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## Chapter 786 of the Harivamsha Purana
**27.** This six-fold external penance is dependent on external objects and is caused by external factors.
**28.** Internal penance is desired for the control of the mind. There are nine types of atonement penance for purification of committed offenses.
**29.** Respect for the venerable is called humility. There are four types of humility. Serving with one's own body and other objects is called *Vaiyavrittya*, and it has ten types.
**30.** Abandoning laziness in the pursuit of knowledge is called *Swadhyaya*, and it has five types. Abandoning the thought of "this is mine" regarding external and internal possessions is called *Vyutsarga*, and it has two types.
**31.** Abandoning the fickleness of the mind is called *Dhyana*, and it has four types. Among these, *Aat* and *Roudra* are two types of faulty meditation, while *Dharmya* and *Shukla* are two types of excellent meditation.
**32.** *Aalocana* is a type of atonement penance that involves complete renunciation of ten types of offenses. It involves confessing to the Guru about the offenses committed due to negligence.
**33.** *Pratikramana* is a type of atonement penance that involves confessing one's offenses by saying "I have committed wrong" and seeking to rectify them.
**34.** *Tadu-bhayam* is a type of atonement penance that involves purification through both *Aalocana* and *Pratikramana*.
**35.** *Viveka* is a type of atonement penance that involves separation of the objects of attachment, such as food and drink. *Vyutsarga* is a type of atonement penance that involves renunciation of the body and other possessions.
**36.** *Tap* is a type of atonement penance that involves fasting and other austerities. *Chheda* is a type of atonement penance that involves renunciation of the monastic life for a period of days, months, or years.
This penance called *Kayaklesha* is the one that influences the path to liberation.
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हरिवंशपुराणे
बाह्यद्रव्यव्यपेक्षत्वात्परप्रत्ययहेतुकः । षविधस्यास्य बाहरवं तपसः प्रतिपादनम् ॥२७॥ मनोनियमनार्थवादाभ्यन्तरमभिष्टतम् । प्रायश्चित्तं कृतावद्यशोधनं नवधाऽत्र तु ॥२८॥ चतुर्धा विनयः पूज्येष्वादरो दशधा पुनः । वैय्यावृत्त्यं 'स्वकायेनान्यद्रव्यैरप्युपासनम् ॥२९॥ स्वाध्यायः पञ्चधा ज्ञानमावनालस्यवर्जनम् । स्वसंकल्पपरित्यागो व्युत्सगो द्विविधः पुनः ॥३०॥ चित्ताक्षेपपरित्यागो ध्यानं चापि चतुर्विधम् । आत रौद्रं च दुर्यानं धर्म्य शुक्ले तु शोभने ॥३१॥ तत्रालोचनकं कृत्स्नं दशदोषविवर्जितम् । प्रमादकृतदोषाणां गुरवे "विनिवेदनम् ॥३२॥ मिथ्या मे दुष्कृताधैर्यत्स्वाभिव्यक्तिप्रतिक्रियम् । दोषव्यपोहनं साधु तत्प्रतिक्रमणं शतम् ॥३३॥ आलोचनाद्यतः शुद्धिः प्रतिक्रमणतोऽपि च । तदुभयं तु तदुद्दिष्टं प्रायश्चित्तं विशुद्धिकृत् ॥३४॥ स्याद्विवेको विभजनं यः संसक्तानपानयोः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः संप्रकीर्तितः ॥३५॥ तपस्स्वनशनायेव प्रायश्चित्तमुदीरितम् । प्रव्रज्याहापनं छेदो दिनमासादिभिर्यतेः ॥३६॥
किया जाता है वह मोक्षमार्गको प्रभावना करनेवाला कायक्लेश नामका तप है ॥२६।। यह
छह प्रकारका तप बाह्यद्रव्यको अपेक्षा रखता तथा पर-कारणांसे होता है, इसलिए इसे बाह्यतप कहा जाता है ।।२७।।
मनका नियमन करने के लिए आभ्यन्तर तप कहा गया है। इसमें किये हुए दोषोंकी शुद्धि
प्रायश्चित्त तप है। यह प्रायश्चित्त आलोचना आदिके भेदसे नौ प्रकारका कहा गया है ॥२८॥
पूज्य पदार्थों में आदर प्रकट करना विनय है। विनयके चार भेद हैं। अपने शरीरसे तथा अन्य द्रव्योंकी सेवा करना वैयावृत्य है, इसके दश भेद हैं ॥२९॥ ज्ञानकी भावनामें आलस्य छोड़ना स्वाध्याय है, इसके पांच भेद हैं । बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंमें 'ये मेरे हैं। इस प्रकारके संकल्पका त्याग करना व्युत्सर्ग है, इसके दो भेद हैं ||३०|| और चित्तकी चंचलताका त्याग करना ध्यान है, यह चार प्रकारका होता है। इनमें आतं और रौद्र ये दो ध्यान खोटे ध्यान हैं और धर्म्य तथा शक्ल ये दो उत्तम ध्यान हैं ।।३१।। आलोचनाके नौ भेद इस प्रकार हैं-१ आलोचना. २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप, ७ छेद, ८ परिहार और ९ उपस्थापन । इनमें प्रमादसे किये हुए दोषोंका सम्पूर्ण रूपसे दश प्रकारके दोष छोड़कर गुरुके लिए निवेदन करना आलोचना नामका प्रायश्चित्त है ॥३२।। 'मिथ्या मे दुष्कृतमस्तु' इत्यादि शब्दोंके द्वारा अपने-आप दोषोंको प्रकट कर उनका दूर करना प्रतिक्रमण नामक प्रायश्चित्त माना गया है ॥३३।। आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनोंसे जो शुद्धि होती है वह विशुद्धिको करनेवाला तदुभय नामका प्रायश्चित्त कहा गया है ।।३४।। संसक्त अन्न-पानका विभाग करना विवेक कहलाता है । भावार्थ-कुछ समयके लिए अपराधी मुनिको इस प्रकारका दण्ड देना कि अन्य निर्दोष मुनियोंके साथ चर्याके लिए न जाओ, अन्य मुनियोंके भोजनके बाद किसी अन्य चौकामें भोजन करो तथा अपने पीछी-कमण्डलु जुदे रखो दूसरोंके पीछी कमण्डलु अपने उपयोगमें न लाओ। इस प्रकारके दण्डको विवेक नामक प्रायश्चित्त कहते हैं। कायोत्सर्ग आदिका करना व्युत्सर्ग कहलाता है ॥३५॥ उपवास आदि तप करना तप नामका प्रायश्चित्त कहा गया है। दिन,
१. स्वकामेन म.। २. समस्तं ( ङ. टि.), कृच्छे म., क., ख.। ३. तत्र गुरुवे प्रमादनिवेदनं दशदोषविजितमालोचनम् 'आकम्पिय अणमाणिय जं दिदै वादरं च सुहमं च । छण्हं सहाउलियं बहजण अव्वत्त तस्सेवी' ॥ इति दस दोसा-स. सि.। ४. विनिवेदितम् ग.। ५. संसक्त्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः-स.सि.।
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