे च कुलेऽपि च । दीक्षकाचार्यशिष्यादिसंस्त्यायनिजलक्षणे ॥४३॥ गृहिश्रमणसंघाते संघे च गुणसंघके। चिरप्रव्रजिते साधी मनोज्ञे लोकसंमते ॥४॥ व्याधिमिथ्यात्वसंपातपरीषहरिपूदये । वैय्यावृत्त्यं यथायोग्यं विचिकित्साव्यपोहनम् ॥ ४५ पन्थार्थयोः प्रदानं हि वाचना पृच्छनं पुनः । परानुयोगो निश्चित्यै निश्रितानुबलाय वा ॥४६॥ ज्ञानस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा परिवर्तनम् । 'आम्नायो देशनान्येषामुपदेशोऽपि धर्मगः ॥४७॥ प्रशस्त ध्यवसायार्थ प्रज्ञातिशयलब्धये । संवेगाय तपोवृद्ध्यै स्वाध्यायः पञ्चधा भवे ॥४॥ क्रोधाद्यभ्यन्तरोपाधेः कायस्थ सविचारता । बाह्योपाधेरकल्पस्य स्यागोऽपुत्सर्ग इष्यते ॥४२॥ निस्संगनिर्मयत्वाय जीविताशानिवृत्तये । स बाह्याभ्यन्तरोपप्योर्बुत्सर्गः संग्रजायते ॥५०॥ तपसा निर्जरा मुक्त्यै संवृतस्योपजायते । परिणामस्य भेदेन प्रतिस्थानं तु मिद्यते ॥५१॥
१ दीक्षा देनेवाले आचार्य, २ पठन-पाठनकी व्यवस्था रखनेवाले उपाध्याय, ३ महान् तप तपनेवाले तपस्वी, ४ शिक्षा ग्रहण करनेवाले शैक्ष्य, ५ रोग आदिसे ग्रस्त ग्लान, ६ वृद्ध मुनियों के समुदाय रूप गण, ७ दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्यसमूहरूप कुल, ८ गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों के समदायरूप संघ, ९ चिरकालके दीक्षित गुणी मुनिरूप साधु और १० लोकप्रिय मनोज्ञ-इन दश प्रकारके मुनियोंको कदाचित् बीमारी आदिको अवस्था प्राप्त हो, मोहके तीव्र उदयसे मिथ्यात्वकी ओर इनकी प्रवृत्ति होने लगे ( अथवा मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा कोई उपद्रवउपसर्ग खड़ा कर दिया जाये ) अथवा परीषहरूपी शत्रुओंका उदय हो तो ग्लानि दूर कर उनकी यथायोग सेवा करना वह दश प्रकारका वैयावृत्त्य तप है ।।४२-४५॥
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेशके भेदसे स्वाध्यायके पांच भेद हैं। निर्दोष ग्रन्थ तथा उसका अर्थ दूसरेके लिए प्रदान करना-पढ़कर सुनाना सो वाचना नामका स्वाध्याय है। अनिश्चित तत्त्वका निश्चय करनेके लिए अथवा निश्चित तत्त्वको सुदृढ़ करने के लिए दूसरेसे पूछना वह पृच्छता नामका स्वाध्याय है। ज्ञानका मनसे अभ्यास-चिन्तन करना वह अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय है। पाठको बार-बार पढ़ना आम्नाय है और दूसरोको धर्मका उपदेश देना उपदेश नामका स्वाध्याय है। यह पाँच प्रकारका स्वाध्याय प्रशस्त अभिप्रायके लिए, प्रज्ञा-भेदविज्ञानके अतिशयकी प्राप्ति के लिए संवेगके लिए और तपकी वृद्धि के लिए किया जाता है ।।४६-४८॥
आभ्यन्तरोपाधित्याग और बाह्योपाधित्यागकी अपेक्षा व्युत्सर्गके दो भेद हैं। क्रोधादि अन्तरंग उपाधिका त्याग करना तथा शरीरके विषयमें भी 'यह मेरा नहीं है' इस प्रकारका विचार रखना आभ्यन्तरोपाधित्याग है और आभूषणादि बाह्य उपाधिका त्याग करना बाह्यो
उपाधियोका त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और 'मैं अधिक दिन तक जीवित रहूँ' इस प्रकारको आशाको दूर करनेके लिए धारण किया जाता है ॥४२-५०||
संवरके धारक जीवके तपसे जो निर्जरा होती है वह मोक्षका कारण है। यह निर्जरा
१. आम्नाये म.। २. प्रशस्ताध्यवसायार्थप्रतिज्ञातिशय-क, ख., ङ.., म.। स एषः पञ्चविधः स्वाध्यायः किमर्थः ? प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थ:-स. सि. । ३. आभरणस्य (ङ. टि.)। ४. स किमर्थः ? निःसङ्गत्व निर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः-स. सि. ।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
व्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तो लब्धिभिर्युतः । अन्तः शुद्धिप्रवृद्धो स्यादूबहुकर्मविनिर्जरः ||५२ || ततः प्रथमसम्यक्त्वलाभकारणसन्निधौ । सम्यग्दृष्टिर्भवेत्स स्यादसंख्यगुणनिर्जरः ॥ ५३ ॥ ततः श्रावकतापन्नोऽसंख्येयगुणनिर्जरः । ततोऽनि विरतस्तस्मादनन्तानां वियोजकः || ५४ || ततो दर्शनमोहस्य क्षपकः क्षायिकोद्ध कृत् । ततश्चारित्रमोहस्य सर्वोपशमको यतिः ||५५ || उपशान्तकषायोऽसंख्येयगुणनिर्जरः । ततश्चारित्रमोहस्य क्षपकः क्षपकाभिधः ॥ ५६ ॥ ततः क्षीणकषायाख्योऽसंख्येयगुणनिर्जरः । जिनेन्द्रः केवली तस्मादनन्तज्ञानदर्शनः ||५७।। "पुलाको वकुशचैव कुशीलो गुणशीलवान् । निर्मन्थः स्नातकश्चेति निर्ग्रन्थाः पञ्चधा मताः ॥५८॥ पुलाका भावनाहीना ये गृणेषूत्तरेषु ते । न्यूनाः क्वचित्कदाचिच्च पुलाकामा व्रतेष्वपि ।। ५९ ।। अखण्डितव्रताः कायभूषोपकरणानुगाः । अविविक्तपरीवाराः शवला वकुलाः स्मृताः ॥६०॥ परिपूर्णोभया जातूत्तरगुणविरोधिनः । प्रतिसेवनाकुशीला से अविविक्तपरिग्रहाः || ६१ ||
परिणामों में भेद होने से प्रत्येक स्थानों में भेदको प्राप्त होती है || ५१|| यहाँ निर्जराके कुछ स्थान बताये जाते हैं - सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तकभव्य जीव जब करणादि लब्धियोंसे युक्त हो, अन्तरंग की शुद्धिको वृद्धिगत करता है तब उसके बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है । उसके बाद जब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिके योग्य कारणोंके मिलनेपर सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके पूर्वस्थानकी अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा होती है ।।५२-५३ ।। उससे असंख्यातगुणी निर्जरा श्रावकके होती है, उससे असंख्यातगुणी विरतके, विरतसे असंख्यातगुणी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके, उससे असंख्यातगुणी दर्शनमोहका क्षय कर क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त करनेवालेके, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोहका उपशम करनेवाले उपशमश्रेणी में स्थित मुनिके, उससे असंख्यातगुणी उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्तीके, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोहका क्षय करनेवाले क्षपकश्रेणीमें स्थित मुनिके, उससे असंख्यातगुणी क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्तीके और उससे असंख्यातगुणी अनन्तज्ञानदर्शनके धारक केवली जिनेन्द्र होती है ।। ५४-५७॥
७८९
पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकके भेदसे निर्ग्रन्थ मुनियोंके पाँच भेद हैं ||१८|| जो उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित हों तथा मूल व्रतमें भी जो कहीं भी पूर्णताको प्राप्त न हों वे धान्यके छिलके के समान पुलाक मुनि कहलाते हैं || ५९ || जो मूल व्रतोंका तो अखण्ड रूपसे पालन करते हैं परन्तु शरीर और उपकरणोंको साफ-सुथरा रखने में लीन रहते हों, जिनका परिवार नियत न हो-जो अनेक मुनियोंके परिवारसे युक्त हों और मलिन - सातिचार चारित्र के धारक हों उन्हें वकुश कहते हैं ॥ ६० ॥
प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशीलकी अपेक्षा कुशील मुनियोंके दो भेद हैं । जो मूलगुण और उत्तरगुण दोनोंकी पूर्णतासे युक्त हैं, परन्तु कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर बैठते हैं एवं संघ आदि परिग्रहसे युक्त होते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं, जिनके अन्य कषाय शान्त हो गये हैं सिर्फ संज्वलनका उदय रह गया है वे कषायकुशील कहलाते
१. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्त वियोजक दर्शन मोक्षपकोपशम कोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ त सू, न. अ. । सम्मत्तुपपत्तीये सावयविरदे अणन्तकम्मंसे । दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगे य उवसंते ॥ ३६ ॥ खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्त्रा असंखगुणिदकमा | तव्विवरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होंति ॥ ६७॥ गो. जी. । २. 'पुलाकवकुश कुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ त.सू., नवमाध्याय, ४६ सूत्र । ३. अनियतपरिवाराः ( ड. टि ) । ४. मलिनचारित्रयुक्ताः ( ङ. टि. ), सबलाः म. क., ख. ङ. ।
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हरिवंशपुराणे
शमितान्यकषाया ये ससंज्वलनमात्रकाः । ते कषायकुशीलाः स्युः कुशीला द्विविधा यतः ।। ६२ ।। अव्यक्तोदयकर्माणो ये पयोदण्डराजिवत् । निर्ग्रन्थास्ते मुहूर्तोर्वोद्भिद्यमानात्म केवलाः ||६३॥ प्रक्षीणघातिकर्माणः स्नातकाः केवलीश्वराः । एते पञ्चापि निर्मन्था नैगमादिनयाश्रयात् ॥ ६४ ॥ "संयमादिभिरष्टाभिरनुयोगैर्यथाक्रमम् । ते पुलाकादयः साध्याः साध्यसाधनभेदिनः || ६५|| प्रतिसेवनाकुशीलाः पुलाका वकुशा द्वयोः । प्राक्कषायकुशीलाः स्युरन्तवज्यै चतुष्टये ||६६ || संयमे च यथाख्याते निर्ग्रन्थस्नातकाः स्थिताः । श्रुतादयोऽपि पञ्चानां प्रकथ्यन्ते यथाक्रमम् ||६७ || प्रतिसेवना कुशीलाः पुलाका वकुशाः स्थिताः । दशपूर्वाण्यभिन्नानि बिभ्रत्युत्कर्षतः श्रुतम् ॥ ६८|| ये कषायकुशीला ये निर्ग्रन्थाख्याश्च संयताः । ते चतुर्दशपूर्वाणि सर्वे विभ्रति सर्वथा ॥ ६९ ॥ जघन्येन पुलाकस्य श्रुतवाचारवस्तु तत् । निर्ग्रन्थान्तयतीनां स्वष्टौ प्रवचनमातरः ||७० || व्रतानां राज्यभुक्तेश्च बलादन्यतमं प्रति । सेवमानः पुलाकः स्यात्परेषामभियोगतः ॥ ७१ ॥ वकुशः सोपकरणो बहूपकरणप्रियः । शरीरवकुशः काय संस्कारं प्रतिसेवते ॥ ७२ ॥ प्रतिसेवनाकुशील उत्तरेषु विराधनाम् । गुणेषु सेवते काञ्चिदविराधितमूलकः ॥ ७३ ॥
७९०
स्युः कषायकुशीलास्तु रहितप्रति सेवनाः । निर्ग्रन्थाः स्नातकाश्चापि ते सर्वे सर्वतीर्थजाः ॥ ७४ ॥
3
'भावलिङ्ग प्रतीत्यामी निर्मन्थाः पञ्च लिङ्गिनः । प्रतीत्य द्रव्यलिङ्गं तु मजनीया मनीषिभिः ॥ ७५ ॥
हैं ॥ ६१-६२ ॥ | जिनके जलमें खींची गयो दण्डकी रेखाके समान कर्मोंका उदय अव्यक्त - अप्रकट रहता है तथा जिन्हें एक मुहूर्त्तके बाद केवलज्ञान उत्पन्न होनेवाला है वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं ॥६३॥ और जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवली भगवान् स्नातक कहलाते हैं । ये पाँचों ही मुनि नैगमादि नयोंकी अपेक्षा निर्ग्रन्थ माने जाते हैं ||६४ || साध्यसाधनके भेदसे युक्त वे पुलाक आदि मुनि संयम आदि आठ अनुयोगोंके द्वारा साध्य हैं ||६५ ॥ पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि प्रारम्भके सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमोंमें, कषायकुशील यथाख्यातको छोड़कर शेष चार संग्रमोंमें और निर्ग्रन्थ तथा स्नातक यथाख्यात संयममें स्थित हैं । अब पाँचों मुनियों श्रुत आदिका भी यथाक्रमसे कथन किया जाता है ||६६-६७॥ प्रतिसेवना कुशील, पुलाक और वकुश ये उत्कृष्ट रूपसे अभिन्न दशपूर्वं श्रुतको धारण करते हैं || ६८|| जो कषायकुशील और निर्ग्रन्थ नामक मुनि हैं वे सब चौदह पूर्वको धारण करते हैं || ६९ || जघन्यकी अपेक्षा पुलाकमुनिके आचारवस्तुरूप श्रुत होता है और निर्ग्रन्थपर्यंन्त समस्त मुनियोंके पांच समिति, तीन गुप्तिरूप अष्टप्रवचन मातृका प्रमाणश्रुत होता है || ७०|| प्रतिसेवनाकी अपेक्षा पुलाक मुनि पाँच महाव्रत तथा रात्रिभोजन त्याग इनमें से किसी एकका कभी दूसरोंका बलपूर्वक जबर्दस्ती से सेवन करनेवाला होता है || ७१|| वकुशके सोपकरणवकुश और शरीरवकुशकी अपेक्षा दो भेद होते हैं । इनमें सोपकरणवकुश अनेक उपकरणोंके प्रेमी होते हैं और शरीरवकुश शरीरसंस्कारकी अपेक्षा रखते हैं- शरीरकी शोभा बढ़ाना चाहते हैं ॥७२॥
प्रतिसेवनाकुशील मूल गुणोंमें विराधना नहीं करते किन्तु उत्तर गुणोंमें कभी कोई विराधना कर बैठते हैं ||७३ || कषायकुशील निर्ग्रन्थ और स्नातकप्रतिसेवनासे रहित होते हैं । तीर्थकी अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनि सभी तीर्थंकरोंके तीर्थ में होते हैं ||७४ || लिंगके भाव और द्रव्यकी अपेक्षा दो भेद होते हैं । भावलिंगको अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनि
१. संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥ त सू., नवमाध्याय । २. विराधनं म । ३. भावलिङ्गं प्रतीत्य पञ्च निर्ग्रन्था लिङ्गिनो भवन्ति । द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः । स. सि. ।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
७९१ पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो वकुलप्रतिसेवना । कुशीलयोश्च 'षड्भेदाः कषाये चतुरुत्तराः ॥७६॥ स्यारसूक्ष्मसापराये च निर्ग्रन्थस्नातकेऽपि च । शुक्लेव केवला लेश्याऽयोगाः लेश्याविवर्जिताः ॥७७॥ पुलाकस्योपपादः स्यात्सहस्रारे परायुषः । प्रतिसेवनाकुशीलवकुशस्यारणेऽच्युते ॥७॥ तथा सर्वार्थसिद्धौ तु निर्ग्रन्थान्त्यकुशीलयोः । द्विसागरोपमायुष्काः सौधर्मे ते जघन्यतः ॥७९॥ संयमस्थानभेदास्तु स्युः कयायनिमित्तकाः । असंख्येयतमानन्तगुणसंयमलब्धयः ।।८।। तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि सर्वदा । स्युः कषायकुशीलस्य पुलाकस्य च योगिनः ॥८॥ गच्छतस्तावसंख्येयस्थानानि युगपत्ततः । व्युच्छिद्यते पुलाकोऽन्यस्त्वसंख्येयानि गच्छति ॥४२॥ वकुशेन कुशीली द्वौ स्थानानि युगपत्ततः । असंख्यानि च तो यातौ वकुशस्त्ववहीयते ॥८३।। असंख्येयानि गत्वातः स्थानानि प्रतिसेवना । कुशीलो हीयते तस्माद्यः कषायकुशीलकः ॥८४॥ स्थानान्यतोऽकषायाणि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽसंख्येयानि गत्वातो व्युच्छेदमुपगच्छति ।।८५।। स्थानमेकमतस्तूवं गत्वानन्त णाधिकः । स्नातकः कृतकर्मान्तो निर्वाणं प्रतिपद्यते ॥८६॥
निर्ग्रन्थ लिंगके धारक हैं और द्रव्यलिंगकी अपेक्षा विद्वानोंके द्वारा भजनीय हैं ॥७५॥ लेश्याकी अपेक्षा पुलाकमुनिके आगेकी तीन अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन, वकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके छहों, कषायकुशीलके आगेकी चार अर्थात् कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार एवं सूक्ष्मसाम्पराय, निर्ग्रन्थ और स्नातकके एक शुक्ललेश्या हो होती है। अयोगकेवली स्नातक लेश्यासे रहित होते हैं ॥७६-७७।।
उपपादकी अपेक्षा पुलाकका उपपाद सहस्रार स्वर्गमें होता है और वह वहां उत्कृष्ट आयुका धारक होता है। प्रतिसेवनाकुशील और वकुशका उपपाद आरण और अच्युत स्वर्गमें होता है। निर्ग्रन्थ ( ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) और कषायकुशीलका उपपाद सर्वार्थसिद्धि में होता है और जघन्यकी अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनियोंका उपपाद सौधर्मस्वर्गमें होता है और वहाँ वे दो सागरको आयुके धारक होते हैं ॥७८-७९।। प्रारम्भमें, संयममें जो स्थानभेद होते हैं वे कषायके निमित्तसे होते हैं तथा उनमें असंख्येय और अनन्तगुणीसंयमकी प्राप्ति होती है ।।८०।। इनमें सवंजघन्य लब्धिस्थान कषायकुशील और पुलाक मुनिके होते हैं। ये दोनों मुनि असंख्येय स्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, उसके बाद पुलाकमुनि नीचे विच्छिन्न हो जाता है-नीचे रह जाता है और कषायकुशील असंख्येय स्थान तक आगे चला जाता है ।।८१-८२॥
तदनन्तर वकुश और दोनों प्रकारके कुशील साथ-साथ असंख्यात स्थानों तक जाते हैं, उसके बाद वकुश नीचे रह जाता है और दोनों कुशील आगे बढ़ जाते हैं। तदनन्तर असंख्येय स्थान तक साथ-साथ जाकर प्रतिसेवनाकुशील नीचे छूट जाता है और कपायकुशील असंख्येय स्थान आगे चला जाता है। इसके आगे कषायकुशील भी निवृत्त हो जाता है। तदनन्तर कषायरहित संयमके स्थान प्रकट होते हैं और उन्हें निर्ग्रन्थ मुनि प्राप्त करता है। वह असंख्येय स्थानों तक जाकर पीछे छूट जाता है ।।८३-८५।। इसके आगे संयमका एक स्थान रहता है जिसे अनन्तगुण रूप ऋद्धियोंको धारण करनेवाला स्नातक प्राप्त करता है और वह वहाँ कर्मोंका अन्त कर निर्वाणको प्राप्त होता है ।।८६।।
१ कृष्णलेश्यादित्रितयं तयोः कथमिति चेदुच्यते-तयोरुपकरणासक्तिसंभवात आर्तध्यानं कदाचित्संभवति, आर्तध्यानेन च कृष्णादि लेश्यात्रितयं संभवतीति । २. कृतकर्मातो म. ।
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हरिवंशपुराणे
'क्षेत्रकालादिभिः सिद्धाः साध्या द्वादशभिस्तु ते । अनुयोगैर्यथायोग्यं नयद्वयविवक्षया ||८७ || सिद्धिक्षेत्रे मता सिद्धिरात्मा काशप्रदेशयोः । प्रत्युत्पन्नप्रतिग्राहिनययोगादसंगिनाम् ||८८ || कर्मभूमिषु सर्वासु जन्म प्रति च संहृतिम् । संसिद्धिर्मानुषे क्षेत्रे भूतग्राहिन येक्षया ॥ ८९ ॥ एकस्मिन् समये कालात्प्रत्युत्पन्ननयेक्षया । भूतग्राहिनयेक्षातो जन्मतोऽप्यविशेषतः ||१०|| उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिद्ध्यति जन्मवान् । विशेषेणावसर्पिण्यां तृतीयान्ततुरीययोः ||११|| दुःषमायां तु संजातो दुःषमायां न सिद्ध्यति । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः संहारात्सर्वदा पुनः ॥९२॥ सिद्धिः सिद्धिगतौ ज्ञेया सुमनुष्यगतौ यथा । अवेदत्वेन लिङ्गेन भावतस्तु त्रिवेदतः || ९३|| न द्रव्याव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न या ।। ९४|| तीर्थसिद्विद्विधा तीर्थकारीतरविकल्पतः । सति तीर्थकरे सिद्धा असतीतीतरे द्विधा ॥ ९५ ॥ सिद्धिव्यपदेशेन नादेकेन वा पुनः । चतुर्भिः पञ्चभिर्वापि चारित्रैरुपजायते || १६ ||
७९२
क्षेत्र, काल आदि बारह अनुयोगोंके द्वारा सिद्धों में भूतपूर्व प्रज्ञापन और प्रत्युत्पन्नग्राही की अपेक्षा भेद सिद्ध करने योग्य हैं || ८७|| क्षेत्रअनुयोगसे जब विचार करते हैं तब प्रत्युत्पन्न - ग्राही नयकी अपेक्षा मुक्त जोदोंकी सिद्धि, सिद्धिक्षेत्र में अथवा आत्मप्रदेशमें अथवा आकाशके प्रदेशों में होती है ||८८ || और भूतग्राही नयकी अपेक्षा जन्मसे पन्द्रह कर्मभूमियों में तथा संहरणसे मनुष्यलोक अर्थात् अढ़ाई द्वीपमें होती है || ८९ || कालअनुयोगसे विचार करनेपर यह जीव प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता है और भूतग्राही नयकी अपेक्षा जन्मसे सामान्यतया उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है और विशेष रूपसे अवसर्पिणीको तृतीय कालके अन्त में तथा चतुर्थ कालमें सिद्ध होता है । चतुर्थ कालका उत्पन्न हुआ जीव दुःषमा नामक पंचम काल में सिद्ध हो सकता है परन्तु दुःषमाका उत्पन्न हुआ दुःपमा में सिद्ध नहीं होता । संहरणकी अपेक्षा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के सभी कालोंमें सिद्ध होता है । भावार्थ - जिस समय भरत और ऐरावत क्षेत्रमें प्रथम आदिकाल विद्यमान रहते हैं उस समय यदि कोई व्यन्तरादिदेव किसी विदेहक्षेत्र के मुनिको संहरण कर भरत अथवा ऐरावतक्षेत्रमें छोड़ दे तो उनकी वहाँसे सिद्धि हो सकती है ।। ९०-९२ ।। गतिअनुयोगसे विचार करनेपर सिद्धिगतिमें अथवा मनुष्यगति में सिद्धि होती है। लिगअनुयोगसे विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नयको अपेक्षा अवेदसे सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नयकी अपेक्षा भाववेदसे तीनों वेदोंमें सिद्धि होती है । द्रव्यवेदst अपेक्षा तीनों वेदोंसे सिद्धि नहीं होती सिर्फ पुरुषवेदसे ही होती है । अथवा लिंगका अर्थ वेष भी हो सकता है इसलिए प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा निर्ग्रन्थ लिंगसे ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नयकी अपेक्षा सग्रन्थ लिंगसे होती भी है और नहीं भी होती है ।।९३-९४ ।।
तीर्थ अनुयोगसे विचार करनेपर सिद्धि दो प्रकारकी होती है, कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होता है ओर कोई सामान्य केवली होकर सिद्ध होता है । अथवा कोई तीर्थंकर के विद्यमान रहते सिद्ध होता है और कोई तीर्थंकरके मोक्ष चले जानेपर उनके तीर्थ में सिद्ध होता है ||१५|| चारित्रअनुयोगकी अपेक्षा विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा एक यथाख्यात चारित्र से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नयकी अपेक्षा चार अथवा पाँच चारित्रोंसे होती है । भावार्थ - यथाख्यातके पहले सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्म
१. 'क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्र प्रत्येकबुद्ध बोधितज्ञानावगाहनान्तर संख्यात्पबहुत्वतः साध्याः ' ॥ ९ ॥ त. सू.,
दशमाध्याय ।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
७९३ सिद्धिः प्रत्येकबुद्धानां स्वतो बोधिमुपेयुषाम् । तथा बोधितबुद्धानां परतो बोधिलामिनाम् ॥९॥ 'सिदिनिविशेषः स्यादेकष्ठित्रिचतुष्ककैः । अवगाहेन चोत्कृष्टजघन्यान्तर्भिदावता ॥९८॥ अवगाहनमुत्कृष्टमूनं पञ्चधनुःशती। पञ्चविंशां च देशोनारत्नयोऽर्धचतुर्थकाः ॥१९॥ मध्येऽनेकविकल्पास्तु यथासंभवमीरिताः । तत्र सिद्धयति चैतस्मिन्नेकस्मिन्नवगाहने ॥१०॥ अन्तरः शून्यकालः स्यादन्तरं सिद्धयतां पुनः । जघन्येनैकसमयो मासानां षट्कमन्यथा ॥१०॥ जघन्येनैक एबैकसमये सिद्धयति ध्रुवम् । तथोत्कर्षेणाष्टशतसंख्यास्ते संख्यया स्मृताः ॥१०२॥ क्षेत्रादिभेदमिन्नानां संख्याभेदः परस्परम् । ख्यातमल्पबहुत्वं च सिद्धिक्षेत्रे न विद्यते ॥१०॥ भूतपूर्वव्यपेक्षातश्चिन्त्यते तन्नु तद्यथा । जन्मनः संहृतेश्चेति क्षेत्रसिद्धा द्विधा मताः ॥१०४॥ अल्पे संहारसिद्धास्ते जन्मसिद्धास्तु तत्वतः । स्युः संख्येयगुणाः सर्वे सार्वसर्वज्ञशासने ॥१०५॥ ऊर्ध्वलोकस्य सिद्धाये स्तोकास्तेऽधो जगद्गताः । स्युः संख्येयगुणास्तिर्यग्लोकसिद्धास्तथा ततः ॥१०६॥
साम्परायचारित्र अनिवार्य रूपसे सभीके होते हैं और परिहारविशुद्धि किन्हीं-किन्हींके होता है इसलिए जिनके परिहारविशुद्धि नहीं होगा उनके चार चारित्रोंसे और जिनके परिहारविशुद्धि होगा उनके पांच चारित्रोंसे सिद्धि होती है, यह भूतार्थग्राही नयको अपेक्षा है। प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा चौदहवें गुणस्थानमें एक परमयथाख्यात चारित्र ही होता है इसलिए एक चारित्रसे ही सिद्धि प्राप्त होनेका कथन है ।।१६।। प्रत्येक बुद्ध और बोधितबुद्ध-अनुयोगसे विचार करनेपर प्रत्येक बुद्ध जो कि अपने-आप रत्नत्रयको प्राप्त होते हैं और बोधित बुद्ध जो कि दूसरोंके उपदेशसे रत्नत्रय प्राप्त करते हैं-दोनोंको सिद्धि प्राप्त होती है-दोनों ही मोक्ष जाते हैं ॥९७|| ज्ञान अनुयोगसे विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा एक केवलज्ञानसे ही सिद्धि होती है और भतार्थग्राही नयकी अपेक्षा दो, तीन और चार ज्ञानोंसे सिद्धि होती है। भावार्थ-किन्हीं जीवोंकी केवलज्ञानके पूर्व मति और श्रुतमें दो ज्ञान होते हैं। किन्हींको मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मनःपर्यय ये तीन ज्ञान होते हैं। और किन्हींको मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ये चार ज्ञान होते हैं। अवगाहना अनुयोगसे विचार करनेपर अवगाहनाके उत्कृष्ट, जधन्य और मध्यमके भेदसे तीन भेद होते हैं। इनमें युक्त जीवोंको उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम पांच-सौ पच्चीस धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ है। मध्यम अवगाहनाके यथासम्भव अनेक विकल्प कहे गये हैं। इन अवगाहनाओंमें-से.जीव किसी एक अवगाहनासे सिद्ध होता है ॥१८-१००|| अन्तर अनुयोगको अपेक्षा विचार करनेपर अन्तरका अर्थ शन्यकालविरहकाल हो
होनेवाले जीवोंमें जघन्य अन्तर एक समयका और उत्कृष्ट अन्तर छह माहका होता है ।।१०१।। संख्या अनुयोगको अपेक्षा विचार करनेपर जघन्यरूपसे एक समयमें एक ही जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्टतासे एक सौ आठ जीव तक सिद्ध होते हैं ।।१०२।। अल्पबहुत्व अनुयोगकी अपेक्षा विचार करनेपर क्षेत्रादि भेदोंसे भिन्न जीवोंमें जो परस्पर संख्याका भेद है वह अल्पबहुत्व कहलाता है। यह अल्पबहुत्व प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा सिद्धिक्षेत्रमें नहीं है किन्तु भूतार्थग्राही नयको अपेक्षा उसका कुछ विचार किया जाता है। क्षेत्रसिद्ध जीव जन्म और संहरणको अपेक्षा दो प्रकारके माने गये हैं। इनमें संहरणसिद्ध थोडे हैं और जन्मसिद्ध गर्वहितकारी सर्वज्ञ जिनेन्द्र के शासनमें संहरण सिद्धोंको अपेक्षा संख्यात गणे बतलाये गये हैं ॥१०३-१०५।। ऊर्बलोकसे सिद्ध होनेवाले थोड़े हैं, उनसे संख्यातगुणे अधोलोकसे सिद्ध होनेवाले हैं और उनसे संख्यातगुणे तिर्यग्लोकसे सिद्ध होनेवाले हैं ॥१०६।। १. सिद्धि निविशेषैरेकद्वित्रिचतुर्थकैः म. । २. पञ्चविंशा म., पञ्चविंशाव ख. । ३. यतः म. ।
१००
ता हैसा सिद्धहानवाल जापान जपच ज
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७९४
हरिवंशपुराणे स्तोकाः समुदसिद्धास्तु स्युः संख्येयगुणाः पुनः । द्वीपसिद्धा इतीहेत्थमविशेषेण भाषिताः ॥१७॥ 'लवणोदेऽत्र ये सिद्धाः सर्वतोकास्तु ते स्तुताः। कालोदसिद्धा बोद्धव्यास्तत्संख्येयगुणाः सदा ॥१०८॥ ये जम्बूद्वीपसिद्धास्ते स्युः संख्येय गुणास्तथा । धातकीखण्डसिद्धाश्च पुष्करद्वीपगास्तथा ॥१०९॥ यथा क्षेत्रविभागेन प्रोक्ताल्पबहुता तथा । सा कालादिविभागेन वेदितव्या यथागमम् ॥११०॥ इति दृग्ज्ञानचारित्रतपसामत्युपासकाः । सोमदत्तादयोऽन्त्ये ते पञ्च भूत्वारणाच्युते ॥१११॥ देवाः सामानिका भोगं द्वाविंशत्यब्धिजीविनः । भुञ्जानास्तस्थुरत्यन्तशुदर्शनदर्शनाः ॥११२॥ नागश्रीरपि मृत्वाप फलं धूमप्रभावनौ । अनुभूय महादुःखं सा सप्तदशसागरम् ।।११३॥ भूत्वा स्वयंप्रमद्वीपे दुष्टो दृष्टिविषोरगः । त्रिसागरोपमायुष्कां मृत्वागाद्वालुकाप्रमाम् ॥११४॥ सत्रानुभूय दुःखौघांश्चिरादुद्वर्त्य पापतः । सस्थावरकायेषु सानयत्सागरद्वयम् ॥११५।। ततो मातङ्गकन्याभूच्चम्पायां सान्यदा मुनेः । समाधिगुप्ततः कृत्वा मधुमांसादिवर्जनम् ॥११६॥ जीवितान्ते सुबन्धोः स्याच्चम्पायामेव वैश्यतः । धनवत्यां सुता जाता नाम्ना च सुकुमारिका ।।११७।। पापानुबन्धदोषेण सुदुर्गन्धशरीरिका । रूपवत्यपि विद्वेष्या जाता युवजनस्य सा ।।११८॥ वैश्यस्य धनदेवस्याशोकदत्तासमुद्भवौ । तनयो जिनदेवश्च जिनदत्तश्च विश्रुतौ ॥११९॥ कन्यां तामपि दुर्गन्धा वृतां बन्धुमिरग्रजः । परित्यज्य प्रववाज सुव्रतः सुव्रतान्तिके ।।१२०॥
समुद्रसे सिद्ध होनेवाले थोड़े हैं, इनसे संख्यातगुणे द्वीपसे सिद्ध होनेवाले हैं, यह सामान्यकी अपेक्षा कथन है, विशेषकी अपेक्षा लवणसमुद्र में जो सिद्ध होते हैं, वे सबसे थोड़े हैं, उनसे संख्यातगुणं कालोदधिसे सिद्ध होनेवाले हैं ॥१०७-१०८॥ जो जम्बद्वीपसे सिद्ध होते हैं वे संख्येयगुणे हैं, उनसे संख्यातगुणे धातकीखण्डसे होनेवाले सिद्ध हैं और उनसे संख्यातगुणे पुष्करद्वीपसे होनेवाले सिद्ध हैं ॥१०९।। जिस प्रकार क्षेत्रविभागको अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन किया है उसी प्रकार आगमके अनुसार काल आदि विभागको अपेक्षा भी जानना चाहिए ॥११०॥
इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी अत्यन्त उपासना करनेवाले सोमदत्त आदि पांचों जीव अन्त समय मरकर आरण अच्युत स्वर्गमें सामानिक जातिके देव हुए। वहाँ बाईस सागरकी उनकी आयु थी। अत्यन्त शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले वे देव उत्तम भोग भोगते हुए वहाँ बाईस सागर तक स्थित रहे ॥१११-११२॥ विपमिश्रित भोजन देनेवाली नागश्री भी मरकर धूमप्रभानामक पाँचवें नरकके फलको प्राप्त हुई। वह सत्तरह सागर तक वहांके महादुःख भोगकर निकली और स्वयंप्रभद्वीपमें दृष्टिविप नामका दुष्ट सर्प हुई। तदनन्तर मरकर तीन सागरको आयुवाली बालुकाप्रभानामक तीसरी पृथ्वीमें पहुँची ॥११३-११४॥ वहाँ पापके फलस्वरूप चिरकाल तक दुःखों का समूह भोगकर निकली और सस्थावर पर्यायमें दो सागर तक भटकती रही ॥११५।। तदनन्तर चम्पापुरीमें एक चण्डालकी कन्या हुई। वहां उसने एक दिन समाधिगुप्त नामक मुनिराजके पास मधु-मांसादिका त्याग किया ॥११६।। जिससे अन्त समय उसी चम्पापुरीमें सुबन्धु वैश्यको धनवती स्त्रीसे सुकुमारिका नामकी पुत्री हुई ॥११७॥ पापके पूर्व संस्कारसे उसके शरीरसे तीव्र दुर्गन्ध
' थी इसलिए रूपवती होनेपर भी वह युवाजनोंके द्वेषका पात्र हुई ॥११८। उसी नगरीमें धनदेव वैश्यको अशोकदत्ता नामक स्त्रीसे उत्पन्न जिनदेव और जिनदत्त नामक दो पुत्र रहते थे ।।११९।। जिनदेवके कुटुम्बी जनोंने उस दुर्गन्धा कन्याके साथ उसका विवाह
१. -मप्यशेषेण म.। २, लवणोदे त्रयः म.। ३. एष सर्व उल्लेखः 'क्षेत्रकालगति--इत्यादिसूत्रस्य सर्वार्थसिद्धिटीकयानुप्राणितो वर्तते । ४. दुःखौघं कः । ५. तत्र स्थावर-म.।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
७९५ कनीयान् जिनदत्तस्ता बन्धुवाक्योपरोधतः । परिणोयापि तत्याज दुर्गन्धामतिदूरतः ॥१२॥ आत्मानमपि निन्दन्ती सोपवासान्यदा च सा। क्षान्तार्यामाथिकायुक्तां भोजयित्वातिमक्तितः ।।१२२॥ अभिवन्द्य तदापृच्छदार्यिके केन हेतुना । इमे परमरूपिण्यौ स्थिते तपसि दुष्करे ।।१२३॥ सेति पृष्टा जगौ हेतुमार्ययोस्तपसस्तयोः । प्रबोधनाय तस्याश्च करुणापरिनोदिता ।।१२४॥ श्रयतां सुकुमारि द्वे सुकुमारकुमारिके । हेतुता येन तापस्ये तपस्विन्यौ व्यवस्थिते ॥१२५।। सौधर्माधिपतेर्देव्याविमे पूर्वत्र जन्मनि । विमला सुप्रभा चेति सुप्रसिद्ध बभूवतुः ॥१२॥ ते नन्दीश्वरयात्रायां जिनपूजार्थमागते । कथंचिजातसंवेगे चित्तान्तरमिति श्रिते ॥१२७॥ मनुष्यमवसंप्राप्ती करिष्यावो महत्तपः । आवां स्त्रीत्वनिमित्तं तु येन दुःखं न दृश्यते ॥१२८॥ इति संगीर्य ते देव्यो दिवः प्रच्युस्य भूपतेः । श्रीषेणस्येह साकेते श्रीकान्तायां सुयोषिति ॥१२९॥ हरिषेणा सुता ज्येष्ठा श्रीषेणा च कनीयसी । जाते जाते च कान्ते ते यौवनश्रीविभूषिते ॥१३०॥ स्वयंवरविधी स्मृत्वा पूर्व जन्म च संगरम् । बन्धुलोकं परित्यज्य कुमायौं तपसि स्थिते ॥१३१॥ इति श्रुत्वार्यिकावाक्यं निर्विण्णा सुकुमारिका । तदन्ते सा प्रवव्राज संसारमयवेदिनी ॥१३२॥ तपस्विनीभिरन्याभिस्तपस्यन्ती तपस्विनी। कालं नीतवती नीत्या तपसा शोषितानिका ॥१३३॥
करना चाहा पर उसे वह स्वीकृत नहीं था इसलिए वह उस कन्याको छोड़ सुव्रत मुनिके समीप दीक्षित हो गया ॥१२०॥ बन्धुजनोंके उपरोधसे छोटे भाई जिनदत्तने यद्यपि उसके साथ विवाह कर लिया परन्तु दुर्गन्धके कारण उसे दूरसे ही छोड़ दिया ॥१२१।। इस घटनासे सुकुमारिकाने अपनी बहुत निन्दा की। एक दिन उसने उपवास किया तथा अनेक आर्यिकाओंसे युक्त क्षान्ता नामकी आर्यिकाको बड़ी भक्तिसे भोजन कराया ॥१२२॥ क्षान्ता आर्यिकाके साथ दो आर्यिकाएं परम रूपवती तथा कठिन तपन तपनेवाली थीं उन्हें देख उसने क्षान्ता आर्याको नमस्कार कर उनसे पूछा कि हे आयें ! ये दो रूपवती आर्यिकाएं कठिन तपमें किस कारण स्थित हैं ? ।।१२३।। इस प्रकार पूछे जानेपर दयासे प्रेरित क्षान्ता आर्याने सुकुमारिकाको सम्बोधन करनेके लिए उन दो आर्यिकाओंके तपका कारण कहा ॥१२४।। उन्होंने कहना प्रारम्भ किया-कि हे सुकुमारि ! सुन, ये सुकुमार कुमारिकाएं जिस कारण तपस्विनी बनकर तप करने में लगी हुई हैं ।।१२५।।
ये दोनों पूर्व भवमें सौधर्म स्वर्गके इन्द्रकी विमला और सुप्रभा नामकी देवियाँ थीं ॥१२६।। एक दिन ये नन्दीश्वर पर्वकी यात्रामें जिनपूजाके लिए आयी थीं कि किसी कारण संसारसे विरक्त हो चित्तमें इस प्रकारका विचार करने लगी कि यदि हम मनुष्यभवको प्राप्त हों तो महातप करेंगी। ऐसा महातप कि जिससे फिर यह स्त्री-पर्यायसम्बन्धी दुख दिखाई नहीं देगा ॥१२७-१२८।। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे देवियाँ स्वर्गसे च्युत हुई और यहाँ अयोध्या नगरीके राजा श्रीषेणकी श्रीकान्ता नामक स्त्रीसे हरिषेणा नामकी बड़ी और श्रीषेणा नामकी छोटी पुत्री हुई। समय पाकर ये दोनों ही रूपवती और यौवनरूपी लक्ष्मीसे सुशोभित हो गयीं ॥१२९-१३०|| इन दोनों कुमारियोंका स्वयंवर हो रहा था कि उसी समय इन्हें अपने पूर्व जन्म तथा की हुई प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया जिससे ये बन्धुजनोंको छोड़ तत्काल तप करने लगीं ॥१३१।।
क्षान्ता आर्यिकाके उक्त वचन सुन सुकुमारिका भी विरक्त हो गयो और संसारसे भयभीत हो उन्हीं के समीप दीक्षित हो गयी ॥१३२।। अन्य तपस्विनियोंके साथ तप करती हुई वह समय व्यतीत करने लगी। नीतिपूर्वक-आगमानुकूल तप करनेसे उसका शरीर सूख गया ॥१३३।।
TH
१. -रोधनः म.।
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७९६
हरिवंशपुराणे वसन्तसेनां गणिका कामुकैः परिवेष्टिताम् । दृष्ट्वा वनविहारेऽसावेकदा क्रीडनोद्यताम् ॥१३४॥ निदानमकरोक्लिष्टा दुर्यशःप्राप्तिकारणम् । सौभाग्यमीदृशं मेऽन्यजन्मन्यस्त्विति सादरा ॥१३५॥ स्वमर्तुः सोमभूतेस्तु मृस्वाभूदारणाच्युते । देवी सा पञ्चपञ्चाशत्पल्यतुल्यनिजस्थितिः ॥१३६॥ च्युत्वा ते पाण्डुराजस्य सोमदत्तादयस्त्रयः । कुन्त्यां युधिष्ठिरो भीमः पार्थश्चेत्यभवन् सुताः ॥१३॥ धनश्रीपूर्वको देवी मित्रश्रीपूर्वकस्तथा । नकुलः सहदेवश्च मद्या जाती शरीरजी ॥१३८॥ सा कुमारी दिवश्च्युत्वा दुपदस्य शरीरजा । जाता दृढरथाख्यायां स्त्रियां द्रौपद्यमिख्यया ॥१३९॥ द्रौपद्यर्जनयोर्योगः पूर्वस्नेहेन साम्प्रतम् । सुव्यक्तं साम्प्रतं जातो राधोवेधपुरस्सरः ॥१४॥ ज्येष्टानां भविता सिद्धि स्त्रयाणामिह जन्मनि । सर्वार्थसिद्धिर्हि तयोरन्त्यपाण्डवयोरिह ॥१४१॥ सम्यग्दर्शनशुद्धाया द्रौपद्यास्तपसः फलात् । आरणाच्युतदेवत्वपूर्विका सिद्धिरिष्यते ॥१४२॥ इत्थं ते पाण्डवाः श्रुत्वा धर्म पूर्वभवांस्तथा । संवेगिनो जिनस्यान्ते संयमं प्रतिपेदिरे ॥१४३॥ कुन्ती च द्रौपदी देवी सुभद्राद्याश्च योषितः । राजीमत्याः समीपे ताः समस्तास्तपसि स्थिताः ॥१४४॥ ज्ञानदर्शनचारित्रवतैः समितिगुप्तिमिः । आत्मानं भावयन्तस्ते पाण्डवाद्यास्तपोऽचरन् ॥१४५॥
शार्दूलविक्रीडितम् 'कुन्ताग्रेण वितीर्णभैक्ष्यनियमः क्षुरक्षामगात्रः क्षमः
षण्मासैरथ भीमसेनमुनिपो निष्ठाप्य स्वान्तक्लमम् ।
__एक दिन उसी गांवकी गणिका वसन्तसेना कामीजनोंसे वेष्टित हो वन-विहारके लिए आयी। क्रीडा करने में उद्यत उस गणिकाको देखकर आर्यिका सकमारिकाने क्लिष्ट परिणामोंसे यक्त बड़े आदरसे अपयशकी प्राप्तिमें कारणभूत यह निदान किया कि अन्य जन्ममें मुझे भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो ॥१३४-१३५।। आयुके अन्तमें मरकर वह आरणाच्युत युगलमें अपने पूर्व भवके पति सोमभूति देवकी पचपन पल्यकी आयुवाली देवी हुई ॥१३६॥ सोमदत्त आदि तीनों भाइयोंके जीव स्वर्गसे च्युत हो पाण्डु राजाकी कुन्ती नामक स्त्रीमें युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक पुत्र हुए ॥१३७|| और धनश्री तथा मित्रश्रीके जीव देव भी उन्हीं पाण्डु राजाकी माद्री नामक दूसरी स्त्रीसे नकुल और सहदेव नामक पुत्र हुए ॥१३८|| सुकुमारिकाका जीव भी स्वर्गसे च्युत हो राजा द्रुपदकी दृढ रथा नामक स्त्रीसे द्रौपदी नामकी पुत्री हुई ॥१३९|| पूर्व भवके स्नेहके कारण इस भवमें भी राधोवेध पूर्वक द्रौपदी और अर्जुनका संयोग हुआ है ।।१४०॥ तीन ज्येष्ठ पाण्डव-युधिष्ठिर, भीम और अर्जन इसी जन्ममें मोक्षको प्राप्त होंगे और अन्तिम दो पाण्डव-नक सहदेवको सर्वार्थसिद्धि प्राप्त होगी ।।१४१।। सम्यग्दर्शनसे शुद्ध द्रौपदी तपके फलस्वरूप आरणाच्युत युगलमें देव होगी और उसके बाद मनुष्यपर्याय रख मोक्ष जायेगी ।।१४२॥
इस प्रकार वे पाण्डव धर्म तथा पूर्व भव श्रवण कर संसारसे विरक्त हो श्री नेमि जिनेन्द्र के समीप संयमको प्राप्त हो गये ॥१४३।। कुन्ती, द्रौपदी तथा सुमद्रा आदि जो स्त्रियाँ थीं वे सब राजीमती आर्यिकाके समीप तपमें लोन हो गयीं ॥१४४|| सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, महाव्रत, समिति तथा गुप्तियोंसे अपनी आत्माके स्वरूपका चिन्तवन करते हुए वे पाण्डव आदि तप करने लगे ।। १४५ ॥ उन सब मुनियोंमें भीमसेन मुनि बहुत ही शक्तिशाली
१. मेऽन्ये जन्मन्यस्त्विति म. । २. -त्यभवत्सुताः म.। ३. क्रमात् म.। ४. कुन्त्यप्रेण म., ख. । ५. क्षुत्क्षामगात्रक्षयः क. । ६. मुनिपो इति पाठः प्रतिभाति । मुनिभिनिष्ठाप्य क., ख., ङ., म. । ७. स्वान्तक्रमं म.. ङ., सान्तक्रमं क.।
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चतुःषष्टितमः सर्गः
षष्ठायैरुपवासभेदविधिभिर्निष्टाभिमुख्यैः स्थित
ज्येष्ठाद्यैर्विजहार योगिभिरिलां जैनागमाम्भोधिमिः || १४६ ||
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो युधिष्ठिरादिपञ्चपाण्डवप्रव्रज्या वर्णनो नाम चतुःषष्टितमः सर्गः ॥ ६४॥
थे । उन्होंने भालेके अग्रभागसे दिये हुए आहारको ग्रहण करनेका नियम लिया था, क्षुधासे उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था और छह महीने में उन्होंने इस वृत्ति परिसंख्यात तपको पूरा कर हृदयका श्रम दूर किया था । युधिष्ठिर आदि मुनियोंने भी बड़ी श्रद्धा के साथ वेला तेला आदि उपवास किये थे । इस प्रकार मुनिराज भीमसेनने जैनागमके सागर युधिष्ठिर आदि मुनियोंके साथ पृथिवीपर विहार किया || १४६ ||
७९७
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें युधिष्ठिर आदि पाँच पाण्डवों की दीक्षाका वर्णन करनेवाला चौंसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ||६४ ||
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पञ्चषष्टितमः सर्गः
अथ सर्वामराकीर्ण स्तीर्थकृस्कृतदेशनः । उत्तरापथतो देशं सुराष्ट्रमभितो ययौ ॥१॥ उत्तरायणमुत्क्रम्य दक्षिणायनमागते । जिना तेजसो वृत्तिः प्राग्वत्सर्वत्रगामवत् ॥२॥ आहन्त्यविभवोपेते महीं विहरतीश्वरे । दक्षिणां दक्षिणा देशा रेजिरे' स्वर्गविभ्रमाः ॥३॥ तत्रोर्जयन्तमन्तेऽसावन्तकल्याणभूतिमाकू । आरुरोह स्वभावेन नृसुरासुरसेवितः॥४॥ पूर्ववत्समवस्थानभूमिस्तत्रामवत्प्रमोः । तिर्यग्मानवदेवोधैरनधैः समधिष्टिता ॥५॥ धर्म तत्र जिनोऽवोचद्गलत्रितयपावनम् । स्वर्गापवर्गसौख्यैकसाधनं साधुसंमतम् ॥६॥ निषद्यायां यथाद्यायां पूर्व सर्वहितो जिनः । भन्स्यानां च तथा धर्म स सविस्तरमब्रवीत् ॥७॥ ऊर्ध्वज्वलनमुष्णत्वं यथाग्नेः शीतताप्यपाम् । जवनं मरुतस्तिर्यग्मास्वरत्वं च तेजसः ॥८॥ अमूर्तत्वं यथा व्योम्नः स्वभावाद्धारां क्षितेः । कृतार्थस्य जिनेन्द्रस्य तथा धर्मस्य देशनम् ॥९॥ अघातिकर्मणामन्तं ततो योगनिरोधकृत् । कृत्वानेकशतः सिद्धिं जिनेन्द्रो मुनिभिर्ययौ ॥१०॥ परिनिर्वाणकल्याणपूजामन्स्यशरीरगाम् । चतुर्विधसुरा जैनी चक्रुः शक्रपुरोगमाः ॥११॥
अथानन्तर समस्त देवोंसे युक्त भगवान् नेमिनाथ उपदेश करते हुए उत्तरापथसे सुराष्ट्र देशकी ओर आये ॥ १॥ जिनेन्द्ररूपी सूर्य यद्यपि उत्तरायणको उल्लंघन कर दक्षिणायनको प्राप्त हुए थे तथापि उनके तेजकी वृत्ति पहले ही-के समान सर्वत्र व्याप्त थी । भावार्थ-जब सूर्य उत्तरायणसे दक्षिणायनकी ओर आता है तब उसका तेज कुछ कम हो जाता है परन्तु नेमिजि सूर्यका तेज उत्तरायण-उत्तर दिशासे दक्षिणायन-दक्षिण दिशामें आनेपर भी कम नहीं हुआ था, पहले ही के समान सर्वत्र व्याप्त था ।। २ ।। समवसरणकी विभूतिसे युक्त नेमिजिनेन्द्र जब दक्षिण दिशामें विहार करते थे तब वहाँके देश स्वर्गके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३ ॥ तदनन्तर जब अन्तिम समय आया तब निर्वाणकल्याणककी विभूतिको प्राप्त होनेवाले नेमिजिनेन्द्र मनुष्य, सुर और असुरोंसे सेवित होते हुए अपने-आप गिरनार पर्वतपर आरूढ़ हो गये ॥ ४ ॥ वहाँ पहले हो के समान फिरसे कलुषतारहित तिथंच मनुष्य और देवोंके समूहसे युक्त समवसरणको रचना हो गयी ।। ५ ।। समवसरणके बीच विराजमान होकर जिनेन्द्र भगवान्ने स्वर्ग और मोक्षको प्राप्तिका एक साधन, रत्नत्रयसे पवित्र एवं साधुसंमत धर्मका उपदेश दिया ।। ६ ।। जिस प्रकार सर्वहितकारी जिनेन्द्र भगवान्ने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद पहली बैठकमें विस्तारके साथ धर्मका उपदेश दिया था उसी प्रकार अन्तिम बैठकमें भी उन्होंने विस्तारके साथ धर्मका उपदेश दिया ॥ ७॥
जिस प्रकार अग्निमें ऊध्र्वज्वलन और उष्णता, पानीमें शीतलता, वायुमें वेग, सूर्य चन्द्र आदि तेजस्वी पदार्थों में सब ओरसे प्रकाशमानता, आकाशमें अमूर्तिकपना और पृथिवीमें किसी पदार्थको धारण करनेकी क्षमता स्वभावसे ही होती है, उसी प्रकार कृतकृत्य जिनेन्द्र भगवान्का धर्मोपदेश भी स्वभावसे होता था किसीकी प्रेरणासे नहीं ।।८-९।। तदनन्तर योगनिरोध करनेवाले भगवान् नेमिजिनेन्द्र अघातिया कर्मोंका अन्त कर अनेक सौ मुनियोंके साथ निर्वाण धामको प्राप्त हो गये ॥१०॥ जिनके आगे-आगे इन्द्र चल रहे थे ऐसे चारों निकायके देवोंने
१. भ्रजिरे क., भेजिरे म. । २. स्वभावाद्वारणं म. ।
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७९९
पञ्चषष्टितमः सर्गः
गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यैः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयन्स्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा ॥ १२ ॥ स्वभावोऽयं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । मुञ्चति स्कन्धतामन्ते क्षणात्क्षणरुचामिव ॥ १३ ॥ ऊर्जयन्त गिरौ वज्री वज्रेणालिख्य पाविनीम् । लोके सिद्धिशिलां चक्रे जिनलक्षणपंक्तिभिः ॥ १४ ॥ वरदत्तादिसंघं च वन्दिवा वासवादयः । देवा नृपतयश्चापि ययुः सर्वे यथायथम् ॥१५॥ दशार्हादयो मुनयः षट्सहोदरसंयुताः । सिद्धिं प्राप्तास्तथान्येऽपि शम्बप्रद्युम्नपूर्वकाः ॥ १६ ॥ ऊर्जयन्तादिनिर्वाणस्थानानि भुवने ततः । तीर्थयात्रागतानेकभव्य सेव्यानि रेजिरे ॥ १७ ॥ ज्ञात्वा भगवतः सिद्धि पञ्च पाण्डवसाधवः । शत्रुंजयगिरौ धोराः प्रतिमायोगिनः स्थिताः ॥ १८॥ दुर्योधनान्वयस्तत्र स्थितो क्षुयवरोधनः । श्रुस्वागत्याकरो रादुपसर्गं सुदुस्सहम् ॥ १९ ॥ तप्तायोमयमूर्तीनि मुकुटानि ज्वलन्त्यलम् । कटकैः कटिसूत्रादि तन्मूर्धादिष्व योजयत् ॥२०॥ रौ दाहोपसर्ग ते मेनिरे हिमशीतलम् । वीराः कर्मविपाकज्ञाः कर्मक्षयकृतौ क्षमाः ॥२१॥ शुकुध्यानसमाविष्टा भीमार्जुनयुधिष्ठिराः । कृत्वाष्टविधकर्मान्तं मोक्षं जग्मुखयोऽक्षयम् ॥२२॥ नकुलः सहदेवश्व ज्येष्ठदाहं निरीक्ष्य तौ । अनाकुलितचेतस्कौ जातौ सर्वार्थसिद्धिौ ॥२३॥
भगवान् के अन्तिम शरीर से सम्बन्ध रखनेवाली निर्वाणकल्याणकी पूजा की || ११ || दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदि पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवोंके शरीर, क्षण-भर में बिजलीकी नाई आकाशको देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ||१२|| क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदिके शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षण भरमें स्कन्धपर्यायको छोड़ देते हैं ॥ १३ ॥
गिरनार पर्वत पर इन्द्रने वज्रसे उकेरकर इस लोक में पवित्र सिद्धशिलाका निर्माण किया तथा उसे जिनेन्द्र भगवान् के लक्षणों के समूहसे युक्त किया || १४ || तदनन्तर वरदत्त आदि मुनियोंके संघकी वन्दना कर इन्द्रादि देव और राजा लोग सब यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥ १५ ॥
समुद्रविजय आदि नौ भाई, देवकीके युगलिया छह पुत्र तथा शंब और प्रद्युम्नकुमार आदि अन्य मुनि भी गिरनार पर्वत से मोक्षको प्राप्त हुए । इसलिए उस समय से गिरनार आदि निर्वाण स्थान संसार में विख्यात हुए और तीर्थयात्रा के लिए आनेवाले अनेक भव्य जीवोंके द्वारा सेवित होते हुए सुशोभित होने लगे ॥१६-१७ ||
धीर-वीर पांचों पाण्डव मुनि, भगवान्को मोक्ष हुआ जान शत्रुंजय पर्वत पर प्रतिमायोगसे विराजमान हो गये ||१८|| उस समय वहाँ दुर्योधनके वंशका क्षुयवरोध नामका कोई पुरुष रहता था । ज्यों ही उसने वहाँ पाण्डवोंका आना सुना त्यों ही आकर उसने वैर वश उनपर घोर उपसर्ग करना शुरू कर दिया || १९|| उसने तपाये हुए लोहे के मुकुट, कड़े तथा कटिसूत्र आदि बनवाये और उन्हें अग्निमें अत्यन्त प्रज्वलित कर उनके मस्तक आदि स्थानोंमें पहनाये ||२०|| पाण्डव मुनिराज अत्यन्त धीर-वीर थे, कर्मके उदयको जाननेवाले थे एवं कर्मोंका क्षय करने में समर्थ थे, इसलिए उन्होंने दाहके उस भयंकर उपसर्गको हिमके समान शीतल समझा था ॥ २१ ॥ भीम, अर्जुन और युधिष्ठिर ये तीन मुनिराज तो शुक्लध्यान से युक्त हो आठों कर्मोंका क्षय कर मोक्ष गये परन्तु नकुल और सहदेव बड़े भाईकी राहको देख कुछ-कुछ आकुलितचित्त हो गये इसलिए सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुए ||२२-२३||
१. पावनों ख., पावनं म । २. युक्तिभिः म ध । ३. युधवरोधनः घ., म । ४. ईषदाकुलितं चेतो ययोस्ती ईषदर्थे न प्रयोगः ।
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हरिवंशपुराणे
नारदोऽपि नरश्रेष्ठः प्रव्रज्य तपसो बलात् । कृत्वा भवक्षयं मोक्षमक्षयं समुपेयिवान् ॥२४॥ अन्येऽपि बहवो भव्याः सुरत्नत्रयधारिणः । मोक्षं प्राप्ताः परे स्वर्गमासनभवसंक्षयोः ॥ २५॥ तुङ्गकाशिखरारूढो बलदेवोऽपि दुष्करम् । तपो नानाविधं चक्रे भवचक्रक्षयोद्यतः ॥ २६ ॥ एकद्विश्यादिषण्मासपर्यन्तोपोषितैरसौ । कषायवपुषां चक्रे शोषणं पोषणं घृतेः ॥२७॥ कान्तारभिक्षया प्राणधारणां कर्तुमुद्यतः । भ्रमन् कान्तारमध्येऽन्यैर्व्य लोकि शशिविभ्रमः ॥ २८ ॥ पुरग्रामादिषु ख्यातां श्रुत्वा वार्तां तथाविधाम् । पर्यन्तवासिनो भूपाः प्राप्ताः क्षुभितमानसाः ॥२९॥ शङ्काविषसमापन्नान्नानाप्रहरणाश्रितान् । सिद्धार्थस्तान् तथालोक्य सृष्टवान् सिंहसंततिम् ||३०|| मुनिपादसमीपे तान् सिंहानालोक्य भूभृतः । ते ज्ञातमुनिसामर्थ्याः प्रणम्योपशमं ययुः ॥ ३१ ॥ ततः प्रभृत्यसौ लोके नरसिंह इति श्रुतिम् । सिंहोरस्को हली प्राप्तः सिंहानुचरसंयतः ||३२|| एकं वर्षशतं कृत्वा तपो हलधरो मुनिः । समाराध्य परिप्रातो ब्रह्मलोके सुरेशताम् ॥३३॥ तत्र पद्मोत्तरे नाम्नि विमाने रत्नभास्वरे । देवदेवीगणाकीर्णे प्रासादोद्यानमण्डिते ॥ ३४॥
मनुष्यों में श्रेष्ठ नारद भी दीक्षा ले तपके बलसे संसारका क्षयकर अविनाशी मोक्षको प्राप्त हुए ||२४|| समीचीन रत्नत्रयको धारण करनेवाले अन्य अनेक भव्य जीव भी मोक्षको प्राप्त हुए तथा निकट कालमें जिनके संसारका क्षय होनेवाला था ऐसे कितने ही जीव स्वर्ग गये ||२५||
तुंगीगिरिके शिखरपर स्थित बलदेवने भी संसार चक्रका क्षय करनेमें उद्यत हो नाना प्रकारका तप किया ||२६|| वे एक दिन, दो दिन तीन दिनको आदि लेकर छह माह तकके उपवासोंसे कषाय और शरीरका शोषण तथा धैयँका पोषण करते थे ||२७|| वनमें मिलनेवाली भिक्षासे प्राण धारण करनेके लिए उद्यत बलदेव मुनिराज वनमें विहार करने लगे और चन्द्रमाका भ्रम उत्पन्न करनेवाले उन मुनिराजको लोगोंने देखा || २८|| 'बलदेव वनमें विहार कर रहे हैं' यह बात नगरों तथा गाँवोंमें फैल गयी उसे सुन समीपवर्ती राजा क्षुभितचित्त हो वहां आ पहुँचे ॥२९॥
शंकरूपी विषसे युक्त तथा नाना प्रकारके शस्त्रोंसे सुसज्जित उन राजाओंको जब देव सिद्धार्थने देखा तो उस वनमें उसने सिंहों के समूह रच दिये ||३०|| जब उन आगत राजाओंने मुनिराज के चरणोंके समीप सिंहों को देखा तब वे उनकी सामथ्यं जान नमस्कार कर शान्त भावको प्राप्त हो गये ||३१|| उसी समयसे बलदेव मुनिराज लोकमें नरसिंह इस प्रसिद्धिको प्राप्त हो गये । वे सिंहके समान चौड़े वक्षःस्थलसे सुशोभित थे तथा सिंहरूपी सेवकोंसे युक्त थे ||३२|| इस प्रकार एक सौ वर्ष तक तप कर बलदेव मुनिराजने अन्तमें समाधि धारण की और उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोक में इन्द्रके पदको प्राप्त हुए ||३३|| वहाँ देव-देवियों के समूहसे युक्त, महल और उद्यानोंसे सुशोभित तथा रत्नोंके समान देदीप्यमान पद्म नामक विमान में कोमल उपपाद शय्यापर उस प्रकार देव उत्पन्न हुए जिस प्रकार
१. नारदस्य मोक्षप्राप्तिरन्यदिगम्बरग्रन्थाद्विरुद्धा वर्तते, तेषु तस्य नरकगामित्वदर्शनात् । ' कलहप्पिया कदाई घम्मरहा वासुदेवसमकाला । भव्वा णिरयगदि ते हिंसादोषेण गच्छंति' त्रिलोकसार गाथा ८३५ ।। ' रुट्टावर अरु पाणिहाणा हवामि सव्वें वे । कलहमहा जुज्झपिया अधोगया वासुदेवन्व' ।। १४७० त्रि. प्र. अथवा अत्र नारदपदेन वसुदेवस्य सोमश्रीस्त्री समुत्पन्नः पुत्रो ग्राह्यः नारदो मरुदेवोऽपि सोमश्रीतनयो वरौ । सर्ग ४८, श्लोक ५७ हरिवंशपुराणे । २ आसन्नभवसंख्यया म. ।
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पञ्चषष्टितमः सर्गः
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मृदूपपादशय्यायामुदपादि बलोऽमरः । महामणिरिवोदाररत्नाकरमहाक्षितौ ॥३५॥ भाषामनःशरीराक्षप्राणाहारप्रसिद्धिभिः । षड्मिः पर्याप्तिभिः सद्यः पर्याप्तोऽभूत्सुरोत्तमः ॥३६॥ शयने सवतोमरे वस्त्राभरणभूषितः । विबुधः सुखनिद्रान्ते यथात्र नवयौवनः ॥१७॥ विलोकमानमालोक्य शब्दैरमरयोषिताम् । सुराणामनुरक्तानामप्यसावभिनन्दितः ॥३८॥ चन्द्रादित्याधिकोदारप्रभावलय देहभृत् । इति दध्यौ धृतध्यानःप्रमदापूर्णमानसः ॥३९॥ कोऽयं रम्यतमो देशः कोऽयं प्रमुदितो जनः । कोऽहं क्वाद्य मवोऽयं मे धर्मः को वार्जितो मया ॥४०॥ बोधितः सुरमुख्यैः स सभवप्रत्ययावधिः । विवेद सहसा देवः पौर्वापर्यमशेषतः ॥४॥ ज्ञातपूर्वभवाशेषबन्धुबन्धुहितोद्यतः । प्राप्ताभिषेककल्याणः स्वीकृतात्मपरिच्छदः ॥४२॥ अवधिज्ञात कृष्णश्च गत्वासौ बालुकाप्रमाम् । दृष्ट्वानुजं निजं देवो दुःखितं दुःखितोऽभवत् ॥४३॥ महाप्रभावसंपने देवे तत्र तथास्थिते । शब्दगन्धरसस्पर्शाः शुभतामशुमा ययुः ॥४४॥ एथेहि कृष्ण योऽहं ते भ्राता ज्येष्ठो हलायुधः । ब्रह्मलोकाधिपो भूत्वा त्वत्समीपमिहागतः ॥४५॥ इत्युक्त्वा तं समुत्य स्वर्लोकं नेतुमुद्यते । देवे तस्य व्यलीयन्त गात्राणि नवनीतवत् ॥४६॥ ततः कृष्णो जगी देव भ्रातः किं व्यर्थचेष्टितैः । किन्न ज्ञातं यथा सर्वे जीवाः स्वकृतभोगिनः ॥४७॥ यथेन यादृशं कर्म संसारे समुपार्जितम् । तत्तेन तादृशं भ्रातर्नियमादनुभूयते ॥४॥
कि विशाल रत्नाकरकी महाभूमिमें महामणि उत्पन्न होता है ।। ३५ ॥ वह उत्तम देव वहाँ शीघ्र ही आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियोंसे पूर्ण हो गया ॥३६|| नवयौवतसे युक्त एवं वस्त्राभरणसे विभूषित वह देव, सर्वतोभद्र नामक शय्यापर ऐसा उठकर बैठ गया जैसा मानो सुखनिद्रा पूर्ण होनेपर ही उठा हो ॥ ३७॥ जब इस देवने चारों ओर देखा तब अनुरागसे युक्त देवांगनाओं और देवोंके शब्दोंने इसका अभिनन्दन किया ।। ३८ ॥ चन्द्रमा और सूर्यसे भी अधिक उत्कृष्ट प्रभावलयसे युक्त शरीरको धारण करनेवाला वह देव, हर्षसे पूर्ण हृदय होता हुआ इस प्रकारका ध्यान करने लगा कि यह अत्यन्त सुन्दर देश कौन है ? ये हर्षसे भरे जन कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? मेरा यहां कहां जन्म हुआ है ? और मैंने किस धर्मका संचय किया है ? ॥३९-४०॥
तदनन्तर मुख्य-मुख्य देवोंने उसे समझाया-सब वस्तुओंका परिचय दिया जिससे तथा भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे युक्त हो उसने शीघ्र ही आगे-पीछेका सब वत्तान्त जान लिया ॥४१॥ तदनन्तर जिसने पूर्वभवके सब बन्धुओंको जान लिया था, जो भाईका हित करनेमें उद्यत था, जिसे अभिषेकरूप कल्याण प्राप्त हुआ था, जिसने वस्त्राभूषणादि सब सामग्री प्राप्त की थी, और अवधिज्ञानसे जिसने कृष्णका समाचार जान लिया था ऐसा वह बालुकाप्रभा पृथिवीमें गया और अपने छोटे भाई कृष्णको दुःखी देख स्वयं बहुत दुःखी हुआ ॥४२-४३।। महाप्रभावसे सम्पन्न वह देव जब वहां जाकर खड़ा हो गया तब वहाँके अशुभ शब्द गन्ध रस और शब्द शुभरूपताको प्राप्त हो गये ॥४४॥
वह कहने लगा कि हे कृष्ण ! आओ, आओ, जो मैं तुम्हारा बड़ा भाई बलदेव था वही ब्रह्मलोकका अधिपति होकर यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ ॥४५।। यह कहकर वह देव ज्योंही कृष्णके जीवको उठाकर स्वर्गलोकमें ले जानेके लिए उद्यत हुआ त्योंही उसका शरीर मक्खनके समान गलकर विलीन हो गया ॥४६।।
तदनन्तर कृष्णने कहा कि हे देव ! हे भाई! व्यर्थकी चेष्टाओंसे क्या लाभ है ? क्या आप यह नहीं जानते कि सब जीव अपने कियेका फल भोगते हैं ॥४७॥ संसारमें जिसने जैसा कर्म उपा
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हरिवंशपुराणे
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शक्नुयुः सुखमाहर्तुं हतुं वा दुःखमङ्गिनाम् । देवा यदि ततो घ्नन्ति मृत्युदुःखं निजं न किम् ॥४९॥ भ्रातर्याहि ततः स्वर्गं भुङ्क्ष्व पुण्यफलं निजम् । आयुषोऽन्तेऽहमप्येमि मोक्षहेतुं मनुष्यताम् ॥५०॥ आव तत्र तपः कृत्वा जिनशासनसेवया । मोक्षसौख्यमवाप्स्यावः कृत्वा कर्मपरिक्षयम् ॥५१॥ "आवां पुत्रादिसंयुक्तौ महाविभवसंगतौ । भारते दर्शयान्येषां विस्मयव्याप्तचेतसाम् ॥५२॥ शङ्खचक्रगदापाणिर्मदीयप्रतिमागृहैः । भारतं व्यापय क्षेत्रं मत्कीर्तिपरिवृद्धये ॥ ५३ ॥ इत्यादि वचनं तस्य प्रतिपद्य सुरेश्वरः । सम्यक्त्वे शुद्धिमाख्याप्य भारतं क्षेत्रमागतः ॥५४॥ भ्रातृस्नेहवशो देवो यथोद्दिष्टं स विष्णुना । चक्रे दिव्यविमानस्थॆ चक्रिलाङ्गलदर्शनम् ॥५५॥ वासुदेवगृहैश्चक्रे नगरादिनिवेशितैः । विष्णुमोहमयं लोकं स्नेहार्दिकं वा न चेष्टयते ॥५६॥ ब्रह्मलोकं समासाद्य कृतजैनमहामहः । विन्दन् सुरसुखं सोऽस्थारसुरस्त्रीनिवहावृतः ॥५०॥
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स्रग्धरा
उच्चैर्देशस्थितोऽपि प्रतिमयपतनं याति पातालमूलं भुङ्क्ते नैवोपलब्धं विषयसुखरसं सारसंसारसारम् । स्नेहाधिक्यादधीतं स्मरति न तनुभृत्सेवते प्रत्यनीकं
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धिक् धिक् स्वर्मोक्षसौख्य प्रतिघमतिघनस्नेहमोहं जनानाम् ॥५८॥
किया है, भाई ! नियमसे उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है ||४८ || देव, यदि दूसरे प्राणियों के लिए सुख देने और दुःख हरनेमें समर्थ हैं तो फिर अपना ही मृत्युरूपी दुःख क्यों नहीं
नष्ट कर लेते हैं ॥ ४९ ॥
इसलिए भाई ! स्वर्गको जाओ और अपने पुण्यका फल भोगो । मैं भी आयुके अन्त में मोक्षका कारण जो मनुष्यपर्याय है उसे प्राप्त करूंगा ॥५०॥ हम दोनों उस मनुष्य पर्याय में तप करेंगे और जिनशासनकी सेवासे कर्मोंका क्षय कर मोक्ष प्राप्त करेंगे ॥ ५१ ॥ हाँ, एक काम आप अवश्य करें कि 'भरत क्षेत्रमें हम दोनोंको लोग पुत्र आदिसे सहित तथा महावैभवसे युक्त देखें और हम लोगों को देखकर दूसरोंके चित्त आश्चर्यसे व्याप्त हो जावें ||१२|| मेरी कीर्तिकी वृद्धि के लिए आप शंख, चक्र तथा गदा हाथ में लिये मेरी प्रतिमाओंके मन्दिरोंसे समस्त भरत क्षेत्रको व्याप्त कर दें' । बलदेवका जीव देवेन्द्र कृष्णके पूर्वोक्त वचन स्वीकार कर तथा उसे सम्यग्दर्शनमें शुद्धता रखनेका उपदेश दे भरत क्षेत्र आया || ५३-५४ || भाईके स्नेहके वशीभूत हुए उस देवने कृष्णका कहा सब काम किया। उसने दिव्य विमानमें स्थित कृष्ण और बलदेवका सबको दर्शन कराया || ५५ ॥ तथा नगर-ग्राम आदिमें बनवाये हुए कृष्णके मन्दिरोंसे संसारको कृष्णविषयक मोहसे तन्मय कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि स्नेहसे क्या-क्या चेष्टा नहीं होती है ? ॥५६॥
तदनन्तर देवने ब्रह्मस्वर्गं जाकर जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की और वहाँ वह स्त्रियों के समूहसे आवृत हो देवोंके सुखका उपभोग करता हुआ रहने लगा ||५७ || गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो स्नेहकी अधिकतासे यह जीव उच्च स्थान में स्थित होता हुआ भी भयपूर्ण पातालके मूलमें जाता है, श्रेष्ट संसारके सारभूत प्राप्त हुए विषयसुखका उपभोग नहीं करता है, पहले अध्ययन किये हुए शास्त्रका स्मरण नहीं रखता है और विपरीत काम करने लगता है इसलिए स्वर्ग और मोक्ष
१. सम्यग्दृष्टिद्धतीर्थंकरनाम प्रकृतिः कृष्णस्य जीवः, एवं मिथ्यात्वदर्धनं कार्यं कारयतीति विचित्रोऽयमुल्लेखः प्रतिभाति । २. दिव्यविमानस्थं चक्रि म., क., ङ. । ३. समारुह्य क. ।
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पञ्चषष्टितमः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम्
तीर्थे नेमिजिनस्य तत्र वहति व्यामोहविच्छेदने संजाते वरदत्तनामनि सुनौ कैवल्यचक्षुष्मति ।
राजासी हरिवंशसंततिधरो धीरो धरायाः सुतो
दधे राज्यधुरां धुरंधरधराधीशश्रियं धारयन् ॥ ५९ ॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो भगवन्निर्वाणवर्णनो नाम पञ्चषष्टितमः सर्गः ॥ ६५ ॥
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बाधक प्राणियों के अत्यधिक स्नेहसम्बन्धी मोहको धिक्कार हो ॥ ५८ ॥ तदनन्तर मोहको नष्ट करनेवाले नेमिजिनेन्द्रके उस प्रचलित तीर्थ में वरदत्त नामक मुनिको केवलज्ञान हुआ और हरिवंशको सन्ततिको धारण करनेवाला धीर-वीर जरत्कुमार धुरन्धर राजलक्ष्मीकी रक्षा करता हुआ राज्यका भार सँभालने लगा ||५९||
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में भगवान् नेमिनाथके निर्वाणका वर्णन करनेवाला पैंसठवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।। ६५॥
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षट्षष्टितमः सर्गः
वंशस्थवृत्तम्
प्रतापवश्या खिलराजके नृपे प्रशासति क्ष्मातलमुप्रशासने । जरत्कुमारे जनितादराः प्रजाः प्रकाममापुः प्रमदं धरातले ॥ १ ॥ कलिङ्गराजस्य नृपस्य देहजा जरत्कुमारस्य वधूर्वधूत्तमा । सुखेन लेभे जगतः सुखावहं वसुध्वजं राजकुलध्वजं सुतम् ॥ २ ॥ स तत्र यूनि व्यवसायिनि क्षितिं जरत्कुमारो हरिवंशशेखरे । निधाय यातस्तपसे वनं सतां कुलवतं तीव्रतपोनिषेवणम् ॥३॥ सुतोऽभवच्चन्द्र इव प्रजाप्रियो 'वसुध्वजाख्यात्सुवसुर्वसूपमः । स मीमवर्मास्य कलिङ्गपालकस्तदन्वयेऽतीयुरनेकशो नृपाः ॥ ४ ॥ कपिष्टनामान्वयभूषणस्त्वभूदजातशत्रुस्तनय स्ततोऽभवत् । स शत्रुसेनोऽस्य जितारिरङ्गजस्तदङ्गजोऽयं जितशत्रुरीश्वरः ॥ ५ ॥ भवान्न किं श्रेणिक वेत्ति भूपतिं नृपेन्द्रसिद्धार्थ कनीयसी पतिम् । इमं प्रसिद्धं जितशत्रुमाख्यया प्रतापवन्तं जितशत्रुमण्डलम् ॥ ६ ॥ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोत्सवे तदागतः कुण्डपुरं सुहृत्परः । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता नृपोऽयमाखण्डलतुल्यविक्रमः ॥७॥ यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमङ्गलम् । अनेक कन्यापरिवारयारुहत्समीक्षितुं तुङ्गमनोरथं तदा ॥ ८ ॥
तदनन्तर प्रतापके द्वारा समस्त राजाओंको वश करनेवाला, उग्रशासनका धारक राजा जरत्कुमार जब पृथिवीका शासन करने लगा तब उसके प्रति प्रजाने बहुत आदर किया और पृथिवीतलपर अधिक हषं प्राप्त किया ॥ १ ॥ कलिंग राजाकी पुत्री जरत्कुमारकी उत्तम पट्टरानी थी, उससे उसने जगत्को सुख देनेवाला एवं राजकुलकी ध्वजास्वरूप वसुध्वज नामका पुत्र प्राप्त किया || २ || व्यवसायी तथा हरिवंशके शिरोमणि उस युवापर पृथिवीका भार रख जरत्कुमार तपके लिए वनको चला गया सो ठीक ही है क्योंकि तीव्र तपका सेवन करना सत्पुरुषोंका कुलव्रत है || ३ || वसुध्वजके चन्द्रमाके समान प्रजाको आनन्द देनेवाला कुबेरतुल्य सुवसु नामका पुत्र हुआ । सुवसुके कलिंग देशकी रक्षा करनेवाला भीमवर्मा नामका पुत्र हुआ और उसके वंशमें अनेक राजा हुए ||४|| तदनन्तर उसी वंशका आभूषण कपिष्ट नामका राजा हुआ, उसके अजातशत्रु, अजातशत्रुके शत्रुसेन, शत्रुसेनके जितारि और जितारिके यह जितशत्रु नामका पुत्र हुआ है || ५ || हे राजन् श्रेणिक ! क्या तुम इस जितशत्रुको नहीं जानते ? जिसके साथ भगवान् महावीर के पिता राजा सिद्धार्थंकी छोटी बहनका विवाह हुआ है, जो अत्यन्त प्रतापी और शत्रुओंके समूहको जीतनेवाला है || ६ || जब भगवान् महावीरका जन्मोत्सव हो रहा था तब यह कुण्डपुर आया था और कुण्डपुरके राजा सिद्धार्थने इन्द्रके तुल्य पराक्रमको धारण करनेवाले इस परम मित्रका अच्छा सत्कार किया था ॥ ७ ॥ इसकी यशोदया रानीसे उत्पन्न यशोदा नामकी पवित्र पुत्री थी। अनेक कन्याओंसे सहित उस
१. वसुध्वजाच्चासुवसु म । २. यन्त्रितशत्रु - म. ।
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षट्षष्टितमः सर्गः
"स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयंभुवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षितिं क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥९॥ अमुष्य े जाताथ तपोबलान्मुनेरवाप्तकैवल्यफला मनुष्यता । मनुष्य भावो हि महाफलं भवे भवेदयं प्राप्तफलस्तपःफलात् ॥१०॥ इतीरितेयं हरिवंशसत्कथा समासतः श्रेणिक लोकविश्रुता । त्रिषष्टिसंख्यान पुराणपद्धतिप्रदेश संबन्धवती श्रियेऽस्तु ते ॥ ११ ॥ "सुगौतमात्पुण्यपुराणपद्धतिं सपार्थिवैः श्रेणिकपार्थिवस्तदा । दृष्टिराकर्ण्य सकर्णतां गतो गतः पुरं प्रीतमतिः कृतानतिः ॥१२॥ चतुर्णिकायामरखेचरादयो जिनं परीत्य प्रणिपत्य मक्तितः । यथायथं जग्मुरजन्मकाङ्क्षिणः प्रसिद्धसद्धर्मकथानुरागिणः ॥१३॥ विहृत्य पूज्योऽपि महीं महीयसां महामुनिर्मोचितकर्मबन्धनः । इयाय मोक्षं जितशत्रुकेवलो निरन्तसौख्यप्रतिबद्ध मक्षयम् ॥१४॥ जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य संततं समन्ततो भव्यसमूहसंततिम् । प्रपथ पावानगरी गरीयसीं मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥ १५ ॥ चतुर्थ कालेऽर्धचतुर्थ मास कैर्विहीनता विश्वतुरब्दशेषके । स कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥ १६ ॥
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यशोदाका भगवान् महावीर के साथ विवाह - मंगल देखनेकी यह उत्कट अभिलाषा रखता था । परन्तु स्वयम्भू भगवान् महावीर तपके लिए चले गये और केवलज्ञानरूपी विशाल नेत्र प्राप्त कर जगत्का कल्याण करनेके लिए पृथिवीपर विहार करने लगे, तब यह स्वयं भी पृथिवीको छोड़ तपमें लीन हो गया ॥ ८- ९|| आज मुनि जितशत्रुको तपके फलस्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और उससे उनका मनुष्यपर्याय सार्थक हुआ है सो ठीक ही है, क्योंकि संसारमें मनुष्यपर्याय महाफलस्वरूप तभी होता है जब वह तपके फलस्वरूप इस केवलज्ञानरूपी फलको प्राप्त कर लेता है ॥१०॥
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गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैंने यह लोकप्रसिद्ध तथा त्रेसठशलाका पुरुषों के पुराणपद्धति से सम्बन्ध रखनेवाली हरिवंशकी कथा संक्षेपसे कही है सो तुझे लक्ष्मोकी प्राप्ति के लिए हो ||११|| सम्यग्दर्शनसे सुशोभित राजा श्रेणिक अनेक राजाओंके साथ गौतम गणधरसे इस पवित्र पुराणका वर्णन सुन अपने कानोंको सफल मानने लगा तथा नमस्कारकर प्रसन्न होता हुआ अपने नगरको चला गया ||१२|| मोक्षकी इच्छा रखनेवाले एवं प्रसिद्ध समीचीन धर्मकथा के अनुरागी चारों निकायके देव और विद्याधर जिनेन्द्र भगवान्को प्रदक्षिणा देकर तथा प्रणाम कर अपने-अपने स्थानोंपर चले गये || १३|| बड़े-बड़े पुरुषोंके द्वारा पूज्य महामुनि जितशत्रु केवली भी पृथिवीपर विहार कर अन्तमें कर्मबन्धसे रहित हो अनन्त सुखसे युक्त अविनाशी मोक्षपदको प्राप्त हुए || १४ || भगवान् महावीर भी निरन्तर सब ओरके भव्यसमूहको संबोधकर पावानगरी पहुँचे और वहाँ के 'मनोहरोद्यान' नामक वनमें विराजमान हो गये ||१५|| जब चतुर्थकालमें तीन वर्षं साढ़े आठ मास बाकी रहे तब स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावास्याके दिन प्रातः कालके समय स्वभावसे ही योग निरोधकर घातियाकर्मरूप ईंधन के समान अघातियाकर्मीको भी
१. स्मितेऽथ म. । २. याताद्य क., ख., ङ. म. । ३. सुगीतमायुष्यपुराण म । ४. स्फीतमतिः म. महा प्रीतमतिः ख । ५. महीयसीं क. ।
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हरिवंशपुराणे अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय घातीन्धनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शंकरो निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ॥१७॥ स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुर्विधैः । शरीरपूजाविधिना विधानतः सुरैः समभ्ययंत सिद्धशासनः ॥१८॥ ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥१९॥ तथैव च श्रेणिकप प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथायथं प्रयाचमाना जिनबोधिसर्थिनः ॥२०॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात्प्रसिद्धदीपालिकयात्र मारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिमक्तिमाक् ॥२१॥ त्रयः क्रमाकेवलिनो जिनात्परे द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनोऽभवन् । ततः परे पञ्च समस्तपूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः ॥२२॥ ध्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक् दशैव गीता दशपूर्विणः शते । द्वये च विंशेऽङ्गभृतोऽपि पञ्च ते शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ॥२३॥ गुरुः सुभद्रो जयभद्रनामकः परो यशोबाहुरनन्तरस्ततः ।
महाहलोहार्यगुरुश्च ये दधुः प्रसिद्धमाचारमहाङ्गमत्र ते ॥२४॥ नष्ट कर बन्धनरहित हो संसारके प्राणियोंको सुख उपजाते हुए निरन्तराय तथा विशाल सुखसे सहित निबंन्ध-मोक्ष स्थानको प्राप्त हए ॥१६-१७|| गर्भादि पांचों कल्याणकोंके महान अधिपति, सिद्धशासन भगवान महावीरके निर्वाण महोत्सवके समय चारों निकायके देवोंने विधिपूर्वक उनके शरीरकी पूजा की ॥१८॥ उस समय सुर और असुरोंके द्वारा जलायी हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकोंकी पंक्तिसे पावानगरीका आकाश सब ओरसे जगमगा उठा ||१९|| श्रेणिक आदि राजाओंने भी प्रजाके साथ मिलकर भगवान्के निर्वाण कल्याणककी पूजा की। तदनन्तर बड़ी उत्सुकताके साथ जिनेन्द्र भगवान के रत्नत्रयकी याचना करते हुए इन्द्र देवों के साथ-साथ यथास्थान चले गये ।।२०।। उस समयसे लेकर भगवान्के निर्वाणकल्याणकी भक्तिसे युक्त संसारके प्राणी इस भरतक्षेत्रमें प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिकाके द्वारा भगवान् महावीरकी पूजा करनेके लिए उद्यत रहने लगे । भावार्थ-उन्हींको स्मृतिमें दीपावलीका उत्सव मनाने लगे ॥२१॥
__ भगवान् महावीरके निर्वाणके बाद बासठ वर्षमें क्रमसे गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए । उनके बाद सौ वर्ष में समस्त पूर्वोको जाननेवाले पांच श्रु तकेवली हुए ॥२२।। तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्ष में ग्यारह मुनि दश पूर्वके धारक हुए। उनके बाद दो सौ बीस वर्ष में पांच मुनि ग्यारह अंगके धारी हुए। तदनन्तर एक सौ अठारह वर्षमें सुभद्रगुरु, जयभद्र, यशोबाहु और महापूज्य लोहायंगुरु ये चार मुनि प्रसिद्ध आचारांगके धारी हुए ॥२३-२४॥
.। २. एकाधिका दश एकादशेत्यर्थः । ३. जयभद्रनामा-म., ख., ङ., म. । * १. नन्दी, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोवर्द्धन और ५. भद्रबाहु । +१. विशाख, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ९. बुद्धिल, १०. गङ्गदेव बोर ११. सुधर्म । ६१. नक्षत्र, २. जयपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्र वसेन और ५. कंसार्य ।
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षट्षष्टितमः सर्गः
महातपोभृद्विनेयंवरः श्रुतामृषिश्रुतिं गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्तसंज्ञको गुणैः स्वमर्हद्बलिरप्यधात्पदम् ॥२५॥ समन्दरार्योऽपि च मित्रवीरवि गुरू तथान्यौ बलदेवमित्रकौ । विवर्धमानाय त्रिरत्नसंयुतः श्रियान्वितः सिंहबलश्च वीरवित् ॥२६॥ स पद्मसेनो गुणपद्मखण्डभृद् गुणाग्रणीर्व्याघ्रपदादिहस्तकः । स नागहस्ती जिवदण्डनामभृत्सनन्दिषेणः प्रभुदीप सेनकः ॥२७॥ तपोधनः श्रीधरसेननामकः सुधर्मसेनोऽपि च सिंहसेनकः । सुनन्दिषेणेश्वरसेन को प्रभू सुनन्दिषेणा मयसेननामकौ ॥ २८ ॥ स सिद्धसेनोऽमय भीमसेनको गुरु परौ तौ जिनशान्तिषेणकौ । अखण्डषेट्खण्डमखण्डितस्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्त योऽर्थतः ॥२९॥ दधार कर्मप्रकृतिं श्रुतिं च यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्धवैय्याकरणप्रभाववानशेषराद्धान्त समुद्रपारगः ॥ ३० ॥ तदीयशिष्योऽमित सेन सद्गुरुः पवित्रपुन्नाटगणाग्रणीगणी | जिनेन्द्र सच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधिजांविना ॥३१॥ सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता । 'यदग्रजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीर्धर्म इवात्तविग्रहः ॥ ३२ ॥ तपोमय कीर्तिमशेषदिक्षु यः क्षिपन् बभौ कीर्तितकीर्तिषेणकः ।
के बाद महातपस्वी विनयंधर, गुप्तश्रुति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त, अर्हदबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, बढ़ते हुए पुण्यसे सहित रत्नत्रयके धारक एवं ज्ञानलक्ष्मी से युक्त सिंहबल, वीरवित्, गुणरूपी कमलोंके समूहको धारण करनेवाले पद्मसेन, गुणोंसे श्रेष्ठ व्याघ्रहस्त, नागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, स्वामी दीपसेन, तपोधन श्रीधरसेन, सुधमंसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्यं हुए । तदनन्तर जो अखण्ड मर्यादाके धारक होकर परिपूर्ण षट्खण्डों ( १ जीवस्थान, २ क्षुद्रबन्ध, ३ बन्धस्वामी, ४ वेदनाखण्ड, ५ वगंणाखण्ड ओर ६ महाबन्ध ) से युक्त समस्त सिद्धान्तको अर्थरूपसे धारण करते थे अर्थात् षट्खण्डागमके ज्ञाता थे, कर्मप्रकृतिरूप श्रुतिके धारक थे और इन्द्रियोंकी वृत्तिको जीतनेवाले थे ऐसे जयसेन नामक गुरु हुए । उनके शिष्य अमितसेन गुरु हुए जो प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली और समस्त सिद्धान्तरूपी सागरके पारगामी थे। ये पवित्र पुन्नाट गणके अग्रणी - अग्रेसर आचार्य थे। जिनेन्द्र शासनके स्नेही, परमतपस्वी, सौ वर्षकी आयुके धारक एवं दाताओं में मुख्य इन अमितसेन आचार्यंने शास्त्रदानके द्वारा पृथिवीमें अपनी वदान्यता - दानशीलता प्रकट की थी । इन्हीं अमितसेनके अग्रज धर्मबन्धु कीर्तिषेण नामक मुनि थे जो बहुत ही शान्त थे, पूर्ण बुद्धिमान थे, शरीरधारी धर्मके समान जान पड़ते थे, और जो अपनी तपोमयी कीर्तिको समस्त दिशाओं में प्रसारित कर रहे थे । उनका प्रथम शिष्य मैं जिनसेन हुआ । मोक्षके उत्कृष्ट सुखका उपभोग करनेवाले अरिष्टनेमि जिनेन्द्रकी भक्ति से युक्त मुझ जिनसेन सूरिने अपने सामर्थ्यंके अनुसार अल्पबुद्धिसे इस हरिवंशपुराणकी रचना की
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१. विनयंघरश्रुतां म, विनयंधरश्रुतीं ख । २. मित्रवीरवि क, ख, ग, ङ. । ३. षट्खण्डमण्डित स्थितिः म. । ४. तदग्रतो म. ।
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हरिवंशपुराणे सदप्रशिध्येण शिवाग्रसौख्यभागरिष्टनेमीश्वरभक्तिमाविना । स्वशक्तिमाजा जिनसेनसुरिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः ॥२३॥ यदत्र किंचिद्रचितं प्रमादतः परस्परस्याहतिदोषदूषितम् । तदप्रमादास्तु पुराणकोविदाः सृजन्तु जन्तुस्थितिशक्तिवेदिनः ॥३४॥ प्रशस्तवंशो हरिवंशपर्वतः क्व मे मतिः क्वाल्पतराल्पशक्तिका । अनेन पुण्यप्रभवस्तु केवलं जिनेन्द्रवंशस्तवनेन वाञ्छितः ॥३५॥ न काव्यबन्धव्यसनानुबन्धतो न कीर्तिसंतानमहामनीषया । न काव्यवर्गेण न चान्यवीक्षया जिनस्य भक्त्यैव कृता कृतिर्यथा ॥३६॥ जिनाश्चतुर्विंशतिरत्र कीर्तिताः सुकीर्तयो द्वादश चक्रवर्तिनः । नवविधा सीरिहरिप्रतिद्विषस्त्रिषष्टिरित्थं पुरुषाः पुराणगाः ॥३७॥ अवान्तरेऽनेकशतानि पार्थिवा महीचरा व्योमचराश्च भूरिशः। क्षिती चतुर्वर्गफलोपभोगिनः पुराणमुख्येऽन्न यशस्विनः स्तुताः ॥३८॥ अगण्यपुण्यं हरिवंशकीर्तनाद्यदत्र गण्यं गुणसजितं मया । फलादमुष्मान्नु मनुष्यलोकजा भवन्तु भव्या जिनशासनस्थिताः ॥३९॥ जिनस्य नेमेश्चरितं चराचरप्रसिद्ध जीवादिपदार्थमासनम् । प्रवाच्यता वाचकमुख्यसज्जनः समागतः श्रोत्रपुटैः प्रपोयताम् ॥४०॥ जिनेन्द्रनामग्रहणं मवत्यलं ग्रहादिपीडापगमस्य कारणम् । प्रवाच्यमानं दुरितस्य दारणं सां समस्तं चरितं किमुच्यते ॥४॥
है ॥२५-३३।। इस ग्रन्थमें मेरे द्वारा यदि कहीं प्रमादवश पूर्वापर विरोधसे युक्त रचना की गयी हो तो जीवोंकी स्थिति और सामर्थ्यके जाननेवाले पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् प्रमादरहित हो उसे ठीक कर लें ॥३४।। कहाँ तो यह उत्तग वंशों-कुलों ( पक्षमें बांसों ) से युक्त यह हरिवंशरूपी पर्वत और कहाँ मेरी अत्यन्त अल्पशक्तिकी धारक क्षुद्रबुद्धि ? मैंने तो सिर्फ जिनेन्द्र भगवानके वंशकी इस स्तुतिसे पुण्योत्पत्तिकी इच्छा की है ॥३५॥ मैंने इस ग्रन्थको रचना
व्यसनजन्य संस्कारसे की है, न कीर्तिसमूहकी बलवती इच्छासे की है, न काव्यके अभिमानसे की है, और न दूसरेकी देखा-देखीसे की है। किन्तु यह रचना मैंने मात्र जिनेन्द्र भगवानको भक्तिसे की है ॥३६॥ इस ग्रन्थमें चौबीस तीर्थंकर, उत्तम कीतिके धारक बारह चक्रवर्ती, नो बलभद्र , नौ नारायण और नौ प्रतिनाराय ग इन पुराणगामी त्रेशठ शलाका पुरुषोंका वर्णन किया गया है ।।३७।। इनके सिवाय इस श्रेष्ठ पुराणमें बीच-बीचमें पृथिवीपर चतुर्वर्गके फलको भोगनेवाले सैकड़ों भूमिगोचरो और अनेकों यशस्वी विद्याधरराजाओंका वर्णन किया गया है ॥३८।।
हरिवंशका कथन करनेसे जो असंख्य पुण्यका संचय हुआ है उसके फलस्वरूप में यही चाहता हूँ कि मनुष्यलोकमें उत्पन्न हुए भव्यजीव जिनशासनमें स्थित हों ।। ३९ ।। तथा त्रसस्थावरके भेदसे प्रसिद्ध जीव आदि पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाले नेमिजिनेन्द्रके इस चरितको बाँचनेवाले मुख्य सज्जन बांचे और सभामें आये हुए श्रोताजन अपने कर्णरूप पात्रोंसे इसका पान करें ॥४०॥ क्योंकि जिनेन्द्र भगवान्का मात्र नाम ग्रहण ही ग्रह-पिशाच आदिकी पीड़ाको दूर करनेका कारण है फिर सत्पुरुषोंके पापको दूर करनेवाला पूरा चरित
१. षटपदवृत्तम् । २. व्याहृति क. म., ख. । ३. नवान्यदीय॑या ख.। ४. हरिवंशकीर्तिता म., ख., ङ. ।
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षट्षष्टितमः सर्गः कुर्वन्तु व्याख्यानमनन्यचेतसः परोपकाराय स्वमुक्तिहेतवे। सुमङ्गलं मङ्गलकारिणामिदं निमित्तमप्युत्तममर्थिनां सताम् ॥४२॥ महोपसमें शरणं सुशान्तिकृत् सुशाकुन शास्त्रमिदं जिनाश्रयम् । प्रशासनाः शासनदेवताश्च या 'जिनाँश्चतुर्विंशतिमाश्रिताः सदा ॥४॥ हिताः सतामप्रतिचक्रयान्विताः प्रयाचिताः सन्निहिता भवन्तु ताः। गृहीतचक्राप्रतिचक्रदेवता तथोर्जयन्तालयसिंहवाहिनी। शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते क तत्र विघ्नाः प्रभवन्ति शासने ॥४४॥ ग्रहोरगा भूतपिशाचराक्षसा हितप्रवृत्ती जनविघ्नकारिणः । जिनेशिनां शासनदेवतागण प्रभावशक्त्याथ शमं श्रयन्ति ते ॥४५॥ प्रकाममाकाक्षितकामसिद्धयः प्रसिद्धधर्मार्थविमोक्षलब्धयः । भवन्ति तेषां स्फुटमल्पयत्नतः पठन्ति भक्त्या हरिवंशमन ये ॥४६॥ निवार्य मात्सर्यमवार्यवीर्यया धिया सुधैर्योर्जितया जिनादराः । अनार्यवर्याः सहिताः सपर्यया पुराणमार्याः प्रथयन्तु विष्टपे ॥४७॥ किं मेऽथवा प्रार्थनया यतस्ततः स्वभावतो विश्वभरक्षमाविदः । पयोधरोन्मुक्तमिवाम्बु भूधरा विधाय मूनि प्रथयन्तु भूतले ॥४८॥
यदि बांचा जायेगा तो उसके फलका तो कहना ही क्या है ? ।।४१॥ विद्वज्जन एकाग्रचित्त होकर दूसरोंके उपकारके लिए और अपने-आपकी मुक्ति के लिए इस ग्रन्थका व्याख्यान करें। यह ग्रन्थ मंगल करनेवालोंके लिए उत्तम मंगलरूप है तथा मंगलकी इच्छा रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिए मंगलका उत्तम निमित्त भी है ।।४२।। जिनेन्द्र भगवान्का वर्णन करनेवाला यह शान महान् उपसर्गके आनेपर रक्षा करनेवाला है, उत्तम शान्तिका दाता है और उत्तम शकुन रूप है, अप्रतिचक्रदेवतासे सहित, सज्जनोंके हितैषी जो शासनदेव और शासनदेवियां सदा चौबीस तीर्थंकरोंकी सेवा करती हैं उनसे भी मैं याचना करता हूँ कि वे सदा जिनशासनके निकट रहें। चक्ररत्नको धारण करनेवाली अप्रतिचक्रदेवता तथा गिरिनार पर्वतपर निवास करनेवाली सिंहवाहिनीअम्बिकादेवी, जिस जिनशासनमें सदा कल्याणके लिए सन्निहित-निकट रहती हैं उस जिनशासनपर विघ्न अपना प्रभाव कहां जमा सकते हैं ? ||४३-४४॥ हितके कार्यमें मनुष्योंको विघ्न उत्पन्न करनेवाले जो ग्रह, नाग, भूत, पिशाच और राक्षस आदि हैं वे जिनशासनके भक्त देवोंकी प्रभाव शक्तिसे शान्तिको प्राप्त हो जाते हैं। भावार्थ-जिनशासनके भक्त देव स्वयं कल्याण करते हैं तथा अन्य उपद्रवी देवोंको भी शान्त बना देते हैं ॥४५॥ जो भव्य जीव यहाँ भक्तिपूर्वक हरिवंशपुराणको पढ़ते हैं उन्हें थोड़े ही प्रयत्नसे मनोवांछित सिद्धियाँ तथा प्रसिद्ध धर्म, अर्थ और मोक्षकी लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं ॥४६|| जिनसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ आर्य नहीं तथा जो मानप्रतिष्ठासे रहित हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान्के भक्त आर्यपुरुष, मात्सर्यको दूर कर अवार्य वीर्यसे युक्त एवं उत्तम धैर्यसे बलिष्ठ बुद्धिके द्वारा इस पुराणको संसारमें प्रसिद्ध करें--इसके अर्थका विस्तार करें ॥४७॥
___अथवा मुझे प्रार्थना करनेसे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि संसारका भार धारण करने में समर्थ पर्वत, जिस प्रकार स्वभावसे ही मेघोंके द्वारा छोड़े हुए जलको अपने मस्तकपर
१. जिनाश्चतुर्विशति म.। २. षट्पदवृत्तम् । ३. जिनविघ्न-ख.। ४. गणाः म.। ५. समं म.। ६. प्रथम तु म.। ७. प्रथमं तु म.।
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हरिवंशपुराणे सुपृष्टमुत्सृष्टमुदात्तशब्दकैनवं पुराणं च पुराणवारि सत् । महाभ्रकूलैर्जनतासरित्कुलैश्चतुःसमुद्रान्तमिदं प्रतन्यते ॥४९॥ जयन्ति देवाः सुरसंघसेविताः प्रजातिशान्तिप्रदशान्तशासनाः । विशुद्धकैवल्यविनिद्रदृष्टयो सुदृष्टतत्त्वा भुवने जिनेश्वराः ॥५०॥ जयत्वजय्या जिनधर्मसंततिः प्रजास्विह क्षेमसुमिक्षमस्त्विह । सुखाय भूयात्प्रतिवर्षवर्षणैः सुजातसस्या वसुधासुधारिणाम् ॥५१॥
शार्दूलविक्रीडितम् शाकेष्वब्दशतेषु सप्तसु दिशं पञ्चोत्तरेषूत्तरां
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वा श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वस्सादिराजेऽपरां
सूर्याणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ॥५२।। कल्याणः परिवर्धमानविपुल श्रीवर्धमाने पुरे
__ श्रीपालियनन्नराजवसतो पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चादोस्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यार्चनावर्चने
शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥५॥
धारण कर पृथिवीपर फैला देते हैं उसी प्रकार संसारका भार धारण करनेमें समर्थ विज्ञपुरुष स्वभावसे ही इस पूराणको पथिवीतलपर फैला देंगे ||४८|| जो उत्तम शब्दोंसे युक्त (पक्षमें उत्तम गर्जना करनेवाले ) महाविद्वानरूपी मेघोंसे रचित है, जिसके विषयमें खूब प्रश्नोत्तर हुए हैं तथा जो नूतन होकर भी पुराणरूप है ऐसा यह पुराणरूपी जल जनसमूहरूपी नदियोंके समूहसे चारों समुद्रों पर्यन्त विस्तृत किया जाता है। भावार्थ-जिस प्रकार मेघोंसे बरसाये हुए पानीको नदियां समुद्र तक फैला देती हैं उसी प्रकार विद्वानों द्वारा रचित पुराणको जनता परस्परकी चर्चा-वार्तासे दूर-दूर तक फैला देती है ॥४९॥
___ जो देवोंके समूहसे सेवित हैं, जिनका शान्त शासन प्रजाके लिए अत्यन्त शान्ति प्रदान करनेवाला है, जिनको केवलज्ञानरूपी दृष्टि सदा विकसित रहती है और जिन्होंने समस्त तत्त्वोंको अच्छी तरह देख लिया है ऐसे जिनेन्द्र भगवान् सदा जयवन्त रहें ॥५०॥ वादियोंसे सर्वथा अजेय जिनधर्मकी परम्परा सदा जयवन्त रहे, प्रजाओंमें क्षेम और सुभिक्षको वृद्धि हो तथा प्रतिवर्ष अनुकूल वर्षाके कारण उत्तम धान्यसे सुशोभित यह पृथिवी प्राणियोंके सुखके लिए हो ॥ ५१ ॥
___सात-सौ पांच शक संवत्में, जब कि उत्तर दिशाका इन्द्रायुध, दक्षिणका कृष्णराजका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व दिशाका श्रीमान् अवन्तिराज और पश्चिमका सौर्योंके अधिमण्डल-सौराष्ट्रका वीर जयवराह पालन करता था तब कल्याणोंसे निरन्तर बढ़नेवाली लक्ष्मीसे युक्त श्री 'वर्धमानपुर' में नन्नराजा द्वारा निर्मापित श्रीपार्श्वनाथके मन्दिर में पहले इस हरिवंशपुराणकी रचना प्रारम्भ की गयी थी परन्तु वहाँ इसकी रचना पूर्ण नहीं हो सकी। पर्याप्त भाग शेष बच रहा तब पीछे 'दोस्तटिका' नगरीकी प्रजाके द्वारा रचित उत्कृष्ट अर्चना और पूजा-स्तुतिसे युक्त वहां
१. जनिता सरित्कुलै म., ख., ङ. । २. 'ख' पुस्तके ५१-५२ श्लोकयोः क्रमभेदो वर्तते । ३. असुधारिणां प्राणिनाम् इत्यर्थः।
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षट्षष्टितमः सर्गः व्युत्सृष्टापरसंघसंततिबृहत्पुन्नाटसंघान्वये
व्याप्तः श्रीजिनसेनसूरिकविना लामाय' बोधेः पुनः । दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितश्रीपर्वतः सर्वतो
ग्याप्ताशामुखमण्डलः स्थिरतरः स्थयात् पृथिव्यां चिरम् ॥५४॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती गुरुपादकमलवर्णनो नाम
षट्षष्टितमः सर्गः ॥६६॥
इति श्रीहरिवंशपुराणं संपूर्णम् ।
के शान्तिनाथ भगवान्के शान्तिपूर्ण मन्दिरमें इसकी रचना पूर्ण हुई ॥५२-५३॥ अन्य संघोंकी सन्ततिको पीछे छोड़ देनेवाले अत्यन्त विशाल पुन्नाट संघके वंशमें उत्पन्न हुए श्रीजिनसेन कविने रत्नत्रयके लोभके लिए जिस हरिवंशपुराणरूपी श्रीपर्वतको प्राप्त कर उसका अच्छी तरह अवलोकन किया था, सब ओरसे दिशाओंके मुखमण्डलको व्याप्त करनेवाला वह सुदृढ़ श्रीपर्वत पृथिवीमें चिरकाल तक स्थिर रहे ॥५४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराणमें गुरुओंके
चरण-कमलोंका वर्णन करनेवाला छयासठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१६॥
गल्लीलालतनूजेन जानक्युदरसंभुवा । दयाचन्द्रस्य शिष्येण पन्नालालेन सूरिणा ॥१॥ फाल्गुनामिधमासस्य शिशिरर्तुविशोमिनः । शुक्लपक्षतृतीयायां तारापतिसुवासरे ॥२॥ निशायाः प्रथमे यामे नक्षत्रनिचयाचिते । रसकर्मयुगव्याख्ये, (२४८६) वीरनिर्वाणवत्सरे ॥३॥ हरिवंशपुराणस्य जिनसेनकृतेरियम् । टीका समापिता, भूयाद् विद्वजनमनोमुदे ॥४॥ नानाशास्वरहस्यज्ञान् विबुधान प्रार्थयाम्यहम् । क्षमध्वं स्खलनं यूयं यदत्र विहितं मया ॥५॥
१. बोधे म., क.। २. श्रीपार्वतः ङ. ।
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परिशिष्टानि
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हरिवंशस्थ-सूक्तयः
स. श्लो.
