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## Chapter Forty-Six:
**787**
**37.** The act of keeping the offender away from the assembly for a period of time, such as a fortnight or a month, is called *parihara* (atonement). Re-initiation is called *upasthapana* (atonement).
**38.** There are four types of *vinaya tapa* (penance) based on the distinctions of *jnana vinaya*, *darshan vinaya*, *charitra vinaya*, and *upchar vinaya*. The eight types of *jnana achar* (conduct related to knowledge) such as *kala anatikram* (not exceeding the time) are to be followed as per the scriptures. This is called *jnana vinaya*.
**39.** The eight types of *darshan achar* (conduct related to perception) are based on the eight limbs of *nishanka* (doubtless). The ability to discern the qualities and defects is called *darshan vinaya*.
**40.** The thirteen types of *charitra achar* (conduct related to character) are based on the five great vows, five *samiti* (minor vows), and three *gupti* (secrecy). The practice of *nirati char* (non-transgression) is called *charitra vinaya*.
**41.** The actions of rising to greet, bowing, etc., in the presence of the guru, etc., in both direct and indirect situations, are called *aupcharic vinaya* (formal conduct).
**Note:** The text refers to the Jain monastic tradition and its practices. The terms used are specific to Jainism and are not easily translated into English without losing their specific meaning.
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चतुःषष्टितमः सर्ग:
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पक्षमासादिभेदेन दूरतः परिवर्जनम् । परिहारः पुनर्दीक्षा स्यादुपस्थापना पुनः ॥३७॥ कालानतिक्रमादौ तु ज्ञानाचारेऽष्टधामते' । यथोक्तग्रहणादियः स ज्ञानविनयो मतः ॥३८॥ अष्टधादर्शनाचारे निशङ्कादिषु संस्थिते । विनयो दर्शने दृश्यो गुणदोषविवेकिता ॥३९॥ त्रयोदशविधोदारचारित्राचारगोचरा । निरतीचारता चारुश्चरित्रविनयः परः ॥४०॥ याः प्रत्यक्षपरोक्षेषु प्रत्युत्थानादिकाः क्रियाः । गुर्वादिषु यथायोग्यं विनयश्चौपचारिकः॥४॥
महोना आदिसे मुनिकी दीक्षा कम कर देना छेद नामका प्रायश्चित है। भावार्थ-मुनियोंमें नवीन दीक्षित मुनि पूर्वदीक्षित मुनिको नमस्कार करते हैं। यदि किसी पूर्वदीक्षित मुनिकी दीक्षा कम कर दी जाती है तो वह नवीन दीक्षित मुनिसे पीछेका दीक्षित हो जाता है; इस तरह उसे, जिससे वह पहले पूजता था उसे पूजना पड़ता है, नमस्कार करना पड़ता है, यह छेद नामका प्रायश्चित्त है ॥३६॥
पक्ष, महीना आदि निश्चित समय तक अपराधी मुनिको संघसे दूर कर देना परिहार नामका प्रायश्चित्त है और फिरसे नवीन दीक्षा देना उपस्थापना नामका प्रायश्चित्त है। जिसे उपस्थापना दण्ड दिया गया है उसे संघके सब मुनियोंको नमस्कार करना पड़ता है, क्योंकि वे अब इससे पूर्वदोक्षित हो जाते हैं और यह नवीन दीक्षित कहलाने लगता है ॥३७॥ __ ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनयके भेदसे विनयतपके चार भेद हैं। इनमें कालानतिक्रमण आदि जो आठ प्रकारका ज्ञानाचार बताया है उसे आगमोक्त विधिसे ग्रहण करना वह ज्ञानविनय है। भावार्थ-१ शब्दाचार, २ अर्थाचार, ३ उभयाचार, ४ कालाचार, ५ विनयाचार, ६ उपधानाचार, ७ बहमानाचार, ८ अनिवाचार ये ज्ञानाचारके आठ भेद हैं। शब्दका शुद्ध उच्चारण करना शब्दाचार है। शुद्ध अर्थका निश्चय करना अर्थाचार है। शब्द और अर्थ दोनोंका शुद्ध होना उभयाचार है। अकालमें स्वाध्याय न कर विहित समय में ही स्वाध्याय करना कालाचार है। विनयपूर्वक स्वाध्याय करना-स्वाध्यायके समय शरीर तथा वस्त्र शुद्ध रखना एवं आसन वगैरहका ठीक रखना विनयाचार है। चित्तकी स्थिरतापूर्वक स्वाध्याय करना उपधानाचार है। शास्त्र तथा गुरु आदिका पूर्ण आदर करना बहुमानाचार है और जिस गुरु अथवा जिस शास्त्रसे ज्ञान हुआ है उसका नाम नहीं छिपाना, उसके प्रति सदैव कृतज्ञ रहना अनिवाचार है। इन आठ ज्ञानाचारोंका विधिपूर्वक पालन करना वह ज्ञानविनय है ॥३८॥
निःशंकित आठ अंगोंके भेदसे दर्शनाचार आठ प्रकारका है, उसमें गुणदोषका विवेक रखना वह दर्शनविनय है ।। ३९ ॥ पाँच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिके भेदसे जो तेरह प्रकारका चारित्राचार है उसमें निरतिचार प्रवृत्ति करना चारित्रविनय है ।। ४० ॥ प्रत्यक्ष या परोक्ष दोनों ही अवस्थाओंमें गुरु आदिके उठनेपर उठकर अगवानी करना, नमस्कार करना आदि जो यथायोग्य प्रवृत्ति की जाती है उसे औपचारिकविनय कहते है ॥४१।।
१. 'अर्थव्यञ्जनतद्वयाविकलताकालोपधप्रश्रयाः । स्वाचार्याधनपह्नवो बहमतिश्चेत्यष्टधा व्याहृतम् ।' रत्नत्रयपूजा 'ग्रन्यार्थोभयपूर्णकाले विनयेन सोप्रधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥३६।। पु. सि.। २. शङ्कादृष्टिविमोहकाङ्क्षणविधिव्यावृत्तिसन्नद्धतां, वात्सल्यं विचिकित्सितादुपरति धर्मोपबहक्रियाम् । शक्त्या शासनदीपनं हितपथाद् भ्रष्टस्य संस्थापन, वन्दे दर्शनगोचरं सुचरितं मून नमन्नादरात् ॥ र. पू.। ३. प्रत्युस्थानादिका क्रिया क,।
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