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630 Harivamsha Purana "The Jina, accompanied by the beautiful Amarasen, reached the Girnar mountain, which is as radiant as Mount Meru. He who conquers the army of sins, is like the moon, radiant with beauty. ||113|| On this mountain, where the sun and moon, the destroyers of darkness, do not appear at the end of night and day, what is the point of describing its height? ||114|| This mountain, devoid of ugly flowers, is adorned with birds that fly in the streams of light, mango trees laden with fruits that offer sweet juice, and various kinds of trees full of flowers. ||115|| In that immaculate grove of the Girnar mountain, which appears like Mount Meru due to its jewels and gold, which is marked by the collection of various metals, which attracts Kinnara gods with its peaks, and which captivates the minds of humans and gods with its forest earth, a solitary lion, devoid of monkeys, roamed. There, Indra, along with Vishnu-Krishna, offered their respects to the Jina, the conqueror of passions. ||116|| In the grove, the Jina, the lord of the universe, was honored by the gods, and the lion, along with Vishnu, offered their respects to him. ||117|| "
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________________ ६३० हरिवंशपुराणं " गिरिमितः सहितामरसेनया जिनवरः स हि तामरसेन या । समरुन्तिर्गिरिराद्रुचमूर्जयन्त इति योऽस्ति हि पापचमूर्जयन् ।। ११३ || रविनिशाकरयोरुभया न्तयोर्विचरतोस्तिमिरोरुभयान्तयोः । दिवि न यत्र महात्मनिदर्शनं किमिह तुङ्गतयास्य निदर्शनम् ।।११४ ।। मुखनिर्झरपात पतस्त्रिभिर्मुखरस प्रदचूतलताफलैः । कुसुमनिर्भर पादपजातिभिः कुसुमनोरहितोऽतिविराजते ॥ ११५ ॥ "मणिसुवर्णसुवर्णधराधरे विविधधः तुरसौघधराधरे । शिखर रञ्जितकिन्नरदेवके वनभुवा हृतधीनरदेवके ॥ ११६ ॥ उपवने ' वृजिने शिविकामतः सुमतमाप्य जिनेशिविकामतः । ad 11 हितो 'हरिणा हरिः स निदधे सहितो हरिणा" हरिः ॥११७॥ ||११२|| इस प्रकार जो पापोंकी सेनाको जीत रहे थे वे जिनेन्द्र भगवान् कमलके समान कान्तिकी धारक हितकारी देवसेना के साथ सुमेरु पर्वत के समान कान्तिवाले गिरनार पर्वतपर पहुँचे ||११३॥ जिस पर्वत पर रात्रि और दिनके अन्तमें अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल के समय आकाश में विचरनेवाले एवं अन्धकारसे होनेवाले विशाल भयका अन्त करनेवाले सूर्य और चन्द्रमा महान् स्वरूपका दर्शन नहीं हो पाता उस गिरनार पर्वतका यहाँ ऊंचाईमें उदाहरण ही क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । भावार्थ - यह पर्वत इतना ऊँचा है कि उसपर प्रातःकाल और सायंकाल के समय सूर्य और चन्द्रमाका दर्शन ही नहीं हो पाता । वह गिरनार पर्वत कुत्सित फूलों से रहित था, और शब्दायमान किरणोंके गिरने के स्थान में उड़नेवाले पक्षियों, मुखमें मधुर रसको देनेवाले आम्रलताके फलों एवं फूलोंसे लदे नाना प्रकारके वृक्षोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ।। ११४- ११५ ।। तदनन्तर जो मणियों और सुवर्णके कारण सुमेरु गिरिके समान जान पड़ता था, जो नाना प्रकारकी धातुओंके रंगके समूहसे उपलक्षित भूमिको धारण कर रहा था, जो अपने शिखरोंसे किन्नर देवोंकों अनुरक्त कर रहा था, और जो वनकी वसुधासे मनुष्य तथा देवोंकी बुद्धिको हरण कर रहा था ऐसे गिरनार पर्वतके उस निष्कलंक उपवन में जिसमें कि वानरसे रहित एकाकी सिंह विचरण करता था विष्णु-कृष्णसहित इन्द्रने वीतराग जिनेन्द्रकी १. हि यः पापचमूः पापसेना: जयन् स हि जिनवर, या तामरसेन कमलेन समरुचिः सदृशकान्तिः तया, सहितामरसेनया हितेन सहिता सहिता सा चासो अमरसेना च तया सार्धं गिरिरारुचं गिरिराज् मेरुस्तस्य रुगिव रुग्यस्य तं, ऊर्जयन्त इति प्रसिद्धगिरिम् इतः प्राप्तः । २ उभयान्तयोः - उभयोनिशादिवसयोरन्तयोः । दिवि विचरतोः, तिमिरात् अन्धकारात् यद् उरु विपुलं भयं तस्य अन्तो विनाशो याभ्यां तयोः रविनिशाकरयोः यत्र गिरी महात्मदर्शनं न विद्यते अस्य गिरेः तुङ्गतमा कि निदर्शनं किमुदाहरणम् । ३. निर्झर - म । ४ कुत्सितपुष्परहितो यो गिरिः मुखरेषु निर्झरपातेषु विद्यमाना पतत्रिणः तैः मुखे प्रारम्भे रसप्रदानि यानि चूतलताफलानि तैः कुसुमानि च निर्झराश्च पादपजातयश्च तैः, अतिविराजते नितरां शोभते । ५. मणिभिः सुवर्णैश्च सुवर्णधराधरः यः सुमेरुपर्वतस्तस्मिन् विविधधातुरसोधेन नानाधातु रससमूहे Jain Education International पलक्षिता या घरा तस्या घरः तस्मिन् शिखरैः रञ्जिताः किन्नरदेवा यस्मिन् तस्मिन् वनभुवा, कान्तारभूम्या हृतधिया वशीभूता नरदेवा यस्मिन् तस्मिन् । ६. निष्पापे । ७. जिनेशी चासो विकामश्च तस्मात् । ८. मर्कटेन रहितः । ९. सिंहः । १०. विष्णुना । ११. इन्द्रः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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