स. श्लो. 'निर्गुणापि गुणान् सद्भिः कर्णपूरीकृताकृतिः। 'का वा कठिनचित्तस्य जिनशासनभक्तता॥ १८॥१४९ बिभत्र्येव वधूवक्त्रश्चूतस्येवाग्रमञ्जरी ॥' १४२ 'पुनर्बोधिपरिप्राप्तिर्दुलभा भवसंकटे ॥ १८॥१५० 'साधुरस्यति काव्यस्य दोषवत्ता मयाचितः ।। 'यन्नोपयुज्यते यस्य धनं वा वपुरेव वा। पावकः शोधयत्येव कलधौतस्य कालिकाम् ॥' १२४३ स्वशासनजने तेन तस्य किं बन्धुहेतुना ॥' १८।१४६ 'दुर्वचो विषदुष्टान्तर्मुखस्फुरितजिह्वकान् ।
'का स्त्री का वा स्वसा भ्राता को वै कार्यानिगृह्णन्ति खलव्यालान सन्नरेन्द्राः स्वशक्तिभिः ॥ १।४६ भिलाषिणः । 'रजो बहुलमारूक्षं खलं कालं विदाहिनम् ।
वैरिणो ननु हन्तारो हन्तव्यं नात्र दुर्यशः।।' १९।१०६ सन्तः काले कलध्वानाः शमयन्ति यथा घनाः ॥ १२४७ निर्वाप्यते ज्वलनग्निर्जलेन सुमहानपि । 'आलोके जिनभानुना विरचिते ध्वान्तस्य वा
उत्तिष्ठेद् यद्यशो तस्मात्तस्य शान्तिः क्व स्थितिः ? ।' ४।३८४ कुतोऽन्यतः ॥'
२०१३४ 'मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥
९।१२९ 'साधोः शीतलशीलस्य तापनं न हि शान्तये । 'किं न स्याद् गुरुसेवया ॥'
९।१३१ गाढतप्तो दहत्येव तोयात्मा विकृति गतः ॥' २०१३७ 'विद्या लाभो गुरोर्वशात् ।'
९।१३० 'तदेवोपकृतं पुंसां यत् सद्भावदर्शनम् ॥ २१॥३२ 'सर्वतोऽपि सुदुःप्रेक्ष्यां नरेन्द्राणामपि स्वयम् । 'दृष्टश्रुतानुभूतं हि नवं धृतिकरं नृणाम् ॥' २१।३७ दृष्टिं दृष्टिविषस्येव धिक्-धिक् लक्ष्मी
'शास्त्रव्यसनमन्येषां व्यसनानां हि बाधकम्' २१।३९ भयावहाम् ॥'
११९४ 'अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्थस्य पदस्य वा। 'सति बन्धुविरोधे हि न सुखं न धनं नृणाम् ॥' १११९६ दातारं विस्मरन् पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम् ॥' २१११५६ 'अपवादो हि सोत रक्तेन न मनोव्यथा ॥' १४।३९ 'पापकूपे निमग्नेभ्यो धर्महस्तावलम्बनम् । 'तमःपतनकाले हि प्रभवत्यपि भास्वतः ॥ १४॥४० ददता कःसमो लोके संसारोत्तारिणा नृणाम्॥२१११५५ 'पापोपशमनोपायाः सन्त्येव सति जीविते ॥ १४॥६५ 'स्त्रीणां प्रणयकोपस्य प्रणामो हि निवर्तकः ।।' २२१४६ 'अत्यभ्यर्णविपत्तीनां मन्त्रिणो हि निवर्तकाः॥ १४॥६६ 'कुतो लुब्धस्य सत्यता॥'
२७.३५ 'षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रो रक्षणीयः स यत्नतः ॥१४॥८३ 'न मुह्यति प्राप्तकृती कृती हि ।।' ३५।६२ 'तप्तं तप्तेन योज्यते ॥'
१४।९१ ___ 'न राज्यलाभोऽभिमतोऽनंपत्यः ॥' ३५।५८ 'रहसि दुर्लभमाप्य मनीषितं, न हि विमुञ्चति 'स्फुटवदनविकाराल्लक्षितं चित्तदुःखम् ॥ ३६॥२० ___लब्धरसो जनः ॥'
१५।४ 'क्व पात्रभेदोऽस्ति धनप्रवर्षिणाम् ॥' ३७१३ 'न सुलभं सुमुखे किमु भर्तरि ॥' १५।५ 'बहुरत्ना वसुन्धरा॥'
४२।३१ 'परिचितः प्रणयः खलु दुस्त्यजः ॥ १५॥४३ 'अहो प्रमदहेतवोऽपि सुखयन्ति नो 'कामग्रहगृहीतस्य का मर्यादा क्रमोऽपि कः ॥' १७।१५ दुःखितान् ॥'
४२११०२ 'तावद्भार्यादयो यावन्मर्यादा संस्थितः प्रभुः ॥' १७।१६ 'दैवमेव परं लोके धिक् पौरुषमकारणम् ॥' ४३।६८ 'पातकात्पतनं ध्रुवम् ॥'
१७।१५१ 'सद्भूतस्यापि दोषस्य परकीयस्य भाषणम् ।
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८१६
हरिवंशपुराणे पापहेतुरमोघः स्यादसद्भूतस्य किं पुनः॥' ४५।१५३ दहत्यात्मानमेवादी कषायवशगस्तथा ॥' ६१११०३ 'वक्ता श्रोता च पापस्य यन्नात्र फलमश्नुते ।
'धिक क्रोधं स्वपरापकारकरणं संसारतदमोघममुत्रास्य वृद्धयर्थमिति बुद्धयताम् ॥' ४५।१५६ संवर्धनम् ॥'
६१११०८ 'त्यजत वाचमसत्यमलोद्धतां
'निरस्यति पयस्तृष्णां स्तोकां वेलामिदं पुनः । भजत सत्यवचो निरवद्यताम् ।
जिनस्मरणपानीयं पीतं तां मूलतोऽस्यति ॥' ६२।२४ निजयशो विशदां सगुणोद्यतां
'दुर्लध्या भवितव्यता ॥'
६२१४४ विजयिनीं त्विह विश्वविदोदिताम् ॥' ४५।१५८ करोति सज्जनो यत्नं दुर्यशः पापभीरुकः । 'पुण्यस्य किमु दुष्करम् ॥
४६।१६ दैवे तु कुटिले तस्य स यत्नं किं करिष्यति ॥' ६२।६४ 'अदेशकालं न हि नर्म शोभते ॥'
५४।६ 'सुखं वा यदि वा दुःखं दत्ते कः कस्य संस्तृतौ । 'क्लिशितधीहि जिनेष्वपि शङ्कते ॥' ५५।१४ मित्रं वा यदि वामित्रं स्वकृतं कर्म तत्त्वतः ॥' ६२१५१ 'भ्रमति हि स्वपतां भुवनं मनः
५५।२३ 'सुप्तमात्रमपशस्त्रमानतं । 'जनानां हि समस्तानांजीवानां नियता मृतिः।। ६१२२० । मुक्तमानमसकृत् पलायितम् । क्षमा मूलस्तपो भारो वक्ष्यते क्रोधवह्निना ॥' ६११६२ प्रत्यवाययुतमङ्गनां शिशु मोक्षसाधनमप्येष तपो दूषयति क्षणात् ।
घ्नन्ति शत्रुमपि नो यशोधनाः ॥' ६२।१८ चतुर्वरिपुः क्रोधः क्रोधः स्वपरनाशकः ॥' ६६।६३ को न वा पतति वारुणी प्रियः'
६३०२० 'दुर्वारा हि भवितव्यता ॥
६११७७ 'कोऽत्र कस्य बहिरङ्गहिंसकः 'अगाढे वाप्यनागाढे मरणे समुपस्थिते ।
स्वान्तरङ्गशुभकर्म रक्षकम् । न मुह्यन्ति जना जातु जिनशासनभाविताः ॥ ६१०९६
आयुकर्म (रेव) निजत्राणकारणं 'परस्यापकृतिं कुर्वन् कुर्यादेकत्र जन्मनि ।
तत्क्षये भवति सर्वथा क्षयः ॥'
६३१३९ पापी परवधं स्वस्य जन्तुर्जन्मनि जन्मनि ॥' ६१।१०१ 'संपदत्र करिकर्णचञ्चला 'कषायवशगः प्राणी हन्ता स्वस्य भवे भवे ।
संगताः प्रियवियोग-दुःखदाः । संसारवर्धनोऽन्येषां भवेद्वा वधको न वा ॥' ६१३१०२ जीवितं मरणदुःखनीरसं 'परं हन्मीति संध्यातं लोहपिण्डमुपाददत् ।
मोसमक्षयमतोऽर्जयेद् बुधः ॥'
६३३७०
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हरिवंशपुराणस्थ श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
स. इलो. [ अ] अंशवच्च ग्रहा ज्ञेया १९।२१५ अंशास्तु षड्जकैशिक्या १९।२२६ अकठिनकम्बुकण्ठ- ४९।९ अकम्पनो महासेनो ४८५७० अकथयत्प्रणतः स कृता- ५५।८७ अकस्माच्च तयोर्जाते ४६।११ अकस्माद्गच्छता क्वापि ४७।९० अकालयात्रया लोकः २०१७ अक्रमस्य तदा हेतु २१११२८ अक्रूरः कुमुदो वीरः ५०।११५ अक्रूरो वारिषेणो यो २।१३९ अक्रूरस्य कुमारस्य ५२।१३ अक्लेशेनकरात्रेण ४८०२४ अक्षरस्यापि चैकस्य २१११५६ अक्षरालेख्यगन्धर्व- ९।२४ अक्षरालेख्यः गन्धर्व- ८।४३ अक्षान्तिस्तत्र नो युक्ता ३११५४ अक्षुण्णः क्षुद्रसामन्तै- ४३।१६२ अक्षोभ्यपूर्बकाश्चाष्टौ ५०1८१ अक्षोभ्यस्योद्धवः सूनु- ४८।४५ अक्षौहिणीप्रमाणं तु ५०७५ अक्षोहिणीप्रमाणं च १११०५ अक्षौहिणीपतिस्तत्र ५०।६९ अक्षौहिण्यो बहुगुणा ५०७४ अक्ष्णोनिमीलनं यावन् ४।३६७ अखण्डमधुगण्डूष- १४१५ अखण्डमण्डलश्चन्द्रो ८।२८ अखण्डितगतिः प्राप्त: ५४।४ अखण्डितव्रताः काय- ६४।६०
१०३
स. इलो. अगण्यपुण्यं हरिवंश- ६६।३९ अगाढे वाप्यनागाढे ६११९६ अगुरुत्वलघुत्वात्म- ७।९ अग्निज्वालं महाज्वालं २२।९० अग्निपातं महावातं १८१३१ अग्निभूत्याग्निलोद्भूतास् ६४।६ अग्निला ब्राह्मणी तस्य ४३३१०० अग्निशोध्येन दिव्येन ४८।१६ अग्निसात्करणे सक्त- ५२१५२ अग्नेरिवेन्धनमहा- १६६४६ अग्नेः शिखावदाविद्ध- ५६८१ अग्रजः प्रतिपाद्यव ६२।२६ अग्रजस्त्वं ततो जातो ४७।८९ अग्रजाय मया देया ४७४८८ अग्रायणीयपूर्वस्य १०७७ अग्रे श्रीमण्डपोद्वासी- ५७।१४२ अघातिकर्मणामन्तं ६५।१० अघातिकर्माणि निरुद्ध ६६।१७ अङ्कं च स्फुटिकं चेति ६१६४ अङ्कराशिविधिश्चाष्ट १०।१२२ अङ्के मोघः प्रवालेऽस्यां ५।६०६ अङ्गं विपाकसूत्रं यद् १०१४४ अङ्गप्रविष्टतत्त्वार्थं २।१०१ अङ्गवङ्गकलिङ्गादीन् ५९।१११ अङ्गरक्षापरा देव्यः ८५२ अङ्गलक्षास्त्रयोऽशीतिस्.६०।४९६ अङ्गस्पर्शाद्विना तस्य १४६८९ अङ्गस्फटिकसंज्ञे च ४।५४ अङ्गारकेण वृत्तान्तो १९९३ अङ्गारकेण हरणं १६८१
स. श्लो. अङ्गाभ्यङ्गविधौ काश्चिद् ८।४७ अंगुलीयकनद्धं च ४२६८९ अंगष्ठजैर्यवैराढ्याः २३।९३ अङ्गष्वमरकङ्काया ५४६८ अङ्गो जनपदश्चम्पा १९।११७ अङ्गोपाङ्गविवेकः ५८।२४८ अचिन्तयदसौ येन २३॥१३० अचिरेणैव तेनापि २१११० अचेतनोपकरणाः ५६।४३ अच्छदन्तो नृपस्तत्र ६२।६ अच्छिद्यन्त शिरांस्युग्र- २५।५८ अच्युतान्तार्धरज्ज्वन्ते ४।२८ अच्युतान्तचतुष्के च ६।१११ अच्युतार्यवती चापि २२०६५ अच्युतेन्द्रमहादेवी ६०॥३८ अजघन्या निदाघे या ४।२७५ अजनि मज्जनकं ५५।५४ अजनि साथ तयोदुहिता१५।२७ अजनितजीवघातगुणतो ४९।१७ अजर्य सह कर्णेन ४५।४२ अजितस्य नवम्यां तु ६०।२३५ अजितस्य सहस्राणि ६०॥३६२ अजितोऽत्र चतुर्दश्यां ६०।२६४ अजितन्धरोऽनन्तस्य ६०१५३६ अजिताजितशत्रू च ५२।३५ अजैर्यज्ञविधिः कार्यः १७४९९ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र १७६४ अजैरित्यादिके वाक्ये १७।११५ अज्ञ एष न पशुर् ६३।११३ अज्ञातकुलनामानं ६२१३६
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८१८
३४।१३५
अज्ञाननिवृत्तिफले अज्ञानं प्रकृतिज्ञेया अज्ञातावस्थितीनां च
५८ २०५
५०/४५
अञ्जनं वनमालं च
६।४८
३३।८१
अटित्वा मथुरां सर्वाअणिमादिगुणोत्कृष्टे २३।१४४ अणुव्रतानि सा लेभे
२९/३५
अत इदं क्षयितापकरं ५५/१००
अत इह जन्तुभिः पर- ४९।२०
अतः क्षुधामहाग्रस्ता
६।३२
अतः परं प्रवक्ष्यामि
४१७०
२८|१
४६।२३
५०।८६
अतः परं परं शौरेः
अतः परं पुनः प्राप्ता
अतः परं नृपाः सर्वे अतः पूर्वविदेषु
४३।७९
अतः प्राह यतिः प्राप्तौ ४३।११२ अतः शरीरबाधायां
१७।१४२
अतश्चतुर्थभागेन
अतस्तस्यानवद्यस्य
५० १०५ अतः सर्वात्मना भाव्यं १८१५३ ९।१४० अतिक्रम्य तथा कन्या ३४।२९ अतिक्रान्तेषु भूपे ४५२१ अति [जाति] तद्धित- १९ १४९ अतिनिचिताग्निवायुजल ४९।४७ अतिबालेन मुग्धेन ७।१२३ अतिरूपतमो धोरः १९।३० अतिलङ्घय समां प्राह २१।१०४ अतिवर्तकरोपं तं
६१।६७ अतिवितप्य तपस्तनु१५/४१ अतिविश्रम्भतः प्रेम- २९।३८ अतिविस्रम्भतस्तस्या २१।५८ अतिविषमं तपो घटयतो ४९।१६ अतिवीर्यः सुवीर्योऽतस् १३।१० अति [ श्रुति ] वृत्तिअतिसंधापनं मिथ्योअतिसंधानपरता
१९।१४७ ५८/१६६
५८।१०५
अतिसंमान्य सस्त्रीकं ४३।१७४ अतोक्ष्णेनापि शस्त्रेण ५६.६१ अतीन्द्रियेषु भावेषु ५६/४९
हरिवंशपुराणे
अतोऽनुष्ठानमास्येय- १७/१०६
अतो मया वितीर्णेयं
२९/६२
अतो वज्रमयो वो
५७/२०
५०/५४
८।१२७
८८१
४५।१५२
८१७२
२१।७२
६०।२३
६०|३७
४१४३
५३।१७
५१।१
अतो विश्वजनीनार्थं
अतो विस्फुरितेनाय
अत्यन्त मुखरागाढ्याअत्यन्तशुद्धवृत्तेषु
अत्यन्तसुकुमारस्य अत्यासक्तामिति ज्ञात्वा
अत्र जन्मनि कृत्वान्ते
अत्र सिद्धशिला वन्द्या
अत्र रत्नप्रभाद्येयं
अत्रान्तरे सुरैस्तुष्ट
अत्रान्तरे सह प्राप्ताः
अत्रास्ति भरतक्षेत्रे
अत्रैव कामदेवस्य अत्रैवान्तःपरं स्थानं
५६।९३
६०।२६
६४|४
७।१२२
३०|१
अथ कृत्वात्मजोत्पत्तौ
११।१
अथ कोऽप्येकदा भर्तुर् २४१६१
१९।२४८
३६।५३
५७/७५
३६१४०
अत्रैव भरतक्षेत्रे
अत्रैव भरतक्षेत्रे
अथ कालद्वयेऽतीते
अथ कार्तिक कायां
अथ गान्धारपञ्चम्याः
अथ गगनसमुद्र
अथ गव्यूि
अथ गिरिगुरुभित्ति
अथ गान्धर्वसेनां तां
अथ ज्ञात्वा गणाधीश
अथ तया स खगेन्द्रअथ तयोः परिपाक अथ तयोस्तनयो हरिअथ तीर्थकृतामाद्ये
अथ ते पाण्डवाश्चण्ड
अथ त्रैलोक्यसारैकअथ दिव्यध्वनेरन्ते
अथ दुर्गवा
२७/२०
२९।२
अथवाऽदृष्टकल्याणः अथ देशोऽस्ति विस्तारी
२१।१
७।१०६
१५/३३
१५।१७
१५।५७
८१३७
६४।१
५७/१२३
३।१८१
५०/४४
५२१८१
२।१
अथ नाभेरभूद्देवी
८६
अथ नेमिमुनीन्द्रोऽपि
५६।१
अथ पुनर्विजयार्धनगोत्तरे ५५।१६
अथ पौरुष दर्पेण
३१।५७ अथ प्रसूतौ सुतयुग्ममस्याः ३५।१४ अथ प्राप्तो वसन्ततुः १४।११
अथ प्राप्ता महासत्त्वास् ४५।१ ११।७७
अथ बाहुबली चक्रे
अथ मथितमहा
३९।४९०
अथ मधुसूदनाव रजया
४९।१
अथ मानितबन्धूनां
४६।१
अथ योऽसौ वसोः सूनुर् १८१
४२।८४
अथ रौद्रं बलं प्राप्तअथवा मांसपिण्डेन
४३।४६
अथवा दुःखभीरुत्वान् २३ । ११८ अथ विज्ञापितो नाथः ९८५ अथ विद्याधरी वृद्धा २२।४७
अथ विबुद्धसरोज वनस्पृशा १५।१
अथ विरुवदलिज्या
३६।१
अथ वैश्रवणो दिव्यां
९।७७
अथ व्याख्यामसौ कुर्वन् १७/६३ अथ शम्बस्य सम्भूति
४८ १
अथ श्रुत्वा जरासन्धो
४०११
अथ सकलुषभावा
३६।६५
अथ स नेमकुमार इवान्यदा५५ । १
अथ स प्रार्थितः प्राज्य
३३।१
१५।३८
२।१११
४२।१
६५।१
३१।९२
३२।१
३१।७८
३१।१
६०१४
३७|१
अथ स वीरक ईश्वर
अथ सप्तद्धिसम्पन्नः
अथ सभ्य समाकीर्णा
अथ सर्वामराकीर्णस्
अथ साधुन पैस्तत्र
अथ सा रोहिणी भर्त्रा
अथ सेनामुखं खिन्नं अथ हर्म्यतले सुप्तः अथातिशयरूपत्वात् अथात्र यद्वृत्तमतीव अथात्रावसरेऽपृच्छन्
१८९६
अथाध्ययनमन्यत् स्यात् १७१११८ अथानयद्भानुरूपेन्द्रमर्थी- ३५।७५
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः अथान्यदा प्रजाः प्राप्ता ९।२५ अध्र वं संप्रणध्यन्तं १०७९ अथापृच्छत् पृथश्रीकः २०६१ अनन्तकेवलज्ञान- ५६५११३ अथाभ्युदयमभ्येते ५३।१ अनन्तमतिसंज्ञस्य २७।११७ अथासावकदा शौरि- २४।१ अनन्तवीर्यपर्याप्तं ३।११ अथासौ कीचकः साधु ४६।४२ अनन्तरस्य सान्निध्ये ६११२५ अथासौ प्रतिमास्थोऽपि ९।१३५ अनन्तरं स्वप्नगणस्य ३७।२२ अथासौ सौम्यताराभि- ८५६ अनन्तरा विनिर्दिष्टा ४।२६१ अथाह गणनाथाद्यः १९६१ अनन्तानन्तभागैस्तु १०।१५ अथेन्द्रेण कराङ्गुष्ठे ९।१ अनन्तानन्तसंख्यान- ७।३७ । अथेन्दोरिव शुक्राद्या २७६ अनन्तासंख्यसंख्येय- १०।२० । अथैकदा चन्द्रसिते ३५।११ अतः शरीरामपरी ३५।४४ । अथोदपादि श्रवणे तु पक्षे ३५।१९ अनगारास्तथाऽन्ये ते ३१६२ अदत्तस्य स्वयं ग्राहो ५८।१३१ अनात्ममहारत्न- ४११७ अदत्तेति न चाशङ्कय २९।६१ अनतिनम्रतया निज- ५५।४० अदयमथसमूलोन् १६६३५ अनयावस्थयासीने ५०।३० अदाद् द्वादशवर्षाणि ११४१०४ अनवेक्ष्य मलोत्सर्गा- ५८।१८१ अदृष्टपूर्वतीर्थेशाः १२॥३ अनशनाध्ययनादितपःश्रिया१५।८ अदृष्टश्रुतपूर्वत्वात् ९।१५४ अनसूया विषादादि ५८।१८९ अदृश्यायामकस्मात्तु ५४।२९ अनादिनिधना जीवा ५६।४२ अधःप्रवृत्तकरण- ३।१४२ अनादिनिधनो जन्तु- ५८।२७ अधःषष्टिसहस्राणि ४।१६५ अनादिरपि चानन्त- ३।१०६ अधःसंक्षेपणी द्रोणी ५।४४१ अनादिरन्तवान् भव्य- ३॥१०५ अधरस्तननाभ्यतः १४।४४ अनादेययशःकीति- ९६।१०५ अधर्मपथपाताल- १११७ अनादौ भवकान्तारे ४३।१३३ अधश्चोर्ध्व च
४/३४४ अनाद्यनिधनस्तस्य ४।४ अधस्तक्षशिलायास्ते ४३१४८ अनानात्मापि तद्वत्तं ५८।१५ अधिवसत्यथ तद्दमनो हरी१५।२६
अनारतगलद्वाष्प- ५४॥३४ अधिष्टानं प्रमादोऽस्य ५६।१८ अनार्यजनसंवृत्त- २०१३३ अधोऽधोऽन्याः षडेतस्याः५।१७६ 'अनार्षाणां तु वेदाना- २३।४५ अधो वेत्रासनाकारा- ५७९५ ।। अनावृत्तप्रभुर्यज्ञो ५।६३७ अधो मध्योपरिप्रख्य- ६०।१६८ अनावृष्टिनलोपेतस् ४४०९ अधोमुखमयूखौघ- ८।६४ अनावृष्टिस्ततस्तस्य ४४।१४ अधोलोकविभागस्ते ४।३८३ अनास्वाद्य फलान्येषा ६०।११५ अधोलोकस्य सप्ताध: ४९ अनिगहितवीर्यस्य ३४।१३८ अधोलोकोरुजङ्घादि ४।२९ अनिच्छन् शूरसेनोऽपि ३३।१२५ अध्यर्धक्रोशविस्तारा ५७१३९ अनिच्छन् स्वच्छधी/रः ४७१७ अघ्यतिष्टनमिःश्रेष्ठं ९।१३३ अनिच्छाख्यो महानिच्छो ४.१५३ अध्यढे हि सहस्रार्द्ध ५।१९४ अनिवृत्तिगुणस्थाने ५६।९० अध्यापितास्त्रयस्तेन १७१३९ __ अनीकमथ यौवनं ३८।२२
अनीदृशस्तु संसारी १७३१४१ अनीलयशसस्तस्या २२।११४ अनुकणं मुनेस्तस्य २०१५५ अनुकूलमिषु राजा ३१३१२६ अनुत्तरदशस्याथं २।९४ अनुत्तरमुखोज्ज्वलः ३८।१३ अनुदितेन परस्य महा- ५५।१९ अनुपाल्य चिरं धर्मम् ४३।१४६ अनुप्रेक्षाभिरुद्धाभि- ४३।२११ अनुप्रेक्षाश्च धर्मश्च २।१३० अनुप्रेक्षाभिरात्मानं ४६।३६ अनुबभूव सुखं चिरमेतया १५।३४ अनुबन्धावनिप्रख्यं ५९।१०६ अनुभवन्तममुं जिनधर्मजं २४१८६ अनुभूय चिरं लक्ष्मी १३३१ अनुमन्यस्व मे भूमिम् २०४८ अनुमन्याब्रवीदित्थं २०१४४ अनुमेने वचो मन्त्री १४।६६ अनुयातार्जनं प्रेम्णा अनुयोगयुतं द्वारैः १०१३ अनुरागवती बभ्रे १९।२६६ अनुवर्त्म जरासन्धं ४०१२७ अनुष्ठाय चिरं श्रेष्ठं ४३३१५८ अनूनुदन्नृपाध्यक्ष २०१० अनुभूतं श्रुतं दृष्टं ४८।२७ अनेकपोऽनेकपलोकना ३७।२७ अनेकमुखदत्तसत् ३८।२१ अनेकरथलक्षास्ते ५०।१२७ अनेकरथचक्रचूर्णि- ४२।९८ अनेकरदसंवृत्त- २०३६ अनेकाहवनियूंढ ५०७ अनेकोपाययोगैस्ता ४६।३१ अनेन धनरागिणा ४२१९९ अनेनावियते ज्ञान- ५८।२१५ अन्तःकलुषिणी सास्याः३३।१०६ अन्तर्दधे धवलगोकुल- १६॥३३ अन्तर्धानमिता सोऽपि २९।६६ अन्तर्नाटकशाला स्यात् ५७।६८ अन्तःपञ्चशतायामं ५।१४६
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८२०
अन्तःपुरसुतादीना ४१।२८ अन्तःपुरसहस्राणि ६२।६१ अन्तर्बहिर्भेदपरिग्रहास्ते ३४।१०५ अन्तर्मुहूर्तकालस्या- ३।१२४ अन्तर्मुहूर्तकोलं तु ५६।२७ अन्तर्मुहूर्तकालेन ६१३७० अन्तर्मुहूर्तकालेन १२५ अन्तर्मुहूर्तमपि लब्ध- ६०५७३ अन्तर्मुहूर्तशेषायुः ५६१६९ अन्तर्वत्नी तदा पत्नी २५।११ अन्तर्वत्नी प्रसूता सा १८।१२० अन्तश्छिन्नतटो भाति ५१५९५ अन्तरः शून्यकालः ६४।१०१ अन्तरस्वरसंयोगो १९।१७२ अन्तरान्तरसंस्थास्तु ५०।११० अन्तरिक्षे मुमुक्षुस्त- २६।२७ अन्तहितवपुर्यातः ३३१२१ अन्तरेऽत्र हरिः सत्यां ४३।१५ अन्तरेणोदयं प्रीति ५७१३८ अन्तःस्थानप्यपां पत्युः ५०।२७ अन्ते कौन्तकजिवीर्य ५९।८३ अन्ते वैश्रवणाख्यं तु ५।२८ अन्ते माहेन्द्रकल्पान्ते ३४॥३३ अन्ते संमेदमारुह्य ४३।२१४ अन्ते स संमदविधायि १६७५ अन्त्यदेहः प्रकृत्यैव ४२।२२ अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि ५९७७ अन्नपाननिरोधस्तु ५८।१६५ अन्नं पानं च सुस्थाप्य ६२।११ अन्यथा कथमुत्खात- ४३१६९ अन्यथा चिन्तयत्येष ४५४८४ अन्यथा तु वितीर्णायाश् ४२१६२ अन्यथा देवराजस्य ६११७८ अन्यदागत्य संघेन ४३।१०४ अन्यदा चैत्यपूजार्थ ६०८३ अन्यदा तु विबुद्धोऽसो २४।६७ अन्यदा तु विनीतोऽसौ ४७१३१ अन्यदा नारदोऽवादि ४४।३ अन्यदान्यभवोपात्त- २८०२६
हरिवंशपुराणे अन्यदा पुरवृद्धास्ते १९।१४ अपरोत्तरदिग्भागे ५।२१० अन्यदा मातृपुत्रास्ते २१।१६६ अपर्याप्ताः पुनः सत्त्वा १८७९ अन्यदा मुनिपूजार्थ ४३।१५१ अपश्यत् स विदूरेण ४७।१०१ अन्यदा विहरन् प्राप्तः ९।२०५ अपश्यन्ती पति शिष्यान् १७।४४ अन्यदा श्रुतपारस्थः. २०१५ अपि क्रियेतापि परः ६१।१०६ अन्यदाष्टापदं यातो १९८७ अपि न्यायविदुत्तस्थौ ३१११०० अन्यस्यापि च दुर्बोध- ४३।११४ अपातयद् ध्वजं छत्रं ३११८५ अन्याय्ममुभयं चैत- २९।१८ अपूर्वकरणो भूत्वा ५६।८९ अन्यां नागगुहां यातश् ४७६४२ अपूर्वसुस्वप्नविलोक- ३५।१४ अन्यानपि च कन्याय ३११३२ अपूर्वः सर्वतो रक्षा ८२०९ अन्येधुर्घमणिद्योत- ५२।१ अपूर्वेयमहो भिक्षा ४५।११२ अन्येऽपि बहवो भव्या ६५।२५
अपृच्छच्च विबुद्धोऽसौ ३०३० अन्येषामपि यद्येषा १८।१६९ अपृच्छत्सुमतिर्मन्त्री १४१५३ अन्येषामपि पूर्वाणां १०१८७ अपृथग्लक्षणैर्युक्ता १९।१८० अन्येषामपराहुं तां ६०।२१८ अप्रमत्तगुणस्थान- ५६१५१ अन्योन्यगन्धमासोढु- ३।१७।। अप्रमृष्टाप्रदृष्टायां ५८७३ अन्योऽन्यदृष्टिसंपात- ३११४२ अप्रशस्तमपोह्यासा ५६।२ अन्योऽन्यस्य तदा शक्तं ७।९८ अप्राक्षीत् पूर्वजन्मानि १८।१११ अन्योऽन्यप्रेमबद्धस्य २९१६९ अबाधितः पुनाये १७११०३ अन्योन्याक्षेपिणोर्युद्धं ५२।४७ अब्भक्षा वायुभक्षाश्च ३३१३३ अन्योऽन्यानुप्रवेशेन ७७ । अब्रवीद् बलिराश्रित्य २०१२१ अन्योऽन्याङ्गसमासङ्गात् ३०।१९
अभग्नोत्साहमालोक्य १८।१६६ अन्योन्याभिमुखादेशा ५२५५७ अभणीद्गणमुख्यश्च २०१२ अन्योऽन्याह्वानपूर्व ते ५१४१५ अभवदूर्ध्वमुदारमुदारवः५५।१११ अन्वये तनुजातेयं २३३१४९ ।। अभवदस्य महागिरि- १५१५९ अन्ववायेऽस्मदीयेऽन्या २६५२ अभवदस्य पुरस्य तु १५।२३ अपकारे प्रवृत्तस्त्व- ५२१७९ अभयं नः प्रदाय त्वं १९।१५ अपराजित इत्याद्या १८।२५ ।
अभविष्यदिभक्रीडा १९॥६६ अपराजितम ख्य- ५७६० अभाषकान्तयोश्चापि ५।४७४ अपराजित इत्याख्या ३४।५।। अभिचन्द्र इहाख्यातो १८।१४ अपराद्यास्त्वमी वेद्याः ५।२४६ अभितः स्वाख्यया द्वौ तं ५७।९२ अपराद्यास्त्विमे प्रोक्ता ५।२५२ अभिन्ननिजमर्यादा ४७१२ अपथनिपातपातनघना ४९।४४ अभिपतदुरगेन्द्र ३६।३१ अपध्यानं जयः स्वस्य ५८।१४९ अभिपतदरिहस्तात् ३६।४५ अपन्यासः कदाचित्स १९४२५९ अभिभूयाबभौ धाम्ना ३३४ अपनीय तनोः सर्व २।५२ अभिरामः स रामाख्या ३२।१० अपरस्यामिलादेवी ५७१२ अभिरूपोऽतिमुग्धोऽय- १९।१३१ अपरार्णवमासृत्य ४०४५ अभिरूपतमाः सर्वे ३३।१३४ अपरेभ्यो विदेहेभ्यः २७१३ अभिरूपतरां कन्यां ६०११२८
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८२१
अभिवन्द्य तदापृच्छद् ६४।१२३ अभिषिक्तस्ततो देवैः ९।७५ अभिषिक्तो ततः सर्वे- ५३।४३ अभिषिच्य नृपस्त्रस्तो २९।३३ अभिषिच्य मधु राज्ये ४३।१६० अभिषेशसभा तत्प्रा- ५।४१९ अभिसंधिकृतो बन्धः १७।११२ अभूवन् गणिनो भर्तु- १२।१४ अभूद्भवनवासिना ३८।१४ अभृत चार्थवतीममिधामयं १५।२४ अभ्यर्थ्य गुरुमानीय ३३।२९ अभ्यचिते तपोवृद्धय ९।१९ अभ्यन्तरगृहद्वारे ८५३ अभ्यर्क विकसदाति ५७।१७८ अभ्यस्ताः सेतरैग्तै- १०।१५० अभ्यलोकि कलिता ६३३३ अभ्रं सिंहनिरभ्रेऽपि ८७३ अभ्युक्षन्ति सुरास्तत्र ५९६४० अभ्युत्थाय ततो भक्तौ ५३।२६ अभ्युत्थितां विभं वीक्ष्य ३०।२४ अभ्युद्गतेन तेनासो ४३।१६४ अभ्युदेति करभिन्न- ६३।४१ अम्युन्नतो पदाङ्गुष्ठौ ८७ अमङ्गलदृशः पापाः २३।१०४ अमात्यदुहितुर्जाताः ४८.५६ अमात्यराजपुत्री तौ २७।९९ अमानुषं कर्म जगत्य- ५४१७० अमानुष कृष्णविचेष्टितं ३५।४९ अमावास्या तु चैत्रस्य ६०।२६८ अमितप्रभया तस्य २७।१३६ अमी चतुर्विधा देवाः १२॥३६ अमी पुण्यवतस्तस्य ११११११ अमी विद्याधरा ह्यार्याः २६।१४ अमुतोऽधित्यकास्त्व- २६१४५ अमुष्य याताद्य तपो ६६।१० अम्बुनिम्बद्रुमे रौद्र ७।११८ अमूढमानसः शौरि ५२।४९ अमूर्तत्वं यथा व्योम्नः ६५४९
अमृतस्येव धारां तां ३।१६
अमोघे स्वस्थितापाच्यां ५७०८ अर्धमन्दरविष्कम्भान् ५।६३५ अयं पुत्र सहस्रेण १२।४० अर्धयोजनविस्तीर्णौ ५।११५ अनयद्वयमब्दं स्यात् ७२२ अर्धयोजनमुद्विद्धं ५।११२ अयमास्ते समग्रात्मा ५७।१५८ अर्धयोजनबाहुल्यो ४।४१ अयमेव क्रमो ज्ञेयः ४७२ अर्धयोजनमानस्तु ५।११६ अयोधनसुतो मूलः १७१३२ अर्धरज्ज्ववसानेऽतः ४।२६ - अयोध्यामृतधानीति ५७।१२२ अर्धराज्यविभागेन ४५।१४८ अयोध्या विजया राजा६०।१८३ अर्धासनसुखासीनां ४२१८३ अयोध्येति विनीतेति ११४२ अर्कोदितो बभौ भानुः २२।१३९ अयोध्योद्घाटितेनासौ १११५५
अहंतां चक्रिणामर्ध- ६०।१३६ अरजा विरजा वासा ५।२६२ अर्हत्सु योऽनुरागो ३४।१४१ अरमाण्डलिकत्वेऽपि ६०५०७ अर्हत्पूजादि तात्पर्यम् ५८९५ अररन्ध्राकृतीन्यङ्क ५।४९८ अर्हद्दत्त इति ख्यातो १८।११५ अरश्च पुण्यमूर्तिश्च ६०५६० अर्हदायतने पूजां २१९ अरिष्टदेवसम्मीतं ६।४९ अर्हद्दासस्य तो देवौ २७१११२ अरिष्टनेमिनाथाय २२।३८ अर्हद्भ्यः सर्वदा सर्व- २२।४३ अरिष्टनेमिनाथस्य १५१ आरोप्याकृष्य पार्थेन ४५।१३१ अरिष्टनेमेश्चरितं निशम्य ३५११ अलंकरिष्यत्यकलङ्गधीः ३७।२८ अरिष्टनेमिनामार्हन् ४३।३८ अलकापतये दत्ता २७१७९ अरिष्टपुरनाथस्य ४४।३७ अलक्षितः कंसभटैः ३५।२३ अरिष्टपुरमिष्टं तु ६०।२४१ अलज्जलसमानानि ५।४४५ अरिष्टमणिमूर्तीनि ६।१७ अलब्धपारमुधुक्तै- ४११५ अरोमशमभग्नं च २३।८४ अलाभे च ततस्तस्या २५१५ अरोमशं कृशं मध्यं ८।१६ अल्पं दक्षिणतो वक्र २३॥६५ अरुणं नवमं द्वीपं ५।६१७ अल्पप्रमाणपरमाणु- १६॥३३ अचिर्माली कुमारोऽहं १९१७१ अल्पस्य महतो वापि २।११९ अचिर्माली प्रभुस्तत्र १९८१ अल्पमन्तरमालोक्य ४०।२८ अचिराद्यं परं ख्यात- ६६३ अल्पातितनुरोमानु- २३१६३ अर्जुनेन च भीमेन ४५।१४१ अल्पावमांसलो भुग्नौ २३८५ अर्णवोपमयोस्तत्र ५०२८७ अल्पे संहारसिद्धास्ते ६३।१०५ अर्थतः पूर्व एवाय- ११६७ अल्पैः पञ्चशतैरिर् ५।२६५ अर्थव्यानाविलश्चासौ २७।४२
___ अवगाहः पुनस्तासां ५।६५७ अर्थसंकल्पमात्रस्य ५८।४३ अवगाहनमुत्कृष्ट- ६४।९९ अर्थव्यञ्जनयोगानां ५६।५८ अवगाह्य महाबाहु- १११५ अर्थशब्दप्रधानत्याच् ५८।५१ अवततार कदाचिद् १५।६ अर्धकोटीकुमाराणां ५०।११३ अवतीर्य ततो भूमि १८।१३४ अर्धगव्यूतिविस्तारः ६।१२ अवतीर्य रथेभ्यस्ते ५९।११८ अर्धत्रयोदशोत्कर्षात् ६०।२५० अवतीर्य विमानेभ्यो ५३।२५ अर्धत्रयोदश प्रोक्ता १८।६१ अवतीर्य मधुर्जातो ४३।२१७
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८२२
हरिवंशपुराणे
अवतीर्याऽच्युतेन्द्रस्तु ४३।३२ अशीतिश्चापि चत्वारि ५।२७२ अवतीर्णः स सिद्धयर्थी (९।९३ अशीतिश्च सहस्राणि ५।५१३ अवतीर्णस्ततो भानु- ४७।१०५ अशीति धनुरुद्विद्धं ५।१४७ अवतीर्णौ तमुद्गन्धि २३।१८ अशीतिः सप्ततिः षष्टि-६०॥३१० अवदच्च पति नाथ ४३।८।। अशुभप्रकृतीनां तु ५८।२९१ अवदच्च वचो दक्षो ४३१६८ अशून्यहृदयस्पर्शा ८३४ अवददिति बलस्तं ३६।१९ अशेषयादवाकीर्णा ५०३९ अवधिज्ञानिनं श्रुत्वा ६०७९ अशोकवनमादौ च ५।४२२ अवधिज्ञानकृष्णश्च ६५४३ अशोकनगमाभासी- ३।३१ अवधेः पूरणायातः ६१।२९।। अशोकः सप्तपर्णश्च ५।४२४ अवन्त्याः सुमुखश्चैव ४८.६४ अशोकानोकहस्याधः १९।६९ अवरा तु स्थितिः ४२९१ अश्मगर्भमहास्कन्धो ५।१७८ अवराऽसौ च विभ्रान्ते ४।२५५ अश्रद्धाय मतं जैनं ४३।१४७ अवरैषा परापीष्टा ४।२६९ अश्रौषीद् घोषणां राज्ञः ३३॥३ अवलोक्य जिनेन्द्रस्य ५७२ अश्वग्रीवो तथा षष्ठी १९।१६२ अवष्टध्नति पादेन ६११८५ अश्वग्रोवो भुवि ख्यातः ६०।२९१ अवसर्पति वस्तूनां ७।५७ अश्वग्रीवो हतो युद्धे २८०४४ अवागविसर्गमन्येषां ११११३८ अश्वमेधोऽजगोमेधो २३३१४१ अवान्तरेऽनेकशतानि ६६।३८ अश्वरूपधरेणासा- ३०।४२ अविज्ञातभवद्वार्ता ४७९१ अश्वसेनामुपादाय ३२।३० अविज्ञातसुखच्छेदाः ४६।२२ अश्वसेनोऽश्वसेनायाः ४८.५९ अवितथमित्यमी वितथ- ४९।३७ अश्विन्यामभवत्तस्मात् ४५।४८ अविद्याकुशलं त्वासौ १९।९४ अश्वैः कनकपृष्ठयों ५२।१६ अविद्यारागसंक्लिष्टो ५८०१३ अश्वैरारक्तसबलै- ५२।१८ अविद्यावरमायादि ५७।१६० अष्टापञ्चाशदुत्सेध- ४।३३१ अविरामवियोगायाः ३०।१४ अष्टमस्येन्द्रजुष्टस्य १११० अविरहं सुरतामृतपायिनो५५।२५ अष्टधा स्पर्शनामापि ५६।१०२ अवीवृधदसौ लब्ध्वा ३३।९० अष्टधा दर्शनाचारे- ६४।३९ अवेहि तापसात्मीयं ३३।६७ अष्टमोऽकम्पनाख्याति- ३।४३ अव्यवस्था निवृत्यर्थ- ७।१४१ अष्टयोजनविष्कम्भः ५।१४३ अव्यक्ताः पाण्डवास्तत्र ४६।२४ अष्टशत्या सहस्राणि ६०१४५२ अव्यक्तोदयकर्माणो ६४।६३ अष्टविंशतिसम्मिश्र अव्रतोऽहमपि भ्रान्त्वा ४६।५३ अष्टादशशती प्रोक्ता ५।४३ अशक्यवर्णनां दिव्यां ४२१३२ अष्टादशसहस्राणां १०।२७ अशनिपातसहोज्झित- १५॥१८ अष्टादश सहस्राणि १११५३ अशरीराः सुखात्मानः ६।१३६ अष्टादश सहस्राणि ६०१५११ अशितश्चापि भानुश्च ५०।१३० अष्टादशकुलास्तेषु ५।४८२ अशितानि पुरा भद्र ! २४।१७ अष्टात्रिशत्सहस्राणि ६०।४४० अशीतिश्चतुरूर्वा स्याद् ४।१२२ __ अष्टात्रिंशत् स विभ्रान्ते ४।१७८
अष्टादश सहस्राणि ५।४३२ अष्टादश सहस्राणि ५।४१५ अष्टादश सहस्राणि देवश्च ५।४१६ अष्टादश सहस्राणि ५।५०३ अष्टादशेति संख्याताः ४०।२३ अष्टादश सहस्राणि ६०।३५६ अष्टादश शतान्येव ६०।४२० अष्टादश गणाधीशास् ६०।३४ . अष्टानां सिद्धिरुद्दिष्टा ६०।२९८ अष्टानां सिद्धिरुद्दिष्टा ६०।३०३ अष्टानवतिरस्येति ९।२३ अष्टान्तादिषु विज्ञेयः ३४.९४ अष्टापञ्चाशदिष्टानि ५।९३ अष्टाभिः प्रातिहार्य- ५६।११८ अष्टार्जुनमयस्यास्य ५७० अष्टायामो द्विविस्तारः ५।३६० अष्टावक्षरकोट्यस्तु १०।१२६ अष्टाविंशतिरिष्टास्ते ३४।५८ अष्टाविंशतिरिष्टसाधन- ३४।९७ अष्टाविंशतिरुद्दिष्टा ४।१४० अष्टाविंशतिलक्षास्तु ४।१८९ अष्टाविंशतिरेष स्यात् ५।२९४ अष्टाविंशतिसंख्यानि ५।४६८ अष्टाविंशतिरन्यस्य ६०।५३८ अष्टाविंशं शतं दिक्षु ४।१०९ अष्टावेव महादिक्ष ४।१४७ अष्टाशीतं शतं दिक्षु ४।९१ अष्टाशीति शतान्येव ३०।४५७ अष्टाशीतिः सहैव स्या- ६१८४ अष्टाशीतिश्च वर्णा- १०॥२५ अष्टाशीतिमहादिक्षु ४१२१ अष्टाशीत्या सहैशाने ६६८ अष्टाशत्या सहस्राणि ६०४० अष्टापप्टिमहादिक्षु ४१२६ अष्टाष्टमासमासार्ध- ६०।४८६ अष्टाहं प्रविधायासौ ३४।४१ अष्टोच्छ्रायश्चतुर्व्यासम् ५।३६८ अष्टोच्छायश्चतुसिं ५।३९१ अष्टोच्छ्रायाः शतायामाः ५।३४९
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श्लोकानामकाराधनुक्रमः
८२३
अहो चेष्टितमार्यस्य २१११८२ अहो परमवैचित्र्यं ९१५१ अहो दानमहो दान- १।१९१ अहो दुःसहमस्माक- ७.१२९ अहो नैपुण्यमेतस्याः ३११४७ अहोरात्रं भवेत्पक्षस् ७२१ अहोरात्रादिको भेदो ७।१३६ अहो लब्धिरहो धैर्य- १८१६८ अहो सर्वज्ञकल्पस्त्वं ४३।१३१ अहो संसारवैचित्र्यं २७७२
अष्टोच्छ्राय चतुर्व्यास- ५।५९८ । अष्टोत्सेधचतुर्व्यास- ४११४ अष्टोत्तरशतं तेऽपि ५।३६५ अष्टोत्तरसहस्रोच्चै- ८।२०४ अष्टौ च विंशतिरिनस्य १६७० अष्टौ चैव सहस्राणि ५१५२६ अष्टौ तीर्थकरोत्पत्ता- ५।७११ अष्टौ तुष्टाः प्रकृष्टाङ्ग- ८।१११ अष्टौ निःशङ्कतादीनाम् ५८।१६२ अष्टौ षोडशसंख्यातो १८१८९ असपत्नसपत्नीक- २३।१६ असत्क्षेत्रे यथा क्षिप्त ७।११६ असन्तोषभुजाश्लेषै- १४।१०१ असाधारणरूपेण ४२।६ 'असाध्यतां विदित्वाग्नेर ६१४८२ असाध्यो लोक वित्रासी- २४०२३ असागः कदलीस्तम्भाः ८।१३ असावेव समादिष्टा ४।२६६ असिचक्रगदाघात- ३११७६ असिचक्रधनुःपाणि- ४२१८२ असिना घातयाम्येन ३३।११९ असिर्मषो कृषिविद्या ९।३५ असिशक्ति-गदाकुन्त- २३९६ असुरा आतृतीयान्तं ४।३६२ असुरा नागनामानः ४।६३ अमुराणां च तत्रायुः ४।६६ असुराणां धनूंषि स्याद् ४।६८ असूत सुतमुद्गीर्ण- २९।४६ असी बाहुबली कान्ते १२०३८ असंख्यातप्रदेशात्मा ५८।३१ असंख्येयानि गत्वातः ६४।८४ असंख्येयाब्दकोटीनां ७।५० असंख्येयप्रमाणानां ४।३५४ असंख्यवर्षकोटीनां
७।५३ असंयतचतुःस्थानात् ३१७८ असंबद्धप्रलापस्य ४७.९७ असंबद्धानि गायन्तो ६११५२ असंभाव्याम्भसि भ्राम्यत् ६२।१८ अस्ति तत्पूर्वसम्बन्धः ३४।१४
अस्ति दुर्योधनो राजा ४७२८७ अस्तिनास्तिप्रवादं च १०६८९ अस्ति राजगृहे राजा ४०।३५ अस्ति वत्साभिधो देशो १४।१ अस्तीह किन्नरोद्गीतं १९८० अस्त्यात्मा परलोकोऽस्ति५८।११ अस्त्रकौशलवैफल्ये ४७११३१ अस्त्रं नागसहस्राणां ५२।४८ अस्त्रं ब्रह्मशिरः शीघ्र-३१११२३ अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम्ना २५।४७ अस्त्रेण वारुणेनारिर् २५।६७ अस्त्रं वैरोचनं मुक्तं ५२०५३ अस्त्रशस्त्रनिवहैर् ६३।१०५ अस्त्रं संवर्तकं रौद्रं ५२।५० अस्पृशन्करनखैस्तन ६३।११० अस्पृशन्तो भुवं सर्वां ८२०० अस्मदीयं विभो स्तम्भं २६६ अस्मात्परः परः कोऽपि४३।१०७ अस्माकं नृपवीराणां ५।२४ अस्मिन्नल्पर्द्धयो देवा ५।६८५ अस्या ज्यायाः सहस्राणि ५।३९४ अस्यामाद्योऽवसपिण्यां ८१३० अस्याश्चतुरशीतिश्च ५।७६ अस्योपरि किमर्थ मे २८।२१ अस्वस्थामपरेधुस्तां ४७१५६ अहमसौ तपसासुरतामितः१५।५१ अहमिन्द्रविमानेषु ६।११२ अहमिन्द्रसुखं भुक्त्वा १८।११० अहमिन्द्रास्ततोऽनन्तं ६।१२५ अहं च मुनिमानम्य २१।१६४ अहं तु दुःखसंभार- ४०॥४१ अहंयव इवाजस्रं ३१८ अहंयवो दधावुस्ते ३४।२८ अहितं शातयन्ती सा ५८०६ अहितापकुलान्ताय ४५१५४ अहिंसादिगुणा यस्मिन् ५८।१३२ अहो कषायपानस्य २३।१२७ अहो कान्तः परं स्थान- ९।१४८ अहो क्रीडनशीलायास् ३३।३५
[आ ] आकन्तीक्षरस प्रीत्या ८।२१० आकर्णय वचो बाले ४२।५० आकर्णयस्व देवानांप्रिय-३३।४६ आकर्णाकृष्टकोदण्ड- २५।५७ आकर्णाकृष्टचापौधै- ५११३३ आकर्णायतनेत्राभ्यां ४५।७४ आकर्ण्य नारदीयं तत् ४३।२३८ आकर्ण्य मेघनादस्तं २५२३ आकर्ण्यतां यथा नाथ ५०.२० आकर्ण्यतां समाधाय ५०।४१ आकर्ष्यात्मभवानेव ६०१२४ आकम्पितासनतिरीट- १६।१४ आकस्मिकभयोद्विग्नाः ७/१२७ आकारेणाक्षपुस्तादौ १०१०० आकारेणोष्ट्रिकाकुम्भी ४।३४७ आकीर्णमेव तैनित्यं ॥१४४ आकुलौ बलकृष्णौ च ६१८० आकूतं श्रेणिकस्याथ ६१११ आकूपारं यशो लोके ११३८ आकेवलोदयान्मौनी ९।१४३ आक्रन्दनस्वनप्राप्त- ४३।६७ आक्रान्तभेदपर्याय- ५८।४४ आक्रीडनगुहेष्वेषां ५।२०४ आक्षेपण्यादयो यत्र १०४३ आगच्छ भर्तरादेशं ९।१७७ आगच्छन्ति तदाकर्तुम् २२।४ आगच्छन्तः पुरः सर्वे ६११५३
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८२४
आगतं च पुनः पाणि ५२।८४ आगतश्च महाकाल: २३।१३२ २३।४९
आगताश्च समाहूताः आगतास्मि ततो नेतुं २२।१२१
२८४७
५४/६५
११।४७
३३।१७३
आगतो वन्दनाभक्त्या आगतोऽनुपदं विष्णुः आगमिष्याम्यहं तावत् २२।१२३ आगत्य कपिलश्चम्पा ५४/६२ आगत्य च तदाऽयोध्यां ४३ । २०० आगत्य चक्रवर्ती च आगत्य देवकीगर्भे आगत्याकम्पनाचार्यस् २०१९ आगत्याभ्यर्च्य साध्वंही ३३ । १२० आगन्तुकदोषाणां ३४।१४६ आगामितीर्थकaणाम् ४।३६९ आग्नेयादिषु मध्येsस्या ४१।२६ आधर्मायास्तु देवाना- ६।११३ आचाराङ्गभृतां गीतः ६०/४८१ आचाराङ्गस्य तत्त्वार्थ २।९२ ३४/९५ आचार्यग्लानरीक्ष्यादि १८।१३७ आचार्याकम्पनादीनां २०।२६ आचार्या दुरुधर्माख्याद् ६०।११० आचार्य चाप्युपाध्याये ६४।४२ अचिन्तयदसौ तस्य आचेलुश्चलमौलीनां आजगाम च तेनैव आज्योतिलेोकमुत्पादस् ६ १०३ आत्मनो नरकादित्वं ५८।२४४ आत्माधीनाः प्रतीहारा: ५७११६६ आत्माधीनं यदत्यन्त- ९५६ आत्मापराधबाहुल्यात् ४०/३७ आत्मान्तःस्थापितानन्त- ४११८
आचाम्लवर्धमाने
४५।६४
८११८
२५।२६
आत्मानमपि निन्दन्ती ६४।१२२ आत्मेति व्यवहारोऽत्र
२८/३५
आतपत्रमिदं यस्य
३१।२०
आर्त्तध्यानकरः प्रायो
६१।९५
४५/४५
६३।७
आत्रेयः प्रथमस्तत्र आदधाव पदधूत
हरिवंशपुराणे
आदरेण स तैर्दृष्टः आदर्शगजवक्त्राख्या
५४/५
५।४७६
आदावष्टौ तथान्तेऽष्टा ६०/४७४
आदावुत्तरमन्द्रा स्यात् १९।१६१ आदित्यनगरं रम्यं
२२।८५
आदित्ययशसः पुत्रः
आदित्ययशसा सार्द्ध आदित्यवंशसंभूताः
आदित्याभस्तमागत्य
४५.५ ६०।४७६
७१३२
आदितः कुरुवंश्यानां आदितः सप्ततीर्थेषु आदिमध्यान्तनिर्मुक्तं आदिष्टः पितृपृष्टेन २९॥८ आदेशो दीयतां स्वामिन् २१।१६१ आद्यसंस्थानसङ्घात७।१७३ आद्यस्य गणिनो भर्तुर् ६९।३४१ आद्यस्याद्यो गणीनाम्ना ६०।३४६ आद्या गुणप्रभा तासु ४५।९८ आद्यामसंज्ञिनो यान्ति ४३७३ आद्येनेक्षुरसो दिव्यः ६०।२३८ आद्ये विंशं शतं व्यासः आधेषु त्रिषु कालेषु आद्यो गोमूत्रवर्णोऽत्र आयो यो बुद्धिहीनोsसी ५1५५६ आद्य वृषभनाथोऽभूद् ६०।१३८ आद्यो वृषभसेनोऽन्यः १२।५५ आद्यौ हौ दायक श्यामौ६०।२५१ आधिर्व्याधिरिवालोऽपि १२१२५ आध्यात्मिकं च पित्तादि ५६।१५ आध्यात्मिकं तु वातादि ५६।१० आनकेन मुनेः प्रश्न१९० आनकेन सुपुत्रेण ५३।१५
६।९४
७।६४
४१३४
६/६१
६/९९
६।५१
३।१६६
आनतप्राणतस्था च
आनतप्राणतादौ च
१३।७
११।१३०
१३।१२
२७।१८
आनतं प्राणताख्यं च आनतप्राणतोद्भूता आनतादिचतुष्केऽसा आननं सम्भृतं सौम्यं आननानि यदूनां स
६।११५
२३।९९
७३।७५
आनयामि तवाभीष्टां
आनन्दं ननृतुर्यत्र
आनन्दश्रेष्ठिनः पत्नी आनन्दात्रपरीताक्षः ४३।१३० आनन्दोऽभिरुचिर्येषां ५६।२०
आनाय्यानाय्यवृत्तोऽसौ ४५।१४९ आनीताः शुद्धशीलास्ता: २०|१३
आनीयन्नृपं मंक्षु
३३।१५
आनीय नीतिविद्वीरो
आनीय नीतिकुशलाः
आनीयादात्सुसंस्कृत्य
आनीलचूचुक विपाण्डआनुपूर्व्यसुवृत्ते च
४३।१०
५३।३०
६०।९७
४४।१५
१६।१८
२४।१६
१६।११
८1११
आन्तरस्वरसंयुक्ता
१९।१७० आन्ध्री च नन्दयन्ती च१९।१८९ आपतन्तं स तं हन्तु आपिशङ्गजटाभार
१९।६३
४२/२
आपूर्यावार्य वेगे
५६।११५
४७१८२
आपृच्छय ज्ञातिवर्ग च ९/९७ टे आप्राक्षीत् पुण्डरीकाक्ष ! ३०|३ आवद्ध मुकुटापोड २६।१३ आभिमुख्यं प्रति प्रायः ५८/६४ आमन्दमधुरध्वाना आयताक्षि निरीक्षस्व आययावथ कृत
५९/७१ ५४।१७
६३।६१
आयातस्य ततस्तस्य ५४।६१ आयात्यासन्नकालोऽसी ५०।४७ आयामस्तु त्रिलोकानां ४|११ आयामो भागयोस्तस्य ५।२३७ आयुर्मासावशेषं ते
३४/३९
कायुरेकादशस्यापि ६०।५४१ आयुर्लक्षा बलानां स्युः ६०।३२२ आयुर्वर्णगृहाहारैः
५१५७३ १८४५
पूर्वसहस्राणि
आयुः शुक्रमहाशुक्र
३।१५४
५८ २२२
आयुश्चतुर्विधं नाम आयुश्चतुरशीतिश्च ६०।३१२ आयुस्त्रिद्वयेकपल्यैस्तु
७६६
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________________
आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशत् ५८।२८६ आरणाच्युतकल्पे ता ४३।२१५ आरणाच्युतसुस्कन्धो
४१३०
४१६
६०।१६६
१७१४०
१६।१०
५४।१२
५४।१३
आराध्याराधनां सम्यक् १८१०८ आरम्भे क्रियमाणेऽन्यैः ५८।७९
४८२
८।१४५
आरूढः क्षपकश्रेण
९॥२०८
आरुह्य दण्डरत्नेन
११।२४
आरुरोह गिरिं तत्र
२६२
३१।६९
४२८
५६।८८
आरुरोह रथं शौरिस् आरे या प्रथमा प्रोक्ता आरोढा क्षपकश्रेणी आरोप्य जिनमात्माङ्क- ८ १५४ आरोप्य शिविकां क्वापि २४।२ आरोहति वियन्मध्यं ६२।१९ आरोहणीयौ तौ कार्यों १९।२२३ आर्दवस्थमपि न्यस्त- १४/८७ आर्यपुत्र ! शृणु श्रीमन् ३०|५ आर्यस्तातसमो राजा १९।४७ आर्यामाह नरो नारी ७।१०२ आर्यिकास्तास्तथा ३३।१२९ आर्यास्तिस्रोऽभवं- ६०।४३२
आर्षभ्यास्तु तथा त्वंशौ १९।२२० आर्षास्त्वमिह किं वेदान् २३|३४ आर्हन्त्यविभवापेते ६५।३ आर्हन्त्यविभवोपेतं ६०।१३३ आर्हन्त्यैश्वर्यमालोक्य ९।२१८ आलानस्तम्भमाभज्य २४।४३ आलिलिङ्गतुरन्योऽन्यं ३०।२५ आलोको यस्य लोकान्त-५९।९८ आलोचनाद्यतः शुद्धि: ६४/३४ आलोलकुण्डलालोक- ८ १०७
१०४
आरणाच्युत कल्पान्त
आरणात्पुष्पदन्तेशः
आरण्यकमसौ वेद
आरात्सहस्रपदपूर्व
आराधयदसौ तीव्र
आराधितेन देवेन
आरस्तारश्च मारश्च
आरूढवारणेन्द्राणां
श्लोकानामका राद्यनुक्रमः
आवयोर्नैव जायन्ते
५९/७६
आवयोः प्रथमं यस्यास् ४३ । २५ आवलिस्थविमानानां
६।६९ ३४।१४२
आवश्यक क्रियाणां आश्वापश्चापि निःक्रामो १९।१५० आवां तत्र तपः कृत्वा ६५।५१ आवां पुत्रादिसंयुक्तौ ६५/५२ आविदेहं च विष्कम्भात् ५।५८४ आशङ्कयानार्थतत्त्व ७३४ आशङ्का च न कर्तव्या १७/१०७ आशङ्कितः स नैमित्तं २५।१८ आशयाः स्वच्छतां जग्मुर ३३२ आशंसे जीविते मृत्यौ ५८।१८४ आश्लिष्य दयितां पार्थो ५४।५३ आश्लिष्य रुदतोर्भ्रात्रोः ३१।१३० आश्वास्य जिनभक्तेन
आश्वास्य शोकसंतप्तां
आश्चर्य पञ्चकमिद
आषाढ कृष्णपक्षस्य
आषाढशुक्लषष्ठ्यां तु आषाढं मानवं सूर्य आषोडशादतीत्यान्या आसक्तश्च चिरं तत्र
२२/५५ १७।५२
१६।६३
६०।२७२
२।२३
२२।९५
५६२२
२१।५७
८।१२२
४५१६८
आसनस्य प्रकम्पेन आसनं शयनं तेषां आसनादवतीर्याशु आसने शयने वस्त्रे
८१२८
४७।३०
२१।७३
आसने शयने स्नाने आसन्न भव्यता हेतो
३।१०२
आसन्नष्टौ सहस्राणि ५/४१३ आसंवत्सरमात्माङ्गः ५९।१०५
आसाद्य सा ततस्तस्य ३१।४३ आससाद विमानं तच् ३२।३७ आसीत्कलिङ्गसेनात्र २१।४१ आसीच्चित्ररथो राजा ३३।१५० आसीदयममोघाज्ञः २४।१२ आसीदत्रैव वैश्येशश् २११६ आसीदन्धकवृष्णेश्च १८१२ आसीदमोघविक्रान्तिः २९।२४
८२५
आसीनृपः कलिङ्गेषु २४|११ आसीत्प्रवरको नाम्ना ४३।११६ आसील्लक्ष्मीमती नाम्ना ६०।२७ आसीत्सौर्य पुरस्यान्ते ४२।१४ आसीनयासनवरे १६१८ आसीनानेवमप्यस्मान् ४०।१८ आसौ मेघावनेरुक्तश् आस्ते कंसोपरोधेन आस्थानस्थितमागत्य आस्थानी समये तस्थौ
६।११४
५३।३
आस्थाने ते यथास्थानं आस्महे वयमप्यत्र ५०।२९ आस्रवस्य निरोधस्तु ५८।२९९ आस्वहे तत्र नौ द्वीपे २१।१०५ आह चात्यनुकूलस्तआह चैनमथो साधो
१४/६७
२०१४२
६०/६५
१६।४०
५८।२७५
आहारस्य शरीरस्य आहाराभयदानं
३४।१३७
आसां तु रक्तगान्धार्याः १९ । १९३
आसाद्य फलकं कृच्छ्राद् २११८०
आसां मध्ये च शक्रस्य ५।३३६
आहूय रहसि क्रुद्धः
VialEe
२९।२२
आहूतरच तया धीरः आहूतस्तैरसी भोक्तु ३३।१४७
आहारदानमस्मै सा
आहारमिष्टमिह
३३।३०
५४।३२
१७१८२
[इ]
इक्ष्वाकar द्विधादित्य- १३।१९ इक्ष्वाकुकुलजो राजा
३९/४२
इक्ष्वाकुक्षत्रिय ज्येष्ठ
९।४३ इक्ष्वाकुः प्रथमः प्रधान - १३।३३ इक्ष्वाकु वंशजा जाया इच्छा द्वेषः प्रयत्नश्च
१७।५७
५८ २३
५०/३५
२१।१२१
३३।१४२
३५।३७
५०।१
दूतदर्शनमात्रेण
इतरस्यामभूत्पुत्रो इतरे गङ्गदेवस्य इतः कदाचिद् वरुणेन
इतः केनचिद्वणिजा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८२६
हरिवंशपुराणे इतः पश्य वरारोहे ! ३११४० इति प्रवृत्तश्रवणात्प्र- ३५।७४ इति संगीर्य ते देव्यो ६४।१२९ इतः पूजां नृपात्प्राप्य ५०।६३ इति पृष्टः प्रभुः प्राह ७१३० इति संचिन्त्य संत्यज्य ११।९८ इतः प्रभृति च स्त्रीणां २७।१३१ इति पृष्टा जगुस्ते तं २८।४ ।। इति संचिन्त्य रागान्धः४३।१७० इतः सुलसदम्भोज- २३।११० इति पृष्टा समाचष्टे ४०।३३ इति संचिन्त्य पुण्येन ४३१४७ इतश्च रुक्मिणीसूनुं ४३।६२ इति पृटेन तेनोक्तं २१।११८ इति संमन्त्र्य ते मन्त्रं ४०१९ इतश्च वसुदेवाभं ६०।१२६ इति पृष्टो जिनोऽगादीत् ६१।२२ । इति समये प्रयाति तु ४९।१३ इतश्चावसरज्ञेन ४२।६७ , इति पृष्टो मुनिः प्राह ३३।४५ इति सह चिरवासे ३६।१८ इति गान्धर्वसेनायाः २१११८१ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै २११५ इति साक्षात्कृते तेन ४३।१२९ इति तं नारदस्तन्वी ४३१८९ इति पृष्टोऽवदत्सोऽस्मै ४।४८ इति सानुनयं प्रष्टा ४५।७८ इति तदा मनसा ५५।१०१ इति प्रसाद्यमानोऽसौ २०५९ इति सिद्धार्थवागर्थ ९।१७६ इति तु वनेचरैः कृतमनो-४९।२९ इति प्रियंवदोऽवादि २११३१ इति सुविहितमन्यु ३६।२२ इति ते क्षुत्पिपासाद्य- ९।१११ इति भार्योपदेशेन २६।२४ इति सुस्वप्नफलं श्रुत्वा ८९६ इति तेषां वचः श्रुत्वा १७।४६ इति मन्त्रिभिरामन्त्र्य ५०५६ इति स्तुतिशतैः स्तुत्वा ८।२२८ इति दुरापमहोदयपर्वते ५९।१३५ इति मातृवचः श्रुत्वा ५०।९६ इति स्तुत्वा मुनि नत्वा१८।१७० इति दूतवचः श्रुत्वा ४३।२२ इति मार्गस्तुतिं कृत्वा ४७।१२ इति स्वेष्टार्थसंवादे १४।९४ इति दृग्ज्ञानचारित्र- ६४।१११ इति राजानुजं भक्त- १९।३८ इतिहासमनुस्मृत्य ९।१९८ इति देवकृतभूमौ ३।३०।। इति वचनं गुरोरभि- ४९।२१ इतीमा घोषणां श्रुत्वा ४५।१२८ इति द्वादशभेदेषु २२८८ इति वन्दिजनैर्वन्द्या ८८८ इतीरितं ताः प्रतिपद्य ३५१४१ इति द्विष्टो द्विषे कृष्णः ५४॥३८ इति वसन्तमनन्तमसौ युवा५५।४९ ।। इतीरितेयं हरिवंश- ६६।११ इति ध्यायन्खमुत्पत्य ४२१३३ इति विचिन्त्य रुषा १५१४७ इतोऽपि जिनमानम्य ६११३३ इति ध्यायन्मनश्चक्रे १४।३९ इति विज्ञापितो नत्वा १४।६९ इतोऽपि तापसाकारं ४५।९३ इति ध्यायन्तमायातं ४२१४१ ।।
_इति विज्ञाय निस्सारं ४३॥१२८ इतो द्वारवती लोकः ६११४५ इति ध्यायन्तमेवैनं १९।६७ इति वितर्कमतकित- ५५।२४ इतोऽपि देवक्यपि भर्त ३५।१० इति ध्यात्वा स्वयं सक्तस्९।१४१ इति विहितमहाज्ञो ३६।११ इतोऽन्यदुत्तरं नास्ति १०।१५९ इति ध्यात्वा सुदुर्वारो ६१७२ इति व्यावणितं द्वीपं ५।३७७ इतोऽपि वसुदेवाद्या ६११९१ इति नक्तंदिवं दृष्ट्रा ८५४ इति व्याहृत्य रुद्भवाग्रे १९।१०४ इत्यनुश्रुतमनून- ६३१९२ इति नारदवाक्येन ४४।८ इति श्रमणधर्मोऽयं २।१३१ इत्यनेकदिनरात्रि- ६३।४४ इति निगद्य तदा विबुधः १५१५२ इति श्रुतयथातत्त्वा ९।२०२ इत्यनेकविकल्पेऽस्मिन् १८१९४ इति निशम्य तु काश्चन ५५।६३ इति श्रुत्वा जिनेन्द्रोक्तं५८।३०६
इत्यनेकाद्भुताकीर्णः ५।६११ इति निशम्य वचोऽथ ५५९ इति श्रुत्वा तदाधीत्य २३।१५१
इत्यन्योन्यकृतालापा ९।१५१ इति निशम्य निशाम्य ५५।८८ इति श्रुत्वा प्रतीहार्या २३।११ पत्यन्योऽप्यस्वरूप ज्ञा २१११८५ इति निश्चित्य तेऽन्योन्या९।१२४ इति श्रुत्वा प्रमोदेन ५३।९
इत्यन्योन्याश्रितालापा ५३१५ इति पत्या समादिष्ट ३२१६ इति श्रुत्वा भवान् पूर्वान् १८३१७६ इत्यशेषितपरीषह- ६३।११५ इति पर्वतमाभाष्य २३।१३७ इति श्रुत्वा मनो ज्ञात्वा ४२।५९
इत्यस्यामवसर्पिण्याम् १।२६ इति प्रणोद्य तैः साक-२७११६ इति श्रुत्वा महाक्रोधः २३।१२६ इत्याकर्ण्य कृपायुक्तो ३०१४७ इति प्रबलदुःखेयं ४७१५५ इति श्रुत्वायिकावाक्यं ६४।१३२ इत्याकर्ण्य तदा तेन २१।१६९ इति प्रबोध्यमानोऽयं ४३।१८७ इति श्रुत्वाऽवदन्मन्त्री १४।६१ इत्याकर्ण्य नृपः प्राह १९।२४ इति प्रवाच्यमानेऽसौ २३।१०८ इति श्रुत्वा स जिज्ञासुः २५।२१ इत्याकर्ण्य नृपोऽपृच्छत् २७।३५ इति प्रवृत्तसंकल्प- ४७१५४ इति श्रुत्वा हरित्विा ६२।४२ इत्याकर्ण्य स तस्याश्च २४।४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
इत्याकर्ण्य तदा तस्याः २१ ।१४४ इत्यादयस्तु ते स्तुत्या २२ १०६ इत्यादयो विबोधाय
८७८
इत्यादिचरितं दिव्यं
४८।३२
इत्यादि चिन्तयन् वीरो २६।३९
इत्यादि तस्य वचनं इत्यादित्याभदेवेन
४६/६० २७।१२७ ६२।५४
इत्यादि प्रलपन्तुक्तः इत्यादिप्रियवादिभ्याम् ६१।६५
४३॥७०
इत्यादिवादी स इत्यादिमन्त्रिभिः पथ्य ५०।३१ इत्यादिवचनं तस्य ६५।५४ इत्यादिशुभचिन्तात्मा ६२/६३ इत्यादिश्रुतिकोटीना- ५७११४५ इत्यादिश्य तदा यातः ४२/५३ इत्यादिषु व्यतीतेषु ४५।१३ इत्यादि स यथायोग्यं १९।२६२ इत्याद्यस्य जिनेन्द्रस्य १०।१६० इत्याद्या ह्यार्यमातङ्गा ५१।४ इत्याद्याः सुत विन्यस्त- १३1२५ इत्याध्यात्म विशेषस्य ५८।१४ इत्याभाष्य मनोवेगं इत्यावेदितवृत्तान्तः इत्यावेदितसंबन्धः
४३।१९९
२६।४६
इत्यावेद्य तदादेशाद् इत्यावद्य वधस्थानं इत्यावेद्य वयोवृद्धाः इत्याश्वास्य रहस्येना- ३९/४३ इत्यासाद्य मुनेराज्ञा ४३।१४४ इत्युत्तरमसी दत्वा
१९।१२० ६३।१६
६३।६५
५९/३३
१७९८
२८|४०
इत्युदीर्य कुपितो
इत्युदीर्य मृदुपद्मिनी
इत्युदीर्णा समृद्धोपो इत्युर्वीन्द्रः स विज्ञप्तः इत्येकान्तकुतर्केण
२४/५९
२४।७५
३०।५१
२४/२४
इत्युक्तं प्रतिपद्यासी
४६/५
२३।५५
इत्युक्तमखिलं श्रुत्वा इत्युक्तमनुमन्यैते २७११३२ इत्युक्तविधिर्त्तासौ ३४।१३१
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
इत्युक्तः सोऽभ्यधात् सद्यो १४०५९ इत्युक्तस्स तमाहैव इत्युक्तस्तं प्रति प्राह
१८।१६०
५२।७८
इत्युक्ता इत्यवोचंस्ते
३०/५
७।१४६
इत्युक्ता प्रतिपद्यानु इत्युक्ता सा जगौ राजन् २७।३४ इत्युक्ता सोष्णनिश्वास- १४८२ इत्युक्तास्तेन ते प्रोचु - इत्युक्ते कथयन्नाथ
इत्युक्ते कुपितश्चक्री
५२।८३
इत्युक्ते दर्शितायां च
३३।२२
३३।६८
३१।२६
इत्युक्ते तापसः काष्टं इत्युक्ते तेपु चेतोऽस्या इत्युक्ते प्रणिपत्यासी ४७।१२० इत्युक्ते मुक्तमाध्यस्थ्यो ३१।११५ इत्युक्ते यतिनाद्यन्तां २१।१२४ इत्युक्ते रुधिरोऽतोषि ३१।६६ इत्येवं वदतो दृष्टि १०।६१ इत्युक्ते सान्त्वयित्वा तां ४३।५७ इत्युक्ते सोऽब्रवीदस्ति ६२।३७ इत्युक्ते सोऽवशे २७/२ इत्युक्ते सोऽवदत्स्वामिन् ३१।१०८ इत्युक्ते स्नेहसंचार
६२।२२
इत्युक्ते प्रणतेनोक्तः
४८ २८
२१।१६२
इत्युक्तेन मया प्रोक्तं इत्युक्तो नोदयगात्
२२/२०
इत्युक्तो नोपसंहृत्य २७/५२ इत्युक्तोऽन्यनिवृत्तेच्छः ५४।२५ इत्युक्तोऽपि स दुर्मोच- १७/७० इत्युक्तो विदितश्यामा २२।१४६ इत्युक्त्वा तं कुमारास्ते ६१।२५
इत्युक्त्वा तं समुद्धृत्य
६५/४६
इत्युक्त्वा महतीमृद्धि २१।१५९ इत्युक्त्वा मुनिरन्यस्मै
१७ ४२ ५३।१९
इत्युक्त्वा वसुदेवस्य इत्युक्त्वा विरते तस्मिन् २१।१५२ इत्युक्त्वा शङ्खमापूर्य ४७ १२८ इत्युक्त्वा स विसृष्टस्तै- ५०/४८ इत्युक्त्वा सुलसा साश्रु २३।५४
१९।२६
६०१५
३०|३२
४२१८८
इत्युक्त्वा सुपरावृत्य इत्युक्त्वासौ क्षुरप्रेणइत्युक्त्वोच्चैः प्रधाव्यासौ १९ ४८ इत्थं कुलकरोत्पत्तिः
७।१७७
इत्थं कृतरणक्रीड:
३१।१२५
इत्थं कृत्वा स्तवं भक्त्या २२०४१ इत्थं कृत्वा समर्थ
१२१८०
इत्थं तत्र महानन्दे
८१६१
इत्थं ते पाण्डवाः श्रुत्वा ६४ । १४३ इत्थं मति तयुतावधि १६०४९ इत्थमाकर्ण्य साधर्मं
इत्थं राजा मधी मासे
इत्यं साधुसहायोऽह
इदं विष्णुकुमारस्य इदमेवेति तत्त्वार्थ
इदानीं छिन्नभिन्नाश्व
८२७
इन्द्रः पुरन्दरः शक्रः इन्द्रकाणां द्वितीयायां
इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः इन्द्रसामानिकानेक
३।१७८
१४/२७
१४९
२०६४
१८४९
९।२८
८१२५
४।२२९
इन्द्र के त्वियमेव स्यात् ४।२६४ इन्द्रकेषु त्रयः क्रोशाश् ४।२२२ इन्द्रकेषु तु बाहुल्यं
४२१८
४।१३६
इन्द्रकैः सह सप्त स्युः इन्द्रकैः सह सर्वाणि इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्र
४|१४३
१।३१
२।५४
इन्द्रनीलचयेनेव इन्द्रनीलमहानील- ८१४८ इन्द्रनीलनिभान् केशान् ९/२१९
११।११९
इन्द्रनीलमहानीलइन्द्रनीलमयी भूमि इन्द्रनीलादिभिर्नील
५७/८
७।७२
३।४१
८।१७१ इन्द्राः सामानिका देवास ६।१२४ इन्द्राग्निवायुभूत्याख्या २६८ इन्द्राद्याः कल्पजा देवा ३।१५१ इन्द्राद्यैस्त्रिदशैस्तस्मिन् ५९।१२७ इन्द्रियाणि कषायाच ५८/६० इन्द्रियाद्या दश प्राणाः ५८।१२७ इन्द्रियानिन्द्रियैः षड्भिः १०।१४७
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________________
८२८
हरिवंशपुराणे
ईर्यापथनिमित्ता या ५८०६५ ईश्वरताधर धीर नमस्ते ३९।१४ ईषदूनसमाकारा ३७५ ईषदूनपरिक्षेपः ५।२९९ ईषत्प्राग्भारसंज्ञासा- ६।१२७
इन्द्रियानिन्द्रियोत्थं १०।१४५ इन्द्रियायुर्बलप्राण- ५८।६८ इभवाहननामाद्याः ४५।१५ इम्यस्येभपुरेऽत्राभूद् ६०९५ इभ्योऽपि प्रिय मित्रा ४५।१०० इम्यो राजसमस्तस्य १८।११३ इयन्तं कालमज्ञाता ५०१७ इयन्तं वसता काल- ६२।४० इयमेव जघन्या स्यात् ४।२५१ इयमेव जघन्या स्याद् ४।२५३ इयमेव तु विक्रान्ते ४।२५८ इयमेव भ्रमे ह्रस्वा ४।२८७ इयमेवाप्रतिष्ठाने ४।२९४ इयमेवावरा वर्ष्या ४।२७१ इयमेवोपगीता सा ४।२७३ इयमेवावरान्ध्र सा ४।२८९ इला चैलेयमावृत्य १७।१७ इला देवी ततो रुष्टा १७४१६ इला नवमिकासुरा ३८।३४ इला सुरा पृथिव्याख्या ८।११० इष्टानिष्टेन्द्रियार्थेषु ५८।१२२ इष्वाकाराद्रिणाप्येष ५।५७८ इष्टार्थस्य प्रदानेन १४१५५ इष्ट्वा च सगरं यागे २३३१४६ इह जन्मनि मे मातश् २११५१ इह जहौ वसुधा शिवि ५५।११८ इह भारतजातानां ॥१९४ इह भारतवर्षेऽभूद् ४३।९९ इह वनदेवतास्थितवतीय ४९।२८ इहापरविदेहेऽस्ति २७।५ इहान्तरे सा सुतदर्शनेन ३५।६० इहास्ति दक्षिणश्रेण्या ३०१६ इहास्यामवपिण्यां ६०५५३
[उ] उपकारमतिस्तात २११३५ उपचरन्ननुवासरमादरात् ५५।१५ उपचितो जनताभिरसौ ५५३३ उपन्यासस्तथा चैव १९२२९ उपपादश्च सर्वासां ३३१६१ उपपादोऽस्त्यभव्याना- ६१०६ उपभुक्तानपानोऽसौ १८।१६५ उपमानोपमेयत्व- ५९।१२५ उपयम्य समानीय ४४।२४ उपर्युपरि सौधर्मात् ३।१६९ उपलभ्य मतं जैनं २७।१२५ उपवनं समुपेत्य वनश्रियं ५५४८४ उपवने वृजिने शिवि ५५।११७ उपवासविधिर्यो यः १८।१३६ उपविष्टः शिलापट्टे ९।२०७ उपशान्तकषायात् प्राग् ३२८२ उपशान्तकषायोऽतो ६४।५६ उपशान्तकषायादे- ५८/५९ उपसर्ग विनाश्याशु २०१६० उपसर्गजयं पञ्च १११२३ उपसर्गसहास्तेऽपि २०।२४ उपसहर हे दुष्ट २७१५१ उपसंहृतयोगं तं ४६।४६ उपसंहृतनृत्या च २११५० उपाध्यायः प्रसिद्धोऽत्र १९।१२९ उपायविचयं तास ५६।४१ उपायस्तस्य मोक्षस्य ५८।१८ उपेक्षिताः कुतो हेतो- ५०।१० उपोसिताष्टमायास्मै १११५४ उभयकोटितटीघटितो- १५॥१९ उभये मन्त्रिणो मन्त्रं १९८० उर्वरा सर्वसस्यौपः १९।१८
उरसि चुम्बति तं कठिन-५५।४६ उरोदना बरण्डास्ते ५७।१२८ उरसि नितान्तनील- ४९।७ उवाह धृतिमक्षोभ्यस् उक्तद्वीपसमुद्रेषु ५१७३३ उक्तप्रत्युक्तयुक्तार्थान् १४।९९ उक्तश्च वीर ! विद्धि त्वं ३०।५२ उक्त्वेति कौस्तुभं तस्मै ६२।५४ उक्त्वेति प्रगतो लब्ध्वा३३।११३ उक्त्वासो क्षम्यतां देव ६२।५५ उग्रवंशप्रसूतायां १७।३७ उग्रसेनसुतायादाद् ५३।४५ उग्रसेनपितव्यस्य ४८।४० उग्रसेनस्य तनया ४८।३९ उग्रसेनस्य राज्यं च ११९३ उग्रसेनादिभूपानां ४१।३१ उग्रसेनोऽन्यदा दात ३३१७९ उच्चैःकुलाद्रि संभूता २०१६ उच्चकैरिति मदन् ६३।१९ उच्चैर्गन्धकुटीदेश- ५७७ उच्चर्देशस्थितोऽपि ६५।५८ उच्चर्यशोध्वजो लोके ९।१६२ उच्यते तु गुणस्थानात् ५६।८६ उच्छ्रायः पुनरुद्दिष्टो ५।३३७ उच्छ्रायः पुनरस्य स्यात् ५।८१ उच्छ्रायमूलविस्तारैः ५।२०१ उच्छ्रायस्तस्य पादोनः ५।३१ उच्छायश्चैत्यगेहस्य ५१५०८ उच्छायः षट् शतान्याद्य ६।९५ उच्छ्रायोऽपि सर्वेषां ५।२२४ उच्छायो मूलविस्तारो ५।६९७ उच्छायो मूलविस्तारस् ५।३३१ उच्छायो योजनशतं ५।९० उच्छायो वस्तुतस्तेषां ४१३५१ उच्छ्वासकारणं यत्तु ५८।२६६ उज्जयिन्यामभूद्राजा २०१३ उज्जयिन्यामिहवासीद् ६०।१०५ उज्जयिन्या वणिग्भिन्न- २११८६ उट्टिण्टिकारिसंबन्धं १२।१८
[ई ] ईक्षिता घातकीखण्डे ५४३३ ईदशमीश विभुत्वममानं ३९।११ ईदृशी दृक्स्वनेपथ्या १४।६० ईदग्लक्षणयुक्तोऽपि २३।११६
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________________
उत्कर्षाद् द्वीन्द्रियेषु स्यात् १८७६ उत्कृष्टज्वलिने येयं
४२७७
उत्तमा जातिरेकैव
उत्तरस्यां सहस्राणि
७।१०३
५।४१२
उत्तरायणमुत्क्रम्य ६५।२ उत्तराशाच्युतान्तानां ६।१२० उत्तराफाल्गुनीप्राप्ते
२५९
उत्तराफाल्गुनीष्वेव
२।५१
उत्तरीयाम्बरं स्वच्छं
८ १८८
५/७०३
११५७
उत्तरे च सुरः प्रोक्तो उत्तरोत्तरतन्त्रस्य उत्तीर्णः स्यन्दनादाशु ३१।१२९ उत्तीर्य संक्रमाक्रान्त्या ११।२९ उत्तुङ्गगिरिशृङ्गेषु उत्पत्ति वासुदेवस्य उत्तिष्ठ पुत्र गच्छामो
४३।२०८
१९१
५०।९२
उत्थाप्य तं हरिः प्राह
६२०४४
२८२०
उत्पन्नदिन एवास्यो उत्पन्नश्चाचिरेणाहं
२१।११
उत्पन्नस्यास्य चाभावः
५६।१३
उत्पन्नो मार्गशीर्षस्य ६०।१७० उत्पन्नोत्थानवादीभ- १७।९२
उत्पलोज्ज्वलसंज्ञा स्यात् ५।३३५ उत्पत्स्यते सुतः क्षिप्रं ३२।५ उत्पातिन्यश्च सर्वासु २२।६८ उत्पाद पूर्वपूर्वस्य
उत्पादनादपूर्वस्य
२।९७
५८।७१
४७११३
उत्सवः परमो जातः उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः ६४।९१ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः १०।३३ उत्सुको निषधचापि ५०।१२४ उत्सेधाङ्गुलमेतत्स्याद् ७१४१ उत्सेधः पार्श्वनाथस्य ६० ३०५ उत्सेधश्वाप्रतिष्ठाने ४।३३९ उदकश्वोदवासश्व ५।४६१ उदको ऽप्युदवासोऽपि उदनो मण्डपोऽप्यन ५।३७१ उदतरत्प्रभुणा तरुणीघटा५५।५५ उदयात्तु कषायाणां
५/४६३
५८/९७
इलोकानामकाराद्यनुक्रमः
उदयाद्यस्य हासाविर् ५८ २३५ उदयाद्यस्य पूर्वात्म ५८।२६१ उदयाद्यस्य जीवानाम् ५८।२६९ उदयो विजयः प्रीतिः
रत्नाव
उदस्तै रत्नवलयैर्
५७/३६
५७.८४
५९।२३
उदाररूपलावण्यां
४५/७३
१७१८७
उदात्तस्यानुदात्तस्य उदियाय यदुस्तत्र
१८६
उदियाय स तत्रैव
१८१०९
५।५६८
५।६६४
उदीच्यां गजकर्णाश्च उदीच्याञ्जनशैलस्य उदीच्यान्नृपशार्दूलान् ६१।१२ उद्धः सङ्घोऽस्य मौनः १२८२ उद्घाटिते गुहाद्वारे ११।२५ उद्दिश्य पाण्डवान् यातो ६२४४ उद्यतस्तस्य लोकार्थम् ५९/३७ उद्यानवनखण्डेषु १४।२१ उद्वर्त्यापि ततो भ्रान्त्वा २७।१०४ उद्वर्त्यापि परिभ्रम्य
६०।१५
उन्नतानसमस्निग्ध
८८
२३।७१
उन्मीलितं मनोनेत्र
१६५ ४३।१३२
उन्मुण्डो निषधश्चासो ४८ ६६
उन्नतैः कुक्षिभिभूपाः उनि पद्मनयना
[ ऊ ]
ऊचे कनकमालां तां
ऊचे गत्वेति सुग्रीव
ऊचे वनवती देवी ऊढा च यौवनस्थेन ऊठायाः सिंहदंष्ट्रेण ऊरू सन्धिनितम्बरच ऊर्जयन्तगिरी मृत्वा ऊर्जयन्ताद्विनिर्वाणऊर्जयन्तगिरी वज्रो ऊर्जयन्तनगारोहं
ऊर्ध्वं सार्धरज्ज्वन्ते
ऊध्वं नवरसा जाता
४७१७७
१९।१३०
५३।१०
२११३८ २३।६
८। १४ ३३।१५५
६५।१७
६५।१४
१।११५
४२१
९९१
ऊर्ध्वं नवनवत्यास्तु
६।९३
ऊध्वं क्षीणकषायोऽस्मात् ३१८३ ऊर्ध्वं च पुनरुद्यातो
५।६४
ऊर्ध्वगा बलदेवास्ते
ऊर्ध्वाधस्त्रिसहस्राणि
ऊर्मिभ्रुवश्चटुलनेत्रऊषरक्षेत्र निक्षिप्त
ऊहाङ्गमूहमप्यस्याल्
८२९
ऊर्द्धग्रैवेयकान्तासु
ऊर्ध्वज्वलन मुष्णत्वं
६५१८
ऊर्ध्वं तस्याः पुरा प्रोक्तं ६।१३१ ऊर्ध्वपादानधोवक्त्रान् ४७।७४ ऊर्ध्वं प्रदेशवृद्ध्यातः
४१० ५।४४७ ऊर्ध्वलोकस्य सिद्धा ये ६४।१०६
ऊर्ध्वभागे जलं तेषां
[ ए ]
६०।२९३
६०/४५८
[ ऋ ]
ऋतुमानीन्द्रकं प्राहुस् ६।४३ ऋतुरियाय स धर्ममयस्ततो५५।४७ ऋषिपूर्वी गिरिस्तत्र ३।५३ ऋषभः पञ्चमश्चैव १९।२५० ऋषभोऽभात्स्वयंबुद्धो ९१७३ ऋषभाय नमस्तुभ्यऋषयः प्राक्ततस्तस्थुर् ऋषयोऽनुव्रजन्तीशं
२२।३१
३।६१
५९/६०
एकदा नारद छात्रैः एकदा प्राग् विबुद्धासो
४२४७
१६।२५
७११७
७/२९
६३।८३
४३।२०६
एक एव भवभृत्
एक एव तयोरासी
एकच्छत्रमिदं राज्यं
एकजन्मापकारेण एकत्रिद्वय कमासाश्च एकत्रिंशत्सहस्राणि एकत्रिंशत्सगव्यूति
५।४०१
एकत्रिंशत्तु कोदण्डा- ४।३२५
एकत्रिंशत्तु गव्यूत्या
४।३५७
एकत्वेन वितर्कोऽस्ति
५६।६५
१७६१
३०।२९
१४१५४
२७।१२३
६० ३३९ ५।२९२
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________________
८३०
एकदा मुखताम्बूलं एकदा रामदत्तार्या
एकदा तु शिवादेव्यै
एकदैव रसं वर्ण
४/३५०
एकद्विकगव्यूति एकद्वित्रिचतुःपञ्च ३४१९३ एकद्वित्रिचतुर्दिका नि २४७६ एकद्वित्रिचतुःपञ्च १०।२३ एकद्वित्रिचतुःपञ्च ५८/५ एकद्वित्रिषण्मास ६०४५५ एकद्वित्र्यादिषण्मास- ६५।२७ एकद्वित्र्यादिसंख्येय- ५८।२९७ एकपर्वा द्विपर्वाच
२२।६७
४३।४
२७।६०
१९४१
७३३
एकपादस्थितश्चासा
एकमष्टी च चत्वारि
एकमेव महादिक्षु एकमेव पर्याय
एकमेवासृजत्पुत्रं एकयैव कृतातिथ्यस् एकयोजनविष्कम्भएकलक्षा सहस्राणि
एकवर्णमखिलं जगत् एकं वर्षशतं कृत्वा एकवाक्यतया तेन एकविंशतिपत्यायुश् ६०।१०३ एकविंशतिलक्षाश्च
२१।१०२
५/५४५
एकविंशतिलक्षा वै
२५/३२
४१६८
एकविंशतिरू तु एकविंशतिवारांश्च एकं संख्येयविस्तारं एकषष्टिकृता भागाएकस्मिन्समये कालात् ६४ ९० एकस्य सप्तमी पृथिवी ६० ३०२ एकस्या एकवीरोऽयं
६।१०
१८।२६
१।१२७
एकस्यापि महानरस्य एकस्यामेव चामुष्यां एकस्यामेव रात्री तु
२८ २२
४८/२०
३।११७
२५।३७
एकस्त्रयस्ततः सप्त
एवमादिष्वतीतेषु
३३।४८
१०।१३९
४।१५०
५६।६६
७।१६६
२९।३७
६।१८
५।४५४
६३।३४
६५।३३
४। १९६
६।७६
हरिवंशपुराणे
एका कोटि : पुनर्लक्षा एकातपत्रमैश्वर्यम्
एकान्तं प्राकं क्षेत्र ५६।३० एकान्तविपरीतत्व
५८।१९५
एकान्ते पृष्टया कृच्छ्रात् २४/५५ एकान्ते सुस्थितं ह २२।४८ एकान्नत्रिसहस्राणि ६०/४५९ एकान्नत्रिंशदुत्सेधः ४३२४ एकान्नत्रिंशदुद्दिष्टाः ६०।४१६ एकान्नविंशतिज्ञेया ६०।३७३ एकान्नसप्ततिर्लक्षा: ६०।४९९ एकान्नषष्टिलक्षाश्च ६० ५२२ एकात्मपरिणामेन
५।५८५ ३।३६
एकादश गणाधीशा
एकादश त्रिके पूर्वे -
एकादयः प्रणीता
एकादश सहस्राणि
एकादशैव लक्षा हि
५८।२१९
५९।१२८
६६२
३४१८८
५।३१२
५।५४१
एकादश्यां तु तस्यैव
६०।१७८ एकादश्यां प्रातिहार्य- ३४।१२८
एकादि वासेषु
३४।५२ एकाद्या यत्र पञ्चान्ता ३४।६९ एकाशीतिशतानि स्यात् ५।६८ एकाष्टलोक भीभङ्ग- ५७/१३३ एकेनैवाह्वयं नीतास् ४६।४१ एकेन्द्रियादिकां जाति- ५८।२४६ एकैकं कूपके रोम- २३।६४ एकैकाक्षरवृद्धया तु १०।२६ एकैकं सत्रिधा छित्त्वा ३१।१२० एकैकस्यैव चन्द्रस्य
६।२९
४/५५
एकैकस्य तु बाहुल्यं एकैकस्य नरेन्द्रस्य
५०।१०४
५/२०० ७।४९
एकैकस्य हृदस्यात्र एकैकस्मिंस्ततो रोणि एकैको हीयते चाधः ४१८८ एकोत्तरा तु वृद्धिः स्यात् ३।१५६ एकोनत्रिंशदेव स्युः ५।५१७ एकोनविंशता लक्षो ६०१३६७ एको द्वौ च नव त्रिका- ३४/७४
१०/९०
४३१८
४१९८
एकोनपदकोटी कं एकोनविंशतिर्दण्डास् एकोनविंशतिर्लक्षा एकोनविंशतिः षष्ट्यां ४।१६६ एकोपाध्याय शिष्याणां १७।६८ एको लाभान्तरा यस्य ३३।७१ एकोऽवतिष्ठते यत्र एणीस्वरूपिणी स्तन्य- २९४९
६।१३५
१९।२५८
एत एवं ह्य ुपन्यासा एतावदत्र कार्य
५० ९९ २।१२.
तु एतावतैव पर्याप्त एतावानेव पुरुषो ear विद्युत्कुमारीणां
५८ २८ ५।७२७
५।७०७
एतास्तु दिक्कुमारीणां ५।७२४ एतास्तीर्थकरोत्पत्तौ एतास्त्रयोदश ख्याताः ५६।१०९ एते जनपदाः सर्वे
११॥७३ ६॥७७
एतेषु तु विशुद्धेषु एतेषु विधयः कार्या
३४ । १३०
५८ १७५
९।१५०
७/३९
५।१२
१८२४
एते स्वदारसन्तोषएतैतेक्षणसाफल्यएतैरप्यष्टबांलाग्रे एतैः सर्वैरयं द्वीपो एवमाद्यास्तथान्येऽपि एवमाद्यानि चान्यानि एवमाद्येष्वतीतेषु ४५।२० एवमस्त्विति नीत्वाऽसौ २२ ।१४८ एवमस्त्विति संत्रस्तां ४२।९१ एवमीशस्त्रिलोकेश
२५।५०
५९।२९
९।९६
१७।७८
३१।३५
एवमुक्त्वाऽवदत्कन्या एवमन्योऽन्यसंसक्त- ५७/१०७ एवमेकातपत्रायां एवमेता बुधै
२५।१६
१९।१९९
एवं तु द्वादशैवेह
१९।१९५
१७।१४
एवं दक्षः प्रजावाक्य एवं द्वादशवर्गीयैर्
५७।१६१
एवं नित्योत्सवानन्त
५८ १
एवमुक्त्वा प्रजा यत्र
एवमुक्त्वा निशान्ते सा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८३१
एवं वसन्ततिलकप्रचुर- १६७९ एवंविधवचः श्रुत्वा २९।९ एवं सति सुखे दुःखं १९।२३ एवं समितयः पञ्च २।१२७ एष सोमप्रभो देवि १२१३९ एष यादवसंबन्धः २१११७८ एषा चैवापरा भ्रान्ते ४।२५२ एवोक्ता विपश्चिद्भिर ४।२५७ एषैव च तमिस्रेऽपि ४।२९० एषैव हि झषे हीना ४।२८८ एषैवान्तरा वेद्या ४।२६७ एषैवावादि विद्वद्भिर् ४।२६२ एषोऽसौ गरुडव्यहो ५०।१३३ एोहि कृष्ण योऽहं ते ६५।४५ एहि स्वागतमित्याह २२।१२९
[ ऐ] ऐन्द्र दअिणमेतेषां ५।३५२ ऐन्द्राः कुम्भमहाम्भोदाः ८११६६ ऐरा च विश्वसेनश्च २०१९७ ऐरावतं समारोप्य २।४० ऐलेयः स्थापितो राजा १७११९ ऐलेयाख्यमिलायां स १७१३ ऐशानधारितस्फीत- २।३८ ऐशानलोकपालस्य ५।६६५ ऐश्वयं रूढिशब्दस्य १७४१२६
[ओ] ओषधीश्चापि विद्याश्च २२१७६
कण्टकं कुण्डलं चापि ६२१८ कण्ठलग्ना रुदन्ती तं ५०६८९ कण्ठाश्लेषोचिताः पूर्व ९।३१ कतिपयाहभवं वत किंपुनः५५१९९ कतिचित्पूर्वजन्मानि ४६।४८ कथंचिद्यदि मोक्षः ४३।१४० । कथमपि कार्यसिद्धिमुप- ४९।४० कथं नाथ जिनो भावी ३४।२ कथं वा मम पुत्रोऽस्य ३३।४४ कथं वा तापसि ! प्रोप्तो २९।५४ ।। कथितं मुनिना दिव्य- १९६८९ कथं द्वैविध्यमेतेषा- २३।३५ कथा पुनर्नवीभूता ४८।३७ कथेयं कुरुवीरस्य ४७१२०. कदम्बवनकुण्डेपु ६१।३६ कदम्बवनसंन्यस्तां ६११५० कदनं पाण्डुपुत्राणां १३१०८ कदली नालिके रेक्षु ५९।४४ कदाचित् षाडवीभूताः १९।१८६ कदाचित्सह सुप्तोऽसौ २४१७८ कदाचित्तु हृते मासे २४।१५ कनकः कनकाभश्च ५।६४३ ।। कनत्कनकदण्डानि ११३ कनकनकमालया ४७।१३७ कनकनकचित्रया ३८।३६ कनत्कनकसंकाशः ६०१५५५ कनिष्ठोऽत्राजयज्ज्येष्ठं ११४८२ कनीयान् जिनदत्तस्तां ६४।१२१ कनीयांसं महाकाले ३३।१०२ कन्दर्पस्य विजेतापि ४२।२१ कन्याया भ्रातरौ नाना २१११७१ कन्यानन्यसमा तस्य १९।५५ कन्यार्थी च यशोऽर्थी च १९११२६ कन्यादानकृतारम्भ- ४२१६५ कन्यां मदनवेगां च २४१८४ कन्याया मानसं प्रश्ने २२१११९ कन्याकूतविदूचे स ३४।२० कन्याः पञ्चशतान्यत्र २४।९ कन्यासी नृत्यगीतादि २११४२
कन्यां तामपि दुर्गन्ध ६४।१२० कन्यया हृतचित्तश्च १७८ कपाटं पादघातेन ६१४८६ कपिलो वासुदेवोऽपि ५४१५६ कपिलं तत्र पुत्रं स्वं ३२॥३१ कपिष्टनामान्वयभूषणस् ६६।५ कमलकिसलयोद्यन् ३६।३६ कमलायास्तदा भर्ता ३३।१०३ करपदमुद्रिकाकटकनूपुर- ४९।११ करसलेन महीतलमुद्धरेज् ५५८ करालब्रह्मदत्तन २३।१५० कराङ्गुलिस्पर्शसुखं सरासे ३५।६६ करिकटेषु युगच्छदगन्धिषु५५।३८ करिणं निर्मदीकृत्य २४।४६ करीन्द्रमकरस्फुरत् ३८१७ करुणावानसौ योगी ४३।१४२ करेण कः स्पृशेदज्ञः ४०११२ करोति सज्जनो यत्नं ६२।४६ कर्कोटकहृषीकेशौ ५२।३६ कर्णः सुदर्शनोद्याने ५२।८९ कर्णामृतमिवाकर्ण्य ४३।२८ कर्णान्तरततासक्त- २।३४ कर्णचामरशङ्खाङ्क ८।१४४ कर्णावक्षतकायस्य ८१७६ कर्णे कथितमेतस्य ४७।७२ कर्तव्यं मम नास्तीति ३३।७७ कर्मस्थितिकमित्युक्तं १०१८६ कर्मभूमिगता मा ७।१०७ कर्मभूमि भवेनापि १२।२९ कर्मभूमिषु सर्वासु ६४।८९ कर्मारवी च संपूर्णा १९।१८२ कर्मणोऽष्टविधस्येवं ३।९९ कर्मक्षयसमुद्भूत १०६ कर्मप्रकृतभावो हि ५६१८४ कर्मणोऽनुभवात्तस्मात् ५८.२९३ कर्मोदयवशोपात्त- ५८।२५० कर्मगौरवदोषेण ६२।६२ कर्मोदयवशात्पापाद् ५८१८२ कर्मभूमिषु सर्वासु ३।१३२
क एष भगवान् वंशो ३।१९२ ककुभोऽभासयद्यस्य २८ कच्छश्चापि महाकच्छः १२।६८ । कच्छास्यविजयायाम ५।५४८ कच्छा सुकच्छा महाकच्छा५।२४५ कच्छादिषु यथासंख्य- ५।५८ कटकैः कटिसूत्राद्यैः ११११२२ । कटिस्थकरयुग्मस्य ४८ कठिनस्तनचक्राभ्यां ८।१७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८३२
५८।२१३
कर्मत्वपरिणत्यात्मकर्मास्रवाणां भेदोऽयं
५८१९१
६० ५५०
कलहे प्रीतिसंयुक्ताः कलागुणविदग्धाभिस् १९ ।२७०
कलापारमिता रूप
३१।११
२१।७१
१९६
३५ ६४
६६।२
१६।६९
कलापारमितस्याम्ब
कलागुणविदग्धानां
कलागुणान् प्रत्यहमेत्य
कलिङ्गराजस्य नृपस्य कल्याणपूजन मिनस्य
४५१८५
कल्याणहेतवः प्राणा कल्याणातिविशेषः ३४।१२२
कल्याणैः परिवर्धमान
६६।५३
३४/५३
कल्पितश्चतुरस्त्रोऽयं कल्पस्ते द्वे तथार्थानां
७/६३
कल्पनच्युतपर्यन्तान्
६।१०५
६।३७
कल्पौ लान्तवकापिष्टी कवचैः खेटकैः खड्गैः ११।११७ कश्चिद्भवाब्धिदुःखोमिं-१८ १२६ कश्चिन्महाकुलीनोऽपि ३१।५५ कषायकलुषो ह्यात्मा ५८।२०२ कषायतीव्रमन्दादि- ५८ २८८ कषायाः क्रोधमानौ च ५८।२३८ कषायप्रशमोद्भूतं ३८८७ ६१।१०२ कषायान्तमसौ कृत्वा ११।१०२ कष्टं ख्यातिमवाप्य १७।१६३ कस्तस्य तान् गुणानुद्धान् २।१५ कस्ता योजयितुं शक्तस् २।१८ कस्येदमटवीमध्ये
कषायवशग: प्राणी
४७१८५
४२।४७
३३।२६
कंसवाक्यमिति श्रुत्वा ३३।१४ कंसमञ्जूषिका ह्येषा ३३।२१ कंसं जामातरं हत्वा ५०११४ कंसकोपमदपर्वता ६३।२७ क्व वाधिजम्बूद्रुममण्डिता ५४।७५ क्व परदयापरः परमधर्म - ४९।३८ क्वचित्पुण्यफलप्राप्त्या ५७१८१
कस्येयं भगवत्कन्या
कंसः कलिन्दसेनायाः
हरिवंशपुराणे
क्वचिच्चित्तं स्निग्धसुकृष्ण ३५।५१ क्वचिदालेख्यहृद्यानि
५७/८०
क्व चेदं सौकुमार्यं ते क्वचित्सैहं क्वचिच्चभं
कमयुतमवनत्या
८ २०३
७ १००
३६।४९
१८२१
क्रमात् शतसहस्रेषु क्रमणो मानुषाख्यस्तु
५/६०५
क्रमेण स द्वन्द्वयुगं प्रयातं ३५७ क्रमेणाद्यन्तमध्येषु
३४६२ क्रमेण क्षीयमाणेषु ७।१२३ काकन्दी पुष्पदन्तश्च ६०११९० काङ्क्षाख्यस्य महाकाङ्क्षः ४ । १५१ काक्षिनासारिकागर्ताः ११।७२ काकिण्यालाक्षणं कृत्वा ११ । १०६ काञ्चनाख्यगुहायां तं २७१८४ का थियोsपुण्यजन्मानः ५९।१०२ कान्ताविरहसंतापा ४३।२२० कान्तया कुसुमावल्या ४६।९ कान्ता व्यन्तरदेवानां २८० कान्ता चारुमतिश्चारु २९।२५ कान्तारभिक्षया प्राण- ६५।२८ कान्ती गरुडसेनौ द्वो ३३।१३३ कान्दिशीकान् करोम्यद्य ३१।६५ कापिष्टाऽर्धरज्ज्वन्ते ४२४ कामकरीन्द्र मृगेन्द्र नमस्ते ३९।१३ कामगेन विमानेन ३२।२१ कामदा कामवद्भूमिः ५९/३ ११।२८
दृष्टिही
कामवृष्टि वशास्तेऽमी कामदः कामदेवेन
११।१२३ २९।१२ कामशाला विशालाः स्युः ५९।४९
कामदत्तो जिनागार
२९।१
कामदेवरति प्रेक्षा
२९।३
कामिनीप्रणयकेलि
६३।३८ कार्मुकाणि तु चत्वारि ४।२९९ कायवाङ्मनसयोग
६३।८६
कायवाङ्मनसां कर्म कायाज्ञादिसरन्येषां कायेन्द्रियगुणस्थान
५८/५७
५८।६३
२।११६
२७१८६
कायोत्सर्गस्थितं साधु कायोत्सर्गेण षण्मासान् ९/१०१ कायोत्सर्गस्थितं रात्री ४३।१३७ कायोत्सर्गविधानेन
१११०२
२२/२५ कारयित्वा ततः पौर- ३२/३९ कारणं स्थिरभावस्य ५८।२७६ कार्यः स्वरान्तमार्गश्च १९।२४० कार्तिक्यामन्यदा रात्रा- ३४१४६ कार्तिकासितपञ्चम्यां ६०।२६२ कालसंवरमानन्द्य ४३।२२६ कालमष्टादशाम्भोषि- ८२१८ कालसंवरसंग्रामं कालभावविकल्पस्थं ५६।५२ कालश्चापि महाकाल: ११।११० कालस्त्रिभागशेषेण ६०१५४३ काल: पञ्चास्तिकायाश्च ४५ कालकेशपुरं रम्यं २२ ९८ कालं कृत्वा युवां जातौ४३ । १२० कालस्वभावभेदेन ७।१४० काल. कालहरस्याज्ञा ५९१८४ काल' पल्योपमाख्योऽसौ ७।५४ कालसंवरमुन्मुच्य ४७।८० कालानतिक्रमादी तु ६४।३८ कालागुरुक ६०।१०७ कालातिपातिभिर्व्यर्यैः २२।१४७ कालिङ्गी पूरणश्चार्वी १९/५ कालिन्दीस्निग्धनीलाम्बु १४।२ कालिन्दी तिलका कान्ता ३३।९९ काले तत्र मुनी व्योम्नस् ३४।१२ काले संप्रति साधूनां १८१४० काले विद्याधरास्तत्र
२३।१४
काले पितृष्वसा तस्मिन् ४२।४९ काले सत्र मुनि
१६।२८
काले तत्र हरि प्राप्तो
काले तस्याभवच्चक्री
कालेन तावता तेषां
कालेन यावतैव स्याद्
कालोदस्थाः प्रवेशेन कालोदं पुष्करद्वीपः
४३।७४
१३।२७
७१९४
७१८
५/५७४
५।५७६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८३३
कालोदे दिशि निश्चेया ५।५६७ काव्यस्यान्तर्गतं लेप २४४ काशिकौशलकौशल्य- ३३ काश्चिद्भूषास्रगाधाने ८।४९ कांचित्कालकलां तस्य १४।५१ का स्त्री का वा स्वसा १९।१०६ किंचिद्रे निवेश्यकं १९६४६ किंचिदारक्तवस्त्रा २६९ किं करोमि क्व गच्छामि६२।४९ कि केनात्र महादानं २३।२८ किं भौगैरीदृशैः कृत्यं ४३।१८५ कि मेऽथवा प्रार्थनया ६६१४८ किं तत्र वर्ण्यते यत्र २।४ किमहो देवदण्डोऽस्य ४३।१८१ किमत्र ते स्वप्नफलं ३७।२६ किमत्र बहुनोक्तेन १७७१ किमर्थं क्षेमवार्ता नो ५३।४ किमेतदित्यसौ घ्यात्वा ४३५१ किमर्थमागतो भतः ४३३९५ कियदिदं जगतीपतिपौरुषं५५।६४ कियन्तः समतिक्रान्ताः ३।१९३ किरन्नमृतदीधिति- ४२।१०१ किरातवेषभृत्पत्न्या ४६।१० क्रियाविशालपूर्वस्य २।१०० क्रियासु स्थानपूर्वासु २१११७ क्रियाविशालपूर्व तु १०।१२० क्रियाणां भवहेतूनां ५८।३०० क्रियाधिकारिणीत्युक्ता ५८।६७ क्रियातश्चाक्रियातोऽन्या-१०।४७ किरीटं वरहारं च ४१।३३ किरीटसत्कुण्डलपूर्व- ३७।४३ क्लिष्टाः स्थावरकायेष्व- १२।४ कीचकः प्रथमस्तेषां ४६।२७ कीचकं शतसंख्यास्ते ४६।३९ कीचकानुजवृत्तान्ते ४७.१ कीर्तनं क्षत्रियादीनां १७७ की. लौकान्तिकैर्वाचः ९७१ कीदृशं चरितं तस्य ४३।९८ क्रीडार्थमागतस्यास्य १२।२२
१०५
क्रोत्वा तत्र च कापसिं २११७६ कुमारश्रमणस्याथ ६११५ क्रीडया स पुजिग्ये ४८।१५ कुमारी त्वद्गतप्राणा ३२।१४ क्रीडापूर्वं गतो गेह- ४८०२२ कुमारोऽपि शिवादेव्याः १९६४० कुकंसशङ्कां वहताग्रजेन ३५।७९ कुमारी चारुदत्तोऽयं २१११२६ कुक्षेर्गोमक्षिकायाश्च २११४७ कुमारयोस्तयोस्तत्र ३११८४ कुचकलशकलत्रो ३६।६२ कुमार्यावव वैराग्यात् २१०१३३ कुचानिव निजानिमा- ३८१३२ कुम्भनिरन्तरारावैर् ८।१६५ कुटजनीपकदम्बकदम्बकैः५५।७८ कुयोन्यशोतिलक्षासु १८५६ कुटम्बिनोजडप्रायो ३३।१५८ कुरवः कुरुदेशेशा ९।४४ कुणिमः क्षणिकं मत्वा १७।२४ कुरु धर्मोपदेशं यो
२८/१२ कुणिमश्च विदर्भेषु १७४२३ कुरु कन्ये गुणं कण्ठे
३१॥३३ कुण्डलोज्ज्वलगण्डस्य ८२६ कुरुजाङ्गलदेशस्य ४५।६ कुतस्त्योऽयं नृमांसादः २४।१० कुरुते भूपति नाभि. २३।७४ कुतीर्थध्वान्तमुद्ध्य १।१४ कुरुणामीश्वरः पुत्र ५०९३ कुतुपेषु यथास्थानं २२।१४
कुरुजाङ्गलपञ्चाल- ११॥६४ कुतो हेतोरयं लोको २३३२ कुर्वाणश्चन्द्रसंकाशाश् ९।६४ कुतोऽपवर्तते नाथ २०२८ कुर्वनिर्नामिकस्तीवं ३३।१६६ कुदेवपाषाणमयातिवर्षे - ३५।४८ कुर्वन्तु व्याख्यानमनन्य- ६६।४२ कुन्थुर्वैशाखमासस्य ६०११७७ कुर्यादत्र हि संचारं १९।२४७ कुन्थोण्डिलिकत्वे तु ६०१५०६ कुलमुवाह विवाह विधो-११५।२८ कून्थो: षष्टिसहस्राणि ६०।४३७ कुलमानधरा धीरा ५०।१०९ कुन्तकचशूलाद्यैर् ४१३६३ कुलक्रमागता तेषां ४०।३९ कुन्ती च द्रौपदी देवी ६४।१४४ कुलशैलनितम्बेषु १२०२८ कुन्ती मद्री च कन्ये द्वे १८।१५ कुलालेनेव चान्येन ३३९८ कुन्ती पप्रच्छ तां प्रीत्या ४५७७ कुलिशकठिनमुष्टि ३६।४२ कुन्ती गतिवशेनते ४५१६१ कूलीनानां समाजेऽस्मिन् ३११५० कुन्तो निष्णातसंबन्ध- ५०८८ कुशलं नाथ युष्माकं २११११६ कून्त्यधीनतनया ६३।५६ कुशलाचरणाचार- ५८।१०४ कुन्त्यग्रेण वितीर्णभैक्ष- ६४।१४६ कुशली चारुदत्तात्र २११११५ कुपूतना पूतनभूतमूर्तिः ३५६४२
कुसुमभारभृता प्रणताभृशं५५।३९ कुपात्रदानतो भूत्वा ७।११५ कूर्चप्रारोहिणस्तत्र १७१९० कुम्भकण्टकनामायं २१।१२३ । कुटं वैश्रवणाख्यं तु ५।५५ कुमुदा नलिनी पद्मा ५७।३४ कूटं च लोहिताक्षं च २।२१८ कुमारकाल: कृष्णस्य ६०५३२ कूटान्येकादशैवाग्रे ५।१०५ कुमारस्य गजाख्यस्य ११११६ ।। कूटानां सप्तशत्यासु ५७।१३१ कुमारदेवसंज्ञोऽहं ४६।५१ ।। कूष्माण्डगणमाता च २२१६४ कुमारः स्वरभेदेन ३१।११३
कृतरणं परिभूय पुरः ४४.५२ कुमारः क्रीडितं चक्रे ९४
कृतज्ञः कृतदोषेषु ४०१७ कुमाराणां जिनानां तु ६०॥३३२
कृतमण्डनमारूढो १४॥२८
Page #872
--------------------------------------------------------------------------
________________
८३४
५४/४९
कृतदोषेष्वपि प्रायः कृतवत्तोऽपकृति विषमां १५।४६ कृतसाहाय्यकः संख्ये
३१।१३६
कृतप्रणतिरध्यास्य
कृतरूपपरावतिः
५०१४०
२४/६५
कृतपूजाः सुरैरिन्द्राः ५८।३११
कृतः सामन्तसंघातैर्
२१४९
कृतस्मरणया देवि !
२९।६५
कृतकृष्णवचा भामां
कृततीर्थोदकस्नानः
कृतसंकेतया पूर्व
कृतकको पविकार
४३।१७
११।४२
२१/५४
२५/५९
कृततापसधर्मस्य
३३।६९ कृतपरिष्वजनः स्वजनैः ५५।७१ कृतपद्मोदयोद्योता १।३४ कृतार्थ पूज्य ते जन्म कृतिश्च वेदनास्पर्शः कृतावधानस्तत्सिद्धि ५७।१२४ कृताभ्यां कर्णयोरीशः ८।१७७
४७ ९
१०।८२
१३ २९
कृताष्टापद कैलासा कृते दायादवर्गेण
४७।६
६१।६१
कृताञ्जलिपुटाभ्यां स कृताञ्जलिपुटस्तोत्र
४३।९१
२१।१२
५३।२
४२|७०
१७१६२
६०१८४
६२।५७
२०१६२
कृताणुव्रत दीक्ष
कृतेषु व्रणभङ्गेषु
कृतोचित यस्त
कृतोऽभिवादने तेन कृत्वा सनत्कुमारेन्द्र कृत्वा नेमिजिनेन्द्राय
कृत्वा शासनवात्सल्यकृत्वा जिनमहं खेटा: २६.३ कृत्वामराच जिननिष्क्रमणं १६।५८ कृत्वा चात्र भवे भव्ये ६०/४० कृत्रिमा कृत्रिमेयश्च
२२४०
कृपया स मयात्रायं
२८ २४
२९।४८
३।१२२
२३।९७
५२.८
कृपास्नेहवशात्प्राप्ता कृम्यादिद्वीन्द्रियेष्वेके
कृशैस्तु चिबुकैर्दीर् कृष्णवर्णैर्हयैर्युक्तो
हरिवंशपुराणे
कृष्ण दक्षिणपार्श्वे त्व
कृष्णं भीष्मसुता चित्त -
कृष्णको टिशिलोत्प
कृष्णस्य पुण्यसामथ्यं ४०११० कृष्णस्य मार्गशीर्षस्य ६०।२३१
५२।७
४२१४४
१।११०
कृष्णा नीलाच रक्ताश्च ६।९७ कृष्णा कृष्णपदं नत्वा ५४।५२ कृष्णा नीला च कापोता ६।१०८ कृष्णोऽपि च यथोद्दिष्टां ६२।२७ कृष्णाजिनधरास्त्वेते २६।१८ कृष्णेनाभिमुखीभूता ५२।४५ केचित् संख्येयविस्तारा ४१७० केचिद् द्वित्रिभवाश्वान्ये ३ | १७३ केचित् पूर्वभवाभ्यस्त - ३ | १७४ केच्चिच्चरमदेहास्तु केचिदूचुर्जनास्तत्र
६१।९२ १७।११
केचित् निरन्वयव्वस्त - ९।११० केचिद् वस्त्राणि चित्राणि २ । १५२ केतुमाली महामाली ५२।४० केदाराकृतयः केचित् ४।३९४ केनापि हेतुना को प केनायं पूरितः शङ्खो
२८१७
केवलं कायमन्तापं
४२१७
haa T तु केवलस्य प्रभावेण
२१६०
५८।९६
केवलित संघेषु केशकुण्डलसंघातं केशवेन वितीर्ण मे
२/५३
४७/९४
९।११
५।१३४ ४८४
केशकुन्तलभारोऽभान् केशरी ह्रदतः सीता कैटभश्च तदा च्युत्वा कैटभोऽपि दिवश्च्युत्वा ४३१२१८ कैकेयायकाम्बोज - ३।५ कैशिकी चेति विज्ञेया १५४१८५ कोऽयं रम्यतमो देश: ६५।४० १४/२५
कोकिला कलकण्ठीनां
कोऽत्र कस्य बहि
६३।६९
कोटी कोट्यो दशामीषां ७1५१ कोटीकोटी च लक्षाश्च १८/६३
५४।५७
३३।६५
६।१३०
कोटी लक्षास्तु पञ्चाशत् ६०।४६७ कोटी तू परिधिर्लक्षा कोटोकोट्यो दशामीषां कोटी कोट्यो दशैतासां कोटोकोट्यश्चतस्रश्च
७1५५
७१५६
७३६०
७।१६८
कोटी तू परिधिर्लक्षा ५/५९४ कोटीनामेकलक्षा स्यात् ५।५६० कोटी भाग सहस्रं स कोटीभागं सहस्रं तु कोटीभागं स पल्यस्य ७ १५७, १५९,१६१,१६३
७११६४
कोटीशतं त्रिषष्टयग्र- ५।६४७ कोटीशतानि तप्त स्युः ५।६ कोटी च दशलक्षाश्च १०।११३ कोट्यः षड्विंशतिर्यस्मिन् १० । ११५ कोट्यो यत्र कुमाराणां ५०।२६ कोट्यश्चैव चतुस्त्रिंशत् १०।२४ कोटयः षट्विंशतिर्यत्र १०।१०८ कोटयस्तिस्रोऽर्द्धकोटी च ८।२३५ कोऽभिप्रायः प्रभोरस्य ९।११७ कोsवधीत कामधेन्वर्थं
२५/९
३।११९
२८४८
२७/६९
६१।५६
५८।६६
क्रोधमानमहामाया
क्रोधानुबन्धमित्येकं क्रोधाद्धम्मिल्लपूर्वेण क्रोधाधिक्यात्ततो दध क्रोधावेश्वशात्प्रादुर् क्रोधाद्यभ्यन्तरोपाधेः
६४।४९
क्रोधान्धेन विधेर्वशेन ६१।१०८ क्रोशार्द्ध मृत्तिकागन्धः ४ १३४२ क्रोशः सार्धस्तु वंशायाम् ४।२१९ क्रोशद्वादशभागाश्च ४२२६ क्रोशस्य सप्तमो भागस् ६।१४ कौतुकात्करपद्माभ्यां ४३।९३ कौन्तेयानां कृतातिथ्या ४५/७६ कौमारं पतिमुज्झित्वा २१।६८ कौमार्य त्रिशती पञ्च ६०/५२६
कौमार्ये मण्डलेशत्वे
६०/४९३
४५/८०
कौरवाय पुरैवाहं कौरवान्वयसंभूतो
२५1८
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________________
६१।२४
कौशाम्बवनसुप्तस्य कौशाम्बीधरणश्चित्रा ६०।१८७ कौशिकीनां च विद्यानां २२१७८ कौशिकायात्र तैस्तस्यां २९/३१ कौस्तुभ: कौस्तुभासश्च ५।४६० क्षत्रियाः क्षतितस्त्राणात् ९ ३९ ५२।२५ क्षत्रियैर्बहुभिर्युक्त
क्षत्रियेषु तथान्येषु २५।१० क्षम्यतां यक्ष ! दोषोऽय- ४३ । १४३
क्षम्यतां क्षम्यतां सौम्ये ५४।४७ क्षम्यतां क्षम्यतां मूढैः ६१/६४ क्षयोपशमभावे च
१०।१४४
क्षयोपशमसापेक्षं
१०।१४६
४३६६
क्षारोष्णतीव्रसद्भावक्षितिभृतः क्षितितः
५५।११०
क्षितेः क्षितीश्वरोत्क्षिप्तां ९१८८ क्षितेरसुरनागविद्यु- ३८।१७ क्षिप्तमस्मात्प्रदेशात्त्वं २२।१९
क्षिप चक्रं किमर्थं त्वं ५२।७७ क्षिप्रमुत्क्षिप्य बाहुभ्यां ४७।१२६ क्षिप्रं चिक्षेप चाग्नेय- २५/६६ क्षिप्रं क्षिप्रं निरस्या सा २५।६९ क्षुत्पिपासातिहरणं २१।१०० क्षुत्पीडिता जनास्तत्र ६०।११४ क्षुभिताः पूर्वमेवासन् ३१।५९ क्षुभिताम्भोधिगम्भीरां ८।१५७ क्षुभितमभिपतन्तं
३६।४६
२०/२७
११।४३
क्षेत्रपर्वतनद्याद्या ५।१६५ क्षेत्रकालादिभिः सिद्धाः ६ ४।८७ क्षेत्रस्याद्यस्य विस्तार: ५।१७
५।१९
५८ ५।४९६
क्षेत्राद् द्विगुणविस्तारः क्षेत्राणि सन्ति सप्तात्र क्षेत्राणि भरतादीनि क्षेत्रान्तरहृतां मत्वा क्षेत्राणां च भवेच्छेदो ५/५०१ क्षेत्रादिभेदभिन्नानां ६४।१०३ क्षेमं यदि नृपैस्तेभ्यो ५४।२४
५४।३१
क्षुल्लकः पुष्पदन्तस्तं
क्षुल्लकं हिमवत्कूट
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
५।२५७
७।१५३
२२।२१
क्षेमा क्षेमपुरी ख्याता क्षेमन्धरः स मत्वार्थक्षीरेक्षुरसधारौघैर् क्षीणार्थोऽपि पयोधि - २१।१८६ क्षीरस्रावित्वमक्षीण ३४।६५ क्षीरापूर्णाः सुरैः क्षिप्ताः ८।१६४ क्षीरोदान्या च सीतोदा ५।२४१
[ख]
खगरावखराराव
६२।१६
खचरदेवनृपामरजन्मजं ५५ ५८ खड्गदीप्रकरः सोऽयं ३३।१११ खड्गखेटकहस्तं तं ५१।३९ खड्गाङ्गारकपौण्ड्राश्च १९१६८ खण्डस्वप्नानिमान् दृष्ट्वा ८२७५ खरभागं नवानां तु ४१५१ खरनखर कठोरी ३६।४१ खावतीर्णाभिनन्द्यका ३२।१२ खाष्टाष्टचतुरस्त्यक्षी- ५७।१३५ २५/५४ २५।५३
मातङ्गनिकायस्य खेचराणां निकायस्य खेचराः स्थापयाञ्चक्रस्२७।१३३ खेटो दधिमुखः शौरि ३१।६७ खेटेऽस्यैवात्र लाभोऽस्ति १९।११२ ख्यातं कर्कशनामैकं ५८।२५७
[ग]
गर्भाधानात्पूर्वमर्वाक् प्रसूते ३५।८० गङ्गश्च गङ्गदत्तश्च ३३।१४३ गङ्गा पूर्वेण पद्मस्य ५।१३२ गङ्गा सिन्धुश्च रोह्या च५।१२३ गङ्गादेवी विदित्वा तं ११।५१ गङ्गानुकूलमागत्य ११।३ गङ्गा चैव नदी रोह्या ५।१६०
४४।७
५।२६७
गङ्गाद्वारगतामङ्गगङ्गासिन्धू प्रतिक्षेत्रं गङ्गाकूटं श्रियः कूटं गङ्गासिन्धुमहानद्योर् ७।१२४ गङ्गाद्या देवकीगर्भे
५१५४
३३।१६८
८३५
गच्छत्वमादितो वार्तां ६२/५३ गच्छन्मार्गवशात्क्वापि १९/६० गजकाननरम्यस्य ४०/२६ गजकर्णाश्वकर्णानां ५।५६९ गजाः गजैः समं लग्नास् ५१।१६ गजाश्वरथसंघट्ट- ८१३३ गच्छतस्तावसंख्येय- ६४।८२ २५/६१
गजाश्वरथपादातं
गणश्च शुचिशोचिषां ३८|१९
१२।६९
गणी भद्रबलो नन्दो गणी महेन्द्रदत्तश्च
१२।६६
४२।१३
गण्युवाच वचो गण्यः गण्डस्थलमदामोद- २३३ गणिकां बुद्धिसेनाख्यां २७।१०१ गणे स्थविरसन्तान- ६४।४३
गण्याह कुरु राजाना
गतस्य चिह्नमात्रेण गतनिगलकलङ्क
गतो राजसमीपेऽसौ
गताः केवलिनं नत्वा
गताः क्रमेण ते धीराः
गता मानसवेगस्य
३०१८
गता सा शोकिनी बुद्ध्वा १७१४७ गतिस्थित्यो निमित्तं तौ ५८।५४ गतिस्थित्यवगाहानां ७२ गतियुद्धे जितास्तेऽपि ३४।३२ गतिरोधकरो बन्धो ५८।१६४ गतिष्वेको गतार्था सा ५८।२४५ ४८।१२ गत्वा मातङ्गवेषेण गत्वा योजनलक्षाः स्युर् ५।६५५ गत्वासौ स समारुह्य ३३।९ गत्वा वध्यः स्वयं प्राप्तः २५।५२ गत्वा हिमगिरिं हत्वा
४४ ४८
गत्वा निपुणमत्या च गत्वा पञ्चशतीमूर्ध्व गत्वा स विजयार्धाद्रि
गत्वागत्याशु दूतस्तं गत्वा पञ्चशतीं दिक्षु गते शौरी यथास्थानं
४५/४
५४/६०
३६।५१
३३।५२
२८/५०
४६।१४
२७।३७
५।२९०
५३।११
४४।२१
५९ १४७७ २४।४९
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८३६
गतोऽन्नपानमानेतुं ६२१५ गतो मातलिरापृच्छय ५२।९१ गतो रहसि निःशङ्को २९।३९ गत्वैकानुचरो मन्त्र- १९।४५ गन्तव्यं यत्र ते नाम ४६।४ गदति स्म ततस्तस्मै ३।१८५ गदां कुमुद्वतीं शक्ति ४११३४ गदासिचक्राङ्कशशङ्खपद्म-३५।३५ गन्धमाल्यानपानादि ५८।१५५ गन्धर्वादिकलापारं १९५६ गन्धर्व इव देवोऽसौ १९।२६७ गन्धपुष्पादिभिदिव्यैः ६५।१२ गन्धयुक्तिविशेषेण ४६२९ गन्धवाहो वहद्गन्धं ५९।८७ गन्धावतीसरित्तीरे ६०।१६ गन्धाम्बुवर्षमृदु- १६।१५ गभीरगिरिराजनाभि- ३८।१२ गम्भीरः स्तम्भमूतिः ५६।३२ गरुत्मान् वेणुदारी च ५२॥३९ गर्भप्रभृतिरौद्रं तं ३३३८९ गर्भस्थोऽपि सुतोऽत्युग्रः ३३।२३ गर्भस्थेऽपि पिता तस्मिन् १८।१२८ गर्भाधानात्
३३६८० गर्भेश्वरोऽहमन्येषा- ५२१७३ गवाश्वमणिमुक्तादौ ५८।१३३ गवेषयामि तल्लोके गवाश्वमहिषादीनां ७।१०१ गवाक्षरोहजालानि ५।३६६ गव्यूतिद्वितयं साधं ४।३५६ गोष्ठे गोपवधूत- २३।२५ गाढाश्चार्द्धतृतीयं ते ५।६७४ गाढाकल्पकशल्याय २११२६ गाढमोहोदयात्तस्याः ४७.५१ गान्धारसप्तमोपेतं १९।२३२ गान्धारस्य विशेषेण १९।२५७ गान्धारश्च तथा न्यासः१९।२५१ गान्धारषड्जयोश्चात्र १९।२३८ गान्धारश्च भवेन्न्यासो१९।२२७ गान्धारः सिन्धुसौवीर- ११६७
हरिवंशपुराणे गान्धारपञ्चमी चैव १९।१८८ गोतमाख्यः सुरो वाद्धि ४१।१७ गान्धारी रक्तगान्धारी १९।१९१ गोत्रस्योच्चैश्च नीचश्च ५८।२०९ गान्धारसप्तमापेतं १९।२४२ गोत्रमुच्चश्च नीचैश्च ५८।२७९ गान्धारी मध्यमा चैव १९।१७६ गोत्राख्यया तु ताः ख्याता ४।४६ गान्धार्याः पञ्चधैवांशा१९।२३४ गोधैका रसपानाय २११९२ गान्धारो रक्तगान्धा-१९।२१३ गोपुराणां तु मध्ये स्याद्-५।४०३ गान्धारोदीच्यवायाश्च १९।२०८ गोपुरेण समो मानैः ५।४०५ गान्धारोदीच्यवायास्तु १९।२३९ गोभकन्याहिरण्यादि ६०११३ गान्धारोऽत्र भवेन्न्यासो१९।२३५ गौतमश्रेणिकप्रश्ने ११७६ गारुडं रथमारूढस् ५१।१०।। गौतमं च समासाद्य २११४० गिरस्ता मरुतां श्रुत्वा ५३।२० गौतमेनेन्द्रवचनात् १९९ गिरिमितः सहिताम- ५५।११३ गौरीनामाभवत्तस्यां ४४।३४ गिरिव्याससमायामे ५।२६८ गौरवातिशयाधानी ८.१०० गिरिशिलातपयोग- ५५८० गौरीगृहसपीपे च ४४।४४ गीयमानं नरैः श्रुत्वा २६।२९ गौरीणां गौरिका वेद्या २२१७७ गुणवतान्यपि त्रीणि ५८।१४३ ग्रेवेयकपरास्तेऽन्ये ५७।१०० गुणशिक्षाव्रतस्थाना- २३.४३ ग्रैवेयकास्त्रिथैव स्यु- ६।३९ गुणितं पञ्च सप्तत्या ५।६३६ गृहद्वीपसमुद्राणां ५।११९ गुरुः सुभद्रो जय- ६६।२४ गृहपत्यात्मजा यासौ ६०१४४ गुरुपूर्वक्रमादर्थात् १७।११७ गृहमरण्यमरण्यतृणोदकं ५५४८९ गुरुधनरथाभिख्यः ६०।१६२ गृहार्थमन्नमत्यल्पं १९।२१ गुरुराहावधिज्ञान- ४३।१५३ गृहं सीधुगृहोऽत्यर्थ ३३।१९ गुणवत्साधुजनानां ३४।१४० गृहीतरत्नत्रयभूषणा पुरा१०।१६१ गुणवत्यार्यिका पार्वे २७।८२ गृहाश्रमी श्रावकमुख्य- १०।१६३ गुप्तिश्च त्रिविधा प्रोक्ता १८।४४
गृहाण गृहिणीत्यक्त- २९।५३ गुप्तेन्द्रियकलापस्य ४६।४५ गृहाण कलशं लघु ३८.५० गुरुवाक्यामृतं मन्त्रं २११६३ गृहिश्रमणसंघाते
६४|४४ गुरुनितम्बधनस्तनभारिणी ५५।२१ गृहीतबहुविग्रहः ३८१४८ गरोमहेन्द्रसेनाच्च ४३।१५० गृहीतचामरच्छवः ९८६ गर्वादेशाच्च संघोऽपि २०१९ गृहीत्वा करपद्माभ्यां २।३१ गुल्मगूढवपुर्गा ढ- ६२१३३ गृहीत्वान्याः स्वभार्याः स३२॥३६ गुह्यकाश्चित्रपत्राणि ५९।४३ गृहीत्वा करुणोपेतः ४३१५३ गूढधीः कृतसल्यापस् ३३।११६ गृह्यतां गृह्यतां काम्यं ५९।२ गुढवृत्तिभिरनश् ६३।९७ ग्रन्थार्थयोः प्रदानं हि ६४।४६ गूढगर्भा महादेवी ४३।५९ ग्रन्थितेन सुरस्त्रीभिर् ८११९१ गूयते शब्द्यते गोर- ५८०२१८ ग्रामस्यास्यैव सीमान्ते ४३।११५ गोगजाश्वादिभस्त्राभा- ४।३४८ ग्रामारण्यखलैकान्त ३४।१०२ गोतमो नामतो द्वीपो ५१४७० ग्रामादीनां प्रदेशस्य ५८।१४५ गोतमोऽत्रान्तरे पृष्टः २७।१ ग्रामेऽभूत्शाल्मलीखण्डे ६०११०९
४३।७२
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८३७
ग्रहस्तु सर्वजातीनां १९।२०४ प्रहाद्यंशाश्च चत्वारस् १९।२११ ग्रहोरगा भूतपिशाच- ६६४५ ग्रहोपन्यासविन्यास- १९।२०१ प्रीष्मोग्रतापपरुष- ६२।१७
HuWHAT
[घ] घटिकाकलनिर्बादी ५९।५३ घटीयन्त्रघटीजाले ४३।१२७ घटोघ्न्यो घटपूर हि १९।२० घण्टारावोरुसिंह- ५६।११४ घण्टारलमहाघोषः ८१२१ घनघनाधनजितजिता ५५१७९ घननिनादतताम्बरमम्बुजं५५।६१ धननिवहविधाताद् ३६।२ घनोदधिरिमं लोकं ४॥३३ घाटस्य विंशतिर्लक्षा ४१८८ घाटे त्वेकादश प्राज्ञैर ४।३१० घातयित्वा बहून् जीवान् २३।१४५ घूर्णमानमुदीर्णोग्र- ४१।४ घूमता मृदुवातेन ८८६ घृतक्षीरादिवृष्यात्य- ६४।२४ घोषणां कारयाञ्चक्रे ६१।३४ घोरमुद्गरघातेव २५।६० घाणेन्द्रियप्रियसुगन्धि- १६१४१ घ्नतोऽस्य घनवैरण २७११२४
- [च] चक्रव्यूह विदित्वा तं ५०।११२ चक्रव्यूहस्तदा दक्ष- ५०११११ चक्रस्यारसहस्रे हि ५०।१०३ पक्रवाकवलाको- ८१३९ चक्रहस्तं हरिं दृष्ट्वा ५२।६९ चक्रविक्रमसंभार- ५२१७० चक्रवर्तिनमुत्पन्नं १११९ चक्ररत्नानुमागं स ११।१८ चक्रच्छत्रासिदण्डास्ते ११।१०८ चक्रवति श्रियो भर्ता १८।२९ चक्रवर्ती चमूं मूले ११४१
चक्रवर्ती च तद्धेतोः २०११४ चक्रवर्त्यपि संप्राप्तः १११७९ चक्रतुस्तौ तपो घोरं ४३।२०५ चक्रव्यूहव्यपोहार्थं ११०६ चक्रं सुदर्शनमदृष्टमुख ५३१४९ चक्रायुधः श्रियं न्यस्य २७।९३ । चक्रायुधाभिधानस्य २७४९० चक्रिणौ भरताद्यो द्वौ ६०।३२६ चक्रिणा रुध्यमानोऽपि १२०४९ चक्री पूर्वधरः पूर्वो ६०।१५६ चक्रे सुदर्शनेऽयोध्या १११५७ चक्रे कुरवको यूनां १४।१६ चक्रे ब्याधिविनाशाय २३।१३८ चक्रोत्पत्ति तदा विष्णो ११०९ चक्षुर्मसूरमन्वेति १८८७ । चक्षुषोऽचक्षुषो दृष्टे ५८।२२६ चक्षुरादीन्द्रियस्थान- ५८।२४९ चक्षुर्गोचरजीवौघान् २०१२२ चक्षुष्मांश्च यशस्वी च ७।१७४ चचार गुरुसन्देशा- १८६१३४ चचार मृगसामान्यं ६१।३२ चचार खचरीसखः २३।१५४ चण्डगाण्डीवकोदण्ड- ४५।१२७ चण्डवेगस्ततस्तस्मै २५।४६ चतस्रः प्रतिमास्तेषु ५।४२५ चतस्रस्तत्सुताः कन्या ४४।४१ चतस्रः षट्स्वरा हृता १९।१८३ चतस्रः षट्स्वराश्वान्याः१९।१८१ चतस्रस्तुर्यरज्ज्वन्ते ४।१९ चतस्रो विदिता लक्षाः ६०१४३३ चतसृष्वात्मरक्षाणां ५।३४२ चतुःशतानि नेमेस्तु ६०१४२४ चतुःषष्टिमहादिक्षु ४१२९ चतुर्विशं शतं दिक्षु ४११० चतुरङ्गबलं तस्य ५४।४२ चतुविशतिरन्ध्रस्थ- ४।१४१ चतुर्विशतिलक्षाश्च ४।११७ चतुर्भिश्च शतं दिक्षु ४।११५ चतुर्णवतिरेव स्युस् ६७०
चतुविशति संख्यानि ६५८ चतुःपञ्चाशदेवातः ६०१४७० चतुःशत्या सहस्रं तु ६०।४२८ चतुःषष्टिः स्मृता लक्षा ४।६० चतुःषष्ट्या शतं दिक्षु ४।९७ चतुःषष्टिशतान्येव ४।२२७ चतुःषष्टिश्च त्रिंशत् ४।२३८ चतुर्दशविधं यस्याः ८६३५ चतुर्दशस्वहिसार्थ ३४।१०० चतुर्दशविधं पूर्व १०७२ चतुर्दशप्रकारं स्याद् १०११२५ चतुर्दश सहस्रस्तु ५।१४९ चतुर्दश गुहाद्वारचतुर्दशसहस्राणि ५।२७५ चतुर्दशसहस्राणि ५।४१ चतुर्दशदिनान्यद्य ६०१२८१ चतुर्दश विनिर्गत्य ५।१२२ चतुर्दशमहारत्नैर् ११११०३ चतुर्दशमहारत्न- ११११०९ चतुर्दशसहस्राणि ४।६२ चतुर्विशतिलक्षास्तु ४।१९३ चतुर्विशतिरन्तःस्थास् ५।५७५ चतुर्विशतिसंख्यात- ६०२४४ चतुर्विशतिरस्याद्रेः ५।४७ चतुविशति चापानि ४३२१ चतुर्विशति तीर्थेश- १२।२ चतुस्त्रिशत्ततो लक्षः ४।१८३ चतुस्त्रिशदतो लक्षा ४१८२ चतुःषष्टिगुणोत्कृष्टा- ८१३० चतुःषष्टिसहस्रर्यत् १०३० चतुःशती तपस्तस्य ६०५१५ चतुःशतानि तत्रान्ये ५९।१२९ चतुःशतानि जेतारो ३२४९ चतुर्दिक् सिद्धरूपाढयं ५७१५३ चतुर्दिक्षु नगस्योद्धं ५७२८ चतुर्दिक्षु चतुःषष्टि ३३३ चतुर्णिकायदेवेषु २७.९ चतुर्णिकायदेवैः स २८।२९ चतुर्णिकायामरखेचरा ६६३१३
.
