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In the Harivamsha Purana: The king accepted the child abandoned by the queen, named Enipuṭra. When the king asked how the child came to him, the sage narrated the entire story. The sage revealed that she had become a goddess after her death, and out of affection for the growing child, the king, Shilayudha, accepted him as his own son. Later, the king initiated Enipuṭra as the ruler and himself took sannyāsa and attained the heavenly abode. Thereafter, Enipuṭra's daughter, named Priyaṃgusundarī, was born, who was of dark complexion like the Priyaṃgu flower and extremely beautiful. When she came of age, she held a svayaṃvara ceremony, but being disinclined towards sensual pleasures, she rejected all the royal suitors. One day, when Priyaṃgusundarī saw the sage (the narrator) and the king's companion Bandhūmatī in the royal palace, she was pierced by the arrows of Cupid. The sage then asked the king to unite with her, assuring him that she was not given to anyone else. The sage claimed to be the authority in the matters of this royal lineage, and said that she had been given to the king by her own father and brothers. The sage fixed an auspicious night for their union in the temple of the god of love. When the king humbly requested the boon that whenever he remembers the goddess, she should grace him, the goddess agreed.
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________________ हरिवंशपुराणे गृहाण गृहिणीत्यक्तमेणीपुत्राख्यमेतकम् । इत्युक्तेन तु तेनोक्तमपुत्रस्य कुतः सुतः ||५३ ॥ कथं वा तापसि ! प्राप्तो दारकोऽयं त्वया वद । वृत्तं मया समस्तं तत्सामिज्ञानं ततोऽकथि ॥ ५४ ॥ देवीस्वं च निजं येन स राजात्मजमग्रहीत् । वर्धमानस्य तस्याहं पुत्रस्नेहेन मोहिना ॥५५॥ जातानुपालिनी नित्यं राज्ञश्चेप्सितदायिनी । एणीपुत्रमसौ राजा स्वराज्ये न्यस्य पण्डितः ॥ ५६ ॥ प्रव्रज्य मुनिमार्गस्थः स्वर्गलोकमवाप्तवान् । जाता च तनया पश्चादेणीपुत्रस्य रूपिणी ॥ ५७ ॥ प्रियङ्गुसुन्दरीनाम्ना प्रियङ्गुश्यामवर्तिनी । स्वयंवरविधौ धीरा प्रत्याख्यातवती च सा ||१८|| भूमौ राजसुतान् काम सौख्य भोगविरागिणी । अद्राक्षीद् बन्धुमत्यामा त्वां सा राजगृहे यदा ॥ ५९ ॥ ततः परमधत्ताङ्गमनङ्गशरशल्यितम् । तद् विधत्स्व तथा वीर ! वचनान्मम संगमम् || ६० ॥ अदत्तेति न चाशङ्क्यं तुभ्यं दत्ता मया हि सा । अस्य राजकुलस्याहं प्रमाणं कार्यंवस्तुनि ||६१ ॥ तो मया वितीर्णेयं वितीर्णा पितृबान्धवैः । समागमस्तु वामस्तु देवतासुगृहे ततः ॥६२॥ 'श्वस्तम्यां कृतसंकेतो रजन्यां सुविनिश्चितः । अमोघदर्शनं देव ! देवतानामतो भवान् ||६३॥ वरिस्वा वरमादत्स्व यत् किंचिदिह वाञ्छितम् । इत्युक्तेनैव सावाचि वाचा विनयपूर्वया ||६४ ॥ कृतस्मरणया देवि ! स्मर्तव्योऽमोघसस्मिते । एवमुक्ता च तेनासावेवमस्त्विति देवता ॥६५॥ ३८२ परम नीतिज्ञ था उसे देखकर मैंने कहा कि हे राजेन्द्र ! यह राजाओंके लक्षणोंसे युक्त आपका पुत्र है || २ || यह आपकी मृत स्त्री द्वारा । छोड़ा गया है और एणीपुत्र इसका नाम है । इसे आप ग्रहण कीजिए । मेरे इस प्रकार कहनेपर राजा शीलायुधने कहा कि मैं तो पुत्रहीन हूँ । मेरे पुत्र कहाँ से आया ? ||५३ || हे तापसि ! ठीक-ठीक बता यह पुत्र तुझे कैसे प्राप्त हुआ है ? राजाके इस प्रकार पूछने पर मैंने अभिज्ञान-परिचायक घटनाओं के साथ-साथ वह सब वृत्तान्त कह ' दिया || ५४ || और यह भी कह दिया कि मैं मरकर देवी हुई हूँ । मेरे इस कथनपर विश्वास कर राजा शीलायुधने वह पुत्र ले लिया । पुत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगा और मैं मोहयुक्त पुत्रस्नेहके कारण उसकी निरन्तर रक्षा करने लगी । राजा शीलायुधकी जो इच्छा होती थी उसकी मैं तत्काल पूर्ति कर देती थी । कदाचित् परम विवेकी राजा शीलायुध, उस एणीपुत्रको अपने राज्यपर पदारूढ़ कर दीक्षा ले मुनि हो गया और मरकर स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ । पश्चात् राजा एणीपुत्रके प्रियंगुपुष्पके समान श्यामवर्ण, अतिशय रूपवती, प्रियंगुसुन्दरी नामकी पुत्री हुई । राजा एणीपुत्रने उसका स्वयंवर किया परन्तु कामभोगसे विरक्त उस धैर्यशालिनीने पृथिवीतल के समस्त राजकुमारोंका निराकरण कर दिया अर्थात् किसीके साथ विवाह करना स्वीकृत नहीं किया । तदनन्तर जिस दिनसे उसने राजमहल में बन्धुमती के साथ आपको देखा है उसी दिन से वह कामके बाणोंसे अत्यन्त सशल्य शरीरको धारण कर रही है इसलिए हे वीर ! मेरे कहने से तू उसके साथ समागम कर ।।५५-६०।। वह कन्या अदत्ता है किसीके द्वारा दी नहीं गयी है-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैंने तेरे लिए वह कन्या दी है । इस राजकुलके करने योग्य कार्योंमें मैं प्रमाणभूत हूँ अर्थात् समस्त कार्य मेरी ही सम्मतिसे होते हैं || ६१ || इसलिए मैंने तुझे यह कन्या दी मानो इसके पिता और भाइयोंने ही दी है । अतः कामदेवके मन्दिर में तुम दोनोंका समागम हो और इसके लिए कलकी रातका संकेत निश्चित किया गया है । हे देव ! देवताओंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता इसलिए आप मुझसे वर माँगकर इस संसारमें जो कुछ भी आपको इष्ट हो वह प्राप्त करो । नागकुमारीके इस प्रकार कहने पर वसुदेवने विनयपूर्णं वचनों द्वारा उससे कहा कि हे अमोघ मुस्कानको धारण करनेवाली देवि ! मैं यही वर चाहता हूँ कि जब मैं आपका स्मरण करूँ तब आप मेरा ध्यान रखें । वसुदेव के इस प्रकार कहनेपर उसने 'एवमस्तु' कहा ||६२ - ६५।। १. मोहिनी म । २. युवयोः । ३. आगामिन्याम् । ४. संमिते म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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