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## Chapter Forty-One: The Ocean, a Symbol of the Jain Teachings **499** **8.** The ocean, like the Jain scriptures, is a firm vow to protect all living beings, a path unchallenged by any victor. **9.** It dispels the endless suffering of those who seek refuge, not just through touch, but even through its mere presence. **10.** The kings, witnessing this ocean, felt immense joy, as if they had seen the ocean of scriptures revealed by the Jinas. **11.** The ocean, adorned with scattered flower garlands, swayed with its waves, echoing with the sound of conch shells, as if celebrating the arrival of Lord Neminath. **12.** Its waves, like hands, offered coral and pearls, its roaring voice a welcome to Krishna. **13.** The fish, leaping from the water, seemed to be paying homage to Lord Balarama, the chief of the Yuga, with their eyes. **14.** The ocean, with its foamy waves, seemed to be expressing its joy at the sight of the victorious kings, Akshobhya, Bhojak, and Vrishni. **1.** The ocean is *anadic* (without beginning), filled with water that has no equal.
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________________ ४९९ एकचत्वारिंशः सर्गः आत्मान्तःस्थापितानन्तजीवरक्षादृढव्रतम् । अलचितपदं सर्वैर्वादिमिर्विजिगीषुभिः ॥८॥ निरस्यन्तमनन्तानुबन्धितापमुपाश्रिताम् । मुखेन स्पर्शनेनापि स्वावगाहेन किं पुनः ॥९॥ निशम्यार्णवमुद्गीर्णमिव शास्त्रार्णवं जिनैः । पिप्रिये राजकं राजदाकीर्णकुसुमाञ्जलिः ॥१०॥ नेमिनाथागमोद्भूतसंमदेनेव भरिणा । नृत्यन्निवोर्मिदीर्वाचिर्बभौ शङ्खस्वनोद्धरः ॥११॥ प्रवालमौक्तिकरय स्वतरङ्गकरैः किरन् । स्वागतं व्याजहारेव हरये मुखरोम्बुधिः ॥१२॥ यगप्रधानमम्मोधिलं वीक्ष्य झषेक्षणः । अम्मःस्थलैः समद्यद्भिरभ्युत्तिष्टन्निवाबभौ ॥१३॥ समुद्र विजयाक्षोभ्यमोजादिविषया मुदम् । आविष्कुर्वन्निवाभात्स्वा समुद्रः फेनमण्डलैः ॥१४॥ उसी प्रकार वह समुद्र भी *अनादिक-असदृश जलसे युक्त है। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर विशालता और निर्दोषताके संयोगसे आकाशकी लक्ष्मीको स्वीकृत करता हैआकाशके समान जान पड़ता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने विस्तार और स्वच्छताके कारण आकाशकी लक्ष्मीको स्वीकृत कर रहा था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने भीतर अनन्त जीवोंकी रक्षारूप दृढ़ व्रतको धारण करता है अर्थात् अनन्त जीवोंकी रक्षारूप सुदृढ़ व्रतको धारण करनेका उपदेश देता है उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने भीतर रहनेवाले अनन्त जीवोंकी रक्षारूप दृढव्रतको धारण करता था-अपने भीतर रहनेवाले अनन्त जीवोंकी रक्षा करता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर, विजयको इच्छा रखनेवाले समस्त वादियोंके द्वारा अलंधित पद है अर्थात् समस्त वादी उसके एक पदका भी खण्डन नहीं कर सकते हैं उसी प्रकार वह समुद्र भी बक-झक करनेवाले समस्त विजयाभिलाषी लोगोंके द्वारा अलंधित पद था अर्थात् उसके एक स्थानका भी कोई उल्लंघन नहीं कर सकता था। जिस प्रकार जिनेन्द्र-निरूपित शास्त्ररूपी सागर अपने मुख अथवा स्पर्शसे ही शरणागत मनुष्योंके अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी सन्तापको दूर करता है फिर अपने अवगाहन, मनन, चिन्तन आदिके द्वारा तो कहना ही क्या है ? उसी प्रकार वह समुद्र भी अपने अग्रभाग अथवा स्पर्शसे ही समीपमें आये हुए मनुष्योंके अगणित एवं सन्ततिबद्ध सन्तापको दूर करता था फिर अपने अवगाहनकी तो बात ही क्या थी? इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा निरू पित शास्त्र-रूपी सागरके समान उस समुद्रको देखकर वह राजाओंका समूह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उस समय वह समुद्र बिखरी हुई पूष्पांजलियोसे सुशोभित हो रहा था, तरंगोंसे लहरा रहा था और शंखोंके शब्दसे व्याप्त था। इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् नेमिनाथके आगमनसे उत्पन्न अत्यधिक हर्षसे ही उसने पुष्पांजलियाँ बिखेरी हों, तरंगरूपी भुजाओंको ऊपर उठाकर वह नृत्य कर रहा हो और शंखध्वनिके बहाने हर्षध्वनि कर रहा हो ।।५-११॥ वह अपने तरंगरूपी हाथोंके द्वारा मंगा और मोतियोंका अर्घ्य बिखेर रहा था तथा गर्जनासे मुखर होनेके कारण मानो कृष्णके लिए स्वागत शब्दका उच्चारण ही कर रहा हो ।।१२।। उस समुद्रमें मछलियाँ उछल रही थीं उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह मछलियांरूपी नेत्रोंसे युगके प्रधान श्री बलदेवको देखकर उछलते हए जलसे उठकर उनका सत्कार ही कर रहा हो ॥१३।। समुद्रमें जो फेतोंके समूह उठ रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रविजय, अक्षोभ्य तथा भोजक वृष्णि आदि राजाओंको देख उनके निमित्तसे होनेवाले अपने हर्षको ही प्रकट कर रहा हो ॥१४॥ १. -मुपाश्रितम् म.। * न विद्यते आदिः सदृशो यस्य तत् अनादि, तथाभूतं कं जलं यस्मिन् सः अनादिकः तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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