वि
चतु
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________________
८३८
चतुःसहस्रगणनाः ६०१३५९ चतुःसहस्रसंख्यानैर् ६०॥३५१ चतुःसहस्रसंख्याताः ३४।४८ चतुःश्रुतिश्च विज्ञेयो १९।१५८ चतुरङ्गबलं तच्च ४०।३० चतुरङ्गबलेशानां ५०।३४ चतुरङ्गमहासेनो १११२ चतुरङ्गं ततः सैन्यं ६२।१२ चतुरङ्गबलं कालः ५२१७१ चतुरङ्गेण तेनाशु ३११७२ चतुर्विधस्य निःशेष- ३७० चतुर्वर्गे हि देहिम्यो ५६५८३ चतुण्णा लोकपालानां १९६९ चतुर्णामपि तेषां स्यात् ५।४५२ चतुर्विधसुरासुरा- ३८।३८ चतुर्विधामराकोण- ६४।२ चतुर्विधं शुभं बाह्यं ७१८४ चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थ- ६६।१६ चतुर्थी च चतुर्वारान् ४।३७६ चतुर्थकानि यत्र स्युश् ३४।६७ चतुर्थ्यां चैत्रकृष्णस्य ६०।२५९ चतुर्थेभ्योऽर्द्धहीनाश्च ५।४०९ चतुर्धा विनयः पूज्येष्वा- ६४।२९ चतुभिः समयैः कृत्वा ५६७५ चतुभिरविकाशीतिः ६०१३५२ चतुर्विधेषु देवेषु ७१३३ चतुर्धातिक्षयाच्चास्य ९।२१० चतुष्कषाया नव नोक-३४।१०४ चतुराहारहानं यन् ५८।१५४ चतुराशामुखद्वार- २०६५ चतुर्नवतिसंख्यानि ५।८२ चतुर्देवनिकायाश्च ९।२११ चतुःपञ्चाशता सार्ध- १८.९० चतुरस्रानुयोगानां ५८४ चतुर्गुणस्तु विस्तारो ५।४८५ चतुर्योजनहीनं तु ५।३९६ चतुःशिरस्त्रिद्विनतं १०११३३ चतुर्भूतसमूहेऽस्मिन् २८।३४ चतुर्गतिमहादुर्गे ९।६६
हरिवंशपुराणे चतुश्चतुर्थान्वितषष्टकेन ३४।८६ चत्वाारशन्महादिक्षु ४/१३५ चतुभिः पञ्चमश्चैव १९।१५७ त्ववारिंशच्चतस्रश्च ४१७३ चतुःसप्ततिसंख्यानि ५।१५६ चत्वारिंशत्सहाष्टाभि- ४१३३ चतुदिग्गोपुरद्वार- ५७७२ चत्वारिंशं शतं दिक्षु ४।१०६ चत्वारः स्युर्मनोयोगा ५८।१९७ चत्वारिंशं शतं दिक्षु ४१०५ चत्वारः खलु को- ४।३०० चन्द्रमिन्द्रध्वजं मेरुं ९।१५९ चत्वारोऽपि च ते दिक्षु ५।३१८ चन्द्रप्रभसुमत्याख्यो ६०।१६५ चत्वारोऽनन्तर तस्य ५११८४ चन्द्रश्चापि महाचन्द्रः ६०१५६४ चत्वारो मन्त्रिणस्तस्य २०१४ चन्द्रं चन्द्रमुखीपूर्ण ३२॥३ चत्वारि च सहस्राणि ५।२९६ चन्द्रश्चन्द्रिकया रात्रौ ९।१३ चत्वारि च गिरिट्टै च ५।१४४ चन्द्रसूर्यों च मालान्तौ ५।२३२ चत्वारि च ततो गत्वा ६५ चन्द्रकान्तकरस्पर्शाच् २७ चत्वारि स्युः सहस्राणि ६।६७ चन्द्रकान्तशिलास्योर्वी ७७४ चत्वारि षट् चत्वारि ६०।४०८ चन्द्रकान्तांशवः शीताः ७७५ चत्वारिंशत्सहस्रश्च १०२९ चन्द्राभश्चन्द्रगौराभस् ७.१७५ चत्वारिंशसमुद्विद्धा ५।३०२ चन्द्राभः शुक्लसप्तम्यां ६०।२७४ चत्वारिंशच्च चत्वारः ५।५५९ चन्द्राभा चन्द्रिकेवास्य ४३।१६५ चत्वारिंशत्सहस्राणि ५९।१३२ चन्द्राभायास्तु यद् ४३।१७५ चत्वारिंशच्चतुर्लक्षास् १०।१४२ चन्द्राभालापवार्तिः ४३।१७८ चत्वारिंशत्सहस्राणि ५।५८० चन्द्राभासंगसंजात- ४३।१६९ चत्वारिंशत्पुरुढानां ६०१४८९ चन्द्राभयोपगूढस्य ४३।१६८ चत्वारिंशच्चतुर्भिश्च ४।३२८ चन्द्राभ एव चन्द्राभः ६०१२१० चत्वारिंशत्सहस्राणि ६०१४३९ चन्द्रादित्याधिकोदार- ६५।३९ चत्वारिंशत्तथा त्रिशद् ६०।३१३ चन्द्राभं चन्द्रवत्कान्तं ३२२८ चत्वारिंशदथोक्तानि ६०।३०८ चम्पाजन्मनि मुक्तोऽभूद्६०।१९३ चत्वारिंशत्तथा तारे ४।३२७ चम्पायां रममाणस्य २२।१ चत्वारिंशत्तथैकं च ६७१ चम्पायामिहकौशाम्ब्यां६०।१४५ चत्वारिंशच्चतुर्युक्ता ६०।४७८ चम्पावासी जनः सर्वो २२।५ चत्वारिंशच्च वर्षाणि ६०५२९ चरणकण्टकवेधभयाद्भटा५५।९२ चत्वारिंशच्च लक्षा- ४.१७५
चरणौ मणिसंकीर्ण- ८१८५ चत्वारिंशत्ससंभ्रान्ते ४।१७६ चरमोऽनन्तवीर्योऽमी ६०५६२ चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर् ४।२३५ चरमोत्तमदेहस्य ११४९० चत्वारिंशत्सहाष्टाभिर् ४॥३७ चरमोत्तमदेहास्तु ३३।९४ चत्वारिंशं शतं दिक्षु ४।१०१ चरमोत्तमदेहस्य ५६५८५ चत्वारिंशत्तु पञ्चाग्रा- ६७४ ।। चरितमिदमकाल- ३६।१२ चत्वारिंशत्सहस्राणि ६०।४५१ चरितं तस्य विप्रस्य ४३११३५ चत्वारिंशत्तु विस्तारो ६।१२९ चरितं नेमिनाथस्य १७२ चत्वारिंशश्चतुभिश्च ४।१३४ ।। चरितं चारुदत्तस्य १२८२ चत्वारिंशत्सहस्राणि ६०४०९ चलभुजङ्गमभोगविभूषणं५५।६५
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________________
३६१७१
चलजलधिसमाने चलतडित्सवलाकवलाहके ५५/७७
चलच्चामरसंघात -
९/७९
चलदुकूलकौपीन
चाटुकारशतमंत्र
चापपश्ञ्चकमुत्सेधः चापरत्नसमारोपं
४२।४
६३।४२
४।३०१
१।९२
५।३५१
४७१४१
५७।१४
५९।५९
२३९
चापं पञ्चशतोच्छ्रायं
चापं च कौसुमं प्राय
चापोनपीठिका व्यासा
५२।१५
चामराण्यभितो भान्ति चामरेन्द्रभुजोत्क्षिप्तचामीकरबृहद्दण्ड चारणश्रमणाभ्यां तु ६०।९१ चारित्रमोहपरमोपशमात् १६।५३ चारुदत्त शृणु श्रीमान् २१।१६७ चारुहं सविमानेन चारुदत्तस्ततस्तुष्ट
२१।१७३
१९।२६८
चारुदत्तेन मे जैनो
२१।१५०
चारुवारवनिता
६३।३९
चारुगोष्ठी सुखास्वादस्
२१२
चित्तप्रसादनेनाशु २५।६८
चित्तद्रवीकरणदक्ष
१६।४२
८६२
चित्ताक्षेपपरित्यागो ६४।३१ चित्तेन्द्रियनिरोधश्च १।१२८ चित्ररत्नघटाटोपचित्रचूलमनोहर्योद्- ३३।१३२ चित्रकारसहस्त्राणि ११।१२६ चित्रकारपुरेऽत्राभूत् २७।९७ चित्रबुद्धिस्तथा मन्त्री चित्रं तदा हि परमान्न चित्रं चिक्रीड तत्राद्री चित्राम्बराम्बुरमनाग् चित्रा कनकचित्रा च चित्राधोदेशतस्तुध्वं चित्राख्यं पटलं पूर्व चित्राधोभागतो रज्जुर् ४।१२ चित्रिते कुसुमचित्रचित्रश्चित्तहरैदिव्य
२७१९८ १६६१ ४६।२१ १६।६
८।११४
४१४
४१५२
६३।३६
५९/२०
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
चिन्ता प्रबन्धसंबन्ध: ५६।४० चिन्तानन्तरमेवात्र ५२/५८ चिरवियुतकनीयो ३६।१४ चिरयसि किमिति त्वं ३६।१७
चिरं पर्यट्य संसारं
४६।५६
चिरं प्रेक्षकयोरग्रे
८२३४
चिरायति तयोश्चित्त
२११८
चिरेण रतिसंभोग
२३।२१
चिरेण दानवाकारो
२४॥७
चिरं संसृत्य जातोऽहं
२८/४५
चूडामणिः शतानीकः २२।१०५ ६०।१९९ चूतो गजपुरं मित्रा चूलायां स्निग्धनीलायां ८२१७८ चूलिका चैकसप्तत्या चूलिका विजयार्द्धस्य
५।६१
५।३८
४६।२६
चूलिका नगरी राजा चेतयन्तोऽपि तत्रान्ये
९।१०९
चेतनाचेतनद्रव्य
१०।१०३
चेतसास्य सहसा
६३।४
चेतनेटकराजस्य
२।१७
चैत्यचैत्यालया ये ते
५।५१०
६०।२०६
५८ ६१
चैत्यवृक्षस्तु वीरस्य चैत्यप्रवचनार्हत्सद् चैत्यालया जिनेन्द्राणां ४६।१९ चैतन्योत्पत्त्यभिव्यक्ती ५८।२६ चौरास्ततः समागत्य ३३।१२४ च्युतवतंस विशेषकमाकुलं ५५/५६ च्युत्वा गजपुरे जज्ञे ३४।४३ च्युत्वाभूदिह कौशाम्ब्यां६०।१०१
च्युत्वा कल्पान्महा शुक्रात् ३२॥७ च्युत्वा पुनरयोध्यायां ४३।१५९
च्युत्वा तं पाण्डुरजस्य ६४।१३७
[ छ ]
छत्रचामरभृङ्गारछत्रचामरभृङ्गारैः
छत्रच्छायापटच्छन्नं छत्राणि शशिशुभ्राणि
छन्ना तेन कुमाराणां
५७।१७४
२।७२
८/१५५
३१।८२
५२/४३
८३९ छद्मस्थकालमतिबाह्य १६।६४ छद्मस्थकालनिर्मुक्तां १२/७९ छद्मस्थे द्रव्ययाथात्म्य- १०।१०६ छद्मिताहमिति ज्ञात्वा
४७१६७
छादयामि द्विषच्छेलं
४५/५१
छाद्यमाने तथा पौण्ड्रे
३१।९०
छायायामस्य वृक्षस्य
६२।२५
[ ज
जगत्प्रभाव संभारौ
जगत्प्रसिद्धबोधस्य
जगत्याः पञ्च नवति
जगद् षड्भिर्द्रव्यैरजगाद गौतमः स्थाने
१७१२६
१।३०
५।४४२
जन्मजरामरणामय
७ १७८
३।१९६
जगाद गोपी भवती
३५।५९
ज़माद च स तां देवीम् ४३ । १८८
जगाद जगतां नाथ
२।९६ जगाद भगवांस्तत्र ६०११३४ जगावसौ कोऽपि ममास्ति ३५।४०
जगुः किन्नरगन्धर्वा
८ १५८ ५३।७
जगुरद्य कृतार्था वो
जगौ च देवी विपिनेऽपि
३५।५८
२१।६२
४९।२३
जगौ वसन्तसेनां ताजघनमुरः कुचावुदरजघनस्तनभारातजघान मुष्टिन जघन्येन पुलाकस्य
२३।३१
३१।२
६४/७०
६४।१०२
१४।१३
४५।२७
६०१५६
जघन्येनैक एवैक जज्वलुर्ज्वलनज्वाला जज्ञे वसुरथस्तस्मात् जननानि जिनो पृष्टो जनयन्ति नृणां भोगाः ११।९७ जनस्तदालोक्य तदाति- ३५।७८ जनिताङ्गसुख स्पर्शो ३।२० जनिष्यमाणेन जिनेन्द्र ३७|४५ जनैर्जनितसंघट्टैः ६२॥७
जन्तोः को बापराधोऽत्र ६१ ।१०५
जन्मक्रमेण शेषाणां
६०१४८५
३४।१३६
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________________
८४०
हरिवंशपुराने
जन्मनिष्क्रमणज्ञान- २२।३ जन्मान्तरेऽपि काङ्क्षन्ती४५।७२ जन्मान्तरमहाप्रीत्या ४३।२१९ जन्मानुबन्धवैरो यः ५९।६ जम्बूद्वीपस्य यावन्तो ५६४८१ जम्बूद्वीपतदम्बुधिप्रभृति ५।७३५ जम्बूद्वीपजगत्या च ५।४८४ जम्बूवृक्षस्य तस्याधस् ५।१८२ जम्बूद्वोपविदेहेऽष्टौ ६०।१४२ जम्बूद्वीपविदेहे यो २७।११५ जम्बूद्वीपविदेहेऽन्त. ६०।६२ जम्बद्वीपस्य विष्कम्भे ५।१८ जम्बूद्वीपं यथा क्षारः ५१६१३ जम्बूद्वीपा प्रतिष्ठान- ६।९० जम्बूस्थलसमे तत्र ५।१८८ जयत्वजय्या जिनधर्म- ६६५१ जय नाथ जय ज्येष्ठ ५९।३१ जयान्तामितसारं च ५७१५९ जयन्ति देवाः सुरसंघ. ६६१५० जयन्ती सर्वरत्ने तु ५।७२६ जय प्रसीद भर्तुस्ते ५९।१२ जयः पुलस्त्यो विजयो २२।१०८ जय सर्व जगद्बन्धो ५९।३२ जयसेनस्य कौमार्य ६०५१४ जये जासिस्मरे जाते १२।१२ जरत्कुमारमुत्पाद्य ३१७ जरत्कुमारे प्रगते ६११३१ जरनारोप्यमाणस्तु ४७११०६ जरासन्धादयस्तुष्टा ३१।१३२ जरासन्धबले तत्र ५०।१०२ जरासन्धस्ततः प्राप्य ४५१९२ जरासन्धसुतास्तत्र ५२।२८ जरासन्धोऽत्र संप्राप्तः ५०.६५ जरासन्धस्य हन्तार- २६।३१ जलक्रीडारतस्तत्र जलगर्भजपर्याप्ताः १८१८१ जलजशयनचापैस् ३६१५७ जलप्रभविमानेशो ५।३२६ जलं मुरज निर्घोष १९॥६२
जलनिधिमुखरःस्वतर ५५।८३ जलस्थलपथैस्तेषा- ५४।२३ जलस्थलगताकाश- १०११२३ जलाथं तत्र लोकाना- ३३१४९ जलावगाहनायास्य २७१९५ जलावगाहनान्यस्य ९।१२६ जलाद् द्विकोशमुद्विद्धं ५।१९८ जवनाश्वरथारूढं २५६४ जवेन लघु लङ्घयद् ३८।२३ जातकर्म जिनस्यतास्- ८।११७ जातकर्मणि कर्तव्ये ८१०५ जातकारुण्ययाऽवाचि ४३।१७९ जातबान्धवसंबन्धे ४५।१४५ जातमात्रमपत्राणं २१११४२ जाता चन्द्रप्रभा देवी ६०११०८ जातिवर्णस्वरग्राम- १९।१४८ जातविद्याधरा शङ्काः २१।१५ जातः स लान्तवेन्द्रोऽह-२७।११४ जातश्च कृष्णदशम्यां ६०११७९ जातः सर्वयशो देव्यां २३१५२ जातः सुखरथस्तस्माद् १८१९ जातात्र श्लक्ष्णरोम्णस्त्वं ६०८५ जातानुपालिनी नित्यं २९५६ जातास्यत्र ततश्च्युत्वा ६०।१२१ जातीनां लक्षणं तारो १९।१९८ जातु कंसादिभिः शिष्यैर् ३३१२ जातुचिन्मुनिवेलाया- ३३३३२ जातेन तेन शुभलक्षण- १६।१३ जातोदरमहाशूलो ४३।११९ जाते निःक्रमणे जैने ९९९ जाते योजनविस्तीर्णे २०६६ जातो बृहद्रथो राजा १८०२२ जातोऽहं जिनधर्मेण २१११५१ जात्यमुक्ता फलाभानि ६२० जानतापि त्वया पुत्र १७१८० जानन्तो वस्तुसद्भाव- ६१।२६ जानास्येव जघन्यां नो २११६४ जानुनी मृदुनी यस्या ८।१२ जामातृ भ्रातृघातोत्थ- ४०८
जाम्बवत्या जिनः पृष्टस् ६०१४२ जाम्बवत्या विवाहेन ४४।१६ जाम्बूनदमये तत्र ५।१७५ जायते भिन्नजातीयो ७।१४ जायतेऽत्र नटस्येव ४३।१२६ जायन्तेऽभ्युदयश्रीशा ८२२० जायन्ते चातिशीतोष्ण- ३।११३ जायास्य जिनदत्तासौ ३४।४ जारसेयमपनीय ६३३५३ जाह्नवीमवतीर्णां तु ४४।६ जिगमिळू तपसे जिन- ५५।१०७ जिगीषता परान् देशान् १७१२१ जिगीषयेव विकसन् १४।१८ जितशत्रुः क्षितौ ख्यातो ३३१८७ जितार्को धर्मचक्राकः ५९।७२ जितात्मपरलोकस्य ११३९ जितकृष्ण बलालोक- ४२।१० जिन केशव रामादीन् ५१३८ जिनजन्माभिषेकादि ४२।२३ जिनदत्तायिकोपान्ते ६०७० जिननिष्क्रमणं दृष्ट्वा २५५ जिनपादान्तिके दीक्षां ५९।१२० जिनभाषाधरस्पन्द- २१११३ जिनमत्यायिका पार्वे ६०११०२ जिनरूपशरो दूराज् ४११५३ जिनशासनवात्सल्य- ११।१०५ जिनशासनतत्त्वज्ञा ४३१८८ जिनः श्रावकधर्म च ५९।११९ जिनस्तवविधानाख्यः १०।१३० जिनसंयमकालस्तु ६०।३३३ जिनस्य नेमेश्चरितं ६६१४० जिनस्य नेमेस्त्रिदिवा ३७।२ जिनस्य टेकविंशस्य २२।१११ जिनार्कपादसंपर्क- ५९।८० जिनार्चा चैत्यगेहार्चा ३४।११ जिनाश्चतुर्विशतिरत्र ६६३७ जिनेन कथिते तत्त्वे ५४५८ जिनेन्द्रकेवलज्ञान- ३।२६ जिनेन्द्रनामग्रहणं ६६।४१
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________________
१२।२७
जिनेन्द्र पितृनिर्वाणं जिनेन्द्रपितरौ ततो जिनेन्द्रमुखचन्द्रकं जिनेन्द्रवन्दनापूर्व जिनेन्द्र विनतिर्ध्वस्त - ६२।५८ जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य ६६।१५ जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवो - ६६।७ जिनेन्द्रोऽथ जगौ धर्मः १०१४ जिनेशजनकौ जगद् ३८|८ जिने शून्यद्वयं तस्माज् ६० । ३२५ जिनोद्भवे स्वप्नफलानु- ३७।४७ जिनोच्छ्वासमुहुः क्षिप्त- ८।१६७ जिह्वाख्ये द्वादशैवोक्ता ४।३१२ जीयेत येन कन्येयं
३४।२५
जीवग्राहं गृहीत्वासो जीवसिद्धिविधायीह
३३।५ १।२९
जीवस्य भावभावोऽयं
३।१०४
५८२२
जीवस्य लक्षणं लक्ष्य जीवद्यशसमा शान्त
३३।७
७।४
जीवद्यशोविलाप चौं १९४ जीवामि जिनवाक्येन ४३।२४२ जीवादिसप्ततत्त्वाना- ५८।३०४ जीवादीनां पुद्गलानां च जीवाधिकरणश्वाप्य- ५८.८४ जीवाजीवास्रवा बन्ध ५८ २१ जीवितान्ते सुबन्धोः स्यात् ६४।११७ जीवोपयोगशक्तेश्व १०११८ जेता वेदविचारेऽस्याः जैन एव हि सन्मार्गे जैनेन जिनदेवेन जैववैणव
२३।३० ३३।६६
६०/४५
४११५७
ज्या च तेषां त्रिपञ्चाशत् ५।१६९ ज्यायानज्ञात संबन्धः ३१।१२२ ज्याया ज्यायां विशुद्धायां ५९८ ज्याया दशसहस्राणि ५/३६ ज्यावै रथनिर्घोषै
५१।१७ ५।३२
ज्यासी नवसहस्राणि ज्या स्याच्छतसहस्राणि ५।९२ ज्येष्ठपुत्रे विनिक्षिप्त- १८ १९
१०६
३४।१०
३८|१
३८१४१
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
ज्येष्ठभ्रातरमालोक्य
११।९१
५३।२७
७।८०
ज्येष्ठानपूजयत्सर्वान् ज्येष्ठानां भविता सिद्धिस् ६४ । १४१ ज्येष्ठो मुमोच यान्बाणान् ३१।११९ ज्येष्ठो लक्ष्मीमती लेभे ४७।१८ ज्येष्ठो हिरण्यनाभाख्यस् ३१।१० ज्योतिर्गणस्य संचारं १०।११६ ज्योतिर्गृह प्रदीपाङ्गस् ज्योतिर्देवस्त्रियोऽतश्र्व २।७९ ज्योतिर्निमित्तशास्त्राणि ११।११४ ज्योतिःपटलमेतद्धि ६३ ज्योतिर्मण्डलसंकाशैः ५९।४२ ज्योतिर्मालाख्यखेचर्याम् ६०।१८ ज्योतिरङ्गमहावृक्ष- ७।१३४ ज्योतिरङ्गदुमा ज्योतिश् ७१८१ ज्योतिर्लोकप्रकटपटल- ६।१३९ ज्योतिर्लोकविभागस्य ६।३४ ज्योतिर्लोक विमानानां ६।२२ ज्योतिर्लोकमतो गत्वा ६०।६८ ज्योतिषां साधिकं पल्यं ३।१४० ज्योतिषो भावना भौमा ३।१६२ ज्वलत्प्रदीपालिकया ६६।१९ ज्वलद्वृहज्ज्वालहुताश- ३५११३ ज्वलद्विषाणो वृषभः
३५।२७
ज्वालारुद्धपथस्तत्र
४०।३१
७।१३२
ज्योतिश्चक्राधिपावेतौ ज्ञातपूर्वभवाशेष
६५।४२
ज्ञातपूर्वभवे तस्मिन्
९/६३
ज्ञातमायादु रोहोsसो
४७ ७८
ज्ञातमेव हि ते नूनं २४/५१ ज्ञानोत्पत्त्या त्वमावस्या - ६०।२६५ ज्ञेयो मूलनयावेता
५८।४० ६०।३८०
२३।७६
ज्ञेया दशसहस्राणि ज्ञेयाः स्वदार संतुष्टा ज्ञेयाः सप्तसहस्राणि ६०।३८७ ज्ञेया ह्येकोनपञ्चाशद् ४१८५ ज्ञान नेत्रैस्त्रिभिः पश्यन् ८ १०२ ज्ञानाप्तिः पूर्वताले ज्ञानावरणशत्रुं च
६०।२५४
९१२०९
६४।४७
३४।१३३
ज्ञानस्य मनसाम्यासो ज्ञानादिषु तद्वत्सु च ज्ञानाङ्कुशनिरुद्धोऽपि ४३।१९२ ज्ञानवृत्तिविशेषस्य २८ ३८ ज्ञानदर्शनसम्यक्त्व- ५६।६७ ज्ञानलब्धिपरिप्राप्तिर् २०१३१ ज्ञातसंसार निःसारा
४३।१५७
ज्ञातिवर्गः समस्तोऽयं
५०/५१
३३।७०
ज्ञात्वा च जैनधर्मस्य ज्ञात्वा तन्मरणं दुःखा- ६११९ ज्ञानपञ्चकसिद्धयै ते ६४।१४ ज्ञात्वा पुण्यस्य माहात्म्ये ४७।४५ ज्ञात्वा भगवतः सिद्धि ६५।१८ ज्ञात्वा भामा हरीष्टां तां ४३३३ ज्ञात्वाभिप्रायमस्याः स ४५।६५ ज्ञात्वा महानरं तं च ४५ ।११० ज्ञानत्रयं सहजनेत्र
१६।१९
३४।४९
५८।२८४
६४।१४५
७१२४
ज्ञानदर्शनचारित्र
ज्ञानदर्शनसंवृत्योर् ज्ञानदर्शनचारित्रैर् ज्ञेयं वर्षसहस्रं तु
[ ट ]
टङ्कणं देशमासाद्य
८४१
[ त ]
त एव चाष्टपर्यन्ता
त एव सुखिनो धीरास् तं कल्पव्यवहारं न
तं चतुर्दशरत्नानि
तं छलव्यवहारस्य
दृष्ट्वा केनचित्प्रोक्तं तं द्रौपदीमयं ग्राह्यं
तं निशम्य मुनिश्रेष्ठं
तं निश्चित्य पिता पुत्रं
तं पङ्कबहुलं भागं
तं पाण्डुकवने रम्ये
तं प्रणम्य विदग्धोऽसौ
तं प्रदेशं तदैवास
२१।१०३
३४।७९
२६ । ३७
२११०४
२५/३०
२०१५१
३३।८२
५४/११
३।१८३
२५/४०
४/५०
२।४१
२०।१८
६२/२९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८४२
तं
प्रधृत्य भुज
तं शकुन्युपदेशेन
तं सा कृपावती प्राह
तं स्वयंवरमालोक्य
तत्कथं कथमित्युक्ते तत्कल्पव्यवहारास्यं तत्काले सत्यभामापि
७।१६२
तत्कालेऽपत्यमुत्क्षिप्य तत्कृतो शक्तिवैकल्ये २१।१५८ तत्क्षणेऽलमुदतिष्ठ तच्च दर्शनमोहान्ध
६३।५०
५८।२०
तच्चरणपूजनं कृत्वा
९११८५
तच्चत्वारि सहस्राणि
४।२४३
तच्छरीरस्य पूजार्थ
२७/१७
३१।५८
तच्छ्रुत्वा जरासन्धः तच्छ्रुत्वा यादवाः सर्वे
५१/७
तरुहविटपाग्र
३६६८
तटाद् गत्वा सहस्राणि
५।४५९
तटान्तात्पञ्चनवत
तीपाटितगात्रोऽहं तटे तु दक्षिणे तस्याः
सरसी
ततं च विततं चैव
ततं चाप्यवनद्धं च
ततं तस्त्रीगतं तेषां
६३।४३
४६।३
५४।४८
३१।४६
२१।१३०
१०।१३५
४३।३३
५।४३५
२१।९५
५।२०७
३७|१३
८/१५९
१९।१४२
१९।१४३
ततः कच्छमहाकच्छ
९।१०४
ततः कन्या सभामध्य- १९।१३४
५०१९०
ततः कम्बलवृत्तान्तततः कल्पनिवासिन्यो
२४७७
४।१५
२१८३
ततः कापिष्टकल्पाये ततः किन्नरगन्धर्वततः कुन्त्याः समीपं सा४५।१३९ ततः कुबेरदत्तस्य २४/५० ततः कुपितचितोऽसौ ४६३३ ततः क्रुद्धो युधि म्लेच्छे-११.३१ ततः कृतसुसंगमे
ततः कृततदाश्वासः
ततः कृष्णो जगौ देव ततः केवललक्ष्मीतः
३८९
२१।७५
६५।४७
५९।६१
हरिवंशपुराणे
ततः क्षीणकषायाख्यो
६४।५७
ततः खण्डितविवास्ते २७।१२८
ततः पञ्चसहस्राणि ६०/४६३
ततः पतप्रसौ वेगाद्
२६०३३
ततः पद्मप्रभो ज्ञेयः
६०।५५७
ततः परं द्वयोज्ञेयाः
RIVE
ततः परं प्रसिद्धान्या
५।३३३
२९/६०
५१११८
६०।२२३
ततः पर्वतमारुह्य
२१।११३
ततः परिकरं बद्ध्वा
३४।२७
ततः पश्यामि भामाया ४२।३२
ततः परमधत्ताङ्ग
ततः परबलं दृष्ट्या
ततः परेण विज्ञेया
ततः पित्रा च मातृम्यो ६११८७ ततः पुण्यदिने पुण्य- २२।१५२
ततः पुत्रशतेनापि
९।३७
२३।५६
४७१४
३२१८
५९।१३
ततः प्रथमसम्यक्त्व
६४।५३
ततः प्रद्युम्नभान्वाद्याः ६१।३९
ततः प्रणतमाश्लिष्य ४७।१३३
ततः पुरोहितेनाशु
ततः पूरितसर्वाशाः
ततः पूर्णेषु मासेषु
ततः प्रक्रमते शम्भु
ततः प्रणम्य देवेन्द्रा
ततः प्रबुद्धवृत्तान्ते
ततः प्रभूत्यसौ लोके
ततः प्रमितयामिनो
ततः प्रसाद इच्छामि
ततः प्रसादवर्येषु
ततः प्राह जिनस्तत्त्वं
२११४१
२।६३
ततः शाबरसेनाभिर् ततः शीकरिणं मत्तततः शीतलमानीय
६५।३२
४२।१०५
४७ ६४
४७११७
४३।९४
ततः प्राह प्रजास्तत्र ९।९४ ततः शङ्ख इति ख्यातस् १७३५ ततः शङ्खाः सभेरीकाः ततः शत्रुंजयो लग्नः
९८१ ३१।९४ ४७१९८
४१२
६२।२३
ततः शून्यद्वयं चक्री ६०।३२७ ततः शौरिः समस्तैस्तैः २५।७१
ततश्च धृतपूजनो ततश्चपललोकस्य
ततश्चन्द्र विदावाङ्ग
ततश्चक्रमहं कृत्वा भक्तिचित्तोऽहं
ततश्च तत्कालभवां
सतचण्डरुवा पौण्ड्रो
ततश्रार्यकृत् कार्य
ततश्चागत्य भरते
ततश्चतुर्विधे स
३८२४५
४५।१३७
२१३२
५३।३१
२१॥८५
३५।३०
३१४८६
२८।१९
६०१११७
९।२२१
ततश्चतुःसहस्राणि
६०१४६१
६०१८९
ततश्रात्रोत्तरश्रेण्यां ततश्वद्वर्त्य पर्यट्य ३३।१५७ ततश्च्युत्वाऽवजोऽजैव ३३।१४१
ततः श्रावकतापत्रो
६४।५४
ततः श्रुतवयोवृद्धा
४०१५
६०१३३४
ततः षोडशभिनो ततः सङ्खेन महता
६१।४२ ततः स तत्क्षणं जातस् ४७।१२१ ततः स दुहितुस्तस्याः १७।१५ ततः सनत्कुमारोऽभूच् ४५।१६ ततः सप्तभिराधिवये
३।१६०
८१५१
१९/७४
१.३।३१
ततः समं पुरं देवैस्
ततः समङ्गलं तेन
ततः संभवनाथोऽभूद्
ततः सरभसोयात
८२२९
ततः सर्वस्य लोकस्य
२१।४९
ततः सरांसि चत्वारि
५७।१९
ततः सा प्राञ्जलिः प्राह ४२।९०
ततः सुचारुवरुय
४५१२३
ततः सुपर्णकुमाराणां
४६७
३८५४
ततः सुरपतिस्त्रियो ततः सुरवराभ्यच्यों
६१।११
ततः स्वर्गसुखं पुंसां
१७।१३३
ततः स्वं वञ्चनं ज्ञात्वा
१९१४४
ततः स्वयं जरासन्धः
५२/४६
१२॥८
ततः स्वयंवरारम्भे ततः स्वयंवरान्तभू ३१।१५ ततः स्तनन्धयो जातो ४७।१२२
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८४३
ततस्तस्मै पराभूति १७४१५८ ततो निर्गत्य जातोऽस्मि२११४८ ततो विदिततत्त्वार्थाः ५९।१२० ततस्तमृषभं नाम्ना ८।१९६ ।। ततोऽनन्तसुखं मोक्ष- ३॥१४६ ततो विदितवृत्तान्तो ४३।६६ ततस्तिथौ प्रशस्तायां ३१।१३४ ततोऽन्तःपुरलोकस्य १२।१६ ततो विनिश्चिता- २२।१२० ततस्तिथौ प्रशस्तायां ४१११५ ततोऽन्तः कल्पवासाख्याः५७।९९ ततो विद्याप्रभावेण १२।२६ ततस्तु लोकः प्रतिवर्ष- ६६॥२१ ततोऽन्त्यजिनमाहात्म्यात् २।२६ ततो विस्मिततुष्टास्ते ५४।६८ ततस्त्रिभुवने तत्र ३१६५ ततोऽन्ये षट्सहस्राणि ६०।३९६ ततो वीक्ष्य क्षुधाक्षीणाः ९।३३ ततस्त्रीणि सहस्राणि ६०।४६४ ततोऽन्योऽन्यभुजक्षिप्त- ११३८३ ततो व्रजस्थः कृतजात- ३५।३४ ततस्ते ललिताकाराः ४५।६७ ततोऽपरागो लोकस्य ४५।५८ ततोऽष्टमाख्यानशनं ३५।३८ ततस्ते तन्निमित्तेन १११६१ । ततोऽपि धृतराजोऽभूत् ४५।३३ ततोष्टादशवर्षाणि ६०।३३८ ततस्ते मन्त्रिणो भीताः २०२० ततोऽपि नगराद्याता ४५।१०५
ततोऽष्टकादशाशीतिः ६०।३४३ ततस्ते त्रपितास्त्रस्ता ९।११५ ततोऽपि नीलकण्ठेन ३११४ ततोऽस्ति क्रोशविस्तारं ५७।१०८ ततस्ते ब्राह्मणाः प्रोक्ताः११११०७ ततोऽपि वैदिशं याता ४५।१०७ ततो हठान्नामिताभिः ३३१५१ ततस्ते धैर्यसंपन्नाः ४११७ ततोऽप्यग्निकुमाराद्या २१८२ ततो हरिप्रेक्षणलब्ध- ३५।६३ ततस्तेन प्रिया पृष्टा २६।४१ ततोऽप्यन्तर्वणं नाना ५७।६६ ततोऽहिनकुलेभेन्द्र- २१८७ ततस्तेन हरिः पृष्टो ६२।४७ ततोऽप्युत्तरदिग्भागे ५।४१८ ततो हिरण्यनाभोऽपि ३११८७ ततः सोमश्रिया युक्तश् ३२।३३ ततोऽभिनन्दी हृदि ३५१५४ ततो हृदयसुन्दर्या- ४५।११८ ततो गजकुमारोऽपि ६०।१३२ ततो भीतमतिर्मुक्त्वा ३३३३७ ।। तत्र कर्तृत्वभोक्तृत्व- १०।१०९ ततो गणभृदाचख्या ५०८ ततो भीमकमुद्वृत्तं ४३।१७१ तत्र कर्मवशज्ञानां ४३१८७ ततो गन्धर्वसेनाभू- २२।१७ ततोऽभूत् सुबलः सूनु- १३।१७ __तत्र कुण्डपुरे लेभे
३११३ ततो गन्धोदकैः कुम्भ- ८।१७४ ततोऽभ्यर्च्य जिनेन्द्रार्चाः २९।१० तत्र केवलिनां सौख्यं ३३८६ ततो घातकशोकं च १६१२१ ततो भ्रमरघोषाख्यो ४५।१४ तत्र चक्रमहं कृत्वा १११२१ ततो घृतवरद्वीपं ५।६१५ ततो मलयनामानं ५९।११३ तत्र चिक्षिषवः पापाः ४६१४० ततोऽञ्जनमहारजो ४२११०० ततो मातङ्गकन्याभूच ६४।११६ तत्र चित्रमणिस्तम्भ- ३१११३ ततो जगौ जरासन्धो ३११९३ ततो मानसवेगेन . ३०.३३ तत्र चोत्तरशाखायां ५।१८१ ततो जग्राह तुष्टा सा ४३।५८ ततो मृत्युभयात् त्रस्तः१७।१६२ तत्र तस्थौ जिनः शैले ३५९ ततो जज्वाल कोपेन ५४।६ ततो मेघमुखादेवा ११०३३ तत्र तीर्थकरः कुर्वन् २।१४६ ततो जिगिमिषू राजा २०६८ ततो मेघमुखैम्लेंच्छाः ११३८ तत्र दक्षिणशाखायां ५।१८९ ततो जिनगृहैस्तुङ्गः २११४८ ततो यादवसङ्घास्ता- ४११४१
तत्र दौवारिका भौमा- ५७।२५ ततो जिनोक्ततत्त्वार्थ- २।११४ ततोऽलंकृतनारीभि- २१७८ तत्र धर्मकथान्तेऽसौ ६१११७ ततो दर्शनमोहस्य ३११४३ ततो लब्धजया पित्रा ३४।३१ तत्र नेमिकुमारोऽपि ४११४८ ततो दर्शनमोहस्य ६४।५५ ततो लोकस्तको दृष्ट्वा४३।१११ तत्र पद्मरथश्चक्री ४३१९२ ततो द्यूतच्छलेनैव २७१३६ ततोऽवतीर्य सोपानैः ५७।१७७ तत्र पद्मावती लेभे २४.३० ततोऽध्यक्षनरैराशु २५।२८ ततोऽवतीर्य भीष्मस्य ६०३९ तत्र पद्मोत्तरे नाम्नि ६५।३४ ततोऽर्धरज्जुपर्यन्ते ४।२३ । ततो वनवती देवी ३२।३८ तत्र पूर्वधरास्त्रीणि ३।४७ ततोऽर्धरज्जुमानान्ते ४।२५ । ततो वलिरुवाचामी २०४६ तत्र प्रत्यक्षधर्माणो ५७।१४९ ततो नवसहस्राणि ६०।४६२ ततो वर्षशतं पूर्ण ६०।३१६ तत्र भीमो महानागं ४५।१०६ ततो नागकुमारादि २।८१ ततो वर्षसहस्राणि ६०॥३१८ तत्र बाह्ये परित्यज्य ५७।१७१ ततो निधिपतिः ऋद्धो ११३७ ततो वर्षसहस्राणि ६०॥३१५ तत्र विष्णोर्महादेवी ४२।२५ ततो निरस्तमन्युश्च ४|४७ ततो विचित्रवीर्योऽभूत् ४५।२८ तत्र सर्वजधन्यानि ६४८१
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हरिवंशपुराणे तत्र संख्ययविस्तारा ४१६९ तत्पक्षरक्षणे दक्षः ५०।१२० तत्र संस्वेददेशेषु ५७।१३७ तत्पयोरुहवासिन्या ५९।३५ तत्र सामायिकं नाम १०११२९ तत्पायय पयः शीत- ६२०२१ तत्र सिंहेन संत्रस्ता ६।६७ तत्पुत्रो वाहनीकृत्य ७।१५६ तत्र सोमप्रभस्याभूत् ४५८ तत्पुराधिपतिः पौण्ड्रः ५९।११५ तत्र स्वर्ग इवातिष्ठन् २१११६५ ।। तत्पुराधिपति युद्ध २४१२६ तत्र स्थावरकाः सवें ५९८५ तत्प्रदक्षिणवृत्तानि ५।५९९ तत्र स्वान्यकषायाणा- ५८।९८ तत्प्रत्येकशरीराख्यं ५८।२६७ तत्रस्था अपि तद्देशात् ५७।१३९ तत्प्रभावमसौ बुद्ध्वा . २४।३६ तत्र स्थितं जिनेन्द्रं तं ६१११४ ।। तत्प्रकीर्णकवासेषु ५७८९ तत्र स्थितस्य कृष्णस्य ४११४६ तत्प्रश्नानन्तरं धातुश् ५८।३ तत्र स्थितश्चिरं राज्यं १७२२ तत्प्रसाद्यापि चुक्षोभ ४७५ तत्र स्त्रीजनमध्यस्था १४।३२ तत्प्रासादपुरः शक्र ४१३३० तत्राक्रीडपदानि स्युः ५९।४५ तस्सामानि जगुः केचिज् १७४८५ तत्राखण्डलनेवाली- २।५ तत्सुवर्णाक्षरं यत्र ५२।९० तत्रातापनयोगस्थः २०५८ तत्तद्गुणं च पूर्वाङ्गं ७.२५ तत्रातापनयोगस्थ- २११११२ तत्तु क्षायिकसम्यक्त्वात् २।१३७ तत्रानुभूय दुःखौघांश् ६४।११५ तथाकृते समस्तेभ्यो ४८।३० तत्रापत्यविहीनाया ४३।२६ तथा च स्थितनेपथ्यं ४७१४९ तत्रापणे निविष्टोऽसौ २४॥३५ तथा चारित्रमोहस्य ३३१४५ तत्रापाच्या नृपाः केचि-५०६७ तथा चोत्तरपूर्वस्यां ५।३४५ तत्राभ्यन्तरकोणस्था ५।६७५ तथा जयपताकायां १९।२६५ तत्रामनोज्ञस्य दुःखस्य ५६।९ तथा जीवद्यशोलाभं १४८८ तत्रात्तिरर्दनं वाधा ५६।४ तथा तस्य तदाश्रद्धां ४६॥३६ तत्रासीनं जिनाधीशं ५७।१४३ तथा त्रीणि सहस्राणि ५।११ तालोचनकं कृच्छं ६४।३२ तथा दशगुणाश्चाष्टौ १३।१४ तत्रैका दशभिर्मेरु- ६।२५ तथा दश सहस्राणि
५।८५ तत्रैव नगरे या सा ३०।१० तथा धर्मकथाछेदे ६०११ तत्रैवारिजयो राजा ३४।१८ तथा नवशतान्येव ६०१४६८ तत्रैवास्मिन्नसंख्येय- ५।२ तथा नामविशेषस्य ५८।११२ तत्रोत्तानशयं भद्रा २१११३९ तथा निषद्यका प्रायः २।१०५ तत्रोद्यानं महोद्योगः ९।२०६ तथा नौड वितं कुर्याद् १९।२६० तत्रौत्पथव्युदासेन १०।३५ तथान्या घोषणादायि ६१।३७ तत्रोन्मग्नजला नाम्ना ११।२६ । तथान्यो गणभृन्नाम्ना १२०६५ तत्रोर्जयन्तमन्तेऽसा- ६५।४ तथापराजितस्यापि श९५ तत्रौपपादिके देशे १०४१ तथाप्यनूद्यते वस्तु २२१५० तत्त्वया न निवार्योऽह- १४/६५ तथा मानसवेगश्च ५११३ तत्त्ववादिनमक्षुद्रं १७११५६ तथा यथागमं नाथः तत्रिकालनियोगेन ७७० तथा रक्तवती कूटं ५।१०७
तथारिष्टविमानेशो ५१३३५ तथास्त्विति निगद्यतां ५४।२७ तथार्कमणिमूर्तीनि तथार्धाक्षौहिणीनाथः ५०७१ तथाविधमहाभूत्या ५९।१२६ तथाविधविभूतिभिः ३८१४४ तथा व्यर्थप्रयासोऽसौ ५२१५७ तथा सर्वार्थसिद्धौ तु ६४।७९ तथा सति विरोधः स्यात्५८।३५ तथास्त्वित्यभिधायासा- ३४।२२ तथा हि विजया स्मृता ३८।३१ तथा हि मूलतन्त्रस्य ११५६ तथा ह्यनेन भो दृष्टा ९।११८ तथैव कामदेवश्च १२७० तथैवाचलनामान्यो १२१५९ तथैव च श्रेणिक- ६६।२० तथैवोज्ज्वलितो ज्ञेयस् ४८१ तथैवाञ्जनका ज्ञेया ५।६७६ तथैवात्राञ्जशब्दस्य १७।१०५ तथैव धातकीखण्डे ६०।१४९ तथैव मूलवीर्यास्तु २२१७९ तथैवाब्बहुले भागे ४।४९ तथैवाल्परसास्वाद- ७।११३ तथैव सयशोधरा ३८।३३ तथैरावतमध्यस्थ- ५।१०९ तथैवाश्वपुरो ज्ञेया ५।२६१ तथैवैकोनविंशत्या ६०३६९ तथोदितः स तं प्राह ५२६८० तथोत्सहितुकामो यो ५८।२८२ तथोपगृहनं मार्ग- १८।५० तदत्र चोदनावाक्ये १७।१२५ तदत्र भवतोऽध्यक्ष- १७९६ तदत्र यदि सौभाग्य- ३११५६ तदत्र यावदापत्य- ४०।१५ तदनन्तरमाकीर्ण २४६८२ तदनन्तरमेवात्र ४३।४९ तदनन्तरमेवोच्चस् ३।२३ तदपत्यं यशस्वीति ७१६० तदवलोक्य सुरो मिथुनं १५।४९
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
तदस्य पीतसारस्य २११६६ ।। तदेव हि धनं तस्य १८।१४७ तदस्या रूपसौभाग्य ४२।३० तदग्रपालिकानद्ध- ५७।४३ तदर्थमत्र लोकोऽयं १९।१२४ तद्गोपुरपुरो भान्ति ५७।२७ तदन्तरे भवत्यन्यत् ५७४६९ तद्वचसा स म्लानो हि ४३।१८३ तदर्धव्यासनिर्माण- ५७११३८ तद्वचोऽनन्तरं कन्या ३११३९ तदर्धभानाश्चत्वारस् ५७।८८ तद्वन्त्रर्षभनाराच- ५८।२५५ तदाकर्ण्य रुषा तेन ३३१८३ तदृष्टिगोचरे मंक्षु ५७।१७० तदाकर्ण्य करीन्द्रोऽसौ २७।१०६
तद् ब्रवीतु भवान् को भो६२।३६ तदाकर्ण्य निजं प्राह' ५२।२६ तद्बाहुनोर्ध्वमुत्क्षिप्ता ५३।३६ तदाकर्ण्य वचस्तूर्णं ११६० । तद्यथा पूर्वविद्ध्यायन् ५६।६० तदाकर्ण्य वचस्तेन ३२०१५ तद्यत्तव स्थितं चित्ते १७१३ तदा च सर्वभूपालैर् ३१।१६ तद्रूपश्रवणाद् येषां ३१११७ तदा च सप्ताहमहातिवर्षे ३५।२२ तद् रूपास्त्रविमोक्षेण १७७ तदा तौ दम्पती शैलं २३॥१५ तद्वन्दनार्थमद्वन्द्व ४३।१०५ तदा तप्तौ प्रवीणे द्वौ १४।९१ तद्वन्दनार्थमिन्द्रौघाः १८०३२ तदात्वेऽभ्येतिशब्दश्चेद्-२३।१११ तद्वद्भासुररूपापि ८१३२ तदात्यन्तपरोक्षोऽपि ८।१६९
तद् द्वादशसहस्राणि ५।३९८ तदात्मनः स्वयं वेद्यं ५६।६ तद्वशीकरणाथं तौ ४३।१६३ तदा देवकुमाराभो- १९।६ तद्वापीपुष्पसंदोहं ५७१३७ तदा नागपुरे चक्री २०१२ तनयस्तस्य सोदास. २४।१३ तदानीमेव संप्राप्तो- ४७७९ तनया कनकावर्ता ४६।१५ तदा प्रव्रजतां तेषां ९।२२० तनयाः पञ्च विख्याता ४८।४६ तदाहृदये नद्धां २६।४८ तनया वसुदेवस्य ४८०५३ तदा वद विधेयं मे २९।४१ तनयोऽङ्गारको राज्ञो १९६८३ तदा विष्णोः प्रभावेण २०१५४ तनुमृदुरोमराजि- ४९।६ तदा विद्याधरी द्वौ तं २१११२५ तनुबातान्तपर्यन्तस् तदा शौरिरिवार्कोऽपि २२।१३८ तनुवातस्य तस्यान्ते ६।१३३ तदा स्त्रीपुंसयुग्मानां ७९२ तनुविशददुकूलश् ३६।५४ तदा हि पुरुषो लोके २०५० तनुरेखभ्रुवो यस्या ८।२४ तदित्थमुपशान्तेषु २०१४५ तनुलग्नमलङ्कारं २११६५ तदीयशिष्योऽमितसेन- ६६।३१ तन्मदीयमभिप्राय ४२१५८ ।। तदुच्यतां प्रभोऽधव १४।५८ तन्मध्ये सर्वतोभद्रः ४१२७ । तदेकस्यापि हि ज्ञाते ५०५३ तन्मात्रा याचितः शौरिः३०३८ तदेव जायतेऽन्येषां ॥१३१ तन्मिथ्यादर्शन द्वेधा ५८।१९३ तदेत्युक्तवते धर्म २११९३ तन्मूलमुखविस्तारः ५।४४४ तदेवान्ववदत्पाण्डोः ४५।८६ तनिमित्तमिति यत्र ६३।८० तदेवं लक्षणं कार्य ५८।२१० तनिवर्त्तय दुवृत्ताद् २०।३६ । तद्देशविस्तरायामास् ५।२५५ तन्निशम्य वचो राजा १९।३३ तदेष योज्यतामद्य २११२९ तनूजी बालचन्द्राया ४८।६५
तपनीयमयं पीठं ५७१९० तपनीयरसालिप्तै- ५७१७८ तपनीयमयस्यास्य ५।८७ तपनीयमयैश्छत्रर ५९/६७ तपनेऽप्यवरैषैव ४।२७२ तपने विशतिर्दण्डास् ४॥३१९ तपः कर्मैकनिष्ठैस्तैः २०१४३ तपः षोढा भवेद्बाह्य ६४।२० तपःस्तम्भसहस्रस्थो ५७८६ तपःस्वाध्यायवृद्धयादेर् ५८।१८८ तपःस्थिताश्च ते केचिद्६०।२५२ तपस्त्वनशनाद्येवं ६४।३६ तपस्तपस्विनी कृत्वा ६०१५४ तपस्विनीभिरन्याभिस् ६४।१३३ तपसा निर्जरा मुक्त्यै ६४५१ तपसा नाकमारुह्य ६०।१२२ तपो घोरमसौ कृत्वा २०१६३ तपो दुष्करमन्येषाम् ३।१८९ तपोधनः श्रीधरसेन- ६६।२८ तपोमयी कीर्तिमशेषदिक्षु ६६।३३ तपो वरप्रसादो मे ३४।२१ तपो वा मरणं वापि ६१११०० तपोविधिविशेषैः स ३४।५० तपो वर्षसहस्राणि १८।१३९ तपो विष्णुकुमारोऽसौ २०१५ तप्तदीप्तादितपसः ३।४४ तप्तश्च तपितश्चान्यः ४८० तप्तस्यापि शतं दिक्षु ४।११८ तप्तायोमयमूर्तीनि ६५।२० तप्ते सप्तदशोत्सेधो ४।३१७ तमन्योऽन्यातिशायिन्यो ३४१७ तमन्वेष्टुप्रभाते तो १७१४८ तमागत्याब्रवीद् देव ३३३११७ तमादाय गता सापि ३२११६ तमित्युक्त्वान्तिकं प्राप्तां२२॥१३२ तमिस्रेऽपि च तान्येव ४॥३३५ तमुत्तानशयं यावत् ४२।१६ तमुपवेश्य ततः ५५६१०५ तमोनामनि चोत्सेधः ४॥३३३
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८४६
तमो भ्रमो झषोऽर्तश्च ४१८३ तया पतन्त्या वसुधारया ३७१३ तया प्रथमबुद्धया ४२।१०६ तया सह सुखं तस्य २४७७ तयत्य पतिता गङ्गा ५।१४१ तयो कुशलसंप्रश्ने ४७।११८ तयोः प्रेमतरुः सिक्तस् २२।१३४ तयोर्दुहितरौ भद्रा २१११३२ तयोरर इति ख्यातः ४५।२२ तयोः संभोगसंभारः २३।२० तयोक्तं ते पिता पुत्र ! २१।१४१ तयोक्तं न मुनिस्त्वेष ३३।५५ तर्कानुसारिणः पुंसः ५६५० तरङ्गिणीसरित्तीरे ४६१४९ तरणदूरनिमज्जनकक्रिया:५५१५२ तीर्थकृत्युनरन्यूनैर् ४११३९ तलं तिस्रो जगत्यश्च ५७।१२६ तलात्सहस्रमुद्गत्य५।२८७ तव दर्शनमेतस्याः २२।११६ तव दुहितः सुराष्ट्रविषये ४९।१५ तव पदशरणास्ते ३६।६९ तव शोकापनोदाय ४३।२३५ तवानुरूपकन्येयं ४५।१११ तवैव गृहमुद्योत्यं ८८० । तस्थुर्दक्षिणतो जिनस्य ९४२२३ तस्मात्कुरुरभूत्तस्मात् ४५।९ तस्मादप्यङ्गजो जातस् १८।१८ तस्माद्रावण इत्यासीत् ४५।४७ तस्माद्विष्णुः क्रमात्तस्मात् ११६१ तस्मात्सांसारिक सौख्यं ९।६१ तस्मिन् काले गुरुविष्णोर्२०।२५ तस्मिन् गते हरिस्तीव- ६२१५६ तस्मिन् गर्भस्थिते देवी ३३।८५ तस्मिन्नद्रौ जिनेन्द्रः १२।८१ तस्मिन्नरागिणीं बुद्ध्वा ३११२३ तस्मिन्नवसरे चण्डैस् ४३।१८० तस्मिन्नस्तमिते दीप्ते २५१७० तस्मिन् सोमप्रभः श्रेयान ९।१५८
तस्मै नमः कुसिद्धान्तः १११६
हरिवंशपुराणे तस्मै सोऽकथयद् राज्ञो ३०॥४५ तस्मै तु रश्मिवेगाय २७।८१ तस्मै स क्षुल्लको गत्वा २०।२९ तस्य काले प्रजा दृष्ट्वा ७/१२६ तस्य चित्तपरीक्षार्थं ४६१४३ तस्य जन्मोत्सवं दृष्ट्वा ३२।९ तस्य देहमहं चक्रुः ६१८ तस्य न्यायपरस्याग्रे ३०॥३४ तस्य पञ्चशतो व्यासो ५।१७४ तस्य पुत्राः शतं जाता: १७।३१ तस्य प्रभावती भार्या ४५॥६२ तस्य मानधनस्यान्ते ३३।६ तस्य मेघनिनादस्य २७।९६ तस्य रक्ततलः पादो २०५६ तस्याः कृते कृताः सर्वे ४५।१२३ तस्याः कौमारभर्ता तु ४३।१७७ तस्यागमनवेलायां ४३।२३३ तस्या निर्बन्धचित्ताया ३३१३४ तस्यान्तस्थो दयामूर्तिः ५९।५६ तस्यान्तस्तैजसो भर्ता ५९।९९ तस्याः प्रसादने तेन २४।७३ तस्यापि हि मनोवृत्ति १४।९७ तस्या भ्राता महासेनः ४४।२५ तस्यामजनयत्पुत्र २४।२७ तस्या दत्ते बुधैस्तस्मिन् २११४६ तस्यामशनिघोषोऽपि ५।६०४ तस्यामितगतिर्नाम्ना २११२३ तस्यामेकः समुत्तुङ्गो ५९।९६ तस्यामेतदवस्थायां २२।११८ तस्यामेव च वेलायां ४३।३९ तस्याः शोकसमुद्रं स ४३३८३ तस्याश्चानुपदं याति ५९।१०४ तस्याः श्वसुरबुद्धिस्तु ४५।१५१ तस्याश्चरणमूले वः २७।१३० तस्यासीत्त्वमरस्तेन १७॥३३ तस्यां नमुचिनाम्नाभूत् ४४।२७ तस्यां दर्शनमात्रेण ४६।३० तस्यैकनवतिलक्षाः ५।५६३ तस्यैव साऽभवत्पत्नी २६१५३
तस्यैव मध्यभागे तु ५०।१०७ तस्यैवोत्तरपूर्वस्यां ५।३३९ तस्यैवोपरि शैलस्य ५।६९८ तस्यैवोपरि पूर्वस्यां ५७०४ तस्यैवारो दशम्यां तु ६०१२३२ त्यक्तरागमपि ६३१७७ त्यक्तभुक्तिजरातीत- ३।१३ त्यजत वाचमसत्य- ४५।१५८ त्यज रुक्मिणि शोकं त्वं ४३१८४ त्यक्त्वा कार्कश्यपारुष्यं २।१२३ त्रयः कालास्तु सर्वेषां ६०५४२ त्रयः केवलिनः पञ्च १९५८ त्रयः क्रमाकेवलिनो ६६१२२ त्रयस्त्रिशदुदन्वन्तः ३३१५८ त्रयस्त्रिंशत् समुद्राः क्व २।१३८ त्रयस्त्रिशत्सहस्राणि ५।९१ त्रयस्त्रिशत्सहस्राणि ५।४४६ त्रयोऽत्र भ्रातरस्तेऽपि ६४।८ त्रयोदश यथासंख्य- ४।७५ त्रयोदशगतानि स्युः ६०।३९४ त्रयोदशशतानि स्युर् ६०।४३१ त्रयोदशसहस्राणि ५४७९ त्रयोदशसहस्राणि ६०॥३७७ त्रयोदशसहस्राणि १०११२७ त्रयोदश विधस्यैव ३४।१०९ त्रयोदशस्तु यो द्वीपो ५।६९९ त्रयो द्रव्याथिकस्याद्या- ५८।४२ त्रयोदशविधोदार- ६४।४० त्रयोविंशतिलक्षास्तु ४।१९४ त्रयोविंशतिलक्षास्तु ४।१९५ त्रयोविंशतियुक्तानि ५।५९३ त्रयोविंशतिलक्षाश्च १०३८ त्रयोऽशीतिश्च नवतिः ६०।४८३ त्रयोऽशीत्या शताब्दानि६०।४८० त्रयो हस्ता धनूंष्येष ४।३१५ त्रसबादरपर्याप्त. ५६।१०८ त्रसस्थावरकायेषु ५८११३८ त्रसिते त्वपरा प्रोक्ता ४।२५६ त्रिशत्षड्विंशतिस्त्रीणि६०।३१९
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८४७
त्रिंशदेव सहस्राणि ५।५१५ त्रिंशद्वर्षसहस्राणि ६०/४७ त्रिंशद्वर्षविहीनस्तु ६०।३३६ त्रिंशदक्षमितः कूटैर् ५७।१२९ । त्रिशद्गुणप्रथितवर्षसहस्र-१६।७४ त्रिकालयोगप्रतिमा ६४।२६ त्रिकोणा मण्डलाकारा ५७।३० त्रिखण्डाखण्डिताज्ञोऽन्यः ४०१६ त्रिगव्यूतिश्चतुर्भाग- ४।३५५ त्रिगुणीकृततेजस्कः ५९।९७ त्रिचत्वारिंशतं सैक- ५।१७० त्रिचत्वारिंशदिष्टास्ताः ४।१७३ त्रिचत्वारिंशदेवातः ६०३४४ विज्ञानोपचितो राज्ये ९।६२ त्रिदण्डविस्तृताश्चित्राः ५७।४२ त्रिदशखण्डितविद्यकदम्पती १५१५४ त्रिदशावूचतुर्हेतु २१११२९ त्रिधा समयवृत्तीनां ७।१० त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि ५।६५ त्रिपदास्यस्य मण्डूक्यां ६००३३ त्रिःपरीत्य पुरं देवाः २।२९ त्रिःपरीत्य प्रणम्याग्रे ४७।६६ त्रिःपरीत्य स तं नत्वा ३३१११२ त्रिपृष्ठस्य सहस्राणि ६०५१७ त्रिपृष्ठश्च द्विपृष्ठश्च ६०।२८८ त्रिवर्णाजनिभे यस्या ८॥२३ त्रिविधाङ्गलषट्कः स्यात् ७।४५ त्रिविधेऽपि बुधः पात्रे ७।११० त्रिबोधशुचिचक्षुषः ३८।१० त्रिमार्गगा प्रयात्येवं ५९।९५ त्रियोजनसहस्राणि ५१४५३ त्रिलोकसारं श्रीकान्तं ५७।११ः त्रिलोकाधीशितां छत्र- ५७।१६३ त्रिलोकीवान्तसाराभा- ५९।५८ त्रिविष्टपपुराकारं १७११८ त्रिविंशतिसहस्राणि ६०४५६ त्रिशती च त्रयस्त्रिशत् ५।४३८ त्रिशत्या त्रिसहस्री तु ६०४११ त्रिशिरा इति देवी स्याद्५।७२०
त्रिशन्यं केशवश्चैकः ६०१३२९ तां कृत्वा दक्षिणे भागे ५७४८७ त्रिषष्टिरिन्द्रकैः सार्ध ४१४८ तां ददर्श च शुद्धाते ४२॥३५ त्रिषष्टिपटलानि स्युः ६।४२ तां प्रद्युम्नकुमारोऽपि ४७।११५ त्रिषष्टिपुरुषोति ११११७ तां वार्तामुपलभ्यासी ४३।२३ त्रिषष्टिः त्रिशती यत्र २।९५ तां शुश्रूषाकरीं श्वश्रू २१।१७६ त्रिसहस्री द्विशत्या तु ६०१४१० ताडितः पुनरुद्वृत्तः ४८३१८ त्रिसहस्री शतारे स्यात् ६।६० ताडितश्च विबुद्धेन २४१७९ त्रिसंख्या गुप्तयः पञ्च ५८।३०१ तादृशं तनयं दृष्ट्वा ४७।२७ त्रीणि त्रीणि तु शुक्राणां ६६ तानधीत्य तदुक्तेन २३१४४ त्रीणि त्रीणि हि कुटानि ५।६०१
तानवोचदसौ राज्ञः ३०।४९ वैधस्तेन प्रयोगस्तै- ५८।१७१ तानि पञ्चशतोत्सेध- ५।६०० त्रैलोक्यस्य सुखासुखानु- ३।१९७ तानाश्चतुरशीति- १९।१७१ त्रैलोक्यं संसदि स्पृष्ट २१११२ तानि वर्षसहस्राणि ७।६२ त्रैलोक्यासनकम्पशक्त- ३४।१५० तान् प्रशाम्य गतौ दीनौ ६१४८९ त्रैलोक्ये जिनशासनोरुप- ९।२२४ तान् प्रशस्य ततश्चक्री १२।६ त्र्यशीतिश्च शतान्यष्टौ ५।९६ तान् संमान्य यथायोग्यं ५१५ यशोतिके वर्षशते तु ६६।२३
ताः पवित्रजलापूर्ण- ५७१७४ त्वं गृहाण विभो विद्यां २६।५४ तापसा बालतपसः ३३१३४ त्वं प्रकाशय सौभाग्यं ३११३४ तापस्यपि सुतां लेभे २९॥३४ त्वं पुनः शिशुपालाय ४२१५५ ताभिरष्टाभिरप्युक्ता ७१३८ त्वं महीध्रवनरन्ध्र- ६३।३७
ताभ्यां जिगमिषोस्तस्य ३२११९ त्वं मज्जनविधि सद्यः १४।६८ ताभ्यामिन्दुपुरं चक्रे १७४२७ त्वं राजावरजाग्रस्ते ५०१९४ ताभ्यामेकदिनौपम्य- ४३।१९ त्वं वर्तय त्रिभुवनेश्वर- १६१५२ तामप्यादाय संप्राप्तः ३२।२६ त्वं विधाता स्वयंबुद्धम् ८।२१३
तामयोध्यां परागोध्यां ८॥२३१ त्वं संसारमहाचक्राद् ९/६९ तामुत्तरविदेहेषु ५।२४२ त्वरास्थिशेषभूतोऽहं २११८७ । तामसास्त्रं परिक्षिप्तं ५२।५५ त्वमहं च खगेन्द्रोऽयं २७।१९ ताम्बूलरागनिर्मुक्त- ३०१२३ त्वमनङ्गभुजङ्गस्य ८।२१५ तारकापटलाद् गत्वा ६।४ त्वन्नामग्रहणाहार- ४२।६० ताराभरत्नजातीनां ९७८ त्वमेव भगवन् गत्वा २०१४१ तारामण्डलमत्यल्पं ६।१३ त्वयि सकलधरित्री ३६१६६ तारे या परमा प्रोक्ता ४।२८१ त्वयि राजनि राजन्ते १९।१७ तारे चापि ग्रहे कार्यस् १९।२५५ त्वत्पादन्यासलीलाया- ८८५ तायकेतुमनोभिज्ञाः ५१११९ त्वत्प्रवृत्तिमिव वेदितुं ६३१४० ता वनस्पतिकायेषु १८५८ त्वद्वियोगमहादुःख- ३०।११ तावग्निवायुभूती तु ४३।१३६ त्वा पयोऽर्थमपहाय ६३।२६ तावच्च द्वौ विमानाग्राद्२१११२७ त्वां मुक्त्वाम्ब न मे १४१८३ तावच्च सहसा प्राप्ताः २४।४२ त्विषा राजतमूर्तीनि ६।१९।। तावच्च मणिवाप्यन्ते ४३।११
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८४८
हरिवंशपुराणे
तावच्च सहसा बुद्ध्वा१९।१०१ तावचिन्तयतां साधो ४३।१३९ तावदाशु वयं शूरं ४०।१६ तावदाध्मातमाध्याह्न- ९।१६६ तावदुद्योतिताशास्ता ५३६ तावद्तद्वयसनं श्रुत्वा ४३।१४१ तावदेव समागत्य ५११५८ तावदेव गता शैले ५।१५५ तावन्त एव चैकोनाः ४८७ तावन्त एव संख्याताः १२१७७ तावन्त्येव भवन्त्यस्यां ४।४५ तावन्त्येव च जायन्ते ४२३१ तावन्त्येव पुनस्तानि ४।२३२ तावन्त्येव सहस्राणि १२।७३ तावारूढी च दुर्मोच- १४।४६ ताश्चत्वारिंशदेकोना ४१७७ ताश्चापि द्विविधाः शुद्धा१९।१७९ ताश्च पल्योपमायुष्काः ५।१३१ तासां वज्रमयी सिद्धिश्५७।१२७ तासां मध्येषु वापीनां ५।६६९ तासु भक्त्या प्रनृत्यन्ति ५७।४० तास्तु निश्चिन्तचित्त- ४५३१०४ तितिक्षो पृथिवीं यस्य ९।१६९ तिथिपर्वचतुर्मासो १८.९९ तिमिरभरं त्रिमूढिमयमत्र४९।४६ तिरयन्ती रस्तेजः ५९।१०३ तिर्यञ्चोऽपि यथाशक्ति- २।१३५ तिर्यग्गतावपर्याप्त- ३४।११८ तिर्यञ्चो मानुषा देवा ३।१२० तिलमात्रोऽपि देहस्य २३।११४ तिलकाद्यानि दिव्यानि ११।२२ तिष्ठ तिष्ठ दुराचार १९।१०२ तिष्ठत्यत्र पिता भ्रष्टः १९८६ तिष्ठन्नेव महोदये २।१५१ तिष्ठत्वन्यदिहामुष्य- २३।११५ तिष्ठन्तु तावदन्यानि १९।२९ तिष्ठत्वेकोऽपराधी हि २७१५० तिसणामपि जातीनां १९।२१० तिस्रः कोट्योऽधकोटी च४८७४
तिस्रः खेटकसंगुढा २१११८ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि ५।५३६ तिस्रो लक्षाः परिक्षेपः ५।४ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि ५१५३८ तिस्रो लक्षाः सहस्राणि ५।५८७ तिस्रो लक्षाः सहस्रं च ६०१४४५ तिस्रस्त्रिशत्सहस्राणि ६०।४३४ तिस्रोऽष्टानां पृथग्लक्षा ६०/४४१ तिस्रोऽस्य पूर्वलक्षास्तु ६०।५०२ तीक्ष्णदंष्ट्राः समाः स्निग्धा२३।९८ तीवधर्मसमयात्यये ६३।४५ तीव्रमन्दादिभावेन ५८०२१२ तीव्रमिथ्यात्वसंबद्धा ४॥३७२ तीर्थ देवावताराख्यं ५०।६० तीर्थ चतुर्थमन्वर्थ तीर्थ व्युच्छिन्नमुद्भाव्य १११३ तीर्थकरनामकर्मणि ३४।१४९ तीर्थकृच्च महापद्म- ६०५५८ । तीर्थभूमिविहृतिः ६३।१०१ तीर्थयात्रागतानेक- ३१५८ तीर्थसिद्धिद्विधा तीर्थ- ६४।९५ तीर्थे चतुरशीतिस्तु ६०।४७७ तीर्थे भीमावलिर्जातो ५०१५३४ तीर्थे नेमिजिनस्य ६५।५९ तीर्थेनैकोनविंशेन ११२१ तुङ्गभङ्गतरङ्गोद्य- ४११६ तुङ्गाभिमानिनः केचिद् २८५१० तुङ्गासौ साङ्गदी वृत्तौ ९८ तुङ्गिकाशिखरारूढो ६५।२६ तुट्याङ्ग तुट्यमप्यस्माद् ७।२८ तुमुलरणशतानि ३६१७३ तुम्बुरुर्नारदः किं वा १९।२६३ तुरगस्त्वरया दिव्यः ४७११०३ तुरङ्गतुङ्गमातङ्ग- ९।१५३ तुर्यव्रतोपवासैस्तु ३४।११२ तुषच्छविनखैः क्लीबाः २३।९२ तुष्टोऽनावृष्टिरप्याशु- ५११४३ तृणाम्बुतृप्ताः स्तनलग्न- ३५।५२ ततीयकालशेषेऽसा- ८९७
तृतीयभवसिद्धस्त्वम् ६०।९४ तृतीयं शुक्लसामान्यात् ५६७१ तृतीयाया द्वितीयाया ४।३८१ तृतीयान्त्यस्य निर्दिष्टा ६०।४५७ तृतीये नियतिः पक्षः १०७० ते काश्यप्यामपश्यन्तः ४०।३८ ते कियद्भिरपि वासु ६३।५४ ते चत्वारिंशदष्टाभिः ६११ ते चादेशवशात्कन्ये ४६।१६ ते चाष्टयोजनागाधा ११।११३ तेजस्वी चाग्निमित्रश्च १२१५८ तेजोहीनेऽधुना लोके ७१३५ तेन चाहमुपायेन २११५३ तेन ते यावदायाति २०१३९ तेन नैमित्तिकादेश- २९।११ तेन पूर्वोक्तदोषोऽपि १७११२७ तेन भोः क्षुभितान्याशु २८०९ तेन मानसवेगेन ३०१३९ तेन स्वहिण्डनाख्यानं तेनान्तःपुरमात्मापि ५४।९ तेनायममरैः सर्वे ३।१९० तेनाहं शान्तवेषेण २१६८१ ते नीलनिषधप्राप्तौ ५।२१३ तेनैव षोडशाभ्यस्त- ५।४८० तेनोक्तं सोमदत्तेन २४।३९ ते नन्दीश्वरयात्रायां ६४।१२७ ते पञ्च नवतं भागं ५।४७९ तेऽपि तस्थुर्यथास्थानं ३।६४ तेभ्यः करणभूतेभ्यः ७।११ तेभ्यो विरतिरूपाण्य- ५८४१३४ तेऽब्रुवन्नहमेमीति १७।४५ ते महद्धिकदेवानां ३।१३७ तेऽर्हन्तः सन्तु नः सिद्धाः ११२८ तेषां क्षुत्क्षामगात्राणां ९।१०५ तेषां चरमदेहाना- ५९।१२४ तेषां तस्य च संग्रामो ५२१४२ तेषां तु मध्यदेशेषु ५।१२० तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च ४८७३ तेषां मध्ये तु यौ भग्नौ २२।५३
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
तेषामन्ये महादिक्षु ५।४०७ दण्ड : किष्कुद्वयं दण्डः ७१४६ तेषामष्टशतं जातिर् ५७४५ - दण्डा हस्तोऽङ्गुलान्येषु ४।३१३ तेषामुपरि प्रत्येक- ५२०२ दण्डाकारा घनीभूता ४।३५ तेषामृतुविमानं स्याद् ६१४४ दण्डाकारपरित्यागे ४।३७ तेषां विहरतां साधं २७८ दण्डाः पञ्चदशैवासौ ४।३१६ तेषु संख्येयविस्तारां ६७८ दण्डैमनोगजो मत्तो ४३।१९४ तेषु संख्येयविस्तारा ४१६१ दण्डोपायप्रधानं तं ५०१९ ते सम्यग्दर्शनं केचित् ५८१३०७ दत्तवक्त्रस्ततो दत्त- ३११९६ ते सच्चित्तेन निक्षेपः ५८।१८३ दत्तप्रयाणमेनं त्व- ४०।४ तरज्ञातकुलं दृप्तैस् ४३१५६
दत्तनागवलिः कन्या ४२।६८ तैरजैः खलु यष्टव्यम् १७१६५
दत्तं किमिच्छकं दानं २१।१७७ तैरष्टाभिर्भवेल्लिक्षा ७।४० दत्तं गृहाण ते राज्य- २०१२२ तैरेवावलिकासंख्य- ७११९ दत्तास्थानो नृपैर्देवैर् ९७६ तैः सह क्रीडया यातो २१११४ दत्तायामुत्तरश्रेण्या २७।८० तैः संरम्भसमारम्भैः ५८८५ दत्तो नारायणः कृष्णो ६०१२८९ तैस्तैर्देवैः कृतैः सर्वेर् २०७५
दत्तोत्तरो विनिर्गत्य ४३६८० तोयाथं मे गतो रामो ६२।५२ दत्वासावभयं तस्य ५४।५१ तोरणान्तरभूतुङ्ग- ५९५० ददाति तस्मै पुरुषोत्तमाय ३५१७३ तोरणान्यवगाहेन ५१५२ दधार कर्मप्रकृति श्रुतिं च ६६।३० तोरणैः शोभते मार्गः ५९।४८ दध्याविति स लोकेऽस्मिन् ४२।२८ तोषः साधुषु मे नाथौ ३४।१३ दध्यौ वधूरियं कस्य १४।३६ तोषिते मयि नृत्येन ९५३ दध्मौ नेमोश्वरः शङ्ख ५४२० तोषी लोकप्रकाशार्थं २९।७० दन्तास्थिभिरयं तुष्टः' २७७१ तौ च निर्वाणधामानि २७१० दमघोष यशोघोषं ३११२७ तो दृष्टिमुष्टिसन्धान- ३१७९ दया सत्यमथास्तेयं १०७
दया सकलभूतेषु ५८।९४
दर्पणग्रहणे काश्चिद् ८५१ दक्षप्रजापतेवृत्तम् १७८ दर्भशय्याश्रिते तस्मिन् ४११६ दक्षिणं पक्षमाश्रित्य ५०।११९ दर्शनस्पर्शनाभ्यां या ८।३३ दक्षिणस्यां महाश्रेण्यां ५।२३ दर्शनज्ञानचारित्र- १०।१३२ दक्षिणापरदिग्भागे ५।४२८ दर्शनानन्तरं यत्र ३११३६ दक्षिणापरदिश्यन्ते ५।७२३ दर्शनामृतसिक्ताया ४७१११७ दक्षिणापरतो मेरोः ५।१८७
दर्शनीयतमाङ्गस्य १४८ दक्षिणाभिः समा नद्यः ५।१५९ दर्शनेन तवास्याशु २२।१४५ दक्षिणाशारणान्तानां ६।११९ दर्शयन्निति कान्तायै १२।४५ दक्षिणाक्षिभुजास्पन्दो ३१११०६ दर्शयन्ति स्वयं काश्चित् ८।४४ दक्षिणोत्तरतो दैर्ध्यात् ५।२६४ दवदिवाकरदग्धवनावली ५५७६ दक्षो जित्वा सुभानुं तं ४८।१४ दश चतुर्दशाष्टौ चा १०७३ दक्षो दक्षिणभारतार्ध- ६२।६४ दश दशाहकुमारगणावृतः५५।३१
१०७
दशधा सत्यसद्भावे १०.९८ दशधाध्यात्मिकं धर्म्य- ५६॥३८ दशमो दशमो भागो ५१५२९ दशलक्षाः चतुःषष्टि- ५।२७४ दशवर्षसहस्राणि ४।२४९ दशवर्षसहस्राणि १८४६६ दशवर्षसहस्राणि ६०६१ दशवैकालिकं वक्ति १९।१३४ दश सप्तशती चान्या ५।३९२ दशपूर्वी विशाखाख्यः ११६२ दशशतहरिहस्ति- ३६।४४ दशधा कल्पवृक्षोत्थं १९१ दशषोडशभिस्तस्य ५७।१२५ दशानां कोटिलक्षाणां ७।१७० दशानामसुरादीनां ४।५९ दशानामसुरादीनां ८।१३५ दशानामायुषः पादः ६९।३३५ दशार्धवर्णभासद्भिर् ५।३७० दशाश्चिापि विख्याताः५०।१२२ दशादियो मुनयः ६५।१६ दशाहतनयास्तास्ते ४७।१९ दशाहवदनाम्भोज- ४१।४९ दशार्हाः सान्त्वना भोजाः५०।६८ दशार्णवोपमायुष्का ३३१५३ दशार्णवास्तमो नाम्नि ४॥२८६ दशोत्तरशतं तेषां २२।८४ दशैवोत्तरपूर्वाणां १०।७४ दशैवोपरि मूले च ५।४३४ दशोपसर्गजेतारः १०१३९ दह्यमानशरीरोऽसौ ६११७ दह्यते विपुलः कस्य ४०।३२ दष्टः श्रीभूतिपूर्वेण २७१६५ दंष्ट्राभाजनमग्रेऽस्य २५।२७ दाक्षिणात्या जनपदा ११३७१ दाक्षिण्यभङ्गभीतेन ४५।१२४ दानपूजादिधर्माशा ५७१५९ दानपूजातपःशील- २७।७४ दानपूजातपःशील- १०१८ दानशीलतपःपूजा ५७१८२
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८५०
दानोपवासविधिना
६०।४६
५०।७२
५८।१४१
४५/८२
दायादः शकुनेर्वीरः दारेषु परकीयेषु दाहदुःखमृतं कान्तं दिक्कुमारी प्रसिद्धासौ ५।७१० दिक्कुमारी तथा ज्ञेया ५।७०९ दिक्कुमारीकृताभिख्यां
२।२४
दिक्कुमार्यस्तु कटेषु
५।३३२
दिक्षु चत्वारि कूटानि
५ १७१८
४१२४
दिक्षु षट्सप्ततिर्ज्ञेया दिक्षु द्वासप्ततिः सा
४१२५
दिक्षु विशं शतं ज्ञेयं
४। १११
४|११९
४१२०
दिक्षु पण्णवतिर्द्वाभ्यां दिक्षु द्वानवतिः सा दिवशीतित्रिदिक्षु ज्ञः ४११२३ दिग्गताः शतरुद्राः स्यु: ५।४७८ दिग्धरचन्दनपङ्केन ८।१८७ दिग्धं चन्दनपङ्केन
१४।८६
६।१२२
दिग्वस्त्रविभूषाभिः दिग्विरत्यभिचारोऽध- ५७।१७७ दिङ्नागनातिकाजङ्घा दिङ्मुखानि प्रसवानि
९८२ ८१८७
दित्या चाष्टौ निकायास्ते २२।५९
४१।१
३७/१२
१८६७
८३८
३।१७१
१५।४३
दिदृक्षया ततो याताः दिनं दिनं दृश्यमुखं दिनान्ये कोनपञ्चाशत् दिवः पतितुमारब्धा दिवश्चुता विदेहेषु दिवि कदाचिदसौ दिव्यरूपं तमालोक्य ४७ ९९ दिव्यं वदरतन्मात्र- ७/६९ दिव्यामोपधिमालां स ११।४६ दिव्यान्यन्यानि चास्त्राणि५२।५६ दिव्यामोदसमाकृष्ट- ८१७३ दिव्यान् भोगान् सुरानीतान् ९।४६ दिव्यायुधं हलमभादपरा- ५३।५१ दिव्येन दह्यमानायां दिव्येक्षुरसतृप्तानां दिव्यौषधिप्रभावेण
६१।७७
९।२७
२४/३२
हरिवंशपुराणे
दिशां मुखेभ्यः समिता दिशा वैश्रवणस्यैव
३७१४
९।१७३
दिशागजेन्द्रकूतानि ५/५११ दिशावली प्रिया राज्ञो ४५।१०८ दिशि चोत्तरपूर्वस्यां
५।३४७ दिशि प्राच्यां प्रतीच्यां च५।६९६ दिष्ट्या त्वं वर्द्धसे स्वामिन् १९७२ दिष्टाभ्युपगतं तत्तु २१।१७० दीक्षा कृष्णनवम्यां तु ६०।२२६ दीक्षां जग्राह जैनेन्द्री
१३।२
३४ ३६
२२।२३
दीक्षित्वा पुण्डरीकियां दीपैर्दीपशिखाजालैर् प्रेणाप्युपशान्तेन दीयते दातुकाम
९।१८१
५८।२८०
६३।२९
४३।८५
दीर्घनिद्रमिव वीक्ष्य दीर्घजीवितसद्भावं दीर्घमुष्णं च निश्वस्य दीर्घस्वस्तिकवृत्तैस्तैर् ५।३८९
२४।४८
२३॥८७
८१८४
दीर्घा दीर्घायुषां पुंसां दीर्घा नीत्वा निशा मेषा दुकूलमणिभूषणदुःखत्रयमहावर्ते दुःखशोकवधाक्रन्द दुःखमेवेति चाभेदाद् ५८।१२४ दुःखाख्यश्च महादुःखो ४।१५४ दुःखी जरत्कुमारश्च
५८।९३
६११३० २६।३५
दुरन्ता बन्धुसंबन्धा दुर्गतिध्वकुशलानु- ६३।८८ दुर्जयमप्यरिलोकमनेकैः २५/७२ दुर्जयो दुर्मुखश्चापि दुर्जनैर्निशितदुर्वचो दुर्बलस्य वराकस्य २७।३२ दुर्भाग्याग्निशिखालीढ : १८। १३२ दुर्भुजङ्गचरी कृत्वा दुर्मर्पणादयस्तेऽमी
५२।३७ ६३।१०४
२७।६६
१२।४१
६५।१९
५१।३१
दुर्योधनान्वयस्तत्र दुर्योधनार्जुनौ योद्धुं दुर्योधनोऽन्यदा दूतं दुर्लभेऽप्यभिलाषस्य
४३।२०
१४/८५
३८ ५५
९।६८
दुर्वचो विषदुष्टान्तर् दुष्कर्मोपशमाल्लब्ध्वा दुःषमा चावसर्पिण्या
१।४६ ९८ ९५ ७/५९
६४।९२
दुःषमायां तु संजातो दुष्पूरो दुर्मुखाभिख्यो ४८।५१ दुःसंसारस्वभावज्ञा
१२५१
३६।६७
१८।१३१
दुहितुरिति विलाप - दुहितृर्मातुलस्यासी दूतप्रेषणपूर्व स दूतो गत्वा जरासन्धं
दूरतस्तमथ तत्र
दूरादिन्द्रादयो यस्या
दूरात्कटाक्षविक्षेपि
दूराच्चापधियः सर्वे
दृढगुणगूढगुल्फ
दृढपदतिगाढा
४४ /३५
५०/६१
६३।८
दृढेन निगडेनेव
दृश्यते दृष्टिहा दृश्या दशसहस्राणि
५७१९
१४।४३
५९/९०
४९/३
३६।३४
दृढवर्मा च विक्रान्तस् ५०।१३२ दृढमुष्टिघनाघात
२४६
३।९७
५९।१०१
६०१३७८
७११३९
दृष्टश्रुतानुभूतस्य दृष्टः संक्लिष्टधीस्ताभ्यां ६१।६० दृष्टः सुरगणैर्यः प्राक् ८ १६८ दृष्टः सप्रश्रयं श्रीमा- २२।१५१ दृष्टं तैमिरिकं कैश्चिद् ९११०६ दृष्टा दर्शनमोहस्य
५८।२०७
दृष्टिवादप्रमाणं स्याद्
१०१४६
४८६१
१४।७२
दृष्टिमुष्टिनावृष्टि - दृष्टिरश्मिभिराकृष्य दृष्टो मयाद्य सद्रूपः १४।८४ दृष्टो रुक्मिणि ते पुत्रो ४३ । २३१ दृष्टो विद्याधरो वृक्षे २१।१७ दृष्टया दहामि दायाद- ४५१५३
दृष्ट्वा गजकुमारस्त
६०।१३१ दृष्ट्वा विवाहमुर्वीशास् ३१।१३५
दृष्ट्वा तुष्टेन तेनामा
३९।४४
दृष्ट्रा हृष्टा जगौ तं सः ४७३६३ दृष्ट्वा ज्येष्ठरथं दूरात्
३१।१०२
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________________
इलोकानामकाराद्यनुक्रमः
८५१
दृष्ट्रास्त्रकौशलं तस्य ३१११२१ देवो गन्ध-महागन्धौ ५।६४४ दृष्ट्वा चित्रगतां कन्यां ४२०४६ देव्यः शिवादयो ननं ३२।४१ दृष्ट्वा कस्मात्समानीताः ५०.२ देव्यः शिवादयो बह्वयो ६१।१० दृष्ट्वा च तं तदाध्यक्ष- २६१३२ देशप्रत्यक्षमेव स्यान् १०।१५३ दृष्टा वृष्टिं ततश्चक्री १११३५ देशप्रत्यक्षमुद्भूतो १०११५२ दृष्टा श्रुत्वा च वृत्तान्तं ३३।१२६ देशानेताननुज्ञातान् ११७६ दृष्ट्रा च तेन तुष्टेन ३३११२ देशाश्चापि हि तावन्तो११११२७ दृष्वासो विस्मितो ४२१३९ देशकं मुक्तिमार्गस्य १७११३१ देवकालबलोपेता ५०।२८। देशानुल्लङ्घय निःशेषान् ४०।२५ देवभक्त भज सांध्य- ६३३३३ देशेष्वेकादशानां तु ५।३१० देवमार्गोत्थिते दिव्ये ५९।३६ देहः सूक्ष्मनिगोदस्य १८१७३ देवयात्रामिमां दिव्या- ५९७५ देहनिर्यदवयवा ६३१९४ देव ! वेगवती पत्नी ३२।१३ देहदन्तप्रभाक्रान्त- ११११ देवस्वस्य विनाशेन १८।१०२ देहस्थितेन शुद्धन
४२१५ देवदर्शनपर्यन्त- ३०।२२ देहे देहे सवृत्तित्वे ५८।३३ देवदानवचक्रस्य ८१२४ दैवपौरुषसामर्थ्य- ४०१९ देवपूजा यजेरर्थस् १७:१२९ दैवे तु विकले काल- ५२।७२ देवक्या सह वन्दित्वा ३३१४२ दौामालिनय तां ४४।११ देवक्याः सप्तमः सूनुः ३३३९३ दोषाकरकराप्राप्ता १४।५ देवक्यास्तनया ये षट् ५९।११६ दोषाकरः कलयव ८७९ देवः कैटभपूर्वोऽसौ ४८२ दोषाविष्करणं दुष्टः १०१९३ देवताधिष्ठितायास्तश् ४५।१२९ दोषोपशमसंतोष- ६४।२२ देवताकृतमायातो ११९८ दौर्भाग्ये वा भाग्यहीने ५५।१३६ देवकं देवनाथाभं ३१३१ द्वन्द्वयुद्धे तदा जाते ५१।३४ देवा नन्दीश्वरं द्वीपं २२।२ द्वन्द्वयुद्धं शिरस्तुङ्गं ४२।९४ देवाः सामानिका भोगं ६४।११२ द्वन्द्वयुद्धे प्रवृत्तेऽतो ५३।१४ देवाः शुक्रमहाशुक्रं ३।१६५ द्वयं तच्च समायुक्तं ४१०२ देवा वायुकुमारास्ते ३१२२ द्वयोरन्वेषितः श्रेण्योर २६०४२ देवाः कन्दर्पनामानो ३।१३६ । द्वयोस्तु सप्तमी पृथ्वी ६०१५४६ देवार्चनार्थमायातं १९।११६ । द्वयोर्द्वयोर्विमानानि ६।१०० देवी स्वयंप्रभस्यातो ६०।११६ द्रव्यपर्यायरूपत्वात् ३।१०८ देवी सुदर्शना तस्य ४५।११५ द्रव्यभावभवक्षेत्र- ३७७ देवी च रुक्मिणी दृष्ट्वा ४३१३० द्रव्यपर्यायभेदानां १०१०७ देवी त्वं च निजं येन २९।५५ द्रव्यस्यानन्तशक्तित्वात् ५८।५० देवेन रक्षिताः कंसात् ६०१६ द्रव्याद् द्रव्यान्तरं याति ५६।६२ देवेन नीयमानः सन् ५४।४० द्रव्यार्थानिर्विकारत्वात् ७८ देवविद्याधरैर्वीरैः २०५८ द्रव्याणामपि जीवानां ५६१४४ देवोपपादमाचष्टे १०११३७ ।। द्रव्ये क्षेत्रे काले ३४।१४५ देवी देवसुखं भुक्त्वा ४३।१४८ द्रव्ये क्षेत्रे च कालादौ १०११३१
द्राग् निवृत्य निजं स्थानं.४०१४३ द्वाचत्वारिंशदिष्टानि ६०।३०७ द्वाचत्वारिंशदष्टौ च ५।१६८ द्वाचत्वारिंशदष्टौ च ५।८० द्वाचत्वारिंशदब्दानां ७६१ द्वाचत्वारिंशदादित्याः ६।२७ द्वात्रिंशता चतुःषष्टया ३४।१२३ द्वात्रिंशच्च महादिक्षु ४।१३९ द्वात्रिंशं हि शतं दिक्षु ४।१०८ द्वात्रिंशत् त्रिदशेन्द्रः स १३०४ द्वात्रिंशद्वादशैकं च ६०।३२१ द्वात्रिंशदथ बाहल्य- ४५७ द्वात्रिंशच्च सहस्राणि ५।१८५ द्वादश स्युः सहस्राणि ५।२६६ द्वादशाङ्गधरो जातः १२।५२ द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं ५९।१२२ द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं १०।११ द्वादशाग्रं शतं दिक्षु ४११३ द्वादशाङ्गविकल्पेषु २३।४२ द्वादशात्मभिदया द्वादशैव सहस्राणि ५।५०२ द्वादशैव सहस्राणि ५।४१४ द्वादशैव सहस्राणि ५।४६९ द्वादशैव सहस्राणि ६०१५२१ द्वादशैव महादिक्षु
४।१४६ द्वादशैव सहस्राणि १२।७६ द्वादशैव सहस्राणि ६०॥३६५ द्वादश्यां ज्येष्ठ कृष्णस्य ६०।२२८ द्वादश्यां ज्येष्ठकृष्णस्य ६०१२२९ द्वादश्यां ज्येष्ठमासस्य ६०।१७२ द्वापञ्चाशन्महादिक्षु ४।१३२ द्वाभ्यां दशसहस्राणि ६०।३७० द्वयासना यासु शुद्धा- ३४।१४४ दृयाद्यास्ते यत्र पञ्चान्ता-३४६४ द्वारस्य चोच्छ्रयस्तेषां ५।३५६ द्वारिकावधि तिष्ठन्तः ५०.१६ द्वारिका विभवालोक- ४२१८ द्वारेणोद्घाटितेनासौ १११४ द्वावंशावथ पञ्चम्या- १९।२४५
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________________
८५२
द्वाविंशतिस्तथोक्तानि ६०।३११ द्वाविंशतिप्रमाणोऽयं १९।१५२ द्वाविंशतिस्त्विमा वेद्याः १९३१६० द्वाविंशतिभिदाभिन्न- ५८।३०२ द्वाविंशतिधनुर्भिश्च ४।२३९ द्वाविंशतिरतस्तूर्ध्व ३४।११९ द्वाविंशतिधनषिद्वी ४।३२ द्वाविंशतिसहस्राणि १८६४ द्वाविंशतिपृथिव्यङ्गा १८।५९ द्वाविंशतिशतान्याहुर् ५७।१३२ द्वाविंशतिपयोराशि ४३।२१६ द्वाविंशतिर्महाप ६०१३०९
द्वाविंशतिसहस्रे ५।२८२ द्वाविंशतिर्यतिशतानि १६७२ द्वारेकः एनरेक एव हि ३४१९९ द्वाषष्ट्यब्दसहस्राणि ६०१५०९ द्वाषष्टिश्च सहस्राणि ६०/३५५ द्वापष्टयैकं शतं त्रीणि ५।५२७
१८६८
५/४६७
५/६५०
द्वासमत्युत्तरं कोटी द्वासप्तत्या शतं दिक्षु ४/९५ द्विकोट्यौ नवलक्षाश्च १०।१२४ द्विगुणद्विगुणायाम- ५।१२९ द्विगुणद्विगुणण्यासा ५।६२१ द्विगुणिताष्टसहस्रवधू गणै- ५५ ४३ द्विगुणास्त्रिगुणाश्च स्युर् ५।३८५ द्विने संकलितेहि ३४/७५ द्विचत्वारिंशदेवातः ६०।४९२ द्विचत्वारिंशदुक्तास्ता ४/१७४ द्विजैः सामयजुर्वेद- १७१८८ हिट्प्रयुक्तशरासारं द्वितीयायाञ्च षट्कृत्वः
द्वासप्ततिसहस्राणि द्वासप्ततिसहस्राणि
३१।८१
४।३७७
५७।१४१
४|१००
द्वितीये तु महापोठे द्विपञ्चाशं शतं दिक्षु द्विपृष्ठश्च त्रिपृष्ठश्च ६०,५६७ द्विपृष्ठस्यापि कौमार्यं ६०/५१२ द्वियोजनशतक्षोणी ३|१४ द्विष्टवर्षसु स्त्रीषु
४३।१०३
हरिवंशपुराणे
द्विविधं कर्मबन्धं च २१०९ द्रव्यार्थादेशतः शक्तिर् ५८ २२४ द्विशत्यशीतिश्चतुरुत्तराः ३४।७३ द्विशत्यष्टौ च कोदण्डा ४ ३३७ द्विशत्या सावधिः संघ- ६० ३९२ द्विशत्यातः सहस्रं हि ६०१४६६ द्विशत्या शिक्षका ६०।३९७
३५।६८
द्विषं तमन्वेष्टुमितः द्विषयोजनविस्तीर्णा ११।३६ द्विषड्योजनदृश्यास्ते ५७/१५ द्विषष्टियोजनोत्सेधा
५।६८२
द्विषष्टि योजनान्
द्विषष्टियोजनान्यत्र
४३५८
५/३०१
३१।७०
द्विषष्टिस्तु धनूंषि द्वौ द्विपोढाविरतिज्ञेया द्विसहस्ररथं सैन्यं द्विसहस्राश्रयो नाना द्विहानिक्रमतोऽतोऽग्रे द्वीपं च धातकीखण्डं
५७।१६
६।१०२
५/५६२
द्वीपं तु कुण्डलवरं
५।६१८
द्वीपं कुशवरं नाम्ना ५।६२० द्वीपानतीत्य संख्यातान् ५।१६६ द्वीपायनकुमारोऽसौ ६१।२८ द्वीपायनोऽपि महता ६१।४६ द्वोपेऽस्मिन् काञ्चनैस्तुल्या५ । २८० द्वीपे च धातकीखण्डे २७।१११ द्वीपेऽत्रैरावतक्षेत्रे ६०।४८
तृतीयेषु २२।२७ द्वीपेऽस्मिन्कच्छकावत्यां ६०७५ द्वीपेऽत्रैव सुपद्मायां ३४।३ ६।२६
द्वीपे तु हौ मतौ पूर्वी द्वीपो वापि समुद्रो वा ५।६३४ द्वीपो भूतवरश्चान्यः ५।६२५ द्वीपोऽपि धातकीखण्ड: ५१४८९
द्रुपदोऽस्यास्तदा भूग्स् ४५।१२१
४५।१४४
४५।११७
४४/२३
३३।१४९
द्रुपदस्य सगोत्रस्य
द्रुमकोट र मध्यास्य
द्रुमसेनं महावीर्यं द्रुमर्षिमेकान्ते
४।३३२
५८।१९६
११५२
२१।५५
२७/३८
मणिद्योतितं द्योत्यं द्यूते तत्रोत्तरीयं च द्यूते निर्जितमादाय द्यूतवेश्याप्रसङ्गेन द्यूते जित्वा हिरण्यस्य २६।३० द्वेधा चारित्रमोहस्तु ५८।२३४
३३।१०१
४१४४
५।५३५
५/९५
लक्षे च सहस्राणि
द्वे लक्षे च सहस्राणि
द्वे सहस्रशतैर्युक्ते
द्वे सहस्रे नरेन्द्रास्ते
५८/३०८
६०१४१८
सहस्रे शते च सहस्रे सुपार्श्वस्य ६०।३८२
द्वे सहस्रे शतान्यष्टौ
५४८८ द्वे सहस्रं शतं पञ्च ५/५७ द्रोणाश्वत्थामवीराभ्यां ४५ । १४३ द्योतमाने जिनादित्ये द्योति मण्डलवासिन्यो ५७ १५२ द्वैग्रामिकीनां जातीनां १९१२०५ द्यौरिवोरुविभवाग्नि
३1८
६३।२३ १२।६०
द्वी च सर्वप्रियो देवो
द्वौ द्वौ दौवारिकावासा - ५७।१३० द्वौ नवानुदिशेष्वेतौ
३४।१२० द्वौ नीलयशसः पुत्रो ४८ ५७ द्रौपदीप्रभृतयस्तदङ्गनाः ६३।७८ द्रौपदी दीपिकेवासी ४५।१४६ द्रौपद्यर्जुनयोर्योगः ६४।१४० द्रौपदीशील निर्भेद- ५४।२१ द्वौ द्वौ चैकादयः शस्ताः ३४।७८ द्रौपदी च द्रुतं मालां ४५।१३५ द्रौपदीग्रहवश्यानां ४५।१२५
द्रौपदीहरणं कृत्वा ५४/३७ द्वी षड्जमध्यमावंशी १९ १९४ द्वौ सुतौ तु प्रभावत्या
४८ ६३
[ ध ]
धनदस्य प्रिया पत्नी
धनश्रीपूर्वको देवो धनश्रीश्चापि मित्र श्री
धनश्च जिनदेवी च
६०१५०
६४।१३८
६४।१३
१८।११४
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________________
८५३
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः धनदत्तो गुरुश्चंव १८५११८ धर्मस्यारजिनेन्द्रस्य ६०।२७९ धुनी समुत्तीर्य ततोऽभि- ३५।२८ धनुःसप्तकमुत्सेधः ४।३०४ धर्मस्यैकान्नपञ्चाशत् ६०।४५० धूतासनोऽवधिज्ञानात् ९.१२९ धनुःशतानि चत्वारि १८६८८ धर्म तत्र जयः श्रुत्वा १२१४७ धूमज्वालाकरान् वृद्ध- ६१७५ धनुःशतानि पञ्चैव ४।२४१ धर्म प्रवदता तेन १०१ धूमसिंहोऽपि चामुष्या २१४२७ धनुःपृथक्त्वमुत्कर्षात् १८१८० धर्मस्तु वप्रकास्थाने ६०।२१९ धूमाङ्गारप्रमाणाख्यैः ९।१८८ धनुःसहस्रमेकं च ५।३९५ धर्मसिंहः सुमित्रश्च ६०।२४७ धूलीः कदम्बदमधूलि- १६॥२७ धनुःशतं शतं सार्द्ध '५१३८२ धर्मश्च दधिपर्णश्च ६०।१९६ धृतधर्मा ततस्तस्य ४५।३२ धनुः पञ्च शतोत्तुङ्गा- ५।२०३
धर्मः प्राणिदया दयापि १७।१६४ धृतराष्ट्रस्य तनया ४५।३६ पनुः पृष्टं पुनस्तस्याः ५।३३ धर्मं श्रुत्वा समं सर्वे ६०१७ धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च ४५।३४ धनुःशतानि पञ्चाये ६०।३०४ धर्म श्रु त्वा गुरो राजा ६०७७ धृतप्रसाधना वक्त्रं ६०२८ धनुषां पञ्चशत्यामा- ६।१३२ धर्माधर्मेकजीवानां १०॥३१
धृतातापनयोगश्च ६१६४८ धनुस्ततोऽधिज्यमसौ ३५१७७ धर्माधर्मनभोद्रव्यं ७।३।। धृताकल्पेऽभिषेकार्थ- ८१६२ धनुषोऽस्य त्रयस्त्रिशत् ५८४ धर्मार्थकाममोक्षेषु ९।१३७ धृतातपनयोगं तं ३३१७६ धनुषोऽस्य सहस्राणि ५।६७
धर्मे चार्थे च कामे च १४१५६ धृतिदेवो धृतिकरो ४५।११ धनुरन्यदुपादाय ५११३८
धर्मेणायोजयद्वीरो ३७ धृतिः सुदर्शने देवी ५७१७ धनूंषि त्रीणि संभ्रान्ते ४।२९८
धर्मो धामनि संधत्ते १८०३६ धृष्टद्युम्नरथस्थेन ४५।१४२ धनंष्येकोनपञ्चाशद् ४।३२९
धर्मो जगति सर्वेभ्यः १८।३८ धृष्टद्युम्नोऽप्यनावृष्टिः ५०.७९ धनूंषि सत्रिपञ्चाशद् ४।३३० धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट- १८॥३७
धैवत्या धैवतश्चैव १९।२२१ धनूंषि च पडुत्सेधः ४।३०२ धर्मोक्तौ योजनव्यापी ३।३८
धैवत्या अपि कर्तव्यौ १९४२३५ धन्या कनलमालासौ ४७।११९
धर्मध्यानप्रकारं स ५६।१११ धैवत्याश्च तथा द्वयंशो१९।२०७ धन्विनः स्थानमन्यस्य ४५११३३ धर्ता धरणनिर्धूत- ११२५ धैवतश्च निषादोऽपि १९।२५६ धन्याः शिखिशिखाजाल-६११९९ धातकीखण्डनायौ तु ५।६३८
धेनोरिव निजवत्से ३४।१४८ धरणेन शरण्येन २२१५४
धातकोखण्डपूर्वार्ध- ६०५७ धोतवासं गृहीत्वासौ ८८९ धरणस्यात्मजाः पञ्च ४८५० धातकीखण्डजेभ्यस्तु ५।५८९
ध्यायत्रित्यादि निश्चित्य५२।७६ धरणेन्द्रवितीर्णे च २२१७४ धातक्यादिषु चन्द्राः ६१३३ ध्यानतोऽध्ययनतो ६३।१०३ धर्माधर्मों तथाकाशं ५८५३
धात्री चेतोविदूचे तां ३११२४ ध्यानमेकाग्रचिन्ताया ५६।३ धर्मास्तिकायाभावान्न ५६४८२ धात्री मानुष्यकं प्राप्ता ३३११६७ ।। ध्यानयोग्यगिरिमार्ग- ६३०९९ धर्मात्त्रिवर्गनिष्पत्तिस् १८।३५
धान्यानां सकला भेदाः १११११६ ध्वजसितातपवारण- ५५।१०९ धर्मार्थकाममोक्षेषु ११११३७ धाम धाम निजं धाम ९।१७५ ध्रौव्यनाम्नो गुरोः २३३१३४ धर्मस्याचरितस्य पूर्व- ११११३९ धाम्नि मानसवेगस्य ३०।२८ धर्म एष जिनभाषितः ६३१९१
[न ] धावतोऽस्य मृगयूथ- ६३।२ धर्मदानं जिनेन्द्रस्य ३२८ धावन्ति परितो देवाः ५९।२२ नक्षत्राख्यो यशःपालः ११६४ धर्म एव परं लोके १८।३९ धिक मद्धेतोरयं दुःख ३३।१४८ न कालादन्वतो हेतोः ७१३ धर्मरत्नमहाद्वीपो ९।१६३ धिग्जन्तोः परतन्त्रस्य ९१५४ न काव्यबन्धव्यसनानु- ६६।३६ धर्मध्यानं धवलमुदितं ६।१४० धीरमध्वनि देवानां ३।३५ ।। न किंचिदपि चास्त्यत्र ३३।१२३ धर्मसाधनमाद्यं हि १८।१४३ धीरपुत्रशतस्यासौ ९.७४ नकुलः सहदेवश्च ४५।३८ धर्मशास्त्रार्थकुशल: १४।९ धीरा राज्यधुरां त्यक्त्वा १३।१५ नकुल सहदेवश्च ६५।२३ धर्म तत्र जिनोऽवोचद् ६५।६ धीराः प्रच्छन्नसामर्थ्या: २०१३८
नकुलः सहदेवेन ५०१९६ धर्म्यमेव हि शर्माप्त्यै १७।१४५। धीरो विस्मययुक्तस्तां २४.६८ न केवलमयं वेदे १७।१००
पद
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________________
८५४
हरिवंशपुराणे
नक्रचक्रमहारौद्रे ४३१४५ नखमणिमण्डलेन्दु- ४७।२ नखमुखदंष्टिका विकट- ४९।३१ नखाग्रदंष्ट्रादृढ दृष्टि- ३७।१७ न गतिर्न स्थितिस्तत्र ४।३ नगरमभिविशन्तौ ३६॥३२ नगरी द्वादशायामा ४१।१९ नगर्यां पुष्कलावत्यां ४४।४५ नगरे जाम्बवाभिख्ये ६०५३ नगरे भद्रिलाभिख्ये ३२।२९ नगौ शङ्खमहाशङ्खो ४।४६२ न चायं संप्रदायोऽस्मा- १७४१२० न चागम्यमगस्थान- ३०११६ न चेदेवं करोत्येष ३११५१ न तद् द्रव्यं न तत्क्षेत्रं ३११४ नर्तकीप्रेक्षणक्षिप्त- २२।४५ न तृप्तिस्तैरभूद् भोगैर् ९।६० नत्वा जिनं जिनगुरू १६।१६ नत्वा सुभद्रनामानं ६०1१०० नत्वा पृष्ठा ततो ज्ञात्वा ४७।६१ नत्वा पृष्टवते भूयः ४८।३८ नत्वेति ज्ञापितस्तेन १९७३ नद्यः सरांस्यरण्यानि ५१५०९ नद्यः षोडश गङ्गाद्याः ५।२६९ नदीविस्तारहीनस्य ५।२५४ नदी तप्तजला पूर्वा ५२४० नदीमुखेषु कालोदे ५।६३१ नदीसमीपकूटेषु ५।२३५ नदीं गङ्गां समुत्तीर्य ४५।६० न दूराल्पफलप्राप्ता ८१९३ न द्रव्याद् द्रव्यतः सिद्धिः ६४/९४ न नतस्य न तुङ्गस्य ८२५ ननन्द नन्दिषेणाख्यम् १८।१३५ न नागो न रथो नाश्वो ३१२८० ननृतुरप्सरसः सहसा- ५५।११२ नन्दश्च पुण्डरीकश्च २५॥३५ नन्दनं मन्दरं कूटं ५।३२९ नन्दनात् समरुन्द्रोऽद्रिः ५.५२८ नन्दने भद्रशाले च ५।३५८
नन्दनं नलिनं चैव ६।४५ नन्दा नन्दोतरा चोभे ५७०६ नन्दा नन्दवती चान्या ५।६५८ नन्दाभद्राजयापूर्णे ५७७३ नन्दा नन्दोत्तरानन्दा ५७।३२ नन्दिषेणमुनिश्चैव १८।१५७ नन्दी च नन्दिमित्रश्च ६०५६६ नन्दीश्वरवरद्वोपं ५।६१६ नन्द्यावर्तेऽमरः प्राच्यां ५।७०२ नन्वाज्ञा फलमैश्वर्य- २०१३५ न पृथिव्यादिभूतानो ५८।२४ नभः स्वच्छतरं स्पष्ट- ५९।८९ नभःस्फटिकनिर्माणस् ५७१५६ नभःस्फटिकमूर्द्धस्थ- १७१५५ नभस्तलमितस्ततः ३८६४७ नभस्तिलकनाथश्च २५।४१ नभस्तिलकनाथश्च २५।४ नभस्यागच्छतस्तस्य ५२।६० नभसि शुक्लतुरोयतया ५५।१२६ नभसोऽवतरन्ती व ८१४६ नमये मुनिमुख्याय १२३ नमः सर्वविदे सर्व- १३ नमः सुमतिनाथाय २२।३२ नमः पार्वजिनेन्द्राय २२।३९ नमस्ते कुन्थुनाथाय २२।३६ नमस्ते मृत्युमल्लाय ८/२२४ न मोहो न भयद्वेषौ ५७।१८१ नमस्तेऽनन्तबोधाय ८।२२५ नमस्ते लोकनाथाय ८२२६ । नमस्ते जिनचन्द्राय ८२२७ नमस्ते पुष्पदन्ताय २२।३३ नमस्यासनदानादि- ४२१९ नमिमहारथश्चापि ५०।१२१ नमिश्च निर्वृतो नेमिर् ६०।१४१ नमिश्च विनमिः २२।१०९ नमिनेम्यन्तरे चक्री ६०।२९७ नमिना भाषितो धर्मः १८.४१ नमिश्च विनमिश्चोभौ ९।१२८ नमुचिश्च सुसीमा च ४४।२९
नमेः खेचरनाथस्य १३।२० नमेनवसहस्राणि ६०.४५३ नमेस्तु तनया जाता २२।१०७ नमोऽस्तु नमिनाथाय २२॥३७ नमोऽस्तु वासुपूज्याय २२॥३४ नमोऽष्टादशतीर्थेन १२० नमो भृश फलभरेण १६।२६ न युक्तमीदृशं कर्म ४३।१८९ नयोऽनेकात्मनि द्रव्ये ५८।३९ नरप्रधान ! कावेता ७/१२८ नरवक्रोन्मुखाख्यो द्वौ ३०।५४९ नरा देवकुमाराभा ७९६ न रागो न च विद्वेषो ३११३७ नरोऽजपोतगन्धोऽय- १७४१०१ नलिनीदलसंकाशो ६०५५६ न लोक्यन्ते यतस्तस्मिन् ४।२ नववेयकावासा ३३१५० नव चैव सहस्राणि ५।५१६ नव तत्र सहस्राणि ५।२९१ नवतिश्च सहस्राणि ४।१५९ नवतिनव चैतानि ४२०८ नवतिकार्मुकपूर्वसुलक्षित-१५।५५ नवत्यब्दसहस्राणि ६०१५०४ नवपरिभ्रमसौख्य- ५५॥४१ नवपल्लवरागाढ्याश् १४।१२ नव पूर्वाङ्गमानं स्यात् १८१६९ नवभिश्च नवत्या च ४।२३० नवभिनवभिलक्षा ५।५६१ नवमासेष्वतीतेषु २।२५ न वयं तु तथाख्यातं ५।११२ नवराजेन सूदोऽपि ३३।१५३ नवराज्यस्थमागत्य २०१६ नवलक्षाः सहस्राणि ६०१५२७ नववध्वा तया साधं ३२।१८ न विससर्ज ततः स्वपतेर्गहं १५।४ नवशत्या सहस्राणि ६०।४६० नवषष्टिसहस्राणि ५।५३४ नवस्थानेषु निर्ग्रन्था ३८४ नवसङ्गमसंजात- ३११४५
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________________
नवहस्तिसहस्राणि
नवानुदिशदेवाना
नवानुदिशनामानस् नवानुदिशनामानि नवोरः परिसर्पेषु
५०/७६
६।११६
५७/१०१
६।४०
१८६२
न शक्ताश्चरितुं चर्यां ९/१२३ न षड्जो लङ्घनीयों शो १९।२५४ नष्टस्त्वं दृष्ट इत्युक्त्वा १७१७४ न समशीशमदस्य शशी १५।३९ न संचिद्मात्रमात्मा ५८।२९ न सा कान्तिर्न सा दीप्तिर् ९१२० न सा स्नाति न सा भुङ्क्ते २२।११७ न स्मरत्यजशब्दस्य १७/६९ न हि चित्रगुरित्यत्र १७।१२३
२१।१८३
न हि पौरुषमीदृक्षं न हि महिषास्रपानवि- ४९/३५ नागवल्यपदेशेन
४२/६३
नागवेलन्धराधीशा
५/४६५
नागदत्ताभिधा चान्या ६०१२२४ नागयक्षयुगे तासां
५।३६३
नागलोकं विजित्येव
८७२
नागश्रोरपि मृत्वाप
नागी दुष्कृतं ज्ञात्वा
६४।११३ ६४।१२ ५/४६६
१६।३
नागानां च सहस्राणि नागोक्षसिंहकमला नात्युष्णा नातिशीता: नाथ वैश्रवणेनेयं
५९॥७८
६१।१८
नाथावाच्यमचिन्त्यं च ३३।८६ नादरे परकृते कृतादरो ६३।१११ नानन्तेनापि कालेन
नानद्वयतिभिर्युक्ता नानादेशागतैर्भव्यैर् नानापुष्पधने दीर्घे
८६३
नानास्त्र व्यर्थताक्रुद्ध
५२/५९
निःकीलो निर्व्रणश्चासौ २१।१९
नानानीकैः सुरैरुवं
९९० २६।८
५३।२३
२२७५
नानावर्णमयस्वर्ण
नानाविद्याधराधीशा नानाजनपदोपेतौ
९/५७
१२/३७
४६/२०
श्लोकानामका राद्यनुक्रमः
नानावर्णमणिच्छन्नैः
७७९
नान्योन्यदर्शनं जातु
५४।५९
नान्तरीयकमेतस्या
३४।७०
नापि प्राप्तेप्सितार्थानां
३।१२९
नाभिपर्वतमानानि
५।१९३
५६।३४
नाभेरूर्ध्वं मनोवृत्ति नामत्रिणवतित्वादी ३४।१२१
नामागुरुलघुच्छ्वास- ५६।१०३ नाम्ना गन्धर्वसेनेति १९।१२३ नाम्ना क्षीरकदम्बोऽभूत् १७३८ नाम्ना बन्धुयशा कन्या ६०१४९ नाम्ना साधारणेनोक्ता ५।२७१ नाम्ना चाङ्गारको दुष्टो १९/८५ नाम्ना तत् स जलावर्त - १९/६१ नाम्ना विभङ्गनद्यस्ताः ५१२४३ नाम्ना भूरिश्रवाः पुत्रः २४/५२ नाम्नोत्तरकुरुश्रान्या ६०।२२५ नारकस्यायुषो योगो ५८।१०८ नारीकूटं तुरीयं तु ५।१०३ नारी च नरकान्ता च ५।१२४ नारकं नारकोद्भूतं ५८।२४२ नारकाणां तत्सेधो नारकस्वर्गतिर्यक्त्व
४२९५
२८|३७
नारकादिभवानेति'
५८।२१७
१७।५१
२३।१४८
६०।८०
१७।७६
नारदस्तु विनीतात्मा
नारदस्य सुतायाऽसौ
नारदस्याभवद्देवी
नारदस्य वचः सत्यं
नारदेन समाख्यातं
नारदेन ततोऽवाचि नारदोऽपि नरश्रेष्ठः
५४|१८
१७/७२
६५।२४ नारदोऽप्सरसां सङ्घः ५१।२५ नारदोऽपि जिनं नत्वा ४३ ।२२५ नारदो बहुविद्योऽसौ
४२/२० नारायणो नरहरिः ४५।१९ नाल्पः कल्पच्युतः पुत्रो ४३।७१ नास्तिकस्य तथा तस्य २८०४२ नास्तिकैकान्तवादी स २८|३३ निकचितां कचसंपदमा ५५।१२२
८५५
निकायौ चापरौ स्यातौ २२।५८ निकारायोऽग्रसेनस्य
३३॥८४
निक्षेपणं यदा दानं २।१२५ निखिलखेचरसाधितवि- १५/३२
निगद्य वसवे सर्व
१७।७९
निगद्य तानेवमसौ
५४।७१
२३।८९
निगूढ गूढसुश्लिष्टनिगूढ जिन गर्भसं
३८|४
६०।२९५
३६।७
निजं जिनान्तरं ज्ञेयं निजभुजबलशालीनिजमगारम गाज्जिन- ५५।१४ निजवधूजनलालितनेमिना - ५५।२९ निजसारथिमाजिस्थः ३१।१०५ निजाज्ञया च कथितं १२।२४ निजोज्छ्रिति चतुर्भाग- ५।२१४ नितम्बास्फालनैरङ्ग- १४।१०२ नित्यमस्वेदनाः कक्षाः नित्यशो भुक्तभोगा च नित्यं निर्मलिनिः स्वेदं नित्यं द्वारवती पुरी
२३८२
२४।६६
३।१०
४८।७५
६३।८४
नित्यता मम तनोनित्यान्धकारमुद्वास्य निदानदोषदुष्टोऽय
११/२७
३३।९१
निदानमकरोत् क्लिष्टा ६४।१३५ निदानी वज्रदंष्ट्रस्य
निदाघेऽप्यवरैषैव
२७।१२१ ४२७४ निद्रा तन्द्रा परिक्लेश- ५७११८२ निद्रापाये गृहं गत्वा निद्रेन्द्रियकषायारि
२१।७४
३१८८
५९/८२
निधानानि निधीरन्ना निधीनिव निशाशेषे
८1५८
निन्दितं नाकरिष्यच्चेन् १८१७३ निन्दित्वात्मानमाकर्ण्य १८ १३३ निन्युरित्थमनुवृत्ति- ६३/५९ निपत्य पादयोस्तस्याः ४३|१४ निपत्य युगपत्स ४७ ७१ निपात्य शरवर्षेण ५१।२६ निपातनं च कस्यात्र निः प्रमादतया याति
१७।१०९
१९।९७
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________________
हरिवंशपुराणे निमज्जेत् स्वत एवेयं ६१।१९ निवृत्य कसः पुरि घोषणां३५।७१ निसृष्टातिनिसृष्टाख्यो ४।१५५ निमित्तमान्तरं तत्र ७६ निवेदितमिदं वृत्तं २९।४५ निहतश्च जरासन्धस् ५३।१८ निमेषोन्मेषविगम- ३॥१२ निवृत्ते युधि जीवामो ५०।१०० निहता पाण्डवैः केचिद् ५१।३२ निम्नैः करतलैः क्लीबाः २३१९० निवृत्ताः स्थूलहिंसादेर् ७११४ ।। निहितकमलभारान् ३६।१० नियन्त्रितो जनः सर्वस् ७।१४३ निवार्य मात्सर्यभवार्य- ६६१४७ नीचेन नीलकण्ठेन २३।२४ नियतिश्च स्वभावश्च १०६४९ निवेदितं ततस्ताभ्यां ४३।१०६ । नीतश्च निशि निस्त्रिश-२२।१२६ नियुतं नियुतं गत्वा ६।३२ निवेदिता सुरेणासौ ५४।१४ नीता मानसवेगेन ।२४।७२ नियुताङ्गं परं तस्मान् ७२६ निविष्टश्चक्रिणः पार्वे १२।४६ नीत्वा तं कुञ्जरावतं १९।६८ नियतेः कालतः स्वन्तर १०५३ निशम्य वनमालायास् १४।९२ नीरजोभिरहोरात्रं ३।२७ नियत्यास्ति स्वतो जीवः१०.५१ निशम्य सा स्वप्नफलं ३७१४६ नीरन्ध्रशरजालेन ३११७५ निरन्तरविशन्निर्यद् ५७७६ निशम्य सा स्वप्नफलं ३५.१६ . नीलवडुर्यवर्णानि २६।१७ निरस्यति पयस्तृष्णां ६२।२४ निशम्य शमिनो वाक्यं २७१७३ नीलकण्ठाश्वकण्ठौ च ६०१५७० निरस्य नैशं निशितै- ३७।११ निशम्यात्मभवानित्थं ६०७३ नीलकण्ठस्फुरत्कण्ठ- ६०।२१३ निरस्यन्तमनन्तानु- ४११९ निशम्यार्णवमदगीर्ण ४११० नीलकुश्चितसुस्निग्ध- ८२७ निरीक्ष्य मधुसूदनेन ५२।९२ निशम्येति गुरुं नत्वा ४३।१५४ नीलमन्दरमध्यस्था ५।१६७ निरुपायानुपायज्ञो ४७१८१ निशम्येति वचः सौम्या ४५।८३ नीलकेसरबालार् ५२।९ निरुद्धय निशितैर्दण्डैर् ४३।१९३ निःशङ्काद्यष्टगुणा ३४।१३२ नीलस्तस्य सुतः कन्या २३॥४ निरुद्धातिनिरुद्धाख्यो ४१५६ निशि निशितासि निर्मल-४९।२७। नीलस्योदूढभार्यस्य २३१७ निरुध्य प्रसभं धैर्य ४३।१९८ निश्चितश्चापि षण्मासायु ८५५
नील नीलयशो यशो २२।१५४ निरुपायास्ततो गत्वा ५४।३० निःशेषनिर्गलितनीर- १६।३० नीलाम्बुदचयश्यामा २६।१४ निरूप्य रुक्मिणी सत्या ४३।१३ निःशेषेषु निकायेषु २२॥६९ नीलाद्रिस्पृष्टभागस्थं ५।६१० निरूपितास्तु याः कन्याः ६११४ निःश्रीौतमनामाऽसौ १८५१०४ नीलाद्रिस्पृष्टभागस्थे ५।६०८ निर्गमे च प्रवेशे च १९।२८ निषद्यकाख्यमाख्याति १०।१३८ नीलाद् ग्राहवती सीतां ।२३९ निर्गत्य निर्गती पुर्या ६१६९० निषधस्पृष्टभागस्थं ५।३०९ नीलाद्याः परयोश्चोद्ध्वं ६।९८ विर्गुणाऽपि गुणान् सद्भिः ११४२ निषधस्पृष्टभागस्थे ५।६०७ नीलाख्यश्च महानीलो ४१५७ निर्मित्सानन्तरं भर्तुर् ५७।१११ निषधादुत्तरो नद्यां ५।१९६ नीलाद्रेर्दक्षिणाशायां ५।१९१ निर्यदायद्विशत्पश्यत् ५७।१८०. निषधस्योत्तराशायां ५।१९२ नीलोत्पलदलश्यामां २२१९ निर्याति सूर्यदीप्ताङ्गे . १९।१० निषधान्नीलतस्तावत् ५।२७० । नीलोत्पलनिभैरेष ५२।११ निर्वर्तनाधिकरणं ५८५८७ निषद्यायां यथाद्यायां ६५।७ नृदेवाचित्ततिर्यक ३४।१३ निर्वर्तना च निक्षेपो ५८५८६ निषादश्च निषादांशो १९।२२४ नृत्यत्सुराङ्गनोद्भासि ८।२३३ निर्वाणं च तथा ज्ञेया १०८० निषादः षाडजश्चैव १९।२०९ नृत्यद्विद्याधरीवृन्द- ४३१६० निर्वाहकस्तयोरासीत् ४२१७५ निषिद्धोऽपि वधाद्रौद्रो २१।१०६ नृत्यन्त्या च नृपादेशात् २९।२८ निर्वाप्यते ज्वलन्नाग्निर् २०१३४ निष्क्रान्तिःसुमते क्त्वा ६०१२१६ नृत्यारम्भेऽन्यदा तस्या २११४३ निर्वासितो विरोधस्थो ६०।२० निष्क्रान्तासि बहिःकान्ते २४।६४ नृप ! कस्य न विज्ञातस् १९।३१ निविकृतिपश्चिमार्धा ३४।११० निष्क्रान्तानामनेनामा ९।१२२ । नृपसहस्रमममानमिना ५५।१२१ निर्विकृति पूर्वार्धः ३४.९९ निष्क्रान्तिर्वासुपूज्यस्य ६०।२१४ नपदत्तोऽग्रजस्तेषां ३३।१७० निर्वृतः सितपञ्चम्यां ६०।२७५ निःस्वस्य चिपटा ग्रीवा २३१८३ नृपः स नगरद्वारं ५४।४३ निर्वेदी दीनतां त्यक्त्वा४३११५५ निःसरद्भिर्विशद्भिश्च २०१४३ नृपं शयानं सुमुखं १४।१०७ निवृत्तकरणग्राम- ५६।३३ ।। निस्सङ्गनिर्भयत्वाय ६४।५० नृपस्त्वं रक्षणान्नृणां : १९।१६
