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## The Tenth Chapter
The tenth chapter describes ten, fourteen, eight, eighteen, twelve, twelve, sixteen, twenty, thirty, fifteen, ten, ten, ten, and ten objects respectively. Each object has twenty *prābhūtas* (constituents).
The first *pūrva* (section) is called *utpādapūrva* and has one crore (ten million) *padas* (words). It describes the production, destruction, and *dhrauvya* (substance) of *dravya* (matter).
The second *pūrva* is called *āgrāyanīyapūrva* and has ninety-nine lakh (nine hundred and ninety thousand) *padas*. It describes the seven *tattva* (principles) and nine *padārtha* (categories) according to one's own opinion.
The fourteen objects of the *āgrāyanīyapūrva* are:
1. *Pūrvānta* (beginning)
2. *Aparānta* (end)
3. *Dhruva* (permanent)
4. *Adhruva* (impermanent)
5. *Acyavana Labdhi* (unavoidable gain)
6. *Adhruva Sampraṇadhi* (impermanent connection)
7. *Kalpa* (time period)
8. *Artha* (meaning)
9. *Bhaumāvay* (earthly existence)
10. *Sarvārthakalpaka* (all-meaningful)
11. *Nirvāṇa* (liberation)
12. *Atītānagata* (past and future)
13. *Siddhā* (liberated soul)
14. *Upādhyāya* (teacher)
The fifth object of the *āgrāyanīyapūrva* has twenty *prābhūtas*. The fourth *prābhūta* is called *karma-prakriti* and has twenty-four *yoga-dvāra* (paths to liberation):
1. *Kriti* (action)
2. *Vedana* (feeling)
3. *Sparśa* (touch)
4. *Karma* (action)
5. *Prakriti* (nature)
6. *Bandhana* (bondage)
7. *Nibandhana* (attachment)
8. *Prakrama* (beginning)
9. *Upakrama* (approach)
10. *Udaya* (arising)
11. *Mokṣa* (liberation)
12. *Samkrama* (transition)
13. *Leśyā* (subtle karma)
14. *Leśyākarma* (action of subtle karma)
15. *Leśyāpariṇāma* (transformation of subtle karma)
16. *Sātāsāta* (simultaneous)
17. *Dīrghahasva* (long and short)
18. *Bhava-dhāraṇa* (maintenance of existence)
19. *Pudgala-ātmā* (soul-matter)
20. *Nidhattanidhattaka* (giving and receiving)
21. *Sanikācita* (collected)
22. *Anikācita* (uncollected)
23. *Karma-sthiti* (state of karma)
24. *Skandha* (aggregate)
The *hina-adhikya* (lesser and greater) of all subjects should be understood according to their respective *yoga-dvāra*.
The differences in objects, *prābhūtas*, and *anuyoga* (applications) of other *pūrvas* should be understood according to the *āgama* (scripture).
The third *pūrva* is called *vīryānu-pravāda* and has seventy lakh (seven million) *padas*. It describes the extraordinary power of *satpuruṣa* (righteous beings).
The fourth *pūrva* is called *asti-nāsti-pravāda* and has sixty lakh (six million) *padas*. It describes the existence of *jīva* (soul) and other *dravya* (matter) and the non-existence of the four *paracatuṣṭaya* (external categories).
The fifth *pūrva* is called *jñāna-pravāda* and has one crore minus one *padas*. It describes the five types of *jñāna* (knowledge) and the five *guṇa* (qualities).
