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Dvāviṃśatitamaḥ sargaḥ 327 tasyāmetadavasthāyāṃ kulamasmākamākulam | na vetti kiṃ karomoti pitṛmātṛpurogamam ||118|| kanyāyā mānasaṃ pra'śne ghotitaṃ kulavidyayā | padminyevānyathābhūtyā yuvamātaṅgadūṣitam ||119|| tato vini'ścitāsmābhiryādavasyatvepṣayā| mattamātaṅgagāminyāḥ kanyāyā hṛdayyavyathā ||120|| āgatasmi tato netaṃ bhavantaṃ tanna yādava| sā tavaivavidoddistā tadehiparīṇīyatām ||121|| sa 'śrutvā tadavasthāṃ tāṃ cetaśvoranakarīṇīm | sotkaṇṭhitoapi tatkāle naiccañcampāvinirgamam ||122|| āgamiṣyāmyahaṃ tāvattvaṃ tāṃ tāvattanūdarīm | amba! bimbādharāṃ gatvā mamodantena sāntvaya ||123|| setyuktyānujñayā muktā dattā'śīrevamastviiti | manorathārathārūḍhā gatvā kanyāmasāntvayat ||124|| snātvā payodharonmuktavāsudevaḥ navoda kaiḥ | kṛtvā payodharā'śleṣaṃ kāntayā 'śayitoanyada ||125|| mīmada'rśanayākṛṣṭakaro vetāla kanyayā | vibud dhoatāḍayanmugdho bhujenadr̥ḍhamūṣṭinā ||126|| nītaśca ni'śi nistriṃ'śanārākārabhṛtā tayā | rathyāmārgena duhiṃ mahāpitṛvanaṃ yadūḥ ||127|| mātaṅgīmibhṛ'śaṃ bhṛṅgīsaṃgatāṅgaprabharāmamīḥ | saṃgatābhinitajñoatra mātaṅgī 'śaurikṣata ||128|| ehi svāgatamiṣyāha sā hasantī tametayā | 'siktovaitālavidyābhirha santyantaradhīyata ||129|| Preservation of Jain terms: mātaṅgī, vetāla, yādava
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________________ द्वाविंशतितमः सर्गः ३२७ तस्यामेतदवस्थायां कुलमस्माकमाकुलम् । न वेत्ति किं करोमोति पितृमातृपुरोगमम् ॥११८॥ कन्याया मानसं प्रश्ने घोतितं कुलविद्यया । पद्मिन्येवान्यथाभूत्या युवमातङ्गदूषितम् ॥११॥ ततो विनिश्चितास्माभिर्यादवस्य तवेप्सया। मत्तमातङ्गगामिन्याः कन्याया हृदयव्यथा ॥१२०॥ आगतास्मि ततो नेतं भवन्तं तन्न यादव। सा तवैव विदोद्दिष्टा तदेहि परिणीयताम् ॥१२॥ स श्रत्वा तदवस्यां तां चेतश्वोरणकारिणीम् । सोत्कण्ठितोऽपि तत्काले नैच्छञ्चम्पाविनिर्गमम् ॥१२२॥ आगमिष्याम्यहं तावत्वं तां तावत्तनूदरीम् । अम्ब ! बिम्बाधरां गत्वा ममोदन्तेन सान्त्वय ॥१२३॥ सेत्युक्त्यानुज्ञया मुक्ता दत्ताशीरेवमस्त्विति । मनोरथरथारूढा गत्वा कन्यामसान्त्वयत् ॥१२४॥ स्नात्वा पयोधरोन्मुक्तवसुदेवो नवोदकैः । कृत्वा पयोधराश्लेषं कान्तया शयितोऽन्यदा ॥१२५॥ मीमदर्शनयाकृष्टकरो वेताल कन्यया । विबुद्धोऽताडयन्मुग्धो भुजेन दृढमुष्टिना ॥१२६॥ नीतश्च निशि निस्त्रिंशनराकारभृता तया । रथ्यामार्गेण दुहिं महापितृवनं यदुः ॥१२॥ मातङ्गीमिभृशं भृङ्गीसंगताङ्गप्रभारममिः । संगताभिनितज्ञोऽत्र मातङ्गी शौरिक्षत ॥१२८॥ एहि स्वागतमिस्याह सा हसन्ती तमेतया । 