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## Chapter Fourteen: The Land of Vatsa There is a land called Vatsa, among other lands. It takes on the form of a calf when the milkmen milk the cows. ||1|| Kaushambi, the city, with its palaces reflected in the smooth, blue waters of the Yamuna, shone like the deep navel of Vatsa. ||2|| Adorned with ramparts, walls, and moats, and draped in the sky, the city appeared like a woman burdened by the weight of her hips and breasts. ||3|| Like a mature courtesan, she wore a garment adorned with jewels, and touched the clouds, filled with fresh water, like a lover touching the face of their beloved in the night. ||4|| Or, like a virtuous wife in the dark fortnight, she remained untouched by the rays of the moon, which are like the hands of a wicked man. And just as a virtuous wife shines brightly with her jeweled ornaments amidst the many faults of other women, so too did the city shine with the brilliance of its jeweled ornaments in the dark fortnight. ||5|| The king, the lord of this city, was named Sumukha. Like the sun, he was the source of great power. Just as the sun fills the sky with its rays, so too did the king fill the land with his taxes. ||6||
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________________ चतुर्दशः सर्गः अस्ति वरसाभिधो देशो देशेष्विह परेषु यः । सत्सु वत्साकृतिं धत्ते गोदोहे दोग्टगोचरे ||१|| कालिन्दीस्निग्धनीलाम्बुप्रतिबिम्बितसौर्धेता । कौशाम्बी नगरी तस्य गम्भीरा नाभिरख्यभात् ||२|| वप्रप्राकारपरिखाभूषणाम्बरधारिणी । नितम्बस्तनभारार्त्तस्तम्भितेव वधूरभात् ॥३॥ रत्नचित्राम्बरधरा या प्रासादमुखैर्घनान् । वर्षानिशास्त्रिव स्निग्धान् लेढि प्रौढाभिसारिका ॥४॥ 'दोषाकरकराप्राप्ता रत्नभूषार्चिषां चयैः । लेभे बहुलदोषासु परभागं सतीव या ॥५॥ पुर्याः प्रभुरभूतस्याः प्रतापप्रभवो नृपः । सवितेव कराक्रान्तदिक्चक्रः सुमुखः सुखी ||६|| 1 अथानन्तर जम्बूद्वीप में एक वत्स नामका देश है जो दूसरे देशोंके विद्यमान रहते हुए दोहनकर्ता जब गायको दुहते हैं तब सचमुच ही वत्स - बछड़ेकी आकृतिको धारण करता है । भावार्थ - जिस प्रकार वत्स गायके दूध निकालने में सहायक है उसी प्रकार यह देश भी गोपृथिवीसे धन-सम्पत्ति निकालने में सहायक था || १ || यमुना नदीके स्निग्ध एवं नीले जलमें जिसके महलोंका समूह सदा प्रतिबिम्बित रहता था ऐसी कौशाम्बी नगरी उस वत्स देशकी गहरी नाभिके समान अतिशय सुशोभित थी ॥२॥ वप्र, प्राकार और परिखारूपी आभूषण तथा अम्बर - आकाश ( पक्ष में वस्त्र ) को धारण करनेवाली वह नगरी नितम्ब और स्तनोंके भारसे पीड़ित होकर खड़ी हुई स्त्री के समान जान पड़ती थी ||३|| वह नगरी प्रौढ़ अभिसारिकाके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार प्रौढ़ अभिसारिका रत्नचित्राम्बरधरा - रत्नोंसे चित्र-विचित्र वस्त्रको धारण करती है उसी प्रकार वह नगरी भी रत्न-चित्राम्बरधरा - रत्नोंसे चित्र-विचित्र आकाशको धारण करती थी, और अभिसारिका जिस प्रकार रात्रिके समय अपने स्नेही जनोंका प्रसन्न मुखसे स्पर्श करती है उसी प्रकार वह नगरी भी वर्षाऋतुरूपी रात्रि के समय स्निग्ध - नूतन जलसे भरे मेघका महलरूपी मुखोंसे स्पर्श करती थी ॥४॥ अथवा वह नगरी कृष्ण पक्षकी रात्रियों में पतिव्रता स्त्री के समान सुशोभित होती थी क्योंकि जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री दोषाकरकराप्राप्ता - दोषोंकी खानस्वरूप दुष्ट मनुष्योंके हाथसे अस्पृष्ट रहती है उसी प्रकार वह नगरी भी बहुलदोषासु -कृष्ण पक्षकी रात्रिमें दोषाकरकरा प्राप्ता - चन्द्रमा की किरणोंसे अस्पृष्ट थी और पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार बहुल दोषासु - अनेक दोषोंसे भरी व्यभिचारिणी स्त्रियोंमें रत्नमय आभूषणोंकी किरणों के समूह उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त होती है, उसी प्रकार वह नगरी भी बहुलदोषासु - कृष्ण पक्षकी रात्रियों में रत्नमय आभूषणोंकी किरणोंसे उत्कृष्ट शोभाको प्राप्त थी || ५ | उस कौशाम्बी नगरीका स्वामी राजा सुमुख था । वह सुमुख ठीक सूर्यके समान जान पड़ता था क्योंकि जिस प्रकार सूर्य प्रतापप्रभवः --- प्रकृष्ट सन्तापका कारण है उसी प्रकार वह राजा भी प्रतापप्रभवः - उत्कृष्ट प्रभावका कारण था । जिस प्रकार सूर्य कराक्रान्तदिक्चक्रः - अपनी किरणोंसे दिङ्मण्डलको व्याप्त कर लेता है उसी प्रकार वह राजा भी कराक्रान्तदिक्चक्र:- अपने टैक्ससे दिङ्मण्डलको व्याप्त कर १. ख पुस्तके 'दोग्धगोचरे' इति पाठ: केनापि 'दुग्धगोचरे' इति रूपेण शोधितः । २ सौधसमूहः । ३. मध्यदेशो नाभिश्च । ४. दोषाकरः दोषवान् मनुष्यः तस्य करेण अप्राप्ता पक्षे दोषाकरश्चन्द्रस्तस्य करैः किरणैः अप्राप्ता । ५. प्रभूतदोषासु स्त्रीषु पक्षे कृष्णपक्षनिशासु । ६. गुणोत्कर्षम् । ७. प्रकृष्टस्तापः प्रतापस्तस्य प्रभवः कारणं पक्षे प्रतापस्य प्रभावस्य प्रभवः कारणं 'स प्रभावः प्रतापश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्' इत्यमरः । ८. कराः किरणाः पक्षे राजग्राह्यो बलिः । ९. सुष्ठु खम् आकाशं यस्य स पक्षे सुखमस्यास्तीति सुखी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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