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दशमः सर्गः दश चतुर्दशाष्टौ चाष्टादश द्वादश द्वयोः । दशषड्विंशतिस्त्रिंशत्तत्तत्पञ्चदशैव तु ॥७३॥ दशैवोत्तरपूर्वाणां चतुणां वर्णितानि वै । प्रत्येकं विंशतिस्तेषां वस्तूनां प्राभृतानि तु ॥७॥ पूर्वमुपादपूर्वाख्यं पदकोटीप्रमाणकम् । द्रव्यध्रौव्यव्ययोत्पादत्रयव्यावर्णनात्मकम् ॥७५॥ लक्षाः षण्णवतियंत्र पदानां तेन दृष्टयः । वर्ण्यन्तेऽप्रायणीयेन स्वमतानपदानि तु ॥७॥ अग्रायणीयपूर्वस्य यान्युकानि चतुर्दश । विज्ञातव्यानि वस्तूनि तानीमानि यथाक्रमम् ।।७७॥ पूर्वान्तमपरान्तं च ध्रुवमध्रुवमेव च । तथाच्यवनलब्धिश्च पञ्चमं वस्तु वर्णितम् ॥७८॥ अध्वं संप्रणयन्तं कल्पाश्चार्थश्च नामतः । मौमावयाद्यमित्यन्यत् तथा सर्वार्थकल्पकम् ॥७९॥ निर्वाणं च तथा ज्ञेयातीतानागतकल्पता । सिद्धयाख्यं चाप्युपाध्याख्यं ख्यापितं वस्तु चान्तिमम् ॥८॥ वस्तुनः पञ्चमस्यात्र चतुर्थे प्राभृते पुनः । कर्मप्रकृतिसंज्ञे तु योगद्वाराण्यमूनि तु ॥८१॥ कृतिश्च वेदनास्पर्शः कर्माख्यं च पुनः परम् । प्रकृतिश्च तथैवान्यद् बन्धनं च निबन्धनम् ।।८२॥ प्रक्रमोपक्रमौ प्रोक्तावुदयो मोक्ष एव च । संक्रमश्च तथा लेश्या लेश्याकर्म च वणितम् ॥८३॥ लेश्यायाः परिणामश्च सातासातं तथैव च । दीर्घहस्वमपि तथा भवधारणमेव च ॥८॥ पुद्गलात्मामिधानं च तन्निधत्तानिधत्तकम् । सनिकाचितमित्यन्यदनिकाचितसंयुतम् ॥८५|| कर्मस्थितिकमित्युक्तं पश्चिम स्कन्ध एव च । समस्तविषयाधीना बोध्याल्पबहुता तथा ।।८६॥ अन्येषामपि पूर्वाणां वस्तुषु प्राभृतेषु च । अनुयोगेषु चान्येषु भेदो ग्राह्यो यथागमम् ॥८७॥ । पदानां सप्ततिर्लक्षा यत्र वर्णयति स्फुटम् । तद्वीर्यानुप्रवादाख्यं वीर्य वीर्यवतां सताम् ॥८॥ अस्तिनास्तिप्रवादं च यत्पष्टिपदलक्षकम् । जीवाद्यस्तित्वनास्तित्वं स्वपरादिमिराह तत् ।।८९॥ एकोनपदकोटीकं यत्तद्वर्णयति श्रुतम् । पूर्व ज्ञानप्रवादाख्यं ज्ञानं पञ्चविधं गुणः ॥१०॥
चौथा भेद पूर्वगत कहा जाता है उसके उत्पाद आदि चौदह भेद हैं और प्रत्येक भेदमें निम्न प्रकार वस्तुओंकी संख्या जाननी चाहिए ।।७२।। उन भेदोंमें क्रमसे दश, चौदह, आठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दश, दश, दश और दश वस्तुएं हैं तथा प्रत्येक वस्तुके बीसबीस प्राभूत होते हैं ॥७३-७४। पहला उत्पादपूर्व है उसमें एक करोड़ पद हैं तथा द्रव्योंके उत्पादव्यय और ध्रौव्यका वर्णन है ।।७५|| दूसरा आग्रायणीय पूर्व है उसमें छियानबे लाख पद हैं तथा स्वमत सम्मत सात तत्त्व नव पदार्थ आदिका वर्णन है ॥७६॥ पहले आग्रायणीय पूर्वकी जिन चौदह वस्तुओंका कथन किया गया है उनके नाम यथाक्रमसे इस प्रकार जानना चाहिए ||७७|| १ पूर्वान्त, २ अपरान्त, ३ ध्रुव, ४ अध्रुव, ५ अच्यवन लब्धि, ६ अध्रुव सम्प्रणधि, ७ कल्प, ८ अर्थ, ९ भौमावय, १० सर्वार्थकल्पक, ११ निर्वाण, १२ अतीतानागत, १३ सिद्ध और १४ उपाध्याय ॥७८-८०|| आग्रायणीय पूर्वकी पंचम वस्तुके बीस प्राभृत (पाहुड़) हैं। उनमें कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृतमें निम्नलिखित चौबीस योगद्वार हैं ।।८१॥ १ कृति, २ वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५ प्रकृति, ६ बन्धन, ७ निबन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११ मोक्ष, १२ संक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १५ लेश्यापरिणाम, १६ सातासात, १७ दोघहस्त्र, १८ भवधारण, १९ पुदगलात्मा, २०निधत्तानिधत्तक, २१ सनिकाचित, २२ अनिकाचित, २३ कर्मस्थिति और २४ स्कन्ध । इन योगद्वारोंमें समस्त विषयोंकी हीनाधिकता यथायोग्य जाननी चाहिए ।।८२-८६।। अन्य पूर्वोकी वस्तु, प्राभृत तथा अनुयोग आदिका भेद आगमके अनुसार जानना चाहिए ॥७॥ जिसमें सत्तर लाख पद हैं ऐसा तीसरा वीर्यानुप्रवाद नामका पूर्व अतिशय पराक्रमी सत्पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन करता है ॥८८॥ जिसमें साठ लाख पद हैं ऐसा चौथा अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व स्वचतुष्टयकी अपेक्षा जीवादि द्रव्योंके अस्तित्व और पर-चतुष्टयकी अपेक्षा उनके नास्तित्वका कथन करता है ।।८९|| एक कम एक करोड़ पदोंसे सहित जो पांचवाँ ज्ञानप्रवाद नामका पूर्व है वह पांच
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