'सिक्तो वेतालविद्याभिर्ह सन्त्यन्तरधीयत ॥१२९॥ है और न कुछ चेष्टा ही करती है। कामके बाणरूपी शल्योंसे छिदी हई वह कन्या जोवित है यही बड़े आश्चर्यकी बात है ।।११७॥ उसको इस दशामें माता-पिताको लेकर हमारा समस्त कुल व्याकुल हो रहा है तथा वह यह भी नहीं जानता है कि क्या करूँ ? ॥११८।। जब मैंने उसके हृदयका हाल जानने के लिए कल-विद्यासे पछा तो उसने यह प्रकट किया कि हाथीके द्वारा नष्ट की हुई कमलिनीके समान इसका हृदय किसी युवा पुरुषके द्वारा दूषित किया गया है ।।११९|| तदनन्तर मैंने निश्चय कर लिया कि मत-मतंगजके समान चलनेवाली कन्याके हृदयको पीड़ा आपकी ही इच्छासे है। भावार्थ -- उसके हृदयकी पीड़ा आपके ही कारण है ।।१२०।। हे यादव ! मैं आपको वहां ले जानेके लिए आयो हूँ, निमित्तज्ञानीने भी वह आपकी ही बतलायी है अतः आप चलें और उसे स्वीकार करें ।।१२१।। कुमार वसुदेव अपने चित्तको चुरानेवाली नीलंयशाकी वह अवस्था सुन जानेके लिए यद्यपि उत्कण्ठित हो गये तथापि उस समय उन्होंने चम्पापुरीसे बाहर जाना ठीक नहीं समझा ॥१२२॥ और यही उत्तर दिया कि हे अम्ब! मैं आऊँगा तुम तबतक जाकर उस कृशोदरी बिम्बोष्ठीको मेरा समाचार सुनाकर सान्त्वना देओ ॥१२३।। कुमारने इस प्रकारको आज्ञा देकर जिसे छोड़ा था ऐसी वृद्धा स्त्रीने 'तथास्तु' कहकर उन्हें आशीर्वाद दिया और मनोरथरूपी रथपर आरूढ़ हो जाकर कन्याको सान्त्वना दी ॥१२४॥ तदनन्तर किसी समय वसुदेव, मेघों द्वारा छोड़े हुए नूतन जलसे स्नान कर कान्ता गान्धर्वसेनाके साथ उसके स्तनोंका गाढ़ालिंगन करते हुए शयन कर रहे थे ॥१२॥ कि एक भयंकर आकारवाली वेताल-कन्याने आकर उनका हाथ खींचा। वे जाग तो गये पर यह नहीं समझ सके कि इस समय क्या करना चाहिए फिर भी दृढ़ मुट्ठियोंवाली भुजासे उन्होंने उसे खूब पीटा ||१२६|| इतना होनेपर भी दुष्ट मनुष्यको आकृतिको धारण करनेवाली वह कन्या उन्हें मजबूत पकड़कर रात्रिके समय गलीके मार्गसे श्मशान ले गयी ॥१२७॥ हृदयकी चेष्टाओंको जाननेवाले कुमारने वहाँ भ्रमरीके समान काली-काली मातंगियोंसे युक्त एक मातंगीको देखा। उस मातंगीने हंसकर कूमारसे कहा कि आइए आपके लिए स्वागत है। यह कहकर वेताल विद्याओंसे उसने इनका अभिषेक कराया और उसके बाद वह हँसती हुई अन्तहित हो गयी ॥१२८-१२९॥ तदनन्तर उसने असली रूपमें प्रकट होकर कहा कि कुमार, मुझे मातंगी मत समझो, मैं हिरण्यवती हूँ। मैंने कार्य सिद्ध १. यादवश्च म.। २. संगीताङ्गम.। ३. वसुदेवः । ४. हसन्तीतिमेनया ग.। ५. सिना म. ख, । ६. अन्तहिता बभूव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001271
Book TitleHarivanshpuran
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages1017
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size26 MB
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