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नृपास्तेऽपि तथा तस्थुः ९।१०२ नृपैस्तैरनुयातोऽपि ५०३६ नृपैपभसेनस्तं ९।२१५ नपोक्तः कंससम्बन्ध- ३३१९२ नपो दुर्योधनो द्रोण- ५२।८८ नृपोऽवादीत्तया योगो १४॥६२ नृभवाभिमुखेनेव ८११९८ । नृसुरश्रीप्रसूनस्य ३१७६ । नृसुरा मानवस्तम्भा- ५७१२। नेत्रं मनश्च भवदत्र १६।३७ नेदुस्ततस्त्रिदशदुन्दुभयो १६१६२ नेदुरम्बुदनिर्घोषा- ९।१९२ नेपालोत्तमवर्णश्च नेमिसामर्थ्य विज्ञानं ११११२ नेमितीर्थकरस्यापि ४०।११ नेमिः सूर्यपुरं चित्रा ६०।२०३ नेमिनाथागमोद्भुत- ४१।११ नेमीशहरिरामादि- ४७।१४ नेमीशस्त्ववधिज्ञात- ५२१६४ नेमुः ससप्तपदमेत्य १६६६ नेमेः सितचतुर्थ्यां तु ६०१२३० नेमेः सारथिरूपेण १०७ नैकयोनिकुलकोटि- ६३१८२ नेगमः संग्रहश्चात्र ५८१४१ नैमिषं हास्तिविजयं २२।८९ नैष्टिकवतमास्थाय ९।१२१ नोच्छिद्यरन्महोद्योगैर् ५०१३ नोदयास्तमितं तत्र २११४५ नोदितस्तैः समारूढो ४७:३२ नोदितेऽथ रथे तेन ५२।२७ नोपमा जिनरूपस्य ४११५४ नौभिर्गङ्गां समुत्तीर्य ५४६६४ न्यायेनावसिते ह्यत्र १७१९७ न्यायेन च तयोरत्र २३।१० न्यासश्चैवात्र गान्धारः १९।२४९ न्यासश्चात्र भवेत् षष्ठो १९।२१९
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८५७ पक्षास्तु रुधिरस्यके ३१६१ पञ्चधाणुव्रतं प्रोक्तं १८।४५ पक्षे सिते तृतीयस्यां ६०१२६० पञ्चचापशतोत्सेधा १८४८२. पङ्कप्रभा विनिर्यातो २७।२०७ पञ्चम्यन्ते चतुर्थी च ४१३ पङ्कप्रभा चतुर्थी तु ४४४ पञ्चशैलपुरं पूतं ३।५२ पञ्चमुष्टिभिरुत्खातान् ९९८ पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि ३१६३ पञ्चवर्णसुखस्पर्श- ७७७ पञ्चसंख्यस्य विध्वंसाद् ३७ पञ्चप्रज्ञप्तयः प्रोक्ता- १०॥६२ पञ्चलक्षास्तथाष्टानां ६०१४४२ पञ्चपञ्चैककं षट् च १०।१४० पञ्चचापशतान्याद्ये ६०।३०६ पञ्चविंशतिलक्षाश्व १०।१२८ पञ्च पञ्च त्वतीचारा ५८।१६३ पञ्चलोहादयो लोहा १११११५ पञ्च कन्दर्पकौत्कुच्य- ५८।१७९ पञ्चभिनियतिपृष्ठेश् १०.५० पञ्चधा ज्ञानावरणं ५८०२२१ पञ्चमेन च विज्ञया १९६१६९ पञ्चमुष्टिभिरुत्पाट्य १३।३ पञ्चमे शुद्धषड्जा १९।१६६ पञ्चत्रिशन्मताः सर्वे ६०॥४१३ पञ्चम्यामजितः षष्ठयां ६०२६९ पञ्चशत्या सहस्राणि ६०१३९३ पञ्चसप्ततिवर्षाष्ट- २२२ । पञ्चषष्टिश्च चित्रत् ४।२३६ पञ्चविंशतिसंख्यानि ६०१५१३ । पञ्चविंशतिसंख्याब्द ६०५०१ पञ्चकौरवराज्याध- ४५१५० पञ्चविंशति-संमिश्र- ४।३५९ पञ्चषष्टिसहस्राणि ५।५८३ पञ्चविंशतिसंख्यानि ६५७ पञ्चलक्षास्तु कोटीना- ५।५६५ पञ्चमर्षभहीनं तु १९४२३० पञ्चविंशतिरेव स्याद् ५५६
पञ्चधाणुव्रतं केचित् २।१३४ पञ्चविंशतिरस्यैव ५।४८
पञ्चस्वरस्तथा चैव १९।२१७ पञ्चविंशतिरुत्सेधः ५।२१ पञ्चमं सप्रपञ्चा)
१७ पञ्चविंशशतं तानि ५१४५७
पञ्चत्रिशदतो लक्षा ४।२८१ पञ्चविंशतिरायामः ५।३५५ पञ्चविंशतिलक्षास्तु ४।१९२ पञ्चलक्षाः सहस्राणि ५।२७३ पञ्चविंशत्सहस्राणि १८३१७१ पञ्चमेषु प्रदेशेषु ५।३१३
पञ्चधाप्रविभक्तार्थ १५५ पञ्चचापशतव्यास- ५।३८० पञ्चानां संगमे तासां २७।१४ पञ्चचापशतव्यासा ५.४०४ पञ्चादयो द्विपर्यन्ताः ३४.६६ पञ्चचापशतोत्सेधा ५।६७९ पञ्चानां संकलिते ३४६८१ पञ्चषष्टिसहस्राणि ५१६६६ पञ्चानामानुपूर्वेण ३।४५ पञ्चचापशतव्यासा५।१७३ पञ्चान्ता यत्र चैकाद्याः ३४.७१ पञ्चमीमपि सिंहास्तु ४।३७४ पञ्चाद्या यत्र रूपान्ता ३४।६९ पञ्चत्रिंशद्धनूंष्यारे ४।३२६ पञ्चादिपु नवान्तेषु ३४५६ पञ्चपष्टिसहस्राणि ६०।४४८ पञ्चाशच्च सहस्राणि ५।६५१ पञ्चभिर्गुणितास्ते स्युः ३४.५४ पञ्चाशद्योजनायाम- ५।५९७ पञ्चकृत्वः कृतावश्यः ३४।१११ पश्चाशच्च सहस्राणि ५।६६ पञ्चविंशतिकल्याण- ३४।११३ पञ्चाशद्योजनो मौलो ५६७३ पञ्चदशीपर्यन्ता ३४।१२६ पञ्चाशदात्मकसहस्र- १६७३ पञ्चकल्याणपूजानां १८६४२ पञ्चाशच्चापविस्तारा ५।३८३
[प] पक्षमासादिभेदेन
१०८
६४।३७
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________________
८५८
पञ्चाशत्कोटिलक्षाश्च १३।१८ पञ्चाशतत्रिशती चापि ६०४२७ पञ्चाशता शते द्वे तु ६०५२८ पञ्चाशता शतानि स्युः ६०।४२१ । पञ्चाशता विमिदं तु ४।३६० पञ्चाशच्च सहस्राणि ५।९४ पञ्चाशत्पदलक्षाभिः १०११२१ पञ्चाशत्तु सहस्राणि ६०१४९८ पञ्चाशीतिसहस्राणि ६०१४४६ पञ्चानुत्तरसद्वक्त्रः ४३१ पञ्चाश्चर्याण्यहं प्रापं ६०१९८ पञ्चाग्नितपसि प्रायो ३३॥६२ पञ्चेन्द्रियप्रकारेषु ३।१२३ पञ्चव च सहस्राणि ५।४२० । पञ्चवास्य सहस्राणि ५।५१ पञ्चैव नियुतानि स्युः ६१७९ पञ्चैवैकादशाङ्गानां ११५९ पञ्चैव तु भवेत् षड्जे १९।२१८ पञ्चोनापि च लक्षका ४७४ पटप्रकृतिना सम्यग् ३९५ पटहाकृतयश्चित्रा . ५१६५३ पट्टचीनमहानेत्र- ११।१२१ पट्टचीनदुकूलानि ७८७ पटुमदाकरिणः क्षुभिता ५५।६७ पटूभवन्ति मन्दाश्च ५९।१०७ पण्डितेषु यथा स्थानं १७४९३ पण्याख्ये रमते सोमस् ५।३१७ पण्याख्यं दिशि पूर्वस्याम् ५।३१५ पतद्भिरपि तत्रान्यै- ९।१०८ पतत्प्रासादशालोधै- ५४१४५ पतञ्जललवस्वच्छ- ९८१ पतिनामाङ्कितां दृष्ट्रा २७१३९ पतितश्च शनैः शौरिस् २४।२९ पतद्भिर्मत्तमातङ्गः ३१७७ पतन् मनुजमातङ्गस् ५२।४१ ।। पताका हस्तविक्षेपै- ५९।६८ पतिभिक्षां ययाचेऽसा- ४६।१३ पति वेगवती दृष्ट्वा २६१४० पतिरसौ मम कोऽपि ५५१६२
हरिवंशपुराणे पतितस्य तटे तेन २११९१ पद्मावती समुत्पन्नां ४४।३८ पतिनिदेशजुषो हरियो- ५५।४४ पद्मे पद्मवती ज्ञेया ५।७१३ पतित्वा पादयोस्तस्य ९।१७८ पद्मोद्भासि परं पुण्यं ५९।१० पत्न्यङ्गारवती तस्य २४७० पपाताशनिनिर्घोषो १११४५ पत्रिपर्णाशुकच्छन्न- २६।२० पपात सुमनोवृष्टि- ९।१९४ पथि तपस्यति तत्र कृते-५५।१३० पपात सुभटः खड्ग- २५।५९ पदमपीदमपूर्वमिवेक्ष्यते ५५।२३ पपात मायया वाप्यां ४७१७३ पदमर्थपदं ज्ञेयं १०१२२ पप्रच्छ तापसं कञ्चित् ३०१४४ पदलक्षा द्विपञ्चाशत् १०६६ पप्रच्छ विप्रमेकं भो २८।१६ पदवी जातरूपाङ्गी ५९।३८ पयःकणे घ्राणपुटं प्रविष्टे ३५।२४ पदानां सप्ततिलक्षा १०1८८ परस्परकराश्लेष- ७७६ पदानां पञ्चलक्षाभि- १०॥६४ परस्परवधं चक्रुस् ३३।१३८ पदानां तु सहस्राणि १०३४ परस्तात्तु गिरेस्तस्य ५७३२ पदार्थान्नव को वेत्ति
परस्त्रीहरणं सत्य ४३।१८४ पदाष्टाशीतिलक्षा हि १०।६९ परस्परं समालापे ४५।८७ पदैः पञ्चसहस्रेस्तु १०७१ परं हन्मीति संध्यातं ६१।१०३ पद्मश्चापि महापद्मः ५११२१ परस्यापकृतिं कुर्वन् ६१।१०१ पद्मरागमयं भास्वच् ५९८ परस्वहरणप्रीतः २७१४१ पद्मगुल्मोऽपि नलिन- ६०११५३ परस्परगृहाजस्र- ४४|१९ पद्मरागमहास्तूप- ५७१५५ परतः क्रमहानिस्तु ७।१७२ पद्मश्रीस्तस्य कन्याभूत् २५।३ परतस्त्वप्रवीचारा ३।१६७ पद्मरागमणिस्फीति- २।९।। परमानन्दरूपं ते ३३१७७ पद्ममालः सुभौमश्च ४५।२४ परस्तात्पुष्कराद्धे तु ६।३० पद्मश्च पुण्डरीकश्च ५।६३९ परप्रमाणको मुग्धो २३।१२३ पद्मसेनेन निहतो ६०५९ परमतभेदसमर्थ- ३४।१४७ पद्मखण्डपुरं गत्वा २७१४४ परतः सार्धरज्ज्वन्ते ४।२२ पद्मकेतुः पवित्रात्मा ५९।३० परमदर्शनशुद्धिविशुद्धधी- १५६७ पद्मश्रियमुपादाय ३२।३५ परवधूप्रिय वीरकवैरिणं १५।५० पद्मराज किमारब्धं २०१३२ परस्परविरुद्धात्म- ३३९२ पद्मस्ततो नतः प्राह २०१४० परं कौशलमस्त्रेषु ३१११२४ पद्माभस्य सहस्र द्वे ६००३७९ परमेश्वरभामग्न- ५७।१५७ पद्मावत्या गृहोपान्ते ४४।४९ परद्रव्यस्य नष्टादेर् ५८।१४० पद्मावती शुभाभिख्या ५।२६० पर विवाहाकरण- ५८।१७४ पद्मा सुपद्मा महापद्मा ५।२४९ परलोककथापोढ- २८०४१ पद्मादिगुह्यते सूची ५।५४३ परदुःखविधानेन ६१११०७ पद्मावती सुमित्रोऽस्तु ६०१२०१ ।। परारतिविधानं च ५८५१०१ पद्माङ्गं पद्ममप्यस्मात् ७२७ परावृत्य पुनः पश्यन् ४३।३८ पद्मा सरस्वतीयुक्ता ५९।२७ परा प्रज्वलिते येयं ४।२७६ पद्माः शतसहस्रं हि ५।१९९ पराचरितसावध ५८७६
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८५९
परावृत्य ततः कन्या ३११४१ पराभूतिमिमां राज्ञां ३१२४९ परा तु तमके यासौ ४।२८४ परिभ्रम्य चिरं शोभा २३।१९ परिमाणं तयोर्यत्र ५८।१५६ परित्यज्य गजं श्रान्तं २४।४७ परिवेष इवार्क यः ५७।११० परिमाणमहत्त्वेऽपि ५८।३४ परिपर्यध्वनस्तस्मिन् ५७।१४८ परिकरं परिवध्य तदो- ५५।११ परितस्ताश्चतस्रोऽपि ५।६७१ परिणीय हरि!री ४४।३६ परिणीय सभायौं तौ ४४।४३ परिक्षेपः पुनस्तस्य ५।२९७ परिक्षेपो वनं चान्यन् ५।३०८ परिणीय ततः कामः ४८।१३ परिषत्प्रावृषि स्फूर्जद् १७।१४६ परितो भाति तूत्सर्पद् ५९।१०७ परिणाम प्रपन्नस्य ७१७ परिपूर्णोभया जातू ६४।६१ परितः परिमार्जन्ति ५९।३९ परिहृत्यातरौद्रे द्वे ५६।२९ परिषदमथ दत्त- ३६१५५ परिनिर्वाणकल्याण- ६५।११ परिजनाहृतवस्त्रविभूषण-५५४५७ परीत्य जिष्णु धिष्ण्यं तौ २२१४४ परीत्य परिखातोऽस्थाज् ५७।२१ परुषजाम्बवतीवचसो ५५७० परेधुश्च रसं पीत्वा २११९४ परेषामनुमेयं स्यात् ५६।५६ परैर्घटितमप्यतो विघट-४२।१०८ परै राजन्नजय्यस्य ३१११०९ परोऽतिबल इत्यासीद् ६०११५२ परोक्षस्य प्रमाणस्य १०।१५५ परोपदेशपूर्व तु ५८।१९४ परो नन्दीश्वराम्भोधे- ५।६८३ पर्वतोऽपि खलीकारं १७।१५७ पर्वताग्रशिखरस्थितो ६३।९६ पर्यस्तं मन्यमानोऽयं ५४।१०
पर्यट्य चिरमागत्य १९।३४ पर्यटन्नटवीं तत्र पर्यटन्नटवीं वीरस् २८०२ पर्यन्तेऽङ्गुलसंख्येय- ६१२८ पर्याप्तयः षडाहार- १८५८३ पर्यायानन्तनागेन १०।१९। पल्यस्य दशमं भागं ७१४८ पल्यस्य शततमं भागं ७।१५० पल्यमूनं तु जीवन्ति ६९ पल्यं जीवन्ति चन्द्राख्यास् १६४८ पल्लवस्थजिननाथ- ६३१७४ पल्याधं च चतुर्भागो ६०४७१ पल्यानि पञ्च सौधर्मे ३११५९ पवित्रं पञ्चकल्याणं ५७।११८ पशुस्त्रीप्रविविक्तषु ६४।२५ पशुरपि निरपायं ३६१६८ पशुरश्मिमृगाक्षाशा १७११२२ पशुपुत्रकलत्रादि ५६।१४ पशुपाल्यं ततः प्रोक्तं ९३६ पश्यता च दिशो रम्या२१११११ पश्यन्यात्मभवान् सर्वे ५९५७ पश्यन् दिशः सकल- १६॥२९ पश्यन्नपि क्षणविभङ्गर- १६॥३८ पश्य पश्य प्रिये चित्रं १२१४४ पश्चात्तापहतो दुःखी १९।५१ पश्चाद्विदितवृत्तान्तः ३३१४१ पश्चात्प्रचण्डतरमारुत- १६६३१ पश्चात्तटेऽपि सीताया ५।२०८ पाञ्चजन्यं हरिः शङ्ख ५२।८५ पाञ्चजन्यमतो दध्मौ ४२१७९ पाटलामोदसुभगो- १४।१७। पाणिपादमुखाम्भोज- ४२।३७ । पाणिग्रहणमाद्यं हि २२॥१३५ ।। पाण्डवैः सह जरा- ६३७२ । पाण्डवानां सपुत्राणां ५११२९ पाण्डवास्तु बहुराज- ६३।७६ पाण्डुकं कौशिकं वीरं २२।८८ पाण्डुकं दशमं प्रोक्तं ५।३०९ पाण्डुकं च सहस्राणि ५।५१९
पाण्डुके सन्ति चत्वारो ५।३५४ पाण्डोः कुन्त्यां समुत्पन्नः४५।३७ पाण्डो स्वर्ग गते देव्यां ४५४३९ पातालस्थितकायोऽसौ १७।१५२ पात्राणि स्थालकं चोल- ७१८६ पादनासाधिरोधेन १७।१३७ पादमस्तकपर्यन्तान् २३।११३ पादपद्मं जिनेन्द्रस्य ३।२४ पादः पल्यस्य पल्या, ६०१४७५ पादः कुमारकालः स्याद्६०।३३० पादावस्थापितो तुङ्ग- ८।१९९ पादावष्टम्भसंभिन्न- १११८५ पादोऽष्टादशसंख्यानां ६०॥३३१ पापहेतुं विनिन्द्याक्ष- ३३११३९ पापकपे निमग्नेभ्यो २११५५ पापपाकेन दोर्गत्यं ४३।१२१ पापनिर्जरणात्कैश्चित् ३।१२७ पापस्योपशमात् पश्चाद् १८।१०३ पापशीला विकुर्वाणाः ५७।१७३ पापादानादिवृत्तीना- ५८७५ पापानुबन्धदोषेण ६४।११८ पापोपदेशोऽध्यानं ५८।१४६ पापोपदेश आदिष्टो ५८।१४८ पापोपदेशहेतुर्यो ५८।१४७ पारमेष्टरमनन्यस्थं ५७११६२ पारणासु नृपस्तस्य ३३१८० पारगः सर्वशास्त्राणा- २१११४० पारम्पर्येण धर्मस्य ९।१३९ पारम्पर्येण मोक्षस्य १०।१५५ पारणासु परसंप्रवेशने ६३१७५ पारावतनिभैः पत्रः ५२।२० परिधिः पूर्वसूच्यास्तु ५।४९१ पार्थदर्शनपर्यन्त- ५४/२० पार्थप्रतापविज्ञान- ४५१४९ पार्थिवेन सता तेन १७।२० पार्थिवा षट् परिक्षेपा ५।३०४ पालयन्ति सदिग्नागर् ५९।२१ पालिकामुखपद्मस्थ- ५७।१७ पाश्चात्याञ्जनशैलस्य ५/६६२
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८६०
हरिवंशपुराणे
पाश्चात्यपुष्करार्द्धस्य ३४।१५ पाश्चात्यं साधयन् विश्वं ११११५ पांशुक्रीडा विधायाम्बा ४७।१२४ पार्वे मदनवेगाया २६।४३ पाणिग्राहितयानुमार्गम-४०।४६ पिङ्गलैर्मूर्धयुक्तास् २६।१९ पिण्डशुद्धिविधानेन २।१२४ पितरौ जन्मनक्षत्र ६०।१८१ पितरौ भ्रातरौ लोके ५०९७ पितर्युपरते तावत् २४।२० पिता काञ्चनदंष्ट्रोऽथ ३२।२० पिता मे यदि वा माता ६११३८ पिता मे पृष्टवानेवं १९१८८ पितापुत्रौ च तौ नील- २३१९ पितृसुतपूर्वकस्य यदु ४९।१२ पितृपुरःसरबन्धुजनं जिन५५।१०८ पित्रा हिरण्यनाभस्य ४४।४० पिपासाकुलितोऽत्यर्थ- ६२।२० पिप्पलादस्य शिष्योऽहं २१११४७ पिष्टकिण्वादिमद्याङ्गस् ६११३५ पिष्टकिण्वोदकाद्येषु ५८२५ पिष्टेनापि न यष्टव्यं १७४१३४ पीठानि त्रीणि भास्वन्ति५७।१४० पीठाऱ्या श्रीपदद्वारं ५७।९१ पीत्वा धर्मामृतं लब्ध- ६४।३ पीनस्तनस्तबकभार- १६७ पीनौ समौ प्रलम्बी च २३१८६ पीतेन जानुना ह्याढ्यो २३१८१ पुण्यपापकृदेकोऽयं २६३६ पुण्यवान् ननु पूज्योऽहं २११३३ ।। पुण्यमित्थमुपात्तं यत् ९।२०१ पुण्यक्षयात्तु तावेव ६२।२ पुण्यपञ्चनमस्कार- २२।२६ पुण्यास्रवः सुखानां हि ५८।१९१ पुण्यापुण्यविधाता यो २८।३६ पुण्डरीकोऽरमल्ल्यन्तर ६०१३०० पुण्योदयात्पुरा प्राप्ता ६२।१ पुण्डरीकस्य पत्रण
९।१४ पुण्डरीकः कटीमात्र- ५३।३८
पुण्डरीकिण्यखण्डश्रीः ६०११४७ पुरं गन्धसमृद्धं द्राक् ३२।२३ पुत्रपौत्रकलत्राणि ६२।६० पुरं गिरितटं तत्र २३।२६ पुत्रचक्षुर्मुखालोकाच् ७४१५८ पुरं गन्धसमृद्धं च २२।९४ . पुत्रपुत्रवियोगोन
पुरमथोत्तरदिग्जगतीमितं१५।२५ पुत्रशोकाग्निदग्धाहं ४३।२४० पुरमिहोत्तरमस्ति सुखक्षम १५।२२ पुत्रचक्रसमुत्पत्त्या ९।२१३ पुराणवस्तुनो वीर ! २२१४९ पुत्रं च सुव्रतमसो १६५५ पुरातपःसाधितदेवतास्ता-३५।३९ पुत्रं पात्रं श्रियां तस्यां २४।३३ पुरि वितीर्य नु तत्र ५५।१२९ पुत्रा गन्धर्वसेनायास् ४८।५५ पुरि विधतायिकागण- ४९।१४ पुत्रास्त्रयस्तयोश्चिन्ता ३४।१७ पुरीयं द्वादशे वर्षे ६१।२३ पुत्रान् सिद्धशिलारूढान् १८।१२१ पुरुपुरगृहशोभा ३६।१५ पुत्राः षष्टिसहस्राणि १३।२८ पुरुषपुरस्सरोऽभिरुचि- ४९।५० पुत्राः षडभिचन्द्रस्य ४८.५२ पुरुषोत्तमकौमार्य- ६०५२३ पुत्रि सर्वरहस्येषु १४।८१ पुरुषान्वेषिणीमन्यां ३१३८ पुत्री चक्रभृतस्तत्र ३४।६।। पुरे विजयखेटो च ३२।२४ पुत्रो मे ते यदा कन्या २३५ पुरेषु तेषु च स्तम्भास् २२११०२ पुत्रोदन्तं ततः श्रुत्वा ४७७५ पुरे राजगृहे सोऽथ १८३१२९ पुत्रो मे सिंहदंष्ट्राख्यस् २२।११३ पुरेषु ग्रामघोषेषु
२।१५० पुत्रौ विजयसेनाया ४८।५४
पुरैव परिशोधिते ३८।२ पुद्गलात्माभिधानं च १०८५ पुरोऽप्यष्टाग्रदेवीनां ५।३४० पुनर्जन्मकथेवेयं ४२१५४ पुरोधाः सोऽभ्यदाद्भर्तर् १११५९ पुनरपि जितजयं ३६१७२ पुरो बहिरसौ दृष्ट्वा २४॥३८ पुनः पृष्ट कथं नाथ ! १९९० पुर्या त्वं पुष्कलावत्यां ६०.९३ पुनः प्रणम्यं पप्रच्छ ४६४७ पुर्याः प्रभुरभूत्तस्याः १४।६ पुनस्तापसवेषेण ४५।६९ पुर्यास्तेऽमरकङ्काया ५४।४१ पुनः कृत्वा सुविश्रब्धास्ते ९।११६ पुर्यामर्धचतुर्थानि ४११४५ पुनरुत्पत्य पञ्चोवं ५०१२५
पुलाको वकुशश्चैव ६४।५८ पुनः प्रणम्य भक्त्यासो ३।१९१
पुलाका भावनाहीना ६४।५९ पुनः प्रदेशहान्यैव ४।४० पुलाकस्योपपादः स्यात् ६४।७८ पुनः पुनर्जागरणेन ३७।२३ पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो ६४।७६ पुनश्चासनमारुह्य ८।१२९ पुलोमपुरमेतेन १७।२५ पुनर्मेघमुखा घोरै- ११।३४ पुंवेदे नोकषायाणां ५६।९४ पुरनामादिषु ख्यातां ६५।२९ पुष्पवृष्टि प्रवर्षन्तो ३।१८२ पुरस्ताद्गोपुराणां च ५७५२ पुष्पवृष्टिभिरानम्र- ३३३२ पुरं सोपारक याता ६०३६ पुष्पदन्तजिनेन्द्रस्य ६०११२ पुरं मङ्गलकं नाम्ना ६०२४० पुष्यकृष्णचतुर्दश्यां ६०।२६३ पुरस्य राजगेहस्य ९।१६४ पुष्करिण्यः शिलाकूट- ५।५३० पुरजनोऽथ यथार्ह- ५५।३२ पुष्करेषु वसन्त्युच्चः ५।१३० पुरग्रामनिवेशाश्च ९।३८ पूजयन्तो यथाकामं ५७।१७६
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः पूज्य पूर्वभृतोरस्य ६०६४१२ पूर्ववत्तीथंकृन्मेधस् । ५९।१३३ पूज्या तापसलोकस्य ४५।७५ पूर्ववत्समवस्थान- ६५।५ पूरयित्वा रसं तेन २१४९० पूर्वपक्षमुपन्यस्तं २१११३६ पूरणं गलनं कुर्वन् ५८।५५ पूर्वस्मिन् धातकीखण्डे ३३३१३१ पूरितं कोटिशो द्युम्नर २०७० पूर्वमुत्पादपूर्वाख्यं १०७५ पूर्यमाणः पुरोनिर्यन् १४१२९ पूर्वजन्मनि युष्माभिर् ७।१३८ पूर्णभद्रोपदिष्टेषु ४११४३ पूर्ववद्रचिते तत्र ५९।११४ पूर्णचन्द्र इतीन्द्राभः २७।४७ पूर्वदेशजशालीना- १८।१६१ पूर्णचन्द्रमुनेः श्रुत्वा २७५७ पूर्व प्रच्युत्य माहेन्द्रात् ३४।३७ पूर्णचन्द्रस्तु राज्यस्थः २७१५९ पूर्व सत्यप्रवादाख्यं १०१९१ पूर्णभद्रस्तयोयेष्ठो ४३।१४९ ।। पूर्व कृतोपकारस्य २०१५७ पूर्णप्रसवमासेऽत्र
४३१३५
पूर्वः सर्वपुराणानां ८२११ पूर्णेषु नवमासेषु ४८७ पूर्वाचार्येभ्य एतेभ्यः ॥६६ पूर्णेषु तेषु मासेषु ८१०३ · पूर्वापरसमुद्रान्ता १८।२८ पूर्णर्दधिमधुक्षीरे ७७८ पूर्वात्पूर्वादधोऽधः स्यात् ३३११८ पूर्वकोपानुबन्धेन २८.४६ पूर्वाख्यातचतुःषष्टि- ५।६८१ पूर्वजानां च दत्तानि २५४४४ पूर्वाद्यास्तु त्रिकूटश्च ५।२२९ पूर्वलक्षाः कुमारत्वे १३१५ पूर्वादयस्त्वमी वेद्या ५।२४८ पूर्वजन्मसु बहुष्वना- ६३।२५ पूर्वापरविदेहान्ताः ५।२८१ पूर्वमभ्येत्य तत्रैव ५०१६६ पूर्वार्धभारते तस्य ६०।१५० पूर्वमेव मया तस्मै २३५३ पूर्वापरौ महामेरोर् ५।४९४ पूर्वकायप्रमाणः सन् ५६१७६ पूर्वान्मन्दरतः पूर्वैर् ५।५५८ पूर्वप्रच्युतदेवस्य २४/५६
पूर्वापरान्तयोरने ५।३९ पूर्वमालवमासाद्य ५०१५८ पूर्वाण्यायुस्त्रयोऽशीति-६०१५३९ पूर्वलक्षा कुमारेऽगु- ६०६४९४ पूर्वान्तमपरान्तं च १०७८ पूर्ववत्पुनरुत्थान- २२०४२ पूर्वापरायतानां हि ५।११३ पूर्वमेवीपशमिकं २।१४४ पूर्वाङ्गप्रमितिः पूर्वा ६०।५०० पूर्वकोट्यायुषं नाभि ७१६९ पूर्वापरविदेहाना ४२१११ पूर्वरूपधरवंश- ६३७१ पूर्वाह श्वयुजस्यातः ५६।११२ पूर्वस्यां त्रिशिरा वज्र १६९० पूर्विणोऽष्टशती शान्तेः ६०१४०७ पूर्वस्यां विमले चित्रा ५।७१९ पूर्विणोऽनन्तनाथस्य ६०।४०२ पूर्ववैरवशात्क्रुद्धस् २७।१२ पूर्वे पञ्चदशान्तास्तु ३४।८० पूर्वमानार्द्धमानाश्च ५।४०८ पूर्वेणैव क्रमेणामी ५४०६३ पूर्वदक्षिणदिग्भागे ५।३३४ पूर्वेः सहकनामानः ५।४९७ पूर्वतः प्रभृति प्रोक्ताः ५।२५० पूर्वोत्तरे तु विजया ५७२५ पूर्वस्य विजयस्याद्रे ५५५० पूर्वोत्तरस्या वैडूर्ये ५१७२२ पूर्वस्मादुत्तरो भूभृद् ५।१६ पूषा किं वा भवेदेष ९।१४७ पूर्वस्माद् द्विगुणो व्यासो ५।५०५ पृच्छति स्म स तां कामः ४७।५७ पूर्वस्मान्मन्दरात्पूर्वः ५।५४० पृथिव्यप्तेजसा वायोः ३३१६३
पृथिवी सुप्रतिष्ठोऽस्य ६०११८८ पृथिवीति महादेवी ३०७ पृथिवीपरिणामस्य ५।१८० पृथिव्यप्कायभेदेषु ३।१२१ पृथिव्योराद्ययोर्युक्ता ४।३४३ पृथिव्यप्तेजसा काये १८५४ पृथुः शतधनुश्चापि ५०११२६ पृथुः शतधनुश्चैव ४८।६८ पृथुरथं चतुरश्वयुतं तदा ५५६८१ पृथुभिरश्वयुतैर्ययुरीश्वरा५५।३० पृथग्भावः पृथक्त्वं ५६॥५७ पृथक्त्वेन वितर्कस्य ५६५९ पृथ्वी रत्नप्रभा यातो २७।११३ पृष्टः कंसो नृपेणाख्यत् ३३।१३ पृष्टस्तथा तथा शौरिस् २८।१३ पृष्टा वदत यूयं मे पृष्टा पूर्वापरं राज्ञा ३३।१६ पृष्टया वसुदेवेन २६५ पृष्टो लक्ष्मणया नत्वा ६०७४ पृष्ठकाण्डकसंख्यानं ७।६८ पृष्ठरक्षा नृपास्तस्य ५०।११८ पृष्ठे चन्द्रयशा भूपः ५०।१२८ पोदने चूर्णचन्द्रो यो २७१५५ पौण्डः पद्मरथश्चापि ५०८२ पौरुषाधिकमानीतं ८।२०२ पोलोम्या मातुरुत्संगे ८।२३२ पौषस्य कृष्णपक्षस्य ६०।२३३ प्रकटितलोकपालचरिता:४९।३९ प्रकाममाकाङ्कितकाम-६६।४६ प्रकाशभीरुः सहसा ततोऽसौ३५।६२ प्रकीर्णकासुरी सूनुः ४६३८ प्रकृतिः प्रतिपन्ना तु ५८।२०८ प्रकृतिदेशरसानुभवस्थितिः ५५।९५ प्रकृतिः स्यात्स्वभावो ५८/२०४ प्रकृतिश्च स्थितिश्चापि५८।२०३ प्रकृत्या मधुमांसादि ३।१२६ प्रकृतेः सप्रदेशाया ५८।२१४ प्रकृतेः स्थिततोऽनुभवाच्च ३९।९ प्रक्रमोपक्रमौ प्रोक्ता १०१८३
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८६२
।
हरिवंशपुराणे प्रकृष्टवैदग्ध्यहृतात्मनो-१४।१०५ प्रतिपद्य वचस्तो तत् ११३८१ प्रकृष्टद्युम्नधामत्वात् ४३।६१ प्रतिपद्य स तद्वाक्य- ४३।९ प्रकृष्टोऽनुभवः पुण्य- ५८।२९० प्रतिविबुध्य युवा सहसा ५५।२० प्रकृष्टौ ज्येष्ठमाणिक्य ८।१८१ प्रतिदिनं वसति स्म हरि-५५।५० प्रक्षीणः कल्पवृक्षात्मा ८०२ प्रतिश्रुतिरभूदाद्यस् ७।१२५ प्रक्षीणघातिकर्माणः ६४।६४ प्रतिश्रुतं वचस्ताभिर् ७।१४७ प्रक्षयात् पञ्चभेदस्य ३१६८ प्रतिभवं भयदुःखखनी- ५५।९६ प्रघृणितोत्तुङ्गतरङ्ग- ३७।१६ प्रतिशत्रुस्त्रिपिष्टस्य २८०३१ प्रचण्डशाल्मलीखण्डे ६०११११ प्रतिष्ठा ब्रह्मनिष्ठो: ५७।१२१ प्रचण्डवाहनस्तत्र ४५।९६
प्रतिक्षिप्तेन स क्षिप्र- ३१।११६ प्रच्युत्य पुष्कलावत्या ३४।३४
प्रतिशत्रुरयं राजा ४०।१४ प्रजघान शमेनासौ ५११३६ प्रतिदधिमुखं चत्वा- ३४।८४ प्रजाः प्रकृतिभिः सर्वाश् ४०।२२ प्रतिवनं प्रतिगल्मलता- ५५।४२ प्रजानां च तदा जातः ७।१५१ प्रतिमां व्योमगाः सर्वे २७।१२९ प्रजातमात्रंखलु दैवयोगात् ३५१५ प्रतिविबुद्धपथः स्वयमेव५५१०३ प्रज्वाल्यात्रान्तरे गेहान् २६।२६ प्रतिग्रहोऽतिथेरुच्चैः ९.१९९ प्रज्ञप्तिश्च प्रभावत्या ३०३७ प्रतिमेरुविदेहाश्च ५५३९ प्रज्ञप्तिः श्रेणिक ज्ञाता ५।७३४ प्रतिबन्धमिहान्धस्य १७।६६ प्रज्ञप्ती रोहिणी विद्या २२१६२ प्रतिवर्षविनिष्पन्न- २।२ प्रणतप्रिय ! संप्रति ३९।५ प्रतिगृह्य तमुत्थाय ६४।१० प्रणयसहितमित्थं ३६।२० प्रतिग्रहादिशु प्राया- ५८।१८७ प्रणम्यात्मभवान् पृष्टो ६०।१० प्रतिकारसमर्थोऽपि १८४१४५ प्रणम्य पितरं स्नेहान् ४७१८३ प्रतीक्ष्य कथमीदृश्यः २११३ प्रणम्य जिनमादाय ८।१५३ प्रतीक्षया प्रमादस्य ५६।२४ प्रणनाम ततस्तुष्टा
प्रतीत्य वर्तते भावान् १०११०१ प्रणन्तव्यः प्रयत्नेन ८२२२ प्रतीत्य सप्तभूमीनां ३४१११७ प्रणतश्च स तं प्राह ३११६८ प्रतीक्षमाणया तस्य ४५।६६ प्रणतेस्ते कृती कायो ८२२३ प्रत्यभिज्ञा कुतो नाथ २११११७ प्रणेमुरहमिन्द्रास्त्वं ८।११९ प्रत्यङ्गमङ्गजमत्तङ्गज- १६॥३९ प्रणामेनाचितस्तेषां ४३।२२८ प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थं २८९ प्रतापवश्याखिलराजके ६६।१ प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य १७१५४ प्रतापविध्वस्तरिपुः ३५।१५ प्रत्यहं परया भूत्या ४६।२ प्रतिसेवनाकुशीलाः ६४।६८ प्रत्ययाय हरिदत्त- ६३।४९ प्रतिसेवनाकुशीलाः ६४।६६ प्रत्यहं शिखिनां मांसं २४।१४ प्रतिसेवनाकुशील- ६४।७३ प्रत्यासन्नापवर्गस्य २१४१८० प्रतिकृतिरचिता भुवि कृ-४९।४३ प्रत्याख्यातस्य धृष्टस्य ४६।३२ प्रतिनिधिराश्रयश्च सध- ४९।४२ ।। प्रत्याख्यानस्य विद्यानु- २।९९ प्रतिघातमनेकाऽभूत् १९।१०९ प्रत्यासन्नममुञ्चन्तो १२।३४
प्रतिविहितसुपूजः ३६।५९ प्रत्याशादग्धचित्तश्च २७।२६
प्रत्युवाच विबुधो ६३॥६४ प्रत्येककायापर्याप्त- ५६३१०४ प्रत्येक प्रत्यहं हानि २२१२१ प्रत्येक मेरुमध्यौ तौ ५।५७९ प्रत्येकं तस्य चत्वारि ५।६८९ प्रत्येकं षोडशस्वेषु ५।२३४ प्रत्येक शासनं देव्यो ८.४१ प्रत्येकं प्रकृतीः पश्च ५६।९८ प्रत्येकमष्टावुपवासभेदा ३४।९८ प्रत्येक सप्तलक्षाः स्युर् १८१५७ प्रत्येकं सहिताः सर्वे २०६९ प्रत्येकं नामचिह्नाद्य- ५२।४ प्रत्येक योषितस्तेषां ५९।११७ प्रथमनववधूको ३६।६३ प्रथमजितशीतपयःकणा५५।७५ प्रथममदनरंगे- ३६।६४ प्रथमो हिमवानन्यो ५।१५ प्रदक्षिणकृतावत्तं ॥१५ प्रदर्शितजगज्जीव्यो २२१५१ प्रदातुं तेच्छतीदानी- २७।२९ प्रदीपवदयं देही १७।१४० प्रदीप्तमुद्यन्त मिनं तमो- ३५।१२ प्रदेशहानितः पञ्च ४।३८ प्रदेशबुद्धितः सप्त- ४॥३९ प्रदेशिनी सृता रेखा २३।९५ प्रदोषसमये हारं ४८१३ प्रदोषसमये ततो ४२११०३ प्रदोषनिह्नवादाने ५८।९२ प्रद्यम्न इति नाम्नाऽसौ ४३।९६ प्रद्युम्नशम्बनामाद्याः ४८।७२ प्रद्युम्नागमचिह्नानि ४७।११३ प्रद्युम्नो रक्षितोऽपायान् ४३३२२३ प्रधानपुरुषादीनां ५३।३९ प्रपद्य शरणं सर्व श६२ प्रबलशोकवशा प्रवि- ५५।१३१ प्रबुद्धश्च हरिर्दिष्टय ४३॥३७ प्रबुद्धा सर्वतोभद्रे ५४.१५ प्रबोधाख्या भवन्त्यन्ये ५७।१०६ प्रभवप्रलयस्थिति- ३९७
६०१९
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प्रभासा भास्वती भाषा ५७।३५ प्रभाते च जनो दृष्ट्वा ४३११३८ प्रभाते तो कुरुप्रेष्ठौ
९।१६०
प्रभासतीर्थ तीरस्थ
प्रभाते पौरलोकस्तं
४४/३०
२४।८
३०१५३
१८६
प्रभातपटहस्फुटध्वनन- ४२।१०७
प्रभामण्डलसंवीत,
प्रभावतीसमीप
प्रभावत्याः परिप्राप्ति
७१३१.
११।१६
प्रभासममरं तत्र प्रभातकाले कृतभङ्ग- ३७/२४ प्रभुत्वमखिलस्त्रीणां ४३।१७६ प्रभुविभुर विध्वंसो १३।११ प्रभुतया प्रविधाय पराभवं १५।४५ प्रभूतदानधाराद्र
८/५९
प्रभू भद्र सुभद्रो तु
५।६४५
प्रभो ! मे दुहितुर्भर्ता
२५/७
प्रभोः कल्पद्रुमाः पूर्वं ९१२६ प्रभोस्तस्य समादेशात् ४०१३ रमदभारवशीकृतमान- १५११०
३६।७४
६०।५७१
५८/२००
६२/४५
२३।१२४
प्रमदमथ वहन्तः प्रमदः संमदो हर्षः
प्रमत्तसंयतस्यापि
प्रमादस्य निरासाय प्रमादालस्यदर्पेभ्यो प्रमाणं दक्षिणार्द्धे यद् प्रमाणयोजनव्यास
प्रमाणप्रमितार्थानां
प्रमाणनयमार्गाम्या
प्रमाणनयनिक्षेप
५८ ३८
७१४२
प्रमाणाङ्गुलमेकं स्यात् प्रमितशिरस्यतिभ्रमर- ४९/१०
१०।११२
८६९
५७।१०५
४३।१९५
प्रयत्नेन मनोहस्ती प्रयाहि भ्रातृबन्धूना- ५०1१०१ प्रयुज्य प्रतिष्टा पर्वतोऽपि ततोऽवोचत् १७/६३
८|४०
त्रमिताप्रमितं तत्र
प्रमीनमिथुनोन्मेष
प्रमोदा नाम संत्यन्ये
५।९७
७८४७
१०।१५७
७२२१
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
प्रलापानुपदं गत्वा २१।२० प्रलम्बालककाम्लान- ३०।२१ प्रलोनानेव तान्मत्वा ४५/५९ प्रोल्लसत्स्थूलधम्मिल्लां ४३।१२ प्रवर्धमानेष्वथ तत्र तेषु ३५।९१ प्रवर्तिताश्च ते वेदा २३।१४७
३४।९
प्रवव्राज नृपोऽस्यान्ते प्रवर्धतां भ्रातृशरीर
३५।२६
४१।५२
२९।५७
४१।१२
२२।१४९
४६।५२
प्रव्यक्तलक्षणे तत्र
प्रव्रज्य मुनिमार्गस्थः
प्रवालमौक्तिकैरयं
प्रविष्टा तुष्टचित्ता च
प्रविश्य नरकं पापा
प्रविष्टश्व पुनर्वेगात्
४७।३३
प्रविष्टौ च नृपास्थानीं
१७१८३
३८/३९
४१।४०
प्रविश्य नगरं ततः प्रविष्टास्तु पुरीं व्याला ६१।५७ प्रविशन्तु पुरीं सर्वे प्रविश्य कंसः स्वसृतिगेहं ३५।६ प्रविश्य नगरीं रम्यां ५०|३८ प्रविश्य विधिवद्भक्त्या ५७।१७५ प्रविलसदतिभास्वत्
३६।९
२१।३७
५३।४१
५८६२
३०१९
२४।८३
प्रविष्टाश्च वयं चम्पां
प्रविष्टश्व विशिष्टाना
प्रवृत्तिरकृतादन्य
प्रवृत्तिर्वे गवत्यास्तु
प्रवेशितः पुरं सोऽथ
प्रवेशितस्तया स्रस्तप्रशस्ततिथिनक्षत्र
प्रशस्तस्तिमितध्यानप्रशस्तवंशो हरिवंशप्रशस्त तिथिनक्षत्र
प्रशस्ततिथिनक्षत्र
प्रशस्ताध्यवसायार्थप्रशस्यं च यशस्यं व ४३।२७ प्रशमसमाधिभागनशन- ४९।३० प्रशंसितो वशिष्ठोऽयप्रश्नितेन तया तेन प्रसव भरविभूति
३०।२०
३०।५५
८२१६
६६॥३५
४०।२४
१९१७५
६४।४८
३३।६० ४२।४३
३६।५
८६३
३६।२४
४३/५४
४७/६५
प्रसिद्धाष्टगुणाः सिद्धा
३।७४
प्रसिद्धं च गृहं जैन
२९.५
प्रसीदेत इतो देवे
५९।२८
प्रसीद भगवन् ! दीक्षां ४३ । १३४ प्रसुप्तोऽजगरस्तत्र
प्रसव समयतोऽर्वाग् प्रसार्य करयुग्मं सा प्रसारितकरो विद्ये
२१/९७ प्रस्तावेऽत्र गणिज्येष्ठ ४२।१२
प्रस्तावे हरिरप्राक्षीद् ६०।१३५ प्रस्तारश्वास्य विन्यस्य ३४।६० प्रसेनजितमायोज्य ७।१६७
प्रस्थितौ दक्षिणामाशां
६२।३
५११४०
प्रहारवञ्चनादानप्रहासशीलतादि स्याद् ५८ ९९ प्रहिताश्च हितास्ताभ्याम् ४३ | ३६ प्राक् प्रशस्तानुरागाच्या ३११७९ प्राक् स्त्रीवैरानुबन्धेन ४३।२२२ प्राकारस्योच्छ्रयस्तस्य ५/४०० प्राकारोऽन्तः परयाय प्राकारोऽन्तः परयाय प्राकृतास्त्रस्तयोरासीत् २५/६५ प्राकृतानामपि प्रीत्या ४५।१५४
५७/२४ ५७।४९
३०१५६
६०।११
६१८९
प्राग्दिवाकर देवाख्यः
२३|१४३
प्रागशोकवनं तत्र
५।६७२
प्रादूर्वाङ्करमासाद्य
१४२२
प्राग्भवे पुण्डरीकियां ६०।१४३
प्रागुपोष्य कवलस्य ३४।९१ प्राणिकोऽद्य सोऽस्माक - ९।१७२ प्राङ्मुखास्ते शतायामाः ५। ६७७ प्राच्या एव विशुद्धाया ८।१०४ प्राच्यां दिशि तु वैडूर्ये ५/६०२ प्राच्यां पातालमाशायां ५।४४३ प्राचुर्यञ्च कषायाणां ५८।१०७ प्राणताग्रार्धरज्ज्वन्ते
४।२७
प्राणाधिष्ठानतन्निष्ठं
९।१३८
प्रागेव मदनावेश
प्राग्भद्रिलपुरेऽत्राभून्
प्राग्भारभूर्नरक्षेत्र
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--------------------------------------------------------------------------
________________
૮૬૪
प्राणाः सप्त पुनः स्तोकः ७/२०
६।७३
प्राणते पुनरष्टाभिश् प्राणिनो दुःखहेतुत्वाद् ५८।१२८ प्राणिजातस्य सर्वस्य ६१।७६ प्राणिघातकृतः स्वर्गः १७ १४४ प्राणिप्रीतिकरं प्रायः १९।१४४ प्राणी श्रीधर्मणः पूर्व: २७११६ प्राणी प्रत्यपकाराय २३।१३१ प्राणैरपि हि मे नार्थ २१।६९ प्रातिहार्यैस्ततोऽष्टाभिर् ९।२१२ प्रादक्षिण्येन वन्दित्वा ५७।१७२ प्रादायि मेघनादाय ६०।११८
प्रादुर्भूतसमस्त
३१।१३८
प्रादुःष्यन्ति सुराः सद्यः ५९।६ प्रातिहार्यादिविभवर् ३।३९ प्रातिहार्येर्युतोऽष्टाभिश् १२।३५ प्रातिहार्ये युतोऽष्टाभि प्रापद्विजयखेटाख्यं
२।६७
१९।५३
२३।१३
प्राप्तः शरदृतुर्दृप्तः प्राप्तश्च मत्तमातङ्गो २४/४५ प्राप्तसप्तद्धिसम्पद्भिः २।४० प्राप्तः पामरको दृष्ट्वा ४३।१२२ प्राप्य पञ्चशतीं प्राची ५।१३८ प्राप्य गन्धसमृद्धं च ३२/५४ प्राप्य पापमतिश्चासौ ६१।७४ प्राप्तावपश्यतां विप्रा ४३।१०८ प्राप्ता मार्गवशाद्विश्वे ४५।१२० प्राप्ता कदाचिदथ
प्राप्तां घनकृताश्लेषां
१६।२२
३३।१२ प्राप्तोऽभिपेक ममरेन्द्र- ८ २३६ प्राप्तो भौमविहारेण
४३१५०
प्रायः स्वर्गच्युतानां
४८।७६
२७/५८
२९।२७
५९/५
प्रावृषेण्याम्बुधारेव प्रासादस्योपकण्ठे च ४४।१७ प्रासादस्थोऽन्यदा श्रुत्वा २३|१ प्रासादादिकमत्रापि ५।३४६ प्रासादाः सङ्गतास्तस्यां ४१।२३
प्राव्रजद्रामदत्ता सा
प्राविक्षद् यागदीक्षायै
हरिवंशपुराणे
५।१६४
७। १४५
१८१४२
प्रासादैमण्डपैश्चान्यैः ५७/७९ प्रासादे विजयस्यात्र ५।४११ प्रासादेषु शिरस्येषां प्रासादेषु यथास्थानं प्रासु द्रव्ययोगेन प्रासुकास्वथ विविक्तपितृष्वस्रापि साऽवाचि ४२/७२ प्रियङ्गुलतिके त्वस्य ३३।५० प्रियङ्गुसुन्दरी तस्य प्रियङ्गुसुन्दरीलाभप्रियङ्गुसुन्दरीं शौरी
६३।१०२
२८/६
३९।८
प्रियङ्गुसुन्दरी तं च प्रियङ्गु सुन्दरी नाम्ना प्रिय सर्वहितार्थ प्रियवचनपयोभिर् ३६।७० प्रियवधूकरधारितसत्क- १५।११ प्रियवादीति विश्वस्य २१।८९ प्रियालापेक्षिभिः स्निग्धः १४१४५ प्रियामुखमिवात्मीयं प्रियां मदनवेगां ताप्रिये यदुत्पत्तिमियं प्रिये ! किमिदमित्युक्ते ४३।५५ प्रियोग्रसेनेन नृपेण दत्तां ३५।२५ प्रीतिकल्याणमध्ये स्युर् ५७१४८ प्रीतिकर विमानेशः
८२१ ३२।२२
३७/२५
२७१८९
प्रेक्षमाणां निजं रूपं
४२।२६
प्रेक्षकैः सुरसङ्घातैः १११८७ प्रेक्षाशाले विशाले स्तः ५७१९३ प्रेत्यभावो भवोऽमीषां ५६।४७ प्रेष्यप्रयोगानयन५८।१७८
प्रोक्तं सीमन्धरेशेन ४३।२४१ प्रोद्यदादित्यवर्णाभाः ७१६७
प्रोद्दंष्ट्रान्तरविस्फारि
८१४३
प्रौढयौवनयोर्योग
१४/९७
प्रस्ताभिमुखे ध्वस्त - १४।७१
२८|१४
२९।६७
२९।१४
२९।५८
[ फ]
फणा मणिद्योतविभिन्न- ३७ १९
३।५६
फलपुष्पभरानम्र
फलमस्य विधेः श्रेष्ठ ३४।६१
फलकुचगुरुभारा
३६।४ फलभारवशान्नम्रा ९।२९ फल्गु गायन्ति किनर्यो ५९।१८ फाल्गुनासितपक्षेऽभूद् ६०।१७४ फाल्गुनासितपक्षस्य ६०।२३६ फाल्गुनाष्टाह्निकाद्येषु ५।६८० फाल्गुने कृष्णपक्षस्य फेनपुञ्जप्रतीकाशै
६०।२५७
५२/५
[ ब ]
बद्धमूलं भुवि ख्यातं
बन्धमोक्षफलं यत्र
१।५०
२।११०
५८/३०३
४८६२
२९/२०
४३।२३९
९।१६१
बभाण भगवानन्ते
१८ १२५
बभार गर्भं युगलात्मकं सा ३५१३
६१।७३
बभूवुः प्रत्यगारं च बभूव हरिवंशानां
१७।१
बन्धहेतोरभावाद्धि
बन्धुषेणस्तथा सिंहबन्धुमप्युपगूढाङ्ग बन्धुकार्यमिदं साधु
बन्धुकौमुदखण्डानां
बभूवतुरिमो भूमी बभौ प्रालम्बसूत्रेण
वर्वरा यमनाभीरः
बलद्वयस्य संपाते
४३।१०१
८।१८३
५०।७३
५३।१३
बलदेवसमुत्पत्ति
११८७
बलरिपुश्च तदा चलिता- ५५।१३ बलवतां गणनास्वथ
५५।५
४३८२
५०/२४
४२।६६
६१।५८
४८ १७
बलकेशवचक्रित्वं
बलकेशवयोश्चापि बलेन महता तस्य बलनारायणौ श्रुत्वा
बलदर्शनतो जित्वा वलकेशववीराभ्यां
बलस्तस्मादभूत्षुत्रः बलिनो दुर्बलाश्वापि बली हलधरस्तत्र बहिर्विजयपुर्यास्तु
५१।४४
१३१८
२७/३१
५०१११४
५।४२१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामकाराधनुक्रमः
८६५
बहुसंस्थानभाजस्तु १८७१ ।। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः १७४८४ भद्रशालवने भान्ति ५।२०९ बहुरसपूर्णवर्णकुलशैल- ४९।५।। ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे ९।२१७ भद्रशालवनं भूमौ ५।३०७ बहुत्रिदशपक्तिभिः ३८६४९ ब्राह्मीयं सुन्दरीयं च १२१४२ भद्रशाले वने स्त्रीभिर् २७।११ बहुजनपदराज- ३६।३९ बिभ्राणो वसुदेवोऽत्र २४१८५ भद्रशाले जगत्युच्चैर् ८।१९२ वहुप्रकारस्फुरदंश- ३७१४१ बिभेद पादनिर्धात- ५४|४४ भद्रवत्सविदेहाश्च ११७५ बहुषु तु वर्पवासरगणेषु ४९।२६ बिभेम्यतः प्रियेऽवश्यं ३३।११८ भद्रकाली महाकाली २२१६६ बहुदिनानशनव्रतधारणः १५।१४ बद्धवा? जरासन्धः ५०१९ भद्रवाणस्य तद्राज्यं ६०४९१ बहुवेवमतीतेषु २७।३० बुद्ध्वा नत्वा जिनेन्द्र ६०११२४ भद्र ! दत्ता यथा प्राणा २२२१ बहुराजसहस्राणां ४११४७ बुबुदापाण्डुगण्डान्ता ९८० भद्रके भद्रभावन २८०२८ बहुवर्षसहस्राणि ४३।२१३। बुद्ध्वा स्वावधिकात्प्राप्तः११११९ भद्रासनस्थितायास्मै ८९१ बहूनां दह्यमानाना- ६१।९४ बुद्ध्वाप्यङ्गारकं शत्रु १९।१०० भद्रिला प्रथमाषाढा ६०११९१ वह्नभिग्रहपरिग्रहो ६३।९३ बुद्ध्वोपवासिनं तत्र १११४९ भयान्म्लेच्छास्ततो याताः११।३२ ब्रह्मदत्तमुपाध्याय २३३३३ ब्रुवाणामिति तां शा| ४२१८७ भयोलादनमन्येषां ५८५१०३ ब्रह्मब्रह्मोत्तरोद्भूताः ३६१६४ बृहद्वसुरिति ज्ञेयः १७१५८ भरतश्चक्रवाद्यः ६०१२८६ ब्रह्मलोकं समासाद्य ६५।५७ बोधत्रयाम्बुनिषूत- ४१।५६ भरतान्तविष्कम्भो ५।५८१ ब्रह्मलोकोपपाद च १११२२ बोधमाप्य परितः ६३।१४ भरतं भुजयन्त्रण ११०८६ ब्रह्माणं विष्णुमीशानं १७१३२ बोधितः सुरमुख्यैः स ६५।४१ भरतानन्दनं नन्दा ९।२१ बालक्रीडामृतरसः ९।३ बोधिलाभनिमित्ताया १८।१५० भरतासनमध्यास्य ८२१२ बालुकाप्रभभूमेर्यो २७८५ ।। बोधिलाभपरिप्राप्ता १८।१५१ भरतो दीर्घदन्तश्च ६०५६३ वाल्यादारभ्य लावण्य- ४७।२३ बोधितावधिनेत्रेण ६०॥३५ . भरतोऽयं नृपैः सार्द्ध- १२॥४३ वाहः प्रसारितस्तेन २०३० बोध्यं यथास्वमुत्सेध- ७४४३ भरणीषु जिनो मल्लिर्६०२०८ बाह्यद्रव्यव्यपेक्षत्वात् ६४।२७
भर्तरि स्वर्गते, सापि ६०।११९ बाह्यचैत्यगृहोद्याने २४१३
[भ]
भर्ता योजनगन्धाया ४५।३१ बाह्यसूच्यास्त्वसौ लक्षाः ५१४९३ भक्तपानोपकरण- ५८।८९ भर्तुर्या भूतयो बाह्यास् ५७।१५० बाह्यमान्तरमसौ ६३।१०६ भक्त्यार्चय त्रिभुवनेश्वर १६।६७ भर्तृप्रभावसदृशा ५९।७४ बाह्यबाह्यालिकां भानु-४७।१०२ भक्त्या शक्राज्ञया चाभूत् ९४६ भ्रमच्चक्रसमारूढो ४५।१३४ बाह्याव्यात्मिकभावानां ५६।३५ भक्षणं फलमूलादे- ९।११३ भवनानां तथा लक्षा ४।६१ बाह्याभ्यन्तरभेदेन ११६९ भगवन् भुक्तिवेलाया- ६०॥३ भवनं नन्दने तेषां ५।३१६ बाह्याभ्यन्तरवतिभ्य- २११२१ भगवन्नत्र कंसोऽयम् ३३१४३ ।। भवनकूटतटान्यपतन् ५५।६८ बाह्यान्तराणि लक्षे द्वे ५।६६८ भगवन् तिष्ठ तिष्ठेति ९।१८४ भवनानां परिक्षेप- ५।३२० वाह्यस्त्रीणि सहस्राणि ५।५२४ भगवन् ब्रूहि किनामा ३।१८४ भवनालयवासिन्यो ५७।१५४ बाह्यस्तस्य सहस्राणि ५।५२५ भगवन् भवते मेऽद्य ६०२ भवपद्धतिपान्थस्य ५८।१७ बाह्याः सप्तदश न्यस्ता ५७।१०९ भग्नभोगा भुजङ्गी तु ३३।१६० ।। भवतेह भुवां त्रितये ३९।४ वाह्योद्याने च तत्रासौ २८.१५ भग्ने कच्छमहाकच्छ- ९।१७० भवसुखानि बहिर्विषयो-५५।९७ बाह्योद्यानेऽथ चम्पाया-१९।११४ भजाजृम्भाक्षितोद्गार-५६१३७ भवतोर्जीवतोः पुत्रौ ६१८८ बाह्यो यो गिरिविष्कम्भः५।२९८ भटमण्डलमध्यस्थो २२१८ भवतोद्धृतशल्यं मां २०३० बाहीकात्रेयकाम्बोजा १३६६ भट्टपुत्र ! किमित्येव १७४६७ भवतो न भुजिष्योऽह- ११७८ बाह्वाद्यःषड्भिरभ्यस्ता-१०।१४९ । भद्रशालवनोद्भुतै- ८।१९० भवतोऽपि तपः प्राप्तिस् ६श२७ ब्राह्मणस्य स्वभावेन २७१६२ भद्रशालवनं मेरोः ५।२३६ भवपञ्चकसम्बन्ध- १२।२५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
८६६
४१७१
भवन्त्यब्बहुले भागे भवत्यनन्तरैवैषा
४२६८
भवान्न कि श्रेणिक वेत्ति ६६/६ १९।९१
भविता तव कन्यायाः
भविता यो हि देवक्या ३३ ३६ भविष्यदुःखमाशेषे
६०/५५४
भवेत्तु भेत्ता भव
३७/४०
भवेनैकेन मार्गस्थः
५८।३०५
७२३
भवेद्वर्षसहस्रं तु भवैः सिद्धिस्त्रिभिस्ते ६०।१०४ भव्य सत्त्वमसौ बुद्ध्वा १८/१०६ भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी ६४१५२ भव्यकूटाख्यया स्तूपा ५७।१०४ भव्यसत्त्वर्यदा कैश्चित् ३११४१ ६०/५७२ भव्याः कतिपयैरेव भव्या भव्याभवेऽनन्ता ३।१०७ भव्यत्वाद्विप्रकृष्टेष्वपि च ३।१९८ भव्यत्वाहारपर्यन्त- ५८/३७ भस्मयामि लघु द्वेषि - ४५१५५ भस्त्रां कृत्वा सशस्त्रं मां२१।१०८ भागः पञ्चदशः शुक्ले ५१४४९ भांगाश्वास्य शतं प्रोक्ता ५१५८२ भाजनं भोजनं शय्या ११।३१ भाण्डशालाः समस्तासु २७/२३ भाण्डागारप्रविष्टं च २७।४८ भाण्डागार ३४।१३९ भानुः प्राव्रजदन्तेऽसौ ३३३१०० भानुना वर्धमानेन भानुः सुभानुभीमौ च ४८ ६९ भान्त्येकादशकूटानि भान्ति सूर्यविमानानि ६।१५ भात्यशोकवनं प्राच्यां ५७।२८ भाद्रपद शुक्लपक्षे ३४।१२७ भामायास्तनुजः श्रीमान् ४४।१
४४२
५।५२
४४२
५४।२२
४१ ३८ ६५/५०
२५।१
भ्राजते वातवलयै
भ्रातरौ रामकृष्णौ भ्रातरोऽपि दशाहस्ते भ्रातर्याहि ततः स्वगं भ्राता मदनवेगायाः
हरिवंशपुराणे
४४/४७
भ्राता मे कुपितः प्राप्तः ४२।८५ भ्रात्रा हयपुरीन्द्राय भ्रात्रो राज्याभिषेकं च १।१११ भ्रान्ते द्वे धनुषी हस्ता ४।२९७ भार्गवाचार्यवंशोऽपि
४५।४४
भार्गवाचार्यकं द्रोणो
४५।४३
५११३
भारतं दक्षिणं तत्र भारतापरवैदेहा
५।३५३
भारुण्डैरण्डजैः पूर्वं २६।३४ भारुण्डैण्डतुण्डाभ्यां २१।१०९
भार्या विजयसेना मे
२१।१२०
३२।१७
भार्यां वेगवतीं दृष्ट्वा भावशुद्धिरपि श्रेष्ठा
५६।३१
भावलिङ्गं प्रतीत्यामी
६४।७५
५७।१५५
भावनाः पापबन्धस्य भावनानां भवत्यब्धिः ३।१३९ भावलेश्या कषायस्वा - ५६।२८ भावमात्राभ्युपगमैर् १०/५८ भावना व्यन्तरा देवा ३।१३५ भावाभावद्वया द्वैते ५८।१० भावांस्त्रेणान्यतो याति ५८।२३७ भाविना स्वामिना ४५।१३० भाविनी न ततः सेयं ४७।९२ भावोपमाव्यवहारभाषामनः शरीराक्ष
३४।१०७
६५/३६
भास्वत्कल्पलतारूढ
४१।२२ भास्वत्फणामणिज्योति - ५९।६४ भास्वते हरिवंशाद्रि
१२४
भास्व राम्बरभूषैषा
८१८३
२७/२५
भिन्नपात्रः स चागत्य भिक्षाकालेऽन्यदा तेषां
६४।९
६४।२३
५८ १५९
११।३९
भिक्षार्थि मुनिसंकल्पा भिक्षौषधोपकरणभीतानामभयं दत्त्वा भीमसेनो महाभीमं ४५/९४ भीमदर्शनयाकृष्ट- २२।१२६ भीमश्चान्यमहाभीमो ६०१५४८ भीमावलेस्तनूत्सेधः ६०१५३७ भीमो राजगृहे राज्ञा ४५।१०९
भीष्मश्च विदुरो द्रोणो ४५/४१ भीष्मजा भीष्मसंसार- ६०।४१ भीष्मोऽपि शन्तनोरेव ४५/३५ भीर्ष्या स्वपक्षपैशुन्य - ३४११०१ भृङ्गाभृङ्गनिभाप्यन्या ५।३४३ भृङ्गारं कुम्भतोयं च
११।२०
५।३६४
३३।१३०
९।१०३
५९ ।९१
६०।२२
३४।१५१
४९ १८
४६।१२
भृङ्गारकलशादर्शभृतघोरतपोभाराः भृत्यपुत्रकलत्राणि
भुक्त्यभावो जिनेन्द्रस्य
भुक्त्वा देवसुखं देवशु
भुक्त्वा संसृतिसारभुजलतयोः शिरीषमृदु भुजयुद्धे ततो लग्ने भुजगकोटिमणिद्युतिभुजङ्गशय्यामिह सिंह
५५/६०
३५/७२
२४१३७
२५/२९
भुञ्जानस्य तथा नाभे८|३६ भुञ्जानानाह राजन्यान् ३३।१४६ भुवः स्वभूनिवासिन्यो ५९।७० भुवः स्वर्भूस्तपः सत्यं ५७।११४ भुवि हरिबलदेव
३६।६०
भूचरात् खेचरान् भूपा- ५३।४७ भूचरेषु ततोऽन्येषु १२/५३ ६४ १०४ ११।१२
भुञ्जानः स तया
भुञ्जानः पायसं पात्र्या
भूतपूर्वव्यपेक्षातभूतव्यन्तरसंघातान् भूतसंश्लेष जातस्य
भूतधात्री पुराकल्पः
२८ ३९
५७।१२०
भूत्वा जातिस्मरा मूर्च्छा १२।१३
भूत्वा स्वयंप्रभद्वीपे
६४।११४ ६० ९९
भूत्वा देवकुरुष्वासभूत्वा क्षीणकषायस्यो - ५६/९७ भूत्वैकादशपल्यायुभूपतिविश्वसेनाभूद् भूपाः संभूय भूयांसो भूपोद्धृतां नभसि देवगणै १६।५६ भूप धारणयुग्मेऽभूत् २३।४६ भूभृत्सहस्रपरिवारभूदेष १६/५७
६०।७१ ६०१५८ २८|८
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८६७ भूभृतायुपरिज्ञया ।५।११८
[म ]
मधुलिहां मधुपानजुषां ५५।३७ भूभृतोऽतिविषमं ६३१६२ मकरध्वजमुत्तुङ्गं ४७।३५ मधुपैः परपुष्टश्च १४॥२६ भूभृतोऽर्द्धतृतीयेषु ५५०६ मक्षिकापक्षसूक्ष्मान्तो ५।४३९ मधुकैटभवीरौ ता ४३।१६१ भूभृतो रत्नवीर्यस्य २७।१३५ मक्षिकादंशमशकैः ४७।१०८ मधुपानमदोन्मत्त- १४२४ भूभृतोऽतिबलस्याभूत् २७।७८ मगधासारनलका २२।९९ मधुः सकैटभः श्रुत्वा ४३।२०१ भूमिशय्याव्रतं दन्त- २।१२९ मङ्गलोत्तमकल्याण- ५७।११६ मधुरस्निग्धशीलानां ११९३ भूमिभिः सप्तदशभिः ५।४०२ मञ्चस्थस्योपकण्ठेऽस्य ३११४४ मधुरस्निग्धगम्भीर- ५८०९ भूमेः स्वभावभूताया ५७५ मज्जयत्यभिनिवेश्य ६३१५८ मधुरा त्वं रामदत्ताभू- २७३६४ भूमौ निपात्य पादाभ्याम् ४६॥३५ मज्जेतापि यदीदक्षो ५२।७४ मधुदिग्धोनखड्गाग्र- ३९६ भूमौ राजसुतान् काम- २९:५९ मणिगणांशुलसत्पटली-५५।१२३ मधुर्माससुराहारा ३।११२ भूमौ कीर्तिरभूत्तस्य १७।५६ मणिसुवर्णसुवर्णधराधरे ५५।११६ मधूदकोभयस्वादः ५।६२९ भूमौ रथ्या यथा स्त्री-१९।१२ मणिराशिष्विवाम्भोधी ५०१६ मध्यलोकस्वरूपान्तर् ५७१९७ भवधुः सर्वसम्पन्न- ५९७९ मणिकाञ्चनकूटं च ५।१०४ मध्यं बिभेद सेनानी ५१०२२ भूषितादित्यवंशस्य २३।४७ मणिधुमणिनित्याभे ४।६५ मध्यत्वं च समासाद्य ५०।१०६ भूषौषधिप्रभापिण्ड- २२।१३७ मणिगणच्छविविच्छरितो-१५।१६ मध्यदेशे जिनेशेन ३१ भेरी-दुन्दुभि-शङ्खादि ८१४१ मणितोरणपाखेषु ५७।२६ । मध्यमग्रामजाश्चापि १९।१६७ भेरीशङ्खानकर्वीणा ११।१२० मणिकुट्टिमभूमौ ता ९।१६८ .
मध्यमं तु भवेत्पात्र- ७१०९ भेर्यास्तस्या रवं श्रुत्वा ४०१२० मणिकाञ्चनसंज्ञायां ४२११८ मध्यमा दक्षिणस्यां स्याद् ५।३४१ भोक्तुकामोऽपि नो ५८।२८१ मण्डलेशत्वमेतद्धि ६०१५२४
मध्यमा पद्मलेश्या तु ६।११० भोगसंसारनिर्वेद- ३४॥११६ माता स्वसा च तनुजा ४६।५८ मध्यमाया विधिर्योऽत्र १९।२४६ भोगतृष्णोमिनिमग्ना २६१३८ । मतिज्ञानविकल्पोऽयं १०११५१ मध्यमाया भवेदंशी १९।२४१ भोगसंसारशारीर- ४३३२०२ मतिषु बोधचतुष्क- ५५।१२५ मध्यमायां गृहांशी तु १९४२१२ भोगतरा भोगवती ५।२२७ . मतिश्रुतावधिज्ञान- १८२२३ मध्यमोदीच्यवायाःस्या-१९।२४४ भोगास्ते स्वपरयोर्ये ४३।१८६ मतिश्रुतावधिश्रेष्ठ- १९७।। मध्यमो दिव्यवा १९१७७ भोगाभिलाषविषमाग्नि-१६।४७ मत्या विपुलया युक्ताः ५९।१३१ मध्यमोदीच्यवायास्तु १९।२०६ भोग्यान्यपि यथाकामं ५९।४६
मत्तभं तमिवान्वेष्टु ८६१ मध्यस्था एव सर्वत्र ७१०४ भोग्याद्या वेणुदेवस्य ५१६६३ मत्यादेः केवलान्तस्य २११०६ मध्यान्तराणि लक्षका ५१६६७ भोजराजकुलयादव- ६३१२४ मत्स्यशङ्खाकुशाधङ्को २३३५९ मध्याह्नषु पुरग्राम- ९।१४४ भोजनेऽग्रासने विप्रः ४७।११० मत्स्यकूर्मविमुक्तश्च ५।३७२ मध्ये च मध्यदेशास्तु ५०.१०८ भो धीर! ते यथा दृष्टं ३१११११ मत्स्यो भद्रपुरं जित्वा १७॥३० मध्ये कालिन्दसेनाख्या १८।२४ भो भो नागसुपर्णाद्याः १११४४ मा हिमवतोरने ५।५७१ मध्ये वापि चतस्रोऽत्र ५७।१३ भो भो मानेन रूपेण ९।११४ मास्त्वेकोरुकाः पूर्वे ५।४७१ मध्ये भारतमन्योऽद्रि- ५।२० भो भो बुध्यस्व बुध्यस्व २४॥४ मत्वेतरमनुष्याणां ९।१३६ । मध्ये तस्य चतुर्दिक्षु ५।६५२ भौमा मसूरसंस्थाना- १८७० मथुरायामिहेवासीत् ३३।४७ ।। मध्येऽनेकविकल्पास्तु ६४।१०० भ्रातृस्नेहसमुद्रेकात् ३१११२८ मथुरायामय संप्राप्तो ३३१७५ मध्ये चानुदिशाख्याना- ६५४ भ्रातृस्नेहवशो देवो ६५।५५ मदखेदविनोदार्थः ५८०२२७ मनकस्यापि विस्तारो ४१८६ भ्राम्यन्तं तं तथा नाथं ९।१४५ मदनभङ्गकृतप्रभवे भवे५५।१२७ मनके नवदण्डाश्च ॥३०८ भ्रूकर्णाक्षिशिरःकण्ठ- ४२॥३८ मद्यभेदाः प्रसन्नाधा ७.९० मनसि शुभे निजे वचसि वा ४९।४५ धूलताकुटिलचाप- ६३३१०० मधुपानमदोन्मत्त- २३३१७ मनःपर्ययपर्यन्त- २१५६
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८६८
मनुजदेवनरामरमत्यंज-४३।२४४ मनुष्यभावमापन्नः ४३।२२१ मनुष्यभवसंप्राप्तौ ६४।१२८ मनुश्च मानवस्तत्र २२१५७ मनुष्यत्वेऽपि जन्तूनाम् ३।१२८ मनो.भुवनरक्षणे ३८.५ मनोज्ञस्वरनिर्वत्तिर् ५८।२७१ मनोज्ञविप्रयोगस्य मनोज्ञविप्रयोगस्य ५६५८ मनो हरन्नरस्त्रीणां ४७१४७ मनोवाक्कायशुद्धस्य ११६८ मनोवेगरिपोर्लेभे ४७।४० मनोवचनकायाना- ९।२०० मनोनियमनार्थत्वा- ६४।२८ मनोहरशिशुक्रीडा ४७।१२५ मनोवाक्कायदानानां १०॥६० मन्दमत्र गुरौ बाह्यो ३१११०३ मन्दमध्यातितीव्रत्वात् ५८।८३ मन्दरस्तूपनामानो मन्दरार्यो जयो रिष्ट- ६०।३४८ मन्दारकुसुमैमत्त- ५९।४१ मन्दारादिद्रुमाणां ५६।११६ मन्द्रात्वं पसरो नास्ति १९।२०३ मन्मथो मदनः कामः ४७.२५ मन्युरुद्धगलगद्गद- ६३१४८ मन्ये दिवसमप्येषा १४।६३ मन्त्रवादिपरिव्राजा ३०।४६ मन्त्रशक्तिरियं किंनु ८।२०१ मन्त्राविदार्यगलया १९।१५१ मन्त्राणां वाहने साक्षाद्१७।१०८ मन्त्रिणो हि प्रभोश्चक्षुर् ५०।११ मन्त्रैर्गरुडदण्डेन २७४९ मया खेटपुराम्भोधि- ४८।२६ मयासौ ग्राहितो धर्म- २९४५१ मरुच्चलितवस्त्रान्त- ६२१३२ मरुदेवस्य काले च ७।१६५ मर्यादा रक्षणोपाय- ७१७६ मर्यादोल्लङ्घनेच्छस्य ७।१४२ मर्त्यलोके सुखं तद् यच् ११२९६
हरिवंशपुराने मलदो भार्गवश्चामी १११६९ महानेमिधराक्रूर- ५०८३ मलग्रस्तशरीरोऽसा- १८।१३० महाणुव्रतयुक्तानां ५८।११७ मल्लिः पञ्चशतैः सिद्धः६०१२८३ महाराज्यपदोदार- ४७।२८ मल्लेस्तु पञ्चपञ्चाशत् ६०।४३८ महितं महतां मह- ३९।६ म्लेच्छः शृगालदत्तस्तद् २७७० महिषमृगध्वजवृत्तं २८१५१ म्लेच्छराजसहस्राणि १११३०
महिमाग्रे सुरेशाष्ट- ५९।११ मसारगल्वगोमेद- ४५३ महिषी रुद्रदत्तस्य ६०८७ महत्खस्पर्द्धयेवोर्ध्व ४१३ महिषाभ्यामिव क्षोभो ४३।१०९ महत्तरप्रतीहारी ४३३२ महीदत्तेन नगरं १७।२९ महावलेपानखिला- ३७२९ महीजयः सुफल्गुश्च ४८।४४ महासमुद्रस्य महामृता- ३७।३७ महेन्द्रो मलयः सह्यो ४८।४९ महादेवीभिरिष्टाभि- ४४.५० महेभकुम्भाभकुचा- ३७९ महापद्मो महानागो ५२१३८ महोपसर्गे शरणं ६६१४३ महाप्रभावसम्पन्नास् ९४२२२ महोग्रभग्नसंचार ३३।२७ महातमःप्रभां प्राप्तो २७।१०९ मागधः शाम्यमानोऽपि ५०५५ महापद्महदाद् रोह्या ५।१३३ मागधाभिधदेशेऽसौ १८।१२७ महाभुजोऽपि तस्यां स्यात्५।६९१ मागधोऽत्रान्तरे प्राक्षीत् ४५।३ महासरांसि षट् तेषु ५।९ ।। माघत्रयोदशतिथौ सित-१६।७६ महातमः प्रभा भूमिः ४।४५ माघशुक्लत्रयोदश्यां ६०।१७६ महापुरुषकोटीस्थ- ४५।१५५ माघस्य कृष्णपक्षस्य ६०।२३४ 'महादिक्षु चतस्रोऽस्या ५७।१० माघशुक्लचतुर्दश्यां ६०।१७५ महासेनस्य तनयः ४८०४१ माघकृष्णचतुर्दश्यां ६०१२६६ महाहिशय्यामिह सज्जितां३५।७६ मातङ्ग इति मा मंस्था२२।१३० महायुद्धमभूत्तस्य ५११२४ मातङ्गोभिभृशं भृङ्गी २२।१२८ महाप्रभावसम्पन्ने ६५।४४ मातङ्गीनां च विद्यानां २२१८१ महाश्वेतापि मायूरी २२।६३ मातङ्गो विनमेः सूनुः २२।११० महापुरं पुष्पमालं २२।९१ ।। मातल्यधिष्ठितं सास्त्रं ५११११ महासेनस्य मधुरा ११३३ माता सुताः समाराध्यः१८।१२३ महाव्रतानि साधूना- १८०४३ माता ज्ञात्वा सुताचित्तं २११५२ महालब्धिमतस्तस्य १८।१३८ मातुलं मातरं पत्नी २१११७५ महापुरात्समादाय ३२०२८ मातुः शिशु विकृत्यान्यं २०३० महाबलस्य विद्यशो ९।५८ मात्सर्योपहतास्त्वन्ये ३११४८ महाभूतानि सर्वाणि ५९।४ मात्रा त्यक्ता स्वपापेन ६०॥३४ महातपोभृद् विनयंधर- ६६।२५ मात्रे निवेद्य वृत्तान्तं १७१५० महारक्षाधिकारस्य ४३।४२ माथुराः सौर्यजा वीर्य- ४११४४ महाभुजगशोभाङ्क- २६।२२ मादृक्षोऽपि यदीदृक्षं ४३।१९० महावैराग्यसम्पन्नस् ४६।३७ माधवोऽपि निजं राज्यं ४३।२०४ महाशत्रुरसौ मृत्वा २७/८८ माधुर्यः शौर्यपूर्व च ४०।२१ महामृतरसायनैः ३८.६ माध्यस्थ्यकत्वगमनं ५८।१५३
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मानसं ज्वलने तं च
५६।९५
मानस्तम्भादि संलक्ष्यं १९ ११५ मानस्तम्भैस्तथा स्तूपैस् २|७४ मानितासनदानाद्यैः
१४।७८
मानोन्मानस्वरं देहं २३।१०७ २३।१०५
मानसैर्वाचिकैः कायैः
मानुषस्यायुषो हेतु
५८/१०९
५।७३
मानुषोत्तर शैलस्य मानुषोत्तरतः पूर्वमानुषोत्तरपर्यन्ता
६।२३
५।६३३
मानुषक्षेत्र मर्यादा
५/५७७
मानुषक्षेत्र विष्कम्भश्
५।५९० मान्यो मान्याभिरन्यस्त्रो ४७।१३६
मा भैषीरेष विद्यानां ३०।३१ मायया शायितं सैन्यं ४७|१३४ माया मर्कटमायाश्वर् ४७।१०७ मायायुद्धमिदं दृष्ट्वा १९।११० मारे
तु या परा सैव
४२८२
मार्गणास्थानभेदैश्च
२।१०७
१२।१९
मार्जारेण सता तेन माष्ट मार्दवगुणेन ६३।२२ मालतीवल्लभां मासश् १४/१९ मालतीमल्लिकाद्युद्यत् ७१८८ मालावली कदल्याद्या: ५।३८६ माल्यवांश्च नदीमध्ये ५।१९५ माल्यदानापदेशेन ३३|१०८ मासस्याभ्यन्तरे भूप ५४।२६ मासान् पञ्चदशाजन्यमासे मासे समाजव मासोपवासिने तस्मै
२४५
१९।१२७
३३।७८
१८२४८
मांसमद्यमधुद्यूत
५८।१५७
मांसमद्यमधुद्यूतमांसदोष नृपः श्रुत्वा २३।१५२ मांसप्रियस्य तस्यासीत् ३३।५१ मांसल हृदयं राज्ञां २३।७९ मांसलैमृदुलैः पार्श्वेर् २३।७७ मासे पक्षेऽह्निचामुष्मिन् २७ २८ मासोपवासिनौ दृष्ट्वा ५०/५९ मा स्प्राक्षीस्त्वं रसं भद्र २९।८४
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
१७/३४
माहिषाद्यैश्च नावाद्यै- ८।१३४ महेन्द्रेऽष्टौ तु क्षे ६।५६ माहेन्द्रे नियुतं प्रोक्तं ६।८१ मित्रश्रियः सुमित्राख्यः ४८ ५८ मित्रकार्यमुक्त २१।१७२ मित्रश्रियं प्रगृह्यागान् ३२।३२ मिथुनमर्भकयोः सुखला - १५।२९ मिथुनानि यथा नृणां ७/९९ मिथिलानाथमुत्पाद्य मिथिला राजगृहकं ६०।२४३ मिथिला रक्षिता कुम्भो ६० १२०० मिथिला विजयो वप्रा ६०।२०२ मिथ्यादर्शनमात्मस्थं ५८।१९२ मिथ्यादृष्टिर्यथार्थोऽन्यः ३१८० मिथ्या ये दुष्कृताद्यै- ६४/३३ मिथ्यादर्शनवाक् सा या १०३९७. मिथ्यादृष्टेः सतो जन्तोर् ६१।९७ मिथ्यात्वं त्वर्धसंशुद्धे ५८।२३३ मिनोमि पाप पश्य त्वं २०५२ म्रियमाणोऽतिदुःखेन १७।१४३ म्रियन्ते स्वल्पवृषणा २३।६६ मिलितैः खलभूपालैः २३।१२१ मिश्राः शतसहस्रं तु मोनो कृतजलक्रीडी ८।६६ मुक्तच दुःखिना खिन्नः १९ । १११ मुक्तबन्धा च नत्वा सा २६।४९ मुक्त केकारखं तत्र २३।२२ मुक्तान्मुक्तान्नृपेणासा- ३१।११७ मुक्तामरकतालोकैर्
५।१८६
२।१०
मुक्तावलीव देतेषां
५/४५५
मुक्तावालुकविस्तीर्ण -
५७/७७ मुक्ताफलतया दानात् १।४५ मुक्त्यभावे कुतः सौख्य- १८।१५२ मुक्त्वा मातुलमश्वेन मुक्तिमूलमहानर्घ्य - मुक्ति गते महावीरे ६०।५५२ मुक्त्वा लोकपुराणमुक्त्वोपकरणं क्षेत्रे ४३।११७ मुखरनिर्झरपात पतत्रिभि ५५।१५
२१।७७ ३।१७०
१।१२८
८६९
मुखरशङ्खरवेण दिशां ५५/६६ मुखेन्द नेत्रयुग्माब्जे १४।३३
मुग्धः सदुग्धिको रज्ज्वा २१३८२ मुदितभोजसुतानगराङ्गना-५५१८२ मुद्रिकाभरणेनाभाद् ८१८६ मुनिमासाद्य तो धर्म ४३।१४५ मुनिराह भवत्सुनोर् मुनिसुव्रतनाथश्च मुनिसुव्रत मल्ल्यन्तर् मुनिसुव्रतनयोस्तु
२५/३९
६०।१४६
६०।२९६
६०।३०१
६०।४१९
मुनिसुव्रतनाथस्य मुनिपादसमीपे तान्
६५।३१
३६।२३
३३।११४
मुनिवचनमवन्ध्यं मुनिपादोपकण्ठेऽसी मुनिधैर्यपरीक्षार्थ १८१५८ मुनीन् कालान्तरेणामून् ३३ । १२८ मुविनयदत्तस्य ४६।५५ मुनिन्दातिपापेन मुरजार्धमधोभागे मुरारिरपि रुक्मिणी ४२।१०४ मूकीभूय स्थितास्तावद् ४३।२३६ मूच्छितां विषवेगेन
६०/३० ४।७
३३।१०९
९।१८२
मूच्छितेनापि तत्पादो मूढ सत्यविमूढेन
१७।१४९
१२/७०
मूलकाश्मक दाण्डीकमलमध्यान्तदुःस्पर्शा
११।९५
मूलप्रकृतिभेदोऽयमूले तन्मात्रमेवैषां
५८।२२० ५।२९ मूले गव्यूतिविस्तीर्णः ५।१७७
मूले द्वादशमध्येऽष्टो
५।३७८
२८|३०
१।११३
१५।५३
२९।४७
६१।९८
मृतिर्जातस्य नियता मृतो गृहीतधर्मोऽहं २१।१५४ मृत्यु जन्मजरानिष्ट३।७६ मृत्युदुःखपरिपीडितस्य ६३।८१ मृत्वोत्तरकुरुष्वासीद्
६०१८८
मृगध्वजमुनिः प्राह मृगमोक्षविधानं च
मृतवतामृतदीधितिमृता नागवधूर्जाता
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८७०
हरिवंशपुराणे मृत्वा श्रावकधर्मेण २७।११० मौनिना निजशरीर- ६३।१०७ मृत्वा श्वेताम्बिका पुर्या ३३।१६१ मौलिकुण्डलकेयूर २८५ मृत्वा पापोपदेशेन १७११६० मृत्वा क्रोधाग्निनिर्दग्ध- ६१२६९
[य] मृत्वा मृगायणो राज्ञ- २७१६३ य एव विषया रम्या ९।४९ मृदुशय्यासनं वस्त्रं ९।५ यः प्रसिद्धरभिज्ञानैः ५८।१४४ मृदङ्गसदृशाकाराः ५।६८४ यः प्रागुत्पत्स्यते यस्या ४३।२१ मृदुतरङ्गघने शयनस्थले १५२
यः सिंहरथमुद्वृत्तं ३३॥४ मेखलात्रयसंयुक्तः ५।२८४ यः स्वर्गसौख्यजलधी- १६१४५. मेघनादमहानादौ ५२॥३४ यज्ञमित्रो यज्ञदत्त: १२०६४ मेघश्यामवपुः श्रीमान् ६०२११ यतः साकमितं यत्प्राक् ८।१५० मेघप्रभो मघायोध्या- ६०११८६
यतस्ततः पुराणार्थः ११७० मेघनादोऽपि तत्काले २५।६।। यतस्तु रमणीयत्वं ५८।२७२ मेघायामिन्द्रकेषुक्तं ४।२२० यतस्तस्यामुदाराय ५३।३३ मेचकं वस्त्रयुगलं ४११३६ यतयात्मधिया जित- ३९४९ मेरावेकक्रमो न्यस्तो २०१५३ यतिधर्मविधानज्ञः ३३।७४ मेरुरक्षौहिणीस्वामी ५०७० यतिवर्गादयः सर्वे ५७।१४७ मेरुचूलिकया सार्द्ध- ६।३५ ।। यतीनभ्यन्तरीकृत्य २०१२३ मेरुषु प्रतिवनं तु षष्ठतः ३४।८५ यतो यतश्च यातीशस् ५९५९४ मेंरुश्चैव सुमेरुश्च ५।३७४ यतो भवति सुश्लिष्ट- ५८५४ मेरुं प्रदक्षिणीकृत्य ३४।२४ यत्कथामृततृप्तानां ९।१७१ मेरोः पूर्वोत्तराशायां ५।१७२ यत्कुण्डलवरो द्वीपस् ५।६८६ मेरोः प्रारदक्षिणाशायां ५।२१२ यत्तूपायविनाच्यं तद् ५८।२९५ मेरोः पूर्वोत्तराशायां
यत्तदद्य त्वया वस्तु १९।१४१ मेरोः प्रभृतिकूटानि ५।२१६ यत्तन्मानकषायी स ९।१२७ मेरोरुत्तरपूर्वस्यां ५।३२८ । यत्त्रयोदशकोटीभिः १०१११८ मेरो जन्माभिषेकं च ११९७ यत्पक्षाः पाण्डवाश्चण्डाः ५०.२५ मेषाकृतिगिरी लेभे ४७।३६ यत्स्वतन्त्राभिमानस्य ९५५ मैत्रीप्रमोदकारुण्य- ५८।१२५ यत् षट्त्रिंशत्सहस्रेस्तु १०।२८ मोक्षकारणभूतानां ५८।१९० यत्सत्याणुव्रतस्यामी ५८।१७० मोक्षमिक्ष्वाकवो जग्मुर १३।१३ यत्र कायचिकित्सादि १०१११९ मोक्षसाधनमप्येष ६११६३ यत्र पाति धरित्रीय २।१४ मोहमूढमनसोऽस्य ६३।१३ यत्र प्रासादसंघातैः श६ मोहस्य प्रकृतिः सप्त ५६।८७ यत्र षष्ठोपवासाः स्युश् ३४०६८ मोहस्योदयतो जीवः ३७९ यत्र सूक्ष्मशरीरस्य ५८।२७३ मोहयित्वा जडं लोकं ६०।१४ यत्रापि पितरो भद्रे! ४२१७३ मोहनास्थानसंज्ञाश्च ५।३८७ यत्रका दशलक्षाश्च १०॥३७ मोहादप्राप्तसम्यक्त्वा ६०१६० यथा कृषिस्तथात्यर्थ १९१९ मौकमत्स्यकनीयांश्च ३।४ ।। यथाक्रम नभोयानाः ५३।२८
यथाक्रममशेषाणां ४७११५ यथा क्षेत्रविभागेन ६४४११० यथाख्यातमथाख्यात- ६४।१९ यथागतं यथा दृष्टं ४३१२२९ यथाग्निहोत्रं जुहुयान् १७।१०४ यथाजागोमहिष्यादि- ५८।२११ यथा नदीसहस्राणां १७.१२ यथा यथासौ परिवर्धतेऽ- ३५१७ यथायथं नृपा जग्मु- ४८।३६ यथायथमनीकिनः ३८.३० यथायथं विनोदेन ४६।२५ यथा देवसभेऽस्तोषीत् १८।१६७ यथादेशमिति प्रोच्य २१३१६३ यथोद्दिष्टं ततस्तेन ३१।१०४ यथायोगपरावृत्त- ५४४५८ यथायोग्यं सभोग्यास्ते ५३६४२ यथा पुरा तो मथुरा सुपुर्या ३५।२ यथास्वमिन्द्रकींना ६८६ यथास्वस्वं निमित्तभ्यः ८१३२ यथा स्वं शिविरस्थानं ३१११३३ यथा स्वमपि सप्तभिः ३८.२० यथा स्थित्या तथा धुत्या३।१६८ यथाप्रश्नमितस्तस्मै ६०।१३७ यथाहिरोभूरिजनानुरागो ३५।६७ यथोक्तमेषां हि तपो- ३४।८९ यथोक्तादानसक्तस्य ५८७७ यथासत्वं यथाभावं १४।१०३ यथैव सूचकः पुंसां २३।१२२ यदत्र युक्तमाधातुं १९।३२ यदत्र किंचिद्रचितं ३६।३४ यदत्र निखिले सैन्ये ४७९५ यदथं रक्षिता कन्या २१४१७९ यदर्था सन्निधानेऽपि १०९९ यदवोऽपि ययुः स्वेच्छ- ४०१४४ यदार्यानायनानात्व- १०।१०४ यदा परीक्षितो राज्ञा ३३६५७ यदा हारादिपर्याप्ति- ५८।२७४ यदुक्तं मन्त्रतो मृत्योर् १७११३६ यदुपाण्डववर्गों तौ ४७११६
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श्लोकानामकाराधनुक्रमः
. ८७१
यदुभोजकुलप्रेष्ठा ५८३१० यदुवृद्धिमिति श्रुत्वा ५०१५ यदुषु विषमदृष्टिष्वेक- ३६१४७ यदुष्वतिरथो नेमि ५०७७ यदूनां यादवीनां च ६१०९३ यदि च परस्परव्युदसन-४९।४९ यदि नाम महेश्वर्य ५०१२ यदीयं नानुभूयेत १४॥३७ यदीयोदयतो जीवः ५८०२४१ यदीयोदयतो जन्तुर् ५८२४३ यदीयोदयतो ह्यात्मा ५८।२३९ यदीयोदयतो वृत्तं ५८०२४०।। यदीयोदयनिर्वृत्तं ५८।२६४ यदेव जायते नृत्वं ॥१३० यदेन्दति तदैवेन्द्रो ५८०४९ यदैव केवलोत्पत्तिः ६०॥४५४ यदैक्षिलक्ष्मीरभिषेकिणी ३७३० यमुनोत्तंसमुद्यानं १४१४८ यत्कल्पाकल्पसंज्ञं स्यात्१०।१३६ यद्ग्रामनगराचार- १०॥१०५ यद्रागद्वेषमोहादेः ५८।१३९ यद्रागद्वेषमोहेभ्यः २०११८ यद्येवं दीयतां मह्यं ४७।९६ । यद्यन चिन्तितं पथ्य- १८१४१ यद्यन यादृशं कर्म ६५।४८ यद्येष दग्धदेवेन २३।११७ यद्यप्यविरता तृष्णा ३।९१ यद्यप्यनवगाह्याब्धि- ५०.१५ यद्यमीभ्यः परः कोऽपि ३११३८ यद्वस्तुभवनेऽनध्यं १७१० यद्धेतुद्योतनं देहे ५८।२६५ यद्धेतुवर्णभेदस्तद् ५८।२६० यद्धेतुरसभेदः स्यात् ५८०२५८ यनिसर्गाधिकरण ५८।९० यन्नोपयुज्यते यस्य १८।१४६ यमदण्डमथैशानं २५१४८ यशःप्रकाशमानोऽपि १४०४० यशसा धवलीकृत- ३९।३ यशोदयायां सुतयायशोदया६६६८
यशोदया दामगुणेन जातु ३५।४५ यियासवस्तु युक्तानां ४५।९० यशोदयानीय यशोदयाढ्यं३५।५७ युक्तः प्राप जिनो जैन्या ३५१ यश्चचार चतुर्वेदस् २३।३९ युक्तियुक्तमुपन्यस्त १७।१५० यस्तीथं स्वार्थसंपन्नः ११९ युक्तो रत्नलताचित्र- ५९।५२ यस्य चाज्ञाकराः सर्वे ३१२१
युक्त्यागमबलादेव ७।१५ यस्य पल्लवतल्पोऽपि १४।८८ ।।
युगप्रधानमम्भोधि- . ४१।१३ यस्याश्च चरणी चारु ८।१० युग्मधर्मभुजो भूत्वा ७६५ यस्यां यस्यां दिशीशः ५९।९३ ।। युतं च संघेन चतुर्विधेन१०।१६२ यस्यानुपालनव्यग्राः ४०.१२ युद्धे रन्ध्रमसौ लब्ध्वा २५।४२ यस्माद् भूमिगृहे जातः २५।१३ यद्धे भेर्यस्तथा शङ्खा ५१।१४ यस्मिन् भवति रागश्च१९।२०० युद्धे बद्धेऽर्कको च यस्योदयाच्छरीराणां ५८।२५१
युद्धे सिंहरथं जित्वा ४७।२६ यस्योदयाद्भवेद्गन्धो ५८।२५९
युधिष्ठिरकुमारेन्दु- ४५१६३ यस्योदयादयोऽवत्तु ५८२६२ युधिष्ठिरोऽत्र शल्येन ५११३० यच्चतुर्विधबन्धस्य ५६।४५
युधिष्ठिरोऽर्जुनो ज्येष्ठो' ४५।२ यजूंषि प्रणवारम्भ- १७१८६
युधिष्ठिराय वीराय ४५।१०२ यागकर्मणि निवृत्ते २९।३०
युधिष्ठिराय ताः सर्वाः ४५१९९ याज्ञवल्क्यो वृतो वादे २१११३७
युधिष्ठिराय सा दत्ता ४५।७१ याज्ञवल्क्य इति ख्यातः२१।१३४
युध्यमाने तथा तस्मिन् ३११८३ याति रागं श्रुतिश्चैव १९।१७३
युवयोः पृथुसेनाभ्या- ४२२८६ यात्युपाधिवशाद् भेदं ७।१२०
युवराजः स नमुचिः ४४०२८ यात्वा दक्षिणतः कुण्डात् ५।१४८ युवानी दो ततो भुक्त्वा२७।१३७ यादवाः कौरवा भोजा ४०/४० युष्माकं पश्यतामेव ४७।१२७ यादवस्य ध्वजं तुङ्गं ५११३७ युष्माभिः सर्वकालेन ४८१२३ यादवानां सभाक्षोभं १।१०४ । यूयमेव स्फुटं ब्रूत ५०॥४२ यादवानां च माहात्म्यं ५०४ ये कषायकूशीला ये ६४१६९ यादवान्वयसंभूताः ५००२१ ये जम्बूद्वीपसिद्धास्ते ६४।१०९ यादवेन्द्र शिवादेव्योर् ५०१३ येऽतीतापेक्षयानन्ताः ११२७ यादृशी समवस्थान- ५७।४ ।। ये तु चारित्रमोहस्य ३३१४७ या प्रत्यक्षपरोक्षेषु ६४।४१ ये द्वे पूर्वोत्तरे पती ५९७ या प्रवर्तयति स्तेये १०९६ येन तीर्थमभिव्यक्तं ११४ यामिताभ्युदये पार्वे २४० येन सप्तदशं तीर्थं ११९ यामिनीषु मनीषिभ्यां ४३।२१० येऽमी षोडश नागेन्द्राः ५।६९५ या मिथ्यादर्शनारम्भ- ५८।८१ ये रागहेतवो बाह्या ९।४८ यावन्तोऽपि वचो मार्गास्५८।५२ ये लक्षास्त्रिशदेकोना ४१०४ यावच्च मार्यते तावत् २१११०७ यैः प्रध्वस्तमहाध्वान्त- ५७।६२ यावच्चोद्धतयोर्युद्धं २११९८ योगस्थो योगभक्त्यासौ २१।११४ यावद्वनवती तेषा- ५३।२४ योगनिःप्रणिधानानि ५८।१८० या संप्रज्वलिने दीर्घा ४।२७९ योऽगो विद्याधराधारो ९।१३१
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८७२
योजनभूरिसहस्रनभोगं ३९।१० योजनत्रयविस्तारो ५९।४७ योजनं तु त्रयः क्रोशाः ४।३४१ योजनानि हि तावन्ति ४।२३७ योजनानि हि यावन्ति ४।२३४ योजनानि त्रिपञ्चाश- ५।६४९ योजनानि विनवति ५।१५० योजनानि नवोद्विद्ध- ५।१३७ योजनानि दशातीत्य . ५।२४ योजनानि क्षितेरूध्वं ५।२२ योजनानां सहस्रं स्यात् ५।१६२ योजनानां शतान्येक- १८१९१ योजनानां सहस्राणि ४५८ योजनानां सहस्राणि ४।३६ योजनानां सहस्राणि ४।४८ योजनानां सहस्राणि ५।५० योजनानां सहस्राणि ५।४२३ योजनानां शते द्वे ५।३४ योजनानां चतुःषष्टि ४।२२५ योजनानां सहस्रं तु ५।५९१ योजनानां सहस्रं तु ५।४६ योजनानां प्रसिद्धषु ५।३७ योजनानां तु लक्षे द्वे ५।४३० योजनानां तु लक्षका ५।४६४ योजनार्द्धन न प्राप्ता ५।१६३ योजनोद्धृतविष्कम्भं ५।१२८ योऽतिमुक्तक इत्यासी- ४।७५ यो नामस्थापनाद्रव्यैर् १७४१३५ योऽपि नेमिकुमारोऽत्र ४३७८ यो मरीचिकुमारस्तु ९।१२५ योऽमावस्योपवासी ३४१९० योऽशेषोक्तिविशेषेषु ११३७ यौऽसौ बाहुबली तस्माज् १३।१६ यो हनिष्यति तं विन्ध्ये ४५।११६ यो इरिस्नेहसंभारो ६२।३० यौ द्वौ धर्माश्रमो धम्यौं २३१४१ यौवनं स परिप्रातः ६०।१२७ यौवनं स परिप्राप्तः ४७।२४ यौवनेन कृताश्लेषा १७।५
हरिवंशपुराणे [ र ]
रथमुद्धृत्य हस्तेन ५४।६७ रक्तान्तः पद्मपत्राभैर् २३।१०३ रथमारोप्य तां वाधौं ५४/५५ रक्तायाश्चित्तमादाय १४।४७ रथदूपुरमानन्दं २२।९३ रक्तापाण्डुकयोध्यं ५।३५० रथरक्षान्वितौ राम- ५०१११७ रक्तया सह रक्तोदा ५१२५ रथषष्टिसहस्रस्तु ५०।१२९ रक्तमालाधराश्चैते २६७ रथमथ चतुरश्वं ३६१४८ रक्तपल्लवसन्तान- ५।१७९ रथः पद्मरथस्यैष ५२।१९ रक्तकिंशुकपुष्पाभो ६०।२१२ रथस्थो मागधो युद्धे ५२।३ रक्तहस्ततलौ श्रेष्ठ ८।१८ रथं हिरण्यनाभः स्वं ३११६२ रुक्मिणीसत्यभामाद्याः ६२४० रथं नोदयतः क्षोण्यां ६११८३ रक्षणार्थमनर्थेभ्यः १४४ । रथं दिव्यास्त्रसंपूर्ण- ४११३७ रक्षतां बलकृष्णौ च ६११७९ रथादुत्तीर्य विनतं ४७५० रक्षिता शत्रुमात्राहं ३०।१३ । रथैः केचिद्गजैः केचित् २२१६ रक्ष्यं यक्षसहस्रेण १११८९ रथैः षष्टिसहस्रेस्तैः ४२१८१ रक्ष्यतां रक्ष्यतां साधो ६२६२ रथ्याभिरभिरामान्तः ४११२४ रङ्गसेना च गणिका २९।२६ रन्ध्र व्याघ्रवदापत्य- २४॥२२ रचितः परिवर्गेण ९।१६७ रममाणोऽद्य तेनाहं २११२८ रजतं पूर्णभद्राख्यं ५।२२० , रमिता यदुसूर्येण २९।६८ रजस्तिमिरिकापाय- ५९।८८ रम्यं नागलताश्लिष्ट: १४।४९ रज्जुः प्रथमरज्ज्वन्ते ४।१७ रम्यकाद्यष्टमं कूट- ५।१०१ रज्जुद्वितीयरज्ज्वन्ते ४।१८ रम्याङ्गनाश्च कुलशैल- १६।२० रजोबहुलमारूक्षं ११४७ ररक्ष गर्भ प्रसवव्यपेक्षः ३५।१८ रटत्पटहशङ्खशब्द- ३८।४६
रविणा गौरिणेवाशु २२११४१ रणन्नूपुरचारुस्त्री १४।१४ रविनिशाकरयोरुभया-५५।११४ रणमुखेषुरणाजितकीर्तयः५५।९० रश्मिवेगोऽन्यदा यातः २७१८३ रतिव्यतिकरम्लान- २१११६ रश्मिवेगोऽमृतः कल्पे- २७१८७ रतिमिव रतिमालो ३६।६१ रसभावविवेकस्य २११४८ रत्यरत्यभिधे वोभे १०।९४ रसकूपे परिव्राजा- २१।१५३ रत्नचित्रतटाः सर्वे
रसाभिनयभावानां २२।१५ रत्नकाञ्चननिर्माणाः ५।३६२ रसाया मूलमासाद्य २११८३ रत्नसंचयजः कुन्थुः ६०११४४ रसितचूतलतारसकोकि- ५५।३६ रत्नचित्राम्बरधरा १४।४ रहस्यावाह्य चापृच्छय २९।१५ रत्नत्रयसमृद्धस्य ६११०७ रहस्यकृतवक्षसा २३।१५३ रत्नचिह्नाभिधानोऽस्मात् १३१२१ रहोऽभ्याख्यानमेकान्त-५८।१६७ रत्नप्रभादिषु ज्ञेयं ३।११६ रक्षसोऽद्य महाकायः २७.१५ रत्नसिंहासने तस्मै १११५२ राक्षसास्त्रं परिक्षिप्तं ५२।५४ रत्नकाञ्चननिर्माणः ४११२० रागादीनां समुत्सत्ता- ५८।१६१ रत्नप्रभा यथा भाति ७७१ रागा कृतचित्तत्वा- ५८।६९ रत्नोच्चयो दिशामादिर् ५।३७५ राजक्षत्रोग्रभोजाद्याः ९।१००
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श्लोकानामकाराखनुक्रमः
राजधान्यश्चतुस्त्रिशत् ५.१० राज्ये भोजकवृष्णिश्च १८।१७९ राजा को रक्षणे दक्षः ९।९५ राज्ये तो यौवराज्ये च २१११२२ राजस्त्रीनरसंघातो ६११४३ राज्ये संस्थाप्य मां २११११९ राजयुद्धकथासक्ताः २८।३।। रात्रौ प्रतिभया तस्थौ १८।३० राजलक्षणयुक्तः स ४५।८८ रामकेशवयोः प्लुष्ट १११९ राजक्षत्रोग्रभोजाद्यास् २२।५२ रामकृष्णसुतैः संख्ये ५११२८ राजपुत्राश्च ते सर्वे ३३।१६४ रामदत्तासुतौ राज- २७१५४ राजन् ! वस्तुविसंवादा १७१९४ रामदत्तापि सम्यक्त्वात् २७।७५ ।। राजतीन्द्रध्वजः सोऽयं ५७४८५ रामदत्ता प्रिया तस्य २७१२१ राजा राज्यं च मत्पित्रे १९८४ रामदामोदरानन्दं ४११५० राजा मेघपुरे चैव ३३।१३५ रामभद्रसमेतानां ३३३९५ ।। राजा राज्ये नियोज्यैतौ ६०१९ राशिद्वयान्तराले स्यु- ५।६२७ राजा प्राह प्रिये ! वाधौं २७।३३ राष्ट्रवर्धनराजोऽपि ४४।३२ राजा दशरथश्चापि ५०।१२५ राष्ट्रवर्धन इत्यासीत् ४४॥२६ राजा सिंहकटिः प्रोक्तो २३।६९ राहुभद्रमुनेः पार्वे २७१५६ राजा मनोहरोद्याने ३४६८ रिङ्गतामपि सप्तव ७।९३ राजा हिरण्यनाभस्तु ५१११३ रिपुरयमिह कंसो ३६॥३८ राजा मेघरथः सिंह- ६०।१५४ रिपुं कालमुखं प्राप्त ३१२९७ राजा सभार्य इम्यश्च ४५११०३ रिपोर्भयात् पुत्र वियो- ३५।६१ राजाद्या प्रावजन् श्रुत्वा २८०४९ रिप्यका [ हृष्यका ] १९।१६४ राजा तत्र तदा धीरो ३११९ रुक्मिणी तु शिरःस्नाता ४३१२९ राजानश्च तथैवान्ये ९।४५ रुक्मिणी रोक्मिणेयाय ४८।११ राजीमत्यास्तपःप्राप्ति ११११४ ।। रुक्मिणीहरण भास्वद्- १३१०० राजीमत्याश्चारुराजी. ५५।१३४ रुक्मिणीजाम्बवत्यौ ते ४७।१३५ राजोपरिचरः पृष्टस् १७.१४८ रुक्मिणी परिणीयासी ४२।९६ राज्ञः स गन्धमित्रस्य २७।१०२ रुक्मिण्यास्तनुजं दृष्टा ४३।२२७ राज्ञा मद्वचनात् ज्ञात्वा २४।५८ रुक्मिण्यापि ततः पृष्टः ६०१२५ राज्ञा विज्ञाय चाज्ञप्ते २८०२७ रुक्मिण्यादि हरिस्त्रीणां ११११८ राज्ञा ह्यानाय्य पृष्टोऽसौ ३३१५३ रुक्मिण्याः सुतमालोक्य ४३१४१ राज्ञां कोटिषु कालेन ४५।१०
रुक्मिणः शिशुपालस्य ४२।७८ राज्ञां स षोडशसहस्रगुणै-५३।५२ रुक्मीति तनयस्तस्य ४२।३४ राज्ञी चापि सधात्रीका ३३।१६५ रुक्मी विदितवृत्तान्तः ४२१८० राज्ञो भोजकवृष्णेर्या १८।१६ रुचकादिवरद्वीपं ५।६१९ राज्यस्थितः स हरि- १६।२१ रुचका दिक्कुमारीणां ८११६ राज्यस्थोऽपि न सन्तुष्टः१९।१०३ रुचिरं च तथा च ६।४६ राज्यं प्रज्ञप्तिविद्यां च १९५८२
रुद्रः क्रूराशयः प्राणी ५६।१९ राज्यं मानसवेगे च २४/७१ रुद्रदत्तः पितृव्यो मे २११४० राज्यं यदनया युक्तं ४३।१६७ रुधिरविलिप्तगुप्तपथ- ४९।३२ राज्ये पुत्रशतं प्राज्ये २३॥३८ रुधिरो मधुरैर्वाक्यर् ३१६२
रुद्रं चन्द्रसमच्छायं ३।२ रुष्टयोः शरजालेन ४२।९२ रूक्षशीतलविरुद्ध- ६३।१०८ रूढ्या क्रियावशाद्वाच्ये १७११२४ रूपशोभासमस्तेयं ॥१७ रूपलावण्यसौभाग्य- ४५।१२२ रूपयौवनलावण्य ८४२ रूपविज्ञानपाशेन २२।१६ रूपमादिरधि यत्र पञ्च- ३४।८७ रूपलावण्य सौभाग्य- ४७।५३ रूपयौवनसम्पूर्णा २९७ रूपसौभाग्यतो ह्यन्यां ४२॥३१ रूपलावण्यसौभाग्य- १९।१२५ रूपलावण्यसोभाग्य- १९६८ रूपं नाम च तस्यासौ ३०२७ रूपातिशयसम्पूर्णाः ४५१९७ रूपातिशयतो लोके ॥२०५ रूपान्तराः पञ्चदशाव- ३४।७२ रूपकैः कृत्रिमैः स्वर्णेर ५८१७३ रूपि द्रव्यस्वरूपं च १०६६८ रेजे शाल्यादिसस्यौधर ३३२५ रेमे प्रियमुसुन्दा २९७१ रेमे कामं स कामिन्या १९७६ रोधो नितम्बगलदम्बु १६।२४ रोहिणी देवकी पूर्वा ६०।१२३ रोह्यायां रोहितास्यायां ५।२७६ रोक्मस्य रुक्मिणोऽप्यने ५।१०२ रौद्रध्यानं स दध्यो मे ६११७१ रौद्रं दाहोपसगं ते ६५।२१ रौद्रध्यानाविलात्मानो ३।११० रौधिरं युधि सान्निध्यं ३१७१ रोरुके धनुरुत्सेधस् ४।२९६
[ल] लक्षद्वयं चतुर्थ्यां तु ४१६४ लक्षद्वयं सहस्राणि ५४५० लक्षभागं स पल्यस्य ७४१५५ लक्षणं द्विविघं बाह्य ५६५५ लक्षणं द्विविधं तस्य ५६३६
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der
लक्षणं द्विविधं तत्र
क्षणं द्विविधं तस्य
लक्षणं रक्तगान्धार्या
कक्षणानां समस्तानां लक्षया पर्वतरुद्धं
लक्षद्वयं विभागस्य
५६।२१
५६/५
१९।२३७
२३।१०६
५।४९९
४२१५
१९।५७
४४।३१
९।२१६
१८/२
लक्ष्यलक्षणयोगेन
लक्ष्मणाभवनाभ्यणं
लक्ष्मीमत्यात्मजं राज्ये
कक्ष्मीं स तत्र निक्षिप्य
५।८३
रूक्षैकात्र सहस्राणि लक्षैका योजनानां स्यात् ४।४७ लक्षकेन विनाशीतिः ६०।४४७ लक्षैका पञ्चपञ्चाशत् ६०।३८८ कक्षा नरकभेदानां ४।७३ लक्षाशीतिसहस्राणि १०।१४१ लक्षा विशतिरुद्दिष्टा
४|१९७
१०/४०
४ २०६ ४ २०७
लक्षा द्वानवतियंत्र कक्षा षड्विंशतिर्ज्ञेयाः ५७ १३६ लक्षा नवसहस्राणि २११३७ कक्षा द्वादश-त्र्यंशौ च ४।२०५ कक्षा द्वादश वर्चस्के कक्षा दश षडस्योक्ता लक्षा नवसहस्राणि कक्षास्तमः श्रुतेरष्टो लक्षाः सप्तभ्रमस्यासौ ४।२१० कक्षाः षडेव विस्ताराः ४२११ कक्षाः पञ्चैव चान्ध्रस्य ४।२१२ कक्षाः सप्तसहस्राणि
४ २०८
४ २०९
५।५३२
कक्षाः षण्णवतियंत्र
१०।७६
५।४३१
कक्षाः पश्चदशाशीत्या कक्षाः षट् च सहस्राणि ५।५४४ लक्षाः षोडशसंख्येय- ६।८७ लक्षाः षड्विंशतिः प्रोक्ता४ । १९१ लक्षाः सप्तदश प्रोक्ता ४।२०० लक्षाः षोडशविस्तारो ४।२०१ लक्षाः पञ्चदशत्र्यंशो लक्षास्तिस्रो हिमस्यापि ४।२१४ लक्षाश्चतस्र उद्दिष्टास् ४।२१३
४२०२
हरिवंशपुराणे
लक्षाचैव चतुःषष्टिर् ५/५६६ लक्षावास्याः परिक्षेपः ५/५४२
लक्षाश्चतुरशीतिश्च
लक्षाश्चतुरशीतिस्तु
४ २०३ ४२०४
लक्षाचतुरशीतिर्या लक्षाश्चतुरशीतिस्तु १०।१११ लक्षाश्चतुरशीतिस्तु ६०३१७ लक्षाः स्वर्गविमानानां ६।४१ लक्षाश्वतुर्दशाष्टाभिर् ४।१२८ लक्षास्तिस्रस्तृतीयायां ४।१६३ लक्षाश्चतुर्दशैवोक्ताः लक्षास्त्रयोदश त्र्यंशलघु निरुध्य रथं सह - ५५/८६ लघु विमुच्य मृगान्मृग- ५५।१०४ लघु समेत्य नतानत- ५५।१०२ लव्योऽङ्गुष्टप्रसेनाद्या १०।११४ लङ्घनीयौ च तौ नित्य - १९।२३६ लतां व्यपनयन्तीभ्यां ११।१०१ लब्धषोडशलाभोऽयं ४३।२३२ लब्धप्रत्याशया कन्या २९ १९ लब्धवात रुषा गत्वा २१ । १४५ लब्धसंज्ञा समुत्थाय २४/५४ लब्धस्त्वमचिरेणैव १९९२ लब्धधीः साह शौर्यादीन् ३१।२५ लब्धं दिव्यं रथं शुभ्रंर् ४७१४६ लब्धा सत्यफलं सद्यो १७।१५५ लब्धादेशा जनन्याः सा ८।१५२ लब्धा देशास्ततस्तुष्टास् ४७/७० लब्धादेशा तथेत्युक्त्वा लब्धा लुब्धेन रन्ध्र
२६।५५
१९।२७१
लब्धिश्चैवोपयोगश्च लब्धो वर्णविवेको न लब्धेति द्रौपदीवार्ता लभेतापि च निर्वाणं लभ्येत यदि साधु ललाटपट्टविन्यस्ता लल्लकस्य तु लक्षका लल्लके तु जघन्येयलवणाधिपति देवं
६०।५४०
११।१२९
१०१६७
१८८५
१४।७६
५४/३६
४३८०
१८।१६३
८ १७९ ४२१६
४।२९३
५४।३९
लवणो लवणस्वादस् ५।६२८ लवणोदेsa ये सिद्धाः ६४।१०८ लवणोदे महामत्स्याः
५।६३०
लाक्षलेश तृणशर्करा- ६३॥१०९ लाक्षाभैरोश्वरा निःस्वा २३।९१ लाभ कन्यकयोस्तस्य
११८० लाभः साधारणस्तेषा- ३।११५ लाभं मदनवेगाया लान्तवे ब्रह्महृदयं
११८५
६।५०
६१८२
५८।४७
४२।६४
५।४१०
४७॥३४ २४ २५
१०१८४
६३।८९
५।३२१
लान्तवेऽपि च कापिष्टे लिङ्गसाधनसंख्यानलेखार्यमिति तत्त्वार्थलेणवेदिकया तुल्या लेभे सान्तानकं तस्मात् १९१।१७ लेभे नागगुहायां च लेभे च सोऽचलग्रामे लेश्यायाः परिणामश्च लोकसंस्थितिरनाद्य लोकपालास्त एवात्र लोकसंस्थानमत्रादौ लोकस्य प्रतिबोधार्थ- ९।१५५ लोकं वीक्ष्य तु तत्रासौ १९।१२१ लोकस्य मार्यमाणस्य २४।४४ लोकः शौर्यपुरोद्भवोऽपि ३२०४४ लोकाञ्जलिपुटालोक- ९८७ लोकानामेकनाथोऽय- ५९।७३ लोकानां भूतये भूति- ५७ १६७ लोकान्धीकरणे दक्षां ५२।७५ लोकालोकविभागोति ४८।३१ लोकालोकप्रकाशाद्यौ ५७।११३
१७१
लोके प्रतारको भूत्वा १७।१५९ लोके भावनदेवानां
८१२०
लोकोऽयमेकतो भूयात् १४।३८ लोकोपालम्भतो भीत्या ३३।२० लोभसंज्वलनं सूक्ष्मं लोलरच लोलुपश्चापि लोलां निपतितां दृष्टि १४/३५ लोले चतुर्दशैवासी लोहजङ्घवचोऽत्यन्त- ५०।६२
५६।९६ ४।७९
४३१४
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लोहिताक्षमयः पूर्वः ५।३०५ लोहिताक्षं च वजं च ६।४७ लोहिताञ्जनहारिद्र- ५।३२२ लोकान्तिका ललित- १६५० लोकान्तिकाःमुरो यान्ति५९।२६
[व] वकुशः सोपकरणो ६४७२ वकुशेन कुशीली द्वौ ६४।८३ वक्ता श्रोता च पापस्य ४५।१५६ वक्तुः श्रोतुश्च सद् ४५।१५७ बक्रं भूतं भविष्यन्तं ५८०४६ वकायामः कुरूणां स्याद् ५।५३७ वक्रान्ते धनुषां षट्कं ४।३०३ वक्षारायामवृद्धिस्तु ५५५२ वक्षाराणां च तासां च ५।२४४ बक्षोभिश्च क्षमैराढ्याः २३.८० वक्षोद्वयसमुत्क्षिप्ता ५३।३७ वचनमनस्तनुभिरभियः ४९।१९ वचः पत्युरसौ श्रुत्वा ४३१३१ वचोऽनन्तरमेषाहं २४॥६३ बचोहरवचः श्रुत्वा ५०१४६ वश्चनाप्रवणं जीवं १०१९५ वज्रमूलः सवैडूर्य- ५।३७३ वज्र वज्रप्रभं नाम्ना ५।३१९ वज्रकूट विनिर्दिष्ट- ५।३३० वश्व चमरो वन- ६०॥३४७ वज्रनाभिरभूदाद्यो ६०।१५१ वजमुष्टेः सुभद्रायां ६०५१ वज्रसूरेविचारिण्यः ११३२ वनसंहननोऽनन्त- ३४।८३ वज्रसेन इति ख्यातस् ६०।१५८ बचात्मसंहनन-संहत- १६॥३४ वज्रायुधाय सा दत्ता २७१९२ वञ्चायुधोऽपि विन्यस्य २७१९४ वज्रायुधचरश्च्युत्वा २७।१२२ वजाभो वज्रबाहुन १३।२३ वणिक सुमित्रदत्तोऽस्ति २७।२४ वत्सा सुवत्सा महावत्सा ५।२४७
श्लोकानामकाराअनुक्रमः
८७५ वत्से वत्सेश्वरेणाह १४।९३ वरित्वा वरमादत्स्व २९।६४ वद विद्याधरी चेयं २११४ वरेण स्वसुरोऽवाचि ३११६४ वदतां वरमानम्य ५८।२ वरे प्रेम वरं जात २३५१५२ वदामि शृणु तेजस्विन् ४०।३४ वरेणैव तु निर्वा ५८।७४ वघ्नानाः सततं पाप- ३१०९ वरो नववधूहारि ३१११३७ वनकस्यापि विस्तारो ४॥१८७ वर्तयन्ति सुरास्तस्मिन् ५७।१६९ वनके दशदण्डा द्वौ ४।३०९ वर्तनालक्षणो लक्ष्यः ५८५६ वनक्रीडापरिश्रान्ता ६११४९ वर्धस्व नन्द जय जीव १६५१ वनमहिषं निपात्य विषमं४९।३३ वर्धते स्म तयो हर्षो ४८०६ वनमाले प्रिये वत्से १४।७९ । वर्धस्व जय नन्देति १४॥३१ वनमालानुरागेण १४.५२ वर्धतां वर्धतां नित्यं ५९।१५ वनवासिसुरैर्वन्य- ५९।५१ ।। वर्धमानजिनेन्द्रस्य ६०।४७३ वनस्पतिजलक्षास्ता- १८१६० वर्धमानी च तो गर्भो ४३।३४ वनलताः कुसुमस्तवको ५५६४५ वर्धमानपुराणोद्य- १२४१ बनश्रियो यथा मूर्ता ५७।१५३
वर्धमानजिनेशस्य २१२५ वनस्योत्तरपूर्वस्याम् ५।४२६
वर्धमानपुरं ख्यातं ६०१२४२ बनात् पूर्वापरान्तस्था ५।२३८
वर्धमानजिनेन्द्रस्य ६०१४३० बने प्रियङ्गुखण्डेऽसौ २७।१०८ ।
वर्धमाने क्रमाद् गर्भे ८९९ वने सौमनसे तेषां ५।३५७
वर्धमानजिनेन्द्रस्य १७५ वन्दनाथं नृपो लोकं २०१६ ..
