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## Chapter Sixty-Two The shade of this tree is cool, sit here. I will bring you cool water from the lake. ||25|| Saying this, Balarama, holding his younger brother Krishna in his heart, went to fetch water, not thinking of his own fatigue. ||26|| Krishna, as instructed, went to the shade of the tree and lay down on the soft earth, his body covered with a fine garment. ||27|| In the dense forest, he rested for a moment, placing his right foot on his left knee, to relieve his fatigue. ||28|| Jarasandha's son, a lover of hunting, was wandering alone in the forest and by chance came to that very spot. ||29|| It was fate that brought him there, for he, who had left Dwaraka out of love for Krishna and to protect his life, had entered the forest like a deer. ||30|| He saw something indistinct in the distance, his bow in hand. ||31|| Thinking that the movement was the ear of a sleeping deer, he mistook it for the wind blowing against Krishna's garment. ||32|| His body hidden in the bushes, his mind like a hunter's, he drew his bow with great force and pierced Krishna's foot with a sharp arrow. ||33|| Krishna, his foot pierced, rose up suddenly and looked in all directions. Seeing no one, he cried out in a loud voice, "Who has pierced my foot? Let him reveal his lineage and name clearly." ||34-35|| "I have never slain a man in battle whose lineage and name were unknown. What misfortune has befallen me today?" ||36|| "Tell me, who are you, with your unknown lineage and unknown animosity? Who has become my slayer in this forest?" ||37||
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________________ द्विषष्टितमः सर्गः छायायामस्य वृक्षस्य शीवकायामिहास्यताम् । भानयामि जलं तेऽहं शीतलं शीतलाशयात् ॥२५॥ अग्रजः प्रतिपाचवमनुजं मनसा वहन् । जगाम जलमानेतुं निजं श्रममचिन्तयन् ॥२६॥ कृष्णोऽपि च यथोद्दिष्टा तरुच्छायां धनां श्रितः । क्षितौ मृदुमृदि श्लक्ष्णवाससा संवृताङ्गकः ॥२७॥ वामे जानुनि विन्यस्य दक्षिणं चरण क्षणम् । श्रमव्यपोहनायासावशेत गहने हरिः ॥२८॥ तं प्रदेशं तैदैवासौ जरासूनुर्यदृच्छया । एकाकी पर्यटन्प्राप्तो मृगयाव्यसनप्रियः ॥२९॥ यो हरिस्नेहसंमारो हरिप्राणरिरक्षया । द्वारिकाया विनिर्गस्य प्राविशन्मृगवद्वनम् ॥३०॥ स तत्र विधिनानीय तदानीं विनियोजितः । अद्राक्षीदूरतोऽस्पष्टं किंचिदने धनुर्धरः ॥३१॥ मरुञ्चलितवसान्तजनितभ्रान्तिरन्तिके । प्रसुप्तमृगकर्णोऽयं चलतीति विचिन्त्य सः ॥३२॥ गुल्मगूढवपुर्गाढमाकर्णाकृष्टकार्मुकः । विव्याध व्याधीस्तीक्ष्णशरेण चरणं हरे ॥३३॥ "विद्धपादतलः शौरिरुत्थाय सहसाखिलाः । दिशो निरीक्ष्य सोऽदृष्टा परमुच्चैर्जगाविति ॥३४॥ विपादतलोऽहं भो केनाकारणवैरिणा । कथ्यतां कुलमास्मीयं नाम च स्फुटमत्र मे ॥३५॥ अज्ञातकुलनामानं नरं नावधिषं रणे । कदाचिदपि योऽहं ही किं ममेदमुपागतम् ॥३६॥ तद् ब्रवीतु भवान् को मो योऽज्ञातकुलनामकः । अज्ञातवैरसंबन्धो वने जातो ममान्तकः ॥३०॥ पानी पीते ही के साथ उस तृष्णाको जड़-मूलसे नष्ट कर देता है ॥२४॥ तुम यहाँ इस वृक्षकी शीतल छायामें बैठो, मैं तुम्हारे लिए सरोवरसे शीतल पानी लाता हूँ॥२५॥ ___ इस प्रकार छोटे भाई कृष्णसे कहकर उसे अपने हृदयमें धारण करते हुए बलदेव अपने श्रमका विचार न कर पानी लेनेके लिए गये ॥२६॥ इधर कृष्ण भी बतायी हुई वृक्षको सघन छायामें जा पहुँचे और कोमल वखसे शरीरको ढंककर मृदु मृत्तिकासे युक्त पृथिवीपर पड़ रहे । उसी सघन वनमें वे थकावट दूर करनेके लिए बायें घुटनेपर दाहिना पांव रखकर क्षण-भरके लिए सो गये ।।२७-२८॥ शिकार-व्यसनका प्रेमी जरत्कुमार अकेला उस वनमें घूम रहा था, सो अपनी इच्छासे उसी समय उस स्थानपर आ पहुँचा ।।२९भाग्यकी बात देखो कि कृष्णके स्नेहभरा जो जरत्कुमार उनके प्राणोंकी रक्षाकी इच्छासे द्वारिकासे निकलकर मगकी तरह वनमें प्रविष्ट हो गया था वही उस समय विधाताके द्वारा लाकर उस स्थानपर उपस्थित कर दिया गया। धनुर्धारी जरत्कुमारने दूरसे आगे देखा तो उसे कुछ अस्पष्ट-सा दिखायी दिया ॥३०-३१।। उस समय कृष्णके वस्त्रका छोर वायुसे हिल रहा था इसलिए जरत्कुमारको यह भ्रान्ति हो गयी कि यह पास ही में सोये हुए मृगका कान हिल रहा है। फिर क्या था झाड़ोसे जिसका शरीर छिपा हुआ था और शिकारीके समान जिसकी क्रूर बुद्धि हो गयी थी ऐसे जरत्कुमारने बड़ी मजबूतीसे कान तक धनुष खींचकर तीक्ष्ण बाणसे कृष्णका पैर वेध दिया ॥३२-३३॥ पदतलके विद्ध होते ही श्रीकृष्ण सहसा उठ बैठे और सब दिशाओं में देखनेके बाद भी जब कोई दूसरा मनुष्य नहीं दिखा तब उन्होंने जोरसे इस प्रकार कहा कि किस अकारण वैरीने मेरा पदतल वेधा है। वह यहां मेरे लिए अपना कुल तथा नाम साफ-साफ बतलाये ॥३४-३५।। जिस मुझने युद्ध में कभी भी अज्ञात-कुल और अज्ञात नामवाले मनुष्यका वध नहीं किया आज उस मेरे लिए यह क्या विपत्ति आ पड़ी ? ॥३६॥ इसलिए कहो कि अज्ञातकुल नामवाले आप कौन हैं ? तथा जिसके वैरका पता नहीं ऐसा कौन इस वनमें मेरा घातक हुआ है ? ॥३७॥ १. संभूतानकः ख., क. । २. श्रमव्यपोहनाय + असो + अशेत । ३. तदेवासी म.। ४. विद्धतालपदः म. । ५. यज्ज्ञात म., क , ङ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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