Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
The eighth chapter of the Samavasarana, a place of eternal celebration and infinite blessings, was filled with devotees, hands clasped in reverence, eager to hear the Dharma. Varadatta, the head of the Ganadharas, bowed to the supreme among the speakers, Lord Neminath, and asked a question for the benefit of all the worthy souls.
"O Lord, what is the ultimate benefit for all beings?" he inquired.
Following this question, the divine voice of the Lord resonated. This divine sound emanated from the four faces of the Lord, signifying the four Purusharthas (goals of human life). It was a meaningful sound, supporting the four varnas (social classes) and ashramas (stages of life), echoing in all directions. It was the mother of the four Anuyogas (paths of spiritual practice), the one who exposes, challenges, awakens, and liberates.
It had nine stages: one, two, three, four, five, six, seven, eight, and nine. It was a single entity, yet capable of generating infinite variations. It destroyed the harmful, fostered the beneficial, established the good, and maintained it in its rightful place. It swiftly removed the inauspicious and fulfilled the supreme auspiciousness. It weakened and ultimately destroyed the accumulated karma.
This divine sound, emanating from the Lord's presence, could be heard clearly within a radius of one yojana (approximately 9 miles). It was as if the sound originated everywhere within that circle, with no difference in its clarity or sweetness.
________________
अष्टपश्चाशः सर्गः एवं नित्योत्सवानन्तकल्याणकास्पदे पदे । लोके धर्म प्रशुश्रषौ कृताञ्जलिपुटे स्थिते ॥१॥ वदतां वरमानम्य वरदत्तो गणाग्रणीः । हितं पप्रच्छ भव्यानां समस्तानां जिनेश्वरम् ॥२॥ तत्प्रश्नानन्तरं धातुश्चतुर्मुखविनिर्गता। चतुर्मुखफला सार्था चतुर्वर्णाश्रमाश्रया ॥३॥ चतुरस्रानुयोगानां चतुर्णामेकमातृका । चतुर्विधकथावृत्तिश्चतुर्गतिनिवारिणी ॥४॥ एकद्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्ताष्टनवास्पदा । अपर्यायापि सत्तेवानन्तपर्यायभाविनी ।।५।। अहितं शातयन्ती सा रोचयन्ती हितं सदा । स्थापयन्ती च तत्पात्रे धारयन्ती यथायथम् ॥६॥ वारयन्त्यशुभादाशु पूरयन्ती शुभं परम् । श्लथयन्त्यर्जितं कर्म ग्लपयन्ती प्रभावतः ॥७॥ समन्ततः शिवस्थानाद्योजनाधिकमण्डले । भत्रैवात्रैव वृत्तेति तत्र तत्रास्ति तादशी ॥४॥
इस प्रकार नित्य उत्सव और अनन्त कल्याणोंके एक स्थानस्वरूप समवशरणमें जब धर्म सुननेके इच्छुक जीव हाथ जोड़कर बैठ गये तब वरदत्त गणधरने वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्री नेमि जिनेन्द्रको नमस्कार कर समस्त भव्यजीवोंका हित पूछा। भावार्थ-हे भगवन् ! समस्त जीवोंके लिए हितरूप क्या है, ऐसा प्रश्न किया ॥१-२॥ गणधरके उक्त प्रश्नके अनन्तर भगवान्की दिव्यध्वनि खिरने लगी। भगवान्की वह दिव्यध्वनि चारों दिशाओंमें दिखनेवाले चार मुखोंसे निकलती
र पुरुषार्थरूप चार फको देनेवाली थी, सार्थक थी, चार वर्ण और आश्रमोंको आश्रय देनेवाली थी, चारों ओर सुनाई पड़ती थी, चार अनुयोगोंकी एक माता थी, आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेजिनी और निर्वेदिनी इन चार कथाओंका वर्णन करनेवाली थी, चार गतियोंका निवारण करनेवाली थी। एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ और नौका स्थान थी, अर्थात् सामान्य रूपसे एक जीवका वर्णन करनेवाली होनेसे एकका स्थान थी, श्रावक मुनिके भेदसे दो प्रकारके धर्मका अथवा चेतन-अचेतन और मूर्तिक-अमूर्तिकके भेदसे दो द्रव्योंका निरूपक होनेसे दोका स्थान थी, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्ररूपी रत्नत्रय अथवा चेतन, अचेतन और चेतनाचेतन द्रव्योंका वर्णन करनेवाली होनेसे तीनका स्थान थी, चार गति, चार कषाय अथवा मिथ्यात्वादि चार प्रत्ययोंका निरूपण करनेवाली होनेसे चारका स्थान थी, पांच अस्तिकाय अथवा प्रमाद-सहित मिथ्यात्वादि पांच प्रत्ययोंका वर्णन करनेवाली होनेसे पांचका स्थान थी, छह द्रव्योंका वर्णन करनेवाली होनेसे छहका स्थान थी, सात तत्त्वोंकी निरूपक होनेसे सातका स्थान थी, आठ कर्मोंका निरूपण करनेवाली होनेसे आठका स्थान थी और सात तत्त्व तथा पुण्य-पाप इन नो पदार्थोंका वर्णन करनेवाली होनेसे नौका स्थान थी। पर्याय-रहित होनेपर भी सत्ताके समान अनन्त पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली थी, अहितको नष्ट करनेवाली थी, सदा हितकी रुचि उत्पन्न करनेवाली थी, हितका स्थापन करनेवाली थी, पात्रमें यथायोग्य हितको अपने प्रभावसे धारण करनेवाली थी, अशुभसे शीघ्र हटानेवाली थी, उत्कृष्ट शुभको पूर्ण करनेवाली थी, अजित कर्मको शिथिल करनेवाली अथवा बिलकुल ही नष्ट करनेवाली थी। जहां भगवान् विराजमान थे वहांसे चारों ओर एक योजनके घेरामें इतनी स्पष्ट सुनाई पड़ती थी जैसे यहीं उत्पन्न हो रही हो। वह दिव्य ध्वनि जैसी उत्पत्तिस्थानमें सुनाई पड़ती थी वैसी ही एक योजनके घेरामें सर्वत्र सुनाई पड़ती थी-उसमें हीनाधिकता नहीं मालूम होती थी, मधुर १. प्रकर्षेण श्रोतुमिच्छौ। २. -मानत्य म., क., ग.। ३. विनिर्गते म.। ४. संसारः संसारकारणमहितम् (क. टि.)। ५. मोक्षो मोक्षकारणं हितम् ज. । ६. तादृशं क., ग., म ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org