वर्धमानः सुरैः सेव्यो २०४६ बम्दयन्त्या अपि न्यासा १९।२५३
वर्धमानजिनेन्द्रास्या- १०६० बन्द्या चन्द्रपुरी चन्द्र- ६०११८९
वर्णगंधरसस्पर्शः ७१३६ वन्दिगेहे गृहीत्वा तां ६०१११२
वर्णगंधरसस्पर्श
७.१ बन्दित्वा तद्गुरुं भक्त्या४३३१५२
वर्णगंधाढ्यमापिष्य ४३१६ वपुषो नारकीयस्य ४३३४
वर्णसङ्करविक्षेपि १४७ वप्रप्राकारपरिखा
वर्चस्के परमा यासौ ४।२८३ वप्रप्राकारपरिखा- ८३१४७
वर्दले स्थितिरेषेव ४।२९२ वप्रा सुवप्रा महावप्रा ५।२५१ वर्षसंख्या व्यतिक्रान्तः ७.३१ वयं तु वसुदेवोक्ता ५३।२२
वर्षलक्ष्यास्ततो लक्ष्याः ६०।३१४ वयं स्वयंवरव्याजात् ३३३१३७ वर्षलक्षास्त्रयोऽशीति- ६०१५१८ वरतुरङ्गरथद्वयसंकुले ५५।२७ वर्षाणि सप्त कौमार्ये ६०१५४५ वरदत्तश्च नृपतिर् ६०।२४८ वर्षाणां चतुरशीति- ६०।३२० वरदत्तः स्वयंभूः ६०॥३४९ वर्षाणां षट्शती त्यक्त्वा६०१५५१ वरदत्तादिसङ्ख च ६५।१५।। वर्षाणि बहुपत्नीकः १२।३२ वरं वृणीष्व तेनोक्तं ३३३११ वर्षलक्षास्त्रयोशीतिस् ६०।४९७ वराहगोमुखाभिख्य- २१११३ । वर्षासु जीवरक्षार्थ ४३।२०९ वराहमहिषान् सिंहान् ८३१३५ ।। वर्षेण पारणाद्यस्य ६०१२३७ वराकी मारिता मृत्वा ६०१३२ वर्षे द्वादश चोद्वस्य ६१४४४ वराङ्गनेव सर्वाङ्गः ११३५ वर्षेरष्टाभिरिष्टार्चः ५३३३२
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८७६
हरिवंशपुराणे
३६
वलितास्फोटिताटोपं . ११४८४ वलिः प्रहरणाभिख्यो ६०।२९२ वलेशे समुत्पन्नः २५।३६ वल्लभेव पुरावल्ली ११।१०० वल्गप्रभविमानेशः ५१३२७ वल्लीवनमतोऽप्यन्तः ५७।२३ वल्मीकरन्ध्रनिर्यातः ११०९९ ववृधेऽनुकुमारं च १७१४ वशिष्ठेन किमज्ञोऽह- ३३॥६१ वशीकृत्य वशी शीत- १९॥६४ वसुदेवो बलः कृष्णः ६१।१५ वसता तत्र वर्षाणि २०५९ वसतां शान्तचित्तानां ४५१५६ वसन्तसेनया द्यूता २११५६ वसन्तमिव साक्षात् तं १४॥३० .. वसन्तसेनां गणिकां ६४।१३४ वसन्ती तत्र सा भीरुः २५।१२ वसुना वासवेनेव १७१५४ वसुनिभवसुदेवो ३६।५० वसुन्धरपुरेशस्य ४५॥७० वसुन्धरा तथा चित्रा ८१०९ वसुदेवकुमारस्य १९।२७ वसुदेवः समासीनस् १९।१३६ वसुदेवस्य सर्वोऽपि ४८३३३ वसुदेवरिपूणां ते ५११६ वसुदेवस्ततः प्राह ४८०२५ वसुदेवस्तु निःशङ्को १९५२ वसुदेवोपकारेण ३३।२८ वसुदेवस्य वृत्तान्ते १९।४९ वसुदेवस्य पुत्राणां ५३।२१ वसुदेवोऽपि तत्रव ३०१४ वसुदेवस्ततो धीरः ३११५२ वसुदेवोऽर्द्धचन्द्रेण ३१६८९ वसोरपि पिता राज्यं १७१५३ वस्तुनः पञ्चमस्यात्र १०८१ वस्त्रसंवृतसर्वाङ्गः ६२।५९ वस्त्रालंकारमालाद्य- २।४३ वस्त्रंरग्निविशोध्यैर्मी २१।१६० वस्वोकं सारनिवहं २२६८७
वंशालयः पांशुमूलो २२॥६० वंशालयं सौमनसं २२।९२ वंशालयानां विद्यानां २२२८२ वंशीपत्रकृतोत्तंसाः २६।२१ वाक्यं त्रिकालविषयार्थ-६०५७४ वागाद्यतिशयोपेते १०३ वाङ्मात्रेण ततो भूमौ १७३१५१ वाचयित्वेति विज्ञाय ३३१२४ वाजिभिः पञ्चवर्णयों ५२।२२ वाडवानभरद्वाज वाडवाचिच्छलेनास्य ४०।३६ वाढमित्यभिधायासौ २१॥३६ वातातपपरिम्लानः १९३६ वादित्रध्वनयो धीरा ५२।८६ वादितोऽष्टसहस्राणि ६०।३८५ वादिवाग्मिगमको ६३।११२ वादी चापि च संवादी १९।१५४ वार्धेः क्षीरवरस्येशी ५।६४२ वापीकोणसमीपस्था ५।६७३ वापीपुष्करिणी दीर्घ- ४११२१ वामदेवः सुतस्तस्य ४५।४६ वामपक्षमुपाश्रित्य ५०।१२३ वामे जानुनि विन्यस्य ६२।२८ वायव्यं व्यमुचच्छस्त्र- ५२।५१ वायव्यवारुणाद्यस्तो ३११११८ वायुशर्मा सुबाहुश्च १२१५७ वायोरुच्छ्वासंनिश्वासौ ५।४४८ वारयन्त्यशुभादाशु ५८७ वाराणसी च वर्मा च ६०।२०४ वाराणसी समासाद्य ३३३५९ वाराणस्यां पुराणार्थ- २१११३१ वारिधारास्फुरद्धारा ९८३ वारितीर्थमवगाह्य ६३१६ वारिबन्धेऽन्यदा गन्ध- २४।२८ वारीबन्धमिवायानं ४६।३४ वारुणी काञ्चनाख्ये स्या ५७१६ वारुणीवरवार्धीशी ५।६४१ वारुणीवरनामानं ५।६१४ वारुणी सा पुराणापि ६११५१
वारुणीमतिनिषेव्य- ६३१३० वारे षष्ठे तु तन्निष्ठ- २८३३२ वातंमुग्रतपसा ६३।११३ वार्तानिवेदनायाहं २४।७४ वार्ता प्रादुरभूत्पुर्या २९।१३ वार्यमाणं तु तच्चक्र- ५२१६५ वाष्र्णेयखड्गघातेन ५११४१ वासुकिसिवाभिख्यो ४५।२६ वासुदेवगृहेश्चक्रे ६५।५६ वासुदेवस्य पुण्येन ४१।१८ वासुदेववचनाज्जरा ६३।४६ वासुपूज्यजिनाधीशाद् ३१५७ वाह्यमानेन तेनासो ४७।१०४ विकासमगमद् विधोः ४२।१०२ विकीर्णघनशीकरैः ३८।२६ विकृत्य सुरमायमा ३८४० विकृत्य क्षोल्लकं वेषं ४७।१११ विकृत्य दिब्यसामर्थ्या ४०।२९ विक्रान्ते सप्तचापानि ४।३०५ विख्यातामृतधारं च २२॥१०० विचित्रभक्तिध्वज- ३७११८ विचित्रक्रीडनासक्ति ५८।१०० विचित्रपुष्पाम्बुजंखण्ड- ३७।३६ विचित्रस्योपरिस्थेन ८१८४ विचित्ररससंस्पर्श- १४६४२ विचित्रकुण्डलाटोपा २६।१२ विचित्रवर्णविस्तीर्ण- ४२।३ विचिन्त्य शङ्काकुलितस्त- ३५।३२ विचित्रौषधिहस्तास्तु २६:१० विच्छिन्नसम्प्रदायस्य ९।६७ विजयं वैजयन्तं च ६६५ विजयं वैजयन्तं च ५।३९० विजयं वैजयन्तं च २२१८६ विजयस्व महादेव ५७।१४४ बिजयस्यापि षट् पुत्रा ४८०४८ विजयोऽचलः सुधर्मा- ६०।२९० विजयः षोडशाब्दानि ६०५१६ विजयो विश्रुतं कीतिर ५७।५७ विजया वैजयन्ती च ५।६६०
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
विजयोऽब्दशतं लक्षा ६०१५२० । विद्याबलेन नि:शेष ४७।१३० विपुलोपगता ये ते ६०।३७४ विजयश्रीरिति ख्यातः १२०६१ विद्याविकृतसैन्येन ४७७६ विपुलपुलिनफेन- ३६॥३ विजयादिचतुर्दिक्का ५७।१०२ विद्याकरिवरं प्राप ४७१३७ विप्रस्य सोमदेवस्य ६४५ विजयादुत्तराशायां ५५४१७ विद्याधरभवं पूर्व- १२॥१५ विप्रयोगश्च मे माभूद्- ५६११६ विजया वैजयन्ती च ५।२६३ विद्यानां वृक्षमूलानां २२१८३ विप्रकृष्टमपि ह्यथं ११५४ विजयाभिजया जैत्री ५७।३३ विद्यानां पाण्डुकीनां च २२१८० विप्रकीर्णा तदा माला ४५।१३६ विजया वैजयन्ती च ८।१०६ विद्याधरोचिता विद्या ४७।२२ विबुद्धस्तु पतिः पत्नी २४॥६२ विजयाजिरकोणेषु ५७१९४ विद्यानामदितिस्त्वष्टौ २२।५६ विबुद्धा च प्रभाते तान् ३२।४ विजयाकुमाराख्यं ५।२७ विद्याधरा न गच्छन्ति ५।६१२ विबुद्धा च समाख्यो ४३॥३० विजर्यास्थिति पित्रोर १११०१ विद्याधरजनो धीरौ ९।१३४ विबुद्धो देहभूषाभा २९।२१ विजयार्द्धषु सर्वेषु ३।३५९ विद्युत्कुमारनामानो ४।६४ विबुध्य सहसा मात्रा ४५१५७ विजयादिपुरद्वाःसु ५७।६३ विद्युत्कुमार्य एतास्तु ५१७२१ विबुध्यस्व विबोधाय ८७७ विजयाईकुमाराख्यं ५।१११ विद्युद्वेगोऽपि गौरीणां २६।४ विभज्य कौरवं राज्यं ४५।४० विजयाधगिरी रम्ये ४७१२१ विद्युत्प्रभो नरपतिर् ४८।४७ विभवेन नरेन्द्रोऽसौ १११३३ विजयो बुद्धिलाभाख्यो १२६३ विद्युन्मुखः सुवक्त्रश्च १३।२४ विभ्रान्तश्च तथा त्रस्तो ४७७ विजयन्तं जयन्ताभं ५७।११७ विद्धपादतलोऽहं भो ६२॥३५ विभिन्नमपि सप्तधा ३८।२५ विजया वैजयन्ती च ८।११५ विद्धतालपदः शौरि ६२१३४ विभुमपि प्रति ता- ५५५३ विजये विहरत्येष ५९।१४ विधाय च सुरद्विप ३८०४२ विभूत्योद्धतया भूत्यै ५९।१०९ विजहार वने हृद्ये १४।५० विधाय पूर्ववद्व्यूही ५२।२ विभूत्या परयागत्य ६१११६ विजितदोषकषायपरीषहं १५४९ विधिदेयविशेषाभ्यां ५८।१८६ विमलाय नमस्तस्मै १११५ विजित्य भारतं वर्ष १११५६ विधिमुपालभते वरहारिणं५५।१३२ विमलानन्तशान्तीनां ६०१२७८ विजहार पुनर्देशान् ६०।१२५ विधीनामिह सर्वेषा- ३४।१२५ विमलाय नमो नित्य २२॥३५ विज्ञाय बलदेवोऽय- ६२।९ विनयः खलु कर्तव्यो १०१५९. बिमलामलशार्दूला ५०॥४९ विज्ञाय सुमुखाकूतं १४६७० विनयश्रीस्तु कृत्वासौ ६०९२ विमलोऽनन्तजिद्धर्मः ६०११४० विज्ञयाः पङ्कबहुलाच, ४/५६ विनयश्रीगुणैः ख्याता ६०१९० विमानं कामगं कामः ४७।१०० विटपकरपि सालतमालज-५५।४७ । विनिःसृत्य महारण्यात् २१।९९ विमाननाथामरनाथ- ३७।३९ वितर्कः कर्कशं दृष्ट्वा ४५।१३२ विनिमीलितनेत्रीया ५४।१६ विमानानि त्रयस्त्रिश- ६७५ विदर्भपतिपुत्री तन् ४२१५७ विनिर्ययुस्ततः पुर्या ४७।१२९ विमानानि समारूढा ८४१३६ विदिक्षु शशकर्णास्तु ५।४७२ ।। विनिद्रो रौद्रनादेन २४।५।। विमाने श्रीप्रभे तत्र २७१६८ विदिक्षु क्षुद्रपाताल- ५१४५१ विनीतः संवरश्चोभा- १२॥६३ विमानैश्च महामानैर् २५।५५ विदिक्षु सक्रमा हैमी ५।३४८ विनीता मरुदेवी च ६०।१८२ विमुक्तनारदेनोभौ ४७।१३२ विदेहेष्वप रेष्वेते ५।२३१ विनैकेन तु पञ्चाश- ४॥२३३ विमुक्तमलसंपर्को ६०५६५ विदेहक्षेत्रमध्यस्थः ५।२८३ विन्दन् भोगफलं भूरि ४४।५१ विमुखीकृतचैद्यन ४२१७७ विदेहे चित्रकूटाख्यः ५।२२८ विन्दुसारः सुतस्तस्मात् १८०२० विमुच्य वियतः शौरि २६।२८ विदितहरिसमीहश् ३६६ विन्ध्यपृष्ठेऽभिचन्द्रेण १७।३६ वियदतीत्य भुवो दशयो-१५।२७ विदितरिपुविचेष्टास् ३६।१३ विपक्षप्रेक्षणासक्ति- २२१४६ वियद्भूयौनिभीभङ्ग- ५७।१३४ विद्यां साधयतस्तस्य २४।८० विपाण्डुरपयोधरां ३८।११ वियोजिता मया नून- ४३१६४ विद्याशाखाबलेनोत्थां १९।१०८ विपुलराज्यपदस्थिति- ५५९४ विरचितां कुसुमैर्विविधैः ५५।४८ विद्यादानं बालचन्द्रा- २६५६ विपुलसपर्यया प्रणत- ४९।४१ विरत्या विरतिमिश्रा ५८।१९९
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८७८
हरिवंशपुराणे
विरथीकृत्य पौण्ड्रोऽपि ३१४८८ विरहदुःखमपोह्य ततो- ५५।२८ विरागस्यापि मिथ्यादृग् ३३।६४ विराटनगरं जातु ४६।२८ । विरुद्धदेशवस्तूनां १८४१६४ वीर्यप्रवादपूर्वार्थ- २।९८ विललाप च हा पुत्र ४३।६३ विलम्वितसहस्रार्क- ५९।२४ विलडितक्ष्माभृत- ३७८ विलापमिति कुर्वन्त्यां ४३१६५ विलिख्य पट्टके स्पष्ट ४२१४५ विलोक्य मनसश्चौरी १४।९५ विलोक्यमानमालोक्य ६५।३८ विवाहमङ्गलं दृष्ट्वा ४५।१४७ विवाहारम्भसमये ६०११२९ विवाहसमयस्तेऽपि ४२१५६ विविधकरणदक्षौ ३६।२९ विविशुभरिकां भूत्या ४११४२ विशल्यकारिणी चैव २२१७१ विशल्यकरणं चास्त्रं २५।४९ विशालायतशाखाभिः ७८३ विशतिश्च सहस्राणि ५६८६ विंशतिस्तु महादिक्षु ४।१४२ विंशत्यब्धिसमायुष्काः ३॥१५५ विशतिस्ते सहस्राणि १२।७५ विशतिस्तु सहस्राणि ६०॥३६० विंशतिश्च त्रयस्त्रिश- ३४१८२ विशतिश्चैव वर्षाणि ६०१५२५ विंशत्या त्रिशतायुक्तास् ६०३५३ विशेषको भुवामीशो ८।१९३ विंशस्य तस्य चरितस्य १६७८ विशिष्टा परिहारेण ६४।१७ विशुद्ध दर्शनं यत्र ४७।१० विशुद्धतमदृष्टयो ३८।१६ विशुद्धान्वयसम्भूताः ४३।२०३ विश्वक्कृतयशाः पुत्रो ४४।५ विश्वसेनस्ततो जातः ४५।१८ विश्वाशा विशदाः शरद्५८।३१२ विश्वानलस्तु दशमे ६०५३५
विश्वावसू रविः सूर्यः १७१५९ विहृत्य विविधान् देशान् ४५।११९ विश्वाभ्युदयसौख्यानां १८४४० विह्वलान्तःपुरस्त्रीभिः १२।११ विश्वाः सतोरणा लक्ष्यास्५७।३१ वीणा घोषोत्तरश्रेणौ २०१६१ विश्वास्य दिव्यरूपोऽसौ ९।१३० वीणावाद्यविदग्धेषु १९।१३५ विश्वान् विद्याधरान् ३४।३२ वीणावेणुमृदङ्गोरु ५५।१६ विश्वेऽप्यश्वरवात्तस्मात् २८।११ वीणा वंशश्च गानं च १९।१९५ विश्व वैश्वानरा यान्ति ५९।६५ वीतभीभ्यः प्रजाभ्यस्ते ४५।९५ विश्रमन्त्वधुना गत्वा ९७० वीतशोकाभिधानाया ६०।६९ विश्रम्य यत्र ते सौम्या ४६।१७
वीरनिर्वाणकाले च ६०४८७ विश्रम्य च क्षणं वीरौ ६२।१५ वीरस्य केवलोत्पादः ६०२५५ विषकण्टकशस्त्राग्नि- ५८।१५१ वीरस्य गणिनां वर्षा ६०४८२ विषयस्यामनोज्ञस्य ५६७ वीरस्यैकस्य निर्वाणः ६०।२८२ विषहते स्म वियोगविषं १५।३ वीरस्यकस्यनिष्क्रान्तिस् ६०॥३५० विषयायामवृद्धिश्च ५५५१ वीरकेवलिनां कालो ६०।४७९ विषयायामवृद्धयाद्यो ५।५४९ वीर ! कि स्वपिषि ६३।१० विषये पुष्कलावत्या ४३।९० वीरभद्रगुरुश्चागात् ३३१५९ विषादविषदूषितं ५११४५ वीराख्यो गङ्गदत्तश्च ५२१३३ विष्कम्भत्रितयं ज्ञेय- ५।५०४
वारऽवतरात त्रातु २०२० विष्णुगीतक्रमोद्देश- १९।२६४ वीरको ह्येकपत्नीकस् १४६८० विष्णुरूचे स्वयोगस्था २०४७ वीराङ्गदे च कटके ११।१४ विष्णुश्रीविष्णुराजश्च ६०।१९२ । वृकोदरोऽवदद्दोभि- ५४।६६ विसृष्टाश्च यथास्थानं ५३।४८ वृक्षादिच्छेदनं भूमि- ५८।१५० विसृष्टश्चापि गङ्गायां २४।३४ वृणीष्व रोहिणीशं तं ३१०२२ विस्मयं परमं प्राप्ताः ४८१३५ वृत्तवृद्धय विशुद्धात्मा ९।१८९ विस्मितः स्वयमेवासौ १९६५ वृद्धः शीतमयूखस्य ९।२ विस्मृतन्यस्तसंख्यस्य ५८.१६८ वृद्धसेवाविवृद्धा मे २१॥६० विस्रब्धा भयमुज्झित्वा ५४।२८ वृषभस्य विनीतायां ६०।२१५ विस्ताररहिता सूची ५।४८६ वृषभस्य श्रेयसो मल्लेः ६०।२५६ विस्तारेणार्णवस्पर्शी ५।३ वृषभस्य सुतो भोऽहं ११४८ विस्तीर्णोन्नतगम्भीर- २३१७२ वृषभश्चैत्रकृष्णस्य ६०।१६९ विहरन्नन्यदा यातः २७१७ वृषभे भरतश्चक्रा ६०।२९४ विहरन्नथ नाथोऽसौ २०५७ वृषस्य वासुपूज्यस्य ६०१२८० विहरत्युपकाराय ३।२१ वृषमल्लीशपार्वाना- ६०१२५३ विहारा तु गृहीतायां ५९।१०८ वृषच्छद्मस्थकालोऽत्र ६०१३३७ विहाराभिमुखेऽगाग्राज् ५९।१ वृषाद्या धर्मपर्यन्ता ६०।३२४ विहिततत्समयोचित- ५५।७३ वृषो धर्मश्च शान्तिश्च ६०११६४ विहृत्य पूज्योऽपि महीं ६६।१४ वृषो दशसहस्रस्तु ६०।२८५ विहृत्य चिरमुद्यानं ४३११८ वृषोऽजितोऽपिच श्रेयान्६०।२७६ विहृत्य चिरमीशानः ६१।१३ वृष्णिदीक्षां तथा राज्यं १७९
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वृष्णिरप्यागतो भक्त्या १८०३३ वेगश्रमागतस्वेद- ३४।३० वेगा वेगवती मात्रा ३०३६ वेगाद्विपाद्य तां भस्त्रां २१।११० वेणुश्च वेणुदारी ता ५।१९० वेणदारी च विक्रान्तो ५०८५ वेत्रासनमृदङ्गोरु वेदाध्ययननिर्घोष- २३।२४ वेदार्थभावनाजात- ४३।१०२ वेदाध्ययनसक्तानां १७१४१ वेदिकान्तरदेशेषु ५।१८३ वेदिकाबद्धवीथीषु ५७४६७ वेदिकाभ्यन्तरे कान्तं ५।३८१ वेद्यते वेदयत्येवं ५८०२१६ वेदोत्पत्तिमुपाख्यानं १९८३ वेद्यमेक मनुष्यायुर् ५६।१०७ वेलायां तत्र संमन्व्य १४१७७ वेश्ममूलशिलापीठ- ६९२ वैक्रियास्तु सहस्राणि ६०४१४ वैक्रियाश्च सहस्राणि ६०१४०१ वैचित्र्यमेतदवगम्य भवस्य४६५९ वैजयन्त्यं शिवं ज्येष्ठं ५७५८ वैजयन्तादयो देवा ५५४२९ वैणाश्चापि च शारीरा १९।१४६ वैडूर्ये विजया देवी ५७०५ वैडूर्यमयनीलस्य ५४९९ वैताड्येऽस्ति नृपः श्रेण्यां२११२२ वैताड्यवृत्तवैताड्यास् ५।५८८ वैदिकार्थविचारोऽयं १४९५ वैनयिकं विनेयेभ्यः २११०३ वैपरीत्यं ततो ज्ञात्वा ४७१५८ वैपञ्ची वैणिकश्चैव २२।१३ वैभवी विजया ख्याति ५९।६९ वैभारो दक्षिणामाशां ३५४ वैयावृत्त्यप्रवृत्तो यः १८।१५६ वैयावृत्त्यमहानन्द १८।१५९ वैरबन्धमिति ज्ञात्वा २७११२६ वैशाखस्यापुनात्सिया ६००२७० वैशाखस्येव शुद्धस्य ६०१२२७
श्लोकानामकारानुक्रमः
८७९ वैश्यस्य धनदेवस्या- ६४४११९ शङ्खचक्रगदापाणिर् ६५।५३ व्यक्तियोग्यत्वसद्भावा-५८।२२५ शङ्खपो ज्वलन्मौलि- ५९।६३ व्रजन्ति खलु जन्तवः ५२।९३ ।। शङ्खभेरीहरिध्वान- २२७ व्रजति नित्यमुखे सुमुखे- १५:१५ शङ्खवज्रच नाभान्तं २२।९६ व्यजिज्ञपत् ततस्तं सा २९।४० शङ्खच शङ्खखचितस्य च५३।५० व्रतगुणसंयमोपक्सनादि- ४९।२५ शङ्खतूर्यरवस्यान्ते ३१११९ व्रतगुप्तिसमित्यक्ष- ४७।११ शङ्खानां निनदं श्रुत्वा ५१।२१ व्रतगुणशीलराशि रति- ४९।५१ शङ्खावर्तसमग्रीवा ८।१९ व्रतानां रायभुक्तेश्च ६४।७१ शङ्काविषसमापन्नान् ६५।३० व्यतिक्रान्तेयु बहुषु २९।६ शङ्खो यातोऽन्यदादाय ३३।१४५ व्यतीतशोकनामान्यो ६०११६३ शतमखप्रतिमाः शतशस्ततः१५।६० व्यपहृतभूषणस्रगिय- ४९।२२ शतमेव पुनर्जेयम् ६०१३४२ ब्यपनीय प्रियाश्लेष- ३०४ शतयोजनमाकाशं ५।१३९ व्यपगतेषु नृपेषु बहुव्वतः१५।६१ शतयोजनमानः स्यात् ५।४५ व्यतिक्रान्तो जिनादेश- ६११४७ शतं कोटीभिरष्टाभिः .१०१४५ व्यर्थिकाः शवशरीर- ६३१५५ शतं चतुरशीतिश्च ४।९२ व्यन्तराः सुन्दराकारा ५७।१५६ शतानि तनयाः पञ्च .४७।२९ व्यवस्थायां विधाता त्वं ८२०८ शतानि त्रीणि षष्टया तु११।१२४ व्याख्या प्रज्ञप्तिहृदयं २।९३ शतद्वयं च पञ्चाशद् ४।३३८ व्याधपूर्वोऽपि सप्तम्या-२७।११८ शतं द्वावनत दिक्षु ४९० व्याधिमिथ्यात्वसंपात- ६४॥४५ शतं पञ्चशता पञ्च ६०॥३८४ व्यापी विजयविस्तारः ५१५४६ शतं रासभराजानां ६०॥४९० व्यामिश्राण्यपि सद्रलैः २७४४० शतं लक्ष्मणकौमार्य ६०५३१ व्यामोह्य पौरलोकं च ४७।१०९
शतं षण्णवतं दिक्षु ४१८९ व्योम्नि दुन्दुभयो नेदु- ५२१६७ शतं षष्टयाधिकं दिक्षु ४।९८ व्युत्सृष्टापरसङ्घसन्तति ६६५४
शतानि द्वादश प्रोक्ताः ६०॥४२३ [श ]
शताध्वरभुजोद्धृतैर् ३८५२
शतानि द्वादशैव स्यात् ५।५३१ शकटाकृतयः सर्वे ११११२
शतानि नव धर्मस्य ६०॥४०४ शक्तस्य शातने शेष- ५६।७४
शतानि नव तत्रापि ४।१४९ शक्तस्योपेक्षमाणस्य १८।१४८ शतानि नव सैकानि ५७५ शङ्ककर्णा महीपालाः २३३१०१ शतानि नव गत्वोध्वं ६२
२०६७ शतानि नवविंशत्या ६०५३३ शक्रप्रशंसनादेत्य १२।३० शतानि नव विज्ञेयाः ६०॥४२६ शक्रचक्रिगणेशत्वं ३४१६३ शतानि पञ्च तुर्यस्य ६०.३७१ शक्रस्य लोकपालानां ५।६६१ शतानि पञ्च कौमार्य ६०५१० शक्राज्ञया प्रतिदिनं १६२ शतानि पञ्चविंशत्या ५।४२ शकुनिर्यवनो भानु ५०।८४ शतानि षोडशैव स्युर् ६०।४१५ शक्तुयुः सुखमाहर्तु ६५।४९ शतानि षोडश ख्याताः६०।४२२
शङ्कनेव ततः कर्णे
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८८०
हरिवंशपुराणे
शतानि षोडशाद्री तु ५११५४ शतानि सप्त पञ्चाशद् ६०।४२९ शतानि सप्त गत्वोध्वं ६१ शतानि सप्त कालेन ३।४८ शतान्यवधिनेत्रास्तु ५९।१३० शतान्यर्द्धचतुर्थानि सहस्रा-५१५२२ शतान्यर्द्धचतुर्थानि ५१५२० शतान्यष्टौ जयेनामा १२।५० शतान्यष्टौ सहस्राणि ६०॥३७२ शतान्यष्टादशोत्सेधो ७।१७१ शतान्येकादश ज्ञेया ६०॥३९९ शतारश्च सहस्रार- ६॥३८ शतारे पञ्चपञ्चाशत् ६७२ शते दत्तस्य कौमार्य ६०५३० शतेनाष्टसहस्राणि ६६६ शत्रुघ्नो जितशत्रुस्ता ३३।१७१ शत्रुञ्जयो महासेनो ५०११३१ शत्रुमुत्प्लुत्य कंसस्तं ३३।१० शत्री मित्रे सुखे दुःखे २२।२९ शनैः स प्रेरितस्तेन २५।२५ शनरुत्थाय गच्छन्त- २१२९६ शनैर्याति ततः काले १२१७ शनैश्चरविमानानि ६२१ शब्दगन्धरसस्पर्श- १०११४८ शब्दभेदेऽर्थभेदार्थो ५८।४८ शब्दरूप रसस्पर्श- ४३।१९७ शब्दस्याथं स्वतो वेत्ति १७।११९ शमयति रिपुलोको ३६।७५ शमितशोकभरा वचन-५५।१३३ शमितान्यकषाया ये ६४।६२ शम्बः क्रीडासु सर्वासु ४८।१० शम्बाद्यास्तु तदानेके ६११६८ शयने सर्वतोभद्रे ६५।३७ ।। शयनासनवस्तूनां १११११८ शय्यासनविधौ काश्चिद् ८1५० शरः पपात वज्रागो १११७ ।। शरदभ्रावलीशुभ्रे ८५७ शरद्वीपश्च राजाऽसौ ४५।३० शरभसिंहवनद्विपयुथपान ५५।९१
शरान् शत्रुञ्जयोत्क्षिप्तान् ३१३९५ शा8 स षोडशसहस्र- ५३१५३ शरावपर्वते लेभे ४७१३८ शालशैलमहावप्र- २।११ शरीरभोगसंसार- ६४।७ शालः कुण्डपुरं वीरः ६०।२०५ शरीरपञ्च कस्यास्य ५८।२४७ शालास्त्रयोऽप्यमी त्वेक-५७१६४ शरीरमपि संन्यस्तं ९।१२० शालीक्षुक्षेत्रनिक्षिप्त ७।११२ शरीरमशुचिर्भोगाः ५६०४६ ___ शासनस्थितिविद् विद्वान् १८४१५५ शरीरं दर्शनं ज्ञानं १८।१५४
शास्त्रव्यसनिनो मेऽभून् २११३९ शरीराकृतिनिर्वृत्तिर् ५८।२५२ शास्त्रकौशलतायुक्तो २९।२९ शरीरान्तर्मलत्यागः २।१२६ शास्त्रार्थी स्त्रीप्रियोनित्य-२३१७५ शरैः शरान् निवार्यासौ ३१।९१ शिक्षकाःविशतिःप्राप्ताः६०॥३८३ शर्मा च कृतवर्मा च ६०।१९४
शिक्षकाः षट्शतैः साधी६०।३६३ शल्यं रथेन सम्प्राप्तं ३१४९८
शिक्षा लक्षाः तृतीयस्य६०।४४४ शशलोहितसंकाशैर् ५२।२१ शिखरे च गिरेस्तस्य ५।१४५ शशाङ्कविशदैरश्व- ५२।१० शिखावलीलीढनभस्त- ३७।४२ शशाङ्कस्य करस्पर्शान् १४।९८ शिखाकरालं शिखिनं ३७।२१ शष्कुलीकर्णनामानः ५।४७३ शिखिहंसगरुत्मत्स्रक् ५७।४४ शस्त्रजालकरच्छन्न- २५।५६ शिरःप्रकम्पितं प्रोक्तं ७।३० शस्त्रशास्त्रकठोरापि ४३।१६६ शिलाबलेन विज्ञातो ५३१४० शस्त्रशास्त्रार्थनिपुणाः ५०८० शिलायां तत्र कृत्वादौ ५३१३४ शस्त्रशास्त्रार्णवस्यान्ते २५।२४
शिवा च रोहिणी देवी ५८।३०९ शस्त्रार्थः प्राकृतैर्योधाः २५।६२ शिवादेव्याः सुतोत्पत्तौ ११९६ शंभवे वा विमुक्तौ वा २५ शिशुमारमुखाश्चैव ५।५७० शाकेष्वब्दशतेषु ६६१५२ शिशुमुद्धृत्य बाहुभ्यां ४३।४३ शाण्डिल्याकृतिरूपोऽद्य २३।१३३ शिशोनिरञ्जनस्यास्ये ८।१९४ शातकुम्भमयस्तम्भो ८।३।। शीतदीधितिरस्ताभो ७।१३७ शाधि कि करवाणीश १११११
शीतलस्य चतुःशत्या ६०।३९१ शान्तक्षीणकषायौ तौ ५८/२०१
शीतापि च यशःकूटे ५७१४ शारीरं मानसं सौख्यं ५८।२३०
शीर्णः शरज्जलधरः १६:३२ शान्तचितं कदाचित्तं १४९
शीलप्राकाररक्षाऽह- ३०।१२ शान्तये नाम लोकस्य ५०५०
शीलमात्रमहाश्वासा ५४।३५ शान्तस्यापि च वक्रोको ११३६ शीलव्रतरक्षायां ३४।१३४ शान्तायुधसुतः श्रीमान् २९।३६ शुकवर्णसमैरश्वै- ५२।६ शान्तिकुन्थ्वरनामानः ६०१२०९ शुकान् परभृतान् क्रौञ्चान् ८।१३८ शान्तेर्माण्डलिकत्वे तु ६०५०५
शुक्रशोणितकुबीज- ६३।८५ शान्तेःसिद्धितिथिःसिद्धा६०।२७१ शुक्रे विंशतियुक्तानि शापितश्चास्य दास्याहं ३३१५४ शुक्लध्यानसमाविष्टा ६५।२२ शारीरं मानसं दुःखं ४।३६५ शुक्ल: सोमसुतस्यैव ५२।१७ शार्वरं तिमिरमुग्र- ६३।२८ शुक्लं तत्प्रथमं शुक्ल- ५६।६३ शाी शक्तिगदाद्यानि ५३३६१ शुक्लं शुचित्वसम्बन्धाच् ५६।६३
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शुक्लाष्टम्यां हि माघस्य ४२।६१ शुक्ले पञ्चसहस्राणि ५।४३७ शुचिशीतलतीर्थस्य १११२ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु ३।४२ शुद्धज्ञानप्रकाशाय ११२ शुद्धदेवीयुतान्याहुर् ६।१२१ शुद्धप्रकृतिरत्यन्त- ४२७ शुद्ध मौक्तिकसंघात ९२१५ शुद्धवृत्तं न भोगेषु २०४८ शुद्धं दर्शयता भावं २११३२ शुद्धस्य मार्गशीर्षस्य ३४।१२९ शुद्ध श्रेणिक ! शीतलस्य १३०३४ शुभपरिमलसद्यस् ३६।२७ शुभः पुण्यस्य सामा- ५८।११५ शुभलक्षणपूर्वस्य २३।११९ शुभंयवो नमन्त्येत्या ५९।९२ शुभायुर्नामगोत्राणि ५८।२९८ शुभात्मपरिणामेन ५८।२३२ शुभाम्बुपूर्ण जलपुष्प- ३७।१५ शुम्भद्रत्नमहास्तम्भ- ५।३६१ शुष्का तद्गतवेलाया ४३।२३४ शंकरासुरतः शङ्ख ४७१३९ शून्यानि दश पञ्चातस ६०।३२८ शून्यान्यमोचितागार- ५८।१२० शूरः सुवीरमास्थाय १८०९ शूरश्चापि सुवीरश्च १८८ शूरसेनस्तमादर्य ३३।११५ शूरसेनश्च सप्तते ३३।९८ शूरसेननृपे पाति ३३।९६ शूराश्चान्धकवृष्ण्याद्याः १८।१० शूराणां भूतलस्पशि ५९।२५ शूलवाधाश्च दारिद्रयं २३१७३ शृङ्गमेवमचलस्य ६३७३ शृणु देव ! नमेवंशे २५।२।। शृणु देवास्ति शैलेऽस्मिन् २३।३ शृणु त्वं दक्षिणश्रेण्या २६५० शृणु कारणमेतस्य १९७९ शृणु त्वं धीर ! विश्रब्धो२९।२३ शृणुत विनुत राजा ३६५६
१११
श्लोकानामकाराधनुक्रमः
८८१ शृणोमि चरितं सर्व ३३१९५ श्रावणस्यासिते पक्षे २२९१ शृण्वन्तु मद्वचः सन्तः १७।११४ श्रावणे शुक्लसप्तम्यां ६०२७३ शेषपुष्पफलाहाराः ५।४८३ श्रावस्तीसंभवः सेना ६०११८४ शेषोभयान्तकूटेषु ५।२२६ श्रावस्त्यामस्ति विस्तीर्ण- २८.५ शैलं वृषभसेनाद्यः १३१६ श्रित्वा मदनवेगाया २६॥४४ शैशव एव जनातिगसत्त्वः३९।१२ श्रियं ह्रियं धृति बुद्धि २२।११ शोकवानपि चित्तेन ४३३८१ ।। श्रिया च धृतिराशया ३८।३५ शोकभारमपनीय ६३।३१ श्रीकान्ता प्रथमा वापी ५।३४४ शोकारातिभयोद्वेग- ५६।११ श्रीचन्द्रसुप्रतिष्ठाद्या ४५।१२ शोचनं यद्विपाकात्स- ५८।२३६ श्रीचन्द्रात्मजराजोऽसौ ३४.४५ शोणवर्णैर्हयैर्भाति ५२।१२ श्रीचूलारत्नभा चक्र- ५७।१८ शोधिते बहवो मत्स्याः ३३१५६
श्रीधरं धर्मसंज्ञं च ६०११७ शोभनाभिनयं काचिद् ८।४५ श्रीधरस्य सुरेशस्य ९१५९ शोभयाहृतचित्तं त- २३।२३
श्रीधरापूर्वको देवः २७।९१ शोभन्ते तद्विपार्वेषु ५७४५१
श्रीधर्मानन्तवीर्याख्यौ ६००२१ शौरिपक्षतया केचित् ३०१३५
श्रीध्वजो नन्दनश्चैव ४८०६७ शौरिरश्वरथारूढः २२१७ श्रीप्रभश्रीवरी नाथौ ५।६४० शौरिर्मदनवेगां ता २६१६५ श्रीभूतिरिति भूतोऽन्यः ६०१५६४ शौरिस्तदा नियुक्तस्तु ३०४८ श्रीमण्डपस्थितान् सर्वा- ३२।११ शौरि हिरण्यवत्याह २२।१४२ श्रीमन्तं प्रवदन्तीमं २२।१४३ शौरमंदनवेगायां २६।१ श्रीमतामनुरूपं 4- ८१ शौयप्रभावसुवशीकृत- १६॥३६ श्रीमती वज्रजङ्घाभ्यां ९।१८३ शौर्यशैल! तवोत्तङ्ग ३११११२ श्रीमतोऽस्य महाराज ३।१८६ श्मशानास्थिकृतोत्तंसा २६१६ श्रीमातङ्गान्वयव्योम- २२।११२ श्यामयाशनिवेगस्य २२११४४ श्रीललाटस्य नासायाः ९।१२ श्यामाककणमात्रो न ५८१३२ श्रीलक्ष्मीधृतिकीाद्या ८१३९ श्यामाया वचनं श्रुत्वा १९।९५ । श्रीवत्सलक्षणेनोरु ९।९ श्यामामादाय संप्राप्तः ३२।२७ श्रीविद्यु दिक्कुमारीभिः ८.९० श्यामिके स्त्रीवधो लोके १९।१०५ श्रीवृक्षलक्षितोरस्के ११।१३५ श्रद्धादिगुणसंपूर्णः ९।१८६ श्रीव्रतो व्रतधर्माच ४५।२९ श्रद्धावान् सुप्तसिद्धोऽदिर् ५।२३० श्रीशचीकीर्तिलक्ष्मीभिः ८।१९५ श्रद्धावान् विजयावांश्च ५।१६१ श्रीशीतलादिह परेषु १६।१ श्रद्धेयपरलोकस्य ५६।२३ श्रीसनाथैस्ततः सर्वैर् ५९।६२ श्रमजवारिलवाञ्चित- ५५।१२ श्रीहास्तिनपुरं प्रीत्या ५३।४६ श्रमप्रस्विन्नसर्वाङ्गौ १४।१०४ श्रीहास्तिनपुरं रम्यं ६०१२३९ श्रमादिप्रभवात्मानं ५८।२२८ श्रुतगुरुरसि विद्वान् ३६।२१ श्रवणादपि पापघ्ना ३४।५१ । श्रुतज्ञानविकल्पः स्यात् १०।१४ श्रवणीयं वचः श्रुत्वा ३४/४० श्रुतं च स्वसमासेन १०११२ श्रान्तोऽत्यन्तं कुमार! त्वं१९६३५ श्रुतं शब्दात्मकं विश्वं ९।१०७
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૮૮૨
हरिवंशपुराणे श्रुतानुभूतवार्तादि ३०४१ श्रेयान् सोमप्रभश्चेति ४५७ श्रुतितूलततो वृद्धौ ३१।१८। श्रेयोदानयशोराशि- ९।१९३ धतीन्धनसमृद्धोऽनु- ४२।६९ श्रेष्ठी तु कामदत्तोऽव २८.१८ श्रुत्वा कन्यापिता क्रुद्धः ४४।१३ श्रेष्ठी सुरेन्द्रदत्तोऽभूद् १८१९८ श्रुत्वा कंसभवान्तरं ३३।१७४ श्रोत्रं गीतरवे रूपे ७९७ श्रुत्वा कंसोऽपि शङ्का ३३।३८ श्लाघात्मधम्मिल्ल- ३७।४४ श्रत्वा क्षीरकदम्वोऽपि १७।४३ श्लक्ष्णधीः इलक्ष्णरोमा- ४४।२० श्रुत्वा चकितचित्ता सा ५४।१९ श्लिष्टांगुलिदलौ गूढ़- ८९। श्रुत्वा च तत्तया तेऽपि २४७६ श्वस्तन्यां कृतसङ्केतो २९।६३ श्रुत्वा गजकुमारोऽसौ ६०२ श्वसुरोऽशनिवेगोऽसौ ५२२ श्रत्वा गोत्रक्षयः सोऽपि ६२।४८ श्वसुरास्तस्य यावन्तः ३१।१३१ ध्रुत्वा तत्सत्यभामोने ४३।१६ श्वापदानि पदशब्द- ६३॥३५ श्रुत्वा तद्विशतक्षत्रै- ३३।१६३ श्वेतभानुरयं किन्नु ९।१४६ श्रुत्वा तां घोषणां श्रव्यां ३३८ श्वेतच्छत्रैर्ध्वजैश्चित्र- ८।१४० । श्रुत्वा दधिमुखस्योक्तं २५।४५ श्वेतैर्मुक्तादिभिर्भूमि ७७३ श्रुत्वा देवनिकायेभ्यः ९।१९७ श्रुत्वा नारदमाकाशे ४७।९३ श्रुत्वा सभाजनाश्चापि ४८०३४ षट्कला भरतज्योत्स्ना ५।४० श्रुत्वेति खेचरास्तस्थुर- ३४।२६ षट्कर्मणां विधातारं १७।१३० श्रुत्वेति चारुदत्तीय २१११८४ षट्कर्मसु प्रजाः प्राप्ताः २३।३६ श्रुत्वेति जरतीवाक्यं ४०।४२ षट्खण्डप्रभवः केचिद् ३।१७२ श्रत्वैवं कृपया तेन २८।२५ षड्गुणास्तेषु विज्ञेया १९।२१६ श्रुत्वैवं शब्दमात्रेण २३१३२ षट्चत्वारिंशदोषा ३४।१०८ श्रूयतां सुकुमारि द्वे ६४।१२५
षट् च चत्वारि च ५।३६७ श्रेणिकेन पुनः पृष्ट- ५४.१ षट्षष्टि द्वे शते दण्डा ५।४४० श्रेणिकेन तु यत्पूर्व २।१३६ षट्योजनसहस्राणि ५।५०० श्रेणिकोऽपि च संप्राप्तः २०७१ षट्सहस्राणि विपुलां ६०।३९० श्रेणिकोऽपि गुणधेणि २।१४२ षट्शतानि सहस्राणि ६०॥३६८ थेणीबद्धान्तरं चास्यां ४।२४८ षट्संस्थानभृतो मास् १८७२ । पिनद्धानि चैतानि ४।११६ षट् च षष्टिसहस्राणि ६।२८ पाणबद्धानि चामनि ४।१२७ षट्युगलेषु शेषेषु ॥१०१ श्रेणिबद्धान्यमूनि स्युः ४।१०३ षट्त्रिंशत्पदलक्षाभिः १०१६३ श्रेण्यां तु दक्षिणस्यां २२।१०१ षट्त्रिंशं हि शतं दिक्षु ४।१०७ श्रेण्योः स्युनगराण्येषां ५।२५६ षट्त्रिंशच्च महादिक्षु ४।१३८ श्रेयःप्रभृतिधर्मान्तान् ६०।२९९ षट्त्रिंशच्च तथा लक्षाः ४।१८० श्रेयः श्रेयस्करतीर्थ ५७।११५ षट्त्रिंशच्च शतानि स्याद् ५।६० श्रेयसा पात्रनिक्षिप्त- ९।१९५ __ षट्त्रिंशच्च सहस्र च ५।६४८ श्रेयसि श्रेयसा पात्र ९।१९० षट्त्रिंशच्च सहस्राणि ५९।१३३ श्रेयसो दानधर्मस्य ८२१४ षट् पञ्चाशद् द्विकोत्थे ३४।७७
षट् पञ्चाशं शतं दिक्षु ४९९ षट्पञ्चाशन्महादिक्षु ४१३१ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि १०॥३६ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि ५।२७७ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि ५७१४७ षट्पञ्चाशद्दिनानि ६०॥३४० षट्पञ्चैकस्वरास्तानाः १९।१६९ षट्पञ्चाशत्सहस्राणि ५।५३३ षट् चापविस्तृतान्येषां ५।३८४ षट्लक्षाः पञ्चलक्षाश्च ६०/४७२ षट्शतैकान्न पञ्चाशत् ६८८ षट्शतानि सहस्राणि ६०।४०५ षट्शतानि च कालोदे- ५।५६४ षट्षष्टिदिवसान् भूयो २०६१ षट्षष्टिवर्षलक्षाभिः ६०।४६९ षषष्ट्या षट् कोदण्डा ४।३३६ षट्सप्तत्या शतं दिक्षु ४।९४ षट्स्वराश्चव विज्ञेया १९।१८७ षट्स्वरे सप्तमस्त्वंशो १९।१९० षट्सप्तति कलाषट्कं ५।१५३ षट्सु कालेषु पल्याष्ट ६०१४८४ षट्सहस्रनृपस्त्रीभिः ५७।१४६ षडे तु परमा यासौ ४।२८५ षड्गुणः स्वावगाहस्तु ५१५०७ षड्जश्चेतुःश्रुतिश्चैव १९६१५९ षड्जश्चाप्यृषभश्चैव १९।१५३ षड्जश्च मध्यमश्चैव १९।२२८ पड्जेनोत्तरमन्द्रा स्याद्१९।१६५ षड़जौदीच्यवती चैव १९।१८४ षड्जमध्या तथा चैव १९।१७५ षड्जश्चतुःश्रुतिश्च १९११५६ षड्जपञ्चमहीनं च १९४२२२ षड्जमध्यास्तु सर्वेषा- १९।२३१ षड्जमध्यमयोश्चात्र १९।२४३ षडप्यविघ्ना वसुदेवपुत्रा ३५४८ षड्भिः कर्मभिरासाद्य ९।४० षड्योजनी सगव्यूता ५।१४० षड्योजनानि गव्यूतं ५।१३६ षड्रसान्यतिमृष्टानि ७८५
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पड्वलक्षपरिमाण- १६।७७ षड्विंशतिसहस्राणि ५।५२३ षड्विंशतिधनूंष्येष ४।३२२ पडेताः सप्तभागेन
४१२०
पण्णवत्या नवशती
६१८३
९।१४२
षण्मासानशनस्यान्ते
षण्मासवसुवृष्ट्या च
पष्टियोजनविस्तीर्णं
षष्टिवर्षसहस्राणि पष्टिरागाहोऽपि
षष्टिरेव महादिक्षु पष्टिर्वर्षसहस्राणि पष्टिर्वणि तद्राज्यं
पटिसहस्राणि
पटभभूतां दीक्षा
पाष्टमादपण्मास
पोडशस्य सहस्राणि
षोडशेष्वपि चैतेषु
षोडशैय महादिनु पोडशैव सहस्राणि षोडशोद्गमदोषैश्व
[स]
संगताश्च समस्तास्ता संगत्याङ्गारकः स्वैरं संग्रहादधिकारैः स्वैः
८१९४
५।१४२
२५।३३
६।९६
४३।२०७ पष्टादय: सहामीषां ५९।१२३ षष्ठीतस्तु विनिर्यातो ४/३७९ पण्ठे दशोपवासाः स्यु- ३४।१०६ पठो गणधरो धीमान् १२१५६ पटोपवासिनि परेद्यु १६।५९ पट्यां सुपार्श्वनाथस्य ६०।२६७ पट्यां च कृष्णयैवोर्ध्व ४१३४५ पाड्जी स्यादापभी
१९।१७४
पावें तो नास्ति पोडमानो निकायानां
पोडशानां सहस्राणां
पोडशाग्रं तं दिक्षु पोडावस्या
४।१३०
६०१३२३
६०१४८८
६०।४९५
६०१२१७
१९।१९२ २२६१
४२।५२
४।११२
८।२९
५७७
४७।४४
४११४५
६०।३८१
९।१८७
५।२७८
१९९८
१।७३
श्लोकानामका राद्यनुक्रमः
संग्रहेण विभागेन
११७४
संघः परिषदि श्रीमान् १२।७१ संघः सप्तविधः पूर्व- ६०१३५७ संघावष्टसहस्राणि ६०१३८६ संक्लिश्यते विषयभोग- १६।४४ संकोचः पद्मखण्डानां १४।७४ संजयन्तचरितं जगत्त्रये २७।१३९ संजयश्चरमस्यासीत् १७।२८ संजयं च जये सक्तं ३१।२९ संजयोsरिञ्जयो नाम्ना २२।१०४ संजातो वज्रदंष्ट्रोऽस्मा- १३।२२ संपात तयोजतिः ३१।७३
४७३
संपूर्णावयोगत्वा संपूर्णैर्धनिनः पार्श्वेर् २३/७० संपूज्यमानचरणो नृसुरा ४६३६१ संभावयामि नेदृक्ष- ८१२६ संमान्य भ्रातरं तस्या ४४।१८ संभ्रान्ते तू जघन्येयं संभ्रान्त्यान्वित लोकस्य
४।२५४ ९।१७४
३०।५७
१९५०
संप्रयुक्तमपि वल्लभैः संप्राप्य प्रातराक्रन्दसंप्राप्तश्च त्वमस्माभिः संप्राप्तः कुरुभोजाद्यसंप्राप्ति चारुहासिन्या
२५।४३
९।२१४ ११८४ संप्राप्ते दिवसे तस्मिन् १९१३२ संप्राप्तोऽथ सदा दानैर् ९।१५७ स आह वर्धते वैरी
२५।१९
स एवैकेन्द्रियादीनां
स एप नारदो राजन् स एष बन्धुमध्यस्थो
स एव च सहस्रानो सकषायाकषायौ द्वौ
सकलयदुमनोज्ञं सकलश्रुतमत्यवधि
१८।७४
४२।२४
४३ । १२४
५।२९३
५८/५८
३६।५८
३९।१
सकालयवनः काल
५२।२९
५०१२३
स कथं युधि जीयेत सकृत्क्षुतं धनेशानां २३।१०२ सकुलशैलसर : सरितांतया १५/३६ सकृदपि जीवघातकृद- ४९११८
८८३
सकेवलावधी सङ्घौ ६०।४२५ स कृष्णैकादशी पार्श्वः ६०।१८० सक्रियाः शतधाशीत्या १०।४८ सक्रोशोऽपि च सत्रिंशद् ५।५९२ स खलु पश्यति तत्र तदा५५।८५ स खलु खेचरराजसुतं सुरः १५।४८ सखीभिः क्रीडितुं याता ६०६६ सखीनामभवत्तुङ्ग
४४।१२
सखे खर्वटाटोप
२३ २३।१३९
सगरः क्षत्रलोकेन सारस्य प्रतीहारी
२३।५०
स गतीन्द्रियषट् काय
५८ ३६
स गत्वा पञ्चनवति
५।४३६
स गान्धार्या कृते प्रश्ने ६०।८६ स गोपति दृप्तमशेष घोष - ३५।४७ स गौरवमिमौ दृष्टा ४४/३९ स गौरीश्यामयोर्मध्ये
९।१९
८१६३
सघटैः सुरसङ्घातैर् सचतुर्गोपुरातोऽन्तर्
सचतुर्गोपुरातोऽपि
स चन्द्रसंदर्शनतः
५७/५४
५७१४१
३७/३२
१८१७४
५।४९२
४।१९९
५८।१८२
२८|३२
५०।३२
३३।८८
५८।७०
२३।६२
९।१८
३।५५
स जगत्त्रयरूपिण्या सज्यचापाकृतिस्तस्य सज्यतां सुलवु ६३।५७ सज्जीवभाववित्को वा १०।५५
स तत्र यूनि व्यवसायिनि ६६।३ स तत्र विधिनानीय ६२।३१ स तदुःखविधानाय सत्यवादी नरेन्द्रस्य सत्यमेव विगतोऽ
५४.७
२७।२२
६३।६७
स चाराध्य महाशुक्रे
स चाष्टाविंशतिर्लक्षाः
स चाष्टादशलक्षास्ताः
सचित्ताहारसंबन्धसचिवस्तस्य निस्तीर्ण
सचिवानपकर्ण्याशु सचिवोपायतस्तस्या
सचेतनानुबन्धो यः सच्छिद्रो सकषायौ च
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८८४
हरिवंशपुराणे
सत्यवचोनिवहैः सुरसंघा ३९।१५ सत्यदेव इति ज्ञेयः १२॥६२ सत्यभूतः स्वयं जीवो ५८१३० सत्यमेतद् द्विज! ज्ञातं १९।११८ सत्यपि व्रतसंबन्धे ५८४१३५ सत्यं यदि मयि प्रेम ४२१७१ सत्यं ब्रूहि हितं साधो! २४/१८ सत्यभामादिदेवीनां ४८।२१ सत्यभामागृहाभ्यर्ण- ४३११ सत्यभामा त्वियं रूप ४२।२९ स त्वं पामरको विप्रः ४३।१२५ सत्वरं स ततो गत्वा ४४०२२ स ताडवीस्पष्टकृताट्टहासां३५।६९ स तामुत्तीर्य संप्राप्तस् ३०१४३ स तां पप्रच्छ शङ्कावान् १९:४३ सत्या सुतार्थमानीतां ४८।१९ सत्यातिमुक्तकादेशं १९८९ सत्यां क्षित्यादि सामग्रया१७।१२८ सत्येन थावितेनास्या १७८१ सत्संख्याद्यनुयोगैश्च २।१०८ सत्रमध्ये व्यवस्थाप्य २५।२२ स तोषमपरेऽपि ते ३८५३ स दक्षः शौर्यसम्पन्नः ५०५७ स दक्षं दक्षनामानं १७।२ सदसदनेकमेकमथ नित्य-४९।४८ सदसल्लक्षणस्यापि ५८।२०६ सदर्थमसदर्थं च ५८।१३० सदपि दुरीहितं रहसि हिं४९।३६ सदवक्तव्यजीवज्ञो १०५६ स दष्टोऽमोघमन्त्रेण २९.५० सदःसागरसंक्षोभ- १७४९१ सदसि सभ्यकथामृत- ५५४२ स दध्यौ च स्वयंबुद्धौ ९५० स दिव्यध्वनिना विश्व- १९० स दुर्जयवने लेभे ४७।४३ स दूतोऽजितसेनोऽपि ५०॥३७ स दृष्टि मुष्टिसन्धान- १११६ सदृगाजीवकानां च ६।१०४ ।
देवः सर्वदेवेन्द्र- ५९।३४ ।।
स देवकीमानसतापकारी ३५।३३ सद्गन्धाकृष्टसंभ्रान्त- ५९।५४ सद्गन्धस्य सुवृक्षस्य ४५।१३८ सद्गुणाच्छादनं निन्दा ५८।११३ सद्धर्मदेशना जैनी ३।१८० सदृष्टिज्ञानचारित्र- ३३१०१ सदाप्तवचनादेव ३१०३ सद्ग्बोधक्रियोपाय- ३।६७ सद्भद्रिलपुरे राजा १८।११२ सद्भावं दर्शयन्तीह ९।५२ सद्भावोत्पत्तिविद् वा १०५७ सद्भूतस्यापि दोषस्य ४५।१५३ स द्यूतवेश्याव्यसनी ११८।१०० सद्यो विद्याधरी वृन्दं २२।१३६ सद्योजातं पिता नद्यां ३३१२५ स द्रव्यक्षेत्रकालोक्त- ५८।२८९ । स द्वाविंशत्यहोरात्रो ३४।४२ सद्वात्रिंशत्सहस्राणां ११४१३४ सद्वात्रिंशत्सहस्राः स्युर् ५७।४६ स द्वादशस्वथ गणेषु १६६६८ सद्वेद्यं चाप्यसद्वेद्य ५६०९९ स धर्मो मानुषे देहे १८०५२ सनत्कुमारकौमार्य ६०.५०३ सनत्कुमारकल्पे तु ६८० स नमिर्दक्षिणश्रेण्यां स नवव्यञ्जनशते ९।१६ सन्नह्य ते नृपाः केचिद् ४५।१४० स निषण्णमधीयानं १७१४९ सनीचैर्वृत्त्यनुत्सेको ५८।११४ स नीलयशसा शौरिर् २२।१५३ सन्तः सप्तसहस्राणि ६०४०६ सन्तप्तं च स षण्मासान् ३३१७३ सन्तापहेतुरन्तःस्थो ८१०१ सन्तानपारिजातादि ८.१८९ सन्ताने मेघनादस्य २५।३४ सन्ति संख्येयविस्तारा- ४।१६२ सन्ति चानन्तभेदास्ते १८:५५ सन्ति योधा यथास्माक-५०१५२ सन्ध्याकारेऽन्तरद्वीपे ४५।११४
सन्ध्यारागानुसन्धाने १४।७५ सन्ध्यारागेण चच्छन्नं १४७३ सन्ध्यारागाङ्गरागाढ्यं ८।६५ सन्दग्धानयने काश्चित् ८०४८ सन्नासिकातिमध्यस्था ८।२२ सन्निद्रानिद्राप्रचला ५६।९१ सन्मानितयथायोग- ३२१४२ सपञ्चनवतिलक्षाः १०११४३ सपञ्चाशत्सहस्रास्ता १२१७८ स पञ्चाग्नितपः कुर्वन् २७।१२० सपञ्चकल्याणमहामहेश्वरः६६।१८ सपदि मुक्तजलाम्बरपीलने५५।५८ स पद्मसेनो गुणपद्म- ६६।२७ सपद्मरागोज्ज्वलवज्र- ३७४२० स पर्युपासनाहेतो- ३३१७२ सपुत्रनप्तृकः क्षेमी ५३।८ सपुत्रानमितानेक- २२८६ सपौरान्तःपुरो राज ५४।४६ सप्तपर्णपुरं पूर्व- ५।४२७ सप्ततिश्च सहस्राणि ४।१६७ सप्तत्रिंशदतो लक्षा ४१७९ सप्तत्रिंशत्सहस्राणि ५।५८ सप्तत्रिंशद् भवेन्मूले ५।३०३ सप्तप्रकृतिमिश्रेण ३१९४ सप्तकृत्वः कृतान्ताभः २५।१५ सप्रलम्बजटाभार- ९।२०४ सप्तविंशति लक्षाः स ४।१९० सप्तविंशतिचापानि ४।३२३ सप्तजीवादितत्त्वानि १०५२ सप्तमस्य च षष्टस्य १९२५२ सप्तशत्या सहस्रे द्वे ५।५५४ सप्नमस्तु सुतो देव्या ३३।१४४ सप्तमेऽपि च वारेऽहं २१११४९ सप्तम्यामप्रतिष्ठाने ४१२२४ सप्तसु श्रुतवार्तासु ३३।१२७ सप्तमीस्थनिगोदोत्थाः ४।३६१ सप्तषष्टिसहस्रार्द्ध- ५।५२१ सप्तषष्टिशतान्यस्याः ५।६२ सप्ततिर्मोहनीयस्य ५८।२८५
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________________
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८८५
सप्तमीतो विनिर्यातः ४।३७८ समस्तशास्त्रसन्दर्भ १७७७ सप्तप्राणप्रमाणं तु २२।३० समस्तयदुनाशाय
४०१२ सप्तसु प्रतिबोद्धव्यः ४१३४० । समस्तबलसंयुक्तो ५३।२९ । सप्तपर्णसुरभेः ६३।६० समस्ततेजस्विजनस्य ३७।३३ सप्तभिः पञ्चभिः पूज्या१८।११९ समयावलिकोच्छ्वास- ७।१६ सप्तम्युतितो यायात् ४॥३७५ समन्दरार्योऽपि च ६६।२६ सप्ताप्याराध्य माहेन्द्रे ३३।१४० । समवसरणभूमौ ५७।१८३ सप्तानीकमहामेदाः ।२८ समन्ततः शिवस्थानाद् ५८८ सप्ताहश्चैव पक्षः स्यान् ४।३७१। समयनीतयथोचितवाहना५५।३४ सप्ताप्कायिक जीवानां १८०६५ समवादि समापादि ५७.१ सप्ताहान्ताविरोमा- ७४८ समवतारमिनोऽङ्गिकृ- ५५।१२४ सप्तम्यामेव संप्राप्तः ६०।२५८ समविशत्समदेभगति- ५५।२ सप्ताहोरात्रवर्षेण ४३।११८ समग्रबलयुक्तास्ते ५३।१२ । सप्रकीर्णकनक्षत्र. २१८४ समर्प्य ताभ्यामरहस्यभेदं २५।२९ सप्रज्ञप्तिमहाविद्या ४३।९७ समर्प्य वसुदेवं च १८।१७८ सप्रदक्षिणमागत्य ८।१५६ समर्प्य तं स्वविद्याया १९।११३ सप्रणाममिति प्रोक्तो ४३।२४३ समाजः समतीतश्च १९।१२८ सप्रणामस्ततो दृष्ट्रा ४७।४८ समातृभ्रातृकस्यास्य ४५।८१ स प्राहानन्दभेर्या त्वं ४८।२९ स मातृपितृसेवाख्यं २१।१४६ सप्तान्तेष्वेकपूर्वेषु. ३४५७ समाधिगुप्तनामानं ६०।२९ स प्राच्यानां प्रतीच्याना-५०१३३ समाधिगुप्तनामान्यः ६०५६१ स प्राह भरतेऽत्रव २७।६१ समागमश्च विज्ञातः २४१५७ स प्राहैवमिहैवाभूत् २७।१७
समादिचतुरस्रोऽतो ५८०२५३ सबालभावात्सुकुमारभावस्३५।६५
समानश्रुतिकाः शब्दाः १७११२१ स बुभुजे भुजदण्डवशीकृत-१५१५६ समागत्योपविष्टं तं ६०११३० स भानुः काञ्चनरथो ५२।३१
समादायानपानं तौ ६२०१३ स भुक्तसुरसौख्यस्ते १८।१७५
समारोप्य विमाने तां ३२।२४ स भुक्त्वामानया कामं २७।१०३
समुद्रदत्तनामान- १८।१०५ स भूतरमणाटव्या- २७।११९ समुद्रविजयः श्रुत्वा ४५।९१ स भ्रात्रा वार्यमाणोऽपि ३३।१५९ समुद्रविजयाक्षोभ्य ५२।६३ समगुणात्परिणामविशेषतः१५१३ समुद्रविजयो भूभृदष्टानां १९।२ समं च चतुरस्रं च ८१७५ समुद्रविजयाक्षोभ्य ४१।१४ समपादौ पुरः स्थित्वा २२।२४ समुद्रविजयोद्भूता- ४८।४३ समस्तव्यस्तरूपास्तु ५८।१९८ । समुद्र विजयाद्याश्च ५११२७ समस्ततोऽश्रान्तमदाम्बु- ३७१६ समुद्रविजयस्त्वं चेत् ३११११४ समस्तं वाङ्मनोयोगं ५६७० समुद्रविजयादेशात् ३१११०१ समस्तसामन्तकृतानुयान-५४।७२ समुद्रविजयो राजा ५०७८ समस्तयदुपत्नीनां ४११५१ समुद्रवेलासु मनोहरासु ५४।७४ समस्तरसपुष्टिकं ३८२८ समुद्रा इव चत्वारस् ४५१५१
समुद्रयात्रया यातः २११७९ समुद्रविजयं दृष्ट्वा ३२।४३ समुद्रविजयः शिवां १८०१८० समुद्रविजयं प्राह ३११९९ समुद्रविजयोऽक्षोभ्यः १८.१३ समुत्क्षिप्य शिलां स्वर- ४३१५२ समुत्पादितकैवल्य- २३।४० स मेरुर्मेरुनिष्कम्पः २७।१३८ समेत्य पत्यातिशय- ३७.५ सम्यक्कायकषायाणां ५८।१६० सम्यक्त्वज्ञानचारित्र- ७।१०८ सम्यक्त्वविनयज्ञान- ३४।११४ सम्यक्त्वशुद्धिशुद्धे तु १८।१४९ सम्यक्त्वं च वतित्वं च ५८।११० सम्यक्त्वं शीलसद्दानं ॥१४० सम्यक्त्वज्ञानचारित्र- १०॥१५८ सम्यक्त्वस्थिरमूलस्य ३।१७५ सम्यग्दर्शनसद्रत्नं २।११५ सम्यक्त्वपरमानन्त- ३७२ सम्यक्त्वंचापिमिथ्यात्वं५८।२३१ सम्यक्त्वं वमतामन्तर् ३।९३ सम्यग्दर्शनसंशुद्धो ४७१६२ सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः २।१३३ सम्यग्दर्शनमूलोऽयं १०१९ सम्यग्दर्शनसंशुद्धि २११७ सम्यग्दर्शनशुद्धाया ६४।१४२ सम्यग्दर्शनमत्रष्ट ५८१९ सम्यग्दर्शनलाभस्य ३११३८ सम्यग्ज्ञानादिवृद्धयादि ५८।१८५ सम्यग्दृष्टिः पुनः पात्रे ७१२१ सम्यग्दृष्टिरशेषोऽपि १८०१४४ सयोगकेवली स्थान- ५६।१०६ स रक्षन् पितृमर्यादां ७।१४१ सरलः संवरोऽयोध्या- ६०११८५ सरागसंयमश्रेष्ठा ३३१४९ स राजगृहनाथेन ६०१११३ स राजसुतया तया २९७२ स रात्री गृहमागत्य ३३।११० स रावणसमो भूत्वा १८०२३
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________________
८८६
२९।३२
सरित्तटेषु चोच्छ्रायस् ५।२३३ सर्पीभूयापि हन्तव्यो सर्वगुप्तस्त्रिगुप्त्याढ्य ६०।१६१ सर्वर्तुकुसुमामोदसर्वर्तुकुसुमाकीर्ण
२६।११
५।११४
५७।१६४
सर्वर्तुकुसुमेनान्यसर्वतोऽपि सुदुःप्रेक्ष्यां
११ ।९४
४|१
८१४
३४/५५
२।१९
६।८५
५।३११
८1९५
सर्ववर्णनिभैरव
५२।२३
सर्वज्ञवीतरागस्य ३१९ सर्वज्ञाः षट्सहस्राणि ६० ३९८
४५१८९
५।१५१
सर्वथा मम पुण्येन सर्वप्रकारतः सिन्धुः सर्वपूर्वधरस्येदं सर्वमत्र जिनभाषितं
५६।६४
६३।६८
सर्व प्रत्यक्षमन्त्यं स्यात् १० १५४
५६।७८
सर्वबन्धात्रवाणां हि सर्वलोकमलोकं च
६।१३७
३।१५
सर्व विद्यास्पदं कर्म सर्वस्वराणां प्रवरो
१९।१९७ सर्वस्वराणां नाशस्तु १९।१९६ सर्वस्यास्यामनोज्ञस्य
५६।१२ १०।१७
सर्वस्यैव हि जीवस्य सर्वप्रीतिकरो यस्मात् ५८।२७० सर्व रत्नमयैस्तुङ्गर्
४१।२५
सर्वरत्नात्ममध्या सा ५।३७९ सर्वश्रीरिति भार्यास्य
२७/६
६।९१
सर्वश्रेणी विमानानासर्वसाधारणं नृणाम् २१।३४ सर्वस्वराणां संचार १९।२३३
सर्वात्मभूत इत्यन्यो सर्वार्थ श्रीमती जन्मा सर्वार्थसिद्धा सिद्धार्था २२|७०
६०१५५९ २।१३
सर्वतोऽनन्तविस्तार
सर्वतोभद्रसंज्ञोऽसौ
सर्वतोभद्रनामाय
सर्वतोऽथ नमन्तीषु
सर्वत्रैवात्र संख्येय
सर्वत्राङ्गुलमानादौ सर्वथा सर्वकल्याण
हरिवंशपुराणे
सर्वानुपदिदेशासौ
९।३४
सर्वाः पठितविद्यास्ताः २२।७३
सर्वाः परमकल्याण्यः
२२।७२
सर्वायुधयुतं दिव्यं
४१।३५
६०।१६०
१२।३१
४३ | १७३ ७५ ५८२९६
४३५२
सर्वेष्वात्मप्रदेशेष्वसर्वेन्द्रकनिगोदास्ते सर्वेषामादिभिक्षासु ६०।२४९ सर्वोदितमभात्प्राच्या- २२।१४० सर्वो द्वारवतीलोको ५७/२ सललितमभितस्थौ
३६।३३
१४।२३
सल्लकी पल्लवोल्लासि सवज्रद्वारवंशश्च
५/४०६
२३।१०४
स वज्रमुष्टये मङ्ग सवत्सधेनुध्वनयोऽतिधीरा३५।५३
१९।९६ ५८।११८
सविशेषमसौ तत्र सवाग्गुतिमनोगुती स विनिगृह्य चिरा१५।४० सविदिक् दिक्कुमारीणां ५१७२९ सविधियाचितभोजसुता ५५/७२
४७१८
स विन्ध्यवनमध्यास्य सवीचारविवीचार ५६।५४ सशङ्खचक्रादिसुलक्षिता- ३५/२० सशब्दमूत्राः सुखिनो
२३।६७ १८/१०७
स श्रीगौतमसंज्ञाकः
स श्रुत्वा तदवस्थां तां २२।१२२
स श्रेयान् ब्रह्मदत्तश्च स श्रेयानीक्षमाणस्तं
सर्वा सर्वजनानन्दो सर्वासामेव शुद्धीनां सर्वान् संपूज्य संपूज्य सर्वेषामेव भावानां
सषड्जो मध्यमश्चात्र
स षट्षष्टिसहस्राणां स षोडशसहस्रे
स संयमस्य वृद्ध्यर्थ - स सिद्ध सेनोभयभीम
६०।२४५
९।१८०
१९।२६१ ५।३२४
११।१३२
५८ १५८
६६।२९
ससिद्धप्रतिमाशोकः ५७/२९ सस्त्रीकः स्त्रीकृताकारः ५४।५० सस्त्रीकाः खेचरा याता २६।२
सस्थावरातपोद्योत- ५६।९२ सस्मार स्वभवान् सर्वान् ६०।९६ सह दशा चक्रेण
५२.८२ सहदेव इति ख्यातो ५२।३० सह प्रदक्षिणीकृत्य ५२।६६
सह समाभिनयोर्ध्वमुखो ५४।१०
सह ज्ञानत्रयेणात्र
८/२०७
३८ २९
सहस्रगुणितोदिता सहस्रभागमाजीव्य
सहस्रयोजनव्यासौ
सहस्रमवगाहश्व
सहस्रयोजनव्यासं
सहस्रमवगाहः स्याद्
सहस्रयोजनायामः
सहस्रमवगाहोऽस्य
सहस्रमवगाढास्तु
सहस्रपत्र सच्छन्नाः सहस्रयोजनं पद्मं सहस्रयोजनो मत्स्यः
७।१५२
५।४९५
५।४५६
५/७०१
५।६७०
५।६५६
१८।७५
१८४७७
५।२८५
सहस्रमवगाहोऽस्य सहस्रगुणिता सा तु ६०।३५४ सहस्रगुणिता द्वीपे
५/७
सहस्रमवगाढां च सहस्रवर्षं वृषभो
सहस्रमेकमष्टी च
सहस्र द्वितयं तेषां
सहस्रसिक्थः कबलो
सहस्रद्वितयं चातो
५।७००
५।१२६
५।६८७
५।५१४
९/२०३
५।४४
५।२५३
११।१२५
६०।४६५
५।६८८
सहस्रं विस्तृतिस्त्रेधा
५/४९
सहस्रं पञ्चशत्येकसहस्राणि च पञ्चाशत् ५।४३३ सहस्राणि द्विषष्ट च ५।२९५ सहस्राणि त्रयस्त्रिंशत् ५।१७१
सहस्राणि चतुःशत्या ६०१३८९
सहस्राणि नवद्वे तु
५/६९
सहस्राणि तु चत्वारि
५/६३
५/३५
सहस्राणि दशामीषां सहस्राणि पुनस्त्रिशन् ५।२१५ सहस्राणि तु पञ्चाशत् ६।३१
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________________
४१६०
५।७८
४२४६
सहस्राणि नव श्रेणी सहस्राणि नवान्यानि सहस्राणि षडेवास्यां सहस्राणि च चत्वारि ४२४२ सहस्राणि च षट्षष्ट्यां ४ २४४ सहस्राणि तु चत्वारि
सहस्राणि च चत्वारि
सहस्राणि नवाधीता
सहस्राक्षसहस्राक्षि
सहस्रार्धं च गत्वोवं
६०१४४९
सहस्राण्येकपञ्चाशत् सहस्राण्यभियुक्तानि ६०।३७६ सहस्रारं हसद्दीप्त्या सहस्रारात्तु विमल
३।२९
६०।१६७
५९/९
५।५१८
सहस्राम्रवनाद्येषु
६०।२२०
सहस्रः षट् च शत्यात्मा ६० ।४१७ सहस्र: पञ्चविंशत्या १०/६५ सहस्र : सप्तभिः सत्रा १८९३ सहस्रविमलः षड्भिः ६०।२८४ स हन्ता जामदग्न्यस्य
२५।१४
५८८८
४४/१०
२३।१३६
४२४०
१२१७२
१२/७४
सहसा दुःप्रमृष्टानासहसा कन्ययादर्शि
९/७
सहायं मां परिप्राप्य सहायैः सहजैः स्वच्छैः सहास्तिनपुराधीशः १२।१० स हि सुमित्र इति श्रुत- १५/६२ स हि मुष्णन् सह- १८१०१ सहेन्दुना बन्धुरया - १४।१०६ सहैव रुचकप्रभा ३८/३७ सहस्वोच्चारणवतीः ५६ । ११० संकथाभिविचित्राभिर् ४७१८४ संकथाक्रोशगीताट्ट- ५९।१७ संकर्षणस्य हत्वेच्छां ४७।११२ संक्रीडमानमेकान्ते ४२।१७ संक्लेशेच्छा निरोधस्य ३४।११५ संक्षोभं मनसो विष्णो
२०१५७
संख्येयद्वीपपर्यन्तो
५।३९७
४/३५३
संख्येयव्यासयुक्तानां संग्रहाक्षिप्तसत्तादेर्
५८।४५
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
संघट्टः पुरनारीणां संघटोद्धतिसंमुखो संघट्टोsभूपुरद्वारे संघाटे द्वादशोत्सेधो
संघातपञ्चकं चापि
संजगौ च शयितो
संज्ञया दर्शयत्ताभ्यासंन्यस्तवपुराहारः संपतद्भिरभितः विसंपदत्र करिकर्ण
संपरायाः कषायास्तु
संपृष्टः कामदेवेन
संपृष्टस्तेन भोः स्त्वं संभवः पद्मभासश्च
संभ्रमेण परिप्राप्ती
संमूर्च्छन जसत्त्वानां
१९।११
६३।१२
६२।१०
४।३११
संसारतरणं तीर्थं
संसारभीरवः शुद्ध
५६।१००
६३।१७
६१।६६
१८ १७२
६३।५
६३॥७०
६४।१८
४७।८६
२१.८८
६०।२७७
६१।५९
१८७८
३।८१
३।१४८
३।८५
६१।२१
६४।२१
६४/६५
संयतासंयतोऽन्वर्थ: संयतासंयता ये च संयतासंयतान्तेषु
संयमप्रतिपत्तिर्वा
संयमादिक सद्ध्यान
संयमादिभिरष्टाभि
संयमाधिक एकस्य
६४/६७
संयमस्थानभेदास्तु संयमस्य सहस्र द्वे संयमे च यथाख्याते संयोगाश्च वियोगाच संयोज्य हरिणा कन्या संरक्ततालुजिह्वाग्रसंविधान कमाकर्ण्य
४३।८६
४२ ।४०
८२०
२९/४
संवर्द्धितः शिशू राजत् ३३।१७ संवादो मध्यमग्रामे
१९।१५५
संविभज्य मनोदुःखं संसर्पन्नुरसा जातस्
वंसारहेतवः प्रायस् संसारस्थितिविच्चक्री
संसारभीरुरासाद्य
६०१५४४
६४।८०
६०/३६६
१४।५७
४७।१२३
५६/३९
१३।३०
६१।३
१०।२
२।१३२
८८७
संसारान्तकरं पुंसा- ६१।१०४ संसारोत्साचलस्थान- १९ । २०२ संसारे भ्रमतो जन्तोः ५८।२९४ संस्थाननाम षट्कं च ५६।१०१ संस्थाप्य विबुधानीत
२१४२
संस्थाप्य सहदेवं स
५३।४४ संस्थाप्य पाण्डुकशिला १६ १७ संहति नृपसिंहोऽसी
१८.२७
६३।५२
संहृताति बहुरोदनैस् साकमंशुमता यात २४।३१ साकारमन्त्रभेदोऽसौ ५८।१६९
साकुमारी दिवश्च्युत्वा - ६४।१३९ साकेता सिंहसेनश्च ६०।१९५
साकेते रत्नवीर्यस्य
१८९७
साक्षाच्चकार युगपत्स- १६६५ साक्षादभ्युदयोपायः
१८५१
सागरत्रयमेवैषा
सागराम्बुहला कृष्टं
४१२७०
६१।८१
सागराश्चानगारश्च ५८।१३६ सागारो रागभावस्थो ५८।१३७ सा चानुमतिका नाम्ना ४६।५७ सा चुक्षोभ सभा- १९।१३३ साञ्जलिः प्रणनामासी ४२१४२ सा जगाद ततो रुष्टा
१९/४२
२२१
सा तं षोडशसुस्वप्नसातं पितृसमं दृष्ट्वा सातासातविकल्पस्य
४३१८२
३।६९
सातिरेकावरा सैव ४/२५९ सातिवल्लभिका तस्य ३३ ।२०५ साऽतोऽचिन्तयदत्यन्त- ४७।११४ सात्यकि: प्राह सत्यं भोः ४३।११३
६०/५२
४७/६८
सा त्रयोदशपत्यायुसादर्शयच्च पत्येऽङ्गं साधयन्ती महाविद्यां साधारणमनेकेषा
२६।५१
५८२६८
साधिते भारते वास्ये ११।५८ साधिकैका दशांशाभ्याम् ५।३१४ साधिका तू परे चासा- ४१२५० साधिकैकान्नपञ्चाशद् ५।५८६
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________________
८८८
हरिवंशपुराणे साधुसाधितकायां सा ३०१२६ सामश्चोपप्रदानस्य ५०११८ सास्यै मुग्धावदत्तस्य २९।१६ साधुकारो मुहुर्दत्तस् १७१४७ ।। सामायिकं त्रिसन्ध्यं तु १८१४७ साह विष्णुकुमारस्य १९।१४० साधुरस्यति काव्यस्य ११४३ सामायिकं यथाख्यं २।१०२ सा ह्यार्तेन खरी भूत्वा ६०३१ साधुदर्शनतः शान्तः ४६।५० सामायिक करोमोति २२०२८ सिताख्यां विजयः ख्यातां १९।४ साधुदर्शनयोगेन २७४१०५ सामुद्रिकोऽन्यदादाक्षीत् २३।११२ सितेन तापसेनान्ते ४६१५४ साधु संसाध्य युक्तेन ११४८८ सामुद्रिकवचः श्रुत्वा २३।१२०
सिद्ध विद्यः प्रणम्यासो २४।८१ साधुदानानुमोदेन १२।२० सा संप्रज्वलिते हीना ४।२७८ सिद्धविद्या प्रसिद्धासौ ३४।१९ साधु पृष्टं त्वया पूज्ये ! ४५।७९ साम्येनैव ततो वर्षे ५०।६४ सिद्धशब्दार्थसंबन्धे १७११०२ साधुप्रकृतयः केचित् ३११६० सा योषिद्गुणमञ्जूषा २३१४८ सिद्धः सिद्धतरश्च द्वौ ३१६६ साधु नाथ यथाख्यातं ९।६५ सा यक्षगृहपूजार्थ- ६०६४ । सिद्धं विद्युत्प्रभाभिख्यं ५।२२२ साधुना वधिरेणैव ४६।४४ सारणेन कुमारेण ५२।४४ सिद्धं ध्रौव्यव्ययोत्पाद- ११ साधनावधिनेत्रेण ४३।११० सारमेयी पुरेऽत्रैव ४३।१५६ ।। सिद्धं सौमनसाभिख्यं ५।२२१ साधोः शीतलगीलस्य २०१३७ साध मासमिह स्थित्वा४५।११३ सिद्धाः षष्टिसहस्राणि ६०1४४३ साध्यसाधुसमाकार- २४८ सार्धाः षष्ठयां त्रयः ४२२३ सिद्धाः शुद्धाः प्रबुद्धार्थाः ६।१३८ साध्वी साध्वी सुधीणेयं१९।१३८ सार्वत्वमभयाधान- ५७११६५ सिद्धायतनकूटं प्राक् ५।५३ सार्द्धहस्तत्रयं पूर्व ६।१३४ साधौं द्वाविन्द्र केष्वेतौ ४।२२१ सिद्धायतनकूटं प्राक् ५।२६ सानत्कुमारमाहेन्द्र ३१६३ सालङ्कारं परित्यक्तं ९।११९ । सिद्धायतनकूटे च ५।३० सानन्दा साकुलाक्षी तं ४७।११६ सावद्ययोगविरहं ३४।१४३
सिद्धायतनकूटं स्यात् ५।११० सा निवृत्तिकरी षष्ठो ६०।२२२ सावधाने स्थिते धर्म- १८॥३४ सिद्धायतनकूटं स्यात् ५।७१ सा निशम्य हतास्मीति १७७५ ।। सावधानसभान्तस्थं ५८४१६ सिद्धायतनकूटं स्यात् ५।२१७ सानुधर्या महेन्द्रस्य ६०८१ सावधिः षट्सहस्राणि ६०।३९५ सिद्धायतनकूटं च ५।८८ सानुज्ञासा करेणास्य २२।१३३ सा वसन्तोत्सवे रन्तु ३३।१०७ सिद्धार्थप्रियकारिण्योः २।४४ सानुरक्ता त्रपायुक्ता ४२१७४ सावष्टम्भभुजस्तम्भैः . ८७० । सिद्धार्थसारथिर्धाता ३११४१ सानुत्सेकतनुक्रोध- ५८।१०६ सा विभङ्गनदी वृद्धिः ५।५५३ सिद्धायतनकूटेषु ५।२२५ सान्तःपुरेण कर्णेन ५०९१ सा व्यालस्याद्धि शास्त्रो-५८१७८ सिद्धादेशस्य सत्साधो २३३८ सान्तःपुरान् स्वसाम- ४३।१७२ सा शिला योजनोच्छ्राय-५३।३५ सिद्धानां तु परं स्थानं ६।१२६ सान्त्वयित्वाश्रुसंधौत- ४३१७३ साशीतिकं शतं दिक्षु ४।९३
सिद्धाख्यं माल्यवत्कूटं ५।२१९ सान्ध्यरागपटलेन ६३।३२ साशीतिपदलक्षक- १०।११० सिद्धार्थपादपाः सन्ति ५७१७० सापराधतया यूयं ५०।४३ साश्रुलोचनयाजस्र- ३०।१५ सिद्धार्थः सुप्रतिष्ठोऽह- ६०।१५५ सापायमा वित्रास- २२।१८ साष्टषष्टिशतं दिक्षु ४।९६ सिद्धिः प्रत्येकबुद्धानां ६४।९७ नापि तस्मै यथावृत्त- ४७१५९ साष्टत्रिंशत्सहस्राणि ५।५९ सिद्धिरव्यपदेशेन ६४।९६ सापि दर्शनतस्तस्य १४।४१ साष्टभागं त्रिकं चाग्रे ५।३९९ सिद्धिक्षेत्रेऽमला सिद्धि ६४।८८ सा पारिग्राहिको ज्ञेया ५८।८० साष्टावेव मुहूर्ताः स्यात्५८।२८७ सिद्धस्तूपाः प्रकाशन्ते ५७।१०३ सा प्रणभ्याभणीत्सौम्य २४।६९ सा सहस्रारकल्पस्य ६०।१२० सिद्धिसीमन्तकाख्यं १०॥३२ सा प्रणम्य वरं ववे १९७८ सा सप्तदशतन्त्रीका १९७७ सिद्धिर्ज्ञानविशेषेरै- ६४९८ मा प्राप्तानुमतिः प्रीता ३०११८ सा स्वपापोदयात्साधौ ६४।११ सिद्धिः सिद्धिगती ज्ञेया ६४।९३ साभिज्ञानमभिज्ञोऽसौ ३०।१७ सास्य निबंन्धतो वाचा ३३१८७ सिद्धयन्निहैव संसिद्ध- ५६५८० साभिमानमुदस्यान्तं २९।१७।। सासूत सूतिसमयेन्द्र- १६।१२ सिन्दूरः श्यामको द्वीपस् ५१६२३ पामग्रीकृतकायस्य १०।१०२ सा सेना सर्वतः सर्वा ५७।१७९ सिन्धुकक्षं महाकक्ष २२।९७
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श्लोकानामकारानुक्रमः
८८९
सिन्धदेव्यभिषिच्यैनं ११४० सुखासि कापि नैकान्तान् १७।१३८ सिन्धुदेशाधिपो मेरु- ४४।३३ सुगतगताममं परमका- ४९।३४ सिंहसेनो मृतो जातः २७१५३ सुगन्धसर्वगन्धाख्या ५।६४६ सिंहचन्द्रमुनिः सम्यगा- २७७६ सुगन्धिमुखनिश्वासस् ४२१७६ सिंहविद्यारथं दिव्यं ५११९ सुगन्धिवायुभिः सार्ध- ५२।६८ सिंहदंष्ट्रात्मजां दृष्ट्वा ३२०२५ सुग्रीव इत्यनुग्राही १९५४ सिंहविक्रीडितं कृत्वा ६०११५७ सुग्रीवश्च यशोग्रीव १९।२६९ सिंहसेनो महाराजो २७१२७ सुग्रीवेण सतोषेण १९५८ सिंहहंसगजाम्भोज- ५।३६९ सुगौतमायुष्यपुराण- ६६।१२ सिंहासनं सुरेन्द्रस्य ५।३३८ सुधनाङ्गलयोऽर्थाढ्या २३।९४ सिंहासनस्थमाशीभिर् १७८९ सुघने जघने तस्या १४।३४ सिहामनं नरेन्द्रौघेर ३३७ सुघोषाख्यां ततो वीणां१९।१३७ सिही व्याघ्री च किं १९।१०७ सुचन्द्रो बालचन्द्रश्च ६०५६९ सीताकूटं चतुर्थ स्यात् ५।१०० सुतयाकम्पनस्यासा १२।३३ सीतोदाकूटमन्यत्तु ५।२२३ सुता चेटकराजस्य २०७० सीतोदापि गिरिं गत्वा ५।१५७ सुतागमनवेलैतैर् ४३३२३७ सीतोत्तरतटे कुटं ५।२०५ सुताभूदेवसेनायां ६०।६३ सोमन्तकस्य विस्तारो ४।१७१
सुतासीत्पुष्कलावत्यां ६०.४३ सीमन्तके चतुर्दिक्षु ४८६ सुतास्तु पाण्डोर्हरिचन्द्र-५४७३ सीमन्तकेन्द्रकस्यामी ४१५२ सुतो नरपतिस्तस्मात् १८१७ सीमन्तको मतः पूर्वो ४७६ सुतोऽभवच्चन्द्र इव ६६४ सीमन्धरजिनेन्द्रेण ४३३२२४ सुतो हिमगिरिस्तस्यां ४४०४६ सीरिणाक्षतजगन्धतः ६३।११ सुतैर्दशभिरन्योन्य- १७१६० सीरिणा स गदितस् ६३।६३ सुती गगनसुन्दयाँ ३४।३५ सीरिरक्षणमुक्तस्य १११२० सुत्रामाद्यश्च संप्राप्त ९७२ सीतोदापूर्वतीरे तु ५।२०६ सुदर्शनममोघं च ६५२ सुकण्ठगोपालकलोपगीतं ३५१५० सुदर्शना तु शिविका ६०२२१ सूक्षेत्रे विधिवक्षिप्तं ७।१११ सुदर्शनायिकापावें १८०११७ मुहिरुपकिन्नरा ३८।१८
सुनन्दगोपेन यशोदया च ३५१४६ मुकूमारः सुतस्तस्य ४५।१७ सुनन्दा बाहुबलिनं ९।२२ सुकमारैः कुमारस्तैर- ११॥६३ सुनन्दासूनवे दत्त्वा ३४.४७ सुकृष्णनीलकापोत- ५६।२६ सुनिमित्तविसंवादो ३१११०७ सुकृष्णगिखराः शैलास् ५।६५४ सुनीलघनकेशासौ ९१८४ सुखदुःखरसोन्मिश्र- १२।१७ सुन्दरश्च विशालश्च ५।६९४ सुखनिद्राप्रगुप्तोऽसौ ३०।२।। सुपद्मः पद्मदेवश्च ४५।२५ सुखमृत्युः थुतेः पुंसां ७४१०५ सुपात्रे सुफलं दानं ७११९ सुखं कृतक्रीडझषद्वये ३७१३४ सुपार्श्वश्च जिनेन्द्रोऽस्मात् १३।३२ सुखं देवनिकायेषु १०५ सुपार्श्वनामधेयोऽन्यश ६०११३९ सुखं वा यदि वा दुःखं ६२।५१ सुपार्श्वेशोऽनुराधायां ६०।२०७
११२
सुपीतवासोयुगलं वसानं ३५।५५ सुपूर्णकुम्भद्वयदर्शनात् ३७६३५ सुपृष्टमुत्सृष्टमुदात्त- ६६१४९ सुप्रतिष्ठं प्रतिष्ठाय ३४।४४ सुप्रतिष्ठं प्रणम्येयुस् १८३१७७ सुप्रतिष्ठितमाकाश- ५६१४८ सुप्त एव विषमेषुणा ६३।१५ सुप्त एव सुखनिद्रया ६३१९ सुप्तमात्रमपशस्त्र- ६३।१८ सुप्रतिध्वनिविक्षिप्त- ८६० सुप्रभे तु महापद्मो ५।६९२ सुप्रसन्नं भ्रमज्ज्वालं ८७४ सुबन्धुकाधरच्छायां २२।१० सुभगाः स्युरनुद्धृतश् २३१७८ सुभद्रः सागरो भद्रो १३३९ सुभद्रोऽतो यशोभद्रो १६५ सुभानुरर्ककीर्तिश्च ३३१९७ सुभूमश्च महापद्मो ६०।२८७ सुभृतभारतभूरिगिरिशते १५।२१ सुभृतमाचरणं शरणंभ-४५११५९ सुभौमस्य सहस्राणि ६०५०८ सुभौमे वर्धमाने तु २५।१७ सुमतिः श्रावणस्यासीद्६०।१७१ सुमतेर्ते सहस्रे तु ६०।३७५ सुमत्यादिचतुर्णां च ६०।१४८ सुमनः सौमनस्यं च ६३५३ सुमन्दरगुरोः पार्वे १८।११६ सुमित्रस्तापसस्तत्र ४२११५ सुमित्रदत्तिका तस्य २७१४५ सुमित्राख्या प्रियास्यासौ ६०७६ सुमुग्धमुखकोशक- ३८।२४ सुमुखराजकृतं च पराभवं१५४४ सुमुखमुख्यवधूजनमुख्यतां १५१५ सुमृदुसुरभिगन्ध्युद् ३६।२८ सुमदुनापि तदा मृदुनि ५५।१८ सुरं वरतनुं तत्र ११११३ सुरत्नसिंहासनदर्शनेन ३७।३८ सुरत्नहेमकेयूर- ८१८० सुरत्नपरिणामानि ५।११७
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८९०
हरिवंशपुराणे
सुरत्नासनमध्यस्था ५७।६१ सुरवधूनिवहादिपरिग्रहः १५६४२ सुरवधूवरसुन्दरकन्दरे १५।३५ सुरभिपुष्परजःसुरभी ५५।३५ सुरभिगन्धशुभाक्षत- १५॥१२ सुरभीणां घटोघ्नीनां ९।३० सुरासुरनराधीश २०४७ सुराणामसुराणाञ्च ८१४९ सुराष्ट्रमत्स्यलाटोरु- ५९।११० सुरूपमिन्दीवरवर्णशोभं ३५॥३६ सुरेन्द्रवधनः खेन्द्रः ४५।१२६ सुरेन्द्रदत्तनाम्नाहं २११७८ सुरेभवदनत्रिके ३८५४३ सुलसायाज्ञवल्क्यौ तौ २१११३८ सुलसा जल्पकालेऽस्य २०१३५ सुलसापहृति ध्यात्वा २३॥१२८ सुलसां च परित्यज्य २३।१०९ सुलसे ! शृणु वत्से मे २३॥५१ सुवर्णवरनामातो ५।६२४ सुवर्णकर्णिकारोरु ८२३० सुवर्णकूलया रक्ता ५।१३५ सुवर्णरिक्षया चाा २०३५ सुवर्णद्वीपमाविष्य- २१११०१ सुवर्णमणिरत्नरौप्य ३८५१ सुवर्णकर्णाभरणोज्ज्व- ३५१५६ सुवशस्तु मनोहस्ती ४३।१९६ सुवसोस्त्वभवत्सूनुः १८।१७ सुविधिर्मार्गशीर्षस्य ६०११७३ सुविशालश्च वज्रश्च १२।६७ सुवीरादित्यनागाख्यो ५२।३२ सुवृत्तदीर्घसंचारि २१३७ सुव्यवस्थाप्य चम्पाया- २१११७४ सुशाल्मलीखण्डसुमण्ड- ३५४७० सुशास्त्रदानेन वदान्यता- ६६३३२ सुशृङ्गमुत्तुङ्ग- ३७७ सुश्लिष्टपदजङ्घोद्य ९।१० सुषमासुषमाद्या स्यात् ७५८ सुष्ठुकारे प्रयुक्तेऽस्याः २११४५ सुसीमा तनया भूत्वा ६०७२
सुसीमा कुण्डलाभिख्या ५५२५९ सेन्द्राः सुरास्तदागत्य ९४४१ सुसूक्ष्मत्वादवघ्योऽय- १७।१३९ सेयं त्वा नाप्तितो २२।१३१ सुस्थिता प्रणिधान्यासु ८।१०८ सेव्यमानः सुरैरोशः ९।९२ सुस्नातोऽलङ्कृतोभूत्या २२।१५० सैकस्त्रिशत्सहस्राणि ५।२८८ सुस्वप्नदर्शनानन्दं ८७६ सैकास्त्रिशत्सहस्राणि ५।२८६ सुसौरभाम्भोभरकुम्भ- ३७।१४ सैकादशगणाधीशस् ३५० सुहरिविष्टरवर्तितमीश्वरं५५।१०६ संवाद्या विघाटेऽपि ४।२६३ सूचिरभ्यन्तरा पञ्च ५।४९० सोऽगो नागपुरं सूर्यः ६०।१९८ सूचिनाटकसूच्यग्रे २११४४ सोऽङ्गलग्नमनपाय- ६३।९८ सूतकस्येव संघातः ४३६४ । सोऽर्चनीयोऽभिगम्यश्च ५६।६८ सूदेन कुपितेनासौ ३३।१५४ सोऽटन् यदृच्छयाद्राक्षीत् २६।४७ सूनवो विनमेर्युक्ताः २२।१०३ सोऽथ नीलाञ्जसां दृष्टा ९।४७ सूनुर्मदनवेगाया ५०।११६ सोद्दण्डपुण्डरीकौघं ८६८ सूनुं विजयसेनाया १९।५९ । सोद्यानभूमयश्चित्राः ७८२ सूनुं सीमङ्करं नाम्ना ७।१५४ ।। सोऽध्वा द्विगुणितो रज्जुस् ७.५२ सूनुनांशुमतात्यन्तं ३११३० सोऽन्यदा मुनिमप्राक्षी- २५।३८ सूनुर्जरत्कुमारोऽस्मि ६२।३८ सोऽन्तर्मुहूर्तशेषायु- ५६७२ सूनोः क्षीरकदम्बस्य २३।१३५ सोऽन्तरेण तु हली ६३।६६ सूपकारो मृतः प्राप ३३।१५६ सोपचारं नृपं दृष्ट्वा २९।५२ सूयन्ते यत्र राजानः २३३१४२ सोपवासवतश्रान्तः २७.६७ सूरसेनमहाराष्ट्र- ३३।३१ सोऽपि सूक्ष्मनिगोदस्या १०११६ सूर्य चक्षुर्दिशं श्रोत्रं १७१११० सोऽपि विश्रम्भदूरास्त १४।१०० सूर्यप्रभसुरश्च्युत्वा २७७७ सोऽपि मृत्वा सुतस्यैव ४३।१२३ सूर्यकान्तकरासंगात् २८ सोऽपि ज्ञात्वानुजं प्राप्तो ६२।४३ सूर्यश्च चन्द्रवर्मा च ४८३७१ सोऽपि लब्धाभिमानेऽसौ १८।३ सूर्याचरणविख्याति ५।३७६ सोऽप्यविज्ञातवृत्तान्तो २३३४० सूर्याचन्द्रमसस्तेषां ६।२४ सोपासिता नवनवत्युप- १६।४ सूर्याचन्द्रमसामगोचर- ४।३८४ सोऽब्रवीच्चारुदत्ताख्यः १९।१२२ सूर्याभो विभुरस्यासा- ३४।१६ सोऽभवद्रामदत्तायाः २७।४६ सूर्याश्चन्द्राश्च तत्रस्था ६७ सोऽभिनन्दिततद्वाच्यः ३११११० सूर्याकारौ सिरानद्धौ २३१६१ सोमदत्तसुतायास्तु ४८।६० सूरिः सीमन्धराभिख्यः६०।१५९ सोमदत्तो महादत्तः ४०.२४६ सेति पृष्टा जगी हेतुम् ६४।१२४
सोमिनी भामिनी तस्य ४५।१०१ सेत्युक्त्यानुज्ञया मुक्ता २२११२४ सोमप्रभस्य देवीभिर् ९।१७९ सेत्युक्ते त्यक्तसंशीति ६०५५ सोमशर्मा सुतात्याग- ६११६ सेनापतिरयोध्यश्च ११२३ सोमश्रीबन्धुभिस्तत्र ३०।४० सेनानां नायकं शूर- ५१११२ सोमश्रीनिशि हर्म्यस्था २४/५३ सेनानीः परसेनान्या ५११२३ सोऽयं वर्षशतेऽतीते ३१११२७ सेनानीः परिघं शक्ति ५२१६२ सोऽयं द्वैपायनो योगी ६११५४
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श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
सोऽयं यक्षलिको नाम्ना ३३।१६२ स्तरकेऽष्टी धनंषि द्वौ ४।३०६ सोऽयोगकेवली ह्यात्मा ५६७९ स्तम्भितेन विमानेन ४३३४० सोल्वावृष्टत्रिगर्ताश्च १११६५ स्तरकः स्तनकश्चैव ४।७८ सोऽवतीर्य विमानाग्राद् ३२।४० स्तवनपूर्वममी च ५५।१२८ सोऽवरोधनराजीव १४।१० स्तुवन्ति मङ्गलस्तोत्रैर् ५९।१९ सोऽवगाह्य हरिदूत- ६३।४७ स्तूपा द्वादशभूभूषा ५७७१ सोऽवोचदक्षिणश्रेण्या ४४।४ स्तोकाः समुद्रसिद्धास्तु ६४।१०७ सोऽवोचद्वसुदेवोऽत्र २३।२९ स्त्यानगृद्धिर्ययास्त्याने ५८।२२९ सोऽवोचच्चारुदत्तस्य २१११६८
स्त्रीणामाद्यं पारतन्त्र्यं ५५।१३५ सोऽहं नेमिजिनादेश- ६२।३९ स्त्रीवैरविषदग्धस्य २३।१२९ सौगन्धिके ततोऽपाच्यां ५।६०३
स्त्रीवक्त्रमनपत्यानां २३११०० सौदासोऽपि च तत् २४।१९ स्त्रीपुंनपुंसकैस्तिर्यग् १०४२ सौधर्मः प्रथमः कल्पः ६३६ स्त्रीपुंसलक्षणैः पूर्णा ७।९५ सौधर्मपूर्वविबुधाश्च १६१५४ स्त्रोपुंसङ्गपरित्यागः २।१२० सौधर्माधिपतेर्देव्या ६४।१२६
स्त्रीपुंसपशुसंपाति ५८१७२ सौधर्माद्यस्तदा देवैः २०६४ स्त्रीरत्नं प्रतिगृह्याभ्यां ११४५० सौधर्माद्यः सुरैरेत्य २०५०
स्त्रीरत्नलाभतुष्टेन २५।३१ सौधर्मादिषु देवेषु ३॥६० स्त्रीरागकथाश्रुत्या ५८।१२१ सौधर्मेन्द्रस्तदारूढो ८१४२ स्त्रीलक्षणवती लक्ष्मी ४२।५१ सौधर्मेन्द्रस्य भोग्याद्या ५।६५९
स्थण्डिले निशि दिवा ६३।९५ सौधर्मेशानदेवानां ६।१०९
स्थानमेकमतस्तूवं ६४।८६ सौधर्मे च विमानानां ६५५ स्थानक्रमास्त्रिकं द्वे च ५।५५५ सौधर्मेशानयोर्देवाः ४।६९ स्थानान्यतोऽकषायाणि ६४।८५ सौधर्मशानयोरायुः ३।१५२
स्थानेषु नियमेनोवं ३१०० सौन्दर्येण सुखात्मानो ५७।१५८ स्थावरत्रसकायेषु १८१५३ सौभाग्यहृतचेतस्कं १९।१३ स्थावरे बसकुले ६३९० सौभाग्यरूपनवयौवन- १६॥३५ स्थित प्रति मया रात्रौ २०११ सौभाग्यातिशयं सत्या- ४३१७ स्थितं सिंहबलं दुर्गे २०१७ सौम्याग्नेयगुणा देव ५९।६६ स्थिताः कालमहाकाल- ४१५८ सौराज्ये पाण्डुपुत्राणां ५४।३।। स्थितो रङ्गविभागेऽत्र २२।१२ सौरूप्यस्य पराकोटि: ९।१४९ स्थिता द्वीपिमुखाश्चाने ५।५७२ सौपकाङ्गारवैगारि- २५।६३ स्थितिरेषैव बोधव्या ४।२६५ सौलक्षण्यं च सौरूप्यं ४२।३६ स्थितिबन्धविकल्पस्तु ५८।२८३ सौवीरो हरिणाश्वा च १९।१६३ स्थितिमितं विजया- १५।३७ सष्टषोडशतीर्थाय ११८ स्थितिरेकैव विज्ञेया ४।२६० स्तनकस्य तु विस्तारो ४।१८५ स्थितेषु हास्तिनपुरे ५४।२।। स्तनके नवदण्डास्तु ४।३०७ स्थित्युत्सेधप्रवीचारा ६।११८ स्तनैरन्यस्त्रियाःक्लेशा-२१११४३ स्थित्वा तत्रापि सौख्येन ४६।१८ स्तरकस्य त्रयस्त्रिशत् ४।१८४ स्थिरमनसि विधाय ३६३०
स्थापिता वसुराज्येऽष्टौ १७११६१ स्थापितोऽन्यः पदे तस्य २७१४३ स्थूलमुक्ताफलेनास्य ८1१८२ स्थूलस्फिक् च पुमानिः-२३।६८ स्थूला घनविमुक्तानां २३।८८ स्नानभोजनवेलाया १९।३७ स्नानासनमभन्मेरुः ८।१७० स्नात्वा भुक्त्वा स तेनामा१९१३९ स्नात्वा भुक्त्वा कृतातिथ्या५४१५४ स्नात्वा पयोधरोन्मुक्तैर् २२।१२५ स्निग्धताम्रनखौ पादौ २३१६० स्निग्धाभिरपि सुस्निग्धा ८।३१ स्नुषा बुद्धिरभूत्तस्यां ४५।१५० स्नेहपाशं दृढं छित्वा १२।४८ स्नेहानपेक्ष्य कैवल्य- ५।२१७ स्नेहवानथ जलार्थ- ६३।१ स्नेहगह्वरमोहिन्यौ १८।१२२ स्नेहोऽपत्यकृतोऽमीषु ६०८ स्पशं रसं च गन्धं च १८१९२ स्पर्शनस्योदयाद्यस्य ५८।२५६ स्पर्शनं नैकसंस्थानं १८१८६ स्पर्शनं रसनं घ्राणं १८१८४ स्पर्शनोष्णेन वाध्यन्ते ॥३४६ स्पृष्टा नृपोत्किरण- १६९ स्फटिके लम्बुसा त्वले ५७१५ स्फुरत्पुलकसंसक्त- ५७८३ स्मितेऽथ नाथे तपसि ६६५९ स्याच्चत्वारि सहस्राणि६०।४०३ स्यादष्टौ हि सहस्राणि ५७४ स्यादद्विधास्रवनिरोध- ६३१८६ स्यात्परस्परकल्याणा ३४।१२४ स्यात्पर्यायसमासेषु १०।२१ स्यान्मिथ्यात्वं स्त्रीत्व-५५।१३७ ख्याद्विवेको विभजनं ६४।३५ स्याविंशतिसहस्रेस्तु ६०१४३५ स्याद् षट्त्रिंशत्सहस्राणि५।३०० स्यात्संरम्भसमारम्भा ५६।२२ स्यात्सामायिकचारित्रं ६४।१५ स्यात्सूक्ष्मसाम्पराये च ६४।७७
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८९२
हरिवंशपुराणे
स्युः कषायकुशीलास्ते ६४।७४ स्वभर्तुः सोमभूतेस्तु ६४।१३६ स्वर्गावतारजननाभिषव-२।२३७ स्युविशतिसहस्राणि ६०॥३६४ स्वभावमत्सरारम्भा ८८२ स्वर्गापवर्गमूलस्य १०१० स्युदिशसहस्राणि ६०।३६१ स्वभावमुखसौगन्ध्य- ४३१५ स्वर्गापवर्गमार्गस्य ८२१९ स्युषिष्टिसहस्राणि ६०१४३६ स्वभावगहनाहीन- ३१७३ स्वर्गाग्रादवतीर्याऽथ १३।२६ स्युश्चतुविशतिर्भागा ५।४८७
स्वभावादार्जवोपेताः ३३१२५ स्वर्णदासगृहक्षेत्र- ५८।१४२ स्युश्चतुर्दशलक्षास्तु ५।२७९ स्वभावाच्चण्डतुण्डोऽय- ३३११८ स्वर्वेत्युक्ताः समात्मानः ५९।८१ स्युश्चत्वारि सहस्राणि ६०।३५८ स्वभावोऽयं जिनादीनां ६५।१३ स्वर्णषोडशकोटीषु २१०६१ स्युस्तत्र पञ्चशतपूर्वधरा १६७१ स्वमन्त्रेणेष्टमात्रेण १७।१११
स्वल्पाकाशषडंशाश्च ७.३५ स्युस्तेषामशुभतराः ४।३६८
स्वमुखेनानुभूयन्ते ५८।२९२ स्ववंशभाविनं श्रुत्वा ३४।१ स्रजचक्रदुकूलाब्ज- २१७३ स्वयमेव बलोद्रेकात् २५१५१ स्वविमानावधिस्तूवं ६ ११७ स्रजमितोऽथ सवस्त्र- ५५।११९ स्वयंवरे प्रवृत्तेऽत्र ४४।४२ स्ववेषकृतसंचाराः २६।२३ स्रजोः सुगन्धायतयोः ३७१३१ स्वयंवरविधौ तस्याः ३१११२ स्वशोकोत्पादनं चान्य-५८०१०२ स्रजी प्रलम्बे विमलाम्बरे ३७।१० स्वयंवरमगुस्तस्या ३३।१३६ स्वसंबन्धं ततः श्रुत्वा ४७१६० स्वकर्मबन्धभीरुत्वान् २०१४४ स्वयंवरविधौ स्मृत्वा ६४।१३१ स्वस्वभावविभक्तान्य- १९।२२ स्वकलत्रेऽपि यत्रायं ४३।१९१ स्वयंवरगता कन्या ३११५३
स्वसंवेगादि रागा) ५८।१२६ स्वकृतो बन्धनाद्य.स्याद्५८।२६३ स्वयंवरविधेः कन्या २४।४० स्वसैन्यं परसैन्यं च ५२६८७ स्वक्रोधलोभभीरुत्व- ५८।११९ स्वयंवरधरोत्खात- २३१५७ स्वस्थानमेककोऽनल्प- ८५ स्वचरणभुजदण्डा ३६।३७ स्वयंवरार्थिनां तेषां २३१५८ स्वस्थानाच्चलयेदलं २०६५ स्वच्छस्फटिकरूपास्ते ५७४९६ स्वयंवरे नरश्रेष्ठः २३।१२५ स्वं विवेश गृहं शीरो ४२।९७ स्वच्छानामनुकूलानां ११९२ स्वयं कृतं नर्म ततो- ५४॥६९ स्वं विंशतितमं तीथं ११२२ स्वजनकृताभिनिष्क्रमण- ४१।२४ स्वयं कर्म करोत्यात्मा ५८।१२ स्वं बुद्ध्वा ह्रियमाणं खे१९०९९ स्वजननिजवधूनां ३६।५२ स्वयमेव रथं दोग- ६१८४ स्वाङ्गरस्याङ्गसङ्गं या ४७१५२ स्वजननीस्तनपान- १५।३० स्वयंभूरमणाभिख्यो ५।६२६ स्वाधीनमप्रतिहतं १६।६० स्वत एवाग्रतो जन्म ७।१२ स्वम्भरमणेऽप्यादौ ५।६३२ स्वाधीने सति रूपास्त्रे १७१६ स्वतनुवृद्धिमतश्च शनैः १५।३१ स्वयम्भूरमणद्वीप- ५७३० स्वाध्यायध्यानयोगस्थौ ४३।२१२ स्वदोषच्छादनायासौ ३३११२२ स्वयमुषा दुहितास्य- ५५।१७ स्वाध्यायः पञ्चधा ज्ञान- ६४।३० स्वपक्षमित्युपन्यस्य १७।११३ स्वयम्प्रभविमानेशः ५।३२३ स्वान्तरङ्गजनैर्जातु ४११५५ स्वपक्षगेहेषु तदाविरासन् ३५।२१।। स्वयमेवात्मनात्मानं ५८।१२९ स्वान्तःपुरगृहालीभिः ४११२९ स्वपन्निपीदनुरसा प्रसर्पन ३५।४३ स्वयोगवक्रता चान्य- ५८।१११। स्वान्तःशुद्धि जिनेशाय ३।१९ स्वपरिग्रहभेदे तु ५६।२५ स्वरसाधारणगतास्तिस्रो १९।१७८ स्वान्तकाले निमित्तत्वं ६१।२० स्वपुर्याश्च मनोहाः २७।१० स्वरत्नित्रयहीनोक्त ५७५६५ स्वाभिप्रायवशाद्वेदे १७१११६ स्वपूर्ववैरिणा दाहं १२।२१ स्वराः सर्वे च विज्ञेया १९।२१४ स्वामिनं कोलपुत्रांश्च ९।११२ स्वप्रमादकृतानर्थ- ६४।१६ स्वरूपालोकनाक्षिप्त- ४२१२७ स्वामिकायं परित्यज्य ५०१९८ स्वप्रदेशपरिस्पन्द- ५६७७ स्वरैरपि च सप्तभिर् ३८१२७ स्वामिनशनिवेगस्य १९७० स्वप्रशंसापरानिन्द्याः ३।१११ स्वर्गच्यवनपर्यन्तं १२।२३ स्वामिनि ! स्वामिनी ४७१२४ स्वसुः प्रसूति प्रतिविद्य- ३५।३१ स्वर्गसौन्दर्यसन्दर्भ- ८७१ स्वामिन् वरप्रसादो मे ३३॥३९ स्वप्नार्थमिति बुद्धा तो ९।१६५ स्वर्गश्रियं श्रिया जेत्री ५७१६ स्वाम्यादेशे कृते तेन ८।१३१ स्वप्नाथ सोऽवधार्यतां ८९२ स्वर्गावतारकाले यः ५०.२२ स्वायम्भुवं सुधाधात्री ५७।११९ स्वप्नान्तरिक्षभौमाङ्ग-१०१११७ स्वर्गावतरणं जैन- ८.९८ स्वायम्भुवे महाभागे ११११३६
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स्वायामः क्षेत्रवक्षार- ५।५४७ स्वास्यारविन्दसौगन्ध्य- २४।६० स्वीकृत्य वारुणीमाशां ४०।१७ स्वोपयोगविशेषस्य ५६।७३ स्वोत्सेधत्रिगुणात्मीय- ५७/११ स्वोदरस्थित निःशेष४१३२
स्वोत्तम्भस्तम्भसंकाशैः ५९/५५
स्वेष्टाय तेऽष्टवर्षाय
४२।१९
स्वेष्टाङ्गनामुख रनूपुर
१६/४३
स्वे स्वे काले मनुष्याणा- ७१४४
[ह]
हटद्धाकपीठस्थाः
तक्षत्रियसंघानां
हते सेनापती तंत्र हस्तित्तिरकल्माषैः
५७/५०
२५/२०
५१।४२
५२।१४
५५/३
हरति केयमिह प्रवरा ५५/२२ हरिकृताभिगतिर्हरिहरिचन्दनगन्धाढ्यैर् हरिणेव रणे रौद्रे
२२।२२
४२।९३
५/३०६
हरितालमयः षष्ठः हरिद्वती सरिच्चण्ड- २७ १३ हरिवधूनिव रुपरोधितः ५५ ।५१ हरिवंशनभश्चन्द्र- २२।११५
हरिवंशपुराणस्य
१।१२६
हरिवंशनभोभानु
३।१८८
हरिवंशप्रदीपस्य
१।११४
हरिवंशशशाङ्कस्य
३३।१७२
६०१८२
हरिवाहनविद्ये हरिरवेत्य निजाम्बुज- ५५/६९ हरिरयं प्रभवः प्रथमोऽ- १५/५८ हरिरतो वलशम्बमनो- ५५/२६ हरिरपि हरिशक्ति- ३६॥४६ हरिरिति हरिवंशं ३६।२५ हरिसभागत राजकभारती ५५/७ हरिश्मश्रदुरीहस्य २८४३ हरिषेणस्य कौमार्य ६०१५१२
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
४८/५
४८१९
हरिषेणा सुता ज्येष्ठा ६४।१३० हरि सत्यापि संप्राप्ता हरेरन्यास्वपि स्त्रीषु हलकोटी तथा गावस् ११ ।१२८ हलधरं बलवन्तमलं हलधुदवधृतार्थो
५५/६
३६।१६
हली जर्जरितं कृत्वा हसन्ती नर्भभावेन
४२।९५
३३।३३
३१।७४
हस्त्यश्वरथपादातहस्तसंवाहने काश्चिद् ८४६ हस्तपादशिरश्छेदं ४३।१८२ हस्तास्त्रयस्तथैव स्याद् ५।२८९ हस्तास्त्रयोऽङ्गुला ५/३९३ हस्ताभ्यां किमु मृद्नामि ४३।४४ हस्तिशीर्षपुराधीशं ६०।१०६ हस्ते स्तनानुलुप्तां तां १४४९६ हंस क्रौञ्चासनैर्मुण्डैर्
५१३८८
हंसाली पातलील
५६।११७
हा जगत्सुभग
६३।२०
६३।५१
हा प्रधानपुरुषक हारकुण्डल केयूरहारं स पृथिवीसारं
७१८९
११।१० हारिणा स्वर्गिणा धात्रीं ३३।१६९ हारिणी वारिणा पूर्णौ
८।६७ ६३।२१
हारि द्वारि परिताप
हावभाव विदग्धाभिर्
६।१२३
८१६०
३६।२६
हावभावाभिरामं च हितसहजतयोत्थहिताः सतामप्रतिचक्र - ६६।४४ हित्वा ततो विषयसौख्य- १६।४८ हिंसादिभ्यो यथाशक्तिहिंसानन्दमृपानन्द
३।९० १७।१५३ ३।८९
हिसानृतपरादत्तहिसानृतवचश्चर्या ५८।११६ हिंसा नोदनयानार्षान् २३।१४० हिन्दोलग्रामरागेण
१४/२०
O
८९३
५।१०८
हिमवत्प्राक् प्रतीच्योः स्यु: ५।४७५ हिमवत्कूटतुल्यानि हिमवद्वेदिका तुल्या हिमवदललल्लक्कास्
हिमविन्ध्यस्तनाभोगां
५।१२७
૪૮૪
२३।३७
हिमशिशिरवसन्तग्रीष्म- ५३/५४
५१।३५
१२।१४
८ २०६
हिरण्यनाभवी रेण
हिरण्यवपूर्वोऽह हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् हिरण्य रोमतनया २१।२५ हिरण्यस्वर्णयोर्वास्तु ५८।१७६ हिंसादिष्विह चामुष्मिन् ५८।१२३ हिंसादेर्देशतो मुक्तिहिसाकर्तुः कर्तुर्वा हिंसा रागादिसंधि ५८।१५२ होनेन दानमित्येषाम् ५८ १७२ ह्रीः श्रीः धृतिः परा सा८।११२ ह्रीकूटं हरिकान्तादि
१८:४६
१०१९२
५/७२ ५।८९
ह्रीकूटं धृतिकूट च ह्रीदयाक्षान्तिशान्त्या - ५७/१५१ होमन्तं पर्वतं ताभ्या- २१।२४ हृतविद्या यतस्तत्र २७।१३४ हृतो यक्षकुमारीभ्यां १९ ११९ हृदयान्त स्थिरोऽप्यङ्के ५/६९३ हृदयेन समं तस्मिन् हृदिकात्कृतिधर्मास
१११८ ४८।४२
४८.८
५३।१६ २७/४
हृष्टा प्रद्युम्नशम्बाभ्यां
हेतिज्वाला है रेभिः हेतुना केन नाथेन हेतुः पुण्यगुणाख्यातेः ५८।२७७ हेतुतीर्थंकरत्वस्य हेमाम्भोज रजःपुञ्जा हैयङ्गवीनमुत्तप्त
५८।२७८
हरण्यवत ( भी ) - हैरण्यवतमित्यन्यत्
५७/२२
१८।१६२
५।१४
५।१४
५।१०६
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शब्दानुक्रमणिका
इस स्वन्धमें हरिवंशपुराणमें आगत व्यक्तिवाचक, भौगोलिक पारिभाषिक और कुछ साहित्यिक शब्दोंका अर्थ अवगत कराया गया है। व्यक्तिवाचकके आगे कोष्ठकमें ( व्य), भौगोलिकके आगे ( भौ) और पारिभाषिक शब्दके आगे (पा) दिया गया है । साहित्यिक शब्द = चिह्न देकर खाली छोड़ दिये गये हैं।
दोन ६०वें सर्गमें आगत तीर्थंकरोंसे सम्बद्ध शब्द संकलित नहीं है क्योंकि उनका विवरण पृथक स्तम्भमें दिया गया है। इसी प्रकार अन्तिम सर्गमें वर्णित आचार्य-परम्पराके नाम भी संगृहीत नहीं हैं क्योंकि उनका प्रस्तावनामें उल्लेख कर दिया गया है । इस ग्रन्थमें एक-एक शब्द अनेकों स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है परन्तु उनका एक बार ही उल्लेख किया जा सका है। शब्दों के आगे सर्ग और इलोकोंके अंक दिये गये हैं। समानता रखनेवाले वे ही शब्द पुनरुक्त किये गये हैं जिनका भिन्न अर्थ होता है।
[अ] अकम्पन (व्य) कृष्णका पुत्र
४८१७० अङ्गारक (भौ) देशका नाम
१११६८ अग्निमतिदक्षिणा २२।६९ अङ्गारक (व्य) ज्वलनवेगकी
विमला रानीसे उत्पन्न पुत्र
१९।८३ अधर्म (पा) जीव और पुद्गल
की स्थितिमें कारण एक
द्रव्य ७२ अधर्मास्तिकाय (पा) जीव
और पुद्गलके ठहरने में
सहायक द्रव्य ४/३ अधिकारिणी (पा) एक क्रिया
५८१६७ अधित्यका = पर्वतका ऊपरी
मैदान २०३३ अकम्पन (व्य) भगवान् महा
वीरका अष्टम गणधर ३।४३ अकम्पन (व्य) सात सौ मुनियों
के प्रमुख आचार्य २०१५
अतिथिसंविभाग (पा) शिक्षा-
व्रतका भेद ५८।१५८ अतिदारुण (व्य) एक भीलका
पुत्र २७।१०७ अतिदुःषमा (पा) अवसर्पिणीका ___ छठा काल ७१५९ अजित (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३५ अजित (व्य) द्वितीय तीर्थकर
१३।२६ अटट (पा) चौरासी लाख अट
टाङ्गोंका एक अटट ७।२८ अटटाङ्ग (पा)चौरासी लाख वर्षों
का एक अटटाङ्ग ७।२८ अटनप्रिय = घूमनेका शौकीन
१९।३६ अग्निभूति (व्य)पुत्रविशेष६४।६ अग्निमति (व्य) भगवान ऋषभ
देवका गणधर १२१५७ अग्निमित्र(व्य)भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२।५८ अग्निल। (व्य) सोमदेव ब्राह्मण
की स्त्री ४३११००
अतिनिरुद्ध (भौ)पांचवीं पृथिवी
के प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तम इन्द्रककी पश्चिम दिशा
में स्थित महानरक ४.१५६ अजितसेन (व्य) जरासन्धका
एक दूत ५०।३२ अजितशत्रु (व्य) जरासन्धका
पुत्र ५२।३५ अजितजय = कृष्णका धनुष
३५७२ अजितञ्जित = चक्रवर्तीका रथ
१११४ अञ्जनमूलक (भौ) रत्नप्रभाके
खर भागका ग्यारहवाँ पठल
४/५३ अजनमूलकूट ( भौ ) मानु
पोत्तरकी पश्चिमदिशाका
एक कूट ५।६०४ अजितसेना (व्य) अरिजयपुरके
राजा अरिजयको स्त्रो
३४।१८ अतिमुक्तक (व्य) एक मुनि
१६८९
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अतिपिपास (भौ) प्रथम पृथिवी - के प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी सीमन्तक इन्द्रकी उत्तर दिशामें स्थित महानरक ४/१५१
अग्निशिखर (व्य) कृष्णका पुत्र ४८/६९
अग्रजन्मा = ब्राह्मण ४३।९९ अग्निला (व्य) एक स्त्री ६४/६ अक्षय (पा) स्फटिक सालका
उत्तर गोपुर ५७।६० अक्षर (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०।१२
अक्षरसमास (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०:१२ अधोव्यतिक्रम (पा) दिव्रतका अतिचार ५८।१७७ अध्वा (पा) समस्त द्वीपसागरोंका एक दिशाका विस्तार ७।५२ अध्रुव (पा) आग्रायणी पूर्वको वस्तु १०1७८ अध्रुव संप्रणधि (पा) आग्रायणी
पूर्वकी एक वस्तु १०।७९ अङ्गज (व्य ) रुद्र ६०।५७१ भङ्गज = कामदेव १६।३९ अनङ्गक्रीडा (पा) ब्रह्मचर्याणु
व्रतका अतिचार ५८।१७४ अनङ्गशरीरज (व्य ) प्रद्युम्नका पुत्र अनिरुद्ध ५५।१९ अधोक्षज = कृष्ण ३५।१९ अवाल (भौ) दि. उ. नगरी
२२/९०
अक्षोभ्य (पा) स्फटिक सालका पश्चिम गोपुर ५७/५९ अङ्गार (व्य ) एक विद्याधर राजा २५/६३ अङ्गुल (पा) आठ यवों का एक अंगुल ७ ४० अग्निकुमार = भवनवासी देवोंका
शब्दानुक्रमणिका
एक भेद २।८२ अजीवfaar (पा) धर्म्यध्यानका भेद ५६१४४ अति निसृष्ट (भौ ) चौथी पृथिवीके प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी और इन्द्रकी पश्चिम दिशामें स्थित महानरक ४/१५५ अतिवीर्य (व्य) प्रतापवान्का पुत्र १३।१० अतिवेगा (व्य) पृथिवीतिलक के राजा प्रियंकरकी स्त्री २७।९१ अतिवेलम्ब (व्य) मानुषोत्तर के बेलम्बकूटका वासी देव
५।६०९
अतीतानागत (पा) आग्रायणी पूर्वकी वस्तु १०1८० अतुलार्थ (पा) स्फटिक सालका उत्तर गोपुर ५७१६० अद्गु (व्य ) सगर चक्रवर्तीके साठ हजार पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र १३।२८ अतिमुक्तक (व्य) कंसके बड़े भाई
जो मुनि हो गये थे ३३ । ३२ अर्ककीर्ति (व्य) भरत चक्रवर्ती
का पुत्र १२।९
अगन्धन (व्य ) श्रीभूति मरकर
'अगन्ध' साँप हुआ२७१४२ अगर्त (भौ ) देशका नाम ११।७२ अगस्त्य = एक नक्षत्र जिसका उदय शरद् ऋतु में होता है ३२
अग्निकुमार = भवनवासी देवोंका एक भेद ४१६४ अन्नपाननिरोध (ना) अहिंसाणु
व्रतका अतिचार ५८।१६५ अनन्तजिद् (व्य) अनन्त संसारको जीतनेवाले चौदहवें तीर्थकर १|१६ अङ्क (भौ) अनुदिश ६ |६४
८९५
अचलावती (व्य) दिक्कुमारी देवी ५।२२७ अचेलता (पा) मुनियोंका एक
मूलगुण वस्त्रका त्यागकरना, नग्न रहना २।१२८ अकम्पन (व्य) वाराणसीका राजा
सुलोचनाका पिता १२९ अङ्क (भौ) रुचिक गिरिका उत्तर
दिशासम्बन्धी कूट ५।७१५ अङ्ककूट (भौ) मानुषोत्तरी उत्तर दिशाका एक कूट ५।६०६.
