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## Chapter 55, Verse 107-112 **629** **Verse 107:** The fifty-five chapters of the **Sarg** (cycle) are dedicated to the **Jina** (liberated soul) who is eager for **tapas** (austerity). The **Haripura** (Krishna) and **Sarabhoja** (Yadu) lineages, though powerful like a lion, could not restrain him with their pleas. **Verse 108:** The **Jina**, a master of the **sthitic** (state of being), explained the situation to his father and family. He then walked towards the **uttarakuru** (northern region) palanquin, crafted by the **Kubera** (wealth god) like a sculptor. **Verse 109:** The palanquin was adorned with flags and white umbrellas, and had walls of precious gems. It was decorated with beautiful ornaments and carried various forms. Just as the moon ascends the mountain, the **Jina** ascended the palanquin. **Verse 110:** The kings of the earth first lifted the auspicious palanquin. Then, led by Indra, the celestial beings carried it joyfully through the sky. **Verse 111:** The sound of the celestial beings filled the sky, a sound that was not beneficial to those without **shri** (auspiciousness). The cries of the grieving **Bhoja** lineage reached the ears of all beings, echoing through the world. **Verse 112:** The celestial beings bowed to **Neminaath** (a **Jina**), who appeared like a peaceful lake. The **Apsaras** (celestial dancers) danced with various expressions, like peacocks and cranes near a lake.
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________________ ६२९ पञ्चपञ्चाशः सर्गः जिगमिषु तपसे जिनमादृता हरिपुरःसरभोजयदूत्तमाः । अनुनयैर्न निरोधुमलं तदा प्रबलसिंहमिवोद्धतपारम् ।।१०७।। पितृपुरःसरबन्धुजनं जिनः सुपरिबोध्य जगरिस्थतिकोविदः । धनदशिल्पिकृतां शिविका पदैरगमदुत्तरकुर्वमिधानिकाम्।।१०८॥ ध्वजसितातपवारणमण्डितां सुमणिभित्तिमुपाहितभक्तिकाम् ।। विविधरूपधरामधिरूढवान् विधुरिवोदयभूधरभित्तिकाम् ।।१०९॥ क्षितिभृतः क्षितितः शिविकां शिवामुदहरन् प्रथमाः प्रथमं ततः । सुरपथे सुरनाथपुरोगमाः सुरवराः सुखमू हुरमूं मुदा ॥11॥ अमवदूर्द्ध वमु दारमुदा' रवः सुरगणैर्विहितो "विहितोऽश्रियाम् । श्रुतिमधोमुखरो मुखरोदितो व्यथितभोजगतो जगतोऽरुणत् ।।११।। ननृतुरप्सरसः "सहसा रसैः "सशिखि साप्सरसः सह सारसैः । "यमभिसाम रसंघनताङ्गतं तमिव शान्तरसं धनतागतम् ।।११२॥ खड़े हुए कृष्ण, बलभद्र आदि अनेक राजा और सुर-असूर ऐसे जान पड़ते थे जैसे प्रथम सुमेरुको घेरकर स्थित कुलाचल ही हों ।। १०६ ॥ जिस प्रकार पिंजरेको तोड़कर निकलनेवाले बलवान् सिंहको कोई अनुनय-विनयके द्वारा रोकने में समर्थ नहीं होता है उसी प्रकार तपके लिए जानेके इच्छुक भगवान्को श्रीकृष्ण भोजवंशी तथा यदुवंशी आदि कोई भी रोकने में समर्थ नहीं हो सके ॥१०७|| तदनन्तर संसारकी स्थितिके जानकार जिनेन्द्र भगवान् पिता आदि परिवारके लोगोंको अच्छी तरह समझाकर कुबेररूप शिल्पीके द्वारा निर्मित उत्तरकुरु नामकी पालकीकी ओर पैदल ही चल पड़े ।।१०८|| वह पालकी ध्वजाओं और सफेद छत्रसे मण्डित थी, उत्तम मणिमय दीवालोंसे युक्त थी। उत्तमोत्तम बेल-बूटोंसे सहित थी, और विविध रूपको धारण कर रही थी। जिस प्रकार उदयाचलकी भित्तिपर चन्द्रमा आरूढ होता है उसी प्रकार भगवान भी उस पालकीपर आरूढ़ हो गये ॥१०९॥ तदनन्तर सबसे पहले कुछ दूर तक पृथिवीपर तो श्रेष्ठ राजा लोगोंने उस कल्याणकारिणी पालकोको उठाया और उसके बाद इन्द्र आदि उत्तमोत्तम देव उसे बड़े हर्षसे आकाशमें ले गये ॥११०॥ उस समय आकाशमें तो अत्यधिक आनन्दसे देवोंके द्वारा किया हुआ वह शब्द व्याप्त हो रहा था जो श्रीहीन मनुष्योंके लिए हितकारी नहीं था और नीचे पृथिवीपर दुःखसे पीड़ित भोजवंशके लोगोंका जोरदार करुणक्रन्दन मुखसे रुदन करनेवाले जगत्के जीवोंके कर्ण-विवरको प्राप्त कर रहा था ॥१११।। जिनके शरीरको देवोंका समूह नमस्कार कर रहा था तथा जो निविडताको प्राप्त हए शान्त रसके समान जान पड़ते थे ऐसे उन भगवान नेमिनाथके सम्मुख, जिस प्रकार जलके सरोवरके निकट मयूर और सारस नृत्य करते हैं उसी प्रकार अप्सराओंका समूह नाना रसोंको प्रकट करता हुआ बड़ी शीघ्रतासे नृत्य कर रहा था १. कुर्वभिधातक म.। २. उत्कटहर्षेण । ३. शब्दः । ४. कृतः। ५. विगतं हितं यस्मात् सः । ६. श्रियां श्रीरहितानां भाग्यहीनानामित्यर्थः । ७. व्यधिसुवो म., ख., ग., घ.; व्यघिस्रुवो क., व्यधिसुवो जगतो म.। ८. जगतः म.। ९. सुराङ्गनाः । १०. झटिति । ११. सशिखमाप्सरसः म., शिखिभिः सदृशं यथा स्यात्तथा सशिखि मयूरसदृशम् । १२. अभिरुपलक्षितं सरः साप्सरः तस्य । १३. सार्धम् । १४. सारसैः जलपक्षिभिः। १५. यमभि यत्संमुखम् । १६. अमरसङ्घन नतं अङ्गं यस्य तस्य भावः अमरसङ्घनतांगता, तया सहितः तम् । १७. घनतां निविडतां गतं प्राप्त शान्तरसमिव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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