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1. Kamavegotpannam (born of the force of Kama) 2. Samasurkha gaja ma. (the elephant-like Madanavega) 3. Vidyadhara (celestial being) 4. Jinasenacarya (Jain scholar) 5. Harivamsapurana (Harivamsha Purana) 6. Madanavega (Madanavega)
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________________ ३५० हरिवंशपुराणे तदनन्तरमाकीर्ण खेचरैर्नमसस्तलम् । पुष्पाणि पञ्चवर्णानि मुञ्चद्भिः प्रणतैः पुरः ॥४२॥ प्रवेशितः पुरं सोऽथ रथेन रविरोचिषा । तूर्यशङ्खनिनादेन पूरिताखिल दिङ्मुखम् ॥४३॥ कन्यां मदनवेगां च मदनोपमविभ्रमः । उपयेमे मुदा दत्ता खगैर्दधिमुखादिभिः ॥८॥ बिभ्राणो वसुदेवोऽत्र भावं मदनवेगजम् । चिक्रीड निविडस्तन्या चिरं मदनवेगया ॥४५॥ द्रुतविलम्बितवृत्तम् अनुमवन्तममुं जिनधर्मजं शमनुषङ्ग जे मङ्गजगोचरम् । रतिषु लब्धवरा वरमङ्गना जनकबन्धविमोक्षमयाचत ॥८६॥ इति अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती मदनवेगालाभवर्णनो नाम चतुर्विशतितमः सर्गः ॥२४॥ वसुदेवको प्रणाम कर चला गया और एक विद्याधर कन्या उन्हें विजयाध पर्वतपर ले गयी ।।८।। उनके वहाँ पहुँचते ही आकाश विद्याधरोंसे व्याप्त हो गया। वे विद्याधर उस समय पांच रंगके फूलोंकी वर्षा कर रहे थे तथा सामने आ-आकर प्रणाम करते थे ।।८२।। तदनन्तर उन विद्याधरोंने सूर्यके समान देदीप्यमान रथपर बैठाकर वसुदेवका नगरमें प्रवेश कराया। उस समय तुरही और शंखोंके शब्दसे दशों दिशाएँ भर गयी थीं ।।८३।। वहाँ कामदेवके समान सुन्दर शरीरके धारक वसुदेवने, दधिमुख आदि विद्याधरोंके द्वारा प्रदत्त मदनवेगा नामक कन्याके साथ हर्षपूर्वक विवाह किया ।।८४।। और वहीं रहकर कामके वेगसे उत्पन्न भावको धारण करते हुए वसुदेवने पोनस्तनी मदनवेगाके साथ चिरकाल तक क्रीड़ा को ||८५|| कदाचित् कुमार वसुदेव, जिनधर्मके प्रसादसे मदनवेगाके साथ कामजनित सुखका उपभोग कर रहे थे कि रतिकालमें मदनवेगाने उन्हें अत्यन्त आनन्द दिया इसलिए प्रसन्न होकर उन्होंने मदनवेगासे कहा कि 'प्रिये ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ जो वर माँगना हो मांगो।' इस प्रकार वह वर पाकर मदनवेगाने उनसे यही वर माँगा कि हमारे पिता बन्धनमें पड़े हैं सो उन्हें छुड़ा दीजिए ।।८।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रहसे युक्त जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मदनवेगाके लाभका वर्णन करनेवाला चौबीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२४॥ १. कामवेगोत्पन्नं । Jain Education International २. समसुर्ख गज म.। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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