Book Title: Tattva Nyaya Vibhakar
Author(s): Labdhisuri
Publisher: Labdhisuri Jain Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tங்க : aldUT fcGJeyam: மாமயாமையா Tat - விசரிதான Anavner or tourire Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००8C004 Osmomsono00000000000000000000 श्रीलब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमालायास्त्रयोदशो मणिः [१३] जैनरत्न-व्याख्यानवाचस्पति-कविकुलकिरीट-सरिसार्वभौम जैनाचार्य-श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरविरचितः तत्त्वन्यायविभाकरः। Questo स्वोपज्ञन्यायप्रकाशाख्यया व्याख्यया विभूषितः, विषमस्थलटिप्पण्या परिष्कृतश्च । - - सच छाणीस्थश्रीलब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमालाकार्याधिकारिणा जमनादासात्मजेन चन्दुलालेन प्रकाशितः। CCODUC88000GOECO0000000000000000000CORGECOOC0000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000 . प्रथम संस्करणे ६०० प्रतयः वीर संवत् २४६८ - --- आत्म सं. ४६ विक्रम संवत् १९९९ मूल्यं रुप्यपञ्चकम् 000000000oad Otc 000Goooo0000000 Acco00000 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशका प्राप्तिस्थानच चन्दुलाल -जमनादास शाह मन्त्री श्री लम्पसरीवर जैन ग्रन्थमाला छाणी ( बडौदा स्टेट ) मुद्रकः- शाह गुलामचंद भाई श्री महोदय प्रिन्टिंग प्रेस दाणापीठ-भावनगर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनरत्न व्याख्यानवाचस्पति कविकुलकिरीट सूरिसार्वभौम जैनाचार्य श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराज Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन। . 'जब हमने हमारी श्री लब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला की शुरुआत की थी तब हमें यह तनिक भी ख्याल न था कि, इतने थोडे ही से समय में जैन साहित्य के प्रौढ ग्रन्थों के प्रकाशन का सौभाग्य हमें प्राप्त हो सकेगा। अाज हम, हमारे पाठकों की सेवा में जैन साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण प्रन्थ को दे रहे हैं । अनेकों ग्रन्थों में विकीर्ण जैन न्याय के विचारों का इस ग्रन्थ में गुरुदेव श्री विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराज ने बड़ी खूबी से संकलन किया है, जो निःसंदेह जैन न्याय के अभ्यासियों के लिये बडे ही लाभ का है । अनेकों ग्रन्थों को देखने के सिवाय केवल एक ही ग्रन्थ से जैन दर्शन के अधिकांश तत्त्वों एवं विचारों का परिचय उन्हें आसानी से प्राप्त होगा । और यह ग्रन्थ जैन साहित्य के लिये भी गौरव की चीज होगा ॥ आज से करीब तीन वर्ष पूर्व हम ने इस मूल मात्र तत्त्वन्यायविभाकर को प्रकाशित किया था जिसको देख के अनेकों विद्वानों, पंडितों एवं दर्शनशास्त्रियों ने इस प्रन्थ की उपादेयता की सराहना की थी और टीका, जो कि उस समय बन रही थी शीघ्र ही प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की थी उनकी इस इच्छानुसार आज यह प्रन्थ स्वोपज्ञ न्यायप्रकाश नामक टीका के साथ प्रकाशित किया जा रहा है। अनेकों स्थानों पर जहां कि स्पष्टता की आवश्यकता महसूस होती थी टिप्पणीयां भी लगायी गई है। इसके साथ साथ हम उदयप्रभसूरिजी कृत और हेमहंसगणी के वार्तिक से युक्त आरंभसिद्धि नामक ज्योतिष के ग्रन्थ को भी प्रकाशित कर रहे हैं, वह भी हमारे लिये गौरव की बात है। अब हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं कि पुस्तक के अन्तिम पन्ने में छपे साहाय्य की रकम के व्यौरे को देख वाचको को यह संदेह होना संभव है कि, इतनी साहाय्य होने पर भी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन । यह मूल्य क्यों ? इसके जवाब में यह कहना हम उचित समझते हैं कि रकमह केवल इस ही ग्रन्थ के प्रकाशन में नहीं परन्तु ग्रन्थमाला के साहित्यकार्य के लिये प्राप्त हुई है इसमें से हम उत्तरोत्तर जहां तक संभव होगा, साहित्य सेवा किया करेंगे। इस पुस्तक का मूल्य भी जब की लागत भी करीब छः से अधिक होने जा रहा है, हमने केवल पांच ही रक्खा है जो पुस्तक के महत्त्व को और कलेवर को देखते अधिक नहीं कहा जा सकता। और उसमें भी वर्तमान विश्वयुद्ध ने तो चारों ओर महंगाई का ही बोलबाला बना रक्खा है। . अन्त में हम हमारे आर्थिक सहायकों का जिनकी सहाय्य के आधार पर ही इतने विशालकाय ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव हो सका है, आभार मानते हैं और दूसरों के भी, जिन्हों ने हमें विविध रूप से साहाय्य दी है, हम ऋणी है । -प्रकाशक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । सुनिश्चितमेवैतद्विदुषां यदनादिनाऽनन्तेनाऽनेहसा दुरन्तसंसारकान्तारे नानाविधाधिव्याध्युपाधिलक्षण महादुःखदावानलसन्तप्तैर्निबिडकर्मणा सुदृढं प्रबद्धैर्मृगतृष्णायमानविषयविषपानोन्मत्तैश्चक्रवदनवरताने कयोनिसमुद्भव परिश्रान्तैर्जीवैर्नान्तरेण महता पूर्वार्जितपुण्यप्रभावेण सघन - कर्मबन्धप्रबन्धसन्धुक्षणदक्षं पीयूषपाथोंधिसहोदरानन्तसुखमय निर्वाणपुरीप्रापणसमर्थ मानुषं जन्म लभ्यते, तल्लाभेऽपि नार्यक्षेत्रसमवायः सुलभः, तत्रापि नवा मिध्यात्वतिमिरपरिहारेण सम्यकू - श्रद्धाया अवाप्तिरिति ॥ सा चेयं श्रद्धा जगत्रयविश्रुतार्ह दभिहितानवद्यजीवादिपदार्थाभिरुचिलक्षणैव । यत इदमे - वाहतं दर्शनं याथात्म्येन पदार्थतस्वावबोधाभिलाषुकाणामादर्शभूतं दुर्गमभवचक्रपरिभ्रमणपरिक्लिन्नानां भवोदधेः परम्पारं जिगमिषूणामनपायं तरणिकल्पञ्च । नात्र दर्शने दर्शनान्तरेष्विव पक्षपाताभिनिवेशेन पदार्थस्वरूपनिरूपणं परस्परविरुद्धतया प्रतिपादितमस्ति, नवा कोऽपि पदार्थचरात्मकोचरात्मको वा चारुतया न चर्चितः । पारङ्गताश्चास्मिन् दर्शने महान्तरसाधवः प्रति• भावन्तो न कापि कदापि सभासु सह दर्शनान्तरीयैर्विवदमाना अमोघानेकान्तकुचिकाप्रभावेण मुद्रिताः पराजयमुद्रया जगति शासनस्यास्यार्हतस्य विजयवैजयन्तीं प्रसारयाञ्चकुः । आरोपयच्च जयलक्ष्मी गले महात्मनां तेषामेव तदा तदा जयमालिकां यदा यदा समजनि दर्शनान्तरीयैर्वादः । येषाश्च महात्मनां चमत्कारिप्रकाण्डप्रतिभाप्रभावेण द्ययावद्भुवनोदरस्य प्राणसन्निभमार्हतशासनम - विच्छिन्नं चकास्ति । यत्र चापेक्षावादलक्षणं कुलिशं दुर्मतस्तम्बेरमाणामायत्तीकरणाय शोशुभ्यते ' ta निगूढाभिप्राय परिज्ञानेन हृदि निष्पक्षपाततासाम्राज्यं मिध्यात्वदावानलप्रशमश्च भविष्यति दूरे समुत्सारितोऽपि भविष्यति संशयवादः, तदेवंविधं दर्शनं तत्वज्ञानरत्नस्यानितरसाधारणमाकरं भ्रान्ताः कुदृष्टिकल्पनाहालाहललतावितानसंवीतमानसाः निजार्थमात्रसंसिद्ध्यभिनिवेशिनः सङ्कुचितमतिप्रचारा एव पण्डितंमन्यास्संशयवादोऽयं विरुद्धवादोऽयं चक्रवादोऽयमिति मुधैव कलयन्ति । ते च नितरां स्याद्वादसिद्धान्तानभिज्ञा एव । विलोकनीयाश्च तैः स्याद्वादप्रभाप्रवाहिणः सुदुर्भेद्ययुक्तिजालजटिला जैनशासनाम्बरमणयो दूरीकृत कुदर्शनान्धकारा अपेक्षाविशेषेणाभ्यन्तरीकृतसकलशास्त्रार्था आर्हतविचक्षणगीतार्थोदयाचलसमुज्झम्भिता ग्रन्थमार्ताण्डा निरस्य पक्षपाततिमिरदोषम् । स्याद्वादो हि वस्तुन्ये कस्मिन्नविरोधेनावस्थितानामनन्तधर्माणामपेक्षया व्यवस्थापन परः, 1 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्ययथा कत्र पुरुषे पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वपतित्वपितृव्यत्वभागिनेयत्वादयो धर्मास्सामान्यतो विरुद्धा अपि पुरुषविशेषाद्यपेक्षयाऽविरोधेन वर्तन्ते तथैवात्मादयोऽपि निखिलाः पदार्थास्सापेक्षतया नित्यत्वानित्यत्वभेदाभेदेकानेकादिधर्माण एव, नत्वपेक्षामन्तरेण ते नित्या एवानित्या एव वा, परस्परं भिन्ना एवाभिन्ना एव वा, एकरूपा एवानेकरूपा एव वा । केवलमपेक्षापरिज्ञानविधुरा एव केचिदात्मा नित्य एवेति परे क्षणिक एवेति, अन्ये सामान्यरूप एवेति, अपरे विशेषरूप एवेति विवदन्ते अन्यतराङ्गज्ञानेन हस्तिनस्तद्रूपत्वमेवेति विवदमानजात्यन्धा इव । न च पारयन्ति पदार्थयाथात्म्यावधारणाय । तदेवं दर्पणमिव पदार्थस्वरूपप्रकाशकं दुर्वादिभिरप्रकम्प्यं सरलहृदयानां कोविदानां सुविशदमिदमाहतं दर्शनं महता पूर्वपुण्यप्रभावेणैव प्राणिभिः प्राप्यते । अवाप्य चाहततत्त्वश्रद्धानरूपं दर्शनं ध्येयसिद्धेः परमनिदानभूताय ज्ञानाय चरणाय च प्रयतेत तयोरेव मोक्षं प्रति असाधारणकारणत्वात् । विहाय हि सन्मार्ग कुमार्गे परिभ्रमतो जीवानुत्पादयित्वा श्रद्धां व्यपोद्य च शङ्कां ज्ञानं तत्र दृढीकरोति प्रोत्साहयति च क्रियायाम् । ज्ञानपूर्विका च क्रिया पुरुषं परमसिद्धिं नयति । तस्माद्विहगस्य पक्षाविवोभे अप्यसाधारणं कारणम् ॥ आत्मा स्वरूपतोऽनन्तज्ञानवान् । तच्च ज्ञानं छद्मस्थानामनादिना कालेनावृतं सत् ज्ञानप्राप्तिसाधनमनुसृत्य तत्क्षयोपशमतारतम्येनाकरोद्धृतमणेः प्रसाधनवैचित्र्येण प्रकाश इव न्यूनाधिकत्वमनुभवति, तत्प्रतिबन्धकावरणस्यात्यन्तं क्षयेण चाविर्भवत्यनन्तं ज्ञानम् । आविर्भूतानन्तज्ञानाः केचित्तीर्थकृतः जगदुपकाराय सदेवमनुजायां पर्षदि देशनां दिशन्ति । तत्प्रभाविताश्च तीर्थकरकल्पगणभृदादिभिस्तदीयं ज्ञानमागमरूपेण निबध्नन्ति यत्प्रभावेणाल्पमेधसः सौकर्येण वस्तुस्वरूपं यथार्थतया अवगच्छन्ति । ते निबन्धाः केचन प्रकरणरूपाः कतिचन सूत्ररूपा अपरे च सङ्ग्रहणीरूपाः । एषामपि सुलभतयाऽवबोधाय टीकाभाष्यचूर्ण्यवचूर्यादिरूपा बह्वयो व्याख्या निबद्धा वर्तन्ते, तैस्तैः ग्रन्थैः परमपूज्याः पूर्वजा महापुरुषाः स्वीयमद्भुतं चमत्कृतिकरश्च ज्ञानं जगति प्रसार्य यशोऽक्षयमर्जयाश्चक्रुः ॥ . यथा यथाऽवसार्पिणीकालः परिवृत्तिमेति तथा तथा तात्कालिकमनुजानां बुद्धेरपि परिवृत्ति, र्जायते. करालव्यालसन्दष्टपुरुषमतेरिव । कुतर्कविषवायुना प्रणुन्नास्ते प्रबलान् सैद्धान्तिकान्निर्णयानधिक्षिपन्तः सरलहृदयानां चेतसि अश्रद्धालक्षणमामयमुत्पादयन्ति । तानेतान्नवयुगीयकुतर्कसरीसृपसन्दष्टान् जनाननूपतापं प्रतिक्रियेव चिकित्सितुं वर्त्मना नव्येनैव सैद्धान्तिकयुक्तीस्तकाश्च सहकारीकृत्यार्षशैल्या चिरन्तनैावर्णितान्यपि. तत्त्वानि बहुधाऽवश्यं व्यवस्थापनीयान्येव । अत एव चैतेऽपि ग्रन्था विदुषां मान्याः प्रमाणभूता एव । ते च ग्रन्थास्सम्मतितर्कस्याद्वादरलाकरेत्याद्यभिधानाः सम्यग्ज्ञानसमुज्वलकरा बृहद्विग्रहा वादलक्षणत्वात्परिकर्मितमतेरेव सुग्राह्या Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। न त्वाईततत्त्वजिज्ञासूनामनधीतेतरदर्शनानां बालानाम् । निर्माय चैवं विधाननेकान् ग्रन्थरत्नान् मध्यमयुगीया ग्रन्थकार आहेतविज्ञानं जगति प्रसार्य किरणैस्तपनस्तिमिरमिव कुदृष्टिध्वान्तमुन्मूलयाञ्चक्रुः अवापुश्चानन्तरं परम्परञ्च फलम् ॥ तथापि विनेयहितायान्तरेणापरदर्शनाध्ययनं तत्र तत्र ग्रन्थेषु विवेचितानामतिगहनतया पदार्थानामेकत्र स्फुटतया निरूपणमप्यत्यावश्यकमेवेति मन्वानरेतद्वन्थकर्तभिः परमदयालुभिग्रन्थोऽयं सन्दृब्धः । अयं हि प्राधान्येन मोक्षकारणभूतं रत्नत्रयमाश्रित्य भागत्रयेणालङ्कृतः । एकैको भागोऽपि बहुभिः किरणैर्विभूषितः । आर्हताभिमतसिद्धान्तानां समासतो लीलयान्तेवासिनो यथा धारयेयुस्तथा ऋजुमार्गेण सूत्रकल्पं मूलं जीवादितत्त्वानां तद्व्यवस्थापकन्यायानाच निरूपणरूपत्वात्तत्त्वन्यायविभाकराभिधानमादावारचितम् । अभिप्रायगर्भितत्वात्तस्य परिष्करणमन्तरा न किमपि वैशिष्ट्यं भवेदिति यथासम्भवं दलप्रयोजनप्रदर्शनपुरस्सरं न्यायवर्मना मूलार्थों विशदतया व्यावर्णितो यस्य व्यावर्णनस्य न्यायप्रकाश इति मूलनिलीनन्यायानां प्रकाशकत्वादन्वर्थ नाम । व्याख्यायामस्यां यथासम्भवमतिसारल्येन न्यायपूर्णेन वर्त्मनाऽतिगम्भीरार्था विषयास्तथा व्यावर्णिता यथाऽधीतव्याकरणकाव्यकोशा ऋजुमतयोऽपि दर्शनान्तरीयमुक्तावल्यादिग्रन्थाभ्ययननिरपेक्षा एव न्यायाध्वनि प्रविशेयुः । व्याख्यायामस्यां पदार्थनिरूपणमपि पूर्वाचार्यसरणिमनुमृत्यैवारचितं कस्यापि हि ग्रन्थस्य व्याख्याया वा आविष्करणे प्राचीननामर्वाचीनानाञ्चोक्तेः साक्षात्कारः तेषां सुगूढाभिप्रायपरिज्ञानश्च सर्वेषामावश्यकमेव, अपरथा तेषां प्रयासः प्रामाणिकैरनादरणीय एव स्यादिति मन्वानैर्ग्रन्थकर्तृभिः । भाषापि सरलाऽतिरमणीया च स्वीकृता । तथा प्रायः प्राचीनानामुक्तयोऽपि अनूदिताः ॥ - यद्यपि वर्तमानकालापेक्षया ग्रन्थस्यास्य व्याख्या वर्तमानदेशभाषामवलम्ब्य कृता चेत्सकलजनोपयोगिनी स्यात्तथापि तत्त्वज्ञानोपयोगिविषयाणां निरूपणं प्रचण्डदुर्वादिसिद्धान्तप्रभञ्जनश्च तादृशभाषया सुष्ठु कर्तुमशक्यमिति ग्रन्थोऽयं विद्वजनपर्षदि अनादरणीयो मा भूदिति च विभाव्य यथाशक्यं सुलभयैव गीर्वाणभाषया व्याख्यातः । मूलस्य व्याख्यानं सुमनोहरेण वर्त्मना चमत्कृतिकरेण पदार्थानां निरूपणं न्यूनाधिकभावपरिहारेण सरलशैल्या मतान्तरखण्डनञ्च दुष्परिहरेण युक्तिजालेन कृतमस्ति । अतो दार्शनिकग्रन्थनिकरेष्वयं महारत्न इव साम्प्रतकालीनविद्वज्जनपरिकलितपन्थेभ्यः सर्वांशेनातिशायीत्यत्र नैव गुणैकग्राहिणां विदुषां विरोधः । सोऽयं प्रन्थः आर्हताभिमततत्त्वानां सर्वेषां सम्यक्प्रकाशकत्वादागमपयोनिधिं प्रवेष्टुकामानां तरणिकल्पत्वाच्च महाविद्यालयादौ पाठ्यग्रन्थतया प्रवेशयितुमतीवोपयोगीति तत्तदध्यक्षेभ्यो निवेदयामः ॥ तदेतस्य ग्रन्थस्य टीकायाश्च कर्तारो जगतीतलजेगीयमानयशोराशेः प्रकाण्डपाण्डित्यमण्डित Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्य संयमिवरेण्यस्य न्यायाम्भोनिधेः श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरस्य प्रशिष्याः तदनन्यपट्टधरस्य शासनसार्वभौमस्य जैनाचार्यश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरस्य विनेयास्तत्पट्टालङ्कारभूताश्च सुविहितनामधेयाः श्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वराः, ये स्वकीयमनोज्ञकविताचातुर्येण निखिलजनचेतोहारिनिर्वाणसुखामृतरसस्यन्दिरुचिरव्याख्यानसरण्या च कविकुलकिरीटेति व्याख्यानवाचस्पतीति च दवीयसी पदवीमवापुः । एभिर्विरचिता अन्येऽपि संस्कृतभाषामया अनेके ग्रन्थाः पामरजनमनमलिनतामपनयन्तो जगति विश्रुता वरीवृतति । एषां प्रकृत्या शान्तस्वभावं निरुपमधर्मानुरागं जगति वर्तमानानामपि सर्वथा तद्व्यापारेष्वनासक्ततां सर्वदा शास्त्राध्यापनविरचनसंलीनताश्चावलोकयतः कस्य वा सचेतसस्तेषु गौरवधिषणा न जागृयात् । एषां जीवनचरित्रं विशेषतो बुभुत्सुभिर्मद्विरचितो भाषामयः कविकुलकिरीटाभिधानो ग्रन्थोऽवश्यं लोचनगोचरो विरचनीयः ॥ मानवगणतापापनोदकस्यास्य ग्रन्थस्य संशोधनकर्मणि विहितश्रमो मद्गुरुभ्राता श्रीविक्रमविजयः मच्छिष्यो भद्रङ्करविजयश्च जनसमाजस्योपकारक इत्यत्र नास्ति संशयलेशः । प्रकाशनकर्मणि कृतद्रव्यसहाया धनिकवर्गा अपि भगवतः शासनस्य सहायका एवेति । विशेषतस्तु काशीस्थविश्वविद्यालयन्यायाध्यापकानां तार्किकरत्नानां श्रीमच्छीशङ्करभट्टाचार्याणामन्तेवासी लब्धन्यायाचार्यप्रतिष्ठोऽस्मद्गुरुवर्याणां शिष्यमण्डलस्य विद्यया कृतसंस्कारो नारायणाचार्योऽस्मिन कर्मणि कदापि न विस्मरणीयो येन महत्साहाय्यं दत्तम् ॥ ___ तथा भूयांसमायासमङ्गीकृत्य संशोधकैः परिशीलितेऽप्यस्मिन् ग्रन्थे तेषां दृष्टिदोषात् अक्षरसंयोजकमुद्रकादिदोषाद्वा यत्र कचिदुपलभ्यमाना अशुद्धीरुपेक्ष्य गुणैकग्रहणा विपश्चिदपश्चिमाः समुत्सार्य मात्सर्य स्वयमेवास्मिन्नुररीकृतनयनसमर्पणायासा विचारामृततृप्ति भजन्तस्तेषां परिश्रमं फलेग्रहिं करिष्यन्त्येवेत्यवधारयन् सकलपदार्थतत्त्वज्ञं भगवन्तं जिनेश्वरमाराधयाम्यनेन व्यापारेणेति ॥ निवेदक:व्या. वा. आचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वराणां चरणोपासकः भुवनविजयोपाध्यायः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य-विस्तरतोविषयानुक्रमः। प्रथमो भागः। विषयाः विषयाः पृ. पं. प्रथमः किरणः । 1 २१ उपायशब्दस्य बहुवचनान्तत्वे बीजम् ... ... ... ४ २२ १ टीकामङ्गलम् ... ....... ३ १ २२ क्षायिकसम्यश्रद्धादीनामेव २ टीकानामनिर्देशः ... ... ३ ५ मुफ्त्युपायत्वमिति पूर्वपक्षनि३ मूलमङ्गलावतरणम् ....... ३ ११ राकरणम् ... ... ... ९ १२ ४ मूलमङ्गलम् ... ... ... ३ १७ २३ सम्यश्रद्धालक्षणम् ... ... ९ २७ ५ अतिशयप्रदर्शनम् ... ... ४६ २४ सम्यक्त्वमेदप्रकारप्रदर्शनम्... १०५ ६ वीरशब्दार्थवर्णनम् ... ... ४. १३ २५ सम्यक्श्रद्धात्वेन लक्षणप्रण७ शास्त्रारम्भादिसमर्थनार्थ पूर्वपक्षः ४ २० पने कारणम् ... ... १० १ ८ अष्टविधाचार्यश्रीप्रदर्शनम् ... ५ १३ २६ तत्त्वपदसार्थक्यम् ... ... १० १० ९ सम्बन्धद्वयप्रदर्शनम् ... ... ५ १८ २७ लक्षणस्थाभिरुचिशब्दार्थः ... १० १३ तानां क्रमेण नमने २८ तब तस्वानीति मूलस्याषतरणम् १० २६ निबन्धनम् ... ... ... ५ २१ २९ तत्वविभाग: ... ... ... ११ १ ११ द्विविधप्रयोजननिरूपणम् ... ५ २६ ३० तत्वानीति नपुंसकसमर्थनम्... ११ ४ १२ श्लोंकद्वयकृत्यवर्णनम् ... ... ६ ६ ३१ जीवादिशब्दानां व्युत्पत्तिप्रद१३ मङ्गलशब्दार्थनिरूपणम्... शनम् .... ... ... ११ ७ १४ मङ्गलस्य विघ्नध्वंसहेतुतासमर्थनम् ६ २० ३२ पुण्यादीनां जीवाजीवयोरन्त१५ प्रथम मुक्त्युपायनिरूपणे हेतू विशङ्का ... ...... ... ११ १२ द्भावनम् ... ... ... ७ ५ ३३ तस्समाधानम् ... ... ११ १६ १६ उद्देश्ये विधेये चैवकारयोज ३४ क्रमेणोपन्यासे कारणम् ... ११ २२ ___ नया व्याख्यानम् ..... ... ७ २७ ३५ क्रमेणोपम्यासे प्रकारान्तरेण१७ श्रद्धादौसम्यक्त्वनिरूपणम् ... ८ २ कारणाभिधानम् ... ... १२ ३ १८ सम्यगिति विशेषणफलम् ... ८ ८ ३६ नवग्रहणप्रयोजनम् .... ... १२ र १९ सम्यक् द्धादीनां क्रमेणोपन्यासे ३७ पुण्यपापयोरजीवेऽन्तर्भावशङ्का समाधानश्च ... ... ... ११ १२ २० द्वन्द्वसमासफलप्रदर्शनम् ... ८ १९ | ३८ जीवसंख्याऽनयत्यनिरूपणम्... १२ १८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२ : विषया: ३९ अजीवविभागः ४० धर्मादेर्निर्वचनम् ४१ तत्क्रमोपन्यासे कारणम् ४२ पञ्चग्रहणप्रयोजनम् ४३ अजीव पदव्युत्पत्तिः ४४ धर्मादौ जीवसादृश्याभावाऽऽ शङ्का पादनम् ४५ तत्समाधानम् ४६ द्रव्यपदनिरुक्ति, ४७ द्रव्यत्वसम्बन्धाद्द्रव्यमित्यस्य निराकरणम् ४८ जीवादीनां साधर्म्य कथनम् ४९ पदार्थान्तराणां षट्स्वेवान्त र्भावः ... ५० उक्तन्यायेन पुण्यादीनामपि स्वन्तर्भाव इति व्याव र्णनम् ५१ कालातिरिक्तानां पञ्चानां साधर्म्यम् ५२ अस्तिकायशब्दार्थवर्णनम् ५३ जीवादीनामुत्पादविनाशप्रति ... www ... ... सटीक तत्त्व न्यायविभाकरस्य ट. पं. १२ २२ १२ २३ १३ ... ... ... ... ... .... ... ... ... ... ५४ कालस्योत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्ववर्णनम् ५५ तथापि तस्य नास्तिकायत्व मिति समर्थनम् ... ... ... ५६ प्रदेशावयवबहुत्वलक्षणसाधयस्य परमाणौ समर्थनम ५७ पुण्यप्रभेदाः... ... ५८ सातादीनां संक्षेपत स्स्वरूपवर्णनम् ... ... ::tc: ५९ पापविभागः ६० ज्ञानावरणादीनां समासेन स्वरूपवर्णनम् ... ... १३ १३ w १३ ९ १३ १३ १३ २० १४ ? ૩ १३ २३ १४ १ 20 w ६ १४ १९ १५ ५ १५ १० 2 ६ १५ १२ १५ १५ १५ २१ १७ १७ १५ २८ १६ ८ १६ १३ ઃ ૮ विषया: ६१ द्वयशीतिविधानां ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिकथनम् ... ६२ आश्रवविभागः ६३ आश्रवशब्दार्थः . ६४ इन्द्रियपञ्चकादीनां नामग्राहं वर्णनम् ६५ द्रव्याश्रवभावाश्रवप्रदर्शनम् ... १८ ६६ इन्द्रियपञ्चकादीनां प्रवृत्ति ... [ प्रथमभागे पू. पं. समाधानञ्च... ७२ बन्धभेदाः... ७३ प्रकृतिबन्धादीनां स्वरूपप्रद ... ... *** .... १८ १९ प्रदर्शनम् ... ६७ संवरभेदाः १९ १ ४ १४ ६८ पञ्चसमित्यादीनां नामनिर्देशः १९ ६९. निर्जराभेदाः ... १९ ७० वाह्याभ्यन्तरतपसां नामानि ... १९ १६ ७१ तपसस्संवरैकदेशत्वशङ्का ... ... ... र्शनम् २० ७४ मोक्षविभागः ७५ उपचारात्तद्भेद इति वर्णनम्. २० ७६ प्रथमकिरणोपसंहारः... द्वितीयः किरणः | ... ७७ जीवे प्रमाणाभाव इति पूर्वपक्षः २० ७८ मूले जीवलक्षणम् ७९ जीवे प्रमाणदर्शनम् ... ८० अहंप्रत्ययविषयत्वं न देहादीनामिति निरूपणम् ८१ परदेहे आत्मानुमानम्. ८२ चेतनालक्षणो जीव इति लक्षणानुपपत्तिशङ्का... ... १९१९ १९ २६ ... १७ २७ १८ ... ८३ ज्ञानातिरिक्तात्मसाधनम् ८४ नित्यात्मानभ्युपगमेऽनुपपत्ति प्रदर्शनम् ... We wo १८ ११ १७ ... ९ २० * १४ १६ २० १९ २३ २१ १० २१ १७ २१ २३ २२ ४ २२ १२ २२ १७ २२ २७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय: किरण: ] विषयाः ८५ बुद्धेरात्मस्वरूपत्वासम्भवमाशंक्य समाधानम्... ८६ आत्मनो ज्ञानस्वरूपत्वे सर्वदा विषय दर्शित्वादिदोषनिराकरणम् ... ... २४ ८७ आत्मैकत्वनिराकरणम्... ८८ आत्मद्वैविध्यप्रदर्शनम्... ८९ आदौ संसारिग्रहणे कारणम्... २४ ९० संसारिणां विकल्पबाहुल्यमादर्शयितुमादावेकविधत्ववर्णनम् २५ ६ ९१ द्वैविध्यत्रैविध्यप्रदर्शनम् २५ १३ ९२ प्रकारान्तरेण द्वैविध्यप्रदर्शनम् २५ १७ ९३ द्विविधलिङ्गवर्णनम् २६ १ २६ ५ ९४ चातुर्विध्यप्रदर्शनम् २६ ९५ पञ्चविधत्ववर्णनम् ९६ षड्विधत्वनिरूपणम् २६ १२ ९७ विभागस्य परमावधिप्रदर्शनम् २६ २० ९८ संसारिलक्षणम् ... २६ २५ २७ ... २७ ७ ९९ जीवपरिमाणम् ... १०० विभुपरिमाणव्युदासः ... १०१ संसारिणां बहुविधत्वेऽपि मा ध्यमिकप्रभेदनिरूपणम् १०२ एकेन्द्रियपदेन बादरै केन्द्रियग्रमितव्यावर्णनम् १०३ पर्याप्तिशब्दार्थः ... १०४ समाप्तेः पर्याप्तिशब्दार्थत्वनिरा करणम् ... ... ... १०५ विषयभेदनिबन्धनतद्भेदप्ररू विस्तरतो विषयानुक्रमः । पृ. पं. ... ... २३ १६ ... पणम्... १०६ आहारपर्याप्तिनिरूपणम् १०७ प्रवचनानुसारेण तन्निरूपणम् ३० १०८ शरीरपर्याप्तिप्ररूपणम्... ३० १०९ प्रवचनानुसारेण तत्प्ररूपणम्. ३० ११० इन्द्रियपर्याप्तिवर्णनम् ... ३० १११ उच्छ्वासपर्याप्तिकथनम्... २३ २६ ... २४ ६ २३ २५ ११६ सूक्ष्मजीवादिनिदर्शनम्... | ११७ न कर्मधारयादिति नियमस्य काचित्कत्व प्रदर्शनम् .... ३३ . ११८ पृथिवीकायिकादिषु चेतनासद्भावसमर्थनम् ... २८ १ २८ ७ ૨૮ १७ २८ २४ विषया: ११२ भाषापर्याप्तिनिरूपणम्... ११३ मनःपर्याप्तिनिरूपणम् ... ११४ पर्याप्तापर्याप्तस्वरूपम् .. ११५ एकेन्द्रियादिजीवानां पर्याप्ति कथनम् २९ ८ २९ १५ ४ ३१ ९ १२३ असंशिपञ्चेन्द्रियनिदर्शनम् ८ १२४ नाहारादियोगात्संशिन इत्यभि ... ... १७ ३३ १३ ११९ पृथिवीकायिकादि जीवसिद्धिः ३३ १२० अष्कायिकजीवसाधनम् १२१ तेजसां सचेतनत्वसाधनम्... ३३ १२२ वायोस्तत्साधनम् ३३ २१ २७ ३४ શ્ ३४ ... ... ... ... ... नम् १२९ तत्रागमस्यापि प्रमाणत्वेनो पन्यासः ... धानम् ... १२५ सम्प्रधारणसंज्ञावन्तो वा संशिन इत्यभिधानम् १२६ लक्षणं भिन्नमभिन्नञ्च भवतीति प्रदर्शनम् ... ३४ १२७ संशिपञ्चेन्द्रियाणां दृष्टान्तः... ३४ १२८ चतुर्दर्शविधानामेषां प्राणित्वव ... ... : ३ : पृ. प. ३१ १८ ३२ ४ ३२ १४ ... ३२ १९ ३३ २ ... १३० प्राणभेदप्रदर्शनम्... १३१ मनोबलादीनां स्वरूपम् १३२ आयुषो द्वैविध्यम्... १३३ कालायुषो द्वैविध्यम् १३४ एकेन्द्रियादीनां प्राणसंख्यानियमनम् ३६ १ ७ ... १३५ सिद्धानां भावप्राणाभिधानम् ३६ ८ १७ | १३६ असंसारिस्वरूपम् ३६ १६ १३७ जीवस्य संकोच विकासवस्त्वकथनम् २७ ३६ २० ३४ १० ३४ १३ ३५ V १८ २४ ३ ३५ ३५ ९ ३५ १४ ३५ १८ ३५ २० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य [ प्रथमभागे . विषयाः विषयाः पृ. पं. १३८ जीवनिरूपणोपसंहारः... ... ३७ १ | १६५ लोकालोकाकाशमानम् ... ४२ ८ · तृतीयः किरणः । १६६ धर्मादीनां त्रयाणां त्रैविध्योक्तिः ४२ १० १६७ काललक्षणम् .... ... ... ४२ २३ १३९ अजीवलक्षणम्... ... ... १६८ वर्त्तनालक्षणशब्दार्थः ... ... ४२ २४ १४० धर्मलक्षणम् ... ... ... १६९ द्रव्यकालप्रदर्शनम् ... ... ४२ २७ १४१ क्रियालक्षणम् ... ... ... १७० वर्त्तनानुमेयतया कालव्यवस्था१४२ कारणत्रैविध्यम्... ... ... पनम्... ... ... ... ... ४३ ५ १४३ धर्मलक्षणपदकृत्यम् ... १४४ धर्मे प्रमाणप्रदर्शनायाशङ्का ... १७१ मनुष्यक्षेत्रात्परतो वर्तनाया न .. १४५ प्रमाणोपदर्शनम् ... ... ... काललिङ्गत्वमित्यभिधानम् ... ४३ ११ १७२ नवपुराणादिपरिणामेन काल१४६ गतिपरिणतानामित्यादिपूरणे __साधनम् ... ... ... ... ४३ फलप्रदर्शनम् ... ... ... १७३ मानान्तराभिधानम् ... ... ४३ १४७ साध्यकोटिस्थपदकृत्यम् ... १७४ इतरनिमित्तत्वं वर्तनाया न १४८ मानार्थव्यावर्णनम् ... ... ३८ सम्भवतीत्यभिधानं ... ... ४३ २३ १४९ देश एव गत्यपेक्षाकारणमित्य १७५ कालस्य द्रव्यत्वे द्रव्यलक्षणा __ स्य समाधानम्... ... ... ३९ ६ १५० धर्म प्रमाणान्तरप्रदर्शनम् ... ३९ १० - व्याप्तिवारणम् ... ... ....४३, २९ १७६ स्कन्धदेशप्रदेशमेदा अस्य ने१५१ धर्मस्य प्रदेशेयत्तानिरूपणम् ३९ १५) त्यभिधानम् ... ... ... १५२ धर्मस्य प्रदेशकल्पना औपचा १७७ नैश्चयिकव्यावहारिकभेदेन द्वैरिकीत्यस्य खण्डनम्... ... ३९ १५३ धर्मस्याकाशप्रतिष्ठत्वकथनम्... ३९ विध्यवर्णनम् ... ... ... १७८ तत्र प्रमाणोपदर्शनम् ... ... १५४ अधर्मलक्षणं प्रमाणश्व... ... ४० १७९ नैश्चयिकव्यावहारिककालस्वरू१५५ आकाशलक्षणम् ... ... ... १५६ तत्रातिव्याप्त्याशङ्का समाधा पवर्णनम् ... ... ... ... ४५ १८. कालस्योपचरितद्रव्यत्वसमर्थनश्च... ... ... ... ... १५७ अलोकेऽव्याप्तिवारणम् . ... नम् ... ... ... ... ... १५८ आकाशे प्रमाणप्रदर्शनम् ... १८१ वर्तनादिपर्यायाणां चतुर्विधत्व१५९ युगपत्पदकृत्यम्... ... ... प्रदर्शनम् ... ... ... ... ४५ २५ १६० आवरणामावस्यावकाशदातृत्व १८२ द्रव्याणां स्थितेश्चातुर्विध्यनिरूखण्डनम् ... ... ... ....४१ पणम् ... ... ... ... ४६ १६१ आकाशस्यावगाहकान्तरापेक्षा १८३ क्रियापर्यायाभिधानम् ... ... ४६ वारणम् ... ... ... ... ४१ १६ १८४ क्रियात्रैविध्यवर्णनम् ... ... ४७ ६ १६२ मानान्तरप्रदर्शनम् ... ... ४१ १८ १८५ परिणामपर्यायनिरूपणम् ... ४७ ११ १६३ तस्यौपाधिकभेदकथनम् ... ४२ १ १८६ परत्वापरत्वपर्यायनिरूपणम्... ४७ १६४ अलोकाकाशसाधनम् ... ... ४२ ३ १८७ पुद्गलद्रव्यनिरूपणम् ... ... ४७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः किरण: ] विषया: १८८ रूपशब्दवाच्या मूर्तिरित्यभिधा नम् ... १८९ चक्षुर्ग्रहणस्वरूपं रूपमिति वर्ण ... ... ... ... ... ६ नम् .. १९० रूपवत्त्वस्यादौ लक्षणत्वेनाभिभिधाने हेतुः १९१ रूपरसगन्धस्पर्शानां न सर्वपुद्रलगुणत्वमिति मतखण्डनम् ૪૮ १९२ लक्षणान्तरप्रदर्शनम् ... ४८ १२ १९३ पुद्गलानामवगाहक्षेत्रकथनम् ४८ १७ १९४ पुद्गलानां चतुर्विधत्वप्रदर्शनम् ४८ २२ २१८ पृथिवीजलतेजोवायूनां परमाणु१९५ स्कन्धस्वरूपम् १९६ अवयवावयविनोर्भेद इति पूर्वप २१५ प्रभायास्तथात्ववर्णनम् ... २१६ छायाया द्रव्यत्वसमर्थनम् २१७ आतपस्य द्रव्यत्वसाधनम् ४८ २६ परिणामविशेषत्वसमर्थनम् २१९ अजीवनिरूपणोपसंहारः क्षारचनम् ... चतुर्थः किरणः .... ww विस्तरतो विषयानुक्रमः । प्र. पं. ... ४७ १९७ तत्खण्डनम् ... १९८ अवयविनः स्वाश्रयेभ्यो नैकान्तेन भेद इति साधनम् .... १९९ तत्र वृत्त्युपलब्धेरिति हेतौ व्यभिचारमाशङ्क्य तन्निराकर ४९ णम्... २०० अवयवावयव्यादीनां कथञ्चितादात्म्यमेव वृत्तिरिति वर्ण ४८ २०५ परमाणुस्वरूपम्... २०६ तस्य सर्वान्तिमकारणत्वोपव र्णनम् ... २०७ द्रव्यभावात्मना तस्य निरवयव -... ४८ ४९ २ २५ | २११ शब्दस्वरूपम् ४९ २१२ शब्दस्य द्रव्यत्वसमर्थनम् १] २९३ अन्धकारस्य पुद्गल परिणामत्ववर्णनम् .... ३ २१४ उद्योतस्य पुद्गल परिणामत्ववर्ण नम् ... ५० ५० नम् ... २०१ देशलक्षणकथनम् २०२ तद्भावार्थाभिधानम् २०३ प्रदेशस्वरूपवर्णनम् २०४ भेदादितः स्कन्धोत्पत्तिकथनम् ५० १५ ५० ५० १३ ५१ ४ ४९ १२ A २२० पुण्यलक्षणम् १९ २२१ तत्पदप्रयोजनम् ... विषयाः पृ. पं. २१० पुद्गलानां धर्मान्तरप्रदर्शनम् ५२ १४ ५२ १५ ५२ १७ ६ 6 ू २१ | २२३ पुण्यपापकर्मसाधनम् त्वसावयवत्वव्यवस्थापनम् ५१ १२ २०८ परमाणोः संश्लेषसमर्थनम् ५१ २० २०९ परमाणोः प्रतिघात्यप्रतिघाति त्वप्रतिपादनं रणम्... ... ... २२२ पुण्यपापयोरात्मगुणत्वनिराक ... ... ... ५३ २१ ५३ २३ ... ५३ २४ ५४ २ *** : ५: ५३ १० *** ... २२४ भूतातिरिक्तस्यैकस्य सुखदुःखहेतुत्वनिरासः २२५ कर्मणो मूर्त्तत्वसाधनम् ... ५६ २२६ कार्मणशरीरव्यवस्थापनम् २२७ कार्यकारणभेदेन पुण्यस्य द्वैवि. ... ५४ ७ ५४ १९ ५४ ५४ २७ ५५ ५ ... ५५ १२ २६ & ध्यम्... ५१ ९ २२८ पुण्यपापात्मक कर्मसम्बन्धस्यानादित्वसमर्थनम् ... २२९ जीवस्य कर्मयोग्य पुद्गलग्रहणवर्णनम् ... २३० घात्यघातिभेदप्रदर्शनम्... २३१ द्रव्यभावपुण्यप्रतिपादनम् २३२ सातावेदनीयलक्षणं तत्पदकृत्यञ्च ५८ ५२ ३ | २३३ उच्चैर्गोत्रलक्षणम् - ... ५८ ५५ २३ ५ ५६ १७ ५६ २७ ५७ ३ ... ५७ १२ ५७ १८ ५७ २६ ८ १७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य - [प्रथमभागे विषयाः पृ. पं. विषयाः पृ. पं. २३४ मनुजगतिलक्षणम् .... ... ५९ १ २६२ संहननस्वरूपम्... .... ... ६६ १४ . २३५ आनुपूर्वीलक्षणम् .... ... ५९ १२ | २६२ सपदकृत्यं वज्रर्षभनाराचसंहन----- २३६ ऋजुवक्रगतिवर्णनम् ... ... ५९ २१ नलक्षणम् ....... ... ... ६६ १७ २३७ मनुष्यानुपूर्व्या लक्षणम्... ... | २६३ संस्थानस्वरूपम्... ... ... ६७ ५ २३८ देवगतिलक्षणम्... ... ... २६४ समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मल२३९ देवानुपूर्वीलक्षणम् .... ... क्षणम् .... ... .... ... २४० पञ्चेन्द्रियजातिलक्षणम्... ... २६५ प्रशस्तवर्णादिनामकर्मलक्षणानि २४१ तत्पदकृत्यम्... ... ... ... ६१ २६६ प्रशस्ताप्रशस्तवर्णादिकथनम् ६८ २४२ औदारिकशरीरलक्षणम्... .... ६१ २६७ पुद्गलानां व्यवहारनयेन चतु२४३ शरीरपर्याप्तावतिव्याप्तिवार - विधपरिणामप्रदर्शनम् ... ... ६८ णम् ... ... ... ... ... २६८ निश्चयनयप्रदर्शनम् ... ... ६९ • २४४ वैक्रियशरीरलक्षणम् ... ... २६९ पराघातस्वरूपम्... ... ... ६९ २४५ आहारकशरीरलक्षणम्... ... २७० उच्छ्वासनामकर्मलक्षणम् ... २४६ तैजसशरीरलक्षणम् ... ... २७१ आतपनामकर्मलक्षणम्... ... २४७ कार्मणशरीरलक्षणम् ... ... २७२ उद्योतनामकर्मस्वरूपं तत्पदप्र योजनम. ... ... ... ... ७० २४८ कार्मणशरीरसाधनम् ... ... | २७३ शुभखगतिनामलक्षणं तत्पद२४९ देहशब्दस्य नपुंसकनिर्देशे कार कृत्यञ्च ... ... ... ... २७४ अस्योदयः पक्ष्यादिष्वेवेति शं२५० शरीरस्वामिनः...... ... कासमाधानम् ... ... ... ७० १७ २५१ औदारिकादिशब्दार्थः... ... ६३ | २७५ तत्त्वार्थभाष्यानुसारेण लक्षणम् ७० २१ २५२ कार्मणभिन्नशरीराणामुपभोग- २७६ निर्माणनामकर्मलक्षणम् ... ७१ २ वत्त्ववर्णनम्... ... ... ... ६४ १५ २७७ तत्पदकृत्यम् ... ... ... ७१ ७ २५३ औदारिकाङ्गोपाङ्गनामकर्मलक्ष २७८ असनामकर्मलक्षणं तत्पदकृत्यञ्च ७१ १३ णम् ... ... ... ... ... ६४ २७ २७९ बादरनामकर्मलक्षणं तत्पदकृत्यश्च७१ १९ २५४ अगुल्यादीनामुपाङ्गत्वप्रदर्श- . २८० सपदकृत्यं पर्याप्तनामकर्मलक्षणम्७२ ३ ने निमित्तकथनम्... ... ... ६५ ३ २८१ सपदकृत्यं प्रत्येकनामकर्मलक्ष२५५ लक्षणपदकृत्यम्... ... ... ६५ १० णम् ... ... ... ... ... ७२ ११ २५६ वैक्रियाङ्गोपाङ्गनामलक्षणम् ... ६५ २१ / २८२ स्थिरनामकर्मलक्षणं तत्पदकृत्यञ्च७२ १७ २५७ आहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् ... ६५ २४ २८३ शुभनामकर्मलक्षणं तत्पदप्रयोज२५८ तैजसकार्मणयोर्नाङ्गोपाङ्गानीति नश्च... ... ... ... ... ७२ २३ - वर्णनम् ... ... ... ... ६६ १ २८४ सौभाग्यनामकर्मलक्षणं तस्पदक२५९ पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां नाङ्गोपाङ्ग- त्यञ्च ... ... ... ... ... ७३. ५ - त्वमित्यभिधानम्... ... ... ६६ ३२८५ सपदकृत्यं सुस्वरनामकर्मलक्ष२६० वनस्पत्यादौ तत्समर्थनम् ... ६६ ६ णम्... .... .... ... ... ७३ १२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तरतो विषयानुक्रमः । विषयाः पू. पं. २८६ आदेयनामकर्मलक्षणम्... ७३ १४ २८७ यशःकीर्तिनामलक्षणम् ७३ २१ २८८ यशःकीत्त्यर्भेदप्रदर्शनम् २८९ देवायुषो लक्षणम्... २९० आयुः स्वरूपम् २९१ तद्द्वैविध्यं तत्स्वरूपञ्च... २९२ आयुर्बन्धकानां कथनम्... २९३ आयुषोऽबाधायां भङ्गचतुष्टयप्रदर्शनम् पञ्चमः किरण: ] ... २९४ मनुजायुषस्तिर्यगायुषश्च लक्ष ... नम् ... ... ... ... ७४ ... ७४ ७५ १० णम् ... २९५ तीर्थकर नामकर्मलक्षणम् ... ७५ १६ २९६ गणधरत्वे निमित्तप्रदर्शनम् ७५ २० २९७ तीर्थकरकर्मणो निकाचनाकथ नम् २९८ कार्यकारणभेदभिन्नं पुण्यं प्रदर्श्य तत्कारणप्रदर्शनम्... ... .७४ २९९ तदर्थवर्णनम् ३०० घातिकर्मभेदप्रदर्शनम्... ३०१ पुद्गलविपाकित्वादिप्रदर्शनम् ७७ ३०२ पुण्यनिरूपणोपसंहारः... ७७ पञ्चमः किरणः विषयाः ३११ बाधाकालकथनम् ... ३१२ श्रुतज्ञानावरणलक्षणम् ३१३ तत्पदकृत्यम् ६ | ३१४ अवधिज्ञानावरणलक्षणम् ३१५ तत्पदप्रयोजनवर्णनम् ३१६ मनःपर्यवावरणस्वरूपम्... ७ ९ ७४ १५ ३१७ तद्भावार्थ:... ... ३०८ तत्पदकृत्यम्... ३०९ आवरणकर्मणां सतामसतां म त्यादीनामावारकत्वमिति सम र्थनम् ... ३१० मतिज्ञानावरणस्थितिकालवर्ण ७३ २४ ७४ ... ... ७७ २२ ६ ३०३ पापलक्षणम् ३०४ पुण्यातिरिक्तपापसाधनम् ... ७८ ३०५ द्रव्यभावपापस्वरूपम् ... ७८ २१ ३०६ भावार्थवर्णनम् ७९ १ ३०७ मतिज्ञानावरणलक्षणम्......७९ १३ 800 ७९ २१ ... २५ ७६ १ ७६ ५ ७६ ९ ७७ २ १६ ८० ७९ २६ 800 ... ... ... ... ... ... ... ३१८ केवलज्ञानावरणस्वरूपम् ३१९ अभव्यस्य मनः पर्यवाद्यावरणसद्भावसमर्थनम्.... ९ ८३ १६ ८३ २३ ३२० दानान्तरायलक्षणम् ३२१ सामग्रीसमवधानासमवधानयोरिति पदप्रयोजनाभिधानम् ८३ ३२२ लाभान्तरायादिस्वरूपम् ३२३ सम्यग्याचितेऽपीति पदार्थसमर्थनम् ३२४ भोगान्तरायलक्षणम् ३२५ उपभोगान्तरायस्वरूपम् ३२६ वीर्यान्तरायस्वरूपम् ३२७ अस्योदयन्यूनाधिकत्वप्रदर्शनम् ८४ ११ ३२८ चक्षुर्दर्शनावरणलक्षणम् ... ८४ १६ ३२९ अत्र तत्त्वार्थवृत्तिहारिभद्रटीका ८३ २७ ... ८४ ६ ८४ ८ संवादः ... ... ⠀⠀⠀ ... ... ... ... ⠀⠀⠀⠀⠀ ... ... : ७: पू. पं. ३३० अचक्षुर्दर्शनावरणलक्षणम् ३३१ अवधिदर्शनावरणलक्षणम् ३३२ तत्पदकृत्यम् ३३३ केवलदर्शनावरणलक्षणम् ३३४ तद्भावार्थः... ३३५ मनःपर्यवदर्शनं नास्तीत्यभिधानम्... ८६. ५ ३३६ निद्रास्वरूपम् ८६ ११ ३३७ भावार्थः पदकृत्यश्च ८६ १३ ३३८ निद्रानिद्रास्वरूपं तत्पदकृत्यञ्च ८६ २३ ३३९ प्रचलालक्षणम् ... ८७ २ ६ | ३४० तद्भावार्थ: पदप्रयोजनञ्च ८७३ ... ८० ७ ८० १५ ८० १६ ८१ ७ ८१ १० ८१ २२ ८१ २५ ८२ १० ८४ २३ ८५ ५ ८५ १० ८५ १३ ८५ १९ ... ८५ २२ 600 ... F 2 ८२ १७ ८३ २ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य [ प्रथमभागे विषयाः पृ. पं. विषयाः पृ. पं. ३४१ प्रचलाप्रचलालक्षणम् ... ... ८७ . १२ ३७३ अप्रत्याख्यानस्वरूपम्... ... ९५ ४ ३४२ स्त्यानर्द्धिस्वरूपम्... ... ... ८७ १६ ३७४ अप्रत्याख्यानक्रोधादिस्वरूपम् ९५ १७ ३४३ तद्भावार्थः... ... ... ... ८७ १८ ३७५ प्रत्याख्यानस्वरूपम् ... ... ९५ २४ ३४४ दर्शनावरणस्य बन्धादिसंख्या- ३७६ प्रत्याख्यानक्रोधादिस्वरूपम् ... ९६ ७ प्रदर्शनम् ... ... ... ... २५ | ३७७ संज्वलनक्रोधादिस्वरूपम् ... ९६ १३ ३४५ नीचैर्गोत्रलक्षणम्... ... ... ३७८ हास्यमोहनीयस्वरूपम्... ... ३४६ तद्दलप्रयोजनम् ... ... ... ३७९ रतिमोहनीयस्वरूपम् ... ... ३४७ असातवेदनीयस्वरूपम्... | ३८० अरतिमोहनीयलक्षणम्... ... ३४८ तत्पदप्रयोजनम् ... ... ... ३८१ शोकमोहनीयलक्षणम् ... ... ३४९ मिथ्यात्वमोहनीयस्वरूपम् | ३८२ भयमोहनीयलक्षणम् ३५० दर्शनमोहनीयभेदवर्णनम् ३८३ जुगुप्सामोहनीयलक्षणम् ... ९८ ३५१ स्थावरनामलक्षणम् ... ३८४ पुरुषवेदस्वरूपम् ... ... ... ९८ ३५२ तत्पदप्रयोजनम्... ... ... ३८५ स्त्रीवेदस्वरूपम्... ... ... ९८ ३५३ सूक्ष्मनामकर्मलक्षणम् ... ... ३८६ नपुंसकवेदस्वरूपम् ... ... ९८ ३५४ तत्पदकृत्यम्... ... ... ... ३८७ तिर्यग्गतिलक्षणम् ... ... ९९ ५ ३५५ अपर्याप्तनामस्वरूपम् ... ... | ३८८ तिर्यगानुपूर्वीलक्षणम् ... ... ९९ ९ ३५६ साधारणकर्मलक्षणम् ... ... १२ | ३८९ एकेन्द्रियजातिलक्षणम्... ... ९९ १४ ३५७ एकस्मिन् शरीरेऽनेकजीवप्रा ३९० द्वीन्द्रियादिजातिस्वरूपाणि ... १००-६ प्तिसमर्थनम् ... ... ... ३९१ कुखगत्यादिस्वरूपाणि... ... १०० १७ ३५८ अस्थिरनामलक्षणम् ... ... ३९२ ऋषभनाराचादिसंहननलक्ष३५९ अशुभनामस्वरूपम् णानि... .... ... ... ... १०१ १४ ३६० दुर्भगनामस्वरूपम् ३९३ ऋषभनाराचविषये मतान्तर३६१ दुःस्वरनामस्वरूपम् ... प्रदर्शनम् ... ... ... ... १०१ ३६२ अनादेयनामस्वरूपम् ... ... ३९४ सेवार्त्तनिरूपणम् . ... ... १०२ ७ ३६३ अयशःकीर्तिनामलक्षणम् ... ३९५ न्यग्रोधपरिमण्डलादिस्वरू३६४ नरकगतिनामलक्षणम्... ... पाणि... ... ... ... ... १०२ १३ ३६५ नरकायुर्लक्षणम् ... ... ... ९२ ३९६ वामनस्य हुण्डस्य च स्वरूपम् १०३ ४ ३६६ नरकानुपूर्वीस्वरूपम् ... ... ९२ ३९७ पापहेतुकथनम् ... ... ... १०३ १५ ३६७ अनन्तानुबन्धिशब्दार्थः... ... ९३ ३९८ तदर्थवर्णनम् .... ... ... १०३ १८ ३६८ तत्रत्यपदानां भावार्थवर्णनम ९३ ५ ३९९ पापनिरूपणोपसंहारः... ... १०४ ५ ३६९ अनन्तानुबन्धिक्रोधस्वरूपम्... ९३ २१ षष्ठः किरणः ३७० अनन्तानुबन्धिमानस्वरूपम्... ९४ ९ ४०० आश्रवलक्षणम् .... ... .... १०४ १४ ३७१ , . मायास्वरूपम्... ९४ १६ ४०१ आश्रवस्य बन्धकारणत्वे शङ्का .. ३७२ , लोभस्वरूपम्... ९४ २३ | समाधानश्च ... ... ... ....१०४ २२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः किरण: ] विषयाः ४०२ विवक्षाभेदादाश्रवस्य द्वित्वारिंशद्विधत्वमिति समर्थ नम्.......... ४०३ क्रियास्वभावत्वं नाश्रवस्येति वर्णनम् ... ... ब:::: ... ... .... विस्तरतो विषयानुक्रमः । पृ. पं. ... १०७ २ १०७ १५ ४०४ द्रव्यभावाश्रवस्वरूपम् ४०५ स्पर्शेन्द्रियाश्रवस्वरूपम् ४०६ रसनेन्द्रियाश्रवस्वरूपम्४०७ घ्राणेन्द्रियाश्रवस्वरूपम् · ४०८ चक्षुरिन्द्रियाद्याश्रवस्वरूपम् १०७ ७ ४०९ क्रोधाद्याश्रवाः ... ४१० हिंसाश्रवस्वरूपम् ४११ प्रमत्तस्वरूपम्... ४१२ पदानां प्रयोजनानि ४१३ हिंसायां भङ्गप्रदर्शनम् ४१४ असत्याश्नवलक्षणम् ... ४१५ स्तेयाश्रवलक्षणम् ४१६ कर्मग्रहणेऽप्यस्तेयत्वसमर्थ - नम् .... ४१७ अब्रह्माश्रवस्वरूपम् ... ४१८ मैथुनशब्दाप्रयोगे हेतुः ४१९ परिग्रहाश्रवस्वरूपम्... ४२० कायाश्रवस्वरूपम् ४२१ वागाश्रवस्वरूपम् ४२२ मनआश्रवस्वरूपम् ..... ४२३ कायिक्या लक्षणम् ... ४२४ आधिकरणिक्या लक्षणम्... ११२ १३ ११२ ७ १ -११३ ११३ ७ ४५४ संवरस्यात्मपरिणामविशेष ४२५ प्रादोषिक्या लक्षणम्... ४२६ पारितापनिकीस्वरूपम् ४२७ प्राणातिपातिकीस्वरूपम् ४२८ आरम्भिकीस्वरूपम् ४२९ पारिग्रहिकीस्वरूपम् ... ४३० मायाप्रत्ययिकीलक्षणम् त्वकथनम् ... ११३ १२ ४५५ द्रव्यभावसंवरप्रदर्शनम् ११३ १८४५६ प्रकारान्तरेण संघरस्य द्वैविध्यवर्णनम् ... ११४ २ ११४ ७ ४५७ तयोर्गुणस्थानप्रदर्शनम् ४३१ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकीलक्षणम् ११४ ११ ४५८ गुणस्थानभेदाः... :::::: ... .... ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ विषयाः पृ. प. ४३२ अप्रत्याख्यानिकीलक्षणम् ११४ २१ ११५ ४३३ दृष्टिकीस्वरूपम् ५ ११५ १३ ४३४ स्पृष्टिकीस्वरूपम् ४३५ प्रातीत्यिक स्वरूपम् - १६ | ४३६ सामन्तोपनिपाति की स्वरूपम् ११५ २२ ११५ १८ ४३७ नैः शरित्र कीलक्षणम् ११६ ६ ११६ १३ ११६ १८ ४३८ स्वास्तिकीलक्षणम् ४३९ आज्ञापनिकीलक्षणम् .:.: ४४० विदारणिकीलक्षणम् ... ... ११६ : २५ ४४१ अनाभोगप्रत्ययिकीस्वरूपम् ११७ ५ ४४२ अनवकांक्षप्रत्ययिकीस्वरूपम् ११७ ११ १०८ १ | ४४३ प्रायोगिकीस्वरूपवर्णनम् ११७ १८ ४४४ सामुदायिक स्वरूपवर्णनम् ... ११७ २५ १०८ १० | ४४५ प्रेमप्रत्ययिकीस्वरूपवर्णनम् ... ११८ ४ १०८ १७ ४४६ द्वेषप्रत्ययिकीस्वरूपवर्णनम् ११८८ ४४७ ईर्यापथिकीस्वरूपवर्णनम् ४४८ तत्त्वार्थमाण्याभिमतसम्यक्त्वमिथ्यात्वक्रिययोः स्वरूपम् १०८ ३ १०९ २ ११८ ११ १०९ १२ १०५ ७ १०५ १०५ २६ १०६ १० १०६ १७ ११० ११० १११ ... १०९ १६ ४४१ शुभाशुभाश्रवप्रदर्शनम् ११० २ ४५० आश्रवनिरूपणोपसंहारः ६ सप्तमः किरणः ... www ... ... ... ... १६ २ | ४५१ संवरलक्षणम् १११ १२ ४५२ कर्मनिरोधस्य संवरत्वे शंका १११ १९ : : ... समाधानश्च ४५३ समित्यादीनां संवरत्वसमर्थ नम् ... ::::: ... : ९ः ... ११८ १८ ११८ २५ ११९ ४ ११९ ११ ११९ १४ ११९ २० १२० १२० १२ ८ va १२० २० १२१ ९ १२१ १५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०: विषयाः ४५९ गुणस्थानानां सामान्येन स्वरूपवर्णनम् १२१ २० १२२ ६ ४६० गुणस्थानस्वरूपम् ४६१ प्रथमगुणस्थान भेदप्रदर्शनम् १२२ १४ ४६२ व्यक्तमिथ्यात्वस्वरूपम् ४६३ तस्याधिकारिकथनम् ... ४६४ मिथ्यादृष्टौ गुणस्थानसम्भववर्णनम् ..... don ४६५ तथापि तस्य मिथ्यादृष्टित्वसमर्थनम् ... ४६६ अव्यक्तमिथ्यात्वस्वरूपम् ४६७ रत्नशेखरसूर्य्यभिप्रायप्रदर्श *** सटीक तस्व न्यायविभाकरस्य पू. पं. ... 188 नम् ... ४६८ स्वाशयवर्णनम् ४६९ मिथ्यात्वस्य चतुर्धा कालविभागं विधाय जीवेषु तत्प्रदर्शनम् ... ४७० अत्र कर्मप्रकृतीनां बन्धो वेदना सत्ता च कियतीनामित्यस्य कथनम् ... ... मताभिधानम् ४७५ उपशमसम्यक्त्व स्वरूपम्. ४७६ तद्भेदवर्णनम् !!! ४७१ द्वितीयगुणस्थानस्वरूम् ४७२ तदर्थवर्णनम् ४७३ ग्रन्थिसमीपगमनतद्भेदौपशमिकसम्यक्त्व लाभादिवर्ण नम्.... ४७४ अत्र कार्मग्रंथिंकमतसिद्धान्त थनम् ४८० अपूर्वकरणस्वरूपम् ४८१ अनिवृत्तिकरणस्वरूपम् ... ... ⠀⠀⠀ ... ... १२२ २२ स्वरूपम् ... १२३ १ | ४८५ कस्य सास्वादन गुणस्थानमि १२३ १० १२३ १८ १२३ ३ १२३ २४ १२३ २७ ⠀⠀⠀ १२४ १ १२४ १२ १२४ १७ १२४ २० विषया: ४८२ अनिवृत्तिकरणनामप्रवृत्तिनिमित्तकथनम् ४८३ अन्तरकरणस्वरूपम् .. ४८४ श्रेणिजन्योपशमसम्यक्त्वस्य १२६ २१ १२६ २४ १२७ ४ ... .... त्यस्योत्तरम् ४८६ सास्वादनस्य गुणस्थानत्वसमथनम् ४८७ अत्र कर्मप्रकृतीनां बन्धवेदनासतानां व्यावर्णनम् ४८८ मिश्रगुणस्थानस्वरूपम् ४८९ भावार्थवर्णनस्... ४९० अत्र नायुषो बन्धो मरणं वेति ... ... ... [ प्रथमभागे ... १२४ २५ १२५ १२ १२५ २३ १२५ २८ १२६ ८ ४७७ करणत्रय स्वरूपम् ४७८ आयुषो वर्जने कारपाप्रदर्शनम् १२६ १६ ५०१ पञ्चमगुणस्थानस्वरूपम् ४७९ यथाप्रवृत्तिकरणाधिकारिक५०२ विरताविरतेर्भङ्गाष्टकप्रदर्श नम् ... ५०३ जघन्यमध्यमोत्कृष्टदेशविरति प्रदर्शनम्... ४९३ चतुर्थगुणस्थानस्त्ररूपम् ४९४ तद्भावार्थकथनम् ४९५ औपशमिकक्षायोपशमिकयो ... 600 www. ... www १२७ ९ १२७ १७ १२९ २० कथनम् ... ४९१ मिश्रगमने मत मेदप्रदर्शनम् १२९ २४ ४९२ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ताभिधानम्... ... पृ. पं. १२८ १० ... विशेषप्रदर्शनम् ... १३० २४ ४९६ अस्योत्कृष्टस्थिति समर्थनम् १३१ १ ४९७ सम्यक्त्वोत्पत्ति निदानप्रदर्श नम्.... ४९८ निसर्गसम्यक्त्वादिस्वरूपव र्णनम् १३१ ९ ४९९ सम्यक्त्वलाभकालकथनम् ... १३१ १६ ५०० अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्तानां वर्णनम् १२८ १७ 2 १२९ ५ १२९ १० १२९ १४ १२९ १ 900 १३०. ૨ १३० ८ १३० १४ १३१ ... १३२ ५ w १३१ १९ १३१ २४ १ १३२ १२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः किरणः ] विस्तरतो विषयानुक्रमः : ११ विषयाः विषयाः ५०४ द्वादशाणुव्रतनामकथनम् ... १३२ १९ ५३० प्रथमगुणव्रतस्य पश्चातिचार....... ५०५ व्रतानामणुत्वकथनम्.... ... १३२ २० वर्णनम् ........ ... .... १४४ १ ५०६ हिंसाया मेदप्रदर्शनम्... ... १३२ २३ | ५३१ द्वितीयगुणवतस्य पञ्चाति- ...' ५०७ प्रथमाणुव्रतस्वरूपम्... ... १३३ १३ चारदर्शनम् ... ..... ... १४४ ११ ५०८ द्वितीयाणुव्रतवर्णनम्... ... १३३ १९ ५३२ तृतीयगुणवतस्य पञ्चाति५०९ न्यासनिह्नवस्य पृथग्वचने .. चारा:- ... ... ... ... १४४ .. कारणकथनम् ... ... ... १३३ | ५३३ प्रथमशिक्षापदव्रतातिचाराः १४५ ५१० तृतीयाणुव्रतनिरूपणम् ... १३४ ५३४ कायदुष्पणिधानादीनामति- : ५११ चतुर्थाणुव्रतनिरूपणम् ... १३४ चारत्वसमर्थनम्... ... ... १४६ ५१२ पञ्चमाणुव्रतनिरूपणम् ... १३४ २४ ५३५ द्वितीयशिक्षाव्रतातिचारा:... १४६ ५१३ प्रथमगुणवतस्वरूपम् ... १३५ ५३६ तृतीयशिक्षाप्रदवतातिचारा ५१४ द्वितीयगुणवतम् .... ..... १३५ ५३७ चतुर्थशिक्षापदवतातिचाराः १४७ ५१५ तृतीयगुणव्रतम् . ... ... १३५ ५३८ अतिचारत्वे मतान्तरप्रदर्श-... ५१६ अनर्थदण्डमेदप्ररूपणम् ... . मम्......... ... ... ... १४८ ५१७ शिक्षापदव्रतगुणवतयोर्भेद ५३९ पश्चमगुणस्थानस्योत्कृष्टस्थि... __ कथनम् ... ... ... ... १३६ तिकथनम्... ... ... ... १४४ १५ ५१८ शिक्षापदव्रतमेदाः ... ... १३६ ५४० अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ता५१९ सामायिकस्वरूपम् ... ... १३७ नामभिधानम् ... ... ... १४८ ५२० देशावकाशिकस्वरूपम् ... १३७ १२ ५४१ षष्ठगुणस्थानवर्णनम्... ... १४८ ५२१ पोषधव्रतस्वरूपम् ... ... १३७ | ५४२ विशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षवर्णनम्... १४९ ५२२ पोषधोपवासभेदप्रदर्शनम्... १३७ | ५४३ गुणस्थानस्यास्यस्थिती मत५२३ अतिथिसंविभागस्वरूपम्... भेदप्रदर्शनम् ... ... ... १४९ ५२४ सम्यग्दृष्टिदेशविरतानामत्ति- ५४४ भगवत्यनुसारेण पूर्वकोटिव्य-.. ___चारसम्भवसमर्थनम्... ... १३९ वस्थाप्रदर्शनम्... ... ... १४९ ११ ५२५ प्रथमवतस्य पश्चातिचारव ५४५ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्तानां र्णनम् ... ... ... ... व्यावर्णनम् ... ... ... १४९ १५ ५२६ द्वितीयव्रतस्य पञ्चातिचार ५४६ सप्तमगुणस्थानस्वरूपम् ... १४९ १८ वर्णनम् ... ... ... ... १४० ५४७ अत्र निरालम्बनध्यानप्रारम्भ ५२७ तृतीयव्रतस्य पश्चातिचारप्र. - इति वर्णनम् ... ... ... १४९ २३ _____दर्शनम् ... ... ... ... १४१ ५४८ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ताना५२८ चतुर्थव्रतस्य.प्रश्चाविचारप्र मभिधानम्... ... ... ... १५० ५ दर्शनम् ... ... ... ... १४२ १ ५४९ अष्टमगुणस्थानस्वरूपम् ... १५० १० ५२९ पञ्चमवतस्य पञ्चातिचार-... ५५० स्थितिघातादिस्वरूपम् ... १५० १८ कथनम् ... ... ... ... १४३ . ३ ५५१ गुणसंक्रमणस्वरूपम् ... ... १५१ ७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतखन्यायविभाकरस्य [ प्रथमभागे .... .. विषयाः :.. पृ. पं. | विषयाः : पृ. पं. ५५२ संक्रमयोग्यप्रकृत्यभिधानम... १५१ १२ ५७३ मानादिनां प्रतिपन्नस्य विशेष .. ५५३ अपूर्वस्थितिबन्धस्वरूपम्..... १५१ २१ - प्रदर्शनम्.......... ... ... १५६. . १ ५५४ गुणस्थानस्यास्यकालमानम् १५१, २४ | ५७४ किहिवेदनाद्धावर्णनम् ... १५६ ५ ५७५ कदा क्षीणकषायो भवतीत्य- .:. त्वाभ्यां वैविध्यसमर्थनम्.... १५१ | स्य प्रकाशनम्... . ... ..... १५७ १९ ५५६ अध्यवसायस्थानानामनुक्षण ५७६ क्षीणकषायाद्धाया चरमसंख्ये- .:' ... मधिकाधिकत्ववर्णनम् .. ... १५१ यभागे कर्त्तव्यप्रकटनम् ... १५७. ५५७ क्षपकश्रेणिजतिपत्कृप्रदर्शनम् १५२ | ५७७ केवलीभवनवर्णनम् ....... १५८ ५५८ अनन्तानुबन्धिनां विसंयोज ५७८ उपशमश्रेणिप्रारम्भककथनम् १५८ नायाः वर्णनहेतुः:. .... ....१५२ १४ | ५७९ तत्र मतान्तरप्रदर्शनम् ... १५८ ४ ५५९ तहिसंयोजकानां वर्णनम् ... १५२ ५८० अनन्तानुबन्ध्युपशमनानिरू५६० अनन्तानुबन्धिनां क्षपणाय यो.. पणम् ....... ..... ... ... १५८ - ५ ___ग्यकरणामिधामम्. .... ....१५२ . १८ ५८१ उपशमनास्वरूपम् ... ... १५८ २० ५६१ उछलनासंक्रमाभिधानम्. .... १५३ ५८२ मतान्तरेणानन्तानुबन्धिनां वि५६२ प्राप्तामिवृत्तिकरणकृत्यम् .... १५३ ५६३ दर्शनमोहनीयक्षपणारम्भक-. . . ___ संयोजनैवेतिवर्णनम् ... ... १५८ २३ प्रदर्शनम्... ... ... ... १५३ | ५८३ दर्शनत्रिकोपशमनांनिरूपणं ५६४ तत्रानिवृत्तिकरणादायां कर्त्त - तदधिकारिवर्णनञ्च ... ... १५९ -१ .. व्यवर्णनम् ..... ... ... ५८४ चारित्रमोहोपशमनावर्णनम् १५९ ९ ५६५ बछायुषः क्षपकश्रेण्यारम्भे । | ५८५ लोभवेदनाद्धाया विभागत्रयविशेषवर्णनम् ... ........ . वर्णनम् ... ... ... ... १६० ५६६ अबद्धायुमस्तथात्वे चारित्र-... ५८६ उपशान्तमोहात्पतने हेतुद्वय मोहनीयक्षपणारम्भस्य नि - प्रदर्शनम्... ... ... ... १६० यम इति वर्णनमः... ... ... १५४ ३ ५८७ गुणस्थानेऽस्मिन् कर्मणां ब५६७ करणविशेषाणां तत्राभिधानम् १५४ ३ न्धवेदनासत्तानां वर्णनम् ... १६१ ३ ५६८ षोडशकर्मक्षपणविषये मत ५८८ नवमगुणस्थानस्वरूपम् . ... १६१ ८ .. मेद: ... ... ... ... १५४ . | ५८९ तदर्थवर्णनम् ...... ... ... १६१ १४ ५६९ ततो नवनोकषायक्षपणवर्ण- . . ५९० अक्षपकेण क्षीयमानकर्मप्रकृ- .: नम्............. ...... ... १५४ तिवर्णनम् ... ... ... ... १६१ २३ ५७० स्पर्धकवर्णनम्... .... ... १५५ ५ ५९१ उपशमकेनोपशम्यमानकर्मप्र५७१ किट्टिकरणाचानिरूपणे किट्टि कृतिवर्णनम् ... ... ... १६२ . २ - स्वरूपवर्णनम् ... .. ... .१५५ . २१ / ५९२ अत्र कर्मणां. बन्धवेदनासत्ता५७२ स्थूलजातिभेदापेक्षया किट्टी-... | नां प्रदर्शनम् ... ... ... १६२ ३ नां द्वादशधा कल्पनप्रदर्शनम् १५५ . २४ / ५९३ दशमगुणस्थानस्वरूपम् ..... १६२ ९ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः किरणः ] . विस्तरतो विषयानुक्रमः । : १३ - विषयाः पृ. पं. विषयाः ५९४ अत ऊर्ध्वं क्षपकोपशमकयोर्ग- ६१५ केवलिसमुद्धातवर्णनम् ... १६५ १९ :- न्तव्यस्थानस्याभिधानम् ... १६२ १५ ६१६ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ता५९५ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ता.. संख्यावर्णनम् ... ... ... १६५ .२५ संख्यावर्णनम् ... ... ... १६२ १८ ६१७ चतुर्दशगुणस्थानस्वरूपम् ... १६६ १ ५९६ एकादशगुणस्थानस्वरूपम् १६२ २२ ६१८ शैलेशीशब्दव्युत्पत्तिः ... ... १६६ ५ ५९७ आसंसारमेकस्योपश्रेणिश्च.. ६१९ शैलेशीकमः ... .... ... १६६ ७ तुःकृत्व इति वर्णनम् ... ... १६३ . ७ ६२० अत्र कर्मक्षयप्रदर्शनम् ... ... १६६ १९ ५९८ अत्रागमाभिप्रायप्रदर्शनम्... १६३ १० | ६२१ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ता... ५९९ उपशमनेण्यारम्भकाणाम संख्याप्रदर्शनम्... ... ..... १६७ विरतादीनां कथमत्र मिथ्या... ६२२ भेदपूर्वकं समित्यादीनां नि- . त्वादीनामुपशमनेत्यस्य सः रूपणम् ... ... ... ... १६७, १० माधानम्... .... .......... १६३ ११ ६२३ समितिलक्षणं पदकृत्यश्च... १६७ १६ ६०० उपशमक्षयोपशमयोर्विशेष: ६२४ सपदकृत्यमीर्यासमिक्लिक्ष.. प्रदर्शनम्... ... ..........१६३ . णम् ......... ........ १६७ २३ ६०१ तथात्वेऽपि न सम्यक्त्ववि ६२५ भाषासमितेर्लक्षणम् ... ... १६८ २ घात इति वर्णनम् ... ... १६३ १६, ६२६ एषणासमितेर्लक्षणम् ... ... १६८ ६ ६०२ अत्र कर्मणां बन्धवेदनास- ६२७ आदाननिक्षेपणासमितेर्लक्षतासंख्यावर्णनम् ... ... १६३ णम्... ... ..... ... ... १६८ १४ ६०३ द्वादशगुणस्थानस्वरूपम् ... १६४ ६२८ उत्सर्गसमितेर्लक्षणम् ... ... १६८ १९ ६०४ क्षपकणिराभवमेकवारमेवे ६२९ सप्रभेदं गुप्तिस्वरूपम् ... १६८ २५ त्यभिधानम्. .... ... ... १६४ ६३० सपदकृत्यं गुप्तिलक्षणम् ... १६९ ५ ६०५ केवलज्ञानप्राप्तिकथनम् ... १६४ ६ ६३१ कायगुप्तिलक्षणम् . ... ... १६९ १२ ६०६ अत्र कर्मणां बन्धवेदनासत्ता- ... ६३२ तत्र शास्त्रीयनियमप्रदर्शनम् १६९ _संख्याकथनम् ... ... ... १६४ । ६३३ नियमान्तरस्यापि प्रदर्शनम् १६९ ६०७ तत्सद्गणस्थानेषु कर्मप्रक ६३४ वाग्गुप्तिलक्षणं तद्घटकप... तिक्षयप्रदर्शनम् ... ... १६४ दार्थश्च ..... ... ... ... १७० ६०८ प्रयोदशगुणस्थानस्वडपम्... १६४ १६ ६३५ भाषासमित्यतिव्याप्तिप- . . ६०९ सप्रमेदं योगवर्णनम् ... ... १६४ १९ रिहारः ... ... .... ... १७० ६१० केवलिनो योगत्रयस्य फलप्रद. ६३६ मनोगुप्तिस्वरूपम् ", ... १७० र्शनम् ....... ... ... १६५ १ ६३७ परीषहस्वरूपम् ... ... १७० २५ ६११ सयोगिकेवलिनो भेदप्रदर्शनम् १६५ ४६३८ परीषहशब्दव्युत्पत्तिः... ... १७० ३१२ एतद्गुणस्थानकालमानम् १६५ ७ ६३९ सपदकृत्यं तल्लक्षणम्... ... १७१ .२ ६१३ समुदधातवर्णनम ... ... १६५ ११ ६४० नयैः परीषहस्वाभिवर्णनम... १७१ ४ ६१४ तद्भेदाः .... .............. १६५ १४ । ६४१ नयैरेषामुत्पादकद्रव्यवर्णनम् १७१, ८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४ : विषया: ६४२ नयैस्तत्कालवर्णनम् : ६४३ परिषद्यभेदप्रदर्शनम्... ६४४ क्षुधादयो न परीषद्दा इति वर्णनम् ... 'सटीक न्यायविभाकरस्य ... पृ. पं. .... १७१ १९ १७१ २४ ६४५ क्षुत्परीषहस्वरूपम् ६४६ क्षुधासम्भवगुणस्थानप्रद ... ⠀⠀⠀⠀⠀ ६५५ स्त्रीपरीषस्वरूपम्... ६५६ अवस्त्रादिपरीषहाणां चारि त्रमोहनीयक्षयोपशमजन्य त्वकथनम् .. ६५७ चर्यापरीषहादिस्वरूपम् ६५८ चर्याद्वैविध्यप्रदर्शनम्... ६५९ चर्यापरीषंहस्य चारित्रमो ... ... हनीयक्षयोपशमजन्यत्ववर्णनम् .. • ६६० निषद्यापरीषहस्वरूपम् ६६१ अस्य चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वम् ६६२ शय्यापरीषहस्वरूपम् ... ६६३ अस्य चारित्रमोहक्षयोपशमजत्वमिति वर्णनं ६६४ आक्रोशपरीषस्वरूपम् :: ... ... :: १७२ १० १७२ १३ १७२ २१ १७२ २२ १७२ २७ १७३ २ १७३ ९ र्शनम् ६४७ पिपासापरीषह स्वरूपम् ६४८ शीतपरीषहस्वरूपम्... ६४९ उष्णपरीषहस्वरूपम्... ६५० देशपरीषादिस्वरूपम् ६५१ क्षुधादिपरीषाणां चारित्रमोहनीय क्षयोपशमजन्यत्व-वर्णनम् ६७१ अलाभपरीषहस्वरूपम् ६७२ लाभान्तरायक्षयोपशमजन्यत्वमस्येति वर्णनम् ... ६७३ रोगपरीषहस्वरूपम् ........ १७३ १४ ६७४ तृणस्पर्शपरीषद्दादिस्वरूपम् १७७ ११ ६५२ वेदनीयक्षयोपशमजन्या इत्य६७५ मलपरीषहनिरूपणम् भावार्थ: १७७ १ १७७ २ ... १७७ २५ १७३ १९ ६७६ चारित्रमोहक्षयोपशमजन्य१७४ ३ त्वमेषामिति वर्णनं ६५३ अवस्त्रपरीषहस्वरूपम् ६५४ अरतिपरीषहस्वरूपम् .. १७४ ९ १९७४ १३ 000 | १७४ १७ १७४ २४ १७५ ५ विषयाः १७५ १६ १७५ १८ 7 १७५ २२ ... १७५ २४ ६६५ अस्य चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वकथनम् ... ६६६ वधपरीषद्दस्वरूपम्... ६६७ अस्य चारित्रमोहक्षयोपश जत्वकथनम् ... ६६८ याचनादिपरीवहस्त्ररूपाणि ६६९ याचनापरीषद्दलक्षणम् ६७० अस्य चारित्रमोहक्षयोपश मजत्ववर्णनम् .... [ प्रथमभागे ... ... ... .... ... www ६७७ सत्कारपरीषहाभिधानम् ६७८ अस्य चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वकथन‍ ६७९ प्रज्ञापरीषहवर्णनम् ... ६८० अस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमजत्ववर्णनम् ६८२ अज्ञानपरीषहस्वरूपम् ६८२ अस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यत्वकथनम् ... .... १७५ ८ ६८३ सम्यक्त्वपरीषहस्वरूपम् १७५ १० | ६८४ अस्य दर्शनमोहनीयक्षयोप ... www ... ... ... ... 200 पू. पं. १७६४ १७६ ५ १७६ १० १७६ १४ १७६ २० कथनम् ... ६८६ सप्रमेदं यतिधर्मस्वरूपम् ६८७ सपदकृत्यं यतिधर्मलक्षणम् ६८८ सप्रभेदं भावनास्वरूपम् १७६ २२ १७६ २४ १७८ ર १७८ ... १७८ १९ १७८ २१ ... 20 १७८ ९. १७८ १० १७८ १४ १७८ १६ ... रामजन्यत्ववर्णनम् ... १७८ २४ ६८५ एकत्र जीवे एतत्सत्त्वसंख्या : -१७८ २६ १७९ १७९ 1 6α M ४ ७ १७९ १८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमः किरण: ] विस्तरतो विषयानुक्रमः । : १५ : विषयाः पृ. पं. विषयाः पृ. पं. ६८९ सपदकृत्यं तल्लक्षणम् ... १७९ १९. २२ ७१९ श्रतद्वारविचार: :.... ६९० सप्रभेदं चारित्रस्वरूपम् ... १८० ७२० शानद्वारेऽस्य द्वारस्यान्तर्भाव ६९१ तद्भावार्थः ..... ... ... १८० इति कथनम् .... ... .... १८८ २१ ६९२ चारित्रस्यानेकधा विभाग ७२१ तीर्थद्वारविचारः ... ... प्रदर्शनम्.... ... ... ... १८० | ७२२ लिङ्गद्वारविचारः ....... ६९३ सामायिकस्वरूपम् ... ... १८० ७२३ लिङ्गभेदप्रदर्शनम् ........ ६९४ लक्षणपदकृत्यम्... ........१८० २७ ७२४ शरीरद्वारविचार: ... ... '६९५ अस्य गुप्तिभिन्नत्वसमर्थनम १८१ ७२५ क्षेत्रद्वारविचार:: .... १८९ २१ ६९६ इत्वरकालसामायिकस्वरूपम् १८१ ९ | ७२६ जन्मसद्भावशब्दार्थः.... ... ६९७ यावज्जीवकालसामायिक-: ७२७ कर्माकर्मभूमिप्रदर्शनम् ... १९० स्वरूपम् ... ... ... ... १८१ १४ | ७२८ कालद्वारविचारः .... ६९८ छेदोपस्थापनस्वरूपम् ... १८१ ७२९ कालभेदप्रदर्शनम् ... .... १९० ६९९ निरतिचारस्वरूपम् ... ... १८२ ७३० तेषां क्षेत्रप्रदर्शनम् ....... १९० ७०० सातिचारस्वरूपम ....... १८२ | ७३१ तत्तदरकतुल्यकालबरक्षेत्र...... ७०१ परिहारविशुद्धिकस्वरूपम् ... १८२ वर्णनम् .................... १९० २६ ७०२ तपोविशेषप्रतिपादनम् ... १८२ ७३२ परिहारविशुद्धिसंयताश्रयेण-... ७०३ परिहारविशुद्धिकानां क्षेत्र कालविचारः. ... ... ... १९१ ५ कालवर्णनम् ... ....... १८३ ७३३ सूक्ष्मसम्परायपथास्याता......... ७०४ सूक्ष्मसम्परायस्वरूपम् ... १८३ . श्रयेण तद्विचारः : ... . ... १९१ .१४ ७०५ तद्वैविध्यस्वरूपवर्णनम् ... १८४ | ७३४ अपगतवेदयोरनयोस्संहरण...... ७०६ यथाख्यातस्वरूपम्..... ... १८४ समर्थनम्........ ...... १९१ २४ ७०७ एतद्वैविध्यस्वरूपवर्णनम्... १८४ | ७३५ उत्सर्पिण्यादिकालस्वरूपम्... १९२ २ ७०८ षट्त्रिंशद्वारनामानि... ... १८५ ३ ७३६ अवसर्पिण्या प्रथम विभागे ... ७०९ प्रज्ञापनाद्वारविचार:... ... १८५ | हेतुवर्णनम् ..... ... ... १९२ १४ ७१० वेदद्वारविचार:.... ... ... २३ ७३७ परिमाणेन सहारकाणां न्यु-.... ७११ रागद्वारविचारः ... ... । त्पत्तिः .... ........... १९२ १५ ७१२ कल्पद्वारविचारः ..... .... १८६ | ७३८ अरकेषु मनुष्याणां शरीरो७१३ स्थितास्थितकल्पपरिचयः... | छायादिवर्णनम्.......... ७१४ प्रकारान्तरेण कल्पद्वारवि- ... ७३९ गतिद्वारविचारः ........ १९३ चार.................. १८७ . ३७४० देवलोकनामनिर्देशः ....... १९४ १२ ७१५ चारित्रद्धारविचारः ... ... १८७ | ७४१ सौधर्मादिदेवलोकानां स्थि७१६ प्रतिसेवनाद्वारविचारः ... १८७ | तिव्यवस्था .... ....... १९४ ७१७ प्रतिसेवनापदव्युत्पत्तिः ... १८७ २१ | ७४२ कल्पोपपन्नशब्दार्थ......१९५ ७१८ शानद्वारविचार ... ... १८८. ७ | ७४३. विजयादिशब्दतिरुतिः . १९५. ८ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : विषयाः सटीक तस्वन्यायविभाकरस्य पृ. पं. ७४४ ज्योतिष्कादीनां नामनिर्देशः १९५ १९ ७४५ तेषां विमानप्रस्तारस्थानव र्णनम् १९५ २२ २ १९६ ६ १९६ १५ १९ ७४६ चन्द्रादीनां द्वैविध्यवर्णनम् १९६ ७४७ व्यन्तरशब्दनिर्वचनम् ७४८ भवनावासयोर्भेदकथनम्७४९ संयमद्वारविचारः ... - १९६ ७५० चारित्रद्वारादस्य भेदवर्णनम् १९६ ७५१ संयमस्थानस्याल्पबहुत्वचिन्तायामलत्स्थापनया संयमस्थानप्रदर्शनम् १९६ २८ २२ १९७ ७५२ सन्निकर्षद्वारविचारः ७५३ सजातीयविजातीयापेक्षया सामायिकस्य हीनाधिकसमववर्णनम् ... ... ... ... ... ... ... ७५४ छेदोपस्थापनीयादेः तदपेक्षया तद्वर्णनम् .... ७५५ तत्राल्पबहुत्वचिन्ता ७५६ -योगद्वारविचारः ७५७ उपयोगद्वारविचारः... ... ७५८ कषायद्वारविचार: ७५९ लेश्याद्वारविचारः ७६० किंरूपा लेश्येत्यस्य समा ... ... ::: 6 A धानम् .... २०० ४ ७६१ लेश्याया मेदाः ... २०० १० ७६२ शुभाशुभलेश्याकथनम् २०० १२ ७६३ परिणामद्वारविचारः... ...२०० १९ ७६४ परिणामभेदकथनम् ... २०१ १ ७६५ किञ्चिदूनपूर्वकोटिसाधनम् २०१ १४ ७६६ बन्धद्वारविचारः २०१ १८ ७६७ आयुर्बन्धकाः के इत्यस्य समाधानम् ७६८ वेदनाद्वारविचारः ७६९ उदीरणाद्वारविचार.... ... ७ १९७ १४ १९७ २७ १९८ १६ १९८ २४ १९९ २ १९९ १२ १९९ २७ २०१ २२ २०२ २०२ १२ विषयाः पू. पं. १६ ७७० उदीरणास्वरूपम् ....२०२ ७७१ उपसम्पद्धानद्वारविचार: २०३ ६ ७७२ उपसम्पद्धानशब्दार्थः ... ७७३ संज्ञाद्वारविचारः ... २०३ १७ २०४ ધ્ર २०४ ८ ... २०४ १७ ७७४ संज्ञास्वरूपभेदाश्च ७७५ आहारकद्वारविचारः... ७७६ भवद्वारविचार: ७७७ आकर्षद्वारविचार एकभवाश्रयेण ... २०५ ... [ प्रथमभागे ... ७९१ अल्पबहुत्वद्वारम् ७९२ संवरनिरूपणोपसंहारः अष्टमः किरणः ... ... ७७८ नानाभवाश्रयेण तद्विचारः ७७९ कालमानद्वारविचार एकजीवापेक्षया २०८ ४ ७८० नानाजीवापेक्षया तद्विचारः ७८१ अन्तरद्वारविचार एकजीवा पेक्षया ७८२ पृथक्त्वापेक्षया तद्विचार... २०८ १२ ७८३ समुद्घातद्वारविचारः ... २०९ ७८४ समुद्घातस्वरूपम् तद्भेदश्च २०९ ७८५ तेषु निमित्तभूतकर्मकथनम् २०९ ११ ७८६ क्षेत्रद्वारविचार.... ४ ૮ २०९ १६ २१० . २१० १५ ७८७ स्पर्शनाद्वारविचारः ७८८ भावद्वारविचारः ७८९ परिमाणद्वारविचारः... ७९० परिहारविशुद्धयादीनां परिमाणविचारः २१० २२ ..... mv 30 २०५ १३ २०६ ... ४ २०६ २३ २०७ १२ २११ १३ २११ २५ २१२ १० ७९३ निर्जरालक्षणम् २१२ १७ ७९४ तल्लक्षणभावार्थवर्णनम् ... २१२ १८ ७९५ निर्जराद्वैविध्यवर्णनम् .... २१३ २ ७९६ विपाकोदयस्वरूपम् ७९७ उदयावलिकाप्रवेशद्वैविध्यम् २१३ १३ २१३ ९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः किरण: ] विषयाः ७९८ प्रदेशोदयस्वरूपन् ७९९ पुनर्निर्जरायाः विभागः ८०० सकामनिर्जरास्वरूपम् ८०१ अकामनिर्जरास्वरूपम्... ८०२ द्रव्यभावनिर्जरास्वरूपम् ८०३ तपसः स्वरूपम् ... ८०४ अलब्धवृत्तीनां कर्मणां तप ८०५ बाह्यतपोभेदप्रदर्शनम् ... ... ... ... साक्षय इति वर्णनम् ... २१५ ९ २१५ १८ २१५ २३ ... ... ८०६ अनशनस्वरूपम् ८०७ यावज्जीवस्य विभागः पादपो पगमन भेदाश्च... ८०८ इङ्गिनीस्वरूपम्... २१६ ८०९ भक्तप्रत्याख्यानस्वरूपम् ८१० ऊनोदरिकास्वरूपकथनम् .. २१६ ८११ वृत्तिसंक्षेपस्वरूपकथनम् ... २१७ ४ ८१२ रसत्यागवर्णनम् ... २१७ १३ ८१३ विरसपदार्थाभावकास ... 200 ... विस्तरतो विषयानुक्रमः पृ. पं. २१३ १६ २१३ २६ २१४ ११ २१४ १७ २१४ २३ २१५ २ ... ... माधानम्... ८१४ विकृतिभेदवर्णनम् ८१५ अनशनोदरिकार सत्यागानां - वृत्तिसंक्षेपाद्भिन्नत्वसम थनम् ... ८१६ कायक्लेशस्वरूपम् ८१७ संलीनतानिरूपणं भेदश्च ८१८ इन्द्रियसंलीनतादीनां निरू ... पणम् ८१९ आभ्यन्तरतपोविभागः २१९ ११ २१९ २१ ८२० सप्रभदं प्रायश्चित्तस्वरूपम् २१९ २५ ८२१ प्रायश्चित्तलक्षणं पदकृत्यञ्च... २२० ४ ८२२ तत्त्वार्थे नवविधत्वं प्राय वित्तस्येति कथनम् ... ८२३ आलोचनस्वरूपम् ८२४ तद्भावार्थवर्णनम् ... २१६ ३ २१६ ७ ११ १७ २१७ २० २१७ २१८ ११ २१८ १७ २१९ २ २२० २२० २२० १० विषयाः ८२५ प्रतिक्रमणनिरूपणम् ८२६ मिश्रनिरूपणम् ८२७ विवेकनिरूपणम्... ८२८ व्युत्सर्गस्वरूपम्... ८२९ प्रायश्चित्तान्तर्गततपोनिरू a. my w पणम् ८३० छेदस्वरूपम् ८३१ मूलस्वरूपम् ८३२ अनवस्थाप्यस्वरूपम्... . ८३३ पाराश्चितस्वरूपम् ... ... ... ... ... नश्च... ८४८ ध्यानभेदाः ८४९ आर्त्तध्यानलक्षणम् ८३४ उपाध्यायस्यानवस्थाप्यान्तं मूलान्तं सामान्य साधूनां प्रायश्चित्तमित्यभिधानम् ... ... ... २२१ : : : : ७ २२४ २२४ १५ २२४ २० ... २२४ २२ २२५ २ २२५ ५ ८३५ विनयस्वरूपम् ८३६ तद्भेदाः ८३७ ज्ञानविनयस्वरूपम् ८३८ दर्शनविनयस्वरूपम् ८३९ चारित्रविनयस्वरूपम् ८४० उपचारविनयस्वरूपम् २२. ८४१ सप्रभेदवैयावृत्त्यनिरूपणम् २२५ १५ ८४२ सेवायाः विषयः फलश्च ८४३ स्वाध्यायस्वरूपम् ८४४ कालवेलास्वाध्यायभेदाः २२५ ६ २२५ २० २२६ ४ फलञ्च .... १३ प्रदर्शनम्... १६ | ८५२ अस्य ध्यातृवर्णनम् .. ... ... www ... ... ८४५ ध्यानस्वरूपम् ... ८४६ लक्षणार्थस्फुटीकरणम् ८४७ लक्षणेऽव्याप्तिशंका समाधा ⠀⠀⠀ www : १७ : ८५० तद्भेदप्रदर्शनम्... ८५१ आर्त्तकार्यस्य विशेषणमुखेन पृ. पं. ક २२१ ११ २२१ १२ २२२ x 2 9 २२३ ७ २२२ १३ २२२ १८ ५ २२३ ११ २२३ २१ २२६ २२६ २० २२७ ६ α & m २२७ १३ २२७ २४ २२८ ५ २२८ ८ २२८ १५ २२८ १८ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतस्वन्यायविभाकरस्य [ प्रथमभागे विषयाः विषयाः पृ. पं. ८५३ रौद्रध्यानलक्षणम् ... ... २२८ २२ | ८७८ तद्विचार: ... ... ... २३६ ५ ८५४ तद्भेदनिरूपणम् ... ... ... २२९ ८७९ कर्मसाधनम् ... ... ... २३६ २६ ८५५ तत्कार्यप्रदर्शनम् ... ... ८८० कर्मणः पौगलिकत्वसमर्थ८५६ तद्धयातृवर्णनम् ... ... नम... ... ... ... ... २३७ ३ ८५७ धर्मध्यानलक्षणम् ... ... ८८१ कर्मसमूहात्मककामणशरी८५८ तद्भेदवर्णनम् ... ... ... रस्य मूर्त्तत्वेऽप्यप्रत्यक्षत्व८५९ भावनानां धर्मध्यानभिन्नत्व समर्थनम्... ... ... ... २३७ १६ ____ समर्थनम्... ... ... ... ८८२ बन्धकारणकथनम् .. ... २३८ ६ ८६० तद्धयातृवर्णनम् ... ... २३० २३ ८८३ मिथ्यादृष्ट्यादीनां बन्धका८६१ अस्य भावनावलम्बनक्रमा रणसंख्याकथनम् ... ... २३८ ७ दीनां कथनम्... ... ... २३० २६८८४ प्रमादस्वरूपं तद्धतवश्च ... २३८ १५ ८६२ देशकालादीनां वर्णनम् ... २३१ ५ ८८५ सप्रभेदं मिथ्यात्वस्वरूपम्... २३९ १ ८६३ शुक्लध्यानस्वरूपम् भेदश्च... २३१ २१ ८८६ आभिग्रहिकलक्षणम् ... ... २३९ ८ ८६४ पृथक्त्ववितर्कस्वरूपम् ... २३२ २ ८८७ तत्पदकृत्यम् ... ... ... २३९ १२ ८६५ अस्य सविचारत्वकथनम्... २३२ १४ | | ८८८ अनाभिग्रहिकलक्षणम्... ... २३९ १८ ८५५ एकत्वावतकस्वरूपम् ... २३२ ८८९ तत्पदकृत्यम् ... ... ... ८६७ अस्याविचारत्ववर्णनम् ... २३२ २६ ८९० आभिनिवेशिकलक्षणम् ... २४० ४ ८६८ सूक्ष्मक्रियस्वरूपम् ... ... २३३ २.८९१ तत्पदप्रयोजनम्... ... ... २४० ५ ८६९ व्युपरतक्रियस्वरूपम् ... ... २३३ १०८९२ सांशचिकस्वरूपम् ... ... २४० १५ ८७० भेदद्वयस्यास्य मनसोऽभा । ८९३ तद्भावार्थवर्णनम् ... ... २४० १६ वेन ध्यानत्वं कथमिति शङ्का ८९४ अनाभोगिकस्वरूपम्... २४० २२ समाधानम् ... ... ... २३३ १४ | ८९५ तद्भावार्थवर्णनम् ... .. २४० २३ ८७१ शुक्लध्यानस्याधिकारिकथ ८९६ द्वादशविधारतिस्वरूपम् ... २४१ ४ नम् ... ... ... ... २३३ २१ ८९७ हिंसादीनां व्रतत्वशङ्का८७२ अस्य भावनादेशकालासना निरासः... ... ... ... २४१ १२ दीनां वर्णनम् ... ... ... २३४ १८९८ पञ्चविंशतिविधकषायवर्णः ८७३ एकेंद्रियादिषट्रशिद्विधा नम्... ... ... ... ... २४१ २२ नाश्रित्य ध्यानविचारः ... २३४ १२ ८९९ पञ्चदशयोगवर्णनम् ... ... २४२ ७ ८७४ व्युत्सर्गस्वरूपम् ... ... २३५ ९ ९०० योगशब्दस्यानेकार्थप्रदर्शनम् २४२ ८७५ अपरिग्रहप्रायश्चित्तविशेषा ९०१ द्रव्यभावयोगवर्णमम्... ... २४२ १३ भ्यामस्य भेदकथनम् ... ... २३५ १५ ९०२ भावयोगस्य द्वैविध्यप्रदर्श८७६ निर्जरानिरूपणोपसंहारः ... २३५ २१ नम्... ... ... ... ... २४२ १६ नवमः किरणः | ९०३ प्रकारान्तरेण द्रव्यभावयोग८७७ बन्धलक्षणम् ... ... ... २३६ ४ वर्णनम् ... ... ... ... २४२ १७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः किरण: ] विषयाः ९०४ शुभाशुभ शुभाशुभ रूपेण द्रव्ययोगस्य त्रैविध्यम् ९०५ भावयोगस्य शुभाशुभरूप ... ... तृतीय भेदो नास्तीति वर्णनम् २४२ २१ ९०६ मनोवाग्योगयोः काययो ... तत्वनिरासः ९०८ प्रकृतिबन्धस्वरूपम्... ९०९ स्थितिबन्धस्वरूपम्... ... ९१० रसबन्ध स्वरूपम् ९११ विपाकानुभवस्य द्वैविध्य वर्णनम् ९१२ रसस्यैकस्थानिकत्वादिप्रद र्शनम् ९१३ अशुभप्रकृतीनामेकस्थानिकत्वादिप्रदर्शनम् ९१४ शुभप्रकृतिनामेकस्थानिकरसाभाववर्णनम् ... ९१५ सप्तदशविधकर्मभिन्नाशुभप्रकृतिनामप्येक स्थानिकरसो नास्तिती वर्णनम् ९१६ शुभानामेकस्थानिकरसाभावे कारणवर्णनम् ९१७ ज्ञानावरणादीनामनुभागसंख्यावर्णनम् ... ९१८ प्रदेशबन्ध स्वरूपम् ९१९ अष्टविधबन्धकादीनां दलि गेन भिन्नत्वकथनम् ... २४३ १६ ९०७ प्राणापानव्यापारस्यातिरि boo .... :::: ... विस्तरतो विषयानुक्रमः । पं. पं. : २४२ १९ ... २४३ २२ २४४ १३ २४५ १२ २४५ २५ २४६ २ २४६ ६ २४६ १२ २४६ १३ २४६ १४ कभागाभिधानम् ९२० स्थित्यनुरोधेन भागे आयुरपेक्षया नामगोत्रयोरसंख्यातगुणत्वापत्तेर्निरासः ९२१ एवं ज्ञानावरणाद्यपेक्षया २४६ १९ २४७ १४ २४७ १९ २४८ ८ विषयाः ९२२ उत्कृष्टजघन्यप्रदेशबन्धाधिकारवर्णनम् ९२३ प्रदेशबन्धस्य चतुर्विधत्वः वर्णनम् ... मोहनीयभागस्य तन्निरासः .. २४८ १२ ... ... ९२४ ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायरूपमूलप्रकृतिपट्कानुत्कृष्टप्रदेशबन्धस्य साद्यादिभेदेन चतुर्विधत्ववर्णनम् ... ९२५ जघन्येऽजघन्ये उत्कृष्टे च द्विप्रकारबन्धकथनम् ... ९२६ मोहस्यायुषश्च चतुर्विधप्रदेशबन्धे द्विविधो बन्धः ९२७ योगस्थानादीनां प्रकृत्यादिकं प्रति कारणत्ववर्णनम् ९२८ बन्धादीनामेकविधाध्यवसायसाध्यत्ववर्णनम् ... ९२९ करणानां भेदा: ९३० करणस्वरूपम्... ९३१ बन्धनकरणस्वरूपम्... ... ९३२ चतुर्विधबन्धानां लक्षणान्तराणि ९३३ स्थित्यनुसारेण ज्ञानावरणीयादीनां भागवर्णनम् ९३४ शुभाशुभाध्यवसायानां प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वेऽपि शुभानां विशेपाधिकत्ववर्णनम् ... ... ... .... २४८ १६ : १९ : २४८ १७ पृ. पं. ... २४७ २१ ९३५ अनुभागनिमित्ताध्यवसायेन नीरसकर्मपुद्गलेषु जीव ग्रहणसमय एव ज्ञानावारकत्वादिविचित्रस्वभावरस परिणामवर्णनम् . ९३६ सङ्क्रमणकरणस्वरूपम् ... २४८ २१ २४८ २८ २४९ २४९ १४ ६ २५० २५० २५० २१ २५१ १२ २५१ २५२ १ १० &&&&& २४ ८ २५२ २५ २५३ २५३ २१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२० सटीकतत्वन्यायविभाकरस्य [प्रथमभागे विषयाः पृ. पं. विषयाः ९३७ तद्भावार्थवर्णनम् ... ... २५३ २३ / ९६१ उपशमनाकरणस्वरूपम् ... २६० ९ ९३८ सङ्क्रमणस्य चतुर्विधत्वकथ- ९६२ तस्याः कृतकरणाकृतकरण नम् ... ... ... ... २५४ ४ भदवर्णनम् ... ... ... २६० १४ ९३९ केषां न पतद्ग्रहत्वमित्य ९६३ कृतकरणोपशमनाभेदः ... २६० १९ __स्य वर्णनम् ... ... ... २५४ ९ | ९६४ अधिकारिवर्णनपूर्वकमौपश९४० सकलकरणायोग्यप्रकृति मिकसम्यक्त्वलाभक्रमवर्णकथनम् ... ... ... ... २५४ १५ नम् ... ... ... ... २६० २२ ९४१ धुवाध्रुवसत्ताककर्मप्रकृतयः, | ९६५ आभोगं विना विरतिपरिणा.. ध्रुवसत्ताकानाञ्च संक्रममधि माद्भष्टस्य पुनस्तां प्रपित्सो. कृत्य साद्यादिचतुर्विधत्वम् २५४ १८ रकृतकरणत्वं आभोगाद्भष्ट९४२ अध्रुवसत्कर्मणां साद्यध्रुव स्य तादृशस्य कृतकरणत्वमित्वम् . ... ... ... ... २५४ २५ ति वर्णनम् ... ... ... २६२ ९ ९४३ सङ्कामकानां वर्णनम् .... ... २५५ १ ९६६ लक्षणे सक्रमणोद्वर्तनापव९४४ पतद्ग्रहध्रुवबन्धिनीनां चा... ..। तनाकरणायोग्यत्वस्यानभि.. तुर्विध्यवर्णनम्... ........... २५५ १४ धाने कारणवर्णनम् ... ... २६२ १५ ९४५ स्थितिसङ्कमाभिधानम् ... २५५ २१ ९६७ उदयपदार्थनिरुक्तिः ... ... २६३ ५ ९४६ अनुभागसङ्कमाभिधानम् ... २५६ १९६८ शानावरणादिविंशतिप्रकृति९४७ पञ्चविधप्रदेशसङ्क्रमवर्णनम् २५६ ६ भिन्नानां साधनादिकमुदीर९४८ उद्वर्तनाकरणस्वरूपम् ... २५६ रणावदिति वर्णनम् ... ... २६३ १० ९४९ उद्वर्तनायोग्यानां वर्णनम्... २५६ .१५ ९६९ निधत्तिस्वरूपम् ... ... २६३ १५ ९५० अपवर्तनास्वरूपम् ... ... २५७ २ ९७० देशोपशमनावर्णनम् ... ... २६३ २३ ९५१ उदयावलिकाबाह्यस्थितेरप- . ९७१ मोहनीयादीनां देशोपशमवर्त्तनेति वर्णनम् ... ... २५७ ४ नामधिकृत्य प्रकृतिस्थानव९५२ उदयावलिकास्वरूपम् ... २५७ ... नम् ... ... ... ... २६४ ९५३ अतीत्थापनावर्णनम् ... ... २५७ ९७२ निकाचनास्वरूपम् ... ... २६४ ९५४ उदीरणाकरणस्वरूपम् ... २५७ ९५५ तत्प्रभेदाः ... .... ... २५७ ९७३ मूलप्रकृतिबन्धभेदवर्ण९५६ मूलप्रकृत्याश्रयेणोदीरकाणां _ नम्... ... ... ... ... २६४ वर्णनम् ... ... ... ... २५८ ९७४ तथाक्रमेणोपन्यासे हेतुवर्ण९५७ तदाश्रयेणोदीरणास्थानव नम्... ... ... ... ... २६५ १ र्णनम् ... ... ... ... २५८ ९७५ एतेषां परस्परं व्याप्यव्यापक९५८ स्थित्युदीरणावर्णनम् ... २५८ २२ भाववर्णनम् ... ... ... २६५ २३ ९५९ अनुभागोदीरणावर्णनम् ... २५८ २७ / ९७६ एतेषामवान्तरभेदकथनम् ... २६६ १४ ९६० विपाकभेदाः पुद्गलविपाकि . ९७७ तत्समर्थनम् ... ... ... २६६ १८ त्वादिवर्णनश्च ... ... ... २५९ १६ / ९७८ ज्ञानावरणस्वरूपम् ... ... २६७ ८ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम: किरण: ] विषयाः ९७९ ज्ञानावरणस्य विशेष हेतुप्र दर्शनम् .. ९८५ आयुषस्स्वरूपम्... ९८६ आयुषो हेतवः ९८७ नामकर्मस्वरूपम् ९८८ नामकर्महेतवः . ९८९ गोत्रकर्मस्वरूपम् ९९० तत्र हेतवः ९९१ अन्तरायकर्मस्वरूपम् ९९२ तद्धेतवः... ९९३ मूलप्रकृतीनां स्थितिप्रद ... र्शनम् ९९४ बन्धतत्त्वोपसंहारः ९८० दर्शनावरणस्वरूपम् ९८१ वेदनीयस्य स्वरूपम् ९८२ सदसद्वेदनीयस्य हेतवः २६९ ९८३ मोहनीयस्य स्वरूपम् ९८४ दर्शनमोहनीयस्य हेतुवर्णनम २६९ २६९ २७० ४ २७० १६ २७० १९ २७१ २७१ ९ २७१ १६ २७१ १९ ... ... ... ... दशमः किरणः ... ... ... ... ... विस्तरतो विषयानुक्रमः । पृ. पं. .... २६७ १३ २६७ २२ २६८ ४ २६८ ७ મ ७ १८ ... ९९५ मोक्षलक्षणम् ९९६ मोक्षे केषां भावानां स्थितिरित्यस्य वर्णनम् ... २७३ २३ २७४ ९९७ आत्माभावो मोक्ष इति मतनिरास: ... ९९८ मोक्षे ज्ञानसत्त्वसमर्थनम् ९९९ सङ्ग्रहनयेन मोक्षकथनम् . २७४ १००० व्यवहारनयेन तद्वर्णनम्... २७५ १ स्त्रियो मोक्षसमर्थनम् ... २ ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति वर्णनम् . ३ अशेषविशेषगुणनिवृत्तिर्मुक्तिरित्यस्य समाधानम् ४ आत्मनो विशेषगुणाः कदा २७२ २७२ 30 18 २७३ ४ २६ ४ २७३ १० 6 m १७ २ २७५ ७ २७५ १५ २७५ १९ विषयाः चिच्छिद्यन्त इत्यनुमानख ण्डनम् ... ५ चैतन्यमात्रेऽवस्थानं मोक्ष इत्यस्य निरासः... ६ अत्यन्तज्ञानसन्तानोच्छेदो मोक्ष इत्यस्य निरासः... ७ मुक्तस्वरूपम् ८ अनुयोगद्वाराणि ९ सत्पदप्ररूपणा... ... १० अत्रानुमानम् ११ मार्गणाभेदाः १२ तद्घटकशब्दार्थवर्णनम् १३ गतिमार्गणोत्तरभेदाः . १४ नरकपदनिक्षेपवर्णनम् १५ इन्द्रियमार्गणोत्तरभेदाः १६ लब्ध्यपेक्षया एकेन्द्रियाणामपि पञ्चेन्द्रियत्वसमर्थनम् .. १७ काय मार्गणोत्तरभेदाः १८ तेषां स्वरूपप्रदर्शनम् १९ श्लक्ष्णबादरपृथ्वीकायभेदाः २० अष्कायभेदाः २१ तेजस्कायभेदाः... २२ वायुकायभेदाः... २३ वनस्पतिकायभेदाः २४ त्रसभेदाः... २५ योगमार्गणाभेदाः २६ वेदमार्गणोत्तरभेदाः २७ काय मार्गणोत्तरभेदाः २८ क्रोधादीनां चतुष्प्रतिष्ठितत्वसमर्थनम् २९ क्रोधादीनां आभोगनिर्वर्त्तितादिभेदा.... ३० ज्ञानमार्गणोत्तरभेदाः... ३१ ज्ञानस्य पञ्चधात्वादिभेदापपत्तिर्णनम् ⠀⠀⠀⠀ ... ... : २१ : पृ. पं. २७६ १६ २७६ २३ २७७ १५ २७८ ११ २७८ १६ २७८ २३ २७९ ३ २७९ २८ २८० २८१ २८१ २८२ mr ন, g, 20 २८२ १ १३ १५ २८२ १४ ४ २८५ २८२ २६ 22001124242 m २७ २८३ १० २८३ १७ २८३ २० २८३ २२ २८३ २४ २८४ २८४ १९ ૨૮૪ २७ २८५ ३ ६ २८५ १३ २८६ ५ २८६ १३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२ : विषया: ३२ तत्समाधानम् ... ३३ मतिज्ञानादौ ज्ञानत्वाज्ञानत्वे निबन्धनप्रदर्शनम् सटीक तत्त्वन्याय विभाकरस्य पृ. पं. ... २८७ ७ ३४ अत्रार्थे नयविचारः ३५ मार्गणाद्वारेऽज्ञानादिग्रहणे कारणकथनम् ... ३६ चारित्रमार्गणावर्णनम् ३७ दर्शनमार्गणाकथनम् ... ३८ अवधिदर्शनस्य कथं पर्याय ... ... ... ⠀⠀⠀⠀ ... ... ... २९० ६ विषयत्वमित्यस्योत्तरम् ३९ श्यामार्गणावर्णनम्... ... २९० १५ ४० कृष्णलेश्यावर्णनम् २९० १९ ... २९० ४१ लेश्याविभागप्रदर्शनम् ४२ नीललेश्या स्वरूपम् ४३ कापोतलेश्यावर्णनम् ४४ तेजोलेश्यावर्णनम् ४५ पद्मलेश्यास्वरूपम् ४६ शुक्ललेश्यास्वरूपम् ४७ भव्यमार्गणानिरूपणम् ... २१ २९१ ६ २९१ १३ २९१ १९ २९२ ६ २९२ १२ २९३ २ ४८ भव्यत्वाभव्यत्वावगमनप्रकार: २९३ ५ ४९ भव्यत्वस्य स्वाभाविकत्वेऽपि ५० कालक्रमेण भव्यसमुच्छेद शङ्कानिवारणम् २८८ २८८ २८ 2 ... १२ २८९ २८९ १३ ५४ वेदकक्षयोपशमसम्यक्त्वयो विशेष प्रदर्शनम्... ५५ संज्ञिमार्गणावर्णनम् .. 20mo ४ २८९ २० ५१ सम्यक्त्वमार्गणावर्णनम् ५२ सम्यक्त्वभेदप्रकाराः... ... २९४ ... २९४ ५३ दीपकसम्यक्त्वे आशङ्का समाधानश्च विनाशव्यवस्थापनम् ... २९३ १३ m २९३ १७ ધ્ર ६ २९४ १७ २९५ ८ ... २९५ १६ विषयाः ५६ आहारकमार्गणावर्णनम् ५७ आहारभेदनिरूपणम्... ५८ अनाहारकाणां कथनम् ५९ प्रोक्तमार्गणासु सिद्धसत्ताविवेक: ६० नयेन तद्वयाख्यानम्... ६१ द्रव्यप्रमाणद्वारवर्णनम् ६२ क्षेत्रचिन्तनम् ... ६३ स्पर्शनाद्वारवर्णनम् ६४ कालद्वारवर्णनम् ६५ अन्तरद्वारवर्णनम् ६६ भागद्वारनिरूपणम् ६७ भावद्वारव्यावर्णनम् ... ६८ अल्पबहुत्वद्वारकथनम् ६९ अव्यवहितपूर्व पर्यायनयाव लम्बनेन द्वारविवेकः... ७० तीर्थादिद्वारप्रदर्शनम् ७१ जिन जिनसिद्धप्रदर्शनम् ७२ तीर्थातीर्थसिद्धवर्णनम् ७३ एतेषामल्पबहुत्वविचारः ७४ गृहिलिङ्गसिद्धवर्णनम् ७५ अन्यलिङ्गसिद्धाख्यानम् ७६ स्वलिङ्गसिद्धकथनम् . ७७ स्त्रीलिङ्गसिद्धकथनम् ७८ प्रत्येकबुद्ध सिद्धवर्णनम् ७९ स्वयंबुद्धसिद्धवर्णनम् ... ८० बुद्धबोधितसिद्धवर्णनम् ८१ एकसिद्धवर्णनम् ८२ सम्यक् श्रद्धानिगमनम् ८३ प्रथमभागोपसंहारः... ... ⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀ २९७ २९७ ६ २९८ ९ ... २९८ १६ २९९ ઃ ... [ प्रथमभागे ... पू. पं. ... २९६ २९६ ६ २९६ २२ ... २९९ १२ २९९ १९ १ ३०० ३०० ९ ३०१ १ ४ 30 w. ३०१ १० ३०२ १० ३०२ : १९ ३०३ ३ ३०३ १६ ३०४ २ ३०४ १६ ३०४ २५ ३०५ ८ ३०६ ૨ ३०६ १० ३०६ २० ३०६ २५ ३०७ ७ ३०७ २० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः किरण: ] :२३: विस्तरतो विषयानुक्रमः द्वितीयो भागः। विषयाः पृ. पं. विषयाः पृ. पं. ११० उपामस्वरूपम ... ३०९ 7 शानभेदस्य स ... ३१० २० प्रथमः किरणः। | १०९ अननुगामिस्वरूपम् ... ... ३२० ८४ सम्यग्ज्ञानविभागः ... ... ३०९ ५ ११० हीयमानस्वरूपम् ... ... ३२० १११ वर्द्धमानस्वरूपम् ... ... ३२० ८५ ज्ञानभेदस्य सयुक्तिकं निरू ११२ प्रतिपातिस्वरूपम् ... ... ३२० पणम् ... ... ... ... ३०९ ८ ११३ अप्रतिपातिस्वरूपम् ... ३२१ ८६ क्रमेणाभिधाने कारणवर्णनम् ३१० ११४ मनःपर्यवलक्षणम् ... ... ३२१ ८७ एषामेव प्रमाणत्वमिति व्यव ११५ तत्पदकृत्यम् ... ... ... ३२१ ११ ___ स्थापनम् .. ... ... ... ३१० ११६ मनःपर्यवस्य दर्शनं नास्ती८८ सन्निकर्षस्य प्रमाणत्वव्यव ति समर्थनम् ... ... ... ३२१ च्छे दः ... . ... ... ... ११७ किरणोपसंहारः ... ... ३२२ १८ ८९ प्रमाणलक्षणवर्णनम् ... ... ९० अत्र लक्ष्यत्वलक्षणत्वयोरु द्वितीयः किरणः द्देश्यविधेयभाववर्णनम् ... ३११ २१ | ११८ परोक्षलक्षणम् ... ... ... ३२३ ३ ९१ लक्षणपदकृत्यवर्णनम् ... ३१२ ९ ११९ सांव्यवहारिकप्रत्यक्षलक्ष९२ प्रमाणभेदप्रदर्शनम् ... ... ३१२ णम् ... ... ... ... ३२३ ९३ प्रत्यक्षपदव्युत्पत्तिः ... ... ३१३ | १२० तत्पदकृत्यवर्णनम् ... ... ३२३ ९४ इन्द्रियजस्य परोक्षत्वप्रति १२१ वैशद्यकथनम् ... ... ... ३२४ पादनम् ... ... ... ... ३१३ १२२ तद्भेदप्रदर्शनम् ... ... ... ३२४ २४ ९५ परोक्षपदव्युत्पत्तिः ... ... ३१४ | १२३ इन्द्रियभेदः ... ... ... ३२४ २४ ९६ प्रत्यक्षपरोक्षभेदाः ... ... ३१४ १२४ इन्द्रियाणां पृथिव्यादिस्वरू९७ पारमार्थिक प्रत्यक्षलक्षणम्... ३१४ पत्वव्युदासः ... ... ... १२५ द्रव्येन्द्रियभेदः... ... ... ३२५ १५ ९८ सकलज्ञानस्वरूपम् ... ... ३१५ ९९ तदुत्पत्तौ नयप्रदर्शनम् ... ३१५ १२६ निवृत्तीन्द्रियभेदः ... ... ३२५ १२७ उपकरणेन्द्रियस्वरूपम् ... ३२६ १०० केवलज्ञानलक्षणम् ... ... ३१६ १२८ भावेन्द्रियभेदः... ... __... ३२६ १५ १०१ केवलज्ञाने प्रमाणम् ... ... ३१६ | १२९ उपयोगेन्द्रियस्वरूपम् ... १०२ तत्र कारणवर्णनम् ... ... ३१७ १ १३० इन्द्रियलाभक्रमः ... ... ३२७ १०३ तद्वान् सर्वज्ञ इति वर्णनम् ... ३१८ | १३१ उपयोगस्य प्रत्यक्षकरणत्व१०४ विकलज्ञानभेदा.... ... ... ३१८ वर्णनम् ... ... ... ... ३२७ १६ १०५ अवधिलक्षणम् ... ... ... ३१८ २३ | १३२ ज्ञानस्येव करणफलभावसमा १०६ पदकृत्यानि ... ... ... ३१९ १ र्थनम् ... ... ... ... ३२८ ६ १०७ क्षेत्रकालादिना तद्भेदवर्णनम् ३१९ ९ १३३ मिलितानामिन्द्रियत्वव्यप१०८ प्रकारान्तरेणावधिभेदकथनम् ३१९ २० देश इति वर्णनम् ... ... ३२८ १६ ३२५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४: सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य [द्वितीयभागे १० विषयाः पृ. पं. विषयाः पृ. पं. १३४ एकदैकैवोपयोग इति वर्णनम् ३२८ २० १५६ मनसो विभागः ... ... ३३७ २३ १३५ केवलज्ञानदर्शनयोर्युगपदुप १५७ सांव्यवहारिकभेदाः ... ... ३३८ ९ ___ योगद्वयवादिमतप्रदर्शनम् ३२९ २१५८ अवग्रहलक्षणम्... ... ... ३३८ १४ १३६ क्रमोपयोगवादिमतप्रदर्शनम् ३२९ १२ | १५९ व्यञ्जनशब्दार्थः... ... ... ३३८ १३७ सिद्धसेनदिवाकरमतप्रद १६० प्रकारान्तरेण व्यञ्जनावग्रह- र्शनम् ... ... ... ... ३३० १३ वर्णनम् ... ... ... ... ३३९ १३८ चक्षुरादिभेदकथनम् ... ... ३३१ १० १६१ नैश्चयिकापायग्रहस्वरूपम् ... ३३९ १३९ चक्षुषो लक्षणम् ... ... ३३१ | १६२ चक्षुर्मनसोर्विषयेण सम्बन्ध१४० तस्य रूपग्रहण जघन्योत्कृष्ट विशेषप्रदर्शनम् ... ... ३४० .. तो दूरमानकथनम् ... ... ३३१ २७ | १६३ ईहालक्षणम् .. १४१ चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वसमर्थ १६४ अपायनिरूपणम् ... ... नम्... ... ... ... ... १६५ अस्य प्रमाणत्ववर्णनम् . ... १४२ इतरेन्द्रियेष्वनुग्रहोपघात १६६ अपायस्य व्याख्यान्तरनिप्रदर्शनम... .... ... ... ३३२ रासः ... ... ... ... १४३ अनुग्रहोपघातयोर्व्यभिचार १६७ धारणास्वरूपम्... ... ... मुद्भाव्य समर्थनम् ... ... ३३२ १० | १६८ धारणाभेदाः ... ... ... ३४२ १४४ योग्यदेशावस्थितनियतवि १६९ वासनाया उपचरितज्ञानषयग्राहकत्ववर्णनम् ... ... ३३३ १ त्ववर्णनम् ... ... ... १४५ रूपरूपिणोः कथञ्चित्तादा १७० अविच्युतेर्धारणारूपत्वमिः । त्म्यमेव सम्बन्ध इति वर्णनम् ३३३ २२ ति वदतां मतप्रदर्शनम् ... ३४३ १४६ रसनेन्द्रियस्वरूपम् ... ... ३३४ ७ १७१ अवग्रहादीनां भेदाभेदवर्ण१४७ रसभेदवर्णनम्... ... ... ३३४ १४ | नम्... ... ... ... ... ३४४ १२ ९४८ घ्राणलक्षणम् ... ... ... ३३४ २४ १७२ तेषामुत्पत्तिक्रमप्रदर्शनम् ... ३४४ २० १४९ स्पर्शनलक्षणम्... ... ... ६ १७३ अवग्रहेहयोनित्वसमर्थनम् ३४५ ११ १५० श्रोत्रलक्षणम् ... ... ... २७४ मतिज्ञानलक्षणम् ... ... ३४६ ५ १५१ श्रोत्रस्य बद्धस्पृष्टविषयत्व १७५ तत्पदानां प्रयोजनानि ... ३४६ वर्णनम् ... ... ... ... १७६ श्रुतानुसारित्वलक्षणम् ... ३४६ १५२ श्रोत्रस्य प्राप्तार्थग्राहित्व १७७ श्रुतनिश्रिताश्रुतनिश्रितत्वसमर्थनम् ... ... ... ... वर्णनम् ... ... ... ... ३४६ १५३ इन्द्रियाणामवगाहना- ... | १७८ मतिज्ञानस्य प्रकाराः ... ३४७ ७ वर्णनम् ... ... ... ... ७९ मतिज्ञानस्योत्कर्षेण प्रकार१५४ मनोलक्षणम् ... ... ... २०. कथनम् ... ... ... ... ३४७ १५५ मनसोऽप्राप्यकारित्व १८० श्रतज्ञानलक्षणम् ... ... ३४८ . विचारः... ... ... ... ३३७ ३ | १८१ तद्दलप्रयोजनवर्णनम् ... ... ३४८ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: किरण: ] विषयाः १५ | २११ सदृष्टान्तं तद्वर्णनम् १७ | २१२ सामान्यलक्षणायां प्रमाणाभाव इति वर्णनम् ३५० ३५० १५ २३२ क्रमभावनियमस्योदाहरण ३५१ १ ३५१ ९ ३५१ १५ ३५१ १७ ३५१ २३ ३५२ ४ ३५२ ९ प्रदर्शनम्... ... १८५ अक्षरश्रुतलक्षणम् १८६ अनक्षरश्रुतलक्षणम् १८७ संशिश्रुतलक्षणम् १८८ असंशिश्रुतलक्षणम् १८९ सम्यक् श्रुतलक्षणम् १९० मिथ्यात्वश्रुतलक्षणम्... १९१ सादिश्रुतस्वरूपम् १९२ अनादिश्रुतस्वरूपम् १९३ सपर्यवसितश्रुतस्वरूपम् ३५२ १५ २१६ तर्क कारणोपलम्भानुपलम्भ१९४ अपर्यवसितश्रुतस्वरूपम् ... ३५२ १७ १९५ गमिकश्रुतस्वरूपम् १९६ अगमिकश्रुतस्वरूपम्... १९७ अङ्गप्रविष्टस्वरूपम् १९८ अनङ्गप्रविष्टस्वरूपम् १९९ मतिश्रुतोपसंहारः २०० सांव्यवहारिकप्रत्यक्षोप प्रदर्शनम् ... ३५२ ३५२ ३५३ ३५३ ४ ३५३ ११ विषयाः १८२ मतिश्रुतयोर्भेदकवर्णनम् ... ३४८ १८३ स्फुटतरं तद्वर्णनञ्च .... १८४ श्रुतज्ञानभेदाः ३४८ संहारः २०१ किरणोपसंहारः ... ... ... ... ... ... विस्तरतो विषयानुक्रमः । पू. पं. मन्तर्भावर्णनम् २१० तर्कप्रमाणनिरूपणम्... ... ... तृतीयः किरणः २०७ संकलनात्मकत्वसमर्थनम २०८ प्रत्यभिज्ञादृष्टान्तप्रदर्शनम् २०९ उपमानस्य प्रत्यभिज्ञाया ... ... ... ... : : : : ... ... ... ⠀⠀ ::: ३५४ ३ ३५४ ७ २०२ स्मृतिलक्षणम्... २०३ स्मृतिपरिकरप्रदर्शनम् २०४ स्मृतेः प्रामाण्यव्यवस्थापनम् ३५४ २५ २०५ प्रत्यभिज्ञालक्षणम् ३५५ १५ २०६ स्मरणप्रत्यक्षाभ्यामस्या विशेषव्यवस्थापनम् ... ... の ... ३५३ १९ ३५३ २५ ... ... ... ... प्रदर्शनम्... ३६७ १८ ३६७ २५ २३३ साध्यलक्षणम् २३४ तत्पदप्रयोजनम् ३६८ ३ २१३ नैयायिकाभिमततर्कनिरासः ३५९ १० २१४ तर्कस्य प्रामाण्यसाधनम् .. ३५९ २० २१५ वाच्यवाचकभावविषयतर्क ... २२ २५ २१७ वाच्यवाचकभावसम्बन्धज्ञानमननविधानवर्णनम् १ २१८ तदभिप्रायस्फुटीकरणम् २१९ किरणोपसंहारः ... ... ... ... .... चतुर्थः किरणः २२० अनुमानं स्वरूपयति २२१ ज्ञानद्वयादेवानुमानं न परा ... : ... ::: ... ... २२५ सामान्यविशेषवतोरविनाभाव इति समर्थनम् २२६ व्याप्तिलक्षणम् www ३५५ २० ३५६ ८ ३५६ २५ | २२७ व्याप्तेरुभयवृत्तित्वेऽपि हेतु वृत्तेर्गमकताङ्गत्ववर्णनम् ३५७ ११ २२८ अन्ययोगव्यवच्छेदलन्धार्थ३५८ १२ स्फुटीकरणम् ... : २५ : पू. पं. ३५८ १५ मर्शोऽप्यपेक्षित इति वर्णनम् ३६२ २६ २२२ हेतुलक्षणवर्णनम् ३६३ ६ २२३ त्रिरूपस्य हेतुरूपत्वव्युदासः ३६३ ११ २२४ पञ्चरूपस्य हेतुरूपत्वव्यु दासः ... ३५८ २४ ३६० १ on ३६० ८ ३६० २१ ३६१ ६ ३६२ १७ ३६२ २२ ३६४ १० २ ३६५ ३६५ १६ ३६५ २२ ३६६ ५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य [ द्वितीयभागे विषयाः पृ. पं. विषयाः २२९ तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्त्योर | २५२ अत्यन्ताभावलक्षणम्... ... ३७४ २३ न्यतरप्रयोगः कार्य इति २५३ अभावस्य मेदेऽपि प्रत्यक्ष- .......... वर्णनम् ... ... ... ... ३६६ ११ प्रमाणेन ग्राह्यत्वमितिनि२३० व्याप्तेद्वैविध्यप्रदर्शनम् ... ३६७ २ रासः ... ... ... ... ३७५ ६ २३१ सहभावनियमस्योदाहरण २५४ विधिहेतुभेदाः ... ... ३७६ २ . प्रदर्शनम् ... ... ... ... ३६७ ८ २५५ व्याप्यविधिहेतुदृष्टान्तः ... ३७६ ९ २३५ धर्मधर्मिणोः साध्यत्वेऽपेक्षा- २५६ कार्यादिभेदानां व्याप्याने. प्रदर्शनम्... ... ... ... | देन विभागे कारणवर्णनम् ३७६ १७ २३६ धर्मिप्रसिद्धौ कारणप्रदर्शनम् ३६९ | २५७ अस्य स्वभावोपलब्धिरिति २३७ विकल्पाद्धर्मिसिद्धेः समर्थ नामान्तरमिति वर्णनम् ... ३७६ २१ नम्... ... ... ... .... ३६९ १७ २५८ कार्यविधिहेतुदृष्टान्तः ... ३७७ ७ २३८ प्रमाणादुभयाच्च धर्मिसिद्धे २५९ कारणविधिहेतुदृष्टान्तः ... ३७७ १५ निदर्शनवर्णनम् .... ... ... ३७० १०२६० न कारणं कार्यस्य गमकमिति २३९ हेतुविभाग: ... .... ... ३७० बौद्धमतनिरासः ... ... ३७७ १७ २४० प्रत्येकस्य विधिप्रतिषेध- । २६१ पूर्वचरविधिहेतुदृष्टान्तः ... ३७८ साधकत्ववर्णनम् ... ... ३७१ १२६२ कारणविधिहेतुतोऽस्य भेद २४१ विधिसाधकविधिहेतु. . इति समर्थनम् ... ... ३७८ विभागः... ... ... ... ३७१ २६३ उत्तरचरविधिहेतोरुदा- .. २४२ प्रतिषेधविभागः ... ... ३७१ १७ हरणम् ... .... ... ... ३७८ २४३ प्रागभावादीनामनभ्युपगमे २६४ सहचरविधिहतोरुदाहरणम् ३७९ दोषाः ... ... ... ... ३७१ १९ २६५ प्रतिषेध्यविरुद्धविधिहेतु२४४ नास्तित्वस्य भेदाभेदसम विभागः... ... ... ... ३७९ १५ र्थनम् ... ... ... ... २६६ प्रतिषेध्यस्वभावविरुद्धवि२४५ प्रागभावः कार्याव्यवहितपूर्व धिहेतोरुदाहरणम् ... ... ३७९ - क्षणपरिणाम इति मतवर्णनम् ३७२ १० २६७ प्रतिषेध्यविरुद्धब्याप्यविधि२४६ स द्रव्यपर्यायात्मेति समर्थ हेतोनिदर्शनम् ... ... ... ____ नम्... ... ... ... ... ३७२ २६८ प्रतिषेध्यविरुद्ध कार्यविधि२४७ ऋजुसूत्रव्यवहारनयाभ्यां हेतोनिदर्शनम् ... ... ... तत्स्वरूपवर्णनम्... ... ... २६९ प्रतिषेध्यविरुद्धकारणवि२४८ प्रध्वंसाभावलक्षणम्... ... ३७३ १७ धिहेतोरुदाहरणम् ... ... ३८० २४९ अत्रापि ऋजुसूत्रव्यवहारन २७० प्रतिषेध्यविरुद्धपूर्वचरायप्रमाणैस्तद्वर्णनम् ... ... ३७३ . २१ दिहेतूनामुदाहरणानि ... ... ३८१ २५० अन्योन्याभावस्वरूपम् ... ३७४ १० | २७१ प्रतिषेध्याविरुद्धानुपलम्भ२५१ तत्पदप्रयोजनम् .... ... ३७४ १२ रूपप्रतिषेधहेतुविभागः .... ३८१ ११ २४१ विकत्ववप्रतिषेध .. ३७० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमः किरण: ] विषयाः २७२ स्वभावानुपलम्भरूपप्रतिषेधतोर्दष्टान्त: ... २७३ निषेध्यमारोप्य निषिध्यत ... ... ... इति समर्थनम् ... ३८१ २१ २७४ कारणानुपलब्धिनिदर्शनम्... ३८२ ८ २७५ पूर्वचराद्यनुपलब्धिनिदर्श ३८२ १७ नानि २७६ विधिसाधकसाध्यविरुद्धानु ३८४ १ पलम्भरूपनिषेधहेतुविभागः ३८३ ६ २७७ कार्यादिहेतुत्रयाणां दृष्टान्ताः ३८३ १२ २७८ चतुर्थपञ्चमहेत्वोर्डष्टान्तौ २७९ स्वार्थानुमानलक्षणम् २८० पदार्थानुमानस्वरूपम् ३८४ २४ २८१ उपचारोपयोगिकारणवर्णनम् ३८५ ५ २८२ प्रतिपाद्यवैचित्रात्परार्थानुमा ३८४ ८ ने वचनभेद इति वर्णनम् ... ३८५ १५ २८३ प्रतिशाशुद्धयादिपञ्चावयवान्तरप्रदर्शनम् ... २८४ प्रतिज्ञालक्षणम्... २८५ हेतुवचनलक्षणम् २८६ तस्य द्विविधत्वेऽपि सर्वत्र न तत्प्रयोगोऽन्यतरप्रयोगेणोपपत्तेरिति वर्णनम् २८७ उदाहरणस्वरूपं दृष्टान्तलक्ष ... ३८७ ११ पञ्चमः किरणः २९२ हेत्वाभासविभागः ... .... ... ⠀⠀⠀ णञ्च २८८ साध्यसाधनयोस्तदभावयोश्व व्याप्यव्यापकभावनियमप्रदर्शनम्... २८९ उपनयस्वरूपम् २९० निगमनस्वरूपम् २९१ किरणोपसंहारः ... विस्तरतो विषयानुक्रमः पृ. पं. ... ३८१ १७ ३८६ २ ३८६ १३ ३८६ २३ ३८७ २७ ३८८ ९ ३८८ १६ I w w ३८८ २६ ३८९ ६ विषयाः २९३ अत्र मतान्तरप्रदर्शनम् २९४ असिद्धलक्षणम्... २९५ तस्य भेदः २९६ उभयासिद्धनिदर्शनम् २९७ वाद्यसिद्धनिदर्शनम् ... २९८ विशेष्यासिद्धादीनामत्रैवान्तर्भाव इति वर्णनम् २९९ प्रतिवाद्यसिद्धनिदर्शनम् ३०० अस्य हेत्वाभाससमर्थन म् ३०१ विरुद्धलक्षणम्... ३०२ अष्टविधविरुद्ध भेदाः... ... ३०३ अनेकान्तिकस्वरूपम् भेदश्च ३९३ ३०४ संदिग्धविपक्षवृत्तिकस्य दाहरणम् दृष्टान्तः ... ३०५ सर्वज्ञस्य वचनं विरुद्धमित्यस्य निरास: ३०६ निर्णीत विपक्षवृत्तिकस्य ... पृ. पं. ... ३८९ १९ ३९० १० ३९० २० ३९० २५ ३९१ २ ... ३११ निराकृतसाध्यधर्मविशेष कोदाहरणम्... ३१२ प्रत्यक्षादिनिराकृतसाध्य ... दृष्टान्तः ... ३०७ व्याप्यत्वासिद्धेर त्रैवान्तर्भा व इति वर्णनम् ... ३०८ पक्षत्रयव्यापकद्देत्वादीनामत्रैवान्तर्भावकरणम् . ३०९ पक्षाभासविभागः ३१० प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणको ... ... कोदाहरणम् ३८९ १२ | ३१५ अनुमानाभासस्वरूपम् ... ... : ३१३ तर्कनिराकृतसाध्यविशेषण : २७ : कोदाहरणम् ३१४ अनभीप्सित साध्यधर्मविशे ... w x x V x v ३९१ ३९१ १५ ६ ३९१ २० ३९२ ३९२ १२ ८ ८ ३९३ १५ ३९३ २० ३९४ ८ ... ३९६ विशेषणकानामुदाहरणानि ३९६ १२ ३९४ १२ ३९५ १ ३९५ १५ ३९५ २४ ५ ३९७ १ ३९७ १९ ३९८ २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयाः :२८: सटीकतस्वन्यायविभाकरस्य [द्वितीयभागे पृ. पं. विषयाः ३१६ तर्काभासस्वरूपम् ... ... ३९८ ९ ३३९ वचनस्यागमत्वसमर्थनम् ... ४०६ ५ ३१७ प्रत्यभिशाभासस्वरूपम् ... ३९८ १७ | ३४० आगमप्रभेदः .... ... ... ४०६ ८ ३१८ स्मरणाभासस्वरूपम् .... ३९९ ४ ३४१ शब्दस्यार्थप्रतिपादकत्व३१९ प्रत्यक्षाभासस्वरूपम् ... ३९९ ८ समर्थनम्... ... ... ... ४०६ १५ ३२० आगमाभासोऽग्रेइति वर्णनम् ३९९ २२ ३४२ यथार्थवक्तुः स्वरूपम्... ... ४०७ १० ३२१ दृष्टान्ताभासस्वरूपं भेदश्च... ४०० १ ३४३ तत्पदसार्थक्यवर्णनम् ... ४०७ १२ ३२२ साधर्म्यदृष्टान्ताभासभेदाः... ४०० ८ ३४४ यथार्थववृद्वैविध्यम्... ... ४०७ २४ ३२३ साध्यधर्मसाधनविकलतयो ३४५ शब्दस्य स्वरूपम् ... ... ४०८ ६ . दृष्टान्तौ ... ... ... ... ४०० १४ ३४६ संकेतमात्रेण शब्दस्यार्थप्र३२४ संदिग्धसाध्यसाधनोभया- .. तिपादकत्वनिरासः ... ... ४०८ ९ नां दृष्टान्ताः ... ... ... ४०० २४ | ३४७ शब्दार्थयोः सम्बन्धो न सं३२५ अनन्वयदृष्टान्ताभासोदा भवतीति मतस्य निरास: ... ४०८ २० हरणम् .... ... ... ... ४०१ ७ ३४८ शब्दार्थयोर्योग्यताख्यः स३२६ विपरीतान्वयदृष्टान्ताभासो म्बन्ध इति समर्थनमू... ... ४०९ २ दाहरणम... ... ... ... ४०१ १४ ३४९. वक्तुगुणदोषप्रयुक्ते शब्दस्य ३२७ अनन्वयादित्रयाणां दृष्टान्त ___यथार्थत्वायथार्थत्वे इतित्वं नोचितमिति मतं प्रदर्य वर्णनम् ... ... ... ... ४०९ १७ निराकरणम् . ... .... ... ४०२ ४ | ३५० शब्दभेदाः ... ... ... ४०९ २४ ३२८ वैधम्येदृष्टान्तभासविभागः ४०२ २७, ३५१ शब्दस्यापोद्गालकत्वसाधक३२९ असिद्धसाध्यव्यतिरेका.. | हेतुनिरासः ... ... ... ४१० ५ सिद्धसाधनव्यतिरेको... ... ४०३ ७ ३५२ पदघटकवर्णानां वाचकत्व३३० असिद्धसाध्यसाधनोभय - साधनम्... ... ... ... ४१० १५ ___व्यतिरेकः ... ... ... ४०३ ३५३ पदलक्षणम् ... ... ... ४१० २२ ३३१ संदिग्धसाध्यादिव्यतिरेकाः ४०३ ३५४ एकाक्षरपदानां पदत्वसम३३२ अव्यतिरेकः ... ... ... र्थनम् ... ... ... ... ४१० २६ ३३३ अप्रदर्शितव्यतिरेकः... ... ४०४ २० ३५५ वाक्यलक्षणम्... ... ... ४११ ४ ३३४ अव्यतिरेकादीनां दृष्टान्त ३५६ यत्सत्तत्सर्व परिणामीति त्वसमर्थनम् ... ... ... साधनवाक्यस्य वाक्यत्व३३५ उपनयाभासः ... ... ... समर्थनम्... ... ... ... ४११ ७ ३३६ निगमनाभासः ... ... ... ४०५ | ३५७ वाक्यलक्षणनिष्कर्षः... ... ४११ १५ ३३७ किरणोपसंहारः ... ... ४०५ १७ ३५८ आकांक्षायोग्यताऽऽसत्ती नां लक्षणानि ... ... ... ४११ २० षष्ठः किरणः ३५९ विशिष्टक्रमाणां वर्णानां वाच३३८ भागमलक्षणम् ... ... ... ४०५ २२] कत्वमिति साधनम्... ... ४१२ ३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठः किरण: ] विस्तरतो विषयानुक्रमः । विषयाः विषयाः ३६० पूर्णार्थप्रकाशकत्व एव शब्द- | ३८३ अभेदासम्भवसंघटनम् ... ४२३ २ स्य प्रामाण्यमिति वर्णनम् ... ४१२ २४ | ३८४ तत्समन्वयः ... ... ... ४२३ ९ ३६१ सप्तभङ्गीलक्षणम् ... ... ४१३ ८ ३८५ प्रथमवाक्यार्थकथनम् ... ४२४ १६ ३६२ तत्पदानां कृत्यानि ... ... ४१३ १० ३८६ अस्तित्वस्य नास्तित्वेनावि.. . ३६३ सप्तभङ्गवाक्यानि ... ... ४१४ १ नाभावित्वसाधनम् ... ... ४२४ २५ ३६४ पदानामर्थवर्णनपूर्वकं प्रति- | ३८७ एवकारार्थवर्णनम् ... ... ४२५ २१ वाक्यं प्रतिपाद्यानां वर्णनम् ४१४ ४ ३८८ क्वचित् क्रियासङ्गतस्याप्येव३६५ सप्तविधवचनप्रवृत्तौ निमि. कारस्यायोगव्यवच्छेदकत्वत्तवर्णनम्... ... ... ... ४१५ मिति वर्णनम् ... ... ... ४२६ १७ ३६६ सप्तविधधर्मप्रकाशनम् ... ४१५ ३८९ प्रथमवाक्यफलितार्थवर्णनम् ४२६ २५ ३६७ धर्माणां परस्परं भेदव्याव ३९० प्रतियोगिवैयधिकरण्यपदर्णनम् ... ... ... ... ४१६ प्रयोजनाभिधानम् ... ... ४२७ ६ ३६८ क्रमार्पितत्वस्य धर्मान्वयित्व. ३९१ औपादानिकबोधस्यावश्यसाधनम्... ... ... ... ४१६ कत्वसमर्थनम्... ... ... ४२७ ९ ३६९ सहार्पितत्वमवक्तव्यस्याव ३९२ द्वितीयवाक्यार्थविवेचनम् ४२७ १८ च्छेदकं भवतीति निरूपणम् ४१७ ३९३ तृतीयवाक्यार्थः ... ... ४२७ २६ ३७० भङ्गानामसांकर्येण विषयनि ३९४ अत्र सम्मतिकारमतादर्शनम् ४२८ ३ यमव्यावर्णनम्... ... ... ४१७ १३ ३९५ तदनुसारेण वाक्यार्थवर्णनम् ४२८ १० ३७१ तृतीयचतुर्थधर्मयोरतिरिक्त ३९६ समनियतधर्मभेदेन सप्तम- त्वकथनम्... ... ... ... ४१८ ७ गीभेदाभावनिरूपणम्... ... ४२८ १३ ३७२ सप्तभङ्गीभेदः ... ... ... ४१८ १९ | ३९७ अस्य पूर्वभङ्गद्वयातिरेकसा३७३ सकलादेशलक्षणं पदकृत्यञ्च ४१८ २३ । धनम् ... ... ... ... ४२८ १९ ३७४ विकलादेशस्वरूपम्... ... ४१९ २३ | ३९८ चतुर्थवाक्यार्थः... ... ... ४२९ ११ ३७५ अभेदे प्रयोजककथनम् ... ४२० ४ | ३९९ योगपद्यविवक्षायां शब्दा३७६ एकस्मिन् भङ्गे तत्समन्वयः ४२० १० वाच्यत्वसाधनम् ... ... ३७७ अत्र मलयगिरिचरणाना- ४०० सांकेतितशब्दस्याप्यभाव माशयप्रदर्शनम्... ... ... ४२१ ११ ११ इति वर्णनम् ... ... ... ३७८ केचित्त्विति मतान्तरप्रदर्श ४०१ सेनादिशब्दा अप्येकार्था नम्... ... ... ... ... ४२१ २१ इति वर्णनम् ... ... ... ४३० ३७९ अपरे त्विति चापरमतसूचनम् ४२१ २९ ४०२ पुष्पदन्तपदे तु विशेष इति ३८० सम्बन्धसंसर्गयोर्भेदप्रतिपा वर्णनम् ... ... ... ... ४३० १५ दनम् ... ... ... ... ४२२ ५ | ४०३ अवाच्यतास्थिरीकरणम् ... ४३० २० ३८१ अभेदप्राधान्ये हेतुमादर्शनम् ४२२ १४४०४ पञ्चमभङ्गवाक्यार्थवर्णनम् ... ४३१ ७ ३८२ अभेदोपचारे हेतुप्रदर्शनम् ४२२ २२ | ४०५ तत्तात्पर्यवर्णनम् ... ... ४३१ १३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३०: सटीकतस्वन्यायविभाकरस्य [द्वितीयभागे ५ ... ... ... ...४४३ १७ विषयाः विषयाः पृ. पं. ४०६ षष्ठभङ्गवाक्यार्थः...... ... ४३१ २१ | ४२८ विरोधविचारः... ... ... ४३९ १८ ४०७ तदर्थवर्णनम् ... ... ... ४३२ ३ ४२९ आगमाभासस्वरूपम्... ... ४४० १४ ४०८ सप्तमभङ्गवाक्यार्थः ... ... ४३२ ९ ४३० किरणोपसंहारः ... ... ४४० २३ ४०९ वाक्येष्वेषु नयप्रदर्शनम् ... ४३२ १८ ४१० स्वत्वपरत्वविवेकः ... ... ४३३ ३ सप्तमः किरणः ४११ स्वत्वपरत्वादिना सत्त्वास | ४३१ प्रामाण्याप्रामाण्यविचारः ... ४४१ ३ त्वयोरनभ्युपगमे दोषवर्ण ४३२ ज्ञानमात्रस्य स्वरूप प्रामाण्ये नम्... ... ... ... ... ४३३ १४ | | विरोधस्य वारणम् ... ... ४४१ ९ ४१२ स्वरूपादिना सत्त्वमेव विशि ४३३ स्वात्मनि क्रियाविरोधनिष्टं पररूपासत्वमित्यस्य निरा रासः ... ... ... ... ४४१ १८ करणम् ... ... ... ... ४३४ ६ | ४३४ विशेषशानकारणतानिरासः ४४२ ६ ४१३ असदित्यत्र प्रसज्यप्रतिषेध ४३५ प्रामाण्यनिर्णयः कथमित्यापर्युदासयोः स्वीकारवर्णनम् ४३४ ११ शंका ... ... ... ... ४४३ ३ ४१४ सदसद्रूपस्य विलक्षणत्व ४३६ तत्समाधानम्... ... ... ४४३ १३ ... व्यवस्थापनम् ... ... ... ४३४ १९ ४३७ उत्पत्ति स्वत इतिमतोद्भा४१५ सत्त्वासत्त्वयोर्धर्मिणा भेदा वनम् ... ... भेदसमर्थनम् ... ... ... ४३५ ३ | ४३८ तन्निरासः ... ... ... ४४३ २७ ४१६ जीवादीनां सत्त्वासत्त्वयोः ४३९ प्रामाण्यस्य परत उत्पत्तौ . स्वत्वपरत्वनिरूपणम्... ... ४३५ २० पूर्व ज्ञानस्य किं स्वरूप- . ४१७ अपरधर्माणामपि स्वरूपपर... . मित्यस्योत्तरम् .... ... ... ४४४ १३ रूपत्वमिति वर्णनम् ... ... ४३६ ३ | ४४० दोषाभावकारणत्वनिरासः ... ४४४ २२ ४१८ घटविशेषस्य स्वपररूपसंघ ४४१ प्रामाण्यनिश्चयः स्वत एवे. टनम् ... ... ... ... ४३६ ७ | त्याशंका ... ... ... ... ४४५ ५ ४१९ प्रकारान्तरेण तद्वयाख्यानम् ४३६ १६ | ४४२ समाधानम् ... ... ... ४४६ १२ ४२० सम्मतिमतादर्शनम् ... ... ४३७ ५ ४४३ प्रामाण्यग्राहकस्य परस्य ४२१ स्वद्रव्यपरद्रव्यनिरूपणम् ... ४३७ १४ निरूपणम् ... ... ... ४४६ २० ४२२ अन्यथा दोषोद्भावनम् ... ४३७ २० | ४४४ प्रमाणविषयमाह ... ... ४४८ ४२३ क्षेत्रमादर्शयति... ... ... ४३८ ४४५ सामान्यविशेषात्मकत्वस४२४ कालमादर्शयति .. ... ४३८ र्थनम् ... ... ... ... ४४८ ४२५ स्वरूपादौ किमवच्छेदकमि ४४६ सामान्ये वृत्तिविकल्पशंका, त्यस्य समाधि.... ... ... ४३८ २२ समाधानश्च ... ... ... ४४९ ४ ४२६ सदसदात्मकत्वे विरोधादि ४४७ सामान्यविशेषयोरविनाभावदोषोद्भावनम् ... ... ... ४३९ ४ व्यवस्थापनम् ... ... ... ४४९ २० ४२७ तत्समाधानम् ... ... ... ४३९ १४ ४४८ नित्यानित्यात्मकत्वसमर्थनम् ४५० १२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमः किरणः ] विस्तरतो विषयानुक्रमः विषयाः विषयाः ४४९ एकान्तानित्यत्वे दोषोद्भाव ४७१ तत्रानुमानप्रदर्शनम् ... ... ४६३ १७ नम्... ... ... ... ... ४ | ४७२ निर्विकल्पे बाधनिरास: ... ४६३ २० ४५० भेदाभेदात्मकत्वसमर्थनम् ... ४७३ शब्दसंघटनापेक्षायां प्रस४५१ भेदाभेदस्य जात्यन्तरत्ववर्ण क्तदोषनिरासः... ... ... ४६४ नम् ... ... ... ... | ४७४ आरोपलक्षणं तद्भेदाश्च ... ४५२ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्व ४७५ विपर्ययलक्षणम् ... ... ४६४ समर्थनम्... ... ... ... ४५३ ४७६ मीमांसकमतेन विवेक४५३ अनुवेधविचारः... ... ... ४५४ ... ख्यातिः ... ... ... ... ४६९ ४५४ अभिलाप्यानभिलाप्यात्मक ४७७ तन्मतेनेदं रजतमिति भ्रात्ववर्णनम् ... ... ... ४५४ न्तिसमर्थनम् ... ... ... ४६५ १२ ४५५ सामान्यस्वरूपनिरूपणम् ... ४५५ ४७८ स्वप्नज्ञानचन्द्रद्वयज्ञानादीनां , ४५६ सामान्ये प्रमाणप्रदर्शनम् ... ४५५ समर्थनम्.... ... ... ... ४६५ २१ ४५७ ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूपम् ... ४५६ ४७९ तन्मतनिरासः... ... ... ४६६ ३ ४५८ तत्र प्रमाणवर्णनम् ... ... ४५६ ४८० इदं रजतमिति ज्ञानस्याल४५९ विशेषविभागः ... ... ... ... ४५६ २२ । म्बनकथनम् . ... ... ... ४६६ ३ ४६० पर्यायसमर्थनम् ... ... ... ४५७ २२ २२ | ४८१ प्रवृत्तिसामान्ये कारणलाघवं ४६१ द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदसम स्वमते इति वर्णनम् ... ... ४६६ १० र्थनम् ... ... ... ... ४८२ भेदाग्रहं विकल्प्य तन्निरासः ४६६ १८ ४६२ गुणपर्याययोः कश्चिद्भेद ४८३ स्वप्नादिज्ञानसमर्थनम् ... ४६७ १० प्रदर्शनम्... ... ... ... | ४८४ अख्यातिप्रदर्शनम् ... ... ४६७ २२ ४६३ प्रमाणफलप्रदर्शनम् ... ... ४६४ प्रमाणफलयोः कथञ्चिद्भेदा ४८५ तद्वयुदासः ... ... ... ४६८ २ ४८६ असत्ख्यातिवादिबौद्धमतभेदवर्णनम् ... ... ... ४६० १७ ४६५ केवलस्य व्यवहितफलप्रद प्रदर्शनम्... ... ... ... ४६८ र्शनम् ... ... ... ... ४६१ ४८७ तन्निरासः ... ... ... ४६८ ९ ४६६ करुणावतोऽपि माध्यस्थ्य ४८८ प्रसिद्धार्थख्यातिवर्णनम् ... ४६८ १९ व्यवस्थापनम् ... ... ... ४६१ १७ ४८९ तत्खण्डनम् ... ... ... ४६८ २४ ४६७ मत्यादीनां व्यवहितफलप्रद ४९० आत्मख्यातिवर्णनम् ... ... ४६९ ८ र्शनम् . ... ... ... ... ४६२ ५ | ४९१ तत्प्रतिविधानम्... ... ... ४६९ १० ४६८ प्रमाणफलयोरेकान्ते भेदेऽ ४९२ आत्मा वासनया बहिरिव भेदे च दोषप्रदर्शनम्... ... ४६२ १६ भातीत्यस्य निरासः... ... ४६९ ११ ४६९ किरणोपसंहारः.... ... ... ४६३ ४ ४९३ अनिर्वचनीयख्यातिवर्णनम् ४७० ३ अष्टमः किरणः। ४९४ तस्य निरासः... ... ... ४७० ५ ४७० प्रमाणस्य निश्चयात्मकत्वस ४९५ स्वमतेन भ्रान्तरालम्बना- . मर्थनम् ... ... ... ... ४६३ १० शङ्का ... ... ... .... ४७० १९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२ : विषयाः ४९६ तस्योत्तरम् ४९७ नास्मन्मतेऽसत्ख्यातिप्रस ४७१ ७ क्तिरिति वर्णनम् ४९८ रजतभाने कारणप्रदर्शनम् .. ४७१ ११ ४९९ भ्रान्तेर्विपरीतख्यातिरूपते ... ... ... ... ति कथनम् ५०० इतरेषामभाने कारणम् ५०१ अत्र वृद्धमतादर्शनम् .. ५०२ बाध्यबाधकभावविचारः ५०३ अनुमानादिविषयकविपर्ययप्रदर्शनम्... ५०४ संशयस्वरूपम्... ५०५ अनिश्चितेति पदस्य प्रयोज - ... साधनम् ... ५१४ किरणोपसंहारः... सटीक तस्वन्याय विभाकरस्य. पू. पं. ... विषया: ३ | ५१८ लौकिकशाब्दबोधस्याप्यपेक्षात्मकत्वमिति कथनं ५१९ अपेक्षाया आवश्यकत्वसम र्थनम् ५२० वास्तविकवैज्ञानिकापेक्षयोः ... ४७१ १३ प्रदर्शनम् . ४७१ १५ ५२१ सुनयत्वदुर्नयत्वविचारः ४७१ २४ ४७२ २ ५२२ नयस्य प्रमाणाप्रमाणाभ्यां मेदप्रदर्शनम् ५२३ भावार्थकथनम् ५२४ नऽयोपिप्रतिज्ञात एवेति ... ४७३ २० नम्... ५०६ संशयकारण प्रदर्शनम् ५०७ भावार्थकथनम्... ... ४७३ २५ ५०८ विरोधज्ञानस्य संशयकारण ... नवमः किरणः नयस्य स्वरूपम् .... ५१७ अपेक्षात्वपरिचयः ⠀⠀⠀ ... ... दृष्टान्तः ... ५११ संशयानध्यवसाययोर्भेदप्रद र्शनम् ५१२ संशयानध्यवसाययोरारोप समर्थनम् ५१३ अनध्यवसायस्य वस्तुत्व ४७४ २ त्वेनाकथने कारणम् ५०९ अनध्यवसाय स्वरूपम्... ४७४ १४ ५१० परोक्षविषयानध्यवसाय ... ... ४७१ ... ५१५ नयस्वरूपम् ५१६ ज्ञानरूपस्य वाक्यरूपस्य च ४७२ २० ४७३ ८ * कथनम् ५२५ नयविभागः ... ४७३ १६ | ५२६ नैगमादीनां सर्वाभिप्रायसं ४७५ २७ ४७६ ५ ... ४७६ १४ ४७६ २१ १ ... ४७७ ... ग्राहकत्वसमर्थनम् ५२७ तेषां द्वेधा सङ्ग्रहः ५२८ द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायः ५२९ पर्यायार्थिकनयाभिप्रायः ५३० गुणार्थिकस्य पर्यायार्थिकेऽन्तर्भाववर्णनम् ... ४७५ २ ५३१ सामान्यविशेषयोर्द्वव्यपर्यायान्तर्भावकथनम् ४७५ १३ ५३२ व्यञ्जनपर्यायस्वरूपम् ५३३ द्रव्यार्थिकस्य त्रैविध्यवादिसूरिनामनिर्देशः ५३४ जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणानुयायिमताभिधानम् ४७५ १८ ... [ द्वितीयभागे पू. पं. ... ४७७ ... ⠀⠀⠀⠀ ५३८ नैगमस्वरूपम् .. ५३९ निर्द्दष्टं तल्लक्षणम् ५४० धर्मिविषयं तदुदाहरणम् ... ... ४७७ २ www ૪૭૮ ૨ ૪૭૮ १२ ८ ४७८ ૨૮ ४७९ ३ ४७९ १४ ४८० ४८२ ५३५ तर्कानुसारिणां मतप्रदर्शनम् ४८२ ५३६ द्रव्यास्तिकद्वैविध्यम्... ५३७ नैगमनयाभिप्रायो न राश्यन्त रमित्यभिधानम्... ४८० ६ ४८० २० ४८०२५ ४८१ ६ 30 30 ४८१ १६ ४८२ ४८१ १८ ४८१ २२ 01/ 2300 २ ४८२ १० 2 2 2 2 ४८२ १७ ४८२ ४८३ २२ १४ ४८३ २३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमः किरणः ] विस्तरतो विषयानुक्रमः : ३३ विषयाः - पृ. पं. विषयाः ५४१ धर्मधर्म्युभयविषयमुदाहर...... | ५६५ अर्थभेदव्याप्यत्वं संक्षाभेदस्य- ... णम्... ... ... ...... ४८४ १० | ति समर्थनम्... ... ... ४९२ १५ ५४२ अनेकधा नैगमव्यवस्था ..... ४८४ १९ ५६६ अत्र प्रयोगः ... ... .... ४९३ १ ५४३ सङ्गहनयः सप्रभेदः ........ ४८५ ८५६७ समभिरूढदृष्टान्तप्रदर्शनम् ४९३ १३ ५४४ सङ्ग्रहनथाभिप्रायः ... ... ४८५ २१ | ५६८ एवम्भूतनयस्वरूपम् .......४९३ २५ ५४५ संग्रहावान्तरभेदाः ... ... ४८६ .११ | ५६९ तनिष्कृष्टार्थः .... ... ... ४९४ ६ ५४६ व्यवहारनयस्वरूपम् ... ... ४८७ ___२५७० व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियतार्थ. ... ५४७ निष्कृष्टं लक्षणम् ..... ... ४८७ ११ ~ बोधकत्वसमर्थनम् ... ... ४९४ ८ ५४८ तत्त्वार्थभाष्यानुरोधिलक्ष-.. ५७१ इतरथा संशयादिप्रसङ्ग- णम्... ... ... ... ... ४८७ १५ प्रदर्शनम् ... ... ... ... ४९४ १५ ५४९ तत्स्फुटीकरणम् ........ ४८७ १८ ५७२ व्युत्पत्तिनिमित्तस्यैव प्रक- . ५५० पञ्चवर्णो भ्रमर इत्यादीनां . . . त्तिनिमित्तत्वेऽतिप्रसङ्गे स........ व्यवहाराननुगुणत्ववर्णनम् ... .४८८ ६. म्मतिप्रदर्शनम् ... ...sss४९५ ३ ५५१ ऋजुसूत्रस्वरूपम्... ... ... ४४८ १५/ ५७३ एवम्भूतस्योदाहरणम्... ... ४९५८ ५५२ तच्छब्दार्थवर्णनम् ... ... ४८८ १९ ५७४ एतन्मते सिद्धो न जीव । ५५३ निष्कृष्टलक्षणम्... ... .... ४८९ २ . इति समर्थनम् .... ... ... ४९५ १७ ५५४ वर्तमानपर्यायस्य प्राधान्य- ..... ५७५ शब्दार्थप्रधाननयविभागः ....४९५ २४ साधनम् .... ... .... ४ ५७६ अर्थनयाभिप्रायवर्णनम् ... ४९६ ४ ५५५ विधिनिषेधात्मकन्यवहार- । ५७७ शब्दनयतात्पर्यवर्णनम् ... ४९६ १९ प्रदर्शनम्... ........ ... ४८९ | ५७८ अप्तिादिनयानामुक्तेष्वन्त-.: ५५६ कृतकरणापरिसमाप्तिदोष. .. र्भावकथनम् ............ ... ४९६ २६ निरासः ... ..... ... ... ४८९ ११ । ५७२ नयानां न्यूनाधिकविषय- .. . ५५७ कृतस्य करणे क्रियावैफल्य.. प्रदर्शनम्.... ... ... ... ४९७ १४ .. परिहारः ... ... ... ... ४८९ २० ५८० तदभिप्रायस्फुटीकरणम् ...-४१७ २० ५५८ अस्य सूक्ष्मस्थूलभेदप्रदर्शन ... ५८१ नैगमनयाभासः ... .... ४९८ ९ नम्... ... ... ... ... ४९० ५८२ तत्स्फुटीकरणम् ... ... ४९८ १४ ५५९ शब्दनयस्वरूपम् ... ... ४९० ५८३ सङ्गहनयाभासः .... .... ४९९ २ ५६० ऋजुसूत्रापेक्षयाऽस्य विशेषिः ५८४ व्यवहाराभासः ... ... ४९९ ११ - ततरत्ववर्णनम् ..... ... ... ४९० ९८५ ऋजुसूत्रनयाभासः. ५६१ कालादिभेदेन दृष्टान्तादर्श ५८६ शब्दनयाभासः ... ... ... ५०० .. नम्... ................. ४९१ ६ ५८७ समभिरूढनयाभासः ........ ५६२ तदभिप्रायवर्णनम् ....... ४९१ . १४ ५८८ एवम्भूतनयाभासः ... ... ५००० १६ ५६३ समभिरूढनयस्वरूपम् ... ४९२ ७५८९ वस्तुप्रतिपादकानां द्वैविध्य५६४ एतल्लक्षणम् .... ... ... ४९२ १५ । कथनम् ... ... ... ... ५०१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३४ : सटीकतस्वन्यायविभाकरस्य {द्वितीयभागे विषयाः विषयाः पृ. पं. ५९० लौकिकैर्व्यपदेशप्रकारः ... ५०१ ८६१२ विनाशोऽप्यहेतुक इति ५९१ तत्त्वचिन्तकैर्व्यपदेशप्रकारः ५०१ २४ निरूपणम्... ... ... ... ५०८ २५ ५९२ नयस्य फलप्रदर्शनम्... ... ५०२ ८६१३ स्वतंत्राणां नामादिनयनां मि५९३ नयविचारविशेषफलप्रदर्श-.. ध्यादृष्टित्वमिति वर्णनम् ... ५०९ १२ नम्... ... ... ... ... ५०२. १६ ६१४ नामादीनां नयैः सह योजनम् ५१० ८ ५९४ निक्षेपलक्षणं तद्भेदश्च ... ५०२ २३ ६१५ किरणोपसंहारः... ... ... ५११ १ ५९५ नामनिक्षेपलक्षणं पदकृत्यञ्च ५०३ ५९६ नामस्य द्विविधता ... ... ५०३ ८ दशमः किरणः ५९७ स्थापनालक्षणं तद्भेदश्च ... ५०३ १२ ६१६ वादस्वरूपम् ... ... ... ५११ १६ ५९८ स्थापनाया उपयोगित्वसम ६१७ जयपराजयावपि वादस्य फले र्थनम् ... ... ... ... ५०३ । इति साधनम् ... ... ... ५१९ २१ ५९९ भावातिरिक्तनिक्षेपत्रय ६१८ साधनं दूषणञ्च वचनं प्रमाणसाफल्यसमर्थनम् ... ... मेव स्यादिति वर्णनम्... ... ५१२ ४ ६०० महानिशीथवचनाभिप्राय- . ६१९ तद्भावार्थः ... ... ... ५१२ ६ वर्णनम् ... ... ... ... ५०४ ६२० जल्पवितण्डयोन कथान्तर६०१ द्रव्यनिक्षेपलक्षणम् ... ... ५०५ त्वमिति कथनम् ... ... ५१२ १७ ६०२ भावनिक्षेपस्वरूपम् ... ... ५०५ | ६२१ तस्य स्फुटं वर्णनम्... ... ५१२ १८ ६०३ नामस्थापनाद्रव्यनिक्षेपाणां ६२२ कथारम्भकविभागः ... ... ५१३ ८ ___ मिथो भेदसाधनम् ... ... ५०५ १० ६२३ वादो न विजिगीषुविषय इत्य६०४ नामादित्रयाणामपि वस्तुत्व स्य निराकरणम्... .... ... ५१३ ... समर्थनम् ... ... ... ... ५०६ ५ ६२४ जिगीषुतत्त्वनिर्णिनीवोः .. ६०५ नामादित्रयभावनिक्षेपयो _ स्वरूपम्... ... ... ... ५१४ १ विशेषवर्णनम् ... ... .... ५०६ १६ ६२५ तत्वनिर्णिनीषुमेदाः... ... ५१४ ९ ६०६ सर्व वस्तु चतूरूपाविनाभूत. .. | ६२६ तद्भावार्थः ... ... ... ५१४ १२ मिति प्रदर्शनम्... ... ... ५०६ १९ ६२७ तत्वनिर्णिनीषूणां निदर्शनम् ५१४ २१ ६०७ नाम्नो वस्तुधर्मत्यव्यवस्था- ६२८ तत्स्फुटीकरणम्... ... ... ५१४ २५ पनम् ... ... ... ... ५०७ २६२९ आरम्भकप्रत्यारम्भकमेदाः ५१५ ११ ६०८ आकारमयत्वं सर्वेषामिति ६३० चतुरङ्गकवादिप्रतिवादिनः ५१५ २३ ____निरूपणम्... ... ... ... ५०७ ११ ६३१ तत्फलितार्थः ... ... ... ५१५ २६ ६०९ द्रव्यात्मकत्वमखिलानामितिः .. ६३२ प्रतिवादिविशेषाश्रयेणाङ्ग. . . निरूपणम् ... ... ... ५०७ १८ नियमः .... ... ... ... ५१६ ११ ६१० सर्व भावात्मकमिति वर्णनम् ५०८ ७ ६३३ तद्भावार्थः ... ... ... ५१६ १५ ६११ अत्र मतेऽनपेक्षस्यैवोत्पद्यमा- ६३४ क्षायोपशमिकझानिवाद्यपेक्ष नत्वमिति साधनम् ... ... ५०८ ९ याऽङ्गनियमः ... ... ... ५१६ २५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः किरण: ] विस्तरतो विषयानुक्रमः । . पं. विषयाः ___ विषयाः ६३५ तद्भावार्थः ... ... ... ५१७ १४ ६४२ तत्कर्त्तव्यवर्णनम् ...... ५१८ २३ ६३६ वादानहवर्णनम् ... ... ५१७ १४ ६४३ तद्भावार्थः ... ... ... ५१८ ६३७ तद्भावः ... ... ... ... ५१७ १७/६४४ सभापतिस्वरूपम् ..... ... ५१९ ६३८ वादिप्रतिवादिस्वरूपं कर्त ६४५ तत्रस्थपदप्रयोजनानि ... ५१९ १० व्यश्च ... ... ... ... ५१७ . २२/६४६ तत्कर्त्तव्यवर्णनम् ... ... ५१९ १९ ६३९ तत्फलितार्थ. ... ... ... ५१७ २४६४७ तत्फलितार्थवर्णनम् ...... ५१९ २२ ६४० सभ्यस्वरूपम् तन्नियमच ... ५१८८६४८ वादोपसंहार ६४१ तत्पदप्रयोजनानि ... ... ५१८. १० । ६४९ ज्ञाननिरूपणोपसंहारः ... ५२० ११ .. ... ... तृतीयो भागः। ..... प्रथमः किरणः १६६९ तदभिप्रायः ... ... ... ५२७ ६७० चतुर्थव्रतविचारः ... ... ५२८ २ ६५० चरणविभागः ... ... ... ५२१ ९ ६७१ तत्स्पष्टार्थः ... ... ... ५२८ ४ ६५१ करणचरणयोर्भेदः ... ... ५२१ १२ ६७२ पञ्चमव्रतविचार ... ... ५२८ २० ६५२ शानचरणयोर्गुणप्रधानभावः ५२१ १६ ६७३ तस्य भावार्थः... ... ... ५२९ ६५३ चरणभेदाः ... ... ... ५२२ ४ ६७४ पश्चानां व्रतानां पञ्चप ६५४ केषाश्चित्पृथगुपादाने कारण भावना:... ... ... वर्णनम् ... ... ... ... | ६७५ प्रथमवतभाधनाः ६५५ व्रतविभाग: ... ... ... ... ५२३ २ ६७६ द्वितीयवतभावनाः ...... ६५६ पञ्चमीसमर्थनम् ... ... ६७७ तृतीयव्रतभावनाः ... ... ६५७ व्रतशब्दार्थविचार: ... ... ५२३ ६७८ चतुर्थवतभावनाः ... ... ६५८ प्रथमव्रतविचारः ... ... ५२३ ६७९ पञ्चमवतभावनाः ... ... ५३१ ६५९ तत्पदार्थवर्णनम् ... ... ६६० द्वितीयव्रतविचारः ... ... ६८० श्रमणधर्मभेदा.... .... ... ५३२ १ ६६१ अनृतमेदाः ... ... ... ५२५ ६८१ तदर्थः ... ... ... .... ५३२ ३ ६६२ चतुर्विधानामुदाहरणानि ... ५२५ ८ ६८२ क्षमास्वरूपम् ... ... ... ५३२ १४ ६६३ वाचत्वारिंशद्भाषादृष्टान्त ६८३ तदुत्तेजकवर्णनम् ..... ... ५३२ २० ... वर्णनम् ... ... ... ... ५२५ ६८४ मार्दवस्वरूपम्... ... ... ५३३ १७ ६६४ सत्यमेवाः ... ... ... ५२५ | ६८५ मदस्थानवर्णनम् ... ... ५३३ २६ ६६५ मृषाया दशमेदाः ... ... ५२६ १३ | ६८६ आर्जवस्वरूपम्... ... ... ५३५ १ ६६६ सत्यामृषाभेदाः ... ... ... ५२६ . २०६८७ तद्भापार्थः ... ... ... ५३५ ३ ६६७ असत्यामृषाभेदाः ... ... ५२७ | ६८८ शौचस्वरूपम् ......... ... ५३९ १० ६६८ तृतीयव्रतविचारः ....... ५२७ १९ | ६८९ तद्भेदमाह... ... ... ... ५३५ १६ ...३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६ : ६९० सत्यस्वरूपम्... ६९१ भाषासमितेरस्य भेदप्रद र्शनम् ६९२ संयमस्वरूपम् .. ६९३ तदभिप्रायवर्णनम् ... विषयाः ... ... ६९४ त्यागस्वरूपम्... ६९५ तपोऽन्तर्गतादस्य भेदप्रद ... र्शनम् ६९६ आकिञ्चन्यस्वरूपम् ... ६९७ तद्भावार्थः ६९८ ब्रह्मचर्यस्वरूपम् ६२९ गुरुकुलवासफलम् ७०० गुरुकुलवासस्यावश्यकत्वप्रदर्शनम्... ७०१ क्षमादीनां हेतुहेतुमद्भाव ... .... ... ७०७ तद्भावप्रकाशनम् ७०८ अपहृत्यप्रमृज्य संयमयोः स्वरूपम्... सटीक तस्वन्याय विभाकरस्य पृ. पं. ५३५ २३ कथनम् ७०२ संयमस्वरूपं तद्भेदाश्च ७०३ तत्स्फुटीकरणम् ७०४ नवविधानां संयमानां परि चयः ... ... ool ... 200 ... ... विषयाः पृ. पं. ७१७ प्रब्राजकादीनां स्वरूपाणि ... ५४३ १२ ७१८ तदभिप्रायाः ५३६ ७ ७१९ उपाध्यायस्वरूपम् - ५३६ १४ | ७२० तत्स्पष्टार्थवर्णनम् ... ५४३ १७ ५४४ १ १०४ ३ ५४४ १४ ५४४ १६ ५४४ २५ ५४४ २६ ५४५ ५ ५३९ १७ ७०५ तद्भावार्थकथनम् ५३९ २० ७०६ प्रेक्ष्योपेक्ष्यसंयमयोः स्वरूपम् ५४० ५४० थनम् .... ७२७ जघन्यमध्यमोत्कृष्टगच्छवर्णनं तत्र संवासफलञ्च ७२८ संघस्वरूपम् ७२९ तदर्थवर्णनम् ७३० साधुस्वरूपम् ७३१ अष्टगुणैः सुवर्णतुल्यताऽस्येति वर्णनम् ७३२ समनोज्ञस्वरूपम् ७३३ सामाचारीभेदाः ७३४ ब्रह्मचर्य गुप्तिस्वरूपम्... ७३५ तदर्थम् ५४० १५ ७३६ वसतिगुप्तिस्वरूपम् ७३७ फलप्रदर्शनपूर्वकं भावार्थवर्णनम् ... ७०९ तद्भावप्रकाशनम् ५४० १८ ७३८ कथागुप्तिस्वरूपम् ७१० कायवाङ्मनउपकरणसंय७३९ तदभिप्रायः मानां स्वरूपाणि ४ ७४० निषेधागुप्तिस्वरूपम् . ७११ तदीयो भावार्थः ... ७४१ तदर्थः ७१२ वैयावृत्त्यस्वरूपं ५४१ २१ ७४२ इन्द्रियगुप्तिकुड्यान्तरित७१३ तत्फलं तद्भेदाश्च गुप्त्योः स्वरूपे.... ७१४ आचार्यस्वरूपम् ५४२ १४ | ७४३ तदभिप्रायः ७१५ आचार्यगुणाः ५४२ १७ ७४४ पूर्वक्रीडितप्रणीत गुप्त्योः ७१६ तस्य सूत्रावाचकत्वे कारणम् ५४३ ५४१ ५४१ ८ ५४१ २४ ४ स्वरूपे :: ... ५३६ १५ ५३६ २८ 000 ५३७ ६ ५३७ १३ | ५३७ १४ ५३७ २० ५३८ २ ... ૩૮ ५ ५३८ २४ ५३९ ६ ५३९ ९ ४ ७ ... ७२१ तपस्विशैक्षकयोः स्वरूपे ७२२ तयोः स्फुटीकारः ७२३ ग्लानस्वरूपम्... ७२४ तदभिप्रायः ७२५ गणकुलयोः परिचयः ७२६ स्थविरपदविवक्षितार्थक .... ... ... .... ... ... ... ... ... ... [ तृतीयभागे ... ... .... 100 ... ... ......... ५४७ ५४५ 22. ... ५४५ १० ५४५ २१ ५४५ २२ २ ५४६ ७ ५४६ * ५४६ १३ ५४६ १५ ५४६ २० ५४७ १ ५४७ • ५४७ .५ ६ १७ ५४७ १८ ५४८ २ ५४८ ३. ५४८ ७ ५४८ ९ ... ५४८ १७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: 20904294 द्वितीयः किरणः ] विस्तरतो विषयानुक्रमः । . विषयाः __ पृ. पं. विषयाः७४५ तदर्थ.. ... ... ... ... ५४८ १९ ७७६ अशुचिभावनास्वरूपम् ... ५५९ २७ ७४६ आहारगुप्तिभूषणगुप्त्योः ७७७ तद्भावार्थः ... ... ... ५६० १ . स्वरूपे ... ... ... ... ५४८ २४ | ७७८ आश्रवभावनास्वरूपम् ... ५६० ७४७ तदभिप्रायः ... ... ... ७७९ तदभिप्रायप्रकटनम्... ... ५६० ७४८ ब्रह्मचर्यधर्मप्रभाववर्णनम् .. | ७८० संवरभावनास्वरूपम्... ... ५६० ७४९ शानादीनां स्वरूपाणि... ... | ७८१ तदर्थप्रकाशनम्... ....... ५६० ७५० तदर्थकथनम् ... ... ... | ७८२ निर्जराभावनास्वरूपम् ... ५६० २४ ७५१ तपसः स्मरणम् ... ... ... ६ ७८३ तदभिप्रायावेदनम् ... ... ५६० २६ ७५२ क्रोधनिग्रहस्वरूपम् ... ... ७८४ तत्फलम्... ........ ... ५६१ ७५३ तदर्थः ... ... ... .... १० ७८५ लोकभावनास्वरूपम् ... ... ५६१ ७५४ चरणसंहरणम् ... ... ... . ५५० १३ ७८६ तद्भावार्थः ... ... ... ५६१ ७ ७५५ किरणोपसंहारः ... ... ५५० ७८७ तत्फलम् ... ... ... ... ५६१ १९ ७८८ लोकस्वरूपम् ... ... ... ५६२ १ द्वितीयः किरणः ७८९ तत्संस्थानपरिमाणभेदानां । ७५६ चरणविभागः ... ... ... ५५१ वर्णनम् ... ....... ... ... ५६२ ८ ७५७ पिण्डविशुद्धिविभागः... ... ५५१ ७९० रज्जुप्रमाणकथनम् ... ... ५६२ १८ ७५८ षोडशोगमदोषविवरणम् ... ५५१ १७ | ७९१ तद्भावार्थः ... ... ... ५६२ ७५९ षोडशोपार्जनादोष विवरणम् ७६० दशैषणादोषवर्णनम्... ... ७९२ अधोभागवर्णनम् ... ... ५६२ ७६१ पञ्चसंयोजनादोषाः... ... . ७९३ तद्भावार्थः ... ... ... ७६२ समितिस्वरूपम् ... ... ५५६ ११ / ७९४ रुचकस्वरूपम्... ....... ५६३ ७६३ तद्विवरणम् ... ... ... ५५६ १३ ७९५ रुचकस्य मध्यलोकमध्य. .. ७६४ भावनास्वरूपम् ... ... ५५६ । २१ त्वदिग्विदिग्व्यवहारमूलत्व७६५ तद्विवरणम् ... ... ... कथनम् .... ... ... ... ५६३ १७ ७६६ अनित्यभावनास्वरूपम् ८७९६ दिशः प्रदेशवर्णनम्... ... ५६४ २ ७६७ सफलं तद्विवरणम् ... ... | ७९७ पृथिवीभेदेनाधोलोकवर्ण- .. ७६८ अशरणभावनानिरूपणम् ... नम्... ... ... ... ... ५६४ १४ ७६९ फलेन सह तद्भावार्थः . .... ५५८ १. ७९८ धर्मादीनामवस्थानप्रमाण-. ७७० संसारभावनानिरूपणम् ... ५५८ | वर्णनम् ... ... ... ... ५६४ १९ ७७१ सफलं तद्वयाख्यानम्... ... ५५८ ७७२ एकत्वभावनावर्णनम्... ... ५५८ |. ७९९ तासां सप्रतिष्ठत्ववर्णनम् ... ५६५ ७७३ तत्फलनिर्देशेन वर्णनम् ... ५५९ ३८०० तद्भावार्थः ... ... ... ५६५ ७७४ अन्यत्वभावनास्वरूपम् १८८०१ अधोलोके वासयोग्यानां ७७५ तत्स्पष्टीकरणम् ... ... ५५९ २० । वर्णनम् ... ... ... ... ५६६ ३ कथ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८ सटीकतस्वन्यायविभाकरस्य [ तृतीयभागे .. विषयाः पृ. पं . विषयाः पृ. पं. ८०२ प्रत्येकपृथिव्यां सायुकवा ८२५ जम्बूद्वीपादिशब्दार्थः... ... ५७२ १ . सयोग्यवर्णनम्... ... .. ५६६ ७ ८२६ मेरुपर्वतस्वरूपकथनम् .... ५७२ २० ८०३ तेणं लेश्यादिदुःखकथनम् ... ५६६ १४ ८२७ जम्बूद्वीपपरिमाणम्... ... ५७३ ६ ८०४ नारकास्तित्वसाधनम् ... ५६७ १७ ८२८ मेरोभूतलावगाहनामानम्... ५७३ १४ ८०५ प्रथमपृथिव्यां भवनपति-.. ८३९ मेरुसमुच्छ्रायमानम्... ... ५७३ १७ . स्थानवर्णनम् .... ... ... ५६८ ८ ८३० तत्रस्थ वनवर्णनम् ... .... ५७३ १८ ८०६ रत्नप्रभास्थौल्यकथनम् ... ५६८ १२ | ८३१ तस्य काण्डत्रयकथनम् ... ५७३ २४ ८०७ भवनस्वरूपोच्छ्रायादि ८३२ सप्तक्षेत्रस्याभिधानम्... ... ५७४ २ कथनम्... ... . ... ... ५६८ १६ | ८३३ नामव्युत्पत्तयः... ... ... ५७४. ६ ८०८ भवनावासयोः सत्ताविषये ८३४ तत्क्रमाभिधानम् ... ... ... ५७४ १५ ___ मतान्तरप्रदर्शनम् ... ... ५६८ १९ ८३५ क्षेत्रव्यवच्छेदकनिरूपणम् ५७४ २० ८०९ असुरकुमारादीनां भवनसं... ८.३६ वर्षवर्षधरादिसंख्यानियमः ५७५ . ३ ख्यावर्णनम् ... ... ... ५६४ २१ ८३७ कर्माकर्मभूमिप्रज्ञापनम् ... ५७५ १७ ८१० भवनपतीनां स्थितिनिरू.. ८३८ तद्भावार्थाभिधानम् .. ... ५७५ २० पणम् ... ....... ... ... ५६८ २५ | ८३९ कर्मभूमित्वादौ नियामक८११ क तत्र नारकाणां स्थितिरि कथनम्... ... ... ... .५७५ २६ त्यस्य समाधानम् ... .... ५६९ १८४० विदेहचातुर्विध्यम् ... ... ५७६ . ६ ८१२ शिष्टपृथिवीनां स्थौल्यवास. ८४१ जम्बूद्वीपादीनां लवणसमु...... योग्यानां कथनम् ... ... ५६९ . ६ द्रादीनां नामानि... ... . ... ५७६ १३ ८१३ तदर्थवर्णनम् ... ... ... ५६९ ८ ८४२ तद्भाव विष्करणम् ... ... ५७६ १७ ८१४ व्यन्तरभवनप्रदर्शनम् ... ५६९ १५ | ८४३ मानुषक्षेत्रकथनम् ... ' ... ५७७ ९ ८१५ तद्भावार्थप्रदर्शनम् ... ... ५७० १८४४ तत्परिमाणम् ... ..... ... ५७७ १२ ८१६ व्यन्तरशब्दव्युत्पत्तिः... ... ५७० ५८४५ मनुष्यत्रैविध्यम् ..... ... ५७७ १४ ८१७ तेषामष्टमेदवर्णनम् ........ ५७० ८४६ मानुषक्षेत्रसंख्या ... ... ५७७ १५ ८१८ पल्योपमस्वरूपप्रदर्शनम् ... ५७० ८४७ मानुषोत्तरपर्वतस्वरूपम् ... ५७७ १७ ८१९ वानमन्तरवर्णनम् ... ... ५७० २४ ८४८ नास्मात्परतो मनुष्याणां ८२० एषां देवविशेषत्वमिति कथ-- ___ जन्ममरणे इत्यस्य विवरणम् ५७८ १ नम् ... ... ... ... ५७१ ८२१ तिर्यग्लोकस्वरूपम् ... ... ५७१ ८४९. ज्योतिष्कनिवासयोग्यस्था- . ८२२ तदर्थवर्णनम् ... ... ... ५७१ नवर्णनम्... ... ... ... ५७८ १० ८२३ सपरिमाणं द्वीपसमुद्रवर्ण ८५० तारकविमानस्थानम् ... ... ५७८ १५ नम्... ... ... ... ... ५७१ २१ / ८५१ सूर्यविमानस्थानम् ... ... ५७८ ८२४ तिर्यग्लोकस्य मध्यलोकत्वे ८५२ चन्द्रविमानस्थानम् ... .... ५७८ कारणनिरूपणम् ... .... ५७१ २५ | ८५३ नक्षत्रग्रहस्थानम् ....... ५७८ २४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ १० १८ १२ तृतीयः किरण: ] विस्तरतो विषयानुक्रमः । : ३९ : विषयाः विषयाः पृ. पं. ८५४ मनुष्यक्षेत्र एते गतिमन्तो ८८४ मासिक्यादीनां सप्तानां व. नान्यत्रेति कथनम् तत्सं र्णनम् ... ... ... ... ५८७ ख्या च ... ... ... ... ५७८ २६ ८८५ अष्टमीप्रतिमास्वरूपम् ... ५८७ ८५५ ज्योतिष्काणां गतिविशेषः ५७९ ९८८६ तदर्थाभिधानम् ... ... ५८८ १८ ३ ८५६ तदर्थकथनम् ... ... ... ५७९ ११ / ८८७ नवम्यादीनां स्वरूपम् ... ५८८ ८५७ ऊर्ध्वलोकनिरूपणम् ... ... ५७९ १७ / ८८८ दशमीस्वरूपम्... ... ... ५८८ १० ८५८ तदभिप्रायाविष्करणम् ... ५७९ .१९८८९ एकादशद्वादशप्रतिमावर्ण८५९ तद्वासयोग्यनिरूपणम् ... ५८० नम्... ... ... ... ... ८६० देवसत्तासाधनम् ... ... | ८९० तद्भावस्फुटीकरणम्... ... ५८८ ८ २४ ८६१ वैमानिकशब्दार्थः ... ... ५८० | ८९१ पञ्चन्द्रियनिरोधस्वरूपम् ... ५८९ ८६२ कल्पोपपन्नदेवस्थानम् ... ५८१ ६ ८९२ तदर्थकथनम् ... ... ... ५८२ ८६३ तद्वयवस्थावर्णनम् ... ... ५८१ १९ ८९३ प्रतिलेखनास्वरूपम्... ... ५८९ ८६४ द्वादशकल्पस्थानां स्थितिः... ५८२ ८९४ कालत्रयाश्रयेण तद्वर्णनम् । ५८९ ८६५ तदर्थकथनम् ... . ... ....५८२ ८९५ उपधिमेदाभिधानम्... .. ५९० ८६६ अहमिन्द्राणां निवासस्थानम् ५८२ ८९६ प्रतिलेखनावाक्यप्रदर्शनम्... ५९० ८६७ तेषामायूंषि ... ... ... ५८२ २४ ८९७ तत्स्फुटीकरणम् .... ... ५९० २१ ८६८ विजयादिवर्णनम् ... .. ५८३ ८९८ अङ्गप्रमार्जनारूपप्रतिलेखना८६९ विमानप्रस्तरनिरूपणम् ... ५८३ . वाक्यानि... ... ... ... ५९१ २ ८७० विमानवर्णवर्णनम् ... ... ५८३ ८९९ गुप्तित्रयप्रतिपादनायावतर८७१ एषां प्रतिष्ठानवर्णमम् ... ५८५ णिका ... ... ... ... ५९१ ७ ८७२ कल्पातीतदेवकथनम्... ... ५८४ | ९०० गुप्तिप्रदर्शनम्... ... ... ५९१ १६ ८७३ सिद्धक्षेत्रकथनम् ... ... ५८४ | ९०. अभिग्रहस्वरूपं मेदाश्च ... ५९१ १९ ८७४ तद्भावार्थाभिधानम्... ... ५८३ १९ ९०२ तदर्थः ... ... ... ... ५९१ २० ८७५ सिद्धनिवासस्थानकम् ... ५८५ १० ९०३ द्रव्याद्यभिग्रहस्वरूपम् ... ५९१ २४ ८७६ ऊर्बलोकस्य देवलोकाश्र ९०४ तत्स्फुटीकरणम् ... ... ५९२ १ येण परिमाणवर्णनम्... ... ५८५ । १५ / ९०५ किरणोपसंहारः... ... ... ५९२ १२ ८७७ त्रसनाडिकास्वरूपम्... ... ५८५ २१ तृतीयः किरणः ८७८ बोधिदुर्लभभावनास्वरूपम् - ८७९ तद्विशदार्थः ... ... ... ५८६ | ९०६ चारित्रिणां मेवाः .... ... ५९२ १९ ८८० धर्मस्वाख्यातभावनास्वरू ९०७ पुलाकस्वरूपम्... ... ... ५९२ २३ पम्... ... ... ... ... १८६ १५ ९०८ तद्विवरणम् ... ... ... ५९३ १ ८८१ तद्भावप्रतिपादनम् ... ... ५८६ १९ ९०१ तस्य भेदः ... ... ... ५९३ ८ ८८२ भिक्षुप्रतिमास्वरूपम्... ... ५८६ २६ | ९१० लब्धिपुलाकवर्णनम्... ... ५९३ १० ८८३ तद्भेदवर्णनम् ... ... ... ५८७ ७ ९११ सेवापुलाकमेदः ... ... ५९३ १४ ____ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकतत्त्वन्यायविभाकरस्य [ तृतीयभागे विषयाः पृ. पं. विषयाः ९१२ सेवापुलाकादिस्वरूपम् ... ५९३ १६ ९४१ तदर्थवचनम् ... ... ... ५९८ २७ ९१३ शानपुलाकवर्णनम्... .... ५९३ २३ / ९४२ उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थस्वरू९१४ दर्शनपुलाकवर्णनम् ... ... ५९४ , ४ पम् ... ... ..... ... ५९९ ३ ९१५ चारित्रपुलाकवर्णनम्... ... ५९४ १० ९४३ क्षीणमोहनिर्ग्रन्थस्वरूपम्... ५९९ ६ ९१६ लिङ्गपुलाकवर्णनम् .... ... ५९४ २३ ९४४ पुनरस्य प्रकारान्तरेण भेद . .. ९१७ यथासूक्ष्मपुलाकवर्णनम् ... ५९४ २४ कथनम् ... ... ... ... ५९९ १० ९१८ बकुशस्वरूपम्..... ... ... ५९४ २६ ९४५ तेषां भेदानां स्वरूपाणि ... ५९९ ९१९ तत्प्रभेदः... ... ... .... ५९५ ६ ९४६ भेदेष्वेषु विशेषप्रदर्शनम् ... ६०० ९२० प्रकारान्तरेण बकुशविभागः ५९५ १३ | ९४७ स्नातकस्वरूपम् . ... ... ६०० ९२१ आभोगबकुशस्वरूपम् ... ५९५ २० | ९४८ तत्स्फुटार्थः । ... ... ... ६०० ९२२ अनाभोगबकुशस्वरूपम् ... ५९५ २१ | ९४९ अनुयोगद्वारविचार:... ... ६०० ९२३ संवृतबकुशस्वरूपम्... ... ५९५ २२ ९५० संयमद्वारविचार: ... ... ६०० ९२४ असंवृतबकुशस्वरूपम् ... ५९५ २५ | ९५१ श्रुतद्वारविचारः . ... ... ६०१ - १ ९२५ सूक्ष्मबकुशस्वरूपम्... ... ५९५ २५ ९५२ तदर्थः ......... ... ... ६०१ . ५ ९२६ बकुशनिगमनम् . ... ... ५९५ । २६ | ९५३ प्रतिसेवनाद्वारविचारः । ... ६०१ ११ ९२७ कुशीलस्वरूपम्... ... ... ५९६. ६९५४ तदर्थः ....... ... ... ६०१ १५ ९२८ तद्भदवर्णनम् ... ... ... ५९६ -१० | ९५५ तीर्थद्वारविचारः ..... ... ६०१ २१ ९२९ तयोःस्वरूपम्... .... ... ५९६ १३ ९५६ तदर्थः .... ... ... ..... ९३० प्रकारान्तरेण कुशीलभेद ..... | ९५७ भगवत्यनुसारेण विशेषा- " प्रदर्शनम्... ... ... ... ५९६ दर्शनम् .............. ९३१ ज्ञानाचारभेदाः... ... ... ५९६ २७ | ९५८ लिङ्गद्वारविचार: ... ... ९३२ दर्शनाचारभेदाः ... ... ५९७ १७ ९५९ तदर्थः ... ... ... ९३३ चारित्राचारभेदाः ... ... ५९७ : २९ ९६० लेश्याद्वारविचार,... ९३४ तपआचारभेदाः ... ... ५९८ १ ९६१ तद्विशदार्थः ... ९३५ प्रकारान्तरेण चारित्रप्रति ९६२ उपपातद्वारविचारः ... - ... ६०३ २ - सेवनाकुशीलवर्णनम् ... ... ५९८ २ ९३६ यथासूक्ष्मप्रतिसेवनाकुशील ९६३ तदभिप्रायः ... ... वर्णनम् ... ... ... ... ५९८ १२ | ९६४ स्थानद्वारविचारः ... ९३७ कषायकुशीलभेदप्रदर्शनम् ५९८ १५ / ९६५ तद्विशदार्थः ... ... ९३९ तदर्थवर्णनम् ... ... ... ५९८ १८ / ९६६ सम्यक्चरणनिगमनम् ९४० निम्रन्थस्वरूपम् ... ... ५९८ २३ / ९६७ ग्रन्थोपसंहारः... ... इति विषयानुक्रमणिका समाप्ता Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ जैनाचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरविरचितः तत्त्वन्यायविभाकरः॥ स्वोपज्ञन्यायप्रकाशटीकायुतः । Page #53 --------------------------------------------------------------------------  Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्हम् जैनाचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वरविरचितः तत्त्वन्यायविभाकरः॥ स्वोपज्ञन्यायप्रकाशटीकायुतः -> -- नयानेकवादप्रमाणप्रकाशं, भुवि ज्ञानचारित्रदत्तावकाशम् । इलादुर्गरत्नं जिनं शान्तिनाथ, नमामि प्रभाभासुरं भावतोऽहम् ॥ १ ॥ प्राचां प्रौढनिगूढभावभरितान् वाचां विलासान् परान् , शेमुष्या प्रविचार्य चारु गुरुभिर्दिष्टेन सद्वर्त्मना । तत्त्वन्यायविभाकरस्य कृतिनां मोदाय टीकामिमां, कुर्वे मञ्जुलयुक्तिजालजटिलां न्यायप्रकाशाभिधाम् ॥२॥ क्क स्याद्वादो महाम्भोधिरल्पशक्तिर्मतिः क्व मे । बाहुना तं तितीर्षन्तं क्षमन्तां गुणवेदिनः ॥ ३ ॥ इह हि शास्त्रारम्भे क्वचिदभीष्टे प्रवर्तमानाः श्रेयस्काम्यया विशिष्टस्वेष्टदेवतानमस्कारपुरस्कारेणैव प्रवर्तन्ते, स च नमस्कारो यद्यपि शरीरेण मनसा वा क्रियमाणो निखिलप्रबलप्रत्यूहसमूहोन्मूलनपटिष्ठतया प्रारिप्सितशास्त्रपरिसमाप्तये सम्पनीपद्यते, तथाप्यशेषान्तरायनिचयविघातनिमित्तमिष्टदेवतानमस्कारपूर्वकमेवान्तेवासिनः प्रवर्तन्तामिति शिष्यान् शिक्षयितुं द्रव्याद्यपकृष्टमङ्गलानि विहाय नोआगमतो भावमङ्गलं प्रभुनमस्काररूपमादौ 15 निबध्नातिभक्तयुद्रेकनमत्सुराधिपशिरकोटीररत्नप्रभा द्योतिस्मेरपदाम्बुजं निरुपमज्ञानप्रभाभासुरम् । 10 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४ : न्यायप्रकाशटीकायुते तत्त्वन्यायविभाकरे रागद्वेषतृणालिपावक निभं वाणीसुधाम्भोनिधि, श्रीमद्वीरजिनेश्वरं प्रतिदिनं वन्दे जगद्वल्लभम् ॥ १ ॥ " भक्त्युद्रेकेति । भक्ति: - आराध्यत्वेन ज्ञानं, आराधना च गौरवितप्रीतिहेतुः क्रिया । तस्या उद्रेकोsतिशयेनाविर्भाव:, तेन नमन्तो ये सुराधिपा इन्द्रादयः तेषां शिरसां कोटी5 रेषु - मुकुटेषु यानि रत्नानि तेषां प्रभाणां द्योतनशीलं स्मेरं विकसितं पदाम्बुजं यस्य तं, अनेन प्रभोः पूजातिशयः प्रकाशितः । तथा निरुपममतुलमनन्तमिति यावत् तच तज्ज्ञानञ्च, तदेव प्रभा साकल्येनाखिलपदार्थप्रद्योतकत्वात् तया भासुरं - जाज्वल्यमानं, अन ज्ञानातिशयो दर्शितः । तथा रागः - अभिष्वङ्गः, द्वेषः - अप्रीतिः, तावेव तृणालिस्तृणव्रजः, रागद्वेषयोरतितुच्छत्वेन तृणतया रूपणम्, तस्मै पावक निभः- हुताशनसंकाशस्तं, 10 अनेनापायापगमातिशय उद्भावितः । एवं पञ्चत्रिंशद्गुणालङ्कृता वाण्येव निरन्तरानन्दप्रदत्वात्सुधा तस्या अम्भोनिधिरुत्पत्तिभूमिस्तम्, अनेन वागतिशय उक्तः, चतुस्त्रिंशदतिशयात्मिका भावार्हन्त्यरूपा कृत्स्नकर्मक्षयाविर्भूतानन्तचतुष्कसम्पद्रूपा वा श्रीस्समृद्धिरस्यास्तीति श्रीमान् नित्ययोगे मतुप्, विशेषेणेरयति - क्षिपति कर्माणीति वीरः, तपसा विराजमानत्वात् तपोवीर्येण युक्तत्वाद्वा वीरश्चतुर्विंशतितमतीर्थकृत्, यद्यपि निरुक्तव्युत्पत्त्या वीरपदेन 15 तीर्थकर सामान्योपस्थितिसम्भवः, तथापि योगा ढिर्बलवतीति न्यायाद्व्यक्तिविशेष एव विवक्षितः, निश्चयन येनैकभक्तौ सकलभक्तिसिद्धेः, आसन्नोपकारित्वेनास्यैव तात्पर्यविषयस चासौ जिनेश्वरस्सामान्यकेवलिनामपीश्वरस्तं, स्वस्यापि भक्त्युद्रेकं दर्शयति प्रतिदिनं वन्द इति, वन्दे - स्तौमि, अभिवादये च, केवलानां स्तुतिबोधकानां नमस्कारबोधकानां वा धातूनामनुपादानात् । जगतां वल्लभो जगद्वल्लभस्तं सकलचराचरोपकारित्वादिति भावः ॥ 20 नन्विदं शास्त्रं नारम्भणीयं, अभिधेयशून्यत्वात् काकदन्त परीक्षावत्, तथा प्रेक्षावतां ग्रन्थोऽयमनादेय एव, छद्मस्थत्वे सति स्वतन्त्रतयाऽभिधीयमानत्वाद्रध्यापुरुषवाक्यवदित्येवं प्रवदतां संदिहानानां वा प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं वाच्योऽभिधेयः परमगुरूपदेशानुसारित्वच सम्बन्धः प्रथमतः । यदाहुः - " श्रुत्वाभिधेयं शास्त्रादौ पुरुषार्थोपकारकम् । श्रवणादौ प्रवर्तन्ते तजिज्ञासादिनोदिताः । नाश्रुत्वा विपरीतं वा श्रुत्वाऽऽलोचितकारिणः । 25 काकदन्तपरीक्षादौ प्रवर्तन्ते कदाचने "ति, तथा ' प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्त्तते । एवमेव प्रवृत्तचे चैतन्येनास्य किं भवेदि 'ति न्यायेन प्रयोजनमपि प्रकटनीयम्, अन्यथा प्रयोजनशून्यत्वादत्र नैव प्रवर्तेरन् प्रेक्षावन्तस्तथा वाच्यवाचकादि सम्बन्धवैधुर्येऽपि प्रवृत्त्यनुपपत्त्या सोऽपि वाच्य एवेति तदनभिधानप्रयुक्तप्रसज्यमानाऽऽशङ्कातङ्कसमुन्मूल त्वाच्च, I Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलाचरणम् । नाय, परम्परया विशिष्टादरनिमित्ताहन्मूलताप्रख्यापनार्थञ्चादौ गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धप्रदर्शनपुरस्सरमभिधेयादिकं स्वकीयग्रन्थनाम चोपनिबध्नातिप्रज्ञावैभवसंमदिष्णुकथकप्रौढोक्तिविद्रावण प्रख्यं जीवगणोपजीवकदयादृष्टिप्रकर्षोज्ज्वलम् । नत्वा श्रीकमलाख्यसूरिमसकृद्ध्यात्वा च जैनागमं, तत्त्वन्यायविभाकरं सुललितं ग्रन्थं प्रकुर्वे मुदा ॥ प्रज्ञावैभवेति । प्रज्ञा-विशेषविषयिणी बुद्धिस्तस्याः वैभवेन-नवनवोन्मेषरूपेण सम्यङ्मदिष्णूनां कथकानां-वावदूकानां याः प्रौढोक्तयः सामान्यविद्वदुर्भद्यत्वात् तासां विद्रावणेभञ्जने प्रख्यः-प्रसिद्धस्तं, एतेन गुरोः प्रतिभातिशयः स्वसमयस्थापनसामर्थ्यश्चाविष्कृतम् । जीवगणस्योपजीविकायां-परिपालननिदानभूतायां दयायां दृष्ट्या-अवहितचेतसा प्रकर्षेणो- 10 ज्वलं-निर्मलं, अनेन चानेकनृपतीनामहिंसाधर्मप्रबोधनद्वारा दयाधर्मसंस्थापनकौशल्यं सूचितम् । ध्यानलक्षणकर्त्तव्यापेक्षया पूर्वकालभावित्वात्क्त्वाप्रत्ययान्तं पदमाह-नत्वेति'नमस्कृतिविषयमारचय्येत्यर्थः । आचारश्रुतशरीरवचनवाचनमतिप्रयोगमतिसंग्रहपरिज्ञालक्षणाष्टविधसम्पदः श्रियस्तासां कमलमिव आश्रयत्वात्कमल इति आख्या सार्थकं नाम यस्य सूरेस्तं, असकृत्-वारंवारं, ध्यात्वा-भक्तिश्रद्धाभ्यां मनोमन्दिरे संस्थाप्य, ग्रन्थरचनापेक्षया पूर्वकाल- 15 भावित्वात् क्त्वाप्रत्ययः । चः पुनरर्थको न पुनः समुच्चायकः, एकक्षणावच्छेदेन नमनचिन्तनात्मकद्विविधक्रियाऽसम्भवेन पौर्वापर्यनैयत्यात् , गुरुपरम्परयैव जैनागमस्यात्मनो लाभेन तन्नमनस्य ध्यानपूर्वकालभावित्वस्यैवोचितत्वाच्च । अनेन गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धः श्रद्धानुसारिणः प्रति प्रदर्शितः । जयन्तीति जिना रागद्वेषविजेतारस्तैः प्रोक्तमागम-शास्त्रमनेनागमनमस्कारेण स्वकीयग्रन्थस्य समूलत्वं सूचितं, एतेन छद्मस्थत्वे सति स्वतन्त्रतयाऽभिधी- 20 यमानत्वे हेतावसिद्धतोद्भाविता । तथा गुरोरप्युपास्यतया प्रथमं गुरुतमस्याहतस्तदागमस्य च गुरुद्वारा प्राप्यमाणत्वात्सूरेस्ततो ग्रन्थस्यास्य मूलभूतस्याऽऽगमस्य प्रणामक्रम इत्यपि विनेयाः शिक्षिताः । तत्त्वानि जीवादीनि, न्यायास्तदधिगमकाः प्रमाणनयरूपास्तेषां विशिष्टा भाः स्वरूपप्रकारप्रमाणानि वस्तुयाथार्थ्यप्रकाशकत्वात् , तासामाकर इवाकरस्ताः करोतीति वा तत्त्वन्यायविभाकरस्तम् । एतेन तत्त्वन्याया अभिधेयास्तज्ज्ञानं प्रयोजनं, तर्कानुसारिणः 25 प्रत्युपायोपेयलक्षणसम्बन्धश्च प्रदर्शितः, अत्रेदम्बोध्यम् , प्रयोजनं ग्रन्थकर्तृगतं श्रोतृगतश्चेति द्विविधम् , अनन्तरपरम्परभेदतः प्रत्येकमपि पुनर्द्विविधम् , ग्रन्थकर्तुरनन्तरं प्रयोजनं सत्त्वानुग्रहः सर्वज्ञोदितपदार्थप्रतिपादनात् । परम्परन्तु मोक्षावाप्तिर्भव्यसत्त्वानुग्रहप्रवृत्तस्य स्वर्ग Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशटीकायुते तत्त्वन्यायविभाकरे प्रायादिपरम्परया परमपदस्यावश्यप्राप्तेः । श्रोतॄणाश्चानन्तरं प्रयोजनं ग्रन्थसारभूतपदार्थयथावत्परिज्ञानं, परम्परन्तु परमपदप्राप्तिरेव, यथावद्विदितपदार्थसार्थानां निःसारसंसारोद्वेगजननात् परमपदप्राप्तयेऽङ्गीकृतप्रयत्नानां निःश्रेयसावाप्तेरिति । सुललितं शब्दतो लालित्यवन्तं, एतेनास्य ग्रन्थस्य बालानामनायासेन बोधजनकत्वमादर्शितम् । ग्रन्थं - वाक्यसन्दर्भरूपं 5 प्रकुर्वे - निबध्नामि । मुदा - आनन्देन नतु केशेनेतिभावः ॥ : ६ : ग्रन्थेनानेन श्लोकद्वयात्मकेनेष्टदेवतागुर्वागमानां नमस्कारोऽभिधेयाद्यभिधानेन शिष्यप्रवृत्तिप्रतिबन्धकशङ्काशङ्कुसमुद्धरणञ्च कृतम् । अनायासेन बालबोधप्रयोजकत्वोपदर्शकसुललितपदेन तत्त्वन्यायानां महामतिभिः पूर्वसूरिभिर्गम्भीरवाक्यप्रबन्धैर्व्याख्यातत्वेऽपि साम्प्रतकालीनान्तेवासिनां मतिमान्द्यतया तैर्ग्रन्थैर्यथावदर्थावगमो न भवेदिति मन्वानेन मया मन्द10 मतिनाऽपि मन्दतरमतीनां शिष्याणमार्थावगमनिमित्तं सरलवचनप्रकारेणामुना प्रध्यन्ते त इत्यपि भाव आविष्कृतः ॥ ननु मङ्गयतेऽधिगम्यते येन हितं तन्मङ्गलं, मङ्गं धर्मं लाति -समादत्त इति मङ्गलं, मां भवात्संसाराद्वालयति - अपनयतीति मङ्गलं, माः - सम्यग्दर्शनादिलक्ष्मीर्गलयति प्रापयतीति वा मङ्गलमितिनिरुक्तिभिर्हितप्रापकत्वधर्मप्रापकत्व संसारापनायकत्व सम्यग्दर्शनादिप्रापकत्वरूपा -- 15 र्थानां शास्त्रमात्रेऽस्मिन् सत्त्वेन तदादौ मङ्गलकरणमनर्थकमितिचेन्न मङ्गयतेऽलङ्कियते शास्त्रमनेन, मन्यते - ज्ञायते निश्चीयते विघ्नाभावोऽनेन, मोदन्ते - शेरते विन्नाभावेन निष्प्रकम्पतया सुप्ता इव जायन्तेऽनेन, शास्त्रस्य वा पारं गच्छन्त्यनेन मा भूद्गलो विघ्नो यस्माच्छास्त्रस्येति वा मङ्गलमिति निरुक्तिलब्धशास्त्रालङ्कारकत्वविघ्नाभावनिश्चायकत्वशास्त्रपारप्रापकत्वविघ्ननाशकत्वरूपार्थावलम्बनतः प्रभुप्रभृतिनमस्कारप्रतिपादकश्लोकद्वयस्य मङ्गलत्वाभिधानात् एतेन 20 शास्त्रस्य मङ्गलस्य वाऽमङ्गलत्वसंशीतिर्निरस्ता, व्युत्पत्तिभेदेनोभयत्रैव मङ्गलत्वाक्षतेः । तदिदं मङ्गलं शास्त्रस्यादौ मध्ये पर्यन्ते च क्रियते, तत्रादौ मङ्गलं शास्त्रस्याविन्नेन पारगमनाय, निर्विघ्नेन परम्परयोपागतस्य शास्त्रस्य स्थिरत्वापादनार्थं मध्ये, प्रान्ते च स्थिरीभूतस्य शिष्यपरम्परायामव्यवच्छेदनिमित्तं बोध्यम् । यद्यपि कचिन्मङ्गलाभावे विघ्नाभावद्वारा समाप्ति - र्दृश्यते, तथा तत्सवेऽपि समात्यभावः । तथापि स्वतः सिद्धविघ्नविरहवता कृतस्य ग्रन्थस्य 25 समाध्या मङ्गलस्य विघ्नध्वंसद्वारा समाप्तिं प्रत्यहेतुत्वमेव, विघ्नात्यन्ताभावादपि समाप्त्युदयेन मङ्गलस्य वैयर्थ्यापत्तेः, तत्तत्समाप्तिं प्रति हेतुत्वे गौरवाञ्चातो विघ्नध्वंसं प्रत्येव तस्य हेतुत्वं, असम्पूर्णमङ्गलघटितग्रन्थेषु च मङ्गलेन विघ्ननाशेऽपि विघ्नप्राचुर्यान्न समाप्तिः, सम्पूर्ण मङ्गलहितग्रन्थेषु तु निर्विघ्नपरिसमाप्तिदर्शनेन वाचिकमङ्गलाभावेऽपि मानसिकादिमङ्गलमनुमेयमेव, कार्याकारणानुमानस्य सर्ववादिसिद्धत्वात् । न च तत्र समाप्तिर्विघ्नध्वंसप्रयुक्ता किन्तु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - मुक्त्युपायनिरूपणम् । विघ्नात्यन्ताभावप्रयुक्तैवेति चेन्न विनिगमनाविरहात् , न च मङ्गलादर्शनमेव विनिगमकमिति वाच्यम् । पर्वते धूमाद्वयनुमानानुपपत्तेर्वह्रयदर्शनात् । न चान्यत्र धूमसत्त्वेवह्नदृष्टत्वादत्र सोऽनुमीयत इति वाच्यम् तुल्यत्वाद् दृश्यते ह्यन्यत्र निर्विघ्नसमाप्तिसत्त्वे मङ्गलमपि । तस्मात्सिद्धं मङ्गलस्य विघ्नध्वंसहेतुत्वमित्यन्यत्र विस्तरः ॥ ननु ग्रन्थेऽस्मिन्निरूप्यन्ते तत्त्वानि न्यायाश्च तत्तत्त्वज्ञानायेति तु युक्तं, परं तज्ज्ञानं किं । वैषयिकसुखार्थं निर्वाणप्राप्तिलब्धाऽऽत्मसुखार्थ वेत्याशङ्कायां सर्वेषु पुरुषार्थेषु मोक्षस्यैव प्राधान्यतया तत्र च कृतस्यैव यत्नस्य वस्तुतः फलवत्त्वात् तदेवास्य ग्रन्थस्य तज्ज्ञानद्वारा परमं फलम् । तदुपायोपदेशस्यैव वास्तविकहितोपदेशत्वेनोपदेशरूपेऽस्मिन् ग्रन्थे प्रथमं तदुपाय एव वक्तव्य इति मनसि निधायाऽऽह सम्यक्श्रद्धासंविचरणानि मुक्त्युपायाः। सम्यगिति । श्रद्धासंविञ्चरणानां द्वन्द्वानन्तरं सम्यगितिपदेन कर्मधारयः, द्वन्द्वादौ द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणपदस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात्सम्यक्श्रद्धासम्यक्संवित् सम्यक्चरणानां लाभः । मुक्त्युपायाः-मुक्तेरुपाया इति मुक्त्युपायाः नियतपुंलिङ्गोऽयमुपायशब्दः। मोक्षोपायोद्देशेन सम्यक्श्रद्धादीनि विधीयन्ते । ननु पुरुषार्थेषु प्रधानत्वात् मोक्ष एव प्रथम प्रदर्शनीयस्तत्कुतस्तदुपायः प्रदर्शित इति चेन्न, उपायोपदेशमन्तरेण भूतार्थकल्पस्य मोक्षो- 15 पदेशस्य वैयर्थ्यात् । विषयसिंयोगसमुत्थस्य सुखस्य दुःखोत्तरत्वेन क्षणिकदुःखप्रतीकारमात्रत्वेन च तदुद्वेगात्तद्धेतून परिजिहीर्षन्तं परमसुखानन्दनिमित्ताभिलाषुकं प्रति तदुपदेशस्यैव न्याय्यत्वाच्च । अभ्युदयहेतुधर्मार्थकामोपदेशो हि दुःखनिवृत्त्यार्थिनां न तदत्यन्ताभावप्रयोजक इति तस्य वस्तुतो न हितोपदेशत्वम् । ननु मुक्तिप्रसिद्धौ तदुपायोपदेशस्य युक्तियुक्तत्वेन तस्या एव निरूपणमादावुचितमितिचेन्न जिज्ञासुजिज्ञासाप्रमार्जनाशक्यत्वात् , तथा सति हि 20 मुक्त्युपायजिज्ञासोर्जिज्ञासाया निवृत्तिरकृता भवेत् । न च कथं न तेन जिज्ञासिता मुक्तिरिति वाच्यम् , लोकस्य भिन्नरुचित्वात् कस्यापि मुक्तौ विप्रतिपत्त्यभावाच्च । न च तत्रापि भावाभावादिरूपेणास्त्येव विप्रतिपत्तिर्वादिनामिति वाच्यम् । सर्वेषां साक्षात्परम्परया वा कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षात्मिकाया मुक्तेरविगानेनाभिप्रेतत्वात् , न च प्रामुक्त्युपायनिर्देशाद्वन्धकारणनिर्देशो न्याय्यो बन्धपूर्वकत्वान्मुक्तेरिति वाच्यम् , संसारकारागारावरुद्धस्य विना मोक्षका- 25 रणोपदेशमाश्वासनासम्भवात् । कुतीर्थिकप्रणीतमोक्षकारणनिराकरणार्थत्वाच्चेति दिक् ।। ___ अत एव सर्व वाक्यं सावधारणमितिन्यायेन सम्यक्श्रद्धासंविचरणान्येव मुक्त्युपाया इति मूलार्थः । तत्र चोद्देश्यविधेयभावस्य कामचारतया सम्यक् द्धादीनामुद्देश्यत्वे 'तत्रैव Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशटीकायुते तत्त्वन्यायविभाकरे कारयोगे सम्यक्रद्धादीन्येव मोक्षोपाया नान्य इत्यन्ययोगव्यवच्छेदस्य, विधेयेन सह एवकारस्य च सम्बन्धे सम्यक्श्रद्धादीनि मुक्त्युपाया एवेत्ययोगव्यवच्छेदस्य च लाभः । श्रद्धादौ सम्यक्त्वं यथावदवस्थितार्थपरिच्छेदित्वं, तच्च निसर्गश्रद्धायामधिगमश्रद्धायाश्च वर्तत एव, आद्यायां निमित्तान्तरनिरपेक्षतया द्वितीयायाश्च गुर्वाद्युपदेशान्तरसापेक्षतयेति विशेषः । 5 श्रद्धा-आस्थारूपा दृष्टिः, सा चेन्द्रियानिन्द्रियार्थोपलब्धिः सा च सम्यग्रुपाऽव्यभिचारिणी, इदमेव तत्त्वं-परमार्थो न भवतीतर इत्येवंरूपा, नयप्रमाणविकल्पहेतुको जीवादिपदार्थयाथात्म्यावगमः सम्यक्संवित् । अष्टविधकर्मनिवृत्तिं प्रत्युद्यतस्य ज्ञानवतस्सामायिकादिसदसत्क्रिया प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणं मूलोत्तरगुणशाखाप्रशाखं सम्यक्चरणम् । यस्य जीवस्य मिथ्यादर्शन पुद्गलोदयस्तस्य श्रद्धासंविच्चरणानां मुक्ति प्रत्यनुपायत्वेन व्यभिचारवारणाय सम्यक्त्वं तेषां 10 विशेषणमुपात्तम् । उत्तरोत्तरस्य सत्त्वे पूर्वपूर्वस्यावश्यम्भावनियमप्रकाशनाय श्रद्धासंविञ्चरणानां तथाक्रमविन्यासो विहितः । यत्र च स्वयम्बुद्धादीनां झटिति सम्यक्संविदुदयस्तत्रापि निसर्गसम्यग्श्रद्धास्त्येवेति न तत्त्वरुचिलक्षणसम्यक्छ्रद्धाया व्यभिचारः। ननु पूर्वसत्त्वे उत्तरसत्त्वस्यानियमो यथा सम्यग्दर्शनसत्त्वे स्यान्नवा सम्यक्संविदिति, तदनुचितं, अज्ञानपूर्वकश्रद्धान प्रसङ्गात् , अविज्ञातेषु जीवादिषु श्रद्धानासम्भवेन सम्यक्श्रद्धाया अभावप्रसङ्गात् मिथ्याज्ञान15 निवृत्तावुत्पन्नायामपि श्रद्धायां ज्ञानालाभे आत्मनो ज्ञानोपयोगाभावप्रसङ्गाच्चेति चेन्न यावति ज्ञाने ज्ञानमित्येतत्परिसमाप्यते तावत एवानैयत्योक्तेः, उपशमक्षयोपशमक्षयात्मककारणत्रयजन्यसम्यक्श्रद्धातःक्षयक्षयोपशमात्मककारणद्वयजन्यसम्यक्संविदो भेदोऽस्त्येव कारणभेदात, सम्यक्श्रद्धायास्सर्वद्रव्यपर्यायविषयकत्वात् , श्रुतात्मकसम्यक्संविदश्च सर्वद्रव्यविषयकत्वे सति कतिपयपर्यायविषयकत्वादपि तयोर्भेदः । समुदितानामेषां मुक्त्युपायत्वमिति सूचयितुं 20 द्वन्द्वसमासः कृतः । मोचनमष्टविधकर्मभ्यः पृथग्भावो मुक्तिः-मुच्ल मोचन इतिधातो वे क्तिप्रत्ययात् । तस्या उपायाः साधनानि, सम्यक् द्धादिभिस्सामानाधिकरण्यादुपायशब्दाद् व्यक्तिबहुत्वप्रयुक्तं बहुवचनम् । ननु सम्यक्श्रद्धादिभ्य इतरविनिर्मुक्तेभ्यो मुक्तिन भवत्येव, यथाहि भेषजे रोगापनयनार्थिनो रोगिणस्तत्र श्रद्धाया रोगापहारकत्वज्ञानस्य तदभ्यवहार क्रियाप्रवृत्तेश्च विरहे नैव भवति रोगापनयस्तत्कथं त्रिष्वेककारणताबोधकमेकवचनं विहायो25 पायशब्दाद्व्यक्तिबहुत्वप्रयुक्तं बहुवचनमङ्गीकृतं, तथा च सति प्रत्येक कारणताप्राप्तिप्रसङ्गः स्यादिति चेत्सत्यम् , प्रोक्तमेव तथा पूर्वाचार्यैः 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग' इति, अत्र तु समासादेव तत्प्राप्त्या समस्तपदसामानाधिकरण्यानुरोधाद् बहुवचनमादृतम् , अत एवैकस्यैव सम्यग्दर्शनस्योत्पत्तौ निसर्गाधिगमयोयोर्हेतुत्वं मा प्रसाडीदिति मन्वानरुमास्वातिवाचकमुख्यैर्निसर्गाधिगमाभ्यामित्यनुक्त्वा 'निसर्गादधिगमाद्वा' इत्युक्तं टीकाक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वविचारः ] न्यायप्रकाशटीकायुते द्भिरपि समासाकरणस्य प्रयोजनमप्येवमेवोक्तम् । न च तथा सति · तत्र तत्त्वानि जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा नवेत्यादावपि समुदायस्यैव तत्वप्राप्तिर्न पुनः प्रत्येकमिति वाच्यं, प्रत्येकं तत्प्रापकस्य नवशब्दस्य तत्र सत्त्वात् । समुदायसमुदायिनोः कथञ्चिदभेदात् कथश्चिद्भेदेऽपि वा प्रत्येकावृत्तेस्समुदायावृत्तित्वेन प्रत्येकमपि कारणता मभ्युपेत्य तथोक्तेः, प्रत्येकं स्वरूपयोग्यतारूपकारणतासत्त्वादितरविरहे फलोपधायकत्वल- 5 क्षणकारणसत्त्वप्रयुक्तकार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्यापादयितुमशक्यत्वात् । फलोपधायकत्वलक्षणकारणत्वाभिप्रायेण मोक्षमार्ग इति त्रित्वावच्छेदेनैककारणत्वबोधकैकवचनस्या हतत्वेनाविरोधात् । चरणसत्त्वे ज्ञानदर्शनयोरवश्यम्भावित्वेनानन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तिचरणेनैव कार्यनिर्वाहे श्रद्धासंविदोरन्यथासिद्धिप्रसङ्गपरिहाराय प्रत्येकमपि कारणताबोधकत्वस्यावश्यकत्वात् । सम्पूर्णदर्शनस्यास्य मोक्षासाधारणकारणे रत्नत्रये तात्पर्येण तत्र गुरुत्वाभिमानेन बहुवचन- 10 स्योक्तत्वाञ्चेति ॥ ननु क्षायिकसम्यक्श्रद्धादीनामेव मुक्तिहेतुत्वं तत्कथं सम्यक्श्रद्धादीनां केवलानां मुक्त्युपायत्वमुच्यते अतएव हि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षसाधनमित्यनुक्त्वा मोक्षमार्ग इत्युमास्वातिवाचकमुख्यैः सूत्रितम्, व्याख्यातश्च भाष्यटीकाकृद्भिस्समस्तप्रत्यपायवियुतः पाटलिपुत्रगामिमार्गवदेष त्रिविधः पन्था इति तन्न युक्तम् , एतानि समस्तानि मोक्षसाधनानीति 15 मोक्षमार्गपदस्य स्वयमेव सूत्रकृद्भिर्व्याख्यातत्वात् । साधनत्वातिरिक्तस्य मार्गपदार्थस्य वक्तुमशक्यत्वाच्च , न च क्षायिकसम्यग्दर्शनाद्यतिरिक्तदर्शनादीनां व्यवहितत्वेनान्यथासिद्धत्वान्न साधनत्वमिति वाच्यम् । व्यवहितस्यापि कारणत्वाक्षतेः, अन्यथा कृत्स्नकर्मक्षयस्यैव कारणत्वप्रसङ्गात् । विशेषेण सामान्यस्यान्यथा सिद्धत्वासंभवाच्च, नहि नीलदण्डेन दण्डस्यान्यथासिद्धत्वं कस्यापि सम्मतम् । न च कृत्स्नकर्मक्षय एव मोक्षस्तं प्रति क्षायिकसम्यक्त्वादीनाम- 20 व्यवहितत्वेन कारणत्वं, तदितरेषान्तु व्यवहितत्वेन मार्गत्वमेवेति वाच्यम् । तस्यात्मस्वभावरूपत्वेन स्थानत्वाभावात्सम्यग्दर्शनादीनां तं प्रति मार्गत्वेन रूपणाऽसम्भवात् । अत एव च भाष्यटीकाकृद्भिः कर्मक्षयलक्षणमोक्षपदार्थमुक्त्वाप्यथवेति कल्पान्तरावलम्बनेनेषत्प्राग्भागधरणी मोक्षशब्देनाभिधातुमिष्टेत्युक्तमिति दिक् ॥ ____ननु सम्यक्श्रद्धासंविच्चरणेषु त्रित्वावच्छेदेन कारणत्वोक्तावपि समुदायिनामज्ञाने समुदा- 25 यज्ञानाभावेन तत्र कारणताया बोधासम्भवात्तत्प्रतिपत्त्यर्थं यथोद्देशं सम्यक्श्रद्धां लक्षयति तत्त्वेष्वास्था सम्यश्रद्धा ॥ तत्त्वेष्विति । तत्त्वेषु जीवादिषु आस्था-अभिरुचिः सम्यक्श्रद्धेत्यर्थः । आस्था च Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे पौरुषेयो जीवस्य शक्तिविशेषो यामासाद्यायं सम्यग्दर्शनीत्युच्यते । नतु सम्यक्त्वमोहनीयकर्मपुद्गलद्रव्यं, आत्मपरिणामविशेषस्यैव मोक्षकारणत्वेन विवक्षितत्वात् । तत्रापनीतमिथ्यास्वभावसम्यक्त्वपुञ्जगतपुद्गलवेदनस्वरूपं क्षायोपशमिकं पौद्गलिकं सम्यक्त्वम् , केवलजीवपरि णामरूपं पुञ्जत्रयस्य सर्वथा क्षयादुपशमाच जातं क्षायिकमौपशमिकञ्चापौद्गलिकम् ॥ 5 तथा नैश्चयिकव्यावहारिकभेदेन सम्यक्त्वं द्विविधम् , तत्र यद्देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति यथावत्संयमानुष्ठानरूपमविकलं मुनिवृत्तं तन्नैश्चयिकं सम्यक्त्वम्, व्यावहारिक तु न केवलं उपशमादिलिङ्गगम्यश्शुभात्मपरिणामः, किन्तु सम्यक्त्वहेतुरपि अर्हच्छासनप्रीत्यादिः । तदपि पारम्पर्येण शुद्धचेतसामपवर्गहेतुर्भवति, एवं त्रिचतुःपञ्चदशविधमपि तद्भवतीति बोध्यम् ॥ न च सम्यग्दर्शनं विहाय सम्यक्श्रद्धा कथमुक्तेति वाच्यम् । तथो10 क्तावपि श्रद्धाया एवाभिप्रेतत्वात् । न च तत्त्वपदेन न जीवादीनां ग्रहणं भाववाचित्वा दिति वाच्यम् , भावस्य तदभिन्नत्वेनाध्यारोपाद् यथा ज्ञानमेवात्मेति । न च तद्यथेष्वास्थे. त्येवोच्यतामिति वाच्यं तत्त्वग्रहणमन्तरेण मिथ्यावादिप्रणीतेषु सर्वार्थेषु श्रद्धाया सम्य श्रद्धात्वापत्तेः । तथा च तत्त्वाव्यभिचारिण्यभिरुचिः सम्यक्श्रद्धेति फलितार्थः । न चाभिरुचिरभिलाषा, सा चात्मनो बहुश्रुतत्वप्रख्यापनार्थमधीताईतदर्शनेषु मिथ्यादृष्टिष्व15 प्यस्तीति वाच्यं, आत्मनः पौरुषेयशक्तिविशेषस्यैवाभिरुचिपदेन विवक्षितत्वात् , अन्यथा लोभात्मिकाया अभिलाषाया क्षीणमोहकेवलिन्यभावेन तत्र सम्यक्त्वाभावप्रसङ्गात् , तस्याश्च शक्तेः यथार्हदागमं रागाद्यनुद्रेकात् संवेगात् विषयानभिष्वङ्गात् सर्वप्राणिषु कृपोदयादास्तिक्यबुद्धेश्चाभिव्यज्यमानत्वात् । इयञ्च शक्तिविशेषलक्षणाभिरुचिरान्तरश्रद्धेत्युच्यते, तदुपकारितया तत्प्ररूपणप्रवणसूत्रशब्दराशिरपि सम्यक्श्रद्धानमुच्यते, तदुत्पादोपकरणतया 20 च कर्मविशेषः सम्यक्त्वाख्यां लभते । इयं सर्वद्रव्यभावविषयाऽभिरुचिरूपा सम्यकश्रद्धै करूपापि परोपदेशापरोपदेशरूपबाह्यनिमित्तभेदतो द्वैविध्यमश्नुते, उभयविधायामपि तस्यां क्षयक्षयोपशमोपशमसास्वादनवेदकरूपनिमित्तभेदतश्च भेद आन्तरोऽवसेयः । तत्र परोपदेश उपलक्षकः, आगमप्रतिमादर्शनशिक्षानिमित्तादीनाम् , तथा च परसहकारेण तत्त्वाव्यभि चारिजीवादिपदार्थाभिरुचिरधिगमसम्यक्श्रद्धा, यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिकरणमात्रसहकारेण 25 तत्त्वाव्यभिचारिजीवादिपदार्थाभिरुचिनिसर्गसम्यक्श्रद्धेति च विज्ञेया ॥ ननु तत्त्वेष्वास्था सम्यक्श्रद्धेत्युक्तं, तत्र कानि तत्त्वानि, येष्वभिरुचिस्सम्यक्छ्रद्धा भवेत् कियन्ति च तानि, यतस्तदियत्ताज्ञानाभावात्सम्यक्श्रद्धाऽपूर्णा भवेदित्याशंकायामाह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमविन्यासहेतवः ] न्यायप्रकाशटीकायुते तत्र तत्त्वानि जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा नव । तत्रेति तच्छब्देन तत्त्वेष्वास्था सम्यक्श्रद्धति वाक्यस्य परामर्शः, ल्प्रत्ययार्थो घटकत्वम् , तथा च तत्त्वेष्वास्था सम्यश्रद्धेति वाक्यघटकानि तत्त्वानि जीवादिभेदेन नवेत्यर्थः । अत्र तत्त्वशब्दस्य जीवादिभावबोधकस्य सामानाधिकरण्यानुरोधेन जीवादिषूपचरितत्त्वेऽपि विना मत्वर्थप्रत्यययोगमजहल्लिङ्गत्वेन नपुंसकत्वं, जीवादिषु वर्तमानत्वादेव बहुवचनान्त- 5 त्वञ्च । भाववाचकत्वेऽपि वा धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदेन तद्बहुत्वप्रयुक्तं बहुवचनान्तत्वम् । जीवादिमोक्षान्तं यावन्द्वः, तत्र कालत्रयेऽपि जीवनाजीवः, तद्विपरीतोऽजीवः, पुनाति प्रीणयत्यात्मानमिति पुण्यं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यं सद्वेद्यादिकम् , तत्प्रतिद्वन्द्विरूपं पातिरक्षत्यात्मानं शुभपरिणामादिति पापमसद्वेद्यादिकम् , येन कर्मास्रवति, आस्रवणमात्रं वाऽऽस्रवः, येन संब्रियते संरुध्यते, संरोधनमानं वा संवरः, यया निर्जीयते निरस्यते, निरसनमानं वा 10 निर्जरा, येन बध्यतेऽस्वतंत्रीक्रियते, बंधनमात्रं वा बन्धः, येन मोक्ष्यतेऽस्यते मोक्षणमात्रं वा मोक्षः। एतेषां लक्षणप्रभेदादयश्चाग्रे वक्ष्यन्ते । ननु पुण्यादयो न जीवाजीवाभ्यां पृथग्भूताः, यतः पुण्यपापबन्धाश्रवा अजीवरूपाः, संवरो निवृत्तिरूपो जीवपरिणामः, निर्जरा कर्मपार्थक्यापादकजीवपरिणामः शक्तिरूपः । मोक्षोऽपि समस्तकर्मक्षयरूपः, स्थानविशेषप्राप्तिरूपः, स्वस्वरूपावस्थितिरूपो वा जीवपरिणामविशेष एव । नैते जीवाजीवाभ्यामर्थान्तरभूता इति 15 कथं जीवाजीवाभ्यां द्वैविध्यं परिहृत्य नवधा विभाग आहतः, मैवम् , जीवाजीवयोः परस्परोपश्लेषात्मकसंसारस्य प्रधानहेतूनां तदुपरमस्य वा परिज्ञानाभावे प्राप्यस्य मोक्षस्य परिज्ञानासम्भवेन तत्परिज्ञापनार्थं पृथगुपादानात् । सिद्ध्य सिद्धिभ्यां व्याघातेन पर्यनुयोगानुपपत्तेः । जीवाजीवाभ्यां हि पुण्यादीन्युपलभ्यार्थान्तरतया पर्यनुयोगेऽर्थान्तरत्वस्यात एव सिद्धत्वाद् व्याघातः, अनुपलभ्य पर्यनुयोगेऽनुपलम्भादेव पर्यनुयोगे व्याघात इति, पर्यायार्पणं गौणीकृत्य 20 द्रव्यार्पणप्राधान्येन जीवाजीवयोः कथञ्चिदन्तर्भावेऽपि द्रव्यार्पणं गौणीकृत्य पर्यायार्पणप्राधान्ये तत्र तेषामन्तर्भावासम्भवेन तदपेक्षया पृथगुपादानाच्च । नन्वस्तु तेषां पार्थक्यमेवंक्रमेण विन्यसने तु किं निबन्धनमिति चेदुच्यते, मोक्षशास्त्रं हीदम् , तथा क्रियमाणे मोक्षोपदेशे सावधिकमोक्षशब्दश्रवणाच्छोतुराशङ्का स्वभावत एव जागृयात् कस्य कस्मात् कथं मोक्ष इति, तदपनोदनाय जीवस्य बन्धात् संवरनिर्जराभ्यां मोक्ष इति वाच्यम् । तत्र केन कथं बन्ध इति 25 जागृतेऽनुयोगेऽजीवेनाऽऽस्रवद्वारा बन्ध इत्यभिधानीयम् । तत्र कियन्तोऽजीवाः किं सर्वैर्बन्ध इति पृच्छायां, पञ्चधाजीवाः, पुण्यपापात्मकपुद्गलविशेषैरेव बन्ध इति समाहिते सामान्यतो बन्धमोक्षकारणेषु हेयोपादेयत्वबुद्धिः सुलभतया स्यादतो मुक्त्याश्रयत्वेन प्राधान्याज्जीवस्य १. हैमशब्दानुशासने तु ( सप्तम्याः ७ । २ । ९४ ) इत्यनेन त्रप् । । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे ततस्तद्विरुद्धस्याजीवस्य ततो मुक्तिप्रतिद्वन्द्विबन्धकारणत्वेन पुण्यपापाश्रवाणां मुक्तिकारणत्वेन संवरनिर्जरयोस्ततो मुक्तिप्रतिद्वन्द्विनो बन्धस्य ततः परिशेषान्मोक्षस्य निर्देश इति क्रमविन्यासहेतवो बोध्याः । यद्वा जीवसंश्लिष्टकृत्स्नकर्मणां क्षयो हि मोक्षः, सोऽध्यात्मपरिणामविशेष एवेति प्राधान्याज्जीवस्य, कर्मणामजीवविशेषत्वेन तत्सामान्यज्ञानार्थमजीवस्य, पापात्मकस्यैव 5 कर्मणो विनाशे न मोक्षोऽपि तु पुण्यात्मकस्यापीति दर्शयितुमभ्यर्हितं पूर्वमितिन्यायेन च ततः पुण्यपापे, पुण्यपापयोः कथं संश्लेषः कथं वा विनाश इति शंकासमाधानाय तत आस्रवस्तत आगच्छत्कर्मनिरोधपूर्वकागतकर्मपरिशाटनस्य सुकरत्वात् संवरनिर्जरे, ततश्च प्रतियोगितया कर्मसंश्लेषरूपबन्धस्य ततः परिशिष्टस्य मोक्षस्य निर्देश इति क्रमे सम्बन्धो विज्ञेयः । ननु द्वन्द्वोत्तरबहुवचनादेव तद्भटकपदार्थमात्रवृत्तिसंख्याया बोधसम्भवेन नवत्वप्राप्तौ नवग्रहणं न 10 कर्त्तव्यमितिचेद्युक्तमेतत्तथापि प्राधान्येनैकैकस्मिन् तत्त्वस्य प्रख्यापनाय तद्ब्रहणमन्यथा समुदाय एव तत्त्वप्राप्तिशङ्का स्यात्। आनुकूल्यप्रातिकूल्याभ्यामेतानि नवैव तत्त्वानि मोक्षोपयोगीनीति सूचयितुं वा तद्ग्रहणम् ॥ ननु पुण्यपापयोः कर्मलक्षणयोः पुद्गलात्मकतयाऽजीवेऽन्तर्भावसम्भवेन सप्तैव तत्त्वानीति चेन्मैवं, शुद्धपुद्गलानां पुण्यपापरूपत्वाभावात् किन्तु जीवेनाध्यव सायविशेषेण परिगृह्य कर्मत्वेन परिणमय्य चात्मसात्कृतानामेव, यावता न ते जीवेन परिगृह्यन्ते 15 तावन्तं कालं ते पुद्गला एव न कर्मरूपा, अपि तु कर्मप्रायोग्या इति सूचयितुं पृथगुल्लेखात्॥ अथ सम्यक्छद्धाविषयीभूततत्त्वानामवान्तरप्रभेदानां बहुत्वात्तेषां सौलभ्येन बोधार्थ तत्तत्तत्त्वनिरूपणावसरे तद्भेदाननुक्त्वाऽत्रैव सामान्यतोऽवान्तरवस्तुनिर्देशात्मकमुद्देशमारचयति जीवा अनन्ताः । जीवा इति । यद्यपि जीवानां सङ्ग्रहप्रकार भेदा अग्रे वक्ष्यन्ते तथापि तेषां संख्याया 20 इयत्ता नास्ति न भवन्त्यसंख्याता अपीत्यभिप्रायेणानन्ता इत्युक्तम् ॥ अथाजीवान विभजते __ धर्माधर्माकाशकालपुद्गलाः पश्चाजीवाः । धर्माधर्मेति । धर्मादयस्वप्रवचनप्रसिद्धा रूढसंज्ञा ज्ञेयाः, यद्वा स्वतो गतिक्रियापरिणतानां साचिव्याधानाद्धर्मः । तद्विपरीतोऽधर्मः । यस्मिन्नाकाशन्ते स्वैः स्वैः पर्यायैर्द्रव्याणी25 त्याकाशं, स्वयं वाऽऽसमन्तात्काशत इत्याकाशं, परेषामवकाशदानाद्वाऽऽकाशं, मूर्तीनामुप चयानपचयांश्च कलयति प्रकाशयतीति कालः, पूरणगलनक्रियावत्त्वात् पुद्गला इति क्रियानिमित्तास्संज्ञा बोध्याः, एषां द्वन्द्व इतरेतरयोगलक्षणः, न समाहारस्समुदायस्य प्राधान्यापत्तेः। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधर्म्यनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते प्रशस्ताभिधानाद्धर्मस्यादौ मोक्षपूर्गमनोपकारित्वाद्वा, तत्प्रतिपक्षित्वे सति स्थितिकारणत्वादधर्मस्य तदनन्तरं ततस्ताभ्यां परिच्छेद्यत्वात् सर्वाधारत्वाश्चाकाशस्य, एभिरमूर्त्तत्वेन साधर्म्यात्ततः कालस्य, तन्निमित्तकनानापरिणामवत्त्वादमूर्त्तप्रतिपक्षित्वाच्च ततः पुद्गलस्य ग्रहणं बोध्यम् | न्यूनाधिक संख्याव्यवच्छेदार्थं प्रत्येकमजीवत्वद्योतनार्थं, धर्मादयो गत्याद्युपग्रहान् प्रति वर्त्तमानास्स्वयमेव तथा परिणमन्ते न परप्रत्ययाधीना तेषां प्रवृत्तिरिति स्वातन्त्र्यं 5 प्रकटयितुं च पञ्चेत्युक्तम् । अजीवा इति । न जीवा अजीवाः, ' नत्रयुक्तमिवयुक्तश्च पदमन्यसदृशाधिकरणे वर्त्तत ' इति न्यायेन भावान्तर एवाजीवशब्दो नाभावमात्रे वर्त्तते, यथाश्वशब्दो गर्दभे वर्त्तते । भावान्तरानात्मकस्याभावमात्रस्याप्रसिद्धत्वाच्च ॥ : १३ : नन्वनश्वशब्दस्य गर्दभे स्थितिर्युक्ता, जीवत्वसदृशो दरैकशफादिलक्षणसादृश्यसत्त्वाद् ह्रस्वकर्णादितुरगविशेषलक्षणापेक्षया च प्रतिषेधात् । धर्मादौ तु तथाविधसादृश्याभावाज्जीवासाधारणचैतन्यशून्यत्वमात्रेऽजीवशब्दो वर्त्तत इत्याशंकायां साधर्म्यधर्मप्रतिपादनद्वारा सामान्यविशेषात्मकत्वमपि जीवादीनां प्रदर्शयितुमाह- 10 जीवेन सहैतान्येव षड् द्रव्याणि । 'जीवेनेति । तथा चैषामस्ति सादृश्यं, जीवेन सह द्रव्यत्वं हि सर्वेषां समानो धर्मः, न चात्र द्रव्यत्वमपि प्रतिषेध्यम्, तथा सति गगनकुसुमायमानत्वं धर्मादीनां स्यात् न चैतदिष्टं, 15 जीवासाधारणधर्मप्रतिषेधस्यैवाभिमतत्वात्, तथा च जीवादीनां द्रव्यमिति सामान्यसंज्ञा, विशेषसंज्ञा च जीवो धर्मोऽधर्म इत्यादिरूपेति भावः । एतानीति, धर्मादय इति भावः, विधेयप्राधान्यात्पुद्गलशब्दस्य त्रिलिङ्गत्वाद्वा नपुंसकनिर्देशः । एवशब्दो भिन्नक्रमो द्रव्येयत्ताबोधकषट्पदेन सम्बद्ध्यते, तथा चैतानि षडेवेत्यर्थः । एतानि षडेव किमात्मकानीत्यत आह द्रव्याणीति । बाह्याभ्यन्तरनिमित्तकोत्पादविगमैः स्वपर्यायैर्द्रयन्ते गम्यन्ते तांस्तान् पर्यायान् 20 वा द्रवन्ति गच्छन्तीति द्रव्याणि, बाह्यं निमित्तं द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणं, आभ्यन्तरन स्वपरिणामविशेषः, तावेतौ मिलित्वोत्पादविगमयोर्हेतू भवतः नत्वन्यतरापाये, तथा चैतानि पर्यायद्रवणाद्द्रव्याणि न तु द्रव्यत्वसम्बन्धात्, द्रव्यत्वसम्बन्धात्पूर्वमेषामद्रव्यत्वापत्तेः, न हि दण्डसम्बन्धात् प्राग् देवदत्तो दण्ड्यासीत् । किन्तु यदा दण्डसम्बन्धस्तदैव । न च तथा प्रकृते द्रव्यताऽभिमता प्राग्द्रव्यत्वसम्बन्धात्, अभिमतत्वे वा तत्सम्बन्धाऽऽनर्थक्यमेव । 25 यद्वा जातिः शब्दार्थ इत्यभ्युपगन्तृद्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेण द्रव्यत्वनिमित्ता द्रव्यसंज्ञैतेषां भवतु, तच्च द्रव्यत्वं वस्तुतः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नमिति न कोऽपि दोषः । एवशब्दस्य द्रव्याणीत्यनेनापि सम्बन्धः, तथा च जीवादीनि षट् द्रव्याण्येवेत्यपि लाभेन धर्मादिषु द्रव्यत्वा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे योगस्य व्यावृत्तिरिति । एतेन च जीवादीनां द्रव्यत्वं सामान्यविशेषात्मकत्वमुत्पादव्ययधौव्यात्मकत्वं गुणपर्यायवत्त्वं तत्त्वञ्च साधयं लभ्यत इति भावः ॥ ननु षडिति पदेनैवकारं संयोज्य षडेव द्रव्याणीत्युक्तम् , तन्न युक्तं नैयायिकादिभिः पृथिवीजलतेजोवायुदिङ्मनसां द्रव्यतया गुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावानाञ्च पदार्थ5 तयाऽभ्युपगतानां सत्त्वादित्याशङ्कायामाह दर्शनान्तराभिमतपदार्थानामत्रैवान्तर्भावः । दर्शनान्तराभिमतेति। नैयायिकादीनां दर्शनान्तरेषु तैरभ्युपगतानां पृथिव्यादिपदार्थानां षट्स्वेतेष्वेवान्तर्भाव इत्यर्थः, तथाहि पुद्गला विचित्रशक्तिमन्तस्तथा च शक्तिवैचित्र्येण परिणामवैचित्र्यात्पृथिवीजलतेजोवायुरूपेण परिणमन्त इति सर्वथा तेषां विभिन्नजातीयत्त्वे 10 मानाभाव एव, तथा दिगपि नास्त्यतिरिक्ता रुचकप्रदेशावधिकविशिष्टाकाशप्रदेशैः सूर्योदया द्याश्रयेणाकाशप्रदेशैर्वा प्राच्यादिव्यवहारोपपत्तेः । द्रव्यमनसोऽपि चक्षुरादिवत्पुद्गलविशेषात्मकत्वमेव । अथ गुणादीनपि पराभ्युपगतानन्तर्भावयति ___गुणपर्यायसामान्यविशेषादयष्षद्वेव सङ्गच्छन्ते । गुणेति। गुणो रूपादिः। पर्यायः कर्म क्रमभावित्वात् । आदिना समवायाभावयोH15 हणम् । तथा च गुणकर्मसामान्यानि द्रव्यस्य पर्याया एव । विशेषस्त्वप्रामाणिक एव । समवायस्तु नास्त्येव, कथश्चित्तादात्म्यलक्षणसम्बन्धेनैव गुणादिविशिष्टबुद्धथुपपत्तेः । अभावोऽपि नाधिकरणाद्रव्यात् सर्वथा भिन्नः, तादृशे प्रमाणाभावात् , एवश्च षडेव द्रव्याणि नाधिकानि नवा न्यूनानीति भावः ।। नन्वेवमपि षडेव द्रव्याणीत्यनुपपन्नं तेभ्यो भिन्नानां पुण्यपापादीनां सत्त्वात् , उक्तं हि पूर्व 20 'तत्र तत्वानि जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा नवे' ति इत्याशङ्कायामाह . पुण्यादितत्त्वानामप्ययमेव न्यायः। पुण्यादितत्वानामपीति । अयमेव न्याय इति, उक्तदिशा षट्सु द्रव्येष्वेवान्तर्भावः करणीय इति भावः, पंक्तिरेषा व्याख्यातप्रायैव । स्वयं मूलकारोऽन्तर्भावमभिधत्ते तत्र पुण्यपापाश्रवबन्धानां पुद्गलपरिणामत्वात्पुद्गलेषु, संवरनिर्जरामोक्षाणां जीवपरिणामत्त्वाजीवेष्वन्तर्भावः । 25 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधर्म्यनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते तत्रेति । आस्रवो हि नैकरूपः किन्तु कर्मप्रापकक्रियाविशेषोऽध्यवसायविशेषो वा स्यात् तत्र मूर्तस्यैवात्मनः क्रियावत्त्वात्क्रियाया मूर्तात्मकपुद्गलरूपत्वं, तक्रियाप्रयोजकाध्यवसायविशेषत्वे तु जीवपरिणामात्मकतया जीवात्मकत्वं, बन्धस्योपश्लिष्टकर्मरूपत्वात्पौद्गलिकत्वमिति भावः ॥ अथ कालं विहाय पञ्चानां साधर्म्यमाह कालं विहाय पञ्चास्तिकाया भवन्ति । . कालमिति । अनागस्यानुत्पत्तेरुत्पन्नस्य च नाशात्प्रदेशप्रचयाभावेन कालेऽस्तिकायता नास्तीत्यभिप्रायेणाह कालं विहायेति । कायो हि समुदायः, मनुष्यलोकव्यापी कालस्त्वेकसमयात्मकत्वेनैकोऽतो न तस्य कायरूपत्वमिति भावः। पञ्चेति, जीवधर्माधर्माकाशपुद्गला इत्यर्थः । अस्तिकाया इति, सकलजीवादिद्रव्यध्रौव्यप्रतिपादकोऽव्ययोऽस्तिशब्दः । आपत्ति- 10 वाचकः कायशब्दः, आपत्तिर्नामाविर्भावतिरोभावौ, उत्पादविनाशाविति यावत् । एवञ्चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मका इत्यर्थः । ननु पुद्गलानामुत्पादव्ययवत्त्वसंभवेऽपि जीवादीनां कथं तदिति चेन्न जीवस्योत्पादविनाशिशरीरसम्बन्धादुत्पादविनाशवत्वात् अनित्यज्ञानादिमत्त्वाद्वा, धर्मादीनामपि तत्तद्गत्याद्युपग्रहव्यापाराणां जिगमिषुचैत्रादिनिमित्तत आविर्भूतानां समुपरतगत्यादिव्यापारे च चैत्रादिके तिरोहितानाञ्च सम्बन्धेनोत्पादविनाशवत्त्वात् । न च मनुष्य- 15 लोकान्तर्वर्तिनः कालस्यैकसमयात्मकत्वात्परमसूक्ष्मत्वानिर्विभागत्वाञ्च न कायता, अत एव नोत्पादविनाशित्वं, उत्पादविनाशाविनाभूतञ्च ध्रौव्यं तदभावात् ध्रौव्यमपि न भवेदेवेति समयात्मकः कालो वन्ध्यापुत्रवदसन्नेव स्यादिति वाच्यम्, यत्कायशब्देनोच्यते तदेवोत्पादविनाशवदिति नियमाभावात् । किन्तु स्वरससिद्धयोरेवोत्पादविनाशयोः कायशब्देन प्रकाशनात् । नहि शब्दसामर्थ्यादभूतयोरपि तयोः कल्पना समुचिता, तथा च कायशब्दप्रयोगा- 20 भावेऽपि स्वारसिकोत्पादविनाशौ तत्सहचरितं ध्रौव्यञ्च कालेऽप्यस्त्येवेति न दोषः । न चैवमपि कुतो न काले कायशब्दः प्रयुज्यत इति वाच्यम् । प्रदेशानामवयवानां वा बहुत्वाभावात् । अभ्यन्तरीकृतेवार्थो हि कायशब्दः, काया इव काया इति, यथौदारिकादिशरीरनामकोंदयवशात्पुद्गलैश्चीयन्ते इति कायाः तथा धर्मादीनामनादिपारिणामिकप्रदेशचयनात् कायत्वम् । तथा च प्रचीयमानाकारत्वं कायशब्दार्थः, स च समुदायरूपः, सोऽपि विभागे सति भवति, 25 विभक्ताश्च धर्मादिद्रव्यप्रदेशाः, एकस्मिन्धर्मादिप्रदेशेऽपरस्य धर्मादिप्रदेशस्याप्रतिष्ठितत्वात् । तथा प्रविभक्तप्रदेशानां परस्पराविच्छेदरूपत्वात्समुदायरूपत्वमेतादृशश्च प्रचीयमानाकारत्वं काले नास्तीति दिक्। एवञ्च कालातिरिक्तानां प्रदेशावयवबहुत्वं साधयं फलितं, न चैकस्मिन् Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६ : तस्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे परमाणौ अवयवबहुत्वमव्याप्तमिति वाच्यम् प्रदेशावयवबहुत्व समानाधिकरणद्रव्यत्वव्याप्यधर्मवत्त्वस्य तदर्थत्वात् तादृशो धर्मः पुद्गलत्वं परमाणवपीति नाव्याप्तिः, कालेऽतिव्याप्तिवारणाय बहुत्वान्तम् । पर्यायार्थिकनयप्राधान्येनायमर्थ आहतः, वस्तुतस्तु तस्य द्रव्यावयवैर्निरवयवत्वेऽपि ' एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शश्चाणुर्भवतीति स्वशास्त्रप्रसिद्ध्या भावावयवैस्सावयवत्वमक्षतमेव । एवं जीवादीनां पञ्चानां अरूपित्वममूर्त्तत्वं, धर्मादिचतुर्णामेकद्रव्यत्वं निष्क्रियत्वं जीवादीनां त्रयाणां लोकाकाशस्य चासंख्येयप्रदेशत्वं संख्ये या संख्ये यानन्तान्यतमप्रदेशत्वं पुद्गलानां, जीवपुद्गलानान्त्वनेकद्रव्यत्वं क्रियावत्त्वं च साधर्म्यं विज्ञेयमिति दिकू ॥ अथ पुण्यस्य प्रभेदानाह— 5 पुण्यस्य तु सातोच्चैर्गोत्रमनुष्यद्विक सुरद्विकपञ्चेन्द्रियजातिपञ्चदेहा10 दिमन्त्रितनूपाङ्गादिम संहननसंस्थान प्रशस्तवर्णचतुष्कागुरुलघुपराघातोच्छूवासातपोद्योत शुभखगतिनिर्माणत्रसदशकसुरनरतिर्यगायुस्तीर्थकर नामकर्मरूपेण द्विचत्वारिंशद्भेदाः । पुण्यस्येति । शारीरमानसानेकविधसुखपरिणामप्रापकं सातं वेदनीयकर्मोत्तरप्रकृतीदम्, लोकपूजितकुलप्रसवनिदानं कर्मोच्चैर्गोत्रं गोत्रकर्मोत्तरभेदः, मनुष्यद्विकं मनुष्यगतिमनुष्या15 नुपूर्वी रूपमेवमेव सुरद्विकमपि । अयमात्मा पञ्चेन्द्रिय इति व्यवहारनिमित्तं कर्म पञ्चेन्द्रियजातिः । पञ्चदेहा औदारिकवैक्रियाहार कतैजसकार्मणरूपाः । आदिमानां तिसृणामौदारिकवैक्रियाहारकाणां तनूनामङ्गोपाङ्गानि शिरःप्रभृतीन्यङ्गुल्यादीनि च तन्निर्वर्तक कर्माण्यादिमन्त्रितनूपाङ्गानि | आदिम संहननसंस्थाने, अस्थिबन्धनविशेषप्रयोजकं कर्म संहननं, आदिम संहननं वज्रर्षभनाराचसंज्ञं, शरीराकृतिनिर्वृत्तिप्रयोजककर्म संस्थानं, आदिमसंस्थानं समचतुरस्रनामे - 20 त्यर्थः । प्रशस्तवर्णचतुष्कं शुक्लरक्तपीताः प्रशस्तवर्णाः, प्रशस्तो गन्धरसुरभिः, कषायाम्लमधुराः प्रशस्तरसाः, मृदुलघुस्निग्धोष्णाः प्रशस्तस्पर्शा एषां लाभप्रयोजकानि कर्माणि चत्वारि प्रशस्तवर्णचतुष्कपदग्राह्याणि । शरीराणामगुरुलघुत्वपरिणामनियामकं कर्मा गुरुलघु । परत्रासादिजनकं कर्म पराघातं, उच्छ्वसनप्राप्तिहेतुरुच्छ्वासः । उष्णप्रकाशप्रापकं कर्मातपं, अनुष्णप्रकाशप्रापकं कर्मोद्योतं, शुभान्तरिक्षगमनहेतुः कर्म शुभखगतिः, अङ्गोपाङ्गादिप्रतिनियत25 स्थानवृत्तिताप्रयोजकं कर्म निर्माणं, त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसौभाग्यसुस्वरादेययश:कीर्तिरूपाणि दश कर्माणि त्रसदशकपदप्राह्माणि सुराश्च नराश्च तिर्यञ्चश्च सुरनर तिर्यश्वस्तेघामायूंषि, तत्प्रयोजककर्माण्यत्र सुरनरतिर्यगायूंषि । धर्म तीर्थप्रवर्त्तयितृपदप्रापकं कर्म तीर्थकर - नाम, एषां द्वन्द्वस्तत: कर्मपदेन कर्मधारयः, तादृशकर्माणि रूपं स्वरूपं यस्य पुण्यस्य तत्ता - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापप्रभेदाः ] भ्यायप्रकाशसमलङ्कते शकर्मरूपं तेन पुण्यस्य द्विचत्वारिंशद्भेदात्मकत्वमिति भावः ॥ तत्र सातोच्चैर्गोत्रवर्जानि सुरनरतिर्यगायुर्वर्जानि च शेषाणि कर्माणि नामप्रकृतयः, सातोच्चैर्गोत्रे वेदनीयगोत्रकर्मणोरुत्तरप्रकृती, सुरनरतिर्यगायूंषि आयुषः प्रकृतयो बोध्याः ।। एतर्हि पापस्य प्रभेदानाह ज्ञानान्तरायदशकदर्शनावरणीयनवकनीचैर्गोत्रासातमिथ्यात्वस्थाव. 5 रदशकनिरयत्रिककषायपञ्चविंशतितिर्यग्द्विकैकद्वित्रिचतुर्जातिकुखगत्युपघाताप्रशस्तवर्णचतुष्काप्रथमसंहननसंस्थानभेदात् द्वयशीतिविधं पापम्॥ ज्ञानान्तरायेति । ज्ञानानि चान्तरायाश्च ज्ञानान्तरायास्तेषां दशकं, ज्ञानानि विशेषविषयबोधात्मकानि मत्यादिरूपतः पञ्चविधानि, कर्मप्रस्तावाज्ज्ञानपदेन तदावरणानां ग्रहणं, तथा च पञ्चविधानि ज्ञानावरणानि, दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां प्रत्यूहविधायकानि पञ्चा- 10 न्तरायकर्माणि, तस्माद्दशविधत्वं बोध्यम् । दर्शनावरणीयनवकं, दर्शनं सामान्योपलम्भः, तस्यावरणमावारकं, तच्च द्विविधं दर्शनलब्धेर्दर्शनोपयोगस्य चावरणभेदात् , तत्राद्यं चतुर्विधं चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणभेदात् द्वितीयन्तु पञ्चविधं निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिरूपेण, उभयमपि मिलित्वा दर्शनावरणीयनवकमुच्यते । नीचैर्गोत्रं गर्हितकुलप्रभवप्रयोजकं कर्म, असातं विशिष्टदुःखप्रयोजकं कर्म, तत्त्वार्थश्रद्धानविपर्ययप्रयोजकं कर्म मिथ्यात्वं । स्थावर 15 दशकं स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणास्थिराशुभदुर्भगदुस्स्वरानादेयायशःकीर्तिप्रयोजककात्मकं, निरयत्रिकं नरकगतिनरकायुर्नरकानुपूर्वीप्रयोजककर्मलक्षणं, कषायपश्चविंशतिः, क्रोधमानमायालोभाः कषायास्ते प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनप्रभेदतष्षोडशविधाः । हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सापुरुषवेदस्तीवेदनपुंसकवेदभेदतो नव नोकषाया ईषत्कपायरूपत्वेनोभयसंमेलनतः कषायाणां पञ्चविंशतिर्भवति । तिर्यग्द्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी- 20 प्रयोजककर्मद्वयं, एकद्वित्रिचतुर्जातयः-एकेन्द्रियजातिद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिरूपाः, कुखगतिः कुत्सिताम्बरगमनप्रयोजकं कर्म, उपघातं स्वावयवैस्स्वपीडाप्रयोजकं कर्म, अप्रशस्तवर्णचतुष्कं नीलकृष्णावप्रशस्तवर्णी, दुरभिरप्रशस्तगन्धः, तिक्तकटू अप्रशस्तरसौ, कठिनगुरुरूक्षशीता अप्रशस्तस्पर्शाः, एषामुदयप्रयोजककर्मचतुष्टयं, अप्रथमसंहननसंस्थानानि ऋषभनाराचनाराचार्धनाराचकीलिकासेवार्तलक्षणबन्धविशेषप्रयोजककर्माण्य- 25 प्रथमसंहननानि, न्यग्रोधपरिमण्डलसादिकुब्जवामनहुण्डनिदानकर्माण्यप्रथमसंस्थानानि । एषां द्वन्द्वस्ततस्तान्येव भेदस्तस्मादिति समासः। तत्र ज्ञानारणीयपञ्चकं ज्ञानावरणीयस्यान्त Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [प्रथमकिरणे रायपञ्चकमन्तरायस्य, दर्शनावरणीयनवकं दर्शनावरणीयस्य, मिथ्यात्वकषायपञ्चविंशतिरूपाः षड्विंशतिविधा मोहनीयस्य प्रकृतयः । नरकायुरायुषो नीचैर्गोत्रं गोत्रस्यासातं वेदनीयस्य प्रकृतिः । शेषाणि नरकगत्यानुपूर्वी तिर्यग्गत्यानुपूर्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्यप्रथमसंहननप ञ्चकाप्रथमसंस्थानपञ्चकाप्रशस्तवर्णचतुष्कोपघातकुखगतिस्थावरदशकानि चतुर्विंशनामप्रकृ5 तयो विज्ञेयाः॥ साम्प्रतमाश्रवं विभजते आश्रवस्तु इन्द्रियपश्चककषायचतुष्काव्रतपञ्चकयोगत्रिकक्रियापञ्चविंशतिभेदात् द्वाचत्वारिंशद्विधः। आश्रवस्त्विति । कायवाङ्मनसां क्रियाविशेषो योगापरपर्याय आत्मकायाद्याश्रय 10 आश्रव उच्यते, स च यद्यपि सकषायस्याकषायस्य च भवति तथाप्यत्र सकषायस्यैवाश्रवं विभजते, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपमिन्द्रियपञ्चकं, क्रोधमानमायालोभरूपं कषायचतुष्कं, हिंसाऽसत्यस्तेयाब्रह्मपरिग्रहरूपमव्रतपञ्चकं, कायवाङ्मनोरूपं योगत्रिकं, कायिक्यधिकरणिकी प्रादोषिकीपारितापनिकीप्राणातिपातिक्यारंभिकीपारिग्रहिकीमायाप्रत्ययिकीमिथ्यादर्शनप्रत्ययि क्यप्रत्याख्यानिकीदृष्टिकीस्पृष्टिकीपातीत्यकीसामन्तोपनिपातिकीनैःशस्त्रिकीस्वाहस्तिक्याज्ञाप15 निकीविदारणिक्यनाभोगप्रत्ययिक्यनवकांक्षप्रत्ययिकीप्रायोगिकीसामुदायिकीप्रेमप्रत्ययिकीद्वेष प्रत्ययिकीर्यापथिकीरूपाः क्रियापञ्चविंशतिः, एषां द्वन्द्व एता एव भेदो विशेषस्तस्मादित्यर्थः । यद्यपि योगेन्द्रियकषायावतानां सकषायसम्बन्धिनां क्रियास्वभावानतिवृत्तेः क्रियामात्रमेवास्रवः प्रसक्तस्तथापि तेषां द्रव्यास्रवत्वं शुभाशुभानवपरिणामाभिमुखत्वात् , भावास्रवस्तु कर्मादानं, तच्च पञ्चविंशतिक्रियाभिरिति तेषां पृथग्ग्रहणं, तत्रावतपञ्चकं सकलास्रवजालमूलं, 20 तत्प्रवृत्तावेवास्रवेषु प्रवृत्तिस्तन्निवृत्तौ च सर्वास्रवेभ्यो निवृत्तिः, अत्र कषायचतुष्कं सहकारि, उभयोरनयोः सत्त्वे इन्द्रियपञ्चकमास्रवेषु प्रवर्त्तते तदनन्तरञ्च पञ्चविंशतिक्रिया आस्रवकारणिकाः प्रवर्त्तन्ते, सर्वत्र च कायवाङ्मनोयोगस्सहकारी भवति । तथा च क्रियापञ्चविंशतिः नैमित्तिकी, इतराणि तु निमित्तानि यथा स्पर्शनेन्द्रिय कारणं स्पर्शनक्रिया कार्य तस्मिन् सति स्पृष्टिकी क्रिया, मूर्छा कारणं परिग्रहः कार्य तस्मिन् सति पारिग्रहिकी 25 क्रिया, क्रोधः कारणं प्रदोषः कार्य तस्मिन् सति प्रादोषिकी क्रिया, मानः कारण मप्रणतिः कार्यं तस्मिन् सति प्रातीत्यकी किया, कारणं माया कार्य कौटिल्यं तस्मिन् सति मायाप्रत्ययिकी क्रिया, प्राणातिपातः कारणं कार्य प्राणातिपातिकी क्रिया इत्येवं यथासंभवं निमित्तनैमित्तिकभावो विज्ञेयः ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराविभागः ] न्यायप्रकाशतमलङ्कृते । : १९: इदानी संवरभेदानाहपश्चसमितित्रिगुप्तिद्वाविंशतिपरीषहदशयतिधर्मद्वादशभावना __ पञ्चचारित्रभेदात्संवरस्सप्तपञ्चाशद्विधः । पश्चेति । ईर्याभाषैषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्गरूपाः पञ्चसमितयः। कायवाङ्मनोनिग्रहात्मिकात्रिगुप्तयः । क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशावस्त्रारतिवनिताचर्यानषेधिकशय्याऽऽक्रोशवधयाच- 5 नाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारप्रज्ञाऽज्ञानसम्यक्त्वरूपा द्वाविंशतिपरीषहाः । क्षान्तिमार्दवाजवनिर्लोभतातपःसंयमसत्यशौचाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यरूपा दश यतिधर्माः । अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वाश्रवसंवरनिर्जरालोकस्वभावबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातरूपा द्वादश भावनाः। सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसंपराययथाख्यातरूपाणि पञ्च चारित्राणि, एषां द्वन्द्व एतान्येव भेदः प्रकारस्तस्मात् । संवरः पूर्वोदिताऽऽस्रवस्य निरोधः, शुभाशुभकर्मग्रह- 10 णहेत्वात्मपरिणामाभाव इति यावत् । अर्थोऽयं संवरणं संवर इति व्युत्पत्त्या विज्ञेयः । संत्रियते कर्मानेनेति व्युत्पत्या तु संवरस्समित्यादयः । समित्यादिभिर्हि कर्म संब्रियते, तथा च शुभाशुभकर्मादानाभावे समित्यादयः करणमिति तात्पर्यम् ।। अधुना निर्जरां विभजते बाह्याभ्यन्तरषट्करूपतपोभेदेन द्वादशप्रकारा निर्जरा। 15 बाह्येति । तपो हि द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरञ्चेति, तत्रानशनोनोदरिकावृत्तिसंक्षेपरसत्यागकायक्लेशसंलीनतारूपं षड्विधं बाह्यं तपः। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायध्यानोत्सर्गरूपञ्च षड्विधमाभ्यन्तरं मिलित्वा च द्वादशप्रकाराणि तपांसि, एतान्येव च निर्जराशब्दवाच्यानीति तस्या अपि द्वादशविधत्वं, यद्यपि बाह्याभ्यन्तररूपाणि तपांसि कर्मादानाभावास्मकसंवरकरणेष्वन्तर्गतानि, तस्मादेषामेव निर्जरात्वे संवरैकदेशो निर्जरेति स्यात्तथा च 20 संवरवन्नेदं प्रधानं तत्त्वमिति नवत्वव्याघातस्तथापि कर्मसंश्लिष्टेनात्मना कर्मादानान्निवृत्तेनेव संश्लिष्टकर्महीनेनापि भवितव्यमेवान्यथा बन्धविनिर्मुक्तिस्तस्य न भवेदेव, ततश्च संश्लिष्टकर्मप्रहाणमप्यावश्यकमतस्तदपि तत्त्वमेव, तदेव च निर्जरा तस्या उपायोऽवश्यं विधेयः, स चोपायस्तप एव, तस्य त्वागच्छत्कर्मनिरोधे संश्लिष्टकर्मप्रहाणे च सामर्थ्यादुभयाङ्गतया कीर्तनमिति न कोऽपि दोषः॥ . 25 सम्प्रति बन्धं विभजते १. अत्र कर्मव्युत्पत्त्या क्षुधादीनां परीषहत्वमुक्तमेतत्तत्वमग्रे वक्ष्यते । २. प्रधानतयेत्यादिः । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशभेदाच्चतुर्विधो बन्धः । प्रकृतीति । जीवप्रदेशकर्मपुद्गलानां क्षीरोदकवत्परस्पराश्लेषो बन्धः । बन्धनं बन्धोऽस्वतंत्रीकरणं, तच्चोभयोरपि पुद्गलात्मनोरिति क्रियाक्रियावतोः कथञ्चिदभेदात् ज्ञानदर्शनाव रणवेदनीयमोहनीयाऽऽयुष्कनामगोत्रान्तरायात्मकाष्टविधाः प्रकृतयो बन्धपदवाच्या भवन्ति । 5 अथवाऽष्टविधकर्मजन्यास्स्वभावाः प्रकृतयः, यथा ज्ञानावरणीयस्यार्थानवगमो, दर्शनावरणीयस्यार्थानालोचनं, वेदनीयस्य सुखदुःख संवेदनं, तत्त्वार्थाश्रद्धानासंयमौ मोहनीयस्य, भवधारणमायुषो नाम्नो नारकादिनामकरणं गोत्रस्य सदसत्कुलीनसंशब्दनं दानादिविघ्नकरणमन्तरायस्येति । एतासां ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीनामात्मप्रदेशेषु कालविभागेनावस्थान स्थितिबन्धः, तत्तत्प्रकृतिस्वभावादविच्युतिर्नियतकालमिति वा । नियतकालानां कर्मणां तीव्रमन्दादि10 भावेन विपाकवत्ता रसबन्धोऽनुभावबन्धापरनामा कर्मपुद्गलगतसामर्थ्य विशेषानुभवो वा। आत्मप्रदेशेषु कर्मपुद्गलद्रव्यपरिमाणनिरूपणं प्रदेशबन्धः, कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परमाणुपरिच्छेदेनावधारणं वेति चतुर्विधो बन्ध इति भावः ॥ अथ मोक्षं विभजतेमोक्षस्तु सत्पदप्ररूपणाद्रव्यप्रमाणक्षेत्रस्पर्शनाकालान्तरभाग भावाल्पबहुत्वैवविधः ॥ मोक्षस्त्विति । कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः, तत्र वस्तुतो यद्यपि तारतम्याभावेन तस्य प्रभेदा न संभवन्त्येव, तथापि तद्वतां सिद्धानामाश्रयेण व्याख्याप्रकारैस्सत्पदप्ररूपणादिभिर्भेदोऽवसेयः, मोक्षस्यात्मपरिणामतया परिणामपरिणामिनोः कथञ्चिदभेदादिति भावः ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधरश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरण20 नलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्यास्यायां तत्त्वोद्देशाख्यः प्रथमकिरणः समाप्तः।। __ अथ द्वितीयकिरणः ॥ ननु सर्वमिदं तदोपपद्यते जीवो नाम कश्चन पदार्थः प्रमाणपदं यद्यवतरेत् , यस्य मुक्तये तत्त्वोपदेशो भवेत् , तत्रैव च मानं न पश्यामः, लोके हि यदत्यन्तमप्रत्यक्षं तन्नास्त्येव यथा 25 गगनारविन्दं, यत्त्वस्ति तत्प्रत्यक्षेण गृह्यत एव यथा घटादिकं, न चायाति जीवः कदाचन १. क्रिया-अस्वतन्त्रीकरणरूपा, क्रियावान् जनकतया दर्शनावरणादिः । आश्रयतया चात्मा । यदि प्रकृतिशब्दस्य स्वभाववाचित्वं न ज्ञानावरणादिवाचित्वमित्युच्यते तदा त्वाहाथवेति ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवसिद्धिः ] न्यायप्रकाशसमलते प्रत्यक्षगोचरतां, ततो नास्त्यात्मा, न चासावनुमानगम्यः, लिङ्गलिङ्गिनोः कचिदध्यक्षतोऽविनाभावग्रहेणैवानुमानप्रवृत्तेः, न च लिङ्गिनाऽऽत्मना कस्यापि सिद्धोऽस्ति प्रत्यक्षेणाविनाभावो लिङ्गस्य, तथा सति जीवस्य प्रत्यक्षत एव सिद्धावनुमाननैरर्थक्यं स्यात् । न चादित्यो गतिमान देशान्तरप्राप्तेर्देवदत्तवदिति सामान्यतोदृष्टानुमानेनादृष्टाया अप्यादित्यस्य गतेरनुमानवदत्रापि जीवस्सिद्ध्यतीति वाच्यम् , दृष्टान्ते देवदत्तादौ सामान्यतो देशान्तरप्राप्तेर्गतिपूर्वकत्वमध्यक्षतो- 5 ऽवधायैव सूर्ये तत्साधनात्, न चात्र तथा क्वचिदपि दृष्टान्ते जीवसत्ताऽविनाभूतं साधनं किमपि प्रत्यक्षेण लक्ष्यते । न चाप्यागमगम्यस्सः, वस्तुतस्तस्यानुमानादभिन्नत्वात् , न च कस्यचित्प्रत्यक्षो जीवो यस्य वचनमागमः स्यात्प्रमाणश्च भवेत् । तथा च सर्वमिदं निरूपणमरण्यरुदितनिभमित्याशङ्कायां जीवासाधारणधर्मात्मकलक्षणप्रदर्शनद्वाराऽऽत्मानं साधयति- . तत्र चेतनालक्षणो जीवः । __10 तत्रेति । नवसु तत्त्वेषु मध्य इत्यर्थः । चेतना लक्षणमसाधारणो धर्मस्स्वरूपं वा यस्य सः, चेतनया लक्ष्यतेऽसाविति वा चेतनालक्षणः, अत्र जीव इति लक्ष्य, चेतनालक्षण इति लक्षणम् । चेतना-बुद्धिः-संवेदनं, सैषा जीवस्य पर्यायः, तदेव सामान्य लक्षणम् , जीवो लक्ष्यः । सर्वजीववर्तिनी चेयं चेतना, सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तेष्वपि सर्वजघन्या साऽस्त्येव, त्रैलोक्यवर्तिनां सर्वपुद्गलानां कर्मतया परिणतानामपि सर्वात्मना चेतनां समावरीतुं सामर्थ्या- 15 भावादतो न काऽप्यव्याप्तिः । न वाऽसम्भवोऽचेतन आत्मेति विरुद्धत्वादश्रावणश्शब्द इतिवत् । एवञ्च चेतनैवात्मनि प्रमाणं, सुखदुःखादयो हि यथाऽऽत्मसंवेदनसिद्धास्तथा संशयादिविज्ञानमपि स्वसंवेदनसिद्धमेव, यद्धि प्रत्यक्षं न तत्प्रमाणान्तरेण साध्यं भवति, न च सर्वे प्रत्यया निरालम्बनाः प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवदिति शून्यवादिनमनुमातारं प्रति प्रत्यक्षसिद्धमपि सग्रामनगरं विश्वं साध्यत एवेति वाच्यम् , तत्र बाधकप्रमाणस्यैव निराकरणात् , अन त्वात्म- 20 ग्राहके प्रत्यक्षे बाधकप्रमाणाभावात् । ज्ञातवानहं जानेऽहं ज्ञास्याम्यहमित्यादित्रैकालिककार्यव्यपदेशविषयाहम्प्रत्ययत आत्मनः प्रत्यक्षसिद्धत्वाच्च । न चाहम्प्रत्यय आनुमानिकोऽलैङ्गिकत्वात् । नाप्यागमादिप्रमाणसम्भवस्तदनभिज्ञानामपि तस्योत्पादात् । न चास्य देह एव विषयो मृतदेहेऽपि तदुत्पत्तिप्रसङ्गात् । नापि निराश्रयः अहमित्यादिज्ञानस्य गुणत्वेन गुणिनमन्तरेणासम्भवात् , न देहोऽत्र गुणी, मूर्त्तत्वाजडत्वाच्च ज्ञानस्य त्वमूर्त्तत्वाद् बोधरूपत्वाच्च । 25 न चाननुरूपाणां गुणगुणिभावो युज्यते, आकाशरूपादीनामपि तद्भावप्रसङ्गात् । तस्मादह १. कथञ्चिद्भदापेक्षयेदं, स्वरूपमिति तु कथञ्चिदभेदापेक्षया । तथा च लक्षणशब्दो भेदाभेदद्योतक इति भावः । तथा च जीवश्चैतन्यमेव चैतन्यमपि जीव एव परस्परेणाविनाभूतत्वादिति बोध्यम् ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे म्प्रत्ययग्राह्यत्वादात्मा प्रत्यक्ष एव । तदपलापेऽश्रावणः शब्द इतिवत्प्रत्यक्षविरुद्धः पक्षाभासः स्यात् । यथा च रूपादिगुणप्रत्यक्षाद् गुणी घटः प्रत्यक्षः तथा संशयस्मृतिजिज्ञासादिज्ञानविशेषाणां स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वाद्गुणी जीवोऽपि प्रत्यक्षसिद्ध एव । तथेन्द्रियमपि न विज्ञात, तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । अतः प्रत्यक्षोऽयमात्मा स्वदेहे । परदेहे पुन5 रिष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्सात्मकत्वमनुमेयम् । परशरीरं सात्मकं, इष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्ति दर्शनात्स्वशरीरवत् । तथाऽस्ति देहस्य विधाता, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् घटवद्, यत्पुनरकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति यथाऽभ्रं । मेर्वादौ व्यभिचारवारणायादिमदिति विशेषणम् । तथा इन्द्रियं साधिष्ठातृकं, करणत्वाद्दण्डादिवत् , देहादयस्सभोक्तका भोग्यत्वात् • वस्त्रादिवदित्यनुमानानि साधकानि बोध्यानि । न च विधात्रादिसाधकहेतूनां साध्यविरुद्ध10 साधकत्वं, घटादिकर्तृणां मूर्तिमत्त्वात्संघातरूपत्वादनित्यस्वभावत्वाच्च , सिषाधयिषितश्चैतद्विपरीतो जीव इति वाच्यम् , संसारिणो जीवस्यैव साधयितुमिष्टत्वेनादोषत्वात् , स हि अष्टविधकर्मपुद्गलसंघातोपगूढत्वात्सशरीरत्वाच्च कथंचिन्मूर्त्तत्वादिधर्मयुक्त एवेति दिक् ॥ नन्वस्तु जीवः प्रत्यक्षसिद्धस्तथापि चेतनालक्षणो जीव इति लक्षणं न सम्भवति, तथा सति हि चेतनास्वरूपं जीव इत्युक्तं स्यात् तच्च न संभवति चेतनाया गुणत्वाज्जीवस्य गुणित्वाच्च स्वरूपभेदात् तयोर्भेदे 15 तु जीवस्यैव चेतना गुणो न घटादेरित्यवधारणं न स्यात् , तयोश्चाभेदे य एव जीवस्सैव चेतना, यैव चेतना स एव जीव इति भेदनिबन्धनलक्ष्यलक्षणभावो न भवेदिति चेन्न तयोः कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नत्वेनोभयोपपत्तेः। ननु तथापि कथञ्चिद्भदेन चैतन्याश्रयो जीवो वर्त्तत इति न सङ्गच्छते सर्वभावानां क्षणिकत्वेन नित्यस्य चैतन्याश्रयस्यासिद्धेः। यद्धि सत् तत्क्षणिकं यथा घटः संश्च विवादाध्यासित इति, अत्र सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वं नहि संश्चार्थो न चार्थक्रियाकारीति 20 संभवति, तथा च ज्ञानान्येव सन्तन्यमानानि क्षणिकानि सन्ति न ततोऽन्यो नित्यस्तदाश्रयो जीवो नाम कश्चिदिति चेन्न घटादीनां कालान्तरस्थायित्वेन क्षणिकत्वस्यासिद्ध्या सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन व्याप्त्यसिद्धेः, न च घटादौ सामर्थ्यासामर्थ्यलक्षणविरुद्धधर्माध्यासान्न कालान्तरावस्थायित्वं, अन्यथा कालान्तरभाविजलाहरणादिकमिदानीमपि कुर्यान्न करोत्यतोऽसमर्थत्वेन पूर्वोत्तरकालयोनैको घट इति क्षणिकत्वं सिद्धमेवेति वाच्यम् , सामर्थ्यासामर्थ्यलक्षणविरुद्धध25 माध्यासासिद्धेः । इदानीं जलाहरणं कुर्वतो घटस्य कालान्तरीयजलाहरणं प्रत्यपि सामर्थ्यात्। " न च सति सामर्थ्य कार्यमवश्यं करणीयमित्यस्ति नियमो सहकारिलाभालाभप्रयुक्तत्वात् करणाकरणयोः । तस्मान्न क्षणिकत्वव्याप्तं सत्त्वं, किश्च नित्यात्मानभ्युपगमे क्षणिकत्वेन १. आत्मा न प्रत्यक्ष इत्यत्रेति भावः ॥ २. जोवोऽस्ति तद्गुणप्रत्यक्षत्वाद्धटवदिति प्रयोगोऽपि बोभ्यः ।। ३. अत एव च विरुद्धत्वम् । तत्र हेतुमाह घटादीति ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यायप्रकाशस ज्ञानात्मनोर्भेदाभेदः } :२३: ज्ञानानां स्मरणानुपपत्तिः, अन्यदृष्टस्यान्येनास्मरणात् , न च नानात्वेऽपि ज्ञानानां कार्यकारणभावेन स्मरणं युज्यत इति वाच्यम् , उपाध्यायानुभूते शिष्यस्य स्मरणप्रसङ्गात् , तज्ज्ञानानां कार्यकारणभावाविशेषात् , न च शरीरभेदाग्रहोऽपि नियामक इति वाच्यम् , एतज्जन्मनि जातिस्मरणेन प्राग्जन्मानुभूतानां स्मरणासंभवात् , प्राग्भवीयस्वज्ञानानां सर्वज्ञेनाप्रतिसंधानापत्तेश्च । कार्यकारणभावमात्रस्य स्मृतिहेतुत्वासंभवाच्च । कृतहान्यकृताभ्यागमप्रस 5 गाच्च, येन हि ज्ञानेन शुभाशुभं कर्माचरितं न तेन फलमुपभुज्यते येन तु न कृतं तेनोपभुज्यते चेति। शुभाशुभकर्मप्रवृत्त्यप्रवृत्तिप्रसङ्गेन पर लोकाद्यनुष्ठानासंभवाञ्च, न चैकज्ञानस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वाभावेऽपि तत्सन्तानस्य स्थिरैकरूपस्य ते भविष्यत एवेति वाच्यम् , सन्तानस्य विज्ञानानतिरेकात् , व्यतिरिक्तत्वेऽप्यचेतनत्वात् , व्यतिरिक्तचेतनत्वे तु जीवस्यैव नामान्तरेणाभ्युपगमप्रसङ्गात् , न च वासनासहकृतं ज्ञानमेव कर्तृ स्मर्तृ भोक्तृ च भवतीति किं तदति- 10 रिक्तसुखदुःखफलभोक्तृकल्पनयेति वाच्यम् , वासनाया अक्षणिकाया ज्ञानातिरिक्ताया त्वयानभ्युपगमात् , ज्ञानात् सुखदुःखयोरपि कारणस्नरूपफलभेदेनाभेदासम्भवाच्च । न खलु वनितारूपादिज्ञानोत्पत्तौ या सामग्री वनितादिरूपा सैव सुखदुःखयोरपि, किन्तु रागादिवासनाविशेषोऽपीति कारणभेदः, स्वपरप्रकाशकं ज्ञानं, अनुकूलप्रतिकूलवेदनीये च सुखदुःखे इति स्वरूपभेदः, प्रवृत्तिनिवृत्ती च ज्ञानस्य फलं, तृष्णावैमुख्यादिजननं सुखदुःखयोरिति फलभेदः। 15 तस्माज्ज्ञानभिन्नस्सुखदुःखादिफलभोक्ताऽतिरिक्त आत्मा सिद्ध इति ॥ ननु बुद्धिर्नात्मस्वरूपभूता तद्विरुद्धधर्माधिकरणत्वाद् घटपटादिवत् , न चासिद्धो हेतुर्बुद्धेरुत्पादविनाशधर्मकत्वात् , आत्मनश्चानुत्पादविनाशधर्मकत्वादिति चेन्न, विरुद्धधर्माधिकरणत्वेऽपि सर्वथा भेदासिद्धेः मेचकज्ञानवत् , तद्धि एकं, युगपदनेकपदार्थग्राहिशक्त्यात्मकं चातो विरुद्धधर्माध्यासः । न चानेकत्वधर्माधारा शक्तिरन्या, एकत्वधर्माधारञ्च तज्ज्ञानमन्यदिति वाच्यम् , अनेका शक्तिस्तस्येति 20 व्यपदेशासम्भवात् , ततो भेदादर्थान्तरवत् । न च सम्बन्धाद्भवतीति वक्तुं शक्यं, अनेकया शक्त्या सम्बध्यमानस्यानेकरूपत्वापत्तेः । न चैकयैव शक्त्याऽनेकमर्थं गृह्णातीति वक्तुं शक्यं सवार्थग्रहणप्रसङ्गात् , तस्मात्तयोः कथश्चिद्भिन्नाभिन्नत्वेन चेतनास्वरूपत्वं युक्तम् , सा च प्रतिजीवं तारतम्यदर्शनाचेतनात्वेनैकापि पर्यायाद्भिन्ना ततश्चात्मापि द्रव्यत एकोऽपि पर्यायभेदाद् भिन्न इति विभावनीयम् । तच्च चैतन्यमेकरूपमपि कर्ममलदिग्धमनेकावस्थान्तरावस्कन्दि भवति, 25 एतेनं यद्यात्मा ज्ञानरूपस्तदा सर्वदा विषयदर्शी भवेत् , जानानं हि जीवं ज्ञानस्वरूपमिति १. एकसन्तानिकत्वेन स्मरणं सम्भवतीत्याशंकायान्त्वाह कार्येति, एकसन्तानिकत्वस्यापि हेतुत्वादिति भावः । २. अस्तूभयं हेतुरित्याशंकायां दोषान्तरमाह कृतेति, इष्टापत्ती बाधकमाह शुभेति ॥ ३. तथा च न स्थिरैकरूपत्वमत एव न व्यतिरिक्तत्वमिति भावः ॥ ४. उक्तन वक्ष्यमाणेन च कारणेनेत्यर्थः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४ : तस्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे वक्तुं शक्यमन्यथा ज्ञानस्वरूपो न जानीते चेति विरुद्धं वचनं स्यात्, तथा विस्मृत्यनवबोधसंशया अपि न भवेयुः स्याच्चात्मा सर्वदाऽशेषविशेषविज्ञानात्मक इति शङ्कापि परास्ता, प्रदेशाष्टकं विहाय चलत्वेनानवरतमर्थान्तरेषु परिणमनात्, एकार्थेऽनवस्थितोङ्क्रान्तमनस्कत्वेन चिरमुपयोगाभावात् । उपयोगस्थितिकालस्य स्वभावादेवोत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्त परिमाणत्वात् । 5 आवरणस्वभावज्ञानावरणकर्म सद्भावात्कदाचिद्विज्ञानस्याव्यक्तबोध संशयादीनाश्चोपपत्तेश्चेति ॥ नन्वस्तु चेतनालक्षणो जीवस्स त्वेक एव निखिलजगच्छरीराण्यभिव्याप्य शश्वद्वर्तते, नतु प्रतिशरीरं पृथगात्मास्तीत्याशंकायामाह - सद्विविधः । स इति । अयम्भावो यदि जीवो निखिलशरीराधिष्ठायकतयैको भवेत् तर्हि समस्त10 शरीरभाविनां सुखदुःखादीनामेकस्मिन्नेव शरीरेऽनुभूयेत, अन्यथा निखिलशरीराधिष्ठायकत्वमेव तस्य न भवेत्, दृश्यते हि बाल्यकौमासद्यवस्थाभेदेऽपि जीवस्यैकत्वेन बाल्याद्यनुभूतस्य स्थविरावस्थायां स्मरणं, न च तथैकेनानुभूतं सर्वैः स्मर्यते तस्मात्सर्वशरीरेषु भिन्न एवात्मी, एवमात्मन एकत्वे सुखदुःखनिमित्तधर्माधर्मयोः सर्वसाधारण्येन कश्चिदेव सुखी न सर्वे, कश्चिदेव दुःखी न सर्व इति प्रत्यक्षसिद्धः प्रतिनियमो न भवेत्, न चैकस्येवाञ्चलस्य प्रसा 15 रितस्य महतो वाय्वादिनिमित्तात् क्वचिदेव भागे कम्पनमनुभूयते तथा तत्तच्छरीरावच्छेदेनैव सुखादिकं भवति न सर्वत्रेति वाच्यम् । परम्परया तत्रापि सूक्ष्मकम्पस्यानुभवात्, योऽहं सुखी, सोऽहं मैत्रो दुःखी सम्प्रति जात इति प्रत्यभिज्ञापत्तेश्च । न च नात्म्यै तत्तच्छरीरेष्वनुभूतसुखादीनां स्मरणापत्तिर्दोषः, पूर्वपूर्वशरीरानुभूतानामात्मैक्ये ऽप्यस्मरणादिति वाच्यम्, पूर्वपूर्वानुभवजनित संस्कारस्य मरणगर्भवासादितीव्रतर दुःखैरभिभूतत्वात्, 20 जातिस्मरणेन केनापि स्मरणाच्च, नहि चैत्रज्ञानादिकं कदापि कथमपि स्मरति मैत्रस्तस्मादात्मा नैकोsपि तु प्रतिशरीरं भिन्नः परन्तु तेषां सुज्ञानाय प्रथमं तस्य द्वैविध्यं भाव्यमिति भावः । केन प्रकारेण भेद इत्यत्राह - संसार्यसंसारिभेदात् | संसारीति । संसारोऽष्टविधं कर्म, तदुपष्टम्भेनैवात्मनस्संसरणाद् बलवन्मोहो नारका25 द्यवस्था वा संसारस्तद्योगात्संसारी, न संसारी- असंसारी निर्धूताशेषकर्मेत्यर्थः । तत्र संसारिणां १. तथा च प्रयोगः नानारूपा भुवि जीवाः परस्परं भेदभाजः, लक्षणादिभेदात् यथा कुम्भादयः, एकत्वे हि सुखदुःखबन्धमोक्षादयो नोपपद्यन्त इति ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवप्रभेदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । विकल्पबाहुल्यात्, असंसारिणां संसारिपूर्वकत्वात् स्वसंवेद्यत्वाच्चादौ ग्रहणं, संसारिणो हि स्वसंवेद्याः, गत्यादिपरिणामानामनुभूतत्वात् , असंसारिणस्त्वत्यन्तपरोक्षास्तदनुभवस्याप्राप्तत्वादिति । कथं संसारिणां बहवो विकल्पा इत्याशङ्कायां संसारिजीवानां प्रभेदप्रदर्शनमुखेन तान् दिङ्मात्रमुपदर्शयति अत्र चेतनत्वेन जीव एकविधः । अत्रेति । जीवप्रकारनिरूपणप्रसङ्ग इत्यर्थः । जीव इति संसारिजीव इत्यर्थ; असंसायुपेक्षयाऽयं विभागारम्भः, यद्वा जीवमात्रस्य द्विधैव विभागः सम्भवतीति ग्रन्थोऽयं पूर्वेणान्वितः । तथा चात्र यश्चेतनत्वेनैकविधो जीवः स द्विविध इत्यर्थः । यद्यपि ईदृशाभिप्रायोऽत्रेतिवाक्यस्य जीवलक्षणानन्तरं योजने सुस्पष्टो भवति, तथापि जीवनानात्वसाधनार्थमेव- 10 मुपन्यासः कृतः । तत्सिद्धावेव प्रकारभेदनिरूपणसम्भवादिति बोध्यम् । तदन्तर्गतः संसारी जीवस्तु संसारित्वेनैकोऽपि त्रसस्थावरभेदेन द्विविध इत्यभिप्रायेणाहत्रसस्थावरभेदेन द्विविधः। पुंस्त्रीनपुंसकभेदेन त्रिविधः । त्रसेति । त्रसनामकर्मोदयावृत्तिविशेषास्त्रसा द्वीन्द्रियादयो नतूद्वेजनक्रियाविशिष्टाः गर्भाण्डजमूछितसुषुप्तादीनां त्रसत्वाभावप्रसङ्गात् , स्थावरनामकर्मोदयजनितविशेषाः 15 स्थावराः पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः। न तु स्थानशीला वायुतेजोऽम्भसामस्थावरत्वप्रसङ्गात् , अल्पाच्तरत्वात् विशेषोपयोगसम्भवेनाभ्यर्हितत्वात्स्पष्टलिङ्गत्वाच्चादौ त्रसग्रहणम् । द्वैविध्यप्रदर्शनश्चेदमुपलक्षणं तेन समनस्कामनस्कभेदेनापि द्वैविध्यं बोध्यम्, मनःपर्याप्तिलक्षणकरणनिर्वृत्तिमन्तस्समनस्काः द्रव्यभावमनोयुता इति यावत् । तद्रहिता अमनस्काः केवलं भावमनोयुता इति यावत् । प्रकारान्तरेण संसारिणः त्रिधा विभजते पुमिति । तत्तद्वेदोदया- 20 १. एवम्भूतनये हि दश विधप्राणधारी जीवोऽभिमतस्स च संसार्येव, सिद्धस्तु न तथाविधः, असुमान् प्राणीत्यादिव्यपदेशाभावादिति भावः । केवलं भावप्राणवत्त्वात्तेऽपि जीवा इत्याशयेनाह यद्वेति ॥ २. उपलक्षकोऽयं विभागः, तेनेन्द्रियानिन्द्रियसकायाकायसयोग्ययोगिसवेदावेदसकषायाकषायसलेश्यालेश्यज्ञान्यज्ञानिसाकारानाकारभेदेन विभागसम्भवेऽपि न क्षतिरिति ।। ३. एवञ्च प्रथमं द्विभेदमुक्त्वा नानात्वं प्रसाध्य किं सर्वथा जीवा नाना एवेत्याशंकानिवारणाय वस्तूनामेकानेकस्वभावत्वेन तत्प्रदर्शनाय चात्रेतिग्रन्थोक्तिः । जीवत्वादिस्वभावे- 25 नैकोऽपि संसारित्वादितत्तद्धर्मस्वभावत्वेन तथातथाव्यपदिश्यते. एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचित्र्यायोगेन तथातथाभिधाने प्रवृत्तिर्न स्यादेवेति भावः ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे पादितपुंस्त्वस्त्रीत्वनपुंसकत्वपरिणामवन्तः, लिङ्ग द्विविधं द्रव्यभावभेदात् , यद्रव्यलिङ्गं तदिह नाधिकृतं द्रव्यपरिणामत्वात्, आत्मपरिणामप्रकरणाचेह भावलिङ्गमेव ग्राह्यम् , तच्चान्योऽन्याभिलाषलक्षणं बोध्यम् । यद्वा शरीरशरीरिणोः कथश्चिदभेदेन द्रव्यलिङ्गमादायापि भेदोऽवसेयः॥ चातुर्विध्यमादर्शयतिनारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदेन चतुर्विधः। इन्द्रियभेदेन पञ्चविधः। नारकेति । तत्तद्गतिनामकर्मोदयप्रयुक्ततत्तद्भावपरिणाममादायाऽऽत्मनोऽयं विभागः । पञ्चविधत्वं प्रकटयति-इन्द्रियभेदेनेति । जातिनामकर्मोदयापादितैकेन्द्रियादिजाति परिणामभाक्त्वात्पञ्चविधत्वं जीवानामिति भावः । मनसोऽनिन्द्रियत्वात् बाह्यपञ्चेन्द्रिय10 विधुरस्य समनसो जीवस्याप्रसिद्धेश्च न मन आदाय षड्विधत्वशङ्का कार्येति ॥ अथ षोढा विभजतेपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदेन षड्विध इत्येवं विस्तरत स्त्रिषष्ठ्यधिकपञ्चशतविधोऽपि भवतीति विज्ञेयः। पृथिवीति। स्थावरान्तर्वर्तिपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसनामकर्मोदयजनितपरिणामवन्त 15 एते षड्भेदा वेदितव्याः, तत्र सत्यां पृथिव्यां जलादिकं सुखेन घटादिभिग्रहीतुं शक्य मिति सुखग्रहणहेतुत्वात् , विमानभवनप्रस्तारादिभावपरिणामेन स्थूलमूर्त्तित्वात्प्रतिनियतजलाग्रुपकारनिवर्तकत्वाच्चादौ पृथिव्याः, विरुद्धभूततेजोव्यवधायकतयाऽऽधेयतया च जलस्य, पृथिव्यप्परिपाकहेतुत्वात्तेजसः, तदुपकारकत्वाद्वायोः, पृथिव्यादिनिमित्तकत्वादनन्तगुणत्वाच्च वनस्पतेः, इन्द्रियाधिक्यादुपयोगबाहुल्याच्च त्रसस्य ग्रहणम् । इत्थमेव बहुधा विभागस्सम्भव 20 तीत्याहेत्येवमिति, इत्येवंक्रमेणेत्यर्थः । ननु विभागानां परावधिरस्ति नवेत्याशङ्कायामवधिमाहविस्तरत इति, सप्तविधनारकाणां चतुर्विंशतिविधतिरश्चामेकोत्तरशतविधगर्भजमनुष्याणां नवाधिकनवतिविधदेवानां प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदभाजामपर्याप्तकोत्तरशतविधसंमूछिममनुष्याणाञ्च मेलनया त्रिषष्ट्यधिकपञ्चशतविधोऽपीत्यर्थः, विज्ञेय इति आगमादित्यादिः ॥ अथ प्रथमोक्ते द्वैविध्ये संसारिलक्षणमाह25 सकर्मा संसारी। सकर्मेति । कर्मणा सहितः सकर्मा, कर्मभावयोग्यैः पुद्गलैरविभागेनोपश्लिष्ट इत्यर्थः । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवपरिमाणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते :२७: कर्मोपश्लिष्टत्वं संसारिणां लक्षणं, तच्चैकेन्द्रियादारभ्य आ अयोगिकेवलिनस्सर्वत्रास्तीति न कुत्राप्यव्याप्तिः ॥ तस्य परिमाणमाह देहमात्रपरिमाणः। देहमात्रेति । देह एव देहमानं, तत्परिमाणं यस्य सो देहमात्रपरिमाणः। यस्य जीवस्य 5 यो देहस्स यावत्परिमाणकस्तावदेव जीवस्यापि परिमाणमित्यर्थः । एवञ्च तत्तच्छरीराकारपरिमाणास्तत्तत्संसारिजीवा न सर्वेषामेकं परिमाणं नियतमिति भावः। एतेन विभुपरिमाणत्वमात्मनः प्रतिक्षिप्तं तत्तदेहावच्छेदेनैव सुखदुःखानुभवात् , सर्वगतत्वेऽदृष्टवत आत्मनस्सर्वत्र सत्त्वेन सर्वत्र तदुपभोगप्रसङ्गात् , एवञ्च यो यद्व्यापित्वेनोपलभ्यमानगुणस्स तत्तुल्यमान इति व्याप्त्या शरीरव्यापित्वमेव, तथा चानुमानं, आत्मा देहपरिमाणः, तद्व्यापित्वे- 10 नोपलभ्यमानगुणत्वादिति । न च मूलव्यापित्वेनोपलभ्यमानकपिसंयोगवतो वृक्षस्य मूलसमानमानत्वाभावेन व्यभिचार इति वाच्यम् , कपिसंयोगस्य मूल एव वृत्तः । न च मूले वृक्ष कपिसंयोग इति प्रतीत्या वृक्षेऽपि तस्य सत्त्वमिति वाच्यम् , स्वाश्रयाश्रितत्वसम्बन्धेनैव वृक्षे वृत्तित्वाभ्युपगमात् , संयोगस्य क्रमभावित्वेन सहभाविपर्यायत्वरूपगुणत्वासम्भवाच्च, न चात्मा विभुर्नित्यमहत्वादाकाशवदिति विभुत्वं सिद्धथतीति वाच्यम् , अप्रयोजकत्वात् , न च यद- 15 पकृष्टं तज्जन्यमिति व्याप्त्याऽऽत्ममहत्परिमाणं यद्यपकृष्टं स्यात्तर्हि जन्यं स्यादित्युकूलस्तर्कोऽ स्त्येवेति वाच्यम् , परमाणुपरिमाणस्याप्यपकृष्टत्वान्नित्यत्वाच्च व्यभिचारेण व्याप्त्यसिद्धेः । न च प्रतिशरीरं परिमाणभेदे परिमाणनाशेनात्मनो नाशः स्यादिति वाच्यमिष्टापत्तेर्विशिष्टरूपेण नाशोत्पादयोरभ्युपगमात् , शुद्धस्वरूपेणैव तस्य नित्यत्वात् । न चापकृष्टमहत्वेन सावयवत्त्वं तस्माच्च कार्यत्वमात्मनः प्रसज्येतेति वाच्यम् , त्रिकालवर्तिन्यात्मनि कार्यत्वस्यासिद्धेः, सर्वथा 20 प्रागसतस्सत्त्वरूपकार्यत्वस्य क्वचिदप्यप्रसिद्धत्वाच्च । न चाकाशे व्यभिचारोऽवगाहनागुणस्य . सर्वाधारताया वा लोकावच्छेदेन सत्त्वेऽपि तत्तुल्यमानत्वाभावादिति वाच्यं तत्राप्यवगाहनागुणस्य सत्त्वादवगाह्यपदार्थाभावादेवावगाहनानुपलम्भात् , न च सर्वगतत्वेऽप्यात्मनः स्वादृष्टनिमित्तकदेहाभावादेवान्यत्र न सुखदुःखोपभोग इति वाच्यम् ,अदृष्टस्य स्वकीयत्वासिद्धेः, ने च स्वात्मनि तस्य समवायात्स्वकीयत्वमिति वाच्यम् , समवायस्यैकत्वेन सर्वगतत्वेन च परकीयादृष्टानामपि स्वात्मनि समवायात् , समवाये मानाभावाचेत्यधिकमन्यग्रन्थेभ्योऽवसेयम् ॥ अथ संसारिणां बहुधा प्रभेदानामुक्तत्वेऽपि माध्यमिकं बोधविशेषाधायकञ्च प्रभेदमधुना वक्ति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२८: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे स च सूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञिपश्चेन्द्रियभेदेन सप्तविधोऽपि प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदतश्चतुर्दशविधः । स चेति । सूक्ष्माश्चैकेन्द्रियाश्च सूक्ष्मैकेन्द्रियाः, द्वे च त्रीणि च चत्वारि च द्वित्रिचत्वारि तानि इन्द्रियाणि येषां ते द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, असंज्ञिनश्च संज्ञिनश्वासंज्ञिसंज्ञिनस्ते च ते 5 पश्चेन्द्रियाश्चासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः ततस्सर्वेषां द्वन्द्वः, त एव भेदो विशेषस्तेन जीवत्वेनैकविधोऽपि जीवस्सप्तविधो भवति, प्रकारप्रकारिणोः कथञ्चिद्भेदाभेदत्वादेकवचनं, एवंभूतोऽपि प्रत्येकं पुनः पर्याप्तापर्याप्तभेदमादाय चतुर्दशविधो भवतीति भावः, यद्यपि द्विविधा एकेन्द्रियाः, सूक्ष्मा बादराश्चेति तथाप्यत्र सूक्ष्माणामेकेन्द्रियत्वाव्यभिचारेण सूक्ष्मपदेन शास्त्रप्रसिद्धत्वान्नामैकदेशग्रहणेऽपि नामग्रहणसंभवाच्च सूक्ष्मैकेन्द्रियाणां ग्रहणम् , बादराणा10 न्त्वेकेन्द्रियत्वव्यभिचारित्वं द्वीन्द्रियाणामपि बादरत्वात् , ततो बादरमात्रग्रहणे बादरैकेन्द्रि यालाभात् लघुनिर्देशसम्भवे लाघवार्थिना गौरवेण निर्देशकरणानौचित्याच्च बादरैकेन्द्रियेतिगुरुभूतनिर्देशमपहायैकेन्द्रियेत्येवोक्तम् । सूक्ष्मबादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियेत्यादिरूपेणोक्तौ तु सूक्ष्ममिन्द्रियं येषां बादरमिन्द्रियं येषामित्येवार्थो लभ्येत द्वे इन्द्रिये येषामित्यादिवत् समासानु रोधान्न चैतदिष्टं तथापि बादरैकेन्द्रियालाभादतस्तथानिर्देशः कृत इति ध्येयम् ।। 15 ननु सप्तविधानां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्दशविधत्वमुच्यते तत्र पर्याप्तशब्दार्थो वाच्योऽ न्यथा तु न सुकरं भेदज्ञानमित्याशंकायां पर्याप्तशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमादर्शयति आत्मनः पौद्गलिकक्रियाविशेषपरिसमाप्तिः पर्याप्तिः। आत्मन इति । पौद्गलिको यः क्रियाविशेषस्तस्य परिसमाप्तिर्यया साऽऽत्मनिष्ठा पर्याप्तिशब्दवाच्या शक्ति:-करणविशेषः । पर्यापनं समापनं पर्याप्तिरिति नार्थः किन्तु पर्यापनं यत 20 इति व्युत्पत्त्या समाप्तिसाधनं ग्राह्यम् । एवं यस्याः शक्तस्सत्त्वे जीव आहारादिग्रहणाय समर्थो भवति सा, सा च शक्तियः पुद्गलोपचयैर्निवय॑ते ते पुद्गलोपचया अपि जीवेन गृहीताश्शत्युत्पत्तिजननपरिणमाभिमुखाः पर्याप्तिशब्देनोच्यन्ते । एतद्विपरीता-अशक्तिः, तन्निवर्तकपुद्गलासम्बन्धो वाऽपर्याप्तिः, न च समाप्तिः पर्याप्तिशब्दवाच्या, क्वचिदपि ग्रन्थेऽनुक्तत्वात् , न च क्रियापरिसमाप्तिः पर्याप्तिरिति तत्त्वार्थभाष्ये श्रूयत इति वाच्यम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् , 25 क्रियायाः परिसमाप्तिर्यत इति व्युत्पत्तेः । अत एव भाष्यटीकायां "पर्याप्तिः पुद्गलरूपाऽऽत्मनः कर्तुः करणविशेषः । येन करणविशेषेणाऽऽहारादिग्रहणसामर्थ्यमात्मनो निष्पद्यते, तच करणं यैः पुद्गलैर्निवय॑ते ते पुद्गला आत्मनाऽऽत्तास्तथाविधपरिणतिभाजः पर्याप्तिशब्दे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारपर्याप्तिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :२९: नोच्यन्त" इति दृश्यते । नचैवं न हि भाष्यकाराभिप्राय इति वाच्यम् , आसां युगपदारब्धानामपि क्रमेण समाप्तिरुत्तरोत्तरसूक्ष्मतरत्वादि' ति स्वयमेवोक्तत्वात् , न ह्यासामितिपदेन समाप्तिरूपा पर्याप्तिर्विवक्षिता समाप्तेरारम्भासम्भवात् , क्रमेण समाप्तेरसंभवाच्च । अत एव सामर्थ्यवाचिपर्याप्तिशब्दस्य कथं नामकर्मरूपत्वमित्याशङ्कायामुक्तं 'पर्याप्तिनिवर्तकं पर्याप्तिनाम, अपर्याप्तिनिर्वर्तकमपर्याप्तिनामेति शक्तिप्रयोजकपुद्गलोपचयस्य नामकर्मत्व- 5 माविष्कृतमिति सूक्ष्मधिया विचारणीयम् । तथा चात्मसम्बन्धी पुद्गलोपचयजन्यक्रियाविशेषपूर्णताप्रयोजकशक्तिविशेषः, तादृशशक्तिनिमित्तकपुद्गलोपचयो वा पर्याप्तिरिति भावः ।। अथ पुद्गलरूपायाश्शक्तिरूपाया वा पर्याप्तेः स्वरूपतो भेदाभावाद्विषयभेदनिबन्धन एव तस्या भेद इत्याहआहारशरीरेन्द्रियोछ्वासभाषामनोरूपविषयभेदात् पर्याप्तिष्षोढा। 10 आहारेति । तथा चाऽऽहारविषया पर्याप्तिः शरीरविषया पर्याप्तिरित्यादिक्रमेण षाड्विध्यं बोध्यम् । युगपदारब्धाः षडप्येतत्क्रमेणैव सिद्धिं यान्ति न समकालं व्युत्क्रमं वेति सूचयितुमयं क्रमः, उत्तरोत्तरपर्याप्तीनां बहुतरकालत्वात् ॥ अथाऽऽहारपर्याप्तिमाहशरीरादिपञ्चयोग्यदलिकद्रव्यादानक्रियापरिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः। 15 शरीरादीति । आत्मा हि सक्रियः, अन्यथा कायोत्पत्त्यनुकूलो यत्नो न स्यादेव, सा क्रियाऽऽत्मपरिस्पन्दरूपा, तथा चात्मा पूर्वदेहमुत्सृज्योपपातक्षेत्रे समागतः प्रथमक्षण एव कार्मणकाययोगाख्येन स्वपरिस्पन्देनौदारिकादिशरीरयोग्यान पुद्गलान् गृह्णाति । तैजसकामणशरीरेणैव प्रथमसमय एव औदारिकादिशरीरयोग्यपुद्गलाहरणाच्छक्त्युत्पत्तेश्चाऽऽहारपर्याप्तिरेकसामयिकी । वीर्यान्तरायक्षयोपशमेन वीर्यलब्धिर्भवति, तया च यथायोग्यं सूक्ष्मवादर- 20 परिस्पन्दरूपक्रियासहितं सलेइयवीर्यमुपजायते, इदमेव करणशब्दवाच्यं पर्याप्तिशब्दवाच्यं योगसंज्ञकश्च, तत्र च क्रियाप्राधान्ये योगशब्दः प्रयुज्यते, वीर्यस्य मुख्यत्वे करणशब्दः पर्याप्तिशब्दश्च प्रयुज्यते, क्रियायाः पौद्गलिकत्वेन पर्याप्तिसम्बन्धिपुद्गलानां नामकर्मत्वं, आहारपर्याप्तिं विहाय शरीरपर्याप्त्यादिक्रियाणां प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन समापनाक्रियासहितं पर्याप्तिशब्दवा १. उक्तश्चान्यत्र पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुश्शक्तिविशेष इति । अन्यत्र च “आहारसरीरदिय ऊसासवओमणोऽहिनिवित्ती । होइ जओ दलियाओ करणं एसा उ पजत्ती" इति ॥ २ आगमे तत्त्वार्थे च भाषामनःपर्याप्त्योरेकत्वमभ्युपगम्य पञ्चधा पर्याप्तिरुक्ता ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे च्यं सलेश्यवीर्यमध्यन्तर्मुहूर्तेन समाप्यत इत्युच्यते तथा चौदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसभाषाप्राणापानमनःकर्मभेदेनाष्टविधेषु पुद्गलेषु शरीरस्येन्द्रियाणामुच्छ्वासस्य भाषाया मनसश्च योग्यानि यानि दलिकद्रव्याणि तेषां या आदानक्रिया-ग्रहणं तच्च परिसमाप्यते यया साऽऽहारपर्याप्तिरित्यर्थः । अत्र पर्याप्तीनामासां स्वरूपाणि तत्त्वार्थभाष्यानुसारेण निरूपितानि । प्रवचनाद्यनु5 सारेण तु बाह्याहारग्रहणखलरसरूपपरिणमनप्रयोजकात्मशक्तिविशेष आहारपर्याप्तिः ॥ अथ शरीरपर्याप्तिमाह गृहीतशरीरवर्गणायोग्यपुद्गलानां शरीराङ्गोपाङ्गतया रचनक्रियासमाप्तिश्शरीरपर्याप्तिः।। गृहीतेति । सामान्यतो गृहीतानां शरीरवर्गणागतयोग्यपुद्गलानां शरीराङ्गोपाङ्गतया 10 या रचनक्रिया-विरचनात्मिका क्रिया सा परिसमाप्यते यतः, स शक्तिविशेषश्शरीरपर्याप्तिः । लक्षणद्वयमिदं तत्त्वार्थोक्तमौदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीरत्रयेऽपि सङ्गच्छते । तत्राऽऽहारपर्याप्तिरौदारिकशरीरिणामाहारपुद्गलग्रहणखलरसीकरणप्रयोजिका, इतरेषां शरीरयोग्यपुद्गलग्रहणप्रयोजिका, इयश्च पर्याप्तिस्सर्वेषां समयप्रमाणा, उपपातक्षेत्रे प्रथमसमय एवाहारक त्वात् , औदारिकशरीरिणां शेषाः पर्याप्तयः प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन निष्पाद्यन्ते, सर्वासां 15 पर्याप्तीनां च परिसमाप्तिकालोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, अन्तर्मुहूर्तानामसंख्यभेदभिन्नत्वात् । .. वैक्रियाहारकशरीरिणान्तु आहारेन्द्रियोच्छासभाषामनःपर्याप्तयः पञ्चाप्येकेनैव समयेन समाप्यन्ते, शरीरपर्याप्तिः पुनरन्तर्मुहूर्तेनेति भाव्यम् । प्रवचनादिषु तु रसीभूताहारस्य रसामृ मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमनहेतुः शक्तिविशेषश्शरीरपर्याप्तिः । इदं पूर्वोक्तञ्च लक्षणद्वयमौदारिकशरीर एव संगच्छते, इतरशरीरयोरसृङ्मांसमेदसादिमयत्वाभा20 वात् । अत्र च तादृशशक्त्युत्पादनद्वारा शरीराङ्गोपाङ्गादिनामकर्माणि, साक्षात् निर्माणबन्धन संघातननामकर्माणि केषाश्चिन्मतेनाऽऽनुपूर्वीनामकर्म च निमित्तानि भवन्ति । एषां सत्तारूपेण वर्तमानानामप्युदय एवं शरीरादीनां निष्पत्तेः । अङ्गोपाङ्गानां नियतस्थानवृत्तिताप्रयोजकत्वात् , गृहीतानां गृह्यमाणानाञ्च शरीरपुद्गलानामन्योन्यसंश्लेषकारित्वात् , शरीरत्वेन परिणतपुद्गलानामन्योन्यसन्निधानेन व्यवस्थापकत्वाच्च । केषाचिन्मतेनानुपूर्व्या अङ्गोपाङ्गानां निर्मा25 णनिर्मितानां प्रतिनियतस्थानवृत्तिताप्रयोजकत्वोपगमादिति ॥ अथेन्द्रियपर्याप्तिमाह त्वगादीन्द्रियनिर्वत्तनक्रियापरिसमाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । त्वगादीति । आदिना रसनघ्राणचक्षुश्रोत्राणां ग्रहणम् , तान्यपि द्रव्यरूपाण्येव प्रा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषापर्याप्तिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३१ : ह्याणि तेषामेवोत्पादनेऽङ्गोपाङ्गनामकर्मण इन्द्रियपर्याप्तेश्च हेतुत्वात्, भावरूपाणान्तु निर्वर्त्तने इन्द्रियावरणक्षयोपशमस्यैव सामर्थ्यात्, जातिनामकर्मणस्त्वे केन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तसमानपरिणतिलक्षण सामान्यं प्रति प्रयोजकत्वात्, तथा च त्वगादीन्द्रियाणां तत्तदिन्द्रियस्वरूपेण या निर्वर्त्तनक्रिया सा परिसमाप्यते यस्माच्छक्तिविशेषात्पुद्गलविशेषाद्वा सेन्द्रियपर्याप्तिः सर्वशरीरेन्द्रियव्यापिनी, धातुरूपतया परिणमितादाहारादेकस्य द्वयोस्त्रयाणां चतुर्णां 5 पञ्चानां वेन्द्रियाणां प्रायोग्यानि द्रव्याण्यादायैकद्वित्र्यादीन्द्रियरूपतया परिणामयति यतस्सेन्द्रियपर्याप्तिः प्रवचनाद्यनुसारेणौदारिकशरीरेन्द्रियविषया ॥ अथोच्छ्वासपर्याप्तिमाह— श्वासोच्छ्वासयोग्यद्रव्यादानोत्सर्गशक्तिविरचनक्रियासमाप्तिः श्वा सोच्छ्वास पर्याप्तिः ॥ श्वासोच्छ्वासेति । श्वासोच्छ्वासयोग्यानां द्रव्याणां श्वासोच्छ्वासरूपाणामिति यावत्, तेषां यावादानोत्सर्गौ-ग्रहणमोक्षणरूपौ तद्विषयिणी या शक्तिर्लब्धिर्या च श्वासोच्छ्वासनामकर्मसाध्या तदनुकूला या विरचनक्रिया सा समाप्यते यतश्शक्तिविशेषात्पुद्गलोयचयाद्वा सा श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिरित्यर्थः। यद्यपि सर्वा लब्धयः क्षायोपशमिका एव न त्वौदयिक्यस्तथापि वैक्रियाहारकादिलब्धय औदयिका अपि संभवन्ति, तत्र वीर्यान्तरायक्षयोपशमस्यापि निमि- 15 तत्वेन क्षायोपशमिकत्वव्यपदेश इति बोध्यम् ॥ अथ भाषापर्याप्तिमाह- भाषायोग्यद्रव्य परिग्रह विसर्जन शक्तिनिर्माणक्रियापरिसमाप्तिर्भाषापर्याप्तिः ॥ 10 भाषायोग्येति । भाषायोग्यानां द्रव्याणां ये परिग्रहविसर्जनेऽवलम्बनविसगैौ तद्विष- 20 यिणी या शक्तिः - सामर्थ्यविशेषः - अवलम्बनपूर्वकोत्सर्जन हेतु सामर्थ्यविशेषः, तस्य या निर्माणक्रिया सा परिसमाप्यते यया सा भाषापर्याप्तिरित्यर्थः । अत्र वीर्य लब्धेस्सकाशादुपजायमानस्सलेश्यवीर्यविशेषः, सूक्ष्मबादरपरिस्पन्दरूपक्रियाविशेषो वाग्योगापरनामाऽपि सहकारिकारणं विज्ञेयम् । पर्याघ्या हि भाषायोग्यपुद्गलग्रहणपरिणमने भवतः वाग्योगेन च 1 १. पञ्चानामिन्द्रियाणां प्रायोग्यान् पुद्गलान् गृहीत्वाऽनाभोगनिवर्तितेन वीर्येण तद्भावनयनशक्तिरिन्द्रियपर्याप्तिरिति प्रज्ञापनायाम् ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे परिणतपुद्गलाबलम्बनं निसर्गसामर्थ्यविशेषश्च भवति, मन्दशक्तेर्नगरपरिभ्रमणाय यष्ट्यवलम्बनवद् वाग्योगावलम्बनं बोध्यम् ॥ अथ मनः पर्याप्तमाह मनस्त्वयोग्यद्रव्याहरणविसर्जनशक्तिजननक्रियापरिसमाप्तिर्मनः 5 पर्याप्तिः ॥ मनस्त्वयोग्येति । मनस्त्वयोग्यानि यानि द्रव्याणि तेषामाहरणविसर्जने-अ -अवलम्बनमोक्षणे तद्विषयिणी या शक्तिः तज्जननक्रियायास्तदनुकूलक्रियायास्समाप्तिर्यत इत्यर्थः । मनःपर्यायाहि मनोयोग्यान् मनोवर्गणास्कन्धानादत्ते परिणमयति च ततश्चिन्तनार्थमवलम्ब्य तिच मनोयोगेन । एवं च प्रथममनेकपुद्गलग्रहणं ततः शरीरपर्याप्तिः तदनु इन्द्रिय10 पर्याप्तिस्तस्तः श्वासोच्छ्वासपर्याप्तिस्ततो भाषापर्याप्तिस्ततो मनःपर्याप्तिरिति क्रमः, परन्तु पर्याप्त कार्यारम्भ उत्पत्तिप्रथमसमय एव, निष्ठा तु द्वितीयादीनामनुक्रमेण भवति तस्मात्स्वस्वकार्यपूर्णतां यावत्ता अप्यपूर्णा एव कथ्यन्त इति बोध्यम् ॥ एवमवगते पर्याप्तिप्रभेदे पर्याप्तापर्याप्तस्वरूपमाह— स्वस्वयोग्य पर्याप्ति पूर्णत्व भाजः पर्याप्ताः । स्वस्वपर्याप्ति पूर्णताविकला 15 अपर्याप्ताः ॥ स्वस्वेति । यस्य यस्य यावत्यः पर्याप्तयोऽभिमतास्तावत्पर्याप्तिकार्य पूर्णता भाजस्ते पर्याप्ता उच्यन्त इत्यर्थः । एतद्विपरीतास्त्वपर्याप्ता इत्याह स्वस्वेति । केषां जीवानां कति पर्याप्तयो भवन्तीत्यत्राह — तत्रैकेन्द्रियस्याद्याश्चतस्रः । द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञि पञ्चेन्द्रियाणां पञ्च । 20 संज्ञिपश्चेन्द्रियाणां षट् पर्याप्तयः ॥ तत्रेति । षटूत्सु पर्याप्तिषु मध्य इत्यर्थः । आद्याश्चतस्र इति आहारशरीरेन्द्रियोच्छ्वासरूपाश्चतस्र इत्यर्थः, भाषामनसोस्तस्याभावात् । पचेति, तेषां मनसोऽभावेन मनःपर्याप्तिनस्तीति भावः । षटूपर्याप्तय इति, मनसोऽपि सत्त्वादिति भावः । एताभिश्च स्वस्वयोग्यपर्याप्त पर्याप्ता एव ये कालं कुर्वन्ति तेऽप्याद्यपर्याप्तित्रयं समाप्य ततोऽन्तर्मुहूर्तेनायुर्बध्वा 25 तदनन्तरमबाधाकालरूपमन्तर्मुहूर्तं जीवित्वैव च म्रियन्त इत्यप्यवधेयम् ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवप्रभेदाः ] न्यायप्रकाशसमलते - अथ पर्याप्तापर्याप्तभेदभाजस्सूक्ष्मादि सप्तविधान जीवान् दिङ्मात्रेण निदर्शयति सूक्ष्माश्च निगोदादिवर्तिनः । बादराः स्थूलपृथिवीकायिकादयः। द्वीन्द्रियाः क्रिम्यादयः। त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयः। चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयः॥ सूक्ष्माश्चेति । सूक्ष्मजीवानां पृथिव्यादिपञ्चकायप्रभेदत्वेऽपि सूक्ष्मतरत्वादेकस्मिन् शरीरेऽप्यनन्तानां सद्भावाच्च निगोदस्य सूक्ष्मपृथ्वीकायिकाद्यपेक्षया प्रथममुपादानं, आदिना च 5 सूक्ष्माणां पृथिवीकायिकादीनां ग्रहणम् । बादरैकेन्द्रियान्निदर्शयति-बादरा इति, पृथिव्येव कायः पृथिवीकायः, स्थूलश्चासौ पृथिवीकायश्च स्थूलपृथिवीकायः, स विद्यत एषान्ते स्थूलपृथिवीकायिकास्त आदिर्येषामिति तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । न च स्थूलः पृथिवीकायो येषामिति बहुव्रीहिणैव विवक्षितार्थलाभे न कर्मधारयान्मत्वर्थीयो बहुव्रीहिश्चेत्तदर्थप्रतिपत्तिकर' इति न्यायेन कर्मधारयान्मत्वर्थो न कार्य इति वाच्यम् , असुब्वत इति व्याकरणमहा- 10 भाष्यप्रयोगात् कृष्णसर्पवद्वल्मीकमित्यादिलौकिकप्रयोगाचोक्तनियमस्य क्वाचित्कत्वात् । आदिनाऽप्कायिकतेजस्कायिकवायुकायिकवनस्पतिकायिकानां ग्रहणम् । स्पर्शेन्द्रियमात्रत्वादेषामेकेन्द्रियत्वं बोध्यम् । यद्यपि पृथिवीकायिकादिषु नोपयोगादीनि जीवलक्षणानि व्यक्तानि तथापि हृत्पूरकव्यतिमिश्रमदिरातिपानपित्तोदयाकुलीकृतान्तःकरणस्याव्यक्तचेतनेवात्रापि चेतनाऽव्यक्ताऽभ्युपगन्तव्या । न च तत्राव्यक्तचेतनालिङ्गानि श्वासोच्छ्वासादीनि सन्ति न 15 त्वत्र किमपीति वाच्यम्, अर्शोमांसाङ्कुरवत्समानजातीयलतोद्भेदादीनां चेतनाचिह्नानां सत्त्वात् , कठिनपुद्गलात्मकानामरमादीनामपि शरीरानुगतास्थिवत्सचेतनत्वं बोध्यम् ॥ अत्र पृथिवीकायिकादिजीवेष्विमानि प्रमाणानि विज्ञेयानि, सन्ति पृथिवीकायिका जीवास्तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेर्गवाश्वादिवत् । केनचिदभिसन्धिमताऽऽहृतमिदं शरीरं, कफरुधिराङ्गोपाङ्गादिपरिणतेः, अन्नादिवत् । उत्सृष्टमपि केनचिदभिसन्धिमता, आहृतत्वादन्नमलवत् । 20 आपः सचेतनाः शस्त्रानुपहतत्वे सति द्रवत्वात् , हस्तिशरीरोपादानकललवत् । तत्रैवानुपहतद्रवत्वात्, अण्डकमध्यस्थितकललवत् एवं च्छेद्यत्वाद्भेद्यत्वादुत्क्षेप्यत्वाद्भोज्यत्वाऽयत्वाद्रसनीयत्वात्स्पर्शनीयत्वादश्यत्वादित्यादयो हेतवो बोध्याः । सर्वेषां पुद्गलद्रव्याणां द्रव्यशरीराभ्युपगमान्नानैकान्तत्वं हेतूनाम् । तथा सचेतना हिमादयः अप्कायत्वादितरोदकवत्, जीवशरीराण्यङ्गारादयः, छेद्यत्वादिभ्यः । अङ्गारादौ प्रकाशपरिणाम आत्मसंयोगाविर्भूतः 25 शरीरस्थत्वात् खद्योतदेहपरिणामवत् , अङ्गारादीनामूष्मा आत्मसम्प्रयोगपूर्वकः शरीरस्थत्वाज्वरोष्मवत् । सचेतनं तेज: यथायोग्याहारोपादानेन वृद्धिविशेषवत्त्वात् पुरुषाङ्गवत्, वृक्षा जीवशरीराणि, अक्षाद्युपलब्धिभावात्पाण्यादिसंघातवत् , कदाचित् सचित्ता अपि वृक्षा जीव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे शरीरत्वात्पाण्यादिसंघातवत् , मन्दविज्ञानसुखादिमन्तो वृक्षा अव्यक्तचेतनानुगतत्वात्सुप्तादिपुरुषवत् । चेतनावान् वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितगतिमत्त्वाद् गवाश्वादिवदित्यादीनि । द्वीन्द्रियान्निदर्शयति क्रिम्यादय इति । आदिनाऽपादिकनूपुरकगण्डपदशङ्खशुक्तिकाशम्बूकाजलूकाप्रभृतीनां ग्रहणम् , एषां स्पर्शनरसन इन्द्रिये भवतः । त्रीन्द्रियाणां निदर्शनमाह 5 त्रीन्द्रिया इति । आदिना रोहणिकोपचिकाकुंथुतुम्बुरुकादीनां ग्रहणम् , एतेषां स्पर्शनरस नघ्राणानीन्द्रियाणि । चतुरिन्द्रियानाह चतुरिन्द्रिया इति । आदिना बटरसारङ्गमक्षिकापुत्तिकदंशादयो ग्राह्याः, स्पर्शनरसनघ्राणचखूपयेषामिन्द्रियाणि ॥ असंज्ञिपश्चेन्द्रियाणां निदर्शनमाह असंज्ञिपश्चेन्द्रिया मनोहीना अगर्भजा मीनादयः । 10 असंज्ञीति । संज्ञा हिताहितप्राप्तिपरिहारयोर्गुणदोषविचारणात्मिका साऽस्त्येषामिति संज्ञिनः, न त्वाहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञासम्बन्धात्संज्ञिनः, सर्वेषामेव प्राणिनां दशविधसंज्ञाभ्युपगमात् , अत एव संज्ञा न ज्ञानरूपा विवक्षिता निवाभावात् , सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वात् , यद्वा कालिकीहेतुदृष्टिवादोपदेशाख्यासु तिसृषु संज्ञासु कालिकीसंज्ञा सम्प्रधार णाख्या गृह्यते, येन सुदीर्घमपि कालमनुस्मरति भूतमागामिनश्चानुचिन्तयति कथं कर्त्तव्यं 15 किमनुष्ठेयमिति सा दीर्घकालिकी सम्प्रधारणेत्युच्यते तद्वन्तस्संज्ञिनः, तथा च सम्प्रधारण संज्ञा मनोरूपैव । न संज्ञिनोऽसंज्ञिनस्ते च ते पञ्चेन्द्रियाश्चासंज्ञिपश्चेन्द्रिया इति व्युत्पत्तिः, अमुनाऽभिप्रायेणैव मनोहीना इत्युक्तम् । अत्र मनोहीना इत्यसंज्ञिनः पर्यायकथनमेव न तु लक्षणमभेदात् , अथवा लक्षणं भिन्नमपि भवति यथा वने प्रभूताम्भोजसौरभादिलक्षणेन महान् जलाशयो लक्ष्यते, तथाऽभिन्नमपि भवति यथाऽग्निरुष्णत्वेन लक्ष्यते तथात्र बहिर्व. 20 तिनाऽनुभवसिद्धन सम्प्रधारणसंज्ञाविरहरूपासंज्ञित्वेन मनोहीनत्वमनुमीयत इति बोध्यम् । ते च निखिलनारकदेवगर्भव्युत्क्रान्तमनुष्यतिर्यग्भिन्नास्सर्वेऽपि विज्ञेयाः, मीनादय इति, आदिना सम्मूछिममनुष्यपश्वादीनां ग्रहणम् ।। अथ संज्ञिपश्चेन्द्रियाणां दृष्टान्तमाह-. संज्ञिपश्चेन्द्रिया देवमनुजादयः ।। 25 संज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति । देवमनुजादय इति, मनुजपदेन संमूच्छिमभिन्ना ग्राह्याः, आदिना नारका गर्भव्युत्क्रान्तिकगोमहिष्यादयो गृह्यन्ते ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । ___ननु पृथिव्यप्तेजोवायुप्रभृतीनां कथं जीवत्वं परैरनभ्युपगमादित्याशङ्कायां प्राणवतां जीवत्वस्योभयवादिसिद्धतया तद्दिदर्शयिषुराह एत एव प्राणिनः । एत एवेति । एवशब्दो भिन्नक्रमः तथा चैते-चतुर्दश विधाः प्राणिन एव-प्राणवन्त एवातो जीवत्वमेषामिति भावः, अत्र प्रमाणान्युपदर्शितान्येव पूर्वमागमाश्च " पुढविकाइया 5 णं भंते ! किं सागारोवओगोवउत्ता अणागारोवओगोवउत्ता गोयमा ! सागरोवओगोवउत्तावि, अणागारोवओगोवउत्तावि" इत्यादयो द्रष्टव्याः। के तत्र प्राणा येन तद्वत्त्वमेषां भवेदित्यत्राह तत्र प्राणा द्रव्यभावभेदेन द्विविधाः। द्रव्यप्राणाः पञ्चेन्द्रियमनोवाकायबलोच्छ्वासायूंषि दश । अनन्तज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यात्मकाश्चत्वारो 10 भावप्राणाः॥ तत्रेति । तत्पदेन प्राणिनः परामर्शः, घटकत्वं सप्तम्यर्थः, तथा च प्राणिघटकीभूता इत्यर्थः । तत्राद्यस्य भेदमाह-द्रव्यप्राणा इति । मनोवाक्कायानां द्वन्द्वानन्तरं बलेन तत्पुरुषः, तत्र द्रव्यभावमनसोापारविशेषो मनोबलं, गृहीतयोग्यपुद्गलद्रव्याणां भाषात्वेन परिणमनोत्तरं मनोयोगेन विसर्जनशक्तिः, शब्दोच्चारणरूपजीवशक्तिविशेषो वा वाग्बलं, 15 शरीरद्वारा पदार्थग्रहणपरित्यागरूपः जीवव्यापारः, तदनुकूलजीवनिष्ठशक्तिविशेषो वा कायबलं, गृहीतयोग्यपुद्गलानां शरीरयोगेनोच्छ्वासनिश्वासत्वेन परिणमय्यावलम्बनपूर्वकपरित्याग उच्छ्वासात्मकः प्राणः । आयुस्तु द्रव्यकालतो द्विविधम् । कर्मपुद्गलविशेषो द्रव्यायुः । तत्साहाय्येन नियतकालं जीवनं कालायुः, तत्र नैति जीवो मृत्यु द्रव्यायुषस्समाप्तिमन्तरेण । कालायुश्चापवर्तनीयानपवर्त्तनीयभेदतो द्विविधम् । आयुर्बन्धावसरे जीवप्रदेशेष्वध्यवसा- 20 यमान्द्यादतिविरलतयोपात्तानामायुषां शस्त्राद्यभिघातेन नियतकालादागेव यदा समापनं । भवति तदपवर्तनीयायुरित्युच्यते । मन्दपरिणामप्रयोगोपचितमपवर्त्य, अध्यवसानादिविशेषात्प्राक्तनजन्मविरचितस्थितेरल्पतापादनमपवर्त्तनेति यावत् । तीव्रतराध्यवसायात्तीव्रपरिणामप्रयोगोपचितानामायुषां भञ्जकप्रसङ्गेऽपि गाढबन्धनत्वान्निकाचितबन्धात्मनियमाद् यदा नियतकालादर्वाग् भङ्गाभावस्तदनपवर्तनीयायुः प्रोच्यत इति ।। 25 अथ केषां कियन्तः प्राणा इत्यत्राह१ एतेन यो जीवति स तावन्नियमाज्जीवः, अजीवस्यायुःकर्माभावेन जीवनाभावादिति व्याप्तिर्दर्शिता, यस्तु जीवः स स्याज्जीवति, स्यान्न जीवति, सिद्धस्य केनचिन् नयेन जीवनाभावात् , 'सिद्धो पुणरजीवो जीवणपरिणामरहिओत्ति' इति वचनादिति बोध्यम् । जीवनाभावादिति व्यानिकिता Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६ : 5 स्पर्शेति । स्पर्शनेन्द्रियकायबलोच्छ्वासायुर्लक्षणाश्चत्वारः प्राणा एकेन्द्रियाणां पृथिव्यादीनामित्यर्थः । रसेति । स्पर्शनरसनेन्द्रियकायवाग्बलोच्छ्वासायुस्वरूपाः षट्प्राणा इत्यर्थः । श्रोत्रेणेति । इन्द्रियपञ्चककायवाग्बलोच्छ्वासायुर्लक्षणाः नव प्राणा असंज्ञिपश्चेन्द्रियाणामित्यर्थः । मनसेति। पूर्वोक्ता दशविधाः प्राणास्संज्ञिनां भवन्तीत्यर्थः । सिद्धानान्तु निर्धूताखिलकर्मत्वात् कर्मप्रभवद्रव्यप्राणानामभावात्तेषां भावप्राणा एवेत्याह अनन्तेति । द्वन्द्वादौ श्रुतमनन्तपदं ज्ञाने 10 दर्शने चारित्रे वीर्ये चान्वेति, अनन्तं ज्ञानं सकलज्ञेयग्राहि समस्तज्ञानावरणक्षयप्रभवं, अनन्तं दर्शनं अशेषदर्शनावरणीयक्षयसमुज्जृम्भितं, अनन्तं चारित्रं सकलमोहक्षयाविर्भूतं, अनन्तं वीर्यं निखिलवीर्यान्तरायकर्मप्रध्वंस विलसितं । ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याणि जीवमात्रसाधारणानि परन्तु संसारिणामनादितस्तत्तत्कर्मावृतत्वेन यथाक्षयोपशमं न्यूनाधिकानि भवन्ति, मुक्तानान्तु कृत्स्नकर्मक्षयादाविर्भूतानि एतान्येव प्राणभूतानीति भावः ॥ अथ संसारिणं लक्षयति निर्धूताशेषकर्मा असंसारी, स एव सिद्धो जिनाजिनतीर्थादि भेदभिनश्चरमशरीरत्रिभागोनाकाशप्रदेशावगाही च ॥ इति जीवनिरूपणम् ॥ तत्त्वन्याय विभाकरे | द्वितीयकिरणे स्पर्शका योच्छ्वासायूँष्ये केन्द्रियाणाम्, रसवाग्भ्यां सह पूर्वोक्ता द्वीन्द्रियाणाम्, घ्राणेन सहैते त्रीन्द्रियाणाम्, चक्षुषा सहैत एव चतुरिन्द्रियाणाम्, श्रोत्रेण सहामी असंज्ञिनाम्, मनसा सहैते संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाम्, अनन्तज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याणि चत्वारि सिद्धानां भावप्राणाः ॥ 15 निर्धूतेति । निर्धूतानि निःशेषीकृतान्यशेषाण्यष्टविधानि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि येन स निर्धूताशेषकर्मा । निर्धूतयत्किञ्चित्कर्मण्यतिप्रसङ्गवारणायाशेषेति । तत्र यो विशेषस्तमाह20 स एवेति । असंसार्येवेत्यर्थः । जिनाजिनेति । एतत्तत्त्वमत्रे वक्ष्यते । चरमशरीरेति । यथा प्रदीपतेजोऽवयवाः स्वल्पेऽवकाशे संकोचं महति च विकासं भजन्ते तथैव लोकाकाशप्रदेशमितस्यात्मनोऽपि प्रकृष्टसंकोचप्राप्तिदशायां लोकस्यैकस्मिन्नसंख्येयभागे स्थितिः, उत्कृष्टविकासकाष्ठावलम्बिनः केवलिनस्समुद्धातदशायां सर्वलोकेऽवगाहोऽन्यत्र चानेकविधा मध्यमावस्थेति वस्तुस्थितिः | परन्तु सर्वस्य संसारिणोऽनन्तानन्तपरमाणुजन्यकार्मणशरीरेणाना25 दितस्संसृष्टतया स्वभावतोऽपि वा नैकादिप्रदेशावगाहित्वं किन्त्वसंख्येयप्रदेशावगाहित्वमेव, सिद्धानां योगनिरोधकाले च शरीरसुषिराणां पूरणात् तृतीयभागहीनावगाहत्वं, अतः परमनावरणवीर्यस्यापि भगवतो न संकोचः, स्वभावश्चायमेतावानेव संहार इति न स्वभावे पर्यनुयोगः कारणाभावात्प्रयत्नाभावेनोपसंहाराभावाच्चेति || Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलते प्रकरणरूपत्वादस्य ग्रन्थस्य विस्तरेणाभिधानमनुचितमिति जीवनिरूपणमुपसंहरति इतीति, उक्तदिशेति भावः, समाप्तमिति शेषः ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधरश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलधिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां जीवनिरूपणा ख्यो द्वितीयकिरणस्समाप्तः ॥ अथ तृतीयकिरणः ॥ अथ द्वितीयं तत्त्वं निरूपयितुं तल्लक्षणमाह चेतनाशून्यं द्रव्यमजीवः ।। चेतनेति। चेतनाशून्यत्वे सति द्रव्यत्वमजीवस्य लक्षण, जीवेऽतिप्रसङ्गवारणाय विशे- 10 षणं, न भावोऽभाव इतिवच्चेतनाभावमात्रस्याजीवत्वप्रसङ्गवारणाय विशेष्यम् , तत्राजीवस्य पञ्चविधत्वं पूर्वमुक्तमेव ॥ सम्प्रति प्रथमं धर्मं लक्षयति गत्यसाधारणहेतुर्द्रव्यं धर्मः ।। गत्यसाधारणेति । गतिर्गमनक्रिया, क्रिया च बाह्याभ्यन्तरनिमित्तापेक्षत्वे सति देशान्तर- 15 प्राप्तिहेतुत्वे सति द्रव्यपर्यायरूपा । तत्राभ्यन्तरं निमित्तं द्रव्यस्य क्रियापरिणामशक्तिः, बाह्यं . तु नोदनाभिघातादिः, एतेन च क्रियायाः कथञ्चिद्रव्यभिन्नत्वमन्यथोपरमाभावप्रसङ्गः, द्रव्यपर्यायत्वाच्च नात्यन्तिकभेदः, अन्यथा द्रव्यस्य निश्चलत्वप्रसङ्गः । ज्ञानादीनामपि बाह्याभ्यन्तरनिमित्तापेक्षत्वे सति द्रव्यपर्यायत्वात्तद्वारणाय देशान्तरप्राप्तिहेतुत्वे सतीत्युक्तम् । सा च जीवपुद्गलयोरेव, तयोरेव देशान्तरप्राप्तिदर्शनात् । तां प्रत्यसाधारणहेतुभूतं द्रव्यं धर्म इत्यर्थः, तत्र 20 कारणं त्रिविधं निर्वर्त्तकनिमित्तपरिणामिभेदात् , यथा घटं प्रति कुलालो निर्वर्त्तकं कारणं, दण्डादिकं निमित्तं, मृत्पिण्डः परिणामि, तथा जीवपुद्गलानां गति प्रति गतिक्रियाविष्टं तदेव जीवपुद्गलद्रव्यं निर्वर्तकं तदेव च गतिपरिणामि परिणामिकारणं, धर्मद्रव्यश्च निमित्तमिति । निमित्तं कारणश्च प्रायोगिकवैससिकोभयक्रियावद् यथा दण्डादिः, तद्वत् केवलं वैस्रसिकक्रियावदपि, १ आत्मपक्षे प्रयोगः आत्मा सक्रियो देहपरिस्पन्ददर्शनाद्यंत्रपुरुषवदिति, न च देहपरिस्पन्दहेतुः प्रयत्नो न कियेति वाच्यमक्रिये नभसि तदसंभववदक्रिय आत्मन्यपि तदसम्भवात् , तथाऽऽत्मा सक्रियः कर्तृत्वात् कुलालवदित्यपि प्रयोगो न चासिद्धो हेतुः, कर्ताऽऽत्मा स्वकर्मफलभोक्तृत्वादित्यनुमानतस्तत्सिद्धेरिति ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे एतदेव निमित्तकारणमसाधारणकारणमपेक्षाकारणमुच्यते, द्रव्यगतक्रियापरिणाममपेक्ष्य धर्मादीनां जीवादिगत्यादिक्रियापरिणतेः परिपोषणात् , ईदृक्परिपोषणस्यान्यासाधारणत्वात् , धर्माद्यखिलद्रव्येषु वैनसिकक्रियायाः सद्भावेन प्रायोगिक क्रियापेक्षया निष्क्रियत्वेन धर्मादिषु दण्डादिवन्निमित्तकारणत्वप्रसङ्गस्य निर्व्यापारत्वेनाकारणत्वप्रसङ्गस्य च नावकाशः । तथा 5 च जीवादावतिप्रसङ्गभङ्गाय हेत्वन्तम् । कस्यचिन्मते जीवविशेषगुणे रूढस्य धर्मस्य व्यावृत्त्यर्थ द्रव्यपदम् । गतिमत्त्वे सति द्रव्यत्वमित्युक्तौ जीवपुद्गलयोरतिव्याप्तिरिति गत्यसाधारणहेतुत्वे सतीत्युक्तम् । गतिहेतुत्वे सति द्रव्यत्वमित्युक्तौ कालादिसमवायानां कार्यमात्रकारणत्वे कालादावतिव्याप्तिवारणायापेक्षाकारणत्वापरपर्यायमसाधारणकारणत्व मुक्तम् , अपेक्षाकारणत्वे सति द्रव्यत्वमित्युक्तावधर्मादावतिव्याप्तिरिति गतीति ।। 10 ननु निखिलमिदं तदा सङ्गच्छते यदा लक्ष्यभूतं धर्मद्रव्यं प्रमितं स्यात, न ह्यप्रमितं लक्षयितुं शक्यमतिप्रसङ्गात् , तस्माच्छून्यमिदं जल्पनमित्याशङ्कायां तत्प्रमिणोतितत्र प्रमाणं जीवपुद्गलानां गतिर्वाह्यनिमित्तापेक्षा गतित्वाजलस्थम त्स्यादिगतिवदित्यनुमानम् ॥ तत्रेति । तच्छब्देन लक्ष्यभूतधर्मद्रव्यपरिग्रहः, सप्तम्यर्थो विशेष्यत्वं, तस्य च प्रमाणपद15 वाच्यप्रमितिकरणत्वैकदेशे प्रमितावन्वयस्तथा च लक्ष्यभूतधर्मद्रव्यविशेष्यकप्रमित्यसाधा रणकारणमित्यर्थस्तस्य चाग्रेतनेनानुमानपदेनान्वयः । जीवपुद्गलानामिति । गतिपरिणतानामित्यादिः, अन्यथा धर्मद्रव्यस्य बलात्तत्र गतिजनकत्वापत्तेः, न चेष्टापत्तिः, गतिपरिणतानां गतिं प्रति पोषकत्वाभ्युपगमात् , अनवरतगतिप्रसङ्गाच्च । बाह्यनिमित्तापेक्षेति, आन्तरनिमित्तजीवादिशक्तिमादाय सिद्धसाधनवारणाय बाह्येति । गतौ परिणामिकारणं 20 जीवादिकं निवर्तककारणञ्चादाय सिद्ध साधनवारणाय कारणपदमुपेक्ष्य निमित्तपदग्रहणं कृतम् । यथा च स्वयमेव सञ्जातजिगमिषस्य मत्स्यस्य गतौ जलमनुपघातकं सन्निमित्ततयोपकारकं तथा स्वभावेन परिणतजीवपुद्गलगतिरप्यनुपघातकं किञ्चन द्रव्यं निमित्ततयोपकारकमपेक्षत एव, गतित्वस्योभयत्र समानत्वात् , न च तादृशं द्रव्यमाकाशं भवितुमर्हति, अवगाहनामात्रगुणत्वात् , नान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति तथा च सत्यप्तेजो - १ तदुक्तं “परिणामी गतेधर्मो भवेत्पुद्गलजीवयोः । अपेक्षाकारणालोके मीनस्येव जलं सदा' इति । तथा यद्यच्छुद्धपदवाच्यं तत्तदस्ति, यथा स्तम्भादिः, तथा धर्मोपि, 'शुद्धपदवाच्यत्वं च प्रमाणान्तरनाधितविषयत्वाख्य दोषरहितत्वेन, न च खपुष्पादिषु केनापि संकेतितैस्स्वादिशुद्ध पैदरनेकान्तः, वृद्धपरम्परायातसंकेतविषयाणामेव शुद्धपदानां वाच्यत्वस्येह हेतुत्वेन विवक्षणादिति ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरिमाणम् ] न्यायप्रकाशलमलङ्कृते गुणा द्रवदहनादयः पृथिव्या एव प्रसज्येरन् । आकाशस्यैव निमित्तत्वेऽलोकाकाशेऽपि गमनप्रसङ्गाच्च । न च कारणत्वमन्वयव्यतिरेकगम्यं, यथा जलादिसद्भावे मत्स्यादीनां गतिस्तदभावे च तदभाव इति, तथा च धर्मद्रव्यसत्त्वेऽपि जलाभावे मत्स्यादीनां गत्यभावाद्वयभिचारेण न कारणत्वं गतौ तस्यापि तु जलस्यैवेति वाच्यम् , सत्यपि भूम्यादावधिकरणे गगनस्य सर्वाधारत्वमिव सत्यपि झषादिगतौ जलादीनां कारणत्वे सर्वेषां गतिसामान्यं प्रति निमित्ता- 5 न्तरस्यापेक्षितत्वात् । न च देशान्तरप्राप्तिहेतुर्द्रव्यपरिणामविशेषो गतिस्तथा च देश एव गत्यपेक्षाकारणमस्त्विति वाच्यम् , देशविशेषाणां देशत्वेनानुगतरूपेण कारणत्वासम्भवात् तथासति ह्यलोकेऽपि गमनं प्रेसज्येत, तत्तद्गति प्रति तत्तद्देशत्वेन कारणत्वे त्वनन्तकार्यकारणभावकल्पनाप्रसङ्गः स्यात् , न च धर्मस्यापि न धर्मत्वेन कारणत्वमतिप्रसङ्गात् , अपि तु तत्तत्प्रदेशत्वेनैवेति तवापि गौरवं दुर्वारमेवेति वाच्यम् , लोकालोकविभागान्यथानुपपत्त्यापि 10 धर्मद्रव्यस्यावश्यकत्वे तस्यैव गतित्वावच्छिन्नकार्यतानिरूपितकारणत्वाभ्युपगमात् पुद्गलस्कन्धातिरिक्तस्याकाशातिरिक्तस्य वा देशस्याभावेन तयोर्गतिपरिणामिकारणत्वेनावगाहना. गुणत्वेन च गत्यपेक्षाकारणत्वासम्भवाचेति ॥ अस्यास्तिकायत्वात्प्रदेशेयत्तामाविष्करोति असंख्येयप्रदेशात्मको लोकाकाशव्यापी च ॥ 15 असंख्येयेति । शास्त्रसंव्यवहारार्थ प्रदिश्यन्त इति प्रदेशाः, द्रव्यपरमाणुमूर्तिव्यवच्छिन्नाः, कदापि ये न वस्तुव्य तिरेकेणोपलभ्यन्ते भागास्ते प्रदेशाः। असंख्येयाः प्रदेशा येषान्ते असंख्येयप्रदेशाः तदात्मको धर्मो न संख्येयप्रदेशात्मको नाप्यनन्तप्रदेशात्मक इति भावः। न च धर्मादीनां निरवयत्वेन तत्र प्रदेशकल्पना सिंहो माणवक इतिवदौपचारिकीति वाच्यम् , प्रत्ययाभेदात् , मुख्यप्रत्ययात्सिंहविशेषादध्यवसानरूपान्माणवके हि सिंह इति गौणप्रत्ययोऽ- 20 ध्यारोपरूपो भिन्न उपलभ्यते, न च तथा पुद्गलेषु धर्मादिषु च प्रदेशप्रत्ययो भिन्नोऽस्ति, . उभयत्रावगाहभेदतुल्यत्वात् , न च परमाणुषु मुख्यः प्रदेशप्रत्यय इति वाच्यम् , अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुरिति वचनात् । ननु धर्मादीन्याकाशवर्तिक स्वात्मप्रतिष्ठान्युत जलादिवदाधारान्तरप्रतिष्ठानि, आधारान्तरप्रतिष्ठत्वेऽप्येकदेशेन सर्वात्मना वेत्याशङ्कायामाह-लोकाकाशव्यापी चेति । आकाशप्रतिष्ठानि लोकाकाशमभितो व्याप्य च प्रतिष्ठिता. 25 नीति भावः । यद्यपि निश्चयनयेन सर्वमेव वस्तु स्वात्मन्येव प्रतिष्ठितं तथापि व्यवहारनया १ न चेष्टापत्तिः, अलोकस्यानन्तत्वाल्लोकान्निर्गत्य जीवपुद्गलानां तत्र प्रवेशालोके द्विव्यादिजीवपुदलसत्त्वस्य सर्वथा तच्छून्यत्वस्य वा प्रसङ्गादिति ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिर भिप्रायेणाकाशप्रतिष्ठं विज्ञेयम् । धर्मादयो यत्र लोक्यन्ते स लोकः, लोकश्चासावाकाशश्व लोकाकाशस्तं व्याप्नोतीति लोकाकाशव्यापी, धर्माधर्मयोर्लोकाकाशेऽवगाहो न त्वलोक इति भावः ॥ : 19: अथ यत्र गतिस्तत्रावश्यं स्थितेरपि भावाद्गत्यपेक्षाकारणेनेव स्थितिं प्रत्यप्यपेक्षाकारन केनापि भवितव्यमिति मन्वानस्तादृशद्रव्यसाधनार्थं प्रथमं तत्स्वरूपमाह - 5 स्थित्य साधारण हेतुर्द्रव्यमधर्मः । प्रमाणञ्चात्र जीवपुद्गलानां स्थितिनिमित्तापेक्षा स्थितित्वात्तरुच्छायास्थपान्धवदित्यनुमानम् | असंख्येयप्रदेशात्मको लोकाकाशव्यापी च ॥ स्थित्यसाधारणेति । अत्रापि पूर्ववत् स्थितित्वावच्छिन्न कार्यतानिरूपितासाधारणकार 10 णत्वं लक्षणं पदकृत्यञ्चावसेयम् । स्थितिस्स्वदेशादप्रच्यवनहेतुर्गतिनिवृत्तिरूपा । अधर्मे मानमाविष्करोति प्रमाणचेति, स्थितिपरिणतानामित्यादिः, अन्यथाऽधर्मस्य निर्वर्त्तककारणत्वापत्तेः । बाह्यनिमित्तापेक्षेति, निर्वर्त्तक परिणामिक्रिय । द्वयवन्निमित्तकारणत्रयव्यतिरिक्तकारणान्तरसापेक्षेत्यर्थः । दृष्टान्तमाह - तरुच्छायास्थेति तरुच्छायायां पान्थस्थितिवदिति भावः । प्रदेशेयत्तामाह - असंख्येयेति । अस्याप्याधारं वृत्तित्वञ्चाह - लोकाकाशेति । अत्र पूर्ववदेव 15 विचारो विभावनीयः । अथ तृतीयमाकाशद्रव्यं लक्षयति अवगाहनागुणमाकाशम् ॥ अवगाहनेति । अवगाहनमनुप्रवेशस्स एव गुणो यस्य तदाकाशमिति विग्रहः, अवगहनागुणत्वं आकाशस्य लक्षणम् । नन्विदमवगाहनं पुद्गलादिद्रव्यसम्बन्धि गगनसम्बन्धि 20 च, संयोगवत्तथा च तत्कथमाकाशस्यैव गुणः, उभयगुणत्वे चातिव्यायापत्त्या तत्कथं लक्षणं भवितुमर्हतीति चेन्मैवम्, लक्ष्यं ह्याकाशं प्रधानमवगाह्यत्वात् अवकाशदानेनोपकारकत्वाच्च, पुद्गलादिद्रव्यन्त्ववगाहकं, तथा च स्वानुकूलावकाशदातृत्वसम्बन्धेनावगाहनाव १ यद्यत्कार्यं तत्तदपेक्षाकारणवद्यथा घटादिकार्यम् । तथा चासौ स्थितिरपि यच्च तदपेक्षाकारणं सोऽधर्मास्तिकायः । न च नास्त्यधर्मास्तिकायोऽनुपलभ्यमानत्वाच्छशविषाणवदिति वाच्यम्, दिगादीनाम सिद्धयापत्तेर्वादिनः । न च दिगादिप्रत्ययलक्षणकार्यदर्शनतस्तेऽनुमीयन्त इति वाच्यम्, तुल्यत्वात् न च नासौ कदाचिद्दृष्ट इति वाच्यं, दिगादिष्वपि तुल्यत्वात् । न चास्य सर्वदा सर्वस्य सन्निहितत्वेन सदा स्थितिस्स्यादिति वाच्यम्, दिगादिष्वपि तुल्यत्वात् । न च निमित्तान्तरापेक्षणाद्दिगादितो न सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यमधर्मास्तिकायेनापि स्वपरगतविश्रसाप्रयोगव्यापारापेक्षणादुक्तदोषासम्भवादिति भावः ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगनसिद्धिः न्यायप्रकाशसमलते त्वमाकाशस्य लक्षणं बोध्यम् । तत्र धर्माधर्मप्रदेशा हि आ लोकान्ताल्लोकाकाशप्रदेशनिर्विभागवर्तित्वेनावस्थिताः, तस्मादन्तरवकाशदानेन धर्माधर्मयोरुपकरोति, धर्माधर्मप्रदेशानामाकाशप्रदेशाभ्यन्तरवर्त्तित्वात् , अलोके च तदसम्भवात् । पुद्गलजीवानान्तु संयोगविभागैश्वोपकरोति तेषां क्रियावत्त्वात् । न चालोकाकाशे लक्षणमिदमव्याप्तमिति वाच्यम्, तत्राप्यवगाहानुकूलावकाशदातृत्वस्वभावस्य सत्त्वात् , अवगाहकाभावादेव नावगाहः, नहि 5 हंसस्यावगाहकस्याभावेऽवगाह्यत्वं जलस्य हीयत इति ॥ अथाऽऽकाशे प्रमाणमादर्शयति मानन्तु द्रव्याणां युगपदवगाहोऽसाधारणबाह्यनिमित्तापेक्षो युगपदवगाहत्वादेकसरोवर्तिमत्स्यादीनामवगाहवदित्यनुमानम् । लोकालोकभेदेन तद्विविधम् ॥ 10 मानन्त्विति । द्रव्याणामिति, अवगाहमानानामित्यादिः । अनेकद्रव्याणामेकदा योऽवगाहस्तस्यैव पक्षत्वसूचनाय युगपदवगाह इत्युक्तं, अन्यथा स्थूलानामेव द्रव्याणां प्रतिघातात् सूक्ष्माणां परस्परावगाहप्रदत्वेन तादृशावगाहेऽसाधारणबाह्यपरमाण्वन्तरसापेक्षत्वस्य सिद्धत्वेन सिद्धसाधनत्वापत्तेः । तथा च सर्वेषां युगपदवगाहं प्रत्यसाधारणं निमित्तं गगनातिरिक्तं न किमपि भवतीत्याकाशसिद्धिः । न चावरणाभाव एव तादृशोऽस्त्विति वाच्यम् , सर्वथाऽधि- 15 . करणानात्मकस्याभावस्यापसिद्धान्तत्वेन तदधिकरणात्मकस्यैवाकाशत्वात् । न चाकाशस्यापि धर्मादीनामिवावगाहदायि द्रव्यान्तरं स्यादिति वाच्यम् ततोऽधिकव्यापिद्रव्यान्तराभावात् । धर्मिग्राहकप्रमाणेन तस्यावगाह्यत्वेनैव सिद्धेश्च । एवमेव यद्यद्रव्यं तत्तत्साधारमिति व्यात्याऽस्ति गगनं द्रव्याणां साधारत्वान्यथानुपपत्तरित्यनुमानादपि सर्वाधारत्वेनाकाशसिद्धिः। न च तस्यापि द्रव्यत्वेन साधारत्वं स्यात्तथा चानवस्थेति वाच्यम् , धर्मिग्राहकमानेनाधार- 20 मात्रस्वरूपतयैव सिद्धेः । न चाकाशे द्रव्यत्वसत्वेऽपि साधारत्वाभावेन व्यभिचार इति वाच्यम् , धर्मिसिद्धेः पूर्वं व्यभिचारास्फुरणात्, तदुत्तरं तत्स्फूर्तरकिञ्चित्करत्वादिति ।। १ न च धर्माधर्माववाधारौ भविष्यतः किमतिरिक्तेनाकाशेनेति वाच्यम् । तयोर्गतिस्थितिसाधकत्वात् , न ह्यन्यसाध्यं कार्यमन्यः प्रसाधयति, अतिप्रसङ्गात् । न च युतसिद्धानामेव कुण्डबदरादीनामाधाराधेयभावदर्शनादयुतसिद्धानां न धर्माधर्माद्याकाशानामाधाराधेयभाव इति वाच्यम् , युतसिद्धयभावेऽपि पाणौ रेखेत्यादौ तद्दर्शनात् । न चाकाशस्यावकाशदातृत्वे भित्यादिना गवादीनां प्रतिघातो न स्यादिति वाच्यम् , मूर्तानां स्थूलानामन्योऽन्यप्रतिघातात् सूक्ष्माणामन्योन्यप्रवेशशक्तियोगात्, अन्योन्यप्रवेशयोग्यानामवकाशदातृत्वादाकाशस्य तावता सामर्थ्यहानाभावादिति ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 MR : वन्याय विभाकरे [ तृतीयकिरण धर्मिग्राहकमानेनाकाशस्यैकत्वे सिद्धे तस्योपाधिनिमित्तं भेदमाह – लोकालोकेति लोकाकाशोऽलोकाकाशश्चेति द्विविधमित्यर्थः, धर्माद्यवच्छिन्नं नभो लोकाकाशस्तद्विपरीतोऽलोकाकाश इति भावः । ननु लोकाकाश एव भवतु किमलोकाकाशेनेति चेन्न लोको विद्यमानविपक्षः, व्युत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिधेयत्वादघटविपक्षकघटवदित्यनुमानेन तत्सिद्धेः, न च घटा5 दिरेवालोक इति वाच्यम्, नत्रा निषेध्यसदृशस्यैव बोधनात्, तस्माद्धर्माद्याधारात्मक लोकाकाशस्य विपक्षisोकाकाशमेव भवितुमर्हतीति बोध्यम् ॥ लोकाकाशमानं वक्तुं परिच्छेदकलोकस्वरूपप्रदर्शनद्वारा परिच्छेद्यमानं स्पष्टयति- चतुर्दशरज्जुप्रमाणः पञ्चास्तिकायात्मको लोकस्तद्व्याप्योऽसंख्येयप्रदेशाssत्मको लोकाकाशः । तद्भिन्नोऽलोकाकाशोऽनन्तप्रदेशात्मकः । धर्मा10 दयस्त्रयोऽपि स्कन्धदेशप्रदेशभेदेन त्रिविधाः । पूर्णं द्रव्यं स्कन्धः । माध्यमिकौपाधिकभागा देशाः । केवलप्रज्ञापरिकल्पितसूक्ष्मतमो भागः प्रदेशः ।। 1 ' चतुर्दशेति । लोको हि भुवनं, तच्च पञ्चास्तिकायात्मकं, चतुर्दश रज्जुपरिमितच, तेन व्याप्यः - परिच्छिन्नः, तत्र परिच्छिन्न इत्यनुक्त्वा व्याप्य इति वचनं पञ्चास्तिकायेषु परिच्छेदकतया व्यापकस्य ग्रहणार्थं, तादृशश्च धर्मो वा स्यादधर्मो वा, तथा च तावत्प्रदेशत्वमेवास्यापीत्याशयेना. 15 ह - असंख्येयप्रदेशात्मक इति । अलोकाकाशमाह - तद्भिन्न इति । लोकाकाशभिन्न इत्यर्थः । अनन्तप्रदेशात्मक इति, एतदपेक्षया च समस्ताकाशस्यानन्तप्रदेशात्मकत्वमित्यपि बोध्यम् । अथ धर्मादीनां त्रयाणां विशेषमाह-धर्मादय इति । अपिना जीवोऽपि तथैवेति सूचितम्, स्कन्धमाह - पूर्णमिति निखिलस्वस्वप्रदेश परिपूर्णमसंख्येयप्रदेशात्मकमिति यावत् । माध्यमिकेति, पूर्णसमुदायादेकादिप्रदेशहीना आद्र्यादिप्रदेशं बुद्धिपरिकल्पिता विभागा देशा उच्यन्त इत्यर्थः । केवलेति । 20 केवलज्ञानेन परिकल्पितः सूक्ष्मतम निर्विभागो भागः केवलप्रज्ञयापि दुर्भेद्यः प्रदेश इत्यर्थः ॥ अथ कालस्य धर्मादिद्रव्यपञ्चकपरिणामत्वेन तदन्तर्भूतत्वे पदार्थान्तरत्वे वा सर्वथा तत्स्वरूपनिर्वचनस्यावश्यकत्वेन तं लक्षयति- वर्त्तनालक्षणः कालः ॥ वर्त्तनालक्षण इति । तत्र कालस्य पर्यायात्मकत्वे वर्त्तना लक्षणं स्वरूपं यस्य स इति 25 व्युत्पत्त्या वर्त्तनास्वरूपः काल इत्यर्थो बोध्यः । तत्र च वर्त्तना सादिसान्तादिचतुर्भेदभिन्नायां स्थित्यां यत्किञ्चित्प्रकारेण द्रव्याणां वर्तनं, सैव कालव्यपदेशभाक् । तत्र च परिणामक्रियापरत्वापरत्वानामप्युपलक्षकं वर्तनापदं, तेषामपि कालव्यपदेशभाक्त्वात् । एतेषाञ्च द्रव्यप Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालस्वरूपः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते यित्वात् कथञ्चिद् द्रव्याभिन्नत्वेन द्रव्याभेदवर्तिवर्तनादिविवक्षया कालोऽपि जीवाजीवतयोदितः, न तु पृथग्भूतं द्रव्यं, वर्तनादिपर्यायाणां द्रव्यत्वेऽनवस्थाप्रसङ्गात् , कालस्यास्तिकायत्वप्रसङ्गाच्च । अयमेव द्रव्यकालः । ईदृशाभिप्रायेणाऽऽगमः " किमयं भंते ! कालेत्ति पवुच्चई ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव" इति ॥ ___ यदि सर्वद्रव्यवर्ती वर्तनादिपर्यायः कालनाम्ना पृथग् द्रव्यं माभूत् , परन्तु सूर्यादिचारा- 5 भिव्यङ्गयो मनुष्यक्षेत्रवर्ती परमाणुवत्कार्यानुमेय श्शुद्धपदवाच्यत्वात्सत्त्वेनानुमीयमानो लोकप्रसिद्धः कालाभिधानष्षष्ठद्रव्यतया कथं न सिद्धयेदिति विभाव्यते तदा वर्तनया लक्ष्यतेऽनुमीयते योऽसौ वर्तनालक्षणः काल इत्यर्थो वाच्यः। एकस्मिन्नविभागिनि समये धर्मादीनि द्रव्याणि स्वकीयपर्यायैरादिमदनादिमद्भित्पादव्ययध्रौव्यविकल्पैर्वर्तन्त इति तद्विषया वृत्तिर्वर्तना । सा च तुल्यजातीयानां भावानां युगपद्भाविन्यत्र विवक्षिता, तस्या एव कालापेक्षत्वात् , माक. 10 न्दादिषु मञ्जरिकादिवत् । एतेन मनुष्यक्षेत्रात्परत ऊर्ध्वाधोलोकयोश्च काललिङ्गानां वर्त्तनादीनां सत्त्वेन कुतो न तत्र कालोऽभ्युपगम्यत इति शङ्का परास्ता, तत्र भावानां वर्तनायाः कालानपेक्षत्वात्तत्र सतां पदार्थानां स्वयमेवोत्पद्यमानत्वाद्विनश्यमानत्वाद्वर्त्तमानत्वाच्च । सजातीयेषु सर्वेषु युगपत्तदनुद्भवात् । विवक्षितेन नवपुराणादिना तेन तेन रूपेण परमाण्वादिपदार्थानां शश्वद्भवनं सा वा वर्तना, तथा च स्वयमेव वर्तमानानां पदार्थानां या वर्तनशीलता सा 15 बाह्यनिमित्तान्तरसापेक्षा कार्यत्वाद्भटादिवदिति वर्तनशीलत्वनिरूपितापेक्षाकारणत्वेन कालसिद्धिर्भवति । न च सा वर्त्तना समयपरिणतिस्वभावा दुरधिगमा चेति कथं तस्य पक्षत्वमिति वाच्यम् , व्यावहारिकस्य पाकस्य तण्डुलविक्लेदनलक्षणस्यौदनपरिणामस्य दर्शनात् , प्रतिसमयं प्रथमसमयादारभ्य सूक्ष्मपाकाभिनिर्वृत्तेरिव सर्वेषामपि द्रव्याणां स्वस्वपर्यायाभिनिवृत्ती प्रतिसमयं वर्तनाया अनुमीयमानत्वादस्ति कालो नवपुराणादिपरिणामान्यथानुपपत्तेरिति ॥ 20 तथा ह्यश्वोऽद्यादिकालवचनान्यपि बाह्यार्थनिबन्धनानि, असमस्तपदत्वादूपादिशब्दवत् , ह्य- ... आदिकालवचनानि यथार्थानि यथाभ्युपगममाप्तैस्तथाभिधीयमानत्वात् , प्रमाणावगम्यः प्रमेयोऽर्थ इत्येवंविधवचनवदित्याद्यनुमानानि भाव्यानि । न चादित्यगतिनिबन्धना वर्तना, तद्गतावपि वर्त्तनाया दर्शनेनापरहेतुत्वप्रसङ्गात् । नवाऽऽकाशप्रदेशनिमित्ता, तस्याधिकरणत्वात् तस्मात्कालोऽस्त्येवायमेव चाद्धाकाल उच्यते । एवञ्च यत्र कालस्तत्र वृत्तिर्वर्तनाद्याकारेण 25 परिणमते नान्यत्रेति नियमः । न च बाह्यद्वीपेषु भावानां वृत्तिः कालापेक्षा वृत्तिशब्दवाच्यत्वादिहत्यकुसुमवृत्तिवदिति तत्रापि कालसिद्धिरिति वाच्यम् , अलोकस्य वृत्तौ समयवृत्तौ च व्यभिचारात् , तथा चोत्पादव्ययध्रौव्यव्यतिरेकेण सत्त्वस्य गुणपर्यायव्यतिरेकेण च द्रव्यत्वस्यासम्भवात् कालस्यापि सत्त्वं द्रव्यत्वञ्च सिद्धमेव । ननु कालस्याविभागित्वात् परमनिरु Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे बैकसमयरूपत्वात्समुच्छिन्नपूर्वापरकोटित्वादस्तिकायत्वाभावेन प्रदेशशून्यत्वात्प्रागभावप्रध्वंसाभावावस्थयोरसत्त्वेनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वं गुणपर्यायवत्त्वञ्च कथमिति चेदुच्यते, जिनवचनस्य प्रधानोपसर्जनीकृतेतररूपद्रव्यपर्यायोभयनयावलम्बित्वादेकस्यापि समयस्य निष्प्रदे शस्य द्रव्यपर्यायावबद्धवृत्तित्वमेव, द्रव्यार्थरूपेण प्रतिपर्यायमुत्पादव्ययधर्मापि स्वरूपानन्य5 भूतक्रमाक्रमभाव्यनाद्यपर्यवसानानन्तसंख्यापरिणामपर्यायप्रवाहव्यापिनमेकमेवात्मानमात नोति, अतीतानागतवर्तमानावस्थास्वपि कालः काल इत्यविशेषश्रुतेः सर्वदा ध्रौव्यांशावलम्बनात् , तथा च श्वोभावेन विनश्याद्यत्वे प्रादुर्भवति, अद्यत्वेनापि विनश्य ह्यस्त्वेनोत्पद्यते, कालत्वेन तु श्वोऽद्यह्यःपर्यायेषु संभवित्वादन्वयरूपत्वाद् ध्रुव एवेति, पर्यायार्थतया त्वत्यन्तविविक्तरू पत्वात्पर्यायाणां प्रत्युत्पन्नमात्रविषयत्वादतीतानागतयोरभावादेव न वृत्तो नापि वय॑न्निति तेन 10 प्रकारेणासत्त्वं, तथा च स्यात्सत्त्वं स्यान्नास्तित्वमिति व्यवस्थानात् गुणपर्यायवांश्च काल इति । इत्थमवधृते कालस्वरूपे तत्प्रमाणे च तस्यास्तिकायत्वाभावेन स्कन्धदेशप्रदेशा न सन्ति किन्तु एकविध एव स इत्याह सच वर्तमानस्वरूप एक एव । सोऽपि निश्चयव्यवहाराभ्यां द्विविधः ॥ . स चेति । वर्तनया लक्ष्यमाणोऽद्धाकाल इत्यर्थः, न तु वर्तनास्वरूपात्मा कालः, तस्य 15 जीवाजीवरूपत्वात् । एक एवेति वर्तमानैकसमयात्मक इत्यर्थः । अस्य द्वैविध्यमादर्शयति सोऽपीति । वर्तमानैकसमयात्माऽद्धाकालविशेषः-प्रमाणकालोऽपीत्यर्थः । नैश्चयिको व्यावहारिकश्चेति द्विविधः कालस्समयरूप इति भावः । अद्धाकालविशेषः-प्रमाणकालोऽतीतोऽ' नागतो वर्तमानश्चेति त्रिविधः । तत्र विद्यमानैकसमयात्मको वर्तमानो नैश्चयिकः । तमव-धीकृत्य भूतस्समयराशिरतीतः। तमेव समयं वर्त्तमानमवधीकृत्य यो भावी समयराशिः 20 सोऽनागतः कालः । वर्तमानसमयान्यः सर्वोऽपि कालो व्यावहारिक इति भावस्तदुक्तं " अद्धाकालस्यैव भेदः प्रमाणकाल उच्यते । अहोरात्रादिको वक्ष्यमाणविस्तारवैभवः । तथा, अत्र प्रमाणकालोऽस्ति प्रकृतस्स प्रतन्यते । अतीतोऽनागतो वर्तमानश्चेति त्रिधा स च ॥ अवधीकृत्य समयं वर्तमानं विवक्षितम् । भूतस्समयराशियः कालोऽतीतः स उच्यते ॥ अवधीकृत्य १ तत्रानागतः कालोऽनादित्वानन्तत्वाभ्यां समानोऽपि समयाधिकः, वर्तमानसमयस्य तत्र प्रवेशात् , नचातीते कुतो न तस्य प्रवेश इति वाच्यम् । अतीतस्य विनष्टरूपतयाऽविनश्वररूपस्य तस्य तत्र प्रवेशासम्भवात्, किन्त्वविनश्वरेऽनागत एवेति । अतीतः कालश्चानागतकालात्समयेन न्यूनः । केचित्तु अतीताद्धातोऽनागताद्धाया अनन्तगुणत्वं समत्वे चेदानी समयातिकमे समयोना स्यात् , अनन्तगुणत्वे तु नानन्तेनापि कालेन गतेनासौ क्षीयत इति वदन्ति ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालप्रकाराः] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते समयं वर्तमानं विवक्षितम् । भावी समयराशियः कालस्सस स्यादनागतः ॥ वर्तमानः पुनवर्तमानैकसमयात्मकः । असौ नैश्चयिकस्सर्वोऽप्यन्यस्तु व्यावहारिकः" ।। इति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्त्याद्यभिप्रायः ॥ तत्र नैश्चयिकं कालमाह वर्त्तनादिपर्यायस्वरूपो नैश्चयिकः । ज्योतिश्चक्रभ्रमणजन्यस्समयाव- 5 लिकादिलक्षणः कालो व्यावहारिकः ॥ वर्तनादीति । वर्तनादिपर्यायैः स्वरूप्यते लक्ष्यते यस्स नैश्चयिक इत्यर्थः, वर्तनादिलिङ्गक इति यावत्, आदिना क्रियापरिणामपरत्वापरत्वानां ग्रहणम् । व्यावहारिकं कालमाह-ज्योतिश्चक्रेति, ज्योतिषां विमानविशेषाणां चक्रं समुदायस्तस्य भ्रमणेन जन्यो व्यङ्गयः, सूर्यादिचारव्यङ्गय इति भावः । समयावलिकादिलक्षण इति, योगिनापि यः कालविशेषो विभक्तुं न 10 शक्यतेऽतिसूक्ष्मत्वात्स कालविशेषः समय उच्यते । असंख्येयसमयसमुदयसमितिसमागमनिष्पन्नाऽऽवलिका । आदिना मुहूर्त्तदिवसाहोरात्रपक्षमाससंवत्सरयुगपल्यसागरोत्सर्पिणीपरावर्ती ग्राह्याः। एतेषां विशेषो बोधः प्रवचनादवसेयः। कालस्यायं विभागकलाप उपचाराथं कल्पितोऽवसेयः, समयस्यैकत्वेन विभागाभावात् समूहस्य चामुख्यत्वेनैव विभागासम्भवाच्च । परन्तु कालस्य समूहबुद्धयङ्गीकृतस्य विभागो वेदितव्यः ॥ 15 अथ कालो नास्तिकायपञ्चकव्यतिरिक्तः किन्तु जीवाजीवद्रव्यपर्याय एव वर्तनादिक्रियारूपः । स च वर्तितुर्भावादनान्तरं कालस्तत्परिणामत्वात् , कलनं संशब्दनं पर्यायाणामिति व्युत्पत्तेः । तथा च तेन तेन रूपेण सादिसान्तादिरूपेण नवपुराणादिरूपेण वा वर्तनैव द्रव्यसम्बन्धित्वाद् द्रव्यकाल उच्यते, जीवाजीवौ वा पर्यायपर्यायिणोरभेदोपचारात् । न खलु वर्तनापरिणामादिभ्यो भिन्नं द्रव्यमस्ति, समयावलिकादिरूपोऽपि नृक्षेत्रगः कालो न 20 जीवाजीवेभ्यो व्यतिरिक्तः, सूर्यादिक्रियैव हि परिणामवती कालो नान्यः । पर्यायरूपत्वेन तस्यैकत्वेऽपि किञ्चिन्मात्रविशेषविवक्षया द्रव्यकालोऽद्धाकाल इत्यादिव्यपदेशः । तस्मात्तदुपचरितं द्रव्यमुच्यत इत्याशयेनाह... वस्तुतस्तु कालोऽयं न द्रव्यात्मकः। किन्तु सर्वद्रव्येषु वर्तनादिपर्यायाणां सर्वदा सद्भावादुपचारेण कालो द्रव्यत्वेनोच्यते। वर्तनादिपर्या- 25 याश्च वर्तनाक्रियापरिणामपरत्वापरत्वरूपेण चतुर्विधाः । तत्र सादिसा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे न्तसाधनन्तानादिसान्तानाद्यनन्तभेदभिन्नेषु चतुःप्रकारेष्वेकेनापि केनचित्प्रकारेण द्रव्याणां वर्त्तनं वर्त्तनेत्युच्यते । इयं वर्त्तना प्रतिसमयं परिवर्तनात्मिका, नातो विवक्षितैकवर्तना द्विसमयं यावदपि स्थिति कुरुते । अतो या वर्तनायाः परावृत्तिस्सा पर्यायत्वेनाभिधीयते । भूत5 काले भूता भविष्यति भविष्यन्त्यो वर्तमानकाले च भवन्त्यो या द्रव्याणां चेष्टास्सः क्रियापर्यायः। प्रयोगविस्रसापरिणामाभ्यां जायमाना नवीनत्वप्राचीनत्वलक्षणा या परिणतिस्स परिणामः ॥ वस्तुतस्त्विति । न द्रव्यात्मक इति, अपि तु पर्यायात्मक इति भावः । तर्हि द्रव्यकाल इति कथमित्यत्राह-किन्विति, तथा च पर्यायपर्यायिणोरभेदोपचारादिति भावः । अथ 10 कालस्वरूपानुपकारभूतान वा वर्तनादीन्निदर्शयति वर्तनादीति । तत्र द्रव्याणां वर्त्तनं वर्तना। देशान्तरप्राप्त्यादिलक्षणा चेष्टा क्रिया । द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन परिस्पन्देतरप्रयोग जपर्यायस्वभावः परिणामः । यदाश्रयतो द्रव्यं परापरव्यपदेश्यं ते परत्वापरत्वे, परत्वं पूर्वभावित्वमपरत्वं पश्चाद्धावित्वमिति । यद्यपि परत्वापरत्वे प्रशंसाकृते क्षेत्रकृतेऽपि भवतः । यथा परो धर्मोऽपरोऽधर्म इति, अत्र परत्वं ज्ञानत्वमपरत्वमज्ञानत्वं । एकदि15 क्कालावस्थितयोरयं परोऽयमपर इति, अत्र परत्वं विप्रकृष्टत्वं सन्निकृष्टत्वमपरत्वं बोध्यम् , तथापि कालप्रसङ्गेन पूर्वपश्चाद्भावित्वरूपे एवात्र ग्राह्ये । अथ वर्तनां स्वरूपयति-तत्रेति चतुर्विधेषु पर्यायेष्वित्यर्थः । द्रव्याणां स्थितिश्चतुर्विधा, सादिसान्ता, साद्यनन्ता, अनादिसान्ता, अनाद्यनन्ता चेति । आसु केनचिद्रूपेण द्रव्यस्य वर्तनमि त्यर्थः, तत्र द्रव्यं चेतनाचेतनभेदाविविधम् । सचेतनस्य सुरत्वनारकत्वतिर्यक्त्वमनुष्यत्व20 पर्यायमधिकृत्य सादिसान्ता स्थितिः । प्रत्येकं सिद्धत्वापेक्षया साद्यनन्ता सिद्धानां । भव्यत्व माश्रित्य भव्यानामनादिसान्ता, सिद्धत्वप्राप्तौ भव्यत्वनिवृत्तेः । अभव्यत्वमुररीकृत्याभव्यजीवानामनाद्यनन्ता विज्ञेया। अचेतनेषु व्यणुकादिस्कन्धानां सादिसान्ता स्थितिः, उत्कृष्टतोऽप्येकेन द्वयणुकत्वादिपर्यायेण पुद्गलद्रव्यस्यासंख्येयकालमात्रस्थितेः । अनागताद्धाया भविष्यत्कालरूपाया साद्यनन्ता, अतीताद्धाया अतिक्रान्तकालरूपाया अनादिसान्ता, धर्मा25 धर्माकाशादीनां अनाद्यनन्ता बोध्या । प्रोक्तचतुर्विधस्थित्यन्यतमरूपेण स्वयमेव वर्तमानानां पदार्थानां समयाश्रया वर्तनशीलता वर्त्तनेति भावः । इयमिति, समयाश्रयेत्यर्थः। तस्मादेव कापि वर्तना न द्विव्यादिसमयवर्तिनी अत एव परिवर्तनशीला तदेव परिवर्तनं पर्याय उच्यत इत्याह-नात इति । क्रियापर्यायमाख्याति-भूतकाले भूता इति । करणं हि क्रिया स द्रव्य Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुललक्षणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : ४७ : परिणामविशेषो यथा वर्त्तमानत्वमतीतत्वमनागतत्वश्चेति, आकाश प्रदेशावल्यामङ्गुली वर्त्तते अतीताऽनागता चेति अङ्गुलीनिष्ठा वर्त्तमानत्वातीतत्वानागतत्व पर्यायाः कालाश्रयाः क्रियारूपा द्रव्यस्य, समयानाश्रयत्वेऽतीत एव वर्त्तमानोऽनागतश्च स्यात्, एवमनागतो वर्त्तमानश्च सङ्कीर्येत, न चैतदिष्टम्, ततश्च समयभेदेन भूतसमयराश्यपेक्षया भूता अङ्गुल्यादीनां क्रियाः, वर्त्तमानसमयापेक्षया भवन्त्यः, अनागतसमयराश्यपेक्षया भविष्यन्त्यः क्रियाः पर्याया 5 उच्यन्ते सा क्रिया त्रिधा प्रयोगविस्रसामिश्रजन्यभेदात्, तत्र प्रयोगजा जीवक्रियापरिणामसम्प्रयुक्ता शरीराहारवर्णगन्धरसस्पर्श संस्थानविषया, विस्रसाजन्या प्रयोगमन्तरेण केवलमात्मद्रव्यपरिणामरूपा, परमाण्वन्द्रधनुः परिवेषादिरूपा विचित्रसंस्थाना च, मिश्रजन्या तु प्रयोगविस्रसाभ्यामुभयपरिणामरूपत्वाज्जीवप्रयोगसहचरिता चेतनद्रव्यपरिणामा कुम्भस्तम्भादिविषयेति बोध्या । एवंरूपत्वेऽपि क्रियायाः पदार्थानां भूतत्त्रभविष्यत्व वर्त्तमानत्व - 10 विशिष्टा गतिक्रियारूपाः क्रियापर्यायत्वेन ग्राह्याः, कालानुकूलत्वात् । अथ परिणाममाहप्रयोगेति । स्पष्टं तदुक्तं " द्रव्याणां या परिणतिः प्रयोग विस्रसादिजा | नवत्वजीर्णताद्या च परिणामस्स कीर्तित " इति । यद्यपि परिणामः क्रियाविशेष एव तथापि परिणामेन स्थितेस्सङ्ग्रहात्क्रियातो भेदेनोत्कीर्तनम् । न च परिणाम एवोच्यतां किं क्रियया, तस्या अपि तत्रान्तर्गतत्वादिति वाच्यम् । द्रव्याणां द्वैविध्य प्रकाशनाय तदुपादानात् द्रव्यं हि द्विविधं 15 परिस्पन्दरूपम परिस्पन्दरूपमिति, तत्र परिस्पन्दः क्रिया, अपरिस्पन्दः परिणाम इति ॥ अथ परत्वापरत्व पर्यायमाह - यदाश्रयतो द्रव्येषु पूर्वापरभावित्वव्यपदेशस्सः परत्वापरत्व पर्यायः ॥ F यदेति । कालोपकारप्रकरणात्कालकृते परत्वापरत्वेऽत्र ग्राह्ये न क्षेत्रप्रशंसाकृते, बालवृद्धयोः पुरुषयोः सन्निकृष्टे पर इति विप्रकृष्टेऽपर इति व्यवहारः कालकृतपरत्वापरत्वाभ्यां 20 भवतीति पूर्वापरभावित्वप्रयोजके परत्वापरत्वे पर्यायविशेषौ कालापेक्षे इति भावः ॥ अथ षष्ठं पुद्गलद्रव्यं निरूपयति रूपवन्तः पुद्गलाः ॥ रूपवन्त इति । रूपमस्त्येषामेषु वेति रूपवन्तः, पुद्गला इति, अत्र बहुवचनं परमाणुभेदात्स्कन्धभेदाच्च तेषां भिन्नत्वप्रतिपादनार्थम् । अत्र रूपशब्दवाच्या मूर्तिः सा रूपादि - 25 संस्थान परिणामा, रूपरसगन्धस्पर्शैः परिमण्डलत्रिकोणचतुरस्रायतचतुरस्राद्याकृतिभिश्च यः परिणामस्सा मूर्त्तिः । यदि धर्माधर्मसिद्धानां प्रतिविशिष्टसंस्थान परिणामवत्त्वेनातिप्रसङ्ग इति Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरवन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे विभाव्यते तर्हि रूपं चक्षुर्ग्रहणलक्षणं ग्राह्यम् । रूपव्यतिरेकेण पुद्गलानामनुपलब्धेर्द्रव्यार्थादेशतो रूपपरिणामात्पुद्गलद्रव्यमभिन्नं, पर्यायार्थादेशाच्च कथञ्चिद्भेदः ततश्च कथश्चिद्भेदाभेदसम्बन्धेन रूपवत्त्वं पुद्गलद्रव्यस्य लक्षणं बोध्यम् । मूर्तिमत्त्वस्य रूपवत्त्वस्य च प्राप्त्यर्थं सर्वसंसारिजीवग्रहणयोग्यस्पर्शवत्त्वलक्षणं विहाय रूपवन्त इत्युक्तं, तेन यद्रूपवद्र्व्यं तन्मूर्ति5 मदिति लभ्यते, यद्यपि स्पर्शरसगन्धा अपि मूर्ति न व्यभिचरन्ति तथापि स्पर्शादिशब्दानभिधेयत्त्वात्तल्लाभो न भवेदेवेति तल्लाभार्थमेव तथोपादानम् । एतेन सर्वत्र रूपरसगन्धस्पर्शानां सत्त्वेन केषाश्चिदेव परमाणूनां रूपवत्त्वं केषाञ्चिदेव गन्धवत्त्वं रसवत्त्वं स्पर्शवत्त्वमिति भिन्नजातीयत्वं परमाणूनां व्युदस्तं, यत्र रूपपरिणामस्तत्र सर्वत्र स्पर्शरसगन्धानां सत्त्वादु स्कटानुत्कटभेदेन च गुणानामुपलब्ध्यनुपलब्ध्युपपत्तेरिति । 10 एवञ्च पुद्गलमात्रस्य रूपरसगन्धस्पर्शवत्त्वाद्रूपवत्त्वमिव रसवत्त्वगन्धवत्त्वस्पर्शवत्त्वरूपाणि व्यभिचारादिविधुराणि लक्षणानि सम्भवन्तीत्यभिप्रायेणाह ___ एते रसगन्धस्पर्शवन्तोऽपि । लोकाकाशव्यापिनः । ते च स्कन्धदेशप्रदेशपरमाणुभेदेन चतुर्विधाः ॥ एत इति । पुद्गला इत्यर्थः । कथश्चिद्भेदाभेदादत्रापि मतुप् बोध्यः । अथवा नित्ययोगे 15 मतुप, रूपादिभिर्नित्यसम्बद्धा इत्यर्थः। तेनेन्द्रियसम्बन्धात्पूर्वमपि पुद्गला रूपाद्याकारभाज ___ एव, न केवलं द्रव्यस्वभावा मूर्तिरेव चक्षुरादिग्रहणमासाद्य रूपादिव्यपदेशमश्रुते इति बोध्यम् । नन्वेषां पुद्गलानां कावगाहो लोकेऽलोकेऽपि वेत्याशङ्कायामाह-लोकाकाशेति । असंख्येयप्रदेशात्मके लोकाकाश एवावगाहो न त्वलोके, धर्मास्तिकायविरहेण लोकादहिर्गमनासम्भवा दिति भावः । ननु लोकाकाशेऽपि किं सर्वात्मनाऽवगाहो घटजलाशयवद्वा एकदेशेनोच्यते20 परमाणुर्हि स्वयं प्रदेशरूपः, प्रदेशान्तररहितोऽतस्तस्यैकस्मिन्नेव प्रदेशेऽवगाहः, व्यणुकस्य " परिणामवैचित्र्यादेकस्मिन् द्वयोश्च त्र्यणुकस्यैकस्मिन् द्वयोस्त्रिषु च, एवंक्रमेण चतुरणुकादीनां, संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामेकसंख्येयासंख्येयप्रदेशेष्ववस्थानमिति । अथैषां स्कन्धादिविभागमाह-ते चेति । पुद्गलास्संक्षेपतोऽबद्धा बद्धाश्चेति द्विविधाः, अबद्धाः परमाणव एते निरवयवाः, बद्धाश्च स्कन्धाः सावयवाः, स्कन्धापेक्षया देशप्रदेशभेदौ, तत्र 25 स्कन्धः स्थौल्यभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापाराऽऽस्कन्दनात् स्कन्ध इति परमाणुसंघातरूपः ॥ तदाह... कृत्स्नतया परिकल्पितपरमाणुसमूहः स्कन्धः ।। - कृत्स्नतयेति । विशिष्टरचनावान् पूर्णः परमाणुसंधातः स्कन्ध इत्यर्थः, यथा घटादिः, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्यायप्रकाश पुद्गलभेदाः ] भ्यायप्रकाशसमलङ्कृते देशप्रदेशवारणाय पूर्ण इति, विशकलितपरमाणुव्रजवारणाय विशिष्टरचनावानिति, एतेनावयविनः परमाणुसंघातात् सर्वथा भिन्नत्वं व्युदस्तम् ,नन्ववयवावयविनौ भिन्नौ भिन्नप्रतिभासत्वात्सह्यविन्ध्यवत् , न चासिद्धो हेतुस्साध्यधर्मिणि तत्सद्भावनिश्चयात्। न चानेकपुरुषप्रतिभासविषये एकस्मिन्नर्थे भिन्नप्रतिभासत्वसत्त्वेन व्यभिचार इति वाच्यम् , एकपुरुषापेक्षया भिन्नप्र. तिभासत्वस्य हेतुत्वात् । न चैकेन पुरुषेण क्रमेण दृष्टे एकस्मिन्नेव घटे हेतोस्सत्त्वेन व्यभि- 5 चार इति वाच्यम् , भिन्नलक्षणत्वे सत्येकपुरुषापेक्षया भिन्नप्रतिभासत्वस्य हेत्वर्थत्वात् , अस्ति हि घटकपालादौ विभिन्नलक्षणत्वं भिन्नप्रतिभासत्वश्च । न च ययोन तादात्म्यं न तयोरभिन्नदेशत्वं, यथा सह्यविन्ध्ययोः । अभिन्नदेशत्वञ्चावयवावयविनोस्ततस्तादात्म्यमेवेति वाच्यम् , अवयवावयविनोरभिन्नदेशत्वासिद्धेः, घटादेहि कपालो देशस्तस्य च तदवयव इति देशस्य भिन्नत्वमेवेति । न च कथञ्चित्तादात्म्यस्य प्रत्यक्षतः प्रतीतेस्सर्वथा भेदपक्षो बाधित इति वाच्यम् , भेद- 10 स्यैव पूर्वसिद्धत्वात् तादात्म्यस्य पूर्वसिद्धत्वाभावात् , कार्यकारणत्वधर्मधर्मित्वाधिकरणाधेयत्वविभिन्न क्रियात्वादिभिर्भेदस्य सिद्धेस्तस्मादवयवावयविनोर्भेद एवेति चेन्मैवम् , वृत्त्यनुपपत्तेः, सा हि वृत्तिः प्रत्याश्रयमेकदेशेन सर्वात्मना वा स्यात् , तत्र न ह्येकस्य प्रत्याश्रयमेकदेशेन वृत्तित्वं, निरंशत्वात् , नवा सामस्त्येन, अवयविनां बहुत्वापत्तेः स्वावयवेषु प्रत्येकं सर्वात्मना वर्तमानत्वात् , न चाप्यवयविनः प्रदेशवत्त्वं न्याय्यं, तत्रापि वृत्तिविकल्पेनानवस्थानात् , एकदेश- 15 सर्वात्मभिन्नवृत्तिताया अप्रसिद्धत्वात् । न च समवाय एव प्रकारान्तरं वर्त्तत इति वाच्यम् , समवैतीति समवाय इति सम्प्रत्ययात् तत्रापि प्रत्याश्रयमेकदेशेन सर्वात्मना वेति विकल्पस्य निष्प्रत्यूहत्वात् , तत्र च दोषस्योक्तत्वात् । तस्मादवयविनः स्वाश्रयेभ्यो नैकान्तेन भेदस्तत्र वृत्त्युपलब्धेः । यतो यस्यैकान्तभेदस्तत्र तस्य न वृत्त्युपलब्धिर्यथा विन्ध्यस्य हिमवति । स्वाश्रयेषु त्ववयव्यादेवृत्त्युपलब्धेनैकान्तेनान्यत्वम् । अतस्सर्वथा भेदस्य बाधितत्वेन भिन्न- 20 प्रतिभासत्वहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् । न च घटे ततस्सर्वथा भिन्नस्यापि जलस्य वृत्त्युपलध्या व्यभिचार इति वाच्यम् । तत्र वृत्तेसंयोगस्य परिणामविशेषस्य संयोगिभ्यां घटजलाभ्यां सर्वथा भेदासिद्धेः । अन्यथा संयोगाभावप्रसङ्गात् । ताभ्यां हि भिन्नस्य संयोगस्योत्पत्ती जलस्य कथं घटे संयोग इति व्यपदेशो यत्तस्स तत्रैव वृत्तिर्भवेत् । संयोगस्य ताभ्यां जननात्तथा व्यपदेश इति तु तस्य कालादितोऽपि जननात्तत्रापि तथा व्यपदेशप्रसङ्गतो व्युदसनीयः । 25 तस्मान्न संयोगिभ्यां संयोगोऽर्थान्तरभूत इति नोक्तहेतौ व्यभिचारः, सर्वथाऽर्थान्तरभूतस्य १ कार्यकारणादिभेदस्य सर्वैः स्वीकृतत्वेन पूर्वसिद्धत्वादित्यर्थः । २ तत्प्रत्यक्षस्य विवादापनत्वेन तादा- . त्म्ये साध्ये हेतौ संदिग्धासिद्धरित्यर्थः। ३ एकस्यावयव्यादेर्भागाभावेमानेकत्रावयवादौ वृत्तिने भवतीति भावः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५० तस्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे क्वचिदपि वृत्त्यनुपलब्धेन विरोधोऽपि । ननु तवयवावयव्यादीनां का वा वृत्तिरिति चेत्कथञ्चित्तादात्म्यमित्युच्यते, न च तथासति तवापि वृत्तिविकल्पदोषप्रसक्तिरिति वाच्यम् , पदार्थानां भेदाभेदशबलैकवस्तुस्वरूपत्वेनावयवादिभ्योऽवयव्यादेस्तादात्म्यस्याशक्यविवेचनत्वेन तदोषानवकाशात् । एवमेव गुणगुणिनोः क्रियाक्रियावतोस्सामान्यतद्वतोरपि वृत्त्युपपत्तिर्बोध्येति दिक्।। 5 अथ देशमाह प्रदेशादर्वाचीनस्कन्धभागा देशाः ॥ प्रदेशादर्वाचीनेति । अयम्भावः, व्यणुकादिक्रमेणानन्तानन्तपरमाणुकावसानाः संघातविशेषात्समुत्पन्ना बहवस्स्कन्धा भवन्ति, तत्र स्वेषु स्वेषु स्कन्धेषु प्रदेशात्मकमेकं परमाणु पूर्णश्च स्कन्धं विहाय तदपृथग्भूता द्विव्यादिपरमाणुसंघाता देशा उच्यन्ते, न तावत्तदपृथग्भूत 10 एकः परमाणुर्देशस्तस्य प्रदेशत्वात् , यथा घटस्य ग्रीवोदरपृष्ठादयो देशाः। तत्पृथग्भूतानान्तु ग्रीवादीनां स्कन्धान्तरत्वमेवेति ॥ अथ प्रदेशमाह केवलप्रज्ञागम्यस्कन्धानुवर्तिसूक्ष्मतमो भागः प्रदेशः ॥ केवलप्रक्षेति । योऽयं भागोऽतितरां सूक्ष्मः स्कन्धादपृथग्भूतः केवलप्रज्ञयैव गम्यस्स प्रदेश 15 इत्यर्थः । यथा घटस्यापृथग्भूतस्सुसूक्ष्म एकः परमाणुभागः । स्कन्धोऽयं भेदात्सङ्घाताद् भेद सङ्घाताभ्याश्च जायते, तत्र भेदः संहतानां बाह्याभ्यन्तरपरिणामकारणसन्निधाने सति विदारणं, यथा पूर्णस्कन्धादेकस्याणोर्भेद एकाणुभेदात्तन्न्यूनस्कन्धो जायते, एवं द्विव्यादिपरमाणुभेदक्रमेण यावविप्रदेशस्कन्धैर्भाव्यम् । पृथग्भूतानामेकी भावः संघातः, यथा द्वयोः परमाण्वोस्संघातात् द्विप्रदेशो द्विप्रदेशस्याणोश्च संघातात्रिप्रदेशस्स्कन्ध इत्यादिप्रकारेण जायते, एकसामयिका20 भ्यां भेदसंघाताभ्याञ्च द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उत्पद्यन्ते यथाऽन्यस्य परमाणोस्संघातेनान्यतः स्कन्धाद्भेदेनेति । एवं परिप्राप्तबन्धपरिणाम एव स्कन्धः, तत्र च केषाञ्चित्स्कन्धानां बन्धो जीवव्यापारसम्प्रयुक्तो यथौदारिकशरीरजतुकाष्ठादिविषयः । केषाश्चित्स्कन्धानां प्रयोगनिरपेक्षो वैस्रसिक आदिमदनादिमद्भिन्नः, तत्राद्यो विद्युदुल्कामेघादिविषयः स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तः, अपरश्च धर्माधर्माकाशविषयः, केषाश्चिच्च स्कन्धानां जीवप्रयोगसहचरिताचेतनद्रव्यपरिणति25 लक्षणो यथा स्तम्भकुम्भादिविषयः । तथा स्कन्धा अन्त्यस्थौल्या आपेक्षिकसौम्यस्थौल्या इत्थमनित्थंसंस्थानाच, यथा निखिललोकव्यापी महास्कन्धोऽन्त्यस्थूलतावानवयवविकासमपेक्ष्यैवं बोध्यम् , प्रवचने त्वस्य सूक्ष्मपरिणामत्वमुक्तम् । बदरादौ चामलकापेक्षया बदरं सूक्ष्म Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , परमाणुचर्चा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५१ : चणकापेक्षया च स्थूलमिति, वृत्तत्र्यत्रचतुरस्राऽऽयतपरिमण्डलादिरूपमित्थं संस्थानं, ततोऽन्यदनित्थं संस्थानं, वृत्तादिरूपेण निरूपयितुमशक्यत्वादिति ॥ अथ परमाणुमादर्शयति स एव पृथग्भूतश्चेत्परमाणुरिति व्यवह्रियते । अयं परमाणुस्सर्वा - न्तिमकारणं द्रव्यानारभ्यः कार्यलिङ्गकश्च ॥ 5 स एवेति । प्रदेश एवेत्यर्थः, स्कन्धादिति शेषः । एतेन परमाणोर्भेदादेवोत्पादोन संघातान्नापि भेदसंघाताभ्यामिति सूचितम् । इदच पर्यायनयाभिप्रायेण कार्यत्वोपवर्णनं विज्ञेयम्, स्नेहरौक्ष्यादिविगमात्स्थितिक्षयतो द्रव्यान्तरेण भेदात्स्वभावगत्या च द्व्यणुकादिस्कन्धभेदादुपजायमानत्वात् । द्रव्यनयापेक्षयात्वाह - अयमिति । सर्वान्तिमकारणमिति, सर्वेषां द्र्यणुकादिद्रव्याणां कारणं, सर्वमेव हि द्रव्यं विदार्यमाणमसंभवद्भेदपरमाणुपर्यवसानं जायते, न 10 पुनरत्यन्ताभावरूपं निरुपाख्यमिति भावः । द्रव्यानारभ्य इति, स्वतो द्रव्यावयवद्वारेणाभेद्यः, द्रव्यान्तरावयवद्रव्यभिन्नत्वात् । रूपादिभिस्तु स्याद्भेदवान्, न च परमाणुरसन् निष्प्रदेशत्वाद्गगनकुसुमवदिति वाच्यम्, सावयवद्रव्याभावात् सावयवप्रतिक्षेपेण चावश्यमनवयवेन सता वस्तुनैव भवितव्यं स चादिमप्रदेशोऽणुरित्युच्यते, न च परमाणुः सावयवः संस्थानित्वात् कलशादिवदिति वाच्यम्, असिद्धेः, संस्थानस्य द्रव्यावयवप्रयुक्तत्वाद्द्रव्यावयवा - 15 सिद्धौ तदसिद्धेः, नाप्यसन्परमाणुरसंस्थानित्वादिति वाच्यम्, आकाशादौ व्यभिचारात् । तथा च परमाणुर्द्रव्यात्मना स्यान्निरवयवो भावात्मना च स्यात्सावयवः, रूपाद्यवयववत्त्वात् तथा द्रव्यार्थादेशात्स्यात्कारणं, पर्यायार्थादेशाच्च स्यात्कार्यं स्कन्धभेदादुपजायमानत्वादत एव च स्यान्नित्यमनित्यश्च । कार्यलिङ्गकश्चेति । अणूनामस्तित्वं कार्यलिङ्गादवसेयं, कार्यलिङ्गं हि कारणं, नासत्सु परमाणुषु शरीरेन्द्रियमहाभूतादिलक्षणस्य कार्यस्य प्रादुर्भावः । ननु सर्वा- 20 न्तिमकारणत्वेन परमाणोर्निरवयवत्वात्कथमणुकयोः संहतौ द्व्यणुकरकन्धो जायते, संश्लेषासंभवात्, संश्लेषो हि तयोरेकदेशेन सर्वात्मना वा स्यात्, नाद्यः सावयवत्वापत्तेः, नान्त्यः सकलस्यापि जगत एकपरमाणुमात्रत्वापत्तेरिति चेन्न, अनेकवस्तुविषये निरवशेषाभिधायित्वेन प्रसिद्धस्य सर्वशब्दस्य द्रव्यात्मनैकस्मिन् परमाणौ प्रयोगासम्भवात् । एकदेशशब्दस्यापि नानात्वेन निश्चितस्यपदार्थस्य कस्यचिद्भागाभिधायिनो निर्भागपरमाणुविषये प्रयोगासंभवाच्च । 25 स्वयं ह्यवयवभूतः परमाणुः परमाणुना सह भेदेन योगमायाति, न त्वण्वन्तरमाविशति, तस्य सक्रियत्वेन परमाणुस्थाकाश एवाऽऽवेशनात्, न च परमाणावना वेशे योगो न संभवति द्व्यङ्गु १ द्रव्यपर्यायार्थादेशत इत्यर्थः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे लवत् परस्परमनाश्लिष्टत्वादिति वाच्यम् , आवेशतो योग इत्यनुक्तेः किन्तु निरवयवत्वात् , तस्य च द्रव्यप्रदेशान्तरं न संयुक्तमपि तु स्वयमेवेति न कश्चिद्दोषः । अपि च योगस्सम्प्राप्तिलक्षणो न चासौ प्रदेशैरेव क्रियते, निष्प्रदेशस्यापि स्वयं प्राप्तौ विरोधाभावात् । एवं परमाणव एते प्रतिघातिनोऽप्रतिघातिनश्च तत्र प्रतिघातत्रिविधो बन्धलक्षण उपकाराभावलक्षणो वेगलक्षण5 श्चेति । बन्धपरिणामप्रतिघातः स्निग्धरुक्षत्वप्रयुक्तबन्धतः, लोकादन्यत्र जीवाजीवानां गतेः प्रतिघात उपकाराभावान् , आगच्छता वैस्रसिकवेगवता परमाणुना परमाणोः प्रतिघातो वेगात् वेगवतोरेवाण्वोः प्रतिघातात्, एकस्मिन्नेवाकाशप्रदेशेऽनन्तानामपि परमाणूनामवगाढत्व मप्रतिघातपरिणामात् , व्याप्तैकापवरके प्रदीपप्रभयेवान्यप्रदीपप्रभाणां, शीततमइशब्दपुद्गला नामप्रतिघातित्वदर्शनात् । इत्थश्च परिणामविशेषात्प्रतिघातित्वमप्रतिघातित्वञ्च सम्भवति 10 पुद्गलेषु, यथा शब्दस्तावत् तिरस्कृतोऽपि कुड्यादिभिरप्रतिहन्यमानः श्रवणपथमभ्युपैति, स एव कदाचिदुह्यमानत्वाद्वायुना प्रतिहन्यते प्रतिवातस्थितेनानुपलभ्यमानत्वात्, अनुवातस्थितेनोपलभ्यमानत्वाच्चेति दिक् ।। अथ पुद्गलानां न केवलं स्पर्शादय एव धर्मा अपि तु शब्दादयोऽपीत्याह शब्दान्धकारोद्योतप्रभाच्छायाऽऽतपादिपरिणामवान् ॥ 15 शब्देति । प्रत्यर्थनियतसङ्गतवर्णादिविभागवान् ध्वनिः शब्दः, अनादिवृद्धपरम्परा संकेतप्रसिद्धिवशात् प्रत्यर्थनियतत्वं, परस्परापेक्षातः स्वाभिधेयैकार्थकारितया शिबिकोद्वाहकवत् सङ्गतत्वं वर्णपदवाक्यानि, अव्यक्तशब्दश्च विभागस्तद्वान् ध्वनिरेव शब्दस्स च पुद्गलपरिणामत्वात्प्रतिविशिष्टपरिणामानुगृहीतः पुद्गलद्रव्यरूप एव, अत एव मूर्त्तत्वं द्रव्या न्तरविक्रियापादनसामर्थ्याच्च । न च शब्दो न पुद्गलपरिणामो निश्छिद्रभवनाभ्यन्तरतो 20 निर्गमनात् , तत्र बाह्यतः प्रवेशात् , व्यवधायकाभेदनादेश्च दर्शनात् , यस्तु पुद्गलस्वभावो न तस्यैवंदर्शनं, यथा लोष्ठादेः, तथादर्शनं च शब्दस्य, ततो न पुद्गलस्वभावत्वमिति वाच्यम् , पुद्गलस्वभावत्वेऽपि तदविरोधात् सूक्ष्मस्वभावत्वाद्धि तस्य निश्छिद्रनिर्गमनादयो न विरुद्ध्येरन् स्नेहादिस्पर्शादिवत् , कथमन्यथा पिहितकलशाभ्यन्तरतस्तैलजलादेर्बहिनि १ बन्धपरिणामोऽन्योऽन्याङ्गाङ्गिभावपरिणामः, न तु नैरन्तर्येण परस्परं संयोगमात्रं, तथा सति प्रतिघातो न स्यादेव । अनन्तानामपि परमाणूनां संयोगवृत्त्यै कस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽप्रतिघातेन वृत्तेरिति भावः । २ एकस्मिन् परमाणौ कथं प्रतिघातित्वाप्रतिघातित्वे विरुद्ध स्त इत्याशंकायां सदृष्टान्तमाहेत्थञ्चेति । ३ स्वयं विशेषणानाम र्थमाहानादीति । ४ शब्दस्य मूर्तपुद्गलपरिणामत्वादेवेत्यर्थः । शब्दस्य मूर्तत्वे हेत्वन्तरमाह द्रव्यान्तरेति. चशब्दो हेत्वन्तरसमुचायकः, तेन प्रतीपयायित्वावारानुविधायित्वादित्यादयो हेतवो ग्राह्याः ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दादीनां द्रव्यत्वं ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । गमनं स्निग्धतादिविशेषदर्शनादनुमीयेत । कथं वा पिहितनिश्छिद्रमृदटादेर्जलाभ्यन्तरनिहितस्यान्तश्शीतस्पर्शोपलम्भात्सलिलप्रवेशोऽनुमीयेत, तदभेदनादिकं वा तस्य निश्छिद्रतया प्रेक्षणात्कथमुत्प्रेक्षेत, तस्मात्स्नेहादिस्पर्शादिभिर्व्यभिचारी हेतुः । न च शब्दो न पुद्गलस्वभावः, अस्पर्शत्वात् सुखादिवदिति बाधकसद्भावान्न पुद्गलस्वभावत्वं शब्दस्येति वाच्यम् , हेतोरसिद्धत्वात् , यतः कर्णशष्कुल्यां कटकटायमानस्य प्रायशः प्रतिघातहेतोः श्रवणाापघा- 5 तिनः शब्दस्य प्रसिद्धिरस्पर्शत्वकल्पनामस्तङ्गमयति । न च शब्दस्य पुद्गलपर्यायत्वे चाक्षुषत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् , गन्धपरमाणुवददृश्यत्वात् , एतेन शब्दस्याकाशगुणत्वं निरस्तं मूतत्वात्, नहि रूपादयो व्योमगुणा इति व्यवहारः शोभते तस्मात् पुद्गलानामेव तथाविधः परिणामः शब्दव्यपदेशमश्नुते, तथा च परिणामपरिणामिनोरभेदेन स्याद्रव्यं स्याद्गुण इति विज्ञेयम् । अन्धकारस्तावत्पुद्गलपरिणाम एव भित्त्यादिवद् दृष्टिप्रतिरोधकारित्वात् , पटादिवदा- 10 वारकत्वात्, न तु तेजोऽभावरूपः, व्यवधानक्रियासामर्थ्यात् भित्त्यादिवत् , अभावरूपत्वे हि निष्क्रियत्वेन व्यवधानक्रियाकर्त्तत्वं न स्यात्तस्य, न च यत्कार्यद्रव्यं न तत्तैजसेन प्रकाशेन. विरुध्यते, विरुध्यते च तमः, ततो न द्रव्यकार्य तदिति वाच्यम् , तेजःप्रकाशयोरेकत्वेनाभ्युपगमात् , जलादिद्रव्यस्य च तद्विरोधकत्वेनोक्तहेतोरसिद्धत्वात् । न च तेजःप्रकाशयोरेकत्वं न सम्भवति, धाराधरे निरन्तरधारं वर्षत्यलिन्दकादिप्रतिष्ठापितेन प्रदीपेन 15 बहिरपि प्रद्योतनात् , अन्यथा जलपातेन प्रशान्ततया बहिःप्रकाशो न दृश्येतेति वाच्यं, तथा विधत्वमपरित्यजतां प्रदीपसम्बन्धिनां पुद्गलानां जलबिन्दुसम्पर्केण तथाविधत्वपरित्यागात् तत्समकालमेव प्रदीपशिखया विकीर्णानां कृशानुपुद्गलानामपराणां तदाकाशदेशप्राप्तेः तेषाञ्च परिणामविशेषतो वडवानलावयवानामिव जलपातेन शमयितुमशक्यत्वात् , तथा च परिणामवैचित्र्यात् पुद्गलानां विरोधाविरोधपरिणामभाक्त्वेन नास्माकं कश्चन विरोध इति । 20 एवमुद्योतोऽपि चन्द्रग्रहनक्षत्रादीनां शीतप्रकाशः, स आह्लादकत्वात् प्रकाशकत्वाञ्च जलाग्न्योरिव मूर्तद्रव्यपरिणाम एव, पद्मरागादीनां प्रकाशोऽप्युद्योतोऽनुष्णाशीतत्वात्पुद्गलपरिणामः। प्रभा च सूर्याचन्द्रमसोस्तेजस्विपुद्गलानाञ्च प्रकाशरश्मिभ्यो निर्यदुपप्रकाशः सोऽपि विरलप्रकाशरूपत्वात् पुद्गलपरिणाम एव । एवं छायापि द्रव्यं क्रियावत्त्वाद्धटवत् छाया गच्छतीति प्रत्ययात्तस्य क्रियावत्त्वम् । देशाद्देशान्तरप्राप्त्युपलम्भतोऽपि तत्सिद्धेः। न च वार- 25 कद्रव्येण तेजसः सान्निध्यनिषेधे वारकद्रव्यगतक्रियायाः तेजोऽभावरूपायां छायायामारोपेण छाया गच्छतीति व्यवहार इति वाच्यम्, मुख्यक्रियाया बाधाभावे आरोपासंभवात्, तस्या १ दृष्टेर्व्यवधानकरणे सामर्थ्यादित्यर्थः । २ उत्पत्तिस्थानस्थानामेव प्रदीपपुद्गलानां जलेन विरोधो, न ततो बहिनिस्मृतानामिति स्याद्विरोधस्स्यादविरोधश्चेति भावः । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५४: तत्त्वन्यायविभाकरे [चतुर्थकिरणे गतिमत्त्वे बाधकाभावात्, एवं शिशिरत्वादाप्यायकत्वाच्च जलवातादिवद् द्रव्यत्वसिद्धेः । एवमातपोऽपि दिवाकरविमानात्स्वभावतः शीतलादपि समुपजायमान उष्णप्रकाशरूपः पुद्गलपरिणाम एव तापजनकत्वात् , स्वेदहेतुत्वादुष्णत्वात्कृशानुवदिति ॥ .. ननु पृथिव्या गन्धरसरूपस्पर्शवत्त्वाजलस्य रसरूपस्पर्शवत्वात्तेजसो रूपस्पर्शवत्त्वाद्वा5 योस्स्पर्शमात्रवत्त्वान्न पुद्गलपरिणामत्वं स्पर्शरसगन्धवर्णवतामेवागमे पुद्गलत्वप्रतिपादनात् , एषां च पृथिव्यादीनां विजातीयपरमाण्वारब्धत्वादित्याशङ्कायामाहपरमाणूनां परिणामविशेषा एव पृथिवीजलतेजोवायवः ।। __ इत्यजीवनिरूपणम् ॥ परमाणूनामिति । परिप्राप्तबन्धपरिणामाः परमाणव एव स्कन्धरूपाः पृथिव्यादयः, 10 एवं पृथिव्यादयः परमाणुपरिणामविशेषाः स्पर्शादिमत्त्वात् , ये न तत्पर्याया न ते स्पर्शवन्तो यथाऽकाशादयः, स्पर्शादिमन्तश्च पृथिव्यादयस्तस्मात्परमाणुपर्याया इति तत्परिणामविशेषत्व. सिद्धिः, न च स्पर्शादिमत्त्वं पक्षकदेशासिद्धम् , जलादौ गन्धाद्यभावादिति वाच्यम् , स्पर्शवत्त्वेन गन्धानुमानात्, क्वचिन्नलादौ गन्धाधुपलब्धेश्च । न च तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां संयोगेन तद्गुणत्वेन गन्धोपलब्धिस्तत्रेति वाच्यम् , साध्यसमत्वात् , तत्र तद्वियोगकालादर्श15 नात् , क्वचिदनुद्भूतस्वभावत्वेनैवानुपलब्धेः । एवं तेजोऽपि स्पर्शादिस्वभावकं, तद्वत्कार्यत्वाद् घटवत्, स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां कार्य तेजः, तत्परिणामाच्च, उपभुक्तस्य ह्याहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः, पित्तं च जठराग्निरुच्यते तस्मात्स्पर्शादिमत्तेजः । तथा वातश्च प्राणादिः, ततो वायुरपि स्पर्शादिमानिति भावः। अथाजीवनिरूपणं निगमयतीतीति। इति तपोगच्छनभोमणि श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कार श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर 20 चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरण तत्पधरेण विजयलब्धिसरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायामजीवनिरूपणो नाम तृतीयः किरणः ॥ अथ चतुर्थः किरणः ॥ . तदेवं जीवाजीवौ लक्षणप्रकाराभ्यां समासतोऽभिधाय क्रमायातं पुण्यतत्त्वं निरूपयितुं 25 तल्लक्षणमाह पौगलिकसुखोत्पत्तिजनकं कर्म पुण्यम् । पौद्गलिकमेतत् ॥ पौद्गलिकेति । पौगलिकसुखोत्पादहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः, पापेऽतिव्याप्ति Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यकर्मसिद्धिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते वारणाय सत्यन्तं कालादिसमवायेऽतिप्रसङ्गभङ्गाय विशेष्यम् । मुक्तिसुखवारणाय पौद्गलिकेति सुखविशेषणम् । यदि मोक्षसुखजनके कर्मत्वाभावादेव नातिव्याप्तिरतः पौद्गलिकेति व्यर्थमित्युच्यते तदा पौद्गलिकसुखपदेनेष्टगतिजातिशरीरेन्द्रियविषयादयो विवक्षितास्तथाच शोभनगतिवर्णाद्यनुगुणं शुभानुभावश्च पुण्यमिति फलितार्थः । ननु पश्वादयो देवदत्तगुणाकृष्टास्सन्तो देवदत्तमुपसर्पन्ति तम्प्रति नियमेनोपसर्पणाद् 5 प्रासादिवदिति ग्रासादेराकर्षणं यथा प्रयत्नेनात्मगुणेन भवति तथा पश्वादीनां देवदत्तात्मगुणाभ्यां धर्माधर्माभ्यां भवतीति न्यायादितंत्रान्तरीयैर्धर्माधर्मात्मकपुण्यपापयोरात्मगुणत्वाभ्युपगमादत्रापि किं पुण्यं गुणो वा पुद्गलविशेषो वेति शंकायामाह-पौद्गलिकमेतदिति । एतत्पुण्यं पौद्गलिकं पुद्गलपरिणामत्वात्पौद्गलिकमित्यर्थः । पश्वादेराकर्षणं हि लोके रज्ज्वादिना संयोगेन दृष्ट, अदृष्टेन त्वेषामाकर्षणं कथं वा स्यान्न संयोगेन द्रव्ययोरेव 10 संयोगाभ्युपमात् , न समवायेन असिद्धेः, नापि स्वाश्रयसंयोगेन, अदृष्टाश्रयस्यात्मनो विभुत्वस्याप्रमाणत्वेन पश्वादिना संयोगासंभवादिति भावः । ननु नास्त्येव पुण्यं पापं वा कर्म, कायाकारेण परिणतेभ्यो भूतेभ्य एव सुखदुःखाद्युत्पादसंभवादिति चेन्न, शरीराकारपरिणतपुद्गलानां साधारण्येन सुखदुःखवैषम्यस्य जीवेषु दृष्टस्यानुपपत्तेः, दृश्यते हि सुखित्वं कस्यचिदेव कदाचिदेव दुःखित्वञ्च तथा, भूतानामेव तन्निबन्धनत्वे वैचित्र्यमिदं न स्यादेव, न 15 चैतद्वैषम्यं निर्निमित्तं, तथात्वे परमाणुवन्नित्यं सत्त्वं गगनकुसुमादिवन्नित्यमसत्त्वं वा स्यान्न तु कादाचित्कत्वं, न चाकस्मिकत्वमेव कादाचित्कत्वमिति वाच्यम् , कारणनिरपेक्षोत्पत्तिकत्वस्याकस्मिकत्वे निरन्तरोत्पत्तिप्रसङ्गात् , सामग्रीवैकल्यस्य वा प्रतिबन्धकस्य वा कस्यचिदभावात् , कारणोत्पत्तिभ्यां रहितत्वमेव तदिति चेत्तदा तयोनित्यत्वं वा, अत्यन्तासत्त्वं वा स्यात् , भवतु नित्यत्वमिति चेन्न तयोरुत्पादविनाशित्वेनानुभवात् , अत एव च नात्यन्तासत्त्वं, अथ 20 नान्यस्मात् कस्मादपि भवनमपि तु स्वस्मादित्याकस्मिकत्वमिति चेदसतः स्वपदार्थत्वे तस्मात्कस्यचिदप्युत्पत्त्यभावात् , यदि स्वं सदेव तर्हि किमुत्पत्त्या, सत्त्वार्थमेवोत्पत्तेर्गवेषणात् , तस्मादवश्यं कारणेन केनापि भवितव्यमेव, भवतु तर्हि भूतातिरिक्तं किश्चिदेकमेव तत्कारणमविलक्षणादपि कारणात् कार्यवैचित्र्यस्य प्रदीपादौ दर्शनात् , प्रदीपो हि प्रकाशकारी तैलविनाशकारी वर्त्तिविकारकारी चेति, तथापि वैचित्र्यानुपपत्तेः, सर्वे सुखिनो वा स्युर्दुःखिनो वा, 25 दृश्यते च सुखादिवैचित्र्यं, तदवश्यमेव विचित्रस्य कर्मणः फलमभ्युपेयम् । अस्त्येव प्रदीपादावपि वैचित्र्यं, येन रूपेण प्रकाशकारी प्रदीपादिन तेन रूपेण वर्तिविकारकारी प्रतिक्षणं १. आरोग्यचिरजीवित्वाब्यत्वकामभोगसंतोषप्रव्रज्यामोक्षरूपेषु सुखेषु मोक्षमेव सर्वोत्तमं सुखम् , परेषां दुःखप्रतीकारमात्रत्वात् सुखाभिमानजनकत्वाच्च, तत्त्वतो न सुखमेतदेव च पौद्गलिकं सुखमिति भावः ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे पर्यायभेदात् न च स्रक्चन्दनवनितादयस्सुखस्य हेतवो विषाहिकण्टकादयस्तु दुःखस्येति प्रत्यक्षा एव सुखदुःखहेतवः किमदृष्टेन निमित्तान्तरेणेति वाच्यम्, व्यभिचारात् तादृग्वनितादिपदार्थसत्त्वेऽपि पुत्रादिवियोगव्यथितस्य सुखाभावात् सुखेऽपि दुःखेऽपि तारतम्यदर्शनात्, नैतद्दृष्टं कमपि हेतुमन्तरेण युज्यते, तदेव पुण्यपापात्मकं बहुविभेदमदृष्टं कर्मेत्यु5 च्यते, ननु काणत्वखञ्जत्वादिशरीरादिवैलक्षण्येन यदि कर्म साध्यते तर्हि कार्यस्य मूर्त्तत्वेन कर्मापि मूर्त्तं स्यादिति चेत्सत्यमस्माभिः प्रयत्नेन साधयितव्यस्य भवतैव साधनात् मूर्त्तमेव हि कर्म, तत्कार्यस्य शरीरादेर्मूर्त्तत्वात्, यस्य यस्य कार्यं मूर्त्तं तत्तत्कार्यस्य कारणमपि मूर्त्तम्, यथा घटस्य परमाणवः, यच्चामूर्त्तं कार्यं न तस्य कारणं मूत्तं यथा ज्ञानस्यात्मा । तथा मूर्त्तं कर्म, तत्सम्बन्धे सुखादिसंवित्तेः, यत्संबन्धे सुखादि संवेद्यते तन्मूर्त्तं दृष्टं यथाऽशनाद्याहारः, 10 यच्चामूर्त्तं न तत्सम्बन्धे सुखादि संविदस्ति, यथाऽऽकाशसम्बन्धे, एवं यत्सम्बन्धे वेदनोद्भवः मूर्तं दृष्टं यथाऽनलः भवति च वेदनोद्भवः कर्मसम्बन्धे तस्मात्तन्मूर्त्तं, तथा मूर्त कर्म, आत्मनो ज्ञानादीनाञ्च तद्धर्माणां व्यतिरिक्तत्वे सति बाह्येन स्रगादिना बलस्याधीयमानत्वाद् यथा स्नेहाद्या हितबलो घटः, आधीयते च बाह्यैर्मिथ्यात्वादिहेतुभूतैर्वस्तुभिः कर्मण उपचयलक्षणं बलं, तस्मात्तन्मूर्त्तं, एवं मूर्त्तं कर्म, आत्मादिव्यतिरिक्तत्वे सति परिणामित्वात्, क्षीर15 वत्, न चायं हेतुरसिद्ध:, कर्मकार्यस्य शरीरादेः परिणामित्वदर्शनात्, यस्य कार्यं हि परिणामि सोऽपि परिणामी, यथा दध्नस्तकादिभावेन परिणामात्पयसोऽपि परिणामित्वमिति । न चाभ्रादिविकाराणां यथा वैनसिकी विचित्ररूपतया परिणतिरभ्युपगम्यते तथा परिदृश्यमानं शरीरमेव काणत्वखञ्जत्व सुखित्वदुःखित्वा दिभावैर्विचित्रतया परिणमति किमन्तर्गडुना कर्मणेति वाच्यम्, ,कर्मणोऽपि शरीरत्वात्, तद्धि केवलं श्लक्ष्णतरमभ्यन्तरच जीव संश्लिष्टत्वात्, 20 यथा च बाह्यतनोरभ्रादिविकारवद्वैचित्र्यमभ्युपगम्यते तथैव कर्मतनोरपि तदभ्युपगमस्य न्याय्यत्वात् । न च बाह्यतनोस्तत्स्वीकार उचितो दृश्यत्वात् कर्मरूपायास्तु सर्वथाऽप्रत्यक्षत्वाद्वैचित्र्यं कथमिच्छाम इति वाच्यम्, मरणकाले दृश्यमानस्थूलशरीरस्य सर्वथा विप्रमुक्तस्य जन्तोर्भवान्तरगतस्थूलशरीरग्रहण हेतु सूक्ष्मकर्मशरीरस्यावश्यकत्वात्, अन्यथा देहान्तरग्रहणानुपपत्तेर्मरणानन्तरं सर्वस्याप्यशरीरत्वादयत्नेनैव संसारव्यवच्छित्तिः स्यात् । न च मूर्त्तस्य कर्म25 णोऽमूर्त्तेनात्मना सम्बन्धो न स्यादिति वाच्यम्, मूर्त्तस्य घटस्यामूर्त्तेनाकाशेन सम्बन्धात्, संसारिणो जीवस्य सर्वथाऽमूर्त्तत्वाभावाच्च । तस्मात्सिद्धं कर्म विचित्रं मूर्त्तश्चेत्यलं प्रसङ्गेन ॥ तत्र पुण्यमिदं कार्यकारणभेदेन द्विविधं सुपात्रदानादिभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैस्सा तो चै -. १ ननु घटेनाssकाशस्य संयोगे न मूर्त्तत्वं निबन्धनमपितु व्यापकत्वमित्यनुयोगे त्वाह संसारिण इति ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यस्वरूपम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते र्गोत्रादिकमनुभूयते जीवैः, तत्र सुपात्रदानादिकं कारणात्मकं पुण्यं, सातोचैर्गोत्रादिकन्तु कार्यात्मकं, आत्मशुभाध्यवसायस्य तु पुण्यत्वमौपचारिकममूर्त्तत्वात्, मूर्त्तस्यैव बन्धकत्वाच्च । तदिदं पुण्यपापात्मकं कर्म संतत्याऽनाद्यं, संसारस्यानादित्वात्, अन्यथा पूर्वं जीवस्य पश्चात्कर्म सम्भवः, पूर्वं वा कर्मणः पश्चाज्जीवस्य, उभयोरपि वा युगपद्वाच्यः, तत्रैकोऽपि पक्षो न सम्भवति, निर्हेतुकत्वेनात्मनः प्रथमं सम्भवासंभवात्, तस्यानादिसिद्धत्वेऽपि पश्चात् कर्मबन्धो 5 न संभवत्येव कारणाभावात् । निष्कारणं वा सम्भवे मुक्तस्यापि कर्मबन्धापत्तेः, तथा प्रथमं कर्मसमुद्भवोऽपि न न्याय्यः कर्त्तुर्जीवस्य तदानीमभावात्, अक्रियमाणस्य कर्मत्वायोगात्, कारणं विनैव तस्य समुद्भवे नाशस्याप्यकारणत्वापत्तेः । तथा न युगपदुत्पत्तिसम्भवः, उभयस्यापि निर्हेतुकत्वात्, युगपदुत्पन्नयोस्तयोः कर्त्तृकर्मभावस्य सव्येतरगोविषाणयोरिवासम्भवात् । तस्मादनादिरेव जीवकर्मणोः सम्बन्धः । न च जीवकर्मसंयोग सन्तानस्यानादित्वे जीवनभ- 10 सोरिवानन्तत्वमपि स्यादिति वाच्यम्, बीजाङ्कुरादीनां संतानस्यानादेरपि सान्तत्वदर्शनात्, दृश्यते हि बीजाङ्कुरयोर्मध्येऽन्यतरस्यानिवर्तित कार्यस्यैव व्युच्छेद इति । तथा च मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपैर्बन्धहेतुभिर्जीवोऽष्टविधेषु औदारिकादिकर्म वर्गणापुद्गलेषु कर्मशरीरग्रहणयोग्यान् पुद्गलानादत्ते, कर्मतया च ग्रहणसमय एव तान् परिणमय्य शुभाशुभ परिणामानुसारेण कर्मपुद्गलेषु स्थितिरसादीन् निष्पाद्य क्षीरोदकवदात्मप्रदेशैस्सह संश्लेषयति । एवम्भूत 15 एव तस्य स्वभावो यत् कर्मवर्गणागतं कर्मयोग्यमेव द्रव्यमेकक्षेत्रावगाढमेव रुचकप्रदेशभिन्नैः सर्वैरपि स्वप्रदेशै रागद्वेषक्लिन्नस्वरूपत्वाज्जीवो गृह्णाति न तु स्वात्मभिन्नप्रदेशावगाढं कैश्चिदेव प्रदेशैर्गृह्णाति । तत्र कर्मराशिश्च घात्यघातिभेदेन द्विविधः, अनन्तज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यात्मक - त्मगुणानां सर्वथा देशेन वा प्रतिहननसमर्थं कर्म घातिकर्मेत्युच्यते, ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्तरायरूपाष्टविधमूलप्रकृतिभूतकर्मसु ज्ञानदर्शनावरण मोहनीयान्तरायच - 20 तुष्टयमात्मनोज्ञानादिगुणघातकत्वादज्ञानाद्यशुभविपाकजनकत्वाञ्चाशुभरूपं घातिकर्म | वेदनीयायुकनामगोत्रचतुष्टयन्तु शुभाशुभविपाकजनकत्वाज्ज्ञानाद्यविघातकत्वाच्च शुभाशुभरूपमघातिकर्म, तत्र यच्छुभं कर्म तत्पुण्यमशुभन्तु पापम्, एतच्चोभयमपि न मेर्वादिभावेन परिणतस्क - न्धवदतिबादरं, सूक्ष्मेण कर्मवर्गणाद्रव्येण निष्पन्नत्वान्नापि परमाणुवदतिसूक्ष्ममिति विज्ञेयम् ।। 1 द्रव्यभावभेदेन द्विविधपुण्यमध्ये यत्पौद्गलिकं पुण्यत्वेनात्र वर्णितं तदेव द्रव्यपुण्यमित्याह - 25 इदमेव द्रव्यपुण्यमुच्यते । द्रव्यपुण्यनामकर्मोत्पत्तिहेतुरात्मनश्शुभाध्यवसायो भावपुण्यम् ॥ : ५७ : Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८ : 5 तस्वन्यायविभाकरे [तुर्यकिरणे इदमेवेति । पौगलिकमेवेत्यर्थः, भावपुण्यमाह - द्रव्यपुण्येति । येनाऽऽत्मनोऽध्यवसायविशेषेण द्रव्यात्मकपुण्यस्य निष्पत्तिः सोऽध्यवसायो भावपुण्यनामेत्यर्थः ॥ 20 अथ मूलप्रकृतिबन्धानामष्टविधकर्मणामुत्तरप्रकृतिबन्धेषु यानि पुण्यरूपाणि द्विचत्वारिंशद्विधानि पूर्वोदितानि प्रत्येकं तेषां स्वरूपं निरूपयितुमुपक्रमते आयुर्नामगोत्रकर्मभिन्नमनुकूलवेदनीयं कर्म सातम् । वेदनीयायुर्ना - मकर्मभिन्नं गौरवजनकं कर्म उच्चै गोत्रम् । मानुषत्व पर्याय परिणतिप्रयोजकं कर्म मनुजगतिः ॥ आयुरिति । आयुर्नामगोत्रकर्मभिन्नत्वे सत्यनुकूलवेदनीयत्वे च सति कर्मत्वं सातवेदनीयस्य लक्षणम् । उच्चैर्गोत्रादावतिव्याप्तिवारणाय विशेषणे । अनुकूलवेदनीयं कर्म सातमि10 त्येतावन्मात्र सर्वस्यैव पुण्यात्मककर्मणोऽनुकूलत्वेनाह्रादादिरूपेण वेदनीयत्वादतिव्याप्तिरिति प्रथमं सत्यन्तं, असातवे दनीयेऽतिव्याप्तिवारणाय द्वितीयं सत्यन्तम् । कर्मत्वानुक्तौ सातानुकूलाध्यवसाये कालादिसमवाये वातिव्याप्तिरतस्तदुपात्तम् । देवादिषु गतिषु कर्त्तुरात्मनश्शरीरमनोद्वारेणाऽऽगन्तुकाने कमनोज्ञद्रव्यक्षेत्र कालभाव सम्बन्ध समासादितपरिपाकावस्थं बहुभेदं सुखपरिणतिरूपमिष्टं यदुदयाद्भवति तत्सातवेदनीयमिति भावार्थ: । पञ्चदशसागरोपम15 कोटी कोट्योsस्य परा स्थितिः, पञ्चदशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या काषायिकी द्वादशमुहूर्त्ता, अन्तर्मुहूर्त्तमबाधा, इयञ्च संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यैव । अकषायिकी तु जघन्यत उत्कृष्टतोऽपि सयोगिकेवल्यादौ समयद्वयमात्रं स्थितिः । उच्चैर्गोत्रस्वरूपमाह - वेदनीयेति । वेदनीयायुर्नामकर्मभिन्नत्वे सति गौरवजनकत्वे च सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । सातादावतिव्याप्तिवारणाय विशेषणद्वयम् । गौरवजनकत्वे सति कर्मत्वस्य सद्वेदनीयवतो देवायुष्कस्य तीर्थकरनामकर्मणश्च गौरवदर्शनात् तत्र तत्र सत्त्वादतिव्याप्तिव्युदासाय प्रथमं सत्यन्तम् । नीचैर्गोत्रे ऽतिव्याप्तिरतो द्वितीयं सत्यन्तम् | अध्यवसायविशेषे कालादौ वाऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यम् | यदुदयाज्जीव आर्यदेशे मगधादौ हरिवंशाद्युत्कृष्टजातिषु सन्मातृकुलेषु प्रभुसमीपाssस्थानेषु संभवं मानसत्कारैश्वर्यादींश्च लभते तदुच्चैर्गोत्रमिति भावार्थ: । अस्य परा स्थितिर्विंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः । अबाधाकालो वर्षसहस्रद्वयम् । जघन्या त्वष्टौ मुहूर्त्ता अन्तर्मुहूर्तमबाधा चेति । १ जीवस्याध्यवसायवशाद्रहणकाले शुभाशुभादिविशेषणाविशिष्टानां कर्मणां ग्रहणसमय एव शुभत्वमशुभत्वं वा भवतीति पुण्य कर्मनिष्पत्तावध्यवसायो हेतुरिति भावः ॥ २शोधितमिथ्यात्वपुद्गलरूप सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदानां केषाञ्चिन्मते पुण्यरूपत्वेऽपि मोहनीयभेदत्वेन विपर्यासहेतुत्वात्पापरूपत्वमिति तदुपेक्ष्य द्विचत्वारिंशद्विधत्वं पुण्यस्यात्रोक्तम् ॥ ३ बाहुल्येन देवेषु मनुजेषु च सातोदयः कदाचिदसातोदयोऽपि, तिर्यक्षु नारकेषु बाहुल्ये नासातोदयः कदाचित्सातोदयोऽपि ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनुपूर्वीकर्म ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृ : ५९ : मनुजगतिं लक्षयति मानुषत्वेति, मानुषत्व पर्यायपरिणतिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । आत्मनो हि संसारस्थस्य मानुषत्वदेवत्वनारकत्वतिर्यक्त्वरूपाश्चतुः पयार्या गतिप्रयुक्ताः । तत्र यस्य कर्मण उदयादेकं कवन पर्यायं विहाय मानुषत्व पर्याय परिणामवान् भवति तत्कर्म मनुजगतिरिति भावः । सातादावतिप्रसङ्गवारणाय विशेषणम् । कालादावतिप्रसङ्गभङ्गाय विशेष्यम्, परिणतिप्रयोजककर्मत्वमात्रोक्तौ देवगत्यादावतिव्याप्तिरतो मानुषत्व पर्यायेति । 5 पराभिमतमानुषत्वजातिव्युदासाय पर्यायेति । मानुषत्वपर्यायप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वस्य मनुजानुपूर्व्यादौ सत्त्वात्तद्वारणाय परिणतीति, आनुपूर्व्याः परिणामेऽप्रयोजकत्वात्परिणामयोग्यस्यैव तत्स्थानप्रापकत्वादिति । अस्या उत्कृष्टा स्थितिः पञ्चदश सागरोपमकोटी कोट्यः, पञ्चदशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या तु सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अबाधात्वन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ मनुष्यानुपूर्वी वक्तुकामः प्रथममानुपूर्वीमादर्शयति—— वक्रगत्या स्वस्वोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्यानुश्रेणि गतिनियामकं कर्म आनुपूर्वी ॥ 10 वक्रगत्येति । अयमत्र भावः, जीवानां पुद्गलानाञ्च सर्वदिगवच्छेदेन गतिरस्ति । सा 'च स्वाभिमुखाकाशप्रदेशानां पंक्तिमनुसृत्यैव न विरुद्धदिगवच्छेदेन गतिः । तत्र भवान्तर- 15 संक्रान्त्यभिमुखो जीवो मन्दक्रियावत्त्वात्कर्मणो यानाकाशप्रदेशानवष्टभ्य शरीरवियोगं विदधाति प्रदेशान् तानेवाभिन्दन् देशान्तरं प्रयाति, विश्रेणिगत्यभावात् । त्रिधा च श्रेणिः, एका पूर्वापरायताकाशप्रदेशश्रेणिः, अन्या च दक्षिणोत्तरायता, इतरा तूर्ध्वाध आयता, आलोकान्तम् । तास्वेव जीवानां पुद्गलानाञ्च गतिर्न ता विभिद्य कदाचिदपि ते प्रयान्ति । तत्र जीवः कर्मायत्तत्वाद्भवान्तरप्राप्तौ वक्रां गतिमपि प्रपद्यते भवान्तरसंक्रान्तौ 20 ऋजुवक्रभेदेन गतेद्वैविध्यात् । वक्रगतौ च तावदेकद्वित्रिविग्रहरूपास्त्रिधा गतयो भवन्ति, आद्या द्विसमया, द्वितीया त्रिसमया तृतीया तु चतुस्समया भवति । तत्रर्जुगतौ गच्छतो यथा बलीवर्दस्य न नासारज्जुरपेक्षिता, अपि तु तस्य वक्रतया नेयत्व एव, तथैव ऋज्व्यां गतौ जनिस्थानं प्राप्तुरात्मनो नानुपूर्व्यपेक्षिता, किन्तु वक्रगत्यां प्रवृत्तस्य, तथा च वक्रया गत्या स्वस्वोत्पत्तिस्थानं गच्छतो जीवस्य श्रेण्यनुसारिगतिनियामककर्मत्वमा - 25 १ यद्यपि जीवस्य विश्रेणिगतिरपि मेर्वादिप्रदक्षिणादिकाले दृष्टा तथापि भवान्तरसंक्रमे तथोर्ध्वलोकादधोऽधोलोकादूर्ध्वं तिर्यग्लोकादध ऊर्ध्वं वाऽनुश्रेण्येव गतिरिति भावः ॥ २ मुक्तानां गतेर्नियमेनावक्रत्वादुक्तं कर्मायत्तत्वादिति ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे नुपूर्व्या लक्षणम् । तत्र कर्मत्वानुक्तौ धर्मास्तिकायादावतिव्याप्तिः, वक्रगत्येत्यनुक्तौ ऋजुगत्यैवोत्पत्तिस्थान प्राप्तुरात्मनः श्रेण्यनुसारि गतिनियामकपूर्वायुष्ककर्मण्यतिव्याप्तिरतस्तत्पदम् । तथा च वक्रारम्भकाले पूर्वायुष्कस्य नाशादग्रायुष्कप्राप्तेश्च न तत्र पूर्वायुष्कं गतिनिया मकं, नाप्यमायुष्कं, गत्यारम्भोत्तरं प्राप्तः, किन्त्वानुपूर्येव तादृशीति न दोषः। जीवस्ये. 5 त्यनुक्तौ पुद्गलानामपि परप्रयोगापेक्षया वक्रगतिसम्भवेन तत्रानुश्रेणिगमनप्रयोजकप्रयोक्त कर्मण्यतिव्याप्तिः स्यात्तद्वारणाय तस्योपादानम् । न च ऋजुगत्यामिव वक्रगत्यामपि नानुपूर्व्यपेक्षितेति वाच्यम् , पूर्वकायुष एवर्जुगतौ प्रयोजकत्वात् , वक्रगत्यान्तु पूर्वकायुषः क्षीणत्वेनानुपूर्व्या प्रयोजकत्वात् ॥ अथ मानुषानुपूर्वीलक्षणमाह10 मनुष्यत्वोपलक्षिताऽऽनुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी । इमे मनुष्यद्विकशब्दवाच्ये देवत्वपर्यायपरिणतिप्रयोजकं कर्म सुरगतिः ॥ मनुष्यत्वोपलक्षितेति । मानुषोपपातक्षेत्रं गच्छतो जीवस्य श्रेण्यनुसारिगतिनियामकानुपूर्वीत्वं मनुष्यानुपूर्वीलक्षणं । अत्रानुपूर्वीपदं धर्मास्तिकाये, मानुषपदं च देवाद्यानुपू ामतिप्रसङ्गवारणायोपात्तम् । वक्रगत्येति पदन्त्वसम्भववारणाय । अस्याः परा स्थितिः 15 पञ्चदशसागरोपमकोटीकोट्यः । पञ्चदशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या तु सागरोपमस्य द्वौ सप्त भागौ पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अन्तर्मुहूर्तश्चाबाधाकालः । मनुजगतिर्मनुजानुपूर्वी च पूर्वोदितविभागवाक्यघटकमनुष्यद्विकशब्दवाच्येत्याह-इमे इति, मनुष्यगतिमनुजानुपूर्व्यावित्यर्थः । देवगतेः स्वरूपमाह-देवत्वेति । देवत्वपर्यायपरिणतिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्ष णार्थः । पदकृत्यं मनुजगतिवद्विभावनीयम् । दशसागरोपमकोटीकोट्योऽस्याः परा स्थितिः । 20 दशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या तु सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अबाधा त्वन्तर्मुहूर्तकालः ॥ देवानुपूर्वीलक्षणमाह देवत्वोपलक्षिताऽऽनुपूर्वी सुरानुपूर्वी । इमे सुरद्विके । पश्चेन्द्रियशब्दप्रवृतिनिमित्तभूतसदृशपरिणत्यात्मकजातिविपाकोदयवेद्यं कर्म पश्चे25 न्द्रियजातिः ॥ १ तत्रानुपूर्वीनामकर्मणो नोदयः, किन्तु पूर्वकर्मायुरनुभवन्नुत्पत्तिस्थान प्राप्तः पुरस्कृतमायुरासादयतीति भावः ॥२ वकयाऽन्तर्गत्येति शेषः। पूर्वभवोत्तरकालीना तिर्यगाद्युत्तरोत्पत्तिस्थानप्राप्तिपूर्वभाविनी गतिरन्तर्गतिः ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरनामकर्म ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । I देवत्वोपलक्षितेति । देवोपपातक्षेत्रं वक्रगत्या गच्छतो जीवस्यानुश्रेणिगतिनियामकानुपूर्वीत्वं लक्षणार्थः । प्राग्वदेव पदानां कृत्यं बोध्यम् । स्थितिरपि परा जघन्या च देवगति - बदेव । इमे इति देवगत्यानुपूर्व्यावित्यर्थः । सुरद्वि इति । विभागवाक्यस्थसुरद्विकपदवाच्ये इति भावः ॥ पचेन्द्रियजातेः स्वरूपमाह - पञ्चेन्द्रियेति । अयं पचेन्द्रिय इति पचेन्द्रियशब्दस्य प्रवृत्तौ निमित्तभूता या सदृशपरिणतिरूपा जातिस्तदात्मक विपाकोदयेन विज्ञेयं यत्कर्म 5 सा पचेन्द्रियजातिरित्यर्थः । पचेन्द्रियत्वजातिसद्भावाद्धि पचेन्द्रियोऽयमिति शब्दः प्रयुज्यते ततस्तादृशजातिरूपविपाकोदयेन यत्कर्म विज्ञायते कारणतया सा पश्चेन्द्रियजातिरिति भावः । जातिनामकर्मेदं संज्ञाव्यवहारनिमित्तजातौ प्रयोजकं न तु द्रव्यात्मकपञ्चेन्द्रियेषु तत्रेन्द्रियपर्याप्तिनामकर्मणः प्रयोजकत्वात् नापि भावात्मकपञ्चेन्द्रियेषु तत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमस्यैव सामर्थ्यात् । तथा च पञ्चेन्द्रियसंज्ञाव्यवहारनिबन्धनजातिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । 10 कालादिवारणाय विशेष्यं, सातादावतिव्याप्तिवारणाय विशेषणम्, जातिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वस्य एकेन्द्रियादिजातिषु सत्त्वात्तद्वारणाय निबन्धनान्तम् । पञ्चपदमप्यत एव । जातिपदानुपादाने पञ्चेन्द्रियाणामपि पञ्चेन्द्रियसंज्ञाव्यवहारनिबन्धनत्वात् तत्प्रयोजकेऽङ्गोपाङ्गनामकर्मणि इन्द्रियपर्याप्तौ चातिव्याप्तिरतस्तदुपादानम्, जातिर्नामाव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थः । अस्याः परा स्थितिर्विंशतिसागरोपमकोटी कोट्यः, वर्षसहस्रद्वयमबाधा च । जघन्य 15 तु सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अबाधा त्वन्तर्मुहूर्त्तकालः ॥ अथौदारिकादिशरीरनामकर्मस्वरूपमाख्याति : ६१ : औदारिकशरीर योग्यगृहीतपुद्गलानां शरीरतया परिणमनप्रयोजकं कदारिकशरीरम् । वैक्रियपुद्गलानां शरीरत्वेन परिणमनहेतुः कर्म वैक्रियशरीरम् | आहारकपुद्गलानां देहतया परिवर्तनसमर्थं कर्माssहारक- 20 शरीरम् ॥ औदारिकेति । शीर्यत इति शरीरं प्रागवस्थातश्चयापचयाभ्यां प्रतिक्षणं विनाशीत्यर्थः । असारस्थूलद्रव्यवर्गणारब्धमौदारिकं, उत्तरशरीरापेक्षयाऽल्पद्रव्यं स्थूलं शिथिलनिचय । यस्य कर्मण उदयादौदारिकवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वौदारिकशरीरत्वेन परिणमयति तत्कर्मोंदारिकशरीरमित्यर्थः । न चैवं शरीरपर्याप्तिरपि तादृशत्वात्तत्रातिव्याप्तिरिति वाच्यम् । गृहीत- 25 पुद्गलानां शरीरतया परिणतेः शरीरनामकर्मणैव साध्यत्वात् आरब्धाङ्गसमाप्तेश्व पर्याप्तिनामकर्मसाध्यत्वेनातिव्याप्त्यभावात् । उक्तञ्च " ननु देहोच्छ्वासनामकर्मभ्यामेत्र सिद्ध्यतः । 1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे देहोच्छ्रासौ किमताभ्यां पर्याप्तिभ्यां प्रयोजनम् ? अत्रोच्यते पुद्गलानां गृहीतानामिहात्मना । साध्या परिणतिदेहतया तन्नामकर्मणा । आरब्धाङ्गसमाप्तिस्तु तत्पर्याप्त्या प्रसाध्यते । एवं भेदः साध्यभेदाइहपर्याप्तिकर्मणो" रिति । विशेष्यविशेषणपदकृत्यं पूर्ववदेव । वैक्रियशरीर नामकर्मादावतिव्याप्तिवारणायौदारिकशरीरयोग्येति । ग्रहणमन्तरेण परिणमनासम्भवेन गृही5 तेत्युक्तम् । शरीरतयेत्यनुक्तावौदारिकशरीरबन्धनेऽतिव्याप्तिरिति तस्योपादानम् । बन्धनस्य गृहीतानां गृह्यमाणानाश्चौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गलानां परस्परसंश्लेषमात्रकारित्वादिति । अस्य च जघन्या परा च स्थितिः पञ्चेन्द्रियजातिवद्बोध्या । अथ वैक्रियशरीरनामाहवैक्रियेति । विचित्रशक्तिकद्रव्यनिर्मापितं बहुतरद्रव्यं सूक्ष्मं घननिचयं च वैक्रियं । तथा च यस्य कर्मण उदयात् वैक्रियवर्गणापुद्गलान् गृहीत्वा वैक्रियशरीरत्वेन परिणमयति तद्वैक्रिय10 शरीरनामकर्मेति भावः, पदकृत्यं पूर्ववत् । परा स्थितिरस्य पञ्चेन्द्रियजातिवत् । जघन्या तु सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अबाधाऽन्तर्मुहूर्त्तम् । आहारकशरीरमाचष्टे-आहारकेति । शुभतरशुक्लविशुद्धद्रव्यवर्गणाप्रारब्धं प्रतिविशिष्टप्रयो जनायाऽन्तर्मुहूर्तस्थितिकमाहारकं शरीरं सूक्ष्मपरिणामपरिणतं बहुतरपुद्गलद्रव्यारब्धश्च । सर्वे लक्षणविचाराः प्राग्वद्भाव्याः। अस्योत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमकोटीकोटेरन्तः, अबाधा 15 त्वन्तर्मुहूर्त्तम् , जघन्यापि तथैव ।। तैजसशरीरमभिदधाति तैजसवर्गणागतपुद्गलानां शरीरतया परिवर्तकं कर्म तैजसशरीरम् । कार्मणवर्गणागतपुद्गलानां शरीरत्वेन परिवर्तनहेतुः कर्म कार्मणशरीरम् । इमानि पश्चदेहानि ॥ 20 तैजसवर्गणेति । तेजोगुणोपेतद्रव्यवर्गणासमारब्धं तैजसशरीरं, यदा यस्योत्तर गुणलब्धि रुत्पन्ना भवति तदा रोषप्रसन्नताप्रसङ्गे शरीरमिदमुष्णशीतगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भावकश्च भवति, यदा तु न सोत्पन्ना तदा तु केवलं सतताहृताहारपाचकं भवति । लक्षणं पदकृत्यश्च पूर्ववत् । अस्य परा जघन्या च स्थितिः पञ्चेन्द्रियवत् । अथ कार्मणस्वरूपमाह-कार्मणवर्गणेति । जीवप्रदेशैर्दुग्धाम्बुवदन्योन्यं श्लिष्टा अनन्ता 25 ये कर्मप्रदेशास्तदात्मकं कर्मिणं निखिलशरीरहेतुभूतं भवान्तरगतौ तैजसशरीरयुतं सज्जीव .१ यद्यप्यत्र बन्धनसंघातनामकर्मणी शरीरनामकर्मणो न प्रकृस्यन्तरमिति मत्वा न पृथगुपन्यस्ते, तथापि परस्परावियोगस्याविवरभावेनैकत्वरूपस्य तत्कार्यस्य दर्शनतो भवत एवैते इत्यतिव्याप्तिरादर्शिता ॥ २ इदञ्च कर्माण्येव कार्मणमिति व्युत्पत्त्या, तथा च न कर्मभ्यः पृथक्कार्मणमत्र । कर्मणा निवृत्तं कार्मणमिति विग्रहे वाह कार्मणनामकर्मणस्त्विति ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीरस्वामिनः ] न्यायप्रकाशसमलते सहायश्च । शरीराभ्यामेताभ्यां जीवस्य गमनागमने प्रवेशनिर्गमने च स्याताम् । अत्यन्तसूक्ष्मत्वाच्च भवान्तरगमनकालेऽपि नैतयोश्चक्षुर्विषयत्वम् । कार्मणनामकर्मणस्तु समानवर्गणापुद्गलमयत्वेऽपि स्वकार्यभूतात्कार्मणशरीरादन्यत्वमेव कार्मणशरीरस्य कारणभूतत्वात् । यद्यपि सर्वेषामेव शरीराणां कर्मजन्यत्वं कर्मसमूहरूपत्वश्च तथाप्यौदारिकादिनामकर्मनिमित्तकत्वादौदा रिकादिसंज्ञाविशेषात् स्थौल्यादिलक्षणात् तिर्यमनुष्यादिस्वामिभेदात् । सामर्थ्यभेदाच्च मृद्रूपकारणाविशेषेऽपि मृत्समूहाविशेषेऽपि च घटशरावादिभेदवत्तेषां परस्परं वैषम्यमस्त्येव । न च नास्त्येव कार्मणं शरीरं निमित्ताभावात्खरविषाणवदिति वाच्यं प्रदीपवत्स्वस्यैव निमित्तनिमित्तिभावात् , मिथ्यात्वाविरत्यादीनां निमित्तत्वाच्च । अन्यथा निर्हेतुकस्य विनाशहेतोरप्यभावादनिर्मोक्षप्रसङ्ग आपद्येत । न च कार्मणस्यौदारिकादिवद्विशरणधर्मत्वाभावात्कथं शरीरत्वमिति वाच्यम् , निमित्तवशात्तस्यापि सततं चयापचयधर्मत्वादिति । लक्षणं 10 कृत्यश्च प्राग्वत् । अस्याप्युत्कृष्टजघन्यस्थिती पञ्चेन्द्रियवदेव । प्रसङ्गादाह-इमानीति । यद्यपि देहशब्दः पुल्लिङ्गे रूढस्तथापि कार्यभूतशरीराणां पञ्चविधत्वं पुण्यकर्मविभागवाक्यस्थकर्मबोधकपञ्चदेहशब्दवाच्यत्वमेषां पञ्चविधकर्मणाञ्च सूचयितुं 'कायो देहः क्लीबपुंसो' रिति कोशानुरोधेन च नपुंसकनिर्देशः कृतः । तथा च कार्यभूतानीमान्येव पञ्चशरीराणि, कारणभूतानीमानि पञ्चनामकर्माणि विभागवाक्यस्थपञ्चदेहशब्दवाच्यानीति भावः। 15 शरीराणामेषां कार्यभूतानां स्वामिनमाह तत्राद्यं शरीरं तिर्यङ्मनुष्याणाम् । द्वितीयं देवनारकिणाम् । तृतीयं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव । तुर्यपश्चमे संसारिणां सर्वेषां । कार्मणं विहायान्याः न्युपभोगवन्ति ॥ तत्रेति । पञ्चानां शरीराणां कर्मजन्यत्वाविशेषेऽपि कर्मसमूहात्मकाविशेषेऽपि च कारण- 20 भेदाढ़ेदवत्स्वामिभेदादपि भेदेन पश्चस्वेषु शरीरेषु आद्यस्यौदारिकशरीरस्य तिर्यङ्मनुष्याः स्वामिन इति भावार्थः । उदारं प्रधानं तीर्थकरादिभिरङ्गीकरणात् , उत्कृष्टप्रमाणं वोदारं अस्थितवनस्पतेः सातिरेकयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् , शुक्रशोणिताद्युपादानप्रभृति प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरां व्यवस्था स्वकीयपर्याप्त्याद्यपेक्षां प्राप्नोतीति वोदारं तदेवौदारिकं, तच्च गर्भजानां सम्मूर्च्छनजानाश्च भवतीति भावः। द्वितीयमिति वैक्रियमित्यर्थः। विशिष्टा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं 25 वैक्रियं, समुपलब्धवैक्रियलब्धेरिच्छानुविधानादेकं भूत्वाऽनेकं भवति प्रतिहननशीलं १ भवधारकवैक्रियापेक्षयोत्कृष्ट प्रमाणं बोध्यमन्यथोत्तरवैक्रियमेवोत्कृष्टप्रमाणवत्स्यात् योजनलक्षप्रमाणत्वात्तस्येति ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६७ ; तस्वन्याय विभाकरे [ चतुर्थकिरण भूत्वा स्थूलत्वात्सूक्ष्मावस्थामनुप्राप्तं सदप्रतिघाति भवति, एककालमेव च सर्वानभिहितलक्षणान् भावान् वेदयते नैवमौदारिकादीनि, ईदृशं शरीरमोपपातिकं देवानां नारकाणामेव भवधारकमुत्तरवैक्रियभेदभिन्नचेति भावः । तृतीयमिति, आहारकमित्यर्थः । प्रतिविशिष्टप्रयोजन साधनायाऽऽह्रियते कार्यपरिसमाप्तेश्च पुनर्मुच्यत इत्याहारकं शुभद्रव्योपचितं शुभपरि5 णाममव्याघाति च चतुर्दश पूर्वधरस्यैव भवति । पूर्वं प्रणयनात् पूर्वाणि चतुर्दशसंख्यायुतानि पूर्वाणि चतुर्दशपूर्वाणि तानि धारणाज्ञानेनाऽऽलम्बत इति चतुर्दशपूर्वधरः, एवंविधश्चतुदेशपूर्वधर एव सञ्जातलब्धिः श्रुतज्ञानगम्ये कस्मिंश्चिदर्थेऽतिगहने संदिहानः तदर्थनिश्चयार्थं क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽर्हतः पादमूलमौदारिकशरीरद्वारा गमनमसम्भवीति मन्वानो लब्धिप्रत्ययमाहारकशरीरमुपजनय्य तत्राशु गत्वाऽभिवन्द्य पृष्ट्वा च विच्छिन्नसंशयो भूत्वा तमेव 10 देशं पुनरागत्य प्रागौदारिकमनुप्रविशति विहायाऽऽहारकं शरीरमिति भावः । तुर्य पञ्चमे इति तैजसकार्मणे इत्यर्थः । संसारिणां सर्वेषामिति । अस्मिन्नेव जन्मनि समुद्भव इति नियमाभावात्सर्वत्राप्रतिहतशक्तित्वात् सतैजसं कार्मणं सर्वजन्मसु भवति, कार्मणसहचरितमिदं तैजसं कार्मणभेद उष्मलक्षणं रसाद्याहारपाकजनकं ग्राह्यम्, लब्धिप्रत्ययं तैजसन्तु न सर्वेषां, किन्तु तपोविशेषानुष्ठानात्समुद्भूतशक्तेः कस्यचिदेव । कार्मणन्तु नियमतस्सर्वेषां, इद15 वौदारिकादीनां बीजं कार्यकारणरूपचेति भावः । ननु शरीराण्युपभोगवन्ति भवन्ति तत्र सर्वेषामेव किं शरीराणामुपभोगवश्वमुत केषाञ्चिदेवेत्याशंकायामाह - कार्मणमिति । कार्मणभिन्नशरीरचतुष्टयेन जीवस्सुखदुःखोपभोगं कर्मबन्धनं तद्वेदनं तन्निर्जरान विदधाति, अतस्तान्युपभोगवन्ति न तु कार्मणं, सुखाद्युपभोगस्यासंख्येय सामयिकत्वात्, चतुस्समयपरे विग्रहे एवास्य स्वातंत्र्येण भावात्, न विशिष्टकर्मबन्धस्तदानीमभिव्यक्तबन्धकारणाभावात् 20 स्पष्टहिंसाद्ययोगात्, न च विशिष्टानुभावेन वेद्यते कर्म, कर्मविग्रहस्याल्पकालत्वात्, उदीरणायोगात्, नवा निर्जरणं, उपकरणाभावात् प्रतिविशिष्ट भोगाद्यपेक्षया कार्मणं विहायेत्युक्तं, न तेन तत्रोपभोगमात्र व्युदासः, किन्तु अभिव्यक्तसुखदुःखकर्मानुबन्धानुभवनिर्जरालक्षणोपभोगस्यैव व्युदास इति भावः ॥ I अथौदारिकाङ्गोपाङ्गनामकर्म वक्तुमादावङ्गोपाङ्गानि दर्शयति 25 अङ्गानि शिरःप्रभृतीन्यष्टौ उपाङ्गानि तदवयवाङ्गुल्यादीनि, एतन्निमित्तमौदारिकशरीरसम्बन्धिक मदारिकाङ्गोपाङ्गनाम ॥ अङ्गानीति । प्रभृतिपदेन वक्षः पृष्ठबाहूदरपादानां ग्रहणम्, बाहुद्वयं पादद्वय वादाया १ लब्धिप्रत्ययञ्च तिर्यग्योनीनां मनुष्याणाच ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारीरनामकर्म ] न्यायप्रकाश ष्टत्वमङ्गानां भाव्यम् । उपाङ्गान्याह-उपाङ्गानीति । तदवयवाङ्गुल्यादीनीति, तेषामष्टानामवयवान्यङ्गुल्यादीन्युपाङ्गानीत्यर्थः । अङ्गुलयो बाहुपादयोरुपाङ्गभूताः, आदिपदेन शिरआदीनां ललाटतालुनयनकर्णादय उपाङ्गतया ग्राह्याः । यद्यप्यङ्गनिदर्शनभूतशिरसोऽनुगुणमुपाङ्गतया तदवयवललाटादीनामेव कथनं युक्तं तथापि तथोक्तावेकस्यैव शिरस उपाङ्गं दर्शितं भवेत् , अङ्गुल्यादीनीत्युक्तौ तु पाणिपादयोरुभयोरेकपदेन दर्शितं स्यादिति ग्रन्थला- 5 घवैषिणा मया तथैवोक्तम् , तत्पदेनाष्टाङ्गानां बुद्धिस्थानां परामर्शसम्भवात् । तथाङ्गुल्यादीनामप्यवयवभूतानि पर्वरेखादीन्यङ्गोपाङ्गानि, एवञ्चाङ्गानि चोपाङ्गानि चाङ्गोपाङ्गानि चेति द्वन्द्व एकपदशेषेऽङ्गोपाङ्गानि, यदुदयादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागेन परिणतिर्भवति तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनामेत्यर्थः, औदारिकशरीरसम्बन्ध्यङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं विशेषणविशेष्यपदकृत्यं पूर्ववत् , वैक्रियाङ्गोपाङ्गनामकर्मादाव- 10 तिप्रसक्तिविच्छेदायौदारिकशरीरसम्बन्धीति, औदारिकशरीरसम्बन्धिकर्मत्वमित्युक्तौ कार्मणशरीरादावतिप्रसङ्गस्तस्यापि तत्कारणत्वेन तत्सम्बन्धिकर्मत्वात् । औदारिकशरीरसम्बन्धिनः प्रयोजककर्मत्वमित्युक्तौ तु वर्णगन्धादिनामकर्मण्यतिव्याप्तिवर्णादीनामौदारिकशरीरसम्बन्धित्वादतोऽङ्गोपाङ्गेति पदम् । औदारिकशरीरवदस्य परा जघन्या च स्थितिर्बोध्या ।। वैक्रियाङ्गोपाङ्गलक्षणमाह 15 तादृशं वैक्रियशरीरसम्बन्धि कर्म वैक्रियाङ्गोपाङ्गनाम। तादृशमेवाssहारकशरीरसम्बन्धि कर्माऽऽहारकाङ्गोपाङ्गनाम । इमान्यादिमत्रितनूपागानि । तैजसकार्मणयोस्त्वात्मप्रदेशतुल्यसंस्थानत्वान्न भवन्त्यङ्गोपाङ्गानि। एवमेकेन्द्रियशरीराणामप्यङ्गोपाङ्गानि न भवन्ति वनस्पत्यादिषु शाखादी. नामङ्गत्वादिव्यवहारो न वास्तविकः, किन्तु भिन्नजीवस्य शरीराण्येव ते ।। 20 ___तादृशमिति । अङ्गोपाङ्गनिमित्तमित्यार्थः । वैक्रियशरीरसम्बन्ध्यङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः। निष्पत्तिपदानुपादाने पर्याप्तनामकर्मण्यारब्धाङ्गसमापकेऽ तिव्याप्तिरतस्तदुपादानं, अन्यपदप्रयोजनं पूर्ववद्भाव्यम् । परा जघन्या चास्य स्थितिक्रियशरीरवत् । अथाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गनामकर्माभिधत्ते-तादृशमेवेति । अत्रापि आहारकशरीरसम्बन्ध्यङ्गोपाङ्गोत्पत्तिनिदानत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं कृत्यञ्च पूर्ववदेव । उभयविधा स्थितिर- 25 स्याप्याऽऽहारकशरीरवदेव भाव्या । विभागवाक्येऽमून्येवादिमत्रितनूपाङ्गशब्देनोक्तानीत्याहइमानीति । आदिमा यास्तिस्रस्तनवस्तासामुपाङ्गानि अङ्गोपाङ्गाभिधानि इमान्येवेत्यर्थः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [चतुर्यकिरणे ननु शरीरत्वाविशेषात्तैजसकार्मणयोर्न कथमङ्गोपाङ्गानीत्यत्राह-तैजसकार्मणयोस्त्विति । आत्मप्रदेशतुल्यसंस्थानत्वादिति जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वादित्यर्थः । प्रयोजनाभावात्प्रमाणाभावाच्चान्तर्गतिं विहायान्यत्रतयोस्स्वातंत्र्येणावर्त्तमानत्वादिति भावः । नन्वौदारिकशरीरभाजां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनामप्यङ्गोपाङ्गानि सन्ति नवेत्याशङ्कायामाह-एवमेकेन्द्रि5 यशरीराणामपीति । यथा तैजसकार्मणयोर्नाङ्गोपाङ्गानि तथा एकेन्द्रियाणां पृथिव्यादीनां यानि शरीराणि तेषामपि नाङ्गोपाङ्गानि भवन्तीति भावः । ननु कथं वनस्पतीनां शरीराणामङ्गोपाङ्गरहितत्वं मूलस्कन्धशाखाप्रशाखात्वपत्रपुष्पफलादीनामवयवत्वादित्याशङ्कायामाहवनस्पत्यादिष्विति । आदिपदेन वायुतेजोजलपृथिवीनां ग्रहणम् , पश्चानुपूर्व्या निर्देशः, वनस्पतौ मूलादिष्ववयवत्वस्य लोकप्रसिद्धतया तस्यैव प्रथममुपन्यासात् । प्रत्येकनामकर्म10 प्रभावाच्छाखादीनां भिन्नजीवशरीरत्वमेव न त्वङ्गोपाङ्गत्वं वृक्षस्येति भावः । बन्धनसंघातनामकर्मणोस्तु शरीरविषयत्वादेव शरीरनामकर्मान्तर्भूततया नात्र तयोः पृथगुपन्यासः कृतः॥ अथ शारीरिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानाञ्च परस्परसंश्लेषे सति अन्योन्यसन्निधानेन च व्यवस्थापिते सति संहन्यमानपुद्गलानां संहननमुपकारि भवति तस्मात्संहननस्वरूपमाह अस्थिरचनाविशेषः संहननम् । उभयतो मर्कटबन्धबद्धयोरस्थ्नोः 15 पट्टाकृतिनाऽपराऽस्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदिकीलिकात्मकान्यास्थिविशिष्टत्वप्रयोजकं कमें वज्रर्षभनाराचम् । इदमादिमसंहननम् ।। अस्थीति । अस्थ्नां बन्धविशेष इति भावार्थः । वर्षभनाराचलक्षणमाह-उभयत इति । अत्र वज्रशब्दः कीलिकावचनः, ऋषभशब्दः परिवेष्टनपट्टवचनः, नाराचशब्दस्तु उभयपाविच्छेदेन मर्कटबन्धनवचनः । तथा च पट्टाकृतितृतीयास्थिपरिवेष्टितोभयपावि20 च्छेद्यमर्कटबन्धबद्धास्थिद्वयोपरि तदस्थित्रयभेदिकीलिकाकल्पान्यास्थिविशिष्टत्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः, विशेषणविशेष्ययोः फलं पूर्ववत् । कर्मप्रकृतिग्रन्थेषूक्ते वज्रनाराचकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय पट्टाकृतितृतीयास्थिपरिवेष्टितेत्युक्तम् । ऋषभनाराचकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय पट्टाकृतितृतीयास्थिपरिवेष्टितोभयपाविच्छिन्नमर्कटबन्धबद्धास्थिद्वयप्रयोजककर्मत्वमनुक्त्वा तदस्थित्रयभेदीत्यायुक्तम् , अस्योत्कृष्टा स्थितिर्देवगतिवजघन्या तु मनुजगतिवत् । १ जीवप्रदेशानुरोधि तैजसं शरीरं, ततो यदेव तस्यां तस्यां योनौ औदारिकशरीरानुरोधेन वैक्रियशरीरानुरोधेन च जीवप्रदेशानां संस्थानं तदेव तैजसशरीरस्यापि, एवं कार्मणस्यापि भाव्यम् ॥ २ वृक्षादौ मूलादिषु प्रत्येकमसंख्येया अपि जीवाः परस्परं विभिन्नशरीराः प्रबलरागद्वेषोपचितप्रत्येकनामकर्मपुलोदयतः परस्परं संहताः, श्लेषद्रव्यसंपर्कमाहात्म्यात् परस्परविमिश्रसर्षपतिरिवेत्याशयेनाह प्रत्येकेति ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णादिनामकर्माणि ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : ६७ : नामकर्मेदं षड़िधसंहननेषु प्राथमिकं तदेव च विभागवाक्योदितादिम संहननशब्देन वाच्यमित्याहेदमिति । संहननं षड्विधमपि औदारिकशरीर एव नान्येषु तेषामस्थ्यादिरहितत्वात् ॥ अथ षड्विधेषु शरीराकृतिविशेषरूप संस्थानेषु समचतुरस्त्र संस्थानस्यादिमस्य प्रयोजकं नामकर्म वक्तुमादौ संस्थानपदार्थमाह आकारविशेषस्संस्थानम् । सामुद्रिक लक्षणलक्षितचतुर्दिग्भागोपल - 5 क्षितशरीरावयव परिमाणसादृश्यप्रयोजकं कर्म समचतुरस्रसंस्थानम् । इदमादिमसंस्थानम् | तीर्थकरास्सर्वे सुराचैतत्संस्थान भाजः ॥ आकारविशेष इति । अवयवरचनात्मिका शरीराकृतिरित्यर्थः । समचतुरस्रसंस्थाननामकर्माह — सामुद्रिकेति । समाः शरीरशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवादिन्यः चतस्रोऽस्रयः चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तच्छरीरं समचतुरस्रं भवति, तथा च सामुद्रि- 10 कलक्षणलक्षितचतुर्दिग्भागोपलक्षितशरीरावयव परिमाणसादृश्यप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । यस्य कर्मण उदयात् औदारिकादिशरीराकृतिरूर्ध्वाधोमध्येषु समप्रविभागेनान्यूनानधिकमानोन्मानप्रमाणेनाविकलावयवतया स्वाङ्गलाष्टशतोच्छ्रायेण च युक्ता भवति तत्समचतुरस्रनामकर्मेत्यर्थः । चतुर्दिग्भागोपलक्षितेतिपदं न्यग्रोधपरिमण्डलादावतिप्रसङ्गभङ्गार्थम् । इदमिति, समचतुरस्रसंस्थानं विभागवाक्योदितादिमसंस्थान पदवाच्यमित्यर्थः । संस्थान - 15 मिदं केषामित्यत्राह — तीर्थकरा इति । च शब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तेन गणधरादिसङ्ग्रहः । अस्योत्कृष्टा स्थितिर्देवगतिवज्जघन्या तु मनुजगतिवत् ॥ प्रशस्तवर्णादिनामकर्मणो लक्षणमाह शरीरवृत्त्याह्लादजनकवर्णोत्पत्तिहेतुभूतं कर्म प्रशस्तवर्णनाम | शरीरवृत्त्याह्लादजनकगन्धोत्पत्तिनिदानं कर्म प्रशस्तगन्धनाम । शरीरेष्वाह्ना- 20 दजनकर सोत्पत्तिकारणं कर्म प्रशस्तरसनाम । शरीरवृत्त्याह्लादजनकरूपशोत्पादनिदानं कर्म प्रशस्तस्पर्शनाम । इमानि प्रशस्तवर्णचतुष्कशब्दवाच्यानि । तत्र शुक्लरक्तपीतनीलकृष्णाः पञ्च वर्णाः । आद्यास्त्रयः प्रशस्ताः । अन्त्यौ द्वावप्रशस्तौ । सुरभ्यसुरभिभेदेन गन्धो द्विविधः । आद्यश्शस्तः, अन्त्योऽशस्तः । रसः कषायाम्लमधुरतिक्तकटुरूपेण 25 पश्चविधः। आद्यास्त्रयश्शुभाः अन्त्यावशुभौ । स्पर्शोऽपि मृदुलघुस्निग्धोo कठिनगुरुरूक्ष शीतभेदादष्टविधः । आद्याश्चत्वारः प्रशस्ताः, अन्त्या Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६८ : तन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे स्त्वप्रशस्ताः । शरीरस्यागुरुलघुपरिणामप्रयोजकं कर्म अगुरुलघुनाम | सर्वेषां जीवानामेतत् । परत्रासप्रज्ञाप्रहननादिप्रयोजकं कर्म पराघातनाम । उच्छ्वासनिःश्वासप्राप्तिप्रयोजकं कर्मोच्छ्वासनाम ॥ 1 शरीरवृत्तीति । स्वशरीरवृत्तीत्यर्थः । वर्ण्यतेऽलङ्कियते गुणवत्क्रियते शरीराद्यनेनेति वर्णः 5 शुक्लादिः । यदुदयादौदारिकादिशरीरेषु आह्लादजनकस्य नेत्रानन्दकरस्य वर्णस्योत्पत्तिस्तत्प्रशस्त वर्णनामेत्यर्थः । अप्रशस्तवर्णनामकर्मण्यतिव्याप्तिनिरा सायाह्लादजनकेति, प्रशस्तगन्धनामादिकर्मण्यतिव्याप्तिव्युदासाय वर्णेति । असंभववारणाय शरीरवृत्तीति । अस्य पञ्चेन्द्रियवत्परा जघन्या च स्थितिर्विज्ञेया । प्रशस्तगन्धनामाह - शरीरवृत्तीति, गन्ध्यते आघ्रायत इति गन्धः, लक्षणपदकृत्यं स्थितिश्च प्रशस्तवर्णवद्बोध्या । प्रशस्तरसनामाह--- शरीरे10 विति । कृत्यं स्थितिश्च प्रशस्तवर्णवदेव । प्रशस्तस्पर्शनामाह – शरीरवृत्तीति इदमपि प्रशस्तवर्णवद्बोध्यम्, इमानीति, प्रशस्तवर्णगन्धरसस्पर्शनामकर्माणीत्यर्थः, प्रशस्तेति, विभागवा - क्यस्थेत्यादिः । वर्णादयः कतिविधास्तेषु के प्रशस्ता इत्याशंकायामाह - तत्रेति । स्फटिकादाविव शुक्लः, हिङ्गुलकादाविव रक्तः, हरिद्रादाविव पीतः, प्रियङ्गुपर्णादाविव नीलः, कज्जलादाविव कृष्णो वर्णो भाव्यः । आद्यास्त्रय इति शुक्लरक्तपीतवर्णा इत्यर्थः, प्रशस्ता इति प्रायश 15 आशयवशात्प्राणिनां वल्लभास्सन्तस्सुखात्मकात्मपरिणामोपकारिण इति भावः । अन्त्याविति, नीलकृष्णावित्यर्थः, अप्रशस्ताविति । अनिष्टौ द्वेष्यौ सन्तौ स्वाशयापेक्षया दुःखात्मकात्मपरिणामोपकारिणाविति भावः । गन्धभेदमाह — सुरभीति । श्रीखण्डादाविव सुरभिः, लशुनादाविव दुरभिः । आद्य इति, सुरभिरित्यर्थः, शस्त इति, सौमुख्यकारित्वादिति भावः । अन्त्य इति दुरभिरित्यर्थः, अशस्त इति वैमुख्यकारित्वादिति भावः । रसभेदमाह— 20 रस इति । अपक्ककपित्थादाविव कषायः, आम्लवेतसादाविवाम्लः शर्करादाविव मधुरः, कोशातक्यादाविव तिक्तः, शुण्ठ्यादाविव कटुः, लवणो मधुरान्तर्गत इत्येके, संसर्गज इत्यपरे । आद्या इति कषायाम्लमधुरा इत्यर्थः । अन्त्याविति तिक्तकटू इत्यर्थः । स्पर्शभेदानाह - स्पर्शोऽपीति । हंसरूतादाविव मृदु:, अर्कतूलादाविव लघुः घृतादाविव स्निग्धः, वह्नादाविवोष्णः, पाषाणादाविव कठिनः, वज्रादाविव गुरुः, भस्मादाविव रूक्षः, मृणाला25 दाविव शीतः । आद्या इति मृदुलघुस्निग्धोष्णा इत्यर्थः, अन्त्या इति कठिनगुरुरूक्षशीता इत्यर्थः । अथागुरुलघुनामकर्मस्वरूप माह-- शरीरस्येति । चत्वारो हि परिणामाः पुद्गलानां गुरुत्वलघुत्वगुरुलघुत्वागुरुलघुत्वभेदात् यस्य कर्मण उदद्यात्सर्वप्राणिनां शरीराणि स्वस्वापेक्षया नैकान्तेन लघूनि तथात्वे वायुना विक्षिप्यमाणानां धारणासंभवात् न चैकान्तेन गुरूणि, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छ्वासनामकर्म ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ६९ : वोढुमशक्यत्वात्, किन्त्वगुरुलघुपरिणामपरिणतानि भवन्ति तद्गुरुलघुनामकर्मेत्यर्थः । यदूतिर्यग्वा प्रक्षिप्तमपि पुनर्निसर्गादधो निपतति तद्गुरुद्रव्यं यथा लेष्ट्वादि । यतु निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं द्रव्यं तल्लघु यथा दीपकलिकादि । यत्तु नोर्ध्वगतिस्वभावं नाप्यधोगतिस्वभावं किन्तु स्वभावेनैव तिर्यग्गतिधर्मकं तद्द्रव्यं गुरुलघु यथा वाय्वादि । यत्पुनरूर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभावानामेकतरस्वभावमपि न भवति सर्वत्र वा गच्छति तद्गुरुलघु 5 यथा व्योमपरमाण्वादि । व्यावहारिकनयमिदं । निश्चयतस्तु एकान्तेन गुरुस्वभावं किमपि वस्तु नास्ति, गुरोरपि लेष्ट्वादेः परप्रयोगादूर्ध्वादिगमनदर्शनात्, नैकान्तेन लघुस्वभावं, अतिलघोरपि वाय्वादेः करताडनादिनाऽघोगमनादिदर्शनात् । अतो नैकान्तेन गुरु लघु वा किमपि वस्त्वस्ति । किन्तु यत्किमप्यत्र लोके औदारिकवर्गणादिकं भूभूधरादिकं वा बादरं वस्तु तत्सर्वं गुरुलघु, शेषं तु भाषाऽऽनपानमनोवर्गणादिकं परमाणुद्र्यणुकव्योमादिक 10 सर्वं वस्त्वगुरुलध्विति बोध्यम् । एवञ्च निश्चयनयेन कस्यापि शरीरस्य लघुत्वाभावात् गुरुत्वाभावाच्च गुरुलघुत्वमेव कार्मणातिरिक्तस्य, तत्रागुरुलघुत्वप्रयोजकं कर्म सर्वशरीरिणामित्याशयेनाह—सर्वेषामिति । एतदिति, अगुरुलघुनामकर्मेत्यर्थः, भवतीति शेषः । अत्रागुरुलघुपदेन लघुगुरुपरिणामद्वयस्यैव निरासो बोध्यः, न तु अगुरुलघुनामपरिणामस्यैकस्य ग्रहणम् । व्यवहारनयापेक्षया त्वन्योऽन्यापेक्षया शरीराणि लघूनि गुरूणि 15 अगुरुलघून्यपि भवन्तीति विज्ञेयम् । अस्य पश्चेन्द्रियवदेवोत्कृष्टा जघन्या च स्थितिर्भाव्या । अथ पराघातस्वरूपं निरूपयति - परत्रासेति । यदुदयादोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठ - वेन वा नृपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमापादयति प्रतिपक्षप्रतिघातश्च विधत्ते तत्पराघातनामेत्यर्थः । कृत्यं विशेषणविशेष्ययोः पूर्ववत् । स्थिती चोभयविधे पञ्चेन्द्रियवत् । उच्छ्वासनामकर्म निरूपयति उल्वासेति । ऊर्ध्वगामी वायुरुच्छ्वासः, अधोगतिमान् 20 वायुर्निश्वासः प्राणापानापरनामानावेतौ तौ चानन्तप्रदेशस्कन्ध पुद्गल परिणामजन्यौ, तयोः प्राप्तिर्लब्धिः तत्प्रयोजकं कर्म उच्छ्वासनामकर्म । उच्छ्वासनिःश्वासग्रहणमोक्षणलब्धेरुच्छ्छासनामकर्मसाध्यत्वादौदयिकीनामपि लब्धीनां सम्भवात् तादृशलब्धेर्व्यापारण एव च श्वासोच्छ्वासपर्याप्तेर्हेतुत्वादिति भावः । उच्छ्वासनिःश्वासलब्धिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । पदकृत्यं स्पष्टमु, उभयविधा स्थितिः पश्चेन्द्रियवत् ॥ १ निश्चयनये औदारिकवैक्रियाहारकतैजसद्रव्याणि बादररूपत्वाद्गुरुलघूनि, कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि त्वगुरुलघूनि, बादरनामकर्मोदयवर्तिजीवानां शरीराणि बादराण्यन्यानि गुरुलघूनि, सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिजीवशरीराणि सूक्ष्मपरिणतानीतराण्यगुरुलघूनि । तथा च गुरुलघुकं शरीरं प्रतीत्य नारकादयो गुरुलघुकाः, जीवं कार्मणञ्च प्रतीत्यागुरुलघुका इति ॥ 25 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 1990: तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे अथाऽऽतपादिनामकर्माण्याचष्टे - स्वरूपतोऽनुष्णानां शरीराणामुष्णत्वप्रयोजकं कर्माऽऽतपनाम | तच्च भानुमण्डलगत भूकायिकानाम् । गात्राणामनुष्ण प्रकाशप्रयोजकं कर्मोद्योतनाम । तच्च यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रग्रहतारारत्नादीनाम् । प्रश5 स्तगमनहेतुः कर्म शुभखगतिनाम ॥ स्वरूपत इति । यस्य कर्मण उदद्याज्जन्तुशरीराणि स्वभावेनानुष्णान्यपि उष्ण प्रकाशरूपमुष्णत्वं लभन्ते तदातपनामकर्मेत्यर्थः । स्वरूपतोऽनुष्णशरीरसम्भूतोष्ण प्रकाशप्रयोजककर्मत्वं लक्षणार्थः । वह्निशरी रोष्णस्पर्शस्य स्पर्शनामकर्मोदयजन्यत्वात्तत्रातिव्याप्तिवारणाय स्वरूपतोऽनुष्णेति । तादृशकर्मोदयः कुत्रेत्यत्राह - तचेति । भानुमण्डलादिगतानां पृथिवी - 10 कायिकानामेवेत्यर्थो विपाकाभिप्रायेणेदम्, न तु वह्नौ तद्विपाकः, प्रवचने प्रतिषेधात्, तत्रोष्णत्वस्योष्णस्पर्शना मोदयेन प्रकाशकत्वस्य चोत्कटलोहितवर्णनामोदयेन संभवात् । स्थिती च पञ्चेन्द्रियवत् । उद्योतनामस्वरूपमाह – गात्राणामिति । शरीरवृत्यनुष्णप्रकाशप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं, कृत्यं पूर्ववत्, अस्य विपाकस्थानमाह - तच्चेति । विहितोत्तरवैक्रियाणां मुनिदेवानां तथा चन्द्रादीनामित्यर्थः । स्थिती पंचेन्द्रियवदेव । अथ शुभ1 15 खगतिनामाह--प्रशस्तेति । प्रशस्तगमनहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम्, विशेषणविशेष्यकृत्यं प्राग्वत् । कुखगतावतिव्याप्तिवारणाय प्रशस्तेति, हंसगजवृषादीनामिव प्रशस्ता गतिर्ग्राह्या, सिद्धजीवपुद्गलानां गतिस्तु स्वाभाविकी, न चास्य कर्मण उदयः पक्ष्यादिवेव स्यान्न मनुजादौ तेषामाकाशे गत्यभावान्न शुभखगतिरिति वाच्यम्, वायगतत्वेन गतिमात्रस्याकाश एव भावात् न च तर्हि शुभगतिनामेत्येवोच्यतां किं खपदेन 20 व्यावर्त्त्यभावादिति वाच्यम्, संशयव्यवच्छेदार्थं तद्विशेषणोपादानात्, अन्यथा देवत्वादिपर्यायपरिणतिप्रयोजककर्मणश्शङ्कया पौनरुक्त्याशङ्का स्यादिति भावः । तवार्थभाष्ये तु लब्धिशिक्षर्द्धिप्रत्ययस्याकाशगमनस्य जनकं विहायोगतिनामेति दृश्यते । व्याख्या लब्धिर्देवादीनां देवोत्पत्स्यविनाभाविनी, शिक्षया ऋद्धि: शिक्षर्द्धिः, तपस्विनां प्रवचनमधीयानानां विद्याद्यावर्त्तनप्रभावाद्वाऽऽकाशगमनस्य, लब्धिशिक्षद्धिहेतोर्जनकं विहायोगति - 25 नामेति । अस्य परा स्थितिर्देवगतिवत्, जघन्या तु मनुजगतिवत् ॥ १ यतिदेवैर्मूलशरीरापेक्षयोत्तरकालं क्रियमाणं वैक्रियं यतिदेवोत्तरवैक्रियमुच्यत इत्याशयेनाह विहितेति ॥ २ गतिर्द्विविधा भावगतिः कर्मगतिश्चेति, अद्या पञ्चास्तिकायानां परिणामाश्रयत्वात् कर्मगतिर्द्विविधा विहायोगतिः चलनगतिश्चेति, विहायोगतिनामोदयवेदका जीवाः प्रथमगतिमन्तः, चलनगतिं प्रतीत्य सर्वे जीवाः पुद्रलाश्च, सिद्धास्तु सिद्धिक्षेत्रगमनकाल एव न पश्चादिति बोध्यम् ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चादरनामकर्म ] न्यायप्रकाशसमलहते अथ निर्माणनामकर्माचष्टे जातिलिङ्गाङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानसंस्थापनाप्रयोजकं कर्म निमाणनाम ॥ जातीति । जातिरेकेन्द्रियादिस्तत्र स्वस्वजात्यनुसारेणेति यावत् , लिङ्गं रूयादीनां यदसाधारणं चिह्न, तस्याङ्गानां प्रत्यङ्गानाञ्च प्रतिनियतस्थानेषु या संस्थापना व्यवस्था तत्र 5 प्रयोजकं यत्कर्म तन्निर्माणनामकर्मेत्यर्थः, जातिलिङ्गाङ्गप्रत्यङ्गविषयकप्रतिनियतस्थानव्यवस्थाप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । अङ्गोपाङ्गनामकर्मादावतिव्याप्तिवारणाय प्रतिनियतस्थानव्यवस्थेति पदम् । तदिदं कर्म सूत्रधारसन्निभम् , तदभावे हि निर्वर्तितानामप्यङ्गोपाङ्गनामादिकर्मणा शिरउरआदीनां नियतस्थानवृत्तितानियमो न स्यादिति भावः, अस्योभयविधा स्थितिः पञ्चन्द्रियवत् ।। 10 अथ त्रसनामकर्माभिधत्तेउष्णाद्यभितप्तानां स्थानान्तरगमनहेतुभूतं कर्म त्रसनाम। उष्णादीति । उष्णादीत्युपलक्षणं तथा च सति कारण इति भावः । इदश्च विहायोगत्यादावतिप्रसङ्गभङ्गाय । विशेषणविशेष्यपदफलं पूर्ववत् । न च गर्भाण्डजमूञ्छितसुषुतादीनां त्रसत्वं न स्यात् , भयहेतुप्राप्तावपि चलनाभावात्तथा चाव्याप्तिरिति वाच्यम् , तत्रापि 15 स्थानान्तरगमनयोग्यताया भावात् । पञ्चेन्द्रियवदस्य स्थिती बोध्ये ॥ बादरनामाहचक्षुर्वेद्यशरीरप्रापकं कर्म वादरनाम ।। चक्षुर्वेद्येति । अत्र चक्षुर्वेद्यत्वं नाम स्थूलतापरिणामो विवक्षितः, तथा च यस्योदयात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुह्यत्वाभावेऽपि बहूनां समुदाये स्थूलत्वपरिणामभा- 20 वाञ्चक्षुषा ग्रहणं भवति तद्वादरनामेति भावः । सूक्ष्मनामकर्मादावतिव्याप्तिवारणाय चक्षुर्वेयेति । चक्षुर्ग्रहणयोग्यशरीरनिवर्तकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थस्तेन प्रत्येकं पृथिव्यादिशरीराणां प्रत्येकं चक्षुर्वेद्यत्वाभावेऽपि स्थूलत्वपरिणामयोग्यत्वान्नाव्याप्तिः । विशुद्धावधिवेद्यशरीरप्रापकसूक्ष्मनामकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय चक्षुरिति । अस्य स्थिती पञ्चेन्द्रियवत् ॥ १. १ जीवविपाक्यप्येतच्छरीरपुद्गलेष्वपि काञ्चिदभिव्यक्तिं दर्शयति, न च जीवविपाकिकर्मणश्शरीरे स्वशक्तिप्रकटनमसङ्गतमिति वाच्यम् , क्रोधादेर्जीवविपाकिनोऽपि कुपितनरशरीरे भ्रूभङ्गादिजननदर्शनात् , कर्मशक्तेर्विचित्रत्वाच ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे । चतुर्षकिरणे पर्याप्तनामकर्माहस्वयोग्यपर्याप्तिनिवर्त्तन शक्तिसम्पादकं कर्म पर्याप्तनाम ॥ स्वयोग्येति । यदुदयादात्मा स्वस्वयोग्याः पूर्वोदिताः पर्याप्तीः प्राप्नोति तत्पर्याप्तनामकर्मेत्यर्थः । स्वयोग्यपर्याप्तिनिवर्तनशक्तिसम्पादकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । स्वयोग्यायाः 5 पर्याप्तः पूर्णतानिर्तिका याश्शक्तयः पर्याप्तिसंज्ञास्तासां सम्पादकमित्यर्थः । स्वयोग्यपर्याप्त्यात्मकशक्तिसम्पादकत्वे सति कर्मत्वस्यापर्याप्तनामकर्मणि सत्त्वादतिव्याप्तिरतः पर्याप्तिनिवर्तनेति शक्तर्विशेषणम् , अपर्याप्तानामपि पर्याप्तयो भवन्ति, परन्तु परिपूरिमतां नासादयन्ति, अपर्याप्ता एव ते म्रियन्त इति न दोषः । अस्यापि स्थिती पञ्चेन्द्रियवदेव ॥ ___ अथ प्रत्येकनामकर्म वक्ति प्रतिजीवं प्रतिशरीरजनकं कर्म प्रत्येकनाम ।। प्रतिजीवमिति । जीवं जीवं प्रतीत्यर्थः, तथा च प्रतिजीवं भिन्नभिन्नशरीरनिर्वर्तकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । भिन्नभिन्नेति पदन्तु साधारणनामकर्मणि व्यभिचारवारणाय | तस्योदयो नारकामरमनुष्यद्वीन्द्रियादिषु पृथिव्यादिषु कपित्थादिवृक्षेषु च, कपित्थादिवृक्षाणां मूलस्कंधादौ प्रत्येकमसंख्येयजीवत्वेऽपि शरीराणामन्यान्यत्वान्न कोऽपि विरोधः । पञ्चेन्द्रि15 यवत्परा जघन्या च स्थितिः ॥ स्थिरनामकर्म लक्षयतिशरीरावयवादीनां स्थिरत्वप्रयोजकं कर्म स्थिरनाम । शरीरेति । यस्योदयाच्छिरोऽस्थिदन्तादीनां शरीरावयवानां स्थिरता भवति तत्स्थि• रनामकर्मेत्यर्थः । शरीरावयवस्थैर्यताप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् , अङ्गोपाङ्गनामकर्मादौ 20 व्यभिचारवारणाय स्थैर्यतेति । अस्य परा स्थितिर्देवगतिवदपरा तु मनुजगतिवत् ॥ शुभनामकर्माभिधत्तेउत्तरकायनिष्ठशुभत्वप्रयोजकं कर्म शुभनाम ।। उत्तरेति । नाभेरुपरितनावयवसमूह उत्तरकायः, तत्र यच्छुभत्वं पादादौ स्पर्शन परस्य शुभभावोत्पादात् पवित्रता शिर आदीनां तन्निदानभूतं कर्मेत्यर्थः । सातादौ पुण्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७३: यशःकात्तिनाम ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते कर्ममात्रे शुभत्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वस्य सत्त्वाव्यभिचारवारणायोत्तरशरीरनिष्ठेति । स्थिरनामकर्मवदस्य स्थिती ॥ अथ सौभाग्यनामकर्माऽऽख्यातिअनुपकारिण्यपि लोकप्रियतापादकं कर्म सौभाग्यनाम ॥: अनुपकारिण्यपीति । अनुपकर्ता यो लोकानां प्रियो भवति यदुदयात्तत्सौभाग्यना- 5 मेत्यर्थः । प्रियत्वं च मनस आह्वादकारित्वं, प्रशस्तवर्णादावतिप्रसङ्गवारणायानुपकारिण्यपीति । अनुपकारिण्यपि पुत्रादौ मोहनीयनिबन्धनप्रियत्वसम्भवेन तत्र व्यभिचारनिरसनाय लोकेति । देवगतिवत्परा स्थितिर्मनुजगतिवज्जघन्या ॥ सम्प्रति सुस्वरनाम सूचयति कर्णप्रियस्वरवत्त्वप्रयोजकं कर्म सुस्वरनाम । वचनप्रामाण्याभ्युत्था- 10 नादिप्रापकं कर्माऽऽदेयनाम ॥ कर्णेति । यस्योदयात् उच्चरितश्शब्दो मधुरो गम्भीर उदारो भूयः प्रीतिकरश्च भवति तत्सुस्वरनामेत्यर्थः । दुस्स्वरनामकर्मणि व्यभिचारवारणाय कर्णप्रियेति । सौभाग्यवदस्य स्थिती । आदेयनामाचष्टे वचनेति । यस्य वचनं युक्तिरिक्तमपि प्रामाण्यमास्कन्दति यदुदयात् यस्य च दर्शनमात्रेण लोकोऽभ्युत्थानादि समाचरति तदादेयनामेत्यर्थः । स्थिती 15 च सौभाग्यवत् ॥ यशःकीर्तिनाम वक्ति यशकीयुदयप्रयोजकं कर्म यश कीर्तिनाम। एकदिग्गमनात्मिका . कीर्तिः। सर्वदिग्गमनात्मकं यशः । दानपुण्यजन्या कीर्तिः । शौर्यजन्यं यश इति वा । इमानि त्रसदशकानि ।। 20 यश इति । यस्योदयेन यशःकीर्ती भवतस्तद्यशःकीर्तिनामेत्यर्थः । न चास्योदयेऽपि, कचिन्न यशःकीर्ती भवत इति वाच्यम् । सद्गुणमध्यस्थपुरुषापेक्षयैव तदुदयाभ्युपगमात् । तेन केनचिद्यशःकीर्तिभ्यां कीर्तित एवायशःकीर्त्या कीर्त्तितोऽपि न क्षतिः । उत्कृष्टास्य स्थितिर्देवगतिवत् जघन्या तु मुहूर्ता अष्टौ, अबाधा चान्तर्मुहूर्त्तकालः । ननु यशःकीयॊः पर्यायत्वात्कथं द्वन्द्वाश्रयेण भेद उच्यते इत्यत्राह-एकेति, एकदिग्व्यापिनी पुण्यगुणख्यातिः 25 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे कीर्तिरित्यर्थः, सर्वेति, सर्वदिग्व्यापिनी गुणख्यातिर्यश इत्यर्थः । प्रकारान्तरेणाह-दानेति, अथवा पराक्रमतपस्त्यागाद्युद्भूतयशसा यत्कीर्तनं श्लाघनं सा यशःकीर्तिरिति तृतीयातत्पुरुषोऽपि भाव्यः । वसनामकर्मप्रभृति यशःकीर्तिनामपर्यन्तं यावत् दश नामकर्माणि विभागवाक्योक्तत्रसदशकशब्दवाच्यानीत्यभिप्रायेणाह इमानीति ॥ . ___अथ देवायुषो लक्षणमाह देवभवनिवासकारणायुः प्रापकं कर्म देवायुः॥ देवभवेति । भवः संसारः, चतुर्गतिको देवमनुष्यतिर्यङ्नरकभेदात् । तत्र भवनिवासे आभ्यन्तरं कारणमायुः । तत्र यस्य भावादात्मनो जीवितं यदभावाच्च मरणमुच्यते तदायुः यत्सन्निधानाद्वा जीवेन शेषप्रकृतय उपभोगायाऽऽनीयन्ते तदायुस्सोपक्रमनिरुपक्रम10 भेदभिन्नं पौद्गलिकञ्च । आगमोक्तैरुपक्रमैरध्यवसायाद्यैर्बहुना कालेन वेद्यमपि यदल्पकालेन भुज्यते तत्सोपक्रममायुः । तच्च बन्धनसमये श्लथं बद्धं शक्यापवर्तनं तथा । यत्तु बन्धसमये गाढं बद्धं क्रमवेद्यफलं अशक्यापवर्त्तनं, अध्यवसानादिभ्यो निर्गतञ्च तन्निरुपक्रमम् । तत्रानपवायुष औपपातिका अन्त्यदेहाः, तीर्थकरचक्रवर्त्यर्धचक्रवर्तिनोऽसङ्ख्येयवर्षायुषो मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च । शेषा मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाः सोपक्रमा निरुपक्रमाश्चापवल्युषोऽ15 नपवर्त्यायुषश्च भवन्ति । तत्रायुषो बन्धकाः सम्यङ्मिथ्यादृष्टिविरहिता मिथ्यादृष्टेरारभ्या प्रमत्तगुणस्थानं यावत् षट्त्सु स्थानेषु जन्तवोऽजघन्योत्कृष्टाध्यवसायविशेषभाजः पृथुकषायास्साद्यधुवायुर्विकल्पयुजः । अप्रमत्तगुणस्थानवर्तिनस्तु निष्ठापका एव । तथा नारकदेवासंख्येयवर्षायुष्कतिर्यङ्मनुष्याः षण्मासावशेषायुषोऽत्र्यभवजीवितं बध्नन्ति । शेषास्तु निजायुष स्तृतीये नवमे सप्तविंशेऽवशेषायुर्भागे तद्वध्नन्ति । तत्रापि पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतु20 रिंद्रियाणां निरुपक्रमायुषाश्च पश्चेन्द्रियाणां नियमतस्तृतीये, सोपक्रमायुषाश्च पञ्चेन्द्रियाणां तृतीये नवमे सप्तविंशे वा भागेऽवशेषेऽवशिष्टान्तर्मुहूर्तायुषि वा बन्धो बोध्यः । इयमेव भवस्थितिः । एवञ्च देवभवनिवासे हेतुभूतं यदायुः तत्प्रापकं कर्म देवायुर्नामेत्यर्थः । देवभवनिवासहेत्वायुःप्रापकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः, मनुष्यायुरादौ व्यभिचारवारणाय हेत्वन्तं देवपदमप्यत एव । अस्य परा स्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा, पूर्वकोटित्रिभागोऽबाधा, जघन्या 25 च दशवर्षसहस्राणि, अबाधा त्वन्तर्मुहूर्तम् । आयुषोऽबाधायां भङ्गचतुष्टयं पूर्वकोट्यायुष्को मनुजत्रिभागावशेषे आयुष्युत्कृष्टस्थितिकमागामिदेवभवायुषं यदा बध्नाति तदोत्कृष्टस्थि १. यऽपवायुषस्तेषां विषशस्त्रकण्टकादिभिः क्षुत्पिपासादिभिश्वायुरपवर्त्यते, झटिति कर्मफलस्यान्तर्मुहूर्तादुपभोगोऽपवर्तना, तेन न कर्मणः कृतनाशाकृताभ्यागमादिप्रसक्तिः । २. एते सोपक्रमा निरुपक्रमाश्च । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकरनाम ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते त्युत्कृष्टाबाधात्मकः प्रथमो भङ्गः। स एव जघन्यमध्यमायुष्को वा मनुजोऽन्तर्मुहूर्तावशिष्ट आयुष्युत्कृष्टस्थितिकमागामिदेवभवायुषं बध्नाति यदा तदोत्कृष्टस्थितिजघन्याबाधात्मको द्वितीयः । पूर्वकोट्यायुष्को मनुजो यदा पूर्वकोटित्रिभागावशेष आयुषि दशसहस्रप्रमाणं जघन्यस्थितिकं देवायुर्बध्नाति तदा देवायुरपेक्षया जघन्यस्थित्युत्कृष्टाबाधात्मकस्तृतीयः । जघन्यायुष्कोऽन्तर्मुहूर्तावशेष आयुषि दशवर्षसहस्रात्मकं यदा देवायुर्बध्नाति तदा जघ- 5 न्यस्थितिजघन्याबाधात्मको भङ्गश्चतुर्थ इति ॥ अथ मनुजायुराह मनुजभवनिवासनिदानायुः प्रापकं कर्म मनुजायुः । तिर्यग्भवनिवासहेत्वायुःप्राप्तिजनकं कर्म तिर्यगायुः ॥ मनुजभवेति । स्पष्टं लक्षणम् , त्रिपल्योपमा परा स्थितिः । जघन्या तु क्षुल्लकभवप्रमाणा, 10 अबाधाऽन्तर्मुहूर्तकालः । तिर्यगायुराह–तिर्यगिति, लक्षणं स्पष्टम् । यावत्स्वायुःपरिसमाप्तिं कदापि मृत्युसमीहाभावादिदमाहादजनकत्वाच्छुभम् । तिर्यग्गतितिर्यगानुपूव्यौँ तु संक्लिष्टाध्यवसायैरात्मसाक्रियमाणत्वेनाशुभत्वात्पापात्मके इति । परा स्थितिः त्रिपल्योपमा, अपरा चान्तर्मुहूर्तम् ॥ तीर्थकरनामकर्माहअष्टमहाप्रातिहार्यायतिशयप्रादुर्भवननिमित्तं कर्म तीर्थकरनाम ॥ अष्टेति । ' अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनश्च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणा'मिति श्लोकेऽष्टौ प्रातिहा-णि प्रतिपादितानि प्राह्याणि । अष्टमहाप्रातिहार्याद्यतिशयप्रादुर्भावनिमित्तत्त्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । विशिष्टर्द्धियुक्तानां चक्रधरत्वादीनामुच्चैोत्रेऽतिव्याप्तिवारणायाष्टविधप्रातिहार्यादीति । गणधरत्वन्तु श्रुतज्ञानावरण- 20 क्षयोपशमनिमित्तत्वान्न तीर्थकरनामवत् गणधरनामकर्मोपसंख्यानापत्तिः । न च तीर्थकरस्यापि श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमो वा चक्रधरादीनामिवोच्चैर्गोत्रविशेषो वा निमित्तमस्त्विति वाच्यं तीर्थप्रवर्तनफलत्वेन तीर्थकरनामकर्मणोऽभ्युपगमादिति। अस्योत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमकोटीकोटेरन्तः। अबाधान्तर्मुहूर्तमेवमेव जघन्या स्थितिरपि किञ्चिन्न्यूना ॥ एतत्कर्म - 15 १. एतच्चकर्म मनुजगतिस्थ एव पुरुषः स्त्री नपुंसको वा तीर्थकरभवात्पृष्टतस्तृतीयभवं प्राप्य बध्नाति, बन्धोऽयं निकाचनारूपबन्धापेक्षया, अनिकाचनारूपस्तु तृतीयभवात्प्रागपि, जघन्यतोऽप्यन्तस्सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणत्वात् . तत्र निकाचितमवन्ध्यफलमितरत्तभयथापि । निकाचनारूपश्च तृतीयभवादारभ्य यावत्ती Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ७६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे विंशतेः स्थानकानामाराधनात् सम्यक्त्वशालिना नृगतावेव तृतीये भवे निकाच्यते । केवलोत्पत्स्यनन्तरमस्योदयः, धर्मोपदेशना दिभिश्चैतदग्लान्या वेद्यत इति ॥ 5 तदेवं द्विचत्वारिंशद्विधानि पुण्यकर्माण्यभिधायतद्धेतूना मध्यवसाय विशेषप्रभवसुपात्रदानादीनामपि पुण्यफलदत्वेन पुण्यरूपत्वमित्यभिमन्यमानः पुण्यस्य द्वैविध्यमादर्शयति पुण्यमिदं कार्यकारणभेदेन द्विविधम् । एतानि कर्माणि कार्यरूपाणि जीवानुभवप्रकाराणि । एतेषां हेतवस्तु सुपात्रेभ्यो निरवद्यान्नवसतिवा - सोजलसंस्तारकादीनां प्रदानं, मनसश्शुभसंकल्पः, वाक्काययोश्शुभव्यापारः, जिनेश्वरप्रभृतीनां नमनादय इति दिक् । इति पुण्यनिरूपणम् ॥ पुण्यमिदमिति । पवित्रीकरण निदानं पुण्यमिदमित्यर्थः । एतानीति सातादिद्विचत्वा10 रिंशद्विधानि कर्मप्रकृतिग्रन्थानुसारीणि कर्माणि भूतव्रत्यनुकम्पादिफलकानि कार्यरूपाणि जीवैः सुखादिरूपेणानुभवनीयानीत्यर्थः । कारणात्मकपुण्यमाह - एतेषामिति । द्वाचत्वारिंशद्विधानां कर्मणामित्यर्थः । तव इति नमनादय इत्यप्रेतनेनान्वयः, भवन्तीति शेषः । सुपात्रेभ्य इति, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपरसम्पन्नेभ्य इत्यर्थः, निरवद्यस्यान्नस्य सुरभिलवण स्निग्धमधुरत्वादिभिरच्युतस्य शालिव्रीहिगोधूमादिनिष्पन्नस्याशनस्य, वसतेर्वाससो जलस्य संस्तारकादीनाञ्च '15 प्रदानम् - - अनसूयाऽविषादादरपरमप्रीतिकुशलाभिप्रायदृष्टफलानपेक्षानिरुपधित्वा निदानत्वादिगुणयुतदातृकृता तिसर्गः, पुण्योपचयनिर्जराहेतुः, मनसः शुभसंकल्प इति, अनभिध्यादिधर्मशुक्लध्यानध्यायित्वादय इत्यर्थः, वाक्काययोः शुभव्यापार इति, अहिंसाऽस्तेयादयश्शुभः काययोग:, असावद्यादिवचनमागमविहितभाषणं च शुभवाग्योगः, योगैरेभिस्त्रिभिश्शुभकर्मण आस्रवो भवति । जिनेश्वरेति तीर्थपत्याचार्योपाध्यायादीनामित्यर्थः यद्यपि वस्तुतो मनोवाक्का20 यानां शुभव्यापारस्यैव द्विचत्वारिंशद्विधस्य पुण्यस्य कारणत्वं तथापि किञ्चिद्विस्तरेण सामान्यशेमुषकाणां बोधाय तस्यैव प्रपञ्च आदर्शितः । न च पुण्यस्यापि पापवत्पारतन्त्र्याविशेषात्तयोर्भेदोऽनुचित इति वाच्यम् इष्टानिष्टनिमित्तभेदात्तत्सिद्धेः । इष्टगतिजातिशरीरेन्द्रियविषयादीनां हि निर्वर्त्तकं पुण्यम् । अनिष्टगत्यादीनां निर्वर्त्तकं पापमिति वैचित्र्यं सुप्रसिद्धमेवेति ॥ करभवेऽपूर्वकरणस्य संख्येयभागाः, तत ऊर्ध्वं व्यवच्छेदः, केवलज्ञानोत्पत्तौ चाष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपे सुरेन्द्रकृते पूजोपचारे सति सदेवमनुजासुरायां परिषदि ग्लानि परिहारेण धर्मदेशनया श्रुतचारित्ररूपधर्मप्ररूपणलक्षणया - चतुस्त्रिंशता देहसौगन्ध्यादिभिरतिशयैः पञ्चत्रिंशता बुद्धिवचनातिशयैस्तद्वेद्यत इति भावः ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते । : ७७: ___ तत्र कर्मप्रकृतयः सामान्यतो द्विविधाः, घातिका अघातिकाश्चेति, ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तराया घातिका; अपरा अघातिकाः । घातिकास्तु सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति द्विविधाः। तत्र केवलदर्शनावरणनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिनिद्राप्रचलाकेवलज्ञानावरण. द्वादशकषायमिथ्यात्वाख्या विंशतिप्रकृतयस्सर्वघातिकाः । ज्ञानावरणचतुष्कदर्शनावरणत्रयान्तरायपश्चकसंज्वलननोकषायसंज्ञका देशघातिनः । एवं शरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणसंघातसंस्थान- 5 संहननस्पर्शरसगन्धवर्णागुरुलघुपराघातोपघाताऽऽतपोद्योतप्रत्येकसाधारणस्थिरास्थिरशुभाशुभनामकर्माणि पुद्गलविपाकप्रदानि, आनुपूर्वी तु क्षेत्रविपाककरा, आयुर्भवधारणफलं, अवशिष्टाः प्रकृतयो जीवविपाकहेतवो बोध्याः । एवं नारकादिचतुर्गतिषु नरकगतौ तावत्सातपञ्चेन्द्रियवैक्रियतदङ्गोपाङ्गतैजसकार्मणवर्णचतुष्कागुरुलघुपराघातोच्छ्वासनिर्माणत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभनामानि कर्माणि उदयापेक्षया वर्तन्ते। तिर्यग्गतौ मनुष्यत्रिकासुरत्रिका- 10 ऽऽहारद्विकतीर्थकरनामकर्माणि विनाऽन्यानि वर्त्तन्ते । मनुजगतौ सुरत्रिकतिर्यगायुरातपनामानि पञ्चविहायान्यानि वर्त्तन्ते । देवगतौ तु मनुजत्रिकतिर्यगायुरौदारिकद्विकातपाहारकद्विकतीर्थकरनामानि वर्जयित्वा शेषाणि वर्तन्त इत्यादि विषयबाहुल्याभिप्रायेण दिगित्युक्तम् । दिङ्मात्रेणात्र पुण्यतत्त्वं व्यावर्णितं विस्तरस्तु प्रवचने द्रष्टव्यमिति भावः ॥ पुण्यतत्त्ववर्णनं निगमयति इतीति ॥ . . 15 इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य । - तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां पापनिरूपणं नाम चतुर्थः किरणः ॥ अथ पञ्चमः किरणः 20 अथावसरसङ्गत्या पापतत्त्वं निरूपयितुमुपक्रमते दुःखोत्पत्तिप्रयोजकं कर्म पापम् ॥ दुःखोत्पत्तीति। विरोधिद्रव्योपनिपातादभिमतवियोगानिष्टसंयोगानिष्टश्रवणादेः पीडा १. केवलदर्शनज्ञानयोस्सर्वात्मनाऽऽवरणादनयोस्सर्वघातित्वं न तु दर्शनज्ञानमात्रावारकत्वात्. तथात्वेजीवस्याजीवत्वापत्तेः । २. स्वस्वविषयाणां सर्वात्मना घातकत्वासम्भवादिति भावः । अघातिकास्तु न ज्ञानादिगुण घातयन्ति, किन्तु सर्वदेशघातिनीभिस्सह वेद्यमानास्सर्वदेशघातिरसविपाकं दर्शयन्ति, यथा चौरैस्सहाचौरश्चौर इवावभासते ॥ ३. शरीरान्तर्गतपुद्गलेष्वात्मीयशक्तिप्रदर्शनात् । क्षेत्रेति, आकाश एव स्वशक्तिप्रदर्शिका, विग्रहगतावेवास्या उदयादिति भावः । भवेति, स्वयोग्यभव एवोदयीत्यर्थः, नान्य Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे लक्षण आत्मनः परिणामो दुःखमित्यर्थः । दुःखोत्पत्तिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं विशेषणानुपादाने सातादौ विशेष्यानुपादाने कालादिसमवाये व्यभिचारादुभयम् । न चेदृशदुःखोत्पत्तिप्रयोजकत्वे कर्मत्वस्यासातवेदनीय एव सत्त्वान्मतिज्ञानावरणादावव्याप्तिः । उक्तञ्च तत्त्वार्थसूत्रकृता-"दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेदनीयस्ये"ति, 5 ज्ञानदर्शनावरणादीनां प्रदोषनिह्नवादिजनकत्वेन न दुःखोत्पत्तिहेतुत्वमिति वाच्यम् । मतिज्ञाना वरणादीनामपि परम्परया दुःखोत्पत्तिहेतुत्वात् साक्षाद्धि फलं प्रदोषनिह्नवादयः । ननु पुण्यमेकमेवास्तु न पापम् , न च दुःखोपपत्तिः कस्यापि न स्यादिति वाच्यम् । पुण्यस्य तारतम्येन तदुपपत्तेः । परां काष्ठामासादितस्य पुण्यस्यातिशयसुखं फलं, तस्यैव च तारतम्ययोगेनापकर्षात् सुखस्यापि हान्या तदपेक्षया तत्सुखस्य दुःखत्वम् ,एवमेव परमजघन्यस्य पुण्यलेशस्य नरकदुःखं फलमिति कस्यापि दोषस्याभावात्पापलक्षणप्रणयनमसंगतमिति चेन्मैवम् ,विनिगमनाविरहेणोभयस्यापि सिद्धेः । अनुभूयते हि सुखदुःखयो(जात्यम् , तच्च विजातीयमनुरूपं कारणमन्तरेण कथं हि भवेत् , तस्मादस्ति सुखस्यानुरूपं कारणं पुण्यं दुःखस्यानुरूपञ्च कारणं पापमिति । न च पुण्यपापे न सुखदुःखयोरनुरूपे कारणे, सुखदुःखयोरात्मपरिणामत्वात् पुण्यपापयोश्च पौद्गलिकत्वादिति वाच्यम् , सर्वथा कार्यानुरूपत्वस्य कारणेऽनिष्टत्वात् कार्याननुरूपत्वस्य 15 वा, अपि तु सकलमपि वस्तु परस्परं तुल्यातुल्यरूपमेव । अत्र तु कार्यस्य सुखादेः कारण पुण्यादिपर्यायत्वादनुरूपत्वं प्रोक्तम् । न च कथं सुखदुःखे पुण्यपापयोः पर्याय इति वाच्यम् , सुखं प्रति जीवपुण्यसंयोगस्य दुःखं प्रति जीवपापसंयोगस्य हेतुत्वेन च सुखदुःखयोः पुण्यपापपर्यायत्वात्। तथा च यथा सुखं शुभशिवकल्याणादिशब्दैर्व्यपदिश्यते तथा पुण्यमपि, यथा दुःखश्चाशुभाशिवाकल्याणादिशब्दैर्व्यपदिश्यते तथा पापमपीति सिद्धं पुण्यातिरिक्तं पापमिति॥ 0 ननु किं दुःखस्यात्मपरिणामविशेषस्यामूर्त्तत्वेन पापमिदमप्यमूर्त स्यात्पापपर्यायत्वादुःखस्य, किंवा पापस्य बन्धकत्वेन मूर्त्तत्वात्तत्पर्यायभूतं दुःखमपि मूर्त स्यादित्याशङ्कायामाह पौद्गलिकमेतत् । इदमेव द्रव्यपापमुच्यते । द्रव्यपापनामककर्मोत्पत्तिकारणात्मा शुभाध्यवसायो भावपापम् ॥ स्मिन् भवे गतय इवेति भावः । जीवेति, जीव एवादर्शनित्वाज्ञानित्वाचारित्रित्वादातृत्वसुखित्वदुःखित्वकारिण्य इति भावः ॥ १. विजायतीयकार्यदर्शनेनानुरूपेण विजातीयकारणेन भवितव्यमेवेत्याशयेनाहानुभूयत इति । २. नन्वेवं तर्हि कथमनुरूपविजातीयकारणानुमानमुच्यते, सर्वस्य सर्वेण तुल्यातुल्यरूपत्वादित्यत्राहात्रत्विति, तथा च सुखस्य पापापर्यायत्वाद्दुःखस्य पुण्यापर्यायत्वात्सुखदुःखे प्रति पापपुण्येऽननुरूपे, तयोः पुण्यपापपर्यायत्वाच ते प्रति तेऽनुरूपे इति भावः ॥ . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 10 मतिज्ञानावरणम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते पौद्गलिकमेतदिति । एतद् दुःखोत्पत्तिप्रयोजकभूतं कर्मेदमित्यर्थः, पौद्गलिकं मूर्तमेवेत्यर्थः । तथा च मूर्तपापपर्यायत्वेऽपि दुःखस्य न मूर्त्तत्वं जीवस्यापि तत्र हेतुत्वात्, जीवो हि तत्र परिणामिकारणममूर्तश्चातस्तत्परिणामभूतं दुःखमप्यमूर्तमेवेति भावः, ननु कर्मबन्धे नियतो हेतुर्योगः, स च मनोवाक्काययोगात्मकश्शुभोऽशुभो वा भवेत् , तत्राशुभकर्मबन्धेऽशुभो योगो हेतुश्शुभकर्मबन्धे च शुभो योगो हेतुः, योगश्च मनोवाक्कायानां 5 परिस्पन्दो द्रव्ययोगरूपः, तथा चाध्यवसायविशिष्टेनात्मना परिस्पन्दद्वारा कर्म बध्यते, तस्मात् कर्मपरिस्पन्दयोर्निबन्धनं जीवाध्यवसायः, स च भावयोगरूपस्तस्य शुभत्वे भावपुण्यत्वमशुभत्वे भावपापत्वमित्याशयेनाह-इदमेवेति, पौद्गलिकपापकर्मेत्यर्थः, एवशब्दो भिन्नक्रमः, तथा च पौद्गलिकं पापकर्म द्रव्यपापमेवोच्यत इत्यर्थः, तेन क्रियात्मकद्रव्ययोगस्य पापत्वेऽपि न क्षतिः । अथ भावपापमाह-द्रव्यपापेति, स्पष्टम् ।। तत्र वक्ष्यमाणप्राणातिपातादिपापबन्धहेतुभिर्योगव्यापारैरर्जितमशुभं कर्म व्यशीतिप्रकारैर्जीवेनानुभवनात्तत्प्रकारान् क्रमेण लक्षयितुं मतिज्ञानावरणं प्रथमं लक्षयति इन्द्रियानिन्द्रियजन्याभिलापनिरपेक्षबोधाऽऽवरणकारणं कर्म मतिज्ञानावरणम् ॥ इन्द्रियेति । इन्द्रियं चक्षुरादिरनिन्द्रियं मनः, इन्द्रियेतरद्वा, तथा तदुभयमेभिर्जन्या ये 15 बोधा विशेषविषया अभिलापनिरपेक्षास्तेषामाच्छादनकारि यत्कर्म तन्मतिज्ञानावरणमित्यर्थः। यथेन्द्रियनिमित्तो बोधः, मनोरहितानामेकाक्षादीनां, अनिन्द्रियमनोनिमित्तः स्मृतिनिश्चितस्य धारणरूपः, इन्द्रियभिन्नमत्यज्ञानावरणीयक्षयोपशमजन्यमविभक्तरूपमोघज्ञानमनिन्द्रियनिमित्तबोधरूपम् , तथा जाग्रदवस्थाकालीनः चक्षुरादीन्द्रियमनोनिमित्तको रूपरसादिबोधः इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकः, एवम्भूतानामभिलापनिरपेक्षाणां विशेषबोधात्मकानामावरणका- 20 रणं कर्मेति भावः । तथा चेन्द्रियानिन्द्रियजन्याभिलापनिरपेक्षबोधावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । विशेष्यं कालादिवारणाय विशेषणं सातादिवारणाय । श्रुतज्ञानावरणीयेऽतिव्याप्तिवारणायाभिलापनिरपेक्षेति - । धारणाज्ञानावरणीयादावव्याप्तिवारणायानिन्द्रियेति । रूपचाक्षुषादिज्ञानावरणीयेऽव्याप्तिवारणायेन्द्रियेति, दर्शनावरणीयादावतिव्याप्तिवारणाय विशेषविषयकज्ञानवाचिबोधपदम् । अवधिज्ञानावरणीयादावतिव्याप्तिवारणाय जन्या- 25 न्तम् । नन्वावरणकर्मेदं सतां मत्यादीनामावारकमसतां वा ? नाद्यः प्राप्तात्मलाभत्वात् , सत्त्वेनैवावरणस्यानुपपत्तेः । नान्त्यः, तथा सति न स्यादेवावरणम् , नहि खरविषाणादिवदसदात्रियते इति चेन्न, आदेशवचनात् , कथञ्चित्सतामावरणं कथञ्चिच्चासतामिति । द्रव्या Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ८० : तस्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरण देशेन हि सतां मत्यादीनामावरणं, पर्यायार्थादेशेन चासताम् । यदि त्वेकान्तेन सतामा - वरणं तदा क्षायोपशमिकत्वमेषां न स्यात्, अथैकान्तेनासतां तदापि तन्नोपपद्यते, असत्वात् सत एवावरणदर्शनाच्च, नभसो हि सतो मेघपटलादिनाऽऽवरणं दृश्यते, न च कुटीभूतानि मत्यादीनि कानिचित्सन्ति, येषामावरणान्मत्याद्यावरणानामावरणत्वं भवेत्, किन्तु मत्याद्यावरण5. सन्निधाने जीवो मत्यादिज्ञानपर्यायैर्नोत्पद्यत इत्यतो मत्याद्यावरणानामावरणत्वमिति । देशघातीदम्, अस्योत्कृष्टा स्थितिस्त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः । वर्षसहस्रत्रयवाबाधाकालः । बाधाकालस्तु यत्प्रभृति ज्ञानावरणादिकर्मोदयावलिकाप्रविष्टं यावच्च निःशेषमुपक्षीणं तावद्भवति । तच्च कर्मबन्धकालादारभ्य त्रिषु वर्षसहस्रेष्यतीतेषूदयावलिकां प्रविशति, स खल्वबाधाकालो यतस्तत्कर्म नानुभूयते तावन्तं कालमिति । जघन्या तु अन्तर्मुहूर्त्तकालः । अबाधाप्यन्तर्मुहूर्त्तमेव ॥ 10 श्रुतज्ञानावरणलक्षणमाह - मतिज्ञानसापेक्षशब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणावरणकारणं कर्म श्रुतज्ञानावरणम् ॥ मतिज्ञानेति । मतिज्ञानसापेक्षं मतिज्ञानापेक्षाकारणकं, शब्दो द्रव्यश्रुतमुपचारात् तत्संस्पृष्टो वाच्यवाचकभावेन सम्बद्धो योऽर्थस्तद्विषयकं ग्रहणं श्रुतानुसारि च तदावरण15 कारणं कर्मेत्यर्थः । तथा च मतिज्ञानसापेक्षश्रुतानुसारिसाभिलापज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । विशेष्यविशेषणयोः कृत्यं पूर्ववत् । साभिलापज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वस्य शब्दोल्लेखसहितेहादिज्ञानावरणकारणे मतिज्ञानावरणविशेषेऽतिव्याप्तिरिति श्रुतानुसारीति पदमीहादीनां श्रुतानुसारित्वाभावेन न तत्र दोषः, न च मतिज्ञानसापेक्ष साभिलापज्ञानावरणहेतुत्वे सति कर्मत्वमित्युक्ताविहादीनां मतिज्ञानासापेक्षत्वेन तत्र नातिव्याप्तिरिति20 वाच्यम्, अवग्रहादिरूपमतिज्ञान सापेक्षत्वादीहादेः । न चेहादीनां कथं न श्रुतानुसारित्वं संकेतकालादौ निशमितशब्दानुसरणमन्तरेण तत्र शब्दाभिलापासम्भवादिति वाच्यम्, व्यवहारकाले शब्दानुसरणं विनापि पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतीनां प्रवृत्तिदर्शनात्, नहि तदा पूर्वगृहीतं संकेतं श्रुतं वाऽनुस्मृत्य प्रवर्त्ततेऽपि त्वभ्यासपाटवादेव, श्रुतानुसारिसाभि १ मतिज्ञानस्य साभिलापानभिलापरूपत्वेऽपि व्यवहारकाले सङ्केतकालप्रवृत्तस्य श्रुतप्रन्थसम्बन्धिनो वा शब्दस्याननुस्मरणादश्रुतानुसारित्वं श्रुतज्ञाने तादृशशब्दानुस्मरणस्यावश्यकत्वेन श्रुतानुसारित्वमिति भावः ॥ न चैकेन्द्रियाणां सामम्यभावेन श्रुतानुसारित्वासम्भवाच्छ्रुतज्ञानाभावेन तदावरणमपि न स्यात्, इष्टञ्च तत्र तदुभयमिति वाच्यम्, भावश्रुतस्य तत्रापि स्वीकारेण दोषाभावात् न चैवं तत्रयाश्रुतज्ञानावरणेऽव्याप्तिरिति वाच्यम्, पर्यायनयेन श्रुतानुसारिसाभिलापज्ञानवृत्तिज्ञानत्वसाक्षाद्व्याप्यधर्मवदावरणकारणत्वे सति कर्मत्वस्य विवक्षया दोषाभावादिति भावः ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन: पर्यावरणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । लापज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वमित्युक्तौ यद्यपि न कोऽपि दोषस्तथापि साभिलापज्ञाने मतिज्ञानस्य हेतुत्वमात्रप्रदर्शनपरं मतिज्ञानसापेक्षेति पदम् । यद्वाऽक्षरादिश्रुतविशेषेषु येऽवप्रहादयः समुपजायन्ते ते चाश्रुतानुसारित्वे मतिज्ञानतया व्यपदिश्यन्ते श्रुतस्य मतिपूर्व - कत्वात्, यस्तु तेषु श्रुतानुसारी ज्ञानविशेषः स श्रुतज्ञानत्वेनेति सूचयितुं वा तत्पदम् । अस्योभयविधा स्थितिर्मतिज्ञानावरणवत्, देशघातीदम् ॥ 5 अथावधिज्ञानावरणलक्षणमाचष्टे : < : इन्द्रियानिन्द्रियनिरपेक्षमूर्त्तद्रव्यविषयप्रत्यक्षज्ञानावरणनिदानं क र्मावधिज्ञानावरणम् ॥ इन्द्रियेति । इन्द्रियानिन्द्रियनिरपेक्ष मूर्त्तद्रव्यविषयकप्रत्यक्षज्ञानावरणनिदानत्वे सति कर्मत्वमवधिज्ञानावरणस्य लक्षणम् । विशेषणविशेष्यपदकृत्यं प्राग्वत् । मतिज्ञानावरणा- 10 दावतिव्याप्तिवारणाय निरपेक्षान्तं प्रत्यक्ष विशेषणम्, तस्य घटादिरूपयत्किचिन्मूर्तद्रव्यविषयकप्रत्यक्षज्ञानावरणनिदानकर्मत्वात्, यदि प्रत्यक्षपदेन पारमार्थिक प्रत्यक्षग्रहणान्न दोष इत्युच्यते तर्हि तत्सूचनायैव तदुपादानं विज्ञेयम् । न च तथात्वेऽपि मनः पर्यवावरणादावतिव्याप्तिः, तस्य मूर्त्तमनोद्रव्यविषयकप्रत्यक्षज्ञानावरणकारणकर्मत्वात्, केवलज्ञानावरणस्यापि सकलमूर्त्तद्रव्यविषयक प्रत्यक्षज्ञानावरणकारणकर्मत्वाच्चेति वाच्यम्, यावन्मूर्त्तमात्र- 15 द्रव्यविषयकप्रत्यक्षज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वस्य लक्षणार्थत्वात् । हीयमानकवर्धमानकानवस्थितावधिज्ञानावरणविशेषेष्वपि उत्कृष्टावधिग्रहणेन लक्षणं द्रव्यार्थिकप्राधान्याद्योजनीयम् । पर्यायनयप्राधान्यविवक्षायान्तु यावन्मूर्त्तद्रव्यमात्रविषयक प्रत्यक्षज्ञानवृत्तिज्ञानत्वसाक्षाद्व्याप्यधर्मवदावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम्, तादृशो धर्मोऽवधित्वमेव, नत्वनुगामित्वादिकं, तेन विभङ्गज्ञानावरणादौ नाव्याप्तिः । देशघातीदम् । स्थिती मतिज्ञानावरणवत् ॥ 20 मनःपर्यवज्ञानावरणस्वरूपमाह - इन्द्रियानिन्द्रियनिरपेक्षसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय मनोगतं भावज्ञापक प्रत्यक्षज्ञानावरणसाधनं कर्म मनः पर्यवावरणम् ॥ इन्द्रियानिन्द्रियेति । इन्द्रियानिन्द्रियनिरपेक्ष संज्ञिपञ्चेन्द्रिय मनोगतभावज्ञापकात्मकप्रत्यक्षज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियैः काययोगेन 25 गृहीतानि मनोयोग्यद्रव्याणि चिन्तनानुगुणं मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्याऽवलम्ब्य - ११ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायधिभाकरे [ पचमकिरणे मानानि द्रव्यमनांसि तद्गता ये भावाश्चिन्तानुकूलपरिणामास्तेषां ज्ञापकात्मकं यत्प्रत्यक्षज्ञानं तदावरणकारणं कर्मेत्यर्थः । अत्रापीन्द्रियानिन्द्रियपदं पारमार्थिकप्रत्यक्षज्ञापनायैव, अन्यथा मनःप्रणिधानहेतुकत्वादनिन्द्रियनिरपेक्षत्वकथनं पूर्वत्रात्र चासङ्गतं स्यात् संज्ञिपश्चेन्द्रियपदेन मनुष्यक्षेत्रवर्तिसंक्षिपञ्चेन्द्रिया ग्राह्यास्तेन तद्वहिर्वतिनां मनोगतभावज्ञानं मनःपर्यविनो 5 न भवतीति सूचितम् , संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोगतभावमात्रज्ञापकप्रत्यक्षज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं वाच्यं तेन न केवलज्ञानावरणेऽतिव्याप्तिरालोचितबाह्यार्थज्ञानन्त्वनुमानात् । यावदावज्ञापकेत्यादि तु न वाच्यम्, ऋजुमतिमनःपर्यवावरणेऽव्याप्तेः, देशघातीदम् । स्थिती मतिज्ञानावरणवत् ।। अथ केवलज्ञानावरणमाह10 . मनइन्द्रियनिरपेक्षलोकालोकवतिसकलद्रव्यपर्यायप्रदर्शकप्रत्यक्षज्ञा. नावरणसाधनं कर्म केवलज्ञानावरणम् । इति ज्ञानावरणीयपश्चकम् ॥ मनइन्द्रियनिरपेक्षेति । अत्रापि मनइन्द्रियनिरपेक्षेति प्रत्यक्षविशेषणमव्यवहितात्मद्रव्यसमुत्थत्वेन पारमार्थिकप्रत्यक्षत्वसूचनपरम् । अशेषद्रव्यपर्यायग्राहिप्रत्यक्षज्ञानावरण.. हेतुकत्वे सति कर्मत्वं तु लक्षणम् । सर्वघातीदम् , उभयविधा स्थितिरपि मतिज्ञानावरण15 वत् । अत्रात्मनो ज्ञस्वभावस्य प्रकाशरूपस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमक्षयसमुद्भवाः प्रकाशविशेषा मतिज्ञानादिव्यपदेश्याः पर्याया इति बहुविकल्पास्तत्र च मत्यादिज्ञानावरणादयोऽपि बहुविकल्पा भवन्तीति बोध्यम् । नन्वभव्यस्य मनःपर्यवज्ञानशक्तिः केवलप्राप्तिसामर्थ्यश्वास्ति न वा ? चेदस्ति, अभव्यत्वानुपपत्तिर्यदि नास्ति तर्हि कथं तत्र तदावरणसद्भावः, उभय सामर्थ्याभावादिति चेन्नादेशवचनादुक्तं हि द्रव्यार्थादेशेन सतोस्तयोरावरणम् । पर्या20 यार्थिकनयेनासतोरपीति । न च द्रव्यार्थादेशेनाभव्यस्य तयोः सत्त्वे भव्यत्वापत्तिरिति बाच्यम् । सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हस्यैव भव्यत्वं तद्विपरीतस्याभव्यत्वमिति नियमात् न तु मनःपर्यवकेवलज्ञानसामर्थ्यवतो भव्यत्वं तद्विपरीतस्याभव्यत्वमिति नियम इति न कोऽपि दोषः । इमान्येव विभागवाक्ये पूर्वोक्ते ज्ञानावरणीयपश्चकपदेनोक्तानीति सूचयतीतीति ॥ १. ऋजुमतिमनःपर्यवज्ञानं हि घटोऽनेन चिन्तित इत्यादिसामान्याकाराध्यवसायनिबन्धनकतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरूपम् , नात्र सुवर्णत्वपाटलिपुत्रकत्वादितत्तत्पर्यायविषयकत्वमिति न तदावरणेऽन्याप्तित्रिपदेन मनोभिन्नद्रव्यभावस्यैव व्यवच्छेदादिति भावः ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगान्तरायः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : 4: सम्प्रति दानान्तरायमभिधत्ते — सामग्रीसमवधानासमवधानयोस्सतोर्दा न सामर्थ्याभावप्रयोजकं कर्म दानान्तरायः ॥ सामग्रीति । अन्तरं मध्यं दातृदेयादीनां तदेति ईयते वाऽनेनेत्यन्तरायः । यस्मिन्मयेsaस्थिते दात्रादेर्दानादिक्रियाऽभावो दानादीच्छाया बहिर्भावो वा सोऽन्तरायः । दान- 5 स्यान्तरायो दानान्तरायः । अन्तर्धीयतेऽनेनात्मनो दानादीत्यन्तरायः । अन्तर्धानमात्मनो दानादिपरिणामस्येति वाऽन्तरायः । दाने सामग्र्यः, देयद्रव्यं प्रतिग्राहको दानफलवेत्तृत्वमित्यादयस्तासां समवधानेऽसमवधाने वा यत्कर्मोदितं दानक्रियायास्तत्सामर्थ्यस्य वा प्रतिरोधकं तादृशं कर्म दानान्तराय उच्यत इत्यर्थः । सामग्रीसमवाधानासमवधानयोस्तोरिति पदमस्त्यस्य दानान्तरायभूतं कर्म दानसामर्थ्यादर्शनादित्यनुमाने क्वचिद्देयवस्त्वाद्यभावेन 10 दानसामर्थ्याभावसत्वेन व्याध्यसिद्ध्या तयोः प्रयोज्यप्रयोजकभाववैधुर्यशंका निरसनार्थमुपात्तम्, नत्वव्याह्यत्तिव्यात्यसम्भवदोषव्युदासाय, प्रसक्त्यभावात् । एवमग्रेऽपि भाव्यम् । विशेषणविशेष्यकृत्यं पूर्ववत्, लाभान्तरायादावतिप्रसङ्गवारणाय दानेति । मतिज्ञानावरणस्येवास्य स्थिती विज्ञेये ॥ लाभान्तरायमाह- सम्यग्याचितेऽपि दातृसकाशादलाभप्रयोजकं कर्म लाभान्तरायः । अनुपहताङ्गस्यापि ससामग्रीकस्यापि भोगासामर्थ्यहेतुः कर्म भोगान्तरायः । एकशो भोग्यं भोगो यथा कुसुमादयः । अनुपहताङ्गस्यापि मसामग्री कस्याप्युपभोगासामर्थ्यहेतुः कर्मोपभोगान्तरायः । अनेकशो भोग्यमुपभोगो यथा वनितादयः । पीनाङ्गस्यापि कार्यकाले सामर्थ्यविरहप्रयो- 20 जकं कर्म वीर्यान्तरायः इत्यन्तरायपञ्चकम् । 15 सम्यगिति । सर्वदाऽर्थिप्रार्थनानुगुणं दातुस्सकाशाद् यस्य कर्मण उदयप्रभावेण याचकेन सविनयं याचितेऽपि अल्पमपि न लभ्यते वस्तु तत्कर्म लाभान्तराय इत्यर्थः । अत्रापि सम्यग्याचितेति पदं प्रयोज्यप्रयोजकभावरक्षायै । अन्यथाऽस्यालाभः किञ्चित्प्रयोज्योऽलाभत्वादित्यत्र याचनसामर्थ्याभावस्य प्रयोजकत्वसिद्ध्या सिद्धसाधनत्वापत्तेर्लाभान्तरायस्यासिद्धि- 25 प्रसङ्गः स्यात् । दानान्तरायादावतिव्याप्तिवारणाय लाभेति । स्थिती च मतिज्ञानावरणवत् । भोगान्तरायं लक्षयति-- अनुपहताङ्गस्यापीति । निखिलाङ्गसम्भृतोऽपि माल्यचन्दनादि - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे सामग्रीसमवधानेऽपि यदुदयान भुङ्क्ते माल्यादीनि तत्कर्म भोगान्तराय इत्यर्थः । प्रयोज्यप्रयोजकभाबरक्षार्थमनुपहताङ्गस्यापि ससामग्रीकस्यापीति च पदम् । भोगपदन्तु दानान्तरायादावतिव्याप्तिवारणाय । स्थिती मतिज्ञानावरणवत्। भोगोपभोगयोः पर्यायताव्युदसनार्थ भोगशब्दार्थमाह-एकश इति एकवारं सकृदेवेति यावत् । तन्निदर्शनमाह-यथेति । कुसुमादयो 5 ह्येकदा भुक्ता न पुनर्भोगाय त एवोपयुज्यन्त इति सकृद्भोगसाधनत्वात्ते भोगा उच्यन्त इति भावः । उपभोगान्तरायमाह-अनुपहताङ्गस्यापीत्यादिना । स्पष्टम् , स्थिती ज्ञानावरणवत् , उपभोगपदार्थमाह-अनेकश इति बहुवारमित्यर्थः पुनः पुनरिति भावः, निदर्शनमाह-वनितादय इति । अथ वीर्यान्तरायमाचष्टे-पीनाङ्गस्यापीति । हृष्टपुष्टाङ्गस्येत्यर्थः, निरामये वपुषि सत्यपि कार्यकाले यौवनावस्थायामपि वर्तमानोऽल्पशक्तिर्भवति, साध्येऽपि प्रयोजने यदुदयान्न 10 प्रवर्तते तत्कर्म वीर्यान्तराय इत्यर्थः । लक्षणविचारः पूर्ववदेव । स्थिती मतिज्ञानावरणवत्। अस्योदयाधिक्यं पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु द्वीन्द्रियादारभ्य चरमसमयछद्मस्थं यावत् तत्क्षयोपशमजनिततारतम्याद्वीर्यस्य वृद्धिः । उत्पन्न केवले भगवति तु सर्ववीर्यान्तरायक्षयः । एते पञ्चान्तराया विभागवाक्येऽन्तरायपञ्चकशब्देनोक्ता इत्याह-इतीति । एते पञ्चापि देशघातिनः ॥ 15 अधुना चक्षुर्दर्शनावरणं वक्ति-- चक्षुषा सामान्यावगाहिबोधप्रतिरोधकं कर्म चक्षुर्दर्शनावरणम् । तद्भिन्नेन्द्रियेण मनसा च सामान्यावगाहिबोधप्रतिरोधकं कर्माचक्षुर्दर्शनावरणम् ॥ चक्षुषेति । चक्षुर्जन्यसामान्यमात्रविषयकबोधप्रतिरोधकत्वे सति कर्मत्वं चक्षुर्दर्शनाव20 रणस्य लक्षणम् । विशेष्यविशेषणकृत्यं पूर्ववत् । अचक्षुर्दर्शनावरणादौ व्यभिचारवारणाय चक्षुर्जन्येति, मतिज्ञानावरणविशेषेऽतिव्याप्तिवारणाय सामान्यमात्रविषयकेति । मात्रपदमप्यत एव । दर्शनमुपलब्धिः सामान्यार्थग्रहणं स्कन्धावारोपयोगवत्तदहर्जातबालदारकनयनोपलब्धिवद्वा व्युत्पन्नस्यापि । चक्षुषा दर्शनं चक्षुर्दर्शनमिति तत्त्वार्थवृत्तिः, चक्षुर्दर्शनावरणीय क्षयोपशमतोऽवबोधव्यापृतिमात्रसारं, सूक्ष्मजिज्ञासारूपमवग्रहप्राग्जन्म, मतिज्ञानावरणक्ष25 योपशमसम्भूतं, सामान्यमात्रग्राह्यवग्रहव्यङ्गयं स्कन्धावारोपयोगवच्चक्षुदर्शनमिति तत्त्वार्थ १ दर्शनं हि पञ्चभिरिन्द्रियैर्भवति, चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेनेतरेन्द्रियाणाञ्च प्राप्यकारित्वेन चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमितीन्द्रियाश्रयणाद्दर्शनस्य द्वैविध्यात्तदपेक्षया द्वैविध्यमावरणस्य, एकधा सङ्ग्रहासम्भवात् , मनस्त्वनिन्द्रियमतस्तदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनेन सङ्ग्रहोऽतः प्रथमं चक्षुदर्शनावरणमाह ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलदर्शनावरणम् ] न्यायप्रकाशसमलते हारिभद्रटीका । उभयविधव्याख्यानेन विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतनिःशेषविशेषविमुखसद्विषयकं दर्शनमिति लभ्यते । विशुद्धनयेनेदम् । उपचारनयेन तु दृष्टिदर्शनं सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यबोधः, यथा वनमिदमिति । एवं पूर्वपूर्वज्ञानमुत्तरोत्तरविशेषविषयकज्ञानापेक्षया दर्शनमवधेयम् । देशघातीदम् । अस्य स्थिती मतिज्ञानावरणवत् । अचक्षुर्दर्शनावरणस्वरूपमाह,तद्भिन्नेन्द्रियेणेति । चक्षुर्भिन्नेन्द्रियेणेत्यर्थः,चक्षुर्दर्शनावरणवारणाय 5 तद्भिन्नेति । मनसेति, मनोजन्येत्यर्थः, तथा च चक्षुर्भिन्नेन्द्रियमनोऽन्यतरजन्यसामान्यमात्रावगाहिबोधप्रतिरोधकत्वे सति कर्मत्वमचक्षुर्दर्शनावरणस्य लक्षणम् । कृत्यं पदानां स्पष्टमेव । देशघातीदम् । स्थिती अपि मतिज्ञानावरणवत् ॥ अवधिदर्शनावरणमाचष्टे मूर्तद्रव्यविषयकप्रत्यक्षरूपसामान्यार्थग्रहणावरणहेतुः कर्मावधिद- 10 र्शनावरणम् ॥ __ मर्त्तद्रव्येति । अवधिज्ञानं हि मूर्तद्रव्यमात्रविषयकप्रत्यक्षरूपं तस्मिन् यत्सामान्यार्थग्रहणं तदावरणहेतुः कर्म अवधिदर्शनावरणमित्यर्थः । चक्षुर्दर्शनावरणादौ व्यभिचारवारणाय प्रत्यक्षान्तं, तस्य यावन्मूर्त्तमात्रविषयकदर्शनावरणरूपत्वाभावात् । अवधिज्ञानावरणादौ व्यभिचारवारणाय सामान्यार्थग्रहणेति । तथा चावधिज्ञानिनामवध्युपयोगे यत्सामान्यार्थग्र- 15 हणं तदावरणकारणं कर्मेति भावः । अत्र सर्वत्र दर्शनमनाकारं ज्ञानं साकारं बोध्यम् । स्थिती अपि मतिज्ञानावरणवत् , देशघातीदम् ॥ अथ केवलदर्शनावरणस्वरूपमाह- समस्तलोकालोकवत्तिमूर्तामूर्त्तद्रव्यविषयकगुणभूतविशेषकसामान्यरूपप्रत्यक्षप्रतिरोधकं कर्म केवलदर्शनावरणम् । इति दर्शनावरणचतु- 20 कम् , दर्शनलब्धिप्रतिबन्धकम् ॥ समस्तेति । सकलानि यानि लोकालोकवर्तीनि मूर्तामूर्त्तद्रव्याणि तद्विषयकं गौणीकृताः विशेषा यस्मिन् तादृशं यत्सामान्यविषयकं प्रत्यक्षं तदावरणकारणं कर्मेत्यर्थः । केवलदर्शन १. नन्ववधिदर्शनिन उत्कृष्टतोऽप्येकवस्तुगतास्संख्येया असंख्येयाः पर्याया जघन्यतश्चत्वारः पर्याया उक्ताः पर्यायाश्च विशेषा एव, ते च ज्ञानस्यैव विषया न दर्शनस्य, तथा चावधिदर्शनस्यैवाभावेनावधिदर्शनावरणमेवाप्रसिद्धमिति चेत्सत्यम् , पर्यायैरपि घटशरावोदञ्चनादिभिर्मंदादिसामान्यमेव तथा विशिष्यते न पुनस्तेन एकान्तेन व्यतिरिच्यन्ते अतो मुख्यतया सामान्यं गौणतया विशेषा अपि दर्शनस्य विषय इति न दर्शनाप्रसिदिः ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे मिदं केवलज्ञानोत्तरभावि, चक्षुर्ज्ञानादीनि तु चक्षुर्ज्ञानादिपूर्वभावीनि, गौणीकृतसकलविशेषविषयकसामान्यप्रधानविषयकप्रत्यक्षज्ञानावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं, अनाकारस्यास्य दर्शनस्य प्रत्यक्षत्वेनोत्कीर्तनं ज्ञानोत्तरकालभावित्वस्याव्यवहितात्मद्रव्यसमुत्थत्वस्य निखि लसामान्यविशेषविषयकत्वस्य च सूचनाय, केवलं गुणप्रधानभावापेक्षया च तयोर्विशेषः । 5 सर्वघातीदम् । अस्यापि जघन्योत्कृष्टा स्थितिमतिज्ञानावरणवत्। अथ मनःपर्यवदर्शनं नास्त्येव, मनोभावविषयकत्वेन सामान्यविषयकबोधानात्मकत्वेन साकारत्वात्तस्य, अतो दर्शनावरणानि चतुर्विधान्येव, तान्येव च विभागवाक्ये दर्शनावरणचतुष्कपदेनोक्तानीत्याह-इतीति । चत्वारीमानि दर्शनावरणानि दर्शनस्योद्गममेव प्रतिरुन्धन्ति तस्मादर्शनचतुष्कं दर्शनलब्धिप्रतिबन्ध कमित्याह-दर्शनेति । तल्लब्धिरेव यदा प्रतिरुद्धा तदा कुतस्तदुपयोग इति भावः॥ 10 अथ निद्रा लक्षयति चैतन्याविस्पष्टतापादकं सुखप्रबोधयोग्यावस्थाजनकं कर्म निद्रा । चैतन्यस्याविस्पष्टतापादकं दुःखप्रबोध्यावस्थाहेतुः कर्म निद्रानिद्रा ॥ चैतन्येति । चैतन्यस्य याऽविस्पष्टता तमसाऽऽवृतघटवदवस्थान, निद्रोदयाद्धि जीवस्तमोऽवस्थायामवस्थितो भवति, तस्या आपादकं सुखेनानायासेन योऽयं प्रबोधः, नखच्छो15 टिकादिमात्रेणैवावबोधस्तद्योग्यावस्था निद्रावस्थेत्युच्यते तज्जनकं कर्मापि निद्रा कारणे कार्योपचारादत एव न जहल्लिङ्गत्वं निद्राशब्दस्येति भावार्थः । चैतन्याविस्पष्टतापादकत्वे सति कर्मत्वस्य निद्रानिद्रायां सत्त्वात्तद्वारणाय सुखप्रबोधयोग्यावस्थाजनकत्वे सतीति । शुभकर्ममात्रस्य सामन्येनात्मनः सुखप्रबोधयोग्यावस्थाजनकत्वसंशयव्युदासाय चैतन्यस्यावि स्पष्टतापादकत्वे सतीत्युक्तं न शुभकर्म चैतन्यस्याविस्पष्टतापादकमतो न दोषः । यद्यपि 20 पापकर्म चैतन्याविस्पष्टतापादकं, तथापि न निद्रातिरिक्तं तत्सुखप्रबोधयोग्यावस्थाजनकमतो न दोषः । अस्या उत्कृष्टा स्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयो वर्षसहस्रत्रितयश्चाबाधा, जघन्या तु सागरोपमस्य त्रयस्सप्तभागाः पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूना अन्तर्मुहूर्तश्चाबाधा। निद्रानिद्रा लक्षयति–चैतन्यस्येति । चैतन्याविस्पष्टतापादकत्वे सति दुःखप्रबोधयो. ग्यावस्थापादकत्वे च सति कर्मत्वं लक्षणार्थः, मिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मणां दुःखप्रबोधयोग्या25 वस्थापादकत्वाञ्चैतन्यस्याविस्पष्टतापादकत्वाचावातिव्याप्तिवारणाय दुःखप्रबोध्यस्वापावस्थापा दकत्वे सति कर्मत्वस्य विवक्षितत्वे चैतन्यस्याविस्पष्टतापादकत्वे सतीति पदं न देयमेव, अन्यपदप्रयोजनं पूर्ववत् । निद्रातोऽतिशायिनी निद्रेति मध्यमपदलोपिसमासेन निद्रानिद्रा निष्पन्नेति बोध्यम् । अस्याः स्थिती निद्रावत् ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोबैगोत्रकर्म ] . ग्याचप्रकाशसमलइसे . अथ प्रचलामाहउपविष्टस्योत्थितस्य वा चैतन्याविस्पष्टतापादकं कर्म प्रचला। उपविष्टस्येति । प्रचलयत्यात्मानमिति प्रचला, स्वापावस्थाविशेषोऽयम् । अवस्थायामस्यामुपविष्ट ऊर्ध्वस्थितो वा प्रचलयति विघर्णयत्यात्मानं, अत्र चैतन्यस्याविस्पष्टता च विनिवृत्तेन्द्रियत्वात्प्रीतिलवमात्रनिदाना नेत्रगात्रक्रियाफला विज्ञेया, ईदृशविपाकप्रापकं कर्मापि 5 प्रचलेत्युच्यते तथा चोपवेशनोत्थानकालावच्छिन्नस्थितिमत्पुरुषसम्बन्धिस्वापप्रयुक्तचैतन्याविस्पष्टतापादकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । निद्रादावतिव्याप्तिवारणाय सम्बन्ध्यन्तम् । प्रचलाप्रचलादावतिव्याप्तिवारणाय स्थितिमदिति । निद्रादावतिव्याप्तिवारणायोपवेशनोत्थानकालावच्छिन्नेति । निद्रायां निद्रानिद्रायां च पुरुषो हि शेते । शोकश्रममदादिप्रभवेयं प्रचला । स्थिती निद्रावत् ॥ 10. प्रचलाप्रचलामाह - 15 चङ्कममाणस्य चैतन्याविस्पष्टतापादकं कर्म प्रचलाप्रचला ॥ चक्रममाणस्येति । चङ्कमणकालावच्छिन्नपुरुषसम्बन्धिस्वापप्रयुक्तचैतन्याविस्पष्टतापादकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् , कृत्यं स्पष्टम् । स्थिती अपि निद्रावत् ॥ स्त्यानर्द्धिमाह जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषयस्वापावस्थाप्रयोजकं कर्म स्त्यानर्द्धिः, इति दर्शनलब्ध्यावारकं निद्रापञ्चकम् ।। जाग्रदवस्थेति । स्त्याना पिण्डीभूता ऋद्धिरात्मशक्तिरूपा यस्यां सा स्त्यानदिः, स्त्यानगृद्धिरपि नामान्तरं, स्त्याना बहुत्वेन संघातमापन्ना गृद्धिरभिकासा, जाग्रदवस्थाऽध्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः । ईदृशावस्थापन्नस्य प्रथमसंहन- 20 नस्योत्कर्षतः केशवार्द्धबलसदृशी शक्तिरुपजायते प्रवचने प्रसिद्धोऽयमर्थः । तथा च जाग्रदवस्थाध्यवसितार्थसाधनविषयकस्वापावस्थाप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं निद्रादिवारणाय विषयकान्तम् । निद्रावदेवास्या उभयविधा स्थितिः । निद्रापश्चकमिदं प्राप्ताया दर्शनोपलब्धेरुपघातं करोतीत्याह-इतीति, न तु दर्शनावरणचतुष्टयवन्मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्तीति । अत्रेदं विज्ञेयं दर्शनावरणं बन्धे उदये सत्तायां च कदाचिच्चतुर्धा षोढा नवधा प्राप्यते यदा 25 बन्धादिषु चतुर्धा विवक्ष्यते तदा पूर्वोदितं दर्शनावरणचतुष्कं विज्ञेयम् । तदेव निद्राप्रच Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 6: तरवण्याविभाकरे [परि लाभ्यां षोढा भवति तदा तु दर्शनावरणपटुमुच्यते । तदेव च निद्रादिपञ्चभिर्युतं नवधा भवत्येतदेव च विभागे दर्शनावरणनवकमित्युक्तमिति ॥ अथ नीचैर्मोत्रमाह— नीच कुलजन्मनिदानं तिरस्कारोत्पादकं कर्म नीचैर्गोत्रम् ॥ नीचकुलेति । नीचकुलं हीनजात्यादिः, चण्डालमौष्टिकव्याधादयः । तत्र यज्जन्माSSविर्भावस्तन्निदानं निन्दादितिरस्कारोत्पादकञ्च यत्कर्म तन्नीचैर्गोत्रमित्यर्थः । नीचकुलजन्मनिदानत्वे सति तिरस्कारोत्पादकत्वे च सति कर्मत्वं लक्षणम्, विशेषणविशेष्यकृत्यं पूर्ववत् । सामान्येन पापकर्ममात्रस्य तिरस्कारोत्पादकत्वान्नीच कुलजन्मनिदानत्वे सतीत्युक्तम् । न केवलं नीचैर्गोत्रं नीचकुलस्योत्पत्तौ निबन्धनं तथा च सति तत्रोत्पादानन्तरं तस्याभावप्रस10 ङ्गेन संक्रमणोद्वर्त्तनादिकं तदानीं तस्य न स्यात्, अतस्तिरस्कारोत्पादकत्वे च सतीत्युक्तं, तेन न निमित्तकारणमात्रमिदं दण्डादिवत् येन संक्रमणोद्वर्त्तनादिकं न स्यात्, अपि त्वसम - वायिकारणतुल्यं, तेन नीचकुलजस्यापि नोचैर्गोत्रोदयविरोधः । तदानीं नीचकुलजन्मनिदातिरस्कारोत्पादककर्माभावात् । उच्चैर्गोत्रोदये हि न तिरस्कारो भवतीति । अस्य विंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिरबाधा वर्षसहस्रद्वयम् जघन्या त्वष्टौ मुहूर्त्ताः, अबाधा 15 चान्तर्मुहूर्त्तम् ॥ असातावेदनीयं लक्षयति 5 " दुःखविशेषोपलब्धिकारणं कर्मासातावेदनीयम् । दुःखविशेषेति । दुःखं जन्मजरामरणप्रियवियोगानिष्टसंयोगव्याधिबन्धादिजन्यं शारीरिकं बहुविधं मानसं वाऽतिदुस्सहं परिणतिविशेषरूपं तदुपलब्धेः कारणं यत्कर्म तद20 सातवेदनीयमित्यर्थः । विशेष्यविशेषणदलप्रयोजनं स्फुटम् । दुःखविशेषपदेन च वैलक्षण्यबोधकेन दुःखं प्राणिनां केवलपुण्यापकर्षमात्रजनितं न भवति किन्तु स्वानुरूपकर्मप्रकर्षजनितं वेदनाप्रकर्षानुभवरूपत्वात्, अन्यथा दुःखमिदं पुण्यसम्पाद्येष्टाहारापचयमात्रादेव भवेत्, न तु पापोपचयसम्पाद्यानिष्टाहारादिरूपविपरीतबाह्य साधनप्रकर्षमपेक्षेतेति, दुःखविशेषानुभूतेः सकलपापकर्मसाधारण्येऽपि वेदनीयोत्तरप्रकृतेरेव साक्षात्तद्धेतुत्वमिति च 26 सूच्यते । त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्योऽस्य परा स्थितिः, जघन्या सागरोपमस्य त्रयस्तप्तभागाः पक्ष्योपमासंख्येयभागेन न्यूनाः, सूक्ष्मसंपराये जघन्या द्वादश मुहूर्त्ताः ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमनाम ] न्यायप्रकाशसमलवृते । अथ मिथ्यात्वमोहनीयमाख्याति तत्त्वार्थश्रद्धाप्रतिबन्धकं कर्म मिथ्यात्वमोहनीयम् ॥ - तत्त्वार्थेति। मिथ्यात्वं नाम दर्शनाख्यस्य मोहनीयस्य त्रिभेदस्य मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्ररूपस्यैको भेदः, तच्च सर्वज्ञप्रणीततत्त्वार्थेषु श्रद्धावैमुख्यकारित्वेन बन्धकत्वेन च मोहनीयम् । सम्यक्त्वमिश्रभेदौ त्वध्यवसायविशेषेण शोधितस्य तस्यैव परिणामविशेषौ, तन्मि-5 थ्यात्वमाभिग्रहिकानाभिग्रहिकसांशयिकादिभेदेनानेकविधमपि यथावस्थितवस्तुतत्त्वश्रद्धाननिरोधकत्वेनैकरूपतया विवक्षितम् । अस्य परा स्थितिः सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्यः, अबाधाकालस्सप्तवर्षसहस्राणि, जघन्या तु सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनाः, अबाधा चान्तर्मुहूर्तम् ॥ स्थावरनामाचष्टेप्रातिकूल्येऽपि स्थानान्तरगमनाभावप्रयोजकं कर्म स्थावरनाम ॥ प्रातिकूल्येऽपीति । प्रातिकूल्ये सत्यपि स्थानान्तरगमनाभावप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणार्थः । न च स्थानान्तरगमनाभावे न प्रयोजकं कर्म, सिद्धानां धर्मादीनाञ्च कर्माभावेऽपि स्थानान्तरगमनाभावादिति वाच्यम् , प्रातिकूल्यप्रयुक्तं यत्स्थानान्तरगमनं तदभावे कर्मण एव प्रयोजकत्वात् , अत एव न तेजोवाय्वोरव्याप्तिः । नहि तयोर्गमनं प्राति- 15 कूल्यप्रयुक्तं, किन्तु स्वाभाविकं, अतः प्रातिकूल्यप्रयुक्तस्थानान्तरगमनाभावस्तयोरप्यस्त्येव तत्र च कर्मैव प्रयोजकमिति भावः । स्थावरनामकर्मोदयादेव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतीनां स्थानशीलत्वम् । विंशतिसागरोपमकोटीकोट्योऽस्य परा स्थितिवर्षसहस्रद्वयमबाधा । सागरोपमस्य सप्तभागाः पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूना जघन्या, अबाधा त्वन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ सूक्ष्मनाम स्वरूपयति 20 सूक्ष्मपृथिव्यादिकायेषत्पत्तिनिदानं कर्म सूक्ष्मनाम । यथा सर्वलोकवर्तिनां निगोदादीनाम् ॥ सूक्ष्मेति । यदुदयादितरजीवानुग्रहोपघातायोग्यसूक्ष्मशरीरनिवृत्तिः तत्कर्मेति भावः । यस्य कर्मण उदयान्नियतमेवैकैकस्य वा समुदितानां बहूनां वा जन्तुशरीराणामदृश्यत्वं न चक्षु १. तेजोवाय्वोस्तु स्थावरनामकर्मोदयेऽपि चलनं स्वाभाविकमेव, न पुनरुष्णाद्यभितापेन द्वीन्द्रियादीनामिवविशिष्टमिति ॥ १२.. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ९०: स्वन्यायविभाकरे [ पचमकिरणे र्ग्राह्यत्वं तादृशं कर्मेति तात्पर्यार्थः । बादरशरीरन्तु कदाचिददृश्यं कदाचिश्च दृश्यमतो नियतमेवेत्युक्तम् । तथा च नियतादृश्यशरीरप्ताप्तिहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । अस्योत्कृष्टस्थितिरष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यः, अष्टादशवर्षसहस्राण्यबाधा । जघन्या तु स्थावरनामवत् । निदर्शनं सूक्ष्मनामकर्मभाजा माह यथेति ॥ अपर्याप्तनाम वक्ति एकेन्द्रियादीनां यथास्वं श्वासोच्छ्वासादिपर्याप्त्यपरिपूर्णताप्रयोजकं कर्म अपर्याप्तनाम । यथा लब्ध्यपर्याप्तानाम् || 5 एकेन्द्रियादीनामिति । यस्योदये सति स्वयोग्याः श्वासोच्छ्वासादिपर्याप्तयः परिपूर्णतां नासादयन्ति, अपर्याप्त एव जीवो म्रियते तदपर्याप्तनामकर्मेत्यर्थः । यथायोग्यमित्यस्योदा10 हरणमेकेन्द्रियादीनामिति, तदेवाह यथेति । अस्य स्थिती अपि सूक्ष्मनामकर्मवत् ॥ अथ साधारणकर्माssविष्करोति अनन्तजीवानामेकशरीरवत्त्वनिदानं कर्म साधारणनाम । यथा कन्दादौ ॥ अनन्तेति । यस्य कर्मण उदद्यादनन्तानां जीवानां शरीरमेकं भवति तत्साधारणनामकर्मेत्यर्थः । ननु प्रथममुत्पत्तिदेशमुपयातेन प्राणिना तच्छरीरस्य निष्पादितत्वात्सर्वात्म15 नाऽन्योन्यानुगमनेन क्रोडीकृतत्वाश्च कथं तत्रान्येषां जीवानामवकाशः, सत्यपि चावकाशे येन तच्छरीरं निष्पादितमन्योऽन्यानुगमनेन च क्रोडीकृतं स एव तत्र प्रधानः, तस्यैव च पर्याप्ता पर्याप्तव्यवस्था प्राणापानादिपुद्गलोपादानश्च स्यान्न शेषाणामिति चेन्मैवम्, तथा विधकर्मोदयसामर्थ्येन समकमेव सर्वेषामुत्पत्तिदेशप्राप्तेः तच्छरीराश्रयपर्याप्तिनिर्वर्तनस्य प्राणापानादियोग्य पुद्गलग्रहणस्य च सर्वज्ञैरुक्तत्वात् । प्रत्येकनामकर्मण्य तिव्याप्तिवारणाया20 नन्तजीवानामिति । निदर्शनमाह यथेति । अस्य स्थिती सूक्ष्मवत् ॥ अस्थिरनामाह प्रयोगशून्यकाले श्रृजिह्वादीनां कम्पनहेतुः कर्म अस्थिरनाम ॥ प्रयोगेति । भ्रूजिह्वादीनामिति शरीरावयवद्योतकम् । प्रयोगकाले यच्छरीरावयवानां कम्पनं न तत्कर्म निमित्तं, अपि तु जीवपरिणामप्रयुक्तं, तस्मात्प्रयोगशून्यकाल इत्युक्तं, तथा 25 च प्रयोगशून्यकालीनशरीरावयवास्थिरत्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वमिति लक्षणम् । विहायोगत्यादिव्यभिचारनिरासकं वा प्रयोगशून्यकाल इति पदम् । पश्चेन्द्रियवदस्य स्थिती ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाश अनादेयनाम ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते अशुभनाम लक्षयति नाभ्यधोऽवयवाशुभत्वप्रयोजकं कर्म अशुभनाम ॥ नाभ्यधोऽवयवेति । नाभ्यधोऽवयवाशुभत्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । नाभेरधस्तनैः पादाद्यवयवैर्हि स्पृष्टः परो रुष्यतीति तेषामशुभत्वमवसेयम् । कामिन्याः पादेनापि स्पृष्टः परो न रुष्यति किन्तु तुष्यत्येवेति व्यभिचार इति न च वाच्यम् , तत्तोषस्य मोह- 5 नीयनिबन्धनत्वात् । हुण्डसंस्थानादावतिव्याप्तिवारणाय नाभ्यधोऽत्रयवेति, हुण्डस्य तु सर्वावयवाशुभत्वप्रयोजकत्वान्नातिव्याप्तिः । पञ्चेन्द्रियवदस्य स्थिती ॥ दुर्भगनामस्वरूपमाह स्वस्य दृष्टमात्रेण परेषामुद्वेगजनकं कर्म दुर्भगनाम ॥ स्वस्येति । यः प्राणी दृष्टमात्रोऽप्युपकारकृदपि रूपादिगुणोपेतोऽपि परेषामुद्वेजको 10 मनसोऽप्रियो भवति यत्कर्मप्रभावात्तहर्भगनामेत्यर्थः । सुरूपे सुगुणेऽपि च स्वस्मिन् परस्योद्वेगजनकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् , हुण्डादिकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय सुरूप इत्यादिदलं भाव्यम् । अस्यापि स्थिती पश्चेन्द्रियवत् ॥ दुस्स्वरनामाभिधत्तेअमनोहरस्वरवत्त्वप्रयोजकं कर्म दुस्स्वरनाम । यथा खरोष्ट्रादीनाम् ॥. 15 अमनोहरेति । यस्योदयादमनोज्ञस्वरवान्-दीनहीनस्वरो भवति श्रूयमाणोऽप्यसुखमावहति स्वरः तदुस्स्वरनामेत्यर्थः। सुस्वरनामकर्मण्यतिव्याप्तिवारणार्थममनोहरेति । अस्य स्थिती पञ्चेन्द्रियजातितुल्ये । केषामीदृशं कर्म दृश्यत इत्यत्राह यथेति ।। अनादेयनाम निर्वक्ति उचितवक्तृत्वेऽप्यग्राह्यतादिप्रयोजकं कर्म अनादेयनाम ॥ .. 20 उचितवक्तृत्वेऽपीति । यस्य प्रभावतो युक्तमपि ब्रुवाणः परिहार्यवचनो भवति, अर्हणार्हस्याप्यर्हणां नाचरति लोकस्तदनादेयनामेत्यर्थः, निष्प्रभोपेतशरीरनिवर्तकं कर्मानादेय नामेति केचित् । उचितवक्तृसम्बन्धिवचनाद्यग्राह्यताप्रयोजककर्मत्वं लक्षणार्थः । उचितवक्तृसम्बन्धीति पदन्तु पूर्वोक्तनीत्याऽभंभववारणाय । अस्यापि स्थिती पञ्चेन्द्रियवत् ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे अयशःकीर्त्तिनामाह ज्ञानविज्ञानादियुतत्वेऽपि यशाकीर्त्यभावप्रयोजकं कर्म अयश:कीर्तिनाम । इति स्थावरदशकम् ॥ ज्ञानविज्ञानेति । व्यावहारिकं यथार्थज्ञानं ज्ञानं, शास्त्रसंस्कृतं ज्ञानं विज्ञानं, यतो ज्ञाना5 दियोग्यगुणपूर्णोऽपि यो न यश कीर्तिमान् परन्त्वश्लाघ्यो भवति तदयशःकीर्तिनामेत्यर्थः । ज्ञानविज्ञानादियुतत्वेऽपीत्यस्य सार्थकता पूर्ववद्भाव्या । स्थिती पञ्चेन्द्रियवत् । स्थावरनामप्रभृति यावदयशःकीर्तिकर्माणि विभागवाक्यस्थस्थावरदशकपदवाच्यानीत्याहेतीति ॥ .. नरकगतिनाम निरूपयति नारकत्वपर्यायपरिणतिप्रयोजकं कर्म नरकगतिः॥ 10 नारकत्वेति । लक्षणन्तु नारकत्वपर्यायपरिणतिप्रयोजककर्मत्वम् । कृत्यश्च मनुजगति वत् । अस्योत्कृष्टा स्थितिः पञ्चेन्द्रियवत् । जघन्या तु सागरोपमसहस्रस्य द्वौ सप्तभागी पल्योपमासंख्येयभागेन न्यूनौ, अबाधा त्वन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ नरकायुषो लक्षणमाचष्टे आयुःपूर्णतां यावन्नरकस्थितिहेतुः कर्म नरकायुः ।। 15 आयुःपूर्णतामिति । यावत्स्वयोग्यायुः पूर्णत्वं नरकस्थितिहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । नरकश्च तीव्रशीतोष्णादिपीडाकरं स्थानम् । नरकगतावतिव्याप्तिवारणाय यावत्स्वयोग्यायुःपूर्णत्वमिति पदम् । नरकगतेरायुःपूर्णत्वेऽपि सत्तायां वर्तमानत्वान्न दोषः । त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परा स्थितिरबाधा च पूर्वकोटित्रिभागः, जघन्यं दशसहस्रमबाधा चान्तर्मुहूर्त्तम् ।। नरकानुपूर्वीलक्षणमाह___बलान्नरकनयनानुगुणं कर्म नरकानुपूर्वी । इति निरयत्रिकम् ॥ बलादिति । प्रकृष्टं पापफलमुपभोक्तुं नरान्-गुरुपापकारिणः प्राणिनः कायन्ति शब्दयन्तीति नरकास्तद्गतौ व्रजतो जीवस्य द्विसमयादिना विग्रहेण अनुश्रेणिनियता गमनपरिणतिर्यतस्सा नरकानुपूर्वीति भावः । स्पष्टमन्यत् । उत्कृष्टा स्थितिः पञ्चेन्द्रियवत् । जघन्या तु लरकगतिवत् । इमान्येव विभागवाक्ये निरयत्रिकपदेनोक्तानीत्याहेतीति ॥ 25. सम्प्रति चारित्रमोहनीयस्य कषायवेदनीयनोकषायवेदनीयरूपेण द्वैविध्यात्कषायस्य च क्रोधमानमायालोभात्मकस्य प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदेन षोडश 20 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तानुवन्धिनः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते विधत्वात्तान् क्रमेणाभिधातुमादौ अनन्तानुबन्धिशब्दं निर्वक्ति--.. - अनन्तानुबन्धिनश्चानन्तसंसारमूलनिदानमिथ्यात्वहेतुका अनन्तभवानुबन्धस्वभावा आजन्मभाविनो नरकगतिप्रदायिनः सम्यक्त्वघातिनः ॥ अनन्तानुबन्धिनश्चेति । अनन्तः संसारश्चतुर्गतिरूपस्तमनुबध्नन्त्यनुसन्दधतीत्येवं- 5 शीला ये जीवपरिणामविशेषाः क्रोधादयस्तेऽनन्तानुबन्धिनः, यद्यप्येतेषामितरकषायविरहितानामुदयो नास्ति तथापि अवश्यमनन्तभवभ्रमणमूलकारणमिथ्यात्वोदयापेक्षकत्वादेते. षामेवैतन्नाम । न पुनः सहजोदयानामन्यकषायाणामपि, तेषामवश्यं मिथ्यात्वोदयापेक्षकत्वाभावात् एतदेवाह-अनन्तसंसारेति । अनन्तस्वरूपसंसारस्य मूलकारणं यन्मिथ्यात्वं तदेव हेतुर्येषामित्यर्थः । मिथ्यात्वसत्त्वे हि नियतमविरतिस्तत्सत्त्वे प्रमादस्तत्सत्त्वे 10 चावश्यं कषाया इति मिथ्यात्वं कषायहेतुरिति भावः। कषायस्य च कर्मशरीरयोग्यपुद्गलग्रहणे प्रधानहेतुत्वादवश्यं तत्सत्त्वे भवसम्बन्ध इत्याशयेनाहानन्तभवानुबन्धस्वभावा इति । क्रोधादय एकैका अपि अनन्तसंसारानुबन्धिन इत्यर्थः । अनुबन्धः सम्बन्धः परस्पराश्लेषरूपः । एषामवधिमाहाऽऽजन्मभाविन इति । यावज्जीवभाविन इत्यर्थः । इष्टानिष्टवियोगसंयोगाभिलषितालाभाद्यन्यतमहेतुना क्रोधादयस्समुत्पन्ना न शाम्यन्त्यामरणं 15 भवान्तरमप्यनुबध्नन्ति, अविद्यमानपश्चात्तापपरिणामास्तीव्रानुशया अत एवैषामाजन्मभावित्वमिति भावः । तत्फलमाह नरकेति । तत्त्वार्थाश्रद्धानरूपमिथ्यात्वस्योदयात् सम्यक्त्वस्य संभव एव नास्तीति क्रोधादय एते स्वाभाविकस्यात्मनस्सम्यक्त्वस्य घोतका इत्याशयेनाह सम्यक्त्वघातिन इति ॥ अधुनाऽनन्तानुबन्धिक्रोधस्वरूपमाह- 20 एवम्भूतं प्रीत्यभावोत्पादकं कर्म अनन्तानुबन्धिक्रोधः॥.. एवम्भूतमिति । अनन्तानुबन्धित्वे सति प्रीत्यभावोत्पादकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । यदुदयाज्जीवोऽनन्तानुबन्धिनं स्वपरोपघातनिरनुग्रहाहितक्रौर्यपरिणामममर्षाप्रीतिमन्युशब्दवाच्यं क्रोधमवाप्नोति तत्कापि अनन्तानुबन्धिक्रोध उच्यत इति भावः । न चानन्तानुब १. प्रायेणानन्तानुबन्ध्युदये मृतो नरकगतावेव गच्छति, तेनानन्तानुबन्ध्युदयवतां मिथ्यादृशां केषाञ्चिदुपरितनौवेयकेषूत्पत्तावपि न क्षतिः ॥ २. अनन्तानुबन्धिषूदितेषु न मिथ्यात्वक्षयोपशमस्तदभावाच्च न सम्यक्त्वमित्युपचारेण सम्यक्त्वघातकत्वमेषां न मुख्यतः, तैरेव सम्यक्त्वस्यावृतत्वेन मिथ्यात्वस्य वैयापत्तेः । कषायाणां केवलज्ञानावरणहेतुत्वाभावेऽपि कषायक्षयस्य तद्धेतुत्ववदनन्तानुबन्धिनां क्षयोपशमे सम्यक्त्वलाभो विज्ञेयः ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :९४: तत्त्वन्यायविभाकरे . [ पश्चमकिरणे न्धिपदं प्रीत्यभावे विशेषणं तस्यैव तादृशत्वान्न तु कर्मण इति वाच्यम् , तदनुकूलत्वेन कर्मणोऽपि तथात्वाभ्युपगमात् । आद्यसत्यन्तमत्राप्रत्याख्यानक्रोधादावतिप्रसङ्गवारणाय, द्वितीयञ्चानन्तानुबन्धिमानादावतिप्रसङ्गवारणाय । अस्य परा स्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः । वर्षसहस्रत्रितयं चाबाधा, जघन्या सागरोपमस्य च चत्वारो भागाः पल्योपमासंख्येय5 भागन्यूनाः । अयं पर्वतराजितुल्यः क्रोधः शिलायामुत्पन्नाया राजेर्यावच्छिलारूपमवस्थानं तद्वदुत्पन्नानन्तानुबन्धिक्रोधस्य यावत्तत्र भवे जीवति तावदनुवृत्तिस्तदनुमरणाच्च प्रायो नरकप्रापकत्वात्तत्तुल्यत्वं भाव्यम् । क्षमया प्रतिहन्यतेऽयम् ।। अनन्तानुबन्धिमानस्वरूपमाह तादृशं नम्रताविरहप्रयोजकं कर्म अनन्तानुबन्धिमानः ॥ 10 तादृशमिति । अनन्तानुबन्धीत्यर्थः । यदुदयादनन्तानुबन्धिनं जात्यागुत्सेकावष्टम्भात् पराप्रणतिरूपं नम्रताविरहं गच्छति तत्कर्मानन्तानुबन्धिमान इत्यर्थः । कृत्यं पूर्ववदूह्यम् । स्थिती चानन्तानुबन्धिक्रोधवत् । शैलस्तम्भसमानोऽयं मानः । कुतश्चित्कारणात्समुत्पन्नोऽ नन्तानुबन्धिमान आमरणान्न व्यपगच्छति, जात्यन्तरानुबन्धी निरनुनयोऽप्रत्यवमर्शश्चेति भाव्यम् । मार्दवेन प्रतिहन्यतेऽयम् ॥ 15. अथानन्तानुबन्धिमायामाह . ईदृक् सरलताभावप्रयोजकं कर्म अनन्तानुबन्धिमाया ॥ ईदृगिति। अनन्तानुबन्धीत्यर्थः । यदुदयतोऽनन्तानुबन्धिनी वश्चनाद्यात्मकात्मपरिणतिरूपां सरलत्वाभावात्मिकां मायामाप्नोति तत्कर्मानन्तानुबन्धिमायेति भावः । अनन्तानु बन्धित्वे सति सरलत्वाभावादिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् , आदिना प्रणिध्युपधिनिक20 त्यादीनां सङ्ग्रहः, कृत्यं प्राग्वत् । स्थिती चानन्तानुबन्धिक्रोधवत्, घनवंशमूलसदृशीयं . माया, उपायशतेनापि ऋजूकमशक्यत्वात् । इयं आर्जवेन प्रतिहन्यते ॥ अनन्तानुबन्धिलोभं लक्षयति ईदृशं द्रव्यादिमूर्छाहेतुः कर्मानन्तानुबन्धिलोभः॥ ईदृशमिति । अनन्तानुबन्धीत्यर्थः । यस्योदयादनन्तानुबन्धिनमनुप्रहप्रवणद्रव्याद्यभि25 काटावेशरूपमसंतोषात्मकजीवपरिणामविशेष लोभमेति तत्कर्मानन्तानुबन्धिलोभ इति भावः। १. प्रतिहननञ्चोदयनिरोधोदितविफलीकरणरूपमेवमप्रेऽपि ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यानाः ] न्यायप्रकाशसमलहते अनन्तानुबन्धित्वे सति द्रव्यादिमूर्छादिहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं, कृत्यं पूर्ववत् । लोभोऽयं लाक्षारागसदृशः, सन्तोषेण प्रतिहन्यते । स्थिती चानन्तानुबन्धिक्रोधवत् ॥ सम्प्रत्यप्रत्याख्यानक्रोधाद्यभिधानायाऽप्रत्याख्यानस्वरूपमाह प्रत्याख्यानावरणभूता वर्षावधिभाविनस्तिर्यग्गतिदायिनस्सर्वदेशविरतिघातिनश्चाप्रत्याख्यानाः॥ प्रत्याख्यानावरणभूता इति । देशसर्वविरतिभेदतः प्रत्याख्यानं द्विविधं । प्रत्याख्यानं नाम प्रतिषेधस्याचार्यसन्निधावाख्यानं भावतः, न हन्मि यावज्जीवं सर्वान् प्राणिन इत्यादिरूपतः । अल्पं प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं देशविरतिरूपं तदप्यावृण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणास्त एवात्राप्रत्याख्यानशब्देनोक्ताः । तदेवाह प्रत्याख्यानावरणभूता इति देशतोऽपि प्रत्याख्यानस्यावरणभूता इत्यर्थः । एषामुदये हि विरतिर्न भवत्येव । किमेतेऽनन्तानुबन्धि- 10 वदाजन्मभाविन इत्यत्राह वर्षावधिभाविन इति । जघन्येनाष्टमासस्थितिका उत्कर्षेण वर्षस्थितिका इति भावः । न चानन्तानुबन्धिक्रोधमनुसृत्य मृतानां नरकेषूत्पत्तिरिवाप्रत्याख्यानावरणक्रोधमनुसृत्य मृतानां, किन्तु क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशका दिविविधव्यसनवशीकृततिर्यग्गतावेवेत्याह तिर्यग्गतिदायिन इति । किमेषां कार्यमित्यत्राह सर्वदेशविरतिघातिन इति । देशतस्सर्वतश्च विरतिं निरुन्धन्तीति भावः॥ 15 एकप्रन्थेन संक्षेपकामोऽप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभानां स्वरूपाण्युपदर्शयतिएतद्विशिष्टाः पूर्वोक्तस्वरूपाः क्रोधादयोऽप्रत्याख्यानक्रोधादयः॥ एतद्विशिष्टा इति । अप्रत्याख्यानसहिता इत्यर्थः । पूर्वोक्तस्वरूपा इति प्रीत्यभावोत्पादककर्मत्वनम्रताविरहप्रयोजककर्मत्वसरलताभावप्रयोजककर्मत्वद्रव्यादिमूर्छाहेतुकर्मत्वरूपाइत्यर्थः । क्रोधादय इति । किन्त इत्यत्राहाप्रत्याख्यानक्रोधादय इति आदिनोभयत्र मान- 20 मायालोभानां ग्रहणम् । लक्षणं प्रयोजनञ्च पूर्ववदूह्यम् । स्थिती चानन्तानुबन्धिक्रोधवत् । क्रमेण भूराज्यस्थिस्तम्भमेषविषाणकर्दमरागसदृशा एते ॥ प्रत्याख्यानावरणक्रोधादीनभिधातुं प्रत्याख्यानावरणस्वरूपमाह सर्वविरत्यावरणकारिणो मासचतुष्टयभाविनो मनुजगतिप्रदायिनस्साधुधर्मघातिनः प्रत्याख्यानाः ॥ 25 १. प्रायोवादापेक्षययमुक्तिः, अप्रत्याख्यानावरणोदयवतामविरतसम्यग्दृशां तियङ्मनुष्याणाञ्च सुरेषुत्पत्तेः प्रत्याख्यानावरणोदयवताच देशविरतानां दवेगतरेप्रत्याख्यानावरणोदयवताश्च सम्यग्दृष्टिदेवानां मनुजगतेश्च श्रुतेः॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वस्यायविभाको सर्वविरत्यावरणकारिण इति । सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति भावः। अस्योदये हि विरत्यविरतिर्भवति, उत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति । अवधिमाह मासचतुष्टयभाविन इति । उत्कर्षेणेयमुक्तिः, जघन्येन तु अहोरात्रं विज्ञेयम् । कुत्रैषां जन्मप्रदत्वमित्यत्राह मनुजगतिप्रदायिन इति मनुजेषूत्पत्तिं लभत इति भावः । कार्यमाह साधुधर्मघातिन इति 5 साधुधर्मपरिणामोत्पत्तिं नाशयन्तीत्यर्थः । प्रत्याख्यानावरणक्रोधचतुष्टयस्वरूपं संक्षेपेणाह.. ईदृशाः क्रोधादय एव प्रत्याख्यानक्रोधादयः॥ ईशा इति । प्रत्याख्यानावरणभूता इत्यर्थः । क्रोधादय एवेति पूर्वोक्तस्वरूपाः क्रोधादय एवेत्यर्थः । प्रत्याख्यानक्रोधादय इति प्रत्याख्यानावरणभूताः क्रोधमानमायालोभा 10 इत्यर्थः । लक्षणं प्रयोजनश्च प्राग्वत् । स्थिती चानन्तानुबन्धिक्रोधवत् , क्रमेणैते वालुकाराजिदारुस्तम्भगोमूत्रिकाखञ्जनरागसदृशाः॥ संज्वलनक्रोधादीन्निवक्तुमादौ संज्वलनस्वरूपमाचष्टे ईषत्संज्वलनकारिणः पक्षावधयो देवगतिप्रदायिनो यथाख्यातचा... रित्रघातिनस्संज्वलनाः । ईदृशाश्च क्रोधादय एवं संज्वलनक्रोधादयः॥ 1 ईषत्संज्वलनकारिण इति । परीषहोपसर्गादिसंपाते सति चारित्रिणमपि सं=ईषद् ज्वलयन्तीति संज्वलनाः, एषामुदये हि यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति, अकषायचारित्रलाभो न भवतीति भावः । एषामप्यवधिमाह पक्षावधय इति । उत्कर्षेणेदम् पाक्षिकप्रतिक्रमणकाले प्रकर्षतो विध्यापनात् , जघन्येन तु पश्चात्तापोत्पत्त्यनन्तरमेव व्यपगच्छन्तीति भावः । ईदृशं क्रोधादिकमनुमृतानां का गतिरित्यत्राह देवगतिप्रदायिन इति । तेषां कार्यमाह यथा20 ख्यातेति । उपशान्तक्षीणकषायस्य यथाख्यातचारित्रावाप्तेरिति भावः । संक्षेपतस्संज्वलनक्रो धादिस्वरूपमुपदर्शयति ईदृशाश्चेति । संज्वलनात्मकाश्चेत्यर्थः। चशब्दः प्रकारभेदसमाप्तिद्योतकः। क्रोधादय एवेति लक्षणं पूर्ववत् । उत्कृष्टा स्थितिः प्राग्वत् , जघन्या तु संज्वलनक्रोधस्य मासद्वयं संज्वलनमानस्य मासः, संज्वलनमायाया अर्धमासः, संज्वलनलोभस्यान्तर्मुहूर्त्तम् , सर्वेषामबाधाकालोऽन्तर्मुहूर्त्तम् । क्रमेणोदकराजितृणस्तम्भनिर्लेखनहरिद्रारागसदृशा एते ॥ १. संज्वलना न केवलं यथाख्यातोपघातिनः किन्तु शेषचारित्राणामपि देशोपघातिनो भवन्ति, यतस्तेषामुदये शेषचारित्रमपि सातिचारं भवतीति भावः ॥२, व्यवहारनयापेक्षयाऽयं कालनियमः, बाहुबलिप्रभृतीनामन्येषांसंयतादीनाञ्च संज्वलनस्य पक्षात्परतोऽपि मासवर्षादिकाले प्रत्याख्यानावरणानामप्रत्याख्यानावरणानामनन्तानुबधिनाश्चान्तर्मुहूर्तादिकालं स्थितिश्रवणात् ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोकषायाः न्यायप्रकाशसमलते ..अथ चारित्रमोहनीयस्यापरभेदं नोकषायाख्यं पूर्वोदितकषायसहचारिणं कषायोडीपकं सहचारिकंषायसमफलं नवविधं क्रमेणाऽऽख्यातुमुपक्रमते हास्योत्पादकं कर्म हास्यमोहनीयम् ॥ हास्योत्पादकमिति । यस्योदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति रङ्गावतीर्णनटवत् तत्कर्म हास्यमोहनीयमित्यर्थः । हास्योत्पादकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं, कृत्यं सुस्पष्टम् । उत्कृष्टा 5 स्थितिरनन्तानुबन्धिक्रोधवत् , जघन्या तु सागरोपमस्य द्वौ सप्तभागौ पल्योपमासंख्येयभागन्यूनौ, अन्तर्मुहूर्तञ्चाबाधा ॥ रतिमोहनीयमाह पदार्थविषयकप्रीत्यसाधारणकारणं कर्म रतिमोहनीयम् ।। पदार्थेति । पदार्थविषयकप्रीत्यसाधारणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । लोभादावति- 10 व्याप्तिवारणायासाधारणेति । सौभाग्यनामकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय पदार्थविषयकेति । स्थिती हास्यमोहनीयवत् ॥ अरतिमोहनीयमाचष्टे पदार्थविषयकोद्वेगकारणं कर्म अरतिमोहनीयम् ॥ पदार्थविषयकेति । पदार्थविषयकोद्वेगकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । दुर्भगनाम- 15 कर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय पदार्थविषयकेति । स्थिती हास्यमोहनीयस्येव ।। शोकमोहनीयं वक्ति अभीष्टवियोगादिदुःखहेतुः कर्म शोकमोहनीयम् ॥ अभीष्टवियोगादीति । अभीष्टवियोगादिजन्यदुःखहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । यदुदयात् प्रियविप्रयोगादौ स्वोरस्ताडमाक्रन्दति, परिदेवते, भूपीठे च लुठति, दीर्घ निःश्वसिति, 20 तच्छोकमोहनीयमित्यर्थः । असातेऽतिव्याप्तिवारणाय जन्यान्तम् । स्थिती हास्यमोहनीयवत् ॥ .... भयमोहनीयमाचष्टे. भयोत्पादासाधारणं कारणं कर्म भयमोहनीयम् ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे भयोत्पादेति । यस्योदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा त्रस्यति, वेपते, उद्विजते, तद्भयमोहनीयम् । भयोत्पादासाधारणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । पराघातेऽतिव्याप्तिवारणायासाधारणेति स्वनिखिलभयकारणमित्यर्थः, पराघातेन तु सभ्यादीनां परेषामेव भयं भवति अनेन तु स्वस्येति भावः, स्थिती हास्यमोहनीयवत् ।। 5 जुगुप्सामोहनीयमाख्याति- - - बीभत्सपदार्थावलोकनजातव्यलोकप्रयोजकं कर्म जुगुप्सामोहनीयम् ॥ बीभत्सेति । यदुदयांत् पुरीषादिबीभत्सपदार्थेषु जुगुप्सावान् भवति, शुभाशुभद्रव्यविषयकं वा व्यलीकमुपजायते, तज्जुगुप्सामोहनीयमित्यर्थः । स्थिती हास्यमोहनीयवत् ।। पुरुषवेदस्वरूपमाचष्टे10 स्त्रीमात्रसंभोगविषयकाभिलाषोत्पादकं कर्म पुरुषवेदः ॥ स्त्रीमात्रेति । उद्रिक्तश्लेष्मण आम्रफलाभिलाषेव यस्योदये पुंसः स्त्रियामभिलाषा भवति, तृणाग्निज्वालासमानः स पुरुषवेद इत्यर्थः । नपुंसकवेदेऽतिव्याप्तिवारणाय मात्रेति । पुरुषवेदमोहाग्ने शं ज्वलतस्समासादितप्रतिक्रियस्याश्वेव प्रशमो जायते समासादिततृणपुल कस्येव, नातीव स्थास्नुरनुबन्धः । उत्कृष्टा स्थितिरस्य हास्यमोहनीयवत् जघन्या त्वष्टौ 15 वर्षाणि, अबाधाऽन्तर्मुहूर्त्तकालः ।। स्त्रीवेदमाह पुरुषमात्रसंभोगविषयकाभिलाषोत्पादकं कर्म स्त्रीवेदः ॥ पुरुषमात्रेति । पित्तद्रव्योदये मधुराभिलाषावत् यस्योदये पुंस्यभिलाषा स्त्रियास्समुपजायते दृढतरखदिरादिकाष्ठप्रवृद्धज्वालाकलापज्वलनवत् , बहुतरकालावस्थायी चिरप्रशाम्यः 20 संभाषणस्पर्शनेन्धनाभिवर्धितस्स स्त्रीवेदः । नपुंसकवेदेऽतिव्याप्तिवारणाय मात्रपदम् , स्थिती हास्यमोहनीयवत् ॥ नपुंसकवेदमाख्याति पुंस्त्रीसंभोगविषयकाभिलाषोत्पादकं कर्म नपुंसकवेदः। इति कषायपञ्चविंशतिः॥ 25 पुंस्त्रीति । पित्तश्लेष्मोदये मज्जिकाभिलाषावत् यस्योदये पण्डकस्य स्त्रीपुंसयोरभिलाषा समुदेति महानगरदाहदहनसन्निभकरीषकृशानुवदन्तर्विजृम्भमाणदीप्ततरकरनिकरो बहुतर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिनामकर्म ] न्यायप्रकाशसमलते : ९९ : कालप्रशमः स नपुंसकवेदः । स्त्रीपुरुषवेदयोरतिव्याप्तिवारणाय पुंखीति । स्थिती हास्यमोहनीयस्येव । इमान्येव पञ्चविंशतिकर्माणि विभागवाक्यघटककषायपश्चविंशतिपदग्राह्याणीत्याह-इतीति । षोडशकषाया नवनोकषायाश्चेति मिलित्वेत्यर्थः ॥ अथ तिर्यग्गतिमाह तिर्यक्त्वपर्यायपरिणतिप्रयोजक कर्म तिर्यग्गतिः॥ 5 तिर्यक्त्वेति । तिर्यक्त्वपर्यायपरिणतिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं तिर्यग्गतेर्लक्षणम् , कृत्यं मनुजगतिवत्, स्थिती पञ्चेन्द्रियवत् ॥ तिर्यगानुपूर्वीस्वरूपमाहतिर्यग्गतौ बलान्नयनहेतुकं कर्म तिर्यगानुपूर्वी । इति तिर्यग्द्विकम् ॥ तिर्यग्गताविति । बलात्तिर्यग्गतिनयनहेतुत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । मनुजानुपूर्व्यादावतिव्याप्तिवारणाय तिर्यगिति। स्थिती च पञ्चेन्द्रियवदेव । इमे एव विभागवाक्यघटकतिर्य- 10 ग्द्विकपदबोध्ये इत्याह इतीति ॥ ... एकेन्द्रियजातिनाम निरूपयतिएकेन्द्रियव्यवहारहेतुः कर्म एकेन्द्रियजातिः। अस्याः स्पर्शेन्द्रियमेव ।। एकेन्द्रियेति । यदुदयादयं पृथिवीकायिकादिरेकेन्द्रिय इति संज्ञां लभते व्यपदिश्यते च, तादृशं कर्मेत्यर्थः । एकेन्द्रियव्यवहारकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । द्वीन्द्रियजात्यादि- 15 वारणायैकेति । अत्र द्रव्येन्द्रियमङ्गोपाङ्गनामेन्द्रियपर्याप्तिनामसामर्थ्याद्भवति। भावरूपन्तु तत्तदिन्द्रियावरणक्षयोपशमसामर्थ्याद्भवति, जातिनाम तु व्यवहारनिबन्धनसमानपरिणतौ १. ननु व्यवहारशब्दप्रयोगः, तथा चैकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धनभूतजातिविपाकवेद्य कर्मप्रकृतिरेकेन्द्रियादिजातिरिति लक्षणार्थः, तच्च न युक्तं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन क्वापि जात्यसिद्धेरितरथा हादिपदप्रवृत्तिनिमित्ततया हरित्वादिजातेरपि सिद्धिः स्यात् तथाप्येकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिमित्ततया तादृशजातिस्वीकारे नारकादिव्यवहारनियामकतया पञ्चेन्द्रियत्वव्याप्यनारकत्वादिजातिसिद्धौ गतिनाम्नो वैयर्थ्यापत्तेश्चेति चेन्न, अपकृष्टचैतन्यादिनियामकतयैकेन्द्रियत्वादिजातिसिद्धेः, न तु शब्दप्रवृत्तिनिमित्ततया, सा च जातिरेकेन्द्रियादिव्यवहारनिबन्धना, लाघवात्तन्निबन्धनतया च जातिनामसिद्धिः । नारकत्वादिकं तु न जातिरूपम् , तिर्यक्त्वस्य पञ्चेन्द्रिय त्वादिना सार्यात् । मानुषत्वावच्छेदेन पञ्चेन्द्रियत्वे तिर्यक्त्वाभावसामानाधिकरण्यस्यैकेन्द्रियत्वावच्छेदेन तिर्यक्त्वे पञ्चेन्द्रियत्वाभावसामानाधिकरण्यस्य सत्त्वात् तदुभयस्य च तिर्यपञ्चेन्द्रियत्वावच्छेदेन वृत्तेः, किन्तु सुखदुःखविशेषोपभोगनियामकपरिणामविशेषतया नारकत्वादीनां तन्नियामकत्वेन गतिनाम्न आवश्यकत्वादिति ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१००: तत्त्वन्यायविभाकरे पञ्चमकिरणे ] निबन्धनमिति भाव्यम् । इयं जातिः कीदृशेन्द्रियव्यवहारप्रयोजिकेत्याशङ्कायामाहास्या इति, पञ्चम्यर्थः प्रयुक्तत्वं तथा चैकेन्द्रियजातिनामप्रयुक्तं स्पर्शेन्द्रियमेवेत्यर्थः, केवलस्पर्शेन्द्रियापेक्षया योऽयमेकेन्द्रियव्यवहारस्तत्र प्रयोजकमिदं कर्मेति भावार्थः । उत्कृष्टाऽस्य स्थितिः पञ्चेन्द्रियवत् , जघन्या तु देवगतिवत् ॥ 5 द्वीन्द्रियादिजातिनाम लक्षयति-- द्वीन्द्रियव्यवहारकारणं कर्म द्वीन्द्रियजातिः । स्पर्शरसने । त्रीन्द्रियव्यवहारसाधनं कर्म त्रीन्द्रियजातिः । स्पर्शरसनघ्राणानि । चतुरिन्द्रियव्यवहारनिदानं कर्म चतुरिन्द्रियजातिः । स्पर्शरसनघाणचक्षुषि ।। द्वीन्द्रियेति।द्वीन्द्रियव्यवहारकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । कृत्यं पूर्ववत् । कीदृशे10 न्द्रियव्यवहारे प्रयोजकमित्यत्राह-स्पर्शरसन इति, अस्या इत्यनुषज्यते, शिष्टं स्पष्टम् । अस्या उत्कृष्टा स्थितिरष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यः, अष्टादशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या तु देवगतिवत् । त्रीन्द्रियजातिनामाचष्टे-त्रीन्द्रियेति । लक्षणं कृत्यश्च पूर्ववदेव । अस्या व्यवहारे निबन्धनानीन्द्रियाण्याह स्पर्शेति, अस्या इत्यनुषज्यते । स्थिती चास्या द्वीन्द्रियजातिवत् । चतुरिन्द्रियजातिनामाख्याति-चतुरिन्द्रियेति । स्पष्टं लक्षणं कृत्यञ्च । अस्या व्यवहारे 15 निबन्धनानीन्द्रियाण्याह स्पर्शरसनेति । स्थिती च द्वीन्द्रियजातिवत् ॥ अथ कुखगत्यादीन्याह-- ... अप्रशस्तगमनप्रयोजकं कर्म कुखगतिः । यथा खरोष्ट्रादीनाम् । स्वावयवैरेव स्वपीडाजनननिदानं कर्म उपघातनाम । शरीरनिष्ठाप्रशस्तवर्ण प्रयोजकं कर्म अप्रशस्तवर्णनाम | यथा काकादीनाम् । शरीरनिष्ठाप्रशस्त20 गन्धप्रयोजकं कर्म अप्रशस्तगन्धनाम | यथा लशुनादीनाम् । शरीरवृत्त्य प्रशस्तरसप्रयोजकं कर्म अप्रशस्तरसनाम । यथा निम्बादीनाम् । शरीरवृत्त्यप्रशस्तस्पर्शप्रयोजकं कर्म अप्रशस्तस्पर्शनाम । यथा बब्बुलादीनाम् । इत्यप्रशस्तवर्णचतुष्कम् ॥ ... अप्रशस्तेति । अप्रशस्तगमनप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । यद्वशेन च खरोष्ट्र25 टोलादीनामिवाप्रशस्तगमनमङ्गिनामुपजायते सा कुत्सिता विहायोगतिः कुखगतिः । नर__ कगत्यादिलक्ष्यताव्युदासाय लक्ष्ये खेति । शुभखगतावतिव्याप्तिवारणायाप्रशस्तेति । स्थिती च पञ्चेन्द्रियवत् ! निदर्शनमाह यथेति । उपघातनाम निरूपयति-स्वावयवैरेवेति । स्वशरी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संहननकर्म ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १०२ : रावयवैरेव प्रतिजिह्वागलवृन्दलम्बकचौरदन्तादिभिश्शरीरान्तर्वर्धमानैर्यदुदयादुपहन्यते जन्तुस्तदुपघातनामेत्यर्थः । शरीराङ्गोपाङ्गघातकं स्वपराक्रमविजयाद्युपघातजनक वोपघातनामेति तत्त्वार्थभाष्यम् । असातादावतिव्याप्तिवारणाय स्वावयवैरेवेति । पञ्चेन्द्रियवदेवास्य स्थिती। अप्रशस्तवर्णनामाह-शरीरनिष्ठेति । शरीरनिष्ठाप्रशस्तवर्णप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । अप्रशस्तो वर्णोऽतिबीभत्सदर्शनःकृष्णादिवर्णः । प्रशस्तवर्णनाम्न्यतिव्याप्तिवारणायाप्रशस्ता- 5 न्तम् । पुद्गलनिष्ठाप्रशस्तवणे कर्मणोऽप्रयोजकत्वेनाप्रशस्तवर्णनामकर्म फलानुमेयं न भवेदिति शरीरनिष्ठेति । पञ्चेन्द्रियवदस्य स्थिती । अप्रशस्तवर्णनामकर्मोदयवतो दृष्टान्तमाह यथेति । अप्रशस्तगन्धनामाचष्टे-शरीरेति । कुथितमृतमूषकादिदुर्गन्धताऽप्रशस्तगन्धः । शिष्टं सर्वमप्रशस्तवर्णवत् । पञ्चेन्द्रियवदस्य स्थिती, निदर्शनमाह यथेति । अप्रशस्तरसनामाभिधत्तेशरीरवृत्तीति । लक्षणं पूर्ववत् स्थिती च । दृष्टान्तमाह यथेति । अथाप्रशस्तस्पर्शनामाह- 10 शरीरवृत्तीति । लक्षणं स्पष्टं कृत्यश्च, स्थिती पूर्ववत् दृष्टान्तमाह यथेति । विभागवाक्ये एत एवाप्रशस्तवर्णचतुष्कपदेनोक्ता इत्याह इतीति ॥ ऋषभनाराचादिसंहननान्याह उभयतो मर्कटबन्धाकलितास्थिसंचयवृत्तिपट्टबन्धसदृशास्थिप्रयोजकं कर्म ऋषभनाराचम् । उभयतो मर्कटबन्धमात्रसंवलितास्थिसन्धिनिदानं 15 कर्म नाराचम् । एकतो मर्कटबन्धविशिष्टास्थिसन्धिनिदानं कर्मार्धनाराचम् । केवलकीलिकासहशास्थिबद्धास्थिनिचयप्रयोजक कर्म कीलिका ॥ परस्परपृथकस्थितिकानामस्थनां शिथिलसंश्लेषनिदानं कर्म सेवार्तम् । इति संहननपश्चकम् ॥ उभयत इति । उभयतो मर्कटबन्धसंवलितास्थिसंचयवृत्तिपट्टसदृशास्थिप्रयोजकत्वे 20 सति कर्मत्वं लक्षणम् अत्र तादृशास्थिमात्रप्रयोजकत्वे सतीति वाच्यमन्यथा वर्षभनाराचे व्यभिचारापत्तेः । नाराचे व्यभिचारवारणाय पट्टसदृशास्थीति । अस्योत्कृष्टा स्थितिादशसागरोपमकोटीकोट्यः, द्वादशवर्षशतान्यबाधा, पश्चेन्द्रियवज्जघन्या । अस्य कर्मणः स्थाने वास्याधं ऋषभस्या नाराचस्यार्धमिति कृत्वाऽर्धवज्रर्षभनाराचनाम पठन्ति तत्त्वार्थभाष्यकाराः । कर्मप्रकृतिग्रन्थेष्वत्र पट्टहीनं वज्रनाराचनाम पठितम् । नाराचसंहननमाचष्टे- 25 उभयत इति । उभयतो मर्कटबन्धमात्रसंवलितास्थिसन्धिनिदानत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् , वज्रर्षभनाराचादावतिव्याप्तिवारणाय मात्रपदम् । अर्धनाराचे व्यभिचारवारणायोभयत इति । चतुर्दशसागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः चतुर्दशवर्षशतान्यबाधा, जघन्या पश्चेन्द्रियवत् । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०२ : न्यायविभाकर अर्धनाराचमाचष्टे - एकत इति । एकपार्श्वमात्रावच्छेदेन मर्कटबन्धविशिष्टास्थिसंधिनिदानत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । नाराचादिवारणायैकपार्श्वमात्रावच्छेदेनेति । अत एव मात्रपदमपि, षोडश सागरोपमकोटी कोट्योऽस्य परा स्थितिरबाधा च षोडशवर्षशतानि जघन्या पश्चेन्द्रियवत् । कीलिकामाह - केवलेति । केवलकीलिका सदृशास्थिबद्धास्थिनिचयप्रयोजकत्वे सति 5 कर्मत्वं लक्षणम् । वज्रर्षभनाराचे व्यभिचारवारणाय केवलेति । उत्कृष्टा स्थितिरस्याष्टादशसागरोपमकोटी कोट्यः, अष्टदशवर्षशतान्यबाधा जघन्या तु पश्चेन्द्रियस्येव । अथ सेवार्त्तमाख्याति–परस्परेति । परस्परपृथस्थितिकानामस्थनां शिथिलसंश्लेषनिदानत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । अस्य संहननस्योदये सति जीवो नित्यमेव स्नेहाभ्यङ्गादिरूपां परिशीलनामाकांक्षति । अस्यैव च सृपाटिकेति तत्त्वार्थे नामान्तरम् । विंशतिसागरोपमकोटी कोट्यो ऽस्य 10 परा स्थितिः । वर्षसहस्रद्वयवाबाधा, जघन्या पञ्चेन्द्रियवत् । इमानि संहननानि औदारिकशरीर एव भवन्ति । विभागवाक्येऽप्रथमसंहननशब्दवाच्यान्येतान्येवेत्याह इतीति ॥ 1 [ पञ्चमकिरणे अथ न्यग्रोधपरिमण्डलादिसंस्थानान्याह— नाभेरूर्ध्वं विस्तृतिबाहुल्य सल्लक्षण निदानं कर्म न्यग्रोधपरिमण्डलम् । नाभ्यधोभागमात्रस्य प्रमाणलक्षणवत्त्वप्रयोजकं कर्म सादिः । सलक्षण15 पाण्यादिमत्त्वे सति निर्लक्षणवक्षः प्रभृतिमत्त्वप्रयोजकं कर्म कुब्जं ॥ नाभेरूर्ध्वमिति । नाभेरूर्ध्वमेवेत्यर्थः । यथा न्यग्रोधो वृक्ष उपरि संपूर्णावयवोऽधस्तु नस्तथेदमपि कर्म नाभेरुपरि विस्तारबहुलस्य संपूर्णलक्षणादिमत्त्वस्य चाधस्तद्धीनस्य शरीरस्य प्रयोजकमिति भावः । नाभेरूर्ध्वभागमात्रावच्छेदेन विस्तृतिबाहुल्य सल्लक्षणनिदानत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । समचतुरस्रसंस्थानवारणाय नाभेरूर्ध्वभागमात्रावच्छेदेनेति । नाभे20 रूनिखिलभागमात्रावच्छेदेनेत्यपि वाच्यं तेन यत्किञ्चित्पाण्यादीनां विस्तृतिबाहुल्य सल्लक्षणप्रयोजके कुब्जनामकर्मणि नातिव्याप्तिः । स्थिती वर्षभनाराचवत् । सादिमाचष्टे - नाभ्यधोभागेति । येन नाभेरधस्तादेव सर्वेऽवयवाः समीचीनेन लक्षणेन च युतास्तदित्यर्थः । नाभ्यधस्सर्वभागमात्रावच्छेदेन सुप्रमाणलक्षणवत्त्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं समचतुरखेऽतिव्याप्तिवारणाय नाभ्यधस्सर्वभागमात्रावच्छेदेनेति । इदमेव साचिस्वातिशब्दाभ्यां 25 व्यवह्रियते । स्थिती तु नाराचसंहननवत् । कुब्जमभिधत्ते -सलक्षणेति । यतः कन्धराया उपरितनावयवा हस्तपादश्च समचतुरस्रलक्षणयुक्तं अधस्तनकायस्तु लक्षण विसंवादी तत्कर्म कुब्जम् । सलक्षणपाण्यादिमत्त्वे सति निर्लक्षणवक्षः प्रभृतिमत्त्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वम् । आदिना पादकन्धरोपरितना अवयवा ग्राह्याः, प्रभृतिना च तद्भिन्नाः । हुण्डेऽतिव्याप्तिवार Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापहेतवः ] न्यायप्रकाशसमलते णायाद्यं सत्यन्तं, समचतुरस्रादावतिप्रसक्तिवारणार्थ द्वितीयं सत्यन्तम् । पाण्यादिमत्त्वञ्च प्रयोजकतासम्बन्धेन । अर्धनाराचसंस्थानवदस्य स्थिती ॥ वामनं हुण्डञ्चाभिधत्ते एतद्वैपरीत्यहेतुः कर्म वामनम् । सर्वावयवाशुभत्वनिदानं कर्म हुण्डम् । इति पञ्चसंस्थानानि । एते पापानुभवप्रकाराः । एतदिति । निर्लक्षणपाण्यादिमत्त्वे सति सलक्षणवक्षःप्रभृप्तिमत्त्वप्रयोजकत्वे च सति कर्मत्वं लक्षणम् । समचतुरस्रादौ साद्यादौ क्रमेण व्यभिचारवारणाय सत्यन्तद्वयं । कीलिकावदस्य स्थिती । हुण्डमाह-सर्वेति । सर्वावयवाशुभत्वप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । अशुभनामकर्मण्यतिव्याप्तिवारणाय सर्वेति । यद्यशुभपदेनात्र लक्षणविस्तारादिगृह्यते तदा नाशुभनामकर्मण्यतिप्रसक्तिः किन्तु न्यग्रोधादावेवेति बोध्यम् ॥ स्थिती च सेवार्त्तवत् । 10 इतीति । विभागवाक्यान्तर्गताप्रथमसंस्थानशब्दवाच्यानीति शेषः । इमानि व्यशीतिविधानि पापकर्माणि प्राणातिपातादिहेतुभिर्बद्धेन जीवेनानुभूयन्ते इत्याह एत इति । द्व्यशीतिविधा कर्मविशेषा इत्यर्थः ॥ पापहेतून दर्शयति पापबन्धहेतवस्तु प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहाप्रश- 15 स्तक्रोधमानमायालोभरागद्वेषकलहाभ्याख्यानपिशुनतारतिरतिपरपरिवादमायामृषावादमिथ्यात्वशल्यानि । इतिपापतत्त्वम् ॥ __ पापबन्धहेतवस्तु इति । नियतपुल्लिंगो हेतुशब्दः । यद्यपि जीवस्याशुभाध्यवसायविशिष्टा वाक्कायमनसामशुभव्यापारा बन्धहेतवस्तथापि तानेव विशेषतो दर्शयति, यद्वा व्यापारस्य शुभाशुभत्वं न शुभाशुभकर्मकारणत्वेन, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वा- 20 भ्युपगमात् । किन्त्वशुभपरिणामनिवृत्तत्वादतस्ताने वाह प्राणातिपातेत्यादिना । प्राणानामतिपातो विनाशः पातनं शातनं वा प्रमन्तयोगाव्यतो भावतश्च । मृषावादो विद्यमानस्यापलापः, अविद्यमानप्रकाशनं शास्त्रप्रतिषिद्धवागनुष्ठानश्च । अदत्तादानं, परैरदत्तस्य परिगृहीतस्य वा पदार्थसार्थस्य स्वेच्छया ग्रहणं धारणञ्च । मैथुनं मोहकर्मोदयादुद्भूततीव्रकायादि. परिणामयोः स्त्रीपुंसयोमिथुनभावः परस्पराऽऽश्लेषः सुखोपलम्भकः । परिग्रहो बाह्याभ्यन्तरेषु 25 लोभानुरक्तचित्तवृत्त्या अभिलाषा । अप्रशस्ताः क्रोधमानमायालोभरागद्वेषाः, प्रशस्तास्त्वेते न पापानुकूलाः । कलहो राटिः, अभ्याख्यानं प्रकटमसदोषारोपणं पिशुनता दौर्जन्यम् , मोहनी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :०४: तस्वन्यायविभाकरे [ पष्ठकिरणे योदयाच्चित्तोद्वेगोऽरतिस्तत्फला विषयेषु मोहनीयोदयाद्या चित्ताभिरतिः साऽरतिरतिः, परपरिवादः परनिन्दा, मायया सह मृषा मायामृषी, मिथ्यात्वशल्यश्च, अनेकधा प्राणिगणशलनाच्छल्यं, मिथ्यात्वं तत्त्वाश्रद्धानं, तदेव शल्यं । एते द्वयशीतिविधपापकर्मणां हेतवः । इति पापतत्त्वमवसितमित्याहेतीति ॥ 5 इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य . तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां पापतत्त्वनिरूपणो नाम पञ्चमः किरणः ॥ अथ षष्ठः किरणः ॥ 10 ननु निरूपितं पुण्यपापरूपं कर्म, सम्प्रति तदनन्तरमुदिष्ट आस्रवो निरूपणीयः । तत्र स किं स्वरूपो जीवो वा तत्पर्यायो वा अजीवो वा तत्पर्यायो वा स्यात् , चेतनाचेतनात्मकपदार्थद्वयातिरिक्तस्याभावात् , जीवतत्पर्यायान्यतररूपत्वे जीव एव, अजीवतत्पर्यायान्यतररूपत्वे चाजीव एव भवेदित्याशङ्कायां लक्षणं निरूपयन् पदार्थं सूचयति शुभाशुभकर्मग्रहणहेतुराश्रवः ॥ 15 शुभाशुभेति । शुभाशुभरूपे ये कर्मणी पुण्यपापात्मकेऽष्टविधे, तयोर्यग्रहणमुपादानं बन्धात्मकं तत्र हेतुः साक्षात्कारणं शुभाशुभाध्यवसायविशेषः परम्पराकारणश्चेन्द्रियकषायाव्रतयोगक्रियाः, द्विविधो हेतुरास्रवपदार्थ इत्यर्थः। तथा च प्रतिक्षणं कर्मग्रहणव्यापृतस्वभावत्वाद्भवस्थजीवस्यावश्यं केनचिद्धेतुना भाव्यं, निर्हेतुकस्य कार्यस्यानुत्पत्तेः । तथा च सति यस्तत्रं हेतुः स आश्रवः, स चाहदर्चनवन्दनसर्वविरतितपःस्वाध्यायवीतरागप्रणि20 धानधर्मध्यानादिप्रशस्तानुष्ठानात् प्राणातिपातमृषावादकषायाद्यप्रशस्तकर्मभ्यश्च भवति, भवति हि यथाक्रमं सत्कृत्यासत्कृत्याभ्यामसतोरपि शुभाशुभाध्यवसायादिरूपयोः शुभाशुभाश्रवयोराविर्भावः, सतोश्च वृद्धिरिति भावार्थः, ननु शुभाशुभकर्मणामादानात्मकस्य बन्धस्य कारणमाश्रव इत्यायातं, तच्च न संभवति, बन्धाभावे आश्रवासंभवादन्यथा मुक्तस्यापि तदापत्तेः । यद्यास्रवमन्तरेणापि बन्ध इष्यते तर्हि कथमाश्रवस्य बन्धहेतुत्वं तदभावेऽपि जायमानं प्रति । तस्य हेतुत्वासम्भवादिति चेन्मैवम् , उभयोरप्यन्योऽन्य कार्यकारणभावाभ्युपगमात्, न च तर्हि बन्धाभावे नाश्रवस्तदभावे च न बन्ध इति परस्पराश्रयप्रसङ्ग इति वाच्यम् , बन्धा १. मायामृषावादोऽयं तृतीयकषायद्वितीयाश्रवसंयोगरूपः उपलक्षणोऽयमेवंविधसर्वसंयोगानाम् । वेषान्तरभाषान्तरकरणेन परवञ्चनरूपोवा बोध्यः ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hire ] न्यायप्रकाश समलङ्कृते : १०५ : श्रवयोः कार्यकारणभावप्रवाहस्यानादितयोत्तरोत्तरं प्रति पूर्वपूर्वस्य कारणत्वाभ्युपगमेन तद्नवकाशात्, बीजाङ्कुरयोः कार्यकारणभाववत् । ननु बन्धास्रवयोरेतावता समतैव स्यान्न तु विशेषस्तथा चाऽऽश्रवहेतुर्बन्ध इत्यपि बन्धस्य लक्षणं स्यान्न चैतदस्ति, कषायाद्यनुविद्धस्य जीवस्य नूतनकर्मपुद्गलैः सह सम्बन्धो बन्ध इति लक्षणश्रवणादिति चेन्न, शरीरस्य स्नेहाभ्यङ्गाद्रेणुसंश्लेषवदास्रवस्योत्पत्त्यनन्तरमेव बन्धहेतुत्वात् न चैवं बन्धस्य साक्षादाश्रवं 5 प्रति हेतुत्वं, क्षेत्रकालादिसहकार्यपेक्षयोदयावस्थाप्राप्तस्यैव कर्मणोऽर्थक्रियाकारित्वात्, न तु बद्धमात्रेणास्रवं जनयितुमलम् । सोऽयमास्रवः पूर्वं द्विचत्वारिंशद्विधः प्रोक्तः । तत्र यद्यपि मनोवाक्कायानां शुभाशुभरूपा ये वीर्यान्तरायक्षयोपशमजन्या वीर्यप्राणोत्साहपराक्रमचेष्टाशक्तिसामर्थ्यादिशब्दवाच्या योगास्त एवास्रवाः, तत्र कायात्मप्रदेशपरिणामोऽशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादिरूपः, एतद्विपरीतश्शुभो गमनादिक्रियाहेतुः काययोगः । भाषायोग्यपुद्गलात्म - 10 प्रदेश परिणामोऽशुभस्सावद्यानृतपरुषपिशुनादिरूपः, शुभ एतद्विपरीतरूपो वाग्योगः । मनोयोग्यपुद्गलात्मप्रदेशपरिणामोऽशुभोऽभिध्याव्यापादेर्ष्यासूयादिरूपः, शुभश्चैतद्विपरीतरूपो म नोयोग इति, तथापि विवक्षाभेदाद्विचत्वारिंशद्विधाः प्रोक्ताः । अयमाश्रवस्सकषायस्याकषायस्यापि भवति, तत्राकषायस्य वीतरागस्यैकसमयस्थितिककर्मण एवास्रवो भवति, सकषायस्य मिध्यादृष्ट्या दिसूक्ष्मसम्परायान्तस्य तु संसारपरिभ्रमणकारणकर्मण एवास्रवो भवतीति 15 बोध्यम् । यद्यपीन्द्रियकषायात्रतयोगानां क्रियास्वभावानतिवृत्तेः क्रियावचनेनैवैषां गतार्थता, व्यापाराभाव इन्द्रियादीनामकिञ्चित्करत्वात्, तथापि क्रियास्वभावत्वमेतेषां न नियतं, नामस्थापनाद्रव्येन्द्रियादौ क्रियाभावात्, यद्वा नैवमेकान्ततस्तानि क्रियास्वभावान्येवेति, किन्तु द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्राधान्यतरस्यात्क्रियास्वभावानतिवृत्तिः, पर्यायार्थिकगुणभावे द्रव्यार्थिकप्राधान्यात्स्यात्क्रियास्वभावातिवृत्तिरिति । शुभाशुभाश्रवपरिणामाभिमुखत्वादिन्द्रिय- 20 कषायाव्रतानां द्रव्यास्रवत्वं, भावास्रवः कर्मादानं, तच्च पञ्चविंशतिक्रियाभिरास्रवति कर्मेत्येतदर्थमिन्द्रियकषायाव्रतानामुपादानम् ॥ वस्तुतस्तु कायवाङ्मनसां क्रिया आस्रवास्तेषां गतीन्द्रियकषायलेश्यायोगोपयोगज्ञानदर्शनचारित्रवेदादिपरिणामवतो जीवस्य धर्मरूपत्वात्ते जीवात्मकाः, कायवाङ्मनःप्रभवत्वातत्स्वरूपा वा, एतदेवाभिप्रेत्याह पौद्गलिकोऽयम् | आत्मप्रदेशेषु कर्मप्रापिका क्रिया द्रव्याश्रवः, कर्मोंपार्जन निदानाध्यवसायो भावाश्रवः ॥ १४ 25 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १०६ : तस्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे पौगलिकोऽयमिति । कायो हि जीवस्य निवासभूतः पुद्गलद्रव्यसंघातः, तद्योगाज्जीवस्य यो वीर्यपरिणामस्स काययोगः, आत्मयुक्तकायायत्ता वाग्वर्गणायोग्यस्कन्धा विसृज्य - माना वाक्करणतामापद्यन्ते तत्सम्बन्धाञ्चात्मनो या वीर्यपरिणतिः स वाग्योगः, जीवेन सर्वप्रदेशैर्गृहीता मनोवर्गणायोग्यस्कन्धाः करणभावमालम्बन्ते तत्सम्बन्धाञ्चात्मनः पराक्रम5 विशेषो मनोयोगः, इत्येवं योगत्रिकैरात्मप्रदेशेषु कर्मप्रापिका क्रिया द्रव्याश्रव उच्यते, तदनुकूलाध्यवसायस्तु भावाश्रव इत्याशयेनाह - आत्मप्रदेशेष्विति । शेषं स्पष्टम् । तथा साम्परायिककर्मबन्धभाजां सत्स्वपीन्द्रियादिषु तुल्यतया निमित्तेषु तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावेभ्यो वीर्य - विशेषादधिकरणविशेषाच्चास्रवाणां विशेषो विज्ञेयः || पूर्वोदितानामाश्रवभेदानां स्वरूपमनुक्रमेणोपवर्णयितुमारभते स्पर्शविषयकरागद्वेषजन्याश्रवः स्पर्शेन्द्रियाश्रवः ॥ स्पर्शेति । स्पर्शश्शीतादिरूपेणाष्टविधः स्पर्शेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षविषयः, तद्विषयको यौ रागद्वेषौ आनुकूल्यप्रातिकूल्याभ्यां प्रीत्यप्रीती तज्जन्यः कर्मबन्धानुगुण आत्माध्यवसायो वा योगक्रियाविशेषो वा स्पर्शेन्द्रियास्रव उच्यत इत्यर्थः । तथा च स्पर्शविषयकरागद्वेषान्यतरजन्यत्वे सत्याश्रवत्वं लक्षणम् । रसनेन्द्रियास्रवादावतिप्रसङ्गभङ्गाय सत्यन्तम् । कालादि15 वारणाथ विशेष्यम् । रसनेन्द्रियात्रवादावतिव्याप्तिवारणाय स्पर्शविषयकेति ॥ रसनेन्द्रियाश्रवमाह 10 रसविषयकरागद्वेषजन्याश्रवः रसनेन्द्रियाश्रवः ॥ रसविषयकेति । अम्लादिभेदेन पञ्चविधा रसाः रसनेन्द्रियजन्यप्रत्यक्षविषयाः तद्वि-पयको यौ रागद्वेषौ आनुकूल्यप्रातिकूल्याभ्यां प्रीत्यप्रीती तदन्यतरजन्यः कर्मबन्धानुगुणो 20 जीवाध्यवसाय विशेषो योगविशेषो वाऽऽस्रवः रसनेन्द्रियास्रव इत्यर्थः, रसविषयकरागद्वेषान्यतरजन्यत्वे सत्याश्रवत्वं रसनेन्द्रियाश्रवस्य लक्षणम्, कृत्यं प्राग्वत् ॥ १. परिणामस्य तीव्रमन्दभावे कर्मबन्धोऽपि तीव्रो मन्दश्च भवति, सिंहस्य गोर्घातिनश्च प्राणातिपाते समानेऽपि कर्मबन्धो न तुल्यः, शौर्याभिनिवेशिनो बहुलं कर्मबन्धात् ज्ञातभावोऽभिसन्धाय प्राणातिपातादौ प्रवृत्तिः, अज्ञातभावोऽनभिसन्धाय तत्र प्रवृत्तिः, वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमजन्यः सामर्थ्यविशेषो वज्रर्षभनारा चसंहननीयापेक्षः त्रिष्टष्टादीनां संरब्धसिंहपाटनादिरूपः तद्विशेषादपि कर्मबन्धविशेषः । अधिकरणं दुर्गतिप्रापकं निर्वर्सना संयोजनादिभेदं कर्मबन्धविशेषहेतुरिति ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोधाद्याश्रवः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । :१०७: घ्राणेन्द्रियाश्रवमाह गन्धविषयकरागद्वेषजन्याश्रवः घ्राणेन्द्रियाश्रवः ॥ गन्धेति । सुरभ्यसुरभिरूपघ्राणजप्रत्यक्षयोग्यगन्धविषयकानुकूल्यप्रातिकूल्यप्रयुक्तप्रीत्यप्रीतिजन्याश्रवो घ्राणेन्द्रियाश्रव इत्यर्थः । गन्धविषयकरागद्वेषान्यतरजन्यत्वे सत्याभवत्वं लक्षणं, कृत्यं पूर्ववत् ॥ चक्षुरिन्द्रियाश्रवं श्रोत्रेन्द्रियाश्रवञ्चाचष्टे रूपविषयकरागद्वेषजन्यावश्चक्षुरिन्द्रियाश्रवः । शब्दविषयकरागद्वेषजन्याश्रवः श्रोत्रेन्द्रियाश्रवः । इतीन्द्रियपञ्चकाश्रवः ॥ रूपेति । श्वेतादिरूपेण पञ्चप्रकारं चक्षुर्ग्रहणयोग्यं यद्रूपं तद्विषयकानुकूल्यप्रातिकूल्यप्रयुक्तरागद्वेषान्यतरजन्य आवश्चक्षुरिन्द्रियाश्रव इत्यर्थः, रूपविषयकरागद्वेषान्यतरजन्यत्वे 10 सत्याश्रवत्वं लक्षणं कृत्यं प्राग्वत् । श्रोत्रेन्द्रियाश्रवमाचष्टे-शब्दविषयकेति । सचित्ताचित्तमिश्रात्मकत्रिविधशब्दविषयकरागद्वेषान्यतरजन्याश्रव इत्यर्थः । लक्षणं कृत्यश्च स्फुटम् । एत एव विभागवाक्ये इन्द्रियपञ्चकपदेनोक्ता इत्याह इतीति । अथ क्रोधाद्याश्रवानाह प्रीत्यभावप्रयुक्ताश्रवः क्रोधाश्रवः । अनम्रताजन्याश्रवो मानाश्रवः। 15 कापट्यप्रयुक्ताश्रवो मायाश्रवः । सन्तोषशून्यताप्रयुक्ताश्रवो लोभाश्रवः । इति कषायचतुष्काश्रवा ।।। प्रीत्यभावेति । प्रीत्यभावः क्रौर्यपरिणामः, क्रोधोऽनन्तानुबन्ध्यादिभेदः, तत्प्रयुक्त आश्रवः शुभाशुभाध्यवसायः क्रियाविशेषो वा क्रोधाश्रव इत्यर्थः। मानाश्रवमाह-अनम्रतेति । मानोऽनम्रता, अप्रणतिस्तजन्याश्रव इत्यर्थः। स च श्रुतजात्यादिगर्वावलम्बना- 20 द्भवति । मायाश्रवमाचष्टे-कापटयेति । माया कापट्यं परविप्रलम्भः, छमप्रयोगस्तजन्यः शुभाशुभाध्यवसायो वा जीवक्रियाविशेषो वा मायाश्रव इत्यर्थः । लोभाश्रवमभिधत्तेसन्तोषेति । लोभः सन्तोषशून्यता तृष्णापिपासाभिष्वङ्गास्वादलक्षणस्तजन्यः शुभाशुभाध्यवसायो वा क्रियाविशेषो वा लोभाश्रव इत्यर्थः । विभागवाक्ये, एत एव कषायचतुष्कपदेन ग्राह्या इत्याहेतीति ॥ अधुना हिंसाश्रवमाह Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे प्रमादिकर्तृकप्राणवियोगजन्याश्रवो हिंसाश्रवः ।। प्रमादिकर्तु केति । प्रमादिपुरुषकर्तृको यः प्राणवियोगस्तजन्याश्रवो हिंसाश्रव इत्यर्थः। कषायविकथेन्द्रियनिद्राऽऽसवैः प्रमादमुपगतः प्रमादी, तत्र षोडशविधाः कषायास्तत्परिणत आत्मा प्रमादी स्त्रीभक्तजनपदराजवृत्तान्तप्रतिबद्धा विकथा, रागद्वेषाविष्टचेताः घ्यादिविक5 थापरिणतः प्रमादी, स्पर्शनादीन्द्रियद्वारकरागद्वेषसमासादितपरिणामविशेष आत्मा प्रमादी दर्शनावरणकर्मोदयजन्यपञ्चविधनिद्रापरिणामविशिष्ट आत्मा प्रमादी । आसवो मद्यं मधुवारशीधुमदिरादि, तदभ्यवहाराद्विह्वलतामुपेतः प्रमत्तः। प्रमादिकर्त्तकः, प्रमत्तव्यापारजन्यः। प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि आयुःकायवाङ्मनःप्राणापानाश्चेति द्रव्यपरिणामरूपा दशविधा यथासंभवं जीवेष्ववस्थिताः, तेषां वियोग आत्मनः पृथक्करणं, तज्जन्याश्रव इति भावः । 10 प्राणिनः स्वतो निरवयवत्वेन पृथक्करणासम्भवात् प्राणवियोग इत्युक्तम् , तथा च प्राणवियो गपूर्वकः प्राणिवियोग इति तात्पर्यम् । न च प्राणानामात्मनोऽन्यत्वेन तद्वियोगे नात्मनः किञ्चिद्भवतीत्यधर्माभाव इति वाच्यम् , जीवस्य तत्सम्बन्धिनः प्राणवियोगे दुःखोत्पाददर्शनात्। शरीरिणोऽन्यत्वेऽपि पुत्रकलत्रादिवियोगे सन्तापदर्शनात् । बन्धापेक्षया कथञ्चिच्छरीरशरीरिणोऽनन्यत्वाच्च । केवलं प्राणवियोगमात्रस्य हिंसात्वाभावात्प्रमादिपुरुषकर्त्तकेत्युक्तम् । 15 तथा च प्रमत्त एव हिंसको नाप्रमत्त इति प्रतिपादितम् । प्रमत्तो ह्याप्तागमनिरपेक्षो दूरो त्सारितपारमर्षसूत्रोद्देशः स्वच्छन्दप्रभावितकायादिवृत्तिरज्ञानबहुलः प्राणिप्राणापहारमवश्यन्तया करोति । तत्र सोऽयं प्राणवियोगो हिंसापरनामा द्रव्यभावभेदेन द्विविधः, अत्र चतुर्भेदाः, कदाचिद्रव्यतः प्राणातिपातो न भावतः, कदाचिद्भावतो न द्रव्यतः, कदाचिद्रव्यतो भावतश्च । कदाचिच्च न द्रव्यतो न वा भावत इति । यो हि ज्ञानी श्राद्धः स्वीकृतजीवस्व20 तत्वः कर्मक्षपणार्थ प्रवृत्तचरणसम्पत् काश्चिद्धर्मक्रियामधितिष्ठन् प्रवचनमातृभिरनुगृहीतः पादन्यासमार्गावलोकितपिपीलिकादिसत्त्वः समुत्क्षिप्तं चरणमक्षेप्तुमसमर्थः कदाचित् पिपीलिकादेरुपरि पादं न्यस्यति, उत्क्रान्तप्राणश्च प्राणी भवति तदास्यात्यन्तशुद्धाशयस्य दयादत्तावधानविमलचेतसः द्रव्यप्राणव्यपरोपणमात्रान्नास्ति हिंसकत्वम् । द्वितीये व्याधस्य प्रम त्तस्याकृष्टधनुषो लक्ष्यमृगमुद्दिश्य विसर्जितशिलीमुखस्य कदाचिच्छरपातस्थानादपसृते सारङ्गे 25 चेतसोऽशुद्धत्वाद् द्रव्यतोऽविनष्टेष्वपि प्राणिषु व्याधस्य हिंसारूपेण परिणतत्वाद्भवत्येव भावतो हिंसा । तृतीये तत्रैव मृगो यदा म्रियते तदा द्रव्यभावाभ्यां हिंसकत्वम् । चतुर्थे तु शैलेशीकरणवर्तिनस्सिद्धाश्च, तेषां योगाभावेन द्रव्यभावहिंसाऽसंभवादतो द्वितीये तृतीय एव कल्पे हिंसकत्वं न प्रथमचतुर्थयोरिति दिक् ।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तेयांश्रवः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते असत्यावं लक्षयति - अयथावद्वस्तुप्रवृत्तिजन्याश्रवोऽसत्याश्रवः ॥ अयथावदिति । अयथावद्वस्तुप्रवृत्तिर्नाम-ये पदार्था यथार्था न भवन्ति तेषु यथार्थतया वाकायमनसां प्रवर्त्तनम् , तज्जन्य आस्रव इत्यर्थः । अत्र प्रवृत्तिग्रहणेन कायजन्यानां . पाणिनेत्रौष्ठपादाद्यवयवक्रियाणां अलीकानां परवचनोपयुक्तानां, वाग्जन्यानां असद्वचनानां, 5 मनोजन्यानामसद्विचाराणाञ्च सङ्ग्रहः । ज्ञानग्रहणेन वचनग्रहणेन वाऽन्यतमस्य सङ्ग्रहः स्यान्न तु सर्वेषाम् । नास्त्यात्मा, नास्ति परलोकः, इत्यादिवचनानि, श्यामाकतन्दुलप्रमाणोऽङ्गुष्ठपर्वमात्रप्रमाणो वा आदित्यवर्णो निष्क्रियो वाऽयमात्मेत्यादिवचनानि, अश्वं यो गां ब्रवीति गामश्वमेतादृशान्यपि वचनानि, हिंसापारुष्यारुन्तुदवचांसि च शास्त्रगर्हितत्वेनायथावद्वस्तुविषयकाण्येवेति न क्वाप्यव्याप्तिरप्रशस्तार्थत्वादिति ॥ 10 स्तेयाश्रवं निरूपयति स्वाम्यवितीर्णपदार्थस्वायत्तीकरणजन्याश्रवः स्तेयाश्रवः । स्वामीति । स्वामिनाऽवितीर्णानां पदार्थानां यत्स्वायत्तीकरणं तज्जन्याश्रव इत्यर्थः । स्वामिपदं जीवतीर्थंकरगुरूणामुपलक्षकं, तेन स्वामिनाऽदत्तस्य तृणादेः, जीवेनादत्तस्य वा पुष्पफलादेस्तीर्थकरप्रतिषिद्धस्याधाकर्मिकाहारादेः, गुरुभिरननुज्ञातभोज्यादीनामपि सङ्ग्रहः । 15 न चाष्टविधं कर्मान्येनादत्तं ग्रहीतुः स्तेयत्वं स्यादिति वाच्यम् , दानादानप्रवृत्तिनिवृत्तियोग्यवस्तुष्वेव तदुपपत्त्या कर्मण्यसम्भवात् । अन्यथा स्वाम्यवितीर्णेतिपदस्य वैयर्थ्यापत्तेः, कर्मणः सूक्ष्मत्वेन करादिना ग्रहणविसर्जनासम्भवाच्च । न च कथं तर्हि शुभाशुभकर्मणामादानं सङ्गच्छत इति वाच्यम् , शरीराहारशब्दादिविषयेषु रागद्वेषादिपरिणामेन कर्मबन्धस्यैवाऽऽदानरूपत्वात् । न च नित्यकर्मबन्धप्रसङ्ग इति वाच्यम् , गुप्त्यादिभिस्संवरणात् । स्वामिनेति पदेन 20 केनाप्यपरिगृहीतस्य ग्रहणं स्तेयमिति व्युदस्तं, अपरिगृहीतस्य शास्त्रेणानुज्ञातस्य पदार्थस्य ग्रहणे शासने स्तेयत्वानुक्तेः, ननु शास्त्रस्य परत्वाभावात् परप्रदत्तानेषणीयादेहणे कथं स्तेयत्वमिति चेन्मैवम् , शास्त्रं हि ज्ञानमात्मपरिणामविशेषः, परिणामपरिणामिनोरभेदेन च शास्त्रस्यापि परत्वं निष्प्रत्यूहमेव ॥ १. आदानं हि ग्राह्यधार्यद्रव्यविषयत्वाव्यैकदेशविषयं, नतु निखिलद्रव्यविषयं, ग्रहणधारणयोग्यश्च बादरपुदलस्कन्धरूपं द्रव्यं शरीराणि च साक्षात् , तद्वारा च जीवा नतु धर्मादयोऽविषयपुद्गला वा इति भावः। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११० : तवयायविभाकरे [ षष्ठकिरणे अब्रह्माश्रवमाह - सति वेदोदये औदारिकवैक्रियशरीरसंयोगादिजन्याश्रवोऽब्रह्माश्रवः ॥ 1 सति वेदोदय इति । वेदोदये सति औदारिक वैक्रियशरीर संयोगादिजन्यत्वे सति आश्रवत्वं लक्षणम् । आदिना पारस्परिकेक्षणवचनचिन्तनानां ग्रहणम् । वेदमोहोदयविरहि5 तेनानुष्ठितवन्दनादिकालीनशरीर संयोगस्यास्त्र वनिमित्तत्वाभावसूचनाय वेदोदये सतीति । दैवमैथुनाश्रवसंग्रहाय वैक्रियेति । मानुषाद्यब्रह्म संग्रहायौदारिकेति । मैथुनस्य स्त्रीपुंयोग एव प्रचुरप्रयोगात् कर्म्मप्रयुक्त पुरुषद्वयादिविलक्षणसंयोगजन्याश्रवेऽव्याप्तिस्स्यादिति मैथुनशब्दं विहाय सामान्यतः शरीरसंयोग एवोक्तः । तेन स्त्रीपुंसयोः पुरुषयोः स्त्रियोश्च संयोगस्य विलक्षणस्य लाभः | अत्र वेदोदयवतोऽपि सतोऽन्यथा पुरुषादिसंयोगेऽब्रह्माश्रवप्रसङ्गवार10 णाय वेदोदये सतीत्यस्य वेदोदयप्रयुक्तत्वमर्थः, अन्वयश्चास्य संयोगे, उक्तसंयोगस्य वेदोदयप्रयुक्तत्वाभावान्न दोषः । न चैकस्य हस्तादिसंघट्टनादितोऽब्रह्माश्रवो न स्यादिति वा - च्यम्, स्त्रीपुंसयो रत्यर्थे संयोगे परस्परकृतस्पर्शाभिमानादिवात्रापि करादिसंघट्टनात् स्पर्शाभिमानस्य तुल्यत्वात् । यथैकस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात्सद्वितीयत्वं तथैकस्यापि वेदमोहोदयाविष्कृतकामपिशाच वशीकृतत्वात्सद्वितीयत्वसिद्धेश्व ॥ 15 अथ परिग्रहाश्रवमाख्याति— द्रव्यादिविषयाभिकाङ्क्षाजन्याश्रवः परिग्रहाश्रवः । इत्यव्रतपञ्चकाश्रवः ।। द्रव्यादीति । बाह्यानां चेतनाचेतनानां रागादीनामाभ्यन्तराणामुपधीनां च संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणव्यापृतिर्द्रव्यादिविषयाभिकाङ्क्षा लोभपरिणतिरूपा विवेकभ्रंशिका तज्जन्याश्रव इत्यर्थः । तत्र बाह्यो विषयो वास्तुक्षेत्र धनधान्यशय्यासनयानकुप्य द्विचतुःपाद्भाण्डादिः, 20 आभ्यन्तरश्व रागद्वेषक्रोधमानमायालोभमिथ्यादर्श नहास्य रत्यरतिभयशोकजुगुप्सावेदाख्यचतुर्दशविधः, आदिनोपधीनां ग्रहणम् । न च यथाssध्यात्मिकरागादौ जीव परिणामस्वरूपे सङ्गः परिग्रह इत्युच्यते तथैव ज्ञानदर्शनचारित्रेष्वपि सङ्गः परिग्रहः स्यादिति वाच्यम् ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमत्तस्य मोहाभावेन परिग्रहासम्भवात् ज्ञानादीनामहेयत्वेनात्मस्वभावानतिवृत्त्याऽपरिग्रहत्वाच्च । कर्मोदयतन्त्रत्वेन रागादीनामनात्मस्वभावत्वात् । शास्त्रसम्मतेषु 25 चारित्रोपयोग्युपधिशय्याहारादिषु काङ्क्षाया आश्रवा हेतुत्वेन रागद्वेषमोहाभिप्रायकमभीतिपदम् । द्रव्यपदं द्रव्यक्षेत्र कालभावात्मकचतुर्विधपरिग्रहसूचकम् । इमे हिंसाद्याश्रवा विभागवाक्येs व्रतपकपदबोध्या इत्याहेतीति ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनश्रवः ] अधुना कायाश्रवमाह - न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १११ : शरीरचेष्टाजन्याश्रवः कायाश्रवः ॥ शरीरेति । शरीरपदमौदारिका दिकाय सप्तकान्यतमपरं यथौदारिककाययोग औदारिकमिश्र काययोगो वैक्रियकाययोगो वैक्रियमिश्रकाययोग आहारककाययोग आहारकमिश्रकाययोगः कार्मणकाययोगः, तत्र प्रथमद्वितीयौ तिर्यङ्मनुष्याणामेव, केवलि समुद्धातकाले चाद्यः प्रथमाष्टमसमययोरिष्टः, द्वितीयः केवलिसमुद्धाते द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु, तृतीयों नारकदेवानां तिर्यङ्मनुष्याणाञ्च विभूतिप्राप्तानाम्, चतुर्थ औदारिकेण सह ग्रहणकाले, देवनारकयोस्त्वपर्याप्तावस्थायाम् कार्मणेन सह, पञ्चम ऋद्धिप्राप्तस्य साधोरेव, षष्ठ औदारिकेण संह ग्रहणकाले, सप्तमः पुनर्विग्रहसमापत्तौ केवलिसमुद्धाते वा त्रिचतुर्थ पञ्चमसमयेषु भवति । तत्र यथासम्भवमेभिर्जन्याश्रवः कायाश्रव इति भावः ।। अथ वागावं प्रतिपादयति 10 वाक्क्रियाजनिताश्रवो वागाश्रवः ॥ वागिति । शरीरनामकर्मोदयाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिनिमित्तकाभ्यन्तरवाग्लब्धिसान्निध्ये सति वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनो वाग्वर्गणालम्बनापेक्ष प्रदेशपरिस्पन्दप्रभवाश्रव इत्यर्थः । तत्र वाग्योगश्चतुर्धा सत्यो यथा पापाद्विरमणीयमिति, असत्यो यथा पापं नाम 15 नास्ति किञ्चिदिति, सत्यानृतो यथा इमा गावश्चरन्तीति, अत्र पुंसामपि सम्भवात्, असत्यामृषा यथा हे देवदत्त ! ग्रामं गच्छेत्यादि ॥ सम्प्रति मनआश्रवं प्ररूपयति मनश्चेष्टाजन्याश्रवो मनआश्रवः । इति योगत्रिकाश्रवः ॥ नष्टेति । वीर्यान्तरायानिन्द्रियावरणक्षयोपशमादिमनोलब्धिसन्निधाने मनोवर्गणा - 20 लम्बनापेक्ष परिणामोन्मुखात्म प्रदेशपरिस्पन्दप्रसूताश्रव इत्यर्थः । तत्रैकेन्द्रियाणां काययोगों वाङ्मनोव्यापाराभावात्, द्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां कायवाग्योगौ, संज्ञिपश्चेन्द्रि १. वैक्रियमिश्रं ह्यौदारिकेण कार्मणेन वा सह भवति, तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरं पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणाञ्च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेण मिश्रमिति भावः ॥ २० सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविदः आहारकं परित्यज्य औदारिकमुपाददानस्याssहारकं प्रारभमाणस्य वा भवतीति भावः ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वम्यावधिमाकरे पकिरने याणां मनोवाक्काययोगाः, उपशान्तकषायक्षीणमोहयोश्च मनोवाक्काययोगाः प्रश्नमन्तरेण केवलिनो वाकाययोगौ इत्येवं यथासम्भवं समुदिताः कायादयः कचित् क्रियाहेतवः कचिच्चैकैका अपीति बोध्यम् । एत एव विभागवाक्ये योगत्रिकपदवाच्या इत्यभिप्रायेणाह इतीति ॥ अथेन्द्रियकषायावतैः संकीर्णाश्शुद्धा वा क्रिया एकास्रवत्वं प्रतिपद्यन्ते ताश्चात्मनः 5 समिथ्यात्वकषायकर्मणः क्रियारूपाः परिणामाः पञ्चविंशतिरेवेति ताः क्रमेण व्याचिख्यासराद्यां कायिकीनामक्रियामाह अनुपरतानुपयुक्तभेदभिन्ना कायजन्यचेष्टा कायिकी । - अनुपरतेति । कायेन निर्वृत्ता क्रिया कोयिकी, साऽनुपरतानुपयुक्तभेदतो द्विधा, अनु परतकायिकी नाम प्रदुष्टमिथ्यादृष्ट्यादेः वाङ्मनोनिरपेक्षा पराभिभवाद्यात्मककायोद्यमक्रिया, 10 स्वामी त्वविरतमिथ्यादृष्ट्यादिः, अनुपयुक्तकायिकी नाम प्रमत्तसंयतस्य सुबहुप्रकाराऽनेककर्तव्यतारूपा दुष्प्रयोगकायक्रिया, अस्या अधिकार्यनुपयुक्तसंयत इति भावः ॥ आधिकरणिकीमाहसंयोजननिर्वर्तनभेदभिन्ना नरकादिप्राप्तिहेतुर्विषशस्त्रादिद्रव्यजनिता चेष्टा आधिकरणिकी ॥ 15 संयोजनेति । अधिक्रियते येनाऽऽत्मा दुर्गतिप्रस्थानं प्रति तदधिकरणं परोपघातिकूट गलपाशादिद्रव्यजातं, तेन निर्वृत्ताऽऽधिकरणिकी, द्विविधा सा संयोजननिर्वर्तनभेदात् । संयोजनं विषगरलहलकूटधनुयंत्रासिमुष्ट्यादीनां सम्बन्धनम् । निर्वर्तनं मूलोत्तरगुणभेदात् द्विधा । तत्र मूलगुणनिर्वर्तन, पश्चानामौदारिकादिशरीराणां मूलतो निष्पादनं, उत्तरगुणनिर्वर्तनन्तु पाणिपादाद्यवयवकरणम् । अथवाऽसिशक्तितोमरादीनामादित एव करणं मूल20 गुणनिवर्तनम् । तेषामेव पानोज्ज्वलीकरणपरिवारादिसंपादनमुत्तरगुणनिर्वर्तनम् । विषश नादिद्रव्यजनितेति पदं द्रव्याद्रव्येषु वा जनितेति विग्रहभेदेन संयोजननिर्वर्तनार्थवर्णनपरमेवेति बोध्यम् । नवमगुणस्थानं यावद्भवत्येषा क्रिया । प्रादोषिकी क्रियामाह १. कायिक्यां सत्यामवश्यमाधिकरणिकी, कायस्याप्यधिकरणत्वात्, तस्या अपि कायिक्याः प्रद्वेषमन्तरेणासंभवेन प्राद्वेषिक्याऽपि सह परस्परमविनाभावः, पारितापनिक्यास्सत्त्वे तिसृणामाद्यानामवश्यंभावः, एवं प्राणातिपातिक्यास्सत्त्वे चतसृणामवश्यंभावो विज्ञेयः । तत्र कस्यापि जीवस्याद्यत्रिक्रियत्वं कस्याप्याद्यचतुःक्रियत्वं कस्यापि च पञ्चक्रियत्वं भाव्यम् ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्रिया ] याप्रकाशसमलङ्कृते जीवाजीवविषयक द्वेषजनकक्रिया प्रादोषिकी ॥ #40: जीवाजीवेति । प्रकृष्टो दोषः प्रदोषः क्रोधादिस्तत्र भवा, सा द्विविधा जीवप्रादोषिकी, अजीव प्रदोषकी चेति, आद्या पुत्रकलत्रादिस्वपरजनविषया, द्वितीया क्रोधोत्पत्तिनिमित्तभूतस्थाणुकण्टकदृषच्छकलशर्करादिगोचरेति भावः, आनवमगुणस्थानमेषा । अस्या एव प्राद्वेषिकीत्यपि नामान्तरमेतत्सूचनायैव मूले क्रोधेत्यनुक्त्वा द्वेषपदोपादानम् || पारितापनिक वक्ति- 5 स्वपरसन्तापहेतुः क्रिया पारितानिकी || स्वपरेति । इयमपि स्वपरपरितापहेतुकत्वेन द्विविधा । तत्र स्वहस्तेन परहस्तेन वा पुत्रकलत्रादिवियोग दुःखभारातिपीडितस्यात्मनस्ताडनशिरस्फोटनादिना स्वपारितानिकी । पुत्रशिष्यादिताडनादिना परपारितानिकी, एषा चानिवृत्तिबादरगुणस्थानं यावत् ॥ प्राणातिपातिक निरूपयति स्वपर प्राणवियोगप्रयोजिका क्रिया प्राणातिपातिकी ॥ स्वपरेति । प्राणातिपातः प्राणिविनाशनं तत्प्रधाना क्रिया प्राणातिपातिकी । सा द्विविधा स्वहस्तेन परहस्तेन च, गिरिशिखरपातजलज्वलनप्रवेशशस्त्रपाटनप्रभृतेः स्त्रपरहस्ताभ्यामात्मविषयकरणकारणे | मोहलोभक्रोधाविष्टैः परस्य स्वपरहस्त प्राणच्यावनमिति | आपश्चम- 15 गुणस्थानं यावदियम् ॥ आरम्भिकीमाचष्टे - १. आरम्भिकीसत्त्वे पारिग्रहिक्यास्सत्त्वमसत्वं वा, अस्यास्सत्त्वेऽत्वारम्भिको स्यादेव, आरंभिकीसत्त्वे नियमेन मायाप्रत्ययिकी स्यात्, वैपरीत्येन तु न नियमः । आरम्भिकीसत्त्वे मिथ्यादर्शनप्रत्ययिक्य प्रत्याख्यानिक्योर्न नियमः, वैपरीत्येन तु नियमः ॥ १५ 10 जीवाजीवभेदभिन्ना जीवाजीवघातात्मिका चेष्टाssरम्भिकी ॥ जीवाजीवेति । आरम्भः पृथिव्यादिकायोपघातलक्षणः शुष्कतृणादिच्छेदलेखनादिर्वा तत्र भवा क्रियाऽऽरम्भिकी । जीवेतरविषयेयम् । जीवमात्रश्य जीवेन स्वपरहस्तादिना अजी- 20 वेन दण्डादिना योऽयं घातः प्राणवियोगरूपः, तथाऽजीवस्या लेख्यादौ स्थापनाद्यात्मक चेतनावियुतस्य जीवेन स्वपररूपेणाजीवेन दण्डशस्त्रादिरूपेण योऽयं घातः - विनाशस्तदात्मिका क्रियेत्यर्थः । षष्ठगुणस्थानमेषा ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरः ....बच्छकिरणे पारिग्रहिकीमभिधत्ते जीवाजीवविषयिणी मूर्छानिवृत्ता क्रिया पारिग्रहिकी ॥ जीवाजीवेति । जीवाजीवविषयकमूर्छानिवृत्तक्रियात्वं लक्षणम् । विविधोपायैरर्थोपाजनरक्षणमूर्छापरिणामः परिग्रहस्तत्र भवा पारिग्रहिकी। इयञ्च जीवाजीवभेदेन द्विविधा । 5 औपश्चममसौ॥ मायाप्रत्ययिकीमभिधत्ते___ मोक्षसाधनेषु मायाप्रधाना प्रवृत्तिर्मायाप्रत्ययिकी । मोक्षसाधनेति । मोक्षसाधनविषयकमायिकप्रवृत्तित्वं लक्षणम् । मोक्षसाधनेषु ज्ञाना. दिषु स्वपरवश्वनाभिलाषुकस्य या मायाहेतुका चेष्टा सेत्यर्थः । सप्तमगुणस्थानं यावदियम् ॥ 10 मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकीमाह-- अभिगृहीतानभिगृहीतभेदभिन्ना अयथार्थवस्तुश्रद्धानहेतुकव्यापारवती क्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी ॥ अभिगृहीतेति । मिथ्यादर्शनं विपरीततत्त्वप्रतिपत्तिरूपं प्रत्ययः कारणमस्या इति _ विग्रहः। तत्राभिगृहीता जीवादीनां हीनाधिकपरिमाणादिप्रख्यापकदर्शनानुमन्तृपुरुषविषयिणी, 15 अनभिगृहीता कुदृष्टिमताविश्वस्तजीवविषयिणी, अभिगृहीतभिन्नत्वबोधकेनानभिगृहीतपदेन तृतीया संदिग्धापि ग्राह्या, सा च शास्त्रैकाद्यक्षरविषयकसंशयप्रभवा । अयथावद्वस्तुश्रद्धानमेव हेतुर्यस्य व्यापारस्य तादृशव्यापारवती तादृशव्यापाराभिन्नव्यापारप्रयोजिका या क्रिया अनुमोदनाद्यात्मिका सेत्यर्थः । विपरीततत्त्वप्रतिपत्त्यादौ हि अनुमोदनादिकं अयथार्थवस्तु श्रद्धानवानेव करोति कारयति चेति भावः । आतृतीयमसौ ॥ 20. अप्रत्याख्यानिकीमाह-:... . जीवाजीवविषयिणी विरत्यभावानुकूला क्रिया प्रत्याख्यानिकी । जीवाजीवेति । संयमविघातकारिकषायादीनां न प्रत्याख्यानं परिहारो यस्यां साऽप्रत्या १. पारिग्रहिकीसत्त्वे आरम्भिकोमायाप्रत्ययिक्योर्नियमेन सत्त्वम् , मिथ्यादर्शनप्रत्ययिक्यप्रत्याख्यानिक्योस्तु न नियमः । यस्य च मायाप्रत्ययिकी तस्य मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी म्यान्नवा । अनयोश्च सत्त्वे मायाप्रत्ययिकी नियमतो वर्तते । अप्रत्याख्यानिकीसत्त्वे तु मिथ्यादर्शनप्रत्ययिक्या एवानियमो बोध्यः ॥ २. इयमप्रमत्तस्य कदाचित्प्रवचनमालिन्यरक्षणार्थ भवति, न शेषकाल इति ॥" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामन्तोपनिपातिकी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ११५: ख्यानिकी । जीषः प्राणी, अजीवो जीवेतरस्तौ विषयौ यस्याः सा, विरत्यभावोऽप्रत्याख्यातपापकर्मणस्तदनुकला क्रियाऽप्रत्याख्यानिकीत्यर्थः । संयमघातिकर्मोदयवशान्निवृत्त्यभावानुकूलक्रियेति भावः । चतुर्थगुणस्थानं यावदेषा ।। दृष्टिकी निरूपयतिप्रमादिनो जीवाजीवविषयदर्शनादरात्मिका क्रिया दृष्टिकी॥ 5 प्रमादिन इति । दृष्टिरेव दृष्टिकी, रागादिकलुषितस्य जीवाजीवावलोकनम् । जीवाजीवास्तुरङ्गस्यन्दनप्रभृतयस्तद्विषयकं यद्दर्शनं तत्रादरात्मिका प्रमादिनः क्रियेत्यर्थः । प्रमादिन इतिपदेनाप्रमादिकर्तकदर्शनादरस्य व्युदासः, तथा च प्रमादप्रयुक्तजीवाजीवविषयकदर्शनादरक्रियात्वं लक्षणम् । न चेन्द्रियाश्रवे गतार्थत्वादस्याः पृथग्ग्रहणं निरर्थकमिति वाच्यम् , पूर्वत्रेन्द्रियविज्ञानग्रहणात् , इह तु तत्पूर्वकपरिस्पन्दग्रहणाददोषात् । षष्ठगुण- 10 स्थानं यावदसौ ॥ स्पृष्टिकीमभिदधाति सदोषस्य जीवाजीवविषयकं स्पर्शनं स्पृष्टिकी ॥ सदोषस्येति । प्रमादिन इत्यर्थः । रागद्वेषमोहाकुलितचेतसो योषिदाद्यङ्गस्पर्शनक्रियेत्यर्थः । दोषप्रयुक्तजीवाजीवसम्बन्धिस्पर्शनक्रियात्वं लक्षणम् । दोषप्रयुक्तत्वविशेषकृत्यं 15 प्राग्वत् । आषष्ठमसौ॥ प्रातीत्यिकीमाख्यातिप्रमादात् प्राक्स्वीकृतपापोपादानकारणजन्यक्रिया प्रातीत्यिकी ॥ प्रमादादिति । प्रतीत्य पूर्वपापोपादानकारणमधिकरणमाश्रित्य निष्पन्ना क्रिया । प्रमादप्रयुक्तप्राक्स्वीकृतपापोपादानकारणजन्यक्रियात्वं लक्षणम् । आपञ्चममियम् ॥ .. सामन्तोपनिपातिकीमाह- -- कारुण्यवीरबीभत्सादिरसप्रयोक्तृणां प्रेक्षकाणाश्च सानुरागिणां नाव्यादिजन्या क्रिया सामन्तोपनिपातिकी ।। कारुण्येति । नैकविधनाटकादिषु कारुण्यादिरसप्रयोक्तृणां नाट्यादिकर्तृणां, अनुरागेण प्रेक्षकाणाञ्च नाट्यादिजन्या क्रिया, स्त्रीपुरुषपशुसम्पातदेशेऽन्तमलोत्सर्गकरणं वा, स्वकीये 2 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११६ : 'तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे भ्रातृपुत्र शिष्यादौ, अजीवे स्वप्रतिमादौ समन्ततः सर्वदिग्भ्य आगत्य स्तुतिका रकलोकैः स्तूयमाने या तुष्टिः प्रमोदः सा पुनः सामन्तोपनिपातिकीत्यर्थः । समन्तात्सर्वत उपनिपतनमुपनिपात आगमनं ख्यादीनां संपात्यसत्त्वानां वा यत्र देशे भोजनादौ वा स समन्तोपनिपातस्तत्र भवा क्रिया सामन्तोपनिपातिकी । आपश्चममेषा ॥ 5 नैःशस्त्रिकी लक्षयति `यन्त्रादिकरणकजलनिस्सारणधनुरादिकरणकशरादिमोचनान्यतर रूपा क्रिया नै:शस्त्रिकी ॥ यन्त्रादीति । राजाद्यनुज्ञया यन्त्रादिद्वारा कूपादिभ्यो जलादीनां निष्कासनं धनुरादि द्वारा वा शरादीनां मोचनमित्यर्थः । मनुष्यादीनामिष्टकाशकलादीनाञ्च यन्त्रादिभिः कोट्टा10 दिरक्षार्थादिविधीयमानतथाविधदार्वादिनिष्पादितैर्गोफणादिभिश्च निसर्जनं मोचनं नै:शस्त्रिकी सृष्टिकीत्यपरनाम्नी क्रियेत्यर्थः । आपञ्चमं भवत्येषा ॥ स्वाहस्तिकीमाह— सेवकयोग्यकर्मणां क्रोधादिना स्वेनैव करणं स्वाहस्तिकी ॥ सेवक योग्येति । क्रोधादिना गाढाभिमानादिनाऽन्यपुरुष प्रयत्ननिर्वक्रियायाः स्वेनैव 15 करणम्, जीवाजीवाभ्यां जीवस्य मारणं, स्वहस्तेन जीवाजीवयोस्ताडनं वा, स्वाहस्तिकी - त्यर्थः । आपचममेषा ॥ आज्ञापनिकीमाचष्टे अर्हदाज्ञोलङ्घनेन जीवादिपदार्थनिरूपणजीवाजीवान्यतरविषयकसावद्याज्ञाप्रयोजक क्रियान्यतररूपाऽऽज्ञापनिकी ॥ 20 25 अर्हदिति । भगवदत्प्रणीताज्ञोल्लङ्घनेन स्वमनीषया जीवादिपदार्थानां निरूपणम्, जीवस्य 1 वाजीवस्य वा सावद्येष्वाज्ञापनम् । अर्हत्प्रणीताज्ञानिरपेक्षस्वातंत्र्यप्रयुक्तपदार्थनिरूपणजीवाजीवान्यतरविषयक सावद्याज्ञापनान्यतरत्वे सति क्रियात्वं लक्षणम् । अस्या एव च नयनक्रिया आनयनिकीति च नामान्तरम् । पश्चमगुणस्थानं यावदेषा । आद्यपक्षे तु प्रथममेव ॥ विदारणिकीमाह - पराssवरिताप्रकाशनीयसावद्यप्रकाशकरणं विदारणिकी ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामुदायिकी ] न्यायप्रकाशसमलते . पराऽऽचरितेति । परैराचरितानामप्रकाशनीयानां सावद्यानां प्रकाशकरणमित्यर्थः। जीवानामसद्भिर्गुणैरीदृशस्त्वं तादृशस्त्वमित्येवं वर्णनं, अजीवानां वेदृशमेतदिति प्रतारणबुद्धया भणनमित्यपि विदारणिकी । षष्ठगुणस्थानं यावदसौ ॥ अनाभोगप्रत्ययिकी निरूपयतिअनवेक्षितासंमार्जितप्रदेशे शरीरोपकरणनिक्षेपोऽनाभोगप्रत्ययिकी॥ 5 अनवेक्षितेति । अनवलोकिते रजोहरणेनाप्रमार्जिते देशे शरीराणां गमनागमनोल्लकनादिभिरुपकरणानामुपध्यादीनाश्च निक्षेपणं स्थापनमित्यर्थः । आभोग उपयोगस्तद्विपरीवोऽनाभोगस्तेनोपलक्षिता क्रियाऽप्यनाभोगा न विद्यते वाऽऽभोगो यस्यां सा अनाभोगा क्रिया, आद्वादशमसौ ॥ अनवकाङ्क्षप्रत्ययिकीमाह- . 10 जिनोदितकर्त्तव्यविधिषु प्रमादादनादरकरणमनवकाङ्क्षप्रत्ययिकी ॥ जिनोदितेति । अवकाङ्क्षा स्वपरयोरपेक्षणं सा न भवतीत्यनवकाला सा प्रत्ययः कारणं यस्यास्साऽनवकाङ्क्षप्रत्यया सैवानवकाङ्कप्रत्ययिकी, जिनोक्तकर्त्तव्येषु विधिषु प्रमादादिहपरलोकापेक्षयाऽनादरकरणमित्यर्थः । प्रमादप्रयुक्तजिनविहितकर्त्तव्यविधिविषयकानादरक्रियात्वं लक्षणार्थः । इहलोके परलोके च यानि विरुद्धानि तानि यो भजते तस्यापीयं क्रिया कथि- 15 तेति बोध्यम् । षष्ठं यावदियम् ॥ प्रायोगिकीमाचष्टे आर्तरौद्रध्यानानुकूला तीर्थकृद्विगतिभाषणात्मिका प्रमादगमनात्मिका च क्रिया प्रायोगिकी ॥ आर्तेति । प्रयोगस्य-धावनवल्गनादिकायव्यापारहिंस्रपरुषानृतभाषणादिवाग्व्यापा- 20 राभिद्रोहेाभिमानादिमनोव्यापाररूपस्य करणं प्रायोगिकी । आर्त्तरौद्रध्यानानुकूलेति मनोव्यापारः, तीर्थकृद्विगर्हितभाषणात्मिकेति वाग्व्यापारः, प्रमादगमनात्मिकेति कायव्या-: पारः सूचितः। आपञ्चममियम् ॥ सामुदायिकी निरूपयति इन्द्रियस्य देशोपघातकारिसर्वोपघातकार्यन्यतररूपा क्रिया सामु- 25 दायिकी॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११८ : तत्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे इन्द्रियस्येति । इन्द्रियसम्बन्धिदेशविघातकारि सर्वविघातकारिक्रियात्वं लक्षणम् । अस्याः समादानक्रियेत्यपि नामान्तरम् । यावत्पञ्चम गुणस्थानमेषा ॥ प्रेमप्रत्ययिक लक्षयति पररागोदयहेतुः क्रिया प्रेमप्रत्ययिकी ।। 5 पररागेति । येन वाग्व्यापारेण परस्य रागोदयस्सा क्रियेत्यर्थः, प्रेमोत्पादकवाणीव्यवहारो वा प्रेमप्रत्ययिकी क्रिया । षष्ठगुणस्थानं यावदियम् ॥ द्वेषप्रत्ययिकीमभिधत्ते 10 क्रोधमानोदयहेतुः क्रिया द्वेषप्रत्ययिकी ॥ क्रोधेति । स्वस्य परस्य वा क्रोधमानयोरुत्पादिका क्रियेत्यर्थः । आषष्ठं भवत्येषा ॥ ईर्यापथिकीमाख्याति— अप्रमत्तसंयतस्य वीतरागच्छद्मस्थस्य वा सोपयोगं गमनादिकं कुर्वतो या सूक्ष्मक्रिया सेर्यापथिकी । इति क्रियापञ्चविंशतिः ॥ समाप्तमाश्रवतत्त्वम् ॥ अप्रमत्तसंयतस्येति । ईरणमीर्या गमनं सैव पन्था मार्गे यस्य तदीर्यापथं, गमनादि - 15 द्वारकं कर्म, तस्य बध्यमानस्य वेद्यमानस्य वा निमित्तभूता या क्रिया सा निमित्तनिमित्तिनोरभेदोपचारादीर्यापथिकी क्रिया । सा च केवलयोगप्रत्ययबन्धरूपा । शैलेश्यवस्थाऽर्वावर्तिकेवलिनां छद्मस्थवीतरागाणाञ्च भवतीति भावः । इयञ्च सयोगिगुणस्थानं यावद्भवति, इमा एव विभागवाक्ये क्रियापञ्चविंशतिपदेनोक्ता इत्याहेतीति । एतासु प्रेमद्वेषप्रत्ययक्रियास्थाने सम्यक्त्वमिध्यात्वक्रिये तत्त्वार्थ भाष्यकारेणोक्ते, तयोश्च या शुद्धमिथ्यात्व मोहदलिका20 नुभवप्रवृत्तप्रशमादिलिङ्गगम्यजीवादिपदार्थविषयक श्रद्धारूपा, जिनसिद्धगुरूपाध्याययतिजनयोग्यपुष्पधूपप्रदीपचामरातपत्रनमस्कारवस्त्राभरणान्नपानशय्यादानाद्यनेक वैयावृत्त्याभिव्यङ्गधा, शुद्धसम्यक्त्वादिभावसंवर्धनहेतुर्देवा दिजन्म सद्वेद्यबन्धकारणं सम्यक्त्वक्रिया । सा च सामान्येन सरागजीवस्वामिकत्वादत्र प्रेमप्रत्ययिकीत्युक्ता । मिध्यात्वक्रिया तु सम्यक्त्वक्रिया विपरीताऽभिगृहीताभिनिविष्टादिमिध्यादृष्टिस्वामिकत्वेनात्र द्वेषप्रत्ययिकीति प्रोकेति ध्येयम् । 25 सोऽयमास्रवः सरस्तुल्यस्यात्मनः परिणामविशेषः कर्मोदकप्रवेशे रन्धं तत्र प्राणातिपातादिनि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवनिरूपणम् ] म्यायप्रकाशसमलते वृत्त्यादयः सत्यादयोऽपरिग्रहत्वं धर्मध्यानादयश्च शुभा आस्रवाः द्विचत्वारिंशद्विधस्य पुण्यस्य, तत्प्रत्यनीकाश्चाशुभाश्रवा व्यशीतिविधस्य पापस्य भवन्ति । क्रियानिरूपणं निगमयतीतीति ।। आस्रवतत्त्वं समासतो निरूपितमित्याशयेनाह समाप्तमिति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य 5 तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायामानवनिरूपणो- . . . नाम षष्ठः किरणस्समाप्तः ॥ अथ सप्तमः किरणः। इत्थं संक्षेपतो द्वाचत्वारिंशद्विधानाश्रवानाख्याय कर्मग्रहणकारणभूताश्रवस्य प्रतिद्वन्द्विभूतमपूर्वकर्मप्रवेशनिषेधफलकं संवरं लक्षणप्रकाराभ्यामभिधातुं तल्लक्षणमाचष्टे 10 समित्यादिभिः कर्मनिरोधः संवरः॥ समित्यादिभिरिति । समितिर्वक्ष्यमाणस्वरूपा सैवादिर्येषां गुप्तिपरीषहादीनां तैरुपायैः कर्मणामागन्तुकानां यो निरोधो निवारणं स संवर इत्यर्थः । उपात्तकर्मणां प्रध्वंसस्तु तपसा विपाकेन वा भवति । नन्वास्रवनिरोधो हि संवरः, उक्तञ्च - आस्रवनिरोधः संवर' (९-१) इति, आस्रवाश्चेन्द्रियकषायादिरूपा न कर्मात्मकास्तथा च कथं कर्मनिरोधस्संवर उच्यत इति 15 चेत्सत्यम् , कर्मागमनिमित्त आश्रवे निरुद्धे तत्पूर्वकस्यानेकदुःखबीजजनकस्य कर्मणोऽपि स्थगनात्कारणाभावस्य कार्याभावप्रयोजकतया तत्र प्रयोज्योपचारात्तथोक्तेरविरोधात् । प्रयोजकस्यैवं वाऽऽश्रवनिरोधस्यात्र प्रयोज्योपचारतः कर्मनिरोधत्वोक्तेः । विनोपचारं निरुद्ध्यतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या वा कर्मनिरोधपदेनाश्रवनिरोधस्यैव प्राप्तेः । तथानभिधानन्तु कर्मनिरोधस्या श्रवनिरोधप्रयुक्तत्वसूचनाय । एवं समित्यादयोऽप्याश्रवनिरोधे हेतुत्वेन संवरशब्दवाच्या 20 भवन्ति । प्रायश्चेष्टारूपत्वात्समितयोऽपि गुप्तिविशेषा एव । चेष्टा हि कायवाझमनोव्यापारः, खत्रेर्यादाननिक्षेपोत्सर्गाः कायव्यापारे, एषणा मनोव्यापारे वाग्व्यापारे च भाषाऽन्तर्गता भवति । सुखबोधार्थमेव समितेः पृथगुपादानम् । तत्र रागद्वेषपरिणामात्मकातरौद्राध्यवसायान्निवृत्त्यैहिकामुष्मिकविषयेषु निराकृताभिलाषस्य पुंसो मनसो गुप्तत्वेन रागादिप्रत्ययं कर्म नास्रोष्यति, अप्रियादिवचनेषु वाग्ल्यापारविरतस्य यथा शास्त्रं वाग्व्यवहरतो वाचो 25 गुप्तत्वान्नाप्रियवचनादिहेतुकं कर्मास्रोष्यति, तथा कायोत्सर्गभाजः परित्यक्तहिंसादिदोषविषयकक्रियाकलापकस्य समयविहितक्रियानुष्ठायिनः कायस्य गुप्तत्वाद्धावनवल्गनानवलोकितभूचंक्रमणादिनिमित्तं न कर्माश्लेक्ष्यतितम् । क्षमामार्दवार्जवशौर्यतिधर्मैः क्रोधमानमायालो Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्वन्यायविमाकरे (सक्षमरिने भानां सपरिकराणां निग्रहात्संवरावाप्तिः । सत्यत्यागाकिश्चन्यब्रह्मचर्याणि चारित्रानुयायोनि । संयमेष्वपि सप्तदशप्रकारेषु केचिद् व्रतान्तःपातिनः केचिच्चोत्तरगुणान्तर्भूताः । तपस्तूत्तरगुणान्तःपात्येव । संवृण्वतो हेतुभूता भावना अपि उत्तरगुणानुयायिन्यः । यथास्वमापतिता परीषहा अपि सम्यक्सहनेन संवरहेतवः । हिंसाऽसत्यादीनां तत्संश्लेषविशेषाहितकलुषस्य 5 कर्मास्रवनिमित्तत्वातन्निरोधे सति विरतस्य कर्म न निमित्ततामापतति । आधाकर्मादिपरि. भोगनिमित्तश्च कर्मास्रवणं हिंसादिपरित्यागे नैव भवतीति समित्यादयस्संवरहेतवः ।। समित्यादिजन्यकर्मनिरोधस्य संवररूपत्वे किमात्मकोऽयमित्यत्राह सोऽयमात्मपरिणामो निवृत्तिरूपः॥ सोऽयमिति | समित्यादिजन्यसंवरोऽयमित्यर्थः । कर्मोपादानहेतुभूतपरिणामामावस्य 10 संवररूपत्वेन परिणामनिवृत्त्यात्मा जीवस्य परिणामविशेषोऽयं संवर इति भावः ।। अस्यापि द्रव्यभावभेदतो द्वैविध्यमादर्शयति कर्मपुद्गलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः॥ . कर्मपदलेति । संसारकारणस्य कर्मपुद्गलस्य यदादानं-ग्रहणं तद्विच्छेदे द्रव्यात्मककर्म। पुद्गलानां संवरणरूपत्वाद्र्व्यसंवर इति भावः ॥ 15- भावसंवरपूर्वकत्वादस्य भावसंवरमाह भवहेतुक्रियात्यागस्तन्निरोधे विशुद्धाध्यवसायो वा भावसंवरः । स पुनर्द्विविधो देशसर्वभेदात् ।। .... भवहेविति । भवस्संसारः, आत्मनो गत्यन्तरप्राप्तिस्तद्धेतुभूता ये आत्मनः क्रियावि शेषास्तेषां निवृत्तिः, तन्निवृत्तौ जीवस्य शुद्धशुद्धतरशुद्धतमा अध्यवसायास्तेऽपि परिणामon निवृत्तिरूपत्वाद्भावसंवरा इति भावः । ननु संवरो निखिलावद्वारनिरोधात्मकः, सकला अवच्छिद्राणाञ्च गोपनेच्छा न सर्वेषां सम्भवति, अखिलपरिस्पन्दनिराकरणस्याल्पशक्ति १. प्राणातिपातादिभ्य आश्रवद्वारेभ्यो मनोवाक्कायैर्यावज्जीवं तदकरणीयत्वादिपरिणाम इति भावः । स्थूलदर्शिनो हि समित्यादिमन्तं मुनिमुपलभ्य संवृतोऽयमिति व्यवहरन्ति, तस्मादयं व्यवहारसंवरः । नैश्चयिक संवरनिमित्तत्वोपचारेण संवरतत्त्वं व्यपदिश्यते, अत एव समित्यादयोऽपि पञ्चदशद्वादशद्वाविंशतिपञ्चभेदास्समुच्चयेन सप्तपञ्चाशद्विधा व्यवहारसंवरा उच्यन्ते। नैश्चयिकसंवरस्तु समुच्छिन्नक्रियध्यानसहकृतस्य भवति वदनन्तरमेव मुक्तिफलसिद्धेरिति ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 गुणस्थानानि ] म्यायप्रकाशसमलवृते । कानामसंभवात् , योगत्रयस्य परिस्पन्दस्वभावत्वाच्च, किन्तु वर्षभनाराचसंहननभाजां पराक्रमविशिष्टानामेव तत्सामर्थ्यसंभवः, तथा च कथं सर्वेषां संवरसम्भव इत्याशङ्कायामाह स पुनरिति । नहि यावदाश्रवद्वारनिरोधस्यैव संवररूपत्वं ब्रूमो येनोक्तदोषः स्यादपि तु यत्किञ्चिदास्रवद्वारनिरोधोऽपि संवर एव, स एव देशसंवर उच्यते, सकलाश्रवद्वारनिरोधस्तु सर्वसंवरः, स च पूर्णशक्तिकानामेव भवति, देशसंवरस्तु योगत्रयस्य परिस्पन्दस्वभावत्वेऽपि 5 तत्त्वज्ञानां संसारपारावारपारजिगमिषूणां सामायिकादिचारित्रभाजां सम्भवत्येवेति भावः ॥ ___ तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकात्मगुणानां शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षाभ्यां वैचित्र्यादेशसंवरं गुणप्रकर्षोदितारतम्यापेक्षया विभावयति देशसंवरस्त्रयोदशगुणस्थानं यावद्भवति। सर्वसंवरस्त्वन्तिमगुणस्थान एव, निखिलाश्रवाणां निरुद्धत्वात् । इतरत्र तु न तथा ॥ देशसंवर इति । निखिलाश्रवनिरोधरूपसर्वसंवरस्य त्रयोदशगुणस्थानेष्वसम्भवादाहसर्वसंवरस्त्विति । अन्तिमेति । चतुर्दशेत्यर्थः । हेतुमाह निखिलेति । प्रथमादिगुणस्थानेषु कुतो नेत्यवाहेतरत्रेति, त्रयोदशसु गुणस्थानेष्वित्यर्थः । तथेति सर्वाश्रवाणां निरोध इत्यर्थः । तत्र किमिदं गुणस्थानं, कतिविधश्चेत्यत्र प्रथमं विभागमुक्त्वा ततो गुणस्थानस्वरूपमाह तत्र मिथ्यात्वसास्वादन मिश्राविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणा- 1 निवृत्तिकरणसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहसयोग्ययोगिभेदाच्चतुदशविधानि गुणस्थानानि ॥ तत्रेति । मिथ्यात्वं सास्वादनं मिश्रमविरतं देशविरतं प्रमत्तमप्रमत्तमपूर्वकरणमनिवत्तिकरणं सूक्ष्मसंपरायमुपशान्तमोहं क्षीणमोहं सयोग्ययोगि, चेत्येतेषां द्वन्द्वः ततो भेदशब्देन षष्ठीतत्पुरुषसमासः । मिथ्यादर्शनोदयप्रयुक्तं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् । मिथ्यादर्शनो- 2 दयाभावकालीनानन्तानुबन्धिकषायोदयप्रयुक्तं सास्वादनगुंणस्थानम् । सम्यमिथ्यात्वोदयप्रयुक्तं मिश्रगुणस्थानम् । सम्यक्त्वसमानाधिकरणचारित्रमोहोदयप्रयुक्तमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । प्राणीन्द्रियविषयविरत्यविरतिपरिणामो देशविरतगुणस्थानम् । संयतस्य प्रमादवशेन किश्चित्प्रस्खलितचारित्रपरिणामः प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् । संयतस्य प्रमादविरहेणाविचलितसंयमवृत्तिरप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् । उपशमकक्षपकोपचारसमानकालीनापूर्वकरणपरि-2 णामोऽपूर्वकरणगुणस्थानम् । स्थूलभावेनोपशमक्षयसमकालीनानिवृत्तिपरिणामोऽनिवृत्तिकर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२२ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तम किरणे णगुणस्थानम् । सूक्ष्मभावेन कषायोपशमक्षयपरिणामः सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानम् । सर्वमोहोपशमप्रयुक्तमुपशान्तमोहगुणस्थानम् । सर्वमोहक्षयप्रयुक्तं क्षीणमोहगुणस्थानम् । योगकालीनघातिकर्मक्षयोदितज्ञानाद्यतिशयस्सयोगिगुणस्थानम् । योगविरहकालीन ज्ञानाद्यतिशयोऽयोगिगुणस्थानमिति चतुर्दशविधं गुणस्थानमिति भावः ॥ गुणस्थानस्वरूपमाह - ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकानां जीवगुणानां यथायोगं शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षकृत स्वरूपभेदा गुणस्थानानि ॥ 5 ज्ञानदर्शनेति । गुणा ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवस्वभावविशेषाः, स्थीयते अस्मिन्निति स्थानं ज्ञानादीनामेव शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षकृतः स्वरूपभेदः, गुणानां स्थानं गुणस्थानमिति 10 गुणस्थानशब्दार्थबोधकमिदं मूलमिति बोध्यम् । यत्र यत्रापूर्वगुणाविर्भावस्तत्तद्गुणस्थानमिति भावार्थः । एतानि भव्यजीवानां निःश्रेणिरिव सिद्धिसौधमारुरुक्षूणां गुणागुणान्तरप्राप्तिरूपाणि विश्रामधामानि चतुर्दश संख्याकानि ॥ अथ प्रथम गुणस्थानं वक्ति मिथ्यात्वगुणस्थानञ्च व्यक्ताव्यक्तभेदेन द्विविधम् । कुदेवकुगुरुकु 15 धर्मान्यतमस्मिन् देवगुरुधर्मबुद्धिर्व्यक्तमिथ्यात्वम् । इदञ्च संज्ञिपश्चेन्द्रि याणामेव ॥ मिथ्यात्वगुणेति । मिथ्यात्वं व्यक्ताव्यक्तभेदभिन्नं विपर्यस्तदृष्टिरूपं, तास्थ्यात्तद्व्यपदेश इति न्यायेन तद्योगाज्जीवोऽपि मिध्यात्वं अर्शाद्यजन्तेन वा मिध्यात्वः, मिध्यात्ववानित्यर्थः । तस्य यो गुणानां ज्ञानादीनां शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः स्वरूपविशेषः 20 तदात्मकं स्थानं मिध्यात्वगुणस्थानमित्यर्थः । अस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियतद्भिन्नजीवसम्बन्धित्वेन द्वैविध्य मित्याशयेनाह - व्यक्ताव्यक्तभेदेनेति । व्यक्ताव्यक्तहेतुनेत्यर्थः । तथा च व्यक्तमिध्यात्ववतोऽव्यक्तमिध्यात्ववतश्चेति तद्विविधमिति भावः । तत्र किं व्यक्तमिध्यात्वं तदाह-कुदेवेति । देवगुरुधर्माभासरूपेषु देवगुरुधर्मबुद्धिरित्यर्थः तेन ययेषां कुत्सितत्वं तर्हि कथं देवगुरुधर्मशब्दप्रयोग इति शङ्का परास्ता । उपलक्षणमेतत् तेन जिनोपदिष्टजीवादिपदार्थेषु 25 अश्रद्धा मिथ्या श्रद्धा विपरीतप्ररूपणा संशयकरणमनादरश्च गृह्यन्ते । तथाऽधर्मधर्मोन्मार्गमार्गाजीवजीवासाधुसाध्वमूर्त्तमूर्त्तेषु दशसु धर्माधर्ममार्गोन्मार्गजीवाजीव साध्वसाधुमूर्त्तामू संज्ञानां, अभिग्रहिकानाभिप्रहिकाभिनिवेशिक सांशयिकानाश्च मिध्यात्वानां ग्रहणम् । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यादृष्टिगु० ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :१२३: अनाभोगिकं च मिथ्यात्वमव्यक्तमिथ्यात्ववत एवेति ध्येयम् । केषां व्यक्तमिथ्यात्वमित्यत्राह-इदश्चेति । एवपदेनैकद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां व्यवच्छेदः, तत्र व्यक्तमिथ्यात्वक्रियाया अभावात् । ननु ज्ञानदर्शनचारित्रात्मका हि गुणाः, ज्ञानादीनां विपर्यासेन मिथ्यादृष्टौ कथं गुणस्थानसम्भव इति चेदुच्यते, तत्त्वेष्वास्थारूपजीवगुणस्य सर्वतो भावेन घातिनो मिथ्यात्वमोहनीयस्य विपाकोदयतो वस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिर्यद्यपि विप- 5 यस्ता तथापि काचिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता भवति चन्द्रप्रभाकरप्रभायां सघनघनपटलसमाच्छादितायामपि काचित्प्रभेव । नहि तयोः प्रभा नूतनजलधरघनपटलेनैकान्तेन तिरस्कृता विनश्यति, दिनरजनिविभागाभावप्रसङ्गात् । तथा प्रबलमिथ्यादर्शनकर्मोदयेऽपि काचिदविपर्यस्ता दृष्टि- . र्भवतीत्येतदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसम्भव उक्तः । न च कथमसौ मिथ्यादृष्टिरेव, 10 कथंचिदविपर्यस्तप्रतिपत्त्यपेक्षया सम्यग्दृष्टित्वादिति वाच्यम्, जिनोदितैकाक्षरेऽप्यनादरे मिथ्यादृष्टित्वेनाप्रतिपन्नतत्त्वानामेषां सुतरां मिथ्यादृष्टित्वात् । न च जिनोदितसकलपदार्थाभिरोचनात्कतिपयपदार्थानामरोचनाच्च सम्यमिथ्यादृष्टिरेवायमिति वाच्यम् । एकस्मिन्नपि वस्तुनि पर्याये वा एकान्तेन विप्रतिपत्तिं प्रतिपन्नस्यास्य मिथ्यादृष्टित्वात् । मतिदौर्बल्यादिना तत्रैकान्तेन सम्यक्परिज्ञानमिथ्यापरिज्ञानाभावत एकान्तेन श्रद्धानविप्रतिपत्त्यभाववत एव 15 सम्यङ्मिथ्यादृष्टित्वादिति विभावनीयम् ॥ अव्यक्तमिथ्यात्वमाचष्टे अव्यक्तो मोहोऽव्यक्तमिथ्यात्वम् । इदमनादि । व्यक्तमिथ्यात्वप्राप्तुरेव मिथ्यात्वगुणस्थानं भवेदिति केचित् । अस्य स्थितिभव्यजीवमाश्रित्यानादिसान्ता । सादिसान्ता च पतितभव्यस्य । अभव्यमाश्रि- 20 त्यानाद्यनन्ता ॥ . .... .. .......... अव्यक्त इति । अत्र मिथ्यात्वं न विपर्यस्तबुद्धिरूपम् अव्यवहारराशिवृत्तित्वात् । किन्तु दर्शनप्रतिबन्धकमोहनीयप्रकृतिरूपमित्याशयेनोक्तमव्यक्तो मोह इति । इदश्चाव्यक्तमिथ्यात्वं जीवेन सहानादिकालीनमित्याह--इदमिति । ननु मिथ्यादृष्टयस्सर्वाण्यपि जीवस्थानानि यद्यपि लभन्ते तथापि प्राप्तव्यक्तमिथ्यात्वबुद्धय एव व्यवहारराशिवर्तिनो जीवाः प्रथम- 25 गुणस्थानं लभन्त इति रत्नशेखरसूरीणामभिप्रायं दर्शयति व्यक्तमिथ्यात्वेति । एव शब्देनाव्यवहारराशिवर्तिनामन्येषाश्चाव्यक्तमिथ्यात्वभाजां व्युदासः । गुणस्थानबहिर्भूतस्य संसारिणो जीवस्य कस्याप्यभावादव्यक्तमिथ्यात्वभाजोऽपि प्रथमगुणस्थानान्तर्गता एवेति ग्रन्थकृदाशयः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १२४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तम किरणे मिथ्यात्वस्य कालचिन्तायामाह - अस्येति । मिध्यात्वस्येत्यर्थः । चतुर्धा हि तस्य कालविभागस्सम्भवति, अनाद्यनन्तानादिसान्तसाद्यनन्त सादिसान्तभेदात् । तत्र भव्यजीवमाश्रित्याहभव्यजीवमाश्रित्येति । जातिभव्येतरभव्यजीव माश्रित्येत्यर्थः, अनादिसान्तेति | अनादिमिध्यादृष्टेर्भव्यजीवस्य सम्यक्त्वावाप्तौ सत्यां मिध्यात्वस्य सान्तत्वादिति भावः । पतितभव्यस्येति । 5 अनादिमिध्यादृष्टेस्सम्यक्त्ववतः केनचिदपि कारणेन पुनः पतितस्य यन्मिथ्यात्वं तस्य तत्सादित्वात् तत्र च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तं उत्कर्षेणार्हदादिप्रचुराशातनापापबहुलतयाऽपार्धपुद्गलपरावर्त्तं यावदुषित्वा पुनरपि सम्यक्त्वलाभे सान्तत्वाच्च । यस्तु पुनरभव्यस्तस्य मिथ्यात्वमनाद्यनन्तं अनादिकालात्तस्मिन् सद्भावात्, आगामिकालेऽपि च तदभावासम्भवादित्याशयेनाह--अभव्यमाश्रित्येति । त्रयाणामेव भङ्गानां कण्ठतः प्रतिपादनात्साद्यनन्तत्वं तस्य न 10 संभवतीति सूचितम् प्रतिपतितसम्यग्दृष्टीनां मिध्यात्वस्यैव सादित्वेन तेषामवश्यं पुनस्सम्यक्त्वलाभेन मिध्यात्वस्यानन्तत्वासम्भवादिति भावः । एतादृशस्वामिकत्वेन प्रथमगुणस्थानकमपि तावत्कालप्रमाणमवसेयम् । अत्रस्थो जीवो बन्धयोग्यकर्मप्रकृतिषु विंशत्युत्तरशतसंख्याका तीर्थकृत्कर्माहारकद्वयं च विहायान्यासां बन्धकः । उदयप्रायोग्य कर्मप्रकृतीनां द्वाविंशत्युत्तरशतसंख्याकानां मध्यान्मिश्रसम्यक्त्वाऽऽहारकद्विकतीर्थ कृत्कर्मेति पञ्चप्रकृतीना15 समुदयेन शेषाणां वेदयिता, अष्टचत्वारिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति ॥ अथ द्वितीयगुणस्थानस्वरूपं निरूपयति— उपशमसम्यक्त्व पतितस्यानवाप्तमिध्यात्वस्य सर्वथा यदपरित्यक्तसम्यक्त्वतयाऽवस्थानं तत्सास्वादनगुणस्थानम् । समयादिषडावलिकाकालपर्यन्तमिदम् ॥ 20 -उपशमेति । उपशमसम्यक्त्ववान् हि जीवो यदा शान्तानामनन्तानुबन्धिनां क्रोधादीनामन्यतमे उदीर्णे सत्युपशमसम्यक्त्वात्पतितो भवति परन्तु स यावन्मिध्यात्वं नोपयाति तावन्मध्ये पायसभुक्तवान्तस्य कश्चन समयं क्षीरान्नरसस्वादानुवृत्तिरिव तस्य सम्यक्त्वरसावृत्तिर्भवति, एवम्भूततया तस्य यदवस्थानं तत्सास्वादन गुणस्थानं, सम्यक्त्वरसास्वादेन सह वर्त्तत इति सास्वादनस्तस्य गुणस्थानमिति व्युत्पत्तेरित्यर्थः । सासादनगुणस्थानं सासातनगुण25 स्थान चेत्यस्यैव नामान्तरम् । तच्चेत्थमवसेयम्, संसारमहासागरान्तः पतितो जीवो मिथ्यादर्शनमोहनीयनिदानानि यावदनन्तपुद्गलपरावर्त्तानने कशारीरिक मानसिक दुःखलक्षाण्यनुभूय कथमपि १. सम्यक्त्वगुणनिमित्तकत्वात्तीर्थ करनामबन्धस्याहारकद्वयस्याप्रमत्तयति सम्बन्धिसंयमनिमित्तकत्वाच्चेति भावः ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमसम्यक्त्वम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : 125 : भव्यत्वपरिपाकेनानाभोगनिर्वर्तितेनाध्यवसायविशेषेण यथाप्रवृत्तिकरणेनाऽऽयुर्वर्जानि ज्ञानाकरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटिस्थितिकानि करोति, अत्र चान्तरे गुरुतरकठोरतरुग्रन्थिवदुर्भेदः कर्मपरिणामजन्यो जीवस्य घनरागद्वेषपरिणामरूपोऽऽभिन्नपूर्वो प्रन्थिर्भवति, यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वा प्रन्थिमिमं यावदभव्याअप्यनेकशः समागच्छन्ति / ततो ग्रन्थिभेदविधानासमर्थाः पुनरपि कर्माण्युत्कृष्टस्थितिकानि 5 संक्लेशवशा बध्नन्ति / यः पुनर्महात्मा कश्चिदासन्ननिर्वृतिसुखो दुर्धर्षवीर्यवानपूर्वकरणस्वरूपेण परमविशुद्धिविशेषेण विधाय भेद तद्वन्थेः मिथ्यात्वमोहनीयकर्मस्थितेरन्तमुहूर्तमुदयक्षणादुपरि गत्वाऽनिवृत्तिकरणसंज्ञितेनान्तर्मुहूर्त्तकालमानं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति, कृते च तस्मिन् कर्मणस्तस्य स्थितिद्वयं भवति, एकाऽ- . न्तर्मुहूर्त्तमानाऽन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा, तत उपरितनी द्वितीया, तत्र प्रथमस्थितौ 10 मिथ्यादृष्टिरेव, मिथ्यात्वदलिकवेदनात्, अन्तर्मुहूर्तेनापगतायाश्च तस्यामन्तरकरणस्याद्य एव समये औपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावात् / तस्याञ्चोपशान्ताद्धायामान्तौंहूर्तिक्यां जघन्येन समय शेषायामुत्कर्षेण षडावलिकाशेषायां कस्यचित्पुंसः केनचिन्निमित्तविशेषेणानन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदानीमसौ सास्वादनगुणस्थाने वर्त्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा सास्वादनत्वं यातीति कार्मग्रन्थिकमतम् , सिद्धान्तमते तु 15 श्रेण्यास्समाप्तौ प्रतिपततः प्रमत्तगुणस्थानेऽप्रमत्तगुणस्थाने वाऽवतिष्ठते, कालगतस्तु देवे- . ध्वविरतो भवतीति / सास्वादनोत्तरकालञ्चाऽवश्यं मिथ्यात्वोदयादयं मिथ्यादृष्टिर्भवतीति / स कियन्तं कालमस्मिन् गुणस्थाने वर्तत इत्यत्राह-समयादीति / जघन्येनैकः समय उत्कर्षेण षडावलिकाप्रमाणं, तत ऊर्ध्व मिथ्यात्वोपगमात् , आवलिका चाऽसंख्यातसमयसमुदायरूपेति भावः // 20 तत्र कितावदुपशमसम्यक्त्वं यस्मात्पतितोऽनवाप्तमिथ्यात्वस्सास्वादनगुणस्थानभाग्भवतीत्यत्राह 25 अनादिकालानुवृत्तमिथ्यात्वप्रथमकषायचतुष्कोपशमनजन्यं सम्यक्त्वमुपशमसम्यक्त्वम् / तद् द्विविधमन्तरकरणजन्यं स्वश्रेणिजन्यश्चेति। उपशमसम्यक्त्वं करणत्रयापेक्षम् // 'अनादिकालेति / अनादिकालादनुवृत्तं यन्मिथ्यात्वं यच्च प्रथमकषायचतुष्कमनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभरूपं तस्योपशमेन जन्यं यत्सम्यक्त्वं तदुपशमसम्यक्त्वमित्यर्थः / एकस्यापि क्रोधादेरुदये प्रतिपातात् / एतस्य सम्यक्त्वस्य द्वैविध्यमाह-अन्तरेति / तत्रापूर्व Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :126 : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे करणेनैव कृतप्रन्थिभेदस्य मिथ्यात्वपुद्गलराशेरकृतमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वरूपत्रिपुञ्जस्यानिवृ. त्तिकरणेनोदीर्णे मिथ्यात्वे क्षीणेऽनवाप्तेऽनुदीर्णे चान्तरकरणादन्तर्मुहूर्त्तकालं यावत् सर्वथा मिथ्यात्वावेदकस्यान्तरकरणौपशमिकसम्यक्त्वं भवति / उपशमश्रेणिं प्रपन्नस्य तु मिथ्यात्व स्यानन्तानुबन्धिनाञ्चोपशमे स्वश्रेणिगतमुपशमसम्यक्त्वं भवतीति बोध्यम् / नन्वन्तरकरण5 जन्यमुपशमसम्यक्त्वमुक्तं तत्र किं नामान्तरकरणमिति शङ्कायामुपशमसम्यक्त्वोपयोगिकरणत्रयप्रदर्शनद्वारेण तद्दिदर्शयिषुः प्राहोपशमेति // तत्र किं नाम करणत्रयमित्यत्राह करणत्रयन्तु यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिकरणरूपम् / आयुर्वर्जसप्तकर्मण10 स्थितिं पल्योपमासंख्येयभागहीनैककोटीकोटीपरिमाणां विधायाभिन्न पूर्वघनीभूतरागद्वेषात्मकग्रन्धिसमीपगमनानुकूलाध्यवसायो यथाप्रवृत्तिकरणम्। घनीभूतरागद्वेषग्रन्थिभेदनप्रयोजकापूर्वाध्यवसायोऽपूर्वकरणम्। मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्योपरितनी विष्कम्भयि त्वान्तर्मुहूर्तपरिमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावप्रयोजकाध्यवसायोनिवृ. / त्तिकरणम् / ताहशतत्पदेशवेद्यदलिकाभावोऽन्तरकरणम् // करणेति। यथाप्रवृत्तिकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणञ्चेत्यर्थः / यथाप्रवृत्तिकरणस्वरूपमाह आयुरिति / आयुष उत्कृष्टस्थितेस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमरूपत्वात्सागरोपमकोटीकोट्यन्तर्गतत्वेन तद्भिन्नत्वमुक्तम् , एवञ्च यादृशाध्यवसायविशेषादनाभोगनिवर्तितात् तद्भिन्नानि ज्ञानावरणादिकर्माणि निखिलान्यपि पृथक्पृथक्पल्योपमासंख्यातभागहीनैकसागरोपमकोटीan कोटीस्थितिकानि भवन्ति, ततश्च कर्कशकर्मपटलापहस्तितवीर्यविशेषैरसुमद्भिः कर्मपरिणाम जनितो दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो धनरागद्वेषरूपो ग्रन्थिः प्राप्यते तादृशाध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तिकरणमित्यर्थः / अधिकारी चास्य तथाभव्यत्वपरिपाकी किञ्चिन्न्यूनापार्धपुद्गलपरावविशेषसंसारश्शुक्लपाक्षिकः, कृष्णपाक्षिकोऽभव्यो वा / आद्यो ग्रन्थिभेदं विधाय सम्यक्त्वं प्राप्नोति। द्वितीयस्त्वकृत्वा तद्भेदं पुनः परावर्त्तते / अस्यैवाथाप्रवृत्तकरणमपूर्वप्रवृत्तकरणमिति च नामान्तरम् / ग्रन्थि समतिक्रामतो यत्करणं तदाह-घनीभूतेति / ये समुदश्चितादभ्रदुर्वार 1. अनादिकालादारभ्य यावदन्थिस्थानं तावत्प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणं भवति, कर्मक्षपणनिबन्धनस्याध्यवसायमात्रस्य सर्वदेव भावात् , अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयप्राप्तानां सर्वदैव क्षपणात् / ग्रन्धि समतिकामतोऽपूर्वकरणं, प्राक्तनाद्विशुद्धतराध्यवसायरूपेण तेनैव प्रन्थेर्मेदात् / अभिमुखसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवति तत एवातिशुद्धतमाध्यवसायादनन्तरं सम्यक्त्वलाभात् // Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमसम्यक्त्वम् ] न्यायप्रकाशसमलवृत्त :१२७: वीर्यप्रसरा उत्कर्षतोऽपापुद्गलपरावर्तान्त विसंसारित्वेनासन्ननिर्वृतिसुखा अननुभूतपूर्व तं प्रन्थि येनाध्यवसायविशेषेण भिन्दन्ति सोऽध्यवसायो जीवस्यापूर्वकरणमुच्यते । अस्य प्रथम. समये विशुद्धिर्जघन्याऽल्पा च, तस्यैवोत्कृष्टानन्तगुणा, द्वितीयसमये जघन्याऽनन्तगुणा इत्येवं क्रमेण यावदन्तर्मुहूर्त्तपरिसमाप्ति भाव्यम् । अथ तृतीयमनिवृत्तिकरणमभिधत्ते-मिथ्यात्वेति । यादृशविशिष्टतरविशुद्धाध्यवसायमारूढो जीवः स्वाद्धायास्संख्येयेषु भागेषु गतेषु 5 एकस्मिंश्च संख्येयतमे भागेऽवशिष्टे उदयक्षणादुपरि मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्त्तमतिक्रम्योपरितनीश्च विष्कम्भयित्वाऽन्तर्मुहूर्त्तकालपरिमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकामावं करोति सोऽध्यवसायविशेषोऽनिवृत्तिकरणमित्यर्थः । आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवति । अनेन च मिथ्यात्वकर्मणः स्थितिद्वयं जायत इति विज्ञेयम् । यत्र प्रविष्टानामखिलानां जीवानां समानकालीनानामेकाध्यवसायस्थानानिवृत्तिावृत्तिर्न भवति तदनिवृत्तिकरणं, अत्र हि प्रथमे 10 समये ये वर्तन्ते वृत्ता वतिष्यन्ते च सर्वेषां तेषामेकमेवाध्यवसायस्थानम् , द्वितीये समयेऽपि तथैव, किन्तु प्रथमसमयभाविविशोधिस्थानापेक्षयाऽनन्तगुणमध्यवसायस्थानमेवमेव यावदनिवृत्तिकरणचरमसमयं विभाव्यम् । अनिवृत्तिकरणाद्धायास्संख्येयेषु भागेषु गतेषु एकस्मिश्च संख्येयतमे भागेऽवशेषे मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं करोति, अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे च स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमा भवन्ति । करणत्रयश्च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तकालमानम् , करण- 15 त्रयकालोऽप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाण एव, अन्तर्मुहूर्तस्यासंख्येयभेदत्वादिति ।। इत्थं संक्षेपेण करणत्रये निरूपिते सुज्ञानमेवान्तरकरणमपीति तत्स्वरूपमाह-तादृशेति । अन्तर्मुहूर्त्तकालमानेत्यर्थः। तन्निष्पादनकालोऽप्यन्तरकरणकाल एव, सोऽप्यन्तर्मुहूर्तपरिमाणः, प्रथमस्थितेः किञ्चिन्यूनोऽभिनवस्थितिबन्धाद्धया तु समानः, तथाहि प्रथमस्थित्यन्तरकरणे द्वे अपि अन्तर्मुहूर्तप्रमाणे युगपदारभते । अन्तरकरणप्रथमसमय एव चान्यं स्थितिबन्ध मिथ्या- 20 त्वस्यारभ्य स्थितिबन्धान्तरकरणे युगपदेव परिसमापयति । अन्तरकरणे च क्रियमाणे गुणश्रेणिसम्बन्धिनः संख्येया भागाः प्रथमद्वितीयस्थित्याश्रितास्तिष्ठन्ति, एकन्तु गुणश्रेण्यासंख्येयतमं भागमन्तरकरणदलिकेन सहोत्किरति । तदित्थं अन्तरकरणस्थितेमध्याहलिक कर्मपरमाण्वात्मकं गृहीत्वाधः प्रथमस्थितौ उपरि द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, एवं प्रतिसमयं तावत्प्रक्षिपति यावदन्तरकरणसत्कं सकलमपि तदलिकमन्तर्मुहूर्तेन 25 क्षीयते, अन्तरकरणादधस्तनी स्थितिः प्रथमा स्थितिरुपरितनी स्थितिर्द्वितीयेत्युच्यते, तत्र प्रथमस्थितौ वर्तमान उदीरणाप्रयोगेण प्रथमस्थितिसत्कं दलिकं समाकृष्योदयसमये यत्प्रतिक्षिपति सोदीरणा, यत्तु द्वितीयस्थितेः सकाशात् उदीरणाप्रयोगेण समाकृष्योदय. समये प्रक्षिपति साप्युदीरणैव, आगाल इति नामान्तरेण प्रसिद्धा। उदयोदीरणाभ्यां Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे सामकिरणे प्रथमस्थितिमनुभवंस्तावद्गच्छति यावदावलिकाद्विकं शेषं तिष्ठति, प्रथमस्थितेरावलिकाद्विकशेषे त्वागालो व्यवच्छिद्यते केवलमुदीरणैव प्रवर्तते । प्रथमस्थितावावलिकाशेषीभूतायामुदीरणापि व्यवच्छिद्यते, ततः केवलेनैवोदयेन तामावलिकामनुभवति, तस्यामपि चापगता यामुदयोऽपि मिथ्यात्वस्य न भवति दलिकाभावात् । तस्मिन्नेव समये उपशान्ताद्धायां 5 प्रविशति तत्र प्रविष्टस्य प्रथमसमय एव मोक्षबीजभूतमौपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोतीति तात्पर्यार्थः । प्रथमस्थितिचरमसमये द्वित्तीयस्थितिगतं दलिकमनुभागभेदेन त्रिधा करोति शुद्धमर्धशुद्धमशुद्धश्चेति । तत्र शुद्धं सम्यक्त्वं देशघाति, देशघातिरसोपेतत्वात् । अर्धशुद्धं मिश्रमोहनीयमशुद्धन्तु मिथ्यात्वमेतदुभयं सर्वघाति, सर्वघातिरसोपेतत्वात् ॥ अथ श्रेणिगतं सम्यक्त्वमौपशमिकमुच्यते10. श्रेणितो मिथ्यात्वमोहनीयानन्तानुबन्धिचतुःकषायाद्युपशमनत: श्रेणिजन्योपशमसम्यक्त्वं भवति । श्रेणित इति । यदि चतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमान्यतमगुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिनो दर्शनमो. हस्य च सर्वोपशमनायामुपशमसम्यक्त्वयुक्त उपशमश्रेणिं जीवस्सम्पद्यते तस्य यदौपशमिकं सम्यक्त्वं तच्छ्रेणिजन्योपशमसम्यक्त्वमुच्यत इति भावः ।। 15 ननु द्विविधमुपशमसम्यक्त्वं लभमानाः सर्वे किमारोहका एव स्युरुतास्ति कश्चिद्विशेष इत्याशङ्कायामाह उभयविधसम्यक्त्वात्पततः सास्वादनगुणस्थानं भवति ।। उभयविधेति । अस्ति विशेषः, कोऽसौ विशेष इत्याह पतत इति । न सर्वे आरोहका एव, किन्तु पतन्तीति भावः । ननु तर्हि किं तेषां गुणस्थानं भवतीत्यत्राह-सास्वादनेति । 20 सास्वादनमपीति भावः, अत्र तु सास्वादनमुभयविधसम्यक्त्वात्पतत एव भवति नान्येषामिति सूचयितुं तथोक्तिरिति भाव्यम् । उपशमश्रेणितः प्रतिपतन् कश्चिदनन्तानुबन्ध्युदये साखादनगुणस्थानं लभते । गुणस्थानमिदं प्रतिपतत एव भवति न त्वारोहतः, मिथ्यात्वगुणस्थान न्तु प्रतिपततोऽपि, मिश्रादीनि च प्रतिपतत आरोहतश्च । एकादशं दशमादारोहत एव, ततोऽग्रे आरोहणाभावात् ततोऽधःपातनियमात् द्वादशादीनि सर्वाणि आरोहत एव, तेभ्यः प्रतिपाता १. आन्तौहूर्तिक्यामुपशमाद्धायां जघन्यतस्समयशेषायामुत्कृष्टतः षडावलिकाशेषायां सत्यां कस्यचिन्महाविभीषिकोत्थानकल्पोऽनन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदुदये चासौ सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते । मिथ्यात्वस्याद्याप्यप्राप्तत्वादव्यक्तमुपशमगुणस्य वेदनादस्य गुणस्थानस्य गुणस्थानत्वमिति भावः ॥ .. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रगुण. ] ग्यापप्रकाशसमलते : १२९ : भावात् । प्रथमादन्यानि गुणस्थानानि भव्यस्यैव । ननु सास्वादनादितरेषां गुणस्थानानामूर्ध्वमूर्ध्वमारोहरूपतया गुणस्थानत्वं युक्तं, मिथ्यात्वस्याप्यव्यक्तमिथ्यात्वतो व्यक्तमिथ्यात्वप्राप्त्याऽऽरोहणस्वरूपत्वेन तथात्वं सास्वादनस्य सम्यक्त्वात्प्रपातरूपस्य कथं गुणस्थानत्वमिति चेन्न मिथ्यात्वगुणस्थानापेक्षयाऽस्याऽऽरोहणरूपत्वात् अपार्धपुद्गलपरावर्तावशेषसंसाराणां भव्यानामेवैतद्गुणस्थानेऽधिकारात् । अत्रस्थो जीव एकोत्तरशतबन्धकः, मिथ्यात्वनरक- 5 त्रिकैकेन्द्रियादिजातिचतुष्कस्थावरचतुष्काऽऽतपहुण्डसेवार्तनपुंसकवेदरूपषोडशप्रकृतिव्यवच्छेदात् । तथा सूक्ष्मत्रिकाऽऽतपमिथ्यात्वोदयव्यवच्छेदान्नरकानुपूर्व्यनुदयाच्चैकादशोत्तरशतवेदयिता । तीर्थकृत्सत्ताऽसम्भवात् सप्तचत्वारिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति । तृतीयं मिश्रगुणस्थानं सम्यमिथ्यादृष्टिगुणस्थानापराभिधं निरूपयति मिश्रमोहनीयकर्मोदयादन्तर्मुहर्त्तस्थितिकोऽहंदुदिततत्त्वेषु द्वेषाभावो 10 मिश्रगुणस्थानम् । यथान्नापरिचितनारिकेलद्वीपनिवासिमनुजस्थाने । अत्र जीवो नायुर्बध्नाति न वा म्रियते । अपि तु सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वाऽवश्यं याति ॥ मिश्रेति । मिश्रमोहनीयकर्मोदयाद्दर्शनमोहनीयप्रकृतिविशेषोदयात् जीवेऽन्तर्मुहूर्त्तकालं लब्धौपशमिकसम्यक्त्वेन मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा कृतत्रिपुञ्जमध्येऽर्धविशुद्धपुञ्जो- 15 दयतोऽर्धविशुद्धं यत्समतया सम्यक्त्वं मिथ्यात्वश्च भवेद्येन नाईदुदिततत्त्वेषु कश्चन द्वेषो न वा प्रीतिस्तन्मिश्रगुणस्थानमित्यर्थः, मिश्रत्वञ्चाऽस्योभयभावयोरेकरूपत्वात् , जात्यन्तरमेतत् बडवाखरयोस्संयोगेन जातस्य जात्यन्तराश्वतरवत्, दधिगुडसंयोगेन रसविशेषवच्च । समतायां निदर्शनमाह-यथेति । तस्य ह्यन्ने न द्वेषो न वा प्रीतिस्तद्वदिदमिति भावः । गुणस्थानेऽत्र जीवः किं करोतीत्यत्राह-अत्रेति । अस्मिन् गुणस्थान इत्यर्थः । तत्र हेतुमाह-अपि- 20 त्विति । अस्यान्तर्मुहूर्त्तस्थितिकत्वाद्भावान्तरगमनमावश्यकं तत्रैव चायुर्बन्धो मरणश्चेति भावः। - एवं क्षीणमोहे सयोगिन्यपि न मरणसम्भवश्शेषाणि मरणयोग्यानि गुणस्थानानि, तत्रापि . मिध्यात्वसास्वादनाविरतसम्यग्दृष्टिरूपाणि गणस्थानानि जीवेन सहोपयान्ति परभवं. नापराण्यष्टाविति बोध्यम् । अत्र मिथ्यात्ववत एव मिश्रगमनमिति सिद्धान्तमतम् , कार्मग्रन्थिकमते तु विहितविभागस्य सम्यक्त्ववतस्सम्यक्त्वप्रच्युतस्याष्टविंशतिसत्कर्मणो मिथ्या- 25 १. एतासां मिथ्यात्वप्रत्ययत्वान्नाग्रिमेषु बन्धः, यत एताः प्रायो नारकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिययोग्यत्वादत्यन्ताशुभत्वाच मिथ्यादृष्टिरेव बध्नातीति ॥ १७ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३० : तस्वम्यायविभाकरे [ सप्तमाकरण विनो वाऽर्धविशुद्धः पुञ्जो यदोदेति तदाऽर्धविशुद्धा भगवदहदुदिततत्त्वश्रद्धा जायत इत्यतस्सम्यक्त्वात्प्रच्युतस्यापि मिश्रगमनमिति ॥ एतद्गुणस्थानस्थो जीवश्चतुस्सप्ततेर्बन्धकः, तिर्यक्त्रिकस्त्यानचित्रिकदुर्भगदुःस्वरानादेयानन्तानुबन्धिमध्याकृतिमध्यसंहननचतुष्कनीचेोत्रोद्योताप्रशस्तविहायोगतिस्त्रीवेदव्यवच्छेदान्मनुष्यदेवायुषोरबन्धाच्च । वेदयिता शतस्य, मिश्रोदया. 5 देवमनुष्यतिर्यगानुपूर्व्यनुदयादनन्तानुबन्धिस्थावरैकेन्द्रियविकलत्रिकोदयव्यवच्छेदाच्च । सप्तचत्वारिंशदुत्तरशतसत्ताकश्च भवति, तीर्थकृत्सत्ताभावात् ।। अथ चतुर्थ गुणस्थानमाह-. सम्यक्त्वे सत्यप्रत्याख्यानावरणकषायोदयेन सावद्ययोगात्सर्वथाsविरमणमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् । उत्कृष्टतो मनुजभवाधिकषट्षष्टि10 सागरोपमस्थितिकमिदम् । सम्यक्त्वश्च भव्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां निसर्गादु पदेशाद्वा भवति । उत्कृष्टतोऽपार्धपुद्गलपरावर्तावशिष्टसंसाराणामेत. द्भवेत् । जघन्यतस्तद्भवमुक्तिगामिनोऽपि ॥ सम्यक्त्वे सतीति । यत्राप्रत्याख्यानकषायोदयाजीवः सावद्ययोगप्रत्याख्यानं सुन्दरमिति जानन्नपि न पालयति केवलं सम्यक्त्वमात्रमनुभवति ताहशमित्यर्थः । इदमुक्तं भवति 15 यो हि पूर्वोदितौपशमिकसम्यग्दृष्टिः शुद्धदर्शनमोहपुञ्जोदयवर्ती वा क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः, क्षीणदर्शनसप्तको वा क्षायिक सम्यग्दृष्टिरविरतिप्रत्ययं दुरन्तनरकादिदुःख फलकं कर्मबन्धं, सावद्ययोगविरतिश्च परममुनिप्रणीतसिद्धिसौधाध्यारोहनिःश्रेणिकल्पां जानन्नपि न विरतिमभ्युपगच्छति न च तत्पालनाय यतसेऽप्रत्याख्यानावरणोदयेन विघ्नितत्वात् , ते ह्यल्प मपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति, स इहाविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यत इति । मिथ्यात्वमोहनीयस्यो20 दीर्णस्य क्षयादनुदीर्णस्योपशमाञ्च निर्वृत्तं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमुच्यते, यदुद यमागतं मिथ्यात्वं तद् वेदितत्वात्क्षीणं, यत्तु शेषं सत्तायामनुदयगतं वर्तते तदुपशान्तमुपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयभावमपनीतमिथ्यात्वस्वभावश्च शेषमिथ्यात्वं, अत्र च मिथ्यात्वमिश्रपुञ्जायाश्रित्य विष्कम्भितोदयं शुद्धपुञ्जमाश्रित्यापनीतमिथ्यात्वस्वभावमिति बोध्यम् । यद्यप्यौपशमिकेऽपि उदीर्णमिथ्यात्वस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य चोपशमोऽस्ति तथाप्यत्र क्षायोप25 शमिकसम्यक्त्वे मिथ्यात्वं प्रदेशोदयेन वेद्यते, तत्र तदपि नेति विशेषोऽवसेयः । अत्र शोधितमिथ्यात्वपुद्गला यथावस्थिततत्त्वरुच्यध्यवसायात्मकदृष्टेः सम्यक्त्वावारका न भवन्त्यतस्तेऽप्युपचारेण सम्यक्त्वमुच्यन्त इत्यपि बोध्यम् । अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्कमयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीये सर्वथा क्षीणे सति क्षायिकं सम्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशविरत० ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते क्त्वं भवति ॥ अस्य गुणस्थानस्योत्कृष्ट स्थितिमाह-उत्कृष्टत इति मनुजभवेति । क्षायोपशमिकमाश्रित्येदम् , क्षायिकमाश्रित्य तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि साधिकानि । तथाहि कश्चिदितः स्थानादुत्कृष्टस्थितिष्वनुत्तरविमानेषूत्पन्नः, तत्र चाऽविरतसम्यग्दृष्टित्वेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितस्ततश्श्युत्वाऽत्राऽप्याऽऽयातो यावदद्यापि विरतिं न लभते तावत्तद्भावेनैव स्थित इति मनुष्यभवसम्बद्धकतिपयवर्षाधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमत्वं विज्ञेयम् । कस्य कथं सम्यक्त्वमुप- 5 जायत इत्यत्राह-भव्येति । भव्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियप्राणिनो यथावद्भगवदुदितेषु जीवादिपदार्थेषु निसर्गादासादितसुनिर्मलत्वगुणरूपात्मस्वभावात् , उपदेशाद्वा सद्गुरूपदिष्टशास्त्रश्रवणाद्वा सम्य श्रद्धास्वरूपं सम्यक्त्वं समुन्मिषतीति भावः । दशविधमेतत् सम्यक्त्वमात्रस्य निसर्गोपदे. शाज्ञासूत्रबीजाभिगमविस्तारक्रियासंक्षेपधर्मप्रयुक्तत्वात् । उपदेशादिकमन्तरेण क्षयक्षयोपशमादिना जीवाजीवादिपदार्थविषयिणी रुचिनिसर्गसम्यक्त्वम् । परोपदेशप्रयुक्तजीवादिपदार्था- 10 भिरुचिरुपदेशसम्यक्त्वं, सर्वज्ञाज्ञयैव धर्मानुष्ठानविषया रुचिराज्ञासम्यक्त्वं, सूत्राध्ययनाभ्यासजन्यविशिष्टज्ञानतो जीवादिविषयिणी रुचिस्सूत्रसम्यक्त्वं, एकेन पदेनानेकपदार्थप्रतिसन्धानद्वारा प्रसरणशीला रुचिर्बीजसम्यक्त्वं, अर्थतः सकलसूत्रविषयिणी रुचिरभिगमसम्यक्त्वं, सर्वप्रमाणनयजन्यसर्वद्रव्यभावविषया रुचिर्विस्तारसम्यक्त्वं, दर्शनज्ञानचारित्रतपोविनयाद्यनुष्ठानविषयिणी रुचिः क्रियासम्यक्त्वं, अनभिगृहीतकुदृष्टेः प्रवचनानिष्णातस्य निर्वाण- 15 पदमात्रविषयिणी रुचिः संक्षेपरुचिः, धर्मपदवाच्यविषयकरुचिर्धर्मसम्यक्त्वमिति ॥ कदा तद्भवतीत्यत्राह-उत्कृष्टत इति । सम्यग्दृष्टीनां सर्वेषां किञ्चिन्न्यूनापार्धपुद्गलपरावर्त्तमात्रमेव संसारस्यावशेषात् , सोऽपि तीर्थकरादिकृताशातनाबहुलानामेव, न तु सर्वेषामिति भावः। जघन्यत इति, तस्मिन्नेव भवे मुक्तिगामिनोऽपीत्यर्थः । अत्रस्थो जीवस्सप्तसप्ततेर्बन्धकस्तीर्थकृदायुर्द्विकस्य च बन्धात् । चतुरुत्तरशतस्य वेदयिता मिश्रोदयव्यवच्छेदात् । आनुपूर्वीचतुष्क- 20 सम्यक्त्वोदयाच्च । अष्टत्रिंशदधिकशतसत्ताकश्च । उपशमकस्तु चतुर्थादेकादशं यावत्सर्वत्राष्टचत्वारिंशदधिकशतसत्ताकः क्षपकस्य तु सत्ता तद्गुणस्थाने दर्शयिष्यते ।। सम्प्रति पञ्चमं गुणस्थानं दर्शयति प्रत्याख्यानकषायोदयात्सर्वसावद्यस्यैकदेशाद्विरतस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टान्यतमवद्विरतिधर्मावाप्तिर्देशविरतगुणस्थानम् ॥ 25 __ प्रत्याख्यानेति । सर्वसावधेभ्यो विरतिमभिलषतोऽपि वैराग्योपचयवतो जीवस्य सर्वविरतिघातकप्रत्याख्यानावरणकषायोदयान्नोत्पद्यते सर्वविरतिसामर्थ्यम् , अपि तु जघ १. बद्धतीर्थकृन्नामकर्मणोऽवद्धायुषः प्राप्तक्षायिकसम्यक्त्वस्यापेक्षयेदम् ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १३२ : तस्वन्यायविभाकरे सप्तमकिरणे 1 1 न्यमध्यमोत्कृष्टास्वेकतमा देशविरतिरेव जायते यत्र तद्देशविरतगुणस्थानमित्यर्थः । विरताविरते ह्यष्टौ भङ्गाः, व्रतानि यो न जानाति नाभ्युपगच्छति न च पालनार्थं यतते, यथाऽविरतास्सर्वे । यो न जानाति न चाभ्युपगच्छति परं तु पालयति यथाऽज्ञानतपस्वी । यो न जानाति, अभ्युपगच्छति न तु पालनार्थं यतते यथाऽज्ञपार्श्व5 स्थसाधुः । यो न जानाति, अभ्युपगच्छति पालयति च यथाऽगीतार्थः । यो जानाति, नाभ्युपगच्छति, न च पालनाय यतते यथा श्रेणिकादयः । यो जानाति नाभ्युपगच्छति पालयति यथा - अनुत्तरदेवः । यो जानाति स्वीकुरुते न च पालयति यथा संविप्रपाक्षिकः । यो जानाति स्वीकरोति पालयति च यथा व्रतीति । तत्र प्रथमादिसप्तभङ्गेषु व्रतपरिपालनेऽपि निष्फलत्वेनाविरत एव भवति, सम्यग्ज्ञानग्रहणपूर्वक पालन एव साफ10 ल्यात् । आद्यचतुर्षु हि सम्यग्ज्ञानाद्यभावः, ततस्त्रिषु सम्यग्ज्ञानसत्वेऽपि सम्यगभ्युपगमपालनाद्यभावः । अन्तिमे तु देशतः पापाद्विरतो देशविरतोऽपि भवति । यावद् द्वादशव्रतमेकद्वित्र्यादिव्रतधारणात् । यत्र परमेष्ठिनमस्कार मात्रनियमधारण माकुट्टी स्थूलहिंसादित्यागो मद्यमांसादित्यागश्च सा जघन्या देशविरतिः । यत्र धर्मयोग्यतागुणा गृहस्थोचितानि षट् कर्माणि द्वादशव्रतपालनं सदाचारश्च भवति सा मध्यमा । सचित्ताहारवर्जनं सदैकासनभोजनमनिन्द्य15 ब्रह्मचर्यव्रतपालनं महाव्रताङ्गीकारस्पृहा च यत्र भवति सोत्कृष्टा देशविरतिरिति बोध्यम् ॥ सर्वसावद्यस्यैकदेशाद्विरतस्येति, अवद्यं पापं तेन सह वर्त्तत इति सावद्यं, हिंसाचौर्यादि - गर्हितं कर्म, सर्वेभ्यः सावद्येभ्यो विरतः प्रमत्तसंयतादिरपीत्येकदेशेनेत्युक्तम्, प्राणातिपाताद्यन्यतमो देशः, निरपराधविनाशनादिरूपतदेकदेशो वा ताभ्यां विरत एकद्रयाद्यणुव्रतधरः श्रावको द्वादशत्रतधारीति भावः तानि च व्रतानि अणुव्रतानि पञ्च गुणत्रतानि 20 त्रीणि चत्वारि च शिक्षात्रतानि । तत्राणूनि लघूनि व्रतानि प्राणातिपातादिविरमणरूपाणीत्यणुत्रतानि महाव्रतापेक्षयैषा मल्पविषयत्वात्सर्वविरतापेक्षयाऽल्पगुण पुरुषानुष्ठानरूपत्वाद्वा महाव्रतनिरूपणोत्तरकालमेवैषां निरूपणीयत्वादनु पश्चाद्वर्ण्यमानानि यानि व्रतानि तान्यणुव्रतानि, महाव्रतप्रतिपत्त्य समर्थायैतन्निरूपणस्यावश्यकत्वात् । तत्र हिंसा प्रमादप्रयुक्तप्राणव्यपरोपणरूपा स्थूलसूक्ष्मभेदेन द्वैविध्यमश्नुते, स्थूलत्वं यन्मिथ्यादृष्टीनामपि हिंसात्वेन प्रसिद्धं 25 त्रसविषयकत्वाद्वा, सूक्ष्मत्वञ्च पृथिव्यादिविषयम्, तथैव मृषावादादावपि भाव्यम्, तेभ्यस्स्थूलेभ्यो विरतिः पञ्चाणुत्रतशब्दवाच्या । साऽपि व्रतभङ्गेन भाव्या बाहुल्यात्, सामान्येन विरताविरतभेदेन श्राद्धानां द्वैविध्येऽपि विशेषतो द्विविधत्रिविधादिभङ्गभेदेनाष्टविधास्ते तथाहि-द्विविधं कृतं कारितं चेति, त्रिविधं मनसा वाचा कायेन यथा स्थूलहिंसादिकं स्वयं न करोम्यन्यैर्वा न कारयामि मनसा वाचा कायेनेत्यभिग्रहवान् प्रथमः, नास्त्यस्यानुमति 30 निषेधः, अपत्यादिपरिग्रहस्य सद्भावात्तै हिंसादिकरणे तस्यानुमतिप्राप्तेः, यद्यनुमतिरप्यस्य Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] न्यायप्रकाशसमलते : १३३ : स्यात्स्यादविशेषः प्रव्रजिताप्रबजितयोस्तद्विषये । द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः, अस्योत्तरभङ्गास्त्रयः, तत्र द्विविधं स्थूलहिंसादिकं न करोति न कारयति द्विविधेन मनसा वचसेत्येकः, मनसा कायेनेत्यपरः, वाचा कायेनेत्यन्यः, तत्राद्ये मनसाऽभिसन्धिरहित एव हिंसादिकं वाचाऽब्रुवन्नेवासंज्ञिवत्कायेन दुश्चेष्टितादीनि करोति, द्वितीये मनःकायाभ्यामभिसन्धिदुश्चेष्टितादि परिहरन्नेवानाभोगाद्वा वाचैव हन्मि घातयामि चेति ब्रूते । तृतीये च मनसै- 5 वाभिसन्धिकृत्य करोति कारयति च । अत्र सर्वत्र त्रिभिरनुमतिरस्त्येव । द्विविधमेकेनेति तृतीयः, अत्राऽप्युत्तरभङ्गास्त्रयः, द्विविधं करणं कारणश्चैकविधेन मनसा वा वचसा वा कायेन वेति । एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः, अत्र चोत्तरौ द्वौ भङ्गो, तत्रैकविधं करणं वा कारणं वा मनसा वाचा कायेन चेति । एकविधं द्विविधेनेति पञ्चमः, उत्तरभङ्गाश्च षट् एकविधं करणं वा कारणं वा मनोवाग्भ्यां वा मनःकायाभ्यां वा वचःकायाभ्यां वेति । एकविध- 10 मेकविधेनेति षष्ठः, अवान्तरभङ्गाष्षट् , एकविधं करणं वा कारणं वा एकविधेन मनसा वा वाचा वा कायेन वेति, इत्येवं मूलभङ्गाः षट् । उत्तरगुणान् गुणव्रतशिक्षाव्रतरूपानाश्रित्य सामान्येनैक एव भेदो विवक्षित इति सप्तमोऽविरतश्चाष्टम इति । तत्र स्थूलानां निरपराधानां निरपेक्षं सङ्कल्पपूर्वकं प्राणिनां प्राणव्यपरोपणरूपां हिंसां प्रत्याख्यातीतीदं प्रथममणुव्रतम् , श्राद्धानां सूक्ष्मपृथिव्यादिप्राणिवधान्निवृत्त्यभावेन स्थूलानामित्युक्तम् , कृष्याद्यार- 15 म्भजन्यद्वीन्द्रियादिजीवप्राणव्यपरोपणस्य शरीरकुटुम्बनिर्वाहान्यथानुपपत्त्या सम्भवेन सङ्कल्पपूर्वकमित्युक्तम् । सापराधे गुरुलाघवचिन्तनपूर्वकतत्प्रवृत्तिनिवृत्तिसम्भवेनानियमात् निरपराधिनामित्युक्तम् , निरपराधेऽपि वाह्यमानमहिषवृषहयादौ पाठादिप्रमत्तपुत्रादौ च वधबन्धादिकरणान्निरपेक्षमित्युक्तम् । इत्यहिंसाणुव्रतं प्रथमम् । निखिलद्विपदचतुष्पदापदद्रव्यविषयकालीकानि रक्षणाद्यर्थमन्यन्यस्तस्यापलापवचनं देयादेयविषयकमुत्कोचमत्सरादिप्रयुक्तं 20 प्रमाणपूर्वकं वचनञ्च क्लिष्टाशयोद्भूतत्वात्स्थूलासत्यरूपं तस्माद्विरमणं द्वितीयमणुव्रतम् , यथा कन्यालीकं द्विपाद्विषयकं, वस्तुतोऽतथाभूतां द्वेषादिना विषकन्येयं दुश्शीलेयमविषकन्येयं सुशीलेयमित्यादिरूपेण कथनमेकविधमलीकं, गवालीकं चतुष्पाद्विषयमत्राप्यतथाभूतां गां बहुक्षीरेयमल्पक्षीरेयमित्यादिरूपेण वर्णनं द्वितीयमलीकं, भूम्यलीकमपदद्रव्यविषयं, इहापि परकीयां भूमिमात्मीयामिति स्वीयां परकीयामिति ऊपरं क्षेत्रमनूषरमनूषरञ्चोषरमिति वदत- 25 स्तादृग्वचनं तृतीयमलीकं, न्यासनिह्नवो रक्षणायान्यसमर्पितानां सुवर्णादीनामपलापवचनरूपं चतुर्थम् , अपदद्रव्यविषयकालीकेऽस्यान्तर्भावसम्भवेऽपि न्यासनिह्नवस्य महापापत्वात्पृथगुक्तिः,अदत्तादानेऽस्याऽन्तर्भावसम्भवेऽपि क्रियाप्राधान्यात्तस्मादस्य वचनप्राधान्येनात्रोक्तिः । कूटसाक्ष्यं लभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्योत्कोचमत्सरादिनाऽहमत्र साक्षीत्येवं कूटं वदतस्तादृशं Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१३४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे वचनं पञ्चमम् , अस्य इतरपापसमर्थनरूपत्वेन पूर्वालीकेभ्यः पार्थक्येनोपन्यासः । मृषावादो हि क्रोधमानमायालोभरागद्वेषहास्यभयक्रीडाब्रीडारत्यरतिदाक्षिण्यमौखर्यविषादादिभिः सम्भवति, सत्यमपि पीडाहेतुश्चेन्मृषावाद एव, सद्भयो हितं सत्यमिति व्युत्पत्यर्थाभावात् । स च मृषावादः स्थूलसूक्ष्मभेदेन द्विविधः, स्थूलश्श्राद्धस्य परिहार्य एव, स पञ्चविध उपर्युक्त एव, 5. सूक्ष्ममृषावादे तु यतना । असत्यभेदा भूतनिह्नवादयः । एतद्तफलन्तु विश्वासयशस्स्वार्थसिद्धिप्रियाऽऽदेयाऽमोघवचनतादीति द्वितीयमणुव्रतम् ॥ चौर्यव्यवहारनिमित्तस्य अदत्तस्य परद्रव्यस्य ग्रहणान्निवृत्तिस्तृतीयमणुव्रतम् । अदत्तता च स्वामिजीवतीर्थकरगुरुभिर्भाव्या । यथा यद्वस्तु तत्स्वामिनाऽवितीर्णं तत्स्वाम्यदत्तं, यच्च स्वकीयस्यापि सचित्तफलादेविदारणं तत्फलजीवेन निजप्राणानर्पणाजीवादत्तं, संयतानामाधाकर्मादि श्रावकाणाश्च प्रासुकमनन्त10 कायभक्ष्यादिकं तीर्थकराननुज्ञातत्वात्तीर्थकरादत्तं, सर्वदोषमुक्तमपि यद्गुरूननभिमंत्र्य भुज्यते तद्र्वदत्तमुच्यते । अत्र स्वाम्यदत्तेनाधिकारः, तच्च द्विविधं स्थूलसूक्ष्मभेदात्, अत्यन्तस्थूलविषयं कनकादिकं क्षेत्रखलादावल्पमपि फलादिकं वा दुष्टाध्यवसायपूर्वकं ग्रहणं स्तैन्यव्यवहारकारणत्वात्स्थूलं तद्भिन्नञ्च सूक्ष्मं स्वाम्यननुज्ञया तृणकाष्ठादिग्रहणरूपम् । तत्र श्राद्धस्य सूक्ष्मे यतना स्थूलात्तु निवृत्तिः । फलश्चास्य व्रतस्य सर्वजनविश्वास साधुवाद15 समृद्धिवृद्धिस्थैर्यैश्वर्यस्वर्गादिकमिति तृतीयमणुव्रतम् ॥ स्वकीयकलत्रमात्रसन्तोषः स्वीया न्ययोषित्परित्यागो वा श्राद्धानां चतुर्थं मैथुनाणुव्रतम् । अन्ययोषित्पदेन स्वान्यमनुष्याणां देवानां तिरश्वाश्च योषितः परिग्रहः, अपरिगृहीता देव्यस्तिरभ्यश्च काश्चिद्यद्यपि सङ्ग्रहीतुः परिणेतुश्चाभावेन वेश्याकल्पा एव भवन्ति, तथापि परजातीयभोग्यत्वात्परदारा एव ता इति वर्जनीयाः । मैथुनं हि सूक्ष्मस्थूलभेदभिन्नं, कामोदयेनेन्द्रियाणामीषद्विकारस्सूक्ष्मम् । 20 योगैरौदारिकादिस्त्रीणां सम्भोगस्थूलम् , यद्वा ब्रह्मचर्य द्विधा सर्वतो देशतश्च, तत्र योगत्र येण निखिलयोषितां सर्वथा सङ्गत्यागः सर्वतो ब्रह्मचर्य, तदितरत्तु देशतः । तत्र सर्वतोऽशक्तौ देशतः, तच्च स्वदारसन्तोषरूपं वा परदारवर्जनरूपं वा । गृहिणस्वदारसंतोषे ब्रह्मचारिकल्पत्वमेव परदारगमने च वधबन्धादयो दोषाः स्फुटा एवेति चतुर्थमणु व्रतम् । नवविधपरिग्रहेच्छायास्सर्वतस्त्यागासमर्थेन श्रावकेणेयत्ताकरणं पञ्चममणुव्रतम् ॐ तत्र धनधान्यक्षेत्रवास्तुरूप्यसुवर्णकुप्यद्विपदचतुष्पदरूपा नव परिग्रहाः । परिग्रहविरतिर्द्विधा सर्वदेशभेदात् । मूर्छायास्सर्वथा सर्वभावेषु त्यागस्सर्वतः, तदितरो देशतः, तत्र सर्वतस्तत्प्रतिपत्तेश्श्रावकस्य सामर्थ्याभावे देशत इच्छाप्रसरनिरोधः कार्यः । इच्छाप्रसरो हि संसारिणां स्वाभाविकोऽतस्तदियत्ताकरणं महते गुगाय भवति, यथा यथा ह्यल्पो लोभः परिग्रहारम्भश्च तथा तथा सुखं प्रवर्धते धर्मस्य च संसिद्धिर्भवति । एतद्रूतस्य सन्तोषसौख्य Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] म्यायप्रकाशसमलवृते । लक्ष्मीस्थैर्यजनप्रशंसादिफलमिह परत्र च नरामरसमृद्धिसिद्ध्यादीति पञ्चममणुव्रतम् । एतेषामणुव्रतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुणव्रतानि त्रीणि भवन्ति । दिग्व्रतं भोगोपभोगव्रतमनर्थदण्डविरमणश्चेति । नानाविधा दिशश्शास्त्रेऽभिहिताः, तत्र सूर्योपलक्षिता या सा पूर्वा तदनुक्रमेण दक्षिणादिका भाव्याः, तत्र दिक्सम्बन्धिव्रतं दिग्वतं, एतावत्सु पूर्वादिदिग्विदिग्भागेषु गमनादि मयाऽनुष्ठेयं न परत इत्येवम्भूतं दिव्रतम् । गुणव्रतप्रतिपत्ति- 5 मन्तरेणाणुव्रतानां तथाविधविशुद्धिविरहेणेदं गुणव्रतमुच्यते, अनेन चावगृहीतक्षेत्राद्वहिः स्थावरजङ्गमाभयदानलोभाम्भोधिनियंत्रणादिमहालाभो भवति । गृहस्थो ह्यारम्भपरिग्रहपरत्वाद्यत्र यत्र याति भुङ्क्ते शेते व्यापार वा कुरुते तत्र तत्र तप्तायोगोलकवजीवोपमई करोतीति तस्यैव हिंसादिपापस्थाननिवर्तकमेतत् , न साधूनाम् , समितिगुप्यादिप्रधानव्रतशालित्वात्तेषामिति प्रथमं गुणव्रतम् । भोगोपभोगमानव्रतं द्वितीय, तत्र भोगस्सकृदेव भोगयोग्यो यथाऽ. 10 नमाल्यताम्बूलादि, पुनः पुनर्भोगयोग्य उपभोगो यथा वनितावस्त्रालङ्कारगृहशयनादि, तत्र यथाशक्ति परिमाणकरणं भोगोपभोगमानव्रतम् , तत्र श्रावकेण निसर्गतो निरवद्याहारभोजिना भवितव्यम् , तस्मिन्नसति सचित्तपरिहारः कर्तव्यः, तत्राप्यसामर्थेऽतीव सावद्यान्मद्यामिषानन्तकायादीन् विहाय प्रत्येक मिश्रसचित्तादीनां परिमाणन्तु कर्त्तव्यमेव, तथा विना महोत्सवादिकारणविशेषेणातीव चेतोविकारासक्तिजनापवादादिनिमित्तात्युद्भटवेषवाहनाल- 15 कारादिकमपि श्रावको वर्जयेत्, एवमतिमालिन्यातिस्थलह्वस्वसच्छिद्रवस्त्रादिपरिधानेऽपि फुचेलत्वकार्पण्यादिलोकापवादहास्यप्रसङ्गेन निजसम्पत्तिवयोवासस्थानकुलादियोग्यं वेषमारचयेत् । उचितवेषादौ च प्रमाणनियमनमनुष्ठेयम् । एवं दन्तकाष्ठाभ्यङ्गतैलोद्वर्त्तनमज्जनवस्त्रविलेपनाभरणपुष्पफलधूपासनशयनभवनादेस्तथौदनसूपस्नेहशाकपेयाखण्डखाद्याद्यशनपानखादिमस्वादिमादेस्त्यक्तुमशक्यस्य व्यक्त्या प्रमाणं कार्य शेषश्च त्याज्यम् , इत्येवं भोजन-20 माश्रित्योक्तम् । कर्मतोऽपि श्रावकेण मुख्यतो निरवद्यकर्मप्रवृत्तिमता भवितव्यम् । तदशक्तावप्यत्यन्तसावद्यविवेकिजननिन्द्यक्रयविक्रयादिकर्म वर्जनीयं, शेषकर्मणामपि प्रमाणं करणीयम् । इत्थश्चेदं व्रतं भोक्तं योग्येषु परिमाणकरणेन इतरेषु तु वर्जनेन भवतीति द्वितीयं गुणव्रतम् । अनर्थदण्डविरमणं तृतीयं, अर्थः प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्रवस्तुधनधान्यं शरीरपालनादिविषयं तदर्थमारंभो भूतोपमर्दोऽर्थदण्डः, दण्डो निग्रहो यातना विनाश इति के पर्यायाः । अर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्डः, स चैवम्भूत उपमर्दनलक्षणो दण्डः क्षेत्रादि प्रयोजनमपेक्षमाणोऽर्थदण्ड उच्यते, स्वस्वीयस्वजनादिनिमित्तं हि विधीयमानो भूतोपमर्दस्सप्रयोजनत्वादर्थदण्डो भवति, तद्विपरीतोऽनर्थदण्डः, तद्भेदास्तु चत्वारोऽपध्यानपापकर्मोपदेशहिंसकार्पणप्रमादाचरणभेदात् । तत्राप्रशस्तं यदातरौद्रभेदभिन्नं स्थिराध्यवसानरूपं ध्यान Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ९३६ : तस्वम्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे तदपध्यानं, एतत्परिमाणश्चान्तर्मुहूर्त्तम् । पापप्रधानं तद्धेतुभूतं वा कर्म पापकर्म, यथा कृष्यादिकम् , तस्योपदेशस्तत्प्रवर्त्तनवाक्यं पापकर्मोपदेशः, यथा क्षेत्रं कृष, वृषवृन्दं षण्डय हयान दमय क्रथय शत्रून , यंत्रं वाहय, शस्त्रं सज्जय, इत्यादिरूपा उपदेशाः । तथा समापतितो वर्षाकालो दीयतां वल्लरेष्वग्निः, सज्जीक्रियतां हलफलकादि, अतिक्रामति वापकालो 5 भृताः केदारा गाह्यन्तां सार्धदिनत्रयमध्ये, उप्यन्ताश्च ब्रीहयः, जातावस्था कन्यका विवा ह्यतां शीघ्र, प्रत्यासीदन्ति प्रवहणपूरणदिवसाः प्रगुणी क्रियन्तां प्रवहणानीत्यादि सर्वोऽपि पापोपदेश उत्सर्गतश्रावकेण त्याज्यः, अपवादतस्तु दाक्षिण्यादिविषये यतना कार्या । तथा हिं सकानामायुधानलविषादीनामर्पणं दानं हिंसकार्पणं, एवम्भूताः पदार्था उत्सर्गतो न देया अपवादतस्तु यतना विधेया । तथा प्रमादेन प्रमादस्य वाऽऽचरणं प्रमादाचरणम् , प्रमादाश्च 10 मद्यविषयकषायनिद्राविकथारूपाः पञ्चविधास्तदाचरणमपि वर्ण्यमेव । एवमेव घृतादिपात्रा णामनाच्छादनं सत्यपि जन्तुरहिते स्थाने सचित्तस्योपरि स्थितिकरणं गमनं वस्त्रादिनिक्षेपणं वा, पनककुन्थ्वाद्याक्रान्तभुव्यश्रवणादेः परित्यजनं, अयतनया कपाटार्गलादानादि, वृथा पत्रपुष्पादित्रोटनमृत्खटीवर्णिकादिमर्दनवयुद्दीपनगवादिघातदानशस्त्रव्यापारणनिष्ठुरमर्मभाषण. हास्यनिन्दाकरणादि, रात्री दिवाप्ययतनया वा स्नानकेशग्रथनरन्धनखण्डनदलनभूखनन15 मृदादिमर्दनलेपनवस्त्रधापनजलगालनादि च प्रमादाचरणम् , श्लेष्मादीनां व्युत्सर्गे स्थगना द्ययतनापि प्रमादाचरणम् , मुहूर्त्तानन्तरं तत्र संमूछिममनुष्यसंमूर्च्छनतद्विराधनादिमहादोषसम्भवात् , एवमधिकरणभूतस्य शस्त्रादेः मलमूत्रादेश्वाऽव्युत्सर्जनमपि । स्वकार्ये कृतेऽपि ज्वलदिन्धनप्रदीपादेरविध्यापनमपि तथा, अग्निविध्यानापेक्षया तदुद्दीपने बहुजीवविरा धनायाः प्रतिपादनात् । अपिहितप्रदीपचुल्हकादिधारणचुल्लकोपरि चन्द्रोदयाप्रदानाद्यपि 20 तथा, अशोधितेन्धनधान्यजलादिव्यापारणमपि तथा । एवमेष चतुर्विधोऽप्यनर्थदण्डोऽनर्थ हेतुर्निरर्थकश्च, तथा ह्यपध्यानेन नास्ति काचिदिष्टसिद्धिः प्रत्युत चित्तोद्वेगवपुःक्षीणता शून्यताघोरदुष्कर्मबन्धदुर्गत्याद्यनर्थ एव, अतोऽशक्यपरिहारं जात्वपध्यानं क्षणमात्रं स्यात्तदाऽपि सद्य एव परिहार्य मनोनिग्रह य तनया, पापोपदेशहिंस्रप्रदाने च स्वजनादावन्यथा निर्वाहादर्शनाःशक्यपरिहारे, अन्येषु तु पापाद्यनर्थफले एव । प्रमादाचरितेऽपि मुधैवाय25 तनादिनिमित्तो हिंसादिदोषः, यतनां विना च प्रवृत्तौ सर्वानर्थदण्ड एव, अतस्सदयतया सर्वव्यापारेषु सर्वशक्त्या श्रावकेण यतनायां यतनीयमिति तृतीयं गुणव्रतम् ॥ शिक्षापदव्रतं, शिक्षणं शिक्षा, अभ्यासस्तस्यै तस्या. वा पदानि शिक्षापदानि तान्येव व्रतानि शिक्षापद. व्रतानि, एतेषां नित्याभ्यसनीयत्वेन गुणव्रतानामपि शिक्षाव्रतेष्वन्तर्भावस्सम्भवति तथापि गुणब्रतानां प्रायो यावज्जीवकत्वात् स्वल्पकालिकत्वाच्च शिक्षापदव्रतानां भेदः, एतानि Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधः म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १३७ : चतुर्विधानि, सामायिकं देशावकाशिकं पोषधोपवासोऽतिथिसंविभागश्चेति, आये द्वे प्रतिनियतदिवसानुष्ठेये पुनः पुनरुच्चारणीये, अपरौ द्वौ प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ । तत्र सामायिकं, समो रागद्वेषवियुक्तो यस्सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति तस्य प्रतिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूताया विशुद्धेरायो लाभस्समायः स एव सामायिकम् , वाचिककायिकसावद्यकर्ममुक्तस्यातरौद्रध्यानरहितस्य च प्राणिनो घटीद्वयकालं यावत्समत्वं सामायिक, मनोवाकायचेष्टा- 5 परिहारमन्तरेण तदसम्भवाद्विशेषणद्वयम् । समस्य रागद्वेषविमुक्तस्य सत आयो ज्ञानादीनां लाभः प्रशमसुखरूपः, समानां वा मोक्षसाधनं प्रति सदृशसमर्थानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामायो लाभस्समायः, समाय एव सामायिकं, विनयादेराकृतिगणत्वात् ठक् प्रत्ययः । समायः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । सामायिकस्थइश्रावकोऽपि यतितुल्यो भवत्यत एव तदानीं देवपूजादौ नाधिकारः, सामायिके सति भावस्तवस्य प्राप्तत्वेन तदर्थ द्रव्यस्तवस्या- 10 नावश्यकत्वात् । सामायिकविधिस्तु तत्तद्वन्थेभ्यो ज्ञातव्यः । व्रतमिदं बहुनिर्जराफलकत्वेन प्रत्यहं श्रावकेणानुष्ठेयम् । इति प्रथमं शिक्षापदव्रतम् । देशावकाशिकं, दिग्वत. गृहीतस्य दिक्षरिमाणस्य यावज्जीवं संवत्सरं चतुर्मासी वा यावत् दशदिक्षु योजनशताद्यवधिकसंकल्पितगमनादेः मुहूर्त प्रहरदिनाहोरात्रादिं यावत् संकोचनं गृहशय्यास्थानादेः परतो निषेधनरूपम् । देशे दिग्व्रतगृहीतपरिमाणस्य विभागेऽवकाशोऽवस्थानं देशावकाशः, 15 सोऽत्रास्तीति देशावकाशिकम् । सर्वव्रतानां संक्षेपकरणावश्यकत्वेन तत्तव्रतसंक्षेपकरणस्य भिन्नभिन्नव्रतत्वे द्वादशसंख्याविरोधेन च व्रतमिदं अणुव्रतादिसंक्षेपकरणरूपमपीति सर्वव्रतसंक्षेपकरणरूपमिति भाव्यम् । तथैवैतदतिचारोऽपि तत्तदनुसार्यतिचाराणामुपलक्षको ज्ञेयः । यद्वा प्राणातिपातादिब्रतान्तरसंक्षेपकरणेषु वधबन्धादय एवातिचाराः, दिग्व्रतसंक्षेपकरणे तु क्षेत्रस्य संक्षिप्तत्वात् प्रेष्यप्रयोगादयोऽतिचाराः, भिन्नातिचारसम्भवाच्च 20 दिग्बतसंक्षेपकरणस्यैव साक्षाद्देशावकाशित्वमुक्तमिति द्वितीयं शिक्षापदव्रतम् ॥ पोषधव्रतं, अष्टमीचतुर्दशीपूर्णिमाऽमावास्यालक्षणपर्व तिथिषु आहारशरीरसत्काराब्रह्मसावद्यकर्मणां त्यागः पोषधव्रतम् , पोषधोपवासस्य चतुर्विधत्वात् , तत्र धर्मस्य पोषं पुष्टिं धत्त इति पोषधः, स एव व्रतं पोषधव्रतं पोषधोपवास इत्युच्यते, प्रोक्तपर्वदिवसानुष्ठेयो व्रतविशेषः पोषधस्तेनोपवसनमवस्थानं पोषधोपवासः, अथवा पोषधोऽष्टम्यादिपर्वदिवसः, उपावृत्तदोषस्य 25 सतो गुणैराहारपरिहारादिरूपैः उप-सह वास उपवासः पोषधेषुपवासः पोषधोपवासः । व्युत्पत्तिमात्रमिदम् , प्रवृत्तिस्तु पोषधोपचासशब्दस्योपर्युक्ताहारादिचतुष्कवर्जनेषु । तथा च पोषधोपवास आहारशरीरसत्काराब्रह्माव्यापाररूपविषयभेदाच्चतुर्धा, पोषधशब्दोऽपि तत्र प्रयु १८ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [ सप्तमाकरणे ज्यते, तत्रापि प्रत्येकं देशसभेदादष्टधा भवति, तत्राऽऽहारपोषधो देशतो विवक्षितविकृतेरविकृतेराचाम्लस्य वा सकृदेव द्विरेव वा भोजनमिति, सर्वतस्तु चतुर्विधस्याप्याहारस्याऽहोरात्रं यावत्प्रत्याख्यानम् , शरीरसत्कारपोषधो देशतश्शरीरसत्कारस्यैकतरस्याऽकरणम्, सर्वतस्तु सर्वस्यापि तस्याऽकरणम् , अब्रह्मत्यागरूपब्रह्मचर्यपोषधोऽपि देशतो दिवैव रात्रावेव सकृदेष 5 द्विरेव वा स्त्रीसेवा मुक्त्वा ब्रह्मचर्यकरणम् , सर्वतस्वहोरात्रं यावद् ब्रह्मचर्यपालनम् । अव्यापारपोषधस्तु देशतो एकतरस्य कस्यापि कुव्यापारस्याऽकरणम् , सर्वतस्तु सर्वेषां कृषिसेवावाणिज्यपाशुपाल्यगृहकर्मादीनामकरणम् । तत्र देशतः कुव्यापारनिषेधे सामायिक तु करोति न वा, सर्वतः कुत्र्यापारनिषेधे तु नियमात्तत्करोति । अकरणे तु तत्फलेन वंच्यते । सर्वतः पोषधव्रतञ्च चैत्यगृहे वा साधुमूले वा गृहे वा पोषधशालायां वा त्यक्तमणि10 सुवर्णाद्यलंकारो व्यपगतमालाविलेपनवर्णकः परिहृतप्रहरणः प्रतिपद्यते, तत्र च कृते पठति पुस्तकं वाचयति, धर्मध्यानं ध्यायति यथैतान साधुगुणानहं मन्दभाग्यो न समर्थो धारयितुमिति । एतेषां चाहारादिपदानां चतुर्णा देशसर्वभेदानामेकद्व्यादिसंयोगजा अशीतिर्भङ्गा भवन्ति, तदेतत्सर्वमन्यग्रन्थेभ्योऽवसेयमिति तृतीयं शिक्षापदव्रतम् ।। अथाऽतिथिसंविभाग. व्रतं, न विद्यन्ते सततप्रवृत्त्या विशदैकाकारानुष्ठानतया तिथयो दिनविभागा यस्य सोऽतिथिः, 15 उक्तञ्च । तिथिपर्वोत्सवास्सर्वे त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदु' रिति । तस्य सङ्गतो विभागोऽतिथिसंविभागः, तथा च तिथिपैर्वादिलौकिकपर्वपरित्यागाद्भोजनकाल उपस्थितेभ्यः साधुभ्यो न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तेन परया भक्त्याऽऽत्मानुग्रहबुद्ध्या यहीयते सोऽतिथिसंविभाग स्तद्रूपं व्रतमिति । आदिनात्र वस्त्रपात्रादीनां ग्रहणम् , न च शास्त्रे वस्त्रादिदातार आहारदा20 तृश्रवणमिव न श्रूयन्ते न वा वस्त्रदानस्य फलमिति वाच्यम् , भगवत्यादौ वस्त्रादिदानस्य साक्षादुक्तत्वात् , संयमोपकारित्वाच्च तेषाम् । अत्र वृद्धोक्ता सामाचारी-पोषधं पारयता श्रावकेण नियमात्साधुभ्यो दत्त्वा पारयितव्यमन्यदा पुनरनियमो दत्वा वा पारयति पारयित्वा १. अभ्यागतव्यावृत्तये साधुभ्य इत्यन्तं पदम् । अन्यायेनाऽऽगतानामन्त्रादीनां व्यावर्त्तनाय न्यायागतानामिति, द्विजक्षत्रियविटशूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठानं न्यायं, स्ववृत्तिश्च प्रायो लोकव्यवहार्या प्रसिद्धव, अकल्पनीयव्यवच्छेदाय कल्पनीयानामिति, उद्मादिदोषवर्जितानामिति तदर्थः । अन्नपानादीनामित्यत्रादिना वस्त्रपात्रौ. षधादिपरिग्रहः, इदञ्च विशेषणं हिरण्यादिव्यवच्छेदाय । अदेशाकालासत्काराक्रमव्यवच्छेदाय देशकालसत्कारक्रमयुक्तनेति, तत्र नानाव्रीहिकोद्रवकगोधूमादिनिष्पत्तिभाक् देशः, सुभिक्षदुर्भिक्षादिः । कालः, विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः, तैयुक्तनेत्यर्थः । फलप्राप्तौ भक्तिकृतमतिशयमाह परया भक्त्येति, यत्यनुपहबुद्धया प्रदानवारणायाऽऽत्मानुग्रहबुद्धयेति ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकार श्रावकधर्मः ] वा ददाति, तस्मात् पूर्व साधुभ्यो दत्त्वा पश्चात्पारयितव्यम् । कथम् ? यदा भोजनकालो भवति तदाऽऽत्मनो विभूषां कृत्वा प्रतिश्रयं च गत्वा साधूनिमंत्रयते । भिक्षां गृहीते 'ति । साधूनाश्च तं प्रति का प्रतिपत्तिः ?, उच्यते, तदैकः पटलमन्यो मुखान्तकमपरो भाजनं प्रत्युपेक्षते, मा अन्तरायदोषाः स्थापनादोषा वा भवन्तु इति । यदि स च प्रथमायां पौरुष्यां निमंत्रयते, अस्ति च नमस्कारसहितप्रत्याख्यानीयस्ततस्तद्गृह्यते, अथ नास्त्यसौ तदा न 5 गृह्यते यतस्तद्वोढव्यं भवति, यदि पुनर्बाढं लगेत् तदा गृह्यते संस्थाप्यते च, यो वोद्बाट. पौरुष्यां पारयति पारणकवानन्यो वा तस्मै तद्दीयते, पश्चात्तेन श्रावकेण सह संघाटको व्रजति, एको न वर्तते प्रेषयितुम् , साधू पुरतः श्रावकस्तु मार्गे गच्छति, नतोऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमंत्रयते, यदि निविशेते, तदा भव्यं, अथ न निविशेते तथापि विनयः प्रयुक्तो भवति, ततोऽसौ भक्तं पानश्च स्वयमेव ददाति, भाजनं वा धारयति, स्थित एवाऽऽ- 10 स्ते यावदीयते, साधू अपि पश्चात्कर्मपरिहारार्थ सावशेषं गृहीतः, ततो वन्दित्वा विसर्जयति, अनुगच्छति च कतिचित्पदानि, ततः स्वयं भुङ्क्ते । यदि पुनस्तत्र प्रामादौ साधवो न भवन्ति तदा भोजनवेलायां द्वारावलोकनं करोति, विशुद्धभावेन च चिन्तयति । यदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोऽभविष्यमिति, एष पोषधपारणके विधिः, अन्यदा तु दत्त्वा भुते भुक्त्वा वा ददातीति द्वादशव्रतानि श्रावकाणाम् । एतानि च निरतिचारतया परिपालितानि 15 विशेषतो गृहिधर्मो भवतीत्यतिचारा विज्ञेयाः, तत्र पञ्च पञ्चातिचाराः प्रतिव्रतं भवन्ति । ननु संज्वलनकषायोदयप्रभवत्वादतिचाराणामप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानोदयवतां सम्यग्दृष्टिदेशविर तानां ते कथं सम्भवन्ति, संज्वलनकषायोदयवतस्सर्वविरतस्यैव तेषां संभवात् , देशविरतेरल्पीयस्त्वात् कुन्थुशरीरे व्रणाद्यसम्भववत्, इति चेन्मैवम् , उपासकदशादिषु प्रतिव्रतमतिचारपञ्चकाभिधानात् सर्वविरतौ संज्वलनोदयेऽतिचारा भवन्ति शेषाणामुदये मूलच्छेद्यमेव 20 स्यादित्यभिप्रायेण सर्वविरतावतिचारहेतुत्वेन संज्वलनोदयस्य शास्त्रे प्रोक्तत्वात् , न तु संज्वलनोदयमात्रजन्यत्वमतिचाराणाम् , ' सव्वेवि अ अइआरा संजलणाणं तु उदयओ हुंति । मूलछिज्जं पुण होइ बारसण्हं कसायाणं' इति । सर्वविरतेस्तृतीयानामुदये मूलच्छेदो देशविरतेर्द्वितीयानां सम्यक्त्वस्य प्रथमानामिति गाथापश्चार्धस्याभिप्रायवर्णनेऽपि यथा संज्वलनोदये सर्वविरतिरवाप्यते तत्रातिचाराश्च भवन्ति तथा प्रत्याख्यानावरणोदये देशविरतिस्तदतिचाराश्च, 25 अप्रत्याख्यानोदये सम्यक्त्वं तदतिचाराश्च भवन्तु न्यायस्य समानत्वात् , विचित्रो ह्युदयः कषायाणां, ततोऽसौ गुणलाभस्याप्रतिबन्धकस्तदतिचाराणाञ्च निमित्तं भवति संज्वलनोदयवदिति । तत्र प्रथमत्रतस्य प्रकृष्टक्रोधोदयात् वधः, बन्धः, छविच्छेदः, अतिभारारोपणं, भक्त पानव्यवच्छेदश्चेति पश्चातिचारा भवन्ति, क्रोधाच्चतुष्पदादीनां लगुडादिना ताडनं वधः, प्रबल Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे कषायोदयादेव विज्ञेयस्तेन विनयग्रहणार्थ स्वपुत्रादीनां ताडनेऽपि न क्षतिः । तेषामेव रज्वादिना नियंत्रणं बन्धः, सोऽपि पुत्रादीनां क्रियत इति प्रबलक्रोधादेवेति भाव्यम् । छविश्शरीरं त्वग्वा, तस्याश्छेदः, छविच्छेदः, कर्णनासिकागलकम्बलपुच्छादिकर्त्तनम् , अयमपि क्रुध इत्येव तेन पादवल्मीकोपहतपादस्य पुत्रादेस्तत्करणेऽपि नातिप्रसङ्गः । अतिशयितो भारोऽतिभारः, 5 वोढुमशक्य इत्यर्थः,तस्यारोपणं गोकरभरासभमनुष्यादेः स्कन्धे पृष्ठे शिरसि वा स्थापन, इहापि क्रोधाल्लोभावति विज्ञेयम् । अशनपानादीनां निषेधः क्रोधाद्भक्तपानव्यवच्छेदः, एते पश्चाऽतिचारा नाममात्रेणोक्ता विस्तरस्तु तत्तद्वन्थेभ्योऽवसेयः, एवमग्रेऽपि, सहसाभ्याख्यानं मिथ्यो. पदेशो गुह्यभाषणं कूटलेखो विश्वस्तमंत्रभेदश्चेति द्वितीये व्रते पश्चातिचाराः, अविमृश्यास होषाध्यारोपणं सहसाभ्याख्यानं यथा चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि । अन्ये त्वस्य स्थाने रहस्या10 भ्याख्यानं पठन्ति, तदा रह एकान्तस्तत्र भवं रहस्यं, रहस्येनाभ्याख्यानमसदध्यारोपणं यथा वृद्धायै वक्ति-अयं ते भर्ता तरुण्यामतिप्रसक्तः, तरुण्यै वक्ति-अयं ते भर्ती प्रौढचेष्टितायां मध्यमवयसि प्रसक्त इत्यादि रहस्याभ्याख्यानमिति । असदुपदेशो मिथ्योपदेशः, प्रतिपन्न सत्यव्रतस्य हि परपीडाकरं वचनम सत्यमेव, ततः प्रमादात् परपीडाकरणे उपदेशोऽतिचारः, यथा वाह्यन्तां खरोष्ट्रादयो हन्यन्तां दस्यव इत्यादि, यद्वा यथास्थितोऽर्थस्तथोपदेशः साधी15 यान् , विपरीतस्त्वयथार्थोपदेशो यथा परेण सन्देहापन्नेन पृष्टे न तथोपदेशः, यद्वा विवाहे स्वयं परेण वाऽन्यतराभिसन्धानोपायोपदेश इति । यन्न सर्वस्मै कथनीयं तस्यानधिकृतेनैवाकारेङ्गितादिभित्विाऽन्यस्मै प्रकाशनं गुह्यभाषणं, यथा-एते हीदमिदं च राजविरुद्धादिकं मंत्रयन्ते अथवा गुह्यभाषणं पैशुन्यं, यथा द्वयोः प्रीतो सत्यामेकस्याकारादिनोपलभ्याभि प्रायमितरस्थ तथा कथयति यथा प्रीतिः प्रणश्यति, अस्याप्यतिचारत्वं रहस्याभ्याख्यानवत् 20 हास्यादिनैवेति । अन्यसदृक्षाक्षरमुद्राकरणं कूटलेखः, एतच्च यद्यपि कायेनासत्यां वाचं न वदामि नवा वादयामीत्यस्य वा व्रतस्य भङ्ग एव तथापि सहसाकारानाभोगादिनाऽतिक्रमादिना वाऽतिचारः, अथवाऽसत्यमित्यसत्यभणनं मया प्रत्याख्यातं, इदं पुनर्लेखनमिति १. नन बन्धादयो नातिचारा:, श्रावण हिंसाया एव प्रत्याख्यातत्वात हिंसाविरतरखण्डितत्वाच्च तेषामपि प्रत्याख्यातत्वे च तत्करणे विरतिखण्डनाद् व्रतभङ्ग एव स्यात् तथा व्रतेयत्ताभङ्गोऽपि स्यात्प्रतिव्रतमतिचाराणामाधिक्यादिति चेन्मैवम् , हिंसामात्रस्य प्रत्याख्यातत्वेऽपि तेषामप्यर्थतः प्रत्याख्यातत्वात् हिंसोपायत्वात्तेषाम् । न च तत्करणे व्रतभङ्ग एव नातिचार इति वाच्यम् , देशस्यैव भञ्जनाद्देशस्यैव पालनादतिचारव्यपदेशात् । द्विविधं हि व्रतमन्तवृत्त्या बहिवृत्त्या च, यदा मारयामीति विकल्पविरहकालीनक्रोधादिप्रयुक्तनिरपेक्षवधादिप्रवृत्तिः हिंसाऽभावश्च तदा निर्दयतया विरत्यनपेक्षप्रवृत्तितयाऽन्तवृत्त्या तस्य भंगो हिंसाया अभावाच बहिर्वृत्त्या पालनमिति ॥ २. अविमृश्यकारित्वं सहसाकारः, असावधानताऽनाभोगः, व्रतभङ्गाय केनचिनिमंत्रणे कृतेऽप्रतिषेधादतिक्रमः, गमनादिव्यापारे व्यतिक्रमः, क्रोधाद्वधबन्धादावतिचारः, जीवहिंसादौ स्वनाचार इति । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते भावनया व्रतसापेक्षस्यातिचार एव । विश्वासमुपगतानां मंत्रणस्य प्रकाशकरणं विश्वस्तमंत्रकरणम् , अस्यानुवादरूपत्वेन सत्यत्वाद्यद्यपि नातिचारता घटते तथापि मंत्रितार्थप्रकाशनजनितलज्जादितो मित्रकलत्रादेर्मरणादिसम्भवेन परमार्थतोऽस्यासत्यत्वात् कथञ्चिद्भङ्गरूपत्वेनातिचारतैव । गुह्यभाषणे गुह्यमाकारादिना विज्ञायानधिकृत एव गुह्यं प्रकाशयति, इह तु स्वयं मंत्रयित्वा मन्त्रं भिनत्तीत्यनयोर्भेद इति ॥ स्तेनाहृतग्रहः स्तेनप्रयोगः । मानविप्लवः, शत्रुराज्यगमनं, प्रतिरूपव्यवहार इति तृतीयव्रतस्यातिचाराः। चोरानीतपदार्थानां मूल्यादिना ग्रहणं स्तेनाहृतग्रहः, स्तेनाहृतं हि काणक्रयेण मुधिकया वा प्रच्छन्नं ग्रहणं चौरो भवति, यतो नीतिः · चौरश्चौरापको मन्त्री भेदज्ञः काणकक्रयी । अन्नदः स्थानदश्चेति चौरस्सप्तविधः स्मृतः' इति ततश्चौर्यकरणागतभङ्गः, वाणिज्यमेव क्रियते मया न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वाच्चाभङ्ग इति भङ्गाभंगरूपः प्रथमोऽ- 10 तिचारः । स्तेनानामभ्यनुज्ञानं हरत यूयमित्यादिरूपेण, स्तेनोपकरणानां वा कुशिकाकतरिकाघर्घरिकादीनामर्पणं विक्रयणं वा स्तेनप्रयोगः। अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि न कारयामीत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य स्तेनप्रयोगो व्रतभङ्ग एव, तथापि 'किमधुना यूयं नि र्व्यापारास्तिष्ठत, यदि वो भक्तादि नास्ति तदाऽहं तद्ददामि, भवदानीतमोषस्य वा यदि विक्रायको न विद्यते तदाऽऽहं विक्रेष्ये' इत्येवंविधवचनैश्चोरान व्यापारयतः स्वकल्प- 15 नया तद्व्यापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतिचार इति द्वितीयोऽतिचारः । मानस्य कुडवादिपलादिहस्तादेः हीनाधिकत्व करणं मानविप्लवः, हीनमानेन दानमधिकमानेन च ग्रहणं तत्त्वतश्चौर्यमेव, न चैवं श्रावकस्य युज्यत इति तृतीयोऽतिचारः। विरुद्धयो राज्ञोर्यद्राज्यं तत्र राज्ञाऽननुज्ञाते गमनं शत्रुराज्यगमनम् । शत्रुराज्यगमनस्य यद्यपि स्वस्वामिनाऽननुज्ञातस्यादत्तादानरूपत्वेन तदनुष्ठातृणाश्च चौर्यदण्डयोगेनादत्तादानरूपत्वाद्तभङ्ग एव 20 तथापि शत्रुराज्यगतिं कुर्वता मया वाणिज्यमेव कृतं न चौर्यमिति भावनया व्रतसापेक्षत्वालोके च चोरोऽयमिति व्यपदेशाभावादतिचारता, उपलक्षणत्वाद्राजनिषिद्धवस्तुग्रहणमपि तथेति चतुर्थोऽतिचारः । सदृशवस्तुना व्यवहरणं प्रतिरूपव्यवहारः, यथा व्रीहीणां पलञ्जि, घृतस्य वसा, तैलस्य मूत्रं, हिङ्गोः खदिरादिवेष्टः चणकादिवेष्टं गुन्दादि वा, कुडमस्य कृत्रिमं तत् कुसुम्भादि वा, मञ्जिष्ठादेश्चित्रकादि, तथा विधाय विक्रयणं, यद्वाऽपहृतानां 25 गवादीनां सशृङ्गाणां अग्निपक्ककालिङ्गीफलस्वेदादिना शृङ्गाण्यधो मुखानि प्रगुणानि तिर्यग्वलितानि वा विधायान्यत्वमिव तेषामापाद्य सुखेन धारणविक्रयादि करोतीति पञ्चमः । मानविप्लवः प्रतिरूपक्रिया च परव्यसनेन परधनग्रहणरूपत्वाद्भङ्ग एव, केवलं खात्रखननादिकमेव चौर्य प्रसिद्धं मया तु वणिक्कलैव कृतेति भावनया व्रतरक्षणोद्यतत्वादतिचार इति ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे परविवाहकरणं, अनात्तागमः , इत्वरात्तागमः, अनङ्गक्रीडनं, कामतीव्ररागश्चेति पञ्चातिचाराश्चतुर्थव्रते । स्वस्वापत्यव्यतिरिक्तानां कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा परिणयनविधानं परविवाहकरणम् । इदश्च स्वदारसन्तोषवता स्वकलत्रात्परदारवर्ज केन च स्वकलत्र वेश्याभ्यामन्यत्र मनोवाक्कायमैथुनं न कार्यं न च कारणीयमिति यदा प्रतिपन्नं तदा परविवाह5 करणं मैथुनकारणमर्थतः प्रतिषिद्धमेव भवति तद्बती तु मन्यते, विवाह एवायं मया विधीयते न मैथुनं कार्यते इति व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । कन्याफललिप्सा च सम्यग्दृष्टेरव्युत्पन्नावस्थायां मिथ्यादृष्टेस्तु भद्रकावस्थायामनुग्रहार्थं व्रतदाने सा संभवतीति । अनात्तागमः, अनात्ता-अपरिगृहीता वेश्या स्वैरिणी प्रोषितभर्तृका कुलाङ्गना वाऽनाथा, तस्या गम आसेवनम् , अनाभोगादिनाऽतिचारोऽयं स्वदारसन्तोषिणः । इत्वरात्तागमः, इत्वरी प्रतिपुरुषमयनशीला वेश्येत्यर्थः, 10 सा चासावात्ता च कश्चित्कालं भाटीप्रदानादिना सङ्ग्रहीता, इत्वरात्ता, इत्वरकालं वाऽऽत्ता इत्वरात्ता तस्या गम आसेवनमित्वरात्तागमः, अयञ्च भाटीप्रदानत्वादित्वरकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापेक्षत्वान्न भङ्गः, अल्पकालपरिग्रहाच्च वस्तुतोऽन्यकलत्रत्वाद्भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपत्वादतिचारः, अयमपि स्वदारसन्तोषिण एव, न तु परदारवर्जकस्य, इत्वरात्ताया वेश्यात्वेनातायास्त्वनाथतयैवापरदारत्वात् शेषास्त्वतिचारा द्वयोरपि ॥ अनङ्गक्रीडनं, अनङ्गः कामः, स च पुंसः स्त्रीपुंनपुंसकेषु सेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा, वेदोदयात् योषितोपि योषिन्नपुंसकपुरुषासेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा, नपुंसकस्याऽपि नपुंसकपुरुषस्त्रीसेवनेच्छा हस्तकर्मादीच्छा वा, एषोऽनङ्गो नान्यः कश्चित्, तेन तस्मिन् वा क्रीडनं रमणमनङ्गक्रीडनम् , अथवा स्वलिङ्गेन कृतकृत्योऽपि काष्टपुस्तफलमृत्ति काचर्मादिघटितैराहार्यैः प्रजननैर्योषितामवाच्यदेशं पुनः पुनः कुनाति केशाकर्षणप्रहारदान20 दन्तनखकदर्थनादिप्रकारेण मोहनीयकर्मावेशात्तथा क्रीडति यथा बलवान् रागः प्रसूयते, यद्वा अङ्गं देहावयवो मैथुनापेक्षया योनिर्मेहनञ्च, तद्व्यतिरिक्तान्यनङ्गानि, कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडनमिति । कामतीव्ररागः, कामे तीब्रो रागः, अतीवाऽऽग्रहः परित्यक्तान्यसकलव्यापारस्य मैथुनेऽध्यवसायता,योषामुखकक्षोपस्थान्तरेषु अवितृप्ततया प्रक्षिप्य लिङ्गं महती वेलां निश्चलो मृत इवास्ते चटक इव चटकां मुहुमुहूंर्योषामारोहति, जातबलक्षयश्च वाजीकरणान्युपयुङ्क्ते इति । अत्र च श्रावकोऽत्यन्तपापभीरुतया ब्रह्मचर्य चिकीर्षुरपि यदा वेदोदयासहि. ष्णुतया तद्विधातुं न शक्नोति तदा यापनामात्रार्थ स्वदारसन्तोषादि प्रतिपद्यते, मैथुनमात्रेण च १. ननु स्वापत्यविवाहने कथं न दोषः ? परविवाहनवदिति चेत्सत्यम् , निजकन्यायाः परिणयनाभावे स्वच्छन्दचारिणीत्वप्रसङ्गेन शासनोपघातसम्भवात् , कृते तु विवाहे पतिनियंत्रितत्वेन तदसम्भवादिति। सत्यपि कलत्रे तत्र विशिष्ट सन्तोषाभावात्स्वयं पुनः कलत्रान्तरस्य विवाहनं परकलविवाहनं स्वदारसन्तोषवतोऽतिचार इति केचित् ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १४३ : यापनायां सम्भवन्त्यामनङ्गक्रीडनका मतीव्ररागावर्थतः प्रतिषिद्धौ, तत्सेवने च न कश्चिद्गुणः प्रत्युत तात्कालिकी छिदा राजयक्ष्मादयश्च रोगा दोषा एव भवन्ति, एवं प्रतिषिद्धाचर - णाद्भङ्गो नियमाबाधनाश्चाभङ्ग इत्यतिचारावेतौ ॥ धनधान्यसंख्यातिक्रमः, क्षेत्र वास्तुसंख्यातिक्रमः, रूप्यस्वर्णसंख्यातिक्रमः, गोमनुष्यादिसंख्यातिक्रमः, कुप्यसंख्यातिक्रमश्चेति पश्च पञ्चमव्रतातिचाराः | धनधान्यादीनां यावज्जीवं चतुर्मासादिकालावधि वा यत्परिमाणं गृहीतं 5 तस्योल्लंघनरूपा एते, अतिचारा एते न साक्षात् गृहीतसंख्यातिक्रमरूपाः किन्तु बन्धनयोजनदानगर्भभावैः पञ्चभिर्हेतुभिः स्वबुद्ध्या व्रतभङ्गमकुर्वत एव । तत्र धान्यस्य बन्धनात्संख्यातिक्रमो यथा - कृतधनधान्यपरिमाणस्य कोऽपि लभ्यमन्यद्वा धनं धान्यं च ददाति तच्च व्रतभङ्गभयाच्चतुर्मास्यादिपरतो गृह्णतो धनादिविक्रये वा कृते ग्रहीष्यामीति भावनया बन्धनान्नियंत्रणात् रज्वादिसंयमनात् सत्यङ्कारदानादिरूपाद्वा स्वीकृत्य तह एव स्थापय- 10 तोऽतिचारः | क्षेत्रवास्तुनो योजनात् क्षेत्रवास्त्वन्तरमीलनाद्गृहीत संख्यातिक्रमोऽतिचारो भवति, तथाहि एकमेव क्षेत्रं वास्तु चेत्यभिग्रहवतोऽधिकतरतदभिलाषे सति व्रतभङ्गभयात् प्राक्तनक्षेत्रादिप्रत्यासन्नं तद् गृहीत्वा पूर्वेण सह तस्यैकत्वकरणार्थं वृतिभिन्त्याद्यपनयने च तत्तत्र योजयतो व्रतसापेक्षत्वात्कञ्चिद्विरतिबाधनाच्चाऽतिचारः । रूप्य सुवर्णस्य दानात्वितरणाद् गृहीत संख्याया अतिक्रमो यथा केनाऽपि चातुर्मासाद्यवधिना रूप्यादिसंख्या 15 विहिता, तेन च तुष्ट राजादेः सकाशात्तदधिकं तल्लब्धं तचान्यस्मै व्रतभङ्गभयाद्ददाति, पूर्णेऽवधौ ग्रहीष्यामीति भावनयेति व्रतसापेक्षत्वात् कथञ्चिद्विरतिबाधनाच्चातिचार इति । गोमनुष्यादेर्गर्भतः संख्यातिक्रमो यथा केनाऽपि संवत्सराद्यवधिना द्विपदचतुष्पदानां परिमाणं कृतं तेषां च संवत्सराद्यवधिमध्य एव प्रसवेऽधिकद्विपदादिभावाद्वतभङ्गः स्यादिति तद्भूयात्कियत्यपि काले गते गर्भग्रहणं कारयतो गर्भस्थद्विपदादिभावेन बहिर्गततदभावेन च 20 कथञ्चिद्व्रतभङ्गादतिचार: । कुप्यस्य भावतस्संख्यातिक्रमो यथा कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथञ्चिद् द्विगुणत्वे भूते सति व्रतभङ्गभयात्तेषां द्वयेनैकैकं महत्तरं कारयतः पर्यायान्तरकरणेन संख्यापूरणात्स्वाभाविक संख्याबाधनाच्चातिचार इति उक्ता अणुव्रतानां पश्च पञ्चातिचारास्संक्षेपेण || १. धनं गरिमधरिममेयपारिच्छेद्यभेदाच्चतुर्धा, यदाह - ' गणिमं जाइफलफोफलाई धरिमं तु कुंकुमगुडाई । मेर्ज चोपडलोणाइ रयणवत्थाइ परिच्छेजं ' इति, धान्यं चतुर्विंशतिधा, सप्तदशधा वा । • सस्योत्पत्तिभूमिः क्षेत्रं सेतुकेतूभयात्मकभेदात्रिधा, अरघट्टजलासेच्यं सेतुक्षेत्रं, वारिदजलनिष्पाद्यधान्यं केतुक्षेत्रं, उभयजलनिष्पाद्य सस्यमुभयात्मकं । वास्तु गृहादि प्रामनगरादि च गृहादि त्रेधा खातं भूगृहादि उच्छ्रितं प्रासादादि उभयविधमुभयं । रूप्यं रजतं स्वर्ण उभयमपि घटितमघटितञ्चानेकप्रकारम् । कुप्यं कांस्यलोहताम्रसीसकादिकम् ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४४ : तत्त्वम्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे ऊर्ध्वास्तिर्यक्षु निश्चित मानोल्लंघनरूपास्त्रयः क्षेत्रवृद्धिः स्मृतिभ्रंशश्रोति पञ्च प्रथमगुणवतस्यातिचाराः, दिव्रतविषयस्य पूर्वादिदेशस्य क्षेत्रस्य ह्रस्वस्य पश्चिमादिक्षेत्रान्तरपरिमाण प्रक्षेपेण दीर्घकरणं क्षेत्रवृद्धिः, यथा केनाऽपि पूर्वापरदिशोः प्रत्येकं योजनशतं गमनपरिमाणं कृतं, स चोत्पन्नप्रयोजन एकस्यां दिशि नवतिं योजनानि व्यवस्थाप्यान्य5 स्यां तु दशोत्तरं योजनशतं करोति, उभाभ्यामपि प्रकाराभ्यां योजनशतद्वयरूपस्य परिमाणस्याव्याहतत्वादित्येवमेकत्र क्षेत्रं वर्धयतो व्रतसापेक्षत्वादतिचारश्चतुर्थः । स्मृतिभ्रंशो योजनशतादिरूपदिकपरिमाणविषयस्याति व्याकुलत्व प्रमादित्वमत्य पाटवादिना ध्वंसः तथाहि केनचित्पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं परिमाणं कृतमासीत् गमनकाले च स्फुटतया न स्मरति शतं वा पंचाशद्वेति, यदि पञ्चाशतमतिक्रामति तदाऽतिचारः, शतमतिक्रामतस्तु भङ्गः, सापेक्षत्वा10 निरपेक्षत्वाच्च तस्मात्स्मर्तव्यमेव गृहीतत्रतं, स्मृतिमूलं हि सर्वमनुष्ठानमिति पञ्चमोऽतिचारः ॥ सचित्तः सचित्तप्रतिबद्धः, संमिश्रः, अभिषवः, दुष्पकाहार इति द्वितीयगुणव्रतस्य पश्चाऽतिचाराः, चित्तेन सह वर्त्तते इति सचित्तः, येन सचित्तस्य परिहारः परिमाणं वा कृतमना भोगादिना सचित्तमधिकस चित्तं वा खादतस्तस्य सचित्ताहाररूपः प्रथमोऽतिचारः । सचित्तप्रतिबद्धस्सचेतनवृक्षादिसम्बद्धः, गुन्दादिः पक्कफलादिव सचित्तान्तर्बीज: खर्जूरादिः 15 तदाहारो हि सचिताहारवर्जकस्याना भोगादिना सावद्याहारप्रवृत्तिरूपत्वादतिचारः, अथवा बीजं त्यक्ष्यामि सचेतनत्वात्तस्य, कटाहं त्वचेतनत्वाद्भक्षयिष्यामीति घिया पक्कं खर्जूरादिफलं मुखे प्रक्षिपतरसचित्तवर्जकस्य सचित्तप्रतिबद्धाऽऽहारो द्वितीयः । सम्मिश्रः अर्धपरिणतजलादिराद्र कदाडिमबीज चूरक विर्भटिकादिमिश्र पूरणादिव तिलमिश्रो यवधानादिर्वा, एतदाहारोऽप्यनाभोगातिक्रमादिनाऽतिचारः । अथवा सम्भवत्सचित्तावयवस्यापक्ककणिक्कादेः 20 पिष्टत्वादिनाऽचेतनमिति बुद्ध्याऽऽहारः सम्मिश्राहारो व्रतसापेक्षत्वादतिचार इति तृतीयः । अभिषवः सुरासौवीरकादिः सुरामध्वाद्यभिष्यन्दिवृष्यद्रव्योपयोगो वा, अयमपि सावद्य(हारवर्जकस्यानाभोगादिनाऽतिचार इति चतुर्थः । दुष्पकाहारः अर्द्धस्विन्न पृथुकतन्दुलयवगोधूमस्थूलमण्डककङ्कडुकफलादिरैहिक प्रत्यवाय कारी यावता चांशेन सचित्तस्तावता परलोकमप्युपहन्ति, पृथुकादेर्दुष्पकतया सम्भवत्सचे तनावयवत्वात्यकेनाचेतन इति भुञ्जान 25 स्यातिचार इति पञ्चमः, अभी पश्च भोजनमाश्रित्य त्यक्तव्याः, भोगोपभोगोत्पादकं व्यापार(माश्रित्य तु पञ्चदशातिचरा धर्मसंग्रहादिग्रन्थेभ्योऽवसेयाः ॥ कन्दर्पः, कौत्कुच्यं, भोगभूरिता, २. स्मृतिभ्रंशादनाभोगाद्वा यदि परिमाणमतिक्रान्तो भवेत्तदा ज्ञाते तेन निर्वर्त्तितव्यं परतश्च न गन्तव्यम्, अन्योऽपि न विसर्जनीयः । अथ नाज्ञया कोऽपि व्रजेत्तदा यत्तेन लब्धं स्वयं विस्मृत्य गतेन वा तन्न गृह्यते, तीर्थयात्रादिधर्मनिमित्तं तु नियमित क्षेत्रात्परतोऽपि साधोरिवेर्यासमित्युपयोगेन गच्छतो न दोषः, धनार्जनाद्यैहिकफलार्थमेवाधिकगमनस्य नियमनादिति सम्प्रदायः ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] न्यायप्रकाशसमलकृते संयुक्ताधिकरणत्वं, मौखर्यञ्चति पञ्चातिचारास्तृतीयगुणव्रतस्य । तत्र हेतुः कामप्रधानो वाक्प्रयोगः कन्दर्पो मोहोद्दीपकं वा कर्मेति भावः । सामाचारी चात्र स्वस्य परस्य वा मोहोद्रेक जनकं हि वाक्यं श्रावकेण न वक्तव्यम् , अट्टहासोऽपि न कल्पते कत्तुं, यदि नाम हसितव्यमिति तदेवं प्रमादात्कुर्वतोऽतिचारः । कुत्सितं कुचति कुचभ्रूनयनोष्ठनासाकरचरणमुखविकारैस्संकुचतीति कुत्कुचः, कुदिति कुत्सायां निपातः, तस्य भावः कौत्कुच्यं, अनेकप्रकारा भण्डा- 5 दिविडम्बनक्रियेत्यर्थः । अथवा कौकुच्यमिति नामत्वे कुत्सितः कुचः संकोचादिक्रियाभाक् तद्भावः कौकुच्यमिति विग्रहः। तत्र परे येन हसन्ति, आत्मनश्च लाघवं भवति तादृशं श्रावकस्य न वक्तुं चेष्टितुं वा कल्पते, प्रमादात्तथाचरणे चातिचारः । भोगभूरिता भोगस्योपभोगस्य च स्नानपानभोजनचन्दनकुंकुमकस्तूरिकावस्त्राभरणादेः स्वस्वीयकुटुम्बव्यापारणापेक्षयाऽधिकत्वम्। भोगबहुत्वस्य प्रमादविषयात्मकत्वात्प्रमादाचरितस्यातिचारः । अत्र सामा- 10 चारी-यापभोग्यानि तैलामलकादीनि बहूनि गृह्णाति तदा तल्लौल्येन बहवः स्नातुं तडागादौ व्रजन्ति, सतश्च पूतरकादिवधोऽधिकः स्यात् स्यादेवं ताम्बूलादिष्वपि विभाषा, न चैवं कल्पते, तंत्र को विधिरुपभोगे ? स्नानेच्छुना तावद्ह एव सातव्यं, नास्ति चेत्तत्र सामग्री तदा तैलामलकैः शिरो घर्षयित्वा, तानि च सर्वाणि शाटयित्वा तडागादीनां तटे निविष्टोऽञ्जलिभिः स्नाति, तथा येषु पुष्पादिषु कुन्थ्वादयस्सम्भवन्ति तानि परिहरति, एवं सर्वत्र वाच्यमिति । 15 संयुक्ताधिकरणत्वं, अधिक्रियते दुर्गतावात्माऽनेनेत्यधिकरणं उदूखलादि, संयुक्तञ्च तदधिकरणञ्चेति विग्रहः। उदूखलेन मुसलं, हलेन फालः, शकटेन युगं, धनुषा च शर इत्यादिरूप मित्यर्थः तद्भावस्संयुक्ताधिकरणत्वम् , एतच्च हिंस्रप्रदानव्रतस्यातिचारः । अत्रापि सम्प्रदायः श्रावकेण हि संयुक्तान्यधिकरणानि च न धारणीयानि, संयुक्ताधिकरणं हि यः कश्चिदाददीत, वियुक्त तु तत्र परः सुखेन प्रतिषेधितुं शक्यत इति । मौखर्य, मुखमस्यास्तीति मुखरस्तद्भावो 20 मौखर्य, धाष्टर्घप्रायमसभ्यासम्बद्धबहुप्रलपितम् , अयं पापोपदेशस्यातिचारः, मौखर्ये 'सति पापोपदेशसम्भवात्,अपध्यानाचरितव्रते त्वनाभोगादिनाऽपध्याने प्रवृत्तिरतिचार इति गुणवतस्यातिचाराः॥ योगदुष्प्रणिधानं, स्मृत्यनवधारणं, अनादरश्चेति शिक्षापदव्रतस्य प्रथमस्यातिचाराः । योगदुष्प्रणिधानं त्रिविधं, कायदुष्प्रणिधानं वचोदुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानमिति, कायस्य सावये प्रवर्त्तनं कायदुष्प्रणिधानं शरीरावयवानां पाणिपादादीनामनिभृततावस्थान- 25 मित्यर्थः, वर्णसंस्काराभावोऽर्थानवगमश्चापलञ्च वचोदुष्प्रणिधानम् , क्रोधलोभद्रोहाभिमानेादयः कायव्यासङ्गसम्भ्रमश्च मनोदुष्प्रणिधानमिति त्रयोऽतिचाराः। स्मृतेस्सामायिककरणावसरविषयायाः कृतस्य वा सामायिकस्य प्रबलप्रमादयोगादनवधारणं स्मृत्यनवधारणम् , मया कदा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे सामायिक कर्त्तव्यं, कृतं मया सामायिकं न वेत्येवंरूपस्मरणभ्रंशोऽतिचारो मोक्षानुष्ठानस्य स्मृतिमूलत्वादिति चतुर्थः । अनादरोऽनुत्साहः, प्रतिनियतवेलायां सामायिकस्याकरणं, यथाकथञ्चिद्वा करणानन्तरमेव पारणश्चेति पञ्चमोऽतिचारः । ननु सति कायदुष्प्रणिधानादौ सामायिकस्य निष्फलत्वेन वस्तुन एवाभावः स्यात् , अतिचारस्तु तन्मालिन्यरूप एव 5 भवतीति सामायिकस्यैवाभावेऽयमतिचारः कथं स्यादतो भङ्गरूपा एवैते नातिचारा इति चेदुच्यते, अनाभोगादतिचारत्वमिति । ननु द्विविधं त्रिविधेनेति सावधप्रत्याख्यानं सामायिक, तत्र च कायदुष्प्रणिधानादौ प्रत्याख्यानभङ्गात्सामायिकाभाव एव तद्भङ्गजनितश्च प्रायश्चित्तं विधेयं स्यात्, मनोदुष्प्रणिधानश्वाशक्यपरिहारं मनसोऽनवस्थितत्वादतस्सामायि कप्रतिपत्तेस्सकाशात्तदप्रतिपत्तिरेव श्रेयसी, यदाहुः-- अविधिकृताद्वरमकृत 'मिति, नैवम् , 10 यतः सामायिकं द्विविधं त्रिविधेन प्रतिपन्नं, तत्र च मनसा वाचा कायेन च सावा न करोमि न कारयामीति षट् प्रत्याख्यानानीत्ये कतरप्रत्याख्यानभङ्गेऽपि शेषसद्भावान्मिध्यादुष्कृतेन मनोदुष्प्रणिधानमात्रशुद्धेश्च न सामायिकात्यन्ताभावः, सर्वविरतिसामायिकेऽपि तथाभ्युपगतं, यतो गुप्तिभङ्गे मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तमुक्तम् , अतो न प्रतिपत्तेर प्रतिपत्तिर्गरीयसीति । किश्च सातिचारादप्यनुष्ठानादभ्यासतः कालेन निरतिचारमनुष्ठान 15 भवतीति सूरयः । बाह्या अपि ' अभ्यासो हि कर्मणां कौशलमावहति, न हि सकृन्निपात मात्रेणोदबिन्दुरपि प्राणि निम्नतामादधाती'ति, न चाविधिकृताद्वरमकृतमिति युक्तमस्यासूयावचनत्वात्तस्माद्धर्मानुष्ठानं निरन्तरं कार्यमेव, किन्तु तत्कुर्वता सर्वशक्त्या विधौ यतनीयं, इदमेव श्रद्धालोर्लक्षणमिति ॥ प्रेष्यप्रयोगः प्रेष्यानयनं शब्दानुपातनं रूपानुपातनं पुद्गलप्रेरणश्चेति पश्चातिचारा द्वितीयशिक्षापदव्रतस्य, प्रेष्यस्य भृत्यादेविवक्षितक्षेत्राद्वहिः 20 प्रयोजनाय व्यापारणं प्रेष्यप्रयोगः । स्वयं हि गमने दिवसप्रहरमुहूर्तादिपरिमाणस्य देशावकाशिकस्य व्रतस्य भङ्गः स्यादित्यन्यस्य प्रेषणं, गमनागमनादिव्यापारजनितप्राण्युपमर्दो मा भूदित्यभिप्रायेण हि तव्रतं गृह्यते स तु स्वयं कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत स्वयं गमने ईर्यापथविशुद्धेर्गुणः, परस्य पुनरनिपुणत्वादीर्यासमित्यभावे दोष इति प्रथमोऽतिचारः। प्रेष्यानयनं विवक्षितक्षेत्राद् बहिःस्थितस्य सचेतनादिद्रव्यस्य 25 प्रेष्येण विवक्षितक्षेत्रे प्रापणम् । स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यात् परेण त्वानयने न भन्न इति बुझ्सा यदाऽऽनाययति सचेतनादिद्रव्यं तदाऽतिचार इति द्वितीयः । शब्दानुपातनं क्षुत्कासितादेश्रोत्रेऽवतारणम् , यथा विहितस्वगृहवृतिप्राकारादिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिग्रहः प्रयोजन उत्पन्ने विवक्षितक्षेत्राहितभङ्गभयात्स्वयं गन्तुं बहिस्थितश्चाह्वातुमशक्नुबन् वृतिप्राकारादिप्रत्यासन्नवर्तीभूय कासितादिशब्दमाह्वानीयानां श्रोत्रेऽनुपातयति, ते च Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्मः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १४७ : तच्छ्रवणात्तत्समीपमागच्छन्तीति शब्दानुपातननामाऽतिचारः । रूपानुपातनं यथा रूपंशरीरसम्बन्धि, उत्पन्नप्रयोजनः शब्दमनुच्चारयन् आह्वानीयानां दृष्टावनुपातयति, तद्दर्शनाच्च ते तत्समीपमागच्छन्तीति रूपानुपातननामातिचारः । पुद्गलप्रेरणं पुद्गलाः परमाणवः तत्संघात - समुद्भवा बादरपरिमाणं प्राप्ता लोष्टादयोऽपि तेषां क्षेपणं, विशिष्टदेशाभिग्रहे हि सति कार्यार्थी परगृहगमननिषेधाद्यदा लोष्टकान् परेषां बोधनाय क्षिपति पातसमनन्तरमेव ते 5 तत्समीपमनुधावन्ति ततश्च तान् व्यापारयतः स्वयमगच्छतोऽप्यतिचारो भवतीति पञ्चमः । अत्राद्यद्वयमव्युत्पन्नबुद्धित्वेन सहसाकारादिना वा अन्त्यत्रयन्तु मायापरतयाऽतिचारतां यातीति विवेकः । अत्र दिग्वतसंक्षेपकरण मणुव्रतादिसंक्षेप करणस्याप्युपलक्षणं तेषामपि संक्षेपस्यावश्यं कर्त्तव्यत्वादिति विज्ञेयम् । ननु सर्वत्रातिचारा दिव्रतसंक्षेपकरणस्यैव श्रूयन्ते न व्रतान्तरसंक्षेपकरणस्य तत्कथं व्रतान्तरसंक्षेपकरणं देशावका शिकव्रतमिति चेदुच्यते 10 प्राणातिपातादिव्रतान्तर संक्षेप करणेषु वधबन्धादय एवातिचाराः दिग्व्रतसंक्षेपकरणे तु संक्षिप्तत्वात्क्षेत्रस्य प्रेष्यप्रयोगादयोऽतिचाराः, भिन्नातिचारसम्भवाच्च दिग्वतसंक्षेपकरणस्यैव देशावकाशित्वं साक्षादुक्तमिति || अप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य च संस्तारः, अप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य चादानं, अप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य च हानं, अनादरः, अस्मृतिश्चेति पञ्चातिचाराः तृतीयस्य शिक्षापदव्रतस्य । तत्राप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य च संस्तारः, संस्तीर्यते प्रतिपन्नपोषधत्रतेन दर्भकुशकम्बली 15 वस्त्रादिरिति संस्तारः, संस्तारशब्दश्च शय्योपलक्षणम्, तत्र शय्या - शयनं सर्वाङ्गीण वसतिर्वा, संस्तारश्चार्धतृतीय हस्तप्रमाणः, स च प्रत्युपेक्ष्य प्रमार्ण्य च कर्त्तव्यः प्रत्युपेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणम्, प्रमार्जन रजोहरणवस्त्रप्रान्तादिना तस्यैव शुद्धीकरणम् । अथाप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य चसंस्तारकं करोति तदा पोषधत्रतमतिचरतीति प्रथमोऽतिचारः । अप्रत्युपेक्ष्याप्रमार्ण्य चादानं, आदानं यष्टिपीठफलकादीनां ग्रहणम्, तदपि यष्टवादीनां निक्षेपस्योपलक्षणं तेनोभयमपि 20 प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च कार्यम्, अप्रत्युपेक्षितस्याप्रमार्जितस्यादानं निक्षेपश्चातिचार इति द्वितीयः । अप्रत्युपेक्ष्याप्रमार्ण्य च हानं - उत्सर्गरत्याग इति यावत्, तच्चोच्चारप्रश्रवणखेल सिङ्घाणकादीनां प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च स्थंडिलादौ कार्यम्, अप्रत्युपेक्ष्याप्रमृज्य चोत्सर्जनमतिचार इति तृतीयः । इह चाप्रत्युपेक्षणेन दुष्प्रत्युपेक्षणमप्रमार्जनेन च दुष्प्रमार्जनं सङ्गृह्यते नमः कुत्सार्थस्यापि दर्शनात् यथा कुत्सितो ब्राह्मणोऽब्राह्मण इत्यादिः । अनादर :- अनुत्साहः 25 पोषधव्रतप्रतिपत्तिकर्त्तव्य तयोरिति चतुर्थः । अस्मृतिः अस्मरणं तद्विषयैवेति पञ्चमः ॥ सचित्ते स्थापनं, सचित्तस्थगनं, मत्सरः, काललंघः, अन्यापदेशश्चेति चतुर्थस्य शिक्षापदव्रतस्य पचातिचाराः, तत्र सचित्ते सचेतने पृथिवीजलकुम्भोपचुल्लीधान्यादौ स्थापनं साधुदेयभक्तादेर्निक्षेपणं तच्चादानबुद्ध्या मातृस्थानतो निक्षिपतीति प्रथमः । सचितेन कन्द Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १४८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे पत्रपुष्पफलादिना तथाविधयैव बुद्ध्या स्थगनं पिधानमिति द्वितीयः । मत्सरः कोपः यथा साधुभिर्याचितः कोपं करोति, सदपि मार्गितं न ददाति अथवाऽनेन तावद्रङ्केण याचितेन दत्तं, किमहं ततो न्यून इति मात्सर्याद्ददाति । अत्र परोन्नतिवैमनस्यं मात्सर्य, इति तृतीयः । कालस्य साधूचित भिक्षासमयस्य लंघो - लंघनमतिक्रमः, अयं भाव: काले न्यून - 5 मधिकं वा ज्ञात्वा साधवो न ग्रहीष्यन्ति, ज्ञास्यन्ति च यथाऽयं ददातीत्येवं विकल्पतो दानार्थमभ्युत्थानमतिचार इति चतुर्थः । अन्यस्य परस्य सम्बन्धीदं गुडखण्डादीत्यपदेशः व्याजोऽन्यापदेशः अयं भावः परकीयमेतत्तेन साधुभ्यो न दीयत इति साधुसमक्षं भणनं, जानन्तु साधवो यद्यस्यैतद्भक्तादिकं भवेत्तदा कथमस्मभ्यं न दद्यादिति साधुसम्प्रत्ययार्थम् अथवास्माद्दानात् मम मात्रादेः पुण्यमस्त्विति भणनमिति पञ्चमः । इत्येवमतिचारा आभो-. 10 गेनापि विधीयमाना अतिचारा एवेत्युपासकदशाङ्गवृत्तिः । धर्मबिन्दु योगशास्त्रवृत्त्यादौ तु यदानाभोगादिनाऽतिक्रमणादिना वा एतानाचरति तदाऽतिचाराः अन्यथा तु भङ्गा एवेति . भावितमिति संक्षेपः । विस्तरस्तु अन्यग्रन्थेभ्योऽवगन्तव्यः ॥ अस्योत्कृष्टां स्थितिमाह उत्कर्षतो देशोन पूर्वकोटिं यावत्स्थितिकमिदम् ॥ उत्कर्ष इति । गर्भस्थो हि किल नवमासान् सातिरेकान् गमयति, जातोऽपि चाष्टौ वर्षाणि यावद् विरत्यनर्हो भवति तत ऊर्ध्वं देशविरतिं प्रतिपद्य पूर्वकोटिं जीवति तत उक्त देशोनेति किञ्चिदून वर्ष नवकलक्षणेन देशेनोनेत्यर्थः । यतिधर्मासमर्थस्यागारिण इयं देशविरति - भवति । अत्रस्थ जीवोऽप्रत्याख्यानकषाय चतुष्क मनुष्यत्रिकाद्यसंहननौदारिकद्वयबन्धव्यवच्छेदात्सप्तषष्टेर्बन्धकः । अप्रत्याख्यानकषायनरतिर्यगानुपूर्वीद्वय नरकत्रिकदेव त्रिक वैक्रिय20 द्वयदुर्भगानादेयायशो रूप सप्त दश प्रकृतीनामुदयव्यवच्छेदात्सप्ताशीतेर्वेदयिता, अष्टत्रिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति ॥ अधुना षष्ठं गुणस्थानं निरूपयति 15 संज्वलनकषायमात्रोदयप्रयुक्तप्रमादसेवनं प्रमत्तसंयत गुणस्थानम् । प्रमादाच मंदिराकषायविषयनिद्राविकथानामानः पञ्च । देशविरत्यपेक्ष25 याsत्र गुणानां विशुद्धिप्रकर्षो ऽविशुद्ध्यपकर्षश्च, अप्रमत्तसंयतापेक्षया तु ४१. वर्षाणामष्टानामधो वर्तमानानां परिभवक्षेत्रत्वेन देशतस्सर्वतो वा चरणपरिणामो न भवति, षाण्मासिकानां वज्रस्वामिनां चरणप्रतिपत्तिस्त्वाश्चर्यभूता, कादाचित्कीति बोध्यम् ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्रप्तमगुण ०. ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १४९ : विशुद्ध्यपकर्षोऽविशुद्धिप्रकर्षश्च । एतदन्तर्मुहूर्त्तमानमिति केचित् । पूर्वकोटिं यावदित्यन्ये ॥ संज्वलनेति । यो हि सर्व सावद्येभ्यस्सम्यगुपरतोऽपि केवलसंज्वलनकषायस्य तीव्रोदयान्मदिरादिपञ्चविधप्रमादेष्वन्यतमं सर्वान्वाऽन्तर्मुहूर्त्त सेवते तस्येदं गुणस्थानमित्यर्थः, अन्तर्मुहूर्त्तादुपरि सप्रमादश्चेत् तस्मादधःपतनमेव स्यात्, प्रमादरहितश्चेदप्रमत्तगुणस्थानमारो - 5 हति । के ते प्रमादा इत्यत्राह - इ-प्रमादाश्चेति । देशविरतगुणपेक्षयैतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽशुद्ध्यपकर्षश्च, अप्रमत्तसंयतगुणापेक्षया तु विपर्ययः, एवं सर्वगुणस्थानेषु भाव्यमित्यभिप्राये - णाह-देशविरत्यपेक्षयेति । अस्य स्थितौ मतभेदं दर्शयत्येतदिति, परतो गुणस्थानान्तरगमनात् मरणाद्वेति भावः, जघन्यतस्त्वेकस्समयस्तदूर्ध्वं मरणभावेनाधोगमनादिति । अष्टवर्षोनां पूर्वकोटिं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तता स्यादिति केषाञ्चिन्मतमादर्शयति-पूर्व कोटिमिति । 10 षष्ठसप्तमयोर्देशोनपूर्व कोटिं यावत्स्थितेर्व्यवस्था भगवतीसूत्रे त्वेवं-प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थाने प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणे एव ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्व कोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, महान्ति चाप्रमत्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तानि कल्प्यन्ते, एवं चान्तर्मुहूर्त्तानां प्रमत्ताद्धानां मेलने देशोनपूर्वकोटीकालमानं भवतीति दृश्यते । अत्र जीवः प्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्कव्यवच्छेदात्रिषष्टेर्बन्धकः । तिर्यग्गतितिर्यगायुर्नीचैर्गोत्रोद्योत प्रत्याख्यानरूपाष्टप्रकृत्युदयव्यवच्छेदादाहा- 15 रकद्वयोदयाच्चै काशीतेर्वेदयिता, अष्टत्रिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति ॥ तर्हि सप्तमं गुणस्थानमाह - संज्वलनकषायनोकषायाणां मन्द्रोदयतः प्रमादाभावोऽप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् । नोकषाया हास्यादयष्षड् वेदत्रयश्च । अन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकमिदम् ॥ संज्वलनेति । यत्र हि महाव्रती साधुः संज्वलनाभिधक्रोधादीनां कषायचतुष्टयानां नोकषायाणां नवविधानाश्च मन्द्रोदयतोऽतीत्रविपाकोदयेन पूर्वोदितपञ्चविधप्रमादरहितो भवति तदप्रमत्तसंयतगुणस्थानमित्यर्थः । अत्र नष्टाखिलप्रमादो महाव्रतादिभिरष्टादशस १. ननुदेशविरतादिवत्प्रचुरमपि कालं न कथं प्रमत्तत्वं भजेत । यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमेव तदिति निश्चयः स्यादिति चेन्न, संक्लेशस्थानापेक्षं हि प्रमत्तत्वं संक्लेशस्थानानि च संख्येयलोकाक शप्रदेशप्रमाणानि यावदुपशमश्रेणि क्षपकश्रेणिं वा मुनिर्नारोहति तावदवश्यं स्वभावादेवान्तर्मुहूर्त संक्लेशस्थानेषु स्थित्वा विशोधिस्थान याति तत्रापि तावत्कालमेव स्थित्वा संक्लेशस्थानं याति एवमेव निरन्तरं परावृत्तीः देशोनपूर्वकोटिं यावत्क - रोतीत्येकजीवाश्रयेणोत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तमिति भावः ॥ 20 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे हस्रशीलाङ्गलक्षणैरन्वितो ज्ञानध्यानधनो मौनी सम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वानन्तानुबन्धिचतुष्टयलक्षणसप्तकातिरिक्तैकविंशतिप्रकृतिरूपस्य मोहनीयस्य प्रशमाय क्षयाय वा निरालम्बन ध्यानप्रवेशप्रारम्भं कुरुते । के ते नोकषाया इत्यत्राह-नोकषाया इति । हास्यादय इत्यादिना रत्यरतिशोकभयजुगुप्सा ग्राह्याः, वेदत्रयश्चेति, पुंस्त्रीनपुंसकरूपमित्यर्थः । स्थितिमस्य गुण5 स्थानस्याह-अन्तरिति । जघन्या त्वेकः समयः । अत्र वर्तमानो जीवः शोकारत्यस्थिरा शुभायशोऽसातव्यवच्छेदादाहारकद्विकबन्धाञ्चैकोनषष्टेबन्धकः । तथा यदि देवायुरपि न बध्यते तदाष्टपञ्चाशतो बन्धकः । एवं स्त्यानर्द्धित्रिकाहारकद्विकोदयव्यवच्छेदात् षट्सप्ततेर्वेदयिता, अष्टत्रिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति ॥ इदानीमष्टमं गुणस्थानं प्रदर्शयति10 .. स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमापूर्वस्थितिबन्धात्मकानामानां विशुद्धिप्रकर्षादपूर्वतया निवर्तनमपूर्वकरणगुणस्थानम् ॥ स्थितिघातेति । स्थितेर्धातः स्तोककरणं करणविशेषेण, एवं रसघातोऽपि, गुणानां .. श्रेणिरनन्तगुणवृद्धिकरणम् , गुणेन संक्रमण-नयनं गुणसंक्रमः, अपूर्वायास्स्थितेलघुतया बन्धोऽपूर्वस्थितिबन्धः । एतेषां विशुद्धिविशेषादिदम्प्रथमतया करणं यत्रेत्यर्थः । अपूर्वम15 मिनवमनन्यसदृशं करणं स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमस्थितिबन्धानां पश्चानां पदार्थानां निर्वर्त्तनं यत्र तदपूर्वकरणमिति व्युत्पत्तेः ।। स्थितिघातादीनां किं स्वरूपमित्याशङ्कायामाह प्रचुरमानाया ज्ञानावरणीयादिकर्मस्थितेरपवर्तनाभिधकरणेन तनूकरणं स्थितिघातः । प्रचुररसस्य तेनैव करणेन तनूकरणं रसघातः । तेनैव 20 करणेनावतारितस्य दलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विरचनं गुणश्रेणिः ॥ प्रचुरमानाया इति । गरीयस्या ज्ञानावरणादिकर्मणां स्थितेरपवर्तनाकरणेनाल्पीकरणमित्यर्थः । रसघातस्वरूपमाह-प्रचुररसस्येति । कर्मपरमाणुगतस्निग्धलक्षणस्य प्रचुरीभूतस्य रसस्येत्यर्थः, तेनैव करणेनापवर्तनाकरणेनेत्यर्थः, पूर्वगुणस्थानेष्वेतौ द्वावपि विशुद्धथल्पतया १. कश्चित्प्रमत्तः सन् सुरायुर्बद्धमारभते बन्धञ्च समापयति तदा सप्त व्यवच्छिद्यन्त इति भावः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्थितिबन्धः ] न्यायप्रकाशसमलते ऽल्पावेव करोत्यस्मिस्तु विशुद्धिवृद्धितः बृहत्प्रमाणतयेमावपूर्वी करोति । गुणश्रेणिस्वरूपमाचष्टे-तेनैव करणेनेति । अपवर्तनाकरणेनैवोपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादवतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त यावदुदयक्षणादुपरि द्रुततरक्षपणाय प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्ध्या शुद्धयपकर्षतः पूर्वगुणस्थानेषु दलिकरचनामाश्रित्य लघीयस्तया कालतो द्राधीयस्तया दलिकस्याल्पस्यापवर्त्तनाकरणेन कृतस्य कालतो हखतरतया दलिकरचनामाश्रित्य च पृथुतरतया बहुतरस्य 5 तस्य यद्विरचनं सा गुणश्रेणिरित्यर्थः ॥ .... गुणसंक्रमस्वरूपमाह- .. बध्यमानशुभप्रकृतिष्ववध्यमानाशुभप्रकृतिदलिकस्य विशुद्धितो नयनं गुणसंक्रमः॥ . बध्यमानेति । गुणेन प्रतिसमयमसंख्येयलक्षणेन गुणकारेण संक्रमो बध्यमानप्रकृति- 10 व्यतिरिक्तप्रकृतिदलिकं बध्यमानासु शुभप्रकृतिषु प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृतिरूपतया तस्य परिणमनं गुणसंक्रमः, अपूर्वकरणादारभ्य षट्चत्वारिंशदशुभप्रकृतीनां संक्रमो भवति, ताश्च प्रकृतयो मिथ्यात्वातपनारकायुर्वर्जा मिथ्यादृष्टियोग्यास्त्रयोदश, अनन्तानुबन्धितिर्यगायुरुद्योतवर्जास्सास्वादनयोग्या एकोनविंशतिः, मध्यमकषायाष्टकास्थिराशुभायशःकीर्तिशोकारत्यसातवेदनीयाः । तत्र मिथ्यात्वस्यानन्तानुबन्धिनाञ्चापूर्वकरणादागेव संक्रमः, अत एवा- 15 विरतसम्यग्दृष्ट्यादयश्च क्षपयन्ति । आतपोद्योते च शुभे, अशुभप्रकृतीनामेव गुणसंक्रमात् । आयुषाश्च परप्रकृतौ संक्रमासंभवा दिह तद्वर्जनं बोध्यम् । निद्राद्विकोपघाताप्रशस्तवर्णादिनवकहास्यरतिजुगुप्सानां त्वपूर्वकरणे स्वस्वबन्धव्यवच्छेदादारभ्य गुणसंक्रमो भवति तदेतदुक्तं बध्यमानशुभप्रकृतिष्वबध्यमानाशुभप्रकृतिदलिकस्येति ॥ अपूर्वस्थितिबन्धमाख्याति 20 - विशुद्धिप्रकर्षण गुाः कर्मस्थितेलघुतया बन्धनमपूर्वस्थितिबन्धः । अन्तर्मुहूर्त्तकालमेतत् । अत्रस्थो जीवः क्षपक उपशमकश्चेति द्विविधः ।। विशुद्धिप्रकर्षेणेति । प्राकर्मणामशुद्धत्वाबाधीयस्तया बद्धायाः स्थितेर्विशुद्धिवशात् पल्यो पमासंख्येयभागेन हीनहीनतरहीनतमतया बन्धनमपूर्वस्थितिबन्ध इत्यर्थः । अस्य गुणस्थानस्य कालमानमाह-अन्तरिति । जघन्यतस्त्वेकस्समयः । अत्र श्रेणिद्वयं दर्शयितुमाह-25 अत्रस्थ इति । क्षपणाहत्वादुपशमनार्हत्वाच क्षपणोपशमनाभावेऽपि राज्याईकुमारस्य राजवत् तथोच्यत इति बोध्यम् । गुणस्थानेऽस्मिन् त्रैकालिकानेकजीवापेक्षया प्रतिसमयं यथो Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे .. [ ससमकिरणे त्तरमधिकवृद्ध्याऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति । आद्यक्षण एचैतद्गुणस्थानप्रपन्नत्रैकालिकनाना जीवाश्रयेण जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति, ततोऽधिकाधिकानि द्वितीयादिक्षणेषु तु स्युः । स्व भावविशेषाञ्च द्वितीयादिसमयेषु अध्यवसाय स्थानानां वृद्धिः । अत्र च प्रथमसमयजघन्या। ध्यवसायादनन्तगुणविशुद्ध प्रथमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानम् । तस्माच्च द्वितीयसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धम् , ततश्च तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमित्येवं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टाध्यवसायस्थानाच्चरमसमयजघन्याध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशुद्धं -तस्मादपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति । अस्यैव च निवृत्तिबादरसम्परायमिति नामान्तरम् । अनेकजीवानामेतद्गुणस्थानं युगपत्प्रविष्टानां परस्परमध्यवसायस्थानव्यावृत्तेः । एकसमयगतानि 10 चामून्यध्यवसायस्थानानि परस्परं षट्स्थानपतितानीति दिक् ॥ अथ क्षपकश्रेणिरुपशमश्रे। णिश्च बोधायोच्यते संक्षेपतः प्रसङ्गात् । वर्षाष्टकोपरि वर्तमानो वर्षभनाराचसंहननवाम् शुद्धध्यानार्पितमना अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतमः पुमान् क्षपकश्रेणिप्रतिपता भवति । केवलं यद्यप्रमत्तसंयतः पूर्ववित्तर्हि शुक्लध्यानोपगतः, शेषस्तु सर्वोऽपि धर्म ध्यानोपगतः । सम्प्रति प्रथममनन्तानुबन्धिनां विसंयोजना प्रोच्यते, श्रेणिप्रतिपत्तुरवश्यं पूर्व10 मनन्तानुबन्धिनो विसंयोजनाया आवश्यकत्वात् । अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजकश्चतुर्ग; तिको जीवस्तत्राऽपि देवो नैरयिको वाऽविरतसम्यग्दृष्टिः, तिर्यक्पश्चेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तोऽविरतसम्यग्दृष्टिर्देशविरतो वा, मनुष्यस्त्वविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतसंवविरतो वा भवति । तत्र यथासम्भवं विशुद्धपरिणामोऽनन्तानुबन्धिनां क्षपणाय यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्ति करणानि करोति, अन्तरकरणं तु न करोत्यत एव प्रथमस्थितिमपि न करोति, उपशमोऽपि 20 न भवति, तेषां गुणसंक्रमश्चातापूर्वकरणप्रथमसमयात्प्रवर्तते । तथाहि तादृशसमय एव दलि.: कमनन्तानुबन्धिनां शेषकषायात्मकपरप्रकृतौ स्तोकं संक्रमयति, द्वितीये समये ततोऽसंख्येय गुणं, तृतीये च ततोऽप्यसंख्येयगुणमेवमेव यावदपूर्वकरणचरमसमयम् । एष गुणसंक्रमः । अपूर्वकरणे उद्वैलनासंक्रमानुविद्धगुणसंक्रमेणानन्तानुबन्धिनश्शेषप्रकृतिरूपतया व्यवस्था १. यद्यप्यत्र कालत्रयापेक्षणात् अनन्तजीवरस्य प्रतिपन्नत्वात्प्रतिपत्स्यमानत्वाच्चैतद्गुणस्थानं प्रतिपन्नानामनन्ताध्यवसायस्थानानि प्रसज्यन्ते तथापि बहूनामेतत्स्थानप्रतिपतृणामेकाध्यवसायस्थानवर्तित्वादपि न दोषः । अध्यवसायस्थानानां भिन्नत्व एव तथा सम्भवात् ॥ २. अनन्तभागवृद्धयसंख्यातभागवृद्धिसंख्यातभागवृद्धि संख्येयगुणवृद्धयसंख्येयगुणवृद्धयनन्तगुणवृद्धिरूपषदस्थानकपतितानीत्यर्थः ॥ ३. प्रथमस्थितिखण्डस्य स्थित्यपेक्षया बृहत्तरस्य द्वितीयादिस्थितिखण्डानाञ्च विशेषविशेषहीनानां यद्धातनं तेन निष्पन्नो य उद्वलनासंक्रमस्तदनुर्विद्ध इत्यर्थः ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपकश्रेणिः ] म्यायप्रकाश समलङ्कृते : १५३ : पन विनाशयति । उद्बलनासंक्रमे तु प्रथमतः पल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डमन्तमुहूर्तेन कालेनोत्किर्यते । उत्कीरणं नाम घनदलान्वितस्यास्पदलोत्तारणं, तदेव चोद्वलनमुच्यते । ततो द्वितीयं स्थितिखण्डं प्रथमस्थितिखण्डाद्विशेषहीनतरं पल्योपमासंख्येयभागमात्रमन्तर्मुहूर्त्तेन कालेन विनाशयति, एवं प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोत्कीर्यमाणानि पल्योपमासंख्येयभागमात्राणि स्थितिखण्डानि पूर्वपूर्वस्थित्यपेक्षया विशेषतो हीनानि विनाशयति, 5 इत्येवंरूप उद्वलनासंक्रमः । अनिवृत्तिकरणं च प्राप्तो गुणसंक्रमानुविद्धोद्वलनासंक्रमेणाधस्तादावलिकामा मुक्त्वोपरि निरवशेषानन्तानुबन्धिनो विनाशयति, आवलिकामात्रं तु स्तिबुकसंक्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति, ततोऽन्तर्मुहूर्तात्परतोऽनिवृत्तिकरण पर्यवसाने शेषकर्मraft स्थितिघातरसघातगुणश्रेणयो न भवन्ति, किन्तु स्वभावस्थ एव भवति चतुर्विंशतिसत्कर्मा । तदेवं क्षपिताऽनन्तानुबन्धिचतुष्को दर्शनमोहनीयक्षपणाय यतते, तदारम्भको मनुष्यो 10 जिनकालसम्भवी वर्षाष्टको परि वर्तमानो वज्रर्षभनाराचसंहननश्च भवति । दर्शनमोहक्षपणार्थं यथाप्रवृत्त्यादीनि त्रीणि करणानि करोति, अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च वर्त्तमानो दर्शनन्त्रिकस्य स्थितिसत्कर्म तावदुद्वलनासंक्रमेणोद्वलयति यावत्पल्योपमा संख्येयभागमात्रमवतिष्ठते, ततो मिध्यात्वदलिकं सम्यक्त्वमिश्रयोः प्रक्षिपति, तच्चैवं, प्रथमसमये स्तोकं द्वितीयसमये ततोऽसंख्येयगुणमेवं यावदन्तर्मुहूर्त्तचरमसमयं, आवलिकागतं मुक्त्वा शेषं द्विचरमसमयसंक्र- 15 मितदलिका दसंख्येयगुणं संक्रमयति, आवलिकागतन्तु स्तिबुकसंक्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, एवं मिथ्यात्वं क्षपितम् । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन सम्यमिध्यात्वमप्यनेनैव क्रमेण सम्यत्वे प्रक्षिपति, ततस्सम्यङ् मिध्यात्वं क्षपितम् । ततस्सम्यक्त्वमपवर्त्तयितुं तथा लग्नो यथाऽन्तर्मुहूर्त्तेन तदप्यन्तर्मुहूर्तमात्रस्थितिकं जातं, तच्च क्रमेणानुभूयमानमनुभूयमानं सत् समयाधिकावलिकाशेषं जातं, ततोऽनन्तरसमये तस्योदीरणाव्यवच्छेदस्ततो विपाकानु- 20 भवेनैव केवलेन वेदयति यावच्चरमसमयं ततोऽनन्तरसमयेऽसौ क्षायिक सम्यग्दृष्टिर्जीयते । इह यदि बद्धायुः क्षपकश्रेणिमारभते तदाऽनन्तानुबन्धिक्षयानन्तरच मरणसम्भवतो व्युपरमते, ततः कदाचिन्मिथ्यात्वोदयाद्भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिन उपचिनोति, तद्वीजस्य मिथ्यात्वस्याविनाशात् । क्षीणमिथ्यादर्शनस्तु नोपचिनोति मिथ्यात्वाभावात् । क्षीणसप्तकः पूर्वबद्धायुराश्रित्य सर्वगतिभाग्भवति यदि तिर्यङ्मनुष्यो वा भवति तदाऽसंख्येय वर्षायुष्केष्वेव | 25 बद्धकोऽपि यदि तदानीं कालं न करोति तथापि सप्तके क्षीणे नियमादवतिष्ठते, न तु चारित्र मोक्षपणाय यत्नमादधाति, अथ क्षीणसप्तको गत्यन्तरं संक्रामन् कतितमे भवे २० Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५४ : तवम्याविभाकरे [ सप्तमकिरण मोक्षमुपयातीति चेदुच्यते तृतीये चतुर्थे वा भवं इति । तथा क्षीणसप्तकः पूर्ववद्धायुष्कोऽपि यदि तदानीं कालं न करोति तर्हि कश्चिद्वैमानिकेष्वेव बद्धायुष्कश्चारित्रमोहनीयोपशमार्थमपि यतते, न शेषभवेषु बद्धायुष्कः । यदि पुनरबद्धायुः क्षपकश्रेणिमारभते ततः सप्तके क्षीणे नियमादनुपरतपरिणाम एव चारित्रमोहनीयक्षपणाय यतते । यतमानश्च तत्र 5 यथाप्रवृत्त्यादीनि त्रीणि करणानि करोति, अप्रमत्तगुणस्थाने यथाप्रवृत्तिकरणम पूर्वगुणस्थानेऽपूर्वकरणमनिवृत्तिबादरसम्परायेऽनिवृत्तिकरणम् । तत्रापूर्वकरणे स्थितिघातादिभिरप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानांवरणकषायाष्टकम निवृत्तिकरणाद्धाप्रथमसमये पल्योपमासंख्येयभागमात्रस्थितिकं यथा भवेत्तथा क्षपयति । अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु स्त्यानर्द्धित्रिकनरकतिर्यग्गतिनरकतिर्यगानुपूर्व्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरातपोद्योतसूक्ष्मसाधारणानां षोडश - 10 प्रकृतीनामुद्वलनासंक्रमेणोद्वल्यमानानां पल्योपमा संख्येयभागमात्रा स्थितिर्जाता, ततो बध्यमानासु प्रकृतिषु तानि षोडशापि कर्माणि गुणसंक्रमेण प्रतिसमयं प्रक्षिप्यमाणानि निःशेषतोऽपि क्षीणानि भवन्ति, इहाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं पूर्वमेव क्षपयितुमारब्धं परं तन्नाद्यापि क्षीणं केवलमपान्तराल एव पूर्वोक्तं प्रकृतिषोडशकं क्षपितं पश्चात्तदपि कषायाष्टकमन्तर्मुहूर्त्तेन क्षपयतीत्येष सूत्रादेशः । अन्ये त्वाहुः षोडशकर्माण्येव पूर्वं क्षपयितु15 मारभते केवलमपान्तरालेऽष्टौ कषायान् क्षपयति पश्चात् षोडशकर्माणीति । ततोऽन्तर्मुहूर्त्तेन नवानां नोकषायाणां चतुण्णी संज्वलनानाश्चाऽन्तरकरणं करोति । तच्च कृत्वा नपुंसक वेददलिकमुपरितनस्थितिगतमुद्वलनविधिना क्षपयितुमारभते । तञ्चाऽन्तर्मुहूर्तेन पयोपमासंख्येयभागमात्रं भवति, ततः प्रभृति बध्यमानासु प्रकृतिषु गुणसंक्रमेण तद्द लिकं प्रक्षिपति, तञ्चैवं प्रक्षिप्यमाणमन्तर्मुहूर्त्तेन निःशेषं क्षीणम् । अधस्तनस्थितिदलिकं च यदि नपुंसकवे20 देन क्षपकश्रेणिमारूढस्ततोऽनुभवतः क्षपयति, अन्यथा त्वावलिकामात्रं तद्भवति, तच्च वेद्यमानासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति । तदेवं क्षपितो नपुंसकवेदः । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन स्त्रीवेदोऽप्यनेनैव क्रमेण क्षिप्यते, ततः षट् नोकषायान् युगपत्क्षपयितुमारभते, ततः प्रभृति च तेषामुपरितनस्थितिगतं दलिकं न पुरुषवेदे संक्रमयति किन्तु संज्वलनक्रोध एव, एतेऽपि च पूर्वोदितविधिना क्षिप्यमाणा अन्तर्मुहूर्तेन निःशेषं क्षीणास्तत्समय एव च १. यदि स्वर्गे नरके वा गच्छति तदा स्वर्गभवान्तरितो नरकभवान्तरितो वा तृतीयभवे मोक्षमुपयाति, यदि तु तिर्यक्षु मनुष्येषु वोत्पद्यते तदावश्यमसंख्येयवर्षायुष्केष्वेव न संख्येयवर्षायुष्केषु ततस्तद्भवानन्तरं देवभवं ततश्युत्वा मनुष्यभवं ततो मोक्षं यातीति चतुर्थभवे मोक्षगमनम् । इदञ्च प्रायिकं क्षीणसतकस्य कृष्णस्य पञ्चमभवेऽपि मोक्षगमनश्रवणात् । २. नपुंसकवेदेन श्रेणिमनारूढश्चेदित्यर्थः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपकश्रेणिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते पुंवेदस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः, समयोनावलिकाद्विकबद्धं मुक्त्वाऽशेषदलिकक्षयश्च, ततोऽसाविदानीमवेदको जातः, क्रोधं च वेदयतस्तस्य क्रोधाद्धायास्त्रयो विभागा भवन्ति, अश्वकर्णकरणाद्धा किट्टिकरणाद्धा किट्टिवेदनाद्धा चेति, तत्राश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः प्रतिसमयमनन्तान्यपूर्वस्पर्धकानि चतुर्णामपि संज्वलनानामन्तरकरणादुपरितनस्थितौ करोति, अथ किमिदं स्पर्धकमुच्यते-इह तावदनन्तानन्तैः परमाणुभिर्निष्पन्नान् स्कन्धान जीवः 5 कर्मतया गृह्णाति तत्र चैकैकस्मिन् स्कन्धे यः सर्वजघन्यरसः परमाणुस्तस्याऽपि रसः केवलिप्रज्ञया छिद्यमानः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् रसभागान् प्रयच्छति अपरस्तानप्येकाधिका: नन्यस्तु द्वघधिकानेवमेकोत्तरया वृद्ध्या ता वन्नेयं यावदन्त्यपरमाणुरभव्यानन्तगुणान् सिद्धा. नन्तभागेनाधिकान् रसभागाम् प्रयच्छति, तत्र जघन्यरसा ये केचन परमाणवस्तेषां समुदाः यस्समानजातीयत्वादेका वर्गणेत्युच्यते, अन्येषां त्वेकाधिकरसभागयुक्तानां समुदायो द्वितीया 10 वर्मणा, अपरेषां तु व्यधिकरसभागयुक्तानां समुदायस्तृतीया वर्गणा, एवमनया. दिशैकैका रसभागवृद्धानामणूनां समुदायरूपा वर्गणास्सिद्धानन्तभागकल्पा अभव्यानन्तगुणा वाच्याः । एतासाश्च समुदायः स्पर्धकमित्युच्यते । इत ऊर्ध्वमेकोत्तरया निरन्तरया वृद्ध्या प्रवर्धमानो . रसो न लभ्यते किन्तु सर्वजीवानन्तगुणैरेव रसभागैः, ततस्तेनैव क्रमेण ततःप्रभृति द्वितीय स्पर्धकमारभयते, एवमेव च तृतीयमेवं तावद्वाच्यं यावदनन्तानि स्पर्धकानि, एतेभ्य 15 एव चेदानी प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशादनन्तगुणहीनरसाः कृत्वा पूर्ववत्स्पर्धकानि करोति, न चैवंभूतानि पूर्वं कदाचनापि कृतानि ततोऽपूर्वाणीत्युच्यन्ते, अस्यां चाश्वकर्णकरणाद्धायां वर्तमानः पुंवेदं समयोनावलिकाद्विकेन कालेन क्रोधे गुणसंक्रमेण संक्रमयन् चरमसमये सर्वसंक्रमेण संक्रमयति, तदेवं क्षीणः पुंवेदः, अश्वकर्णकरणाद्धायाश्च समाप्तायां किट्टिकरणाद्धायाश्च वर्तमानश्चतुर्गामपि संज्वलनानामुपरितनस्थितिदलिकस्म किट्टीः करोति, 20 किट्टयो नाम पूर्वस्पर्धकेभ्यः प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशादत्यन्तहीनरसाः कृत्वा तासामेकोत्तरवृद्धित्यागेन बृहदन्तरालतया व्यवस्थापनम् । यथा यासामेव वर्गणानामसत्कल्पनयाऽनुभागभागामां शतमेकोत्तरादि वाऽऽसीत् तासामेव विशुद्धिप्रकर्षादनुभागभागानां दशकस्य पञ्चदशकादेश्च व्यवस्थापनमिति । एताश्च किट्टयः परमार्थतोऽनन्ता अपि स्थूलजातिभेदापेक्षया द्वादश कल्प्यन्ते, एकैकस्य कषायस्य तिमस्तिस्रः, तद्यथा, प्रथमा 25 १. पुदिनः प्रारम्भकस्यैतत् । यदा नपुंसकवेदी प्रारम्भकः तदा प्रथमं स्त्रीवेदनपुंसकवेदी युगपत्क्षपयति, तत्क्षयसमय एव पुंवेदबन्धव्यवच्छेदः। ततः पुंवेदहास्यषट्के युगपत्क्षपयति । यदा स्त्रीवेदी प्रारम्भकः तदा प्रथमं नपुंसकवेदं ततस्त्रीवेदं क्षपयति तत्क्षयसमकालमैव च पुंवेदबन्धव्यवच्छेदः, ततः पुंवेदहास्यषट्कयोयुगपत्क्षय इति ॥ २. पुंवेदिन इत्यर्थः । .. . . ......' Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे द्वितीया तृतीया च, एवं क्रोधेन क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम् । यदा तु मानेन प्रतिपद्यते तदोद्वलनाविधिना क्रोधे क्षपिते सति शेषाणां त्रयाणां पूर्वक्रमेण नव कीट्टीः करोति, मायया चेत्प्रतिपन्नस्तर्हि क्रोधमानयोरुद्वलनविधिना क्षपितयोः सतोः शेषद्विकस्य पूर्वक्रमेण षट् किट्टीः करोति, यदि पुनर्लोभेन प्रतिपद्यते तत उद्वलनविधिना क्रोधत्रिके क्षपिते सति 5 लोभस्य किट्टित्रिकं करोति, एष किट्टिकरणविधिः ॥ किट्टिकरणाद्धायां निष्ठितायां क्रोधेन प्रतिपन्नः सन् क्रोधस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः । ततोऽनन्तरसमये द्वितीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः । ततस्तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्याव10 समयाधिकावलिकामानं शेषः, तिसृष्वपि चामूषु किट्टिवेदनाद्धासूपरितनस्थितिगतं दलिकं गुणसंक्रमेणापि प्रतिसमयमसंख्येयगुणवृद्धिलक्षणेन संज्वलने माने प्रक्षिपति, तृतीयकिट्टिवेदनाद्धायाश्चरमसमये संज्वलनक्रोधस्य बन्धोदयोदीरणानां युगपद्वयवच्छेदः, सत्कर्माऽपि च तस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धं मुक्त्वाऽन्यन्नास्ति सर्वस्य माने प्रक्षिप्तत्वात् , ततो मानस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावदन्त15 मुहूर्त, क्रोधस्याऽपि च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्य दलिकं समयोनावलिकाहिकेन कालेन गुणसंक्रमेण संक्रमयन् चरमसमये सर्व संक्रमयति, मानस्यापि च प्रथमकिट्टिदलिक प्रथमस्थितीकृतं वेद्यमानं समयाधिकावलिकाशेषं जातं, ततो मानस्य द्वितीयकिट्टिदलिक द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथम स्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः, ततस्तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च 20 तावद्यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः, तस्मिन्नेव च समये मानस्य बन्धोदयोदीरणानां युगपद्व्यवच्छेदः, सत्कर्मापि च तस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धमेव, शेषस्य क्रोधशेषस्येव मायायां प्रक्षिप्तत्वात् , ततो मायायाः प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थिति करोति वेदयते च तावद्यावदन्तर्मुहूर्त संज्वलनमानस्य च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्य दलिकं समयोनावलिका द्विकेन कालेन गुणसंक्रमेण मायायां सर्व प्रक्षिपति, मायाया अपि 25 च प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतं प्रथमस्थितीकृतं वेद्यमानं समयाधिकावलिकाशेषं जातं, ततो मायाया द्वितीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकाव लिकामानं शेषः, ततस्तृतीयकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः, तस्मिन्नेव च समये मायाया बन्धोदयोदीरणानां युगपद्व्यवच्छेदः, सत्कर्मापि च तस्याः Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपकश्रेणिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । समयोनावलिकाद्विकबद्धमात्रमेव, शेषस्य गुणसंक्रमेण लोभे प्रक्षिप्तत्वात् ततो लोभस्य प्रथमकिट्टिदलिकं द्वितीयस्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तावद्यावदन्तर्मुहूर्त, संज्वलनमायायाश्च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति तस्या दलिकं समयोनावलिकाद्विकेन कालेन गुणसंक्रमेण लोभे सर्वं संक्रमयति, संज्वलनलोभस्य च प्रथमकिट्टिदलिकं प्रथमस्थितीकृतं वेद्यमानं समयाधिकावलिकामानं शेषं जातं, ततो लोभस्य द्वितीय किट्टिदलिकं द्वितीयस्थिति- 5 गतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च, तां च वेदयमानस्तृतीयकिट्टिदलिकं गृहीत्वा सूक्ष्मकिट्टीः करोति तावद्यावद् द्वितीयकिट्टिदलिकस्य प्रथमस्थितीकृतस्य वेद्यमानस्य समयाधिकावलिकामानं शेषः, तस्मिन्नेव च समये संज्वलनलोभस्य बन्धव्यच्छेदो बादरकषायोदयोदीरणाव्यवच्छेदोऽनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकव्यवच्छेदश्च युगपज्जायते ततस्सूक्ष्मकिट्टिदलिकं द्वितीय स्थितिगतमाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च तदानीमसौ सूक्ष्मसम्प- 10 राय उच्यते, पूर्वोक्ताश्चावलिकास्तृतीयकिट्टिगताः शेषीभूतास्सर्वा अपि वेद्यमानासु परप्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति प्रथमद्वितीयकिट्टिगताश्च यथास्वं द्वितीयतृतीयकिट्टयन्तर्गता वेद्यन्ते, सूक्ष्मसम्परायश्च लोभस्य सूक्ष्मकिट्टीर्वेदयमानः सूक्ष्मकिट्टिदलिकं समयोनावलिकाद्विकबद्धं च प्रतिसमयं स्थितिघातादिभिस्तावत्क्षपयति यावत्सूक्ष्मसम्परायाद्धायाः संख्येया भागा गता भवन्त्येकोऽवशिष्यते, ततस्तस्मिन् संख्येये भागे संज्वलनलोभं सर्वापवर्त्तनयाs. 15 पवर्त्य सूक्ष्मसम्परायाद्धासमं करोति, सा च सूक्ष्मसम्परायाद्धाऽद्याप्यन्तर्मुहुर्तमाना, ततः प्रभृति च मोहस्य स्थितिघातादयो निवृत्ताः, शेषकर्मणान्तु प्रवर्त्तन्त एव, तां च लोभस्यापवर्त्तितां स्थितिमुदयोदीरणाभ्यां वेदयमानस्तावद्गतो यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः, तत उदीरणा स्थिता, तत उदयेनैव केवलेन तां वेदयते यावच्चरमसमय, तस्मिश्च चरमसमये ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्कयशःकीऍञ्चैर्गोत्रान्तरायपञ्चकरूपाणां षोडशकर्मणां बन्ध- 20 व्यवच्छेदः, मोहनीयस्योदयसत्ताव्यवच्छेदश्च भवति, ततोऽसौ क्षीणकषायो जायते, तस्य च शेषकर्मणां स्थितिघातादयः पूर्ववत्प्रवर्त्तन्ते यावत्क्षीणकषायाद्धायाः संख्येया भागा गता भवन्त्येकस्संख्येयो भागोऽवतिष्ठते, तस्मिंश्च ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयनिद्राद्विकरूपाणां षोडशकर्मणां स्थितिसत्कर्म सर्वापवर्तनयाऽपवर्त्य क्षीणकषायाद्धासमं करोति, केवलं निद्राद्विकस्य स्वस्वरूपापेक्षया समयन्यून सामान्यतः कर्मरूपतया तु तुल्यं, 25 सा च क्षीणकषायाद्धाऽद्याप्यन्तर्मुहूर्तमाना, तप्तः प्रभृति च तेषां स्थितिघातादयः स्थिताः, शेषाणान्तु भवन्त्येव, तानि च षोडशकर्माणि निद्राद्विकहीनानि उदयोदीरणाभ्यां वेदयमानस्तावद्गतो यावत्समयाधिकावलिकामानं शेषः, तत उदीरणा निवृत्ता, तत आवलिकामानं यावदुदयेनैव केवलेन तानि वेदयते यावत्क्षीणकषायाद्धाया द्विचरमसमयम् , तस्मिश्च द्विचर Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे मसमये निद्राद्विकं स्वरूपसत्तापेक्षया क्षीणं, चतुर्दशानां च प्रकृतीनां चरमसमये क्षयः, ततोऽनन्तरसमये केवली जायत इति क्षपकश्रेणिः ॥ अथोपशम श्रेणिस्तदारम्भकोऽप्रमत्तसंयत एव, उपशमश्रेणिपर्यवसाने स्वप्रमत्तप्रमत्तसंयत देश विरताविरतानामन्यतमो भवति, अन्ये त्वविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतमोऽनन्तानुबन्धिनः कषायानुपशमयति 5 दर्शनत्रिकादिकं तु संयम एव वर्त्तमान इत्याहुः । तत्र प्रथममनन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽभिधीयते, अविरतादीनामन्यतमोऽन्यतमस्मिन् योगे वर्त्तमानस्तेजः पद्मशुकुलेश्यान्यतमलेश्या - युक्तः साकारोपयोगयुक्तोऽन्तः सागरोपमकोटी कोटिस्थितिसत्कर्मा करणकालात्पूर्वमप्यन्तर्मुहूर्त्तं यावद्विशुद्ध्यमानचित्तसन्ततिरवतिष्ठते, तथावतिष्ठमानश्च परावर्त्तमानाः प्रकृतीः शुभा एव बध्नाति, नाऽशुभाः, प्रतिसमयश्चाऽशुभानां कर्मणामनुभागमनन्तगुणहान्या करोति 10 शुभानाश्चाऽनन्तगुणवृद्ध्या, स्थितिबन्धेऽपि च पूर्णे सत्यन्यं स्थितिबन्धं पूर्वपूर्वस्थितिबन्धापेक्षया पल्योपमासंख्येय भागहीनं करोति, पूर्णे चान्तर्मुहूर्ते क्रमेण प्रत्येकमान्तर्मुहूर्त्तकानि त्रीणि यथाप्रवृत्त्यादीनि करणानि करोति, चतुर्थी तूपशमाद्धां, करणवक्तव्यता च सर्वापि कर्मप्रकृतेरवसेया, अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु एकस्मिन् भाषेऽवतिष्ठमानेऽनन्तानुबन्धिनामधस्तादावलिकामात्रं मुक्त्वाऽन्तर्मुहूर्त्तमान15 मम्तरकरणमभिनवस्थितिबन्धाद्धासमे नान्तर्मुहूर्तेन करोति, अन्तरकरणदलिकं चोत्कीर्यमाणं बध्यमानासु परप्रकृतिषु प्रक्षिपति प्रथमस्थित्यावलिकागतं च दलिकं स्तिबुकसंक्रमेण वेद्यमानासु परप्रकृतिषु प्रक्षिपति, अन्तरकरणे च कृते द्वितीयसमयेऽनन्तानुबन्धि-: नामुपरितनस्थितिदलिकमुपशमयितुमारभते, तथा हि प्रथमसमये स्तोकं, द्वितीयसमये ततोऽसंख्यातगुणं, तृतीयसमयेऽपि ततोऽसंख्येयगुणं यावदन्तर्मुहूर्त्तेन साकल्यतोऽनन्तानुबन्धिन 20 उपशमिता भवन्ति, उपशमना नाम यथा रेणुनिकरः सलिलबिन्दुनिवहैरभिषिच्याभिषिच्य द्रुघणादिभिर्निकुट्टितो निस्पन्दो भवति तथा कर्मरेणुनिकरोऽपि विशुद्धिवारिपूरेण परिषिच्यः परिषिच्यानिवृत्तिकरणरूपद्रुघणनिकुट्टितः संक्रमणोदयोदीरणानिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्यो भवति, अन्ये त्वनन्तानुबन्धिनामुपशमनां न मन्यन्ते किन्तु विसंयोजन-क्षपणां, सा १. याः प्रकृतयोऽन्यस्याः प्रकृतेर्बन्धमुदयं वा विनिवार्य स्वकीयं बन्धमुदयमुभयं वा दर्शयन्ति ताः परावर्त्तमानाः । तत्र ज्ञानावरणपञ्चकमन्तरायपञ्चकं दर्शनावरणचतुष्टयं पराघाततीर्थकरोच्छ्वास मिथ्यात्वभयजुगुप्सागुरुलघूपघातनिर्माणतैजसवर्णादिचतुष्ककार्मणः नि- चेत्येकोनत्रिंशत्प्रकृतयो बन्धमुदयश्चाश्रित्यापरावर्त्तमाना:, आसां बन्धस्योदयस्य वा शेषप्रकृतिभिर्बध्यमानाभिवैद्यमानाभिर्वा हन्तुमशक्यत्वात् । शेषा बन्धमाश्रित्यैकनवर्तिसंख्या उदयापेक्षया सम्यक्त्वसम्यङ्मिथ्यात्वसहितास्त्रिनवतिः परावर्त्तमानाः ॥ षोडश कषाया निद्रापञ्चकं च स्वोदये सजातीयप्रकृत्युदयनिरोधात्परावर्त्तमानाः स्थिरशुभास्थिराशुभप्रकृतयो बन्ध प्रति परावर्त्तमानाः ॥ इतरास्तु बन्धोदयाभ्यामपि परावर्त्तमाना इति ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमणिः । न्यावकाशसमलड़ते न्यायप्रकार प्रोवोक्ता, संप्रति दर्शनत्रिकस्योपशमना भण्यते, इह क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः संयमे वर्तमानोऽन्तर्मुहूर्तेन दर्शनत्रिकमुपशमयति, उपशमयंश्च पूर्वोक्तकरणत्रयनिवर्त्तनेन विशुद्धया वर्धमानोऽनिवृत्तिकरणाद्धाया असंख्येयेषु भागेषु गतेष्वन्तरकरणं करोति, तच्च कुर्वन् सम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिमन्तर्मुहूर्तमानां स्थापयति मिथ्यात्वमिश्रयोश्चावलिकामात्रं उत्कीर्यमाणञ्च दलिकं त्रयाणामपि सम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति, मिथ्यात्व मिश्रयोः प्रथम स्थितिद- 5 लिकं सम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिदलिकमध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति, सम्यक्त्वस्य पुनः प्रथमस्थितौ विपाकानुभवतः क्रमेण क्षीणायामुपशमसम्यग्दृष्टिर्भवति, उपरितनदलिकस्य चोपशमना त्रयाणामपि मिथ्यात्वादीनामनन्तानुबन्धिनामुपरितनस्थितिदलिकस्येवावसेया, एवमुपशान्तदर्शनत्रिका प्रमत्ताप्रमत्तपरिवृत्तिशतानि कृत्वा चारित्रमोहमुपशमयितुकामः पुनरपि यथाप्रवृत्त्यादीनि त्रीणि करणानि करोति, केवलमिह यथाप्रवृत्तिकरण- 10 मप्रमत्तगुणस्थानेऽपूर्वकरणञ्चापूर्वकरणगुणस्थाने अनिवृत्तिकरणञ्चानिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानके अपूर्वकरणे च स्थितिघातादिभिर्विशुद्धय ततोऽनन्तरसमयेऽनिवृत्तिकरणे प्रविशति, अनिवृत्तिकरणाद्धायाश्च संख्येयेषु भागेषु गतेषु दर्शनसप्तकवर्जितानामेकविंशतेर्मोहनीयप्रकृतीनामन्तरकरणं करोति, तत्र यस्य वेदस्य संज्वलनस्य चोदयोऽस्ति तयोः स्वोदयकालमानां प्रथमस्थितिं करोति शेषाणान्त्वेकादशकषायाणामष्टानां च नोकषायाणामावलिकामात्रं, 15 वेदत्रिकसंज्वलनचतुष्कोदयकालमानमन्तरकरणगतदलिकप्रक्षेपस्वरूपश्च कर्मप्रकृति ठीकातोऽवसेयम् , अन्तरकरणश्च कृत्वा ततो नपुंसकवेदमन्तर्मुहूर्तेनोपशमयति, तथाहि प्रथमसमये स्तोकं, द्वितीयसमये ततोऽसंख्येयगुणं, एवञ्च प्रतिसमयमसंख्येयगुणं तावदुपशमयति यावच्च रमसमयं, परप्रकृतिषु च प्रतिसमयमुपशमितदलिकापेक्षया तावदसंख्येयगुगं प्रक्षिपति यावद् द्विचरमसमयम् , चरमसमये तूपशम्यमानं दलिकं परप्रकृतिषु संक्रम्यमाणदलिका- 20 पेक्षयाऽसंख्येयगुणं द्रष्टव्यम् । उपशान्ते च नपुंसकवेदे स्त्रीवेदं प्रागुक्तविधिनाऽन्तमुहूर्तेनोपशमयति, ततोऽन्तर्मुहूर्तेन हास्यादिषट्कं तस्मिश्चोपशान्ते तत्समयमेव पुरुषवेदस्य १. अनन्तानुबन्धिवर्जानां द्वादशानां कषायाणां नव नोकषायाणामित्यर्थः ॥ २. स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकालस्सर्वस्तोकः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः ततः पुरुषवेदस्य संख्येयगुणः ततस्संज्वलनक्रोधस्य विशेषाधिकः, ततोऽपि संज्वलनमानस्य विशेषाधिकः, ततोऽपि संज्वलनमायायास्ततोऽपि संज्वलनलोभस्येति स्वोदयकालप्रमाणं वेद्यम् । अन्तरकरणसत्कदलिकप्रक्षेपविधिश्च येषां कर्मणां तदानीं बन्ध उदयश्च विद्यते तेषामन्तरकरणसत्कदलिकं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, यथा पुरुषवेदारूढः पुरुषवेदस्य । येषां केवलमुदय एव तेषामन्तरकरणसत्कदलिकं प्रथमस्थितावेव प्रक्षिपति, यथा स्त्रीवेदस्य । येषान्तु केवलं बन्ध एव तेषां तद्दलिकं द्वितीयस्थितावेव प्रक्षिपति, यथा संज्वलनक्रोधारूढस्संज्वलनमानादीनाम् । येषां पुनर्न . बन्धो नाप्युदयस्तेषां दलिकं परप्रकृतौ प्रक्षिपति यथा द्वितीयतृतीयकषायाणामिति ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६० तत्त्वन्यायविभाकर [ सतमकिरणे बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः, ततः समयोनावलिकाद्विकेन पुंवेदमुपशमयति, ततो युग. पदन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधौ, तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनक्रोधस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः, ततस्समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनक्रोधमुपशमयति ततोऽन्तर्मुहूर्तेनाऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदुपशमयति, तदुपशान्तौ च तत्स5 मयमेव संज्वलनमानस्य बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः, ततस्समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनमानमुपशमयति, ततो युगपदन्तर्मुहूर्तेनाऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमाये उपशमयति, तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संचलनमायाया बन्धोदयोदीरणाव्यवच्छेदः, ततोऽसौ लोभवेदको जातः, लोभवेदनाद्धायाश्च त्रयो विभागास्तद्यथा-अश्वकर्णकरणाद्धा किट्टिकरणाद्धा किट्टिवेद. नाद्धा च, तत्राद्ययोर्द्वयोनिभागयोर्वर्त्तमानः संज्वलनलोभस्य द्वितीयस्थितेः सकाशालिकमा10 कृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयते च, अश्वकर्णकरणाद्धायाश्च वर्तमानः प्रथमसमय एव त्रीनपि लोभानप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनरूपान् युगपदुपशमयितुमारभते । विशुद्धया वर्धमानवापूर्वाणि स्पर्धकानि करोति संज्वलनमायायाश्च बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति ततः समयो. नावलिकाद्विकेन संज्वलनमायामुपशमयति, एवमश्वकर्णकरणाद्धायां गतायां किट्टिकरणाद्धायां प्रविशति, तत्र च पूर्वस्पर्धकेभ्योऽपूर्वस्पर्धकेभ्यश्च द्वितीयस्थितिगतं दलिकं गृहीत्वा प्रतिसमय15 मनन्ताः किट्टीः करोति । किट्टिकरणाद्धायाश्वरमसमये युगपदप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलो. भावुपशमयति तदुपशान्तौ च तत्समयमेव संज्वलनलोभबन्धव्यवच्छेदो बादरसंज्वलनलोभोदयोदीरणाव्यवच्छेदश्च, ततोऽसौ सूक्ष्मसंपरायो भवति, तदा चोपरितनस्थितेः सकाशात्कतिपयाः किट्टीः समाकृष्य प्रथमस्थितिं सूक्ष्मसंपरायाद्धातुल्यां करोति वेदयते च, सूक्ष्मस. म्परायाद्धा चाऽन्तर्मुहूर्तमाना, शेषं च सूक्ष्म किट्टीकृतं दलिकं समयोनावलिकाद्विकबद्धं 20 चोपशमयति, सूक्ष्मसम्परायाद्धायाश्च चरमसमये संज्वलनलोभ उपशान्तो भवति, ततोऽ नन्तरसमवेऽसावुपशान्तमोहो भवति, स च जघन्येनैकसमयमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूतं यावदुपतिष्ठते तत ऊर्च नियमादसौ प्रतिपतति, प्रतिपातश्च द्विधा भवक्षयेणाद्धाक्षयेण च, तत्र भवक्षयो म्रियमाणस्य, अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाप्तायां। अद्धाक्षयेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति, यत्र यत्र बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नास्तत्र तत्र प्रतिपतता 25 सता तेन ता अद्धाक्षयेणारभ्यन्त इति यावत् , प्रतिपतंश्च तावत्प्रतिपतति यावत्प्रमत्तसंयत गुणस्थानं, कश्चित्ऍनस्ततोऽप्यधस्तनं गुणस्थानद्विकं याति कोऽपि सास्वादनभावमपि, यः १. पश्चानुपूर्व्या पतितः प्रमत्तगुणस्थानमागत्यं तत्र विधम्य प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानकयोः प्रभूतानि सहस्राणि यावत्परिवृत्तीः कृत्वा कश्चिद्देशविरताविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानद्विकमपि गच्छेदिति भावः । २. येषां मतेनाऽनन्तानुबन्धिनामुपशमना भवति तेषां मतेन कश्चित्सास्वादनभावमपि गच्छेदिति भावः ॥ . . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरण० ] म्यावप्रकाशलमल । १६१ । पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स नियमादनुत्तरविमानसर्वार्थसिद्धवासिषूत्पद्यते, उत्पन्नश्च प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनि करणानि प्रवर्त्तयतीति विशेष इत्युपशमश्रेणिः ॥ अस्मिन्नष्टमगुणस्थाने जीवः निद्राद्विकदेवद्विकपचेन्द्रियत्व प्रशस्त विहायोगतित्रसनवकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणवैक्रियाङ्गोपाङ्गाहारकाङ्गोपाङ्गाद्यसंस्थान निर्माणतीर्थ कृश्ववर्ण चतुष्कागुरुलघुपघातपराघातोच्छ्वासरूपद्वात्रिंशत्प्रकृतिव्यवच्छेदात् षड्विंशतिबन्धकः । अन्त्यसंहननत्रिकस - 5 म्यक्त्वोदयव्यवच्छेदाद् द्वासप्ततेर्वेदयिता, अष्टत्रिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवति ॥ अधुना नवमं गुणस्थानमाचष्टे – अन्योऽन्याध्यवसायस्थानव्यावृत्त्यभावविशिष्टसूक्ष्मसम्परायापेक्ष स्थूलकषायोदयवत्स्थानमनिवृत्तिकरणगुणस्थानम् । अन्तर्मुहूर्त्तकालमेतत् । अत्रस्थोऽपि द्विविधः क्षपक उपशमकश्चेति । क्षपकश्रेणिस्थः क्षपकः, अयं 10 दर्शनावरणीय प्रकृतित्रिकं नामप्रकृतित्रयोदशकं मोहनीयप्रकृतिविंशति श्चात्र क्षपयति । उपशमश्रेणिस्थ उपशमकः । मोहनीयप्रकृतिविंशतिमेवोपशमयत्ययम् ॥ अन्योऽन्येति । युगपदेव यत्स्थानप्रविष्टानामनेकेषामपि जीवानां परस्पराध्यवसायस्थानानि न व्यावृत्यन्ते तथा सूक्ष्मसम्परायापेक्षया यत्र स्थूलकषायोदयो भवेत् तादृशम - 15 निवृत्तिकरणगुणस्थानमित्यर्थः । युगपदेतद्गुणस्थानं प्राप्तानामनेकेषामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य निवृत्तिर्नास्ति यत्र यदीयगुणस्थानाद्धायामान्तमौहूर्त्तिक्यां प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यवसायस्थानं भवति, यावन्तश्चाऽन्तर्मुहूर्ते समयास्तावन्त्येवाऽध्यवसायस्थानानि तत्प्रविष्टानां भवन्ति नाऽधिकानि, एकसमयप्रविष्टानां सर्वेषामप्येकाध्यवसायस्थानत्वात्, तथा सूक्ष्म किट्टीकृत कषायोदयापेक्षया स्थूलः कषायोदयो 20 भवति तादृशमनिवृत्तिकरणगुणस्थानमिति भावः । अस्योत्कृष्टकालमाह - अन्तरिति । जघन्यतस्त्वेकस्समयः | अत्रापि जीवद्वैविध्यं दर्शयति-अत्रस्थोऽपीति । क्षपकस्वरूपमाह - क्षपकेति । कषायाष्टकादीनां क्षपयतेत्यर्थः । काः कर्मप्रकृतीः क्षपयतीत्यत्राह - अयमिति । दर्शनावरणीयत्रिकमिति, निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिरूपमित्यर्थः, नामेति, नरकद्विकतिर्यद्विकसाधारणोद्योतसूक्ष्मनामैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्यातपस्थावररूपमित्यर्थः । मोहनीयेति, अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायनपुंसकस्त्री वेदहास्यरत्य रतिभ यशोकजुगुप्सापुरुषवेदसंज्वलनक्रोध - 25 १. देवायुर्वर्जायुबन्धे उपशमश्रेण्यारोहणाभावादिति भावः ॥ २१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे मानमायारूपामित्यर्थः । उपशमकस्वरूपमाह-उपशमेति । कषायाष्टकादीनामुपशमयितेत्यर्थः । मोहनीयेति । अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायाऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानलोभहास्यषटुवेदत्रयरूपविशतिप्रकृतिमेवेत्यर्थः । अत्रस्थो जीवो हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्साव्यव च्छेदाद् द्वाविंशतेर्बन्धकः। अत्र षड्विंशतिप्रकृतिभ्यो हास्यादिषट्रप्रकृतिविगमे विंशतेरवशेषा5 द्यद्यपि द्वाविंशतेर्बन्धकत्वमनुपपन्नं तथापि नानाजीवापेक्षया तथोक्तिः, एकजीवापेक्षया तु चतसृणामेवापगमः । हास्यषट्रोदयव्यवच्छेदाच षषष्टेर्वेदयिता, व्युत्तरशतसत्ताकश्च, मानान्तपञ्चत्रिंशत्प्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदात् ॥ साम्प्रतं दशमं गुणस्थानस्वरूपमाह मोहनीयविंशतिप्रकृतीनां शमनात् क्षयादा सूक्ष्मतया लोभमात्राव10 स्थानस्थानं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् । अन्तमुहूर्तमानमेतत् ॥ मोहनीयेति । विंशतिप्रकृतिरूपे मोहे शान्ते क्षीणे वा सूक्ष्मखण्डीभूतातिदुर्जयसंज्वलनलोभमात्रावस्थानस्य स्थानमित्यर्थः, शमनात् क्षयादिति पदाभ्यामत्रस्थोऽपि जीवः क्षपक उपशमकश्चेति द्विविध इति सूचितम् । अत्र क्षपकश्रेण्या समागत उपशमश्रेण्या समागतश्च संज्वलनलोभं क्रमेण क्षपयत्युपशमयति चेत्यर्थः । सूक्ष्मतयेति-अनिवृत्तिबादरेण 15 किट्टीकृतत्वादिति भावः । अस्य कालनियममाह-अन्तरिति । उपशान्तकषायस्तु संज्वलनलो भमुपशमय्यैकादशगुणस्थानं यातीति । क्षपकस्तु लोभं क्षपयित्वोज़ द्वादशगुणस्थानं यातीति च विज्ञेयम् । सूक्ष्मसम्परायाद्धाचरमसमये तस्य लोभस्य क्षयो वोपशमो वा भवतीति विभावनातोऽन्तर्मुहूर्त्तमानमुक्तम् , अत्रस्थो जीवः पुंवेदसंज्वलनचतुष्कबन्धव्यवच्छेदात्सप्त दशकर्मप्रकृतेर्बन्धकः, त्रिवेदत्रिसंज्वलनोदयव्यवच्छेदात् षष्टेर्वेदयिता, मायासत्ताव्यवच्छेदाद्-' 20 द्वयुत्तरशतसत्ताकश्च ॥. उपशमश्रेणिद्वारा समायातस्योपशान्तसंज्वलनलोभस्य प्राप्यं गुणस्थानमेकादशमाह उपशमश्रेण्या सर्वकषायाणामुदयायोग्यतया व्यवस्थापनस्थानमुपशान्तमोहगुणस्थानम् । अत्राष्टाविंशतिमोहनीयप्रकृतीनामुपशमो भवति, उपशान्तमोहस्तूत्कर्षेणाऽन्तर्मुहर्त्तकालमत्र तिष्ठति । तत ऊवं निय. 25 मादसौ प्रतिपतति । चतुर्वारं भवत्यासंसारमेषा श्रेणिः ॥ उपशमश्रेण्येति । उपशमश्रेण्या सर्वेषां क्रोधादीनां कषायाणां विद्यमानानामपि भस्म Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसम्पराय० ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : १६३. : च्छन्नाग्निरिव संक्रमणोद्वर्तनादिकरणायोग्यतया यत्र व्यवस्थापनं तादृशमुपशान्तमोहगुणस्थानमित्यर्थः, इदमेव चोपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानमित्यप्युच्यते, क्रोधमानमायालोभोदयविगमात् , ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मोदयावस्थानाच्च । सूक्ष्मस्यापि संज्वलनलोभस्य सर्वथोपशमनादष्टाविंशतिमोहनीयप्रकृतीनामुपशमो जात इत्याशयेनाह-अत्रेति । एतद्गुणस्थान उपशमयितुस्थितिकालनियममाह-उपशान्तमोहस्त्विति । जघन्येनैकस्समय इत्यपि 5 बोध्यम् । अन्तर्मुहूर्तानन्तरमसौ क यातीत्यत्राह-तत ऊर्ध्वमिति । उपशान्तस्यावश्यमुदयनियमेनोदिते च चारित्रमोहनीये च्यवत्येवेति भावः । ननूपशमश्रेणिरेकेनासंसारं कतिवारं कर्तुं शक्यत इत्यत्राह-चतुर्वारमिति । एकस्मिन् भवे तूत्कर्षतो द्वौ वारावुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते परन्तु तस्य नियमेन तस्मिन् भवे न क्षपकश्रेणिः, यस्त्वेकवारमुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपि, आगमाभिप्रायेण तु एकस्मिन् भवे एकामेव श्रेणिं प्रतिपद्यत 10 इति ध्येयम् । ननूपशमश्रेणिमविरतादय एवारभन्ते ते च यथासम्भवं मिथ्यात्वानन्तानुबन्ध्य. प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणानामुपशमाद्भवन्ति, अन्यथा तेषामुदये सम्यक्त्वादिलाभ एव न स्यात् ततः कथमिदानीमुपशमस्तेषामुच्यत इति चेन्न पूर्व हि तेषां क्षयोपशम एवासीत् नोपशमस्तत इदानीमुपशमः क्रियते । ननु क्षयोपशमोऽप्युदिते कर्माशे क्षीणेऽनुदिते चोपशान्ते भवति उपशमोऽपि चैवम्भूत इति तयोर्विशेषाभाव इति चेन्न क्षयोपशमे तदावार- 15 कस्य कर्मणः प्रदेशतोऽनुभवनात् , उपशमे तु सर्वथा तदभावात् , ननु यदि सत्यपि क्षयोपशमे मिथ्यात्वानन्तानुबन्ध्यादिकषायाणां प्रदेशानुभवोऽस्ति तर्हि कथं न सम्यक्त्वादिगुणविघातः, तदुदये नियमेन सतोऽपि सम्यक्त्वादेरपगमात्, यथा सास्वादनसम्यग्दृष्टेरिति चेन्न प्रदेशानुभवस्य मन्दानुभावत्वात् , मन्दानुभावो ह्युदयो न स्वावार्यगुणविघातमाधातुमलम् , यथा चतुर्जानिनो मतिज्ञानावरणादीनां विपाकतोऽप्युदयः । तथाहि मतिज्ञानावरणा- 20 दिकं कर्म ध्रुवोदयं ध्रुवोदयत्वाच्चाऽवश्यं विपाकतोऽनुभवनीयं, विपाकानुभवापेक्षयैव ध्रुवोदयत्वाभिधानात् , अथ च तत्सकल चतुर्सानिनो न मत्यादिज्ञानविघातकृद् भवति, तदुदयस्य मन्दानुभावत्वात् , तद्यदि विपाकतोऽप्यनुभूयमानं मन्दानुभावोदयत्वान्न स्वावार्यगुणविघाताय प्रभवति, तदा प्रदेशतोऽनुभूयमानमनन्तानुबन्ध्याद्यपि सुतरां तद्गुणविघाताय न भविष्यति, तदुदयस्यातीव मन्दानुभावत्वादिति ।। अत्रस्थो जीव एकप्रकृतेर्बन्धकः, एकोनषष्टिप्रकृतेर्वेद- 25 यिता, अष्टचत्वारिंशदधिकशतसत्ताकश्च भवेदिति ॥ अथ क्षपकश्रेणिमाश्रितस्य किट्टीकृतसंज्वलनलोभस्य ततः प्राप्यं स्थानं द्वादशमाचष्टे १. पूर्वगुणस्थानेष्वप्युपशमकस्येयत्येव सत्ता विज्ञेया ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१६४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे क्षपकश्रेण्या कषायनिस्सत्तापादकं स्थानं क्षीणमोहगुणस्थानम् । क्षपकणिश्चाभवमेकवारमेव भवति । एतदनन्तरमेव सकलत्रैकालिकवस्तुस्वभावभासककेवलज्ञानावाप्तिः । आन्तर्मोहूर्तिकमिदम् ।।.----- क्षपक श्रेण्येति । क्षपकश्रेण्या कषायाणां सर्वेषां यत्र सत्ताराहित्यकरणं तादृशं 5 स्थानं क्षीणमोहगुणस्थानमित्यर्थः, अस्याः श्रेण्या आभवमेकधैव संभव इत्याह-क्षपक श्रेणिश्चेति-अत्र चोपान्त्यसमये निद्राप्रचले क्षीणमोहस्यान्त्यसमये च चक्षुर्दर्शनावरणादि दर्शनचतुष्कज्ञानावरणपश्चकान्तरायपश्चकानि क्षपयति, ततोऽशेषसामान्यविशेषावभासिकेवलज्ञानवान् भवतीत्याह-एतदनन्तरमेवेति । कालमानमस्याह-आन्तरिति । एतद्गुणवर्ती जीवो दर्शनचतुष्कज्ञानावरणान्तरायदशकोच्चैर्गोत्रयशोरूपषोडशबन्धव्यवच्छेदादेकस्य सात10 वेदनीयस्य बन्धकः, संज्वलनलोभर्षभनाराचनाराचोदयव्यवच्छेदात्सप्तपश्चाशत्प्रकृतेर्वेदयंता, लोभसत्ताक्षपकत्वादेकोत्तरशतसत्ताकश्च भवति । तथा चतुर्थगुणस्थान एकप्रकृतेः पञ्चम एकस्याः सप्तमेऽष्टानां नवमे षट्त्रिंशत्प्रकृतीनां द्वादशे सप्तदशकृतीनां क्षय इति कृत्वा क्षीणमोहान्ते त्रिषष्टिप्रकृतीनां स्थितिक्षयः शेषाः पञ्चाशीतिप्रकृतयो जरद्वस्त्रप्रायाः सयोगि गुणस्थाने भवन्तीति ॥ 15 अधुना त्रयोदशं गुणस्थानमाह योगत्रयवतः केवलज्ञानोत्पादकं स्थानं सयोगिगुणस्थानम् । इदश्चोत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिप्रमाणम् । जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ योगत्रयवत इति । मनोवाकाययोगात्मकयोगत्रयवतः केवलज्ञानोद्भवप्रयोजकस्थानमित्यर्थः। योगो नाम वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमसमुद्भूतलब्धिविशेषाविभूतो जीवस्य वीर्य20 विशेषः स्थामोत्साहपराक्रमचेष्टाशक्तिसामर्थ्यादिपर्यायः । स द्विविधः, सकरणोऽकरणश्चेति । ज्ञेयदृश्येष्वखिलवस्तुषूपयुञ्जानस्य केवलिनः केवलज्ञानदर्शनयोर्योऽसावप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः, स नात्र विवक्षितः। मनोवाक्कायकरणको योगस्त्वत्र विवक्षितः, तैोगैरुपेतः केवली सयोगिकेवलीत्युच्यते, केवलिनोऽपि मनोवाकायजा योगा भवन्ति । तत्र १. नारकायुषः स्थित्यभावः । २. तिर्यगायुषः स्थित्यभावः । ३. दर्शनमोहनीयसप्तकस्य क्षयः देवायुषश्च स्थित्यभावः । ४. नरकतिर्यग्द्विकसाधारणोद्योतसूक्ष्मविकलत्रिकैकेन्द्रियजातिस्त्यानचित्रिकातपस्थावरमध्यमाष्टकषायनपुंसकस्त्रीवेदहास्यादिषटू पुंवेदसंज्वलनक्रोधमानमायानामित्यर्थः । ५. संज्वलनलोभनिद्राद्विकज्ञानान्तरायदशकदर्शनावरणीयचतुष्कक्षयः कर्मग्रन्थे तु संज्वलनलोभस्य दशमान्ते क्षयः ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : १६५ : योगगु० ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृ काययोगो गमनागमननिमेषोन्मेषादिषु । वाग्योगो धर्मदेशनादिषु । मनोयोगोऽनुत्तरदेवैर्मन:पर्यवद्भिर्वा मनसा पृष्टस्य मनसैव देशनायां, ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि अवधिज्ञानेन मनः पर्यवज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षितवस्त्वालोचनाकारान्यथानुपपत्त्याऽलोकस्वरूपादिकमपि बाह्यमर्थं पृष्टमवगच्छन्तीति । सयोगिकेवल्ययं तीर्थकृदतीर्थकृञ्च भवति । येन हि पूर्वस्मिन् भवेऽर्हत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विषु वात्सल्या - 5 दिभिर्विंशतिपुण्यस्थानकैस्तीर्थकृत्कर्माऽर्जितं तस्यात्रोदयात्रिभुवनाधिपतिर्जिनेन्द्रस्तीर्थकरश्चतुस्त्रिंशदतिशयैर्युक्तस्तीर्थप्रवर्तको भवति । यस्य तु न तीर्थकृत्कर्म स इतरः सामान्य केवली, केवलिनामत्र गुणस्थाने स्थितिमाह - इदञ्चेति । चतुरशीतिलक्षेण चतुरशीतिलक्षे गुणिते लब्धा संख्या पूर्वमुच्यते तेषां कोटि :- पूर्वकोटिस्तत्प्रमाणं देशोनमस्य गुणस्थानस्य कालमानमित्यर्थः । देशोनेति, किश्चिदूनवर्षनवकलक्षणदेशोनेत्यर्थः । जघन्य कालमानमाह - जघन्यत इति । 10 अत्रेदमवसेयं यस्याऽऽयुषस्स्थितिर्वेदनीयादिकर्मणस्सकाशान्यूना भवति तदा स कर्मणां समीकरणार्थं समुद्धातं करोति नेतरः । तत्र वेदनादिभिरेकीभावमुपगतेन जन्तुना बहूनां वेदनीयादिकर्मप्रदेशानां कालान्तरानुभव योग्यानामुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरीकरणं समुद्घातः, स च सप्तधा वेदनाकषायमरणवै क्रियतैजसाहारक केवलिभेदात् । वेदनासमुद्धातादयष्षडनुक्रममसातवेदनीय कषायान्तर्मुहूर्त्तावशिष्टा युर्वै क्रियशरीरनामतैजसशरीर - 15 नामाहारकशरीरनामकर्माश्रयाः प्रत्येकमान्तर्मुहूर्त्तिकाः, केवलिसमुद्धातस्तु सदसद्वेद्याशुभशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्माश्रयोऽष्टसामयिकः । आहारककेवलिसमुद्घातातिरिक्ताः पश्चैके. न्द्रियाणां एष्वेव वैक्रियवर्जिताश्चत्वारो विकलेन्द्रियाणामसंज्ञिपश्चेन्द्रियाणाञ्च सर्वे च मनुष्याणां भवन्ति । अन्तर्मुहूर्त्ताविशेषायुः केवली वेदनीयायुषोस्तुल्यताकरणाय नानादिक्षु आ लोकान्तमात्मप्रसारणया दण्डकपाटमन्थनान्तरालपूरणानि चतुर्भिस्तमयैः कुर्वन् व्यापी - 20 भूत्वा चतुर्भिचोपसंहरन् स्वशरीरस्थो भवति, परं तदानीं मनोवाग्योगौ न व्यापारयति । तत्र प्रथमाष्टमसमययोरौदारिकाङ्गयोगः, द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु औदारिक मिश्रकाययोगः तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु च केवलं कार्मणकाययोगो भवति । अत एव तदानीमनाहारकश्च । समुद्घाताच्च निवृत्तो योगत्रयमपि व्यापारयति । ततो योगनिरोधाय ध्यानं ध्यायति । अत्रस्थो जीव एकविधबन्धकः, ज्ञानान्तरायदर्शनचतुष्कोदयव्यवच्छेदाद् द्विचत्वारिंशत्प्रकृ- 25 तीनां वेदयिता, निद्राप्रचला ज्ञानान्तरायदर्शन चतुष्करूपषोडशप्रकृतीनां सत्ताव्यवच्छेदात्वाशीतिसत्ताको भवति ॥ सम्प्रत्यन्तिमं चतुर्दशं गुणस्थानमाह Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १६६ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे योगप्रतिरोधि शैलेशीकरणप्रयोजकं स्थानमयोगिगुणस्थानम् । आदिमहस्वपञ्चस्वरोच्चारणाधिकरणकालमात्र मानमेतत् । इति चतुर्दशगुण स्थानानि ॥ योगेति । योगनिरोधावस्थारूपा या शैलेशी तत्करणप्रयोजकं यत्स्थानं तदद्योगि5 गुणस्थानमित्यर्थः, लेश्याविधुरपरमप्रकर्षप्राप्तयथाख्या तचारित्रस्य शीलस्य ईशः शीलेशोऽयोगिकेवली, तस्य त्रिभागेन संकुचिताऽऽत्मदेहस्य इयं शैलेशी, मेरुश्शैलेशः तस्येव या निष्प्रकम्पावस्था भगवतस्सा शैलेशीति वा व्युत्पत्तिः । अत्र पूर्वोक्तविविधोऽपि योगः प्रत्येकं सूक्ष्मबादरभेदेन द्विधा, केवलोत्पत्तेरनन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तकालमुत्कर्षेण देशोनपूर्व कोटिं विहृत्याऽन्तर्मुहूर्ताव शेषायुष्कस्सयोगिकेवली शैलेशीं प्रतिपित्सुः शुक्लध्यानविशेषध्यायी प्रथमं 10 बादरकाययोगाश्रयेण स्थूलवाङ्मनोयोगयुग्मं सूक्ष्मीकरोति । ततस्सूक्ष्मवाक्चित्तयोरवष्टम्भेन बादरकाययोगं सूक्ष्मत्वं नयति । ततस्सूक्ष्मकाययोगे तिष्ठन् सूक्ष्मवाक्चित्तयोर्निग्रहं करोति, ततश्च तत्रैव तिष्ठन् सूक्ष्मक्रियमनिवृत्तिशुक्कुध्यानं ध्यायन् सूक्ष्मकाययोगं स्वात्मनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भभूतस्य योगान्तरस्याभावात्, तन्निरोधानन्तरं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन् अ इ उ ऋ ऌ इत्यादिमहूस्वपञ्चस्व रोच्चारणाधिकरणकालमानं शैले15 शीकरणमारभते, योगलेश्याकलङ्कविप्रमुक्तयथाख्यात चारित्रस्वामिसम्बन्धिनी या त्रिभागोनस्त्रदेहावगाहनायामुदरादिरन्ध्रपूरणप्रयुक्त संकुचितस्व प्रदेशस्यात्मनोऽत्यन्तस्थिराऽवस्थितिस्सा शैलेशी तस्यां करणं - पूर्वरचितशैलेशीसमय समानगुणश्रेणिकस्य वेदनीयनामगोत्राख्यस्याघातिकर्मत्रितयस्यासंख्येयगुणया श्रेण्याऽऽयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणं, तत्राऽसौ प्रविष्टोऽयोगिकेवली भवति । अत्रौदारिकद्विकास्थिरद्विकविहायोगति20 द्विकप्रत्येकत्रिकसंस्थानषट्कागुरुलघुचतुष्कवर्ण चतुष्क निर्माणकर्मतैजस कार्मणद्वयप्रथम संहनन - स्वरद्विकैकवेदनीयरूत्रिंशत्प्रकृत्युदयव्यवच्छेदो बोध्यः, मुक्त्युपान्त्य समये देहपञ्चकबन्धनपञ्चकसंघातपञ्चकाङ्गोपाङ्गत्रयसंस्थानषट्कवर्णपञ्चकरस पञ्चक संहननषट्कस्पर्शाष्टकगन्धद्वयनीचैर्गोत्रानादेयदुर्भगागुरुलघूपघातपराघातनिर्माणा पर्याप्तोच्छ्वासा यशोविहायोगतिद्वयशुभाशुभस्थैर्याऽस्थैर्थदेवगत्यानुपूर्वीप्रत्येक सुस्वरदुःस्वरैकवेदनीया द्वासप्ततिप्रकृतयः क्षयमुपयान्ति, अन्त्यसमये चैकवेद्यादेयपर्याप्तत्रसवादर मनुष्यायुर्यशो मनुष्यगत्यानुपूर्वी सौभाग्योच्चैर्गोत्र पञ्चेन्द्रि यत्वतीर्थ कृन्नामानीति त्रयोदशप्रकृतीः क्षयं नीत्वा कर्मसम्बन्धविमोक्षलक्षणसहकारि 25 १. द्रविडतैलङ्गादिभाषायां एकारौकारयोरपि हस्वत्वात्तद्वारणाय दिमेति ॥ २. अत्र केचित् मनुष्यानुपूर्व्या द्विचरमसमये व्यवच्छेदः उदयाभावात् उदयवतीनां हि स्तिबुकसंक्रमाभावात्स्वरूपेण चरमसमये दलिकं दृश्यत एवेति युक्तस्तासां चरमसमये व्यवच्छेदः, आनुपूर्वीनाम्नान्तु क्षेत्रविपा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समितिनि..] न्यायप्रकाशसमलते । समुत्थस्वभावविशेषादूवं गच्छन् प्राप्तसिद्धत्वनामा ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाहस्तावद्भय एवं प्रदेशेभ्य ऊर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाच्चान्यसमयान्तरमस्पृशन् लोकान्तं व्रजति न परतोऽपि, धर्मास्तिकायाभावात् तत्र गतइशाश्वतं कालमवतिष्ठत इत्यभिप्रायेणोक्तमादिमेति । एतद्गुणस्थानस्थो जीवोऽबन्धकः, उपर्युक्तत्रयोदशप्रकृतिवेदयिता । अन्त्यसमयद्वयात्पूर्व पञ्चाशीतिसत्ताकः, उपान्त्यसमये त्रयोदशप्रकृतिसत्ताकः, चरमसमये 5 त्वसत्ताको बोध्यः । गुणस्थानेष्वेषु बहुवक्तव्यत्वेऽपि संक्षेपेण ग्रन्थगौरवभिया प्रोक्तमित्याशयेनोपसंहरतीति, विस्तरतस्त्वागमेभ्योऽवगन्तव्य इति भावः ॥ इत्थं प्रसङ्गतो गुणस्थानानि संवरस्य विभावनार्थ निरूप्याश्रवतां कर्मणां निरोधसाधनभूतास्समित्यादयः क्रमेण निरूपयितुमुपक्रमते उपयोगपूर्विका प्रवृत्तिस्समितिः । सेर्या भाषणाऽऽदाननिक्षेपोत्सर्ग- 10 भेदेन पञ्चधा । स्वपरवाधापरिहाराय युगमात्रनिरीक्षणपूर्वकं रत्नत्रयफलकं गमनमीर्या । कर्कशादिदोषरहितहितमितानवद्यासन्दिग्धाभिद्रोहशून्यभाषणं भाषा। सूत्रानुसारेणान्नादिपदार्थान्वेषणमेषणा । उपधिप्रभृतीनां निरीक्षणप्रमार्जनपूर्वकग्रहणस्थापनात्मकक्रियाऽऽदाननिक्षेपणा। जन्तुशून्यपरिशोधितभूमौ विधिना मूत्रपुरीषादिपरित्यजनमुत्सर्गः॥ 15 उपयोगेति । उपयोगपूर्वकत्वे सति प्रवृत्तित्वं लक्षणं स्वपरप्राणिपीडापरिहारेच्छया गमनादिप्रवृत्तिरिति भावः । उदासीनप्रवृत्तिवारणाय विशेषणं ज्ञानादिवारणाय विशेष्यम् , ईर्यादिपञ्चानामेव समितित्वात् । योगक्रियारूपप्रवृत्तेर्विवक्षणाञ्च ज्ञानादिरूपात्मप्रवृत्तौ न दोषः । उपयोगपूर्वकत्वस्य साकासवादाकाङ्क्षावारणाय वा प्रवृत्तिपदम् । तां विभजते सेति, समितिरित्यर्थः । पञ्चानामीर्यादीनां तान्त्रिकी संज्ञाऽन्वर्था विज्ञेयेति भावः । अथेर्यासमिति स्वरू-20 पति-स्वपरेति । स्वस्य परस्य वा यथा बाधा न भवेत् तथा पुरतो युगमात्रं प्रेक्षमाणो बीजहरितादिप्रदेशान् परिहरन् यद्गमनं करोति यया च रत्नत्रयं सुरक्षितं भवेत्सेर्यासमितिरित्यर्थः । स्वपरबाधापरिहारप्रयोज्ययुगमात्रनिरीक्षणपूर्वकत्वे सति रत्नत्रयफलकत्वे सति च गमनत्वं लक्षणम् । स्वपरबाधापरिहारप्रयोज्ययुगमात्रनिरीक्षणपूर्वकगतित्वस्य सत्काराद्यभिलाषुकपुरुषकर्तकगतौ गतत्वात्तद्वारणाय रत्नत्रयफलकत्वे सतीति । धर्मार्थं प्रयतमानस्य 25 कित्वेन भवापान्तरालगतावेवोदयः, तेन भवस्थस्य तदुदयासम्भवः, तदसम्भवाचायोग्यवस्थाद्विचरमसमय एव मनुष्यानुपूस्सित्ताव्यवच्छेद इति द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां चरमसमये द्वादशानां सत्ताव्यवच्छेद इति वदन्ति ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे ( सप्तमकिरणे गमने व्यभिचारवारणाय स्वपरबाधापरिहारप्रयोज्ययुगमात्रनिरीक्षणपूर्वकत्वे सतीत्युक्तम् ।। भाषासमितेलक्षणमाह-कर्कशादीति । हितं स्वस्य परस्य वा मोक्षपदप्रापणसमर्थ, मितमनर्थकबहुप्रलपनशून्यं प्रयोजनमात्रसाधनं वचनं, अनवद्यं जीवनिकायानामनुपघातकं, असंदिग्धं स्फुटार्थ व्यक्ताक्षरं वा, अभिद्रोहशून्यं क्रोधमायालोभैरयुक्तं, एवंविधं कर्कशादिदोषशून्यश्च भाषणं भाषासमितिरित्यर्थः । अहितामितावद्यसंदिग्धादिवचनवारणाय तत्तत्पदग्रहणमवसेयम् । एषणासमितिमाचष्टे-सूत्रेति । आगमानुसारेणाशनखाद्यस्वाद्यभेदभिन्नस्यान्नस्य, आरनालतण्डुलक्षालनादेरुद्गमादिदोषपरिशुद्धस्य पानस्य, रजोहरणादिचतुर्दशविधोपधीनां स्थविरकल्पयोग्यानां जिनकल्पयोग्यानां द्वादशविधानां आर्थिकायोग्यानां पञ्चविंशतिविधानामुपधीनां गवेषणैषणासमितिरित्यर्थः। सूत्रानुसारेणेत्यनेन दोषवर्जनम10 भिमतं, तत्राधाकौंदेशिकादिषोडशगृहस्थहेतुका उद्गमदोषाः, धात्रीपिण्डदूतीपिण्डादि षोडशसाधुजन्या उत्पादनादोषाः, उभयजन्याश्च शङ्कितम्रक्षितादयो दशैषणा दोषाः, एभिर्दोष रहिता अन्नादयः श्रुतचरणधर्मसाधकाः । तथा चोद्गमादिदोषरहितान्नादिपदार्थान्वेषणमेषणासमितेर्लक्षणम् । वनीपककर्तृकभक्ताोषणायां व्यभिचारनिरासायोद्गमादि दोषरहितेति ॥ आदाननिक्षेपणासमितिमाख्याति–उपधीति । उपधयश्चतुर्दशविधा द्वादश1 विधाः पञ्चविंशतिविधाश्च, प्रभृतिपदेन पीठफलकाद्यौपग्रहिकोपकरणानां ग्रहणं, एतेषामुप योगाय निरीक्ष्य स्थिरतरं प्रमृज्य च रजोहरणेन ग्रहणस्थापनारूपा क्रिया आदाननिक्षेपणासमितिरित्यर्थः । निरीक्षणप्रमार्जनपूर्वकोपधिविषयग्रहणस्थापनात्मकक्रियात्वमस्या लक्षणम् , उदासीनपुरुषकृतोपधिविषयकग्रहणस्थापनात्मकक्रियावारणाय निरीक्षणप्रमार्जनपूर्वकेति ॥ उत्सर्गसमितिस्वरूपप्रकाशनायाऽऽह-जन्तुशून्येति । स्थावरजङ्गमजन्तुशून्यायां परिशोधितभूमावुज्झितव्यवस्तुयोग्यायां विधिना निरीक्षणप्रमार्जनात्मकेन मूत्रपुरीषादीनां परित्याग उत्सर्गसमितिरित्यर्थः । आदिना वस्त्रपात्रादीनां ग्रहणम् । तथा च जीवाविराधनेन योग्यभूमौ विधिना मूत्रपुरीषादित्यजनं लक्षणार्थः, सर्वत्र रत्नत्रयफलकत्वं विवक्षणीयं, तेन पूजाघभिलाषुकानुष्ठितोक्कक्रियाणां व्युदासः । इति चेष्टावतां संवरसिद्धिफलवत्यः क्रिया उक्ताः ॥ अथ कायादिनिरोधात् संवरफलिका गुप्तीराह योगस्य सन्मार्गगमनोन्मार्गगमन निवारणाभ्यामात्मसंरक्षणं गुप्तिः। " सा च कायवाङ्मनोरूपेण त्रिधा । शयनासननिक्षेपादानचंक्रमणेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिः । उपसर्गपरीषहभावाभावेऽपि शरीरे नैरपेक्ष्यं, योगनिरोद्धस्सर्वथा चेष्टापरिहारोऽपि कायगुप्तिः । अर्थवद्भविकारादिसंकेत 20 25 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकार गुप्तिनि० ] हुंकारादिप्रवृत्तिरहितं शास्त्रविरुद्ध भाषणशून्यं वचोनियमनं वाग्गुप्तिः । अनेन सर्वथा वानिरोधस्सम्यग्भाषणञ्च लभ्यते। भाषासमितौ सम्य. ग्भाषणमेव । सावद्यसंकल्पनिरोधो मनोगुप्तिः॥ . योगस्येति । कायवाङ्मनोरूपस्य योगस्य ये सन्मार्गगमनोन्मार्गगमननिवारणे ताभ्यामात्मसंरक्षणं गुप्तिरित्यर्थः । योगसम्बन्धिसन्मार्गोन्मार्गप्रवृत्त्यप्रवृत्तिप्रयुक्तात्मसंरक्षणत्वं 5 लक्षणं, तेन वाचि मनसि च गमनागमनयोरसत्त्वेन नाव्याप्तिशङ्का । रागद्वेषापरिणतपुरुषकर्तकत्वमपि निवेशनीयम् , तेन निबिडबन्धनबद्धतस्करादिकर्त्तकयोगसम्बन्धिनिग्रहस्य व्युदासः। योगानां सर्वथा निरोधस्तत्प्रवृत्तिद्वारा मुक्तिमार्गानुकूलपरिणामो वा गुप्तिरिति ध्येयम् । सर्वथा कायादिचेष्टानिरोधस्यापत्र विवक्षितत्वेन गुप्तेापकत्वान्न व्याप्येर्यासमित्यादावतिव्याप्तिशङ्कासम्भवः, परिमितकालविषयस्सर्वयोगनिग्रहोऽपि गुप्तिस्तत्रास- 10 मर्थस्य कुशलेषु प्रवृत्तिस्समितिरिति भेदात् । तस्या विभागमाचष्टे सा चेति । तत्र कायगुप्तिं निरूपयति शयनेति । शयनादिविषयककायक्रियानियमत्वं लक्षणं, नेत्रपरिस्पन्दादिस्वाभाविकक्रियायाः कुतूहलेन कृतस्य नियमस्य वारणाय शयनादिविषयकेति । शयनादिविषयकमानसिकनियमवारणाय कायक्रियेति । उच्छृखलपुरुषानुष्ठितशयनादिविषयकनियमवारणाय नियमपदेन शास्त्रीयो नियमो ग्राह्यः । तथा च निशीथिनीप्रथमयामा- 15 दनन्तरं गुर्वनुज्ञानात्सप्रमाणायां वसतौ स्वावकाशनिरीक्षणप्रमार्जनपूर्वक संस्तरणपट्टद्वयमास्तीर्य सपादं कायमूर्ध्वमधश्च प्रमृज्यानुज्ञापितसंस्तारकावस्थानोऽनुष्ठितसामायिकविधिमिबाहूपधान आकुंचितजानुस्ताम्रचूडवद्विहायसि प्रसारितजङ्घः प्रमार्जितपृथ्वीतलन्यस्तपादो षा संकोचसमये भूयः प्रमार्जितसन्देशक उद्वर्तनकाले च रजोहरणेन प्रमृष्टकायो नात्यन्त. तीब्रनिद्रश्शयीत । यत्र भुवि विवक्षितमासनं तत्रावेक्षणप्रमार्जने विधाय बहिर्निषद्यामास्तीर्य 20 निविशेत, निविष्टोऽप्याकुश्चनप्रसारणादिकं पूर्वेणैव विधिना कुति, वर्षादिषु च वृसिकापीठिकादिकमनेनैव विधिनावेक्ष्य प्रमृज्य च तत्र संनिवेशनं कुर्वीत । दण्डकोपकरणचेष्टाभोजनादिविषयौ निक्षेपादानावपि वीक्षणप्रमार्जनपूर्वको निर्दुष्टौ स्याताम् । गमनमपि प्रयोजनवतो युगमात्रप्रदेशविन्यस्तदृष्टेर्जीवपरित्यागेन मन्दं मन्दं पदं न्यसतः प्रशस्तं स्यादित्यादिरूपाः कर्त्तव्याकर्त्तव्यविषयाश्शास्त्रीया व्यवस्था अवगन्तव्याः, एवमन्येऽपि नियमाः 25 १. गुप्तापकत्वञ्च यस्समितस्स नियमाद्गुप्तः, गुप्तयो हि प्रतीचाराप्रतीचारोभयरूपाः प्रतीचारो नाम कायिको वाचिको व्यापारः, तथा च यस्समितः सम्यग्गमनभाषणादिचेष्टायां प्रवृत्तस्स गुप्तोऽपि भवति । यस्तु कायवाचौ निरुध्य शुभं मन उदीरयन् धर्मध्यानाद्यपयुक्तचित्तो भवति स गुप्त उच्यते न तु समितः केवलाप्रतीचार रूपत्वात्तस्येति बोध्यम् ॥ २२ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे शास्त्रीयाः प्रदश्यन्ते उपसर्गेति, उपसर्गा देवादिकृतोपद्रवाः परीषहा अग्रे वक्ष्यमाणाः क्षुधादयः, तेषां भावेऽभावे वा स्वीये शरीरे यन्नरपेक्ष्यमभिमानाभावस्सा कायगुप्तिरित्यर्थः, सति ह्यभिमाने तद्वारणायासती कायचेष्टा स्यादेवेति नियमभङ्गस्यादिति भावः। अपरमपि नियममाह-योगेति । योगः शरीरवाङ्मनोरूपस्तस्य निरोद्धः केवलिनः कायोत्सर्गभाजो वा 5 यस्सर्वथा कायचेष्टापरिहारस्साऽपि कायगुप्तिरित्यर्थस्तदुक्तम् ' कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गे शरीरगुप्तिस्स्या'दिति । यद्यपि कायव्यापारो मनोव्यापारसंसृष्ट एव, तथापि कायचेष्टायास्सा. क्षात्कायेनैव निष्पादितत्वात् बहिरुपलक्ष्यमाणत्वाच्च प्राधान्येन विवक्षा ॥ वाग्गुप्तेस्वरूपमाह-अर्थवदिति । न केवलं वचोनियमनमानं वचोगुप्तिः, सार्थकभ्रूविकारादिसहितवचो नियमस्य वाग्गुप्तित्वापत्तरित्यत आहार्थवदित्यादि । कस्मैचित्प्रयोजनाय कृतैर्धविकारादिस10 केतैहुंकारादिप्रवृत्तिभिश्च रहितमित्यर्थः । आयेनादिना नेत्रमुखकरादिनर्तनस्य, द्वितीयेन च शरलोष्टोत्क्षेपादेग्रहणम् । यद्वा शास्त्रानुसारिभाषणमपि वाग्गुप्तिर्भवतीत्याह-शास्त्रविरुद्धभाषणशून्यमिति । ननु शास्त्रविरुद्धभाषणशून्यमित्यनेन शास्त्रानुसारिभाषणरूपवचोलाभेन योगनिरोद्धस्सर्वथा मौनरूपायां गुप्तौ लक्षणमिदमव्याप्तमतिव्याप्तश्च भाषासमितावित्यत्राह अनेनेति । तथा च नियमनशब्दस्य शास्त्रानुसारिवचनेऽवचने च रूढत्वेन नाव्याप्तिः । 15 सम्यग्भाषणश्चेति । सम्यगुपयुक्तस्य लोकागमाविरोधेन भाषणमित्यर्थः, ननु भाषासमिती कथमतिव्याप्तिपरिहार इत्यत्राह-भाषासमिताविति । एवशब्देनाभाषणस्य व्युदासः । भाषणाभाषणरूपत्वाद्वारगुप्तेर्भाषणमात्रस्वरूपभाषासमित्यपेक्षया वैलक्षण्यं व्यापकत्वं चात एव शास्त्रानुसारिभाषणरूपमित्यनुक्त्वा शास्त्रविरुद्धभाषणशून्यमित्युक्तम् । उक्तञ्च 'अनृता दिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्ति' रिति ।। अथ मनोगुप्तिमाह-सावद्येति । अवयं 20 गर्हितं पापं तेन सहितो यस्संकल्पश्चिन्तनमातरौद्रध्यायित्वं चित्तचाश्चल्यं वा तस्य निरो धोऽकरणमित्यर्थः । सावद्यसंकल्पनिरोधत्वं लक्षणम् , अनेन च निरवद्यसंकल्पस्सरागसंयमादौ, संसारहेतौ च संकल्पनिरोधश्च मनोगुप्तिरिति लभ्यते । न सर्वथा मनोनिरोधोऽ सम्भवात् योगनिरोधावस्थामन्तरेण तदसम्भवात् ।। अथ समितिगुत्योस्संवरहेतुत्वमभिधायानन्तरोद्दिष्टस्य परीषहस्य स्वरूपमुपदर्शयति25 प्रतिबन्धकसमवधाने सत्यपि समभावादविचलनं परीषहः॥ प्रतिबन्धकेति । समन्तादापतितेषु सविधिभक्तपानाद्यलाभादिषु समभावाद् वैगुण्यमनवलम्ब्याविचलनं निष्प्रकम्पचित्ततयाऽवस्थानं परीषह इत्यर्थः । परिपूर्वात्सहेर्भावेऽकारः परिषहणं परीषहः, क्षुधादिजय इत्यर्थः । न तावदच्प्रत्ययः पचादिनिबन्धनः कर्तरि तस्य Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषहाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते विधानात् । न कर्मसाधनो घञ्, सहेरुपधावृद्धिप्रसङ्गात् , नाऽपि पुंसि संज्ञायां घः, तस्य करणाधिकरणयोर्विधानात् । प्रतिबन्धकसमवधानेऽपि साम्यतया क्षुधादिजन्यदुःखसहनत्वं लक्षणम् । क्लेशेन दुःखसहनस्य परीषहत्वाभावात्साम्यतयेति । परीषहपदवाच्यानां क्षुधादिजयानामात्यन्तिकनिवृत्तिसाधनसम्यग्दर्शनादितोऽच्यवनं कर्मनिर्जरणश्च प्रयोजनम् । तत्र परीषहाः सोढव्याश्च नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रनयेनाविरतदेशविरतविरतानां भवन्ति, त्रया- 5 णामपि परीषहवेदनीयासातादिकर्मोदयजनितस्य क्षुधादेस्तत्सहनस्य च यथायोगं सकामाकामनिर्जरहेतोस्सम्भवात् । शब्दसमभिरूद्वैवम्भूतानां मतेन विरतस्यैव भवन्ति निरुपचरितपरीषहशब्दवृत्तेस्तत्रैव सम्भवात् । उत्पादकमेषां द्रव्यं नैगमनयेन जीवो जीवाः, अजीवोsजीवाः, जीवाजीवौ, जीवा अजीवः, जीवोऽजीवाः, जीवा अजीवाश्चेत्यष्टौ। संग्रहनये जीवोऽजीवो वा, न द्वित्वबहुत्वे । व्यवहारेऽजीव एव, शेषाणां मतेन जीव एव परिषयमा- 10 णस्यैव परीषहत्वात्परिषहणस्योपयोगात्मकस्य जीवस्वाभाव्येन जीवद्रव्यत्वात् । गुणसंहतिरूपस्यैव द्रव्यत्वाच्च । तत्तल्लक्षणनिरूपणावसरे कर्मप्रकृतयः पुरुषाश्च वक्ष्यन्ते । एषणीयस्य अनेषणीयस्य चाग्रहणात् ग्रहणे वाऽपरिभोगात् नैगमसङ्ग्रहव्यवहाराणां मतेन सहन भवति, स्थूलदर्शिनामेषामन्नादिपरिहारस्यैव क्षुधादिसहनत्वेनेष्टत्वात् , शेषाणां मतेन तु नाभुञ्जानस्यैव तत्सहनमपि तु प्रासुकमन्नादिकल्प्यञ्च गृह्णतो भुञ्जानस्याऽपि भवति भाव- 15 प्रधानत्वात् । यदाश्रित्य क्षुधादिर्भवति तद्वस्त्वेव परीषह इति नैगमः, क्षुधादिजनिता वेदना तदुत्पादकञ्च परीषह इति सङ्ग्रहव्यवहारौ, वेदनां प्रतीत्य जीवे परीषह इति ऋजुसूत्रः, परीषहोपयुक्त आत्मैव परीषह इति शब्दसमभिरूडैवम्भूताः । एकजीवापेक्षया जघन्योत्कृष्टत एषां वर्तनाऽग्रे वक्ष्यते । नैगमसङ्ग्रहव्यवहाराणां मतेन वर्षलक्षणं कालमाश्रित्य परीषहो भवति उत्पादकवस्तूनामपि परीषहत्वोक्तेः, ऋजुसूत्रमतेऽन्तर्मुहूर्त, वेदनाया उपयो- 20 गात्मिकायास्तावन्मानत्वात् । शब्दादिनयमतेन एकस्समयस्तन्मतेनोपयोगात्मकपर्यायस्य प्रतिसमयमन्यान्यत्वात् ॥ ...परीषहभेदश्च सम्बन्धितया कतिविध इत्याशङ्कायां तं विभजते• “स चक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशावस्त्रारतिवनिताचर्यानषेधिकशय्याऽऽ १. चपेटादिना पुरुषेणोदीरितत्वाज्जीवो निमित्तं, बहुभिस्तथात्वे जीवाः, जीवप्रयोगरहितेन गृहपाताद्यचेतनेनोदीरितत्वादजीवः, बहुभिरजीवैस्तथात्वेऽजीवाः, लुब्धकेन बाणादिना तथात्वे जीवाऽजीवौ, अनेकैः पुरुषैरेकेन शिलादिना तथात्वे जीवा अजीवश्च, लुब्धकैरनेकैर्बाणादिभिस्तथात्वे जीवोऽजीवाश्च, बहुभिर्छधकैबहुभिर्वाणादिभिस्तथात्वे तु जीवा अजीवश्चेति भावः । न द्वित्वबहुत्वे इति, सामान्यग्राहित्वादस्य नयस्येति भावः । अजीव एवेति, कर्मण..एव कारणत्वात्तस्यैव च सर्वजनप्रतीतिनिमित्तत्वादिति भावः ॥..., - - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे कोशवधयाचना लाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारप्रज्ञा ऽज्ञानसम्यक्त्तवरूपेण द्वाविंशतिविधः । सत्यामप्यतिशयितक्षुद्वेदनायां सविधिभक्ताद्यलाभेऽपि क्षुधोपसहनं क्षुत्परीषहः । सत्यां पिपासायामदुष्टजलाद्यभावेऽपि तृपरिवहणं पिपासापरीषहः । प्रचुरशीतबाधायामप्यत्यल्पैरेव वस्त्रादिभिश्शी5 तोप सहनं शीतपरीषहः । प्रभूतोष्णसन्तप्तोऽपि जलावगाहनाद्यनासेवनमुष्णपरीषहः । स चेति । परीषश्चेत्यर्थः, द्वाविंशतिविध इत्यनेन सम्बन्धः । ननु सहनस्वरूपस्य परीषहस्याविशेषेण कथं द्वाविंशतिविधत्वमित्यत्राह - क्षुदिति । तथा च परिसोढव्यानां क्षुधादीनां द्वाविंशतिविधत्वेन तत्साध्यसहनस्याऽपि द्वाविंशतिविधत्वमिति भावः । सम्य10 क्त्वरूपेणेति, साध्यत्वादिति शेषः । न च परिषन्त इति कर्मव्युत्पत्त्या व्युत्पन्नेन बाहुलकघप्रत्ययान्तेन परीषहशब्देन क्षुधादय एव वाच्या इति वाच्यम् । क्षुधादीनां संवर रूपत्वाभावात् । तज्जयस्यैव तथात्वात् संवररूपस्यैव परीषहस्य वाच्यत्वात् । अत एव सर्वत्र मूले जयपरत्वेनैव परीषहा लक्षिता इति । अथातिदुस्सहत्वात्क्षुद्वेदनायास्तत्सहनरूपक्षुत्परीषहमेवादौ लक्षयति-सत्यामपीति । अनशनाध्वरोगतपस्स्वाध्यायश्रमवेलातिक्रमावमौदर्यास15 द्योदयादिभ्यो जठरविदाहिन्यां शरीरेन्द्रियहृदयसंक्षोभिकायां क्षुद्वेदनायां समुदितायां तस्याः सहनं क्षुत्परीषह इति भावः । क्रोधादिजन्यक्षुधुपसहनस्य परीषहत्ववारणाय सविधिभक्ता - द्यलाभेऽपीति, एतेनास्य विशेषणस्यातिशयताद्योतकत्वेन साम्यताया लाभात् साम्यताप्रयुक्तक्षुधोपसहनत्वस्यैव लक्षणार्थत्वेन क्रोधादिजन्यक्षुधोपसहने क्रोधप्रयुक्तत्वस्यैव सत्त्वन्नातिव्याप्तिरेवमग्रलक्षणेष्वपि भाव्यम्, शास्त्रप्रतिपादितेन भक्तेन तां शमयतोऽनेष20 णीयञ्च समुत्सृजतः क्षुत्परीपहः, लक्षणन्तु सविधिभक्ताद्यलाभेऽपि क्षुधोपसहनत्वमेवेति ध्येयम् । क्षुधायाश्चतुर्दशस्वपि गुणस्थानेषु सम्भवस्तत्कारणस्य वेदनीयस्य सद्भावादिति ॥ बुभुक्षापीडितस्य पिपासासंभवात्तज्जयरूपं पिपासापरीषहमाह - सत्यामिति । स्नानावगाहपरिषेकत्यागिनोऽतिलवण स्निग्धरूक्षविरुद्धाहाराऽऽतपानशनपित्तज्वरादिभिरुदितां शरीरेन्द्रियशोषिकां पिपासां क्षुद्भिन्नसामर्थ्यवतीं प्रत्यनाद्रियमाणस्य, निदाघेऽपि विहारादिषु 25 हृदेष्वासन्नेष्वप्यप्कायिकजीव परिज्ञानेन जलमनादधानस्य, भिक्षाकालेऽप्यनेषणीयजलाद्यनभिलाषुकस्य पिपासासहनं जायत इति भावः । अदुष्टजलाद्यभावेऽपि तृट्परिषहणत्वं लक्षणं, कृत्यमूह्यम् । पिपासेयं सर्वेष्वपि गुणस्थानेषु सम्भविनीति || शीतपरीषहमाह - प्रचुरेति । महत्यपि शीते जीर्णवसने नाकल्य्यानि वासांसि गृह्णाति, शीतत्राणायाऽऽगमोक्तेन विधिनैषणीयमेव कल्पादि गवेषयेत्परिभुञ्जीत वा, नापि शीतार्तो ज्वलनं ज्वालयेत्, नान्यज्वालितं वा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृ : १७३ : सेवेत, एवमनुतिष्ठता शीतोपसहनं कृतं भवेदिति भावः । सर्वेषु गुणस्थानेषु शीतं सम्भवि || उष्णपरीषहमाचष्टे - प्रभूतेति । पटीयो नैदाघदिवाकर कर निकर सन्तप्त कलेवरस्य तृष्णानशनपित्तरोगधर्मश्र मार्दितस्य स्वेदशोषदाहाभ्यर्दितस्य जलावगाहनव्यजनवातावलेपनकदलीपत्राद्यासेवनविमुखस्य पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रार्थनापेतान्तरङ्गस्योष्ण वेदनाप्रतीकारक्रियानादरस्य चारित्रिणश्चारित्ररक्षणायोष्णता सहनमुष्णपरीषह इति भावः, प्रभूतोष्ण सन्तापेऽपि जलाव - 5 गाहनाद्यनासेवनत्वं लक्षणम् । चारित्रिकर्तृकत्वं सर्वत्र वाच्यमन्यथा पूजाद्यभिलाषिणाऽनुष्ठिततादृशानासेवनस्याप्युष्णपरी षहत्व प्रसक्तिः स्यात्, उष्णोऽयमखिलेषु गुणस्थानेषु सम्भवी ॥ दंशपरीषहं निर्वक्ति— समभावतो दंशमशकाद्युपद्रवसहनं दंशपरीषहः । एते वेदनीयक्षयोपशमजन्याः । सदोषवस्त्रादिपरिहारेणाल्पमूल्याल्पवस्त्रादिभिर्वर्त्तनम - 10 वस्त्रपरीषहः । अप्रीतिप्रयोजकसंयोगसमवधाने सत्यपि समतावलम्बनमरतिपरीषहः । कामबुद्ध्या रुयाद्यङ्गप्रत्यङ्गादिजन्यचेष्टानामवलोकनचिन्तनाभ्यां विरमणं स्त्रीपरीषहः । एते च चारित्रमोहनीयक्षयोपशम जन्याः ॥ " समभावत इति । दंशमशक मत्कुणवृश्चिकादिक्षुद्र सवैर्बाध्यमानोऽपि निजकर्मविपाक - 15 मनुचिन्तयन्न तत्स्थानादपगच्छेत् न च तदपनयनाय धूमविद्यामंत्रौषधादीनि प्रयुञ्जीत, नवा व्यजनादिभिर्निवारयेत् तथा च दंशाद्युपद्रवजयस्स्यात्, समभावतो दंशाद्युपद्रव सहत्वं लक्षणम् | दंशाद्युपद्रवोऽपि निखिलेषु गुणस्थानेषु सम्भवति । एषां क्षुधादीनां पञ्चानां वेदनीयोदये समवतारात् तेषां जयाश्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिजन्या इत्याहैत इति, वेदनीये सति क्षयोपशमजन्याः, अर्थात् चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिजन्या इत्यर्थः, सहनस्य चारित्र - 20 रूपत्वादिति भावः, एवमग्रेऽपि । उक्तञ्च भगवतीटीकायां " एतेषु पीडैव वेदनीयोत्था, तदधिसहनन्तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसम्भवमधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिती ” ति, सहनस्य केवलं चारित्रमोहनीय क्षयोपशमादिजन्यत्वेन वेदनीयचारित्रावरणक्षयोपशमजन्या इत्यनुक्त्वा केवलं वेदनीयक्षयोपशमजन्या इत्युक्तं, क्षुधादौ तज्जये च कारणप्रदर्शनाय तथोपन्यासः कृतः । ज्ञानावरणवेदनीयमोहनीयाऽन्तरायात्मकप्रकृतिचतुष्टयोदय एव द्वाविं- 25 ," ९. यद्यपि शीतोष्णयोरे कदै कत्रासम्भवस्तथापि आत्यन्तिके शीते तथाविधाग्निसन्निधौ च युगपदेवैकस्य पुंसस्सम्भवतस्त, एकदिगवच्छेदेन शीतस्यापर दिगवच्छेदेनोष्णस्य सम्बन्धादिति नाशक्यम्, कालकृतशीतोष्णयोरेवाश्रयणात् तयोर्योगपद्यासम्भवात् एवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण तपस्विनामभावादिति बोध्यम् ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तम किरणे शतीनां जेयानां क्षुधादीनामवतारो यथायोगं भवति । एते पश्चैव परीषहा वेदनीये सतिं चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिजन्या इति न वाच्यमन्येषामपि भावात् किन्तु क्रमं परीषहाणामुद्दिश्यैत्रमुक्तमिति भावः ॥ अथावस्त्रपरीषहमाह - सदोषेति । उद्गमादिदोषविशिष्ट वस्त्रादिप रिहारेणेत्यर्थः । इदञ्चाल्पमूल्यानामल्पवस्त्राणां सदुष्टानामग्राह्यताज्ञापनाय । अल्पमूल्येति । 5 इदच निर्दुष्टबहुमूल्याल्पवस्त्रपरिग्रहव्युदासाय । अन्यथा परिग्रहादिदोष: प्रसज्येत । अल्पवस्त्रेति । इदञ्च निर्दुष्टाल्पमूल्यनिरर्थक बहुवस्त्र सङ्ग्रहनिराकरणाय । एवञ्च सर्वथा वस्त्रशून्यतायामेवाऽवस्त्रपरीषहत्वं निराकृतं । लक्षणं स्पष्टम् अस्य संभवो नवमगुणस्थानं यावत् । चारित्रमोहनीयस्य सम्भवात् । नाग्रिमगुणस्थानकेषु तत्र मोहनीयस्य क्षीणत्वादिति ॥ अरतिपरीषमभिधत्ते - अप्रीतीति । सूत्रोपदेशेन विहरतस्तिष्ठतो वा संयमविषयकधृति10 वैपरीत्यमुत्पद्यते एतादृशाप्रीतिप्रयोजकसंयोगसम्भवेऽपि सम्यग्धर्माराधनरतिमता भवितव्यं तथासत्यरतिविजयो भवेदिति भावः । अप्रीतिप्रयोजकसंयोगसमवधानाऽसमवधानकालीनसाम्यभावावलम्बनत्वं लक्षणम् । क्षुत्परीषहादिव्युदासाय कालीनान्तम् । नवमगुणस्थानं यावदियमरतिः । स्त्रीपरीषहमाह - कामबुद्ध्येति । कामबुद्ध्या स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानहसितललितविभ्रमादिचेष्टानां यद्विलोकनं चिन्तनं वा, ताभ्यां सर्वथा विरमणमित्यर्थः । काम15 प्रयुक्तस्त्र्याद्यङ्गप्रत्यङ्गादिचेष्टावलोकनचिन्तनप्रवृत्तिराहित्यं लक्षणम् । धर्मोपदेशबुद्ध्या रुयाद्यङ्गाद्यवलोकने दोषाभावात्कामबुद्ध्येत्युक्तम् । अवलोकनमात्रोक्तौ चिन्तनस्य, तन्मात्रोक्तौ चावलोकनस्य व्युदासासम्भवादुभयोर्ग्रहणम् । नवमगुणस्थानं यावत्कामबुद्ध्या स्त्र्याद्यङ्गाद्यवलोकनादिसम्भवः चारित्रमोहनीयोदयसम्भवात्, अग्रिमेषु स्थानेषु न संभवः मोहनीयस्य क्षपणादुपशमाद्वा तस्मादयं परीषश्चारित्रमोहनीये सति चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्य 20 इत्यभिप्रायेणाह - एते चेति । अवस्त्रारति स्त्रीपरीषहाश्चेत्यर्थः । चारित्रमोहनीयक्षयोपशम जन्या इति यथाक्रमं जुगुप्साया अरतिमोहनीयस्य पुंवेदस्य च क्षयादुपशमाद्वा परीषहा एते भवन्तीति भावः ॥ 7 चर्यापरीषहमाह — एक निवासममत्व परिहारेण सनियमं ग्रामादिभ्रमणजन्यक्लेशादि25 सहनं चर्यापरीषहः । वेदनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् । स्त्रीपशुपण्डकवर्जिते स्थाने निवासादनुकूलप्रतिकूलोपसर्ग सम्भवेऽप्यविचलितमनस्कत्वं निषयापरीषहः । चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् । प्रतिकूलसंस्तारकवसतिसेवनेऽनुद्विग्नमनस्कत्वं शय्यापरीषहः । अयञ्च वेदनीयक्षयोपशमजन्यः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषहाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : १७५ : निर्मूलं समूलं वा स्वस्मिन् कुप्यत्सुजनेषु समतावलम्बनमाक्रोशपरीषहः। चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् । परप्रयुक्तताडनतर्जनादीनां कायविनश्वरत्वविभावनया सहनं वधपरीषहः। वेदनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् ।। एकत्रेति । निस्संगतामुपगतस्य संयतस्य क्लेशक्षमस्य देशकालप्रमाणोपेतमध्वगमनमनुभवतो यानवाहनादिगमनमस्मरतस्सम्यग्व्रज्यादोषमुज्झतश्चर्यापरीषहो भवति, चर्या चरणं 5 द्विविधं द्रव्यतो भावतश्च, ग्रामानुग्रामविहरणं द्रव्यतश्चर्या, एकस्थानस्थस्याऽपि तत्र निर्ममत्वं भावतश्चर्या सैव परीषहः, एतदुभयप्रदर्शनायैकत्रनिवासममत्वपरिहारेणेत्युक्तम् । सनियममिति । एकरात्रं ग्रामे पञ्चरात्रं नगरेऽवस्थातव्यमित्यादिनियमपूर्वकमित्यर्थः । सर्वेषु गुणस्थानेषु प्रामादिभ्रमणजन्यक्लेशादिसम्भवो वेदनीयोदयादतश्चर्यापरीषहस्य वेदनीये सति चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वमित्याशयमाविष्करोति वेदनीयेति ॥ निषद्यापरीषहं वक्ति-स्त्रीति। 10 निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या स्थानं, स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितम् , विदितसंयमतत्त्वस्य स्त्रीपश्वादिवर्जितस्थानवासिनोऽनुकूलप्रतिकूलोपर्गसम्भवेऽपि तत्प्रदेशादविचलतो मन्त्रविद्यादिप्रतीकाराननपेक्षमाणस्य प्रागनुभूतसुखास्तरणादिस्पर्शसुखमविगणयतोऽविचलितमनस्कत्वं निषधापरीषह इति भावः । नैषेधिकीति केचिदत्र पठन्ति, निषेधनं निषेधः पापकर्मणां गमना दिक्रियायाश्च प्रतिषेधः, स प्रयोजनं यस्यास्सा नैषेधिकी शून्यागारश्मशानादिका स्वाध्या- 15 यभूमिः, सैव परीषहो नैषेधिकीपरीषह इति व्याख्यायन्ति । अस्या निषद्याया यावनवमगुणस्थानं सम्भवः, अतश्चारित्रमोहनीयस्य क्षयोपशमतो जायतेऽयं परीषह इत्याहचारित्रेति ॥ शय्यापरीषहं निरूपयति -प्रतिकूलेति । संस्तारकपट्टकादीनां कठिनत्वादिप्रातिकूल्याद्वसतेश्च पांसूत्करादिप्रचुरत्वाद्वा पूर्वानुभूतनवनीतसंनिभमृदुशयनरतिमननुस्मरतोऽ. त्रानुद्विग्नमनस्कता शय्यापरीषह इत्यर्थः । प्रतिकूलसंस्तारकवसतिसेवनजन्योद्वेगराहित्यं 20 लक्षणम् । जन्यान्तं निषद्यापरीषहव्यावृत्तये । निषद्यापरीषहस्तूपसर्गजन्योद्वेगराहित्यरू- .. पोऽयचोच्चावचपांसूत्करप्राचुर्यजन्योद्वेगराहित्यरूप इत्यनयो वैषम्यमवसेयम् । वेदनीयोदयप्रयुक्तत्वाच्छय्याया निखिलेषु गुणस्थानेषु सम्भवस्समभावावलम्बनेन चारित्रमोहनीयक्षयोपशमतश्च तज्जयो जायत इत्याशयेनाह-अयश्चेति शय्यापरीषहश्चेत्यर्थः ॥ आक्रोशपरीषहं स्वरूपयति-निर्मूलमिति । आक्रोशनमनिष्टवचनमाक्रोशस्तस्य परीषहः परितस्सहनमाक्रोशप-5 १. चर्या हि प्रामादिषु सञ्चरणमतो विहाररूपा, निषद्या तु प्रामादिषु प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो विविक्तोपाश्रये गत्वा निषदनमिति अवस्थानरूपमित्यनयोर्विरोधः, चर्यायां वर्तमानो यदाs. निवृत्ततत्परिणाम एव विश्रामभोजनाद्यर्थमित्वरकालं शय्याया आसेव्यमानत्वात् न तया शय्याया विरोध इति बोध्यम् ॥ ... ... . Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरण रीषहः । स्वस्मिन्निर्मूलं समूलं वा जनेषु कुप्यत्सु, कुप्यन्ति चेत्समूलं शिक्षयन्ति हि मामेते, नैव च मया कार्यमेवं पुनरिति, निर्मूलश्चेत्तर्हि सुतरां कोप एव न मया कार्योऽसत्यत्वादिति चानुचि. न्तनया सौम्यताऽवलम्ब्यते चेत्तदा तस्याऽऽक्रोशजयो जायत इति भावः । हेतुसत्त्वाऽसत्त्वाभ्यां कुप्यजनविषयकसमतापरिग्रहत्वं लक्षणम् । आक्रोशस्य चारित्रमोहनीयोदयप्रयुक्तत्वेन नवम5 गुणस्थानं यावत्सम्भवेन तज्जयस्तरक्षयोपशमजन्य इत्याशयेनाह-चारित्रेति । वधपरीषहं लक्षयति-परप्रयुक्तेति । दुरात्मकैः परैश्चौरम्लेच्छशबरपरुषपूर्वापकारिद्विषल्लिङ्गान्तरैः पाणिपाणिलत्ताकशादिभिः कृतानां प्रद्वेषतस्ताडनतर्जनबन्धनाकर्षणादीनां दह्यमानेनाऽपि सुगन्धमेवोत्सृजता चन्दनेनेव पौद्गलिकमनित्यमिदं शरीरमात्मनोऽन्यदेव, आत्मा पुनर्नित्यतया न शक्यत एव ध्वंसयितुं, अतस्स्वकृतफलमुपनतमिदं ममेति विभावयता सम्यक्सहनं 10 वधपरीषह इति भावः । परप्रयुक्तताडनतर्जनादिसहनत्वं लक्षणम् । वधस्य वेदनीयोदय प्रयुक्तत्वेनाखिलगुणस्थानेषु सम्भवात् चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वं तजयस्येत्याशयमाविष्करोति वेदनीयेति ॥ याचनापरीषहमभिधत्ते स्वधर्मदेहपालनार्थ चक्रवर्तिनोऽपि साधोर्याचनालज्जापरिहारो याच15 नापरीषहः। चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् । याचितेऽपि वस्तु न्यप्राप्तौ विषादानवलम्बनमलाभपरीषहः । लाभान्तरायक्षयोपशमजन्योऽयम् । रोगोद्भवे सत्यपि सम्यक्सहनं रोगपरीषहः।। __ स्वधर्मेति । स्वधर्मार्थ देहस्य पालनाय, न तु पुष्टयर्थं, परेण लभ्यानपानवस्त्रपात्रप्रति श्रयादेश्चक्रवर्तिनापि सता साधुनाऽवश्यमेव याचनं कार्य, नतु दीक्षितः श्रीमानपि लज्जया:20 याचनताऽऽद्रियेत, तथा च सति याचनाविजयः कृतस्स्यादिति भावः । स्वधर्मदेहपालनप्रयुक्त साधुकर्तकयाचनालज्जापरिहारत्वं लक्षणम् । रङ्कादिकृतलज्जापरिहारपरिहाराय कर्तृकान्तम् । देहपुष्ट्यभिलाषेण साधुकृतयाचनालज्जापरिहारवारणाय स्वधर्मदेहपालनप्रयुक्तेति । चारित्रमोहोदय एव याचनालज्जासंभवेन यावन्नवमगुणस्थानं सम्भवात् तत्क्षयोपशमजन्यस्तजय इत्यभिप्रायेणाह-चारित्रेति ॥ अलाभपरीषहमाचष्टे-याचितेऽपीति । वस्तुन्यावश्यके यायितेऽ पि परेणाऽदत्तेऽन्नवस्त्रादिके परगृहे बह्वस्ति, तद्यस्य तु स्वं स तत्कदाचिद्ददाति, कदाचिच्च न, कस्तत्रास्माकमपरितोषो यन्न यच्छतीत्यादिरूपेण विचारयन् यद्यविकृतान्तरङ्गो भवेत् तदाऽलाभपरीषहस्स्यादिति भावः। याचितवस्त्वलाभप्रयुक्तविषादानवलम्बनत्वं लक्षणम् । इतरपरीषहवारणाय प्रयुक्तान्तम् , तावन्मात्रोक्तौ तु विषादावलम्बनेऽतिव्याप्तिस्यादतो 25 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S परोषहाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते विषादानवलम्बनत्वमुक्तम् । अलाभस्य लाभान्तरायोदयनिबन्धनत्वाद्यावद्द्वादशगुणस्थानं सम्भवेन तत्क्षयोपशमादस्य परीषहस्यावतार इत्याह लाभान्तरायेति । रोगपरीषहमाचष्टे-रोगोद्भव इति । ज्वरातिसारकासश्वासादिमहद्रोगोद्भवेऽपि गच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयश्च न चिकित्साविधापने प्रवर्त्तन्ते, किन्तु सम्यगेव तदधिसहन्ते स्वकृतकमणः फलमिदमुदितमिति चिन्तयन्तः । गच्छवासिनस्त्वल्पबहुत्वालोचनया सम्यक्सहन्ते, 5 प्रवचनोक्तेन वा विधिना चिकित्सामपि कारयन्ति, एवञ्च रोगजयः स्यादिति भावः । यथाशास्त्रानुष्ठानमुद्भूतरोगसहनत्वन्तु लक्षणम् । सर्वथा चिकित्सावैधुर्यमेव कार्यमिति नियमाभावसूचकं यथाशास्त्रानुष्ठानमिति पदम् , तच्च सम्यक्पदेन लभ्यते । वेदनीयोदयप्रयुक्तत्वेन रोगस्याखिलगुणस्थानेषु सम्भवोऽवसेयः ॥ तृणस्पर्शपरीषहमाह जीर्णशीर्णसंस्तारकाधस्तनतीक्ष्णतृणानां कठोरस्पर्शजन्यक्लेशसहनं . तृणस्पर्शपरीषहः । शरीरनिष्ठमलापनयनानभिलाषो मलपरीषहः । वेदनीयक्षयोपशमजन्या एते । भक्तजनानुष्ठितातिसत्कारेऽपि गर्वपराङ्मुखत्वं सत्कारपरीषहः। अयश्च चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यः । बुद्धिकुशलत्वेऽपि मानापरिग्रहः प्रज्ञापरीषहः । ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यः। 15 बुद्धिशून्यत्वेऽप्यखिन्नत्वमज्ञानपरीषहः । ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यः। इतरदर्शनचमत्कारदर्शनेऽपि स्वदेवतासान्निध्याभावेऽपि जैनधर्मश्रद्धातोऽविचलनं सम्यक्त्वपरीषहः । दर्शनमोहनीयक्षयोपशमजन्योऽयम् ॥ जीर्णशीर्णेति । गच्छनिर्गतानां गच्छवासिनाश्च यतीनामशुषिरतृणस्य हि दर्भादेः परिभोगोऽनुज्ञातः, तत्र येषां शयनमनुज्ञातं ते तान् दर्भान भूमावीषदार्द्रतादियुक्तायामास्तीर्य दर्भा- 20 णामुपरि संस्तारकोत्तरपट्टौ च विधाय शेरते, चौरापहृतोपकरणो वाऽत्यन्तजीर्णत्वात्प्रतनुसंस्तारकपट्टको वा तदुपरि शेते, तत्र च शयानस्य यद्यपि कठिनतीक्ष्णाग्रभागैस्तृणैरत्यन्तपीडा समुपजायते तथापि परुषदर्भादितृणस्पर्श सम्यक्सहेत, एवश्च सति तृणपरीषहस्स्यादिति भावः । वधपरीषहादिवारणाय तृणानामित्यन्तम् । वेदनीयोदयप्रयुक्तत्वेन तृणस्पर्शवेदनायाः .. निखिलगुणस्थानेषु सम्भवोऽवसेयः ॥ मलपरीषहं निरूपयति-शरीरनिष्ठेति । शरीरनिष्ठो 25 यो धर्माम्बुसम्बन्धजन्यो घनपरागबजः स्थिरतामापन्नो ग्रीष्मोष्मणा चार्द्रतां गतोऽत एव दुर्गन्ध उद्वेगकरश्च तस्यापनयनाय न कदापि जलाद्यवगाहनाभिलाषः कार्यः, सत्येवं २३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे मलपरीषहः स्यादिति भावः । लक्षणं स्पष्टम् । अस्यापि मलस्य वेदनीयोदयप्रयुक्तत्वं निखिलगुणस्थानसम्भवित्वं विज्ञेयम् । एषां रोगतृणस्पर्शमलपरीषहाणां वेदनीये सति चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजन्यत्वमित्याह-वेदनीयक्षयोपशमजन्या इति, वेदनीये सति चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिजन्या इत्यर्थः ॥ सत्कारपरीषहं वक्ति-भक्तजनेति । भक्तजनैरनुष्ठिता 5 भक्तपानवस्त्रपात्रादिभिः कृतास्सत्काराः, सद्भूतगुणोत्कीर्तनवन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादिव्यव हाराश्च, एभिर्न मानमुद्वहेत, नोत्कर्षाद्याकुलं चेतः कुर्यात् , अकृते वा सत्कारादौ न विषादमुपयायात् ततश्च सत्कारस्य परिसहनं स्यादिति भावः । भक्तजनानुष्ठितसत्कारसम्बन्धिगर्वपराङ्मुखत्वं लक्षणम् । भक्तजनानुष्ठितेति स्वरूपविशेषणं, प्रज्ञापरीषहादिवारणाय सम्ब न्ध्यन्तम् । सत्कारसम्बन्धिमानस्य चारित्रमोहनीयोदयप्रयुक्ततया नवमगुणस्थानं यावत्सम्भ10 वेन तत्क्षयोपशमजन्यस्तत्परीषह इत्याहायश्चेति ॥ अथ सम्यग्ज्ञानात्मकमोक्षमार्गाच्यवन फलकं प्रज्ञापरीषहमाचष्टे-बुद्धिकुशलत्वेऽपीति । बुद्ध्यतिशयप्राप्तौ हि न गर्वमुद्वहेत् , प्रज्ञाप्रतिक्षेपेणाप्यबुद्धिकत्वेन परीषहो भवति, नाहं किञ्चिजाने मूर्योऽहं सर्वैः परिभूत इत्येवं परितापमुपागतस्य कर्मविपाकोऽयमिति मत्वा तदकरणात्तजयो भवतीति भावः । विज्ञान प्रयुक्तमदनिरासत्वं लक्षणम् । सत्कारपरीषहवारणाय विज्ञानप्रयुक्तति । एतादृशप्रज्ञाया 15 ज्ञानावरणक्षयोपशमतन्त्रत्वेन द्वादशगुणस्थानं यावत्सम्भवात्- तत्क्षयोपशमे सति माना भावजन्यत्वं तस्य परीषहस्येत्याविष्करोति ज्ञानावरणेति ॥ अज्ञानपरीषहमाह-बुद्धिशून्य त्वेऽपीति । बुद्धिस्सोपाङ्गं चतुर्दशपूर्वैकादशाङ्गरूपं श्रुतं तद्वैधुर्येण मनोमालिन्यं न विदध्यात् केवलं ज्ञानावरणोदयविजम्भितमेतत् स्वकृतकर्मपरिभोगतस्तपोऽनुष्ठानतोवापैतीति भाव. यतोऽज्ञानस्य जयो भवेदिति भावः । बुद्धिशून्यताप्रयुक्तखेदापरिग्रहत्वं लक्षणम् , अज्ञानस्य 20 ज्ञानावरणोदयविलसितत्वेन यावद् द्वादशगुणस्थानं संभवात्तत्क्षयोपशमतस्तद्विजय इत्याह ज्ञानावरणेति ॥ अथान्तिमं सम्यक्त्वपरीषहमभिधत्ते-इतरदर्शनेति, दर्शनान्तरीयाणां चमत्कारादिदर्शनेऽपि निजदेवतासामीप्याभावेऽपि वा जैनधर्मश्रद्धातस्सर्वथाऽविचलनमित्यर्थः । इतरदर्शनचमत्कारस्वदेवतासान्निध्याभावान्यतरप्रयुक्तजैनधर्मश्रद्धाशैथिल्याभाववत्त्वं लक्षणम् । अश्रद्धाया दर्शनमोहनीयोदयप्रयुक्तत्वेन यावन्नवमगुणस्थानं सम्भवात् तत्क्षयोप25 शमजन्यस्तजय इत्याह-दर्शनेति । आवश्यके तत्त्वार्थे चाऽत्राऽसम्यक्त्वपरीषहं अदर्शन परीषहाभिधं पठन्ति ॥जेया क्षुधादय एते उत्कृष्टत एकत्र प्राणिनि विंशतिर्वर्त्तन्ते, शीतोष्ण १. नपुंसकवेदाद्युपशमकालेऽनिवृत्तिबादरसम्परायो भवति, तच्छमनावसरे च सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति न तु सत्त्व, ततस्तत्प्रत्ययस्सम्यक्त्वपरीषहस्तस्यास्ति, सूक्ष्मसम्परायस्य तु मोहसत्त्वेऽपि न सूक्ष्मोऽपि तदुदयः, ततो न तन्निमित्तकपरीषहसम्भव इति भावः ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाश समलङ्कृते : १७९ : योश्चर्यानिषद्ययोश्चैकत्रैकदाऽसम्भवात् जघन्यतस्त्वेक एव । एवमसंकल्पोपस्थितान् क्षुधादीन् सहमानस्यासं क्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामास्रवाभावान्महान्संवरो भवतीति ॥ भावनाः ] निरूपितेषु समितिगुप्तिपरीषहेषु चतुर्थं संवर हेतुं यतिधर्ममाचष्टे - मोक्षमार्गानुकूलयतिप्रयत्नो यतिधर्मः । स च क्षान्तिमार्दवार्जवनिलभतातपस्संयम सत्यशौचाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्य भेदाद्दशविधः । एतल्लक्षणा- 5. न्यग्रे वक्ष्यन्ते ॥ मोक्षमार्गेति । मोक्षमार्गानुकूलत्वे सति यतिप्रयत्नत्वं लक्षणम् । क्षमादिसमुदयस्य संवरधारकत्वाद्धर्मत्वं तच्चागारिधर्मेऽपि, अतो यतीत्युक्तमनेन तस्यालक्ष्यत्वं ख्यापितम्, यतिधर्म इत्युक्तत्वाद्यतिस्वरूपरक्षकचारित्र व्युदासः, सति हि चारित्र उत्तमधर्मप्रवृत्तिर्भवेत्, तत्र गुप्तिः प्रवृत्तिनिग्रहाय, तत्रासमर्थानां प्रवृत्तिनिग्रहोपायदर्शनाय समितयः, मोक्षमार्गा- 10 त्सम्यग्दर्शनादितोऽच्यवनार्थं क्षमाद्यर्थञ्च परीषहाः, प्रमादनिवृत्त्यर्थं यतिधर्माः, परीषहानुकू - लतया भावनाः, कर्मनिर्जरणार्थ चारित्राणीति विज्ञेयम् । तथा च प्रमादनिवृत्तिद्वारा यतिधर्मस्य मोक्षमार्गानुकूलत्वमवसेयम् । यद्यपि सर्व एव गुप्त्यादयः कर्मनिर्जरणार्थाः, तथापि चारित्रे सति तथा, अतश्चारित्रस्यैव तत्र प्राथमिक हेतुत्वमुक्तम् । स कतिविध इत्यत्राह -- स चेति । अग्रे वक्ष्यन्त इति सम्यक्चरणनिरूपण इत्यर्थः ॥ 15 ननु क्रोधाद्यनुत्पत्तिः क्षमादिविशेषगुणानामवलम्बनाद्भवति तत्र कस्मात्क्षमादीनामवलम्बन मित्याशङ्कायामाह - मोक्षप्रवृत्त्युत्तेजक चिन्तनं भावना । अनित्याशरणसंसारकत्वान्यः त्वाशुचित्वाऽऽश्रवसंवरनिर्जरालोकस्वभावबोधिदुर्लभधर्मखाख्यात भेदादू द्वादशधा सा । एतल्लक्षणान्यप्यग्रे वक्ष्यन्ते ॥ मोक्षप्रवृत्तीति । मोक्षप्रवृत्तौ मोक्षानुकूलप्रवृत्तौ उत्तेजकं प्रतिबन्धकसमवधानकालीनकार्यजनकं यच्चिन्तनं-अनित्यत्वादिरूपेण द्वादशधाऽनुचिन्तनं सा भावनेत्यर्थः । मोक्षानुकूलप्रवृत्तेजकत्वे सति चिन्तनत्वं लक्षणम् । असत्प्रवृत्तिचिन्तनव्युदासाय सत्यन्तम् । समित्यादौ स्थितस्यापि कदाचिद्रव्यक्षेत्रकालभावेभ्यो मोक्षप्रवृत्तेर्मालिन्यतायां संजाताया १. सापेक्षनिरपेक्षत्वाभ्यामयं मुनि सम्बन्ध्यनुष्ठान विशेषो द्विविधः, गुरुगच्छादिसाहाय्यमपेक्षमाणो यः प्रव्रज्यां पालयति तस्य धर्मस्सापेक्षो गच्छवासलक्षणः, इतरस्तु निरपेक्षस्य जिनकल्पादिलक्षणः, तत्र सापेक्षयतिधर्मा मूलोता भाव्याः ॥ 20 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१८०: तत्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे मियमुत्तेजिका भवतीति भाव्यम् । अस्याः प्रकारभेदान् प्रकटयति-अनित्येति । एषामपि स्वरूपाणि सम्यक्चरणनिरूपणे प्रोच्यन्त इत्याह एतदिति ॥ अथ चारित्रलक्षणमभिधत्ते कर्माष्टकशून्यताप्रयोजकमनुष्ठानं चारित्रम् । तच्च सामायिकच्छेदोप5 स्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातभेदेन पञ्चविधम् ॥ कर्माष्टकेति । चारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमसद्भावे चर्यते तदिति चारित्रं कर्मसाधनं, अष्टविधकर्म द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरिवर्तनात्मकसंसारस्य कारणभूतं, तस्य या शून्यताऽऽत्यन्तिकी निवृत्तिः, तस्याः प्रयोजकं यदनुष्ठानं, बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरमसहचरितमनुष्ठानं परस्परं प्रकर्षाप्रकर्षयोगिक्रियाविशेषरूपं तच्चारित्रमिति भावार्थः, तच्च संयतासंयतादिषु सूक्ष्म. 10 साम्परायिकान्तेषु प्रकर्षाप्रकर्षयोगि, वीतरागेषु परमोत्कृष्टं विज्ञेयम् । कर्माष्टकशून्यताप्रयो जकत्वे सत्यनुष्ठानत्वं लक्षणम् । असदनुष्ठानव्यावृत्तये सत्यन्तम् । गुप्त्याद्यात्मधर्मविशेषेषु व्यभिचारवारणाय विशेष्यम् । गुप्त्यादयश्चारित्रप्रकर्षानुकूलाः, अत एव च कर्माष्टकशून्यत्व उपचाराद्धेतवः । यद्यपि समित्यादयः क्रियात्मकाः कर्मशून्यतायां प्रयोजकास्तथापि ते चारित्रापेक्षिणः किश्चिदेव कर्म विरहयन्ति न सर्वाणि, चारित्रं तु कर्मणामष्टविधानामपि 15 विरहे प्रयोजकीभूतयोग्यतावदिति न कोऽपि दोषः । ननु यैः क्षुधादिभिः परिसहनीयैरक्षुब्धा विपश्चितोऽभिनवानि कर्माणि नोपचिन्वन्ति पूर्वप्रचितानि च निर्जरयन्ति ततः कर्मनिर्जरणार्थमाहितसामर्थ्य चारित्रं चारित्रमोहनीयोपशमक्षयक्षयोपशमलक्षणात्मविशुद्धिलब्धिसामान्यापेक्षयक, प्राणिपीडापरिहारेन्द्रियदर्पनिग्रहशक्तिभेदाद् द्विविध, उत्कृष्टमध्यमजघन्यविशु द्धियोगात्रिविधं, विकलज्ञानविषयकसरागवीतरागसकलावबोधगोचरसयोगायोगविकल्पाच20 तुर्विधमेवं सामायिकादिभेदेन पञ्चविधमपि, तत्र स्फुटावबोधार्थ पञ्चधैव विभजते तश्चेति ।। अथ सामायिक लक्षयति छेदोपस्थापनादिचतुष्टयभिन्ना सर्वसावद्ययोगविरतिः सामायिकम् । तद्विविधम् । इत्वरकालं यावज्जीवकालश्चेति । भाविव्यपदेशयोग्यं स्वल्प कालं चारित्रमित्वरकालं । प्रथमान्तिमतीर्थकरतीर्थयोरेवैतत् । भाविव्य25 पदेशाभावेन यावज्जीवं संयमो यावज्जीवकालम् । इदश्च मध्यमद्वाविंशति तीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनां विदेहक्षेत्रवर्तिनाश्च ॥ छेदोपस्थापनादीति । छेदोपस्थापनादिचतुष्टयभिन्नत्वे सति सर्वसावद्ययोगविरतित्वं Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८१ : छेदोपस्थापनम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृ लक्षणम् । छेदोपस्थापनादिवारणाय सत्यन्तम् । यतिधर्मान्तर्गत संयमस्तु सप्तदशविधश्चारित्रापेक्ष इति भेदः, अवद्यं गर्हितं पापं, सहावद्येन वर्तत इति सावद्यो योगः कायिकादिव्यापारः, सर्वेभ्यः सावद्ययोगेभ्यो विरमणं, रागद्वेषविरहितः समः तस्य - आयो गमनं, सर्वक्रियोपलक्षकमेतत् सर्वैव क्रिया हि साधोररक्तद्विष्टस्य निर्जर फलैव भवति । समाय एवेति विग्रहे स्वार्थे विनयादित्वाट्ठक्प्रत्यये सामायिकशब्द निष्पत्तिः । सर्वसावद्ययोगविरतिस्वरूपमेव 5 सामायिक, विशुद्धतराध्यवसायविशेषविशिष्टा तादृशविरतिरेव छेदोपस्थापनादिः । न च निवृत्तिपरत्वात्सामायिकस्य गुप्तित्वप्रसङ्ग इति वाच्यम्, योगप्रवृत्तेरत्र सद्भावात् न च प्रवृत्तिरूपत्वे समितित्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् सामायिके चारित्रे, यतत एव समितिषु प्रवृत्त्युपदेशेन तत्कारणरूपत्वात् । तद्विभजते तदिति । अथेत्वरकालं लक्षयति भाविव्यदेशयोग्यमिति । भाविव्यपदेशयोग्यत्वे सति स्वल्पकालचारित्रत्वं लक्षणम् । प्रव्रज्याप्रतिपत्त्यनन्तरमधीतशस्त्रप्रतिज्ञाध्ययनादेश्छे - 10 दोपस्थाप्य संयमारोपणे क्रियमाणे सामायिकव्यपदेशविगमादिति भावः । छेदोपस्थापनादिवारणाय सत्यन्तम्, तथा च स्वल्पकालेति इत्वरशब्दार्थवर्णनपरमेव, न तु व्यावर्त्तकम् । इत्वरकालसंयतस्य छेदोपस्थाप्यचारित्रग्रहणादर्वाङ् मृतस्य चारित्रेऽव्याप्तिवारणाय योग्येति । क्वेदं चारित्रं भवतीत्यत्राह - प्रथमेति । यावज्जीवकालमाह - भाविव्यपदेशेति । इत्वरस्य हि भाविव्यपदेश उक्तो नेतरेषाम् । यस्तु भाविव्यपदेशं नाश्नुते यावज्जीवश्च भवति स संयमो 15 यावज्जीवकालिक इति भावः । सामायिक एव सन् चतुर्यामं चतुर्महाव्रतानि मनोवाक्कायैर्यः पालयन् यावज्जीवं वर्त्तते स यावज्जीवकालिकसामायिकसंयत इति यावत् । प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्याऽऽप्राणप्रयाणकालमवतिष्ठत एवम्भूतं चारित्रमिति भावः यथाख्यातस्यापि भावि - व्यपदेशाभावेन यावज्जीवं संयमरूपत्वात्तद्व्युदासाय सामायिकत्वं वाच्यम्, सामायिकत्वं सामायिक पदव्यपदेशयोग्यत्वमित्यर्थस्तेन तस्यापि विशुद्धिविशेषविशिष्टनिरुक्तसामायिकत्वेऽपि 20 न क्षतिः । केषामयं संयम इत्यत्राह इदचेति । एषामुपस्थापनाया अभावादिति भावः ॥ छेदोपस्थापनमाख्याति - पूर्व पर्यायोच्छेदे सत्युत्तरपर्यायारोपणयोग्यं चारित्रं छेदोपस्थापनम् । तच निरतिचारसातिचारभेदेन द्विविधम् । शैक्षकादेरधीत विशिष्टाध्ययन १. भाविव्यपदेश योग्यताविशिष्टचारित्रस्यैवोपस्थापनायां त्यागो न चारित्रस्य तस्येदानीं विशुद्धतया तत्र सत्त्वात् तेन व्रतग्रहणकाले सामायिकं यावज्जीवं करोमीतीत्वर सामायिकस्य गृहीतत्वेऽपि उपस्थापनायां मुखतोऽपि न प्रतिज्ञालोपः, तस्यान्यथात्वाभावादित्याशयेन सामायिकव्यपदेशविगमादित्युक्तम् इत्वरसामायिकव्यपदेशविगमादिति भावः, तस्यैव प्रकृतत्वादिति ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८२ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे विदो यदारोप्यते तन्निरतिचारम् । खण्डितमूलगुणस्य पुनर्वतारोपणं सातिचारम् । उभयमपि प्रथमान्तिमतीर्थकरतीर्थंकाल एव ॥ __ पूर्वपर्यायोच्छेद इति । सामान्यसामायिकपर्यायोच्छेदोत्तरकालं यद् विशुद्धतरसर्वसावद्ययोगविरत्यवस्थापन-विविक्तमहाव्रतारोपणं तद्योग्यं चारित्रं छेदोपस्थापनमि5 त्यर्थः । पूर्वपर्यायच्छेदेनोत्तरपर्यायारोपणयोग्यत्वे सति चारित्रत्वं लक्षणम् । सामायिकादि वारणाय पूर्वपर्यायच्छेदेनेति पूर्वपर्यायश्च चारित्रस्यैव विज्ञेयः । अस्य विभागमाह-तच्चेति । निरतिचारस्वरूपमाह-शैक्षकादेरिति । आदिना तीर्थान्तरसंक्रामतो ग्रहणं तस्य हि चतुमहाव्रतधारिणः पञ्चमहाव्रतारोपणं भवति । सातिचारस्वरूपमाचष्टे-खण्डितेति । मूलगुण हन्तुः पुनर्वतारोपणमित्यर्थः । उभयविधमपि छेदोपस्थापनं क भवतीत्यत्राह-उभयमपीति । 10 चारित्रमिदं भरतैरावतेष्वाद्यन्ततीर्थकरतीर्थयोर्भवति नान्यत्रेति भावः ॥ परिहारविशुद्धिकमाख्याति तपोविशेषविशिष्टं परिशुद्धिमच्चारित्रं परिहारविशुद्धिकम् । तदपि निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकश्चेति द्विविधम् । निर्विशमानकाः प्रक्रान्तचा रित्रोपभोक्तारः, निर्विष्टकायिकाच समुपभुक्तप्रक्रान्तचारित्रकायिकाः । 15 एते चाऽऽद्यान्तिमतीर्थकरतीर्थकाल एव ।। तपोविशेषेति । परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिस्तपोविशेषो वा तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् सत्परिहारविशुद्धिकमिति विग्रहः । अस्य भेदमाह तदपीति परिहारविशुद्धिकमपीत्यर्थः, निर्विशमानकं परिभुज्यमानकमित्यर्थः । निर्विष्टकायिकमुपभुक्तमित्यर्थस्तपोविशेषो पभोगकालीनश्चारित्रमुपभुक्ततपोविशेषकालीनञ्चारित्रं चेति तद्विविधमिति भावः । तपोविशेष 20 सूचयितुं निरुक्तरूपेण तयोः स्वरूपमनुक्त्वा तदनुष्ठायिपुरुषस्वरूपनिरूपणद्वारा निरुक्तमपि सूचयति-निर्विशमानकाश्चेति । प्रक्रान्तेति तपोविशेषसहकृतेत्यर्थः, एवमग्रेऽपि । अत्रेदम्बोध्यम्-उभयविधानामेषां तपो जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रिविधमपि प्रत्येकं शीतकाल उष्णकाले वर्षाकाले च भवति तत्राऽतिरूक्षे ग्रीष्मकाल एकोपवासरूपं चतुर्थ जघन्यं, उपवा सद्वयरूपं षष्ठं मध्यममुत्तमञ्चोपवासत्रयरूपमष्टमम् । ग्रीष्मतः किश्चित्सुकरे शिशिरे जघन्यं 25 षष्ठं मध्यममष्टममुत्कृष्टञ्चोपवासचतुष्टयरूपं दशमम् । साधारणे काले वर्षासु जघन्यमष्टमं मध्यमं दशममुत्कृष्टञ्चोपवासपञ्चकरूपं द्वादशं तपो भवति, त्रिष्वपि कालेषु पारणे त्वाचाम्लं, १. यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्धमानस्वामितीर्थ संक्रामतः पञ्चयामधर्मप्राप्तौ ॥ ... Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसम्परायम् ] भ्यायप्रकाशसमलङ्कृते । संसृष्टादिसप्तभिक्षासु प्रथमद्वयं वर्जयित्वा पञ्चानां भिक्षाणां ग्रहः पुनरपि विवक्षितदिने पश्चानां मध्ये द्वयोरभिग्रहो भवति । तत्र तपोविशेषमुपगतानां नवानां गणो भवति, तत्र परिहाराचारिणश्चत्वारोऽनुपरिहारिणश्चत्वारः कल्पस्थित एको वाचनाचार्य इति । सर्वेषां श्रुताद्यतिशयपरिपूर्णत्वेऽपि तेष्वेकः कल्पत्वात्कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते । पूर्वोदितं तपो येऽनुतिष्ठन्ति ते परिहाराचारिणः, पूर्वोक्तभिक्षाभिग्रहयुक्ता नियताचाम्लभक्ता अनुपरिहारिणस्ते- 5 पामेव वैयावृत्त्यकराः, कल्पस्थितोऽपि नियताचाम्लभक्त एव । परिहाराचारिणश्च यावत् षण्मासांस्तपश्चरित्वाऽनुपरिहारिकत्वं, अनुपरिहारिणो निर्विशमानकत्वापरपर्यायं परिहाराचारित्वञ्च यावत् षण्मासं भजन्ते । मासद्वादशकानन्तरं वाचनाचार्योऽप्येवं पाण्मासिकं परिहारतपः करोति तदाऽष्टसु सप्तानुपहारिका एकः कल्पस्थितो भवति, एवमयं कल्पोऽष्टादशमासप्रमाणो विज्ञेयः । ततश्च ते पुनरमुमेव कल्पं जिनकल्पं गच्छं वाऽनुसरन्ति । तत्र 10 येऽव्यवधानेन जिनकल्पानुसारिणस्ते यावत्कथिकाः परिहारविशुद्धिका इतरे त्वित्वराः, इत्वराणां देवमानुषतिर्यग्योनिककृता उपसर्गास्सद्योघातिन आतङ्का अतीवाविषह्या वेदनाश्च न प्रादुर्भवन्ति, कल्पप्रभावात् । यावत्कथिकानान्तु सम्भवेयुरपि जिनकल्पिकानामुपसर्गादिसम्भवात् । कल्पोऽयं तीर्थकरपार्श्वे तत्समीपासेवकस्य पार्श्वे वा प्रतिपद्यते नाऽन्यस्य पार्श्वे । तथा चैतेषां यच्चारित्रं तत्परिहारविशुद्धिकमिति । एते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे 15 काले वा सम्भवन्तीत्यत्राह-एते चेति । जन्मतः सद्भावतश्च भरतेष्वैरवतेष्वेव, संहरणाभावान्न महाविदेहादिषु । जन्मतोऽवसर्पिण्यां प्रथमचरमतीर्थपतितीर्थयोः तृतीये चतुर्थे वाऽऽरके, सद्भावतः पञ्चमेऽपि, उत्सर्पिण्या जन्मतो द्वितीये तृतीये चतुर्थे च, सद्भावतस्तृतीये चतुर्थ आरके, नोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे तु चतुर्थारकप्रतिभागकाले न सम्भवन्त्येव, महाविदेहक्षेत्रे तेषामभावादिति भावः । विशेषस्त्वस्मिन् चारित्रेऽन्यतो विज्ञेयः ॥ 20 सूक्ष्मसम्परायस्वरूपमभिधत्ते- अत्यन्तकृशकषायवच्चारित्रं सूक्ष्मसम्परायम् । इदं संक्लिश्यमान विशुद्ध्यमानकं चेति द्विप्रकारम् । उपशमश्रेणीतः प्रपततः प्रथमम् , द्वितीयं तु श्रेणिमारोहतः ॥ अत्यन्तेति । संसारभ्रान्तिहेतुः कषायो लोभरूपोऽतिसूक्ष्मतया वेदना विषयत्वेन यत्र 25 वर्त्तते तच्चारित्रं सूक्ष्मसम्परायमित्यर्थः । अत्यन्तसूक्ष्मकषायसमानकालीनचारित्रत्वं लक्षणम्। - १. अत एव प्रथमतीर्थपतितीर्थे परिहारकल्पोऽयं देशोनपूर्वकोटिद्वयं परम्परयाऽनुवर्तते, चरमतीर्थपतितीर्थे च देशोनवर्षशतद्वयं, न तु तृतीया पूर्वकोटी, न. वा तृतीयं वर्षशतमिति ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे ! १८४ : [ सप्तमकिरणे कृत्यं स्पष्टम् । तद्विभजते इदमिति । उपशान्तकषायाभिरल्पप्रत्यय लाभान्मुख वस्त्रादिषु ममत्वबायुना सन्धुक्षमाणश्चरणेन्धनमा मूलतो दहन् संकिश्यमानाध्यवसायबलेन प्रतिविशिष्टाध्यव - सायात्तं प्रच्यावयति अत इदं संक्लिश्यमानकं चारित्रमुच्यते तच्चोपशम श्रेणीतः पततो भवतीत्याशयेनाह - उपशम श्रेणीत इति । तत्रोपशम्या अनन्तानुबन्धिनो मिध्यात्वत्रयं नपुंसक5 स्त्रीवेदौ हास्यादिषट्कं पुंवेदोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्च । आरम्भकोऽस्याः श्रेणेरप्रमत्तसंयतः | अविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरतानामन्यतम इति केचित् ॥ अनुक्षणं विशुद्धाध्यवसायवतश्चारित्रं विशुद्ध्यमानकमुच्यते तच्च श्रेणिमारोहत एव भवतीत्याह - द्वितीयन्त्विति । क्षय्यास्त्वनन्तानुबन्धिनो मिध्यात्वत्रिक मप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणा नपुंसकस्त्रीवेद हास्यादिषट्कं पुंवेदस्संज्वलनाश्च क्षपकश्रेण्यामारोह कश्चाविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरता10 नामन्यतमो विशुध्यमानाध्यवसायः ॥ यथाख्यातसंयमलक्षणमाह निष्कषायं चारित्रं यथाख्यातम् । इदमप्युशमश्रेणिमुपयातस्य कषायाणामुपशमादनुदयाच्चाऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकम् | क्षपकश्रेणिमधिगतस्य तु कषायाणां सर्वथा क्षयाज्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्त स्थितिकालीनमुत्कृष्टतश्च देशो15 नपूर्वकोटिप्रमाणं बोध्यम् । आद्यं प्रतिपाति, द्वितीयमप्रतिपाति ॥ निष्कषायमिति । कषायरहितत्वे सति चारित्रत्वं लक्षणम् । सिद्धावस्थायां व्यभिचारवारणाय विशेष्यम् । उपशमेकक्षपकवृत्तित्वादस्यापि द्वैविध्यमिति मनसिकृत्याह - इदमपीति । एकादशगुणस्थानवर्त्तिनो हि सर्वथा कषायाणामुपशमनादुदयाभावाच्चाऽऽद्यमिदं यथाख्यातचारित्रं केवलमन्तर्मुहूर्त्तकालीनमुत्कृष्टतः, ततो नियमेन च्यवनादिति भावः । क्षपकश्रेण्या समाया20 तस्य तु द्वादशादिगुणस्थानवर्त्तिनः सर्वथा कषायाणां क्षयात्तादृशं चारित्रं द्वितीयं जघन्येनान्त हूस्थितिमुत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिप्रमाणं भवतीत्याह - क्षपकेति । तत्राद्यचारित्रस्य कषायसत्तासमानाधिकरणत्वात्तस्य च नियमेनोदयसंभवात् यस्माद्गुणस्थानाद्यया रीत्या समागतस्तथैव प्रतिपततीत्याशयेनाह - आद्यमिति । क्षपक श्रेणीतः कषायाणां सर्वथा क्षयेण प्रतिपाताभावो द्वितीयचारित्रवत इत्याह- द्वितीयमिति । इदमेव चारित्रं मोक्षाव्यवहितसाधनं सामायिकादयोऽप्य25 श्रागमने क्रमेण श्रेणिकल्पत्वादसाधारणकारणान्येव । गुप्यादयस्तु पञ्चविधचारित्र नैर्मल्यापादकतया परम्परयोपकारीभूता इति दिक् ॥ १. यथाख्यात चारित्रं द्विविधं छद्मस्थकेवलिस्वामिभेदात् छद्मस्थसम्बन्धि च द्विविधं मोहक्षयसमुत्थं, तदुपशमप्रभवं चेति । केवलिसम्बन्ध्यपि द्विविधं, सयोग्ययोगिकेवलिभेदादिति ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणि ] न्यायप्रकाशलमलहते। सम्प्रति प्रसङ्गादेतेषां विशेषप्रतिपत्त्यर्थं सामायिकादिसंयमिन आश्रित्य षट्त्रिंशत्प्रकारेण विवेचयितुकामस्तान् प्रकारानामग्राहमादौ वक्ति तत्र द्वाराणि प्रज्ञापनावेदरागकल्पचारित्रप्रतिसेवनाज्ञानतीर्थलिङ्गशरीरक्षेत्रकालगतिसंयमसन्निकर्षयोगोपयोगकषायलेश्यापरिणामबन्धवेदनोदीरणोपसम्पद्धानसंज्ञाऽऽहार भवाकर्षकालमानान्तरसमुद्धातक्षेत्र- 5 स्पर्शनाभावपरिणामाल्पबहुत्वेभ्यः षट्त्रिंशद्विधानि ॥ तत्रेति । द्वाराणीत्यस्य षट्त्रिंशद्विधानीत्यप्रेतनेनान्वयः ॥ अथादौ प्रज्ञापनाद्वारमाह तत्र प्रज्ञापनाद्वारे-सामायिकसंयत इत्वरिको यावत्कथिकश्चेति 10 द्विविधः । छेदोपस्थापनीयस्सातिचारी निरतिचारी चेति द्विविधः। परिहारविशुद्धिको निर्विशमानो निर्विष्टकायिकश्चेति द्विविधः। सूक्ष्मसम्परायसंयत उपशमश्रेणीतः पृच्यवमानः, उपशमक्षपकश्रेण्यन्यतरारूढश्चेति द्विविधः । यथाख्यातोऽपि छद्मस्थः केवली चेति द्विविध इति बोध्यम् ॥ तत्रेति । सामायिकस्संयमस्तेन संयत इत्यर्थः । इत्वरिक इति । भाविव्यपदेशान्तर- 15 योग्याल्पकालिकसंयमयुक्त इत्यर्थः । स च प्रथमान्तिमतीर्थसाधुर्बोध्यः। यावत्कथिक इति । ब्यपदेशान्तरायोग्ययावज्जीवसंयमभृत्, मध्यमतीर्थकृद्विदेहक्षेत्रसम्बन्धिसाधुरिति भावः । सातिचारीति । अतिचारवानारोप्यमाणसंयमवानित्यर्थः । निरतिचारीति । अतिचारविधुर आरोग्रमाणपुनर्बतिक इत्यर्थः । सोऽयं शैक्षकः पार्श्वनाथतीर्थादन्तिमतीर्थ संक्रममाणश्च । निर्विशमान इति । प्रक्रान्तचारित्रभोक्तेत्यर्थः । निर्विष्टकायिक इति । उपभुक्तप्रक्रान्तचारित्र 20 इत्यर्थः । इतरत्स्पष्टम् ॥ वेदद्वारमाह वेदद्वारे-सामायिको नवमगुणस्थानावधि वेदको वेदत्रयवांश्च । नवमान्ते तूपशमात्क्षयाद्वा वेदानामवेदकोऽपि भवेत् । एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि । पारिहारिकः पुरुषवेदो वा पुनपुंसकवेदो वा स्यात् । सूक्ष्मस- 25 म्परायो यथाख्यातश्चावेदक एवेति ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५: तस्याधिभाकरे [ सप्तमफिर वेदद्वार इति । सामायिक इति, यावन्नवमगुणस्थानं सामायिक संयतव्यपदेशः, नवमे च वेदानामुपशमः क्षयो वा भवति, अतस्तदवधि सवेदः, वेदत्रयवानपि । उपशान्ते वा क्षीण वा वेदे तदानीमवेदकोऽपीति भावः । इदमेवातिदिशत्यन्यत्रापि एवमिति । पारिहारिक इति तपोविशेषयुक्तः परिहारविशुद्धिक इति यावत् । परिहारविशुद्धिकलब्धेः स्त्रियोऽभावान्न 5 स्त्रीवेदकः । पुंनपुंसक वेदो वेति । पुरुष एव सन् यो वर्द्धितकत्वादिभावान्नपुंसक वेदको, न तु जन्मनपुंसक वेदक इत्यर्थः । अस्योपशमक्षपक श्रेण्योरभावेनावेदको नेति भावः । सूक्ष्मसम्पराय इति । उपशमक्षपकश्रेणिद्वय एवैतयोर्भावेनावेदकावेवेति भावः । एवञ्चोपशान्तवेदक वा क्षीणवेदको वैतौ स्यातामिति तात्पर्यम् ॥ 10 रागद्वारमाह- रागद्वारे - सामायिकादिचत्वारस्संयतास्सरागा एव । यथाख्यातसंयतस्त्वराग एवेति ॥ 15 रागद्वार इति । सामायिकादीति । सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायसंयतास्सरागा एव सकषाया एवेत्यर्थः । अराग एवेति, अकषाय एवेत्यर्थः, उपशान्तकषायवीतरागः क्षीणकषायवीतरागश्चेति भावः ॥ कल्पद्वारमाह कल्पद्वारे - सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्याताः स्थितकल्पेऽस्थितकपेच, छेदोपस्थापनीयस्स्थितकल्प एव भवेत् । परिहारविशुद्धिकोऽपीश एवं । अस्थितकल्पो मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु विदेहे चेति ॥ अथवा सामायिको जिनकल्पस्थविरकल्पकल्पातीतेषु भवेत् छेदोपस्थापनीयपरि20 हारविशुद्धिकौ न कल्पातीते । सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातौ तु कल्पातीत एव स्याताम् ॥ कल्पद्वार इति । दशविध साधुसमाचारः कल्पः, स च सततं प्रथमचरमजिनसाधुभिरवश्यमासेव्यते, अतस्सततासेव्यमानस्स कल्पः स्थितकल्पः । साधुसमाचारेषु दशस्वाद्यत्वारो नियतं मध्यमजिन साधुभिरासेव्यन्ते नेतरे, इत्यस्थितकल्पा उच्यन्ते । 25 सामायिक इति एषां चतुर्विंशतितीर्थकर तीर्थेषु सत्त्वेनैते स्थितकल्पेऽस्थितकल्पे च १. कालस्वभावात्साधवस्त्रिविधपरिणामिनः, तत्राद्यसाधव ऋजुजडा अन्त्यसाधवो वक्रजडा मध्यमास्तु ऋजुप्राज्ञाः, तत्र ऋजुजडा यावन्मात्रं परिस्फुटेन वचसा वार्यते तावन्मात्रमेवैते वर्जयन्ति न सामर्थ्यलब्धमिति Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलते भवन्तीति भावः । छेदोपस्थापनीय इति । छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकयोस्तु महाविदेहे मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु चासत्त्वेनास्थितकल्पस्य चात्रैव भावात् स्थितकल्प एव तौ भवत इति भावः । ईदृश एव स्थिवकल्पवृत्तिरेवेत्यर्थः ॥ कल्पस्य जिनकल्पस्थविरकल्परूपेण द्वैवि. ध्यात्तमप्याश्रित्याह-अथवेति । कल्पातीतः, जिनकल्पस्थविरकल्पाभ्यामन्य इत्यर्थः, छेदोपस्थापनीयेति । स्यातामिति परेणान्वयः। कल्पातीत एवेति । न जिनकल्पे न वा खवि-5 रकल्पे स्यातां, जिनकल्पस्थविरकल्पधर्माणामभावादिति भावः॥ __चारित्रद्वारमाह चारित्रद्वारे-सामायिकः पुलाको बकुशः कषायकुशीलो वा स्यात् । एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि । परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायौ कषायकुशी. लावेव । यथाख्यातस्तु निर्ग्रन्थः स्नातको वेति ॥ __चारित्रद्वार इति । सामायिक इति, पुलाकवकुशकुशीलनिम्रन्थस्नातकरूपेण पञ्चनिग्रन्थभेदा अग्रे वक्ष्यन्ते । तानाश्रित्येयं विचारणा बोध्या, पुलाकादिपरिणामस्य चारित्रत्वात् । सामायिकच्छेदोपस्थापनीयौ प्रतिसेवनाकुशीलावपि स्यातां, न तु कषायकुसीलाविति केचित् । कषायकुशीलावेवेति । न तु पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकरूपाविति भावः । यथाख्यातस्त्विति । उपशान्तक्षीणमोहो निम्रन्थः सयोगायोगकेवली 15 च स्नातक इति भावः ॥ प्रतिसेवनाद्वारमाश्रित्याह प्रतिसेवनाद्वारे-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयौ मूलोत्तरगुणालिसेव. कावप्रतिसेवकौ च भवतः। परिहारविशुद्धिको प्रतिसेवकः । एवं सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातावपि विज्ञेयाविति ।। 20 प्रतिसेवनाद्वार इति । अत्र परिनिवीत्युपसर्गपूर्वकादेव वृधातोः पिवुधातोर्वा षत्वविधानेन प्रतिपूर्वकस्य षत्वाप्राप्तेः प्रतिसेव्यत इति प्रतिसेवनेत्येव व्युत्पत्तिः, इदमेव द्वारं तेषां दशधा समाचार आज्ञप्तः, अंत्यसाधवश्च वक्रत्वेन किमप्यकृत्यं प्रतिसेव्यापि न कथयन्ति नालोचयन्ति चेति एषामपि दशधा समाचार आज्ञप्तः, तथाविधसामग्रीसमवधान एवैते तथा प्रवर्तन्ते न स्वतः, तथा चरणं न प्रन्ति, मध्यमास्तु रहस्यपि यत्प्रतिसेवितं तदवभ्यमालोचयन्ति. तजातीयानांच्चाभ्यूह्य वर्जयन्ति, अतस्तेषां चतुर्ष नियमः कृत इतिः ॥ .. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १८८ : तत्त्वन्यायधिभाकरे [ सप्तमकिरणे विराधनाद्वारमित्यप्युच्यते । मूलोत्तरगुणप्रतिसेवकाविति । इमौ प्रतिसेवकावप्रतिसेवको च, यदि प्रतिसेवको तदा मूलगुणानां प्राणातिपातविरमणादीनामनाश्रवाणामन्यतमं प्रतिसेवेताम् । संज्वलनकषायोदयात्संयमप्रतिकूलार्थस्य कस्यचित्सेवना प्रतिसेवना। तथोत्तर. गुणानां दशविधप्रत्याख्यानानामन्यतमं प्रतिसेवेतामिति भावः । उपलक्षणश्चैतत् तेन पिण्ड5 विशुद्धयादीनां विराधकत्वमपि सम्भाव्यते ॥ ज्ञानद्वारमाचष्टे ज्ञानद्वारे-सामायिकादिचतुर्णा द्वे वा त्रीणि वा चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्ति । यथाख्यातस्यैकादशद्वादशगुणस्थानयोश्चत्वारि ज्ञानानि, ऊर्ध्वगुणस्थानयोः केवलज्ञानं भवतीति ॥ 10 ज्ञानद्वार इति । द्वे वेति । आभिनिबोधिकज्ञानश्रुतज्ञाने इत्यर्थः । त्रीणि वेति । आभि. निबोधिकश्रुतावधिज्ञानानि, आभिनिबोधिकश्रुतमनःपर्यवज्ञानानि वेत्यर्थः । चत्वारि वेति, आमिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानानीत्यर्थः । चत्वारि ज्ञानानीत्युत्कर्षेणेति शेषः, तथा च छद्मस्थवीतरागयथाख्यातचारित्रिणो द्वे वा त्रीणि वा चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्तीति भावः । ऊर्ध्वगुणस्थानयोरिति, सयोग्ययोगिगुणस्थानयोरित्यर्थः॥ 15 अथ ज्ञानप्रसङ्गेन मध्य एव ज्ञानविशेषभूतस्य श्रुतस्य प्रकारं विभावयति श्रुतद्वारे-सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोजघन्यतोऽष्टौ प्रवचनमातर उत्कर्षतस्तु यावचतुर्दशपूर्व श्रुतम् । परिहारविशुद्धस्य जघन्यतो नवमपूर्वस्याचारवस्तु । उत्कृष्टतस्त्वपूर्णदशपूर्व यावत् । सूक्ष्मसम्परायिकस्य तु सामायिकस्येव । यथाख्यातस्य निर्ग्रन्थस्य सामायिकस्येव । स्नातकस्य 20 श्रुतं नास्तीति ॥ .. श्रुतद्वार इति । तथा च ज्ञानद्वार एव श्रुतद्वारस्यान्तर्गततया नाधिकद्वारशङ्का कार्यो । आचारवस्त्विति । नवमस्य पूर्वस्य तृतीयाऽऽचारवस्तुनामाधिकारविशेष इति भावः । अपूर्णदशपूर्वमिति । देशोनदशपूर्वमित्यर्थः । सामायिकस्येवेति । जघन्यतोऽष्टौ प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु यावञ्चतुर्दशपूर्वमित्यर्थः, श्रुतं नास्तीति, केवलज्ञानित्वादिति भावः ।। १. परिहारविशुद्धिकोऽपूर्वमागमं नाधीते, यतस्तत्कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाऽऽराधनात एव कृत-.. कृत्यतां भजते, पूर्वाधीतन्तु विस्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाग्रमनास्सम्यक् प्रायोऽनुस्मरतीति ॥ . . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलते तीर्थद्वारमाह तीर्थद्वारे-तीर्थेऽप्यतीर्थेऽपि सामायिको भवेत् । अतीर्थे तु तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धश्च स्यात् । छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिको तीर्थ एव । सूक्ष्मसंपराययथाख्यातो सामायिक इवेति ॥ तीर्थद्वार इति । स्पष्टम् ॥ लिङ्गद्वारमाहलिङ्गद्वारे-सामायिकच्छेदोपस्थापनीय सूक्ष्मसंपराययथाख्याता द्रव्यतस्स्वलिङ्गे ऽन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गेऽपि। भावतस्तु स्वलिङ्ग एव भवेयुः। परिहारविशुद्धिकस्तु द्रव्यतो भावतश्च स्वलिङ्ग एवेति । लिङ्गद्वार इति । लिङ्ग द्विधा, द्रव्यभावभेदात् , भावलिङ्ग ज्ञानादि, द्रव्यलिङ्गं तु द्विधा 10 स्वपरलिङ्गभेदात् , स्वलिङ्गं रजोहरणादिकं, परलिङ्गं द्विविधं कुतीर्थिकलिङ्गं गृहस्थलिङ्गवेति । स्पष्टमन्यत् ॥ .. शरीरद्वारमाह शरीरद्वारे सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोरौदारिकतैजसकार्मणानि, औदारिकतैजसकार्मणवैक्रियाणि, औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्म- 15 णानि वा शरीराणि भवन्ति । शेषाणान्त्वौदारिकतैजसकार्मणामीति ॥ - शरीरद्वार इति । कार्मणवैक्रियाणीति । पूर्वापेक्षयाऽत्र वैक्रियस्यैवाधिक्यप्रदर्शनाय क्रमोल्लंघनम् । शेषाणामिति, परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातानामित्यर्थः । त्रीण्येव शरीराणि भवन्तीति भावः॥ क्षेत्रद्वारमाह 20 क्षेत्रद्वारे-जन्मसद्भावावाश्रित्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसूक्ष्मसम्पराययथाख्याताः कर्मभूम्यां संहरणापेक्षया त्वकर्मभूमौ भवेयुः । परिहारविशुद्धिकस्तु कर्मभूमावेव भवेत् । नास्य संहरणं भवेदिति ॥ ... १. नियमेनोभयत्र वर्त्तते, एकेनापि विना विवक्षितकल्पो चितसामाचार्ययोगादिति भावः ॥ . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविमाकरे [ सप्तमकिरणे क्षेत्रद्वार इति । जन्मसद्भावाविति । जन्म-उत्पत्तिः, सद्भावो विवक्षितक्षेत्रादन्यत्र तत्र वा जातस्य तत्र चरणभावेनास्तित्वम् | कर्मभूम्यामिति । अकर्मभूमौ जन्मतो न भवन्ति, तत्र जातानां चारित्राभावात् , अत्रैवैते चत्वारः स्वयं विहरन्ति, परकृतविहारापेक्षया तु कर्म भूमावकर्मभूमौ वेत्यपि बोध्यम् , पञ्चभरतपञ्चमहाविदेहपञ्चैरावतानि कर्मभूमयः । हैमवत5 हरिवर्षदेवकुरुत्तरकुरुरम्यकैरण्यवतानि पञ्चभिर्गुणितानि षडकर्मभूमय इति । संहरणापे क्षयेति, संहरणं नाम क्षेत्रान्तरारक्षेत्रान्तरे देवादिभिर्नयनम् । अकर्मभूमाविति, कर्मभूमावपीति बोध्यम् । कर्मभूमावेवेति, तत्रैव जायते विहरति चेति भावः । नास्येति, एतल्लब्धिमतो देवादिभिस्संह मशक्यत्वादिति भावः ॥ कालद्वारमाह10 कालद्वारे-सामायिक उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां मोउत्सर्पिण्यवस पिण्यामपि काले स्यात् । तत्र यद्युत्सर्पिण्यां स्यात्तदा जन्मतो दुष्षमानुष्षमसुषमासुषमदुष्षमारूप अरकत्रये, सद्भावतस्तृतीयतुर्ययोः, संहरणतो यत्र कापि स्यात् । यद्यवसर्पिण्यां तदा जन्ममदावाभ्यां तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु पूर्वक्रमविपरीतेष्वरकेषु, संहरणतस्सर्वेषु स्यात् । 1। यदि नोउत्सर्पिण्यवसर्पिण्यां तदा महाविदेहे दुष्षमसुषमासहशारके स्यात्। एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि, परन्तु जन्मसद्भावापेक्षया नोउत्सर्पिण्य. वसर्पिण्यां न स्यात् ।। कालद्वार इति । उत्सर्पिण्यवसर्पिणी नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणी चेति त्रिविधः कालः । तत्राद्यौ द्वौ कालौ भरतैरावतक्षेत्रयोः, तृतीयो महाविदेहहैमवतादिषु भवति । जन्मतो 20 दुःषमेति, द्वितीयतृतीयचतुर्थरूप इत्यर्थः । तत्र द्वितीयस्यान्ते जायते तृतीये चरणं प्रतिपद्यते, तृतीयचतुर्थयोस्तु जायते चरणं प्रतिपद्यते चेति बोध्यम् । सद्भावमाश्रित्य तु तस्य तृतीयचतुर्थयोरेव सत्तेत्याह सद्भावत इति । तयोरेव चरणप्रतिपत्तेरिति भावः । यत्र कापीति, षट्स्वपीति भावः । पूर्वक्रमविपरीतेष्विति, सुषमदुष्षमा. दुष्षमसुषमादुष्षमारूपेष्वित्यर्थः । संहरणतस्त्विति, देवादिकृतसंहरणावच्छेदेनेत्यर्थः । 25 सर्वेष्विति, अरकेष्विति शेषः, यस्य कस्यचिदरकस्य सदृशः कालो यत्र तत्रापीत्यर्थः । सुषमसुषमायाः सदृशः कालो देवकुरुत्तरकुरुषु, सुषमासमकालो हरिवर्षरम्यकेषु, सुषमदुष्षमासमानकालो हैमवतैरण्यवतेषु, दुष्षमसुषमातुल्यकालो महाविदेहेषु, दुष्षमादुष्षमदुष्षमासनिभः कालो न कापि क्षेत्र इति बोध्यम् । छेदोपस्थापनीयस्य प्रायः सामा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृतै : ९९१ : fregards तत्र यो विशेषस्तमाहैवमित्यादिना प्राय इति शेषः । छेदोपस्थापनीयः प्राय एवमेव सामायिकवदेवेत्यर्थः । प्रायश्शब्दसूचितं विशेषमाह परन्त्विति । छेदोपस्थापनीयस्य चतुर्विधारकतुल्यारकवत्सु क्षेत्रेषु नो जन्म न वा सद्भावः, संहरणतस्तु स्यात्सद्भाव इति भावः ॥ परिहारविशुद्धिसंयतं मधिकृत्याह परिहारविशुद्धिसंयत उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः काले स्यान्न तु नोउत्स- 5 पिण्यवसर्पिणीकाले । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्यथायोगं द्वितीयतृतीयचतु पञ्चमारकेषु ॥ परिहारविशुद्धिसंयत इति । परिहारविशुद्ध्या संयम इत्यर्थः । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः काल इति । उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसंज्ञके काल इत्यर्थः, उत्सर्पिणीनामके कालेऽवसर्पिणी नाम काले चेति भावार्थ: । यथायोगमिति । उत्सर्पिण्यां जन्मतो दुष्षमादुष्षमसुषमा- 10 सुषमदुष्षमारूपेषु, सद्भावतस्तु दुष्षमसुषमासुषम दुष्षमारूपयोरव सर्पिण्यां जन्म तस्सुषमदुष्षमादुष्षमसुषमारूपयोस्सद्भाव तस्सुषमदुः षमादुष्षम सुषमादुष्षमारूपेष्वर केष्विति भावः ॥ अथ सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातावाश्रित्याह— सूक्ष्मसम्परायो जन्मसद्भावाभ्यां कालत्रये, अरकमाश्रित्य तु यथायोगं सामायिकवत्स्यात् । यथाख्यातोऽप्येवम्, संहरणतस्तु सर्वेष्वर केषु ।। 15 कालत्रय इति । उत्सर्पिण्यव सर्पिणीनो उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे कालत्रय इत्यर्थः अरकेषु कथमित्यत्राहारकमाश्रित्येति । यथायोगं सामायिकवदिति । सामायिको हि उत्सर्पिण्यां जन्मतो द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु भवति, अयमपि तथैव, सामायिकस्तद्भावापेक्षया तृतीयचतुर्थयोः । अयन्तु सद्भावतो द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु, द्वितीयस्यान्ते जायते तृतीये तु चरणं प्रतिपद्यते, तृतीयचतुर्थयोस्तु जायते चरणं प्रतिपद्यते च चरणभावेन सद्भावविवक्षणे तृतीयचतुर्थयोरेवायमपि । अवसर्पिण्यां सामायिको जन्मसद्भावाभ्यां तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु, अयं तु जन्मतस्तृतीयचतुर्थयोः, सद्भावापेक्षया तृतीयचतुर्थ पञ्चमेध्विति यथायोगशब्दार्थ इति भावः । इदमेव यथाख्यातेऽप्यतिदिशति यथाख्यातोऽपीति, उभयोस्संहरणं स्यान्नवेत्याशंकायामाह संहरणतस्त्विति । ननु सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातयोरपगतवेदत्वात् कथं संहरणं, क्षीणवेदानां संहरणस्य शास्त्रे निषिद्धत्वादिति सत्यम्, सामायिकादिषु पूर्वं संहृतो यदा 25 सूक्ष्मसंपरायो यथाख्यातो वा भवति तदा भूतसंहरणमाश्रित्यैवमुक्तस्त्रेनादोषादिति ध्येयम् ॥ 20 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्याय विभाकर [ ससमकिरणे का इमा उत्सर्पिण्यादय इत्यत्राह रूपरसाद्युत्कर्षप्रयोजकः काल उत्सर्पिणी । रूपरसादिहानिप्रयोजकः कालोऽवसर्पिणी । तत्रावसर्पिण्यां सुषमसुषमासुषमासुषमदुष्षमा दुष्षमसुषमादुष्षमादुष्षमदुष्षमारूपाषडरका भवन्ति । उत्सर्पिण्यां 5 व्युत्क्रमतष्षडरकास्त एव ॥ रूपेति । उत्सर्पति वर्धत अरकापेक्षया, उत्सर्पयति वा भावानित्युत्सर्पिणीति विप्रहः । रूपरसादीनामुत्कर्षः क्षेत्रे भवति स च कालहेतुकस्तस्माद्रूपरसाद्युत्कर्षप्रयोजकीभूतो यः कालस्सोत्सर्पिणीत्युच्यत इति भावः । आदिना जीवगतानामनुभवायुःप्रमाणशरीरा दीनां ग्रहणम् । सूक्ष्माद्धासागरोपमाणां दशभिः कोटीकोटीभिर्निष्पन्नोऽयमुत्सर्पिणीकाल10 विशेषः । अवसर्पिणीस्वरूपमाह रूपरसेति । अवसर्पति हीयत अरकापेक्षया, अवसर्प यति भावान रूपादीनित्यवसर्पिणीति विग्रहो लक्षणं स्पष्टम् । अयमपि कालविशेष उत्सर्पिणी परिमाण एष । यत्र तु भावा रूपादिस्वरूपा न हीयन्ते न वा वर्द्धन्ते तादृशः काल. विशेषो नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीत्युच्यते । मूले तु सुस्पष्टत्वान्न पृथग्लक्षिता । अथावस र्पिणीं विभजते तत्रेति । सुषमसुषमाया अतिशोभनत्वेन तस्या एव प्रथमं निर्दिदिक्षया 15 क्रममुल्लंघ्यावसर्पिण्वेवादौ विभक्ता । सुषमसुषमेति । शोभनास्समा वर्षा यत्रेति सुषमा, अत्यन्तस्रुषमत्वाद्वीप्सया सुषमसुषमेति । सर्वथा दुष्षमानुभावरहित एकान्तसुषमारूपो सागरोपमचतुष्कोटीकोटिरूपोऽयं कालः । सुषमेति । सागरोपमाणां कोटीकोटित्रयात्मिका सुषमसुषमापेक्षया हानिमती बोध्या । सुषमदुष्षमेति । दुष्टास्समा यत्र सा दुष्षमा, सुषमा चासौ दुष्षमा चेति विग्रहः । सुषमानुभावबहुलाऽल्पदुष्षमानुभावा सागरोपमाणां कोटी20 कोटिद्वयप्रमाणाऽवसेया । दुष्षमसुषमेति, दुष्षमा चासौ सुषमा चेति कर्मधारयः, दुष्ष मानुभावबहुलाऽल्पसुषमानुभावा द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणा भवति । दुष्षमेति । इयमेकविंशतिवर्षसहस्रमाना दुष्षमानुभावा । दुष्षमदुष्षमेति । अस्या अपि मानमेकविंशतिवर्षसहस्राणि, सर्वथा सुषमानुभावरहिताऽतिदुष्षमानुभावा चेति षड्भागा अवसर्पिण्या द्रष्टव्याः। अत्र सुषमसुषमायां मनुष्याणां गव्यूतत्रितयं शरीरोच्छ्रायस्त्रीणि 25 च पल्योपमान्यायुः शुभपरिणामोऽपि कल्पवृक्षादिरनेकश्व, तत एषां परतो भागेष्वनन्तगुणा १. अत्र कालस्वरूपतो नित्य इति न तस्य हानिरुपपद्यतेऽन्यथाऽहोरात्रं सर्वदा त्रिंशन्मुहर्तात्मकमेव न स्यात्, किन्तु अनन्तगुणपरिहाणिभिर्वर्णगन्धरसस्पर्शादिभिहीयमानोऽनन्तगुणवृद्धिभिस्तैर्वर्धमानः कालोहीयमानकालो वर्धमानकालश्चेत्युच्यत इति द्रव्यतो नित्यत्वं पर्यायतोऽनित्यत्वमित्याशयेन रूपरसाधुस्कत्यादि रूपेण लक्षणं प्रणीतमिति ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि.] न्यायप्रकाशसमलते : १९१: परिहाणिः, सुषमायां गव्यूतद्वयं समुच्छ्रायः पल्योपमद्वयमायुः कल्पवृक्षादिश्च । सुषमदुष्षमायामेकगव्यूतसमुच्छ्राय एकपल्योपमायुः कल्पवृक्षादिः । दुष्षमसुषमायां पूर्वकोट्यायुः पंचशतधनुस्समुच्छ्रायः दुष्षमायां दुःषमदुष्षमायाश्चानियतं शरीरोच्छ्रायादिः, तथाप्येवं भण्यते दुष्षमायान्तु प्रारम्भे वर्षशतमायुः सप्तहस्तसमुच्छ्रायः, दुःषमदुष्षमायां पर्यन्ते तु हस्तप्रमाणं वपुः षोडशवर्षाणि परमायुर्निरवशेषौषधिपरिहाणिश्चेति बोध्यम् । उत्सर्पिण्यामपि त एव 5 भागास्तावन्मानास्तत्स्वरूपाः पूर्वोदितक्रमविपरीतक्रमा भवन्तीत्यभिप्रायत आहोत्सर्पिण्यामिति । एवञ्च विंशतिसूक्ष्माद्धासागरोपमकोटीकोटीप्रमाणद्वादशारकरूपमवसर्पिण्युत्सर्पिण्योः कालचक्रं पञ्चसु भरतेषु · पञ्चस्वैरवतेषु चानाद्यनन्तं परिवर्तते । कुरुषु तु सुषमसुषमातुल्यः कालः, हरिरम्यकेषु सुषमातुल्यः, हैमवतैरण्यवतेषु सुषमदुष्षमानिभः, षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपसहितपश्चविदेहक्षेत्रेषु दुष्षमसुषमासदृश इति दिक् ॥ ... 10 सम्प्रति गतिद्वारमाह गतिद्वारे-सामायिकछेदोपस्थापनीयौ मृत्वा देवगतिं यायाताम् । तत्रापि वैमानिक एव । तत्रापि जघन्यतः प्रथमदेवलोकमुत्कृष्टतस्त्वनुत्तरविमानं यावत् । विराधकश्चेद्यः कोऽपि भवनपतिः स्यात् । परिहारविशुद्धिको वैमानिक एव स्यात् । तत्रापि जघन्यतस्सौधर्मकल्प उत्कृष्ट- 15 तस्सहस्रारकल्पे स्यात् । सूक्ष्मसम्परायोऽनुत्तरविमाने स्यात् । यथाख्यातसंयतो देवगतौ स्याचेत्तदाऽनुत्तरविमान एव स्यादथवा सिद्धिगति यायादिति ॥ गतिद्वार इति । तत्रापीति देवगतावपीत्यर्थः, वैमानिक एवेत्यत्रैवशब्देन भवनवासि वानमन्तरज्योतिष्केषत्पादो व्युदस्यते । तत्रापीति, वैमानिकेष्वपीत्यर्थः । प्रथमदेवलोक- 20 मिति सौधर्मदेवलोकमित्यर्थः । एतत्सर्व संयमाविराधनया बोध्यम् । देवलोके स्थितिस्तु १. ननूच्चत्वं शरीरस्य स्वावगाढमूलक्षेत्रादुपरितननभःप्रदेशावगाहित्वं, तत्पर्यवा असंख्याता एवेति कथमनंतभागपरिहाणिः, एवमायुषः पर्यवा एकसमयोनादिरूपा असंख्याता एव, आयुःस्थितेरसंख्यातसमयात्मकत्वात्कथमनन्तरायुःपर्यवैर्हानिः, उच्यते, प्रथमारके प्रथमसमयोत्पन्नमुत्कृष्टं शरीरोच्चत्वं भवति, ततो द्वितीयादिसमयोपनानां यावतामेकनभःप्रतरावगाहिलक्षणपर्यवाणां हानिस्तावत्पुद्गलानन्तकं हीयमानं द्रष्टव्यमाधारहानावाधेयहानेरावश्यकत्वात् , तेनोच्चपर्यवाणामध्यनन्तत्वं सिद्धं, नभःप्रतरावगाहस्य पुद्गलोपचयसाध्यत्वात् , एवं प्रतिसमयं हीयमानस्थितिस्थानकारणीभूतान्यनन्तान्यायुःकर्मदलिकानि परिहीयन्ते, ततः कारणहानौ कार्यहानेरावश्यकत्वात्तानि च भवस्थितिकारणत्वांदायुःपर्यवा एव, अतस्तेऽनन्ता इति ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्येन द्वे पल्योपमे, उत्कर्षेण तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति । तद्विराधकथेवनपतीनामन्यतमेषु देवेपूत्पत्तिः, विराधितसंयमस्य भवनपत्यायुत्पादस्य शास्त्रानुमतत्वावित्याशयेनाह विराधकादिति । संयमाविराधकत्वे त्वाह परिहारविशुद्धिक इति, सष्टमन्यत् । संयमविराधकद्भवनपत्यन्यतमेषूत्पद्यते, देवलोके स्थितिरपि जघन्येन द्वे पस्योपमे, उत्क5 घेणाष्टादशसागरोपमाणीति । अनुत्तरविमान इति, अजघन्योत्कृष्टत इति भावः । अयमविराधनां प्रतीत्याहमिन्द्रतयोत्पद्यते, विराधनां प्रतीत्य तु यः कोऽपि भवनपतिः स्यादिति बोध्यम् । अनुत्तरविमान एवेति, अजघन्योत्कृष्टत इति भावः उभयोरपि संयतयोर्देवलोके स्थितिरजघन्योत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीत्यपि बोध्यम् । यदा तु न देवगतो तदात्वाहायवेति ॥ के देवलोकाः के वा भवनपतय इति प्रसङ्गेनोदितायामाशंकायां अमे वक्ष्यमाणानपि संक्षेपतोऽत्र वक्ति तत्र सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलान्तकमहाशुक्रसहस्त्राराऽऽनतप्राणताऽऽरणाऽच्युतभेदेन द्वादशविधा देवलोकाः कल्पोपपन्नदेवा नाम् । तदुपरि सुदर्शनसुप्रतिबद्धमनोरमसर्वभद्रविशालसुमनससौमन15 सप्रीतिकरादित्यभेदेन नव ग्रैवेयकाः । तदुपरि विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धभेदेन पश्चानुतराः। उभये कल्पातीतानाम् ॥ तत्रेति । देवा हि सामान्येन विमानवासिज्योतिष्कव्यन्तरभवनपतिभेदेन चतुर्विधाः । विमानवासिनोऽपि कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति द्विविधाः । एवंविधानां देवानां निवास योग्यस्थानं देवलोक इत्याशयेन तत्स्थानान्याह-सौधर्मेत्यादिना । ज्योतिष्कोपरितनप्रस्ता20 रादसंख्येययोजनाध्वानमारुह्य मेरूपलक्षितदक्षिणभागार्धे प्राग्व्यवस्थितः प्राचीप्रतीच्यायत उदग्दक्षिणविस्तीर्णोऽर्धचन्द्राकृतिर्भास्वरः परिक्षेपत आयामविष्कम्भाभ्याञ्चासंख्येययोजनकोटीकोटयो लोकान्तविस्तारस्सर्वरत्नमयोऽशोकसप्तपर्णचम्पकचूतसौधर्मावतंसकोपशोभितशक्रावासस्सौधर्मः कल्पः । तस्योपरि चोदग्व्यवस्थित ईषदुपरितनकोट्या समुच्छ्रिततरो मध्यव्यवस्थिताकस्फटिकरजतजातरूपेशानावतंसकविभूषित ऐशानकल्पः। सौधर्मस्योपरि 25 बहूनि योजनान्यतिक्रम्य सौधर्मकल्पवत्सनत्कुमारः। अस्योपरि माहेन्द्रः कल्प ऐशानकल्पवत् । सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोरुपरि बहूनि योजनान्यतीत्य मध्यवर्ती सकलनिशाकराकृतिब्रह्मकरूपः। एवमुपर्युपरि लान्तकमहाशुक्रसहस्रारास्त्रयः कल्पाः, तदुपरि बहूनि योजनान्यतिक्रम्य सौधर्मशानकल्पद्वयवदानतप्राणतनामानौ द्वौ कल्पो, तदुपरि समश्रेणिव्यवस्थितौ सनत्कुमार Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि] न्यायप्रकाशसमलते माहेन्द्रवदारणाच्युताविति द्वादश देवलोकाः ॥ तत्र कीदृशानां देवानां निवास इत्यबाई-कस्पोपपनदेवानामिति । दीठयन्तीति देवाः, प्राग्भवोपात्तपुण्यप्राग्भारोपनतविशिष्टभोगसुखाः प्राणिविशेषाः, तत्र कल्पा इन्द्रादिदशतया कल्पनात् कल्पाः, कल्पाः आचाराः ते चानेन्द्रसौमानिकत्रायविंशदादिव्यवस्थारूपाः, तान् प्रतिपन्नाः कल्पोपपन्नाः, ते च ते देवाश्च कल्पोपपन्नदेवा वैमानिकविशेषास्तेषामेते लोका इत्यर्थः । तदुपरीति द्वादश- 5 देवलोकोपरीत्यर्थः, नव प्रैवेयका इति । लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशे भवा प्रैवेयकास्ते नव यथागमं व्यवस्थितास्सुदर्शनादिशब्दवाच्या नवविधा इत्यर्थः । तदुपरीति अवेयकोपरीत्यर्थः । अभ्युदयविघ्नहेतूनां जयात्, कर्मणां विजितप्रायसयोपस्थितपरमकल्याणत्वाद्वा प्रतनुकर्मपटलावच्छिन्ना विजयवैजयन्तजयन्ताः, अभ्युदयविनहेतुभिर्न पराजिताः क्षुधादिभिर्वा न पराजिता अपराजिताः, सांसारिकसर्वकर्तव्यपरिसमात्याऽनन्त. 10 रजन्मनि सकलकर्मक्षयलक्षणमोक्षस्य भावित्वेन सिद्धप्रायास्सर्वार्थसिद्धा एतेषां विमानविशेषा अप्येतनामका एव । मूले तु विमानविशेषाणां नामान्यभिहितानि । अनुत्तरा इति, न विद्यन्ते उत्तराणि प्रधानानि विमानानि येभ्यस्तेऽनुत्तराः, देवलोका अपि अनुत्तरा उच्यन्त इति भावार्थः । विमानान्येतानि न परस्परमुपर्युपरि भवन्ति परन्तु मध्ये सर्वार्थसिद्धविमानं परितश्चत्वारीति । उभय इति प्रैवेयका अनुत्तराश्वेत्यर्थः । 15 कल्पातीतानामिति, इन्द्रादिदशतया कल्पनाविरहिणामित्यर्थः, तेषां सर्वेषामपि अहमिन्द्रत्वादिति भावः । तथा च षड्विंशतिर्वैमानिका विज्ञेयाः ॥ अथ ज्योतिष्कादिदेवभेदानाह चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाः पञ्च ज्योतिष्काः। पिशाचभूतयक्षराक्षसकिन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वा अष्टविधा व्यन्तराः । असुरनागसुपर्ण- 20 विद्युदमिद्वीपोदधिदिक्पवनस्तनितकुमारभेदेन दशविधा भवनपतयः । चन्द्रेति । नवत्यधिकसप्तशतयोजनानि भूभागादूर्ध्व तारकविमानप्रस्तारः । ततो दशयोजनानामुपरि सूर्यविमानप्रस्तारः । ततोऽशीतियोजनानामूलचन्द्रविमानप्रस्तारः । तदुपरि . १. ये इन्द्रतुल्यतया युतिवैभवादिभ्यश्चरन्ति ते सामानिकाः, ये तु मंत्रिकल्पाः परस्परेण साहाय्यकारिण उदात्ताचारास्संसारभीरवो गृहपतयस्त्रयस्त्रिंशत्परिमाणास्त्रायस्त्रिंशाः, कल्पयोर्दैवाः सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽ. पि सम्यमिथ्यादृष्टयोऽपि, अनुत्तरोपपातिनस्तु सम्यग्दृष्टय एव, विमानाधिपतयस्तु सम्यग्दृष्टय एव, मुलमनोधिताहेतुतीर्थकृदाशातनापरिहारान्यथानुपपत्तेः । सामानिकदेवा न विमानाधिपतयः, देवीनामिव मूलविमानेकदेश एव तदुत्पत्तियोग्यं स्थानम् । जिनजन्मोत्सवादौ तेषां सिंहासनानां शक्रविमाने मण्डितत्वात् । शक्राप्रमहिषीसिंहासनमण्डनवदिति बोध्यम् ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे विंशतियोजनान्यारुह्य नक्षत्रग्रहाणां विमानप्रस्तारः। एतद्विमानवर्तिनोऽपि चन्द्रादय उच्यन्ते। ते च द्विविधा मनुष्यक्षेत्रवर्त्तिनो मानुषोत्तरपर्वतात्परतो यावत्स्वयम्भूरमणसमुद्रं वर्त्तिनः चेति । तत्र प्रथमे मेरोः प्रादक्षिण्येन सर्वदा भ्रमणशीलाः, अपरे च सदावस्थानस्वभावाः, अत एव घण्टावत्स्वस्थानस्था एव तिष्ठन्ति । ज्योतिष्का इति, द्योतयन्ति जगत् प्रकाशयन्तीति 5 ज्योतींषि विमानानि, तेषां लोका ज्योतिष्काः, तेषु भवा अपि ज्योतिष्का इति भावः । अथ तृतीयदेवभेदान्व्यन्तरानाह पिशाचेति । देवत्वावान्तरतत्तन्नामकर्मोदयप्रयुक्ता एते देवभेदा व्यन्तराः, विविधमन्तरं शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वाऽऽश्रयरूपं येषां तें ठयन्तराः, विमत अन्तरं विशेषो मनुष्येभ्यो येषां ते वा व्यन्तराः, 'मनुष्यानपि चक्रवर्तिवासुदेवप्रभृतीन् मृत्यवदुपचरन्ति केचिद्व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तरा 10 इति विग्रहः । चतुर्थदेवभेदानाहासुरेति । कुमारशब्दोऽसुरादिभिः प्रत्येक योज्यः । एते हि देवाः कान्तदर्शनास्सुकुमारा मृदुमधुरललितगतयश्शृङ्गाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवञ्चोद्धतरूपवेषभाषाऽऽभरणप्रहरणावरणपातयानवाहका उल्बणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमारा उच्यन्ते । भवनपत्य इति । भवनानां पतयस्तन्निवासित्वात्स्वामिनो भवनप तयः । नागकुमाराद्यपेक्षया बाहुल्यतो भवननिवासित्वं द्रष्टव्यम् । प्रायो हि ते भवनेषु 1.5 कदाचिदावासेषु वसन्ति । असुरकुमारास्तु प्राचुर्येणावासेषु कदाचिद्भवनेषु । बहिर्वृत्ता न्यन्तस्समचतुरस्राण्यधःकर्णिकासंस्थानानि भवनानि, कायमानस्थानीया महामण्डपा विचित्रमणिरत्नप्रभाभासितसकलदिक्चक्रा आवासा इति, विस्तरस्त्वन्यत्र निभालनीयः॥ अथ संयमद्वारमाचष्टे संयमद्वारे-सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्प20 रायाणां प्रत्येकं संयमस्थानान्यसंख्यातानि । यथाख्यातस्य त्वेकमेव संयमस्थानमिति ॥ .. . . . - संयमद्वार इति । संयमश्चारित्रं तस्य स्थानानि विशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षकृतभेदाः, ते च प्रत्येकं सर्वाकाशप्रदेशाग्रगुणितसर्वाकाशप्रदेशपरिमाणाः पर्यवोपेता भवन्तीति, तेन चारित्र द्वारादस्य नाभेदशङ्का कार्या, संयमस्थानस्यात्र विचार्यमाणत्वात् । असंख्यातानीति, सूक्ष्मसम्प25 रायस्य त्वान्तर्मोहूर्तिकान्यसंख्येयानि संयमस्थानानि क्षयोपशमवैचित्र्याद्भवन्ति, तदद्धाया अन्तर्मुहूर्तमानत्वात् तत्र प्रतिसमयं संयमविशुद्धिविशेषस्य भावादिति विशेषो बोध्यः । एकमेव संयमस्थानमिति । एकस्मिन्नेव समये कषायाणामुपशमेन क्षयेण वा चरणशुद्धेर्निविशेषत्वादिति भावः । अत्र संयमस्थानस्याल्पबहुत्वचिन्तायां संयमस्थानानि सर्वाण्येक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते विंशतिरसद्भावस्थापनया, तत्र यथाख्यातस्य प्रथममजघन्योत्कृष्टमेकं,, ततोऽधस्तनानि चत्वारि तस्मादसंख्येयगुणानि सूक्ष्मसम्परायस्य, ततोऽधस्तनानि चत्वारि विहायाष्टौ पराणि ततोऽसंख्येयगुणानि परिहारविशुद्धिकस्य, त्यक्तानि चत्वारि पूर्वोदितान्यष्टौ ततोऽधस्तनानि चत्वारि चेति षोडशपूर्वेभ्योऽसंख्यातगुणानि सामायिकछेदोपस्थापनीययोः, एतानि च द्वयोरपि तुल्यान्येवेति विज्ञेयम् ।। सन्निकर्षद्वारमभिधत्ते -: सन्निकर्षद्वारे-सामायिकसंयतस्य चारित्रपर्याया अनन्ताः। एवं यथाख्यातपर्यन्तानां सर्वेषां बोध्याः। सामायिकस्सामायिकान्तराद्धीनस्समानोऽधिकोऽपि स्यात् । हीनाधिकत्वे च षट्स्थानपतितत्वं स्यात् । एवं छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकापेक्षयाऽपीत्थमेव भाव्यम् । सूक्ष्म- 10 सम्परायिकयथाख्यातापेक्षया त्वनन्तगुणहीनचारित्रपर्यायवान् स्यात् ॥ सनिकर्षद्वार इति । चारित्रपर्याया इति, सर्वविरतिरूपपरिणामस्य चारित्रस्य पर्याया भेदास्ते च बुद्धिकृता विषयकृता वा बोध्याः । बोध्या इति, चारित्रपर्याया अनन्ता इत्यनुषज्यते । ननु सामायिकादीनां सर्वेषां चारित्रभेदस्यानन्तत्वाविशेषेण साम्यतापत्त्या स्वस्वसजातीयेभ्यस्स्वविजातीयेभ्यो वा हीनाधिकभावोऽस्ति नवेत्याशंकायामाह सामायिक इति । 15 सामायिकान्तरादिति, स्वसजातीयादित्यर्थः । हीन इति, विशुद्धसंयमस्थानसम्बन्धित्वेन विशुद्धतरपर्यायापेक्षयाऽविशुद्धसंयमस्थानसम्बन्धित्वेनाविशुद्धतराः पर्याया हीनाः, तद्योगासंयतोऽपि हीन इति भावः। समान इति, सदृशविशुद्धिकपर्याययोगात्समान इत्यर्थः । अधिकोऽपीति, विशुद्धतरपर्याययोगादधिक इत्यर्थः, षट्स्थानपतितत्वमिति । वस्तूनामनन्तासंख्यातसंख्यातभागः, संख्यातासंख्यातानन्तगुणैश्च वृद्धिर्वा हानि भवति, 20 सर्वविरतिविशुद्धिस्थानादीनां वस्तूनां वृद्धिा हानिर्वा विचिन्त्यमाना षट्स्थानगता प्राप्यते यथा अनन्तभागवृद्धिरसंख्यातभाग वृद्धिः, संख्यातभागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिश्च, एवं हानावपीति । स्वविजातीयसंयतापेक्षयाप्येवमेव हीनाधिकत्वं स्यादित्याहैवमिति । इत्थमेवेति, हीनस्समानोऽधिकोऽपि स्यात् हीनाधिकत्वे च षट्स्थानपतितत्वं स्यादित्यर्थः । विजातीययत्संयतापेक्षया सामायिकस्य विशेषस्तमधिकृत्याह सूक्ष्मेति । अनन्तगुणेति तथाविधविशुद्धिविरहादिति भावः ॥ छेदोपस्थापनीय आद्यत्रयचारित्र्यपेक्षया सामायिकवत्स्यात् । अन्त्य Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११ : [ सप्तमकिरणे द्वयापेक्षयाऽपि तथैव । एवमेव परिहारविशुद्धिकोऽपि । सूक्ष्मसम्पराय आद्यत्रयापेक्षयानन्तगुणाधिक एव । सूक्ष्मसम्परायान्तरापेक्षया तुल्यो - मन्तगुणेन हीनोऽधिकोऽपि स्यात् । यथाख्यातापेक्षयाऽनन्तगुणहीनः । यथाख्यातस्तु विजातीयसंयतापेक्षयाऽनन्तगुणेनाधिक एव, सजातीया5 पेक्षया तु तुल्य एवेति ॥ न्यायविभाकरे आद्यत्रय चारित्र्यपेक्षयेति - सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकरूपसजातीयविजातीयसंयतापेक्षयेत्यर्थः । सामायिकवदिति, हीनाधिकसमत्वानि भवेयुर्हीनाधिकत्वे तु षट्स्थानपतितत्वञ्च भवेदिति भावः । अन्त्यद्वयापेक्षयापि तथैवेति, सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपविजातीयसंयतापेक्षयाऽनन्तगुणहीन चारित्रपर्यायवानित्यर्थः । परिहारविशुद्धि10 कोsपि सामायिकतुल्य एवेत्याह एवमेवेति । अनन्तगुणाधिक एवेति । सामायिकछेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकानां तथाविधविशुद्धपर्यायाभावेनाऽयमनन्तगुणाधिक एव, न हीनों नवा समान इति भावः । सजातीयसंयतान्तरापेक्षया तु हीनाधिकतुल्यतास्स्युरेवेत्याहसूक्ष्मेति । यथाख्यातापेक्षया तु कथमित्यत्राह - यथाख्यातेति । अनन्तगुणहीन इति, अनन्तगुणेन हीन एवेत्यर्थः समत्वे वाऽयमपि यथाख्यात एव स्यादिति भावः । 15 यथाख्यातोऽपि विजातीयचारित्र्यपेक्षयाऽधिक एवान्यथा स्वरूपहान्यापत्तेः सजातीयान्तरापेक्षया तुल्य एव, परस्परं तारतम्याभावादित्याशयेनाह यथाख्यातस्त्विति । अल्पबहुत्वचिन्तायान्तु सामायिकछेदोपस्थापनीययोर्जघन्याश्चारित्रपर्यायाः परस्परं तुल्यास्सर्वेभ्यस्स्तोकाश्च । परिहारविशुद्धिकसंयतस्य जघन्याश्चारित्रपर्याया अनन्तगुणास्तस्यैवोत्कर्षका पर्याया अनन्तगुणाः, सामायिकछेदोपस्थापनीययोश्चैतयोरुत्कर्षका श्चारित्रपर्याया द्वयो20 रपि तुल्याः परिहारतस्त्वनन्तगुणाः, सूक्ष्मसम्परायस्य जघन्यकाचारित्रपर्याया अनन्तगुणास्तस्यैव चोत्कर्षकाचारित्रपर्याया अनन्तगुणाः, यथाख्यात संयतस्याजघन्योत्कृष्टकाचारित्रपर्याया अनन्तगुणा इति ॥ योगद्वारमाह योगद्वारे - आग्रश्वत्वारस्संयता योगत्रयवन्तः । यथाख्यातस्तु 25 सयोगी अयोगी चेति ॥ योगद्वार इति । योगत्रयवन्त इति, मनोवाक्कायरूपयोगत्रयवन्तो न त्वयोगिन इत्यर्थः । सयोगीति, एकादशद्वादशत्रयोदश गुणस्थानान्तर्भावेण योगत्रयवानित्यर्थः । अयोगीति चतुर्दशगुणस्थानान्तर्भावेण योगत्रयाभाववानित्यर्थः || Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 : : उपयोगद्वारमाख्याति-- उपयोगद्वारे-आद्यास्त्रयो यथाख्याताश्च साकारनिराकारोपयोगषन्तः स्युः सूक्ष्मसम्परायस्तु साकारोपयोग्येवेति ॥ उपयोगद्वार इति । उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीव एभिरित्युपयोगा बोधरूपा जीवस्य स्वतत्त्वभूता व्यापाराः, ते च द्विधा-साकारा अनाकाराश्च, तत्राकारः, 5 प्रतिवस्तु प्रतिनियतो ग्रहणपरिणामरूपो विशेषः, सहाकारेण वर्तन्त इति साकाराः, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्राहिण इत्यर्थः । तद्विपरीतास्त्वनाकाराः सामान्यांशप्राहिण इत्यर्थः । आया इति । सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिका यथाख्याताश्च साकारोपयोगवन्तो निराकारोपयोगषन्तश्च । साकारोपयोग्येवेति, नाऽनाकरोपयोगयुक्तस्तस्य तथास्वभावत्वादिति भावः ।। कषायद्वारं वक्ति कषायद्वारे-सामायिकस्सकषाय एव । छेदोपस्थापनीयोऽप्येवम् । परन्तु श्रेणिगतयोस्तु प्रथमं चत्वारः कषायाः, ततः क्रोधादिषु क्रमेण प्रथमादीन् विहाय त्रयो द्वावेको वा स्यात् । परिहारविशुद्धिकस्तु । सकषाय एव श्रेणिप्राप्त्यभावात् । सूक्ष्मसम्परायस्संज्वलनलोभकषाय- 15 वान् यथाख्यातस्त्वकषायीति ॥ __कषायद्वार इति । सकषाय एवेति एवशब्देनाकषायत्वव्यवच्छेदः । तथात्वेऽपि यो विशेषस्तमाह परन्त्विति । श्रेणिगतयोरिति । उपशमश्रेणिं वा क्षपकश्रेणिं वा प्रविष्टयोस्सामायिकछेदोपस्थापनीययोरित्यर्थः । प्रथममिति, श्रेणिप्रतिपत्तिपूर्वमित्यर्थः । चत्वार इति, संज्वलनक्रोधमानमायालोभरूपा इत्यर्थः, तत इति, श्रेणिना संज्वलनक्रोधादिके 20 उपशान्ते क्षीणे वेत्यर्थः । क्रमेणेति, क्रोधं विहाय त्रयः, क्रोधमानौ विहाय द्वौं, क्रोधमानमाया हित्वैको वा स्यादित्यर्थः । सकषाय एवेति । संज्वलनक्रोधमानमायालोभलक्षणचतुःकषायवानेव, न तु तस्य त्रयो द्वावेको वा कषायो भवेदित्यर्थः । किमयमेवमेव भवेदित्यत्राह श्रेणीति, उपशमक्षपकान्यतरश्रेणिप्राप्त्यभावात् , तथास्वभावत्वादिति भावः । यथाख्यातस्त्विति । उपशान्तकषायवान् क्षीणकषायवान्वा स्यादिति भावः ॥ लेण्याद्वारमभिधत्तेश्याद्वारे-सामायिकछेदोपस्थापनीयौ षड्विधलेल्यावन्तौ । 25 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वम्याग्रविभाकरे . [ सप्तमकिरणे परिहारविशुद्धिकः शुभलेश्यात्रयवान् । सूक्ष्मसम्परायश्शुक्लमात्रलेश्यावान् । यथाख्यातस्तु परमशुक्ललेश्यावान्, चतुर्दशगुणस्थाने तु लेश्यारहित इति ॥ लेण्याद्वार इति । कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यप्रयुक्तजीवपरिणामविशेषो लेश्या । योगनिमि5 त्तेयं, तेन सहान्वयव्यतिरेकानुविधानात् । तत्रापि योगघटकद्रव्यरूपा, न तु योगनिमित्तकर्मद्रव्यस्वरूपा, योगनिमित्तकर्मणो घायघात्यन्यतरात्मकत्वात् , तत्र च घातिस्वरूपत्वे यथाख्याते सयोगिनि परमशुक्ललेश्याया असत्त्वप्रसङ्गः, अघातिस्वरूपत्वे तु चतुर्दशगुणस्थानस्थे यथाख्याते लेश्यायाः सत्त्वप्रसङ्गश्च स्यात् । अयोगिनो योगपरिणामाभावे लेश्यापरिणामाभावाद्योगपरिणाम एव लेश्या, योगघटकत्वेन चास्याः कषायाणामुदयोपळूहक10 त्वमनुभागहेतुत्वञ्च, इयं भावलेश्या, द्रव्यलेश्या तु कृष्णादिद्रव्यात्मिका, सा च कृष्णनील कापोततेजःपद्मशुक्लभेदात् षोढा । कृष्णद्रव्यसम्बन्धप्रयुक्ताविशुद्धपरिणामः कृष्णलेश्या, एवं नीलनीललोहितलोहितपीतशुक्लद्रव्यप्रयुक्तत्वं नीलादिलेश्यानां भाव्यम् । कृष्णनीलकापोता अशुभाश्शेषाश्शुभाः । षड्विधलेश्यावन्ताविति, सकषायमेवाश्रित्येदम् । शुभलेश्यावयवानिति, तेजःपद्मशुक्ललेश्यावानिति भावः । भावलेश्यापेक्षया प्रशस्ता एते । परमशुक्ललेश्या15 वानिति, अतिविशुद्धपरिणामत्वात् शुक्लध्यानस्य तृतीयो भेदस्तत्रोपयोगिनी, परमशुक्ललेश्येत्युच्यते, एकादशद्वादशगुणस्थानस्थयोः केवलं शुक्ला । चतुर्दशे तु नास्ति लेश्येत्याह-चतुर्दशेति । योगाभावादिति भावः॥ .. परिणामद्वारमाह- . .. .. .. परिणामद्वारे-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिका वर्द्धमा 20 नहीयमानस्थिरपरिणामवन्तः । सूक्ष्मसम्परायः श्रेण्यां बर्धमानो हीयमा नश्च स्यान्न स्थिरपरिणामवान् । तत्कालस्तु जघन्यतस्समय एक उत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तपरिमाणः। एवमाद्यानां कालो ज्ञेयः। यथाख्यातस्तु न हीयमानपरिणामवान् । वर्धमानपरिणामकालस्तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चा न्तर्मुहूर्तमानमिति । स्थितिस्तु जघन्येनैकस्समयः । उत्कृष्टतस्त्रयोदश25 गुणस्थानस्थस्य किश्चिदूनपूर्वकोटिपर्यन्ता बोध्येति ॥ १. पूर्वप्रतिपन्नस्तु सर्वास्वपि कथञ्चिद्भवति, तत्रापि नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्त्तते, तथा भूतासु वर्तमानो न प्रभूतं कालमवतिष्ठते, किन्तु स्तोकम् , तत्र प्रवृत्तिस्तु कर्मवशादिति ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणि.] न्यायप्रकाशलमलाईते । - परिणामद्वार इति । त्रिविधः परिणामश्शुद्धेर्वर्धमानहीयमानस्थिरभेदात् । शुद्धेरुत्कपप्राप्तिर्वर्धमानपरिणामः, अपकर्षप्राप्तिीयमानपरिणामः, अवस्थानञ्च स्थिरपरिणामः । त्रिविधोऽप्ययं परिणामस्सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकानां भवतीत्याह सामायिकेति । न स्थिरपरिणामवानिति, गुणस्थानकस्वभावादिति भावः । ननु सूक्ष्मसम्परायसंयतस्य वर्धमानहीयमानपरिणामौ कियत्कालं भवत इत्यत्राह तत्कालस्त्विति, वर्धमानो हीयमानश्च काल 5 इत्यर्थः। जघन्यत इति । तावेकसमयवर्तिनावित्यर्थः । प्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणसम्भवादिति भावः । सिंहावलोकनन्यायेन सामायिकादित्रयाणां परिणामकालमाहाऽऽद्यानामिति । काल इति, वर्धमानकालो हीयमानकालोऽवस्थितकालो वेति भावः । तत्र वर्धमानपरिणामकाले बाधिते कषायेणैकसमयमनुभवनाजघन्येनैकस्समयः, वर्धमानपरिणामस्यान्तर्मुहूर्त्तकालावस्थानस्वभावत्वादुत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः। एवमेव हीयमानावस्थितपरिणामौ बोध्यौ। 10 यथाख्यातस्य वर्धमानावस्थितपरिणामावेवेत्याह यथाख्यातस्त्विति । प्रत्येकं कालमानमाह वर्धमानेति । यः केवलज्ञानमुत्पादयिष्यति यश्च शैलेशी प्रतिपन्नस्तस्यैवं बोध्यः, तदुत्तरकालं तद्व्यवच्छेदात् । एकस्समय इति, उपशमाद्धायाः प्रथमसमयानन्तरमेव मरणादिति भावः । किश्चिदूनेति, नववर्षोनेत्यर्थः । पूर्वकोट्यायुषः पुरुषस्य जन्मतो जघन्येन नवसु वर्षेषु गतेषु केवलज्ञानमुत्पद्यते, ततोऽसौ तदूनां पूर्वकोटीमवस्थितपरिणामशैलेशी यावद्विहरति 15 शैलेश्याश्च वर्द्धमानपरिणामः स्यात्, अतो देशोनेत्युक्तमिति भावः । बन्धद्वारमाचष्टे बन्धद्वारे-सामायिकादयस्त्रयोऽष्टौ कर्मप्रकृतीरायुर्वर्जसप्तकर्मप्रकृतीर्वा बध्नन्ति । सूक्ष्मसम्परायो मोहनीयायुर्वषट्कर्मप्रकृतीबंध्नाति । यथाख्यातस्तु एकादशद्वादशत्रयोदशगुणस्थानेषु वेदनीयमेव बध्नाति । चतुर्दशे 20 तु षन्धरहित एवेति ॥ बन्धद्वार इति, अष्टौ कर्मप्रकृतीरिति, आयुबंधकाले परिपूर्णा इति शेषः । आयुर्वजेति, त्रिभागाद्यवशिष्टायुषामेव जीवानामायुर्बन्धकतया विभागद्वयादौ नायुर्बन्धकत्वमिति १. आयुषि बध्यमाने नियमेनाष्टावपि प्रकृतयो बध्यन्ते, मोहनीये तु बध्यमाने अष्टौ, आयुर्वर्जास्सप्त वा, ज्ञानदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायेषु बध्यमानेषु, अष्टौ, सप्त, षद, षट् च मोहनीयायुर्वस्सूिक्ष्मसम्पराये प्राप्यन्ते, वेदनीये तु बध्यमानेऽष्टौ सप्त षडेका च, तत्रैका वेदनीयरूपा उपशान्तादित्रिषु स्थानेषु. तत्राष्टविधबन्धकाः अप्रमत्तान्ताः, सप्तविधबन्धकाः अनिवृत्तिबादरान्ताः षड्विधबंन्धकास्सूक्ष्मसम्परायाः, एते सरागाः मोहनीयोदयादिति बोध्यम् ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: १०२ : 5 स्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे तादृशमाश्रित्यायुर्वर्जेत्युक्तम् । मोहनीयायुर्वर्जेति । अप्रमत्तत्वाद्वादरकषायोदयाभावाच्चेति भावः । वेदनीयमेवेति, बन्धहेतुषु योगानामेव सत्त्वादिति स्पष्टार्थः । बन्धरहित एवेति, बन्धहेतूनां सर्वेषामभावादिति तात्पर्यार्थः ॥ वेदनाद्वारमाह वेदनाद्वारे - सामायिकाद्याश्चत्वारोऽष्टौ कर्मप्रकृतीरनुभवन्ति । यथाख्यातस्तु निर्ग्रन्थावस्थायां मोहवर्जसप्तकर्मप्रकृतीनां वेदको मोहनीयस्योपशान्तत्वात्क्षीणत्वाद्वा । स्नातकावस्थायां घातिकर्मप्रकृतिक्षयाञ्चतसृणां वेदक इति ॥ वेदनाद्वार इति । अष्टाविति, नियेमेनेति शेषः । मोहवर्जेति तत्र हेतुमाह 10 मोहनीयस्येति, उपशमश्रेण्या क्षपकश्रेण्येति भावः ॥ उदीरणाद्वारमाह उदीरणाद्वारे- सामायिक छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिका अष्टौ सप्त षड्वा कर्मप्रकृतीरुदीरयन्ति । सूक्ष्मसम्पराय आयुर्वेदनीयवर्जषट्कर्म - प्रकृतीरायुर्वेदनीय मोहवर्जपश्च कर्मप्रकृतीर्वोदीरयति । यथाख्यातस्तु द्वे वा 15 पञ्च वा कर्मप्रकृतीरुदीरयति चतुर्दशगुणस्थाने त्वनुदीरक इति ॥ उदीरणाद्वार इति । उदद्यावलिकातो बहिर्वर्त्तिनीनां स्थितीनां दलिकं कषायैस्स हितेनासहितेन वा योगसंज्ञकेन वीर्यविशेषेण समाकृष्योदयावलिकायां प्रवेशन मुदीरणा, तस्याः पञ्चस्थानानि, सप्ताष्टौ षट् पञ्च द्वे इति । अष्टाविति, प्रमत्तगुणस्थानं यावत्परिपूर्णा अष्टप्रकृतीरित्यर्थः । सप्तेति, केवलमनुभूयमानभवायुष्कावलिकावशेषे सत्यायुष आवलिका20 प्रविष्टत्वेनोदीरणाया अभावादिति भावः । षङ्केति, अप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरा वेदनीयाकर्मणामुदीरकाः, न तु वेदनीयायुषोः, तदुदीरणायोग्याध्यवसायाभावात् अतिविशुद्धत्वादिति भावः । सूक्ष्मसम्पराय इति, यावन्मोहनीयमावलिका शेषं न भवति तावत् षण्णां, आवलिकाशेषे च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात्पञ्चानामुदीरक इति १. मोहनीयस्योदयेऽष्टानामुदयः, मोहनीयवर्णानां त्रयाणां घातिकर्मणामुदयेऽष्टानां सप्तानां वा तत्राष्टानां सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थानं यावत् सप्तानामुपशान्तमोहे क्षीणमोहे वा, वेदनीयायुर्नामगोत्राणामुदयेऽष्टानां सप्तानां चतसृणां वोदयः, सूक्ष्मसम्परायं यावदष्टानां उपशान्तमोहे क्षीणमोहे वा सप्तानां चतसृणामेतासामेव वेदनीयादीनां सयोगिकेवलिन्ययोगिकेवलिनि चेति ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २०३ : द्वाराणि ] न्यायप्रकाश समलङ्कृ भावः । द्वे वेति, क्षीणमोहे ज्ञानदर्शनावरणान्तरायेष्वावलिकामात्रावशिष्टेषु तेषामुदीरणाया अभावान्नामगोत्रलक्षणे द्वे एव कर्मणी उदीरयतीति भावः । पञ्च वेति, उपशान्तमोहे वेद्यमानस्यैवोदीरणानियमेन मोहनीयस्योदयाभावेनोदीरणाया अभावाद्वेदनीयायुषोश्च पूर्वोक्तकारणेनाभावात् क्षीणमोहे मोहस्य क्षीणत्वाच्च पञ्चानां कर्मणामुदीरक इति भावः । अनुदीरक इति, उदीरणाया योगसव्यपेक्षत्वेन तत्र योगाभावादिति भावः ॥ 2 5 उपसम्पद्धानद्वारमाचष्टे उपसम्पद्धानद्वारे- सामायिकस्सामायिकत्वं त्यजन् छेदोपस्थापनीयत्वं सूक्ष्मसम्परायत्वमसंयतत्वं वा प्राप्नुयात् । छेदोपस्थापनीयत्वं त्यजन् सामायिकत्वं परिहारविशुद्धिकत्वं सूक्ष्मसम्परायत्वमसंयतत्वं वा प्राप्नुयात् । परिहारविशुद्धिकः परिहारविशुद्धिकत्वं त्यजन् पुनर्गच्छाद्या- 10 श्रयणाच्छेदोपस्थापनीयत्वं देवत्वोत्पत्तावसंयतत्वं वा भजेत् । सूक्ष्मसम्परायस्तत्त्वं श्रेणिप्रतिपातेन त्यजन् पूर्वं सामायिकश्चेत्तत्त्वं छेदोपस्थापनीयश्चेत्तत्त्वं श्रेणिसमारोहणतो यथाख्यातत्त्वं वा यायात् । यथाख्यात संयतस्तु तत्त्वं त्यजन् श्रेणिप्रतिपाततो सूक्ष्मसम्परायत्वं असंयमं वा प्रतिपद्यते, उपशान्तमोहत्वे मरणाद्देवोत्पत्तिं स्नातकत्वे तु सिद्धि- 15 गति प्रतिपद्यत इति ॥ उपसम्पद्धानद्वार इति । उपसम्पत् छेदोपस्थापनीयत्वादीनां सामायिकादेः प्राप्तिः, हानं तस्यैव सामायिकत्वादीनां त्यागस्ते अधिकृत्य विचार इत्यर्थः । छेदोपस्थापनीयत्वमिति चतुर्यामधर्मात्पञ्चयामधर्मसंक्रमे पार्श्वनाथशिष्यवत् तथा शिष्यको वा महाव्रतारोपण इति भावः । सूक्ष्मसम्परायत्वमिति, श्रेणिप्रतिपत्तित इति भावः । असंयतत्वमिति भावप्रतिपातादिति भावः । त्यजन्निति, यथाऽऽदिदेवतीर्थ साधुर जितस्वामितीर्थं प्रतिपद्यमानः, अजितस्वामिशासने छेदोपस्थापनीयत्वाभावादिति भावः । परिहारविशुद्धिकत्वमिति परिहारविशुद्धिकसंयमे हि छेदोपस्थापनीयसंयतस्यैव योग्यता, अत एव सामायिकस्य स्वस्वभावपरित्यागे परिहारविशुद्धिकत्वप्राप्तिर्मूले नोक्तेति भावः । सूक्ष्मसम्परायत्वं श्रेण्यारोहणाद्भावप्रतिपाताच्चासंयतत्वं संयतासंयतत्वं वा प्रतिपद्यत इत्याह सूक्ष्मसम्परायत्वमिति, स्पष्टं 55 शिष्टम् । तत्त्वमिति, सूक्ष्मसम्परायत्वमित्यर्थः । श्रेणिप्रतिपातेनेति, अद्धाक्षयेण भवक्षयेण वोपशमश्रेणीतः प्रतिपातेनेत्यर्थः, येन संयमेन सूक्ष्मसम्परायत्वमाप्तः तत्त्वं पतन्नवाप्नोतीत्याशयेनाह पूर्वमिति । श्रेण्यां वर्द्धमानः सूक्ष्मसम्परायो यथाख्यातत्वमेवाप्नोतीत्याह 1 20 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २०४ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे श्रेणिसमारोहणत इति । तत्त्वं त्यजन्निति, यथाख्यातत्वं त्यजन्नित्यर्थः, श्रेणीप्रतिपातत इति उपशमश्रेणीतः प्रतिपातादित्यर्थः । स्पष्टमन्यत् ॥ संज्ञाद्वारमाचष्टे - संज्ञाद्वारे- सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकास्संज्ञोपयुक्ता 5 नोसंज्ञोपयुक्ता भवन्ति, संज्ञोपयुक्ता आहारादिष्वासक्ताः, नोसंज्ञोपयुक्ता आहारादिष्वासक्तिरहिताः । सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातौ लु आहारादिकर्तृत्वेऽपि नोसंज्ञोपयुक्तौ स्यातामिति ॥ संज्ञाद्वार इति । जीवस्संज्ञायतेऽनयेति संज्ञा, वेदनीय मोहोदयाश्रिता ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्राहाराद्यभिलाषादिक्रिया, सा चोपाधिभेदाद्दशविधा, आहारे10 भयपरिग्रहमैथुनक्रोधमानमायालोभौघलोकभेदात् । सामायिक इति, संज्ञोपयुक्ता इति वेदनीयमोहोदयादिनिमित्तसद्भावादिति भावः । नोसंज्ञोपयुक्ता भवनिमित्तोपशमप्रभावादिति भावः । सरागत्वे निरभिष्वङ्गतायास्सर्वथाऽभाव इति नियमाभावादिति तात्पर्यम् । नोसंज्ञो - पयुक्ता इति, ज्ञानप्रधानोपयोगवन्तः, आहाराद्युपभोगेऽपि तत्रानभिष्वक्ताः नीरागत्वादिति भावः । संज्ञोपयुक्तशब्दार्थमाह संज्ञोपयुक्ता इति, नोसंज्ञोपयुक्त शब्दार्थमाह नोसंज्ञोपयुक्ता 15 इति, स्पष्टमवशिष्टम् ॥ आहारकद्वार माह — आहारकद्वारे- सामायिकाश्चत्वार आहारका एव, यथाख्यातस्त्रयोदशगुणस्थानं यावदाहारकश्चतुर्दशगुणस्थाने केवलिसमुद्वाततृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वनाहारक इति ॥ 20 आहारकद्वार इति । औदारिकवैक्रियाहारकपुद्गलादानमाहारस्तं करोतीत्याहारकः । तत्तद्भवयोग्यपुद्गलादानस्यावश्यकत्वात्सामायिकादीनामाहारकत्वमेवेत्यभिप्रायेणाह सामायिका इति, सामायिकत्वादिविशिष्टा इत्यर्थः यथाख्यातस्सयोग्यन्तमाहारक एवेत्याह यथाख्यात इति । अष्टसामयिके समुद्घाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु केवलकार्मणयोगयुतत्वेनाहारग्रहणासम्भवादनाहारकः, अयोगिन शैलेश्यवस्थायां ह्रस्वपञ्चस्व रोच्चारणप्रमाणमात्रमाना25 याच तथेति भावः ॥ १. तत्राहारसंज्ञा वेदनीयोदयात् भयपरिग्रहैमथुन क्रोधमानमायालोभसंज्ञाः मोहोदयात् ओघसंज्ञा ज्ञानावरणीयात्पक्षयोपशमात् लोकः स्वच्छन्दपरिकल्पितविकल्परूपः, लोकसंज्ञा च ज्ञानावरणीय क्षयोपशमात् मोहोदयाच्च भवति ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाश : २०५: भवद्वारमाह भवद्वारे-सामायिको जघन्यतः एकं भवमुत्कृष्टतोऽष्टौ भवान् गृह्णीयात्। एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि । परिहारविशुद्धिको जघन्यत एकमुत्कृष्टतस्त्रीन् । एवं यथाख्यातं यावंदिति ॥ भवद्वार इति । सामायिक उत्कृष्टपरिणामतो यदि क्षपकश्रेणिमारोहेत्तदा तस्मिन्नेव 5 भवे सिद्ध्यतीत्याह जघन्यत इति । यदि तु श्रेणिमनारूढो जघन्येन सामायिकचारित्रं स्पृशेत्तदाऽऽष्टौ भवग्रहणानि तस्य स्युरित्याशयेनाहोत्कृष्टत इति | जघन्यत एकमिति, परिहारविशुद्धिकस्तत्त्वं विहाय छेदोपस्थापनीयत्वमवाप्य विशुद्धिविशेषेण क्षपकश्रेणिमारोहति चेत्तदेदमिति भावः । देवलोकगमनञ्चेद्भवेत्तदा मनुष्यो भूत्वा तेनैव भवेन सिद्ध्यतीत्याशयेनाहोत्कृष्टतस्त्रीनिति । एवमिति यथाख्यातस्तु तद्भाव एव मृत्वाऽनुत्तरदेवत्वविशेष- 10 माप्य पुनर्मनुष्यो भूत्वा यदि सिद्धयेत्तदा भवत्रयं बोध्यम् ।। आकर्षद्वारमभिधत्ते आकर्षद्वारे-सामायिक एकभवमाश्रित्य जघन्यत एकवारं, उत्कृष्टतश्शतपृथक्त्ववारं सामायिकसंयतत्वं प्राप्नोति । छेदोपस्थापनीयो जघन्यत एकवारमुत्कृष्टतो विंशतिपृथक्त्ववारं छेदोपस्थापनीयत्वं प्राप्नु- 15 यात् । परिहारविशुद्धिको जघन्यत एकवारमुत्कृष्टतस्त्रिवारं प्राप्नुयात् । सूक्ष्मसम्परायो जघन्यत एकवारमुत्कृष्टतश्चतुरो वारान् प्रतिपद्यते, यथाख्यातस्तु जघन्यत एकवारमुत्कृष्टतो द्विवारं यथाख्यातत्वं प्राप्नुयादिति ॥ आकर्षद्वार इति । आकर्षणमाकर्षः प्रथमतया मुक्तस्य वा सामायिकत्वादेर्ग्रहणमि- 20 त्यर्थः । स चैकं भवं नानाभवांश्चाश्रित्य विचार्यते तत्रैकभवाश्रयेण सामायिकस्य जघन्यत एक आकर्ष उत्कर्षेण चाकर्षाणां शतपृथक्त्वं भवति परतस्तु प्रतिपातोऽलाभो वेत्याशयेनाह सामायिक इति । पृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवभ्य उच्यते, शतपृथक्त्वमिति, शतद्वयादारभ्य यावनवशतमित्यर्थः । विंशतिपृथक्त्ववारमिति, पञ्चषादिविंशतय आकर्षाणां भवन्तीति भावः । त्रिवारमिति, एकस्मिन् भवे उत्कर्षेण वारत्रयमेव परिहारविशुद्धिकत्वोक्तेरिति भावः। 25 प्राप्नुयादिति परिहारविशुद्धिकत्वमित्यादिः । चतुरो वारानिति, एकभवे उपशमश्रेणिद्वयसम्भवे प्रत्येकं संक्लिश्यमानविशुद्ध्यमानलक्षणसूक्ष्मसम्परायद्वयभावाच्च चत्वार आकर्षास्तस्य Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे : २०६ : [ सप्तमकिरण सम्भवन्तीति भावः । प्रतिपद्यत इति सूक्ष्मसम्परायत्वमित्यादिः । द्विवारमिति, उपशमश्रेणिद्वयसम्भवादिति भावः ॥ अथ नानाभवावच्छेदेन विचारयति - अनेकभवाश्रयेण सामायिकस्य जघन्यतो द्विवारं उत्कृष्टतस्सहस्र5 पृथक्त्वमाकर्षा भवन्ति । छेदोपस्थापनीयस्य जघन्यतो द्विवारमुत्कृष्टतो नवशतादूर्ध्वं सहस्रावध्याकर्षा भवन्ति । परिहारविशुद्धिकस्य जघन्यतो द्विवारमुत्कृष्टतस्सप्ताकर्षाः, सूक्ष्मसम्परायस्य जघन्यतो द्विवारमुत्कृष्टतो नवाकर्षा', यथाख्यातस्य जघन्यतो द्विवारमुत्कृष्टतः पञ्चाकर्षा भवन्तीति ॥ अनेकभवाश्रयेणेति । अनेकभवत्वस्य प्रथमाधारभूतभवद्वये जघन्यतः प्रतिभवमेकस्यै10 वाकर्षस्योक्तत्वादनेकभवापेक्षया जघन्यतो द्वावेवाकर्षौ भवत इत्यभिप्रायेणाह जघन्यतो द्विवारमिति | सहस्रपृथक्त्वमिति सहस्रद्वयादारभ्य यावन्नवसहस्रं सहस्रपृथक्त्वमुच्यते । सामायिकस्य ह्येकभवे आकर्षाणां शतपृथक्त्वकथनात् भवानामुत्कृष्टतश्चाष्टत्वाच्छतपृथक्त्वेऽष्टभिर्गुणिते सहस्रपृथक्त्वं भवतीति भावः । नवशतादूर्ध्वमिति । आकर्षाणां षड्डिशतिरेकभवेऽस्य भवति, भवाश्चास्योत्कर्षेणाष्टौ तथा चाकर्षास्ता अष्टाभिर्गुणिताः षष्ठयधिक15 नवशतानि भवन्ति । संभवमात्राश्रयणेनेदमुक्तम्, अन्यथा सामायिकस्य नवानां शताना - मेकभवीयानामष्टभिर्गुणने शतद्वयाधिकसप्तसहस्राणि बोध्यान्येवमन्येषामपि ज्ञेयं । उत्कर्ष - तस्सप्तेति । भवैकावच्छेदेनाकर्षाणां त्रित्वात् भवस्यापि त्रित्वादेकत्र तेषां त्रयं द्वितीये द्वयं तृतीयेऽपि द्वयमित्येवं विकल्पनया सप्ताकर्षा इति भावः । नवाकर्षा इति । अस्यैकस्मिन् भवे आकर्षचतुष्कस्योक्तत्वाद्भवत्रयस्याभिधानाञ्चैकत्र चत्वारो द्वितीयेऽपि चत्वारस्तृतीये 20 चैक इति कृत्वा नवाऽऽकर्षा भवन्तीति भावः । पञ्चाकर्षा इति, अस्यैकत्र भवे द्वावाकर्षो भवत्यतः एकत्र द्वौ द्वितीये द्वौ तृतीये चैक इति पञ्चाकर्षा इति भावः ॥ कालमानद्वारमाचष्टे— कालमानद्वारे - सामायिकस्य संयमकालमानं जघन्येनैकस्समयः । उत्कृष्टतो देशोननववर्षन्यूनपूर्वकोटिं यावत् । एवमेव छेदोपस्थापनीयस्य । 25 परिहारविशुद्धिकस्य जघन्येनैकस्समयः, उत्कृष्टत एकोनत्रिंशद्वर्षन्यूनकोटिं यावत् । सूक्ष्मसम्परायस्य जघन्येनै कस्समयः । उत्कृष्टतोऽन्तर्मुहू र्त्तम् । यथाख्यातस्य तु सामायिकस्येव स्यादिति ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] प्रकाशम : 2019: कालमानद्वार इति । मानशब्देन पूर्वोदितकालद्वारापेक्षयाऽस्य वैलक्षण्यमादर्शितम् । एकस्समय इति, सामायिकत्वप्राप्तिसमनन्तरं मरणसम्भवमभिप्रेत्येदमवसे यमेवमग्रेऽपि भाव्यम् | उत्कर्षेण देशोनेति, गर्भसमयान्तर्भावेणेदम् । तद्बहिर्भावेण जन्मसमयादारभ्य त्वष्टवर्ष न्यूनपूर्व कोटिं यावत्स्यात् जन्मतोऽष्टवर्षांन्ते चरणप्रतिपत्तेरिति भावः । सामायिकाच्छेदोपस्थापनीयस्याविशेषादाहैवमिति । एकोनत्रिंशद्वर्षन्यूनेति । देशोननववर्ष जन्मपर्यायेण 5 केनापि चारित्रं पूर्व कोट्यायुषा गृहीतं तस्य च विंशतिवर्षप्रव्रज्यापर्यायस्य दृष्टिवादोऽनुज्ञातस्ततश्वासौ परिहारविशुद्धिकं प्राप्तस्तच्चाष्टादशमासमानमप्यविच्छिन्नतत्परिणामेन तेनाजन्म पालितमित्येवमेकोनत्रिंशद्वर्षाणां पूर्वकोटिं यावत्तत्स्यादिति भावः । अन्तर्मुहूर्त्तमिति, तत्स्थानस्य तावत्प्रमाणत्वादिति भावः । क्षीण मोहापेक्षयोत्कर्षेण देशोननव वर्षन्यूनपूर्वकोटिर्बोध्या । सर्वमिदमेकजीवापेक्षयाऽवसेयम् ॥ नानाजीवापेक्षया त्वाह अनेकजीवापेक्षया तु सामायिकास्सर्वदा भवेयुः । छेदोपस्थापनीया जघन्यतस्सार्धद्विशतवर्षपर्यन्तमुत्कृष्टतः पञ्चाशल्लक्ष कोटिसागरोपमं यावत्स्युः । परिहारविशुद्धिका जघन्येन किञ्चिदून द्विशतवर्षकालमुत्कृष्टतः किञ्चिदून द्विपूर्वकोटिकालपर्यन्तं स्युः ॥ 1 10 15 अनेकजीवापेक्षयेति । सर्वदा भवेयुरिति । प्रत्येकं तेषां बहुकालस्थितिकत्वात् महाविदेहापेक्षयैतदिति ज्ञेयम् । सार्धद्विशतवर्षपर्यन्तमिति । उत्सर्पिण्यामादितीर्थकरशासनस्य -सार्ध शतद्वयवर्षमानत्वेन तत्र छेदोपस्थापनीयसंयतस्य भावादिति भावः । पञ्चाशल्लक्षेति । अवसर्पिण्या मादितीर्थकरशासनस्य पञ्चाशल्लक्ष कोटिसागरोपममानत्वेन तत्र छेदोपस्थापनीय. " · संयतसद्भावादिति भावः । जघन्येन किञ्चिदूनेति । उत्सर्पिण्यां प्रथमजिनसमीपे केनचिद्वर्ष- 20 शतायुष्केण परिहारविशुद्धिकसंयमः परिगृहीतस्तज्जीवितान्ते तस्यान्तिकेऽपरेण वर्षशतायु- केण स एव संयमो गृहीतस्ततश्च न परिहारविशुद्धिकस्य प्रतिपत्तिरस्ति, तीर्थकरस्य तीर्थ· करागृहीत परिहारविशुद्धिकसंयतस्य वाऽन्तिक एव तग्रहीतुं शक्यत्वात् । ततश्च वर्षशतद्वयं · जातं, तत्राप्येकोनत्रिंशद्वर्षेषु व्यतीतेष्वेवैतच्चारित्रप्रतिपत्त्या मेलनतोऽष्टपञ्चाशद्वर्षाणि जातानि अतस्तन्यून द्विशतवर्षकालं भवतीति भावः । किञ्चिदूनेति । अवसर्पिण्यामादिमजिनस्यान्ति के 'पूर्वकोट्यायुष्कः कचित्परिहारविशुद्धिकत्वं प्रपन्नस्तस्यान्तिके च तज्जीवितान्ते तादृश एवान्य· स्तत्प्रतिपन्नः पुनस्तदभावेन पूर्वकोटिद्वयं जातं, तत्र चैकोनत्रिंशद्युग्मस्य न्यूनताकरणे तथा 25 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 206: तस्याथविभाकरे [ सप्तमकिरणे भावादिति भावः । सूक्ष्म सम्परायाणां जघन्येनैकस्समय उत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्त्तसमयो यथाख्यातानान्तु सामायिकवदेवाऽतस्तेषामेकजीवापेक्षयाऽत्र विशेषाभावान्मूले कण्ठतो नोक्ताः ॥ अन्तरद्वारमाह अन्तरद्वारे- - एकस्य संघमग्रहणानन्तरमन्यस्य संयमग्रहणे जघ - 5 न्यत एकस्समय उत्कृष्टतस्संख्यातवर्षाण्यन्तरकालः । एवं यथाख्यातपर्यन्तं बोध्यः ॥ अन्तरद्वार इति । स्पष्टोऽयं पाठः । एकजीवमाश्रित्य तु विशेषोऽयं सामायिकस्य सामायिकत्वं त्यक्त्वा पुनर्ग्रहणे जघन्यमन्तरमन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतस्त्वनन्तकालमेवं सर्वेषामपि ज्ञेयम् । इदमुत्कृष्टमन्तरं तीर्थकर गणधरादिमहापुरुषाणां घोराशातनया प्रवचनोड्डाहकानां 10 भवतीति भाव्यम् । पृथक्त्वापेक्षया त्वाह सामायिक शून्यः कालो नास्त्येव । छेदोपस्थापनीयैश्शून्यः कालो जघन्येन त्रिषष्टिसहस्रवर्षाण्युत्कृष्ठतोऽष्टादशकटाकोटिसागरोपमः । परिहारविशुद्धिरहितः कालो जघन्येन चतुरशीतिसहस्रवर्षाण्युत्कृष्टतोऽ15 ष्टादशकोटाकोटिसागरोपमः । सूक्ष्मसम्परायरहितः कालो जघन्येनैकस्समयः । उत्कृष्टतष्षण्मासाः । यथाख्यातरहितः कालो नास्त्येवेति ॥ सामायिकैरिति । त्रिषष्टिसहस्रवर्षाणीति । अवसर्पिण्यां दुष्षमां यावच्छेदोपस्थापनीयसंयमः प्रवर्त्तते, तंतस्तस्या एवैकविंशतिसहस्रवर्षमानायामेकान्तदुः षमायामुत्सर्पिण्या चैकान्तदुःषमायां दुष्षमायाश्च तत्प्रमाणायामेव तदभावरस्यादेवञ्चैकविंशतित्रयेण त्रिषष्टिव20 र्षसहस्राण्यन्तरमुक्तमिति भावः । अष्टादशकोटाकोटिसागरोपम इति । उत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतितमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयस्य प्रवृत्तेस्ततोऽतीते च क्रमतो द्वित्रिचतुस्सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणे सुषमदुःषमादिसमात्रयेऽवसर्पिण्याश्चैकान्तसुषमादित्रये क्रमेण चतुस्त्रिद्विसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणेऽतीतप्राये प्रथमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयत्वं प्रवर्त्तते इत्येवं छेदोपस्थापनीयस्यान्तरं भवति । चतुरशीतिवर्षसहस्राणीति । दुष्षमैकान्तदुष्षमयोरवसर्पिण्या 25 एकान्तदुःषमादुष्षमयोरुत्सर्पिण्याश्च प्रत्येकमेकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणत्वेन चतुर्भिर्गुणिते च तावत्प्रमाणकालान्तरं भवति, तत्र च परिहारविशुद्धिकस्याभावादिति भावः । अष्टादशकोटा Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलते : २०१: कोटिसागरोपम इति । छेदोपस्थापनीयस्योत्कृष्टवदयं बोध्यः, षण्मासा इति मुक्तिविरहकालस्य तावन्मात्रत्वादिति भावः । समुद्धातद्वारं वक्ति समुद्धातद्वारे-सामायिकछेदोपस्थापनीययोर्वेदनाकषायमरणवैक्रियतैजसाऽऽहारकाषट् समुद्धाता भवन्ति । परिहारविशुद्धिकस्य वेदना- 5 कषायमरणात्मकास्त्रयः। सूक्ष्मसम्परायस्य न कोऽपि। यथाख्यातस्य केवलिसमुद्धात एव भवेदिति ॥ समुद्धातद्वार इति । वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकत्वमापन्नो जीवः बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय च तेषां स्वप्रदेशसंश्लिष्टानां निर्जरणं समुद्धातः । स च सप्तविधो वेदनाकषायमरणवैक्रियतैजसाहारककेवलि 10 भेदात् । ते च यथाक्रमं असातवेदनीयकषायाख्यचारित्रमोहनीयान्तर्मुहूर्तावशेषायुःकर्मवैक्रियतैजसाहारकशरीरनामसदसवेद्यशुभाशुभनामोच्चैर्नीचैर्गोत्रकर्माश्रयाः । आधाषट् समुद्वाताः प्रत्येकमान्तौहूर्तिकाः, अन्यस्त्वष्टसामयिकः, तत्रान्तिमं विहायाऽन्ये षट् सामायिकछेदोपस्थापनीययोस्सम्भवन्ति तन्निमित्तसम्भवादित्याशयेनाह सामायिकेति । स्पष्टमन्यत् ।। क्षेत्रद्वारमाह 15 क्षेत्रद्वारे-सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराया लोकस्याऽसंख्यातभागे स्युः। यथाख्यातस्त्वसंख्यातभागे, असंख्यातभागेषु केवलिसमुद्धातापेक्षया सर्वलोकव्याप्तश्च स्यादिति ॥ क्षेत्रद्वार इति । क्षेत्रमवगाहनाक्षेत्रं तदाश्रयतो विचारे प्रवृत्ते सामायिकादिचतुर्णा १. तत्र वेदनापीडितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मस्कन्धवेष्टितान् शरीरादहिरपि विक्षिपति तैश्च प्रदेशैवंदनजठरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यपान्तरालानि चापूर्याऽऽयामतो विस्तारतश्च शरीरमात्रं क्षेत्रमभिव्याप्यान्तमुहूर्त यावदवतिष्ठते, तस्मिंश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुद्गलपरिशाटं करोति । एवमेव कषायसमुद्धातोऽपि भाव्यः। मरणसमुद्धातगत आयुःकर्मपुद्गलान परिशाटयति, वैक्रियलब्धिमांश्च तद्गतः स्वप्रदेशान् शरीरादू बहिर्निष्कास्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमानमायामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति ततो यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वत् शाटयति । एवं तैजसाहारकसमुद्धातौ भाव्यौ । केवलिसमुद्वातगतः केवली तु सदसद्वेद्यादिकर्मपुद्गलपरिशाटनं करोतीति ॥ २७ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे लोकस्यासंख्येयभागमात्रावगाहित्वादाहासंख्यातभागे स्युरिति । तथाचासंख्येयभागेऽसंख्येयेषु भागेषु भवेयुर्न संख्येयभागे नवा संख्येयेषु भागेषु नवा च सर्वलोक इति भावः । असंख्यातभाग इति, तस्य दण्डकपाटकरणकाले लोकासंख्येयभागवृत्तित्वं, तदवगाहस्य तावन्मात्रत्वादिति भावः । असंख्यातभागेष्विति, मथिकरणकाले बहोर्लोकस्य व्याप्तत्वेन 5 स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्तत्वाल्लोकस्यासंख्येयेषु भागेषु वर्तत इति भावः । लोकाऽऽपूरणे च सर्वलोके वर्त्तत इत्याह केवलीति ॥ स्पर्शनाद्वारमाचष्टे स्पर्शनाद्वारे-सामायिकादयो यावत्सु भागेषु लोकस्य स्युस्ते तावतो भागान् स्पृशेयुः । समीपतरवर्तिपार्श्वभागस्पर्शनेन च किश्चिदधिका25 नपीति ॥ ___ स्पर्शनाद्वार इति । येषां यथावगाहना उक्तास्तथा तेषां स्पर्शना अपीत्याह सामायिकादय इति । तत्रापि किश्चिद्विशेषमाह समीपतरेति । क्षेत्रमवगाहनाविषयं स्पर्शना त्ववगाढक्षेत्रस्य तत्पार्श्वतरवर्तिनश्चेत्येतयोर्विशेषः ॥ भावद्वारमभिधत्ते20 भावद्वारे-सामायिकाश्चत्वारः क्षायोपशमिकभावे स्युः। यथाख्यातस्त्वौपशमिके क्षायिके च स्यादिति ॥ भावद्वार इति । यद्यपि परिहारविशुद्धिकेतरेषां केषाश्चित् क्षपकश्रेणिसम्भवस्तथापि सज्वलनलोभस्य दशमं यावद्भावान्न क्षायिको भाव इत्यत आह सामायिका इति । यथा ख्यातस्त्विति, एकादशगुणस्थानापेक्षयौपशमिकत्वं तदूर्ध्वगुणस्थानापेक्षया तु क्षायिक10 त्वमिति भावः ॥ परिमाणद्वारमाह - परिमाणद्वारे-सामायिकाः प्रतिपद्यमानापेक्षयैकस्मिन् काले कदाचिद्भवेयुः कदाचिच्च न । यदा भवेयुस्तदा जघन्येनैको द्वौ त्रयो वा, उत्कृ ष्टतो द्विसहस्राद्यावन्नवसहस्रम् । पूर्वप्रतिपन्नापेक्षया जघन्यत उत्कृष्ट15 तश्च द्विसहस्रकोटीतो यावन्नवसहस्रकोटि भवेयुः । छेदोपस्थापनीयास्तु प्रतिपद्यमानापेक्षया कदापि स्युः कदापि न । यदा स्युस्तदा जघन्येनैको Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २११ : द्वौ त्रयो वोत्कृष्टतो द्विशताद्यावन्नवशतम् । प्रतिपन्नापेक्षया तु कचिन्न स्युः कचिच जघन्येनोत्कृष्टतश्च द्विशताद्यावन्नवशतकोटि स्युः॥ ___परिमाणद्वार इति । यावन्नवसहस्रकोटीति, कोटीसहस्रपृथक्त्वमित्यर्थः । यद्यपि सर्वसंयतानामेतावन्मात्रमानत्वेनास्यैव तावन्मानत्वे इतरसंयतमानमादाय संयतानामाधिक्यशङ्का स्यात् तथापि कोटीसहस्रपृथक्त्वस्य द्वित्र्यादिकोटीसहस्ररूपं कल्पयित्वा इतरेषां संख्या- 5 याः प्रवेशेनोक्तमानातिरेकसम्भवो व्युदसनीयः । द्विशतादिति, द्विशतकोटीतो यावन्नवशतकोटीत्यर्थः, कोटीशतपृथक्त्वमिति यावत् । इदञ्च छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणमादिमतीर्थकरतीर्थान्याश्रित्य सम्भवति, जघन्यन्तु सम्यङ् नावगम्यते, यतो दुष्षमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तद्यस्य भावाविंशतिरेव तेषां श्रूयते । केचित्पुनराहुः, इदमप्यादितीर्थकराणां यस्तीर्थकालस्तदपेक्षयैव समवसेयम् , कोटीशतपृथक्त्वञ्च जघन्यमल्पतरं उत्कृ- 10 ष्टश्च बहुतरमिति ॥ परिहारविशुद्ध्यादीनां परिमाणं विचारयति परिहारविशुद्धिका अप्येवमेव, किन्तु प्रतिपन्नापेक्षया जघन्येनैको द्वौ त्रयः, उत्कर्षेण च द्विसहस्राद्यावन्नवसहस्रम् । सूक्ष्मसम्परायाश्च कचिन्न स्युः कचिच्च जघन्येनैको द्वौ त्रयः, उत्कृष्टतः क्षपकश्रेण्यामष्टोत्तरशतमु. 15 पशमश्रेण्यां चतुःपञ्चाशत्स्युः । प्रतिपन्नापेक्षया कचिन्न स्युः कचिजघन्ये. नैको द्वौ त्रयः, उत्कृष्टतो द्विशतान्नवशतं यावत्स्युः, यथाख्यातास्तु सूक्ष्मसम्परायवत् । प्रतिपन्नापेक्षया तु जघन्येनोत्कृष्टतश्च द्विकोटीतो यावन्नवकोटि भवेयुरिति ॥ परिहारविशुद्धिका इति । एवमेवेति, प्रतिपद्यमानकं प्रतीत्य स्यात्सन्ति स्यान्न सन्ति, 20 यदि सन्ति तदा छेदोपस्थापनीयवजघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतशतपृथक्त्वम् । प्रतिपन्नापेक्षया त्वेषां वैशिष्ट्यमस्तीत्याह-किन्त्विति । सूक्ष्मसम्परायवदिति क्वचित्स्युः क्वचिन्न स्युः, यदि स्युस्तदा क्षपकश्रेण्यपेक्षयाऽष्टोत्तरशतं, उपशमश्रेण्यपेक्षया तु चतुःपञ्चाशत्स्युरिति भावः । प्रतिपन्नापेक्षया त्वाह प्रतिपन्नेति । कोटीपृथक्त्वमिति यावत् ।। . अथाऽल्पबहुत्वद्वारमाह 25 अल्पबहुत्वद्वारे-पञ्चमु संयतेषु सर्वेभ्योऽल्पास्सूक्ष्मसम्परायाः,तेभ्यः परिहारविशुद्धिकाः संख्यातगुणाः, तेभ्यो यथाख्यातास्संख्यातगुणाः, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे तेभ्योऽपि छेदोपस्थापनीयास्संख्यातगुणाः, तेभ्योऽपि च सामायिकास्संख्यातगुणा बोध्या इति । इति षट्त्रिंशदू द्वाराणि । इति संवरतत्त्वम् ॥ अल्पबहुत्वद्वार इति । सर्वेभ्योऽल्पा इति, तत्कालस्याऽल्पत्वात् शतपृथक्त्वप्रमाणत्वाचेति भावः । परिहारविशुद्धिका इति, तत्कालस्य सूक्ष्मसम्परायापेक्षया बहुत्वात् सहस्र 5 पृथक्त्वमानत्वाचेति भावः । यथाख्याता इति । कोटीपृथक्त्वमानत्वादिति भावः । छेदोपस्थापनीया इति कोटीशतपृथक्त्वमानत्वादिति भावः । सामायिका इति, कोटीसहस्रपृथक्त्वमानत्वादिति भावः । इतीति सर्वत्रेतिशब्दस्तत्तद्वारसमाप्तिद्योतक इति बोध्यम् । इत्थं सामान्येन द्वाराणि वर्णितानीत्याहेतीति । एवमेव चास्रवदोषानवलेपसाधनः परिस्पन्दवतोऽपि चरणकुशलस्य प्रायः कर्मागमद्वारसंवरणरूपस्संवरो दिङ्मात्रेणोपपादित इत्याह इतीति ।। 10 इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधरश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनसन्यस्तात्मभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिमितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां संवरनिरूपणं नाम सप्तमः किरणः ॥ अथाष्टमः किरणः 15 अवसरसङ्गत्या संवरे सति निर्जरायाः फलवत्त्वेन प्रयोज्यतासङ्गत्या वा संवरनिरूपणानन्तरमभिधीयमानां निर्जरां लक्षयति क्रमेण बद्धकर्मपुद्गलानां तपोविपाकान्यतरेण विध्वंसो निर्जरा ॥ क्रमेणेति । तपो बाह्याऽभ्यन्तरतया द्विविधं, तेन हि नूतनकर्मणां प्रवेशाभावः पूर्वसश्चितकर्मणां च परिक्षयो भवति, तत्राऽऽद्यस्संवररूपो द्वितीयश्च निर्जरारूपः, तस्मात्तप उभय20 स्याऽपि हेतुः । विपाको गतिनामादिकर्मणां नामानुगुणमुदयोऽनुभवः, ताभ्याञ्च जीवेन बद्धानां कर्मपुद्गलानां ज्ञानावरणादिरूपाणां विध्वंसः कर्मपरिणतेर्विगमो जायते, सर्व निर्जरेत्यर्थः । अवस्थानहेत्वभावेन ह्यनुभूताः कर्मपुद्गला न पुनरावरणादिरूपेणाऽवतिष्ठन्ते, तथा च तपोविपाकान्यतरजन्यबद्धकर्मविध्वंसत्वं लक्षणम् । जन्यान्तन्तु तत्र कारणत्वप्रतिपादनपरमेव । तदपि कारणमसाधारणं विज्ञेयम् ॥ १. विवादाध्यासितः पुरुषो निर्जीर्णघातिचतुष्कः केवलज्ञानवत्त्वात् उभयवादिसिद्धतादृक्पुरुषवत् इत्यन्वयव्यतिरेकिणः, अन्वयासिद्धौ वा यो न जीर्णघातिचतुष्को नासौ केवलज्ञानवान् यथाऽस्मदादिरिति केवलव्यतिरेकिणो वाऽनुमानात् निर्जराऽस्मदादिभिरवसीयते, आप्तागमाच्च । सर्वज्ञेन तु स्वानुभवप्रत्यक्षेणेति ॥ २. महाव्रतादिषु हेत्वन्तरेषु सत्स्वपि तपस एव प्रधानतया निर्जराङ्गत्वादिति भावः ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलङ्कृते विपाकजाविपाकजभेदेन तस्या द्वैविध्य मादर्शयति निर्जरा ] : २१३ : विध्वंसोऽयं विपाकोदयेन प्रदेशोदयेन च द्विधा भवति । विपाकोदयश्च मिथ्यात्वादिहेतुककर्मपुद्गलानां जघन्योत्कृष्टस्थितितीव्रमन्दानुभावानां स्वभावेन करणविशेषेण वोदयावलिकाप्रविष्टानां रसोदयपूर्वकानुभवनम् । अनुदयप्राप्तकर्मप्रकृतिदलिकमुदयप्राप्तसमानकालीन सजातीय- 5 प्रकृतौ संक्रमय्यानुभवनं प्रदेशानुभवः ॥ 1 विध्वंसोऽयमिति । विपाकोदयेनेति, विपचनं उदद्यावलिकाप्रवेशो विपाकः, अप्रशस्तपरिणामानां कर्मणां तीव्रतया शुभपरिणामाना मन्दतया व्यत्ययेन वा नानाप्रकारः पाको वा विपाकः, स एवोदयस्तेनेत्यर्थः । प्रदेशोदयेन चेति, संक्रमणेनेत्यर्थः । मिथ्यात्वादीति, मिथ्यादर्शनाविरतिकषाययोगैर्बद्धानां ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनाम - 10 गोत्रान्तरायात्मकानां कर्मपुद्गलानामित्यर्थः । जघन्येति, जघन्यस्थितिकानामुत्कृष्टस्थितिकानां मन्दानुभावानां तीव्रानुभावानामित्यर्थः । अध्यवसायादिवैचित्र्यत इयं विचित्रताऽवसेया । स्वभावेनेत्यादिनोदयावलिकाप्रवेशो हि शुद्धप्रायोगिकभेदेन द्विविधः, अबाधाकालक्षयेणोदयावलिकाप्रवेशश्शुद्धः, उदीरणाकरणेनोदयावलिकाप्रवेशः प्रायोगिक उच्यत इति सूचितम् । स्वभावेन, अबाधाकालक्षयेण करणविशेषेणोदीरणाकरणेन । रसोदयपूर्वकमनुभवनमिति, 15 रससहितस्यानुसमयमिच्छ्याऽनिच्छया वाऽनुभूतिरिति भावः । प्रदेशोदय स्वरूपमाहानुदयेति । यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौ पक्रमिक क्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदयप्राप्तायां स्वसमानकालीनायां स्वसजातीयायाश्च प्रकृतौ संक्रमय्य वीर्यविशेषत आम्रपनसादिपाकवद्वेद्यते स प्रदेशोदय इत्यर्थः, तत्रापि रसोऽस्त्येवेति सूचयितुं प्रदेशोदय इत्यनुक्त्वा प्रदेशानुभव इत्युक्तं, अनुभावो रसो ज्ञेय इत्युक्त्याऽनुभवशब्देन रसप्रतीतेः । स्वासमान- 20 कालीनायां प्रकृतौ संक्रमो न सम्भवतीति सूचयितुं समानकालीनेति पदम्, भिन्नजातीयायाच प्रकृतौ तन्न भवतीति सूचयितुं सजातीयेत्युक्तं, साजात्यश्च मूलप्रकृतिविभाजकतावच्छेदकधर्मेण । तेन कर्मत्वेन सजातीयत्वेऽपि ज्ञानावरणादौ दर्शनावरणादेर्न सङ्क्रम इति भावः ॥ उभयविधापि निर्जरा पुनरियं द्विविधेत्याह सेयं सकामाकामभेदाभ्यां द्विधा । सम्यग्दृष्टिदेश विरतसर्वविरतानां साभिलाषं कर्मक्षयाय कृतप्रयत्नानां यः कर्मणां विध्वंसः सा सकामा । 25 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरण मिथ्यादृष्टीनामैहिक सुखाय कृतप्रयत्नानां तपस्यादिना कर्मणां विध्वंसोकामा ॥ सेयमिति । सा तपोविपाकान्यतरजन्या, इयं निर्जरा, कामनासहितत्वात्सकामा, तद्विशेषरहितत्वाच्चाकामेति द्विविधेति भावः । तत्र कामोऽभिलाषः, तपः परीषहजयादिना 5 कर्म क्षपयामीत्येवं रूपो बुद्धिविशेष:, तेन सहिता सकामा, साक्षात्परम्परया वा तपः परीषहादिजन्यो विपाको मोक्षसाधनमिति भावः तत्र देवेषु तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानान्यवाप्नोति, मनुष्येषु च चक्रवर्त्तिबलदेव महामण्डलिकादिपदानि लब्ध्वा ततः सुखपरम्परया मोक्षमवाप्स्यति, तपः परीषहकृतो निखिलकर्मक्षयस्वरूपो विपाकस्तु साक्षान्मोक्षायैव भवतीति । नास्ति कामो बुद्धिविशेषो जनकतया यस्यामित्यकामा, 10 नरकतिर्यङ्मानुषदेवेषु ज्ञानावरणादिकर्मणः फलभूताद्विपच्यमानादाच्छादनादिरूपाया कर्मनिर्जरा साsकामा, न हि नारकादिभिस्तपः परीषहो वाऽभिलषितस्तदर्थम् । तत्र सकामामाचष्टे सम्यग्दृष्टीति । सम्यग्दर्शनमात्रभाकू, शक्त्यनुगुणं द्वादशविधधर्मस्यैकदेशेनाप्यनुष्ठाता सम्यग्दर्शनभाक्च देशविरतः । ससम्यक्त्वः साधुधर्मानुष्ठायी यावज्जीवं सर्वेभ्यः प्राणातिपातादिभ्यो विरतस्सर्वविरतः, तेषामित्यर्थः । साभिलाषं बुद्धिविशेषपूर्वकमि15 त्यर्थः । कर्मक्षयाय कृतप्रयत्नानामिति, आनुषङ्गिकदेवत्वादौ निःस्पृहतया मुख्याय कर्मक्षयाय प्रवर्त्तमानानामिति भावः । सम्यग्दृष्ट्यादीनां निर्जरा न समा, अपि तु यथोत्तरमसंगुणाइति भाव्यम् || अकामामाख्याति, मिध्यादृष्टीनामिति, सम्यग्दृष्टिविरहितानामित्यर्थः, ऐहिक सुखाय कृतप्रयत्नानामिति, ये केचन मिध्यादृष्टिविशेषास्स्वर्गाद्यर्थं वयं तपस्याम इत्यभिसन्धिमन्तोऽपि प्रवर्त्तन्ते तेषामपीति भावः । तादृशाभिसन्धेरज्ञानरूपत्वादका - 20 मत्वमेव, तपस्यादिनेति, तपस्त्वादिरूपेण तेषामभिमतेनेत्यर्थः ॥ 25 निर्जरेयं कर्मपुद्गलद्रव्यध्वंसरूपत्वा द्रव्यनिर्जरेत्युच्यते, तन्निमित्तात्माध्यवसायो भावनिर्जरेत्युच्यत इत्याह आत्मप्रदेशेभ्यः कर्मणां निर्जरणं द्रव्यनिर्जरा, निर्जरानिमित्तशुभाध्यवसायो भावनिर्जरा ॥ आत्मप्रदेशेभ्य इति । विश्लेषावधौ पञ्चमी, निर्जरणं पृथक्करणम्, न तु विध्वंसः, पञ्चम्यनुपपत्तेः । आत्मप्रदेशेषु कर्मसम्बन्धाभाव इति भावः ॥ L १. निर्जरा त्वेनैकविधापि साऽष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि । द्वादशविधतपोजनितत्वेन च द्वादशविधाsपि, अकामक्षुत्पिपासा शीतातपदंशमशक सहनब्रह्मचर्य धारणाद्यनेकविध कारणजनितत्वेनानेकविधापि, दन्यतो Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অবস্থান । न्यायप्रकाशसमलइये। ननु तपसा निर्जरा भवतीत्युक्तं तत्र किन्तप इत्यत्राहशरीरवृत्तिरसादिधातुकर्मान्यतरसन्तपनं तपः॥ शरीरवृत्तीति । तप्यन्तेऽनेन बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नानशनप्रायश्चित्तादिना यानि शरीरनिष्ठानि रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि मिथ्यादर्शनाद्यर्जितकर्माणि चेति तपोऽनशनादि, तथा च शरीरनिष्ठरसादिकर्मान्यतरसन्तापप्रयोजकप्रवृत्तित्वं लक्षणम् । शरीरवृत्ति- 5 रसादीनि कर्माणि च सन्तप्यन्ते नीरसीक्रियन्तेऽनेनेति व्युत्पत्तेः, विपाकस्य नीरसीकरणप्रयोजकत्वेऽपि प्रवृत्तिरूपत्वाभावान्नातिप्रसक्तिः, साक्षात्कर्मसन्तापकस्य धातुक्षयपूर्वकं संगत्यागशरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणादिद्वारा कर्मसन्तापकस्य च संग्रहायान्यतरेत्युक्तम् । न चालब्धवृत्तीनां कर्मणां तपसा क्षयाभ्युपगमे तेषां निष्फलत्वं स्यात् , अनुपभुक्तानां क्षया- . नुपपत्तिश्च, उपपत्तौ वोपभुज्यमानानामपि क्षयापातादिति वाच्यम् , कारणस्य नियमेन कार्य- 10 जनकत्वानभ्युपगमात् , अन्यथा कुशूलस्थादपि बीजादडरोत्पत्तिप्रसङ्गात् । मण्यादिसमवहितवतिना दाहापाताच किन्तु सहकारिवैकल्यशक्तिप्रतिबन्धादिना कारणस्य कार्याजनकत्वेन कर्मणामपि द्रव्यक्षेत्रादिसहकारिविरहात् प्रबलकर्मान्तरेण शक्तिप्रतिबन्धाद्वा वृत्त्यलाभः । तादृशानाञ्च कर्मणां तपसा क्षय इति न कोऽपि दोषः । भोगेन कर्मणः क्षय इति तूत्सर्गः, स च तपसस्तत्त्वज्ञानाद्वा क्वचित् कथञ्चित् क्षयाभ्युपगमेनापोद्यत इति नासम्भ- 15 वो लक्षणस्येति दिक् ॥ तत्र तपसो बाह्याभ्यन्तररूपेण द्वैविध्यस्य प्रदर्शितत्वादधुना बाह्यं तद्विभजते तत्र बाह्यतपांसि अनशनोनोदरिकावृत्तिसंक्षेपरसत्यागकायक्लेशसंलीनतारूपेण षड्विधानि ॥ . तत्रेति । अनशनादिरूपे तपसि बाह्यत्वं अन्नादिबाह्यद्रव्यनिमित्तकत्वात् परप्रत्यक्ष- 20 विषयत्वात् प्रायो बाह्यशरीरतापकत्वात् तीर्थकगृहस्थानुष्ठेयत्वाञ्चेति विज्ञेयम् ॥ सम्प्रत्यनशनं लक्षयति- -- इत्वरं यावज्जीवं वाऽऽहारपरित्यागोऽनशनम् ॥ वस्त्रादेर्भावतः कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा । ननु निर्जरामोक्षयोः कः प्रतिविशेषः ? उच्यते देशतः कर्मक्षयो । निर्जरा, सर्वतस्तु मोक्ष इति ॥ २. यथा महाजलाश्रयस्य नवीनजलागमनमार्गे निरुद्ध विद्यमाने जले अरघट्टादिना निष्कासिते रविकिरणादिना क्रमेण शोषणं भवेत् तथा प्राणिवधादिपापकर्मणां निरोधे संयतस्यापि द्वादशविधेन तपसा भवकोटिसंचितं कर्म निजीर्यत इति भावः ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१६ : तत्वन्यायविमाकरे [ अष्टमकिरणे .. इत्वरमिति । इत्वरं परिमितकालं यथा नमस्कारसहितादि षण्मासपर्यन्तं महावीरस्वामितीर्थे, संवत्सरपर्यन्तं श्रीनाभेयतीर्थे, यावदष्टौ मासान् द्वाविंशतिमध्यमतीर्थकरतीर्थेषु । पादपोपगमनेङ्गिनीभक्तप्रत्याख्यानभेदतो यावज्जीवमनशनं त्रिविधम् । अत्राथमपि निर्व्याघातसव्याघातभेदेन द्विविधम् । प्रव्रज्याशिक्षापदादिक्रमतो जराजर्जरितशरीरस्य चतुर्विधा5 हारप्रत्याख्यानपूर्वकं जन्तुशून्यस्थण्डिलमाश्रित्य निपत्यैकस्मिन्नेव पार्श्वे प्रशस्तध्यानं भृत्वा परिस्पन्दशून्यतया जीवोत्क्रमणं यावद्वर्त्तनं निर्व्याघातम् । आयुस्सद्भावेऽपि समुपजातव्याधिनोत्पन्नमहावेदनेन यदुपक्रान्तिः क्रियते तत्सव्याघातम् । श्रुतविहितक्रियाविशेषविशिष्टं मरणमिङ्गिनी, इयश्च यः प्रव्रज्यादिप्रतिपत्तिक्रमेणैवाऽऽयुषः परिहाणिमवबुध्याऽऽत्तनिजोप करणः स्थावरजङ्गमप्राणिविवर्जितस्थंडिलशायी एकाकीकृतचतुर्विधप्रत्याख्यानश्छायाया 10 उष्णमुष्णाच्छायां संक्रामन् सचेष्टः सम्यग्ज्ञानपरायणः प्राणाञ्जहाति तस्य बोध्यम् । गच्छान्तर्वर्ती सन् कदाचित्रिविधस्य कदाचिच्चतुर्विधस्य पर्यन्ते च सर्वथाऽऽहारप्रत्याख्यानं कुर्वन् समाश्रितमृदुसंस्तारक उत्सृष्टशरीरोपकरणममत्वस्स्वयमेवोद्राहितनमस्कारो निकटवर्तिसाधुदत्तनमस्कारो वोद्वर्तनपरिवर्तनादिकं कुर्वाणस्समाधिना यत्कालं करोति तद्भक्तप्रत्याख्यानम् , एवमेवाऽनशनं विविच्य शास्त्रोक्तं विज्ञेयम् , तथा चेत्वरयाव15 जीवान्यतरस्वरूपाहारपरित्यागोऽनशनमिति भावः। उनोदरिकामाचष्टेस्वाहारपरिमाणादल्पाहारपरिग्रहणमूनोदरिका ॥ स्वाहारेति । यस्य पुरुषस्य यावदाहारपरिमाणं ततोऽल्पस्याऽऽहारस्य ग्रहणं, उत्कृष्टावकृष्टपरिमाणको वर्जयित्वा मध्यमेन कवलेन पुंसो द्वात्रिंशत्कवलके स्त्रियोऽष्टाविंशतिकवल20 प्रमाणे आहारेऽष्टसंख्याकेन, द्वादशसंख्याकेन षोडशकेन चतुर्विंशतिकेन, एकेनापि न्यूनेन वा वर्तनमूनोदरिकेति भावः । अत्राऽनशनादौ च सम्यक्त्वं विशेषणीयं तच्च यथागमात्मकं, १. पादपोपगमनमविचारं इङ्गिनीभक्तप्रत्याख्याने सविचारे, चेष्टात्मकेन कायसम्बन्धिना वर्तमानत्वात्सविचार, तद्विपरीतमविचारं, इङ्गिनीभक्तप्रत्याख्याने सपरिकर्म, स्थाननिषदनत्वग्वर्तनादिना विश्रामणादिना च वर्तमानत्वात् , एकत्र स्वयमन्येन वा कृतस्य, अन्यत्र तु स्वयं विहितस्योद्वर्तनादिचेष्टात्मक परिकर्मणोऽनुज्ञानात् । अपरिकर्म पादपोपगमनं निष्प्रतिकर्मताया एव तत्राभिधानात् ॥ २. अयं भावः 25 एककवलादारभ्य यावदष्टौ कवला जघन्यमध्यमोत्कृष्टविशिष्टा अल्पाहारोनोदरिका:, नवभ्यः कवलेभ्य आरभ्य यावहादशकवलास्तादृशा अपाधानादारकाः, त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत् षोडशकवलास्तादृशा त्रिभागोनोद. रिकाः, सप्तदशभ्यो यावच्चतुर्विंशतिकवलाः प्राप्तोनोदरिकाः, पञ्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्कवलाः किञ्चिदूनोदरिका उच्यन्ते, एवं स्त्रीणामपि पुरुषानुसारेण भाव्यमिति ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसत्यागः ] न्यायप्रकाशसमलते तेन नृपशत्रुतस्करादिकृताहारनिरोधादेव्यवच्छेदः, उपहतभावस्य हि पुंसोऽनशनादिकं न संयमरक्षणाय न वा कर्मनिर्जरायै समर्थम् ॥ अथ वृत्तिसंक्षेपमाहनानाविधाभिग्रहधारणेन भिक्षावृत्तेः प्रतिरोधनं वृत्तिसंक्षेपः ॥ नानाविधेति । अभिग्रहो नियमस्स चागमविहितः, अनेकविधा येऽभिग्रहास्तेषां 5 धारणेनावलम्बनेनेत्यर्थः, नियमाश्च भिक्षाविषयाः उत्क्षिप्तनिक्षिप्तान्तप्रान्तचर्यादिरूपा द्रव्यक्षेत्रकालभावप्रविभक्ताः । यथा पटलकादिकं कडुच्छकादिनोपकरणेन दानयोग्यतया दायकेनोक्षिप्तं यदि लप्स्ये तदा ग्रहीष्यामीत्यादिरूपाः, तानवलम्ब्यापरभिक्षाया यत्प्रतिरोधनं स वृत्तिसंक्षेपः, दत्तीनां नियमेन एकां दत्तिमद्य ग्रहीष्यामि द्वे वा तिस्रो वेत्यादिरूपेणेतरासां दत्तीनां प्रतिरोधोऽपि वृत्तिसंक्षेपस्तत्र दत्तिः पात्रकादौ पटलकादीनां यदेकमुखेन प्रक्षेपः 10 सा । हस्तेन कडुच्छकेनोदङ्किकया वा यदुत्क्षिप्य ददाति सा भिक्षेति विशेषः । रसत्यागस्वरूपं वक्ति-.. रसवत्पदार्थेषु द्वित्र्यादीनां त्यागपुरस्सरं विरसरूक्षाचाहारग्रहणं रसत्यागः॥ रसवदिति । गुणविशेषवाचिनो रसत्यागपदघटितरसशब्दस्यात्र गुणिपरत्वमेव, 15 रसवत्पदार्थपरित्यागस्यैवाभिमतत्वात् , शुक्लः पट इत्यादिवदतो रसत्याग इति लक्ष्यनिर्देशो द्रव्यत्यागपुरस्कारेणैव रसपरित्याग इति सूचयितुं रसवत्पदार्थेष्वित्युक्तं, न सर्वेषामेव रसवतां परित्यागो रसत्यागोऽपि तु द्विव्यादीनामपीत्याशयेनाह द्विव्यादीना मिति, अनशनेऽपि द्विव्यादिपदार्थपरित्यागोऽस्त्येव, तस्य सर्वपदार्थपरित्यागरूपत्वादित्याशंकायामाह विरसरूक्षादीति । न च रूपरसगन्धस्पर्शवन्तः पुद्गला इति नियमेन सर्वेषामेव 20 पदार्थानां रसववाद्विरसेति कथमिति वाच्यम् , प्रकृष्टरसशून्यताया एव विवक्षितत्वादिति भावः । विरसं विकृतिभिरसंस्पृष्टं, रूक्षं प्रकृष्टरसशून्यम् । चित्तविकारहेतुभूता हि पदार्था मद्यमांसमधुनवनीतात्मकाः क्षीरदधिघृततैलगुडावगाह्याश्च विकृतिरूपाः । मद्यं हि गुडपिष्टद्राक्षाखर्जूरादिसम्भवं गणनातीतजीवोत्पत्तिस्थानं जीवस्यास्वातंत्र्यं विधत्ते, तेन चाक्रान्तः कृत्याकृत्यविवेकभ्रष्टो विनष्टस्मृतिसंस्कारो गर्हितमाचरत्येव । मांसं प्राणिशरीरावयवरूपमनन्त-25 जन्तुप्रसवनिदानं प्राणव्यपरोपणमन्तरा, दुष्प्रापं, प्राणातिपातश्चातिदुःखप्रदत्वेन कृतकारितानु २८ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायधिभाकरे [अष्टमकिरणे मतिभिस्सर्वथा परिहरणीयम् । मांसश्च वृष्यतमत्वादवश्यं गाद्धर्यहेतुत्वात्त्याज्य एव । अन्नादयस्तु न तादृशाः! मधु च माक्षिककौतिकभ्रामररूपं त्रिविधमपि विना प्राणातिपातेन न सम्भवतीति तदपि त्याज्यमेव । गोमहिष्यजाविकसम्बन्धिनवनीतमपि वृष्यत्वात्परिहार्यमिति, प्रत्याख्यानमेतेषां द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया विवक्षितम् । गोमहिष्यजाविकोष्ट्री 5 सम्बन्धित्वेन क्षीरविकृतिरपि पश्चधा । दधिविकृतिस्तु करभीवर्जा चतुःप्रकारा । घृतविकृतिरपि दधिविकृतिवञ्चतुर्धा । तिलातसीसिद्धार्थककुसुम्बकाख्यानि तैलानि । इक्षुविका. रात्मिका गुडविकृतिः खण्डशर्करावर्जा । घृताद्यवगाहनिष्पन्नाइशष्कुलीप्रभृतयोऽवगाह्याः, एतासां रसविकृतीनां प्रत्याख्यानं तपः, तत्रापि मांसादिचतुर्णां सर्वथा परित्यागः कार्य एव, क्षीरादिविकृतिषु सर्वेषां परित्यागस्तपस्तत्रासामर्थ्य द्वित्र्यादिपरिग्रहेऽपि न तपो 10 व्याहन्यते, तप्तायःपिण्डप्रक्षिप्तघृतादिबिन्दुवदित्येतत्सूचनाय द्विव्यादीनां त्यागपुरस्सरमि त्युक्तमिति बोध्यम् । न चानशनोनोदरिकारसत्यागानां वृत्तिपरिसंख्यानावरुद्धत्वेन पृथक निर्देशोऽनुचितो भिक्षाचरणे नियमकारित्वस्य सर्वत्राविशेषादिति वाच्यम् , विशेषात् , भिक्षाचरणे प्रवर्तमानो हि साधुरेतावत्क्षेत्रविषयां कायचेष्टां कुर्वीत, कदाचिद्यथाशक्ति विषयगणनार्थ वृत्तिपरिसंख्यानं क्रियते । अनशनन्त्वभ्यवहर्तव्यनिवृत्तिः, ऊनोदरिकारस15 परित्यागावभ्यवहर्त्तव्यैकदेशनिवृत्तिपरावतो महान्भेद इति ध्येयम् ॥ सम्प्रति कायक्लेशं लक्षयति केशोल्लुश्चनादिक्लेशसहनं कायक्लेशः॥ केशेति । कायसम्बन्धी क्लेशः कायक्लेशः, सोऽपि यथातथारूपो न कायक्लेशात्मकं तपोऽत उक्तं केशोल्लुश्चनादीति । आदिना कायोत्सर्गवीरोत्कटुकासनैकपार्श्वदण्डायतशयना20 तापनाऽप्रावृतादीनां ग्रहणम् , तथा चागमानुसारिकेशोल्लुश्चनादिजन्यक्लेशसहनत्वं लक्षणम् । संसार्यवस्थायां हि शरीरात्मनोरन्योन्यानुगतत्वेनाभेदात् सति कायक्लेशे तबाराऽऽत्मनोऽपि क्लेशोत्पत्त्या कर्मनिर्जरणादेषां तपोरूपत्वं, विनैकत्वपरिणतिमात्मनस्सुखदुःखासम्भवात् । स्वमात्रकृतकायक्लेशरूपत्वादुद्धिपूर्वकत्वाचास्य स्वपर निमित्तकात् यादृच्छिकोपनताञ्च क्षुधादितो विशेषोऽवसेयः॥ १. सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारिकेशोल्लुञ्चनाऽऽतापनानशनादिकायक्लेशो विशिष्टेष्टफलसाधकः, आगमोदि. तत्वे सति कायक्लेशत्वात् वृक्षमूलादिसेवनवीरासननिष्प्रतिक्रियादिवदित्यनुमानेन केशोल्लुञ्चनादिकायक्लेशस्य कर्मविच्छेदहेतुत्वं सिद्धयतीत्याशयेनाह संसार्यवस्थायामिति ॥ त्यो त्यविभिन्नकाशातच शामोदिः Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तम् ] अथ संलीनतामाचष्टे - न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २१९ : इन्द्रिययोगकषायादीन्नियम्य विविक्तस्थानासेवनं संलीनता, सा चतुर्विधा इन्द्रियकषाययोगविविक्तचर्या भेदात् ॥ इन्द्रियेति । विविक्तं - विजनं - बाधाविवर्जितं स्थानं प्रतिश्रयशय्या फलकासनपीठादिकं तस्याऽऽसेवनं । शरीरोपघातकरैः स्थूलसूक्ष्मजन्तुसहितैः स्त्रीपशुपण्डकादियुतैश्च प्रतिश्रयादि - 5 भिसम्यक्त्वादीनां बाधा स्यादतस्तद्रहितस्थानाssसेवनमित्यर्थः । तदप्यासेवनं सस्वान्तानीन्द्रियाणि संयम्य योगान्निष्फलेभ्यः क्रोधादिकषायकदम्बकं चोदयनिरोधप्राप्तोदयवैफल्यकरणाभ्याञ्च विज्ञेयमिति भावः । सा च संलीनता ज्ञानदर्शनचारित्रसंस्थापिका इन्द्रियकषाययोगनियमनपूर्वकत्वाद्विविक्तस्थानसम्बन्धित्वाच्च चतुर्विधा भवतीत्याशयेनाह सेति ॥ ता एव क्रमतो लक्षयति प्राप्तेन्द्रियविषयेष्वरक्तद्विष्टताभावः इन्द्रियसंलीनता । अनुदितक्रोधस्योदयनिरोधः प्राप्तोदयस्य नैष्फल्यकरणं कषायसंलीनता । कुशलाकुशलयोगानां प्रवृत्तिनिवृत्ती योगसंलीनता । शून्यागारादौ निर्बाधे रुयादिवर्जिते स्थाने स्थितिर्विविक्तचर्यासंलीनता ॥ प्राप्तेन्द्रियेति । विशदं मूलं व्याख्यातप्रायञ्च । षडिधादप्यस्माद्वाह्यतपसो बाह्याभ्य- 15 न्तरोपधिषु निर्ममत्वं प्रत्यहमल्पाहारोपयोगात्प्रणीताहारवर्जनाच्च शरीरलाघवं, उन्मादानुद्रेकादिन्द्रियजयः, चर्याजनितजन्तूपरोधाभावात्संयमरक्षणं निस्सङ्गतादिगुणयोगादनशनादितपोऽनुतिष्ठतश्शुभध्यानव्यवस्थितस्य कर्मनिर्जरणचावश्यं जायत इति बोध्यम् ॥ अथातिशयेन कर्मनिर्दहनक्षमं क्रमिकं स्वप्रत्यक्षभूतमन्तःकरणव्यापारप्रधानं प्रधानतो बहिर्द्रव्यानपेक्षमितरतीर्थिकानभ्यस्त मनशनादिभ्योऽन्तरङ्गभूतमान्तरं तपो विभजते – 10 प्रायश्चित्तविनय वैयावृत्त्यस्वाध्याय ध्यानोत्सर्गाष्षाभ्यन्तरतपांसि || प्रायश्चित्तेति । आभ्यन्तरतपांसीति । मोक्षप्राप्तावन्तरङ्गाणि आभ्यन्तरकर्मतापकानि आभ्यन्तरैरेवान्तर्मुखैर्भगवद्भिर्ज्ञायमानानीमानि तपांसीति भावः ॥ 20 अथ प्रत्येकं परिज्ञापयितुं प्रायश्चित्तं निरूपयति अतिचारविशुद्धिजनकानुष्ठानं प्रायश्चित्तम् । तच्चाsssलोचनप्रतिक- 25 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे मणमिश्रविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदमूलानवस्थाप्यपाराञ्चित भेदाद्दशविधम् ॥ अतिचारेति । प्रायस्साधुलोकः, यस्मिन् कर्मणि तस्य चित्तं तत्प्रायश्चित्तं प्रायो वाऽपराधः, तस्य चित्तं शुद्धिः यस्मादनुष्ठितात्तत्प्रायश्चित्तमपराध विशुद्धिफलकानुष्ठानमित्यर्थः, तदेव तस्य स्वरूपमित्याशयेनो क्तमतिचारेति, अतिचारविशुद्धिजनकत्वे सत्यनुष्ठानत्वं 5 लक्षणं, प्रमादजन्यो मूलोत्तरगुणविषयको हि दोषोऽतिचा रस्सोऽयमल्पोऽपि चित्तमालिन्यं विदधात्येव, अतस्तच्छुद्ध्यै प्रायश्चित्तमभिमतमिति भावः । यद्यप्यतिचारस्य कस्यचिद्भवति निवृत्तिः प्रकाशनमात्रादपि यथा श्रुतोपदिष्टव्यापारानुयायिनो मोक्षार्थं यतमानस्यावश्यकरणीयेष्वत्यन्तोपयुक्तस्य व्यस्तस्थूलातिचारस्य सूक्ष्मास्रवप्रमादक्रियाणाम् । तत्रानुष्ठानत्वाभावादव्याप्तिप्रसङ्गस्तथापि मानसानुष्ठानरूपत्वात्तस्य न दोषः, एवमेव पश्चात्तापादावपि 10 विज्ञेयम्, तद्विभागमाह तच्चेति । तत्त्वार्थे तु मूलानवस्थाप्यपाराचिंतानां स्थाने परिहारो - पस्थापने पठित्वा नवविधत्वं प्रायश्चित्तस्य दृश्यते ॥ I अथाssलोचनमाचष्टे - गुर्वभिमुखं समर्यादं स्वापराधप्रकटनमालोचनम् ॥ गुर्वभिमुखमिति । मर्यादया मायामदादिदोषरहितेन कार्यमकार्यश्च सत्यतया भणता 15 बालेनेव स्वापराधस्य स्वेनाssसेवितक्रमेणाऽऽलोचनार्हाय गुरवे प्रकटनमालोचनाप्रायश्चित्तमित्यर्थः यैः । गुरुणाऽनुज्ञातस्स्वयोग्यभिक्षावस्त्रपात्रशय्यासंस्तारकपादप्रोञ्छनादीनि आचार्योपाध्यायस्थविरबालग्लानशैक्षकक्षपकासमर्थप्रायोग्यवस्त्रपात्रभक्तपानौषधादीनि वा गृहीत्वा, उच्चारभूमेर्विहाराद्वा, चैत्यवन्दननिमित्तं पूर्वगृहीतपीठफलकादिप्रत्यर्पणनिमित्तं, वहुश्रुतापूर्वसंविग्नवन्दनप्रत्ययं, संशयव्यवच्छेदाय, श्राद्धस्वज्ञात्यवसन्नविहाराणां श्रद्धावृद्ध्यर्थं, साधर्मि20 काणां संयमोत्साहनिमित्तं हस्तशतात् परं दूरमासन्नं वा गत्वा च समागतो यथाविधि गुरुसमक्षमालोचयेदिति भावः । आलोचना चेयमावश्यकेषु यातायातेषु सूपयुक्तस्यादुष्टभावत्वादतिचारविधुरस्याप्रमत्तस्य छद्मस्थस्य यतेर्द्रष्टव्या, सातिचारस्य त्वन्यप्रायश्चित्तसम्भवात् । केवलज्ञानिनश्च कृतकृत्यत्वेनालोचनाया अयोगात् । छद्मस्थस्याप्रमत्तस्य तु यथाशास्त्रं १. विहायायोग्यवस्थां सर्वासु सरागवीतरागाद्यवस्थासु भवस्थजीवानां कर्मबन्धवैचित्र्यं सूरय आहु: केचिदायुर्वर्जसप्तविधकर्मोपार्जकाः केचिन्मोढायुर्वर्जषद्विधकर्मार्जकाः केचिच्च द्विसमयस्थितिकैकविधकर्मबन्धका इति, तथाच विराधनायास्सम्भवेन भिक्षाटनादिविहितानुष्ठानमपि आलोचनाप्रतिक्रमणादिप्रायश्चित्तसमन्वितं भवतीति भावः ॥ २. तत्र परिहारशब्देन मूलप्रायश्चित्तमुपलक्षितम् उपस्थापनपदेन चानवस्थाप्यपाराञ्चिके सङ्गृहीते, परिहारश्च मासादिकः षण्मासान्त इति ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप: ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते प्रवृत्त्या निरतिचारत्वेऽपि चेष्टासूक्ष्मप्रमादनिमित्तसूक्ष्माश्रवसम्भवेन तच्छुद्ध्यर्थमालोचनाss वश्यकीति विज्ञेया ॥ प्रतिक्रमणमाह : २२१ : अतिचारात्प्रतिनिवर्त्तनं प्रतिक्रमणम् ॥ अतिचारादिति । यन्मिथ्यादुष्कृतिमात्रेणैव शुद्धिमासादयति न च गुरुसमक्षमालोच्यते 5 तदहं प्रायश्चित्तं प्रतिक्रमणम् । यथा सहसाऽनुपयुक्तेन यदि श्लेष्मादि प्रक्षिप्यते न च हिंसादिका दोष आपद्यन्ते तर्ह्यलोचनामन्तरेणापि मिध्यादुष्कृतप्रदानेन शुद्ध्यति, तत्प्रतिक्रमणमिति भावः । समितिप्रमुखाणां सहसाऽनाभोगतो वा कथमपि प्रमादे सति अन्यथाकरणे प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतप्रदानलक्षणं प्रायश्चित्तं क्रियत इति तात्पर्यम् ॥ मिश्रमाचष्टे 10 उभयात्मकं मिश्रम् | उभयात्मकमिति । आलोचनविशिष्ट प्रतिक्रमणमित्यर्थः । यस्मिन् पुनः प्रतिसेविते यदि गुरुसमक्षमालोचयति आलोच्य गुरुसन्दिष्टः प्रतिक्रामति- पश्चाच मिध्यादुष्कृतमिति ब्रूते तदा शुद्ध्यति तदालोचनप्रतिक्रमणलक्षणोभयार्हत्वान्मिश्रं नानाप्रकारान् शब्दादीनिन्द्रियविषयीभूतान् विषयाननुभूय कस्यचिदेवं संशयस्स्याद्यथा शब्दादिषु विषयेषु रागद्वेषौ 15 गतोऽहं नवेति ततस्तस्मिन् संशयविषये पूर्वं गुरूणां पुरत आलोचनं तदनन्तरं गुरुसमा - देशेन मिथ्यादुष्कृतदानमित्येवंरूपं प्रायश्चित्तं भावयतो मिश्रं प्रतिपद्यते, यदि हि निश्चितं भवति यथाऽमुकेषु शब्दादिषु विषयेषु रागं द्वेषं वा गत इति, तत्र तपोऽर्ह प्रायश्चित्तं, अथैवं निश्वयो न गतो रागं द्वेषं वेति तत्र स शुद्ध एव न प्रायश्चित्तविषय इति भावः ॥ विवेकं व्याख्याति - गृहीतवस्तुनोऽवगतदोषत्वे परित्यजनं विवेकः ॥ १. सहसाकारतो वाsनाभोगतो वा यदि मनसा दुश्चिन्तितं वचसा दुर्भाषितं कायेन दुश्चेष्टितं यदीर्यायां कथां कथयन् व्रजेत् भाषायामपि यदि गृहस्थभाषया ढड्ढरस्वरेण वा भाषेत, एषणायां भक्तपानगवेषणवेलायामनुपयुक्तो भाण्डोपकरणस्यादाने निक्षेपे वाऽप्रमार्जयिताऽप्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले उच्चारादीनां परिष्ठापयिता च न च हिंसादिदोषमापन्नः, तथा यदा कन्दर्पो हासो वा स्त्रीभक्तचौर जनपदकथाकरणं वा क्रोधमानमायालोभेषु गमनं विषयेषु वा शब्दादिष्वनुषङ्गो ज्ञानदर्शनचारित्रप्रतिरूपविनयाकरणे च तदा प्रतिक्रमणं प्रायश्चित्तमिति भावः ॥ 20 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२२ : तस्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे गृहीतेति । यथाऽऽधाकर्मणि गृहीते परित्याग एव कृते शुद्धिमासादयति नाऽन्यथा, सोऽयं परित्यागो विवेकात्मकं प्रायश्चित्तमित्यर्थः । अशठभावेन साधुना सवितुरुद्गतादिश्रमतो गृहीतमशनादिकं ततो भ्रमेऽपगते शठभावेनाऽशठभावेन वाऽर्धयोजनातिक्रमेण नीते आनीते वाऽशनादिके तत्र विवेक एव प्रायश्चित्तमिति भावः, अत्र शठ इन्द्रियमायावि5 कथाक्रीडादिभिः कर्म कुर्वन् , ग्लानभयादिकारणतस्त्वशठः ।। व्युत्सर्गमभिधत्ते गमनागमनादिषु विशिष्टचित्तैकाग्र्यपूर्वकं योगव्यापारपरित्यागो व्युत्सर्गः॥ गमनागमनादिष्विति । विशिष्टचित्तैकाप्रतापूर्वकं योगव्यापारनिरोधः कायोत्सर्गा10 परनामा यः प्रायश्चित्तविशेषः प्राणातिपातादिसावद्यबहुले गमनागमनदुस्स्वप्मनौसन्तरणादिविषये भवति स व्युत्सर्ग इति भावः ॥ तपो निरूपयतिछेदग्रन्थजीतकल्पान्यतरानुसारेण गुर्वनुशिष्टानुष्ठानविशेषस्तपः ॥ छेदग्रन्थेति । सचित्तपृथिवीकायादिसङ्घट्टने समापतिते छेदग्रन्थानुसारेण जीतक15 ल्पानुसारेण वा षण्मासावसानो निर्विकृतिकादिको यस्तपोविशेषो दीयते तत्तपःप्रायश्चित्तमित्यर्थः ॥ छेदमाहतपसा दुर्भेद्यस्य दिवसमासादिक्रमेण श्रमणपर्यायापनयनं छेदः॥ तपसेति । विशोधयितुं तपसा मुनेरशक्यस्य यन्महाव्रतारोपणकालादारभ्याहोरात्र20 पश्चकादिना क्रमेण श्रामण्यपर्यायछेदनं क्रियते स छेदः, तपोदुर्दमश्च षण्मासक्षपकोऽन्यो १. रात्रिंदिवपञ्चकादारभ्य रात्रिंदिवपञ्चकादिवृद्ध्या तावन्नेयं यावत् षण्मासम् । उत्सारकं शास्त्रं छेदप्रन्थः स च षड्विधः, निशीथं महानिशीथं दशाश्रुतस्कन्धो बृहत्कल्पो व्यवहारः पञ्चकल्पश्चेति । जीतमाचरितं तस्य कल्पो वर्णना जीतकल्पः तत्प्रतिपादकः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणरचितोऽष्टपञ्चाशद्गाथामयः छेदश्रुतविशेषः ॥ २. व्रतपर्यायच्छेदनमात्रं छेदः सर्वपर्यायछेदस्तु न भवति, तथात्वे च मूलमेव स्यात् । यथा शेषाङ्गरक्षार्थ व्याधिदूषितमङ्गं छिद्यते एवं व्रतशेषपर्यायरक्षार्थ अतिचारानुमानेन दूषितः पर्याय एव छिद्यत इति भावः ॥ .. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपः ] म्यायप्रकाशलमलङ्कृते : २२३ : वा विकृष्टतपःकरणसमर्थस्तपसा गर्वितो भवति किमनेन तपसा ममेत्यभिसन्धिमान् तपः करणासमर्थो वा ग्लानासह बालवृद्धादिस्तथाविधतपः श्रद्धानरहितो वा निष्कारणतोऽपवादरुचिर्वेति ध्येयम् ॥ मूलमाह प्रारम्भतः पुनर्महाव्रतारोपणं मूलम् ॥ प्रारम्भत इति । यस्मिन् समापतिते निरवशेषपर्यायोच्छेदमाधाय पुनर्महाव्रतारोपणं क्रियते तादृशं प्रायश्चित्तं मूलमित्यर्थः । आकुट्टा पश्चेन्द्रियवचे विहिते दर्पेण मैथुने सेवि मृषावादादत्तादानपरिग्रहेषु प्रतिसेवितेषूत्कृष्टेषु अनाकुट्टया पुनः पुनस्सेवितेषु वा मूलाभिधानमेतत्प्रायश्चित्तं भवतीति भावः ॥ अनवस्थाप्यमाचष्टे - अकृततपोविशेषस्य दुष्टतरस्य कियत्कालं व्रतानारोपणमनवस्था अथ पाराचितमाह - राजधादितीर्थकरायाशातनाकरणेन यावद् द्वादशवर्षमतिचारपारगमनतो राजप्रतिबोधादिप्रवचनप्रभावनया पुनः प्रव्राजनं पाराश्चितम् ॥ 5 प्यम् ॥ अकृतेति । येन पुनः प्रतिसेवितेनोत्थापनाया अप्ययोग्यो न स्थाध्यते व्रतेषु कश्चित्कालं, यावन्नाद्यापि प्रतिविशिष्टं तपश्चीर्णं भवति पश्चाच्च चीर्णतपास्तदोषोपरतौ व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यं प्रायश्चित्तमित्यर्थः । मुष्टियष्टिप्रभृतिभिस्स्वस्य परस्य स्वपरपक्षगतस्य 15 वा घोरपरिणामतः प्रहरणेनातिसंक्लिष्टचित्ताध्यवसायो न स्थाप्यते प्रतेषु यावदुचितं तपो न कृतं स्यात्, उचितश्च तपः कर्म उत्थाननिषदनाद्यशक्तिपर्यन्तं स हि यदोत्थानाद्यपि कर्तुमशक्तस्तदाऽन्यान् प्रार्थयते, आर्याः ! उत्थातुमिच्छामीत्यादि, ते तु तदा तेन सह संभाषण - मकुर्वाणास्तत्कृत्यं कुर्वन्ति, एतावति तपसि कृते तस्योपस्थापना क्रियत इति बोध्यम् ॥ १. एवं मूलोत्तरगुणभङ्गसम्पर्के वान्तदर्शनचारित्रे त्यक्तदशविधसामाचारीरूपे तपोगर्वितादिषु च मूलं प्रायश्चित्तं बोध्यम् । नवमदशमप्रायश्चित्तापत्तावपि भिक्षोर्मूलमेव प्रायश्चित्तं, अकृतकरणस्याचार्यस्य कृतकरणस्योपाध्यायस्य त्वनवस्थाप्यं प्रायश्चित्तमिति ॥ 10 20 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४: तत्वन्यायधिभाकरे [ अष्टमकिरणे राजवधादीति । यस्मिन् प्रतिसेविते लिङ्गक्षेत्रकालतपसां पारमश्चति तत्पाराश्चितं, पारमन्तं प्रायश्चित्तानां तत उत्कृष्टतरप्रायश्चित्ताभावादपराधानां वा पारमश्चति गच्छतीत्येवं शीलं पाराश्चि, तदेव पाराश्चिकमिति नामान्तरम् । राजवधस्वलिङ्गियात्मदिसेवनाभिरिदं प्रायश्चित्तमापद्यते, एतच्चाचार्याणामेव जघन्यत षण्मासानुत्कृष्टतो द्वादशवर्षाणि यावद्भवति 5 ततश्चाऽतिचारपारगमनानन्तरं प्रव्राज्यते । प्रव्राजनञ्च राजप्रतिबोधादिप्रवचनप्रभावेण तस्य भवतीति भावार्थः । तद्दशविधं प्रायश्चित्तं देशं कालं शक्तिं संहननं संयमविराधनाञ्च कायेन्द्रियजातिगुणोत्कर्षाश्च प्राप्य विशुद्ध्यर्थं यथाहं दीयते चाचर्यते च । तत्रोपाध्यायस्य पाराश्चिकयोग्यापराधसम्भवेऽपि अनवस्थाप्यमेव प्रायश्चित्तं न तु पाराञ्चितं, अनवस्थाप्यान्तस्यैवोपाध्यायस्य शास्त्रे प्रतिपादनात् सामान्यसाधूनामपि अनवस्थाप्यपाराश्चितयो10 ग्यापराधसम्भवे मूलान्तमेव प्रायश्चित्तं, तच्चानवस्थाप्यमाशातनानवस्थाप्यमाश्रित्य जघ न्यतो यावत् षण्मासान् वर्षमुत्कर्षेण प्रतिसेवनानवस्थाप्यापेक्षया तु जघन्यतो वर्षमुत्कृष्टतो द्वादशवर्षाणि भवति । तीर्थकरप्रवचनगणधराद्यधिक्षेपकारी-आशातनानवस्थाप्यः, हस्तताडनसाधर्मिकान्यधार्मिकस्तैन्यकारी प्रतिसेवनानवस्थाप्य इति ॥ अधुना विनयं निरूपयति ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारान्यतमो विनयः, तत्र नम्रतापूर्वकं ज्ञानाभ्यासो ज्ञानविनयः । जिनेन्द्रोक्तपदार्थेषु निश्शङ्कितत्वं दर्शनविनयः । श्रद्धयाऽनुष्ठानेन च चारित्रप्ररूपणं चारित्रविनयः, गुणाधिकेष्वभ्युत्थानाद्यनुष्ठानमुपचारविनयः॥ ज्ञानदर्शनेति । अनाशातनाभक्तिबहुमानकीतिप्रकाशनात्मको विनयः कर्मरजोहारक20 त्वात् स च ज्ञानाद्यात्मकविषयभेदाच्चतुर्विधः तथा च ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारान्यतमविष यकानशातनादिमत्त्वं विनयस्य लक्षणम् । ज्ञानलाभायाऽऽचारविशुद्धये सम्यगाराधनाय च विनयो भवति । ज्ञानविनयमाह-तत्रेति, अनलसेन शुद्धमनसा देशकालादिविशुद्धिविधान . 1. 15 १. मूले राजवधादीत्यनेन प्रतिसेवनापाराञ्चिकः तीर्थकरादीत्यनेनाशातनापाराञ्चिकश्च सूचितः । आये. नादिनामात्यप्राकृतगृहस्थादीनां वध सङ्ग्रहः द्वितीयेन च सङ्घश्रुताचार्यगणधरमहातपस्विनाम् ॥ २. जघन्यमिदमाशातना पाराञ्चिकस्य, अस्योत्कर्षों द्वादशमासाः। प्रतिसेवनापाराञ्चिकस्य तु जघन्यं संवत्सरकालं, उत्कर्षतस्तु द्वादशवर्षाणीति ॥ ३. अनाशातना तीर्थकरादीनां सर्वथाऽहलना, तेष्वेवोचितोपचाररूपा भक्तिः तेष्वेवान्तरभावप्रतिबन्धो बहुमानः, तेषामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना कीर्तिप्रकाशनम् । तीर्थकरसिद्धकुलगणसंघक्रियाधर्मध्यानज्ञानज्ञान्याचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां सम्बन्धीनीति विनयपदानि त्रयोदश तेषां अनाशातना. द्यपाधिभेदेन चतुर्भिर्गुणनातू द्विपञ्चाशद्भेदा भवन्तीति ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत्यम् ] न्यायप्रकाशसमलहते विचक्षणेन सबहुमानं यथाशक्ति सेव्यमाना ये मत्यादयस्तेषु योऽभ्यासः ग्रहणधारणस्मरणादिर्ज्ञानविनय इति भावः । दर्शनविनयमाह-जिनेन्द्रोक्तेति, भगवद्भिपदिष्टाः पदार्थाः यथालक्षणा एव वर्तन्ते नान्यथावादिनो जिना इति निःसंशयता, तथाऽर्हत्प्रणीतस्य धर्मस्याचार्योपाध्यायस्थविरकुलगणसंघसाधुसमनोज्ञानां चानाशातना प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽsस्तिक्यानि च दर्शनविनय इति भावः । चारित्रविनयमाह-श्रद्धयेति । सामायिकादिपञ्च- 5 विधचारित्रेषु श्रद्धा तत्पूर्वकमनुष्ठानं यथावत्तत्प्ररूपणश्च चारित्रविनय इत्यर्थः । उपचारविनयमाह-गुणाधिकेष्विति । उपचरणमुपचारः श्रद्धासहितो व्यवहारो नैकविधस्सः, प्रत्यक्षेध्वाचार्यादिषु अभ्युत्थानाभिगमनाञ्जलिकरणवन्दनानुगमनादिरात्मानुरूपः परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिरूप उपचारविनयः । गुणैः सम्यग्ज्ञानदर्शनैर्देशविधसामाचारीसम्पद्भिश्चाधिका ये तेष्वित्यर्थः । शिष्टजनाचरिता विशिष्टक्रिया 10 सामाचारी स्वार्थिकष्यअन्तेन सामाचार्यशब्देन स्त्रीत्वविवक्षायां निष्पन्नोऽयं शब्दः । सा च प्रतिलेखनाप्रमार्जनभिक्षेोऽऽलोचनभोजनपात्रकधावनविचारस्थंडिलावश्यकभेदतः प्रतिदिनप्रभवा दशविधा भवतीति दिक् ॥ सम्प्रति वैयावृत्त्यमाह-.. प्रभुसिद्धान्तोदितसेवाद्यनुष्ठानप्रवृत्तिमत्वं वैयावृत्त्यम् । तचाचार्यो- 15 पाध्यायतपस्विशैक्षकग्लानकुलगणसंघसाधुसमनोज्ञभेदाद्दशविधम् । एतलक्षणान्यग्रे वक्ष्यन्ते ॥ प्रविति । कामचेष्टाया द्रव्यान्तराद्वा व्यावृत्तस्य प्रवचनप्रेरितक्रियाविशेषानुष्ठानपरस्य भावः तथापरिणामः कर्म वा वैयावृत्त्यम् । प्रवचनेषु कथितानि यानि सेवादिरूपाण्यनुष्ठानानि तत्र या प्रवृत्तिस्तथाविधपरिणामस्तद्वत्त्वमित्यर्थः । सेवा च क्षेत्रवसति- 20 प्रत्यवेक्षणभक्तपानधनपात्रभेषज़शरीरशुश्रूषणतदादेशगमनविद्यामंत्रप्रयोगादिविषया, .. समाध्याधानविचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्यसनाथत्वादिफलवती च । वैयावृत्त्यस्यास्याऽऽचार्यादिविषयकत्वाद्दशविधत्वमिति ज्ञापनायाऽऽह-तच्चेति, वैयावृत्त्यमपीत्यर्थः, समनोज्ञभेदादिति, समनोज्ञानां भेदादिति विग्रहः, तथाचाऽऽचार्यादीनां भेदाद् वैयावृत्त्यमपि दशविधमित्यर्थः, वैयावृस्ययोग्यानां दशविधत्वाद्वैयावृत्त्यमपि दशविधमिति भावार्थः, इदञ्च क्रियायाः प्राधान्य- 25 १. आचार्यादिविषयकशास्त्रोदितक्रियाविशेषानुष्ठानप्रवृत्तपुरुषपरिणाम इति भावव्युत्पत्त्यर्थः, कर्मव्युत्पत्त्यर्थस्तु तादृशानुष्ठानप्रवृत्तपुरुषकर्तृकक्रियेत्यर्थः, भावव्युत्पत्तौ तादृशव्यापारपरिणतस्यैव वैपावृत्त्यमुक्तं भवति तदा Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६३६ तस्वन्यायविभाकरे [ अष्टसकिरणे पक्षे । क्रियाक्रियावतोरभेदपक्षे यथाश्रुतमपि सम्यगेव । तत्र किंरूपा आचार्यादय इत्यत्राह एतदिति, लक्षणानि स्वरूपाणि अग्रे सम्यक्चरणनिरूपणे ॥ । स्वाध्यायमाह कालादिमर्यादयाऽध्ययनं स्वाध्यायः ॥ 5 कालादीति । आ मर्यादया शास्त्रप्रतिपादितयाध्ययनं पठनं आध्यायः सुष्ठु शोभन आध्यायः स्वाध्यायः, तत्र हि अस्वाध्यायिकं संयमघात्युत्पातनिमित्तदेवताप्रयुक्तसंग्रामशारीररूपेण पञ्चविधं परसमुत्थं, एषु स्वाध्यायं विदधतस्साधोस्तीर्थकृदाज्ञाभङ्गादयो दोषा भवन्ति । अत ईदृशं कालं विहाय उचितकालेषु अध्ययनं स्वाध्याय उच्यते । आदिना पौरुष्यपेक्षा ग्राह्या, तथाच कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षयाऽध्ययनं स्वाध्याय इत्यर्थः । स 10 च. वाचनाप्रच्छनापुनरावर्तनाऽनुत्प्रेक्षाधर्मकथाभेदतः पञ्चविधः, शिष्येभ्यः कालिकस्योत्कालिकस्य वाऽऽलापकप्रदानं निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वा वाचना, गृहीतवाचनेनापि शिष्येण सति संशये पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतसूत्रादेश्शङ्कितादौ प्रश्नः प्रच्छना, स्वोन्नतिपरातिसन्धानोपहाससंघोषप्रहसनादिभिर्वर्जितः संशयोन्मूलनाय निश्चयदाढाय वा परं प्रत्य नुयोग इति भावः । प्रच्छनया विशोधितस्य सूत्रादेविस्मरणं मा भूदिति तस्य द्रुतविलम्बिता15 दिदोषशून्यं घोषादिविशुद्धं गणनं परावर्तना, सूत्रवदर्थेऽपि विस्मरणसंभवेन तस्य मनसा विचिन्तनमनुत्प्रेक्षा, इत्थमभ्यस्तश्रुतेन कृतं धर्मस्य श्रुतरूपस्य व्याख्यानं धर्मकथा । प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायप्रवचनस्थितिसंशयोच्छेदपरवादिशंकानिरासपरमसंवेगतपोवृद्ध्यतिचारविशुद्ध्यादयोऽस्य फलमिति ॥ अधुना ध्यानस्वरूपमभिधत्ते20 चेतसो योगनिरोधपूर्वकैकविषयस्थिरतापादनं ध्यान, योगनिरोधः केवलिनां ध्यानम् ॥ चेतस इति । ध्यानशब्दो विवक्षाभेदेन भावकर्तकरणसाधनः, तत्र ध्येयं प्रत्यव्यावृत्तस्य भावमात्रेणाभिधाने ध्यातिानमिति भावसाधनः, ध्यायतीति ध्यानं बाहुलकल्युट विषयभेदात् वैया वृत्त्यस्य दो वाच्यः, क्रियाप्राधान्यपक्षेऽप्येवमेव वाच्यम् । यदा तु तादृशक्रियाणामाचार्यादि. सम्बन्धित्वेन क्रियायाः क्रियावतश्चाभेदः स्वीकियते तदाऽऽचार्यादय एव वैयावृत्त्यरूपा इति यथाश्रुतं आचार्यादिरूपतया वेयावृत्त्यविभजनं सम्यगेवेति भावः॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :२२७: प्रत्ययेन कर्त्तसाधनः । करणप्रशंसापरायामभिधानप्रवृत्तौ समीक्षितायां यथा साध्वसिः छिनसीति प्रयोक्तृनिर्वय॑योस्सतोरप्युद्यमननिपतनतंत्रत्वाच्छेदनस्यासौ कर्तधर्माध्यारोपः क्रियते तथा दिध्यासोरप्यात्मनः ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषतंत्रत्वाद् ध्यानादिपरिणामस्य कर्तत्वं युज्यते, पर्यायपर्यायिणोर्भेदाच्चास्य करणत्वमपि । एकविषयस्थिरतापादनमिति।" एकोऽन्यार्थेऽसहाये च प्रथमें केवले तथे" ति कोशादेकशब्दस्य बह्वर्थत्वेऽपि संख्यावाच्यत्रैकशब्दः। 5 वीर्यविशेषाद्धि निराबाधे स्थाने प्रज्वालिता दीपशिखेव चेतस एकस्मिन्विषये स्थिरतापादनं अनियतक्रियार्थस्य नियतक्रियाविशेषकतत्वेनावस्थापनम् , तच्च वाक्काययोरपि निरोध एवेति प्रोक्तं योगनिरोधपूर्वकेति वाक्कायनिरोधपूर्वकेत्यर्थः, अथवा मनोवाक्कायनिरोधपूर्वकेति तदर्थः, चेतशब्दस्य चिन्तापरपर्यायस्य ज्ञानमर्थः, तस्यैव यैकस्मिन्नर्थे स्थापनं ध्यानमुच्यते व्यग्रत्वे च तस्य ज्ञानत्वमेव नतु ध्यानत्वं, तथा च योगत्रयनिरोधपूर्वकं ज्ञानस्यैकविषयस्थि- 10 रतापादनं ध्यानमिति फलितार्थः । व्यापकमिदं लक्षणं छद्मस्थानां केवलिनाश्च ध्यानेष्विति सूचयितुमुक्तं योगनिरोध इति, योगनिरोधात्मकं केवलिनां ध्यानमप्येतादृशमेवेत्यर्थः । तत्रापि योगत्रयनिरोधपूर्वकं ज्ञानस्यैकविषयस्थिरतापादनस्य सत्त्वात् । नन्वेकस्मिन्नर्थे चित्तस्यैकक्रियाकर्तृत्वेन यद्यवस्थापनत्वस्यैव ध्यानत्वं तयर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिषु अर्थसङ्कमे द्रव्यात्पर्याये पर्यायाञ्च द्रव्ये सङ्क्रमरूपे शुक्लध्यानविशेषेऽव्याप्तमेकविषयकत्वाभावादिति चेन्मैवम् , 15 एकशब्दस्य प्राधान्यवाचित्वात् , अस्ति हि सङ्क्रमे तस्य तस्य प्राधान्यम् । तदिदं ध्यानमान्तमौहूर्तिकमेव, न दिवसमासादिपरिमाणं, ततःपरं दुर्ध्यानत्वाद् इन्द्रियोपघातप्रसङ्गात् अत एव न प्राणापानविनिग्रहो ध्यानं, तदुद्भूतवेदनाप्रकर्षेण शरीरपातप्रसङ्गात् , नापि मात्राकालपरिगणनं ध्यानं, वैयग्र्येण ध्यानस्वरूपहानिप्रसङ्गात् । ध्यानञ्चेदं गुप्त्यादिभिर्भवति । अन्यसंहननिनां तावत्कालमध्यवसायधारणसामर्थ्याभावादुत्तमसंहननवानेवाधिकारी, उत्तम- 20 संहननानि वर्षभनाराचवज्रनाराचनाराचार्धनाराचरूपाणीति ॥ नन्वनेन ध्यानेनाऽऽदयस्संगृहीता नवेति शङ्कायां सामान्येनोक्तं ध्यानं विभजमानस्सर्वानुस्यूतत्वं लक्षणस्याऽऽविष्करोति तदातरौद्रधर्मशुक्लभेदेन चतुर्विधम् ॥ १. तथाच मनएकाग्रतालम्बनं ध्यानं, ध्यानाभ्यासक्रिया भावना उक्तप्रकारद्वयरहिता या मनश्चेष्टा सा चिन्तेति सूच्यते । २. योगनिरोध एव केवलिनो ध्यानं न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावात् योगाश्चौदारिकादिशरीरसंयोगसमुत्था आत्मपरिणामविशेषव्यापारा एव । ३. सप्तसप्ततिलवप्रमाणः कालविशेषो मुहूर्त तदन्तर एवध्यानं छद्मस्थानां, तत्परतो भावना चिन्ता वा भवेत् बहुवस्तुसंक्रमे सति सुचिरमपि ध्यानप्रवाहो वा भवेन्न त्वेकमेव ध्यानं दिवसादिमानं भवेदिति भावः ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २२८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे .. तदिति । ध्यानमित्यर्थः शोकाक्रन्दनविलापादिलक्षणमातम् । उत्सन्नबद्धादिलक्षणं रौद्रम् । जिनप्रणीतभावश्रद्धानादिलिङ्गं धर्मम् । अबाधाऽसंमोहनादिलक्षणं शुक्लमिति, विस्तरस्तु यथाक्रममिति ॥ अथाऽऽत्तं लक्षयति5 इष्टानिष्टवियोगसंयोगरोगनिदानान्यतमविषयकं मोद्वेगचिन्तनमातम् । षष्ठगुणस्थानं यावदिदं भवति ।। इष्टानिष्टेति । ऋतं दुःखं शारीरं मानसञ्चाऽनेकप्रकारं, अथवाऽदनमात्र्तिस्तत्र भवमातम् । तद्धि चतुर्विधं, तत्रं प्रथममिष्टानां मनोहराणां विषयाणां वियोगे सति तत्प्राप्त्यर्थ सोद्वेगचिन्तनं अर्थान्तरचिन्तनादाधिक्येन प्रकृतेऽवरोधः, ते कथं नाम मे स्युरित्येवं विचि10 न्तनरूपम् । द्वितीय, अनिष्टानां शब्दस्पर्शरसगन्धानां विषयाणां संयोगे-इन्द्रियसम्बद्ध सोद्वेगचिन्तनं तद्वियोगाय, कथमहमेभ्यो विमुच्येयेति चेतसो निश्चलीकरणम् । तृतीयं, रोगस्य प्रकुपितानां पवनपित्तश्लेष्मणां सन्निपातेन संजातस्य शूलज्वरादिरूपस्य प्रतिचिकीर्षां प्रत्यागूर्णस्यानवस्थितमनसः धैर्योपरमात् सोद्वेगचिन्तनम् । चतुर्थं पुनः निदानं कारणं मोक्ष सुखं विरहय्य पुनर्भवविषयकसुखाय हेतुभूतं कामोपहतचेतसां तद्विषयकं सोद्वेगचिन्तनमिति । 15 चतुर्विधमपीदमा कृष्णनीलकापोतलेश्याबलाधानमज्ञानप्रभवं पौरुषेयपरिणामसमुत्थं पाप प्रयोगाधिष्ठितं परिभोगप्रसङ्गं नानासङ्कल्पासङ्गं धर्माश्रयपरित्यागि कषायाश्रयोपस्थानमनुपशमप्रवर्धनं प्रमादमूलमकुशलकर्मादानं कटुकविपाकासद्वेद्यं तिर्यग्भवगमनपर्यवसानं क्रन्दनशोचनपरिदेवनताडनादिलिङ्गगम्यं विज्ञेयम् । ध्यानस्यास्य ध्यातारं दर्शयति षष्ठेति, अविरतास्संयतासंयताः प्रमत्तसंयताश्चाऽस्य ध्यातारः केचित्प्रमत्तसंयता निदानं वर्जयित्वा 20 प्रमादोदयोद्रेकादार्त्तत्रयं विदधति नाप्रमत्तसंयतादयोऽस्य ध्यातार इति भावः ॥ अथ रौद्रमाह हिंसाऽसत्यस्तेयसंरक्षणान्यतमानुबन्धिचिन्तनं रौद्रम् । आपञ्चममेतत् ॥ . १. अमनोज्ञवस्तुसम्बन्धेन सम्बद्धस्य तद्वियोगार्थ स्मृतिः मनोज्ञवस्तुसंयोगेन सम्बद्धस्यामनोज्ञवियोगार्थ स्मृतिः, प्रथमो भेदः, शूलशिरोरोगादिवेदनाया वियोगप्रणिधानं तादृशवेदनाया अभावेऽपि असम्प्रयोगचिन्ता द्वितीयो भेदः, इष्टवस्तूनामिष्टवेदनायाश्चावियोगाध्यवसानं तृतीयो भेदः, निषेवितकामभोगसम्प्रयोगसम्प्रयुतस्य तदविप्रयोगस्मृतिसमन्वाहारश्चतुर्थो भेद इत्यपि क्वचित् ॥ .. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २२९ : हिंसेति । रोदयतीति रुद्रः क्रूरस्तस्येदं कर्म रौद्रं तत्र भवं वा । तदपि चतुर्विकल्पं, हिसानुबन्धिचिन्तनं - हिंसानिमित्तं चिन्तनमाद्यं, असत्यनिमित्तं द्वितीयं, स्तेयनिमित्तं तृतीयं, चतुर्थन्तु संरक्षणानुबन्धि विषयाणां शब्दादीनां तदानीं मनसः परितोषकराणां पश्चाच्च भृशं भीकरफलानां तत्साधनभूतानाश्च धनधान्यादीनां संरक्षणानुबन्धिध्यानमित्यर्थः । तदिदं अतिकृष्णनील कापोतलेश्याबलाधानं प्रमादाधिष्ठानं, नरकगतिफलावसानं मारणाभिलाष- 5 मरणेहाऽपरव्यसनप्रसन्नतानिर्दयत्वपरक्लेशकारित्वादिलिङ्गगम्यं, तीव्रवधबन्धसंक्लिष्टाध्यवसायप्रसवमवसेयम् । अस्य ध्यातारमाचष्टे आपञ्चममेतदिति । देशविरतं यावदित्यर्थः । आर्त्तरौद्रे ध्याने प्रकृष्टतमरागद्वेषानुगतत्वात् नरकादिचतुर्गतिकसंसारस्यैव हेतू भवतो न जातुचिन्मुक्तिहेतू इत्यवधेयम् ॥ सम्प्रति धर्मध्यानमाह - आज्ञापायविपाकसंस्थानान्यतमविषयकं पर्यालोचनं धर्मध्यानम् । अप्रमत्ततः क्षीणमोहं यावत् ॥ 10 आज्ञेति, धर्मः क्षमादिदृशलक्षणकः, नत्सम्बन्धिध्यानं धर्मध्यानम् । तच्चतुर्विधं, आज्ञाविषयक पर्यालोचनं, अपायविषयक पर्यालोचनं, विपाकविषयक पर्यालोचनं, संस्थान - विषयक पर्यालोचनेचेति । तत्रोपदेष्टुरभावेऽपि मन्दबुद्धित्वेऽपि कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाश्च 15 वस्तूनां लिङ्गनिदर्शनाला भेऽपि अवितथवादिनः क्षीणरागद्वेषास्सर्वज्ञा अन्यथा सन्तमन्यथा न जानन्त्येव न भाषन्त एव तत्कारणाभावात् अतस्सर्वथा सत्यमिदं तच्छासनं संसारसागरोत्तारकश्चेत्याज्ञां प्रमाणीकृत्यार्थावधारणमाज्ञाविषयकं पर्यालोचनरूपं प्रथमं धर्मध्यानम्। रागद्वेषकषायेन्द्रियवशीभूतानां प्राणिनां शारीरमानसदुःखचिन्तनं द्वितीयम्, रागद्वेषा १. एकेन्द्रियादीनां वधवेधबन्धनदहनाङ्कनमारणादिप्रणिधानं, पिशुनासभ्यासद्भूतघातादिवचनप्रणिधानं, परलोकापायनिरपेक्षपरद्रव्यहरणप्रणिधानं शब्दादिविषयसाधनपरिपालनव्यग्रत्वमिति चतुर्विधं रौद्रध्यानमिति भावः ॥ २. अपायोपायजीवाजीवविपाकविरागभवसंस्थानाऽऽज्ञाहेतुविचयानि चेति चतुर्विधेन संक्षिप्तमपि दशविधं तत् । दुष्टमनोवाक्कायव्यापाराणामपायः कथं हेयः स्यादित्येवंभूतस्संकल्पप्रबन्धो दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वादपायविचयम् । तेषामेव कुशलानां स्वीकरणमुपायः स कथमनुमेयः स्यादिति संकल्पप्रबन्ध उपायविचयं । असंख्येयप्रदेशात्मकसाकारानाका रोपयोगलक्षणादिस्वकृत कर्म फलोपभोगित्वादिचिन्तनं जीवविचयम् । धर्माधर्माकाशकालपुद्गलानामनन्तपर्यायात्मकत्वादिविचारोऽजीवविचयम् । विपाकविचयं टीकायामुक्तमेव । प्रेत्य स्त्रकृतकर्मफलभोगार्थं पुनः प्रादुर्भावो भवः, स चारघट्टघटीयंत्रवन्मूत्रपुरीषांत्र तंत्र निबद्ध दुर्गन्धजठरपुरकोटरादिष्वजस्रमावर्त्तनं, न चाऽत्र किश्चिज्जन्तोः स्वकृतकर्मफलमनुभवतश्चेतनमचेतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपद्यत इत्यादि भवसंक्रांत दोषपर्यालोचनं भवविचयम् । संस्थानविचयन्तु टीकायामुक्तम् । आज्ञा विचयमपि तत्रैव आगमविषयप्रतिपत्तौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वादप्ररूपकागमस्य कषच्छेदतापशुद्धिसमाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयमिति ॥ 1 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे दिभिः प्रदुष्टान्तःकरणा जन्तवो मूलोत्तरप्रकृतिविभागसम्भूतजन्मजरामरणगहनविपिनपरिभ्रमणपरिश्रमप्रभवप्रभूतदुःखाकुलास्सांसारिकसुखस्पृहयालवश्शरीरेन्द्रियाद्याश्रवद्वारप्रवाहपतिता मिथ्यावाज्ञानाविरतिपरिणता यथायोगमार्त्तरौद्रध्यानविशेषाभ्यां पर्याप्तं कर्मजाल. मादाय दीर्घकालं नरकादिगतिष्वपार्ययुज्यन्ते । केचिदिहापि कृतवैरानुबन्धाः परस्परमाक्रोशवधबन्धाद्याक्रोशभाजः क्लिश्यन्त इत्येवं प्रत्यवायप्रायेऽस्मिन् संसारे उद्वेगार्थमपापानां विचिन्तनं द्वितीयं धर्मध्यानम् । विपाकः कर्मफलानुभवस्तद्विवेकं प्रति प्रणिधानं विपाकविषयकपर्यालोचनं, तत्र ज्ञानावरणाद्यष्टविधं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशभेदभिन्नमिष्टानिष्टविपाकपरिणामं जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिकं नरकादिविविधविपाक, तद्यथा ज्ञाना वरणादुर्मेधस्त्वं, दर्शनावरणाचक्षुरादिवैकल्यं निद्रााद्भवश्च, असāद्याद् दुखं सवेद्यात्सुखानु10 भवः, मोहनीयाद्विपरीतग्राहिता चारित्रविनिवृत्तिश्च, आयुषोऽनेकभवप्रादुर्भावः, नाम्नोऽशुभ प्रशस्तदेहादिनिर्वृत्तिर्गोत्रादुच्चनीचकुलोत्पत्तिः, अन्तरायादलाभ इति, एवं निरुद्धचेतसः कर्मविपाकानुस्मरणं तृतीयं धर्मध्यानं । लोकद्रव्यसंस्थानस्वभावावधानं संस्थानविषयकपर्यालोचनम् , लोकस्य द्रव्यस्य च संस्थानमाकारविशेषः, लोकस्याधोमुखमल्लसंस्थानमधोलोकः, तदु ध्वं झल्लाकृतिस्तिर्यग्लोकः, स च ज्योतिय॑न्तराकुलोऽसंख्येयद्वीपसमुद्रपरिवेष्टितः ऊर्ध्वलोक 15 ऊर्वीकृतमृदङ्गाकृतिरुत्कृष्टशुभपरिणामोपेतः कल्पोपपन्नकल्पातीतदेवव्यापृत इत्येवं विचा रणा, द्रव्याणां तावद् धर्माधी लोकाकारौ गतिस्थितिहेतू , आकाशमवगाहलक्षणं, आत्मान उपयोगलक्षणाश्शरीरादर्थान्तरभूता अरूपाः कर्तार उपभोक्तारो निजकर्मणां शरीराकारा मुक्तौ त्रिभागहीनाकाराः, कालो वर्तनादिपरिणामी समयात्मकः, पुद्गलद्रव्यं शरीरादि कार्य, द्रव्यञ्चोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तमनन्तधर्मात्मकं नित्यानित्यैकानेकभेदाभेदसदसदादिस्वरूप20 मित्येवं प्रणिधानं चतुर्थं धर्मध्यानमित्यर्थः, ननु भावनानां धर्मध्यानेऽन्तर्भावस्तज्जातीयत्वा दिति चेन्न, अनित्यादिविषयविचिन्तनस्य ज्ञानरूपत्वे भावनाव्यपदेशात् , एकाग्रचिन्तानिरोधरूपत्वे धर्मध्यानत्वादित्येवं प्रवृत्तिनिमित्तभेदात्। ध्यानोपरमकालभावित्वाच्च भावनानां ततोथान्तरत्वात् । अस्य ध्यातारमाहाप्रमत्तत इति, सर्वप्रमादै रहिता अप्रमत्तास्तेभ्य आरभ्य क्षीणमोहपर्यन्तवर्तिनोऽस्य ध्यातारः, अत्र लक्षणघटकतया ध्यानकारणभूतो ध्यातव्यवस्तु25 निर्देशो धर्मध्यानावान्तरभेदः, अप्रमत्तत इत्यादिना ध्यातारश्च प्रदर्शिता उपलक्षकतया । तेन ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यविषया भावनाः, योग्यदेशकालाऽऽसनविशेषा वाचनाद्यालम्बनं मनोनिरोधादिक्रमः, अनित्यत्वादिभावनाः लेश्याविशेषः श्रद्धानादिलिङ्ग सुरलोकादिफलं च गृह्यते । सदा हि ज्ञानविषयकोऽभ्यासोऽशुभव्यापारनिरोधेन चेतस एकस्मिन् विषयेऽवस्थापको विशुद्धिकृद् भवनिर्वेदकृच्च भवति, एवं च ज्ञानेन ज्ञातपरमार्थों निष्प्रकम्पं Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्यानम् ] - म्यायप्रकाशसमलते । ध्यायायति । शङ्कादिदोषरहितत्वात्प्रशमस्थैर्यादिगुणगणोपेतः तत्त्वान्तरेऽभ्रान्तचित्तो दर्शनशुद्ध्या ध्यानाय प्रवर्तते, चारित्रभावनयोपात्तकर्मक्षपणमनुपात्ताशुभानादानं सम्यक्त्वादिशुभकर्मादानमयत्वेन ध्यानश्च प्राप्नोति, जगत्तत्त्वस्य सम्यग्ज्ञानाद्विषयस्नेहसङ्गाभावादिह लोकादिसप्तभयराहित्यादिहपरलोकाकांक्षावैधुर्यात् तथाविधक्रोधादिराहित्याच्च वैराग्यभावितमना ध्याने निश्चलो भवति, अपरिणतयोगादीनां युवत्यादिव्यतिरिक्तापेक्षया विजनो देशो 5 ध्यानयोग्यदेशः, युवत्यादियुतदेशस्तु सर्वदा वर्ण्य एव । परिणतयोगानां सुनिश्चलमनसां तु जनाकीर्णो जनशून्यो वा देशो ध्यानाय कल्पते । यत्र काले मनोयोगादिस्वास्थ्यमुत्तमं लभते स एव ध्यानकालो न तु दिवसनिशावेलाविशेषाः । या काचिन्निषण्णतादिरूपा देहावस्था प्रकृतध्यानानवरोधिनी स एवाऽऽसनविशेषो ग्राह्यो न त्विदमेवासनं कार्यमिति नियमः । श्रुतधर्मानुगतानां वाचनप्रच्छनपरिवर्तनानुचिन्तनादीनां चारित्रधर्मानुगतानां सामा- 10 यिकादिसामाचारीणां सम्यगासेवनया वरं धर्मध्यानं समारोहति, योगनिरोधक्रमस्तु धर्मध्याने न नियमितः परन्तु यथा स्वास्थ्यं भवेत्तथा कार्यः । धर्मध्यानोपरमेऽपि सदा साधुनाऽनित्याशरणैकत्वसंसारभावनाः सचित्तादिष्वनभिष्वङ्गभवनिर्वेदादिस्थिरतायै भावनीयाः । अत्र स्थितस्य क्रमविशुद्धाः पीतपद्मशुक्ललेश्यास्तीब्रमन्दादिभेदा अनुकूला भवन्ति । आगमोपदेशाऽऽज्ञानिसर्गतस्तीर्थंकरप्ररूपितानां द्रव्यादिपदार्थानां श्रद्धानमस्य लिङ्गं, सूत्रमागमः, 15 तदनुसारेण कथनमुपदेशः, अर्थ आज्ञा, निसर्गः स्वभावः । तथा जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसादानविनयसम्पन्नः श्रुतशीलसंयमरतो धर्मध्यायीति विज्ञायते, तथैवं ध्यायतस्सुरलोकादिकं भवतीति धर्मध्याने निमित्तानि विज्ञेयानि । क्षीणमोहं यावदिति, उपशान्तमोहक्षीणमोहयोस्तु शुक्ले ध्याने वक्ष्यमाणे प्राथमिकद्विभेदे अपि भवत इत्यपि बोध्यम् ॥ अथान्तिमं शुक्लध्यानमाह . ... 20 आज्ञाद्यविषयकं निर्मलं प्रणिधानं शुक्लम् । तच्च पृथक्त्ववितकैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियव्युपरतक्रियभेदेन चतुर्विधम् ॥ आज्ञादीति । आज्ञापायाद्यविषयकनिर्मलप्रणिधानत्वं लक्षणं आ"दिवारणाय निर्मलेति, धर्मध्यानव्यावृत्तये आज्ञाद्यविषयकेति, तादृशज्ञानवारणाय प्रणिधानमिति । लक्षणेनास्य भेदाप्राप्तेः कण्ठतस्तमाह तच्चेति । पृथक्त्ववितर्कमाद्यं, पृथक्त्वेन भेदेन-विस्तीर्ण- 25 भावेन वितर्कः श्रुतं यस्मिस्तत्पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क द्वितीयं, एकत्वेनाभेदेन वितर्को व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियं तृतीयं, सूक्ष्मा क्रिया यस्मिन्तत्सूक्ष्मक्रियं, अत्रोच्छ्वासनिश्वासादिकायक्रिया सूक्ष्मा भवति, व्युपरतक्रियं तुर्य, व्युपरता योगाभावात् क्रिया यस्य तद्व्युपरतक्रियमिति विग्रहः ।। . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे अथ प्रत्येकं तेषां भावमाह पूर्वविदां पूर्वश्रुतानुसारतोऽन्येषां तमन्तरेणार्थव्यञ्जनयोगान्तरसक्रान्तिसहितमेकद्रव्य उत्पादादिपर्यायाणामनेकनयैरनुचिन्तनं पृथक्त्ववितर्कम् । इदं सविचारम् ॥ 5. पूर्वविदामिति । एकस्मिन् द्रव्ये पुद्गलात्मादिरूप उत्पादव्ययध्रौव्यमू"मूर्तनित्यानित्यादियथायोग्यपर्यायाणां नानानयैर्द्रव्यास्तिकादिभिरनुचिन्तनं स्मरणं, कथमित्यत्राह पूर्व विदा पूर्वश्रुतानुसारेण, अन्येषां मरुदेव्यादीनां तमन्तरेणापि खियः पूर्वश्रुतानधिकारात् । एतेन पूर्वज्ञानस्यैकान्तनियमो नास्तीति सूचितम् , पूर्व प्रणयनात् पूर्वाणि चतुर्दश, तद्विदः पूर्वविद स्तेषां पूर्वविदां, पुनः कथंभूतं चिन्तनमित्यत्राहार्थव्यञ्जनयोगान्तरसङ्क्रान्तिसहितमिति । 10 अर्थो ध्येयः-द्रव्यं पर्यायो वा, व्यञ्जनं तस्य वाचकं वचनं, योगः कायवाङ्मनःकर्म लक्षणः, अन्यो योगो योगान्तरं तेषां संक्रान्तिः परिवर्तनं द्रव्यं विहाय पर्याय पर्याय विहाय द्रव्यं यदुपैति साऽर्थसङ्क्रान्तिः, एकं श्रुतवचनमुपादाय वचनान्तरमालम्बते तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जनसङ्क्रान्तिः, काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गृह्णाति तच्च त्यक्त्वाऽ न्ययोगमिति योगसङ्क्रान्तिः, अर्थव्यञ्जनयोगान्तरसहितत्वादिदं ध्यानं सविचारमुच्यत 15 इत्याशयेनाहेदमिति । सविचारमिति, सह विचारेणार्थव्यञ्जनयोगान्तरसङ्क्रान्त्या वर्तत इति सविचारम् । योगान्तरसङ्क्रान्तिरूपत्वादस्य ध्यानस्य योगत्रयव्यापारवतस्सम्भव इत्यपि पदेनानेन सूच्यते ॥ अथ द्वितीयप्रकारभावमाह पूर्वविदां पूर्वश्रुतानुसारेणाऽन्येषां तद्भिन्नश्रुतानुसारेणाऽर्थव्यजनयो20 गान्तरसङ्क्रान्तिरहितमेकद्रव्ये एकपर्यायविषयानुचिन्तनमेकत्ववितर्कम् । .. इदन्त्वविचारम् ॥ ... पूर्वविदामिति । व्याख्यातोऽर्थः, तद्भिन्नश्रुतानुसारेणेति, अत्र मरुदेव्यादीनां द्रव्यश्रुताभावेऽपि यत्किञ्चित् श्रुतमस्त्येवेति-सूचयितुं तमन्तरेणेत्यनुक्त्वा तद्भिन्नश्रुतानुसारेणेत्युक्तम् । अर्थव्यञ्जनयोगान्तरसंक्रान्तिरत्र नास्तीत्याहार्थव्यञ्जनयोगान्तरसङ्क्रान्तिरहितमिति, एकद्रव्य 25 इति, अभेदेनेति शेषः, अभेदेनैकद्रव्ये पर्यायविषयकालोचनमित्यर्थः, द्रव्याभिन्नपर्याय. विषयकं पर्यायाभिन्नद्रव्यविषयकं वेति यावत् । अर्थव्यञ्जनयोगान्तरसंक्रान्तिरहितत्वादेवेदं ध्यानमविचारमुच्यत इत्याहेदन्त्विति ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानम् ] अथ सूक्ष्मक्रियमाह - न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २३३ : सूक्ष्मकाय क्रियाप्रतिरुद्धसूक्ष्मवाङ्मनः क्रियस्य सूक्ष्मपरिस्पन्दात्मकक्रियावद्ध्यानं सूक्ष्मक्रियम् । इदमप्रतिपाति, प्रतिपाताभावात् ॥ सूक्ष्मकाय क्रियेति । मोक्षगमनप्रत्यासन्नसमये केवलिनो मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सत्यर्धनिरुद्धकाययोगस्योच्छ्वास निःश्वासलक्षणा तन्वी क्रियैव यत्र तथाविधं सूक्ष्मक्रियात्मकं 5 ध्यानमित्यर्थः । प्रथमं मनोयोगनिग्रहे ततो वाग्योगनिग्रहे ध्यानमिदं भवति । ध्यातुरस्य परिणामविशेषस्य प्रवर्धमानत्वेनेदं ध्यानमप्रतिपातीत्युच्यते, इत्याहेदमिति, हेतुमाह प्रतिपाताभावादिति, परिणाम विशेषस्येत्यादिः || अथ व्युपरत क्रियमाचष्टे निरुद्धसूक्ष्म कायपरिस्पन्दात्मकक्रियस्य ध्यानं व्युपरतक्रियम् इद- 10 मप्यप्रतिपाति । आये द्वे एकादशद्वादशगुणस्थानयोरन्त्ये द्वे केवलिन एव त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानक्रमेण ॥ निरुद्धेति । शैलेश्यवस्थावस्थितानां मनोवाक्काययोगत्रयरहितानां यद्ध्यानं तद्वद्युपरतक्रियमुच्यते । ननु शुक्लध्यानस्यान्तिमभेदद्वये मनसोऽभावेन मनोविशेषरूपध्यानत्वं कथमस्त चेन्न मनोमात्रस्य ध्यानरूपत्वाभावात् किन्तु सुनिश्चलस्यैव योगस्य तथात्वात् तस्य केवलि - 15 नस्सयोगिनस्सूक्ष्म क्रियात्मके ध्यानेऽक्षतेः कायात्मकयोगस्य सुनिश्चलत्वात् न च तथाऽप्ययोगिनो ध्याने चतुर्थे योगस्यापि कायस्याभावेन तत्राऽनुपपत्तितादवस्थ्यमिति वाच्यम्, कुलालचक्रभ्रमणवन्मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि पूर्वप्रयोगाद्ध्यानोपपत्तेः, द्रव्यमनसोऽभावेऽपि भावमनसस्सत्त्वेन ध्यानसंम्भवात् चेतसो ज्ञानरूपत्वेनैकविषयस्थिरीभूतज्ञानपरिणामरूप"यानस्यात्राप्यक्षतत्वाच्च ॥ प्रवर्धमानपरिणामविशेषवश्वादिदमप्यप्रतिपातीत्याहेदमपीति । 20 शुक्रुध्यानस्याधिकारिणमाहाद्ये इति । पृथक्त्ववितकत्ववितर्के इत्यर्थः, एकादशद्वादशगुणस्थानयोरिति । यथाक्रममिति शेषः, तथाच पृथक्त्ववितर्क मेकादशे, एकत्ववितर्क द्वादश इत्यर्थः । अन्तिमावधि प्रदर्शनपरमिदं, नाग्रिमगुणस्थानवर्त्तिनी इमे भवत इति भावः । पृथक्त्ववितर्कस्याsपूर्वगुणस्थानादिवर्त्तिनस्सम्भवेऽपि न क्षतिः । एकत्ववितर्कन्तु द्वादशगुणस्थान एव । अपूर्वगुणस्थानादाद्वादशमिदमपीति केचित् । अन्त्ये द्वे इति सूक्ष्मक्रिय - 25 ३० Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३४ : तस्वन्यायविभाकरे. [ अष्टमकिरणे व्युपरतक्रिये इत्यर्थः, सूक्ष्मक्रियं सयोगिनो व्युपरतक्रियमयोगिन इति तात्पर्यम् । अत्र भावनादेशकालासनविशेषा धर्मध्यानवत् । ध्यातव्या अवान्तरभेदा ध्यातारश्च मूल एव प्रदर्शिताः, क्षान्तिमार्दवार्जवादीन्यालम्बनानि, मनोयोगनिग्रहस्ततो वाग्योगनिग्रहस्ततः काययोगनिग्रह इति भवान्तकाले केवलिन आश्रित्य योगनिग्रहक्रमः, छद्मस्थ स्त्रिभुवनविषयमन्तः5 करणं प्रतिवस्तु त्यागलक्षणक्रमेण संकोच्याणौ विधायाऽतीव निश्चलश्शुक्लं ध्यायति, जिनस्तु चरमद्वयध्याता ततोऽपि प्रयत्नविशेषान्मनोऽपनीयाविद्यमानान्तः करणो भवति । तत्रापि शैलेशीमप्राप्तोऽन्तर्मुहूर्त्तेनाऽऽयं शैलेश्याश्च द्वितीयं ध्यायति । आश्रवद्वारापायान् संसाराशुभानुभावं अनन्तभव सैन्तानं वस्तुविपरिणाम चिन्तयतीति भावना, आद्यद्वयभेदापेक्षयाऽस्य भावना, शुकुलेश्या प्रथमत्रयभेदेऽन्तिमे च लेश्याविरहो बोध्यः । अवधासंमोह विवेक10 व्युत्सर्गा लिङ्गानि । शुभाssस्रवनिर्जरानुत्तरामरसुखानि द्वयोश्शुक्लयोः, अन्त्ययोस्तु परमनिर्वाणं फलमिति बोध्यम् ॥ अत्र ध्याने षोडशपादात्मक एकेन्द्रियविकलेन्द्रियस्थावर संज्ञ्य संज्ञिमनुजगतित्र सकायपश्चेन्द्रिययोगत्रयकषायचतुष्टयाहारकानाहार कोपशमक्षयोपशमक्षायिक सम्यक्त्ववेदत्रिकज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकभव्याभव्यमिध्यात्व सास्वादनमिश्रा विरतिदेश विरतिगतित्रिकाज्ञानत्रिकलेश्या15 षट्ककेवलज्ञानदर्शन सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्म सम्पराययथाख्यातमनः पर्यवान् षटूत्रिंशद्विधानाश्रित्य विचार्यमाणे, एकेन्द्रियविकलेन्द्रियस्थावरासंज्ञिनां मनसोऽभावेन नैकविधमपि ध्यानं सम्भवति, मनुजगतित्रसकाय पञ्चेन्द्रियक्षायिक सम्यक्त्वभव्येषु प्रत्येकं षोडशविधध्यानस्य सम्भवः, योगत्रयाहारकत्वयोः पञ्चदशविधध्यान सामानाधिकरण्यस्य सम्भवः, व्युपरत क्रियात्मक ध्यानविशेषसामानाधिकरण्यासम्भवात् । उपशमसम्यक्त्व कषाय20 चतुष्टयवेदत्रिषु त्रयोदशविधध्यान सहचारित्वस्य सम्भवः, क्षीणमोहादिगुणस्थानेष्वेषामसम्भवेन तत्स्थानभाव्येकत्व वितर्क सूक्ष्म क्रियव्युपरत क्रियैस्सहचारित्वासम्भवात् । ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकसंज्ञित्वेषु चतुर्दशविधध्यान सहवृत्तित्वसम्भवः, मनोविरहकालभावि सूक्ष्मक्रियव्युपरत क्रियध्यानविशेष सहवृत्तित्वासम्भवात् । अनाहारकत्व केवलज्ञानदर्शनेषु सूक्ष्मक्रिय - व्युपरतक्रियध्यानविशेषसामानाधिकरण्यमेव । त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थान भावित्वात्तेषाम् । 25 इतरध्यानानां मनोविषयकत्वाच्च । पञ्चसु लेश्यासु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वे च द्वादशध्यान सह १. काययोग एव सूक्ष्मक्रियस्य भावात् एकत्ववितर्कस्य कायवाङ्मनोऽन्यतमयोग एव भावात् पृथक्त्ववितर्कस्य तु मनोवाक्काययोगव्यापारवत एव भावादिति भेदो विज्ञेयः ॥ २. अणोरपीत्यर्थः ॥ ३. भाविनारकाद्यपेक्षयेति भावः ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते चारित्वं, शुक्लध्यानसामानाधिकरण्याभावात् । शुक्ललेश्यायाश्च व्युपरत क्रियातिरिक्तध्यानविशिष्टत्वं, अयोगिनि लेश्या वैधुर्यात् । सामायिकछेदोपस्थापनीययोर्निदानातिरिक्तार्त्तभेदत्रयं धर्मध्यानचतुष्टयं पृथक्त्ववितर्कच भवति । परिहारविशुद्धिकस्याऽनन्तरोक्तानि पृथक्त्ववितर्कविरहितानि भवन्ति श्रेणिप्रात्यभावात् । सूक्ष्मसम्परायस्य पृथक्त्ववितर्कं धर्मचतुष्टयं वा । दशमगुणस्थानमात्रवृत्तित्वात्तस्य यथाख्यातस्य चतुर्विधं शुक्लध्यानं धर्मध्यानं वा । मनः पर्यवज्ञानिनो 5 निदानातिरिक्तमार्त्तत्रयं धर्मचतुष्टयं शुकस्याद्यद्वय भवति । गतित्रिकाज्ञानत्रिकाविरतिदेशविरत्यभव्यतामिध्यात्वसास्वादनमिश्रभावानां ध्यानाष्टक साहचर्यं धर्मशुक्लाभावादिति दिक् ॥ : २३५ : अथाऽभ्यन्तर तपोभेदस्यावान्तरमन्तिमं व्युत्सर्गमाह - अनेषणीयस्य संसक्तस्य वान्नादेः कायकषायाणाञ्च परित्यजनमुत्सर्गः ॥ इति निर्जरातस्त्वम् ॥ अनेषणीयस्येति । विविधस्योत्सर्गो व्युत्सर्गः, व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गः । स द्विविधः, बाह्य आभ्यन्तरश्चेति । अनेषणीयस्य संसक्तस्यान्नपानोपध्यादेर्बाह्य द्रव्यस्य शास्त्रोदितविधिना परित्यागो बाह्यव्युत्सर्गः । आभ्यन्तरस्तु पर्यन्तकाले कायस्य संसारपरिभ्रामककषायाणां करणत्रिकैः कृतकारितानुमतिभिश्च परित्यागः, तदेतदभिप्रायेण समुचित्य तत्स्वरूपमाहानेष - णीयस्येति । न चाऽपरिग्रहादस्य गतार्थत्वमिति वाच्यम्, तस्य धनहिरण्याद्यमूर्च्छाविषयक - 15 त्वात् । नच प्रायश्चित्तान्तर्गतोऽयमिति वाच्यम्, तस्य प्रतिद्वन्द्व्यतिचारसापेक्षत्वात्, अस्य तु निरपेक्षत्वात् । नचाऽनेकत्रास्य वचनमनर्थकमिति वाच्यम् कचित्सावद्यप्रत्याख्यानात्, क्वचिन्निरवद्यस्यापि नियतकालं प्रत्याख्यानात् क्वचिच्चाऽनियतकालमिति निवृत्तिधर्मस्य पुरुषशक्त्यपेक्षत्वादुत्तरोत्तरगुणप्रकर्षादुत्साहोत्पादनार्थत्वाश्च न पौनरुक्त्यमितिभावः । अथ निर्जरां निगमयतीतीति ॥ इति तपोगच्छनभोमणि - श्रीमद्विजयानंद सूरीश्वर पट्टधर- श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनसन्यस्तात्मभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां निर्जरानिरूपणं नामाष्टमः किरणः ॥ १. अतिचारविशेषापेक्षणरहितत्वात्, सामान्येन निर्जरार्थत्वादिति भावः ॥ 10 20 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरण अथोक्त आगन्तुककर्मनिरोधकस्संवरो बद्धकर्मविध्वंसिका निर्जरा च, तत्र किमात्मकः कर्मणां बन्धः केन वा स इत्याकांक्षायामुपोद्घातसङ्गत्या बद्धकर्मणामित्यादिनिर्जरालक्षणेन बन्धस्य स्मृतत्वात्प्रसङ्गसङ्गत्याऽवसरसङ्गत्या वा बन्धं निरूपयितुकामः प्रथमं बन्धं लक्षयति आत्मप्रदेशैश्शुभाशुभकर्मसम्बन्धो बन्धः॥ 5 आत्मप्रदेशैरिति । सहार्थे तृतीया, आत्मप्रदेशैरसह शुभानां पुण्यरूपाणामशुभानां पापात्मकानाञ्च कर्मणां पुद्गलविशेषाणां सम्बन्धो नीरक्षीरवत्परस्पराश्लेषः कथञ्चिद्भेदाभेदरूपस्तदतिरिक्तसम्बन्धाभावात् सम्बन्धनरूपत्वाद्बन्ध इत्यर्थः । आत्मना सहेव सम्बद्धानां कर्मपुद्गलानां सम्बन्धो बन्ध उच्यते न घटादिना पुद्गलसम्बन्धस्येति सूचयितु मात्मेत्युक्तं, प्रदेशेन सहाऽपि बन्ध इति सूचयितुं प्रदेशैरिति । अत्र शुभाशुभकर्मस10 म्बन्धस्यैवबन्धरूपत्वं विवक्षितं, न तु शुभाशुभात्मककर्मवर्गणानामित्यभिप्रायं सूचयितुं शुभाशुभकर्मसम्बन्ध इति, अत एव पुण्यपापाभ्यां बन्धस्य पृथगुपादानं कृतम् । वस्तुतः कर्मणश्शुभरूपत्वमशुभरूपत्वञ्चेति द्वैविध्यमेव, उभयविधेनाऽपि कर्मणा सम्बन्धो बन्धो भवतीति सूचयितुं शुभाशुभेति, कर्मपदेन कर्मयोग्यपुद्गला ग्राह्याः, जीवग्रहण पूर्वं तेषां कर्मपरिणामाभावात् । शुभाशुभकर्मपदेनोत्तरप्रकृतिबोधात्तस्यैव बन्धो लक्षितो 15 न मूलप्रकृतिबन्धस्तथाचाऽव्याप्तिस्तत्र स्यात्तद्वारणायात्मप्रदेशैः कर्मसम्बन्धो बन्ध इत्येव लक्षणशरीरं विज्ञेयम् । अयश्च भावबन्ध उच्यते । यस्तु प्रयोगबन्धो विस्रसाबन्धश्च द्रव्यंबन्धरूपस्स नेहविवक्षितोऽप्रकृतत्वात् । आत्मप्रदेशैः पुद्गलसम्बन्धस्य न बन्धत्वं, मुक्तात्मना जीवेन सह पुद्गलसम्बन्धसत्त्वात् , पुद्गलानां व्यापकत्वात् लोकस्याञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्कव त्पुद्गलैः परिपूर्णत्वात् कर्मपदोपादाने च कर्मयोग्यपुद्गलानामेव ग्रहेण तत्सम्बन्धस्य तत्र 20 विरहान्न क्षतिः, रागादिगुणयोगाद्धि जीवः कायादियोगेन कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धाना दाय कर्मरूपतया परिणमय्याऽऽत्मसात्करोति नान्य इति, आत्मप्रदेशैरित्यनेन जीवस्स्वप्रदेशावगाढमेव दलिकं गृह्णाति न त्वनन्तरपरम्परप्रदेशावगाढं, तत्राऽपि एकस्मिन् जीवप्रदेशे यदवगाढं ग्रहणप्रायोग्यं दलिकं तदेकमपि सर्वैरेवात्मप्रदेशैगृह्णाति तस्य सर्वप्रदेशानां शृंखलावयवानामिव परस्परं संबद्धत्वात् , व्याप्रियमाणे चैकप्रदेशेऽनन्तरपरम्परतया तद्र25 व्यग्रहणाय सर्वप्रदेशानामपि व्याप्रियमाणत्वात्तथा सर्वत्रापि सर्वप्रदेशेष्वपि सर्वान् ग्रहण प्रायोग्यानवगाढान् स्कन्धान्सवैरेवाऽऽत्मप्रदेशैर्गृहातीत्यप्यर्थस्सूचितः। ननु कर्मैव नास्ति कुतस्तस्य जीवप्रदेशैरसम्बन्ध इति चेन्न, आत्मा स्वरूपेण शश्वज्ज्ञानवान तत्स्वभावत्वात् , यो १. प्रयोगेण भावबन्धो द्रव्यबन्धश्च भवति तत्र प्रयोगजन्यो द्रव्यबन्धो नेह विवक्षितस्तेन भावबन्धस्य प्रयोगजन्यत्वेऽपि न क्षतिरितिभावः ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते । यत्स्वभावस्स शश्वत्तद्वान् यथोष्णस्वभावो वविश्शश्वदौष्ण्यवान् ज्ञानस्वभावश्चाऽऽत्माततस्सोऽपि शश्वसद्वानित्यनुमानेन शश्वज्ज्ञानवतः स्वगोचरज्ञान प्रतिबन्धदर्शनेन तत्प्रतिबन्धकज्ञानावरणादिकर्मसिद्धेः, भूताविष्टपुरुषस्य स्वज्ञानप्रतिबन्धकभूतवत् । तच्च कर्मपौगलिकमेव, नात्मगुणरूपं, अमूर्तेरनुग्रहोपघाताभावात् आकाशं ह्यमूर्त दिगादीनाममूर्तानां नानुप्राहकं न वोपघातकश्च दृष्टं तथैवामूतं कर्म कथममूर्तस्यात्मनोऽनुग्रहोपघातयो- 5 हेतुर्भवेत् । न च तथापि कथं मूर्तेन कर्मणाऽमूर्तस्यात्मनो बन्धो नहि पुद्गलेनामूर्तेन अमू "नामाकाशादीनामनुग्रहोपघातौ दृष्टावितिवाच्यम् , आत्मनः कर्मसम्बन्धस्यानादित्वेनैकान्तिकामर्त्तत्वासिद्धेः । अत एवामर्तस्य ज्ञानस्य कथं मर्तेन ज्ञानावरणीयेन प्रतिबन्ध इति शंकापि परास्ता कथञ्चिन्मूर्तादात्मनो ज्ञानस्य सर्वथा भेदाभावेन तस्याऽपि कथञ्चिन्मूर्तत्वात् । एवञ्च निखिलकर्मात्मकस्य कर्माधारभूतस्य सर्वेषामौदारिकादिशरीराणां कारणभू- 10 तस्य प्रवाहतोऽनादिरूपस्य आमोक्षं जीवाविनाभूतस्य कार्मणशरीरस्य मिथ्यात्वादिप्रसूतस्य सिद्धौ तच्छरीरयुक्तो जीवः कर्मप्रायोग्यवर्गणा औदारिकादिवर्गणाश्च गृह्णन् योगवान् कषायस्नेहानुलिप्तः कर्मरजोभिरौदारिकादिशरीरैश्च कथश्चिदभेदेन सम्बध्यते, अत एव च तदवच्छिन्नस्यात्मनस्सुखदुःखानुभवः, स्ववीर्येणौदारिकादिपुद्गलानां चेतनतया परिणमितत्वात् । अन्यथा शरीरस्य जीवादत्यन्तभेदात्तदवच्छेदेन तस्य सुखदुःखसंवेदनं न स्यादिति। 15 न च कार्मणशरीरस्य मूर्त्तत्वे औदारिका दिशरीरवत्तस्यैन्द्रियकत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् , मूर्तमात्रस्यन्द्रियकत्वमिति नियमाभावात् , अत्यन्तसूक्ष्मतया परिणतत्वेन तस्य वैक्रियादिशरीरस्येव चर्मचक्षुषामतीन्द्रियत्वोपपत्तेः । कार्मणशरीरवत्त्व एव जीवो भवान्तरं प्राप्नोति, नान्यथा, औदारिकादिशरीरस्य तद्भव एव त्यागात् शरीरान्तरस्य चाभावात् । न चाऽशरीरस्यैव भवान्तरप्राप्तिरिति वाच्यम् , सदेहस्यैव तस्याऽत्र गमनदर्शनेनाऽन्यत्राऽपि तथाऽनुमा- 20 नात् , अत एव पूर्वप्रयोगादेवाशरीरस्य मुक्तस्य गमनमुक्तं, न चाऽचेतनस्य कथं देशान्तरप्रापणसामर्थ्यमिति वाच्यम् चेतनाधिष्ठितस्याचेतनस्याऽपि पोतादेरिव देशान्तरप्रापणसामो १. अखिलज्ञेयज्ञातृस्वभावस्यात्मनो ज्ञानं- सप्रतिबन्धक, स्वगोचरज्ञानप्रतिबन्धदर्शनात् भूताविष्टपुरुषज्ञानवत् इत्यनुमाने तेन भूताविष्टपुरुषज्ञानप्रतिबन्धकभूतवत् निखिलज्ञेयज्ञातृस्वभावस्यात्मनोऽपि ज्ञानस्य प्रतिबन्धकं कर्म सिद्धयति तेन च कार्मणशरीरमारभ्यते, तदभावे औदारिकादिशरीरसम्बन्धासिद्धेः, न 95 हि मूर्तामूर्तयोघंटाकाशयोरिवौदारिकादिशरीरात्मनोः परस्परानुप्रवेशस्सम्भवति। न च कथं कार्मणशरीरस्यात्मनामर्तेन सम्बन्धः, अनादिकालादात्मना कथञ्चित्तादात्म्यस्याभ्युपगम्यमानत्वेन तत्र पर्यनुयोगा सम्भवात् । जीवकर्मसंयोगस्यानादित्वेऽपि बीजाङ्करयोर्मध्येऽनिवर्तितकार्यस्य कस्यचिन्नाशः तत्समाननाशवत् तपस्संयमाद्यपायात्स व्यवच्छिद्यत इति बोध्यम् ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २३८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे पलम्भात् । तस्मात्कार्मणशरीरेणानादिसम्बद्धस्याऽऽत्मनस्संसारिण औदारिकादिशरीरसम्बन्धाद्बन्धसिद्धिरिति ॥ ननु कारणमन्तरेण न कापि कार्य दृष्टं, बन्धश्च कार्य तेनापि सकारणेन भवितव्यं, यद्यकस्मात्स तर्हि मोक्षोऽपि तथैव स्यात् न च तौ तथा, तदर्थ क्रियायाः विरोधप्रसङ्गात् 5 अतो बन्धकारणनिर्देशोऽवश्यं वाच्य इति तत्कारणान्याह स च मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगैर्यथायोगं समुत्पद्यते । स चेति । बन्धश्चेत्यर्थः। ननु बन्धकारणता मिध्यात्वादीनां समुदाये वा स्यादवयवे वा स्यादित्याशङ्कायामाह यथायोगमिति । तथाच न सर्वेषामेव हेतुत्वमपि तु मिथ्यादृष्टे श्चत्वारः समुदिता बन्धहेतवः, सास्वादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टीनाम10 विरत्यादयस्त्रयः, संयतासंयतस्याविरतिमिश्रौ कषाययोगौ च, प्रमत्तसंयतस्य, अप्रमत्तादीनां चतुर्णा च कषाययोगौ, शान्तक्षीणकषायसयोगकेवलिनां योग एव, अयोगकेवलिनां न बन्धहेतुः । तत्रापि मिथ्यात्वादीनि अवान्तरभेदविशिष्टानि प्रत्येकं बन्धकारणानि, नहि सर्वाणि मिथ्यात्वादीनि एकत्र जीवे युगपत्सम्भवन्ति नाऽपि हिंसादयः सर्वे परिणामा इति यथायोगशब्दरहस्यार्थः । यद्यपि तत्त्वार्थे प्रमादमपि गृहीत्वा पञ्चहेतुकत्वं 15 बन्धस्योक्तं, तथाऽप्यत्र कर्मग्रन्थानुसारेण चातुर्विध्यमुक्तम् , तत्र प्रकर्षण माद्यत्यनेनेति प्रमादः, विषयक्रीडाभिष्वङ्गः, यत्नारब्धेऽप्यनुत्थानशीलता वा । प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्यातशारीरमानसानेकदुःखहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि, सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणौ यस्माद्विचित्रकर्मो दयसाचिव्यजनितात्परिणामविशेषादपश्यन्निव तदुभयमविगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख 20 एवाऽऽस्ते जीवस्स खलु प्रमादस्तत्र हेतवोऽष्टौ, अज्ञानं-मूढतारूपम् , किमेवं स्यादन्यथावे त्यादिरूपस्संशयः, विपर्यस्तताप्रतिपत्तिरूपं मिथ्याज्ञानं, रागो द्वेषो विस्मरणशीलता लक्षणस्मृतिभ्रंशः, अर्हत्प्रणीतधर्मानादरात्मकोऽनुद्यमः, मनोवाकायानां दुष्टताकरणमिति, प्रमादोऽयं मद्यविषयकषायादिमिर्जायत इति मिथ्यात्वादिचतुर्विधेष्वेव यथायथमन्तर्भाव ___ इति कृत्वा लाघवार्थिना मूलकारेण पृथङ्नोक्त इत्यवधेयम् । एते चत्वारो बन्धस्य सामान्य25 हेतवो विशेषहेतवस्तु प्रदोषनिह्नवादयोऽप्र आवेदयिष्यन्ते इति दिक् ॥ ... तत्र मिथ्वात्वादीनामवान्तरभेदापेक्षया बन्धस्य सप्तपञ्चाशद्विधत्वात्तानाख्यातुमादौ मिथ्यात्वं निर्वक्ति Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वम् ] न्यायप्रकाशखमलते तत्रायथार्थश्रद्धानं मिथ्यात्वम् । तच्चाऽऽभिग्रहिकानाभिग्रहिकाऽऽभिनिवेशिकसांशयिकानाभोगिकभेदेन पञ्चविधम् ।। ___ तत्रेति । मिथ्यात्वादिचतुष्टय इत्यर्थे । यथार्थश्रद्धा हि सम्यग्दर्शनं, तद्विपरीतं मिथ्यात्वं, तत्त्वार्थश्रद्धानाभावोऽतत्वाध्यवसायरूपः, न तु विपर्यस्तश्रद्धानं विवक्षितं, सांशयिकादावसम्बध्यमानत्वात् तथा च तेषामसम्यग्रूपतया सम्यग्दर्शनविपरीतत्वान्नासङ्ग्रहः । तद्विभजते 5 तश्चेति ॥ अथाऽऽभिग्रहिकमाचष्टेकुदर्शने सद्दर्शनजन्यं श्रद्धानमाभिग्रहिकम् ॥ कुदर्शन इति । कुदेवकुगुरुकुधर्ममये दर्शने सद्दर्शनमिति मान्यता । इदमेव दर्शन समीचीनं नान्यदित्येवं वा यच्छ्रद्धानं, दर्शनाभासे तस्मिन् ग्राह्यत्वमतिस्तदभिग्रह आग्रहस्त- 10 निवृत्तत्वादाभिनहिकं मिथ्यात्वमुच्यत इति भावः । कुदर्शनविशेष्यकसदर्शनत्वप्रकारकज्ञानजन्यश्रद्धानत्वं लक्षणम् । सद्दर्शने सहर्शनत्वप्रकारकज्ञानजन्यश्रद्धानवारणाय कुदर्शनविशेष्यकेति । कुदर्शनं दर्शनर्मितिश्रद्धानस्य मिथ्यारूपत्वाभावात्सदिति, कुदर्शनं तुच्छमिति ज्ञानजन्यस्वदर्शनश्रद्धानेऽतिप्रसक्तिनिवारणाय सद्दर्शनत्वप्रकारकेति । अहंदर्शनं सत्यमन्यद्वेति सांशयिकमिथ्यात्वे व्यभिचारवारणाय जन्यश्रद्धानमिति । एवमप्रेऽपि यथा- 15 सम्भवमूह्यम् ॥ अनाभिग्रहिकमभिधत्ते सर्वदर्शनविशेष्यकसमत्वप्रकारकप्रतिपत्तिप्रयोजकं श्रद्धानमनाभिग्रहिकम् ॥ सर्वदर्शनेति । सर्वाणि दर्शनानि समीचीनान्येवेति मन्वानस्सर्वत्र साम्यतया श्रद्धां 20 विदधाति सा श्रद्धा अनाभिग्रहिकमिथ्यात्वमिति भावः। तथा मन्वानो यदा सन्देग्धि तदा सांशयिकं मिथ्यात्वं भवति तद्वारणाय श्रद्धानपदम् । अत्र तादृशप्रतिपत्तिजन्यं श्रद्धान १. लक्षणमिदमुपलक्षणं तेन सद्दर्शनधर्मिककुदर्शनत्वप्रकारकज्ञाननिबन्धनश्रद्धानत्वस्याऽपि सङ्ग्रहः । दर्शनशब्दोपादानेन देवगुरुधर्माणामपि तदन्तर्गततया तेऽपि गृहीता एवेति न न्यूनता बोध्या ॥ . .. २. एवं देवगुरुधर्माणामपि ग्रहणं विज्ञेयम् ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायक्मिाकरे [ नवमाकरणे जनकमप्यनाभिग्रहिकं भवतीति सूचयितुं पूर्वत्र जन्यतयाऽत्र च जनकतया लक्षणमभिहितमिति ध्येयम् ॥ आभिनिवेशिकमाख्याति तत्त्ववेत्तृत्वेऽप्यतदर्थेषु तदर्थताऽभिग्रह आभिनिवेशिकं ॥ 5 तत्ववेत्तृत्वेऽपीति । शास्त्रतात्पर्यबाधप्रतिसन्धानत्वेऽपीत्यर्थः । तेन श्रीजिनभद्रसिद्ध सेनादिप्रावचनिकप्रधानविप्रतिपत्तिविषयके पक्षद्वयेऽप्यन्यतरस्य वस्तुनः शास्त्रबाधितत्वात् तदन्यतरश्रद्धानवतो नाभिनिवेशित्वप्रसङ्गः। तेषां स्वाभ्युपगतार्थे शास्त्रतात्पर्यबाधप्रति. सन्धानेऽपि पक्षपातेन तत्प्रतिसन्धानाभावात् किन्त्वविच्छिन्नप्रावचनिकपरम्परया स्वाभ्यु पगतार्थानुकूलत्वेन शास्त्रतात्पर्यस्यैव प्रतिसन्धानात् । अतदर्थेषु अतथाभूतेष्वर्थेषु, तदर्थता10 भिग्रहः-दुष्टाभिनिवेशेन तथाश्रद्धानमित्यर्थः, गोष्ठामहिलादयो हि दुरभिनिवेशविप्लावितधियश्शास्त्रतात्पर्यबाधं प्रतिसन्धायैवान्यथा श्रद्दधते। अभिनिवेशे दुष्टत्वञ्च सम्यग्वक्तवचनानिवर्त्तनीयत्वं, तेन सम्यग्दृष्टेरपि अनाभोगात्प्रज्ञापकदोषाद्वा अन्यथा श्रद्धानसंभवेऽपि नाभिनिवेशिकत्वम् , तेषामभिनिवेशस्य सम्यग्वक्तृवचननिवर्तनीयत्वादिति भावः ॥ सांशयिकं वक्तिअर्हत्तत्त्वधर्मिकसत्यत्वसंशयजनकं मिथ्यात्वं सांशयिकम् ॥ . अर्हत्तत्त्वेति । भगवत्प्रोक्तानि जीवादितत्त्वानि सत्यानि नवेत्येवंरूपस्य संशयस्य जनक तज्जन्यं वा यन्मिथ्यात्वं तत्सांशयिकमित्यर्थः । अन्यप्रोक्ततत्त्वेषु सत्यत्वसंशयस्य जनक न तादृमिथ्यात्वमित्यतोऽर्हदिति यद्यपि सूक्ष्मार्थादिविषयस्संशयस्साधूनामपि संभवति तथापि स आगमोदितभगवद्वचनप्रामाण्यपुरस्कारेण निवर्त्तते, स्वरसवाहितयाऽनिवर्तमानश्च 20 स सांशयिकमिथ्यात्वरूपस्सन्ननाचारापादक एव, अत एवाकांक्षामोहोदयादाकर्षप्रसिद्धिरिति । अथानाभोगिकमिथ्यात्वमाहदार्शनिकोपयोगशून्यजीवानां मिथ्यात्वमनाभोगिकम् ॥ दार्शनिकेति । विशेषज्ञानविकलानामित्यर्थः, ते च विचारशून्या एकेन्द्रियादयो वा, अन्ततस्स्पर्शोपयोगस्यैकेन्द्रियादावपि सत्त्वादुपयोगशून्यजीवाप्रसिद्धिप्रयुक्तासम्भवन्यक्काराय 25 दार्शनिकेति । तत्राऽऽभिग्रहिकाभिनिवेशिके विपर्यासरूपत्वेन सानुबन्धक्लेशमूलत्वाद्रीयसी, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलहो शेषाणि च त्रीणि नात्यन्तानर्थसम्पादकानि विपरीतावधारणरूपत्वाभावेन सुप्रतीकारत्वात् इति ॥ अविरतिमाख्यातिहिंसाद्यव्रतेभ्यः करणैर्योगैश्चाऽविरमणमविरतिः । तस्याश्च मनः पश्चेन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपषड्विध- 5 जीवहिंसातश्चाप्रतिनिवर्तनरूपत्वाद्वादशविधत्वम् ॥ हिंसाद्यव्रतेभ्य इति । अविरमणमविरतिः, केभ्यः, अव्रतेभ्यः, तथाचाऽव्रतेभ्योऽविरमणमविरतिः । अकरणं हि विरतिः करणश्चाऽविरतिस्तथा च कैः करणमितिकरणाकांक्षा जायते, तत्राऽऽह-करणैर्योगैश्चेति । इन्द्रियैर्मनोवाक्कायरूपयोगैश्चेत्यर्थः, यदि कायेनैवेन्द्रियाणामपि ग्रहणं भवतीत्युच्यते तदा करणैः कृतकारितानुमतिभिरित्यर्थः । अव्रतानि कानी- 10 त्यत्राह हिंसादीति । आदिनाऽसत्यस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहाणां ग्रहणम् , यद्यपि हिंसादिभ्योऽविर. मणमेवाव्रतं तथापि हिंसादीनामपि अविरतिं प्रत्यनुकूलतयाऽवतत्वोक्तिः, न च हिंसादयो व्रतरूपा अपि स्युस्तद्विषयकविरमणरूपत्वाव्रतस्येति वाच्यम् , अत्यन्तप्रतिकूलतया विरतिं प्रति तथाकथनस्यानुचितत्वात् एवश्च हिंसाद्यव्रतेभ्यः कृतकारितानुमतिमनोवाकायान्यतमेनाविरमणमविरतिरिति भावः । हिंसाद्यन्यतमस्य कृतकारितानुमतिमनोवाकायान्यतमेन 15 करणमितियावत् । तस्या द्वादशविधत्वं द्वादशस्थानप्रदर्शनद्वारा प्रकटयति तस्याश्चेति, अविरतश्चेत्यर्थो द्वादशविधत्वमित्यनेनाऽस्य सम्बन्धः । कथं द्वादशविधत्वमित्यत्राह मन इति । मनसस्स्वस्वविषयेभ्योऽप्रतिनिवर्तनमित्येका पञ्चेन्द्रियाणां घ्राणरसनचक्षुश्श्रोत्रस्पर्शानां स्वस्वविषयेभ्योऽप्रतिनिवर्तनानीति पञ्च, षड्डिधजीवहिंसादिभ्योऽप्रतिनिवर्तनानीति षट् मिलित्वा च द्वादशविधत्वमिति भावः ॥ 20 कषायमाह कषायः पूर्वोदितपञ्चविंशतिविधः । वेदत्रयहास्यषट्कात्मकनोकषायः कषायसहगामित्वात्कषायपदवाच्यः ॥ कपाय इति । पूर्वोदितेति पापनिरूपणोदितेत्यर्थः । तथाचाऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोमाः, अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभाः, प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोमाः, संज्वलन- 25 क्रोधमानमायालोमा इति षोडशविधः कषायः । पुंस्त्रीनपुंसकहास्यरत्यरतिशोकमयजुगु Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४२: तस्वन्यायविभाकरे [ मवमकिरणे प्सारूपो नवविधो नोकषाय इति मेलनतः कषायः पञ्चविंशतिविध इति भावः । मनु नवविधनोकषायस्य कथं कषायत्वमित्यत्राह वेदत्रयेति पुंस्त्रीनपुंसकेतिवेदत्रयेत्यर्थः, हास्यषट्केति, हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्साषट्केत्यर्थः । कषायसहगामित्वादिति कषायेण सहैव वर्तमानत्वादित्यर्थः, दिग्दर्शनमिदं, तेन यदोषो यः कषायस्तत्सहचारिणां हास्यादीनामपि 5 तद्दोषत्वेन तत्कार्यकारित्वात्कषायत्वं तत्राप्यल्पकार्यकारित्वाच्च नोकषायत्वमितिबोध्यम् । चतुर्थं योगमाचष्टे योगो मनोवाकायव्यापारः। तत्र सत्यासत्यमिश्रव्यवहारविषयकमनोवाग्व्यापारा अष्टौ, तथौदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्राऽऽ हारकाऽऽहारकमिश्रकार्मणशरीरजन्यव्यापारास्सप्तेति पञ्चदशयोगाः॥ 10 योग इति । युज्यतेऽनेनेतियोगः, तत्र यद्यपि बन्धेऽभीप्सितालब्धवस्तुलाभे मेलने संयोगे शब्दादीनां प्रयोगे समुदायशब्दस्यावयवार्थसम्बन्धे द्रव्यतो बाह्ये मनोवाक्कायव्यापारे भावतोऽध्यवसायविशेषे च योगशब्दो वर्त्तते तथापि प्रकृतोपयोगिनं तदर्थ सूचयितुं मनोवाकायव्यापार इत्युक्तत्वान्मनोवाक्कायव्यापार एवात्र विवक्षितः । सोऽयं योगो द्विविधः, द्रव्ययोगो भावयोगश्चेति । जीवेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्क्यापाराप्रवृत्तानि मनोवागा15 दिद्रव्याणि द्रव्ययोगः । जीवस्य परिणामविशेषो वीर्यस्थामादिशब्दवाच्यो भावयोगः । अयमपि द्विधा प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति । तत्र प्रशस्तस्सम्यक्त्वादिरात्मनोऽपवर्गेण योजनात्, अप्रशस्तो मिथ्यात्वादिरष्टविधकर्मभिर्योजनात् । यद्वा मनोवाक्कायप्रवर्तकानि द्रव्याणि मनोवाक्कायपरिस्पन्दात्मको योगश्च द्रव्ययोगः, एतदुभययोगहेतुरध्यवसायो भावयोगः । तत्र द्रव्ययोगश्शुभोऽशुभो शुभाशुभश्च व्यवहारनयमात्रापेक्षया विधिमतिक्रम्य दानादि20 वितरणचिन्तनात्मकमनोयोगस्तथैव दानादिधर्मोपदेशात्मकवाग्योगस्तथैव जिनपूजावन्दनादि कायपरिस्पन्दात्मककाययोगश्च शुभाशुभो भवति । भावयोगस्तु शुभो वाऽशुभो वा न शुभाशुभरूपः, आगमे शुभाशुभात्मकाध्यवसायस्थानस्य तृतीयस्यानुक्तत्वात् । तदेव योगा अनुपयुक्तस्य कर्मबन्धायोपयुक्तस्य च कर्मनिर्जराकारिणो भवन्ति । सोऽयं योगः स्वरूपे णैकोऽपि मनोवाकायलक्षणसहकारिभेदात्रिविधः, मनसा करणेन योगो मनोयोगो वाचा 25 करणेन योगो वाग्योगः कायेन करणेन योगः काययोग इति । स वीर्ययोगो वीर्यान्तराय क्षयक्षयोपशमसमुत्थलब्धिविशेषप्रत्ययोऽभिसन्ध्यनभिसन्धिपूर्वकत्वात्सकरणः, अकरणश्च भवति । तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो यदृश्ययोरर्थयोः केवलज्ञानं केवलदर्शनश्चोपयुञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः । स च नेहाधिक्रियते वीर्या Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग: न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २४३ : न्तरायक्षयोपशमजन्यवीर्यविशेषस्यैव सकरणस्य कर्मसम्बन्धकस्याधिकृतत्वात्। तत्रौदारिकादि शरीरस्यात्मनोवीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, औदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीरव्यापाराहृतवाग्द्रव्यपुञ्जसाचिव्याजीवव्यापारो वाग्योगः, मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो जीवपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकाद्रव्यवदुपष्टम्भकरो मनोयोगः । सोऽयं मनोव्यापारो वाग्व्यापारश्च प्रत्येकं सत्यमृषासत्यमृषाऽसत्यमृषाभेदेन चतुर्विधत्वादुभयमेलनेनाष्टविधमनोवारजन्यो योग 5 इत्याशयेनाह सत्यासत्येति । मिश्रः सत्यमृषारूपो व्यवहारोऽसत्यमृषारूपः। काययोगस्य भेदमाह तथेति तत्र शुद्धा औदारिकवैक्रियाऽऽहारककार्मणशब्दा व्याख्याता औदारिकमिश्रस्तूच्यते औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र इति, यथा गुडमिश्रं दधि न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते ताभ्यामपरिपूर्णत्वादपितु मिश्र इति तद्वदत्रापि औदारिकमिश्रमौदारिकत्वेन कार्मणत्वेन वा न व्यपदिश्यते किन्तु औदारिकमिश्रतयेति, एवं वैक्रियाऽऽहारकमिश्रावपि । 10 यद्वा शुद्धा औदारिकाद्यास्तत्पर्याप्तकस्य मिश्रास्त्वपर्याप्तकस्येति । तत्रोत्पत्तावौदारिककायः कार्मणेन, औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियाऽऽहारककरणकाले च वैक्रियाहारकाभ्यां मिश्रो भवतीत्यौदारिकमिश्रः । देवाद्युत्पत्तौ कार्मणेन वैक्रियमिश्रः कृतवैक्रियस्य चौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकेण । आमरकमिश्रस्तु साधिताऽऽहारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे औदारिकेणेति । कार्मणस्तु विग्रहे केवलिसमुद्घाते चेति । एतेभ्यो जन्या 15 व्यापारा सप्त कायव्यापारा इतिमिलित्वा पश्चदशयोगा भवन्तीतिभावः । ननु मनोवाग्योगाः काययोगविशेषा एव, शरीरिणां कस्याश्चिदप्यवस्थायां काययोगस्यानिवृत्तः, अशरीरिणामेव तन्निवृत्त्यभ्युपगमात् तथा च मनोवाग्योगास्तद्भिन्ना न सन्तीति चेदुच्यते, एकस्यैव काययोगस्योपाधिभेदात्तथाव्यवहारात् । येन काययोगेन हि मनोवाग्द्रव्याणामुपादानं करोति स काययोगः, येन संरम्भेण वचोद्रव्याणि मुञ्चति स वाग्योगः, येन तु मनोद्रव्याणि 20 चिन्तायां व्यापारयति स मनोयोग इति । तथाच मनोवाग्योगौ काययोग एव, कायेनैव तद्रव्यग्रहणात् , प्राणापानवत् यथाहि प्राणापानव्यापारः कायेनैव तद्रव्यग्रहणात्कायिकयोगान्न भिद्यते तथा मनोवाग्योगावपि, न चेत्तथा, प्राणापानयोगोऽपि योगान्तरं स्यान्न चैतदिष्टं, तस्मात्काययोग एवाऽयं तद्वदिमावपि । न च मनोवाग्योगवत्प्राणापानव्यापारः किमितिनोक्तः, काययोगत्वस्याविशेषात् , अन्यथा प्राणापानव्यापारवत्तौ पृथग् न वाच्यावुपाधि- 25 भेदेनापि, उपाधिभेदेन योगचतुष्टयस्यैव वक्तव्यत्वौचित्यादितिवाच्यम् लोकलोकोत्तररूढस्य व्यवहारस्य सिद्ध्यर्थं तावेवोक्तत्वात् कायव्यापारातिरिक्ततया हि वाग्व्यापारो मनोव्यापारश्च स्पष्टतया दृश्यते लोके, यथा वाचः स्वाध्यायाचरणं परप्रबोधनादिकं मनसश्च धर्मध्यानादिकं व्यापारः, नैवं प्राणापानयोस्तयो स्तनुयोगान्तर्वर्तितयैव व्यवहारात् न चः जीवय Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे त्यसाविति प्रतीतिजननादिकं प्राणापानफलमस्तीति वाच्यम् , एवंविधप्रयोजनमात्रस्य सर्वत्र विद्यमानत्वेन धावनवल्गनादिव्यापाराणामपि योगत्वप्रसङ्गात् तस्माद्विशिष्टव्यवहाराङ्गभूतपरप्रत्ययनादिफलत्वाद् वाङ्मनोयोगावेव पृथग्वाच्यौ तदेवं तनुयोगो वानिसर्गविषये व्याप्रियमाणो वाग्योगो मनने व्याप्रियमाणो मनोयोगो भवति वाग्विषयो योगो वाग्योगः 5 मनोविषयो योगो मनोयोग इतिव्युत्पत्तेः । यद्वा काययोगगृहीतवाग्द्रव्यसमूहसाचिव्यात्तन्निसर्गार्थ यो जीवव्यापारविशेषस्स वाग्योगो वाचा सहकारिकारणभूतया जीवस्य योगो वाग्योग इति व्युत्पत्तेः, काययोगगृहीतमनोद्रव्यसमूहसहकारेण वस्तुचिन्तनाय योऽयं जीवस्य व्यापारः स मनोयोगो मनसा सहकारिकारणभूतेन जीवस्य योगो मनोयोग इति व्युत्पत्तेः, अस्मिन् पक्षे च मनोवाग्योगी काययोगाद्भिन्नावेव, वाङ्मनोद्रव्यनिसर्गचिन्त10 नादिकाले सतोऽपि काययोगस्याविवक्षणादितिदिक् ॥ तदेवं सप्रभेदान् बन्धहेतूनभिधाय प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपेण चातुर्विध्यस्य बन्धस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्य प्रथमं प्रकृतिबन्धमधुना लक्षयति रक्तद्विष्टात्मसम्बद्धानां कार्मणस्कन्धानां परिणामविशेषेण स्वस्वयोग्यकार्यव्यवस्थापनं प्रकृतिबन्धः ॥ 15 रक्तद्विष्टेति । रागो मायालोभकषायलक्षणः, द्वेषः क्रोधमानकषायलक्षण स्ताभ्यां केवलयोगेन वा युक्तेनात्मना सम्बद्धानां गृहीतानामित्यर्थः, अत एव रक्तद्विष्टसंबद्धानामित्यनुक्त्वा रक्तद्विष्टात्मसंबद्धानामित्युक्तं तेनाकषायिबन्धस्यापि संग्रहः । अनेनात्मनि कर्मसम्बन्धे हेतुरादर्शितः, रागादिस्नेहगुणयोगादात्मनि कर्मपुद्गलद्रव्यं लगतीति । कार्मणस्कन्धानामिति, कर्मयोग्यस्कन्धानामित्यर्थः । एतेन क्षेत्रान्तराव20 गाढाः कर्मपुद्गला न ग्रहणयोग्या भिन्नैदेशस्थानां ग्रहणयोग्यत्वाभावादिति सूचितम्, यत्र ह्याकाशे जीवोऽवगाढस्तत्र य आकाशप्रदेशा आत्मन्याश्रितास्तत्र ये कर्मपुद्गला रागादिस्नेहयोगत आत्मनि लगन्ति त एव कर्मपुद्गला जीवानां सङ्ग्रहयोग्या इति गूढार्थः । परि . १. विशिष्टो हेतुरादर्शितः, तेन मिथ्यादर्शनाविरत्यादीनां कर्मबन्धहेतुत्वेऽपि न क्षतिः, उक्तञ्च ‘यदतिदुःखं लोके यच्च सुखमुत्तमं त्रिभुवने । तजानीहि कषायाणां वृद्धिक्षयहेतुजं सर्व' मिति । तत्र रागद्वेषहेतुकोबन्धस्स साम्परायिकबन्ध उच्यते, केवलयोगहेतुको बन्ध ईर्यापथिकबन्ध उच्यते. स चोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां भवति, वेदनीयस्यैकस्यैव च स बन्धो विज्ञेय इति । २. अनाश्रितानां तद्भावपरिणामाभावादिति भावः । ३. न तु गतिसमापन्ना इत्यर्थः, गतिपरिणता हि ते वेगवत्त्वात् गच्छेयुरेव, नत्वात्मनि टिष्यन्त इति भावः । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसबन्धः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २४५ : णामविशेषेणेति, अध्यवसायविशेषेणेत्यर्थः । आत्मा हि सर्वप्रकृतिप्रायोग्यपुद्गलान् सामान्येनादाय तानध्यवसायविशेषेण ज्ञानावरणीयत्वादिरूपेण परिणमयति तथापरिणमने हेतुरध्यवसायविशेष उक्तः । स्वस्वयोग्यकार्यव्यवस्थापनमिति । तेषां पुद्गलानां स्वस्वयोग्यकार्यकरणसमर्थतयाऽऽरचनमित्यर्थः । केषाञ्चित्पुद्गलानां ज्ञानावरणसमर्थत्वेन केषादिर्शनावरणसमर्थत्वेन केषाञ्चित्सुखदुःखानुभवसमर्थतया केषाञ्चिद्दर्शनचारित्रमोहकतया केषा- 5 विदायुङ्खेन केषाञ्चिद्गतिशरीराद्याकारेण केषाञ्चिद्गोत्रत्वेन केषाञ्चिच्चान्तरायत्वेन व्यवस्थापनमितिभावः । स्थित्यनुभाग प्रदेशबन्धानां यस्समुदायस्स प्रकृतिबन्ध इत्यपि लक्षणं कषायप्रयुक्तप्रकृतिबन्धे सङ्गच्छते न तूपशान्तमोहादौ केवलयोगवशाद्बध्यमाने प्रकृतिबन्धे तत्र स्थित्यनुभागाभावात् यदि तु तत्रापि समयद्वय स्थितिः कश्चनानुभागोऽपि विद्यत इति विभाव्यते तदा लक्षणमिदं युज्यत एवेति बोध्यम् ॥ अधुना स्थितिबन्धमाह— प्रविभक्तानां कर्मस्कन्धानां विशिष्टमर्यादया स्थितिकालनियमनं स्थितिबन्धः ॥ 10 प्रविभक्तानामिति | ज्ञानावरणीयत्वादिरूपेण प्रविभक्तानामित्यर्थः, विशिष्टमर्यादयेति, यथा ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय वेदनीयानां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यः सप्ततिर्मोह - 15 नीयस्य नामगोत्रयोविंशतिरायुषस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परास्थितिर्जघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता वेदनीयस्य नामगोत्रयोरष्टौ शेषाणामन्तर्मुहूर्त्तमित्येव रूपेणेति भावः, इत्थं यत्स्थितिकालस्य नियमनं स स्थितिबन्ध इत्यर्थः । स्थितिरियं द्विधा कर्मत्वेनावस्थितिरूपाऽनुभवयोग्या चेति, तत्राद्यभेदमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट प्रमाणमभिहितं द्वितीया चाबाधाकालहीना येषां कर्मणां यावत्यस्सागरोपमकोटी कोट्यस्तेषां तावन्तिवर्षशतान्यबाधाकालः तत्र च स्वोदयतः कर्म 20 काचिदपि बाधां जीवस्य नोत्पादयति, नवा तत्र वेद्यदलिकनिक्षेपः किन्तु तत ऊर्ध्वमेव, तथाचाबाधाकालहीनाऽनुभवयोग्या स्थितिरिति भाव्यम्, विशेषप्रकृतीनां स्थितिस्तु तत्तनिरूपण एवोक्तेति ॥ अथ रसबन्धमाचष्टे— परिपाकमुपयातानां विशिष्टकर्मस्कन्धानां शुभाशुभविपाकानुभव- 25 नयोग्यावस्था रसबन्धः ॥ परिपाकेति । रसबन्धोऽनुभावबन्धोऽनुभागबन्ध इति पर्यायाः । परिपाकमुपयातानां Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २४६: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे फलं दातुमभिमुखीभूतानां विशिष्टकर्मस्कन्धानां ज्ञानावरणीयत्वादिना व्यवस्थापितकर्मस्कन्धानां शुभाशुभविपाकानुभवनयोग्यावस्था रसबन्ध इत्यर्थः, विपाकानुभावो हि द्विविधः शुभोऽशुभश्चेति शुभप्रकृतीनां शुभो रसः शुभाध्यवसायनिष्पन्नत्वात् , अशुभप्रकृतीनाश्चा शुभोऽशुभाध्यवसायनिष्पन्नत्वात् , तत्राशुभप्रकृतीनां तादृशतादृशकषायनिष्पाद्यः कटुकः 5 कटुकतरः कटुकतमोऽतिकटुकतमः शुभप्रकृतीनाञ्च मधुसे मधुरतरो मधुरतमोऽतिमधुरतरश्च रसो यथासंख्यमेकद्वित्रिचतुस्स्थानिको भवति, निम्बरसवदिक्षुरसवच्च, निम्बादीनामिक्ष्वादीनां हि सहजोऽक्वथितः कटुको मधुरश्च रस एकस्थानिक उच्यते स एव भागद्वयप्रमाणस्स्थाल्यां कथितोऽर्धावर्तितः कटुकतरो मधुरतरश्च द्विस्थानिको भवति, भागत्रयप्रमाणश्च कथितः कटुकतमो मधुरतमस्त्रिस्थानिको भागचतुष्टयप्रमाणो विभिन्नस्थाने कथितश्चतुर्थभागान्तोऽति10 कटुकतमोऽतिमधुरतमश्च भवति, एवं कर्मापि । इयमुपमा सर्वजघन्यस्पर्धकरसस्य जघ न्यात्मिका विज्ञेया। स्पर्धकान्यसंख्यानि भवन्ति, उत्तरोत्तरस्पर्धकानि चानन्तगुणरसानि, अशुभानां निम्बोपमवीर्यो य एकस्थानिको रसस्तस्मादनन्तगुणवीर्यो द्विस्थानिकस्ततोऽप्यनन्तगुणवीर्यत्रिस्थानिकस्तस्मादप्यनन्तगुणवीर्यश्चतुस्स्थानिकः । शुभप्रकृतीनां सर्वासां पुनरे कस्थानिको रसो नास्त्येव, इतिपश्चसंग्रहाभिप्रायः, दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाणां 15 पश्चानां मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानावरणानां चतुण्णां चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणानां त्रयाणां पुंवेदसंज्वलनक्रोधमानमायालोभानां मेलनया सप्तदशविधानां कर्मणामेवैकस्थानिकरसवत्वं तद्भिन्नाशुभप्रकृतीनामपि एकस्थानिको रसो न भवति, अनिवृत्तिबादरासंख्येयभागेभ्यः परत एव तत्प्राप्तिसंभवेन तत्र च सप्तदशप्रकृतीविना शिष्टानां बन्धस्यैवाभावात् केवलज्ञान दर्शनावरणयोस्तत्र बन्धेऽपि सर्वघातित्वेन तयोढिस्थानिकरसवत्त्वेनैव निर्वर्त्तनात् । शुभा20 नामकस्थानिकरसाभावे कारणन्तु संक्लेशस्थानानि विशोधिस्थानानि च प्रत्येकमसंख्येयलो काकाशप्रदेशप्रमाणानि, प्रासादमारोहतामारोहणे सोपानस्थानानि यावन्ति, तावन्त्येव यथाऽवतरतामपि, तथा यान्येव क्षपकभिन्नो विशुद्धिसंक्लेशस्थानान्यारोहति संक्लिश्यमानस्तावत्स्थानान्यवरोहति तेष्वेवावतारात् विशुद्धिस्थानानि तु विशेषाधिकानि क्षपकश्रेणिकामारोहतः क्षप कस्य विशुद्धिस्थानेषु पुनस्संक्लेशाभावतो निवर्त्तनाभावात् अतस्तानि विशुद्धिस्थानान्येव, न तु 25 संक्लेशस्थानानि तस्माद्विशुद्धिस्थानानामधिकत्वं तथाचात्यन्तविशुद्धौ वर्तमानश्शुभप्रकृतीनां चतुस्स्थानिक रसमभिनिवर्तयति, अत्यन्तसंक्लेशे वर्तमानस्य शुभप्रकृतयो बन्ध एव नागच्छन्ति। या अपि वैक्रियतैजसकार्मणाद्याश्शुभा नरकप्रायोग्यास्संक्लिष्टोऽपि बध्नाति तासामपि स्वभावतस्सर्वसंक्लिष्टोऽपि द्विस्थानिकमेव रसं विदधाति । येषु मध्यमाध्यवसायस्थानेषु शुभप्रकृतयो बध्यन्ते तेषु तासां द्विस्थानिकपर्यन्त एव रसो बध्यते नैकस्थानिको मध्यमपरिणामत्वादेव । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशबन्धः ] म्याथप्रकाशसमलङ्कृत : २४७ : तत्र गिरिरेखासदृशैरनन्तानुबन्धिभिः कषायैरशुभप्रकृतीनां चतुस्स्थानिकरसबन्धः, आतपशोषिततडागमहीरेखासदृशैरप्रत्याख्यानावरणैस्त्रिस्थानिकरसबन्धः, वालुकारेखासदृशैः प्रत्याख्यानावरणैर्द्विस्थानिकरसबन्धः, जलरेखासदृशैस्संज्वलनाभिधैः कषायैः पूर्वोदित सप्तदशाशुभप्रकृतीनामेकस्थानिकरसबन्धः । शुभानान्तु वालुकाजलरेखासदृशैः कषायैश्चतुस्थानकरसबन्धः, महीरेखासदृशैस्त्रिस्थानिको रसबन्धः, गिरिरेखासहशैर्द्वि स्थानिको रसबन्धः, 5 आसामेकस्थानिकरसबन्धो नास्त्येव । तत्रानुभागो रागद्वेषपरिणामवशेन जीवेन कर्मरूपतया परिणमितस्याऽऽत्म प्रदेशैस्संश्लेषमुपगतस्य पुनरप्यावेष्टन परिवेष्टनरूपतयाऽतिगाढतरं बद्धस्याऽबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया संचितस्योत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्ध्याऽवस्थापितस्य समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिककर्मणोपचयं नीतस्येषत्पाकाभिमुखीभूतस्य विशिष्टपाकमुपागतस्यातएव फलं दातुमभिमुखीभूतस्य सामग्रीवशादुदयप्राप्तस्य बद्धेन 10 जीवेन निष्पादितस्याऽनाभोगिकवीर्येण बन्धसमय एव ज्ञानावरणीयादितया व्यवस्थापितस्य प्रदोषनिह्नवादिविशेषप्रत्ययैरुत्तरोत्तरं परिणामं प्रापितस्य परनिरपेक्षमुदयप्राप्तस्य परेण वोदयमुपनीतस्य स्वपररूपेण वोदयमुपनीयमानस्य कर्मणः काचिद्गतिं स्थितिं भवं वा प्राप्य स्वयं, परं वा पुलपरिणामं प्राप्य भवति, तत्र ज्ञानावरणीयस्य दर्शविधः, दर्शनावरणीयस्य नवविधः, वेदनीयस्याष्टविधः, मोहनीयस्य पञ्चविधः, आयुषश्चतुर्विधः शुभाशुभनामकर्मण- 15 श्चतुर्दशविधः, गोत्रस्याष्टविधः, अन्तरायस्य पञ्चविध इति । तदेवं कृतस्थितिकस्य स्वस्मिन् काले परिपाकमितस्य या शुभाशुभाकारेणानुभूयमानावस्था स रसबन्ध इति दिक् ॥ अथ प्रदेशबन्धमाह - प्रकृत्यादित्रयनिरपेक्षं दलिकसंख्याप्राधान्येन कर्मपुद्गलानां ग्रहणं प्रदेशबन्धः ॥ प्रकृत्यादीति । तत्राष्टविधबन्ध के नैकाध्यवसायेन गृहीतस्याष्टौ भागाः सप्तविधबन्धकस्य सप्तभागाः षड्विधबन्धकस्य षड्भागाः, एकविधबन्धकस्यैको भाग इति दलिकानां भागाः, तत्र १. श्रोत्रेन्द्रियविषयक्षयोपशमावरणश्रोत्रेन्द्रियोपयोगावरणचक्षुर्विषयक्षयोपशमावरणचक्षुरुपयोगावरणघ्राण विषयक्षयोपशमावरणत्राणोपयोगावरण र सनाविषयक्षयोपशमावरणरसनोपयोगावरणस्पर्शनविषयक्षयोपशमावरणस्पर्शनोपयोगावरणरूपेण दशविधः । निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिचक्षुर्दर्शनावरणाचक्षुदर्शनावरणावधिदर्शनावरण केवलदर्शनावरणरूपेण नवविधः । मनोज्ञशब्दरूपगंधरसस्पर्शा मनोवचः काय सुखिता चेत्यष्टविधः । सम्यक्त्ववेदनीयमिथ्यात्ववेदनीय सम्य मिथ्यात्व वेदनीयकषायवेदनीय नोकषाय वेदनीयभेदतः पञ्चविधः । २. प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतिपदमत्र द्रष्टव्यम् । 20 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२४८ तस्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे हि जीवो यदाऽऽयुषो बन्धकालेऽष्टविधबन्धको भवति, तदाऽनन्तस्कन्धात्मकस्य शेषकर्मापेक्षया आयुषोऽल्पस्थितिकत्वेन गृहीतस्य कर्मद्रव्यस्य सर्वस्तोको भाग आयुष्कतयापरिणमति । तत आयुष्कभागापेक्षयाधिकस्स्वस्थाने तुल्यस्थितिकत्वेन तुल्यो नामगोत्रयोभीगः, ततस्तयोरपेक्षया विशेषाधिकस्स्वस्थाने तुल्यस्थितिकत्वेन तुल्योऽन्तरायावरणयोर्भागः, ततस्तयोरधिको 5 मोहनीयस्य भागः, ततो वेदनीयस्याधिकः, सुखदुःखजननस्वभावस्य वेदनीयस्य तद्भावपरिणतपुद्गलानामाधिक्यत एव स्वकार्यजननसमर्थत्वात् शेषाणान्तु स्वल्पत्वेऽपि तत्सम्भवात् । वेदनीयाच्छेषकर्मणां भागस्य हीनाधिकत्वे स्थितिविशेष एव निबन्धनम् , यथा नामगोत्रादेरायुष्काद्यपेक्षया स्थितेराधिक्ये तयोर्भागस्याधिकत्वं हीनत्वे च हीनत्वमिति । यद्यपि स्थित्यनुरोधेन भागो भवन्नायुषस्सकाशानामगोत्रयोर्भागस्य संख्यातगुणत्वं स्यात्तथापि गत्यादि10 निखिलकर्मकलापानामायुष्कोदयमूलत्वेनायुषः प्रधानत्वाद् बहुपुद्गलद्रव्यं तत् । तयोर्भागस्य विशेषाधिकत्वन्तु नामगोत्रयोस्सततबन्धित्वेन, आयुष्कं हि कादाचित्कबन्धि, ततोऽल्पद्रव्यम् । यद्यपि च ज्ञानावरणाद्यपेक्षया मोहनीयभागस्य संख्यातगुणस्थितिकत्वेन संख्यातगुणत्वं प्राप्तं न विशेषाधिकत्वं तथापि चारित्रमोहनीयस्य कषायलक्षणस्य चत्वारिंशत्साग रोपमकोटीकोटीस्थितिकत्वेनैतदपेक्षया तद्भागस्यविशेषाधिकत्वमुक्तं, दर्शनमोहनीयद्रव्यं तु 15 सर्वघातित्वेन चारित्रमोहनीयदलिकादनन्तभाग एव वर्तत इति न किञ्चित्तेन वर्धत इति । तत्राल्पतरप्रकृतिबन्धस्सर्वोत्कृष्टयोगव्यापारवान् पर्याप्तस्संज्ञीजीव उत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति, बहुतरप्रकृतिबन्धको मन्दयोगोऽपर्याप्तकोऽसंज्ञी जघन्यप्रदेशबन्धं विधत्ते । तथा प्रदेशबन्धश्चतुर्विध उत्कृष्टोऽनुत्कृष्टो जघन्योऽजघन्यश्चेति । सर्वबहवः कर्मस्कन्धा यदा गृह्यन्ते स उत्कृष्टः प्रदेशबन्धः, ततस्स्कन्धहानिमाश्रित्य यावत्सर्वस्तोककर्मस्कन्धग्रहणं तावत्सर्वोऽप्य20 नुत्कृष्टः, यदा सर्वस्तोककर्मस्कन्धग्रहणं स जघन्यः, तत एकस्कन्धवृद्धिमाश्रित्य यावत्सर्वबहु स्कन्धग्रहणं तावत्सर्वोऽप्यजघन्यः । तत्र ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायलक्षणमूलप्रकृतिषट्रेऽनुत्कृष्ट एव प्रदेशबन्धः साद्यनादिध्रुवाध्रुवरूपेण चतुर्विधः, प्रकृतिषटूस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धः क्षपकस्योपशमकस्य वा सूक्ष्मसम्परायस्य सर्वोत्कृष्टयोगे वर्तमानस्यैकं द्वौ वा समयौ यावत्प्राप्यते, मोहनीयायुःकर्मद्वयस्याबन्धकत्वात्तस्य, उत्कृष्टयोगेनैवोत्कृष्टप्रदेशबन्धलाभादु25 त्कृष्टयोगस्य, उत्कृष्टयोगावस्थानकालस्य तावन्मानत्वादेकद्विसमयस्यात्रग्रहणम् । तथाचोत्कृष्टं प्रदेशबन्धं विधायोपशान्तमोहावस्थाश्चारुह्य पुनः प्रतिपत्योत्कृष्टयोगाद्वाऽस्मादेव प्रतिपत्य यदा पुनरनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तदाऽसौ सादिः । एतत्स्थानमप्राप्तपूर्वाणामनादिर्निरन्तरं बध्यमानत्वात् । ध्रुवोऽभव्यानां भव्यानां त्वध्रुव इति । जघन्येऽजघन्ये उत्कृष्टे च सायध्रुवलक्षणो द्विप्रकारो बन्धः । उपरि वर्णितस्सूक्ष्मसम्पराय उत्कृष्टप्रदेशबन्धस्सादिस्तत्प्रथमतया बध्यमा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धविचार: म्यायप्रकाशसमलते नत्वात्। उपशान्ताद्यवस्थायां पुनरनुत्कृष्टबन्धगमने च स नावश्यं भवतीत्यध्रुवः । जघन्यः पुनरमीषां षटुर्मणां प्रदेशबन्धोऽपर्याप्तस्य सर्वमन्दवीर्यलब्धिकस्य सप्तविधबन्धकस्य सूक्ष्मनिगोद स्य भवाद्यसमये लभ्यते, द्वितीयादिसमये त्वसंख्येयगुणवृद्धेन वीर्येणास्य वर्धमानत्वात् , द्वितीयादिसमयेष्वयमप्यजघन्यं बध्नाति, पुनस्संख्यातेनासंख्यातेन वा कालेन पूर्वोक्तजघन्ययोगं प्राप्य स एव जघन्यप्रदेशबन्धं करोति पुनरप्यजघन्यमित्येवं जघन्याजघन्ययोः प्रदेशबन्ध- 5 योस्संसरतामसुमतां द्वावपि साद्यध्रुवौ भवतः । मोह आयुषि च चतुर्विधे प्रदेशबन्धे साद्यध्रुवलक्षणो द्विविधो बन्धो भवति । मिथ्यादृष्टिस्सम्यग्दृष्टिोऽनिवृत्तिबादरान्तस्सप्तविधबन्धकाल उत्कृष्टयोगे वर्तमानो मोहनीयस्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धं, पुनरनुत्कृष्टयोगं प्राप्यानुत्कृष्टं प्रदेशबन्धं करोति पुनरुत्कृष्टं पुनरप्यनुत्कृष्टमित्येवमुत्कृष्टानुत्कृष्टप्रदेशयोस्संसरतां जन्तूनां द्वावपि बन्धौ साद्यध्रुवौ भवतः, जघन्याजघन्यौ त्वेतत्प्रदेशबन्धौ सूक्ष्मनिगोदादिषु संसरताम- 10 सुमतां कर्मषटूनिरूपण उपर्येव भावितौ तद्वदेवात्रापि । आयुष्कस्य त्वध्रुवबंधित्वादेव तत्प्रदेशबन्ध उत्कृष्टादिचतुर्विकल्पोऽपि साद्यध्रुव एव भवतीति, एवंरूपेण कर्मपुद्गलाना. मेव प्रकृतिस्थितिरसनिरपेक्षं दलिकसंख्याप्राधान्येनैव यद्ग्रहणं करोति स प्रदेशबन्धो विज्ञेयः । तत्र योगस्थानानि कास्णं प्रकृतयः प्रदेशाश्च तत्कार्य, स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि कारणं स्थितिविशेषास्तत्कार्य, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि कारणमनुभागस्था- 15 नानि तत्कार्य, तथा प्रकृतिप्रदेशबन्धयोर्योग एव प्रधानं कारणं, मिथ्यात्वाविरतिकषायाणामभावेऽपि उपशान्तमोहादिगुणस्थानेषु वेदनीयस्य प्रकृतिप्रदेशबन्धसद्भावात् । स्थित्यनुभागबन्धयोस्तु कषायजनितजीवाध्यवसायविशेषः कारणं तदभावे उपशान्तमोहादिषु तयोरभावात् मिथ्यात्वाविरत्यभावेऽपि प्रमत्तादौ कषायसद्भावेन तयोस्सत्त्वाच्च । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वादिचतुःप्रत्ययैर्ज्ञानावरणादिकर्म सास्वादनमिश्राविरतिदेशविरति- 20 लक्षणेषु मिथ्यात्वव त्रिभिः, प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायेषु कषाययोगाभ्यां, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिषु योगेन यथायोगं बध्नाति । इति मूलप्रकृत्याश्रयेण सामान्येन बन्धा उक्ताः, उत्तरप्रकृत्याश्रयेण तु कर्मप्रकृत्यादितोऽवसेया इति दिक् ।। ननु जीवो रागाद्याविष्टो यत्कर्म बध्नाति तदध्यवसायविशेषेण, तत्र किं चतुर्विधमपि बन्धमेकेनैवाध्यवसायेन बध्नाति, उत विभिन्नेन, तत्र यद्येकेन तर्हि कथमेकेन बन्धवै- 25 चित्र्यं, यदि त्वनेकेन तर्हि तादृशतादृशाध्यवसायविगमे तादृशतादृशबन्धाभावप्रसक्त्या कदाचिद्रागिणोऽपि प्रकृतिबन्धमानं कदाचित्स्थितिबन्धसहितं, कदाचित्रयं कदाचिञ्चतुष्टयमपि स्थानतु चतुष्टयनियमो न चैतदिष्टमित्याशंकायामाह Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ अवमकिरने . बन्धाश्चैते चत्वार एकविधाध्यवसायविशेषेण जायन्ते सङ्क्रमोद्वर्त्तनादिकरणविशेषाश्च ॥ बन्धाश्चैत इति । एकविधेति, तथाकेनैवाध्यवसायेन चतुर्विधो बन्धो युगपज्जायत इत्यर्थः, न च कथं कार्यवैचित्र्यमिति वाच्यम् , योगस्य प्रकृतिप्रदेशबन्धयोः कषायस्य 5 स्थितिरसबन्धयोर्निमित्तत्वेन विचित्रैकाध्यवसायेन विचित्रकार्योत्पत्तौ बाधकाभावात् तथाच योगेन कषायेण च सामान्येन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विचित्राध्यवसायविशेषादेकविधाज्ज्ञानावरणीयत्वादिभेदेन स्थितिमत्त्वेन रसवत्वेन प्रदेशवत्त्वेन च परिणमनं जायत इति भावः । न केवलं बन्धा एवैते एकविधाध्यवसायेन जायन्ते किन्तु करणविशेषा अपीत्याह सङ्कमेति ॥ कियन्ति करणानीत्यत्राह10 करणविशेषाश्च बन्धनसङ्कमोद्वर्त्तनापवर्तनोदीरणोपशमनानिधत्तिनिकाचनाभेदादष्टविधाः॥ करणविशेषाश्चेति । दात्रादिद्रव्यकरणे क्षेत्रकरणे कालकरणे भावकरणे निष्पादने संयमव्यापारे समाचरणे करणकारणानुमोदनरूपे करणत्रिके जीववीर्यविशेषेऽपि च करण शब्दप्रवृत्तरत्र जीववीर्यविशेषग्रहणाय विशेषपदमुक्तम् । बध्यते येन, संक्रम्यन्ते येन, 15 उद्वत्येते यया, अपवयेते यया, उदीयते यया, उपशम्यते यया, निधीयते यया, निकाच्यते ययाऽऽत्मपरिणत्याऽध्यवसायरूपयेति तत्तच्छब्दव्युत्पत्तिरवसेया। तत्र बन्धनकरणाध्यवसायास्सर्वस्तोकास्तेभ्य उदीरणाध्यवसाया असंख्येयगुणास्ततोऽपि संक्रमाध्यवसाया असंख्येयगुणा उद्वर्त्तनापवर्त्तने संक्रमभेदावतस्तत्रान्तर्भावः । तत उपशान्तोपशमनाध्यवसाया असंख्येयगुणास्ततोऽपि निधत्त्यध्यवसायास्ततोऽपि निकाचनाध्यवसाया इति । • अथ करणस्वरूपमादर्शयति तत्र बद्धात्मनो वीर्यपरिणामविशेषः करणं । वीर्यश्चात्र योगकषायरूपं विवक्षितम् ॥ तत्रेति । बद्धात्मन इति, सलेश्यस्येत्यर्थः, तेनायोगिनां सिद्धानाश्च व्यावृत्तिस्तद्वीर्यस्य बन्धाद्यहेतुत्वात् । वीर्यपरिणामविशेष इति । क्षायिकक्षायोपशमिकरूपवीर्यलब्धिजन्यो 25 वीर्यविशेष इत्यर्थः, अयश्च छद्मस्थानां सयोगिनाश्च भवति, उभयेषामपि स बुद्ध्यधुद्धिपू. वकत्वाभ्यां द्विविधः, धावनवल्गनादिक्रियासु नियुज्यमानो बुद्धिपूर्वकः, भुक्ताहारस्य धातु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 बन्धनकरणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २५१ : मलत्वादिपरिणामापादक एकेन्द्रियादीनां तत्तत्क्रियाप्रयोजकश्चाबुद्धिपूर्वकः, तत्रापि क्षायोपशमिकवीर्यलब्धिजन्यं छाद्मस्थिकं वीर्यमकषायिसकषायिभेदतो द्विविधमुपशान्तमोहक्षीणमोहानामकषायिकं सूक्ष्मसम्परायान्तानाञ्च सकषायिकं विज्ञेयं, तथाच बन्धाद्यनुकूलतया मनोवाक्कायसहकृतः कषायसहकृतश्च स्थूलसूक्ष्मपरिस्पन्दो वीर्यपरिणामविशेष उच्यते इति भावः । तत्तत्क्रियासहितानां मनोवाक्कायानान्तु योगात्मकत्वमितरस्य कषायात्मकत्वमेतौ कषाय- 5 योगौ च वीर्यमुच्यत इत्याशयेनाह-वीर्यश्चेति । अत्र बन्धादिप्रकरणे, योगः परिणामालम्बनग्रहणसाधनं प्रकृतिप्रदेशबन्धयोर्निमित्तं, कषायरिस्थतिरसबन्धहेतुः कषायाः क्रोधमानमायालोभास्तज्जनितो जीवस्याध्यवसायविशेषः कषायशब्देनेहोच्यते । एतस्य वीर्यविशेषस्य योगस्य विषयेऽविभागवर्गणास्पर्धकान्तरस्थानानन्तरोपनिधापरम्परोपनिधावृद्धिसमयजीवाल्पबहुत्वप्ररूपणाः कर्मप्रकृत्यादितोऽवसेयाः ॥ अथ करणविशेषान् लक्षयितुमुपक्रमतेकर्मणामात्मप्रदेशैस्सहान्योऽन्यानुगमनप्रयोजकवीर्यपरिणामो बन्धनकरणम् । अत्र योगात्मकवीर्येण प्रकृतिप्रदेशयोः कषायैश्च स्थित्यनुभागयोर्बन्धो जायते ॥ कर्मणामिति । जीवप्रदेशैस्सहान्योऽन्यानुगतीक्रियतेऽष्टप्रकार कर्म येन वीर्यविशेषेण 15 तद्वन्धनकरणमित्यर्थः । जीवो हि योगेनौदारिकादिशरीरयोग्यान् पुद्गलस्कन्धान गृह्णाति, तत्र योगानां जघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वे पुद्गलानामपि स्तोकमध्यमप्रभूतानां ग्रहणं जायते, ग्रहणयोग्याः पुद्गलस्कन्धा अन्यतो विज्ञेयाः। स्वप्रदेशावगाढं ग्रहणयोग्यं दलिकमेकमपि सर्वैरेवात्मप्रदेशैः शृंखलावयवानामिव परस्परं सम्बद्धैर्गृह्णाति पुद्गलद्रव्याणाश्च परस्परं सम्बन्धस्स्नेहतो विज्ञेयः । तथाच बन्धनकरणसामर्थ्याद्वध्यमानानां मूलोत्तरप्रकृतीनां 20 ज्ञानावारकत्वादिस्वभाववैचित्र्याइँदो भवति । दृष्टश्चैतत्तणदुग्धादीनां स्वभावभेदाद्वस्तुभेदस्तथात्रापि कर्मत्वेन तुल्यत्वेऽपि स्वभावभेदाढ़ेदः । अयश्च प्रकृतिबन्धः, कर्मणां ज्ञानावारकत्वादिस्वभावस्यैव प्रकृतित्वात्, यथा मोदकस्य वातविनाशकत्वादिस्वभावः प्रकृतिः। तथाचाविवक्षितस्थितिरसप्रदेशः प्रकृतिबन्धोऽविवक्षितरसप्रकृतिप्रदेशः स्थितिबन्धोऽ विवक्षितप्रकृतिस्थितिप्रदेशो रसबन्धोऽविवक्षितप्रकृतिस्थितिरसः प्रदेशबन्ध इत्यपि बन्धच- 25 १. आत्मप्रदेशाश्चासंख्येयास्तषु सर्वप्रकृतिपुद्गला बध्यन्ते एकैकोऽप्यात्मप्रदेशोऽनन्तनावरणादिकर्मस्कन्धैर्बद्धः । अनन्तानन्तप्रदेशाः कर्मवर्गणाः पुद्गला बध्यन्ते । न संख्येयप्रदेशा नवाऽसंख्येयप्रदेशा नाप्यनन्तप्रदेशाः । अनन्ते राशौ पुनरनन्तपुद्गलप्रक्षेपादनन्तानन्त इति व्यवहार इति ॥ .. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२५२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे तुष्टयलक्षणमूह्यम् । कर्मणां स्थितिश्च मोदकस्य द्वित्रिदिनावस्थानरूपेव प्रतिनियतकालावस्थानरूपा, तस्य स्निग्धमधुरादिरसवत्कर्मणोऽपि रसः शुभाशुभादिः, तथा तस्य प्रदेशा यथैकद्विप्रसृत्यादिप्रमाणास्तथा कर्मणोऽपि बहुतरबहुतमादिरूपा अवसेयाः । तत्र प्रकृतिप्र देशबन्धौ योगतः स्थितिरसबन्धौ कषायत इत्याहात्रेति । युक्तिः पूर्वमेवोक्ता । प्रकृतिबन्धः 5 पूर्वमादर्शितः साधध्रुवादिश्च । प्रदेशबन्धोऽपि जन्तुनाष्टविधबन्धकेन यदेकेनाध्यवसायेन विचित्रतागर्भेण गृहीतं दलिकं तस्याष्टौ भागा भवन्ति, सप्तविधबन्धकस्य सप्तभागाः, षडिधबन्धकस्य षड्भागा एकविधबन्धकस्य त्वेको भाग इति मूलप्रकृतिभागविभागा उक्ताः, तत्रोत्तरप्रकृतीनान्तु ज्ञानावरणीयस्य स्थित्यनुसारेण पूर्वोदितरूपेण यो मूलभाग आभजति तस्या नन्तनमो भागः केवलज्ञानावरणाय दीयते, तस्यैव भागस्य सर्वघातिप्रकृतियोग्यत्वात् , शेषस्य 10 भागचतुष्टयं विधाय मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानावरणेभ्य एकैको भागो दीयते । दर्शनाव रणस्यापि यो मूलभागः प्राप्तस्तस्यानन्ततमं भागं षोढा विधाय सर्वघातिभ्यां निद्रापश्चककेवलदर्शनावरणाभ्यां दीयते, शेषस्य भागत्रयं विधाय चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणेभ्य एकैको भागो दीयते । अन्तरायस्य प्राप्तं मूलभागं निखिलमपि पञ्चधा कृत्वा दानान्तरायादिभ्यो दीयते, सर्वघात्यवान्तरभेदाभावात् । मोहनीयस्य लब्धभागेऽनन्ततमं सर्वघातिप्रकृतियोग्य 15 द्विधा कृत्वा दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयाभ्यां प्रयच्छति । दर्शनमोहनीयस्य प्राप्तो भागस्सर्वोऽपि मिथ्यात्वमोहनीयस्यैव भवति चारित्रमोहनीयभागन्तु द्वादशधा विभज्याद्यद्वादश कषायेभ्यो दीयते । मोहनीयशेषभागं द्विधा कृत्वा कषायमोहनीयाय नोकषायमोहनीयाय च दीयते । कषायमोहनीयभागं चतुर्धा विधाय संज्वलनक्रोधादिभ्यः, नोकषाय मोहनीयभागं पश्चधा कृत्वा बध्यमानवेदाय बध्यमानहास्यादियुगलाय भयजुगुप्साभ्याश्च 20 दीयते, नान्येभ्यो बन्धाभावात् । तथा वेदनीयायुर्गोत्रेषु यो मूलभाग आभजति स एषां स्वस्वैकप्रकृतेर्बध्यमानाया उपढौकते द्विप्रभृतीनाममीषां युगपद्वन्धाभावात् । नाम्नो भागस्तु यदा यदा यावत्यो बन्धमायान्ति तावतीभ्यस्तदा तदा समानतया विभज्य दीयते । विस्तरोऽन्यत्र ॥ अनुभागस्य कारणं काषायिका अध्यवसायाः, ते च द्विधाः, शुभा अशुभाश्च, शुभैः क्षीरखण्डरसोपमाहादजनकभागं कर्मपुद्गलानामाधत्ते 25 निम्बकोशातकीरसोपमञ्चाशुभैः, ते च शुभा अशुभा वाऽध्यवसायाः प्रत्येकमसंख्येय १. मिथ्यात्वादिचतुष्टयस्य सामान्येन कर्मबन्धहेतुत्वेऽपि प्राथमिककारणत्रयाभावेऽप्युपशान्तमोहादिगुणस्थानकेषु योगबलतो वेदनीयस्य बन्धात् योगाभावनायोगिगुणस्थाने बन्धाभावाच्च प्रकृति प्रदेशबन्धयोयोग एव प्रधानं कारणमवसीयते, कर्मणो जघन्योत्कृष्टरूपतया स्थितिबन्धोत्तरकालीनस्थितिसेवनरूपमनुभवनश्च क्रोधादिरूपकषायजनितजीवाध्यवसायविशेषात्मककषायाद्भवतीति भावः ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः शुभाः केवलं विशेषाधिकाः । यानेव ह्यनुभागबन्धाध्यव. सायान् क्रमिका संक्लिश्यमानः क्रमेणाधोऽध आस्कन्दति तानेव विशुध्यमानः क्रमेणो मूर्ध्वमारोहतीति सोपानारोहणावतरणतुल्यानामुभयेषां साम्येऽपि क्षपकस्याध्यवसाय: विशेषे वर्तमानस्य श्रेणिमारोहतस्तेभ्यः प्रतिपाताभावेन शुभानामशुभापेक्षया विशेषत आधिक्यम् । एवञ्च येन केनाप्यध्यवसायेनानुभागनिमित्तेन जीवो योग्यपुद्गलादानसमये 5 कर्मपरमाणौ प्रत्येकं रसस्य निर्विभागान् भागान् सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानुत्पादयति, कर्मवर्गणान्तःपातिनः कर्मपरमाणवो हि जीवग्रहणपूर्व प्रायो नीरसा एकस्वरूपा आसन् यदा तु जीवेन गृह्यन्ते ते तदानीं ग्रहणसमय एव काषायिकाध्यवसायेन तादृशतादृशरसा विभागा ज्ञानावारकत्वादिविचित्रस्वभावा आपद्यन्ते, जीवानां पुद्गलानाञ्च शक्तेरचिन्त्यत्वात् , न चेदमसम्भवि, गोगृहीतशुष्कतृणादिपरमाणूनामत्यन्तनीरसानामपि क्षीरादिरूप- 10 त्वेन सप्तधातुत्वेन च परिणामदर्शनात् , ते च रसा विभागाः कर्मपरमाणुषु क्वचित्स्तोकाः, क्वचित्तेभ्यः प्रभूताः, क्वचिच्च प्रभूततमा भवन्ति, अत्र वर्गणास्पर्धकादिविचाराः कर्मग्रन्थेभ्यो द्रष्टव्याः । स्थितिबन्धेऽपि संक्लेशस्थानानि विशोधिस्थानान्यपि सर्वत्रासंख्येयगुणतया पूर्ववदेव भाव्यानि, तत्र मूलप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टा च स्थितिरप्रेऽस्माभिर्वक्ष्यते मूल एव सा च कर्मरूपतयाऽवस्थानस्वरूपा विज्ञेया, अनुभवप्रायोग्या तु सैवाबाधाकालहीना, 15 येषां कर्मणां यावत्यस्सागरोपमकोटीकोट्यस्तेषां तावन्ति वर्षशतान्यबाधाकालो विज्ञेयः । अबाधाकालहीनश्च कर्मदलिकनिषेकः, जघन्यस्त्वबाधाकालोन्तर्मुहूर्त्तम् । बन्धकानाश्रित्य जघन्योत्कृष्टस्थितिविवेचना कर्मप्रकृत्यादितः कार्या । एवं स्थितिस्थानादिप्ररूपणान्यपि । इत्येवं बन्धनकरणविचारो दिशा दर्शित इति ॥ अथ सङ्क्रमणकरणं स्वरूपयति 20 अन्यकर्मरूपतया व्यवस्थितानां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामन्यकर्मरूपतया व्यवस्थापनहेतुर्वीर्यविशेषस्संक्रमणम् ॥ __ अन्यकर्मेति । तथा तथा बध्यबन्धकभावे जीवकर्मणोहि परस्परं सव्यपेक्षत्वम् । जीवाध्यवसायविशेषमाश्रित्य कर्मवर्गणान्तःपातिनो जीवस्वप्रदेशागाढाः पुद्गला ज्ञानावरणीयादिकर्मरूपतया परिणमन्ते, जीवोऽपि स्वप्रदेशावगाढतथाविधकर्मविपाकोदयात्तथापरिणमते। 25 तत्र संक्लेशसंज्ञितेन विशोधिसंज्ञितेन वा येन वीर्यविशेषेणान्यकर्मरूपतया व्यवस्थितानांविवक्षितबध्यमानप्रकृत्यादिव्यतिरिक्ततया स्थितानां प्रकृत्यादीनां-अन्यकर्मरूपतया-बध्यमानासु प्रकृत्यादिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृत्यादिदलिकं प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृतिरूपतया, बध्य Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२५४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे मानानां वा प्रकृतीनामितरेतररूपतया परिणमयति स वीर्यविशेषस्सङ्क्रमणमित्यर्थः । यथा बध्यमानसातवेदनीयेऽबध्यमानासातवेदनीयस्य, उच्चैर्गोत्रे वा तादृशे नीचैर्गोत्रस्य ताहशस्येत्यादि । तथा बध्यमाने मतिज्ञानावरणीये बध्यमानस्यैव श्रुतज्ञानावरणीयस्य श्रुतज्ञानावरणीये वा तादृशे तादृशमतिज्ञानावरणीयस्येत्यादि । सोऽयं सङ्क्रमः प्रकृतिस्थित्यनु5 भागप्रदेशरूपविषयभेदाचतुर्विध इति सूचयितुं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामित्युक्तम् । दर्शनत्रिकस्य बन्धं विनापि संक्रमाद् बन्धघटितं संक्रमलक्षण नोक्तम् । मिथ्यात्वस्यैव हि बन्धो न सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोः, विशुद्धसम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोः, पतद्हरूपबन्धाभावेऽपि मिथ्यात्वं सङ्कमयति, सम्यक्त्वे च सम्यमिथ्यात्वम् । संक्रम्य माणप्रकृतेराधारभूता प्रकृतिः पतगृह उच्यते, किन्तु कृतेऽन्तरकरणे प्रथमस्थितौ समयोना. 10 वलिकात्रिकशेषायां बध्यमानेष्वपि संज्वलनेषु चतुर्वपि प्रकृत्यन्तरदलिकसंक्रमाभावात्तदानी न तेषां पतगृहत्वं, तथान्तरकरणे कृते द्वयोरावलिकयोः प्रथमस्थितिसत्कयोः पुंवेदस्य प्रकृत्यन्तरसंक्रमाभावेन न पतगृहत्वं,मिथ्यात्वे क्षपिते सम्यमिथ्यात्वस्य सम्यमिथ्यात्वयोश्च क्षपितयोस्सम्यक्त्वस्योद्वलितयोस्तु सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोमिथ्यात्वस्य न पतगृहत्वमित्यादिकं विभावनीयम् । दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीययोरायुषां मूलप्रकृतीनाश्च परस्परं न सङ्क्रमः । 15 यो यस्मिन् दर्शनमोहनीये वर्तते न तस्यान्यत्र संक्रमोऽविशुद्धदृष्टित्वात् । तथा परप्रकृतिषु संक्रान्तं दलिकमावलिकामात्रकालं बन्धावलिकागतमुदयावलिकागतमुद्वर्तनावलिकागतञ्चो. द्वर्तनादिसकलकरणायोग्यम् , दर्शनमोहनीयत्रिकवर्जमुपशान्तमोहनीयं सकलकरणायोग्य द्रष्टव्यम् । तत्र सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वनरकद्विकमनुजद्विकदेवद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्त कतीर्थकरोच्चैर्गोत्ररूपाश्चतुर्विंशतिप्रकृतय आयुश्चतुष्टयश्चाध्रुवसत्ताकम् । शेषं पुनस्त्रिंशदुत्तरं 20 प्रकृतिशतं ध्रुवसत्कर्म, ततोऽपि सातासातवेदनीयनीचैर्गोत्रमिथ्यात्वरूपं प्रकृतिचतुष्टयमप सार्यते, ततोऽवशिष्टास्सर्वा ध्रुवसत्कर्मप्रकृतयः षड्विंशत्युत्तरशतसंख्यास्सङ्गममधिकृत्य साद्यादिरूपतया चतुर्विधा अपि भवन्ति । आसां हि संक्रमस्संक्रमविषयप्रकृतिबन्धव्यवच्छेदे न भवति, तासां पुनर्बन्धारम्भे भवत्यतोऽसौ सादिः। तत्तद्वन्धव्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, अभव्यस्य कदाचिदपि व्यवच्छेदाभावेन ध्रुवः। कालान्तरे व्यवच्छेदसम्भवेन भव्यस्य त्वध्रुवः। अध्रुवसत्कर्मणामध्रुवसत्कर्मत्वादेव संक्रमस्साद्यध्रुवः सातासातवेदनीयनीचैर्गोत्राणान्तु परावर्त्तमानत्वात्साद्यध्रुवोऽवसेयः, बध्यमाने सातेऽसातस्य, असाते वा तादृशे सातस्य, उच्चैर्गोत्रे तथाविधे नीचैर्गोत्रस्य, नीचैर्गोत्रे तादृशे उच्चैर्गोत्रस्य संक्रमो नान्यदाऽत १. बद्धमिथ्यात्वपुद्गलानां मदनकोद्रवस्थानीयानामौषवविशेषकल्पेनौपशमिकसम्यक्त्वानुगतेन विशोधिस्थानेन शुद्धार्धविशुद्धाविशुद्धकरणादिति भावः ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रमणम् ] काश समलङ्कृते ARMA एषां संक्रमस्य सादित्वमधुवत्वञ्च । भिध्यात्वस्य तु संक्रमो विशुद्ध सम्यग्दृष्टेर्भवति, विशुद्धसम्यग्दृष्टित्वञ्च कादाचित्कमतस्तस्य संक्रमो साद्यध्रुव एवेति । मिथ्यादृष्ट्यादिप्रमत्तान्तास्सात वेदनीयस्य संक्रामकाः, परतस्संक्रम्यमाणप्रकृत्याधारभूतासात वेदनीयस्य बन्धाभावान्नेतरे तत्संक्रामकाः, अपि तु तत्र साते बध्यमानेऽसातस्यैव संक्रमः । अनन्तानुबन्धिनां मिध्यादृष्टवादयोऽप्रमत्तसंयतान्तास्सङ्क्रामका न परे, परतस्तेषामुपशमनात्क्षयाद्वा । मिध्या- 5 दृष्टद्यादयोऽपूर्वकरणान्ता यशः कीर्तेस्सङ्क्रामका नेतरे, परतः केवलायास्तस्या एव बन्धेन पतग्रहाभावात् । अनन्तानुबन्धिवर्जद्वादशकषायाणां नोकषायाणाञ्च मिथ्यादृष्ट्यादयो निवृत्तिबादर सम्परायान्तास्सङ्क्रामका न परे, परतस्तेषामुपशमात्क्षयाद्वा । मिथ्यात्व - सम्यद्धुमिथ्यात्वयोरविरतसम्यग्दृष्ट्यादय उपशान्तमोहपर्यवसानास्संक्रामकाः, न परे, परतस्तयोस्सत्ताया अभावात् । सम्यमिध्यात्वं पुनर्मिथ्यादृष्टिरपि संक्रमयति, सम्यक्त्वस्य 10 मिध्यादृष्टिरेव सङ्ग्रामको नान्ये, मिथ्यात्वे वर्त्तमानस्यैव संक्रामकत्वात् । उच्चैर्गेौत्रस्य मिथ्या सास्वादनौ, अन्येषां नीचैर्गोत्राबन्धकत्वात् । इतरासां मतिज्ञानावरणीयादिप्रकृतीनां सूक्ष्मसम्परायपर्यवसाना मिध्यादृष्ट्यादयस्सङ्क्रामका न परे परतो बन्धाभावेन पहा - भावादिति । एवं ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणनव कषोडशकषायभय जुगुप्सातैजस सप्तकवर्णादिविंशतिनिर्माणागुरुलघूपघातान्तरायपश्चकलक्षणाः पतग्रहा ध्रुवबन्धिन्यस्सप्तषष्टिप्रकृत- 15 यस्साद्यनादिध्रुवा ध्रुव रूप चतुर्भेदाः । अभव्यभव्यापेक्षया ध्रुवाभ्रुवत्वे, स्वस्वबन्धव्यवच्छेदे पतद्ग्रहत्वाभावेन तत्र संक्रमासंभवाद्बन्धारम्भे च हेतुतः पतग्रहत्वेन सादित्वं तत्तद्बन्धव्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्यानादित्वं, शेषास्त्वध्रुवबन्धिन्योऽष्टाशीतिसंख्याः प्रकृतयोऽध्रुवबन्धित्वादेव पतद्भहत्वमधिकृत्य साद्यध्रुवा भावनीयाः । मिथ्यात्वस्य पुनर्ध्रुवबन्धित्वेऽपि यस् सम्यक्त्वमिथ्यात्वे विद्येते स एव ते तत्र संक्रमयति नान्य इति तस्य साद्यध्रुवपतद्रत्वं 20 भाव्यम्, विशेषोऽत्र कर्म प्रकृत्यादितोऽवसेयः । अष्टमूलप्रकृतीनामष्टपञ्चाशदधिकशतसंख्याकोत्तरप्रकृतीनाञ्च या स्थितिर्ह्रस्वीभूता सती दीर्घीकृता दीर्घीभूता सती ह्रस्वीकृता पतद्रहप्रकृतिस्थितिषु वा मध्ये नीत्वा निवेशिता स स्थितिसंक्रम उच्यते, तत्र स्थितीनामन्यत्र निवेशनं न साक्षादशक्यत्वादपितु स्थितियुक्तपरमाणुद्वारैवै, ततो मूलप्रकृतीनां परस्परं संक्रमाभावात् तासां प्रकृत्यन्तरनयनलक्षणस्स्थितिसङ्क्रमो 25 न भवति किन्तु द्वावेवोद्वर्त्तनापवर्त्तनालक्षणौ सङ्क्रमौ ह्रस्वीभूतस्य दीर्घीकरण १. तथाच कर्मपरमाणूनां इस्वस्थितिकालतामपहाय दीर्घस्थितिकालतया व्यवस्थापनं तेषामेव दीर्घस्थितिकालतामपहाय इस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापनं, पुनः संक्रम्यमाणप्रकृतिस्थितीनां पतग्रहप्रकृतौ नीत्वा निवेशनमिति भाव्यम् ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FRN: [ नवमकिरणें मुद्वर्तना, दीर्घीभूतस्य ह्रस्वीकरणमपवर्त्तनेति । एवमनुभागसंक्रमोऽपि मूलोत्तरप्रकृतिविषयः, लक्षणन्तु यस्तासां रसो ह्रस्वीभूतस्सन् दीर्घीकृतो दीर्घीभूतस्सन् ह्रस्वीकृतोऽन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणमितो वा स सर्वोऽप्यनुभागसंक्रमः, परन्तु मूलप्रकृतीनां परस्परं सङ्कमाभावेनान्यप्रकृतिस्वभावपरिणामरूपरससङ्क्रमो न भवति । एवं यत्संक्रमप्रायोग्यं कर्म5 दलिकमन्यप्रकृतिरूपतया परिणम्यते स प्रदेशसङ्क्रमः, स चोद्वलनाविष्यातयथाप्रवृत्तगुणसर्वसङ्क्रमभेदेन पञ्चविधः, घनदलान्वितस्यास्पदलस्योत्किरणमुद्वेलनं, यासां प्रकृतीनां गुणप्रत्ययतो भवप्रत्ययतो वा बन्धो न भवति तासां संक्रमकरणं विध्यातसङ्क्रमः । अपूर्वकरणप्रभृतयोऽबध्यमानाशुभप्रकृतीनां सम्बन्धिकर्म दलिकं प्रतिसमयमसंङ्ख्येयगुणतया बध्यमानासु प्रकृतिषु यत्प्रक्षिपन्ति स गुणसङ्गमः । सर्वेषामपि संसारस्थानां जीवानां ध्रुव10 बन्धिनीनां बन्धे परावर्त्तमानप्रकृतीनान्तु स्वस्वभवबन्धयोग्यानां बन्धेऽबन्धे वा यस्सङ्क्रमः प्रवर्त्तते स यथाप्रवृत्तसंक्रमः । चरमसमये यत्परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते दलिकं स सर्वसङ्क्रमउच्यते । अत्र सर्वेषां विशेषः कर्मप्रकृत्यादितो विज्ञेय इति दिकू ॥ अधुनोद्वर्तनामाचष्टे— कर्मस्थित्यनुभागयोः प्रभृतीकरण प्रयोजक वीर्यपरिणतिरुद्वर्त्तना ।। कर्मेति । स्थित्यनुभागमात्रविषयेयमुद्वर्त्तनेतिसूचनाय कर्मस्थित्यनुभागयोरित्युक्तमेवमेवोत्तरलक्षणे विज्ञेयम् । उदयावलिकातो बहिर्वर्त्तिनीनां स्थितीनामुद्वर्त्तना भवति उदयावलिकागतास्तु सकलकरणायोग्याः । तथाऽबाधाकालादुपरितन्य एव स्थितयः उद्वर्यंते, बध्यमानप्रकृत्यबाधया समाना हीना वा या पूर्वबद्धप्रकृतीनां स्थितिस्साऽबाधाकालान्तः प्रविष्टत्वान्नोद्वर्त्यते । तथाचाबाधान्तः प्रविष्टा निखिला अपि स्थितय उद्वर्त्तनापेक्षया 20 परित्याज्या भवन्ति, तत्रोत्कृष्टाऽबाधोत्कृष्ट तीत्थापनेत्युच्यते, अतीत्थापना उल्लंघनीया । समयेनोना योत्कृष्टाऽबाधा समयोनोत्कृष्टातीत्थापना भवति, द्विसमयेनोना सा द्विसमयोनोत्कृष्टा तत्थापना, एवं प्रतिसमयहान्या तावदतीत्थापना भवन्ति यावज्जघन्याऽबाधाऽन्तर्मुहूर्त्त प्रमाणा, ततोऽपि जघन्यतराऽतीत्थापना यावदुदयावलिका तावद्वाच्या, उदद्यावलिकागतानां तु स्थितीनामनुद्वर्त्तनीयत्वात् । कर्मदलिकनिक्षेपविचारस्तु कर्मप्रकृत्यादितो बोध्य इति दिक् । 15 तस्वन्यायविभाकरे १. उद्वर्त्तनापवर्त्तनारूपौ संक्रमौ तु भवत इति भावः । २ यथाऽनन्तानुबन्धिचतुष्टय सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदद्विकनरकद्विकवैक्रिय सप्तकाहार कसप्तकमनुजद्विको चैर्गोत्राणां पल्योपमासंख्येयभागमात्र मन्तर्मुहूर्तेन कालेन स्थितिखण्डमुत्किरति पुनस्तथैव द्वितीयं प्रथमखण्डाद्विशेषहीनं, एवमेव पूर्वस्मात्पूर्वस्माद्विशेषतो हीनानि स्थितिखण्डानि यावद् द्विचरमस्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्त कालेनोत्कीर्यन्त इति ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवतीदारणे ] न्यायप्रकाशसमलते : ५५७ : - अथापवर्तनामाहकर्मस्थित्यनुभागयोईस्वीकरणप्रयोजकवीर्यविशेषोऽपवर्तना॥ कर्मस्थितीति । कर्मपरमाणूनां दीर्घस्थित्यनुभागवतां दीर्घस्थित्यनुभागावपहृत्य हूस्वस्थितिरसवत्तया व्यवस्थापने प्रयोजकीभूतवीर्यविशेष इत्यर्थः। उदयावलिकाया बाह्यान् समयमात्रद्विसमयमात्रादिस्थितिभेदानपवर्त्तयति । उदयवतीनामनुदयवतीनां प्रकृतीनामुदयसमया- 5 दारभ्यावलिकामात्रा स्थितिरुदयावलिकेति विज्ञेया। ते चापवर्त्यमानास्थितिविशेषा यावद्वंधावलिकाहीना सर्व कर्मस्थितिस्तावल्लभ्यन्ते । उदयावलिकाया उपरितनी या समयमात्रा स्थितिस्तस्या दलिकमपवर्तयन्नुदयावलिकाया उपरितनौ द्वौ त्रिभागौ समयोनावतिक्रम्याधस्तने समयाधिके तृतीये भागे निक्षिपति, एष जघन्यो निक्षेपो जघन्या चातीत्थापना, यदाचोदयावलिकाया उपरितनी द्वितीया स्थितिरपवर्त्यते तदातीत्थापना प्रागुक्तप्रमाणा 10 समयाधिका भवति निक्षेपस्तु तावन्मात्र एव । एवं तृतीया यदापवर्त्यते तदा प्रागुक्तमानाऽतीत्थापना द्विसमयाधिका भवति निक्षेपस्तु तावानेव । एवमतीत्थापना प्रतिसमयं तावद्वर्धयितव्या यावदावलिका परिपूर्यते निक्षेपविषयाणां स्थितीनाश्च समयाधिक आवलिकात्रिभाग एवानुवर्तते, ततः परमतीत्थापना सर्वत्र तावन्मात्रैव प्रवर्त्तते, निक्षेपस्तु . यावद्बन्धावलिकातीत्थापनाऽवलिकारहिताऽपवय॑मानस्थितिसमयरहिता च सकलापि 15 कर्मस्थितिस्तावद्वर्धते । इत्येवं निर्व्याघातापवर्त्तना विज्ञेया। सव्याघाताऽपवर्तनोद्वर्तनापवर्तनयोस्संयोगेनाल्पबहुत्वं कर्मप्रकृत्यादिभ्यो विज्ञेयम् । एवमनुभागोद्वर्त्तनापवर्तनादिकमपि तत एवाऽवगन्तव्यम् । उद्वर्तनापवर्त्तने संक्रमभेदावेव स्थित्यनुभागाश्रये इत्यलं विस्तरेण ॥ . सम्प्रत्युदीरणामाहअनुदितकर्मदलिकस्योदयावलिकाप्रवेशनिदानमात्मवीर्यमुदीरणा ॥ 20 अनुदितेति । येन योगसंज्ञकवीर्यविशेषेण कषायसहितेन तद्रहितेन वोदयावलिकाबहिर्वर्तिनीभ्यस्थितिभ्यः परमाण्वात्मकं दलिकमपकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यते स एष वीर्यविशेष उदीरणेत्यर्थः। सापि प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदतश्चतुर्धा । प्रत्येकमपि मूलोत्तरप्रकृतिविषयत्वाद्विविधम् । अष्टधा च मूलप्रकृतिविषया, बन्धनादीनां पृथगविवक्षि १. अपवर्तना च स्थित्यनुभागविषयेवे, न प्रकृतिप्रदेशविषयेत्याशयेनोक्तं स्थित्यनुभागवतामिति । के तेस्थितिविशेषा यानपवर्तयतीत्यत्राहोदयावलिकाया इति. उदयावलिकागतास्तुनिखिलकरणायोग्यत्वेनापवर्तनामहत्वात् बायानिति ॥ ३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे बिमाकरण तत्वे द्वाविंशत्यधिकशतमुदयसमकक्षतयोत्तरप्रकृतीनां भवति, पृथक् तद्विवक्षायान्तु अष्टप. ञ्चाशदधिकशतभेदास्तेषाम् । ज्ञानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायाणां मूलप्रकृतीनां अनादित्वं ध्रुवत्वमध्रुवत्वञ्च । वेदनीयमोहनीययोश्चतुर्विधत्वमपि । तत्र ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां यावत्क्षीणमोहगुणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषो न भवति तावत्सर्वजीवानामुदीरणाया अवश्यंभावेन, नामगोत्रयोश्च यावत्सयोगिचरमसमयं तावत्सर्वेषामवश्यभावेनानादित्वं, ध्रुवत्वमभव्यापेक्षयाऽध्रुवत्वञ्च भव्यापेक्षयेति । वेदनीयस्य यावत्प्रमत्तगुणस्थानकं मोहनीयस्य सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं यावदुदीरणाया भावेनाप्रमत्तादिगुणस्थानकेभ्यः प्रतिपततो वेदनीयस्योपशान्तमोहगुणस्थानकाच्च प्रतिपततो मोहनीयस्योदीरणाया स्सादित्वं, तत्स्थानमप्राप्तस्यानादित्वं, ध्रुवत्वाधुवत्वे पूर्ववत् । आयुरुदीरणायास्सादित्वम10 ध्रुवत्वश्च । पर्यन्तावलिकायामायुषो नियमेनोदीरणाया अभावादध्रुवत्वं पुनरपि भवोत्पत्ति प्रथमसमये प्रवर्त्तमानत्वाच्च सादित्वं । उत्तरप्रकृतीनान्तु कर्मप्रकृत्यादिभ्यो ज्ञातव्याः । ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां क्षीणमोहान्तास्सर्वेप्युदीरकाः। मोहनीयस्य सूक्ष्मसम्परायान्ता उदीरकाः । वेदनीयस्य प्रमत्तगुणस्थानकपर्यन्तास्सर्वेऽप्युदीरकाः। आयुषोऽचरमावलिक प्रमत्तान्ता उदीरकाः, नामगोत्रयोस्तु सयोगिकेवलिपर्यवसानास्सर्वेऽप्युदीरका इति । 15 अधिकमन्यत्र द्रष्टव्यम् । तथा ज्ञानावरणवेदनीयायुर्गोत्रातरायाणामेकैकमुदीरणास्थानं, यथा ज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चप्रकृत्यात्मकमेकैकं, वेदनीयायुर्गोत्राणां वेद्यमानैकप्रकृत्यात्मकं, नैतासां द्विव्यादिकाः प्रकृतयो युगपदुदीर्यन्ते युगपदुदयाभावात् । दर्शनावरणीये चक्षुर्दर्शनावरणादीनां पञ्चानां चतसणां वा प्रकृतीनां युगपदुदीरणा भवति । मोहनीये एकस्या द्वयोश्चतसृणां पश्चानां षण्णामष्टानां नवानां दशानां वा । 20 नामकर्मणो दशोदीरणास्थानानि एकचत्वारिंशत्-द्विचत्वारिंशत्--पञ्चाशत्-एकपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत्-त्रिपश्चाशत्-चतुः--पञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशत्--षट्पश्चाशत् -सप्तपश्चाशञ्चेति । विशेषस्त्वन्यतो द्रष्टव्य इति प्रकृत्युदीरणा । स्थित्युदीरणायां प्रथमं लक्षणमुच्यते, उदयो हि द्विविधः, सम्प्राप्त्यसम्प्राप्तिभेदात् कालक्रमेण कर्मदलिकस्योदयहेतुद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीस सम्प्राप्तौ य उदयस्स सम्प्राप्त्युदयः, अकालप्राप्तं कर्मदलिकमुदीरणाप्रयोगेण वीर्यविशेष25 संज्ञितेन समाकृष्य कालप्राप्तेन दलिकेन सहानुभूयते सोऽसम्प्राप्त्युदयः, तथाचासम्प्राप्त्यु दय एवोदीरणा या स्थितिरप्राप्तकालापि सती उदीरणाप्रयोगेण सम्प्राप्त्युदये प्रक्षिप्ता दृश्यते केवलचक्षुषा सा स्थित्युदीरणेति । भेदादिकमन्यतो द्रष्टव्यम् । अनुभागोदीरणायां संज्ञाद्विभेदा, स्थानघातिभेदात् स्थानं चतुर्विधं एकद्वित्रिचतुस्स्थानभेदात् १. वेदनीयायुगोत्रप्रकृतीनामित्यर्थः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदीरणा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २५९ : एतञ्च पूर्वमुपदर्शितम् घातिसंज्ञा तु सर्वघातिदेशघात्यघातिभेदतत्रिविधा । तथा शुभकर्मणामनुभागः क्षीरखण्डरसोपमः, अशुभकर्मणान्त्वशुभो घोषातकीनिम्बरसोपमः । स्वविषयं याः पूर्णतया नन्ति तास्सर्वघातिन्यः, केवलज्ञानदर्शनावरणमाद्यद्वादशकषाया मिथ्यात्वं निद्रापञ्चकञ्चेति विंशतिः । एता हि प्रकृतयो यथायोगमात्मघात्यं गुणं सम्यक्त्वं ज्ञानं दर्शनं चारित्रं वा सर्वात्मना घातयन्ति । मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानावरणानि चक्षुरचक्षु- 5 रवधिदर्शनावरणानि संज्वलनकषाया नोकषाया अन्तरायाश्च पश्चविंशतिप्रकृतयो देशघातिन्यः । ज्ञानादिगुणैकदेशविघातित्वात् । केवलज्ञानदर्शनावरणीयाभ्यामावृतयोरपि केवलज्ञानदर्शनयोर्मन्दमन्दतरादिविशिष्टप्रकाशरूपाणां मतिज्ञानादिचक्षुर्दर्शनादीनां ज्ञानदर्शनैकदेशरूपाणां विघातकत्वात् आद्यद्वादशकषायक्षयोपशमसमुत्थचारित्रलब्धेरतिचारसम्पादकतया देशतो विघातकत्वात् सर्वद्रव्यैकदेशविषयकदानादिविघातकारित्वाच्च । 10 नामगोत्रवेदनीयायुरन्तर्गतास्तु प्रकृतयो हन्तव्याभावान्न किमपि नन्तीति ता अघातिन्यः । सर्वघातिनीनां रसो हि ताम्रभाजनवनिश्छिद्रो घृतवदतिस्निग्धो द्राक्षावत्तनुप्रदेशोपचितः स्फटिकाभ्रवनिर्मलः सकलस्वविषयघातित्वेन सर्वघाती । देशघातिनीनान्तु रसः कश्चिद्वंशदलनिर्मापितकटवदतिस्थूलच्छिद्रशतवत्संकुलः, कश्चित्कम्बलवन्मध्यमविवरशतसंकुलः, कोऽपि ममृणवासोवदतिसूक्ष्मविवरसंवृतोऽल्पस्नेहो विमलश्च स्वविषयैकदेशघातित्वाद्देश- 15 घाती भवति । अघातिनीनां रस उभयविलक्षणः। विपाकोऽपि पुद्गलक्षेत्रभवजीवविपाकभेदाचतुर्विधः । पुद्गलानधिकृत्य यस्य रसस्य फलदानाभिमुख्यं स पुद्गलविपाकः । स च संस्थानषटूसंहननषटकातपशरीरपञ्चकाङ्गोपाङ्गत्रयोद्योतनिर्माणस्थिरास्थिरवर्णादिचतुष्कागुरुलघुशुभाशुभपराघातोपघातप्रत्येकसाधारणनाम्नां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनाम् । क्षेत्रे गत्यन्तरसंक्रमणहेतुनभःपथे यस्य रसस्य फलदानाभिमुख्यं स रसः क्षेत्रविपाको यथा चतसृणामानु- 20 पूर्वाणाम् । भवे नरकादिरूपे स्वयोग्ये यस्य रसस्य फलदानाभिमुखता स भवविपाको यथा चत्वार्या!षि परभवे संक्रमेणाप्युदयाभावात् । गतीनान्तु परभवे संक्रमादुदयेन स्वभवव्य - १. अघातिन्यो न कञ्चन ज्ञानादिगुणं-घातयन्ति केवलं सर्वघातिनीभिस्सह वेद्यमानास्सर्वघातिरसविपाकं दर्शयन्ति देशघातिनीभिश्चसह वेद्यमाना देशघातिरसं, चोरैस्सह वर्तमानोऽचौरो यथा चौर इवाभासते तद्वदितिभावः ॥ २. शरीरतया परिणतेषु पुद्गलेषु यासां विपाकस्ताः पुद्गलविपाकिन्य इतिभावः ॥ ३. ननु विग्रहगत्यभावेऽपि संक्रमकरणेनानुपूर्वीणामुदयो विद्यतः इति कथं क्षेत्रविपाकिन्यस्ताः, न गतिवज्जीवविपाकिन्य इति चेदुच्यते विद्यमानेऽपि संक्रमे यथा तासां क्षेत्रप्राधान्येन स्वकीयो विपाकोदयो न तथाऽन्यासामिति क्षेत्रविपाकिन्य एवेति ॥४. यथा मोक्षगामिनोऽशेषा गतयो मनुष्यभवे क्षयं यान्तीति भवं प्रति गतीनां न नैयत्यमितिभावः ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २६०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे भिचारित्वान्न भवविपाकित्वम् । जीवमेवाधिकृत्य यो रसोऽनुग्रहोपघातादिसम्पादनाभिमुलो भवति स जीवविपाकः। यथा ज्ञानावरणपश्चकं दर्शनावरणनवकं वेदनीयद्वयं दर्शनमोहनीयत्रिकं पञ्चविंशतिमोहनीयप्रकृतयोऽन्तरायपश्चकं गतिचतुष्टयं जातिपश्चकं विहायोगतिद्विकं त्रसत्रिकं स्थावरत्रिकं सुस्वरदुस्स्वरसुभगदुर्भगादेयानादेययशःकीर्त्ययशःकीर्ति5 तीर्थकरोच्चासनामानि गोत्रद्वयश्चेत्यष्टसप्ततिप्रकृतयः । उदययोग्यतापेक्षयाऽष्टसप्ततिरिति, बन्धयोग्यतामाश्रित्य तु सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वपरिहारेण षट्सप्ततिर्बोध्या । प्रत्ययसाधनादिस्वामित्वप्ररूपणा अन्यतो विज्ञेयाः। एवं साद्यनादिस्वामित्वप्ररूपणात्मिकाप्रदेशोदीरणापि॥ ____ अधुनोपशमनामाख्याति कर्मणामुदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापना10 हेतुर्वीर्यपरिणतिरुपशमना । उदयश्च यथास्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलाना मबाधाकालक्षयात्संक्रमापवर्तनादिकरणविशेषाद्वोदयसमयप्राप्तानामनुभवनम् ॥ कर्मणामिति । यादृशवीर्यविशेषतः कर्मणामुदयस्योदीरणानिधत्तिनिकाचनानामयोग्यतया व्यवस्थापनं भवति तादृशवीर्यपरिणतिरुपशमनेत्यर्थः । कर्मणामुपशमना द्वि15 विधा, कृतकरणाऽकृतकरणा चेति, यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिकरणसाध्यक्रियाविशेषकृता कर णकृता, यथाप्रवृत्त्यादिकरणक्रियाविशेषमन्तरेणापि वेदनानुभवनादिकारणैर्योपशमना साऽकृ. तकरणेत्यर्थः, द्वैविध्यमिदं देशोपशमनाया एव, न सर्वोपशमनायास्तस्याः करणेभ्य एव भावात्। अकरणकृतोपशमनाया अकरणाऽनुदीर्णरूपभेदभिन्नायास्सम्प्रत्यनुयोगस्य व्यवच्छिन्नत्वेन कृतकरणोपशमनाऽत्र किश्चिद्विचार्यते कृतकरणोपशमना देशसर्वविषयभेदतो 20 द्विविधा, सर्वविषयोपशमना गुणोपशमना प्रशस्तोपशमनेति नामद्वयवती देशविषयोपशमना अगुणोपशमनाऽप्रशस्तोपशमना चेति नामद्वयवती। तत्र सर्वोपशमना मोहनीयस्यैव, शेषकमणान्तु देशोपशमना। पश्चेन्द्रियस्संज्ञी सर्वपर्याप्तः उपशमलब्ध्युपदेशश्रवणलब्धिकरणत्रयहेतुप्रकृष्टयोगलब्धित्रिकयुक्तो वा करणकालात्प्रागपि यावदन्तर्मुहूर्त प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धयाऽवदायमानचित्तसन्ततिरभव्यसिद्धिकविशोधिकमतिक्रम्य वर्तमानो मतिश्रुताज्ञान25 विभङ्गज्ञानानामन्यतमस्मिन् साकारोपयोगे वर्तमानो मनोवाक्कायान्यतमयोगे वा वर्तमानो विशुद्धलेश्यान्यतमयुक्तः कृतान्तस्सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणस्थितिकायुर्वर्जसप्तकर्मा चतुस्स्था १. यद्यपि सर्वा एव प्रकृतयः परमार्थतस्साक्षात्परम्परया वा जीवस्यैवानुग्रहमुपघातञ्च कुर्वन्तीति जीवविपाकिन्य एव तथापि मुख्यतया क्षेत्रभवपुरलेषु तद्विपाकस्य विवक्षितत्वातू तथा प्रोक्ता इति ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमना ] न्यायप्रकाशसमलते :२६१: नकाशुभकर्मानुभागस्य द्विस्थानककारी द्विस्थानकशुभकर्मानुभागस्य च चतुस्स्थानककारी ज्ञानावरणीयादिसप्तचत्वारिंशद्धृवप्रकृतीस्वस्वभवप्रायोग्याः परावर्त्तमानमध्यस्था अतिविशुद्धपरिणामत्वेनायुर्वर्जाश्शुभा एव बध्नन् बध्यमानप्रकृतीनां स्थितिमन्तस्सागरोपमकोटीकोटिमात्रप्रमाणां बध्नन् जघन्यमध्यमोत्कृष्टयोगवशतः प्रदेशानं जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपेण बध्नन् परिपूर्णे च स्थितिबन्धे पूर्वस्थितिबन्धापेक्षयापल्योपमासंख्येयभागन्यूनमन्यं स्थिति- 5 बन्धं कुर्वन् तथैवान्यमन्यं स्थितिबन्धं विदधत् बध्यमानानां प्रकृतीनामनुभागमशुभानां द्विस्था. नकं प्रतिसमयमनन्तगुणहीनं बध्नन् शुभानाश्च चतुस्स्थानकं प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धं कुर्वन्नेवमेवमेव यावदन्तर्मुहूर्तपरिसमाप्तिं व्यापृतः परिणामविशेषाणि प्रत्येकमान्तौहूर्तिकानि समुदायेनाप्यान्तर्गौहूर्तिकानि त्रीणि यथाप्रवृत्त्यपूर्वानिवृत्तिकरणानि विधायान्तर्मोहूर्तिकीमुपशमाद्धामवाप्नोति । करणत्रयनिरूपणा अन्यतोऽवगन्तव्या, अनिवृत्तिकरणाद्धायास्संख्येयेषु भागेषु 10 गतेषु संख्येयतम एकस्मिंश्च भागेऽवशेषेऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रमधो मुक्त्वा. मिथ्यात्वस्यान्तरकरणं करोति, अन्तरकरणं नामोदयक्षणादुपरि मिथ्यात्वस्थितिमन्तर्मुहूर्तमानामतिक्रम्योपरितनीश्च विष्कम्भयित्वा मध्येऽन्तर्मुहूर्त्तमानं तत्प्रदेशवेद्यदलिकामावकरणं, तन्निष्पादनकालोऽप्यन्तरकरणकाल एव, सोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणः प्रथमस्थितेः किञ्चिन्न्यूनोऽभिनवस्थितिबन्धाद्धया समानः। तथा हि प्रथमस्थित्यन्तरकरणे द्वे अपि अन्तर्मुहूर्तप्रमाणे युगपदारभते, अन्तरकरणप्रथम- 15 समय एव चान्य स्थितिबन्धं मिथ्यात्वस्यारभते स्थितिबन्धान्तरकरणे च युगपत् समापयति । अन्तरकरणे च क्रियमाणे गुणश्रेणेस्संख्येयतमं भागमन्तरकरणदलिकेनोत्किरति,उत्कीर्यमाणञ्च दलिकं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । अन्तरकरणादधस्तनी स्थितिः प्रथमोपरितनी च द्वितीयेत्युच्यते, तत उदयोदीरणाभ्यां प्रथमस्थितिमनुभवन् तावद्गतो यावदावलिकाद्विकं शेषम् । तत्र स्थितस्य पूर्वप्रवृत्तो द्वितीयस्थितेस्सकाशादुदीरणाप्रयोगेण दलिकं 20 समाकृष्योदये प्रक्षेपरूप आगालोऽत्र न भवति किन्तु केवलमुदीरणव । साऽपि तावदेव यावदावलिकाशेषो न भवति । ततस्सापि निवर्त्तते ततः केवलेनैवोदयेन तामावलिकामनुभवति तस्यामप्यपगतायां मिथ्यात्वस्योदयोऽपि निवर्त्तते तहलिकाभावात् तस्मिश्चापगते उपशान्ताद्धासमागमस्तत्र प्रथमसमय एव चोपशमसम्यक्त्वं लभते । अत्रोदयोदीरणादीनां निवृत्तेरीदृशोपशमनाकरणाध्यवसाय एवोपशमनेत्युच्यते । परं तत्रौपशमिकलाभप्रथमसम- 25 यादारभ्य मिथ्यात्वदलिकं प्रतिसमयं यावदन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोस्संक्रमयति, प्रथमस्थितिचरमसमये द्वितीयस्थितिगतदलिकस्यानुभागभेदेन शुद्धमिश्राशुद्धतया विभक्तत्वात् । अयं गुणसंक्रम उच्यतेऽन्तरकरणस्थितेनौपशमिकसम्यक्त्वलक्षणप्रशस्तगुणान्वितेन क्रियमाणत्वात् । इत्येवं सम्यक्त्वोत्पादो निरूपितः । ईदृशौपशमिकसम्य Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ९६२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे क्त्वयुतो न चारित्रमोहोपशमाय यतते किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्ट्यपरनामा, स चाविरतो देशविरतस्सर्वविरतो वा विशोष्यद्धायां वर्त्तमान एव, संक्लेशाद्धायां वर्तमानस्तु न चारित्रमोहनीयोपशमनाय प्रवर्त्तते । तत्राविरतो यथाप्रवृ पूर्वकरणे विधाय देशविरतरपर्वविरतो वा भवति देशविरतस्तु करणद्वयं कृत्वा 5 सर्वविरतिमवाप्स्यति, अनयोः प्रतिपन्यनन्तरं यावदन्तर्मुहूर्त्तं वर्धमानपरिणामनियमात तावन्मानां उदयावलिकाया उपरि गुणश्रेणि प्रतिसमयं दलिकरचनापेक्षयानन्तगुणवृद्धामा रचयति ततः परं कोऽपि वर्धमानपरिणामः कोऽपि च हीयमानपरिणामः कोव्यवस्थितपरिणामश्च भवति । वर्धमानपरिणाम ऊर्ध्वमपि वर्धमानां गुणश्रेणिं करोति हीयमानो हीयमानामवस्थितोऽवस्थितां । परिणामहासेन देश सर्वविरतिपरिणामात् आभोगमन्तरेण 10 परिभ्रष्टास्सन्तः पुनः पूर्वप्रतिपन्नां देशविरतिं सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यमाना अकृतकरणा एव प्रतिपद्यन्ते, ये त्वाभोगेनैव मिध्यात्वं गताः पुनस्तत्प्रपित्सवः करणपुरस्सरमेव प्रतिपद्यन्ते तदेवं कृतकरणा कृतकरणदेशविरति सर्वविरतिलाभो विज्ञेयः । एवं चारित्र मोहोपशमनाऽन्यंत्र द्रष्टव्या । एवमुपशान्तमोहनीयप्रकृतयस्संक्रमणोद्वर्त्तनापवर्त्तनोदी रणानिधत्तिनिकाचना करणानामयोग्या भवन्ति, दर्शनमोहनीयत्रिके तूपशान्तेऽपि सङ्क्रमापवर्त्तने भवतः, तत्र सम्य15 क्त्वे मिध्यात्वसम्यं मिध्यात्वयोः सङ्क्रमः, अपवर्त्तना तु त्रयाणामपि । यद्यप्युपशान्ते मोहे संक्रमणोद्वर्त्तनापवर्त्तनान्यपि करणानि न भवन्ति ततो लक्षणे तदनभिधानान्यूनता तथापि सर्वंविधोपशमनासंग्रहायैतानि विहाय लक्षणमाचरितमन्यथा देशोपशमनासङ्ग्रहो न स्यादिति । इति सर्वोपशमना संक्षेपत आदर्शिता । यथाप्रवृत्ता पूर्वकरणाभ्यां प्रकृत्यादीनां देशोपशमना प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशदेशोपशमनारूपेण प्रत्येकं मूलप्रकृत्युत्तरप्रकृतिविषय20 कत्वभेदभिन्नेन चतुर्विधा । देशोपशमना सर्वेषां कर्मणां भवति, एक द्वित्रिचतुरिन्द्रियामनुष्याश्च यथासंभव मपूर्व करणगुणस्थानपर्यवसाना देशोपशमनया मूलप्रकृतिमुत्तरप्रकृतिं वोपशमयितुं समर्थाः । देशोपशमनयोपशमितानां कर्मणामुद्वर्त्तनापवर्त्तनासंक्रमणरूपाणि करणानि प्रवर्त्तन्ते नान्यानि । दर्शन त्रिकोपशका विरतास्वापूर्वकरणान्तसमयं यावद्देशोपशमनां कुर्वन्ति, अनन्तानुबन्धिनां विसं - संज्ञिसंज्ञिपञ्चन्द्रियतिर्यङ्नारकदेवा १. केवलं कथञ्चित्परिणामासाद्देशविरतोऽविरतिं सर्वविरतो वा देशविरतिं प्रतिपन्नस्सन् भूयोऽपि पूर्वप्रतिपन्नां देशविरतिं सर्वविरतिं वा करणरहितोऽपि प्रतिपद्यते एवमकृतकरणेऽनेकशो गमागमं करोतीतिभावः ॥ २. यस्त्वाभोगप्रतिपत्त्या नष्टकरणो देशविरतेस्सर्वविरतेर्वा परिभ्रष्टो मिथ्यात्वञ्चगनस्स भूयो - ऽपि जघन्यनान्तर्मुहूर्त्तकालेन उत्कर्षतः प्रभूतेन कालेन पूर्वप्रतिपन्नामपि देशविरतिं सर्वविरतिंवा करणद्वयपुरस्सरमेव प्रतिपद्यत इतिभावः ॥ ३ गुणस्थानग्रन्थे पूर्वोक्ते ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशलमलते योजने चातुर्गतिका अपि स्वापूर्वकरणान्तिमसमयं यावद्देशोपशमकाः । शेषचारित्रमोहनीयप्रकृतीनामुपशमनायां क्षपणायां वा यावदपूर्वकरणगुणस्थानचरमसमयं तावद्देशोपशमना । शेषप्रकृतीनाञ्च सर्वोपशमना न भवत्येव किंतु देशोपशमनैव सापि चाऽपूर्वकरणगुणस्थानं यावत् । अधिकं कर्मप्रकृत्यादिभ्यो विज्ञेयमितिदिक् ॥ लक्षणान्तर्गतोदीरणादीनां करणविशेषत्वेन ज्ञातत्वादुदयपदार्थ निर्वक्ति-उदयश्चेति । स्थितिक्षयेण 5 प्रयोगेण वा द्विविधोदयो भवति, उदयहेतूनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपाणां प्राप्तौ स्थितेरबाधाकालरूपाया नाशे सति च यः कर्मपुद्गलानां स्वभावत उदयः प्रवर्त्तते स स्थितिक्षयेणोदयः । यः पुनरुदयेऽन्यस्य प्रवर्त्तमाने करणविशेषरूपप्रयोगेणोदयो भवति स प्रयोगेणोदय इत्याशयेनोक्तं कर्मपुद्गलानामित्यादिना । प्रायो यत्रोदयस्तत्रोदीरणा यत्रोदीरणा तत्रोदय इति, उदयस्योदीरणासहभावित्वाज्ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टया- 10 न्तरायपञ्चकसंज्वलनलोभवेदत्रयसम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वरूपविशतिप्रकृति मुक्त्वा शेषाणां उदीरणावदेव साद्यनादिकं भवति । एतासान्तु स्वस्वोदयपर्यवसान उदीरणामन्तरेणापि केवलेनोदयेनावलिकाकालमात्रमनुभवनं भवति । विशेषोऽत्रान्यतोविलोकनीय इति ॥ अथ निधत्तिमाह कर्मणामुद्वर्त्तनापवर्त्तनान्यकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनानुकूलवीर्य- 15 विशेषो निधत्तिः॥ कर्मणामिति । येन वीर्यविशेषेण कर्मणामुद्वर्तनापवर्त्तनाभिन्नानि करणानि न प्रवर्तन्ते प्रवर्त्तते च ते तादृशो वीर्यविशेषो निधत्तिनामेत्यर्थः । देशोपशमनावद्भेदस्वामिनावस्यापि । यत्रगुणश्रेणिस्तत्र प्रायो देशोपशमनानिधत्तिनिकाचनायथाप्रवृत्तसङ्गमा अपि सम्भवन्ति, तत्र गुणप्रदेशाग्रं स्तोकं ततो देशोपशमनाया असंख्येयगुणं ततो निधत्तम- 20 संख्येयगुणं ततो निकाचितमसंख्येयगुणं ततोऽपि यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रान्तमसंख्येयगुणं भवति । स्वामिनस्तु सर्वेऽप्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंझिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नारकदेवा मनुष्याश्च यथासम्भवमपूर्वकरणपर्यवसानास्सर्वकर्मणां देशोपशमनास्वामिनः । अथ प्रसङ्गाद्देशोपशमना किञ्चिद्विचार्यते । देशोपशमना मूलप्रकृतीनामष्टानामपूर्वगुणस्थानकादूर्ध्व गत्वा पततां प्रवर्त्तमाना सादिः, तत्स्थानमप्राप्तानामनादिः, ध्रुवाऽभव्यानां, भव्यानां त्वध्रुवा देशो- 25 १. मूलोत्तरप्रकृतिविषयउदयो ध्रुवाध्रुवसाद्यनादिरूपतश्चतुर्विधः, ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणामुदयः क्षीणमोहान्तसमयं यावत् मोहस्योपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् वेदनीयनामगोत्रायुषां सयोगान्तसमयं यावद्भाव्यः, तत्र स्थित्युदयमधिकृत्याह स्थितिक्षयेणेति । अनुभागमधिकृत्याह प्रायो यत्रेति ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे [ नवकिरण पशमनामधिकृस्य मोहनीयस्य चतुःपञ्चषट्सप्ताष्टकविंशतिभेदेन षट्प्रकृतिस्थानानि, शेषाणि तु अनिवृत्तिबादरे प्राप्यमाणत्वादत्र न सम्भवन्ति । मिथ्यादृष्टिसास्वादनसम्यमिथ्यादृष्टिवेदकसम्यग्दृष्टीनामष्टाविंशतिस्थानं, उद्वलितसम्यक्त्वस्य मिथ्यादृष्टेः सम्यमिथ्यादृष्टेर्वा सप्तविंशतिस्थानम् । उद्वलितसम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वस्यानादिमिथ्यादृष्टेर्वा षड्विंशतिस्थानं, 5 षड्विंशतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टेस्सम्यक्त्वमुत्पादयतोऽपूर्वकरणात्परतः पञ्चविंशतिस्थानं वेदि तव्यं मिथ्यात्वप्रदेशोपशमनाया अभावात् । तथानन्तानुबन्धिनामुबलनेऽपूर्वकरणात्परतो विद्यमानस्य चतुर्विंशतिस्थानं, चतुर्विंशतिसत्कर्मणो वा चतुर्विंशतिस्थानं । क्षपितसप्तकस्यैकविंशतिस्थानमिति । नामकर्मणस्तु व्युत्तरशतं द्वयुत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः, त्रिनवतिः, चतुरशीतियशीतिश्चेति देशोपशमनायोग्यानि । तत्रादिमानि चत्वारि यावदपूर्वकरणगुण10 स्थानकचरमसमयं तावद्वेदितव्यानि न परतः, शेषाणि त्रीणि एकेन्द्रियाणां भवन्ति श्रेणिं प्रतिपद्यमानानान्तु न सम्भवन्ति शेषाणि स्थानानि अपूर्वकरणगुणस्थानकात्परतो लभ्यन्त इति तानि देशोपशमनाऽयोग्यानि । ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणामेकैकं प्रकृतिस्थानं देशोपशमनायोग्यं तत्र ज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चप्रकृत्यात्मकं, दर्शनावरणस्य नवप्रकृत्या स्मकं, वेदनीयस्य द्विप्रकृत्यात्मकं आयुषो द्वे प्रकृतिस्थाने द्वे प्रकृती एका च, तत्राबद्धपरभ15 वायुष्कस्यैका, बद्धपरभवायुषस्तु द्वे, गोत्रस्य द्वे प्रकृतिस्थाने देशोपशमनायोग्ये, एका द्वे चेति, अनुदलितोच्चैर्गोत्रस्य द्वे, उद्वलितोच्चैर्गोत्रस्यैकेति ॥ एवं स्थित्यनुभागप्रदेशदेशोपशमनास्थित्यनुभागप्रदेशसंक्रमवत्प्रायो भवत्यतस्साऽन्यत्र द्रष्टव्या ॥ अथ निकाचनामाह20 . करणसामान्यायोग्यत्वेनावश्यवेद्यतया व्यवस्थापनाप्रयोजकवीर्यविशेषो निकाचना ॥ करणेति । येन वीर्यविशेषेण कर्माणि सकलकरणायोग्यत्वेनावश्यवेद्यतया च व्यवस्थापयति स वीर्यविशेषो निकाचनेत्यर्थः । इयमपि भेदादितो देशोपशमनातुल्यैवावसेयेति ॥ इत्येवं चतुर्विधं बन्धं करणानि च लक्षयित्वाऽथ मूलोत्तरभेदभिन्नं प्रकृतिबन्धं पुण्य25 पापनिरूपणे निरूपितोत्तरभेदं सम्प्रति मूलभेदप्रदर्शनेन साङ्गं विदधातुकाम आह तत्र मूलप्रकृतिवन्धश्च ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायभेदेनाष्टविधः॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलते तत्रेति । ज्ञानदर्शनयोर्द्वन्द्वोत्तरमावरणशब्देन तत्पुरुषस्ततस्सर्वेषां द्वन्द्वः । ज्ञानं दर्शनं हि जीवस्य स्वतत्त्वभूतं तदभावे जीवत्वस्यैवायोगात् चेतनालक्षणत्वाज्जीवस्य, ज्ञानदर्शनयोरपि मध्ये ज्ञानं प्रधानं, तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविचारसन्ततिप्रवृत्तेः । किञ्च सर्वा अपि लब्धयों जीवस्य साकारोपयुक्तस्य जायन्ते न दर्शनोपयोगयुक्तस्य । अपिच यस्मिन् समये सकलकर्म विमुक्तो जीवस्संजायते तस्मिन् समये ज्ञानोपयोगयुक्त एव, न दर्शनोपयोगयुक्तः, दर्शनो- 5 पयोगस्य द्वितीयसमये भावात्। ततो ज्ञानं प्रधानं तदावरणं ज्ञानावरणं कर्म, ततस्तत्प्रथममुक्तं । तदनन्तरं च दर्शनावरणं, ज्ञानोपयोगाच्च्युतस्य दर्शनोपयोगात् । एते च ज्ञानदर्शनावरणे स्वविपाकमुपदर्शयती यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः, तथा हि ज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षप्राप्तं विपाकतोऽनुभवन् सूक्ष्मसूक्ष्मतरवस्तुविचारासमर्थ मात्मानं जानानः खिद्यते भूरिलोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि 10 वस्तूनि निजप्रज्ञया विन्दानो बहुजनातिशायिनमात्मानं पश्यन सुखं वेदयते। तथाऽतिनिबिडदर्शनावरणविपाकोदये जात्यन्धादिरनुभवति दुःखसम्मोहं वचनगोचरातिक्रान्तं, दर्शनावरणक्षयोपशमपटिष्ठतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो यथावद्वस्तुनिकुरुम्बं सम्यगवलोकमानो वेदयतेऽमन्दमानन्दसन्दोहम् । तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ दर्शनावरणानन्तरं वेदनीयग्रहणम् । वेदनीयश्च सुखदुःखे जनयतीत्यभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ, तौ च 15 मोहनीयहेतुकौ, तत एतदर्थप्रतिपत्तये वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणं, मोहनीयमूढाश्व जन्तवो बह्वारम्भाः परिग्रहप्रभृतिकर्मादानासक्ता नरकाद्यायुष्कमारचयन्ति, ततो मोहनीयानन्तरमायुग्रहणम् । नरकाद्यायुष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादिनामान्युदयमायान्ति, तत आयुरनन्तरं नामग्रहणम् । नामकर्मोदये च नियमादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यमतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणम् । गोत्रोदयेन चोच्चैःकुलोत्पन्नस्य प्रायो दानलाभान्तराया- 20 दिक्षयोपशमो भवति राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात् । नीचैःकुलोत्पन्नस्य तु दानलाभान्तरायाद्युदयो नीचजातीनां तथा दर्शनात् , तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थं गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणमिति । यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य नियमेन दर्शनावरणीयमस्ति, यस्य दर्शनावरणीयमस्ति तस्यापि नियमेन ज्ञानावरणीयमस्ति । यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य नियमेन वेदनीयमस्ति, यस्य वेदनीयमस्ति तस्य केवल्यपेक्षया ज्ञानावरणीयं नास्ति, तद्भिन्नापेक्षया चास्ति 25 तत् । मोहक्षये सति यावदनुत्पन्न केवलज्ञानं तस्य क्षपकस्य ज्ञानावरणीयमस्ति मोहनीयञ्च नास्ति, अक्षपकस्य तूभयमस्ति । मोहनीयसत्वे ज्ञानावरणस्यावश्यम्भावनियमात् । शानावरणेन सह वेदनीयवदायुर्नामगोत्राणामपि भाव्यम् । अन्तरायस्य तु दर्शनावरणीयव Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [नवमकिरणे त्परस्परं व्याप्यव्यापकभावो विज्ञेयः । दर्शनावरणीयेन समं शेषकर्मणां भावाभावविचारो ज्ञानावरणीयवदेव । वेदनीयेन सहाक्षीणमोहापेक्षया नियमेन मोहनीयमस्ति क्षीणमोहापेक्षया तु मोहनीयं नास्ति, यस्य तु मोहनीयमस्ति तस्य नियमेन वेदनीयमस्ति । एवं वेदनीयेन सहायुर्नामगोत्राणां परस्परं व्याप्यव्यापकभावो विज्ञेयः । अन्तरायस्तु 5 वेदनीयसत्त्वेऽकेवलिनां नियमेनास्ति, केवलिनान्तु नास्ति । अन्तरायसत्त्वे च वेदनीयं नियमेन वर्तते । यस्य मोहनीयमस्ति तस्य नियमेनायुरस्ति यस्यायुरस्ति तस्याक्षीणमोहस्य मोहनीयमस्ति क्षीणमोहस्य तु नास्ति । एवमेव यस्य मोहनीयं तस्य नामगोत्रान्तरायाणि नियमात्सन्ति, यस्य तु तानि सन्ति तस्याक्षीणमोहस्य मोहनीयमस्ति परस्य नास्ति । यस्या युरस्ति तस्य नियमेन नामगोत्रे यस्य नामगोत्रे तस्य नियमेनायुरस्ति । यस्य त्वायुस्तस्यान्त10 रायः केवल्यपेक्षया नास्ति, अकेवल्यपेक्षयात्वस्ति । नामगोत्रयोश्च परस्परं व्याप्यव्यापक भावनियमः, नामसत्त्वेऽन्तरायस्तु क्वचित् स्यात्क्वचिन्न स्यात् । अन्तरायसत्त्वे तु नामावश्यमस्ति । एवं गोत्रान्तराययोरपि भाव्यमिति ॥ ज्ञानावरणीयादीनामवान्तरभेदा एव प्रकृतिबन्धस्योत्तरभेदा विंशतियुतशतरूपा इत्याह..एषामवान्तरभेदा विंशत्युत्तरशतात्मका बोध्याः। विवृताश्चैते पुण्य1B पापतत्त्वयोः । उदये च सम्यक्त्वमोहनीयमिश्रमोहनीयसहिता द्वाविं शत्युत्तरशतभेदा भवन्ति । सत्तायान्त्वष्टपञ्चाशदुत्तरशतभेदाः स्युः । विवृताश्चैते सर्वे कर्मग्रन्थे ॥ . एषामिति । ज्ञानावरणीयादिकर्मणामित्यर्थः । के ते भेदा इत्यत्राह विवृता इति, एते-भेदाः, उदये कियन्तो भेदा इत्यत्राहोदये चेति । अयं भावः, बन्धोदययोश्चिन्त्यमान, 20• योर्बन्धननामानि संघातननामानि च स्वस्वशरीरान्तर्गततया विवक्ष्यन्ते, न तु पृथक्तया, तथा वर्णचतुष्टयस्योत्तरभेदाः क्रमेण पञ्चद्विपश्चाष्टसंख्याका बन्धोदययोर्न पृथक् विवक्षणीयाः परन्तु वर्णगन्धरसस्पर्शाश्चत्वार एव ! बन्धे चिन्त्यमाने च सम्यक्त्वसम्यक्मिथ्यात्वे न गृह्यते तयोर्बन्धाभावात् । तथा च बन्धचिन्तने बन्धनपञ्चकसंघातनपञ्चकवर्णा दिषोडशकानि सत्तागतनाम्नस्त्रिनवतेरपनीयन्ते शेषास्सप्तषष्टिह्यन्ते, मोहनीयप्रकृतयश्च 25 सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वहीनाष्षड्रिंशतिस्ततस्सर्वप्रकृतिसंख्यायोगे बन्धे विंशत्युत्तरशतं प्रकतयो भवन्ति । उदये च चिन्त्यमाने सम्यक्त्वमिश्रे अप्युदयमायात इति ते अपि परिगृह्येते, तस्मादुदये द्वाविंशंशतमित्यभिप्रायेणोक्तं सम्यक्त्वेत्यादि । सत्तायां कियन्त इत्यत्राह Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दर्शनावरणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते सत्तायान्त्विति | सत्तायान्तु चिन्त्यमानायां बन्धन पञ्चकसंघातन पञ्चकवर्णादिषोडशक संयोज्य प्रकृतीनामष्टचत्वारिंशं शतं विज्ञेयम् । यदा तु पुनर्गर्गर्षिशिवशर्मप्रभृत्याचार्याणां तेनाष्टपचाशदधिकं प्रकृतिशतं सत्तायामधिक्रियते तदा बन्धनानि पञ्चदश विवक्ष्यन्ते ततोऽष्टचत्वारिंशदधिकस्य प्रकृतिशतस्योपरिबन्धनगततादृशप्रकृतयोऽधिकाः प्राप्यन्ते तदा भवत्यष्टपञ्चाशदुत्तरं प्रकृतिशतमितिभावः । तदेतत्सर्वं कर्मग्रन्थादौ दर्शितमित्याह विवृता 5 इति, श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि महर्षिंकृते, कर्मग्रन्थे - कर्मविपाकादिप्रन्थषटु इतिभावः ॥ : २६७ : अथ ज्ञानावरणस्वरूपमाह- आत्मनो विशेषबोधावरणकारणं कर्म ज्ञानावरणम् ॥ आत्मन इति । सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको यो बोधस्तज्ञानं तदावरणकारणं यत्कर्म तज्ज्ञानावरणमित्यर्थः । सामान्यविशेषात्मक वस्तुनिष्ठविशेषविषयक- 10 बोधावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणं, अत्र सामान्यविशेषात्मकेति विशेषणं वस्तुनस्सामान्यविशेषात्मकत्वमिति दर्शयितुं । तेन सामान्यरूपत्वमेव विशेषरूपत्वमेव वा वस्तुनस्वरूपमिति पक्षो निरस्तो दर्शनावरणवारणाय वस्तुनिष्ठविशेषविषयकेतिपदम् । अत्र विशेषतवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानाश्च प्रदोषो निह्नवो मात्सर्यमन्तराय आसादनमुपघातश्च । मत्यादिज्ञानपञ्चकं मोक्षं प्रति मूलसाधनमित्युक्तौ कस्यचिदनभिव्याहार्यो योs - 15 न्तर्दोर्जन्यपरिणामः स प्रदोषः । यत्किञ्चित् परनिमित्तमभिसन्धाय ज्ञानिनो ज्ञानस्य वाड़पलापो निह्नवः । दानयोग्याय दानार्हमपि भावितं ज्ञानं यस्मान्न दीयते तन्मात्सर्यम् । कालुष्यादिना ज्ञानस्य व्यवच्छेदकरणमन्तरायः । मनसा वचसा कायेन वा ज्ञानस्य ज्ञानिनो वाऽनादर आसादनम्, प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघात इति । इत्थमेव च दर्शनविषया हेतवो दर्शनपदप्रक्षेपेणैत एव भाव्याः ॥ अथ दर्शनावरणस्वरूपमाह - आत्मनस्सामान्यबोधावरणसाधनं कर्म दर्शनावरणम् ॥ आत्मन इति । सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको यो बोधो दर्शनं १. ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत्तद्धेतूनाश्च ये किल विघ्ननिव पैशुन्याऽऽशातनाघातमत्सराः, ते ज्ञानदर्शन वरण कर्महेतव आश्रवाः ॥ इति ॥ T 20 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२६८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे . तदावरणकारणं कर्मेत्यर्थः । वस्तुनिष्ठसामान्यविषयकबोधावरणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् ॥ ज्ञानदर्शनावरणयोरालस्यस्वपनशीलतानिद्रादरप्राणातिपातादयोऽपि हेतवोऽवसेयाः ।। वेदनीयं लक्षयति सुखदुःखानुभवप्रयोजकं कर्म वेदनीयम् । . 5 सुखेति । यद्यपि वेदनीयत्वमनुभवयोग्यत्वं तञ्च सर्वकर्मणां तथापि पङ्कजादिशब्दवदस्य शब्दस्य रूढिविषयत्वात्सातासातरूपमेव कर्म वेदनीयमुच्यते शास्त्रव्यवहारात् । अत एव चानुभवप्रयोजकमित्यनुक्त्वा सुखदुःखानुभवप्रयोजकमित्युक्तम् । तत्र दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनानि स्वपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षान्ति. शौचानि सद्वेद्यस्य हेतवः । विरोधिद्रव्योपनिपातादभिलषितवियोगादनिष्टश्रवणान्निष्ठुर10 श्रवणादात्मनः पीडालक्षणः परिणामो दुःखम् । अनुग्राहकबान्धवादिसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । परीवादपरिभवपरुषवचनादिश्रवणनिमित्तापेक्षः कलुषान्तःकरणस्य तीव्रानुशयपरिणामस्तापः । परितापजन्याश्रुपातप्रचुरविलापाङ्गविकाराघभिव्यङ्गयमाक्रन्दनम् । प्राणिप्राणवियोजनं वधः । संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयमनुकम्पा प्रचुरं परिदेवनम् । यद्यपि शोकादयस्सर्वे दुःखजातीया - पत्र तथापि यथा गौरित्युक्त 15 अनितिविशेषे तत्प्रतिपादनाय खण्डमुण्डशुक्लायुपादानं क्रियते तथा दुःखमित्युक्ते विशेषा ज्ञानात्कतिपयविशेषप्रदर्शनेन तद्विवेकप्रतिपत्तये शोकादीनामुक्तिर्बोध्या । एतानि च दुःखा. दीनि कदाचित् क्रोधाद्याविष्टेनात्मना स्वस्मिन् कषायवशात्कदाचित्परस्मिन् जनयति कदाचिच्चाधमर्णसमवाये सत्युत्तमर्णस्य तन्निरोधपरस्य भुजिक्रियानिवृत्तावुभयत्र क्षुत्कृतानि दुःखादीनि सम्भवन्ति । आयुर्नामगोत्रोदयवशाद्भवन्तीति भूतानि प्राणिनः, अहिंसादिव्रता20 भिसम्बद्धाः व्रतिनस्तेष्वनुग्रहार्दीकृतचेतसोऽनुकम्पनमनुकम्पा । परानुग्रहबुद्ध्याऽऽत्मीयवस्त्वतिसर्जनं दानम् । संज्वलनकषायसहवर्तिनः पुरुषस्य प्राणिवधाद्युपरतिस्सरागसंयमः, आदिना संयमासंयमाकामनिर्जराबालतपोयोगा ग्राह्याः। अनात्यन्तिकीविरतिस्संयमासंयमः। विषयनिवृत्तिश्चात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याद्भोगनिरोधोऽकामनिर्जरा । यथार्थ प्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनस्तपो बालतपः। लोकाभिमतनिरवद्यक्रियानुष्ठानं योगः। मनो25 वाकायैर्धर्मप्रणिधानात्क्रोधनिवृत्तिः क्षान्तिः । लोभतृष्णादिभिरुपरमश्शौचमित्येवं कारण स्सद्वेद्यं भवतीति ॥ १..दुःखशोकवधास्तापक्रन्दने परिदेवनम् । स्वान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाश्रवाः ॥ २. देवपूजागुरूपास्तिपात्रदानदयाक्षमाः । सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा। शौचं बालतपश्चेति सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयु:]. न्यायप्रकाशसमलते - मोहनीयं कर्म स्वरूपयति रागद्वेषादिजनकं कर्म मोहनीयम् ॥ __ रागेति । मोहयति सदसद्विकलं करोत्यात्मानमिति मोहनीयम् । मोहाय-हेयोपादेयविवेकाभावाय चित्तव्याकुलतायै मिथ्यात्वकषायविषयाभिलाषाय वा योग्यं मोहनीयम् । अत एवात्मा रक्तो द्विष्टश्च भवतीत्याशयेन रागद्वेषादिजनकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणमुक्तं, 5 यावदेव हि मोहनीयं तावदोषाः, तत्क्षये चावश्यम्भावी कर्मक्षयोऽतो रागद्वेषयोः प्रधान कारणमिदम् । आदिना कामगुणा ग्राह्याः, वेदस्य मोहनीयान्तःपतितत्वात् । केवलिनां श्रुतस्य संघस्य धर्मस्य देवानाञ्चावर्णवादा दर्शनमोहनीयस्य हेतवः । केवलिनां विषयेऽवास्तविकदोषोद्भावनं, असभ्यवाक्प्रयोगो निन्दाप्रकटनमित्यादयः केवल्यवर्णवादाः । तीर्थकरोपदिष्टयथास्थितज्ञेयानुसारिणि साङ्गोपाङ्गे श्रुतेऽविदग्धप्राकृतभाषाप्रचुरमिदं व्रतकायप्राय- 10 श्चित्तप्रमादोपदेशपुनरुक्तताबहुलं कुत्सितापवादप्रायमित्यादिभाषणं श्रुतावर्णवादः । चतुविधे संघे संयतादिविषये सचित्तादिव्यवहारपरायणाः परिपेलवबाह्यशौचाचारा जन्मान्तरकृतकर्मोदयजन्यकेशोल्लुम्चनातापनादिदुःखानुभविनः कलहकारिणोऽसहिष्णवः प्रागदत्तदाना भूयोऽपि दुःखिता एवं भविष्यन्तीत्येवंरूपा अवर्णवादाः, एवमेव श्रावकप्रभृतिसंघादिषु भाव्यम् । क्रोधादिकषायोदयादात्मनश्शब्दादिविषयेषु गाादयस्तीव्रपरिणामा- 15 श्चारित्रमोहनीयस्य हेतवो भाव्याः । अथायुषस्स्वरूपमाहगतिचतुष्टयस्थितिप्रयोजकं कर्म आयुः ॥ १. वीतरागे श्रुते संघे धर्म सर्वसुरेषु च । अवर्णवादिता तीव्रमिथ्यात्वपरिणामिता। सर्वज्ञसिद्धदेवापहवो धार्मिकदूषणम् । उन्मार्गदर्शनानाऽऽग्रहोऽसंयतपूजनम् । असमीक्षितकारित्वं गुर्वादिष्ववमानना। इत्यादयो दृष्टिमोहस्याश्रवाः परिकीर्तिताः ॥ २. कषायोदयतस्तीवः परिणामो य आत्मनः । चारित्रमोहनीयस्य स आश्रव उदीरितः ॥ उत्प्रासनं सकंदर्पोपहासोहासशीलता, बहुप्रलापो दैन्योक्तिहस्यिस्यामी स्युराश्रवाः, देशादिदर्शनौत्सुक्यं चित्रे रमणखेलने । परचित्तावर्जना चेत्याश्रवाः कीर्तिता रतेः॥ असूयापापशीलत्वं परेषां रतिनाशनम् । अकुशलप्रोत्सहनं चारतेराश्रवा अमी॥ परशोकाविष्करणं खशोकोत्पादशोचने । रोदनादिप्रसक्तिश्च शोकस्यैते स्युराश्रवाः ।। स्वयं भयपरीणामः परेषामथ भापनम् । त्रासनं निदेयत्वं च भयं प्रत्याश्रवा अमी ॥ चतुर्वर्णस्य संघस्य परिवादजुगुप्सने । सदाचारजुगुप्सा च जुगुप्सायां स्युराश्रवाः ॥ ईर्ष्या विषादगाध्यै च मृषीवादोऽतिवक्रता । परदाररतासक्तिः स्त्रीवेदस्याश्रवा इमे ॥ स्वदारमात्रसंतोषोऽना मन्दकषायता । अवक्राचारशीलत्वं पुवेदस्याश्रवा इति ।। स्त्रीपुंसानङ्गसेवोग्राः कषायास्तीवकामना । पाखंडि. स्त्रीव्रतभंगः षंडवेदाश्रवा अमी ॥ साधूनां गर्हणा धर्मोन्मुखता विघ्नकारिता । मधुमांसविरतानामविरत्यभिवर्णनम् ॥ विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः । अचारित्रगुणाख्यानं तथा चारित्रदूषणम् ॥ कषायनोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् । चारित्रमोहनीयस्य सामान्यनाश्रवा अमी॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे गतिचतुष्टयेति । देवतिर्यामनुजनरकरूपगतिचतुष्टयेत्यर्थः । स्वस्वकृतकर्मभिः प्राप्तनारकादिगतितो निर्गन्तुमिच्छतोऽपि जन्तोः प्रतिबन्धकतया यदा गच्छति न तु निष्कमणायावकाशं ददाति स्थितिपर्यन्तश्च तत्रैव तं स्थापयति तदायुःकर्मेत्यर्थः । गतिचतुष्टयस्थितिप्रयोजकत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । प्रभूतप्राणिप्राणव्यपरोपणमनवरतखण्डनीपेषणी5 चुल्ल्युदकुम्भप्रमार्जनीव्यापारो बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु ममत्वं कुणपाहाराभ्यवहारित्वं कषा योदयात्तीव्रपरिणामो मिथ्यादर्शनश्लिष्टाचारत्वमुत्कृष्टमानत्वं शैलभेदसदृशरोषस्तीत्रलोभानुरागपरपरितापप्रणिधानवधबन्धनाभिनिवेशानृतवचनप्रस्वादनाविरतमैथुनोपसेवास्थिरवैरावशेन्द्रियनिरनुग्रहस्वभावकृष्णलेश्यापरिणामरौद्रध्यानादयो नरकायुषो हेतवः । मनोवा कायशठत्वमिथ्यात्वावष्टम्भाधर्मदेशनाकूटकर्मनीलकापोतलेश्यापरिणामार्तध्यानादयस्तियंगा-- 10 युषो हेतवः । अल्पारम्भपरिग्रहस्वभावमार्दवार्जवमिथ्यादर्शनालिङ्गितातिविनीतता वालु काराजिसदृशरोषस्वागताधभिलाषलोकयात्राऽनुग्रहौदासीन्यगुरुदेवतातिथिपूजासंविभागशीलताकापोतलेश्यापरिणामधर्मध्यानादयो मनुष्यायुषो हेतवः । सरागसंयमो देशविरतिरकामनिर्जराबालतपःकल्याणमित्रसम्पर्कधर्मश्रवणतपोभावनापात्रदानतपनलेश्यापरिणामाव्यक्तसा. मायिकाविराधितसम्यग्दर्शनादयो दैवायुषो हेतव इति ॥ 15 सम्प्रति नामकर्माऽऽचष्टे नरकगत्यादिनानापर्यायप्रयोजकं कर्म नामकर्म ॥ नरकेति । यद्धि जीवं नारकोऽयं तिर्यग्योनिकोऽयं मनुजोऽयं देवोऽयं एकेन्द्रियोऽयं द्वीन्द्रियोऽयं त्रीन्द्रियोऽयं चतुरिन्द्रियोऽयं औदारिकोऽयं वैक्रियोऽयं हस्तवानयं पादवानयमित्यादिव्यपदेशैरनेकधा नामयति-करोति तन्नामकर्मेत्यर्थः । कायवाङमनःकौटिल्यं . १. पंचेन्द्रियप्राणिवधो बहूवारंभपरिप्रहौ। निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता ॥ रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायता । कृष्णनीलकपोताश्च लेश्या अनृतभाषणम् ॥ परद्रव्यापहरणं मुहुर्मेथुनसेवनम् । अवशेन्द्रियता चेति नरकायुष आश्रवाः ॥ उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढचित्तता । आर्तध्यानं सशल्यत्वं मायारंभपरिग्रहौ ॥ शीलव्रते सातिचारो नीलकापोतलेश्यता । अप्रत्याख्यानकषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः ॥ अल्पो परिमहारंभी सहजे मार्दवाजवे । कापोतपीतलेश्यात्वं धर्मध्यानानुरागिता । प्रत्याख्यानकषायत्वं परिणामश्च मध्यमः । संविभागविधायित्वं देवतागुरुपूजनम् ॥ पूर्वालापप्रियालापौ ज्ञानप्रज्ञापपनीयता। लोकयात्रासु माध्यथ्यं मानुषायुष आश्रवाः ॥ सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जराकल्याणमित्रसंपर्को धर्मश्रवणशीलता ॥ पात्रे दानं तपः श्रद्धा रत्नत्रयाविराधना । मृत्युकाले परीणामो लेश्ययोः पद्मपीतयोः ॥ बालं तपोऽग्नितोयादि साधनोल्लंबनानिच । अव्यक्तसामायिकतालं देवस्यायुष आश्रवाः॥ ... Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरायः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : २७१ : विसंवादो मिथ्यादर्शनं मायाप्रयोगो पिशुनताऽस्थिरचित्ततादयश्चाशुभस्य हेतैवः । कायवा मनोऋजुत्वमविप्रलम्भो धार्मिकदर्शनसम्भ्रमस्संसारभीरुता प्रमादवर्जनं सद्भावार्पण सम्यक्त्वमार्जवादयश्च शुभस्य हेतव इति ॥ अथ गोत्रमाख्याति - उच्चनीचजातिव्यवहारहेतुः कर्म गोत्रम् || उच्चेति । गूयते संशब्द्यत उच्चावचैश्शद्वैर्यत् तद्गोत्रं, उच्चनीचकुलोत्पत्तिलक्षणपर्याय विशेषवेद्यं कर्म, पूज्योऽयमपूज्योऽयमित्यादिव्यपदेशरूपां गां त्रायतेऽर्थाविसंवादेन पालयति यत्तद् गोत्रम् | तथाचोश्च्चनीचान्यतरविषयकव्यवहारासाधारणकारणत्वे सति कर्मत्वं लक्षणम् । उभयगोत्रसङ्ग्रहायान्यतरेति । तिर्यग्गत्यादावतिव्याप्तिवारणायासाधारणेति । तत्र परनिष्ठयथार्थायथार्थान्यतरदोषोद्भावनेच्छा, स्वनिष्ठयथार्थायथार्थान्यतरगुणोद्भावनाभिप्रायः, सदस- 10 द्गुणच्छादनोद्भावने जाति कुलरूपबलश्रुताज्ञैश्वर्यतपोमदपरावज्ञानोत्प्रासन कुत्सनादयो नीचे - र्गोत्रस्य कारणनि । आत्मनिन्दापरप्रशंसे गुणोत्कृष्टेषु विनयेन वृत्तिर्विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमदविरहो जातिकुलरूपबलवीर्यज्ञानैश्वर्यतपोविशेषवतोऽपि स्वोत्कर्षाणि - धानं परावज्ञानौद्धत्यनिन्दास्त कोम हास परपरिवादनिवृत्तिरित्यादय उच्चैर्गोत्रस्य हेतवः ॥ अथाष्टममन्तरायकर्म लक्षयति 5 १. मनोवाक्कायवकत्वं परेषां विप्रतारणम् । मायाप्रयोगोमिथ्यात्वं पैशुन्यं चलचित्तता ॥ सुवर्णादि प्रतिच्छन्दकरणं कूटसांक्षिता । वर्णगन्धरसस्पर्श न्यिथोपपादनानि च । अङ्गोपाङ्गच्यावनानि यंत्रपंजरकर्म च । कूदमानतुलाकर्मान्यनिन्दाऽत्मप्रशंसनम् ॥ हिंसानृतस्तेयाब्रह्ममहारम्भपरिग्रहाः ॥ परुषा सभ्यवचनंशुचिवेषादि नामदः ॥ मौखर्याक्रोशौ सौभाग्योपघाताः कार्मणक्रियाः । परकौतूहलोत्पादः परहास्यविडम्बने ॥ वेश्यादीनामलंकारदानं दावाग्निदीपनम् । देवादिव्याजाद्गन्धादिचौर्य तीव्र कषायता ॥ चैत्यप्रतिश्रयारामप्रतिमानां विनाशनम् | अङ्गारादिक्रिया चेत्यशुभस्य नाम्न आश्रवः । एतएवान्यथारूप स्तथा संसारभीरुता । प्रमादहानं सद्भावार्पण क्षान्त्यादयोऽपि च । दर्शने धार्मिकाणाञ्च संभ्रमः स्वागतक्रिया । परोपकारसारत्वमाश्रवाः शुभनामनि ॥ २. परस्य निन्दावज्ञोपहासास्सद् गुणलोपनम् । सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् ॥ सदसद्गुणशंसा च स्वदोषाच्छादनं तथा । जात्यादिभिर्मदश्चेति नीचैगोत्राश्रवा अमी ॥ नीचैत्र । श्रवविपर्यासो विगतगर्वता । aratयचित्तैर्विनय उचैर्गोत्राश्रवा अमी ॥ 15 आत्मनो वीर्यादिप्रतिबन्धकं कर्मान्तरायकर्म ॥ आत्मन इति । दातृप्रतिगृहीत्रोरन्तर्मध्ये एत्योदयद्वीर्यं प्रत्युत्पन्नं वस्तु यदुपहन्यते आगामिनो वा लब्धव्यस्य मार्ग उपहन्यते च तदन्तरायं कर्मेत्यर्थः । आदिना भोगोपभोग1 दानलाभा गृह्यन्ते । वीर्यादीनां विघ्नकरणं ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघातादयोऽस्य हेतवः । अत्र प्रदोषादयो विशेषहेतवो ज्ञानावरणादीनां प्रदेशबन्ध एव हेतव इति न नियमः, एभि - 20 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सरवन्यायविमाकरे झानावरणे बध्यमाने युगपदितरेषामपि कर्मणां बन्धात्तथापि अनुभागविशेषे नियमेन हेतुतया विशिष्य हेतवो दर्शिताः ॥ . अथ मूलकारो मूलप्रकृतीनां स्थितिमाह ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटि5 कालं यावत्, मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोटिकालं यावत्, विंशतिसागरोपमकोटीकोटिकालं यावन्नामगोत्रयोः, आयुषश्च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमकालं यावत्परास्थितिर्बोध्या। एवमेव वेदनीयस्य द्वादशमुहूर्ता, नामगोत्रयोरष्टमुहूर्ता, शेषाणाश्चान्तर्मुहूर्तमपरा स्थितिरिति ॥ ॥ इतिबन्धतत्त्वम् ॥ ज्ञानेति । त्रिंशदिति । उत्कृष्टसंक्लेशे स्थितस्य मिथ्यादृष्टेरियं परास्थितिः । 10 सप्ततिसागरोपमेति । मिथ्यात्वापेक्षयेयम् । सम्यमिथ्यात्वस्योत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तमान त्वात् , कषायस्य चत्वारिंशत्सागरोपमकोटिकोटिप्रमाणत्वात् । नोकषायाणाश्च विंशतिसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणत्वात् । विंशतीति । नरकतिर्यग्गत्येकेन्द्रियादिजात्यपेक्षयेयम् । नीचैर्गोत्रापेक्षया च गोत्रस्य तावती स्थितिः । त्रयस्त्रिंशदिति । देवनरकायुषोऽपेक्षयेयम् । तत्र ज्ञानावरणादिचतुर्णामबाधाकालश्च त्रीणि चर्मसहस्राणि; एतद्धीना कर्मस्थितिरनुभवयोग्या-कर्मदलिकनिषेकः, ज्ञानावरणीयादिकं हि कर्म उत्कृष्टस्थितिकं बद्धं सद्वन्धसमयादारभ्य त्रीणि वर्षसहस्राणि यावन्न किञ्चिदपि जीवस्य बाधां स्वोदयत उत्पादयति, तावत्कालमध्ये दलिकनिषेकस्याभावात् तत ऊर्ध्वं हि दलिकनिषेकः, निषेको नाम कर्मपुद्गलानामनुभागरचना, स निषेकः प्रथमस्थितौ प्रभूतो द्वितीयस्थितौ विशेषहीन इत्येवं क्रमेण यावञ्चरमसमयं रचना । द्वादशमुहूर्ता इति, सातवेदनीयस्य सकषायस्येदं, इतरस्य 20 तु प्रथमसमये बन्धो द्वितीयसमये वेदनं तृतीयसमये त्वकर्मीभवनमिति, अष्टमुहूर्ता इति, यशःकीर्युच्चैर्गोत्रापेक्षयेदम् । शेषाणामिति ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयायुरन्तरायाणामित्यर्थः। पञ्चानां ज्ञानावरणानां चक्षुर्दर्शनावरणादीनां चतुर्णा दर्शनावरणानां उदयापेक्षया सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वयोस्संज्वलनलोभस्य पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां तिर्यगायुषश्चापेक्षयेयं स्थितिरिति । इतरासान्तु प्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टस्थितयस्तत्तत्प्रकृतिनिरूपण एवोक्ता इति 25 दिक् । अथ बन्धतत्त्वं निगमयतीतीति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरण तत्पट्टधरेण लब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्व. न्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां बन्धनिरूपणनामा ॥ नवमः किरणः समाप्तः॥... Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षनिस्वनम् ] न्यायप्रकाशसमलते : २७१: अथ दशमः किरणः॥ तदेवं बन्धविगमोपायभूतसंवरनिर्जरानिरूपणोत्तरकालं बन्धं प्ररूप्य तत्प्रतिद्वन्द्विभूतमवसरप्राप्तमोक्षतत्त्वं निरूपयति कृत्स्नकर्मविमुक्त्याऽऽत्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः॥ कृत्स्नेति । कृत्स्नं निखिलं यत्कर्म मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नं तस्य या विमुक्तिरात्म-5 प्रदेशेभ्योऽत्यन्तमपगमस्तयाऽऽत्मनो यत्स्वात्मन्यवस्थानं स्वस्वभावेन वर्त्तनं स मोक्ष इत्यर्थः । विमुक्तिपदेन कृत्स्नस्य कर्मपुद्गलस्य कर्मत्वेन रूपेण क्षयोऽत्र विवक्षितो न द्रव्यत्वेन, तन्मुखेन तस्य नित्यत्वात् , कर्मत्वेनैव तस्य नाशात् , कर्मयोग्यपुद्गलेष्वात्मना परिगृहीतेष्वेव कर्मत्वपर्यायोत्पादेन तस्मादत्यन्तमपगतेषु तेषु तत्पर्यायनाशेन तद्रूपेण तेषामपि नाशात् । ननु पौद्गलिककर्मप्रकृतीनामेव किं निरासो मोक्षः, उतौपशमिकक्षायोपशमिकौद- 10 यिकक्षायिकपारिणामिकानां भावानामपीत्याशंकायामाहाऽऽत्मन इति, तथा च स्वस्य यत्स्वरूपं तस्मिन्नवस्थानं वर्तनमित्यर्थः, तेन केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनानि जीवस्य स्वरूपं तद्रूपेणाऽऽत्मनोऽवस्थानं मोक्षः, एते च भावाः क्षायिकाः, औपशमिकक्षायोपशमिकौदयिकानान्तु सर्वथा अभाव एवेति सूचितम् , कथमेषामभाव इत्यत्राह विमुक्त्येति, कर्मत्वेन पुद्गलसत्त्वे ह्युपशमादयः सम्भवन्ति, तस्यैव विमुक्त्या तदाधाराणां तेषां सम्भव एव 15 नास्ति, यस्तु न तदाधारः क्षायिकादिर्भावस्सोऽस्त्येव त्रिविधदर्शनमोहनीयादीनामात्यन्तिकक्षयेणैव केवलसम्यक्त्वादीनां भावादिति भावः । एतेन सर्वथाऽऽत्माभावो मोक्ष इति निरस्तं मोक्षाधारपदार्थस्याऽऽवश्यकत्वात् । न च केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनानामेव यदि सत्त्वं तद्दनन्तवीर्यसुखादीनामपि निवृत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम् । तदविनाभावित्वेन तेषामत्रैवाऽन्तर्गतत्वात् , अनन्तसामर्थ्याभावे हि नानन्तावबोधस्संभवति, सुखमपि च न 20 ज्ञानातिरिक्तं किञ्चिदपि तु ज्ञानविशेषरूपमेव, एवं सिद्धत्वास्तित्वादिभावा अपि तदविनाभाविन एव, भव्यत्वन्तु केवलसम्यक्त्वादिनिष्पत्तिविनाशित्वेन तदुत्पत्तौ नास्त्येवेति भावः । नन्वात्माभाव एव मोक्षः, तथा हि संसारो नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवत्वमेव, नान्यः, नारकादिपर्यायभिन्नश्च न कोऽपि जीवा, कदाचिदपि तद्भिन्नत्वेन जीवस्यानुपलब्धेः, ततो नारकादिभावनाशे जीवस्य स्वस्वरूपनाशात्सर्वथा जीवाभाव एव प्राप्त इति चेन्न, पर्याय- 25 मात्रनाशे पर्यायिणस्सर्वथा नाशस्यानिष्टत्वात् , नहि कनककुण्डलादिपर्यायनाशे स्वर्णस्य ... १. धर्मिणमात्मानं विना सदनुष्ठानमोक्षादीनां विचारायोग्यत्वात् , नहि बन्ध्यासुतस्याभावे तन्निष्ठसुरूपकुरूपत्वादीन् कश्चिदारभते चिन्तयितुमिति भावः ॥ ३५ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७४ : तस्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे नाशः कस्यापीष्टः । न च संसारः कर्मकृतः, ततस्तन्नाशे संसारो नश्यति तथा तन्नाशे च जीवस्यापि नाश एवेति वाच्यम्, कारणव्यापकयोरेव कार्यव्याप्यनिवर्त्तकत्वात् संसारश्च कर्मकार्यमतस्तन्नाशे तन्नाशो युक्तः, जीवस्तु तु न कर्मकृतः, अनादिकालप्रवृत्तत्वात् अतः कर्मनाशे न तस्य नाशः । विकारानुपलम्भाच्च न सर्वथा विनाशधर्मा, दृश्यन्ते हि मुगरा5 दिना ध्वस्तस्य घटस्य कपाललक्षणा विनाशधर्माः, न तथा जीवस्यातो नित्यत्वं तद्धर्मत्वाश्च मोक्षस्यापि नित्यत्वम् ॥ ननु स्वात्मन्यवस्थानमित्यनेन ज्ञानादिमत्त्वं मुक्तस्योक्तं तन्न सङ्गच्छते ज्ञानकारणाभावात् ज्ञाने हि शरीरेन्द्रियादिकं कारणं मुक्तस्य तदभावान्न ज्ञानं भवितुमर्हतीति चेन्न व्याध्यसिद्धेः, न हि शरीरेन्द्रियादीनि ज्ञानस्य कारणं व्यापकं वा, येन तन्निवृत्तौ तस्यापि निवृत्तिः स्यात्, ज्ञानस्यात्मस्वभावत्वेन शरीरादिनिवृत्तावपि न तन्निवृत्तिः, तस्मादस्ति 10 मुक्तो जीवस्स च ज्ञानरहित इति विरुद्धं वचनमेव । स्वात्मनि देहे प्रत्यक्षानुभवादेव जीवस्य ज्ञानस्वरूपत्वसिद्धेः, इन्द्रियव्यापारोपरमेऽपि तद्व्यापारोपलब्धार्थानुस्मरणादिन्द्रियवेऽपि चान्यमनस्कतायामनुपलम्भात् । अदृष्टाश्रुतानामप्यर्थानां तथाविधक्षयोपशमपाटवाद्वयाख्यानाद्यवस्थायां कदाचित्स्फुरणाच्च तस्मात्सर्वदा प्रकाशमय एव जीवः परं संसार्यवस्थायां छद्मस्थः किञ्चिन्मात्रमवभासयति क्षीणाक्षीणावरणच्छिद्रैश्चावभासनात्, सच्छिद्र कुड्याद्यन्त15 रितप्रदीपवत् । मुक्तावस्थायाश्च सर्वावरणक्षयात्सर्वमर्थं प्रकाशयति, विगतकुड्याद्यावरणप्रदी I पवत्, न तु जीवस्य तदानीं प्रकाशाभाव:, इति सिद्धं तदानीं ज्ञानस्वरूपत्वम् । एवं सुखादिस्वरूपत्वमपि भाव्यम्॥ अत्र कृत्स्नकर्मविमुक्तयाऽऽत्मनस्स्वात्मन्यवस्थानमित्यनेन सङ्ग्रहनयेन मुक्तिरुक्ता, तेन ह्यावरणोच्छिया व्यङ्गयं सुखं मुक्तिरिष्यते, संसारदशायां जीवस्वभावस्य सेन्द्रियदेहाद्यपेक्षाकारणस्वरूपावरणेनाच्छाद्यमानत्वात् प्रदीपस्यापवरकावस्थितपदार्थप्रका20 शकत्वस्वभावस्येव तदावारकबृहच्छरावादिना । तदपगमे तु प्रदीपस्येव जीवस्यापि विशिष्टप्रकाशस्वभावोऽयत्नसिद्ध एवेतिं । न च शरीराद्यभावे ज्ञानसुखादीनामभावप्रसङ्ग इति वाच्यमप्रयोजकत्वात्, अन्यथा शरावाद्यभावे प्रदीपादेरभावप्रसङ्गस्स्यात्, न च शरावादेः प्रदीपाद्य १. आत्मा हि सामान्यतो निखिललोकालोकवर्तिपदार्थानां सम्यक् परिच्छेदनिपुणः परं च कर्मपटलावृततज्ज्ञानत्वादस्मदादीनां विषयेषु संशयाऽज्ञानविपर्यया अतीतादिविप्रकृष्टादिपदार्थेष्वसम्यक्प्रतीतिश्चाविर्भवति, निःशेषतया ज्ञानावरणादिकर्ममलापगमे च प्रतिबन्धकाभावेन निखिलपदार्थज्ञानस्वभावतायां न कोऽपि विरोध इति भावः ॥ २. एवं सुखस्वरूपोऽप्यात्मा, यथा संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुषक्ते न तथा मुक्तात्मनः, दुःखमूलस्य शरीरस्याभावात् आत्मस्वरूपत्वाच्च सुखस्य । न चेदं सुखं दुःखाभावरूपम्, मुख्ये बाधकाभावात् रोगान्मुक्तोऽहं सुखी जात इत्यादौ सुखीति पदस्य पौनरुक्त्यापत्तेः ईदृश जडरूपात्मतत्त्वस्य मोक्षस्य पुंसामुपादेयत्वासंभवात् सांसारिक सुखस्य दुःखरूपत्वादेवात्यन्तिकसुखविशेषलिप्सयैव मुमुक्षूणां प्रवृत्तेचेत्यभिप्रायेणाह एवं सुखादिस्वरूपत्वमपि भाव्यमिति ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । जनकत्वान्न दोष इति वाच्यम्, तथाभूतप्रदीपपरिणत्यजनकत्वे शरावादेस्तदनावारकत्वप्रसङ्गात् । व्यवहारनयेन तु स्वीकृतपुंस्त्रीशरीरस्यात्मनस्सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां साध्यः कर्मणां क्षयो मुक्तिरिष्यते, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तयोस्तं प्रति कारणत्वात् न च कर्मक्षयस्य मुक्तिds पुमर्थत्वं स्यादिति वाच्यम्, मुक्तेरसाक्षात् दुःखहेतुनाशोपायेच्छाविषयत्वेन परमपुरुषार्थ - त्वविरोधात् । दुःखे हि द्वेषे तद्धेतून नियमेन द्वेष्टि ततस्तन्नाशहेतुषु ज्ञानादिषु प्रवर्त्तते, 5 ततो नाशोपायेच्छा जायत इति । न च सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यामित्युक्तं तन्न युक्तं सम्यग्दर्शनस्यापि हेतुत्वादिति वाच्यम् द्वयोरप्यनयोर्ज्ञानदर्शनयोस्सहचारित्वात् । ननु स्वीकृतपुंस्त्रीशरीरस्यात्मन इत्युक्तं तत्र स्वीकृतपुंशरीरस्य तु सम्यग्ज्ञानक्रियासम्भवाद्युक्तं मोक्षाधिकारित्वं स्त्रीणान्तु न तथा, तासां ज्ञानदर्शनयोस्संभवेऽपि चारित्रासंभवात्, वस्त्र परिभोगस्यावश्यकत्वात्, अन्यथा विवृताङ्गयस्ताः पुरुषाणामभिभवनीया लोके गर्हणीयाश्च भवेयुः, 10 वापरिभोगे च परिग्रहवत्वेन संयमाभाव एव स्यादिति चेन्न, वस्त्रसंसर्गमात्रस्य परिग्रहत्वासंभवात्, मूर्च्छाविशिष्टस्यैव तादृशस्य परिग्रहत्वात्, अन्यथा भरतचक्रवर्त्तिनो निष्परि महत्ववर्णनं केवलोत्पादश्चासंगतं स्यात्, जिनकल्पप्रतिपन्नस्य कस्यचित् साधोस्तुषारकणानुषके शीते पतति सति केनाप्यविषद्यमद्य शीतमिति विचिन्त्य तस्य शिरसि वस्त्रे प्रक्षिप्ते परिमहत्वापातप्रसङ्गात्, तासामपि सम्यग्दर्शनादिप्रकर्षसम्भवाञ्चेति दिकू । स च 15 सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां भवति, क्रियारहितस्य ज्ञानस्य तद्रहितायाः क्रियाया वाऽसमर्थत्वात्, न च प्रत्येकं कारणताविरहे कथं समुदाये कारणत्वमिति वाच्यम्, प्रत्येकं देशोपकारित्वात् समुदायस्य च सम्पूर्णोपकारित्वादिति दिक् || : २७५ : ननु धर्माधर्मयोर्मुक्तौ तावदात्यन्तिकी निवृत्तिर्युक्ता, अन्यथा तदनुपपत्तेः, तन्निवृत्तौ च तत्फलभूतानां बुद्ध्यादीनामपि निवृत्तिरावश्यकी निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्य पायात्, मुक्तस्यात्मनोऽन्तःकरणसंयोगाभावेन न तत्कार्यस्य बुद्ध्यादेरुत्पत्तिः, तथाचाशेषविशेषगुणनिवृत्तिर्मुक्तौ सिद्ध्यत्येवेति चेनेष्टापत्तेः, को हि निवारयति मुक्तावदृष्टहेतुकानां आत्मान्त: १. ननु ज्ञानमेव प्रधानं मोक्षकारणं न क्रिया, तस्या अपि ज्ञानकार्यत्वात् ज्ञानं हि मोक्षं प्रति कारणं, तदपान्तरालभाविनां सर्वसंयमक्रियादीनामपि तस्मात्तदेव मोक्षं प्रति प्रधानं कारणमिति चेन ज्ञानस्य परम्परयोपकारकत्वे क्रियाया एवानन्तर्येण प्रधानकारणत्वापत्तेः अव्यवधानेन यदुपकारकं तस्यैव प्रधान कारणत्वात् युगपत्कार्योत्पत्तौ द्वयोरप्यनुकूलत्वे द्वयोरपि प्राधान्यस्यौचित्यात्, अपान्तराले भवन्स्या अपि क्रियाया मोक्षासाधनत्वे केवलादपि ज्ञानान्मोक्षापत्तेः, अकारणस्यानपेक्षणीयत्वात् । द्वयोरपि सहचारित्वे च कथमेकं ज्ञानं कारणं भवेन्न क्रिया, न च क्रियैव कारणं भवतु न ज्ञानमिति वाच्यम्, तथासत्युन्मत्तादिक्रिया'तोऽपि मोक्षापत्तेः, तस्माज्ज्ञानक्रियाभयात् मुक्तिरिति भावः ॥ 20 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे करणसंयोगजानाञ्च बुद्ध्यादीनां निवृत्तिम् , किन्तु कर्मक्षयहेतुकानां प्रशमसुखानन्तज्ञानादीनां निवृत्तिमेव निवारयामः, तथा च मुक्तौ कथञ्चिद् बुद्ध्यादिविशेषगुणानां निवृत्तिः कथञ्चिदनिवृत्तिर्व्यवतिष्ठते । न च ज्ञानत्वावच्छिन्न एवादृष्टान्तःकरणादिहेतुत्वान्मुक्तौ तदजन्य ज्ञानाद्यनुपपत्तिरिति वक्तुं युक्तम् , परैरीश्वरज्ञानादिव्यावृत्तये जन्यत्वस्य कार्यतावच्छेदककोटौ 5 दानात्, तस्य च ध्वंसप्रतियोगिरूपत्वेन । ध्वंसाप्रतियोगिज्ञानादीनां मुक्तावनुपपत्त्य भावात् । न च जन्यत्वेन ज्ञानादीनां मुक्तावपि ध्वंस आवश्यक इति वाच्यम् । जन्यत्वेन ध्वंसहेतुत्वे मानाभावात्, प्रतियोगिनो विशिष्य हेतुत्वेऽपि मुक्तज्ञानादीनां ध्वंसाहेतुत्वकल्पन एव लाघवात् । न चोपयोगस्य संसारदशायामन्तर्मुहूर्तादिकालनाश्यत्वदर्शनान्मुक्तावपि कालान्नाशप्रसङ्ग इति वाच्यम् । केवलज्ञानादीनां कालानाश्यत्वादुपयोगस्य क्षणिकत्वेऽपि 10 प्रवाहतस्तदानन्त्यस्य च सिद्धान्तसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु अदृष्टान्तःकरणसंयोगकर्मक्षयादयो न ज्ञानोत्पत्तौ निमित्तभूताः । अपि तु आविर्भावतिरोभावावेति पूर्वमेवोक्तम् । न चात्मनो बुद्धयादिगुणाः कदाचिदुच्छिद्यन्ते, सन्तानरूपेण जायमानत्वात् प्रदीपवत् , अमीषां जन्मनो निरन्तरं सर्वानुभवसिद्धत्वान्नासिद्धिः, साध्यविपर्ययेण व्याप्तेरसिद्धया न विरुद्धः, विपक्षे गगनादौ हेतोरसत्त्वेन च नानैकान्तिक इति वाच्यम् । विकल्पासहत्वात् , सन्तानपदेन पितृ15 पुत्रपौत्रादिक्रमेण पुरुषसम्प्रदायो गोत्राद्यपरनामा सन्तानो विवक्षितः, उत उपादानोपादेय भावेनोत्तरोत्सरकार्यपरम्परोत्पादः, अथवा सामान्येन सजातीयकार्यकारणप्रवाह इति, तत्र नाद्यस्तस्य पुरुषेष्वेव प्रसिद्धया गुणादौ तदसम्भवात् । न द्वितीयः, तेषामात्मोपादेयत्वेन स्वीकृततया परस्परमुपादानोपादेयभावानङ्गीकारात् । नान्त्यो बुद्ध्यादिभ्यो विजातीयाना मिच्छादीनामप्युत्पत्तिदर्शनेन सजातीयकार्यकारणोत्पत्त्यभावात् । स्मृत्यादीनाञ्च भवदभिप्राये20 णाप्रमाणतया विजातीयानामपि सम्यग्ज्ञानादिभ्यसंस्कारोद्वोधद्वारेणोत्पत्तेः । पाकजपरमाणु रूपादीनाञ्चैवंविधसन्तानरूपेणोत्पत्तावपि भवताऽत्यन्तोच्छेदानभ्युपगमात्, संसारस्य चैवं रूपस्याप्यत्यन्तोच्छेदाभावेन व्यभिचारात् , मुक्तावनित्यबुद्ध्मादीनामत्यन्तोच्छेदस्यास्माभिरपि स्वीकृतत्वेन सिद्धसाधनाच्च ॥ तथा स्वस्वरूपे चैतन्यमात्रेऽवस्थानमात्मनो मोक्ष इति कपिल__ मतमपि प्रमाणबाधितं, चैतन्यविशेषेऽनन्तज्ञानादौ स्वरूपेऽवस्थानस्य मोक्षत्वसाधनात् । न 25 ह्यनन्तज्ञाना दिकमात्मनोऽस्वरूपं सर्वज्ञत्वादिविरोधात् । प्रधानस्य सर्वज्ञत्वादिस्वरूपं नात्मन इति चेन्न, तस्याचेतनत्वादाकाशादिवत् , ज्ञानादेरप्यचेतनत्वादचेतनप्रधानस्वभावत्वं युक्तमेवेति चेत्कुतस्तदचेतनत्वसिद्धिः, अचेतना ज्ञानादय उत्पत्तिमत्त्वाद् घटवदित्यनुमानादिति चेन्न, हेतोबुद्धिनिष्ठप्रतिबिम्बहेतुबिम्बचैतन्यलक्षणेनानुभवेन व्यभिचारात् , तस्य चेतनत्वेऽप्युत्पत्तिमत्त्वात् । न च कथमुत्पत्तिमाननुभव इति वाच्यम् , बुद्ध्यादिवत्परापेक्ष Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलते . : २७७ : त्वात् । परापेक्षा ह्यसौ बुद्ध्यध्यवसायापेक्षत्वात् , बुद्धिप्रतिबिम्बितमर्थं पुरुषश्चतयत इति वचनात् । बुद्ध्यध्यवसितार्थानपेक्षत्वेऽनुभवस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य पुंसोऽनुभवप्रसङ्गात् , सर्वदा सर्वदर्शित्वापत्तस्तदुपायानुष्ठानवैयर्थ्यमेव स्यात् , यदि पुनरनुभवसामान्यमात्मनो नित्यमनुत्पत्तिमदेवेति मतं तदा ज्ञानादिसामान्यमपि नित्यत्वादनुत्पत्तिमद्भवेदिति तव हेतुरसिद्धः । न च ज्ञानादिविशेषाणामुत्पत्तिमत्वान्नासिद्ध इति वाच्यम् , 5 तीनुभवविशेषाणामप्युत्पत्तिमत्त्वाद्व्यभिचारापत्तेः । न चानुभवस्य न विशेषास्सन्तीति वाच्यं, वस्तुत्वविरोधात् । सकलविशेषरहितत्वे हि खरविषाणवदनुभवोऽवस्त्वेव भवेत् । न चात्मनानेकान्तः, तस्यापि सामान्यविशेषात्मकत्वादन्यथाऽवस्तुत्वापत्तेः । कालात्ययापदिष्टश्चोत्पत्तिमत्त्वहेतुः, ज्ञानादीनां स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वाच्चेतनत्वप्रसिद्धः, न च चेतनसंसर्गादचेतनस्यापि ज्ञानादेश्चेतनत्वप्रतीतिः प्रत्यक्षतो भ्रान्तैवेति वाच्यम्, शरीरा- 10 देरपि चेतनत्वप्रतीतिप्रसङ्गात् चेतनसंसर्गाविशेषात् । न च शरीराद्यसम्भवी बुद्ध्यादेरात्मना संसर्गविशेष इति वाच्यम् , कथश्चित्तादात्म्यातिरिक्तस्य संसर्गस्याभावात् । ततो नाचेतना ज्ञानादयः स्वसंविदितत्वात् , अनुभववत्, ते स्वसंविदिताः परसंवेदनान्यथानुपपत्तेः, तथाचात्मस्वभावा ज्ञानादयः चेतनत्वादनुभववत्, इति न चैतन्यमात्रेऽवस्थानं मोक्षः, अनन्तज्ञानादिचैतन्यविशेषेऽवस्थानस्य मोक्षत्वप्रतीतेरिति ॥ नन्वत्यन्तज्ञान- 15 सन्तानोच्छेद एव मोक्षः, तथाहि बद्धस्य संसारिणो मोक्ष इति वक्तव्यं बन्धश्च रागादिभिः, स चैकान्तनित्य आत्मनि न संभवति विकारापत्तेः, तस्मान्नात्मनो बन्धो नवा मोक्षस्तयोरनुपपत्त्या च तादृशात्मनोऽभाव एव युक्तः, ज्ञानस्य कार्यतया विकारित्वेन रागादियोगेन बन्धसम्भवात् कथञ्चिद्भावनाबलेन तद्विगमाच्च मोक्ष उपपद्यते, अयमेव च तस्य मोक्षो यद्विनाश इति चेन्न, ज्ञानस्य क्षणिकत्वादुत्पत्यनन्तरं विनापि विनाशकं 20 बद्विनाशात् , न च रागादिभिर्ज्ञानक्षणस्य बन्ध आपादयितुं शक्यते, एकान्तनित्यस्येव एकान्तानियस्याप्यविकार्यतया रागादियोगवियोगासम्भवात् । ततो बन्धाभावात्कथं मोक्षः। ननु ज्ञानस्य तदसम्भवेऽपि तत्सन्तानस्यैकत्वादक्षणिकत्वाच्च रागादियोगाद्वन्धो भावनाधतिशयाच्च सन्तानानुत्पत्तिलक्षणो मोक्षश्च संभवति, सन्तानञ्च ज्ञानानामनादिः कार्यकारणप्रवाह इति चेन्न ज्ञानव्यतिरिक्तस्यैकस्याक्षणिकस्य परमार्थसातयाऽभ्युपगम्यमाने नामा- 25 १. अयं भावः वर्तमानज्ञानक्षणः कर्म बध्नन् न प्राग् बध्नीयात् असतो बन्धायोगात् न वा सह, सह. . भाविनोस्सव्यतरगोविषाणयोरिव तदसंभवात् नापि पश्चात्, उत्पादानन्तरं निरन्वयं ध्वंसेन द्वितीयादिक्षणावस्थासंभवेन तदनुपपत्तेरिति ॥ २. ननु मा भूत् एकैकशो ज्ञानक्षणानां बन्धो रागाद्युत्पादो वा, तत्सन्तानस्य त्वेकस्य सन्ततमनुवर्तमानस्यासौ स्यादिति शंकते नन्विति ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २७८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [दशमकिरणे न्तरेणात्मनोऽभ्युपगतत्वेन तस्यैव बन्धमोक्षयोरुपपादितत्वात् , न च नित्यस्याविकार्यतया तदनुपपत्तिरिति वाच्यम् एकान्तनित्यताया निरासेन परिणामिनित्यस्यैवास्माभिरङ्गीकारात् । तस्मादात्माभाव इति रिक्तं वचः । यद्यस्माभिरपि सन्तानस्य संवृतिसत्तयैवाभ्युपेयते तर्हि सन्तानिनां ज्ञानक्षणानामेव वस्तुसत्त्वं तेषाश्चानेकत्वक्षणिकत्वाभ्यामेकस्यैव बन्धमोक्षयोर5 नुपपत्त्याऽन्यस्य बन्धोऽन्यस्य मोक्ष इति स्यात्, तथाचानुगतस्यैकस्याभावेन मोक्षप्रवृत्तिर्न स्यात्, एवं सन्तानिभ्यस्सन्तानस्याभिन्नत्वेऽपि पूर्वोक्तदोष एव । नवा सन्तानस्यानागता. नुत्पादलक्षणमोक्षस्संगच्छते, ज्ञानक्षणस्य ज्ञानक्षणान्तरजननस्वभावत्वादिति ॥ एवं स्वरूपतो मोक्षमभिधाय तत्त्वभेदपर्यायैर्व्याख्या कार्येति नियममनुसरन् तरेदान प्रदर्शयितुकामः सिद्धान्ते सिद्धानां सत्पदप्ररूपणादिभिर्निरूपणदर्शनेन स्वयमपि तथैव 10 विदधातुं सिद्धानवतारयति तद्वान् मुक्तः॥ तद्वानिति । कृत्स्नकर्मक्षयप्रयुक्तस्वस्वरूपावस्थानपर्यायवान्मुक्त इत्यर्थः । तेन पर्यायपर्यायिणोः कथञ्चिदभेदात्सत्पदप्ररूपणादिभिस्सिद्धभेदे वाच्ये तदभिन्नमोक्षात्मकपर्याय स्याऽपि भेदः प्रज्ञापित एवेति भावः ॥ 15 तत्र मुक्ताः कतिविधा इत्यत्राह सोऽनुयोगद्वारैस्सिद्धान्तप्रसिद्धस्सत्पदप्ररूपणादिभिर्नवभिनिरूपणादुपचारेण नवविधः ।। स इति । मुक्त इत्यर्थः । अनुयोगद्वारैरिति, विधिनिषेधाभ्यामर्थप्ररूपणारूपैर्व्याख्याप्रकारैरित्यर्थः । सिद्धेषु परस्परं वस्तुतो वैलक्षण्याभावेन कथंनवविधत्वमित्याशंकायामा20 होपचारेणेति । नवभिः प्रकारैविचार्यमाणत्वादेव नवविधत्वं तेषां न तु वस्तुतो नवविधत्व मिति भावः॥ तत्राद्यां सत्पदप्ररूपणामाह गत्यादिमार्गणाद्वारेषु सिद्धसत्ताया अनुमानेनागमेन वा निरूपणं सत्पदप्ररूपणा ॥ 25 गत्यादीति । सत्ताभिधायकं पदं सत्पदं तस्य प्ररूपणा सत्पदप्ररूपणा, विद्यमानार्था भिधायिपदस्य तत्त्वकथनमिति भावः, असत्यप्यर्थे बाह्ये शशविषाणादिपदप्रयोगात् बाह्यार्थे Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गणाः ] न्यायप्रकाशलमलड़ते . : २७९ : सत्यपि घटपदप्रयोगदर्शनान्मोक्षशब्दः सिद्धशब्दो वा घटपदवद् विद्यमानार्थाभिधायको वा शशशृङ्गवदविद्यमानार्थाभिधायको वेत्याशङ्कायामाह सिद्धसत्ताया इत्यादि । मोक्षादिशब्दस्य विद्यमानार्थाभिधायकत्वमाप्तोपदेशात् , असमस्तपदत्वहेतोरनुमानाद्वा निरूपणमित्यर्थः, अनुमानप्रयोगश्च मोक्षशब्दस्सिद्धशब्दो वा विद्यमानार्थाभिधायी, असमस्तत्वे सति पदत्वाद्धटादिपदवदिति । शशशृङ्गादिपदे व्यभिचारवारणाय विशेषणम् । अनर्थकवर्णसमुदाये व्यभिचा- 5 रवारणाय विशेष्यम् । अत्र पदत्वं न सुप्तिङन्तत्वरूपं, द्योतकेषु निपातेषु तादृशपदत्वसत्वेन साध्याभावाद्व्यभिचारापत्तेः । किन्तु स्वार्थप्रत्यायने शक्तिमद्यत्पदान्तरघटितवर्णान्तरापेक्षणरहितं परस्परस्वघटितवर्णसहकारिवर्णसङ्घातरूपं तदेव चासमस्तं पदं, राजपुरुष इत्यादिसमस्ते पदत्वव्यवहारस्तु सुप्तिङन्तत्वात् , न तूक्तलक्षणतः, स्वार्थप्रत्यायने समस्तपदसमुदाये शक्त्यभावात् । यदि चैकदेशसमुदाययोः कथश्चित्तादात्म्येन तत्रापि स्वार्थ- 10 प्रत्यायनशक्तिमत्त्वं वर्ततेऽन्यथाऽर्थवत्त्वाभावे नामसंज्ञाऽप्रवृत्तौ विभक्त्यनुपपत्तिस्यादिति विभाव्यते तदापि न तस्य पदत्वं, पदान्तरघटितवर्णान्तरसापेक्षत्वात् । न च पदलक्षणे पदस्य घटितत्वेनात्माश्रयापत्तिरिति वाच्यम् । पदलक्षणे सुप्तिङन्तरूपस्य पदस्यैवान्तर्गतत्वात् । अत एव हि घटादिशब्दानां पदत्वमन्यथा, घटधातूत्तरस्याप्रत्ययस्य कर्थकत्वेन शक्तिमत्त्वात्पदत्वप्राप्तौ पदान्तरघटितवर्णान्तरापेक्षत्वेन पदत्वं न स्यात् , तथा चेदृशं पदत्वं न शशशृंगादि- 15 शब्देषु वर्त्तते पदान्तरघटितवर्णान्तरापेक्षत्वात् , अर्थवत्त्वं पुनरस्त्येव, अन्यथा नामसंज्ञाs प्राप्त्या विभक्त्यनुत्पत्तिप्रसङ्गः स्यात्, एवञ्च मोक्षशब्दस्य योऽयं विद्यमानोऽर्थस्स एव कृत्मकर्मक्षयरूपो मोक्ष इति निश्चीयते । यद्यपि मोक्षशब्दस्य विमुक्तिरूपस्य कारागारान्मोक्षो जात इत्यादि प्रतीत्या प्रसिद्धिरस्ति तथापि सर्वबन्धक्षयस्यैव तत्पदस्य मुख्यार्थतया तस्य सिद्धिर्विवक्षिता, उक्तप्रतीतौ तु यत्किञ्चिद्वन्धविमुक्तिवाचकत्वं मोक्षपदस्य 2c लाक्षणिकं, असति प्रतिबन्धके शब्दार्थसंकोचस्यान्याय्यत्वात् । अतो न सिद्धसाधनत्वा. पत्तिः । तथा च तादृशपर्यायवतां सिद्धानामपि विद्यमानत्वं सिद्धमेव, पर्यायमात्रस्य साधिकरणत्वादिति मन्वानो गत्यादिचतुर्दशमार्गणासु ते क सन्तीत्याशंकायां मनुजादिगत्यादावेव तेषां सिद्धिरिति शास्त्रतो यन्निरूपणं सैव सत्पदप्ररूपणेति दर्शयति गत्यादीत्यनेन वाक्येन । तथा च सिद्धसत्ताया अनुमानेनागमेन वा गत्यादिमार्गणाद्वारेषु सिद्धसत्ताया ॐ आगमेन निरूपणं सत्पदप्ररूपणेति योजना कार्या, प्रथमयोजनाया भावस्तु प्रदर्शित एव, द्वितीययोजनाया भावमाख्यातुं गत्यादिमार्गणा विभागेन स्वरूपेण च दर्शयति.. तत्र गतीन्द्रियकाययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनलेश्याभव्यसम्यक्त्वसंख्याहारकरूपाश्चतुर्दश मूलभूता मार्गणाः॥..... Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८० : तस्वन्यायविभाकरे [दशमकिरणे तत्रेति । गतीति, गम्यते प्राप्यते स्वकर्मरजसा समाकृष्टैर्जन्तुभिरिति गतिः, तत्तन्नामकर्मोदयानारकत्वादिपर्यायपरिणतिस्तद्विपाकवेद्यकर्मप्रकृतिरपि, कारणे कार्योपचारात् । ननु सर्वेऽपि पर्याया जीवेन प्राप्यन्त इति सर्वेषामपि गतित्वप्रसङ्गो नैवं, यतो विशेषेण व्युत्पादिता अपि शब्दा रूढितो गोशब्दवत्प्रतिनियतमेवा) विषयीकुर्वन्तीत्यदोषः। तथा च नारक5 त्वादिरेवात्र शास्त्रीयरूढ्या गतिशब्दवाच्यो न ग्रामादिगमनक्रिया, नापि यानादिक्रियेति भावः । इन्द्रियेति । इदि परमैश्वर्य इति धातोरिन्दनादिन्द्रो जीवः, आवरणाभावे सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् , तस्य लिङ्ग-चिह्नमविनाभाविलिङ्गसत्तासूचनात् , इन्द्रिय. विषयोपलम्भाद्धि ज्ञापकत्वसिद्धिस्तत्सिद्धावुपयोगलक्षणो जीव इति जीवत्वसिद्धिरिति । इन्द्रेण दृष्टं सृष्टं जुष्टं दत्तमिति वेन्द्रियम् । आत्मना दृष्ट्वा स्वविषये नियोजनात् , आत्मकृत10 शुभाशुभकर्मणा चक्षुरादीनां सर्जनात्। इन्द्रियद्वारेणास्य विज्ञानोत्पादात् , विषयग्रहणायात्मना विषयेभ्यः समर्पणाच्च । अत्र यज्जीवलिङ्गं तत्सर्वमिन्द्रियमिति न नियमः परन्तु यदिन्द्रियं तत्तथाविधमिति, यथा ये वृक्षास्त आम्रा इति न नियमः किन्तु य आम्रास्ते वृक्षा इति । इन्द्रियविशेषचर्चा अग्रे करिष्यते । कायेति, चीयते उपचयं नीयते यथायोगमौदारिकादिव. गणागणैर्यस्स कायः, योगेति, युज्यते इति योगो मन आदिर्धावनवल्गनादिक्रियासु वीर्यान्त15 रायक्षयोपशमजन्यपर्यायेण व्यापार्यमाणत्वात् तत्तक्रियास्ववलम्बनरूपत्वाद्वीर्यशक्तिस्थामादि पदवाच्यस्सामर्थ्य विशेषो योगः । वेदेति, अङ्गोपाङ्गनिर्माणादिनामकर्मोदयजन्यशरीरवृत्त्याकारविशेषो वेदः । कषायेति कृषन्ति विलिखन्ति कर्मक्षेत्रं सुखदुःखफलयोग्यं कुर्वन्तीति कषाया औणादिक आयप्रत्ययो निपातनाञ्च ऋकारस्याकारः। कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं जीवं कर्ममलिनं कुर्वन्तीति कषाया निपातनात्कलुषशब्दस्य कषायादेशः । कष्यन्ते बाध्यन्ते 20 जीवा अनेनेति कषं कर्म भवो वा तस्यऽऽयो लाभ एषां यतस्ते कषायाः मोहनीयकर्मपुद्गलो दयसम्पाद्यजीवपरिणाम विशेषाः क्रोधादयः । ज्ञानेति ज्ञातिर्ज्ञानं, ज्ञायते वस्तु परिच्छिद्यतेऽ नेनेति ज्ञानं, यथास्थितार्थपरिच्छेदनं, यद्वा ज्ञातिर्ज्ञानमावरणक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यायविशेषः, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषांशग्रहणप्रवणः, ज्ञायतेऽनेनास्माद्वा ज्ञानं तदा वरणस्य क्षयः क्षयोपशमो वा । संयमेति, संयमनं संयमः, सावद्ययोगात्सम्यगु. 25 परमणम् , संयम्यते नियम्यते आत्मा पापव्यापारसम्भारादनेनेति संयमः शोभना यमाः प्राणातिपातानृतभाषणादत्तादानाब्रह्मपरिग्रहविरमणलक्षणा यस्मिन्निति संयमश्चारित्रम् । दर्शनेति, दृष्टिदर्शनं सामान्यविशेषात्मवस्तुवृत्तिसामान्यविषयकबोधः, अनाकारात्मको बोधो वा, दृश्यतेऽनेन वा दर्शनं दर्शनावरणक्षयः क्षयोपशमो वा । लेश्येति । लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, कर्मबन्धस्थितिविधात्री, कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतिमार्गणा ] म्यायप्रकाश समलङ्कृते : २८१ : परिणामविशेषः । भव्येति, मुक्तियोग्यो भवतीति भव्यः परमपदयोग्यतावान् विवक्षितपर्यायेण भविष्यतीति वा भव्यः, अनादिपारिणामिकभव्यभावयोगी । सम्यक्त्वेति, सम्यक्शब्दः प्रशंसार्थोऽविरुद्धार्थो वा सम्यगित्यस्य भावः सम्यक्त्वं प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा प्रशमसंवेगादिलक्षण आत्मधर्मस्तत्त्वार्थश्रद्धानं वा मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमादिजन्यम् । संज्ञीति, संज्ञा भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते यस्य स 5 संज्ञी, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्चकसमन्वितः प्राणी, संज्ञा देवगुरुधर्मपरिज्ञानं सा विद्यते यस्य स संज्ञीति वा । आहारकेति, आहरणमाहारः, ओजोलोमप्रक्षेपरूपः, तमाहारयतीत्याहारकः । मूलभूता इति, उत्तरभेदा अग्रे वक्ष्यन्त इति भाव:, मार्गणा इति, मार्ग्यन्ते आभिरिति मार्गणाः, पर्यालोचनाहेतुभूता अन्वयिधर्माः, पदार्थावेषणस्थानानि वेत्यर्थः ॥ अथोत्तरमार्गणा आचष्टे 10 नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदेन चतस्रो गतिमार्गणाः || नरकेति । नरकगतितिर्यग्गतिमनुष्यगतिदेवगतिभेदेनेत्यर्थः । नरान् कायन्ति शब्दयन्ति - योग्यतानतिक्रमेण जन्तूनाकारयन्ति स्वस्वस्थान इति नरकाः पापकर्मणां यातनास्थान तत्र गतिस्तद्योग्य पर्यायविशेषो नारकत्वरूपः, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदान्नरक- 15 पदनिक्षेपापोढा, तत्र नामस्थापने प्रसिद्धे, आगमतो नोआगमतश्च द्रव्यनरको द्विधा, आगमतोऽनुपयुक्तो ज्ञाता,नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता इहैव भवे तिर्यग्भवे केचनाशुभकारित्वादशुभास्सत्त्वाः कालकसौकरिकादयः । अथवा यानि कानिचिदशुभानि स्थानानि चारकादीनि याश्च नरकप्रतिरूपा वेदनास्तास्सर्वा अपि द्रव्यनरकतयाभिधीयन्ते यद्वा कर्म - द्रव्यनोकर्मद्रव्यभेदाद्द्रव्यनरको द्वेधा, तत्र नरकवेद्यानि यानि बद्धानि कर्माणि तानि चैकभ- 20 विकस्य बद्धायुष्कस्याऽभिमुखनामगोत्रस्य चाश्रयेण द्रव्यनरकरूपाणि भवन्ति । नोकर्मद्रव्यनरकास्तु इहैव येऽशुभा रूपरसगन्धशब्दस्पर्शास्ते । क्षेत्रनरकस्तु नरकावकाशकालमहाकालरौरवमहारौरवप्रतिष्ठानाभिधानादिनरकाणां चतुरशीतिलक्षसंख्यानां विशिष्टो भूभागः, कालनरकस्तु यत्र यावती स्थितिः । भावनरकाश्च ये जीवा नरकायुष्कमनुभवन्ति ते, तथा नरक - प्रायोग्यकर्मोदयः । एतद्वितयमपि भावनरकत्वेनाभिधीयत इति । तिरोऽञ्चन्ति गच्छन्तीति 25 तिर्यञ्चो व्युत्पत्तिनिमित्तश्चैतत् प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम । तिर्यङ्नामकर्मोदयनिपाद्यतिर्यक्त्वलक्षणपर्यायविशेषस्तिर्यग्गतिः, मनुजगतिना मकर्मोदयस मापादितमनुष्यत्व ३६ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८२ : 25 तत्त्वन्यायविभाकरे [ दर्शमकिरण लक्षणपर्यायविशेषो मनुजगतिः, देवगतिनामकर्मोदद्यप्रभवदेवत्वलक्षणपर्यायविशेषो देवगतिरित्येवं गतिमार्गणोत्तरभेदाश्चत्वार इति भावः ॥ 'इन्द्रियमार्गणोत्तरभेदानाह एक द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदेन पञ्चेन्द्रियमार्गणाः ॥ I 5 एकेति । तत्रेन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुश्श्रोत्राणि, द्रव्यभावभेदेन तानि द्विविधानि निवृत्त्युपकरणभेदेन द्रव्येन्द्रियमपि द्विविधम् भावेन्द्रियमपि लब्ध्युपयोगभेदेन द्विविधम्, निवृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्टस्संस्थानविशेषः, सापि बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विधा, बाह्या पर्पटिकादिरूपा सा च विचित्रा न प्रतिरूपनियतरूपतया वक्तुं शक्यते, आभ्यन्तर निवृत्तिस्तु सर्वेषामपि समाना कदम्बपुष्पाद्याकारा, स्पर्शनेन्द्रियस्य तु बाह्याभ्यन्तरभेदा नास्ति | उपकरणं 10 शक्तिविशेष आभ्यन्तरनिवृत्तिनिष्ठः कथञ्चिदर्थान्तरभूतः, कथञ्चिदभेदाच्च द्रव्यादिना तस्य विघातसम्भवः । लब्धिस्तत्तदिन्द्रियविषयतस्तत्तदिन्द्रियावरणक्षयोपशमः शेषेन्द्रियाणि लब्धिप्राप्तावेव भवन्ति, श्रोत्रादीन्द्रियस्य स्वस्वविषये शब्दादौ परिच्छेद्यव्यापार उपयोगः, स चैकस्मिन् काले एकेनैव केनापीन्द्रियेण भवति, तस्मादुपयोगमाश्रित्य सर्वेऽपि जीवा एकेन्द्रियाः, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिव्यपदेशस्तु निवृत्त्युपकरणलब्धीन्द्रियाणि प्रतीत्य, एवं 15 लब्धीन्द्रियमाश्रित्य सर्वे पृथिव्यादयोऽपि जीवा पञ्चेन्द्रिया बकुलचम्पकतिलकविरहकादीनां वनस्पतिविशेषाणां रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रलक्षणेन्द्रियसम्बन्ध्युपलम्भदर्शनेन तदावरणक्षयोपशमसम्भवानुमानात्, दृश्यते हि शृङ्गारितकामिनीवदनार्पितचारुमदिरारागगण्डूषेण बकुलस्य, तिलकस्य कामिनीकटाक्ष विक्षेपेण, विरहकस्य पञ्चमोद्गारश्रवणेन पुष्पपल्लवादिसम्भवः । बाह्येन्द्रियापेक्षया तु एकेन्द्रियादिव्यवहारः । न च बकुलादीनामेकैको रसनादीन्द्रियोपलम्भ 20 एवोक्तः कथं सर्वविषयोपलम्भसम्भव इति वाच्यम्, मुख्यतया तत्सम्भवेऽपि गौणवृक्ष्या शेषेन्द्रियोपलम्भसम्भवात्, शृंगारितस्वरूपतरुणीगण्डूषार्पणात् तस्याश्च तनुलतास्पर्शाधररसचन्दनाद्गिन्धशोभनरूपमधुरोल्लापलक्षणानां पञ्चानामपीन्द्रियविषयाणां सम्भवादिति । द्रव्येन्द्रियापेक्षया त्वेकेन्द्रियमार्गणा द्वीन्द्रियमार्गणा त्रीन्द्रियमार्गणा चतुरिन्द्रियमार्गणा पञ्चेन्द्रियमार्गणेति इन्द्रियमार्गणाः पञ्चविधा इति भावः ॥ अथ काय मार्गणाभेदमाह– पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदेन षट् काय मार्गणाः ॥ पृथिवीति । पृथिवी काया काय तेजस्कायवायुकाय वनस्पतिकायत्र सकायरूपाः षडित्यर्थः । पृथिव्येव कायो यस्य सः पृथिवीकायः, स द्विविधस्सूक्ष्मबादरभेदात्, तत्र Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायमार्गणा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : २८३: सूक्ष्मत्वं बादरत्वश्च सूक्ष्मबादरनामकर्मोदयापेक्षं, सूक्ष्मास्सकललोकव्यापिनस्समुद्कपर्याप्तप्रक्षिप्तगन्धावयववत् , प्रतिनियतस्थानवर्त्तिनो बादराः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधाः, पर्याप्ति म पुद्गलोपचयजश्शक्तिविशेषः, तत्प्रभेदारस्वरूपाणि च पूर्वतो विज्ञेयानि, तत्रैकेन्द्रियाणां चतस्रो विकलेन्द्रियाणां पञ्च संज्ञिनां षडिति बोध्याः, लब्ध्या करणेन च स्वयोग्यपर्याप्तिपूर्णताभाजस्सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, 5 लब्ध्या करणेन वा स्वयोग्यपर्याप्तिपूर्णताविकलास्तेऽपर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, येऽपर्याप्तका एव सन्तो म्रियन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनश्शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिर्वर्त्तयन्ति, अथ चावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः, बादरपृथिवीकायिका अपि श्लक्ष्णखरभेदतो द्विविधाः, श्लक्ष्णा चूर्णितलोष्ठकल्पा मृदुपृथिवी, तदात्मकजीवा अप्युपचारेण श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिका उच्यन्ते ते च कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लपाण्डुपानकमृत्तिकाभेदेन 10 सप्तविधाः । देशविशेषे धूलिरूपा सती पाण्डु इति प्रसिद्धा मृत्तिका पाण्डुमृत्तिका, जीवोप्युपचारेण तादृशः, नद्यादिपूरप्लाविते देशे पूरेऽपगते भूमौ श्लक्ष्णमृदुरूपो यो जलमलापरपर्यायः पङ्कस्सा पानकमृत्तिका, उपचारात्तद्युक्तो जीवोऽपि तथा । खरबादरपृथिवीकायिकास्तु अनेकविधा अपि मुख्यतया शर्करावालुकोपलादिभेदेन चत्वारिंशद्विधाश्शाने प्रोक्तास्ते तत एवाऽवगन्तव्याः । संक्षेपतस्तु पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधास्ते, साकल्येन पर्या- 15 प्तीविशिष्टवर्णादीन वाऽसम्प्राप्ता अपर्याप्ताः, उच्छ्वासपर्याप्त्यपर्याप्त्या मृतत्वेन स्पष्टतरवर्णादि विभागाप्राप्तेस्तद्विपरीतास्तु पर्याप्ताः ॥ आपः कायो येषां तेऽप्कायाः, तेऽपि सूक्ष्मबादरभेदेन द्विविधाः प्रत्येकञ्च पर्याप्तापर्याप्तभेदतो द्विविधाः । बादराप्कायिकाः करकशीतोष्णक्षारक्षत्रकटम्ललवणवरुणकालोदपुष्करक्षीरघृतेक्षुरसोदादयः । तेजःकायो येषां ते तेजस्कायाः, तेऽपि पूर्ववत् सूक्ष्मवादरपर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्विधाः । शुद्धवनज्वालाङ्गारविद्युदु- 20 ल्कामुर्मुरालातनिर्घातसंघर्षसमुत्थसूर्यकान्तमणिनिस्मृतार्चिरग्निप्रभृतिभेदतो बादरतेजस्काया भवन्ति । वायुःकायो येषान्ते वायुकायिकास्तेऽपि पूर्ववच्चतुर्धा । प्राचीनावाचीनोदीचीनदक्षिणो धिस्तिर्यग्विदिगनवस्थितोत्कलिकामण्डलिकागुञ्जाझंझासंवर्तकघनतनुशुद्धवातवातोत्कलिकावातमण्डलीभेदेन बादरवायुकायिका विज्ञेयाः । वनस्पतिः कायो येषान्ते वनस्पतिकायाः, सूक्ष्मबादरभेदभिन्नाः, पर्याप्तापर्याप्तभिन्नास्सूक्ष्मास्सर्वलोकापन्ना अचक्षुर्माह्या अने- 25 काकाराश्च । बादरास्समासतो द्विविधाः प्रत्येकसाधारणभेदात् , पत्रपुष्पफलमूलस्कन्धादीन प्रति प्रत्येकं जीवो येषान्ते प्रत्येकजीवाः, साधारणास्तु परस्परानुविद्धानन्तजीवसंघातरूपशरीरावस्थानास्तत्र प्रत्येकशरीरा वृक्षगुच्छगुल्मलतावल्लीपर्वतृणवलयहरितौषधिजलरुहकुहणेति द्वादशविधाः प्रत्येकजीवाः । सर्वेऽप्येते वनस्पतिजीवास्समासतष्षोढा भवन्ति, अग्र Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २८४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे बीज बीज पर्व बीज स्कन्धबीज बीजरुह सम्मूर्च्छन जभेदात् । अग्रबीजाः कुरण्टादयः, मूलबीजा उत्पलादयः, पर्वबीजा इक्ष्वादयः, स्कन्धबीजाः सल्लक्यादयः, बीज रुहा श्शाल्यादयः, सम्मूर्छनजास्तृणादयः | सर्वोऽपि वनस्पतिकायो द्विविधः पर्याप्तापर्याप्तभेदादिति । त्रसा द्विविधाः, गतित्रसा उदारत्रसाश्चेति, तेजोवायवो गतित्रसाः सञ्चलनधर्मत्वात् परन्तु 5 ते नात्र विवक्षिताः, त्रसनामकर्मोदयप्रभवानामेव विवक्षितत्वात् । ते चोदारत्रसा एव, उक्तश्च तत्त्वार्थे “ तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा ” इति । तेजोवाय्वोः क्रियातस्त्रसत्वं, द्वीन्द्रियादीनां लब्धित इति भावो भाष्यटीका कृद्भिराविष्कृतः, उदारा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः, व्यक्तश्वासोच्छ्वासादिप्राणयोगात्, उदारा अपि पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधाः, कृमिशंखादयो द्वीन्द्रियाः कुन्थुपिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः, भ्रमरमक्षिकादयश्चतु10 रिन्द्रियाः, नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवाः पञ्चेन्द्रियास्सर्वे त्रसा एव न त्वेकेन्द्रिया इव सास्स्थावराश्च । तत्र नरकावासेषु भवा नारकाः । तिर्यो गवादयो जलचरस्थलचरखेचरभेदभिन्नाः । संमूच्छिमा गर्भजाश्चेति मनुष्या द्विविधाः, कर्मभूम्यकर्मभूम्यन्तरद्वीपेषु ये मनुष्या गर्भव्युत्क्रान्तास्ते गर्भजाः, एषां पुरीषमूत्रश्लेष्म सिंघाणवान्तपित्तशोणितशुक्रमृतशरीरपूयस्त्रीपुंसंयोगशुक्रपुद्गलविच्युतिनगर निर्धमननिखिलापवित्रस्थानेषु ये सम्मूच्छितास्ते 15 सम्मूच्छिमाः । एतेऽपर्याप्ता एव । संमूच्छिमभिन्ना मनुजास्तु पर्याप्ता अपर्याप्ता अपि । देवास्तु चतुर्निकायाः चतुर्विधोत्पत्तिस्थानत्वात् व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिक भवनवासिभेदात् विवेचिता ते पूर्वमेव तेऽपि पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्ना इति दिक् ॥ योगमार्गणाभेदमाह– मनोवाक्कायास्तिस्रो योगमार्गणाः ॥ 20 मन इति । मनःप्रायोग्याणि द्रव्याण्यात्मप्रदेशैः काययोगेनादाय मनस्त्वेन परिमितानि वस्तुचिन्ताप्रवर्त्तकानि च मनांसि तैस्सहकारिकारणभूतैस्सहितो जीववीर्यविशेषो मनोयोगः । सत्यादिभेदतस्स चतुर्विधः । भाषापुद्गलग्रहणोत्तरं भाषापरिणाममापन्नाः पुद्गला वागित्युच्यते, तत्सहकारिकारणको योगो जीवशक्तिविशेषो वाग्योगः, सोऽपि पूर्ववदेव चतुर्विधः । केवलं कायावष्टम्भजन्यस्सामर्थ्य विशेषः काययोगः । स चौदारिका दिभेदेन 25 सप्तविधः । अवान्तरभेदानां स्वरूपाण्यन्यत्र पूर्वे वा द्रष्टव्यानि ॥ अथ वेदमार्गणाभेदमाचष्टे – पुंस्त्रीनपुंसकभेदेन तिस्रो वेदमार्गणाः ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायमार्गणा ] न्यायप्रकाशसमलते । .... पुमिति । त्रयोऽपि वेदा द्रव्यभावभेदेन द्विविधाः । पुरुषस्य रुयभिलाषो भाववेदो निर्माणाङ्गोपाङ्गादिनामकर्मजन्यः पुरुषस्य श्मश्रूकूर्चशिश्नादिविशिष्टो द्रव्यपुरुषवेदः, स्त्रियः स्तनयोनिनिर्लोममुखादिविशिष्टाकारो द्रव्यस्त्रीवेदः, एतदुभयविलक्षणाकारो द्रव्यनपुंसकवेदः ॥ कषायमार्गणाभेदमभिधत्ते क्रोधमानमायालोभरूपाश्चतस्रः कषायमार्गणाः॥ 5 क्रोधेति । चतुःप्रतिष्ठितः क्रोधः, यथाहि स्वयमाचरितमैहिकमामुष्मिकं प्रत्यपायमवबुद्ध्य यदा कश्चिदात्मन एवोपरि क्रुध्यति तदा स क्रोध आत्मप्रतिष्ठितः । यदा पर उदीरयत्याक्रोशादिना कोपं तदा किल तद्विषये क्रोध उपजायत इति स परप्रतिष्ठितः । यदा कश्चित्तथाविधापराधादात्मपरविषयक्रोधमाधत्ते स उभयाश्रितः, यदा तु स्वयं दुश्चरणमाक्रोशादिकञ्च कारणं विना केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते स हि नात्मप्रतिष्ठितः, स्वयं 10 दुश्चरणानाचरणेनात्मविषयत्वाभावात् , न परप्रतिष्ठितः परस्यापि निरपराधित्वात् , अत एव नोभयप्रतिष्ठितः, अतोऽप्रतिष्ठित इति, एवं मानादयोऽपि । अनन्तानुबन्ध्यादिभेदाः पूर्वमेवोक्ताः, तथा आभोगनिवर्तितानाभोगनिवर्तितोपशान्तानुपशान्तभेदतोऽपि ते चतुर्धा भवन्ति, यदा यस्यापराधं सम्यगवबुध्य कोपकारणञ्च व्यवहारतः पुष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायत इत्याभोग्यकोपञ्च विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः। यदा त्वेवमेव तथाविधमुहू- 15 विशाद्गुणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय कोपं कुरुते तदा स कोपोऽनाभोगनिर्वर्तितः, अनुदयावस्थ उपशान्तो निर्निमित्तमुदयावस्थोऽनुपशान्तः । अनन्तानुबन्धिक्रोधादयः सम्यग्दर्शनसहभाविक्षमादिस्वरूपोपशमादिचरणलवप्रतिबन्धिनः, चारित्रमोहनीयत्वात् , न चोपशमादिभिरेव चारित्री, अल्पत्वाद्यथैककार्षापणो न धनपतिः किन्तु महता मूलगुणादिरूपेण चारित्री मनःसंज्ञया संज्ञिवत्, अत एव त्रिविधं दर्शनमोहनीयं पञ्चविंशतिविधं 20 चारित्रमोहनीयम् । न च चारित्रावारकस्य सम्यक्त्वावारकत्वानुपपत्तिस्तथा च सप्तविधं दर्शनमोहनीयमेकविंशतिविधञ्च चारित्रमोहनीयमिति वाच्यम् , अनन्तानुबन्धिभिरेव सम्यक्वे आवृते मिथ्यात्वस्य वैयर्थ्यापत्तेः, आवृतस्याप्यावरणेऽनवस्थानात् , तस्माद्यथा कषायाणां केवलज्ञानानावारकत्वेऽपि कषायक्षयः केवलज्ञानकारणतयोच्यते तस्मिन् सत्येव तस्य भावात् , तथानन्तानुबन्धिषूदितेषु न मिथ्यात्वं क्षयोपशममुपयाति तदभावाच्च न सम्य- 25 १. पुरुषवेदो निरन्तरं भवन् जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतस्सातिरेकसागरोपमशतपृथक्त्वं । स्त्रीवेदो जघन्येनैकस्समयः । उत्कर्षतः पल्योपमशतं पूर्वकोटिपृथक्त्वञ्च, नपुंसकवेदो जघन्यत एकस्समयः, उत्कर्षतोऽनन्ताद्धा ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :२८६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे क्त्वमिति सम्यक्त्वसहचार्युपशमादिगुणावारकत्वमनन्तानुबन्धिनां, सम्यग्दर्शनमोहनीयस्य कचित्सप्तविधत्वकथनन्तु सम्यक्त्वसहचारिगुणेषु सम्यक्त्वोपचारात् । देशविरत्यावारका अप्रत्याख्यानाः, सर्वविरतिघातिनः प्रत्याख्यानाः, संज्वलना यथाख्यातचारित्रावारकाः ॥ सम्प्रति ज्ञानमार्गणाभेदमाह5 मतिश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानभेदादष्टौ ज्ञानमार्गणाः। मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुतावधयः क्रमेण मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानान्युच्यन्ते । अत्र पञ्चविधत्वेऽपि ज्ञानानामन्वेषणाप्रस्तावे आद्यत्रयविपरीतानामपि मत्यज्ञानादीनां ज्ञानत्वेन ग्रहणादष्टविधत्वं ज्ञानमार्गणाया बोध्यम् । मनःपर्यवकेवलयोस्तु वैपरीत्याभाव एव । 10 अग्रे संयमादिष्वप्येवमेव वैपरीत्येन मार्गणा विज्ञेयाः॥ मतीति । ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनास्मिन्नस्माद्वेति ज्ञानं, ज्ञानदर्शनावरणयोः क्षयः क्षयोपशमो वा, ज्ञातिर्वा ज्ञानं, आवरणद्वयक्षयाद्याविर्भूत आत्मपर्यायविशेषः, विशेषांशग्राहको ज्ञानपञ्चकाज्ञानत्रयरूपः । ननु सकलमपीदं ज्ञानं ज्ञप्त्ये कस्वभावं ज्ञप्त्येक स्वभावत्वस्य सर्वत्राविशेषेण किं कृतोऽयं पञ्चधाऽष्टधा वा मेदः, न च वार्तमानिकं वस्तु 15 मतेः, त्रिकालविषयः परिणामो ध्वनिगोचरः श्रुतस्य, रूपिद्रव्याण्यवधेः, मनोद्रव्याणि मनःपर्यवस्य, समस्तपर्यायान्वितं सर्व वस्तु विषयः केवलस्येति ज्ञेयभेदस्तत्कृतो ज्ञानभेद इति वाच्यं केवलज्ञानस्य बहुभेदत्वापत्तेः, वार्त्तमानिकादिवस्तूनां तत्राऽपि ज्ञेयत्वादन्यथा तदविषयत्वे तस्य केवलिनोऽसर्वज्ञत्वापत्तिप्रसङ्गः, न च यादृशी प्रतिपत्तिर्मत्यादिज्ञानस्य न तादृशी श्रुतादिज्ञानस्येति प्रतिपत्तिप्रकारभेदाढ़ेद इति वाच्यम् , एकस्मिन्नपि ज्ञाने तत्तद्दे20 शकालपुरुषस्वरूपभेदेनानन्तभेदप्रसक्तेः प्रतिपत्तिप्रकारस्यानन्त्यात् । न चावारकाणां मतिज्ञानावरणादीनां भेदाढ़ेद इति वाच्यम् , ज्ञानस्यैकत्वे आवारकाणां पञ्चधात्वानुपपत्तेः, आवार्यापेक्षं ह्यावरकं, आवार्यञ्च ज्ञानं ज्ञप्तिरूपत्वादेकमत आवारकं कथं पञ्चधा भवेत् । न च स्वभावादेव पञ्चधात्वं स्वभावे च न पर्यनुयोग इति वाच्यम् , भगवतस्सर्वज्ञत्व हानिप्रसङ्गात् , ज्ञानस्यात्मधर्मत्वेन मत्यादीनां स्वाभाविकत्वेन च क्षीणावरणस्यापि तद्भा25 वप्रसक्त्याऽस्मदादिवत्तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् , यदि केवलज्ञानभावतस्समस्तवस्तुपरिच्छेदान्नास १. शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्येषु ॥ २. मत्यादिज्ञानविषयजातस्य तेनाग्रहणादिति भावः ॥ ३. नहि कोऽप्येवं पर्यनुयुंक्ते कथं घट एव जलाहरणं करोति न पट इतीति भावः ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानमार्गणा ] न्यायप्रकाशसमलते त्वमित्युच्यते तदापि केवलोपयोगविरहकाले मतिज्ञानोपयोगसम्भवेन देशतः परिच्छेदेन तदा तस्यासर्वज्ञत्वं बलादापतत्येव । न च तस्य तदुपयोग एव न भविष्यतीति वाच्यम् , आत्मनः स्वभावत्वेन तस्यापि क्रमेणोपयोगस्य निवारयितुमशक्यत्वात् , केवलज्ञानानन्तरं केवलदर्शनोपयोगवत् , ततः केवलज्ञानोपयोगकाले सर्वज्ञत्वं मत्यादिज्ञानोपयोगकालेऽसर्वज्ञत्वमापद्यते, न चैतदिष्ट, तस्माज्ज्ञानं असकलसंज्ञितं सकलसंज्ञितमिति द्विभेदमेव, अवग्रहज्ञाना. 5 दारभ्य यावदुत्कर्षप्राप्तपरमावधिज्ञानं तावत्सकलमप्येकं,तच्चासकलसंज्ञितमशेषवस्तुविषयत्वाभावात्, अपरश्च केवलिनस्तच्च सकलसंज्ञितमिति चेदुच्यते, ज्ञानानां ज्ञप्त्येकस्वभावत्वं सामान्यतो वा विशेषतो वा भवताऽभ्युपगम्यते ? नाद्यस्सिद्धसाध्यतया तस्य बाधकत्वायोगात् बोधरूपतयाऽस्माभिरपि सकलज्ञानस्याप्येकत्वाभ्युपगमात् , नापि द्वितीयोऽसिद्धत्वात् , स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतिप्राणि ज्ञानस्योत्कर्षापकर्षदर्शनाद्विशेषत एकत्वानुपलम्भात् । न चोत्क- 10 र्षापकर्षमात्रभेददर्शनेन यदि ज्ञानस्य भेदस्तहि प्रतिप्राणि देशकालापेक्षयोत्कर्षापकर्षयोरनेकविधत्वेन ज्ञानस्यानेकविधत्वमेव प्राप्तं न तु पञ्चविधत्वमिति वाच्यम् , परिस्थूलनिमित्तभेदतः पञ्चधात्वस्य प्रतिपादनात् । तथाहि सकलघातिक्षयो निमित्तं केवलज्ञानस्य, मनःपर्यायज्ञानस्य त्वमर्पोषध्यादिलब्ध्युपेतस्य प्रमादलेशेनाप्यकलङ्कितस्य विशिष्टाध्यवसायानुगतोऽप्रमादः, अवधिज्ञानस्य पुनस्तथाविधानिन्द्रियरूपिद्रव्यसाक्षादवगमननिबन्धनः क्षयो- 15 पशमविशेषः, मतिश्रुतयोस्तु लक्षणभेद इति । ज्ञेयभेदमावतो ज्ञानस्य भेदानभ्युपगमान्न तत्पक्षोक्तदोषः, एकेनाप्यवग्रहादिना बहुविधवस्तुग्रहणोपलम्भात् । नापि प्रतिपत्तिप्रकारभेदकृतो दोषस्सम्भवति देशकालाद्यपेक्षया ज्ञानानामानन्त्येऽपि परिस्थूलनिमित्तभेदेन व्य. वस्थापितज्ञानपञ्चकेभ्योऽनतिरिक्तत्वात् तजातीयत्वानतिक्रमणात् । परिस्थूलनिमित्तभेदमधिकृत्य ज्ञानानां भेदव्यवस्थापनाच नावरणभेदप्रयुक्तदोषस्यावकाश इति । न चैवं 20 व्यवस्थापिता ज्ञानभेदा ज्ञानस्यात्मभूता अनात्मभूता वा, आत्मभूतत्वे क्षीणावरणेऽपि तद्भावप्रसङ्गः, अनात्मभूतत्वे न ते पारमार्थिकाः, ततः कथमावार्यापेक्षो वास्तव आवारकभेद इति वाच्यम्, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् । इह हि सकलघनपटलविनिमुक्तशारददिनमणिरिव समन्ततस्समस्तवस्तुस्तोमप्रकाशनैकस्वभावो जीवः, तस्य च तथाभूतस्वभावः केवलज्ञानमिति व्यपदिश्यते । स च यद्यपि सर्वघातिना केवलज्ञानावरणेना- 25 ब्रियते तथापि तस्यानन्ततमो भागो नित्योद्घाटित एव । ततस्तस्य केवलज्ञानावरणावृतस्य घनपटलाच्छादितस्येव सूर्यस्य यो मन्दप्रकाशस्सोऽपान्तरालावस्थितमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमभेदसम्पादितं नानात्वं भजते मतिज्ञानावरणक्षयोपशमजनितो मन्दप्रकाशो मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजनितस्स श्रुतज्ञानमित्यादिरूपेण । तत आत्मस्वभावभूता मत्यादयो Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [पशमकिरणे भेदाः, ते च प्रवचनोपदर्शितपरिस्थूलनिमित्तभेदतः पञ्चसंख्याः, तदपेक्षमावारकमपि पश्चधेति न विरुद्ध्यते । न चैवमात्मस्वभावभूतत्वे क्षीणावरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः, यत एते मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमरूपोपाधिसम्पादितसत्ताकास्ततः कथं ते तथारूपक्षयोपशमाभावे भवि तुमर्हन्ति, नहि सूर्यस्य घनपटलावृतस्य मन्दः प्रकाशः कटकुड्याद्यावरणविवरभेदोपाधिस. 5 म्पादितस्सकलघनपटलकटकुड्याद्यावरणापगमे सूर्यस्य ते तथारूपा मन्दप्रकाशभेदा भवन्ति । यथा वा जन्मादयो भावा जीवस्यात्मभूता अपि कर्मोपाधिसम्पादितसत्ताकत्वात्तदभावे न सन्ति तद्वन्मत्यादयो भेदा जीवस्यात्मभूता अपि मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमसापेक्षत्वात्तदभावे केवलिनो न भवन्ति ततो नासर्वज्ञत्वदोषः । यदपि मतिज्ञानादिविषयस्य केवलज्ञानाविषय त्वेऽसर्वज्ञत्वापत्तिरुक्ता सापि न सम्भवति, तद्विषयत्वेन तस्याग्रहेऽपि केवलज्ञानेन तद्ब्रह10 णात्,मत्यादिज्ञानमात्रनिरूपितत्वेन ज्ञेयताया केवलज्ञानस्याभावेऽपि न तावताऽसर्वज्ञत्वापत्तिः, अल्पास्पष्टज्ञानाभावमात्रेण सर्वज्ञत्वाक्षतेः, कापईिकमात्रधनाभाववतो महर्द्धिकस्य निर्धनित्वाभाववदिति दिक् ॥ मत्यादिज्ञानलक्षणादीन्यग्रे वक्ष्यन्ते ॥ ननु किं सर्वेषामेव जीवानां ज्ञानानि मत्यादीनि भवन्तीत्यत्राह मिथ्यादृष्टीनामिति । मिथ्यादृष्टीनां मतिज्ञानं श्रुतज्ञानम वधिज्ञानश्च मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमित्युच्यते विपर्ययत्वात् , प्रमाणाभासत्वेन तेषां 15 ज्ञानान्यज्ञानानि, दर्शनमोहनीयोदयप्रयुक्तमिथ्यादर्शनपरिणामेन सह वृत्तित्वान्मतिश्रुताव धयोऽज्ञानत्वं भजन्ते । ननु यथार्थपरिच्छेदित्वं ज्ञानत्वमयथार्थपरिच्छेदित्वमज्ञानत्वं तदुभयं च मिथोविरोधि, शीतोष्णवत् तत्कथमेकस्मिन्नेव मतिज्ञानादौ तदुभयसम्भवः, मैवमाधारदो. षात्, दृश्यते हि कटुकालाबूभाजने निहितं दुग्धं स्वगुणं परित्यजति तथा मत्यादीन्यपि मिथ्या दृष्टिभाजनगतानि दुष्यन्ति पारिणामिकशक्तिविशेषात् , न च रूपादिविषयोपलब्धिव्यभिचा20 राभावात्तेषां विपर्ययाभावः, यथैव हि मतिज्ञानेन सम्यग्दृष्टयो रूपादीनुपलभन्ते तथैव मिथ्यादृष्टयोऽपि मतिज्ञानेन, यथैव घटादिषु रूपादीन श्रुतेन निश्चिन्वन्त्युपदिशन्ति च परेभ्यस्सम्यग्दृष्टयस्तथा मिथ्यादृष्टयोऽपि श्रुतज्ञानेन, यथैवावधिना रूपिणोऽर्थानवगच्छन्ति तथैव विभङ्गेनापीति वाच्यम् । विद्यमानाविद्यमानार्थयोर्यथावदवबोधाभावेन तादृशोपलब्धेर्या दृच्छिकत्वात् , उन्मत्तोपलब्धिवत् । उन्मत्तो हि दोषोदयात्कदाचिल्लोष्ठं सुवर्णमिति सुवर्ण लोष्ठ25 मिति जानाति कदाचिच्च लोष्ठं लोष्ठमिति सुवर्ण सुवर्णमिति च, तथैव मिथ्यादर्शनोदयात् वस्तुनोऽनेकान्तात्मकस्यैकान्तात्मकत्वं कर्तृरहितं जगत्सकर्तृकञ्च जानात्यतो यथार्थबोधाभावेन कदाचित्तस्योपलब्धेर्यथार्थरूपादिविषयकत्वेऽपि अज्ञानमेवेति भावः। एवन्तष्टिविधत्वं ज्ञानानामत्र कथमुक्तमित्यत्राहात्रेति मार्गणाप्रकरण इत्यर्थः। पञ्चविधत्वेऽपि ज्ञानानामिति । शब्दनयमते सर्वजीवानां चेतनास्वभावत्वात् ज्ञस्वभावत्वाच्च न कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसवमार्गणा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते अत एव मत्यज्ञानादयो विपर्यया न सन्ति तस्मात्पञ्चविधत्वमेव ज्ञानानां तन्मतेनेति भावः । नैगमादिनयेन तु मत्यज्ञानादीनामप्यर्थपरिच्छेदकत्वेन ज्ञानत्वात्तन्मताश्रयेणात्र ज्ञानानामष्टविधत्वमुक्तमित्याशयेनाहान्वेषणाप्रस्ताव इति । आद्यत्रयेति मतिश्रुतावधीत्यर्थः । ज्ञानत्वेन ग्रहणादिति, अर्थपरिच्छेदित्वादिति भावः । ननु ज्ञानादिषु किमर्थमज्ञानादिविपरीतग्रहणमिति चेदुच्यते चतुर्दशस्वपि मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिकसत्त्वसंग्रहार्थमिती 5 त्याशयेन बोध्यमित्युक्तम् । मनःपर्यवकेवलयोर्विपरीतताऽस्ति नवेत्यत्राह मन इति । निर्मूलतो मिथ्यात्वस्य क्षयेण केवलस्य क्षयोपशमोपशमाभ्याश्च मनःपर्यवस्य जायमानत्वादिति भावः । विपरीतानामपि मार्गणासु ग्रहणमन्यत्राप्यतिदिशति अग्र इति वक्ष्यमाणासु मार्गणास्वित्यर्थः, कासु मार्गणास्वित्यत्राह संयमादिष्वपीति, आदिना भव्यसम्यक्त्वाहारकाणां ग्रहणम् । एवमेवेति, ज्ञानमार्गणायामुक्तप्रकारेणैवेत्यर्थः, वैपरीत्येनेति, तत्तद्विप 10 रीतघटिता इत्यर्थः ॥ अथ चारित्रमार्गणाभेदमाचष्टे सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातदेशविरत्यविरतिरूपास्सप्त चारित्रमार्गणाः॥ सामायिकेति । निरूपितानि पूर्वमेवैतानि पञ्च चारित्राणि लक्षणभेदद्वारैः । देशविर- 15 तिस्तु सावद्ययोगस्यैकादिव्रतविषये स्थूलसावद्ययोगादौ विरतिविशिष्टं चारित्रम् । पश्चाणुव्रतानि त्रीणि गुणव्रतानि चत्वारि शिक्षापदव्रतानीति द्वादशप्रकारा देशविरतस्य भवन्ति, एषां विस्तरस्तु अन्यत्र विलोकनीयः । चारित्रविपरीताऽविरतिर्मागणोपयोगित्वात्संगृहीता ॥ दर्शनमार्गणाभेदमाहचक्षुरचक्षुरवधिकेवलभेदेन चतस्रो दर्शनमार्गणाः ॥ चक्षुरिति । दर्शनावरणक्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनं । इन्द्रियावरणक्षयोपशमाद्रव्येन्द्रियानुपघाताच्च चक्षुदर्शनलब्धिमतो जीवस्य घटादिषु चाक्षुषं दर्शनं चक्षुर्दर्शनम् । सामान्यविषयत्वेऽपि चास्य घटादिविशेषाभिधानं तत्सामान्यविशेषयोः कथंचिदभेदादेकान्तेन विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याग्रहणख्यापनार्थम् । ' निर्विशेषं विशेषाणां ग्रहो दर्शनमुच्यते' इत्यभिधानात् । चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयं मनश्चाचक्षुरुच्यते, 25 अचक्षुर्दर्शन मिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद्रव्येन्द्रियानुपघाताचाचक्षुदर्शनलब्धिमतो जीवस्य विषय 20 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरवम्यायविभाकरे [ दशमकिरणे संश्लिष्टतासम्बन्धेन भवति । एतादृशसम्बन्धाभावादेव जायमानत्वाञ्चक्षुर्दर्शनस्य पृथगुक्तिः, इतरेन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वात् । मनसस्त्वप्राप्यकारित्वेऽपि प्राप्यकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वादचक्षुर्दर्शनान्तर्गतं तद्वोद्धव्यम् । अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमसमुद्भूतावधिदर्शनलब्धिमतो जीवस्यावधिदर्शनं सर्वरूपिद्रव्येषु भवति, न पुनः सर्वपर्यायेषु शास्त्रेऽव5 घेरुत्कृष्टतोऽप्येकवस्तुगतसंख्येयासंख्येयान्यतरपर्यायविषयत्वस्यैवोक्तत्वात्। जघन्यतस्तु रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाश्चत्वारः पर्यायास्तस्य विषयाः । ननु पर्याया विशेषा उच्यन्ते न च दर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति ज्ञानस्यैव तद्विषयत्वात् , तत्कथमवधिदर्शनविषयाः पर्याया भवितुमर्हन्तीति चेत्सत्यं, केवलं पर्यायैरपि घटशरावोदञ्चनादिभिर्मंदादिसामान्यमेव तथाविशिष्यते पुनस्ते नैकान्तेन व्यतिरिच्यन्ते, अतो मुख्यतस्सामान्यं गुणीभूतास्तु विशेषा अप्यस्य 10 विषयीभवन्तीति । केवलदर्शनिनस्तदावरणक्षयाविर्भूततल्लब्धिमतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मूर्ती मूर्तेषु सर्वपर्यायेषु च सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्णात्मकं केवलदर्शनं भवति । मनःपर्यवज्ञानन्तु तथाविधक्षयोपशमपाटवात् सर्वदा विशेषानेव गृहृदुत्पद्यते न सामान्यम् , अतस्तदर्शनं नोक्तम् ॥ सम्प्रति लेश्यामार्गणाभेदमाख्याति15 कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लभेदेन षड् लेश्यामार्गणाः ।। कृष्णेति । लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसहकारबलेनात्मनः परिणामविशेषः । अत्र विशेषतो यद्वक्तव्यं तत्पूर्वमेवादर्शितम् ।। लेश्यानां स्वरूपाण्यादर्शयितुमुपक्रमते अल्पफलाय फलिन आमूलं विनाशकरणाध्यवसायः कृष्णलेश्या । 20 यथा फलग्रहणार्थं वृक्षच्छेदाध्यवसायः ॥ अल्पेति । भावलेश्या द्विधा विशुद्धाविशुद्धभेदात् , अकलुषद्रव्यसम्पर्कजन्यात्मपरिणामो विशुद्धलेश्या । कलुषद्रव्यसम्पर्कजन्यात्मपरिणामोऽविशुद्धलेश्या । विशुद्धा कषायाणां क्षयेणोपशमेन च जायत इति द्विधा, अविशुद्धापि रागविषया द्वेषविषया चेति द्विधा, तेजःपनशुक्ला विशुद्धलेश्याः कृष्णनीलकापोता अविशुद्धलेश्याः। तेजआदीनां विशुद्धलेश्या25 त्वमेकान्तविशुद्धिमाश्रित्योक्तं तेन तेजःपद्मशुक्लानां क्षायोपशमिकत्वेऽपि न क्षतिः । आसां लक्षणानि तु तत्तद्र्व्यसाचिव्यजनिताध्यवसाया एव । मूले तु संक्लेशविशोधिपरिणामप्रदर्शन Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याविशेषाः । न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :२९१ : द्वारा तत्स्वरूपाणि प्रदर्शितानि । पञ्चाश्रवप्रमत्तो मनोगुप्त्यादिरहितः पृथ्वीकायादिषु तदुपमर्दकत्वादेरविरतः तीव्रसावद्यव्यापारपरिणतो गुणदोषपर्यालोचनारहितोऽत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशंकाविकलो नृशंसोऽनिगृहीतेन्द्रियो जीवः कृष्णलेश्यायामेव परिणमेदिति भावः । संक्लेशमेवोदाहरणेनाविष्करोति यथेति ॥ नीललेश्यां स्वरूपयति अल्पप्रयोजनाय तदंशच्छेदनाध्यवसायो नीललेश्या । यथा फलाय शाखाच्छेदाध्यवसायः॥ अल्पेति । कृष्णलेश्यापेक्षयात्र विशुद्धिमुत्तरलेश्यापेक्षया च संक्लेशं सूचयति तदंशच्छेदनाध्यवसाय इति । ईर्ष्यामर्षातपोऽविद्यामायानिर्लज्जताविषयाभिकाङ्क्षाप्रद्वेषयुतः प्रमत्तो रसलोलुपः सुखगवेषकः प्राण्युपमर्दनेनाविरतः साहसिको जीवो नीललेश्यायामेव परिण- 10 मंतीति भावः । तत्रानुरूपं दृष्टान्तमाह यथेति ।। कापोतलेश्यां स्वरूपयति अल्पफलार्थ तदंशांशच्छेदनाध्यवसायः कापोतलेश्या । यथा तदर्थ प्रतिशाखाच्छेदाध्यवसायः॥ ____ अल्पफलार्थमिति । अत्रापि विशुद्ध्यविशुद्धी पूर्ववत् । वचसा वक्रः क्रियया चक्रसमा- 15 चारो मनसा निकृतिमाननृजुकः स्वदोषप्रच्छादकश्छली मिथ्यादृष्टिरनार्य उत्प्रासकदुष्टवादी चौरः परसम्पदाऽसहनो लुब्धः कापोतलेश्यायां परिणमतीति भावः। तत्र दृष्टान्तमाह यथेति ॥ तेजोलेश्यां स्वरूपयतिअल्पफलार्थमंशांशापेक्षया न्यूनांशच्छेदनाध्यवसायः तेजोलेश्या ।। - 20 यथा फलग्रहणाय स्तबकच्छेदनाध्यवसायः ॥ .. ... १. लक्षणन्तु पञ्चाश्रवप्रमत्तत्वादिरेव इतरेषां भावकृष्णलेश्यासद्भावस्योपदर्शकत्वात् , यो . हि यत्सद्भाव एव भवति स तस्य लक्षणं यथौष्ण्यमग्नेः । अस्या जघन्या स्थितिर्मुहूर्तार्धम् , अन्तर्मुहूर्त्ताधिकानिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिरुत्कृष्टा भवति । सप्तमनारकापेक्षयेयं बोध्या ॥ २. स्थितिश्चास्या जघन्या मुहूर्तार्धम् उत्कर्षेण, पल्योपमासंख्येयभागाधिकानि दशसागरोपमाणि धूम्रप्रभोपरितनप्रस्तरापेक्षयेयम् ॥३. स्थितिघन्या मुहर्ताधम् पस्योपमासंख्ययभागाधिकानि त्रीणि सागरोपमाण्युत्कृष्टा वालुकाप्रमोपरितनप्रस्तरनारकापेक्षया । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २९२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे अल्पेति । कायमनोवाग्भिरनुत्सित्तोऽचपलोऽमायी अकुतूहल: विनीतविनयः दान्तस्स्वाध्यायादिव्यापारवान् विहितशास्त्रोपचारः अभिरुचितधर्मानुष्ठानोऽङ्गीकृतव्रतादिनिर्वाहकः पापभीरुर्हितैषकः परोपकारचेता हिंसाद्यनाश्रवस्तेजोलेश्यायां परिणमेत् । दृष्टान्तमाह यथेति ॥ पद्मलेश्यामाह ईषत्क्लेशप्रदानेन फलग्रहणाध्यवसायः पद्मलेश्या । यथा वृक्षात्फलमात्रवियोजनाध्यवसायः॥ ईषदिति । अतीवाल्पक्रोधमानमायालोभः प्रशान्तचित्तो दान्तः स्वाध्यायादिप्रवृत्तो विहितशास्रोपचारः प्रतनुभाषक उपशान्तो वशीकृताक्षः पद्मलेश्यायां परिणमेत् । दृष्टान्त10 माह यथेति ॥ शुक्ललेश्यामाह इतरक्लेशाकरणतः फलग्रहणाध्यवसायश्शुक्ललेश्या । यथा भूपतितफलग्रहणाध्यवसायः॥ इतरेति । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा धर्मशुक्लध्यानध्यायी समितो गुप्तस्सरागो वीतरागो 15 वा जितेन्द्रियश्शुक्ललेश्यायां परिणमेत् । दृष्टान्तमाह यथेति । इह शुभलेश्यासु केषाश्चि द्विशेषणानां पुनरुपादानेऽपि लेश्यान्तरविषयत्वादपौनरुक्त्यम् । पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरस्य विशुद्धितः प्रकृष्टत्वञ्च भावनीयम् । विशिष्टलेश्यापेक्षयैवं कारणविधानान्न देवादिभिर्व्यभिचारः। सर्वासामेव द्रव्यलेश्यानां अनन्तप्रदेशात्मकत्वं, असंख्यप्रदेशावगाढत्वञ्च विज्ञे यम् । आद्या स्तिस्रोऽप्रशस्तवर्णगन्धरसोपेता अप्रशस्ताध्यवसायहेतवः संक्लिष्टातरौद्रध्याना20 नुगताध्यवसायस्थानहेतवः, उत्तरास्तिस्रः प्रशस्तवर्णगन्धरसोपेताः प्रशस्ताध्यवसायहेतवोऽ संक्लिष्टधर्मशुक्लध्यानानुगताध्यवसायहेतवश्च ॥ १. जघन्या स्थितिर्मुहूर्तार्धम् , उत्कृष्टा तु पल्योपमासंख्येयभागाधिके द्वे सागरोपमे । ईशानापेक्षयेयं बोध्या ॥ २. मुहूर्त्ताध जघन्या स्थितिः, उत्कृष्टा तु मुहूर्त्ताधिकानि दशसागरोपमाणि ब्रह्मदेवलोकापेक्षयेयम् ॥ ३. मुहद्ध जघन्या स्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि मुहूर्त्ताधिकान्युत्कृष्टा अनुत्तरापेक्षयेयम् ॥ ४. अनन्तप्रदेशव्यतिरेकेण स्कन्धस्य जीवग्रहणयोग्यत्वाभावादिति भावः ॥ ५. अनन्तानामपि वर्गणानामाधारभूताकाशप्रदेशा असंख्येया एव, सकलस्यापि लोकस्य प्रदेशानामसंख्यातत्वादिति भावः ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यमार्गणा ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते .: २९३ : अथ भव्यमार्गणाभेदमाह भव्याभव्यभेदेन द्विविधा भव्यमार्गणाः । तत्र भव्यस्सिद्धिगमनयोग्यस्तद्विपरीतोऽभव्यः॥ भव्येति । प्रतिपक्षतयाऽत्रामव्यस्यापि ग्रहणम् । अनादिपारिणामिकभव्यत्वाभव्यत्वयोगाजीवो भव्योऽभव्यश्च भवति । ननु भव्यत्वमभव्यत्वं वा जीवे कथमवगम्यत इति 5 चेदुच्यते सिद्धिगमनयोग्योऽहं नवेति संशय एव तत्साधकः, स च संशयोऽभव्यस्य न कदाचिदपि भवति । तथा चायं भव्यस्सिद्धिगमनयोग्यत्वप्रकारकसंशयान्यथानुपपत्तेरित्यनुमानमेव मानम् । मोक्षप्रवृत्तियोग्यतावच्छेदकतया च भव्यत्वं सिद्ध्यति, तत्र योग्यतागमकसंशय एव । संसार्यकस्वभावत्वे च कदाचिदपि कस्यचिदपि मोक्षार्थ प्रवृत्तिरेव न स्यात् । न च मोक्षप्रवृत्तियोग्यतावच्छेदकत्वं शमादिमत्त्वस्यैवेति वाच्यम् , शमादेर्मोक्षप्रवृत्त्युत्तर- 10 कालीनत्वात् , शमादेरपि कार्यतया तत्र भव्यत्वस्यैव कारणतावच्छेदकत्वप्रसङ्गे मोक्षप्रवृत्तियोग्यताया एवावच्छेदकत्वस्यौचित्याच । तथा च भव्यत्वमभव्यत्वञ्च परोक्षज्ञानिनामस्माहशामनुमानगम्यं प्रत्यक्षज्ञानिनाश्च प्रत्यक्षं तथाऽनादिसिद्धम् । ननु भव्यत्वमभव्यत्वश्च न नारकत्वादिवत्कर्मकृतं किन्तु चेतनत्वादिवत्स्वाभाविकमुच्यते तथा सति भव्यत्वमविनाशि स्यात् , जीवत्ववत् स्वाभाविकत्वात् , न चैतदिष्टं, तत्सत्त्वे निर्वाणाभावात् , सिद्धो न भव्यो 15 नाप्यभव्य इति वचनादिति चेन्न, प्रागभावस्यानादिस्वभावत्वेऽपि घटोत्पत्तौ विनाशदर्शनात् । एवं भव्यत्वस्यापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपायतो नाशसम्भवे क्षत्यभावात् । न च प्रागभावस्याभावरूपतयाऽवस्तुत्वमिति न तस्योदाहरणत्वं युक्तमिति वाच्यम् , तस्य घटानुत्पत्तिविशिष्टतत्कारणभूतानादिकालप्रवृत्तपुद्गलसंघातरूपत्वेन भावत्वात् । न चैवं सति स्तोकस्तोकाकृष्यमाणधान्यस्य धान्यपूर्णकोष्ठागारस्य कदाचित्समुच्छेद इव षण्मासषण्मास- 20 पर्यन्ते भव्यस्यैकस्यावश्यं सिद्धिगमनात् क्रमेणापचीयमानस्य सर्वस्यापि भव्यराशेः कदाचिदुच्छेदप्रसङ्ग इति वाच्यम् , अनन्तत्वाद्भव्यराशेरनागतकालाकाशवत् । इह यद्बहदनन्त. केनानन्तकं तत्स्तोकस्तोकतयाऽपचीयमानमपि नोच्छिद्यते, यथा प्रतिसमयं वर्तमानतापत्त्याऽपचीयमानोऽप्यनागतकालसमयराशिः प्रतिसमयं बुद्ध्या प्रदेशापहारेणापचीयमानस्सर्वनभःप्रदेशराशिर्वा तथा भव्यराशिरपि । यस्माच्चातीतानागतकालौ तुल्यावेवं यश्चातीतेनानन्ते- 25 नापि कालेनैक एव निगोदानन्ततमो भागोऽद्यापि भव्यानां सिद्धः, एष्यतापि कालेन तावन्मात्र एव भव्यानन्तभागस्सिद्धि गच्छन् युक्तो न हीनाधिकः, भविष्यतोऽपि कालस्याती १. सर्वकालीनापेक्षयाऽत्र तुल्यत्वमुक्तं नतु विवक्षितकालापेक्षयैवेति भावः ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे ततुल्यत्वात् ततो न सर्वभव्यानामुच्छेदो युक्तः सर्वेणापि कालेन तदनन्तभागस्यैव सिद्धिगमनसम्भवस्योपदर्शितत्वादित्येतत्सर्वमभिप्रेत्योक्तं तत्रेति ।। अथ सम्यक्त्वमार्गणाभेदमाचष्टे औपशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकसास्वादनवेदकमिथ्यात्वरूपेण षट्5 सम्यक्त्वमार्गणाः॥ औपशमिकेति । उपाधिभेदाविवक्षया सम्यक्त्वमेकविधम् , सम्यक्त्वश्चाज्ञानसंशयविपर्ययनिरासेनेदमेव तत्त्वमिति निश्चयपूर्विका जिनोदितजीवादिपदार्थेष्वभिप्रीतिः । उपाधिभेदात्तु द्विविधं त्रिविधं चतुर्विधं पञ्चविधं दशविधं । तत्र द्विविधं द्रव्यतो भावतो वा, निश्चयेन व्यवहारेण वा, पौद्गलिकापौद्गलिकभेदेन वा, नैसर्गिका10 धिगमिकभेदतो वा । कारकरोचकदीपकभेदेन क्षायिकौपशमिकक्षायोपशमिकभेदेन वा त्रिविधं, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनभेदेन चतुर्विधं, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनवेदकभेदेन पञ्चविधम् , इदमेव च प्रत्येकं निसर्गाधिगमभेदेन दशविधं विज्ञेयम् । द्विविधन्तु पूर्वमादर्शितम् । त्रिविधमुच्यते, कारकं सूत्रोक्ताज्ञाशुद्धा क्रिया, तस्याः परगतसम्यक्त्वस्योत्पादकत्वेन सम्यक्त्वं, ताशक्रियावच्छिन्नं वा सम्यक्त्वं 15 कारकसम्यक्त्वमेतञ्च विशुद्धचारित्रिणां भवति । यत्सम्यक्त्वं सदनुष्ठानं रोचयत्येव केवलं न पुनः कारयति तद्रोचकं यथा श्रेणिकादीनाम् । स्वयं मिथ्यादृष्टिरभव्यो वा धर्मकथया परेभ्यो जीवादिपदार्थान् दीपयति तद्दीपकं, ननु स्वयं मिथ्यादृष्टिरथ च तस्य सम्यक्त्वं कथमुच्यते विरोधात्, मैवम् , मिथ्यादृष्टेरपि सतस्तस्य यो व्यापारविशेषस्स खलु प्रति पत्तॄणां सम्यक्त्वस्य कारणमतः कारणे कार्योपचारादायुघृतमितिवत् सम्यक्त्वमित्युच्यते । 20 अथ चतुर्विधं, मिथ्यात्वमोहनीयस्य कर्मणो यो विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्याप्युदयस्य भस्मच्छन्नाग्निवद्विष्कम्भणमुपशमस्तस्मादौपशमिकं सम्यक्त्वं भवति, तत्तूपशमश्रेणिमनुप्रविष्टस्य जन्तोरनन्तानुबन्धिषु दर्शनत्रिके चोपशमं नीते भवति, तथा प्रथमतोऽनादिमिथ्यादृष्टेस्सतो जीवस्य योऽसौ सम्यक्त्वलाभस्तस्मिन् वौपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । अनन्तानुबन्धिकषायक्षयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वलक्षणत्रिविधदर्शनमोहनीयकर्मण आत्यन्ति. १. विशेषेण विशुद्धिकृता मिथ्यात्वपुद्गला एव द्रव्यतः सम्यक्त्वं, भावतस्तु तदुपष्टम्भोपजनितो जीवस्य जिनोक्ततत्त्वरुचिपरिणामः, देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति मुनिवृत्तं-यथावत्संयमानुष्ठानरूपं सम्यक्त्वं नैश्चयिकम् । सम्यक्त्वहेतुसहित उपशमादिलिङ्गगम्यश्शुभात्मपरिणामो व्यावहारिकसम्यक्त्वम् । क्षायोपशमिक पौद्गलिकसम्यक्त्वं क्षायिकमौपशमिकच्चापौद्गलिकमिति भावः ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशिमार्गणा न्यायप्रकाशसमलते कक्षयात्क्षायिकं सम्यक्त्वं भवति, तथोदीर्णस्य मिथ्यात्वमोहनीयकर्मणः क्षयादनुदीर्णस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कम्भितोदयस्वरूपाच्च क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति । पुनरनन्तानुबन्धिकषायोदयेनौपशमिकसम्यक्त्वाञ्च्यवमानस्य मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्नुवतोऽत्रान्तरे जघन्यतस्समयप्रमाणमुत्कृष्टतषडावलिकाः सास्वादनसम्यक्त्वं भवति । वेदकसम्यक्त्वेन पूर्वोक्तानि चत्वारि गृहीत्वा सम्यक्त्वस्य पञ्चविधत्वमपि । क्षपकश्रेणिं 5 प्रतिपन्नस्यानन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयं क्षपयित्वा मिथ्यात्वमिश्रपुञ्जेषु सर्वथा क्षपितेषु सम्यक्त्वपुञ्जमप्युदीर्यानुभवेन निर्जरयतो निष्ठितोदीरणीयस्य चरमग्रासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्वपुद्गलानां कियतामपि वेद्यमानत्वाद्वेदकं सम्यक्त्वमुपजायते । नन्वेवं सति क्षायोपशमिकेनास्य को विशेषः, सम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानुभवस्योभयत्रापि समानत्वात् , सत्यं किन्त्वेतदशेषोदितपुद्गलानुभूतिमतः प्रोक्तं, इतरत्तूदितानुदितपुद्गलस्यैतन्मात्रकृतो विशेषः, 10 परमार्थतस्तु क्षायोपशमिकमेवेदम् , चरमग्रासशेषाणां पुद्गलानां क्षयाच्चरमग्रासवर्त्तिनान्तु मिथ्यास्वभावापगमलक्षणस्योपशमस्य सद्भावादिति । पुञ्जत्रये च तस्मिन् अशुद्धस्य पुञ्जस्योदयान्मिथ्यात्वं जीवस्य भवत्यकृतपुञ्जत्रयस्य वा, तस्य च सम्यक्त्वप्रतिपक्षितयात्र ग्रहणं मार्गणोपयोगित्वादिति ॥. संज्ञिमार्गणाभेदं विभजते संज्यसंज्ञिभेदेन द्विधा संज्ञिमार्गणा । समनस्कास्संज्ञिनो मनोहीना असंज्ञिनः ॥ संज्ञीति । संज्ञा दीर्घकालोपदेशिकी हेतुवादोपदेशिकी दृष्टिवादोपदेशिकी चेति त्रिविधा। तत्रैतत्करोम्यहमेतत्कृतं मया करिष्याम्येतदहमित्यादित्रैकालिकवस्तुविषयां संज्ञा यो धारयति स संज्ञी, स च गर्भजस्तिर्यङ्मनुष्यो वा देवो नारकश्च मनःपर्याप्तियुक्तः। तद्विपरीतोऽसंज्ञी तथावि- 20 धत्रिकालविषयविमर्शशून्यः, स च संमूछिमपञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिरित्याशयेनाह समनस्का इति। ये पुनरिष्टानिष्टवस्तुषु सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य स्वदेहपरिपालनहेतोरिष्टेषु वर्त्तन्तेऽनिष्टेभ्यस्तु निवर्तन्ते प्रायेण साम्प्रतकाल एव, नातीतानागतकालयोः, ते हेतुवादोपदेशिकीसंज्ञया संज्ञिनो द्वीन्द्रियादयस्तद्विपरीता असंज्ञिनः पृथिव्यादयः, द्वीन्द्रियादेरपि प्रतिनियतेष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनेन वार्तमानिकमानसिकपर्यालोचनवत्त्वात्, पृथिव्यादयस्तु धर्माद्यमितापेऽपि तन्निरा- 25 15 : १. दीर्घकालोपदेशिकीमित्यर्थः, इह सर्वत्र च संज्ञित्वासंज्ञित्वव्यवहार एतत्संज्ञापेक्षयैव भवतीति विज्ञेयः ॥ २. हेतुवादोपदेशेनाल्पमनोलब्धिसम्पन्नस्यापि संज्ञित्वेनाभ्युपगमादिति भावः ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २९६ : न्यायविभाकरे [ दशमकिरणे. करणाय प्रवृत्तिनिवृत्तिरहिता एव । दृष्टिवादोपदेशेन तु क्षायोपशमिके ज्ञाने वर्त्तमानरसम्यदृष्टिरेव संज्ञी सम्यग्ज्ञानयुक्तत्वात्, मिध्यादृष्टिः पुनरसंज्ञी सम्यग्ज्ञानसंज्ञारहितत्वादिति ॥ आहारक मार्गणाभेदमाचष्टे आहारकानाहारकभेदेन द्विविधाऽऽहारकमार्गणा । आहारकरण5 शीला आहारकास्तद्भिन्ना अनाहारकाः । आहारकेति । आहरणमाहारो ग्रहणमभ्यवहारो वा स चौजोलोमप्रक्षेपरूपेण त्रिविधः । यावदौदारिकं शरीरं न निष्पद्यते तावत्तैजससहितेन कार्मणेन यदाहारयति स ओजआहारस्तेनाहारकास्सर्वेऽप्यपर्याप्तकाः । तत्र प्रथमोत्पत्तौ जीवः पूर्वशरीरपरित्यागे विग्रहेणाविग्रहेण वोत्पत्तिदेशे तैजससहितेन कार्मणेन तप्तस्नेह पतितापूपकवत्तत्प्रदेशस्थानात्पु10 गलानादत्ते तदुत्तरकालमपि यावदपर्याप्तकावस्थां स ओज आहारः । शरीरपर्यायुत्तरकालं बाया त्वचा लोमभिराहारो लोमाहारः, इन्द्रियादिभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः केषाञ्चिन्मतेन शरीरपर्याप्ता वा लोमोहारिणो भवन्ति । प्रक्षेपेण कवलादेराहारः प्रक्षेपाहारः, स च वेदनीयोदयेन चतुर्भिरस्थानैराहारसद्भावाद्भवति । पर्याप्तका यदैव प्रक्षेपं कुर्वन्ति तदैव प्रक्षेपाहारा नान्यदा, लोमाहारता तु वाय्वादिस्पर्शात्सर्वदैव, स च लोमाहारोऽष्टमतां 15 न दृष्टिपथमवतरति प्रायशः प्रतिसमयवर्ती च । प्रक्षेपाह । रस्तूपलभ्यते प्रायस्स च नियत कालीयः देवकुरूत्तरकुरुप्रभवा अष्टमभक्ताहाराः, संख्येयवर्षायुषामनियतकालीयः प्रक्षेपाहारः । एकेन्द्रियाणां देवनारकाणाञ्च नास्ति प्रक्षेपः, पर्याप्त्युत्तरकालं स्पर्शेन्द्रियेणैवाऽऽहरणालो मांहारः, द्वीन्द्रियादीनां तिर्यङ्मनुष्याणाञ्च प्रक्षेपाहारस्तमन्तरेण कायस्थितेरेवाभावात् । अन्ये यो जिह्वेन्द्रियेण स्थूलशरीरे प्रक्षिप्यते स प्रक्षेपाहारः, यस्तु घ्राणदर्शनश्रवणैरुपलभ्यते धातु20 भावेन परिणमति स ओज आहारः, यः पुनरस्पर्शेन्द्रियेणैवोपलभ्यते धातुभावेन प्रयाति स लोमाहार इति वदन्ति । तदेतदाहाऽऽहारकरणशीला इति त्रिविधान्यतमाहारकरणशीला इत्यर्थः । अथानाहारकानाह तद्भिन्ना इति त्रिविधाहारिभिन्ना इत्यर्थः । विग्रहगतौ वक्रगतिमापन्ना वक्रद्वये त्रिसमयोत्पत्तावेकस्मिन् समये, वक्रत्रये चतुस्समयोत्पत्ति के मध्यवर्त्ति - नोर्द्वयोस्समययोर्वक्रचतुष्टये पञ्चसमयोत्पत्तिके मध्यवर्त्तिषु त्रिषु समयेषु, केवलिनस्समुद्धा - १. क्षायिकज्ञाने वर्त्तमानोऽपि दृष्टिवादोपदेशेन न संज्ञी, अतीतार्थस्मरणस्यानागतचिन्तायाश्च केवलिन्यभावात्, तज्ज्ञानस्य सर्वदा सर्वार्थावभासकत्वादिति भावः ॥ २. तत्र स्पर्शेन्द्रियेणोष्मादिना तप्तच्छायया शीतवायुनोदकेन च प्रीयते प्राणी, गर्भस्थोऽपि पर्याप्त्युत्तरकालं लोमाहार एवैति ॥ ३ तंत्र देवानां मनसा परिकल्पिताश्शुभाः पुद्गलास्सर्वेणैव कायेन परिणमन्ति, नारकाणान्त्वशुभा इति विज्ञेयम् ॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 मार्गणासु सिद्धाः ] न्यायप्रकाशसमलते। तावस्थायां तृतीयचतुर्थपश्चमसमयेषु शैलेश्यवस्थायाश्च हुस्वपञ्चाक्षरोद्गिरणकालमात्रं, सिद्धाश्च सदैवानाहारका इति भावः ॥ इत्येवं चतुर्दशमूलमार्गणोत्तरभेदानाख्यायाऽऽसु सिद्धसत्ता केति निरूपयति- - तत्र नरगतिपञ्चन्द्रियजातित्रसकायभव्यसंज्ञियथाख्यातक्षायिकानाहारककेवलज्ञानकेवलदर्शनेषु मोक्षो न शेषेषु । तत्रेति । चतुर्दशमार्गणावान्तरभेदमधिकृत्येत्यर्थः । नरगतीति, अनन्तरपश्चात्कृतनयमधिकृत्य नरगतौ मुक्तिः प्राप्यते न शेषासु गतिषु, पाश्चात्यमेकान्तरं गतिविशेषमधिकृत्य पुनस्सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्य आगतस्सिद्ध्यति । सिद्धप्रस्तावासिद्ध इत्यनुक्त्वा मोक्षपदग्रहणं कर्मक्षयसिद्धैरिहाधिकारस्तेषामेव मोक्षपर्यायेणानन्यत्वादिति सूचनाय, तेन कर्मशि- . ल्पविद्यामन्त्रयोगागमार्थयात्राभिप्रायतपःसिद्धानां व्युदासः । अनन्तरैकान्तरपश्चात्कृतौ नयौ 10 नैगमसङ्ग्रहव्यवहाररूपी सकलार्थग्राहित्वात् , वर्तमानकालार्थग्राहकर्जुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवम्भूतनयरूपप्रत्युत्पन्नभावापेक्षया तु सिद्धस्सिद्धगतौ सिद्ध्यति । पञ्चेन्द्रियजातीति, अनन्तरपश्चात्कृतजात्यपेक्षयेदम् , नर एंव सन्यतः सिद्ध्यत्यत एव पश्चेन्द्रियजातावेवेति भावः, एकान्तरितपश्चात्कृतजात्यपेक्षया त्वन्यतमस्यां जातौ प्रत्युत्पन्नभावापेक्षया च नैकस्यामपीन्द्रियमार्गणायां सर्वथा शरीरपरित्यागेनैव सिद्धत्वपर्यायोत्पत्तेरिति भावः। त्रसकायेति, अत्रापि पूर्वव- 15 देव भाव्यम् । भव्येति, अनन्तरैकान्तरितपश्चात्कृतनयापेक्षयेदम् , भव्यानामेव सिद्धि बोध्याऽ भव्यानान्तु कथमपि सिद्ध्यभावात् , प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया तु सिद्धो न भव्यो नाप्यभव्य इति । संज्ञीति, पूर्ववदेव । यथाख्यातेति, अनन्तरपश्चात्कृतनयापेक्षयेदम् , एकान्तरपश्चात्कृतनयापेक्षया तु केचित्सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, केचित्सामायिकच्छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः केचित्सामायिकपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्या- 20 तचारित्रिणः केचित्तु सामायिकछेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, तीर्थकृतस्तु सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिण एव । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया सिद्धो न चारित्री नाप्यचारित्रीति । क्षायिकेति, क्षायिकं द्विविधं शुद्धमशुद्धश्च, तत्र क्षायिकी १. अष्टविधकर्मदहनानन्तरं सिद्धस्यैव सतस्सिद्धत्वमुपजायते नासिद्धस्य, तदात्मनो हि स्वाभाविक सत्सिद्धत्वमनादिकर्मावृतं तदावरणविगमेनाविर्भवत्येव न पुनरसदुपजायते न ह्यसतः खरविषाणादेर्जन्म भवति सिद्धस्य सिद्धत्वं सद्भावरूपमुपजायते न तु प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपमिति भावः ॥ २. यस्य हि सिद्धिर्भाविनी स भव्य उच्यते, सिद्धस्य तु न सा भाविनी साक्षात्सजातत्वात् , ततोऽसौ न भव्यो नाप्यभव्य इति भावः ॥ ३८ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १९८ : तस्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे शुद्धाऽपायसद्रव्यरहिता भवस्थकेवलिनां सिद्धानाश्च शुद्धजीवस्वभावरूपा सम्यग्दृष्टिः सा द्यपर्यवसाना, अशुद्धा चापायसहचारिणी श्रेणिकादेखि सम्यग्दृष्टिः सादिसपर्यवसाना, प्रत्युत्पन्ननयापेक्षयाऽशुद्धे क्षायिके न सिद्धसम्भवः, अनन्तरपश्चात्कृतनयापेक्षयाप्येवमेव । एकान्तरनयापेक्षया तु अशुद्ध क्षायिकादावपि । अनाहारकेति प्रत्युत्पन्ननयापेक्षयेदम, 5 केवलज्ञान केवलदर्शनेति । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षयाऽनन्तर पश्चात्कृतनयापेक्षया तु द्वाभ्यां त्रिभिचतुर्भिरपि ज्ञानैरेवमेकान्तरितेऽपि बोध्यम् । न शेषेष्विति, योगवेदकषायलेश्यास्वित्यर्थः । यथासम्भवं प्रत्युत्पन्नानन्तर पश्चात्कृतनयापेक्षयैव मुक्तिरिति ॥ अथ द्रव्यप्रमाणद्वारमाह सिद्धजीवसंख्या निरूपणं द्रव्यप्रमाणम् । तच्च सिद्धजीवानामनन्तत्वं 10 बोध्यम् ॥ सिद्धेति । सिद्धानां जीवद्रव्याणां या संख्या परिगणनात्मिका तस्या निरूपणमित्यर्थः । संख्यामाह तचेति द्रव्यप्रमाणश्चेत्यर्थः, अनन्तत्वमिति, आगमप्रसिद्धानन्तसंख्या प्रमितत्वमित्यर्थः । नवविधेऽनन्ते मध्यमयुक्तानन्तसंज्ञोपलक्षितायां पञ्चमानन्तसंख्यायां न कदाचन व्यभिचारित्वमिति भावः । तथा सर्वजीवानामनन्तभागेऽनन्तगुणा अभव्येभ्य इत्यपि बोध्यम् ॥ 15 सम्प्रति क्षेत्र चिन्तायामाह - चतुर्द्दशरज्जुप्रमितस्य लोकस्य कियद्भागे सिद्धस्थानमिति विचारः क्षेत्रद्वारम् | लोकस्यासंख्येयभागे सिद्धशिलोर्ध्वं सिद्धस्थानं, असंख्येयाकाशप्रदेशप्रमाणं सिद्धानां क्षेत्रावगाहो ज्ञेयः ॥ चतुर्द्दशेति । निर्ज्ञातसंख्यानामेषां निवासे विप्रतिपत्तिर्जायते कियन्तमाकाशमेते व्या20 नुवन्ति कियद्भागञ्च नेत्यतस्तन्निरूपणार्थं क्षेत्रद्वारमिति भावः । धर्माधर्मपरिच्छिन्नो जीवाजीवाधारक्षेत्रं लोकः, तन्मानं चतुर्दशरज्जुः, उत्तरयति लोकस्येति, सिद्धशिलाया ऊर्ध्वं लोकस्यासंख्येयभागे समस्तास्सिद्धा एको वाऽऽश्रितः, असंख्येयाकाशेति । एकसिद्धजीवापेक्षया सर्वसिद्धजीवापेक्षया वेदम् । एकस्यापि जीवस्यासंख्येयप्रदेशत्वादसंख्येयभाग एवागाहः, सर्वावगाहचिन्तायां बृहत्तमोऽसंख्येयभागः, एकावगाहे तु लघुतम इति विशेष:, 25 सिद्धानां बाहुल्यमानमङ्गीकृत्योत्कर्षतः क्रोशषष्ठभागेऽवगाहना, दैर्ध्य पृथुत्वाभ्यान्तु पञ्चचत्वारिंशद्योजन लक्षप्रमाणं सिद्धावगाहक्षेत्रं, तस्य वृत्तसंस्थानत्वात् । एकावगाहस्य तु यस्य Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरद्वारम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते यावत्प्रमाणं शरीरं तस्य त्रिभागोना तावत्येवावगाहनेति कथमसंख्यातत्वमिति चेत् तत्र, असंख्यातराशेरसंख्यातभेदभिन्नत्वेनाविरोधात ॥ स्पर्शनाद्वारं प्ररूपयति सिद्धात्मनोऽवगाहनाकाशपरिमाणतस्पर्शना कियतीति विचारस्स्पर्शनाप्ररूपणा । अवगाहनातस्तेषामधिका स्पर्शना भवति ॥ 5 . सिद्धेति । सिद्धस्य स्वावगाढाकाशप्रदेशैस्स्पर्शना किं न्यूनाऽधिका तुल्या बेति प्ररूपणमिति भावः । अभिव्याप्तिलक्षणाऽवगाहना, स्पर्शना तु सम्बन्धमात्ररूपेति विशेषः । अधिकत्वमेवेत्यभिप्रायेणाहावगाहनात इति, यथैकप्रदेशावगाढस्य परमाणोस्सप्तप्रदेशा स्पर्शना तथैव यावति क्षेत्रे एकस्सर्वे वाऽवगाढास्तावतः क्षेत्रस्य येऽनन्तरास्सर्व दिग्प्रदेशास्ते तैस्पृश्यन्त इति स्पर्शनाधिकेति भावः ॥ 10 अथ कालद्वारं वक्तिसिद्धावस्थानं कियत्कालमिति विचारः कालद्वारम् । व्यस्यपेक्षया साधनन्तो जातिमाश्रित्यानाद्यनन्तः स्यात् ॥ सिद्धावस्थानमिति । स्थितिमतोऽवधिपरिच्छेदार्थ जीवैस्सिद्धत्व कियन्तं काळं धार्यत इति प्रश्ने विचारः कालद्वारमित्यर्थः । उत्तरयति व्यक्त्यपेक्षयेति, एकजीवापेक्षयेत्यर्थः, यदा सः 15 सिद्धतां गतस्तदातस्य सिद्धत्वमुपजातमिति सादित्वं, ततस्तस्य प्रलयाभावाचापर्यवसितत्वमिति भावः । जातिमाश्रत्येति,सर्वसिद्धापेक्षयेत्यर्थोऽनाद्यनन्त इति,सिद्धशून्यकालाभावादिति भावः।। अन्तरद्वारमाख्याति परित्यक्तस्य पुनः परिग्रहणावान्तरकालविचारोऽन्तरप्ररूपणा । सिद्धानां प्रतिपाताभावादन्तरं नास्तीति ध्येयम् ॥ 20 . परित्यक्तस्येति । कस्यचित्पर्यायस्य कारणान्तरवशान्यग्भावे सति पुनर्निमित्तान्तर. संयोगात्तस्यैवाविर्भावो दृश्यते, प्रकृतेऽपि सिद्धत्वपर्यायस्य न्यग्भावे सति पुनस्तत्प्राप्तिः कियत्कालानन्तरं भवतीति संशये यो विचारस्सोऽन्तरप्ररूपणेत्यर्थः । उत्तरमाचष्टे सिद्धा. नामिति, आवरणकारणानां सर्वथाऽसम्भवादिति भावः ॥........... अथ भागद्वारमाह 25 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३०० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे - संसार्यात्मसंख्यापेक्षया कियद्भागे सिद्धा इति विचारो भागद्वारम् । अनन्तानन्तमंसारिजीवापेक्षया अनन्ता अपि मिद्धास्तदनन्तभागे भवन्ति ॥ संसारीति । संसारिजीवराश्यपेक्षया सिद्धाः कस्मिन् भागे वर्तन्त इति विचारो भाग5 द्वारमित्यर्थः । उत्तरयति अनन्तेति । जीवसंख्या मध्यमानन्तानन्तसंज्ञकाष्टमानन्तप्रमाणा, तदपेक्षया सिद्धानामनन्तत्वेऽपि अनन्ततमे भागेऽवतिष्ठन्ते ते, तेषां पञ्चमानन्तसंख्याप्रमितत्वादिति भावः ॥ सम्प्रति भावद्वारमाख्यातुं भावानाह औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिकपारिणामिकभेदेन पञ्च भा10 वाः । कर्मणामुपशमेनौपशमिकः, क्षयेण क्षायिकः, क्षयोपशमाभ्यां क्षा योपशमिकः, उदयेनौदयिकः, स्वभावावस्थानेन च पारिणामिको ज्ञेयः । एषु सिद्धाः कतमस्मिन् भावे वर्तन्त इति विचारो भावद्वारम् । तेषां ज्ञानदर्शने क्षायिके जीवत्वञ्च पारिणामिकमिति भावद्वयं स्यात् ॥ औपशमिकेति । तान स्वरूपयति कर्मणामिति, कर्मणामनुद्भूतस्ववीर्यता उपशमस्तेन 15 निर्वृत्तो भाव औपशमिकः, स द्विविधः औपशमिकसम्यक्त्वचारित्रभेदात् , दर्शनचारित्र मोहनीयोपशमजन्यावेतौ भेदौ । क्षयेणेति, कर्मणामत्यन्तोच्छेदेन निवृत्तः क्षायिको भाव इत्यर्थः, ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्यसम्यक्त्वचारित्रभेदेन नवविधः, केवलज्ञानदशनावरणीयान्तरायपञ्चकदर्शनचारित्रमोहनीयक्षयजन्या एते भावाः । क्षयोपशमाभ्यामिति । कर्मणामेकदेशक्षयेणैकदेशोपशमनाच्च जातः क्षायोपशमिकः, ज्ञानचतुष्काज्ञानत्रयदर्शनत्रिकलब्धिपश्चकसम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमरूपेणाष्टादशविधः, तत्तत्कर्मणां क्षयोपशमजन्यः । उद येनेति, द्रव्यादिनिमित्तककर्मफलप्राप्तिरूपोदयफलको भाव औदयिकः, गतिचतुष्टयकषा.- यचतुष्कवेदत्रयमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्वलेश्याषट्कभेदेनैकविंशतिविधस्तत्कर्मोदयजः । द्रव्यात्मलाभमानहेतुकः परिणाम स एव तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः, जीवत्वभव्यत्वाभव्यत्वादयः । द्वारार्थमाहै ध्विति प्रोक्तेषु भावेष्वित्यर्थः । क्षायिके ज्ञानदर्शनादौ पारि5 णामिके जीवत्वे नतु भव्यत्वादौ तनिषेधात् सिद्धानां वृत्तिरित्यभिप्रायेणोत्तरयति तेषामिति ___ भावद्वयमिति क्षायिकपारिणामिकरूपभावद्वयमित्यर्थः ।। 12- अधुनाऽल्पबहुत्वद्वारमाह Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वद्वारम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३०१ : कतमस्मिन् वेदे सिद्धा अल्पाः कतमस्मिंश्च बहव इति विचारोऽल्पबहुत्वद्वारम् । नपुंसके स्तोकाः स्त्रीपुरुषयोः क्रमतः संख्येयगुणा विज्ञेयाः ॥ कतमस्मिन्निति । पुंस्त्रीनपुंसकभेदभिन्ने वेदे कुत्रात्पाः कुत्र वा बहव इत्याशङ्कायां यो विचारस्तदल्पबहुत्वद्वारमित्यर्थः, यद्यपि सिद्धानां पूर्वमवेदत्वमुक्तं तथा चायं विचारो न सम्भवति तथाप्यव्यवहितपूर्वनयापेक्षयाऽयं विचारो बोध्यः । उत्तरयति नपुंसक इति 5 नपुंसके सर्वस्तोकाः, स्त्रीवेदे संख्येयगुणास्तेभ्योऽपि पुरुषसिद्धास्संख्येयगुणा इत्यर्थः । पुरुषाणामष्टशतं स्त्रीणां विंशतिदेश नपुंसकानाम्, इद ये पुरुषेभ्य उद्धृताः पुरुषा एव जायन्ते तेषामष्टशतं बोध्यम्, ये च पुरुषेभ्य उद्धृताः स्त्रियो नपुंसका वा जायन्ते ये च स्त्रीभ्य उद्धृताः पुरुषा नपुंसका वा जायन्ते ये तु नपुंसकेभ्यः उद्धृता नपुंसकाः पुरुषास्त्रियो वा जायन्तेऽष्टस्वेतेषु भङ्गेषु प्रत्येकं दश दश भवन्तीति भावः । अत्र पुनस्ते 10 सिद्धा अव्यवहितपूर्व पर्यायनयावलम्बनेन क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रबुद्धज्ञानावगाहान्तरसंख्याल्पबहुत्वैर्विचार्यन्ते, तत्र तीर्थलिङ्गबुद्धद्वाराण्याश्रित्य मूलकदेवानुपदं विवेचयति शेषापेक्षया तूच्यते क्षेत्रतस्सार्धद्वितीयद्वीपसमुद्रद्वयलक्षणे मनुष्यक्षेत्रे तिर्यग्लोके सिद्धत्वं लभते जन्मसंहरणापेक्षया, अधोलोकेऽधोलौकिकेषु ग्रामेषु, ऊर्ध्वलोके तु पाण्डुकवनादौ, तीर्थकृतः पुनः पञ्चदशसु कर्मभूमिषु न शेषासु, व्याघातासम्भवादिति । कालतः - उत्सर्पिण्यां 15 जन्माङ्गीकृत्य द्वितीयतृतीयचतुर्थारकेषु, सिद्धिगमनन्तु तृतीयचतुर्थयोरेव अवसर्पियान्तु तृतीयचतुर्थ पञ्चमारकेषु सिद्ध्यति, केवलं चतुर्थे जातः पञ्चमे सिद्ध्यति, न तु मे जातः पञ्चमे सिद्ध्यति तत्र जातस्य सर्वथा सिद्ध्यनर्हत्वात् व्याघातापेक्षया तु त्रिष्वप्युत्सर्पिण्यादिषु सिद्ध्यति । तीर्थकृतां पुनरवसर्पिण्यामुत्सर्पिण्या जन्म सिद्धिगमनं च सुषमेदुष्षमादुष्षम सुषमारूपयोरेवारकयोर्वेदितव्यम् । गतित: -- मनुष्यगतावेव 20 न शेषासु प्रोक्तमेवेदं मूले । व्यवहितप्राक्तनपर्यायनयाङ्गीकारेण तु सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्यः । चारित्रद्वारमाश्रित्य पूर्वमेवोक्तम् । ज्ञानद्वारापेक्षयापि तथैव । अवगाहनात :-- उत्कर्षेण पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुश्शतप्रमाणायामवगाहनायां सिद्ध्यन्ति, यथा मरुदेवीका - १. तत्रापि निर्व्याघातेन पञ्चदशसु कर्मभूमिषु व्याघातेन समुद्रनदीवर्षधरपर्वतादावपि विज्ञेयम् ॥ २. यथा भगवान् ऋषभस्वामी सुषमदुःषमारकपर्यन्ते समुदपादि, एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु सिद्धिमगमत्, वर्धमानस्वामी तु भगवान् दुःषमसुषमारकपर्यन्तेषु एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु सिद्धिसौधमध्यमध्यास्तेति ॥ उत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतितमस्तीर्थकर स्षम दुष्षमाया मेकोननवतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु जन्मासादयति, एकोननवतिपक्षाधिकचतुरशीतिपूर्व लक्षातिक्रमे च सिद्धयतीति ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३०२ : तत्त्वन्याय विभाकरे [ दशमकिरणे लवर्त्तिनः, मरुदेव्यामपि यथोक्तप्रमाणावगाहना द्रष्टव्या, जघन्येन द्विहस्तप्रमाणायाम, यथा वा मनककूर्मसुतादीनाम् । तीर्थकृतान्तु जघन्यावगाहना सप्तहस्तप्रमाणा महावीरवत् । उत्कृष्टा पञ्चधनुश्शतमाना नाभेयवत्, शेषास्त्वजघन्योत्कृष्टाः । अन्तरतः --जघन्यत एकसमयः, उत्कृष्टतः षण्मासाः, निरन्तरञ्च जघन्यतो द्वौ समयौ, उत्कृष्टतोऽष्टौ समयाः, संख्यात: -- जघन्यत एकस्मिन् समये एकस्सिद्ध्यति, उत्कर्षेणाष्टाधिकं शतम् । तथा चास्मिन् भरतक्षेत्रेऽस्यामवसर्पिण्यां भगवतो नाभेयस्य निर्वाणसमये श्रूयतेऽष्टोत्तरं शतमेकसमयेन सिद्धम् | अल्पबहुत्वतः - युगपत् द्वित्र्यादिकाः सिद्धाः स्तोका एककाः सिद्धाः संख्येयगुणा इति संक्षेपतः प्रदर्शितानि द्वाराणि विस्तरतस्तु सिद्धप्राभृतादौ द्रष्टव्यानि ॥ 10 अथ तीर्थलिङ्गबुद्धद्वाराणि मनसि कृत्य पुनः प्रकारान्तरेण सिद्धानाह— सिद्धा अपि जीनाजिनतीर्थातीर्थ गृहिलिङ्गान्यलिङ्गस्वलिङ्गस्त्रीलिङ्गपुरुष लिङ्गनपुंसकलिङ्गप्रत्येक बुद्धस्वयम्बुद्धबुद्धबोधितैकानेक सिद्धभेदेन पञ्चदशविधाः ॥ सिद्धा इति । अयम्भाव:, सिद्धानामयं भेदो न वास्तविकः कृत्स्नकर्मक्षयस्य केवलज्ञानादीनाञ्च सर्वत्राविशेषात् किन्तु सिद्धत्वप्राप्तिपूर्वकालीनभवावस्थामाश्रित्य वाच्यः । तत्रा15 येते नासंकीर्णाः, जिनाजिनरूपे, तीर्थातीर्थरूपे, एकानेकरूपे वा भेदद्वये, गृहिलिङ्गान्यलिङ्गस्वलिङ्गरूपे स्त्रीलिङ्गपुरुषलिङ्गनपुंसकलिङ्गरूपे, प्रत्येकबुद्धस्वयम्बुद्धबुद्धबोधितरूपे वा भेदये शेषभेदानामन्तर्भावात्, किन्तु विशेषपरिज्ञानार्थमेव ग्रन्थारम्भ इति ॥ अथ जिन जिनसिद्धानाह - अनुभूततीर्थकरनामविपाकोदयजन्यसमृद्धयो मुक्ता जिनसिद्धाः | 20 यथा ऋषभादयः, अननुभूततीर्थकरनामविपाकोदयजन्यसमृद्धयो मुक्ता अजिनसिद्धाः । यथा पुण्डरीकगणधरादयः || १. नाभिकुलकर पत्नी मरुदेवी, नाभेश्व शरीरप्रमाणं पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि यावदासीत्, तत्पत्नीत्वेऽपि तस्याः प्रमाणतस्तदपेक्षया किञ्चिन्नन्यूनत्वमेवेति सम्प्रदायः कियता न्यूनाधिक्येऽपि समत्वातिदेशानामागमे दर्शनेनाबाधकत्वात् । अथवा तस्या हस्तिस्कन्धाधिरूढायास्सिद्धत्वात् हस्तिस्कन्धाधिरूढानाञ्च संकुचिताङ्गत्वेन नोक्तावगाहनाया विरोधः उक्तञ्च 6 अहवा संकोयओ सिद्धा' इति ॥ २. अत्रेदं बोध्यम् सिद्ध केवलज्ञानं हि द्विविधं अनन्तरसिद्ध केवलज्ञानं परम्परसिद्ध केवलज्ञानश्चेति । सिद्धत्वप्रथमसमये वर्त्तमानस्य केवलज्ञानमाद्यं विवक्षित सिद्धत्व प्रथमसमयाद् द्वितीयादिषु समयेषु अनन्तामद्धां यावद्वर्तमानानां केवलज्ञानं द्वितीयम् । तत्रानन्तरसिद्ध केवलज्ञानं पञ्चदशविधं तच्च सिद्धत्व प्राप्यव्यवहितपूर्वकालीनभवावस्थामाश्रित्य सिद्धाः पञ्चदशविधाः प्रोक्ताः । परम्परसिद्ध केवलज्ञानन्त्वनेकविधं तच्चाप्रथमसमयसिद्धद्विसमय सिद्धत्रिसमयसिद्धचतुस्समयसिद्धादिभेदतो भाव्यमिति ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थातीसिद्धौ ] न्यायप्रकाशसमलते : : अनुभूतेति स्पष्टम् । अजिनसिद्धानाह अननुभूतेति । स्पष्टम् ॥ . ... ... . तीर्थातीर्थसिद्धानाह प्रवर्तिते तीर्थे मुक्तास्तीर्थसिद्धाः । यथा गणधारिणः । अर्वाक तीर्थस्थापनाया एव मुक्ता अतीर्थसिद्धाः । यथा मरुदेवा ॥ प्रवर्तित इति । संसारापारवारांनिधिस्तीर्यतेऽनेनेति तीर्थं प्रवचनं परमगुरुप्रणीतं 5 यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थप्ररूपकम् , तच्च न निराधारं भवितुमर्हतीति कृत्वा संघः प्रथमगणधरो वा तदिति वेदितव्यं, तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धा इत्यर्थः । निदर्शनमाह यथेति । अतीर्थसिद्धानाहार्वा गिति । तीर्थस्याभावोऽतीर्थ, अभावश्चात्रानुत्पादो व्यवच्छेदो वा. विवक्षितः । तस्मिन् सति ये सिद्धास्तेऽतीर्थसिद्धाः । तत्र तीर्थस्यानुत्पादे सिद्धानां निदर्शनमाह-यथेति । नहि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् किन्तु केवलज्ञानावाप्तिं 10 प्रभोर्निशम्य पुत्रवियोगेन रुदतीं पटलावृतनेत्रां तां वारणस्कन्ध आरोप्य वन्दनाथ प्रचलिते भरते दूरादेव दिव्यनिध्वानं निशम्य प्रहृष्टान्तरङ्गा हर्षाश्रुणा दूरीकृतचक्षुरावरणा विभुवैभवं दृष्ट्वाऽचिन्तयत् पुत्रस्नेहेन मया नेने गततेजस्के कृते, नानेन किमपि संदिष्टमिति, पुत्रस्नेहं विधूय विरक्ता घातिकर्मक्षयोदितकेवलज्ञाना वारणस्कन्ध एव सा सिद्धिमुपयाताऽतस्तीर्थसंस्थापनपूर्व मुक्तिगमनादतीर्थसिद्धेति भावः । 15 अथैतेषां सत्पदप्ररूपणा द्रव्यकालान्तराण्याश्रित्य परम्परयाल्पबहुत्वस्य विचारे क्रियमाणे तीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीतीर्थेऽतीर्थे च सिद्ध्यन्त्येते, युगपदेकसमयेनोत्कर्षतस्तीर्थकृत; श्चत्वारस्सिद्ध्यन्ति, अष्टशतमतीर्थकृतां विंशतिस्त्रीणां द्वे तीर्थकौँ । तीर्थकरतीर्थे तीर्थक रीतीर्थे वाऽतीर्थकरसिद्धा उत्कृष्टतोऽष्टौ समयान् तीर्थकरास्तीर्थकर्यश्च द्वौ द्वौ समयौ निरन्तरं सिद्ध्यन्ति । तीर्थकृतः पूर्वसहस्रपृथक्त्वमुत्कर्षतोऽन्तरं, तीर्थकरीणामनन्तः कालः, अतीर्थ 3c कराणां साधिकं वर्ष नोतीर्थसिद्धानां संख्येयानि वर्षसहस्राणि नोतीर्थसिद्धाः प्रत्येकबुद्धाः । जघन्यतस्सर्वत्रापि समयः । सर्वस्तोकाः तीर्थकरीसिद्धाः, ततस्तीर्थकरीतीर्थे प्रत्येकबुद्धसिद्धास्संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरीतीर्थेऽतीर्थकरीसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरीतीर्थेऽतीर्थकरसिद्धास्संख्येयगुणाः, तेभ्यस्तीर्थकरसिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थे प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थे साध्वीसिद्धाः 25 संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थेऽतीर्थकरसिद्धाः संख्येय गुणा इति ॥ १. तीर्थस्य व्यवच्छेदश्च चन्द्रप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यपान्तराले, तत्र ये जातिस्मरणादिमऽपवर्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धा इत्यपि बोध्यम् । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [ दशमांकरणे अथ गृहिलिङ्गसिद्धानाह पूर्वभवाऽऽसेवितसर्वविरतिसामर्थ्यजन्यकेवलज्ञाना ज्ञानप्राप्त्यूर्व बहुलायुषोऽभावाद्गृहस्थावस्थायामेवान्तमुहूर्ताभ्यन्तरे मुक्ता गृहिलिङ्गसिद्धाः । यथा भरतचक्रीत्युच्यते ॥ __... पूर्वभवेति । लिङ्गं त्रिविधं पुंस्त्रीनपुंसकभेदात् , अथवा द्विविधं द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यलिङ्ग त्रिविधं गृहिलिङ्गमन्यलिङ्गं स्वलिङ्गश्चेति, एतत्सर्वापेक्षया क्रमेण विचार्यते तत्र प्रथमं गृहिलिङ्ग वक्ति पूर्वेत्यादिना | गृहिणां लिङ्गं दीर्घकेशकच्छबन्धादि गृहिलिङ्गम् । भाव. लिङ्ग श्रुतज्ञानक्षायिकसम्यक्त्वचरणानि तेषु च वर्तमाननयचिन्तया किञ्चिदनुवर्तते किश्चि निवर्तते क्षायिकसम्यक्त्वमनुवर्तते श्रुतचरणे तु निवर्तेते न तद्विना कस्यचित्सिद्धत्वमि10 त्यभिप्रेत्याव्यवहितप्राग्जन्मनि तददर्शनेऽपि तत्पूर्वजन्मापेक्षया द्रव्यचारित्रसत्त्वमेतज्ज न्मनि च ज्ञानसत्त्वं सूचयनत्र गृहिलिङ्गसिद्धत्वं व्याख्यत् । दृष्टान्तमाह यथेति । केवलज्ञानोत्पत्त्यपेक्षया निदर्शनमिदं, उत्पन्नकेवलानामवश्यं मोक्षनियमात् । अन्यथा केवलप्राप्त्यनन्तरं देवार्पितसाधुद्रव्यलिङ्गस्य धारणपूर्वकं विहरणेन भव्यप्रतिबोधस्य शास्त्रे श्रुतस्य विरोधापत्तेः, अत एवोच्यत इत्युक्तम् । अत्र निरुपचरितविदर्शनं तु मरुदेवीप्रभृतयः ।। अन्यलिङ्गसिद्धानाह-- भवान्तराऽऽसेवितसर्वविरतिजन्यकेवलज्ञाना अल्पायुष्कास्सन्तस्तापसादि लिङ्गेनान्तर्मुहूर्तान्तरे मुक्ता अन्यलिङ्गसिद्धाः । यथा वल्कलचोरी ॥ भवान्तरेति । आदिना भौतपरिव्राजकादितीर्थान्तरीयलिङ्ग ग्राह्यम् । स्पष्टं । दृष्टान्तमाह 20 यथेति । प्रसन्नचन्द्रर्षेर्धाताऽयं स्वपितुस्समीपे वसन वृक्षत्वगादिपरिवसनो गुणनिष्पन्नाभि धानः पितुस्तुम्बी प्रतिलेख्यमानां कदाचित्समीक्ष्य समुत्पन्नजातिस्मृतिः पूर्वभवासेवितसर्वविरतिमहिनाऽत्र समधिगतकेवलज्ञानो मुक्ति तल्लिङ्ग एव प्रपन्न इति तस्यान्यलिङ्गसिद्धत्वं, भावापेक्षया स्वलिङ्गसिद्धत्वश्व विज्ञेयम् ॥ स्वलिङ्गसिद्धानाह25 रत्नत्रयवन्तो रजोहरणादिलिङ्गेन युक्ता मुक्तास्वलिङ्गसिद्धाः । यथा साधवः॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीलिङ्गसिद्धाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते रत्नत्रयेति । स्पष्टम् । निदर्शनमाह यथेति । शास्त्रोदितमूलोत्तरगुणयुक्ता न तद्गुणरहिताः केवलं भिक्षाचरा इति भावः । तत्र गृहिलिङ्ग एकसमय उत्कृष्टतश्चत्वारः अन्यलिङ्गे दश, स्वलिङ्गेऽष्टशतं सिद्ध्यन्ति। निरन्तरश्च स्वलिङ्गेऽष्टौ समयाः अन्यलिङ्गे चत्वारस्समयाः, गृहिलिङ्गे द्वौ समयौ । अन्तरन्तु सर्वेष्वपि जघन्यत एकस्समयः, उत्कर्षेणान्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे च प्रत्येकं संख्येयानि वर्षसहस्राणि, स्वलिङ्गे साधिकं वर्षम् । गृहिलिङ्गसिद्धास्सर्व- 5 स्तोकाः तेभ्योऽप्यन्यलिङ्गसिद्धा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि स्वलिङ्गसिद्धा असंख्येयगुणा इति ॥ अथ त्रीलिङ्गसिद्धानाचष्टे सम्यग्दर्शनादिमहिम्ना स्त्रीशरीरान्मुक्तास्स्त्रीलिङ्गसिद्धाः । यथा चन्दनाप्रभृतयः । रत्नत्रयेण पुरुषशरीरान्मुक्ताः पुरुषलिङ्गसिद्धाः । यथा गौतमगणधरादयः। कृत्स्नकर्मक्षयान्नपुंसकशरीरान्मुक्ता नपुंस- 11 कलिङ्गसिद्धाः । यथा गाङ्गेयः॥ सम्यगिति । अत्र स्त्रीलिङ्गादिकं शरीरनिर्वृत्तिरूपं न तु वेदो नेपथ्यं वा, वेदसत्त्वे सिद्धत्वाभावात् । स्पष्टं मूलं, निदर्शनमाह यथेति । पुरुषलिङ्गसिद्धानाह रत्नत्रयेणेति स्पष्टम् । दृष्टान्तमाह-यथेति । नपुंसकलिङ्गसिद्धानाह कृत्स्नेति स्पष्टम् , निदर्शनमाह यथेति ।। १. मूले सम्यग्दर्शनादिमहिम्नेति पदेन स्त्रीणामपि प्रवचनार्थाभिरुचिः षडावश्यककालिकोत्कालिकादिभेदभिन्नं श्रुतं सप्तदशविधसंयमस्याकलङ्कतया धारणं दुर्धरब्रह्मचर्यपालनं मासक्षपणादितपोऽनुष्ठानञ्च वर्तत इति सूचितम् । न च स्त्रीणां रत्नत्रयसम्भवेऽपि न तत्सम्भवमात्रं मुक्तिप्रापकं, किन्तु प्रकर्षप्राप्तमन्यथा दीक्षानन्तरमेव सर्वेषां मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तेः, तत्प्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्भवीति वाच्यम् , तासां तत्प्रकर्षासम्भव. ग्राहकप्रमाणाभावात् । न च स्वभावत एव स्त्रीत्वेन रत्नत्रयप्रकर्षों विरुद्धयते, आतपेन छायेवेति वाच्यम्, अदृष्टेन सह विरोधावधारणासम्भवात्, यस्मादनन्तरं मोक्षपदप्राप्तिस्स हि रत्नत्रयप्रकर्षः, स चायोग्यवस्था चरमसमये, अयोग्यवस्था चास्मादृशामप्रत्यक्षेति । न च सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिस्सर्वोत्कृष्टाध्यवसायेन भवति, सर्वोत्कृष्टञ्च दुःखस्थानं सुखस्थानञ्च, सर्वोत्कृष्टदुःखस्थाने सप्तमनरकपृथिव्यां स्त्रीणां गमनं निषिद्धं शास्त्रे, तासां तथाविधाध्यवसायविरहात् अत एव चानुमीयते तासामुत्कृष्टाध्यवसायविरहात्सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं निर्वाण नास्तीति वाच्यम् , स्त्रीणां निःश्रेयसं प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावनिश्चायकप्रमाणाभावात् , नहि भूमि-.. कर्षणादिकं कर्तुमशक्नुवतश्शास्त्रावगाहनेऽपि सामर्थ्याभावो निश्चेतुं पार्यते, प्रत्यक्षविरोधात् । न च सम्मूर्च्छिमादिषूभयमपि प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो दृष्ट इत्यत्रापि तथानुमीयत इति वाच्यम् , बहिर्व्याप्तिमात्रेण हेतोर्गमकत्वाभावात् , अन्ताप्या हि गमकः, सा च प्रतिबन्धबलासिद्धयति न चात्र सोऽस्ति, सप्तमपृथिवीगमनस्य निर्वाणगमनहेतुत्वाभावात् , चरमशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाणगमनाच्च, सम्मूछिमादीनान्तु भवस्वाभाव्यादेव यथावत्सम्यग्दशर्नादिप्रतिपत्त्यसंभवेन निर्वाणगमनाभावः । भुजपरिसर्पपक्षिचतुष्पदोरगाणां यथाक्रममधो यावद् द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपृथिवीगमनेऽप्यूचं सर्वेषामुत्कर्षतो यावत्सहस्रारं गमनात् नाधोगतिविषये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्ये ऊर्दुगतावपि तद्वैषम्यमनुमातुं शक्यत इति ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३०६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे - प्रत्येकबुद्धसिद्धानाचष्टे एकनिमित्तमात्रदर्शनजन्यवैराग्यास्तत्कालसम्प्राप्तरत्नत्रया मुक्ताः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः । यथा करकण्डुद्विमुखनमिराजर्षिप्रभृतयः ॥ एकेति । ये बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य बुद्ध्यन्ते ते प्रत्येकबुद्धास्तथाभूतास्सन्तो ये सिद्धास्ते 5 प्रत्येकबुद्धसिद्धा इति भावः, निदर्शनमाह यथेति । बाह्यवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकण्ड्वा दीनां बोधिः । एषां जघन्यत उपधिर्द्विविध उत्कर्षेण नवविधः प्रावरणवर्जः, तथा पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तच्च जघन्यत एकादशाङ्गानि, उत्कृष्टतः किञ्चिन्न्यूनानि दशपूर्वाणि, लिङ्गं तेभ्यः कदाचिद्देवता प्रयच्छति कदाचिच्च लिङ्गरहिता अपि भवन्ति । स्वयम्बुद्धसिद्धानाह10. निमित्तदर्शनमन्तरा बोधप्राप्तिपूर्वकं केबलिनो मुक्तास्वयम्बुद्धसिद्धाः । यथा कपिलादयः॥ निमित्तेति । स्वयम्बुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेण स्वयमेव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः, ते च तीर्थकरास्तीर्थकरव्यतिरिक्ताश्च, एषामुपधिर्वादशविध एव पात्रादिकः । पूर्वाधीतं श्रुतश्च भवति न वा, यदि भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति, गुरुसन्निधिं गत्वा वा 15 प्रतिपद्यन्ते, यदि चैकाकिनो विहरणसमर्था इच्छा च तेषां तथारूपा जायते तत एका किनो विहरन्ति, अन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठन्ते । अथ पूर्वाधीतं श्रुतं न भवति तर्हि नियमाद्दुरुसन्निधिं गत्वा लिङ्ग प्रतिपद्यन्ते गच्छश्चावश्यं न मुञ्चन्ति, एतत्सर्व तीर्थकरव्यतिरिक्तानां बोध्यम् , दृष्टान्तमाह यथेति ।। बुद्धबोधितसिद्धानाह20 उपदेशजन्यप्रतिबोधा अवाप्तरत्नत्रया मुक्ता बुद्धबोधितसिद्धाः । यथा जम्बूस्वामिप्रभृतयः ॥ उपदेशेति । बुबैराचार्यादिभिर्बोधितास्सन्तो ये सिद्धास्ते बुद्धबोधितसिद्धा इति भावः दृष्टान्तं दर्शयति यथेति ॥ एकसिद्धानाह25 इतरानवाप्तमुक्तिकैकसमयावाप्तमुक्तिका एकसिद्धाः। यथा श्रीमहावीर Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धोपसंहारः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : ३०७ स्वामिनः । एकस्मिन् समयेऽनेकैस्सह मुक्ता अनेकसिद्धाः । यथा ऋषभदेवाद्याः॥ इति मोक्षतत्त्वनिरूपणम् ॥ इतरेति । एकस्मिन्नेकस्मिन् समये एकका एव सन्तो ये सिद्धास्त एकसिद्धा इत्यर्थः, निदर्शनमाह यथेति । अनेकसिद्धानाह एकस्मिन्निति । एकस्मिन् समयेऽनेके सिद्धा अनेकसिद्धा इत्यर्थः । दृष्टान्तमाह-यथेति । मोक्षतत्त्वं निगमयति इतीति ॥ मुक्त्युपायभूतां सम्यक्श्रद्धा निगमयति सम्यश्रद्धा यथाशास्त्रं सविभागा सलक्षणा। संक्षेपेण समाख्याता स्यान्मोदाय विपश्चिताम् ॥ सम्यकश्रद्धेति, प्रशंसाथै सम्यगिति निपातस्तत्त्वश्च श्रद्धायां यथावस्थितार्थपरिच्छेदित्वं परापेक्षामन्तरोपजायमानत्वं वा, अथवा समश्चति सर्वान् द्रव्यपर्यायान् व्याप्नो- 10 तीति सम्यक् द्रव्यपर्यायनयद्वयापेक्षया जीवादयोऽस्तित्र यदा दृष्टिः प्रवर्तते तदा रुचिरूपां श्रद्धामञ्चति अतः सम्यक्, सा चासौ श्रद्धा च सम्यक्श्रद्धा अविपरीतार्थप्राहिणी रुचिरित्यर्थः । समाख्यातेत्यप्रेतर्नेनान्वयः । कथं समाख्यातेत्यत्राह सविभागा सलक्षणेति लक्षणविभागाभ्यां निरूपितेति भावः । निरूपणेऽस्मिन् श्रोतृजनग्राह्यतासम्पादनाय प्रामाणिकत्वमस्याविष्करोति, यथाशास्त्रमिति । शास्त्रमनुसृत्यैव प्रोक्ता न तु कल्पनयेति भावः । 15 ग्रन्थस्यास्य प्रणयने हेतुं दर्शयति संक्षेपेणेति । आगमानामतिविस्तृतत्वेन व्युत्पन्नकल्पानां सुगमतया आगमार्थबोधार्थमयं प्रयास इति भावः । तदिदं प्ररूपणं शास्त्रानुसारित्वात्सङ्ग्रहरूपत्वाच्च विपश्चितां विवेचनाचतुराणां परित्यक्तमनोमालिन्यानां मोदायानन्दाय भवेदेवेत्याशयमाह स्यान्मोदाय विपश्चितामिति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणाविनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाश व्याख्यायां मोक्षनिरूपणनामा दशमः किरणः समाप्तः समाप्तोऽयं सम्यक्श्रद्धाख्यः प्रथमो भागः ॥ १. उस्कृष्टतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेदितव्या ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीके तत्त्वन्यायविभाकरे ' प्रथमो भागः समाप्तः। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयो भागः प्रथमः किरणः अथावसरप्राप्तं सम्यग्ज्ञानं विभजते मतिश्रुतावधिमनःपर्यवकेवलानि ज्ञानानि ॥ मतीति । मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थः । ज्ञानानीतिबहुवचनमेकैकस्मिन् ज्ञानताख्यापनाय । ज्ञानं चात्मनस्स्वपरावभासकोऽसाधारणो गुणः कथश्चिदभिन्नः कथश्चिद्भिन्नंश्च । स चाम्बुधरपटलपरिमुक्तस्य दिनमणेरिवापास्तसमस्तावरणस्य जीवस्य स्वभावभूतः केवलज्ञानव्यपदेशभाग्भवति । सकलघातिकेवलज्ञानावरणेन कास्न्येन ज्ञानस्यावरणासम्भवात् तदानीं योऽयं मन्दप्रकाशः स केवलज्ञानावरणावृतस्य भवति 10 तस्यैव भेदा मत्यादयश्चत्वारः। तादृशे मन्दप्रकाशे केवलज्ञानावरणस्यैव हेतुत्वं, स्पष्टपकाशप्रतिबन्धकस्यापि तस्य तत्र हेतुत्वात् , दृष्टश्चोत्कटेऽभ्राद्यावरणे स्पष्टप्रकाशप्रतिबन्धकत्वं मन्दप्रकाशजनकत्वञ्च । अत एव न मतिज्ञानावरणक्षयादिना मतिज्ञानाद्युत्पादनप्रसङ्गः । सोऽयं ज्ञानस्वभावः केवलज्ञानावरणेनावृतोऽपि अनन्ततमभागावशिष्टोऽनावृत एव सामान्यत एकोऽपि अनन्तपर्यायकिर्मीरितमूतिर्मन्दप्रकाशनामधेयो भवति । स चापान्तराला• 15 वस्थितमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमसम्पादितं नानात्वं भजते, घनपटलाच्छन्नरवेर्मन्दप्रकाश इवान्तरालस्थकटकुट्याद्यावरणविवरप्रवेशात् । न च केवलज्ञानावरणेन बलीयसाऽऽवरीतुमशः क्यस्यानन्ततमभागस्य दुर्बलेन मतिज्ञानावरणादिना नावरणसम्भव इति वाच्यम् , कर्मणस्वावार्यावारकतायां सर्वघातिरसस्पर्धकोदयस्यैव बलत्वात्तस्य च मतिज्ञानावरणादिप्रकृतिष्वप्यविशिष्टत्वात् । तथा च सर्वघातिरसस्पर्धकवन्मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमजनितं मतिश्रुताव- 20 धिमनःपर्यवभेदाच्चतुर्विधं क्षायोपशमिकं ज्ञानं पञ्चमश्च क्षायिकं केवलज्ञानमिति पञ्च प्रकारा १. जीवेन ज्ञानस्यात्यन्तभेदेऽन्यज्ञानेनान्यस्य विषयपरिच्छेदाभाववत् स्वात्मनोऽपि तन्न स्याद्भिन्नत्वाविशेषात् । न च समवायेन यत्रैव ज्ञानं समवेतं तत्रैव भवति विषयपरिच्छेद इति वाच्यम्, समवायस्यैकत्वेन नित्यत्वेन च वृत्तेरविशेषात् । सर्वथा चाभेदे गुणग्रहणेन गुणिनोऽपि गृहीतत्वाद्धरिततरुतरुण शाखाविसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यन् किमियं पताका किमियं बलाकेत्येवं प्रतिनियतगुणिविषयकसंशयो न स्यादिति भावः ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३१०: तस्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे ज्ञानस्येति भावः । मैतिश्रुतयोस्स्वाम्येकत्वान्नानाजीवापेक्षया द्वयोस्सार्वदिकत्वादेकजीवापेक्षया चोभयोरपि निरन्तरसातिरेकषक्षष्टिसागरोपमस्थितिकत्वादिन्द्रियमनसोस्स्वस्वावरणक्षयोपशमस्य च तुल्यत्वात् सर्वद्रव्यादिविषयकत्वात्परोक्षत्वान्मतिश्रुतसत्त्व एव चावध्यादीनां प्राप्यमाणत्वाच्च तयोः प्रथममुपादानं, तत्रापि श्रुतस्य मतिपूर्वकत्वात् इन्द्रियानिन्द्रियनिमि5 त्तकस्य सर्वस्यैव मतिज्ञानत्वात्परोपदेशत्वागमवचनत्वरूपविशिष्टतामादायैव श्रुतस्य पार्थक्य वर्णनेन मतिविशेषत्वात्प्राधान्येन मतेरुपन्यासस्ततश्रुतस्य । ततो मतिश्रुताभ्यां नानाजीवापेक्षयैकजीवापेक्षया च कालसाधान्मतिश्रुतयोमिथ्यात्वोदयेऽज्ञानवदवधेरपि तथात्वात्स्वामिसाधात्कस्यचित्त्रयाणाममीषां युगपल्लाभसम्भवेन लाभसाधर्म्याच्च ततोऽवधेरुपम्यासः, अवधिमनःपर्यवयोश्छद्मस्थेनाप्यमानत्वात्पुद्गलमात्रविषयकत्वात्क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वात् प्रत्य10 क्षत्वादिसाम्याच्च ततो मनःपर्यवस्योपन्यासः, उत्तमत्वाद्विशिष्टचारित्रस्वामिकत्वादपरज्ञानावसानलाभाच्चान्ते केवलज्ञानस्योपन्यासो बोध्यः ॥ एतान्येव पञ्च प्रमाणानीत्याह एतान्येव प्रमाणानि ॥ एतान्येवेति । मत्यादिज्ञानान्येवेत्यर्थः, प्रमाणानि हेयोपादेयवस्तुतिरस्कारस्वीका15 रक्षमाणीत्यर्थः, तथा च यतः प्रमाणानि हेयोपादेयवस्तुतिरस्कारस्वीकारक्षमाणि अतो ज्ञानान्येव प्रमाणानि न सन्निकर्षाद्यज्ञानरूपाणि, एवञ्च प्रमाणं ज्ञानमेव हेयोपादेयवस्तुतिरस्कारस्वीकारक्षमत्वाद्यत्तु न ज्ञानं न तद्धेयोपादेयवस्तुतिरस्कारस्वीकारसमर्थं यथा घटादि, हेयानां तिरस्कारायोपादेयानां ग्रहणाय च प्रामाणिकैः प्रमाणानामेव प्रार्थ्यमान त्वान्न साधनासिद्धिः, तच्च न सन्निकर्षादिकं भवितुमर्हति, घटादेरचेतनरूपस्य स्वार्थव्यव20 सितिं प्रति यथा साधकतमत्वाभावान्न प्रमाणत्वं तथा सन्निकर्षादेरपि, प्रयोगश्च सन्निक. र्षादिर्न प्रमाणव्यवहार्यः स्वार्थनिश्चयासाधकतमत्वाद् यन्नैवं तन्नैवं यथा घटादिरिति न च १. मतिज्ञानस्यैवाऽऽभिनिबोधिकज्ञानमिति नामान्तरम् , अभिमुखं योग्यदेशावस्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेणात्मा येन परिणामविशेषेणावबुध्यते स परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनिबोधिकम् । तद् द्विविधं श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितश्चेति । शास्त्रपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्येव यदुपजायते मतिज्ञानं तच्छतनिधितमवग्रहादि। सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथातथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानं यदुपजायते तदश्रुतनिश्रितं, औत्पातिकीवैनयिकीकर्मजापारिणामिकीभेदभिन्नमिति ।। २. मतिश्रुते अप्राप्यावध्यादीनामप्राप्यमाणत्वादिति भावः ॥ ३. पूर्वमवग्रहादिमतिज्ञानप्रवृत्तिं विना श्रतप्रवृत्तेरभावादिति भावः ॥ ४. अतीतानागतवर्तमाननिःशेषज्ञयस्वरूपावभासित्वादुत्तमत्वमिति भावः ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणानि ] न्यायप्रकाशसमलते हेतोरसिद्धता, अचेतनत्वेन घटादेरिव स्वव्यवसितावकरणत्वस्य सिद्धत्वात् , स्वनिश्चिताव. करणत्वादेव च कुम्भादेरिव परव्यवसितावकरणत्वम् । न च यथा काष्ठछेदादिकं फलं. कुठारादिकरणजन्यं तथैवार्थव्यवसितेरपि सन्निकर्ष एव करणं न प्रमाता करणं कर्तृत्वान्न प्रमेयं कर्मत्वान्न वा ज्ञानं कार्यत्वादिति वाच्यम् , सन्निकर्षस्य करणत्वानुपपत्तेः, तद्भिन्नस्य भावेन्द्रियविशेषस्यैव करणत्वात् न च परव्यवसित्यकारणत्वसाधकस्वब्यवसित्यकरणत्वरूपहेतोः 5 प्रदीपे व्यभिचारः, स्वनिश्चितावकरणस्यापि तस्य घटादिनिश्चिती करणत्वात् प्रतीयते हि प्रदीपेन पन्थानं पश्याम इत्यादौ करणत्वमिति वाच्यम् , प्रदीपस्य चक्षुर्मनोरूपमुख्यकारणसहकारितयैव पदार्थपरिच्छेदे करणत्वेन मुख्यतया करणत्वासम्भवात् , उपचारतः करणत्वे च व्यभिचाराभावात्तस्योपचारतः पदार्थपरिच्छेदकत्ववत्स्वपरिच्छेदेऽपि करणत्वात् । न च चक्षुरादौ व्यभिचारः, भावेन्द्रियोपकरणभूतद्रव्येन्द्रियस्य चक्षुरादेरुपचारेण करणत्वात् 10 लब्धेरपि उपयोगात्मकमुख्यकरणकारणत्वेनोपचरितमेव कारणत्वमिति दिक् ॥ ननु किं तत्प्रमाणमित्यत्राह __ यथार्थनिर्णयः प्रमाणम् ॥ यथार्थेति । अत्रार्थपदेन ज्ञानं घटादिविषयश्च विवक्षितः, यथावस्थितत्वेनार्थो निर्णीयतेऽनेनेति यथार्थनिर्णयः, यथावस्थितस्वपररूपार्थपरिच्छेदकं ज्ञानमित्यर्थः, लक्षणश्च 15 यथावस्थितार्थपरिच्छेदकज्ञानत्वं, लक्ष्यश्च प्रमाणम् । यद्यपि प्रमाणशब्दस्य सर्वकारकैर्भावेन च व्युत्पत्तिर्भवति तया च क्रमेणाऽऽत्मार्थज्ञानार्थक्रियाकारणकलापक्षयोपशमक्रियारूपाः प्रमाणशब्दवाच्या भवन्ति तथापीह परीक्षाक्षमत्वेन ज्ञानमेवाधिक्रियते, इतरेषां परीक्षाया ज्ञानपूर्वकत्वात् । येन चार्थ परिच्छिद्यार्थक्रियासमर्थार्थप्रार्थनया प्रमातारः प्रवर्तन्ते तदेव .. ज्ञानमिहात्मना सह धर्मितयाऽभिन्नमपि प्रमीयतेऽऽनेनेति व्युत्पत्या धर्मरूपतया व्यति. 20 रिक्तं प्रमाणमुच्यते । तत्र विप्रतिपन्नान् तीर्थान्तरीयान् प्रति प्रमाणोद्देशेन लक्षणं विधेयम् , यद्भवतामस्माकश्च प्रमाणतया प्रसिद्धं तद्यथावस्थितार्थपरिच्छेदकं ज्ञानमिति । यदाऽव्युत्पन्नमतीन् प्रति लक्षणं तदा प्रतिप्राणि यस्य कस्यचिद्यथार्थनिर्णयस्य प्रसिद्धत्वेन योऽयं भवतां यथार्थनिर्णयः प्रसिद्धस्तत्प्रमाणमिति बुद्ध्यतामिति प्रमाणं विधेयम् । प्रमाणप्रमेयापलापिनः प्रत्युभयं विधेयम् , स्वदर्शनश्रद्धालून् प्रति त्वनुवाद्यमिति । एव- 25 १. अत्रानुमानं सनिकर्षादिर्न स्वनिश्चयासाधारणकारणमचेतनत्वाद्धटादिवदिति ॥ २. प्रयोगः सनिकर्षादिर्न परनिश्चयासाधारणकारणं स्वनिश्चितावकरणत्वाद्धटादिवदिति ॥ यथार्थनिश्चये सन्निकर्षस्य साधकतमत्वमाशंकते न च यथेति ॥ ३. द्रव्यार्थादेशेनेत्यर्थः । ४. पर्यायनयादेशेनेत्यर्थः ।.. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३१२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे मेव सर्वत्र लक्ष्यलक्षणभावोऽवसेयः । यथावस्थितार्थपरिच्छेदे च ज्ञानमेव साधकतमं न तु सन्निकर्षादि, साधकतमन्तु यत्र प्रमात्रा व्यापारिते सत्यवश्यं कार्यस्योत्पत्तिस्तदभावेऽनुत्पत्तिरेव तत्र ततं. यथा कुठार छेदने । न च तथा सन्निकर्षादि. नभसि नयनसन्निकर्ष सम्भवेऽपि प्रमानुत्पत्तेः, तदभावेऽपि प्रातिभप्रत्यक्षाणामार्षसंवेदनविशेषाणाश्च समुद्भवात् । 5 न च नभसि रूपाभावान प्रमोत्पत्तिरिति वाच्यम् , रूपस्य प्रत्यक्षानुपपत्तिप्रसङ्गात् नहि तत्र रूपमस्ति । न च तदाधारभूते द्रव्ये रूपान्तरमस्तीत्यतो नानुपपत्तिरिति वाच्यम् , त्वयैकत्र व्याप्यवृत्तिसजातीयगुणद्वयानङ्गीकारात् । न चावयवरूपमवयविरूपोपलब्धौ कारणमिति वाच्यम् , त्र्यणुकनिष्ठरूपप्रत्यक्षानुपपत्तेः, व्यणुकरूपस्यानुपलम्भेन सहकारित्वास म्भवादिति । निर्णयत्वमात्रोक्तौ निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य बौद्धैः प्रामाण्यतयोक्तस्य प्रमाणत्वा10 पत्तिरतो यथार्थनिर्णयत्वमुक्तं, अर्थनिर्णयत्वमात्रस्य विपर्ययानध्यवसायादौ गतत्वेन तद्वार णाय यथेति, अत एव चानन्तधर्मात्मकवस्तुनिष्ठैकधर्मविषयकज्ञानस्यापि व्युदासोऽनन्तधर्मात्मकवस्तुनिष्ठानन्तधर्मविषयकज्ञानस्यैव यथार्थनिर्णयरूपत्वात् । निर्णयशब्देन च संशयव्युदासः । समग्रेण चार्थोपलब्धिहेतत्वानधिगतार्थगन्तृत्वादीनां परोक्तलक्षणानां व्युदासः। अर्थोपलब्धिं प्रति परम्परया हेतुत्वेऽञ्जनादीनां प्रमाणत्वापत्तेः, अनन्तरभूतेन्द्रियस्यैव हेतु15 त्व उपयोगात्मकेन्द्रियातिरिक्तस्येन्द्रियस्य प्रमाणत्वासम्भवात् , व्यवधानात् । प्रत्यभिज्ञादावनधिगतार्थगन्तृत्वस्याभावेन प्रमाणत्वानुपपत्तेस्तस्याधिगतार्थगन्तृत्वादिति तात्पर्यम् ॥ तत्र वादिनां भेदे विप्रतिपत्तेस्संख्यानियममाह तविविधं पारमार्थिकप्रत्यक्षं परोक्षश्चेति ॥ - तदिति । प्रमाणमित्यर्थः । सर्वस्य वाक्यस्य सावधारणत्वात्प्रमाणं द्विविधमेव, न 20 त्वेकविधं प्रत्यक्षात्मकमेव चार्वाकवत् । स्वेष्टस्यानुमानमन्तरा साधयितुमशक्यत्वात् , वचनसङ्केतग्रहादिकं विना परं प्रति बोधयितुमशक्यत्वाचापरोदितानामनुमानादीनां सम्भवत्प्रमाण १. फलायोगव्यवच्छिन्नं कारणं करणमिति भावः । २. यथा घटस्य प्रत्यक्षे जननीये विषयातिरिक्तं रूपं कारणमपेक्षितं तथा रूपस्य प्रत्यक्षे जननीये विषयातिरिक्तं रूपमपेक्षणीयं स्यात्तथा च घटे रूपप्रत्यक्षे रूपान्तरसत्त्वाभ्युपगमस्त्वया कर्तुं न शक्यते, एकस्मिन् द्रव्ये व्याप्यवृत्तेस्सजातीयस्य गुणद्वयस्यानभ्युपगमेन तव सिद्धान्तव्याघात इति भावः, तैरव्याप्यवृत्तिसंयोगद्वयाद्यभ्युपगमेन व्याप्यवृत्तीत्युक्तं, स्वाधिकरणावृत्तिस्वाभावकत्वं तदर्थः। नास्ति हि रूपाधिकरणे रूपाभावः । घटे व्याप्यवृत्तिरूपरसयोरभ्युपगमात्सजातीयेति, तत्त्वञ्च गुणत्वव्याप्यजात्या, तथा च रूपरसयोस्तथा साजात्याभावान्न क्षतिः ॥ ३.निर्णयत्वं हि निश्चयत्वं संशयभिन्नज्ञानत्वं वा. तच्च बौद्धाभ्युपगते निर्विकल्पके प्रकारतादिरहिते वर्तत इति भवत्यतिव्याप्तिरतो यथार्थनिर्णयत्वमुक्तं. तथा च प्रकारतादिविशिष्टमिदं न निष्प्रकारके निर्विकल्पकेऽस्तीति भावः । नन्वर्थनिर्णयत्वमात्रोक्तावपि तद्वारणसम्भवाद्यथेति पदं निरर्थकमित्याशंक्याहार्थनिर्णयत्वमात्रस्येति । तथा च यद्वस्तु येनैव प्रकारेण वर्तते तेनैव प्रकारेण तनिश्चयो यथार्थनिर्णयः, तेन न्यूनप्रकारकत्वे विपरीतप्रकारकत्वे वा न प्रमाणत्वमिति भावः ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकार प्रमाणमेदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३१३: त्वानां परोक्ष एवान्तर्भावान त्रिचतुरादिरूपम् । तत्रानुमानागमौ परोक्षेऽन्तर्गतौ, उपमानं प्रत्यभिज्ञानात्मके परोक्षभेदे अर्थापत्तिरप्यनुमाने, अनुपलब्धेरप्यभावग्राहिकायास्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षेऽन्तर्भाव इति भावः । ननु ‘से किं तं पमाणे ? पमाणे चउठिवहे पण्णत्ते । तं जहा, पञ्चक्खे, अणुमाणे, ओवमे, आगमे जहा अणुओगदारे तहा गेयव्यं पमाणं " इत्यागमे प्रमाणस्य चतुर्विधत्वेनोक्तत्वाद् द्वैविध्ये विरोध इति चेत्सत्यं, अनुमानोपमानागमानां परोक्षेऽ 5 न्तर्भावणात्र द्वैविध्यस्योक्तत्वात् । उक्तश्चागमेऽपि “तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तं जहा पच्च. क्खं च परोक्खं च” इति ॥ द्वैविध्यं नामग्राहमाह पारमार्थिकेति । एतच्च विशेषणमुपचरितव्यावहारिकप्रत्यक्षस्य वस्तुतः परोक्षस्य व्युदासाय । इन्द्रियानिन्द्रियादिबाह्यसामग्रीसापेक्षस्य सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य धूमादग्निज्ञानवद्वस्तुगत्या परोक्षत्वात् । अश्नुते व्याप्नोत्यानित्यक्ष आत्मा, तम्प्रति साक्षाद् यद्वर्त्तते ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं निश्चयतोऽवधिमनःपर्यवकेवलानि, 10 तेषामेव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति साक्षाद्वर्त्तमानत्वात् । अक्षमिन्द्रियं प्रतिगत.. मिति विग्रहे प्रत्यक्षशब्दस्य यदिन्द्रियमाश्रित्योत्पद्यते तदर्थसाक्षात्कारिज्ञानमर्थः, एतच्चावध्यादावव्याप्तं तस्मादक्षाश्रितत्वं गमनक्रियाया इव गोशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमेव वाच्यम्, प्रवृत्तिनिमित्तं तु गतिक्रियोपलक्षितं गोत्वमिवामाश्रितत्वोपलक्षितसाक्षाग्राह्यग्राहकज्ञानविशेष एव, तच्च प्रवृत्तिनिमित्तं गतिक्रियादिशून्येऽपि गवादिपिण्डविशेष इवाक्षाश्रित- 15 त्वशून्येऽप्यवध्यादावस्त्येवेति न कोऽपि दोषः । पारमार्थिकञ्च तत्प्रत्यक्षश्च पारमार्थिकप्रत्य- . क्षम् , ननु यदिन्द्रियद्वारेण प्रवर्त्तत आत्मनि ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं, न चेन्द्रियव्यापारव्यवहितत्वादात्मना साक्षान्नोपलब्धमिति वाच्यम् , इन्द्रियाणामुपलब्धि प्रति करणतया व्यवधायकत्वास. म्भवात् , न खलु देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वान्न साक्षाद्धोक्तेति व्यपदेष्टुं शक्यमिति चेन्मैवम् , आत्मना चक्षुरादिसाद्गुण्यापेक्षणात् , यदा हि चक्षुस्सद्गुणं भवति तदा 20 बाह्यमर्थ स्पष्टं यथावस्थितञ्चोपलभते यदा तु तिमिराश्रुभ्रमणनौयानपित्तादिसंक्षोभदेशदवीयस्त्वाद्यापादितविभ्रमं भवति तदा विपरीतं संशयितं वोपलभते तथा चावश्यमात्माऽर्थोपलब्धौ पराधीनः । तथा चक्षुरादिनोपदर्शितेऽपि बाह्येऽर्थे यदि संशयमधिरूढो भवति तदा चक्षुरादिसाद्गुण्यमेव प्रतीत्य निश्चयं विदधाति, यथा न मे चक्षुस्तिमिराद्युपप्लुतं ततोऽयमर्थस्समीचीन इति, तस्माच्चक्षुरादिसाद्गुण्यावधारणतो वस्तुयाथात्म्यावधारणाद्वस्तुतस्तत्परोक्षमिति 25 १. न चानभ्यासदशामापन्नस्यैव वस्तुयाथात्म्यावधारणमिन्द्रियसाद्ण्यावधारणपूर्वकं भवतु न स्वभ्यासदशापन्नस्य, तदन्तरेणापि प्रकृष्टाभ्यासबलात् साक्षात्तस्यावबोधादतस्तस्येन्द्रियाधित ज्ञान प्रत्यक्षं स्यादिति वाच्यम्, तत्रापीन्द्रियसाद्गुण्यसापेक्षत्वस्य दुवारत्वात् , अभ्यासप्रकर्षवशाचेन्द्रियसाद्गुण्यस्य झटित्येव निश्चयात् कालसौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धेः । अपायमात्रं ह्यवग्रहहापूर्वकं, तत्रेहा विचाररूपा विचारश्चेन्द्रियसाद्गुण्यसद्भूतवस्तुधर्माश्रितः न हीन्द्रिये वस्तुनि वा सम्यगविचारिते सति यज्ज्ञानं तत्समीचीनं भवतीति ॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३१४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे भावः । परोक्षमिति, आत्मापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोरूपेभ्यःपरेभ्यः अक्षस्य जीवस्य यद्वर्त्तते तत्परोक्षं मतिश्रुतरूपम् । पुद्गलनिचयनिष्पन्नानि हि द्रव्येन्द्रियमनांसि जीवस्य परभूतान्यतस्तेभ्यो यन्मतिश्रुतलक्षणं ज्ञानं धूमादेरग्न्यादिज्ञानवत्परनिमित्तत्वात्परोक्षं, किञ्चेन्द्रियमनोनिमित्तं ज्ञानं परोक्षं तत्र संशयविपर्ययानध्यवसायसम्भवात् , इन्द्रियमनोनिमित्त5 कासिद्धानैकान्तिकविरुद्धानुमानवत् , तत्र निश्चयसम्भवाद्धमादेवह्नयनुमानवत् , यत्तु प्रत्यक्षं तत्र न संशयादयो निश्चयश्च सम्भवति यथावध्यादिषु, न चावध्यादिषु निश्चयसंभवाद्यभिचार इति वाच्यम् । संकेतस्मरणादिपूर्वकत्वे सतीति विशेषणात् , न चावध्यादीनां मनोनिमित्तकत्वात्परोक्षता स्यादिति वाच्यम् , मनःपर्याप्त्याऽपर्याप्तानां मनुष्यदेवादीनामवधिज्ञा नश्रवणेन तेषां मनोनिमित्तकत्वाभावादिति ॥ 10 तत्र पञ्चविधज्ञानमध्ये किं वा पारमार्थिकप्रत्यक्षं किं वा परोक्षमिति शंकायामाह तत्रावधिमनःपर्यवकेवलानि पारमार्थिकप्रत्यक्षाणि । मतिश्रुते परोक्षे । परोक्षमपि सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्मरणप्रत्यभिज्ञातानुमानागमभेदात् षड्विधम् ॥ तत्रेति, स्पष्टम् । परोक्षस्य प्रकारान्तरेण भेदमाह परोक्षमपीति । अपिशब्दः पुनरर्थे, 15 मतिश्रुतभेदेन द्विविधमपि परोक्षं पुनस्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षादिभेदेन षड्विधमिति भावः । समी चीनो बाधारहितो व्यवहारः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणस्संव्यवहारः, तत्र भवं स एव वा प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिकं तच्च तत्प्रत्यक्षश्च सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिति विग्रहः । बाह्येन्द्रियादिसामग्रीसापेक्षत्वाद्वस्तुतः परोक्षमेवेति परोक्षमध्ये परिगणितमेतत् । अनुमानादिभ्योऽति रेकेण नियतवर्णाकाराणां प्रतिभासनाच्चानुमानादितो भेदेनोत्कीर्तनम् । सामान्यतो हि 20 स्पष्टत्वं प्रत्यक्षस्य लक्षणं तच्चानुमानाद्याधिक्येन विशेषप्रकाशनं, एतदपेक्षया च पारमार्थिक प्रत्यक्षस्येवास्यापि प्रत्यक्षत्वम् , गाढान्धकारे मलिनवस्तुसंवेदनमपि संस्थानमात्रे स्पष्टत्वेन प्रत्यक्षमेव । न च स्मृतिप्रत्यभिज्ञादिस्वरूपसंवेदने परोक्षरूपे प्रत्यक्षलक्षणस्यातिव्याप्तिरिति वाच्यम् , स्मृतिप्रत्यभिज्ञानादिस्वरूपसंवेदनस्य परोक्षत्वासम्भवात् , क्षायोपशमिकसंवेदनानां स्वरूपसंवेदनस्यानिन्द्रियप्रधानतयोत्पत्तेरनिन्द्रियाध्यक्षव्यपदेशसिद्धेः, बहिरर्थग्रहणापेक्षया च 25 विज्ञानानां परोक्षत्वव्यपदेशेन सर्वज्ञानानां स्वरूपे स्पष्टप्रतिभासत्वात्प्रत्यक्षत्वमेवेति ।। अधुना पारमार्थिकप्रत्यक्षं लक्षयति अव्यवहितात्मद्रव्यमात्रसमुत्पन्नं ज्ञानं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । तद्विविधं सकलं विकलश्च ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलज्ञानम् ] न्यायप्रकाश समलङ्कृ अव्यवहितेति । स्वोत्पत्तौ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादिकमिन्द्रियानिन्द्रियादिव्यवहितात्मद्रव्यमाश्रित्य जायते, पारमार्थिकप्रत्यक्षन्तु न तथा, किन्तु ज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमात् तत्क्षयाद्वेन्द्रियानिन्द्रियद्वारनिरपेक्ष मात्मद्रव्यमेवाव्यवहितमाश्रित्य समुन्मिषतीत्यतोऽव्यवहितात्मद्रव्यमात्रसमुत्पन्नत्वे सति ज्ञानत्वं तल्लक्षणं, भवगुणसम्यक्त्वादीनामपेक्षणेऽपि तेषां द्रव्यत्वाभावान्नावध्यादावव्याप्तिरिति भावः । तद्विभजते तदिति पारमार्थिकप्रत्यक्षमित्यर्थः। 5 सकलमिति सर्वद्रव्यपर्यायविषयकत्वात्स कलमित्यर्थः, विकलमिति, कतिपयद्रव्यपर्यायविषयकत्वाद्विकलमित्यर्थः ॥ : ३१५ : किन्तत्र सकलं ज्ञानमित्यत्र दृष्टान्तमाह - कृत्स्नावरणक्षयात्केवलं ज्ञानं सकलम् ॥ कृत्स्नेति कृत्स्नावरणक्षयः समस्तघातिकर्मवियोग: स चान्तरङ्गबहिरङ्गसामग्री - 10 जन्यः | अन्तरङ्गसामग्री सम्यग्दर्शनादिरूपा, बहिरङ्गा तु जिनका लिकमनुष्य भवादिरूपा, तथा चान्तरङ्गबहिरङ्गसामग्रीप्रसूतस कलावरणक्षयाद्यत्केवलज्ञानमुदेति तत्प्रतिबन्धस्य कस्य - चिदभावेन सकलविषयकत्वात्सकलं पारमार्थिकप्रत्यक्षमिति भावः । अत्र कृत्स्नावरणक्षयादित्युक्त्याऽव्यवहितोत्तरक्षणे केवलज्ञानोत्पत्तिः प्रकाशिता व्यवहारनयेन, आवरणस्य क्षयसमये श्रीयमाणत्वात् श्रीयमाणस्य चाक्षीणत्वात् क्रियाकालनिष्ठाकालयोर्भेदात् तयोरभेदे च 15 क्रियावैयर्थ्यप्रसङ्गात् क्रियाकालेऽपि कार्यस्य सत्त्वात्समकालभाविनोश्च सव्येतर गोविषाणयोरिव क्रियाकार्ययोः कार्यकारणभावायोगादिति । निश्चयनयेन तु क्षीयमाणावरणसमय एव केवलज्ञानोत्पत्तिः क्रियाकालनिष्ठाकलियोर्भेदे क्रियाविरहेऽपि कार्योत्पत्त्यभ्युपगमापत्त्या क्रियारम्भकालात्पूर्वमपि कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् क्रियाकालेऽप्यावरणक्षयाभावे पश्चादपि पूर्वकालवत्तदभावप्रसङ्गः स्यादक्रियत्वात् । अक्रियस्य तदभ्युपगमे क्रियान्वितसमयेऽपि क्रियाया 20 वैयर्थ्यापत्तेः क्रियाविरहितसमयवत् । तस्मात्क्रियाकालनिष्ठाका लेयोरेकत्वं प्रतिबन्धकाभावादेव चावरणस्य क्षीयमाणतासमये निष्ठा न विरुद्धेति ॥ अथ केवलज्ञानस्य लक्षणमाचष्टे २. अन्यस्मिन् काले क्रिया, अन्यस्मिंश्व कार्योत्पत्तिरिति भेद इत्यर्थः । २. एवं आवरणक्षीमाणका क्रियाया अभावे आवरणक्षयो न स्यादेव क्रियां विना तत्रान्यस्य हेतोरभावात्, आवरणक्षीयमाणकाले च तद्धेतुक्रिया सत्ताभ्युपगमे क्रियाकाल निष्ठाकालयोरेकत्वमर्थसिद्धमित्यपि भाव्यम् ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे अशेषद्रव्यपर्यायविषयकसाक्षात्कारः केवलम् ॥ अशेषेति । अशेषाणि यानि द्रव्याणि पर्यायाश्च तद्विषयकः साक्षात्कार इत्यर्थः, मुख्यतया निखिलधर्मप्रकारकत्वे सति निखिलधर्मिविषयकज्ञानमिति भावः, तत्त्वं केवलज्ञानस्य लक्षणम् , केवलदर्शनेऽतिव्याप्तिवारणाय सत्यन्तम् । पर्यायवाद्यभिमतप्रतीत्यसमु. 5 त्पादरूपसन्तानविषयकनिखिलधर्मप्रकारकज्ञानेऽतिव्याप्तिवारणाय विशेष्यम् । प्रमेयवदिति ज्ञानस्य प्रमेयत्वेन निखिलधर्मप्रकारकज्ञानस्य वारणाय सामान्यधर्मानवच्छिन्नत्वं निखिलधर्मे विशेषणीयम् । तत्र प्रमाणञ्च ज्ञानत्वमत्यन्तोत्कर्षवद्वृत्ति, अत्यन्तापकर्षवद्वृत्तित्वात्परिमाणत्ववदित्यनुमानम् । न चेदमप्रयोजक, ज्ञानतारतम्यस्य सर्वानुभवसिद्धत्वेन तद्वि श्रान्तेरत्यन्तापकर्षोत्कर्षाभ्यां विनाऽसम्भवात् । न चेन्द्रियाश्रयज्ञानस्यैव तारतम्यदर्शनेन 10 तत्रैवात्यन्तप्रकर्षः प्रसक्त इति वाच्यम् , अतीन्द्रियेऽपि मनोज्ञाने, शास्त्रार्थावधारणरूपे शास्त्रभावनापकर्षजन्ये शास्त्रातिक्रान्तविषयेऽतीन्द्रियविषयसामर्थ्ययोगप्रवृत्तिसाधनेऽध्यात्मशास्त्रप्रसिद्धप्रातिभनामधेये च तरतमभावदर्शनात् । न च भावनाजन्यमेव प्रातिभवत्केवलज्ञानं प्राप्तं, तथा चाप्रमाणं स्यात् कामातुरस्य सर्वदा कामिनी भावयतो व्यवहितकामिनीसाक्षात्कारवदिति वाच्यम् , अप्रामाण्ये भावनाजन्यत्वस्याप्रयोजकत्वात् , बाधित. विषयत्वस्यैव प्रयोजकत्वात् , भावनानपेक्षेऽपि शुक्तिरजतादिभ्रमे बाधादेवाप्रामाण्यस्वीकारात् प्रकृते च विषयबाधाभावात् । न च व्यवहितकामिनीविभ्रमादौ दोषत्वेन भावनायाः क्लृप्तत्वात्तजन्यत्वेनास्याप्यप्रामाण्य, बाधितविषयत्ववदोषजन्यत्वस्यापि भ्रमत्वप्रयोजकत्वादिति वाच्यम.भावनायाः क्वचिद्दोषत्वेऽपि सर्वत्र दोषत्वानिश्चयात. अन्यथा शंखपीतत्वभ्रमकारणी. भूतस्य पीतद्रव्यस्य स्व विषयज्ञानेऽप्यप्रामाण्यप्रयोजकत्वं स्यादिति न किञ्चिदेतत् । क्वचिदेव 20 कश्चिद्दोष इत्येवाङ्गीकारात् विषयबाधेनैव दोषजन्यत्वकल्पनाच्च । दुष्टकारणजन्यस्याप्यनुमाना देविषयाबाधेन प्राम.ण्याभ्युपगमात् । न च परोक्षज्ञानजन्यभावनाया अपरोक्षज्ञानजनकस्वासम्भवः न हि व यनुमितिज्ञानं सहस्रकृत्व आवृत्तमपि वह्निसाक्षात्काराय कल्पत इति वाच्यम् , तजन्यप्रकृष्टाऽऽवरणक्षयादेव केवलज्ञानोत्पत्तिरिति सिद्धान्तादिति संक्षेपः ।। नन्वावरणक्षयात्केवलज्ञानोत्पत्तिरित्यसङ्गतं, तथाहि किमिदमावरणं, शरीरं देशकाला25 दिकं वा, नाद्यस्तत्सत्त्वेऽप्यर्थोपलम्भात् , न द्वितीयो देशकालयोरमूर्तत्वात् , परमाण्वादेश्व सूक्ष्मस्वभावत्वात् , । न च मूलकीलकोदकादेर्लोकप्रसिद्धमेव भूम्याद्यावरणत्वमिति वाच्यम् , अतिशयसमृद्धिशालिनापि योगिनेदृशस्यावरणादेरभावस्य कर्तुमशक्यत्वात् । न चान्यत्किबिदावरणं प्रसिद्धमित्याशङ्कायामाह 5 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलस्योत्पत्तिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ३१७: इदश्च घातिकर्मक्षयाद्भवति ॥ इदश्चेति । घात्यघातिरूपेण पूर्व प्रपश्चितस्य द्विविधस्य कर्मणो मध्ये घातिकर्म आवरणं तत्क्षयतः केवलमुदेति । तथाहि यत्स्वविषयेऽप्रवृत्तिमत् तत्सावरणं दृष्टं यथा तैमिरिकस्यैकचन्द्रमसि चाक्षुषं विज्ञानम् , अप्रवृत्तिमच्चास्मदादिज्ञानं स्वविषये निखिलद्रव्यपर्यायलक्षणे । तस्मात्तत्रावरणमपेक्षितम् , तच्चान्यस्यासम्भवाद्धातिकर्मरूपमेव । न चास्मदादिज्ञानस्य 5 समस्तार्थविषयकत्वमसिद्धमिति वाच्यम् , आवरणापाये तत्प्रकाशकत्वात् । न चान्योऽन्याश्रयः, सिद्धे सकलविषयकत्वेऽस्मदादिज्ञानस्य तदावरणापाये तत्प्रकाशकत्वं सिद्ध्यति, तसिद्धौ च विज्ञानस्य सकलविषयकत्वसिद्धिरिति वाच्यम् , विशेषविषयकानुमानमिच्छता भवता निःशेषविषयकव्याप्तिज्ञानस्याभ्युपगतत्वात् । एवं यज्ज्ञानं स्वविषयेऽस्पष्टं तत्सावरणं यथा नीहारधूलिव्यवहितवृक्षादिज्ञानम् , अस्पष्टश्च स्वविषये सर्व सदनेकान्ता- 10 त्मकमित्यादिज्ञानमिति । तथा मिथ्यात्वपटलविलुप्तविवेकदृशां यदेतत्सर्वस्मिन्ननेकान्तात्मकवस्तुनि विपर्ययज्ञानं तत्सावरणं मिथ्याज्ञानत्वाद्धत्तूरकाधुपयोगिनो मृत्तिकाशकले कनकज्ञानमिवेति ततस्सिद्धमावरणं कर्म । तच्च कार्यकारणप्रवाहेण प्रवर्त्तमानमनायपि सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयलक्षणेनावरणनिर्जराहेतुभूतसामग्रीविशेषेण निर्मूलं प्रलीयते, कार्यकारणरूपेणानादितः प्रवर्त्तमानस्य बीजाङ्कुरसन्तानस्य निर्दग्धबीजेऽकुरे वा प्रलयवत् । 15 तस्मात्सिद्धमशेषावरणविलयात्समस्तवस्तुविषयं केवलज्ञानमिति । केवलज्ञानमिदं साद्यपर्यवसितं, घातिकर्मक्षयादाविर्भूतत्वात्सादि, तथोत्पन्नस्य तस्य पश्चान्नावरणमस्त्यतोऽनन्तम् , सत्तामाश्रित्येदमनन्तत्वं बोध्यम् । तेन भवस्थकेवलिविशेषपर्यायाणां वज्रर्षभनाराचसंहननादीनामपगमे तदव्यतिरिक्तस्य केवलज्ञानस्यात्मद्रव्यद्वारेण विगमेऽपि न अतिरन्यथाऽवस्थातुरवस्थानामात्यन्तिकभेदप्रसक्तेः, सिद्धत्वरूपेण पुनरुत्पद्यते, उत्पादव्ययध्रौव्यात्म- 20 कत्वाद्वस्तुनोऽन्यथा वस्तुहानिः प्रसज्येतेति ॥ अथेदं किं विषयं प्राप्य परिच्छिनत्ति किं वाऽप्राप्येत्याशङ्कायामाह १. कथश्चित्तस्यात्माव्यतिरिक्तवादात्मनश्च द्रव्यरूपतया नित्यत्वात्तदपेण केवलज्ञानमपि अनन्तमिति भावः ॥ न च केवलज्ञानस्य साद्यपर्यवसितत्वात् जीवस्यानादिनिधनत्वात् छायातपवदत्यन्तभेदेन कथं जीवः केवलं, तथा ज्ञानदर्शनयोः क्षायिकत्वात् क्षायोपशमिकत्वात् जीवस्य पारिणामिकत्वाचेति वाच्यम् , द्रव्यपर्याय. भेदाभेदैकान्तपक्षप्रतिषेधेन कथश्चिद्भेदाभेदात्सर्वस्याप्युपपत्तेः, दरिद्रोऽयमिदानीं राजा जात इत्यादिप्रतीत्या राजत्वपर्यायस्य, राजत्वपर्यायात्मकत्वेन वा पुरुषस्य जातत्वावगाहनात् पर्यायाणामभेदाध्यवसितभेदात्मत्वात् द्रव्यस्य वा भेदानुषक्काभेदात्मकत्वादिति ॥ . Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३१८ : तत्त्वन्यायविभाकरे तद्वानेव सर्वज्ञः ॥ 1 तद्वानेवेति । केवलज्ञानवानेवेत्यर्थः । इदञ्च केवलज्ञानस्य कथञ्चिदात्मव्यतिरेकमभ्युपेत्योक्तं तथा च कथञ्चिद्भेदाभेदसम्बन्धेन केवलज्ञानवान्सर्वज्ञ इत्यर्थः | आत्मपर्याय.. केवलज्ञानं, आत्मा च परिच्छिन्नपरिमाणः, यो हि यस्य धर्मस्स तत्रैव वर्तते यथा घटे 5 रूपम्, आत्मन्येव संवेदनाच्चात्मस्थं तत्, तथा चात्मस्थमेव विषयं परिच्छिनत्ति न विषयं प्राप्य, तस्य ज्ञेयदेशे गमनासम्भवात्, गमने चात्मनो निस्स्वभावत्वप्रसङ्गः स्यात्, तत्स्वभावत्वादात्मनः, आत्मधर्मत्वहान्यापत्तिश्च, आत्मविरहेऽपि भावात् । तथा केवलज्ञानं हि सकलज्ञान मुच्यते अलोकस्यानन्तत्वेन गमनतस्सकलोऽलोको ज्ञातुमशक्य इति । अत एव तद्वानित्यत्र नित्ययोगे मतुबू यः । सर्वज्ञ इति, अर्हदादिरित्यर्थः एवशब्दो भिन्नक्रमः अर्हन् श्रीवर्ध10 मानादिरेव तद्वान्निर्दोषत्वात्, नान्यः कपिलादिः प्रमाणविरुद्ध भाषित्वेन निर्दोषत्वासिद्धेस्तथा चार्हन् मोक्षसंसारतत्कारणेषु निर्दोषस्तत्र प्रमाणाविरोधिवाक्यत्वाद्यथा कचिद् व्याध्युपशमे वैद्यः न चासिद्धिः, अर्हन् मोक्ष संसारतत्कारणेषु प्रमाणाविरोधिवचनवान् तत्र प्रमाणाबाध्यमानाभिमततत्तत्वात्, यस्य यत्राभिमतं तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र प्रमाणाविरोधिवाक्, यथा रोगस्वास्थ्ये तत्कारणतत्त्वे भिषग्वर इत्यनुमानेन तत्सिद्धेरिति ॥ [ प्रथमकिरणे 15 विकलस्य प्रकारं दर्शयति अवधिमनः पर्यवौ तु तत्तदावरणक्षयोपशमजन्यत्वाद्विकलौ || अवधीति । तत्तदिति, अवधिज्ञानावरणस्य मनः पर्यवज्ञानावरणस्य च यः क्षयोपशमस्तज्जन्यत्वादित्यर्थः । अनयोर्मूर्त्तद्रव्यविषयकत्वेन मनोद्रव्यविषयकत्वेन च न सर्वविषयकत्वमिति विकलत्वम् । क्षयोपशमजन्यत्वादित्यनेन केवलज्ञानभिन्नता केवल्यवृत्तित्वच 20 सूचितम्, केवलज्ञानस्य क्षायिकत्वात् केवलिनः क्षायिकभाववत्वाच्च । निरन्तरं तस्य स्वभावतः केवलज्ञानदर्शनोपयोगव्यापृतत्वेनेतरोपयोगासम्भवाच्चेति || तत्रावधि लक्षयति इन्द्रियसंयमनिरपेक्षो रूपिद्रव्यविषयकस्साक्षात्कारोऽवधिः । स द्विविधो भवजन्यो गुणजन्यश्चेति । भवो जन्म, तस्माज्जन्यो यथा सुरना25 रकाणाम्, गुणस्सम्यग्दर्शनादिः, तज्जन्यो यथा नरतिरश्चाम् ॥ इन्द्रियेति, यद्विषयकज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति नियमेनेन्द्रियाणां संयमस्य चापेक्षा १. गमनं हि स्वदेशपरित्यागपूर्वकमपरदेशप्राप्तिः, तथा च ज्ञानस्यात्मदेशं विहाय ज्ञेयदेशप्राप्तौ निःस्वभावत्वमात्मनो भवेत्, स्याच्च ज्ञेयस्यात्मरूपत्वं एवञ्चात्मधर्मत्वं केवलस्य न स्यात्, आत्मविरहेऽपि भावादिति भावः ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिमेदाः । न्यायप्रकाशसमलते नास्ति तादृशो रूपिद्रव्यविषयकः साक्षात्कारोऽवधिरित्यर्थः । मतिज्ञानादौ मनःपर्यवज्ञाने चातिव्याप्तिवारणायेन्द्रियसंयमनिरपेक्षेति पदम् । संयमप्रत्ययावधिविशेषेऽव्याप्तिवारणाय नियमेनेत्युक्तं, पुद्गला रूपिण इति शाब्दबोधस्य वारणाय साक्षात्कार इत्युक्तम् । यादृशावधिसंयमानन्तरमेव जातः तादृशावधेस्संयमसापेक्षत्वेनाव्याप्तिरतो रूपिसमव्याप्यविषयताशालिज्ञानवृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिमत्त्वं लक्षणम् । परमावधिज्ञानमादाय सर्वाधिषु 5 लक्षणसमन्वयः कार्यः । रूपिव्यापकविषयताकत्वं तु न वाच्यं केवलज्ञानेऽतिव्याप्तेः । ज्ञानत्वमादाय मत्यादावतिप्रसङ्गोन्मूलनाय ज्ञानत्वव्याप्येति । विषयतापदेन स्पष्टीयविषयता ग्राह्या तेन पुद्गला रूपिण इति शाब्दबोधे नातिप्रसङ्गः, तस्यास्पष्टीयविषयताकत्वादिति ।। स चावधिर्जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागादारभ्य प्रदेशान्तरवृद्ध्योत्कृष्टतोऽलोकेऽपि लोकप्रमाणान्यसंख्येयखण्डानि क्षेत्रविषयः, कालोऽपि जघन्यत आवलिकाऽसंख्येयभागादारभ्य 10 समयोत्तरया वृद्ध्योत्कृष्टतोऽसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणो विषय इति क्षेत्रकालरूपविषयभेदादसंख्येयभेदः । द्रव्यभावलक्षणविषयापेक्षया चानन्ता अपि भेदास्तथापि संक्षेपेण तस्य भेदमाह स इति, अवधिरित्यर्थः । भवजन्यं व्याख्याति भवो जन्मेति । तस्याधिकारिणमाह यथेति । गुणजन्यं व्याख्याति गुण इति, तस्याप्यधिकारिणमाह यथेति । तथा च तेषु भेदेषु मध्ये केचन भवप्रत्ययाः केचन गुणप्रत्ययाः, ननु सम्यग्दर्शनादिगुणजन्यस्य 15 क्षायोपशमिकत्वं भवस्यौदयिकत्वेन तजन्यस्यौदयिकत्वं प्राप्तं, क्षायोपशमिकभावे चावधिज्ञानमुच्यत इति विरोध इति, मैवम् , मुख्यतया भवजन्यस्यापि क्षयोपशमनिमित्तकत्वात् सोऽपि क्षयोपशमो नारकामरभवे सत्यवश्यं भवतीति तेषां भवजन्यत्वमुक्तमिति ॥ पुनरवधीनां षोढाऽपि सङ्ग्रहस्सम्भवतीत्याह अनुगाम्यननुगामिहीयमानवर्धमानप्रतिपात्यप्रतिपातिभेदात् षड्वि- 20 धोऽवधिः। अवधिमत्पुरुषसहगमनस्वभावोऽनुगामी॥ अनुगामीति । स्पष्टम् । अनुगामिनं लक्षयति अवधिमदिति, यस्समुत्पन्नो देशान्तरमभिव्रजन्तं स्वामिनमनुगच्छति नेत्रादिवत्सोऽनुगाम्यवधिरित्यर्थः । ईदृश एवावधिर्नारकाणां देवानाश्च भवति ।। १. यत्र यत्रावधिविषयता तत् तत्सर्वं रूपिद्रव्यं तथा यद्यपिद्रव्यं तत्र सर्वत्रावधिविषयतेति समव्याप्यव्यापकभावो विज्ञेयः । २. तैजसभाषाद्रव्यापान्तरालवय॑नन्तप्रदेशिकायादारभ्य विचित्रवृद्धया सर्वमूर्तद्रव्याण्युत्कृष्टविषयपरिमाणमवधेरिति द्रव्यतो भावतश्च प्रतिवस्तुगतासंख्येयपर्यायरूपं विषयमानं. तस्मात्सर्वमपि पुद्गलास्तिकायमवधिग्राह्यांश्च तत्पर्यायानाश्रित्यावधिविषयोऽनन्तो भाव्यः । तथा च ज्ञेयभेदेन शानभेदाव्यभावलक्षणविषयापेक्षया अनन्तत्वमवधेरपीति भावः ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३२०: तत्वन्यायविभाकरे [प्रथमकिरणे अननुगामिनमाहउत्पत्यवच्छेदकशरीरावच्छेदेनैव विषयावभासकोऽननुगामी ॥ उत्पत्तीति । शरीरपदमाश्रयपरं तथा च कायोत्सर्गस्थानादिपरिणामविशिष्टयाशशरीरावच्छेदेनावधिरुत्पन्नः तत्स्थानादन्यस्थानमुपयातस्य तादृशपरिणामाभावेन तादृश5 शरीराभावादवधिरपि नश्यति तत्रैव स्थितस्य वर्त्तते च सोऽवधिरननुगामीत्यर्थः, अयं पूर्वश्वावधिर्मनुष्यतिरश्चां भवतीति भाव्यम् ।। हीयमानमाचष्टे स्वोत्पत्तितः क्रमेणाल्पविषयो हीयमानः ॥ स्वोत्पत्तित इति । षड्विधहानिष्वत्र प्रथमान्तिमपरित्यागेन चतुर्विधा हानिर्लाह्या, अव10 धिविषयभूतयोः क्षेत्रकालयोरनन्तत्वासम्भवेनानन्तभागहानेरनन्तगुणहानेश्वासम्भवात् । द्रव्यापेक्षया चानन्तभागहानिरनन्तगुणहानिरिति द्विविधैव स्वाभाव्यात् । पर्यायापेक्षया तु षविधापि हानिर्भवति । द्रव्यक्षेत्रकालपर्यायाणां संयोगे एकस्य हानावपरस्यापि हानिन तु वृद्धिः, तथा द्रव्यादेर्भागेन हानौ अपरस्यापि भागेनैव प्रायो हानिन तु गुणेन तथा गुणेन हानौ अपरस्यापि गुणेनैव हानिन तु भागेन । एवं वृद्धावपि भाव्यम् ॥ 15 वर्धमानमाह - स्वोत्पत्तितः क्रमेणाधिकविषयी वर्धमानः ॥ स्वोत्पत्तित इति । यावत्क्षेत्रं प्रथमावधिज्ञानिना दृष्टं ततः प्रतिसमयमसंख्यातभागवृद्धिं कश्चित्पश्यति कोऽपि संख्यातभागवृद्धि अन्यस्तु संख्यातगुणवृद्धिमपरश्वासंख्यातगुणवृद्धि मित्येवं वृद्धिमानवधिरित्यर्थः ॥ 20 प्रतिपातिनमाचष्टे ___उत्पत्त्यनन्तरं पतनशीलः प्रतिपाती ॥ उत्पत्तीति । उत्पत्त्यनन्तरं कियन्तमपि कालं स्थित्वा ततो ध्वंसनस्वभाव इत्यर्थः । अत्रायं भावः, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यावधिज्ञाननिर्गमस्थानानि फडकान्युच्यन्ते । तानि चैकजीवस्य संख्येयान्यसंख्येयानि च भवन्ति तत्र चैकफडकोपयोगे च जन्तुर्नियमा25 सर्वत्र सर्वैरपि फडकैरुपयुक्तो भवत्येकोपयोगत्वात् जीवस्यैकलोचनोपयोगे द्वितीयलोचनो Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यवः ] न्यायप्रकाश : ३२१: पयोगवत् । एतानि च फडकानि त्रिधा भवन्ति, अनुगामुकानि अननुगामुकानि मिश्राणीति । एतानि च पुनः प्रत्येकं त्रिधा भवन्ति प्रतिपातीन्यप्रतिपातीनि मिश्राणि च एतानि च मनुध्यतिर्यक्षु योऽवधिस्तस्मिन्नेव भवन्ति न देवनारकावधौ ॥ अथाप्रतिपातिनमाह तद्विपरीतोऽप्रतिपाती ।। तद्विपरीत इति । प्रतिपातिविपरीत इत्यर्थः । तत्र नैरयिकभवनपतिवानमन्तरज्योतिकवैमानिका अनुगाम्यप्रतिपायवधय एव तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणान्तु षडपि ॥ अथ मनःपर्यवं लक्षयति संयमविशुद्धिहेतुकं मनोद्रव्यपर्यायमात्रसाक्षात्कारि ज्ञानं मन:पर्यवः । स ऋजुमतिविपुलमतिभेदेन द्विविधः ॥ 10 संयमेति । मनोद्रव्यपर्यायमात्रसाक्षात्कारिज्ञानत्वं लक्षणम् । संयमविशुद्धिहेतुकमिति तु अप्रमत्तत्वर्द्धिप्राप्तिक्षान्त्यादिमत एवेदमिति सूचनाय । मात्रपदं अवधिज्ञामे केवले वाऽतिव्याप्तिवारणाय । अवधिहि मनस्साक्षात्कार्यपि स्कन्धान्तरसाक्षात्कारीति न दोषः, एवं केवलेऽपि । न च मनस्त्वपरिणतस्कन्धालोचितं बाह्यमप्यर्थं मनःपर्यवज्ञानं साक्षात्करोतीत्यसम्भव इति वाच्यम् , बाह्यार्थानां तथाविधमनःपरिणामान्यथानुपपत्तिलिङ्गकानुमाने- 15 नैव ग्रहणाभ्युपगमात् , मनःपर्यवस्य धर्मिग्राहकप्रमाणेन मनोद्रव्यमात्रालम्बनतयैव सिद्धेः । अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणमानुषक्षेत्रवृत्तिमनोद्रव्यविषयमिदं ज्ञानं न तद्वहिर्भूतप्राणिमनास्यवगच्छति । तथा संज्ञिजीवैर्मनोद्रव्याणि गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमितानां द्रव्यमनसामनन्तान् पर्यायान् विषयीकरोतीदम् । न तु भावमनसः पर्यायान् , अमूर्त्तत्वात् छद्मस्थस्य चामूर्त्तविषयायोगात् । अत एव मनःपर्यायमात्रविषयकसाक्षात्कारिज्ञानत्वमित्य- 20 नुक्त्वा मनोद्रव्येत्युक्तम् । मनोद्रव्याणि वीक्ष्य चिन्तनश्चातीतानागतपल्योपमासंख्येयभागविषयम् । पटुतरक्षयोपशमप्रभवत्वादिदं यतो विशेषमेव गृहदुत्पद्यते न सामान्यमतो ज्ञानरूपमेव न तु दर्शनरूपम् । अत्र मनःपर्यवज्ञानी मनश्चिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि जानाति बाह्यार्थाश्चाचक्षुर्दर्शनेन पश्यतीत्यतः कथं न तस्य दर्शनरूपता, अन्यथा पश्यतीति प्रयोगानुपपत्तिः स्यात् यदि चाचक्षुर्दर्शनेन पश्यति तर्हि मतिश्रुतवत्परोक्षत्वं प्राप्तं, अचक्षु- 25 दर्शनस्य तत्रैव समावेशात् प्रत्यक्षार्थविषये मनःपर्यवज्ञाने परोक्षार्थविषयस्याचक्षुर्दर्शनस्य Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे कथं प्रवृत्तिरिति पूर्वपक्षः, अत्र केचिद्वदन्ति समाधानम् , मनःपर्यवज्ञानी पश्यत्यवधिदर्शनेन, मनःपर्यवज्ञानेन जानातीत्यतो न विरोध इति तन्न सम्यक् , अवधिमन्तरेणापि मतिश्रुतमनःपर्यवरूपज्ञानत्रयस्यागमे प्रतिपादितत्वात् , किन्तु एकस्यैव मनःपर्यवज्ञानिनः प्रमातुर्मन:पर्यवज्ञानानन्तरमेव मानसमचक्षुर्दर्शनमुत्पद्यत इति न जानाति पश्यतीति व्यवहारयोरनु5 पपत्तिः, अत एव न परोक्षत्वाद्यापत्तिः, ज्ञानभेदात् । न चैवं मनःपर्यवज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानित्वं विरुद्ध्यते, परोक्षज्ञानवत्त्वादिति वाच्यं भिन्नविषयत्वात् , न ह्यवधिज्ञानिनश्च. क्षुदर्शनाचक्षुर्दर्शनाभ्यां पश्यतः प्रत्यक्षज्ञानितायां कोऽपि विरोध इति विभावनीयम् ॥ मनःपर्यवज्ञानसमृद्धिमतामप्रमत्तसंयतानामुत्पद्यमानमिदं द्विधा समुत्पद्यत इत्याह स इति मनःपर्यव इत्यर्थः । मननं मतिसंवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, 10 घटोऽनेन चिन्तित इत्यादिसामान्याकाराध्यवसायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्ट मनोद्रव्यपरिच्छेदरूपेत्यर्थः । विपुला विशेषग्राहिणी मतिघंटोऽनेन चिन्तितस्स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छेदरूपेत्यर्थः ॥ भेदयोरनयोर्विशेषान्तरमाह 15 आद्यज्ञानं कदाचित्प्रच्यवते द्वितीयन्तु न कदापीत्यनयोवैषम्यम् ॥ आयेति । कदाचिदित्युक्तत्वादाकेवलं कदाचिन्न प्रतिपततीति भावः । द्वितीयं विति विपुलमतिरिति भावः, न कदापीति आकेवलमिति शेषः, वैषम्यमिति स्वगतो भेद इत्यर्थः । इति तपोगच्छनभोमणि श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधर-श्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरण तत्पधरेण विजयलब्धिसरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां पारमार्थिकप्रत्यक्ष निरूपणो नाम प्रथमः किरणः॥ १.नं चावधेर्दर्शनवन्मनःपर्यवस्थापि दर्शनं स्यात् ततस्तेनासौ पश्यतीति व्यपदेश उपपत्स्यत इति वाच्यम् चतुर्विधदर्शनादधिकस्य दर्शनस्यागमेऽनुक्तत्वात् । न च चक्षुर्दर्शनादिचतुष्टयाधिक्येनानुक्तमपि विभङ्गदर्शनं यथाऽवधिदर्शनेऽन्तर्भूतं तथा मनःपर्यवदर्शनमपि अवधिदर्शनान्तर्भूतं सदवधिदर्शनसंज्ञितं भविष्यतीति वाच्यम् , तथापि शास्त्रविरोधात् , मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानवतो दर्शनद्वयस्यैव मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानवतश्च दर्शनत्रयस्यैव शास्त्रे प्रोक्तत्वात् , यदि मनःपर्यायदर्शनमपि स्यात्तदा मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानी दर्शनद्वयवान्न स्यादिति ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 10 सांव्यवहारिकम् ] न्यायप्रकाशसमलते : ३२३ अथ द्वितीयः किरणः। एवं प्रत्यक्षभेदे निरूपिते परोक्षभेदान्निरूपयितुं प्रथमतः परोक्षलक्षणं प्रकाशयति व्यवहितात्मद्रव्यजन्यं ज्ञानं परोक्षम् ॥ . . व्यवहितेति । साक्षादात्मना न जन्यते यज्ज्ञानमपि तु व्यवधायकानिन्द्रियादीनाश्रित्य, तादृशं ज्ञानं निमित्तापेक्षत्वाद् व्यवहितात्मद्रव्यजन्यं अतः परोक्षमित्युच्यत इत्यर्थः । न च 5 निमित्तापेक्षत्वं व्यभिचारि, अवधिनान्तरङ्गस्य क्षयोपशमस्य बहिरङ्गस्य विषयादेरपेक्षणात् , एवं मनःपर्ययज्ञानमपि निमित्तापेक्षं, केवलज्ञानमपि घातिकर्मक्षयं विषयच्चापेक्षत एवेति वाच्यम् , विशिष्टनिमित्तापेक्षत्वस्यैव वाच्यत्वात् , तच्च विशिष्टं निमित्तमिन्द्रयानिन्द्रियाख्यं श्रुते च मतिपूर्वकत्वमपि, अतो न व्यभिचारः ॥ । अथ सांव्यवहारिकप्रत्यक्षलक्षणमाचष्टेइन्द्रियमनोजन्यो विशदावभासस्मांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् ॥ इन्द्रियेति । इन्द्रियेण मनसा तदुभयेन वा जन्यो विशदावभास इत्यर्थः, तत्रेन्द्रिय. निमित्तको विशदावभासो मनोहीनानामेकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाञ्च । मनोजन्यो विशदावभासो मानससुखादिज्ञानम् , तत्र चक्षुरादिव्यापाराभावात् । तदुभयजन्यो विशदावभासः पश्चेन्द्रियाणां घटादिरूपादिचाक्षुषादिज्ञानम् । इन्द्रियजन्यविशदावभासत्वस्य 15 सुखादिमानसेऽव्याप्त्या मनःपदम् । मनोजन्यविशदावभासत्वस्येन्द्रियमनोजन्यविशदावभासत्वस्य वैकेन्द्रियादीनां प्रत्यक्षेऽसत्त्वादिन्द्रियजन्यविशदावभासत्वमपि विवक्षितं, स्मृतिप्रत्यभिज्ञादावतिव्याप्तिवारणाय विशदावभासत्वमुक्तम् । तदुभयजन्यविशदावभासत्वन्तु लक्षणे न प्रवेशनीयं फलाभावात् , पञ्चेन्द्रियचाक्षुषादिप्रत्यक्षस्य मानसस्य चेन्द्रियमनोऽन्यतरजन्यत्वात् , तथा चेन्द्रियमनोऽन्यतरजन्यविशदावभासत्वं सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य लक्षणम् , 20 मनःपदमुपलक्षकमोघस्य, ओघस्सामान्यमप्रविभक्तरूपम् । ओघज्ञाने नेन्द्रियादि निमित्तं, केवलं मत्यावरणक्षयोपशमविशेष एव कारणम् । वल्ल्यादीनां नीवाद्यभिसर्पणज्ञानमोघज्ञानम् । सांव्यवहारिके प्रत्यक्षे केषाश्चिदालोकविषयेन्द्रियाण्यपेक्षाकारणानि, सति प्रकाशे विषय इन्द्रिये च ज्ञानोदयस्य दृष्टत्वात्तत्राप्यन्तरङ्गापेक्षाकारणमिन्द्रियाणि, पारमार्थिकन्तु कारणं क्षयोपशमस्सर्वज्ञानसाधारणमिति ।। .25 १. परैरक्षं सम्बन्धनं जन्यजनकभावलक्षणमस्येति, परेभ्यः पुद्गलमयत्वेन जीवापेक्षया भिन्नेभ्यो द्रव्येन्द्रियननोभ्योऽक्षस्य जीवस्य यत्तत्परोक्षमिति वा व्युत्पत्त्या इन्द्रियमनोव्यवधानेन जीवस्यार्थविषयसाक्षात्कार इति भावः॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२४.: तरवन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे ननु किन्तावज्ज्ञानस्य विशदावभासत्वं, नेन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं चाक्षुषज्ञानेऽ व्याप्तेश्चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेनार्थसन्निकर्षाभावात् । नापि प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासमानत्वमीहादिषु सन्देहाद्यपेक्षिष्वव्याप्तेः । न चान्यान्येन्द्रियव्यापारादेवेहादीनामुत्पत्तन तत्र संशयादीनामपेक्षेति वाच्यमनुभवपराहतत्वात्सन्देहादिभ्यो जायमानत्वेनैवेहादीनां 5 प्रतीयमानत्वात् । न चावग्रहहापायधारणा एकसंवेदनरूपास्ततः प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासमानत्वमक्षतमेवेति वाच्यं स्याद्वादिभिरस्माभिस्तेषामेकत्वस्येवानेकत्वस्यापि स्वीकृतत्वादव्याप्तिः स्थास्यत्येवेत्याशङ्कायामाह अनुमानादिभ्यो विशेषप्रकाशनाद्विशदत्वमस्य ॥ अनुमानादिभ्य इति । विशेषप्रकाशनादिति, नियतवर्णसंस्थानार्थीकाराणां प्रतिभास10 नात् , अनुमाने च तदभावादिति भावः । ज्ञाने च विशदावभासत्वं प्रबलतरज्ञानावरणवीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषाद्भवति, न पदार्थधर्मो विशदावभासत्वं सर्वदा तस्य तथैवावभासप्रसङ्गाद्रूपादिवदिति ॥ अथ तद्विभजते तद्विविधमैन्द्रियं मानसश्च । इन्द्रियजन्यप्रय॑क्षमैन्द्रियम् । मनोज15 न्यप्रत्यक्षं मानसम् ॥ तदिति । सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थः । ऐन्द्रियं लक्षयति इन्द्रियेति, इन्द्रियजन्यत्वस्य प्रत्यभिज्ञानादौ प्रत्यक्षत्वस्य मानसप्रत्यक्षे सत्त्वादुभयम् । मानसं लक्षयति मन इति, स्मृत्यादौ मनोजन्यत्वस्यैन्द्रिये प्रत्यक्षत्वस्य सत्त्वादुभयम् । मनोऽत्र द्रव्यरूपं ग्राह्यमन्य थैन्द्रियेऽतिव्याप्तिस्तदवस्था स्यात् । अवध्यादिषु मनसो हेतुत्वेऽपि न तत्र तदसाधारणमतो 20 न तत्रातिव्याप्तिरसाधारणतया मनोजन्यत्वस्य विवक्षणात् , अत एव वा नैन्द्रियेऽतिव्याप्तिरिति । · ननु प्रत्यक्षलक्षणेऽस्मिन्निन्द्रियमनोजन्यत्वमुक्तम् । तत्र किन्तावदिन्द्रियं परैर्मनसोऽपीन्द्रियत्वेन ग्रहणादन तस्य पार्थक्ये किं वा बीजमित्याशङ्कायामाह तत्रेन्द्रियं द्रव्यभावभेदेन द्विविधम् ।। 25 तत्रेति । सांव्यवहारिकप्रत्यक्षलक्षणघटकीभूतमिन्द्रियं द्रव्यत्वभावत्वरूपविभाजकधर्म द्वयवदित्यर्थः । द्रव्यं परिणामविशेषपरिणतवर्णादिचतुष्टयवत्पुद्गलात्मकम् , भाव आत्मपरि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : ३२५ : णतिविशेषः, एतेन पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशरूपत्वं व्युदस्तम्, तथाहि घ्राणं पार्थिवं रूपा - दिषु सन्निहितेषु गन्धस्यैवाभिव्यञ्जकत्वाद्गोघृतवदित्यनुमानं पृथिवीगन्धाभिव्यञ्जकजले नै - कान्तिकम् | रसनं जलीयं रूपादिषु सन्निहितेषु रसस्यैवाभिव्यञ्जकत्वान्मुखशोषिणां लालावदित्यनुमानं लवणे व्यभिचरितम् । चक्षुस्तैजसं रूपादिषु सन्निहितेषु रूपस्यैवाभिव्यञ्जकत्वात्प्रदीपवदित्यनुमानं मणौ व्यभिचरितम् रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् मणेस्तैजसत्वानभ्युप - 5 गमाच्च तथा चन्द्रकिरणादौ व्यभिचाराच्च । न च तस्य तैजसत्वान्न व्यभिचार इति वाच्यम्, उष्णस्पर्शशून्यत्वेन तैजसत्वासम्भवात्, चन्द्रकिरणं न तैजसं शैत्याज्जलवदित्यनुमानेन तैजसत्वाभावसिद्धेः । स्पर्शनं वायवीयं रूपादिषु सन्निहितेषु स्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वादङ्गसङ्गिसलिलशैत्याभिव्यञ्जक व्यजनपवनवदित्यनुमानं घनसारादावनैकान्तिकम् तस्य हि जले शीतस्पर्शस्यैवाभिव्यञ्जकत्वाद्वायवीयत्वाभावाच्च । पृथिव्यादीनामत्यन्तभिन्नजाती - 10 यत्वासिद्धया तदारब्धत्वासिद्धेश्व । शब्दस्स्वसमानजातीयविशेषगुणवतेन्द्रियेण गृह्यते सामान्यविशेषवत्त्वे सति बाकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवदित्यनुमानश्च शब्दस्याकाशगुणत्वासिद्ध्याऽसिद्धमिति न पार्थिवत्वादिकमिन्द्रियाणामिति भावः ॥ द्रव्येन्द्रियं विभजते . निर्वृत्त्युपकरणभेदेन द्रव्येन्द्रियं द्विविधम् । निर्वृत्तिराकारः ॥ निर्वृत्तीति । निर्वर्त्तनं निर्वृत्तिः प्रतिविशिष्टस्संस्थानविशेषस्तदेवाह निर्वृत्तिराकार इति । उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणमुभयमपि पुद्गलपरिणामम्, भावेन्द्रियस्योपयोगस्य निमित्तं भवति ॥ निर्वृत्तीन्द्रियं विभजते — 15 निवृत्तीन्द्रियमपि द्विविधं बाह्याभ्यन्तरभेदात् । बाह्यं पर्पटिकादि, 20 आन्तरं कदम्बपुष्पाद्याकारः पुद्गलविशेषः ॥ निर्वृत्तीति । आभ्यन्तरबाह्यभेदभिन्नं निर्वृत्तीन्द्रियं निर्माणनामकर्मविशेषेण च निर्वर्त्तितमुपयोगेन्द्रियस्यावधानप्रदाने द्वारभूतम् । तत्र बाह्याया निर्वृत्तेर्बहुविधाकारत पर्पटिकादिरूपेणेत्याशयेनाह बाह्यं पर्पटिकादीति । श्रोत्रस्येयं बाह्या निर्वृत्तिः । नेत्रादीनां भ्रूप्रभृतयः । आन्तरखरूपमाहान्तरमिति, कदम्बेति, अयं श्रोत्रस्यान्तर्निर्वृत्तिरूप:, आदिना 25 धान्यमसूराकारश्चक्षुषः, अतिमुक्तककुसुमचन्द्रकाकारो घ्राणस्य क्षुरप्राकारो रसनस्य नानाकारः स्पर्शनस्य ग्राह्यः । शब्दादिग्रहणोपकारे निर्वृत्तिर्वर्तते ॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३२६ : 5 अथोपकरणेन्द्रियमाचष्टे 15 तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे आन्तरेति । आन्तरेन्द्रियं श्रोत्राद्यन्तर्निर्वृत्तिः कदम्बपुष्पाद्याकारस्तद्वृत्तिर्यो विषयग्रहणसामर्थ्यात्मक शक्तिविशेषश्शक्तिशक्तिमतोरभेदात् सोऽपि द्रव्येन्द्रियमुच्यत इति भावः । इदमपीन्द्रियं बाह्याभ्यन्तरनिर्वृत्तिनिष्ठत्वाद् द्विविधमिति तत्त्वार्थभाष्यकृत् । आगमे तु न कापि तादृशी व्यवस्था दृश्यतेऽतः केवलमान्तरेन्द्रियनिष्ठ इत्युक्तम् । अस्य शक्तिरूपेन्द्रियस्य द्रव्येन्द्रियत्वे युक्तिमाह पुद्गलेति । शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिदभेदादिति भावः । अस्य 10 शक्तिविशेषस्य, द्रव्यत्वं द्रव्येन्द्रियत्वमित्यर्थः । अभेद एवानयोरुच्यतां किं कथञ्चिद्भेदेनेत्यत्राह अस्येति शक्तिविशेषस्येत्यर्थः, उपघात इति वातपित्तादिना विनाश इत्यर्थः, निर्वृत्तीन्द्रियसत्त्वेऽपीति, कदम्बपुष्पाद्याकाराया अन्तर्निर्वृत्तेस्सत्त्वेऽपीत्यर्थः, नार्थग्रह इति, न जीवशब्दादिविषयं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चास्ति कथञ्चिद्भिन्न आन्तरेन्द्रियनिष्ट शक्तिविशेष इति भावः ।। भावेन्द्रियं विभजते- आन्तरेन्द्रियनिष्ठस्स्वस्वार्थग्रहणसामर्थ्यात्मकशक्तिविशेष उपकरणेन्द्रियम् । पुद्गलशक्तिरूपत्वादस्य द्रव्यत्वम् । अस्योपघाते च निर्वृत्तीन्द्रियत्वेsपि नार्थग्रहः || भावेन्द्रियमपि द्विविधम् । लब्ध्युपयोगभेदात् । आत्मनिष्ठेन्द्रियावरणक्षयोपशमरूपार्थग्रहणशक्तिर्लब्धिः ॥ भावेति । स्पष्टम् । लब्धीन्द्रियस्वरूपमाहाऽऽत्मनिष्ठेति । लाभो लब्धिः प्राप्तिरित्यर्थः, आवरणक्षयोपशमप्राप्तिरिति भावः । ज्ञानस्य तदावरणस्य चात्मनिष्ठत्वेन तत्क्षयोपशमोऽपि तन्निष्ठ एवेत्यत उक्तमात्मनिष्ठेति । इन्द्रियावरणक्षयोपशमादिति, गतिजात्यादिनामकर्मोदय तो 20 मनुष्यत्वपचेन्द्रियत्वादिप्राप्तौ सत्यामिन्द्रियविषयेष्वेव शब्दादिषु योऽयं विशेषोपयोगस्तदावरणक्षयोपशमादित्यर्थः । कारणे कार्योपचारात्तु मूले इन्द्रियावरणक्षयोपशमेत्युक्तम् । केचित्वन्तरायकर्मक्षयोपशमापेक्षिणीन्द्रियविषयोपभोगज्ञानशक्तिलब्धिरिति वदन्ति तादृशक्षयोपशमस्यैवार्थग्रहणशक्तिरूपत्वमित्या हेन्द्रियावरणक्षयोपशमरूपार्थग्रहणशक्तिरिति । शेषमपि द्रव्येन्द्रियं लब्धप्राप्तावेव भवति नान्यथेति ॥ १. कदम्बपुष्पाद्याकृतेर्मांसगोलका कारायाः श्रोत्राद्यन्तर्निवृत्तेर्या शब्दादेर्विषयपरिच्छेत्री शक्तिस्तस्या वातपित्तादिनोपघाते सति यथोक्तान्तर्निर्वृत्तेस्सद्भावेऽपि न शब्दादिविषयं गृह्णाति जीव इत्यतो ज्ञायतेऽस्त्यन्तर्निर्वृत्तिशक्तिरूपमुपकरणेन्द्रियं कथञ्चिद्भिन्नमिति तात्पर्यार्थः ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियनिरूपणम् ] अथोपयोगे न्द्रियमाचष्टे -- न्यायप्रकाशसमलङ्कृ : ३२७ : अर्थग्रहणनिमित्त आत्मव्यापार परिणामविशेष उपयोगः ॥ अर्थग्रहणेति । उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः करणे घञ् । उपयोगो ज्ञानं संवेदनं प्रत्यय इति पर्यायाः । स द्विविधस्सा कारोऽनाकारश्चेति, स चेतनेऽचेतने वा वस्तुन्युपयुञ्जान आत्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिच्छिनत्ति तदा स 5 उपयोगस्साकार उच्यते, स च कालतछद्मस्थानामन्तर्मुहूर्त्तम्, केवलिनामेकसामयिकः । सोऽयं मतिश्रुतादिभेदेनाष्टविधः, यस्तु वस्तुनस्सामान्यरूपतया परिच्छेदस्सोऽनाकारोपयोगः कालः पूर्ववदेव, अयमपि चक्षुर्दर्शनादिरूपेण चतुर्विधः । एतत्सर्वानुस्यूतं लक्षणमाह-अर्थग्रहणेति । आत्मव्यापारमात्रस्योपयोगत्वाभावादर्थग्रहणनिमित्त इति, तावन्मात्रस्य च निर्वृत्त्यादावपि सत्त्वाद्विशेष्यम् । अयमुपयोगो यदा द्रव्येन्द्रियापेक्षो भवति तदैवोपयोगे - 10 न्द्रियनामभाग्भवति नान्यथा, अत एवावध्याद्युपयोगस्य नेन्द्रियत्वमवध्यादीनामतीन्द्रियत्वात् । इन्द्रियाणां लाभक्रमस्तु प्रथममिन्द्रियावरणक्षयोपशमरूपा लब्धिस्ततो बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं निर्वृत्तेश्शक्तिरूपमुपकरणं तदनन्तरचेन्द्रियार्थोपयोग इति ॥ अयमेव ज्ञानात्मोपयोगस्स्वपरव्यवसितौ साधकतमत्वात्प्रमाणं न सन्निकर्षो नवा द्रव्येन्द्रियमित्याह — अयमेव प्रत्यक्षं प्रति करणम् | समुदितान्येतानि शब्दाद्यर्थं गृह्णन्ति, इन्द्रियव्यपदेशभाञ्जि च ॥ 15 ," अयमेवेति । उपयोग एवेत्यर्थः एवशब्देन सन्निकर्षादीनां व्युदासः, लब्ध्युपयोगावात्मनः फले जनयितव्ये योग्यत्वाद्र्याप्रियमाणत्वाच्च प्रसिद्धौ उक्तश्च " भावेन्द्रियाणि लब्ध्यात्मोपयोगात्मानि जानते । स्वार्थसंविदि योग्यत्वाद्व्यापृतत्वाच्च संविद इति । 20 संविदात्मा, सेयं लब्धिस्स्वार्थसंविदि योग्यत्वेऽपि प्रकृतानुपयोगित्वान्न प्रमाणव्यपदेशभाक्, प्रमितौ साधकतमस्यैवोपयोगित्वात्तादृशश्चोपयोग एव प्रमाणं व्यापारमन्तरेण स्वार्थसंवि दोsनुपपत्तेः, अन्यथा सुषुप्तस्यापि तत्प्रसङ्गस्स्यात् । न च तदानीं सन्निकर्षाभावादेव न प्रसङ्ग इति वाच्यम्, स्पर्शनादीन्द्रियैरतिमसृणतूलिकाताम्बूलमालती मांसला मोदसुन्दरगेयशब्दादिसन्निकर्षस्य तदानीमपि भावात् । ननु जिज्ञासासहकृतस्यैव सन्निकर्षादेर्हेतुत्वम- 25 न्यथा तवापि तदानीमुपयोगः कथं न स्यात्, न च क्षयोपशमाभावान्नोपयोग इति वाच्यम्, १. साकारानाकारद्वयात्मक उपयोग एवेति भावः, सोऽपि उपसर्जनीकृततदितराकारः स्वविभासकत्वेन प्रवर्त्तमानः प्रमाकरणं न तु निरस्तेतराकारः, तथाभूतवस्त्वभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेरिति तात्पर्यम् ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे : - ३२८ : [ द्वितीयकिरणे तत्रैव प्रयोजकस्य पर्यनुयोगात्, जिज्ञासामन्तरेणान्यस्यासंभवादिति चेन्न जिज्ञासाया ज्ञानातिरिक्ताया असम्भवात्, तस्या एवोपयोगरूपत्वात्, अतिरिक्तत्वे वा तस्यास्सन्निकर्षेऽकिञ्चित्करायास्सहकारित्वासम्भवात् किञ्चित्करत्वे च तस्या एव कारणत्वमस्तु किमन्तर्गडुना सन्निकर्षेण । न च तदानीं मनस इन्द्रियेण सन्निकर्षाभावान्न प्रसङ्ग इति वाच्यं मनसोऽ5 णुत्वासिद्धेः, द्रव्यमनसोऽशेषात्मप्रदेशव्यापिनः पौगलिकस्याये व्यवस्थापयिष्यमाणत्वेनेन्द्रियैस्संयोगसिद्धेरिति । तस्मादुपयोग एव प्रत्यक्षं प्रति करणमिति भावः । न च ज्ञानस्यैव करणत्वे फलत्वं कस्येति वाच्यम्, स्वार्थसंवित्तेः फलत्वात्, न च स्वार्थव्यवसितिः फलं प्रमाणश्चेति कथं ? विरुद्धत्वान्नहि स्वमेव फलं स्वमेव प्रमाणं भवितुमर्हतीति वाच्यम्, प्रमाणफलयोः कथञ्चिद्भेदाभेदादुभयोपपत्तेः । एवमेव ' ततोऽर्थग्रहणाकारा शक्तिर्ज्ञानमि10 हात्मनः । करणत्वे विनिर्दिष्टा न विरुद्धा कथञ्चने ' ति लब्धीन्द्रियस्य करणत्ववादिनां मतमपि न समीचीनम्, तथा फले जनयितव्ये उपयोगेन व्यवधानात्साधकतमत्वासिद्धेः । तस्या ज्ञानशक्तेः प्रत्यक्षत्वे शक्तीनां परोक्षत्वसाधनमार्हतानां विरुद्धं स्यात् । परोक्षत्वे च मीमांसकमतप्रवेशापत्तेः, करणज्ञानस्य परोक्षतायाः फलज्ञानस्य च प्रत्यक्षताया अभ्युपगमात् । अस्माभिश्चोभयोः करणफलयोः प्रत्यक्षताभ्युपगमात्तथा च न लब्धीन्द्रियं करणं 15 प्रमाणं वा, उपचारेण तु सन्निकर्षादिवत्सापि प्रमाणं स्यादिति ।। ननु शब्दाद्यर्थग्रहणे चतुर्विधानामेतेषामिन्द्रियाणां मिलित्वा हेतुत्वं किंवा द्वित्रयादी - नामित्याशङ्कायामाह समुदितानीति, निर्वृत्त्यादीनामेकतराभावेऽपि जीवस्य शब्दादिविषयस्वरूपावबोधो न कदापि भवति विकलकरणत्वादतो मिलितानां हेतुत्वं, अत एव च मिलितानामिन्द्रियव्यपदेश इत्याहेन्द्रियेति । तथा च यस्य यावन्ति द्रव्यभावरूपाणीन्द्रियाणि तस्य 20 तावत्सु समुदितेष्विन्द्रियव्यपदेशो न न्यूनेष्विति भावः । सोऽयमुपयोग एकस्यैकोपयोगकालावच्छेदेनैक एव, नान्यः अर्थान्तरोपयोगकाले पूर्वोपयोगबलस्य विनाशात्, तथानुभवात्, नहि चक्षुर्दर्शनकाले श्रोत्रज्ञानोत्पत्तिरनुभूयते, न चावृतत्वात्तदनुत्पत्तिरिति वाच्यम्, स्वसमयेऽप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न चाणुना मनसा यदा यदिन्द्रियसंयोगस्तदा तज्ज्ञानमिति क्रमेणैव ज्ञानोत्पत्तिरिति वाच्यम्, सर्वाङ्गीण सुखोपलम्भाद्युपपत्तये मनोवर्गणापुद्गलानां शरीर25 व्यापकत्वकल्पनात्, तस्माद्युगपदने कप्रत्ययानुत्पत्तौ स्वभाव एव कारणं नान्यत्, एवं सन्निहितेऽपि सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विषये प्रधानीकृत सामान्य उपसर्जनीकृतविशेषः केवलदर्शनोपयोग एतद्विपरीतः केवलज्ञानोपयोगः । अत्र केवलज्ञानं स्वसमानाधिकरणं यत्केवल १. प्रयोजकस्येति शेषः तथा च जिज्ञासाया आवश्यकत्वे तत्सहकृतसन्निकर्षस्यैव हेतुत्वमिति तदेव प्रमाणं व्यभिचाराभावादिति पूर्वपक्षाशयः ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग: ] भ्यायप्रकाशसमलते । दर्शनं तत्समानकालीनं नवा ?, केवलज्ञानक्षणत्वं वा स्वसमानाधिकरणदर्शनक्षणाव्यवहितोत्तरत्वव्याप्यं नवेति संशये युगपदुपयोगद्वयवादिनो मल्लवादिप्रभृतय आहुः, चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथक्कालानि, छद्मस्थोपयोगात्मककालत्वात् , श्रुतमनःपर्यवज्ञानवत् , वाक्यार्थविषयश्रुतज्ञाने मनोद्रव्यविशेषालम्बनमनःपर्यायज्ञाने चादर्शनस्वभावे मत्यवधिजाद्दर्शनोपयोगाद्भिन्नकालत्वं प्रसिद्धमेव, तथैतान्यपि, केवलिनो ज्ञानदर्शनोपयोगी 5 त्वेककालीनौ युगपदावि तस्वभावत्वाद्यथा रवेः प्रकाशतापौ, क्षीणावरणे च जिने यथा मत्यादिज्ञानस्यावग्रहादिचतुष्टयरूपज्ञानस्य वाऽसम्भवस्तथा विश्लेषतो ज्ञानोपयोगकालभिन्नकाले दर्शनं नास्ति, क्रमोपयोगत्वस्य मतित्वादिचतुष्टयव्याप्यत्वात् सामान्यविशेषोभयालम्बनक्रमोपयोगत्वस्य चावग्रहाद्यात्मकत्वव्याप्यत्वात् केवलयोः क्रमोपयोगत्वे व्यापकयोरप्यापत्तिः स्यात्तथाऽऽगमेऽपि यत्केवलज्ञानदर्शनयोः साद्यपर्यवसितत्वमुक्तं तदपि सङ्गच्छते, 10 अन्यथा द्वितीयसमये ज्ञानाभावेन तृतीयसमये दर्शनाभावेन च तयोः पर्यवसानेनापर्यव. सितत्वं व्याहतं स्यादिति । क्रमोपयोगवादिनो जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यपादाश्च प्राहुः प्रज्ञापनादौ हि सिद्धस्साकारोपयोग एव सिद्ध्यतीत्युक्तं साकारानाकारोपयोगयोर्युगपदभ्युपगमे साकारेति विशेषणं निरर्थकं स्यात्, एवश्व तरतमोपयोगता सिद्धस्य साकारो. पयोगोऽन्यस्मिन् कालेऽन्यदा चानाकारोपयोग इति । अत् एव च सिद्धान्ते तत्र तत्र 15 सिद्धानां ज्ञानदर्शनयोः पार्थक्येन कथनं सङ्गच्छते, अनयोरविशेषे तु केवलज्ञानदर्शनावरणद्वयमपि न घटेत, न ह्येकस्य द्वे आवरणे युज्येते, तथा साकरोपयोगस्याष्टधात्वमनाकारस्य चतुर्विधत्वं ज्ञानस्य पञ्चविधत्वं दर्शनस्य चतुर्विधत्वं व्याहन्येत, न च " असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य” इत्यत्र युगपदेव केवलज्ञानदर्शनोपयोगश्रवणाधुगपत्तौ सिद्ध्यत इति वाच्यम् ” नाणम्मि दंसणम्मि य एत्तो एगयरयम्मि उवउत्तो । 20 सव्वस्स केवलिस्स जुगवं दो नत्थि उवओगा” इति भद्रबाहुस्वामिभिर्युगपदुपयोगस्य निषिद्धत्वात् , न च सर्वस्यैव केवलिनो न द्वावुपयोगौ, किन्तु कस्यापि द्वौ स्यातां १. अत्र क्रमिकोपयोगवादिनां निषेधपक्षः, विधिपक्षस्तु युगपदुपयोगवादिनाम् । अपरविप्रतिपत्तौ वैपरीत्यं भाव्यम् ॥ २. केवलज्ञानक्षणत्वे दर्शनक्षणाव्यवहितोत्तरत्वव्याप्यत्वसंशयः सिद्धत्वापेक्षयाऽन्यथाप्राथमिककेवलज्ञानक्षणे दर्शनक्षणाव्यवहितोत्तरत्वस्याभावेन व्याप्यत्वमनुपपन्नं स्यादिति ॥ ३. यत्र क्रमोपयोगत्वं तत्र मतित्वादिचतुष्टयं, यत्र च सामान्य विशेषोभयालम्बनक्रमोपयोगत्वं तत्रावग्रहाद्यात्मकत्वमिति नियमः, तथा च केवलज्ञानदर्शनयोर्यदि क्रमोपयोगत्वं स्वीक्रियते तर्हि तद्व्यापकस्य मतित्वादिचतुष्टयस्यावग्रहाद्यात्मकत्वस्य चापत्तिः स्यादिति भावः ॥४. नन सर्वमेव सिद्धस्य ज्ञानं दर्शनं वा साकारमेवेति सूचयितुं साकारमिति स्वरूपविशेषणमतो न दोष इत्याशंकायामाहात एवेति, ज्ञानदर्शनयोर्विशेषादेवेत्यर्थः ॥ ४२ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३० : Reaन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे कस्यापि त्वेकः, स च केवली सिद्धो वा भवस्थकेवली वा भवेत्, भवस्थ केवलिनोऽद्यापि सकर्मकत्वादेकदैक एवोपयोगः, सिद्ध केवलिनस्तु सकलकर्मविमुक्तत्वेन युगपद् द्वावप्युपयोगौ भवत इति भद्रबाहुस्वाम्यभिप्राय इति वाच्यम्, सिद्धाधिकारे सिद्धस्यैव तैर्बुपयोगस्य निषिद्धत्वात् । ' उवउत्ता दंसणे य नाणे य' इति वचनन्तु समुदायविषयमेव न तु कस्य5 चिदपि युगपदुपयोग प्रतिपादनपरम् । साद्यपर्यवसितत्वमपि तयोर्न बाधकं, यद्बोधस्वभावेन सदावस्थितं तस्योपयोगेनापि सदा भवितव्यमिति नियमाभावात्, लब्ध्यपेक्षया तयो - रपर्यवसितत्वोक्तेः । केवलज्ञानदर्शन भिन्नज्ञानदर्शनानां निजनिजस्थितिकालं यावदुपयोगा भावेऽपि सत्त्वस्या दर्शनात् । उपयोगो ह्येषामान्त मौहूर्त्तिकः, तस्मात्सतोऽप्यवश्यमुपयोगेन भवितव्यमिति न नियमो व्यभिचारात् । न च क्रमिकोपयुक्तत्वे केवलिनो दर्शनो10 पयोगाभावकाले सर्वदर्शित्वं ज्ञानोपयोगाभावकाले चासर्वज्ञत्वं प्राप्नोति न चैतदिष्टं सर्वदैव केवलिनः सर्वज्ञत्व सर्वदर्शित्वयोरिष्टत्वादिति वाच्यम्, छद्मस्थस्यापि ज्ञानदर्शनयोरेकतरस्मि पयोगे प्रोक्तदोषसमूहस्य जागरूकत्वात् । तथा च निरावरणत्वेऽपि केवलिनस्स्वभावादेव युगपदुपयोगाभाव इति । यदेव केवलज्ञानं तदेव केवलदर्शनमिति वादिनस्सिद्धसेनदिवाकरा वदन्ति - सामान्यविशेषपरिच्छेदावरणापगमे कस्य प्रथमतरमुत्पादो भवेत् ? एकस्योत्पादेs 15 परस्याप्युत्पादापत्तेः, एकसामग्र्या अपरोत्पत्तिप्रतिबन्धकत्वे विनिगमनाविरहेणापरसामग्र्या अप्येोत्पत्तौ प्रतिबन्धकत्वेनोभयोरप्यभावप्रसङ्गात् " सव्वाउ लद्धीउ सागारोवउगोवउतस्से " ति वचनप्रामाण्यात्प्रथमं केवलज्ञानस्य पश्चात्केवलदर्शनस्योत्पाद इति चेन्न लब्धियौगपद्य एवास्य वचनस्य साक्षित्वेनोपयोगक्रमाक्रमयोरौदासीन्यात् । यौगपद्येनाप्युक्तवचनस्य निर्वाहे दर्शनस्यानन्तरोत्पत्स्यसिद्धेश्च न च ज्ञानोपयोगसामान्ये दर्शनोपयोगत्वेन 20 तुति निर्विकल्पक समाधिरूपछद्मस्थकालीन दर्शनात्प्रथमं केवलज्ञानोत्पत्तिः केवलदर्शने केवलज्ञानत्वेन विशेषहेतुत्वाच्च द्वितीयक्षणे केवलदर्शनोत्पत्तिस्ततश्च क्रमिकसामग्रीद्वयसपया क्रमिकोपयोगद्वयधारानिर्वाह इति वाच्यम्, दंसणपूवं नाणं " इत्यादिना तथा हेतुत्वस्य प्रमाणाभावेन निरसनीयत्वात् उत्पन्नस्य केवलज्ञानस्य क्षायिकभावत्वेन नाशा - योगाच्च । न च मुक्तिसमये आयिकचारित्रनाशवन्नश्यतीति वाच्यम्, तस्य आयकत्वेऽपि 25 योगस्थैर्यनिमित्तकत्वेन निमित्तनाशनाश्यत्वात् केवलज्ञानस्य चानैमित्तिकत्वादुत्पत्तौ ज्ञप्तौ "L १. अनन्ता हि सिद्धास्तत्समुदाये केऽपि ज्ञाने उपयुक्ताः केऽपि च दर्शन इति समुदायापेक्षं युगपदुपयोग प्रतिपादनं न तु प्रत्येकापेक्षया प्रत्येकस्य युगपदुभयोपयोगनिषेधादिति भावः । सिद्धो हि बोधस्वभावेन सदावस्थितः, अतस्तेन सोपयोगेन भवितव्यमिति द्वयोर्युगपदुपयोगसिद्ध इति सायपर्यवसितत्वं तयोरित्याशंकायामाह साद्यपर्यवसितत्वमपीति ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियाणि ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३३१ : चावरणक्षयातिरिक्तानपेक्षणात्, तथैव हि तस्य स्वतन्त्रप्रमाणत्वव्यवस्थितिः । एवं च ज्ञानं व्यक्ततारूपं दर्शनन्त्वव्यक्ततारूपं न च क्षीणावरणेऽर्हति व्यक्तताव्यक्तते युज्येते ततस्सामान्यविशेषज्ञेय संस्पर्युभयैकस्वभाव एवायं केवलिप्रत्ययः, न च ग्राह्यद्वित्वाद्वाहक द्वित्वमिति सम्भावनापि युक्ता, केवलज्ञानस्य ग्राह्यानन्त्येनानन्ततापत्तेः, विषयभेदकृतो न ज्ञानभेद इत्यभ्युपगमे तु का प्रत्याशा दर्शनपार्थक्ये, आवरणद्वयक्षयादुभयैकस्वभावस्यैव कार्यस्य स - 5 म्भवात्, न चैकस्वभावप्रत्ययस्य शीतोष्णस्पर्शवत्परस्परविभिन्नस्वभावद्वयविरोध इति वाच्यम्, दर्शनस्पर्शनशक्तिद्वयात्मकै कदेवदत्तवत्स्वभावद्वयात्मकै कप्रत्ययस्य केवलिन्यविरोधात् ज्ञानत्वदर्शनत्वाभ्यां ज्ञानदर्शनयोर्भेदो न तु धर्मिभेदेन, अत एव तदावरणभेदेऽपि स्याद्वाद एवेति ।। एवमिन्द्रियस्वरूपमुपदर्य सम्प्रति तत्संख्यामाह - तत्रेन्द्रियाणि चक्षूरसनघ्राणत्वक्श्रोत्ररूपाणि पञ्च ॥ तत्रेति । अत्र रूपरसगन्धस्पर्शशब्दे तिलौकिक व्यवहारप्रसिद्धक्रमापेक्षया रूपिण: पुद्गला इति सूत्रमनुसृत्य च चक्षुरादिक्रमोऽवलम्बितोऽनानुपूर्वीक्रमस्यापि शास्त्रे प्रसिद्धत्वात् ॥ सम्प्रति चक्षुषो लक्षणमाचष्टे - रूपग्राहकमिन्द्रियं चक्षुरप्राप्यप्रकाशकारि । रूपं श्वेतरक्तपीतनीलकृष्णरूपेण पञ्चविधम् ॥ • 10 15 रूपग्राहकमिति । अत्र लक्ष्यमिन्द्रियव्यपदेशभाक् निर्वृत्त्युपकरण लब्ध्युपयोगरूपमि - न्द्रियम्, अन्यतमापायेऽपि रूपग्रहणासम्भवात् । रूपविषयकज्ञानसाधनत्वे सतीन्द्रियत्वं चक्षुषो लक्षणम् | आत्मादिवारणायेन्द्रियत्वोपादानम् । रसनादावतिव्याप्तिनिवृत्तये सत्यन्तम् । अत्रेदम्बोध्यम् एकस्यैव वस्तुनोऽवस्थाभेदेन रूपादिस्वरूपत्वं भवति, तथाहि चक्षुषा यदेव विलोकितं तदेव रसनया रस्यते, घ्राणेन घ्रायते स्पर्शनेन स्पृश्यते तदेव 20 चातिकठिनी भूतमभ्यवह्रियमाणं ध्वनिमातनोति न तु क्वचिदेशे रूपं क्वचिदेशे रसः क्वचिद्देशे गन्धादयः । तस्मात्तदेव पुद्गलद्रव्यं चक्षुर्विषयतामापन्नं श्वेताद्याकारेण विषयतया परिणतिमुपागच्छद्रूपमिति व्यपदिश्यते, रसनग्रहणविषयतामितं तिक्तादिपरिणामभाग् रस इति व्यपदेशमनुते, एवमितरेन्द्रियप्राप्तानामपि भाव्यम्, दृश्यते ह्येक एव पुरुषः पितृस्वसृभ्रात्राद्यनेकपुरुषापेक्षया तथातथा व्यपदेश्यतया । तदेवं द्रव्यमिन्द्रिय- 25 नानात्वान्नानाssकाररूपादिभेदमापद्यते, स्वनिमित्ततस्त्वेकाकारं द्रव्यस्वलक्षणविशिष्टत्वात् । तदिदञ्चक्षुः प्रकर्षेणात्माङ्गुलप्रमितसातिरेक योजनलक्षावस्थितं प्रकाशनीयरूपं गृह्णाति, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३३२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे जघन्यतोऽङ्गुलसंख्येयभागप्रमितदेशवर्ति रूपमिति । ननु चक्षुर्विषयभूतान पदार्थान स्पृष्ट्वा ज्ञानं जनयत्यस्पृष्ट्वा वेत्याशङ्कायामाहाप्राप्यप्रकाशकारीति । विषयदेशं स्वदेशे वा विषयमप्राप्यासंश्लिष्यैव वस्तु प्रकाशयतीत्यर्थः । ननु सर्वत्रेन्द्रियत्वे तुल्येऽपि नयनातिरिक्तानामिन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वं नयनस्य मनसश्चाप्राप्यकारित्वमिति कुतो विशेष इति चेन्न, उपघाता5 नुग्रहदर्शनाद्रसनादीनां प्राप्यकारित्वं, दृश्यते हि त्रिकटुकाद्यास्वादने, अशुच्यादिपुद्गलाघ्राणे, कर्कशकम्बलादिस्पर्शने, भेर्यादिशब्दश्रवणे तेषामुपघातः, क्षीरशर्कराद्यास्वादने, कर्पूरपुद्गलाघाणे, मृदुतूलिकादिस्पर्शने, मृदुमन्दशब्दाद्याकर्णनेऽनुग्रहः । नयनस्य निशितकरपत्रप्रोल्लसद्भल्लादिवीक्षणेऽपि पाटनाग्रुपघातानवलोकनात् चन्दनागरुकर्पूराद्यवलोकनेऽपि शैत्याद्यनुग्रहाननु भवात् । मनसश्च वह्नयादिचिन्तनेऽपि दाहाद्युपघातादर्शनात् , जलचन्दनादिचिन्तायामपि पिपा10 सोपशमनानग्रहाऽसम्भवाच्च न प्राप्यकारित्वम । न च नयनस्याप्राप्यकारित्वेऽनग्रहोपघाता भावौ व्यभिचरतः, दृश्यते हि घनपटलविनिर्मुक्तं नैदाघार्यमाणं निरन्तरमवलोकयतश्चक्षुषो विघातः, राकानिशाकरकरनिकुरुम्ब तरङ्गमालामण्डितं जलं हरितं तरुमण्डलं शाद्वलञ्च निरन्तरं निभालयतोऽनुग्रह इति वाच्यम् , सर्वथा विषयकृतानुग्रहोपघातासम्भवस्यानुक्तत्वात् । किन्त्वेतावदेव वदामो यदा विषयं विषयतया चक्षुरवलम्बते तदा तत्कृतावनुग्रहोपघातौ तस्य न भवत इत्यप्राप्यकारि तत् , शेषकालन्त प्राप्तेनोपघातकेनानग्राहकेण वोपघातोऽ नुग्रहश्च भविष्यति, दिनकरस्य वंशवः प्रसरणशीला यदा तत्संमुखमवलोक्यते तदा ते चक्षुर्देशं प्राप्ताश्चक्षुरुपनन्ति, स्वभावशीतलाश्शीतकररश्मयोऽपि सम्प्राप्ता एव चक्षुरनुगृह्णन्ति, तरङ्गमालासङ्कलजलावलोकने च जलबिन्दुसंपृक्तपवनसंस्पर्शनानुग्रहः, हरित तरुमण्डलशाद्वलविलोकने च तच्छायासम्पर्केण शीतलभूतवायुसंस्पर्शादेवानुग्रहः, अन्यदा 20 तु जलाद्यवलोकनेऽनुग्रहाभिमान उपघाताभावाद्भवति, नान्यथा । प्राप्यकारित्वे तु समाने सम्पर्के यथा सूर्यमीक्षमाणस्य सूर्येणोपघातो भवति तथा वैश्वानरजलशूलाद्यवलोकने दाहक्लेदपाटनादयः कस्मान्न भवन्ति, किञ्च यदि चक्षुः प्राप्यकारि तदा स्वदेशगतरजोमलाञ्जन १. विषयपरिच्छेदमात्रकालेऽनुग्रहोपघातशून्यता हेतुः, पश्चात्तु चिरमवलोकयतः प्रतिपत्तुः प्राप्तेन रविकिरणादिना चन्द्रमरीचिनीलादिना वा मूर्तिमता निसर्गत एव केनाप्युपघातकेनानुग्राहकेण वा विषयेणोपघातानुग्रहौ भवेतामिति भावः ॥ २. न च नायनरश्मयो नेत्रान्निर्गल्य विषयं प्राप्य सूर्यबिम्बरश्मय इव प्रकाशयन्ति, रविबिम्बरश्मय इव च सूक्ष्मत्वान्न वह्नयादिभिस्तेषां दाहादय इति वाच्यम् , नायनरश्मिग्राहकमानाभावात् , तथात्वेऽपि तेषामभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् , न च वस्तुपरिच्छेदान्यथानुपपत्तिरेव तत्र लिङ्गमिति वाच्यम्, तानन्तरेणापि तत्परिच्छेदोपपत्तेः नहि मनसो रश्मयस्सन्ति, वस्तु च परिच्छिद्यते नच तदपि प्राप्यकार्येवेति वाच्यम् , अप्राप्यकारित्वत्त्य टीकाकृद्भिर्वक्ष्यमाणत्वात् । हेत्वन्तरेणापि तस्याप्राप्यकारित्वमाह यदि चक्षुरिति ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्षुरिन्द्रियम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३३३ : शलाकादिकं कुतो न पश्यति तस्मादप्राप्यकार्येव । ननु यदि चक्षुरप्राप्यकारि भवेत्तर्हि दूरव्यवहितानप्यर्थान् गृह्णीयात् मनोवत् न च तथा, किन्तु अनावृतमदूरभवमेवार्थ, तस्मिनेव तस्य सम्बन्धसम्भवात् , अन्यथाऽऽवरणभावादनुपलब्धिरन्यथोपलब्धिरिति न स्यात् , नहि तदावरणमुपघातकरणसमर्थम् , प्राप्यकारित्वे तु मूर्त्तद्रव्यप्रतिघातात्सम्भवत्यावरणादिकम् , मैवम् , दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् , न खलु मनोऽप्यशेषान् विषयान गृह्णाति 5 तस्यापि सूक्ष्मेष्वागमादिगम्येष्वर्थेषु मोहदर्शनात् तस्माद्यथा मनोऽप्राप्यकार्यपि स्वावरणक्षयोपशमापेक्षत्वान्नियतविषयं तथा चक्षुरपि स्वावरणक्षयोपशमापेक्षत्वादप्राप्यकार्यपि योग्यदेशावस्थितनियतविषयमिति न व्यवहितोपलम्भप्रसङ्गो नापि दूरदेशस्थितानामिति । दृष्टश्चैतदप्राप्यकारित्वेऽप्ययस्कान्तस्य स्वभावविशेषादेव योग्यदेशापेक्षणम् । अन्यथा सर्वाण्यप्ययांसि जगद्वर्तीनि तेन आकृष्येरन् न तु प्रतिनियतमेव । न, चायस्कान्तोऽपि 10 प्राप्यकारी, छायाणुभिस्समाकृष्यमाणवस्तुसम्बन्धात् छायाणूनां सूक्ष्मत्वादेव नोपलम्भ इति वाच्यम्, तद्ब्राहकप्रमाणाभावात् । न चाप्रमाणकं प्रतिपत्तुं शक्यमतिप्रसङ्गात् । न च यदाकर्षणं तत्संसर्गपूर्वकं, यथाऽयोगोलकस्य सन्दंशेन आकर्षणश्चायसोऽयस्कान्तेन, तत्र साक्षादयसोऽयस्कान्तेन संसर्गस्य प्रत्यक्षबाधितत्वेऽपि सूक्ष्मछायाणुभिर्निर्वाह्य इति वाच्यम् हेतोरनैकान्तिकत्वात् , मन्त्रेण हि व्यभिचारः, स स्मर्यमाणो विवक्षितं संसर्गाभावेऽ 15 प्याकर्षति । तथा छायाणुभिरयांसीव काष्ठादीन्यप्याकृष्येरन् सम्बन्धाविशेषात् । न चास्ति तत्र शक्तिप्रतिनियम इति वाच्यम् , अप्राप्तावपि तेनैव निर्वाहे छायाणुकल्पनाया वैयर्थ्यात् । न च चक्षुः प्राप्यकारि व्यवहितार्थानुपलब्धेरिति प्रमाणं तत्साधकमस्तीति वाच्यम् , व्यभिचारात्, काचाभ्रपटलस्फटिकैरन्तरितस्याप्युपलब्धेरिति न तस्य प्राप्यकारित्वमिति ॥ सम्प्रति चक्षुर्विषयभूतरूपप्रकारमाह रूपमिति । पञ्चविधमिति । एतद्व्यतिरिक्तहरि- 20 तादिवर्णानां पञ्चविधवर्णेषु व्यादीनां मेलनेन जायमानत्वान्नाधिकरूपशङ्का, अत एव ते हरितादयस्सान्निपातिका इति कथ्यन्ते, एते द्रव्यात्कथञ्चिद्भिन्नाः, कथश्चित्तादात्म्यमेवानयोस्सम्बन्धो विशिष्टबुद्धिनियामकः, नीलो घटो नीलरूपवान् घट इति प्रतीतेः, नतु समवायः, नीलो घट इत्यत्र नीलपदस्य विनाऽनुपपत्ति लाक्षणिकत्वापत्तेः, समवायस्य प्रमाणबाधितत्वाच्च । तथाहि समवायिभ्यस्स भिन्नोऽभिन्नो वा स्यात , यद्यभिन्नस्तर्हि न कश्चन समवायोऽस्ति, समवायिभिरव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवत् । यदि भिन्नस्स कथं समवायिषु वर्त्तते सामस्त्येनैकदेशेन वा, यदि सामस्त्येन, तर्हि प्रतिसमवायि तस्य पर्याप्तत्वेन समवायनानात्वप्रसङ्गः, यद्येकदेशेन १. प्रयोगश्च चक्षुर्न विषयपरिणामवत् अप्राप्यकारित्वात् मनोवदिति, अप्राप्यकारित्वे सत्यपि, नाविशेषेण सर्वार्थेषु मनःप्रवर्तत इति व्यभिचारं ज्ञानदर्शनावरणादेः प्रतिबन्धकत्वचाह दृष्टान्तस्येति ॥ .. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे तर्हि निरंशताऽभ्युपगमव्याघातः, एकावयवावच्छेदेन वृत्तेः । किश्चैकदेशेनापि समवायस्य केन सम्बन्धेन वृत्तिता, न समवायेनाऽपसिद्धान्तात् । न स्वरूपेण, तस्य प्रतियोग्यनुयोगिभिन्नत्वाभावेन शून्यत्वात् समवायिनोरपि स्वरूपेणैव वृत्तिताप्रसङ्गात् , यदि स्वरूप सम्बन्धस्य भेदस्तर्हि तस्यापि स्वरूपिषु वृत्तितायां सम्बन्धान्तरप्रसङ्गेनानवस्थापातादिति 5 यत्किश्चिदेतत् ॥ अथ रसनेन्द्रियं निरूपयतिरसग्राहकमिन्द्रियं रसनं, प्राप्यकारि। रसश्चाम्लमधुरतिक्तकषायकटुभेदेन पञ्चविधः॥ रसग्राहकमिति । रस्यत आस्वाद्यते इति रसः, तद्विषयकज्ञानसाधनमिन्द्रियं रसन10 मित्यर्थः, रसविषयकमतिज्ञानसाधनत्वे सतीन्द्रियत्वन्तु लक्षणम् , कृत्यं पूर्ववदूह्यम् । नेद मिन्द्रियं चक्षुर्वदप्राप्यकारि किन्तु जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागप्रमितप्रदेशादागतमुत्कर्षण नवयोजनादागतं वा स्वदेशमालिङ्गितमात्मप्रदेशैरात्मीकृतं रसं गृह्णातीत्याशयेनाह प्राप्यकारीति । स्वदेशे विषयं स्पृष्टं ततो बद्धं प्राप्य रसनेन्द्रियं ज्ञानमुत्पादयति, श्रोत्रापेक्षयाs स्यापटुत्वात् शब्दापेक्षया च रसस्य स्तोकत्वात् बादरत्वाच्चेति भावः । रसं विभजते रस15 श्चेति । अग्निदीपनकृदम्लः, पित्तादिप्रशमनो मधुरः, श्लेष्मादिदोषहन्ता तिक्तः, रक्तदोषा द्यपह" कषायः, गलामयादिप्रशमनः कटुः । तथा च भिषक्शास्त्रं-" अम्लोऽग्निदीप्तिकृत्स्निग्धश्शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो मूढवातानुलोमकः ॥ पित्तं वातं विषं हन्ति धातुवृद्धिकरो गुरुः । जीवनः क्लेशद्वालवृद्धक्षीणौजसां हितः ॥ श्लेष्माणमरुचिं पित्तं तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात्तिक्तो रसो बुद्धेः कर्ता मात्रोपसेवितः ॥ रक्तदोषं कर्फ पित्तं 20 कषायो हन्ति सेवितः । रूक्षश्शीतो गुणग्राही रोचकश्च स्वरूपतः ॥ कटुर्गलामयं शोफं हन्ति युक्त्योपसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो बृंहणोऽतिकफापहः” इति । लवणस्तु मधुरादिसंसर्गजत्वान्न पृथगुक्त इति ॥ घ्राणं लक्षयति गन्धज्ञानासाधारणकारणमिन्द्रियं घ्राणम्, प्राप्यकारि । गन्धोऽपि 25 सुरभिदुरभिभेदेन द्विविधः । गन्धज्ञानेति । गन्ध्यत आघायत इति गन्धस्तद्विषयकज्ञाने यदसाधारणं कारणमिन्द्रियं तद् घ्राणमित्यर्थः । संभिन्नस्रोतोलब्धिवारणायासाधारणेति, एवं सर्वत्रेदं वाच्यम् । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीन्द्रियम् ] न्यायप्रकाश समलङ्कृते : ३३५ : नहि सा गन्धज्ञानमात्रेऽसाधारणं कारणं किन्तु एकाधिकविषयकज्ञान एवेति । लक्षणं कृत्यच पूर्ववत् । इदमपि रसनवज्जघन्यतोऽङ्गुला संख्येयभाग प्रमितदेशादुत्कर्षेण नक्कयोजनादागतं स्वदेशं स्पृष्टं बद्धश्च गन्धं गृह्णातीत्याशयेनाह प्राप्यकारीति । गन्धं विभजते गन्धोऽ पीति । सौमुख्यकृत्सुरभिर्वैमुख्य कृहुरभिरिति ॥ स्पर्शनं लक्षयति स्पर्शग्राहकमिन्द्रियं त्वक्, प्राप्यप्रकाशकारिणी । शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकर्कशगुरुलघुरूपेणाष्टविधस्स्पर्शः ॥ स्पर्शग्राहकमिति । लक्षणं कृत्यमूह्यम् । अस्येन्द्रियस्य निर्वृत्तेर्न बाह्याभ्यन्तरभेदो वर्त्तते । त्वगिन्द्रियमपि रसनादिवत्तावत्प्रमाणादागतं विषयं प्राप्य ज्ञानमुत्पादयतीत्याह प्राप्येति । स्पर्शं विभजते शीतेति । अथ श्रोत्रं लक्षयति शब्दग्राहकमिन्द्रियं श्रोत्रम्, प्राप्यकारि । सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्रिविधशब्दः ॥ - 5 १. ननु प्राणस्य प्राप्यकारित्वं न युज्यते, स्वदेशाद्भिन्नदेशस्थस्यापि स्वचिषयस्यैव गृह्णतोऽनुभवसिद्धस्वात् । कर्पूरकुंकुमकुसुमादीनां दूरस्थानामपि गन्धस्यानुभवादिति चेन्न, अन्यत आगत्य गन्धेन प्राणेन्द्रियस्य स्पर्शनात् वायुना हि प्रेरितस्स क्रिय: पुद्गलमयो गन्धो घ्राणेन्द्रियं स्पृशति, अन्यथा घ्राणेन्द्रियस्य तत्कृतानुग्रहोपघातौ न स्याताम् दृश्यते च कर्पूरादिगन्धप्रवेशे इन्द्रियानुग्रहः, अशुच्यादिगन्धप्रवेशे पूतिरोगार्शोव्याधिरूपो घ्राणस्योपघात इति, एवं श्रोत्रेऽपि भाव्यम् ॥ 10 शब्देति । वाग्योगप्रयत्न निसृष्टोऽनन्तानन्तप्रादेशिकपुद्गलस्कन्धप्रतिविशिष्टपरिणामः पुद्गलद्रव्यसंघातविशेषजन्मा वा गर्जिता दिश्शब्दो ऽव सेयस्तद्विषयक ज्ञानजनकमिन्द्रियं श्रोत्रमित्यर्थः 15 लक्षणं कृत्यं प्राग्वदूह्यम् । शब्दद्रव्याणि घ्राणेन्द्रियादिविषयभूतेभ्यो द्रव्येभ्यस्सूक्ष्माणि, बहूनि तथा तत्क्षेत्रभाविशब्दयोग्यद्रव्यवासकानि च ततस्सूक्ष्मत्वादतिप्रभूतत्वात्तदाऽन्यद्रव्यवासकत्वाच्च आत्मप्रदेशैस्स्पृष्टमात्राण्यपि निर्वृत्तीन्द्रियमध्ये प्रविश्य झटित्युपकरणेन्द्रियमभिव्यञ्जयन्ति । श्रोत्रेन्द्रियश्च घ्राणेन्द्रियाद्यपेक्षया स्वविषयपरिच्छेदे पटुतरं, ततस्स्पृष्टमात्राण्यपि तानि श्रोत्रेन्द्रियमुपलभन्ते नास्पृष्टानि श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्तविषयपरिच्छेदस्वभावत्वादित्या - 20 शयेनाह प्राप्यकारीति, स्पृष्टार्थग्राहीत्यर्थः । जघन्येनाङ्गुला संख्येयभागादागतं प्रकर्षेण द्वादशयोजनादागतं स्पृष्टं शब्दं गृह्णाति, नातः परत आगतं तस्य स्वभावतो मन्दपरिणामत्वात्, Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३३६ : तस्वन्याय विभाकरे [ द्वितीयकिरणे श्रोत्रेन्द्रियस्यापि तथाविधमद्भुततरं बलं न विद्यते येन परतोऽप्यागतान् शब्दान् शृणुयादिति भावः । ननु श्रोत्रस्य प्राप्तार्थग्राहित्वं न युज्यते, स्वदेशाद्भिन्नदेशस्थस्यापि शब्दस्य ग्रहणानुभवात्, नहि कश्चिच्छन्दः श्रोत्रेन्द्रिये प्रविशन्नुपलभ्यते, नवा श्रोत्रेन्द्रियं शब्ददेशे गच्छत्, समीक्ष्यते, दूरे एष कस्यापि शब्दः श्रूयते इति जनोक्तिरपि श्रूयते इति चेन्मैवम्, श्रोत्रं हि शब्दः 5 प्राप्नोति न तु शब्दं श्रोत्रमबाह्यकरणत्वादात्मनः । ते च शब्दा गत्यादिक्रियावन्तः पुद्गलमयाः, वायुनोह्यमानत्वात् क्रियावन्तो धूम इत्र, विशेषेण द्वारानुविधानात्तोयवत्, पर्वतनितम्बादिषु प्रतिघाताद्वायुवदिति, श्रोत्रमध्यागतं शब्दं गृह्णाति, उपघातानुग्रहोपलब्धेः, भेर्यादिमहाशब्दप्रवेशे हि श्रोत्रस्य बाधिर्यरूप उपघातो दृश्यते, कोमलशब्दप्रवेशेत्वनुग्रहः, श्रोत्रेण सन्निकृष्टस्यापि शब्दस्य ग्रहणे तत्र दूरादिव्यवहारस्य दूरादिदेशादागतत्वेनोपपद्यमानत्वं दृश्यते 10 हि गन्धस्य प्राणेन्द्रियेण सन्निकृष्टस्यापि ग्रहणे दूरादिदेशादागतत्वेन दूरे बकुलपरिमल इत्यादिव्यवहारः । अव्यवहितदेशोत्पन्ने शब्दे देशश्चाक्षुषप्रत्यक्षेण लक्ष्यते व्यवहितदेशस मुद्भवे च तस्मिन् देशप्रतिपत्तिरानुमानिकीति । अत्रेदम्बोध्यं सर्वस्तोकप्रदेशावगाढं चक्षुरिन्द्रियम् ततः श्रोत्रेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणं अतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाहनभावात् । ततोऽपि घ्राणेन्द्रियमवगाहनार्थतया संख्येयगुणमतिप्रभूतेषु प्रदेशेषु तस्यावगाह15 नोपपत्तेः । ततोऽपि रसनेन्द्रियं संख्येयगुणं ततोऽपि स्पर्शनेन्द्रियमवगाहनार्थतयाऽसंख्येयगुणम् । एवमेव प्रदेशातयापि । सर्वाणीन्द्रियाणि च वर्त्तमानार्थग्राहीणीति ॥ अथ शब्दभेदानाह सचितेति, जीवेन मुखद्वारा भाषमाणो यश्शब्दस्स सचित्तः, परस्परं पाषाणद्वयपरिस्फालनप्रभवोऽचित्तः, आत्मप्रयत्नतो वाद्यमानेषु वादित्रादिषु समुन्मिषन् शब्दो मिश्रः ॥ अथ मनो लक्षयति मतिश्रुतविषयीभूतार्थज्ञानसाधनमनिन्द्रियं मनः, अप्राप्यप्रकाश कारि ॥ मतीति । मतेश्श्रुतस्य वा विषयी भूतोऽर्थस्तद्विषयक ज्ञानसाधनत्वे सत्यनिन्द्रियत्वं मनसो लक्षणमित्यर्थः। मतिश्रुतान्यतरज्ञानसाधनत्वे सत्यनिन्द्रियत्वमिति यावत् । औदारिकादित्वार्थपरिच्छेदकत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं भवति, ईषदूनमिन्द्रियमनिन्द्रियं मनस्तत्त्वं 25 तस्यौदारिकादित्वधर्मलक्षणदेशनिषेधात् अर्थपरिछेदकत्व लक्षणेन्द्रिय सादृश्याच्च । अर्थावग्रहात् 20 १. ननु शब्दपरमाणव उत्पत्तिदेशादारभ्य सर्वतो जलतरङ्गन्यायेन प्रसरमभिगृहानाः श्रोत्रेन्द्रियदेशं प्राप्नुवन्ति प्राप्तां तान् श्रोत्रेन्द्रियं गृह्णाति नाप्राप्तानिति यद्युच्यते तर्हि शब्दे दूरासन्नादिभेदप्रतीतिर्न स्यात् प्राप्तो हि विषयः परिच्छिद्यमानस्सर्वोऽपि सन्निहित एव, प्रतीयते च दूरे शब्दोऽन्तिके शब्द इति तत्र दूरासन्नादिभेद इत्याशङ्कायामाह श्रोत्रेण सन्निकृष्टस्यापीति । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोनिरूपणम् । ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३३७ : परतो मतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानं भवति तच्च न सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थावग्रहात् परतः, किन्तु मनोवग्रहात् परतो मतिः श्रुतीभवतीति श्रुतस्य मनोविषयत्वं बोध्यम् । शब्दादिष्विन्द्रियव्यापारानन्तरं मनो व्याप्रियते त्रिकालविषयश्च । ननु मे मनोमुत्र गतमित्याद्यनुभवेन मनो देहान्निर्गत्य जाति स्वप्ने वा ज्ञेयेन सम्बध्य ज्ञानमुत्पादयत्यत इदं किं प्राप्यकारीत्यत्राहाप्राप्यप्रकाशकारीति । ज्ञेयेन सह न संश्लिष्यति मनो विषयकृतानुग्रहोपघाताभावाच्चक्षुर्वदिति, 5 ज्ञेयसंपर्केऽभ्युपगम्यमाने तोयचन्दनादिचिन्तनकाले शैत्यानुभवनेन स्पर्शनवदनुगृह्येत, विषशस्त्रादिचिन्तनसमये च तद्वदेवोपहन्येत न चैवं, तस्मादप्राप्यकारि मन इति, तथा तस्य बहिर्निस्सरणमपि नोपपद्यते भावमनसश्चिन्ताज्ञानपरिणामरूपतया जीवादव्यतिरिक्तत्वेन देहमात्रैव्यापित्वात् | नहि ये देहमात्रव्यापिनस्तेषां बहिर्निस्सरणं युज्यते तद्गतरूपादिवत् । द्रव्यमनसश्च घटादिवदचेतनत्वेन गत्वापि विषय देशम किञ्चित्कारित्वात् । न च तस्य स्वय- 10 मचेतनत्वेऽपि प्रदीपवत् करणत्वात् विषयदेशं प्राप्याऽऽत्मनो ज्ञानं जनयतीति वाच्यम्, द्रव्यमनसोऽन्तःकरणत्वात्, तथा च प्रयोगो यदन्तःकरणं तेन शरीरस्थेनैव जीवो विषयं गृह्णाति यथा स्पर्शनेन, अन्तःकरणञ्च द्रव्यं मन इति, प्रदीपादिकन्तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलो दृष्टान्तः । न च मृतनष्टादिकं वस्तु चिन्तयतो मनस उपघातो ज्ञायते, इष्टसंगमविभवलाभादिकञ्च चिन्तयतोऽनुग्रह इति वाच्यम्, असिद्धेः, मनस्त्वपरिणतानिष्ट- 15 पुद्गलनिचयरूपं द्रव्यमनोऽनिष्टचिन्ताप्रवर्त्तनेन जीवस्य देहदौर्बल्याद्यापत्त्या हृन्निरुद्धवायुवदुपघातं जनयति, तदेव च शुभपुद्गलपिण्डरूपं तस्यानुकूलचिन्ताजनकत्वेन हर्षाद्यभिनिर्वृत्त्या भेषजवदनुग्रहं विधत्ते, अतो जीत्रस्यैवैतौ अनुग्रहोपघातौ द्रव्यमनः करोति, नतु मन्यमानमेर्वादिकं ज्ञेयं मनसः किमप्युपकल्पयतीति । न च चिन्तैव कार्याद्युपघातादिजनिका न द्रव्यमन इति वाच्यम्, तस्या अपि द्रव्यमनोजन्यत्वात् अन्यथा चिन्ताया ज्ञान - 20 रूपत्वेनामूर्त्ततया गगनादिवदुपघाताद्यहेतुत्वापत्तेः । तस्मात्प्राप्यकारीदं न भवतीति भावः ॥ अस्यापि विभागं दर्शयति इदमपि द्रव्यभावभेदेन द्विविधम् । मनस्त्वेन परिणतमात्मप्रदेशव्यापि पौगलिकं द्रव्यमनः । तदावरणक्षयोपशमजन्योऽर्थग्रहणोन्मुख आत्मव्यापारविशेषो भावमनः ॥ १. तथा चात्र प्रयोगः भावमनः जीवरूपं न देहाद्वहिर्निस्सरति देहमात्रव्यापित्वात् ये देहमात्रवृत्तयो न तेषां वहिर्निस्सरणमुपपद्यते यथा तद्गतरूपादीनां देहमात्रव्यापि च जीवरूपं भावमन इति ॥ ४३ 25 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [द्वितीयकिरणे .... इदमपीति, चक्षुरादिवन्मनोऽपीत्यर्थः । द्रव्यमनसः स्वरूपमाह मनस्त्वेनेति, मन. नयोग्यैर्मनोवर्गणाभ्यो गृहीतैरनन्तैः पुद्गलैनिवृत्तमित्यर्थः । आत्मप्रदेशव्यापीति, स्वस्वकायपरिमितमित्यर्थः, न त्वणुरूपं युगपज्ज्ञानानां युगपदुपयोगाभावादेवानुत्पत्तेरिति भावः । आहङ्कारिकत्वनित्यत्ववारणायाह पौद्गलिकमिति पुद्गलसमूहात्मकमित्ययः। भावमन आह 5 तदावरणेति मनोजन्यज्ञानावरणेत्यर्थः । अर्थग्रहणोन्मुख इति, तत्तदर्थपरिच्छेदोन्मुख इत्यर्थः, आत्मव्यापारविशेष इति, चित्तचेतनायोगाध्यवसानस्वान्तमनस्कारादिशब्दवाच्य आत्मनः परिणामविशेष इत्यर्थ इदमपि ज्ञानरूपं भावमनस्स्वदेहपरिमाणमेव ।। एवं सांव्यवहारिकप्रत्यक्षलक्षणं सविस्तरं विचार्य सम्प्रति तद्विभजते सांव्यवहारिकञ्चावग्रहेहापायधारणाभेदेन चतुर्विधम् ॥ 10 सांव्यवहारिकश्चेति । तत्तदिन्द्रियनिमित्तं चतुर्विधं यथा चक्षुरवग्रहश्चक्षुरीहा चक्षुरपायश्चक्षुर्धारणा, रसनावग्रहो रसनेहा रसनापायो रसनाधारणेत्येवं सर्वेन्द्रियमादाय मनोऽप्यादाय चातुर्विध्यं सांव्यवहारिकप्रत्यक्षस्य भाव्यम् ।। अथावग्रहलक्षणमाख्याति-- विषयेन्द्रियमनोऽभिसम्बन्धजन्यदर्शनजनितं सत्तावान्तरसामान्य15 वद्वस्तुविषयकं ज्ञानमवग्रहः । यथाऽयं मनुष्य इत्यादि ॥ विषयेन्द्रियेति । द्रव्यपर्यायस्वरूपोऽर्थो विषयः, इन्द्रियं चक्षुरादि मनः प्रसिद्धं, तेषामभितः पूर्णतया भ्रान्ताद्यनिमित्तकत्वेन यस्सम्बन्धो योग्यस्थानावस्थितिरूपस्तेन जन्यं यदर्शनं सन्मात्रविषयकनिर्विशेषकबोधस्तेन जनितं यत्सत्तावान्तरसामान्यव द्वस्तुविषयकं ज्ञानं सत्त्वव्याप्यमनुष्यत्वादिप्रकारकेदत्वाद्यवच्छिन्नविशेष्यकज्ञानं तद20 वग्रहपदवाच्यमित्यर्थः । निदर्शनमाह यथेति । अत्रावग्रहो यद्यपि व्यञ्जनार्थाव ग्रहभेदेन द्विविधः, तत्रान्तनिर्वृत्तीन्द्रियाणां शब्दादिविषयपरिच्छेदहेतुश्शक्तिविशेष उपकरणेन्द्रियरूपः, शब्दादिरूपेण परिणतद्रव्यसमूहः, उपकरणेन्द्रियपरिणतशब्दादिद्रव्ययोस्सम्बन्धश्च व्यञ्जकत्वाद्व्यज्यमानत्वाच्चोपलक्षणेन त्रितयमपि व्यञ्जनमुच्यते । व्यञ्ज १. इन्द्रियमनोनिमित्तकमतिज्ञानस्य श्रुतनिश्रिताश्रतनिश्रितभेदभिन्नस्य भेदा इमे, यद्यपि श्रुतनिधितस्यावग्रहादयश्चतुर्विधाः, अश्रुतनिश्रितस्यौत्पत्तिक्यादयो भेदा भवन्ति तथापि औत्पत्तिक्यादिष्वप्यवग्रहादयो विद्यन्त एव । परन्तु श्रतनिश्रितावग्रहादयो व्यवहारकाले श्रुतानपेक्षया प्रवर्तन्ते पूर्व श्रुतपरिकार्मतमतिभवेत् औत्पत्तिक्यादिषु त्वीहाद्यभिलापः श्रुतानुसरणमन्तरेण भवति तथाविधकर्मक्षयोपशमादिति बोध्यम् ॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचनम् ] न्यायप्रकार :३३६ : नेन सम्बधेनावग्रहणं व्यज्यमानस्य शब्दादिरूपार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः अथवा व्यञ्जनानां शब्दादिरूपतया परिणतद्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामवग्रहोऽ व्यक्तपरिच्छेदो व्यञ्जनाऽवग्रहः, व्यञ्जनेनोपकरणेन्द्रियेण स्वसम्बद्धस्यार्थस्य शब्दादेरवग्रहणमव्यक्तपरिच्छेदो व्यञ्जनावग्रह इति, अयश्च सम्बन्धानन्तरं प्रथमसमयादारभ्यार्थावग्रहात्प्राक् सुप्तमत्तमूञ्छितादिपुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसम्बन्धमात्रविषयोऽव्यक्तो ज्ञान. 5 रूपोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः । अव्यक्तत्वादेव च न संवेद्यते संवेदनाभावात्तस्याभावाङ्गीकारे तु द्वितीयादिसमयेऽपि तस्याभावप्रसक्त्या चरमसमयेऽर्थावग्रहो न स्यादेव, अर्थावग्रहस्तु स्वरूपनामजातिक्रियागुणद्रव्यकल्पनारहितस्सामान्यार्थग्रहणरूपः, तथा चोक्तदृष्टान्तेऽमनुष्यव्यावृत्तिरूपविशेषप्रतिभासनेऽपि नैश्चयिकव्यावहारिकरूपेणावग्रहस्य द्वैविध्यादत्र व्यावहारिकावग्रहो निदर्शितस्तदुत्तरमपीहादीनां प्रवृत्तेः । अन्यथा तेषां प्रवृत्तिर्न स्यादेवेति भावः॥ 10 नैश्चयिकावग्रहं विशेषमात्रानवगाहित्वेन दर्शनापरपर्यायं स्वरूपयतिसत्तामात्रावगाहिज्ञानं दर्शनमालोचनम् । यथेदं किञ्चिदिति ॥ सत्तामात्रेति । मात्रपदेन नामजात्यादिव्युदासो दर्शनस्य नामान्तरमाहालोचनमिति । एतस्य दृष्टान्तमाह यथेति । इतीति, एतादृशशब्दप्रयोगाभिव्यङ्गयश्शब्दप्रयोगरहितो ज्ञानविशेष इत्यर्थः । अन्यथा शब्दोल्लेखित्व आन्तौहूर्तिकत्वापत्त्याऽर्थावग्रहस्यैकसामयिकत्व- 15 सिद्धान्तव्याकोपस्स्यादिति भावः । इदश्चोदाहरणं नैश्चयिकाव्यक्ताव्यावृत्तवस्तुसामान्यग्राहि । तत ईहिते सति मनुष्योऽयमिति निश्चयात्मकोऽपायो भवति । ततोऽपि मनुष्योऽयं पाश्चात्यः पौरस्त्यो वेति संशयोत्तरं पाश्चात्येन भवितव्यमितीहोदयात्तदपेक्षया मनुष्योऽयमिति ज्ञानस्य व्यावहारिकावग्रहत्वं, एवमेव यावत्तारतम्येनोत्तरोत्तरविशेषाकाङ्क्षा समुदेति तावत्तत्तदपेक्षया पूर्वपूर्वस्य सामान्यविषयकतयाऽवग्रहरूपता, पूर्वपूर्वापेक्षया चोत्तरोत्तर- 20 निश्चयानां विशेषविषयकत्वेनापायरूपताऽवसेयेति ॥ ननु विषयेन्द्रियमनोऽभिसम्बन्धेत्यादिना यदवग्रहस्य लक्षणमुक्तं तच्चक्षुर्मनसोप्राप्यकारित्वेन तज्जन्यावग्रहेऽव्याप्तं सम्बन्धाभावादित्याशङ्कायामाह १. यस्य ज्ञानस्यान्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात्तत एव ज्ञानमुपजायते तज्ज्ञानं दृष्टं, यथाऽर्थावग्रहपर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूपादानात् ईहासद्भावादावग्रहो ज्ञानम् , ज्ञायते च व्यञ्जनावग्रहस्य पर्यन्ते तज्ज्ञेयवस्तूंपादानात्तत एवार्थावग्रहज्ञानं तस्माद्यञ्जनावग्रहो ज्ञानमिति, अव्यक्तत्वञ्च तस्यैकतेजोऽवयवप्रकाशवत् स्वसंवेदनेनाप्यव्यज्यमानत्वादिति भावः ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३४०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे __योग्यतैवान विषयेण चक्षुर्मनसोस्सम्बन्धः । सा चानतिदूरासन्नव्यवहितदेशाद्यवस्थानरूपा । इतरेन्द्रियेषु संश्लेषः॥ योग्यतैवेति । अत्रास्मिन् लक्षणे विषयेण रूपादिना चक्षुर्मनसोस्सम्बन्धो योग्यतैव इत्यन्वयः । एवपदेन संश्लेषस्य व्यवच्छेदः । तेन तयोर्विषयेण संश्लेषलक्षणसम्बन्धाभावेऽ 5 पि न क्षतिः, अभ्युपगन्तव्या परैरपि योग्यता, इतस्था स्फटिकान्तरितस्येव कलुषितजलान्तरितस्यापि भावस्योपलम्भप्रसङ्गस्यात् जलेन विध्वस्तं लोचनतेज इति न साम्प्रतम् , स्वच्छजलान्तरितस्याप्यग्रहणप्रसङ्गात् । का सा योग्यतेत्यत्राह सा चेति, निरुक्तप्रमाणादतिदूरवर्त्तिनोऽत्यासन्नस्य कुड्यादिव्यवहितस्य च भावस्याग्रहणादनतिदूरासन्नव्यवहितदेशाद्यव स्थानरूपा योग्यतेत्यर्थः । केषाश्चिदतिशयज्ञानभृतामस्मदाद्यगोचरविप्रकृष्टस्वविषयस्य स्व. 10 च्छस्फटिकजलादिव्यवहितस्य च चक्षुषा परिच्छेदादीदृशी योग्यता न सार्वत्रिकीत्यत आदिपदमुपात्तं तेन तादृशतदावरणक्षयोपशमविशेष एव योग्यतेति भावः । श्रोत्रादिस्थले तु तत्तदावरणक्षयोपशमविशिष्टस्संश्लेषोऽपीत्याहेतरेन्द्रियेष्विति, अन्यथा स्पृष्टत्वबद्धत्वासंभवेन तत्तद्विषयग्रहणं न स्यादेवेति भावः । अथेहां लक्षयति15 अवगृहीतधर्मिण्यवगृहीतसामान्यावान्तरविशेषस्य पर्यालोचनमीहा। . इयश्चावगृहीतसामान्यधर्मावान्तरधर्मविषयसंशयावायते । यथाऽयं मनुष्यः पौरस्त्यो वा पाश्चात्यो वेति संशयाल्लक्षणविशेषेण पौरस्त्येनानेन भवितव्यमिति ॥ अवगृहीतेति । अवगृहीतधर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपिततादृशधर्मावान्तरधर्मनिष्ठविल20 क्षणप्रकारतानिरूपकज्ञानत्वमीहाया लक्षणम् । विलक्षणप्रकारता च पौरस्त्येनानेन भवितव्यमित्याकारकप्रतीतिसिद्धा बोध्या, उत्प्रेक्षात्मकज्ञानीयप्रकारतेति यावत् । अवग्रहादुत्तरकालमपायात्पूर्वकालं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखा असद्भूतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखाः प्रायः पौरस्त्यधर्मा दृश्यन्ते नतु पाश्चात्यास्ततोऽनेन पौरस्त्येन भवितव्यमित्येवं ज्ञानं, अत एवास्यायं पाश्चात्यो वा पौरस्त्यो वेति सर्वात्मना सुप्तमिव स्थितात्संशयाद्भेदः, तस्य व्यति १. उत्प्रेक्षा च " अरण्यमेतत्सविताऽस्तमागतो न चाधुना संभवतीह मानवः । प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा भाव्यं मृडानीपतितुल्यनाम्ना ॥” इत्यादिरूपं ज्ञानम् ॥ २. उपलक्षणमिदं संशयस्य वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वेनाज्ञानात्मकत्वान्मतिभेदत्वेनेहाया वस्तुतो ज्ञानस्वभावत्वात् , ज्ञानाज्ञानयोश्च परस्परपरिहारेण वृत्तेर्ना ज्ञानरूपसंशयस्य ज्ञानांशात्मकेहारूपत्वमिति बोध्यम् ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपायनिरूपणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :३४१ : रेकधर्मनिराकरणप्रवणत्वे सत्यन्वयधर्मघटनप्रवृत्तिरहितत्वात् किन्तु संशय ईहायां कारणं भवति व्यतिरेकधर्मान्वयधर्मोपस्थापकतयेत्याशयेनाहेयश्चेति, ईहा चेत्यर्थः । संशयोत्तरकालं विशेषोपलिप्सायां प्रवर्तनरूपेहा भवति, तत ईहा संशयभिन्नेति भावः । ईहाया दृष्टान्तमाह यथेति । नैश्चयिकाव्यक्तवस्तुमात्रग्रहणात्मकार्थावग्रहोत्तरं किमिदं वस्तु मया गृहीतं शब्दोऽशब्दो वेति संशय्य शब्देनानेन भवितव्यं इत्येवं भवितव्यताप्रत्ययाभिमुखी 5 ईहापि भाव्या ॥ अपायं निरूपयति ईहाविषयविशेषधर्मवत्तानिर्णयोऽपायः । यथाऽयं पाश्चात्य एवेति । अयमेव प्रत्यक्षप्रमाणमुच्यते, नत्ववग्रहेहे तयोरनिर्णयरूपत्वात् ॥ ईहेति । ईहाविषयीभूतपाश्चात्यत्वादेर्धर्मस्य निर्णयो याथात्म्येन निश्चयः पाश्चात्य 10 एवायमिति सोऽपाय इत्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथेति पाश्चात्य एवेति, एव शब्देन पौरस्त्यत्वादिधर्मनिषेधः, अन्यतरवचने अन्यतरनिषेधस्य सामर्थ्यलब्धत्वात् । यदा तु नायं पौरस्त्य इति करोत्यपायं तदापि सामर्थ्यात्पाश्चात्य एवेति लभ्यते तदीयविशेषलिङ्गात् । नैश्चयिकापायस्तु शब्द एवायमित्येवंरूपः । ननु स्वस्वविषये सम्यगर्थनिर्णयात्मकत्वादवग्रहेहयोरपायात्सर्वथाभिन्नत्वाभावाच्च प्रमाणात्मकत्वेऽपि उत्तरोत्तरापेक्षयाऽवग्रहस्य सामा- 15 न्यमात्रविषयकत्वेन पर्यालोचनारूपत्वाचेहाया हेयोपादेयवस्तुतिरस्कारस्वीकारयोस्स्पष्टतया सामर्थ्यविरहात्तादृशस्य निश्चयात्मकस्यापायस्यैव तादृशं प्रमाणत्वमित्याशयेनाहायमेवेति अपाय एवेत्यर्थः । एवशब्दव्यवच्छेद्यमाह नत्विति, प्रमाणमुच्यत इत्यनेन सम्बन्धः, नात्र प्रमाणस्य सर्वथा निषेधो भाव्यः । अन्यथाऽपायस्यावग्रहादिपर्यायत्वेन तस्यापि प्रमाणत्वमनुपपन्नं स्यादत एव चावग्रहेहयोः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रमाणभेदत्वं किन्तु 20 अवग्रहेहे व्यापारांशी, जिज्ञासानिवृत्त्यनन्तरकालीनापायस्तु फलांश इत्यस्य हेयहानोपादेयोपादानक्षमत्वादित्यभिप्रायेणैवास्य प्रमाणत्वमुक्तमिति ध्येयम् ॥ अंसद्भूतार्थविशेषव्यतिरेकावधारणमेव नापायः, क्वचित्तदन्यव्यतिरेकपरामर्शात् यथा नेह शिरःकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा दृश्यन्तेऽतस्स्थाणुरेवायमिति, कचिदन्वयधर्मसमनुगमात् , यथा स्थागुरेवायं वल्ल्युत्सर्पणपक्षिनिलयनादिधर्माणामिहान्वयादिति, कचिच्चोभाभ्यामपि, यथा पुरु- 25 १. तत्र विद्यमानस्थाण्वादिभिन्नपुरुषवृत्तिशिरःकण्डूयनादिधर्मविशेषाणां पुरोवत्तिनि प्रतिषेधमात्रमेवापायो न तु सद्भतार्थविशेषावधारणरूपोऽपि, तस्य धारणारूपत्वादिति पूर्वपक्षस्य भावः ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीय किरण धर्माः शिरः कण्डूयनादयो न दृश्यन्ते, स्थाणुधर्माश्च वल्ल्युत्सर्पणादयो दृश्यन्तेऽ स्थाणुरेवायमिति भवतोऽपायस्य निश्वयैकरूपेण भेदाभावात् ॥ अथ धारणां निरूपयति 5 स्मरणोत्पत्त्यनुकूलोsपायो धारणा । इयञ्च संख्येया संख्येयकालवर्त्तिनी ज्ञानरूपा संस्कारशब्दवाच्या च । अवग्रहादयस्त्वान्तमौहूर्त्तिकाः ॥ स्मरणेति । स्मरणमतीतपदार्थचिन्तनरूपा स्मृतिः, तदुत्पत्त्यनुकूलस्तस्याः परिणामिकारणं संस्कारवासनापरपर्यायो ज्ञानात्मा अपाय एव धारणेत्यर्थः । नहि संस्कारादयो ऽज्ञानरूपाः, ज्ञानात्मक स्मृतिजनकत्वानुपपत्तेः, आत्मधर्मत्वासम्भवाञ्च चेतनधर्मस्या चेतन10 त्वाभावात् । यद्यपि धारणाऽविच्युतिवासनास्मृतिभेदेन त्रिविधा, अपायनिश्चितार्थविषयकोपयोग सातत्यमविच्युतिः । अपायानन्तरमर्थोपयोगस्यावरणभूतकर्मणः पुनः प्राप्तस्य कालान्तरे क्षयोपशमेन युक्तो जीवो यदा पुनरप्यर्थोपयोगं स्मृतिरूपं प्राप्नोति सा चेयं तदावरणक्षयोपशमरूपाऽथवा तद्विज्ञानजननशक्तिरूपा वासना प्रोच्यते, कालान्तरे वासनावशादिन्द्रियैरुपलब्धस्य तैरनुपलब्धस्य वा मनसि या स्मृतिराविर्भवति स तृतीयभेदः, एवं स्मृतिहेतोरेव धारणात्ववर्णनमनुचितं तथाप्यविच्युतिरप्राय एवान्तर्भूता दीर्घदीर्घ15 तरादिरूपापायस्यैवाविच्युतिरूपत्वात् तस्या अपि स्मृतिहेतुत्वात् स्मरणोत्पत्त्यनुकूलत्वे सत्यपायत्वेन धारणयैव संस्कारवत् सङ्गृहीतत्वाद्वा न दोषः । न ह्यविच्युत्यनात्मकादपायात्स्मरणं भवितुमर्हति, गच्छत्तॄणस्पर्शप्रायाणामपायानां परिशीलनविकलानां स्मृतिजनकत्वादर्शनात् । स्मृतिरपि धारणैव परन्तु तस्याः परोक्षप्रमाणभेदत्वादिह न सङ्गृहीता । ननु अविच्युतिस्मृतिरूपौ ज्ञानविशेषौ गृहीतग्राहित्वान्न प्रेमाणभूतौ वासना तु किमात्मिका, न 20 तावत्स्मृतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्तज्ज्ञानजननशक्तिविशेषो वा सा, ज्ञानरूपत्वाभावाज्ज्ञानभेदानामेवेह विचार्यमाणत्वात् । संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाया इष्टत्वेन तत्तद्वस्तु १. व्यतिरेकादन्वयादुभयस्माद्वा भूतार्थविशेषावधारणं कुर्वतो योऽध्यवसायस्स सर्वोऽप्यपायः, नतु सद्भूतार्थविशेषावधारणं धारणा, तथाऽभ्युपगम्यमाने आभिनिबोधिकज्ञानस्य पञ्चभेदत्वापत्तेः, व्यतिरेकस्यापायत्वेनान्वयस्य धारणात्वेनावग्रहेहापायधारणायाश्चतुर्विधत्वात् स्मृतेश्च पञ्चभेदत्वात् अविच्युतेरपाये वासनायास्स्मृतावन्तर्गतत्वात् । अस्मन्मते तु न तथा व्यतिरेकस्यान्वयस्यापि अपायत्वेन स्मृतेर्धारणान्तर्गतत्वादिति ॥ २. अपायस्य हि वस्तुनिश्चयः फलं तच्च प्रथमप्रवृत्तापायेनैव निष्पन्नमिति द्वितीयाद्यपायस्य निष्फलत्वं निष्पन्नं फलं प्रति पुनर्निष्पादकत्वाभ्युपगमे निष्पन्नस्यापि घटस्य पुनर्निष्पादनाय कुलालप्रवृत्तिः स्यात् स्मृतिरपि पूर्वोत्तरकालभाविज्ञानद्वयगृहीत एव वस्तुनि प्रवर्त्तते इति सापि गृहीतस्यैव ग्राहिका, पूर्वोत्तररूपकालभेदेन च वस्तुनो भेदाच्चैकत्वासिद्धया स्मृतेः तस्याप्यग्राहकत्वेनाविच्युतिस्मृत्योर्न प्रमाणत्वमिति भावः ॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतान्तरम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ३४३ : विकल्परूपापि सा न संभवत्येतावन्तं कालं तद्वस्तु विकल्पायोगादित्याशंकायामाहेयश्चेति वासनात्मिका धारणा चेत्यर्थः । संख्येयवर्षायुषां संख्येयकालवर्तिनी, असंख्येयवर्षायुषामसंख्येयकालवर्तिनीत्यर्थः ज्ञानरूपेति, तथा चैषा वासना स्मृतिविज्ञानावरणक्षयोपशमरूपा स्मृतिविज्ञानजननशक्तिविशेषरूपा वेष्यते, सा यद्यपि स्वयं ज्ञानरूपा न भवति तथापि पूर्वप्रवृत्ताविच्युतिरूपज्ञानकार्यत्वादुत्तरकालभाविस्मृतिरूपज्ञानकारणत्वाच्चो- 5 पचारतो ज्ञानरूपताभ्युपगम्यत इति भावः । यच्चोक्तमविच्युतिस्मरणयोर्गृहीतग्राहित्वमिति तदपि स्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमरूपविभिन्नधर्मकवासनाजनकत्वेनाविच्युतेः पूर्वोत्तरदर्शनद्वयानधिगतवस्त्वेकत्वग्राहित्वाच्च स्मृतेर्विशेषग्राहित्वेन प्रमाणत्वमक्षतमेवेति । अथ प्रसङ्गतोऽवग्रहादीनां कालमानमुच्यतेऽवग्रहादयस्त्विति । आदिना ईहापायाविच्युतिस्मृतीनां ग्रहणमवग्रहपदेन व्यावहारिकावग्रहस्य ग्रहणम् । व्यञ्जनावग्रहस्य कालो जघन्यत आवलिकाया 10 असंख्येयभागः प्रकर्षेण संख्येयावलिका आनपानपृथक्त्वकालमानाः । नैश्चयिकार्थावग्रहस्य समयो वासनायास्तु संख्येयोऽसंख्येयो वा काल इति मूल एवोक्तः ॥ अत्र केचिद्वदन्ति सांव्यवहारिकप्रत्यक्षभेदात्मकधारणा दृढतमावस्थापनोपयोगापरपर्यायाविच्युत्यात्मकापायरूपैव, न चासनारूपा, क्षयोपशमविशेषरूपायाश्शक्तिविशेषरूपाया वा तस्या अज्ञानरूपत्वेन धारणात्वासम्भवात् , नापि स्मृतिरूपा, तथा सति तादृशधारणाया- 15 स्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रभेदत्वासम्भवादिति तन्मतं केचिन्मुखेन प्रतिक्षिपति केचित्तु आत्मशक्तिविशेष एव संस्कारशब्दवाच्योऽव्यवहितस्मृतिहेतुश्च, न धारणा, क्षायोपशमिकोपयोगानां युगपद्भावविरोधात् । परम्परया तस्यास्तद्धेतुत्वे न किञ्चिद्दषणमिति प्राहुः॥ केचित्चिति । श्रीमद्वादिदेवसूरिपादा इत्यर्थः । एषामयम्भावो विवक्षितवस्तुविषय- 20 कोपयोगरूपधारणाया यदि साक्षात्स्मृतिहेतुत्वं तदा स्मृतिकालं यावदनुवर्तनं स्यात् न चैतत्सम्भवति, छाद्मस्थिकोपयोगानामान्तमौहूर्तिकत्वेन तावदनुवृत्त्यसम्भवात् । नवा तावत्कालावस्थानमनुभूयते, अद्यानुभूवस्य परेद्युस्स्मरणीयस्य च घटादेरान्तरालिकानेकसुप्तमत्ताद्यवस्थासु प्रतीत्यभावात् , स्वरूपतो ज्ञानरूपस्संस्कारो धारणाभिधान इत्यपि न चतुरनम्, तथा सति यस्य पदार्थस्य कालान्तरे स्मृतिस्तावत्कालं प्रत्यक्ष ज्ञा- 25 १. प्रथमापायेनान्यकालविशिष्टं द्वितीयापायेनेतरकालविशिष्टं वस्तु गृह्यत इति न गृहीतग्राहित्वं, स्मृत्यापि कालभेदेन भिन्नस्यापि सत्त्वप्रमेयत्वसंस्थानादिभिरेकत्वेन तद्विशिष्टं वस्तु गृह्यत इति न गृहीतग्राहित्वं तस्या इतिभावः ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे नात्मिका सा धारणाऽनुवर्तत इति प्राप्तं, तथा च सति यावदेकपदार्थसंस्काररूपं प्रत्यक्षं पुरुषे भवेत्तावदपरपदार्थसंवेदनमेव नोदीयात , क्षायोपशमिकोपयोगानां युगपद्भावविरोधात् तस्मादात्मशक्तिविशेषस्यैव साक्षात्स्मृतिहेतुत्वं न तूपयोगरूपायाः ज्ञानरूपाया वा धारणायाः । न च स्मरणजनने नास्त्येवाऽऽत्मनश्शक्तिविशेष इति वाच्यम् , 5 सर्वत्र शक्तिविलोपप्रसङ्गात् । चिरन्तनातीतपर्यायविशेषस्यैव कस्यचित्कार्योत्पत्तौ सर्वत्र कारणत्वेन कल्पयितुं शक्यत्वात् । पारम्पर्येण तादृशधारणाया हेतुत्वोक्तौ तु नास्माकं विरोध इति ॥ अव्यवहितस्मृतिहेतुश्चेति, स्मृति प्रति साक्षात्कारणमित्यर्थः । न धारणेति, उपयोगरूपा ज्ञानरूपा वा धारणा न साक्षाद्धेतुरिति भावः । परम्परया कारणत्वाङ्गीकारे सम्मतिमाह परम्परयेति ॥ 10. ननु मतिज्ञानस्य प्रमाणत्वादनिर्णयात्मकावग्रहेहयोः कथं यथार्थनिर्णयात्मकप्रमाणत्वमित्याशङ्कायामाह एषाश्च द्रव्यार्थिकनयापेक्षयैक्यं,पर्यायार्थिकनयापेक्षया च भिन्नत्वम् ।। एषाश्चेति । मतिज्ञानप्रभेदानामवग्रहादीनामित्यर्थः । द्रव्यार्थिकनयापेक्षयेति, एकजीवद्रव्यतादात्म्येनेत्यर्थः । पर्यायार्थिकनयापेक्षयेति । अपूर्वापूर्वस्य वस्तुपर्यायस्य प्रकाशक15 त्वादसंकीर्णस्वभावतयानुभूयमानत्वात्क्रमभावित्वाचेति भावः, दृश्यते हि कदाचिद्दर्शनमात्रं कदाचिद्दर्शनावग्रहौ, कदाचिद्दर्शनावग्रहेहाः, कदाचिद्दर्शनावग्रहहापायाः, कदाचिच्च दर्शनावग्रहेहापायधारणाः प्रोक्तक्रमेणैवोत्पद्यमाना इति, तस्मादसंकीर्णतयाऽनुभूयमानत्वेन भेदेऽपि एकजीवद्रव्यतादात्म्येनाभेदान्न प्रमाणत्वव्याघात इति भावः ॥ ननु किं दर्शनादीनामयमेवोत्पत्तिक्रमः किं वा प्रकारान्तरेणापीत्याशङ्कायामाह20 तथा चायं क्रमः, इन्द्रियार्थयोर्योग्यताख्ये सम्बन्धे सति सन्मानं दर्शनाख्यं प्रथमतस्समुन्मीलति, इदं किश्चिदिति । ततः केनचिजात्यादिनाऽवग्रहोऽयं मनुष्य इति ततोऽनिर्धारितरूपेण संशयोऽयं पौरस्त्यो वा पाश्चात्यो वेति । ततो नियताकारेण सम्भावनात्मिकहाऽनेन पाश्चा त्येन भवितव्यमिति । अनन्तरमीहिताकारेण निर्णयात्मकोऽपायोऽयं 25 पाश्चात्य एवेति । ततः कालान्तरस्मृतिहेतुत्वेन धारणोदेतीति ॥ १. एवं व्यजनार्थावग्रहभेदन द्विरूपोऽप्यवग्रहोऽवग्रहसामान्यादेकरूपस्तथाऽविच्युतिवासनास्मृतिभेदेन त्रिविधाऽपि धारणा धारणात्वेनै कविधेति न मतिज्ञानभेदाधिक्यशङ्केत्यपि बोध्यम् ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांव्यवहारिकम् ] न्यायप्रकाशसमलते तथा चेति । कथश्चित्तेषां भेदे चेत्यर्थः, क्रमः, उत्पत्तिक्रमः, तथैवानुभवात् तथैव तत्तदावरणक्षयोपशमभावादिति भावः । इन्द्रियार्थयो:-विषयविषयिणोः, योग्यताख्येयथायोगमनतिदूरासन्नव्यवहितदेशाद्यवस्थानरूपे संश्लेषरूपे वा सम्बन्धे, सन्मानं दर्शनाख्यं निःशेषविशेषवैमुख्येन निराकारो बोधः । तस्यामिलापकं शब्दप्रयोगमाह इदमिति, तत इति तदुत्तरकालमित्यर्थः, अदृष्टस्यावग्रहणाभावादिति भावः । केनचिजात्यादिनेति, सत्त्वव्याप्य- 5 मनुष्यत्वादिजातिविशिष्टत्वादिनेत्यर्थः । अवग्रह इति, उदेतीत्युत्तरस्थेनान्वयः । व्यावहारिकावग्रहोऽयं, नैश्चयिकापायश्च । तत इति, विनावग्रहं सन्देहाभावादिति भावः । अनिर्धारितरूपेणेति, कस्यापि विशेषधर्मस्यानुपलम्भेन नानाधर्मप्रकारतयेत्यर्थः। तत इति संशयमन्तरेणेहाया अप्रवृत्तेरिति भावः । नियताकारेणेति यत्किञ्चिद्विशेषधर्मोपलम्भेनेत्यर्थः । संभावनात्मिकेति स्पष्टीयविषयताया अभावेऽपि तदुन्मुखत्वाद्विलक्षणप्रकारतावतीति भावः। 10 अनन्तरमिति, अन्तरेणेहामपायाप्रवृत्तेरिति भावः । न चावग्रहेहयोर्न ज्ञानत्वं संशयादिवत्स्पष्टार्थनिर्भासाभावादिति वाच्यम् , आत्मधर्मत्वे सति संशयविपर्ययानध्यवसायेष्वनन्तर्भावेण तत्सिद्धेः । न च निश्चयान्यस्य संशयरूपत्वेनाज्ञानत्वमिति वाच्यम् , निश्चयोपादानक्षणस्यापि सर्वथाऽज्ञानवप्रसङ्गात् , न चेष्टापत्तिनिश्चयस्याप्यज्ञानतापत्तेः । न चावग्रहस्यानिर्देश्यसामान्यमात्रावगाहित्वेनानध्यवसायत्वमिति वाच्यम् , तत्र साक्षादध्यवसा. 15 यत्वाभावेऽपि तद्योग्यतायास्सत्त्वात् , अन्यथा तत्कार्येष्वपायादिष्वपि तदभावप्रसङ्गात् , . अतिमत्तमूञ्छितादीनामेव ज्ञानस्यानध्यवसायरूपत्वात् , तदुत्तरं तत्रापायादर्शनेन सद्योग्यताया अभावादिति । ईहिताकारेण निर्णयात्मक इति, तद्वृत्तिधर्मानुगमनतदवृत्तिधर्मव्य. तिरेकाभ्यां तद्धर्मवत्तानिश्चयरूपस्तदितरधर्माभाववत्तानिश्चयरूपो वेत्यर्थः । तत इति अवेतस्यैव धार्यमाणत्वादिति भावः, धारणेति, अविच्युतिरूपा वा तज्जन्यवासनासंस्कारशब्द- 20 वाच्याऽऽत्मशक्तिविशेषरूपा वेत्यर्थः । उदेतीतीति । ईदृशक्रमेणैवावग्रहादय उत्पद्यन्ते नोकमव्यतिक्रमाभ्यां न्यूनत्वेन वा, ज्ञेयक्षयोपशमस्येत्थमेव ज्ञानजननस्वभावत्वात् । कचिद १. प्राथमिकनैश्चयिकार्थावग्रहापेक्षयास्यापायत्वेऽपि भाविविशेषापेक्षया सामान्यस्य ग्राहकत्वाझ्यावहारिकार्था वग्रहरूपत्वेन तदभिलापकशब्दसत्त्वे - बाधकाभावादित्याशयेनाह तस्याभिलापकमिति ॥ २. नैश्चयिकार्थावग्रहो निरुपचरित एकसामयिकत्वात्सामान्यवस्तुमात्रग्राहकः सामयिकानि हि ज्ञानादीनि वस्तूनि परमयोगिन, एवावगच्छन्तीति नैश्चयिक उच्यते, सामयिकत्वादेव चासौ न विशेषविषयः, विशेषज्ञानस्यासंख्येयसामयिकत्वात्, विशेषविषयकत्वे तस्याभ्युपगम्यमाने च निश्चयरूपत्वापत्त्या मतिमात्रस्यापायरूपत्वं स्यात् , निश्चयस्यापायत्वादित्यभिप्रायेण नैश्चयिकापायत्वं मूलोक्तावग्रहस्योक्तम् , छद्मस्थव्यवहारिभिस्तस्य व्यवहियमाणत्वात् व्यावहारिकोऽर्थावग्रह उपचरित इति भावः ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४६ : तस्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे भ्यस्तेऽपायमात्रस्य दृढवासने विषये स्मृतिमात्रस्य च दर्शनेऽपि सौक्ष्म्यादुत्पलपत्रशतव्यतिभेद इवावग्रहादिक्रमो नोपलक्ष्यत इति भावः ॥ तदेवमिन्द्रियांनिन्द्रियजभेदेन सांव्यवहारिकप्रत्यक्षं निरूप्य द्वयोरप्यनयोर्मतिश्रुतभेदत्वेन द्वैविध्यात्प्रथमतो मतिज्ञानं लक्षयति इन्द्रियमनोऽन्यतरजन्योऽभिलापनिरपेक्षस्स्फुटावभासो मतिज्ञानम् ॥ इन्द्रियेति । इन्द्रियमनोऽन्यतरजन्यत्वे सति अभिलापनिरपेक्षज्ञानत्वं लक्षणम् । अत्र स्फुटावभासत्वपदं सर्वज्ञानानां स्वांशे स्पष्टावभासत्वमेवेति सूचयितुं, तेनास्य परोक्षत्वेन कथं स्वप्रकाशत्वमिति शङ्का निरस्ता । श्रुतज्ञानवारणाय विशेष्यम्, अवध्यादिवारणाय विशेषणम्, अभिलापनिरपेक्षत्वञ्च श्रुताननुसारित्वं तत्र श्रुतानुसारित्वञ्च धारणात्म 10 कपदपदार्थसम्बन्धप्रतिसन्धानजन्यत्वं तेनेहापायधारणात्मकेषु मतिज्ञानविशेषेषु पदवि - यतायास्त्वेऽपि नाव्याप्तिः, तत्र पदविषयतायास्सविकल्पक सामग्रीमात्रप्रयोज्यत्वात्, न चेहादीनि पदपदार्थप्रतिसन्धानजन्यज्ञानानि, घट इत्याद्यपायोत्तरमयं घटनामको वे संशयादर्शनात् तत्तन्नाम्नोऽप्यपायत्वेन ग्रहणात् पदपदार्थसम्बन्धप्रतिसन्धानाभाववतोऽपि पुरुषस्याभ्यासपाठवेन तदुदयाश्च । संकेतग्रहकाल एव हि श्रुतानुसारित्वमीहादीनां न तु 15 व्यवहारकाले । अत एव मतित्वसामानाधिकरण्येन श्रुतपूर्वत्वनिषेधः “न मई सुअपुशिया " इत्यनेनाभिहितः । श्रुतज्ञानं प्रति धारणात्वेन मतिज्ञानस्य हेतुत्वेन तद्धारणोपयोगे ' इदं पदमस्य वाचकं, अयमर्थं एतत्पदवाच्य ' इति पदपदार्थ सम्बन्धग्रहस्यापि धौत्र्येण तज्जनितज्ञानस्यैव श्रुतानुसारित्वं अत एव च श्रुतत्वावच्छेदेन मतिपूर्वत्वविधिः ' मइ सु' इत्यनेन कृतः । व्यवहारकाले जायमानावग्रहादीनां श्रुतोपयोगाभावादेव पद20 पदार्थसम्बन्धवासनाप्रबोधकालीनत्वेऽपि श्रुतनिश्रितमतिज्ञानत्वम् स्वसमानाकारश्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधसमानकालीनत्वे सति श्रुतोपयोगाभाव कालीनस्यैवाव ग्रहादेश्श्रुतनिश्रितत्वात् । उक्तत्रासनाप्रबोधकाले मतिज्ञानसामग्रीसत्त्वेऽपि श्रुतोपयोगे श्रुतज्ञानमेव जायते, श्रुतोपयोगस्योत्तेजकत्वात् परैरपि प्रत्यक्षज्ञानसामग्र्याः शाब्दबोवप्रतिबन्धकत्वेऽपि शाब्दे - च्छायां शाब्दबोधस्य स्वीकृतत्वात् । निरुक्तवासनाप्रबोधासमानकालीनश्च मतिज्ञानमौत्पत्ति25 क्यादिचतुर्भेदमश्रुतनिश्रितं भवति । अपूर्वाभयकुमारादिव्यक्तिविशेषबुद्धौ त्वौत्पत्तिकीत्वमे 5 १. यत्रैकस्मिन्वस्तुनि प्रत्यक्षज्ञानस्य सामग्री शान्दबोधस्य च सामग्री वर्त्तते तत्र प्रत्यक्षज्ञानमेव भवति न शाब्दबोधस्तत्र प्रत्यक्ष सामय्याः प्रतिबन्धकत्वात्परन्तु शाब्देच्छा यदि स्यात्तदा शाब्दबोध एव भवतीति शाब्दबोधे सेच्छा उत्तेजिका, तथैव प्रकृतेऽपीति भावः ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंतिज्ञानभेदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । वाश्रयणीयम् , प्रागनुपलब्धेऽर्थे श्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधाभावेन श्रुतनिश्रितज्ञानासम्भवात् । धारणायाः श्रुतज्ञानहेतुत्व एव च मतिश्रुतयोर्लब्धियोगपद्येऽप्युपयोगक्रमस्सङ्गच्छते प्रागुपलब्धार्थस्य चोपलम्भे धारणाहितश्रुतज्ञानाहितवासनाप्रबोधान्वयाच्छ्रतनिश्रितत्वमावश्यकम् , धारणादिरहितानामेकेन्द्रियादीनां त्वाहारादिसंज्ञान्यथानुपपत्त्याऽन्तर्जल्पाकारं विवक्षितार्थवाचकं शब्दसंस्पृष्टार्थज्ञानरूपं श्रुतज्ञानं क्षयोपशममात्रजनितं जात्यन्तरमेवेति संक्षेपः ॥ 5 अथ मतिज्ञानस्य यावत्प्रकारान् दर्शयति इदश्च प्रत्येकेन्द्रियैर्मनसा चावग्रहादिक्रमेण जायमानत्वाच्चतुर्विशतिविधम् । रसनादीन्द्रियैश्चतुभिरेव चतुर्विधा व्यञ्जनावग्रहा भवन्ति, न चक्षुर्मनोभ्यां, विषयेन्द्रियसंश्लेषाभावात् । स्पर्शनादीन्द्रियाणामुपकरणात्मकानां स्पर्शाद्याकारेण परिणतपुद्गलानाञ्च यः परस्परं संश्लेषस्सा व्य- 10 अनेत्युच्यते । सोऽयं चतुर्विधो व्यञ्जनावग्रह इति मिलित्वाष्टाविंशतिविधं मतिज्ञानम् । श्रुतज्ञाने तु नावग्रहादयो भवन्ति ॥ इदश्चेति, मतिज्ञानश्चेत्यर्थः । प्रत्येकेन्द्रियैः-प्रत्येकं चक्षुरसनघ्राणत्वश्रोत्रेन्द्रियैः, अवग्रहादिक्रमेणेति, चक्षुरवग्रहश्चक्षुरीहा चक्षुरपायश्चक्षुर्धारणेत्येवंक्रमेणेत्यर्थः । तत्रावग्रहस्य व्यञ्जनार्थावग्रहरूपेण द्वैविध्यात्पूर्वोक्तावग्रहस्यार्थावग्रहरूपत्वेन व्यञ्जनावग्रहं वक्ति रसना. 15 दीति, आदिना घ्राणत्वक्श्रोत्राणां ग्रहणम् । चतुर्भिरेवेत्यत्रैवशब्दध्यवच्छेद्यमाह नेति । तत्र निबन्धनमाह विषयेति । निश्चयतः कार्योत्पत्तावविकलकारणस्यैव व्याप्यत्वेन ज्ञाने उपयोगे. न्द्रियस्यैवाविकलकारणत्वेन व्यञ्जनावग्रहकालेऽव्यक्ततया तत्सत्त्वात्तदा ज्ञानमवश्यं भव. त्येवेति व्यञ्जनावग्रहोऽयं ज्ञानात्मा कारणांशो बोध्यः । व्यञ्जनां स्वरूपयति स्पर्शनादी. न्द्रियाणामिति, आदिना श्रोत्रघ्राणरसनानां ग्रहणम् । ननु व्यञ्जनावग्रहः प्राप्यकारिणामे- 20 बेन्द्रियाणां न त्वप्राप्यकारिणां तत्र कः कारणांशः, यद्यर्थावग्रहस्तर्हि स एव व्यञ्जनावग्रहस्थलेऽप्यस्तु इति चेन्न तत्रापि प्रागवग्रहाल्लब्धीन्द्रियस्य ग्रहणोन्मुखपरिणामस्यैव कारणांशतयाऽभ्युपगमात् । निगमयति मतेर्भेदं सोऽयमिति । अष्टाविंशतिविधमिति, उपलक्षणमेतत् , तेन स्वस्वप्रतिपक्षसहितैर्बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितनिश्चितध्रुवैः प्रत्येकं भिन्नानामेषां षट्त्रिंशदधिकत्रिशतविधत्वेऽपि न क्षतिः, अत्र सर्वत्र क्षयोपशमस्योत्कर्षापकर्षों निमित्ते भवत 25 इति । किं श्रुतज्ञानेऽप्यवग्रहादिभेदोऽस्तीत्यत्राह श्रुतज्ञाने विति । तुर्भिन्नार्थोपक्रमे, मतिज्ञा. नाभावे श्रुतज्ञानाभावाद्विशेषविषये तस्मिन्नवग्रहासम्भवेनेहादीनामप्यसम्भवादिति भावः ।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४८ : तव न्यायविभाकरे किन्तच्छ्रुतज्ञानमित्याह [ द्वितीय किरणे मतिज्ञानापेक्षो वाच्यवाचक भावपुरस्कारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणविशेषः श्रुतज्ञानम् । तदनुकूलोपयोगोऽपि श्रुतम् ॥ मतिज्ञानेति । मतिज्ञानसापेक्षत्वे सति वाच्यवाचकभावपूर्वकशब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणत्वं 5 श्रुतज्ञानस्य लक्षणम्, ईहादीनां शब्दसंस्पृष्टार्थ ग्रहणरूपत्वादवग्रहात्मक मतिज्ञानापेक्षत्वाच्च श्रुतत्ववारणाय वाच्यवाचकभावपुरस्कारेणेत्युक्तम् । मतिज्ञानापेक्ष इति पदेन धारणा प्राह्या, श्रुतं प्रति धारणात्वेन हेतुत्वात्तथा च नेहादावतिव्याप्तिरिति चेत्तर्हि स्मृतावतिव्याप्तिवारणाय तत् । एकेन्द्रियाणामपि द्रव्यश्रुताभावे सत्यपि भावश्रुतमस्ति क्षायोपशमिकत्वात्, न च तर्हि लक्षणमव्याप्तं तत्र वाच्यवाचकभावपूर्वकं शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणरूपत्वाभावादिति 10 वाच्यम्, विशिष्टश्रुतज्ञानस्यैव लक्षणत्वात्, मतिज्ञानापेक्षवाच्यवाचकभाव पूर्व कशब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणवृत्तिज्ञानत्वव्याप्यजातिमत्त्वस्य वा लक्षणार्थत्वात् तादृशी जातिः श्रुतज्ञानत्वं तच्च सर्वस्मिन् श्रुतज्ञाने वर्त्तत इति न कुत्राप्यव्याप्तिः । ननु श्रुतोपयोगो मत्युपयोगान्न पृथक्, मत्युपयोगेनैव तत्कार्योत्पत्तौ तत्पार्थक्यकल्पनाया व्यर्थत्वादित्याकांक्षायामाह तदनुकूलोपयोगोऽपीति, श्रुतज्ञानेऽनुकूलभूत उपयोगोऽपीत्यर्थः, श्रुतोपयोगोपरमेऽपि मतिज्ञानो15 दयान्न मत्युपयोगश्रुतोपयोगयोरैक्यमिति भावः । अत्र यद्यपि स्वामिकारणकालविषयपरोक्षत्वैर्मतिश्रुतयोरेकत्वं तथापि लक्षणभेदात्कार्यकारणभावाद्भेदविशेषादिन्द्रियविभागाद्वल्केतरभेदादक्ष रेतरभेदान्मूकेतरभेदाच्च भेदोऽवसेयः, तथाहि--निरुक्तरूपेण लक्षणभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः । कार्यकारणभावात्तयोर्भेदः, मतिज्ञानापेक्षं हि श्रुतं न मतिश्श्रुतज्ञानापेक्षिणी, उपयोगरूपयोस्तयोस्तथैव पौर्वापर्यात्, कार्यकारणयोश्च कथचिद्भेदात् लब्धिंतो मतिश्रुते 20 समकालेऽपि भवतोऽत एव लक्षणे मत्यपेक्ष इत्यनुक्त्वा मतिज्ञानापेक्ष इत्युक्तः, लब्धितस्तुल्यकालयोः कार्यकारणभावाभावात् यदपि परशब्दाकर्णनान्मतिज्ञानमुदेति तदपि द्रव्यश्रुतनिमित्तकमेव न भावश्रुतनिमित्तकमतो न मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानकारणकत्वम् । श्रुतोपयोगाच्युतस्य मतिज्ञानन्तु न श्रुतोपयोगनिमित्तकं किन्तु स्वकारणप्रभवमेव । अन्यथा कारणनैयत्याभावप्रसङ्गस्स्यात् । तथा स्वस्वावान्तरभेदात्तयोर्भेदः, मतिज्ञानं हि अष्टाविंशतिविधमुक्तं, 25 श्रुतज्ञानं चतुर्द्दशविधमिति वक्ष्यते, तयोरभेदेऽवान्तरभेदवैलक्षण्यं न भवेदेवेति तयोर्भेदः, " १. अवग्रहादिकं विना श्रुतज्ञानानुदयेन तत्पूर्वं मतिज्ञानरूपस्य तस्यावश्यम्भावादिति भावः ॥ २. मतिज्ञानसमानकाले श्रुतज्ञानेऽभ्युपगम्यमाने तदा श्रुताज्ञानं जीवस्य प्रसज्यते, श्रुतज्ञानोत्पत्तिमन्तरेण तदज्ञानानिवृत्तेः न च ज्ञानाज्ञानयोस्समानकालमवस्थितिर्योग्ययोर्मतिश्रुतयोः क्वचिदप्यागमेऽनुमन्यत इत्याशयेनाह लब्धित इति ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भतिश्रुतमेदः ] न्यायप्रकाशसमलते इन्द्रियविभागादपि तयोर्भेदः, श्रुतं हि श्रोत्रेन्द्रियद्वारकमवग्रहाद्यनात्मकं ज्ञानं, मतिज्ञानं च सर्वेन्द्रियद्वारकम् , यद्यपि शेषेन्द्रियद्वाराऽक्षरलाभोऽपि श्रुतमेवेति सर्वेन्द्रियविषयत्वं श्रुतस्य प्राप्तं तथाप्यक्षरलाभमात्रस्य न श्रुतत्वमीहादीनामपि तथात्वापत्तरपि तु श्रुतानुसारिसाभिलापरूपाक्षरलाभस्यैव, तस्य च शेषेन्द्रियद्वारोत्पन्नत्वेऽपि योग्यतया श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धित्वमेव, अभिलापस्य सर्वस्यापि श्रोत्रेन्द्रियग्रहणयोग्यत्वात् । तथा च श्रोत्रविषयमेव सर्वं श्रुत- 5 ज्ञानं मतिज्ञानन्तु तद्विषयं शेषेन्द्रियविषयश्चेति । वल्कशुम्बोदाहरणात्तयोर्भेदस्तु-मतिपूर्व हि भावश्रुतं मतिश्च वल्कसमा, भावश्रुतं शुम्बसदृशं, यथा वल्काः शुम्बकारणं तथा मतिरपि भावश्रुतस्य, यथा च शुम्बं वल्कानां कार्य तथा भावश्रुतमपि मतेः कार्य, मत्या विचिन्त्य वाच्यवाचकभावेन वस्तुनि परोपदेशश्रुतग्रन्थानां योजनात् । अक्षरानक्षरभेवादपि तयोर्भेदः अक्षरं द्विविधं द्रव्याक्षरं भावाक्षरश्चेति, पुस्तकादिन्यस्ताकारादिस्ताल्वादिकारणजन्यशब्दो 10 वा द्रव्याक्षरम् । अन्तःस्फुरदकारादिवर्णज्ञानं भावाक्षरं, भावाक्षरापेक्षया मतिज्ञानमभरवत् यथेहादयः, भावाक्षराभावादेवावग्रहरूपं मतिज्ञानमनक्षरम् । द्रव्याक्षरमाश्रित्य तु मतिज्ञानमनक्षरमेव, द्रव्यमतित्वेनाप्रसिद्धत्वात् । श्रुतज्ञानन्तु द्रव्यभावभेदं साक्षरमनक्षरमपि. द्रव्यश्रुतं उच्छ्वसितनिःश्वसितादिरूपमनक्षरं पुस्तकादिन्यस्ताक्षररूपं शब्दरूपं च, तदेव साक्षरम् । भावश्रुतमपि श्रुतानुसार्यकारादिवर्णविज्ञानात्मकत्वात्साक्षरं, पुस्तकादिन्यस्ताकाराद्यक्षररहि- 15 तत्वाच्छब्दाभावाच्चानक्षरम् । पुस्तकादिन्यस्ताक्षरस्य शब्दस्य च द्रव्यश्रुतान्तर्गतत्वेन भावश्रुतेऽसत्त्वात् । मूकेतरभेदात्तु तद्भेदः-द्रव्यश्रुतं हि श्रुतज्ञानस्यासाधारणं कारणं तच्च परप्रतिबोधनसमर्थमतइश्रुतज्ञानमपि तद्भटकत्वेन परप्रतिबोधकत्वान्न मूकम् , मतिज्ञानस्येदृशकारणेन केनाप्यघटकत्वेन परप्रतिबोधनासमर्थत्वान्मूकम् । न च करादिचेष्टा मतिजनिकाः परप्रतिबोधनसमर्थाः सन्तीति मतिज्ञानस्य कथं मूकत्वमिति वाच्यम् , करादिचेष्टान मतिज्ञानं प्रत्यसाधा- 20 रणकारणत्वाभावात् करवक्त्रसंयोगादिचेष्टादर्शनतस्तद्विषयावग्रहादिवद्भोक्तुमिच्छत्ययमित्यादिश्रुतानुसारिविकल्पात्मकश्रुतज्ञानस्यापि जायमानत्वात् । तत्त्वतः करादिचेवानां मतिज्ञानं प्रति कारणत्वाभावेन तासां तत्रानन्तर्भावात् । यद्वा पुस्तकादिन्यस्ताचारादिग्रन्थाक्षरं गुरुज. १. अत्र श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतमित्ययोगव्यवच्छेदोऽभिमतः, न तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्रुतमेवेत्यन्ययोगव्यवच्छेदः, कस्याश्चिच्छोडेन्द्रियोपलब्धेरवग्रहादिमात्ररूपाया मतिज्ञानत्वादित्याशयेन शेषेन्द्रियद्वारकमित्यनुक्त्वा सर्वेन्द्रियद्वारकमित्युक्तम् ॥ २. तथा च मतिज्ञानमवग्रहापेक्षयाऽनक्षरवत् ईहाद्यपेक्षया चाक्षरवत् । द्रव्याक्षरापेक्षया चानक्षरवदेव, नहि मतिज्ञाने पुस्तकादिन्यस्ताकारादिकं शब्दो वा व्यञ्जन,क्षरं विद्यते तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन प्रसिद्धत्वादिति भावः ॥ ३. अत्रेदं बोध्यं मते वश्रुतस्य चाक्षरानक्षर कृतो विशेषो नास्ति, उभयस्य साक्षरत्वादनक्षरत्वाच्च, परन्तु श्रुतमध्ये द्रव्यश्रुतस्याप्यन्तर्भावेण द्रव्यश्रुतमाश्रित्य द्रध्याक्षरमस्ति मतौ तु तन्नास्तीति भेदो विज्ञेय इति ॥ . Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३५० : तत्त्वन्यायविभाकरे: [ द्वितीयकिरण नोदीरितदेशनाशब्दरूपश्च द्रव्यश्रुतं, मोक्षासाधारणकारणक्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणवस्तुकलापस्य हेतुत्वात् तद्वारेण श्रुतज्ञानमपि परप्रबोधकं, करादिचेष्टाया मतिज्ञानकारणत्वेऽपि न विशिष्ट पर प्रबोधकत्वमतस्तद्वारा मतिज्ञानमपि न तथा, एवं करादिचेष्टानां मतिज्ञान gas कथचित्परप्रबोधकत्वेऽपि च न तद्वारा मतिज्ञानं परप्रबोधकं, द्रव्यमतित्वस्य 5 क्वाप्यप्रसिद्धत्वेन तासां तत्रानन्तर्गतत्वादिति । विशेषस्तु विशेषावश्यकादौ द्रष्टव्यः ॥ अथ श्रुतज्ञानं विभजते— तच्चाक्षरानक्षर संज्ञ्य संज्ञिसम्यमिध्यात्वसाद्यनादिसपर्यवसितापर्य: वसितगमिकागमिकाङ्गप्रविष्टानङ्गप्रविष्टश्रुतभेदेन चतुर्द्दशविधम् ॥ — तश्चेति । श्रुतज्ञानश्चेत्यर्थः । अत्रानङ्गप्रविष्टपदं यावद् द्वन्द्वस्ततः श्रुतेन कर्मधारयः | 10 यद्यप्येते भेदा अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूपभेदद्वय एवान्तर्भवन्ति, तथाप्यव्युत्पन्नमतीनां विशेषावगम सम्पादनाय तथोक्तिर्नहि भेदद्वयोपादानमात्रादव्युत्पन्नमतयः शेषभेदानवगन्तुं समर्थाः, अतो विनेयजनानुग्रहायेतरभेदोपन्यास इति ॥ तत्राक्षरश्रुतानक्षरश्रुते लक्षयति संज्ञाव्यञ्जनलब्ध्यन्यतमवच्छ्रुतमक्षरश्रुतम् । यथा क्रमेण लिपिवि15 शेषो भाष्यमाणाकारादिस्त्वङ्मनो निमित्तकश्श्रुतोपयोगः । भावश्रुतहेतुरुच्छ्वासादिरनक्षरश्रुतम् ॥ संज्ञेति । संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभेदादभरं त्रिविधम् । संज्ञाव्यञ्जने उपचाराच्छ्रते । उदाहरणमाह यथाक्रमेणेति । लिपिविशेष इति, अकाराद्यक्षरस्य संस्थानाकारः, ब्राह्मयादिलिपिभेदतोऽनेकप्रकारः । भाष्यमाणाकारादिरिति, अर्थव्यञ्जकत्वेनोच्चार्यमाणाकारादिव - 20 र्णसमूह इत्यर्थः, तमसि वर्त्तमानघटादेर्व्यञ्जकप्रदीपवदर्थस्य प्रकटीकरणादकारादिर्व्यञ्जनाक्षरमिति भावः, तच्च यथार्थनियतमयथार्थ नियतश्चेति द्विभेदम्, यथार्थनियतं यथा तपन इत्याद्यन्वर्थयुक्त शब्दः, अयथार्थनियतञ्च पलं नाश्नाति तथापि पलाश इत्यादिशब्दः । एकार्थानेकार्थभेदेन वा द्विविधम्, यथाऽलोकस्थण्डिलादिशब्दा एकार्थाः जीव इत्यादिशब्दा अनेकार्थाः, प्राण्यपि भूतोऽपि जीवशब्दार्थः । एकाक्षरानेकाक्षरभेदेन वा द्विविधं तत् श्रीरित्यादिकमेकाक्षरं लता मालेत्यादिकमनेकाक्षरमिति । त्वङ्मनोनिमित्तकश्रुतोपयोग इति, त्वच उपलक्षकत्वादिन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतप्रन्थानुसारिश्रुतज्ञानोपयोग इत्यर्थः उपलक्षकमेतत् तदावरणकर्मक्षयोपशमस्य, तेनैकेन्द्रियादीनामप्यव्यक्ताक्षरलब्धिस्संगृहीता, तदिदं 25 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतमेदाः ] न्यायप्रकाशसमलइसे लब्ध्यक्षरं मनष्षष्ठेन्द्रियनिमित्तकत्वात् षड्विधम् । अनक्षरश्रुतमाह भाषश्रुतहेतुरिति । उच्छासादिरिति, आदिना निःश्वासनिष्ठीवनकासनक्षुतादीनां ग्रहणम्, एतादृक् :शुबानमेवानभरश्रुतं भावश्रुतहेतुत्वात् , भवति च तथाविधोच्छ्वासादिश्रवणे शशकोऽयमित्यादिज्ञानम् विशिष्टाभिसन्धिपूर्वकोच्छ्वासादिभिश्च विशिष्टपदार्थज्ञानम् । श्रुतज्ञानोपयुक्तस्यात्मनस्सर्वात्मनैवोपयोगात्सर्वोऽप्युच्छसितादिको व्यापारश्श्रुतमेव । गमनागमनचलनस्पन्दादिचेष्टा 5 अपि तादृशस्य श्रुतमेव तथापि शास्त्रलोकप्रसिद्ध्योच्छ्वसितादिकमेव श्रुतं श्रूयमाणत्वात् न सादृश्यश्चेष्टाः दृश्यत्वादिति ॥ अथ संश्यसंज्ञिश्रुते आह. समनस्कस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतम् । तद्विपरीतमसंज्ञिश्रुतम् ॥ समनस्कस्येति । संज्ञाऽत्र दशविधा न विवक्षिता व्यापकत्वात् , किन्तु ज्ञानावरणकर्म- 10 क्षयोपशमजन्यमनोज्ञानसंज्ञयैव संज्ञिनश्शोभनत्वादित्यतस्समनस्कस्येत्युक्तम् । सा संज्ञा दीर्घः कालिकी विज्ञेया यो यः कश्चिन्मनोज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमान्मनोलब्धिसम्पन्नो मनोयोग्याननन्तान् स्कन्धान्मनोवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्य मन्यते चिन्तनीयं वस्तु तादृशो गर्भजस्तिर्यङ् मनुष्यो वा देवों नारको वा तत्सम्बन्धि यच्छ्रतं तत्संज्ञिश्रुतमिति भावः । असंज्ञिश्रुतमाहैतद्विपरीतमिति, एकेन्द्रियादीनां दीर्घकालिकीसंज्ञारहितानां श्रुतमित्यर्थः ॥ 15 अथ सम्यमिथ्यात्वश्रुते आहसम्यग्दृष्टीनां श्रुतं सम्यक्छुतम् । मिथ्यादृष्टीनां श्रुतं मिथ्यात्वश्रुतम्। सम्यग्दृष्टीनामिति, अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे दर्शनमोहनीये सर्वथा क्षीणे क्षायिकं सम्यक्त्वं भवति, एवं चत्वार्यन्यानि भवन्ति, तदेतत्सम्यक्त्वपश्चकपरिग्रहात्सम्यक् श्रुतं भवति, चतुर्दशपूर्वेभ्यः प्रारभ्य यावत्सम्पूर्णदश. 20 पूर्वाणि तावन्नियमेन सम्यक्श्रुतमेव भवति, एतावच्छ्रतसद्भावे च सम्यग्दृष्टिरेक न मिथ्यादृष्टिः, भिन्नदशपूर्वादिके सामायिकश्रुतपर्यन्ते श्रुतसद्भावे तु कोऽपि सम्यग्दृष्टिः कश्चिन्मिध्यादृष्टिरपि भवति, तथा च सम्यक्त्वपरिग्रहात् श्रुतं सम्यक्श्रुतं भवतीति भावः । मिथ्या १. तथा सम्यग्दृष्टयेऽहत्प्रणीतं मिथ्यादृष्टिप्रणीतञ्च सम्यक्श्रुतं भवति, यथास्वरूपमवगमात्, मिथ्यादृष्टये त्वहत्प्रणीतं मिथ्या दृष्टिप्रणीतञ्च मिथ्यास्वरूपं भवति यथास्वरूपमनवगमात् । मिथ्यादृष्टिहि सर्वमेवैकान्तस्वरूपं प्रतिपद्यते घट एवायमित्यादि व्यवहरन् घटपर्यायव्यतिरेकेण सतोऽपि सत्त्वज्ञेयत्वपदार्थत्वादिपर्यायानपलपति घटः सन्नेवेति ब्रुवन् पररूपेण नास्तित्वमनभ्युपगच्छन् तत्रासती पररूपतामप्यभ्युपैति, सम्यग्दृष्टिस्तु न तथेत्यपि बोध्यम् ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [द्वितीयकिरणे स्वश्रुतमाह मिथ्यादृष्टीनामिति, मिथ्यात्वोदयाद्विपर्यस्ता मिथ्यादृष्टयः, तेषां श्रुतं मिथ्यात्वश्रुतमिति भावः । एवमेव मिथ्यात्वोदयान्मत्यवधी अपि मत्यज्ञानविभङ्गज्ञानरूपे भवतः ॥ साद्यनादिश्रुते प्राह___आदिमच्छूतं सादिश्रुतं, इदं पर्यायार्थिकनयापेक्षया । आदिशून्यं 5 श्रुतमनादिश्रुतं, इदन्तु द्रव्यार्थिकनयापेक्षया ॥ आदिमदिति । यस्यादिदृश्यते तच्छ्रतं सादिश्रुतमित्यर्थः, ननु जीवो हि नित्यः, श्रुतं च तत्पर्यायः पर्यायपर्यायिणोश्च कथञ्चिदभेदात्कथं श्रुतमादिमदित्यत्राह-इदमिति, जीवस्य नित्यत्वेऽपि नारकादिभवपरिणत्यपेक्षया यथा सादिस्तथोपयोगात्मकपर्यायस्य सादित्वा कार्यभूतं श्रुतमपि सादीति भावः । अनादिश्रुतमाह-आदिशून्यमिति, अनादित्वे युक्ति10 माहेदन्त्विति, यैर्जीवद्रव्यैः श्रुतान्यधीतानि यान्यधीयन्ते यानि चाध्येष्यन्ते तानि तावन्न कदापि व्यवच्छिद्यन्ते येन तेषामादिर्भवेत् नहि सर्वथाऽसत् क्वाप्युत्पद्यते सिकतास्वपि तैलाद्युत्पत्तिप्रसङ्गात् तस्माच्छ्रताधारद्रव्याणां सर्वदैव सत्त्वात्तदव्यतिरेकिणश्रुतस्यापि सर्वदा सत्त्वेन तदनादिमच्छ्रतमिति भावः॥ अथ सपर्यवसितापर्यवसिते आह15 अन्तवच्छूतं सपर्यवसितश्रुतम् । अनन्तवच्छूतमपर्यवसितश्रुतं, इमे अपि तथैव ॥ .. अन्तवदिति । उपयोगस्य सपर्यवसितत्वादिति भावः । अपर्यवसितमाह-अनन्तेति । तदव्यतिरेकिजीवद्रव्यस्यापर्यवसितत्वेन तत्तादात्म्याच्छ्रतमप्यपर्यवसितमिति भावः । सप यवसितत्वापर्यवसितत्वे अपि पर्याचार्थिकद्रव्यार्थिकनयापेक्षयैवेत्याहेमे अपीति, एवमेव 20 द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्यापि सादित्वानादित्वसपर्यवसितत्वापर्यवसितत्वानि भाव्यानि ॥ गमिकागमिकश्रुते बक्ति... प्रायस्सदृशपाठात्मकं श्रुतं गमिकश्रुतं, तद्विपरीतमगमिकम् ॥ - प्राय इति । आदिमध्यावसानेषु किञ्चिद्विशेषतो भूयो भूयः तस्यैव सूत्रस्योच्चारणं गमः, गमा अस्य विद्यन्त इति गमिकं तच्च तच्छूतञ्च गमिक श्रुतमिति व्युत्पत्तिः । तच्च । गमिकं प्रायो दृष्टिवादः। अगमिकमाह तद्विपरीतमिति असदृशपाठात्मकमित्यर्थः, तश्च प्राय आचारादिकालिकश्रुतम् ॥ अथाङ्गप्रविष्टानङ्गप्रविष्टे निर्वक्ति Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांव्यवहारिकम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । द्वादशाङ्गगतं श्रुतमङ्गप्रविष्टं, यथा आचाराङ्गादि, तद्भिन्न स्थविरकृतं श्रुतमनङ्गप्रविष्टश्रुतं, यथा आवश्यकादि ।। ___ द्वादशाङ्गेति । गणधरकृतं पदत्रयलक्षणतीर्थकरादेशनिष्पन्नं ध्रुवश्च यच्छ्रतं तदङ्गप्रविष्टमुच्यते, तच्च द्वादशाङ्गीरूपमेवेत्याह-यथेति । अनङ्गप्रविष्टमाह तद्भिन्नमिति, यत्तु स्थविरकृतं मुत्कलार्थाभिधानं चलञ्च तदनङ्गप्रविष्टमित्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथेति, अवश्यकत 5 व्यसामायिका दिक्रियानुष्ठानप्रतिपादकं श्रुतमावश्यकं, आदिनाऽऽवश्यकव्यतिरिक्तं कालिकमुत्कालिकञ्च ग्राह्यम् । यदिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालिकं, यत्पुनः कालवेलावर्ज पठ्यते तदुत्कालिकमिति ॥ ननु लक्षितयोर्मतिश्रुतज्ञानयोः सामान्येन भेदेऽवगतेऽपि तत्र स्वामिस्थितिकालविषयाणां सत्पदादिद्वाराणाश्चानुक्तत्वेन न्यूनतेत्याकांक्षायामाह-- 10 मतिश्रुतयोबहुवक्तव्यत्वेऽपि विस्तरभिया नोच्यते ॥ मतिश्रुतयोरिति, बहुवक्तव्यत्वेऽपीति, सत्पदप्ररूपणादिभिर्गत्यादिमार्गणास्थानेषु संगमनीयत्वेऽपीत्यर्थः, विस्तरभियेति, ग्रन्थस्यास्य संक्षेपविषयत्वात्तयोस्साकल्येन विचारे क्रियमाणे उद्देशभङ्गस्यादिति भावः । अव्युत्पन्नमतीनां शास्त्रप्रवेशयोग्यतासम्पादनाय ह्यस्य ग्रन्थस्यारम्भः, विशेषतः प्रपञ्चितयोस्सनोस्तेषां सौकर्येण ग्रहासम्भवेन तद्योग्यता नैवोदीया- 15 दिति किश्चिदेव स्वरूपं तयोनिरूपितमिति तात्पर्यम् ।। ____ नन्वेवं सत्यवसितं तयोनिरूपणमिति प्राप्तं तथा च सति तद्भेदविशेषाणां स्वयमेव दर्शितानां स्मृत्यादीनामनिरूपणान्न्यूनत्वं तथापि स्यादित्यत्राह इति सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् ।। इतीति । नहि मतिश्रुतयोनिरूपणस्य पूर्णता क्रियते येन न्यूनत्वं स्यात्, किन्तु 20 केवलमवग्रहादिविचारे मतिश्रुतयोः स्मृतत्वेन तत्स्वरूपजिज्ञासायामुदितायां सामान्यतो लक्षणतद्भेदा अभिहिताः प्रसङ्गसङ्गत्या, तथा चाकांक्षायामुपशमितायां प्रधानविषये लक्ष्यस्य गतत्वेनैतावता सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमेव निरूपितं स्मृत्यादीनामधुनैव निरूपणावसरः प्राप्तस्तस्मान्न न्यूनतेति भावः ॥ इति श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टधरश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्ति भरेण तत्पट्टालंकारेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वो.. पज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां सांव्यवहारिकप्रत्यक्षं नाम द्वितीयः किरणः॥ ४५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [सृतीयकिरणे अथ तृतीयः किरणः अथावसरप्राप्तां मतिश्रुतकार्यभूतां स्मृति प्रत्यभिज्ञादिहेतुभूतां निरूपयति अनुभवमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः । यथा स घट इत्यादि, अत्र प्रायेण तत्तोल्लिख्यते। अनुभवोऽत्र प्रमाणरूपः। आत्मशक्तिरूपसंस्कारो 5 द्वारम् । प्रबोधस्सहकारी। पूर्वानुभूतविषयिणीयम् । अर्थाविसंवादकत्वाचास्याः प्रामाण्यम् । इति स्मृतिनिरूपणम् ॥ अनुभवमात्रेति । अत्र धारणात्वेन सङ्गहीताऽविच्युतिस्संस्कारो वाऽनुभवपदेन ग्राह्यः, सत्र संस्कारस्साक्षात्स्मृति प्रति हेतुरविच्युतिस्तु संस्कारद्वारेति विशेषः, अनुभवेतराजन्यत्वे सति अनुभवजन्यत्वे सति ज्ञानत्वं लक्षणार्थः, आद्यं सत्यन्तं प्रत्यभिज्ञानादिव्युदासाय द्विती10 यमवग्रहादिव्युदासाय, अनुभवध्वंसेऽतिव्याप्तिवारणाय ज्ञानत्वमिति । अत्र निदर्शनमाह यथेति, ननु स घट इत्याकारप्रदर्शनेन स्मरणमात्रं तत्तोल्लेखशालीति प्राप्तं, तथा च सति ' यावता स्मरसि चैत्र ! काश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्र द्राक्षा भोक्ष्यामह' इत्यादिस्मरणानां तच्छब्दोल्लेखाभावेन स्मरणरूपता न स्यादित्याशङ्कायामाहात्रेति, प्रायेणेत्यनेन तदित्युल्ले खयोग्यतावत्त्वमपेक्षितमिति सूच्यते, उक्तस्थलेषु तद्योग्यताऽस्त्यैव, 'तेषु काश्मीरेषु' इत्यपि 15 वक्तुं शक्यत्वादिति भावः । अप्रमाणभूतानुभवेनापि स्मरणसम्भवात्तद्वयुदासायाहानुभवोऽ. त्रेति, एतल्लक्षणघटकीभूतानुभवः प्रमाणरूपो ग्राह्यः, अन्यथाऽनुभवसामान्यविवक्षणे भ्रमात्मकानुभवजन्यभ्रान्तस्मरणस्यापि ग्रहणे स्मृतित्वावच्छेदेन प्रामाण्यबोधकेनातनवाक्येन विरोधस्स्यादिति भावः। नन्वविच्युतेस्स्मरणहेतुत्वे तस्यान्तौहूर्तिकत्वेन कालान्तरभाविस्मृति प्रति हेतुत्वं कथं स्यादित्यत्राहाऽऽत्मशक्तीति, न साक्षात्तस्याः स्मृति प्रति हेतुत्वमभिमतं येन 20 प्रोक्तदोषस्स्यादपि तु संस्कारद्वारेति ब्रूमः, स च संख्येयासंख्येयकालवर्तीति न दोष इति भावः । न चात्मशक्तिरूपसंस्कारस्य तावत्कालमानस्य सर्वदा सद्भावेन सततं स्मरणं स्यादित्यत्राह प्रबोधस्सहकारीति । तथा चोद्बद्ध एव संस्कारः स्मृतिजनको न केवलः संस्कारः तस्योद्बोधकश्वावरणक्षयोपशमसदृशदर्शनादिसामग्रीति भावः । ननु स्मर्यमाण स्यार्थस्याभावेन निरालम्बना स्मृतिः स्यादित्याकांक्षायामाह पूर्वानुभूतेति । पूर्वमनुभूतो यो 25 विषयस्तेनैवास्याः सविषयत्वेन न निरालम्बनत्वमिति भावः । ननु स्मृतिर्न प्रमाणमतीतेऽर्थे उत्पद्यमानत्वात् गृहीतग्राहित्वात् , अर्थादनुत्पद्यमानत्वात् , विसंवादकत्वात् , प्रयोजनाप्रसाधकत्वाच्चेत्याकांक्षायामाहार्थाविसंवादकत्वाच्चेति, चशब्दः पूर्वोदितस्य पूर्वानुभूतविषयिणीति हेतुगर्भविशेषणस्यापि संग्राहकः । तथा च विसंवादकत्वं स्मृतेरसिद्धं, स्वप्रतिपन्ने धृत Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञानम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते द्रव्याद्यर्थेऽविसंवादकत्वात् यत्र तु विसंवादस्स प्रत्यक्षाभासवत्स्मरणाभास एव । अनुभूतार्थेन सविषयकत्वादेवार्थादनुत्पद्यमानत्वमप्यसिद्धं स्वविषयानुभूतार्थादुत्पद्यमानत्वात् , अनुभवप्रमात्वपारतंत्र्यादस्या अप्रमात्वमिति चेदनुमितेरपि व्याप्तिज्ञानप्रमात्वपारतंत्र्येणाप्रमात्वप्रसङ्गः स्यात् । नाप्यतीतेऽर्थे प्रवर्त्तमानत्वादप्रमाणत्वं, अतीतार्थस्य हि किं स्वकालेऽसत्त्वं स्मृतिकाले वा, नाद्यः तस्य विद्यमानत्वात् , न द्वितीयः तस्याप्रामाण्यासाधकत्वात् योगिप्र- 5 त्यक्षकाले विषयाभावेऽपि प्रवर्त्तमानस्य तस्य प्रमाणत्वात् । नापि गृहीतग्राहित्वादप्रमाणं, अनुमानेनाधिगते वह्नौ तदुत्तरकालभाविनः प्रत्यक्षस्याप्रमाणताप्रसङ्गात् , वर्तमानकालावच्छेदेनाधिगतस्यार्थस्यातीतकालावच्छेदेनाधिगतेरगृहीतग्राहित्वाच्च । न च वर्तमानकालावच्छिन्नत्वविशिष्टेऽतीतकालावच्छिन्नत्वस्य स घटोऽस्तीत्यादौ भानादतीतकालवर्तित्वरूपायां वा तत्तायामेतत्कालीनपदार्थवृत्तित्वस्य वा भानेनाप्रमाणत्वमिति वाच्यम् , विशेषणे सर्वत्र विशे- 10 ष्यकालभाननियमस्यानभ्युपगमात् वर्तमानकालीनत्वविशिष्टे चातीतकालीनत्वभानानभ्युपगमाञ्च किन्तु वर्तमानकालीनत्वातीतकालीनत्वयोस्स्वातंत्र्येणैव भानाभ्युपगमात्। प्रत्यभिज्ञानादिप्रवृत्तिनिहितधनादिप्राप्तिलक्षणप्रयोजनसाधकत्वेन प्रयोजनाप्रसाधकत्वमप्रसिद्धमेवेति भावः ।।. अथ मतिस्मृतिहेतुकां प्रत्यभिज्ञां लक्षयति-- अनुभवस्मरणोभयमात्रजन्यं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । इदं तत्तेदन्तो- 15 ल्लेखनयोग्यमेकत्वसादृश्यवैलक्षण्यप्रतियोगित्वादिविषयकं सङ्कलनज्ञानापरपोयमतीतवर्तमानोभयकालावच्छिन्नवस्तुविषयकश्च ॥ अनुभवेति । अनुभवस्मरणोभयमात्रजन्यत्वे सति ज्ञानत्वं लक्षणम् , अनुभवमात्रजन्यत्वे सति ज्ञानत्वस्य स्मृतौ, स्मृतिजन्यत्वे सति ज्ञानत्वस्यानुमित्यादौ अनुभवस्मरणोभयजन्यत्वस्यापि तत्रैव सत्त्वेन व्यभिचारात्तत्तत्पदानि वाच्यानि । ननु ज्ञानमिदं प्रत्यक्ष- 20 स्मरणाभ्यां भिन्नं भवितुं नार्हति तदेवेदमिति हि प्रत्यभिज्ञानं, तत्र तदिति स्मरणमिदमिति प्रत्यक्षमतो नान्यः कश्चिदस्य विषयोऽतो नेदं प्रमाणान्तरमिति चेन्न, ताभ्यामस्य वैलक्षण्यात् , अस्ति पत्र विलक्षणो विषयो यस्य ग्रहणं स्मरणप्रत्यक्षाभ्यामशक्यं पूर्वापराकारैकधुरीणं द्रव्यं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः, न च तत्स्मरणस्य विषयः, अनुभूतार्थविषय १.सम्बन्धस्मरणादेाप्तिप्रत्यभिज्ञादिफलोपयोगे प्रामाण्यमेव, फलीभूतस्मृतेरपि विषयबाधाभावादेव याथार्थ्य दुर्निवारं, तस्याः प्रमात्वस्यानुभवप्रमात्वपारतंत्र्येऽपि व्याप्तिज्ञानप्रमात्वपरतंत्रानुमितिप्रमात्ववदविरोधात् ॥ २. किञ्च प्रत्ययानां प्रामाण्यनिबन्धनं न केवलं विषयातिरेक एव, संदिग्धस्य सन्देहापकरणस्यापि निबन्धन-. त्वात् । तथाहि घटादयः कदाचिदुपलक्षिताकारा: अन्यदाऽनुपलक्ष्यमाणाः सदसत्तया सन्देहविषयतामापद्यन्ते । प्रत्यभिज्ञा च तेषां सन्देहविषयतामपाकुर्वाणा प्रमाणतामश्नत एवेति ।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे त्वात्तस्य, नापि प्रत्यक्षस्य, वर्तमानार्थमात्रवृत्तित्वात् , अस्य दर्शनस्मरणोत्तरकालभावित्वेन ज्ञानान्तरत्वेनानुभवाच्च, न ह्यनुभूयमानस्यापलापो युक्तोऽतिप्रसङ्गादित्याशयेन प्रत्यभिज्ञाया विषयमुपनिबध्नातीदमिति, प्रत्यभिज्ञानमित्यर्थः, तत्तेदन्तोल्लेखनयोग्यमिति, प्रायस्मृताविवात्रापि तत्तेदन्तयोरुल्लेखनं भवतीति भावः, ननु तत्ताऽस्पष्टता, इदन्ता स्पष्टता, तथा च 5 स्पष्टास्पष्टाकारभेदान्नैकं प्रत्यभिज्ञानस्वरूपमस्ति, विरुद्धधर्माध्यासेऽप्यभेदे प्रत्यक्षानुमानयोरप्यैक्यं स्यादिति चेन्न, चित्रज्ञानवदाकारभेदेऽपि तस्यैकज्ञानत्वेनानुभवात् तर्हि विलक्ष. णविषयाभावान्नेदमस्तीत्यत्राहैकत्वसादृश्यवैलक्षण्यप्रतियोगित्वादिविषयकमिति, क्वचिदेकत्वं क्वचित्सादृश्यं क्वचिद्वैलक्षण्यं क्वचिच्च प्रतियोगित्वमस्य विषय इति भावः । ननु स एवायमित्यादिप्रत्यभिज्ञानं स्मृतिप्रत्यक्षात्मकज्ञानद्वयमेव, परन्तु तयोर्भेदस्याग्रहादेक10 रूपतया भासत इत्याशङ्कायामाह संकलनज्ञानापरपर्यायमतीतवर्तमानोभयकालावच्छिन्न वस्तुविषयकञ्चेति । सङ्कलनं नाम विवक्षितधर्मयुक्तत्वेन वस्तुनः प्रत्यवमर्शनम् , प्रत्यक्षस्मरणोत्तरकालमनुभूयमानत्वेन न तत् ज्ञानद्वयमपि तु सङ्कलनात्मकं ज्ञानान्तरमेव, अन्यथा विशिष्टज्ञानमात्रोच्छेदः प्रसज्येत, सर्वस्यापि विशिष्टज्ञानस्य विशेषणज्ञानविशेष्यज्ञानोभय पूर्वकत्वेनावश्यनियततदुभयेनैवोपपत्तौ विशिष्टज्ञाने स्वीक्रियमाणे गौरवात् । तथा प्रत्यक्षं 15 वर्तमानमात्रकालावच्छिन्नवस्तुविषयं, स्मरणश्चातीतमात्रकालावच्छिन्नवस्तुविषय, प्रत्यभिज्ञा नन्तु तदग्राह्यवर्तमानकालातीतकालोभयावच्छिन्नवस्तुविषयकमिति न ज्ञानद्वयात्मकं प्रत्यभिज्ञानमिति भावः । न चेन्द्रियविषयसम्बन्धे सति प्रत्यभिज्ञानस्य भावात्तदभावे तदभावाच्च प्रत्यक्षमेवेदमिति वाच्यम् , इन्द्रियविषयसम्बन्धाव्यवहितोत्तरं तस्यानुत्पत्तेः, प्रत्यक्षस्मर णान्वयव्यतिरेकतस्तस्य भावा भावात् , संस्कारसत्त्वे तस्य भावात्तदभावे तदभावाच्च तस्य 20 स्मरणत्वापत्तेः, अतीतवर्तमानयोरेकत्वस्य प्रत्यक्षाविषयत्वाच्च तस्य वार्त्तमानिकत्वात् , न च स्मरणसहकृतमिन्द्रियमेकत्वं गृह्णातीति वाच्यम्, स्वाविषये सहकारिबलेनाप्यप्रवृत्तेः, नहि गन्धस्मृतिसहकृतं चक्षुः कदापि गन्धे प्रवर्त्तते अविषयश्च वर्तमानातीतकालीनत्वव्याप्यमेकत्वमिति ॥ क्रमेण प्रत्यभिज्ञानस्य दृष्टान्तान्याहतत्रैकत्वविषयं स एवायं देवदत्त इत्यादिज्ञानम् । साहश्यविषयक 25 १. तथा च प्रत्यभिज्ञानं प्रमाणं, अविसंवादित्वे सति स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात् , अन्यथा हि विसंवादः स्यात् संशयादिवत् न चेदं प्रत्यभिज्ञानमव्यवसायात्मकं, तदेवेदं तत्सदृशमेवेदमित्यायेकत्वसादृश्यादिविषयस्य प्रत्यभिज्ञानस्याबाधितस्य संशयादिव्यवच्छेदेनावगमात् । बाध्यमानस्य चाप्रमाणत्वोपपत्तेस्तदाभासत्वात् । न च सर्व प्रत्यभिज्ञानं बाध्यमानमेव, तत्साधकप्रमाणाभावादित्यपि सूचितम् ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यभिज्ञानम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३५७ : गोसदृशो गवय इत्यादि, अत्रैवोपमानस्यान्तर्भावः । वैलक्षण्यविषयकं गोविसदृशो महिष इत्यादि, प्रतियोगित्वविषयकश्चेदं तस्माहूरं समीपमल्पं महद्वेत्यायुदाहरणानि बोध्यानि । इति प्रत्यभिज्ञाननिरूपणम् ॥ तत्रेति । ईदृशे प्रत्यभिज्ञान इत्यर्थः, इत्यादिज्ञानमिति, तद्देशतत्कालवर्तिदेवदत्ततद्देशैतत्कालवर्तिदेवदत्तयोश्च पूर्वापरपर्यायव्यापिदेवदत्तद्रव्यात्मकोर्ध्वतासामान्यमवलम्ब्यैकत्वं 5 विषयी क्रियते, प्रत्यभिज्ञापरिच्छेद्यस्यैकत्वस्याभावे पूर्वोत्तरपर्यायवयेकजीवासिद्ध्या बन्धमोक्षव्यवस्थैव न स्यात् बद्धस्यैव मुक्तत्वे हि विभाव्यात्मानं दुःखितं परमसुखप्राप्तये दुःखविगमोपाये प्रवर्तते, अन्यथाऽन्यस्य सुखार्थं किमर्थमन्य उद्युञ्जीतेति भावः । सादृश्यविषयकं तदुदाहरति सादृश्येति, गोसदृश इति, दृष्टे सादृश्यविशिष्टे पिण्डे स्मृते च गवि संकलनात्मकं गोसदृशो गवय इति ज्ञानमुपजायते, इदञ्च तिर्यक्सामान्यविषयकं, तिर्यक्सामान्यश्चात्र 10 सदृशपरिणामात्मकमिति भावः । ननु गोदर्शनजन्यसंस्कारवतः प्रमातुः कालान्तरे गवयदर्शनगोस्मरणाभ्यामुपजायमानस्य तत्सदृशोऽयमिति ज्ञानस्योपमानत्वरूपं प्रमाणान्तरमेवोचितं न तु प्रत्यभिज्ञानत्वं तस्यैकत्वमात्रविषयकत्वादिति परस्याकांक्षायामाहात्रैवोपमानस्यान्तर्भाव इति । तथा च सादृश्यविशिष्टपिण्डस्य दृष्टस्य स्मृतस्य गोश्च सङ्कलनात्मकस्य गोसदृशो गवय इति ज्ञानस्य प्रत्यभिज्ञानतानतिक्रमात् । स एवायमित्यादिरूपा यथा पूर्वपर्यायेणोत्तरपर्यायस्यैक- 15 ताविषयिणी प्रतीतिः सङ्कलनात्मकत्वात् प्रत्यभिज्ञानं तथैव गोसदृशो गवय इत्यपि प्रतीतिः प्रत्यभिज्ञानमेव, सङ्कलनात्मकत्वाविशेषात् , यद्येकत्वमात्रविषयकं तत् न तु सादृश्यादिविषयकमित्युच्यते तर्हि सादृश्यज्ञानस्योपमानत्वात्मकप्रमाणान्तरत्ववत् गोविधर्मा महिष इत्यादिरूपवैसादृश्यज्ञानस्यापि प्रमाणान्तरत्वं स्यात् ,न च वैसादृश्यज्ञानमुपमानान्तर्गतम् ,तस्य सादृश्यमात्रविषयकत्वात् , इष्टापत्तौ तव प्रमाणसंख्याव्याघातस्स्यात् । न च वैसादृश्यं सादृश्याभाव- 20 स्तथा चाभावविषयकत्वेनानुपलब्धिप्रमाणान्तर्गतत्वान्न प्रमाणसंख्या व्याहन्यत इति वाच्यम् , तथा च सति सादृश्यस्यापि वैलक्षण्याभावरूपत्वेनाभावविषयकतया तत्रैवान्तर्गतत्वेनोपमा. नप्रमाणाभावप्रसङ्गः स्यादिति भावः । एतेनातिदेशवाक्यार्थज्ञानकरणकं सादृश्यविशिष्टपिण्ड दर्शनव्यापारकं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानमित्यपि निरस्तम् , अस्यापि प्रत्यभिज्ञानत्वाऽनतिक्रमात् , इदंत्वेनानुभूतगवयादिव्यक्तौ गवयादिपदवाच्यत्वस्य सङ्कलनात् । न चेदन्त्वेनैव की गवयस्यानुभूतत्वेन गवयत्वावच्छिन्ने गवयपदवाच्यत्वस्योपमानविषयस्य न प्रत्यभिज्ञानतस्सिद्धिर्गवयत्वेन तस्याननुभवादिति वाच्यं प्रत्यभिज्ञावरणकर्मक्षयोपशमविशेषेण यद्ध १. ननु सादृश्यं न वैलक्षण्याभावमात्रं, किन्तु समानधर्मयोग एवेति नोपमानोच्छेद इति चेन्न, वैलक्षण्यस्यापि विसदृशधर्मयोगरूपत्वेन सादृश्याभावमात्ररूपत्वासम्भवादिति ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३५८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे विच्छेदेनातिदेशवाक्यानूद्यधर्मदर्शनं तद्धर्मावच्छेदेनैव पदवाच्यत्वपरिच्छेदोपपत्तेरिति। एवं वैलक्षण्यविषयकं दृष्टान्तयति वैलक्षण्येति, गोदर्शनाहितसंस्कारस्य महिषदर्शिनो जायमानेयं प्रतीतिस्संकलनात्मकत्वात्प्रत्यभिज्ञानं विसदृशविषयकमिति भावः । प्रतियोगित्वविष यकं दृष्टान्तयति, इदमिति, इदं तस्मादिति पदद्वयं समीपादिपदैरतनैस्सम्बध्यते, तस्मादि5 त्यत्र पञ्चम्यर्थोऽवध्यपरपर्यायः प्रतियोगित्वं, तथा चेदं तदवधिकदूरत्ववत्तत्प्रतियोगिकदूरत्ववद्वेत्यर्थः एवमग्रेऽपि, इत्यादीत्यत्रादिना · रोमशो दन्तुरश्श्यामो वामनः पृथुलोचनः । यस्तत्र चिपिटघ्राणस्तं चैत्रमवधारयेः॥ पयोम्बुभेदी हंसस्स्यात् षट्पदैर्धमरः स्मृतः । सप्तपर्णस्तु विद्वद्भिर्विज्ञेयो विषमच्छदः ॥' इत्येवमादिशब्दाकर्णनोत्तरकालं तथाविधवस्त्व वलोकनतो यदा तथावचनं सत्यापयति तदा तथाविधानि ज्ञानानि संकलनात्मकत्वादुदाह10 रणतया ग्राह्याणीति । प्रत्यभिज्ञानप्रमाणं निगमयतीतीति ॥ सम्प्रति तर्कप्रमाणं निरूपयति उपलम्भानुपलम्भादिजन्यं व्याप्त्यादिविषयकं ज्ञानं तर्कः। यथा वह्नो सत्येव धूमो भवति, वहावसति धूमो न भवत्येवेति ज्ञानं व्या प्तिविषयकम् ॥ 15 उपलम्भेति । उपलम्भानुपलम्भौ-यथाक्षयोपशमं सकृदसकृद्वा प्रमाणमात्रेण साध्य साधनयोर्ग्रहणाग्रहणे, न तु केवलं प्रत्यक्षेण, अनुमानादिनापि अतीन्द्रियसाधननिश्चयानिश्चययोरुपादानात् । आदिनाऽऽवापोद्वापयोर्ग्रहणं ताभ्यां जन्यं वक्ष्यमाणस्वरूपव्याप्त्यादिविषयकं ज्ञानं तर्क इत्यर्थः, अत्रादिना वाच्यवाचकभावो ग्राह्यः, तथाचोपळम्भानुपल म्भजन्यव्याप्तिविषयकज्ञानाऽऽवापोद्वापजन्यवाच्यवाचकभावज्ञानान्यतरत्वं तर्कस्य लक्षणम् । 20 दृष्टान्तमाह यथेति, प्रत्यक्षेण सकृदसकृद्वा वह्निधूमयोहणाग्रहणानन्तरं यावान् कश्चिद्ध मस्स सर्वोऽपि वह्नौ सत्येव भवति वह्नावसति धूमो न भवत्येवेति सर्वदेशकालावच्छेदेन साध्यसाधनसम्बन्धविषयकं ज्ञानमुदेति तस्मादयं तर्क इति भावः, सर्वदेशकालावच्छेदेन साध्यसाधनसम्बन्धो व्याप्तिः तद्विषयकश्च तकः, तदुल्लेखश्चेदमस्मिन् सत्येव भवति, इदम स्मिन्नसति न भवतीत्येवंरूपः। अत्र सहकारिकारणे च प्रमाणेन सकद्वाऽसकृद्वा साध्य25 साधनयोर्ग्रहणाग्रहणे, महानसादौ वह्निधूमयोर्ग्रहणं हूदादौ तयोरग्रहणमिति । न च भूयो १. सर्वोपसंहारेण व्याप्तेः प्रत्यक्षाविषयत्वं, उपलम्भानुपलम्भस्वभावस्य द्विविधस्यापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितमात्रविषयकत्वात् । तथा च व्यभिचारादर्शनभूयोदर्शनसहकृतमपि प्रत्यक्षं न व्याप्तिं ग्राहयति, स्वाविषये सहकारिसहस्रसहकृतेनापि स्वेन तद्भहायोगात् ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्क ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते दर्शनव्यभिचारादर्शनसहकृतेनेन्द्रियेणैव व्याप्तिर्योग्यत्वाग्रह्यते, सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्त्या सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारस्यापि सम्भवेन तदुपसंहाराय व्यर्थ एव तर्क इति वाच्यम् , तर्कयामीत्यनुभवसिद्धेन तर्केणैव सकलसाध्यसाधनव्यक्त्युपसंहारेण व्याप्तिग्रहोपपत्तौ सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्तिकल्पने प्रमाणाभावात्, उहं विना ज्ञातेनापि सामान्येन सकलव्यक्त्यनुपस्थितेश्च ! अपेक्ष्यते हि तया सामान्यं यदि व्यक्तिसाकल्यव्यभिचारि स्यात्तदा सामान्य- 5 मेव न स्यादित्येवंविधस्तर्कः । अस्ति तस्य प्राणिनो धर्मविशेषो विशिष्टसुखादिसद्भावान्यथानुपपत्तेरित्यादौ साध्यस्य धर्मविशेषस्य शुभः पुण्यस्येत्याचाप्तवचनादेव ग्रहणं हेतोश्चानुमानात् । अस्त्यादित्यस्य गमनशक्तिः गमनान्यथानुपपत्तेरित्यादौ साध्यस्यानुमानात्पूर्व यत्कार्य तच्छक्तिमत्कारणपूर्वकं यथा सम्प्रतिपन्नं, कार्यश्च गमनमित्येवंरूपानुमानान्तराद्रहणं हेतोश्च देशान्तरप्राप्तिरूपलिङ्गादिति । एतेन व्याप्यारोपेण व्यापकारोपस्तर्कः स च कचिद्विरोधिशङ्का- 10 निवर्तकत्वेन प्रमाणानुग्राहकः, न चायं स्वतः प्रमाणमिति मतमपास्तम् , सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्तौ मानाभावेन सकलसाध्यसाधनोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकस्याभावप्रसङ्गात् । न चान्वयव्यतिरेकसहकृतेन प्रत्यक्षेण व्याप्तिर्गृह्यत इति वाच्यम् , प्रतिनियतदेशकालावच्छिन्नार्थेज्वेवेन्द्रियस्य प्रवृत्त्या सकलदेशकालावच्छिन्नसाध्यसाधनोपसंहारेण तेन तद्ब्रहणासम्भवात् । बहिरिन्द्रियनिरपेक्षस्य मनसो बहिरर्थसाक्षात्कारे सामर्थ्य विरहेण तद्वृत्तिव्याप्तेस्तेना- 15 महात् । नाप्यनुमानात्तद्रहः, प्रकृतानुमानेनैव तत्प्रतिपत्तावन्योन्याश्रयात् व्याप्तिज्ञाने सत्यनुमानं सति च तस्मिन् व्याप्तिग्रह इति । अनुमानान्तरतस्तत्प्रतिपत्तौ त्वनवस्था, तस्यापि गृहीतव्याप्तिकस्यैव प्रकृतानुमानव्याप्तिग्राहकत्वात् तद्व्याप्तिग्रहश्वान्यानुमानगृहीतव्याप्तिकानुमानादिति । तस्मादुपलम्भानुपलंभादिजन्यं व्याप्त्यादिविषयकं तर्काख्यं ज्ञानमवश्यमभ्युपेयम् । तथा स्वविषयभूते व्याप्त्यादौ अविसंवादकत्वात्प्रमाणत्वं तर्कस्य, अत्र प्रयोगस्तर्कः 20 प्रमाणमबाध्यमानविषयकत्वात्प्रत्यक्षादिवदिति, स्वपरव्यवसायित्वेन च स्वतः प्रमाणम । अयश्च तर्कः सम्बन्धप्रतीत्यन्तरनिरपेक्ष एव स्वयोग्यतासामर्थ्यात्सम्बन्धप्रतीति जनयतीति नानवस्था । पराभिमततर्कोऽपि क्वचिद्व्याप्तिविचाराङ्गतया क्वचिद्व्यभिचारिशङ्कानिवर्तकतया चोपयुज्यत इति ॥ . . अथादिपदग्राह्यवाच्यवाचकसम्बन्धविषयकतर्कस्य दृष्टान्तमाह- ... 25 १. न च साधनसामान्यसाध्यसामान्ययोरनवयवयोस्सन्निकृष्टत्वादेकत्रापि साकल्येनेन्द्रियेण ग्रहणमस्ति, विशेषप्रतिपत्तिस्तु सर्वत्र हेतोः पक्षधर्मताबलादेवेति वाच्यम् , व्याप्तिग्रहणकाल एव सामान्यस्वरूपस्य साध्यस्य सिद्ध्या साधनवैफल्यापत्तेः, पक्षधर्मताया धूमविशेष एव सत्त्वे न तस्य वह्निविशेषेण व्याप्तेरगृहीततया गमकत्वासम्भवात् धूमसामान्ये सत्त्वे तु वह्निसामान्यस्यैव सिद्धिः स्यान्न तु विशेषस्येति ॥ . . . . . . .. .. .. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे .: यथा वा घटजातीयश्शब्दो घटजातीयस्य वाचको घटजातीयोऽर्थों घटजातीयशब्दवाच्य इति ज्ञानं वाच्यवाचकभावसम्बन्धविषयकम् ॥ यथावेति । ननु वाच्यवाचकभावविषयकं ज्ञानं कथं तर्क इति चेन्मैव इतरप्रमाणासाधारणत्वात् नहीदं प्रत्यक्षं, चक्षुरादिज्ञानस्य शब्दपरिहारेण रूपादावेव श्रोत्रज्ञानस्य च 5 रूपादिपरिहारेण शब्द एव प्रवर्त्तमानत्वात् । न च सकलशब्दार्थगोचरमन्यज्ञानमस्ति ततस्तर्क एव तद्विषयक इति ॥ ......कथमुपलम्भानुपलम्भौ तक प्रति कारणे भवत इत्यत्राह - व्याप्तिविषयकज्ञानश्च व्याप्तिज्ञानकाले सकृदुपलम्भानुपलम्भाभ्यां साक्षादेव जायते । क्वचित्तु पूर्वमसकृदुपलम्भानुपलम्भाभ्यामेव काला10 न्तरे साधनग्रहणप्रारदृष्टसाध्यसाधनस्मरणप्रत्यभिज्ञानपरम्परया जायते । उपलम्भश्च साध्यसत्त्व एव हेतूपलम्भ इति । अनुपलम्भश्च साध्याभावे हेतोरनुपलम्भ इति । साध्यसाधनग्रहणाग्रहणात्मकाविमौ प्रमाणमात्रेणाभिमतो॥ “व्याप्तिविषयकेति । साक्षादेवेति स्मरणप्रत्यभिज्ञानिरपेक्षमेवेत्यर्थः, तादृशक्षयोपशम15 विशेषबलात्तथा जायत इति भावः । परम्परया तर्कोत्पत्तिमाह क्वचित्त्विति । उपलम्भा नुपलम्भौ दर्शयति उपलम्भश्चेति साध्यसाधनयोग्रहणमिति भावः । अनुपलम्भश्चेति, साध्यसाधनयोरग्रहणमित्यर्थः, तथा च धूमाधिकरणे वह्निदर्शनं, वह्नयभावाधिकरणे धूमाभावदर्शनमित्ति द्वयोस्तात्पर्यार्थः । कथं तयोर्ग्रहणमित्यत्राह साध्यसाधनेति, तेनातीन्द्रियसाध्य हेतुकेस्थलेषु न दोष इति भावः ॥ 20. अथ वाच्यवाचकभावसम्बन्धज्ञानजननविधानमाह-- वाच्यवाचकभावसम्बन्धज्ञानन्तु कचिदावापोद्वापाभ्यां समुदेति । यथा प्रयोजकवृद्धप्रयुक्तगामानयेतिवाक्यश्रवणसमनन्तरगवानयनप्रवृत्तिमत्प्रयोज्यवृद्धचेष्टाप्रेक्षणजन्यैतद्वाक्यजन्यैतदर्थविषयकज्ञानवानयमि त्यनुमानज्ञानवतोऽपि बालस्य तत्तदर्थविशेष्यकतद्वाक्यघटिततत्तत्पदवा25 च्यत्वसंशयवतः कालान्तरीयप्रयोजकवृद्धप्रयुक्तगां नयाश्वमानयेति गोशब्दानयनशब्दविषयकावापोद्वापवद्वाक्यश्रवणजन्यप्रयोज्यवृद्धप्रवृत्तितो १. यथाऽस्ति तपनस्य गमनशक्तिर्गमनान्यथानुपपत्तेरित्यत्र गमनरूपो धर्म आप्तवचनात्, गमनशक्तिश्चोतानुमानार्वाक् नहि सिद्धः किन्तु यत्कार्य तच्छक्तिमत्कारणपूर्वकं. यथा घटादिः कार्यच गमनमित्येवरूपानुमानान्तरात् सिद्धयति, तयोरतीन्द्रियत्वात् इति भावः ।। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक 1 न्यायप्रकाशसमलहते गोजातीयोऽर्थो गोशब्दस्य वाच्यो गोजातीयश्च शब्दो गोजालीयस्य वाचक इत्येवंरूपस्तर्कस्समुल्लसति । कचिच्चाप्तपुरुषप्रयुक्तेन परार्थतरूपे. णेशोर्थ ईदृशशब्दवाच्य ईदृशशब्दश्चेदृशार्थस्य वाचक इति वाक्येन वाच्यवाचकभावप्रतिपत्तिः। तर्के चानुभवस्स्मृतिःप्रत्यभिज्ञानश्च कारणम्। इति तर्कनिरूपणम् ॥ वाच्यवाचकेति । आवापोद्वापाभ्यामिति, आवापोऽनुवृत्तिरुद्वापो व्यावृत्तिः । तत्प्र. कारं विशदयति यथेति, अयमभिप्रायः, एकः प्रयोजकवृद्धो य आज्ञापयति कमपि, द्वितीयः प्रयोज्यवृद्धो य आज्ञप्तो भवति, तृतीयो बालो यः प्रयोज्यवृद्धप्रवृत्तितः प्रयोजकवृद्धोदितस्य वाक्यस्यार्थ परिच्छिनत्ति । तत्र प्रयोजकवृद्धेन प्रयोज्यवृद्धं प्रति गामानयेति वाक्ये प्रयुक्त गृहीततत्सङ्केतस्य प्रयोज्यवृद्धस्य तच्छ्रोतुरगृहीततत्सङ्केतस्य च बालस्य वर्णविषयकं पदविषयकं 10 वाक्यविषयकश्च सङ्कलनात्मकं प्रत्यभिज्ञानं समुदेति । यथा पूर्वपूर्ववर्णावयवश्रवणेन संजात संस्कारस्यान्त्यावयवश्रवणानन्तरं पूर्वतदवयवस्मरणे ह्रस्वादिविषयकसङ्केतस्मरणे च सत्ययं वर्णो इस्वो दीर्घः प्लुतो वेति प्रत्यभिज्ञानमुभयोर्जायते तथा पूर्वपूर्ववर्णश्रवणजन्यसंस्कारस्यान्त्यवर्णश्रवणानन्तरं तत्तत्पूर्ववर्णानामनुक्रमविशिष्टानां स्मरणे पदविषयकसकेतस्मरणे च सतीदं सुबन्तं तिङन्तं वा पदमिति प्रत्यभिज्ञानं जायते । एवं पूर्वपूर्वपदश्रवणसमुदितसं- 15 स्कारस्यान्त्यपदश्रवणानन्तरमनुक्रमविशिष्टानां पूर्वपदानां वाक्यविषयकसंकेतस्य च स्मरणे सति वाक्यमिदमिति प्रत्यभिज्ञानं जायते । इत्थं प्रत्यभिज्ञानाद्वर्णपदवाक्यग्रहणे जाते प्रयोज्यवृद्धस्य गोकर्मकानयनानुकूलां गमनात्मिकां चेष्टामाकलय्य बालः कारणान्तरासन्निधौ प्रयोजकवृद्धप्रयुक्तशब्दश्रवणसमनन्तरं प्रवृत्तस्य प्रयोज्यवृद्धस्येयं चेष्टा प्रयोजकवृद्धशब्दजन्ययत्किश्चित्प्रतिपत्तिप्रयोज्येति मन्यते । ततस्तेनानीयमानां गां निभाल्य गवानयनरूपोऽर्थोऽ- 20 नेन प्रयोज्यवृद्धेन तस्माद्वाक्यादवगत इति प्रत्येति, परन्तु न पारयति तदानीं कस्य पदस्य कोऽर्थ इति विविच्य निश्चेतुं। पुनश्च कालान्तरे प्रयोजकवृद्धेन प्रयुक्तं गां नयेत्यादिवाक्यं गोशब्देनानुवृत्तमानयशब्देन च व्यावृत्तं श्रुत्वा दृष्ट्वा च प्रयोज्यवृद्धस्य विशिष्टां प्रवृत्ति विजानाति तदाऽर्थस्य गोरनुवृत्तिं व्यावृत्तिश्चानयनस्य, तथैव प्रयोजकवृद्धे. नोदितमश्वमानयेति वाक्यं गोशब्देन व्यावृत्तमानयशब्देन चानुवृत्तं निशम्य विलोक्य 25 च प्रयोज्यवृद्धस्य तादृशी चेष्टां समाकलयति गवादेरर्थस्य व्यावृत्तिमानयनस्यानुवृत्तिश्च । ततश्चेदृशावापोद्वापाभ्यां समुल्लसति तस्य तर्कः गोजातीयोऽर्थो गोजातीयशब्दवाच्यो । गोजातीयश्च शब्दो गोजातीयस्य वाचक इत्येवंरूपो वाच्यवाचकभावावलम्बन इति । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३२: तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे गामानयेतिवाक्येति, गामानयेत्यनुकरणं पदं तद्बोधकञ्चेतिपदं, सस्य च वाक्यपदेन ' सह सुपा' इत्यनेन समासः । एवमग्रेऽपि । तत्र प्रयुक्तपदस्य वाक्यपदेन समनन्तरपदस्य प्रवृत्तिपदेन जन्यपदस्यानुमानज्ञानपदेनान्वयः । प्रेक्षणं बालनिष्ठं, अवशिष्टं मूलं स्फुटार्थम् । नन्वावापोद्वापाभ्यां क्वचिदेव तर्कस्समुल्लसतीत्युक्तं तत्किमन्येनापि प्रकारेण स 5 समुदेतीति जिज्ञासायामाह क्वचिच्चेति । अत्रायं भावः, कश्चिदाप्तस्वयं तर्केण वाच्यवाचकभावं शब्दार्थयोरवगत्य परं प्रति बोधयितुं परस्मिन्स्तदनुसारितर्कोत्पत्तिहेतुं परार्थतर्कमभिधत्ते, वत्स ! गोजातीयोऽर्थो गोजातीयशब्दवाच्यो गोजातीयश्च शब्दो गोजातीयार्थस्य वाचक इत्यवेहीति, ततश्चासौ वाच्यवाचकयोरुपलम्भानुपलम्भद्वारेण तथाप्रतिपद्यमानस्तकर्का देव वाच्यवाचकभावं विजानाति, इयञ्च व्याप्त्या वाच्यवाचकभावप्रतीतिर्बोध्या, शृङ्गग्राहि10 कतया तु नियतव्यक्तावयं पुरोवर्ती भावोऽस्य शब्दस्य वाच्य इति, तथाऽऽगमादेरपि सा भवति, तदूवं तु व्याप्तिद्वारेण तर्कादेव प्रत्येति, इत्थम्भूतसर्व इत्थम्भूतस्य सर्वस्य शब्दस्य वाच्य इत्थम्भूतशब्द इत्थम्भूतस्य सर्वस्यार्थस्य वाचक इति ।। ननु वाच्यवाचकभावविषयके तर्केऽपि व्याप्तिज्ञानात्मकतर्क इवानुभवस्मृत्योः क्वचिदेव कारणत्वं किं वा सर्वत्रेत्यत्राह तर्के चेति, वाच्यवाचकभावविषयकेत्यादिः, अन्यथा साक्षादेव जायत 15 इत्यनेन विरोधापत्तेः, कारणमिति, तथा चात्र तयोः कारणत्वं नियतमिति भावः । अथ तक निगमयतीतीति ।। इति श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालंकारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्य. स्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्वन्यायविभाक रस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायामनुमानपरिकरो नाम तृतीयः किरणः॥ 20 . अथ चतुर्थः किरणः ॥ १. अथानुक्रमायातमेतेषां कार्यभूतमनुमानं स्वरूपयति हेतुज्ञानव्याप्तिस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानमनुमानम् । यथा पर्वतो वह्निमानिति विज्ञानम् ॥ हेतुज्ञानेति । हेतोर्वक्ष्यमाणस्वरूपस्य ज्ञानं निश्चयः, व्याप्तेरविनाभावरूपायास्स्मरणं 25 ते कारण यस्य तथाभूतं साध्यस्याभिधास्यमानस्वरूपस्य विज्ञानं निश्चयोऽनुमानमित्यर्थः । अत्र हेतुज्ञानं व्याप्तिस्मरणश्च मिलित्वाऽनुमितौ कारणमन्यथा विस्मृतव्याप्तेरनधिगतव्यातेर्वाऽत्रस्थमनुष्यस्य नारिकेलद्वीपवासिनो वा हेतुज्ञानमात्रात्तदभाववतो वा व्याप्तिस्मरण Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .10 हेतुलक्षणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते. वतोऽनुमानोत्पत्तिस्स्यात् । एवं ज्ञानद्वयादेव सर्वत्रानुमानोत्पत्त्या निरुक्तज्ञानद्वयजन्याति.. रिक्तपरामर्शात्मकविशिष्टज्ञानस्यानुमानहेतुत्वमप्रामाणिकमेवेति बोध्यम् , तथाकल्पने गौरवात् प्रयोजनाभावाच्च । अनुमानं दृष्टान्तयति यथेति, गृहीतधूमस्य स्मृतव्याप्तिकस्य च यत्पर्वतो वतिमानिति विज्ञानमुदेति तदनुमानमिति भावः ॥ इदानीमनुमानलक्षणघटकहेतुलक्षणमाह निश्चितव्याप्तिमान हेतुः । यथा वह्नौ साध्ये धूमः । व्याप्तिमत्त्वमेव हेतो रूपं न तु पक्षसत्त्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वात्मकं त्रिरूपं, अबाधित: त्वासत्पतिपक्षितत्वाभ्यां पश्चरूपं वा, असाधारणत्वाभावात् ॥ .. :' निश्चितेति । निश्चिता निर्णीता चासौ व्याप्तिश्च निश्चितव्याप्तिस्ततो नित्ययोगे मतुब् अत एव निश्चिता व्याप्तिर्यस्मिन्निति बहुव्रीहिर्न कृतः, निश्चयविषयव्याप्तेर्नित्यसम्बन्धस्य कर्मधारयोत्तरमतुबन्तेनैव लाभात् । एवञ्च निश्चितव्याप्त्या नित्यसम्बद्धो हेतुरिति भावः । " हेतुं दृष्टान्तयति यथेति । ननु हेतुर्निश्चितपक्षसत्त्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वरूपत्रययुक्त' एव, तत्र पक्षसत्त्वं ह्यसिद्धत्वव्यवच्छेदार्थ सपक्षसत्त्वं विरुद्धत्वव्यवच्छेदार्थ विपक्षा-' सत्त्वश्चानैकान्तिकत्वव्यवच्छेदार्थ निश्चीयते तेषामनिश्चये तु असिद्धादिहेतोरप्यनुमानापत्तिः प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह व्याप्तिमत्त्वमेवेति, एवशब्देन व्यवच्छेद्यमाह नत्विति ।। त्रिरूपमिति बौद्धानामेवमभ्युपगमः । नैयायिकास्तु बाधितसत्प्रतिपक्षितहेतुव्युदासाया- 15 बाधितत्वासत्प्रतिपक्षाभ्यां प्रोक्तत्रिरूपं हेतो रूपमिति वदन्ति तदपि नेत्याहाबाधितत्वेति । अनयोर्हेतुरूपत्वाभावे कारणमाहासाधारणत्वाभावादिति । अविनाभावनियमनिश्चयादेव दोषत्रयादिपरिहारोपपत्तेरविनाभाव एव हेतोरसाधारणं रूपं, स चासिद्धे विरुद्धेऽनैकान्तिके वा न सम्भवति, तदभावाच्च त्रिरूपे विद्यमानेऽपि हेतोर्गमकत्वं न दृष्टं, यथा स श्यामो मैत्रातनयत्वादितरमैत्रापुत्रवदित्यादौ । न च नैयत्येन विपक्षव्यावृत्तिर्नास्तीति वाच्यम् , 20 विपक्षान्नियमेन व्यावृत्तेरेव व्याप्तित्वेनेतररूपद्वयवैयर्थ्यापत्तेः । पक्षधर्मत्वाभावेऽषि उदे. प्यति शकटं कृत्तिकोदयात्, उपरि सविता भूमेरालोकवत्त्वात् अस्ति नभश्चन्द्रो जलचन्द्रा १. नैयायिकानां मतेऽपि हेतुज्ञानसम्बन्धज्ञानयोरावश्यकत्वमेव, साध्यव्याप्यहेतुमत्ताज्ञानरूपपरामर्शात्मकविशिष्टज्ञानं प्रति विशेषणज्ञानमुद्रया तयोः कारणत्वात् , तथा च ताभ्यामेवानमित्युत्पत्त्या व्यर्थः परामर्श इति भावः ॥ २. अयम्भाव: व्याप्तिरेव केवलं हेतोः स्वरूपं. सत्त्वासत्त्वे तु तद्धर्मों, न हि धर्मिसत्त्वे धर्मा-- स्सदा सर्वे भवन्त्येवेति नियमः, पटादेः शुक्लत्वादिधमळभिचारात् यद्यपि सत्त्वासत्त्वधर्मों क्वचिद्धेतौ तथापि धर्मिस्वरूपा व्याप्तिर्भविष्यतीति न विरोधः । यत्रापि च धूमादी सत्त्वासत्त्वे हेतौ दृश्येते तत्रापि व्याप्तरेषः प्राधान्यमतस्सत्त्वासत्त्वादिकं साधारणमिति ॥ ...- ....... ... .......... Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३६४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे दिस्यायनुमानदर्शनात् । तत्रापि कथश्चित्कालाकाशादीनां पक्षत्वकल्पने काककाष्येन हेतुना प्रासादधावल्यस्यापि साध्यत्वप्रसङ्गरस्यात्तत्रापि कथञ्चिजगतः पक्षत्वसम्भवात् । जगत् प्रासादधावल्ययोगि, काककार्ययोगित्वादिति । जगतः पक्षत्वस्य लोकविरुद्धस्वे कालाकाशादीनामननुभूयमानत्वेन लोकविरुद्धत्वं तुल्यमेव, क्लिष्टकल्पनापत्तिश्च । नापि सपक्ष5 सत्त्वं गमकं, सपक्षेऽसतोऽपि श्रावणत्वादेशब्दानित्यत्वे ममकत्वप्रतीतेः । न च श्रावण. त्वस्यासाधारणत्वादनैकान्तिकत्वमिति वाच्यम् , यद्यदसाधारणं तत्तदनैकान्तिकमिति व्याप्त्यसिद्धेः सपक्षविपक्षासत्त्वेन निश्चितेऽपि श्रावणत्वे पक्षान्त वेणाविनाभावग्रहसम्भवात् । अन्यथा सर्वानित्यत्वे साध्ये सत्त्वादेर्हेतुत्वं तव न स्यात् । नापि सपक्षविपक्षयोरसत्त्वेन संशयितत्वादसाधारणः, श्रावणत्वादेस्तदसत्त्वेनैव निश्चयात् । तस्मानिश्चितान्यथानुपपत्ति10 रेव हेतो रूपं तच्चासिद्धादिहेतौ न सम्भवत्येवेति किं त्रिरूपेण । एवं पश्चरूपत्वमपि न हेतु. लक्षणं, अग्निजन्योऽयं धूमस्सत्त्वात्पूर्वोपलब्धधूमवदित्यादौ पक्षे धूमे हेतोस्सत्त्वस्य सपक्षे पूर्वदृष्टभूमे च सत्त्वात् खरविषाणादौ विपक्षेऽसत्त्वात् पक्षे बाधाभावात्साध्याभावसाधकानुमानासम्भवाच्च पश्चरूपत्वेऽक्षतेऽप्यगमकत्वात् , न च यावद्विपक्षावृत्तित्वं हेतोर्नास्तीति वाच्यम् , तस्यैवान्यथानुपपत्तिरूपत्वेन हेतुलक्षणत्वे शेषाणामकिश्चित्करत्वात्। एवमबाधित15 विषयत्वं निश्चितमेव हेतुलक्षणमिष्टं भवतस्तन्निश्चयश्च न सम्भवति, तन्निश्चयसाध्यनिश्चय योरन्योऽन्याश्रयात् । सति हि हेतौ बाधितविषयत्वाभावनिश्चये साध्यनिश्चयस्तन्निश्चये च बाधितविषयत्वाभावनिश्चय इति, न च प्रमाणान्तरेण बाधितविषयत्वाभावनिश्चयान्नान्योs· न्याश्रय इति वाच्यम् , तस्याकिश्चित्करत्वात् , कुतश्चिद्वाधनाभावनिश्चये कुतश्चित्साध्याभाव स्यापि सद्भावसम्भवात् । नन्वविनाभावोऽपि हेतुलक्षणं माभूत् अन्योऽन्याश्रयात् , साध्य20 सद्भावनिश्चये व्याप्तिनिश्चयात् तन्निश्चये च साध्यनिश्चयादिति मैवम् व्याप्तिनिश्चये साध्य निश्चयस्याप्रयोजकत्वात् तर्काख्यप्रमाणान्तरादेव तन्निश्चयात् । न च हेतावविनाभावनिवायकेन तर्केणैव साध्यस्यापि सिद्धेहे तोरकिश्चित्करत्वं स्यादिति वाच्यम् , हेतुना देशादिविशेषावच्छिन्नस्य साध्यस्य साधनात् तर्कात्तु सामान्यत एव सिद्धत्वात् । एवमसत्प्रतिप १. शब्देऽनित्यत्वसद्भाव एव श्रावणत्वोपपत्तिरूपतथोपपत्तिसम्भवादिति भावः ॥ २. सत्त्वस्य विपक्षावृत्तित्वेन निश्चितत्वेऽपि सपक्षावृत्तित्वनिश्चयतो गमकत्वं सत्त्वस्य न स्यात् न च तत्र सपक्ष एव नास्ति इति वाच्यम्, विद्यमाने सपक्षे हेतोरवृत्तित्वनिश्चयस्य गमकतायामनङ्गत्वादिति तात्पर्यम् ॥ ३. तण व्याप्तिग्रहणवेलायां हि न पर्वतादीनां भानं सर्वत्रानुवृत्त्यभावात् । तद्यनुमितौ पक्षः कथं भासत इति चेत् हेतुग्रहणाधिकरणतया क्वचित्तद्भानम् । हेतोर्हि ग्रहः पर्वतादौ जातोऽतस्साध्यस्यापि तत्रैवेति तद्भानम् । क्वचिदन्यथाऽनुपपत्त्यवच्छेदकतया, अस्ति नभसि चन्द्रो जलचन्द्रादित्यादौ नभसि हेतोरग्रहेऽपि नभसि चन्द्रास्तित्वं विना जलचन्द्रानुपपत्तेरन्यथानुपपत्त्यवच्छेदकतया मभसो भानमिति ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याप्तिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते क्षिततोरपि न हेतुलक्षणत्वं उभयत्र हेतावविनाभावासम्भवात् तत्स्थितमेतन्निश्चितव्याप्तिमन्वमेव हेतोरसाधारणं रूपं न तु त्रिरूपं पश्वरूपं वेति || अत्रेदं विचार्यम्, अविनाभावः किं सामान्यस्य सामान्येन, विशेषैर्वा, विशेषाणां सामान्येन, विशेषैर्वेति । सामान्यस्य सामान्येन व्याप्तिर्नानुमानाङ्गभूता, तया च सामान्यस्यैव सिद्धेः सामान्यतया सर्वदेशकाल - सम्बन्धित्वेन प्रसिद्धस्य साध्यस्य साधने सिद्धसाधनत्वापत्तेः । नापि विशेषैः, देशकाला- 5 नवच्छिन्नैस्तैस्तथात्वे देशकालानवच्छिन्नवह्नयादीनां सुप्रसिद्धत्वे सिद्धसाधनत्वापत्तेः, तदवच्छिन्नैर्व्याप्तित्वे चानुगमाभावात्, नहि धूमसामान्यस्य पर्वतादिस्थैरग्निविशेषैस्नुगमोऽस्ति पर्वतीयवभावेऽपि धूमसामान्यस्योपलम्भात् । विशेषाणां सामान्येनापि न व्याप्तिः, पूर्वोदितविधिना सिद्धसाधनत्वापत्तेः पर्वतीयधूमाभाववति महानसादौ वह्निसामान्यस्य वृत्त्या व्यभिचाराच । नापि विशेषाणां विशेषैः, तेषामानन्त्येन दुर्प्रहात् । अत्रोच्यते, I सामान्यविशेषवतस्सामान्यविशेषवता व्याप्तिस्तग्राहकस्तर्क:, अत एव यावान् कश्चिद्धूम इत्याद्यभिलापकं वाक्यमुक्तं तत्र यावत्पदेन सामान्यस्य कश्चिदित्यनेन विशेषस्य बोधः, तत्रापि न सामान्यविशेषौ केवलौ व्याप्यव्यापकभावेनानुभूयेते, किन्तु जात्यन्तरस्य सामान्यविशेषोभयात्मनस्तद्रूपतृयाऽवभासनादिति ॥ : ३६५ : 10 • १. अत्र वैशेषिका : सामान्ययोर्नाविनाभावः सिद्धसाधनात्, अपास्तविशेषं हि व्याप्ति सामान्यं सिद्धं, नियतदेशकालावच्छेदेन विशेषार्थिनां प्रवृत्तिनिवृत्त्योर भावप्रसङ्गाच्च । न च विशेषयोर विनाभावः तेषामानन्त्येनाप्रसिद्धेः तदायत्तस्याविनाभावस्य च प्रसिद्धेः । यावतामुपलम्भस्तावत्स्वेवाविनाभावग्रहणे च नागृहीताविनाभावस्य विशेषस्योपलम्भादनुमानं स्यात् नैतदूषणम् सामान्यवतोरविनाभावग्रहणाभ्युपगमात् ॥ २. वह्निर्हि धूमं व्याप्नोति धूमश्च वह्निना व्याप्यत इति व्याप्तिर्वह्निधूमयोर्धर्मः यत्र धर्मिणि पर्वतादौ सर्वत्रेति व्यभि चारवारणाय, सत्त्वमेवेति बाधवारणाय । तत्रैवेति व्यभिचारवारणाय ॥ t 15 अधुनाऽनुमानलक्षणघटकव्याप्तिस्मरणविषयभूतां व्याप्तिमाह— तौ साध्याभाववदवृत्तित्वं व्याप्तिः । इयमेवाऽन्यथाऽनुपपत्तिप्रतिधन्धाविनाऽभावशब्दैरुच्यते । वहिं विना धूमस्यानुपपत्तेर्वह्निसत्त्व एव धूमोपपत्तेश्च वह्निनिरूपिताऽन्यथाऽनुपपत्त्यादिशब्दवाच्या व्याप्तिर्धूमे वर्त्तते । अतो धूमो व्याप्यो निरूपकश्च वह्निर्व्यापकः । तथा च व्याप्यसत्त्वेऽवश्यं व्यापक सत्त्वं, व्यापकसत्त्व एव च व्याप्येन भवितव्यमिति 20 व्याप्यव्यापकभावनियमः सिद्ध्यति ॥ ताविति । यो हि व्याप्नोति यश्च व्याप्यते तयोरुभयोर्धर्मो व्याप्तिः, यदा व्यापक Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३६६ : तत्त्वन्यायविभाकरे __ . [ चतुर्यकिरणे धर्मतया तस्या विवक्षा तदा व्यापकस्य यत्र धर्मिणि व्याप्यमस्ति तत्र सर्वत्र सत्त्वमेव व्यापकगतो धर्मों व्याप्तिः । यदा तु व्याप्यधर्मतया व्याप्तिर्विवक्ष्यते तदा यत्र धर्मिणि व्यापकोऽस्ति तत्रैव व्याप्यस्य भावो न तदभावेऽपीति सैव व्याप्तिः । पूर्वप्रायोगव्यव च्छेदेनेह चान्ययोगव्यवच्छेदेनावधारणं बोध्यम् । तत्र हेतुनिष्ठव्याप्तेरेव गमकताङ्गतया 5 हेतावित्युक्तम् । तथा चान्ययोगव्यवच्छेदलब्धार्थमाह साध्याभावेति । यत्र धर्मिणि व्यापक साध्यमस्ति तत्रैव हेतो वः, साध्यं यत्र नास्ति तत्र तस्याभाव एवेति हेतुनिष्ठा व्याप्तिरिति भावः, एतेन यत्र धर्मिणि साध्यमस्ति तत्र साधनस्यैव भावोऽथवा यत्र धर्मिणि साध्यमस्ति तत्र साधनस्य भाव एव व्याप्तिरित्यवधारणं न साधु, तथा च सत्यव्याप्यस्यापि तत्र भावेन हेत्वभावप्रसङ्गः प्रथमावधारणे, द्वितीये च साधारणस्य प्रमेयत्वादेर्हेतुत्वप्रसङ्गः, सपक्षक10 देशावृत्तेश्चाहेतुत्वप्रसङ्गः स्यादिति । इयमेव व्याप्तिरत्र शास्त्रेऽन्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतिशब्दैर्व्य वह्रियत इत्याहेयमेवेति, ननु तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारेण हेतुप्रयोगो दृश्यते तत्र तत्र शास्त्रे, यथा पर्वतो वह्निमान् तथैव धूमोपपत्ते—मान्यथानुपपत्तेर्वेति । तत्र तथोपपत्तिरनवयोऽन्यथानुपपत्तिय॑तिरेकस्तत्कथमत्रान्यथाऽनुपपत्तेरेव व्याप्तित्वमुक्तमिति जिज्ञासाया माह वहिं विनेति, वहिं विना धूमस्यानुपपत्तेरित्यनेन व्यतिरेकरूपान्यथानुपपत्तिः, वह्निसत्त्व 15 एव धूमोपपत्तश्चेत्यनेनान्वयरूपा तथैवोपपत्तिश्च प्रदर्शिता । अनयोरुभयोरपि परस्पराव्यभिचा रित्वेन तयोरन्यथानुपपत्तिशब्दग्राह्यत्वमेव, नहि कश्चिद्विशेषस्तयोरित्यभिप्रायेणाहान्यथानुपपत्त्यादिशब्दवाच्येति । तेनैकत्र तयोरन्यतरस्य प्रयोगे साध्यसिद्धावपरप्रयोगस्य वैयर्थ्यमेवेति भावस्सूचितः । 'आदिना प्रतिबन्धाविनाभावौ ग्राह्यौ, हेतुनिष्ठव्याप्तेरेवानुमानौपयिकतया हेतुाप्यो निरूपकञ्च साध्यं व्यापकमित्याहात इति, हेतुनिष्ठव्याप्तेरनुमित्यौपयिकत्वा20 दित्यर्थः, व्याप्यो व्याप्त्याश्रयः, वह्निर्व्याप्तिनिरूपकः तथा च वह्निनिरूपितव्याप्त्याश्रयत्वाद्धमो वह्निव्याप्यः, धूमवृत्तिव्याप्तिनिरूपकत्वाद्वतिधूमव्यापक इति भावः । व्याप्यव्यापकयोरुभयत्र व्याप्तेर्नैकाकारप्रतीतिविषयत्वमिति स्पष्टयति तथा चेति, धूमस्य व्याप्यत्वे वह्वेश्च व्यापकत्वे इत्यर्थः । अवश्यं व्यापकसत्त्वमिति, व्यापकस्य सत्त्वमेवेत्यर्थः, नतु व्यापकस्यैव भाव इति, व्यापकाभावप्रसङ्गात्, मूर्त्तत्वादेरव्यापकस्यापि तत्र सत्त्वात् । व्यापकसत्त्व एव 25 चेति, तथा चायोगाऽन्ययोगव्यवच्छेदाभ्यां विभिन्नाकारतयोभयत्रैकाकारत्वविरहेणैवमेव व्याप्यव्यापकभावस्य नियमो भवतीति भावः ।। १. पर्वतो वह्निमान धूमादित्यादिहेतोरित्यर्थः, सपढेकदेशेऽयोगोलकादौ धूमस्याविद्यमानत्वादिति भावः ॥ २. यत्र धर्मिणि व्यापकोऽस्ति तत्रैव व्याप्यस्य भावो न तदभावेऽपीत्यवधारणमभ्युपेत्य लक्षणप्रणयनेन तदन्तर्गततयोभयविधस्यापि लाभेनेदृशव्याप्तेरन्यथानुपपत्तिशब्दवाच्यत्वे तदुभयोरपि ग्रहणसंभवादिति भावः ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ग्याप्तिभेदः।] न्यायप्रकाशसमलते . : ईदृशनियमस्य स्वरूपत एकविधत्वेऽप्याश्रयविशेषापेक्षया द्वैविध्यमाह सोऽयं व्याप्त्यपरपर्यायो नियमो द्विविधः, सहभावनियमः, क्रमभावनियमश्चेति ॥ सोऽयमिति । पूर्वोपदर्शितस्वभावोऽयमित्यर्थः, अस्य नियम इत्यनेन सम्बन्धो नियम एव व्याप्तिरिति सूचयितुमुक्तं व्याप्त्यपरपर्याय इति । सहेति, हेतुसाध्ययोरेकस्मिन् काले 5 विद्यमानयोर्नियम इत्यर्थः । क्रमेति, पौर्वापर्यक्रमेण जायमानयोस्तयोर्नियम इत्यर्थः ॥ तत्र सहभावनियमः केषामित्यत्राह-.. तत्र सहभावनियम एकसामग्रीप्रसूतयो रूपरसयोर्व्याप्यव्यापकयोश्च शिंशपात्ववृक्षत्वयोर्भवति ॥ तत्रेति । द्विविधे नियम इत्यर्थः । सह भाव उत्पत्तिः स्थितिर्वा सहभावस्तस्य नियम 10 इति व्युत्पत्तिं मनसि निधायाद्याया निदर्शनमाहैकसामग्रीप्रसूतयोरिति, जनकसम्मम्या एकत्वेन रूपरसयोस्सहैवोत्पाख्न तयोर्नियमस्सहभावनियम उच्यत इति भावः । अत्रान्यतरस्य व्याप्यत्वं व्यापकत्वश्च यादृच्छिकमिति बोध्यम् । द्वितीयां व्युत्पत्तिमभिप्रेत्याह , व्याप्यव्यापकयोरिति परस्परं न्यूनाधिकदेशवर्त्तिनोरित्यर्थः, तथा च रूपं वृक्षत्वं वा विना रसस्य शिंशपाया वाऽनुपपत्ते रूपस्य वृक्षत्वस्य च सत्त्व एव रसस्य शिंशपात्वस्योपपत्तेश्च 15 तयोर्नियमस्सहभावनियम इति भावः ॥ ...... wear ॥ ... . . केषां क्रमभावनियम इत्यत्राह• क्रमभावनियमस्तु कृत्तिकोदयरोहिण्युदययोः पूर्वोत्तरभाविनोः, कार्यकारणयोश्च धूमवयोर्भवति ॥ ..... क्रममावेति । क्रमः पूर्वापरभावः, स चाकार्यकारणयोः कार्यकारणयोश्च भवती- 20 त्याद्यस्य निदर्शनमाह कृत्तिकेति । अत्र शकटोदये न कृतिकोदयस्य कारणत्वमपि तु पौर्वापर्यमात्रमिति भावः । कार्यकारणयोदृष्टान्तमाह कार्येति, भवतीति, नियम इति शेषः॥ ननु हेतुज्ञानसहकृतेन व्याप्तिस्मरणेन साध्यविज्ञानमनुमानमिति प्राग्वर्णितं, तत्र किन्तावत्साध्यमित्यत्राह प्रमाणाबाधितमनिर्णीतं सिषाधयिषितं साध्यम् । यथा वह्निमत्पर्व- 25 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८ : तरवण्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे तः । अस्यैव च पक्ष इति नामान्तरम् । साध्यविशिष्टत्वेन धर्मिण एव सिषाधयिषितत्वात् इदञ्चानुमानजन्यप्रतिपत्तिकालापेक्षया ॥ " प्रमाणेति । प्रमाणपदेनात्र प्रमाणत्वावच्छिन्नं ग्राह्यं तथा च प्रमाणत्वावच्छिन्नेन येन केनचिदप्यबाधितमित्यर्थः, एतेन बाधितस्य साध्यत्वव्यावृत्तिः कृता भवति, यथा शब्दोऽ5 श्रावण इति प्रत्यक्ष बाधितं साध्यम्, नित्यश्शब्द इति शब्दस्यानित्यत्वसाधकेनानुमानेन बाधितम्, धर्मः प्रेत्यासुखप्रद इति धर्मः प्रेत्यसुखप्रद इत्यागमेन बाधितम्, माता मे ध्ये स्ववचनबाधितं, नरशिरःकपालं शुचीति लोकबाधितम् एवंरूपाणां व्यावर्त्तनाय प्रमाणाबाधितमिति पदम् । स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयविषयस्य, शुक्तिकाशकलं रजतमिति विपयस विषयस्य, यथावदनिश्चितस्वरूपस्य गृहीतस्यागृहीतस्य वार्थस्य साध्यताप्रतिपत्त्यर्थम10 निर्णीतपदम्, एतद्वैपरीत्ये हि साधनं विफलमेव भवेदिति । अनिष्टस्य सर्वथाऽनित्यत्वादेरसाध्यत्वप्रतिपत्तये सिषाधयिषितमित्युक्तम् | साधनेच्छाविषयीभूतमित्यर्थः, साधनं स्वाभिप्रेतार्थस्य, इच्छा वक्तुस्तथा च स्वाभिप्रेतार्थसाधनविषयक व किच्छा विषयीभूतमिति भावः, वाद्यपेक्षया साधनेच्छा भवति, संहतपरार्थत्वं चक्षुरादीनां स्वीकर्त्तारं बौद्धं प्रति सांख्येन परार्थाश्चक्षुरादय इत्येवं पारार्थ्य मात्रस्याभिधानेऽपि सांख्येच्छाविषयीभूतमात्मार्थत्वमेव 15 साध्यं भवति, अन्यथा साधनं निरर्थकमेव स्यात् । प्रमांणाबाधितमिति पदं वादिप्रतिवाभयापेक्षया । वादिप्रतिवादिनोः प्रमाणेन यन्न बाध्यते तदेव हि कथायां साध्यमिति । साध्यस्य दृष्टान्तमाह यथेति वह्निना विशिष्टः पर्वतस्साध्य इत्यर्थः, अस्यैव साध्यस्य पर्यायशब्दमाहास्यैव चेति, अत्र हेतुमाह साध्येति । प्रतिनियत साध्यधर्मविशेषणविशिष्टतया धर्मिणस्साधयितुमिष्टत्वात्साध्यव्यपदेशः कथायां पक्षव्यपदेशभाग् भवतीति भावः, ननु साध्यं 20 धर्मो वा धर्मविशिष्टो धर्मी वा यदि धर्मस्तदा कथं पक्षस्य साध्यत्वमुक्तं, यदि धर्मवि•शिष्ट धर्मी साध्यं, तदा कदाऽयं साध्यशब्दवाच्य इत्याशंकाया माहेदचेति, पक्षापरपर्यायधर्मविशिष्ट धर्मी चेत्यर्थः । प्रयोगकालापेक्षया साध्यशब्दवाच्यो भवतीति भावः ॥ 25 1 'अनुमानप्रभवप्रतिपत्तिकालापेक्षया साध्यधर्मविशिष्टप्रसिद्धधर्मिणस्साध्यत्वेऽपि तेन सह तोरविनाभावासंभवात्कथमनुमितिरित्यत्राह— व्याप्तिग्रहणवेलायान्तु वह्नयादिधर्म एव साध्यः ॥ १. संशयितस्य पुरुषस्य संशयापनोदनार्थमिव विपर्यस्ताव्युत्पन्नयोरपि विपर्ययानध्यवसायापनयनायानुमानप्रवृत्तिर्भवत्येव, परपक्षदिदृक्षादिना विपर्यस्तस्याव्युत्पन्नस्य स्वयं तत्त्वबुभुत्सया च परं प्रत्युपसर्पणसम्भवादिति भावः ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमिप्रसिद्धिः ] न्यायप्रकाशसमलते - व्याप्तीति । वतयादिधर्म एवेति, एवशब्देन तद्विशिष्टधर्मिणो व्यवच्छेदः, तत्र व्यातेरसम्भवात् , नहि धूमदर्शनात् सर्वत्र पर्वतो वह्निमानिति व्याप्तिश्शक्या विधातुं प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधात् । साध्य इति साधयितुं योग्य इत्यर्थः । इत्थश्चानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि, धर्मी साध्यं साधनञ्च, तत्र साधनं गमकत्वेनाङ्गम् , साध्यन्तु गम्यत्वेन, धर्मी पुनः साध्यधर्माधारत्वेन, आधारविशेषनिष्ठतया साध्यसिद्धेरनुमानप्रयोजनत्वात् । अथवा पक्षो हेतु- 5 रित्यनुमानाङ्गं द्वयं, साध्यधर्मविशिष्टधर्मिणः पक्षत्वात् , इदश्च धर्मधर्मिणोरभेदापेक्षया, पूर्वन्तु भेदापेक्षया विज्ञेयम् ॥ ____ननु सिषाधयिषितस्यैव धर्मिणस्साध्यत्वोक्त्या प्रसिद्धस्यैव धर्मित्वं लब्धं सामान्यतो विज्ञातस्यैव किश्चिद्धर्मविशिष्टत्वेन सिषाधयिषितत्वात् तथा च तत्प्रसिद्धिः कथन्तरां स्यादिति पर्यनुयोगे प्राह- . .. ... 10 ___ धर्मिणश्च प्रसिद्धिः प्रमाणाद्विकल्पाद्भयतो वा ज्ञेया। यथाऽस्ति सर्वज्ञ इत्यत्र धर्मिणस्सर्वज्ञस्य विकल्पासिद्धिः । पर्वतो वह्निमानित्यत्र पर्वतस्य प्रत्यक्षप्रमाणात, शब्दः परिणामीत्यादौ कालत्रयवर्तिशब्दधर्मिण उभयस्मात् ॥ धर्मिणश्चेति । प्रमाणादिति निश्चितप्रामाण्यकप्रत्यक्षाद्यन्यतमादित्यर्थः, विकल्पादिति, 15 अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यकप्रत्ययादित्यर्थः, उभयत इति, निश्चितप्रामाण्यकप्रत्यक्षाद्यन्यतमादनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यकप्रत्ययान्चेत्यर्थः । नन्वस्तु निश्चितप्रामाण्यकप्रत्यक्षादिभ्यो धर्मिप्रसिद्धिः, प्रामाण्येनाप्रामाण्येन वाऽनिर्णीतया प्रतीत्या कथं धर्मिप्रसिद्धिः; तस्याः प्रमाणत्वाभावात् , प्रमाणात्मिकयैव च प्रतीत्या वस्तुसिद्धेः । तस्याश्च प्रमाणत्वे प्रमाणादित्यनेनैव गतार्थतया विकल्पादिति व्यर्थमेव भवेत् । अप्रमाणत्वे तु न ततो धर्मिसिद्धिः, 20 किश्च विकल्पसिद्ध धर्मिणि सत्त्वमसत्त्वं वा प्रमाणबलेन साधनीयं यथाऽस्ति सर्वज्ञो नास्ति षष्ठं भूतमित्यादौ । तच्च न सम्भवति, धर्मिणो वस्तुतोऽसत्त्वेन भाववृत्तिधर्मस्य हेतुत्वेऽसिद्धिप्रसरात् , भाववृत्तिधर्मस्य तत्र सत्त्वे च धर्मिणोऽपि भावत्वापत्त्यां नास्तित्वसाधनमसङ्गतं स्यात् । अभाववृत्तिधर्मस्य हेतुत्वे त्वस्तित्वसाधनस्य विरोधात् , उभयवृत्तिधर्मस्य हेतुत्वे व्यभिचारादित्यनुयोगे प्रबले जाते प्रमाणाद्धर्मिप्रसिद्धरुदाहरणप्रदर्शनं 25 विहाय प्रथमत एव विकल्पप्रसिद्धधर्मिणमुदाहरति यथेति, अत्रायम्भावः, ये विकल्पेन धर्मिप्रसिद्धिं नाभ्युपगच्छन्ति ते विकल्पसिद्धो धर्मी न भवति तस्याप्रमाणत्वादित्यपि Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरण वक्तुं न शक्नुवन्ति, प्रोक्तक्रमेणासिद्धिविरोधादीनां सम्भवात् , प्रमाणेनात्र धर्म्यसिद्धेः । तथात्वे च परं प्रत्याश्रयासिद्ध्यायुद्भावनं व्यर्थमेव स्यात् येन हि यो धर्मितयोपात्तस्तत्रैव दोषः प्रदर्शनीयस्तथा च तत्र दोषमुद्भावयता भवताऽवश्यं विकल्पेन धर्मिप्रसिद्धिरभ्युपे यैवान्यथा तूष्णीम्भावापत्तिः, एवञ्चास्ति सर्वज्ञ इत्यादिमानसप्रत्यक्षे भावरूपस्यैव धर्मिणः 5 प्रतिपन्नत्वान्न कोऽपि दोषः, न च तत्सिद्धौ तत्सत्त्वस्यापि प्रतिपन्नत्वेन व्यर्थमनुमानमिति वाच्यम् , तदभ्युपेतमपि वैयात्याद्यो न प्रतिपद्यते तं प्रत्यनुमानस्य साफल्यात्, न च षष्ठभूतादेः कथं धर्मित्वं, मानसप्रत्यक्षेण तत्सत्त्वस्यापि प्रतिपन्नतया नास्तित्वसाधनस्य बाधितत्वादिति वाच्यम् , तदानीं बाधकप्रत्ययानुदयेन सत्त्वे सम्भावितेऽपि पश्चात्तत्सत्ताया निषेधनात्, एवमेव गगनकुसुमादीनामपि विकल्पकाले सत्त्वेन सम्भावितानामपि पश्चाद्वाध10 कप्रत्ययेन तन्निरासात्तादृशमानसज्ञानस्य मानसप्रत्यक्षाभासत्वमवसेयमिति ॥ अथ प्रमा णाद्धर्मिप्रसिद्धेर्निदर्शनमादर्शयति पर्वत इति, अत्र प्रत्यक्षेण पर्वतस्य प्रसिद्धिरिति भावः । एतेनानुमानानुमेयव्यवहारस्सर्व एव बुद्धावेव किमपि धर्मित्वेन किमपि च धर्मत्वेन प्रकल्प्य प्रवर्तते, नतु बाह्यं सदसत्त्वमपेक्ष्येति मतमपास्तम्, अन्तर्बहिर्वाऽनासादिताऽऽलम्बनाया बद्धधर्मधर्मित्वेन कस्यापि व्यवस्थापनाऽसामात । तस्मात्प्रमाणेन व्यवस्थापितः पर्वता. 15 दिरेव विषयभावं भजन धर्मित्वादिकं प्रतिपद्यत इति । उभयसिद्धं निदर्शयति शब्द इति, अत्र हि शब्दमात्रस्य धर्मित्वमिष्टमन्यथा यस्मिन् कस्मिन्नेव शब्दे परिणामित्वस्य सिद्ध्यापत्तेः, तथा च सर्वेषां शब्दानां श्रवणेन प्रत्यक्षासम्भवेन केषाश्चित्प्रत्यक्षतः केषाञ्चिच्च विकल्पतः प्रसिद्धिर्भवतीति भावः । ननु पर्वतो वह्निमानित्यत्रापि प्रत्यक्षसिद्धत्वं पर्वतस्य कथं, दृश्यमानभागेऽग्निमत्त्वसाधने प्रत्यक्षबाधा, तत्र वह्रथुपलब्धौ वा साधनवैयर्थ्यमदृश्यमा20 नभागे तु साधने कुतो धर्मिणः प्रत्यक्षसिद्धत्वमिति चेन्मैवम् , अवयविद्रव्यापेक्षया पर्वता देस्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रसिद्धताभिधानात् । अतिसूक्ष्मेक्षिकया पर्यालोचने तु न किञ्चित्प्रत्यक्षं, अस्मदादिप्रत्यक्षस्याशेषविशेषतोऽर्थसाक्षात्कारे सामर्थ्यविरहात् केवलिप्रत्यक्षस्यैव तत्र सामर्थ्यादिति ॥ तदेवं धर्मिसाध्यसाधनरूपमनुमानस्य प्रधानभूतमङ्गत्रयं निरूप्य सम्प्रति हेतुं विभजते हेतुर्द्विविधो विधिस्वरूपः प्रतिषेधस्वरूपश्चेति । तथा विधिस्वरूपो __ हेतुर्द्विधा, विधिसाधको निषेधसाधकश्चेति, एवं प्रतिषेधस्वरूपो हेतुरपि ॥ .. हेतुरिति । विधिस्वरूप उपलम्भस्वरूपः, प्रतिषेधस्वरूपोऽनुपलम्भस्वरूपः । विधिस्वरूपस्यापि द्वैविध्यमाह तथेति, ईदृशमेव प्रकारभेदं प्रतिषेधस्वरूपहेतावप्यतिदिशति एव 25 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिहेतुः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३७१ : मिति । तथा च विधिसाधको विधिरूपः, निषेधसाधको विधिरूपः, विधिसाधकः प्रतिषेधरूपः, निषेधसाधकः प्रतिषेधरूपश्चेति हेतुश्चतुर्विधः फलितः । एतेनोपलम्भस्वरूपस्य हेतोर्विधिसाधकत्वमेवानुपलम्भस्वरूपस्य हेतोः प्रतिषेधसाधकत्वमेवेति केषाञ्चिन्नियमो निरस्तः । साध्यसाधनयोर्गम्यगमकभावे व्याप्तेरेव प्रयोजकतया व्याप्तिसत्त्वेन विधिसाध्ये उपलम्भरूप हेतोर्गमकत्वस्येव तत्सत्त्वेऽनुपलम्भहेतोरपि तत्साधने गमकत्वस्य दुर्निवार- 5 तयैकशेषस्यानुचितत्वादिति ॥ तत्र विधिसाधकं विध्यात्मकं हेतुं षोढा विभजते तत्र विधिसाधको विधिरूपो हेतुर्व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् षोढा । विधिस्तु सदसदात्मके पदार्थे सदंशः, असदंशश्च प्रतिषेधः ॥ तत्रेति, व्याप्यं कार्यं कारणं पूर्वचरमुत्तरचरं सहचरं चेति हेतुभूतानि वस्तूनि षडिधानि विधिभूतसाध्यसाधकानीत्यर्थः । विधिप्रतिषेधशब्दार्थं वक्ति विधिस्त्विति, पदार्थो हि सदसदात्मकः, तत्र योऽय सदंशस्स एव विधिरुच्यते, अभावापरपर्यायस्त्वसंदेशः प्रतिषेध उच्यत इति भावः ॥ 10 प्रसङ्गादभावस्य सर्वथा भावस्वरूपातिरिक्तत्वं दूषयितुं प्रतिषेधं विभज्य तत्स्वरूपं 15 वक्तुमुपक्रमते — प्रतिषेधश्चतुर्धा प्रागभावप्रध्वंसाभावान्योऽन्याभावात्यन्ताभावभेदात् । यन्निवृत्तावेव कार्याविर्भावः स प्रागभावः, यथा घटं प्रति मृत्पिण्डः ॥ प्रतिषेध इति । अत्रायम्भावः, पदार्थानामस्तित्वेनैवोपगमे सर्वेषामभावानामपह्नवेन सर्वस्य सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । प्रागभावानङ्गीकारे निर्विकारत्वं द्रव्यस्य स्यात् तथा च घंट- 20 पादीनामभाव एव स्यात् । प्रध्वंसाभावानभ्युपगते कटककुण्डलादीनामनन्तत्वप्रसङ्गः अन्योऽन्याभावापलापे जीवस्य जीवात्मकत्वेऽजीवस्य जीवात्मके सर्वात्मकत्वप्रसङ्गेन तयोर्लक्षणभेदो न स्यात् । अत्यन्ताभावानभ्युपगमे च जीवे अजीवत्वात्यन्ताभावानभ्युपगमात् अजीवत्वस्याजीवे च जीवत्वाभावानभ्युपगमाज्जीवत्वस्य प्राप्तेः । तस्माद्वस्तुनो यथाऽस्तीति प्रत्ययविषयमस्तित्वं पर्यायस्तथा नास्तीति प्रतीतिविषयं नास्तित्वमपि पर्यायः, 25 तच्च नास्तित्वं न सर्वथा वस्तुनोऽर्थान्तरम्, निःस्वभावत्वप्रसङ्गात् न च नास्तीति Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३७२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे प्रत्ययजनकत्वरूपसद्भावान्नाभावस्य निःस्वभावत्वमिति वाच्यम् , तथा सति तस्य भावस्वभावत्वसिद्धेः, प्रत्ययाभिधानविषयस्यार्थक्रियाकारिणः पदार्थस्य भावस्वभावत्वात् , नास्तित्वस्य च वस्तुधर्मत्वाद्धर्मस्य कथञ्चिद्धर्मिभिन्नत्वेन कथञ्चिद्भेदोऽपि, तत्राभेदाश्रयणे भावत्वेन भेदाश्रयणे च तद्वृत्तित्वेनाभावस्य प्रतीतिः, एतेन भूतलस्य घटाभावत्वे 5 भूतले घटाभाव इति प्रतीतिर्न स्यात् स्याच्च भूतले भूतलमिति धीरित्यपास्तम् । अभेदेऽपि घटाभावत्वेनाधेयताया भूतलत्वेन चाधारताया यथाप्रतीति स्वीकारादिति भावः। अथ प्रागभावं लक्षयति यन्निवृत्तावेवेति, विलक्षणपरिणामविशिष्टस्य मृत्पिण्डस्य तेन रूपेण विनाशे हि घटरूपतया मृत्पिण्डः परिणमत इति घटरूपतयोत्पत्तेः प्रागव्यवहितप रिणामविशिष्टं मृद्रव्यमेव तत्प्रागभाव उच्यते न तु मृत्पिण्डात्सर्वथाऽर्थान्तरमिति भावः, 10 इदमेव दृष्टान्तद्वारा प्रदर्शयति यथेति, घटस्य प्रागभावश्च तदव्यवहितपूर्वक्षणपरिणाम इत्येके, तेषां तत्पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसङ्गः, कार्यध्वंसतत्प्रागभावाना धारकालस्य कार्यवत्त्वव्याप्यत्वात् । तत्पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यभेदसत्त्वान्न दोष इति चेन्नाव्यवहितकार्यपूर्वपरिणामेऽपि कार्यभेदसत्त्वेन तेनैव तदानीं कार्याभावसिद्धेः प्रागभाव स्वीकारनिरर्थकतापत्तेः, न च कार्यस्य प्रागभावाभावस्वभावत्वसिद्ध्यर्थं तदभ्युपगम इति15 वाच्यम् , कार्यपूर्वोत्तरनिखिलपरिणामेषु कार्यानन्तरपूर्वपर्यायभिन्नेषु कार्यस्वभावताप्रसङ्गात् । न च न कार्यप्रागभावाभावत्वं कार्यस्वभावत्वव्याप्यं किन्तु कार्यप्रागभावध्वंसत्वमेव, सोऽपि ध्वंसोऽव्यवहितोत्तरक्षण एव वर्त्तते, तदुत्तरक्षणेषु घटादिव्यवहारश्च सदृशकार्योत्पत्तिदोषादिति वाच्यम् । एतस्य सौगतानामेव शोभनत्वादस्माभिः प्रागभावस्यानादि त्वोपगमात् । प्रागभावध्वंसस्य द्वितीयादिक्षणेष्वसत्त्वे प्रागभावोन्मजनप्रसङ्गेन प्राग20 भावक्षण इव तत्रापि कार्यस्यासद्भावप्रसङ्गात्तत्र दोषाभ्युपगमस्य चाप्रामाणिकत्वात् । तस्माद् द्रव्यपर्यायात्मा प्रागभावः स च स्यात्सादिस्स्यादनादिरिति सिद्धान्तात् । न च द्रव्यरूपतयाऽनादित्वेऽनन्तत्वप्रसक्तेस्सर्वदा कार्यानुत्पत्तिः स्यात् पर्यायरूपतया च सादित्वे प्रागभावात्पूर्वमपि पश्चादिव कार्योत्पत्तिः स्यादित्युभयत्र दोषात् भावस्वभावो न प्रागभावस्तस्य भावविलक्षणत्वेन सर्वदा भावविशेषणत्वादिति वाच्यम् , सर्वथा भावविलक्षणाभावग्राहक १. इदानीं घट इत्यादिप्रतीत्या तत्तत्क्षण एव तदभिन्नकार्याणां बौद्धमते तादात्म्येन कालवृत्तित्वोपगमात् कार्यभिन्नक्षणे कार्यत्वस्यापादयितुमशक्यत्वादिति भावः ॥ २. ते हि पर्यायार्थमात्रादेशं स्वीकुर्वन्तीति तेषामेवेदं शोभनं उभयनयवादिनामस्माकन्तु तत्सिद्धान्तविरुद्धमिति भावः ॥ ३. ननु भवदुक्तेनैवं फलति पूर्वपर्यायेषु मृद्रव्ये च प्रागभावत्वं व्यासज्यवृत्तीति तन्न सम्यक् प्रत्येकावृत्तेस्समुदायावृत्तित्वात् , प्रत्येकवृत्तित्वे च दोषादित्याशयेनाशंकते न चेति ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रध्वंसाभावः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । : ३७३ प्रमाणाभावात् । न च स्वोत्पत्तेः पूर्वं नासीद्धट इति ज्ञानमभावविषयकं भावप्रत्ययविलक्षणत्वाद्यस्तु भावविषयो नासौ भावप्रत्ययविलक्षणो यथा घट इत्यादिप्रत्यय इत्यनुमानं प्रागभावग्राहकमिति वाच्यम्, प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसाभावादिरिति प्रत्ययेन व्येमि - चारात् । न च सोऽपि प्रत्ययोऽभावविषय इति न व्यभिचार इति वाच्यम्, अभावानवस्थाप्रसङ्गात् । अत एव प्रागभावस्य सर्वदा भावविशेषणत्वमसिद्धं प्रध्वंसाभावादौ 5 न प्रागभाव इत्यादौ प्रागभावस्याभावेऽपि विशेषणत्वात् । तस्मादृजुसूत्रनयार्पणात् कार्यस्याव्यवहितपूर्वोपादानपरिणाम एव प्रागभावः । न च तत्पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसङ्ग इति वाच्यम्, यतो घटस्य प्रागभावः कुसूलं तस्य कोशस्तस्य स्थासतस्यापि मृत्पिण्ड एवं परमाणौ तत्परम्पराया विश्रान्तिस्तथा च तत्परम्परानाधारघटध्वंसपरम्परानाधारकालत्वस्यैव घटव्याप्यत्वेन नाघटकाले घटवत्त्वप्रसङ्ग इति । व्यवहार- 10 नयार्पणात्तु मृदादिद्रव्यं घटादेः प्रागभावः स चानादिः । न च घटादेः प्रागभावाभावस्वभावत्वं न सम्भवति मृदादिद्रव्यस्याभावासम्भवादिति वाच्यम्, घटादिरहितस्य पूर्वकालविशिष्टस्य मृदादिद्रव्यस्यैव घटादिप्रागभावरूपतया तस्य च कार्योत्पत्तौ विनाशसिद्धेः, नहि कार्यरहितत्वस्य विनाशमन्तरेण कार्यसहिततयोत्पत्तिस्सम्भवति, प्रमाणार्पणात्तु द्रव्यपर्यायात्मा प्रागभाव इति ॥ प्रध्वंसाभावं निरूपयति 15 यदुत्पत्तिनिबन्धनं कार्यविघटनं स प्रध्वंसाभावः । यथा घटं प्रति कपालकदम्बकम् ॥ यदुत्पत्तीति । यस्य भावे नियमेन कार्यस्य विघटनं भवति स प्रध्वंसाभाव इत्यर्थः, दृष्टान्तमाह यथेति कपालकदम्बकोत्पत्तौ सत्यां ह्यवश्यं घटस्य विपद्यमानता भवत्यतः 20 कपालकदम्बकमेव तत्प्रध्वंसाभाव इति भावः । अत्रापि ऋजुसूत्रार्पणादुपादेयक्षण एवोपादा १. अभावाधिकरणकाभावप्रतियोगिका भावस्याधिकरणात्मकत्वेन प्रागभावभिन्नप्रध्वंसाभावाभावाविषयकत्वेन हेतुत्वेऽपि साध्याभावाद्व्यभिचार इति भावः ॥ २. कालविशेषावच्छिन्नस्वरूपसम्बन्धेन मृद्दव्यं घटप्रागभावव्यवहारनिमित्तं पूर्वकालात्मकस्य कालविशेषस्य संसर्गघटितत्वेन तस्य च प्रागनुपस्थितस्य संसर्गवे कस्याप्यविवादादत्र नान्योऽन्याश्रयः । न चैवं कालविशेषघटितसम्बन्धेन मृदादिद्रव्यमेव घटादिव्यवहारविषयोऽस्तु किमतिरिक्तेन घटादिद्रव्येणेति वाच्यम्, मृदादिद्रव्याद्वटादिद्रव्यस्य पृथगनुभूयमानत्वेन तन्मात्रत्वाकल्पनात् प्रागभावादेस्तु पृथगनुभूयमानत्वाभावेनाधारमात्रस्वरूपत्वकल्पनात्, घटस्वरूपे मृदादिद्रव्ये आधारभिन्नत्वमुद्भूतं, अभावपर्याये त्वनुद्भूतमिति भावः ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३७४ : तत्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे नस्य प्रध्वंसः, न चैवं तदुत्तरक्षणेषु प्रध्वंसस्याभावेन घटादेः पुनरुज्जीवनं स्यादिति वाच्यम् , कारणस्य कार्योपमर्दनात्मकत्वाभावात् उपादानोपमर्दनस्यैव कार्योत्पत्त्यात्मकत्वात् प्रागभावप्रध्वंसयोरुपादानोपादेयरूपतोपगमेन तदुपमर्दनेनैव प्रध्वंसस्य कार्यात्मन आत्मलाभात् । प्रागभावे कारणात्मनि पूर्वक्षणवर्तिनि सति हि प्रध्वंसस्य कार्यात्मनस्स्वरूपलाभोपपत्तिरिति । 5 व्यवहारनयादेशाच्च घटोत्तरकालवर्तिघटाकारविकलं. मृदादिद्रव्यं घटप्रध्वंसः । स चानन्तः । तेन घटात्पूर्वकालवर्ति मृदादिद्रव्यं घटस्य प्रागभाव एव नतु प्रध्वंसः, तथा घटाकारमपि तत्तस्य प्रध्वंसो मा भूदिति घटाकारविकलमिति विशेषणम् । प्रमाणार्पणया तु प्रध्वंसो द्रव्यपर्यायात्मैकानेकस्वभावश्चेति ॥ अथान्योऽन्याभावमाख्याति10 स्वरूपान्तरात्स्वरूपव्यवच्छेदोऽन्योन्याभावः, यथा पटस्वभावाद्धटस्वभावस्य ॥ स्वरूपान्तरादिति । स्वभावान्तरात्स्वभावव्यवच्छेदोऽन्यापोहापरनामकोऽन्योऽन्याभावः । दृष्टान्तमाह यथेति व्यवच्छेद इति शेषः । न चेदं लक्षणं प्रागभावप्रध्वंसाभाव योरपि गतमिति वाच्यम् , कार्यात्पूर्वोत्तरपरिणामयोस्स्वभावान्तरत्वेऽपि कार्यस्य पूर्वोत्तर15 परिणामरूपव्यावृत्तेविलक्षणत्वात् यदभावे हि नियमतः कार्यस्योत्पत्तिस्स प्रागभावः, यद्भावे च कार्यस्य नियता विपत्तिस्स प्रध्वंसाभावः, न चान्योऽन्याभावस्याभावे भावे च कार्यस्योत्पत्तिर्विपत्तिर्वा, जलस्याभावेऽप्यनलस्यानुत्पत्तेः क्वचित्तद्भावे च तस्याऽविपत्तेः। एतस्य लक्षणस्य नात्यन्ताभावेऽतिव्याप्तिः, अस्य कालत्रयापेक्षत्वात् । अन्योऽन्याभावस्तु न कालत्र यापेक्षो घटभिन्नस्यापि कदाचित् पुद्गलपरिणामानामनियमेन पटस्य घटत्वपरिणामसम्भवात् , 20 तथा परिणामकारणसम्पत्तौ विरोधाभावात् । न चैवं चेतनाचेतनयोः कदाचित्तादात्म्यपरिणामः, तत्त्वविरोधादिति भावः ॥ अत्यन्ताभावं लक्षयति कालत्रयेऽपि तादात्म्यपरिणतिनिवृत्तिरत्यन्ताभावः यथा जीवाजीवयोः । सोऽयं प्रतिषेधः कथञ्चिदधिकरणाद्भिन्नाभिन्नः ॥ १ कारणस्य घटस्य कार्य तद्धंसस्तस्योपमर्दनात्मकत्वाभावान्नाशानात्मकत्वादित्यर्थः, घटो हि कारणं तेन घटध्वंसनाशो न घटात्मेति भावः ॥ २. घटप्रध्वंसव्यवहारविषयत्वं न घटोत्तरकालवर्तिघटाकारविकलमृद्दव्यत्वेन, ध्वंसघटितोत्तरत्वगर्मितत्वेनान्योऽन्याश्रयात् किन्तु स्वोत्तरकालवृत्तित्वस्वाकारविकलत्वस्वद्रव्यत्वेतत्रितयसम्बन्धेन घटविशिष्टत्वेन ।। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्ताभावः ] __ न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ३७५ कालत्रयेऽपीति । भूतभविष्यद्वर्तमानरूपकालत्रयापेक्षयापि ययोस्तादात्म्यपरिणतिनिवृत्तिरेकत्वपरिणामो न भवति सोऽत्यन्ताभाव इत्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथेति । अस्तित्ववन्नास्तित्वस्यापि वस्तुपर्यायत्वेन पर्यायपर्यायिणोश्च कथञ्चिदभेदान्न सर्वथाऽभावोऽधिकरणभिन्न इत्याह सोऽयं प्रतिषेध इति । सर्वथा तस्य भेदे निःस्वभावत्वमभेदे च तद्वृत्तित्वेनाप्रतीतिः स्यात् सर्वथा अभावस्य भावभिन्नत्वे च तस्य प्रमाणावेद्यत्वापत्तेः, प्रमाणस्य भावविषयत्वात्। 5 न च प्रत्यक्षमभावविषयं भवत्येव तस्येन्द्रियैस्संयुक्तविशेषणसम्बन्धसद्भावात् घटाभावविशिष्टं भूतलं गृहामीति प्रत्ययादिति वाच्यम्, तत्रापि प्रत्यक्षस्य भूतलादिभावमात्रविषयत्वात् तस्याभावविषयकत्वे क्रमतोऽनन्तपररूपाभावप्रतिपत्तावुपक्षीणशक्तिकत्वेन भावदर्शनस्यानवसरत्वप्राप्तेः । प्रत्यासत्यविशेषात् अभावग्राहकसामग्र्यविच्छेदाच्च । न चाभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वात्तस्य च कादाचित्कत्वेनाभावग्रहस्यापि कादाचित्कत्वात् प्रतियोगि- 10 ज्ञानाभावकालेऽभावज्ञानान्तर्गतभावपदार्थग्रहस्यावसरो लभ्यत इति वाच्यम् , प्रत्यक्षस्य प्रतियोग्यादिस्मरणानपेक्षत्वात् , तस्य च स्मृत्यपेक्षायामपूर्वार्थसाक्षात्कारित्वविरोधात् । न च क्वचिद्भावप्रत्यक्षं स्मरणनिरपेक्षं योगिप्रत्यक्षवत् । क्वचित्स्मरणापेक्षं सुखादिसाधनार्थव्यवसायवत् । तथा कचिदभावप्रत्यक्षं स्मरणनिरपेक्षं योगिनोऽभावप्रत्यक्षवत् कचित्प्रतिषे. ध्यस्मरणापेक्षं तथैव प्रतीते रिति वाच्यम् , स्मरणापेक्षस्य विकल्पज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वविरोधादनु- 15 मानादिवत् । तस्य स्मरणापेक्षत्वेऽनवस्थाप्रसंगाच्च । ततो नाभावः प्रत्यक्षविषयः । सकलशक्तिविरहरूपस्य निरुपाख्यस्याधिकरणात्सर्वथाभिन्नस्याभावस्य स्वभावकार्यादेरभावान्नानुमानिकत्वं, सस्वभावत्वे भावत्वप्रसङ्गात् । अनुपलब्ध्यापि न तद्व्यवस्था तया तस्यासिद्धताया एव व्यवस्थापनात्, न च भावानामनुपलब्ध्या तत्प्रमितिरिति वाच्यम् , ततो भावान्तरस्वभावस्यैवाभावस्यावभासनादिति ॥ 20 १. सर्वथाऽभावस्याभेदे हि भावैकान्तनिश्चयस्स्यात् , अस्तित्वमेवेति निश्चयात् तथाऽभ्युपगम्यमाने सर्वेषामेवाभावानामपह्नवस्स्यात् तथा च सति सर्वेषां सर्वात्मकत्वं अनादित्वमनन्तत्वं च स्यादित्यपि बोध्यम् ॥ २. अभावग्राहकसामग्र्यविच्छेदादनन्तघटपटाद्यभावग्रहणे भावग्रहो न भवेदेवेति भावः ॥ ३. ननु केवलाभावप्रत्यक्षाभ्युपगमे भवेदयं दोषः, स एव च नास्ति, अभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्यापि हेतुत्वात्तस्य च कादाचित्कत्वादित्याशंकते न चेति ॥ ४. स्मृतेः पूर्वानुभवस्य तस्याप्यपरस्मरणस्य तस्याप्यपरपूर्वानुभवस्यापेक्षणादनवस्था । सुदूरमपि गत्वा कस्यचिदनुभवस्य स्मृतिनिरपेक्षत्वे प्रकृतानुभवस्यापि स्मृतिसापेक्षत्वकल्पनावैयर्थ्यादिति भावः ॥ ५. न च स्मृतित्वेन स्मृतिजन्यत्वस्य प्रत्यक्षाभावव्याप्यत्वेऽपि विशेषणज्ञानत्वेन तजन्यताया अतथात्वान्नायं दोष इति वाच्य विशिष्टज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति विशिष्ट प्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति वा विशेषणज्ञानहेतुत्वे मानाभावात् , तद्विशेषणेन्द्रियसन्निकर्षतदसंसर्गाग्रहादिनैव तद्विशिष्टप्रत्यक्षोत्पत्तेः । सुरभि चन्दनमित्यादि ज्ञानं तु प्रत्यभिज्ञानमेवेति ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे अथ विधिस्वरूपहेतोः प्रकारान् प्रकाशयति विध्यात्मको हेतुस्साध्याविरुद्धप्रतिषेध्यविरुद्धभेदेन द्विधा, एवं निषेधात्मकोऽपि ॥ विध्यात्मक इति । एवमेव प्रतिषेधरूपहेतावपीत्याहैवमिति । अत्रेदमवसेयम् यथा 5 साध्याविरुद्धो विध्यात्मको हेतुर्विधिसाधकः, प्रतिषेध्यविरुद्धो विधिहेतुः प्रतिषेधसाधकः, तथा प्रतिषेध्येनाविरुद्धो निषेधात्मको हेतुः प्रतिषेधसाधकः, साध्यविरुद्धनिषेधात्मको हेतुर्विधिसाधक इति ॥ तत्र साध्याविरुद्धविधिसाधकविधिस्वरूपहेतून पूर्वोदितषड्विधानुदाहरति अत्र शब्दः परिणामी प्रयत्नानन्तरीयकत्वादिति व्याप्यो विधि10 हेतुः ॥ तत्रेति । व्याप्याविरुद्धकार्याविरुद्धकारणाविरुद्धपूर्वचराविरुद्धोत्तरचराविरुद्धसहचराविरुद्धभेदेष्वित्यर्थः, अस्य व्याप्यो विधिहेतुरित्यनेन सम्बन्धः । शब्दः परिणामीति प्रतिज्ञायां शब्दो धर्मी साध्यधर्मः परिणामः प्रयत्नानन्तरीयकत्वं हेतुः, प्रयत्नश्चेतनव्या पारस्तदनन्तरसम्भूतत्वं तदर्थः, यत्रं यत्र प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तत्र तत्र परिणामित्वं यथा 15 घटादिरित्युदाहरणम् , प्रयत्नानन्तरीयकश्च शब्द इत्युपनयः, तस्मादयं परिणामीतिनिगमन मिति साधर्येण पश्चावयवप्रयोगः, वैधम्र्येण तु यो न परिणामी स न प्रयत्नानन्तरीयकः, यथा वन्ध्यासुतः, इत्युदाहरण एव विशेषो नेतरावयवेषु वैलक्षण्यम् । ननु कार्यादिरूपाणां पश्चानामपि हेतूनां स्वस्वसाध्येन व्याप्तत्वादविरोधाच्च व्याप्याविरुद्धस्वरूपत्वमेव, व्याप्यत्वाभावे च तेषां साधकत्वानुपपत्तेस्तथा चानेनैव सर्वेषां तेषां गतार्थतया पृथग्विभागो 20 नोचित इति चेन्न साध्यनिरूपितव्याप्तिमत्त्वमात्रेण व्याप्यस्यात्राविवक्षणात् कथञ्चित्साध्येन तादात्म्यपरिणाममापन्नस्य कार्यादिविलक्षणस्य हेतुस्वरूपस्य विवक्षणात् । अस्यैव च स्वभावोपलब्धिरिति नामान्तरम् । प्रयत्नानन्तरीयकत्वं हि साध्यधर्मस्य परिणतिमत्त्वादेः कथञ्चिदपृथग्भूतं स्वरूपम् । न चैवं स्वभावभूतधर्मस्य व्याप्यस्य हेतुत्वे हेतोनिश्चये । १. ननु निषेधात्मकहेतोः कथं द्विविधत्वस्यातिदेशः न तावत्साध्याविरुद्धत्वप्रतिषेध्यविरुद्धत्वाभ्यां, अग्रिमोदाहरणानुपपत्तेरिति पर्यनुयोगे त्वाहात्रेदमिति ॥ २. पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणतिशून्य. त्वरूपे सर्वथा नित्यत्वे शब्दस्य प्रयत्नानन्तरीयकत्वानुपपत्ते: प्रयत्नानन्तरीयकत्वं परिणतिमत्त्वेन व्याप्त विज्ञेयम् ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिहेतवः ] म्यायप्रकाशसमलते । ३७७ तदभिन्नस्य साध्यस्यापि निश्चयेन सिद्धसाधनत्वापत्तिहेतोरनिश्चये च न तेन साध्यसिद्धिरज्ञातस्य ज्ञापकत्वासम्भवादिति वाच्यम् , अनेकस्वभावस्य शब्दादिवस्तुनो निश्चितेऽपि प्रयत्नानन्तरीयकत्वादौ स्वभावभूते साधनधर्मे परिणामित्वादिसाध्यधर्मनिश्चयनियमस्याभावात् , निश्चितानिश्चितात्मकत्वञ्चैकस्य वस्तुनश्चित्राकारैकज्ञानवन्न विरुध्यते, तस्मानिश्चितेऽपि हेतुधर्मे साध्यधर्मानिश्चयेन तत्प्रतिपत्त्यर्थमनुमानं सफलमेवेति ॥ साध्याविरुद्धकार्यस्वरूपविधिहेतुं निदर्शयति पर्वतो वह्निमान् धूमादिति कार्यात्मकः ॥ पर्वत इति । अत्र हि वह्नः कार्य धूमः, साध्याविरुद्धश्च, वह्निसद्भावे एव धूमस्योत्पत्तेः तदभावे च नियमेन धूमस्य निवर्तनात् ननु वन्यभावेऽपि धूमो न निवर्त्तते गोपाल. घटिकादौ वन्यभावेऽपि धूमसद्भावप्रतीतेरिति चेन्न धूमस्य ह्यात्मलाभो वह्नौ सत्येव, तत्कथं 10 गोपालघटिकादावग्न्यभावे धूमसद्भावाशङ्कापि, न च तर्हि पर्वतादाविव तत्रापि धूमोऽग्नि गमयेदिति वाच्यम् , पर्वतादिधूमादस्य वैलक्षण्यात् , वह्निसमानसमयसत्ताको हि पर्वतादिधूमो बहलः पताकायमानस्वरूपोऽनुभूयते, न च गोपालघटिकादिधूमस्तथेति ॥ . साध्याविरुद्धकारणरूपविधिहेतुं दृष्टान्तयति भविष्यति वृष्टिविलक्षणमेघोपलम्भादिति कारणात्मकः ॥ ... 15 भविष्यतीति । विलक्षणपदेन सातिशयोन्नतत्वादिधर्मोपेतत्वं विवक्षितं तस्यैव वृष्टिकारणत्वात् । ननु कारणं न कार्यस्य गमकं, तेन सहाविनाभावाभावात् , प्रतिबन्धकेन विनाशेन वा कार्याभावात् , अवश्यं कारणानि कार्यवन्तीत्यनियमात् । नवा कारणविशेषस्य गमकत्वं, विशेषस्य निश्चेतुमशक्यत्वात् , प्रचण्डानामपि तडित्वतां वर्षमकृत्वैवोपरमदर्शनादिति चेन्मैवम् , आस्वाद्यमानफलनिष्ठरसेन तज्जनिकां सामग्रीमनुमाय तया रूपानुमानस्य सौगतेन 20 त्वयाऽप्यभ्युपगमात् । प्राक्तनो हि रूपक्षणः सजातीयं रूपक्षणान्तरलक्षणं कार्य करोतीत्येवं रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित्कारणं लिङ्गतया, प्राक्तनस्य रूपक्षणस्य सजातीयरूपक्षणान्तराव्यभिचारात् । अन्यथा रससमानकालभाविनो रूपस्य प्रतिपत्त्यनुपपत्तेः । कारण १ नाप्यन्तिमकारणस्य व्याप्तत्वं, तथा सति व्याप्तिस्मरणकाल एव कार्यस्य प्रत्यक्षतयाऽनुमानवैकल्यं स्यादित्यपि बोध्यम् ॥२ तथा च विशिष्ट कारणमेव लिङ्गम . विशिष्टता च समर्थतैव. सा च वैकल्येन प्रतिबन्धेन वा न प्राप्यते यादृशञ्च सामर्थ्य यत्र न प्रतिबद्धं तादृशं कारणं लिङ्गं भवितुमर्हति. तन्निश्चयश्च निपुणानां प्रमातृणां सम्भवत्येव, यत्र कार्यस्य व्यभिचारस्तत्रापि न कारणस्य दोषः किन्तु प्रमातृदोष एव, अन्यथा सकलव्यवहारविलोपप्रसङ्गः स्यादिति भावः ॥ ४८ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे त्वमपि नानुकूलत्वमानं किन्तु कार्याविनाभावित्वेन निश्चितं विशिष्टमेव, यत्र हि सामर्थ्याप्रतिबन्धः कारणान्तरावैकल्यश्च निश्चीयते तस्यैव हेतुत्वमन्यथा तृप्त्याद्यर्थ भोजनादावप्यप्रवृत्तेनिखिलव्यवहारोच्छेदः प्रसज्येतेति ॥ पूर्वचरं साध्याविरुद्धं विधिहेतुमादर्शयति-- उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादिति पूर्वचरः॥ उदेष्यतीति । कृत्तिकोदयानन्तरं मुहूर्तान्तेऽवश्य शकटोदयो जायत इति पूर्वचरः कृत्तिकोदयश्शकटोदयं गमयतीति भावः । ननु कृत्तिकोदयस्य शकटोदयपूर्वभावित्वेनायं कारणाविरुद्धविधिहेतुरेव न ततः पृथग्भूत इति चेन्न, पूर्वभावित्वमात्रस्य कारणत्वाप्रयोज कत्वात् किन्तु कार्यस्वरूपप्राप्तौ हेतूनामेव पूर्ववर्तिनामन्वयव्यतिरेकतः कारणत्वावधारणात् , 10 न ह्यत्र कृत्तिकोदयाच्छकटोदयस्य स्वरूपप्राप्तिरस्ति, अव्यवहिततदुत्तरं तदुदयाभावात् कालविशेषापेक्षया तस्मात्तदुदयत्वेऽभ्युपगम्यमाने चाश्विन्युदयादीनामपि हेतुताप्रसङ्गात् । ततः कृत्तिकोदयः पूर्वचर एव न कारणमिति तन्निदर्शनं युक्तमेव, तथा च प्रयोगः, यस्मादनन्तरं यन्नास्ति न तस्य तेनोत्पत्तिः, यथा भविष्यच्छङ्खचक्रवर्तिकालेऽसतो रावणादेः, नास्ति च शकटोदयाद्यनन्तरं कृत्तिकोदयादिकम् । न चै व्यवहितयोः कार्यकारणभावा15 भावे जाग्रत्संवेदनसुप्तोत्थितभाविसंवेदनयोः मरणारिष्ठयोः कार्यकारणभावो न स्यादिति वाच्यम् , इष्टापत्तेः व्यवहितत्वेन तयोव्यापारपराङ्मुखत्वात् , अन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यापारसापेक्षयोरेव कार्यकारणभावावधारणात् , दृष्टञ्च व्यापारविशिष्टस्यैव घटं प्रति कुलालस्य कारणत्वं, न चात्र व्यापारपरिकल्पनं युक्तमतिप्रसङ्गात् , परम्परया व्यवहितानामन्येषां कारणत्वप्रसङ्गात् । तस्माच्छरीरनिर्वर्त्तकादृष्टादिकारणकलापादरिष्टकरतलरेखादयो निष्पन्ना 20 भाविनो मरणादेरनुमापका इति प्रतिपत्तव्यम् । जाग्रहशाज्ञानं तु न सुप्तोत्थितज्ञानस्य हेतुः, ज्ञानादभिन्नस्यात्मनः कालत्रयस्थायित्वात्सर्वथा चैतन्यविच्छेदस्य कदाप्यसम्भवादिति ।। साध्याविरुद्धमुत्तरचरं विधिहेतुमाह-. __ उदिता चित्रा स्वात्युदयादित्युत्तरचरः॥ उदितेति । स्वात्युदयो हि चित्रोदयस्योत्तरचरः ततस्तं गमयति, उत्तरचरस्य तत्का १. घटं प्रति कालाकाशदिगादीनां कुलालपितृपितामहादीनामपि पूर्ववृत्तितया कारणत्वप्रसङ्गः । अव्यवहितोत्तरत्वप्रवेशे कृत्तिकोदयस्य कारणत्ववर्णनमनुचितं भवेत् मुहूर्तादिकालविशेषनिवेशे स्मृति प्रत्यनुभवस्य कारणत्वं न स्यात् भरण्युदयस्यापि कारणत्वप्राप्तेरिति भावः ।। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिहेतवः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते । यत्वाभावेन कार्याविरुद्धेनागतार्थत्वात्पृथगुक्तिः, निश्चितव्याप्तिमत्त्वाश्चानयोर्ज्ञाप्यज्ञापकभाव इति भाव: । नक्षत्राणां पूर्वोत्तरचरत्वे निबन्धनश्च नानाप्रकारः सकलप्राणिसन्दोहसम्बन्धी सुखदुःखसम्बन्ध्यदृष्टविशेषस्तथास्वभाव एव वा ॥ अथ षष्ठं साध्याविरुद्धं सहचरं विधिहेतुं दर्शयति रूपवान् रसादिति सहचर इतीमान्यविरुद्ध विधिहेतोरुदाहरणानि ॥ 5 रूपवानिति । रसो हि नियमेन रूपसहचरितोऽतस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद्गमयतीतिभावः, एतेषूदाहरणेषु भावरूपानेव परिणामादीन् प्रयत्नानन्तरीयकत्वादयो हेतवो भावरूपा अविरुद्धा एव साधयन्तीति विधिसाधकविधिरूपाः साध्याविरुद्धोपलब्धय इत्यपरनामान इत्याशयेनाहेतीमानीति । अत्र रूपरसयोस्तुल्यकालभावित्वेन सव्येतरगोविषाणयोरिव न कार्यकारणभावः परस्परपरिहारेणावस्थानान्न तयोस्तादात्म्यं तस्मात्पूर्वोक्तेषु पञ्चविधेषु 10 हेतुषु नास्य समावेशस्सम्भवतीति पृथगुक्तिः, एवमविरुद्ध कार्यकार्यादेः कारणकारणादेः पूर्वपूर्वचरादेरुत्तरोत्तरचरादेश्व कार्यकारणपूर्व चरोत्तरचरभेदैरेव सङ्ग्रहान्नाधिक्यशङ्का कार्येति ॥ अथ विधिहेतुर्विधिसाधक एवेति नियमप्रतिषेधाय प्रतिषेधसाधकत्वमुपवर्णयितुं प्रथमं तत्प्रभेदानाह— विरुद्धविधिहेतुः प्रतिषेधसाधकः प्रतिषेध्यस्वभावविरुद्धतद्व्याप्यादि 15 भेदेन सप्तप्रकारः ॥ : ३७९ : विरुद्धविधिहेतुरिति । प्रतिषेध्येन विरुद्धो विधिहेतुरित्यर्थः अस्य विभागप्रकार माह प्रतिषेध्यस्वभावविरुद्धेति, अयमेको भेदः, तद्व्याप्येति, प्रतिषेध्यविरुद्ध व्याप्येत्यर्थः, आदिना कार्यकारणपूर्वचरोत्तरचरसहचराणां ग्रहणम् तथा च प्रतिषेध्यस्वभाव विरुद्धविरुद्धव्याप्यविरुद्धकार्यविरुद्धका रणविरुद्धपूर्वचरविरुद्धोत्तरचरविरुद्ध सहचरभेदेन सप्तविध 20 इति फलितार्थः ॥ " अथ प्रतिषेध्यस्वभावविरुद्धोपलम्भरूपं विधिहेतुं निदर्शयति नास्त्येव सर्वथैकान्तो ऽनेकान्तोपलम्भादिति प्रतिषेध्यस्य यस्स्वभावस्सर्वथैकान्तत्वं तेन साक्षाद्विरुद्धो विधिहेतुः ॥ नास्त्येवेति । सर्वथैकान्तोऽत्र प्रतिषेध्यस्तस्य स्वभावेन सर्वथैकान्तत्वेन साक्षाद्विरु- 25 द्धस्य कथचित्सदसदाद्यात्मकत्वस्वरूपस्याने कान्तस्योपलम्भो विध्यात्मको हेतुरित्याशयेनाह Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थ किरणे प्रतिषेध्यस्येति । अत्रोपलम्भपदोपादानान्निषेधमात्रस्यानुपलम्भादेव सिद्धेर्भेदोऽयमनुपलब्धावेवान्तर्भाव्य इति मतमपास्तम्, न चोष्णशीतस्पर्श योरिव सर्वथैकान्ताने कान्तयोर्विरोधस्य प्रथममनुपलब्ध्या प्रतिपद्यमानत्वेन तन्मूलकस्यास्य हेतोरनुपलब्धिरूपत्वमेवयुक्तमिति वाच्यं यन्मूलं यत्तस्य तद्रूपत्वेऽनुमानस्यापि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, पर्वतादौ हि धूमे 5 प्रत्यक्षेणावगते पश्चात्तेन वह्नयनुमानं भवत्यतः प्रत्यक्षमूलत्वादनुमानमपि प्रत्यक्षं स्यादिति ॥ प्रतिषेध्यविरुद्धव्याप्यं विधिहेतुं निदर्शयति नास्य नवतत्त्वनिश्चयस्तत्संशयादिति प्रतिषेध्यस्य नवतत्त्वनिश्चयस्य विरुद्धेनानिश्चयेन व्याप्यः ॥ नास्येति । नवतत्त्वनिश्चयोऽत्र प्रतिषेध्यस्तद्विरुद्धानिश्चयत्वव्याप्यत्वात्तत्संशयस्य विरु10 व्याप्यत्वमित्याह प्रतिषेध्यस्येति । अनिश्चयो ह्यनध्यवसायादौ संदेहमन्तरेणापि वर्त्तते, संदेहस्तु नानिश्चयमन्तरेण कदापि सम्भवतीत्यनिश्चयसंशययोर्व्याप्यव्यापकभावोऽवसेयः ॥ प्रतिषेध्यविरुद्धकार्यस्य विधिहेतोर्दृष्टान्तमाह 1 नास्त्यत्र शीतं धूमादिति प्रतिषेध्यशीतविरुद्धवह्निकार्यरूपः ॥ नास्त्यत्रेति । अत्र प्रतिषेध्यश्शीतस्पर्शस्तद्विरुद्धो वह्निस्तत्कार्यत्वाद्धूमस्य विरुद्ध15 कार्यत्वमित्यभिप्रायेणाह प्रतिषेध्येति । प्रतिषेध्यविरुद्धकारणं लिङ्गं विध्यात्मकमाह - न देवदत्ते सुखमस्ति हृदयशल्यादिति प्रतिषेध्य सुखविरुद्धदुःखका रणरूपः ॥ नेति । सुखं ह्यत्र प्रतिषेध्यं तद्विरुद्धं दुःखं तत्कारणश्च हृदयशल्यमिति प्रतिषेध्यविरुद्ध20 कारणं लिङ्गमिदमित्याह प्रतिषेध्येति || प्रतिषेध्यविरुद्धपूर्वचरविरुद्धोत्तरचरविरुद्ध सह चरानाह— १. न च स्वभावविरुद्धोपलब्धिरियं पृथङ् न वाच्या, स्वभावानुपलब्धावन्तर्भावसम्भवात्, निषेधमात्रस्यानुपलम्भगम्यत्वादिति वाच्यम्, अत्रानुपलब्धेरश्रवणात् न चानुपलम्भमूलत्वादनुपलब्धिरूपत्वं प्रथमं सर्वथैकान्तानेकान्तयोश्शीतोष्णस्पर्शयोरिव विरोधं स्वभावानुपलब्ध्या निश्चित्यैवानुमानस्यास्य प्रवृत्तेरिति वाच्यम्, अनुमानस्यापि प्रत्यक्षत्वापत्तेः प्रत्यक्षतो वह्निधूमयोस्साहचर्यं दृष्ट्वा धूमेनानुमानप्रवृत्तेरिति ॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिषेधहेतवः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३८१ : मुहूर्त्तान्ते नोदेष्यति शकटं रेवत्युदयादिति प्रतिषेध्यशकटोदय विरुद्वाश्विन्युदय पूर्वचरः । मुहर्त्तात्प्राङ्नोदगाद्भरणिः पुष्योदयादिति प्रतिषेध्यभरण्युदयविरुद्ध पुनर्वसू दयोत्तरचरः । नास्त्यस्य मिथ्याज्ञानं सम्यग्दर्श नादिति प्रतिषेध्य मिथ्याज्ञानविरुद्ध सम्यग्ज्ञानसहचर इति ॥ मुहूर्त्तान्त इति । अत्र हि प्रतिषेध्यशकटोदयस्तद्विरुद्धोऽश्विन्युदयस्तत्पूर्वचरो रेव - 5 त्युदय इति विरुद्धपूर्वचरोऽयं हेतुरित्याह प्रतिषेध्येति । विरुद्धोत्तरच र हेतुमाह मुहूर्त्तादिति । स्पष्टम् । विरुद्धसहचरमाह नास्त्यस्येति, स्पष्टम् । एते हेतवस्साक्षात्प्रतिषेध्यविरुद्धत्वमाश्रित्याभिहिताः परम्परया विरुद्धत्वमाश्रित्य त्वनेकप्रकारा भवन्तीति ते विस्तरभिया नोक्ताः । इति समाप्तो विधिहेतुप्रपञ्चः ॥ अथ प्रतिषेध्याविरुद्धवस्तुनोऽनुपलब्धिरूपस्य प्रतिषेधहेतोर्भेदानाचष्टे— अविरुद्धनिषेधात्मको हेतुः प्रतिषेधसाधने स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्व चरोत्तरचरसहचर भेदेन न सप्तधा ।। · अविरुद्धेति । अयं हेतुः प्रतिषेधसाधकः प्रतिषेध्यार्थाविरुद्धपदार्थानुपलम्भरूपत्वात् । स्वभावेति, स्वभावानुपलब्धिव्यापकानुपलब्धिकार्यानुपलब्धिकारणानुपलब्धिपूर्वच रानुपलब्ध्युत्तरचरानुपलब्धिसहचरानुपलब्धिभेदेन सप्तप्रकार इति भावः ॥ प्रतिषेध्यपदार्थप्रतिषेधज्ञापकं स्वभावानुलब्धिरूपं प्रतिषेधहेतुं निदर्शयति भूतले कुम्भो नास्ति दृश्यत्वे सति तत्स्वभावानुपलम्भादित्यविरुद्धस्वभावानुपलब्धिरूपो निषेधात्मको हेतुः ॥ 10 15 भूतल इति । भूतले दृश्यस्य कुम्भस्वभावस्यानुपलम्भात्कुम्भप्रतिषेधस्सिद्ध्य 'भावः । पिशाचादिभिर्व्यभिचारवारणाय तत्स्वरूपे दृश्यत्वविशेषणमुपात्तं, पिशाचादीनां 20 स्वभावो हि न जातुचिद्दृश्यः तस्मात्ते न नास्तित्वेनावगन्तुं शक्या इति भावः । ननु यो यत्र नास्ति स कथं दृश्यो यदि पुनर्दृश्यस्तर्हि कथं तस्य नास्तित्वमिति चेन्न निषेध्यस्य सर्वत्रारोपविषयत्वात् एतद्रूपं ह्यारोप्य निषिध्यते, यद्यत्र कुम्भः स्यात्तर्द्युपलभ्येत नोपलभ्यतेऽतो नास्तीति न चादृश्यस्यापि पिशाचादेर्दृश्यरूपतयाऽऽरोप्य प्रतिषेधः किमिति कर्त्तुं न शक्य इति वाच्यम्, तस्यारोपायोग्यत्वात् तद्योग्यस्यैवारोपात् यस्य सत्त्वे नियमेनोपलम्भस्स 25 एवारोपयोग्यो न पिशाचादिः, सत्त्वेऽपि तस्य नियमेनोपलम्भाभावात्, उपलम्भकारण Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८२ : तत्त्वन्याय विभाकरे [ चतुर्थकिरणे साकल्यवतो घटादेस्तु नियमेनोपलम्भयोग्यत्वं गम्यते उपलम्भकारणसाकल्यनिश्चयश्च घटस्यैकज्ञानसंसर्गिणि प्रदेशादावुपलभ्यमानत्वात् घटप्रदेशयोरुपलम्भकारणस्य तुल्यत्वात् । यद्देशवृत्तित्वेन यस्य कल्पना स एव तेनैकज्ञानसंसर्गी न देशान्तरस्थः, एकेन्द्रियग्राह्यं हि लोचनादिप्रणिधानाभिमुखवस्तुद्वयमन्योन्यापेक्षमेकज्ञानसंसर्गीत्युच्यते तयोर्हि विद्यमानयोर्नैक निय5 ताभावप्रतिपत्तिर्योग्यताया द्वयोरप्यविशिष्टत्वात् । एवञ्च कल्पितस्यैकज्ञानसंसर्गित्वे सिद्धे एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भे योग्यतया सम्भावितस्य घटस्य दृश्यस्यानुपलम्भस्सिद्ध्यति ।। व्यापकानुपलब्धिकार्यानुपलब्धिकारणानुपलब्धीः दर्शयति अत्र शिंशपा नास्ति वृक्षाभावादित्यविरुद्धव्यापकानुपलब्धिर्नास्त्यत्र सामर्थ्यवद्वीजमङ्करानव लोकनादित्यविरुद्ध कार्यानुपलब्धिः । ना10 स्त्यत्र धूमो वय भावादित्यविरुद्ध कारणानुपलब्धिः ॥ अत्रेति । प्रतिषेध्य शिशपाऽविरुद्ध व्यापकवृक्षानुपलब्ध्या शिंशपाप्रतिषेधः क्रियत इति भावः । कार्यानुपलब्धि दर्शयति नास्त्यत्रेति । अङ्कुरादेरनुपलम्भे सत्यपि कचिद् बीजदर्शनाद्व्यभिचारवारणाय सामर्थ्यवदिति, तथा चाङ्कुरानुपलम्भे बीजमात्राभावो न प्रयोजकः, किन्तु सामर्थ्यवद्बीजाभाव इति न व्यभिचार इति भावः । कारणानुपलब्धिमाह 15 नास्तीति स्पष्टम् ॥ अथ पूर्वचरोत्तरचरसहचरानुपलब्धीर्निदर्शयति— न भविष्यति मुहूर्त्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयानुपलब्धेरित्यविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धिः । नोदगाद्भरणिर्मुहूर्त्तात्प्राक्कृत्तिकोदयानुपलम्भादित्यविरुद्धोत्तरचरानुपलब्धिः । नास्त्यस्य सम्यग्ज्ञानं सम्यग्दर्शनानुपलम्भा20 दित्यविरुद्ध सहचरानुपलब्धिः ॥ नेति । अत्र प्रतिषेध्यशकटोदयाविरुद्ध पूर्वच र कृत्तिकोदयानुपलम्भरूपोऽयं हेतुः । उत्तरचरानुपलब्धि दर्शयति नोदगादिति, अत्र प्रतिषेध्यभूतभरण्युदयाविरुद्धोत्तरचरकृत्ति १. ननु केवलभूतलस्य प्रत्यक्षत्वे तद्रूपस्य घटाभावस्यापि प्रत्यक्षतया किमर्थं स स्वभावानुपलब्ध्या साध्यत इति चेद्युक्तमुक्तं तथापि यस्सर्वं सर्वत्र विद्यत इति कुमतवासितान्तःकरणः प्रत्यक्षप्रतिपन्नेऽपि घटाद्यभावे भ्राम्यति सोऽनुपलम्भं निमित्तीकृत्य प्रतिपाद्यत इति ॥ २. यद्यपि कारणानुपलब्धेर्व्यापकानुपलब्धिरूपत्वं, कार्यकारणयोः व्याप्यव्यापकभावात्तथापि कार्यानुपलब्धिसाहचर्येण कारणानुपलब्धेरप्युपस्थितैविशेषज्ञानार्थं पृथङ्निर्देशो बोध्यः ॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिषेधहेतवः ] न्यायप्रकाशसमलते : ३८३ : कोदयानुपलम्भरूपोऽयं हेतुः । सहचरानुपलब्धि दृष्टान्तयति नास्त्यस्येति, अत्र प्रतिषेध्यसम्यग्ज्ञानाविरुद्धसहचरसम्यग्दर्शनानुपलम्भरूपोऽयं हेतुरिति । इमान्यप्युदाहरणानि स्वभावकार्यादीनां साक्षादनुपलम्भरूपहेतुद्वारा दर्शितानि, परम्परानुपलम्भरूपा हेतवोऽन्यत्र विलोकनीयाः॥ अथ विधिसाधकसाध्यविरुद्धानुपलब्धिरूपं निषेधहेतुं विभजतेविरुद्धनिषेधात्मको हेतुर्विधिप्रतीतो कार्यकारणस्वभावव्यापकसहचरभेदेन पञ्चधा॥ विरुद्धेति, तथा च विरुद्धकार्यानुपलब्धिविरुद्धकारणानुपलब्धिविरुद्धस्वभावानुपलब्धिविरुद्धव्यापकानुपलब्धिविरुद्धसहचरानुपलब्धिभेदेन पञ्चविधो विधिसाधको निषेधहेतुरिति भावः ।। 10 तत्र प्रथमद्वितीयतृतीयहेतूनां निदर्शनान्याह- अत्र शरीरिणि रोंगातिशयो वर्तते नीरोगव्यापारानुपलब्धेरिति साध्यविरुद्धारोग्यकार्यव्यापारानुपलब्धिरूपो निषेधहेतुः। अस्त्यस्मिन् जीवे कष्टमिष्टसंयोगाभावादिति साध्यविरुद्धसुखकारणानुपलब्धिः। सर्व वस्त्वनेकान्तात्मकमेकान्तस्वभावानुपलम्भादिति साध्यविरुद्धस्वभावा- 15 नुपलब्धिः ॥ ____ अत्रेति । पञ्चविधेषु हेतुष्वित्यर्थः, शेषं स्पष्टम् । विरुद्धकारणानुपलब्धिमाहास्तीति, स्पष्टम् । विरुद्धस्वभावानुपलब्धिमाह सर्वमिति, नैकोऽनेकः, स चासावन्तश्च धर्मोऽनेकान्तस्स एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनेकान्तात्मकं तत्त्वं साध्यधर्मः, सर्वमित्यान्तरबाह्यपदार्थसमूहो धर्मी, एकान्तस्वभावस्सदसदाद्यन्यतरात्मकः, तस्यानुपलम्भादिति हेतुः । अत्र साध्येना- 20 नेकान्तात्मकत्वेन विरुद्धो यस्स्वभावस्सदसदाद्यन्यतरस्वभावः तस्य प्रमाणमात्रेणानुपलम्भरूपोऽयं हेतुः । प्रमाणहिँ स्वरूपेण सदात्मकाः पररूपेणासदात्मकास्सन्तस्सामान्यविशेषात्मका नित्यत्वानित्यत्वाद्यनेकधर्माण एव पदार्थाः प्रतीयन्ते न केवलं सद्रूपा असद्रूपा वा सामान्यस्वरूपा विशेषस्वरूपा वा नित्या अनित्या वा पदार्थास्तेभ्यो विरुद्धस्वभावानुपलब्ध्याऽनेकान्तात्मकत्वसिद्धिरिति ।। 25 चतुर्थ पञ्चमञ्च हेतुमाह - Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरण अस्त्यत्र छाया औष्ण्यानुपलब्धेरिति साध्यविरुद्धतापव्यापकानुप foधः । अस्त्यस्य मिथ्याज्ञानं सम्यद्दर्शनानुपलब्धेरिति साध्यविरुद्ध सम्यग्ज्ञान सहचरानुपलब्धिः ॥ : ३८४ : अस्त्यत्रेति । स्पष्टम् । विरुद्धसहचरानुपलब्धि दृष्टान्तयति, अस्तीति स्पष्टम्, 5 समाप्तो हेतुविभागः ॥ इत्येवं हेतुनिरूपणेन धर्मिसाध्यसाधनानां साकल्येन निरूपणादनुमाने निरूपितेऽपि तत्र किञ्चिद्विशेषं ज्ञापयितुमाह अनुमानं द्विविधं स्वार्थं परार्थश्च । वचननिरपेक्षं विशिष्टसाधनात्साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । यथाहि वह्निधूमयोर्गृहीताविनाभावः पुरुषः 10 कदाचिद्भूधरादिसमीपमेत्य तत्राविच्छिन्नधूम लेखां पश्यन् यो यो स स वह्निमानित स्मृतव्याप्तिकः पर्वतो वह्निमानिति प्रत्येति । इदमेव स्वार्थमुच्यते ॥ 'धूमवान् अनुमानमिति । स्वार्थं स्वात्मप्रतिपत्तिहेतुकं परार्थं परप्रतिपत्तिहेतुकम् । स्वार्थलक्षणमाह वचननिरपेक्षमिति, पूर्वोदितपक्षहेतुप्रतिपादकशब्दविशेषो वचनं तदपेक्षणरहित - 15 मित्यर्थः, विशिष्टसाधनादिति निश्चितव्याप्तिमत्साधनादित्यर्थः, स्वस्मै पदार्थपरिच्छेदे शब्दप्रयोगानपेक्षतया स्वयमेव निश्चिताद्व्याप्तिविशिष्टसाधनात् साध्यज्ञानं यत्समुदेति तत्स्वार्थमित्यर्थः, तदुत्पत्तिप्रकारमाह-यथाहीति । गृहीताविनाभाव इति, सकृदस कृद्वोपलम्भानुपलम्भाभ्यां तर्केण गृहीतव्याप्तिक इत्यर्थः, भूधरादिसमीपमेत्येति, धर्मिज्ञानसम्पादनायेदं वचनम्, अविच्छिन्नधूमलेखामिति, व्याप्तिस्मारकतयास्योपयोगः, गोपालघटिकास्थधूमा20 दिव्यावर्त्तनायाविच्छिन्नेति स्मृतव्याप्तिक इति, संस्कारस्य प्रबोधेन व्याप्तिस्मरणवानित्यर्थः । इदमेवेति, एवं रूपेण जातं वह्निविशिष्टपर्वतज्ञानमित्यर्थः । स्वार्थमिति, स्वव्यामोहनिवर्त्तनक्षमत्वात्स्वार्थमित्यर्थः ॥ परार्थानुमानस्वरूपमाह— वचनसापेक्षं विशिष्टसाधनात्साध्यविज्ञानं परार्थम् । उपचाराद्वच25 नमपि परार्थम् ॥ वचनसापेक्षमिति । स्वस्मिन्निश्चितस्यानुमानस्य परं प्रति प्रबोधयितुं वचनमन्तरेणासम्भवाद्वचनसापेक्षं यन्निश्चितव्याप्तिमत्साधनप्रयोज्यं साध्यविज्ञानं तत्परव्यामोहनिवर्त्तनक्षमत्वात्परार्थानुमानमिति भावः । ननु वचनप्रयोगप्रयुक्तनिश्चितव्याप्तिकसाधनजन्य साध्य Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलङ्कते विज्ञानस्यैव परार्थत्वे तत्त्वेन पक्षादिप्रतिपादकवचनानां कथनं प्राचामसङ्गतं स्यादित्यत्राहोपचारादिति, नेदं वचनं निरुपचरितपरार्थानुमानमचेतनत्वात् किन्तु मुख्यानुमानहेतुत्वेन परार्थ तदपि स्यात् कारणे कार्यस्य समारोपात्, अनुमानतोऽयं मयाऽवबोधनीय इत्यभिप्रा. यवत्पुरुषप्रयुक्तपक्षादिववचनेन हि श्रोतुः परस्य व्याप्तिविशिष्टहेतुस्मरणादिद्वारा साध्यविज्ञानमनुमानात्मकमुदेति । ननूपचारस्तत्र भवति यत्र मुख्यबाधः प्रयोजनं सम्बन्धश्च भवे. 5 दत्र कथमुपचारत्वमिति चेन्न ज्ञानमेव हि प्रमाणं, तत्कथं जडरूपं वचनं परार्थानुमानरूपं प्रमाणं भवेदतोऽस्ति ज्ञान प्रमाणमिति मुख्यस्य बाधः, कारणान्तरवैलक्षण्येन कार्यकारित्व. मस्य प्रयोजनम् , पक्षादिवचनवदन्यस्य कस्यापि परस्यानुमानजनकताया अप्रसिद्धेः । सम्बन्धोऽपि कार्यकारणभावरूपो वर्त्तत एव, अनुमानतोऽयं मयाऽवबोधनीय इतीच्छया वक्ता पक्षादिवचनं प्रयुङ्क्ते, श्रोतापि एतद्वचनश्रवणद्वारा व्याप्तिमल्लिङ्गादमुमर्थमवबुद्धवानिति 10 मन्यत इति श्रोतुः प्रतीतिकारणत्वमस्तीति भावः ।। ननु परः कतिभिर्वचनैर्व्याप्तिमल्लिङ्गमवबुध्यत इत्यत्राह-- वचनश्च प्रतिज्ञाहेत्वात्मकम् । मन्दमतिमाश्रित्य तूदाहरणोपनयनिगमनान्यपि ॥ वचनश्चेति । प्रतिपाद्या हि विचित्राः केऽपि व्युत्पन्नमतयः केऽपि नितरामव्युत्पन्ना 15 नितरां केचिद्व्युत्पन्नाः, तत्र व्युत्पन्नमतिः प्रतिज्ञावचनेन हेतुवचनेन व्युत्पादयितुं शक्यः, नितरां व्युत्पन्नस्तु केवलं हेतुवचनेन व्युत्पादितो भवति तस्मान्मुख्यतया प्रतिज्ञारूपं हेतुरूपञ्च द्विविधवचनमुपयोगि, तावतैव प्रतिपन्नविस्मृतव्याप्तेः प्रमातुस्साध्यप्रतिपत्तेनियमेनोदयात् , अतस्तं प्रति दृष्टान्तादिवचनं व्यर्थमेव । व्याप्तिनिर्णयस्यापि तस्य तर्कप्रमाणादेव जातत्वात् प्रतिनियतव्यक्तिरूपदृष्टान्तस्य सर्वोपसंहारेण व्याप्तिबोधनाननुकूलत्वादिति 20 भावः, ननु परार्थप्रवृत्तः कारुणिकैः परे यथाकथञ्चिद्वोधयितव्या न तेषां प्रतीतिभङ्गः करणीयस्तस्माद्यथा यथा परस्य सुखेन साध्यप्रतिपत्तिर्भवेत्तथा तथा प्रतिपादकेन प्रतिपादनीयः, १. एतेन नास्यानुमानवचनस्यानुवादमात्रता, इतरानधिगतार्थोपदेशकत्वात् , अन्यथाऽप्तवचनस्यापि अनुवादमात्रत्वं स्यात् , इदानीं स्वावगतार्थबोधकत्वादिति सूचितम् ॥ २. पक्षहेतुवचनाभ्यामेवाविस्मृतव्याप्तिकः पुरुषो बोधयितुं शक्य इति न तदर्थ दृष्टान्तवचनस्यावश्यकता, व्याप्तिनिर्णयस्तु तर्कादेव व्याप्तिस्मृतिरपि व्युत्पन्नस्य पक्षहेतुप्रदर्शनाभ्यामेव भवति, उपनयनिगमने अपि न परप्रतिपत्त्यर्थं भवतः. समर्थ नं विनाऽसम्भवादिति भावः ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ चतुर्यकिरणे बोध्यास्तु नैकविधास्तथा चाव्युत्पन्नप्रज्ञान प्रति कदाचिदुदाहरणोपनयनिगमनान्यपि वक्तव्यान्येव भवन्तीति मन्वानः प्राह मन्दमतिमिति । अपिशब्दोऽनुक्तसमुच्चायकः तेन प्रतिज्ञाशुद्धिहेतुशुद्धिदृष्टान्तशुद्ध्यपनयशुद्धिनिगमनशुद्धीनां ग्रहणम् , तथा च कथाया बोध्यापेक्षया जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन त्रैविध्यं वेदितव्यम् , अतिव्युत्पन्नमत्यपेश्या केवलं हेतुवचनं जघन्या 5 कथेयम् , मध्यमापेक्षया प्रतिज्ञादीनां व्यादीनां वचनं मध्यमा कथा, अतिमन्दमत्यपेक्षया च पञ्चशुद्धिसहितानां प्रतिज्ञादीनां पञ्चानां वचनमुत्कृष्टा कथेति । प्रतिपाद्यापेक्षयैवैषां प्रयोगायेन प्रकारेण तस्य प्रतीतिर्भवेत्तथैव प्रतिपादनीयो न तु क्रमेणैव प्रतिपादनीय इत्यस्ति नियमः, तत्र पक्षदोषपरिहारादिः प्रतिज्ञाशुद्धिः, हेत्वाभासोद्धरणं हेतुशुद्धिः, दृष्टान्तदूषणपरिहरणं दृष्टान्तशुद्धिः उपनयनिगमनयोः प्रमादादन्यथाकृतयोर्नियतस्वरूपेण 10 व्यवस्थापके वाक्ये उपनयनिगमनशुद्धी । प्रतिज्ञादय एते परानुमानरूपकार्यस्याङ्गभूतत्वादवयवा इत्युच्यन्ते ॥ अथ प्रतिज्ञाया लक्षणमाह अनुमेयधर्मविशिष्टधर्मिबोधकशब्दप्रयोगः प्रतिज्ञा । यथा पर्वतो वह्निमानिति वचनम् ॥ 15 अनुमेयेति । अनुमेयः प्रतिपिपादयिषितो यो धर्मो वह्नयादिस्तद्विशिष्टस्य धर्मिणो बोधको बोधजनको यशब्दप्रयोगः पर्वतो वह्निमानित्यादिरूपस्स प्रतिज्ञेत्यर्थः । साध्यधर्मस्याधारे संशयव्युदासाय साध्यस्य विशिष्टधर्मिसम्बन्धित्वावबोधकं प्रतिज्ञावचनमावश्यकम् । भवति हि पर्वतो वह्निमानिति प्रयुक्तेन वचनेन वहिमान् पर्वतो घटो वेति संशयस्य निवृत्तिः, वह्नौ पर्वतसम्बन्धित्वबोधश्चेति । धर्मविशिष्टता ह्यस्तित्वाद्यपेक्षया सर्वपदार्थेष्विति तद्बोध20 कवचनव्यावृत्तये प्रतिपिपादयिषितार्थकमनुमेयपदं धर्मविशेषणतयोपात्तम् । धर्मिणि निर्दुष्टत्वमपि विशेषणं देयं तेन न पक्षाभासेऽतिव्याप्तिः । दृष्टान्तमाह यथेति ।। अथ हेतुवचनं लक्षयतिउपपत्त्यनुपपत्तिभ्यां हेतुप्रयोगो हेतुवचनम् । यथा तथैव धूमोपपत्तेः, १. एतेन प्रयोजनाभावात्पक्षवचनमनर्थकमिति बौद्धोक्तिनिरस्ता प्रतिपाद्यप्रतिपत्तिविशेषस्य तत्साध्यप्रयोजनस्य सद्भावाच्च । तच्च हेतूपन्याससमन्वितमेव साध्यं प्रतिपादयति, न च तर्हि तस्मादेव तत्र सामर्योपपत्तेः किं पक्षवचगेनेति वाच्यम् । तथा सति हेतोः समर्थनापेक्षस्य साध्यसिद्धिनिबन्धनत्वोपपत्तौ हेतुवचनस्यापि वैयापत्तेः हेतोरवचने कस्य समर्थनमिति चेत्पक्षस्याप्यप्रयोगे व हेतुस्साध्यं साधयेदिति न्यायस्य तुल्यत्वादिति ॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरणम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३८७ : धूमस्यान्यथानुपपत्तेरिति च । एकत्रो भयोः प्रयोगो नावश्यकः । अन्यतरेणैव साध्यसिद्धेः ॥ उपपत्तीति । हेतुप्रयोगो हेतुवचनमिति । हेतुत्वेन हेतोरभिधायकशब्दप्रयोगो हेतुवचनमित्यर्थः । हेतुत्वेन हेतोरभिधानं नाम तदभिव्यञ्जकविभक्त्यन्तत्वं सा च विभक्तिः पञ्चमी तृतीया वा, तथा च हेतुत्वव्यञ्जकविभक्त्यन्तत्वे सति हेतुप्रयोगत्वं लक्षणम्, धूम इति 5 वचनवारणाय सत्यन्तम्, वह्निमान् द्रव्यत्वादित्यादौ द्रव्यत्वादित्यव्याप्तवचनवारणाय हेतुप्रयोगत्वमिति, तत्र व्याप्तेरभावान्नैतद्वाक्यं हेतुप्रयोगरूपमिति । कथं तस्य प्रयोग इत्यत्राहोपपत्त्यनुपपत्तिभ्यामिति, सहार्थे तृतीया, उपपत्त्यनुपपत्तिपदं तद्बोधकशब्दपरम् । तथा चोपपत्तिपदेन सहानुपपत्तिपदेन सहेत्यर्थः, तत्र दृष्टान्तमाह-यथेति, व्याप्त्युपदर्शनार्थं हेतुप्रयोगो बोध्यः । तथैवेति वह्नौ सत्येवेत्यर्थः, धूमस्यान्यथानुपपत्तेरिति वह्नावसति 10 धूमानुपपत्तेरित्यर्थः । ननु उपपत्त्यनुपपत्तिभ्यामिति द्विवचनान्तेन पदेनोभयोः प्रयोगनियमो गम्यते तच्च न युक्तं तयोरेकतरस्याः प्रयोगेणैव व्याप्तिबोधेन साध्यसिद्धेरन्यतरस्याः प्रयोगे नैरर्थक्यापातादित्यत्रेष्टापत्तिमाविष्करोति एकत्रेति, एकस्मिन् साध्ये द्विविधप्रयोगस्य निष्फलत्वमेवेत्यर्थः, तत्र हेतुमाहान्यतरेणैवेति, तथैव हेतोरुपपत्तेरन्यथानुपपत्तेर्वा प्रयोगेणेत्यर्थः, व्यायुपदर्शनार्थं हि हेतुप्रयोगस्तच्चैकेनैव निष्पन्नमिति 15 विफलो द्वयोः प्रयोग इति भावः । ननु शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकः कादाचित्कत्वादित्यादौ प्रयत्नानन्तरीयकेषु सर्वत्र कादाचित्कत्वस्य सवेन तथोपपत्तिसत्वेऽप्यगमकत्वेन कथमन्यतरेण साध्यसिद्धिस्तत्रान्यथानुपपत्तेरभावादेवानुमानाभावादिति चेन्न तत्र तथोपपत्तेरेवाभावात् नहि प्रयत्नानन्तरीयकेषु सर्वत्र कादाचित्कत्वसत्त्वमेव तथोपपत्तिः किन्तु तथैवोपपत्तिरेव-साध्यसत्त्वे एव हेतुसत्त्वरूपं न तादृशं प्रकृतेऽस्ति, अप्रयत्नानन्तरीयकेऽपि 20 विद्युदादौ कादाचित्कत्वस्य भावात् तथा च तथैवोपपत्तिकथनेऽप्यन्यथानुपपत्तिर्गम्यत एव तथाऽन्यथाऽनुपपत्तिमात्राभिधानेऽपि तथैवोपपत्तिर्गम्यत एव तात्पर्यस्य शब्दभेदेऽप्यभेदात् । तथा च तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्त्योः परस्पराव्यभिचारित्वेनैकप्रयोगेऽपरस्य तात्पर्य तो लब्धेरन्यतरप्रयोगो निरर्थक एवेति भावः ॥ यस्तु क्षयोपशम विशेषाभावेन पक्षहेतुप्रयोगेऽपि पूर्वप्रतिपन्नप्रतिबन्धं न स्मरति तम्प्रति 25 दृष्टान्तवचनस्यावश्यकतया तत्स्वरूपमाह - दृष्टान्तबोधकशब्दप्रयोग उदाहरणम् । साधर्म्यतो वैधर्म्यतो वा व्याप्तिस्मरणस्थानं दृष्टान्तः । यथा महानसादिर्हदादिश्च ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३८८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ चतुर्थकिरणे दृष्टान्तेति । वक्ष्यमाणलक्षणो दृष्टान्तस्तत्प्रतिपादकं वचनमुदाहरणमित्यर्थः । दृष्टान्तस्वरूपमाह साधर्म्यत इति व्याप्तिस्मरणस्थानं दृष्टान्त इति, व्याप्तिर्हि द्विविधा, अन्तर्व्याप्तिर्बहिर्व्याप्तिरिति, पक्षीकृत एव साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्तर्व्याप्तिः, पक्षीकृतादहि दृष्टान्तादौ तस्य तेन व्याप्तिर्बहिर्व्याप्तिः तथा च प्रोक्तबहिर्व्याप्तिस्मरणं यत्र भवति स 5 दृष्टान्त इत्यर्थः कस्यचित्प्रमातुर्दृष्टान्तदृष्टबहिर्व्याप्तिबलेयन्ताप्तिप्रतिपत्तिर्भवतीति स्वार्था नुमानेऽपि क्वचिदङ्गं बोध्यम् । तद्भेदज्ञापनायाह साधर्म्यतो वैधर्म्यतो वेति, साधनसत्ताप्रयुक्तसाध्यधर्मसत्तारूपान्वयतः साध्याभावसत्ताप्रयुक्तसाधनाभावसत्तारूपव्यतिरेकतो वेत्यर्थः, तत्र निदर्शनमाह यथेति धूमसत्ताप्रयुक्तवह्नियोगित्वान्महानसं साधर्म्यदृष्टान्तः, वह्निनिवृत्ति प्रयुक्तधूमनिवृत्तियोगित्वाद्धदो वैधर्म्यदृष्टान्त इति भावः । साध्यं व्यापकं भवति साधनन्तु 10 व्याप्यं, व्यापकञ्च व्याप्यसद्भावेऽसद्भावे च भवति, व्याप्यन्तु व्यापकसद्भाव एव । तथा च तत्सत्ताप्रयुक्ततत्सत्तायोगिदृष्टान्तप्रतिपादकं वचनं साधोदाहरणमित्येकम् । व्यापकस्य निवृत्तिाप्यं भवति, व्याप्यस्य निवृत्तिश्च व्यापकं भवति तथा च तन्निवृत्तिप्रयुक्ततन्निवृत्तियोगिदृष्टान्तप्रतिपादकं वचनं वैधोदाहरणमित्यपरं पर्यवसन्नम् । तदुक्तं " व्याप्य व्यापकभावो हि भावयोर्यादृगिष्यते । स एव विपरीतस्तु विज्ञेयस्तदभावयोः" इति ॥ 15 यस्तु दार्टान्तिके हेतुं योजयितुं न जानीते तं प्रत्युपनयस्यावश्यकत्वात्तत्स्वरूपमाह दृष्टान्तप्रदर्शितसाधनस्य साध्यधर्मिण्युपसंहारवचनं उपनयः । यथा तथा चायमिति । दृष्टान्तेति । साधनधर्मप्रयुक्तसाध्ययोगिनि साध्यधर्मनिवृत्तिप्रयुक्तसाधनधर्मनिवृत्तियोगिनि वा दृष्टान्ते प्रदर्शितस्य हेतोस्साध्यधर्मिणि य उपसंहारो योजना तत्प्रतिपादकं वचन20 मुपनीयते साध्यधर्मिण्युपसंहियते व्याप्तिविशिष्टो हेतुर्येन वचनेनेत्युपनयो दृष्टान्ते साध्येन सह दृष्टस्य हेतोस्साध्यधर्मिण्यनुसन्धानवचनमिति भावार्थः, साध्यधर्मिण्युपसंहारवचनमन्यस्यापि सम्भवतीति साधनस्येत्युक्तम् , दृष्टान्तप्रदर्शितसाधनस्यान्यत्राप्युपसंहारवचनं तथा स्यादिति साध्यधर्मिणीत्युक्तम् साध्यधर्मिणि गृहीताविनाभावस्य साधनस्य प्रतिपादकं हेतु वचनमपीति दृष्टान्तप्रदर्शितसाधनस्येत्युक्तम् । उपनयस्य दृष्टान्तमाह यथेति ॥ 25 दार्टान्तिके हेतुं योजयित्वापि यस्साकांक्षस्तं प्रति निगमनस्यावश्यकत्वात्तत्स्वरूपमाह साध्यधर्मस्य धर्मिण्युपसंहारवचनं निगमनम् । यथा तस्मात्तथेति ॥ इति सद्धेतुनिरूपणम् ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेत्वाभासाः । ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ३८९ : साध्यधर्मस्येति । साध्यधर्मस्य वह्नयादेस्तद्धर्मिणि पर्वतादौ येन वचनेनोपसंहरणं तद्वचनं निगम्यन्ते प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयार्था अनेनेति निगमनमित्यर्थः । तत्र दृष्टान्त. माह तस्मादिति वह्निव्याप्यधूमवत्त्वादित्यर्थः तथा-पर्वतो वह्निमानित्यर्थः । एते नान्तरीय कत्वप्रतिपादका वाक्यैकदेशरूपाः पञ्चावयवाः प्रदर्शिता इत्याशयेनाहेतीति, इत्थमित्यर्थः, सद्धेतुनिरूपणं व्याप्तिविशिष्टहेतुनिरूपणमित्यर्थः ॥ इतितपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसू. रिणा विनिर्मितस्य तत्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां सद्धतुनिरूपणं नाम चतुर्थः किरणः ॥ अथ पञ्चमः किरणः॥ अथ हेतुप्रसङ्गाद्धेत्वाभासान्निरूपयितुमुपक्रमते असिद्धविरुद्धानकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः ॥ असिद्धेति । हेत्वाभासा इति हेतुवदाभासन्त इति हेत्वाभासाः, दुष्टहेतव इत्यर्थः, हेतुस्वरूपस्य निश्चितव्याप्तिमत्त्वस्याप्रतीतिविपर्याससंदेहैः पञ्चम्यन्तत्वेन च हेतोरिवाभासमानत्वादसिद्धादीनां हेत्वाभासत्वमवसेयम् । त्रय इति संख्यान्तरव्यवच्छेदाय, तेन 15 बाधसत्प्रतिपक्षयोर्हेत्वाभासत्वव्यवच्छेदः । बाधस्य पक्षदोषेष्वन्तर्भावात् । सत्प्रतिपक्षस्य दोषत्वासम्भवाच्च । यथोक्तलक्षणेऽनुमाने प्रयुक्तेऽदूषितेऽनुमानान्तरस्यासम्भवात् । तुल्यबले साध्यतद्विपर्ययसाधकहेतुद्वये सत्यपि तत्र प्रकृतसाध्यसाधनयोप्त्यनिश्चयेऽसिद्ध एवान्तभर्भावसम्भवाच्च । अत्रेदम्बोध्यमनेकान्तविरुद्धबुद्धिभिरुपन्यस्यमानास्सर्व एव हेतवोऽसिद्धा इत्येकविध एव हेत्वाभास इति श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरयः । विरुद्ध एवेति विरुद्ध एक 20 एवेति मल्लवादिनः, समन्तभद्राचार्यास्तु तेऽनैकान्तिका इति स एव हेत्वाभास इत्याहुः, शिष्टानां तत्रैवान्तर्भावात् तदुक्तं ' असिद्धस्सिद्धसेनस्य विरुद्धो मल्लवादिनः । द्वेधी समन्त १. नित्यश्शब्दोऽनुपलभ्यमानानित्यधर्मकत्वात् अनित्यश्शब्दोऽनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वादित्यत्र सत्प्रतिपक्षता वक्तव्या सा च न सम्भवति, अनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वस्य पक्षेऽसत्त्वेऽसिद्धरेव दोषत्वात् , साध्यधर्मान्वितधर्मिणि तत्सिद्धौ गमकत्वमेव स्यात् , अविनाभावसत्त्वात् पश्चात्तत्र साध्यं सिद्धयति नेदानीमिति चेत्तर्हि विरुद्धता स्यात्, इदानीमत्र संदेहस्साध्यस्येति चेदनकान्तिकत्वं, न च पक्षान्तविण व्य. भिचारो न दोषः विपक्षव्यावृत्तस्य सपक्षे पक्षे च सत एव गमकत्वादिति वाच्यम्, पक्षान्तर्भावेण व्याय निश्चये धर्म्यन्तर एव स्वसाध्येन व्याप्तिनिश्चये पक्षे हेतुसत्त्वेऽपि स्वसाध्यासाधकत्वापत्तेः तत्र व्याप्तरग्रहणादिति न सत्प्रतिपक्षो दोष इति भावः ॥ २. अनैकान्तिक इत्यर्थः । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे भद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ॥” इति, तदिदमिष्टमपि नितरां संक्षिप्ततया शिष्यमतिविकासनाय तत्स्वरूपप्रदर्शनस्यावश्यकतयाऽत्र त्रैविध्यमादर्शितम् , केचिच्च तीर्थान्तरीयोपन्यस्तहेतुषु प्रत्येकं दोषत्रयं मन्यन्ते यथा अनित्य एव शब्दः कृतकत्वादित्यादौ कृतकत्वमसिद्धं, एकान्तानित्ये तदसम्भवात् । नित्यानित्यात्मकस्यैव कृतकत्वसम्भवात् । एकान्तानित्यविपरीतनित्यानि5 त्यात्मकस्यैव शब्दस्य साधकत्वेन विरुद्धम् । विपक्षेऽपि नित्ये वर्तमानत्वाच्चानैकान्तिकम पीति ॥ अकिञ्चित्करोऽपि न हेत्वाभासान्तरं तद्धि सिद्धसाधनरूपं बाधितविषयरूपञ्च, द्विविधमपीदमप्रयोजकापराभिधानं पक्षदोषेष्वेवान्तर्गतम् । न च यत्र पक्षदोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्य इति वाच्यं तथा सति दृष्टान्तादिदोषस्याप्यवश्यं वाच्यत्वापत्तेरिति ॥ अधुनाऽसिद्धं लक्षयति10 हेतुस्वरूपाप्रतीतिप्रयुक्ताप्रतीतव्याप्तिको हेतुरसिद्धः ॥ हेतुस्वरूपेति । अप्रतीतव्याप्तिको हेतुरिति हेतोः सत्त्वस्यासिद्धौ संदेहे वाऽप्रतीतव्याप्तिक इत्यों न तु व्याप्तेर्वैपरीत्येन निश्चयात् संशयाद्वाऽप्रतीतव्याप्तिकस्तादृशस्य विरुद्धानैकान्तिकत्वात् तदेतत्सूचयितुं हेतुस्वरूपाप्रतीतिप्रयुक्तेति विशेषणम् । यत्र सत्त्वं नास्ति तस्य संशयो वा स हेतुरेव न भवति तथा च तादृग्वस्तु हेतुत्वलक्षणविरहादसिद्धं, न तु 15 पक्षधर्मत्वाभावात् । नहि पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणमन्यथानुपपत्तिबलेन तदभावेऽप्यनुमाना द्धेतुत्वस्य पूर्वमुपदर्शितत्वात् । यथा नित्यश्शब्दश्चाक्षुषत्वादित्यादौ व्याप्तित्वरूपलक्षणविरहाच्चाक्षुषत्वमसिद्धं, स्वरूपाप्रतीतिश्चात्रासत्वात् । तथा बाष्पादिभावेन सन्दिह्यमानो धूमो वह्निसिद्धौ प्रयुज्यमानोऽसिद्ध उच्यते तत्र संदिग्धसत्त्वेन व्याप्त्यभावादिति ॥ तस्य प्रभेदमाह20 स द्विविधो वादिप्रतिवाद्युभयासिद्धोऽन्यतरासिद्धश्चेति । तत्राद्यो यथा शब्दोऽनित्यश्चाक्षुषत्वादिति, अत्र शब्दस्य चाक्षुषत्वं नोभयस्य सिद्धम् ॥ स इति । असिद्ध इत्यर्थः, वादीति, वाद्यपेक्षया प्रतिवाद्यपेक्षया चासिद्ध इत्यर्थः । अन्यतरेति वाद्यपेक्षया प्रतिवाद्यपेक्षया वेत्यर्थः । पूर्वपक्षं विदधानो वादी, उत्तरपक्षमव25 लम्बमानः प्रतिवादी, प्रथमभेदस्य दृष्टान्तमाह तत्राद्य इति, चक्षुषा ग्राह्यश्चाक्षुषस्तस्य भाव श्चाक्षुषत्वं तस्मादिति विग्रहश्चक्षुर्जन्यज्ञानविषयत्वं तदर्थः, तच्च नित्यत्ववादिनोऽनित्यत्ववादिनो वा कस्यापि शब्दे न सम्मतमिति वादिप्रतिवाद्युभयापेक्षोऽयमसिद्ध इति भावः ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भसिद्धः ] न्यायप्रकाशसमलते : ३९१ : अथ वाद्यसिद्धमाह वाद्यसिद्धो यथा शब्दः परिणामी उत्पत्तिमत्त्वादिति । अत्र शब्दस्योत्पत्तिमत्त्वं वादिनस्सांख्यस्यासिद्धम् ॥ वाद्यसिद्ध इति । इदं प्रतिवादिनोऽनुमानम् । सङ्गमयति अत्रेति, सांख्यस्यासिद्धमिति, तन्मतेऽसत उत्पत्त्यभावात्सतश्च विनाशाभावादुत्पादविनाशयोराविर्भावतिरोभाव- 5 रूपेण प्रागभावप्रतियोगिमत्त्वरूपमुत्पत्तिमत्त्वमसिद्धमिति ॥ ननु विशेष्यविशेषणव्यर्थविशेष्यव्यर्थविशेषणासिद्धास्स्वरूपासिद्धो व्यधिकरणासिद्धादयश्च कथं न हेत्वाभासत्वेनोक्ता इति चेदुच्यते विशेष्यविशेषणव्यर्थविशेष्यव्यर्थविशेषणासिद्धा वादिनः प्रतिवादिनो वोभयोर्वा भविष्यन्तीति तेषां तत्रैवान्तर्भावः । स्वरूपासिद्धः स्वरूपं असिद्धं यस्य सो स्वरूपासिद्धः स्वरूपेणासिद्ध इति वा यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वादिति, नायं व्यधिकरणासिद्धः 10 रूपस्य चाक्षुषत्वादित्यनुक्तत्वात् । एवञ्चायं वस्तुतो न हेत्वाभासः तस्य हेतुस्वरूपत्वाभावादेवागमकत्वात् । व्यधिकरणासिद्धो न वस्तुतो हेतुदोषः, विभिन्नाश्रयस्यापि उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयादित्यादेर्गमकत्वप्रतीतेः, एवमन्यत्रापि भाव्यम् ॥ प्रतिवाद्यसिद्धं दर्शयति द्वितीये प्रतिवाद्यसिद्धो यथा वृक्षाअचेतना मरणरहितत्वादिति । हेतु- 15 रयं वृक्षे जैनस्य प्रतिवादिनोऽसिद्धः, प्राणवियोगरूपमरणस्य स्वीकारात्॥ द्वितीय इति । अन्यतरासिद्धरूप इत्यर्थः, अस्य वादिप्रतिवाद्यन्यतरापेक्षत्वेनादौ प्रतिवाद्यसिद्धमाह प्रतिवाद्यसिद्ध इति, इदं वादिनो बौद्धस्यानुमानम् , मरणरहितत्वादिति विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधो मरणम् । सङ्गमयति हेतुरयमिति, हेतुमाह प्राणेति, द्रुमेष्वप्यागमे विज्ञानेन्द्रियायुषां प्रमाणतस्स्थापितत्वादिति भावः । ननु न सम्भवत्यस्य भेदस्य 20 हेत्वाभासत्वं, प्रतिवाद्युद्भावितासिद्धिं विभाव्य तत्र वादिना प्रमाणेऽनुद्भाविते प्रमाणाभावादेवोभयोरसिद्धत्वात् , उद्भाविते चोभयोरेव तत्सिद्ध्याऽन्यतरासिद्धत्वासम्भवात् प्रमाण. स्यापक्षपातित्वात् । न च यावत् प्रमाणानुद्भावनं तावदसिद्धमिति वाच्यम् , तथा सति गौणत्वापत्तेः, नहि रत्नादिपदार्थो यावत्तत्त्वतोऽप्रतीयमानस्तावन्तं कालं मुख्यतया तदाभासो १. अविनाभावस्यैव गम्यगमकभावनिबन्धनत्वं न सामानाधिकरण्यस्य, तदभावेऽप्यनुमितिदर्शनादित्याह व्यधिकरणेति, तत्सत्त्वेऽपि स श्यामो मित्रातनयत्वादित्यादेरगमकत्वादिति भावः ॥ २. अन्यत्रापि भागासिद्धसंदिग्धासिद्धादावपीत्यर्थः, एषामुभयस्यान्यतरस्य वाऽसिद्धत्वादुक्तेष्वन्तर्भाव इति भावः । पक्षतावच्छेदको हेतुर्न हेवाभासः, प्रमाणं स्वपरव्यवसायिज्ञानमेव भवति, प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेरित्यादेर्गमकत्वादिति ।। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [पञ्चमकिरणे भवति । यदि चान्यतरासिद्धो वस्तुतो हेत्वाभासस्तदा वादी निगृहीतः स्यात्ततः पश्चादनिग्रहो युक्तः, नवा हेतुसमर्थनं युक्तं निग्रहान्तत्वाद्वादस्येति चेन्मैवम् , सम्यग्घेतुत्वं प्रतिपद्यमानेनापि वादिना तत्समर्थनन्यायविस्मरणादिनिमित्तेन यदा हि प्रतिवादिनं बोधयितुं न शक्यते न स्वीक्रियते चासिद्धता तदान्यतरासिद्धत्वेनैव स निगृह्यते, एवं स्वानभ्युपग5 मतोऽपि परस्य सिद्ध इत्येतावतैवोपन्यस्यमानो हेतुरन्यतरासिद्धो भवतीति यथा सांख्यस्य जैनं प्रति, अचेतनाः सुखादय उत्पत्तिमत्त्वाद्धटवदिति ॥ सम्प्रति विरुद्धं लक्षयति- साध्यधर्मविपरीतव्याप्तिको हेतुर्विरुद्धः । यथा शब्दो नित्यः कार्य त्वादिति, अत्र कार्यत्वमनित्यत्वव्याप्यम् ॥ 10 साध्यधर्मेति । केनचित्पुरुषेण साध्यधर्मविपरीतस्यैव व्याप्यो हेतुर्धान्त्या साध्य व्याप्यत्वेनोपन्यस्यते तदा स साध्यधर्मविपरीतव्याप्तिकत्वाद्विरुद्ध इति भावः । दृष्टान्तमाहयथेति घटयति अत्रेति, अयं पक्षविपक्षव्यापको हेतुः। अत्र परैरष्टविधा विरुद्धभेदा उच्यन्ते यथा पक्षविपक्षव्यापकस्सपक्षावृत्तिः, पक्षव्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिस्सपक्षा वृत्तिश्च,पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिस्सपक्षावृत्तिश्च पक्षैकदेशवृत्तिस्समक्षावृत्तिर्विपक्षव्यापकश्च, पक्ष15 विपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षश्च, पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिरविद्यमानसपक्षश्च, पक्षव्यापको विपक्षकदेशवृत्तिरविद्यमानसपक्षश्च, पक्षैकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षश्चेति । आद्याश्चत्वारस्सति सपक्षे परे चत्वारश्चासति सपक्षे बोध्यास्तत्र प्रथमो यथा शब्दो नित्यः कार्यत्वादिति कार्यत्वं हि शब्दमात्रेऽनित्यघटादिमात्रे वर्त्तते नतु नित्य आकाशादौ । द्वितीयो यथा-नित्यश्शब्दस्सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् , अत्रायं हेतुः 20 शब्दमात्रे क्वचिदनित्ये घटादौ वर्त्तते क्वचिच्चानित्ये सुखादौ नित्य आकाशादौ न वर्त्तत इति । तृतीयो यथा वाङ्मनसे अस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षे सामान्यविशेषवत्त्वे सति नित्यत्वादयं हेतुः पक्षैकदेशे मनसि वर्त्तते न तु वाचि, विपक्षैकदेशे गगनादावस्ति न तु सुखादौ, नास्ति पुनर्घटादौ सपक्षे । चतुर्थो यथा-नित्या पृथिवी कृतकत्वादिति हेतुः, इदं कृतकत्वमनित्यपृथिव्यामस्ति परमाणौ च नास्ति, नित्यमात्रे नास्ति, अनित्यमात्रे चास्ति । 25 पञ्चमो यथा-आकाशविशेषगुणशब्दः प्रमेयत्वादिति, अयं हेतुश्शब्दमात्रेऽनाकाशविशेष गुणमात्रे च वर्त्तते सपक्षश्चात्र नास्ति । षष्ठो यथा-आकाशविशेषगुणशब्दः प्रयत्नानन्तरी १. पूर्वोत्तराकारपरिहारप्राप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनैवाविनाभूतं कृतकत्वं बहिरन्तर्वा प्रतीतिविषयः, तच सर्वथा नित्ये क्षणिके वा सम्भवत्येवेति विरुद्धत्वमिति भावः ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनैकान्तिकः ] म्यायप्रकाश समलङ्कृते : ३९३ : यकत्वादिति, अयञ्च हेतुः शब्दविशेषे वर्त्तते नास्ति च शब्दविशेषे, घटादावस्ति मेघादौ नास्ति च, अत्रापि सपक्षो नास्ति । सप्तमो यथा - आकाशविशेषगुणशब्दो बाह्येन्द्रियप्राह्यत्वादिति हेतुरयं शब्दमात्रे विपक्षैकदेशे रूपादौ वर्त्तते न तु सुखादौ विपक्षे सपक्षस्तु नास्त्येव । अष्टमो यथा - आकाशविशेषगुणइशब्दोऽपदात्मकत्वादिति, अत्र हेतुर्ध्वनौ वर्त्तते तु पदात्मकशब्दे, रूपादौ विपक्षमात्रे वर्त्तते सपक्षस्तु नास्त्येवेति । सर्व एवैते तवो 5 प्रोक्तविरुद्ध एवान्तर्भवन्ति, पक्षैकदेशवृत्तिषु असिद्धतापीति ॥ अधुनानैकान्तिकं निरूपयति सन्दिग्धव्याप्तिको हेतुरनैकान्तिकः । स द्विविधस्सन्दिग्धविपक्षवृतिको निर्णीत विपक्षवृत्तिकश्चेति ॥ सन्दिग्धेति । यस्य हेतोर्व्याप्तिस्सन्दिह्यते स हेतुरनैकान्तिक इत्यर्थः । अयं हि 10 साध्येन विना हेतोर्भावस्य संशये निर्णये वा भवतीत्याशयेन तस्य द्वैविध्यमाह स द्विविध इति । सन्दिग्धेति विपक्षे यस्य वृत्तिस्सन्दिग्धा स इत्यर्थः, निर्णीतेति, विपक्षे यस्य वृत्तिनिर्णीता स इत्यर्थः, विरुद्धो ह्वेतुस्तु विपक्ष एव वृत्तितया निर्णीत इति न साङ्कर्यम् ॥ तत्राद्यस्य निदर्शनमाह— आयो यथा विवादापन्नः पुरुषो न सर्वज्ञो वक्तृत्वादिति । अत्र 15 विपक्षे सर्वज्ञे वक्तृत्वं सन्दिग्धम् ॥ आद्य इति । सन्दिग्धविपक्षवृत्तिक इत्यर्थः, दोषं हेतौ सङ्क्रमयति अत्रेति, सन्दिग्धमिति, सर्वज्ञः किं वक्ता नवेति संशयात्, न च वक्तुः सर्वज्ञस्य केनाप्यदर्शनान्न वक्ता स इति निश्चीयत एवेति वाच्यम्, अल्पप्रज्ञैरस्माभिस्तस्य भाषमाणस्यादर्शनेऽपि न वक्तेति निश्चेतुमशक्यत्वेन सन्दिग्धत्वात् । ननु सर्वज्ञस्य वचनं विरुद्धं तस्य रागस्वभावविवक्षाजन्य- 20 त्वेन प्रक्षीणमोहे तस्मिन् मोहापरपर्यायरूपतदिच्छाया असंभवात् । तथा च वचनाभाव एव १. बौद्धा धर्मविशेषविपरीतसाधको धर्मिविशेषविपरीतसाधकश्चेति विरुद्धस्य द्वैविध्यमाहुः तन्न सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्गात् पर्वताधिकरणकधूमस्य सिषाधयिषित वह्निविशेष विपर्ययसाधकत्वेन विरुद्धत्वं वाच्यम्, तश्च तदा स्यात् धूमसामान्योपन्यासेन वह्निविशेषो जिज्ञास्येत । यदा च विशेषं साध्यमभिलषता विशिष्ट एव हेतुरुपन्यस्यते तदा नोक्तदोषः, तथा धर्मिविशेषविपरीतसाधनोऽपि न विरुद्धः, अन्यथा यो यो धूमवान् स पर्वतो न भवति यथा महानसम् इति धर्मिणस्तिरस्काराद्भूमोऽपि हेतुर्न भवेत् तथाचानुमानमात्रविलो प्रापत्त्या नैतौ विरुद्धहेत्वाभासाविति बोध्यम् ॥ ५० Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३९४ : तस्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे निश्चित इति चेन्न, सुषुप्त्यादौ निरभिप्रायवागादिप्रवृत्त्यनापत्तेः, नहि सुषुप्त्यादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छाऽस्ति । न चैषा वागादिप्रवृत्तिरिच्छापूर्विका, वागादिप्रवृत्तित्वात् प्रसिद्धच्छापूर्वकवागादिप्रवृत्तिवदित्यनुमानेन तत्रापि साऽनुमेयैवेति वाच्यम् , हेतोरप्रयोजकत्वात् , यादृशस्य हि जाग्रतोऽनन्यमनसो वा तत्प्रवृत्तिरिच्छापूर्विका दृष्टा तत्प्रवृत्तिविशेषेण देशान्तरे काला5 न्तरे च तादृशस्यैव तत्प्रवृत्ताविच्छापूर्वकत्वं साधयितुं शक्यते, न पुनरन्यादृशि । न च सुषुप्तस्यान्यमनस्कस्य वा तत्प्रवृत्तिरिच्छापूर्वकत्वेन व्याप्ताववगता तस्मान्न वक्तृत्वं विरुद्धम् ॥ अथापरं हेतुं दर्शयति द्वितीयो यथा पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वादिति । अत्र विपक्षे ह्रदादौ प्रमेयत्वं निर्णीतमिति ॥ 10 द्वितीय इति । निर्णीतविपक्षवृत्तिक इत्यर्थः, योजयत्यतिव्याप्ति हेतावत्रेति सपक्षे महानसादौ विपक्षे ह्रदादौ प्रमेयत्वस्य दर्शनात् किं प्रमेयत्वं वतिना व्याप्तमुत वह्नयभावेनेति व्याप्तेस्सन्दिह्यमानतयाऽनैकान्तिकत्वमिति भावः । व्याप्यत्वासिद्धनामा सोपाधिको हेतुरपि संदिग्धविपक्षवृत्तिक एव, तथाहि साध्यव्यापकत्वे. सति साधनाव्यापकत्वमुपाधिः, यथा स श्यामो मित्रातनयत्वात्परिदृश्यमानतत्तनयवदित्यत्र शाकाद्याहारपरिणतिपूर्वकत्वमुपाधिः, 15 सत्यपि मित्रातनयत्वे यइशाकाद्याहारपरिणतिपूर्वकस्स एव श्यामो न त्वपर इति, मित्रात नयत्वस्य हि न व्यापकं शाकाद्याहारपरिणतिपूर्वकत्वं तदन्तरापि मित्रातनयत्वस्य सद्भावात् श्यामत्वस्य तु व्यापकं तत्, तदन्तरेण तस्यानुपलब्धेः, तथा च तस्योपाधित्वेन मित्रातनयत्वं सोपाधिको हेतुः, अयमेव चाप्रयोजको हेत्वाभास उच्यते परप्रयुक्तव्याप्युपजीवित्वात् परश्चोपाधिरेवेति । उपाधिना हेतौ व्यभिचारसंशयोदयात्सन्दिग्धविपक्षवृत्तिरेव । १. नहि तदानीमनुभूयमाना इच्छाऽस्ति, तथात्वे पश्चादिच्छान्तरवत्तस्या अपि स्मरणं स्यात् अविदितेच्छा तु न सम्भवति इच्छायास्स्वसमानाधिकरणज्ञानविषयकत्वनियमेनाज्ञातेच्छाया असम्भवादिति भावः ॥ २. वचनं प्रति नियतो हेतुश्चैतन्यं करणपाटवञ्च, न च तयोस्सत्त्वेऽपि वचनप्रवृत्तेरदर्शनात् विवक्षापि सहकारिकारणमिति वाच्यम् , सहकारिकारणस्य नियमेनापेक्षणीयत्वाभावात् नक्तञ्चरादेस्संस्कृतचक्षुषो वाऽनपेक्षितालोकसन्निधे रूपोपलम्भात् तां विना सुषुप्त्यादौ तद्दर्शनाच, क्वचित्तु कण्ठाद्यभिघातजनकप्रवृत्तिजनकेच्छाजनकेष्टसाधनताज्ञानविषयस्येष्टतासम्पादनार्थमुपयुज्यते इति ॥ ३. अत्र सौगता नैयायिकाश्चासाधारणमपि हेतुं संशयजनकत्वेनानैकान्तिक स्वीकुर्वन्ति यथा शब्दो नित्यः श्रावणवादित्यत्र सपक्षे गगनादौ विपक्षे घटादौ न क्वापि हेतुरस्ति पक्षे च वर्तमानस्स नित्यव्यावृत्ततया शब्देऽनित्यत्वस्यानित्यव्यावृत्ततया च नित्यत्वस्य संभावनया संशयजनको भवतीति, तन्न सर्वथा नित्यत्वसाधने विरुद्धत्वात् कथञ्चिदनित्यत्वमन्तरेण श्रावणत्वासम्भवात् , अश्रावणत्वस्वभावपरित्यागेनैव हि श्रावणत्वस्वभावोपपत्तिः कथञ्चिन्नित्यत्वसाधने तु सद्धेतुरेव तेन सहान्यथानुपपत्तिसत्त्वादिति ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षाभासः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ३९५ : तथा परोक्तानामष्टविधानां हेतूनामत्रैवान्तर्भावः, ते च हेतवो यथा पक्षत्रयव्यापकः-नित्यइशब्दः प्रमेयत्वादिति, अयं पक्षसपक्षविपक्षव्यापकः, पक्षसपक्षव्यापको विपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा गौरयं विषाणित्वादिति, एतद्गवि गवान्तरे च सर्वत्र क्वचिन्महिषादौ च हेतोस्तत्त्वात् । पक्षविपक्षव्यापकस्सपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा नायं गौर्विषाणित्वात् पक्षे मेषे विपक्षे गोमात्रे कचित्सपने महिषादौ सत्त्वात्, पक्षव्यापकस्सपक्षविपक्षैकदेशवृत्तिर्यथा अनित्य- 5 शब्दः प्रत्यक्षत्वात् , शब्दमात्रे कचिद्रूपादौ कचिदात्मादौ सत्त्वात् , पक्षैकदेशवृत्तिस्सपक्षविपक्षव्यापको यथा न द्रव्याण्याकाशकालदिगात्ममनांसि क्षणिकविशेषगुणरहितत्वात् आकाशात्मभिन्नेषु गुणादौ सर्वत्र पृथिव्यप्तेजोवायुषु वर्तमानत्वात् । पक्षविपक्षैकदेशवृत्तिस्सपक्षव्यापी यथा न द्रव्याणि दिक्कालमनांस्यमूर्त्तत्वात् मनोभिन्ने पक्षे कचिदात्मनि गुणादौ सर्वत्र च सत्त्वात् , पक्षसपक्षैकदेशवृत्तिर्विपक्षव्यापी यथा द्रव्याणि दिक्कालमनां- 10 स्यमूर्त्तत्वात् मनोभिन्ने पक्षे आकाशात्मनोर्गुणादौ सर्वत्र च सत्त्वात् । पक्षत्रयैकदेशवृत्तिर्यथा अनित्या पृथिवी प्रत्यक्षत्वात् जन्यपृथिव्यां कचिजलादौ आत्मादौ सत्त्वादिति । हेत्वाभासस्य समाप्तिं द्योतयतीतीति ॥ सम्प्रत्यवसिते हेत्वाभासे तदितराङ्गानां कारणानाञ्चाभासान् प्रसङ्गाद्वक्तुमुपक्रमते पक्षाभासस्त्रिविधः, प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणको निराकृतसाध्य- 15 धर्मविशेषणकोऽन भीप्सितसाध्यधर्मविशेषणकश्चेति ।। - पक्षाभास इति । पक्षवदुद्देश्यविधेयभावेनाभासते-प्रतीयते न तु तत्कार्य करोतीति पक्षाभासः-पक्षत्वलक्षणविनिर्मुक्त इत्यर्थः, त्रैविध्यं दर्शयति प्रतीतेति, प्रतीतः प्रमाणप्रसिद्धो यस्साध्यधर्मस्स एव विशेषणं यस्येति विग्रहः, निराकृतेति, निराकृतः प्रमाणबाधितो यस्साध्यधर्मस्स एव विशेषणं यस्येति विग्रहः, अनभीप्सितेति, अनभीप्सितोऽनिष्टस्साध्यधर्मो 20 विशेषणं यस्येति विग्रहः । अप्रतीतानिराकृताभीप्सितसाध्यधर्मविशिष्टधर्मिण एव पक्षत्वेनो पवर्णितत्वात्तद्विपरीतत्वेनैषां पक्षाभासत्वमिति भावः।। - तत्र प्रथमं दर्शयति आद्यो यथा महानसं वह्निमदिति पक्षीकृते महानसे वह्नः प्रसिद्धत्वादयं दोषः, इदमेव सिद्धसाधनमपि ॥ 25 आद्य इति । प्रतीतसाध्यधर्मविशेषणक इत्यर्थः, प्रसिद्धत्वादिति प्रत्यक्षेण निर्णीतस्वादित्यर्थः, निर्णयैकपदवीमधिरूढस्य नहि साध्यत्वं, निर्णीतार्थे न्यायस्याप्रवृत्तः, तथा च Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३९६ : तव न्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे तस्यासाध्यत्वेन तद्विशिष्टधर्मिणः पक्षाभासत्वमेवेति भावः । अस्यैव च सिद्धसाधनं प्रसिद्धसम्बन्ध इत्यपि संज्ञाद्वयमस्तीत्या हेदमेवेति विधेयप्राधान्यान्नपुंसकत्वं प्रतीत साध्यधर्मविशेषणकः पक्षाभास एवेत्यर्थः, अपिशब्दोऽनुक्तस्य प्रसिद्धसम्बन्धस्य समुच्चायकः ॥ - द्वितीयभेदं निदर्शयति- 5 2 10 द्वितीयो यथा वह्निरनुष्ण इति प्रत्यक्षेण निराकृतसाध्यधर्मविशेकः । अपरिणामी शब्द इति पक्षः परिणामी शब्द इत्यनुमानेन तथा । धर्मोऽन्ते न सुखप्रद इति धर्मोऽन्ते सुखप्रद इत्यागमेन तथा । चैत्रः काण इति पक्षो विद्यमानाक्षिद्वयस्य चैत्रस्य सम्यक्स्मरतस्स्मरणेन तथा । सदृशे वस्तुनि तदेवेदमिति पक्षस्तेन तुल्यमिदमिति प्रत्यभिज्ञया तथा ॥ द्वितीय इति । निराकृतसाध्यधर्मविशेषणक इत्यर्थः, निराकरणस्यात्र प्रत्यक्षानुमानागमस्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्क लोकस्ववचनैर्विवक्षितत्वेन तत्क्रमेणैव निदर्शनान्यभिधत्ते यथा वह्निरिति । प्रत्यक्षेणेति, उष्णत्वविषयकत्वाच प्रत्यक्षेणेत्यर्थः । अनुमाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमाह । अपरिणामीति । परिणामी शब्द इति, अर्थक्रियाकारित्वं कृतकत्वमुत्पत्तिमत्त्वं वात्र हेतुः । अर्थक्रियाकारित्वादेर्घटे परिणामित्वसत्त्व एवोपलम्भाच्छब्द उप15 लभ्यमानं तत् परिणामित्वं साधयतीति शब्दोऽपरिणामीति पक्ष आभास एवेति भावः, यद्यपि शब्दोऽपरिणामीत्यनुमानस्यानुमानेन बाधनं न सम्भवति सत्प्रतिपक्षापातात्तथापि स्वकीयानुमानस्य बलवत्त्वादयं व्यपदेशो युज्यत एवेति । तथेति निराकृतसाध्यधर्म - विशेषणक इत्यर्थः, एवमग्रेऽपि । आगमनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमाह धर्म इति, अन्त इति प्रेत्येत्यर्थः । आगमेनेति, तत्र हि धर्मस्याभ्युदयनिः श्रेयसहेतुत्वं तद्विपरीतत्वञ्चाधर्मस्य 20 प्रतिपाद्यत इति भावः । स्मरण निराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमाह चैत्र इति, सम्यक्स्मरत इति, बोद्धृभ्यां हि द्वाभ्यामेकदा नेत्रयुगलसमलङ्कृतश्चैत्रोऽवलोकितः पुनः कालान्तरे तन्मध्यादेको नेत्रद्वयं विस्मृत्यापरं प्रत्यभिधत्ते, अयि वयस्य स चैत्रः काण इति, तदाऽपर आचष्टे तवायं पक्षो मामकीनेन सम्यक्स्मरणेन निराकृतः, यतोऽहं चैत्रं तं विद्यमानाक्षिद्वयतया सम्यक्स्मरामीति तदेवं स्मरण निराकृतसाध्यधर्मविशेषणकः पक्षाभास इति भावः । 25 प्रत्यभिज्ञाननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमाख्याति सदृश इति, प्रत्यभिज्ञयेति, कस्मिंश्चित्सदृशे वस्तुनि कञ्चनाधिकृत्योर्द्धतासामान्यभ्रान्त्या कोऽपि पक्षीकुरुते तदेवेदमिति, तदास्याऽयं पक्षः तिर्यक्कू सामान्यावलम्बिना तेन तुल्यमिदमिति सम्यक्प्रत्यभिज्ञानेन निराक्रियत इति भावः ॥ तर्कनिराकृतसाध्यधर्म विशेषणकादीनाचष्टे Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षाभासः न्यायप्रकाशसमलङ्कृते यो यो मित्रातनयस्स स श्याम इति पक्षो यो यश्शाकाद्याहारपरिणामपूर्वक मित्रातनयस्स श्याम इति तर्केण तथा । नरशिरःकपालं शुचीति लोकेन तथा । नास्ति प्रत्यक्षातिरिक्तं प्रमाणमिति पक्षीकुर्वतचार्वाकस्य पक्षोऽयं स्ववचनेन तथा ॥ : ३९७ : यो य इति । शाकायाहारेति, शाकाद्याहारपरिणामपूर्वकत्वमन्तरेणानुपलब्धत्वाच्छ्या- 5 मत्वस्य तद्विशिष्टश्यामत्वमेव मित्रातनयत्वव्यापकं न तु केवलं श्यामत्वं तदन्तरेणापि मित्रा - तनयत्वस्य भावादिति आवः । लोकनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमभिधत्ते नरेति, लोकेनेति are हि प्राण्यङ्गत्वाविशेषेऽपि वस्तुस्वभावतः किञ्चित्पवित्रं किञ्चिदपवित्रमिति प्रसिद्धं, यथा गोपिण्डोत्पन्नत्वाविशेषेऽपि तद्दुग्धं शुद्धं न तु तन्मांसमिति लोकव्यवहार तस्तत्पक्ष निराकरणमिति भावः । स्ववचननिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकमाचष्टे नास्तीति स्ववचनेनेति, अयम्भावः, 10 चाको हि प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणं नान्यदनुमानादिकमिति स्वीकरोति तदा वचनस्यास्य न प्रत्यक्षातिरिक्तं प्रमाणमस्तीत्येवं रूपस्य स्वार्थे प्रमाणाभावात् तस्य कथं स्वेष्टसिद्धिः यदि प्रमाणमभ्युपगच्छति तदा स्ववचनस्य प्रत्यक्षातिरिक्तस्यापि प्रमाणतया तेन वचनेन स्वपक्षो बाधित एवेति । ननु लोकप्रतीत साध्यधर्मविशेषणकस्य प्रत्यक्षनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणकादिष्वेव वचनस्य शब्दरूपतया स्ववचननिराकृतसाध्यधर्म विशेषण कस्याऽऽगम निराकृतसाध्य - 15 धर्मविशेषणके चान्तर्भावसम्भवादनयोः पृथगुपन्यासो निरर्थक इति चेत्सत्यं, शिष्यशेमुषीविकसननिमित्तमनयोः पार्थक्येनाभिधानादिति ॥ अथ तृतीयमनभीप्सित साध्यधर्मविशेषणकं पक्षाभासमाह -- तृतीयो यथा शब्दस्यानित्यत्वमिच्छतश्शब्दो नित्य इति पक्षस्तस्यानभीप्सित साध्यधर्मविशेषणक इति ॥ 20 तृतीय इति । तस्येति सभाक्षोभादिनैवं वदत इत्यर्थः । अनभीप्सितेति, अनित्यत्वस्यैवेष्टतया नित्यत्वस्यानभीप्सितत्वादिति भावः, इतिशब्दः पक्षाभाससमाप्तिद्योतकः, तेनाप्रसिद्धविशेषणाप्रसिद्धविशेष्याप्रसिद्धोभयेषां पक्षाभासत्वं निरस्तमप्रसिद्धविशेषणस्यैव साध्यत्वात् अन्यथा सिद्धसाधनत्वापत्तिः स्यात् सर्वत्राप्रसिद्धस्य साध्यस्य दोषत्वे क्षणिकत्वं साधयतो बौद्धस्य पक्षोऽन्यान् प्रति पक्षाभासस्यात् क्षणिकतायाः काप्यप्रसिद्धत्वात्, 25 धर्मिणश्च विकल्पात्प्रतीतिसम्भवेनाप्रतीतविशेष्योऽपि न पक्षाभासः, एतेनाप्रतीतो भयोऽपि निराकृत इति ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे . एवं पक्षाभासे हेत्वाभासे च निरूपिते हेतुपक्षोभयाङ्गकानुमाने स्मृते तदाभासमप्याचष्टे पक्षाभासादिसमुद्भूतं ज्ञानमनुमानाभासः॥ पक्षाभासादीति । आदिना हेत्वाभासदृष्टान्ताभासादीनां ग्रहणम् , प्रोक्तेन पक्षाभासेन हेत्वाभासेन वा वक्ष्यमाणदृष्टान्ताभासादिना वा सम्भूतं ज्ञानमनुमानवत्पक्षसाध्यरूपेणाभा5 समानत्वादनुमानाभास इत्यर्थः। एवं स्वप्रतिपत्तिफलकं पक्षाभासादिसमुद्भूतं ज्ञानं स्वार्थानुमानाभासः परप्रतिपत्तिफलकं पक्षाभासादिसमुद्भूतं ज्ञानं परार्थानुमानाभास इत्यपि बोध्यम् ।। अथानुमानाभासात्मकज्ञानजनकहेत्वाभासनिष्ठगमकताप्रयोजकतर्कादीनामाभासरूपाणां स्वरूपं वक्तुं प्रथमं तर्काभासमाह असत्यां व्याप्तौ तर्कप्रत्ययस्तर्काभासः । यथा यो यो मित्रातनयः 10 स म श्याम इति ॥ असत्यामिति । अविद्यमानायामित्यर्थः, तथा च व्याप्तिर्नास्ति ययोः तत्र केवलमाकारमात्रेण तर्करूपतया यो भासते स तर्काभास इत्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथेति स श्यामो मित्रातनयत्वादित्यत्र हि श्यामत्वमित्रातनयत्वयोर्वस्तुतो व्याप्तिर्नास्ति श्यामभिन्नस्यापि मित्रा तनयस्य संभवात् परन्तु यावान् कश्चिन्मित्रातनयस्स श्याम इति सर्वाक्षेपेण प्रत्ययात्तस्य 15 तर्काभासत्वं शाकाद्याहारपरिणामपूर्वकमित्रातनयत्वस्यैव व्याप्यत्वादिति भावः ॥ तर्कस्य प्रत्यभिज्ञास्मरणजन्यत्वेन तयोराभासौ वक्ति तुल्ये वस्तुन्यैक्यस्य, एकस्मिश्च तुल्यतायाः प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यभिज्ञाभासः । यथा तदेवौषधमिति, एकस्मिश्च घटे तेन सदृशमिति ज्ञानम् । अननुभूते तदिति बुद्धिस्मरणाभासः । यथाऽननुभूतशुक्लरूपस्य 20 तच्छुक्लं रूपमिति बुद्धिः ॥ तुल्य इति । तिर्यक्सामान्यविषयकत्वेनोर्द्धतासामान्यविषयकत्वेन च प्रत्यभिज्ञाया द्वैविध्यात्तुल्ये वस्तुनि तिर्यक्सामान्यालिङ्गिते भावे ऐक्यस्य ऊर्ध्वतासामान्यमवलम्ब्य प्रत्यभिज्ञानं तथा एकस्मिश्च वस्तुनि ऊर्ध्वतासामान्यस्वभावे तिर्यक्सामान्यमवलम्ब्य तुल्यतायाः प्रत्यभिज्ञानं प्रत्यभिज्ञाभास इति भावः। ऐक्यस्येति पदस्य प्रत्यभिज्ञानमित्यप्रेतने 25 नान्वयः । दृष्टान्तमावेदयति यथेति-औषधव्यक्त्योर्मध्यादेकत्रौषधे तिर्यक्सामान्यालीढेऽ परेण तुल्यमिदमिति वक्तव्ये तदेवौषधमिदमित्यूर्ध्वतासामान्यावलम्बिज्ञानं प्रत्यभिज्ञाभास Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्षाभासः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते इति भावः । द्वितीयं दृष्टान्तमाहैकस्मिंश्च घट इति, एकस्मिन् घटाद्यात्मके वस्तुनीत्यर्थः, विषयप्रदर्शकमात्रमिदं पदं न तु प्रत्यभिज्ञानाकारे तस्योल्लेखः, प्रत्यभिज्ञानाकारस्तु वस्त्विदं तेन सदृशमित्येव नातो नपुंसकत्वविरोधः । ऊर्ध्वतासामान्यस्वभावे एकस्मिन् घटे तिर्यक्सामान्यावलम्बिज्ञानं तेन सदृशमिदमिति ज्ञानं प्रत्यभिज्ञाभास इति भावः । स्मरणाभासमाह-अननुभूत इति, प्रमाणमात्रेण कदाचिदप्यनुपलब्ध इत्यर्थः, दृष्टान्तयति यथेति, 5 सुगमं शिष्टम् ।। . स्मृतिहेतुत्वेन प्रत्यक्षस्योपस्थानात्सांव्यवहारिकादिप्रत्यक्षाभासानाह- मेघादौ गन्धर्वनगरादिज्ञानं दुःखादी सुखादिप्रत्यक्षश्चेन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकसांव्यवहारिकप्रत्यक्षाभासः। शिवराजर्षेरसंख्यातद्वीपसमु. द्रेषु सप्तद्वीपसमुद्रज्ञानमवध्याभासः। मनःपर्यवकेवलयोस्तु नाभासत्वं 10 संयमविशुद्धिजन्यत्वात्कृत्स्नावरणक्षयसमुद्भूतत्वाच ॥ मेघादाविति । इदश्चेन्द्रियनिमित्तकसांव्यवहारिकप्रत्यक्षाभासस्य निदर्शनम् । अनिन्द्रियनिबन्धनसांव्यवहारिकप्रत्यक्षाभासस्य दृष्टान्तमाह दुःखादाविति, अवग्रहादीनामाभासा एवमेव स्वयमूह्याः। पारमार्थिकप्रत्यक्षस्यावध्याभासात्मकस्य विभङ्गज्ञानापरपर्यायस्य निदर्शनमाह शिवराजर्षेरिति, अयं कश्चन राजर्षिस्वसमयप्रसिद्धस्तस्य किल विभङ्गात्मकमवध्याभास- 15 मसंख्यातेषु द्वीपसमुद्रेषु सप्तद्वीपसमुद्रसंवेदनं समुदभूदिति सैद्धान्तिका आहुः, सोऽयमवध्याभास इत्यर्थः । पारमार्थिकप्रत्यक्षविशेषयोर्मन:पर्यवकेवलयो भासत्वसम्भव इत्याह मन इति, तत्र हेतुमाह संयमेति, कृत्स्नेति हेतुरयं केवलस्यानाभासत्वे, घातिकर्माख्यनिखिलावरणविनाशादित्यर्थः ॥ .. नन्वेवं मत्यादीनामाभासत्वं प्रदर्शितं परं तदन्तर्गतश्रुतविशेषस्याभासत्वं कथमित्या- 20 शङ्कायामाह आगमाभासस्त्वग्रे वक्ष्यते ॥ आगमाभास इति । आगमस्वरूपस्यैवाविज्ञातत्वेन तदाभासोऽधुना वर्णयितुमशक्य इति तन्निरूपणोत्तरमेव निरूपणीय इत्याशयेनाहाने वक्ष्यत इति, आगमनिरूपणानन्तरमभिधास्यत इत्यर्थः ॥ ___ एवमनुमाननियतोपकरणाभासानुक्त्वाऽधुना मन्दमत्यपेक्षयाऽनुज्ञातदृष्टान्तादीनां याथाझ्याथार्थ्यप्रकाशनाय तदाभासानाह 25 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४०० : तस्वन्यायविभाकरे [पथम किरणे दृष्टान्तवद्भासमानो दृष्टान्ताभासः, स द्विविधः । साधर्म्यदृष्टान्ताभासो वैधर्म्यदृष्टान्ताभासश्चेति । साधर्म्यदृष्टान्ताभासो नवविधः, साध्यसाधनोभयविकलसन्दिग्धसाध्यसाधनो भयानन्वयाप्रदर्शितान्वयविपरीतान्वयभेदात् ॥ 5 I दृष्टान्तेति । यो दृष्टान्तप्रतिरूपक एव नतु दृष्टान्तत्वलक्षणसहितस्स दृष्टान्ताभास इत्यर्थः । दृष्टान्तस्य पूर्वं साधर्म्यवैधर्म्यतया द्वैविध्यस्य प्रदर्शनेन तदाभासोऽपि सामान्यतो द्विविध इत्याह स इति परार्थानुमान एव दृष्टान्तस्योद्भावनेनोदाहरणदोषा इमे बोध्या:, तेषां च दृष्टान्तप्रभवत्वाद् दृष्टान्तदोषतयोत्कीर्त्तनम् । तत्र साधर्म्य दृष्टान्ताभासो विशेषेण नवविध इत्याह साधर्म्येति, तथा च साध्यविकलस्साधनविकलस्तदुभय10 विकलस्संदिग्धसाध्यस्सन्दिग्ध साधनस्सन्दिग्धतदुभयोऽनन्वयोऽप्रदर्शितान्वयो विपरीतान्वयविविधस्स इत्यर्थः ॥ तत्रैकस्मिन्नेवानुमाने दृष्टान्तभेदे क्रियमाणे प्रथमभेदत्रयस्य निदर्शनं भवतीति ग्रन्थलाघवकामस्तथैवाह—— नित्यशब्दोऽमूर्त्तत्वादित्यत्र दुःखस्य दृष्टान्तत्वे तस्यानित्यत्वेन 15 साध्यधर्मविकलता । परमाणोर्द्दष्टान्तत्वे मूर्त्तत्वेन तस्य साधनविकलता, घटस्य दृष्टान्तत्वे तूभयविकलता ॥ नित्य इति, इत्यत्रेति, ईदृशानुमान इत्यर्थः दृष्टान्तत्व इति दृष्टान्ते क्रियमाण इत्यर्थः, तस्येति दुःखस्येत्यर्थः, अनित्यत्वेनेति पुरुषप्रयत्नजन्यत्वेनानित्यत्वादिति भावः साध्येति नित्यत्वधर्मशून्यत्वादिति भावः, साधनविकलदृष्टान्तमाह, परमाणोरिति, नित्यश20 ब्दोऽमूर्त्तत्वादित्यनुषज्यत एवमग्रेऽपि तस्येति परमाणोरित्यर्थः, साधनेति, अमूर्त्तत्वधर्मशून्यत्वादिति भावः, उभयविकलं दृष्टान्तमाह घटस्येति तस्यानित्यत्वेन मूर्त्तत्वेन च साध्यं साधनात्र नास्तीति भावः ॥ एवं सन्दिग्धसाध्यसाधनोभयान्याह अयं चैत्रो रागी वक्तृत्वाद्देवदत्तवदित्यत्र देवदत्ते रागित्वस्य संदि25 ग्धतया संदिग्धसाध्यधर्मा । अयं वक्ता रागित्वान्मैत्रवदिति सन्दिग्धधर्मा । अयं न सर्वज्ञो रागित्वान्मुनिवदिति दृष्टान्तेऽसर्वज्ञत्वरागित्वयोः सन्दिग्धत्वात्सन्दिग्धो भयधर्मा ॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्ताभासाः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृत . : ४०११ अयं चैत्र इति । सन्दिग्धतयेति, देवदत्ते रागित्वस्य. सत्त्वमसत्त्वश्च सन्दिग्धं, पुरुपान्तरमनोवृत्तीनां दुरधिगमात् रागित्वाव्यभिचारिलिङ्गानुपलब्धेश्चेति भावः, सन्दिग्धसाधनं दृष्टान्तमाहायं वक्तेति, मैत्रे रागित्वस्योक्तहेतोस्सन्देहादित्यर्थः । सन्दिग्धोभयं दृष्टान्तमाचष्टे अयमिति, मुनिवदिति मुनिविशेषवदित्यर्थः, मुनिविशेषे हि असर्वज्ञत्वरागित्वयोस्संशयस्तदव्यभिचारिहेत्वदर्शनात् , सर्वज्ञत्वारागित्वनिर्णायकहेत्वदर्शनाच्चेति भावः ॥ 5 अनन्वयं दृष्टान्तमभिधत्ते चैत्रोऽयं रागी वक्तृत्वान्मैत्रवदिति दृष्टान्ते साध्यहेत्वोस्सत्त्वेऽपि यो यो वक्ता स स रागादिमानिति व्याप्त्यसिद्ध्याऽनन्वयः॥ - चैत्रोऽयमिति । व्याप्त्यसिद्ध्येति, यद्यप्यभिमते मैत्रादौ वक्तृत्वं रागित्वश्चास्ति पाषाणादौ त्वस्ति तयोनिवृत्तिस्तथापि यो यो वक्ता स स रागादिमानिति प्रतिबन्धस्तयोर्न सिद्ध्यति, 10 अतोऽभिमतमैत्रादिरनन्वयदृष्टान्त इति भावः । अष्टभ्योऽयं न भिन्नो व्याप्त्यसिद्धेस्सर्वत्र सत्त्वादित्यष्टावेव साधर्म्यदृष्टान्ताभासा इति श्रीहेमचन्द्राचार्याः ॥ अप्रदर्शितान्वयं दृष्टान्तं विपरीतान्वयदृष्टान्तञ्चाह अनित्यशब्दः कार्यत्वाद्धटवदित्यत्रान्वयसहचारसत्त्वेऽप्यप्रदर्शनादप्रदर्शितान्वयः । तत्रैव यदनित्यं तत्कृतकं यथा घट इत्युक्तौ 15 विपरीतान्वयः॥ अनित्य इति । अप्रदर्शनादिति, वचनेनाप्रकाशितत्वादित्यर्थः, अत्रेदम्बोध्यमप्रदर्शितान्वयस्थले वस्तुनिष्ठो न कश्चिदोषः, परार्थानुमाने च वचनगुणदोषानुसारेण वक्तुर्गुणदोषौ परीक्षणीयाविति भवति वाचनिकमस्य दोषत्वं, एवं अप्रदर्शितव्यतिरेकेऽपि बोध्यम् । अथ विपरीतान्वयं नवमं दर्शयति-तत्रैवेति, पूर्वोपदर्शितेऽनित्यः शब्दः कार्यत्वाद्धटवदित्यत्रैवे- 20 त्यर्थः, यदनित्यमिति, यत्कृतकं तदनित्यमित्यनुक्त्वेत्यादिः । अन्वये हि प्रथमं हेतुं प्रदर्य साध्यं प्रदर्शनीयमत्र तु विपर्यासेन प्रदर्शनाद्विपरीतान्वय इति भावः । न च यदनित्यं तत्कृतक १. एवं ह्यभिधानेऽनित्यत्वं व्याप्यं कार्यत्वं व्यापकमिति विपरीता व्याप्यव्यापकभावप्रतिपत्तिः स्यात् , तया च समव्याप्तिके साधनस्य व्यापकत्वाभिधाने साध्यस्य प्रतिपत्तिर्न स्यादिति दूषणम् , विषमव्याप्तिके तु तया व्याप्त्यग्रहश्च व्यभिचारज्ञानात् । विषमव्याप्तिक एव विपरीतान्वयो दोष इति केचित् ॥ २. यद्यत् कार्य तत्तदनित्यं यथा घटादिरिति वचनं विनाऽन्वयस्याप्रतीतेरिति भावः ॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे मिति अत्रैवं प्रदर्शितेऽपि व्यभिचाराभावेन न काप्यनुपपत्तिरितिवाच्यम् , समव्याप्तिकस्थले तथात्वेऽपि शब्दोऽनित्यः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्यादिविषमव्याप्तहेतुस्थले यदनित्यं तत्प्रयत्नानन्तरीयकमित्युक्तौ विद्युदादौ व्यभिचारेणानुपपत्तिसत्त्वात् , साधर्म्यप्रयोगे साधनस्यैव पूर्वप्रदर्शनीयत्वादिति । अत्र केचित् अनन्वयाप्रदर्शितान्वयविपरीतान्वयरूपदृष्टान्तत्रयाभिधानं न सुपर्यालोचितं, तथाहि न तावदनन्वयो दृष्टान्ताभासो भवितुमर्हति, यदि हि दृष्टान्तबलेन व्याप्तिस्साध्यसाधनयोः प्रतिपाद्येत ततस्स्यादनन्वयो दृष्टान्ताभासः स्वकार्याकरणात् , यदा तु पूर्वप्रवृत्तसम्बन्धग्राहिप्रमाणगोचरस्मरणसम्पादनार्थं दृष्टान्तोदाहृतिरिति स्थितं तदाऽनन्वयलक्षणो न दृष्टान्तदोषः, किन्तर्हि, हेतोरेव, प्रतिबन्धस्याद्यापि प्रमाणेनाप्रतिष्ठितत्वात् प्रतिबन्धाभावे चान्वयासिद्धेः, न च हेतुदोषोऽपि दृष्टान्ते वाच्यः, अतिप्रसङ्गात् । तथाऽप्रदर्शितान्वय10 विपरीतान्वयावपि न दृष्टान्ताभासतां स्वीकुरुतः, अन्वयाप्रदर्शनस्य विपरीतान्वयप्रदर्शनस्य च वक्तृदोषत्वात् , तदोषद्वारेणापि दृष्टान्ताभासप्रतिपादने तदियत्ता विशीर्येत, वक्तृदोषाणामानन्त्यात् । नन्वनयोर्वक्तृदोषत्वेऽपि परार्थानुमाने तत्कौशलमपेक्षत एव, अन्यथोपन्यासे बुभुत्सितार्थासाधकत्वादिति चेन, करणापाटवादीनामपि दृष्टान्ताभासत्वापत्तेः, करणपाटवव्यतिरेकेण हि न परप्रत्यायनं समस्ति, विस्पष्टवर्णाग्रहणे व्यक्ततया तदर्थावगमा15 भावादित्याहुः, तन्न परस्मै व्याप्तिप्रतिपादनस्थानं हि दृष्टान्तः, प्रतिपाद्यानुरोधेन परार्था नुमाने उदाहरणस्यानुज्ञातत्वेन तस्य च दृष्टान्ताभिधानरूपत्वात् , सोऽपि महानसादिहष्टान्तो यदि साध्यसाधनयोगी न भवेत्तर्हि कथं ततो व्याप्तेः स्मरणं भवेत् दृष्टान्ततदाभासयोश्च विवेकः स्यात् ततोऽवश्यमेव स साध्यसाधनयोगी स्यात् प्रदर्शनीयञ्च परस्मै तत्र साध्यं साधनञ्च तत एव तयोस्सत्त्वासत्त्वाभ्यां दृष्टान्ततदाभासौ भवेताम् , अत एव 20 च तत्साधयंतो वैधयंतश्च द्वैविध्य सङ्गतिमञ्चति, उक्तञ्च हेमचन्द्राचार्यैः दृष्टान्तस्य लक्षणं तद्भेदश्च " स व्याप्तिदर्शनभूमिः, स साधर्म्यवैधाभ्यां द्वेधा” इति, उक्तश्चान्यत्र तैरेव " परार्थानुमानप्रस्तावादुदाहरणदोषा एवैते दृष्टान्तप्रभवत्वात्तु दृष्टान्तदोषा उच्यन्त " इति । परस्य व्याप्तिस्मरणानुत्पादे वक्त्रुपन्यस्तदुष्टोदाहरणस्यैव निबन्धनत्वमन्यथोदाहरणादिदोषोद्भावनमेव निरर्थकं भवेत् साध्यधर्मादिविकलदृष्टान्तोद्भावनस्य वक्तृदोषनि25 बन्धनत्वेन तस्यापि दृष्टान्ताभासत्वं न स्यादिति यत्किञ्चिदेतत् ॥ अथ वैधHदृष्टान्ताभासं विभजते वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोऽपि नवविधः, असिद्धसाध्यसाधनोभयव्यतिरेकसन्दिग्धसाध्यसाधनोभयव्यतिरेकाव्यतिरेकाप्रदर्शितव्यतिरेकविपरीतव्यतिरेकभेदात् ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टान्ताभासाः ] न्यायप्रकाश समलङ्कृते : ४०३ : वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोऽपीति । न केवलं साधर्म्यदृष्टान्ताभास एव नवविधः किन्तु वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोऽपि नवविध इत्यर्थः, साध्याभावसाधनाभावव्याप्तिदर्शनस्थानं वैधर्म्य - दृष्टान्तस्तस्याभासोऽसिद्धसाध्यव्यतिरेकोऽसिद्धसाधनव्यति रे कोऽसिद्धो भयव्यतिरेकस्सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेकस्सन्दिग्धसाधनव्यतिरेकस्सन्दिग्धोभयव्यतिरेकोऽव्यतिरेको ऽप्रदर्शितव्यतिरेको विपरीतव्यतिरेकश्चेति नवविध इति भावः ॥ तेषु प्रथमप्रकारमुपदर्शयति — अनुमानं भ्रमः प्रमाणत्वाद्यो भ्रमो न भवति स न भवति प्रमाणं यथा स्वमज्ञानमिति दृष्टान्तः, स्वप्नज्ञाने भ्रमत्वनिवृत्त्यसिद्ध्या असिद्धसाध्यव्यतिरेकः । निर्विकल्पकं प्रत्यक्षं प्रमाणत्वात् यन्न प्रत्यक्षं न तत्प्रमाणं यथानुमानमित्यत्रानुमानेऽप्रमाणत्वासिद्ध्याऽसिद्धसाधनव्यतिरेकः ॥ 10 5 अनुमानमिति । अत्र वैधर्म्य दृष्टान्तमाह य इति सङ्गमयति स्वप्नज्ञान इति । असिद्धेति, असिद्धः अप्रतीतस्साध्यस्य व्यतिरेको यस्मादसाविति विग्रहः । द्वितीयं दृष्टान्ताभा. समाह निर्विकल्पकमिति, वैधदृष्टान्तमाह यन्नेति, घटयति अनुमान इति ॥ अथ तृतीयमाह - घटो नित्यानित्यः सत्त्वात् यो न नित्यानित्यः न स सन् यथा पट 15 इति दृष्टान्तोsसिद्धसाध्यसाधनोभयव्यतिरेकः ॥ घट इति । वैधर्म्य दृष्टान्तमाह यो नेति दृष्टान्त इति पटात् नित्यानित्यनिवृत्तेरसव1 निवृत्तेश्चासिद्धत्वादिति भावः ॥ चतुर्थपञ्चमषष्ठानाह— कपिलो सर्वज्ञोऽक्षणिकैकान्तवादित्वात् यन्नैवं तन्नैवं यथा बुद्ध इति 20 दृष्टान्तस्सर्वज्ञत्वस्य बुद्धे संदिग्धतया सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेकः । चैत्रोऽग्राह्यवचनो रागित्वात् यन्नैवं तन्नैवं यथा तथागत इति दृष्टान्तस्तथागतेऽरागित्वस्य संशयात्सन्दिग्धसाधनव्यतिरेकः । बुधोऽयं न सर्वज्ञो रागित्वादित्यत्र यस्सर्वज्ञस्स न रागी यथा बुद्ध इति दृष्टान्ते उभयस्य संशयात् संदिग्धसाध्यसाधनोभयव्यतिरेकः ॥ कपिल इति । अक्षणिकेति नित्यैकान्तवादित्वादिति भावः वैधर्म्यदृष्टान्तमाह यन्नैव 25 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४०४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ पञ्चमकिरणे मिति यो नासर्वज्ञस्स क्षणिकैकान्तवादीत्यर्थः । सन्दिग्धतयेति सामान्यप्रमातृणामिति शेषः, तेन प्रमाणबाधितक्षणिकैकान्तवादिनोऽसर्वज्ञत्वनिश्चयेन साध्यव्यावृत्तेरसिद्ध्याऽसिद्धसाध्यव्यतिरेकित्वेऽप्यस्य न क्षतिः । असर्वज्ञत्वव्यतिरेकसंशयस्तु तेन सह क्षणिकैकान्तवादि त्वस्य व्याप्त्यसिद्धेः । असर्वज्ञेनापि परप्रतारणाभिप्रायेण तथावादस्य कत्तुं शक्यत्वादिति । 5 पश्चममाह चैत्र इति, वैधर्म्यदृष्टान्तमाह यन्नैवमिति, यो नामाह्यवचनस्स न रागीत्यर्थः । संशयादिति, अपक्षपातिनामिति शेषः । तेन तद्दर्शनानुरागिणां तथागते ग्राह्यवचनत्वस्य प्रसिद्धत्वेऽपि न क्षतिः। रागित्वव्यतिरेकसंशयश्च तन्निर्णायकप्रमाणराहित्यात् । अथ षष्ठमाह बुधोऽयमिति, वैधर्म्यदृष्टान्तमाह य इति, उभयस्य संशयादिति, बुद्धे सर्वज्ञ त्वस्यारागित्वस्य च निश्चायकप्रमाणाभावेन सर्वज्ञोऽसर्वज्ञो वा रागी वाऽरागी वेति 10 संशयादिति भावः ॥ अथ सप्तममाह चैत्रोऽयमरागी, वक्तृत्वाद्यन्नैवं तन्नैवं यथा पाषाणशकलमिति दृष्टान्ते साध्यसाधनोभयव्यतिरेकस्य सत्त्वेऽपि व्याप्त्या व्यतिरेका सिद्धेरव्यतिरेकः ॥ 15 चैत्रोऽयमिति । वैधर्म्यदृष्टान्तमाह यन्नैवमिति, यो रागी न स वक्तेत्यर्थः, व्याप्त्या व्यतिरेकासिद्धेरिति, साध्यसाधनव्यतिरेकयोः पाषाणशकले साहचर्यदर्शनेऽपि तयोर्व्याप्त्यसिद्ध्याऽव्यतिरेक इत्यर्थः। अनेन सहाष्टविधानां वैधर्म्यदृष्टान्ताभासानामभिन्नतयाऽष्टविधत्वं वैधर्म्यदृष्टान्ताभासानामिति श्रीहेमचन्द्राचार्याः ॥ अष्टमं नवमश्चाह20 अनित्यश्श्ब्दः कृतकत्वाद्गगनवदिति दृष्टान्तो व्यतिरेकस्याप्रदर्श नादप्रदर्शितव्यतिरेकः । तत्रैव यदकृतकं तन्नित्यमित्युक्ते विपरीतव्यतिरेकः ॥ -- अनित्य इति । व्यतिरेकस्येति यो नित्यस्स न कृतक इति व्यतिरेकस्येत्यर्थः सत्त्वेऽ पीति शेषः । विपरीतव्यतिरेकमाख्याति तत्रैवेति पूर्वोपदर्शितेऽनित्यश्शब्दः कृतकत्वादित्य25 नुमान इत्यर्थः, वैधर्म्यस्थले हि प्रथमं साध्यव्यतिरेकं प्रदश्यैव साधनव्यतिरेकः प्रदर्शनीयः, अत्र तद्वैपरीत्येन प्रदर्शनाद्विपरीतव्यतिरेक इति भावः । अत्रापि केचित अन्वयव्यतिरेका Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आगमः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४०५: प्रदर्शितव्यतिरेकविपरीतव्यतिरेकाणां वैधर्म्यदृष्टान्तत्वं नाभ्युपयन्ति, अव्यतिरेकिताया हेतुदोषत्वात् इतरयोर्वक्तृदोषत्वादिति, अत्र समाधिस्तु पूर्ववत् ॥ - अथोपनयाभासमाह पर्वतो वह्निमान् धूमात् यो धूमवान् स वह्निमान् यथा महानसं, वहिमांश्च पर्वतो धूमवन्महानसं वेत्युपसंहरणे उपनयाभासः।। पर्वत इति । साधर्म्यनिदर्शनमाह य इति, उपनयमाह-वहिमांश्चेति । साध्यमिणि हेतोरुपसंहरणं हि उपनयो भवति परं भ्रान्त्या साध्यस्य वह्नयादेस्साध्यधर्मिणि पर्वतादा. वुपसंहरणे उपनयाभास एव स्यादिति भावः, तथैव हेतोषूमादेरन्यत्र महानसादावुपसंहारेऽ पि स एवेति दर्शयति धूमवन्महानसमिति ॥ अथ निगमनाभासनिदर्शनमाह 10 तत्रैव तस्मादमवान् पर्वतो वह्निमन्महानसमिति निगमने निगमनाभास इति दिक् । इत्याभासनिरूपणं समाप्तश्चानुमानम् ॥ · तत्रैवेति । पर्वतो वह्निमान धूमादित्यत्रैवेत्यर्थः निगमनमाह, तस्मादिति, साध्यधर्मस्य साध्यधर्मिणि निगमनं कार्य तथाऽकृत्वा भ्रान्त्या साधनस्य धूमस्य साध्यधर्मिणि पर्वतादौ साध्यस्य वर्दृष्टान्तधर्मिणि महानसादौ च निगमने निगमनाभासो भवतीत्यर्थः । एवं 15 निरूपितानां प्रमाणानामाभासा निरूपिता इत्याहेतीति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालंकारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरच रणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण विजयलब्धिसूरिणा विरचितस्य तत्त्वन्यायविभाकर. स्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायामाभासनिरूपणो नाम पञ्चमः किरणः ॥ - षष्ठः किरणः ___ अथ क्रमायातमवसरसङ्गत्याऽऽगमं निरूपयति........... यथार्थप्रवक्तृवचनसम्भूतमर्थविज्ञानमागमः ॥ यथार्थेति । यथार्थप्रवक्ता वक्ष्यमाणस्वरूपस्तेन प्रणीतं वर्चनं तस्मात्सम्भूतमाविर्भूतं यदर्थविज्ञानं स आर्गम इत्यर्थः । अर्थविज्ञानं प्रत्यक्षादिरूपमपि अतो वचनसम्भूतमिति 20 .... १. प्रतिविशिष्टवर्णानुपूर्वीविन्यस्तवर्णपदवाक्यसंघातात्मकमित्यर्थः ।। २. यद्यपि वचनमात्रस्य नागमत्वं किन्तु आचाराङ्गादीनामष्टपूर्वाणाञ्च श्रुतत्वं नवमपूर्वादीनां श्रुतत्वेऽपि अतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेशस्तथापि लौकिकलोकोत्तरभेदाभिप्रायेण व्यापकं लक्षणमादर्शितम् ॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४०६: तस्वन्यायविभाकरे [षष्ठकिरके तादृशं च विप्रलम्भकवचनजन्यार्थविज्ञानमपीति यथार्थप्रवक्निति, परार्थानुमानस्यापि तादृशत्वेन तद्वारणाय वैलक्षण्यबोधकविपदघटितं विज्ञानपदमुपात्तम् ॥ ननु यदीदृशार्थविज्ञानमेवाऽऽगमस्तर्हि कथं सिद्धान्तविदामाप्तवचने आगमप्रत्यय इत्याशङ्कायामाह5 अर्थविज्ञानहेतुत्वादाप्तशब्दोऽप्यागम उपचारात्। यथा गोष्ठे गौरस्ति, धर्मसाध्यः परलोकोऽस्तीत्यादयः ॥ अथेति । उपचारादिति, कारणे कार्यस्योपचारादित्यर्थः, प्रतिपाद्यज्ञानस्य ह्याप्तवचनं कारणमिति भावः। तत्र शाब्दस्य लौकिकशास्त्रजभेदेन द्वैविध्याल्लौकिकस्य दृष्टान्तमाह यथेति, एतद्वाक्यं तज्जन्यशाब्दबोधश्चागम इति भावः, उपलक्षणश्चैतत् चतुर्दशविद्यास्थानानाम् 10 शास्त्रजं निदर्शयति, धर्मेति, ईदृग्वाक्यानि, तजन्यबोधश्चागम इति भावः । उपलक्षणश्चैतदपि द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वाणाम् , अथवाऽऽगमत्रिविधः आत्मागमोऽनन्तरागमः परम्परागमश्चेति, गुरूपदेशमन्तरेणाऽऽत्मन एवागमः आत्मागमः, यथा तीर्थकराणाम् , तीर्थकरादागतत्वाद्गणधराणामर्थागमोऽनन्तरागमः, सूत्रस्य त्वात्मागमस्स्वयमेव प्रथितत्वात् , जम्बूस्वामि प्रभृतीनान्तु सूत्रस्यागमोऽनन्तरागमोऽर्थस्य तु परम्पराममः । तत ऊवं प्रभवाणान्तु 15 परम्परागम एव ॥ नन्वर्थप्रतिपादकत्वं शब्दस्य न सम्भवति, तथाहि ये शब्दा अर्थे सति दृष्टास्त एवातीतानागतादौ तदभावेऽपि दृश्यन्ते, यदभावे च यदृश्यते न तत्तत्प्रतिबद्धम् यथाऽश्वाभावेऽपि दृश्यमानो गौर्न तत्प्रतिबद्धः, अर्थाभावेऽपि च दृश्यन्ते शब्दाः तन्नैतेऽर्थप्रतिपादकाः, किन्त्वन्यापोहंमात्राभिधायका इति चेन्नार्थवतश्शब्दात्तद्रहितस्य शब्दस्यान्यत्वात् , न चान्यस्य व्यभिचारेऽन्यस्यापि व्यभिचारो भवितुमर्हति, गोपालघ20 टिकादिधूमस्याग्निव्यभिचारोपलम्भेन पर्वतादिप्रदेशवर्तिनोऽपि वह्नयगमकत्वापत्तस्तथा च कार्यहेतवे जलाञ्जलिदत्ता स्यात् किश्च प्रतीतिविरोधोऽपि स्याच्छब्दस्यान्यापोहाभिधायकत्वे, गवादिशब्देभ्यो विधिरूपतयाऽर्थप्रतीतेः, अन्यनिषेधमात्राभिधायकत्वे च तेन सास्नादिमतोऽर्थस्य प्रतीत्यनापत्त्या ततस्तद्बोधो न स्यात् , न चैकस्य गोशब्दस्य बुद्धिद्वयजनकत्वान्न १. शब्दानां न परमार्थतः किञ्चिद्वाच्यं वस्तुस्वरूपमस्ति, शाब्दप्रत्ययानां सर्वेषां भ्रान्तत्वात् भिन्नेष्वेवाभेदाकाराध्यवसायेन प्रवृत्तः, यत्र तु पारम्पर्यण वस्तुप्रतिबन्धस्तत्रार्थसंवादो भ्रान्तत्वेऽपि तत्र यत्तदारोपितं विकल्पबुद्धयाऽर्थे भिन्नं रूपं तदनन्यव्यावृत्तपदार्थानुभवबलायातत्वात् स्वयञ्चान्यव्यावृत्ततया प्रतिभासनात् भाने स्वान्यव्यावृत्त्याऽर्थेन सहक्येनाध्यवसितत्वादन्यापोढपदार्थाधिगतिफलत्वाच्चापोह उच्यते, अतोऽपोहश्शब्दार्थ इति प्रसिद्धम् ॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथार्थक्का 1 म्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४०७: दोष इवि वाच्यम् , एकस्य शब्दस्य युगपद्धद्धिद्वयजनकत्वस्यादर्शनात् । किश्चापोहलक्षण. सामान्यस्य पर्युदासरूपत्वे सिद्धसाध्यता, अगोनिवृत्तिस्वरूपस्य गोशब्देनोच्यमानस्य सामान्यस्यास्माभिर्भावस्वरूपतया गोशब्दवाच्यत्वस्वीकारात् अभावस्य भावात्मकतया व्य. वस्थापितत्वात् । भवद्भिरभ्युपगतोऽश्वादिनिवृत्तिस्वभावो भावोऽपि न तावदसाधारणो गवादिस्वलक्षणात्मा, तस्य सकलविकल्पागोचरत्वात् नापि शाबलेयादिव्यक्तिविशेषः, 5 असामान्यत्वप्रसङ्गात् तस्मात्सर्वेषु शाबलेयादिपिण्डेषु यत्प्रत्येकं विश्रान्तं यन्निबन्धना च गोबुद्धिस्तच्च गोत्वाख्यं सामान्यमन्यापोहरूपं गोशब्दवाच्यम् , सामान्यविशेषवद्वस्तुन एव गवादिशब्दवाच्यत्वात् । प्रसज्यप्रतिषेधस्तु तुच्छाभावानभ्युपगमेन व्युदस्त इति ॥ कोऽसौ यथार्थवक्ता भवेद्यद्वचनसम्भूतार्थविज्ञानमागमतया प्रमाणं स्यादित्यत्राह प्रक्षीणदोषो यथावस्थितार्थपरिज्ञाता यथावस्थितार्थप्रख्यापको यथा- 10 र्थवक्ता, अयं द्विविधो लौकिकः पित्रादिर्लोकोत्तरस्तीर्थकरादिः ॥ . - प्रक्षीणदोष इति । यादृशार्थविज्ञानं यादृशशब्देन प्रतिपिपादयिषितं तादृशशब्दार्थोभयसम्बन्धिदोषशून्यत्वं तदर्थः, अत्र शब्ददोषोऽसाधुशब्दत्वादिकः अर्थदोषोऽयथावस्थितत्वादिक उभयदोषो वाच्यवाचकत्ववैधुर्यादिको विज्ञेयः । यद्यपि वस्तुतः प्रक्षीणदोषत्वं रागद्वेषशून्यत्वमेव तथापि लौकिकाप्तसंग्रहायांशिकाओं व्यावर्णितः । सर्वज्ञेऽप्ययमर्थस्स- 15 गच्छत एव, तस्यैवाखिलशब्दार्थोभयदोषशून्यत्वात् । यथावस्थितार्थपरिज्ञातेति, यथावस्थितत्वेनाभिधेयस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणतः परिज्ञातेत्यर्थः, विना ज्ञानमुपदेशासंभवज्ञापनायेदं विशेषणम् । यथावस्थितार्थप्रख्यापक इति यथावस्थितार्थस्य यथाज्ञानं तथोपदेशक इत्यर्थः। यो हि भ्रमादर्थमन्यथाभूतं यथावस्थितत्वेन जानीते यथाज्ञानमभिधत्ते च तस्य यथार्थव. क्तृत्ववारणाय प्रक्षीणदोष इत्युक्तम् । केवलमर्थस्य यथावस्थितत्वेन परिज्ञातुर्मूकादेराग-20 मेऽनुपयुक्तत्वान्न स यथार्थवक्तेत्यतो यथावस्थितार्थप्रख्यापक इत्युक्तम् । तथा च यो यस्यावश्वकस्स तस्याप्त इति वृद्धप्रणीतमृष्यार्यम्लेच्छसाधारणमाप्तलक्षणमनेनानूदितमिति विभा. वनीयम् । तादृशस्य पुरुषस्य तत्तदर्थबोधकतत्तद्वचनस्याविसंवादकत्वेन तावन्मात्रमाप्तत्वात् । तं विभजते अयमिति यथार्थवक्तेत्यर्थः, लोके सामान्यजने भवो लौकिकः, तस्योदाहरणमाह पित्रादिरिति, आदिना जनन्यादिपरिग्रहः । द्वितीय भेदमाह-लोकोत्तर इति, लोकादुत्तरः 25 । १. नहि क्षीणदोषवचनं व्यतिरिच्यान्यतः प्रेक्षावतां परलोकादावदष्टेऽर्थे प्रवृत्तिर्युक्ता अतस्तस्यैव वचनं परमं प्रमाणमिति भावः। Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे प्रधानं, मोक्षमार्गोपदेशकत्वादिति लोकोत्तरः, स क इत्यत्राह तीर्थकरादिरिति, आदिना गणधरादीनां ग्रहणम् । तीर्थ प्रवचनं तत्करणशीलोऽचिन्त्यमाहात्म्यमहापुण्यापराभिधानतीर्थकरनामकर्मविपाकादिति तीर्थकरः, श्रीवर्धमानजिनप्रमुखपुरुषविशेष इत्यर्थः ।। ननु यथार्थवक्तवचनरूप आप्तशब्द उपचरितागमतया प्रोक्तः तत्र कोऽसौ वचनात्मक5 इशब्द इत्यत आह- शब्दश्च सङ्केतसापेक्षः स्वाभाविकार्थबोधजनकशक्तिमांश्च ॥ शब्दश्चेति । सङ्केत इदं पदमस्य वाचकमिदश्चास्य पदस्य वाच्यमित्येवंरूपो वाच्यवाचकयोर्विनियोगः, तत्सापेक्ष इत्यर्थः, सङ्केतस्स्वार्थावबोधे शब्दस्यापेक्षाकारणं बोध्यम् । सङ्केतमात्रेण शब्दोऽथं प्रतिपादयतीति मतव्युदासायाह स्वाभाविकेति, स्वाभाविकी सहजाऽ10 र्थप्रतिपादनशक्तिर्योग्यताभिधाना तद्वानित्यर्थः । सङ्केतमात्रस्य पुरुषाधीनतया न तदिच्छया वस्तुनियमो युक्तः, तदिच्छाया अव्याहतचारित्वेन कदाचिदर्थोऽपि वाचकश्शब्दोऽपि वाच्यः स्यात्, न च शब्दधर्मा ये गत्वौत्वादयस्तद्वानेव वाचको भवति परस्तु वाच्यो यथा द्रव्यत्वाविशेषेऽप्यग्नित्वादिविशिष्ट एव दाहादिजनको नान्य इति किं स्वाभा विकयोग्यतयेति वाच्यम् , अतीन्द्रियशक्तिमन्तरेणाग्नित्वादीनामपि कार्यकारणभावानि15 यामकत्वात् । न च तत एव शब्दादर्थप्रतीतौ कि सङ्केतेनेति वाच्यम् , अङ्कुरोत्पत्तौ शक्ति मतोऽपि बीजस्य क्षितिजलादीनामिव तस्य सहकारिकारणत्वात् । न चैवं देशभेदेन शब्दानामर्थभेदो न स्यादेकत्रैव शब्दानां स्वाभाविकशक्तियुक्तत्वादिति वाच्यम् , अत एव सर्वशब्दानां सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वाङ्गीकारेणादोषात् । न च घटशब्दश्रवणानिखिलार्थबोधः स्यादिति वाच्यम् , क्षयोपशमसापेक्षत्वाद्बोधस्य, स च संकेताद्यपेक्ष इत्यदोषात्, 20 एतेन शब्दार्थयोस्सम्बन्धो न सम्भवति, स हि तादात्म्यो वा स्यात्तदुत्पत्तिरूपो वा स्यात् तत्र नाद्यस्सम्भवति शब्दार्थयोभिन्नदेशत्वात् । अग्निगुडादिशब्दोच्चारणे वदने दाहम. धुराद्युपलब्धिप्रसङ्गाच्च । नापरोऽपि अङ्गुल्यग्रे करियूथशतमित्यादिशब्दानामर्थाभावेऽपि स्थानकरणप्रयत्नानन्तरमुत्पत्तिदर्शनात् । तथा च शब्दाः कथं बाह्यार्थे प्रतीतिं जनयितुं समर्था अर्थसंस्पर्शित्वाभावात् । किन्तु विकल्पमात्रप्रभवाः तिरस्कृतबाह्यार्थाः स्वमहिम्ना 25 प्रत्ययान् जनयन्ति यथा करशाखादिवाक्यानि । किञ्च शब्दो न सामान्यवाचकः तस्यार्थक्रियाकारित्वाभावेन गगन कुसुमायमानत्वात् , नवा विशेषस्य वाचकः स्वलक्षणलक्षणस्य तस्य विकल्पज्ञानाविषयत्वेन संकेतगोचरत्वासम्भवात् , तथात्वेऽपि वा तस्य व्यवहारकालाननुयायित्वेन संकेतवैयर्थ्यात् । अत एव न सामान्यविशेषयोस्तादात्म्यानापन्नयोः । नापि Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा ] भ्यायप्रकाशसमलङ्कृते वादात्म्यापन्नयोस्त योर्वाच्यवाचकत्वं युक्तं विरुद्धधर्माध्यासेन तयोस्तादात्म्यस्यैवासम्भवात् तस्मान्न किञ्चिद्वाच्यं वाचकं वा विद्यत इति मतमपास्तम् । शब्दार्थयोर्योग्यताभिधानसम्बन्धस्य सद्भावात् , अङ्गुल्यो करिणां शतमित्यादावर्थाभावेऽपि नयनरूपयोरिव योग्यतोपलम्भात् , नहि कलशरूपेण समं चक्षुषस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिा समस्ति । न च योग्यतायास्सम्बन्धत्वे शब्दस्येवार्थस्यापि वाचकत्वं स्यादिति वाच्यं ज्ञानज्ञेययोर्जाप्यज्ञापकशक्तिवत्पदार्थानां प्रति- 5 नियतशक्तिकत्वात् , सामान्यविशेषवद्वस्तुबोधकत्वाञ्च न शब्दस्य वाचकत्वासम्भवोऽपि, सामान्यविशेषवतोऽर्थस्य संकेतव्यवहारकालानुगामित्वेन प्रतीयमानतया न विशेषवाचकत्वपक्षोपात्तदोषोऽपि । सामान्य विशेषात्मनि स्वलक्षणे संकेतकरणात् । न चानन्त्याव्यक्तीनां परस्पराननुगमाच संकेतकरणानुपपत्तिरिति वाच्यम् , समानपरिणत्यपेक्षया क्षयोपशम. विशेषाविर्भूततर्काख्यप्रमाणे व्यक्तीनां प्रतिभासमानतया सङ्केतविषयत्वसम्भवादिति संक्षेपः॥ 10 ननु प्रदीपः प्रकाशमानो यथाऽन्यानपेक्ष एवं स्वसन्निहितं शुभमशुभं वा भावं प्रकाशयति तस्मात्तस्यार्थप्रकाशकत्वं स्वाभाविकं तथा प्रयुज्यमानश्शब्दोऽपि श्रुतिगतस्सत्ये वाऽसत्ये वा संगते वाऽसङ्गते वा सफले वा निष्फले वा सिद्धे वा साध्ये वा वस्तुनि प्रतीतिमुत्पादयत्यतोऽस्यार्थबोधजननसामर्थ्य स्वाभाविकमुच्यते, परन्त्वयं संकेतसापेक्षः पदार्थप्रतीतिजनकः इति प्रदीपतोऽस्य विशेषः, एवञ्चार्थबोधसामर्थ्यमेवाऽस्य स्वाभाविकं 15 न तु स्वनिष्ठयाथार्थ्यांयाथार्थे अपि स्वाभाविके इत्याशयेनाह वक्तृगुणदोषाभ्याश्चास्य याथार्थ्यायाथायें ॥ वक्तगुणदोषाभ्याश्चेति । चस्त्वर्थे, तथा चास्य याथार्थ्यायाथार्थे न स्वभावप्रयुक्त किन्तु पुरुषगुणदोषप्रयुक्ते इति भावः । पुरुषस्य गुणाः करुणादयः, दोषाश्च द्वेषादयः, यदि ते स्वाभाविके स्यातां तर्हि प्रतारकतद्भिन्नप्रयुक्तवाक्येष्वर्थव्यभिचाराव्यभिचारनियमो न 20 स्यात् तथा च सम्यग्दर्शिनि पुरुषे शुचौ वक्तरि यथार्था शाब्दी प्रतीतिरन्यथा तु मिथ्यार्थेति भावः ॥ अथ तं विभजते• सोऽयं शब्दो वर्णपदवाक्यरूपेण त्रिविधः। भाषावर्गणात्मकपर.. माण्वारब्धो मूर्तिमानकारादिवर्णः । घटादिसमुदायघटकवर्णानामपि 25 प्रत्येकमर्थवत्वमेव । तद्व्यत्ययेऽर्थान्तरगमनात् ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४१०: तत्त्वम्यायविभाकरे [षष्ठकिरणे - सोऽयमिति । व्यावर्णितस्वरूपो वचनात्मकोऽयमित्यर्थः । तत्र वर्ण लक्षयति भाषावर्गणेति, अष्टविधासु वर्गणासु भाषायोग्या या वर्गणा तदात्मकपरमाणुभिरारब्धो यो मूर्तिमानकारादिस्स वर्ण इत्यर्थः । परमाण्वारब्ध इति पदेन वर्णस्य पौलिकत्वमादर्शितम् , तत्र मूर्तिमत्त्वं हेतुगर्भविशेषणम् , तथा च यो मूर्तिमान्स पौद्गलिकः 5 यथा घटादयः, मूर्तिमांश्च वर्णस्ततः पौगलिक इति भावः । न च स्पर्शशून्या श्रयत्वादतिनिबिडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातात् पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धेः सूक्ष्ममूर्तद्रव्यान्तराप्रेरकत्वाद्गगनगुणत्वाच्च न वर्णः पौद्गलिक इति वाच्यं सर्वेषां हेत्वाभासत्वात् , तत्र न प्रथमः, शब्दपर्यायस्याश्रयो हि भाषावर्गणा तत्र च स्पर्शो निर्णीयत एव, अनुवातप्रतिवातयोर्विप्रकृष्टनिकटशरीरिणोपलभ्यमानानुपलभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात् तथा10 विधगन्धाधारद्रव्यपरमाणुवत् , न द्वितीयो गन्धद्रव्येण व्यभिचारात्, वर्तमानजात्यकस्तूरि कादिगन्धद्रव्यं हि पिहितद्वारापवरकस्यान्तर्विशति बहिश्च निर्याति । न तृतीयः तडिल्लतोल्कादिभिरनैकान्तिकत्वात् । चतुर्थोऽपि गन्धद्रव्यविशेषसूक्ष्मरजोधूमादिभिर्व्यभिचारी, नासायां निविशमानस्य गन्धद्रव्यादेस्तद्विवरद्वारदेशोद्भिन्न मथुप्रेरकत्वादर्शनात् । नापि पञ्चमः, नाका शगुणश्शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्रूपादिवदित्यनुमानेनासिद्धेस्तस्मात्स पौद्गलिक एवेति भावः । 15 ननु स्वार्थप्रत्यायनशक्तिमानेव शब्दोऽत्र विवक्षितो न ताइक शब्दत्वं वर्णे निरर्थकत्वा दित्याशङ्कायामाह घटादीति, तथा च घटादिसमुदायघटका वर्णाः प्रत्येकमर्थवन्तः तद्व्यत्ययेऽर्थान्तरगमनात् तस्य व्यत्यये हि राक्षसाः साक्षरा इत्यादावर्थान्तरगमनं दृश्यते तस्मादवश्यं वर्णा अर्थवन्तः, उपलक्षणोऽयं हेतुस्तेन वर्णत्वाद्धातुप्रत्ययनिपातवत् वर्णविशे पानुपलब्धौ पूर्वदृष्टार्थासम्प्रत्ययात् यथा प्रतिष्ठत इत्यत्र प्रशब्दानुपलब्धौ प्रस्थानरूपस्यार्थ20 स्यासम्प्रत्ययादित्यादयो हेतवोऽत्र सङ्ग्रह्यन्ते । अथ पदलक्षणमाहस्वार्थप्रत्यायने शक्तिमान पदान्तरघटितवर्णापेक्षणरहितः परस्परसहकारिवर्णसंघातः पदम् ॥ स्वार्थेति । स्वार्थबोधजनकशक्तिमानित्यर्थः, पदान्तरेति पदान्तर्वर्तिवर्णान्तरजनितोप25 कारपराङ्मुख इत्यर्थः, परस्परेति, अर्थबोधजनने परस्परसहकारिभावेन वर्तमानानां वर्णानां यस्संघात आनुपूर्वीत्यर्थः । ननु हOदिवाचकैकाक्षराकारादीनां कथं पदत्वं परस्परसहकारिवर्णसंघातरूपत्वाभावात् , न च प्रथमाद्वितीयादिविभक्तिसहितत्वेनादोष इति वाच्यम् सम्बोधने क्वचिद्विभक्तेर श्रूयमाणत्वेन तत्राव्याप्तेरिति चेन्न, अश्रुताया अपि विभक्तेर्बुद्धया Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्यम् । ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते :४११: रूढत्वेन वर्णसंघातत्वसम्भवात् अन्यथा सम्बोधनत्वज्ञानाभावप्रसङ्गः स्यात् । तादृशस्थले पदान्तरवर्तिवर्णान्तरापेक्षणरहितत्वविशिष्टशक्तिमद्वर्णत्वस्यैव वा पदत्वात् ॥ अथ वाक्यलक्षणमाचष्टे स्वार्थप्रत्यायने शक्तिमान् वाक्यान्तरघटितपदापेक्षणरहितः परस्परसहकारिपदसमूहो वाक्यम् ॥ स्वार्थप्रत्यायन इति । स्वघटकानां परस्परसहकारितया व्यवस्थितानां पदानां स्वाघटकपदापेक्षारहितानां समुदायस्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तो वाक्यमित्यर्थः, न च यत्सत्तत्सर्वं परिणामि यथा घटः संश्च शब्द इति साधनवाक्यं कथं भवेत् ? तस्मात्परिणामीत्याद्याकांक्षणादिति वाच्यम् , तादृशाकांक्षानुदयो यस्य तदपेक्षयैव तस्य वाक्यत्वात् नान्यापेक्षया, निरा. कांक्षतायाः प्रतिपत्तृधर्मत्वेन वाक्ये उपचारात्, तस्याचेतनत्वात् । स चेत् प्रतिपत्ता साध- 10 नवाक्यज्ञानेऽपि निगमनमपेक्षते तर्हि तदपेक्षत एवेति न तं प्रति तावन्मात्रस्य वाक्यत्वं, तावता वाक्यार्थप्रतिपत्तावपि परापेक्षायां पश्चावयववाक्यादप्यर्थप्रतिपत्तौ परापेक्षाप्रसङ्गेन न क्वचिन्निराकांक्षत्वसिद्धिप्रसङ्गस्स्यादिति । दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनमित्यादि पदसंघातस्य परस्परनिरपेक्षस्य पदसंघातत्वेऽपि न वाक्यत्वं परस्परसापेक्ष- . पदसमूहत्वाभावात् । तथा च परस्परसापेक्षाणां पदानां निरपेक्षस्समुदायो वाक्यमिति 15 निष्कर्षः । निरपेक्षपदश्च चैत्रः स्थाल्यां पचतीति कर्मपदरहितेऽतिव्याप्तिवारणाय । ननु ' स्फटिकाकृतिनिर्मलः प्रकाममि' त्यादौ वाक्य आकृतिपदघटितत्वेनाधिकेऽतिव्याप्तिवारणार्थं विशेषणान्तरनिवेशप्रसंगः, न च तत्तदोषाभाव कूटविशिष्टपदसमुदायत्वं वाक्यत्वमुच्यते न्यूनत्वाधिकत्वादिकं च दोष एवेति न तत्रातिव्याप्तिरिति वाच्यमननुगमादिति चेन्नाऽऽकांक्षायोग्यतासत्तिमत्पदसमूहस्यैव वाक्यत्वात् तत्राकांक्षा अभिधाना- 20 पर्यवसानं, अभिधानं पदं तस्यापर्यवसानमन्वयाननुभावकत्वम् , तथा च यस्यपदस्य समभिव्याहृतयत्पदव्यतिरेकप्रयुक्तं यादृशान्वयाननुभावकत्वं तादृशान्वयाननुभवे समभिव्याहृततत्पदस्य तेन तादृशान्वयाननुभावकत्वं तयोराकांक्षा, अस्ति च द्वितीयादिपदस्य घटादिविशिष्टकर्मत्वाद्यन्वयाननुभावकत्वं घटादिपदव्यतिरेकप्रयुक्तं न तु कर्मत्वादिपदस्य, घटादिपदसत्त्वेऽपि स्वत एव तस्याननुभावकत्वादिति घटमित्यादावाकांक्षा, न तु घट: 25 कर्मत्वमित्यादाविति, योग्यता चैकपदार्थेऽपरपदार्थसंसर्गवत्त्वम् , न चैकविध्यर्थयोः कृतीष्टसाधनत्वयोः परस्परमन्वयो न स्यादुक्तयोग्यताविरहादिति वाच्यम् , एकवृत्तिविषयेऽपरवृत्तिविषयसंसर्गवत्त्वस्यैव तदर्थत्वात् । आसत्तिस्तु एकपदार्थोपस्थित्यव्यवधानेनापर Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४१२ : तरवन्यायविभाकरे [ षष्टकिरणे पदार्थोपस्थितिः, अव्यवधानं व्यवधानाभावः तेन युगपन्नानापदार्थोपस्थितावपि न क्षतिः, तच्चार्थसिद्धं, तत्तत्पदार्थशाब्दबुद्धौ तत्तत्पदार्थोपस्थितेर्हेतुतया विनाऽव्यवहितो - स्थिति शाब्दबोधासम्भवात् । ननु वर्णानां समुदायः पदं तत्समुझयो वाक्य - मित्युक्तं, तत्र व्यस्तानामर्थ प्रतिपादकत्वे वर्णेनैकेनैव गवाद्यर्थप्रतिपत्तौ द्वितीयादिवर्णोच्चारणा5 नर्थक्यापत्तिः, तत्समुदायोऽपि च न सम्भवति, कमोत्पन्नानामनन्तरविनष्टत्वेन समुदायासम्भवात्, न च युगपदुत्पन्नानां तेषां तत्सम्भावना युक्ता, एकपुरुषापेक्षया युगपदुत्पादासम्भवात् प्रतिनियतस्थानकरणप्रयत्नप्रभवत्वात्तेषाम् । भिन्नभिन्नपुरुषप्रयुक्तगकारौकारविसर्जनीयानां नहि समुदायार्थप्रतिपादकत्वं दृष्टम् । न चान्त्यो वर्णः पूर्व पूर्व वर्णानुगृहीतोऽर्थप्रत्यायक इति साम्प्रतम्, पूर्ववर्णानामन्त्यवर्णं प्रत्यनुग्राहकत्वायोगात् । अनुप्रा10 हकत्वं हि न जनकत्वं वर्णाद्वर्णोत्पत्तेरभावात् नियतस्थानादिसम्पाद्यत्वाद्वर्णानाम् । नाप्यर्थज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वं, अविद्यमानानां सहकारित्वानुपपत्तेः, नवा पूर्ववर्णानुभव जास्संस्कारास्तत्सहायतां प्रतिपद्यन्ते, संस्काराणां स्वोत्पादकविषयस्मृतिहेतुत्वादिति चेन्न परिमितसंख्यानां पुद्गलद्रव्योपादानापरित्यागेनैव परिणतानामश्रावणस्त्रभाव परित्यागव्याप्त श्रावणस्वभावानां विशिष्टानुक्रमयुक्तानां वर्णानां वाचकत्वाच्छन्दत्वाभ्युपगमात् । सोऽपि क्रमो 15 वर्णेभ्यो नार्थान्तरमेव वर्णानुविद्धस्य प्रतीते:, नापि वर्णा - एव क्रमः, तद्विशिष्टतया तेषां प्रतीतेः न च तद्विशेषणत्वेन प्रतीयमानस्य क्रमस्यापह्नवो युक्तः, वर्णेष्वपि तत्प्रसक्तेः | ततो भिन्नाभिन्नानुपूर्वी विशिष्टा वर्णा विशिष्टपरिणामवन्तः शब्दाः, ते च पदवाक्यादिरूपतया व्यवस्थिता इति ॥ सोऽयं शब्दो द्विविधः प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति यतः कार्त्स्न्येन तत्त्वार्थाधिगमः 20 स प्रमाणरूप:, यथाऽन्तर्बहिर्वा भावराशिः स्वरूपमाबिभर्ति तथैव तं प्रकाशयितुं सप्तभङ्गीसमनुगत एवं शब्दस्समर्थो भवतीति स एव प्रमाणरूप:, तथैव परिपूर्णार्थप्रापकत्वलक्षणताविकप्रामण्यनिर्वाहात् । देशतस्तत्त्वार्थाधिगमकस्तु नयात्मकः परिपूर्णवस्त्वेकदेशप्रापकत्वात्, एतत्स्वरूपमग्रे वक्ष्यते । तत्र सप्तभङ्गीस्वरूपमादौ दर्शयति अनेकान्तात्मके पदार्थे विधिनिषेधाभ्यां प्रवर्त्तमानोऽयं शब्दस्सप्त25 भङ्गीं यदानुगच्छति तदैवास्य पूर्णार्थप्रकाशकत्वात्प्रामाण्यम् । घटोs - स्तीत्यादिलौकिकवाक्यानामर्थप्रापकत्वमात्रेण लोकापेक्षया प्रामाण्येऽपि न वास्तविकं प्रामाण्यं, पूर्णार्थाप्रकाशकत्वात् सप्तभङ्गी समनुगमाभावाच्च ॥ अनेकान्तात्मक इति । सदसन्नित्यानित्यादिसकलैकान्तपक्ष विलक्षणजात्यन्तरसदसत्त्व Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रका सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते नित्यानित्यत्वादिनानाधर्मकरम्बित इत्यर्थः । सप्तभङ्गीमिति, सप्तानां भङ्गानां समाहारस्ता. मिति विग्रहः । ननु घटोऽस्तीत्यादिवाक्यानां सप्तभङ्गीसंस्पर्शशून्यत्वेऽपि अर्थप्रापकत्वेन प्रमाणत्वात्कथं सप्तभङ्गीसमनुगतानामेव प्रामाण्यमित्याशङ्कायामाह घटोऽस्तीति, अर्थप्रापकत्वमात्रेणेति किश्चिदर्थप्रापकत्वेनेत्यर्थः मात्रपदेन परिपूर्णार्थप्रकाशकत्वाभावः सूच्यते । लोकापेक्षया प्रामाण्येऽपीति, तद्वति तत्प्रकारकत्वरूपलौकिकप्रामाण्यवत्वेऽपीत्यर्थः, वास्तविक- 5 प्रामाण्याभावे हेतुमाह पूर्णार्थेति । अत्र हेतुमाह सप्तेति ।। का नाम सप्तभङ्गीत्यत्राह- - तत्र प्रश्नानुगुणमेकर्मिविशेष्यकाविरुद्धविधिनिषेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वं सप्तभङ्गीत्वम् । तत्रेति । प्रच्छकप्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वे सत्येकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धविधिप्रतिषेधात्मकधर्म: 10 प्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वं लक्षणार्थः । वक्ष्यमाणवाक्यसप्तके लक्षणमिदमव्याहतम् । वक्ता हि प्रच्छकप्रश्नज्ञानेन विवक्षति ततश्च वाक्यं प्रयुनक्ति, अतस्सप्तवाक्यसमुदायस्य साक्षात्प्रश्नज्ञानप्रयोज्यत्वाभावेऽपि परम्परया तत्सत्त्वान्न क्षतिः । एकस्मिन् वस्तुनि घटादौ द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया सत्त्वस्यासत्त्वस्य, कथञ्चित्सदसत्त्वस्य, कथञ्चिदवक्तव्यत्वस्य कथश्चित्सत्त्वावक्तव्यत्वयोः, कथञ्चिदसत्त्वावक्तव्यत्वयोः, कथञ्चित्सत्त्वासत्त्वावक्तव्यत्वानां 15 च सत्त्वेन तादृशवाक्यसप्तकाद्बटादिरूपैकवस्तुविशेष्यकाविरुद्धसत्त्वादिप्रकारकबोधस्योदयेन लक्षणसमन्वयः। घटोऽस्ति पटो नास्तीत्यादिनानावस्तुनि सत्त्वासत्त्वादिबोधकवाक्येऽतिप्रसङ्गवारणायकर्मिविशेष्यकेति । एकस्मिन्नेव धर्मिणि प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिनिषेधबोधकवाक्यसप्तके व्यभिचारवारणायाविरुद्धेति । विरोधस्फूर्ती वाक्यस्याबोधकत्वे तदनुपादेयमेव । घटस्स्यादस्तीत्यादिद्वित्रादिवाक्यसमुदाये व्यभिचारवारणाय सप्तेति । विवक्ष्यमाणसप्तवाक्यघटि. 20 तोदासीनवाक्ययुतसमुदाये व्यभिचारवारणाय सप्तवाक्यपर्याप्तेति । सत्यन्तन्तु नाव्याप्त्यादिवारकमपि तु प्रष्टप्रश्नानां सप्तविधातिरिक्तत्वाभावेन वाक्यानामुत्तररूपाणामपि सप्तविधत्वमेवेति सूचनायोपात्तम् । एकस्मिन् धर्मिणि रूपरसादिधर्मसप्तकबोधकेऽतिप्रसङ्गवारणाय सत्त्वासत्त्वादिबोधक विधिनिषेधात्मकधर्मपदम् । नयसप्तभङ्गया अपि लक्ष्यत्वे न तत्रातिव्याप्तिः, यदि तु प्रमाणनयसप्तभङ्गयोः पृथक्पृथगेव लक्ष्यत्वं तर्हि सकलादेशत्व- 25 मप्यत्र विवक्षणीयम्॥ तानि कानि वाक्यानीत्यत्राह Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४१४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे वाक्यानि च स्यादस्त्येव घटः, स्यान्नास्त्येव घटः, स्यादस्ति नास्ति च घटः स्यादवक्तव्य एव स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्चेति ॥ वाक्यानि चेति । घटे सत्त्वासत्त्वादिरूपधर्मापेक्षया सप्तविधानीमानि वाक्यानि 1 5 विज्ञेयानि, सामान्यविशेषाभ्यामपि तथैव भवन्ति, सामान्यस्य विधिरूपत्वात् व्यावृत्तिरूपतया विशेषस्य निषेधात्मकत्वात् । एवं प्रतिपर्यायापेक्षया सप्तविधत्वं वाक्यानां भाव्यम् । स्यादस्त्येवेति, स्यादिति पदमनेकान्तद्योतकं कथञ्चित्पर्याय मव्ययम् । पदमात्रस्यैव वाक्यार्थे द्योतकत्वं वाक्यस्यैव वाचकत्वमिति सिद्धान्तात् । न च वाक्यस्यैव वाचकत्वे तत्र पदशक्तिग्रहस्यानुपयोगित्वं स्यादिति वाच्यम् । वाक्यशक्तिग्रह एव तस्योपयोगात्तथैवान्वयव्यतिरे10 कतः । अस्तिशब्दोऽत्रास्तित्वधर्मस्य मुख्यतया प्रतिपादकः, एवशब्दोऽवधारकः, घटस्य स्वरूपादिभिरस्तित्वमिव तैरेव नास्तित्वमपि स्यादित्यनिष्टार्थनिवृत्त्यर्थं तद्ब्रहणस्यावश्यकत्वादत एव घटस्सन्नेवेत्यतः निखिलधर्मावच्छिन्न सत्त्वप्रतीतौ तदपवादाय नियतावच्छेदकस्फोरणार्थं स्यात्पदम् । यदि तु व्युत्पन्नस्य घटस्सन्निति निरवधारणप्रयोगेऽपि स्वद्रव्यादिचतुष्टयावच्छिन्नस्वरूपसत्त्वप्रकारकबोधो भवतीत्युच्यते तदा तदपेक्षयाऽप्रयोगोऽपीत्यत्राप्यनेकान्त 15 एव । न चानेकान्तस्य वाचकेन द्योतकेन वा स्याच्छब्देनं सत्त्वासत्त्वाद्यनेकधर्मवद्वस्तुनः प्रतिपादनात्सदादिवचनमनर्थकमिति वाच्यम् । एकान्तबुद्धिविलक्षणबुद्धिविशेषविषयतावच्छेदकत्वेन स्यात्पदस्य सत्त्वासत्त्वादिधर्मसप्तकघटित सप्तभङ्गीबोधकत्वेऽपि प्रातिस्विकरूपेणतत्तद्धर्मबोधनार्थं तत्प्रयोगस्यावश्यकत्वादिति । धर्मान्तराप्रतिषेधकं प्राधान्येन विधिबोधकं वाक्यमिदं तेन प्रतिषेधकल्पनैव सत्यमिति निरस्तमभावैकान्तस्य प्रतिषेधादिति भावः । 20 विधिकल्पनाया एव सत्यत्वात्तयैकमेव वाक्यं स्यादित्याशंकायामाह स्यान्नास्त्येव घट इति । विध्येकान्तस्य निराकरणेन प्रतिषेधकल्पनाया अपि सत्यत्वान्नैकमेव वाक्यमिति भावः । धर्मान्तराप्रतिषेधकं प्राधान्येन प्रतिषेधविषयकत्रोधजनकं वाक्यमिदम् । ननु सदर्थप्रतिपादनाय विधिवाक्यमसदर्थप्रतिपादनाय च निषेधवाक्यमिति वाक्यद्वयमेवास्तु, प्रमेयान्तरस्य शब्दविषयस्यासम्भवादिति शंकानिरासायाह स्यादस्ति नास्ति च घट इति । तथा 25 च प्रधानभावेनार्पितस्य सदसदात्मनो वस्तुनः प्रधानभूतैकैकधर्मात्मकादर्थादर्थान्तरत्वसिद्धेः सत्ववचनेनैवासत्त्ववचनेनैव वा क्रमार्पितयोः प्रधानीभूतसदसत्त्वयोः प्रतिपादयितुमश १. ननु सामान्यविशेषघटित सप्तभङ्गीवाक्यस्य घटः स्यात्सामान्यं स्याद्विशेष इत्यादिरूपस्यैकधर्मिण्यविरुद्ध विधिनिषेधात्मक बोधजनकत्वाभावेन लक्षणस्याव्याप्तिप्रसङ्गे त्वाह- सामान्यस्येति । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकार सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४१५: क्यत्वेनावश्यकत्वं तद्वोधकतया तृतीयवाक्यस्येति भावः । प्राधान्येन क्रमार्पितविधिनिषेधबोधकमिदम् । नन्वस्तु तर्हि वाक्यत्रयमेव प्रोक्तधर्मत्रयातिरिक्तस्य कस्याप्यभावादित्यत्राह स्यादवक्तव्य एवेति । क्रमेणार्पितयोस्तयोर्यथा वक्तव्यता तथा सहार्पितयोः कथं वक्तव्यत्वमिति स्वाभाविके पर्यनुयोगे विलसिते तथा सर्वथा वक्तमशक्तेरवक्तव्यत्वरूपधर्मान्तरप्रतिपादकस्य वाक्यस्यास्त्यावश्यकतेति भावः । तथा चावक्तव्यत्वबोधकमिदं वाक्यम् । तथापि वाक्यच- 5 तुष्टयमेव स्यादित्यत्राह स्यादस्ति चावक्तव्यश्चेति । तथा च सदवक्तव्यत्वधर्मान्तरस्यापि सम्भवेनेदमपि वाक्यं नियतमेवेति भावः, सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वबोधकवाक्यमिदम् । एवमसदवक्तव्यत्वस्यापि धर्मान्तरस्य सिद्ध्या तत्प्रतिपादकं वाक्यमप्याह स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्चेति, नास्तित्वविशिष्टावक्तव्यत्वबोधकवाक्यमिदम् । एवं सदसदवक्तव्यत्वधर्मस्यापि प्रतीयमानत्वेन तद्बोधकं वाक्यमाह स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्चेतीति । सत्चासत्त्वविशिष्टावक्तव्य- 10 त्वबोधकवाक्यमिदम् । इतिशब्दो वाक्यान्तराभावसूचकस्तादृशविलक्षणधर्मान्तराभावात् । न चावक्तव्यत्वस्य धर्मान्तरत्ववत् वक्तव्यत्वस्यापि धर्मान्तरत्व सम्भवेन तद्वोधकस्याष्टमवाक्यस्य सत्त्वात्कथं सप्तैव वाक्यानीति वाच्यम् । सत्त्वादिभिरभिधीयमानस्य वक्तव्यत्वस्य प्रसिद्धः।। नन्वेकत्र धर्मिणि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्मसद्भावेनानन्तभङ्गी स्यात् , मैवम , अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामिष्टत्वात्सत्त्वासत्त्वादिधर्मकल्पनयेव नित्यत्वानित्यत्वादिकल्प- 15 नयापि सप्तानामेव भङ्गानामवतारात् तावतामेव प्रतिपाद्यप्रश्नानां सम्भवात् प्रश्नवशादेव सप्तभङ्गीति नियमादित्याशयेनाह सप्तविधप्रष्टप्रश्नवशात्सप्तवाक्यप्रवृत्तिः, प्रश्नानां सप्तविधत्वं तजिज्ञासायास्सप्तधात्वात्, सप्तधात्वं जिज्ञासायाः सप्तधा संशयोदयात्, संशयानां सप्तधात्वन्तु तद्विषयधमोणां सप्तधात्वाद्विज्ञेयम् ॥ सप्तविधेति । यावन्तः प्रश्नास्तदुत्तरत्वेन तावतामेव वाक्यानां प्रवृत्तिरिति भावः । कुतः प्रश्नस्सप्तविध एवेत्यत्राह प्रश्नानामिति जिज्ञासानुगुणमेव प्रश्नप्रवृत्तरिति भावः, जिज्ञासायास्सतविधत्वं कुत इत्यत्राह सप्तधात्वमिति, संशयानन्तरं हि तद्विधूननाय जिज्ञासा समुदेति संशयानाञ्च सप्तविधत्वे जिज्ञासापि तावत्येवेति भावः । सोऽपि सप्तप्रकार एवेत्यत्रं किं नियामकमिति प्रश्ने त्वाह संशयानामिति, विषयनिबन्धनो हि संशयः, विषयस्य सप्तत्वे कथं संशया 25 अधिका भवेयुः, तथा च विषयाणां सप्तधात्वेन प्रमाणसिद्धत्वात्तावन्त एव संशया इति भावः॥ धर्माः क इत्यत्राहते च धर्माः कथश्चित्सत्व, कथश्चिदसत्त्वं, क्रमार्पितोभयम् , कथश्चि 20 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४१६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे. दवक्तव्यत्वं, कथञ्चित्सत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वं, कथश्चिदसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वं, क्रमार्पितोभयविशिष्टावक्तव्यत्वञ्च । ते चेति । संशयविषयीभूताश्चेत्यर्थः । कथञ्चित् सत्त्वमिति, वस्तुधर्मोऽयं, तदनभ्युपगमे बस्तुनो वस्तुत्वमेव न स्यात् खरविषाणादिवत् , स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया सर्व वस्तु 5. सदेव; परद्रव्यादेरिव स्वद्रव्यादेरपि वस्तुनोऽसत्त्वे शून्यताप्रसङ्गः स्यात् , सर्व सदेवेत्यपि न, सर्वपदार्थानां परस्परमसांकर्यप्रतिपत्तेरसत्त्वस्यापि सिद्धेः, अत एव कथश्चिदसत्त्वमपि वस्तुधर्म इत्याह कथञ्चिदसत्त्वमिति, स्वरूपादिव पररूपादपि वस्तुनस्सत्वे प्रतिनियतस्त्ररूपाभावाद् वस्तुप्रतिनियमविरोधो दुर्वार इति भावः । क्रमार्पितोभयमिति, क्रमार्पितसदसदु भयत्वमित्यर्थः, तदभावे हि क्रमेण सदसत्त्वविकल्पशब्दव्यवहारस्य विरोधः स्यादिति भावः। 10 न चायं व्यवहारो निर्विषयः क्रमार्पितोभयज्ञानतव्यवहारतत्प्राप्तीनामविसंवादात् तथाविध रूपादिव्यवहारवत् , तस्यापि निर्विषयत्वे सकलप्रत्यक्षादिव्यवहारोच्छेदान्न कस्यचिदिष्टतत्त्व. व्यवस्था स्यात् , एवमग्रेऽपि भाव्यम् । ननु स्यादस्ति नास्ति च घट इति वाक्यादस्तिनास्ति पदाभ्यां सदसत्त्वयोश्चकारेणोभयस्य चोपस्थित्या सदसदुभयत्वं तादृशव्यवहारस्य विषयः, तच्च केवलसत्त्वासत्त्वाभ्यां भिन्नं भवतु उभयत्वस्यैकविशिष्टापरत्वरूपत्वाभावात् अविशिष्ट. 15 योरपि गोत्वाश्वत्वयोरुभयत्वप्रत्ययात् तत उभयत्वं भिन्नं, सद्भदे च कथश्चिदुभयभेदोऽप्य र्थसिद्ध एव । परन्त्वेतद्वाक्यस्य क्रमादुभयमुख्यविशेष्यताकबोधजनकत्वेन क्रमार्पितत्वं कथमत्र धर्मेऽन्वेति, क्रमिकशाब्दबोधद्वयेच्छाविषयविषयत्वरूपस्य तस्य पदानुपस्थितत्वेन वस्तुधर्मतया तद्वोधासम्भवादिति चेन्न, स्यात्पदेन क्रमार्पितत्वस्य द्योतनात् अनुभूयते हि स्यादस्ति स्यान्नास्ति च घट इति वाक्याक्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वोभयधर्मवन्तममुं घटं 20 जानामीति, तत्र चैकत्वेन गृहीते सदसत्त्वे उभयत्वप्रत्ययस्य भाक्तोभयावगाहित्वेन तत्र च क्रमार्पितत्वस्यावच्छेदकत्वात् न च क्रमबलादेवात्र ज्ञानद्वयस्य सिद्धयाऽस्य प्रथमभङ्गद्वयाभेदः स्यादिति वाच्यम् , क्रमगर्भोभयप्राधान्यबोधकत्वाभिप्रायेणास्तिनास्ति १. सदसदुभयत्वं न सत्त्वविशिष्टासत्त्वत्वरूपं, अत्र हि वैशिष्टयं सामानाधिकरण्येन वाच्यं तथा च गोत्वाश्वत्वयोः परस्परं सामानाधिकरण्याभावेन वैशिष्टयविरहेऽपि गोत्वाश्वत्वोभयमित्युभयत्वावगाहिप्रतीत्युत्पत्तेस्तथा चोभयत्वं वैशिष्ट्य द्भिन्नमिति स्वीकार्य, तस्य भेदादेव च सत्त्वासत्त्वाभ्यां सत्त्वासत्त्वोभयमपि कथञ्चिद्भिनमिति भावः ॥ २. क्रमेण सत्त्वासत्त्वोभयविषयकशाब्दबोधद्वय जायतामितीच्छाविषयं बोधद्वयं तद्विषयं सत्त्वासत्त्वोभयमित्यर्थः । पदानुपस्थितत्वेनेति, शब्दोपस्थितस्यैव शाब्दबोधे भाननियमादिति भावः ॥ ३. तृतीयभङ्गो हि क्रमेण शाब्दबोधो जायतामितीच्छाप्रयुक्तस्तथा च सत्त्वप्रकारकघटविशेष्यक मसत्त्वप्रकारकघटविशेष्यकं बोधद्वयमेव जायत इति भङ्गाद्वयसंयोगरूप एवायं भङ्गः प्रसक्त इति शङ्काशयः, समाधानच प्रकारताद्वयनिरूपितकविशेष्यताशालिबोधस्याऽप्यनुभवसिद्धत्वेन तादृशो बोधोऽस्य भङ्गस्य फलमिति ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते पदप्रयोगेणैकत्र द्वयमिति - रीत्या विलक्षणविषयताशालिबोधान्तरस्यानुभवसिद्धत्वात् । न च क्रमो हि शब्दव्यापारः, अर्थस्तु विशिष्टः क्रमाघटित एवेति तत्र क्रमादिकमनतिप्रयोजनमिति वाच्यम् , शब्दगतस्यापि क्रमस्यार्थेऽध्यारोपेण तत्सम्भवादिति । एवं सहावक्तव्यत्वादिष्वपि चिन्तनीयम् । कथञ्चिदवक्तव्यत्वमिति, युगपद्विधिनिषेधात्मनाऽवक्तव्यत्वमित्यर्थः, सहार्पितावक्तव्यत्वमिति यावत् । ननु सहार्पितत्वं एकदैकपदादुभयबोधो 5 जायतामितीच्छाविषयत्वं सा चेच्छा बाधिते नोदेतीति न तदवक्तव्यस्यावच्छेदकम् ‘न चोभयपदेन युगपदुभयप्राधान्येन बोधसम्भवादवक्तव्यत्वमेवासिद्धं दृष्टं हि पुष्पदन्तपदाचन्द्रत्वसूर्यत्वाभ्यां चन्द्रसूर्ययोर्युगपदेव बोध इति वाच्यम् , पुष्पदन्तपदवदुभयपदस्यासाधारणत्वाभावात् , बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वेनास्तित्वनास्तित्वधर्मद्वयावच्छिन्नस्य बोधकत्वेऽपि प्राधान्येन सहार्पितोभयाकारबोधासिद्धेरिति चेन्न, पुत्रनाशे सत्यपि पुत्रदिदृक्षाया आनु- 10 भविकत्वेन क्वचिद्बाधितेऽपीच्छोदयतोऽवक्तव्यस्यावच्छेदकत्वे बाधाभावात् । अथ पञ्चमं धर्ममाह कथञ्चित्सत्त्वेति । अथ षष्ठं धर्ममाह कथश्चिदसत्त्वेति । सप्तममाह क्रमार्पितेति ।। ___ ननु प्रथमद्वितीयधर्मवत्प्रथमतृतीययुक्तधर्मान्तरस्य सिद्धेः कथं सप्तविधधर्मनियम इति चेन्न क्रमाक्रमाप्तियोः प्रथमतृतीयधर्मयोधर्मान्तरत्वेनाप्रतीतेः सत्त्वद्वयस्यासम्भवात् विवक्षितस्वरूपादिना सत्त्वस्यैकत्वात् , एवमेव द्वितीयतृतीयधर्मयोः क्रमाक्रमार्पितयोन धर्मान्तरत्वेन 15 प्रतीतिरसत्त्वद्वयस्यासम्भवात् पररूपादिनाऽसत्त्वस्यैकत्वात् । ननु तथा सति प्रथमचतुर्थयोर्द्वितीयचतुर्थयोस्तृतीयचतुर्थयोश्च सहितयोः कथं धर्मान्तरत्वं, चतुर्थे सहार्पितसत्त्वासत्त्वभानादिति चेन्न चतुर्थे तयोरपरामर्शात् किन्तु तथार्पितयोस्तयोसर्वथा वक्तु. मशक्तेरवक्तव्यत्वरूपधर्मान्तरस्यैव तेन प्रतिपादनात् , न च तेन सहितस्य सत्त्वस्यासत्वस्योभयस्य वाऽप्रतीतिधर्मान्तरत्वासिद्धिति भङ्गानां विषयनियममाह- 20 तत्र प्रथमे भङ्गे सत्त्वस्य प्रधानतया भानं, द्वितीयेऽसत्त्वस्थ प्राधान्येन, तृतीये क्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वयोश्चतुर्थेऽवक्तव्यत्वस्य पञ्चमे सत्त्व १. पुष्पदन्तपदस्य चन्द्रत्वेन चन्द्र सूर्यत्वेन सूर्ये व्यासज्यवृत्तिरेका शक्तिरिति तेनोभयधर्मनिष्ठप्रकार ताद्वयनिरूपितो बोधो भवेत् परन्तुभयपदस्य बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वेन यत्किञ्चिद्धर्मद्वये शक्तिसंभवेऽपि प्रातिस्विकधर्मावच्छिन्नप्रकारताद्वयनिरूपितमुख्य विशेष्यताशालिबोधस्तस्मान्न भवेदेवेति भावः । २. मार्पितास्तित्वनास्तित्वोभयस्मिन्नस्तित्वरूपधर्मान्तरस्येति भावः ॥ ३. क्रमाप्तिास्तित्वनास्तित्वोभयस्मिन्नास्तित्वरूपधर्मान्तरस्येति भावः ।। ४. सहार्पितसत्त्वासत्त्वोभयावच्छेदेन तृतीयभङ्गजन्यशाब्दबोधविषयत्वाभावस्यैव स्यादवक्तव्यपदार्थत्वादिति भावः ।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४१८ तस्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरण विशिष्टावक्तव्यत्वस्य षष्ठेऽसत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य सप्तमे तु क्रमार्पितसत्त्वासत्त्वविशिष्टावक्तव्यत्वस्य । असत्त्वादीनान्तु गुणभावेन प्रतीतिः॥ तत्रेति । सप्तभङ्गीवाक्य इत्यर्थः, प्रथमे भङ्ग इति, स्यादस्त्येव घट इति भङ्ग इत्यर्थः, प्रधानतया भानमिति नेतरधर्मभाननिरसनपरमिति भावः । भानमित्यप्रेतनवाक्येष्वपि सम्ब5 यते । कथं तयसत्त्वादीनां प्रतीतिरित्यत्राहासत्त्वादीनान्त्विति ॥ प्रथमद्वितीयधर्मापेक्षया तृतीयचतुर्थधर्मयोरतिरिक्तत्वं समर्थयतिक्रमाप्तिसत्त्वासत्त्वरूपो धर्मः कथञ्चित्सत्त्वाद्यपेक्षया भिन्नः, प्रत्येक घकारादिवर्णापेक्षया घटपदवत् । अवक्तव्यत्वञ्च सहार्पितास्तित्वनास्ति त्वयोस्सवेथा वक्तुमशक्यत्वम् ॥ 10. क्रमार्पितेति, सत्वासत्त्वोभयत्वस्य भिन्नत्वेन तदाश्रयसत्त्वासत्त्वोभयस्यापि कथञ्चि द्भेदस्यावश्यकत्वादिति भावः । तत्र दृष्टान्तमाह प्रत्येकेति । अन्यथा धकारागुच्चारणेनैव घटपदज्ञानसम्भवाद्धटपदार्थोपस्थितौ शेषवैयापत्तेः, अत एव हि प्रत्येककुसुमापेक्षया मालायाः कथञ्चिद्भेदस्सर्वानुभवसिद्ध इति भावः । चतुर्थधर्मस्य भेदमाहावक्तव्यत्वश्चेति, तथा च सत्त्वासत्त्वतदुभयापेक्षया सहार्पितावक्तव्यत्वधर्मो भिन्न इति भावः, नात्र सहार्पि15 तसत्त्वासत्त्वमस्य भङ्गस्य विषय इति सूचनाय षष्ठयन्तत्वेनोपन्यासः कृतः । प्रथमद्विती यतृतीयचतुर्थभेदानां विलक्षणधर्मवत्त्वं पञ्चमषष्ठसप्तमानां प्रोक्तधर्मयोजनात्मकत्वमित्यतस्तेषां पार्थक्यं न दर्शितम् , प्रथमद्वितीययोस्तु पृथक्त्वं सुस्पष्टमेवेति तदपि नोक्तमिति ॥ तदेवं सामान्यतस्सप्तभङ्गीस्वरूपं प्रदर्य विशेषबुबोधयिषया तां विभजते इयं सप्तभङ्गी सकलादेशविकलादेशाभ्यां द्विधा । तत्रैकधर्मविषयक20 बोधजनकं सद्योगपद्मनाभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा तत्तद्धर्माभिन्नानेकयावद्धर्मात्मकपदार्थबोधजनकवाक्यं सकलादेशः॥ इयमिति, प्रोक्तस्वरूपेत्यर्थः । एकैको भङ्गः सकलादेशस्वभावो विकलादेशस्वभावश्चेत्यर्थः, एतत्तत्त्वमग्रे वक्ष्यते, सकलादेशं लक्षयति तत्रेति, एकधर्मविषयकबोधजनकत्वे सति १. सकलजनसाक्षिकं हि स्वरूपादिचतुष्टयापेक्षया सत्त्वस्य पररूपादिचतुष्टयापेक्षया चासत्त्वस्य दर्शन तद्विपरीतप्रकारेण चादर्शनं वस्तुनः इति तत्प्रमाणयता तथैव वस्तु प्रतिपत्तव्यमन्यथा प्रमाणप्रमेयव्यवस्थानुपपत्तेः, एवञ्च प्रमाणं प्रत्यक्षमन्यद्वा स्वार्थीपलम्भात्मना परार्थानुपलम्भात्मना च क्रमाप्तेिन सदसदात्मकमिति भावः ॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाप्तमझी ] न्यायप्रकाशसमलते : ४१९ : तत्तद्धर्माभिन्नानेकयावद्धर्मात्मकपदार्थबोधजनकत्वस्य प्रत्येकं प्रमाणनयसप्तभङ्गीवाक्येषु सत्त्वेन न नयवाक्येष्वतिव्याप्तिः, स्यात्पदं हि प्रकृतेतरयावद्धर्मात्मकत्वं द्योतयति गुणभावेन, तथा च सर्वमेव वाक्यं गुणभावेन प्रकृतेतरयावद्धर्मात्मकपदार्थबोधजनकं, प्रधानतया चोपस्थितधर्मबोधजनकञ्चेति । अतो योगपद्मनाभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वेत्युक्तम् , एवञ्च प्रमाणवाक्यानां सर्वैः पदैर्मिलित्वा प्राधान्येनानन्तधर्मात्मकवस्तुबोधन एव तात्पर्यम् , स्याद- 5 स्त्येव घट इति वाक्यात् स्वेतरसकलधर्मात्मकत्वसम्बन्धेनास्तित्ववानेव घट इति प्राथमिकबोधानन्तरं तस्मादनन्तधर्मात्मकमेव सर्वमित्यौपादानिकबोधस्सकलादेशजन्यः स्वीक्रियते, स च द्रव्यार्थिकार्पणयाऽनुपचरितैकविशेष्यताकः, पर्यायार्थिकार्पणया चोपचरितकविशेष्यताक इति तात्पर्यार्थमादाय न प्रधानैकार्थत्वव्याघातः, सकलादेशान्यार्थ एव गुणप्रधानभावेन बोधकत्वनियमस्य चरितार्थत्वात्। अत एव सकलादेशेऽनन्तत्वान्यधर्मानवच्छिन्नानन्तधर्मप्रका- 10 रतानिरूपितसकलवस्तुविषयताशालिज्ञानत्वेन केवलज्ञानतुल्यत्वोक्तिः सङ्गच्छत इति भावः । तथा चैकधर्मात्मकवस्तुविषयकबोधस्याभेदवृत्तेरभेदोपचारस्य वाऽनाश्रयणे विकलादेशत्वापत्त्या कालादिमिरष्टाभिर्धर्मधर्मिणोस्तद्भिन्नधर्माणाश्चाभेदस्य प्राधान्यतः कालादिभिभिन्नानां वा धर्माणामभेदस्यारोपात्समकालं तादशाशेषधर्मात्मकर्मिबोधकं वाक्यं सकलादेश इति तात्पयोथैः । अस्तित्वनास्तित्वादिधर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपं यदोच्यते तदैकेनाप्यस्त्या- 15 दिपदेनास्तित्वादिरूपैकधर्मबोधनद्वारा तदात्मकतामापन्नस्य निखिलधर्मस्वरूपस्य प्रतिपादनं सम्भवतीति सूचयितुमेकधर्मबोधजनकं सद्योगपद्येन तदात्मकयावद्धर्मात्मकपदार्थबोधजनकवाक्यत्वमित्यनुक्त्वा तथोपन्यासः कृतः, एतेन धर्माविषयकर्मिबोधकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं प्रत्युक्तं, तादृशबोधाप्रसिद्धेः, येन केनापि धर्मेण विशेषितस्यैव धर्मिणशाब्दबोधविषयत्वात् । अभेदवृत्तिश्च द्रव्यार्थिकनयाश्रयणेन, द्रव्यत्वाव्यतिरेकात् । अभेदोपचारश्च पर्या- 20 यार्थिकनयाश्रयणेन परस्परभिन्नानामप्येकत्वाध्यारोपादिति ॥ अथ विकलादेशस्वरूपमाह क्रमेण भेदप्राधान्येन भेदोपचारेण वा एकधर्मात्मकपदार्थविषयकबोधजनकवाक्यं विकलादेशः॥ क्रमेणेति । भेदप्राधान्येनेति, पर्यायार्थिकनयस्य प्राधान्येन परस्परं भिन्नत्वाद्धर्माणा- 25 १. ननु स्याच्छब्दस्य द्योतकत्वं तदा युज्यते यदाऽनेकान्तः केनापि शब्देन वाच्यस्स्यात्तदेवेह नास्तीतिकथं द्योतकत्वमिति चेन्न, अस्त्येव घट इत्यादिवाक्येन तत्प्रतिपादनात् सकलादेशस्वरूपं हीदं वाक्यं कालादिभिरभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वा तद्बोधनसमर्थमिति ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४२० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे मिति भावः, भेदोपचारेण वेति, प्राधान्येन द्रव्यार्थिकाश्रयतोऽभिन्नेऽपि भेदाध्यारोपेणेत्यर्थः, क्रमश्चास्त्यादिरूपैकशब्दस्य कालादिभिर्भिन्ननास्तित्वाद्यनेकधर्मबोधने शक्त्यभावाद्बोध्यः ॥ अभेदवृत्त्यभेदोपचारप्रयोजकान् दर्शयितुमाह- अभेदवृत्त्य भेदोपचारौ कालस्वरूपार्थसम्बन्धोपकारगुणिदेश संसर्ग5 शब्दैरष्टाभिग्रह्यौ ॥ एकस्मिन् भङ्गे घटयति — तथाहि स्यादस्त्येव घट इत्यादावस्तित्वाद्यात्मकैकधर्मबोधजनकत्वं वर्त्तते तथा एककालावच्छिन्नैकाधिकरण निरूपितवृत्तित्वैकगुणिगुणत्वेकाधिकरणवृत्तित्वैकसम्बन्धप्रतियोगित्वैकोपकारकत्वैकदेशावच्छिन्नवृत्तित्वैकसंसर्गप्रतियोगित्वैकशब्दवाच्यत्वधर्मैरस्तित्वेनाभिन्ना अनेके ये धर्मास्तदात्मक पदार्थबोधजनकत्वमपीति ॥ तथाहीति । इत्यादाविति, अस्तित्वाद्यात्म कैकधर्मबोधजनकत्वं वर्त्तत इत्यनेनैकधर्मविषयकबोधजनकत्वमिति सकलादेशलक्षणांशस्सङ्घटितः, वाक्य इति शेषः, इत्यादावित्यस्येत्यादिवाक्य इति वाऽर्थः । कालादिभिर्धर्माणामभेदवृत्तिं घटयति तथेति, एककालाच्छिन्नैका - धिकरणनिरूपितवृत्तित्वेति, यादृशकालावच्छेदेन यत्र घटादावस्तित्वं वर्तते तत्कालावच्छेदेन तत्रानन्ता अपि धर्मावर्तन्त इत्यस्तित्वेन सह शेषधर्माणामेककालावच्छिन्नैकाधिकरणवृत्तित्वं 20 वर्त्तत इति कृत्वा तेषां कालेनाभेद इति भावः । एकगुणिगुणत्वेति, अस्तित्वं हि घटस्य गुणस्तस्मादस्तित्वस्य घटगुणत्वं स्वरूपं तथा तद्वृत्तिशेषधर्माणामपीति सर्वेषां धर्माणामेकगुणगुणत्वस्वरूपतया स्वरूपेणाभेदवृत्तिरिति भावः । एकाधिकरणवृत्तित्वेति, यथा ह्यस्तित्वस्याधिकरणं घटस्तथैव निखिलधर्माणामपीत्येकाधिकरणवृत्तित्वादेषामर्थेनाभेदवृत्तिरिति भावः । एकसम्बन्धप्रतियोगित्वेति, यो ह्यस्तित्वस्य घटेन कथञ्चित्तादात्म्यरूप25 सम्बन्ध स एव शेषाणामपीति सर्वे धर्माः कथञ्चित्तादात्म्यलक्षणसम्बन्धस्य प्रतियोगि 10 अभेदेति । समानकालीनत्वं, एकगुणिगुणत्वं, एकाधिकरणत्वं, एकसम्बन्धप्रतियोगित्वं, एकोपकारकत्वं, एकदेशावच्छिन्नवृत्तित्वं, एकसंसर्गप्रतियोगित्वं, एकशब्दवाच्यत्वश्वाभेदवृत्तावभेदोपचारे वा प्रयोजकमिति भावः ॥ 15 4. १. तादात्म्यातिरिक्तसम्बन्धासिद्धेरिति भावः, यद्यपि कार्यकारणभावदेशिककालिकाधाराधेयभावादीनामतादात्म्येऽपि तत्तत्सम्बद्धव्यवहार कारित्वं दृश्यते तथापि तत्रापि तत्तद्व्यवहारप्रयोजकशक्तत्यात्मना कथचित्तादात्म्याभ्युपगमाददोषः, तथा च यत्राभेदव्यवहारस्तत्राभेद उद्भूतोऽनुद्भूतो भेदः, पृथक्सम्बन्धिस्थले तु वैपरीत्येनेति बोध्यम् ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलते :४२१: नस्तस्मादेकसम्बन्धप्रतियोगित्वादेषां सम्बन्धेनाभेदवृत्तिरिति भावः। एकोपकारकत्वेति, अस्तित्वस्य योऽयमुपकारः स्वप्रकारकर्मिविशेष्यकज्ञानजनकत्वं स एवोपपकारस्स्वान्याखिलधर्माणामिति सर्वेषामेकोपकारकत्वेनोपकारेणाभेदवृत्तिः । एकदेशावच्छिन्नवृत्तित्वेति, अस्तित्वं हि यद्देशावच्छेदेनास्ति तद्देशावच्छेदेनैव स्वेतरेऽखिलधर्मास्सन्तीत्येकदेशावच्छिन्नवर्तिन एते, न ह्यस्तित्वं कण्ठावच्छेदेन पृष्ठदेशावच्छेदेन नास्तित्वमिति देश- 5 भेदो वर्तत इति गुणिदेशेनैतेषामभेदवृत्तिरिति भावः । एकसंसर्गप्रतियोगित्वेति, य एव हि घटे नास्तित्वस्यैकवस्त्वात्मना संसर्गस्स एवान्येषामपीति तेषामेकसंसर्गप्रतियोगित्वासंसर्गेणाभेदवृत्तिः, एकशब्दवाच्यत्वधमैरिति, अस्तित्वधर्मात्मकस्य य एवास्तिशब्दो वाचकस्स एव तद्भिन्नानन्तधर्मात्मकस्यापि वस्तुनो वाचक इति एकशब्दवाच्यत्वाच्छब्देनाभेदवृत्तिरिति भावः । धर्मान्तं पदमस्तिनाऽभिन्नत्वे प्रयोजकप्रदर्शनपरम् । जनकत्वमपी- 10 तीति सकलादेशलक्षणसमन्वय इति शेषः । अत्र मलयगिरिचरणास्सप्तभङ्गयां प्रतिभङ्गं प्रमाणवाक्यमेव, नतु नयः, स्याच्छब्देन विवक्षितधर्मोपरागेण कालादिभिरभेदवृत्त्याऽभेदोपचारेण वाऽनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादने प्रमाणवाक्यस्यैव व्यवस्थितेः, अत एव स्याच्छब्दलाञ्छिततयैत्र सर्वत्र साधूनां भाषाविनयो विहितः, अवधारणी भाषा च निषिद्धा तस्या नयरूपत्वात् , नयानां च सर्वेषां मिथ्यादृष्टित्वात् तथा चानुस्मरन्ति “ सव्वे णया मिच्छा- 15 वायिणो” त्ति, न च सप्तभङ्गात्मकं प्रमाणवाक्यं एकभङ्गात्मकञ्च नयवाक्यमित्यपि नियन्तुं शक्यम् , सप्तभङ्गानां सप्तविधजिज्ञासोपाधिनिमित्तत्वेनासार्वत्रिकत्वात् को जीव इति प्रश्ने लक्षणमात्रजिज्ञासया स्याज्ज्ञानादिलक्षणो जीव इत्येकवाक्यस्य प्रमाणवाक्यरूपस्योत्तरस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् स्याच्छब्दस्य चात्रानन्तधर्मात्मकत्वद्योतनेन प्रमाणाङ्गत्वादिति वदन्ति तन्मतेनात्र प्रत्येकवाक्यस्य प्रमाणरूपत्वं दर्शितम् , एतन्मते नयदुनयविभागो नास्ति अर्था- 20 विशेषात् । केचित्तु 'सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधार्थो मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणै' रिति हेमसूरिभिरपि प्रमाणनयदुर्नयरूपेण विभज्याभिधानात् आकरे नयतदाभासानामपि स्पष्टं बोधितत्वाचास्ति नयदुर्नयभेदः, अवधारणीभाषैकान्तवादात्मिकैव निषिद्धा न तु नयरूपापि, तस्याः प्रमाणपरिकरत्वात् प्रमाणात्मकमहावाक्यजन्यशाब्दबोधजनकावान्तरवाक्यार्थज्ञानजनकत्वेन तदनुकूलाकांक्षोत्थापकत्वेन वा नयवाक्यस्य शिष्यमतिविस्फारकत्वाच्च, अत 25 एव नयोऽप्यादरणीय एव । प्रमाणवाक्यमपि हि अनेकान्तरुचिशालिनं पुरुषविशेषमधिकृत्यैव प्रयुज्यते, तस्मात् स्याज्ज्ञानादिलक्षणो जीव इत्यपि सुनयवाक्यमेव, एकभङ्गरूपत्वात् । तत्रापि प्रमाणवाक्यत्वमुत्थाप्याकांक्षाक्रमेण भङ्गषटूसंयोजनयैव । सकलादेशत्वञ्च प्रतिभङ्गमनन्तधर्मात्मकत्वद्योतनेन, अन्यथा च विकलादेशत्वमेवेत्याहुः । अपरे तु Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४२२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे अखण्डवस्तुविषयत्वेन त्रिष्वाद्यभङ्गेर्खा सकलादेशत्वं चतुर्षु चोपरितनेष्वेकदेशविषयत्वेन विकलादेशत्वमित्यूचुः॥ _ नन्वभिन्नताप्रयोजककालाद्यष्टासु मध्ये सम्बन्धसंसर्गौ द्विधा कथमुपात्तौ तयोर्भेदादर्शनादित्यत्राह5. सम्बन्धे कथश्चित्तादात्म्यलक्षणेऽभेदः प्रधानं भेदो गौणः, संसर्गे त्वभेदो गौणो भेदः प्रधानम् । तथा च भेदविशिष्टाभेदस्सम्बन्धः, .. अभेदविशिष्टभेदस्संसर्ग इति विवेकः । अयश्च पर्यायार्थिकनयस्य गुणभावे द्रव्याथिकनयस्य प्रधान भावे युज्यते ॥ सम्बन्ध इति । कथञ्चित्तादात्म्यं हि सम्बन्धः, स च भेदाभेदघटितमूर्तिकः, तत्र 10 यदाऽभेदस्य प्राधान्यं भेदस्य च गौणत्वं क्रियते तदा स सम्बन्धशब्दव्यवहारभाग्भवति, यदा तु भेदस्य प्रधानतयाऽभेदस्य च गौणतया विवक्ष्यते तदा स संसर्ग इति व्यवह्रियत इति भावः । फलितार्थमुभयोराह तथाचेति । भेदविशिष्टाभेद इति, अत्र भेदो गौणो विशेषणत्वात् , अभेदस्य विशेष्यत्वेन प्रधानता बोध्या । अभेदविशिष्टेति, अत्रापि विशेषणत्वाद भेदस्य गौणत्वं विशेष्यत्वाच्च भेदस्य प्राधान्यमवसेयम् । ननु कथमत्र कालादिभिरभेदवृत्ति-: 15 रभेदोपचारो वेत्यत्राहायश्चेति, पूर्वसंघटितस्सकलादेशबोधः इत्यर्थः । पर्यायार्थिकनयस्य गुणभाव इति, तस्य प्राधान्ये त्वभेदवृत्त्यसम्भव इति भावः । अस्य गौणत्व एव द्रव्यार्थिकनयस्य प्राधान्यं संभवति, एकदा नयद्वयस्य प्राधान्यासम्भवादित्याशयेनाह द्रव्यार्थिकनयस्येति, तत्र पर्यायार्थिकनयो गौणीकृत्य धर्मिणं धर्मात्मकपर्यायप्राधान्यप्रख्यापकः, द्रव्या र्थिकनयः पर्यायोपेक्षया धर्मिमात्रप्राधान्यप्रख्यापक इति ॥ 20. द्रव्यार्थिकनयस्य तु गौणत्वे पर्यायार्थिकस्य च प्राधान्येऽभेदोपचारं कृत्वा लक्षणसमन्वयःकार्य इत्याशयेनाह. द्रव्यार्थिकनयस्य गौणत्वे पर्यायार्थिकस्य प्राधान्ये त्वभेदोपचारः कार्योऽभेदासम्भावात् ॥ द्रव्यार्थिकनयस्येति । मुख्याभेदवृत्तिसमर्थकस्येत्यर्थः । पर्यायार्थिकस्येति, मुख्यभेद25 समर्थकस्येत्यर्थः हेतुमाहाभेदासम्भवादिति, अभेदवृत्त्यसम्भवादित्यर्थः ॥ १. स्यादस्त्येव, स्यान्नास्त्येव, स्यादवक्तव्यमेवेति भङ्गत्रय इत्यर्थः । २. द्रव्यपर्यायात्मकं हि वस्तु, तत्र द्रव्यनयार्पणायां तदभिन्नपर्यायाणामभानेऽपि ते सन्त्येव परन्तु पर्यायनयस्य गौणीकृतत्वात्ते गुणभूताः एकदोभयनयस्य प्राधान्यासम्भवात् न तावता तेषां नास्तित्वं दुर्नयप्रवेशापत्तेः, पर्यायार्पणया द्रव्यनयस्य गुणभावेन च पर्यायाः प्राधान्येन भासन्ते द्रव्यन्तु तदभिन्नं गुणतयेति ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमझी ] भ्यायप्रकाशसमलते कथमभेदासम्भव इत्यत्राह-- . तथाहि नैकत्रैकदा विरुद्धनानागुणानामभेदसम्भवो धर्मिभेदात् । नापि स्वरूपेण, प्रतिगुणं स्वरूपभेदात, नाप्यर्थेन, स्वाधारस्यापि भेदात्, नवा सम्बन्धेन सम्बन्धिभेदेन सम्बन्धभेदात्, नाप्युपकारेण, तत्तजन्यज्ञानानां भेदात्, नापि गुणिदेशेन, तस्यापि प्रतिगुणमनेकत्वात् , नापि 5 संसर्गेण, संसर्गिभेदेन भेदात्, नापि शब्देन, अर्थभेदेन तस्य भेदादिति। तस्मादभेदमुपचर्य तद्धर्माभिन्नानेकयावद्धर्मात्मकवस्तुबोधजनकत्वं वाक्यानामिति ।। तथाहीति । कालेन भेदमाह नैकत्रेति, एकाधिकरण इत्यर्थः, एकदेति एककालाव-.: च्छेदेनेत्यर्थः, विरुद्धनानागुणानामिति, परस्परं विरुद्धानां विविधानां गुणानामित्यर्थः । 10 असम्भवेनेति शेषः, तथा च परस्परं विरुद्धानामनेकगुणानामेककालावच्छिन्नैकाधिकरणवृत्तित्वस्यासम्भवेनेत्यर्थः। अभेदसम्भव इति, पूर्वस्थितननोऽत्र सम्बन्धः, मुख्यतयेत्यादिः तथा च मुख्यतया नाभेदस्य सम्भव इति भावः, तेन. गौणतयाऽभेदसम्भवेऽपि न क्षतिः । एकत्रैकदा विरुद्धगुणानां सत्त्वे गुणभेदेन गुणिभेदस्यावश्यकत्वान्न धम्यक्यं स्यादित्याह धर्मिभेदादिति, तावदाश्रयस्य तावत्प्रकारेण भेदात्, पर्यायभेदेन पर्यायिभेदस्यावश्यकत्वादिति 15 भावः । स्वरूपेण भेदासम्भवमाह नापि स्वरूपेणेति, विरुद्धनानागुणानामभेदसम्भव इत्यनुषज्यते, एवमुत्तरत्रापि । हेतुमाह प्रतिगुणमिति, तत्तद्गुणानां स्वस्वरूपस्य भिन्नत्वादिति भावः, न च घटादिगुणत्वं हि स्वरूपशब्देन विवक्षितं तच्च घटादिवृत्तिसकलगुणेषु समानमेवेति कथं स्वरूपभेद इति वाच्यम् , गुणभेदेन गुणिभेदस्यावश्यकतया प्रतिगुणं वस्तुभेदेन तद्गुणत्वस्यापि भेदादित्यत्र तात्पर्यात् । नापि गुणत्वधर्मत्वादिस्वरूपाणामभेद इति वाच्यम् , तथा 20 सति तेन रूपेण जगद्वृत्तिगुणानां धर्माणाञ्चाभेदप्रसङ्गेन परस्परभेदस्य विरोधप्रसङ्गादिति । अर्थेनाभेदवृत्त्यसम्भवमाह नाप्यर्थेनेति, हेतुमाह स्वाधारस्यापीति भेदादिति, नानात्वादित्यर्थः, अन्यथाऽनेकगुणाश्रयस्यैकत्वं विरुध्येतेति भावः, सम्बंधेनाभेदवृत्त्यसम्भवमाह नवासम्बन्धेनेति, कारणमाह सम्बन्धिभेदेनेति, प्रतियोग्यनुयोगिभेदेनेत्यर्थः, घटभूतलसंयोगात्पटभूतलसंयोगस्य भेददर्शनादिति भावः । उपकारभेदेनाभेदवृत्त्यसम्भवमाह नाप्युपकारेणेति, 25 बीजमाह तत्तजन्येति, तत्तद्गुणजन्येत्यर्थः, न केवलं ज्ञानमुपकारः किन्तु तत्तद्गुणविषयक ज्ञानं तथा च विषयभेदेन ज्ञानभेदावश्यकतया तत्तद्गुणविषयकज्ञानानां भेदेन नैकोपकार १. यदनेकगुणाश्रयं तदनेकमिति व्याप्तेः। अन्यथा सकलगुणाश्रयस्यैकाधारत्वं प्रसज्येतेति तु परमार्थः ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४२४ : तस्वन्याय विभाकरे [ षष्ठकिरणे कत्वं गुणानां, अन्यथा नानागुणजन्योपकारस्यैकत्वमविरुद्धं स्यादिति भावः । देशेनाभेदवृत्त्यनुपपत्तिमाह नापि गुणिदेशेनेति, निदानमाह तस्यापीति, गुणिदेशस्यापीत्यर्थः । अन्यथा भिन्नपदार्थवृत्तिगुणानां गुणिदेशानामध्यभेदप्रसङ्गात्, गुणिदेशत्व साम्यात्, घटात्मकगुणिदेशानामेवाभेद इत्यत्र विनिगमनाविरहादिति भावः । संसर्गेणाभेदवृत्त्यसम्भवमाह 5 नापि संसर्गेणेति, हेतुमाह संसर्गीति, तदभेदे संसर्गिभेदविरोधादिति भावः । शब्देना भेदासम्भवमाह नापि शब्देनेति हेतुमाहार्थभेदेनेति वाच्यभेदेनेत्यर्थः, अन्यथा सर्वेषां गुणानामेकशब्दवाच्यत्वे तत एव सर्वार्थवाच्यतापत्त्या शब्दान्तरवैफल्यापत्तिप्रसङ्गस्यादिति भावः, इतिशब्दः कालाद्यष्टाववलम्ब्य भेदासम्भवनिरूपणसमाप्तिद्योतकः । तथा चेत्थं प्राधान्यतः पर्यायार्थिकनयचक्रवर्त्तिसाम्राज्येनाभेदवृत्त्यसम्भवादभेदमध्यारोप्या स्तित्व धर्मा10 भिन्नत्वमनेकाशेषधर्मेषु सम्पादनीयं ततञ्च तादृशधर्मात्मक वस्तुबोधजनकवाक्यमपि सकलादेशः परिपूर्णार्थ प्रकाशकत्वादित्याशयेनाह तस्मादिति, यस्मात्कालादिना भिन्नानां धर्माणामभेदवृत्तिर्न सम्भवति तस्मादित्यर्थः । इति पदं सकलादेशसमाप्तिद्योतकम् ॥ तदित्थं प्रकाशिताभ्यामभेदवृत्त्यभेदोपचार(भ्यामेकेनास्तिनास्त्यादिशब्देनैकधर्मप्रतिपादनमुखेन तद्भिन्नयावदनन्तधर्मात्मकवस्तुबोधस्सम्भवतीति निरूप्य सम्प्रति प्रत्येकं वाक्या15 नामर्थं निरूपयितुमुपक्रमते - घटस्यादस्त्येवेति प्रथमं वाक्यमितरधर्माप्रतिषेधमुखेन विधिवि षयकं बोधं जनयति । अत्र स्याच्छन्दोऽभेदप्राधान्येनाभेदोपचारेण वा सामान्यतोऽनन्तधर्मवन्तमाह, अस्तिशब्दोऽस्तित्वधर्मवन्तमाह, एवकारोsयोगव्यवच्छेदमाह, तथा चाभेदप्राधान्येनाभेदोपचारेण वा सामा20 न्यतोऽनन्तधर्मात्मको घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नास्तित्ववानिति बोधः ॥ 25 घट इति । इतरधर्मप्रतिषेधमुखेनेति, तथाबोधकशब्दाभावादिति भावः । विधिवि - षयकमिति, अस्तित्वस्य विधिरूपत्वादिति भावः, मुख्यतयेति शेष:, तेन नास्तित्वस्यात्र बोघेऽपि न क्षतिः, न च नास्तित्वस्यात्र कथं बोध इति वाच्यम्, अस्तित्वस्य प्रतिषेध्येन नास्तित्वेनाविनाभावित्वात्, प्रयोगश्चास्तित्वं नास्तित्वेनैकधर्मिण्यविनाभावि, अस्ति १. एकस्मिन् काले तयोर विनाभावित्वेन सिद्धत्वात्सिद्धसाधनवारणाथैकधर्मिणीति, विशेषणत्वमात्रोत्तौ नीलोत्पलमित्यादौ विशेषणे नीले चेतनो जीव इत्यादौ च जीवविशेषणे चैतन्ये लोकदृष्ट्या नीलाविनाभावित्वस्याचैतन्याविनाभावित्वस्य चासत्त्वात् पररूपेणाविनाभावित्वस्य साध्यसमत्वाद्वाऽस्तित्वनास्तित्वोभयघद्वितधर्मीति पदम् । तत्र सामान्यमुखीं व्याप्तिं दर्शयति यदिति । एवञ्च साधर्म्यस्य वैधर्म्येणाविनाभावित्वेनैतन्नये केवलान्वयी नास्त्येव || Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशलमलङ्कते :४२५ त्वनास्तित्वोभयघटितर्मिविशेषणत्वात् , यत्स्वस्वेतरयदुभयघटितयद्धर्मिविशेषणं तत्तत्र तेनाविनाभावि, यथान्वयव्यतिरेकव्याप्तिद्वयघटितव्याप्यविशेषणभूताऽन्वयव्याप्तिः व्यतिरेकव्याप्त्यविनाभाविनीति । उक्तप्राया अपि पदार्था वाक्यार्थबोधजननशक्तेर्वाक्यनिष्ठाया उद्बोधकविधया हेतवोऽतः वाक्यार्थनिरूपणप्रस्तावेऽस्मिन् पदार्थानुपस्थापयति कण्ठतोऽत्रेति, अस्मिन् वाक्य इत्यर्थः, अनन्तधर्मवन्तमिति, अनन्तधर्मात्मकमित्यर्थः, सामान्यत इत्युक्तत्वेनानन्त- 5 धर्मान्तर्गततयाऽस्तित्वस्यापि बोधात्तद्वोधकास्तिपदं निरर्थकमित्याशङ्का गता, तस्य तथा सामान्यतो बोधेऽपि प्रातिस्विकरूपेण तद्वोधनाय विशेषपदस्यावश्यकत्वात् , यथा सर्वेषां वृक्षाणां वृक्षत्वेन बोधेऽपि विशेषवृक्षबोधार्थं पनसादिपदप्रयोगः । एकान्तबुद्धिविलक्षणबुद्धिविशेषविषयतावच्छेदकत्वेनेति तदर्थः । कथमनन्तधर्माणामेकशब्देन बोध इत्यत्राहाभेदप्राधान्येनेति, द्रव्यार्थिकनयेनाभेदस्य प्राधान्येनेति भावः । प्राधान्यश्च शब्देन विवक्षितत्वा- 01 च्छब्दाधीनं बोध्यं, अभेदोपचारेण वेति, पर्यायार्थिकनयस्य प्राधान्ये मुख्यतयाऽभेदासम्भवेन तदुपचारादिति भावः, शब्दानुपात्तस्यार्थतो गम्यमानस्याप्रधानता बोध्या । स्यादित्यादिपदानां द्योतकत्ववाचकत्वयोरनेकान्तत्वेनानन्तधर्मात्मकस्य द्योतकं वाचकं वेत्यनुक्त्वाऽनन्तधर्मवन्तमाहेत्युक्तं द्योतकतया वाचकतया वा स्याच्छब्दोऽनन्तधर्मात्मकं वस्तु प्रकाशयतीति भावः, एवमग्रेऽपि । अस्तित्वधर्मवन्तमिति, अस्धातोस्सत्त्वपर्यवसन्नमस्तित्वं, आख्यातस्याश्रयत्वमर्थ 15 इति मत्वाऽस्तित्वधर्मवन्तमित्युक्तं, आहेति, द्योतकतयेति शेषः, वाक्यार्थे पदमात्रस्य द्योतकत्वादिति भावः । अस्तित्वश्च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया विवक्षितं, सत्पदमनुक्त्वाऽस्तिपदोपादानं विवक्षितस्वरूपावच्छिन्नसत्त्वाद्यपेक्षायै नैयायिकादिमतसिद्धसामान्यात्मकसत्त्वस्य लोकाप्रतीतस्याविवक्षितत्वसूचनाय च । तथा च स्वद्रव्याद्यवच्छिन्नसत्त्वस्यैव प्रतीतेस्सर्वथा निरवच्छिन्नसत्त्वं अप्रामाणिकमेव, इदमपि सत्त्वमर्पितानर्पितदृष्टया सावच्छिन्नं निरव- 20 च्छिन्नमपीति बोध्यम् । अयोगव्यवच्छेदमिति, अयम्भावः, एवकारस्त्रिविधः, अयोगव्यवच्छेदबोधकोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्चेति, विशेषणान्वितैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शंखः पाण्डुर एवेति, विशेष्ये विशेषणस्य योऽयोगः सम्बन्धा . १. सामान्यतइत्यस्यार्थ; । २. ननु सर्व वाक्यं सावधारणमिति न्यायेनाप्रयुक्तोऽपि यथैवकारो लभ्यते तथा वस्तुनोऽनेकान्तस्वरूपत्वादेवाप्रयुक्तोऽपि स्याच्छन्दो लभ्यत एवेति व्यर्थस्तत्प्रयोग इति मैवम् , विशिष्टविषयत्वे तात्पर्यास्फोरणेऽवच्छेदकास्फुरणात्सर्वथैकान्तशङ्काया अव्यवच्छेदेनाधिकृताया अनेकान्तप्रतिपत्तेरयोगात् एवमेवशब्दाप्रयोगेऽपि विवक्षितार्थस्य सदाद्ययोगव्यवच्छेदादिरूपस्याप्रतिपत्तिर्बोध्या ।। ५४ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे भावस्तस्य यो व्यवच्छेदस्सोऽयोगव्यवच्छेदः उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वमिति यावत् , शंखः पाण्डुर एवेत्यत्रोद्देश्यश्शंखो विधेयं पाण्डुरत्वं तथा चोदेश्यतावच्छेदकं यच्छंखत्वं तद्वति वृत्तिोऽभावो घटाद्यभाव एव न पाण्डुरत्वाभावस्तत्र पाण्डुरत्वस्य सत्त्वात् तथा च तदप्रतियोगित्वं पाण्डुरत्व इति शंखत्वसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगि5 पाण्डुरत्ववानयं शंख इत्येवकारमहिम्ना तादृशवाक्याद्वोधो भवति, विशेष्यसङ्गतैवकारे णान्ययोगव्यवच्छेदस्य बोधो जायते, यथा पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ, अन्यस्मिन् विशेष्यभिन्ने योऽयं योगस्सम्बन्धो विशेषणस्य तस्य व्यवच्छेदः, उद्देश्यतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिकभेदसमानाधिकरणाभावप्रतियोगित्वमिति यावत् पार्थत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकभेदः पुरु षान्तरे तत्र धनुर्धरत्वाभावोऽस्ति, तस्मात्पार्थत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकभेदसमानाधिकरणाभा10 वप्रतियोगिधनुर्धरत्ववान पार्थ इति बोधस्ततो जायते । क्रियासङ्गतादेवकाराच्चात्य न्तायोगव्यवच्छेदस्य बोध उदेति, यथा नीलं सरोजं भवत्येवेत्यादौ, उद्देश्ये विशेषणस्य योऽयमत्यन्तमयोगोऽसम्बन्धस्तस्य व्यवच्छेद इत्यर्थः, उद्देश्यतावच्छेदकव्यापकाभावाप्र. तियोगित्वमिति यावत् । अत्रोद्देश्यं सरोजं तदवच्छेदकं सरोजत्वं तच्च यत्र यत्र तत्र सर्वत्र - नीलवत्त्वाभावो न वर्त्तते, कचिन्नीलस्यापि सत्त्वात् तथा चोदेश्यतावच्छेदकव्यापकोदासी15 नाभावाप्रतियोगित्वस्य नीलवत्त्वे सत्त्वेन सरोजत्वव्यापकाभावाप्रतियोगिनीलरूपवत्सरोज मिति बोधस्तादृशवाक्याद्भवति । स्यादस्त्येव घट इत्यत्रापि घटत्वसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वस्य स्वरूपाद्यवच्छिन्नसत्त्वे सत्त्वेनायोगव्यवच्छेदक एवकारः, न चात्रैवकारस्यास्तीति क्रियासङ्गतत्वेन तस्मादत्यन्तायोगव्यवच्छेदस्यैव बोधो भवेदिति कथमयोगव्यव च्छेदस्तदर्थः प्रकृत इति वाच्यम् , ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणाभावाप्र20 तियोगित्वस्यार्थग्राहकत्वे धात्वर्थे बोधात्क्रियासङ्गतस्याप्येवकारस्य कचिदयोगव्यवच्छेद बोधकत्वात्, न च तत्राप्यत्यन्तायोगव्यवच्छेदक एवैवकारो वाच्य इति वाच्यम् , तथा सत्येकस्मिन्नपि ज्ञाने रजतत्वग्राहकत्वसत्त्वेऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदसम्भवेन ज्ञानं रजतं गृह्णात्येवेति प्रयोगप्रसङ्गात्, तस्मात्प्रकृते क्रियासङ्गतोऽप्येवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधक इति न कापि क्षतिः, अस्तीति विभक्तिप्रतिरूपकाव्ययाश्रयणात् सत्त्वबोधेन विशेषणे 25 सत्त्वे एवकारान्वयेनायोगव्यवच्छेदबोधाद्वा न कोऽपि दोषः । तदेवं पदशक्तिग्रहे जाते वाक्यशक्तरुद्बुद्धतया वाक्यार्थ प्रदर्शयति तथा चेति, वाक्यादस्मात् प्रधानतयाऽस्तित्व १. ननु क्रियासङ्गत्वकारस्यात्यन्तायोगव्यवच्छेदकत्वे प्रयोगोऽयं भवत्येव, न ह्यत्रायोगव्यवच्छेदो भासते येन सर्वेषां ज्ञानानां रजतं न विषय इति कृत्वोक्तप्रयोगो न भवेत् , किन्तु ज्ञानं कदाचिदपि रजतं न गृहातीत्येवंविधात्यन्तायोगस्यैवात्र व्यवच्छेदत्वेनेष्टत्वादित्यस्वरसादाहास्तीतिविभक्तिप्रतिरूपकाव्ययाश्रयणादिति ॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमजी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४२७: धर्मात्मकत्वस्य गौणतया च तदितरसकलधर्मात्मकत्वस्य बोधेन द्रव्यार्थिकनयार्पणया घटेऽनुपचरितैकविशेष्यतायाः पर्यायार्थिकनयार्पणयोपचरितैकविशेष्यताया वा भानेन एव कारार्थाभावाप्रतियोगित्वघटकाभावे विशेष्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्यस्य विशेष्यवाचकपदसमभिव्याहारेण लाभाच्च प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नास्तित्वनिष्ठस्वेतरसकलधर्मात्मकत्वसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूमिता- 5 भेदप्राधान्याभेदोपचारप्रयुक्तकविशेष्यताको घट इति बोधः फलित इति भावः । घटत्वसमानाधिकरणेऽभावे प्रतियोगिवैयधिकरण्यञ्चास्तित्वाभावरूपस्य नास्तित्वस्य घटे सत्त्वेनास्तित्वेऽप्रतियोगित्वरक्षायै । तथा चास्तित्वाभावो न प्रतियोग्यसमानाधिकरणस्तत्रास्तित्वस्यापि सत्त्वादिति | अयश्च बोधः केवलं घटस्यैव विशेष्यत्वमङ्गीकृत्योक्तः, यदि स्यात्पदार्थोऽपि विशेष्यकोटौ प्रवेश्यते तदा प्रकृतेतरसकलधर्मात्मको घटो घटत्वसमानाधिकरण- 10 प्रतियोगिव्यधिकरणाभावाप्रतियोगिस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नास्तित्वनिष्ठकथञ्चित्तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितैकविशेष्यतावानिति बोधो भाव्य इति । अत्र च प्रधानभावेनास्तित्वधर्मात्मकत्वं गुणभावेन च तदितरसकलधर्मात्मकत्वं बोध्यते ततो गुणप्रधानभावापन्नं वाक्यं जातं तथा सति प्रधानभावेनाशेषधर्मात्मकवस्तुबोधकस्सकलादेश इति नियमो व्याहत इत्युच्यते तर्हि एतद्वाक्यबोधानन्तरमनन्तधर्मात्मकं सर्वमित्यौपादानिकबोधोऽङ्गी- 15 कार्यः । अत एवास्य सकलादेशरूपत्वमिति ॥ अथ सत्त्वोपसर्जनासत्त्वप्रधानप्रतिपादकवाक्यार्थ विवेचयति घटस्यान्नास्त्येवेति द्वितीयं वाक्यमन्यधर्माप्रतिषेधमुखेन निषेधविषयकं बोधं जनयति, अत्रापि तादृशो घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिपरद्रव्याद्यवच्छिन्ननास्तित्व- 20 वानिति बोधः ॥ घट इति । अन्यधर्माप्रतिषेधमुखेनेति, धर्मान्तरप्रतिषेधे हि दुर्नयत्वं स्यात्तथा च धर्मान्तरप्रतिषेधाकरणात्स्यात्पदमहिम्नाऽनन्तधर्मविषयो गृहीतधर्मप्रतिपादको यो बोधविशेषस्तं जनयतीति भावः । पूर्ववदेवात्रापि शाब्दबोधो विज्ञेय इत्याशयेनाहानापीति, स्पष्टमन्यत् ॥ तृतीयवाक्यार्थमाह स्यादस्ति नास्ति च घट इति तृतीयं वाक्यं तादृशे घटे क्रमाप्तिस्वपररूपाद्यवच्छिन्नास्तित्वनास्तित्वावच्छिन्नत्वं बोधयति, तथा च तादृशो घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिक 25 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४२८: तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे मार्पितस्वपररूपाचवच्छिन्नास्तित्वनास्तित्वोभयधर्मवानिति बोधः॥ - स्यादस्तीति । मलयगिरिपादाभ्युपगमापेक्षयात्र शाब्दबोध उक्तो व्याख्यातप्रायश्च । प्रथमद्वितीयचतुर्थवाक्यानामेव सकलादेशत्वं निरवयवद्रव्यविषयत्वाच्छेषाणान्तु सावयवद्रव्यविषयत्वाद्विकलादेशरूपत्वं देशभेदं विनैकत्र क्रमेणापि सदसत्त्वविवक्षायास्सम्प्रदायविरुद्धत्वा5 दिति सम्मत्याद्यनुसारेण तु घटस्यैकदेशः अस्तित्वेऽवच्छेदकतयाऽपरश्च देशो नास्तित्वस्याव च्छेदकत्वेन विवक्षितस्तदा देशाभेदद्वारा घटोऽप्यस्ति नास्ति च भवति, अक्षिपाणिगतकाणत्वकुण्टत्वापेक्षया यथा देवदत्तः काणः कुण्टः । अन्यथा क्रमेणाप्येकत्र सदसत्त्वविवक्षाया अनुदयेन भङ्गविलोपः प्रसज्येत । देशोऽप्यवयवो धर्मो वा, अवयवावयविनोधर्मधर्मिणोश्च कथञ्चि दभेदेनावयवादिधर्मैरपि अवयव्यादीनां तथा व्यपदेशस्सुघट एव, उभयप्रधानावयवाभेदेना10 स्तित्वं नास्तित्वञ्चात्राय॑ते, तथा चास्माद्वाक्यात्स्वाश्रयसमवायित्वरूपपरम्परासम्बन्धावच्छि नास्तित्वनास्तित्वरूपधर्मद्वयप्रकारतानिरूपितकविशेष्यताशालिबोधो भवति । इदश्चौपादानिकबोधापेक्षया, अन्यथा घटपदस्य देशपरस्याऽऽवृत्त्या प्रकारताद्वयनिरूपितविशेष्यताद्वयशाल्ये व बोधस्स्यात् । न च प्रकारभेदेन सप्तभङ्गीभेदश्शास्त्रसिद्धः प्रकारश्च विधेयधर्म उद्देश्यतावच्छेद कधर्मो वेत्यत्र न कश्चिद्विशेषः, अत एव शुद्धघटादिधर्मिकसप्तभङ्गयपेक्षया नीलघटादिधर्मिक15 सप्तभङ्गथा अविगानेन भेदस्तथा च प्रकृते धर्मितावच्छेदकस्वावयवस्य धर्मान्तरस्य वा भेदा त्सप्तभङ्गीभेदप्रसङ्ग एकधर्मावच्छिन्नत्वघटितत्वात्सप्तभङ्गया इति वाच्यम् , तत्तद्धर्मितावच्छेदकसमनियतधर्मावच्छिन्नविशेष्यतास्थले सप्तभङ्गीभेदाभावात् ,अन्यथा कम्बुग्रीवादिमान स्यादस्तीत्यादितोऽपि घटविशेष्यकसप्तभङ्गीभेदापत्तेरिति । तादृशे घट इति, प्रकृतेतरसकलधर्मात्मके घट इत्यर्थः । क्रमार्पितेति, क्रमिकशाब्दबोधद्वयेच्छाविषयेत्यर्थः । न च क्रमबलादुभय. १. तत्र देशो नाम सकलस्य वस्तुनो बुद्धिच्छेदविभक्तोऽवयवः । विकलादेश इत्यादेशे वस्तुनो वैकल्यञ्च स्वेन तत्त्वेनाप्रविभक्तस्यापि विविक्तं गुणादिरूपं स्वरूपेणोपरञ्जकमपेक्ष्य परिकल्पितमंशभेदं कृत्वाऽनेकान्तात्मकैकत्वव्यवस्थायां समुदायात्मकमात्मरूपमभ्युपगम्याभिधानम् । अनेकधर्मस्वभावमेकं हि वस्तु, दृष्टश्चाभिनस्याप्यात्मनो भिन्नो गुणो भेदकः, यथा परुद्भवान् पटुरासीत् ऐषमस्तु पटुतरोऽन्य एवाभिसंवृत्त इति, अत्र हि पटुत्वातिशयस्सामान्यपाटवाद्गुणादन्यः, स च वस्तुनो भेदं कल्पयति, प्रयोजनार्थिना तथाऽऽश्रितत्वात् , तस्मात्ते गुणास्तस्यारम्भकत्वाद् भागा वस्त्वंशमनुभवन्ति, अनेकानेकस्वरूपत्वादात्मादिवस्तुनः, पुरुषस्येव पाण्यादयः, ते च क्रमेण वृत्ताः, क्रमयोगपद्याभ्याञ्च, तत्र तृतीयेऽस्मिन् भने क्रमेण वृत्ताः, द्रव्यार्थसामान्येन तद्विशेषेण वा पर्यायसामान्येन तद्विशेषेण वा वस्तूच्यते यथा आत्मा चैतन्यसामान्येनास्ति चैतन्यविशेषविवक्षायां वा एकोपयोगत्वादस्ति, पर्यायसामान्यात् अचैतन्येन नास्ति घटोपयोगकाले वा पटोपयोगैन नास्ति, चैतन्येन तद्विशेषेण वर्तमान एवं तदभावेन तद्विशेषाभावेन वा न वर्तत इत्युभयाधीन आत्मेति तृतीयवाक्यतात्पर्यम् । एवञ्च सङ्ग्रहव्यवहाराभिप्रायात् त्रयस्सकलादेशाः चत्वारस्तु ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढेवंभूतनयाभिप्रायादिति तत्त्वार्थभाष्यटीकाकाराः ॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 10 ससभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४२९ : मुख्य विशेष्यताकबोधस्यार्थसिद्धत्वेनाद्यभङ्गद्वयानतिरेक इति वाच्यं क्रमग भयप्राधान्यबोधकत्वाभिप्रायेणोभयपदप्रयोगात् , तत्रैकत्र द्वयमिति विषयताशालिनो धर्मद्वयप्रकारतानिरूपितकविशेष्यतानिरूपकस्य बोधान्तरस्यानुभविकत्वात् , वस्तुत इच्छाविशेषरूपस्य क्रमा. र्पितत्वस्य भङ्गप्रयोजकत्वान्न भङ्गे सत्त्वासत्त्वोभयनिष्ठविषयतावच्छेदकत्वं स्वपरद्रव्यादी. नामेव तत्रावच्छेदकत्वात् तथा च चालनीन्यायेन स्वद्रव्यपरद्रव्यादिचतुष्टयावच्छिन्नं 5 सत्त्वासत्त्वोभयमस्य भङ्गस्य विषय इत्याशयेन स्वपररूपाद्यवच्छिन्नेत्युक्तम् । वाक्यार्थ निगमयति, तथा चेति, तादृशो घट इति प्रकृतेतरसकलधर्मात्मको घट इत्यर्थः, क्रमार्पितत्वस्योभयधर्मावच्छेदकत्वं यथाश्रुताभिप्रायेण, जिज्ञासाया भङ्गीयविषयतानवच्छेदकत्वाभिप्रायेण तु स्वपररूपादीति, शिष्टं पूर्ववद्भाव्यम् ॥ चतुर्थभङ्गवाक्यार्थमाह स्यादवक्तव्य एव घट इति चतुर्थं वाक्यं युगपत्स्वपररूपादीनामपेक्षणे वस्तु न केनापि शब्देन वाच्यमिति बोधयति, तथा च तादृशो घटः सत्त्वादिरूपेण वक्तव्य एव सन् युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयरूपेण प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणाभावाप्रतियोग्यवक्तव्यत्ववानिति बोधः॥ 15 _ स्यादिति । निरवयवद्रव्यविषयकमिदम् । प्राधान्यतो गुणभावतो वा सत्त्वासत्त्वधर्मयोर्युगपत्प्रतिपादने कस्यापि वचसः सामर्थ्याभावेन घटादिकं वस्तु ताभ्यामवक्तव्यं भवतीत्याशयेनाह युगपदिति । एकदैकपदादुभयबोधो जायतामितीच्छाविषयत्वेनेत्यर्थः । स्वपररूपादीनामित्यनेन स्वरूपाद्यवच्छिन्नसत्त्वपररूपाद्यवच्छिन्नासत्त्वे विवक्षिते, समुदितन्यायेन स्वरूपपररूपादीनां सत्त्वासत्त्वनिष्ठविषयतावच्छेदकतया विवक्षण इति वाऽपेक्षण इति 20 पदान्तस्यार्थः, आदिना द्रव्यक्षेत्रकालानां ग्रहणम् । न केनापि शब्देन वाच्यमिति, कस्यापि पदस्य समस्तपदस्य वाक्यस्य वा तथाविधवाच्यवाचकभावाविषयीभूतत्वादिति भावः, एकं हि पदमेकया शक्त्याऽर्थमेकमेव बोधयति शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् सदिति पदस्यासदविषयत्वादसदिति पदस्य सदविषयत्वात् , अन्यथा तदन्यतरप्रयोगसंशयप्रसङ्गात् , नानार्थविषयस्यापि गवादिपदस्य वस्तुतोऽनेकत्वात् सादृश्योपचारादेव हि तस्यैकत्वेन व्यवहारः, 25 इतरथा सर्वस्यैकशब्दवाच्यत्वं स्यात् , प्रत्येकमप्यनेकशब्दप्रयोगवैफल्यमपि प्रसज्येत, तथा च यथा शब्दभेदेनार्थभेदो ध्रुवस्तथाऽर्थभेदादपि शब्दभेदस्सिद्ध एव, अन्यथा वाच्यवाचकनियमव्यवहारो विलीयेत, एवं वाक्यमप्येकं न युगपदनेकार्थविषयं वेदितव्यम् । ननु Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४३० : तस्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे शाब्दबोधस्य सङ्केताधीनत्वेन कस्यचिच्छब्दस्य सदसत्त्वयोस्संकेतकरणेन व्याकरणे सदिति संज्ञाशब्देन संकेतबलात् शतृशानचोर्बोधादिव सह सदसत्त्वयोः कथं ततो न बोधो भवेदिति चेन्न तत्रापि प्रत्ययद्वयस्य क्रमेणैवोत्पत्तिर्वाच्यवाचकभेदेन वाचकतारूपशक्तेरपि भेदादनेकार्थशब्दस्थल इव बोध्यभेदे शब्दभेदकल्पनात् , उपचारेण चैकत्वाभिमानात् । 5 सेनादिशब्दानामपि करितुरगपदातिप्रत्यासत्तिविशेषरूपैकार्थस्यैव बोधकत्वं, एवमेव वन यूथपतिमालादिशब्दा अपि । न च वृक्षाविति पदं वृक्षद्वयस्य वृक्षा इति पदश्च बहूनां वृक्षाणां कथं बोधकमिति वाच्यं द्वन्द्वापवादैकशेषसमासाभ्युपगन्तृमतेन द्वाभ्यां वृक्षपदाभ्यां वृक्षद्वयस्य बहुभिश्च बहूनां वृक्षाणां बोधात् न तु सकृदेकेन, शिष्टलुप्तशब्दयोस्सारूप्याद्वा च्यसादृश्याच्चैकत्वोपचारेणैकशब्दप्रयोगोपपत्तेः । तत्रैकशेषसमासानभ्युपगन्तृमतेन तु द्विब10 हुवचनान्तो वृक्षशब्दस्स्वभावत एव स्वाभिधेयमर्थ द्वित्वबहुत्वविशिष्टमाचष्टे तथासामर्थ्यात् , अन्यथा शब्दव्यवहारानुपपत्तेः, अनेकनयमयेऽस्मन्मते तु वृक्षौ वृक्षा इत्यतः प्रत्ययवत्या प्रकृत्या वृक्षत्वतदाश्रयलिङ्गसंख्यादिविषयकक्रमिकोपस्थितिपरिणत एव लिङ्गसंख्यादिप्रकारको वृक्षविशेष्यकश्शाब्दबोधो जायते तत्र विशेष्यतया वृक्षस्य प्राधान्यं द्वित्वबहुत्व संख्यादीनान्तु विशेषणतया गौणत्वमिति प्राधान्येनैकार्थवाचकत्वमेवैकपदस्याभिमतम् । 15 न च पुष्पदन्तादिपदवदत्रापि केनचित्पदेन सदसतोरपि प्राधान्येनोपस्थितिः स्यादितिवाच्यम् , एकयोक्त्या पुष्पदन्तौ दिवाकरनिशाकरा" विति कोशस्वरसादेकोच्चारणान्तर्भावेण गृहीतनानाशक्तिकपुष्पदन्तादिपदे व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् , अत्र पुष्पदन्तपदं चन्द्रे सूर्ये च शक्तमित्याकारशक्तिग्रहः तत्कार्यतावच्छेदकश्च चन्द्रत्वप्रकारकत्वे सति सूर्यत्वप्रकार कस्मृतिजननद्वारा तादृशशाब्दत्वम् , चन्द्रत्वसूर्यत्वोभयस्मिन् व्यासज्यवृत्तिरूपमेकं शक्यताव20 च्छेदकत्वं, एकत्र चान्यताग्रहे न शक्त्या बोधोऽपि तु लक्षणयेति नैयायिकाः । तथा विधस्यात्र सहार्पितसत्त्वासत्त्वोभयाश्रयबोधकस्य कस्यापि पदस्याभावादवक्तव्यत्वमेव साधु, तथा जिज्ञासाया बाधितत्वज्ञाने च तथा ज्ञानस्य विपरीतव्युत्पत्त्या जायमानस्याप्यनिष्टत्वप्रतिसन्धानान्न तदर्थ कश्चित्प्रामाणिकः पदप्रयोग इति तदाऽवक्तव्यत्वेन ज्ञानस्यैवे ष्टत्वात् , अत एवैकक्षणे बोधद्वयं जायतामित्यादिस्थलेऽप्यवक्तव्यत्वाभिधानसाम्राज्यं, बाधि25 तेच्छाविषयत्वावच्छेदेनावक्तव्यत्वव्यवस्थापनादिति । १. द्वन्द्वस्य प्रवृत्तिस्त्वेकपदप्रतिपाद्यत्वसामानाधिकरण्येनापरपदप्रतिपाद्यत्वावच्छिन्नमेदे, एकपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितात्वसामानाधिकरण्येनापरपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितात्व वच्छिन्नभेदे वा भवति, घटावित्यादावेकपदप्रतिपाद्येऽपरपदप्रतिपाद्यत्वावच्छिन्नभेदाद्विशेष्यताभेदेन विषयिताभेदाद्वा तदुपपत्तिः ॥ २. सकृदुच्चरितशब्दस्सकृदेव प्रधानतयाऽर्थ बोधयतीत्येव नियमात् । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमजी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते . :४३१ : सत्त्वादिरूपेणेति, आदिनाऽसरवस्य ग्रहः, अवक्तव्य एव घट इत्युक्तौ घटस्य सर्वथाऽवाच्यत्वं प्राप्नोति तथा चास्तित्वादिमुखेनापि घटस्याभिधानं न स्यादेवश्च प्रथमद्वितीयादिभङ्गभङ्गप्रसङ्ग इति स्यात्पदप्रयोगः क्रियते, तेन च सत्त्वाचेकैकधर्ममुखेन वाच्यमेव सर्व वस्तु, युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नत्वेनावाच्यत्वमित्याशयेन सत्वादिरूपेण वक्तव्य एव सन्नित्युक्तम् ॥ अथ पञ्चमभङ्गवाक्यार्थमाह स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घट इति पञ्चमवाक्येन स्वद्रव्याद्यपेक्षया स्तित्वविशिष्टो युगपत्स्वपरद्रव्याद्यपेक्षयाऽवक्तव्यत्वविशिष्टो घटो बोध्यते, तथा चाभेदप्राधान्येनाभेदोपचारेण वा सामान्यतोऽनन्तधर्मात्मको घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावा- 10 प्रतियोगिस्वद्रव्याद्यवच्छिन्नास्तित्वविशिष्टयुगपत्स्वपरद्रव्याद्यवच्छिन्नसत्त्वासत्त्वोभयविषयकावक्तव्यत्ववानिति बोधः॥ स्यादस्ति चेति, विध्यात्मना मुख्यविषयतावच्छिन्ना योषयात्मना युगपदवक्तव्यत्वमुख्यविषयता तद्वतो बोधोऽस्य भङ्गस्य फलमित्याशयेनाह-स्वद्रव्याद्यपेक्षयेति, मतान्तरेण तु एको देशो घटस्य धर्मिणोऽस्तित्वे आदिष्टोऽपरश्च देशोऽस्तित्वनास्तित्वप्रकाराभ्यामेक. 15 दैव विवक्षितः, तदा स घटोऽस्ति चावक्तव्यश्च भवति, उक्तोभयधर्माकान्तदेशद्वारेण धर्मिणो विवक्षितत्वात् । अत एव प्रथमचतुर्थभङ्गसंयोगेनान्यथासिद्धिव्युदासः, तत्र हि केवलं धर्मविवक्षा, सा च देशाविशेषितद्रव्य एव सम्भवति, अत्र तु देशद्वारा द्रव्य उभयधर्मविवक्षा, एवमग्रेऽपि भाव्यम् । फलितार्थमाह तथा चेति, स्पष्टमन्यत् ।। षष्ठभङ्गवाक्यार्थमाह स्थानास्ति चावक्तव्यश्चेति षष्ठं वाक्यं परद्रव्याद्यपेक्षया नास्तित्वविशिष्टं युगपत्प्राधान्येन स्वपरद्रव्याद्यपेक्षयाऽवक्तव्यत्वविशिष्टं घट प्रतिपादयति । तथा च तादृशो घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमाना 20 १. अनेकद्रव्यपर्यायात्मकत्वाद्धटस्य सतः कञ्चिद् द्रव्यार्थविशेषमाश्रित्यास्तीति घटस्य व्यपदेशः, तस्यैवान्यघटद्रव्यसामान्यं तद्विशेषं द्वयं वाङ्गोकृत्य युगपद्विवक्षायामवक्तव्यता, घटत्वेन घटविशेषेण कथञ्चिवर्तमानो घटः घटवाघटत्वादिना तदेकविशेषापरविशेषादिना वा युगपद्विवक्षायां स्थादस्ति चावक्तव्यश्च घट इति पञ्चमवाक्यबोधः ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४३२: तत्त्वन्यायविमाकरे [ षष्ठकिरणे धिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिपरद्रव्याद्यवच्छिन्ननास्तित्वविशिष्टयुगपस्वपरद्रव्याद्यवच्छिन्नसत्त्वासत्वविषयकावक्तव्यत्ववानिति बोधः ।।। स्यान्नास्ति चेति, निषेधात्मना मुख्यविषयतावच्छिन्ना योभयात्मना युगपदवक्तव्यत्वविषयता तद्वतो बोधोऽस्माद्भवतीत्याशयेनाह-परद्रव्याद्यपेक्षयेति । मतान्तरेण तु घटस्यैको 5 देशो नास्तित्वे नियतोऽपरश्च सत्त्वासत्वाभ्यां युगपदादिष्टस्स घटस्तथाविधविकल्पवशात् नास्ति चावक्तव्यश्च भवति, तात्पर्यार्थमाह तथा चेति, शिष्टं स्पष्टम् ॥ अथ सप्तमभङ्गवाक्यार्थमाह स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तमं वाक्यन्तु क्रमार्पित16 स्वपरद्रव्यादीन् सहार्पितस्वपरद्रव्यादीनाश्रित्यास्तित्वनास्तित्वविशिष्टा वक्तव्यत्ववद्धटमाह । तथा च तादृशो घटः प्रतियोग्यसमानाधिकरणघटत्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावाप्रतियोगिक्रमाप्तिस्वपरद्रव्याचवच्छिनास्तित्वनास्तित्वोभयविशिष्टसहार्पितस्वपरद्रव्याद्यवच्छिन्नास्तित्वना स्तित्वोभयधर्मविषयकावक्तव्यत्ववान् घट इति बोधः॥ 15 स्यादिति, क्रमादुभयमुख्यविषयताद्वयावच्छिन्नावक्तव्यत्वमुख्यविषयताको बोधोऽस्य फलमित्याशयेनाह-क्रमार्पितेति, मतान्तरेण तु यस्यैको देशोऽस्तित्वेऽपरो नास्तित्वेऽन्यश्चोभयथा नियतस्तादृशो घटो विकल्पवशादस्तिनास्त्यवक्तव्यश्च भवतीति । भावार्थमाह तथा चेति स्पष्टम् । वाक्येष्वेषु सप्तसु नयविभागस्तु सामान्यग्राहिणि सङ्ग्रहे प्रथमो भङ्गः, विशेषग्राहिणि व्यवहारे द्वितीयः सङ्ग्रहव्यवहारयोस्तृतीयः, सूक्ष्मवर्त्तमानक्षणग्राहिणि 20 ऋजुसूत्रे चतुर्थः एकदोभयार्पणाया वर्तमानक्षणनियतत्वात् , पञ्चमस्सङ्ग्रहर्जुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहारर्जुसूत्रयोः, सप्तमस्तु सङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रेष्विति । एते त्रयो नया ववभिप्रायरूपत्वादर्थनयाः, प्रथमद्वितीयावेव भङ्गौ शब्दादिषु त्रिषु नयेष्वपीति केचित् ॥ १. अयम्भावः अर्थप्रधानो ववभिप्रायोऽर्थनयः सङ्ग्रहादिः, व्यञ्जनस्य परार्थत्वात्तच्छवणसम्भूतः शन्दादिश्रोत्रभिप्रायस्तु शब्दप्रभवमर्थमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति, अतस्स शब्दनयश्शब्दसमभिरूढवम्भूतभेदभिन्नः । तत्र वचनमार्गश्च सविकल्पनिर्विकल्पकभेदेन द्विविधः, सविकल्पं सामान्यं निर्विकल्प: पर्यायः, तत्प्रतिपादकवाद्वचनमपि तथा संज्ञाक्रियाभेदेनाभिन्नार्थप्रतिपादकावपि शब्दसमभिरूढौ भेदजिज्ञासारूपविकल्पसाहित्यात्तदभिप्रायेण सविकल्पको वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः, एवम्भूतस्तु क्रियाभेदाद्भिन्नमेवार्थ तत्क्षणे प्रतिपादयतीति तदुसरं भेदजिज्ञासारूपविकल्पविरहान्निर्विकल्पो द्वितीयभङ्गरूपो बचनमार्गः । अवक्तव्यत्वभङ्गस्तु व्यञ्जननये न सम्भवत्येव व्यञ्जननयस्य श्रोत्रभिप्रायत्वेन तत्र शब्दाभावात् तथा चैतन्नये प्रथमद्वितीयावेव भङ्गाविति ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहभजी न्यायप्रकाश ____ननु पूर्वोदितेषु भङ्गेषु सत्त्वाद्यवच्छेदकतया स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावा उक्ताः तेषां स्वत्वमरत्वविवेकाय प्रथमं भावपदवाच्यं स्वरूपं दर्शयत्यसाधारणत्वादादौ अत्र सर्वत्र घटस्य स्वरूपमयं घट इति ज्ञानीयप्रकारताश्रयान्यूनानतिप्रसक्तं घटत्वमेव, तादृशप्रकारत्वानाश्रयं विशेष्यावृत्ति च पटत्वादिकं पररूपं, नतु तद्भिन्नत्वमात्रं, द्रव्यत्वादीनां पररूपत्वापत्तेः । घटादीनाञ्च 5 पररूपादिनापि सत्त्वे पदार्थत्वव्याघातप्रसङ्गः, स्वपररूपग्रहणव्यवच्छेदाभ्यां हि पदार्थत्वं व्यवस्थाप्यम् ॥ अत्र सर्वत्रेति । पूर्वोदितेषु सप्तसु भङ्गेष्वित्यर्थः, अयं घट इति ज्ञानीयप्रकारतेति, तादृश. . ज्ञाननिरूपितप्रकारताश्रयत्वे सति अन्यूनानतिप्रसक्तत्वं घटत्वस्यैव घटमात्रवृत्तित्वे सति घटेतरावृत्तित्वात् , तस्मात्सदृशपरिणामलक्षणो घटत्वरूपो धर्मो घटस्य स्वरूपमिति भावः । पर- 10 रूपमाह तादृशेति, अयं घट इति ज्ञाननिरूपितेत्यर्थः, तथा च तादृशप्रकारत्वानाश्रयत्वं पठत्वादावेव, ते च पटत्वादयः विशेष्ये घटे न वर्तन्त इति पररूपा भवन्तीति भावः । तादृशप्रकारत्वाश्रयभिन्नत्वमानं तु नः पररूपत्वं तस्य द्रव्यत्वादावपि सत्त्वेन पररूपत्वापत्तेरित्याह न तु तद्भिन्नत्वमात्रमिति, हेतुमाह द्रव्यत्वादीनामिति, ननु घटादिकमस्ति नास्तीति वदताs स्तित्वं नास्तित्वञ्च वस्तुधर्मतयाऽभ्युपगतं भवेत् तत्कथमेकमेव घटादिकं वस्तु सच्चासञ्च- 15 स्यात् सत्त्वस्यासत्त्वपरिहारेणासत्त्वस्य च सत्त्वपरिहारेण व्यवस्थितत्वात् , अन्यथा तयोरविशेषः स्यात् , तथा च घटादिकं यदि सत्तर्हि कथमसत्, यदि चासत् कथं सदेकत्र सदसत्त्वयोर्विरोधादित्याशंकायामाह घटादीनाञ्चेति, निरवच्छिन्नसत्त्वासत्त्वयोरप्रामाणिकत्वेन स्वरूपादिघटितमूर्तेरेव सत्त्वादेः प्रतीतेः घटादिकं वस्तु स्वरूपेणास्ति पररूपेण नास्तीत्येव वस्तुतत्त्वं, स्वरूपेणेव पररूपेणापि सत्त्वे घटोऽप्यघट: स्यात् , अघटस्वरूपपटादिवत्, पर- 20 रूपेणेव स्वरूपेणाप्यसत्त्वे घटादिकं घटवस्त्वेव न स्यात् स्वस्वभावादिनाप्यस स्वात् खरविषाणवदिति इतरेतररूपापत्त्या पदार्थस्वरूपहानिप्रसङ्ग इति भावः, घटाद्यात्मकत्वश्च स्वस्वभावादिरूपेण ग्रहणात्परस्वभावादिना व्यवच्छेदाच्च सम्भवति नान्यथेत्याशयेनाह स्वपरेति, न चैकत्र वस्तुनि सत्त्वमसत्त्वञ्च परस्परविरुद्धधर्मयोस्सामानाधिकरण्यायोगाद्युक्तिविरुद्धमिति वाच्यम् , स्वरूपपररूपाभ्यां विवक्षितयोस्तयोश्शीतोष्णस्पर्शवद्भिन्नाधिक- 25 रणत्वाप्रतीत्या विरोधासिद्धेः, तादृशयोस्तयोरेकाधिकरणत्वधीसद्भावात् , न च दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, स्पष्टास्पष्टविषयतया भिन्नस्वभावत्वेन सिद्धयोः प्रत्यक्षशाब्दबोधयोरेकविषयत्वस्य ५५ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४३४: तस्वन्यायविभाकरे [पकिरण एकद्रव्याश्रयत्वस्य चेव सत्त्वासत्त्वयोरेकाश्रयत्वस्याविरुद्धत्वात् । न च स्वस्वभावादिना सत्त्वमेव परस्वभावादिनाऽसत्तं स्यान्न ततो भिन्नमिति वाच्यम् , तस्यैकस्वभावत्वेऽवस्तुत्वप्रसङ्गात् , यदि हि घटत्वादिना सत्त्वमेव पटत्वाद्यवच्छिन्नासत्त्वं स्यात् तदा पटत्वादिनापि सन् स्यात् पटत्वाद्यवच्छिन्नासत्त्वस्य घटत्वावच्छिन्नसत्त्वाव्यतिरिक्तत्वात् , तथा घटत्वेनाप्य5 सन् स्यात् पटत्वाद्यवच्छिन्नासत्त्वाभिन्नत्वाद्धटत्वावच्छिन्नसत्त्वस्य, तथा च तदितररूपाप त्यादिनाऽपदार्थत्वप्रसङ्गो दुर्वार एव स्यात् । ननु निरुपाख्यं किश्चित् पररूपाद्यसत्त्वं नास्त्येव येनाव्यतिरिक्तत्वविकल्पकल्पनयाऽवस्तुत्वापत्तिस्स्यात् , किन्तु स्वरूपादिसत्त्वमेव विशिष्टमेकस्वभावं पररूपाद्यसत्त्वमुच्यते, अतो नोक्तदोष इति चेन्मैवम् , स्ववाचैवानेकान्तत्व प्रतिपादनात् , विशिष्टं स्वरूपावच्छिन्नसत्त्वमेव पररूपाद्यवच्छिन्नासत्त्वमुच्यते सदसद्रूपत्वञ्च 10 वस्तुनो न प्रतिपद्यत इति चित्रम् , स्वपररूपाद्यवच्छिन्नसत्त्वासत्त्वोभयरूपतामन्तरा वस्तुनो विशिष्टताया असम्भवात् । नन्वेवमपि सदसद्रूपं वस्तु न सम्भवति, तथाहि असदिति प्रसज्यप्रतिषेधो वा स्यात्पर्युदासो वा, किश्चातः, उभयत्र दोषात् सन्न भवतीत्यसदिति प्रसज्यप्रतिषेधे सनिवृत्तिरूपनिरुपाख्यस्यासत्त्वेन प्रमाणागोचरत्वाद्वस्तुधर्मत्वानुपपत्तेः, तत्त्वेऽ भ्युपगम्यमाने वा निरुपाख्यधर्मवतस्सोपाख्यत्वासम्भवेन वस्त्वपि निरुपाख्यं स्यात् , सतोऽ 15 न्यदसदिति पर्युदासाश्रयणे सदन्तरमसद्भवति, एवमपि वस्तुनस्सदात्मकत्वेन सतोऽन्यत्वा भावान्न सदसदात्मकं, नहि सत् सदन्तरात्मकमिति चेन्न उभयपक्षाश्रयणेऽपि वस्तुनस्सदसदास्मकत्वात् , सत्त्वाननुविद्धस्यासत्त्वस्याभावेन सन्न भवतीत्यत्रापि परद्रव्यादिरूपेण सत एव प्रतिषेधान् तस्य च तत्रासत्त्वात्तत्स्वरूपस्य च सत्त्वानुवेधान्न निरुपाख्यमेव तदसत्त्वमिति न तत्पक्षोपक्षिप्तदोषप्रसक्तिः, पर्युदासपक्षदोषस्तु अनभ्युपगमादेव निरस्तः । तथा च सदस20 दात्मकं वस्तु, तत्रं न स्वरूपसत्वासम्पृक्तं पररूपासत्त्वं नवा पररूपासत्त्वासम्पृक्तं स्वरू. १. न चैकस्मिन्नपि द्रव्ये प्रत्यक्षविषयता भिन्नकाले भिन्नकाले च शाब्दीविषयतेति यकालभेदान्न तयोविरोध इति वाच्यमेककालावच्छेदेन चित्रज्ञाने नीलतदितरविषयत्वयोर्विरोधेनाभानापत्तेः, न च तत्र तथाप्रतीतिरेवाविरोधसाधिका तयोरिति वाच्यं प्रकृतेऽपि तुल्यत्वात् । किञ्च भावाभावयोर्विरोधस्यापि तत्तत्प्रतियोगिघटितत्वेन विशेष एव विश्रान्ततया जात्यन्तरभूते वस्तुनि तदेकदेशसत्त्वासत्त्वयोरविरोधकल्पन एव लाघवमिति ॥ २. निरुपाख्यं-निःस्वभावम् पररूपाद्यसत्त्वं-पररूपाद्यवच्छिन्नः सत्त्वाभावः बौद्धमतेनायं पूर्वपक्षः । विशिष्टमेकस्वभावं-स्वेतरसकलव्यावृत्तिरूपं सदेकस्वभावम् ॥३ परद्रव्यादिरूपेण सत: पटादेस्स्वद्रव्यादिरूपेण सति घटे प्रतिषेधः क्रियते पररूपाद्यवच्छिन्नसत्त्वस्य च घटेऽभावात् तदप्यसत्त्वं न निरुपाख्यं तत्स्वरूपसत्त्वस्यानुवेधात् सत्त्वाभावो हि घटात्मकः तस्मात्तत्सत्त्वेन सोऽनुविद्ध इति न निरुपाख्य इति भावः ॥ ४. घटो हि स्वरूपणास्ति, पररूपाद्यवच्छिन्नपटाद्यात्मकस्तु न भवति एवञ्च सत्त्वं तत्प्रतिषेधश्च घटस्वरूपमतस्सत्त्वमसत्त्वानुविद्धमसत्त्वञ्च सत्त्वानुविद्धमिति भावः ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते पसत्त्वं, न चानयोरेकत्वमेव, अविगानेन सम्यगुभयोपलब्धेः, न च नानात्वमेव, तळ्यवस्थाs योगात् तथानुपलब्धेश्चेत्यन्योऽन्यानुविद्धं भेदाभेदवृत्तितत्स्वभावं विशिष्टमुभयमेव तत् अन्यथा वस्तूनां वैशिष्टयानुपपत्तेरिति । ननु भवतु सत्त्वमसत्त्वश्च वस्तुधर्मो वस्तुस्वरूपत्वं तयोः कथम् , तथाहि धर्मधर्मिणोः किन्तावद्भेद उताभेद आहोस्विद्भेदाभेदो वा, नाद्यः, वस्तुनस्सदसदात्मकत्वासम्भवात् न द्वितीयः, एकधर्माभिन्नत्वात्तयोरैक्यापत्तेस्तत्स्वरूपवत्, 5 धर्मिणो वा भेदस्स्यात् सदसत्त्वयोर्भेदात् नापि तृतीयः, येनाकारेण भेदस्तेन भेदैकान्त्यात् येन चाकारेणाभेदस्तेनाभेदैकान्त्यात् , तथाप्येकस्योभयरूपत्वासम्भवात् , न च येनैवाकारेण भेदस्तेनैवाभेदो येन चाभेदस्तेन भेद इति वक्तुं युज्यते विरोधादिति चेन्मैवम् , प्राथमिकविकल्पद्वयोक्तदोषस्यानभ्युपगमतिरस्कृतत्वात् भेदाभेदपक्षस्यैवाभ्युपगमात् । न चात्रापि दोष उक्त एवेति वाच्यम् , अन्योऽन्यव्याप्तिभावेनास्य जात्यन्तरात्मकत्वेन केवलभेदाभेदप्रत्युक्तदोष- 10 स्यात्रानवतारात् । तस्माद्येनाकारेण भेदस्तेन भेद एव, येन चाभेदस्तेनाभेद एवेत्यत्यन्सपरित्यक्तानेकान्तवादविषयमेतत् । अभेदाननुविद्धस्य केवलभेदस्य भेदाव्याप्यस्याभेदस्य चाप्रसिद्धेः, न च येनाकारेण भेदस्तेनैवाभेद इत्याद्यपि साम्प्रतम् , सर्वथैकनिमित्तत्वे भेदाभेदद्वयानुपपत्तेः, तर्हि कथं धर्मधर्मिणोर्भेदाभेद इति चेत्कथश्चिद्भेदः कथञ्चिदभेद इति गृहाण, धर्माणां मिथो भेदात्प्रतिनियतधाश्रितत्वाच कथश्चिद्भेदः, धर्माणां धर्मिणा सर्वथै- 15 कत्वे धर्मतयापि भेदासम्भवात् , तथा धर्माणामेवाभ्यन्तरीकृतधर्मिस्वरूपत्वात् धर्मिणोऽपि चाभ्यन्तरीकृतधर्मस्वरूपत्वात्कथञ्चिदभेदः, अत्यन्तभेदे धर्मधर्मिकल्पनाऽसम्भवात् , अतिप्रसङ्गात् , अनुवृत्तव्यावृत्तस्य च वस्तुनोऽध्यक्षसिद्धत्वेन न भेदाभेदस्योत्प्रेक्षितत्वमपि, अनुभवो हि पुरोऽवस्थिते घटादौ तदतद्रूप एवोपजायते, अन्यथा वस्त्वभावप्रसङ्गादिति । ननु जीवादीनां द्रव्यत्वावच्छिन्नानां सत्त्वासत्त्वादिसप्तभङ्गीसाधने किं स्वद्रव्यं किं वा 20 परद्रव्यं, तदवच्छिन्नभेदाप्रसिद्ध्या परत्वस्य तदभावे च स्वत्वस्य दुर्वचत्वादिति चेदुच्यते शुद्धं द्रव्यं स्वं सत्त्वावच्छेदकं, अशुद्धश्च परमसद्रव्यं असत्त्वावच्छेदकं, शुद्धत्वाशुद्धत्वे च भेदाभेदप्रधानव्यवहारनिश्चयसाक्षिकाखण्डोपाधिरूपे, न च शुद्धद्रव्यस्य स्वपरद्रव्यव्यवस्था कथं, तस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावात्मकत्वादिति वाच्यम् , सकलद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपं व्यापकं स्वद्रव्यं विकलद्रव्यादिक परद्रव्यमित्यङ्गीकारादेवमन्यत्रापि भाव्यं ॥ 25 .. १. सत्त्वासत्त्वयोभिन्नत्वादिति भावः । ऐक्यापत्तेरिति, तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वनियमादिति ॥ २. स्वभावस्य धर्मत्वेन धर्मधर्मिणोरेकान्तभेदे धर्मिणो निस्स्वभावत्वं स्यात् तथा च ज्ञेयत्वादिधर्माननु वेधार्मिणोऽभावप्रसङ्गः, तदभावादेव च धर्माणां निराश्रयत्वादाश्रयं विना ग्रहणासम्भवादभावप्रसङ्ग इत्यतिप्रसङ्गपदार्थः ॥ ३. ज्ञानवद्या हि वस्तुव्यवस्थितिः नहि भेदाभेदात्मकत्वं संवेद्यते, उभयरूपस्य संवेदनस्याभावादित्याशंकायामाहानुभवो हीति ॥ ४. भाव एव हि द्रवति द्रोष्यति अदुवदिति द्रव्यं, क्षीयन्ते क्षेष्यन्ति Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४३६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ षष्टकिरणे अथ स्ववृस्यसाधारणधर्म एव स्वरूपमित्युक्त्वा पुनरिदानीमन्येऽपि घटस्य स्वरूपाः पररूपाश्च भवन्तीत्यभिप्रायेणाह — एवं तन्निष्ठाः स्थौल्यादिधर्मवर्त्तमानकालीनपर्याय पृथुवुध्नोदराद्याकाररूपादिगुणघटनक्रियाकर्तृत्वादयस्स्वरूपा अन्ये पररूपा बोध्याः ॥ 5 एवमिति । तन्निष्ठा इति घटनिष्ठा इत्यर्थः । स्थौल्यादिधर्मेति, स्थौल्यादयो धर्माः, वर्त्तमानकालीन पर्यायविशेषाः, पृथुबुध्नोदराद्याकाराः, रूपादिगुणाः, घटनक्रियाकर्तृत्वमि - त्यादयस्वरूपास्तद्भिन्नाः पररूपा इत्यर्थ: । घटमात्रस्य पूर्वं स्वपररूपमुपदर्थ घटविशेषस्य तद्दर्शयितुं वा प्राहैवमिति । तन्निष्ठा इति तत्तद्घटनिष्ठा इत्यर्थः, अयं भावः घटत्वात्रान्ते हि घटविशेषे योऽयं स्थौल्यादिधर्मस्स तस्य स्वरूपं घटान्तरनिष्ठो धर्मविशेषः पररूपम्, 10 घटोऽयं स्थौल्यादिस्वरूपेणास्ति, अन्यघटनिष्ठधर्मेण नास्ति, स्वरूपेणाप्यसत्त्वे घटोऽयमसन् स्यात्, पररूपेणास्तित्वोपगमे सर्वघटानामैक्यप्रसङ्गेन सामान्याश्रयव्यवहारविलोपप्रसङ्गः । अनेकघटवृत्तिसामान्याभावात् । प्रतिक्षणं घटादौ सजातीयपरिणामोत्पत्तेस्सिद्धान्तसिद्धतया ऋजुसूत्रनयतो वर्त्तमानक्षणवृत्तिघटपर्यायो घटस्य स्वरूपं, अतीतानागतक्षणनिष्ठघटपर्यायाः पररूपं, तथा च वर्त्तमानकालीनपर्यायेण घटोऽस्ति, क्षणान्तरवृत्तिपर्यायेण च नास्ति, तेन 15 रूपेणापि सत्वे घटस्यैकक्षणावृत्तित्वं स्यात् स्वीयरूपेणाप्यसत्त्वे घटव्यवहारस्यैव विलोपा - पत्तिः, विनष्टानुत्पन्नघटव्यवहाराभाव इव । अथवा पूर्वोत्तरकुमूलकपालाद्यवस्थाकलापो मध्यवर्त्तघटस्य पररूपं मध्यवर्त्तिघटपर्यायः स्वरूपं तथा च यदि तादृशपररूपेणापि स्यात्तदा कुसूलाद्यवस्थायां तदुपलब्धिप्रसङ्गो घटपर्यायोत्पत्तिविनाशार्थं प्रयत्नवैफल्यप्रसङ्गश्च स्यात् । यदि च स्वरूपेणापि न स्यात्तर्हि तत्कार्यजलाहरणादिकमपि नोपलभ्येत । कालविशेषाव - 20 स्थायिनि क्षणमात्रवर्त्तिनि वा घटे वर्त्तमानो यः पृथुबुध्नोदराद्याकारस्स तस्य स्वरूपं, इतराकारः पररूपम्, स्वरूपेण सोऽस्ति पररूपेण च नास्ति, उभयथापि सत्त्वे तद्भट इतरेषां व्यवहारप्रसङ्गः, आकारविशेष सत्त्वाधीनत्वाद्व्यवहाराणाम् । उभयथापि नास्तित्वे घटासंवप्रसङ्गः । रूपविशिष्टो घटचक्षुर्मा इति व्यवहारे रूपद्वारा घटो गृह्यत इति रूपं घटस् स्वरूपं, न रसादिमुखेन चक्षुग्राह्य इति रसादिकं पररूपं, तथा च स स्वरूपेणास्ति पर25 पेण च नास्ति, उभयथापि सत्त्वे रसस्यापि चक्षुर्जन्यज्ञानविषयत्वापत्त्या रसनादीन्द्रियकल्पना व्यर्था स्यात् । उभयथापि नास्तित्वे घटस्याग्रहणप्रसङ्गः रूपादिज्ञाननियतत्वाद्वटादि क्षिताचास्मिन् पदार्था इति क्षेत्र, कल्यन्ते कलयिष्यन्ते कलिताश्चास्मादिति कालः भवति भविष्यत्यभूदिति भावः पर्याय इति सत्तैव द्रव्यक्षेत्रकालभावात्मना विशेष्यते तस्या एव तथा व्यवहारविषयत्वघटनादिति ॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभङ्गी ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते ज्ञानस्य । समभिरूढनयार्पणतः शब्दभेदेऽप्यर्थभेदधौव्येण घटकुटादिशब्दानामर्थभेदोऽस्ति तथा च घटत इति व्युत्पत्त्या घटनक्रियाकर्तृत्वं घटस्य स्वरूपं भवति, इतरच पररूपं भवति, घटश्च तेन रूपेणास्ति पररूपेण च नास्ति, उभयथापि सत्त्वे भिन्नप्रवृत्तिनिमित्ताभावेन शब्दभेदो न स्यात्, उभयथाप्यसत्त्वे घटादिशब्दानां निरर्थकत्वापत्तेः । एवं सम्मत्याद्यनुसारेण नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नेषु विधित्सिताविधि - 5 त्सितप्रकारेण सत्त्वासत्त्वे ताभ्याश्च युगपदवाच्यत्वं भाव्यं व्यतिरेके च प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदो बाधकः । अत्रायं क्रमोऽवसेयः नामस्थापनाद्रव्यभावभिन्नेषु घटादिषु विधित्सिताविधित्सितप्रकारेण सत्त्वासत्त्वे, स्वीकृत प्रतिनियताकारे नामादिके घटादौ संस्थानमादाय, स्वीकृत प्रतिनियतसंस्थानादिके मध्यमावस्थारूपवर्त्तमानकालीन पर्यायमादाय, ततो मध्यमावस्थारूपे तस्मिन् वर्त्तमानावर्त्तमानक्षणपर्यायमादाय, क्षणपरिणतिरूपे च चक्षुर्ज - 10 न्यज्ञानविषयत्वाविषयत्वाभ्यां लोचनप्रतिपत्तिविषये तत्रैव घटतदितरशब्दवाच्यत्वाभ्यां घटशब्दाभिधेये च हेयोपादेयान्तरङ्गबहिरङ्गोपयोगानुपयोगरूपतया, उपयुक्त त्वभिमतार्थबोधकत्वानभिमतार्थबोधकत्वाभ्यां विज्ञेये इति ॥ तदेवं स्वरूपपररूपाभ्यां सदसत्त्वं व्यवस्थाप्य द्रव्यावलम्बनेन तदाह एवं शुद्धं मृद्द्रव्यं घटस्य स्वरूपं, तद्भिन्नं स्वर्णादि परद्रव्यम्, तद्रूपे- 15 णापि घटादीनां सत्त्वे द्रव्यस्य प्रतिनियमो न स्यात् ॥ : ४३७ : एवमिति, पूर्वोपदर्शितस्वपररूपप्रकारेणेत्यर्थः, शुद्धं मृद्रव्यमिति मृस्वेन लोकप्रसिद्धमित्यर्थः, तेन मृत्तिकामात्रस्य न ग्रहः सुवर्णादीनामपि मृद्द्रव्यत्वेन पररूपत्वासम्भवात् एवञ्च पार्थिवत्वेनेत्यस्यापि लाभः । स्वर्णादीत्यादिनाऽबादीनां ग्रहः । एवञ्च घटः स्वद्रव्येण मृदात्मना पार्थिवत्वेन वाऽस्ति परद्रव्येण स्वर्णादिनाऽवादित्वेन वा नास्तीति भावः । 20 अन्यथेतरेतररूपापत्त्याऽयं मृदात्मकोऽयं स्वर्णात्मक इत्यादिद्रव्यप्रतिनियमो न स्यादित्याशयेनाह तद्रूपेणापीति, स्वर्णादिरूपेणापीत्यर्थः, तथोभयथाप्यसत्त्वे घटादिव्यवहारविलोप इत्यपि बोध्यम् । न चोभयथापि सत्त्वे न द्रव्यप्रतिनियमव्याघातः तथाहि अनेकद्रव्यनिष्ठस्यापि संयोगविभागादेर्न द्रव्यप्रतिनियमव्याघातो घटपटसंयोगस्य घटात्मना पटात्मनापि १ घटादिषु विधित्सितरूपेण सत्त्वमविधित्सितरूपेणासत्त्वं ताभ्यां युगपदवाच्यं विज्ञेयं विपर्यये प्रतिनियतव्यवहारोच्छेदो बाधकः, विधित्सिते घटादौ स्वसंस्थानापेक्षया सत्त्वं परसंस्थानापेक्षया चासत्त्वं ताभ्यां युगपदवाच्यत्वमित्येवंरीत्या भङ्गत्रयं प्रमाणात्मकं विज्ञेयमिति भावार्थ: । संस्थानमादायेति, तद्वृत्तिस्थौल्यादिधर्ममादायेत्यर्थः । मध्यमावस्थारूपेति, पूर्वोत्तरकुसूलकपालाद्यन्तरालवर्त्तिपर्यायेत्यर्थः स्पष्टमन्यत् ॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४३८: तस्वन्यायधिभाकरे [ षष्ठकिरणे सवादथ च तयोरेव संयोग इति नियमाञ्चेति वाच्यम , तस्यानेकद्रव्यगुणत्वेनानेकद्रव्यस्यैव स्वद्रव्यत्वात् स्वानधिकरणद्रव्यान्तरस्य च परद्रव्यत्वात् तथा च स्वद्रव्यापेक्षयाऽस्तित्वाभावेऽयं संयोगोऽनयोरेवेति प्रतिनियमो. व्याहन्यत एव । अत्रायन्तु विशेषः, अव्यासज्यवृत्तिधर्माणामस्तित्वे स्वसमवायिद्रव्यमात्रापेक्षा, व्यासज्यवृत्तिधर्माणान्तु स्वपर्याप्तिम5 द्रव्यापेक्षेति ॥ क्षेत्रावलम्बनेन ते घटयति__ एवं घटस्य निजं क्षेत्रं भूतलादि परक्षेत्रं तद्भिन्नं कुडयादि स्वक्षेत्र इव परक्षेत्रेऽपि सत्त्वे क्षेत्रनियमानुपपत्तिप्रसङ्गः ॥ एवमिति । क्षेत्रमिति, अधिकरणमित्यर्थः, इहत्यत्व घटस्य क्षेत्रं तेन रूपेणास्ति 10 तद्भिनमिति भूतलादिभिन्नमित्यर्थः स्वानधिकरणदेश इति भावः, स्वानधिकरणदेशाऽवच्छे. देन च नास्तीति तात्पर्यार्थः । उभयथा सत्त्वे इतरेतररूपापत्तिमाह-स्वक्षेत्र इवेति, क्षेत्रनियमानुपपत्तिप्रसङ्ग इति, अस्मिन्नेव क्षेत्रे घटोऽस्ति न तत्क्षेत्र इति नियमभङ्ग इत्यर्थः, उभयथाप्यसत्त्वे तु निराश्रयत्वापत्तिरिति भावः ॥ अथ कालमाश्रित्य ते निरूपयति15 एवं वर्तमानकाल एव घटस्य कालः, तद्भिन्नातीतादिः परकालः स्व. कालवत्परकालेऽपि घटस्य सत्त्वे प्रतिकालनियमानुपपत्तिः प्रसज्येत । इति सप्तभङ्गीनिरूपणम् ॥ ' एवमिति । घटाधिकरणीभूतः कालो घटस्य स्वकालः, तदनधिकरणः भूतकालो ध्वंस. कालो वा परकालः, उभयथा घटस्य सत्त्वे दोषमाह स्वकालवदिति, प्रतिकालेति, अस्मि20 नेव काले घटोऽस्ति नातीतादिकाल इति नियतकालव्यवहारो न भवेदेव इष्टापत्तौ तु नित्यत्वापत्तिप्रसङ्गः, उभयथाऽसत्त्वे तस्य सर्वकालासम्बन्धित्वेनावस्तुत्वापत्तिः स्यादिति भावः । ननु घटस्य सत्त्वे यथा स्वरूपादिरवच्छेदकः तथा स्वरूपादौ स्वरूपाद्यन्तरमस्ति न वा ? यदि नास्ति कथं तर्हि तस्य सत्त्वं यद्यस्ति तर्हि कथं नानवस्था ? यदि सुदूरमपि गत्वा गत्यन्तराभावेन कस्यचित्सत्त्वे स्वरूपाद्यनपेक्षयाऽनवस्था वार्यते तर्हि घटादीनां 25 सत्त्वेऽपि तथा भवतु किमनया स्वगृहप्रक्रिययेति मैवम्, वस्तुनो हि यथैवाबाधिता प्रतीतिस्तथैव तद्व्यवस्था, प्रतीतिश्च स्वरूपादिघटितमूर्तेरेव सत्त्वादेाहिका, अन्यथा नानानिरंकुशविप्रतिपत्तीनां वारयितुमशक्यत्वात् । न च तस्यां स्वरूपादिकमन्यदेव प्रतीयते Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमी ] न्यायप्रकाशसमलते येन स्वरूपान्तरापेक्षा स्यात् । न च जिज्ञासाधीना हि स्वरूपाद्यपेक्षा तथा च तत्रापि प्रकृत इव जिज्ञासा स्यादेव तथा चास्त्यनवस्थेति वाच्यम् , यत्रैव न सा तत्रैव विश्रान्त्या तदभावात् केनचिन्नयेन स्वरूपादेः स्वरूपत एवावच्छेदकत्वं निर्णीयैवास्तित्वादिप्रवृत्तरमवस्थाया अभावादिति । एतेनैकस्मिन् धर्मिणि सत्त्वासत्त्वरूपी विधिनिषेधात्मको धर्मों न सम्भवतो विधिमुखप्रत्ययविषयत्वनजुल्लिखितप्रत्ययविषयत्वरूपत्वेन शीतोष्णयोरिव 5 तयोः परस्परं विरोधात्, यत्रास्तित्वं तत्र नास्तित्वस्य यत्र च नास्तित्वं तत्रास्तित्वस्य विरोधात् । तथाऽस्तित्वाधिकरणस्य नास्तित्वाधिकरणस्य च भिन्नत्वेनैकत्र तयोस्सत्त्वे विभिन्नाधिकरणवृत्तित्वरूपवैयधिकरण्यं दोषः स्यात् , तथा येन रूपेणास्तित्वं येन च नास्तित्वं तादृशरूपयोरस्तित्वनास्तित्वनियामकस्वपररूपाद्यन्तरापेक्षायामनवस्थादौस्थ्यम् , तथा येन रूपेण सत्त्वं तेनैवासत्त्वस्य येनासत्त्वं तेनैव सत्त्वस्य च प्रसङ्गेन सङ्करः, येन 10 रूपेण सत्त्वं तेनासत्त्वमेव स्यान्न तु सत्त्वं येन रूपेण चासत्त्वं तेन सत्त्वमेव स्यान्न त्वसत्वमिति व्यतिकरो दोषः, तथा सत्त्वासत्त्वस्वरूपत्व इदमित्थमिति निश्चेतुमशक्तेसंशयो दोषः, ततश्चानिश्चयरूपाप्रतिपत्तिर्दोषः, ततश्च सत्त्वासत्त्वात्मनो वस्तुनोऽभावो दोष इत्यष्टौ दोषासम्भवन्तीति प्रत्युक्तम् , स्वपररूपाद्यपेक्षया विवक्षितयोस्सत्त्वासत्त्वयोः प्रतीयमानयोर्वस्तुन्यविरोधात् स्वरूपादिना सत्त्वस्येव पररूपादिनाऽसत्त्वस्यापि प्रतीतिसिद्धत्वेनानुपलम्भ- 15 प्रयुक्तस्य विरोधस्याभावात् । न च विरोधादेकत्र तयोः प्रतीतिमिथ्येति वाच्यम् , परस्पराश्रयात्, विरोधे सति तेन बाध्यमानत्वान्मिथ्यात्वसिद्धिः, सिद्धे च तस्मिन् सत्त्वासत्त्वयोर्विरोधसिद्धिरिति । न च वध्यघातकभावरूपोऽप्यहिनकुलादिवद्विरोधः, तस्यैकस्मिन् काले वर्तमानयोस्सम्बन्धे सत्येव भावात् , न ह्यसंयुक्तमहिं नकुलो नाशयति, तथा सति सर्वत्राहे. रभावप्रसङ्गात् तथाप्रकृते सति सम्बन्धे बलीयसाऽपरो बाध्यत इति वाच्यं नहि तथा सद- 20 सत्त्वयोः क्षणमात्रमपि परेण सत्त्वमेकत्राभ्युपगम्यते तथा च कथं वध्यघातकरूपो विरोधः, अभ्युपगमे वा तुल्यबलत्वेन तयोर्न वध्यघातकभावः । नापि सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, कालभेदेनैकत्र वर्तमानयोः श्यामत्वपीतत्वयोरेव तत्सम्भवात् , उत्पद्यमानो हि पीतं श्यामो विनाशयति, नहि तथास्तित्वं नास्तित्वव पूर्वोत्तस्कालभावि, अस्तित्वकाले नास्तित्वाभावे सत्तामात्रं सर्व प्राप्नुयात् , नास्तित्वकालेऽस्तित्वाभावे तु सत्त्वाश्रयबन्धमोक्षव्यवहारो 25 विरुद्धयेत, सर्वथाऽसत आत्मलाभासम्भवात् सर्वथा च सतो विनाशासम्भवात् । न चापि प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावरूपो विरोधः, अस्तित्वकाले नास्तित्वस्य प्रतिबन्धकाभावात् । स्वरूपेणास्तित्वकालेऽपि पररूपादिना नास्तित्वस्य प्रतीतिसिद्धत्वात् । सत्त्वासत्वयोरेकाधिकरणवृत्तित्वेन प्रतीतत्वाच्च न वैयधिकरण्यं दोषः, नाप्यनवस्थादोषः, अनन्त Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४४० : तस्वन्यायविभाकरे [ षष्ठकिरणे धर्मात्मकस्य वस्तुनः प्रमाणप्रतिपन्नत्वेनापदार्थपरम्पराकल्पनाविरहेण तस्या अभ्युपगमात् नापि संकरव्यतिकरौ प्रतीतिसिद्धेऽर्थे कस्यापि दोषस्याभावात् , दोषाणां प्रतीत्यसिद्धपदार्थविषयकत्वात् , परस्परानुविद्धसत्त्वासत्त्वयोर्जात्यन्तरात्मकत्वेनैकान्तसत्त्वावलम्बिदोषासम्भ वाञ्च, नवा संशयो दोषः, स हि सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च जायते 5 स्थाणुत्वपुरुषत्वोचिते हि देशे नातिप्रकाशान्धकारकलुषितायां वेलायामूर्ध्वतामात्रं सामान्य विलोकयतो वक्रकोटरपक्षिनीडादीन स्थाणुगतान् पुरुषगतांश्च वस्त्रसंयमनशिरःकण्डूयनशिखाबन्धादीन् विशेषाननुपलभमानस्य तेषाश्च स्मरतः पुरुषस्यायं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशय उदेति, अनेकान्तवादे च विशेषोपलब्धिरप्रतिहतैव, स्वरूपपररूपादिविशेषाणां प्रत्यर्थमुपलम्भात् तथा च विशेषोपलब्धेः कथं संशयः, अवच्छेदकभेदेनाय॑माणयोस्सत्त्वा10 सत्त्वयोरेकत्र विरोधाभावेन संशयलक्षणानाक्रान्तत्वात्, एवञ्च संशयमूलकावप्रतिपत्ति वस्त्वभावरूपौ दोषौ दुरापास्ताविति न कोऽपि दोष इति । तदेवं स्वसमयसर्वस्वरूपा सप्तभङ्गी समासतो निरूपितेत्याहेतीति ॥ इत्थमागमं निरूप्य तदाभासमाह अनाप्तपुरुषप्रणीतवचनसम्भूतमयथार्थशाब्दज्ञानमागमाभासः, तद्व15 चनमप्यागमाभासः । समाप्तमागमनिरूपणम् ।। .. अनाप्तेति । अयथार्थवक्तृवचनेन समुद्भूतं यदयथार्थं शाब्दज्ञानं स आगमाभास इत्यर्थः । निजविनोदाद्यर्थ क्रीडापरवशो रागाक्रान्तः पुरुषः किश्चन वस्त्वन्तरमलभमानो बालैस्साकं क्रीडाभिलाषेण सोमोद्भवाया रोधसि तालहिन्तालयोर्मूले सुलभाः पिण्डखर्जूरा स्सन्ति त्वरितं गच्छत गच्छत शावकाः ? इति वाक्यमुच्चारयति, तज्जन्यं च यच्छाब्दज्ञानं 20 तद्विसंवादित्वादागमाभासरूपमिति भावः । तादृशज्ञानजनकवाक्यमपि कारणे कार्योपचारा दागमाभासात्मकमेवेत्याह तद्वचनमपीति । तदेवं परोक्षप्रमाणस्य पञ्चमभेद आगमस्संग्रहेण निरूपित इत्याशयेन निगमयति समाप्तमिति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्याय- प्रकाशव्याख्यायामागमनिरूपणं नाम षष्ठः किरणः ॥ Roma Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाण्यादिस्वरूपम् ] न्यायप्रकाश मल अथ सप्तमः किरणः । एवं प्रमाणे निरूपिते तस्य प्रामाण्ये वादिनां विप्रतिपत्तेस्तद्विवेचयितुमाह ज्ञानस्य प्रामाण्यं प्रमेयाव्यभिचारित्वमेव । स्वातिरिक्तग्राह्यापेक्षया प्रमेयव्यभिचारित्वं ज्ञानस्याप्रामाण्यम्, सर्वन्तु स्वापेक्षया प्रमाणमेव पेक्षा तु किश्चित्प्रमाणं किञ्चिचाप्रमाणम् ॥ : ४४१ : ५६ 5 ज्ञानस्येति । प्रमेयेति, प्रमीयमाणो योऽर्थस्तदव्यभिचरणशीलत्वं ज्ञाननिष्ठं प्रामाण्यमित्यर्थः । अप्रामाण्यपदार्थमाह स्वातिरिक्तेति, सर्व संवित्तेस्स्वसंवेदनस्य कथञ्चित्प्रमाणत्वोपपत्तेर्बहिः पदार्थापेक्षयैत्र किञ्चिज्ज्ञानं प्रमाणं किश्चिच्च प्रमाणाभासमित्यभिप्रायेणाह सर्वन्त्विति, न चैत्रं विरोधः प्रसज्यत इति वाच्यम्, जीवस्यैकस्यावरणविगमविशेषात्सत्ये 1 तरसंवेदनपरिणामसिद्धेः श्वेतघटे पीतघटज्ञानवत् । तथा च सर्वत्र ज्ञाने स्वरूपे प्रामाण्य- 10 मनावृतमेव, बहिरर्थे त्वनियतस्तत्क्षयोपशम इति स्वभावकल्पनान्न विरोध इति भावः । एतेन ज्ञानमात्रं स्वापेक्षया प्रत्यक्षप्रमाणम्, न चैवमनुमितित्वादिना प्रत्यक्षत्वस्य साङ्कर्यमिति वाच्यम्, कचित्संकीर्णजातेरप्यदुष्टत्वो पगमात् एवञ्च ज्ञानस्यार्थोन्मुखतयेव स्वोन्मुखतयापि प्रतिभासनं भवतीति सूचितम् । न च यस्यानुभाव्यत्वं तस्याननुभूतित्वं दृष्टं यथा घटादिः, ज्ञानस्यानुभाव्यत्वेऽननुभूतित्वप्रसङ्ग इति वाच्यमनुभूतित्वेनैव ज्ञानस्यानुभवात् न 15 पुनरनुभाव्यत्वेन, ज्ञातुर्ज्ञातृत्वेनानुभववत् नापि ज्ञानस्यानुभाव्यत्वं दोष: पदार्थापेक्षयाऽ नुभूतित्वात्, स्वापेक्षया त्वनुभाव्यत्वात् । न च विरोधः, अपेक्षाभेदात्, एकस्य पितृत्वपुत्र - त्ववत् । न च स्वात्मनि क्रियाविरोधः, अनुभवसिद्धेऽर्थे विरोधासिद्धेः । किञ्च का नाम क्रियाssत्मनि विरुद्धा, न तावत्परिस्पन्दस्वरूपा, तस्या द्रव्यवृत्तित्वेनाद्रव्ये ज्ञानेऽसम्भवात् । न धात्वर्थात्मिका, सापि न तावदकर्मिका, वृक्षस्तिष्ठतीत्यादौ तस्या वृक्षादिरूपे स्वात्मन्येव 20 प्रतीत्याऽप्यविरोधवत् ज्ञानं प्रकाशत इत्यादावपि अकर्मक क्रियाया ज्ञानस्वरूपत्वेऽविरोधात्, प्रतीतेरुभयत्रापि तुल्यत्वात् । अथ ज्ञानमात्मानं जानातीति सकर्मिका क्रिया स्वात्मनि विरुद्धा स्वरूपादपरत्रैव कर्मत्वप्रतीतेरित्युच्यते तदपि न चारु, आत्माऽऽत्मानं हन्ति प्रदीपरस्वात्मानं प्रकाशयतीत्यादिकायाः क्रियाया अपि विरोधापत्तेः । न च नात्र पारमार्थिकं कर्मत्वं किन्त्वात्मादौ कर्त्तर्युपचरितमेवेति वाच्यम्, कर्त्तरि ज्ञानेऽपि स्वरूपस्यैव ज्ञानक्रियानिरूपितकर्मत्वेनोपचारात्, न च ज्ञाने कर्मत्वं तात्त्विकं प्रमेयत्वादिति वाच्यम्, सर्वथा कर्मत्वस्य कर्त्तुर्ज्ञानादभिन्नत्वे स्याद्विरोधः यदि कर्त्तृ कथं कर्म यदि कर्म कथं कर्त्रिति, अथ सर्वथा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४४२: तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे भिन्नं कर्मत्वं, तहिं कथं तत्र ज्ञानस्य जानातीति क्रिया स्वात्मनि स्याद्येन विरुध्येत, तथात्वे कथं घटं करोतीति क्रियाऽपि कटकारस्य स्वात्मनि न स्याद्यदि न विरुध्यते । कर्तुः कर्मत्वं कथञ्चिद्भिन्नमित्येतस्मिस्तु दर्शने ज्ञानस्यात्मनो वा सर्वथा स्वात्मनि क्रिया दूरोत्सारितैवेति न विरुद्धतामधिवसतीति । न च ज्ञानक्रियायाः कर्तृसमवायिन्याः कर्मतया 5 स्वात्मनि विरोधस्ततोऽन्यत्रैव कर्मत्वदर्शनादिति वाच्यम् ; तर्हि करणत्वमपि तत्र न स्यात् दृश्यते हि ज्ञानेनार्थमहं जानामीति करणत्वम् , न च ज्ञानेनेत्यनेन विशेषणज्ञानं करणत्वेन विवक्षितमथं जानामीत्यनेन विशेष्यज्ञानं कर्मत्वेन विवक्षितं तस्मात्करणमन्यत् कर्मान्यदिति वाच्यम् , कस्यापि विशेषणज्ञानेन विशेष्यं जानामीति प्रतीतेरनुदयात् । किन्तु विशे पणज्ञानेन विशेषणं विशेष्यज्ञानेन च विशेष्यं जानामीत्यनुभवात् । न चादौ दण्डाग्रहे 10 दण्डिनमहं वेद्मीति कथं न दण्डविशिष्टपुरुषबुद्धिरेन्यथा दण्डरहितेऽपि पुरुष तथा प्रत्य यप्रसङ्गादिति वाच्यम् , दण्डविशिष्टे पुरुषे प्रवर्त्तमानया बुद्ध्या सकृदेव दण्डविशिष्टपुरुषग्रहणात् दण्डरहिते च तद्वैशिष्ट्याभावादेव तथा प्रतीत्यनुदयात् । ततो विशेष्यज्ञानं सकृदेव विशेषणविशेष्योभयालम्बनमेव न तु विशेषणज्ञानेन जन्यत्वात्केवलं विशेष्य विषयम् । विशेषणज्ञानस्य करणत्वे विशेष्यज्ञानस्य च ज्ञानकार्यत्वे विशेषण15 ज्ञानं प्रत्यपि करणान्तरापत्तिश्च स्यात् तत्रापि दण्डत्वादिजातिज्ञानस्य करणत्वाभ्युपगमे तत्राप्यन्यस्य वक्तव्यत्वापत्तेः, तस्माद्विशेषणविशेष्यज्ञानयोन करणत्वक्रियात्वे अपि तु ते एकज्ञानस्वरूपे अत एव च तयोर्यथा न विरोधस्तथा कर्मत्वेनापि, तस्मात् प्रमातुरात्मनो वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणं निर्व्यापारं तु क्रिया स्वातंत्र्येण पुनर्व्याप्रिय माणः कर्त्ता आत्मेति ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनाथ जानातीति कर्तकरण20 क्रियाविकल्पेन प्रतीतिसिद्धः, एवं कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं जानातीति १. ज्ञानक्रियायाः करणज्ञानस्य च भिन्नत्वान्नास्ति विरोध इति चेटिंक करणज्ञानं का वा ज्ञानक्रियेत्यत्राह न चेति ॥ २. दण्डाग्रहेऽपि दण्डविशिष्टपुरुषबुद्धयभ्युपगम इत्यर्थः ॥ ३. तुल्यदेशावस्थायिनि तुल्येन्द्रियग्राह्येऽर्थे घटपटादौ एकस्यापि ज्ञानस्य व्यापारेऽविरोधः, न च तत्रापि विषयभेदेन ज्ञानभेदो भाव्यः, ज्ञानानां युगपद्भावानभ्युपगमात् नापि क्रमेण, तथाऽप्रतीतेः, युगपद्भावे च कार्यकारणभावोऽपि न स्यादेव सव्येतरगोविषाणवत् तस्माद्विशेष्यज्ञानं विशेषणविशेष्योभयावलम्बनमेवेत्याशयेनाह ततो विशेष्यज्ञानमिति ॥ ४. ननु चक्षुरादिकं हि करणं ज्ञानक्रिय तो भिन्नमेव, न च ज्ञानेनार्थ जानामीति प्रतीत्या ज्ञानस्यापि करणत्वमिति वाच्यम् तत्र ज्ञायतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या ज्ञानपदस्य चक्षुषो बोधकत्वादिति चेन्न तस्य साधकतमत्वासम्भवात् व्यवधानात् ज्ञानस्यैव साधकतमत्वात् न च यदेव ज्ञानं पदार्थस्य ज्ञानक्रियायां करणं तदेव ज्ञानक्रियेति कथं तत्र क्रियाकरणव्यवहारः प्रातीतिकः स्याद्विरोधादिति वाच्यम् कथञ्चिद्भेदादित्याशये. नाह तस्मात्प्रमातुरिति । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पत्तौ परत्वम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४४३: घटते सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियाणामभेदानभ्युपगमात् तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात्कथश्चिद्भेदसिद्धेः । ततश्च ज्ञानं स्वप्रकाशमेवेति संक्षेपः ॥ ननु तत्प्रामाण्यनिश्चयस्स्वतो वा परतो वा स्यात् न स्वतः, स्वसंविदितत्वेऽपि ज्ञानत्वेनैव ज्ञानस्य ग्रहणात् न तु तन्निष्ठप्रामाण्येन, ज्ञानत्वस्य त्वाभाससाधारणत्वात् प्रामाण्यस्यापि ग्रहे सर्वेषां विप्रतिपत्त्यभावप्रसङ्गाच्च स्वस्वज्ञानस्य हि प्रामाण्यग्रहे सर्वे प्रवादा- 5 स्सत्याः स्युः । ज्ञानेन स्वतः प्रामाण्यग्रहे प्रामाण्यनिश्चयात्संशयोच्छेदप्रसङ्गश्च यदि हि ज्ञानं न गृहीतं तदा धर्मिज्ञानाभावादेव न तत्संशयः, समानधर्मवत्तया धर्मिज्ञानस्य संशयहेतुत्वात् गृहीते च ज्ञाने तत्प्रामाण्यमपि गृहीतमेवेति तदापि संशयो न स्यादिति । नापि परतः, परो हि ज्ञानान्तरं वा अर्थक्रियानि सो वा, तद्गोचरनान्तरीयकार्थदर्शनं वा तच्च सर्व स्वतोऽगृहीतप्रामाण्यमव्यवस्थितं कथं पूर्वप्रवर्तकज्ञानं व्यवस्थापयेत् स्वतो 10 वाऽस्य प्रामाण्ये प्रवर्तकज्ञानमपि तथैव स्यात् परस्याप्यन्यतः प्रामाण्ये त्वनवस्था प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह- प्रामाण्याप्रामाण्ये च स्वकारणवृत्तिगुणदोषापेक्षयोत्पत्तौ परत एव ।। प्रामाण्याप्रामाण्ये चेति । स्वकारणेति, स्वस्य ज्ञानस्य यत्कारणं चक्षुरादिकारणकलापः तनिष्ठौ यौ गुणदोषौ तावपेक्ष्य प्रामाण्याप्रामाण्ये भवत इति परमपेक्ष्योत्पद्यमान- 15 त्वादुत्पत्तिविषये ते परत एव भवत इति भावः, तेनार्थतथाभावप्रकाशकत्वरूपस्य प्रामाण्यस्य स्वज्ञानकारणातिरिक्तगुणानपेक्षत्वात्स्वत एवोत्पत्तिः, तथाहि कारणगता न ते गुणा उपलभ्यन्ते चक्षुरादीनां ज्ञानकरणानामतीन्द्रियत्वेन तद्गुणानां प्रत्यक्षतः प्रतिपत्त्यसम्भवात् नाप्यनुमानेन, इन्द्रियनिष्ठगुणैस्साकं कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षतः प्रतिबन्धाग्रहेण प्रत्यक्षतो गृहीतव्याप्तिकलिङ्गाभावात् । अनवस्थाप्रसरेणानुमानतो गृहीतव्याप्तिकलिनाभावाच्च, 20 लिङ्गनिष्ठव्याप्तिग्राहकानुमानस्याप्यनुमानान्तरतो गृहीतव्याप्तिकत्वात् अनुमानान्तरस्यापि तथात्वादिति । किश्चार्थतथात्वपरिच्छेदकशक्तिरूपं हि प्रामाण्य, शक्तयश्च सर्वारस्वत एव भवन्ति, नोत्पादककारणकलापाधीनाः, यथाहि मृत्पिण्डे वर्तमाना रूपादयो मृत्पिण्डादुपजायमाने घटेऽपि कार्ये तत एवोत्पद्यन्ते, न तु कारणेष्वविद्यमानाः कार्यधर्माः कारणेभ्यः कार्ये - उदयमासादयन्ति किन्तु स्वत एव, घटस्यैवोदकाहरणशक्तिवत् , तथा 25 ज्ञानेऽप्यर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिश्चक्षुरादिष्वविद्यमाना न तस्मादुपजायते किन्तु स्वत एवेति मतमपास्तम् , अर्थतथाभावप्रकाशकत्वरूपप्रामाण्यस्य स्वत एवोत्पत्तौ निर्हेतुकत्वेन देशकालस्वभावप्रतिनियमानुपपत्तेः गुणवञ्चक्षुरादिसत्त्वे यथावस्थितार्थप्रतिपत्तेस्तदभावे च Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तम किरणे : ४४४ : तदभावस्य दृष्टत्वेन तद्धेतुकत्वव्यवस्थापनात्, कार्यकारणभावस्यान्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वात्, अन्यथा दोषवच्चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकसत्त्वेऽप्यप्रमाणत्वस्यापि स्वत एवोत्पत्तिः प्रसज्येत, न चेष्टापत्तिरपसिद्धान्तताप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षादितोऽनुपलभ्यमानानामपि स्वकारणचक्षुरादिगतदोषाणामप्रामाण्योत्पत्तौ कारणत्वमिव गुणानामपि चक्षुरादिनिष्ठानां 5 प्रामाण्योत्पत्तिकारणत्वे बाधकाभावाच्च, शक्तिरूपप्रामाण्यमपि न स्वत उत्पत्तुमर्हति, तथा सत्यप्रामाण्यस्यापि अयथार्थ परिच्छेदकशक्तिरूपस्य केनचित्कर्तुमशक्तेस्तत्स्वत एव स्यात् तत्कारणेषु तिमिरादिदोषवत्सु चक्षुरादिषु तस्या अविद्यमानत्वात् । इन्द्रियादीनां स्वेष्वविद्यमानाया अपि ज्ञानरूपताया इव तादृशशक्तेरप्याविर्भावकत्वे बाधकाभावात् ज्ञानविशेषाणां स्वतोऽनुत्पत्त्या तन्निष्ठशक्तीनां स्वत एवोत्पत्त्यसम्भवाश्च, न च 10 शक्तयो ज्ञानव्यतिरिक्ताः, स्वाधाराभिमतभाव कारणेभ्यो भावस्योत्पत्तावपि स्वाश्रयैस्ततोऽभवन्तीनां सम्बन्धासम्भवात् । भिन्नानां कार्यकारणभावातिरिक्तसम्बन्धासम्भवात् आश्रयाश्रयिभावस्यापि जन्यजनकभावनियतत्वात् नापि धर्मधर्मिभावस्सम्बन्धः शक्तेरपारतन्त्र्ये धर्मत्वासम्भवात् न चार्थतथाभावप्रकाशनरूपप्रामाण्यस्य स्वसामग्रीतो ज्ञानोत्पत्तावप्यनभ्युपगमे तद्विज्ञानस्य किं स्वरूपं ? नहि तद्व्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं भवन्मते 15 सम्भवति, किञ्च तदुत्पत्तावपि तन्नोत्पद्यते पश्चाच्च तद्र्यतिरिक्तसामग्रीत उत्पद्यत इत्यभ्यु - पगमे विरुद्धधर्माध्यासात्कारणभेदाच्च भेदः स्यात्, तयोरेव भेदहेतुत्वेनाभ्युपगमादिति वाच्यम्, विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीजन्यत्वेऽपि नैर्मल्यादिसामथ्र्यन्तरात्प्रामाण्यस्य पश्चादुत्पत्तेरनभ्युपगमात्, किन्तु गुणवच्चक्षुरादिसामग्रीत आगृहीतप्रामाण्यस्वरूपस्यैव विज्ञानस्योत्पत्त्यभ्युपगमात्, तस्मादेव च ज्ञानमिव तदव्यतिरिक्तस्वभावं प्रामाण्यमपि परत उच्यते, 20 तथा च प्रामाण्यं स्वोत्पत्तौ ज्ञानोत्पादक कारणव्यतिरिक्तकारणान्तरापेक्षं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् यच्चक्षुरादिव्यतिरिक्तस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्तत्सापेक्षम्, यथाप्रामाण्यमिति प्रयोगेणोत्पत्तौ तस्य परापेक्षत्वं सिद्धम् । ननु भवतु प्रामाण्यमुत्पत्तौ परतः परश्च दोषाभाव एव स्यान्न गुणः, दोषसत्त्वे प्रामाण्यानुदयेन तदुदये तदभावस्यैव हेतुत्वौचित्यात्, तथा च ज्ञानहेत्वतिरिक्तभावानपेक्षत्वेनोत्पत्तौ तत्स्वत इत्युच्यत इत्याशंकायामुक्तं 25 स्वकारणवृत्ति गुणदोषेति, ज्ञानकारणातिरिक्तगुणदोषापेक्षयेति तदर्थः, तथा प्रामाण्ये गुणोs प्रामाण्ये दोषो हेतुः, न तु प्रामाण्ये दोषाभावोऽन्यथा गुणसत्त्वेऽप्रामाण्यानुदयेन तदुदये गुणाभावस्यैव हेतुत्वौचित्यात्तस्यैव स्वतस्त्वापत्तिः स्यात्, न चाप्रामाण्यं प्रति दोषाणामन्वयव्यतिरेकौ स्त इति वाच्यम्, गुणानामप्यन्वयव्यतिरेकसम्भवात् । न च प्रामाण्ये गुणा दोषोत्सारणमात्रप्रयुक्तसन्निधिका न तु प्रामाण्ये निमित्ता इति वाच्यम्, दोषा गुणोत्सार - Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञप्तौ स्वतः ] न्यायप्रकार :४४५: णमात्रप्रयुक्तसन्निधिका नत्वप्रामाण्ये निमित्ता इत्यपि तुल्यत्वात् दोषाभावस्य तुच्छस्य गुणनिष्पाद्यत्वासम्भवाच्च, सस्वभावत्वे वा व्यतिरिक्तत्वे कारकव्यापारस्यासम्भवः स्यादपसिद्धान्तश्च प्रसज्येत, तथा च पर्युदासवृत्त्या गुणात्मक एव दोषाभावोऽभ्युपगन्तव्यः तथा गुणाभावोऽपि दोषात्मकः, इति युक्तं गुणदोषाभ्यां प्रामाण्याप्रामाण्ये इति भावः ।। ___ ननु प्रमाणं प्रामाण्यनिश्चये नान्यापेक्षं यदि ह्यपेक्षेत तत्तदा किं गुणान् संवाद 5 वाऽपेक्षेत, नाद्यः, स्वकारणगुणानां प्रत्यक्षादिप्रमाणाग्राह्यत्वात् यदि यो यः कार्यविशेषः स गुणवत्कारणपूर्वको यथा प्रासादादिविशेषः, . कार्यविशेषश्च यथावस्थितपरिच्छेद इति स्वभावहेतुना गुणवत्कारणपूर्वकत्वं सिद्ध्यतीत्युच्यते तदपि न युक्तम् , परिच्छेदे यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वासिद्धेः, तथा हि शुद्धकारकजन्यत्वेन संवादित्वेन बाधारहितत्वेनार्थतथात्वेन वा तत्सिद्धिर्वाच्या, तच्च न सम्भवति, परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वे गुणवत्कारण- 10 जन्यत्वस्य गुणवत्कारणजन्यत्वे च यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वस्यापेक्षितत्वेन प्रथमेऽन्योऽन्याश्रयात् संवादार्थिनां विज्ञाने यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वसिद्धिमन्तरेण तत्पूर्वकप्रवृत्तः प्रवृत्तिमन्तराऽऽर्थक्रियासंवादस्य तं विना यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वसिद्धेश्चासम्भवेन द्वितीये चक्रकापत्तेः, न तृतीयः, तुच्छस्वभावस्य बाधाविरहस्य सत्त्वेन ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकारात् पर्युदासवृत्त्या तदन्यज्ञानलक्षणस्य विज्ञानपरिच्छेदविशेषाविषयत्वेन तद्व्यवस्थापकत्वानुप. 15 पत्तेश्च । नापि चतुर्थः, अन्योन्याश्रयात् , अर्थतथाभावे सिद्धे तद्विज्ञानस्यार्थतथाभावपरिच्छेदत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्वार्थतथाभावसिद्धिरिति । नापि संवादापेक्षया तज्ज्ञप्तिसिद्धिः, संवादक समानजातीयं भिन्नजातीयं वा, यदि समानजातीयं तर्हि एकसन्तानप्रभवं भिन्नसन्तानप्रभवं वा, तत्र भिन्नसन्तानप्रभवस्य समानजातीयस्य संवादकत्वे देवदत्तघटविज्ञानं प्रति यज्ञदत्तघटान्तरविज्ञानस्यापि संवादकत्वं स्यात् , समानसन्तानप्रभवसमानजातीयज्ञानान्तरस्य 20 संवादकत्वे च तस्यैकार्थविषयकत्वे संवाद्यसंवादकयोरविशेषः, एकविषयत्वेऽपि यथा प्राक्तनं विज्ञानं स्वसमानजातीयस्यैकसन्तानप्रभवस्योत्तरकालभाविनो विज्ञानस्य न संवादकं तथोत्तरमपि पूर्वस्येति, किञ्चोत्तरज्ञानं प्रमाणमिति कुतस्सिद्धं येन प्रथमस्य प्रामाण्यनिश्चा १. ननु नैर्मल्यादयो गुणाः प्रामाण्येऽनुपयोगिनः किन्तु तेभ्यो दोषाणामभावः समुन्मिषतीत्यत्राह दोषाभावस्येति, तस्य तुच्छस्वभावतया कार्यत्वधर्माधारत्वं न भवेदिति भावः, अवश्यमनुभूयते दोषाभावस्य कार्यस्वाधारत्वम् , अञ्जनादेश्चक्षुरादौ क्रियमाणस्य प्रतीतेः, तथा च दोषाभावस्य दोषप्रतियोगिगुणस्वरूपत्वं वाच्यं, व्यतिरिक्तत्वेऽनुभवबाधापत्तेः, अनुभूयते च पुरा चक्षुषी सदोषे समभूतामधुना लब्धिसम्पन्ने इति । यदि दोषाभावो निःस्वभावः स्यात्तर्हि भावान्तरविनिमुक्तस्य भावस्यैवाभावत्वप्रतिपादकत्वत्सिद्धान्तविरोध इत्याशयेनाह सस्वभावत्वे वेति ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४४६ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तम किरणे यकं भवेत्, न चान्यस्मात्तथाविधात्, अनवस्थापत्तेः । न चोत्तरज्ञानस्य कारणशुद्धिपरिज्ञानानन्तरभावित्वेन विशेषात्सम्भवति संवादकत्वमिति वाच्यम्, कारणशुद्धिपरिज्ञानस्यार्थ - क्रियापरिज्ञानं विनाऽसम्भवेन तत्र चक्रकदोषस्य दुर्वारत्वात् सम्भवे वा तस्यैव - निश्चायकत्वेनोत्तरकालभाविनः कारणशुद्धिज्ञानसमन्वितस्य प्रामाण्यहेतुत्ववर्णनं व्यर्थं स्यात् । 5 अथ भिन्नजातीयज्ञानान्तरस्य संवादकत्वे घटज्ञानस्यापि पटज्ञानप्रामाण्यनिश्चायकत्वापत्तिः स्यात्, स्वस्मिंश्च प्रामाण्यनिश्चयाभावे प्रवृत्त्यभावेन तन्निश्चयस्यावश्यकत्वे चक्रकप्रसङ्गेनार्थक्रियाकारिरूपं भिन्नजातीयमपि न तन्निश्चायकम् न च प्रामाण्यसंशयादपि प्रवृत्तिसम्भवेनार्थक्रियाज्ञानसम्भव इति वाच्यम्, प्रामाण्यनिश्चयस्य निष्फलत्वापत्तेस्तदन्तरेणैव प्रवृत्तेः । प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेण प्रवृत्तो विसंवादभाड् मा भूवमिति ह्यर्थक्रियार्थी 10 प्रामाण्यनिश्चयाय कुरुते प्रवृत्ति सा च तदन्तरेणापि संजातेति, अर्थक्रियाज्ञाने च प्रामाण्यायान्यस्यापेक्षायामनवस्था भवेदित्याशंकायामाह - ज्ञप्तौ त्वनभ्यासदशापन्ने परतोऽभ्यासदशा पन्ने च स्वत एवेति ॥ ज्ञप्ताविति । तुशब्दः पूर्वस्माद्वैलक्षण्यप्रकाशकः, तदेवाहानभ्यासेति ज्ञप्ताविति विषयसप्तमी, ज्ञप्तिविषये तावदभ्यासदशापन्ने स्वमपेक्ष्य, अनभ्यासदशा पन्ने च ज्ञाने परम15 पेक्ष्य प्रामाण्याप्रामाण्ये भवत इत्यर्थः एवशब्देनोभयस्यापेक्षाविशेषेण स्वापेक्षत्वं परापेक्षत्वच व्यावर्त्तितम् । तथा च प्रामाण्याप्रामाण्ये अभ्यासदशापन्न ज्ञाने स्वाश्रयग्राह्ये, अनभ्यासदशापत्रे तु परतो ग्राह्ये, अभ्यासानभ्यासौं ज्ञानावरणक्षयोपशम विशेषप्रयोज्यौ जाति - विशेषावेव ज्ञानगतौ, विषयगतत्वन्तु तयोरुपचारात्, आत्मनः परिणामित्वेनोभयस्वभावात्, सर्वथा क्षणिकस्य नित्यस्य वाऽऽत्मनोऽभ्यासानभ्यास स्वभावत्वं कथमिति शङ्का परास्ता । 20 द्रव्यत्वस्य परिणामित्वव्याप्यत्वात् । प्रामाण्यग्राहकच परं स्वाश्रयातिरिक्तं संवादज्ञानमेव, कारणगुणबाधकज्ञानयोरप्येतन्मुखापेक्षित्वात् । कारणगुणानां संवादप्रत्ययमन्तरेण ज्ञातुमशक्यत्वात् संवादप्रत्ययतः कारणगुणपरिज्ञानाभ्युपगमे च तत एव प्रमाण्यनिश्चयस्यापि १. अनभ्यासदशायामपि स्वगतं प्रामाण्यं यदि स्वयमेव ज्ञायेत यथार्थपरिच्छदकमहमस्मीति तदेदं ज्ञानं प्रमाणं नवेति प्रामाण्यसंशयो न स्यादेव ज्ञानत्वे संशयाभाववत् न च निश्वितेऽपि प्रामाण्ये प्रमाणाप्रमाणसाधारण ज्ञानत्वधर्मदर्शनेन विशेषादर्शनेन च संशयो भवतीति वाच्यम्, साधकबाधकप्रमाणतिरस्कारेण साधारणधर्मदर्शनस्य संशयं प्रत्यकारणत्वादन्यथा संशयानुच्छेदप्रसङ्गः स्यात् प्रकृते च स्वतः प्रामाण्यज्ञप्ति - रूपस्य प्रामाण्यसाधकस्याप्रामाण्यबाधकस्य सत्त्वात् तस्मात्संशयानुरोधेन तत्र न स्वतो ग्राह्यं प्रामाण्यमिति भावः । २. संवादकज्ञानञ्च यादृशोऽर्थः पूर्वस्मिन् विज्ञानेऽवगतस्स तादृश एवेति येन विज्ञानेन व्यवस्थाप्यते तत् अत्र पक्षे कारणगुणज्ञानस्य बाधकाभावज्ञानस्य च संवादकज्ञानत्वेन प्रामाण्यनिश्चायकत्वे न क्षतिः ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शप्तौ स्वतः ] या प्रकाशसमलङ्कृ : ४४७ : सिद्धत्वेन कारणगुणपरिकल्पनानर्थक्यात् । न चैकदा संवादप्रत्ययेन निश्चित्य कारणगुणानन्यदा तन्निश्चयादेव तज्जन्यज्ञानस्य निश्चयो न तत्र पुनस्संवादापेक्षेति वाच्यम्, अतीन्द्रियेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि संवादकज्ञानमन्तरा गुणानुवृत्तेर्निश्चेतुमशक्यत्वात् न च संवादप्रत्ययात्प्रामाण्याभ्युपगमे संवादप्रत्ययस्याप्यपरसंवादप्रत्ययात्प्रामाण्यावगमेनानवस्थेति वाच्यम्, संवादप्रत्ययस्य संवादरूपत्वेना परसंवादापेक्षा भावादनवस्थानवतारात् । न च प्रथमस्यापि 5 संवादापेक्षा मा भूदिति वाच्यम्, संवादजनकत्वस्यैव प्रामाण्यत्वेन तदभावे प्रामाण्यासम्भवात् अर्थक्रियाज्ञानरूपं संवादज्ञानन्तु साक्षादविसंवादि, अर्थक्रियालम्बनत्वात्, तस्य स्वविषयसंवेदनमेव प्रामाण्यं, तच्च स्वतस्सिद्धमिति नान्यापेक्षा । न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्य वस्तुवृत्तिशङ्कायामन्यप्रमाणापेक्षयाऽनवस्था स्यादिति वाच्यम्, अर्थक्रियाज्ञानस्यार्थ क्रियानुभव स्वभावत्वेनाक्रियामात्रार्थिनां भिन्नार्थक्रियात एतज्ज्ञानमुत्पन्नं किं वा तद्व्यतिरेकेणेत्येवंभूतायाश्चिन्ताया 10 निष्प्रयोजनत्वात् निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य । एवञ्च संवादकज्ञानस्य परत्वे समानजातीयभिन्नजातीयैकसन्तानभिन्नसन्तान विकल्पकृत दोषाणां नोपनिपातः, उभयस्वीकारात्, देवदत्तघ ज्ञाने समानजातीययज्ञदत्तघटज्ञानस्य, प्रथमप्रवृत्तजलज्ञाने भिन्नजातीयस्योत्तरकालभाविस्नानपानावगाहनाद्यर्थक्रियाज्ञानस्य, एक सन्तानगतेऽन्धकार कलुषिता लोकप्रभवकुम्भज्ञाने निस्तिमिरालोकप्रभवकुम्भज्ञानस्य, भिन्नसन्ताने च समानजातीयकुम्भज्ञानस्योक्तस्य संवादकत्वस्वी - 15 कारात् एकसन्तानेऽभिन्नविषये संवाद्यसंवादकभावाविशेषस्य मन्दप्रबल सामग्री समुत्पाद्यतयैव निरासात् । तथा न संवादकज्ञानात्प्रामाण्यनिश्चये चक्रको दोषः, संवादज्ञानेन प्रथमं प्रामाण्यं निश्चित्यैव प्रवर्त्तत इत्यनभ्युपगमात् वह्निस्वरूपदर्शनेऽसत्येकदा शीतपीडितोऽन्यकार्यार्थं वंह्निमद्देशमुपसर्पस्तत्स्पर्शमनुभवति, कृपालुना वा केनचित्तदेशं वह्नेरानयने तत्स्पर्श मनुभवति, तदाऽसौ वह्निस्वरूपदर्शनस्पर्शनज्ञानयोस्संबन्धमवगच्छति 'एवम्भूतो भाव एवम्भूतप्रयोज - 20 निवर्त्तक ' इति एवमवगतसम्बन्धोऽन्यदाऽनभ्यासदशायामनुमानात् ' ममाऽयं स्वरूपप्रतिभासोऽभिमतार्थक्रियासाधनः एवंरूपप्रतिभासत्वात्पूर्वोत्पन्नैवं रूपप्रतिभासवदि ' त्येवंरूपात्पूर्वदर्शनस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्त्तत इति चक्रकाभावात् । न च संशयात्प्रवृत्तौ तत्रार्थ - क्रियाज्ञानात्प्रामाण्यनिश्चयो विफल इति वाच्यम्, तत्रार्थक्रियाज्ञानजन्यप्रामाण्यनिश्चयस्य संशयापनयनफलत्वात् । संशयापगमस्य त्वभ्यासः प्रयोजनम् । एकदाऽर्थक्रियाज्ञानात् प्रामा 25 निश्चयेऽन्यदा प्रतिपत्तॄणां सुखेनैवाभ्यासात् स्वतः प्रामाण्यनिश्चयपूर्वक प्रवृत्तिसम्भवात् । न च संशयात्प्रवर्त्तमानस्य कथं प्रेक्षावत्त्वमिति वाच्यम्, अप्रेक्षावत्त्वस्यैवेष्टत्वात् नहि कश्चिजात्या प्रेक्षावान् तदन्यो वा, प्रेक्षावरणक्षयोपशमविशेषस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वेषामसम्भवात्, प्रक्षीणाशे पावरणादशेषवेदिनोऽन्यत्र क्वचित्कदाचित्कस्यचिदेव प्रेक्षावत्त्वादित्यलं पल्लवितेन ॥ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४४८ : न्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे तदेवं मत्यादिपञ्चविधं प्रत्यक्ष परोक्षरूपं सलक्षणं सभेदश्च संक्षेपत आख्याय प्रमाणविषयफलप्रमातृरूपेषु चतुर्विधेषु तत्स्वस्य परिसमाप्तेस्तद्विषयमभिधातुकाम आह परिच्छेद्यमस्य प्रमाणस्य सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकं वस्तु ॥ परिच्छेद्यमिति । परिच्छेत्तुं योग्यो विषय इत्यर्थः, परिच्छेद्यमस्याने कान्तात्मकं 5 वस्त्विति योजना, अनेकान्तः कीदृश इत्यत्राह सामान्यविशेषादीति, सामान्यञ्च विशेषश्च सामान्यविशेषौ वक्ष्यमाणस्वरूपौ तावादिर्यस्य सः, सचासावनेकान्तश्च स एवात्मा स्वरूपं यस्य तदिति विग्रहः, वस्तुपदेन बाह्योऽभ्यन्तरश्च भावराशिर्याह्यः नित्यानित्यभेदाभेदाभिलाप्यानभिलाप्यादीनामादिना ग्रहणम् । ननु सत्त्वासत्त्वाद्यनेकान्तात्मकमिति कुतो नोक्तमितरेषां तदधीनत्वादिति चेन्न, सत्त्वासश्वात्मकत्वस्य सप्तभङ्गीनिरूपणेनावगतप्रायत्वात्, 10 सामान्यशब्देन द्रव्यबोधकेन नित्यत्वस्य पर्यायवाचिविशेषशब्देनोत्पादव्यययोश्च लाभेनोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वस्यापि वस्तुनि लाभाच्च तथोपन्यासः । ननु कथं सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनस्सम्भवति, सामान्यं ह्येकं, अनेके विशेषाः, नित्यं सामान्यं, अनित्या विशेषाः, निरवयवं सामान्यं, सावयवा विशेषाः, अक्रियं सामान्यं, सक्रिया विशेषाः, सर्वगतं सामान्यं, असर्वगता विशेषाः, तथा च वस्तु यदि सामान्यरूपं कथं, विशेषरूपम्, अथ विशेषरूपं 15 कथं सामान्यरूपम्, तदुभयरूपत्वे च वस्तुनस्सकललोकप्रसिद्धव्यवहारनियमोच्छेदप्रसङ्गः, तथाहि विषमोदकक्षीरादिव्यक्त्यभिन्नमेकं सामान्यं यदि वर्त्तते तर्हि विषं विषमेव, मोदको मोदक एवेति न स्यात्, मोदकाभिन्नसामान्याभिन्नत्वात् विषस्य, विषाभिनसामान्याभेदात् मोदकस्य, अपि तूभयमुभयरूपं स्यात् ततश्च विषे मोदके च विषार्थी प्रवर्तेत, मोदके विषे च मोदकार्थी, लोके च विषार्थी विष एव प्रवर्त्तते, मोदकार्थी 20 मोदक एवेत्यस्य नियमस्योच्छेदः, तथा विषे भक्षिते मोदकोऽपि भक्षितस्स्यात् मोदके भक्षिते विषमपि, तथा च सति प्रतीतिविरोध इति चेन्मैवम्, सामान्यविशेषात्मक वस्तुनोऽ नुभवसिद्धत्वात्, घटेषु घटो घट इत्यनुवृत्तप्रत्ययस्य ताम्रो मार्त्तिकस्सौवर्णइत्येवं व्यावृ १. तथा च प्रयोगो जीवादिधर्मी अनन्तधर्मात्मकः प्रमेयत्वान्यथानुपपत्तेरिति न च धर्मे व्यभिचारः, तस्याप्यनन्तधर्मात्मकत्वे धर्मित्वप्रसक्तेः इष्टापत्तौ न धर्मों स्यात्कोऽपि धर्माभावादिति वाच्यम्, सर्वथा धर्मस्यैव कस्यचिदसम्भवात् विवक्षितधर्म्यपेक्षया हि सत्त्वादिधर्मः, स स्वधर्मान्तरापेक्षया धर्म्यपि, न चानवस्था, अनाद्यनन्तत्वाद्धर्मधर्मिस्वभावभेदव्यवहारस्य । न च साधनस्य प्रमेयत्वस्यानन्तधर्मशून्यत्वे तेनैवानेकान्तः, तस्यानन्तधर्मात्मकत्वे धर्मित्वेन पक्षान्तर्गतत्वान्न हेतुत्वमिति वाच्यम्, धर्मिणो जीवादेरपोद्वियमाणस्य प्रमेयत्वादेर्धर्मस्य नयविषयस्य नयत्वेनाप्रमेयत्वाद्वयभिचाराभावात् व्यभिचारलक्षणे साध्याभावतद्वद्वृत्तित्वयोरेकावच्छेदेन प्रवेशादिति बोध्यम् ।। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाभ्यविशेषात्मकम् ] न्यायप्रकाशसमलते त्तप्रत्ययस्याबाध्यमानस्य प्रतिप्राणि प्रतीतत्वात् न चायं भ्रान्तः प्रत्ययः, अर्थसामर्थ्यजन्यस्वात् , अर्थविज्ञानसद्भावाद्धि तन्निश्चयो नार्थसद्भावमात्रात् सर्वार्थानामपि सद्भावस्याविशेघेण सर्वेषां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् , उपजायते च ज्ञानं सामान्यविशेषाकारमेव, एकादिस्वभावं सामान्यमनेकादिस्वरूपो विशेष इति तु युक्तिविरहानाभ्युपगम्यते, एकादिस्वभावं हि सामान्यं किमनेकेषु विशेषेषु सर्वात्मना देशेन वा वर्तेत, न तावत्सर्वात्मना, आनन्त्यप्रस- 5 ङ्गात् विशेषाणामनन्तत्वात् एकत्रैव सर्वात्मना वृत्तौ तद्भिन्नविशेषाणां सामान्यशून्यत्वापत्तेः, अनन्तत्वे चैकत्वविरोधात् नापि देशेन, सदेशत्वप्रसङ्गात् , नापि गगनवव्यापित्वाद्वर्त्तत इति साम्प्रतं कायंदेशव्यतिरेकेण वृत्त्यदर्शनात् नभसस्सप्रदेशत्वेन न तद्वृत्तिरुभयव्यतिरिक्ता, अनेकत्र वृत्तेरनेकत्वं व्यापकं तद्विरुद्धं सर्वथैक्यं सामान्ये त्वयाभ्युपगम्यते ततो नानेकवृत्ति स्यात् विरोध्येकत्वसद्भावे तु व्यापकस्यानेकत्वस्य निवृत्त्या व्याप्यस्यानेक- 10 वृत्तित्वस्यावश्यं निवृत्तिः स्यात् न च यदि नित्यं व्याप्येकं निरवयवं सामान्यवस्तु न स्यान्न तदा देशकालस्वभावभेदभिन्नेषु घटशरावादिषु विशेषेषु सर्वत्र मृन्मृदित्यभिन्नौ बुद्धिशब्दौ स्याताम् , न ह्यत्यन्तभिन्नेषु जलादिषु मृन्मृदित्येकाकारा बुद्धिर्भवति नाप्येका. कारः शब्दः प्रवर्त्तते, ततोऽभिन्नबुद्धिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य सामान्यस्य तादृशस्य सत्वमवश्यमाश्रयितव्यमिति वाच्यम् , तन्निबन्धनस्यास्माभिरनिषेधात् किन्त्वेकत्वादिधर्मयुक्त. 15 परपरिकल्पितसामान्यस्यैव निषेधात् । अनेकान्तधर्मात्मकवस्तुनस्समानपरिणामस्यैव ताहशबुद्धिशब्दनिबन्धनत्वात् तुल्यज्ञानपरिच्छेद्यवस्तुरूपस्य समानपरिणामस्य विलक्षणत्वेन .. न वृत्तिविकल्पप्रयुक्तदोषसम्भवः, अस्यैव समानभावत्वोपपत्तेः, समानानां भावस्सामान्यमिति, समानैस्तथा भवनमित्यन्वर्थयोगात्, अर्थान्तरभूतभावस्य तद्व्यतिरेकेणापि तत्समानत्वेऽनुपयोगात्, अन्यथा समानानामित्यभिधानाभावादयुक्कैव तत्कल्पना। समानत्वञ्च 20 भेदाविनाभाव्येव तदभावे च सर्वथैकत्वतस्समानत्वानुपपत्तिरिति समानपरिणाम एव समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तम् , अत एव य एवासावेकस्मिन् विशेषे स एव विशेषा १. अनुभवसिद्धत्वमेव विशदयति अर्थविज्ञानसद्भावाद्धीति ॥ २. नार्थसद्भावोऽर्थसद्भावादेव कारणानिश्चीयत इति भावः ॥ ३, आकाशस्य निष्प्रदेशत्वेऽयं दोषः तथाहि येन देशेन तद्विन्ध्येन संयुक्तं तेनैव देशेन हिमवदादिभिस्संयोगे विन्ध्य हिमवदादीनामेकत्रैवावस्थानं स्यात् अन्यथा निष्प्रदेशकाकाशसंयोग एव न स्यात् । अन्येन देशेन - संयोगे तु सप्रदेशत्वमेव । किञ्च यत्र विन्ध्यस्य सत्त्वं यत्र वा तस्याभावस्सयोराकाशभागयोस्सर्वथाऽनन्यत्वे यत्र विन्ध्यस्य भावस्तत्राप्यभावः स्यात् विन्ध्यवनभोभागस्य विन्ध्याभाववनभोभागानतिरिक्तत्वात् कथञ्चिदभेदेऽनेकान्तवादप्रवेशः सर्वथा भेदेऽन्यतरस्यानभोभागस्वप्रसङ्गः। अथ कथञ्चित्तर्हि स्वदर्शनपरित्यागो दोष इति । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे न्तर इति न, किन्तु समान इति, न चैवं सति विशेषाणां परस्परविलक्षणत्वान्न स्यात्समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिरिति वाच्यम् , वैलक्षण्ये सत्यपि समानपरिणामसामर्थ्यात्प्रवृत्तेः । असमानपरिणामनिबन्धना चेह विशेषबुद्धिः । समानपरिणामस्यासमानपरिणामाविनाभूतत्वेन यत एव वस्तु सामान्यरूपं तत एव विशेषरूपम् । यत एव च विशेषरूपमत एव च सामा5 न्यरूपम् , न चानयोर्विरोधः, समानासमानपरिणामयोरुभयोरपि संवेदनस्योभयरूपत्वात् सोऽयं समानपरिणामो न विशेषादर्थान्तरं सर्वथैकस्वभावं वा, येन सकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारनियमोच्छेदप्रसङ्गरस्यात् । किन्तु भेदाविनाभूतत्वाद्य एव विषादभिन्नो न स एव मोदकादिभ्योऽपि, सर्वथा तदेकत्वे समानत्वायोगात् । न च समानपरिणामस्यापि प्रतिवि शेषमन्यत्वेऽसमानपरिणामवत्तद्भावानुपपत्तिरिति वाच्यम् , परिणामस्यान्यत्वे सत्यपि समा10 नासमानपरिणामयोभिन्नस्वभावत्वात् समानबुद्धिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्वभावो हि समानपरिणामः, विशिष्टबुद्धिशब्दजननस्वभावो विशेष इति । तस्माद्वस्तु सामान्यविशेषोभयात्मकमेवेति सिद्धम् । एवं नित्यानित्यात्मकत्वमप्यध्यक्षेणावगम्यते, अन्यथा वस्त्ववगमाभावः प्रसज्येत, तथाहि-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं सर्वथा नित्यमभ्युपगम्यते यदि तर्हि तद्वस्तु विज्ञानजननस्वभावं वा स्यादजननस्वभावं वा, यदि प्रथमः, तदा सर्वत्र सर्वदा 15 सर्वेषां तद्विज्ञानप्रसङ्गः, तस्यैकस्वभावत्वात् , न ह्येवं दृश्यते, क्वचित्कदाचित्कस्यचि देव तद्विज्ञानस्योदयात् । न च तस्य सर्वथैकस्वभावत्वेऽपि देशादिकृतविशेषात्तथेति वाच्यम् , प्राक्स्वभावविनिवृत्ति विना विशेषासम्भवेन तद्भावेऽनित्यत्वप्रसङ्गात् । नापि सहकारिणमपेक्ष्य तज्जनयतीति वाच्यम , एकान्तनित्यस्यापेक्षाऽयोगात् । सहकारिणा क्रिय. माणस्य विशेषस्य ततोऽर्थान्तरत्वे नित्यस्य वस्तुनस्तेन प्रयोजनाभावात् वस्तुनस्तदव20 स्थत्वात् , वस्तुनि तस्य किश्चित्कारित्वाभावात् किश्चित्कारित्वे च तदिदं भिन्नमभिन्नं वेत्या वृत्त्यानवस्थापातात् । विशेषस्यानर्थान्तरभूतत्वे स विशेषो विद्यमानः क्रियमाणो भवत्यविद्यमानो वा, नाद्यो विद्यमानः कथं क्रियते, करणे वा भूयो भूयः करणं स्यात् विद्यमानत्वाविशेषात् , नाप्यविद्यमानः क्रियते व्याहतत्वात , स तस्मादभिन्नोऽविद्यमानश्चेति, करणे वाऽनित्यत्वापत्तिः क्रियमाणे च तस्मिन् पदार्थस्यैव क्रियमाणत्वात् तस्य तदभिन्नत्वात् । 25 विशेषस्याकरणे च स न तत्सहकारी स्यात् अकिञ्चित्करत्वात् । अकिश्चित्करस्यापि सह. कारित्वे सर्वभावानामेव तत्सहकारित्वप्रसङ्गः स्यात् , न च वस्तुन एव तथास्वभावो यद्विशेषमकुर्वाणमेव प्रतिनियतं सहकारिणमपेक्ष्य कार्यकरणमिति न कश्चिदोष इति १. एवञ्च विषार्थी विष एव प्रवर्तते, तद्विशेषपरिणामस्यैव तत्समानपरिणामाविनाभूतत्वात् , न तु मोदके तद्विशेषपरिणामस्य, तत्समानपरिणामाविनाभावाभावादिति बोध्यम् ॥ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदाभेदात्मकम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते वाच्यम् , कार्यकरणावस्थायां तस्य सहकार्यपेक्षालक्षणस्वभावव्यावृत्तावनित्यत्वप्रसङ्गात् स्वभावव्यावृत्तौ तदभिन्नस्वभाववतोऽपि व्यावृत्तताया आवश्यकत्वात् । अव्यावृत्तौ च पूर्व इवेदानीमपि कार्याकारित्वप्रसङ्गात् स्वभावापरावृत्तेः, सर्वदा वा जननप्रसङ्गस्यादिति नैकान्तनित्यपक्षे विज्ञानादिकार्याजननेन तदवगमसम्भवः । अथ स्वभावादेकक्षणस्थितिधर्मकमेकान्तानित्यं वस्त्वित्यभ्युपगम्यते तदापि विज्ञानादिकार्यायोगान्न तदवगमसम्भवः, 5 न च सर्वथा एकक्षणस्थितिधर्मिणो विज्ञानादिजनकत्वमुपपद्यते, तस्यैवायोगात् । तथाहि क्षणस्थितिधर्मकं नाम क्षणस्थितिस्वभावं तथा चास्य द्वितीयादिक्षणेष्वस्थितिः स्यात् तत्र तयोः स्थित्यस्थित्योः परस्परमन्यत्वमनन्यत्वं वा, यद्यन्यत्वं सर्वथा तदा द्वितीयादिक्षणेष्वपि स्थितिप्रसङ्गः, अन्यथा द्वितीयादिक्षणास्थित्या प्रथमस्थितेरेकान्तभेदो न भवेत् , अनन्तराक्रान्तविग्रहाणां भावानामस्थित्यकान्तभिन्नया वर्तमानसमयभाविभावानां 10 स्थितेरविरोधात् । कथञ्चिदन्यत्वे चानेकान्तवादापत्तेः । यदि तयोस्सर्वथाऽनन्यत्वं तदा प्रथमक्षणस्थितेरेव द्वितीयादिक्षणास्थितिरूपतया तस्याश्च भावात्मकत्वेन द्वितीयादिक्षणेध्वपि स्थितेरापत्तेः । द्वितीयादिक्षणास्थितेर्निरुपाख्यत्वेन तद्रूपत्वात्प्रथमक्षणस्थितेः प्रथम क्षणेऽप्यभावप्रसङ्गाच्च । कथचिदभेदे चानेकान्तवादापत्तेः । न च स्थित्यस्थित्योर्भेदाभेदकल्पनाऽयुक्ता, अस्थितेरभावरूपत्वादिति वाच्यम् , भेदाभेदयोरभावपरिहारेणावृत्तेः । 15 न च तदुत्तरकालभाविपदार्थान्तरस्थितिरेव विवक्षितस्य द्वितीयादिक्षणास्थिति न्या काचनास्थितिर्येन भेदाभेदकल्पना स्यादिति वाच्यम् , तथा सति सुतरामन्यत्वानन्यत्वकल्पनाप्रसरेण पूर्वोदितदोषस्यानिवार्यत्वात् । न च परिकल्पिता द्वितीयादिक्षणास्थिति तो भेदाभेदकल्पनेति वाच्यम् , तथात्वे च द्वितीयादिक्षणेष्वपि स्थित्यापत्तेः। न च द्वितीयादिक्षणास्थितौ सत्यां प्रथमक्षणस्थितेरसम्भवात् सम्भवे वा तदनुपपत्तेः प्रतियोग्यभावेन भेदाभेद- 20 कल्पनाऽसम्भवान्नोक्तदोषप्रसङ्ग इति वाच्यम् , अस्थितेस्तद्धर्मत्वप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वात् , स्थित १. कार्याजननकाले य एव स्वभावस्स एवेदानीमिति कथं जनयति कथं वा पूर्वमपि न जनयति । सहकारिणा सह जननस्वभावत्वमतस्तत्सद्भावे जनयत्यन्यथा नेति चेत्सोऽयमपि स्वभावो यदि नित्यस्तदा सदा जननप्रसङ्गः अजनयतश्च कथं सदा. तत्स्वभावत्वं, तस्माद्यदा यद्भवति तदा तेन सह तजननस्वभावं न तु सदेत्यङ्गीकर्तव्यमेवञ्च स्वभावभेदै कथमेकान्तनित्यतेति भावः ॥ २. यथा प्रथमक्षणवर्तिघटपटादीनां याः स्थितयस्ता अन्यत्वान्न परस्परं विरुद्धास्तथाऽन्यत्वाविशेषादस्थितिकालेऽपि तस्य स्थितिः स्यादिति भावः ॥ ३. स्थित्यस्थिती परस्परं भिन्ने भवतोऽभिन्ने वेति शङ्का न संभवति अस्थितेरभावरूपत्वादिति शङ्काशयः समाधानाशयस्तु भेदाभेदप्रकारौ अभावादन्यत्रैव भवत इति यदि नियमः स्यात्तदैवं भवेत् न त्वेवमस्तीति ॥ ४. प्रथमक्षणादुत्तरकालभावीत्यर्थः ॥ ५. अन्यत्वे उत्तरकालीनपदार्थान्तरस्थितिक्षणेऽपि प्रथमकालभाविपदार्थक्षणस्थितिप्रसङ्गः, अनन्यत्वे तु तयोरन्यतरस्याः सत्त्वप्रसङ्ग इति ॥ ६. द्वितीयादिक्षणस्थितेः परिकल्पितत्वेनासत्त्वादिति भावः ॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४५२ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे एव ह्यस्थितो भवति तथा च यथा स्थितत्वं तद्धर्मस्तथाऽस्थितत्वमपीति, अतद्धर्मत्वे वा स्थित्यापत्तेः । ततश्च स्वहेतुभ्य एव स्थित्यस्थितिधर्मकं समुत्पद्यत इति प्रतिपत्तव्यम् , न चाक्रमवतः कारणात्क्रमवद्धर्माध्यासितकार्योत्पत्तियुज्यते तथा च यदैव स्थितिस्तदेवास्थितिः स्यात् कुतः क्षणस्थितिधर्मकत्वमतो न विज्ञानादिकार्ययोगः, नित्यानित्यं पुनः कथश्चिदवस्थितत्वादनेक5 स्वभावत्वाजनयति विज्ञानादिकमतोऽवगम्यते, नित्यानित्यत्वञ्च वस्तुनो द्रव्यपर्यायोभय. रूपत्वादनुवृत्तव्यावृत्ताकारसंवेदनप्राह्यत्वात्प्रत्यक्षसिद्धमेव । न चास्य स्वसंवेद्यस्यापि संवेदनस्यापह्नवः कत्तुं युज्यते प्रतीतिविरोधात्, न चेदं भ्रान्तम् , देशान्तरे कालान्तरे नरान्तरेऽवस्थान्तरे च मृत्पिण्डादिषु तादृशसंवेदनस्य प्रवृत्तेरिति । एवं भेदाभेदात्मकमपि वस्तु प्रत्यक्षेणावगम्यते, तथाहि मृन्मृदित्यनुगताकारप्रत्ययवेद्यं वस्तुनो रूपमभेदः, तस्य 10 यच्छिवकस्थासकघटकपालादिना भेदेन भवनं स भेदः, अभेदस्यैव च भेदरूपेण भवनादविरोधेन तदुभयस्वरूपत्वं वस्तुनः । नन्वभेदस्य भेदेन भवनमसङ्गतम् , एकस्वभावत्वं ह्यभेदो नानारूपत्वश्च भेदस्तयोस्तु परस्परं विरोधान्नैकत्र तौ सम्भवतः, ततो यद्ययमभेदस्तदा न कदाचिद्भेदो भवेत् भावानां स्वभावान्यथात्वाभावात् , न च भावस्स्वस्वभावापरिहारेणैव भेदरूपतामासादयतीति वाच्यम् , भेदाभेदयोः परस्परविरुद्धयोरेकस्वभावत्वायोगात् भेदो15 पलम्भस्याभेदप्रतिषेधाऽऽवेदकत्वात् । अन्यथा एतत्सकलस्तम्भेभकुम्भाम्भोजभास्करादि कमेकस्यैव ब्रह्मणो रूपमित्यपि स्यात् । तस्मानाभेदो भेदमासादयति, तन्न युक्तम् , सर्वथा भेदाभेदयोर्हि स्याद्विरोधोऽयन्तु भेदोऽभेदश्च विलक्षणः, स्यादभेदस्य स्याद्भेदे को विरोधः ? यत एव ह्ययं भेदो भवत्यत एव स्यादभेदः, न च भेद एव कुतो नेति वाच्यम् सर्वथा नानात्वाभावात् , प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था, ततस्तत्र यस्सर्वथैकरूपतः प्रकाशतेऽसा20 वभेदो भवति, सर्वथा नानारूपतया तु प्रतिभासमानो भेदः, यस्तु न सर्वथैकरूपः प्रकाशते न च सर्वथैव नानास्वभावः स नाभेद एव न च भेद एव अपितु भेदाभेदाख्यं जात्यन्तरमेवेदम् , दृश्यते हि द्रव्यपर्याययोरसंख्यासंज्ञालक्षणकार्यभेदाढ़ेदो देशकालस्वभावाभेदाच्चाभेदः, एको हि घटो रूपादयो बहव इति संख्याभेदः घटो रूपादय इति संज्ञाभेदः, अनुवृत्तिलक्षणं द्रव्यं नित्यञ्च, व्यावृत्तिलक्षणाः पर्यायाः क्षणिकाश्चेति १. अभ्यन्तरीकृतपर्यायत्वाद् द्रव्यात्मना नित्यं, अभ्यन्तरीकृतद्रव्यत्वात्पर्यायात्मनाऽनित्यमित्यर्थः, ननु पर्यायनिवृत्तौ द्रव्यनिवृत्तिर्भवति न वा, आये निवृत्तिमत्त्वात्तदनित्यमेव, पर्यायस्वात्मवत् , अन्त्ये च पर्यायनिवृत्तावपि तस्यानिवृत्त्या तेभ्योऽन्यदेव द्रव्यं स्यात् क्रमेलकादिव कर्कः, मैवम् कथञ्चिन्निवृत्तिभावात् इतरेतरविनिमुक्तस्योभयस्याग्रहणाद्धि द्रव्यपर्यायोभयरूपं वस्तु ऊर्ध्वाद्याकाररहितस्य च मृद्रव्यस्यासम्भवात् कपालकालेऽपि घटपर्यायबुद्धया मृदनुभूयते मृन्निवृत्तौ तूर्खादिपर्यायवनानुभूयेत एवमूर्खाद्याकारस्यापि मृद्रव्यरहितस्यासम्भवः, न ह्यद्रव्या घटादिपर्यायास्सन्ति ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सादाद्यात्मकम् ] न्यायप्रकाशसमलते लक्षणभेदः, घटेनोदकाहरणं क्रियते, रूपादिभिस्तु वस्तुराग इति कार्यभेदः, देशादिभिस्त्वभेदः, न च स्वभावतो भेदाभावे धर्मधर्मिणोस्संख्यादितोऽपि कथं भेदस्स्यादिति वाच्यम् , द्रव्यपर्याययोहि स्वभावभेदे प्रतिषिद्धे सत्यभेदः साध्यः, स च सम्बन्धः । सम्बन्धश्चैकस्यैवात्मनो न सम्भवति द्वयनिष्ठत्वादस्य, नहि घटो घटादभिन्न इति कदाचिदपि व्यवहारः प्रवर्त्तमानस्समुपलभ्यते, न चैकत्रापि दृष्ट एव व्यवहारो यथा घटस्य तत्स्वरूपस्य चाभेद 5 इतीति वाच्यम् , तत्रापि कथञ्चिद्भेदाश्रयणात् घट इति धर्मिवचनशब्दः, स्वरूपन्तु स्वं रूपं स्वरूपमिति तस्यैव भावस्यानित्यत्वादिरूपं धर्ममाह, तस्माद्रव्यपर्याययोरयमेव स्वभावविशेषो यन्नेतराननुविद्धमेकस्यापि किश्चिदात्मीयं रूपम् , अत एव न तद्व्यमित्येव व्यपदिश्यते नापि पर्याया इत्येव, किन्तु सप्तभङ्गया प्राङ्गिरूपितया, इत्थमेव वस्तुस्वरूपतोपपत्तेः । न च संख्यादयः पररूपा भिद्यमाना अपि कथमात्मभूतमभेदं न बाधितुं समर्था इति वाच्यम्, 10 यतो नास्माकं नैयायिकादीनामिवैकान्तेन भावव्यतिरेकिणः केचित्संख्यादयोऽपि, किन्तु स एव भावो भेदाभेदतया व्यवस्थितः कदाचिदनेकत्वप्राधान्येन विवक्ष्यते कदाचिदेकत्वप्राधान्येन, ततो यदाऽनेकत्वप्राधान्येन विवक्षितस्तदा स एव रूपादिपर्यायात्मको भवति, एकत्वप्राधान्येन विवक्षितस्तु स एव द्रव्यमिति, तदेवं प्रमाणप्रतिपन्नत्वेन भेदाभेदात्मकं वस्त्विति ॥ एवमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वं वस्तुनः, न चोत्पादव्यययोधौव्येण विरोध इति 15 वाच्यम् , कथञ्चिदुत्पादव्यययोः कथञ्चिद् ध्रौव्यस्य च स्वीकारात् न च यथोत्पादव्ययौ न तथा ध्रौव्यं यथा ध्रौव्यं तथा नोत्पादव्ययाविति नैकं वस्तु यथोक्तलक्षणं स्यात् , यद्धि यत्प्रकारव्यवच्छेदेन व्यवस्थाप्यते न तत्र तत्प्रकारसम्भवः यथा नीलप्रकारव्यवच्छेदेनानीलप्रकारव्यवस्थायां पीते । अस्ति चोत्पादव्ययव्यवच्छेदेन ध्रौव्यव्यवस्थापनं ध्रौव्यव्यवच्छेदेन चोत्पादव्ययव्यवस्थापनम् , उत्पादस्य वस्तुभावत्वात् विनाशस्य व्ययत्वात् , अन्वितरूपस्य 20 ध्रौव्यत्वादिति भिन्नप्रकारत्वं तेषामिति वाच्यम् , एकान्तोत्पादव्ययध्रौव्याणामनभ्युपगमात् १. अत्र स्थित्यादीनां हि वस्तुनो यद्यभेदस्तदा स्थितिरेवोत्पत्तिविनाशौ, विनाश एव स्थित्युत्पत्ती, उत्पत्तिरेव च विनाशावस्थाने इति प्राप्तम् , एकस्मादभिन्नानां स्थित्यादीनां भेदविरोधात् तथा च कथं त्रिलक्षणत्वं स्यात्, अथ भेदस्तहि प्रत्येकं स्थित्यादीनां त्रिलक्षणत्वप्रसङ्गः, सत्त्वात् , अन्यथा स्थित्यादीनामसत्त्वापत्तेः, तथा चानवस्था स्यादिति पूर्वपक्षः, पक्षद्वयमपि कथञ्चिदिष्टमस्माकम् , तत्र स्थित्यादिमतस्सकाशात्कथञ्चिद भेदोपगमे स्थित्यादीनां स्थितिरेवोत्पद्यते, उत्पद्यमानद्रव्याभेदसामर्थ्याच्च विनश्यति, विनाश एव तिष्ठति, सामादुत्पद्यते च उत्पत्तिरेव नश्यति सामर्थ्यात्तिष्ठतीति च ज्ञायते, इति त्रिलक्षणजोवादिपदार्थाभिन्नानां स्थित्यादीनामपि त्रिलक्षणत्वसिद्धः, एतेनैव च ततस्तेषां भेदोपगमेऽपि प्रत्येक विलक्षणत्वसिद्धिः, न चानवस्था, सर्वथा भेदपक्षे तत्प्रसक्तेः, न स्याद्वादपक्षे, येन हि स्वभावेन त्रिलक्षणात्तत्वादभिन्नाः स्थित्यादयस्तेन प्रत्येकं त्रिलक्षणाः, पर्यायार्पणात्परस्परं तद्वतश्च भिन्ना अपीष्यन्ते, तथा प्रतीतेर्बाधकासम्भवादित्युत्तरपक्षः।। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे किन्तु स्याद्वादं निष्कलङ्कितमतिसमुत्प्रेक्षितमाश्रित्य कथञ्चिदेव तद्व्यवस्थापनाङ्गीकारात् । एकान्ताभ्युपगमे ह्युत्पादव्ययध्रौव्याणां यथोक्तो व्यवच्छेदस्सम्भवत्यन्यथा विरोधायोगात् । स्याद्वादाश्रयणात्तु नान्यव्यवच्छेदेनान्यव्यवस्थापनं किन्तु यत एव तद् ध्रौव्यमुत्पादव्ययानुविद्धमत एव तत्कथञ्चिद् ध्रौव्यमुत्पादव्ययावपि, यत एव ध्रौव्यानुविद्धावत एव तौ 5 कथञ्चिदुत्पादव्ययाविति । ननु कोऽयमनुवेधो नाम, किमभेदो भेदो भेदाभेदो वा, नाद्यः एकरूपतापत्तेः, अन्यथा तदयोगात् , भेदे तु भिन्नमेव रूपद्वयं स्यात् , भेदाभेदपक्षस्तु विरोधव्याहत इति तन्न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , यतो यदेतद् ध्रौव्यमप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं न भवति, अपि तु परिणामात्मकं तदुत्पादव्ययावप्युच्यते, न पुनस्तावितो व्यतिरिक्तावेव कौचि दपि स्तः, अत एवोत्पादव्ययावपि यौ तौ नात्यन्तिकभिन्नौ, किन्तु वस्तुन एव परिणामा10 त्मकौ तौ ध्रौव्यमप्युच्येते, न पुनस्तदपि किञ्चिदेतद्व्यतिरिक्तमस्तीति, तदेवं या यथोक्तरूपता वस्तुनस्सोऽयमनुवेधः न पुनरत्र भिन्नस्य कस्यचिदभेदापादनमत्यन्तभेदो वा, तस्मादुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकमेव वस्तु इति, इतरथा वस्त्वेव तन्न स्यादिति ॥ एवमभिलाप्यानभिलाप्यात्मकं वस्तु, अस्यैव प्रमाणसिद्धत्वात् तथाव्यवहारोपपत्तेश्चान्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् तथाहि वस्तु यदेकान्तेनानभिलाप्यमेव तदा तथाविधशब्दात्तथाविधार्थप्रतीत्यनुदयप्रसङ्गः 15 स्यात् , दृश्यते चानलाद्यानयेत्युक्ते तत्प्रतीतिस्तत्पूर्विका वह्नयादौ प्रवृत्तिस्तत्समासादनं समा सादिते च तथा निवेदनमिति कथञ्चिदभिलाप्यत्वसिद्धिः, अपि चानभिलाप्यतैकान्ते स्ववचनविरोधापत्तिरनभिलाप्यतैकान्तशब्देनानभिलाप्यतैकान्तस्याभिधानात् । अनभिलाप्यतैकान्तस्याप्यनभिलाप्यत्वे कुतः परस्य प्रतिपादनं स्यात् , परमार्थतो न कश्चिद्वचनात्प्रतिपाद्यते चेत्स्वयं कथमवाच्यताप्रतिपत्तिः, वस्तुनि वाच्यतानुपलब्धेरिति चेत्सा यदि दृश्यानुप. 20 लब्धिस्तदा सिद्धा क्वचिद्वाच्यता, क्वचित्सिद्धसत्ताकस्यैव कुम्भादेईश्यानुपलब्धिवशादभावप्रतीतेः । अथादृश्यानुपलब्धिः न तर्हि वस्तुनि वाच्यत्वाभावनिश्चयः, स्याद्वादाश्रयणे तु न कश्चिद्दोषः कथञ्चिद्वाच्यत्वावाच्यत्वयोर्वस्तुनि प्रतीतेः, न खल्वेकान्तेनाभिलाप्यस्वभावं वस्तु भवत्युपलम्भभाजनम् , अभिलाप्ययोग्यपर्यायैरेव स्थूलैः कालान्तरस्थायिभिर्व्यञ्जनपर्यायापराभिधानश्चेतनाचेतनस्य सकलवस्तुनोऽभिलाप्यत्वप्रतीतेः, न पुनरनभिलापयोग्यपर्यायै2 रपि । नाप्येकान्तेनानभिलाप्यस्वरूपमुपलब्धिभाजनमनभिलापयोग्यपर्यायैरेव सूक्ष्मैः प्रति क्षणभाविभिरर्थपर्यायापरनामधेयैस्सर्वस्यानमिलाप्यत्वप्रतीतेन त्वभिलापयोग्यपर्यायैरपि । ननु यदि वस्त्वभिलाप्यानभिलाप्यधर्मकं तर्हि अभिलाप्यानां शब्देनाभिधीयमानत्वात्किमित्यकृतसंकेतस्य पुरोऽवस्थितेऽपि वाच्ये शब्दान सम्प्रत्ययप्रवृत्ती भवतः, मैवम् तज्ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाभावात् , तस्य सङ्केताभिव्यङ्गयत्वात् , ज्ञस्वभावस्यात्मनो हि मिथ्यात्वा Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते दिजनितज्ञानावरणादिकर्ममलपटलाच्छादितस्वरूपस्य संकेततपश्चरणदानप्रतिपक्षभावनादिभिस्तदावरणकर्मक्षयोपशमक्षयावापद्यते, ततो विवक्षितार्थाकारसंवेदनं प्रवर्तत इति, अन्यथा तत्प्रवृत्त्यभावात् , न चात्र विरोधबाधा, भिन्ननिमित्तत्वात् , ययोभिन्ननिमित्तत्वं न तयोरेकत्र वस्तुनि विरोधो यथा ह्रस्वत्वदीर्घत्वयोः, भिन्ननिमित्तत्वञ्चानयोरभिलाप्यधर्मकलापनिमित्तापेक्षया तस्याभिलाप्यत्वात् अनभिलाप्यधर्मकलापनिमित्तापेक्षया चानभिलाप्यत्वात् । 5 धर्मधर्मिणोश्च कथञ्चिद्भेदात् । ततश्च तद्यत एवानभिलाप्यमत एवाभिलाप्यम् , अभिलाप्यधर्मकलापनिमित्तापेक्षयैवाभिलाप्यत्वात् अभिलाप्यधर्माणाश्चानभिलाप्यधर्माविनाभूतत्वात् यत एव चाभिलाप्यमत एव चानभिलाप्यम् , अनभिलाप्यधर्मकलापनिमित्तापेक्षयैवानभिलाप्यत्वात् , अनभिलाप्यधर्माणाञ्चाभिलाप्यधर्माविनाभूतत्वादिति । ततस्सिद्धमभिलाप्यानभिलाप्यस्वभावं वस्त्वित्यधिकमन्यग्रन्थेभ्योऽवसेयम् ॥ . 10 सम्प्रति सामान्यविशेषाद्यात्मकत्वं वस्तुनोऽभिधातुं प्रथमं सामान्यस्वरूपं निदर्शयति तत्र सामान्यं द्विविधं तिर्यक्सामान्यमूर्ध्वतासामान्यश्चेति । व्यक्तिषु सदृशी परिणतिस्तिर्यक्सामान्यं, यथा शुक्लकृष्णादिगोव्यक्तिषु गौौरिति प्रतीतिसाक्षिको गोत्वादिधर्मः । प्रमाणश्चात्र गौौरिति प्रत्ययो विशिष्टनिमित्तनिबन्धनो विशिष्टबुद्धित्वादिति ॥ 15 तत्रेति । सामान्यविशेषाद्यनेकान्तात्मकमित्यत्रेत्यर्थः । प्रकारभेदं दर्शयति-तिर्यगिति । तिर्यगुल्लेखिनाऽनुवृत्ताकारप्रत्ययेन गृह्यमाणं तिर्यक्सामान्यमित्यर्थः । ऊर्ध्वतेति, ऊर्ध्वमुल्लेखि. नाऽनुगताकारप्रत्ययेन परिच्छिद्यमानमूर्खतासामान्यमित्यर्थः । तत्र प्रथमभेदं लक्षयति व्यक्तिष्विति, प्रत्येकं व्यक्तिष्वित्यर्थः, दृष्टान्तमाह यथेति । ननु शुक्लकृष्णादिगोभिन्नस्यापरस्य तिर्यक्सामान्यस्य गोत्वाद्यात्मकस्याप्रतीतितस्तल्लक्षणप्रणयनमसमीचीनं विजातीयव्या- 20 वृत्तेरेवानुगताकारप्रतीतेर्भावादित्यत्राह प्रमाणश्चात्रेति, अत्र तिर्यक्सामान्य इत्यर्थः । गौरेंरिति प्रत्ययोऽत्र धर्मी, विशिष्टनिमित्तनिबन्धनत्वं साध्यधर्मः विशिष्टबुद्धित्वं हेतु; । तथा च तादृशं विशिष्टं निमित्तमितरासम्भवात्सदृशपरिणाम एवेति तिर्यक्सामान्यसिद्धिः । एवञ्चाबाधितप्रत्ययविषयत्वेन सामान्यसिद्धिः, तथाविधस्याप्यस्यासत्त्वे विशेषस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गः, अबाधितप्रत्ययत्वव्यतिरेकेण प्रमाणान्तरस्य तद्व्यवस्थापकस्याभावात् अबाधितप्रत्ययस्य 25 विषयमन्तरेणापि सद्भावाभ्युपगमे ततो न कस्यापि व्यवस्था स्यात् , न चानुगताकारत्वं बुद्धे- . र्बाधितं, सर्वत्र देशकालादावनुगतप्रतिभासस्यास्खलद्रूपस्य तथाभूतव्यवहारहेतोरुपलम्भात् । अतो व्यावृत्ताकारानुभवेनानधिगतमनुवृत्ताकारमवभासयन्ती बुद्धिरियमबाधितरूपानुभूय Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमाकरण मानानुगताकारं बस्तुभूतं सामान्य व्यवस्थापयति । न च विजातीयव्यावृत्त्यालम्बनत्वमस्याः, विधिप्राधान्येन प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, सकलव्यक्तिध्वेकव्यावृत्तेस्तुच्छाया असम्भवात् , धर्मिरूपत्वे च न सतो भिन्ना काचिद्व्यावृत्तिरिति कथमनुगता धीरस्यात् सामान्यमन्तरेणैवानुगत प्रत्ययोत्पत्तौ व्यावृत्तप्रत्ययस्यापि विशेषमन्तरेणोत्पत्तिप्रसङ्गात् ।। 5 किं पुनरूलतासामान्यमित्यत्राह- -- पूर्वोत्तरपरिणामानुगामि द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यम्, यथा कटककङ्कणादिपरिणामेषु काश्चनमिति प्रतीतिसाक्षिकं काश्चनद्रव्यम् ॥ पूर्वोत्तरेति । पूर्वोत्तरयोः कटककङ्कणादिपरिणामयोरनुगामिसाधारणमेकं द्रव्यं कालत्र. यानुयायी यो वस्त्वंशस्तदूर्ध्वतासामान्यमित्यर्थः । दृष्टान्तमाह यथेति, तत्र प्रमाण दर्शयितुं 10 प्रतीतिसाक्षिकमित्युक्तम , तथा च यथा गौौरित्यनुवृत्तप्रत्ययेन समानकालीनास्वपि व्य क्तिषु तिर्यक्सामान्य गोत्वाख्यं सिद्ध्यति तथैव पूर्वोत्तरपर्यायेष्वपि काञ्चनमिदं काञ्चनमिदमित्यादिप्रतीत्या तादृशपर्यायासाधारणं द्रव्यरूपमूर्ध्वतासामान्यं कथञ्चिदभिन्नं सिद्धयत्येवेति भावः । ननु पूर्वोत्तरपरिणामसाधारणस्य तद्व्यतिरिक्तस्य द्रव्यस्याप्रतीतेलक्षणमिदमसङ्गतमिति चेन्न, अर्थानामन्वयरूपस्य प्रत्यक्षादेव प्रतीतेः, यथैव च पूर्वोत्तरपर्याययोावृत्तप्रत्ययाद15 न्योऽन्यभेदः प्रतीतस्तथाऽनुवृत्तप्रत्ययात्स्थितिरपि प्रतीयत एव, अनुवृत्त्यविनाभावित्वाद्वथा वृत्तेः, अत एव न घटादीनां भेद एवावभासते नाभेद इत्यभिधातुं शक्यम् , अभेदवियुक्तस्य भेदस्य स्वप्नेऽप्यसंवेदनात् । न च द्रव्यग्रहणे तदभिन्नत्वादतीताद्यवस्थानामध्यवसायापत्तिरिति वाच्यम् , अभिन्नत्वस्य ग्रहणं प्रत्यनङ्गत्वात् । यत्रैवात्मनोऽज्ञानपर्यायप्रतिबन्धकापा यस्तत्रैवाध्यवसायकत्वनियमात् । आत्मा हि प्रत्यक्षसहायोऽनन्तरातीतानागतपर्याययोरेकत्वं 20 स्मरणप्रत्यभिज्ञानसहायश्च व्यवहितपर्याययोरेकत्वञ्चावबुध्यत इति न काप्यनुपपत्तिरिति ॥ अधुना विशेष विभजते विशेषोऽपि द्विविधो गुणः पर्यायश्चेति । सहभावी गुणः, यथाऽऽत्मन - उपयोगादयः, पुद्गलस्य ग्रहणगुणः,धर्मास्तिकायादीनाञ्च गतिहेतुत्वादयः॥ . विशेष इति । यथा सामान्यं द्विविधं तथा विशेषोऽपीत्यर्थः कथं द्वैविध्यमित्यत्राह 25 गुण इति, यद्यपि पर्यायशब्दो विशेषमात्रवाचकस्तथापि सहवर्तिविशेषवाचिगुणशब्दस निधानेन क्रमवर्तिविशेषवाचक एवेति बोध्यम् । तत्र गुणं लक्षयति सहेति, अभिन्नका Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायाः ] न्यायप्रकाश लवर्त्तिविशेषो गुण इति भावः, दृष्टान्तमाह यथेति उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, सचेतनेऽचेतने वा वस्तुनि जीवो यदोपयुञ्जानस्सपर्यायं सामान्यतया वा वस्तु परिच्छिनत्ति तदा तादृशपरिणाम उपयोग उच्यते, स च परस्परसव्यपेक्षसामान्यविशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शनज्ञानस्वरूपद्वयात्मको यदा तदा प्रमाणमन्यथाऽप्रमाणं निरपेक्षनिरस्तेतराकारत्वात् । सर्वजीववर्तित्वादस्य सहभावित्वेन गुणत्वं बोध्यम् । 5 आदिना सुखपरिस्पन्दयौवनादयश्च गृह्यन्ते, अजीवस्य तान्वक्तुमाह पुद्गलस्येति, ग्रहणगुण इति, ग्रहणरूपो गुणः, औदारिकशरीरादितया ग्रहणरूपो वर्णादित्वाबाह्यतारूपः परस्परसम्बन्धरूपो वा धर्मः ग्रहणगुण उच्यते । गतिहेतुत्वादय इति, जीवपुद्गलयोर्देशान्तरगतिपरिणतयोरुपकारकत्वं धर्मास्तिकायस्य गुण इत्यर्थः, आदिना स्थितिहेतुत्वावकाशदातृत्वादयोऽधर्माकाशादीनां गुणा ग्राह्याः । एते हि यदैव द्रव्यमुत्पद्यते तदैव समवेतास्तेन द्रव्येण 10 गुणा उत्पद्यन्ते पौर्वापर्यभाव एव नास्ति, गुणगुणिनोः समानसामग्रीकत्वात् सव्येतरविषाणवत् , अनादिनिधनानां द्रव्यगुणानामुत्पत्तिदर्शन व्यवहारतः कृष्णादिघटवत् । अत्रेदं बोध्यं जीवस्यास्तित्ववस्तुत्वद्रव्यत्वप्रमेयत्वागुरुलघुत्वस्वाश्रयक्षेत्रावधित्वचेतनत्वामूर्त्तत्वानि अष्टौ गुणाः, अजीवे चेतनत्यासूतत्वहीना अचेतनत्वमूर्त्तत्वयुताः पुद्गलस्याष्टी, इतरेषां मूर्त्तत्वहीना अमूर्त्तत्वयुतास्त एवाष्टौ गुणाः, ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि जीवस्य, स्पर्शगन्धरस- 15 वर्णाः पुद्गलस्य, गतिस्थित्यवगाहनावर्तनाहेतुत्वानि धर्मादीनां क्रमेण विशेषगुणाः, अविकृतद्रव्येऽविशिष्टतया स्थितत्वात् विकृतस्वरूपास्तु पर्याये गच्छन्ति । चेतनत्वाचेतनत्वमूर्तत्वामूर्त्तत्वानि चत्वारि सामान्यगुणा विशेषगुणाश्च, स्वजात्यपेक्षयाऽनुगतव्यवहारकारित्वात् , परजात्यपेक्षया चेतनत्वादीनां स्वाश्रयव्यावृत्तिकरत्वात् । अत एवैते परापरसामान्यवत् सामान्यविशेषगुणा इति षोडश विशेषगुणा विज्ञेया इति ॥ 20 अथ पर्यायं निरूपयति क्रमभावी पर्यायः, यथा सुखदुःखहर्षविषादादयः । अभिन्नकालवर्तिनो गुणाः, विभिन्नकालवर्तिनस्तु पर्यायाः ॥ क्रमभावीति । क्रमवर्तिनः परिणामा नवपुराणादयः पर्याया इति भावः । सामान्येन .. १. उपचारवर्जिताः स्वीयस्वभावा एव गुणाः, गुणा हि सहभाविनोऽतोऽनुपचरिताः, यश्चोपचरितः स पर्यायः, अत एव द्रव्याश्रिता गुणाः, उभयाश्रिताः पर्यायाः, तदुक्तं 'गुणाणमासओ दव्वं एगव्वस्सिया गुणा लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे' इति । ५८ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४५८ : तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे पर्यायो द्विविधो व्यञ्जनंपर्यायोऽर्थ पर्यायश्चेति, त्रिकालस्पर्शिनः व्यञ्जनपर्यायाः यथा घटादीनां मृदादिपर्यायः, घटस्य कालत्रयेऽपि मृदादिपर्यायत्वव्यञ्जनात् । सूक्ष्मवर्त्तमानकालवर्त्ती अर्थ - पर्यायः, यथा घटादेस्तत्तत्क्षणवर्त्ती पर्यायः, यस्मिन् काले वर्त्तमानतया स्थितस्तत्कालापेक्षया कृतविद्यमानत्वेनार्थ पर्याय उच्यते । प्रत्येकं द्विभेदो द्रव्यतो गुणतश्च तत्रापि पुनः प्रत्येकं 5 द्विविधश्शुद्धाशुद्धभेदात्, तत्र शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायो यथा चेतनद्रव्यस्य सिद्धत्व पर्यायः । अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायो नरदेवनारकतिर्यमूपः, शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायः केवलज्ञानादिरूपः अशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायो मतिश्रुतावधिमनः पर्यवरूपः । ऋजुसूत्रमतेन क्षणपरिणतोऽर्थ पर्यायः शुद्धः, यो यस्मादल्पकालवर्त्ती स तस्मादल्पत्वविवक्षयाऽशुद्धार्थपर्यायः, यथा नरत्वं व्यञ्जनपर्यायस्तथा बालत्वादिकमर्थपर्याय इति । शुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायस्य केवलस्यापि प्रतिक्षणं 10 भेदात् तत्पर्यायश्शुद्धगुणस्यार्थपर्याय: । शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपरमाणुश्शुद्धपुद्गलपर्यायस्तस्याविनाशित्वात्, संयोगजनिता द्व्यणुकादिका अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायाः । परमाणुगुणश्शुद्धगुणव्य पर्यायः, द्विदेशादिका गुणा अशुद्धगुणव्यञ्जनपर्यायाः । एवं धर्मादिष्वपि भाव्यम् । ननु य एव गुणाः क्रमेण सह वा भवन्ति त एव च पर्याया इति कथं तेषां भेद उक्त इत्यत्राहाभिन्नेति, सदैव सहवर्त्तित्वाद्वर्णगन्धरसादयस्सामान्येन गुणा उच्यन्ते नहि मूर्त्ते वस्तुनि वर्णादिकं 15 कदाचिदपि व्यवच्छिद्यते, वर्णविशेषाणां कृष्णनीलादीनामपि प्रायः प्रभूतकालं सहवृत्तित्वाद्गुणत्वमेवं जीवधर्मादीनां भाव्यम् । विभिन्नेति । एकगुणकालकत्वादयो विभिन्ना: पर्याया द्रव्यस्यावस्थान्तरप्राप्तिरूपाः पर्याया इत्यर्थः । त्रैलोक्यगतस्य सर्वस्यापि कालस्यासत्कल्पनया यो गुणोंऽशस्सर्वजघन्यः तेन कालकः परमाण्वादिरेकगुणकालक उच्यते, एवं द्व्यादिगुणकालकादयो भाव्याः । वस्तुतस्तु नास्ति गुणस्य पर्यायस्य च कश्चन भेदः, द्रव्यपर्यायनयद्वयाति20 रिक्तनयस्य भगवद्भिरनुपदेशात् । पर्याय भन्ने गुणविशेषे ग्राह्ये सति हि तद्ब्राहकगुणास्तिक - योsपि स्यादेव, अन्यथा नयानामव्यापकता स्यान्न चायमादिष्टो भगवद्भिः ततोऽसौ न भिन्नः, गुणाना पर्यायत्वे गुणपर्यायवद्रव्यमित्यादिवचनं युगपदयुगपद्भाविपर्यायविशेषप्रतिपादकमे, वय एव पर्यायस्स एव गुण इत्याद्यागमोऽपि सङ्गच्छते, एतेन गुणविकार: पर्याय इति व्युदस्तम्, गुणस्यैव पर्यायोपादानकारणत्वे द्रव्यप्रयोजनस्य गुणेनैव सिद्धत्वाद्गुणप 25 र्याययोरेव पदार्थत्वप्रसङ्गेन द्रव्यस्यानर्थकत्वापत्तेः, न च द्रव्यपर्यायगुणपर्यायरूपकार्यभेदेन द्रव्यगुणरूपकारणभेदान्न द्रव्यं निष्फलमिति वाच्यम्, अन्योऽन्याश्रयात्, कारणभेदे सति १. न चैवमपि मतुब्योगाद्दव्यभिन्नगुणपर्यायसिद्धिरिति वाच्यम्, नित्ययोगे मतुब्विधानात् द्रव्यपर्याययोस्तादात्म्यात् सदा · निर्विभागवर्त्तित्वात् अन्यथा प्रमाणबाधापत्तेः । संज्ञासंख्यास्वलक्षणार्थक्रियाभेदाद्वा कथचित्तयोरभेदेऽपि भेदसिद्धेर्न मतुबनुपपत्तिरिति ॥ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४५९ : कार्यभेदः कार्यभेदे च कारणभेदस्सिद्ध्यतीति । तदेवं द्रव्यपर्यायात्मानौ सामान्यविशेषावेक वस्तु, प्रतिभासभेदेऽप्यव्यतिरिक्तत्वात् यत्प्रतिभासभेदेऽप्यव्यतिरिक्तं तदेकं यथा मेचकज्ञानम् तथा च द्रव्यपर्यायौ न व्यतिरिच्येते तस्मादेकं वस्त्विति, न चायमसिद्धो हेतुः केवलद्रव्यस्य केवलपर्यायस्य वस्तुत्वे हि स्यादसिद्धिः, तदेव नास्ति क्रमयोगपद्यविरोधेनार्थक्रियाऽसम्भवात् , न च क्रमयोगपद्यविरोधस्तत्रासिद्ध इति साम्प्रतम् , द्रव्यस्य पर्यायस्य वा 5 सर्वथैकस्वभावस्य क्रमयोगपद्यादर्शनात् अनेकपर्यायात्मन एव द्रव्यस्य तदुपलम्भात् । न च द्रव्यपर्याययोर्वास्तवत्वेऽप्यभेदोऽसिद्धः घटादिद्रव्यापादिपर्यायाणां ज्ञानप्रतिभासभेदात् , घटपटादिवदिति वाच्यम् , तस्यैकत्वाविरोधित्वात् , उपयोगविशेषाद्धि रूपादिज्ञानप्रतिभास. भेदो न स्वविषयैकत्वं निराकरोति, सामग्रीभेदेऽयुगपदेकार्थोपनिबद्धविशदेतरज्ञानवत् । नापि विशेषणविरुद्धो हेतुः, विशेषणस्य प्रतिभासभेदस्याव्यतिरिक्तत्वहेतुना विरोधासिद्धेः। 10 नन्वव्यतिरिक्तत्वमैक्यमेव, तथा च साध्याविशिष्टो हेतुरिति चेन्न कथश्चिदप्यशक्य विवेचनत्वस्याव्यतिरिक्तत्वस्य हेतुत्वेन प्रयोगात् । न चाशक्यविवेचनत्वमप्यसिद्धमिति वाच्यम् , विवक्षितद्रव्यपर्यायाणां द्रव्यान्तरं नेतुमशक्यत्वस्य सुप्रतीतत्वात् , वेद्यवेदकाकारज्ञानवत् तदाकारयोर्ज्ञानान्तरं नेतुमशक्यत्वस्यैव तस्याभिमतत्वात् । न च द्रव्यपर्याययोर. युतसिद्धत्वादशक्यविवेचनत्वमिति वाच्यं यतः किमिदमयुतसिद्धत्वं, न तावदेशाभेदः पवना- 15 तपयोस्तत्प्रसङ्गात् नापि कालाभेदस्तत एव । स्वभावाभेद इत्यपि न, सर्वथा तथात्वे विरोधात् कथञ्चिच्चेत्तदेवाशक्यविवेचनत्वम् । स एवाविष्वग्भावः समवाय इति परमतप्रसिद्धः, अन्यथा तस्याघटनात् । न च धर्मिग्राहकप्रमाणेन बाधनाद्वाध इति वाच्यम् , तेन धर्मिणोः कथञ्चिद्भिन्नयोरेव ग्रहणात् । सर्वथा भिन्नयोर्द्रव्यपर्यायत्वासम्भवात् । न च द्रव्यपर्याययोभिन्नयोः कथमभेदो विरोधादिति वाच्यम् , तथोपलम्भात् मेचकज्ञानवत् नहि तत्र विरो- 20 धवैयधिकरण्यसंशयव्यतिकरसङ्करानवस्थाऽप्रतिपत्त्यभावाः प्रसज्यन्ते, तेषां तथाप्रतीत्या दूरोत्सारितत्वोक्तत्वात् । तस्मात्सिद्धं द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिदैक्यमिति ॥ . १. पृथगाश्रयानाश्रयित्वं पृथगगतिमत्त्वरूपमप्ययुतसिद्धत्वं नाशक्यविवेचनत्वादन्यदित्यपि बोध्यम् ॥ २. एवं द्रव्यपर्याययोरेकत्वे भेदः कथं सिद्धयतीति चेत्परस्परविविक्तस्वभावपरिणामसंज्ञासंख्याप्रयोजनादिभ्य इत्यवेहि, द्रव्यं हि अनाद्यनन्तैकस्वभाववैस्रसिकपरिणामं, पर्यायश्च साद्यन्तानेकस्वभावपरिणामः; द्रव्यस्य द्रव्यमिति पर्यायस्य पर्याय इत्यन्वर्थसंज्ञाभेदः, एक द्रव्यमित्येकत्वसंख्या द्रव्ये, पर्याया बहब इति पर्याये बहुत्वसंख्येति संख्याभेदः, द्रव्यस्यैकत्वान्वयज्ञानादिकं पर्यायस्यानेकत्वव्यावृत्तिज्ञानादिकं प्रयोजनंमिति प्रयोजनभेदः, द्रव्यं त्रिकालगोचरं पर्यायो वर्तमानकाल इति काल भेदः इति । एवञ्च द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु स्यानानैव स्वलक्षणभेदात् , स्यादेकमेवाशक्यविवेचनत्वात् स्यादुभयमेव क्रमार्पितद्वयात् , स्यादवक्तव्यमेव, सहार्पितद्वयाद्वक्तुमशक्यत्वात् , स्यान्नानाऽवक्तव्यमेव, विरुद्धधर्माध्याससहार्पितद्वयात् । स्यादेकमवक्तव्यमेव, Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे • ननु सुखज्ञानादीनां गुणत्वं सुखदुःखादीनां पर्यायत्वमिति कथं ? पर्यायमुणयोर भेदादित्यत्राह अत्र य एव सुखादयो गुणास्त एव पर्याया इति कथं भेद इति नो वाच्यम् , कालभेदेन भेदस्यानुभवात् ॥ . 5 . अत्रेति । कालभेदस्यानुभूयमानत्वेन तदपेक्षयैव भेदो न सर्वथेति भावः ॥ तदेवं प्रमाणस्य परिच्छेये समासत आदर्शिते किमीदृशस्य प्रमाणस्य फलमिति जिज्ञासायामाह- प्रमाणजन्यं फलं द्विविधमनन्तरं परम्परमिति। अज्ञाननिवृत्तिरनन्तरफलम् , केवलिनामपि प्रतिक्षणमशेषार्थविषयाज्ञाननिवृत्तिरूपपरि10 णतिरस्त्येव, अन्यथा द्वितीयादिसमये तदनभ्युपगमेऽज्ञत्वप्रसङ्गः ॥ प्रमाणजन्यमिति । अनन्तरमिति, अन्तररहितमव्यवहितं फलमित्यर्थः । परम्परमिति, व्यवहितं फलमित्यर्थः, अनन्तरं फलं प्रमाणानां दर्शयति अज्ञाननिवृत्तिरिति, प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वकालीनं प्रमातृविवक्षितविषयकं यदज्ञानं तस्य निवृत्तिरव्यवहितं फलं अज्ञान मुद्दलयतामेव प्रमाणानां प्रवृत्तिरज्ञानस्य सर्वानर्थमूलतया प्रमात्रपकारित्वात्तन्निवर्तनस्य 15 प्रयोजनता युक्तैव, एतच्चाव्यवहित फलं सर्वज्ञानानामेकरूपत्वात् सामान्येनोक्तमिति भावः, एतदुपलक्षकमर्थप्रकाशस्य, तस्याप्यव्यवहितफलत्वात् प्रमातृणां सर्वेषामर्थित्वादर्थप्रकाशस्य फलत्वौचित्यात् । ननु प्रमाणस्याप्यर्थसंवेदनरूपत्वेन तस्यैव प्रमाणस्य फलत्वेनोक्तिः पर्यवसिता, किमतः ? प्रमाणफलयोरभेदः स्यात् , ततोऽपि किं ? असतः कारणत्वस्य सतश्च फलत्वस्य प्रसङ्गः स्यादिति चेन्मैवम् , जन्मन्येवास्य दोषत्वाद् व्यवस्थायामदोषात् , 20 कर्मोन्मुखज्ञानव्यापारस्य फलत्वात् कर्तृव्यापारोल्लेखिबोधस्य प्रमाणत्वात् कर्तस्थायां प्रमाण रूपायां क्रियायां सत्यामर्थप्रकाशसिद्धेः । एकज्ञानगतत्वेन प्रमाणफलयोरभेदो व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावाच्च भेद इति भेदाभेदरूपः प्रमाणफलभावोऽबाधितं स्याद्वादमनुगच्छति, करणस्य क्रियायाश्च कथञ्चिदेकत्वात्प्रदीपतमोविगमवत्, नानात्वं च परश्वधादिवत् । न च यथा देवदत्तः काष्ठं परशुना च्छिनत्तीति करणस्य परशोर्देवदत्तनिष्ठत्वेन छिदायाः काष्ठ25 स्थत्वेन च नानात्वं यथैव च प्रदीपस्तमो नाशयत्युद्योतेनेत्यत्रापि करणस्योद्योतस्य तमोनाशा त्मकक्रियायाश्च नानात्वं प्रतीयते तथैव करणस्य प्रमाणस्य क्रियायाश्च फलज्ञानरूपाया अशक्यविवेचनसहार्पितद्वयात् स्यादुभयावक्तव्यमेव, क्रमाक्रमार्पितद्वयादिति सप्तभङ्गी भाव्येति भावः ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणफलम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४६९ : नानात्वेनैव भवितव्यमभेदे दृष्टान्ताभावादिति वाच्यम्, प्रदीपरस्वात्मनाऽऽत्मानं प्रकाशयतीति प्रतीतेः प्रदीपात्मनः कर्त्तुरनन्यस्य कथचित्करणस्य प्रकाशनक्रियायाश्च प्रदीपात्मिकायाः कथञ्चिदभेदसिद्धेः, तद्वत्प्रमाणफलयोरपि कथञ्चिदभेदसिद्धिरुदाहरणसद्भावात्, तथा सर्वथा तादात्म्येन प्रमाणफलयोर्व्यवस्था च भवितुमर्हतीति भावः । ननु केवलिनां सदा सर्वप्रमेयस्य प्रत्यक्षत्वादज्ञाननिवृत्तिः कथं फलमित्यत्राह केवलिनामपीति, ननु 5 प्रथमसमय एव केवलस्याशेषार्थ संवेदनरूपेण परिणतौ प्रदीपप्रकाशयोरिवाज्ञानध्वंससम्भवेऽपि द्वितीयादिक्षणे कथमज्ञाननिवृत्तिपरिणतिरित्यत्राहान्यथेति, तदनभ्युपगमेऽज्ञाननिवृत्तिपरिणामानभ्युपगमे, अज्ञत्वप्रसङ्ग इति, अज्ञाननिवृत्तेरभावादिति भावः तथाच प्रथमसमयेऽज्ञाननिवृत्तिः प्रथमसमयविशिष्टतयाऽऽसीत् द्वितीयादिसमये तु द्वितीयादिसमयविशिष्टतया भवतीति न फलाभावलक्षणो दोष इति भावः ॥ अथ किं तस्य व्यवहितं फलमित्यत्राह — : केवलज्ञानस्य परम्परफलं माध्यस्थ्यं हानोपादानेच्छाया अभावात्, . तीर्थकरत्वनामोदयात्तु हितोपदेशप्रवृत्तिः, सुखन्तु न केवलज्ञानस्य फलं, अशेषकर्मक्षयस्य फलत्वात् ॥ 4 10 केवलज्ञानस्येति । माध्यस्थ्यमिति, मध्यस्थवृत्तितेत्यर्थः, उपेक्षेति भावः । हेतुमाह 15 हाति, संसारतत्कारणस्य हेयस्य हानात् मोक्षतत्कारणस्योपादेयस्योपात्तत्वाच्च सिद्धप्रयोजनत्वादिति भावः । ननु करुणावतः परदुःखजिहासोः कथमुपेक्षा, तदभावे च कथमाप्त इति चेन्न निष्पन्नयोगस्य मैत्र्यादिवर्जितसद्बोधमात्रचित्तस्य मोहविलास रूप करुणाया असम्भवात्, अन्यदुःखनिराचिकीर्षायां स्वदुःखनिवर्त्तनवदकरुणयापि वृत्तेः ननु यः स्वस्मिन् दुःखनिवर्त्तकस्स स्वात्मनि करुणावान् यथाऽस्मदादिः तथा च योगी स्वदुःखनि- 20 वर्त्त इति प्रयोगेण दयालोरेवात्मदुःखनिवर्त्तकत्वं इति चेन्न स्वभावतोऽपि खपरदुःखनिवर्त्तकत्वोपपत्तेः प्रदीपवत् । नहि प्रदीपः कृपालुतयाऽऽत्मानं परं वा तमसो दुःखहेतोर्निवर्त्तयति किन्तु स्वभावादेव, ततो निश्शेषान्तरायक्षयादभयदानं प्रक्षीणावरणस्यात्मनः स्वरूपमेव परमा दया, सैव च मोहाभावाद्रागद्वेषयोरप्रणिधानान्माध्यस्थ्यमिति भावः । नन्वेवं कथं तस्य हितोपदेशे प्रवृत्तिरिष्टसाधनताज्ञानस्य तद्धेतुत्वाद्योगिन इष्टाभावादित्यत्राह तीर्थ- 25 करत्वेति, हितोपदेशप्रवृत्तिरिति, तया परदुःखनिराकरण सिद्धिरिति भावः । ननु केवलज्ञानस्य सुखमपि फलमन्यथा ' केवलस्य सुखोपेक्षे ' इति पूर्वाचार्यवचनविरोधो दुष्परिहर इति चेत्सत्यं, किन्तु न सहृदयक्षोदक्षमोऽयं केवलज्ञानस्य सुखफलत्वपक्ष इत्युपेक्षितः । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ सप्तमकिरणे सुखस्य हि संसारिणि सद्वेद्यकर्मोदयफलत्वं मुक्ते तु समस्तकर्मक्षयफलत्वं प्रमाणोपपन्नं न पुन नफलत्वं, तस्मात्पारंपर्येण केवलज्ञानस्य फलमौदासीन्यमित्यभिप्रायेणाह सुखन्त्विति, तर्हि कस्य फलं सुखमित्यत्राहाशेषेति ॥ मतिश्रुतादीनाञ्चतुर्णान्तु व्यवहितं तदाह तद्भिन्नप्रमाणानान्तु हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ॥ तद्भिन्नेति । केवलज्ञानभिन्नेत्यर्थः । व्यवधानेन जिहासाजनिका उपादित्साजनिका. बहिःप्रवृत्तिनिवृत्तिविषयान्तरसञ्चारशून्यनिभृतज्ञानरूपा वा बुद्धयः फलमित्यर्थः । जिहा. साजनकोपादित्साजनकबुद्धिद्वारेण च हेयहानोपादेयोपादानात्मिका विरतिरपि फलम् । स्मृत्यजनकज्ञानरूपोपेक्षायास्तु न कथमपि मत्यादिप्रमाणफलत्वं, अवग्रहादिधारणापर्यन्तत्वा10 न्मत्युपयोगस्येति केचित् ॥ प्रमाणानां फलं प्रमाणाद्भिन्नमेवेति केचित् , परे चाभिन्नमेवेति, तत्र तत्त्वजिज्ञासायां श्रोतुस्समुदितायां तदपनोदनायाह___ फलश्च प्रमाणाद्भिन्नाभिन्नं, प्रमाणतया परिणतस्यैवाऽऽत्मनः फलत्वेन परिणमनात्तयोः कथञ्चिदभेदः, कार्यकारणभावेन प्रतीयमानत्वाच कथ15 चिद्भेदः ॥ इति समाप्तं प्रमाणनिरूपणम् ॥ . फलश्चेति । प्रमाणफलश्चेत्यर्थः चोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । अनेन धर्मिनिर्देशः कृतः, प्रमाणाद्भिन्नाभिन्नमिति, साध्यधर्मनिर्देशः, प्रमाणफलत्वान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः पूरणीयः । एकान्ततस्तयोर्भेदे प्रमाणफले इमे स्वकीये इमे च परकीये इति नैयत्यं न स्यात् , तस्मादेक प्रमातृतादात्म्येन तयोः कथश्चिदभेदो वाच्य इत्याशयेनाह प्रमाणतयेति, यो ह्यात्मा प्रमाणा20 कारेण परिणमते स एव फलरूपतया परिणमते नान्यः, तथादर्शनात् , अन्यथा प्रमाणफलनियमो न भवेदेवेति भावः । अस्तु तर्हि तयोरभेद एवेत्यत्राह कार्यकारणभावेनेति, कुठार च्छेदनयोरिव प्रमाणफलयोर्हेतुहेतुमद्भावेन प्रतीयमानत्वात्कथञ्चिद्भेदोऽपि स्यादर्थप्रकाशनादौ ।" हि प्रमाणं साधकतमं कारणमर्थप्रकाशस्तत्साध्यं फलमिति प्रतीयते, सर्वथाऽभेदे हि नेयं व्यवस्था भवेदिति भावः । चशब्देनानुक्तस्यात्मनः प्रमातुस्संग्रहः । तेन प्रमाणफलयोर्यत् 25 परिणामिकारणं स प्रमाता, यदि प्रमाता न भवेन्न भवेदेव तदा प्रमाणफलयोर्भेदाभेदः, प्रमाणाभिन्नात्माभिन्नत्वाद्धि प्रमाणफलयोरभेदो वाच्यो गत्यन्तराभावात् , तथा चात्मनोऽभावे Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारोपः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४६३: सर्वथा क्षणिकत्वे सर्वथा नित्यत्वे च तदभेदासम्भवेन प्रमाणफलव्यवस्थाविच्छेदापत्त्या प्रमाणफलाभ्यां भिन्नाभिन्न उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकः प्रमाताऽभ्युपेय इति दर्शितः । तदेवं प्रमाणविषयफलप्रमातृणां निरूपितत्वादवसितं प्रमाणनिरूपणमित्याहेतीति ॥ . इतितपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य . तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां प्रमाणनिरूपणं नाम सप्तमः किरणः । अथाष्टमः किरणः ॥ ननु यथार्थज्ञानस्य प्रमाणत्वमनुक्त्वा यथार्थनिर्णयस्य तत्त्वं कुतः प्रोक्तमित्यत्राह-... प्रमाणश्च निश्चयात्मकमेव, आरोपविरोधित्वात् ॥ 