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In the Harivamsha Purana: **Verse 271:** That which gives rise to a pleasing voice is called the **Susvara Karma**. That which is the cause of an unpleasant voice is called the **Dushvara Karma**. **Verse 272:** That which makes the body beautiful is called the **Shubha Karma**. That which is the cause of extreme ugliness is called the **Ashubha Karma**. **Verse 273:** That which is the cause of the subtle body is called the **Sookshma Karma**. That which is the cause of a body that hinders others is called the **Badara Karma**. **Verse 274:** That which is the cause of the fulfillment of needs like food, etc. is called the **Paryapta Karma**. Wise ones have said that there are six types of this: **Aahara Paryapta**, **Sharira Paryapta**, **Indriya Paryapta**, **Shwasoচ্ছ্বাস Paryapta**, **Bhasha Paryapta**, and **Mana Paryapta**. **Verse 275:** That which is the cause of the lack of these six needs (food, body, breath, senses, speech, and mind) is called the **Aparyapta Karma**. **Verse 276:** That which is the cause of the stability of the elements and sub-elements is called the **Sthira Karma**. That which is the cause of instability is called the **Asthira Karma**. That which is the cause of a radiant body is called the **Aadeya Karma**. That which is the cause of a non-radiant body is called the **Anaadeya Karma**. **Verse 277:** That which is the cause of the fame of virtuous qualities is called **Yasho Kirti**. That which is the cause of the opposite, infamy, is called **Ayasha Kirti**.
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________________ हरिवंशपुराणे मनोज्ञस्वरनिर्वृत्तिर्यतः सुस्वरनाम तत् । अनिष्टस्वर हेतुर्यत्प्रोक्तं दुःस्वरनाम तत् ॥ २७१॥ यतस्तु रमणीयत्वं शुभनाम तदीरितम् । अतिवैरूप्यहेतुश्च नामाशुभमशोभनम् ॥ २७२॥ 'यत्तु सूक्ष्मशरीरस्य कारणं सूक्ष्म नाम तत् । परवाधा कृतो हेतुः शरीरस्य तु बादरः ॥ २७३ यदाहारादिपर्याप्तिभेदनिर्वृतिकारणम् । पर्याप्तिनाम तन्नाम्ना षड्विधमुदितं बुधैः ॥ २७४॥ आहारस्य शरीरस्य प्राणापानेन्द्रियस्य च । पर्याप्त्यमावहेतुस्तु भाषाया मनसोऽपरम् ॥ २७५॥ कारणं स्थिरभावस्य स्थिरमस्थिरमन्यथा । नामादेयमनादेयं सप्रभाप्रमदेहकृत् ॥ २७६॥ हेतुः पुण्यगुणाख्यातेः यशः कीर्तिरितीर्यते । अयशः कीर्तिनामापि तद्विपर्यासकारणत् ॥ २७७॥ ६८८ अप्रीति उत्पन्न करनेवाला हो वह दुर्भाग नाम कर्म है || २७० || जिससे मनोज्ञ स्वरकी रचना होती है वह सुस्वर नाम कर्म है । जो अनिष्ट स्वरका कारण है वह दुःस्वर नाम कर्म है || २७१ || जिससे शरीरमें रमणीयता प्रकट होती है वह शुभ नाम कर्म है । जो अत्यन्त विरूपताका कारण है वह दुःखदायी अशुभ नाम कर्म है || २७२ || जो सूक्ष्म शरीरका कारण है वह सूक्ष्म नाम कर्म है । जो दूसरोंको बाधा करनेवाले शरीरका हेतु है वह बादर नाम कम है || २७३ || जो आहार आदि पर्याप्तियोंकी रचनाका कारण है वह पर्याप्त नाम कर्म | विद्वानोंने इसके आहारपर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति ये छह भेद कहे हैं || २७४ || जो आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, इन्द्रिय, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियोंके अभावका कारण है वह अपर्याप्ति नाम कर्म है । भावार्थ - विग्रह गतिके बाद उत्पत्ति स्थान में पहुँचने पर ग्रहण किये हुए आहार-वर्गंणाके परमाणुओंमें खल रसभाग रूप परिणमन करनेकी tant शक्तिकी पूर्णताको आहारपर्याप्ति कहते हैं । जिन परमाणुओं को खल रूप परिणमाया था उन्हें हड्डो आदि कठोर अवयव रूप तथा जिन्हें रसरूप परिणमाया था उन्हें रुधिर आदि तरल अवयव रूप परिणमावनेकी शक्तिकी पूर्णताको शरीरपर्याप्ति कहते हैं। शरीर रूप परिणत परमाणुओं में स्पर्शनादि इन्द्रियोंके आकार परिणमावने की शक्तिकी पूर्णताको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं। भीतरकी वायुको बाहर छोड़ना और बाहरकी वायुको भीतर खींचनेकी शक्तिको पूर्णताको श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं । भाषावगंणाके परमाणुओंको शब्द रूप परिणामावनेको शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं । और मनोवगंणाके परमाणुओंको हृदय-क्षेत्र में स्थित आठ पांखुड़ीके कमलाकार द्रव्यमनरूप परिणामावनेकी शक्तिकी पूर्णताको मनःपर्याप्ति कहते हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीवके भाषा और मनको छोड़कर चार पर्याप्तियाँ होती हैं । द्वन्द्रियसे लेकर असैनीपंचेन्द्रिय तक मनको छोड़कर शेष पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं और सैनी पंचेन्द्रिय जीवके सभी पर्याप्तियाँ होती हैं । जिसके उदयसे ये पर्याप्तियाँ पूर्ण होतो हैं वह पर्याप्त नाम कर्म है और जिसके उदयसे एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती वह अपर्याप्तक नाम कर्म है। यहाँ अपर्याप्तक शब्दसे लब्ध्यपर्याप्तक जीवकी विवक्षा है, निर्वृत्यपयप्तककी नहीं । क्योंकि वह कर्मोदयकी अपेक्षा तो पर्याप्तक ही है सिर्फ निर्वृत्ति-रचनाको अपेक्षा लघु अन्तर्मुहूर्त के लिए अपर्याप्तक होता है || २७५ ॥ जो धातु- उपधातुओं की स्थिरताका कारण है वह स्थिर नाम कर्म है और जो इससे विपरीत अस्थिरताका कारण है वह अस्थिर नाम कम है, जो प्रभापूर्ण शरोरका कारण है वह आदेय नाम कर्म है और जो प्रभा-रहित शरीरका कारण है वह अनादेय नाम कर्म है || २७६ || जो पुण्यरूप गुणोंकी प्रसिद्धिका कारण है वह १. यत्र म., ङ. । २. पर्याप्तिभावहेतुस्तु क. । ३. भाषायां म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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