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1. The arising of the manifestation of the wonderful rasa (sentiment) itself is the fruit of its contact. 2. The forest (vana). 3. The heart (hridaya).
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________________ चतुर्दशः सर्गः सापि दर्शनतस्तस्य रूपिणः शिथिलाङ्गिका । शशाक न मनो धत्तु दोलारूढेव कामिनी ॥४१॥ "विचित्ररस संस्पर्शप्रादुर्भावफलोदयम् । भावं च प्रकटीचक्रे सानुलुब्धमनोगतम् ॥ ४२ ॥ दूरात्कटाक्षविक्षेपि चक्षुरन्ते निकुञ्चितम् । जहेऽस्यास्तन्मनो भङ्गि प्रतिचक्षुःप्रदानतः ॥ ४३ ॥ अधरस्तननाभ्यन्तःश्रोणीचरणवीक्षणैः । परावृत्तेक्षितैश्चक्रे सा वस्य स्मरदीपनम् ॥४४॥ प्रियालापेक्षिभिः स्निग्धैरन्योन्यघटितैः कृते । जिह्वा विह्नलयोर्वाचि न लेभेऽवसरं तयोः ॥ ४५॥ तावारूढौ च दुर्मोचप्रेमबन्धौ मनोरथम् । दुर्लभाइलेष संभोगफललाभार्थमर्थिनौ ॥ ४६ ॥ रक्तायाश्चित्तमादाय प्रदायास्यै मनोनिजम् । नगर्या निर्ययौ राजा पणबन्धात्कृतीव सः ॥४७॥ यमुनोत्तंसमुद्यानं वसन्तस्यावतंसकम् । विवेश जनतानन्दि नरेन्द्रो नन्दनोपमम् ॥४८॥ रम्यं नागलताश्लिष्टः पुष्पितः फलितैर्दुमैः । क्रमुकैर्नालिकेराद्यैर्दाडिमी कदलीवनैः ॥ ४९ ॥ विजहार 'वने हैथे स्त्रीजनैः स निजैर्वृतः । वयस्यैरनुकूलैश्च नृपपुत्रैः सहारमत् ||५०|| कांचिरकालकलां तस्य क्रीडतो जनसंकुला । शून्येव वनमालासीद् वनमालावियोगिनः || ५१|| वनमालानुरागेण हियमाणोऽविशत्पुरीम् । क्षितीशः स्थीयते स्वस्थैः परचित्तैः कियच्चिरम् ॥५२॥ २२३ प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सूर्यके पतनका जब समय आता है तब अन्धकारकी प्रबलता हो ही जाती है ||४०|| उधर सुन्दर शरीरक्ते धारक राजा सुमुखको देखनेसे उस स्त्रीके भी अंगहो गये और वह झूलापर बैठी स्त्रीके समान मनको रोकनेके लिए समर्थ नहीं हो सकी ||४१ || उसका मन राजा सुमुखमें अत्यन्त लुभा गया था इसलिए वह नाना प्रकारके रसके स्पर्श और प्रादुर्भावरूप फलसे सहित भावको प्रकट करने लगी ॥४२॥ जो दूर तक कटाक्ष छोड़ रहा था तथा जिसका अन्तःभाग संकोचको प्राप्त था ऐसा उस स्त्रीका नेत्र, बदले में सुमुखकी ओर देखकर उसके चंचल मनको हर रहा था ||४३|| वह अधर, स्तन, नाभिका मध्यभाग, नितम्ब और चरणोंको दिखानेसे तथा मुड़कर संचारित तिरछी चितवनसे उसके कामको उद्दीपित कर रही थी ||४४|| उस समय विह्वलताको प्राप्त हुए दोनोंके स्निग्ध तथा परस्पर मिले हुए नेत्रोंने ही मधुर वार्तालाप कर लिया था इसलिए बेचारी जिल्लाको बोलनेका अवसर ही नहीं मिल सका था ॥ ४५ ॥ जिनका प्रेम बन्धन छूट नहीं सकता था ऐसे दोनों स्त्री-पुरुष, दुर्लभ आलिंगन, तथा सम्भोगरूप फल की प्राप्ति करानेवाले मनोरथपर आरूढ़ हुए । भावार्थ- आलिंगन तथा सम्भोगकी इच्छा करने लगे ||४६|| अतिशय अनुरक्त उस स्त्रीका चित्त लेकर और अपना चित्त उसे देकर राजा सुमुख नगरीसे बाहर निकला । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो आगामी मिलापके लिए बयाना देकर कृत-कृत्य ही हो गया हो ||४७|| नगरीसे निकलकर राजाने यमुनोत्तंस नामक उद्यानमें प्रवेश किया । वह उद्यान, वसन्त ऋतुका आभूषणस्वरूप था, जनताको आनन्दित करनेवाला था और नन्दन वनके समान जान पड़ता था ॥ ४८॥ वह उद्यान, नागलताओंसे आलिंगित फूले- फले सुपारी वृक्षों और नारियल, अनार तथा केलोंके वनोंसे अतिशय रमणीय था || ४९ || अपनी स्त्रियों से घिरे हुए राजा सुमुखने उस सुन्दर वनमें विहार किया एवं अनुकूल मित्रों और राजपुत्रोंके साथ क्रीड़ा की ||५०॥ वह वहाँ कुछ काल तक क्रीड़ा करता रहा परन्तु वनमाला के वियोगसे उसे वह मनुष्योंसे व्याप्त वनकी पंक्ति शून्य-जैसी जान पड़ती थी || ५१॥ वनमाला के अनुरागसे हरे हुए राजाने लौटकर शीघ्र ही कौशाम्बोपुरी में प्रवेश किया सो ठीक चित्त दूसरेमें लग रहा है वे कितनी देर तक स्वस्थ रह सकते हैं ? ॥ ५२ ॥ ही है क्योंकि जिनका १. विचित्ररसस्य संस्पर्शप्रादुर्भाव एव फलं तस्योदयो यस्मात् तं एवंभूत भावम् । २. वनं क. । ३. हृद्यं क . । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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