अङ्कावती (भौ) विदेहकी एक नगरी ५।२५९
अणुव्रत (पा) पाँच पापोंका
एकदेशत्याग, इसके अहिंसाणुव्रत आदि पाँच भेद हैं २।१३४ अकम्पन (व्य ) विजयका पुत्र
४८ ४८
अक्रूर (व्य) वसुदेवका विजय
सेना नामक स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र १९।५९ अक्रूर (व्य) राजा श्रेणिकका
एक पुत्र २।१३९ अक्रूर (व्य) एक राजा ५०१८३ अक्रियावादी (पा) मिथ्यात्वका
एक भेद ५८।१९४ अकल्पित ( व्यं) एक राजा ५०।१३०
अक्षौहिणी (पा) विशिष्ट सेना
५०/७५, ७६ अकुतोभयतः = किसीसे भय न
होने के कारण १।९५ अङ्क, अङ्कप्रभ (भौ) कुण्डलगिरिके पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट ५०६९३
अङ्गारक (व्य ) श्यामाका शत्रु
१९/७९
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८९६
हरिवंशपुराणे
अङ्गना = स्त्री २१९ अङ्गबाह्य (पा) द्वादशांगके परि
माणसे बाहरका श्रुत २।१०१ अङ्गारिणी - एक विद्या २२१६२ अङ्गारवती (व्य) स्वर्णाभपुरके
राजा चित्तवेगकी स्त्री
२४१७० अङ्गारक (व्य) एक विद्याधर
१२८१ अङ्ग (भौ) रत्नप्रभाके खर भाग
का बारहवां पटल ४।५४ अङ्ग-तालगत गान्धर्वका एक
प्रकार १९:१५१ अङ्गावर्त (भौ) वि. द. नगरी
२२।९५ अङ्ग (पा) अष्टांगनिमित्तज्ञान
का एक अंग १०।११७ अचौर्य महाव्रत (पा) अदत्त
वस्तुका ग्रहण नहीं करना
२।११९ अच्युत (भौ) अच्युत स्वर्गका ____ तीसरा इन्द्रक ६१५१ अच्युत (भौ) सोलहवाँ स्वर्ग
६.३८ अच्युत (व्य) श्रीकृष्ण नारायण
५०१२ अच्युत (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३६ अग्रायणीपूर्व (पा) पूर्वगत
श्रुतका एक भेद २।९७ अचल (व्य)भगवान् महावीरका
नवम गणधर ३।४३ अचल (व्य) अन्धकवृष्णि और
सुभद्राका पुत्र १८।१३ अचल (व्य) अचलका पुत्र
४८।४९ अचल (व्य) दूसरा बलभद्र
६०।२९० अचल ग्राम (भौ) एक ग्राम,
जहाँ वसुदेवने वनमाला कन्याको प्राप्त किया
२४।२५ अजनागिरि (व्य) रुचकगिरिके
वर्धमान कूटका निवासी
देव ५।७०३. अजनगिरि (भौ) मेरुसे दक्षिण
की ओर शोतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्थित एक
कूट ५।२०६ अन्जन द्वीप (भौ) अन्तिम
सोलह द्वीपोंमें पाँचवाँ द्वीप
५।६२३ अञ्जन पर्वत (भौ) नन्दीश्वर
द्वीपकी चारों दिशाओंमें
स्थित पर्वत-विशेष ५।६५२ अजनमूलक कूट (भौ) रुचिक
गिरिका एक कूट ५७०६ अच्युता = एक विद्या २२१६५ अच्यवनलब्धि (पा) आग्रायणी
पूर्वकी वस्तु १०।७८ अञ्जनक (भौ) रुचिक गिरिका
उत्तरदिशासम्बन्धी कूट
५७१५ अन्जन (भौ) सानत्कुमार
युगल में पहला इन्द्रक ६।४८ अजन (भौ) पाण्ड्डकवनका एक
भवन ५।३५२ अम्जन (भौ) पूर्वविदेहकारक्षार
गिरि ५।२२९ अन्जन (भौ) रत्नप्रभाके खर
भागका दसवाँ पटल
४।५३ अञ्जना (भौ) पंकप्रभाका रूढि
नाम ४।४६ अन्जनकूट (भौ) मानुषोत्तर
पर्वतकी दक्षिण दिशाका
एक कूट ५।६०४ अञ्जनकूट (भौ) रुचिक गिरिका
एक कूट ५७०६ अग्निभूति (व्य) वैदिक विद्वान्
१६८ अनिरुद्ध (व्य) प्रद्युम्नका पुत्र
५५।१७ अनिवृत्तिकरण (पा) परिणाम
विशेष ३३१४२ अनिवृत्तिकरण (पा) नौवाँ गुण
स्थान ३२८२ अनिवृत्ति (व्य) एक मुनि
२७।११३ अनिल वेग(व्य)वसुदेवकी श्यामा
स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र ४८१५४ अनवेक्ष्यसंस्तरसंक्रम (पा)
प्रोषधोपवास व्रतका अति
चार ५८।१८१ अनवेक्ष्यादान (पा) प्रोषधोप
वासका अतिचार५८।१८१ अनवेक्ष्यमलोत्सर्ग (पा) पोष
धोपवास व्रतका अतिचार
५८।१८१ अनाकांक्षा (पा) एक क्रिया
५८७८ अनादर (व्य) जम्बूवृक्षपर रहने
वाला देवविशेष ५।१८१ अनादर (पा) प्रोषधोपवास व्रत
का अतिचार ५८।१८१ अनादरता (पा) सामायिक
व्रतका अतिचार ५८।१८० अनाभोग क्रिया (पा) एक
क्रिया ५८१७३ अनावृत्त यक्ष (व्य) जम्बूद्वीपका
रक्षक यक्ष ५।६३७ अनावृष्टि (व्य) वसुदेव और
मदनवेगाका पुत्र ४८।६१ अनावृष्टि = कृष्णका सेनापति
५१३५ अनावृष्टि (व्य) एक राजा
५०७९
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८९७
शब्दानुक्रमणिका अनिकाचित (पा) आग्रायणी अनीक=सेना-यह सेना,पदाति,
पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका अश्व, वृषभ, रथ, हाथी, योगद्वार १०८५
गन्धर्व और नर्तकीके भेदसे अनिच्छ (भौ) दूसरी पृथिवीके सात प्रकारको होती है प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी
३८२२ तरक इन्द्रककी पूर्व दिशामें ___अनीकदत्त (व्य) देवकीका पुत्र स्थित महानरक ४।१५३
३३।१७० अनिन्दिता (व्य) नन्दनवनमें अनीक पालक (व्य) देवकीका
रहनेवाली दिक्कुमारी देवी पुत्र ३३।१७० ५।३३३
अनुत्तर (भौ) अनुदिशोंके ऊपर अनघ (पा) स्फटिक सालका स्थित पाँच विमान ६१४०
दक्षिण गोपुर ५७।५८ अनुत्तर (भो) नौ अनुदिशोंके अनगार (व्य) शीतलनाथका ऊपर एक पटलमें स्थित प्रथम गणधर ६०।३४७
विजय आदि पाँच विमान अनगार = सामान्यमुनि ३।६२ ३।१५० अनन्तवीर्य (व्य) जयकुमारका
अनुत्तर (वि) श्रेष्ठनय २११३८ पुत्र १२१४८
अनुत्तरोपपादिकदशाङ्ग (पा) = अनन्तवीर्य (व्य) चारणमुनि द्वादशांगका एक भेद २१९४ ६०।२१
अनुत्सेक = गर्व नहीं करना अनन्तवीर्य (व्य)आगामी तीर्थ- ५८।११४ - कर ६०१५६३
अनुन्धरी (व्य) विश्वसेनकी स्त्री अनन्तमित्र (व्य)उग्रसेनके चाचा ६०।५८ __ शान्तनुका पुत्र ४८६४०
अनुदात्त = वेदमें प्रत्युक्त होनेअनन्तमति (व्य) एक मुनि
वाला स्वरविशेष (नीचरनु* २७।११७
दात्तः) १७८७ अतिबल (व्य) धरणीतिलक अनुदिश (भौ) ग्रैवेयकोंके ऊपर नगरका राजा २७१७८
स्थित नौ विमान ६।४० अतिबल (व्य) साकेत नगरका
अनुदिशस्तूप (पा)समवसरणका राजा २७१६३
स्तूप ५७।१०१ अतिबल (व्य) महाबलका पुत्र
अनुदिश (भौ) अवेयकोंके ऊपर १३८
स्थित एक पटलके नौ अतिबल (व्य)आगामी नारायण
विमान ३११५० ६०१५६६
अनुपम (व्य) ऋषभदेवका गणअतिबल (व्य) ऋषभदेवका धर १२१६९ __ गणधर १२।६८
अनुप्रेक्षा (पा) अनु + प्रा + अतिभारारोपण (पा) अहिंसाणु ईक्षा पदार्थके स्वरूपका
व्रतका अतिचार ५८।१६४ बार-बार चिन्तन करना। अनिवर्तक (व्य) आगामी तीर्थ- इसके अनित्य, अशरण आदि कर ६०१५६१
१२ भेद हैं २११३० ११३
अनुभवबन्ध (पा) बन्धका एक
भेद ५८।२०३ अनुमतिका (व्य) द्रौपदीका
भवान्तर ४६५७ अनुमति (व्य), कापिष्ठलायनकी
स्त्री १८।१०३ अनुयोग (पा) श्रुतज्ञानका भेद
१०११३ अनुयोग (पा) प्रथमानुयोग,
करणानुयोग, चरणानुयोग,
द्रव्यानुयोग २११४७ अनुयोग (पा) दृष्टिवाद अंगका
एक भेद १०६१ अनुवादी = स्वर प्रयोगका एक
प्रकार १९।१५४ अनुवीर्य (व्य)
५०।१२६ अनेकप:अनेककी रक्षा करने
वाला ३७४२७ भनेकप- हाथी ३७।२७ अनेकाग्य (पा) प्रोषधोपवास
व्रतका अतिचार ५८।१८१ अन्तकृद्दशाङ्ग (पा) द्वादशांग
का एक भेद २।९३ अन्तप (भो) देशविशेष १११७४ अन्तराय (पा) विघ्नका कारण
५८०२१८ अन्तरिक्ष (पा) अष्टांग निमित्त
ज्ञानका एक अंग १०।११७ अन्तरेण (अ) बिना २०११३ अन्तर्दिष् = अन्तरंग शत्रु १।२३ अन्ध्र (भी) धूमप्रभा पृथिवीके
चतुर्थप्रस्तारका इन्द्रक बिल
४।१४१ अन्धकवृष्णि (व्य) यदुवंशी
शूरका पुत्र १८।१० अन्तर्मूमिचर= विद्याधर जाति
२६।११ अन्तर्वस्नी गर्भवती १८३१२०
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________________
८९८
हरिवंशपुराणे
अन्तर्विचारिणी = एक विद्या
२२।६८ अन्ववाय = कुल ४५।४ अपघन = शरीर १६।१९ अपथाशिन् (वि) 'कुमार्गको नष्ट
. करनेवाले १११२ अपदर्शन कूट (भौ) नीलकुला
चलका नौवाँ कूट ५।१०२ अपभ्यान (पा) अनर्थदण्डका भेद
५८।१४६ अपराजित(व्य) राजा जरासन्ध
का भाई १८१२५ अपराजित(पा) स्फटिक सालका
उत्तर गोपुर ५७।६० अपराजित (भौ) जम्बूद्वीपका
जगतीका उत्तर द्वार
५।३९० अपराजित (व्य) एक श्रुतकेवली
आचार्य ११६१ अपराजित (भौ) अनुत्तर विमान
रत्नोच्चय कूटपर रहने- अब्ज-शंख ३५१७२ वाली देवी ५७२६
अभय (व्य) राजा श्रेणिकका अपराजिता (पा) समवसरणके पुत्र २।१३९
सप्तपर्ण वनकी वापिका अमयनन्दी (व्य) एक मुनि ५७।३३
३३११०० अपराजिता (भौ) नन्दीश्वर __ अभ्याख्यानभाषा (पा) सत्य
द्वीपके दक्षिण दिशासम्बन्धी प्रवाद पूर्वकी १२ भाषाओंअंजनगिरिकी उत्तर दिशा- में-से एक भाषा १०१९२
सम्बन्धी वापिका ५।६६० अभिख्या = शोभा २।२४ अपराजिता (भौ) विदेहकी एक अमिचन्द्र (व्य) राजा भद्रका नगरी ५।२६३
पुत्र १७।३५ अपरान्त (पा) आग्रायणीपूर्वकी अमिचन्द्र (व्य) दसवाँ कुलकर एक वस्तु १०७८
७.१६१ अपरविदेहकूट (भौ) नीलकुला- अभिजया (पा) समवसरण के
चलका सातवाँ कूट ५।१०० सप्तपर्णवनको वापिका अपरिग्रह महाव्रत (पा) बाह्या
५७।३३ भ्यन्तर परिग्रहका त्याग अमितवेग (व्य) गगनचन्द्र और २।१२१
गगनसुन्दरीका पुत्र ३४१३५ अपवर्ग= मोक्ष १०११० अभिनन्दन (व्य) चतुर्थ तीर्थअपात्र (पा) जो स्थूल हिंसादिके कर १३।३१
अनिवृत्त हैं ७।११४ अमिनन्दन (व्य) चतुर्थ तीर्थअपाय विचय (पा) धर्म्यध्यान
कर ११६ __का एक भेद ५६।३९-४० अभिनन्दिनी (पा) समवसरणअपूर्वकरण (पा) परिणामविशेष
के अशोकवनकी वापिका ३३१४२
५७।३२ अपूर्वकरण (पा) आठवाँ गुण- अभिसन्धि = अभिप्राय १७।११२ स्थान ३।८२
अमिषव= अभिषेक २१५० अतणति भाषा (पा) सत्यप्रवाद
अभिषवाहार (पा) भोगोपभोगपूर्वको १२ भाषाओं में से
व्रतका अतिचार ५८।१८२ एक भाषा १०९५
अमीणज्ञानोपयोग = भावना अप्रतिष्ठान (भी) महातमःप्रभा ३४।१३५
पृथिवीका. इन्द्रक विल अभ्यर्ण = अनिकट ४३३१ ४।१५०
अभिचन्द्र (व्य) अन्धकवृष्णि अप्रतिष (पा) स्फटिक सालका और सुभद्राका पुत्र १८।१४
दक्षिण गोपुर ५७।५८ अभिराम - सुन्दर ३२।१० अप्रत्याख्यान क्रिया (पा) एक अमिरुद्गता = षड्ज ग्रामकी क्रिया ५८०२२
मूर्च्छना १९।१६२ अप्रमत्तसंयत (पा) सातवाँ ___ अमर (व्य) राजा सूर्यका पुत्र गुणस्थान ३।८१
१७.३३
अपराजित (व्य) जरासन्धका
भाई ५।१४ अपराजित (भौ) वि. उ. नगरी . २२१८७ अपराजित (व्य) सिंहपुरके राजा
अर्हद्दास-जिनदत्ताका पुत्र । भगवान् नेमिनाथका जीव
३४.५ अपराजित (व्य) भगवान् वृषभ
देवका गणधर १२।६१. अपराजित (व्य) चक्रपुरका
राजा २७१८९ अपराजित (व्य) एक राजा
६०।१०५ अपराजिता (व्य) रुचिकगिरिके
अरिष्टकूटपर रहनेवाली
देवी ५।५०७ अपराजिता (व्य) रुचिकगिरिके
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अमरकडा (भौ) धातकीखण्डके भरतक्षेत्र अंगदेशकी एक नगरी ५४।८ अमरावर्त (व्य) कौथुमिका शिष्य ४५ ४५ अमम (पा) चौरासी लाख अममांगों का एक अमम ७ २८ अममाङ्ग (पा) चौरासी लाख अममांग
अटोंका एक ७२८
अमळ (व्य) समुद्र विजय का
मन्त्री ५०।४.९.
अमा (अव्यय) साथ ५५।२९ अमितगति (व्य) चारुदत्तके
द्वारा उपकृत और चारुदत्तका उपकार करनेवाला विद्याधर २१।२३ अमितगति (व्य) वसुदेवका
गन्धर्वसेना से उत्पन्न पुत्र ४८/५५
अमिततेज (व्य) गगनचन्द्र और
गगनसुन्दरीका पुत्र ३४।३५ अमित्रेतरमण्डल = मित्रमण्डल
सूर्यमण्डल २।११
अमितसार (पा) स्फटिक साल
का पश्चिम गोपुर ५७/५९ अमितप्रम (व्य) वसुदेव और
बालचन्द्राका पुत्र ४८ ६५ अमृतपायिन् = देव ५५/२५ अमृतप्रभ (व्य) अभिचन्द्रका
पुत्र ४८।५२
अमृतबल (व्य) अतिबलका पुत्र १३।८ अमृतरसायन (व्य) चित्ररथका रसोइया ३३१५१ अमोघ ( भी ) रुचिकगिरिका दक्षिण दिशा सम्बन्धी कूट ५/७०८
अमोष- चक्रवतोंका बाण १११६
शब्दानुक्रमणिका
अमोघ ( भो ) अधोग्रैवेयकका दूसरा इन्द्रक ६।५२ अमोधक (पा) स्फटिक सालका उत्तर गोपुर ५७/६० अमोघमूला (शक्ति) = कृष्णका
शक्ति नामका अस्त्र ५३।४९ अमोघदर्शन (व्य) चन्दनवन नगरका राजा २९।२४
अम्बा (व्य) राजा धृतराजकी एक स्त्री ४५।३३
अम्बर (पा) सब द्रव्योंको स्थान देनेवाला आकाश द्रव्य ७/२
अम्बिका (व्य) राजा धृतराजकी एक स्त्री ४५।३३
अम्बुज = श्रीकृष्णका पांचजन्य शंख ५५।६१ अम्बुदावर्त (भो) भगली देशका एक पर्वत ६०।२० अम्बालिका (व्य) राजा धृत
राजकी एक स्त्री ४५।३३ अम्मोधि (व्य ) समुद्रविजयके
भाई अक्षोभ्यका पुत्र४८४५ अयन (पा) तीन ऋतुओं -छह मासका एक अयन होता है ७।२१
अयुत '= दश हजार ४२८१ अयोगकेवली (पा) चौदहवाँ
गुणस्थान ३१८३
अयोध्य (व्य) भरत चक्रवर्तीका सेनापति ११।२३
अयोधन (व्य ) धारणयुग्म नगर का राजा २३।४६ अयोधन (व्य) राजा मत्स्यका सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र १७।३१ अयोध्या (भी) विदेहकी एक नगरी ५।२६३ आयुकर्म (पा) नरकादिपर्यायका
कारण कर्म ५८।२१७ अर (व्य) सप्तम चक्रवर्ती
८९९
अर (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०१५६० अरम् = शीघ्र ३५।३०
अर (व्य ) अठारहवें तीर्थंकर सातवें चक्रवर्ती ४५/२२ भरजा ( भी ) विदेहकी एक नगरी ५।२६२
अरविभाषा (पा) सत्यप्रवाद
पूर्वकी बारह भाषाओं में से एक भाषा १०।९४ अरिंजय (व्य ) विनमिका पुत्र
२२ १०४
अरिंजय (भो) वि. द. नगरी २२।९३
अरिंजयपुर (भौ)
विदेहका
एक नगर ३४।१८ अरिंजय (व्य) अरिंजयपुरका
राजा ३४।१८
अरिंजय (भौ) वि. उ. नगरी २२।८६
अरिन्दम (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५
अरिन्दम (व्य ) एक मुनि १९८२ अरिष्टनेमि (व्य) राजा मही
दत्तका पुत्र १७ २९ अरिष्ट (भौ) ब्रह्मयुगलका पहला इन्द्रक ६।४९
अरिष्टपुर ( भी ) विदेहका एक नगर ६०।७५
अरिष्टपुर (भौ) एक नगर जहाँ राजा रुधिर रहता था ३१।९
अरिष्टविमान (भौ ) यमलोकपालका विमान ५।३२५ अरिष्टसेन (व्य ) आगामी
चक्रवर्ती ६०।५६५ अरिष्टसेन (व्य) धर्मनाथका
प्रथम गणधर ६०/३४८
अरिष्ट (भी) रुचकगिरिका एक
कूट ५।७०५
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________________
९००
हरिवंशपुराणे
अरिष्टा (भौ) धूमप्रभाका रूढ़ि
नाम ४।४६ अरिष्टनेमि (व्य) बाईसवें तीर्थ
कर १।२४ अरिष्टनेमि (व्य) समुद्रविजयके
पूर्व बाईसवें तीर्थंकर
४८।४३ अरिषड्वर्ग=काम, क्रोध, लोभ,
मोह, मद और मात्सर्य यह
अन्तरंग छह शत्रु है १७।१ अरुण, अरुणप्रभ (व्य) अरुण
द्वीपके रक्षक देव ५।६४५ अरुण (भो) सौधर्म युगलका
छठा इन्द्रक ६।४४ अरुण (व्य) हरिक्षेत्रके नाभि
गिरिपर रहनेवाला व्यन्तर
देव ५।१६४ भरुणद्वीप (भो) नौवाँ द्वीप
५।६१७ अरुणसागर (भो) नौवां सागर
५।६१७ अरुण (व्य) लौकान्तिक देवका
एक भेद ५५।१०१ अरुणोद्भासद्वीप (भौ) दसवां
द्वीप ५।६१७ अरुणोद्रास सागर (भी) नौवाँ
सागर ५१६१७ अर्क (व्य) लौकान्तिक देवका
एक भेद . दूसरा नाम
आदित्य ५५।१०१ अर्क (व्य) राजा वसुका पुत्र
१७१५८ अर्कप्रम (व्य) कापिष्ठ स्वर्गका
एक देव ( रश्मिवेगका
जीव) २७।८७ अर्कमूल (भौ) वि. द. नगरी
२२९९ अर्चाख्य (पा) स्फटिक सालका
उत्तर गोपुर ५७१६०
अर्चि (भौ) पहला अनुदिश अलम्जल = गोली ५।४४५
अलम्बुष (व्य) विजयका पुत्र अचिर्माली (व्य) किन्नरोद्गीत ४८०४८ ___ नगरका राजा १९८१ आलोक = प्रकाश २।१० अर्चिमालिनी (भो) दूसरा अनु
अलंकार = वैणस्वरका एक भेद दिश ६६३
१९।१४७ अर्चिष्मान् (व्य) जरासन्धका अवक्रान्त (भी) रत्नप्रभा पुत्र ५२।४०
पृथिवीके बारहवें प्रस्तारका भर्जुन (व्य) पाण्डव ४५।२
इन्द्रक विल ४७७ अर्थपद (पा) अर्थबोधक पद- अवग्रह (पा) मतिज्ञानका भेद
समूहको अर्थपद कहते है १०।१४६ १०।२३
अवतंस = कानका आभूषण अर्थ (पा) आग्रायणी पूर्वकी
४३१२४ वस्तु १०७९
अवदात = उज्ज्वल २।३२ अर्हत् = अरहन्त १।१३
अवधिज्ञामचक्षष - अवधिज्ञानके अर्हदत्त (व्य)धनदत्त और नन्द
धारक ३।४७ __ यशाका पुत्र १८।११५ अवध्या (भौ) विदेहकी एक अर्हद्भक्ति = भावना ३४।१४१ ___ नगरी ५।२६३ अर्हदास (व्य) गन्धिला देशकी अवनद्ध = चमड़े मढ़े हुए मृदंग
अयोधा नगरीका राजा आदि वादित्र १९।१४२ २७।११२
अवयव = तालगत गान्धर्वका अहंदास (व्य) धनदत्त और प्रकार १९।१५१
नन्दयशाका पुत्र १८।११४ अवाय (पा) मतिज्ञानका भेद अर्हदास (व्य) ज. वि. सुपमा १०११४६ .
देशके सिंहपुर नगरका ____ अवर्णवाक् (पा) मिथ्यादोष । राजा ३४/३
कथन ५८९६ अलका (व्य) मद्रलिसा नगरीके अवसर्पिणी (पा) जिसमें बुद्धि, सेठकी स्त्री ३३।१६७
बल, विद्या आदि सद्गुणोंअलका (व्य) मेघदलपुरके सेठ का ह्रास हो ऐसा कालभेद ___ मेघकी स्त्री ४६।१५
१२२६ अलका (भौ) विद्याधरोंकी - अवसर्पिणी (पा) दश कोड़ानगरी ६०११८
कोड़ी अद्धा सागरोंकी एक अलंकारविधि = शरीर स्वरका अवसर्पिणी ७५६-५७ भेद १९।१४८
अवसंज्ञ (पा) अनन्तानन्त परअलोक (पा) लोकके बाहरका ___ माणुओंका समूह ७३७
अनन्त आकाश २।११० अवन्तिसुन्दरी (व्य) वसुदेवकी अलोकाकाश (पा) चौदह राजु
एक स्त्री ३१७ प्रमाण लोकके बाहरका अविदार्य = तालगत गान्धर्वका अनन्त आकाश ४१
एक प्रकार १९।१५१
-
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शब्दानुक्रमणिका
९०१
अविपाकजा (पा) निर्जराका
भेद ५८।२९५ अविध्वंस (व्य) विभुका पुत्र
१३।११ अशनिघोष (व्य) मानुषोत्तरके
अंजनकूटपर रहनेवाला
देव ५।६०४ अशनिवेग (व्य) विजया
पर्वतके कुंजरावर्त नगरका
राजा १९७० अशनिवेग (व्य)अचिर्माली और
प्रभावतीका पुत्र १९४८१ अशनिवेग (व्य) वसुदेवका
सम्बन्धी एक विद्याधर
५११२ अशय्याराधिनी = एक विद्या
२२१७० अशित (व्य)एक राजा५०।१३० भशुमभुति (पा) अनर्थदण्डका
भेद ५८।१४६ अशोक (व्य) एक राजा६०।६९ भशोक (भो) वि. उ. नगरी
२२।८९ अशोकपुर (भौ) अशोक नामक
देवका निवास स्थान५।४२६ अशोकवन (भी) विजयदेवके
नगरसे २५ योजन दूर पूर्वमें
स्थित एक वन ५।४२२ अशोका (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके
पश्चिम दिशा सम्बन्धी अंजनगिरिकी पूर्व दिशामें
स्थित वापिका ५।६६२ अशोका (व्य) राजा प्रचण्ड
वाहनकी पुत्री ४५।९८ अशोका (भी) विदेहको एक
नगरी ५।२६२ अश्मक(भो) देशका नाम ११७० अश्मगर्भ = नीलमणि ५।१७८
अश्मगर्भकूट (भी) मानुषोत्तर
पर्वतकी पूर्व दिशाका एक
कूट ५।६०२ अश्वकण्ठ (व्य) आगामी प्रति
नारायण ६०१५७० अश्वक्रान्ता. = षड्जस्वरकी
मूर्च्छना १९।१६२ अश्वग्रीव (व्य) अागामी प्रति
नारायण ६०५७० अश्वग्रोव (व्य) त्रिपिष्टिक
नारायणका प्रतिनारायण
२८/३१ अश्वग्रीव (व्य) एक शास्त्र
५२।५५ अश्वग्रीव (व्य)पहला प्रतिनारा
यण ६०१२९१ अश्वत्थामा (व्य) द्रोणाचार्यका
पुत्र ४५।४८ __ अश्वपुरी (भौ) विदेहकी एक
नगरी ५।२६१ अश्वयुज = आश्विन माह
५६।११२ अश्विनी (व्य)द्रोणाचार्यकी स्त्री
४५१४८ अश्वसेन (व्य) वसुदेव और ____ अश्वसेनाका पुत्र ४८५९ अष्टअष्टम-व्रतविशेष ३४।९३-९४ अष्टम = तीन उपवास ३४।१२५ अष्टगुणात्मक (वि) ज्ञान, दर्शन,
अब्याबाधत्व, सम्यक्त्व, अवगाहनत्व,सूक्ष्मत्व,अगुरुलघुत्व,वीर्य इन आठ गुण
रूप मोक्ष २।१०९ अष्टापद = कैलास पर्वत १९।८७ अष्टप्रातिहाय - अशोक वृक्ष,
सिंहासन, छत्रत्रय आदि
आठ प्रातिहार्य २०६७ अष्टप्रातिहार्य (पा) समवसरण में
प्राप्त होनेवाले, जिनेन्द्र के आठ विशेष भूषण-१
अशोक, २ सिंहासन, ३ छत्रत्रय, ४ भामण्डल, ५ दिव्यध्वनि, ६ पुष्पवृष्टि, ७ चतुःषष्टि चामर, ८ दुन्दुभि
बाजा अष्टमभक्त = तीन दिनका उप
वास १९८ असंग (व्य) वज्रधर्मका पुत्र
४८।४२ असंभ्रान्त (भी) रत्नप्रभा
पृथिवीके सातवें प्रस्तारका
इन्द्रक विल ४७६ असमीक्ष्याधिकरण (पा) अनर्थ
दण्डका अतिचार५८।१७९ असंयतसम्यग्दृष्टि (पा) चतुर्थ
गुणस्थान ३३८० । असांप्रत = अनुचित- अयुक्त
५४।६२ असितपर्वत (भी) वि.उ. नगरी
२२।९६ असुधारिन् =प्राणी २०२० असुर-भवनवासी देवोंका एक
भेद ४।६३ असुरोद्गीत (भौ) विद्याधरोंका
एक नगर ४६।८ अस्वष्ट (भौ) देशविशेष ३।३ अस्तिकाय (पा) बहुप्रदेशी द्रव्य
(कालको छोड़कर जीवादि
पाँच द्रव्य) ४.५ अस्ति-नास्तिप्रवाद(पा)पूर्वगत
श्रुतका एक भेद ३।९८ भस्नान(पा) मुनियोंका एक मूल
गुण जीव-रक्षाके लिए स्नान
न करना २।१२८ अहमिन्द्र (पा) अवेयक आदिके
वासी देव ३।१५१ अहिंसामहाव्रत (पा)षट्कायिक 'जीवोंकी हिंसासे निवृत्ति २।११८
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९०२
अहोरात्र (पा) तीस मुहूर्त्तका एक दिन-रात होता है
७।२१
अंशुमान् (व्य) वसुदेवका साला कपिलाका भाई २४।२७ अंशुमान् (व्य ) नमिका पुत्र
२२।१०७
[ आ ]
आकर (पा) सोना-चाँदी आदिकी
खानोंसे युक्त नगर २३ आकाशगता (पा) दृष्टिवाद अंगके चूलिका भेदका उपभेद १०।१२३
आकूपारम् = समुद्रपर्यन्त ११३८ आखण्डल (व्य ) इन्द्र २५ आख्यान ( तिङन्त) = पदगत गान्धर्व की विधि १९ १४९ आक्रन्द (पा) असातावेदनीयका आस्रव ५८।९३
आगति
गन्धर्वका
= तालगत
एक प्रकार १९५१
आग्नेय = विद्यास्त्र २५१४७
आचाराङ्ग (पा) द्वादशांगका एक भेद २९२
आचाम्लवर्धन = व्रत विशेष
३४।९५-९६ आचार्य मक्ति=भावना ३४ । १४१ आचिता = व्याप्त ५५/२
आजवञ्जव = संसार १।१३
आज्ञानिक (पा) मिथ्यात्वका एक
भेद ५८ १९४
आज्ञाविचय (IT) धर्म्यध्यानका
भेद ५६।४९ आज्ञाव्यापादिकी (पा) एक क्रिया ५८।७७ आस्मान्जन ( भी ) पूर्व विदेहका वक्षार गिरि ५।२२९ आत्मप्रवाद (पा) पूर्व गतश्रुतका एक भेद २९८
हरिवंशपुराणे
आत्रेय (व्य ) भार्गवाचार्यका प्रथम शिष्य ४५ ॥४५ आत्रेय (भी) देश विशेष ३३५ आदिस्य विद्या निकायका नामान्तर २२।५८
आदित्य (व्य) लौकान्तिक देवों का एक भेद ९१६४
आदित्य ( भी ) अनुदिशों का इन्द्रक ६।५४
आदित्य ( भी ) अनुत्तर विमान
६१६४
आदित्य (व्य )
लौकान्तिक
देवोंकी एक जाति २।४९ आदित्यधर्मा (य) जरासन्धका पुत्र ५२।३८
आदिश्यनगर ( भी ) विजयार्धकी
उत्तरश्रेणीकी नगरी २२१८५ आदिव्यनाग (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३२ आदित्ययशस् (व्य) भरत चक्रवर्तीका पुत्र प्रचलित नाम अर्ककीर्ति १३१ आदिस्याभ (व्य ) लान्तवेन्द्र २७ ११४
आधि = मानसिक व्यथा ८|२८ आनक (व्य) वसुदेव १९० आनकदुन्दुभि (व्य ) वसुदेव ५१।७
आनत ( भी ) तेरहवाँ स्वर्ग
६।३८ आनत (भी) आनतस्वर्गका प्रथम
इन्द्रक ६।५१ आनन्द ( भो) वि. द. नगरी २२।९३
आनन्द (व्य) एक राजा५०।१२५ आनन्दा (भौ) नन्दीश्वर द्वीपसे उत्तर दिशा सम्बन्धी अंजनगिरिको पश्चिम दिशा में स्थित वापिका ५।६६४
आनन्दा (व्य) रुचिकगिरिके अंजनकूटपर रहने वाली देवी ५।७०६
आनन्दा (पा) समवसरणके अशोक वनकी वापिका ५७/३२
आनन्द (भो) वि. उ. नगरी २२८९
आनन्द कूट (भौ) गन्धमादनका
एक कूट ५।२१८ आनन्दवती (पा) समवसरण के अशोक वनको वापिका ५७/३२
आनन्दपुर (भी) जरासन्धके नष्ट
होनेपर यादवोंने जहाँ आनन्द नृत्य किया था५३।३० आनन्द श्रेष्ठी (व्य) एक सेठ
६०/९७ आनन्दिनी = भेरी ४०।१९ आनयन (पा) देशव्रतका
अतिचार ५८।१७८ आन्ध्री = मध्यमग्रामके आश्रित जाति १९।१७७
आप्त = रागादि दोष तथा ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोसे रहित १०।११
आप्य = जलकायिक जीव १८।७० आभियोग्य = देवोंकी एक जाति ३।१३६
आभीर ( भी ) देशका नाम ११।६६ आभ्यन्तर परिग्रह (पा) मिथ्यात्व
क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्यादि ९ नोकषायके भेदसे १४ प्रकारका आभ्यन्तर परिग्रह २।२१ आमलक = आंवला ७।६९ आमोद : = गन्ध २।३३ आर ( भी ) पंकप्रभा पृथिवीके प्रथम पटलका इन्द्रक४ । १२९
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आरण ( भी ) पन्द्रहवाँ स्वर्ग
६।३८
आरण ( भी ) अच्युत स्वर्गका दूसरा इन्द्रक ६।५१ आरण (भौ) पन्द्रहवाँ स्वर्ग
४११६
आरम्भ ( भी ) कार्य करना शुरू
करना ५८।८५
'कूष्माण्ड देवी = एक विद्या २२।६४
आर्य
आर्त्तध्यान (पा) खोटा ध्यान १ इष्टवियोगज २ अनिष्ट योगज ३ वेदनाजन्य ४ निदान ५६१४
आर्य विद्याके निकायका नामान्तर २२।५८ आर्य (व्य) पवनगिरि और मृगावतीका पुत्र - सुमुखका जीव १५।२४ आर्या = साध्वी २७० आर्यवती = एक विद्या २।६५ आर्षमी = षड्ज स्वरसे सम्बद्ध जाति ११११७४ आवाप=तालगत गान्धर्वका एक
प्रकार १९।१५० आवर्त (भौ) वि
२२।९५
आवर्त (भो) देशका ११।७३ आवर्ता (भौ) पश्चिम विदेहका एक देश ५।२४५ आवली (पा) असंख्यात समयकी
एक आवली होती है ७।१९ आवश्यक परिहाणि = भावना
=
द. नगरी
३४।१४२
आवृष्ट (भी) देशका
११।६५
आशा = दिशा ३।२७ आशा (व्य )
नाम
नाम
रुचिकगिरिके
शब्दानुक्रमणिका
कांचन कूटपर रहने वाली
दिशारूपी
देवी ५।७१६ आशा विश्वम्मराः पृथिवियाँ ३।३२
आशीविष (भो) पश्चिम विदेहका वक्षारपीठ ५।२३० आशीविषवधू = सर्पिणी ५४।२४ आषाढ़ (भौ) विद नगरी २२।९५
=
आसादन (पा) ज्ञानाव. और दर्शनाव. का आस्रव ५८।९२ आसिङ्क (भी) देशका नाम
११।७०
आसुवसु (व्य) वसुध्वजका पुत्र ६६।४
आस्थाङ्गणा (पा) समवसरणकी एक भूमि ५७/१२ औडव = चौदह मूर्च्छनाओंका एक स्वर १९।१६९ औपशमिक (CT) सम्यग्दर्शनका एक भेद ३ । १४४ औषधी (भी) विदेहकी नगरी ५/२५७ औषधीश = चन्द्रमा ४२।३ आधि= मानसिक व्यथा २८ २८
[इ] इक्षुवरद्वीप ( भी ) सातवाँ द्वीप
५।६१५
इक्षुवर सागर (भौ) सातवाँ सागर ५/६१५
इक्ष्वाकु (व्य) = इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए राजा २१४ इन = सूर्य २।९
स्वामी ३५।१५
=
इन = इभ्य सेठ ४५।१०० इमपुर (भी) हस्तिनापुर९ । १५७ इमवाहन (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१५
९०३
इन्दीवरा (व्य) राजा प्रचण्ड
वाहनकी पुत्री ४५।९८ इन्दु = चन्द्रमा २।२५ इन्दुवर (भो) अन्तिम सोलह द्वीपों में पन्द्रहवां द्वीप ५।६२५
इन्द्र (पा) देवोंके स्वामी ३१५१ इन्द्रक ( भी ) रत्नप्रभा आदि पृथिवियों के पटलों के मध्यगत विल ४|१०३ इन्द्रक निगोद = नरकोंके इन्द्रक नामा विल ४ ३५२ इन्द्रगिरि (व्य ) एक राजा
गान्धारीका पिता ६०।९३ इन्द्रगिरि (व्य) गान्धार देशकी पुष्कलावती नगरीका राजा
४४/४५
इन्द्रजुष्ट (वि) इन्द्रके द्वारा सेवित १।१० इन्द्रद्युम्न (व्य ) सूर्यका पुत्र १३।१०
इन्द्रकी प्रेरणासे
इन्द्रध्वज (पा) समवसरणकी एक भूमि, जिसमें हेमपीठ होता है ५७८५ इन्द्रमोदना २६८ इन्द्रपुर ( भी ) पौलोम और चरमके द्वारा रेवाके तटपर बसाया हुआ नगर १७।२७ इन्द्रभूति (व्य ) भगवान् महावीर
=
का प्रथम गणधर अपर नाम गौतम ३।४१ इन्द्रवीर्य (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२७ इन्द्रशर्मा (व्य) गिरितट नगरका एक ब्राह्मण २४।१ इला (व्य) रुचिकगिरिके लोहिताख्य कूटपर रहनेवाली देवी ५।७१२
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९०४
इला (व्य) राजा दक्षकी स्त्री
१७१३ इलाकूट (भी) हिमवत् कुला
चलका चौथा कूट ५।५३ । इलावर्धन (भौ) राजा दक्षकी
इला रानीके द्वारा बसाया
हुआ नगर १७११८ इलावर्धनपुर (भौ) एक नगर
__ जहाँ वसुदेव पहुँचे २४।३४ इष्वाकार (भो) धातकीखण्ड
और पुष्कराध द्वीपमें स्थित, पूर्व और पश्चिम भागके
विभाजक पर्वत ५।४९४ इष्वाकार पर्वत (भौ) पुष्कर
द्वीपके दक्षिण और उत्तर में स्थित पूर्व और पश्चिम भागका विभाग करनेवाले पर्वत ५१५७८
हरिवंशपुराणे
[उ ] उग्रसेन (व्य) मथुराका राजा
११९३ उग्रसेन (व्य) श्रीकृष्णके पक्षका
राजा ५०१६९ उग्रसेन (ग) भोजकवृष्णि और
पद्मावतीका पुत्र १८०१६ उच्छ्वास-निश्वास(पा) संख्यात
आवलियोंका समूह ७।१९ उज्जयिनी (भौ) नगरी६०।१०५. उज्ज्वलित (भौ) बालुकाप्रभा
पृथिवीके समस्त प्रस्तरका
इन्द्रक विल ४।१२४ उत्कीलन = एक दिव्य ओषधि
२१११८ उस्कृष्ट शातकुम्भ = व्रतविशेष
३४४८७-८९ उस्कृष्टसिंह निष्क्रीडित =एक
उपवास व्रत ३४६८० उत्तमपात्र (पा) रत्नत्रयसे युक्त
मुनि आदि ७।१०८ उत्तमवर्ण (भौ) देशविशेष
१११७४ उत्तरकुरु (भौ) नील कुलाचल
और मेरुके बीच में स्थित प्रदेश, जहाँ भोगभूमिकी
रचना है ५।१६७ उत्तरकुरु (भौ) नीलपर्वतसे साढ़े
पाँच सौ योजन दूर, नदीके
मध्यमें स्थित हद ५।१९४ उत्तरकुरु कूट (भो) माल्यवान्
पर्वतका कूट ५।२१९ उत्तरकुरु कूट (भी) गन्धमादन
पर्वतका एक कूट ५।२१७ उत्तरमन्द्रा = षड्ज स्वरकी
मूर्च्छना १९।१६१ उत्तरश्रेणी (भौ) विजयापर्वत
की उत्तर कगार, जिसपर साठ नगर स्थित है ५।२३
उत्तराध्ययन (पा) अंगबाह्य
श्रुतका एक भेद २।१०३ उत्तराफाल्गुनी-एक नक्षत्र २।२३ उत्तरायता = षड्जस्वरकी
मूर्च्छना १९।१६१ उत्तरार्ध (भौ) विजयार्धका
आठवाँ कूट ५।२७ उत्तरार्ध कूट (भौ) ऐरावतके
विजयाधका दूसरा कूट
५।११० उत्तानशय = चित्त सोनेवाला
बालक ४२।१६ उत्पला (भौ) मेरुकी आग्नेय
दिशामें स्थित एक वापी
५।३३४ उत्पलगुल्मा (भौ) मेरुपर्वतकी
आग्नेय दिशामें स्थित
वापी ५।३३४ उत्पलोज्ज्वला (भौ) मेरुकी
आग्नेय दिशामें स्थित एक
वापी ५।३३५ उत्पाद (पा) नवीन पर्यायका
उत्पन्न होना ११ उत्पादपूर्व (पा) पूर्वगत श्रुतका
एक भेद २।९७ उत्पातिनी = एक विद्या २२१६८ उत्सर्पिणी (पा) दस कोडाकोड़ी
अद्धा सागरोंकी एक उत्स
पिणी ७।५६-५७ उदक (व्य) आगामी तीर्थ
६०१५५९ उदक, उदवास (भौ) लवण
समुद्रमें दक्षिण दिशाके कदम्बुक पातालके दोनों ओर स्थित दो पर्वत
५।४६१ उदक, उदवास (व्य) लवण
समुद्र में शंख और महाशंख पर्वतके निवासी देव५।४६२
ईति-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक,
शलभ, शुक और निकटवर्ती राजाओंके उत्पात, ये छह
उपद्रव १११८ ईर्यापथ (पा) आस्रवका भेद
५८१५९ ईर्यापथ क्रिया (पा) एक क्रिया
५८।६५ ईर्यासमिति (पा) प्रमादरहित
हो चार हाथ जमीन देख
कर चलना २।१२२ ईश्वर (व्य) नेमिनाथ भगवान्
५५।१०६ ईषत्प्राग्मार पृथिवी (
आठवीं पृथिवी ६१४० ईहापुर (भौ) एक नगर ४५।९३ ईहा (पा) मतिज्ञानका भेद
१०।१४६
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उदधि (व्य ) दुर्योधनकी पुत्री, जो प्रद्यम्नको विवाही गयी ४७ ९१ उदधि (व्य) कृष्णका पुत्र४८।७० उदधिकुमार = भवनवासी देवों
का एक भेद ४।६३ उदय (पा) स्फटिक सालका पूर्व गोपुर ५७५७ उदय (पा) आग्रायणी पूर्वके चतुर्थ
प्राभृतका योगद्वार १०१८३ उदय (पा) स्फटिक सालका उत्तर गोपुर ५७।६० उदयपर्वत (भी) वि. द. नगरी २२।९९
उदात्त = वेदमें प्रयुक्त होनेवाला स्वरविशेष ( उच्चैरुदात्तः) १७१८७ उदितपराक्रम (व्य ) सुवीर्यका पुत्र १३।१०
उदीच्यवा = षड्जस्वरसे सम्बद्ध जाति १९।१७४ उद्ध = उत्कृष्ट २।१५ उद्धव (व्य) समुद्रविजयके भाई अक्षोभ्यका पुत्र ४८/४५ उद्धारपल्य (पा) कालका एक परिमाण ७१४९-५० उद्धारसागर (पा) दश कोड़ा
कोड़ी उद्धारपत्योंका एक उद्धार सागर ७१५१ उद्भ्रान्त (भौ) रत्नप्रभाके
पंचम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४७६
=
उद्यभाषण (अनुवीचिभाषण ) आगमानुकूल वचन बोलना ५८११९
उदंग, उदवास (व्य) लवणसमुद्र कौस्तुभ और कौस्तुभास पर्वतके निवासी देव ५१४६०
११४
शब्दानुक्रमणिका
उम्मग्नजला (भी) विजयार्धकी गुहामें पड़नेवाली नदी
११।२६
उन्मत्त जला (भी) विदेह क्षेत्रकी एक विभंगा नदी ५१२४० उन्मुख (व्य) नौवाँ नारद ६०१५४८
उन्मुण्ड (व्य) बलदेवका पुत्र ४८ ६६
उन्मूल व्रणरोह = एक दिव्य ओषधि २१।१८. उपक्रम (पा) आग्रायणी पूर्वके चतुर्थ प्राभृत
योगद्वार
१०१८३
उपनन्दन ( भी ) मेरुका एक वन ५।३०८
उपपाण्डुक (भौ) मेरुका एक वन ५।३०९
उपभोग (पा) जो एक बार भोगनेमें आये ५८।१५५ उपभोगपरिभोग परिमाण (पा) शिक्षाव्रतका भेद ५८ १५५-५६ उपमोगादिनिरर्थन ( पा ) अनर्थदण्ड व्रतका अतिचार ५८।१७९
उपसौमनस ( भी ) मेरुका एक वन ५।३०८ उपाधिवाक् भाषा (पा) सत्यप्रवादपूर्वकी द्वादश भाषाओंमें से एक भाषा १० । ९४ उपाध्याय (व्य )
उपाध्याय
परमेष्ठी १।२८ उपाध्याय (पा) आग्रायणीपूर्वकी वस्तु १०८० उपायविचय (पा) धर्म्यध्यान
का भेद ५६।४१ उपायानाय = उपायरूपी जाल
५०।१५
९०५
उपशमक (पा) चारित्रमोहका उपशम करनेवाला ३३८२ उपशान्त कषाय (पा) ग्यारहवाँ
गुणस्थान ३१८२
उपसर्ग = पदगत गान्धर्व की विधि १९।१४९
उपसर्ग (पा) देव, मनुष्य, पशु और अचेतनकृत उपद्रव १।१२३
उपांशु = एकान्त १९।१४ उर्वरा = भूमि ३६।४ उरश्छद = कवच ११।१३ उलूक (व्य) कृष्ण और जरासन्धके
युद्धका एक पात्र जिसका नकुल के साथ युद्ध हुआ ५१।३०
उल्मुक (व्य) एक राजा५०।८३ उशीरावर्त (भी) एक देश, जहाँ
चारुदत्त व्यापार के लिए गया था २१।७५ उषा (व्य) शोणितपुर के निवासी बाण विद्याधरकी पुत्री ५५।१७
[ ऊ ]
ऊर्जयन्त ( भी ) गिरिनार पर्वत
१।११५ ऊर्ध्वव्यतिक्रम (पा) दि. व्रतका अतिचार ५८।१७७ ऊर्मिमान् (व्य) स्तिमितसागरका पुत्र ४८|४६ ऊर्मिमालिनी (भौ) विदेहकी विभंगा नदी ५।२४२ रुधर्म (व्य) एक मुनि ६०।११० ऊह (पा) चौरासी लाख ऊहांगों
का एक ऊह ७।३० ऊहाङ्ग (पा) चौरासी लाख अममांगों का एक ऊहांग ७।३०
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९०६
ऐलेय (व्य) राजा दक्ष और __ इलाका पुत्र १७१३ ऐशान (भौ) द्वितीय स्वर्ग
४।१४ ऐशान = विद्यास्त्र २५६४९ ऐशान (भौ) दूसरा स्वर्ग ६३६ ऐशान = द्वितीय स्वर्गका इन्द्र
२०३८
हरिवंशपुराणे एकशैल ( भो ) पूर्वविदेहका ।
वक्षारगिरि ५।२२८ एकातपत्र = अद्वितीय ३१३६ एकादशाङ्ग = आचारांग आदि
ग्यारह अंग एकावलीविधि = एक उपवास
३४।६७ एणीपुत्र (व्य) श्रावस्तीका राजा
२८.५ एणीपुत्र (व्य) श्रावस्तीके राजा
शीलायुधकी ऋषिदत्ता
स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र २९।५३ एरा(व्य)राजा विश्वसेनकी स्त्री,
भगवान् शान्तिनाथकी
माता ४५।१८ एवंभूत (पा) एक नय ५८।४१ एषणा समिति (पा) दिनमें एक
बार शुद्ध आहार ग्रहण
करना २।१२४ एषणा समिति व्रत = व्रतविशेष
३४।१०८
[क] ककुभ-पूर्वादि दशों दिशाएँ ११८ कच्छ (व्य) ऋषभदेवका गणधर
[ ऋ] ऋजुकूलापगा (भौ) गिरीडीहके
पासकी वराकट नदी
२।५७ ऋजुमति (पा) मनःपर्ययज्ञानका
एक भेद १०।१५३ ऋजुसूत्र (पा) एक. नभ
५८.४१ ऋतु (भौ) सौधर्म युगल में प्रथम
इन्द्रक ६।४४ ऋतु (पा) दो मासको एक ऋतु
होती है ७२१ ऋद्धीश (भी) सौधर्म युगलका
तेरहवाँ इन्द्रक ६।४५ ऋषभ = एक स्वर १९।१५३ ऋषभ (व्य) प्रथम तीर्थंकर
९।७३ ऋषि = ऋद्धिधारी मुनि
३.६१ ऋषिगिरि (भौ)राजगृहीकी एक
पहाड़ीका नाम ३१५३ ऋषिगुप्त (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६३ ऋषिदत्त (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६३ ऋषिदत्ता (व्य) अमोघदर्शनकी
चारुमति स्त्रीसे तापसोंके वनमें उत्पन्न कन्या२९॥३४
१२।६८
कच्छकावती (भौ)पश्चिम विदेह
का एक देश ५।२४५ कच्छा (भी) पश्चिम विदेहका
एक देश ५।२४५ कच्छा कूट (भी) माल्यवान्
पर्वतका एक कूट ५।२१९ कजला (भौ) मेरुके नैऋत्यमें
स्थित एक वापी ५।३४३ कजलप्रमा (भौ)मेरुके नैऋत्यमें
स्थित एक वापी ५।३४३ कण्ठक-गलेका आभूषण ६२१८ कदन = युद्ध १११०८ कदम्बुक (भौ) लवणसमुद्र का
पश्चिम दिशास्थित पाताल
५।४४३ कनक कनकाम (व्य) घृतवर
समुद्रके रक्षक देव ५।६४२ कनक (व्य) आगामी प्रथम मनु
६०१५५५ कनक कूट (भी) मानुषोत्तरको
पश्चिम दिशाका एक कूट
५६०४ कनककेशी (व्य) खमाली तापस
की स्त्री २७।११९ कनकपुञ्जश्री (व्य) नमिकी पुत्री
२२।१०८
[ऐ] ऐरावण (भौ) नील पर्वतसे साढ़े
पाँच सौ योजन दूर नदीके मध्यमें स्थित एक ह्रद
५।१९४ ऐरावत = सौधर्मेन्द्रका हाथी
३८।२१ ऐरावतकूट (भौ) शिखरिकुला
चलका दसवाँ कूट ५।१०७ ऐरावत (भो)जम्बू द्वीपकी उत्तर
दिशामें शिखरिन् कुलाचल
और लवणसमुद्रके मध्य स्थित सातवा क्षेत्र ५।१४ ऐरावती (भौ) एक नदी . २७।११९ ऐरावती (भौ) एक नदी
२१११०२
[ए] एक कल्याणविधि % व्रतविशेष
३४।११० एकस्ववितर्कावीचार(पा) शुक्ल
ध्यानका दूसरा भेद ५६०६५ एकपर्वा = एक विद्या २२।६७ एकभक्त (पा) मुनियोंका एक
मूलगुण, दिनमें एक बार ही भोजन करना २।१२८
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शब्दानुक्रमणिका
९०७
कनक कूट (भौ) रुचिकगिरिका कन्दर्प (पा) अनर्थदण्डव्रतका कमला (व्य) चित्रबुद्धि मन्त्रीकी एक कूट ५।७०५ अतिचार ५८।१७९
स्त्री २७।९८ कनक (भौ) कुण्डलगिरिकी पूर्व- क्षपक श्रेणी (पा) जिसमें चारित्र- कमलाङ्ग (पा) चौरासी लाख
दिशाका एक कूट ५।६९० मोह कर्मका क्षय होता है नलिनोंका एक कमलांग कनकचित्रा (व्य) रुचिकगिरिके ५६४८८
७।२७ नित्यालोक कूटपर रहने- कपाट (पा) लोकपूरण समुद्- कम्बल (व्य) जरासन्धका पुत्र वाली देवी ५।७१९
घातका दूसरा चरण५६।७४ ५२।३७ कनकध्वज (व्य) आगामी चौथा कपिल (व्य) एक राजा ५०1८२ कर%D Vड २१३७ मनु ६०१५५५
कपिल (व्य) धातकीखण्डके कराल ब्रह्मदत्त (व्य) एक मुनि कनकपुङ्गव (व्य) आगामी भरतक्षेत्रका नारायण २३॥१५० पांचवाँ मनु ६०५५५
५४।५६
कर्करिका = झारी १५।११ कनकप्रभ (भौ) कुण्डलगिरिकी कपिल (व्य) वसुदेव और कर्कोटक (व्य) धरणका पत्र पूर्व दिशाका एक कूट कपिलाका पुत्र २४।२७
४८।५० ५।६९०
कपिला (व्य) वेदसामपुरके कर्कोटक (भौ) कुम्भकण्टक द्वीपकनकप्रम (व्य) आगामी दूसरा राजा कपिलश्रुतिकी पुत्री
का एक पर्वत २१११२३ मनु ६०१५५५
२४।२६
कर्कोटक (व्य) जरासन्धका पुत्र कनकप्राकार (पा) समवसरणका ___कपिल (व्य) वसुदेव और मित्र- . ५२।३६ स्वर्ण निर्मित कोट ५७।२४ श्रीका पुत्र ४८५८
कर्ण (व्य) राजा पाण्डुका कन्या कनकमञ्जरी (व्य) नमिकी कपिला (व्य) सत्यभामाके. __ अवस्था में कुन्तीसे उत्पन्न पुत्री २२।१०८
भवान्तर वर्णनसे सम्बद्ध पुत्र ४५।३७ कनकमाला (व्य) राजा काल
एक स्त्री ६०११
कर्णसुवर्ण(भौ)जहाँ राजा कर्णने संवरकी स्त्री ४३।४९ कपिलश्रुति (व्य) वेदसामपुरका ___कर्णकुण्डल छोड़े थे ५२।९० कनकमाला (व्य) महेन्द्र और राजा २४।२६
कबुक (भौ) देशका नाम ११७१ सानुधरीकी पुत्री ६०८१ कपिष्टल (व्य) वामदेवका शिष्य कर्मक्षयविधि = व्रतविशेष कनकमालिनी (व्य) गिरिनगरके ४५।४६
३४।१२१ राजा चित्ररथकी स्त्री क्षपक (पा) क्षपकश्रेणीवाला कर्मन् (पा) आग्रायणी पूर्वक ३३।१५०
चारित्रमोहका क्षय करने- चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार कनकमेखला (व्य) मेघदल वाला मुनि ३।८२
१०८२ नगरके राजा सिंहकी स्त्री कवल (पा) एक हजार चावल- कर्मप्रवाद (पा) पूर्वगत श्रुतका ४६।१४
का एक कवल-ग्रास होता एक भेद २।९८ कनकराज (व्य) आगामी है ११।१२५
कमभूमि (पा) जहाँ असि, तीसरा मनु ६०१५५५ कमल (पा) चौरासी लाख मषी आदि छह कर्मोसे कनकावलीविधि = एक उपवास कमलांगोंका एक कमल आजीविका होती है ३।११२ व्रत ३४।७३-७७
७।२७
कर्मारवी-मध्यमग्रामके आश्रित कनकावर्त (व्य) सिंह और कमला (पा)समवसरणके चम्पक जाति १९:१७७ कनकमेखलाकी पुत्री
वनकी वापिका ५७१३४ कर्मस्थिति (पा) आग्रायणी ४६।१५
कमला (व्य) उज्जयिनीके पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका कनीयस् (भी) देशविशेष ३४ . वृषभध्वज राजाकी स्त्री
योगद्वार १०१८६ । कन्दर्प - देवविशेष ३।१३६
३३।१०३
कलत्र-स्त्री ११११९
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९०८
कलहमाषा (पा) सत्यप्रवादपूर्व
की १२ भाषाओंमें से एक
भाषा १०१९२ कलधौत = स्वर्ण ११४३ कलध्वान - मधुर शब्द करने
वाले ११४७ कलरव = कबूतर ३६।१ कलिङ्ग (भौ)देशका नाम१११७० कलिङ्गसेना (व्य) चम्पापुरीकी
एक प्रसिद्ध गणिका२११४१ कलिन्दसेना (व्य) राजा जरा
सन्धकी स्त्री १८.२४ कलोपनता = मध्यम ग्रामकी
मूर्च्छना १९।१६३ कल्प (पा) बीस कोड़ाकोड़ी
कालको कल्प कहते है
अव० + उत्सपिणी ७२६३ कल्प (पा)सोलह स्वर्ग ३।१४९ कल्प-स्वर्ग ४।१६ कल्प (पा) आग्रायणी पूर्वकी
वस्तु १०७९ करुपाकल्प (पा) अंग बाह्यश्रुत
का एक भेद २११०४ कल्पपुर (भी) राजा महीदत्तका
बसाया नगर १७१२९ कल्पभूमि (पा) समवसरणको
आधारभूमि ५७।५ कल्पवासिन् =स्वर्गों में रहनेवाले
वैमानिक देव ३।१३५ कल्पव्यवहार (पा) अंग बाह्य
श्रुतका एक भेद कल्पवासस्तूप (पा)समवसरणके
स्तूप ५७.९९ करुपनिवासिनी- स्वर्गकी देवां
गनाएं २१७७ कल्पातीत (पा) सोलह स्वर्गों के
आगेके देव ३३१५० कल्याणपूर्व (पा) पूर्वगतश्रुतका
एक भेद २।९९
हरिवंशपुराणे कल्याणाङ्गण (पा) समवसरणकी
एक भूमि ५७१६७ कल्लीवनोपान्त (भो) देशका
नाम १११७१ काक्षि (भौ) देशका नाम
१११७२ काकणीमणि = चक्रवर्तीका एक
मणि जिससे प्रकाश होता
है ११।२७ काकली = चौदह मूर्च्छनाओंका
एक स्वर १९।१६९ काक्ष (भी) प्रथम पृथिवी
सम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके सीमन्तक इन्द्रककी पूर्व दिशामें स्थित एक महा
नरक ४।१५१ काञ्चन (भो) वि. उ. नगरी
२२१८८ काञ्चन (भो) रुचिकगिरिका
उत्तर दिशा सम्बन्धी कूट
५७१६ काञ्चना (भौ) सौधर्म युगलका
नौवाँ इन्द्रक ६।४५ काञ्चना(व्य)रुचिकगिरिके कुमुद
कूटपर रहनेवाली देवी
५७१३ काञ्चनक (व्य)मेरु पर्वतके कूटों
पर बसनेवाले देव ५।२०४ काञ्चनकूट (भौ) सीता-सीतोदा
नदियोंके तटपर स्थित
पर्वतविशेष ५।२०० काञ्चनकूट (भौ) रुचिकगिरिका
एक कूट ५७०५ काचनकूट (भौ) सौमनस पर्वत____ का एक कूट ५।२२१ काञ्चनपुर (भौ) कलिंगदेशका
एक नगर २४।११ . काञ्चनरथ (व्य)जरासन्धका पुत्र
५२॥३१
कान्ता (व्य) भानुषेणको स्त्री
३३४९९ कादम्बरी मदिरा ६०३६ कान्दिशीक भयसे पलायमान
३०६५ कानीन = कन्या अवस्थाका पुत्र
कर्ण ५०1८८ कापथमलाविल (वि) कुमार्ग
रूपी मलसे मलिन १।१५ कापिष्ट (भौ) आठवाँ स्वर्ग४।१५ कापिष्ठलायन (व्य) एक ब्राह्मण
१८.१०३ कापोतलेश्या = लेश्याका एक
भेद ४।३४३ काम (व्य) रुद्र ६०५७१ काम (व्य) प्रद्युम्न ४८।१३ कामतीव्राभिनिवेश (पा) ब्रह्म
चाणुव्रतका अतिचार
५८।१७४ कामद (व्य) रुद्र ६०५७१ कामदत्त (व्य)श्रावस्तीका एक
सेठ २८।११८ कामदृष्टि (व्य) चक्रवर्तीका
गृहपतिरत्न ११०२८ कामदेव (व्य) श्रावस्तीके काम
दत्त सेठके वंशमें उत्पन्न
हुआ एक सेठ २९।६ कामदेव (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६९ कामपताका (व्य) रंगसेना
गणिकाकी पुत्री २९।२७ काम्बोज(भो)देशका नाम १११६६ कायोत्सर्गनिश्चित समय तक
शरीरसे ममता त्याग
३४।१४६ कार्ण (भौ) देशविशेष ३६ कार्तवीर्य(व्य) गजपुर-(हस्तिना
पुर)के कौरव वंशमें उत्पन्न हुआ एक राजा २५।८।
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काल (पा) परिणमनमें सहायक एक द्रव्य ५८।५६ काल (भौ) सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान इन्द्रककी पूर्व दिशामें स्थित महानरक ४११५८
काल (व्य) कालोदधिका रक्षक देव' ५१६३८
काल (पा) चक्रवर्तीकी एक निधि ११।११०
काल (व्य) पाँचवाँ नारद ६०१५४८
काल-दिति देवीके द्वारा प्रदत्त विद्यानिकाय २२।५९ काल केशपुर (भौ ) वि. द. नगरी २२।९८
कालमुख (व्य) एक राजा ३१।९७ कालमुखी = एक विद्या २२/६६ कालयवन (व्य) राजा जरा
सन्धका पुत्र १८।२४ कालश्वपाकी = विद्याधरोंकी
एक जाति २६।१८ का संवर (व्य) मेघकूट नगरका राजा ४३१४९ कालान्जला = एक अटवी ४६।७ कालातिक्रम (पा) अतिथिका अतिचार ५८।१८३ कालिङ्गी (व्य) पूरणकी स्त्री १९.५
कालिन्दी ( भी ) यमुनानदी
१४/२ कालिन्दी (व्य) सुभानुकी स्त्री ३३।९९
कालियाहि (व्य) यमुनाके ह्रदमें रहनेवाला एक सर्प ३६७ काली एक विद्या २२।६६ कालोदसागर ( भी ) धातकीखण्ड द्वीपको घेरकर स्थित कालोदधि समुद्र ५।५६२
=
शब्दानुक्रमणिका
काव्य = रमणीयार्थके प्रतिपादक शब्दविशेषों का समूह ११४४ काशि ( भी ) देशका ११।६४
नाम
काष्ठा = दिशा ५४/७३ किन्नरोद्गीत ( भौ) विजयार्धका एक नगर १९।८० किरीटी (व्य) अर्जुन ५५/५ किल्विषक = देवोंकी एक जाति ३।१३६ किष्किन्ध (भौ) देशका नाम ११।७३
farm (पा) दो हाथोंका एक किष्कु ७१४५
कीचक (व्य) राजा चूलिकका पुत्र कीर्ति (पा) स्फटिकसालका पूर्व
गोपुर ५७/५७
कीर्ति (द्वितीय) (व्य) कुरुवंशका
एक राजा ४५।२५ कीर्ति (व्य) केसरि सरोवरमें रहनेवाली देवी ५।१३० कोर्तिकूट (भौ)नील कुलाचलका पाँचवाँ कूट ५।१०० कीर्तिमती (व्य) रुचिकगिरिके रुचकोत्तर कूटपर रहनेवाली देवी ५।७१० कुकुन्दर = नितम्बों में पड़नेवाले गर्तविशेष ८|१४ कुञ्जरावर्त (भौ) वि. द. नगरी
२२।९६
कुणिम ( व्य ) ऐलेयका पुत्र १७।२३
कुणीयान् (भौ ) देशका नाम
११।६५
कुण्डपुर (भौ) गोदावरीके निकट एक ग्राम ३१।३
कुण्डपुर (भी) महावीर स्वामीका जन्मस्थान ६६।७
fuse ( भौ) रुचिकगिरिका
६०९
उत्तर दिशा सम्बन्धी कूट ५।७१६
कुण्डलगिरि (भौ ) कुण्डलवर द्वीपके मध्य में स्थित चूड़ीके आकारका एक पर्वत५ । ६८६ कुण्डलवर सागर (भौ) ग्यारहवाँ
सागर ५६१८
कुण्डलवर द्वीप (भी) ग्यारहवां द्वीप ५।६१८
कुण्डला ( भी ) विदेहकी एक नगरी ५।२५९
कुण्डिन (भौ) विदर्भ देशकी वरदा नदीतटपर बसा, एक नगर, इसे कुणिमने बसाया था १७।२३
कुण्डिन (भौ) एक नगर ६० ३९ कुण्डिन (भी) एक नगर रुक्मिणी
का जन्म स्थान ४२।३३
कुतुप = नटोंका समूह २२।१३ कुतीर्थध्याव मिथ्यामतरूपी
अन्धकार १।१४
कुन्तल (भौ) देशका नाम ११ ॥७० कुम्ती (व्य ) अन्धकवृष्णिकी
बहन, पाण्डुकी स्त्री १८।१५ कुन्थु (व्य) श्रेयांसनाथका प्रथम
गणधर ६०|३४७ कुन्थु (व्य) सत्रहवें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती ४५/२० कुन्थु (व्य ) अरनाथका प्रथम
गणधर ६०।३४८ कुपात्र (पा) मिथ्यादर्शन ज्ञान
चारित्रके धारक ७।११४ कुपूतना (व्य) कंसकी पूर्वभव सम्बन्धी विद्या देवता ३५।४२
कुप्यप्रमाणातिक्रम (पा) परिग्रह परिमाणाव्रतका अतिचार ५८।१७६
कुबेर (व्य) देवविशेष १।९९
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हरिवंशपुराणे कुबेरदत्त (व्य) महापुरका एक कुम्मकण्टक (भौ) एक द्वीप सेठ २४/५०
२१११२३ कुब्जा (व्य) शिवादेवीकी एक कुरु (व्य) जयकुमारका पुत्र दासी १९।४१
- ४५।९ कुमारदेव (व्य) धनदेव कुरु (व्य) कुरुवंशका एक दानी
और सुकुमारिकाका पुत्र ४५।१९ ४६।५१
कुरुचन्द्र (व्य) कुरुका पुत्र४५।९ कुमारसेन (व्य ) एक आचार्य कुरुजाङ्गल देश (भो) हस्तिना११३८
पुरका समीपवर्ती प्रदेश कुम्म (व्य) भगवान् ऋषभदेव- ४५।६ का गणधर १२१५५
कुरुद्वय = देवकुरु, उत्तरकुरु५।८ कुमुद (पा) चौरासी लाख कुमु- कुरुमती (भो) एक नगरी
दांगोंका एक कुमुद ७२६ ६०1८५ कुमुद (व्य) वसुदेवका पुत्र कुल(पा)जीवोंके शरीर निर्माण___५०1११५
के योग्य पुद्गल वर्गणाएँ कुमुद (भौ) रुचिकगिरिका कुलकोटी २१११६
पश्चिम दिशा सम्बन्धी कूट कुलकर (पा) मनु, ये १४ होते ५७१३
हैं ७/१२३ कुमुद कूट(भौ) मेरुसे पश्चिमकी कुल कीर्ति (व्य) कुरुवंशका एक ओर शीतोदा नदीसे दक्षिण
राजा ४५०२५ तटपर स्थित एक कूट कुलिशायुध = इन्द्र ३८।२२ ५।२०६
कुश (भी) देशविशेष १११७५ कुमुदाङ्ग (पा) चौरासी लाख कुशद्य (भी) देशविशेष १८४९
निपुणोंका एक कुमुदांग कुशवर द्वीप(भी) पन्द्रहवां द्वीप ७।२६
५।६२० कुमुदामेलक (व्य) भरतचक्र- कुशवर सागर (भौ) पन्द्रहवाँ वर्तीका घोड़ा ११२३
सागर ५।६२० कुमुदप्रभा (भी) मेरुके ऐशानमें कुशाग्र (भो) देशका नाम स्थित एक वापी ५।३४५
१११६५ कुमुदा (भो) मेरुके ऐशानमें ___कुशाग्रपुर ( भो) राजगृहीका
स्थित एक वापी ५।३४५ दूसरा नाम १५।६१ कुमुदा (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके कुशील (पा) मुनिका एक भेद
पश्चिम दिशा सम्बन्धी ६०५८ अंजनगिरिकी पश्चिम दिशा- कुसन्ध्य (भौ) देशविशेष ।
में स्थित वापिका ५१६६२ कुमुदा (पा) समवसरणके चम्पक कुसुमकोमला (व्य) राजा वर्णवनकी वापिका ५७१३४
की पुत्री ४५।६२ कुमुदा (भी) पूर्व विदेहका एक कुसुमचित्रसभा = श्रीकृष्णकी देश ५।२४९
सभा ५५।२
कुसुमवती (भौ) वरुण पर्वतके
समीप पंचनद समागमकी
एक नदी २७।१४ कुसुमावली (व्य) सुनार विद्या
धरकी स्त्री ४६।९ कूटदोष = मिथ्यादोष ४५।१५५ कूटलेख क्रिया (पा) सत्याणुव्रत
का अतिचार ५८।१६७ कूष्माण्ड गणमाता एक विद्या
२२।६४ कृतमाक (व्य) तमिस्रगुहाका
निवासी. देव ११।२१ कुतवर्मा(व्य)एक राजा५०८३ कृतात्मन् (वि) कृतकृत्य ११९ कृति (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०८२ कृतिकर्म (पा) अंगबाह्यश्रुतका
एक भेद २।१०३ कृतिधर्मा (व्य ) हृदिकका पुत्र
४८।४२ कृष्ण (व्य) निर्नामिक जीव,
देवकीका पुत्र ३३।१७३ कृष्ण (व्य) नौवां नारायण
६०।२८९ कृष्णलेश्या (पा) लेश्याका एक
भेद ४।३४४ कृष्णा (व्य) द्रौपदी ५४।३३ केतुमती(व्य) जरासन्धकी पुत्री,
जितशत्रुकी स्त्री ३०।४५ केतुमती (व्य) एक कन्या, जो
पुण्डरीक नारायणकी स्त्री
हुई २६।५२ केतुमाक (भी) वि. उ. नगरी
२२।८६ केतुमाली (व्य)जरासन्धका पुत्र
५२१३५ केतुमालिन् (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२।४०
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केवलज्ञान (पा) सकल प्रत्यक्ष
ज्ञान १०.१५४ केवलिन् = केवलज्ञानके धारक
सर्वज्ञ११५८ केशव = कृष्ण ११११९ केशरिन् (व्य) विजयका पुत्र
४८।४८ - केसरिन् (भौ) नीलकुलाचलका
ह्रद ५१२१ कैकय (भौ)देशका नाम १११६६ कैटम(व्योहेमनाथ औरधरावती
का पुत्र ४३।१६९ कैशिकी-मध्यम ग्रामके आश्रित
जाति १९।१७७ कोदण्ड=(पा) धनुष (चार हाथ
का एक धनुष होता है)
४।३३६ कौण्डिन्य (व्य) वैदिक विद्वान्
.. शब्दानुक्रमणिका कौशिक(व्य) एक ऋषि२५।११ कौशिक (भौ) वि. उ. नगरी
'२२१८८ कौशिक-अदिति देवीके द्वारा
विद्याओंका एक निकाय
२२१५७ . कौशिक (व्य) एक जटाधारी ___ऋषि २९।२९ कौशिका(भौ)एक नगरी४५।६१ कौस्तुभ, कौस्तुमास (भौ)
लवणसमुद्रमें पूर्व दिशाके पाताल विवरकी दोनों ओर
स्थित दो पर्वत ५।४६० क्रम = चरण ८८ क्रमण (व्य) मानुषोत्तरके कनक
कूटपर रहनेवाला देव
५।६०५ क्वाथतोय (भौ) देशविशेष ३।६ क्वाथतोय (भौ) देशका नाम
२०६८
९११ . क्षत्रिय (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता
एक आचार्य ११६२ क्षान्ति (पा) सातावेदनीयका
आस्रव ५८।१४ क्षायिकसम्यक्त्व (पा) दर्शन
मोहकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन सातके क्षयसे होनेवाला सम्यग्दर्शन
२।१३७ क्षायोपशमिक (पा) सम्यग्दर्शन
का एक भेद ३३१४३ क्षुत = छींक ३५।२४ क्षीणकषाय (पा) बारहवाँ गुण
स्थान ३१८३ क्षीरवर द्वीप (भौ) पांचवाँ
द्वीप ५१६१४ क्षीरसागर - (भौ) पांचवा . ___समुद्र २।४२ क्षीरकदम्ब (व्य) एक वेदविद्
ब्राह्मण १७।३८ क्षीरोद सागर (भौ) पाँचवाँ
समुद्र ५।६१४ क्षीरोदा (भौ) विदेहकी एक
विभंगा नदी ५।२४१ क्षुद्र (व्य) एक म्लेच्छ ४६।४९ क्षेत्र (पा) खेत-अन्न उपजनेका
स्थान २।३ क्षेत्रवृद्धि (पा) दिगवतका
अतिचार ५८।१७७ क्षेमंकर (व्य) तीसरा कुलकर
७.१५० क्षेमन्धर (व्य) चौथा कुलकर
७।१५२ क्षेमधूर्त (व्य)एक राजा५०८२ क्षेमपुरी (भौ) सुकच्छा देशकी
राजधानी ५।२५७ क्षेमा (भौ) कच्छा देशकी
राजधानी ५।२५७ क्षोणी-पथिवी।३।१४
कौत्कुच्य (पा) अनर्थदण्डव्रतका
अतिचार ५८1१७९ कोथुमि (व्य) आत्रेयका शिष्य
४५।४५ कौन्तेय युधिष्ठिर आदि पाण्डव
४५।४३ कौमुदी (व्य) श्रीकृष्णको गदा
५३२४९ कौबेर (पा) स्फटिक सालका
उत्तर गोपुर ५७४६० कौशल (भौ) एक देश ४६।१७ कौशल्य (भो) देशविशेष ३।३ कौशाम्ब वन (भौ) एक वन
६२११५ कौशाम्बी (भौ) एक नगरी __३३।१३ कौशाम्बी नगरी (भौ)वत्स देश
की राजधानी १४२ कौशिक = विद्याधरोंकी जाति
२६।१३
क्रियावादी (पा) मिथ्यात्वका
एक भेद ५८।१९४ क्रियाविशाल पूर्व (पा) पूर्वगत
भेद श्रुतका एक भेद२।१०० क्रूर (व्य) वसुदेवकी विजयसेना
स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र
४८१५४ क्रौञ्चवर द्वीप (भी) सोलहवा ___ द्वीप ५।६२० क्रौञ्चवर सागर (भौ) सोलहवाँ
सागर ५१६२० कंस(व्य) वसुदेवका शिष्य राजा
उग्रसेन और पद्मावतीका
पुत्र ३३।२ कंस (व्य) जरासन्धका जामाता __उग्रसेनका पुत्र ५०।१४ कंस (व्य) मथुराका राजा११८७ कंसाचार्य (व्य) ग्यारह अंगके
ज्ञाता एक आचार्य ११६४
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९१२
[ख]
खग = विद्याधर ४४|४
खग = विद्याधर १।१०४ खड्ग (भौ) देशका नाम ११।६८ खद्गा (भी) विदेहकी एक
नगरी ५।२५७
खड्गा (भौ ) विदेहकी एक नगरी ५।२६३ खण्डक प्रपात (भौ) विजयार्ध -
का तीसरा कूट ५।२६ खण्ड प्रपात कूट (भौ) ऐरावतके विजयार्धका सांतव कूट ५।१११
खण्डका पात (भी) विजयार्थ
की गुफा ११।५३ खण्डिका (भौ) वि. उ. नगरी २२।८९
जुगनू १।५२
खद्योत = खमाली (व्य) एक तापस २७।११९ खर निदाघ तीक्ष्ण उष्णऋतु ५५१५० खरमाग ( भौ) रत्नप्रभा पृथिवीका पहला भाग ४।४८ खवंड (पा) पर्वत से घिरा नगर
=
२।३ खरी = गधी ६०।३१ खलप्याक दुर्जन रूपी सांप १॥४६ खलीकार-तिरस्कार १७११५७ खेट (पा) नगर और पर्वतसे घिरा नगर २।३
=
[ग]
गगनचन्द्र (व्य ) गगनवल्लभ
नगरका राजा ३४।३५ गगनायन = आकाशगमन
३।१४
हरिवंशपुराणे
गगनमण्डल (भो) वि. उ. नगरी २२०८५ गगनबलम (भी) बि. वि. उ. नगरी २२।८५
गगनवम (भौ) पुष्कलावती देश के वि. उ. का एक नगर ३४ |३४ गगनबलभा (व्य ) अच्युतेन्द्रकी महादेवी ६०|३८
गगन सुन्दरी (व्य) गगनवल्लभ नगरके राजा गगनचन्द्रकी स्त्री ३४।३५
गङ्ग, गङ्गदत (व्य ) हस्तिनापुरके राजा गंगदेव और नन्दयशाके युगल पुत्र ३६।१४१ गङ्गदत्त (व्य) कृष्ण ३३।२२ गङ्गदत्त (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२/३३
+
गङ्गदेव (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।११
गङ्गदेव (व्य ) दशपूर्वके ज्ञाता एक आचार्य १६३ गङ्गरक्षित, नन्द (व्य) युगलयुक्त ३३।१४१
गङ्गा ( भी ) चौदह महानदियोंमेंसे एक नदी ५।१२३ गङ्गाकूट ( भी ) हिमवत् कुलाचलका पाँचवाँ कूट ५।५४ गङ्गादेवी (व्य) गंगाकूटपर रहनेवाली देवी ११.५१ गङ्गानुकूल = गंगाके किनारे
किनारे ११।३ गङ्गा - सिन्धु (भी) विदेह क्षेत्रके
कच्छा आदि देशों में बहने - वाली नदियाँ ५।२६७ गजकुमार (व्य ) श्रीकृष्णके एक भाई १।११६ गजपुर ( भी ) हस्तिनागपुर १८ १०३
गजवती (भी) वरण पर्वतके समीप पंचनद समागमकी एक नदी २७|१४ गणधारिन् = तीर्थंकरकी प्रमुख श्रोता ज्ञानके धारी
सभा
अपर नाम गणधर ३१४१ गणभृद् = गणधर १।७५ गणबद्ध (व्य) भरत चक्रवर्तीके आज्ञाकारी देव ११।३७ गण्यपुर ( भी ) न. प. विदेहके रूप्याचलकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ३४।१५ गति-तालगत गान्धर्वका एक प्रकार १९।१५१ गन्ध (व्य ) इक्षुवर समुद्रका रक्षक देव ५/६४४ गन्धकुटी (पा) समवसरणका
एक स्थान जिसमें तीर्थंकर विराजते है ५७/७ गन्धदेवी कूट (भी) शिखरि कुला
चलका नौवीं कूट ५।१०७ गन्धमादन (भौ) मेरुपर्वतकी
पश्चिमोत्तर दिशामें स्थित स्वर्णमय एक पर्वत५।२१० गन्धमादन (व्य) हिमवत्का पुत्र ४८।४७
गन्धमादन (भो) वि. उ. नगरी २२।९७
गन्धमादन-शौर्यपुरके उद्यानमें स्थित गन्धमादन नामका एक पर्वत १८।२९ गन्धमादन (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३१ गन्धमादन (भौ ) एक पर्वत
६०।१६ गन्धमादन] कूट ( भी ) गन्धमादन पर्वतका एक कूट ५।२१७ गन्धमादिनी (भी) विदेहकी विभंगा नदी ५।२४२
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शब्दानुक्रमणिका
९१३ :
गन्धमालिनी (भौ) जम्बूद्वीप
विदेह क्षेत्रका एक नगर
२७।११५ गन्धमालिनी (भौ) पश्चिम
विदेहका एक देश ५।२५१ गन्धमालिनी (भी) जम्बूद्वीप
विदेह क्षेत्रका एक देश २७१५ गन्धमालिनीका कूट ( भो)
गन्धमादनका एक कूट
५।२१७ गन्धमित्र (व्य) एक राजा
२७।१०२ गन्धर्व (भौ)मेरुके नन्दन वनकी
पश्चिम दिशामें स्थित एक
भवन ५।३१५ गन्धर्व = विद्या निकायका
नामान्तर २२१५८ गन्धर्वसेना (व्य) एक कन्या
जिसका वसूदेवके साथ
विवाह हुआ १९८१ गन्धर्वसेना (व्य) चारुदत्तकी
कन्या १९।१२३ गन्धर्वसेना ( व्य ) अमितगति
विद्याधरकी विजयसेनासे उत्पन्न पुत्री जो चारुदत्तके द्वारा वसुदेवको दो गयी
२१११२० गन्धवत् (भी) हरण्यवत क्षेत्रके
मध्यमें स्थित एक गोलाकार
पर्वत ५।१६१ गन्धसमृद्ध (भौ) वि. द. नगरी
२२।९४ गन्धसमृद्ध (भी) वि. द. के
गान्धार देशका एक नगर
३०१६ गन्धा (भी) पश्चिम विदेहका
एक देश ५।२५१ गन्धार (व्य)वसुदेव और प्रभावतीका पुत्र ४८।६३
११५
समृद्ध नगरका राजा ३०१६ गन्धावतो(भो)एक नदी६०।१६ गम्भीर (व्य) एक राजा
५०११३१ गम्भीर ( व्य ) कृष्णका पुत्र
४८.७० गरुड (भौ) सानत्कुमार युगलका
चौथा इन्द्रक ६।४८ गरुडकान्त (व्य) सेनकान्त (व्य)
चित्रचूल और मनोहरीके
युगल पुत्र ३३३१३३ गरुडदण्ड (व्य) सिंहपुरका एक
गारुडिक, सर्पविषको दूर
करनेवाला २७१४९ गरुडध्वज गरुडवाहन चित्रचूल
और मनोहरीके युगल पुत्र
३३३१३३ गरुडव्यूह (पा) समुद्रविजयकी
सेनाका निवेश प्रकार
५०।११३-१२९ गरुडाङ्क (व्य) वृषभध्वजका पुत्र
१३३११ मरुस्मान् (व्य) जरासंधका पुत्र
५२।३९ गव्यूति = कोश ४।३५५ गाण्डीव = एक धनुष ४५।१२६ गान्धर्वसेना (व्य) एक विद्या
धरपुत्री जो चारुदत्तके द्वारा वसुदेवको विवाही
गयी २१११ गान्धर्वसेनक (व्य) विद्याओंका
एक भण्डार २२।५६ गान्धार = एक स्वर १९।१५३ गान्धार (भौ) देशविशेष
गान्धार विद्याधर = विद्याधरों
की एक जाति २६७ गान्धारी (व्य) इन्द्रगिरि और
मेरुसतीकी पुत्री कृष्णकी
एक पट्टराज्ञी ४४।४६ गान्धारी = एक विद्या २२१६५ गान्धारी-मध्यम ग्रामके आश्रित
जाति १९।१७६ गान्धारोदीच्यका%= मध्यम ग्राम
के आश्रित जाति१९।१७६ गन्धिका (भौ) पश्चिम विदेहका ___एक देश ५।२५१ गन्धिका (भौ) धातकी खण्डके
पूर्व मेरुसे पश्चिम विदेहका
एक देश २७।१११ गिरि ( व्य) वसुगिरिका पुत्र
१५।५९ गिरि(व्य) अचलका पुत्र ४८०४९ गिरिकूट. ( भो ) एक पर्वत
२११०२ गिरितट (भौ) विजयाधंका एक
नगर २३।२६ गिरिनगर (भौ) सौराष्ट्रका एक
नगर ६०७२ गीति =तालगत गन्धर्वका एक
प्रकार १९:१५१ ।। गुणश्रेणी (पा) सम्यग्दृष्टि श्रावक
विरतान्त वियोजक आदि
स्थानोंमें होनेवाली निर्जरा गुणधर (व्य) राजा उग्रसेनका
पुत्र ४८॥३९ गुणप्रभा (व्य) राजा प्रचण्ड
वाहनकी पुत्री ४५१९८ गुणवती (व्य) एक आयिका
२७१८२ गुणवती (व्य) आयिका ६४।१३ गुणव्रत (पा) जो अणुव्रतोंका
उपकार करे इसके दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थ दण्डके
गान्धार = अदितिदेवीके द्वारा
विद्याओंका एक निकाय २२।५७
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९१४
भेदसे ३ भेद हैं २।१३४ गुणस्थान (पा) मोह और योग
के निमित्तसे होनेवाला आत्माका क्रमिक विकास
३१७९ गुप्तफल्गु (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२॥६४ गुपित(पा)योगोंका निग्रह करना
१ मनोगुप्ति, २ वाग्गुप्ति, ३ कायगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ
हैं । २।१२७ गुरु = पाँच परमेष्ठी ११२८ गुरु = पिता २१।१२२ गुरु = बृहस्पति, पक्षमें आचार्य
ग्राम = शारीर स्वरका भेद
१९।१४८ ग्राम = वैण स्वरका एक भेद
१९।१४७ ग्रेवेयक - हार ११११३ ग्रेवेयक ( भो) सोलह स्वर्गोंके
ऊपर स्थित नौ पटल
३।१५० नैवेयक स्तूप (पा) समवशरणके
स्तूप ५७।१००
गुरुत्दं = पितापना २०१५ गुह्यक = देव विशेष ५९।४३ गूढदत्त (व्य) आगामी चक्रवर्ती
६०१५६४ गृहाङ्ग = एक कल्पवृक्ष ७८० गृहीता गृहीतेत्वरिकागमन (पा)
ब्रह्मचर्याणुव्रतका अतिचार
५८।१७४ गोकुल (भौ) मथुरासे कुछ दूरी
पर स्थित एक प्रदेश
११९१ गोतम (व्य) लवणसमुद्रके अन्त
गत गोतम द्वीपका अधि
ठाता देव ५।४७० गोतम (भौ) लवणसमुद्र के मध्य
में स्थित एक द्वीप ५१४७० गोतम (व्य) सौधर्मेन्द्रका आज्ञा__ कारी एक देव ४१।१७।। गोत्र (पा) उच्च-नीच व्यवहार
का कारण ५८।२१८ गोमुख (व्य) चारुदत्तका मित्र
२१११३ ६ गोमेद (भौ) रत्नप्रभाके खर
भागका छठवां भेद ४/५३
हरिवंशपुराणे गोवर्धन (व्य) एक श्रुतकेवली
आचार्य श६१ गोविन्द (व्य) श्रीकृष्ण ४४।५१ गौतम (व्य) भगवान् महावीर
के प्रथम गणधर २१८९ गौतम (व्य) कृष्णका पुत्र
४८७० गौतम(व्य)एक राजा ५०११३१ गौतम (व्य) कापिष्ठलायन और
अनुमतिका पुत्र १८।१०४ गौतम (व्य) समुद्रविजयका पुत्र
४८।४४ गौतम (व्य) गौतम नामका देव
१९९ गौतम (व्य ) वसुदेवने सुग्रीव
गान्धर्वाचार्यको अपना कृत्रिम गोत्र बताया 'गौतम'
१९।१३० गौरमुण्ड(व्य)अमितगति विद्या
धरका मित्र २११२३ गौरिक ( भौ) वि. उ. नगरो
२२१८८ गौरिक = अदिति देवीके द्वारा
दत्त विद्याओंका एक निकाय
२२१५७ गौरिक विद्याधर =विद्याधरोंकी
एक जाति २६१६ गौरिकूट (भौ) वि. द. नगरी
२२९७ गौरी(व्य) वीतभय नगरके राजा
मेरु और चन्द्रमतीको पुत्री
कृष्णको पट्टराज्ञी ४४।१४ गौरी = एक विद्या २७४१३१ गौरी = एक यिद्या २२॥६२ ग्राहवती ( भौ) विदेह क्षेत्रकी
विभंगा नदी ५।२३९ ग्राम-समूह २०५७ ग्राम (पा) बाड़ीसे घिरा छोटा
गाँव २।३
[घ] घन = काँसेके झाँझ-मजीरा
आदि १९।१४२ घनवात (पा) एक वातवलय
४।३३ घनोदधि (पा) एक वातवलय
४।३३ घमा ( भो) रत्नप्रभाका रूढ़ि
नाम ४।४६ धर्मा ( भौ) रत्नप्रभा पृथिवी
४।२१८ घाट (भौ) शर्कराप्रभा पृथिवीके
पंचम प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१०९ घातिसंघातं (पा) ज्ञानावरण,
दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मोका
समूह २०५९ घृतवर द्वीप (भौ) छठवाँ द्वीप
५।६१५ घृतवर समुद्र (भौ) छठवाँ समुद्र
घोष (पा) अहीरोंकी वसति २।३
[च] चक्र (भौ) सानत्कुमार युगलका
सातवाँ इन्द्रक ६१४८
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चक्रपाणि = कृष्ण ३५।३९ चक्रपाणिजिनार- चक्रवर्ती और
तीर्थंकर पदके धारक अठारहवें अरनाथ जिनेन्द्र
१२० चक्रपुर (भो) एक नगर २७१८९ चक्रवर्तिन् (वि) छत्रखण्ड
पृथिवीके स्वामी १११९ चक्रवाल (भी) वि. द. नगरी
२२।९३ चक्रव्यूह (पा) सेनाके निवेशका
एक प्रकार५०।१०३-१११ चक्रा (भी) विदेहकी एक नगरी
५।२६३ चक्रायुध (व्य) शान्तिनाथका
प्रथम गणधर ६०।३४८ . चक्रायुध (व्य) चक्रपुरके राजा
अपराजित और सुन्दरीका
पुत्र २७।९० चक्री = श्रीकृष्ण नारायण
५४।३० चक्रेश (वि) चक्ररत्नके स्वामी
चकवर्ती १११८ चक्षुष्मान् (व्य)मानुषोत्तर पर्वत
का रक्षक देव ५।६३९ चक्षुष्मान् (व्य) आठवाँ कुलकर
७.१५७ चञ्चत् ( भो) सौधर्म युगलका
ग्यारहवाँ इन्द्रक ६.४५ चञ्चला= बिजली १५३१७ चण्डरोचिष = सूर्य ३१३४ चण्डबाण (व्य) एक व्याध
६०११११ चण्डवेग (व्य) विद्युद्वेगका पुत्र
२५/४० चण्डवेगा (भौ) वरुण पर्वतके
समीप पंच नदोंके समागम
की एक नदी २७।१४ चतुरङ्गा(वि) हाथी, घोड़ा, रथ,
शब्दानुक्रमणिका पैदल सिपाही इन चार
अंगोंसे सहित, सेना २०७१ चतुर्थक-एक उपवास ३४।१२५ चतुर्थ काल (पा) सुषमा काल
२६ चतुर्दश पूर्विन् = उत्पाद पूर्व
आदि १४ पूर्वोके ज्ञाता
११५८ चतुर्मुख (व्य) सातवां नारद
६०१५४८ चतुर्विंशतिस्तव (पा) अंगबाह्य
श्रुतका एक भेद २।१०२ चतुरस्र = चौकोन ३१५३ चतुरष्टका = बत्तीस ५।२४४ चतुरस्रानुयोग (पा) १ प्रथमा
नुयोग, २ करणानुयोग, ३ चरणानुयोग, ४ द्रव्यानु
योग ५८।४ चतुष्क= चौक ५।२६६ ।। चतुस्त्रिशद् महाद्भुत= चौंतीस
अतिशय १० जन्मके १० केवलज्ञानके १४ देवकृत
२०६७ चन्दनपुर (भो। एक नगर
६०८१ चन्दनवन(भी) एक नगर २९।२४ चन्दना (व्य) राजा चेटककी
लघुपुत्री २०७० चन्द्र (भो) रुचिकगिरिका
दक्षिण दिशासम्बन्धी कूट
५।७१० चन्द्र (व्य) आगामी बलभद्र
६०१५६८ चन्द्र (व्य) चन्द्र नामक देव
६०११०८ चन्द्र (भौ) नील पर्वतसे साढ़े
पांच सौ योजन दूर, नदीके मध्यमें स्थित एक ह्रद ५।१९४
चन्द्र (व्य) अभिचन्द्रका पुत्र
४८.५२ चन्द्र (व्य) राजा उग्रसेनका पुत्र
४८३९ चन्द्र (भी) सौधर्म युगलका
तीसरा इन्द्रक ६.४४ चन्द्रकान्त (व्य) वसुदेव और
सोमदत्तकी पुत्रीका पुत्र
४८.६० चन्द्रकान्ता ( व्य) शूरसेनकी
स्त्री ३३।९९ चन्द्रचूड (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६७ चन्द्रधर (व्य) आगामी बल
६०५६८ चन्द्रदेव (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।४० चन्द्रपर्वत (भी) वि. द. नगरी
२२।९७ चन्द्रप्रज्ञप्ति(पा) परिकर्म श्रुतका
एक भेद १०१६२ चन्द्रप्रम (व्य) अष्टम तीर्थकर
११० चन्द्रप्रभा (व्य) चन्द्रकी स्त्री
६०।१०८ चन्द्रमात (व्य) मरुचन्द्र का स्त्रा
६०११०३ चन्द्रमाल (भौ) पश्चिम विदेह
का वक्षार गिरि ५।२३२ चन्द्रयश (व्य) एक राजा
५०११२८ चन्द्ररथ (व्य) रत्नचिह्नका पुत्र
१३।२१ चन्द्रवती (व्य) वीतभय नगरके
राजा मेरुकी स्त्री ४४।३३ चन्द्रवर्मा (व्य) कृष्णका पुत्र
४८७१ चन्द्रवर्मा (व्य ) एक राजा ५०।१३२
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________________
चन्द्रानन्द (व्य ) एक राजा
५०११२५ चन्द्राभ (भौ) रत्नप्रभाके खर
भागका चौदहवाँ पटल
४।५४ चन्द्राम (व्य) अभिचन्द्रका पुत्र
४८.५२ चन्द्राभ (व्य) ग्यारहवाँ कुलकर
७।१६३ चन्द्राभ (व्य) एक विद्याधर
२७।१२० चन्द्राम (भौ) ब्रह्मस्वर्गका एक
विमान २७।११७ चन्द्रामा (व्य) वटपुरके वीरसेन
राजाकी स्त्री ४३११६५ चपलगति (व्य) सूर्याभ और
धारिणीका पुत्र ३४।१७ चमर (व्य)सुमतिनाथका गणधर
६०।३४७ चमर चम्पा (भौ) वि. उ.
नगरी २२३८५ चम्पक (व्य) कंसका एक हाथी
३६।३३ चम्पकपुर (भौ) चम्पक देवका
निवास स्थान ५।४२८ चम्पकवन (भौ) विजयदेवके
नगरसे २५ योजन दूर पश्चिममें स्थित एक वन
५।४२२ चम्पा(भौ) अंगदेशकी राजधानी
चम्पापुरी वर्तमान नाम
नाथनगर(भागलपुर) १।८१ चम्पा (भो) धानक खण्डके भरत
क्षेत्रकी एक नगरी ५४।५६ चम्पा (भौ) वि. उ. नगरी
२२१८८ चर्चिका (पा) चौरासी लाख
हस्त प्रहेलिकाओंकी एक चचिका होती है ७.३०
हरिवंशपुराणे चरम (व्य) पुलोमका पुत्र
१७।२५ चर्या (व्य) राजा प्रचण्डवाहनको
पुत्री ४५।९८ चाणूर (व्य) कंसका एक मल्ल
३६।४० चान्द्रायणविधि = व्रतविशेष
३४।९० चाप (पा) धनुष ( चार हाथ )
४।३४२ चार = गुप्तचर ५०।११ चारण (भौ) मेरुके नन्दनवनको
दक्षिण दिशामें स्थित एक
भवन ५।३१५ चारित्र (पा) सामायिक, छेदोप
स्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यान-ये चारित्रके पाँच
भेद हैं २।१२९ चारित्रमोह (पा) मोहनीय
कर्मका एक भेद ३३१४५ चारित्र शुद्धि = व्रतविशेष
(अहिंसामहावत) ३४।१०० चारु (व्य) कुरुवंशी एक राजा
४५।२३ चारुकृष्ण (व्य) कृष्णका पुत्र
४८७१ चारुकृष्ण(व्य) एक राजा५०८३ चारुचन्द्र(व्य) चन्दनवनके राजा
अमोघदर्शनके चारुमति
स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र २९।२५ चारुदत्त (व्य)सम्भवनाथके प्रथम
गणधर ६०॥३४६ चारुदत्त (व्य) बलदेवका पुत्र
४८६६ चारुदत्त (व्य) चम्पानगरीका
प्रसिद्ध सेठ १९।१२२ चारुदत्त (व्य) श्रीकृष्णका हितैषी
एक राजा ५०७२
चारुपद्म (व्य) कुरुवंशी एक
राजा ४५।२३ चारुमति (व्य) चन्दनवन नगर
के राजा अमोघदर्शनकी
स्त्री २९।२५ चारुरूप (व्य) कुरुवंशी एक
राजा ४५।२३ चारुलक्ष्मी (व्य) मेघ सेठ और
अलका सेठानीकी पुत्री
४६.१५ चारुहासिनी (व्य) भद्रिलपुरके
राजा पौण्ड्रकी पुत्री जिसे
वसुदेवने वरा २४॥३१ चारुहासिनी (व्य) वसुदेवकी
स्त्री ११८४ चालन = एक दिव्य औषधि
२१११८ चित्तवेग ( व्य) स्वर्णाभपुरका
राजा विद्याधर २४।६९ चित्तेन्द्रिय निरोध (पा) मुनियों
का एक मूल गुण-पांच इन्द्रियों तथा मनको वश
करना २।१२८ चिन्तागति ( व्य) सूर्याभ
और धारिणीका पुत्र
३४।१७ चित्र (भौ) नील कुलाचलकी
दक्षिण दिशा और सीतानदीके पूर्व तटपर स्थित
एक कूट' ५।१९१ चित्र (व्य) कुरुवंशका एक राजा
४५।२७ चित्रक (भौ) मेरुके नन्दनवनकी
उत्तर दिशामें स्थित एक
भवन ५।३१५ चित्रक (व्य) समुद्रविजयका पुत्र
४८०४४ चित्रकारपुर (भो) भरतक्षेत्रका
एक नगर २७४९७
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चित्रकूट ( भो) पूर्व विदेहका वक्षारगिरि ५। २२८ चित्रकेतु (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२/३० चित्रगुप्त (व्य) आगामी तीर्थकर ६०१५६० चित्राङ्गद (व्य) चित्रचूल और मनोहरीका पुत्र सुभानुका जीव ३३।१३२ चित्राङ्गद (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३३
चित्रचूल ( व्य ) नित्या लोक
नगरका राजा ३३।१३२ चित्रबुद्धि ( व्य ) प्रीतिभद्रका
मन्त्री २७।९८ चित्रमाला (व्य ) चक्रायुधकी
स्त्री २७।९०
चित्रमाली (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३१
चित्ररथ (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५|२८
चित्ररथ (व्य) गिरिनगरका राजा ३३।१५० चित्रलेखिका (व्य) बाण विद्याधरकी पुत्री उषाको सखी ५५।२४
चित्रवसु (व्य) राजा वसुका पुत्र १७१५८
चित्रवाहन (व्य) आगामी चक्र ६०१५६५ चित्रसमालमन=अनेक प्रकारके
विलेपन ५५।५४ चित्रा (or) रुचिकगिरिके विमल कूटपर रहनेवाली देवी ५।७१९
चित्रा (व्य ) रुचिकगिरिके
सुप्रतिष्ठ कूटपर रहनेवालो देवी ५।७१० चित्रा (भो) मेरु पर्वतसे एक
शब्दानुक्रमणिका
हजार योजन विद्यमान चित्रा नामकी पृथिवी ४।१२ चित्रा (भी) रत्नप्रभाके खर
भागका पहला पटल ४|५२ चूडामणि (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५ चूडामणि (भो) वि. उ. नगरी २२।९१
चूतपुर (आम्रपुर ) ( भौ) आम्र
देवका निवास स्थान ५।४२८ चूतवन (आम्रवन ) ( भी ) विजयदेवके नगरसे २५ योजन दूर उत्तर में स्थित एक वन ५।४२२
चूलिक (व्य) चूलिका नगरीका राजा ४६।२६
चूलिका (पा) दृष्टिवाद अंगका एक भेद १०।६१ चूलिका (पा) अंगप्रविष्ट श्रुतका एक भेद २।१०० चूलिका (भौ) एक नगरी ४६/२६
चेटक (व्य) वैशालीका राजा राजा सिद्धार्थका श्वसुर २।१७
चेदिराष्ट्र ( भी ) अभिचन्द्रके द्वारा विन्ध्यपृष्ठपर बसाया देश १७/३६
वैश्यालय = जिन मन्दिर ४।६१ चोदना वाक्य = 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेदवाक्य में १७।१२५
[ छ ] छायासंक्रामिणी एक विद्या २२/६३
छिन्न (पा) अष्टांग निमित्त ज्ञानका एक अंग १०।११७ छेद (पा) अहिंसाणुव्रतका अतिचार ५८।१६४
छेदन = विद्यास्त्र २५/४९ छेदोपस्थापना (पा) चारित्रका एक भेद ६४।१६
[ ज ]
जगत् ( भी ) सौधर्म युगलका उनतीसवाँ इन्द्रक ६०४७ जगती (भी) जम्बूद्वीपको चारों
ओरसे घेरे हुए वज्रमयी भित्ति ५।३७७
जगकुसुम (भी) रुचिकगिरिका पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट
५।७१२
जगत्स्थामा
९१७
व्य) कपिष्टलका
पुत्र ४५।४६
जघन्यपात्र ( पा ) अविरत सम्यग्दृष्टि ७ १०९ जघन्य शातकुम्भविधि व्रतविशेष ३४।८७ जघन्य सिंहनिष्क्रीडित
उपवासव्रत ३४।७८ जननाभिषव
८/२३७ जनपद सत्य (पा) दश प्रकारके सत्यों में से एक सत्य १०।१०४ जनार्दन व्य) श्रीकृष्ण ४३।७६ जन्मदन्त (व्य ) आगामी चक्र
वर्ती ६०।५६४ जमदग्नि (व्य) कामधेनुका धनी एक तपस्वी २५।९ जम्बू (व्य) जम्बूस्वामी नामक केवली १६० जम्बूद्वीप ( भो ) आद्यद्वीप २१
=
=
=
एक
एक
जन्माभिषेक
जम्बूद्वीप ( भी ) असंख्यात द्वीप समुद्रोंको उल्लंघन करने के बाद स्थित द्वीपविशेष ५।१६६
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९१८
जम्बूपुर (भी) वि. द. का एक
नगर ४४।४ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (पा) परिकर्म
श्रुतका एक भेद
१०।६२ जम्बूशङ्कुपुर (भी) वि.द. नगरी
२२।१०० जम्बूस्थल ( भो) मेरुपर्वतकी
ऐशान दिशामें सीता नदीके पूर्वतटपर नीलकुलाचलका निकटवर्ती प्रदेश जहाँ
जामुनका वृक्ष है ५।१७२ जय (व्य) दश पूर्वके ज्ञाता एक
आचार्य ११६२ जय (व्य) नमिका पुत्र २२।१०८ जयकुमार (व्य) हस्तिनापुरके
राजा सोमप्रभका पुत्र दूसरा
नाम मेघस्वर ४३८ जय (व्य) वसुदेवका पुत्र
५०।११५ जय ( व्य) आगामी तीर्थकर
६०१५६१ जय (व्य) एकादश चक्र
६०।२८७ जय (व्य) अनन्तनाथका प्रथम
गणधर ६०।३४८ जयकीति (व्य) आगामी तीर्थ
__ कर ६०१५५९ जयदेव (व्य) एक गृहस्थ
६०।१०९ जयन्त (व्य) वीतशोका नगरी
के वैजयन्त राजाका पुत्र
२७१७ जयन्त ( पा) स्फटिक सालका
पश्चिम गोपुर ५७१५९ जयन्त ( भो) वि. उ. नगरी
२२१८७ जयन्त (भी) भरतक्षेत्रका एक
नगर ६०१११७
हरिवंशपुराणे जयन्त ( भो ) अनुत्तर विमान
६।६५ जयन्त (भौ) जम्बूद्वीपकी जगती
का पश्चिम द्वार ५।३९० जयन्तगिरि ( भौ) एक पर्वत
४७।४३ जयन्ती = एक विद्या २२१७० जयन्ती (भौ) चरमके द्वारा
बसाया हुआ एक नगर
१७४२७ जयन्ती (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके
दक्षिणसम्बन्धी अंजनगिरि की पश्चिम दिशामें स्थित
वापिका ५।६६० जयन्ती(व्य) रुचिकगिरिके सर्व
रत्न कूटपर रहनेवाली
देवी ५।७२६ जयन्ती (व्य) रुचिकगिरिके
कनक कूटपर रहनेवाली
देवो ५७०५ जयन्ती (भो) विदेहकी एक
नगरी ५२६३ जयपुर (भो) एक नगर जहाँ ___वसुदेव गये २४।३० जयराज ( व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१५ जयसेन (व्य) समुद्र विजयका
पुत्र ४८४३ जया = एक विद्या २२१७० जया (पा) समवसरणकी एक
वापिका ५७।७३ जयाङ्गण(पा) समवसरणकी एक
भूमि ५७।७६ जयावह (भी) वि. उ. नगरी
२२।८८ जयोत्तग (पा) समवसरणके
सप्तपर्ण वनकी वापिका
५७.३३ जर कुमार(व्य)श्रीकृष्णके मरण
में कारण प्रवासी यादव
१।१२० जरत्कुमार(व्य) श्रीकृष्णका एक
भाई ५२।१६ जरकुमार (व्य ) वसुदेव और
जराका पुत्र ४८।६३ जरा (व्य ) म्लेच्छ राजाको
कन्या, जिसे वसुदेवने वरा
३११६ जरासन्ध (व्य) वृहद्रथका
राजगृहीका राजा ( नौवाँ
प्रतिनारायण ) १८०२२ जरासुत (व्य) जरत्कुमार
६३१४६ जलकेतु (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३० जलगता (पा) दृष्टिवाद अंगके
चूलिकाभेदका उपभेद
१०।१२३ जळगति दक्षिणा = एक विद्या
२२।६८ जलधि (व्य) समुद्रविजयके भाई
अक्षोभ्यका पुत्र ४८।४५ जलप्रभ विमान (भौ) वरुण
लोकपालका विमान ५।३२६ जलावर्त ( भौ) वि. द. नगरी
२२।९५ जातरूप = सुवर्ण ६०२ जाति = शारीरस्वरका एक भेद
१९।१४८ जाति-पदगत गान्धर्वकी विधि
१९।१४९ जानुदधन = घुटनों प्रमाण
११।५ जाम्बव (व्य) एक विद्याधर
६०१५३ जाम्बव (भौ) एक नगर६०५३ जाम्बव (व्य) वि. द. के जम्बू
पुर नगरका राजा ४४।४
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________________
९१९
जाम्बवती (व्य) जम्बूपुरके राजा
जाम्बव और रानी शिव चन्द्राकी पुत्री कृष्णको एक
पट्टराज्ञी ४४.५ जारसेय (व्य) जरत्कुमार
६३१५३ जितपद्मप्रमा (वि) कमलकी
कान्तिको जीतनेवाली
११८ जितशत्र(व्य) एक राजा, राजा
सिद्धार्थकी छोटी बहनका
पति ६६।६ जितशत्रु (व्य) श्रावस्तीका एक
इक्ष्वाकुवंशीय प्राचीन राजा
२८।१७ जितशत्रु ( व्य ) देवकीका पुत्र
६३।१७० जितशत्रु (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२१३४ जितशत्रु (व्य) हरिवंशका एक
राजा श१२४ जितशत्र (व्य) एक राजा
३।१८७ जितशत्रु ( व्य ) कलिंगदेशके
कांचनपुर नगरका राजा
२४।११ जिन = कर्मरूप शत्रुओंको
जीतनेवाले जिनेन्द्र श१६ जिनगुण सम्पत्ति = व्रतविशेष
३४।१२२ जिनदत्त ( व्य ) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८।११५ जिनदत्ता (व्य ) एक आर्यिका
३३११०० जिनदत्ता (व्य ) एक आर्यिका
६०७० जिनदत्ता (व्य) राजा अर्हद्दास
की स्त्री २७।११२ जिनदत्ता (व्य) ज. वि. सुपद्मा
शब्दानुक्रमणिका देशके सिंहपुर नगरके राजा
अर्हद्दासकी स्त्री ३४।४ जिनदास (व्य) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८।११४ जिनपाल (व्य ) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८११४ जिनसेन ( व्य) पार्वाभ्युदय
आदिके रचयिता जिनसेना
चार्य ११४० जिनेन्द्र (व्य) तीर्थकर १०६ जिनेश्वर(व्य) आगामी तीर्थकर
६०.५६० जिह्व (भी) शर्कराप्रभा पृथिवी
के सप्तम प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१११ जिह्नक (भो ) शर्करा पृथिवीके
अष्टम प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४११२ जिह्निका (भी) हिमवत् पर्वतके
दक्षिण तटपर स्थित एक
प्रणाली ५११४० जीवद्यशस (व्य ) जरासन्धकी
पुत्री, जो कंसको विवाही
गयी ३३७ जीवद्रव्य (पा) चैतन्य लक्षण
युक्त जीव २११०७ जीवविचय (पा) धर्म्यध्यानका
भेद ५६।४३ जीवसिद्धि ( व्य) समन्तभद्रा
चार्यके द्वारा रचित जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ और
जीवोंको सिद्धि श२९ जीवस्थान (पा) जीवसमास
२।१०७ जीवाधिकरण (पा) आस्रवका
एक भेद जिसके १०८ भेद
होते हैं ५८१८४ जीविताशंसा (पा) सल्लेखनाका
अतिचार ५८।१८४
जम्भक (व्य) देवविशेष ४२११७ जभ्भण=विद्यास्त्र २५१४८ जृम्मिक ग्राम (भी) विहार
प्रान्तका एक गांव २१५७ जैत्री (पा) समवसरणके सप्तपर्ण
वनकी वापिका ५७।३३ जैन (पा) जिनेन्द्रदेवके द्वारा
प्रणीत १११ ज्ञातृधर्मकथाङ्ग (पा) द्वाद
शांगका एक भेद २।९३ ज्ञानप्रवाद (पा) पूर्वगत श्रुतका
एक भेदं २।९८ ज्ञानावरण (पा) ज्ञानगुणको
घातनेवाला कर्म ५८०२१५ ज्योतिष्क = सूर्य-चन्द्रमा आदि
ज्योतिषी देव ३।१३५ ज्योतिरा = एक कल्पवृक्ष ७८० ज्योतिर्देव - ज्यौतिष्क देव सूर्य
चन्द्रमा आदि २१७९ ज्येष्ठ (पा) स्फटिक सालका
दक्षिण गोपुर ५७।५८ ज्योतिर्माला (व्य) एक विद्या
धरी ६०११८ ज्वलन (व्य) वसुदेवकी श्यामा
नामक स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र
४८.५४ ज्वलनवेग (व्य) अचिर्माली
और प्रभावतीका पुत्र
१९८१ ज्वलनप्रमा (व्य) दिव्य नाग
कन्या २९।२० ज्वलितवेगा (व्य) विजय नामक
व्यन्तरको स्त्री ६०।६०
[
झ
]
झष (भी) धूमप्रभा पृथिवीके
तृतीय प्रस्तारका इन्द्रकविल ४।१४०
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९२०
[ट ] टण देश (भौ) एक देश २१११०३
[त ] तडित्प्रभ (भौ) निषध पर्वतसे
उत्तर की ओर नदीके मध्य में स्थित एक हद ५।१९६ तत = तारसे बजनेवाले बाजे
१९।१४२ तद्धित-पदगत गन्धर्वकी विधि
१९।१४९ तनयसोम (व्य) नमिका पुत्र
२२।१०७ तनुवात (पा) लोकको चारों
ओरसे घेरनेवाला तीसरा वायुमण्डल ( वातवलय )
५११ तप (पा) अनशनादि छह बाह्य
और प्रायश्चित्त आदि छह अन्तरंगके भेदसे बारह
प्रकारका तप २।१२९ तपन (भो) बालुकाप्रभा पृथिवी
के तृतीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१२० तपन (व्य) तेजस्वीका पुत्र
१३।९ तपनकूट (भौ) विद्युत्प्रभपर्वतका
एक कूट ५४२२२ तपित (भौ)बालुकाप्रभा पृथिवी
के द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।११९ तपनीयक (भौ) मानुपोत्तरको
आग्नेय दिशाका कूट५।६०६ तपनीयक (भौ) सौधर्म युगलका
उन्नीसवाँ इन्द्रक ६।४६ तपनीयक कूट (भौ) मानुषोत्तर
पर्वतकी आग्नेय दिशाका एक कूट ५।६०१
हरिवंशपुराणे तप्त (भौ) बालुकाप्रभा पृथिवीके । ताम्रलिप्त (भौ) एक नगर
प्रथम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।११८
ताम्रलिप्ति (भौ) एलेयके द्वारा तप्तजला (भौ) विदेहक्षेत्रको एक
अंगदेशमें बसाया हुआ विभगा नदी ५।२४०
एक नगर १७।२० तपःशुद्धि = एक व्रतविशेष तार (भौ) पंकप्रभापृथिवीके ३४.९९
द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रक तमक (भौ) पंकप्रभा पृथिवीके विल ४।१३० पंचम प्रस्तारका इन्द्रक
तारा (व्य) राजा कीर्तवीर्यको विल ४।१३३
गर्भवती स्त्री २५।११ तमस् (भौ) धूमप्रभा पृथिवीके
तारक (व्य) दूसरा प्रतिनारायण प्रथम प्रस्तारका इन्द्रक
६०।२९१ विल ४।१३८
तार्ण (भौ) देशविशेष ३।६ तमःप्रभा (भौ) नरकोंकी छठी ति ग्लोक ( भौ) मध्यलोक भूमि ४।४४
५।१ तमस्तम (भौ) सातवाँ नरक
तिर्यग्व्यतिक्रम (पा) दिग्वतका २।१३६
__ अतिचार ५८।१७७ तमिस्र (भौ) धूमप्रभा पृथिवीके
तिरस्करिणी-एक विद्या २२।६३ पञ्चम प्रस्तारका इन्द्रक
तिलका (व्य) भानुकीतिकी स्त्री विल ४११४२
३३१३९ तमिस्र गुहा (भौ) विजयार्धको
तिलकानन्द (व्य) एक मुनि गुहा ११।२१
५०५९ तमोऽन्तक (व्य) चारुदत्तका तिलवस्तुक (भौ) एक नगर, मित्र २१११३
____ जहाँ वसुदेव पहुँचे २४।२ तरङ्गिणी (भौ) एक नदी४६।४९ तीर्थ (पा) धर्मको आम्नाय १६४ तायकेतु (व्य) कृष्ण ५१११९ तीर्थकर (पा) धर्मकी आम्नाय ताप (पा) असातावेदनीयका
चलानेवाला, ये २४ होते आस्रव ५८१९३
हैं २।१४६ तापन(भी)बालुकाप्रभा पृथिवीके तीर्थकृत् (पा) तीर्थकर ११८
चतुर्थ प्रस्तारका इन्द्रक तीर्णकर्ण (भौ) देशका नाम विल ४।१२१
१११६७ तापस (भौ)देशका नाम १११७२ तेज:सेन (व्य) समुद्रविजयका तामिन् (वि) पालक-रक्षक
पुत्र ४८१४४ १।१०
तेजस्वी (व्य) प्रभूत तेजका पुत्र तामित्रगुहक (भौ) विजयार्धका
१३।९ आठवाँ कूट ५।२७
तेजस्वी (व्य) भगवान् ऋपभतामिस्रगुहकूट (भी) ऐरावतके देवका गणधर १२।५८
विजयाधका तीसरा कूट तेजोराशि (व्य) ऋषभदेवका ५।११०
गणधर १२०६६
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तुङ्गीगिरि (भी) मांगीतुंगी नाम
का पर्वत ६३।७२ तुक्य (पा) चौरासी
लाख
तुट्यांगों का एक तुट
७१२८
तुव्याङ्ग (पा) चौरासी लाख कमलोंका एक तुट्याङ्ग ७।२८
तुलिङ्ग ( भी ) देशका नाम ११।६४ तुषित (व्य ) लौकान्तिक देवका एक भेद ५५।१०१ तूर्याङ्ग : = एक कल्पवृक्ष ७८० तृणबिन्दु (व्य ) चन्द्रवंशी एक
राजा २३१४७
तृतीय काळ (पा) सुषमादुःषमा काल १।२६
तोक = पुत्र २७।११९ तोमर (व्य) एक राजा ५०।१३० तोयधारा (व्य) नन्दनवनमें रहनेवाली दिक्कुमारी ५।३३३
त्रसरेणु (पा) आठ त्रुटिरेणुओंका एक त्रसरेणु होता है ७७३८ त्रसित ( भी ) रत्नप्रभा पृथिवीके दशवें प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।७७ त्रस्त (भी) रत्नप्रभा पृथिवीके नौवें प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।७७
त्रुटिरेणु (पा) आठ संज्ञा संज्ञाओंका एक त्रुटिरेणु होता है
७/३८
त्रिकूट ( भी ) पूर्व विदेहका वक्षार गिरि ५।२२९
त्रिगर्त्त ( भी ) देशविशेष ३।३ त्रिगिन्छ (भौ) निषध कुलाचलका ह्रद ५।१२१ त्रिगुप्ति, त्रिसमितिव्रत = व्रत
विशेष ३४ । १०६
११६
शब्दानुक्रमणिका
त्रिदश = देव १८ १२ त्रिदिव = स्वर्ग २१।१६३ त्रिपद (व्य) एक ढीमर ६० । ३३ त्रिपर्वा = एक विद्या २२।६७ त्रिपातिनी = एक विद्या २२।६८ त्रिपृष्ठ (व्य ) पहला नारायण ६०।२८८
त्रिपुर (भौ) देशविशेष ११।७३ त्रिपृष्ठ (व्य ) आगामी नारायण ६०१५६७
त्रिलक्षण (वि) उत्पाद, व्यय,
ध्रौव्य रूप तीन लक्षणोंसे सहित २०१०८ त्रिलोकसार विधि एक उपवास व्रत ६४।५९-६१ त्रिवर्ग = धर्म, अर्थ, काम २१।१८५
त्रिविष्टपपुर = स्वर्गपुरी ५।२३ त्रिश्टङ्ग (भी) एक नगर४५।९५ त्रिशिरस् (व्य) कुण्डलगिरिके
वज्रकूटपर रहनेवाला देव ५।६९०
त्रिशिरस् (व्य ) रुचिकगिरिके स्वयंप्रभ कूटपर रहनेवाली देवी ५१७२० त्रिशिखर (व्य) नभस्तिलक
नगरका राजा* २५/४१
त्रिशिरस् (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२/३७
त्रिषष्टि पुरुष (पा) शठ शलाका
पुरुष, २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलभद्र १।११७
विष्= कान्ति १।११
[द]
दक्ष = चतुर १७।२ दक्ष (व्य ) सुव्रतका पुत्र १७ २
९२१
दक्षप्रजापति (व्य) राजा दक्ष
१1७८
दक्षिण = निपुण ३|१९३ दक्षिण
= उदार
५४/३८
प्रकृतिवाला
दक्षिणश्रेणी ( भो) विजयार्धपर्वतकी दक्षिण दिशावर्ती कगार जिसपर ५० नगर स्थित हैं ५।२३ दक्षिणार्धकूट (भौ ) ऐरावत के विजयार्धका आठवाँ कूट ५।१११
दक्षिणा ककूट ( भौ) विजयार्ध -
का दूसरा कूट ५।२६ दण्ड (पा) लोकपूरण समुद्घात
का प्रथम चरण ५६।७४ दण्ड (पा) दो किष्कुओंका एक दण्ड ७१४६ दण्डभूतसहस्रक २२/६५
= एक विद्या
दण्डाध्यक्षगण = एक विद्या ! २२/६५
दत्त (व्य ) सातवाँ नारायण ६०१२८९
दत्तक (व्य) चन्द्रप्रभका प्रथम गणधर ६०।३४७ दत्तवती (व्य ) एक आर्यिका
२७१५६
दत्तवस्त्र (व्य ) एक राजा ३१।९६
दन्तमलमार्जन वर्जन (पा) मुनियोंका एक मूलगुण - दातौन नहीं करना २।१२९ दधिमुख ( व्य ) इस नामका
विद्याधर २४१८४ दधिमुख (व्य ) एक विद्याधर जो रोहिणीके स्वयंवरके समय होनेवाले युद्ध में वसुदेवका सारथिथा ३१ । १०३
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९२२
हरिवंशपुराणे
दधिमुख (भौ) नन्दीश्वर द्वीप
की वापिकाओंमें स्थित
पर्वत ५।६६९ दभ्र = गवाक्ष-झरोखा ५।२६५ दमवर (व्य) एक मुनि ३४।३२ दमरक(व्य) वसुदेवके भवान्तर
से सम्बन्ध रखनेवाला एक
पुरुष १८४१३१ दमघोषज = शिशुपाल ४२।९३ दर्शन = नेत्र ८॥२३ दर्शनक्रिया (पा) एक क्रिया
५८०६९ दर्शनावरण(पा) दर्शनको ढकने
वाला कर्म ५८।२१५ दर्शनविशुद्धि - भावना
३४।१३२ दर्शनशुद्धि-व्रतविशेष ३४।९८ दशपर्विका-एक विद्या २२१६७ दशपूर्विन् = दशपूर्वके ज्ञाता
श५८ दशम = चार उपवास ३४।१२५ दशरथ (व्य) बलदेवका पुत्र
४८०६७ दशरथ ( व्य) एक राजा
५०।१२५ दशकालिक (पा) अंगबाह्य
श्रुतका एक भेद २११०३ दशार्णक (भौ) देशका नाम
१०७३ दशाह = यादव ४११४९ दशाह = योग्य अथवा पूज्य
१८।१४ दशाह (व्य) राजाविशेष
५०।६८ दशेरुक (भी) देशका नाम
१०६७ दासीदास प्रमाणातिक्रम (पा)
परिग्रह परिमाणाणुव्रतका अभिचार ५८।१७६
दान (पा) सातावेदनीयका
आस्रव ५८/९४ दाण्डीक (भो) देशका नाम
१११७० द्वारवती ( भो ) सौराष्ट्र देशमें
स्थित नगरी ११७२ दारु (व्य ) वसुदेवकी स्त्री
पद्मावतीका पुत्र ४८५६ दारुक (व्य) वसुदेवकी स्त्री
पद्मावतीका पुत्र ४८५६ दारुण (व्य) एक भील २७।१०७ दिक्कुमार = भवनवासी देवोंका
एक भेद ४।६४ दिग्गजेन्द्र (व्य) देवोंकी एक
जाति ५।२०९ दिग्नन्दन (भो) रुचिकगिरिका
एक कूट ५१७०६ दिति (व्य ) धरणेन्द्रकी देवी
२२१५४ दिति (व्य) धारणयुग्म नगरके
राजा अयोधनकी स्त्री
२३१४७ दिग्यचक्षु = अवधिज्ञानी४२१५० दिव्य ध्वनि ( पा) भगवान्को
निरक्षरी वाणी ३।१८१ दिव्यपुर (पा) समवसरणका
एक भाग जिसके त्रिलोकसार आदि सौ नाम हैं
५७।११२ दिव्यलक्षण पंक्तिविधि-व्रत
विशेष ३४।१२३ दिव्यवाद (व्य) आगामी तीर्थ
कर ६०१५६२ दिग्यौषध (भौ) वि. द. नगरी
२२।९९ दिशानन्दा ( व्य ) वैदिशपुरके
राजा वृषध्वजकी पुत्री
४५।१०९ दिशावली (व्य ) वैदिशपुरके
राजा वृषध्वजकी स्त्री
४५।१०८ दीपन ( व्य) सुखरथका पुत्र
१८।१९ दीर्घदन्त (व्य) आगामो चक्र
वर्ती ६०५६३ दीर्घबाहु ( व्य) सुबाहुका पुत्र
१८२ दीर्घहस्व (पा) आग्रायणीपूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०८४ दुःख (पा) असातावेदनीयका
आस्रव ५८।९३ दुःख (भी) तीसरी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रकी पूर्वदिशामें
स्थित महानरक ४१५४ दुःखहरणविधि = व्रतविशेष
३४।११७ दुग्धवारिधि ( भो ) अरिसमुद्र
नामका पांचवा समुद्र
२०५३ दुन्दुमि = दुन्दुभि नामका वर्ष
१९।२२ दुर्ग (भी) देशका नाम ११७१ दुर्जय (व्य ) जरासन्धका पुत्र
५२१३७ दुर्दर्श(व्य) पूरणका पुत्र४८१५१ दुर्धर (व्य ) जरासन्धका पुत्र
५२।३१ दुर्धर (व्य ) राजा उग्रसेनका
पुत्र ४८।३९ दुर्धर (व्य) पूरणका पुत्र
४८५१ दुर्भग = भाग्यहीन १८।१२८ दुर्मुख (व्य ) जरासंधका पुत्र
५२।३७ दुर्मुख (व्य ) पूरणका पुत्र
४८१५१
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दुर्मुख (व्य) वसुदेव और अवन्तीका पुत्र ४८।६४ दुर्मुख (व्य) एक राजा ५०१८३ दुर्मुख ( व्य वसुदेवका पुत्र
५०।११५
दुर्योधन (व्य) कौरवाग्रज हस्तिनापुरका राजा ४३।२०
दुविध = दरिद्र १८/१२७ दुःशासन ( व्य ) एक राजा [ कौरव] ५०/८४ दुःषमा (पा) अवसर्पिणीका पाँच काल ७।५९ पुष्पक्वाहार (पा) भोगोपभोगका अतिचार ५८।१८२ दुष्पूर (व्य ) पूरणका पुत्र ४८।५१ दूषण (पा) ज्ञाता और दर्शना
वरणका आस्रव ५८ ९२ दृढधर्मा (व्य ) हृदिकका पुत्र
४८४२
दृढ (व्य ) समुद्रविजयका पुत्र ४८।४३
दृढबन्ध ( व्य ) एक राजा ५०।१२६
दृढमुष्टि (व्य) राजा वृषभध्वजका योद्धा ३३।१०३ दृढमुष्टि (व्य) वसुदेव- मदनवेगाका पुत्र ५०।११६ दृढवर्मा (व्य ) एक राजा ५०।१३२
दृढ (व्य) समुद्र विजयके भाई
अक्षोभ्यका पुत्र ४८|४५ दृढरथ (व्य) भगवान् ऋषभदेव - का गणधर १२।५५ दृढरथ (व्य ) बृहद्रथका पुत्र १८ १८
दृढरथ ( व्य ) नरवरका पुत्र १८१८
दृढरथ (व्य) राजा मेघरथ और सुभद्राका पुत्र १८ ११२
शब्दानुक्रमणिका
दृढायुध (व्य ] वैदिशपुरका युवराज ४५।१०७ दृति - मशक ४३ । १२२ दृष्टिवादाङ्ग (पा) द्वादशांगका
एक भेद
दृष्टिमोह (पा) सम्यग्दर्शनको घातनेवाला
दर्शनमोह
२।११३
दृष्टिमुष्टि ( व्य
वसुदेव और मदनवेगाका पुत्र ४८६१ दृष्टिविष = सर्पविशेष ११।९४ देव (व्य) देवनन्दी, अपर नाम
पूज्यपाद आचार्य १।३१ देवकी (व्य) कंसकी बहन जो वसुदेवको विवाही गयी ३३।२९
देवकुरु ( भी ) सुमेरु और निषध
के बीच में स्थित प्रदेश, जहाँ भोगभूमिकी रचना है ५।१६७
देवकुरु ( भो ) निषध पर्वतसे
उत्तरकी ओर नदीके मध्यमें स्थित एक हृद ५।१९६ देवकुरुकूट (भी) सौमनस्य पर्वत
का एक कूट ५।२२१ देवकुरुकूट (भौ) विद्युत्प्रभ पर्वत
का एक कूट ५१२२२ देवगर्भ (व्य) बिन्दुसारका पुत्र १८।२० देवच्छन्द (भौ) अकृत्रिम चैत्या
लयोंका गर्भगृह ५/३६० देवदत्त (व्य ) राजा अमरका पुत्र १७।३३ देवदत्त (व्य) अर्जुनके शंखका
नाम ५१।२० देवदत्त (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३६
देवदत्त (व्य ) कृष्णका पुत्र ४८ ७१
९२३
देवदेव (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०१५५९
देवपाल (व्य ) देवकीका पुत्र
३३।१७०
देवपाक (व्य ) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८ ११४ देवमति (व्य ) देविलकी स्त्री ६०।४३
देवनन्द (व्य) राजा गंगदेवका पुत्र ३३।१६३
देवनन्द (व्य ) बलदेवका पुत्र ४८ ६७
देवरमण ( भी ) मेरुका एक वन ५/३०७
देववर ( भी ) अन्तिम सोलह द्वीपोंमें चौदहवाँ द्वीप ५।६२५
देवशर्मा (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।५५ देवशर्मा (व्य ) एक राजा
५०।८४
देवसम्मति (भौ) ब्रह्मयुगलका
दूसरा इन्द्रक ६।४९ देवसेन (व्य) भोजकवृष्णि और
पद्मावतीका पुत्र १८१६ देवसेना (व्य) यक्षिलकी स्त्री ६०/६३
देवस्व = देवद्रव्य १८ १०२ देवाग्नि (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२/५७ देवानन्द (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२/३५
देवानन्द (व्य ) एक राजा ५०।१२५
देवारण्य (भौ) विदेहक्षेत्र में स्थित
वन ५१२८१ देवावतार ( भी ) पूर्वमालव देश में
स्थित एक तीर्थ ५०/६० देविल (व्य) एक मनुष्य ६० १४३
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९२४
हरिवंशपुराणे
देविला (व्य) जयदेवकी पत्नी
६०११०९ देशसत्य (पा) दश प्रकारके
सत्यों में से एक सत्य
१०११०५ देशावधि (पा) अवधिज्ञानका
एक भेद १०।१५२ दैवकेय = देवकीका पुत्र श्रीकृष्ण
३५२५ दोष = भुजा ३६।२२ दोषत्रय = राग, द्वेष, मोह२।८९ द्युति (व्य) शूरदत्तकी स्त्री
३३।९९ धुमणि = सूर्य ४।६४ द्युम्नधारा = रत्नधारा २१४५ द्योतिः (भौ, रत्नप्रभाके खरभाग
का आठवां पटल ४/५३ द्योतितस्य तथा तस्य ११५३ द्रव्य (पा) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य
से युक्त अथवा गुण और पर्यायसे युक्त जीवादि छह
द्रव्य १११ द्रव्यादि (पा) द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भाव १११ द्रव्यार्थिक नय (पा) सामान्य
ग्राही नय ५८।४२ द्रुतम् = शीघ्र ही ५११४२ दुपद (व्य) माकन्दीका राजा
४५।१२१ द्रुपद (व्य) एक राज ५०।८१ दुम (व्य) जरासंघका पुत्र
५२॥३० दुमपेक (व्य) एक मुनिराज
३३।१४९ द्रुमसेन (व्य) जरासंधका पुत्र
५२।३० द्रुमसेन (व्य) सिंहलके राजा
इलक्ष्णरोमका सेनापति ४४॥२३
द्रोण (व्य) द्रोणाचार्य ४५४१ द्रोणाचार्य (व्य) विद्रावणका पुत्र
४५१४७ द्रोणामुख (पा) नदीके तटवर्ती
नगर २।३ द्रौपदी (व्य) माकन्दीके राजा
द्रुपदकी पुत्री ४५।१२२ । द्वादश विभाग -समवसरणकी
बारह सभाग २१६६ द्विकावळीविधि = एक उपवास
विधि ३४।६८ द्विपर्वा = एक विद्या २२।६७ द्विपृष्ठ (व्य) दूसरा नारायण
६०।२८८ द्विपृष्ठ (व्य) आगामी नारायण
६०१५६७ द्विविधकर्मवन्ध = शुभ-अशुभ
कर्मबन्ध २।१०९ ।। द्विशतग्रीव (व्य) वलि प्रति
नारायणके वंशमें उत्पन्न
हुआ एक राजा २५।३६ द्वीप (व्य) कुरुवंशका एक राजा
४५।३० द्वीपकुमार = भवनवासी देवोंका
एक भेद ४।६३ द्वीपसमुद्र प्रज्ञप्ति (पा) परिकर्म
श्रुतका भेद १०॥६२ द्वीपायन (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३० द्वीपायनमुनि (व्य) द्वारिका
दाहमें कारणभूत एक मुनि ११११८
[ ध] धनञ्जय (व्य) अर्जुन ५०१९४ धनन्जय (व्य) मेघपुरका राजा
३३।१३५ धनन्जय (व्य, धरणका पुत्र
४८।५०
धनन्जय व्य) विनमिका पुत्र
२२११०४ धनञ्जय (भौ) वि. उ. नगरी
२२१८६ धनञ्जय (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३६ धनदेव (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२।५६ धनदेव (व्य) इभ्यपुरका सेठ
६०।९५ धनद (व्य) कुबेर ५५।१ धनदत्त (व्य) एक सेठका नाम
१८।११३ धनदेव (व्य) एक वैश्य ४६।५० धराधर (भौ) वि. द. नगरी
२२।९७ धनपाल (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३२ धनपाल (व्य) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८।११४ धनमित्र (व्य) धनदत्त सेठकी
स्त्री नन्दयशाका पुत्र
१८।१२० धमवाहिक (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२०६५ धनधान्य प्रमाणातिक्रम (पा)
परिग्रह परिमाणाणुव्रतके
अतिचार ५८।१७६ धनश्री (व्य) स्त्री ६४।६ धनश्री (व्य) मेघपुरके राजा
धनंजय और रानी सर्वश्री
की पुत्री ३३।१३५ धनुष् (पा) दो किष्कु-चार
हाथका एक धनुष ७।४६ धनुधर (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३० धम्मिल (व्य) श्रीभूति ब्राह्मण
के स्थानपर रखा गया एक ब्राह्मण २७।४३
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शब्दानुक्रमणिका
९२५
धर (व्य) एक राजा ५०1८३ धर (व्य) राजा उग्रसेनका पुत्र
४८।३९ धरण (व्य) भवनवासियोंका
इन्द्र ९।१२९ धरणीतिलक (भौ) वि. द. का ।
एक नगर २७।७७ धरणेन्द्र (व्य) जयन्त मुमिका
जीव २७।१७ धरावती (व्य) अयोध्याके राजा
हेमनाभकी स्त्री ४३।१५९ धर्म (व्य) धर्मनाथ-पन्द्रहवें
तीर्थंकर ११७ धर्म (पा) जीव और पुद्गलके
गमन में कारण एक द्रव्य ७२ धर्म (पा) इसके उत्तम क्षमा
आदि १० भेद हैं २।१३० धर्मतीर्थ = धर्मको आम्नाय ३।१ धर्मचक्र (पा) तीर्थकर जिनेन्द्रके
समवसरण में विद्यमान
देवोपनीत चक्र २११४५ धर्मचक्रिन् = धर्मचक्रके धारक
__ जिनेन्द्र-तीर्थकर ५४।५८ धर्म्यध्यान (पा) प्रशस्त-ध्यान___ का भेद ५६।३५ धर्ममार्ग (व्य) सुभद्र और
सुमित्राकी पुत्री ६०११०१ धर्मरुचि (व्य) एक मुनि ६४।९ धर्मरचि (व्य) धनदत्त और
नन्दयशाका पुत्र १८।११५ धर्मसंज्ञापा)एक चारण ऋद्धि
धारी मुनि ६०१७ धर्मसेन (व्य) एक मुनि६०।६४ धर्मसेन (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता
एक आचार्य ११६३ धारण पा) स्फटिक शालका
मग गोपुर ५७।५८ धारण (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२९
धारण (व्य)एक राजा५०१११८ धारण (व्य) अन्धकवृष्णि और
सुभद्राका पुत्र १८।१३ धारण (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३७ धारणयुग्म (भौ) भारतवर्षका
__ एक नगर २३।४६ धारणा (पा) मतिज्ञानका भेद
१०११४६ धारिणी (व्य) सूर्याभकी स्त्री
३४।१७ धारिणी (व्य) अयोध्याके समुद्र
दत्त सेठकी स्त्री ४३११४९ धारिणी = एक विद्या २२१६८ धार्तराष्ट्र (व्य) दुर्योधन आदि
सौ कौरव ४५।४३ धातकीखण्ड (भो) दूसरा द्वीप
५।४८९ धातु-वैणस्वरका भेद १९११४७ धीमान् (व्य) बलदेवका पुत्र
४८१६७ धीर (व्य) कृष्णका पुत्र ४८५७० धुनी = नदी ( यमुना) ३५।२८ धूपिन = एक जहरीला साँप
३३।१०८ धूमप्रभा (भो)नरकोंकी पांचवीं
भूमि ४।४४ धूमकेतु (व्य)एक असुर प्रद्यम्न
का वैरी ४३१३९ धूमकेतु (व्य) प्रद्युम्नका पूर्वभव
का वैरी देवविशेष ११०० धूमसिंह (व्य) अमितगत
विद्याधरका मित्र २१२२३ एत (व्य) कुरुवंशका एक राजा
४५।२९ ति (व्य) अक्षोभ्यकी स्त्री
१९६३ ति (व्य) तिगिछ सरोवरमें
रहने वाली देवी ५११३०
धति (व्य) रुचिकगिरिके सुद
र्शन कुटपर रहनेवाली
देवी ५१७१६ प्रतिकर (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१३ प्रतिकर (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।११ तिकर (व्य) शुभंकरका पुत्र
४५६९ धृतिकूट (भी) निषधाचलका
छठा कूट ५।८९ प्रतिक्षेम (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४३।११ प्रतिद्युति (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१३ सृष्टद्युम्न (व्य) राजा द्रुपदका
पुत्र ४५।१२१ धृष्टद्युम्न (व्य)एक राजा५०७९ ततेजस् (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३२ तिदृष्टि (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१३ धृतिदेव (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।११ धृतधर्मा (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३२ तपद्म (व्य ) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१२ श्तमान (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३२ तिमित्र (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।११ तयशस् (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३२ धृतराज (व्य ) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३३ तराष्ट्र (व्य)राजा धृतराज और
अम्बिकाका पुत्र ४५।३४ एतराष्ट्रसुत = कौरव १११०८
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९२६
धृतभ्यास (व्य) राजा शन्तनुका पुत्र ४५।३१
घृतवीर्य (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१२
धृतिषेण (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता एक आचार्य १।६२ धृतेन्द्र ( व्य ) कुरुवंशका एक राजा ४५।१२ धृतोदय (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।३२
धैवत = एक स्वर १९।१५३ धैवती = षड्जस्वरसे
सम्बन्ध
रखनेवाली जाति १९ । १७४ ध्रुव (व्य) एक राजा ५०।१२४ ध्रुव (पा) आग्रायणी पूर्वकी वस्तु १०1७८
ध्रुव (व्य ) बलदेवका पुत्र
४८।६६
ध्रुवसेन (व्य ) ग्यारह अंगके दाता एक आचार्य १६ धन्य (पा) पूर्वोत्तर पर्याय में स्थिर रहना १।१ ध्वजिनी = सेना ३५२
[ न ]
नक्षत्र (व्य ) ग्यारह अंगके
ज्ञाता एक आचार्य १।६४ नकुल (व्य) पाण्डव ४५|२ नग (व्य) अचलका पुत्र ४८१४९ नन्द (व्य) बलभद्र २५ । ३५ नन्दक (व्य) एक मुनि ५०/५९ नन्द (भी) अकृत्रिम चैत्यालयों
की पूर्वदिशा में विद्यमान एक हद ५।३७२ नन्दन ( भी ) वि. उ. नगरी
२२।९० नन्दन (व्य) मानुषोत्तरके रुचक कूटपर रहनेवाला देव ५।६०३
हरिवंशपुराणे
नन्दन ( भी ) सौधर्म युगलका सातवाँ इन्द्रक ६।४५ नन्दन (व्य ) बलदेवका पुत्र ४८।६७
नन्दन (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।५६ नन्दन = पुत्र ९।२१ नन्दन ( भो ) नन्दनवन का एक कूट ५१३२९ नन्दन ( भी ) मेरुका एक वन ५।३०७
नन्दनवन ( भी ) मेरुपर्वतपर स्थित एक वन ५।२९० नन्दघोषा (पा) समवसरण के अशोकवनकी वापिका ५७/३२ नन्दयन्ती = मध्यम ग्रामके आश्रित जाति १९।१७७ नन्दयशा (व्य) धनदत्त सेठकी स्त्री १८।११३ नन्दयशा (भी) श्वेताम्बिका पुरी
के राजा वासवकी वसुन्धरा नामक स्त्रीसे उत्पन्न ३३।१६१
नन्दशोकपुर ( भी ) एक नगर ६०।९७ नन्दा (व्य ) रुचिकगिरिके दिग्नन्दन कूटपर रहनेवाली देवी ५।७०५ नन्दा (पा) समवसरणके अशोक
वनकी वापिका ५७१३२ नन्दा (व्य ) ऋषभदेवकी स्त्री ९।१८
नन्दा (पा) समवसरणकी एक
वापिका ५७।७३ नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नन्दीघोषा (भी) नन्दीश्वर द्वीपके पूर्वदिशासम्बन्धी अंजनगिरिको
पूर्वादि
दिशाओं में स्थित वापिकाएँ ५।६५८
नन्दिन (व्य ) आगामी नारायण
६०१५६६
नन्दिनी ( भी ) वि. उ. नगरी
२२।९०
नन्दिभद्र (व्य) एक चारण मुनि ६०१७८
नन्दिभूतिक (व्य ) आगामी नारायण ६०।५६६ नन्दिमित्र (व्य) आगामी नारायण ६०।५६६
नन्दिमित्र (व्य ) सातवाँ बलभद्र ६०।२९०
नन्दिमित्र ( व्य ) ऋषभदेवका गणधर १२।६९ नन्दिमित्र (व्य ) एक श्रुतकेवली आचार्य १।६१ नन्दिवर्द्धन (व्य ) एक मुनिका नाम ४३।१०४ नन्दिषेण (व्य) वसुदेवका भवान्तर १८।१३५
नन्दी (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२/६९
नन्दी (व्य) आगामी नारायण ६०१५६६
नन्दी, नन्दिम (व्य ) नन्दीश्वर
द्वीप के रक्षक देव ५ । ६४४ नन्दीश्वर व्रतविधि = एक व्रत
विशेष ३४।८४ नन्दीश्वर द्वीप ( भौ ) आठव
द्वीप ५।६१६ नन्दीश्वर समुद्र (भौ) आठवाँ
सागर ५।६१६ नन्दोत्तर (व्य ) मानुषोत्तर के लोहिताक्ष कूटपर रहने - वाला देव ५।६०३ नन्दोत्तरा (पा) समवसरण के अशोकवनकी वापिका ५७।३२
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शब्दानुक्रमणिका
नरकान्ता (भो ) एक महानदी
५।१२४ नरकालय = नारकियोंके विल
४।७० नरदेव (व्य) बलदेवका पुत्र
४८०६८ नरपति (व्य) राजा यदुका पुत्र
१८७ नरवक्र ( व्य) आठवा नारद
६०१५४९ नरवर ( व्य) दृढरथका पुत्र
१८१८ नरहरि (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१९ नर्मद (भो) देशका नाम
१११७२ नर्मदा (व्य) वसुन्धरपुरके राजा
विन्ध्यसेनकी स्त्री ४५।७० नर्मदा ( भो) एक नदी
नलिनप्रभ(व्य) आगामी सातवा
मनु ६०।५५६ नलिना (भी) मेरुको आग्नेय
दिशामें स्थित एक वापी
५।३३४ नलिना (भौ) मेरुके ऐशानमें
स्थित एक वापी ५१३४५ नलिनाग (पा) चौरासी लाख
पद्मोंका एक नलिनांग
७१२७ नलिनी (भौ) पूर्व विदेहका एक
देश ५।२४९ नलिनी(पा) समवसरणके चम्पक
वनकी वापिका ५७१३४ नवनवम = व्रतविशेष ३४१९३
नन्दोत्तरा (व्य) रुचिकगिरिके
स्वस्तिक नन्दन कूटपर
रहनेवाली देवी ५।७०६ नन्द्यावत (भौ) सौधर्म यगलका
छब्बीसवाँ इन्द्रक ६१४७ नन्द्यावर्त (भौ) रुचिकगिरिकी
पूर्व दिशासम्बन्धी कूट
५७०२ नमस् = सावनका महीना
५५।१२६ नभस् (पा) अवगाह दानमें
समर्थ आकाश ५८।५४ नभस्तिलक (भौ) वि. उ.
