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## Harivamsha Purana:
**Chapter 176:**
These are the five transgressions of the *Kupy* vow: transgression of *Hiranya-Suvarna*, transgression of *Vastu-Kshetra*, transgression of *Dhana-Dhannya*, transgression of *Dasi-Das*, and transgression of *Kupy*.
**Chapter 177:**
These are the five transgressions of the *Digvrat* vow: *Adhovyatikram*, *Tiriyagvyatikram*, *Urdhva-vyatikram*, *Smrityantara-adhan*, and *Kshetra-vridhi*.
**Chapter 178:**
These are the five transgressions of the *Deshavrat* vow: *Preshya-prayoga*, *Aayan*, *Pudgala-kshepa*, *Shabdanupata*, and *Rupanupata*.
**Chapter 179:**
These are the five transgressions of the *Anarthadanda* vow: *Kandarpa*, *Kautkuchya*, *Maukhya*, *Asamikshya-adhikaran*, and *Upbhoga-paribhoga-anarthakya*.
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हरिवंशपुराणे
हिरण्यस्वर्णयोवस्तु क्षेत्रयोर्धनधान्ययोः । दासीदासाद्ययोः पञ्च कुप्यस्यैते व्यतिक्रमाः ॥ १७६ ॥ दिग्विरस्यतिचारोऽवस्तिर्यगूर्ध्वव्यतिक्रमाः । लोभात्स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्चधा ॥ १७७॥ ● प्रेष्यप्रयोगानयन पुद्गलक्षेपलक्षणाः । शब्दरूपानुपातौ द्वौ तद्देशविरतिर्धते ॥ १७८ ॥ पञ्च कन्दर्प कौरकुच्च मौखर्याणि तृतीयके । असमीक्ष्याधिकरणोपभोगादिनिरर्थने ॥ १७९ ॥
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अनंगक्रीड़ा है। दूसरेके द्वारा गृहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके यहाँ जाना गृहीतेश्वरिकागमन है । दूसरे द्वारा अगृहीत व्यभिचारिणी स्त्रीके यहाँ जाना अगृहीतेत्वरिकागमन है । और स्वस्त्रीके साथ भी काम सेवनमें अधिक लालसा रखना कामतीव्राभिनिवेश है ।।१७४ - १७५ ।। हिरण्यसुवणं, वास्तु-क्षेत्र, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य -- बर्तन, चाँदी आदिको हिरण्य तथा सोना व सोने के आभूषण आदिको सुवर्ण कहते हैं । रहने के मकानको वास्तु और गेहूँ, चना आदिके उत्पत्ति स्थानोंको क्षेत्र कहते हैं। गाय, भैंस आदिको धन तथा गेहूं, चना आदि अनाजको धान्य कहते हैं । दासी दास शब्दका अर्थ स्पष्ट है। बर्तन तथा वस्त्रको कुप्य कहते हैं। इनके प्रमाणका उल्लंघन करना सो हिरण्यसुवर्णातिक्रम आदि अतिचार होते हैं || १७६।।
अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, ऊर्ध्वव्यतिक्रम, स्मृत्यन्तराधान और क्षेत्रवृद्धि ये पाँच दिग्व्रत के अतिचार हैं। लोभके वशीभूत होकर नीचेकी सीमाका उल्लंघन करना अधोव्यतिक्रम है, समान धरातल की सीमाका उल्लंघन करना तिर्यग्व्यतिक्रम है । ऊपरको सीमाका उल्लंघन करना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है । की हुई सीमाको भूलकर अन्य सीमाका स्मरण रखना स्मृत्यन्तराधान है तथा मर्यादित क्षेत्रकी सीमा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है || १७७॥ प्रेष्य प्रयोग, आनयन, पुद्गल क्षेप, शब्दानुपात और रूपानुपात ये पाँच देशव्रतके अतिचार हैं । मर्यादाके बाहर सेवकको भेजना प्रेष्यप्रयोग है । मर्यादासे बाहर किसी वस्तुको बुलाना आनयन है । मर्यादा के बाहर कंकड़-पत्थर आदिका फेंकना पुद्गलक्षेप है, मर्यादाके बाहर अपना शब्द भेजना शब्दानुपात है और मर्यादाके बाहर काम करनेवाले लोगोंको अपना रूप दिखाकर सचेत करना रूपानुपात है || १७८||
कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखयं, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये पाँच अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार हैं। रागकी उत्कष्टतासे हास्यमिश्रित भण्ड वचन बोलना कन्दर्प है । शरोरसे कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है । आवश्यकतासे अधिक बोलना मौखयं है । प्रयोजनका विचार न रख आवश्यकता से अधिक किसी कार्य में प्रवृत्ति करना-कराना असमीक्ष्याधिकरण है और उपभोग - परिभोगकी वस्तुओंका निरर्थक संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है || १७९ || मनोयोग दुष्प्रणिधान, वचनयोग दुष्प्रणिधान, काययोग दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पांच सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार हैं । मनको अन्यथा चलायमान करना मनोयोगदुष्प्रणिधान है, वचनकी अन्यथा प्रवृत्ति करना - पाठका अशुद्ध उच्चारण करना वचनयोग दुष्प्राणधान है । कायको चलायमान करना काययोग दुष्प्रणिधान है । सामायिकके प्रति आदर वा उत्साह नहीं होना- बेगार समझकर करना अनादर है और चित्तको एकाग्रता न होनेसे सामायिककी विधि या पाठका भूल जाना अथवा कार्यान्तर में उलझकर सामायिकके समयका स्मरण
१. क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकु प्यप्रमाणातिक्रमाः ।। २९ ।। २ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥ ३० ॥ ३. आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपात पुद्गलक्षेपा: ।। ३१ ।। स्मृत्यन्तराध्यानं क. । ४. कन्दपंकौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥
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