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690 The specific ripening of the *bhavasrava* due to the intensity, mildness, etc., of the *kashaya* is called *anubhava*, or the various ripenings of karma due to the differences in substance, field, time, existence, and feeling are called *anubhava-bandha*. ||288-289|| Just as the *anubhava-bandha* of the auspicious natures is excellent due to the results, so the *anubhava-bandha* of the inauspicious natures is inferior, and just as the *anubhava-bandha* of the inauspicious natures is excellent due to the special characteristics of the inauspicious results, so the *anubhava-bandha* of the auspicious natures is inferior. ||290-291|| All the root natures of karma are experienced by themselves, and the similar natures of the subsequent natures are experienced by both themselves and others, except for the *mohaniya* and *ayus* karmas. ||292||
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________________ ६९० हरिवंशपुराणे कषायतीव्रमन्दादिमावास्रवविशेषतः । विशिष्टपाक इष्टस्तु 'विपाकोऽनुभवोऽथवा ॥२८॥ स द्रव्यक्षेत्रकालोक्तमवभावविभेदतः । विविधो हि विपाको यः सोऽनुभावः समुच्यते ॥२८९॥ प्रकृष्टोऽनुभवः पुण्यप्रकृतीनां शुमो यथा । अशुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुमवस्तथा ॥२९०॥ अशुभप्रकृतीनां तु परिणामविशेषतः । प्रकृष्टोऽनुभवोऽन्यासां निकृष्टोऽनुमवस्तथा ॥२९१॥ स्वमुखेनानुभूयन्ते मूलप्रकृतयोऽखिलाः । उत्तरास्तुल्यजातीया द्वयान्मोहायुषी विना ॥२९२॥ कषायोंकी तीव्रता, मन्दता आदि भावास्रवकी विशेषतासे जो उनका विशिष्ट परिपाक होता है उसे अनुभव कहते हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावकी विभिन्नतासे कर्मोंका जो विविध-नाना प्रकारका परिपाक होता है वह अनुभवबन्ध कहलाता है ॥२८८-२८ परिणामोंसे जिस प्रकार पुण्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है उसी प्रकार पाप प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है और अशुभ परिणामोंकी विशेषतासे जिस प्रकार अशुभ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है उसी प्रकार शुभ प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है। भावार्थ-प्रत्येक समय पुण्य और पाप प्रकृतियोंका अनुभव बन्ध जारी रहता है। जिस समय शुभ परिणामोंकी प्रकर्षता होती है उस समय पुण्य प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव बन्ध होता है और पाप प्रकृतियोंका जघन्य अनुभव होता है। इसी प्रकार जिस समय अशुभ परिणामोंकी विशेषतासे पापप्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभव होता है उस समय पुण्यप्रकृतियोंका जघन्य अनुभव बन्ध होता है ।।२९०-२९१॥ । कर्मोकी समस्त मूल प्रकृतियाँ स्वमुखसे ही अनुभव में आती हैं-अपना फल देती हैं और मोहनीय तथा आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंकी तुल्य जातीय प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख-दोनों रूपसे अनुभवमें आती हैं-फल देती हैं। भावार्थ --- जिस प्रकृतिका जिस रूप बन्ध हुआ है उसका उसी रूप उदय आना स्वमुखसे उदय आना कहलाता है और अन्य प्रकृति रूप उदय आना परमुखसे उदय आना कहलाता है। कर्मोंकी ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियाँ सदा स्वमुखसे ही उदयमें आती हैं अर्थात् ज्ञानावरणका उदय दर्शनावरणादि रूप कभी नहीं होता है परन्तु उत्तर प्रकृतियोंमें एक कर्मकी प्रकृतियाँ स्वमुख तथा परमुख दोनों रूपसे फल देती हैं। जैसे वेदनीय कमंकी साता वेदनीय और असाता वेदनीय ये दो उत्तर प्रकृतियाँ हैं । इनमें सातावेदनीयका उदय साता रूप भी आ सकता है और असाता रूप भी आ सकता है। इसी प्रकार असाता वेदनीयका उदय असाता रूप भी आ सकता है और साता रूप भी। जिस समय अपने रूप उदय आता है उस समय स्वमुखसे उदय आना कहलाता है और जिस समय अन्य रूप उदय आता है उस समय परमुखसे उदय आना कहलाता है। विशेषता यह है कि मोहनीय कर्मके जो दर्शनमोह और चारित्र-मोह भेद हैं उनकी प्रकृतियाँ परस्पर एक दूसरे रूपमें उदय नहीं आती-सदा १. विपाकोऽनुभवः ॥२१॥ त. सू. अ.८॥ विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्तकषायतोत्रमन्दादिभावास्रवविशेषाद् विशिष्टः पाको विपाकः। अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविधः पाको विपाकः । २. 'शुभाद्यथा' इति सम्यक्प्रतिभाति । ३. शुभपरिणामानां प्रकर्षभावाच्छुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः । अशुभप्रकृतीनां निकृष्टः । अशुभपरिणामानां प्रकर्षभावादशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः । शुभप्रकृतीनां निकृष्टः । स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां नां स्वमखेनैवानभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमखेनापि भवति आयदर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुमनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहश्चारित्रमुखेन, चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन । स. सि. सूत्र ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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