नगर २२।९८ नमस्तिलक (भो) विजयागिरि
का एक नगर ९।१३३ नमस्तिलक (भौ) एक नगर
२५।४ नमसेन ( व्य) हरिषेणका पुत्र
१७॥३४ नमस्या-नमस्कार, पूजा ४२१९ नमि (व्य) ऋषभदेवका गणधर
१२०६८ नमि (व्य) इक्कीसवें तीर्थंकर
१८५ नमि (व्य) भगवान ऋषभदेवके
सालेका पुत्र ९।१२८ नमि (व्य) यादव ५०।१२१ नमुचि (व्य) अजाखुरीके राजा
राष्ट्रवर्धनका पुत्र ४४।२७ नमुचि (व्य) उज्जयिनीके राजा
श्रीधर्माका मन्त्री २०१४ नय (व्य) यादव ५०।१२१ नयनसुन्दरी (व्य) विशृंगपुरके
सेठ प्रिय मित्रकी पुत्री
४५:१०१ नरकान्तक कूट ( भो) नील
कुलाचलका छठा कूट ५।१००
नलिन (भौ) रुचिकगिरिका
पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट
५७१२ नलिन(भौ) पूर्व विदेहका वक्षार
गिरि ५१२२८ नलिनगुल्मा (भौ)मेरुके ऐशान
में स्थित एक वापी ५।३४५ नलिन (व्य) आगामी छठा
मनु ६०१५५६ नलिनराज(व्य) आगामी आठवाँ ___ मनु ६०५५६ नलिनध्वज(व्य) आगामी नौवाँ
मनु ६०१५५७ नलिन (भो) सौधर्म युगलका
आठवाँ इन्द्रक ६।४५ नलिन(पा) चौरासी लाख नलि
नांगोंका एक नलिन ७।२७ नलिनपुङ्गव (व्य) आगामी
दसवाँ मनु ६०१५५७
नवमिका (व्य ) रुचिकगिरिके
सौमनस कूटपर रहनेवाली
देवी ५७१३ नवराष्ट्र ( भो) देशका नाम
१११७० नवश्री(व्य) आगामी प्रतिनारा
यण ६०५६९ नाग-भवनवासी देवोंका एक
भेद ४।६३ नाग (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता एक _आचार्य १२६२ नाग (भौ) सानत्कुमार युगल___ का तीसरा इन्द्रक ६।४८ नागकुमारादि = भवनवासी देव
२२८१ नागपुर (भो) हस्तिनागपुर
१७१६२ नागपुर (भो) हस्तिनापुर
२०१२ नागमाल (भौ)पश्चिम विदेहका
वक्षारगिरि ५।१३२ नागरमण (भो) मेरुका एक वन
५.३०७
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९२८ नागवर (भी) अन्तिम सोलह
द्वीपमें ग्यारहवां द्वीप५।६२४ नागवेलन्धर(व्य)वेलन्धरजाति
के नागकुमार देव ५।४६५ नागश्री (व्य) एक स्त्री ६४।६ नाट्यमाल (व्य) एक देव
नाडी (पा) दो किष्कु-चार
हाथकी एक नाडी ७।४६ नान्दी (व्य) छठा बलभद्र
६०।२९० नान्दीवर्धना व्यरुचिकगिरिके
अंजनमूलक कूटपर रहने
वाली देवी ५१७०६ नाभिगिरि (भौ) हैमवत, हरि
रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्रके मध्यमें स्थित श्रद्धावत
आदि पर्वत ५।१६३ नाभिराज व्य) चौदहवां कुल
कर ७११६९ नाभेय (व्य) भगवान् वृषभदेव
९।२५ नाम (सुबन्त)= पदगत गान्धर्व
की विधि १९।१४९ नामकर्म (पा) शरीरादि रचना. का हेतु कर्म ५८।२१७ नामसत्य (पा) दश प्रकारके
सत्यों में से एक सत्य१०.९८ नामादिक (पा) नाम, स्थापना,
द्रव्य, भाव ये चार निक्षेप
२।१०८ नामान्त (भौ) वि. द. नगरी
२२।९६ नारद (व्य) एक देव ६०८० नारक (भी) रत्नप्रभा पृथिवीके
द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रक
बिल ४७६ नारद (व्य) क्षीरकदम्बका एक
शिष्य १७०३८
हरिवंशपुराणे नारद (व्य) पदवीधर नारद ।
५४।४ नारद (व्य) वसुदेव और सोम
श्रीका पुत्र ४८।५७ नारसिंह (व्य)वसुदेवका सम्बन्धी
एक विद्याधर ५१।३ नारायण (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१९ नारायण (व्य) आठवाँ नारायण
६०।२८९ नारी (भौ) एक महानदी ५।१२४ नारीकूट (भौ) रुक्मिकुलाचलका
चौथा कूट ५।१०३ नासारिक (भौ) देशका नाम
१११७२ निकृतिभाषा (पा) सत्यप्रवाद
पूर्वकी १२ भाषाओंमें एक
भाषा १०।९५ निक्षेप (पा) अजीवाधिकरण
आस्रवका भेद ५८०८६ निक्षेपादानसमिति (पा) योग्य
वस्तुको देखकर रखना
उठाना २।१२५ निगोद (पा) नरकों के विल
४।३५३ नित्यालोक (भो) धातकीखण्ड
वि द. का एक नरक
३३॥१३१ नित्यालोक (भौ) रुचिकगिरि
या दक्षिण-दिशासम्बन्धी
एक विशिष्ट कूट ५।७१९ निदान (पा) सल्लेखना व्रतका
अतिचार ५८।१८४ निदाघ (भी) बालुकाप्रभा
पृथिवीके पंचम प्रस्तारका
इन्द्र क विल ४.१२२ नित्योद्योत (भौ) रुचिकगिरिका
उत्तर दिशासम्बन्धी एक विशिष्ट कूट ५।७२०
निधत्तानिधत्तक (पा) आग्रायणी
पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका योग.
द्वार १०८५ निपुणमति (व्य) रानी राम
दत्ताकी धाय २७२१ निबन्धन (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभतका योगद्वार
१०१८२ निमग्नजला (भौ) विजयार्धको
गुहाके भीतर मिलनेवाली
एक नदी १११२६ नियुत(पा)चौरासी लाख नियु
तांगोंका एक नियुत ७।२६ नियुताङ्ग (पा) चौरासी लाख
पूर्वांगोंका एक नियुतांग
७।२६ निरुद्ध (भौ) पाँचवीं पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तम इन्द्रककी पूर्व दिशामें स्थित
महानरक ४१५६ निरोध (भौ) चौथी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी आर इन्द्रकको दिशामें स्थित
महानरक ४१५५ निघृण (वि) निर्दय १११९१ निघृणता = निर्दयता ५५।८९ निम्रन्थ (पा) मुनिका एक भेद
६४।५८ निर्वक्ष शाइवला = एक विद्या
२२।६३ निर्नामक (व्य) रानी नन्दयशा
का पुत्र ३३११४६ निवर्तना (पा) अजीवाधिकरण
आस्रवका भेद ५८1८६ निर्विचिकित्सा = बिना किसी
ग्लानिके १८।१६५ निर्वाण = मोक्ष १।१२५ निर्वाण (पा) आग्रायणी पूर्वको
वस्तु १०८०
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शब्दानुक्रमणिका
९२९
नीलयशा (व्य) चारुदत्तकी स्त्री
१९८२ नीलाञ्जना(व्य) नोलवान् विद्या
धरकी पुत्री २३।४ नीललेश्या = लेश्याका एक भेद
४।३४३ नीलाञ्जना (व्य) सिंहदंष्ट्र की
स्त्री २२।११३ नीलाजसा (व्य)इन्द्रको नर्तकी
९।४७ नीलवान् (व्य) शकटामुख नगर
का स्वामी विद्याधर २३।३ नीलवान् (भौ) नील कुलाचलसे
साढ़े पांच सौ योजन दूर नदीके मध्यमें स्थित एक ह्रद ५।१९४
निर्विषण = विरक्त १११२१ निवृति (व्य)प्रतिमाओंके समीप
विद्यमान एक देवी ५।३६३ निर्वृति - एक विद्या २२।६५ निवृत्ति (पा)इन्द्रियाकार पुद्गल
का परिणमन १८८५ निशान्त = घर ३५।१ निशान्त = प्रातःकाल ३५।११ निशुम्भ (व्य) चौथा प्रति
नारायण ६०।२९१ निश्चयकाल (पा) लोकाकाशके
प्रत्येक प्रदेशपर स्थित
अमूर्तिक कालाणु ७।३ निष्कषाय(व्य)आगामी तीथंकर
६०।५६० निषद्यका (पा)=अंग बाह्यश्रुत
का एक भेद २।१०५ निषध (व्य) निषध देशका
राजा ५०।१२४ निषध (भौ) जम्बूद्वीपका तीसरा
कुलाचल ५।१५ निषध (भौ) निषध पर्वतसे
उत्तरकी ओर नदीके मध्य
स्थित एक ह्रद ५।१९६ निषध (भौ) नन्दनवनका एक
कूट ५।३२९ निषध (व्य एक राजा ५०1८३ निषध (व्य) बलदेवका पुत्र
४८।६६ निषध कूट (भो) निषधाचल का
दूसरा कूट ५।८८ निषाद = एक स्वर १९।१५३ निषाद = भील ३५।६ निषादजा-षड्ज स्वरसे सम्बन्ध
रखनेवाली जाति१९।१७४ निष्कम्प (व्य) विजयका पुत्र
४८।४८ निष्क्रमण = दीक्षाकल्याणक
२१५५
११७
निष्काम = तालगत गान्धर्वका
एक प्रकार १९।१५० निष्क्रान्त - दीक्षित हो गय।
१८।१७८ निसर्गक्रिया (पा) एक क्रिया
५८७५ निसर्ग ( पा) अजीवाधिकरण
आस्रवका भेद ५८१८६ निसृष्ट (भौ) चौथी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी आर इन्द्रककी पूर्व दिशामें स्थित
महानरक ४।१५५ निहतशत्रु (व्य) शतधनुके वंश
का एक राजा १८०२१ निह्नव (पा)ज्ञाना. और दर्शना.
का आस्रव ५८।९२ नील (भौ) छठी पृथिवीके प्रथम
प्रस्तारसम्बन्धी हिम इन्द्रककी पूर्व दिशामें स्थित
महानरक ४।१५७ नील (व्य)नीलवान् विद्याधरका
पुत्र २३१४ नील (भौ) जम्बूद्वीपका छठा
कुलाचल ५।१५ नीलक (व्य) रुचकगिरिके
श्रीवृक्ष कूटका निवासी देव
५७०२ नीलकण्ठ (व्य) नीलका पुत्र
२३७ नीलकण्ठ (व्य) आगामी प्रति
नारायण ६०१५७० नीलकण्ठ (व्य) एक विद्याधर
राजा २५।६३ नीलकूट (भौ) नीट कुलाचलका
दूसरा कूट ५।९९ नीलगुहा(भौ) राजगृहके समीप
वर्ती एक गुफा ६०।३७ नीलयशा (व्य) सिंहदंष्ट्र और
नीलांजनाको पुत्री २२१११३
[प] पङ्क (भौ) छठी पृथिवीके हिम
नामक इन्द्रकी दक्षिण दिशामें स्थित महानरक
४।१५७ पङ्कप्रमा (भौ) चौथी पृथिवी
४।४४ पङ्कबहुल (भौ) रत्नप्रभा
पृथिवीका दूसरा भाग
४।४८ पक्ष (पा) व्यवहार कालका भेद
१५ दिनका पक्ष होता है
७.२१ पण्डक = नपुंसक ३।११३ पञ्चकल्याणविधि (पा) एक
व्रतका नाम ३४।१११ पञ्चम (पा) एक स्वरका नाम
१९।१५३ पञ्चमहाव्रत (पा) परिग्रहत्याग
महाव्रत २।१२१ पञ्चमी (पा) मध्यम ग्रामके
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९३०
आश्रित एक जाति (संगीतका भेद) १९।१७६ पञ्चशिर (व्य) कुण्डलवर गिरिपर रहनेवाला एक देव ५।६९० पञ्चशत ग्रीव ( व्य ) बलिके वंशका एक राजा २५/३६ पञ्चशैलपुर (भी) बिहार प्रान्त
का 'राजगृही नगर' ३।५२ पञ्चविंशति कल्याणभावनाविधि
(पा) एक व्रतका नाम ३४।११३
पञ्चाल (भो) भारतवर्षका एक देश ३१३ पाश्चर्य (पा) भगवान् के दान देते समय प्रकट होनेवाले 'अहोदान' आदिकी ध्वनि रूप पाँच आश्चर्य ९।१९० पटच्चर (भी) एक देशका नाम ११।६४
पणव = एक बाजा ३१।३९ पण्य ( भी ) नन्दन वनकी पूर्व दिशामें स्थित एक भवन ५।३१५
पम्मम्ब =
पण्डित
६०।११
पत्तन ( भी ) एक देश ११।७४ पद (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०।१२
अपने आपको माननेवाला
पदसमास (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०।१२ पद्म (पा) एक निधि ५९/६३ पद्म (पा) व्यवहारकालका एक भेद ७।२७
पद्म (भी) सौधर्म स्वर्गका पटल ६।४६ पद्मव्य) पुष्कर द्वीपका रक्षक देव ५६३९
हरिपुरा
पद्म (व्य) कुण्डलगिरिका वासी एक देव ५।६९१ पद्म ( भी ) हिमवत्कुलाचलका हद ५।१२१
पद्म (२) वसुदेवका पुत्र ४८।५८ पद्म (व्य) अनन्तनाथ भगवान्का पूर्वभवका
नाम
६०११५३
पद्म (व्य) हस्तिनापुरके राजा महापद्मका पुत्र २०१४ पद्म (व्य ) चन्द्रप्रभ भगवान् के पूर्वभवका नाम ६०।१५२ पद्मक (व्य) वसुदेवका पुत्र
४८।५८
पद्मकूट (भौ) एक वक्षार गिरि
५।२२८
पद्मकूट (भी) विद्युत्प्रभ पर्वतका एक कूट ५।२२२ पद्मकूट ( भी ) रुचकगिरिका एक कूट ५१७१३ पद्मखण्डपुर ( भी ) एक नगर
२७१४४
पद्मगुरूम (व्य ) शीतलनाथ भगवान्का पूर्वभवका नाम
६०।१५२
पद्मदेव (य) एक राजा ४५ ॥२५ पद्मदेवी (व्य ) भरतक्षेत्रके
शाल्मली खण्ड नामक ग्राममें देविला और जयदेवका पुत्र ६०।१०९ पद्मध्वज (व्य) आगामी कुलकर ६०१५५७
पद्मनाभ (व्य) पूर्वधातकी खण्डके भरत क्षेत्रको अमरकंका पुरीका राजा ५४१८ पद्मनामक (व्य) आगामी चक्र
वर्ती ६०।५६४ पद्मनिधि (पा) चक्रवर्तीकी एक निधि ११।१२१
पद्मपुङ्गव (व्य) आगामी कुलकर ६०१५५७
पद्मप्रम (व्य ) छठे तीर्थंकर २२।३२
पद्मप्रभ (व्य) आगामी कुलकर ६०।५५७
पद्ममाल ( व्य ) एक राजा ४५।२४
पर
पद्मयान (व्य) कमलयान जिसभगवान्का बिहार होता है ५९।१० पद्मरथ (व्य) एक राजा ४५|२४ पद्मरथ (व्य) कुण्डग्रामका राजा ३१।३
पद्मरागमय ( भो) मेरुकी एक परिधि ५।३०५ पद्मराज (व्य) आगामी कुलकर ६०।५५७
पद्मवेदिका (भी) विदेहक्षेत्रकी रत्नमयी वेदिकाओं की लघु वैदिका ५।१७६ पद्मश्री (व्य) अरिजयपुर के राजा मेघनादकी पुत्री ३५/३
पद्मसेन (व्य ) धातकीखण्डटीपकी अयोध्याका एक राजा ६०।५९
पद्मावती (भी) एक विदे
५।२४९ पद्मा (व्य) त्रिशृग नगर के राजा प्रचण्डवाहनको पुत्री ४५१९८
पद्मा (भी) एक वापिका ५७३४ पद्मा (भी) एक विदेह ५|२४९ पधाङ्ग (पा) व्यवहार कालका एक भेद ७/२७
पद्माल (भी) विजयार्थके उत्तर श्रेणीका एक नगर २२८६
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शब्दानुक्रमणिका
पद्मासन (व्य) विमलनाथ
भगवान्का पूर्व भवका नाम
६०।१५३ पद्मावती (व्य ) रुचिकगिरिके
पद्मकूटपर रहनेवाली देवी
५७१३ पद्मावती (व्य) वसुदेवकी एक
स्त्री ११८३ पद्मावती (भौ) विदेहकी एक
नगरी ५।२६० पद्मावती (व्य ) मुनिसुव्रत
भगवान्की माता राजा
सुमित्रको रानी १६।२ पद्मावती (व्य) एक दिक्कुमारी
देवी ८।११० पद्मावतो (व्य) भोजक वृष्णिकी
स्त्री १८।१६ पद्मोत्तर (भौ) मेरुपर्वतसे पूर्वको
ओर सीमा नदीके उत्तर
तटपर स्थित कूट ५।२०५ पद्मोत्तर (व्य) कुण्डलगिरिका
वासी एक देव ५।६९१ पद्मोत्तर (व्य) रुचकगिरिके
नन्द्यावर्तकूटपर रहनेवाला
देव ५१७०२ पद्मोत्तर (व्य) वासुपूज्य भगवान्
का पूर्वभवसम्बन्धी नाम
६०।१५३ परमाणु(पा)पुद्गलद्रव्यका सबसे
छोटा हिस्सा ७।१७ परमावधि (पा) अवधिज्ञानका
एक भेद १०।१५२ परविवाहकरण (पा) ब्रह्मचर्याणु
व्रतका अतिचार ५८।१७४ परशुराम (व्य) जमदग्निका पुत्र
२५।९ परस्पर कल्याणविधि (पा) एक
व्रतका नाम ३४।१२४ पराख्य (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका एक गणधर
१२॥६१ परावर्त (पा) तालगत गान्धर्व
__ का एक भेद १९।१५० परिकर्म (पा) द्वादशांगका एक
भेद २।९६ परिखा = खाई ५७।२१ परिणाम(पा) कालद्रव्यका कार्य
७५ परिदेवन (पा) असातावेदनीय
का आस्रव ५८।९३ परिव्राजक = संन्यासी २१११३४ परोक्षप्रभाण (पा) मतिश्रुतज्ञान
१०।१५५ पर्याय ( पा) श्रुतज्ञानका भेद
१०११२ पर्याय समास (पा) श्रुतज्ञानका
भेद १०१२ पर्याप्ति (पा) नामकर्मका एक
भेद ५६।१०४ पर्वत (व्य)क्षोरकदम्बका पुत्र
मिथ्या मार्गको चलानेवाला
१७३९ पर्वतक (व्य) एक भीलका नाम
६०१६ पलाशकूट (भौ) सीतोदा नदी
के उत्तर तटपर स्थित एक
कूट ५।२०७ पल्य(पा) व्यवहार कालका एक
भेद ३।१२४ पल्लव (भौ) दक्षिण भारतका
एक देश ६११४२ पाणिग्रहण-विवाह ४५।१४६ पाञ्चजन्य (व्य) कृष्णके शंखका
नाम ११११२ पाण्डव (व्य) युधिष्ठिर आदि
४५।१ पाण्डु (भौ) पाण्डुकवनका एक
भवन ५।३२२
पाण्डु (व्य) युधिष्ठिरादिके पिता
४५६३४ पाण्डु (व्य) ग्यारह अंगके ज्ञाता
एक मुनि ११६४ पाण्डुक (भौ) मेरुका एक भाग
५।३०९ पाण्डुक (भौ) राजगृहीके पांच
पहाड़ों में से एक पहाड़
३१५५ पाण्डुक (भौ) वि. उ. श्रे. का
एक नगर २२१८८ पाण्डुक (व्य) कुण्डलगिरिके
महेन्द्र कूटका वासी देव
५।६९४ पाण्डुक-विद्याधरोंकी एक जाति
२६१७ पाण्डुका (भौ) सुमेरुके पाण्डुक
वनमें स्थित एक शिला
२।४१ पाण्डुकम्बला (भी) पाण्डुक वन
__ की एक शिला ५।३४७ पाण्डुकी (व्य) विद्याविशेष
२२।८० पाण्डुकेय (व्य) पाण्डुकी विद्यासे
सम्बद्ध विद्याधर २२।८० पाण्डुर (व्य) कुण्डलगिरिके
हिमवत् कूटका वासो देव
पाण्डुर ( व्य) क्षीरवरद्वीपका
रक्षक देव ५।६४१ पात्र (पा) जिन्हें दान दिया
जाता हो ऐसे मुनि, श्रावक और अविरत सम्यग्दृष्टि
७।१०८ पात्री = एक मंगल द्रव्य ५।३६४ पाद (पा) छह अंगुलोंका एक
पाद होता है ७।४५ पाद भाग(पा)तालगत गान्धर्व. का एक प्रकार १९।१५१
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९३२
पापोपदेश (पा) अनर्थदण्डका भेद ५८।१४६
पारणा (व्य ) व्रतके बाद होनेवाला भोजन ३३।७९ पारशर (व्य) एक राजा ४५।२९ पारिणामिक भाव (पा) कर्मो के
उपशमादिके बिना स्वयं होनेवाला एक भाव ३१७९ पारिग्राहिकी क्रिया ( पा )
पचीस क्रियाओं में से एक क्रिया ५८।८०
पार्थं (व्य) अर्जुन ४५।१३१ पार्थिव (व्य) एक राजा५२।३३ पार्वतेय = विद्याधरोंकी एक जाति २६।२०
पार्श्व (व्य) तेईसवें तीर्थंकर १।२५
पांसुमूळ (भौ) वि. द. श्रेणीका एक नगर २२/९९ पिङ्गल (व्य) वसुदेवका पुत्र
४८/६३
पिण्डशुद्धि २।१२४
भोजनशुद्धि
पितृष्वसा = बुआ ४२/७२ पिपास ( भी ) प्रथम पृथ्वीके सीमन्तक इन्द्रकके दक्षिण दिशामें स्थित महानरक ४१५१ पिप्पलाद (व्य) याज्ञवल्क्य और सुलसाका पुत्र २१ । १३९ पिहितास्रव (व्य ) एक मुनि
=
२७/८
पिहितास्रव (व्य ) एक मुनि
२७।९३ पिहितास्रव (व्य ) पद्मप्रभ भगवान् के पूर्वभवके गुरु
६०।१५९
पीठिका ( भी ) विदेहक्षेत्र के जम्बू स्थलका एक भाग जो
हरिवंशपुराणे
मूलमें १२, मध्य में ८ और अन्तमें ४ कोश चौड़ा है ५।१७५
पुण्डरीक (व्य ) पुष्करद्वीपका रक्षक देव ५६३९ पुण्डरीक (भौ) शिखरीकुलाचल का ह्रद ५।१२१
पुण्डरीक (व्य) एक नारायणका
नाम ६०५२९
पुण्डरीक (पा) प्रकीर्णकश्रुतका
एक भेद २।१०४ पुण्डरीकिणी (व्य) एक दिक्कुमारी देवी ८१११२ पुण्डरीकिणी (व्य) रुचिकगिरि, के अंजनक कूटपर रहनेवाली देवी ५।७१५ पुण्डरीकिणी ( भौ) विदेह की एक नगरी ५।२५७ पुण्डरीकणी (व्य) एक देवी ३८|३५
पुण्यमूर्ति (व्य) आगामी तीर्थ
कर ६०/५६०
पुद्गल (पा) रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे 'युक्त एक द्रव्य ४३ पुद्गलामा (पा) कर्मप्रकृति वस्तुका एक अनुयोगद्वार १०१८५
पुष्कर = कमल ५/५७६ पुष्करद्वीप ( भी ) एक द्वीपका
नाम ५।५७६ पुष्करोद ( भी ) मध्यलोकका एक
समुद्र ५।५९६ पुष्कला (भौ) पश्चिम विदेहक्षेत्र मे
स्थित एक विदेह ५।२४५ पुष्कलावती (भो) पश्चिम विदेहक्षेत्र में स्थित एक विदेह ५।२४५
पुरु (भौ) वि. उ. श्रेणीका एक नगर २२।९१
पुरुष (भौ) एक देश ११७० पुरुषसिंह (व्य ) एक नारायणका नाम ६० ५२७ पुरुषोत्तम (व्य) एक नारायणका नाम ६०।५२३
पुरुहूत (व्य) एक विद्याधर २२।१०७
पुरोधस् (पा) चक्रवर्तीका एक रत्न (चेतनरत्न) ११।१०८ पुलस्त्य व्य) एक विद्याधर
२२।१०८
पुलोम (व्य) कुण्डिनपुर के राजा
कुणिमका पुत्र १७।२४ पुलोमपुर (भौ) राजा पुलोमका
बसाया एक नगर १७/२५ पुष्पक ( भौ) आनत स्वर्गका
एक इन्द्रक ६।५१ पुष्पदन्त (व्य) नौवें तीर्थंकर १।११
पुष्पदन्त (व्य) क्षीरवर द्वीपका रक्षक देव ५६४१ पुष्पदन्त (व्य ) एक क्षुल्लक
२०/२७
पुष्पचूड (भो) वि. उ. श्रे. का
एक नगर २२।९१ पुष्पमाल (भौ) त्रि.उ. श्रेणीका
एक नगर २२।९१ पुष्पमाला (व्य) एक दिक्कुमारी देवी ५।३३३ पुष्पोत्तर (भौ) स्वर्गका एक विमान १।२०
पूतिगन्धिका (व्य) रुक्मिणीका एक ६०/३३
भवान्तरका
नाम
पूरण (व्य ) समुद्रविजय आदि दस भाइयों में आठवाँ भाई १८।१३
पूर्ण (व्य) इक्षुवरद्वीपका रक्षक देव ५।६४३
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पूर्णभद्र (भौ) विजयार्धपर्वतका
एक कूट ५।२६ पूर्णमद्र (व्य) अयोध्याके समुद्र
दत्त सेठका पुत्र ४३।१४९ पूर्णमद्र (व्य) एक यक्षका नाम
५।५०१ पूर्णचन्द्र (व्य) आगामी बलभद्र
६०१५६८ पूर्णप्रम (व्य) इक्षुवर द्वीपका
रक्षक देव ५।६४३ पूर्णचन्द्र (व्य) रामदत्ताका पुत्र,
सिंहचन्द्रका अनुज २७१४७ पूर्णमद्रकूट ( भौ) ऐराक्तके
विजयाध पर्वतका एक कूट
५।१११ पूर्णभद्र कूट ( भौ) माल्यवान् __ पर्वतका एक कूट ५१२२० पूर्ण (भौ) एक वापिका ५८।७३ पूर्व (पा) श्रुतज्ञानका भेद ।
१०।१३ पूर्व (पा) चौरासी लाख पूर्वांग
का एक पूर्व होता है७।२५ पूर्वगत (पा) दृष्टिवाद नामक
बारहवें अंगका एक भेद
२१९६ पूर्वविदेहफूट (भौ)नील पर्वतका
एक कूट ५।९९ पूर्वपक्ष = शंकापक्ष २१११३६ पूर्वसमास (पा) श्रुतज्ञानका
भेद १०।१३ पूर्वाङ्ग (पा) चौरासी लाख
वर्षोंका एक पूर्वांग होता
है ७।२४ पूर्वान्त (पा) आग्रायणीय पूर्वकी
एक वस्तु १०७८ पृथक्त्ववितर्कवीचार(पा)शक्ल
ध्यानका एक भेद ५६।५४ पृथिवी (व्य) एक दिक्कुमारी
देवी ८।११०
शब्दानुक्रमणिका पृथिवी (व्य) वि. द. श्रेणी
गान्धारदेशके गन्धसमृद्ध नगरके राजा गान्धारकी
स्त्री ३०७ पृथिवीकाय (पा)एकेन्द्रियजीवों
का एक भेद, मिट्टी पाषाण
आदि रूप ३११२१ पृथु (व्य) एक राजा ४५।१४ पैशुन्यभाषा (पा) एक भाषाका
भेद १०॥९३ पोदनपुर (भो)एक नगर२७१५५ पौण्ड (भौ) एक देश ११।६८ पौण्ड (व्य) एक राजा ३१।२८ पौण्ड (व्य) वसुदेवका पुत्र ४८१५९ पौण्ड़ा ( व्य) वसुदेवकी स्त्री
४८।५९ पौरवी (पा) एक मूर्च्छनाका
भेद १९।१६३ पौलोम (व्य) राजा पुलोमका
पुत्र १७।२५ प्रकाम (व्य) आगामी रुद्र
६०१५७१ प्रकीर्णक (पा) अंगबाह्यश्रुतका
भेद १०।१२५ प्रकृतिधुति (व्य) एक राजा
५०।१२४ प्रकृति (पा) आग्रायणीयपूर्वको
पंचमवस्तुके बीस प्राभृतोंमें-से कर्मप्रकृति प्राभृतके चौबीस अनुयोग द्वारोंमें
एक अनुयोगद्वार १०१८२ प्रक्रम (पा) कर्मप्रकृति वस्तुका
एक अनुयोगद्वार १०।८३ प्रचण्डवाहन (व्य) त्रिशृंग
नगरका राजा ४५।९६ प्रचला (पा) दर्शनावरणका भेद
५६।९७ प्रचला-प्रचला (पा)दर्शनावरण
कर्मका एक भेद ५६।९१
९३३ प्रच्छाल (भी) एक देश ३॥६ प्रजाग (प्रयाग) (भौ) भगवान् __ ऋषभदेवका दीक्षास्थान
९।९६ प्रजापति (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका एक गणधर १२१६५ प्रज्ञप्ति = एक विद्या २७।१३१ प्रणिधान्या(व्य)एक दिक्कूमारी
देवी ८।१०८ प्रणिधि (व्य) एक देवी ३८.३३ प्रतिपत्तिसमास (पा) श्रुत
ज्ञानका भेद १०।१२ प्रतिष्ठापनिका (पा) एक सीमित
निर्जन्तु स्थानमें मलमूत्र
छोड़ना २।१२६ प्रतिष्टित(व्य)एक राजा ४५।१२ प्रतिसर (व्य) एक राजा ४५।२९ प्रतीहारी =द्वारपालिनी २३३१ प्रतीत्य सत्य (पा) सत्यवचन
का एक भेद १०१०१ प्रत्याख्यान पूर्व (पा) द्वादशांग
का एक भेद २१९९ प्रत्येक (पा) नामकर्मका एक
भेद ५६।१०४ प्रथमानुयोग (पा) द्वादशांगका
एक भेद २१९६ प्रदीपाङ्ग (भौ) एक प्रकारका
कल्पवृक्ष ७८० प्रदेश (पा) आकाशद्रव्यका
सबसे छोटा भाग ७।१७ प्रदोष (पा) ज्ञानावरण और
दर्शनावरणका आस्रव
५८९२ प्रभुम्न (व्य) श्रीकृष्ण-रुक्मिणी__ का पुत्र १११०० प्रद्युम्न (व्य) श्रीकृष्ण-रुक्मिणी
__ का पुत्र ४३१६१ प्रबोध (भो) एक स्तूपका नाम
५७११०६
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९३४
प्रमङ्कर ( भी ) सौधर्मस्वर्गका एक पटल ६।४७
प्रमङ्करा ( भी ) विदेहकी एक नगरी ५।२५९
प्रभञ्जन (व्य ) एक विद्याधर
२२।१०४
प्रमञ्जन ( भी ) मानुषोत्तर पर्वत
का एक कूट ५६१०
प्रभञ्जन ( 87 )
मानुषोत्तर के
प्रभंजन कूटपर रहनेवाला देव ५।६१०
प्रमा (भी) सौधर्म स्वर्गका एक
पटल ६।४७
प्रभावती (उप) जयकुमारकी भवान्तरकी स्त्री १२।११ प्रभावती (य) वि. द. श्रेणी के राजा गन्धार और पृथिवीकी पुत्री २०१७
प्रभावती (व्य ) भगवान् स्त्री
मुनिसुव्रतनाथकी
१६।५५
प्रमास (व्य ) धातकीखण्ड द्वीपका रक्षक देव ५६३८ प्रभास ( प ) भगवान् महावोरका एक गणधर ३।४३ प्रमाला ( भी ) एक वापिका
५७/३५ प्रमामण्डल (पा) भगवान्का एक प्रातिहार्य ३।३४ प्रभावती (व्य) वसुदेवकी स्त्री ११८६ प्रभुशक्ति राजाओं की तीन शक्तियों में से एक शक्ति ८/२०१
=
प्रभूततेज (व्य) शशीका पुत्र एक राजा १३९ प्रमोदव (व्य) भविष्यत्कालसम्बन्धी तीर्थंकरका नाम ६०.५५९
हरिवंशपुराण
प्रमत्तसंयत (पा) छठा गुण
स्थान ३।९०
आगामी रुद्र
प्रमद (व्य )
६०।५७१
प्रमदा ( भो )
(भौ) समवसरणकी
नाट्यशाला ५७/९३
प्रमाणपद (पा) आठ अक्षरका एक प्रमाणपद होता है
१०।२२
प्रमाण
(पा) उत्सेधांगुल से पांच सौ गुना बड़ा अंगुल
७१४२
प्रमाद (पा) ४ कषाय, ४ विकथा,
५ इन्द्रियोंके विषय १ निद्रा १ स्नेह ये १५ प्रमाद हैं
५८।१९२ प्रमादाचरित (पा) अनर्थदण्डका एक भेद ५८।१४६
=
प्रमोद (पा) एक भावना ५८।१२५ प्रवाल ( भी ) रत्नप्रभा पृथिवीके सरभाग के १६ पटलोंमेंसे सातवाँ पटल ४/५३ प्रवीचार मैथुन ३।१६२ प्रवेशन (पा) तालगत गान्धर्वका एक भेद १९।१५० प्रशान्ति (व्य ) एक राजा ४५/१९ प्रश्नव्याकरणाङ्ग (पा) श्रुतज्ञानका एक भेद १०४३ इनकीर्ति (व्य) आगामी तीर्थ
कर ६०।५५९
अष्टक ( भी ) सौधर्म स्वर्गका एक पटल ६।४७
प्रसेनजित् (व्य) एक कुलकर ७।१६६
प्रहारसंक्रामिणी (व्य) एक विद्या
२२।७०
महाद (व्य) उज्जयिनीके राजा
श्रीधर्माका २०१४
प्राण (पा) व्यवहारकालका एक भेद ७।१९
प्राणत ( भी ) तेरहवाँ स्वर्ग
एक मन्त्री
३।१५५
प्राणत ( भी ) ग्रागत स्वर्गका इन्द्रक ६।५१ प्राणावायपूर्व (पा)का एक भेद २।९९ प्रातिहार्य (पा) तीर्थंकरके सम वसरणमें प्रकट होनेवाले अशोक वृक्ष आदि आठ प्रातिहार्य ३ | ३९
प्रायोतिष (भी) एक देश १११६८ प्राभूत (पा) ज्ञानका भेद १०।१३ प्राभृतसमास (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०११३
प्राभृतप्राभृत (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०।१३ प्राभृतप्राभृतसमास (पा) भुत ज्ञानका भेद १०।१३ प्रायोपगमन (पा) संन्यासमरणका एक भेद ३४।४२ प्रासाद = महल २३/१ प्रास्थाल (भी) एक देश ११६७ प्रियकारिणी (थ्य) राजा सिद्धार्थ
की स्त्रो भगवन् महावीरकी माता २।२१ प्रियङ्गुलविका (व्य) जिनदास
सेठकी पनिहारिन ३३॥५० वयसुन्दरी (व्य) श्रावस्ती
नगरीके राजा एणीपुत्रकी कन्या २८/६
प्रियदर्शन (व्य ) धातकीखण्ड
द्वीपका रक्षक देव ५६३८ प्रियदर्शन ( भी ) सुमेरका एक
नाम ५।३७४
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शब्दानुक्रमणिका
प्रियंवद = मघरभाषी २१।३१ प्रीति (भौ) एक वापिका५७।३६ प्रीतिकर(व्य) एक राजा४५१३ प्रीतिंकर व्य। प्रीतिभद्र राजा___ का पुत्र २७१९७ प्रीतिकर (भो) ऊर्ध्ववेयकका
एक इन्द्र के विमान ६१५३ प्रीतिभद्र (व्य) भरतक्षेत्र चित्र
कारपुरका राजा २७।९७ प्रीतिमती (व्य) अरिजयपुरके
राजा अरिंजय और अजित
सेनाकी पुत्री ३४।१८ प्रेक्षागृह = नाट्यशाला ५७।९३ प्रोहिल (व्य) ११ अंग और दश
पूर्वके ज्ञाता एक मुनि
११६२ प्रोष्टिल व्य) भगवान् महावीर
के पूर्वभवके गुरुका नाम ६०।१६३
बन्धुमती (व्य) बन्धुषेणकी स्त्री
६०१४८ बन्धुमती(व्य) श्रावस्तीके काम
देव सेठकी पुत्री २९७ बन्धुयशा (व्य) एक कन्या
६०४९ बन्धुषण (व्य) वसुदेव और
बन्धुमतीका पुत्र ४८।६२ बन्धुषेण (व्य) एक राजा
६०१४८ बहिर्द्विष् = बाह्यशत्रु १।२३ बहुकृत्वः = अनेकबार ६०१३ बहुकेतु (भौ) वि. उ. नगरी
२२९३ बहुशिलामय (भौ) रत्नप्रभाके
खरभागका सोलहवाँ पटल
४१५४ बहुश्रुतभक्ति-भावना ३४।१४१ बह्नि (व्य) लोकान्तिक देवका
एक भेद ५५४१०१ बल (व्य) स्मितयशका पुत्र
१३१८ बलदेव (व्य) वसुदेव और
रोहिणीका पुत्र ४८०६४ बलभद्र (भौ)सानत्कुमार युगल
का छठा इन्द्रक ६।४८ बलभद्र (व्य) आगामी नारायण
६०१५६६ बलभद्रकदेव (व्य) नन्दनवनके
बलभद्र कूटपर रहनेवाला
देव ९।३२८ बलभद्रक कूट (भौ) नन्दनवनके
मध्यमें स्थित एक कूट
५।३२८ बलरिपु (व्य) इन्द्र ५५।१३ बलसिंह (भौ) वैजयन्तो नगरी
का राजा ३०३३ बलि (व्य)विजयका पुत्र ४८१४८ बाण (व्य) विजयार्धके शोणित
पुर नगरका निवासी विद्या
धर ५५।१६ बालचन्द्र (व्य) आगामी बल.
६०५६९ बालचन्द्रा (व्य) वि. द. के
गगनवल्लभ नगरकी राज
कन्या २६५० बालुकाप्रमा (भौ) नरकोंकी
तीसरी भूमि ४।४३ बाह्रीक (व्य) वसूदेव और जरा
__ का पुत्र ४८।६३ बाहुबली (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका पुत्र ९।२२ बाहुल्य = मोटाई ४।४९ बाह्यपरिग्रह (पा) धन-धान्यादि
१० प्रकारका बाह्य परि
ग्रह २।१२१ बुद्धि (व्य) महापुण्डरीक सरोवर
में रहनेवाली देवी ५११३० बुद्धिकूट (भौ) रुक्मिकुलाचलका
पाँचवाँ कूट ५।१०३ बुद्धिल (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता
एक आचार्य ११६३ बुद्धिसेना (व्य) एक गणिका
२७।१०१ बृहदगृह (भो) वि. द. नगरी
२२।९५ बृहद्ध्वज (व्य) राजा वसुका
पुत्र १७।५९ बृहद्ध्वज (व्य) एक राजा
५०११३० बृहद्ध्वज (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१७ बृहद्ध्वज (व्य) जरासन्धका
पुत्र ५३।३१ बृहद्रथ (व्य) कुंजरावर्त
नागपुर-(हस्तिनापुरमें) रहनेवाले सुवसुका पुत्र १८१७
[ब]
बद्धप्रलाप (पा) सत्यप्रवाद पूर्व
की १२ भाषाओंमें एक
भाषा १०।९३ बन्ध (पा) आत्माका कर्मोके
साथ एक क्षेत्रावगाह
५८/२०२ बन्ध (पा) अहिंसाणुव्रतका अति
चार ५८।१६४ बन्धन = विद्यास्त्र २५।४८ बन्धन (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०८२ बन्धुमती (व्य) वसुदेवकी स्त्री
१२८५ बन्धुमती व्य)अरिष्टपुर निवासी
रेवतीको पुत्री, बलदेवकी स्त्री ४४०४१
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९३६ बृहद्रथ (व्य) शतपतिका पुत्र
१८।२२ बृहद्रथ (व्य) कृष्णका पुत्र
४८।६९ बृहद्वलि (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।४० बृहस्पति (व्य) एक भविष्य
वक्ता २३।८ बृहस्पति (व्य) उज्जयिनीके
राजा श्रीधर्माका मन्त्री
२०१४ बृहद्वसु (व्य) राजा वसुका पुत्र
१७१५८ बोधचतुष्क (पा) मति, श्रुत,
अवधि और मनःपर्यय ये
चार ज्ञान ५५।१२५ बोधि (पा) रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र
३।१९० ब्रघ्नमण्डल-सूर्यमण्डल २११४५ ब्रह्म (भो) पाँचवाँ स्वर्ग ६६३६ ब्रह्म (भी) ब्रह्मयुगलका तीसरा
इन्द्रक ६।४९ ब्रह्मदत्त (व्य) बारहवाँ चक्रवर्ती
६०।२८७ ब्रह्मदत्त (व्य) गिरितटनगरका
एक उपाध्याय २३३३३ ब्रह्मचर्य महावत (पा) कृत,
कारित, अनुमोदनासे स्त्रीपुरुषके गमागमका त्याग
२।१२० ब्रह्मलोक (भौ) पाँचवाँ स्वर्ग
१।१२२ ब्रह्मशिरस् (व्य) एक शस्त्र
५२।५५ ब्रह्महृदय (भौ) लान्तव युगल
का प्रथम इन्द्रक ६५० ब्रह्मोत्तर (भौ) छठा स्वर्ग
४।२३
- हरिवंशपुराणे ब्रह्मोत्तर ( भौ ) ब्रह्मयुगलका
चौथा इन्द्रक ६।४९ ब्राह्मी (व्य) भगवान् ऋषभदेवकी पुत्री ९।२१
[ भ ] भगदत्तक (व्य) एक राजा
५०१८२ मगीरथ (व्य)प्रभावतीका पिता___मह एक विद्याधर ३०५२ मद्र (व्य) सागरका पुत्र १३३९ भद्र (भी)सौधर्मयुगलका इक्की
सवाँ इन्द्रक ६।४६ भद्र (व्य) नन्दीश्वरवर समुद्रका
रक्षक देव ५।६४५ भद्र (भो) देशविशेष ११७५ मद्र (व्य) शंखका पुत्र १७।३५ भद्रक (व्य) श्रावस्तीके कामदत्त
सेठके एक भैसेका नाम
२८/२५ भद्रकार (भौ) देशविशेष ३१३ भद्रकाली=एक विद्या २२१६६ भद्रकूर (भौ) रुचिकगिरिका
पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट
५७१४ भद्रपुर (भौ) एक नगर १७।३० भद्रवाम (व्य ) ऋषभदेवका
गणधर १२॥६९ भद्रबाहु (व्य) एक श्रुतकेवली
आचार्य भद्रशाल वन (भौ) मेरुपर्वतको
घेरकर स्थित एक वन
५।२०९ भद्रा (व्य)वाराणसीके सोमशर्मा
ब्राह्मणकी एक पुत्री
२२॥१३२ भद्रा (व्य) विनमिकी पुत्री
२२।१०६ भद्रा (व्य) समवसरणकी एक
वापिका ५७।७३
भद्रावलि ( व्य ) ऋषभदेवका
गणधर १२१६८ मद्रिका (व्य) रुचिकगिरिके
भद्रकूटपर रहनेवाली देवी
५।७१४ मदिलपुर (भौ)एक नगर, जहाँ
वसुदेव गये २४।३१ मदिलसा (भौ) एक नगरी
३३।१६७ भरत (व्य) कृष्णका पुत्र४८७१ मरत (व्य ) प्रथम चक्रवर्ती
६०।२८६ मरत (व्य) आगामी चक्रवर्ती
६०५६३ मरत (व्य) भगवान् ऋषभदेव
का पुत्र ९।२१ मरुकच्छ (भी) देशका नाम
११७२ भरतकूट (भी) हिमवत्कुलाचल
का तीसरा कूट ५।५३ भव (व्य) रुद्र ६०१५७१ भवधारण (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०।८४ भव्य (पा) जिसे सम्यग्दर्शनादि
गुण प्रकट होनेकी योग्यता
हो १५ भव्यकूटस्तूप (पा)समवसरणका
स्तूप ५७।१०४ भागदत्त (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६४ मागफल्गु (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६४ माजनाङ्ग = एक कल्ववृक्ष७।८० भानु (व्य) एक राजा५०।१३० भानु (व्य) जरासन्धका पुत्र
५१३१ मानु (व्य) श्रीकृष्ण-सत्यभामा
का पुत्र ४४।१
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शब्दानुक्रमणिका
९३७
भानु (व्य) मथुराका एक सेठ
३३।९६ भानु (व्य) कंसकी स्त्री
जीवद्यशाका भाई ३५।७५ भानु (व्य) कृष्णका पुत्र ४८०६९ भानु (व्य) भानुकुमार नामका
श्रीकृष्णका पुत्र १११०० भानु (व्य) लब्धाभिमानका पुत्र
१८।३ मानुकीर्ति (व्य) मथुराके भानु
और मथुराका पुत्र ३३९७ भानुदत्त (व्य) चम्पा नगरीका
एक सेठ, चारुदत्तका पिता
२११६ भानुमालिनी (व्य) समवसरणके
आम्रवनकी वापिका
५७१३५ मानुषेण (व्य) मथुराके भानु
और यमुनाका पुत्र ३३३९७ मामा (व्य) सत्यभामा ४३।३ भार्गव ( भौ) देशका नाम
भाषासमिति (पा) धर्मकार्यों में
हित-मित प्रिय वचन
बोलना २०१२३ भाषासमितिव्रत = व्रतविशेष
३४।१०७ भासा (पा) समवसरणके आम्र
वनको वापिका ५७१३५ भास्कर (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३८ मास्वती (पा) समवसरणके
आम्रवनको वापिका
५७।३५ भीम (व्य) सुभानुका पुत्र१८।३ भीम (व्य) मध्यम पाण्डव
५०७८ मीम (व्य) कृष्णका पुत्र४८।६९ मोम (व्य) पहला नारद
६०१५४८ भीमक (प) एक उदाड राजा
४३।१६२ भीमसेन( व्य) पाण्डव ४५।२ भीरु ( भौ) देशविशेष ३५ भीष्म ( व्य) राजा शन्तनके
वंशमें राजा रुक्मण और रानी गंगासे उत्पन्न पुत्र
४५१३५ भीष्म (व्य) रुक्मिणीका पिता
६०१३९ भीष्मज= भीष्मके पुत्र, रुक्मी
४२।९३ मोष्जा = रुक्मिणी ६०॥४१ भुजगवरद्वीप (भी) चौदहवाँ
द्वीप ५।६१९ भुजगवरसागर (व्य) चौदहवाँ
सागर ५।६१९ भुजबली (व्य) सुबलका पुत्र
१३३१७ भुजिष्य =सेवक १११७८ भुजिष्या = दासी ४०।३९
भूतरमण (भौ) मेरुका एक वन
५।३०७ भूतरमण (भौ) एक अटवी
२७१११९ भूतथर (नौ) अन्तिम सोलह
द्वीपोंमें बारहवाँ द्वीप
५।६२५ भृतारण्य ( भौ) विदेहक्षेत्रमें
स्थित वनविशेष ५।२८१ भूति (व्य)भगवान् ऋषभदेवका
गणधर १२१५९ भूभृत् = पर्वत ३१६० भूमिकुण्डल कूट (भौ) वि. द.
नगरी २२।१०० भूमिलुण्ड=अदिति देवीके द्वारा
दत्त विद्याओंका एक निकाय २३१५७ भूमिशय्याव्रत (पा) मुनियोंका
मूल गुण जमीनपर सोना
२।१२९ भूरिश्रवस् (व्य) महापुरके राजा ___सोमदत्तका पुत्र २४।५२ भूरिश्रवस् (व्य) एक राजा
५०७९ भूषाङ्ग = एक कल्पवृक्ष ७।८१ भृङ्गनिभा (भौ) मेरुके नैऋत्यमें
स्थित एक वापिका५।३४३ भृङ्गराक्षस (व्य) नरमांसभोजी
राक्षस तुल्य एक दुष्ट मनुष्य
४५१९४ भृङ्गा (भौ) मेरुके नैऋत्यमें
स्थित वापिका ५।३४३ भृगु पहाड़की चट्टान १११२८ भोग (पा) चक्रवर्तीके दश भोग
१ भाजन, २ भोजन, ३ शय्या, ४ सेना, ५ वाहन, ६ आसन, ७ निधि, ८ रत्न, ९ नगर, १० नाट्य ११११३१
भारत (भी) जम्बूद्वीपका
दक्षिण दिशामें स्थित प्रथम
क्षेत्र ५।१३ महिलपुर (भौ) एक नगर
६०।११ मारद्वाज (भी) देशका नाम
१११६७ भाव = पदार्थ ४।२ मावादिविचय (पा)धर्मध्यानका
एक भेद ५६।४७ भावन = असुरकुमार आदि
भवनवासी देव ३।१३५ भावनाविधि = व्रतविशेष
३४।११२ भावसस्य (पा) दश प्रकारके
सत्योंमें-से एक सत्य १०॥१०६
११८
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________________
९३८
मोगरा (व्य ) दिक्कुमारी देवी ५।२२७
भूमि (भी) वह भूमि - जहाँ कल्पवृक्षोंसे १० प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं २७७ भोगमालिनी (व्य) दिक्कुमारी देवी ५।२२७ मोगवती (व्य) दिक्कुमारी देवी
५।२२७ भोगवती (व्य) माकन्दीके राजा द्रुपदकी स्त्री ४५ । १२१ भोगवर्धन ( भी ) देशका नाम ११1७० भोज ( व्य ) कृष्णका पक्षपाती एक राजा ५२।१५ भोजकवृष्णि (व्य) यदुवंशी
मथुरा के राजा सुवीरका पुत्र १८ १०
भोजनाङ्ग = एक कल्पवृक्ष
राजीमती
७१८०
भोजसुता (व्य) ५५/७२
भौम = व्यन्तर देव ३|१६२
भौम = १८।७०
भौम (IT) अष्टांग निमित्त ज्ञानका एक अंग १०।११७ भौमाय (पा) आग्रायणी पूर्व
पृथिवीकायिक जीव
की वस्तु १०१७९ भ्रकुंश = नटवेषधारी नपुंसक
५४।४८
भ्रम (भौ ) धूमप्रभा पृथिवीके द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रक ४।१३९
भ्रमरघोष (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१४
भ्रान्त (भी) रत्नप्रभा पृथिवीके चतुर्थ प्रस्तारका इन्द्रक
४।७६
हरिवंशपुराणे
[ म ]
मकरध्वज (व्य) प्रद्युम्न५५१३१ मकराकर = समुद्र ४१४ मगध ( भी ) देशका नाम ( बिहारका एक भाग ) ४३।९९
मगधासार नलक (भी) वि. द. नगरी २२।९९
मगधेश्वर (व्य) राजा श्रेणिक ५०१२
मघवान् (व्य) तीसरा चक्रवर्ती ६०।२८६
मघवी (भौ ) तमः प्रभाका रूढ़ि
नाम ४।४६
मङ्गल कूट ( भी ) सौमनस्य
पर्वतका एक कूट ५।२२१ मङ्गला = एक विद्या २२|७० मङ्गलावती ( भी ) घातकी खण्ड
पूर्वविदेहका एक देश ६०१५७
मङ्गलावती ( भी ) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४७ मङ्गी (व्य ) विमलचन्द्र राजाकी विमला रानीसे उत्पन्न पुत्रो जो वज्रमुष्टिको दो गयी
३३।१०४
मङ्गो (व्य) एक भोलनी
२७।१०७
मन्जूषा (भी) विदेहकी नगरी ५।२५७
मज्जोदरी (व्य) एक कलालिन जिसके यहाँ कंस पला
३३।१५
मटम्ब (पा) पाँच सौ गाँवोंसे घिरा नगर २।३ मणिकाञ्चन = विजयार्धकी एक
गुहा ४२११८ मणिकाञ्चन ( भो) वि. उ. नगरी
२२८९
मणिकाञ्चनकूट (भौ) शिखरि - कुलाचलका ग्यारहवाँ कूट ५।१०७
मणिकाञ्चनकूट (भौ) रुक्मि -
कुलाचलका आठवाँ कूट ५।१०४
मणिचूल - हिमचूल
( व्य ) चित्रचूल और मनोहरी के युगल पुत्र ३३।१३३ मणिचूल (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०४ मणिप्रम (भौ ) वि. द. नगरी २२।९६
मणिप्रम (भौ) रुचिक गिरिका नैर्ऋत्य दिशासम्बन्धी कूट
५।७२३
मणि मणिप्रभ (भौ) कुण्डलगिरिके पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट ५।६९३ मणिभद्र ( भो ) विजयार्धका
छठा कूट ५।२७ मणिभद्र (व्य ) अयोध्या के सेठ छोटा पुत्र
समुद्रदत्तका ४३।१४९
मणिभद्रकूट ( भी ) ऐरावतके विजयार्धका चौथा कूट ५।११०
मणिवज्र ( भो) वि. उ. नगरी २२८८
मण्डित ( भी ) वि. द. नगरी २२।९३
मण्डूक (भी) एक गाँव
६०।३३
मण्डूको (व्य) एक धीवरी
६० ३२
मतङ्गज (व्य) वसुदेव और नील
यशाका पुत्र ४८।५७ मत्तजला (भी) विदेहक्षेत्रकी एक विभंगा नदी ५।२४०
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शब्दानुक्रमणिका
९३९
मत्सरीकृता = षड्जस्वरकी
मुर्छना १९।१६१ मत्स्य (नौ) देशका नाम
११।६५ मरण (भौ) देशविशेष ३।४ मत्स्य (व्य) राजा महीदत्तका
पुत्र १७१२९ मथुरा = यमुनातटपर स्थित
प्रसिन्द नगरी १७।१६२ मथुरा (व्य) दक्षिणसमुद्र तटपर
पाण्डवोंके द्वारा बसायी हुई
एक नगरी ५४।७३ मदन (व्य) कृष्णका पुत्र प्रद्युम्न
५५।१७ मदनवेगा (व्य) एक कन्या जो
वसुदेवको विवाही गयी
२४१८४ मद्यवान् व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३६ मद्या = एक कल्पवृक्ष ७८० मदन = प्रद्युम्न ४३।२४४ मद्रक (भी) देशका नाम
११।६६ मद्रकार (भौ) देशका नाम
१११६४ मद्री(व्य) अन्धकवृष्णिको पुत्री,
पाण्डुको स्त्री १८।१५ मधु (व्य) हेमनाभ और धरा
वतीका पुत्र ४३।१६९ मधु = वसन्त ऋतु ५५।२९ मधुकैटभ (व्य) पाँचवाँ प्रति
नारायण ६०.२९१ मधुपिझल (व्य) राजा तृण
बिन्दु और सर्वयशाका पुत्र
२३।५२ मधुरा (व्य) वर्धकि गाँवके मृगा
यण ब्राह्मणकी स्त्री २७१६२ मध्य देश (भौ) मध्यवर्ती देश
३११
मध्यम = एक स्वर १९।१५३ मध्य मध्यम (व्य) वारुणीवर
समुद्रके रक्षक देव ५१६४१ मध्यमपद (पा) सोलह सौ
चौंतीस करोड़ तेरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी अक्षरोंका एक मध्यम पद
होता है १०।२४ मध्यमपात्र (पा) संयतासंयत
श्रावक ७।१०९ मध्यमामध्यम ग्रामके आश्रित
जाति १९।१७६ मध्यम शातकुम्म = व्रतविशेष
३४।८७ मध्यम सिंह निष्क्रीडित = एक
उपवासवत ३४।७९ मध्यमोदीच्यवा-मध्यम ग्रामके
आश्रित जाति १९।१७७ मध्यलोक स्तूप (पा)समवसरणके
स्तूप ५७१९७ मनक (भौ) शर्कराप्रभा पृथिवी
के तृतीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१०७ मनःपर्यथ (व्य) दूसरेके मनकी
बातको जाननेवाला ज्ञान
विशेष २।५६ मन शिलद्वीप (भौ) अन्तिम
सोलह द्वीपोंमें पहला द्वीप
५।६२२ मनु - कुलकर ८।१ मनु = अदिति देवीके द्वारा
विद्याओंका एक निकाय
२२।५७ मन ( भौ) वि. उ. नगरी
२२१८८ मनुपुत्रक = विद्याधर जाति
२६।९ मनोगति (व्य) सूर्याभ और
धारिणीका पुत्र ३४।१७
मनोमव (व्य) रुद्र ६०५७१ मनोभू = काम १७७ मनोरमा (व्य) अमितगति
विद्यागरकी स्त्री २१।१२० मनोरमा (व्य) मेघपुरके राजा
पवनवेग और मनोहरी रानीकी पुत्री, वनमालाका
जीव १५।२७ मनोहरी (व्य) चित्रचूलकी स्त्री
३३११३२ मनोहरी (व्य) मेघपुरके राजा
पवनवेगकी स्त्री १५।२६ मनोहरी (व्य) राजा दक्ष और __ इलाकी पुत्री १७१३ मन्दर (भौ) मेरुपर्वत ४।११ मन्दरस्तूप (पा) समवसरणके
स्तूप ५७१९८ मन्दर (व्य) मथुराके राजा
रत्नवीर्यकी अमितप्रभा रानीसे उत्पन्न पुत्र, धर
णेन्द्रका जीव २७।१३५ मन्दर (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३५ मन्दर (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५.११ मन्दर (भो) नन्दनवनका एक
कूट ५।३२९ मन्दर(भौ) रुचिकगिरिकादक्षिण
दिशासम्बन्धी कूट ५।७०८ मन्दोदरी (व्य) राजा सगरकी
प्रतीहारी २३३५० मय (व्य) समुद्र विजयका पुत्र
४८.४४ मयूरग्रीव (व्य) आगामी प्रति
नारायण ६०५७० मरकत =हरे रंगका मणि२।१० मरीचि (व्य) सत्यभामाके भवा
न्तर वर्णनमें उल्लिखित एक ब्राह्मण ६०।११
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९४०
हरिवंशपुराणे
मरीचिकुमार (व्य) भगवान्
ऋषभदेवका पोता ९।१२५ मरुत् = देव ९।११४ मरुदेव (व्य) वसुदेव और
सोमश्रीका पुत्र ४८1५४ मरुदेव (व्य) बारहवाँ कुलकर
७१६४ मरुदेवी (व्य) नाभिराज कुल
करकी स्त्री ८६ मरुन्मार्ग = आकाश १२।४५ मरुभूति (व्य) चारुदत्तका मित्र
२१११३ मलद (भौ) देशका नाम१११६९ मलय (भौ) एक देश ३३।१५७ मलय (व्य) अचलका पुत्र
४८।४९ मलय (व्य) कालयवनका हाथी
५२।२९ मलयाद्रि (भी) दक्षिणदिशाका
एक पर्वत जिसपर चन्दन
होता है ५४।७४ मल्ल (भौ) देशका नाम ११।६८ मल्लि (व्य) मुनिसुव्रत नामका
प्रथथ गणधर ६०१३४८ मल्लि (स्य) मल्लिनाथ नामक
उन्नीसवें तीर्थकर १२० मसारगल्व (भौ) रत्नप्रभाके
खरभागका पाँचवाँ भेद
४।५३ मस्तक (भौ)देशका नाम १११६८ महाकक्ष (भौ).वि. द. नगरी
२२।१७ महाकच्छ (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६८ महाकच्छा (भौ) पश्चिम
विदेहका एक देश ५।२४५ महाकल्प (पा) अंगबाह्यश्रुतका
एक भेद २।१०४ महाकाङ्क्ष (भी) प्रथम पृथिवी
सम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके सीमन्तक इन्द्रकी पश्चिम दिशामें स्थित महानरक
४१५१ महाकाल ( व्य) उज्जयिनीका
एक वन ३३।१०२ महाकाल (भौ)सातवीं पृथिवीके
अप्रतिष्ठान इन्द्रककी पश्चिम दिशामें स्थित महानरक
४।१५८ महाकाल (पा) चक्रवर्तीको
निधि १११११० महाकाल (व्य) मधुपिंगल मुनि
मरकर महाकाल देव हुआ
२३११२६ महाकाल (व्य) कालोदधिका
रक्षक देव ५।६३८ महाकाल (व्य) छठा नारद 'महाकाली एक विद्या २२॥६६ महागन्ध (व्य) इक्षुवर समुद्रका
रक्षक देव ५।६४४ महागिरि (व्य) हरिका पुत्र
१५।५९ महागौरी = एक विद्या २२१६२ महाचन्द्र (व्य) आगामी बल
भद्र ६०५६८ महाजय (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३८ महाज्वाल (भी) वि. उ. नगरी
२२।९० महादुःख (भौ)तीसरी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रकको पश्चिम दिशामें स्थित महानरक
४।१५४ महादेवी = पट्टराज्ञी १।११५ महाद्युति (व्य) यादव ५०।१२१ महाधि= भारी मानसिक दुःख
५५।१९
महाधनु (व्य) बलदेवका पुत्र
४८।६८ महानन्द (व्य) एक राजा महातमःप्रभा (भौ) नरकोंकी
सातवीं भूमि ४।४५ महानाग (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३८ महानाद (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३४ महानिच्छ (भौ)दूसरी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तरक इन्द्र क विलकी पूर्वदिशामें
स्थित महानरक ४।१५३ महानिरोध (भौ) चौथी पृथिवी
के प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी आर इन्द्रककी उत्तरदिशामें
स्थित महानरक ४।१५५ महानील (भौ) छठी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी हिम इन्द्रकको पश्चिम दिशामें
स्थित महानरक ४।१५७ महानुभाव (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६९ महानेमि (व्य) यादव५०।१२० महानेमि (व्य) एक यदुवंशी
राजा ५०1८३ महानेमि (व्य) समुद्रविजयका
पुत्र ४८।४३ महानेमिकुमार ( व्य) कृष्णके
पक्षका योद्धा ५२।१४ महापङ्का (भी) छठी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी हिम इन्द्रककी उत्तर दिशामें
स्थित महानरक ४१५७ महापद्म (व्य) नवम चक्रवर्ती
६०।२८७ महापद्म (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२०३८ महापन (व्य ) कुण्डलगिरिके
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सुप्रभ कूटका निवासी देव ५।६९२
महापद्म ( भी ) महाहिमवत् कुलाचलका हृद ५।१२१ महापद्म (व्य) आगामी चक्रवर्ती ६०।५६५ महापद्म (व्य) आगामी तोर्थ
कर ६० ५५८ महापद्मा ( भी ) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४९ महापुण्डरीक (भौ) रुक्मिकुला -
चलका हृद ५।१२१ महापुण्डरीक (पा) अंगबाह्यश्रुतका एक भेद २।१०४ महापुर ( भी ) विं. उ. नगरी २२।९१
महापुर ( भी ) एक नमर, जहाँ वसुदेव गये थे २४।३७ महापुरी (भौ) विदेहकी एक नगरी ५।२६१
महाप्रभ (व्य) क्षीरवर द्वीपका रक्षक देव ५।५४२ महाप्रभ ( भी ) कुण्डल परिका दक्षिण दिशाका कूट ५।६९२
महाबळ (व्य ) एक विद्याधर
६०।१८
महाबळ (व्य) भगवान् ऋषभदेवका पूर्वभव ९।५८ महाबल ( व्य ) एक राजा
५०।१२५ महाबल (व्य) सोमयशका पुत्र १३।१६
महाबल (व्य ) सुबलका पुत्र १३॥८
महावक ( व्य ) ऋषभदेवका गणधर १२।६६
महाबल (व्य ) आगामी नारायण ६०१५६६
शब्दानुक्रमणिका
महाबाहु (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५
महाबाहु (व्य जरासन्धका पुत्र ५२।३४
महामानु (व्य) कृष्णका पुत्र
४८६९
महाभुज (व्य ) कुण्डलगिरिके कनकप्रभकूटका निवासी देव ५।६९०
महाभीम (व्य ) दूसरा नारद ६०१५४८
महामालिन् (य) जरासन्धका पुत्र ५२४०
महारथ (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५|२८
महारथ ( व्य ) वसुदेव और
अवन्तीका पुत्र ४८ ६४ महारथ (व्य ) ऋषभदेवका गणधर १२।६६
महाराज (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१५
महारुद्र ( व्य ) चौथा नारद ६०/५४८
महारौरव (भौ) सातवीं पृथिवीके अप्रतिष्ठान इन्द्रककी उत्तरदिशामें स्थित महानरक ४१५८ महालता (पा) चौरासी लाख
महालतांगों की एक महालता होती है ७१२९ महालताङ्ग (पा) चौरासी लाख लताओंका एक महालतांग होता है ७२९ महावरा ( भी ) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४७ महाप्रा (भी) पश्चिम विदेहका एक देश ५/२५१ महावसु (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२।३२
९४१
महावसु (व्य) राजा वसुका पुत्र १७५८ महाविन्ध्य ( भी ) दूसरी पृथिवी - के प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी इन्द्रककी उत्तर दिशामें स्थित, महाभयानक नरक ४१५३ महाविमर्दन ( भी ) पाँचवीं पृथिवीके प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तम इन्द्रककी उत्तर दिशामें स्थित महानरक ४।१५६
महावीर (व्य) अन्तिम तीर्थंकर २।१८
महावेदन (भौ) तीसरी पृथिवी के
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रक विलकी उत्तर दिशामें स्थित महानरक ४।१५४
महावत (पा) हिंसा आदि पाँच
पापोंका सर्वदेश त्याग करना, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहये पाँच महाव्रत हैं २।११७ महाशिरस (व्य) कुण्डलगिरिके कनककूटपर रहनेवाला देव ५।६९० महाशुक्र (भौ) दसवाँ स्वर्ग ४ । २५ महाशुक्र (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२/३३
महाशुक्र ( भी ) दसवाँ स्वर्ग ६/३७ महाश्वेता - एक विद्या २२/६३ महासर (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२९ महासर्वतोभद्र : = एक उपवास व्रत ३४।५७-५८ महासेन (व्य) भोजकवृष्णि और पद्मावतीका पुत्र १८१६
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९४२
महासेन (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२।३८
महासेन (व्य) कृष्णकी लक्ष्मणा स्त्रीका भाई ४४ २५ महासेन (व्य) उनसेनके चाचा शान्तनुका पुत्र ४८।२४० महासेन (व्य ) - एक आचार्य
१।३३
महासेन (व्य) कृष्णका पुत्र
४८।७०
महासेन ( व्य ) एक राजा ५०।१३१
महाहिमवत् (भी) जम्बूद्वीपका दूसरा कुलाचल ५।१५ महाहिमवस्कूट ( भी ) महाहिमयत्कुलाचलका दूसरा कूट ५।७१ महाहृदय (व्य) कुण्डलगिरिके अंकप्रभ कूटका निवासी देव ५।६९३
महीजय ( प ) समुद्र विजयका पुत्र ४८।४४
महीजय (व्य जरासन्धका पुत्र ५२/३० महीदत्त (व्य) पौलोमका पुत्र १७२८
महीधर (व्य) भगवान् ऋषभदेव का गणधर १२।५८ महीपाल (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३१ महेन्द्र ( भी ) कुण्डलगिरिका उत्तर दिशासम्बन्धी कूट
५।६९४
महेन्द्र (व्य) एक राजा६०।८१ महेन्द्र [भी] वि. उ. नगरी २२।१०
महेन्द्र (व्य) अचलका पुत्र ४८१४९
महेन्द्रगिरि (व्य) वसुदेवकी
हरिवंशपुराणे
गन्धर्वसेना स्त्रीसे उत्पन्न
पुत्र ४८।५५
महेन्द्रदत्त (व्य) षभदेवका गणधर १२/६६ महेन्द्रजित् (व्य) इन्द्रद्युम्नका
पुत्र १३।१० महेन्द्रविक्रम (व्य ) उदितारा
क्रमका पुत्र १३।१० महेन्द्रविक्रम (व्य) विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीके शिवमन्दिर नगरका राजा २१।२२ महेन्द्रसेन (व्य ) एक मुनि४३ । १५० महोदय (व्य) समवसरणका एक मण्डप ५७।८६
माकन्दी [भी] एक नगरी
४५।१२०
मागध [व्य ] पूर्व लवणसमुद्रका वासी देव ११७
मागध [ व्य] जरासन्ध १।१०८ मागध = राजा श्रेणिक ४५।३ मागधेशपुर [भी] नगरविशेष
१८।१७
मातङ्ग-दिति देवीके द्वारा प्रदत्त विज्ञानिकाय २२।५९ मातङ्ग [ व्य] नमिका पुत्र
२२.१०८ मातङ्ग = विद्याधरोंकी जाति २६।१५
मातङ्गपुर [भी] वि. द. नगरी
२२।१००
मातरिश्वा = कुत्ता ४६५३ मातहि [ व्य] इन्द्र के द्वारा प्रेषित नेमिनाथ के रथका सारथि ५१।११
मातृष्वसा मौसी १८१२८ मात्रा-तालगत गान्धर्वका एक
प्रकार १९।१५१ मादी [व्य) राजा पाण्डुकी द्वितीय स्त्री ४५।३८
माधवी [भी] महातम - प्रभाका रूढि नाम ४/४६
मानव [भी] देशका नाम १९६ माणव (पा) चक्रवर्तीकी एक निधि ११।११०
माण्डव्य [व्य बीरका
३।४२
माधवमास = वसन्तका महीना ५५४४३
माधव = [व्य ] श्रीकृष्ण ४२।६८ माधवी = एक लता ११।१०० मानव (व्य) अदिति देवीके
द्वारा दत्त विद्याओंका एक निकाय २२।५७ मानव ( भो) वि. द. नगरी २२।९५ मानवपुत्रक
- विद्याधरोंकी एक जाति २६८
मानवर्तिक (भौ) देशका नाम
भगवान् महा छटा गणधर
११.६८
मानस वेग (व्य) चित्तवेग विद्या
धरका पुत्र २४।७० मानसवेग (व्य) वसुदेवका वैरी
एक विद्याधर २६/२७ मानसवेग (व्य) वसुदेवका सम्बन्धी एक विद्याधर ५१।३ |मानस्तम्भ=समवसरणकी चारों दिशाओं में स्थित महिमा - युक्त स्तम्भ २०७४ मानाङ्गणा (पा) समवसरणकी एक भूमि ५७१९ मानुषोत्तरभूभृत् (भी) पुष्कर
द्वीप के मध्य में स्थित चूडीके आकारका पर्वत ३।५७७ मानुषोत्तर ( भी ) मेरु पर्वतका
एक वन ५।३०७ मानुष (व्य) मानुषोत्तर के रजत
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९४३
शब्दानुक्रमणिका मास (पा) दो पक्षका एक मास
होता है ७।२१ माहिनी ब्राह्मणी २१११३१ माहिषक (भौ) देशका नाम
१११७० माहिष्मती (भौ) राजा ऐलेय
के द्वारा नर्मदाके तटपर
बसायी हुई नगरी १७।२१ माहेम (भी) देशका नाम
१११७२ माहेन्द्र = विद्यास्त्र २५१४७ माहेन्द्र (भी) चौथा स्वर्ग
मिथ्यादर्शन भाषा (पा) सत्य
प्रवादपूर्वको १२ भाषाओं
में-से एक भाषा १०१९७ मिथ्यादर्शनक्रिया (पा) एक
क्रिया ५८।८१ मिथ्यात्वक्रिया (पा) एक क्रिया
५८.६२ मिथ्यादृष्टि (पा) पहला गुण
स्थान ३६८० मिथ्योपदेश (पा) सत्याणुव्रतका
अतिचार ५८।१६५ मिश्रकेशी व्य) रुचिकगिरिके
अंककूटपर रहनेवाली देवी
५७१५ मुक्तावलीविचि = एक उपवास
व्रत ३४१६९-७० मुनि = प्रत्यक्षज्ञानी मुनि
कूटपर रहनेवाला एक देव
५।६०५ मायागता (पा) दृष्टिवाद अंगके
चूलिकाभेदका उपभेद
१०।१२३ मायाक्रिया (पा) एक क्रिया
५८८० मायूरी= एक विद्या २२।६३ मार (भौ) पंकप्रभापृथिवीके
तृतीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१३१ मार (व्य) रुद्र ६०५७१ मारुत (भौ) सौधर्मयुगलका
बारहवाँ इन्द्रक ६१४५ मार्ग-तालगत गान्धर्वका प्रकार
१६।१५१ मार्गणा (पा) गति आदि १४
मार्गणाएँ जीवोंकी खोजके
स्थान २।१०७ मार्गप्रभावना=भावना३४।१४७ मार्गवी-मध्यमग्रामकी मुर्छना
११९।१६३ माल्य(भौ) देशका नाम१११७१ माल्य (भौ) वि. उ. नगरो
२२।९० माल्याङ्ग -एक कल्पवृक्ष ७८० माल्यवस्कूट (भौ) माल्यवान्
पर्वतका एक कूट ५।२१९ । माल्यवान् (भी) नीलपर्वतसे
साढ़े पाँच-सौ योजन दूर नदीके मध्य में स्थित एक
ह्रद ५११९४ माल्यवान् (भौ) मेरुकी पूर्वोत्तर
दिशामें स्थित वैडूर्यमणि
मय एक पर्वत ५।२११ माल्यवान् (व्य) जरासन्धका
पुत्र ५२।३७ माल्यवान् (व्य) हिमवत्का पुत्र
४८।४७
माहेन्द्र (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२०५८ मांसल = पुष्ट ८।२६ मित्र (व्य) ऋषभदेवका गणधर
१२१६२ मित्र ( भौ) सौधर्म युगलका
तीसवाँ इन्द्रक ६१४७ मित्र कला (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६५ मित्रवती(व्य) चारुदत्तके मामा
की पुत्री जिसे चारुदत्तने
विवाहा २०३८ मित्रसागर (व्य) एक मुनि
६०१९७ मित्रानुराग (पा) सल्लेखनाव्रत
का अतिचार ५८।१८४ मित्रा (व्य) अरिष्टपुरके राजा
रुधिरकी स्त्री ३१।१० मित्रा (व्य) राजा सुदर्शनकी
स्त्री अरनायकी माता
४५।२१ मिथुन = दम्पती १५।१ मिथिला (भो) एक नगरी
२०१२५ मिथिलानाथ (व्य) देवदत्तका
पुत्र १७१३४
मुनिचन्द्र (व्य) एक जैनमुनि
२७८१ मरजमध्यविधि - एक उपवास
३४.६६ मुण्डशलायन (व्य) एक ब्राह्मण
६०।११ मुनिसुव्रत (व्य) बीसवें तीर्थंकर
१६।१३ मुहूर्त (पा) सात लवोंका एक
मुहूर्त होता है ७।२० मूल (व्य) राजा अयोधनका
पुत्र १७।३२ मूलज (भौ) देशका नाम
११७० मूलवर्यक=अदिति देवीके द्वारा
दत्त विद्याओंका एक निकाय
२२।५८ मूलवीर्य विद्याधर = विद्याधरों
की एक जाति २६।१० मूर्छना = बैणस्वरका भेद
१९।१४७
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९४४
मृगध्वज (व्य) जितशत्रुका पुत्र २८।१७ मृगशृङ्ग (व्य ) खमाली और
कनक केशीका पुत्र २७।१२० मृगश्टङ्गिणी ( व्य ) सितकी स्त्री तापसी ४६।५४ मृगाङ्क (व्य ) गरुडांकका पुत्र १३।११ मृगायण (व्य) वर्धकि गाँवका
एक ब्राह्मण २७।६१ मृगावती (व्य) हरिपुरके राजा
पवनगिरिकी स्त्री १५।२३ मृतसंजीवनी = एक विद्या २२।७१ मृत्यु - आशंसा (पा) सल्लेखना -
का अतिचार ५०।१८४ मृदङ्गमध्यविधि = एक उपवास
३४।६४
मृध = रण ४०।१ मेघ (व्य) मेघदलपुरका एक सेठ ४६।१५
मेघ (भी) सौधर्मयुगलका बीसवाँ इन्द्रक ६१४५
मेघ (व्य) यादव ५०।१२१ मेघ (व्य) समुद्रविजयका पुत्र
४८|४४
मेघा ( भी ) बालुकाप्रभा पृथिवी
४।२२०
मेघकूट (भौ ) वि. द. नगरी
२२।९६
मेघकूट (भौ) विजयार्धका एक
नगर ४३।४९ मेघकर ( भी ) निषेध पर्वतकी उत्तर दिशा में सीतोदा नदीके तटपर स्थित कूट ५।१९२
मेघङ्करा (व्य) नन्दनवनमें रहने
वाली दिक्कुमारी ५।३३२ मेघघोष (व्य ) मेघनादका पुत्र ६०।११८
हरिवंशपुराणे
मेघदल (भी) एक नगर४६ । १४ मेघनाद ( व्य ) भद्रिलपुरका राजा ६०।११८
मेघनिनाद = रत्नायुधका एक हाथी २७।९६
मेघनाद (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२/३४
मेघपुर ( भी ) एक नगर ३३।१३५ मेघपुर ( भी ) विजयार्ध की उत्तर
श्रेणीका एक नगर १५।२५ मेघनाद (व्य ) अरिञ्जयपुरका
स्वामी २५/२
मेघमाल ( भी ) पश्चिम विदेहका वक्षारगिरि ५।२३२ मेघमाळ (भौ) वि. उ. नगरी २२।९१
मेघमाला (व्य) मथुराके राजा
रत्नवीर्यकी स्त्री २७।१२५ मेघमालिनी ( व्य ) नन्दनवनमें रहनेवाली दिक्कुमारी
५/३३३
मेघमालिनी (व्य) नारद नामक देवकी देवी ६०१८० मेघमुख (व्य) म्लेच्छों का कुलदेवता ११।३२ मेघवती (व्य ) नन्दनवनमें
रहनेवाली दिक्कुमारो देवी
५।३३२
मेघानीक (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०४
मेघरथ (व्य) गिरिनगर के चित्र
रथ राजाका पुत्र ३३।१५२ मेघरथ (व्य ) सद्द्भद्रिलपुरका राजा १८।११२
मेघवाहन (व्य ) भरतक्षेत्र चम्पा -
पुरीका राजा ६४|४ मेघवेग ( व्य ) त्रिकूटाचलका स्वामी ४५।११५ मेघेश्वर (व्य) ऋषभदेवका गण
धर, दूसरा नाम जयकुमार १२१६७
मेरु (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।५९
मेरु (भी) विदेहक्षेत्र में स्थित सुदर्शन मेरु नामका पर्वत १९७
मेरु (व्य) सिन्धुदेशके वीतभय
नगरका स्वामी ४४।३३ मेरु (व्य) मथुरा के राजा रत्नवीर्य और मेघमालाका पुत्र, लान्तवेन्द्रका जीव २७।१३५* मेरु ( व्य ) श्रीकृष्ण के पक्षका
राजा ५०/७०
मेरुक (व्य ) तीसरा प्रतिनारायण ६०।२९१ रुद्र ( व्य
६०।१०३
मेरुदत्त (व्य) नग्नजित्का पुत्र, कृष्णका पक्षपाती ५२।२१ मेरुनन्दना (व्य) व्यन्तरकी स्त्री
एक राजा
= एक व्रतविशेष
६०।४६ मेरुपक्तिव्रत ३४।८५ मेरुमती (व्य ) गान्धारीकी माता
६०१९३
मेरुसतो (व्य ) गान्धारदेशकी
पुष्कलावती नगरीके राजा इन्द्रगिरिकी स्त्री ४४/४५ मेदार्थ (व्य) भगवान् महावीर
का दशम गणधर ३।४३ मोक (भी) देशका नाम ११।६५ मोक्ष (पा) अष्टकर्मसे रहित आत्माकी शुद्ध परिणति
२।१०९
मोक्ष (पा) आग्रायणी पूर्वके चतुर्थप्राभृतका योगद्वार
१०१८३
मोक्षण = विद्यास्त्र २५४४८
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मोघ (व्य) मानुषोत्तरके अंक
कूटपर रहनेवाला देव
५।६०६ मोघ (मोष) भाषा (पा) सत्य
प्रवाद पूर्वको १२ भाषाओं
में से एक भाषा १०॥९६ मोहन = विद्यास्त्र २५।४८ मोहनीय(पा) आत्माको स्वरूप
से च्युत करनेवाला कर्म
५८०२१६ मौक (भौ) देशविशेष ३।४ मौखर्य (पा) अनर्थदण्डव्रतका
अतिचार ५८५१७९ मौन = मुनियोंका १२१८२ मौलि = मुकुट २१८५ मौर्यपुत्र-(व्य) भगवान् महा
वीरका सप्तम गणधर ३३४२
[य] यक्षदेवी (व्य) यक्षिल और देव
सेनाकी पुत्री ६०।६३ यक्षलिक (व्य) यज्ञदत्त और
यक्षिलाका पुत्र ३३।१५८ यक्षवर (भौ) अन्तिम सोलह
द्वीपोंमें तेरहवां द्वीप
५।६२५ यक्षिल (व्य) एक वैश्य ६०।६३ यति कषायोंका अन्त करनेवाले
विशिष्ट मुनि ३।६१ यति =तालगत गान्धर्वका एक
प्रकार १९।१५१ यथाख्यातचारित्र (पा) मोहके
अभावमें होनेवाला चारित्र
५६७८ यज्ञ (व्य) भगवान् ऋषभदेवका
गणधर १२०५९ यज्ञगुप्त (व्य ) ऋषभदेवका गणधर १२।६३
११९
शब्दानुक्रमणिका यज्ञदत्त (व्य ) ऋषभदेवका
वणधर १२१६४ यज्ञदत्त, यक्षिला (व्य) इस
नामका दम्पती ३३।१५८ यज्ञदेव (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६३ यज्ञमित्र (व्य ) ऋषभदेवका
गणधर १२१६४ यदु (व्य) हरिवंशके अन्तर्गत
यदुवंशका स्थापक राजा
१८।६ यदुनन्दन = वसुदेव २८।१४ यम (व्य) देवविशेष (लोकपाल)
५।३१७ यमकूट (भौ) निषध पर्वतकी
उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके तटपर स्थित कूट
५।१९२ यमदण्ड = विद्यास्त्र २५१४८ यमुना (व्य) मथुराके भानु सेठ
की स्त्री ३३।९६ यव (पा) आठ यूकाओंका एक
यव ७४० यवन (भौ) देशका नाम१११६६ यवन (व्य) एक राजा ५०१८४ यबु (व्य) भानुका पुत्र १८।३ यश:कूट (भौ) रुचिक गिरिका
पश्चिम दिशा सम्बन्धी
कूट ५७१४ यशःपाल (व्य) ग्यारह अंगके
ज्ञाता एक आचार्य १६६४ यशस्कान्त (व्य) मानुषोत्तरके __ अश्मगर्भ कूटपर रहनेवाला
देव ५।६०२ यशस्वान् (व्य ) मानुषोत्तर
पर्वतके वैडूर्यकूटपर रहने
वाला देव ५।६०२ यशस्विनी (व्य) धनदेवकी स्त्री
६०।९५
९४५ यशस्वी (व्य) नौवाँ कुलकर
७।१६० यशोदा (व्य) सुनन्दगोपको स्त्री
३५।३० यशोदा(व्य) एक कन्या जिसका
महावीरके साथ विवाह करनेकी जितशत्रुको इच्छा
थी ६६८ यशोदया (व्य) यशोदाकी माता
६६१८ यशोधन (व्य ) एक राजा
५०।१२६ यशोधर (व्य) एक मुनिराज
३४।४५ यशोवर (भौ) मध्यम प्रैवेयकका
प्रथम इन्द्रक ६।५२ यशोधर(व्य) मानुषोत्तर पर्वतके
सौगन्धिक कूटपर रहने
वाला देव ५।६०२ यशोधरा (व्य) रुचिकगिरिके
विमलकूटपर रहनेवाली
देवी ५।७०९ यशोधरा (व्य) अलकाके राजा
सुदर्शन और रुधिराकी
पुत्री २७७९ यशोभद्र (व्य) आचारांगके
ज्ञाता एक आचार्य ११६५ यशोबाहु (व्य ) आचारांगके
ज्ञाता एक आचार्य ११६५ याज्ञवल्क्य (व्य) एक परिव्राजक
२१११३४ याम्य (पा) स्फटिक सालका ___दक्षिण गोपुर ५७१५८ यादव = वसुदेव १९५७ यादवेन्द्र (व्य) समुद्र विजय
नमिनाथके पिता ५०१३ युक्तिक (व्य) राजा उग्रसेनका
पुत्र ४८।३९ युक्त्यनुशासन (व्य) समन्तभद्र
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हरिवंशपुराणे
योषित् = स्त्री २८
[ र ]
द्वारा रचित युक्त्यनुशासन नामका ग्रन्थ और युक्ति
युक्त अनुशासन ११२९ युग (व्य) पाँच वर्षका एक
युग होता है ७।२२ युगन्त ( व्य) विजयका पुत्र
४८१४८ युग्म = स्त्री-पुरुषोंका युगल
७.९१ युग्य =बैल ४३१२ युगल (व्य) सहदेव और नकुल
युधवरोधन (व्य) दुर्योधनका
वंशज ६५।१९ युधिष्ठिर (व्य)पाण्डव ४५२ यूका (पा) आठ लिक्षाओंकी ___ एक यूका ७४० यूपकेसर (भी) लबणसमुद्रका
उत्तर दिशास्थित पाताल
५।४४३ योग (पा) आत्मप्रदेशोंका कम्पन
५८।५७ योगनिःप्रणिधान (पा) सामा
यिक व्रतके अतिचार, इसके
तीन भेद है ५८११८० योजन(पा) आठ हजार दण्डका
एक योजन ७।४६ योजन (पा) अकृत्रिम चीजों के
नापमें दो हजार कोशका एक योजन होता है और कृत्रिम चीजोंके नापमें चार
कोशका ४।३६ योजनगन्धा (व्य) शन्तनुकी
स्त्री ४५।३१ योनिविकल्प = सचित्त, अचित्त,
सचित्ताचित्त, शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत, विवृत, संवृत-विवृत ये नौ योनियाँ २।११६
रक्तकम्बला (भौ) पाण्डुकवनके
वायव्यमें स्थित शिला
५।३४७ रौरव (भी) सातवीं पृथिवीके
अप्रतिष्ठान इन्द्रककीदक्षिण दिशामें स्थित महानरक
४/१५ रुक्मि कूट (भौ) रुक्मिकुलाचल
का दूसरा कूट ५।१०२ रुक्मिन् (भौ) जम्बूद्वीपका छठा
कुलाचल ५।१५ रवि (व्य) राजा वसुका पुत्र
१७१५९ रोहिणी(पा) पांच सौ महाविद्या
ओंमें से एक १०।११५ रोहिणी (व्य) अरिष्टपुरके राजा
रुधिरकी पुत्री ३१।११ रौरुक (भौ) रत्नप्रभा पृथिवीके
तृतीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४७६ रूपगता (पा) दृष्टिवाद अंगके
चूलिकाभेदका उपभेद
१०।१२३ रूपसस्य (पा) दस प्रकारके
सत्योंमें-से एक सत्य
१०.९९ रूपवर (भौ) अन्तिम सोलह
द्वीपोंमें सातवाँ द्वीप५।६२३ रोहितकूट (भौ) हिमवत् कुला
चलका सातवाँ कूट ५।५४ रोहिताकूट (भौ) महाहिमवत्
कुलाचलका चौथा कूट
५.७१ राजीमती (व्य) भगवान् नेमि
नाथका जिसके साथ विवाह होनेवाला था ११११४
रम्या (भी) पूर्वविदेहका एक
देश ५।२४७ रम्यक (भौ) जम्बूद्वीपके नील
और रुक्मिकुलाचलके मध्य__ में स्थित पाँचवाँ क्षेत्र५।१३ रोहिणी (व्य) वसुदेवकी स्त्री
१२८६ रोहिणी - एक विद्या २७।१३१ रोहित, लोहिताङ्क (व्य) लवण
समुद्रमें उदक और उदवास पर्वतोंके निवासी दो देव
५।४६३ रोहितास्या (भौ) एक महानदी
५।१२३ रोहया (रोहित्) (भौ) चौदह
महानदियोंमें एक नदी
५।१२३ रवती (व्य) अरिष्टपुरनिवासी
रेवतकी पुत्री बलदेवकी
स्त्री ४४।४१ रेवती (व्य) एक धाय ३३११४४ रवि (व्य ) रविषेणाचार्य
११३४ रेवत (व्य) अरिष्टपुरके राजा
हिरण्यनाभका बड़ा भाई
४४।४० रमणीया (भौ) पूर्वविदेहका एक
देश ५।२४७ रम्यककूट (भौ) नील कुलाचल
का आठवाँ कूट ५।१०१ रम्यककूट(भौ) रुक्मिकुलाचलका
तीसरा कूट ५।१०२ रम्यका (भी) पूर्वविदेहका एक
देश ५।२४७ रम्यपार्वतेय (भो) वि. उ.
