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In the Harivamsha Purana, There are three types of Dravyarthic Nayas, which are general in scope. There are four other types of Paryayarthic Nayas, which are specific in scope. ||42|| The Nay that accepts only the concept of an object is called Naigam Nay. Examples of this are Prastha and Odan. ||43|| The Nay that accepts all objects by bringing together their various aspects and synonyms is called Sangrah Nay. For example, Sat or Dravy. ||44|| The Nay that differentiates objects is called Vyavahar Nay. It takes the objects of Sangrah Nay, such as Sat, Dravy, and Guna, and differentiates them further. ||45|| The Nay that accepts only the present aspect of an object, ignoring its past and future aspects, is called Rijusutra Nay. ||46|| The Nay that is based on the meaning of words, and considers factors like gender, means, number, case, tense, and modifiers, is called Shabd Nay. ||47||
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________________ हरिवंशपुराणे यो द्रव्यार्थिकस्याद्या भेदाः सामान्यगोचराः । स्युः पर्यायार्थिकस्यान्ये विशेषविषया नयाः ॥४२॥ अर्थसंकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । उदाहरणमस्येष्ठं प्रस्थौदनपुरस्सरम् ॥४३॥ 'आक्रान्तभेदपर्यायमेकध्यमुपनीय यत् । समस्तग्रहणं तत्स्यात्सद्द्रव्यमिति संग्रहः ॥ ४४ ॥ 'संग्रहाक्षिप्तसत्ता देवहारो विशेषतः । व्यवहारो यतः सत्तां नयत्यन्तविशेषताम् ॥४५ ॥ "वक्रं भूतं भविष्यन्तं त्यक्त्वर्जुसूत्रपातवत् । वर्तमानार्थपर्यायं सूत्रयन्नृजुसूत्रकः ॥४६॥ "लिङ्गसाधनसंख्यानका लोपग्रहसङ्करम् । यथार्थशब्दनाच्छन्दो न वष्टि ध्वनितन्त्रकः ॥४७॥ ६६४ एवंभूतये सात नय हैं ॥ ४१ ॥ इनमें प्रारम्भके तीन नय द्रव्यार्थिक नयके भेद हैं और वे सामान्यको विषय करते हैं तथा अवशिष्ट चार नय पर्यायार्थिक नयके भेद हैं और वे विशेषको विषय करते हैं ||४२ || पदार्थंके संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नय नैगम नय कहलाता है । प्रस्थ तथा ओदन आदि इसके स्पष्ट उदाहरण हैं । भावार्थ- जो नय अनिष्पन्न पदार्थके संकल्पमात्रको विषय करता है वह नैगम नय कहलाता है, जैसे कोई प्रस्थकी लकड़ी लेनेके लिए जा रहा है उससे कोई पूछता है कि कहाँ जा रहे हो, तो वह उत्तर देता है कि प्रस्थ लेने जा रहा हूँ । यद्यपि जंगलमें प्रस्थ नहीं मिलता है वहांसे लकड़ी लाकर प्रस्थ बनाया जाता है तथापि नेगम नय संकल्प मात्रका ग्राहक होनेसे ऐसा कह देता है कि प्रस्थ लेनेके लिए जा रहा हूँ । इसी प्रकार कोई ओदन - भात बनाने के लिए लकड़ी, पानी आदि सामग्री इकट्ठी कर रहा है उस समय कोई पूछता है कि क्या कर रहे हो ? तो वह उत्तर देता है कि ओदन बना रहा हूँ । यद्यपि उस समय वह ओदन नहीं बना रहा है तथापि उसका संकल्प है इसलिए नैगम नय ऐसा कह देता है कि ओदन बना रहा हूँ ||४३|| अनेक भेद और पर्यायोंसे युक्त पदार्थको एकरूपता प्राप्त कराकर समस्त पदार्थका ग्रहण करना संग्रह नय है; जैसे सत् अथवा द्रव्य । भावार्थ- संसारके पदार्थ अनेक रूप हैं उन्हें एकरूपता प्राप्त कराकर सत् शब्दसे कहना । इसी प्रकार जीव, अजीव आदि अनेक भेदोंसे युक्त पदार्थोंको 'द्रव्य' इस सामान्य शब्दसे कहना यह संग्रह नय है || ४४|| भेद करना व्यवहार नय है, तक ले जाता है । भावार्थकि वह सत्, द्रव्य और गुणके संग्रह नयके विषयभूत सत्ता आदि पदार्थोंके विशेष रूपसे क्योंकि व्यवहार नय सत्ताके भेद करता-करता उसे अन्तिम भेद जैसे संग्रह नयने जिस सत्को ग्रहण किया था व्यवहार नय कहता है भेदसे दो प्रकारका है । अथवा संग्रह नयने जिस द्रव्यको विषय किया था व्यवहार नय कहता है कि उस द्रव्य जीव और अजीवके भेदसे दो भेद हैं। इस प्रकार यह नय पदार्थ में वहाँ तक भेद करता जाता है जहाँ तक भेद करना सम्भव है ||४५ || पदार्थकी भूत-भविष्यत् पर्यायको वक्र और वर्तमान पर्यायको ऋजु कहते हैं । जो नय पदार्थको भूत-भविष्यत्रूप वक्र पर्यायको छोड़कर सरल सूत्रपातके समान मात्र वर्तमान पर्यायको ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय कहलाता है । भावार्थ - इसके सूक्ष्म और स्थूल के भेदसे दो भेद हैं । जीवकी समय-समय में होनेवाली पर्यायको ग्रहण करना सूक्ष्म ऋजुसूत्र नयका विषय है और देव, मनुष्य आदि बहुसमयव्यापी पर्यायको ग्रहण करना स्थूल ऋजुसूत्र नयका विषय है ||४६ || यौगिक अर्थका धारक होनेसे शब्द नय, लिंग, साधन - कारक, संख्या - वचन, काल और उपग्रह १. पढमतया दव्त्रत्थी पज्जयगाही य इयरजे भणिया । ते चदु अत्यपधाणा सपधाणा हु तिष्णियरा ॥ न च । २. अनभिनिवृत्तार्थ संकल्पमात्र ग्राही नैगमः । ३ स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रह्णसंग्रहः । * संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः । ५. ऋजु प्रगुणं सृत्रयति तन्त्रयते इति ऋजुः । ६. लिङ्गसंख्या साधनादि - व्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दकम् । ७. आकाङ्क्षति 'वष्टि भागुरिल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ' प्रयोगः । वृष्टि - क., ङ. ग. । ८. शब्दशास्त्राधीनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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