नगरी २२।९८ रुक्मी (व्य) कुण्डिनपुरके राजा
भीष्मका पुत्र रुक्मिणोका भाई ४२।३४
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९४७
शब्दानुक्रमणिका रक्ता ( भौ) एक महानदी
५।१२५ रजनी = षड्जस्वरकी मुर्छना
१९।१६१ रत्नवीर्य (भौ) अन्धकवृष्णिके
पूर्वभवोंसे सम्बन्ध रखने
वाला एक राजा १८०९७ रक्ता (भौ) पाण्डुकवनके नैऋत्य
__ में स्थित शिला ५।३४७ ।। रेवतक (भौ) गिरनार पर्वत
५५।५९ रोमशैत्य (व्य) बलदेवका पुत्र
४८।६८
रुक्मी (व्य) एक राजा५०७८ रुक्मिणी ( व्य) कुण्डिनपुरके
राजा भीष्मकी पुत्री कृष्ण
की पट्टराज्ञी ४२।३४ रजोबहुल = पापसे युक्त, पक्षमें
धूलिसे परिपूर्ण रैवतकगिरि = गिरनार पर्वत
४२।९६ रोचनकूट (भौ) मेरुसे उत्तर
सीता नदीके पूर्व तटपर
स्थित एक कूट ५।२०८ रजत, रजतप्रम (भौ) कुण्डल
गिरिके दक्षिण दिशा
सम्बन्धी कूट ५।६९१ रजत (भी) नन्दनवनका एक
कूट ५।३२९ रजत (भी) रुचिकगिरिका
उत्तर दिशासम्बन्धी कूट
५१७१६ रजतकूट (भौ) मानुषोत्तरको
पश्चिम दिशाका एक कूट
५।६०५ रजक (भौ) नन्दनवनका एक
कूट ५/३२९ रघूत्तम (व्य) रामचन्द्रजो
४६।२२ रङ्गसेना (व्य) चन्दनवन नगर___ की एक गणिका २९।२६ रक्तोदा (भौ) एक महानदी
५।१२५ रक्काकूट (भी) शिखरिकुलाचल
का पाँचवाँ कूट ५।१०६ रक्तगान्धारी = मध्यम ग्रामके
आश्रित जाति १९।१७६ रक्तपञ्चमी = मध्यम ग्रामके
आश्रित जाति १९।१७६ रक्तवती कुट (भौ) शिखरि
कुलाचलका आठवां कूट ५।१०७
[ल] लक्षण (पा) अष्टांग निमित्तका
एक अंग १०१११७ लक्षपर्वा = एक विद्या २२।६७ लक्ष्मणा (व्य) सिंहल द्वीपके
श्लक्ष्णरोम राजाकी पुत्री, कृष्णकी एक पट्टराज्ञी
४४/२० लक्ष्मी (व्य) पुण्डरीक सरोवरमें
रहनेवाली देवी ५११३० लक्ष्मीकुट (भौ) वि. द. नगरी
२२।९७ लक्ष्मीकूट (भौ) शिखरिकुला
चलका छठा कूट ५।१०६ लक्ष्मीग्राम (भी) एक ग्राम
६०.२६ लक्ष्मीमती (व्य) राजा सोम
प्रभकी स्त्री ९।१७९ लक्ष्मीमती (व्य) महापद्म चक्र
वर्तीकी स्त्री, पद्मकी माता
२०१४ लक्ष्मीमती(व्य) सोमदेवकी स्त्री
ब्राह्मणी ६००२७ लक्ष्मीमती (व्य) युधिष्ठिरकी
स्त्री ४७।१८
लक्ष्मीमती (व्य) रुचिकगिरिके
रुचक कूटपर रहनेवालो
देवी ५१७०९ लघु = शीघ्र ३८।२३ लता(पा)चौरासी लाख लतांगों
की एक लता होती है
७.२९ लताङ्ग(पा)चौरासी लाख ऊहों
का एक लतांग ७१३० लब्धाभिमान (व्य) वनबाहुका
पुत्र १८३ लब्धि(पा) क्षयोपशम, विशुद्धि,
प्रायोग्य, देशना तथा करण
ये पाँच लब्धियाँ ३११४१ लब्धि (पा) ज्ञानावरण कर्मके
क्षयोपशमसे प्रकट हई देखने आदिकी भावेन्द्रिय रूप
शक्ति १८१८५ लम्बुसा (व्य) रुचिकगिरिके
स्फटिक कूटपर रहनेवाली
देवी ५७१५ लय = तालगत गान्धर्वका एक
प्रकार १९११५१ ललिताङ्ग (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका पूर्व भव ९।५८ लल्लक्क (भौ) तमःप्रभा पृथिवीके
तृतीय प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१४७ लव (पा) सात स्तोकोंका एक
लव होता है ७२० लवणार्णव (भौ) लवणसमुद्र
५।४३० लागल (भौ) सानत्कुमार युगल
का पाँचवाँ इन्द्रक ६।४८ लागलावर्ता (भौ)पश्चिमविदेह
का एक देश ५।२४५ लान्तव(भौ)सातवाँ स्वर्ग६।३७ लान्तव (भौ) लान्तव युगलका
दूसना इन्द्रक ६१५०
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९४८
लिक्षा (पा) आठ वालाग्रोंकी एक लिक्षा ७।४०
लेण (भौ) देवोंका उत्पत्तिस्थान
५।४०३
लेश्या (पा) आग्रायणी पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०।८३
लेश्या कर्म (पा)
आग्रायणी
पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार १०१८३
लेश्या परिणाम (पा) अत्रायणी
पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका योग
द्वार १०८४
लोक (पा) अनन्त आकानके मध्य में स्थित पुरुषाकार १४ राजुप्रमाण आकाश ४|४
लोक पूरण (पा) लोक पुरण समुद्घातका चौथा चरण ५६।७४
लोकबिन्दुसार (पा) पूर्वगत श्रुतका एक भेद २।१०० लोकसंस्थान=लोकका आकार
१।७१
लोकस्तूप (पा) समवसरण के स्तूप ५७/९४ लोकाभिनन्दन (वि) जनसमूहको आनन्दित करनेवाले १।६ लोकोत्सादन ( व्य ) विद्यास्त्र
२५/४७
लोच (पा) मुनियों का एक मूलगुण- केश उखाड़ना २।१२८ कोल (भी) शर्कराप्रभा पृथिवी - के नवम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।११३
कोलुप ( भी ) शर्कराप्रभा पृथिवीके दशम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४|११४
हरिवंशपुराणे
लोहजङ्घ (व्य ) समुद्रविजयका दूत ५०/५६
लोहाचार्य (व्य) आचारांग ज्ञाता एक आचार्य १६५ लोहित ( भी ) पाण्डुक वनका एक भवन ५।३२२ लोहिताक्ष (भी) सौधर्मयुगलका चौबीसवाँ इन्द्रक ६।४७ लोहिताक्ष कूट ( भी ) मानुषोत्तरकी दक्षिण दिशाका एक कूट ५१६०३ लोहिताक्ष कूट (भी) गन्धमादन पर्वतका एक कूट ५।२१८ लोहिताङ्ग ( भो रत्नप्रभाके
खर भागका चौथा पटल ४/५२ लोहिताख्य (भौ) रुचिकगिरिका पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट ५।७१२
लोहिताक्षमय ( भी ) मेरुकी एक परिधि ५।३०५ लौकान्तिक (व्य) पाँचवें स्वर्गके अन्तमें रहनेवाले देवविशेष
२।४९
[व]
वक (व्य) एक राजा ५०१८४ वकुश (पा) मुनिका एक भेद ६०१५८
वक्रान्त (भौ) रत्नप्रभा पृथिवी के
ग्यारहवें प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।७७ वक्रोक्ति (व्य) शान्तिषेण द्वारा रचित ग्रन्थविशेष १।३६ बङ्ग (भौ) देशका नाम ११ ६८ वचोहर = दूत ५०/४६ वज्र ( भी ) अनुदिश ६।६३ वज्र (व्य ) वज्रायुधका पुत्र १३।२२
वज्र (भौ ) सौधर्मयुगलका पचीसवाँ इन्द्रक ६।४७ वज्र ( भी ) कुण्डलगिरिका पूर्व
दिशासम्बन्धी कूट ५/६९० वज्र ( भी ) सीमनस वनका एक
भवन ५।३१९
वज्र (व्य ) अभिनन्दननाथका प्रथम गणधर ६० । ३४८ वज्र (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२।६७
वज्र (व्य) एक राजा ५०।८१ वज्र = हीरा २११० वज्रककूट ( भी ) मानुषोत्तरकी ऐशान दिशाका एक कूट
५/६०६
वज्रकपाट (भी) वज्रमुख कुण्ड में स्थित पर्वतपर बने गृहका
द्वार ५।१४७ वज्रकाण्डधनुः धनुष ११।५ वज्रकूट ( भी ) मानुषोत्तर पर्वतकी ऐशान दिशाका एक कूट ५६०१
वज्रकूट ( भी ) नन्दन वनका एक
कूट ५।३३० वज्रखण्डिक (भौ) देशविशेष ११।७५
वज्रजङ्घ (व्य) चन्द्ररथका पुत्र १३।२१ वज्रचमर (व्य ) पद्मप्रभका गणधर ६० । ३४७ वज्रजङ्घ (व्य) भगवान् ऋषभदेवका पूर्वभव ९।५८ वज्रदत्त ( व्य )
एक मुनि
२७/९६
वज्रदंष्ट्र (व्य ) वज्रसेनका पुत्र
१३।२२
वज्रदंष्ट्र (व्य ) एक विद्याधर २७।१२१
=
चक्रवर्तीका
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वज्रदं (व्य) वसुदेव और बालचन्द्राका पुत्र ४८/६५ वज्रधर्म (व्य) सत्यकका पुत्र ४८१४२
वज्रध्वज (व्य) वज्रदंष्ट्रका पुत्र १३।२२
वज्रनाभ (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३४
वज्रनाभि (व्य) भगवान् ऋषभदेवका पूर्वभव ९५९ वज्रपाणि (व्य) वज्रास्यका पुत्र १३।२३
वज्रपाणि (व्य ) नभस्तिलक नगरका राजा २५१४ वज्रपुर (भौ) राजा अमरके द्वारा बसाया नगर १७।३३
वज्रप्रभ ( भी ) कुण्डलगिरिको पूर्वदिशाका कूट ५।६९७ वज्रप्रभ ( भी ) सौमनसवनका
एक भवन ५।३१९ वज्रबाहु (व्य) वजाभका पुत्र १३।२३
वज्रबाहु (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५
वज्रबाहु (व्य) दीर्घबाहुका पुत्र १८२ वज्रमानु (व्य) वज्रपाणिका पुत्र १३।२३ वज्रभृत् (व्य) सुवयका पुत्र १३।२२
वज्रमध्यविधि (व्य) एक उपवासव्रत ३४।६२-६३ वज्रमयवप्र (पा) समवसरणका वज्रनिर्मित कोट ५७/२० वज्रमय ( भी ) मेरुकी एक परिधि
५/३०५
वज्रमुख ( भी ) पद्मसरोवरका वह द्वार जिससे गंगा निकली है ५।१३६
शब्दानुक्रमणिका
वज्रमुखकुण्ड (भौ ) पृथिवीपर स्थित एक कुण्ड जिसमें गंगा गिरती है ५।१४२ वज्रमुष्टि (व्य) एक पुरुष ६०।५१ वज्रमुष्टि (व्य) दृढमुष्टि और
वप्रश्रीका पुत्र ३३।१०४ वज्रायुध (or) चक्रायुध और चित्रमालाका पुत्र ( राजा सिंहसेनका जीव )
वज्रायुध (व्य ) वज्रध्वजका पुत्र १३।२२
वज्रवर ( भो) अन्तिम सोलह
दीपोंमें नौवीं दोष ५६२४ वज्रवान् (य) वज्रभानुका पुत्र १३।२३
वज्रसुन्दर (व्य) वज्रांकका पुत्र १३।२३
वज्रसूरि (व्य) एक प्राचीन आचार्य १।३२
वज्रसेन (व्य) वजंघका पुत्र १३।२१
वज्रा (भी) रत्नप्रभाके खरभागका दूसरा पटल ४१५२ बज्राङ्क (व्य ) बखवाहुका पुत्र १३।२३
बनाम (व्य) बज्रभृतका पुत्र १३।२३
वज्रास्य (व्य ) बज्चसुन्दरका पुत्र १३।२३
वटपुर (भो) एक नगर४३ । १६३ वडवामुख (भौ) लवणसमुद्रका
दक्षिण दिशास्थित पाताल ५१४४३
वणिज्या व्यापार १८।९९ वरस (भी) देशविशेष ११।७५ वरसकावती (भी) पूर्वविदेहका एक देश ५|२४७ वत्सदेश (भी) प्रयागका समीपवर्ती प्रदेश १४|१
९४९
वरसमित्रा (व्य) दिनकुमारी देवी ५४२२७
वसा (भी) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४७ वतंसकूट ( भी ) मेहसे उत्तर
सीता नदीके पश्चिम तटपर स्थित एक कूट ५१२०८ वदर = वेर ७१६९
वध ( प ) असातावेदनीयका आस्रव ५८।९३
वनक (भी) शर्कराभा पृथिवीके चतुर्थप्रस्तारका इन्द्रकविल ४|१०८
वनमाला (व्य ) कौशाम्बीकी
एक स्त्री १४।५१ बनमाला ( भी ) सानत्कुमार
युगलमें दूसरा इन्द्रक६ ॥ ४८ वनवास्य ( भी ) चरम के द्वारा
बसाया हुआ एक नगर १७।२७
वन्दना=आवर्त्त तथा शिरोनमि आदिकी क्रिया करना ३४ । १४४
वन्दना (पा) अंगबाह्य श्रुतका एक भेद २।१०२ वन्धुमती (व्य ) हस्तिनापुर के
सेठकी स्त्री ३३।१४१ प्रश्री (व्य) दृढमुष्टिको स्त्री ३३।१०३
वप्रा (भौ ) पश्चिम विदेहका
एक देश ५।२५१ कावती (भौ) पश्चिम विदेहका एक देश ५०२५१ वप्रथु (व्य ) सुमित्रका पुत्र १८ १९
वर (पा) स्फटिक सालका पूर्व गोपुर ५७१५७ वरकुमार (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१७
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________________
९५०
वरदत्त (व्य) नेमिनाथ भगवान्
का प्रथम गणधर ५८ २
बराङ्गचरित (व्य ) जटासिंहनन्दोका एक काव्य ग्रन्थ १।३५
बराङ्गना - वेश्या १।३५ वर्धक (भी) रत्नप्रभाके खरभागका पन्द्रह पटल ४१५४ वर्चस्क (भी) पंकप्रभा पृथिवी के चतुर्थ प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।१३२
वराट (व्य) एक राजा ५०।८३ वर्ण - पदगत गान्धर्वको विधि १९।१४९
वर्ण = शारीरस्वरका भेद १९।१४८
वर्ण (य) कोशिका नगरीका राजा ४२।६१
वर्ण वैणस्वरका एक भेद
=
१९।१४७
वर्णाश्रम-त्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, ये चार वर्ण, ब्रह्मचारी, शूद्र गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी ये चार आश्रम ५४१३
वरुण (व्य) देवविशेष ( लोकपाल ) ५।३१७
वरुण ( व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२/३९
वरुण (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२।६५
वरुण (व्य ) वारुणीवर द्वीपका रक्षक देव ५।६४० वरुण (व्य) कंसका हितैषी एक निमित्तज्ञ ३५।३७ वरुण (य) एक मुनि ६४।१२ वरुण (पा) स्फटिक सालका पश्चिम गोपुर ५७/५९ वरुण (भौ) भरतक्षेत्रसम्बन्धी
हरिवंशपुराणे
विजयापके दक्षिण भागके समीपमें स्थित एक पर्वत
२७॥२
वरुणप्रभ (व्य) वारुणीवर द्वीपका रक्षक देव ५।६४० वरुणाभिस्य (व्य जरासन्धका
पुत्र ५२।३८
वर्तना (पा) पदस्थानपतित हानिवृद्धिरूप परिणमन ७।१ वरतनु (व्य) दक्षिण लवण
समुद्रका वासी देव ११।१३ वरद (पा) स्फटिक सालका पश्चिम गोपुर ५७/५९ वरदा ( भौ) एक नदी १७।२३ वरदत्त (य) एक मुनि ६०।१०६ वरदा (व्य) नेमिनाथका प्रथम
गणधर ६०/३४९
वर्दल ( भी ) तमः प्रभा पृथिवीके द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रकबिल ४१४६ वर्धक ( भी ) भरतक्षेत्र कोशल देशका एक गांव २७।६१ वरथमं (य) एक मुनिराज ३३।१११
वर्धमान (भौ) रुचिकगिरिकी उत्तर दिशाका एक कूट ५।७०२
वर्धमान (व्य) अन्तिम तीर्थंकर महावीर २०४६ वर्धमान जिनेन्द्र (व्य) अन्तिम तीर्थंकर
वधमान जिनेशिने (पा) चौबीसवें तीर्थकर १२ वर्धमानपुराण
एक ग्रन्थ १।४१
वराह (भौ) वि. उ. नगरी
२२।८७ वराह (व्य) चारुदत्तका मित्र २१।१३
=
अज्ञातकविका
वराहक (व्य) वसुदेवका सम्बन्धी एक विद्याधर ५१२ वरिष्ठ (पा) स्फटिक सालका दक्षिण गोपुर ५७/५८ वर्ष (पा) दो अयनका एक वर्ष होता है ७२२
लाह (भौ) राजगृहीका एक पर्वत ३।५५
वाहक (व्य) कृष्णके सेनापति अनावृष्टिके शंखका नाम
५१।२१
वाहक (भौ) वि. उ. नगरी २२।९१
वलि (व्य) मेघनाद की छठी
पीढ़ीका एक राजा जो प्रतिनारायण था २५|३४ चलि (व्य) सुपार्श्वनाथका गण
धर ६०।३४७
वळि (व्य) छठा प्रतिनारायण वस्तु ( भी ) सौधर्म युगलका चौथा इन्द्रक ६।४४ वप्रभविमान (भी) कुबेर
लोकपालका विमान ५।३२७ वल्लरी (व्य) एक भीलनी
६९।१६
•
वशिष्ठ (व्य) मथुराका एक
तापस, जो बादमें वाराणसी जाकर जैन मुनि हो
गया ३३।४७
वसन्त (व्य) मनोयोगका वैरी
एक विद्याधर ४७४० वसन्तभद्र = एक उपवासव्रत ३४।५६
वसन्त सुन्दरी (व्य ) राजा विन्ध्यसेन और नर्मदाकी पुत्री ४५/७० वसन्तसेना (व्य) चम्पापुरीकी
कलिंग सेना
गणिकाकी
पुत्री २१।४१
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शब्दानुक्रमणिका
९५१
वसुकीर्ति (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४२।२५ वसुकीर्ति (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४२।२५ वसुगिरि (व्य) हिमगिरिका
पुत्र १५५९ वसुगिरि (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३३ वसुदेव (व्य) गिरितट नगर में
रहनेवाला एक ब्राह्मण
२३१२९ वसुदेव (व्य) श्रीकृष्णके पिता
११७९ वसुदेव (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२१५८ वसुदेव (व्य) अन्धकवृष्णि और
सुभद्राका पुत्र १८।१४ 'वसुदेवविचेष्टित -- कृष्णके पिता
की विविध चेष्टाएँ १७१ वसुधर्म (व्य) एक राजा
५०११३१ वसुधर्मा (व्य) कृष्णका पुत्र
૪૮૭૦ वसुधारा = रत्नधारा ८।३८ वसुधारा = रत्नोंकी धारा
५९।५ वसुध्वज (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३४ वसुध्वज (व्य) जरत्कुमारका
पुत्र ६६०२ वसुन्धर (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२।५.८ वसुन्धर (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२६ वसुन्धरपुर (भौ) एक नगर
४५७० वसुन्धरा (व्य ) रुचिकगिरिके
चन्द्रकूटपर रहनेवाली देवी ५७१०
वसुमती (व्य) राजा अभिचन्द्र
की स्त्री १७१३७ वसुमान् (व्य) स्तिमितसागरका
पुत्र ४८।४६ वसुमित्र (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२॥६१ वसुरथ (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२७ वसुवृष्टि = रत्नवृष्टि २०१९ वसु (व्य) राजा अभिवन्द्र और
रानी वसुमतीका पुत्र
१७॥३७ वसु (व्य) कुरुवंशका एक राजा
४५।२६ वसु (व्य) राजा वसु ११७८ वसुसेन ( व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६१ वसुसेन (व्य) राजा वासवका
पुत्र ६०७७ वस्तु (पा) श्रुतज्ञानका भेद
१०।१३ वस्तु ( पा) धतका एक भेद
२।१०० वस्तुसमास पा) श्रुतज्ञानका
भेद १०।१३ वस्त्राङ्ग = एक कल्पवृक्ष ७८० वस्वौक (भौ) वि. उ. नगरी
२२।८७ वंशा (भी) शर्कराप्रभाका रूढ़ि
नाम ४।४६ वंशालय - दिति देवीके द्वारा
प्रदत्त विद्यानिकाय २२१६० वंशालय (भो) वि. उ. नगरी
२२।९२ वंशालय = विद्याधरोंकी एक
जाति २६।२१ वाग्वलि (व्य ) पिप्पलादका
शिष्य २१।१४७ वाचाट वकवादी ४३।१२
वाटवान (भौ) देशका नाम
११।६६ वाडवान (भी) देशविशेष ३१६ वाणमुक्त (भी) देशका नाम
१११६९ वादी-स्वरप्रयोगका एक प्रकार
१९।१५४ वामदेव (व्य) समुद्रविजयके
भाई अक्षोभ्यका पुत्र
४८।४५ वामदेव (व्य) सितका पुत्र
४५।४५ वायव्य = विद्यास्त्र २५१४८ वायु (व्य) जयन्तगिरिका राजा
एक विद्याधर ४७।४३ वायुकुमार = भवनवासी देवोंका
एक भेद ३।२२ वायुभूति (व्य) वैदिक विद्वान
२०६८ वायुमति (व्य) भगवान् महा
वीरका तृतीय गणधर
३१४१ वायुभूति (व्य) सोमदेव और
अग्निलाका पुत्र ४३।१०० वायुवेग (व्य) वसुदेवकी गन्धर्व
सेना स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र
४८।५५ वायुवेग (व्य) वसुदेव और वेग
__ वतीका पुत्र ४८।६० वायुशर्मा (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२१५७ वाराणसी (भौ) बनारस
३३।५८ वाराणसी (भो) बनारस
१८।११८ वाराहग्रीव (व्य) अमितगति
विद्याधरका पुत्र २१११२१ वारिषेण (व्य) राजा श्रेणिकका
एक पुत्र २।१३९
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९५२
वारिषेणा (व्य) दिक्कुमारी देवी
५।२२७
वारुण-विद्यास्त्र २५।४७ वारुणी = मदिरा ६१।५१ वारुणी ( व्य ) रुचिकगिरिके कांचनकूटपर रहनेवाली देवी ५।७१६
वारुणी (व्य) मृगायण ब्राह्मणकी पुत्री २७।६२ वारुणीवरद्वीप (भी) चौथा द्वीप
५।६१४
वारुणीवरसमुद्र ( भी ) चोथा समुद्र ५।६१४
वा मूलिक = विद्याधरोंकी एक जाति २६।२२ वार्ष्णेय (व्य ) अनावृष्टि नामक कृष्णका सेनापति ५१।४१ वलि (व्य) उज्जयिनीके राजा श्रीधर्माका मन्त्री २०१४ वाला (पा) 'आठ रथरेणुओंका एक उ भो. मनुष्यका वालाग्र होता है ७।३९
वासव = इन्द्र २४४ वासव (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३८
वासव ( व्य ) कुरुवंशका एक राजा ४५।२६
वासव (व्य) अरिष्टपुरका राजा ६०।७५
वासव (व्य) राजा वसुका पुत्र १७१५८
वासव (व्य) नमिका पुत्र २२ । १०८ वासवीर्य (पा) स्फटिक सालका पूर्व गोपुर ५७/५७ वासुकि (व्य) कुण्डलगिरिके महाप्रभ कूटका निवासी देव ५।६९२
वासुकि (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२/३७
हरिवंशपुराणे
वासुकि (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।२६
वासुकि (व्य ) धरणका पुत्र ४८/५०
वासुदेव (व्य) श्रीकृष्ण ११९१ वासुपूज्य (व्य) बारहवें तीर्थकर ३।५७
वासुवेग व्य जरासन्धका पुत्र ५२/३९ वास्तुक्षेत्र प्रमाणातिक्रम (पा) परिग्रहपरिमाणाणु व्रतका अतिचार ५८।१७६ वास्य = क्षेत्र ११।५८ वाह्लीक (भी) देशविशेष ३१५ वाह्लोक (व्य ) एक राजा ५०१८४
वाहिनी = सेना ५०।६६ वाहिनी = नदी २।१६ विकचा (व्य) राजा चूलिककी
स्त्री ४६।२६ विकचोत्पला (पा) समवसरण के चम्पक वनकी वापिका ५७१३४
विक्रान्त (व्य) एक राजा
५०।१३२
विक्रान्त ( व्य ) एक राजा
५०१८५
विक्रान्त ( भी ) रत्नप्रभा पृथिवी के तेरहवें पटलके इन्द्रक विलका नाम ४।१०१ विकृत्य ( अ. क्रि. ) विक्रिया से
बनाकर २।३० विघृण = निर्दय ३५।३१ विक्षेप
= तालगत गान्धर्वका एक प्रकार १९।१५० विख्यातामृतधार (भी) वि. द.
नगरी २२।१०० विघ्न (पा) ज्ञाना. और दर्शना. का आस्रव ५८ ९२
विचित्र ( भी ) नीलकुलाचलकी
दक्षिण दिशामें सीता नदीके पूर्वतटपर स्थित एक कूट
५।१९१
विचित्र (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।२७ विचित्रवोर्य (व्य) कुरुवंशका
एक राजा ४५।२८ विचित्रमति (व्य ) चित्रबुद्धि
और कमलाका पुत्र२७ ९८ विचित्रा (व्य) नन्दन वनमें रहनेवाली दिक्कुमारी ५।३३३ विच्छुरित: = व्याप्त १५।१६ विजय ( भी ) वि. उ. नगरी
२०१८६
विजय (व्य ) अन्धकवृष्णि और सुभद्राका पुत्र १८ ।१३ विजय व्य ) नमिका पुत्र २२।१०८
विजय (व्य) द्वितीय जम्बूद्वीपका रक्षक देव ५।३९७ विजय (पा) समवसरणके स्फटिक शालके पूर्व गोपुरका नाम ५७/५७
विजय (व्य ) वसुदेवका पुत्र
५०।११५
विजय (भौ ) अनुत्तर विमान
६।६५
विजय (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१५ विजय ( व्य ) दशपूर्वके ज्ञाता एक आचार्य १।६३ विजय (भौ ) जम्बूद्वीप की जगती
का पूर्व द्वार ५।३९० विजय ( व्य ) विजयद्वारमें रहनेवाला एक व्यन्तर ६०/६०
विजय (व्य) जयकुमारका छोटा भाई १२।३२
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विजय (व्य ) पहला बलभद्र ६०।२९०
विजय (व्य ) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।६० विजया (पा) समवसरण के सप्त
पर्णको वापिका ५७/३३ विजया (व्य ) रुचिकगिरिके रत्नकूटपर रहनेवाली देवी ५/७२५
विजया ( भौ) विदेहकी एक नगरी ५।२६३ विजया (व्य) अपराजितकी स्त्री ६०।१०५ विजया ( व्य ) रुचिकगिरिके वैडूर्य कूटपर रहनेवाली दिक्कुमारी देवी ५/७०५ विजया ( भी ) नन्दीश्वर द्वीपके
दक्षिण दिशासम्बन्धी अंजनगिरिकी पूर्व दिशामें स्थित वापिका ५।६६० विजया (व्य ) सहदेवकी स्त्री
४७११८
विजयखेट ( भी ) एक नगर
१९/५३
विजय गुप्त (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।६० विजयपर्वत (व्य ) भरत चक्र
वर्तीका हाथी ११।२५ विजयपुर ( भौ) संख्येय द्वीपोंके
बाद दूसरे जम्बूद्वीपके रक्षक विजयदेवका निवासनगर ५/३९७
विजय मित्र (व्य) भगवान् वृषभदेवका गणधर १२।६० विजयपुर ( भो ) जम्बूद्वीप ऐरावतक्षेत्रका एक नगर ६०१४८
विजयश्री (व्य) भगवान् वृषभदेवका गणधर १२।६१
१२०
शब्दानुक्रमणिका
विजयश्रुति (व्य ) ऋषभदेवको गणधर १२।६६ विजयसेना (व्य) एक कन्या जो
वसुदेवकी स्त्री हुई ११८० विजयसेना (व्य ) सुग्रोव गन्धर्वा
चार्यकी पुत्री. १९५५ विजयसेना (व्य ) अमितगति विद्याधरकी स्त्री २१।१२० विजयाङ्गण (पा) समवसरणकी
एक भूमि ५७।२४ विजयावत् ( भी ) हरिक्षेत्रके मध्य में स्थित एक गोलाकार पर्वत ५।१६१ विजयावान् (भी) पश्चिम विदेहका वक्षारगिरि ५।२३० विजयापुरी (भी) विबेहकी एक
नगरी ५।२६१ विजयार्द्ध (भो) विद्याधरोंका निवासभूत एक पर्वत, जो कि भरत, ऐरावत और प्रत्येक विदेहक्षेत्र में होता है । कुल १७० विजयार्ध पर्वत विजयार्ध कुमार (भी) विजयार्ध - का पाँचवाँ कूट ५१२७ विजयार्धकुमार कूट ( भी ) ऐरावतके विजयार्धका पाँचवाँ कूट ५।१११ विजयार्द्ध कुमार (व्य) विजयार्ध
|५|२०
गिरिका वासी देव ११।१९ विडौजस् = इन्द्र ११।१३५ वितता ( भी ) एक नदी ११।७९ वितस्ति (पा) दो पादोंकी एक वितस्ति ७।४५
विदग्ध
= चतुर २०।१८ विदर्भ (भी) एक देश आधुनिक
नाम बरार १७।२३
विदारणक्रिया (पा) एक क्रिया
५८ ७६
९५३
विदुर ( व्य ) राजा धृतराष्ट्र तथा अम्बा नामक स्त्रीसे उत्पन्न पुत्र ४५।३४ विदूरथ (व्य ) वसुदेव और रोहिणीका पुत्र ४८।६४ विदूरथ (व्य ) एक राजा
५०१८१
विदेह ( भो ) देशविशेष ११।७५ विदेहकूट ( भो ) निषधाचलका
आठवाँ कूट ५१८९
विदेह (भौ) जम्बूद्वीपके निषध और नील कुलाचलके मध्यमें स्थित चौथा क्षेत्र ५।१३
विपाकजा निर्जरा (पा) निर्जराका
भेद ५८।२९४ विरुद्ध राज्यतिक्रम (पा) अचौयांव्रतका अतिचार५८।१७१ वीचि = तरंग १।४४ वीतभय (व्य) बलभद्र ( रत्न
मालाका जीव ) २७।११२ वीतभय ( भी ) सिन्धु देशका
एक नगर ४४ | ३३ तमी (व्य) अविध्वंसका पुत्र १३।११
वीतशोका ( भौ) विदेहकी एक नगरी २७।५ वीर (भौ) वि.उ.
नगरी
२२८८
वीर ( व्य ) अन्तिम तीर्थंकर
महावीर २१४७ वीरक (व्य) कौशाम्बीवासी एक पुरुष – वनमालाका पति १४।६१
वीरमगुरु (व्य ) एक जैनमुनि
३३।५९
वीर ( व्य ) वसुदेवका पुत्र
५०१११५
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९५४
वीर (व्य) स्तिमितसागरका पुत्र ४८४६
वीर (भौ ) सौधर्म युगलका पाँचवाँ इन्द्रक ६।४४ वीरसेन (व्य) वटपुरका राजा ४३।१६३
वीरसेन गुरु (व्य) पट्खण्डागम के टीकाकार वीरसेनाचार्य
१३९
वीर्य (व्य) कुरुवंशका एक राजा
४५।२७
वीर्यपुर ( भी ) यादवोंकी निवासभूमिका एक नगर ४१४४ वीराख्य (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२०१३३
atra (पा) पूर्वगत थुतका एक भेद २।९८ विद्यार=भवनवासी देवोंका एक भेद ४१६४
वि (व्य) विद्याधर वज्रट्रीट और विद्युत्प्रभाका पुत्र २७।१२१
विदं (व्य ) सुवक्त्रका पुत्र १३।२४
त्रिदं (व्य ) गगनवल्लभ नगरका विद्याधर २७|१ विद्युद्वेग (व्य) विद्युद्दासका पुत्र १३।२४
विद्युद्वेग (व्य) वसुदेवका श्वसुर
( मदनवेगाका पिता) २५/३७ विद्युत्प्रम ( भी ) मेरुसे दक्षिण
पश्चिम कोण में स्थित एक स्वर्णमय पर्वत ५।२१२ विद्युत्प्रभ (व्य) हिमवत्का पुत्र
४८।४७
विद्युत्प्रमकूट ( भौ) विद्युत्प्रभ
पर्वतका एक कूट ५।२२२ विद्युत्प्रभ ( भी ) वि. उ. नगरी
२२।९०
हरिवंशपुराणे
विद्युत्प्रभा (व्य ) वज्रदंष्ट्रकी स्त्री २७।१२१ विद्युदाभ (व्य) विद्युत्वान्का पुत्र १३।२४
विद्यानुवाद (पा) पूर्वगत श्रुतका एक भेद २१९९ विद्युन्मुख (व्य) वज्रवान्का
पुत्र १३।२४
विद्युन्मति
(व्य) विद्युगी
स्त्री ६०१८९
(व्य ) विद्युष्ट्रका पुत्र १३।२४
विद्युन्माली (व्य ) जरासन्धका
पुत्र ५२३५
विद्रावण (व्य ) रावणका पुत्र
agar
४५४७
विद्रुत = भाग गयीं ५१।४२ विद्रुम (व्य) बलदेवका पुत्र
४८।६७
विनमि (व्य) भगवान् वृषभदेव
के सालेका पुत्र ९।१२८ विनमि (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२।६८
विनयदत्त (व्य ) एक मुनि ४६।५५
विनयश्री (व्य ) अपराजितकी पुत्री ६०।१०५ विनयश्री (व्य ) रुद्रदत्तकी स्त्री ६०१८७ विनयसम्पन्नता ३४।१३३ विनया (व्य ) सुराष्ट्र देशकी अजाखुरी नगरीके राजा राष्ट्रवर्धनकी स्त्री ४४/२६ विनिहात्र ( भौ) देशका नाम १११७४
विनीत (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२१६३
विनीता (भौ ) अयोध्या ११।५६
= भावना
विनेय = शिष्य २।१०३ विन्दुसार (व्य ) वप्रथुका पुत्र
१८/२०
विन्ध्य (भौ ) दूसरी पृथिवीसम्बन्धी प्रथम प्रस्तारके इन्द्रक विलकी दक्षिण दिशामें स्थित महा भयानक नरक ४।१५३ विन्ध्यसेन (व्य ) वसुन्धरपुरका
राजा ४५॥७० त्रिपञ्ची = वीणा १९।७७ विपश्चित् = विद्वान् २२।१०९ विपाकविचय (पा) धर्म्यध्यानका एक भेद ५६।४५ विपाकसूत्राङ्ग (पा) द्वादशांगका एक भेद २।९४.
विपुल (व्य ) आगामी तीर्थंकर ६०।५६०
विपुल (भौ) राजगृहीको एक पहाड़ीका नाम ३५४ विपुलबुद्धि = विपुलमति मन:
पर्ययज्ञानी ३४८ विपुलमति (पा) मन:पर्ययज्ञानका एक भेद १०/१५३ विपुलवाहन (व्य) सातवाँ कुल
कर ७।१५६
विपृथु (व्य ) एक राजा ५०।१२६
विप्रकृष्ट= दूरवर्ती ११५४ विभक्ति = पदगतगान्धर्व की विधि १९।१४९
विभीषण (व्य ) नारायण ( रत्नायुधका जीव ) २७।११२
रत्नप्रभा
विभु (व्य) प्रभुका पुत्र १३।११ विभ्रान्त ( भी ) पृथिवीके प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।७७ विमल ( भौ ) रुचिकगिरिका
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शब्दानुक्रमणिका
९५५
विमुक्ति - मोक्ष ११५ विरजा (भौ) विदेहको एक
नगरी ५।२६२ विरागविचय (पा) धर्म्यध्यान
का एक भेद ५६।४६ विराट (व्य) विराटनगरका
राजा ४६।२३ विराट नगर (भौ) एक नगर
४६।२३ विवर्द्धनकुमार (व्य) भरतचक्र
वर्तीके ९२३ पुत्रों में से एक पुत्र, जो अनादि मिथ्या
दृष्टि थे १२॥३ विवादी = स्वरप्रयोगका एक
प्रकार १९।१५४ विबुध-देव २।४२
दक्षिण दिशासम्बन्धी कूट
५७०९ विमल (पा) स्फटिकसालका पूर्व
गोपुर ५७४५७ विमल (भौ)वि.उ. नगरी २२।९० विमल (व्य) समुद्रविजयका
मन्त्री ५०।४९ विमल (भौ) रुचिकगिरिका
पूर्व दिशासम्बन्धी · एक
विशिष्ट कूट ५।७१९ विमल (भौ) सौधर्म युगलका
दूसरा इन्द्रकपटल ५६।४४ विमल (व्य) तेरहवें तीर्थंकर
१११५ विमलप्रम (व्य) अरिवरसमुद्र
के रक्षक देव ५।६४२ विमल कूट (भो) सौमनस्य
पर्वतका एक कूट ५।२२१ विमानपतिव्रत = एक व्रत
विशेष ३४।८६ विमलवाहन (व्य) आगामी
चक्रवर्ती ६०१५६५ विमलवाहन (व्य) विदेहके एक
तीर्थकर ३४१८ विमलसंज्ञ (व्य) आगामी तीर्थ
कर ६०१५६२ विमलप्रमा (व्य) विशृंगपुरके
राजा प्रचण्डवाहनकी स्त्री
४५।९६ विमलश्री (व्य) श्रीधर और
श्रीमतीकी पुत्री ६०।११७ विमला (व्य) ज्वलनवेगकी
स्त्री १९८३ विमर्दन (भौ) पांचवीं पृथिवी
के प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तमइन्द्रककी दक्षिण दिशामें
स्थित महानरक ४१५६ विमानपक्ति वैराज्य = व्रत
विशेष ३४॥१२९
२२७१ विशल्यकरण = विद्यास्त्र
२५१४९ विशरारुता = भंगरता-अनित्यता
१६.३२ विशाखगणी (व्य) मुनि सुव्रत
नायका गणधर १६॥६८ विशालाक्ष (व्य) कुण्डलगिरिके
स्फटिकप्रभकूटका निवासी
देव ५।६९४ विशाख (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता
एक आचार्य ११६२ विशाख (व्य) मल्लिनाथका
प्रथम गणधर शिष्टक कूट ( भौ ) सौमनस्य
पर्वतपर स्थित एक कूट
५।२२१ विशेषत्रयवादिन् = विशेषत्रयके
रचयिता ११३७ विश्व= समस्त २।९० विश्व (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१७
विश्वा (व्य) राजा प्रचण्डवाहन
को पुत्री ४५१९८ विश्वजनीन-सबका हित करने
वाले ३९।४ विश्वरक (पा) स्फटिकमालका
पूर्व गोपुर ५७।५७ विश्वभूति (व्य) राजा सगरका
पुरोहित २३।५६ विश्वसेन (व्य) भगवान् शान्ति
नाथ के पिता ४५।१८ विश्वसेन (व्य) एक राजा
६०५८ विश्वरूप (व्य) धरणका पुत्र
४८।५० विश्वावसु (व्य) राजा वसुका
पुत्र १७:५९ विश्रुत (पा) समवसरणके स्फ
टिक सालके पूर्व गोपुरका
नाम ५६५७ विषद (व्य) उग्रसेनके चाचा
शान्तनुका पुत्र ४८।४० विषय = देश २।१४९ विष्टप = लोक ३।३५ विष्टरश्रवस् (व्य) कृष्ण ५४।४९ विष्णु (व्य) श्रीकृष्ण ११९८ विष्णु (व्य) एक श्रुतकेवली
आचार्य ११६१ विष्णु (व्य) एक राजा
५०।१३० विष्णु (व्य) महापद्म चक्रवर्ती
का पुत्र, जो कि मुनि होनेपर विक्रिया ऋद्धिका
धारक हुआ ४५।२४ विष्णुसञ्जय (व्य) कृष्णका पुत्र
४८/६९ विष्णुस्वामी (व्य) जरासन्धका
पुत्र ५२।३९ विष्वक्सेन ( व्य ) जम्बूपुरके
राजा जाम्बवका पुत्र४४१५
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हरिवंशपुराणे
वृक्षमूल = दितिदेवीके द्वारा
प्रदत्त विद्यानिकाय २२।६० वृत्तरथ (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२८ वृत्त = पदगत गान्धर्वकी विधि
१९।१४९ वृत्तवैताड्य (भौ) नाभिगिरि
पर्वत ५।५८८ वृत्ति = वैणस्वरका एक भेद
१९।१४७ वृकार्थक (भौ) देशविशेष ३।४ वृकोदर (व्य) भीमसेन पाण्डव
५४।६६ वृत्त = गोल ३१५५ वृन्दावन (भौ) मथुराके समीप___ वर्ती एक उपनगर ३५।२८ वृषभ (व्य) प्रथम तीर्थंकर ३१७ वृद्धार्थ (व्य) वसुदेवको स्त्री
पद्मावतीका पुत्र ४८१५६ वृषामन्त (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२८ वृषभध्वज (व्य) वीतभीका पुत्र
१३।११ वृषमध्वज (व्य) उज्जयिनीका
राजा ३३।१०३ बृषध्वज (व्य ) वैदिशपुरका
राजा ४५।१०७ वृषभदत्त (व्य) कुशाग्रपुर
निवासी एक पुरुष मुनि सुव्रतनाथको प्रथम आहार
देनेवाला १६।५९ वृषमपर्वत(भौ) चौंतीस वृषभा
चल, भरत और ऐरावतमें एक-एक तथा बत्तीस
विदेहोंमें बत्तीस ५।२८० वृषमसेन (व्य) भगवान् वृषभ
देवका गणधर १२१५५ वृषभसेन (व्य) भगवान् वृषभ
देवके पुत्र ९।२३
वृषध्वज (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२८ वृष्णिपुत्र (व्य) अन्धकवृष्णिके __दश पुत्र ११७८ वेगवती (व्य) वसुदेवकी एक
विद्याधर स्त्री २६।३३ वेगवती (भौ) एक नदी४६०४९ वेगवान् (व्य) वसुदेव और वेग
वतीका पुत्र ४८।६० वेणु (व्य)मानुषोत्तरके पूर्वदक्षिण
कोणमें स्थित रत्नकूटपर
रहनेवाला देव ५।६०७ वेणु (भौ)वि. उ.नगरी २२।८९ वेणु (व्य) शाल्मली वृक्षपर
रहनेवाला देव ५।१९० वेणुदारी (व्य) एक राजा५०२८५ वेणुदारी (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३९ वेणुदारी (व्य ) मानुषोत्तरके __ सर्वरत्नकूटका निवासी देव
५।६०८ वेणुदारिन् (व्य) शाल्मली वृक्ष
पर रहनेवाला देव५।१९० वेद = ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद,
अथर्ववेद ११८३ वेदन (भी) तीसरी पृथिवीके
प्रथम प्रस्तारसम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रक विलकी दक्षिण दिशामें स्थित महा
नरक ४१५४ वेदना (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार
१०१८२ वेदसामपुर (भी) एक नगर ___ जहाँ वसुदेव गये २४।२५ वेलम्बकूट (भो) मानुषोत्तरके
दक्षिण-पश्चिम कोणमें निषधाचलसे लगा एक कूट ५।६०९
बैकुण्ठ (व्य) श्रीकृष्ण ५०।९२ वैक्रिय = विक्रियाऋद्धिके धारक
३१४७ बैगारि (व्य) एक विद्याधर
राजा २५।६३ वैजयन्त (भौ) जम्बूद्वीपकी
जगतीका दक्षिण-द्वार
५।३९० वैजयन्त (भौ) वि. उ. नगरी
२२१८६ वैजयन्त (व्य) वीतशोका नगरी
का राजा २७१५ वैजयन्त (भौ) अनुत्तर विमति
६०६५ वैजयन्त (पा) स्फटिकसालका
दक्षिण गोपुर ५७१५८ वैजयन्ती ( भो) विजयाधकी
एक नगरी ३०॥३३ वैजयन्ती (पा) समवसरणके
सप्तपर्ण वनकी वापिका
५७१३३ वैजयन्ती (भी) विदेहकी एक
नगरी ५।२६३ वैजयन्ती (भो) नन्दीश्वर द्वीपके
दक्षिण दिशासम्बन्धी अंजनगिरिकी दक्षिण दिशा
सम्बन्धी वापिका ५।६६० वैजयन्ती (व्य) रुचिकगिरिके
कांचनकूटपर रहनेवाली दिक्कुमारी देवी ५।७०५ वैजयन्ती (व्य) रुचिकगिरिके
रत्नप्रभ कूटपर रहनेवाली
देवी ५१७२५ वैडूर्य(भौ) रत्नप्रभाके खरभाग
का तीसरा पटल ४।५२ वैडूयनील रंगका मणि २।१०। वैडूर्य (भौ) रुचिकगिरिका
ऐशान दिशासम्बन्धी कूट ५७२२
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वैडूर्य ( भी ) सौधर्म युगलका चौदहवाँ इन्द्रक ६०४५ वैडूर्यकूट ( भी ) महाहिमवत् कुलाचलका आठवाँ कूट
५।७२
वैढूर्यकू (भौ) रुचिकगिरिका पूर्व दिशासम्बन्धी एक कूट
५/७०५
मानुषोत्तर
वडूर्यकूट ( भौ) पर्वतकी पूर्व दिशाका एक कूट ५६०२
वर्यप्रम (भी) सहस्रार स्वर्गका एक बिमान २७।७४ वैडूर्यमय (भौ ) मेरुकी एक
परिधि ५।३०५ वैडूर्यवर ( भो ) अन्तिम सोलह द्वीपों में दसवाँ द्वीप ५।६२४ वेण स्वरका एक भेद
=
१९।१४६
वैताढ्य ( भी ) विजयार्धका दूसरा नाम ५।५८८ वैताड्य पर्वत ( भौ) विजयार्ध - गिरि ४२।१७ वैदर्भ (व्य) पुष्पदन्तका प्रथम गणधर ६०।३४७ वैदर्भ (भो) देशका नाम ११।६९ वैदम (व्य) रुक्मिणीके भाई
रुक्मीकी पुत्री ४८।११ वैदग्ध्य = चतुराई १९८ वैदिश (भी) देशविशेष ११।७४ वैदिशपुर ( भी ) एक नगर ४५।१०७
वैद्युत (व्य) विद्युद्वेगका पुत्र
१३।२४
वैनयिक (पा) अंग बाह्यश्रुतका एक भेद २।१०३ वैभार ( भी ) राजगृहीकी एक पहाड़ीका नाम ३५४ वैयावृत्य = वैयावृत्य नामका तप
शब्दानुक्रमणिका
सेवा ( दुःखेभ्यो व्यावृत्तिः प्रयोजनं यस्य ) १८ १३९ वैयावृत्य = भावना ३४।१४० वैर (व्य) ऋषभदेवका गणधर १२।६७
वैरोचन ( भी ) अनुदिश ६ ६३ वैशाखस्थान = बराबरीपर पाँव
फैलाकर खड़े होना ४८ वैष्णव = विद्यास्त्र २५४४७ वैश्रवण ( भी ) पूर्वविदेहका वक्षारगिरि ५।२२९
वैश्रवण (व्य) कुबेर ६१।१८ वैश्रवणकूट (भौ ) ऐरावत के विज
यार्धका नौवां कूट ५।११२ वैश्रवणकूट (भी) हिमवत् कुला
चलका ग्यारहवाँ कूट५ ।५५ वैश्चतु (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१७
वैश्वानर (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१७ व्यय (पा) : पूर्व पर्यायका नाश
१1१
व्यञ्जन (पा) शब्द ५६ ६२ व्यन्जन (पा) अष्टांग निमित्त
ज्ञानका एक अंग १०।११७ व्यन्तर = किन्नर, किम्पुरुष आदि व्यन्तर देव ३।१३५ व्यन्तर देव = किन्नर, किम्पुरुष, गन्धर्व आदि देवोंका एक समूह २१८०
व्यवहारपल्य
पा ) कालका एक परिमाण ७४७-४९ व्यसु = मृत ३५।५ व्युच्छिन्न (वि) विच्छेदको प्राप्त
हुए १।१३
व्योमचर = विद्याके निकायका नामान्तर २२।५८
व्रणसंरोहिणी = एक विद्या
२२१७१
९५७
वण संरोहण = विद्यास्त्र २५।४९ व्रत (पा) हिंसादि पाँच पापका परित्याग १ अहिंसा, २ सत्य, ३ अचौर्य, ४ ब्रह्मचर्य और ५ अपरिग्रह ५६।१ व्रतधर (व्य ) एक मुनिराज ४९।१४
व्रतधर्मा (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।२९
व्याख्याप्रज्ञप्ति (पा) परिकर्मश्रुतका भेद १०।६२ व्याख्याप्रज्ञप्ति अङ्ग (पा) द्वादशांगका एक भेद १।९३ व्यवहार (पा) एक नद
५८।४१ वत्यनुरागिता (पा) सातावेदनीका आस्रव ५८/९४ व्रात (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।११
व्रात =
समूह १२८० व्यास = विस्तार ४२४ वेदनीय (पा) सुख-दुःखका अनुभव करानेवाला एक कर्म ५८ २१६
वैनयिक (पा) मिथ्यात्वका एक भेद ५८।१९४
[ रा ]
शकट ( भी ) भरतक्षेत्रका एक देश २७/२०
शकुनि (व्य ) एक राजा ५०८४ शकुनि (व्य) दुर्योधनका मन्त्री
४५।४१
शकटामुख (भौ) वि. उ. नगरी २२।९३
शक्रन्दमन (व्य) बलदेवका पुत्र ४८६६
शक्तितस्तप - भावना ३४।१३८ शक्तितस्रयाग-भावना ३४।१३७
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________________
९५८
शङ्कुक
= अदिति देवीके द्वारा दत्त विद्याओंका एक निकाय २२।५८
शङ्ख (व्य) कृष्णका पुत्र४८।७१ शङ्ख (व्य ) बन्धुमतीका पुत्र ३३।१४१
शङ्ख (पा) चक्रवर्तीकी एक निधि ११।११० शङ्ख (व्य ) नभसेनका पुत्र १७।३५
शङ्खनाम ( भी ) वि. द. नगरी २२।९६
शङ्खवर द्वीप ( भो) बारहवां द्वीप ५।६१८ शङ्ख, महाशङ्ख (भी) लवणसमुद्र में पश्चिम दिशाके वडवामुख पातालकी दोनों ओर स्थित दो पर्वत ५/४६२
शङ्खवर सागर ( भी ) बारहवीं
सागर ५।६१८
शङ्खा ( भो) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४९ शतज्वलकूट (भौ) विद्युत्प्रभ -
पर्वतका एक कूट ५।२२२ शतद्रुत (व्य जरासन्धका पुत्र ५२।३५
शतधनु (व्य) देवगर्भका पुत्र
१८२० शतधनु (व्य) बलदेवका पुत्र
४८ ६८ शतधनु ( व्य ) एक राजा ५०।१२६ शतानीक (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३८
शतानीक (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५
शतपति (व्य ) निहतशत्रुका पुत्र १८।२१
हरिवंशपुराणे
शतपर्वा: = एक विद्या २२।६७ शतमख = इन्द्र १६।१८ शतमुख (व्य) धरणका पुत्र ४८/५०
शतार ( भौ) ग्यारहवाँ स्वर्ग
६।३७
शतारक ( भी ) सहस्रार स्वर्गका इन्द्रक ६१५०
शत्रुघ्न (व्य) देवकीका पुत्र
३३।१७०
शत्रुदमन (व्य) भगवान् ऋषभ देवका गणधर १२/५५ शत्रुन्जय (व्य ) विनमिका पुत्र
२२।१०४
शत्रुन्जय (व्य ) एक राजा ५०।१३१
शत्रुन्जय गिरि ( भौ) पालीनाथ
के समीपवर्ती पर्वत ६५।१८ शत्रुजय (व्य ) एक राजा
३१।९४
शत्रुन्जय (भौ) वि. उ. नगरी २२८६
शत्रुदमन (व्य ) एक राजा ५०।१२४
शत्रुसेन (व्य ) जरत्कुमारकी सन्ततिका एक पुत्र ६६ ५ शन्तनु (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३१
शन्तनु (व्य) बलदेवका पुत्र ४८।६७
शन्तनु (व्य ) एक राजा
५०।१२५
शब्द (पा) एक नय ५८ ४१ शब्दानुपात (पा) देशव्रतका
अतिचार ५८।१७८ शर (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।२९
शरद्वीप (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।३०
शरधि = तरकश ८|११ शरासन (व्य ) ४५।४६
शरीरजा = पुत्री ३५।३० शर्कराप्रमा ( भी ) नरकों को
सरवरका पुत्र
दूसरी पृथिवी ४।४३ शम् = सुख १५ शम्ब (व्य) कैटभका जीव, जो कृष्णकी जाम्बवती स्त्रीसे उत्पन्न हुआ ४३।२१८ शम्ब (व्य) एक राजा ५०।८१ शम्भव (व्य) तृतीय तीर्थंकर ११५
शम्भु (व्य ) तृतीय तीर्थंकर
१५ शम्याताल = तालगत गान्धर्व
का एक प्रकार १९।१५० शल्य (व्य ) एक राजा ५०।७९ शतवलि (व्य) एक विद्याधर
६०११८
शशरोमन् (व्य) दुर्योधनका एक
मित्र ४५।४१
शतह्रद (भौ) वि. द. नगरी २२।९५
शशाङ्क (व्य) अभिचन्द्रका पुत्र ४८।५२
शशाङ्काङ्क (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५/१९
शशिप्रम (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२।३९
शशिप्रभ (भो) वि. उ. नगरी
२२।९१
शशिप्रभ (व्य ) वसुदेव और सोमदत्त की पुत्रीका पुत्र
४८६०
शशी (व्य) रवितेजस्का पुत्र
१३।९
शशी (व्य) अभिचन्द्रका पुत्र ४८।५२
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शब्दानुक्रमणिका
शाक (व्य) नेमिनाथके शंखका
नाम ५११२० शाङ्ग (व्य) श्रीकृष्ण ५५०६१ शाङ्ग = कृष्णकाएकनाम५३।४९ शातकुम्भमय (वि) स्वर्णनिर्मित
२।४२ शाखामृग = वानर २७१५३ शारदी(वि) शरद्ऋतुसम्बन्धिनी
२।७८
शारीर = स्वरका एक भेद
१९।१४६ शाहपाणि = कृष्ण ४२१९७ शान्त (व्य) शान्तिषेण नामक
आचार्य १।३६ शान्ति (व्य) सोलहवें तीर्थंकर,
पंचम चक्रवर्ती ४५११८ शान्ति (व्य) पंचम चक्रवर्ती
६०।२८६ शान्ति (व्य) सोलहवें तीर्थंकर
१११८ शान्तिचन्द्र (व्य) कुरुवंशका
एक राजा ४५।९९ शान्तिमद (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।३० शान्तिवर्धन (व्य) कुरुवंशका
एक राजा ४५।१९ शान्तिषेण (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५/३० शार्दूल (व्य) समुद्र विजयका
मन्त्री ५०॥४९ शाल (व्य) राजा मूलका पुत्र ।
१७१३२ शालगुहा(भौ) एक नगरी जहाँ
वसुदेव गये २४॥२९ शालिग्राम (भी) मगधदेशका
एक गांव ४३।९९ शालिग्राम (भौ) वसुदेवके भवा
न्तरसे सम्बन्ध रखनेवाला एक ग्राम १८।१२७
शालिग्राम (भौ) एक गाँवका शिवनन्द (व्य) समुद्र विजयका नाम ६०६२
पुत्र ४८।४४ शाल्मलोखण्ड (भौ) एक ग्राम शिवमन्दिर (भो) वि. द. नगरी ६०।१०९
२२।९४ शाल्मली स्थल (भो) मेरुकी शिवमन्दिर (भी) विजयाकी
नैऋत्य दिशामें सीतोदा दक्षिण श्रेणीका एक नगर नदीके दूसरे तटपर निषधा
२११२२ चलके समीप स्थित स्थल- शिवा (व्य) राजा समुद्रविजयविशेष, जहाँ शाल्मली वृक्ष की स्त्री होता है ५।१८७
शिवि (व्य) उग्रसेनके चाचा शासन (पा) मत, सिद्धान्त १११ शान्तनुका पुत्र ४८।४० शिक्षावत (पा) जिनसे मुनिव्रत- शिविका = पालकी २५०
की शिक्षा मिले। इसके शिशुपाल (व्य) चेदी देशका चार भेद हैं-सामायिक, राजा ४२।५६ प्रोषधोपवास, भोगोपभोग शीता (व्य) रुचिकगिरिके यश:परिमाण और अतिथि कूटपर रहनेवाली देवी संविभाग २।१३४
५।७१४ शिखण्डिन् (व्य) एक राजा शीतल (व्य) दशम तीर्थकर ५०१८४
१३।३२ शिखरिकूट (भौ) शिखरिकूला- शीरायुध-बलभद्र ३५।३९ ___ चलका दूसरा कूट ५।१०५ ।। शीरी (व्य) बलदेव ४२।९७ शिखरिन् (भौ) जम्बूद्वीपका । शीलायुध (व्य) श्रावस्तीका सातवाँ कुलाचल ५।१५
एक राजा जो शान्तायुधका शिखिकण्ठ (व्य) आगामी प्रति- पुत्र था २९४३६
नारायण ६०५७० शीलायुध (व्य) वसुदेव और शिरःप्रकम्पित. (पा) चौरासी
प्रियंगुसुन्दरीका पुत्र ४८०६२ लाख महालताओंका एक शीलवतेष्वनतीचार = भावना शिरःप्रकम्पित ७.३०
___३४।१३४ शिखिन् % मयूर ३६१
शुक्र (भी) नौवां स्वर्ग ६१३७ शिव = कल्याण ३८०२
शुक्र (भो) महाशुक्र स्वर्गका शिव (पा) स्फटिक सालका इन्द्रक ६५०
दक्षिण गोपुर ५७१५७ शुक्तिमती (भी) शुक्तिमती शिव, शिवदेव (व्य) लवण- नदीके तटपर राजा अभि
समुद्र में उदक और उदवास चन्द्रके द्वारा बसायी हुई पर्वतके निवासी देव
नगरी १७॥३६ ५।४६१
शुक्तिमती (भौ) एक नदी शिवचन्द्रा (व्य) वि. द. के १७।३६
जम्बूपुर नगरके राजा शुक्लध्यान (पा) प्रशस्तध्यानका जाम्बवकी स्त्री ४४।४
एक भेद ५३३५३
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९६०
शुक्लापाङ्क = मयूर २३।१२ शुचिदत्त (व्य) भगवान् महावीरका चतुर्थ
गणधर
३१४२
शुद्धमध्यमा = मध्यम ग्रामकी मूर्च्छना १९।१६३
शुद्धान्त = अन्तःपुर १९३७ शुद्ध षड्जा= षड्जस्वरकी मूर्च्छना
१९।१६१
शुभङ्कर (व्य) कुरुचन्द्रका पुत्र ४५९ शुभा (भी) विदेहकी एक नगरी
५।३६०
शुभ्रपुर (भी) राजा सूर्यके द्वारा बसाया नगर १७।३२ शूर (भी) देशका नाम ११।६६ शूर (व्य) मथुराके भानु और
यमुनाका पुत्र ३३ ।९७ शूर (व्य) यदुवंशी राजा नरपतिका पुत्र १८८ शूर्पणखी (व्य) त्रिशिख विद्याधरकी विधवा पत्नी २६।२६
शूरदत्त (व्य) मथुराके भानु और भानुदत्ताका पुत्र ३३१९७ शूरसेन (व्य) मथुराके भानु
और मथुराका पुत्र ३३ ९८ शूरसेन (व्य) मथुराका राजा ३३।९६
शूरसेन (व्य) वसुदेवकी एक स्त्री ३१।७
शृगालदत्त (व्य ) एक भील २७/७०
शेषवती (व्य) भीमकी स्त्री ४७।१८
शैल (व्य) अचलका पुत्र४८ ४९ शौर्यपुर (भौ) वटेश्वर के पास
विद्यमान नगर विशेष १८१९ शैलन्ध्री (व्य) द्रौपदी ४६ । ३२
हरिवंशपुराणे
शैवेय (व्य) नेमिनाथ ६१।१६ शोक (पा) असातावेदनीयका आस्रव ५८।९३ शोणितपुर ( भो ) विजयार्धका
एक नगर, जहाँ बाण विद्याधर रहता था५५।१६ शौच (पा) सातावेदनीयका आस्रव ५८।९४
शौरि (व्य) यादव-यदुवंशी
१९७
शौरि = वसुदेव १९५९ श्मशाननिलय = विद्याधरकी
जाति २६।१६
श्यामा (व्य) एक कन्या, जिसका वसुदेवके साथ सम्बन्ध हुआ ११८०१
श्यामा = यौवनवती १९।७५ श्यामा (व्य) अशनिवेग विद्या
घरकी कन्या जिसे वसुदेवने विवाहा १९।७५ श्यामकछाया (व्य) वसुदेवकी स्त्री श्यामाकी दासी १९।११२
श्यामक (भौ ) अन्तिम सोलह
द्वीपों में चौथा द्वीप ५।६२३ श्लक्ष्णरोम (व्य ) सिंहलका राजा ४४/२०
श्लक्ष्णरोमा (व्य) लक्ष्मणा रानीका पिता ६०१८५ इलेष्मान्तक ( भी ) एक वन ४५।६९
श्वपाकी == विद्याधरोंकी एक जाति २६।१९
श्वसन = वायु ५५/३५ श्वेताम्बिका ( भी ) एक नगरी ३३।१६१ श्वेतमानु = सूर्य ९।१४६ श्रद्धावान् (भी) पश्चिम विदेह
का वक्षारगिरि ५।२३०
श्रद्धावत (भौ) हैमवत क्षेत्रके
मध्य में स्थित एक गोलाकार पर्वत ५।१६१ श्रमजवारि = पसीना ५५।१२ श्रव्या = श्रवण करने योग्य
मनोहर २०१२ श्रावक = देशव्रतके पालक ३।६३ श्रावकाध्ययनाङ्ग (पा) द्वाद
शांगका एक भेद, अपरनाम उपासकाध्ययनांग २ ९३ श्रावस्ती (भी) एक नगरी २८/५ श्री (व्य) रुचिकगिरिके रुचककूटपर रहनेवाली देवी ५।७१६
श्री (व्य) पद्मसरोवरमें रहनेवाली देवी ५।१३० श्री (व्य) राजा प्रचण्डवाहनकी पुत्री ४५।९८
श्रीकान्त (व्य ) आगामी चक्रवर्ती ६०।५६५ श्रीकान्ता (व्य ) अरिष्टपुरके राजा हिरण्यनाभकी स्त्री
४४३७
श्रीकान्ता ( व्य ) अशोक और
श्रीमतोकी पुत्री ६०/६९ श्रीकान्ता ( भी ) मेरुके वायव्य में
स्थित वापी ५। ३४४ श्रीकान्ता ( व्य ) शूरकी स्त्री
३३।९९
श्रीकूट ( भी ) हिमवत् कुलाचलका
छठा कूट ५/५४ श्रीकूट ( भो) वि. द. नगरी
२२ ९७
श्रीचन्द्र (व्य) आगामी बलभद्र ६०१५६८
श्रीचन्द्र (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१२
श्रीचन्द्र (व्य) नागपुरका राजा ३४।४३
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________________
का
श्रीचन्द्रा (भौ) मेरुके वायव्यमें
स्थित वापी ५।३४४ श्रीदत्ता (व्य) श्रीभूति-सत्य
घोषकी स्त्री २७।२२ श्रीदत्ता (व्य) श्रीधर्म विद्याधर
राजाकी स्त्री २७१११७ श्रीदाम (व्य) श्रीधर्म और
श्रीदत्ताका पुत्र २७१११६ श्रीधर (व्य) भगवान ऋषभदेव
को पूर्वभव ९।५९ श्रीधर (व्य) सहस्रार स्वर्गका
एक देव २७।६८ श्रीधर (व्य) एक मुनि ६०1८७ श्रीधर (व्य) जयन्त नगरका
राजा ६०१११७ श्रीधर (व्य) एक चारद्धिसे
युक्त मुनि ६०।१७ । श्रीधर (व्य) एक मुनि ६०१९ श्रीधरा (व्य) अतिबल और
सुलक्षणाकी पुत्री रामदत्ता
का जीव २७१७८ श्रीधर्म(व्य)चारण मुनि ६००२१ श्रीधर्म (व्य) एक विद्याधर
राजा २७।११६ श्रीधर्मा (व्य) उज्जयिनीका
राजा २०१३ श्रीध्वज (व्य) बलदेवका पुत्र
४८।६७ श्रीध्वज (व्य) एक राजा
५०११२४ श्रीनिकेतन (भौ) वि. उ. नगरी
२२६८९ श्रीनिलया (भौ) मेरुके वायव्यमें __स्थित एक वापी ५।३४४ श्रीपाल (व्य) सुलोचनाके द्वारा
वणित श्रीपाल नामका
चक्रवर्ती श२ श्रीपुर (भौ) वि. उ. नगरी २२।९४
१२१
शब्दानुक्रमणिका श्रीप्रभ (व्य) पुष्करवर द्वीपका
रक्षक देव ५।६४० श्रीप्रम (भौ) सहस्रार स्वर्गका
एक विमान २७।६८ श्रीभूति (व्य) सिंहपुरका एक
ब्राह्मण, दूसरा नाम सत्य
घोष २७।२२ श्रीभूति (व्य) आगामी चक्रवर्ती
६०१५६५ श्रीमती (व्य) राजा सिद्धार्थकी
स्त्री (भगवान् महावीरकी
दादी) २०१३ श्रीमती (व्य) जयन्त नगरके
राजा श्रीधरको रानी
६०१११७ श्रीमती (व्य) राजा श्रेयान्सका
पूर्वभव ९:१८३ श्रीमती (व्य) साकेत नगरके
राजा अतिबलकी स्त्री
२७१६३ श्रीमती (व्य) रुक्मिणीकी माता
६०१३९ श्रीमती (व्य) पद्मनाभकी स्त्री
६०।१२१ श्रीमती (व्य) अशोककी पत्नी
६०६९ श्रीमती = उज्जयिनीके राजा
श्रीधर्माकी स्त्री २०१३ श्रीमती (व्य) नागपुरके राजा
श्रीचन्द्रकी स्त्री ३४।४३ श्रीमती (व्य)राजा सूर्यकी स्त्री,
कुन्थुनाथकी माता ४५।२० श्रीमहिता (भौ) मेरुके वायव्यमें
स्थित एक वापी ५:३४४ श्रीमान् (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२१३३ श्रेयान् (व्य) हस्तिनापुरके राजा
सोमप्रभका छोटा भाई ९.१५८
९६१ श्रेयान् (व्य) हस्तिनापुरके राजा
सोमप्रभका भाई ४५७ श्रीवर (व्य) पुष्करवर द्वीपका
रक्षक देव ५।६४० श्रीवर्द्धमान (वि) अनन्त चतुष्टय
रूप लक्ष्मीसे वृद्धिको प्राप्त
१२ श्रीवृक्ष (भौ) रुचकगिरिकी
पश्चिम दिशाका कूट
५७०२ श्रीवृक्ष (व्य) कुण्डलगिरिके
मार्ग कूटका निवासी देव
५।६९३ श्रीवसु (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२६ श्रीवत (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।२९ श्रीश्रेयस् (व्य) लक्ष्मीसे युक्त
ग्यारहवें तीर्थकर १।१३ श्रीषेण (व्य) आगामी चक्रवर्ती
६०१५६४ श्रुतदेवी (व्य) प्रतिमाओंके पास
विद्यमान एक देवी ५।३६३ श्रुतविधि-व्रतविशेष ३४।९७ श्रुतसागर (व्य) एक मुनि
२७।९९ श्रुति = वैणस्वरका एक भेद
१९।१४७ श्रेणिक (व्य) मगध देशके राजा
अपर नाम बिम्बमार११७६ श्रेणिबद्ध (भी) रत्नप्रभा आदि
पृथिवियों के पटलोंमें पंक्तिबद्ध विल ४।१०३
[ष] षड (भौ) पंकप्रभा पृथिवी के
षष्ठ प्रस्तारका इन्द्रक विल
४।१३४ षडषड (भौ) पंकप्रभा पृथिवीके
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ર
सत्यवान् (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६२ सत्यवेद (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६२ सत्रशाला = दानशाला २५।२१ सरसमा = सज्जनोंका समूह
११४४
सप्तम प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१३५ षडावश्यक (पा) मुनियोंके मूल
गुण-समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण,स्वाध्याय और कायोत्सर्ग....ये छह
आवश्यक हैं २।१२८ षड्ज = स्वरका एक भेद
१९।१५३ षड्जकैशिकी = षड्ज स्वरसे
सम्बद्ध जाति १९।१७४ षड्जमध्या षड्जस्वरसे सम्बद्ध
जाति १९।१७४ षड्जीव निकाय-पृथिवीकायि
कादि पाँच स्थावर और
एक त्रस २।११७ षष्ठ-वेला-दो दिनका उपवास
२०५८ पाडूजी = षड्जस्वरसे सम्बद्ध
जाति १९।१७४ षाडव= चौदह मूर्च्छनाओंका
एक स्वर १९।१६९ षोडशार्द्ध = आठ २।८३
हरिवंशपुराणे सचित्तनिक्षेप (पा) अतिथिका
अतिचार ५८।१८३ सचित्तावरण (पा) अतिथिका
अतिचार ५८।१८३ सचित्ताहार (पा) भोगोपभोग
का अतिचार ५८।१८२ सचित्तसंबन्धाहार (पा) भोगोप
भोगका अतिचार५८।१८२ सचित्त संमिश्राहार (पा)
भोगोपभोगव्रतका अति
चार ५८।१८२ सञ्जयन्त (व्य) विदेहक्षेत्रके एक
मुनि २७।३ सञ्जय (व्य) राजा चरमका
पुत्र १७१२८ सञ्जय (व्य) एक राजा
५०।१३० सम्ज्वलित (भौ) बालुकाप्रभाके
अष्टम प्रस्तारका इन्द्रक
विल ४।१२५ सरकल्याण = विवाह १९६२ सत्यक (व्य) कृष्णके पक्षका
एक योद्धा ५२।१४ सत्यक (व्य) एक राजा
५०११२४ सत्यक (व्य) शिविका पुत्र
४८०४१ सत्यप्रवाद (पा) पूर्वगत श्रुतका
एक भेद २।९८ सत्यदेव (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२१६२ सत्यनेमि (व्य) यादव५०।१२० सत्यनेमि (व्य) समुद्रविजयका
पुत्र ४८४३ सत्यभामा (व्य) कृष्णकी स्त्री
१।९३ सत्यमहाव्रत (पा)रागद्वेष मोह
पूर्वक परतापकारी वचनोंका त्याग २।११८
सत्यसत्त्व (व्य) जरासन्धका
पुत्र ५२१३२ सत्संख्यादि (पा) सत्, संख्या,
क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व ये आठ
अनुयोग-द्वार २।१०८ सत्ययशस् (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६५ सस्या (व्य) सत्यभामा ४३।१३ सद्भद्रिलपुर (भो) एक नगर
१८।११२ सिद्धार्था = एक विद्या २२१७० सानत्कुमार (भौ) तीसरा स्वर्ग
[स] सककापिर (भौ) देशका नाम
१११६९ सकन्दर्पप्रिय = कामीजनोंको
प्रिय ४२।२१ सकलभूतदया (पा) सातावेद
नीयका आस्रव ५८।९४ सक्ति = लगाव ३१९ सङ्घ (व्य) एक मुनि १८।१३३ सगर (व्य) एक राजा २३३५० सगर (व्य) द्वितीय चक्रवर्ती
६०।२८३ सगर (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३६ सङ्घ = भीड़ १९।११
सनत्कुमार(व्य) अकृत्रिम चैत्या
लयोंकी प्रतिमाओंके समीप
स्थित यक्ष ५।३६३ सनत्कुमार (व्य) चौथा चक्रवर्ती
६०१२८६ सनत्कुमार ( व्य) कुरुवंशमें
उत्पन्न चौथा चक्रवर्ती
४५।१६ सनिकाचित (पा) आग्रायणी
पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका
योगद्वार १०८५ सन्निपात = तालगत गान्धर्वका
एक प्रकार १९।१५० सन्तान = कल्पवृक्ष विशेष८।१८९ सन्दरार्य ( व्य) विमलनाथका
प्रथम गणधर ६०।३४८ सन्ध्याकार (भो) विन्ध्याचलका
एक नगर ४५।११४
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शब्दानुक्रमणिका
सन्धि-पदगत गान्धर्वको विधि
१२।१४९ सन्मति (व्य)प्रतिश्रुति कुलकर
का पुत्र दूसरा कुलकर
७।१४८ सन्नरेन्द्र उत्तम विषवैद्य, पक्षम
उत्तम राजा १६४६ सपर्या= पूजा २२७ सपाणि%= तालगत गान्धर्वका
एक प्रकार १९।१५१ सप्तकृत्व = सात बार २५।१५ सप्तपर्णपुर (भौ) सप्तपर्ण देवका
निवासस्थान ५।४२७ सप्तसप्तमतप-व्रतविशेष ३४।९१ सप्तवर्णवन (भौ) विजयदेवके
नगरमे २५ योजन दूर दक्षिण में स्थित एक वन
५६४२ सप्तपञ्चार्थ (वि) विस्तारपूर्ण
अर्थसे सहित ११७ सप्तर्द्धि (पा)तप, बुद्धि, विक्रिया,
अक्षीण, औषध, रस और
बल ३३४० समामण्डल - समवसरण
२११४४ समन्तभद्र (व्य)समन्तभद्र नामक
आचार्य श२९ समन्तानुपातिनि (पा) एक
क्रिया '५८१७२ समयसत्य (पा) दश प्रकारके
सत्यों में से एक सत्य
१०।१०७ समवसरण तीर्थंकरकी धर्मसभा
२०६६ समवस्थान = समवसरण
११११३ समय (पा) कालद्र व्यकी सबसे
छोटी पर्याय ७।१८ समभिरूढ (प) एक तप ५८।४१
समवायाङ्ग (पा) द्वादशांगका
एक भेद २१९२ समादान क्रिया (पा)एक क्रिया
५८१६४ समाधिगुप्त (व्य) आगामी तीर्थ
कर ६०५६१ समाधिगुप्त (व्य) एक मुनि
६०।२८ समारम्म (पा) कार्यके साधन
जुटाना ५८।८५ समालम्भन = विलेपन १९।४१ समावर्जित = धारण किये हुए
३८1५४ समासवर्ष = एक वर्ष एक माह
१६१६४ समिति (पा)प्रमादरहित प्रवृत्ति
१ ईहा, २ भाषा, ३ एषणा, ४ आदान-निक्षेपण
और ५ प्रतिष्ठापन समीरण = वायु ३।२० समुच्छिन्न क्रियापाति (पा)
शुक्लध्यानका चतुर्थ भेद ।
५६७७ समुद्रदत्त (व्य) अयोध्याका एक
सेठ ४३।१४८ समुद्रदत्त (व्य) एक मुनिराज
१८।१०५ समुद्रविजय (व्य) बाईसवें
तीर्थंकर नेमिनाथके पिता
१७९ समुद्रविजय (व्य) अन्धकवृष्णि
और सुभद्राके पुत्र, भगवान्
नेमिनाथके पिता १८.१३ समुद्वर्तन = उपटना ३८१५४ सम्फली = दूती १४१७८ सम्मव (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३७ सम्भवनाथ (व्य) तृतीय तीर्थ
कर १३।३१
९६३ सम्भ्रान्त (भौ)रत्नप्रभा पृथिवी
के छठे प्रस्तारका इन्द्रक
४७६ सम्मद (व्य) रुद्र ६०५७१ सम्मेदशैल (भौ) सम्मेदशिखर
निर्वाणभूमि १६७५ सम्यक्त्वक्रिया (पा) एक क्रिया
५८।६१ सम्यग्मिथ्यादृग (पा) तीसरा
गुणस्थान अपर नाम मिश्र
३।८० सम्यग्दर्शन (पा) जीवादि सात
तत्त्वोंका श्रद्धान करना
२।११५ सम्यग्दर्शन भाषा (पा) सत्य
प्रवाद पूर्वको १२ भाषाओं
में से एक भाषा १०१९६ सयोगकेवली (पा) तेरहवा
गुणस्थान ३।८३ सरवट (व्य) जगत्स्थामाका पुत्र
४५।४६ सरस्वती (व्य) जयन्तगिरिके
राजा वायुविद्याधरकी स्त्री
४७१४३ सरस्वती (व्य)एक देवी५९।२७ सरागसंयम (पा) सातावेदनीय
का आस्रव ५८।९४ सरिता (भौ) पूर्वविदेहका एक
देश ५।२४९ सर्वाह्न (व्य)प्रतिमाओंके समीप
विद्यमान एक यक्ष ५/३६३ सर्वगन्ध (व्य) अरुणवर द्वीपका
रक्षक देव ५।६४५ सर्वगुप्त (व्य) भगवान् ऋषभ
देवका गणधर १२।५९ सर्वञ्जय (व्य) विनमिका पुत्र
२२।१०५ सर्वतोभद्र (व्य) नाभिराजके
भवनका नाम ८४
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९६४
सर्वतोभद्र = श्रीकृष्णका भवन जो अठारह खण्डका था ४१।२७
सर्वतोभद्र = एक उपवासव्रत ३४१५२-५५ सर्वात्मभूत (व्य ) आगामी तीर्थकर ६०।५५९
सर्वदेव (व्य) भगवान् ऋषभ - देवका गणधर १२।६० सर्वप्रिय (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।६० सर्वरत्न (पा) चक्रवर्तीकी एक निषि ११।११० सर्वरत्न (भी) रुचिकगिरिको नैर्ऋत्य दिशा में स्थित एक कूट ५७२६
सर्वरत्न कूट ( भी ) | मानुषोत्तरके पूर्वोत्तर कोणमें निषधाचलसे लगा हुआ एक कूट ५।६०८
सर्वरत्नमय ( भी ) मेरुकी एक परिधि ५।३०५
सर्वार्थ (व्य) राजा सिद्धार्थके पिता ( भगवान् महावीरके बाबा ) २।१३
सर्वार्थं (व्य) चारुदत्तका मामा २१।३८ सर्वार्थसिद्धा २२/७०
सर्वार्थकल्पक (पा) आग्रायणी पूर्वकी वस्तु १०१७९ सर्वार्थसिद्धि (भो अनुत्तरविमानोंका इन्द्रक ६१५४ सर्वार्थसिद्धि (भौ) अनुत्तर
विमान ६।६५ सर्वार्थसिद्धि स्तूप (पा) समव
सरण के स्तूप ५७।१०२ सर्वविद्याप्रकर्षिणी = एक विद्या
२२६२
-
एक विद्या
हरिवंशपुराणे
सर्वविद्याविराजिता = एक विद्या २२।६४
सर्वयशा (व्य) राजा तृणबिन्दुकी स्त्री २३।५२ वर्षावधि (पा) अवधिज्ञानका एक भेद १०।१५२ सर्वविदे (वि) सर्वज्ञाय १३ सर्वसह (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।५९ सर्वाच्छादन विद्यास्त्र २५।४९
सर्वश्री (व्य) मेघपुरके राजा धनंजयकी स्त्री ३३।१३५ सर्वश्री (व्य) वीतशोका नगरी के वैजयन्त राजाकी स्त्री २७६
सल्लेखना (पा) कषायको कृश कर शक्तिसे मरण करना ५८१६० सवर्णकारिणी २२।७१
= एक विद्या
सवस्तुक = तालगत गान्धर्वका एक प्रकार १९।१५० सवाच्यस्य = सापराधैनिन्दनीय
=
५४/४७
सवित्री = कृष्णको माता देवकी ३५/४९
सल्य (व्य ) एक राजा ३१।९८ ससारस्वत (भी) देशका नाम
११।७२ सहदेव (व्य) पाण्डव ४५/२ सहदेव (व्य ) जरासन्धका पुत्र
५२।३०
सहदेव (व्य) एक राजा५०।७१ सहस्रग्रीव (व्य) बलि प्रति
नारायणके वंशका एक राजा २५/३६ सहस्रार (वि) हजार आरोंवाला
३।२९
सहस्रार ( भी ) बारहवाँ स्वर्ग
४।१५
सहस्रार ( भी ) बारहवाँ स्वर्ग
६।३८ सहस्त्रदिक् (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।३९
सहस्रपर्वा = एक विद्या २२।६७ सहस्रानीक (व्य) विनमिका पुत्र २२।१०५
सहस्ररश्मि (व्य) जरासन्धका पुत्र ५२।४०
सा (व्य) अचलका पुत्र४८१४९ संक्रम (पा) आग्रायणी पूर्वके
चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार १०१८३
संगमक (व्य) पातालवासी एक
देव जिसकी राजा पद्मनाभने आराधना की ५४/१२ संग्रह (पा) एक नय ५८ ४१ संघाट (भौ) शर्कराप्रभा पृथिवीके षष्ठ प्रस्तारका इन्द्रक विल ४|११०
संघात (पा) श्रुतज्ञानका भेद १०।१२
संजय (व्य) विनमिका पुत्र २२१०४
संजयन्त (व्य ) वीतशोका नगरीके वैजयन्त राजाका पुत्र २७/६
संज्ञासंज्ञा (पा) आठ अवसंज्ञाओंकी एक संज्ञासंज्ञा होती है
७/३८
संप्रज्वलित (भौ) बालुकाप्रभाके नवम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४|१२६
संयम (पा) पाँच इन्द्रियों और
मनको वश करना तथा छह कायके जीवोंकी हिंसा न करना २।१२९
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शब्दानुक्रमणिका
९६५
संयतासंयत (पा) पापोंका एक
देश करनेवाले श्रावक
३।१४८ संयतासंयत (पा) पाँचां गुण
स्थान ३२८१ संयोग (पा) अजीवाधिकरण
आस्रवका भेद ५८१८६ संयोजनासत्य (पा) दश प्रकार
के सत्योंमें-से एक सत्य
१०।१०३ संरम्भ (पा) कार्य करनेका
संकल्प करना ५८।८५ संवर (व्य) ऋषभदेवका गणधर
१२।६३ संवादी = स्वरप्रयोगका एक
प्रकार १९।१५४ संवेग = भावना ३४।१३६ संवृतिजन्य (पा) दश प्रकारके
सत्योंमें-से एक सत्य
१०११०२ संसद् = समवसरण सभा
२।११२ संस्थान - आकार ३.१९७ संस्थानविचय (पा) धर्म्यध्यान
___ का भेद ५६।४८ सिंह (भी) वि. उ. नगरी
२२१८७ साकारमन्त्रभेद (पा) सत्याणु
व्रतका अतिचार ५८११६९ साकेत (भो) अयोध्यानगरी
१८।९७ सागर (व्य) सुभद्रका पुत्र १३।१ सागर(पा) असंख्यात वर्षोंका पुत्र
एक सागर होता है ४।२५२ सागर (व्य) राजा उग्रसेनका
४८।३९ सागर (व्य) एक राजा ५०।११८ सागर कूट (भो) माल्यवान्
पर्वतका एक कूट ५।२१९
सागरचन्द्र (व्य) मेघकूट नगरके
जिनालयमें विद्यमान एक
अवधिज्ञानी मुनि ४७।६० सागरचित्रक (भौ) नन्दनवनका
एक कूट ५।३२९ सागरसेन (व्य)एक मुनि६०७६ सागरसेन (व्य) दीपनका पुत्र
१८९ सातासात (पा) आग्रायणी पूर्व
के चतुर्थ प्राभृतका योग
द्वार १०१८४ सात्यकि (व्य) एक मुनि
४३।११० साधारण = वैणस्वरका भेद
१९।१४७ साधारणक्रिया = शारीरस्वरका
भेद १९.१४८ साधारणकृत = चौदह मुर्छ
नाओंका एक स्वर१९।१६९ साधु = सज्जन ११४३ साधु (व्य) साधुपरमेष्ठी ११२८ साधुसमाधि-भावना ३२११३९ साधुसेन (व्य) ऋषभदेवका
गणधर १२।६१ सानुकार (भौ) अच्युत स्वर्गका
प्रथम इन्द्रक ६५१ सानुधरी (व्य) महेन्द्रको स्त्री
६०९८१ सामायिक (पा) अंगवाह्यश्रुतका
एक भेद २११०२ सामायिक-समस्त सावद्ययोगका
त्याग कर चित्त स्थिर
करना ३४।१४३ सामायिक चारित्र (पा)चारित्र
का एक भैद ६४।१५ साम्परायिक (पा) आसवका
भेद ५८।५८ सारण(व्य)वसुदेव और रोहिणी
का पुत्र ४८।६४
सारण (व्य) एक राजा ५२।२० सारनिवह (भौ) वि. उ. नगरी
२२८७ सारमेय-कुत्ता ४३।१५१ सारस्वत (व्य)लौकान्तिक देवों
का एक भेद ९।६४ सालम्बप्रत्याख्यान = यदि
जीवित रहे तो अन्न-पानी ग्रहण करेंगे इस प्रकारकी प्रतिज्ञासे युक्त संन्यास
२०१२४ सालाभ्याशशिलातले = सागौन
वृक्षके निकटवर्ती शिलातल
पर २।५८ साल्व (भी) देश-विशेष ३।३ सासादन (पा) दूसरा गुणस्थान
३१८० सित (व्य) अमरावर्तका शिल्प
४५।४५ सित(व्य) एक तापस ४६।१४ सिता (व्य) विजयकी स्त्री१९।४ सिद्ध (पा) आठ कर्माको नष्ट
करनेवाले मुक्त जीव ३१६६ सिद्ध (पा) वादि-प्रतिवादियों के
द्वारा निर्णीत १११ सिद्ध (व्य) सिद्धपरमेष्ठी १२८ सिद्धसेन ( व्य) एक आचार्य
११३० सिद्ध स्तूप (पा) समवसरण के
स्तूप ५७।१०३ सिन्दूर (भौ) अन्तिम सोलह
द्वीपोंमें तीसरा द्वीप५।६२३ सिद्धार्थ (व्य) बलदेवका सारथि
६११४१ सिद्धार्थ (व्य) दशपूर्वके ज्ञाता
एक आचार्य १।६२ सिद्धार्थ (व्य) बलदेवका स्नेही
देशविशेष १११२१ सिद्ध (व्य) मानुषोत्तरके अंजन
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हरिवंशपुराणे
९६६
मूल कूटपर रहनेवाला देव
५।६०४ सिद्धकूट (भौ) सौमनस्यपर्वतका
एक कूट ५।२२१ सिद्धकूट (भौ) माल्यवान् पर्वत__का कूट ५।२१९ सिद्धकूट (भौ) विद्युत्प्रभ पर्वत
का कूट ५।२२२ सिद्धायतन (भौ) शाल्मली वृक्ष
की दक्षिण शाखापर स्थित
चैत्यालय ५।१८९ सिद्धायतन (भी) जम्बू वृक्षकी
उत्तर दिशाको शाखापर
स्थित चैत्यालय ५।१८१ सिद्धायतनकूट(भौ) गन्धमादन
पर स्थित एक कूट ५।२१७ सिद्धायतनकूट (भौ) ऐरावतके
विजयाधका पहला कूट
५।११० सिद्धायतनकूट(भौ) रुक्मिकुला
चलका पहला कूट ५।१०२ सिद्धायतनकूट (भौ) शिखरि
कुलाचलका पहला कूट
५।१०५ सिद्धायतनकूट (भौ) हिमवत्
कुलाचलका प्रथम कूट
५।५३ सिद्धायतनकूट (भौ) निषधा
चलका प्रथम कूट ५।८८ सिद्धायतनकूट (भौ) विजया
पर्वतका प्रथम कूट ५।२६ सिद्धायतनकूट (भौ) नीलकुला
चलका पहला कूट ५।९९ सिद्धायतन कूट (भी) महाहिम
वत् कुलाचलका पहला
कूट ५/७१ सिद्धार्थ (व्य) भगवान् महावीर
के पिता २०१३ सिद्धिक्षेत्र = मुक्तजीवोंके ठहरने
का अन्तिम ५२५ धनुष
प्रमाण स्थान ३।६७ सिद्धि (पा) आग्रायणी पूर्वकी
वस्तु १०८० सिद्धेतर (पा) सिद्धोंसे भिन्न
संसारी जीव ३।६६ सिन्धुकक्ष (भौ) वि. द. नगरी
२२।९७ सिन्धु (भौ) देशका नाम
१११६७ सिन्धु (भौ) चौदह महानदियों
में-से एक नदी ५११२३ सिन्धु (भौ) देशविशेष ३१५ सिन्धुकूट (भौ) हिमवत्कुला
चलका आठवाँ कूट ५।५४ सिन्धुदेवी (व्य) सिन्धुकूटपर
बसनेवाली देवी १११४० सिंह (व्य) मेघदलपुरका राजा
४६।१४ सिंह (व्य) वसुदेव और नील
यशाका पुत्र ४८०५७ सिंहल (भौ) सिंहलद्वीप४४।२० सिंहकटि (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३३ सिंहघोष (व्य)सन्ध्याकार नगर
___ का राजा ४५।११४ । सिंह चन्द्र (व्य) एक चारण
ऋद्धिधारी मुनि २७१६० सिंहचन्द्र (व्य) आगामी बल
भद्र ६०५६८ सिंहचन्द्र (व्य) सुमित्रदत्त
वणिक् मरकर रानी रामदत्ताके सिंहचन्द्र पुत्र हुआ
२७।४६ सिंहदंष्ट्र (व्य) प्रहसित और
हिरण्यवतीका पुत्र २२१११३ सिंहदंष्ट्र (व्य)वसुदेवका सम्बन्धी
एक विद्याधर ५११२
सिंहनाद (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३४ सिंहपुर (भी) ज. वि. के सुपद्मा
देशका एक नगर ३४।३ सिंहपुर (भी) भरतक्षेत्रके शकट
देशका एक नगर २७।२० सिंहपुरी (भौ) विदेहकी एक
नगरी ५।२६१ सिंहबल ( व्य ) राजा पद्म का
विरोधी एक उद्दण्ड राजा
२०१७ सिंहयश (व्य)अमितगति विद्या
धरका पुत्र २१३१२१ सिंहस्थ (व्य) राजगृहका राजा
६०।११३ सिंहस्थ (व्य ) कालसंवरका
विरोधी एक विद्याधर
राजा ४७।२६ सिंहस्थ (व्य) सिंहपुरका उद्दण्ड
राजा ३३।४ सिंहवाहिनी नागशय्या-कृष्ण
की शय्या ३५१७२ सिंहविष्टर = सिंहासन २।४१ सिंहसेन (व्य) भरतक्षेत्र में स्थित
शकट देशके सिंहपुरका
राजा २७।२० सिंहसेन(व्य)वसुदेव और बन्धु
मतीका पुत्र ४८०६२ सिंहसेन ( व्य ) अजितनाथके
प्रथम गणधर ६०।३४६ सिंहाङ्क (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३१ सीता (व्य) रामचन्द्र जीकी
स्त्री ४६।२१ सीता (व्य) अरिष्टपुर के निवासी
रेवतकी पुत्री बलदेवकी
स्त्री ४४।४१ सीता (भो ) जम्बूद्वीप विदेह
क्षेत्रको एक नदी ६०॥६२
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९६७
सीता (भौ) एक महानदी
५।१२३ सीताकुट (भौ) माल्यवान पर्वत
का एक्ट ५।२२० सीमाकट (0) नीलकुलाचलका
चौथा कल ५।१०० मतदा (11) एक महानदी
संतदा (भौ) विदेह की एक
विभंगा नदी ५।२४१ मंगोदाकत (भी) विद्युत्प्रभका
एक कूट ५१२२३ यातादाकट (भी) निषधाचलका
मालवा कर ५८९ मोड कर (व्य) पाचवाँ कुलकर
७।१५४ सं!सन्तक (भौ) रत्नप्रभा पथिवी
के प्रथम प्रस्तारका इन्द्रक
नामका विल ४१७६ समर (व्य) विदेहके तीर्थंकर
शब्दानुक्रमणिका सुकीर्ति (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५/२५ सुकेतु (व्य)विजयार्धका निवासी
एक विद्याधर ३६ सुखरथ ( व्य) दहस्थका पुत्र
१८।१९ सुखानुबन्ध (पा) सल्लेखना
व्रतका अतिचार ५८।१८४ सुखावह (भी) पश्चिम विदेहका ___ वक्षारगिरि ५।२२० सुगन्ध (व्य) अरुणवर द्वीपका
रक्षक देव ५६६४५ सुगन्धा (भी) पश्चिम विदेहका
एक देश ५।२५१ सुगर्म (व्य) वसुदेव और रत्न
वतीका पुत्र ४८।५९ सुग्रीव (व्य) विजयखेट नगरमें
रहनेवाला एक गन्धर्वाचार्य
१९१५४ सुघोष = बलदेवके शंखका नाम
४२७९ सुघोष = गन्धर्वसेनाके द्वारा
वमुदेवको दी हुई वीणा
१९।१३७ सुचक्षु (व्य) मानुषोत्तर पर्वतका
रक्षक देव ॥६३९ सुचन्द्र (व्य) आगामी बलभद्र
सुतेजस् (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१४ सुदर्शन (व्य) एक यक्ष
१८॥३० सुदर्शन = चक्रवर्तीका चक्ररत्न
१११५७ सुदर्शन (व्य) अलका नगरीका
राजा २७१७९ सुदर्शन (व्य) जगसन्धका पुत्र
५२१३२ सुदर्शन (व्य) पांचवां बलभद्र
६०।२९० सुदर्शनचक्र कृष्ण का एक रत्न
५३१४९ सुदर्शन (व्य) भगवान् अरनाथ
के पिता ४५।२१ सुदर्शन ( भो) रुचिकगिरिका
उत्तर दिशासम्बन्धी कूट
५।७१६ सुदर्शन ( भो) अधोवेयकका
पहला इन्द्रक ६।५२ सुदर्शन (व्य ) मानुषोत्तरकी
उत्तर दिशामें स्थित म्फटिक कूटपर रहनेवाला देव
घर (व्य) उठा कुलकर
गः (व्य) आगामी प्रति
नारायण ६०५७० सकच्छ (व्य ) ऋषभदेवका
पा (भौ। पश्चिम विदेहका
देश ५१२४५ मौ )विद नगरी २२९७ मन (योजयकम का पूर्त.
व १० मम्मार (व्य सनत्कुमार चक्र.
बकाय ४',123 सारिका (न्य ) नामकी
सुचारु ( व्य) कृष्णका पुत्र
४८।७१ सुचारु (व्य)कुरुवंशी एक गजा
४५४२३ सुज्येष्टा (व्य) गटवर्धनकी स्त्री
६०1७१ मज्येष्टा (व्य ) धनदत्त सेठ
और नन्दयगाकी पुत्री
सुदर्शना (व्य) भगवान् ऋपभ
देवकी दीक्षाकालकी पालकी
९७७ सुदर्शना (व्य) घनदन गट और
नन्दयशाकी पुत्री १८।११३ सुदर्शना (व्य) राजा विगट्की
स्त्री ४६।२३ सुदर्शना(व्य) सन्ध्याकार नगर
के राजा सिंहघोषकी स्त्री
४५।११५ सुदर्शना (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके
उत्तर दिशामम्बन्धी अंजनगिरिकी उत्तर दिशामें स्थित वापिका ५।६६४
समारिका (व्य) नदेव वैश्य
की म्बी ४६५०
सुतार (व्य) प्रकीर्णकामनीका
पुत्र एक विद्याधर ४६१८
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________________
९६८
सुदर्शनार्थिका (व्य) एक आर्यिका १८ ११७
सुदृष्टि (व्य) सुप्रतिष्ठ और सुनन्दाका पुत्र ३४१४६ सुदृष्टि (व्य) भद्रिलसा नगरीका
सेठ ३३।१६७ सुधर्म (व्य) सुधर्माचार्य केवली
१६०
सुधर्म (व्य) भगवान् महावीरका पंचम गणधर ३४२ सुधर्म (व्य ) एक मुनिराज ३३।१५२
सुधर्म (व्य) तीसरा बलभद्र ६०।२९०
सुधर्मक (व्य ) वासुपूज्यका
गणधर ६०।३४७ सुधर्मा (भी) विजयदेवके भवन से उत्तर दिशामें स्थित सभा ५१४१७
सुधाम (पा) स्फटिकसालका पश्चिम गोपुर ५७/५९ सुनन्द, नन्दिषेण (व्य) युगल पुत्र ३३।१४१ सुनन्दा (व्य) सुप्रतिष्ठको स्त्री
३४।४७
सुनन्दा (व्य) ऋषभदेवकी स्त्री
९।१८
सुनन्द गोप (व्य) वृन्दावनमें रहनेवाला एक गोप
३५।२८
सुन्दर (व्य) कुण्डलगिरि के स्फटिक कूटका निवासी देव ५।६९४
सुन्दरी (व्य) भगवान् ऋषभदेवकी पुत्री ९।२२
सुन्दरी (व्य) चक्रपुरके राजा अपराजितकी स्त्री २७।८९ सुन्दरी ( व्य ) एक आर्यिका ६०।५१
हरिवंशपुराणे
सुन्दरी (व्य ) सूरदेवकी स्त्री
३३।९९
सुन्दरी (व्य ) चित्रकारपुरके प्रीतिभद्रकी स्त्री
राजा २७/९७
सुनीता (व्य) हिमवान्की स्त्री
१९।३
सुनेमि (व्य) यादव ५०।१२० सुनेमि (व्य) समुद्रविजय का पुत्र
४८ ४३
सुनैगम (व्य) एक देव• ३५॥४ सुपद्म (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५/२५
सुपद्मा ( भी ) ज. वि. का एक देश ३४ ३ पद्मा (भी) पूर्वविदेहका एक देश ५ | २४९ सुपर्णतनय भवनवासी देवोंका एक भेद ४।६३ सुपार्श्व (व्य) = सप्तम तीर्थंकर १९
सुपार्श्व (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०१५५८
सुपार्श्व (व्य) सप्तम तीर्थंकर
१३।३२
सुप्रणिधि (व्य ) रुचिकगिरिके सुप्रबुद्ध कूटपर रहनेवाली देवी ५।७०८
सुप्रतिष्ठ (व्य ) एक मुनिराज
१८/३०
सुप्रतिष्ठ (व्य ) श्रीचन्द्र और
श्रीमतीका पुत्र ३४।४३ सुप्रतिष्ठ (व्य ) एक मुनि ११७८ सुप्रतिष्ठ (व्य ) शूर और सुवीरको दीक्षा देनेवाले एक मुनि १८।११
सुप्रतिष्ठ (व्य ) कुरुवंशका एक
राजा ४५।१२ सुप्रतिष्ट (भौ) रुचिकगिरिका
दक्षिण दिशासम्बन्धी कूट ५।७१०
सुप्रबुद्ध (भी) अधोग्रैवेयकका तीसरा इन्द्रक ६।५२ सुप्रबुद्ध ( भी ) रुचिकगिरिका दक्षिण दिशासम्बन्धी कूट ५।७०८
सुप्रबुद्धा (व्य) रुचिकगिरिके मन्दर कूटपर रहनेवाली देवी ५१७०८
सुप्रबुद्धा (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिशासम्बन्धी अंजनगिरिको दक्षिण दिशा में स्थित वापिका ५१६६२ सुप्रम (पा) स्फटिक सालका
पश्चिम गोपुर ५७/९५ सुप्रभ (व्य) चौथा बलभद्र ६०।२९०
सुप्रभ (भौ) कुण्डलगिरिका
दक्षिण दिशाका कूट५ १६९२ सुप्रम (व्य ) घृतवर द्वीपका
रक्षक देव ५।६४२ सुप्रभंकरा (भौ) नन्दीश्वर द्वीपके उत्तर दिशासम्बन्धी अंजनगिरिकी पूर्व दिशामें स्थित वापिका ५।६६४ सुप्रभा (व्य) अशनिवेगकी स्त्री १९।८३
सुप्रभा (पा) समवसरणके आन
वनकी वापिका ५७/३५ सुप्रभा (व्य) अभिचन्द्रकी स्त्री १९/५ सुप्रभा (व्य) राजा प्रचण्डवाहनकी पुत्री ४५।९८ सुप्रवृद्ध
(व्य) मानुषोत्तर के प्रवाल कूटपर रहनेवाला देव ५।६०६
सुफल्गु (व्य) समुद्रविजयका पुत्र
४८/४४
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________________
सुबल (व्य ) महाबलका पुत्र १३।१७
सुबल (व्य) बलका पुत्र १३।८ सुबाहु (व्य ) राजा वसुके पुत्र
वृहद्ध्वजका लड़का १८|१ सुबाहु (व्य) भगवान ऋषभदेव
का गणधर १२१५७ सुभद्र (व्य) आचारांगके ज्ञाता एक आचार्य १।६५ सुभद्र (व्य ) अमृतवलका पुत्र १३।९
सुभद्र (व्य) एक मुनि ६०।१०० सुभद्र (व्य) एक सेठ ६० १०१ सुभद्र ( भी ) मध्यम ग्रैवेयकका
द्वितीय इन्द्रक ६।५२ सुभद्र (व्य) नन्दीश्वरवर समुद्रका रक्षक देव ५६४५ सुभद्रा (व्य ) अन्धकवृष्णि की स्त्री १८१२ सुभद्रा (व्य) चारुदत्तकी माता २१।६
सुभद्रा (व्य ) विनमिको पुत्री
भरतकी पट्टराज्ञी २२ । १०६ सुभद्रा (व्य) राजा मेघरथकी स्त्री १८ ११२ सुभद्रा (व्य) वज्रमुष्टिकी स्त्री ६०१५१
सुभद्रा (व्य ) अर्जुनकी स्त्री
४७१८
सुभद्रा (व्य) भरत चक्रवर्तीकी पट्टराज्ञी १२।४६ सुभानु (व्य ) श्रीकृष्णको सत्य
भामा रानीसे उत्पन्न पुत्र ४८/७
सुभानु (व्य ) मनुका पुत्र १८।३
सुभानु (व्य) मथुराके भानु सेठ और उनकी यमुना स्त्रीका एक पुत्र ३३।९७
१२२
शब्दानुक्रमणिका
सुभानु (व्य) कृष्णका पुत्र ४८।६९
सुमानुक (व्य) कृष्णका पुत्र ४८ ६९
सुभूम (व्य) अष्टम चक्रवर्ती
६०।२८७
सुभोगा (व्य) दिक्कुमारी देवी ५।२२७
सुभौम (व्य) राजा कार्तवीर्य की स्त्री ताराके गर्भ से उत्पन्न पुत्र जो चक्रवर्ती हुआ
२५।१३
सुभौम (व्य) कुरुवंशका एक
राजा ४५|२४
सुमति (वि) उत्तममति = ज्ञानसे युक्त १७ सुमति (व्य) पाँचवें तीर्थंकर
११
सुमति (व्य ) वज्रमुष्टि और सुभद्रा की पुत्री ६०1५१ सुमति (व्य) विश्वसेनका अमात्य ६०१५८ सुमति (व्य) कौशाम्बीके राजा
सुमुखका मन्त्री १४/५३ सुमतिनाथ (व्य) पंचम तीर्थंकर
१३।३१
सुमनस् (भौ) उपरिम ग्रैवेयक
का प्रथम इन्द्रक ६।५३ सुमनाः (सुमनस् ) ( भौ) नन्दीश्वर द्वीपके उत्तर दिशासम्बन्धी अंजनगिरिको दक्षिण दिशामें- स्थित वापिका ५।६६४ सुमन्दरगुरु (व्य) एक मुनिराज
१८११६
सुमन्दिरगुरु (व्य) एक मुनि
३४।४४
सुमित्रादत्तिका (व्य ) सुमित्रदत्त वणिक्की स्त्री २७।४५
९६९
सुमित्र (व्य ) सागरसेनका पुत्र
१८ १९
सुमित्र (व्य) एक तापस ४२।१५ सुमित्र (व्य) कुशाग्रपुरका राजा भगवान् मुनिसुव्रतनाथका पिता १५।६२
६०/४४
सुमित्र (व्य) एक मनुष्य' सुमित्र (व्य) वसुदेव और मित्र
श्रीका पुत्र ४८५८ सुमित्रा (व्य) चारुदत्त के मामा सर्वार्थिकी स्त्री २१०३८ सुमित्रा (व्य ) दिक्कुमारी देवी
५।२२७
सुमित्रा (व्य) सुभद्र सेठकी स्त्री
६०।१०१
सुमित्रा (व्य) अरिष्टपुरके राजा
वासवकी स्त्री ६०।७६ सुमुख (व्य) वसुदेवका पुत्र सुमुख (व्य ) हयपुरीका राजा
४४।४७
सुमुख (व्य) वत्सदेश - कौशाम्बी
नगरीका राजा १४६ सुमुख (व्य) वसुदेव और अवन्ती
का पुत्र ४८।६४ सुमेघा (भी) नन्दनवनमें रहनेवाली दिक्कुमारी देवी ५।३३३
सुयोधन (व्य) कौरवाग्रज५०।८१ सुरदत्त (व्य) भगवान् ऋषभदेव
का गणधर १२५६ सुरदेव (व्य) ६०/५५८ सुरदेवी कूट ( भी ) शिखरिकुला
चलका चौथा कूट ५।१०६ सुरादेवीकूट (भौ) हिमवत् कुला
चलका नौवाँ कूट ५।५४ सुरभि = सुगन्धित १८ १६१ सुरा (व्य) रुचिकगिरिके जगत्
कुसुम कूटपर रहनेवाली देवी ५।७१२
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________________
९७०
सुराष्ट्र ( भो ) सौराष्ट्र देशकाठियावाड़ ४४।२६ सुराष्ट्र ( भी )
देशका नाम
११।७२
सुराष्ट्र ( भी ) सौराष्ट्र देश
६०।७१
सुरेन्द्रदत्त (व्य) चारुदत्त के पिताका मित्र २१।७८ सुरेन्द्रदत्त (व्य ) एक सेठ
१८९८
सुरेन्द्रवर्धन (व्य) एक विद्याधर
४५।१२६ सुरेश्वर-इन्द्र २।२६
सलक्षणा (व्य) धरणीतिलकके अतिबलकी स्त्री
राजा २७/७८
सुलस (भी) निषध पर्वतसे उत्तरकी ओर नदीके मध्य में स्थित एक हद ५११९६ सुलसा (व्य) वाराणसी के सोम
शर्मा ब्राह्मणकी एक पुत्री श्री २२।१३२
सुलसा (व्य ) धारण युग्मके राजा अयोधन और दितिकी पुत्री २३०४८ सुलोचना (व्य) सुलोचना नाम
की कन्या और अच्छे नेत्रोंवाली स्त्री १।३३ सुलोचना (व्य) वाराणसीके
राजा अकम्पन की पुत्री. जो जयकुमारको विवाही गयी १२१८
सुवक्त्र (व्य) विद्युन्मुखका पुत्र १३।२४
सुवसु (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।२६
सुवज्र (व्य) वज्रका पुत्र १३।२२ सुवत्सा ( भी ) पूर्वविदेहका एक देश ५।२४७
हरिवंशपुराणे
सुवप्रा (भी) पश्चिम विदेहका एक देश ५/२५१ सुवर्णकूट ( भौ) शिखरिकुलाचलका सातवाँ कूट५।१०६ सवर्णकला ( भी ) एक महानदी
५।१२४
सुवर्णद्वीप (भौ) एक द्वीप जहाँ चारुदत्त व्यापारके लिए गया २१।१०१
सुवर्णप्रम (भौ) सौमनसवनका एक भवन ५।३१९ सुवर्णभवन (भी) सौमनसवनका एक भवन ५।३१९ सुवर्ण रिक्षा = स्वर्णनिर्मित छोटी छोटी घण्टियों की २।३५ सुवर्णवती (भौ) वरुण पर्वतके समीप पंचनद समागमकी एक नदी २७|१४ सुवर्णवर (भौ ) अन्तिम सोलह
माला
द्वीपों में आठवां द्वीप ५।६२४ सुवसु (व्य) राजा वसुका पुत्र १७५९
सुविधि (व्य) भगवान् ऋषभदेवका पूर्वभव ५।५९ सुविशाल (व्य ) ऋषभदेवका गणधर १२।६७ सुविशाल ( भी ) मध्यम ग्रैवेयक
का तृतीय इन्द्रक ६।५२ सुवीर (व्य) यदुवंशी राजा नर
पतिका पुत्र १८८ सुवीर (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२।३२
सुवीर्य (व्य) अतिवीर्यका पुत्र १३।१०
सुव्रत (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।११ सुव्रत (व्य ) मुनिसुव्रतनाथका पुत्र १७।१
सुव्रत (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०।५५९ सुव्रत (व्य ) ४६।५१
एक मुनि
सुव्रता (व्य ) अर्हद्दास राजाकी स्त्री २७।११२
सुवजा (व्य ) एक आर्यिका ३३।१६४
सुव्रता (व्य ) एक आर्यिका ४९।१४
सुशान्ति (व्य ) कुरुवंशका एक राजा ४५।३०
सुषड्जा = षड्जस्वरसे सम्बद्ध जाति १९।१७४ सुषमा (पा) अवसर्पिणीका दूसरा काल ७।५८ सुषमादुःषमा (पा) अवसर्पिणीका चौथा काल ७१५८ सुषसादुःषमा (पा) अवसर्पिणीका तीसरा काल ७१५८ सुषमासुषमा (पा) अवसर्पिणीका पहला काल ७१५८
सुषिर
छिद्रसहित वादित्र
बाँसुरी आदि १९/१४२ सुषेण (व्य ) महारोनका पुत्र
४८४१
=
सुसीमा (व्य) अजाखुरीके राजा
राष्ट्रवर्धन की पुत्री ४४।२७ सुसीमा (भौ) विदेहकी एक
नगरी ५।२५९ सुस्थित (व्य) लवणसमुद्रका स्वामी देवविशेष ५४१३९ सुस्थित (व्य ) लवणसमुद्रका देव ५६३७ सुहिताः = तृप्त १९।२० सूर्य (व्य) राजा शालका पुत्र १७।३२
सूर्य ( भी ) वि. द. नगरी
२२।९५
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________________
सूर्य (व्य) राजा वसुका पुत्र
१७।५९
सूर्य (व्य) भगवान् कुन्थुनाथ के पिता ४५|२० सूर्य (भौ) निषध पर्वत से उत्तरकी ओर नदी में स्थित एक ह्रद ५।१९६
सूर्य (व्य) कृष्णका पुत्र ४८।७१ सूर्यक (व्य) त्रिशिखरका पुत्र
२५/४१
सूक्ष्मसाम्पराय (पा) चारित्र - भेद ६४।१८
सूक्ष्मसाम्पराय (पा) दसवाँ गुणस्थान ३८२ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति (पा) शुक्लध्यानका तीसरा भेद ५६।७१ सूतक ( सूदक ) ४।३६५ सूत्र (पा) दृष्टिवाद अंगका एक भेद १०।६१
= पारा
सूत्रकृताङ्ग (पा) द्वादशांगका एक भेद २९२
सूत्रगत (पा) दृष्टिवाद अंगका एक भेद २।९६ सूत्रामणि (व्य) रुचिकगिरिके नित्योद्योतकूटपर रहनेवाली देवी ५।७२० सूपकार = रसोइया २४|१४ सूर (भी) देशविशेष ३५ सूरदेव (व्य) मथुराके भानु और यमुनाका पुत्र ३३.९७ सूरसेन (भौ) देशविशेष ३।४ सूरसेन ( भी ) देशका नाम ११।६४
सूरि (व्य) आचार्य परमेष्ठी
१।२८
सूरिसूर्य कृता लोकं = आचार्यरूपी सूर्यके द्वारा प्रकाशित १ । ५४
शब्दानुक्रमणिका
सूर्पार (भौ) देशका नाम ११।७१ सूर्य (व्य) महेन्द्रविक्रमका पुत्र १३।१०
सूर्यघोष (व्य) कुरुवंशका एक राजा ४५।१४
सूर्यपुर (भी) भगवान नेमिनाथ का जन्मनगर ३८|३० सूर्यप्रज्ञप्ति (पा) परिकर्मभूतका भेद १०।६२
सूर्यप्रभ (व्य) रानी रामदत्ताका जीव सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ २७/७५ सूर्यमाल (भौ ) पश्चिम विदेहका वक्षारगिरि ५।२३२ सूर्याभ (व्य ) गण्यपुरका राजा ३४।१६
सूर्यावर्त (व्य) वि. उ. के प्रभाकरपुरका स्वामी २७।८० सेन (व्य) यादव ५०।१२१ सेन्द्र = देव २।२८. सैतव ( भी ) देशविशेष ११।७५ सोपारक ( भी ) एक नगर ६०।३६
सोम (व्य) देवविशेष ( लोकपाल ) ५।३१७
सोम (व्य) अभिचन्द्रका पुत्र ४८।५२
सोम (व्य) नेमिनाथका प्रथम गणधर ६०।३४८ सोमदत्त (व्य) महापुरका राजा २४/५१ सोमदत्त (व्य ) एक राजा ५०/८४
सोमदत्त (व्य) भगवान् ऋषभदेवका गणधर १२।५६ सोमदत्तसुता (व्य) सोमदत्तकी
पुत्री वसुदेवकी स्त्री ११८४ सोमदत्त (व्य) सोमदेव और सोमिलाका पुत्र ६५/५
९७१
सोमदेव (व्य) एक ब्राह्मण ६४/५ सोमप्रम (व्य) हस्तिनापुरका
राजा ४५॥७
सोमभूति (व्य) एक पुरुष ६४५ सोमयशस् (व्य) सुमित्र तापस
की स्त्री ४२।२५
सोमयशस् (व्य) बाहुबलिका पुत्र १३।१६
सोमश्री (व्य) महापुरके राजा
सोमदत्त की पुत्री २४५२ सोल्व (भौ ) देशका नाम ११।६५ सोमशर्मा (व्य) वाराणसीका
एक ब्राह्मण २१।१३१ सोमश्री (व्य) स्त्री ६४।६ सोमश्री (व्य) चारुदत्तकी स्त्री १८२
सोमश्री (व्य) गिरितटवासी
वसुदेव ब्राह्मणकी पुत्री २३।२९
सोमा (व्य) एक कन्या जो वसु
देवकी स्त्री हुई ११८० सोमा (व्य) सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री जिसे राजकुमारने विवाहा ६०।१२८ सोमा (व्य ) सुग्रीव गन्धर्वाचार्य
की पुत्री १९५५ सोमिनी (व्य) त्रिभुंगपुर के सेठ
प्रियमित्रको स्त्री ४५/१०१ सोमिल (व्य) सोमदेवकी स्त्री
६४५
सोमिल (व्य) एक पुरुष ६४८५ सोमिला (व्य) वाराणसीके
सोमशर्मा ब्राह्मणकी स्त्री २१।१३१
सौकर ( भौ) वि. उ. नगरी
२२॥८७
सौगन्धिककूट (भी) मानुषोत्तर - की पूर्वदिशाका एक कूट
५।६०३
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________________
९७२
सौदास ( व्य ) एक राजा
११८३
सौदास ( व्य ) कांचनपुरके राजा जितशत्रुका २४|१३
पुत्र
सौदामिनी = बिजली ५९/४० सौधर्म (भी) पहला स्वर्ग६।३६ सौधर्म (भी) पहला स्वर्ग८ । १४८ सौन्द कृष्णकी तलवार
=
५३।४९
सौमनसकूट ( भी ) सौमनस्य
पर्वतका एक कूट ५।२२१ सौमनस (भौ) रुचिकगिरिका पश्चिम दिशासम्बन्धी कूट ५।७१३
सौमनस (भौ) मेरुका एक
५/३०८,
सौमनसवन (भौ) मेरु पर्वतका
एक वन ५।२९५
सौमनस्य (भौ) मेरुकी पूर्वदक्षिण दिशामें स्थित एक रजतमय पर्वत ५।२१२ सौमनस्य (भौ) उपरिमग्रैवेयकका द्वितीय इन्द्रक ६।५३ सौमनस ( भी ) वि. उ. नगरी २२।९२
सौराज्य = उत्तम राज्य ५४१३ सौरूप्य = सौन्दर्य २१।४२ सौम्य (भौ ) अनुदिश ६ | ६३ सौम्यरूपक (भौ ) अनुदिश
६।६३
सौवीर (भौ) देशविशेर्ष ३५ सौवीर ( भी ) देशका नाम
११।६७
सौवीरी = मध्यमकी एक मूर्च्छना १९।१६३
सौर्पक (व्य ) एक विद्याधर
राजा २५।६३
सौहित्य = तृप्ति-सुख १६।४५
हरिवंशपुराणे
स्कन्धावार = सेनाका निवेशपड़ाव ११।२७ स्कन्ध (पा) आग्रायणी पूर्वके चतुर्थ प्राभृतका योगद्वार १०१८६
स्तनक ( भी ) शर्करा प्रभा पृथिवीके द्वितीय प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।१०६ स्तनलोलुप (भौ) शर्कराप्रभा पृथिवीके एकादश प्रस्तारका इन्द्रक विल ४।११५ स्तनित = मेघकी गर्जना ३।२३ स्तनितकुमार=भवनवासी देवों
का एक भेद ३।२३ स्तम्भन = विद्यास्त्र २५।४८ स्तरक (भी) शर्कराप्रभा पृथिवी
के प्रथम प्रस्तारका इन्द्रक विल ४|१०५ स्तिमितसागर (व्य ) अन्धकवृष्णि और सुभद्राका पुत्र
१८|१३
स्तुति = चौबीस तीर्थंकरोंका स्तवन ३४।१४३ स्तेनप्रयोग (पा) अचौर्याणुव्रत
व्रतका अतिचार ५८।१७१ स्तेनाहृतादान (पा) अचौर्याणु
व्रतका अतिचार ५८।१७१ स्तोक (पा) सात प्राणोंका एक
स्तोक होता है ७/२० स्थलगता (पा) दृष्टिवाद अंगके चूलिकाभेदका उपभेद
१०।१२३
स्थापनासथ्य (पा) दश प्रकारसे सत्यों में से एक सत्य १०।१००
स्थान = शारीरस्वरका भेद १९।१४८
स्थानाङ्ग (पा) द्वादशांगका एक भेद २९२
-
स्थाने (अ) युक्त — ठीक ३।१९६ स्थिति = ध्रौव्य पूर्व और आगामी दोनों पर्यायों में रहना ३९/७
स्थितिबन्ध (पा) बन्धका एक भेद ५८।२०३
स्थितिभुक्ति (पा) मुनियोंका
एक मूलगुण, खड़े-खड़े आहार लेना २।१२८ स्थिर हृदय (व्य) कुण्डलगिरिके
अंककूटका निवासी देव ५/६९३
स्नातक (पा) मुनिका एक भेद ६०/५८
स्पर्श (पा) आग्रायणी. के चतुर्थ
प्राभृतका योगद्वार १०१८२ स्पर्श- क्रिया (पा) एक क्रिया
५८।७०
स्फटिक (भौ) सौधर्मयुगलक
अठारहवाँ इन्द्रक ६।४६ स्फटिक (भौ) रत्नप्रभाके खरभागका तेरहवाँ पटल ४/५४
स्फटिक ( भी ) रुचिकगिरिका उत्तर दिशासम्बन्धी कूट ५।७१५
स्फटिकक्कूट (भी) मानुषोत्तर की
उत्तर दिशाका कूट५/६०९ स्फटिककूट ( भी ) गन्धमादन
पर्वतका एक कूट ५/२१८ स्फटिक, स्फटिकप्रभ ( भी )
कुण्डलगिरिकी उत्तर दिशासम्बन्धी कूट ५। ६९४ स्फटिकसाल (पा) स्फटिकमणि
से बना हुआ समवसरणका तीसरा कोट ५७/५६ स्फुट (व्य ) जरासन्धका पुत्र ५२।३३
स्फुटिक (भी) अनुदिश ६ | ६४
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स्मितयशस् (व्य) अर्ककीर्तिका पुत्र १३ ॥७
स्मृत्यनुपस्थान (पा) सामायिक व्रतके अतिचार ५८|१८० स्मृत्यन्तराधान (पा) दिग्वतका अतिचार ५८।१७७ स्त्रोतोऽन्तर्वाहिनी (भौ) विदेह की
एक विभंगा नदी ५।२४१ स्वपाक = दिति देवीके द्वारा प्रदत्त विद्या निकाय
२२।५९ स्वप्न (पा) अष्टाग निमित्तज्ञानका एक भेद १०।११७ स्वयंप्रभ ( भौ) रुचिकगिरिका पश्चिम दिशासम्बन्धी एक विशिष्ट कूट ५।७२० स्वयंप्रभ (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०१५५८ स्वयंप्रभविमान (भौ ) सोमलोकपालका विमान ५।३२३ स्वयंप्रभा (व्य) धनद = कुबेर की स्त्री ६०/५०
स्वयंप्रभा (व्य ) सत्यभामाकी माता ६०।२२
स्वयंप्रभा (पा) समवसरण के आम्रवनकी वापिका५७।३५ स्वयंप्रभा (व्य) स्तिमितसागरकी स्त्री १९।३
स्वयंभू (व्य) कुन्थुनाथ का प्रथम गणधर ६०।३४८
स्वयंभू (व्य) पार्श्वनाथका प्रथम गणधर ६०।३४९ स्वयंभू (व्य) आगामी तीर्थंकर ६०१५६१
स्वयंभू (व्य) तीसरा नारायण
६०।२८८
स्वयंभू ( व्य ) विदेह के एक तीर्थंकर २०१७ स्वयंभूरमणद्वीप (भी) अन्तिम
शब्दानुक्रमणिका
सोलह द्वीपों में सोलहवाँ द्वीप ५६२५ स्वयंभूरमणसमुद्र (भी) सबसे अन्तिम समुद्र ५।६२६ स्वयंप्रभ (व्य) विदेहके एक तीर्थंकर ३४१३६ स्वयंप्रभगिरि (भौ) स्वयम्भूरमण
द्वीप मध्य में स्थित वलयाकार एक पर्वत ५७३० स्वर = वैणस्वरका एक भेद १९।१४७
स्वर = शारीर स्वरका भेद
१९।१४८
|स्वर = पदगत गान्धर्वको विधि १९।१४९
स्वर (पा) अष्टांगनिमित्त ज्ञान
का एक अंग १०।११७ स्वरित= वेद में प्रयुक्त होनेवाला स्वरविशेष ( समाहारः स्वरितः ) १७१८७ स्वर्गी = देव १८११७० स्वर्णनाभ (हिरण्यनाभ) (व्य)
राजा रुधिरका पुत्र ३१।६२ स्वर्णनाम (व्य ) पद्मावतीका
पिता ६०।१२१
स्वर्णनाभ ( भौ) वि. द. नगरी २२/९५
स्वर्णबाहु (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२/३६
स्वर्णाभपुर (व्य ) विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर २४/६९ स्वस्तिकनन्दन ( भौ) रुचिक
गिरिका कूट ५।७०६ स्वस्तिक (भौ) रुचिकगिरिकी दक्षिण दिशाका कूट ५।७०२
स्वस्तिक (भौ) मेरुसे दक्षिणकी ओर सीतोदा नदीके पूर्व
९७३
तटपर स्थित एक कूट ५२०६
स्वस्तिक (व्य ) कुण्डलगिरिके मणिप्रभ कूटका निवासी देव ५१६९३ स्वस्तिक कूट ( भी ) विद्युत्प्रभ
पर्वतका एक कूट ५२२२ स्वस्तिमती (व्य ) क्षीर कदम्ब - की स्त्री १७।३८
स्वस्थ (व्य ) उग्रसेनके चाचा
शान्तनका पुत्र ४८ ४० स्वस्त्रीय = बहनका लड़का,
भानजा ४८७३
स्वहस्तक्रिया (पा) एक क्रिया
५८।७४
स्वहस्तिन् (व्य ) रुचिकगिरिके स्वस्तिक कूटपर रहनेवाला
देव ५७०२ स्वहिण्डवाख्यानं परिभ्रमणका १।१०३
=
अपने
वृत्तान्त
स्वाङ्गुल (पा) अपना-अपना अंगुल ७४४ स्वाति (व्य) मानुषोत्तर के तप
नीयक कूटपर रहनेवाला देव ५६०६ स्वाति (व्य ) हैमवत क्षेत्रके नाभिगिरिपर रहने वाला व्यन्तर देव ५।१६४ स्वाध्याय = शास्त्राध्ययन करते
हुए अपनी आत्माका
अध्ययन करना १।६९ स्वायम्भुव (व्य ) ऋषभदेवका
गणधर १२।६४
स्वार्थसम्पन्न (वि) आत्महितसे
युक्त १९ स्वस्थिता (व्य) रुचिकगिरिके
अमोघ कूटपर रहनेवाली देवी ५।७०८
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९७४
[ह]
हंस = बत्तखके आकारका एक जलपक्षी, जो बड़ी-बड़ी झीलोंमें रहता है ८।१४४ हंसगर्भ (भी) विजयार्धके उत्तरश्रेणीकी एक नगरी २२ ।९१ हरि (व्य) राजा आर्य और
मनोरमाका पुत्र १५ ।५७ हरि (व्य) कृष्ण ३५।२२ हरि = मर्कट ५५।११७
हरि = सिंह ५५।११७
हरि = विष्णु ५५।११७ हरि = इन्द्र ५५।११७ हरिकण्ठ (व्य) दूसरा प्रति
नारायण ६० ५६९ हरिचन्द्र (व्य) कृष्णचन्द्र ५४।७३ हरिक्षेत्र (भौ) जम्बूद्वीपके सात
क्षेत्रों में एक क्षेत्र ५।१३ हरिकण्ठ (व्य) हयग्रीवका दूसरा मन्त्री २८|४३ हरिण = हिरनकी एक जाति ८।१३७
हरिकान्त (भौ ) महाहिमवान् के आठ कूटोंमें से एक कूट ५।७२
हरिकान्ता ( भी ) महापद्महदसे निकली हुई एक नदी
५।१३३
हरित् (भौ) जम्बूद्वीपकी एक
नदी ५।१२३ हरिवर्ष ( भो ) महाहिमवान् के
आठ कूटों में से एक कूट ५।७२
हरिद्वती (भी) विजयार्धके दक्षिण
श्रेणीकी एक नदी २७।१३ हरिवर्ष ( भी ) निषध पर्वतके नौ
कूटों में से एक कूट ५।८८ हरिषेण (व्य) मिथिलाके राजा देवदत्तका पुत्र १७।३४
हरिवंशपुराणे
= भगवान् नेमिनाथका वंश १।७१
हरिवंश
हरिवंश = जैनपुराण १।५१ हरिविष्टर सिंहासन ३८|१६ हरिशक्तिः = हरेः सिंहस्येव शक्तिर्यस्य सः ३६।४३ हरिश्चन्द्र (व्य) आगामी नौ बलभद्रों में से पाँचवाँ बलभद्र ६०।५६८ हरिषेण (व्य) दसवाँ चक्रवर्ती ६०/५१२ हरिषेणा (व्य) अयोध्या के राजा श्रीषेणकी श्रीकान्ता स्त्रीसे उत्पन्न कन्या ६४।१३० हरिश्मश्रु (व्य) राजा अश्वग्रीवका मन्त्री २८|३२ हरिश्मश्रु (व्य) राजा विनमिका
=
पुत्र २२।१०४ हरिचन्द्र ( व्य ) एक मुनि २७१८३
हरिसह कूट ( भी ) विद्युत्प्रभ पर्वतपर स्थित नौ कूटोंमेंसे एक कूट ५। २२३ हरिसह कूट ( भी ) माल्यवान् पर्वत पर स्थित नौ कूटों में एक कूट ५।२२० हस्तिनायक ( भी ) विजयार्ध के उत्तर श्रेणीकी एक नगरी
२२८७
हस्तन्यास = धरोहर १७/७९ हस्तसंवाहन हाथ दबाना
८४६
हस्तप्रहेलिका ( भी ) चौरासी शिरः प्रकम्पितों की एक हस्तप्रहेलिका होती है
लाख
७।३०
हलधर = बलभद्र २५।३५ हलभृद् (व्य) बलदेव ३६ । १६ हलायुध (व्य) बलदेव ३५/६२
हली (व्य) बलभद्र ११२७ हायन = वर्ष ५२।२०
हार = एक आभूषण ७१८९ हारिद्र ( भी ) इकतीस पटलों मेंसे एक पटल ६।४६ हारी (व्य) इन्द्रका आज्ञाकारी एक देव ३३।१६९ हारी = एक विद्या २२/६३ हास्तिन ( भी ) विजयार्ध के उत्तर
श्रेणीकी एक नगरी २२१८७ हास्तिविजय (भौ) विजयार्ध के उत्तर श्रेणीकी एक नगरी २२।८९ हास्तिनपुराधीश हस्तिनापुरका राजा १२।१० हिंसा = प्रमत्तयोगात् प्राणपरोपणं हिंसा ( त. सू. ७।१३) ५८।१२७ हिंसाव्युदास - हिंसाका त्याग १७।१६४
हिउम्ब ( व्य ) विन्ध्याचलके
सन्ध्याकार नामक नगरका एक वंश ४५।११४ हिमवान् (व्य) अन्धकवृष्णिका
सुभद्रा से उत्पन्न पुत्र १८ १३ हिमपुर (भी) विजयार्ध के दक्षिण
श्रेणीकी नगरी २२।९८ हिमवान् (भौ) जम्बूद्वीपका एक
पर्वत ५।१५
हिमष्टि (व्य) वसुदेवमदनवेगा
का पुत्र ४८।६१ हिमवत् (व्य ) एक राजा
४८१४७
हिमवान् (व्य) जरासन्धका पुत्र
५२/३५
हिमशीकर = बरफके कण १५।३ हिमवत कूट ( भी ) हिमवत् कुलाचलके ग्यारह कूटोंमें से
एक कूट ५४५३
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हिरण्यगर्भ (व्य) हिरण्यं गर्भे
यस्य सः=भगवान् ऋषभदेवका एक नाम ८ २०६ हिरण्यनाभ (व्य ) एक यादव महारथी राजा ५० /७९ हिरण्यवती (व्य ) हिडम्बवंशके राजा सिंहघोष और रानी सुदर्शनाकी पुत्री ४५।११५ हिरण्यवती (व्य ) राजा अतिबल और उसकी रानी श्रीमती. की पुत्री २२।१३० हिरण्यवर्मा (व्य) जयकुमारके पूर्वभवका नाम १२।१३ हुण्डकसंस्थान (पा) एक संस्थान
४।३६८ हुताशन = अग्नि १५ ३० हृदिक (व्य) राजा वृषमित्रका पुत्र ४८।४१ हृषीकेश (व्य जरासन्धका एक पुत्र ५२०३६
शब्दानुक्रमणिका
हृष्यका = स्वरग्रामकी एक मूर्च्छना १९।१६४ हृध्यकान्ता = स्वरग्रामकी एक मूर्च्छना १९।१६७
हेतु
= कारण ७।१४
हेला = क्रीडा ३६।३७ हेमवेत्रकर= सोनेकी छड़ी हाथमें लेकर ८४५३
हैडिम्ब = हिडम्ब वंशसम्बन्धी ४५।११८ हैम (पा) पाँच वर्णके मणियों में - से एक मणि ७।७२ हैमवत कूट ( भी ) महा हिमवान् पर्वत आठ कूटों में से एक कूट ५।७२ हैमासन ८।७०
स्वर्णमय सिंहासन
=
हैयङ्गवीन = नवनीत १८ १६२ हैरण्यवत कूट ( भी ) शिखरी पर्वतके अग्रभागपर स्थित एक कूट ५।१०६
९७५
हैरण्यवत कूट ( भी ) रुक्मी पर्वत - के अग्रभागमें स्थित एक कूट ५।१०३ हैरण्यवत (भौ) जम्बूद्वीपके सात
क्षेत्रों में से एक क्षेत्र ५।१४ हैमवत ( भी ) जम्बूद्वीपके सात
क्षेत्रों में एक क्षेत्र ५।१३ हदवती (व्य) नील पर्वत से निकली हुई एक नदी ५।२३९ ही (व्य) पद्मसरोवर की एक देवी ५।१३०
ही ( व्य उत्तर दिशाके आठ कूटों में से छठे कुण्डल कूटपर स्थित एक देवी ५।७१६ कूट (भी) महाहिमवान् पर्वतके आठ कूटों में से एक कूट ५।७२
हीकूट ( भी ) निषध पर्वत के नी
कूटों में से एक कूट ५।८९ होमन्त ( भी ) एक पर्वत २२।१४३
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भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पुराण, चरित एवं अन्य काव्य-ग्रन्थ आदिपुराण (संस्कृत, हिन्दी ) : (दो भागों में) - आचार्य जिनसेन
सम्पा. - अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य उत्तरपुराण (संस्कृत, हिन्दी ) : आचार्य गुणभद्र
सम्पा. - अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य पद्मपुराण (संस्कृत, हिन्दी ) : (तीन भागों में) - आचार्य रविषेण
सम्पा. -अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य हरिवंशपुराण (संस्कृत, हिन्दी ) : आचार्य जिनसेन
सम्पा. - अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य समराइच्चकहा (प्राकृत, हिन्दी ) : (दो भागों में) - हरिभद्र सूरि
अनु. : डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर कथाकोष (संस्कृत) : पण्डिताचार्य सम्पा. : डॉ. आ.ने. उपाध्ये
धर्मशर्माभ्युदय (संस्कृत, हिन्दी ) : महाकवि हरिचन्द्र सम्पा. अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य पुरुदेव चम्पू (संस्कृत, हिन्दी) : महाकवि अर्हद्दास
सम्पा. -अनु. : डॉ. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य वीरजिगिंदचरिउ (अपभ्रंश, हिन्दी ) : कवि पुष्पदन्त सम्पा. - अनु. : डॉ. हीरालाल जैन महापुराण (अपभ्रंश, हिन्दी) : (पाँच भागों में)
- कवि पुष्पदन्त
अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
पज्जुण्णचरिउ (प्रद्युम्नचरित) (अपभ्रंश, हिन्दी ) - महाकवि सिंह
सम्पा. - अनु. : डॉ. विद्यावती जैन वड्ढमाणचरिउ (अपभ्रंश, हिन्दी ) : विबुध श्रीधर सम्पा. - अनु. : डॉ. राजाराम जैन जसहरचरिउ (अपभ्रंश, हिन्दी ) कवि पुष्पदन्त
सम्पा. - अनु. : डॉ. हीरालाल जैन सिरिवालचरिउ ( अपभ्रंश, हिन्दी ) नरसेन देव
सम्पा. -अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन पउमचरिउ ( अपभ्रंश, हिन्दी) : (पाँच भागों में)
- महाकवि स्वयम्भू
सम्पा. -अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
रिट्ठणेमिचरिउ (अपभ्रंश, हिन्दी ) : महाकवि स्वयम्भू सम्पा. -अनु. : डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन
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भारतीय ज्ञानपीठ
स्थापना सन् 1944 उद्देश्य
ज्ञान की विलुप्त, अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण
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स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन
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जैन
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