10 प्रमाणश्चेति । निश्चयात्मकमेवेति, एवकारेण निराकारदर्शनस्य प्रमाणत्वव्यवच्छेदः कृतः, आरोपो हि संशयादिरूपो न वस्तुतथाभावग्राहकः, वस्तुतथाभावग्राहकञ्च निश्चयात्मकमेव ज्ञानं भवितुमर्हति, एवञ्च निश्चयात्मकत्वं व्यापकं व्याप्यश्च वस्तुतथाभावग्राहकत्वं, वस्तुतथाभावग्राहकं ज्ञानं प्रमाणमुच्यतेऽतस्तेन निश्चयात्मकेन भवितव्यम् , दर्शनश्च न वस्तुतथाभावग्राहकं निराकारत्वादतो न तत्प्रमाणं निश्चयात्मक- 15 श्चेति भावः । निश्चयात्मकत्वे हेतुमाह आरोपेति, वक्ष्यमाणस्वरूपस्यारोपस्य विरोधि. त्वादित्यर्थः, आरोपो ह्ययथावस्थितवस्तुग्राहकः प्रमाणञ्च यथावस्थितवस्तुप्राहकमतस्तद्विरोधित्वं प्रमाणस्य, तथा च प्रमाणं निश्चयात्मकमेव, आरोपविरोधित्वात् यत्पुनर्न निश्चयात्मकं न तदारोपविरोधि, यथा घटः, आरोपविरोधि च प्रमाणमतस्तन्निश्चयात्मकमेव । न च पक्षकदेशे प्रथमाक्षसन्निपातसमुद्भूतसंवेदनस्वरूपे निर्विकल्पकप्रत्यक्षे 20 बाधस्तस्य कल्पनाशून्यत्वेन निश्चयात्मकत्वासम्भवादिति वाच्यम् , सर्वैरेव सर्वदा सर्वत्र १. नामजातियोजनाशून्यत्वेनेत्यर्थः । अत्र बौद्धाः स्वलक्षणरूपविषयसामर्थ्यबलेनोत्पन्नत्वानिर्विकल्पदर्शने प्रतिभासमाने स्वलक्षणरूपोऽर्थः प्रतिभासते न नामादयः, न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वाऽर्थाः, येन तस्मिन् प्रतिभासमाने तेऽपि प्रतिभासेरन्निति वदन्ति तन्न, स्वलक्षणस्य ज्ञानविषयत्वासम्भवात् ज्ञान. जनकत्वेन ज्ञानभास्यत्वे मानाभावात् , अन्यथा इन्द्रियनिष्ठज्ञानजननशक्तेरपि प्रतिभासप्रसङ्गात् न च नीलाद्यध्यवसायहेतुत्वेन दर्शनस्य नीलादिविषयत्वमिति वाच्यम् , नीलाध्यवसायहेतुत्वेन दर्शनस्य नीलविषयत्वं, तत्त्वेन च नीलाध्यवसायहेतुत्वमित्यन्योऽन्याश्रयात् । तस्याभिलापशून्यत्वेनाध्यवसायहेतुत्वासम्भवाच्च नास्ति तादृशं निर्विकल्पकमित्याशयेनाह सर्वैरेवेति ॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे नीलमहं संवेद्मीत्युल्लेखशेखरस्य निश्चयात्मकस्यैव प्रत्यक्षतोऽनुभूयमानत्वात् , न च शब्दरहितनीलादिपदार्थसामर्थेनोत्पत्त्या तद्रूपप्रतिभासित्वमेव तस्योचितं नत्वभिलापप्रतिभासित्वमपीति वाच्यम् , असत्यभिलापप्रतिभासित्वे निश्चयस्वभावत्वासम्भवात् , नि: शब्दकार्थजनितत्वमात्रेण शब्दं विना कृत्यस्याभिधानासम्भवाच्च, न च नीलादिपदार्थे 5 सत्युपयोगेऽपि यदीन्द्रियजं ज्ञानमर्थ न परिच्छिन्द्यात् किन्तु स्मृतिसामर्थ्यजन्यतदर्थप्रति पादकशब्दसंघटनं यावत्प्रतीक्षेत तदार्थग्रहणाय दत्ताञ्जलिस्स्यात् , नीलादिकं ह्यर्थमनीक्षमाणो न तत्र गृहीतसङ्केतं शब्दं स्मरत्युपयोगाभावात् , अननुस्मरन्न तं पुरोवर्तिनि पदार्थे घटयति स्मरणमन्तरेण संघटनासम्भवात् असंघटयंश्च त्वदृष्टया न निरीक्ष्यत एवार्थमिति सुषुप्तप्रायं जगद्भवेदिति वाच्यम् , भवत्पक्षेऽप्यस्य दोषस्य तुल्यत्वात् , उत्पन्नेऽपि हि निर्वि10 कल्पके प्रत्यक्षे विधिनिषेधद्वारा विकल्पद्वयं यावन्न भवेत् तावदिदं नीलं नेदं पीतमितीदन्त याऽनिदन्तया नियतार्थव्यवस्था न स्यात् ' यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणते 'ति त्वद्वचनात् । तद्व्यवस्थापकञ्च विकल्पयुगलमेव तच्च शब्दयोजनासहितमिति त्वदुक्तरीत्या जगत्सुषुप्तप्रायं स्यादिति । प्रत्यक्षस्य सविकल्पकत्वे शब्दसंपृक्तमेव स्यात्तथा च शब्दाद्वैतमतप्रवेश इति न च वाच्यम् , स्वत एव तस्य व्यवसायात्मकत्वात् न पुनः शब्दसंपर्कापेक्षया, तद15 पेक्षायां वर्णपदव्यवसायासम्भवात् तद्व्यवसाये परस्य शब्दस्यावश्यकतायामनवस्थापत्तेरिति । कोऽयमारोपो यद्विरोधित्वं प्रमाणस्य स्यादित्यत्राह अतत्प्रकारके वस्तुनि तत्प्रकारकत्वज्ञानमारोपः, स त्रिधा विपर्ययसंशयानध्यवसायभेदात् । अन्यथास्थितवस्त्वेककोटिमात्रप्रकारकनि श्चयो विपर्ययः, यथा शुक्ताविदं रजतमिति ज्ञानम् ॥ 20 अतत्प्रकारक इति । यत्प्रकारकं ज्ञानं क्रियते तत्प्रकाराभाववति वस्तुनीत्यर्थः । तं विभजते स इति । अथ विपर्ययलक्षणमाहान्यथेति, अतदाकारे वस्तुनि तन्मात्राकारप्रकारकनिश्चय इत्यर्थः, अत्र निश्चयत्वं संशयभिन्नज्ञानत्वमेव, अनध्यवसायस्य संशयभिन्नत्वेऽपि एककोटि १. इदमस्य नामेति गृहीतसंकेतमित्यर्थः, तदस्मरणे च इदमेतत्पदवाच्यमिति तेन नाम्ना तद्वाच्यं न योजयितुमीष्टे इत्याहाननुस्मरन्निति, न निरीक्ष्यत इति, तदेतदितिशब्देन नाभिलपितुं शक्नोतीत्यर्थः ॥ २. क्षणिकवादिमते नामजात्यादियोजनं विकल्पे कथमपि नोपपद्यते, दीर्घकालिकत्वात्तदुपयोगस्येत्यपिबोध्यम् ॥ ३. अन्यथा दृश्यस्य दर्शनेन पूर्वानुभूतनीलादिज्ञाननामविशेषयोः सह स्मरणेन प्रकृते नामयोजनासंभवस्य वक्तव्यतया सह स्मृतिद्वयस्वीकारापत्तिः स्यात् अत एव वर्णपदानां ऋमिकाणां क्रमेणैवाध्यवसायेन युगपदध्यवसानासंभवः, कथञ्चिदध्यवसाये वा नाम्नो नामान्तरेण विना स्मृत्यसंभवेन तदावश्यकतायां भवत्यनवस्थेति भावः ॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपर्ययः ] : ४६५ : न्यायप्रकाशसमलङ्कृ लङ्कृते मात्र प्रकारकनिश्चयत्वाभावान्नातिव्याप्तिः विशिष्टविशेषास्पर्शित्वात्तस्य । दृष्टान्तमाह यथेति, अरजताकारायां शुक्तिकायां रजताकारतया रजतमिदमिति ज्ञानं विपर्यासरूपत्वाद्विपर्ययरूपं विपरीतख्यातिरिति भावः || अत्रेदमवधेयम्, मीमांसका भ्रमस्थले विवेकाख्यातिमाहुः, तथाहि नन्विदं रजतमित्यादिभ्रान्तत्वेनाभिमतप्रत्ययजनने को हेतुः न तावदिन्द्रियम्, तस्य पुरोवर्त्तिशुक्तत्यादावेव सम्बद्धत्वेनासन्निकृष्टरजतादिज्ञानजनने सामर्थ्याभावात्, सम्बद्धस्य 5 वर्त्तमानस्यैव तद्ब्राह्यत्वात् न च दोषसहकृतेना सन्निकृष्टेनापि तेन रजतज्ञानजनने प्रभुणा भवितव्यमिति वाच्यम्, स्वाभाविक कार्यजनन सामर्थ्यविहननेन प्रतिहतशक्तिकस्य दोषस्य विपरीत कार्योत्पत्तौ तत्सहकारित्वासम्भवात् । नहि कलुषितं गोधूमबीजादिकं व्रीह्यङ्कुरादिजननसमर्थं दृश्यते । नेतरत्किञ्चित्कारणमस्ति विनिवृत्तेन्द्रियव्यापारस्यापि तथाविधबोधोत्पत्तिप्रसक्तेस्तस्मादिदं रजतमिति प्रत्यक्षस्मरणरूपं ज्ञानद्वयमेव, इदमंशे प्रत्यक्षहेतोरिन्द्रिय- 10 सन्निकर्षस्य रजतांशे च साधारणरूपादिदर्शनेनोद्बुद्धसंस्कारस्य पूर्वानुभवजन्यस्य स्मरणहेतोस्सत्त्वात् । तत्रेदमिति ज्ञानं पुरोवर्त्तिशुक्तिकाविषयकं रजतमिति ज्ञानश्च परोक्षरजतावगाहि न रजतज्ञानस्य शुक्तिकाशकलं विषयोऽन्याकारस्या तिर्प्रसङ्गेनान्यविषयकत्वासम्भवात् । न च तत्तानवभासनेन रजतज्ञानं न स्मरणमिति वाच्यम्, तत्तारहितानामपि बहूनां स्मरणस्योपलम्भात् न च तर्हि कथमिदं रजतमित्येकज्ञानतया भानम्, न तु 15 द्वित्वेन, रजते चातीतताया नावभास इति वाच्यम्, दोषमहिम्नेदमिति ज्ञानस्य शुक्तिकात्वेन शुक्तिकाया विषयीकरणेऽसामर्थ्येन उभयसाधारणधर्मदर्शनाश्च रजतशुक्त्योस्तज्ञानयोश्च भेदाग्रहेण द्वित्वस्यातीततायाश्चाप्रतिभासनात् । न च सर्वेषामेव यथार्थज्ञानत्वे नेदं रजतमित्यादिबाधकप्रत्ययाः कस्य बाधका भवेयुरिति वाच्यम् । तेषामिदमन्यद्रजतमन्यदिति विवेकस्य प्रकाशकत्वेनैव बाधकज्ञानत्वात्, न तु रजतज्ञानस्यासत्यत्वप्रकाश- 20 कत्वेन । स्वप्नज्ञानस्यैकत्वेऽपि तस्य स्मृतित्वेनाग्रह एव विवेकाग्रहः । न च सदृशदर्शनमन्तरेण तस्य कथं स्मृतित्वमिति वाच्यम्, निद्रोपद्रुतस्य मनस एव तत्र निमित्तत्वात् । एवं चन्द्रद्वग्रज्ञाने द्विधाकृतया नयनवृत्त्या चन्द्रैकत्वाग्रहणं दोषात् तिक्ता शर्करेत्यादौ च पित्त १. परोक्षेति पदेन रजते इन्द्रियसन्निकर्षाभावस्सूचितः, रजतस्यातिविप्रकृष्टत्वात् लिङ्गाद्यनुपलम्भेन चानुमानादिविषयत्वासम्भवाद्रजतज्ञानं स्मृतिरूपमेवावसेयम् ॥ २ तत्तज्ञाने सकलविषयप्रतिभासप्रसङ्गेन सर्वज्ञानानां समस्त विषयकत्वं सर्वेषाञ्च सर्वज्ञत्वं स्यादित्यतिप्रसङ्गः तथाऽन्याकारज्ञानस्यान्यविषयकत्वे स्त्रविषयव्यभि चारित्वेन सर्वज्ञानेषु विश्वासासम्भवात् कुत्रापि कस्यापि प्रवृतिर्निवृत्तिर्न स्यादित्यप्यतिप्रसङ्ग इति भावः ॥ ३. एकत्वेऽपि स्मृतिरूपत्वेऽपि न स्वप्नं प्रत्यक्षं, इन्द्रियव्यापाराभावात् ॥ ४, तिमिरादिदोषादित्यर्थः ॥ ५९ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४६६ : तस्वन्याय विभाकरे [ अष्टम किरणे द्रव्यगततिक्तग्रह शर्कराग्रहयोर्भेदाग्रहाद्विवेकाख्यातिः । सर्वत्रैवं सम्यगग्रहणस्यैव तदर्थत्वम्, न तु शुक्तौ रजतप्रतीतिः, ज्ञानान्तरेऽपि मिध्यात्वसम्भावनया सर्वत्रानाश्वासेन प्रवृत्त्यादि - व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः स्यादिति चेन्मैवम् शुक्ताविदं रजतमिति प्रत्ययस्य स्वाकारसंवरणरजतरूपापत्तिपरिणामविशेषवत्याश्शुक्तेरेवालम्बनत्वात् दुष्टेन्द्रियादीनामेव तादृशज्ञानहेतु5 त्वात् । कार्यप्रतीतौ हि न कारणाभावशङ्का युक्तिमती, प्रतीयते चात्रैकज्ञानात्मकमिदं रजतमिति कार्य, तदनुरोधेन च कारणस्य कल्पना उचिता दावानलद्ग्धवेत्रबीजात्कदलीप्रकाण्डोत्पतिदर्शनाश्च दुष्टकारणस्य स्वकार्यानुत्पादकत्वे सति विपरीत कार्यस्याप्युत्पादकत्वात् । नच दावानलो वेत्राङ्कुरे दोषरूपोऽपि कदल्यङ्कुरं प्रत्यनुकूल इति वाच्यम्, अत्रापि दोषस्य सम्यग्ज्ञाने दोषरूपत्वेऽपि मिथ्याज्ञानं प्रत्यनुकूलत्वस्य न्याय्यत्वात्, इदं रजतमिति ज्ञानं न विशि10 ष्टज्ञानं किन्तु ग्रहणस्मरणरूपं ज्ञानद्वयमित्यपि न सम्यक्, रजतार्थिप्रवृत्तिसामान्ये रजतत्वप्रकारकज्ञानस्य संवादिप्रवृत्तिस्थले समानविशेष्यताप्रत्यासत्त्या हेतुत्वेन विसंवादिप्रवृत्तिहेतोरपि मिथ्याज्ञानस्यैकत्वसिद्धेः । संवादिप्रवृत्तौ विशिष्टज्ञानं विसंवादिप्रवृत्तौ चोपस्थितेष्टभेदाग्रह इति कल्पने बीजाभावाद्गौरवाच्च । न चेन्द्रियसंस्काररूपकारणभेदात्कार्यभेद इति युक्तम्, रूप|लोकलोचनादिभिरनेकैः कारणैरुत्पद्यमानस्य घटादिसंवेदनस्याप्यनेकत्वप्रसक्तेः, न च 15 विभिन्नज्ञानसामग्रीभेदात्कार्यभेद इति वाच्यम्, इदं रजतमित्यादौ सामग्रीभेदासिद्धेः, चक्षुरादिकारणसमुदायस्यैवात्र कारणत्वात् न चास्य प्रत्यक्षस्मरणरूपज्ञानद्वयरूपत्वात्सामग्रीभेदोऽनुमेय इति वाच्यम्, अन्योन्याश्रयात् ज्ञानभेदे सिद्धे कारणभेदः, तत्सिद्धौ च ज्ञानभेद इति । कि भेदाह इत्यत्र कोऽयं भेदः, वस्तुस्वरूपमात्रं वा परस्पराभावो वा व्यावर्त्तकधर्मयोगो वा, नाद्यो विद्यमान पदार्थमा हिपूर्वानुभूतपदार्थग्राहिप्रत्यक्षस्मरणाभ्यां भेदस्य 20 गृहीतत्वात् वस्त्वभिन्नत्वाद्भेदस्य । वैपरीत्येन गृहीतमिति चेद्विपरीतख्यातिप्रसङ्गः । युष्माभिरभावानभ्युपगमादेव न द्वितीय: पक्षो युक्तः, अभ्युपगमे तु स्मृतंरजतस्य कथमत्र नाभावज्ञानम् नं च नियतदेशतयाऽवगतस्य दोषमहिम्नाऽनियतदेशत्वेनात्रावगमान्नाभावज्ञानमिति वाच्यम्, नियतदेशस्यानियतदेशत्वेन मानाभ्युपगमाद्विपरीतख्यातिप्रसङ्गात् । न च देशविनिर्मुक्तस्यैव स्मरणान्नान्यथाख्यातिरिति वाच्यम्, पूर्वावगतरजत 25 स्मरणे सति केवलाधिकरणग्रहस्यैव तव मते तदभावोपलम्भरूपत्वात्, न चास्ति शुक्तौ " १. विशेष्यतासम्बन्धेन रजतप्रवृत्तित्वावच्छिन्नं प्रति विशेष्यतासम्बन्धेन रजतत्वप्रकारकज्ञानं कारणम् अत्र कार्यं कारणञ्च रजतेऽस्तीति समानविशेष्यताप्रत्यासत्या कार्यकारणभावः, कारणतावच्छेदकाक्रान्तं रजतत्वविशिष्ट रजतप्रमाज्ञानं रजतत्वप्रकारकयत्किञ्चिद्विशेष्यकज्ञानञ्च भवति, तस्मादेकेनैव कार्यकारणभावेनोभयत्र निर्वाह इति भ्रमात्मकैक ज्ञानस्वीकारे लाघवमिति भावः ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपर्ययः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते रजताभावः परन्तु दोषमहिम्ना नावगत इति युक्तम् दोषस्य शुक्तिनिष्टभेदप्रहप्रतिबन्धकत्वकल्पनापेक्षया रजततादात्म्यग्रहहेतुत्वकल्पनाया एव न्याय्यत्वात् । नापि तृतीयः, स्मर्यमाणे रजते व्यावर्त्तकधर्मस्य रजतत्वस्यैव भानात् तस्य व्यावर्तकत्वं पुरोवर्त्तिन्यविद्यमानत्वात् तस्य च तत्र भाने विपरीतख्यातिप्रसक्तेः । अथ गृह्यमाणास्मर्यमाणस्य व्यावर्त्तकधर्मेऽवगतेऽपि स्मर्यमाणाद्गुह्यमाणस्य स नावगतः, शुक्तिकायां प्रति 5 भासमानैश्शुक्लत्वादिभिर्न हि सा व्यावर्त्तयितुं शक्यते, तेषां रजतेऽपि सत्त्वादिति चेन्न, देशकालाबस्थाशून्यतया स्मर्यमाणाद्रजतात् पुरोवर्त्तिनोऽनुभूयमानस्य व्यावर्त्तकानां देशकालावस्थाविशेषाणां प्रतीयमानत्वात् । नापि बाधकप्रत्ययो विवेकं प्रकाशयतीदमन्यद्रजतमन्यदिति, बाधकप्रत्ययेन प्रसक्तरजतत्वाभावस्यैवावगाहनात् न हि सोऽप्रसक्ताविविक्तत्वाप्रतिषेधेन विविक्तत्वमवगमयति, अन्यथा चामीकरादीनामपि प्रतिषेधं कुर्य्यात् । रजता - 10 दिविषयकस्वप्ने स्मरणत्वेनाग्रहे रूपान्तरत्वेन च ग्रहे विपरीत ख्यात्यापत्तिः, सर्वात्मनाऽग्रहणस्य ग्रहणविरुद्धत्वञ्च स्यात् । चन्द्रद्वयवेदनमपि न दोषाश्चन्द्रैकत्वाग्रहरूपम्, चन्द्रैत्वाग्रहेऽपि द्वित्वानुभवानुपपत्तेः, न च नयनसमाश्रितद्वित्वा संसर्गाग्रह एव चन्द्रे द्वित्वह इति साम्प्रतम्, परोक्षस्य तस्योपस्थित्यभावात् । अनवगतेन्द्रियवृत्त्यैव सर्वत्र रूपादीनां बोधात् । एतेन तिक्ता शर्करेत्यादिव्यवहारस्य पित्तद्रव्यगततिक्तत्वशर्कराग्रहभेदाग्रह - 15 निमित्तत्वं प्रत्युक्तम्, अगृह्यमाणतिक्तत्वस्यैव पित्तस्य शरीरगतस्य ज्वरोत्पादकत्ववद्रसनगतस्य विपरीतप्रत्ययोत्पादकत्वात्, सर्वानुभूयमानसामानाधिकरण्यानुपपत्तेश्च । किश्वेद रजतमिति यदि ज्ञानद्वयं तदा तयोः सहैवोत्पादः क्रमेण वा नाद्यः सहज्ञानद्वयोत्पत्यनभ्युपगमात् न द्वितीयः प्रत्यक्षात्पूर्वं संस्कारस्यानुद्बोधेन स्मरणासम्भवात् प्रत्यक्षादुत्तरं रजतस्मरणे च प्रत्यक्षादनन्तरं विपरीतव्यापारेऽपि चक्षुषि तदापत्तेः, तस्मात्सकललोकसिद्धं रजतात्मना 20 पुरोवर्त्तिभानं दुरपह्नवमिति ॥ : ४६७ : केचिदिदं रजतमित्यत्र न कश्चिद्विषयतया भासते, रजतसत्ताभानेऽभ्रान्तत्वप्रसक्तेः, विधिमुखतयाऽस्य प्रवृत्तेर्न रजताभावो विषयः, अतदाकारत्वादेव च नापि शुक्तिका विषय:, १. अत्रेदमपि बोध्यम् रजतादिविषयकस्वप्नस्य स्मृतित्वेनाप्रहे त्वयापि संवित्तेः स्वप्रकाशत्वेनाभ्युपगतत्वात्केन रूपेण भ्रानं, यदि स्मृतित्वेन तर्हि केन रूपेणाग्रहः । यदि त्वनुभवत्वरूपेण ग्रह उच्यते तदाऽन्यथाख्यातिः, स्मृतेरनुभवरूपत्वाभावात्, अथ ज्ञानत्वेन तदपि न सम्भवति ज्ञानत्वव्याप्यस्मरणत्वानुभवत्वशून्यस्य ज्ञानत्ववतः कस्याप्यभावादिति ॥ २. पुरोवर्त्तिनं पदार्थ गृहीत्वा पश्चाद्रजतं स्मरामि प्रथमं वा रजतं स्मृत्वा पश्चात् पदार्थममुं गृह्णामीति क्रमेण भवदभिमतज्ञानद्वयप्रादुर्भावस्यानुभवविरुद्धत्वादित्यर्थः ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे नवा रजताकारतया शुक्तिर्विषयः, अन्यस्थान्याकारेण दुर्घहत्वात्ततोऽयमख्यातिरूप एवेति, तन्न, भ्रान्तेनिर्विषयकत्वे भ्रान्तिसुषुप्तावस्थयोरभेदप्रसङ्गात् , अर्थभानाभानाभ्यां हि तयोविशेषाद्भेदो वाच्यः, स एव त्वया नाभ्युपगम्यत इति, तस्य ज्ञानस्य निर्विषयत्वेऽख्याति रूपत्वस्याप्यसम्भवाच्च, स्वरूपेण पररूपेण वा कस्यापि ततोऽप्रतिभासे रजतज्ञानमिति 5 व्यपदेशासम्भवाञ्चेति ॥ बौद्धास्तु तस्यासत्ख्यातित्वमाचक्षते तथाहि रजतमिदमिति प्रतीयमानं वस्तु ज्ञानं वा स्यादर्थो वा, न प्रथमः, अहं रजतमित्यहत्वसामानाधिकरण्येनाप्रत्ययात् ज्ञानस्यान्तर्मुखाकारत्वात् । तन्निष्पाद्यार्थक्रियाभावेन द्वितीयोऽपि पक्षो नोचितः वितथज्ञानविषयीकृतस्य वस्तुनो बाधकज्ञानेनार्थताया बाध्यमानत्वाच्च, तस्मादसदेव तत्तत्र प्रतिभातमिति, तदपि न युक्तम , रजतत्वव्यपदेशासंभवात् , देशान्तरे विद्यमानस्यास्य 10 प्रथनरूपत्वेऽसत्ख्यातित्वस्य विपरीतख्यातित्वप्रसङ्गात् , सर्वथाऽसतोऽर्थस्य प्रथनरूपत्वे च शशविषाणस्यापि प्रतीतिप्रसङ्गात्, असतस्सद्रूपेण प्रथनत्वस्यापि विपरीतख्यातेरनुल्लंघनात् न च रजतं सदेव तत्संसर्गस्त्वलीको भ्रान्तौ सदुपरागेण भासत इति वाच्यम् , विषयतायास्सद्वृत्तित्वव्याप्यत्वात् अन्यथा गवि शशशृङ्गीयत्वविशिष्टसम्बन्धेन शृङ्गभानापत्तेः। रजतमि दमिति भासमाने वस्तुनि ज्ञानत्वार्थत्वद्वयविकल्पोऽपि न युक्तः, आद्यविकल्पानभ्युपगमात् , 15 द्वितीयस्य चेष्टत्वात् , अर्थविशेषप्रयुक्तार्थक्रियाविशेषवैधुर्येऽपि तत्सामान्यनिबन्धनाभिलाप प्रवृत्त्यादिरूपार्थक्रियायास्तत्राव्याहतत्वात् , एवं तर्हि कथं नार्थनिश्चयः इति चेन्न, अर्थविशेषप्रयुक्तार्थक्रियाकारिण एवार्थव्यवसायात्मकत्वात् । बाधकप्रत्ययेनापि न तद्विषयस्यार्थत्वमपोद्यते, किन्तु मिथ्याज्ञानस्य मिथ्यात्वमेव प्रकाश्यते, ततो नासत्ख्यातिः प्रमाणसहेति ॥ अपरे त्वत्र प्रसिद्धार्थख्यातिमाहुः विपर्ययज्ञाने हि प्रसिद्धस्यैवार्थस्य भानं, न च तद्वि20 षयस्याविद्यमानत्वं विचारासहत्वादिति वाच्यम् , प्रतीतिव्यतिरेकेणान्यस्य विचारस्या नुपपत्तेः प्रतीतिबलेनैव हि करस्थमुक्ताफलादेर्व्यवस्था । तां चात्रापि प्रवर्त्तमानां केन हि निरोद्धं शक्यते । न चोत्तरकाले तत्प्रतिभासाभावेन तद्विषयस्यासत्त्वमिति वाच्यम् , तदानीं तद्विषयस्याभानेऽपि पूर्वप्रतिभासकाले तस्य विद्यमानत्वात् , अन्यथोत्तरकाले तोयबुद्धदादीनामप्रतिभासनेन पूर्वप्रतिभाससमयेऽप्यविद्यमानताप्रसङ्गादिति, मनोरमं न तत् , अन्तरा १. ज्ञानातिरिक्तबाह्यार्थानुपपत्तौ च तदंशे सत्ख्यातिरेव स्यादिति ज्ञानवाद्यभ्युपगतासख्यातिरेव स्यान्नत्वख्यातिरिति स्वसिद्धान्तभङ्गोऽपि स्यादित्यपि बोध्यम् ॥ २. इदं रजतमिति बहिर्मुखतयैव प्रतिभासनादिति भावः ॥ २. यो यस्मिन् देशे सत्तामनुभवति तस्य तत्रैव प्रतिभासनं युक्तं, नहि स्तम्भदेशे कुम्भः प्रतिभासत इति भावः ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपर्यवः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते प्रमाणसिद्धिमर्थस्य प्रसिद्धत्वायोगात् , अन्यथा भ्रान्ताभ्रान्तव्यवस्थासमुच्छेदप्रसक्तेः, नहि संवेदनमिदं भ्रान्तमिदमभ्रान्तमिति निर्णयो निमित्तमन्तरेण कत्तुं शक्यते, सर्वेषामेव यथावस्थितवस्तुव्यवसायित्वात् । प्रतिभाससमये वस्तुनो विद्यमानता किं देशान्तरे शुक्तिकादेशे वा, आद्येऽन्यथाख्यातेरेव नामान्तरत्वापत्तिः दोषमहिम्ना तत्र स्थितस्य शुक्तिदेशे भानाभ्युपगमात् । अन्यथा तत्रैव प्रतिभासस्स्यात् । द्वितीये चोत्तरकालेऽपि तस्य प्रतिभासापत्तेः 5 नहि जलबुद्दवदस्य क्षणिकत्वं किञ्चित्कालं स्थिरत्वात् । नेदं रजतमिति बाधकज्ञानस्य शुक्तिकादेशे रजतनिषेधकस्य प्रवर्त्तमानत्वादत्र तस्य विद्यमानत्वासिद्धेश्चेति ॥ अन्ये तु शुक्तिकायां रजतं यच्चकास्ति तस्य बाह्यतया प्रतिभानं न संभवति, बाधकप्रत्ययेन तद्बाह्यतायाः प्रतिषेधात् ततो ज्ञानात्मन एवायमाकारोऽनादिवासनामाहात्म्यात् बहिरिव परिस्फुरतीत्यात्मख्यातिरेवेयमित्याहुः, तेऽपि न प्रेक्षावन्तः, नेदमिति बाधकेनान्यत्र वर्त्त- 10 मानस्य रजतादेश्शुक्तिकादेशस्थत्वस्यैव बाधनेन तद्बाह्यतामात्रस्याबाधनात् । नाप्यात्मा वासनया बहिरिव परिस्फुरतीति युक्तम् , तथाहि सा वस्तुस्वरूपा, अवस्तुस्वरूपा वा, नान्त्यो गगनकुसुमायिततया तस्या रजतव्यवस्थापकत्वासम्भवात् न प्रथमो ज्ञानाद्भिन्नत्वे तस्यास्त्वदभ्युपगतज्ञानाद्वैतक्षते ज्ञानाभिन्नत्वे ज्ञानाकारो ज्ञानाकारमाहात्म्यावहिरिव प्रतिभासत इत्युक्तं स्यात् , तथा च सति तदेव साध्यं साधनमित्यविशेषप्रसङ्गः, ततो न वासना 15 युक्तिमती । ज्ञानाकारस्यैव रजतस्य संवेदने चाहं रजतमित्यन्तर्मुखतया प्रतीतिः स्यात् । न त्विदं रजतमिति बहिर्मुखतया, ज्ञाननिष्ठोऽपि रजताकारोऽनादिवासनामाहात्म्याच्छुकिनिष्ठतया प्रतिभासत इत्यभ्युपगमे चान्यथाख्यात्यङ्गीकारापत्तिः स्यात् , न च भ्रान्तयः स्वाकारमेव रजतादिकं बहीरूपतया प्रकाशयन्तीति वाच्यम् , प्रमाणाभावात् , अनुभवस्य रजतज्ञानाकारासाक्षित्वात् , इदन्तया कलधौतस्यैव भासकत्वात् शुक्तिकायां रजताकारता- 20 प्रतिषेधकत्वेन च बाधकज्ञानस्यापि तत्राप्रमाणत्वात् । न च रजते पुरोवर्त्तिशुक्त्याकारत्वस्य प्रतिषेधेऽर्थतो बोधाकारत्वस्य सिद्धिरिति वाच्यम् , तत्प्रतिषेधेऽर्थतो देशान्तरसत्त्वस्यैव सिद्धेः, दृष्टातिक्रमेणादृष्टज्ञानाकारत्वकल्पने बीजाभावात् , नेदं रजतमपि तु शुक्तिकाशकलमित्युल्लेखेन निषेधानुपपत्तेः, तव मते शुक्तिकायां रजतस्याप्रसक्तत्वात् शुक्तिरियं मया रजतत्वेन ज्ञातेति प्रत्यभिज्ञानुपपत्तेः, आन्तरं कलधौतं बहीरूपतया ज्ञातमिति प्रत्यभिज्ञाया 25 एवापत्तेः । ज्ञानस्य बाह्यार्थाविषयकत्वे रजताकारोल्लेखेनेव नीलाद्याकारोल्लेखेनापि प्रवृत्त्या १. नहि तत्प्रकारतया प्रतिभासमात्रेण तस्य तत्प्रकारकत्वमेव स्वीकर्तुं युज्यते, भ्रान्त्युच्छेदापत्तेरिति भावः ॥ २. रजतानुभवस्येत्यर्थः, स हि रजतमिदन्त्वेनैव बोधयति, न तु ज्ञानाकारत्वेन, येन प्रमाणं भवेदिति भावः । तत्र बाधकप्रत्ययोऽपि न प्रमाणमित्याह शुक्तिकायामिति ॥ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे पत्तेनियामकाभावात् , वासनाया एव रजतदेशकालादीनामसतामवभासे नियामकत्वे चासत्ख्यात्यापत्तेश्चेति ॥ . वेदान्तिनस्तु अनिर्वचनीयख्यातिमाहुस्तथाहि नात्र शुक्तौ भासमानं रजतं सत्, तथात्वे तद्धास्तवरजतबुद्धिवदभ्रान्तत्वं स्यात् , असत्त्वे तु तस्य गगनारविन्दवत्प्रतिभासप्रवृत्त्यो5 रविषयत्वप्रसङ्गः, सदसद्रूपत्वे तूभयपक्षोपक्षिप्तदोषानुषङ्ग इत्यनिर्वचनीयमेवेदमिति, तदपि न सुन्दरम् , शुक्तौ रजतभ्रमे विषयभूतशुक्तिशकलस्य स्वपररूपाभ्यां सदसद्रूपस्याव्याहतत्वात् , न च तस्य रजतप्रकारिताकत्वे किं नियामकमिति वाच्यम् , विशेषणज्ञानस्य तादात्विकशुक्तिपरिणामविशेषस्यैव वा नियामकत्वात् , अर्थेनैव धियां विशेषात् , न च कुतो न विलक्षणरजतोत्पाद इति वाच्यं तदुत्पादककारणाभावात् नहि परिणामिकारणादि10 सामग्री विना कार्योत्पत्तिः क्वचिदपि दृष्टा । न च शुक्रज्ञानमेव प्रतीयमानरजतस्य कारणमिति वाच्यं तस्य परिणामिकारणत्वायोगात् तत्तत्पर्यायपरिकरितद्रव्यस्यैव परिणामिकारणत्वात् , अज्ञानपर्यायाविष्टमात्मद्रव्यमेव तत्परिणामिकारणमस्त्वित्यपि न चारु, चेतनस्याचेतनं प्रति कथमपि परिणामिकारणत्वानुपपत्तेः । न च सम्यग्ज्ञानप्रागभावमि ध्याज्ञानान्यतरभिन्नं मायाऽविद्यादिशब्दवाच्यं वस्त्वन्तरमेवाज्ञानमनिर्वचनीयरजतहेतुरिति 15 वाच्यं तादृशे मानाभावात् । नापि शुक्त्यज्ञानं रजतहेतुः तस्य पाषाणादावपि सत्त्वेन देशनियमाभावात् । न चेदन्त्वावच्छेदेन शुक्त्यज्ञानमिदन्त्वावच्छेदेन रजतहेतुरिति वाच्यम् , दोषाभावकालेऽपि तस्मात्तत्प्रसङ्गात् दोषस्याप्यपेक्षणे चेदमंशावच्छेदेनाज्ञानान्तरस्योदासीनस्य च हेतुत्वं दुर्निवारमिति यत्किश्चिदेतत् ॥ ननु तर्हि रजतमिदमिति भ्रान्तेरालम्बनं किम् ? रजतं वा स्याच्छुक्तिकाशकलं वा, 20 नाद्यः, असत्ख्यातेरेव प्रसङ्गात् विषयभूतं हि रजतं तत्रासत् । न चान्यत्र सत एव तत्र भानानासत्ख्यातिरिति वाच्यम् , तथा सतीदं रजतमित्युल्लेखेन ज्ञानानुदयप्रसङ्गात् विप्रकृष्टे रजते चाक्षुषज्ञानासम्भवात् अन्यथा सर्वत्र चाक्षुषज्ञानोत्पादप्रसङ्गेन चक्षुषो जगन्मात्रग्राहकत्वापत्तेः । न द्वितीयः, रजताकारतयोत्पद्यमानत्वासम्भवात् । अन्याकारज्ञानस्यान्यविषय कत्वासम्भवात् । प्रतीतेश्शुक्तिकाविषयकत्वे भ्रान्तित्वासम्भवाच्च । न च रजतस्य प्रतिभा25 सेऽप्यालम्बनमन्यदेवेति वाच्यम् शुक्तिकाया अप्रतिभासमानत्वेनालम्बनत्वायोगात्, न च सन्निहितत्वाद्भवत्यालम्बनमिति वाच्यम् , सन्निहितानामन्येषामप्यालम्बनत्वापत्तेः । तथा च १. संवृतस्वाकारसमुपात्तरजतरूपापत्तिपरिणामविशेषस्येत्यर्थः ॥ २. सम्यग्ज्ञानप्रागभावो वा मिथ्याज्ञानं वा कारणमस्त्वित्यत्राह तत्तस्पर्यायेति ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपर्ययः ] न्यायप्रकाशलमलहते. : ४७१ : यदेव प्रतीताववभासते तदेव रजतमालम्बनतया वाच्यं रजतश्च तत्रासदेवेत्यसत्ख्यातिरेवाss याता न विपरीतख्यातिरित्याशङ्कायामाह अत्र हि स्मरणोपढौकितं रजतं तद्देशतत्कालयोरविद्यमानमपि दोषमहिम्ना सन्निहितत्वेन भासत इति विपरीतख्यातिरूपमिदम् । स्मरणश्च चाकचिक्यादिसमानधर्माणां शुक्तौ दर्शनाद्भवति ॥ 5 अत्रेति । इदं रजतमिति भ्रान्तावित्यर्थः, रजतं भासत इति योजना, तेन रजतमेवालम्बनमित्युक्तम् , ननु तदानीमसत्ख्यातित्वं स्यादित्यात्राह तद्देशतत्कालयोरविद्यमानमपीति, यदा यस्मिन् तज्ज्ञानं भवति तद्देशतत्कालयोरविद्यमानमपीत्यर्थः, एतद्देशकालावच्छेदेनैव तस्याविद्यमानत्वं न तु देशान्तरे कालान्तरेऽपीति यावत् । तथा च देशान्तरादौ रजतस्य । विद्यमानत्वं फलितम् , असत्ख्यातिवादो हि सर्वथाऽसतोऽर्थस्य प्रथने स्यान्न चात्र तथेति 10 नासत्ख्यातिप्रसक्तिरिति भावः । ननु तत्राविद्यमानस्य रजतस्य नयनासनिकृष्टत्वेन कथं भानं भवेदित्यत्राह दोषमहिम्नेति, तथा चातद्देशकालस्यापि रजतस्य दोषमहिम्ना सन्निहितत्वेन प्रतिभासनं नानुपपन्नमिति भावः । दोषमहिम्ना तथाभासमानत्वादेव प्रतीतेरस्या विपरीतख्यातिरूपतेत्याशयेनाह इति विपरीतख्यातिरूपमिदमिति, अस्मादेव हेतोरिदं ज्ञानं विपरीतख्यातिरूपमित्यर्थः । ननु दोषमहिम्ना यद्यतद्देशकालयोरपि भानं तर्हि जगतोऽपि 15 ग्रहणं स्यादित्यत्राह स्मरणोपढौकितमिति, स्मरणेनोपस्थितं रजतमेव न तु विश्वं, चेतसि परिस्फुरतः पदार्थस्य बहिरवभासनं हि उपस्थानं, चेतसि च न सर्व परिस्फुरतीति भावः । कथं न विश्वस्य स्मरणमित्यत्राह स्मरणश्चेति, सादृश्यविशिष्टार्थदर्शनेन हि स्मरणं भवति सादृश्यश्च चाकचिक्यादिकं शुक्तिकारजतयोरेव न विश्वस्य, अतस्समानधर्मदर्शनेन स्मरणं रजतस्य, तेन च रजतमेवोपस्थापितं न विश्वमिति भावः, एवश्च संवेदनात्पृथग्भूतस्य 20 पदार्थस्यात्र परिस्फुरणान्नात्मख्यातिरत्यन्तासतः प्रतिभासाभावाच नासत्ख्यातिरिति ज्ञेयम् । ननु रजतमिदमित्यादिज्ञानस्य प्रत्यक्षरूपत्वेन स्मरणानपेक्षत्वात्कुतस्तदुपस्थापितार्थावभासित्वमिति चेन्न, अस्य प्रत्यक्षाभासत्वेनैवंविधपर्यनुयोगानास्पदत्वात् ॥ अत्र वृद्धाः, संवृतस्वाकारा समुपात्तकलधौताकारा शुक्तिकैवालम्बनं तज्ज्ञानस्य, त्रिकोणत्वादिस्वविशेषाहणाभावात् , चाकचिक्यादिसमानधर्मदर्शनजन्यरूप्यस्मरणारोपितरूप्या- 25 कारत्वाच्च । न च रजताकारज्ञानस्य कथं शुक्तिका विषय इति वाच्यम् , अङ्गुल्यादिना निर्दिश्यमानस्य कर्मतया ज्ञानजनकस्यैवालम्बनत्वात्, अन्यथा प्रकृतज्ञानेन साऽनपेक्षणीया भवेत् । अपेक्षणीया च सा, अन्यथा तदसन्निधानेऽपि प्रकृतज्ञानोत्पादापत्तेः, उत्तरकालं Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७२: तस्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे तद्विषयकप्रत्यभिज्ञानस्य बाध्यबाधकभावस्य चानुपपत्तेश्च भिन्नविषययोस्तदसम्भवात् । ननु ज्ञानानां कोऽयं बाध्यबाधकभावः, सहानवस्थानं वा वध्यघातकभावो वा विषयापहारो वा फलापहारो वा, नाद्यः, सम्यक्प्रत्ययेनेव मिथ्याप्रत्ययेनापि सम्यक्प्रत्ययस्य बाधा. पत्तेः सहानवस्थानाविशेषात् । अत एव न द्वितीयः, उभयोर्वध्यघातकभावाविशेषात् । 5 नापि तृतीयो विषयस्य प्रतिपन्नत्वेनापहाससम्भवात् । प्रतिपन्नस्याप्रतिपन्नत्वबोधकतया बाधकज्ञानस्यानुत्पादाच्च । नापि चरमः, उपादानादिज्ञानस्य प्रमाणफलस्योत्पन्नत्वेनापहरणासम्भवात् , नहि यदुत्पन्नं तदनुत्पन्नमित्यभिदधाति बाधकः । किश्च तुल्यविषययोर्बाध्यबाधकभावो भिन्नविषययोर्वा स्यात् । नाद्यः धारावाहिज्ञानानां बाध्यबाधकभावप्रसङ्गात् । नान्त्यः, घटपटज्ञानयोरपि बाध्यबाधकभावापत्तेरिति चेदुच्यते प्रतिपन्नविषयस्यासत्त्वप्रति10 पादकत्वेन विषयापहारकस्यैव बाधकत्वमिति । तत्रापीदानीमुपनतस्यैवासत्त्वं न ख्याप्यते किन्तु तदैव तस्यासत्त्वम्, न च प्रथमज्ञानेन तदानीं तस्य सत्त्वस्य गृहीतत्वेन तदैव तत्र बाधकेनासत्त्वस्य ख्यापने स्वरूपेणैव तस्य सदसत्त्वापत्तिविरुद्धा प्रसज्यत इति वाच्यम् , पूर्वप्रतिपन्नाकारोपमर्दद्वारेण बाधकप्रत्ययोत्पत्तेः, यन्मया तदा रजतमिति प्रतिपन्नं तद्रजतं न भवत्यन्यदेव तद्वस्त्विति, न च ज्ञानानां स्वस्वकालनियतत्वेनोत्तरज्ञानं पूर्वज्ञानोत्पाद15 कालावच्छिन्नतद्विषयाभावप्रतिपत्तौ कथं समर्थमिति काच्याम् , स्वसामग्रीतस्तथैवोत्तरस्य बाधकप्रत्ययस्योत्पद्यमानस्य प्रतीतेरित्यलमधिकेन ॥ नन्विदं रजतमिति ज्ञानमित्यत्रेतिशब्दः प्रकारार्थोऽभिमतः । तथा चैवं प्रकारं ज्ञानं विपर्यय इति तद्भावार्थः, प्रकारता च प्रत्यक्षादिरूपेण, तत्र पूर्वोदितमुदाहरणन्तु प्रत्यक्षवि षयमनुमानादिविषयको विपर्ययः कीदृक्ष इत्यनुयोगे त्वाह20 एवं बाष्पधूलीपटलादौ धूमभ्रमावह्निविरहिते देशे वयनुमानमयं देशो वह्निमानिति । क्षणिकाक्षणिके वस्तुनि बौद्धागमात्सर्वथा क्षणिकत्वज्ञानं, भिन्नाभिन्नयोर्द्रव्यपर्याययोर्नैयायिकवैशेषिकशास्त्रत एकान्तभेदज्ञानं, नित्यानित्यात्मके शब्दे मीमांसकशास्त्रत एकान्तनित्यत्व ज्ञानमित्यादीनि विपरीतोदाहरणानि ॥ 25. एवमिति । न केवलं प्रत्यक्षविषय एव विपर्ययोऽनुमानादिविषयोऽपि स इत्येवंशब्द तात्पर्यार्थः । अनुमानविषयविपर्ययमाह बाष्पधूलीपटलादाविति, आदिना नीहारादिन १. यन्मया पूर्व रजतत्वेन ज्ञातं तदेवेदं शुक्तिकाशकलमिति प्रत्यभिज्ञानं, नेदं रजतमपितु शुक्तिकेति ज्ञानस्य भिनविषयकत्वेन बाधकत्वमपि न स्यादिति भावः ॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशयः ] न्यायप्रकाशसमलते :४७: हणम् । अधूम इति शेषः, धूमभ्रमादिति, कुतोऽपि कारणात् भ्रान्त्या धूमत्वेन ज्ञाते सतीति भावः । वह्निविरहिते देश इति, अन्यथास्थितवस्तूपदर्शकं पदमिदम् । वह्नयनुमानमिति, एककोटिमात्रप्रकारकनिश्चयत्वप्रदर्शनपरम् । तदुल्लेखप्रकारमाहायं देश इति । इतीति, लौकिकविपर्ययाणामुपदर्शकमिदम् । अथ परीक्षकविपर्ययमाह-क्षणिकेति, क्षणिकाक्षणिकत्वं भिन्नाभिन्नत्वं नित्यानित्यत्वञ्च वस्तुनः परीक्षया निर्णीतं तथाभूतं वस्तु तत्तच्छानबलेन 5 भ्रान्तिसहकृतेनैकान्तक्षणिकत्वादिज्ञाने सति विपर्ययत्वमिति भावार्थः, स्पष्टं सर्वम् ।।. अथ संशयस्वरूपमाह अनिश्चितनानांशविषयकं ज्ञानं संशयः। यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति ज्ञानम् । इदश्च स्थाणुत्वपुरुषत्वान्यतरनिश्चायकप्रतिषेधकप्रमाणाभावादासेहपरिणाहात्मकसाधारणधर्मदर्शनात्कोटिद्वयविषयकस्मरणाच्च समु- 10 मिषति । अयं प्रत्यक्षधर्मिकः संशयः। परोक्षधर्मिविषयको यथा कचि. द्वनप्रदेशे शृङ्गमात्रदर्शनेन किं गौरयं गवयो वेति संशयः ॥ अनिश्चितनानांशविषयकमिति । यतो विधौ प्रतिषेधे वा कस्यचिदसमर्थ अत एव तज्ज्ञानं अनिश्चितनानांशविषयकमित्यर्थः, ज्ञानमिति, बोधविशेष इत्यर्थः, संशय इति, यत्सर्वप्रकारैश्शेत इवातस्संशय इत्यर्थः । एकस्मिन् धर्मिणीत्यादिः, तथा चैकस्मिन् 15 धर्मिणि अनिश्चितनानांशविषयकं ज्ञानं संशय इति भावः । अनिश्चितेति विशेषणात् स्वपररूपेण सदसदात्मकं वस्त्विति ज्ञानानां व्युदासः। दृष्टान्तमाह यथेति, अयमिति शेषः, सामान्यतस्संशयं प्रति धर्मिज्ञानं साधारणधर्मदर्शनं विशेषादर्शनमनेकविशेषस्मरणश्च कारणमिति लक्ष्ये तत्सङ्गमयति इदश्चेति, संशयात्मकमिदं ज्ञानश्चेत्यर्थः । स्थाणुत्वेति, स्थाणुत्व.. पुरुषत्वयोर्विशेषयोरन्यतरस्य निश्चयजनकं प्रतिषेधकं वा यत्प्रमाणं तदभावादित्यर्थः । एतेन 20 विशेषादर्शनरूपकारणसम्पत्तिर्दर्शिता, आरोहपरिणाहात्मकेति, स्थाणुपुरुषयोरारोहपरिणाहात्मकसाधारणधर्मस्य दर्शनादित्यर्थः, अनेन साधारणधर्मदर्शनरूपकारणसम्पत्तिर्दर्शिता, कोटिद्वयविषयकस्मरणाचेति, स्थाणुत्वपुरुषत्वरूपकोटिद्वयविषयकस्मरणादित्यर्थः, अनेनानेकविशेषस्मरणं दर्शितम् , दूरात्प्रत्यक्षगोचरः पुरोवर्ती धर्मी संशयस्यातो धर्मिज्ञानं कारणमायातम् , ततश्चायं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संशयः समुन्मिषति । साधकबाधकप्रमाणा- 25 भावाद्धि पुरोवर्त्तिनि यदा स्थाणुरयमिति निर्णतुमभिलषति तदा पुरुषविशेषानुस्मरणबलेन पुरुषे समाकृष्यते, यदा च पुरुषोऽयमिति निश्चेतुमिच्छति तदा स्थाणुविशेषानुस्मरण Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ अष्टमकिरणे महिम्ना स्थाणावाकृष्यत इत्यनेकार्थे समाकृष्यमाणस्य प्रसिपत्तुरनवस्थितरूपतया दोलाय. मानः स्थाणुर्वायं पुरुषो वेति प्रत्ययः प्रादुर्भवतीति भावः । ननु कोटयोर्विरोधज्ञानमपि संशयकारणमस्ति तत्कुतो नोक्तमिति चेत्सत्यं, संशये तदधिकरणावृत्तित्वरूपविरोधस्य प्रकारत्वे तस्य तदभावव्याप्तिपर्यवसायित्वेन तदभावव्याप्यवत्तानिश्चयरूपसंशय5 प्रतिबन्धकसत्त्वात्तदभावस्य च कार्यसहभावेन हेतुत्वात्संशयमात्रस्य दुर्लभत्वापत्तेः, किन्तु संशये तद्विरोधस्संसर्गतया भासते तस्य च पूर्वमुपस्थिति पेक्षितेति विरोधज्ञानं न संशय हेतुत्वेनोक्तम् । एवं गृहे स्थितस्य वाप्यामापस्सन्तीति ज्ञानं साधकबाधकप्रमाणाभावापेक्षया संशयात्मकं, तस्यानेकांशानुल्लेखित्वेऽपि न सन्तीत्यंशोऽन्तर्निंगीर्णः स्फुरत्येवेति बोध्यम् । ननु किमयं संशयः प्रत्यक्ष एव भवति परोक्षेऽपि वेत्यत्राहायमिति, स्थाणुर्वा 10 पुरुषो वेत्याकारकस्संशय इत्यर्थः, प्रत्यक्षधर्मिक इति, सांव्यवहारिकप्रत्यक्षधर्मिक इत्यर्थः । परोक्षधर्मिविषयकमाह परोक्षेति, अत्र गोत्वगवयत्वविषयकसाधकबाधकप्रमाणाभावाद्विशेषदर्शनेन शृङ्गेणानुमिते धर्मिणि परोक्षे संशय इति परोक्षधर्मिविषयक इति भावः ॥ अथ क्रमायातमनध्यवसायं निरूपयति विशिष्टविशेषास्पर्शिज्ञानमनध्यवसायः। यथा गच्छता मार्गे किमपि 15 मया स्पृष्टमिति ज्ञानम् । अयमनध्यवसायः प्रत्यक्षविषयः ॥ विशिष्टेति । विशिष्टरूपेण-स्पष्टतया विशेष यन्न स्पृशति तादृशं ज्ञानमित्यर्थः, दूरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मावमर्शरहितः प्रत्ययोऽनिश्चयरूपत्वादनध्यवसाय इति भावः । उदाहरति यथेप्ति, अन्यत्रासक्तचित्तत्वात् पथि व्रजता मया किमपि स्पृष्टं परं किं वस्त्विति न ज्ञातमिति यो बोधस्स वस्तुविशेषाध्यवसायाभावात्किमपि स्पृष्टमित्यनिर्णयात्मकमनध्य20 वसायज्ञानमिति भावः । अत्रापीतिशब्देनेदशदिशा प्रत्यक्षयोग्यविषया अनध्यवसाया विज्ञेया इति सूचितं, तदेवाहायमिति, ईदृग्जातीय इत्यर्थः ॥ . १. यथा पर्वतो वह्निमान्नवेत्यत्र वह्निः वयभावश्च प्रकारः, तत्र तदधिकरणावृत्तित्वरूपो विरोधोऽपि भासेत यदि तदा वह्नौ वह्नयभावाधिकरणावृत्तित्वस्य भाने तस्य वह्निव्याप्तिरूपत्वेन पर्वते वहिव्याप्यवत्ताज्ञानेन वह्नयभाववत्त ज्ञानं, वह्वयधिकरणावृत्तित्वस्य वह्नयभावे भाने च तस्य वह्नयभावाभावाधिकरणावृत्तित्वलक्षणवह्नयभावव्याप्तिरूपत्वेन पर्वते वयभावव्याप्यवत्ताज्ञानात् वह्निमत्ताज्ञानं न स्यात् तद्वत्ताबुद्धिं प्रति तदभावव्याप्यवत्ताज्ञानस्य प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात् , न च संशयोत्पत्तिकाले प्रतिबन्धकसत्त्वेऽपि प्रतिबन्धकाभावरूपकारणस्य कार्याव्यवहितपूर्वक्षणे सत्त्वेन न संशयोत्पत्ती बाधकः कश्चिदिति वाच्यम् , प्रतिबन्धकाभावस्य कार्यकालवृत्तित्वेन हेतुत्वादित्याशयेनाह संशय इति ॥ २. तत्प्रकारकज्ञान एव तज्ज्ञानस्य हेतुत्वेन विरोधस्य संसर्गतया भाने न तज्ज्ञानापेक्षेति भावः ॥ ३. आदिनाऽन्यासक्तचित्तत्वादीनां ग्रहणम् ॥ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यवसायः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते . : ४७५ : परोक्षविषयमनध्यवसायमाह परोक्षविषयस्तु गोजातीयपरिज्ञानविधुरस्य विपिननिकुञ्ज सास्ना. मात्रदर्शनेन सामान्यतः पिण्डमात्रमनुमाय प्रदेशेऽस्मिन् कोऽयं प्राणीति विशेषानुल्लेखि ज्ञानम् । अनिश्चितानेककोटिविषयकस्संशयः । सर्वथा कोट्यविषयकोऽनध्यवसाय इत्यनयोर्भेदः । तथाऽनवस्थितानेकांशाप्रका- 5 रके वस्तुन्यनवस्थितानेकांशप्रकारकत्वावगाहनात्संशय आरोपरूपः । अनध्यवसायस्य संशयविपर्ययात्मकारोपेण सहायथार्थपरिच्छेदकत्वसाम्यादारोपरूपत्वमुपचारवृत्त्या भाव्यम् ॥ इत्यारोपनिरूपणम् ॥ परोक्षेति । गोजातीयपरिज्ञानविधुरस्येति, गोज्ञानविधुरस्य द्वीपान्तरवासिन इत्यर्थः । विपिननिकुञ्ज इति, देशान्तरमायातस्य कस्मिंश्चिदरण्यलतासमूह इत्यर्थः, सास्नामात्रदर्शने- 10 नेति, प्राण्यविनाभूतसास्नामात्रावलोकनेनेत्यर्थः, पिण्डमात्रमनुमायेति, प्राणिमात्रमनध्यवसायधर्मिणमनुमायेत्यर्थः । मात्रपदेन प्राणिविशेषनिर्णयाभावः प्रकाशितः, अनध्यवसायज्ञानाकारमाह प्रदेशेऽस्मिन्नित्यादिना । विशेषानुल्लेखीति, जातिविशेषाविषयकमित्यर्थः । ननु संशयो यथा विशेषानवधारकस्तथानध्यवसायोऽपीति कथं संशयतोऽस्य भेदो येन त्रैविध्यमारोपस्य स्यादित्यत्राहानिश्चितेति, अस्ति तयोर्लक्षणभेदोऽनवधारितानेककोटिविषयको हि 15 संशयः, अनध्यवसायस्तु सर्वथा विशेषोल्लेखविधुर इति भावः । सर्वथा कोट्यविषयक इति, सर्वथा विशेषकोट्यविषयक इत्यर्थः । तेन प्राणित्वस्योल्लेखेऽपि न क्षतिः । नन्वतत्प्रकारके वस्तुनि तत्प्रकारकत्वज्ञानमारोप इति लक्षणं विपर्ययेऽन्यथास्थितवस्त्वेककोटिप्रकारकनिश्चयरूपे सङ्गतमेव, किन्त्वारोपविलक्षणयोस्संशयानध्यवसाययोः कथमारोप. रूपतेत्याशङ्कायामाह तथेति, एवञ्च संशये आरोपविलक्षणत्वमेवासिद्धं, वस्तुतोऽनेककोट्य. 20 प्रकारके वस्तुनि स्थाण्वादावनेककोटिगोचरत्वादित्याशयेनाहानवस्थितेति, तथा चारोपरूपत्वेऽपि विपर्ययस्यैककोटिविषयकत्वात्संशयस्य च नानाकोटिविषयकत्वाद्भेदेनोल्लेख इति भावः । नन्वेवं तर्हि कोटिविशेषविधुरस्यानध्यवसायस्य कथमारोपता, कथमपि तल्लक्षणाननुवृत्तेरित्यत्राहानध्यवसायस्येति, यथा हि सिंहनिष्ठशौर्यादिगुणसदृशशौर्यादिगुणयोगतो माणवके सिंहत्वं सिंहशब्दश्वोपचर्यते सिंहो माणवक इति, तथैव विपर्ययसंशयात्मकारोप- 25 निष्ठायथार्थपरिच्छेदकत्वरूपगुणसदृशायथार्थपरिच्छेदकत्वगुणयोगेनारोपत्वमारोपशब्दश्वोपचर्यतेऽनध्यवसाय आरोप इतीति भावः । एतेन संशयविपर्यययोरेव वस्तुत्वं नत्वनध्यवसाय १. संशयस्यानेकांशानवस्थितप्रतिभासरूपत्वात् विपर्ययस्य च विपरीताकाराध्यवसायस्वरूपत्वाद्वस्तुत्वं, अन Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७६ : तस्वन्यायविभाकरे [नवमकिरणे स्येति मतमपास्तम्. तस्याकिञ्चित्करवेदनरूपत्वात् सम्यग्ज्ञानानुत्पादकत्वेनावस्तुत्वे संशय. विपर्यययोरपि तथात्वापत्तेः, न चारोपलक्षणाभावादवस्तुत्वमिति वाच्यम् , मुख्यवृत्त्या तथात्वेऽप्युचारवृत्त्याऽऽरोपरूपत्वादित्याशयेनोपचारवृत्त्या भाव्यमित्युक्तम् । इत्येवं प्रमाणपरिपन्ध्यारोपनिरूपणमवसितमित्याहेतीति ।। 5 इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायामारोपनिरूपणं नामाष्टमः किरणः ॥ अथ नवमः किरणः॥ 10. नन्वस्मिन्प्रवचने सर्व वस्त्वनन्तधर्मात्मकतया सङ्कीर्णस्वभावं, अतस्तत्परिच्छेदकतया प्रमाणमपि तादृशमेव, व्यवहारस्त्वसंकीर्णप्रतिनियतधर्मप्रकारकोऽतस्तादृशव्यवहारसिद्धये समर्थः कश्चिदपेक्षणीय एव, यस्तादृशः स एंव नय उच्यत इति तत्प्रबोधनार्थमाह श्रुताख्यप्रमाणयोधितांशग्राहकोऽनिराकृतेतरांशो वक्तुरभिप्रायवि15 शेषो नयः॥ श्रुतेति । श्रुतमार्हतप्रवचनं तद्रूपं यत्प्रमाणं तेन बोधितमनेकान्तात्मकं वस्तु तस्यांश एकदेशो नित्यत्वादिस्तद्राहकः अनिराकृतेतरांशः, अप्रतिषिद्धानित्यत्वाद्येकदेशो यो वक्तुरभिप्रायविशेषस्स नय इत्यर्थः । नय इति, अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतकधर्मविशिष्टं नयति प्रापयति संवेदनमारोहयतीति नयः, प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः तदेवोक्तं 20 श्रुताख्यप्रमाणबोधितांशेति । इतरांशप्रतिक्षेपे तु नयत्वव्याहतेराहानिराकृतेतरांश इति, वक्तुरभिप्रायविशेष इत्यनेन ज्ञानरूपस्य नयस्यापेक्षात्मशाब्दबोधत्वं प्रदर्शितं तथा चानन्तधर्मात्मकवस्त्वंशभूतप्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्षात्मकशाब्दबोधत्वं ज्ञानरूपस्य नयस्य स्वरूपम् , नयवाक्यस्य तु तादृशापेक्षात्मकशाब्दबोधजनकवाक्यत्वं स्वरूपं बोध्यम् । अपेक्षा. ध्यवसायस्य तु निस्स्वरूपत्वादवस्तुत्वमिति शङ्काकर्तुराशयः अकिञ्चित्करवेदनत्वं तस्य स्वरूपं सकलस्वभावशून्यत्वे तस्याप्रमाणत्वमपि वक्तुं न शक्यते, अप्रमाणत्वरूपस्वरूपस्य तत्र सत्त्वापत्त्या वस्तुत्वापत्तेरित्याशयेनोत्तरमाह तस्येति ॥ २. दुर्नयस्याप्यधिकृतांशाप्रतिक्षेपकवक्त्रभिप्रायत्वात्तत्रातिव्याप्तिवारणाय श्रुताख्यंप्रमाणबोधितांशग्राहकेति । रूपादिग्राहकरसायप्रतिक्षेपकापायादिवारणाय विशेषपदम् ॥ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४७७ : त्वच क्षयोपशमजन्यतावच्छेदकजातिविशेषो विलक्षणविषयिता वा । तत्र मानञ्च तद्ध-र्मप्रतिपक्षधर्मवत्तया ज्ञातेऽपि तद्धर्मवत्तया जायमानस्यानुभवस्यान्यथानुपपत्तिरेव । ननु लोकैः कुम्भोऽस्तीत्यादिवाक्यश्रवणसमनन्तरं कुम्भविषय कशाब्दज्ञानस्यैव स्वात्मन्यनुभव - नात्कुम्भविषयकापेक्षात्मकशाब्दबोधस्याननुभवनादपेक्षात्मकनयज्ञानसत्त्वे मानाभाव इति चेन्न, विरुद्धतया भासमानैरनेकैर्धर्मैर्मिश्रितस्य वस्तुनोऽपेक्षां विना विवक्षितैकधर्मप्रकारकनिश्चयविषयीकरणासम्भवात् । अनपेक्षात्मकस्य तद्विरुद्धधर्मप्रकारकज्ञानस्य तत्रानुपपत्तेः । न चापेक्षां विना लौकिकोऽपि व्यवहारस्सङ्गच्छते, अग्रावच्छेदेन कपिसंयो गाभाववति वृक्षे शाखापेक्षयैव कपिसंयोगवत्त्वव्यवहारात् । ननु धर्माणामप्यनन्तानां धर्म्य - भिन्नत्वेन धर्मिग्राहक प्रत्यक्षादेव निखिलधर्माकलितवस्तुनो विवक्षितधर्मप्रकारेणापि निश्चितत्वात्किमपेक्षयेति चेत्सत्यं, यद्यप्येकस्मिन् घटादौ गृह्यमाणे तद्धर्मद्वारा द्रव्यार्थादेशेन भूत- 10 भविष्यद्वर्त्तमानानां तद्वृत्तियावद्धर्माणां ग्रहो जायत एव यथा परेषां सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तेस्थानेऽभिषिक्तस्य घटविषयकतिर्यक् सामान्योपयोगस्य घटत्वव्यापकविषयताक प्रत्यक्षत्वं तादृशज्ञानत्वं वा कार्यतावच्छेदकं तथा घटविषयको तासामान्योपयोगस्यापि तादात्म्य -- सम्बन्धेन तादृशप्रत्यक्षत्वस्य तादृशज्ञानत्वस्य वा न्यायसिद्धत्वात्, न चैवं सति सर्वस्य सर्वज्ञत्वापत्तिर्दोषः, द्रव्यार्थिकतया तस्या इष्टत्वात् तथापि स्फुटतया प्रतिनियतधर्मप्रकारकबोधरसापेक्ष:, शाब्दस्थले नयापेक्षः, प्रत्यक्षादिस्थलेऽवध्य वच्छेदकादिज्ञानापेक्षः । यथाहि दण्डादिग्रहकाले तत्परिमाणग्रहेऽपि दीर्घत्वप्रकारकमयमस्माद्दीर्घ इति ज्ञानं नियतावध्यपेक्षं तथा सदसदात्मकवस्तुग्रहेऽपि सत्त्वादिप्रकारकं ज्ञानं स्वद्रव्याद्यपेक्षं, अयमस्माद्दीर्घ इति वत्स्वद्रव्याद्यपेक्षयाऽयं सन् परद्रव्याद्यपेक्षया चासन्नित्येव व्यवहारात् । न च व्यवहार १. असत्त्वप्रतिपक्ष सत्त्ववत्तया ज्ञातेऽपि घटेऽसत्त्ववत्ताया अनुभवो जायते स चापेक्षां विना न सम्भवति, निरपेक्षसत्त्वासत्त्वयोरेकत्र परस्परं विरोधात् अनुभूयमानस्य त्वपलापो न सम्भवत्यतिप्रसङ्गादत: अपेक्षावलम्बनेनैव तयोर्व्यवस्था कार्येति सिद्धयत्यपेक्षेति भावः । अनुभवस्यैवासिद्धत्वमाशङ्कते नन्विति ।। २. तथा चानपेक्षात्मक तद्धर्मवत्ताबुद्धिं प्रति, अनपेक्षात्मकतदभाववत्ता निश्चयस्यैव प्रतिबन्धकतयाऽपेक्षाया अभावे तद्धर्मवत्तया ज्ञातेऽनपेक्षात्मकतद्विरुद्धधर्मप्रकारकज्ञानं न स्यादिति भावः ॥ ३ येन धर्मेण धर्मी गृहीतस्तद्धर्मद्वारेत्यर्थः । न्यायनये हि घट एकस्मिन् दृष्टे घटत्वरूपसामान्यलक्षणा प्रत्यासत्त्या सकलघट प्रत्यक्षमङ्गीक्रियते सामान्य लक्षणायाश्च कार्यतावच्छेदकं घटत्वव्यापकविषयिताकप्रत्यक्षत्वं इदमेवास्मन्मते सामान्यलक्षणास्थानाभिषिकस्य तिर्यक्सामान्योपयोगस्य घटविषयकस्य कार्यतावच्छेदकं भवति तथैकधर्ममुखेन घटे ज्ञाने सति तदाश्रयाणां तदभिन्नानां यावतां धर्माणां ज्ञानमूर्ध्वता सामान्येन भवति, अत ऊर्ध्वता सामान्योपयोगस्य कार्यतावच्छेदकं तादात्म्यसम्बन्धेन घटव्यापकविषयताकप्रत्यक्षत्वं भवति, घटस्य तादात्म्येन व्यापकीभूता विषयता घटाभिन्नयावद्धर्मेष्विति तादृशविषयताकप्रत्यक्षत्वमिति तदर्थ इति भावः ॥ 5 15 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४७८: तस्वन्यायधिभाकरे [ नवमकिरणे एव सापेक्षो न तु बोध इति वाच्यम् , व्यवहारस्य व्यवहर्त्तव्यज्ञानादधिकानपेक्षत्वेन व्यवहत्र्तव्यज्ञानेऽपेक्षाया अविषयत्वे व्यवहारस्य सापेक्षत्वासम्भवात् । सेयं नयप्रवृत्तिहेतुरपेक्षा वास्तविकी, क्वचिद्वैज्ञानिक्यपि यथा बौद्धौपनिषदादिदर्शनभेदः स्वेच्छानिवेशितत्वेनानेकनयविकाररूपोऽपेक्षया व्यक्तः, शुद्धपर्यायविशुद्धद्रव्याद्यपेक्षयैव तत्तदर्थव्यवस्थितेः । 5 नयविशेषतात्पर्यमेतन्न त्वपेक्षेति चेन्न तत्तात्पर्यस्यापि वस्तुसम्बन्धनरूपापेक्षामालम्ब्य प्रवृत्ते. रसति सम्बन्धे तात्पर्यस्य प्रामाण्यासंभवात् सा चेयमपेक्षा वैज्ञानिकस्सम्बन्धः । अत एव साम्प्रदायिका विकल्पसिद्धस्य धर्मिणः प्रतिषेधादिसाधनमामनन्ति, ईश्वरो नास्ति प्रकृति - स्तीत्यादौ विशिष्टज्ञानाकारविषयत्वेन तत्र धर्मिणो विकल्पसिद्धत्वात् । न च विशिष्टाप्रसिद्धौ कथं विशिष्टाकारज्ञानमिति वाच्यम् , परेषां विशिष्टशुद्धयोरनतिरेकेऽपि प्रतीतिबला10 द्विशिष्टाभावस्यातिरिक्तत्ववत् विशिष्टाभावेऽपि विशिष्टाकारज्ञानसम्भवात् । न चासत्ख्यातिप्रसङ्गोऽत्यन्तासतो विशिष्टाकारस्य भानादिति वाच्यम् , खण्डशः प्रसिद्धधर्मधर्मिरूपसदुपरागेणासदाकारोत्पत्तेः । यद्वाऽनित्यत्वभावनोद्देशेन बौद्धदर्शनस्यैकत्वभावनोद्देशेन वेदान्तिकदर्शनस्य प्रवृत्त्या तत्तदर्शनार्थज्ञानेषु तत्तद्भावनोद्देशप्रयुक्तत्वमेवापेक्षात्वम् , तेनैव तस्य सुनयत्वव्यवस्थितेः, अन्यथा बौद्धसिद्धान्ते बाह्यार्थज्ञानादिवादानां वेदान्तिसिद्धान्ते च 15 प्रतिबिम्बाभासावच्छेदकदृष्टिसृष्टिवादादीनामन्योऽन्यप्रतिषिछल्वेन जात्या दुर्नयत्वस्य सम्य ग्दृष्टिपरिग्रहेणापि निराकर्तुमशक्यत्वात् । नहि जात्या हालाहलं सद्वैद्यहस्तोपादानमात्रेणामृतायते, रसायनीकरणन्तु तस्योक्तापेक्षयैवेति दृढतरमवधेयम् । ननूक्तापेक्षयापि शुद्धर्जुसूत्रादीनामितरनयार्थप्रतिषेधप्रवृत्तौ कथं न दुर्नयत्वं, अनिराकृतेतरांशत्व एव सुनयत्वात् दृश्यन्ते च स्वपरसमयेषु स्वेतरनयार्थबाधेनैव प्रगल्भमाना इति चेन्न तत्रेतरार्थनिषेधस्य 20 प्रकृतकोटेरुत्कटत्वकारित्वात् द्वेषबुद्ध्या क्रियमाण इतरनयनिषेध एव दुर्नयत्वात् पूर्वोक्त भावनादाढर्यानुकूलस्वविषयोत्कर्षांधानाय क्रियमाणेऽपि प्रतिषेधे सुनयत्वात् जात्या दुर्नयस्यापि चिन्ताज्ञानेन सुनयीकरणात् भावनाज्ञानेनैदम्पर्यार्थप्रधानकप्रमाणवाक्यैकदेशत्वापादनाचेत्यधिकमन्यत्र ॥ ननु नयस्य प्रमाणाद्भेदेन लक्षणप्रणयनमयुक्तं, स्वार्थव्यवसायकत्वात्पूर्वमप्रतिज्ञातत्वाच, है यदि स्वार्थकदेशव्यवच्छेदकत्वान्नयस्य न स्वार्थव्यवसायकत्वमुच्यते तदा यदि स्वार्थेकदेशो वस्तुरूपस्तदा वस्तुपरिच्छेदकत्वान्नयः प्रमाणमेव, न चेद्वस्तुरूपस्स तर्हि तद्विषयस्य नयस्य मिथ्याज्ञानत्वं स्यादित्यत्राह यथार्थवस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयस्य यथार्थनिर्णयत्वरूपप्रमाणत्वं ना. Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :४७९ : स्त्येव । अत एव च नाप्रमाणत्वं, अपि तु प्रमाणाप्रमाणाभ्यां भिन्नं ज्ञानान्तरमेव ॥ यथार्थेति । यथार्थ हि वस्त्वनन्तधर्मात्मकं, तदेकदेशः प्रतिनियतधर्मवान् तत्परिच्छे. दकत्वान्नयो न यथार्थपरिच्छेदकः, अतो न प्रमाण, स्वार्थकदेशो हि न वस्तु, अन्यस्वार्थेकदेशानामवस्तुत्वप्रसङ्गाद् वस्तुबहुत्वानुषङ्गाद्वा, तथा च वस्त्वेकदेशपरिच्छेदको नयः कथं 5 प्रमाणं स्यात् , कथञ्चिद्वस्तुभिन्नत्वादिवैकदेशस्य कथश्चित्प्रमाणभिन्नत्वान्नयस्येति भावः । तर्हि मिथ्याज्ञानं स्यादित्यत्राहात एवेति, यथा वस्त्वेकदेशो नावस्तु, इतरैकदेशानामप्यवस्तुत्वप्रसङ्गेन क्वचिदपि वस्तुव्यवस्थानुपपत्तेः, तथा प्रमाणैकदेशो नयोऽपि नाप्रमाणं, किन्तहींत्यत्राहापित्विति, प्रमाणैकदेशो नयो राश्यन्तर एवेति भावः, न खलु नयः प्रमाणमेव, एकान्तेन प्रमाणाभिन्नतयाऽनिष्टत्वात् नाप्यप्रमाणमेकान्ततस्ततो भेदस्यानभ्युपगमात्, नापि संशयः, 10 प्रकारस्यैक्यात् , एकत्र विरुद्धोभयप्रकारकज्ञानरूपत्वात्संशयस्य, नापि विपर्ययः, द्रव्यार्थिकादीनां नयानामस्तित्वादिमति कथश्चिदस्तित्वाद्यवगाहनात् , नवाऽनध्यवसायो विशेषकोट्युल्लेखित्वात्। सप्तभङ्गपरिकरितवस्त्वगाहितात्पर्याभावादेव चालौकिकप्रामाण्याभाववत्त्वं तस्य, तद्वति तत्प्रकारकत्वरूपं लौकिक प्रामाण्यन्तु न तस्य बाधितमतो न व्यवहारविरोधः, तथा च नयसमुदायसम्पाद्यत्वात्प्रमाणस्य तत्प्रतिज्ञाने तददूरवर्तिनो नयस्य · तन्मध्यपति- 15 तस्तद्ब्रहणेन गृह्यत' इति न्यायेन प्रतिज्ञातत्वमेवेति लक्षणप्रणयनं नाप्रस्तुतमिति भावः ॥ ननु प्रमाणस्य नयसमुदायात्मकत्वात्प्रत्येकं नयानामप्रमाणत्वे तत्समुदायस्य कथमलौकिकप्रमाणता, प्रत्येकं हि सिकतासु तैलमभवत्तासां समुदाये न तदृश्यते इति चेन्न यतः प्रत्येकमनर्येषु मणिषु रत्नावलीत्वव्यवहाराभावेऽपि गुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबद्धास्त एवासादयन्ति यथा रत्नावलीव्यपदेशं तथैव नयाः स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन सुनिश्चिता 20 अपि नान्यपक्षनिरपेक्षाः प्रमाणसंज्ञां प्राप्नुवन्ति त एव द्रव्यध्रौव्यादिषु मिलिताः प्रमाणसंज्ञां लभन्त इति न कोऽपि दोषः । १. ननु नया न समुदायतामासादयन्ति, नापि समेताः प्रमाणतां भजन्ते प्रत्येकावस्थायां मिथ्यादृष्टित्वात् , तत्समुदाये महामिथ्यात्वप्रसङ्गात् , विषबिन्दूनां प्रचुराणां समुदाये महाविषवत् , नापि समेता वस्तुनो गमकाः प्रत्येकावस्थायां तदगमकत्वात् समुदिताश्च ते विवदमाना वस्तुविघातायैव भवन्ति, मैवम् परस्परविरुद्धानामपि आर्हतमतिवशवर्तित्वे प्रमाणभावप्रतिपत्तेः राजवशवर्तिनानाभिप्रायभृत्यवर्गवत् । प्रत्येकं सावधारणत्वेऽपि समुदितानां निरवधारणानां स्याच्छब्दलाञ्छितत्वेन प्रमाणत्वात् । प्रचुरविषलवानामपि प्रौढमंत्रवादादिभिर्निर्विषीकृत्यामृतरूपताकरणात् । सामान्यतो देशग्राहकाणां नयानां समुदितानां मिथ्यात्वापगमेन सम्यक्त्वसद्भावे क्रमेण विशुद्धद्यमानानां सर्वावरणप्रतिबन्धाभावेन समस्तवस्तुप्राहकत्वाकेवलज्ञानवदिति ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. · तत्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरण .. अत्र यद्यपि वस्तुन्यनन्तधर्मात्मके एकांशविषयकप्रतिपत्रभिप्रायविशेषस्य नयरूपतया वस्त्वंशानामनन्तत्वेनाभिप्रायरूपनया अप्यनन्तप्रकारा एव तथापि चिरन्तनाचार्यैस्सर्वसनाहिसप्ताभिप्रायपरिकल्पनाद्वारेण सप्त नयाः प्रतिपादिता इति तथैव विभजते स च नैगमसङ्ग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूतभेदात्सप्त5 विधः॥ ... स चेति । एते सर्वाभिप्रायसङ्ग्राहकाः कथमिति चेदुच्यते, अभिप्रायास्तावदर्थद्वारेणं शब्दद्वारेण वा प्रवर्त्तन्ते, गत्यन्तराभावात् , अर्थश्च सामान्यरूपो विशेषरूपो वा, शब्दोऽपि रूढयात्मको यौगिको वा, व्युत्पत्तिरपि सामान्यनिमित्तप्रयुक्ता वा स्यात्तत्कालभाविनिमित्त. प्रयुक्ता वा स्यात् तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणाः प्रमात्रभिप्रायास्ते सर्वेऽप्याद्ये नयचतुष्टयेऽन्त10 भवन्ति, तत्रापि परस्परं विशकलितौ सामान्यविशेषाविच्छन्ति ये तत्समूहसम्पाद्यो नैगमः। ये पुनः केवलं सामान्यं वाञ्छन्ति तत्समूहजन्यस्सङ्ग्रहः, ये पुनरनपेक्षितशास्त्रीयसामा• न्यविशेषं लोकव्यवहारमवतरन्तं घटादिकं पदार्थमभिप्रयन्ति तन्निचयजन्यो व्यवहारः । ये सौगतास्तु क्षणक्षयिणः परमाणुलक्षणा विशेषास्सत्या इति मन्यन्ते तत्संघातघटित ऋजु सूत्रः । तथा ये मीमांसका रूढितश्शब्दानां प्रवृत्तिं वाञ्छन्ति नान्यथा तद्वारा जन्यः 15 शब्दः । ये तु व्युत्पत्तितो ध्वनीनां प्रवृत्ति वाञ्छन्ति तन्निवहसाध्यस्समभिरूढः । ये च वर्तमानकालभाविव्युत्पत्तिनिमित्तमधिकृत्य शब्दाः प्रवर्तन्ते नान्यथेति मन्यन्ते तत्संघटित एवम्भूतः । तदेवं न स कश्चन विकल्पोऽस्ति वस्तुगोचरो योऽत्र नयसप्तके नान्तर्यातीति सर्वाभिप्रायसङ्ग्राहका एत इति ध्येयम् ।। उक्ताभिप्रायविशेषान् द्विधा सङ्ग्रह्य दर्शयति20 आद्यास्त्रयो द्रव्यार्थिकाः, परे चत्वारः पर्यायार्थिकाः, द्रव्यमात्रविष यकत्वात् पर्यायमात्रविषयकत्वाच । गुणानां पर्यायेऽन्तर्भावः, ऊर्ध्वता. सामान्यस्य द्रव्येऽन्तर्भावः, तिर्यक्सामान्यस्य तु व्यञ्जनपर्यायरूपस्य पर्यायेऽन्तभावः । स्थूलाःकालान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यअनपर्याया इति प्रावचनिकप्रसिद्धिः । अतो नाधिकनयशङ्का ॥ .. आद्या इति । नैगमसङ्ग्रहव्यवहारा इत्यर्थः । द्रव्यार्थिकनया इति । येष्वभिप्रायेषु द्रव्यमेवार्थो विषयतयाऽस्ति न पर्यायास्ते द्रव्यार्थिकनयाः द्रव्यार्थिकमते हि द्रव्यमेव परमार्थतया सत्, अतो द्रव्याद्भिन्नं विकल्पसिद्धं गुणपर्यायरूपं तत्त्वं नेष्टं, संवृतिसतोऽपि तस्य परमार्थतोऽसत्त्वात् यथा शुक्तौ रजतभ्रान्तौ सत्यां बाधावतारानन्तरं रजसाभाव Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त नयाः ] न्यायप्रकाशसमलते : ४८१ : भानेऽपि तत्र शुक्तेर्भासमानत्वाच्छुक्तस्सत्यत्वं रजतस्य चासत्यत्वं तथा सुवर्णादिषु परस्परसमानाधिकरणानां रूपादिपर्यायाणां परस्परभिन्नकालीनानाञ्च कुण्डलादिपर्यायाणामसत्यत्वं, तदभावभानेऽपि हेम्नः प्रतिभासनाद्धेमद्रव्यस्य सत्यत्वं तथैव परस्परसमानाधिकरणानां परस्परसमानकालीनानां रूपरसादीनामसत्यत्वं तदाधारद्रव्यस्यैव सत्यत्वं, कुण्डलादयो रूपादयश्च वासनाविशेषप्रभवविकल्पसिद्धत्वेनापारमार्थिका इत्येवमभिप्रायो द्रव्यार्थिकनय 5 इति बोध्यम् । परे चत्वार इति, ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढवम्भूताश्चत्वार इत्यर्थः, पर्यायार्थिकनया इति, उत्पादविनाशवदर्थ एव विषयो येषां तादृशा नया इत्यर्थः, एते हि पर्यायलक्षणविषयव्यवस्थापनपराः द्रव्यार्थिकनयाभिप्रेतवस्तुव्यवस्थापनयुक्तिप्रतिक्षेपपराः, पर्यायार्थिकमते हि द्रव्यपदार्थस्सदृशक्षणसन्ततिरेव न तु पर्यायेभ्यः पृथगस्ति पर्यायेभ्य एवार्थक्रियासम्भवात् , अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावस्य वस्तुनोऽर्थक्रियाऽसम्भवेनासत्त्वमेव यत- 10 स्सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वं, तच्च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्तं, नहि क्रमाक्रमाभ्यामन्यः प्रकारः सम्भवति व्याघातात् , तौ च स्थिरेऽसम्भवन्तावर्थक्रियामपि ततो व्यावर्त्तयतः, सा च व्यावर्त्तमानाऽर्थक्रिया सत्त्वं स्वव्याप्यमपि व्यावर्त्तयतीत्यसन्नेव स्थिरो भाव इत्येवमभिप्रायाः पर्यायार्थिकनया इति भावः । एतदभिप्रायेणैवोभयस्य क्रमेण हेतुमाह द्रव्यमानेति, मात्रपदेन पर्यायव्यवच्छेदः, पर्यायमात्रेत्यत्र मात्रपदेन द्रव्यव्यवच्छेदः । एतेन सप्तनया- 15 धिकत्वादनयोर्नयस्य नवविधत्वमिति प्रत्युक्तम् , ननु गुणविषयस्तृतीयो गुणार्थिक इति कुतो नोक्त इत्यत्राह गुणानामिति, तथा च पर्यायार्थिक इति पर्यायशब्देन सहक्रमभाविविशेषमात्रस्य परिग्रहेण तत्रैव सहभाविगुणानामन्तर्भावान्नाधिक्यप्रसङ्गः । ननु द्रव्यपर्यायव्यतिरिक्तौ सामान्यविशेषौ विद्यते ततस्तद्विषयकं नयद्वयं स्यादित्याशङ्कायामाहोर्ध्वतेति, तिर्यगवंताभेदेन द्विविधं हि सामान्यं तत्रोवंतासामान्यस्य 20 द्रव्यात्मकत्वेन द्रव्ये, प्रतिव्यक्ति सदृशपरिणामलक्षणस्य व्यञ्जनापरपर्यायस्य तिर्यक्सामान्यस्य पर्याय एवान्तर्भाव इति भावः । तिर्यक्सामान्यस्य व्यञ्जनापरपयित्वं कथमित्यत्राह स्थूला इति, प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनार्थक्रियाकारित्वोपलक्षितो व्यञ्जनपर्याय इति भावः, स्थूलाः कालान्तरस्थायिन इत्यनेन भूतभविष्यत्त्वसंस्पर्शरहितवर्तमानकालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपार्थपर्यायस्य व्यवच्छेदः । शब्दानां संकेतविषया इति, शब्दप्रवृत्तिनिमित्तभूता 25 इत्यर्थः वैसादृश्यविवर्तलक्षणविशेषस्य पर्यायरूपत्वस्य स्पष्टतया पृथक्पर्यायान्तर्भूतत्वेन स १. एतन्मते कालनिष्ठात्यन्ताभावाप्रतियोगित्वमेव सत्यत्वम् , द्रव्यस्य हि कदापि नास्त्यत्यन्ताभाव इति तत्सत्यम् , पर्यायाणान्तु तत्प्रतीयमानकाल एव तत्सत्ताभानेनेतरकाले तदभावसत्त्वादसत्यत्वमिति बोध्यम् ॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४८२: तत्वन्यायविभाकरे [ मवमकिरणे नोक्तः । निर्गमयति अत इति । अत्र द्रव्यार्थिकनयस्य त्रैविध्योक्तिर्वादिसिद्धसेनदेवसूरिमतानुसार्यभिप्रायेण, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणवचनानुसारिणामभिप्रायेण त्वाद्याश्चत्वारो द्रव्यार्थिकनया बोध्याः, तत्र द्रव्यमृजुसूत्रो यदि नाभ्युपेयात्तदा " उजुसुयस्स एगे अणुवउत्ते एगं दव्वावस्सयं पुहुत्तं णेच्छइ” इति सूत्रं विरुध्येतेति क्षमाश्रमणानुयायिनामभिप्रायः । तार्कि5 कानुसारिणस्तु अतीतानागतपरकीयभेदपृथक्त्वपरित्यागाहजुसूत्रेण स्वकार्यसाधकत्वेन स्व कीयवर्तमानवस्तुन एवोपगमानास्य तुल्यांशध्रौव्यांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः, अत एव नास्यासद्धटिवभूतभाविपर्यायकारणत्वरूपद्रव्यत्वाभ्युपगमोऽपि, अध्रुवधर्माधारांशद्रव्यमपि नास्य विषयः, शब्दनयेष्वतिप्रसङ्गात् , उक्तसूत्रन्तु अनुपयोगांशमादाय वर्तमानावश्यकपर्याये द्रव्यपदोपचारास्समाधेयम् , पर्यायार्थिकेन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपादिति वदन्ति । 10 अत्र द्रव्यास्तिको द्विविधः शुद्धाशुद्धभेदात्, सङ्ग्रहनयाभिमतविषयप्ररूपकश्शुद्धो द्रव्या र्थिकः, सङ्ग्रहनयाभिप्रायतः प्ररूपणाविषयस्य सर्वत्र भावमात्रत्वात् भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकागमोपहतान्तःकरणानां तिमिरोपप्लुतदृशामेकशशलाञ्छनमण्डलस्यानेकत्वावभासवदसमेवेति । व्यवहारनयमतावलम्बी द्रव्यार्थिकोऽशुद्धो हेयोपादेयोपेक्षणीयवस्तुविषयनिवृत्तिप्रवृत्त्युपेक्षालक्षणा हि व्यवहाराः, तत्र परस्परं विभिन्नस्वभावा भावास्सद्रूपतया समु15 लसन्ति, असद्रूपत्वे तादृशव्यवहारा एव न भवेयुः, न ह्येकान्ततः सन्मात्राविशिष्टेषु सङ्ग्र हाभिमतेषु पृथक्स्वरूपतया परिच्छेदो बाधितरूपो व्यवहारनिबन्धनस्सम्भवतीत्यतो व्यवहारो नानारूपतया सत्तां व्यवस्थापयतीत्यशुद्धा द्रव्यार्थिकप्रकृतिः। नैगमनयाभिप्रायस्तु शुद्धाशुद्धरूपराश्यन्तरेण न वाच्यः क्वचिदपि तथानभिधानात् , सामान्यग्राहिणो नैगमस्य सङ्ग्रहे विशेषग्राहिणश्च व्यवहारेऽन्तर्भूतत्वात् पर्यायस्याद्या प्रकृतिः ऋजुसूत्रो 20 नित्याशुद्धः, शब्दश्शुद्धः, समभिरूढः शुद्धतरः, एवम्भूतस्तु शुद्धतम इति ॥ सम्प्रति नैगमस्वरूपमाहतत्र गौणमुख्यभावेन धर्मद्वयमिद्वयधर्मधर्म्युभयान्यतमविषयक १. तथा च परस्परविविक्तसामान्यविशेषविषयत्वाद् द्रव्यपर्यायार्थिकावेव नयौ न च तृतीयं प्रकारान्तरमस्ति यद्विषयोऽन्यस्ताभ्यां व्यतिरिक्तो नयः स्यात् तद्भेदा एव नैगमादयः । न च द्रव्यपर्याययोस्सम्बन्ध• रूपोऽन्यो विषयोऽस्ति तस्मात्तद्विषयेण केनचिन्नयन भाव्यमिति वाच्यम् , भेदाभेदविनिर्मुक्तस्यान्यस्य सम्बन्धस्याभावात् भावे वा द्रव्यपर्यायविकल्पानतिवृत्तः, तत्स्वभावातिक्रमे वा नभस्सरोजसदृशत्वप्रसक्तेः, ताभ्यां सर्वथा ऽर्थान्तरस्य सम्बन्धस्य प्रतिपादनोपायासम्भवात् सम्बन्धस्य ताभ्यामसम्बन्धे च तयोरेव स इति व्यपदेशासम्भवात् सम्बन्धान्तरकल्पनायामनवस्थापत्तेश्च न कोऽपि सम्बन्धस्सिद्धयतीति न कोऽप्येतन्नयद्वयबहिर्भाविविषयस्सिद्धयतीति भावः ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैगम! ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४८३ : विवक्षणं नैगमनयः । यथा पर्वते पर्वतीयवह्निरिति । अत्र वह्नथात्मको धर्मः प्रधानं विशेष्यत्वात्, पर्वतीयत्वरूपव्यञ्जनपर्यायो गौणो वह्निविशेषणत्वात्, एवमनित्यज्ञानमात्मनः घटे नीलं रूपमित्यादयो धर्मद्वयविषयकदृष्टान्ता भाव्याः ॥ तत्रेति । सप्तसु नयेषु मध्य इत्यर्थः । निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्तेऽर्था इति निगमाः, 5 तत्र भवो योऽभिप्रायो नियतपरिच्छेदरूपस्स नैगमः, अर्थाश्रयेणोत्पत्तिमत्वमिति भावः । अर्थश्व लोकप्रसिद्धः, व्यवहाराश्च सामान्याश्रया अन्यथाऽनुगतबुद्ध्यभावः स्यात् विशेषाश्रयाः, तदभावे व्यावृत्तिबुद्ध्यभावप्रसङ्गादित्येवंविधाः, तथा च तल्लक्षणमाह गौणेति, मुख्यामुख्यतया धर्मद्वयस्य पर्याययोः, धर्मिद्वयस्य द्रव्ययोर्धर्मधयुभयस्य पर्यायद्रव्ययोश्च विवक्षणमित्यर्थः, ननु स्वतंत्रतया सामान्यविशेषोपगमे दुर्नयत्वं काणादवत्स्यात् । शबलतया तदभ्यु- 10 पगमे च प्रमाणत्वमेव यथास्थानं प्रत्येकं गौणमुख्यभावेन मूलोक्तरीत्याऽभ्युपगमे च सङ्ग्रह - व्यवहारान्यतरप्रवेशः स्यादिति चेन्न, तृतीयपक्षाश्रयणे दोषाभावात् क्वचित्सङ्ग्रह व्यवहारविषयत्वेऽपि क्वचिदेकस्य सत उभयग्रहणोपयोगव्यावृत्तत्वेन तदतिरेकात्, अत एव नयद्वयसंयोगेन नान्यथासिद्धिः प्रत्येकविषयताद्वयातिरिक्तस्वतंत्रविषयताकत्वादस्य, तथा च गौणमुख्यभावेन सामान्यविशेषोभयस्वीकर्त्तृजातीयैकदेशबोधत्वं नैगमस्य लक्षणम् । अयन नय: - 15 सत्तालक्षणं महासामान्यं द्रव्यत्वादीन्यवान्तरसामान्यानि तथाऽन्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणानवान्तरविशेषानपेक्षया परस्परव्यावर्त्तनक्षमान् सामान्यादत्यन्तविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति । क्रमेणा मुमुदाहरति यथेति व्यञ्जनपर्याययोर्मुख्यामुख्यतया विवक्षणे उदाहरणमिदम्, तदेव सङ्गमयति अत्रेति, उदाहरणेऽस्मिन्नित्यर्थः, दृष्टान्तान्तराण्याहैवमिति, अत्र ज्ञानं प्रधानं विशेष्यत्वात्, अनित्यत्वमप्रधानं विशेषणत्वात् । रूपं प्रधानं विशेष्यत्वात् 20 नैल्यमप्रधानं विशेषणत्वादिति क्रमेण मुख्यामुख्यभावो विज्ञेयः ॥ धर्मिद्वयविषयकमुदाहरति काठिन्यवद्रव्यं पृथिवीत्यादौ पृथिवीरूपधर्मिणो विशेष्यत्वान्मुख्यत्वं काठिन्यवद्रव्यस्य विशेषणत्वाद्गौणत्वम् यद्वा काठिन्यवद्रव्यस्य विशेष्यत्वान्मुख्यता, पृथिव्या विशेषणत्वाद्गौणता । एवं रूपवद्द्रव्यं मूर्त्त, पर्या- 25 यवद्द्रव्यं वस्त्वित्यादीनि धर्मिद्वयविषयकविवक्षणे उदाहरणानि ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४८४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे काठिन्यवदिति । द्रव्ययोर्मुख्यामुख्यभावेन विवक्षणे उदाहरणमिदम् , तत्सङ्गमयति, पृथिवीति, विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहेण काठिन्यवद्र्व्यं पृथिव्यास्त इति विवक्षायां गौणमुख्यभावः प्रतिपादितः, यदा तु पृथिवी काठिन्यवद्रव्यं वर्तत इति विव क्ष्यते तदाह यद्वेति, अपरमुदाहरणमाहैवमिति, रूपवद्र्व्यं मूत्तं वर्तत इति विवक्षणे मूर्त 5 प्रधानं विशेष्यत्वात् रूपवद्र्व्यं गौणः विशेषणत्वात् मूर्त रूपवद्रव्यं वर्तत इति विवक्षायान्तु रूपवद्रव्यं विशेष्यत्वात्प्रधानं, मूर्त्तमप्रधानं विशेषणत्वादिति, पर्यायवद्रव्यं वस्त्विति विवक्षायां वस्तुनो विशेष्यत्वान्मुख्यता, पर्यायवद्व्यस्य विशेषणत्वाद्गौणता, वस्तु पर्यायवद्व्यमित्यत्र तु वस्तुनो विशेषणत्वाद्गौणता, पर्यायवद्रव्यस्य च विशेष्यत्वात्प्रधानता बोध्येति भावः॥ धर्मधर्म्युभयविषयकविवक्षणे दृष्टान्तयति10 रूपवान् घट इत्यत्र तु घटस्य धर्मिणो विशेष्यत्वात्प्रधानता, रूपस्य धर्मस्य तद्विशेषणत्वाद्गौणता । इत्थं ज्ञानवानात्मा, नित्यसुखी मुक्तः क्षणिकसुखी विषयासक्तजीव इत्यादीनि धर्मधर्म्युभयविषयकविवक्षणे निदर्शनानि ॥ रूपवानिति । सङ्गमयति घटस्येति । दृष्टान्तान्तराण्यहित्थमिति, आत्मनो धर्मिणो 15 विशेष्यत्वात् ज्ञानस्य धर्मस्य विशेषणत्वात् मुक्तस्य धर्मिणो विशेष्यत्वान्नित्यसुखस्य धर्मस्य विशेषणत्वात् धर्मिणो विषयासक्तजीवस्य विशेष्यत्वाद्धर्मस्य क्षणिकसुखस्य विशेषणत्वाप्रधानत्वं गौणत्वञ्च भाव्यम् । न चास्य तृतीयप्रकारस्य प्रमाणत्वं शङ्कयम् , धर्मधर्मिणोः प्राधान्येनात्र ज्ञप्तेरभावात् तयोरन्यतर एव हि नैगमनयेन प्रधानतयाऽनुभूयते प्राधान्येन तदुभयावगाहिन एव ज्ञानस्य प्रमाणत्वात् । स पुन.गमोऽनेकधा व्यवस्थितः प्रतिपत्रभिप्रा20 यवशान्नयव्यवस्थानात् , यथा पुरुष एवेदं सर्वमिति, पुरुषोऽप्येकत्वनानात्वभेदात्कैश्चिदभ्यु पगतो द्वेधा, नानात्वेऽपि तस्य कर्तृत्वाकर्तृत्वभेदो परैराश्रितः, कर्त्तत्वेऽपि सर्वगतेतरभेदः, असर्वगतत्वेऽपि शरीरव्याप्यव्यापिभ्यां भेदः अव्यापित्वेऽपि मूर्त्ततरभेदः, अपरैस्तु प्रधानकारणिकं जगदभ्युपगतम् तत्रापि सेश्वरनिरीश्वरभेदोऽभ्युपगतः, अन्यैस्तु परमाणुप्रभवत्व १. नयेऽत्र हि प्रधानोपसर्जनभावस्य विशेष्यविशेषणभावप्रयुक्तत्वं न तु कल्पनाप्रयुक्तत्वं, न चैतावता प्रामाण्यप्रसङ्गः, धर्मधर्मिणोः प्राधान्येनाबोधकत्वात् , नैगमो हि तयोरन्यतरस्यैव प्रधानत्वमभ्युपैति । प्रधानतया तु तदुभयात्मकं वस्त्वनुभवद्विज्ञानं प्रमाणमेव, न चात्र नये विशेषणं कल्पितमेवेति वाच्यम् , पर्यायार्थिक एव द्रव्यस्य कल्पितस्य विशेषणत्वात् द्रव्यार्थिके तु पर्यायस्याकल्पितस्यापि विशेषणत्वात् , उभयविषयकेण नैगमेनोभयविषयस्य सत्यताया एवाभिमानादिति ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ग्रहः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ४८५ : मभ्युपगतं जगतः, तत्रापि सेश्वरनिरीश्वरभेदोऽभ्युपगतः, सेश्वरपक्षेऽपि कर्मसापेक्षत्वानपेक्षत्वाभ्यां भेदाभ्युपगमः, कैश्चित्स्वभावकालयादृच्छिकवादाः समाश्रिताः, तेष्वपि सापेक्षत्वानपेक्षत्वाभ्युपगमाद्भेदव्यवस्थाऽभ्युपगतैव । तथा कारणं नित्यं कार्यमनित्यमित्यपि द्वैतं कैश्चिदभ्युपगतं तत्रापि कार्य स्वरूपं नियमेन त्यजति नवेत्ययमपि भेदाभ्युपगमः, एवम्भूतैरेव मूर्त्तमारभ्यते, मूत्रमूर्त, अमूर्त्तर्मूर्त्तमित्याद्यनेकधा प्रतिपत्रभिप्रायतोऽनेकधा निगम- 5 नान्नैगमोऽनेकभेद इति ॥ अथ सङ्ग्रहं लक्षयतिस्वव्याप्ययावद्विशेषेष्वौदासीन्यपूर्वकं सामान्यविषयकाभिप्रायविशेषस्सङ्ग्रहः । स द्विविधः परापरभेदात् । परसामान्यमवलम्ब्य विधायौदासीन्यं तद्विशेषेषु अर्थानामेकतया ग्रहणाभिप्रायः परसङ्ग्रहः। यथा 10 विश्वमेकं सदविशेषादिति । अनेन वनभिप्रायेण सत्त्वरूपसामान्येन विश्वस्यैकत्वं गृह्यते, एवं शब्दानामप्रयोगाच विशेषेषूदासीनता प्रतीयते। अपरसामान्यमवलम्ब्य तथाभिप्रायोऽपरसङ्ग्रहः । यथा धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवानामैक्यं, द्रव्यत्वाविशेषादिति । अनेनाप्यभिप्राय विशेषेण द्रव्यत्वरूपापरसामान्येन धर्मादीनामेकत्वं तद्विशेषेषूदासी- 15 नत्वञ्च गृह्यते ॥ ___ स्वव्याप्येति । स्वं महासामान्यं सत्त्वं तद्व्याप्या यावन्तो विशेषाः द्रव्यत्वादयः तेष्वौदासीन्यपूर्वकं परस्परं ताननिराकुर्वन् सत्तारूपसामान्यविषयको द्रव्यत्वादिरूपसामान्यविषयको वाऽभिप्रायविशेषस्स सङ्ग्रह इत्यर्थः । सामान्यमात्राभ्युपगमप्रवणैकदेशबोधत्वं लक्षणम् । परापरसामान्योभयग्राहित्वन्तु न लक्षणं प्रत्येकग्राहिण्यव्याप्तेः प्रत्येकग्राहित्वमपि 20 न लक्षणमननुगमात् , अयं हि सङ्ग्रहो मन्यते ननु भावलक्षणसामान्याव्यतिरिच्यमानमूर्तयो विशेषा अव्यतिरिच्यमाना वा, नाद्यः पक्षो निःस्वभावतापत्तेः, भावव्यतिरेकित्वात् , गगनारविन्दवत । न द्वितीयो भावमात्रत्वापत्तेः, तथा हि भावमात्रं विशेषास्तभिन्नत्वात् यद्यतोऽभिन्नं तत्तदेव, यथा भावस्यैव स्वरूपम् , अभिन्नाश्च विशेषा अतस्तद्रूपा एव । ननु च यदि भावमात्रमेव तत्त्वं तदा तस्य सर्वत्राविशेषाद्य एते प्रतिप्राणि प्रसिद्धा स्तम्भेभकुम्भा- 25 १. सङ्ग्रहमतेनाशेषविशेषतिरोधानप्रकारमादर्शयति नन्विति । २. भिन्नत्वे भावलक्षणतो विशेषाणां स तस्यैवेत्यत्र नियामकाभावेन भावस्वभावशून्यत्वान्निःस्वभावत्वं स्यादित्याशयेनाह भावव्यतिरेकित्वादिति ॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे म्भोरुहादिविशिष्टवस्तुसाध्यव्यवहारास्ते सर्वेऽपि प्रलयमापोरन अतो विशेषा अपि विविक्तव्यवहारहेतवोऽभ्युपगन्तव्याः मैवम् , व्यवहारस्याप्यनाद्यविद्याबलप्रवर्तितत्वात् तेन पारमार्थिकप्रमाणप्रतिष्ठिततत्त्वप्रतिबन्धाभावात् किश्च विशेषाग्रहो विशेषेण त्याज्या, विशेषव्यवस्थापकप्रमाणाभावात् तथाहि भेदरूपा विशेषाः, न च किञ्चित्प्रमाणं भेदमवगाहते, 5 प्रत्यक्षं हि तावद्भावसम्पादितसत्ताकं तमेव साक्षात्कतुं युक्तम् नाभावम् , तस्य सकलशक्तिविरहरूपतया तदुत्पादने व्यापाराभावात् , अनुत्पादकस्य साक्षात्कारकरणे सर्वसाक्षाकरणप्रसङ्गात् तथा च विशेषाभावात्सो द्रष्टा सर्वदर्शी स्यात् अनिष्टश्चतत् तस्माद्भावग्राहकमेव तदिष्टम् , स च भावस्सर्वत्राविशिष्ट इति तथैव तेन ग्राह्यः, तदुत्तरकालभावि विकल्पो घटोऽयं पटादिर्न भवतीत्येवमाकारं रचयन्नविद्यामूलत्वान्न प्रमाणं तन्न प्रत्यक्षा10 द्विशेषावगतिः, नाप्यनुमानादिभ्यः, प्रत्यक्षमूलकत्वाच्छेषप्रमाणवर्गस्य, तस्मात्सामान्यमेव परमार्थो न विशेषा इति सङ्ग्रहः । तं विभजते स इति, परसङ्ग्रहमाह परसामान्यमिति सन्मात्रमित्यर्थः, तद्विशेषेष्विति सत्त्वावान्तरप्रभेदेष्वित्यर्थः, उदाहरति यथेति, एवमुक्त हि सदिति ज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां सङ्गृह्यत इत्यभि प्रायमाहानेनेति, सन्ति विशेषा इत्यनुक्तत्वाद्विशेषेषूदासीनता व्यज्यत इत्याहैवं शब्दाना15 मिति, उदासीनतेति, प्रत्यनीकधर्मेषूपेक्षेत्यर्थः, धर्मान्तरादानीपेक्षाहानिलक्षणत्वात्प्रमाण नय दुर्नयानां, प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेर्नयात्तत्प्रतिपत्तेर्दुनयादन्यनिराकृतेश्चेति भावः । अथ द्वितीयभेदमाहापरेति, द्रव्यत्वादीन्यपरसामान्यानीति भावः, सत्तापेक्षया कतिपयव्यक्तिनिष्ठत्वा व्यत्वस्यापरसामान्यत्वं बोध्यम्, तथाभिप्राय इति, स्वव्याप्यावान्तरविषयकोपेक्षासहकृततदर्थैकत्वग्रहणाभिप्राय इत्यर्थः, अवान्तरविषयप्रतिक्षेपाभिप्रायत्वे दुर्नयत्वप्रसक्तेः । दृष्टान्तमस्याह यथेति, द्रव्यं द्रव्यमित्यभिन्नज्ञानाभिधानलक्षणलिङ्गानुमितद्रव्यत्वा. त्मकत्वेन धर्मादीनां षण्णामैक्यं सङ्गह्यत इत्यभिप्रायेणाहानेनेति, गौणव्यवहारास्तत्तद्व्यावृत्तिरूपविशेषाश्च नैगमव्यवहारयोरिष्टाः, एतदुभयापेक्षया स्वविषयोत्कर्षाभिमानिना सङ्ग्रहेण तु ते नेष्यन्ते तथा च नैगमव्यवहारसम्मतोपचारविशेषानवलम्बित्वादस्य शुद्धत्वं, स्वसमयोचितोपचारविशेषयोः क्वचिदवलम्बनेनापि तन्नापोद्यत इति ध्येयम् ॥ १. ननु सामान्यमेव प्रमाणप्रतिष्ठं न विशेषा इति न युक्तं विनिगमनाविरहेण वैपरीत्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वादित्याशङ्कायां दोषान्तरमाह किञ्चेति ॥ २. भावेन सहैव योग्यत्वादिन्द्रियस्य सम्बन्धादिति भावः । भेदस्याभावात्मकस्यायोग्यत्वेन विषयमुद्रया कारणत्वासम्भवेनानुत्पादकत्वं तथापि तस्येन्द्रियेण प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे सर्वेषामपीन्द्रियेण ग्रहणं स्यात् , यद्वा वस्तुतोऽभावग्रहणेऽयोग्यतयाऽनुत्पादकेनेन्द्रियेण तज्ज्ञानं जायत इत्यभ्युपगमे सर्वेषामपि तेन ग्रहणं स्यादित्याशयेनाहानुत्पादकस्येति ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारः] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४८७ : श्रीवादिदेवसूरिसूत्रावलम्बनेन व्यवहारनयस्य लक्षणमाह प्रतिषेधपरिहारेण सङ्ग्रहविषयीभूतार्थविषयकविभागप्रयोजकाभिप्रायो व्यवहारनयः । यथा सत्त्वधर्मेणैकतया सङ्गहीतस्य सतो द्रव्यपर्यायाभ्यां विभागकरणाभिप्रायो यत्सत्तद्विधा, द्रव्यं पर्यायश्चेति । एवं द्रव्यत्वेन सङ्गहीतस्य द्रव्यस्य धर्मादिरूपेण षोढा विभागकरणाभिप्रायो 5 यद्रव्यं तद्धर्मोदिरूपेण षोढेति ॥ प्रतिषेधपरिहारेणेति, सुनयीकरणायैतत् । सङ्ग्रहगृहीतान सत्त्वाद्यर्थानुपेक्ष्य तद्विभजनाविषयो योऽभिप्रायस्स व्यवहारनय इत्यर्थः, परसामान्यमवलम्ब्य तद्विभागाभिप्राय निदर्शयति यथेति, अपरसामान्यमवलम्ब्य तमाहैवमिति । " वञ्चइ विणिच्छिअत्थं ववहारो सदधेसु "ति नियुक्तिप्रतीकानुसाराद्विनिश्चितार्थप्रापकत्वं व्यवहारस्य लक्षणं लभ्यते, 10 विशेषेणावह्रियते निराक्रियते सामान्यमनेनेति निरुक्त्यनुसारात् । विनिश्चितार्थप्राप्तिश्वास्य सामान्यानभ्युपगमे सति विशेषाभ्युपगमात् जलाहरणाद्युपयोगिनो घटादिविशेषानेवायमङ्गीकरोति नतु सामान्यम् , गां बधानेत्याधुक्ते गोत्वबन्धनाद्यध्यवसायस्य कस्याप्यनुदयात् । न च कथं गोष्वनुगतव्यवहार इति वाच्यमन्यापोहादिनापि तदुपपत्तेः शब्दानुगमादेवानुगतव्यवहारोपपत्तेश्च । “लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार" 15 इति तत्त्वार्थभाष्यानुरोधात्तु शब्दतदुपजीविप्रमाणातिरिक्तप्रमाणपक्षपाती गौणीवृत्त्याऽ. तिशयेन व्यवहारकरः नानाव्यक्तिकशब्दसङ्केतग्रहणप्रवणो यो बोधस्स व्यवहार इति तदर्थः, उपचारबहुलाध्यवसायवृत्तिनयत्वव्याप्यजातिमत्त्वन्तु लक्षणम् । उपचाराधिक्यं यथा गिरिदह्यते, अध्वा याति, कुण्डिका स्रवति, इत्यादौ प्रथमे गिरिपदस्य गिरिस्थतृणादौ लक्षणा, अतिशयदग्धत्वप्रतीतिः फलं द्वितीये मार्गगन्तृपुरुषसमुदाये लक्षणा नैरन्तर्यप्रतीतिः फलं, 20 तृतीये कुण्डिकास्थोदके लक्षणाऽनिबिडत्वप्रतीतिः प्रयोजनमित्येवं भाव्यम् । लक्ष्यार्थे मुख्यार्थप्रतीतिश्चाभेदाध्यवसायात् । विशेषप्राधान्यादेवायं विस्तृतार्थः, प्रधानता च १. यथा सत्यपि पश्चवर्णादौ भ्रमरे कृष्णवर्ण एव लोकस्य निश्चयो भवति तस्माद्विनिश्चितार्थप्रापको व्यवहारनयः तस्यैव गमकत्वात्प्ररूपकत्वाच्च, स एव हि लोकव्यवहारानुकूलतया स्पष्टतमः, तस्माच्छेषवर्णादीनयं नयो मुञ्चतीति विनिश्चितार्थप्रापकत्वमस्य बोध्यम् ॥ २. उपचारबहुलाध्यवसायत्वमात्रस्य लक्षणत्वेऽनुपचरितव्यवहारेऽव्याप्तिरिति नयत्वव्याप्यजातिमत्त्वमुक्तं, तावन्मात्रस्य नैगमसङ्ग्रहादावपि सत्त्वाद्वत्त्यन्तम् , अत एव नयत्ववत्त्वमुपक्ष्य नयत्वव्याप्यजातिमत्त्वमुक्तं. क्वाचित्कोपचाराध्यवसायमादाय नैगमाद्यतिव्याप्तिवारणाय बहुलेति ॥ ३. ननु गिरिस्थतृणादिमार्गगन्तपुरुषसमुदायकुण्डिकास्थजलादी गिरिमार्गकुण्डिका- . दिमुख्यार्थप्रतीतिः कथमित्यत्राह लक्ष्यार्थ इति ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४८८ : तस्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे व्यक्तिष्वेवोपयुक्ततया सङ्केताद्याश्रयणात् । वस्तुतः पञ्चवर्णद्विगन्धपश्चरसाष्ठस्पर्शशरीरवतो भ्रमरादेश्श्यामत्वादिनैव निश्चयनादसौ लौकिकः, लोकैः कृष्णवर्णत्वेनैवास्याङ्गीकारात्, उद्भूतवर्णविवक्षयैवाभिलापादिव्यवहारप्रवृत्तेः कृष्णो भ्रमर इत्यादेरनुद्भूतत्वेनेतरवर्णाविव क्षणान्न भ्रान्तत्वम् , तात्पर्यज्ञं प्रति प्रामाण्याल्लोकव्यवहारानुकूलविवक्षाप्रयुक्तत्वाचास्य 5 भावसत्यत्वं, पीतो भ्रमर इत्यादीनान्तु न तथा, लोकव्यवहाराननुकूलत्वात् , नापि निश्चयतोऽ स्य भावसत्यत्वं पञ्चवर्णपर्याप्तिमति पञ्चवर्णप्रकारकत्वाभावेनावधारणाक्षमत्वात् । ननु पञ्चवर्णो भ्रमर इत्यादिवाक्यानां कथं न व्यवहारनयानुरोधित्वं तस्यापि व्यवहारानुगुण्यात्, आगमप्रतिपादितार्थेऽपि व्युत्पन्नानां व्यवहारोपलब्धेः, न च लोकेनास्य वाक्यस्य बाधितार्थविषयकत्वेन न व्यवहारानुरोधित्वमिति वाच्यम् आत्मा न रूपवानित्यादिवाक्यस्यापि 10 अव्यवहारकत्वापत्तेः,आत्मगौरत्वादिबोधकलोकप्रमाणबाधितार्थबोधकत्वात् , अभ्रान्तलोकस्य विवक्षणे चोभयत्र साम्यमेवेति चेन्न पञ्चवर्णो भ्रमर इत्यादौ कृष्णेतरवाशे व्यावहारिकविषयताया अभावात् , तत्तन्नयाभिप्रायप्रयुको हि शब्दः, तत्र तन्नयीयविषयतैव शाब्दबोधिका, ततो नोक्तव्यवहार इति ।। अथर्जुसूत्रं स्वरूपयति15 द्रव्यं गौणीकृत्य प्राधान्यतया वर्तमानक्षणवृत्तिपर्यायमात्रप्रदर्शना भिप्रायविशेष ऋजुसूत्रः । यथा सम्प्रति सुखपर्यायोऽस्ति दुःखपर्यायोऽस्ति द्वेषपर्यायो वास्तीत्यभिप्रायाः। अत्र हि सदप्यात्मद्रव्यं नाप्यते सुखादिपर्यायास्तु प्रधानेन प्रकाश्यन्ते ॥ द्रव्यमिति, ऋजु-अवर्क सूत्रयति गमयत्यभ्युपगच्छतीति ऋजुसूत्रः अतीतानागतयोः 20 पर्याययोर्विनाशानुत्पत्तिभ्यामभावेन तदभ्युपगमे कुटिलत्वं ततस्तत्परिहारेण परोपकारप्रव णवार्तमानिकपर्यायप्ररूपणमेवाकुटिलं प्ररूपणमिति ऋजुसूत्रशब्दभावः, तदेवाह द्रव्यं गौणीकृत्येति नयत्वरक्षायै विशेषणमिदम् , अस्य मते भावत्वं वर्तमानत्वव्याप्यम् , तथाहि विनष्टत्वादतीतस्यानागतस्यालब्धात्मलाभत्वात् अविशिष्यमाणतया च सकलशक्तिविकलरूपत्वात् १. एवशब्देन सामान्यस्य संकेलजप्रतीत्यविषयत्वं सूचितम् शब्दानां हि सामान्ये संकेतोऽनुपयुक्तः, घटमानयत्यादिवाक्यात् शाब्दबोधानुत्पत्तिप्रसङ्गात् नहि घटत्वस्यानयनं सम्भवति, अमूर्तत्वादिति भावः ॥ २. तत्तन्नयाभिप्रायप्रयुक्तो हि शब्दः, तथा च पञ्चवर्णो भ्रमर इति शब्दाभिलापो निश्चयनयेन, अतः प्रोक्ताभिलापजन्यशाब्दबोधे कृष्णेतररूपांशे न व्यावहारिकी विषयताऽस्ति लोकव्यवहाराननुगुणत्वात् किन्तु तत्र नैश्चयिकी विषयतैव कृष्णांशे तूभयविषयतेति भावः ।। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलते अर्थक्रियानिर्वर्तनाक्षमत्वेनावस्तुत्वाच्च, वर्तमानक्षणालिङ्गितस्यैव सकलार्थक्रियासु व्याप्रियमाणत्वेन. तदेव पारमार्थिकं वस्त्विति, तथा च शब्दाद्यभिमतविशेषापक्षपातिवर्तमानत्वमात्रव्याप्तभावविषयकाभिप्रायः ऋजुसूत्र इति भावार्थः । शब्दादिनयेषु व्यभिचारवारणाय शब्दाद्यभिमतविशेषापक्षपातीति पदम् । अत्र द्रव्यस्य गौणत्वं वर्तमानपर्यायस्य प्राधान्यञ्च, तत्रैव संकेतार्थक्रियादिसंभवात् , एकावस्थापन्ने द्रव्ये भिन्नावस्थासम्बन्धासम्भवात् विभि- 5 नकालिकपर्यायद्वयाधारपदार्थाभावाच्च, सिद्धावस्थासाध्यावस्थयोरेकत्र विरोधात् , यथा पलालं न दहति वह्निः, घटो न भिद्यते, असंयतो न प्रव्रजति, असिद्धो भव्यो न सिद्ध्यतीत्यादौ दहनादिक्रियाकाल एव तन्निष्ठाकालः, अतस्तदवस्थाविलक्षणपलालाद्यवस्थावता समं दहनादिक्रियान्वयो न युज्यते दह्यमानादेर्दग्धत्वाद्यव्यभिचारात् । अत एवैते निषेधात्मका व्यवहारा उपपद्यन्ते, विधिरूपास्तु अपलालं दह्यते, अघटो भिद्यते, संयतः प्रव्रजति, सिद्धस्सिद्ध्यती- 10 त्येवंरूपाः । न चात्र नये कृतकरणापरिसमाप्तिर्दोषः स्यात् सिद्धस्यापि साध्यमानत्वेन करणव्यापारानुपरमादिति वाच्यम् , उत्पाद्य कार्य क्रियोपरमेण तत्समाप्तेः । न च यादृश- . व्यापारावच्छिन्नदण्डादेर्घटोत्पत्त्यव्यवहितपूर्ववृत्तित्वं तादृशव्यापारावच्छिन्नस्य तस्य तदुत्पत्यनन्तरमपि सत्त्वे तदुत्पत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम् , तदानीं सूक्ष्मक्रियाविरहकरुपतात्, न च घटोत्पत्तेः पूर्व तत्क्रियायाः सत्त्वे तदापि तदुत्पत्तिप्रसङ्गः असत्त्वे च कार्याव्यवहितपूर्ववृत्ति- 15 स्वाभावेन कारणत्वाभावप्रसङ्ग इति वाच्यम् , कार्यव्याप्यतावच्छेदकपरिणामविशेषरूपायाः कारणतायाः कार्यसहवृत्तितानियमात् , ननु यदि क्रियमाणः कृत एव चक्रभम्याग्रुपलक्षितदीर्घक्रियाकाले कुतो न घटो दृश्यत इति चेन्न, घटानुकूलव्यापारलक्षणक्रियाया दीर्घकालत्वासिद्धेः चरमसमय एव तदभ्युपगमात् , घटविषयकोत्कृष्टाभिलाषेणैव मृन्मर्दनाद्यान्तरालिककार्यकरणवेलायां घटं करोमीति व्यवहारात् , कृतस्यैव करणे न क्रियावैफल्यमपि, क्रिययैव 20 निष्ठां जनयित्वा कार्यस्य कृतत्वोपपादनात् । न चान्योऽन्याश्रयः, कृतस्यैव क्रियाजन्यत्वात् कृतमेव च क्रियां जनयति नाकृतमसस्वादिति वाच्यम् , घटत्वादिनैव क्रियायाः कार्यकारणभावात् , अर्थादेव तस्य कृतत्वोपपत्तेः । क्रियमाणस्य कृतत्वाभावे च क्रियासमये कार्याभावे १. यथा हि व्यवहारनयो व्यवहाराननुकूलत्वान्न सहते सामान्यं तथा ऋजुसूत्रनयोऽपि अतीतमनागतंञ्च पर्यायं परकीयत्वान्न सहते, · अभिधानमपि तथाविधार्थवाचकं ज्ञानमपि तथाविधार्थविषयं न सहते स्वदेशकालयोरेव सत्ताविश्रामात् तथा च यद्वर्त्तमानकालीनं वस्तु यच्च तस्यात्मीयं रूपं तदेतदुभयमेवास्य नयस्याभिमतमिति भावः ॥ २. घटोत्पत्त्यनुकूलसूक्ष्मक्रियाविरहकल्पनादित्यर्थः ॥ ३. घटं प्रति क्रिया कारणं नतु कृतघटं प्रति, येनान्योऽन्याश्रयः स्यात् तथा च कार्यतावच्छेदके कृतत्वं न प्रवेश्यते, तत्र कृतत्वस्य लाभश्च कारणसमाजाधीनः, यथा नीलघटत्वं न कपालादिकार्यतावच्छेदकं किन्तु नेल्यसामग्याः घटसामग्याश्च . . . . . . . . . समाजात् नीलघटो भवति तथेति भावः॥ .....६२.... Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविमाकरे ततः पूर्व पश्चाच्च तन्न स्यादेव, कारणाभावात् । सामग्र्याः स्वसमये कार्यव्याप्यत्वाभावेऽपि अव्यवहितोत्तरसमयावच्छेदेन तद्व्याप्यत्वोपगमान्न दोष इति चेन्नाव्यवहितोत्तरत्वप्रवेशे गौरवेणोत्तरत्वमात्रप्रवेशे व्यवहितोत्तरकालावच्छेदेन कार्योत्पत्तिप्रसङ्गेन च स्वसमयावच्छेदे नैव सामग्र्याः कार्यव्याप्यत्वोपगमस्योचितत्वात् । कारणाभावस्य कार्याभावव्याप्यत्वेन 5 कारणोत्तरकाले कार्यासिद्धेश्चेति दिक् । सङ्ग्रहसम्मतं सामान्यमनुपयोगादनुपलम्भाञ्च व्यवहारनयेन यथा नेष्यते तथैव स्वप्रयोजनासाधकत्वेन परधनवनिष्फलमतीतमनागतं वस्तु ऋजुसूत्रेण नेष्यते किन्तु साम्प्रतकालीनमेव लिङ्गवचनभिन्नमपि वस्तु स्वीक्रियते तत्रैकमपि त्रिलिङ्गं यथा तटस्तटी तटमित्यादि । तथैकमप्येकवचनबहुवचनवाच्यं यथा गुरुर्गुरवः, आपो जलं, दाराः कलत्रमित्यादि, एवमिन्द्रादेर्नामस्थापनाद्रव्यभावरूपचतुर्भेदमपीष्यते, सोऽयं नयो 10 द्विभेदस्सूक्ष्मस्थूलभेदात् सूक्ष्मस्तु क्षणिकपर्यायं मनुते पर्यायाणां स्ववर्तमानतायां क्षणावस्था यित्वस्यैवोचितत्वात् परतोऽवस्थान्तरभेदादिति, स्थूलस्तु मनुष्यादिपर्यायं वर्तमानं मनुते, न त्वतीतानागतादिनारकादिपर्यायम् । व्यवहारेण तत्स्वीकारादेतदपेक्षया स्थूलत्वमिति । अथर्जुसूत्रस्य दृष्टान्तमाह यथेति, वाक्येन ह्यनेन क्षणस्थायिसुखाख्यं पर्यायमानं प्राधा न्येन प्रदर्श्यते तदधिकरणभूतमात्मद्रव्यन्तु गौणतया नायंत इत्याशयमाहात्र हीति 15 आदिना दुःखादिपरिग्रहः ॥ अथ शब्दनयमुपदर्शयन्नाह कालकारकलिङ्गसंख्यापुरुषोपसर्गाणां भेदेन सन्तमप्यभेदमुपेक्ष्यार्थभेदस्य शब्दप्राधान्यात्मदर्शकाभिप्रायविशेषरशब्दनयः॥ कालेति । कालादीनां भेदेन द्रव्यरूपतया विद्यमानमप्यभेदमुपेक्ष्य गौणीकृत्य शब्द20 भेदप्राधान्यप्रयुक्तार्थभेदप्रज्ञापकाभिप्रायविशेषश्शब्दनय इत्यर्थः । अयमत्र भावः, ऋजुसूत्रा पेक्षयाय विशेषिततरः, अयं हि पृथुबुध्नोदरायाकारविशिष्टं मृन्मयं जलाहरणादिक्रिया. समर्थ प्रसिद्धं भावघटमेवेच्छति न शेषान्नामस्थापनद्रव्यरूपांस्त्रीन् घटान् नवा विभिन्नकालकारकादिविशिष्टशब्दवाच्यानामेकत्वम्, शब्दप्रधानो ह्येष नयः, चेष्टालक्षणश्च घट. शब्दार्थः घटत इति घटो घटचेष्टायामिति धातुना व्युत्पन्नत्वात् । ततश्च य एव जला25 हरणादिक्रियार्थ प्रसिद्धो घटस्तमेव भावरूपं घटमिच्छत्यसौ तत्रैव शब्दार्थोपपत्तेः, न तु नामादिघटान् घटशब्दोऽभिधत्ते शब्दार्थानुपपत्तेः, तथा घटं घटेनेत्यादीनामपि भिन्नार्थत्वं द्वितीयाविशिष्टघटशब्दस्य तृतीयादिविशिष्टघटशब्दस्यान्यत्वात् तथा च नामस्थापनाद्रव्यरूपा घटा न भवन्ति, जलाहरणादितत्कार्याकरणात् पटादिवत्, तथा प्रत्यक्षविरोधात् Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्दः ] न्यायप्रकाशसमलते घटलिङ्गादर्शनाच, अघटरूपास्ते प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते इति प्रत्यक्षविरोधः, जलाहरणादिकं घटलिङ्गश्च तेषु न दृश्यत इत्यनुमानविरोधोऽपि, न च कथं ते नामादिघटव्यपदेशभाज इति वाच्यम् , अनिष्टत्वात् यथाहि ऋजुसूत्रस्यातीतानागताः कुम्भा नेष्टाः प्रयोजनाभावात्तथानामादयोऽपि तुल्यत्वादिति ॥ . अथ क्रमेण कालादीनां दृष्टान्तानुपदर्शयति 5 यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरिति कालभेदेन सुमेरुभेदं, करोति कुम्भः क्रियते कुम्भ इत्यादौ कर्तृत्वकर्मत्वरूपकारकभेदात्कुम्भभेदं, पुष्यस्तारका इत्यादौ लिङ्गभेदेनार्थभेदं, आपोम्भ इत्यादौ संख्याभेदेन जलस्य भेदं, एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पितेत्यादौ मध्यमोत्तमरूपपुरुषभेदेनार्थभेदं, सन्तिष्ठतेऽवतिष्ठत इत्यादा- 10 वुपसर्गभेदेन चार्थभेदं प्रतिपादयति शब्दनयः, कालादिप्राधान्यात्, अभेदं पुनर्न तिरस्करोति, अपि तुगौणीकरोति । पर्यायभेदे तु नार्थभेदमभ्युपैति नयोऽयम् ॥ .. यथेति । सुमेरुभेदमिति, प्रतिपादयतीत्यप्रेतनेन सम्बद्ध्यते एवमप्रेऽपि। भूतभविष्यद्वर्त्तमानरूपकालत्रयभेदेन सुमेरोभेदं शब्दनयः प्रतिपद्यते, कालभेदादप्यर्थस्याभेदप्रति- 15 शाने रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेरिति भावः । कारकभेदप्रयुक्तार्थभेदस्य दृष्टान्तमाह करोतीति, अत्र कारकयोः कर्तृकर्मणोर्मेंदाद् घटस्य भेदः, जलाहरणाद्यर्थक्रियानिरूपितकर्तृत्वस्य कुम्भकारनिरूपितकर्मत्वस्य च भानात् । न च यः कर्ता स एव कर्मातिप्रसङ्गात् तस्मात्कर्तृकर्मस्वभावौ घटस्य भिन्नावभ्युपगमनीयाविति भावः । लिङ्गभेदप्रयुक्तार्थभेदमुदाहरति पुष्यस्तारका इति, पुंस्त्रीलिङ्गयोर्भेदेनार्थभेदा, अन्यलिङ्ग- 20 वृत्तेश्शब्दस्यान्यलिङ्गभेदलक्षणेन वैधयेणार्थभेदस्य कान्तः कान्तेत्यादिषु स्पष्टमनुभवादिति भावः। संख्याभेदप्रयुक्तार्थभेदं निदर्शयति आपोऽम्भ इति अत्र बहुत्वैकत्वसंख्ययो देन जलस्य भेदं शब्दनयः प्रतिजानीतेऽन्यथा पटस्तन्तव इत्येत्राप्येकत्वप्रतीत्यापत्तेः संख्याभेदाविशेषात् । पुरुषभेदनिबन्धनार्थभेदनिदर्शनमादर्शयति एहि मन्य इति, अत्र युष्मदस्मवाख्ययोः पुरुषयोर्भेदादर्थस्य भेदं शब्दनयः स्वीकुरुते अन्यथाऽहं पचामि त्वं 25 पचसीत्यादावपि पुरुषभेदेऽपि एकार्थत्वप्रसङ्गात् । उपसर्गभेदनिदानार्थभेददृष्टान्तमाविष्करोति सन्तिष्ठत इति, अत्राप्युपसर्गभेदादर्थभेदं मनुते शब्दनयो विहरत्याहरतीत्यादाविव । अन्यथा तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यादावपि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसनः स्यादिति भावः । अयं तत्र तत्र Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४९२ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे तेषां प्राधान्यमेव कालादिकमाश्रित्य स्वीकरोति न तु द्रव्यरूपतयाऽनुगामिनमभेदं न्यक्कुरुते, अन्यथा दुर्नयत्वापत्तेरित्याह कालादिप्राधान्यादिति । लिङ्गादिभेदेनार्थभेदाभ्युपगमादेवर्जुसूत्रादस्य विशेषता ख्यापिता तथापि समभिरूढाद्विशेषं द्योतयितुमाह पर्यायभेदे त्विति, घटकुम्भादिपर्यायशब्दभेदे तु नार्थभेदोऽस्य सम्मतः, समभिरूढस्य तु स इष्ट इत्यनयो5 वैलक्षण्यमिति भावः ॥ अथ समभिरूढस्वभावमाविर्भावयति निर्वचनभेदेन पर्यायशब्दानां विभिन्नार्थताभ्युपगमाभिप्रायः समभिरूढः । यथेन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छक्रः, पूर्वारणात्पुरन्दर इत्यादयः । अत्र हि परमैश्वर्यवत्त्वसमर्थत्वासुरपुरवि भेदकत्वरूपप्रवृत्तिनिमित्तमा10 श्रित्यैषां शब्दानां विभिन्नार्थत्वाभ्युपगमोऽस्य नयस्य विषयः । अत्राव्यभेदस्य न निरासः ॥ निर्वचनेति । वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहयत्याश्रयति यः स समभिरूढः । निरुक्तिभेदेन पर्यायशब्दानामिन्द्रशक्रपुरन्दरादिशब्दानामर्थगताभेदोपेक्षया भिन्नर्थाभ्युपगमाभिप्राय इत्यर्थः । तथा चैवंभूतभिन्नत्वे सति संज्ञाभेदनियतार्थ भेदाभ्युपगन्तृत्वं समभिरूढस्य लक्षणम् । अत्र व्याप्तेर्विवक्षणाद् घटपटसंज्ञाभेदेनार्थभेदाभ्युपगन्तरि नैगमादौ नातिव्याप्तिः । कालादिभिर्भिन्नानामर्थानां भवति भविष्यतीत्यादिध्वनिभेदाच्छब्दनयस्य भेदोऽभिमतस्तर्हि घटकुम्भादिशब्दवाच्यानामपि कथं भेदो नेष्टो ध्वनिभेदस्यात्रापि तुल्यत्वात्, विभिन्नलिङ्गवचनादिशब्दवाच्यत्वस्यार्थ भेदप्रयोजकत्वापेक्षया तत्र विभिन्नशब्दवाच्यत्वस्य प्रयोजकत्वे लाघवाच्च, नहि शब्दान्तरवाच्यं वस्तु शब्दान्तरवाच्यार्थरूपतामेति, 20 अन्यथा घटादौ पटाद्यर्थसंक्रमे किमयं घटः पटादिर्वा इति संशयो विपर्ययो वा भवेत् घटादावपि पटादिनिश्चयात् पटादौ वा घटाध्यवसायादेकत्वं घटपटाद्यर्थानां प्राप्नुयात् मेचकम + 15 . १. रूढ्या हि यावन्तश्शब्दाः कस्मिंश्चिदर्थे प्रवर्त्तन्ते तेषां सर्वेषामपि शब्दानामयं नय एकमर्थमभिप्रति यथा-घटकुटकलशकुम्भादयः, एभिर्हि एक एवार्थः प्रतीयते, यथा शब्दाव्यतिरेकोऽर्थस्य तथैव तस्यैकत्वं वा शब्दभेदेन नैकत्वं वा प्रतिपादनीयं, न च घटकुटकलशादयः पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीयन्ते, तेभ्यस्सर्वदा एकाकार परामर्शोत्पत्तेः अस्खलद्वृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्याय - शब्दानामर्थ इति भावः ॥ २. यत्र यत्र संज्ञाभेदस्तत्र तत्रार्थभेद इति नियमः, अयञ्च नियम एवम्भूतेऽप्यस्तीति तद्भिन्नत्वे सतीत्युक्तं, तथा च यथा घटः घटान्यपटशब्दावाच्यः तथैव घटान्यकुटादिशब्दावाच्योऽपि, एवं कुटः कुटान्य घटशब्दावाच्य इत्येवं शब्दभेदार्थभेद इति भावः ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवम्भूतः ] न्यायप्रकाशसमलते :४९३: णिवत्सङ्कीर्णरूपता वा घटपटाद्यर्थानां भवेत् , तथा च घटकुम्भकलशादिशब्दवाच्यानामर्थानां परस्परं भेद उचितः, वाचकध्वनिभेदात् , घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यार्थवदिति प्रयोगः । न च नानार्थेकशब्दवाच्यानामर्थानां भेद इव भिन्नशब्दवाच्यानामपि भेदो न भवेदिति वाच्यम्, भिन्नशब्दवाच्यत्वस्यार्थभेदव्याप्यत्वात् , नहि व्याप्यस्याभावात्कचिदपि व्यापकस्याभाव इष्टः, तस्मान्नानार्थस्थले शब्दभेदादर्थभेदाभावेऽपि लक्षणस्वरूपादिभेदाढ़ेदो भवि- 5 प्यति, न बर्थभेदे प्रतिनियतमेकमेव प्रयोजकं, भिन्नशब्दवाच्यतया तु. भिन्नकालवृत्तितयेवार्थभेदो ध्रुव एव । 'यदि भिन्नशब्दवाच्यत्वमर्थभेदव्यापकं भवेत्तदा व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो भवदुक्तस्सङ्गच्छेत तदेव नेष्टमिति । न चास्य मते शब्दभेदादेव यद्यर्थभेदस्तदा व्युत्पत्तिनिमित्तमेव .प्रवृत्तिनिमित्तमित्यायातं तथा च डित्थडवित्थादिपारिभाषिकसंज्ञा न भवेयुः, तेषामिच्छामात्रनिमित्तत्वेन यथास्थितव्युत्पत्तिनिमित्ताभावादिति वाच्यम् , इष्टा. 10 पत्तेः, शब्दार्थस्य स्वाभाविकधर्मनिबन्धनत्वात् तत्रेच्छाया अनिबन्धनत्वात् तस्मादिच्छाविशिष्टशक्त्यभावात्तेषामबोधकत्वमेवेति; एवं घटादेः कुम्भकलशादिकमेतन्मते पर्यायवचनं नास्त्येव, एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दप्रवृत्त्यनभ्युपगमादिति । अथ समभिरूढनयं दृष्टान्तयति. यथेति, तथा च परमैश्वर्यशालित्वमिन्द्रशब्दस्य, सामर्थ्य शक्रशब्दस्य, असुरपुरविभेदनं पुरन्दरशब्दस्य प्रवृत्तौ निमित्तं स्फुटमिति निरुक्तिभेदतः पर्यायवाचिशब्दानां भिन्नार्थत्वम् , 15 प्रयोगश्च पर्यायशब्दा विभिन्नार्थाः प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकत्वात् , इह ये ये प्रविभक्तव्युत्पत्तिनिमित्तकाः नैतेऽभिन्नार्था यथा इन्द्रघटपुरुषादिशब्दाः विभिन्नव्युत्पत्तिनिमित्तकाश्च पर्यायशब्दा अपि, अतो भिन्नार्था इति । यत् पुनरविचारितप्रतीतिबलादेकार्थाभिधायकत्वं तत्त्वतिप्रसङ्गेन न युक्तम् , युक्तिरिक्तप्रतीतिशरणीकरणे हि मन्दप्रकाशे दवीयसि देशे सन्निविष्टविभिन्नशरीराणामपि निम्बकदम्बाश्वत्थकपित्थादीनामेकतर्वाकारतया 20 प्रतीयमानानामेकत्वाभ्युपगमप्रसङ्गः स्यादिति पर्यायशब्दानां भिन्नार्थत्वमेवेत्याशयेनाहात्र हीति । तेभ्यः सर्वदैवैकाकारपरामर्शोत्पत्त्याऽस्खलद्वृत्तितया तथैव व्यवहाराच्च पर्यायशब्दार्थानामभेदं गौणीकरोति नयोऽयमित्याशयेनाहात्रापीति ।। · अथैवम्भूतनयमुपपादयितुमाह तत्तक्रियाविधुरस्यार्थस्य तत्तच्छब्दवाच्यत्वमप्रतिक्षिपन् स्वस्वप्रवृ- 25 त्तिनिमित्तक्रियाविशिष्टार्थाभिधायित्वाभ्युपगमः एवम्भूतनयः। यथा १. न ह्यर्थभेदे शब्दभेद एक एव प्रयोजको येन नानार्थस्थले शब्दभेदाभावादभेद आपद्येतेति भावः ॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविमाकरे [नवमाकिस्मे परमैश्वर्यप्रवृत्तिविशिष्ट इन्द्रशब्दवाच्या, सामर्थ्यक्रियाविशिष्टश्शक्रप. दबोध्यः, असुरपुरभेदनक्रियाविशिष्टः पुरन्दरशब्दवाच्य इत्येवंरूपाभिप्रायाः ॥ तत्तक्रियेति । जलाहरणादिक्रियाविधुरस्यार्थस्य घटादेस्तत्तच्छन्दवाच्यत्वं घटादिश5 ब्दवाच्यत्वमप्रतिक्षिपन् द्वेषबुद्ध्याऽनिराकुर्वन् जलाहरणादिक्रियाविशिष्टमेव घटादिकं घटादिशब्दो वतीत्येवंरूपोऽभिप्राय एवम्भूतनय इति भावः । तथा च पदानां व्युत्पत्त्यर्थान्वयनियतार्थबोधकत्वाभ्युपगन्तृत्वमिति निष्कर्षः । नियमश्च देशतः कालतश्चातो न समभिरूढादावतिव्याप्तिः। या क्रिया विशिष्टशब्देनोच्यते तामेव क्रियां कुर्वद्वस्तु एवंभूतशब्देनो. च्यते तत्प्रतिपादको नयोऽप्युपचारादेवम्भूतः, अयं व्यञ्जनार्थोभयं स्थापयति, शब्दं अर्थे10 नार्थश्च शब्देनेति, यथा घटचेष्टायां घटते योषिन्मस्तकाद्यारूढश्चेष्टत इति घट इत्यत्र तदैवासी घटो यदा तादृशचेष्टावान् नान्यदा, घटशब्दोऽपि तादृशचेष्टाकारिण एव वाचको नान्यदेत्येवं चेष्टावस्थातोऽन्यत्र घटस्य घटत्वं घटशब्देन निवय॑ते घटशब्दस्यापि तदवस्थातोऽन्यत्र घटेन स्ववाचकत्वं निवर्त्यते, तथा च प्रयोगो यथाऽभिधायकइशब्दस्तथैवाभिधेयं प्रतिपत्तव्यं, तथाभूतार्थस्यैव प्रत्ययसम्भूतेः प्रदीपवत्कुम्भवद्वा, प्रदीपशब्देन हि प्रकाशवानेवा15 थर्थोऽभिधीयते, अन्यथा संशयादयः प्रसज्येरन् तथाहि यदि दीपनक्रियाविकलोऽपि दीपस्तर्हि दीपशब्दे समुच्चरिते किमनेन प्रदीपेन प्रकाशवानर्थोऽभिहितः किंवाऽप्रकाशकोऽप्यन्धोपलाविरिति संशयः, अन्धोपलादिरेवानेनाभिहितो न दीप इति विपर्ययः, तथा दीप इत्युक्तेऽन्धो. पलादौ चोक्ते दीपे प्रत्ययात्पदार्थानामेकत्वं साङ्कर्य वा स्यात्तस्माच्छन्दवशादेवाभिधेयमभि धेयवशाच शब्द इति । एवञ्च संज्ञाभेदाद्वस्तुभेदवत् क्रियाभेदादपि, सा च क्रिया तनेत्री 20 यदैव तामाविशति तदैतन्निमित्तं तत्तद्वयपदेशमासादयति नान्यदाऽतिप्रसङ्गात् । यदा घटते तदेवासो घटो न पुनर्घटितवान् घटिष्यते वा घट इति व्यपदेष्टुं युक्तः, सर्ववस्तूनां घटता. पत्तिप्रसङ्गात् किञ्च चेष्टासमये एव वस्तु चक्षुरादिव्यापारसमुद्भूतशब्दानुविद्धप्रत्ययमास्कन्दति, चेष्टावन्तः पदार्था इति, यथावस्थितार्थप्रतिभास एव च वस्तूनां व्यवस्थापको नान्यथाभूतोऽ. न्यथा चेष्टावत्तया शब्दानुविद्धाध्यक्षप्रत्यये प्रतिभासस्याभ्युपगमे तत्प्रत्ययस्य निर्विषयतया १. योऽर्थो यद्देशे यत्काले व्युत्पत्त्यर्थेन सम्बद्धः सोऽर्थस्तत्र तदानीं तच्छन्दबोध्यः, तथा चायं नयो यस्मिन्नर्थे शब्दो व्युत्पाद्यते स व्युत्पत्तिनिमित्तभूतोऽर्थो यदैव वर्तते तदैव तं शब्दं प्रवर्त्तमानमभिति, नातीतां भाविनी वा चेष्टामधिकृत्य सामान्येनैवोच्यते शब्दः, तयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन कूर्मरोमकल्पस्वात् यद्यतीतभाविचेष्टापेक्षया घटादिशब्दोऽचेष्टावस्यपि प्रयुज्येत तर्हि कपालमृत्पिण्डादावपि प्रयुज्यतां विशेषाभावात्तस्माद्यत्र क्षणे व्युत्पत्तिनिमित्तमविकलमस्ति तदैव सोऽर्थस्तच्छब्देन वाच्य इति निर्गलितार्थः ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्यन्याः ] न्यायप्रकाशसमलते भ्रान्तस्यापि वस्तुव्यवस्थापकत्वे सर्वः प्रत्ययः सर्वस्यार्थस्य व्यवस्थापकः स्यादित्यतिप्रसङ्गः, तन्न घटनसमयात्प्राक् पश्चाद्वा घटस्तव्यपदेशमासादयतीत्येवम्भूतनयमतम् । नन्वेतन्मते न्युत्पत्तिनिमित्तस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वेन केनचिद्रूपेणास्यानतिप्रसक्तत्वं वाच्यम् , इतरथा गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्त्या गच्छन्नश्वादिरपि गौः स्यात् , मैवम् प्रसिद्धार्थपुरस्कारेण प्रवृत्तस्यैवंभूतनयस्य स्वार्थातिप्रसङ्गो न दूषणं किन्तु तन्निवारकनयान्तरोपायकत्वे. 5 न भूषणमेव, एतदुपजीवी व्यवहारस्तु यथावृत्ति, एतेन राजनशब्दस्य छत्रचामरादिशोभाविरहकाले राजपदव्युत्पत्तिनिमित्ताभावेऽपि इतरातिशयपुण्यादिप्रयुक्तराजनस्यामतिप्रसक्तस्य सत्त्वेन राजा वाच्य एवेति व्युदस्तम् । एवम्भूतनयस्योदाहरणमाह यथेति, समभिरूढो हि सत्यामसत्याश्चन्दनक्रियायां वासवादेरर्थस्येन्द्रादिव्यपदेशमभिप्रेति क्रियोपलक्षितसामान्यस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , पशुविशेषस्य गमनक्रियायां सत्यामसत्याच गोव्यपदेश- 10 वत् तथारूढेस्सद्भावात् । एवम्भूतः पुनरिन्दनादिक्रियापरिगतमर्थ तत्तत्क्रियाकाले इन्द्रादिव्यपदेशभाजमभिमन्यते, नहि कश्चिदक्रियशब्दोऽस्यास्ति, गौरश्व इत्यादिजातिशब्दाभिमतानामापि क्रियाशब्दत्वात् गच्छतीति गौराशुगामित्वादश्व इति, शुक्लो नील इत्यादिगुणशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव, शुचीभवनाच्छुक्लो नीलनानील इति, देवदत्तो यज्ञदत्त इत्यादियादृच्छिकशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव देव एनं देयायज्ञ एनं देया- 15 दिति । संयोगिद्रव्यबाचकशब्दास्समवायिद्रव्यवाचकशब्दा अपि क्रियाशब्दा एव दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादिक्रियाप्रधानत्वादिति । एवमेतन्मते सत्त्वादियोगात्सदादिसंश्यपि तत्तत्पर्यायभाक्त्वेनात्मादिसंज्ञाधार्यपि सिद्धो न जीवः, जीवप्राणधारण इति धात्वर्थानन्वयात् । एतेन सिद्धो निश्चयतो जीव इति मतमपास्तम् , शुद्धनिश्चयो ह्येवम्भूतनय एव, तन्मतेन तु सिद्धोऽजीव इत्येव प्रसिद्धिः, औदयिक भावं व्युत्पत्तिनिमि- 20 तमेव प्रवृत्तिनिमित्ततया गृह्णता संसारिण एव जीवशब्दव्यपदेश्यत्वप्रतिपादनात् सिद्धस्य पुद्गलादिद्रव्यस्य वाऽजीवपदार्थत्वस्येष्यमाणत्वादिति ॥ नयानाममीषां सप्तविधानां मध्ये के पुनरर्थप्रधानाः के च शब्दप्रधाना इत्याशङ्कायामाह तत्राद्याश्चत्वारो नया अर्थनया अर्थप्रधानत्वात् । अन्त्यास्तु शब्दनयाः शब्दवाच्यार्थविषयत्वात् ॥ १. औदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकलक्षणः पञ्चभिर्भावैः पञ्चस्वपि गतिषु जीव इष्टः, व्युत्पत्तिनिमित्तजीवनलक्षणोदयिकभावोपलक्षितात्मत्वरूपपारिणामिकभावविशिष्टस्य जीवस्य भावपञ्चकात्मनो जीवपदार्थत्वात प्रसिद्धनगम ईदृशपारिणामिकभावमेव जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तमभ्युपगच्छति, एवम्भूतस्तु व्युत्पत्तिनिमित्तमेव प्रवृत्तिनिमित्तं गृह्णाति इति भावः ॥ . 25 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे, [मवमकिरणे तत्राद्याश्चत्वार इति । अर्थतंत्रत्वान्नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया उच्यन्ते, ऋजुसूत्रान्ता हि नया प्रधानभूतमर्थ शब्दश्चाप्रधानं ब्रुवते । अन्त्यास्त्रयस्त्विति, शब्दसमभिरूडैवम्भूतात्रयस्त्वित्यर्थः, अर्थोपसर्जनाश्शब्दप्रधानाः अतश्शब्दनया उच्यन्त इति भावः । अत्रैवमर्थनयतात्पर्यमवसेयम्-यद्यपि प्रमाणप्रमेययोनिबन्धनं सामान्यतश्शब्दार्थों भवतः 5 तथापि साक्षात्परम्परया वा प्रमाणस्य कारणमेव स्वाकारार्पको विषयः, न शब्दः 'नाननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषय' इत्यादिवचनात् , तदाकारानुविधायिनी तदध्यवसायेन च तत्राविसंवादात् संवित्प्रमाणत्वेन गीयते, अध्यक्षधीश्वाशब्दमर्थमात्मन्याधत्ते, अन्यथाऽर्थदर्शनप्रच्युतिप्रसङ्गात् , न ह्यध्यक्षगोचरेऽर्थे शब्दास्सन्ति, तदात्मानो वा, येन तस्मिन् प्रतिभासमानेऽपि नियमेन ते प्रतिभासेरन् इति कथं शब्दसंस्पृष्टाऽ10 क्षधीभवेत् किञ्च वस्तुसन्निधानेऽपि तन्नामानुस्मृति विना तदर्थस्यानुपलब्धाविष्यमाणा यामर्थसन्निधिरक्षडग्जननं प्रत्यसमर्थ इत्यभिधानस्मृतावुपक्षीणशक्तिकत्वान्न कदाचनापीन्द्रियबुद्धिं जनयेत् सन्निधानाविशेषात् , यदि चायं भवतां निर्बन्धस्स्वाभिधानविशेषणापेक्षमेव चक्षुरादिस्स्वार्थमवगमयतीति तदाऽस्तङ्गतेयमिन्द्रियप्रभवाऽर्थाधिगतिः, तन्नामस्मृत्यादेरसंभवात् , तथाहि यत्रार्थे प्राक् शब्दप्रतिपत्तिरभूत् पुनस्तदर्थवीक्षणे तत्सङ्केतितशब्दस्मृ15 तिर्भवेदिति युक्तियुक्तमन्यथाऽतिप्रसङ्गः स्यात् , न चेदनभिळापमर्थ प्रतिपत्ता पश्यति तदा तत्र दृष्टमभिलापमपि न स्मरेत् , अस्मरंश्च शब्दविशेषं न तत्र योजयेत् , अयोजयंश्च न तेन विशिष्टमर्थ प्रत्येतीत्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः । ततः स्वाभिधानरहितस्य विषयस्य विषयिणं चक्षुरादिप्रत्ययं प्रति स्वत एवोपयोगित्वं सिद्धम् , न तु तदभिधानानां तदर्थ सम्बन्धरहितानां, पारम्पर्येणापि सामर्थ्यासम्भवादिति । शब्दनयस्तु मनुते कारणस्यापि 20 विषयस्य प्रतिपत्तिं प्रति नैव प्रमेयत्वं युक्तम् यावदध्यवसायो न भवेत् , सोऽप्यध्यव सायो विकल्पश्चेत् तदभिधानस्मृति विना नोत्पत्तुं युक्त इति सर्वव्यवहारेषु शब्दसम्बन्धः प्रधानं निबन्धनम् । प्रत्यक्षस्यापि तत्कृताध्यवसायलक्षणविकलस्य बहिरन्तर्वा प्रतिक्षणपरिणामप्रति पत्ताविव प्रमाणतानुपपत्तेः अविसंवादलक्षणत्वात्प्रमाणानाम् । प्रतिक्षणपरि णामग्रहणेऽपि तस्य प्रामाण्याभ्युपगमे प्रमाणान्तरप्रवृत्तौ यत्नः क्रियमाणोऽपार्थकः स्यात् । 25 ततः प्रमाणव्यवस्थानिबन्धनं तन्नामस्मृतिव्यवसाययोजनमर्थप्राधान्यमपहस्तयतीति शब्द एव सर्वत्र प्रमाणादिव्यवहारे प्रधानं कारणमिति । ननु नैगमादिनयसप्तकस्यैव प्ररूपणमयुक्तं तदतिरिक्तयोरप्तिानर्पितयोनिश्चयव्यवहारयोर्ज्ञानक्रिययोश्च सत्त्वादिति चेन्मैवम् , अर्पितनयस्य विशेषग्राहित्वेनानर्पितनयस्य च सामान्यग्राहित्वेनोक्तेष्वेवान्तर्भावात् , तत्रान. र्पितनयमते तुल्यमेव रूपं सर्वेषां सिद्धानाम् । अर्पितनयमते त्वेकद्विव्यादिसमयसिद्धाः Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयविचारः ] न्यायप्रकाशसमलते खसमानकालसिद्धैरेव तुल्या इति । तथा लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरस्य व्यवहारनयस्य तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्य निश्चयनयस्यापि उक्तेष्वेवान्तर्भावः । यथा पञ्चस्वपि वर्णेषु भ्रमरे सत्सु श्यामो भ्रमर इति व्यवहारः, पञ्चवर्णो भ्रमर इति निश्चयः, तच्छरीरस्य बादरस्कन्धत्वेन पञ्चवर्णपुद्गलैर्निष्पन्नत्वात् , शुक्लादीनाञ्च न्यग्भूतत्वेनानुपलक्षणात् । अथवैकनयमतार्थग्राही व्यवहारः सर्वनयमतार्थग्राही च निश्चयः । न चैवं निश्चयस्य प्रमाणत्वेन 5 नयत्वव्याघातः, सर्वनयमतस्यापि स्वार्थस्य तेन प्राधान्याभ्युपगमात् । तथा ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः, क्रियामात्रप्राधान्याभ्युपगमपराः क्रियानयाः, तत्रर्जुसूत्रादयश्चत्वारो नयाश्चारित्रलक्षणायाः क्रियाया एव प्राधान्यमभ्युपगच्छन्ति, तस्या एव मोक्षं प्रत्यव्यवहितकारणत्वात् । नैगमसमन्हव्यवहारास्तु यद्यपि चारित्रश्रुतसम्यक्त्वानां त्रयाणामपि मोक्षकारणत्वमिच्छन्ति तथापि व्यस्तानामेव नतु समस्तानाम् , एतन्मते ज्ञानादित्रयादेव 10 मोक्ष इत्यनियमात् , अन्यथा नयत्वहानिप्रसङ्गात् समुदायवादस्य स्थितपक्षत्वादिति द्रष्टव्यम्। नन्वेषु .. नयेषु सर्वेषां समानविषयत्वमुत न्यूनाधिकविषयत्वं वेत्यत्र शुद्धाशुद्धत्वाभिप्रायत आह नैगमो भावाभावविषयकः सङ्ग्रहस्सर्वभावविषयकः, व्यवहारः कालत्रयवृत्तिकतिपयभावप्रकारप्रख्यापकः, वर्तमानक्षणमात्रस्थायिप- 15 दार्थविषय ऋजुसूत्रः, कालादिभेदेन भिन्नार्थविषयश्शब्दनयः, व्युत्पत्तिभेदेन पर्यायशब्दानां भिन्नार्थतासमर्थनपरस्समभिरूढः, क्रियाभेदेन विभिन्नार्थतानिरूपणपर एवम्भूतनय इत्युत्तरोत्तरनयापेक्षया पूर्वपूर्वनयस्य महाविषयत्वं बोध्यम् ॥ नैगम इति । भावाभावभूमिकत्वासङ्ग्रहापेक्षया नैगमो बहुविषय इति भावः, सद्वि- 20 शेषप्रकाशकव्यवहारापेक्षया समस्तसत्समूहोपदर्शकस्य सङ्घहस्य बहुविषयत्वमित्याह सङ्ग्रह इति । वर्तमानविषयावलम्बिन ऋजुसूत्रात्कालत्रयवर्त्यर्थजातावलम्बिनो व्यवहारस्य बहुविषयत्वमित्याह व्यवहार इति, कालादिभेदेन भिन्नार्थोपदेशकशब्दापेक्षया तद्विपरीतवेदकः ऋजुसूत्रो भूमविषय इत्यत्राह वर्तमानेति, न केवलं कालादिभेदेनैवर्जुसूत्रादल्पार्थता शब्दस्य, किन्तु नामादितोऽपि, शब्दो हि नामस्थापनाद्रव्यभावरूपचतुर्विधनिक्षेपेषु भावघट- 25 मेव व्यवहर्त्तव्यं मन्यते शब्दार्थप्रधानतया तस्यैव जलाहरणादिक्रियाक्षमत्वात् , यद्वा सप्तधर्मार्पणादस्य विशेषः, ऋजुसूत्रस्य हि प्रत्युत्पन्नोऽविशेषित एव घटोऽभिप्रेतः, शब्दनयस्तु Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ४९८ : तस्व न्यायविभाकरे [ मयमकिरणे L सद्भावासद्भावादिभिरर्पितस्य स्याद्भटः स्यादघटः, स्यादवक्तव्यः स्यात् संश्वा संश्वोभयं स्यात्सन्न वक्तव्यः, स्यादसन्नवक्तव्यः स्यात्सन्नसन्नवक्तव्य इति स्याद्वाददृष्टभेदं घटादिकमर्थं यथाविवक्षितमेकेन केनापि भङ्गकेन विशेषिततरं प्रतिपद्यते नयत्वादिति विशेषः । प्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमभीप्सतस्समभिरूढाच्छन्दो बहुविषय इत्याह कालादीति आदिना कारकलिङ्गादीनां 5 परिग्रहः । प्रतिक्रियं विभिन्नमर्थं प्रतिजानानादेवम्भूतात्समभिरूढस्तदन्यथार्थस्थापकत्वाहुविषय इत्याह व्युत्पत्तिभेदेनेति, एवम्भूतविषयं दर्शयन्निगमयति क्रियाभेदेनेति ॥ एवं नयस्वरूपे निरूपितेऽर्थतस्स्फुटमपि सुलभतया दुर्नयस्वरूपं बुबोधयिषया नयाभासान् क्रमेणाह— धर्मद्वयधर्मिद्वय धर्मधर्मिद्वयानां सर्वथा पार्थक्याभिप्रायो नैगमा10 भासः, यथा वह्निपर्वतवृत्तित्वयोरनित्यज्ञानयो रूपनैल्ययोरात्मवृत्तिसस्वचैतन्ययोः काठिन्यवद्रव्यपृथिव्यो रूपवद्रव्यमूर्त्तयोः पर्यायवद्रव्यवस्त्वोर्ज्ञानात्मनोर्नित्यसुखमुक्तयोः क्षणिक सुखविषयासक्तजीवयोश्च सर्वथा भेदाभिप्रायः । वैशेषिकनैयायिक यो दर्शनमेतदाभास एव ॥ 1 धर्मद्वयेति । पूर्वोक्तैतद्दृष्टान्तेष्वेवैकान्तिक पार्थक्याभिसन्धिश्चेन्नैगमाभासस्यादित्याश15 येन तमेव दर्शयति यथेति, वह्निपर्वतवृत्तित्वयोरिति सर्वथा भेदाभिप्राय इत्यप्रेतनेन सम्बयते, एवमग्रेऽपि । पर्वते पर्वतीयवह्निरित्यत्र तयोस्सर्वथा भेदाभिप्रायश्चेत्तदा धर्मद्वयविषयको नैगमाभास इति भावः । अनित्यज्ञानमात्मन इत्यत्रानित्यज्ञानयोस्सर्वथा पार्थक्याभिसन्धौ धर्मद्वयविषयक नैगमाभास इत्याहा नित्येति । घटे नीलं रूपमित्यादौ नैल्यरूपयोरेकान्तभेदाभिप्राये धर्मद्वयविषयक नैगमाभास इत्याह रूपेति । सचैतन्यमात्मनीत्यादौ प्रधानोपसर्जन20 भावेन चैतन्याख्यसव्वाख्यव्यञ्जनपर्याययोर्धर्मद्वययोर्विवक्षणे नैगमत्वेऽपि तयोरेकान्तभेदे - नोक्तिर्नयाभासरूपा स्यादित्याह - आत्मवृत्तीति । काठिन्यवद्द्रव्यं पृथिवीत्यादौ धर्मिद्वययोः काठिन्यवद्रव्यपृथिव्योस्सर्वथा पार्थक्येन कथने नैगमाभास इत्याह काठिन्येति । रूपवद्द्रव्यं मूर्त्तमित्यादौ धर्मिद्वययो रूपद्रव्यमूर्त्तयोस्सर्वथा भेदाभिप्राये तथेत्याह रूपवदिति । पर्यायवद्द्रव्यमित्यत्रापि तथेत्याह पर्यायवदिति । ज्ञानवानात्मा, नित्यसुखी मुक्तः, क्षणिकसुखी विषयासक्तजीव इत्यादि धर्मधयुभयविषयके सर्वथा भेदाभिप्राये नैगमाभासत्वं स्यादित्याह ज्ञानेति । कस्य दर्शनमेतन्नयाभासरूपमित्यत्राह वैशेषिकेति ॥ 25 १. ऊर्ध्वग्रीव कपालकुक्षिबुध्न । दिभिः स्वपर्यायै सद्भावेनार्पितश्चेत् स्याद्भटः, पटादिगतैः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितः स्यादघटो भवति । स्वपरोभयपर्यायैः सदसद्भावाभ्यामर्पितौ युगपद्वक्तुमिष्टश्वेदवक्तव्यो भवतीत्येवं बोध्यः ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभासाः ] सङ्ग्रहाभासमाचष्टे -- न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ४९९ : परसामान्यमपरसामान्यं वाभ्युपगम्य तद्विशेषनिराकरणाभिप्रायस्सङ्ग्रहनयाभासः । यथा जगदिदं सदेव तद्व्याप्यधर्मानुपलम्भादिति । अद्वैत सांख्यदर्शने एतदाभासरूपे । एवं द्रव्यमेव तत्त्वं तद्विशेषाणामदर्शनादित्यादयोऽभिप्रायविशेषाः ॥ परसामान्यमिति । स्पष्टम्, दृष्टान्तमाह यथेति, तद्व्याप्येति, ततः पृथग्भूतानां तद्वयाप्यानां विशेषधर्माणामदर्शनादिति हेतुना विशेषधर्मनिराकरणाभिप्रायस्य व्यक्ततया परसमहाभासत्वमिति भावः, अखिलान्यद्वैतदर्शनानि सांख्यदर्शनवात्रान्तर्भवन्तीत्याहा द्वैतेति । अपरसङ्ग्रहाभासमा हैवमिति ॥ व्यवहाराभासमाचष्टे— काल्पनिक द्रव्यपर्यायाभिमन्ता व्यवहाराभासः । यथा चार्वाकदर्शनम्, तत्र हि काल्पनिक भूतचतुष्टयविभागो दृश्यते, प्रमाणसम्पन्नजीव द्रव्यपर्यायादिविभागस्तिरस्क्रियते ॥ 5 10 काल्पनिकेति । अपारमार्थिकद्रव्यपर्याय विभागाभिप्राय इत्यर्थः । उदाहरति यथेति, चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीवद्रव्यपर्यायादिप्रविभागं कल्पनारोपितत्वेनापह्नुत्याविचा - 15 रितरमणीयं भूतचतुष्टयप्रविभागमात्रं स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयतीत्याशयमाह तत्र हीति चार्वाकदर्शने हीत्यर्थः ॥ कालत्रयेति । उदाहरति यथेति, तथागतो हि प्रतिक्षणविनश्वरपर्यायानेव पारमार्थिकतया समर्थयते तदनुगामि तु प्रत्यभिज्ञादिप्रमाणसिद्धं नित्यं द्रव्यं तिरस्कुरुतेऽतस्तन्मतमृजुसूत्राभास इत्याह बुद्धो हीति ॥ ऋजुसूत्रनयाभासमाह - कालत्रयस्थायिपदार्थव्युदसनपूर्वकं वर्त्तमानक्षणमात्रवृत्तिपर्यायाव लम्बनाभिप्राय ऋजुसूत्रनयाभासः । यथा बौद्धदर्शनम्, बुद्धो हि क्षण - 20 मात्रस्थायिनमेव पदार्थ प्रमाणतया स्वीकरोति, तदनुगामिप्रत्यभिज्ञाप्रमाणसिद्धमेकं स्थिरभूतं द्रव्यं नाभ्युपैति ॥ 25 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे शब्दानयभासमाह-- कालादिभेदेन शब्दस्य भिन्नार्थवाचित्वमेवेत्यभेदव्युदसनाभिप्रायः शब्दनयाभासः । यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादी भूतवर्तमान भविष्यत्कालीनान् भिन्नभिन्नानेव प्रमाणविरुद्धान् रत्नसानून 5 भिदधति तत्तच्छब्दा इत्याद्यभिप्रायः॥ . कालादिभेदेनेति । दृष्टान्तमाह यथेति, भिन्नकालशब्दात्तादृसिद्धान्यशब्दवद्वभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयः शब्दा भिन्नार्थमेवाभिदधति इत्येवं प्रमाणविरुद्धाभिप्रायत्वाच्छब्दाभास इति भावः ॥ समभिरूढनयाभासमाह10 .. पर्यायशब्दानां निरुक्तिभेदेन भिन्नार्थत्वमेव न त्वर्थगतोऽभेदोऽ. पीति योऽभिप्रायः स समभिरूढनयाभासः । यथा शक्रपुरन्दरेन्द्रशब्दानां भिन्नाभिधेयत्वमेव भिन्नशब्दत्वादित्यभिप्रायः ॥ पर्यायशब्दानामिति । दृष्टान्तमाह यथेति, करिकुरङ्गशब्दवद्भिन्नशब्दत्वाच्छादिशब्दानां भिन्नार्थत्वमेव न त्वेकार्थतेत्यभिप्रायः समभिरूढनयाभास इति भावः ।। एवम्भूतनयाभासमाह प्रवृत्तिनिमित्तक्रियाविरहितमर्थं शब्दवाच्यतया सर्वथाऽनभ्युपगच्छन्नभिप्रायविशेष एवम्भूतनयाभासः । यथा घटनक्रियाविरहितघटादेर्घटादिशब्दवाच्यत्वव्युदासाभिप्राय इति ॥ प्रवृत्तिनिमित्तेत्ति । स्वव्युत्पत्तिनिमित्तक्रियाविशिष्टं वस्तु ध्वनिवाच्यतया प्रतिजाना20 नोऽपि यः परामर्शस्तदनाविष्टं तदवाच्यतया प्रतिक्षिपति न तूपेक्षते स एवम्भूतनयाभास इति भावः, व्युत्पत्तिनिमित्तस्यैव प्रवृत्तिनिमित्तत्वमस्य मतमिति द्योतयितुं प्रवृत्तिनिमित्तेत्युक्तम् । निदर्शनमस्याह यथेति, एवमेव द्रव्यमात्रमाही पर्यायप्रतिक्षेपी द्रव्यार्थिकाभासः, पर्यायमात्राही द्रव्यप्रतिक्षेपी पर्यायार्थिकाभासः, अर्थाभिधायी शब्दप्रतिक्षेपी अर्थनया भासः, शब्दाभिधाय्यर्थप्रतिक्षेपी शब्दनयाभासः, अर्पितमभिदधानोऽनर्पितं प्रतिक्षिपन्न25 र्पितनयाभासः, अनर्पितमभिप्रयन्नर्पित प्रतिक्षिपन्ननर्पितनयाभासः, एवमेव निश्चयनया: भासादिकं भाव्यम् ॥ 15 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकार वचनसत्यता ] . - न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :५०१: ननु योकैकधर्मसमर्थनपरायणाश्शेषधर्मतिरस्कारकारिणोऽभिप्राया दुर्नयैतां प्रतिपधन्ते तदा वचनमप्येकधर्मकथनद्वारेण प्रवर्त्तमानं सावधारणत्वाच्छेषधर्मप्रतिक्षेपकार्यलीकमापद्यते, ततश्चानन्तधर्माध्यासितवस्तुसन्दर्शकमेव वचनं यथावस्थितार्थप्रतिपादकत्वात्सत्यम् न चैवं वचनप्रवृत्तिः, घटोऽयं शुक्लो मूर्त इत्याद्येकैकधर्मप्रतिपादननिष्ठतया व्यवहारे शब्दप्रयोगदर्शनात , सर्वधर्माणां यौगपद्येन वक्तुमशक्यत्वात् , तदभिधायकानामप्यानन्त्यात्। 5 न चैकैकधर्मसन्दर्शकत्वेऽप्यमूनि वचनान्यलीकानि वक्तुं पार्यन्ते, समस्तशाब्दव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । तदलीकत्वे ततः प्रवृत्त्यसिद्धेश्चेति चेदत्रोच्यते, द्विविधा वस्तुप्रतिपादकाः लौकिकास्तत्त्वचिन्तकाश्चेति, अर्थित्वेन प्रत्यक्षादिप्रसिद्धमर्थ लौकिकास्तावन्मध्यस्थभावेन व्यवहारकाले व्यपदिशन्ति, नीलमुत्पलं सुगन्धि कोमलमिति, न तु तद्धर्मिगतधर्मान्तरग्रहणनिराकरणयोराद्रियन्ते, अनर्थित्वात् , तावतैव विवक्षितव्यवहारपरिसमाप्तेः। न च तद्वचनाना- 10 मलीकता, शेषधर्मान्तरानिराकरणात् तथात्व एवालीकत्वात् । न च सर्व वचनं सावधारणमिति न्यायेन तेषामपि वचनानामितरधर्मतिरस्कारत्वसिद्धेरलीकत्वमेव स्यादिति वाच्यम् , अवधारणस्य तदसंभवमात्रव्यवच्छेदे व्यापारात् , अनेकपुरुषसम्पूर्ण सदसि द्वारादौ स्थितस्य किमत्र देवदत्तस्समस्ति नास्तीति वा दोलायमानबुद्धेः केनचिदभिधीयते यथा देवदत्तोऽस्तीति । अत्र यद्यप्युपन्यस्ततत्पदद्वयस्य सावधारणता गम्यते, अन्यथा तदुच्चारणवैयर्थ्यप्रसङ्गात् , तथाप्यव- 15 धारणं तदसंभवमानं व्यवच्छिनत्ति न शेषपुरुषान्तरान् । नापि पररूपेण नास्तित्वं, तद्व्यवच्छेदाभिप्रायेण प्रस्तुतवाक्याप्रयोगात् , प्रयोक्तुरभिप्रायादिसापेक्षतयैव शब्दस्य स्वार्थप्रतिपादनसामर्थ्यात् । न च वाच्यवाचकभावसम्बन्धानर्थक्यम् , तदभावे प्रयोक्त्रभिप्रायादिमात्रेण नियोक्तुमशक्यत्वात् । न च समस्तधर्मयुक्तमेव वस्तु प्रतिपादयद्वचनं सत्यमभिदध्महे, येनैकैकधर्मालिङ्गितवस्तुसन्दर्शकानामलीकता स्यात् , किन्तु सम्भवदर्थप्रतिपादकं सत्यमिति, 20 सम्भवन्ति च शेषधर्माप्रतिक्षेपे वचनगोचरापन्ना धर्माः, तस्मात्तत्प्रतिपादकं सत्यमेव । यदा तु दुर्नयमताभिनिविष्टबुद्धिभिस्तीर्थान्तरीयैस्तद्धर्मिगतधर्मान्तरनिराकरणाभिप्रायेणैव सावधारणं तत्प्रयुज्यते यथा नित्यमेव वस्तु अनित्यमेव वेत्यादि, तदा निरालम्बनत्वादलीकतां प्राप्नुवत्केन वार्येत । तत्त्वचिन्तकाः पुनः प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धमनेकान्तात्मकं वस्तु दर्शयन्तो द्वेधा दर्शयेयुः सकलादेशेन विकलादेशेन वा, तत्र विकलादेशो नयाधीनः, सकलादेशः प्रमाणा- 25 धीनः । मध्यस्थभावेन ह्यर्थित्ववशात्कञ्चिद्धर्म प्रतिपिपादयिषवश्शेषधर्मस्वीकारनिराकरण. विमुखया धिया वाचं प्रयुञ्जते तदा तत्त्वचिन्तका अपि लौकिकवत्संमुग्धाकारतयाऽऽचक्षते जीवोऽस्ति कर्ता भोक्ता प्रमातेत्यादि । अतस्सम्पूर्णवस्तुप्रतिपादनाभावाद्विकलादेशोऽभिधी १. तादृशपदार्थाप्रसिद्धया निरालम्बनत्वादिति भावः ॥ २. सर्व वाक्यं सावधारणमिति न्यायादिति ॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५०२: तत्त्वन्यायविमाकरे - [ नवमकिरणे यते । यदा तु प्रमाणव्यापारमविकलं परामृश्य प्रतिपादयितुमभिप्रयन्ति तदाऽङ्गीकृतगुणप्रधानभावा अशेषधर्मसूचककथञ्चित्पर्यायस्याच्छब्दभूषितया सावधारणया वाचा दर्शयन्ति स्यादस्त्येव जीव इत्यादिकया । अतोऽयं स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षा दुपन्यस्तजीवशब्द क्रियाभ्यां प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसम्भवस्य वस्तु5 नस्सन्दर्शकत्वात्सकलादेश उच्यते । तस्मानयप्रमाणाभिज्ञः स्याद्वादी सकलादेशविकलादेशावधिकृत्य यद्यद् ब्रूते तत्तत्सत्यं दुर्नयमतावलम्बिनो यद्यदाचक्षते तत्तदलीकमिति ॥ तदेवं नयस्य लक्षणान्यभिधायाधुना तस्य फलं स्फुटयति नयस्येदृशस्य वस्त्वेकदेशस्याज्ञाननिवृत्तिरनन्तरफलम् । परम्परफलन्तु वस्त्वेकदेशविषयकहानोपादानोपेक्षाबुद्धयः । उभयविधमपि फलं 10 नयात्कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नं विज्ञेयम् । इति नयनिरूपणम् ॥ नयस्येदृशस्येति ! प्रोक्तस्वरूपनयस्येत्यर्थः । नयस्य प्रमाणैकदेशत्वाद्वस्त्वंशप्राहित्वाच्च वस्त्वंशस्य यदज्ञानं तन्निवृत्तिरव्यवहितं फलमिति भावः। पारम्पर्य फलमादर्शयति परम्परेति, यथा प्रमाणस्य सर्ववस्तुविषयकहानोपादानोपेक्षाबुद्धयः परम्परं फलं तथा नयस्यापि वस्त्वं. शविषयकहानोपादानोपेक्षा बुद्धयः परम्परफलत्वेनावधारणीया इति भावः । तदिदं नयस्य 15 द्विविधमपि फलं ततः कथञ्चिद्भिन्नमभिन्नश्च नयफलत्वान्यथानुपपत्तेरित्याहोभयविधमपि फलमिति, साक्षात्परम्परं फलश्चेत्यर्थः । नयविचारविशेषफलन्तु यो निक्षेपनयप्रमाणतोऽर्थ सूक्ष्मेक्षिकया न परिभावयति तस्याविचारितरमणीयतयाऽयुक्तं युक्तं युक्तं वाऽयुक्तं प्रतिभात्यतस्तदपनोदनाय तद्विचारः कर्त्तव्यः, तथा सर्वथाऽनित्यत्वादिप्रतिपादकबौद्धादिपर समयस्य ऋजुसूत्रनयविधिज्ञेन तत्प्रतिपक्षभूतनित्यत्वादिप्रतिपादकद्रव्यास्तिकनयतो निरा20 करणाय, स्वसमये वाऽज्ञानद्वेषादिदोषकलुषितेन परेण दोषबुद्ध्या किमपि जीवादिकं वस्तु परिगृहीतं तदपि नयविधिज्ञेन नयोक्तिभिर्गुणरूपतया स्थापनाय नयविचारः कर्त्तव्यः, तथा दृष्टिवादे सर्वार्थप्ररूपणा सूत्रार्थवर्णना च सर्वनयैः क्रियत इति ॥ पदार्थानां प्रतिविशिष्टज्ञानोत्पत्त्यर्थं शास्त्रे निक्षेपा नामादिनयरूपा उक्तास्तान् सप्तनयेष्वन्तर्भावयितुं संक्षेपेण ते निरूप्यन्ते । निक्षिप्यते शास्त्रमध्ययनोद्देशादिकश्च नामस्था25 पनाद्रव्यादिभेदैर्व्यवस्थाप्यतेऽनेनास्मिन्नस्माद्वेति निक्षेपः, प्रकरणादिवशेनाप्रतिपत्त्यादि. व्यवच्छेदकयथास्थानविनियोगाय शब्दार्थरचनाविशेषो निक्षेपः । मङ्गलादिपदार्थनिक्षेपानाममङ्गलादिविनियोगोपपत्तेश्च निक्षेपाणां फलवत्त्वम् , अप्रस्तुतार्थापाकरणात्प्रस्तुतार्थ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाः ] न्यायप्रकाशसमलते व्याकरणाञ्च निक्षेपः फलवानित्यभियुक्तोक्तेः । स जघन्यतोऽपि चतुर्विधः नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् । अन्यार्थे स्थितोऽपि स्वार्थनिरपेक्षस्समानार्थकशब्दानभिधेयो विवक्षिता. र्थसङ्केतवान् नामनिक्षेपः । यथा सङ्केतितमात्रेणान्यार्थस्थितेनेन्द्रादिशब्देन गोपालदारकोऽभिधीयते, स च गोपालदारको नेन्द्रसमानार्थकशक्रादिपर्यायशब्दाभिधेयोऽतो गोपालदारकादौ इन्द्राद्यभिधानं यत् क्रियते तन्नाम भण्यते । यद्यपि समानार्थक शब्दानभि- 5 घेयत्वं गोपालदारकगतधर्म एव तथापि नाम्न्युपचरितोऽवसेयः ॥ अन्यत्रावर्त्तमानपि यदृच्छयैवमेव गोपालदारकादेर्डित्थोडवित्थ इत्याद्यभिधानं क्रियते तदपि नामेति सूचयितुमन्यार्थे स्थितोऽपीत्यत्रापिशब्दः । तदिदं नाम द्विविधं यावद्रव्यभाव्ययावद्र्व्यभावि चेति, मेरुद्वीपसमुद्रादिनाम यावद्रव्यभावि यावत्तच्छब्दवाच्यद्रव्यावस्थानं तावत्ततत्तन्नाम्नो वृत्तेः । देवदत्तादिनाम तु न यावत्तद्वाच्यद्रव्यावस्थानमवतिष्ठते, अपरापरनामपरावर्त्तस्य लोके 10 दर्शनात्, ततस्तन्नामायावद्रव्यभाव्युच्यते । अपिशब्दोऽन्यस्यापि समुच्चायकस्तेन पुस्तकपत्रचित्रादिलिखितस्य वस्त्वभिधानभूतेन्द्रादिवर्णावलीमात्रस्य सङ्ग्रहः ॥ सद्भूतार्थाध्यव. सायेन सद्भूतार्थशून्यं सद्भूतार्थसमानाकारं निराकारं वाऽल्पकालीनं यावत्कथिकं वा यद्वस्तु स्थाप्यते सा स्थापना । यथा सद्भूतेन्द्रसमानाकारं चित्रलेप्यकाष्ठपाषाणादिष. अक्षादिषु निराकारमिन्द्रस्थापनम् , एतच्चेत्वरकालम् । नन्दीश्वरचैत्यप्रतिमादि तु याव- 15 स्कथिकम् । अत्र केचित्स्थापनामत्यन्तानुपयोगिनी मन्वते तदतीव तुच्छम् । नामादिवत्स्थापनाया अप्युपकारित्वात् । यदि भगवदादीनां स्थापनाऽनुपकारिणी स्यान्ना. मस्मरणमप्यनुपकारि स्यात् , नाम्नः पुद्गलात्मकत्वेनात्मानुपकारित्वात् । न च नाम्नः स्मरणेन नामिस्मरणे तद्गुणसमापत्त्याऽस्ति फलमिति वाच्यम् , भगवत्प्रतिमादर्शनादपि १. निक्षेपणं शास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैर्व्यसनं स्थापनमिति वा निक्षेपः, सोऽयं जघन्यतोऽपि चतुर्विधो दर्शनीयः, यत्र तावन्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञाप्यन्ते तत्र तैस्सर्वैरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र तु सर्वे भेदा न ज्ञायन्ते तत्रापि नामादिचतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात्तस्य, नहि किमपि तादृशं वस्त्वस्ति यन्नामादिचतुष्टयं व्यभिचरतीति भावः ॥ २. ननु गङ्गायां घोष इत्यादौ गङ्गादिपदेन गङ्गातीराद्यभिधीयते, तत्र किं. नामनिक्षेपस्य प्रवृत्तिर्निक्षेपान्तरस्य वा, नाद्यः, जाह्नव्यादिपर्यायशब्दाभिधेयत्वेन नामनिक्षेपाप्रवृत्तः, न द्वितीयः प्रसिद्धनिक्षेपान्तराविषयेऽप्रसिद्धनिक्षेपकल्पने तदियत्ताक्षतिप्रसङ्गादिति चेन्न, यथापरिज्ञानं निक्षेपान्तरकल्पनाया अप्यनुमतत्वेन दोषाभावात् । आभिप्रायिक्यास्स्थापनाया वैज्ञानिकस्य भावनिक्षेपस्य च स्वीकारे दोषाभावात् । गङ्गापदेन तीरे गङ्गाभेदाभिव्यक्तिं विना गङ्गागतशैत्यपावनत्वादिधर्मयोगस्याभिव्यञ्जयितुमशक्यत्वात् । भावनिक्षेपविषयाभेदव्यवहारौपयिकरूपरहितत्वविशेषणेनातिव्याप्तिविरहादिति ॥ ३. स्थापनाबुद्धेः स्थाप्यस्मृतिद्वारा स्थाप्यगतगुणप्रणिधानोद्रेकस्य तजन्यनिर्जरातिशयस्य वा फलत्वम् । स्थापनाविषये उत्कटदोषे प्रतिसन्धीयमाने तु न सा फलवतीति बोध्यम् ॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५०४ : तत्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे सकलातिशायिभगवद्गुणध्यानस्य सुतरां सम्भवात् । सिद्ध एव च बहूनां प्रतिमादर्शनादोध्युदयोऽपि । न च नाम्नो नामिना सह वाच्यवाचकभावसम्बन्धोऽस्ति न स्थापनाया इति विशेष इति वाच्यम् , इतरनिक्षेपानिरूपकेण भावनिक्षेपेण सह नामस्थापनयोस्सम्बन्धाविशेषात् । वाच्यवाचकभावसम्बन्ध एव ग्राह्यो न स्थाप्यस्थापकभाव इत्यत्र विनिगम5 काभावात् , तस्मात्त्वया नामस्थापनाद्वयमेव भगवदध्यात्मोपनायकत्वाविशेषेण वन्यं स्यात् द्वयमेव वा त्याज्यं स्यात् , अन्तरङ्गप्रत्त्यासत्त्यभावस्य तुल्यत्वात् , न चैतदिष्टम् , परेणापि नाम्नोऽङ्गीकारात् । तथा च स्थापना यद्यवन्द्या स्यात्तदा नामाप्यवन्द्यं स्यादिति विपर्ययपर्यवसायकस्तर्कः, भावनिक्षेपो यद्यवन्धस्थापनानिक्षेपप्रतियोगी स्यादवन्द्यनामनिक्षेपप्रति योग्यपि स्यादित्यनिष्टप्रसञ्जकस्तर्को बोध्यः । तथा च निक्षेप्यमाणभावाहतोऽभेदबुद्धर्नामादि10 त्रयमेव कारणमागमप्रामाण्यात्स्वानुभवाच्च । एतेन भावनिक्षेपाध्यात्मोपनायकत्वेन नामादि निक्षेपत्रयस्याहत्प्रतिमास्थापनानिक्षेपस्वरूपत्वेनानादृतवतां भावनिक्षेपं पुरस्कुर्वतां मतं व्युदस्तम् । निक्षेपत्रयानादरे भावोल्लासस्यैष कर्तुमशक्यत्वात् , शास्त्र इव नामादित्रये हृदयस्थिते सति भगवान् पुर इव परिस्फुरति, हृदयमिवानुप्रविशति, तन्मयीभावमिवापद्यते, तेन सर्व कल्याणसिद्धिस्तस्माद्भावोल्लासस्तदधीनो नहि नैसर्गिक एव भावोल्लास इत्यस्ति जैनमत एका15 न्तः, सर्वव्यवहारविच्छेदप्रसङ्गात् । न च भावार्हद्दर्शनं भव्यानां यथा स्वगतफलं प्रत्यव्यभि चारि न तथा निक्षेपत्रयप्रतिपत्तिरिति तदनादर इति वाच्यम् , स्वगतफले स्वव्यतिरिक्तभावनिक्षेपस्याप्यव्यभिचारित्वाभावात् , नहि भावार्हन्तं दृष्ट्वा भव्या अभव्या वा प्रतिबुद्ध्यन्त इति । स्वगतभावोल्लासनिमित्तत्वन्तु समानं निक्षेपचतुष्टयेऽपि । एतेन स्वगताध्यात्मोपनाय कतागुणेन वन्द्यत्वमपि चतुष्टयाविशिष्टमेव । शिरश्चरणसंयोगरूपवन्दनस्य भावभगवतोऽपि 20 शरीर एव सम्भवात् , न त्वरूपे भावभगवति, आकाश इव तदसम्भवात् । भावसम्ब न्धाच्छरीरसम्बद्ध वन्दनं भावस्यैवाऽऽयातीति तु नामादिष्वपि तुल्यमेव । न च महानिशीथे भावाचार्यस्य तीर्थकृत्तुल्यत्वमुक्तमतो निक्षेपत्रयस्याकिश्चित्करत्वमिति भावनिक्षेप पुरस्कुर्वतां कोऽपराध इति वाच्यम् , तद्वचनस्य परमशुद्धभावग्राहिनिश्चयनयविषयत्वात् , यन्मते ह्येकस्यापि गुणस्य त्यागे मिथ्यादृष्टित्वमिष्यते तन्मते निक्षेपान्तरानादरेऽपि 25 नैगमादिनयवृन्देन नामादिनिक्षेपाणां प्रामाण्याभ्युपगमात्क इव व्यामोहो भवतः, सर्वनय सम्मतस्यैव शास्त्रार्थत्वात् , अन्यथा सम्यक्त्वचारित्रैक्यग्राहिणा निश्चयनयेनाप्रमत्तसंयत एव सम्यक्त्वस्वाम्युक्तो न प्रमत्तान्त इति श्रेणिकादीनां बहूनां प्रसिद्धं सम्यक्त्वं न स्वीकरणीय स्यात् । एवञ्च · जो जिणदिढे भावे चउव्विहे सहहाइ सयमेव । सयमेव न णिहत्ति य स निओगरुईत्ति णायव्वो' इत्युत्तराध्ययनवचनाच्चतुर्विधशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभावभेद Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाः म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५०५ : मिन्नत्वेन व्याख्या निक्षेप चतुष्टयस्यापि यथौचित्येनाराध्यत्व मविरुद्धमिति । अनुभूतस्यानुभवि - ष्यमाणस्य वा पर्यायस्य योग्यं यन्निक्षिप्यते स द्रव्यनिक्षेपः । यथाऽनुभूतेन्द्रपर्यायोऽनुभवि - ष्यमाणेन्द्रपर्यायो वेन्द्रः, अनुभूतघृताधारत्वं पर्यायेऽनुभविष्यमाणघृताधारत्व पर्याये वा घृतघटव्यपदेशवत्तत्रेन्द्रशब्दव्यपदेशोपपत्तेः । कचिदप्राधान्येऽपि द्रव्यनिक्षेपः प्रवर्त्तते यथाङ्गारमईको द्रव्याचार्यः, आचार्यगुणरहितत्वादप्रधानाचार्य इत्यर्थः । क्वचिदनुपयोगेऽपि, यथाऽ- 5. नाभोगेनेहपरलोकाद्याशंसा लक्षणेना विधिना च भक्त्यापि क्रियमाणा जिनपूजादिका द्रव्यक्रिया एव, अनुपयुक्तक्रियायास्साक्षान्मोक्षाङ्गत्वाभावात् । भक्त्याऽविधिनापि सा क्रियमाणा पारम्पर्येण मोक्षाङ्गत्वापेक्षया द्रव्यतामश्नुते भक्तिगुणेनाविधिदोषस्य निरनुबन्धीकृतत्वात् ॥ विवक्षितक्रियानुभवयुक्तो भावो यो निक्षिप्यते स भावनिक्षेप:, यथेन्दनक्रियापरिणतो भावेन्द्र इति । ननु भावभिन्नानामादिषु त्रिषु नाम्नो भावार्थशून्यत्वेन स्थापनाया द्रव्यस्य 10 चाविशेषेण वृत्तेर्विरुद्धधर्माध्यासाभावाश्ञ्च न कोऽपि भेद इति चेन्न, रूपान्तरेण विरुद्धधर्माध्यास सम्भवेन भेदोपपत्तेः । स्थापनायां परिदृश्यमानानामाकाराभिप्राय बुद्धिक्रियाफलानां नाम्नि द्रव्ये चाभावात्, तथाहि स्थापनेन्द्रे लोचन सहस्रकुण्डलकिरीटंशचीसन्निधानकरकुलिशधारणसिंहासनाध्यासनादिजनितातिशयो देहसौन्दर्यादिराकारो दृश्यते, स्थापनाकर्तुच सद्भूतेन्द्राभिप्रायो विलोक्यते, द्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रबुद्धिरुपजायते, एनमुप- 15 सेवमानानां तद्भक्तिपरिणतबुद्धीनां नमस्करणादिक्रिया संवीक्ष्यते । प्रायेण पुत्रोत्पत्यादिकं फलनोपलभ्यते, न च तथा नामेन्द्रे द्रव्येन्द्रे वा, तस्मात्ताभ्यां स्थापनाभेदः । द्रव्यमपि मावस्य कारणत्वात्ताभ्यां भिन्नम्, यथाऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यं कदाचिदुपयुक्तकाले भावस्योपयोगलक्षणस्य भवति कारणम्, सोऽपि वोपयोगलक्षणो भावस्तस्यानुपयुक्त वक्तृरूपस्य 1 १. लक्षणे योग्यता चैकभविकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रभेदेन त्रिविधा, अतीतानागतौ च वर्तमानभवभावेन क्वचिदन्तररहितौ ग्राह्यौ, अन्यथाऽतीतानागतानन्तभवेष्वपि द्रव्यपदव्यपदेश्यप्रसङ्गस्स्यात्, वर्तमानभवस्थितो हि पुरस्कृतभवं पश्चात्कृतभवम्वायुष्कर्म सद्द्रव्यतया स्पृशति यथा प्रत्यूषसन्ध्यायामादित्यः पूर्वविदेहं भरतश्च प्रदोषसन्ध्यायान्तु भरतमपरविदेहञ्चावभासयति । तीर्थङ्कर नामकर्मघटितयोग्यतया तु नानाभवन्यवधानेनापि भवति, मरीचेद्रव्यतीर्थ करत्वप्रतिपादनात् । सुदूरव्यवहितानामपि द्रव्यतीर्थकृतां वन्द्यत्वप्रतिपादनस्य नानाभवसम्बन्धघटितयोग्यतां विनाऽनुपपत्तेश्चेति ॥ २. सूत्रबोधितबलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताकतद्गतगुणस्मृति जनकसंस्कारोद्बोधकाभिप्रायाकारान्यतरसम्बन्द्धवत्त्वं तत्स्थापनात्वम् । एवञ्च सादृश्यसम्बन्धस्य न स्थापना निक्षेपनियामकत्वम्, असद्भावस्थापनोच्छेदप्रसङ्गात् । नाभिप्रायसम्बन्धस्यापि नाम्न्यपि तस्य सुवचत्वेनातिप्रसङ्गादिति । अत एव द्रव्यलिङ्गिनि स्थापनाया न भावसाधुबुद्धिः, उत्कटदोषवत्त्वेन प्रतिसन्धीयमानस्य सादृश्याद्गुणवदनुस्मृतेः सूत्रबोधितबलवदनिष्टानुबन्धिनीत्वात् ॥ ૪ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविमाकरे [ नवकिरणे द्रव्यस्य पर्यायो भवति, यथा वा साधुजीवो द्रव्येन्द्रस्सन् भावेन्द्ररूपायाः परिणतेः कारणं भवति न तथा नामस्थापने। नामापि च स्थापनाद्रव्याभ्यां प्रोक्तवैधादेव भियते । यद्यपि पूर्वोदितप्रकारेणैषामभेदस्तथापि निरुक्तप्रकारेण भेदोऽपि सिद्ध एव । नहि दुग्धतक्रादीनां श्वेतत्वादिनाऽभेदेऽपि माधुर्यादिनापि न भेदोऽनन्तधर्माध्यासितत्वाद्वस्तुन 5 इति । ननु नामादिविचारे प्रक्रान्ते भाव एव वस्तु विवक्षितार्थक्रियासाधकत्वादुभय सम्मतवस्तुवत् , नहि भावेन्द्रवद्विवक्षितार्थसाधनसमर्था गोपालदारकाद्या नामेन्द्रादयोऽतः किमत्र भावार्थशून्यैर्नामादिभिरिति चेन्न, नामादीनामपि वस्तुपर्यायत्वेन सामान्यतो भावस्वानतिक्रमात्ततः सिद्धसाधनम् । अविशिष्ट इन्द्रादिवस्तुन्युच्चरिते नामादिकं भेद चतुष्टयमपि प्रतीयत एव, किमनेन नामेन्द्रो विवक्षित आहोस्वित्स्थापनेन्द्र उत द्रव्ये10 न्द्रो भावेन्द्रो वेति । अतस्सामान्येनेन्द्रवस्तुनश्चत्वारोऽप्यमी पर्याया भावविशेषा एव । अथ विशिष्वार्थक्रियासाधकं भावेन्द्रादिकं भावमाश्रित्य वस्तुत्वसाधनेऽपि न काचित्क्षतिः, भावेन्द्रादेर्भावस्य विशिष्टक्रियानिवर्तकत्वे नामेन्द्रादिपर्यायाणामपि तद्रष्टव्यमेव । द्रव्यरूपतया पर्यायाणां परस्परमभेदात् । भावपरिणामनिमित्तभावाद्वा नामस्थापनाद्रव्याणां भावागतयोपयोगः, जिननामजिनस्थापनामुक्तिगतमुनिदेहदर्शनाद्भावोल्लासात् । केनचिदुश्चरितं 1 हि जिननाम श्रुत्वा जिनप्रतिमास्वस्तिकादीनि प्रेक्ष्य परिनिर्वतमुनिदेहं भविष्यद्यतिपर्यायं जनं : वाऽवलोक्य च प्रायशस्सम्यग्दर्शनादिभावपरिणामो दृश्यते । अयन्त्वत्र विशेषो नामादित्रयमनैकान्तिकं समीहितसाधने निश्चयाभावादनात्यन्तिकञ्च कारणमात्यन्तिकप्रकर्षप्राप्ततथाविधविशिष्टफलसाधकत्वाभावात् । भावस्त्वैकान्तिकः, आत्यन्तिककारणश्चातोऽभ्यहित तम इति । अयश्च नामादीनां प्रधानेतरभावो भिन्नवस्तुगतापेक्षया, अभिन्नवस्तुगतानान्तु नामा20 दीनां भावाविनाभूतत्वादेव वस्तुत्वम् । सर्वस्य हि वस्तुनस्स्वाभिधायकं नामरूपम् , यथाऽऽता. नवितानीभूततन्तुसन्तानः पट इति, ऊर्ध्वकुण्डलेष्वायत्तवृत्तग्रीवो घट इत्यादि । स्वाकारः स्थापनारूपः, यथा सर्ववस्तुनः स्वस्वाकारः । अतीतानागतभावकारणं द्रव्यम् , कार्यापन्नश्च स्वं भावरूपम् , यथा मृत्पिण्डादिवस्तुनो जन्यत्वापन्नं घटादिकम् । इत्थं सर्व वस्तु चतूरूपाविनाभूतं दृष्टमेवमेव सम्यग्दर्शनव्यवस्थानाजिनमतस्य सर्वनयसमूहा १. अनेन यद्यद्वस्तु तत्तन्निक्षेपचतुष्टयवदिति व्याप्तिलभ्यते 'जत्थ य जं जाणिज्जा णिरुखेवं णिरुखेवे णिरवसेसं । जत्थवि य ण जाणिज्जा चउक्कयं णिख्खेवे तत्थ ' इत्यनुयोगद्वारसूत्राच । तथापि प्रायिकीयं व्याप्तिरप्रज्ञाप्ये वस्तुनि नाम्नोऽप्रयोगात् , जीवत्वेन द्रव्यत्वेन च भूतभविष्यत्पर्यायभावेन तत्कारणत्वाभावाजीवे द्रव्यनिक्षेपस्यायोगाच्च । उक्तं तत्त्वार्थटीकाकृता 'यद्यकस्मिन्न सम्भवति नैतावता भवत्यव्यापिते' ति । अप्रज्ञाप्यजीवद्रव्यभिन्नं यद्यद्वस्तु तत्तन्निक्षेपचतुष्टयवदिति व्याप्तेर्वा विवक्षणादिति ॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५०७ : निक्षेपाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते त्मकत्वात् । न ह्येकस्मिन्नेव वस्तुन्येककालं विद्यमानानां पर्यायाणां मध्य इदं वस्वपरवस्त्विति वक्तुं शक्यते, द्रव्यरूपतया सर्वेषामपि तेषामेकत्वात् । तथा वस्तुप्रत्ययहेतुत्वान्नाम वस्तुधर्मः, यद्यस्य प्रत्ययहेतुस्तत्तस्य धर्मो यथा घटस्य स्वधर्मा. रूपादयः, यश्च यस्य धर्मो न भवति न तत्तस्य प्रत्ययहेतुर्यथा घटस्य धर्माः पटस्य, भवति च घटाभिधानाद्घटस्य सम्प्रत्ययः । सर्वेषां वस्तूनाश्च नामरूपत्वाव्यभिचारान्नानैकान्तिकत्वम् । यद्ध्यभिधानरहितं 5 तस्त्वेव न भवति, यथाऽभिधानरहितत्वेनावाच्यष्षष्ठभूतलक्षणो भावः । अवस्तु तु कुतस्तत्प्रत्ययहेतुत्वस्य हेतोर्वृत्तिः स्यात्, तत्र तद्वृत्तौ वा तस्यापि वस्तुत्वमेव भवेत्, स्वप्रत्ययजनकत्वाद्धादिवदिति । न च नद्यास्तीरे पञ्च फलानि सन्तीति शब्दश्रवणसमनन्तरं प्रवृत्तस्य कस्यचिद्वस्त्व प्राप्तेरवस्तुधर्मता तस्येति वाच्यम्, प्रत्यक्षादिप्रमाणानामपि तत्प्रसङ्गात्, तेभ्योऽपि प्रवृत्तस्य कदाचिद्वस्त्व प्राप्तेः । नचाबाधितप्रमाणेभ्यः प्रवृत्ता- 10 वस्त्येवार्थप्राप्तिरिति वाच्यम् । सुविवेचितादाप्तशब्दादपि वस्तुप्राप्तेरवश्यम्भावादिति । एवं यदस्ति तत्सर्वमाकारमयमेव, यथा मतिशब्दवस्तुक्रियाफलाभिधानानि । यत्त्वनाकारं तन्नास्त्येव, यथा वन्ध्यापुत्रादिः, मतिर्हि ज्ञेयाकारग्रहण परिणतत्वादाकारवती, अन्यथा नीलस्येदं संवेदनं न पीतस्येति नैयत्यं न स्यात्, नियामकाभावात् । नीलाद्याकारो हि नियामको यदा स नेष्यते तदा नीलग्राहिणी मतिर्न पीतग्राहिणीति कथं व्यवस्थाप्येता- 15 विशेषात् । शब्दोऽपि पौद्गलिकत्वादाकारवानेव । क्रियाऽप्युत्क्षेपणादिरूपा क्रियावतोऽनन्यत्वादाकारवत्येव, फलमपि कुलालादिक्रियासाध्यं घटादिकं मृत्पिंडादिवस्तुपर्यायरूपत्वादाकारवदेव; अभिधानमपि शब्दस्तस्याकारवत्त्वमुक्तमेव । तथा द्रव्यात्मक सर्वमुत्कण फणकुण्डलिताकारसमन्वितसर्पवद्विकाररहितस्याविर्भाव मात्र परिणामस्य द्रव्यस्यैव सर्वत्र सर्वदाऽनुभवात्, न ह्यपूर्वं किञ्चिदुत्पद्यते, छन्नरूपतया विद्यमानस्यैवाविर्भावात् नाप्या- 20 'विर्भूतं सद्विनश्यति, छन्नरूपतया तिरोभावस्यैवाऽऽसादनात् । तथा चाविर्भाव तिरोभावरूपपरिणाम एव कार्योपचाराद्रव्यस्य चोपचरितकारणत्वेनोत्पादव्ययरहितं निर्विकारं १. भिन्नवस्तुनि भिन्नकाले विद्यमानानां पर्यायाणां तथा वक्तुं शक्यत्वादेकस्मिन्नेव वस्तुन्येककालमिति । शक्यत इति, विनिगमनाविरहात्सर्वस्यैव वस्तुत्वं सर्वस्यैवावस्तुत्वं वा भवेदिति भावः । चतूरूपाविनाभूतत्वे च विनिगमकमाह द्रव्यरूपतयेति । ननु वस्तुधर्मत्वमेव तेषां न सम्भवति कुतो द्रव्यरूपतयैकरूपत्वमित्यत्राह – तथेति ॥ २. यदि नाम वस्तुधर्मो न स्यात्तदा घटशब्दे प्रोक्ते श्रोतुः किमयमा हेति संशय एव स्यान्न तु घटप्रतिपत्तिः पटप्रतिपत्तिरूपो वा विपर्ययः स्यात्, न जाने किमप्यनेनोक्तमितिचित्तव्यामोहेन वस्त्वप्रतिपत्तिरूपो वाऽनध्यवसायो भवेत्, कदाचिद्धटस्य कदाचित्पटस्य कदाचिच्च स्तम्भादेवी बोधः स्यादित्यपि बोध्यम् । ३. एवञ्चोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्, गुणपर्यायवद्द्रव्यमित्यनयोर्न पौनरुक्त्यम् । अत एव चात्र न विरोधोऽन्यथा द्रव्यस्योत्पादव्ययात्मकत्वे तद्रहितत्वोक्तिर्विरुद्धयेतेति ॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे द्रव्यमुच्यते । न च द्रव्यस्यैकस्वभावत्वे निर्विकारत्वे चानन्तकालभाविनामनन्ताविर्भाव. तिरोभावानामेकहेलयैव कारणत्वं स्यादिति वाच्यम् , अचिन्त्यस्वभावत्वाव्यस्य, सादिद्रव्येष्वेकस्वभावेष्वपि उत्फणविफणादिपर्यायाणां क्रमप्रवृत्तेरनुभवसिद्धत्वात् । न चोत्फणविफणादिबहुरूपत्वात्पूर्वावस्थापरित्यागेनोत्तरावस्थाधिष्ठानादनित्यता द्रव्यस्य स्यादिति वा३ च्यम्, वेषान्तरापन्ननटवद्बहुरूपस्यापि द्रव्यस्य नित्यत्वात् । यथाहि नायकविदूषककपि राक्षसादिपात्रावसरेषु वेषान्तराण्यापन्नो नटो बहुरूप एवमुत्फणविफणादिभिर्भावैर्द्रव्यमपि. बहुरूपं तथापि नित्यमेव, स्वयमविकारित्वादाकाशवत् । तथा सर्व भावात्मकम् , परापरकार्यक्षणसन्तानात्मकस्यैव तस्यानुभवात् , प्रतिक्षणं भवनमेव ह्यनुभूयते, पूर्वक्षणस्य निवृत्तिरपरस्योत्पत्तिरिति । न चोत्पत्तिनिवृत्ती कारणापेक्षिण्यौ, यच्च कारणं तदेव द्रव्यमिति 10 वाच्यम् , निरपेक्षस्यैवोत्पादात् । अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव, न च मृत्पिण्डादिकारणकाले घटादिकार्यमस्ति, अविद्यमानस्य चापेक्षायां खरविषाणस्यापि तथाभावप्रसङ्गात् । यदि चोत्पत्तिक्षणात्प्रागपि घटादिस्स्यात्तदा किं मृत्पिण्डापेक्षया, स्वत एव तस्य विद्यमानत्वात् । न चोत्पन्नस्सन् घटादिर्घत्पिण्डादिकमपेक्षत इति वाच्यम् । मुण्डितशिरसो दिनशुद्धिपर्या. लोचनवदपेक्षावैयर्थ्यात् । ननूत्पद्यमानतावस्थायामसावपेक्षत इति चेन्न, विचारासहत्वात् , 15 उत्पद्यमानता हि किमनिष्पन्नावयवता, उत निष्पन्नावयवता; आहोस्विदर्धनिष्पन्नावयवता स्यात् । नाद्योऽनुत्पन्नस्यापेक्षाऽयोगाद्गगनारविन्दवत् । न द्वितीयो निष्पन्नस्य परापेक्षावैयर्थ्यात् , नान्त्यो वस्तुनस्सांशताप्रसङ्गात् । सांशतायामप्यनिष्पन्नांशः किं कारणमपेक्षते निष्पन्नो वोभयं वा, नाद्यौ निष्पन्नानिष्पन्नयोरपेक्षाऽसम्भवस्योक्तत्वात् , नान्त्य उभयपक्षो दीरितदोषसङ्क्रमात् । तस्मान्मृत्पिण्डाद्युत्तरकालं भवनमेव घटादेस्तदपेक्षा, कार्यत्वाभिमत20 घटादिप्राग्भावित्वमेव मृत्पिडादेः कारणत्वं, न पुनस्तत्र व्याप्रियमाणत्वात्, व्यापारस्य व्यापारवद्भिन्नत्वे तस्य निर्व्यापारत्वप्रसङ्गात् , अभिन्नत्वे व्यापाराभावप्रसङ्गात् । कारणव्यापारजन्याया अप्युत्पत्तेरुत्पत्तिमतो भेदे उत्पत्तिमतोऽजन्मप्रसङ्गः, तस्मात्पूर्वोत्तरकालभावित्वमात्रेणैवायं कार्यकारणभावो वस्तूनां लोके प्रसिद्धो न पुनः किञ्चित्केनचिन्निर्वर्तित मिति न कस्यचिद्भावस्य सम्बन्ध्यपेक्षा, ततो हेत्वन्तरनिरपेक्ष एव सर्वो भावस्समुत्पद्यत 25 इति स्थितम् , एवं विनाशोऽप्यहेतुक एव । न च मुद्गरादिसव्यपेक्षा एव घटादयो विनाशमा विशन्तो दृश्यन्ते न निर्हेतुका इति वाच्यम् , विनाशहेतोरयोगात्, विनाशकाले मुद्गरादिना किं घटादिरेव क्रियते कपालादयो वा तुच्छरूपाभावो वा, नाद्यः कुलालादिसामग्रीत एव तस्योत्पत्तेः । न द्वितीयो घटादीनां तादवस्थ्यप्रसङ्गात् । न तृतीयो नीरूपस्य तस्य खरशृङ्गस्येव कर्तुमशक्यत्वात् । न च तेन घटादिसम्बद्धनाभावो विहितस्तेन घटादेनिवृत्तिरिति Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेपाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ५०९:. बाच्यम् , सम्बन्धानुपपत्तेः, कि पूर्व घटः पश्चादभावो वैपरीत्यं वा, उत समकालं वा घटाभावी, नाद्यौ द्विनिष्ठसम्बन्धस्य भिन्नकालयोरसम्भवात् । अन्त्ये घटाभावयोर्यदि क्षणमात्रमपि सहावस्थितिरभ्युपगम्यते तासंसारमसौ स्याद्विशेषाभावात् , तथा च सति घटतादवस्थ्यप्रसङ्गः । न च घटोपमर्दैनाभावो जायतेऽतो घटादिनिवृत्तिरिति वाच्यम् , उपमईस्य घटादिरूपत्वे तस्य स्वहेतुत एवोत्पत्तेः, कपालादिरूपत्वे तद्भावेऽपि घटतादवस्थ्यप्रसङ्गात् । 5 तुच्छाभावरूपत्वे च घटाद्यभावेन घटाद्यभावो जायत इत्युक्तं स्यात्तथा च सत्यात्मनैवात्मभवनानुपपत्तिस्स्यात् । तस्मान्मुद्गरादिसहकारिकारणवैसादृश्याद्विसदृशः कपालादिक्षण उत्पद्यते घटादिस्तु क्षणिकत्वेन निर्हेतुकरस्वरसत एव निवर्तत इत्येतावन्मात्रमेव शोभनमतो हेतुव्यापारनिरपेक्षा एव समुत्पन्ना भावाः क्षणिकत्वेन स्वरसत एव विनश्यन्ति न हेतुव्यापारादिति स्थितम् । तस्माजन्मविनाशयोर्न किश्चित्केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाश्च न 10 किश्चित्कस्यचित्कारणं तथा च सति न किञ्चिद्रव्यं, किन्तु पूर्वापरीभूतापरापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्तीति । एते हि स्वतन्त्रा नामादिनया मिथ्यादृष्टयोऽसम्पूर्णार्थग्राहित्वाद्गजगात्रभिन्नदेशसंस्पर्शनेन बहुविधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवत् । अनुभवप्रत्यक्षसिद्धन्तु जैनाभ्युपगमरूपं निःशेषसमूहाभ्युपगमनिर्घत्तमनवद्यं, नामादिनयपरस्परोद्भाविताविद्यमाननिःशेषदोषत्वेन सम्पूर्णार्थग्राहित्वात् , चक्षुष्मतां समन्तात्समस्तहस्तिदर्शनजोल्लापवत् । तथा च यत्र शब्दो- 15 ल्लापबुद्धिपरिणामसद्भावस्तत्सर्वं नामादिचतुष्पर्यायम् , चतुष्पर्यायत्वाभावे शशशृङ्गादौ शब्दादिपरिणामाभावदर्शनात्, तस्माच्छब्दादिपरिणामसद्भावे सर्वत्र चतुष्पर्यायत्वं निश्चितमेवा. तोऽन्यसंवलितनामादिचतुष्टयात्मन्येव वस्तुनि घटादिशब्दस्य तदभिधायकत्वेन पृथुबुनोदराद्याकारस्य नामादिचतुष्टयात्मकतया बुद्धस्तदाकारग्रहणरूपतया परिणतिस्तदात्मन्येव वस्तुनि समुपलब्धा । न चेदं दर्शनं भ्रान्तं बाधकाभावात् । नाप्यदृष्टाशंकयाऽनिष्टकल्प- 20 नाऽतिप्रसङ्गात् । नहि दिनकरास्तमयोदयोपलब्धरात्रिंदिवादिवस्तूनां बाधकसम्भावनयाऽन्यथात्वकल्पना सङ्गतिमङ्गति । तस्मादेकत्वपरिणत्यापन्ननामादिभेदेष्वेव शब्दादिपरिणतिदर्शनात्सर्वं चतुष्पर्यायं वस्त्विति स्थितम् । भिन्नस्वरूपतया च नामादयः स्वाश्रयभूतवस्तुनः कथश्चिद्भेदकारिणः, एकस्मिन्नपि वस्तुनि चतुणी प्रतीयमानत्वात्कथञ्चिदभेदकारिणश्च । यथाहि केनचिदिन्द्र इत्युञ्चरितेऽन्यः प्राह किमनेन नामेन्द्रो र विषक्षितस्थापनेन्द्रो द्रव्येन्द्रो भावेन्द्रो वा, नामेन्द्रोऽपि द्रव्यतः किं गोपालदारको हालिकदारकः क्षत्रियदारको वैश्यदारको ब्राह्मणदारकश्शूद्रदारको वा, क्षेत्रतोऽपि नामेन्द्रः किं भारत ऐरावतो महाविदेहजो वा, कालतोऽपि किमतीतकालसम्भवी बार्त्तमानिको भविष्यन् वा, अतीतकालसम्भव्यपि किमितोऽनन्तसमयभावी, असंख्यात. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ नवमकिरणे तमसमयभावी, संख्याततमसमयभावी वेति । भावतोऽपि किं. कृष्णवर्णो गौरवर्णो दीर्घा मन्थरो वेत्यादि । तदेवमेकोऽपि नामेन्द्रस्याश्रयभूतोऽर्थस्तावद्रव्यक्षेत्रकालभावाधिष्ठितोऽनन्तभेदत्वं प्रतिपद्यते । तथा स्थापनाद्रव्यभावाश्रयस्याप्युक्तानुसारेण प्रत्येकमनन्तभेदस्वमनुसरणीयम् । एते च नामादयो भेदकारिणः । एवमेकस्मिन्नपि. शचीपत्यादाविन्द्र इति 5. नाम्नस्तदाकारस्थापनाया उत्तरावस्थाकारणरूपद्रव्यस्य दिव्यरूपसम्पत्तिकुलिशधारणपारमैश्व योदिसम्पन्नत्वलक्षणभावस्य च प्रतीयमानत्वान्नामादिचतुष्टयस्याभेदकारित्वमपि । अत एते नामादयो धर्मा उत्पादव्ययध्रौव्यत्रिकवत्प्रतिवस्तु परस्पराविनाभाविन इत्यलं चर्चया । अथ नामादिनिक्षेपाणां नयैस्सह योजने शब्दनयैर्भावनिक्षेप एवेष्टः परैरर्थनयैर्नामादयश्वस्वारोऽपीष्टाः । यद्यपि नामादिचतुष्टयस्याप्यभ्युपगमे नैगमादीनां द्रव्यार्थिकत्वक्षतिः 10 द्रव्यार्थिकेन द्रव्यस्यैवाभ्युपगमात् पर्यायस्य प्रतिक्षेपाच । द्रव्यपर्याययोर्गुणप्रधानभावेन तेनाभ्युपगमाद्भावनिक्षेपसह एवेति चेत्तदा शब्दनयानामपि द्रव्यनिक्षेपसहत्वं स्यात्तथापि नैगमभेदानामविशुद्धानां नामाद्यभ्युपगमप्रवणत्वेऽपि विशुद्धनैगमभेदस्य द्रव्यविशेषणतया पर्यायाभ्युपगन्तृत्वान्न भावनिक्षेपानुपपत्तिर्न चैतावता तस्य पर्यायार्थिकत्वप्रसकिरितराविशेषणत्वरूपप्राधान्येन पर्यायानभ्युपगमात् । शब्दादीनां पर्यायार्थिकानान्तु नैगमवद15 विशुद्धयभावान्न नामाद्यभ्युपगन्तृत्वमिति । सङ्ग्रहर्जुसूत्रयोरपि विषयविशेषे शुद्धपर्याय विशिष्टद्रव्यविषयीकरणात् भावनिक्षेपसहत्वम् । ऋजुसूत्रो नामभावनिक्षेपावेवेच्छतीत्यन्ये, तन्न, तेन द्रव्याभ्युपगमस्य सूत्राभिहितत्वात् । पृथक्त्वाभ्युपगमस्यैव निषेधात् । सङ्ग्रहव्यवहारौ स्थापनावर्जास्त्रीनिक्षेपानिच्छत इति केचित्तदपि न, नैगमो हि सङ्ग्रहाभिमतसामा न्यबादी व्यवहाराभिमतविशेषवादी, तदुभयवादी, च, तथा च सङ्ग्रहस्य स्थापनास्वीकनै20 गमसमानत्वेन कथं स्थापनानभ्युपगन्तृत्वम् । न च व्यवहाराभिमतस्वीकनैगम एव स्थापनाभ्युपगन्ता न सामान्यवादी नैगमोऽतस्सङ्ग्रहो न स्थापनामिच्छतीति वाच्यम्, तथा सति व्यवहारस्य स्थापनाभ्युपगन्तृत्वं स्यात् । अथोभयविषयक एव नैगमस्थापनाविषग्रको नातम्सङ्ग्रहव्यवहारयोत्स्थापनाविषयकत्वमिति चेत्सुतरां तत्प्राप्तिरेव, एकतरनिक्षे पयोस्सङ्ग्रहव्यवहारयोः प्रत्येकं स्थापनानभ्युपगमेऽपि समुदितयो गमरूपत्वेन तेन तद25 भ्युपगमे तयोरप्यभ्युपगमस्य दुर्वारत्वात् । स्थापनासामान्य सङ्ग्रह इच्छति, स्थापनाविशे षांस्तु व्यवहार इत्येतदेव युक्तम् , अनिच्छा तु सर्वथा नैव युक्तेति । न च सङ्ग्रहनये स्थापना १. पाश्चात्यनयाद्विशेषोपयोगेन विशेषमनुभवताऽन्त्यनैगमेन शुद्धपर्यायविशिष्टं द्रव्यं विषयीक्रियत इति भावः । न तु स्वविषयविशुद्धिकृतपर्यायविषयताशालिवाद्भावनिक्षेपसहत्वमेषाम् , सङ्घहर्जुसूत्रयोरव्याप्तः. तज्जातीयेऽविशुद्धयभावेनोपसर्जनीकृतपर्यायविषयतया तच्छोधनस्य दुस्साध्यत्वादिति ॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादः ] : न्यायप्रकाशसमलते . नेष्टा, नामनिक्षेपेणैव स्थापनायास्सङ्ग्रहात्, व्यापकं हि नाम व्याप्यभूतां स्थापनां सङ्गहात्येव, इन्द्रचित्रस्येन्द्रनामकपिण्डवन्नामेन्द्रत्वं स्यादविशेषात् पदप्रतिकृतिभ्यां नाम्नो द्वैविध्यादिति वाच्यम् , द्रव्यनिक्षेपस्यापि नाम्ना सङ्ग्रहप्रसक्तः । न च भावप्रवृत्तिप्रयोजकसम्बन्धभेदेन तयोर्भेदः, द्रव्यं हि परिणामितया भावे सम्बद्धं नाम च वाचकत्वेनेति वाच्यम् , गोपालदारके नामेन्द्रे नियामकस्य दुर्वचत्वाद्भावावाचकत्वादिति । ततश्च सिद्ध- 5 मृजुसूत्रान्तास्सर्वे नयाश्चतुरो निक्षेपानभिलषन्तीति सिद्धान्तवादिनः । सहव्यवहारौ नामादित्रयं ऋजुसूत्रादयश्चत्वारो -भावमिच्छन्ति, नैगमस्तु सङ्ग्रहे व्यवहारेऽन्तर्गत इति सिद्धसेनदिवाकरसूरयः ॥ अवसितं नयनिरूपणमित्याहेतीति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य 10 तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्योपशायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां नयनिरूपणं नाम नवमः किरणः ॥ .... अथ दशमः किरणः ॥ ननु व्यवस्थापितं प्रमाणनयतत्त्वं, परन्त्वनयोः प्रयोगः क कार्य इत्याशङ्कायां वस्तुनिर्णयायोपक्रान्ते वाद एवेति विभावयन् वादस्वरूपमाविष्करोति 15 स्वपरपक्षसाधनदूषणविषयं तत्त्वनिर्णयविजयान्यतरप्रयोजनं वचनं. वादः॥ ___ स्वपरेति । वादिनः प्रतिवादिनो वा स्वपक्षसिद्धये यत्साधनं परपक्षविषयकञ्च यषणं तद्विषयकं वचनं वादिप्रतिवादिनोर्वाद उच्यते । तस्य किं प्रयोजनमित्यत्राह तत्वनिर्णयविजयान्यतरप्रयोजनमिति । साधुजनहृदयपयोजविराजमानतत्त्वानां निश्चयस्त द्वारा 20 विजयो वा प्रयोजनं यस्य तादृशमित्यर्थः । वादिनः प्रतिवादिनो वा स्वपक्षस्य सिद्धिर्जयः, तदसिद्धिश्च पराजयः । विज्ञातप्रमाणतदाभासस्वरूपेण वादिना सम्यक्प्रमाणे स्वपक्षसाधनागोपन्यस्तेऽविज्ञाततत्स्वरूपेण वा वादिना प्रमाणाभास उपन्यस्ते प्रतिवाविनाऽनिश्चिततस्वरूपेण दुष्टतया सम्यक्प्रमाणेऽपि तदाभासतायां निश्चिततत्स्वरूपेण वा प्रमाणाभासे तवाभासतायामुद्भावितायां वादिनः प्रतिवादिनो वा प्रमाणतदाभासौ परिहतापरिहृतदोषौ 25 साधनदूषणे भवतः; ते च जयेतरव्यवस्थाया निबन्धने स्यातामिति जयपराजयावपि पादस्य फले । तथा स्वपक्षे साधनमब्रुवन्नपि प्रतिवादी वादिसाधनस्याभासतामुद्भावयन् Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ शमकिरणे वादिनो जयति । आभासतोद्भावनयैव स्वपक्षे साधनस्योक्तत्वात् , पराजयोऽपि सम्यक्साधने परोक्तदूषणानुद्धरणादपि भवतीति भावः ॥ साधनदूषणात्मकं वचनं कीदृक् स्यादित्यत्राह साधनात्मकं दूषणात्मकञ्च वचनं स्वस्वाभिप्रेतप्रमाणरूपमेव स्यात् । 5 तदन्यस्य प्रमाणाभामत्वात्रिर्णायकत्वानुपपत्तेः ॥ साधनात्मकमिति। स्वपक्षविषयसाधनपरपक्षविषयदूषणवचने प्रमाणरूपे एव स्यातामिति भावः । अन्यथात्वे दोषमाह तदन्यस्येति, प्रमाणान्यस्य वचनस्येत्यर्थः । निर्णायकत्वानुपपत्तेरिति, प्रमाणस्यैव वस्तुनिर्णायकत्वादिति भावः । ननु यस्मिन्नेव धर्मिण्येकतरध. मनिरासेन तदन्यधर्मव्यवस्थापनाय वादिनस्साधनवचनं भवति तत्रैव प्रतिवादिनस्तद्विप10 रीतं कथं दूषणवचनं स्याद्व्याघातादित्याशङ्कायामुक्तं स्वस्वाभिप्रेतेति विशेषणं प्रमाणस्य, तथा च स्वस्वाभिप्रायानुसारेण प्ररूपिते साधनदूषणवचने विरोधाभावः । वादी हि पूर्व स्वाभिप्रायेण साधनं वक्ति ततः प्रतिवाद्यपि स्वाभिप्रायेण दूषणमुद्भावयति, न खल्वत्र साधनं दूषणश्चैकत्र धर्मिणि तात्त्विकमस्तीति विवक्षितमपि तु निजाभिप्रायानुसारेण वादिप्रतिवादिनौ प्रयुञ्जाते इति भावः॥ 15 ननु दर्शनान्तरे वादजल्पवितण्डारूपेण कथायात्रैविध्योक्तेः कथं वाद एक एवोक्त .इत्यत्राह जल्पवितण्डयोस्तु न कथान्तरत्वं वादेनैव चरितार्थत्वात् ॥ जल्पेति । दर्शनान्तरे हि प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भसिद्धान्ताविरुद्धः पश्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः, यथोक्तोपपन्नच्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः, स 20 प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डेति तल्लक्षणान्यभिहितानि । तत्र जल्पस्य न कथान्तरत्वं वादेनैव चरितार्थत्वात् । न च जल्पे छलजातिप्रयोगस्यानुज्ञानात् वादे चासदुत्तरत्वेन तस्याभावान्न तेन चरितार्थत्वं जल्पस्येति वाच्यम् । असदुत्तरैः परप्रतिक्षेपस्य कर्तुमशक्यत्वात् , नान्यायेन जयं यशोधनं वा महात्मानस्समीहन्ते । अथ प्रबलप्रतिवादिदर्शनात्तजये धर्मध्वंससम्भावनातः प्रतिभाक्षयेण सम्यगुत्तरस्याप्रतिभासादरादुत्तराण्यप्यवाकि25 रनेकान्तपराजयाद्वरं सन्देह इति धिया न दोषमावहतीति चेन्न, अस्यापवादिकस्य जात्या द्युत्तरप्रयोगस्य कथान्तरसमर्थनसामर्थ्याभावाद्वादतोऽविशेषात् । द्रव्यक्षेत्रकालभावानुसारेण हि यद्यसदुत्तरं कथश्चन प्रयुञ्जीत किमेतावता कथान्तरं प्रसज्येत । न च निग्रहस्थानानामप्यत्र Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलते प्रयोगाद्विशेष इति वाच्यम् । वादेऽपि तदभ्युपगमात् , वादलक्षणे हि सिद्धान्ताविरुद्ध इत्यनेनापसिद्धान्तस्य पश्चावयवोपपन्न इत्यनेन न्यूनाधिकत्वयोर्हेत्वाभासपश्चकस्य निग्रहस्थानाष्टकस्य तदुपलक्षणेनापरनिग्रहस्थानानाञ्च परेण स्वीकारात्। प्रतिपक्षस्थापनाहीनाया वितण्डायास्तु कथात्वमयुक्तमेव । वैतण्डिको हि स्वपक्षमभ्युपगम्यास्थापयन् यत्किश्चिद्वादेन परपक्षमेव दूषयन् कथमवधेयवचनो भवेदिति । तस्माज्जल्पवितण्डानिराक- 5 रणेन वाद एवैककथात्वं लभत इति स्थितम् ।। अङ्गनियमभेदप्रदर्शनार्थ वादे प्रारम्भकविशेषमाह कथारम्भकस्तु जिगीषुस्तत्त्वनिर्णिनीषुश्च ॥ कथारम्भकस्त्विति । क्वचिजिगीषुः प्रथमं वादमारभते, कचिच्च तत्त्वनिर्णिनीषुः । तथा प्रतिवादिन्येकस्मिन्नपि प्रौढे बहवोऽपि सम्भूय विवदेरन् जिगीषवः, पर्यनुयुञ्जीरंश्च 10 तत्त्वनिर्णिनीषवः । स च प्रौढतयैव तान् तावतोऽप्यभ्युपैति प्रत्याख्याति तत्त्वश्चाचष्टे । कचिदेकमपि तत्त्वनिर्णिनीषु बहवोऽपि प्रतिबोधयेयुः । अत एव तत्त्वनिश्चयसंरक्षणं जल्पवितण्डयोरेव फलं, वादस्य तु तत्त्वनिर्णय एव, तत्र जिगीपोरनधिकारादिति प्रत्युक्तम् । वादस्याविजिगीषुविषयत्वासिद्धेः, वादो नाविजिगीषुविषयो निग्रहस्थानवत्त्वात् जल्पवित. ण्डावदित्यनुमानाच्च । न च वादे सतामप्येषां निग्रहबुद्धयाऽनुद्भावनान्न विजिगीषाऽस्ति, 15 किन्तु तत्र निवारणबुद्ध्यैवोद्भावनमिति वाच्यम् जल्पवितण्डयोरपि तथोद्भावननियमप्रसङ्गात् । तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणस्य छलजातिनिग्रहस्थानैर्वस्तुतः कर्तुमशक्यत्वाञ्चेति ॥ . अथ कोऽसौ जिगीषुस्तत्त्वनिर्णिनीषुश्चेत्यत्राह १. वक्त्राऽभिप्रायेण प्रयुक्तस्य शब्दस्याभिप्रायान्तरकल्पनया तन्निषेधनं छलम् । यथा नवकम्बलोऽयमिति नूतनकम्बलाभिप्रायेणोक्ते परः कुतोऽस्य नव कम्बलाः, दृश्यते ह्येक एवेति प्रत्यक्षविरोधमुद्भावयति, एवमेवान्यत्रापि भाव्यम् । वादिना सम्यग्घेतौ हेत्वाभासे वा प्रयुक्ते झटिति तद्दोषतत्त्वाप्रतिभासे हेतुप्रतिबिम्बनप्रायं साधर्म्यतो वैधर्म्यतो वा यदि प्रयुक्त किमपि स जातिः, यथाऽनित्यश्शब्दः कृतकत्वाद्धटवदिति प्रयोगे कृते साधणैव प्रत्यवस्थानं यथा नित्यश्शब्दो निरवयवत्वादाकाशवदिति, न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधर्म्यात्कृतकत्वादनित्यश्शब्दो न पुनराकाशसाधान्निरवयवत्वात्स नित्य इति । तत्रैव वैधर्येण प्रत्यवस्थानं यथा तत्रैव प्रतिहेतुर्वैधर्येण प्रयुज्यते अनित्यं हि सावयवं दृष्टं यथा घटादीति, न चास्ति विशेषहेतुर्घटसाधात् कृतकत्वादनित्यश्शब्दो न पुनस्तद्वैधान्निरवयवत्वान्नित्यमितीति । वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृह्यते तन्निग्रहस्थानं, हेत्वाभासादिबहुविधं, गौरवात्तन्नात्र प्रदर्यते, अन्यत्र विलोकनीयमिति ॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ३१४ : तस्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे अङ्गीकृतधर्मसाधनाय साधनदूषणवचनैर्विजयमिच्छुर्जिगीषुः । स्वीकृतधर्मस्थापनाय साधन दूषणवचनैस्तत्त्व संस्थापनेच्छुस्तत्त्वनिर्णिनीषुः ॥ अङ्गीकृतेति । अङ्गीकृतो यो धर्मः कथचिन्नित्यत्वादिस्तस्य साधनाय व्यवस्थापयितुं तत्साधनं कर्त्तुं परपक्षं दूषयितुञ्च प्रवृत्तः स्वविजयं परपराजयश्चेच्छुर्जिगीषुरित्यर्थः । परपरा5 जयमन्तरेण स्वविजयासम्भवादिति भावः । तत्रनिर्णिनीषुमाह स्वीकृतेति शास्त्रेणेति शेषः, परस्मिन् स्वस्मिन् वा कथञ्चिन्नित्यत्वादिव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणवचननिचयैः कथचि - न्नित्यत्वादिलक्षणतत्त्वप्रतिष्ठाकाम इत्यर्थः ॥ अस्य प्रकारान् प्रकाशयति अयं स्वस्य सन्देहादिसम्भवे स्वात्मनि तत्त्वनिर्णयं यच्छति तदा 10 स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुर्भवति । परानुग्रहार्थं परस्मिन् तत्त्वनिर्णयं यच्छति तदा परात्मनि तत्स्वनिर्णिनीषुर्भवति ॥ अयमिति । तत्त्वनिर्णिनीषुरित्यर्थः, तत्त्वनिर्णयः स्वस्य परस्य च भवति, यदा स्वस्य सन्देहादिसम्भवस्तत्परिहारेच्छा च भवति तदा स स्वात्मनि तत्त्व निर्णयाभिलाषुकत्वात्स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुरित्युच्यते । यस्तु परानुग्रहैकप्रवणः परस्य तत्त्वं ग्राहयितुमिच्छति तदासौ 15 परात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुरित्युच्यते इत्याशयेनाह स्वस्येत्यादिना, स्पष्टमन्यत् । ननु परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुणा परस्मिन् निर्णय उत्पादिते सभ्यैस्तस्य जयघोषस्य क्रियमाणत्वात्तस्य जिगीषुता प्राप्तेति जिगीषोरस्य कथं भेद इति चेन्न तदनिच्छातस्तस्य परोद्घोषमात्रेण तदभिलाषुकत्वासम्भवात् । न च तर्ह्यसौ नाश्नुते जयमिति वाच्यम्, जयिनोऽपि तदभिलाषाभावात् । अनिष्टानामप्यनुकूलप्रतिकूलदैवोपकल्पितानां फलानां जनैरुपभुज्यमानतयाऽवलोकनात् । 20 तथा च परत्र तत्त्वनिर्णिनीषोः परस्य तत्त्वावबोधनं मुख्यं फलमानुषङ्गिकन्तु जय इति ॥ स्वात्मनि तवनिर्णिनीषुश्शिष्य सब्रह्मचारि सुहृदादयः । परस्मिन् तत्त्वनिर्णिनीषुश्च गुर्वादिः । अयं ज्ञानावरणीयकर्मणः क्षयोपशमात्समुत्पन्नमत्यादिज्ञानवान् केवलज्ञानवान् वा भवति । स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुस्तु क्षायोपशमिकज्ञानवानेव, जिगीषुरप्येवमेव ॥ 25 स्वात्मनीति | शिष्यः शिक्षणायोपाध्यायस्योपासको ग्रहणधारणपटुः, सदाऽऽज्ञाविधायी सम्यग्विनयपरिपालकः । सब्रह्मचारी सतीर्थ्यः, सुहृन्मित्रम् । परस्मिन् तत्त्वनिर्णनीमा परस्मिन्निति, गुर्वादिरिति, सम्यग्ज्ञानक्रियायुक्तस्सम्यग्धर्मशास्त्रार्थदेशक : ' धर्मज्ञो Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते' इतिलक्षणलक्षितः, आदिना सब्रह्मचारिसुहृदादीनां ग्रहणम् , यथाक्रमेण वादिप्रतिवादिनावत्रावसेयौ। परत्र तत्त्वनिर्णिनीषोर्भेदमाहायमिति, परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुरित्यर्थः । ज्ञानावरणीयेति, ज्ञानावरणीयकर्मविशेषप्रतियोगिकक्षयोपशमाविर्भूतव्यस्तसमस्तान्यतरमतिश्रुतावधिमनःपर्यवरूपज्ञानवानेकः, ज्ञानावरणकर्मसामान्यप्रतियोगिकक्षयाविर्भूतकेवलज्ञानवानपर इति 5 द्विभेदो भाव्यः। समस्तपदार्थतत्त्वज्ञानशालिनः केवलिनस्वात्मनि तत्त्वनिर्णयेच्छाया जयेच्छाया वा सुतरामसम्भवेन परिशेषात् स्वात्मनि तत्वनिर्णिनीषुर्विजिगीषुश्च क्षायोपशमिकज्ञानवानेव भवतीत्याशयेनाह स्वात्मनीति, एवमेव क्षायोपशमिकज्ञानवानेव, वीतरागत्वेन केवलिनो जयेच्छाया अभावादिति भावः ॥ नन्वेवं सत्यारम्भकः कतिविधस्सम्पन्न इत्यत्राह 10 तथा चारम्भको जिगीषुः, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानवान् केवली चेति चतुर्विधस्सम्पन्नः। एवं प्रत्यारम्भकोऽपि ॥ तथा चेति । क्षायोपशमिकज्ञानवानित्यनेन परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः केवलि भिन्नो ग्राह्यः, स्पष्टमन्यत् । आरम्भकप्रत्यारम्भकयोहस्तिप्रतिहस्तिन्यायेन प्रसिद्धेर्यावन्त आरम्भकास्तावन्त एव प्रत्यारम्भका इत्याशयेनाहैवमिति, आरम्भकवदेवेत्यर्थः, तथा चायमपि चतुर्विध 15 इति भावः॥ वादोऽयं चतुरङ्गोऽपि भवति, तत्रैकस्याप्यङ्गस्य वैधुर्ये कथात्वानुपपत्तेः वादिप्रतिवाद्यपेक्षयाऽङ्गनैयत्यात्, न हि वर्णाश्रमपालनक्षम न्यायान्यायव्यवस्थापकं पक्षप्रतिपक्षरहितत्वेन समदृष्टिं सभापतिं वक्ष्यमाणलक्षणान् प्राश्निकांश्च विना वादिप्रतिवादिनौ स्वाभिमतसाधनदूषणसरणिमाराधयितुं क्षमौ, नापि दुःशिक्षितकुतर्कलेशबालिशजनविप्लावितो 20 गतानुगतिको जनस्सन्मार्ग प्रतिपद्येत, तस्मात्कयोः कयोर्वादे वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपेषु वक्ष्यमाणलक्षणेषु चतुरङ्गेषु कत्यङ्गान्यवश्यमपेक्षितानीत्येतद्दर्शयति___ यदोभावपि जिगीषू, जिगीषुक्षायोपशमिकज्ञानिनौ, जिगीषुकेवलिनौ वा वादिप्रतिवादिनौ भवतस्तदा वादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपाणि चत्वार्यङ्गान्यपेक्षितानि || 25. यदेति । उभावपीति, आरम्भकप्रत्यारम्भकावुभावपीत्यर्थः, जिगीषू इति, वादिप्रतिवादिनौ भवत इत्यप्रेतनेन सम्बद्ध्यते । जिगीषुक्षायोपशमिकेति, क्षायोपशमिकज्ञानी हि Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वम्यायविभाकरे [ दशमकिरणे जिगीषुः, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः, परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुश्च । तत्र जिगीषोः प्रत्यारम्भकतया यदोभावपि जिगीषू इत्यनेनोक्तत्वात् , जिगीषोः स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषोश्च वादिप्रतिवादित्वासम्भवेन च परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुरेवात्र क्षायोपशमिकज्ञानिपदेन विवक्षितः । चत्वार्यङ्गान्यपेक्षितानीति, वादिप्रतिवाद्यभावे हि वाद एवानुत्थानोपहतो जयपराजयौ तु दूर 5 इति ताववश्यं सिद्धावेव, उभावपि यदि जिगीषू स्यातां तदा परस्परं जयपराजयव्यवस्थाविलोपकारिशाठ्यकलहादिसम्भवात्पराङ्गद्वयं विवक्षितमेव, क्षायोपशमिकज्ञानी केवली वा यदा प्रत्यारम्भकस्तदापि जिगीषोर्वादिनश्शाठ्यकलहाद्यपोहनाय लाभादिहेतवे तदपेक्ष्यत एवेति भावः॥ स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीपुरारम्भकः क्षायोपशमिकज्ञानी तृतीयः प्रत्यारम्भकस्तदा 10 तत्राङ्गनियममाह यदा स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुर्वादी प्रतिवादी च परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानवान् तदा समर्थश्चेत्प्रतिवादी वादिप्रतिवादिरूपाङ्गद्वयमेवापेक्षितम् । असमर्थश्चेत्सभ्येन सहाङ्गत्रयमपेक्षितम् , केवली चेत्प्रतिवादी तदाङ्गद्वयमेव ॥ 15 यदेति । समर्थश्चेदिति, जयपराजयनिरपेक्षो वादिनो विवक्षिततत्त्वावबोधनपटुश्चे दित्यर्थः । अङ्गद्वयमेवेति, अनुपयोगेन सभ्यसभापत्यात्मकाङ्गद्वयाऽनावश्यकत्वात् न ह्यनयोस्स्वपरोपकारायैव प्रवृत्तयोइशाठ्यलाभादिकामनासम्भव इति भावः । यदा पुनरुत्ताम्यतापि प्रतिवादिना कथञ्चिदपि तत्त्वनिर्णय कत्तुं न पार्यते तदा तन्निर्णयार्थमुभाभ्यामपि सभ्या नामपेक्षितत्वेन कलहलाभाद्यनभिप्रायेण च सभापतेरनपेक्षणीयत्वात्तदाऽङ्गत्रयमेवापेक्षित20 मित्याहासमर्थश्चेदिति । केवली चेत्प्रतिवादी तदा कथमङ्गनियम इत्यत्राह केवली चेदिति । प्रतिवादिनस्तत्त्वनिर्णयासामर्थ्यासम्भवेन तदर्थं सभ्यानपेक्षणात् , उभयोः कलहाद्यभिप्रायाभावेन च सभापतेरप्यनपेक्षणादिति भावः ॥ ननु वादी क्षायोपशमिकज्ञानी परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुः प्रतिवादी च जिगीषुरन्ये वा प्रतिवादिनस्तदाङ्गनियमनाय प्राह25 यदा क्षायोपशमिकज्ञानवान् परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुर्वादी प्रतिवादी च जिगीषुस्तदा चत्वार्यङ्गानि, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानवान् परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुर्वा प्रतिवादी तदाऽसमर्थत्वेऽङ्गत्रयं समर्थत्वे Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५१७ : चाङ्गद्वयम् । केवली चेत्प्रतिवादी तदाऽङ्गद्वयमपेक्षितम् । यदा तु केवली वादी जिगीषुश्च प्रतिवादी तदा चत्वार्य्यङ्गानि स्वात्मनि तत्त्वनिर्णनीषुः क्षायोपशमिकज्ञानवान् वा प्रतिवादी तदाऽङ्गद्वयमेवापेक्षितम् ॥ देति । चत्वार्यङ्गानीति, कलहादिसम्भवात् लाभेच्छासम्भवाच्च सभासदस्सभापतिश्वापेक्षित इति भावः । यदा प्रतिवादी स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषुः परत्र तत्त्वनिर्णिनीषुर्वा 5 तदाङ्गनियमं सामर्थ्यांसामर्थ्यप्रयुक्तमाह स्वात्मनीति । प्रतिवादी केवली चेत्तदाह केवलीति । ननु परत्र तत्वनिर्णिनीषोर्वादिनः केवलिना कथं वादः परस्य केवलिनस्समग्र पदार्थ परमार्थदर्शित्वादिति चेत्सत्यम्, असीम महिममोहहतत्वाद्वादिन आत्मानं निर्णीततत्त्वमिव मन्यमानस्य केवलिन्यपि तत्त्वनिर्णयोपजननार्थं प्रवृत्तेः परमकृपापीयूष पूरपरिपूरितान्तःकरणत्वेन केवलिनस्तस्यापि बोधकत्वात् । केवलिनो वादित्वे जिगीषोः स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीषों: 10 परत्र तत्वनिर्णिनीषोर्वा प्रतिवादित्वेऽङ्गनियममाह यदा त्विति, केवलिनो वादित्वं परोपकारैकप्रवणत्वाद्विज्ञेयम् । शेषं मूलमुत्तानार्थम् ॥ 1 वादः केषां न भवतीत्यबाह - जिगीषुस्वात्मतत्त्वनिर्णिनीष्वोः स्वात्मतत्वनिर्णिनीषुजिगीष्वोः, स्वात्मतत्त्वनिर्णिनीष्वोरुभयोरुभयोश्च केवलिनोर्वादिप्रतिवादिभावास - 15 म्भवान्न वादः प्रवर्त्तते ॥ " क जिगीष्विति । उभयेोरिति, स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीष्वोः स्वस्मिन् तत्त्वनिर्णयाभावेन परावबोधार्थं प्रवृत्तेरसम्भवान्न वादित्वं प्रतिवादित्वं वाऽश्नुत इति भावः । उभयोश्चेति, परोपकारिणः केवलिनः परत्र तत्त्वनिर्णिनीषायास्सम्भवेऽपि केवलकलावलोकितसकलवस्तुतया कृतकृत्ये केवलिनि विषये न सा समुदेतीति तयोर्न वादिप्रतिवादित्वमिति भावः ॥ 20 अथ प्रत्येकमङ्गानि निरूपयितुमारभते- प्रथमं वादारम्भको वादी, तदनु तद्विरुद्धारम्भकः प्रतिवादी, एतौ स्वपरपक्षस्थापनप्रतिषेधौ प्रमाणतः कुर्वीयाताम् ॥ प्रथममिति । चतुरङ्गेण त्र्यङ्गेण द्व्यङ्गेन वा समलङ्कृतायां परिषदि येनादौ वाद आरभ्यते स वादीत्यर्थः । तदन्विति, यश्च तत्पश्चाद्वादिनो वादमनुवदन्नननुवदन् वा तदुक्तपक्षे 25 तद्विरुद्धं प्रमाणप्रतिपन्नं दूषणं समुद्भावयति स प्रतिवादी प्रत्यारम्भक इत्यर्थः । उभयोः Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ दशमकिरणे कृत्यमाहैताविति, वादिप्रतिवादिनावित्यर्थः, वादिना हि निजपक्षस्थापनं परपक्षनिषेध. नश्च तत्त्वनिर्णयान्यथानुपपत्त्या विधेयं तदपि स्वाभिमतात्प्रमाणादेव, एवं प्रतिवादिनापि कार्यम् । कचिदेकप्रयत्नेनापि स्वपक्षस्थापनपरपक्षप्रतिक्षेपौ भवत इति सूचनाय समासनिर्देशः । यदा हि वादिनिरूपणेऽवसिते प्रतिवादी वदति तदा वाद्यभिधानं प्रमाणोपक्रा5 न्तत्वात् स्वपक्षस्थापनरूपमेव परपक्षप्रतिक्षेपः, यदा तु वादिप्रतिवचने विरुद्धत्वादिकमुद्भावयेत्तदा परपक्षप्रतिक्षेप एव स्वपक्षसिद्धिरित्येवं प्रतिवाद्यभिधानेऽपि भाव्यम् ।। अथ सभ्यलक्षणमाचष्टे उभयसिद्धान्तपरिज्ञाता धारणावान् बहुश्रुतः स्फूर्तिमान् क्षमी मध्यस्थः सभ्यः । वादोऽयं त्रिभिस्सभ्यैरन्यूनो भवेत् ॥ 10. उभयसिद्धान्तपरिज्ञातेति । वादिप्रतिवादिसिद्धान्ततत्त्वकुशल इत्यर्थः, न चैतद्बहु श्रुतत्वे सत्यवश्यम्भावि, तस्यान्यथापि भावात् । सभ्यानामुभयसिद्धान्तपरिज्ञातृत्वाभावे च वादिप्रतिवादिप्रतिपादितसाधनदूषणेषु सिद्धान्तसिद्धत्वादिगुणानामवधारयितुमशक्यता स्यादिति भावः । धारणावानिति, उभयसिद्धान्तवेत्तत्वेऽपि विना धारणां स्वावसरे न गुण दोषावबोधकत्वमतस्साप्यपेक्षितेति भावः । कचिद्वादिप्रतिवादिभ्यां स्वप्रौढिमप्रकटनाया18 त्मसिद्धान्तानभिहितयोरपि व्याकरणादिप्रसिद्धयोः प्रसङ्गतः प्रयुक्तोद्भावितयोर्गुणदोषयोः परिज्ञानार्थ. बहुश्रुत इति । स्फूर्तिमानिति, ताभ्यामेव स्वप्रतिभयोत्प्रेक्षितयोस्तत्तद्गुणदोषयोनिर्णयार्थ स्फूर्तेरपेक्षणमिति भावः । वादिप्रतिवाद्यन्तरस्मिन् सभ्यैर्दोषे निर्णीते कदाचिदन्यतरेण परुषेऽभिहितेऽपि तैर्निष्कोपैर्भवितव्यमन्यथा तत्त्वावगमव्याघातप्रसङ्गस्स्यादत उक्तं क्षमीति । तत्त्ववेदिनोऽपि पक्षपातेन गुणदोषौ विपरीतावपि प्रतिपादयेयुरिति मध्यस्थ 20 इति । वादे प्रायिकं सभ्यसंख्यानियममाह-वादोऽयमिति, उपलक्षणमिदम् , तेन त्रिचतुरादीनामेषामलाभ एकोऽपि सभ्यो भवितुमर्हतीति सूचितम् ॥ विधेयमेषामादर्शयति सभ्यैरेतैर्यथायोगं वादिप्रतिवादिनोः प्रतिनियतवादस्थाननियमनं कथाविशेषनियमनं पूर्वोत्तरवादनिर्देशस्तद्वचनगुणदोषावधारणं तत्त्व25 प्रकाशनेन यथासमयं वादविरामः जयपराजयप्रकाशनश्च कार्यम् ॥ - सभ्यरेतैरिति । निरुक्तलक्षणैस्सभासद्भिरित्यर्थः । यथायोगमिति, वादिप्रतिवादिनौ यदा स्वीकृतप्रतिनियतवादस्थानकतयोपस्थितौ भवतस्तदा तयोः प्रतिनियतवादस्थाननियमन Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायप्रकाशसमलते करणमित्यर्थः । कथाविशेषनियमनमिति, सर्वानुवादेन दूष्यानुवादेन वर्गपरिहारेण वा वक्तव्यमित्यादिरूपेण कथाविशेषस्य नियमनमिति भावः । पूर्वोत्तरेति, अस्य प्राथमिको वादः, अस्योत्तरवाद इत्येवं वादनिर्देश इति भावः । तद्वचनेति, वादिप्रतिवादिभ्यामभिहितयोः साधकबाधकयोर्गुणस्य दोषस्य च निश्चयीकरणमिति भावः । तत्त्वप्रकाशनेनेति, यदैकतरेण प्रतिपादितमपि तत्त्वं मोहादभिनिवेशाद्वाऽन्यतरोऽनङ्गीकुर्वाणः कथायां न विरमति, यदा वा 5 द्वावपि तत्त्वपराङ्मुखमुदीरयन्तौ न विरमतस्तदा तयोस्तत्त्वप्रकाशनेन कथातो बहिष्करणमिति भावः । जयपराजयेति, कथाफलस्य यथायोगं जयपराजयरूपस्योद्घोषणमित्यर्थः ॥ अथ सभापतिस्वरूपं दर्शयति- . ... प्रज्ञाऽऽज्ञासम्पत्तिसमताक्षमालङ्कतः सभापतिः ॥ प्रज्ञेति । सभापतेरप्राज्ञत्वे क्वचिद्वादिना प्रतिवादिना वा जिगीषुणा शाठ्यात्सभ्यान् । प्रत्यपि विप्रतिपत्तौ विधीयमानायां तत्समयोचितकार्यकर्तृत्वं न स्यादिति तेन प्रज्ञालतेन भाव्यमिति भावः । स्वाधिष्ठितवसुन्धरायामस्फुरिताज्ञैश्वर्यो विवादं न व्यपोहितुमुत्सहत इति आज्ञासम्पत्त्यलङ्कत इत्युक्तम् । कृतपक्षपाते च सभापती सभ्या अपि भीतभीता इवैकतः किल कलङ्कः, अन्यतश्चावलम्बितपक्षपातः प्रतापाधिपतिस्सभापतिरितीतस्तटमितो व्याघ्र इति न्यायेन कामपि कष्टां दशामाविशेयुर्न पुनः परमार्थ प्रथयितुं प्रभवेयुरतस्समता- 15 लङ्कत इत्युक्तम् । उत्पन्नक्रोधाः पार्थिवा यदि तत्फलं नोपदर्शयेयुस्तदा निदर्शनमकिश्चिकराणां स्युरिति तेषां कोपे सफले वादोपमर्द एव भवेदिति क्षमालङ्कत इत्युक्तम् ॥ --- अस्य कर्त्तव्यमाह___ अनेन च वादिप्रतिवादिभ्यां सभ्यैश्च प्रतिपादितस्यार्थस्यावधारणं तयोः कलहनिराकरणं तयोश्शपथानुगुणं पराजितस्य शिष्यत्वादिनिय- 20 मनं पारितोषिकादिवितरणश्च कर्त्तव्यम् ॥ . अनेन चेति, सभापतिना चेत्यर्थः । तयोरिति, वादिप्रतिवादिनोरित्यर्थः, सर्वमन्यत्प्र. काशम् । तथा च वादस्य क्वचिजिगीषुविषयत्वेन चतुरङ्गत्वं, नतु वादत्वात् , स्वाभिप्रेतार्थव्यवस्थापनफलत्वाद्वा व्यङ्गयङ्गवादानामपि तथात्वापत्तेः, अपि तु विजिगीषुवाद एव तथा, तत्रैकस्याङ्गस्यापि वैकल्ये प्रस्तुतार्थापरिसमाप्तेः । मर्यादोल्लंघनेन हि प्रवर्त्तमानानामहङ्कारग्रह- 25 प्रस्तानां वादिप्रतिवादिनां प्रभुत्वादिशक्तित्रयसम्पन्नमाध्यस्थ्यादिगुणोपेतसभापतिमन्तरेण १. वादिना प्रतिवादिना वा प्रोक्तं सर्व परस्परमनूद्य दूष्यांशमात्रं वाऽनूद्य कवर्गादीन् परिहृत्य वा वक्तव्यमित्यादिरूपतो वादनियमनमित्यर्थः॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायधिमाकरे [ दशमहिरणे लक्षितलक्षणालङ्कतसभास्तारांश्च विना को नाम नियामकः स्यात् । प्रमाणतदाभासपरिज्ञानसामोपेतवादिप्रतिवादिभ्याश्च विना कथं वादः प्रवर्तेत । न चेदृशस्य वादस्य चतुरङ्गत्वेऽपि वचनविकल्पोपपत्तितो वचनविघातलक्षणेन छलेन, साधर्म्यवैधान्यवस्प्रयुक्तदूष णात्मकजात्या, विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिरूपनिग्रहस्थानेन च जयेतरव्यवस्था, न तु प्रमाणतदाभा5 सयोर्दुष्टतयोद्भावितयोः परिहृतापरिहृतदोषमात्रेण सेति वाच्यम् , छलजात्योरसदुत्तररूपत्वेन स्वपरपक्षयोस्साधनदूषणत्वासम्भवतो जयेतरव्यवस्थानिबन्धनत्वायोगात् । स्वपक्षासिद्धिरूपपराजयस्यैव निग्रहहेतुत्वेन निग्रहत्वात् , विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्त्योश्च निग्रहस्थानत्वस्यैवायोगादिति, अधिकमन्यतोऽवसेयम् । तदेवं प्रमाणप्रयोगभूमिभूतो वादो निरूपित इत्याहेतीति । इत्थं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणविषयफलप्रमातृरूपेण चतुर्विधव्याख्याप्रकारेण तदङ्गतया नयं 10 प्रमाणप्रयोगभूमिश्चाभिधाय निरूपणस्यास्य प्रामाणिकतामाविष्करोति- . पूर्वागमान् पुरस्कृत्य भेदलक्षणतो दिशा। बालसंवित्प्रकाशाय सम्यकसंवित्प्रकाशिता ॥ - पूर्वागमानिति । अस्मदवधिकपूर्वत्वविशिष्टानाचार्यसिद्धसेनजिनभद्रगणिहेमचन्द्रवादिदेवसूरियशोविजयवाचकप्रभृतिसन्हब्धान् ग्रन्थरत्नानित्यर्थः । पुरस्कृत्येति, अक्षिलक्षीकृत्य 15 विचार्य वेत्यर्थः, तेन निजग्रन्थस्य पूर्वागमसंमतार्थप्रकाशकत्वेन प्रामाण्यं प्रकाशितम् , पूर्वाग मपदेन भगवदर्हदागमस्य मङ्गलभूतस्य स्मरणात् सम्यग्ज्ञाननिरूपणान्ते मङ्गलस्य प्रकाशनश्च कृतं भवति । सम्यक्संविदः प्रकाशनं कथं कृतमित्यत्राह भेदलक्षणतो दिशेति, अवान्तरभेदैस्तल्लक्षणैश्च संक्षेपेण पूर्वाचार्यग्रन्थप्रवेशानुकूलतयेत्यर्थः । तेन स्वग्रन्थस्य पूर्वाचार्यप्रकाशि तार्थप्रकाशकत्वेन पिष्टपेषणकल्पत्वमपाकृतम् । ननु परिकर्मितचेतसामनायासेनैव तेभ्यो 20 बोधो भविष्यत्येवेति संक्षेपकरणं निष्फलमेवेत्याशंकायामाह बालसंवित्प्रकाशायेति, भवत्येव निस्संशयं तेभ्यः परिकर्मितमतीनां बोधो गम्भीरार्थग्रहणसामर्थ्यात् , तादृशसामर्थ्य विकलानां तत्प्रवेष्टणां बालानान्तु दुरवगाहत्वात्तत्र प्रवेशस्य दुष्करत्वेन तत्प्रवेशसम्पादनायैव सुगमतया संक्षेपेण सम्यक्संविदो निरूपणमारचितमिति सफलमेवेति न पिष्टपेषणकल्पताऽस्येति भावः । प्रकाशितेति भूतकृदन्तेन सम्यक्सविनिरूपणं पूर्णमिति सूचितमिति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां वादनिरूपणं नाम दशमः किरणः ॥ समाप्तो द्वितीयो भागः Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीयो भागः प्रथमः किरणः तदेवं मोक्षसाधनावयवभूते सम्यश्रद्धासंविदौ निरूपिते तथा निरूपितमेव च संवर- 5 निरूपणे सम्यक्चरणं तदङ्गत्वेन संक्षेपतः, अत्र तु कर्माष्टकशून्यताप्रयोजकानुष्ठानलक्षणचारित्रस्य नित्यानुष्ठानप्राप्तप्रयोजनानुष्ठानतो द्वैविध्यात्तद्रुबोधयिषया एककार्यकारित्वप्रयोज्यत्वावसरसङ्गतिभिान निरूपणानन्तरं चरणं निरूपयति . चरणकरणभेदेन द्विविधं चरणम् ॥ चरणेति । चर्यते मुमुक्षुभिस्सदाऽऽसेव्यत इति चरणम् , चर्यते गम्यते प्राप्यते भवो- 10 दधेः परं कूलमनेनेति चरणं व्रतश्रमणधर्मादिमूलगुणरूपम् । क्रियतेऽनुष्ठीयते सति प्रयोजने यत्तत्करणं पिण्डविशुद्ध्यादिकं तदेतद्विविधरूपेण सम्यक्चरणं द्विभेदमित्यर्थः । नित्यानुष्ठानरूपं चरणं, प्रयोजने प्राप्ते क्रियमाणं करणम् । व्रतादयो हि सर्वकालमेव साधुभिश्चर्यन्तेऽन्यथा स्वरूपहान्यापत्तेः, न तु व्रतशून्यस्तेषां कश्चित्कालोऽस्ति, पिण्डविशुद्ध्यादिकन्तु प्राप्ते प्रयोजन एव विधीयत इति तदुभयात्मकं चारित्रमिति भावः । तत्र चरणगुणस्थितस्य साधो- 15 विशुद्धिरतो ज्ञानाचरणं प्रधान तत्फलत्वात् । ननु चरणं संवरणरूपा क्रिया सा च ज्ञानाभावे हता, तदुक्तं ' हया अन्नाणतो किरिया' इति, तस्माज्ज्ञानक्रिययोस्समुदितयोर्मोक्षसाधनत्वेनोभयोस्समानत्वमेव न चरणस्य प्रधानत्वमिति चेत्सत्यम् , सम्यक्श्रद्धासंविञ्चरणानि मुक्त्युपाया इति यद्यपि त्रयाणामपि समानकारणत्वमुक्तं तथापि गुणप्रधानभावोऽस्ति, ज्ञानं प्रकाशकमेव, चरणन्त्वभिनवकर्मादाननिरोधफलं निर्जराफलच, ततो यद्यपि ज्ञानमपि प्रकाश-20 कतयोपकरोति सदर्शनज्ञानचरणद्विकाधीनो मोक्षस्तथापि प्रकाशकतयैव व्याप्रियते ज्ञानं कर्ममलशोधकतया तु चरणमिति प्रधानगुणभावाचरणं ज्ञानसारः । उक्तश्च ' नाणं पयासयं वी गुत्तिविसुद्धिफलं च जं चरणं । मोक्खो य दुगाहीणो चरणं नाणस्स तो सारो' इति । एवं सम्यश्रद्धाया अपि सारश्चरणं तस्मात्रितयस्यैव समुदितस्य निर्वाणहेतुत्वं तत्रोभयोश्चरणद्वारा धरणस्य च साक्षाद्धेतुत्वमिति विशेषः, ततो न केवलं ज्ञानं मोक्षहेतुः, केवलज्ञानसद्भावेऽपि शैलेश्यवस्थाभाविसर्वसंवररूपचारित्रमन्तरेण निर्वाणाभावादतस्सम्यग्ज्ञानस्यैव मोक्षसाधन Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२२: तस्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे स्वेन शास्त्रार्थपर्याप्तेश्वरणनिरूपणं निष्फलमित्यपास्तम् । ज्ञानमेव नेप्सितार्थप्रापकं, सकियाविरहात् ; स्वदेशप्राप्त्यभिलषितगमनक्रियाशून्यमार्गज्ञानवदित्यनुमानेनासाधकत्वाचेति ॥ अथ चरणभेदमाह-- व्रतश्रमणधर्मसंयमवैयावृत्त्यब्रह्मचर्यगुप्तिज्ञानादितपःक्रोधनिग्रहरूपे5 णाष्टविधमप्यवान्तरभेदतस्सप्ततिविधं चरणम् ॥ तेति । प्राणातिपातविरमणादि व्रतं पञ्चविधम् , श्रमणधर्मस्साधुधर्मः क्षान्त्यादिदशविधः, संयम उपरमस्सप्तदशविधः, वैयावृत्त्यमाचार्याधुद्देशेन यत्कर्त्तव्यं तत्र व्यग्रतारूपं देशविधम् , ब्रह्मचर्यस्य गुप्तयो वसत्यादिका नव, ज्ञानमाभिनिबोधिकादि तदादि येषां तानि ज्ञानादीनि ज्ञानदर्शनचारित्ररूपाणि त्रीणि, तपो द्वादशविधम् , क्रोधनिग्रहः क्रोधादीनां 10 निग्रहश्चतुर्विध इति मूलतोऽष्टविधमपि स्वस्वावान्तरभेदविवक्षया सप्ततिविधं चरणमित्यर्थः । ननु गुप्तीनां व्रतेषु श्रमणधर्मान्तर्गतचारित्रस्य व्रतात्मकत्वेन व्रतेषु संयमतपसोः श्रमणधर्मेषु तपोग्रहणे तत्र वैयावृत्त्यस्य क्षान्त्यादिश्रमणधर्मग्रहणे तत्र क्रोधादिनिग्रहस्य चान्तर्गतत्वेन तेषां पृथग्ग्रहणं व्यर्थमिति चेदुच्यते, गुप्तेर्निरपवादत्वप्रदर्शनाय पूर्वपश्चिमतीर्थकरतीर्थयोर्वि शेषेणैतद्भवति महाव्रतमिति प्रकाशनाय, व्रतचारित्रस्यैकांशत्वेन छेदोपस्थापनीयादिचतुर्विध15 चारित्रग्रहणाय अपूर्वकर्माश्रवसंवरहेतुभूतसंयमस्य पूर्वगृहीतकर्मक्षयहेतुभूततपसश्च ब्राह्मणा आयाता वसिष्ठोऽप्यायात इति न्यायेन मोक्षाङ्गं प्रति प्राधान्यख्यापनाय वैयावृत्त्यस्य स्वपरोपकारकत्वेनानशनादिभ्योऽतिशयतासूचनाय उदयोदीरणावलिकागतत्वेन क्रोधादीनां क्षान्त्यादिभिरुदय एव न कर्त्तव्य इति ख्यापयितुं क्षान्त्यादयो ग्राह्याः क्रोधादयो हेया इति वोपदर्शनाय तदुपन्यास इति न कोऽपि दोष इति भावः ॥ १. इदमित्थमासेवनीयं नत्वित्थमिति ज्ञानादेवावगम्यतेऽतो ज्ञानमेव प्रमाणं न तु बाह्यं कारणं पिण्डविशुद्धयादि चारित्रं वा, तज्ज्ञानाभावे तस्याप्यभावात् , सति च तस्मिन् चरणस्यापि भावात् , ज्ञान एव च तीर्थस्य स्थितत्वात् , दर्शनस्यापि अधिगमजन्यस्य जीवादिपदार्थपरिच्छेदतस्सिद्धर्जातिस्मरणजन्यनैसर्गिकस्याप्यागमरहितत्वाभावात् । यतस्स्वयम्भूरमणमत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदर्शनाजातिमनुस्मृत्य भूतार्थालोकनपराणामेव नैसर्गिकसम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्थालोकनञ्च ज्ञानमिति ज्ञानं प्रधानमिति ज्ञाननयः । क्रियानयस्तु क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात् , ज्ञानन्तु क्रियोपकरणत्वाद्गौणम् , प्रयत्नादिक्रियाविरहेण हि ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थसम्प्राप्तिन दृश्यते, आगमेऽपि च तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानं निष्फलमेवोक्तम् , ज्ञानेनार्थक्रियासमर्थार्थप्रदर्शनेऽपि प्रेक्षापूर्वकारी प्रमाता यदि हानोपादानरूपां प्रवृत्तिं न कुर्यात्तदा तद्विफलमेव, तदर्थत्वात्तस्य । संविदा विषयव्यवस्थानस्याप्यर्थक्रियात्वात्क्रियैव प्रधानम् । म केवलमेवं क्षायोपशमिकी चरणक्रियामङ्गीकृत्यैव प्राधान्यं तस्याः, किन्तु क्षायिकीमप्याश्रित्य, एतदपे. क्षयाऽपि तस्याः प्राधान्यं भगवतोऽपि समुत्पन्न केवलज्ञानस्य यावच्छैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपचारित्रक्रिया न भवति तावन्मुक्त्यनवाप्तः, यद्यत्समनन्तरभावि तत्तत्कारणमिति व्याप्तः क्रियैव कारणमिति ॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रतानि ] न्यायप्रकाश समलङ्कृ : ५२३ : अथ व्रतस्वरूप निर्णयार्थमाह हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरमणरूपाणि पञ्च व्रतानि ॥ हिंसेति । परिग्रहान्ताः कृतद्वन्द्वा हिंसादयः पञ्चम्यन्ताः, 'जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यान ' मिति पञ्चमी । ननु ध्रुवत्वेन प्रसिद्धस्यार्थस्य 'ध्रुवमपायेऽपादान - मित्यपादानत्वेन ग्रामादागच्छतीत्यादाविव प्रकृते हिंसादिपरिणामानां ध्रुवत्वाभावात्कथमपा- 5 दानत्वम्, न च द्रव्यार्थादेशाद्धिसादिपरिणत आत्मैव हिंसादिव्यपदेशभागिति ध्रुवत्वमिति वाच्यम्, तथा सति तस्य नित्यत्वेन विरमणानुपपत्तेरिति चेन्न बुद्ध्या ध्रुवत्वविवक्षयाऽपादानत्वोपपत्तेः, प्रेक्षाकारी हि मनुष्यो य एते हिंसादयः परिणामाः पापहेतवः पापकर्माणि च तत्र प्रवर्त्तमानमिहैव राजानो दण्डयन्ति परत्र च बहुविधं दुःखमवाप्नोतीति बुद्ध्या ध्रुवत्वं सम्प्राप्य निवर्त्तत इति तेषां ध्रुवत्वं काल्पनिकं सम्पादनीयम् | वस्तुतस्तु ध्रुवत्वा- 10 भावेऽप्यपादानसंज्ञाकरणाय जुगुप्सेत्यादिप्रवृत्तेर्न दोषोऽन्यथा ध्रुवत्वं परिकल्प्यापादाने पञ्चमीत्यनेनैव पञ्चमीसिद्धौ तद्वचनवैयर्थ्यापत्तेरिति ध्येयम् । सर्वेषु व्रतेष्वहिंसायाः प्रधानत्वात्तत्प्रतियोगिन्या हिंसाया आदावुपादानम् । यद्यपीदमेवेत्थमेव वा कर्त्तव्यमिति बुद्धिपूर्वक परिणामविशेषेण कृताऽन्यनिवृत्तिर्व्रतशब्दवाच्या, तथा च निवृत्तौ प्रवृत्तौ च व्रतशब्दो वर्त्तते, यथा पयो व्रतयतीत्यादौ व्रतशब्दः, पयोऽभ्यवहार एव प्रवर्त्तते नान्यत्रेति 15 तदर्थः । एवं हिंसादिभ्यो निवृत्तश्शास्त्रचोदितकर्मानुष्ठान एव प्रवर्त्तते, ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षश्रुतेश्शास्त्रविहितनिवृत्तिप्रवृत्ति क्रियासाध्य कर्मक्षपणस्यैव मोक्षावाप्तिसाधनात्तथापि निवृत्तेः प्राधान्यात्साक्षात्सैव दर्शिता । सम्बन्धिशब्दत्वाच्चै कतरोपादानेऽन्यतरस्यापि प्रतीत्या हस्तिपकदर्शनाद्धस्तिबोधवत् तत्पूर्वकप्रवृत्तेरपि गम्यत्वात् । अन्यथा निवृत्तिमात्रस्य निष्फलत्वापत्तिः स्यात् संवराविशेषप्रसङ्गश्च स्यात् । तदिदं व्रतं देशसर्वभेदेन द्विविधमपि संवर- 20 हेतुभूतमगार्यनगारिसाधारणम् । अत्र चानगारिसम्बन्ध्येव ग्राह्यं सम्यक्च रणाङ्गत्वात् । एवमेवान्यत्र तत्तदङ्गतयोक्तानामपि पुनरत्र तन्निर्देशस्तथा बोध्यः || अथ हिंसादिस्वरूपनिरूपणपूर्वकं तद्विरमणरूपं व्रतं वर्णयति प्रमादसहकारेण कायादिव्यापारजन्यद्रव्य भावात्मकप्राणव्यपरोपर्ण हिंसा तस्मात्सम्यग्ज्ञानश्रद्धानपूर्विका निवृत्तिः प्रथमं व्रतम् ॥ प्रमादेति । प्रमाद्यत इति प्रमादोऽयत्नोऽनुपयोगो वा, प्रबलकर्मदावानलप्रभूतकायिकमानसिकानेक दुःखज्वालामालाकलापपरीत निखिललोकावलोकनोऽपि तन्मध्यवर्त्त्यपि ततो 25 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२४ : तत्स्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे बहिर्भवननिदानानन्यसाधारणवीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणिं यजन्यपरिणामविशेषान्न पश्यति पश्यन् वा नाचरति जीवः स प्रमादो मद्यादयः, अज्ञानसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशयोगदुष्प्रणिधानधर्मानादरभेदेनाष्टविधो वा, तत्सहकारेण तन्निमित्तकात्मपरिणामविशेषेण वा कायमनोवाग्व्यापारेण जन्यं यद्रव्यात्मकानां भावात्मकानामुभयात्मकानां वा पश्चेन्द्रियादि5 प्राणानां व्यपरोपणं वियोगीकरणं जीवात्पृथक्करणं सा हिंसेत्यर्थः, तस्माद्यपरोपणान्निवृत्तिविरतिः प्रथमं महाव्रतम् , सा देशतोऽपि स्यादित्यत्राह सम्यगिति, सर्वप्रकारेण भङ्गत्रयेण तादृशी निवृत्तिानश्रद्धानमन्तरेण न सम्भवतीति सूचनाय मिथ्यादृशां तथाविरतेरज्ञानाश्रद्धानपूर्वकत्वसूचनाय च ज्ञानश्रद्धानपूर्विकेत्युक्तम् । यतो हि मिथ्यादृशां सम्यक्त्वाभावेन ज्ञानं श्रद्धा च वस्तुतोऽज्ञानरूपमश्रद्धारूपा चेति भावः । इत्वरकालतादृशविरतिवारणाय 10 सम्यगित्यनेन यावज्जीवमपि विवक्षणीयम् । तथा च हिंसाया ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं भङ्ग त्रयेण यावज्जीवं निवृत्तिरिति भावार्थः । एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाख्यान् प्राणिनः सम्यक् शास्त्रतो ज्ञात्वा तदनुसारेण च श्रद्धयोपरमः सर्वेषु व्रतेषु प्रधानत्वात्सूत्रक्रमप्रामाण्याच्च प्रथमं व्रतमिति यावत् । भङ्गात्रयं च द्रव्यभावतदुभयरूपम् ॥ अथ तत्परिपालनार्थानि ब्रतानीतराण्याह15 अतद्वति तत्प्रकारकमप्रियमपथ्यं वचनमनृतं तस्मात्तथा विरतिढेि तीयं व्रतम् । असत्यं चतुर्विधं भूतनिहवाभूतोद्भावनार्थान्तरगर्हाभेदात्। आद्यमात्मा पुण्यं पापं वा नास्तीत्यादिकम् । आत्मा सर्वगत इति द्वितीयम् । गव्यश्वत्ववचनं तृतीयम् । क्षेत्रं कृष, काणं प्रति काण इत्यादि वचनं तुर्यम् ॥ १. पीडाकर्तृत्वयोगेन शरीरविनाशापेक्षया प्राणिनमेनं मारयामीत्येवंरूपसंक्लेशात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा इयं सनिमित्ता, परिणामवादे हि पीडकस्य पीडनीयस्य परिणामित्वात्पीडाकर्तृत्वमुपपद्यते, एकान्तवादे त्वेकान्ततो निस्यत्वे कस्यापि कार्यस्य करणेऽक्षमत्वात् सर्वथा भेदे च शरीरकृतकर्मणो भवान्तरेऽनुभवानुपपत्तेः । सर्वथाऽनित्यत्वेऽभेदे च परलोकहान्यापत्तेः शरीरनाशे जीवनाशात् हिंसादीनामसम्भव एव । नित्यानित्ये चात्मनि सर्व घटत एव, मूर्त्तामूर्तत्वाभ्याश्च देहात्मनोः कथञ्चिद्भेदः देहस्पर्शने च जीवस्य वेदनोत्पत्तेः कथञ्चिदभेदश्च, न च नाशहेतुना देहाद्भिन्ने नाशे क्रियमाणे देहतादवस्थ्यं, अभिन्ने च क्रियमाणे देह एव कृतः स्यादिति वाच्यम् , अमिन्ननाशकरणे देहस्य नाशितत्वेन कृतत्वाभावात् । न च स्वकृतकर्मवशाद्धिंसाया भावे हिंसकस्याहिंसकत्वं वैयावृत्त्यकरस्येव कर्मनिर्जराहेतुत्वेन गुणत्वमेव स्यात्, कर्माभावे च निर्विशेषात्सर्व हिंसनीयं भवेदिति वाच्यम् कर्मोदयस्य प्राधान्येन हेतुत्वेऽपि हिंसकस्यापि तत्र निमित्तत्वात् । न च तत्र तस्य निमित्तत्वे वैद्यादीनामपि हिंसाप्रसङ्ग इति वाच्यम् , दुष्टाभिसन्धित्वस्यापि निमित्तत्वादिति ॥ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रतानि ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५२५ : अद्वतीति । अचौरं चौर इत्याक्रोशनमलीकमित्यर्थः । अप्रियमपथ्यश्च व्यवहारतसत्यपि अप्रीतिकारित्वादायतावहितकारित्वात्परमार्थतोऽसत्यम्, एवंविधाद्वचनात्सर्वथा ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं विरमणं सत्यव्रतं द्वितीयमित्यर्थः । ननु ऋतशब्दस्सत्यार्थे वर्त्तते सत्सु साधुस्सत्यं प्रत्यवायकारणानिष्पादकत्वात् न ऋतमनृतमसत्यमित्यर्थः, तथा च मिथ्यावचनमसत्यमित्येवोच्यतां लाघवादित्याशङ्कायामाहासत्यमिति, अयं भावो मिध्याशब्दो 5 त्रिपरीतार्थे वर्त्तते तेन भूतनिवाभूतोद्भावनार्थान्तराणामेवासत्यत्वं स्यात् यथा नास्त्यात्मा सर्वंगत आत्मेत्यादिवचनानि यत्तु विद्यमानार्थविषयं व्यवहारतस्सत्यमपि प्राणिपीडाकरं परमार्थतोऽसत्यरूपं गर्हात्मकवचनमसत्यं न भवेदिति न तथोपन्यासः साधुरिति, उदाहरणान्याहाद्यमिति, भूतनिह्नवात्मकमली कमित्यर्थः केचिदात्मनः कर्त्तर्विद्यमानस्यानुभववेद्यस्य शुभाशुभकर्माधारस्यानुभवस्मरणाद्याधारस्य मोहान्नास्तित्वं प्रतिजानते, तेषामभिधानं 10 भूतनिवरूपमिति भावः । अभूतोद्भावनस्य दृष्टान्तमाहात्मेति केचित्स्वरुच्या यथावस्थितमसंख्येयप्रदेशपरिमाणमाश्रयवशात्संकोचविकासधर्माणमरूपरसगन्धस्पर्श मनेक प्रकार क्रियमा त्मानमवधूयाज्ञानबलेन सर्वगतं निष्क्रियमङ्गुष्ठपर्वमादित्यवर्णं प्रमाणशून्यं समुद्भावयन्ति तदेतेषामभिधानमभूतोद्भावनात्मक मनृतमिति भावः । अर्थान्तरं निदर्शयति गवीति, यो गां तुरङ्गमं ब्रवीति तुरङ्गमञ्च गामिति मौढ्याच्छाठयाद्वा वैपरीत्येन तद्वचनमर्थान्तररूपमसत्य- 15 मित्यर्थः । शास्त्रप्रतिषिद्धं कुत्सितं वागनुष्ठानं गर्हा, तामुदाहरति क्षेत्रमिति, हिंसानिवृत्ति - प्रतिबन्धकत्वादस्य वचनस्यासत्यत्वम्, हिंसानिवृत्तिपरिरक्षणार्थं मृषावादादिनिवृत्तेरुपदिष्टत्वात् । काणं प्रति काण इतीति, निष्ठुरवचनमेतत्, तदपि परपीडोत्पादहेतुत्वात्सत्यमपि गर्हितम्, एवं छलदम्भकटुकादिवच सामनृतत्वं भाव्यम् । अत्र च व्रते चतस्रो भाषा द्वाचत्वारिंशद्भेदभिन्नाः सम्यगवबोध्याः, तत्र व्यवहारनयेन सत्या, मृषा, सत्यामृषा, असत्यामृषा 20 चेति चतुर्विधा भाषा । निश्चयनयेन तु सत्यासत्यभेदाद्विधा, आराधकत्व विराधकत्वरूपभेदागुण्यात् । शुद्धनयेन देश सर्वभेदेनाराधाकत्वविराधकत्व भेदाभावात्, एकदा योगद्वयस्य चानभ्युपगमात्, अन्यथा शबलकर्मबन्धप्रसङ्गात् । तत्र सत्यं जनपदसम्मतस्थापनानामरूपप्रतीत्यव्यवहारभावयोगौपम्य सत्यभेदेन दशविधम् । जनपदसत्य नानादेशभाषारूपम्, و १. पुण्यं पापमपि न बुद्धयादिवदात्मगुणः कर्मण आत्मगुणत्वे तस्य पारतंत्र्ये निमित्तं न भवेत् । न हि यो. यस्य गुणः स तस्य पारतंत्र्यनिमित्तं भवति यथा पृथिव्यादे रूपादिः । अभ्युपगम्यते च परैः कर्मात्मगुणमिति । न चात्मनः पारतंत्र्यमसिद्धम् हीनस्थानपरिग्रहवत्त्वात्तत्सिद्धेः । मद्योद्रेकपारतंत्र्येण पुरुषेणाशुचिस्थानपरिग्रहवत् । शरीरं हि हीनस्थानमात्मनो दुःखहेतुत्वात् । न च गुणत्वेऽपि क्रोधादीनां पारतंत्र्यनिमित्तत्वं दृष्टमिति वाच्यम् तेषां पौगलिकत्वेन गुणत्वानुपपत्तेः, भाव क्रोधादीनान्तु न पारतंत्र्यनिमित्तत्वमिति पुण्यपापे द्रव्यरूपे एवेति ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२६ : तत्त्व न्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे एकत्र देशे यदर्थवाचकत्वेन रूढं यद्वचनं तदन्यत्र तदवाचकत्वेन त्यज्यमानमपि व्यवहारप्रवृत्तिहेतुत्वात्सत्यम् । यथा कोङ्कणादिषु पयः पिज्जमित्युच्यत इत्यादि । सम्मतसत्यं सकललोकसम्मत्या सत्यत्वेन प्रसिद्धं यथा पङ्कजन्यत्वस्य कुमुदकुवलयादौ तुल्यत्वेऽपि अरविन्दमेव पङ्कजमित्या बालगोपालप्रसिद्धमितरत्र त्वसम्मतत्वादसत्यम् । स्थापनासत्यं यथाऽक्षरविन्यासा5 दादयं माषकः कार्षापणो वा शतमिदं सहस्रमिदमित्यादि । नामसत्यं यथा कुलं धनं वावर्धयन्नपि कुलवर्द्धनोऽसौ धनवर्द्धनोऽसाविति वचनम् । रूपसत्यं यथा तद्गुणस्य तथारूपधारणं दम्भेन गृहीतयतिवेषस्य यतिरयमिति । प्रतीत्यसत्यं वस्त्वन्तरमाश्रित्य वस्त्वन्तरे दीर्घत्वह्रस्वत्वादिभणनं यथा कनिष्ठाङ्गुल्यपेक्षयाऽनामिका दीर्घा मध्यमापेक्षया ह्रस्वेति, अनन्तपरिणामस्य तादृशतादृश सहकारिसन्निधाने तत्तद्रूपाभिव्यक्ते स्सत्यत्वम् । 10 व्यवहारसत्यं यथा गिरिगततृणादिदाहे गिरिर्दहतीत्यादिकम् । भावसत्यं यथा पञ्चवर्णसम्भवे सत्यपि शुक्ला बलाकेत्यादिकम् । योगसत्यं यथा छत्रयोगाद्दण्डयोगाद्वा कदाचित्तयोरभावेऽपि छत्री दण्डीत्यादिवचनम् । औपम्यसत्यं यथा समुद्रवत्तडाग इति । अथ मृषा अपि दशभेदाः क्रोधमानमायालोभप्रेमद्वेषहास्यभयाख्यायि कोपघातनिस्सृतभेदात्, क्रोधनिस्सृतं वचनं यथा क्रुद्धः पिता पुत्रं प्रत्याह न मे त्वं पुत्र इत्यादि । माननिःसृतं 15 मानात्कश्चिदल्पधनोऽपि वक्ति महाधनोऽहमित्यादि । मायानिस्सृतं यथा मायाकारप्रभृतय आहुर्नष्टो गोलक इत्यादि । लोभनिस्सृतं यथा वणिकप्रभृतयोऽन्यथाक्रीतमेवेत्थं क्रीतमित्यादि । प्रेमनिःसृतं यथाऽतिरिक्तानां वचनं रूयादिकं प्रत्यहं तव दास इत्यादि । द्वेषनिःसृतं यथा गुणवत्यपि निर्गुणोऽयमित्यादि । हास्यनिस्सृतं यथा गृहे स्थितमपि हास्यान्नात्र मे पितेत्यादि । भनिःसृतं यथा तस्करादिभयेऽसमञ्जसाभिधानम् । आख्यायिका निस्सृतं यथा काल्पनिक. 20 कथाद्यभिधानम् | उपघातनिःसृतं यथाऽचौरे चौरस्त्वमित्य सभ्याख्यानम् । सत्यामृषारूपश्च वचनं उत्पन्न विगतमिश्रकजीवाजीव जीवाजीवानन्तप्रत्येकाद्धाद्धाद्धा मिश्रितभेदादशविधम् । उत्पन्नमिश्रितं यथा दशन्यूनाधिकभावेन दारकाणां कचिद्राम उत्पादेऽद्य तत्र दश दारका उत्पन्ना इत्यादि, तथा वस्ते शतं दास्यामीत्युक्त्वा पञ्चाशद्दानम् अत्र लोके मृषात्वादर्शनादनुत्पन्नांशे मृषात्वव्यवहाराच्च । विगतमिश्रितं यथा तथैव मरणकथनम् । मिश्रकमिश्रितं यथा 25 तथैवाद्य नगरे दश दारका जाता दश वृद्धा विगताश्चेति । जीवमिश्रितं यथा जीवन्मृतकृमिराशौ जीवराशिरिति । अजीवमिश्रितं यथा प्रभूतमृतकृमिराशौ स्तोकेषु जीवत्सु अजीवराशिरसाविति । जीवाजीवमिश्रितं यथा तत्रैव राज्ञावेतावन्तो जीवन्त्येतावन्तश्च मृता इति । अनन्तमिश्रितं यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रादिमत्यनन्तकायस्सर्वोऽप्येष इत्यभिधानम् । प्रत्येमिश्रितं यथा प्रत्येकमनन्तेन सह दृष्ट्वा सर्वोऽपि प्रत्येक इति कथनम् । अद्धा मिश्रितं यथा Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत] म्यायप्रकाशलमलङ्कृतै : ५२७ । कश्चिस्वरयन् कञ्चन दिवसेऽपि रात्रिर्जातेति वदति परिणतप्राये वासरे । अद्धाद्धामिश्रितं अद्धाद्धा नाम दिवसस्य रात्रेर्वा एकदेशः, यथा प्रथमपौरुष्यामेव त्वरयमाणः कञ्चन वक्ति शीघ्रो भव मध्याह्नो जात इति । असत्यमृषारूपं वचनन्तु आमंत्रणाज्ञापनयाचनप्रच्छनप्रज्ञापनप्रत्याख्यानेच्छानुलोमानभिगृहीताभिगृहीत संशयकरणव्याकृताव्याकृतभेदाद्वादशविधम् । तत्रमंत्रणं यथा हे देवदत्त इत्यादि वचनमिदं पूर्वोदितसत्यादिभेदत्रयविलक्षणत्वान्न 5 सत्यादिरूपमपि तु व्यवहारप्रवृत्तिहेतुत्वादसत्यामृषारूपम् । आज्ञापनं यथा इदं कुर्वित्यादि, इदमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेरदुष्टविवक्षाप्रसूतत्वादसत्यामृषारूपमेवमन्यत्रापि भाव्यम् । याचनं यथा भिक्षां प्रयच्छेति । प्रच्छनं यथा अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य वाऽर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदुः कथमेतदिति प्रच्छनम् । प्रज्ञापनं यथा हिंसाप्रवृत्तो दुःखितादिर्भवतीति । प्रत्याख्यानं याचमानस्य प्रतिषेधवचनम् । इच्छानुलोमं 10 यथा केनचित्कश्चिदुक्तसाधुसकाशं गच्छाम इति स आह शोभनमिति तादृग्वचनम् । अनभिगृहीतं प्रतिनियतार्थानवधारणानुकूलं वचः, यथा बहुषु कार्येषूपस्थितेषु यत्ते प्रतिभासते तत्कुर्विति वचनम् । अभिगृहीतं यथा तत्रैवैवेदमिदानीं कर्त्तव्यमिति वचनम् । यद्वा यदर्थमभिगृह्य डित्यादिवद्वचनमनभिगृहीतं घटादिवद्वचनमभिगृहीतम् । संशयकरणं यथा नानार्थसाधारणं सैन्धवमानयेत्यादिवचनम् । व्याकृतं प्रकटार्थ यथा देवदत्तस्यैष भ्राते- 15 त्यादिरूपम् । अव्याकृतमप्रकटार्थ बालकादीनां थपनिकेत्यादिवचनम् । एवं चतुर्विधेषु वचनेषु सम्यगवगतेषु प्रथमचतुर्थौ भेदौ वाच्यौ न द्वितीयतृतीयाविति ॥ क्रमप्राप्तं तृतीयं व्रतमाख्याति-— स्वाम्याद्यदत्तवस्तुपरिग्रहणं स्तेयं तस्मात्तथा विरतिस्तृतीयं व्रतम् ॥ स्वाम्यादीति । स्वामिजीवतीर्थकर गुरुभिरदत्तस्य वस्तुन आदानं प्रमत्तयोगात्स्तेय- 20 मुच्यते, सर्वप्रकारेण यावज्जीवं तस्माद्विनिवृत्तिस्तृतीयमस्तेयत्रतमित्यर्थः । तृणोपलकाष्ठादिकं तत्स्वामिनाऽदत्तं यत्स्वामिना दत्तमपि जीवेनादत्तं यथा प्रव्रज्यापरिणामविकलो मातापितृभ्यां पुत्रादिर्गुरुभ्यो दीयते । यत्तीर्थकरैः प्रतिषिद्धमाघाकर्मादि गृह्यते तत्तीर्थकरादत्तम् । आधाकर्मादिदोषरहितं स्वामिना दत्तं गुरूनननुज्ञाप्य गृहीतं तद्गुर्वदत्तमिति तदेतत्सर्वं स्तेयमुच्यते तदेतच्चतुर्विधस्य ग्रहणपरिणामाभावोऽस्तेयमिति भावः । अत्राष्टविधकर्मादानस्य 25 स्तेयत्वव्युदासाय स्वाम्यादीत्युक्तम् । न च शब्दादिविषय रथ्याद्वारादीन्याददानस्य साधोरस्ते यत्वप्रसङ्ग इति वाच्यम् प्रमत्तयोगादिति पूरणात्, यत्नवतो ह्यप्रमत्तस्य ज्ञानिनशास्त्रदृष्ट्या शब्दादीनामादानेऽपि विरतस्यास्तेयत्वप्रसिद्धेः, सामान्यतस्तेषां मुक्तत्वेन दत्तमेव वा सर्व न सौ पिहितादिद्वारादीन् प्रविशतीति भावः ॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५२८ : तवयायविभाकरे 20 अथ चतुर्थं व्रतमभिदधाति ।। [ प्रथमकिरण औदारिकवैक्रियशरीरविलक्षणसंयोगादिजन्यविषयानुभवनमब्रह्म तस्मात्तथा विरतिस्तुर्यं व्रतम् ॥ औदारिकेति । तिर्यङ्मनुष्याणां देवानां यच्छरीरद्वयं तस्य योऽयं विलक्षणसंयोगः 5 स्त्रीपुंसंसर्गविशेषस्सम्पर्क:, आदिना संकल्पनामग्रहणदर्शनादीनां ग्रहणम्, तज्जन्यं यद्विषयानुभवनं तदब्रह्म, पचशरीरेषु औदारिकवैक्रियशरीरावच्छेदेनैवाब्रह्मसम्भवो नान्यशरीरावच्छेदेनेति सूचनाय तदुक्ति: । तदिदमब्रह्म द्रव्यादितो निर्जीवप्रतिमादिद्रव्येषु सजीवपुरुषाङ्गनाशरीरेषूर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकेषु दिवा वा रात्रौ वा क्रोधमानमायालोभेभ्यः सम्भवति, न च चेतनस्याचेतनेन सह विलक्षणसंयोगो न मुख्यतया मैथुन सुखानुभवनहेतुरपि तूपचारत 10 इति वाच्यम्, मुख्यफलाभावप्रसङ्गात्, मुख्य सिंहगत क्रौर्यशौर्या देर्माणवकेऽप्रवृत्तिवत् दृश्यते च तत्र मुख्यं फलमतो नोपचारः । आसन्नदेशस्थित भ्रातृभगिन्योः शरीरसंयोगस्याबह्मानुकूलत्वाभावेन तद्वद्यावृत्त्यै विलक्षणसंयोगेत्युक्तम्, तथा च वेदोदयप्रयुक्त विलक्षण संयोगश्चित्तपरिणाम विशेषद्वारको येन विषयसुखमनुभूयते तदब्रह्मेति फलितार्थः । ईदृशाब्रह्मगोब्रह्मचर्यं रौद्रं प्रमादोऽनन्तसंसारो लोकानादरोऽधर्म " इहपरलोकापायो दर्शनचारित्र15 मोहनीयबन्धोऽनन्तप्राणिघातश्च फलम् । तथा चैवंविधादब्रह्मणो योगकरणत्रयेणाष्टादशधा ज्ञानश्रद्धानपूर्वकं विरमणं चतुर्थ व्रतमित्यर्थः । औदारिकापेक्षया स्वयं न करोति मनसा वाचा कायेन वा, नान्येन कारयति मनसा वाचा कायेन वा कुर्वन्तं वा नानुमोदते मनसा वाचा कायेन वेति नवविधः, एवं वैक्रियापेक्षयापीति ॥ अथ पञ्चमं व्रतमाचष्टे सचित्ताचित्तमिश्रेषु द्रव्येषु मूर्च्छा परिग्रहस्ततश्च तथा विरतिः पञ्चमं व्रतम् ॥ १. मूलतोऽब्रह्म द्विविधमौदारिकं दिव्यच, आद्यं तिर्यङ्मनुष्याणामपरं भवनवास्यादीनाम् । तद्विविधमपि मनोवाक्कायैः करणकारणानुमोदनैश्च यथायथमष्टादशविधं विज्ञेयम् । तच्च देवमनुजासुरैरभिलषणीयं कलङ्कनिमित्तत्वेन दुर्मोचनत्वेन च पङ्कपनकपाशजालसन्निभं स्त्रीपुंनपुंसकवेदचिह्नं तपस्संयमब्रह्मचर्यविघ्नकरं बहुप्रमादमूलं कुपुरुषैरासेव्यं जन्मजर | मरणशोक हेतुकं दर्शनचारित्रमोहस्य निमित्तमवसेयम् । ब्रह्मचर्यन्तु उत्तमतपोनियमज्ञानदर्शनचारित्र सम्यक्त्वविनयमूलं यमनियमगुणप्रधानयुक्तं व्रतेषु प्रभाववत् प्रशस्त गम्भीरस्थिरान्तःकरणं सुखहेतुः सिद्धगतिनिलयं मुनिवरप्रतिपालितं पञ्चमहाव्रतमध्ये सुष्ठु रक्षितं प्रधानमिति ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंचालि म्यांवप्रकाश सचित्तेति । मूर्छा लोभपरिणतिभेदः, ययाऽऽत्मा मोहमुपनीयते विवेकात्प्रच्याव्यते च, प्रच्युतविवेकश्च प्रतिविशिष्टलोभकषायोपरागादयुक्तप्रवृत्तिर्न किञ्चित्कार्यमकार्य वा जानाति, मूछेयं सर्वदोषप्रसूः, ममेदमिति सति संकल्पे हि रक्षणादयस्तस्य संजायन्ते, तत्र च हिंसाऽवश्यंभाविनी तदर्थमनृतं जल्पति चौर्यश्चाचरति कचिन्मैथुने कर्मण्यपि प्रवर्तते तत्प्रभवाश्च नरकादिषु दुःखप्रकारा अनुभवाः, सा च मूर्छा एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रि- 5 येषु चेतनावत्सु, आभ्यन्तरेषु क्रोधमानमायालोभमिथ्यादर्शनहास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सावेदाख्येषु, बाह्येषु वास्तुक्षेत्रधनधान्यशय्यासनयानकुप्यद्विचतुष्पाद्भाण्डाख्येषु द्रव्येषु भवति क्रोधादिषु परिग्रहहेतुत्वात्तत्प्रयुक्तस्वगौरवरक्षणाय तत्रानुरागाद्वा परेषु च ममेद. मित्यज्ञानविषयत्वान्मूर्छा भवति । तथा च सचित्ता योषिदादयोऽचित्ता आहारादयो मिश्रा मूषणविभूषितभामिनीप्रभृतयः, एवम्भूतेषु द्रव्येषु या मूर्छा परिणामविशेषः स परिग्रहः। 10 यद्यपि वातपित्तश्लेष्मणामन्यतमस्य दोषस्य प्रकोपादुपजायमानपरिणामविशेषोऽपि मूछी तथाप्यत्र सचित्तादिविषयिणी परिणतिर्लाह्या । प्रमादसहकारेणेत्यस्यानुवृत्त्या च राग. द्वेषमोहमूला हिंसावन्मूछेति लभ्यते, तेन तद्रहितस्याप्रमत्तकायमनोवाग्व्यापारस्य संयमोपकरणादिषूपधिशय्याहारशरीरेष्वागमानुज्ञातेषु न मूर्च्छति विज्ञेयम् , अन्यथा शरीराहारशिष्यादिपरिग्रहस्यापि मूर्छात्वापत्तेः धर्मोपष्टम्भकत्वस्य त्वत्रापि समानत्वात् । न च 15 यथाऽऽध्यात्मिकेऽपि रागादावात्मपरिणामे सङ्गो मूर्छा तथा ज्ञानदर्शनचारित्रेषु सङ्गो मूर्छा स्यादिति वाच्यम् , आत्मस्वभावानतिवृत्तेः, रागादयो हि कर्मोदयतंत्रा इत्यनात्मस्वभावा न ज्ञानादयस्तथा, आत्मस्वभावभूतत्वात् । ततश्चेति, निरुक्तपरिप्रहादित्यर्थः, तथा विरतिरिति, सर्वप्रकारेण यावज्जीवं ज्ञानश्रद्धानपूर्विका विरतिरित्यर्थः । पञ्चविधस्यास्य महाव्रतस्य दाढर्यापादनार्थमेकैकस्य पश्च पञ्च भावना भवन्ति, भावनाभि- 20 ईनभ्यस्यमानानि महाव्रतान्यनभ्यस्यमानविद्यावन्मलीमसानि भवन्ति । तत्राहिंसायास्तावदीर्यासमितिर्मनस्समितिर्वचनसमितिरादानसमितिरालोकितपानभोजनमिति पञ्च भावनाः । स्वपरबाधापरिहारफलिका पुरतो युगमात्रनिरीक्षणपूर्विका सोपयोगिनो गमनविषयिणी प्रवृत्तिरीर्यासमितिः । गमनक्रियायामसमितो हि प्राणिनः पादेन ताडयेत्, अन्यत्र पातयेत्तथा परितापयेत् । तस्मादीर्यासमितेनावश्यंभवितव्यम् । आतरौद्रध्यानपरि- 25 १. ईर्यायामकृतेऽवधाने प्राणिनोऽभिहन्यात् पादेन ताडयदन्यत्र प्राणिनः पातयेत् पीडामुत्पादयेजोविताद्यपरोपयेत् तथा च कर्मोपादानत्वात्तत्र समितेन भाव्यम्, तथा चेर्यासमित्या भावितान्तरात्मा जीवो मालिन्यमात्ररहितत्वात् विशुद्धयमानपरिणामत्वादक्षतचारित्रत्वान्मृषावादाद्युपरमान्मोक्षसाधको भवतीत्येवं सर्वत्र भावनीयम् ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५३० : तस्वन्यायविभाकरे [ प्रथम किरणे हारेण धर्मध्यान उपयोगो मनस्तमितिः, वधेन बन्धेन परितापेन नृशंसं न किञ्चन कर्म कदापि मनसाऽल्पमपि ध्यातव्यमनेन प्रकारेण मनस्समितियोगेन जीवश्चित्तसत्प्रवृत्तिलक्षणव्यापारेण वासितो भवति । एवं वचसापि प्राणिनां परितापादिकारिणा न भणितव्यम् । किन्तु साधुना तत्र समितेन भवितव्यम् । उपधिप्रभृतीनामागमानुसारेण निरीक्षणप्रमा5 र्जनरूपाऽऽदानसमितिः । संयतेन हि सदा प्रत्युपेक्षण स्फोटनाभ्यां प्रमार्जनया च भाजनवस्त्रादिकं निक्षेप्तव्यं ग्रहीतव्यश्च । सनियम माहारादीनां प्रत्यवेक्षणरूपा पञ्चमी भावना, एभिः पञ्चभिर्भावनाविशेषैरहिंसापालन हेतुभिस्सदा स्वस्थ चित्तेनासे वितमहिंसालक्षणं तमनाश्रवस्योपायः । द्वितीयत्रतस्य क्रोधलोभ भीरुत्व हास्य प्रत्याख्यानानि आलोच्य भाषणमिति पश्च भावनाः । क्रुद्धः क्रोधतरलितमनस्कतया मिथ्या ब्रूयात्, लोभपरवशश्चार्थाकां10 क्षया, भयार्त्तः प्राणादिरक्षणेच्छया, हसन् कौतुकेनेति तत्प्रत्याख्यानानि चतस्रो भावनाः, सम्यग्ज्ञानपूर्वकं पर्यालोच्य मिध्या मा भूदिति मोहतिरस्कारद्वारेण भाषणं पञ्चमी भावना । तृतीयव्रतस्य विचिन्त्यावग्रहयाचना, पुनः पुनरवग्रहयाचना, अवग्रहधारणम्, साधर्मिकेभ्योSवग्रहयाचनमनुज्ञापितपानान्नग्रहणमिति पश्च भावनाः, तत्र देवेन्द्रराजगृहपतिशय्यातरसाधर्मिकभेदभिन्नावग्रहेषु पूर्व: पूर्वो बाध्य उत्तर उत्तरो बाधक इति सञ्चिन्त्य यः स्वामी 15 स एव याच्योऽस्वामियाचने तु दोषबाहुल्यमुक्तमित्येवं विचिन्त्यावग्रहयाचनं प्रथमा । सकृद्दत्तेऽप्यवग्रहे स्वामिना भूयोऽवग्रहयाचनं कार्यं, पूर्वलब्धेऽवग्रहे ग्लानाद्यवस्थासु मूत्रपुरीषोत्सर्ग पात्र करचरणप्रक्षालनस्थानानि दातृचित्तपीडापरिहारार्थं याचनीयानि, एवं याचामाचरन्नादत्तादानजनितेनागसा स्पृश्यत इति द्वितीया । एतावन्मात्रपरिमाणमेव क्षेत्रादि ममोपयोगि नाधिकमित्यवग्रहस्य धारणमिति तृतीया । एवमवग्रहधारणे हि तदभ्यन्तरवर्त्तिनी - 20 मूर्ध्वस्थानादिक्रियामासेवमानो न दातुरुपरोधकारी भवति, याचाकाल एवावग्रहानवधारणे विपरिणतिरपि दातुश्चेतसि स्यात्, आत्मनोऽपि चादत्तपरिभोगजनितः कर्मबन्धः स्यादिति । साधुभ्यः पूर्वपरिगृहीतक्षेत्रेभ्योऽवग्रहों मासादिकालमानेन पञ्चकोशा दिक्षेत्ररूपो याच्यः, तदनुज्ञानाद्धि तत्रासितव्यम्, तदनुज्ञातं हि तत्रोपाश्रयादि समस्तं गृह्णीयात्, अन्यथा स्तेयं स्यादिति चतुर्थी । अनुज्ञया स्वीकृतान्नपानयोरभ्यवहारः, सूत्रोक्तप्रकारेण १. मृषावादविर तिलक्षणस्य संवरस्य गुरुसमीपे प्रयोजनमाकर्ण्य हेयोपादेयवचनैदम्पर्यं सम्यग्ज्ञात्वा विकल्पव्याकुलतारहितो वचनचापल्यं विहायार्थतः कटु शब्दतः परुषं साहसमतर्कितं परस्य जन्तोः पीडाकरं सावद्यं वचनं न भाषेत । किन्तु सद्भूतार्थं पथ्यं परिमिताक्षरं प्रतिपाद्यविवक्षितार्थं प्रतीतिजनकं वचनदोषरहितं उपपत्तिभिरबाधितं पूर्वं बुद्ध्या पर्यालोचितमवसरे भाषेत । एवं सति संगतकरचरणनयनवदनशूरः सत्यार्जवसम्पन्नो भवति ॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणधर्माः ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५३१ : प्राकमेषणीयं कल्पनीयच पानान्नमानीयालोचनापूर्वं गुरवे निवेद्यानुज्ञातो गुरुणा मण्डल्यामेकको वाऽश्नीयात्, उपलक्षणमेतत्, यत्किञ्चिदौघिकौपग्रहिकभेदभिन्नमुपकरणं धर्मसाधनं तत्सर्वं गुरुणाऽनुज्ञातं परिभोक्तव्यम् । एवं विदधानो नातिक्रामत्यस्तेयत्रतमिति पञ्चमी । चतुर्थव्रतस्य स्त्रीषण्डपशुमद्वेश्मासनकुड्यान्तरोज्झनं, सरागस्त्री कथात्यागः प्राप्रतस्मृतिवर्जनम्, atri मनोहराङ्गावलोकन स्वाङ्ग संस्कार परिवर्जनं, प्रणीतात्यशनत्याग इति पञ्च भावनाः । देवमा- 5 नुषभेदास्स चित्ताः स्त्रियः प्रस्तरलेप्यचित्रकर्मादिनिमित्ताश्चाचित्ताः नपुंसकवेदवर्त्तिनो महामोहकर्माणः पुंस्त्रीसेवनाभिरताः षण्डाः पशवः प्रसिद्धास्तत्संसक्तवसत्यासने, अन्तरस्थे कुड्यादौ यत्र मोहनादिशब्दः श्रूयते तादृशं स्थानञ्च ब्रह्मचर्यभङ्गभयेन त्याज्यमिति प्रथमा । मोहोदयानुकूलवनिताकथात्यागः, तादृशी हि रागानुबन्धिनी शृङ्गारानुविद्धा कथा चित्तविक्षेपकारिणीति तामवश्यं त्यजेदिति द्वितीया । प्रव्रज्याग्रहणात्पूर्वं गृहस्थावस्थानुभूतकामिनीनिधु- 10 वनस्मरणस्य कामाग्निसन्दीपकत्वात्तद्वर्जनं तृतीया । अपूर्वविस्मयरसनिर्भरतयाऽऽपातरSatara त्रियमुखनयनस्तनजघनादीनि सप्रेम विलोकयतो निजाङ्गसंस्कारानुष्ठानपरायण. स्य च ब्रह्मचर्यविघातोऽवश्यम्भावीति तत्परित्यजनं चतुर्थी । स्निग्धमधुरादिरसवत्पदार्थान् रूक्षभैक्ष्यानप्याकण्ठमभ्यवहर मे ब्रह्मक्षतिः शरीरपीडा च भवतीति तद्वर्जनं पञ्चमी । पञ्चमव्रतस्य तु पश्चानामिन्द्रियार्थानां मनोज्ञानां स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दानां प्राप्तौ स्नेहवर्जनं, 15 अमनोज्ञानां प्राप्तौ च द्वेषवर्जनमिति पञ्च भावनाः । अभिष्वङ्गी हि मनोज्ञानभिलषेदमनोज्ञांश्च विद्विष्यात् । मध्यस्थस्तु मूर्च्छारहितत्वान्न कचित्प्रीतिमप्रीति वा करोति । एतान्येव महात्रतानि शेषधर्माणां मूलभूतत्वात् मूलगुणाभिधेयानि, चरणसप्ततेरपि मूलगुणभूतानि, रात्रिभो जैन विरमणन्तु व्रतं न तु महाव्रतमिति न तस्यात्र निरूपणमिति ॥ अथ संवरापादनसामर्थ्यनिमित्तमुत्तमगुणप्रकर्षमनगाराणां धर्ममाह १. चतुर्विधस्याशन पान खादिम स्वादिमभेदभिन्नस्याहारस्य सर्वथा परिवर्जनं रात्राविति रात्रिभोजनविरमणम् । स मूलगुणः संयतस्यैव देशविरतस्य तूत्तरगुणस्तपोवदा हारविरमणरूपत्वात्, तप एव वा तत्, चतुर्थीदिवदाहारत्यागरूपत्वात्, समित्या दिवन्महाव्रतसंरक्षणात्मकत्वादुत्तरगुणः । न चैवं व्रतधारिणोऽपि न तन्मूलगुणरूपं भवतीति वाच्यम् । समस्तत्रत संरक्षणेनात्यन्तोपकारित्वेन व्रतिनो मूलगुणत्वात्, अन्यथा हि मूलगुणा महाव्रतादयो न परिपूरिमतामासादयन्ति, रात्रौ भिक्षार्थमचक्षुर्विषये पर्यटनप्रसङ्गेन वह्निप्रदीपादिसंस्पर्शनात्, दुष्टाहार ग्रहणादेश्च प्राणातिपातप्रसङ्गात्, अन्धकारवशेन च पतितहिरण्यादिद्रविणग्रहणादिप्रसङ्गात्, योषित्परिभोगसम्भवाच्च । न चैवं तपःप्रभृतीनामपि मूलगुणत्वप्रसङ्गो मूलगुणोपकारित्वाविशेषादिति वाच्यम् रात्रिभोजनविरमणवदस्यात्यन्तोपकारित्वाभावात् । यथाहि प्राणातिपातादीनां पञ्चानामेकतराभावे शेषाणामभावान्मूलगुणत्वं तथा रात्रिभोजनविरमणस्याप्यभावे सर्वव्रताभावादत्यन्तोपकारित्वान्मूलगुणत्वम् । देशविरतस्य तु उत्तरगुणत्वमारम्भजप्राणातिपातादस्यानिवृत्तत्वादिति भाव्यम् ॥ 20 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [प्रथमकिरण क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाऽऽकिश्चन्यब्रह्मचर्याणि श्रमणधर्माः॥ क्षमेति । अनगारा हि सर्वावस्थां क्षमन्ते सकलमदस्थाननिग्रहिणः शाट्यरहितास्सन्तोषामृततृप्तास्सत्यवादिनस्संयमिनस्तपस्विनो यथावत्यागिनः कनकादिकिञ्चनरहिता. 5 स्सर्वप्रकारं ब्रह्म बिभ्रति न गृहिणोऽत एते क्षमादयः श्रमणधर्माः कथ्यन्ते । यो हि सर्पसमः परकृताश्रयनिवासात् , गिरिसमः परीषहोपसर्गनिष्प्रकम्पत्वात् , ज्वलनसमस्तपस्तेजोमयत्वात् , सागरसमो गम्भीरत्वात् , ज्ञानादिरत्नाकरत्वात्स्वमर्यादानतिक्रमाच्च, नभस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् , तरुगणसमः सुखदुःखयोरदर्शितविकारत्वात् , भ्रमर समोऽनियतवृत्तित्वात् , मृगसमस्संसारभयोद्विग्नत्वात्, धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात् , 10 जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तदूर्ध्वं वृत्तेः, रविसमः धर्मा स्तिकायादिलोकमधिकृत्याविशेषेण प्रकाशकत्वात् पवनसमश्च सर्वत्राप्रतिबद्धत्वात् , एवंभूत. स्य श्रमणस्यैते धर्मा इति भावः ।। तत्र क्षमास्वरूपमाह सति सामर्थ्य सहनशीलता क्षमा । सापराधिन्यप्युपकारबुद्धिरव15 श्यम्भावित्वमतिरपायेषु, क्रोधादिषु दुष्टफलकत्वज्ञानमात्मनिन्दाभवणेऽप्यविकृतमनस्कत्वं क्षमैवात्मधर्म इति बुद्धिश्च क्षमायामुपकारिका ॥ सतीति । प्रतीकारानुष्ठानेऽशक्तस्य दुर्मेधसो या सहिष्णुता तद्वयावर्त्तनाय सति सामर्थ्य इति, सहनशीलतेति, क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां सन्निधाने कालुष्याभावः उदितस्य वा क्रोधस्य नैष्फल्यापादनं विवेकादिभिः सा क्षमेति भावः । तथा च प्रतीकारानुष्ठाने शक्त20 स्यापि सहनपरिणामविशेषः अमेति भावः । तस्या उत्तेजकानाह सापराधिनीति, आत्मनि परप्रयुक्तं क्रोधनिमित्तं पश्यन्नपि निर्विवेकोऽयमेष एवास्य स्वभावो मूढत्वाद्यदेवं प्रयुङ्क्ते प्रत्यक्षं परोक्षं वाऽऽक्रोशवचनादिकम् , यद्वाऽयं मयि क्रोधनिमित्तं नोद्भावयेत्तदा मे कथं सहनशीलताजनितकर्मक्षयात्मको लाभः स्यादतोऽत्रायं महानुपकारीत्येवं विचिन्तयता क्षमितव्यमेवेति भावः । निरपराधिन्युपकारबुद्धिर्न क्षमाया महत्त्वापादिका किन्तु सापरा25 धिनीति सूचयितुमपि शब्दः । अवश्यम्भावित्वेति, अपायेषु परप्रयुक्तप्रत्यक्षपरोक्षाकोशता. डनमारणधर्मादिषु अवश्यम्भावित्वमतिः जन्मान्तरोपात्तस्य कर्मणो विपाकोऽयमवश्यम्भावी, यदाक्रोशताडनादिकं विदधाति केवलं निमित्तमात्रमेव परः कर्मोदयस्य । आख्यातो हि Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणधर्माः ] . न्यायप्रकाशसमलते भगवता द्रव्यक्षेत्रकालभवभावापेक्षः कर्मणामुदयः स्वकृतश्च कर्मानुभवितव्यमवश्यन्तया निकाचितं तपसा वा क्षपणीयमिति भावः । क्रोधादिष्विति, कषायपरिणतो विद्वेषी कर्म बध्नाति परं वा निहन्ति, अतः प्राणातिपातनिवृत्त्यात्मकव्रतभङ्गः स्यात् , तथा गुरूनधिक्षिपेत् । अतो ज्ञानादिनिर्वाणसाधनप्रहाणमवश्यम्भावि, क्रुद्धो वा प्रभ्रष्टस्मृतिभ्रषाऽपि भाषेत विस्मृतप्रव्रज्याप्रतिपत्तिः परेणादत्तमप्याददीत, द्वेषात्परपाखण्डिनीषु ब्रह्मवतभङ्गमप्यासेवेत, तथा 5 प्रद्विष्टस्सहायबुद्धया गृहस्थेष्वविरतेषु मूर्छामपि कुर्यात् उत्तरगुणभङ्गमप्याचरेदिति भावः। आत्मनिन्देति, आत्मनो निजस्य या निन्दा परप्रयुक्ता क्रोधादिनिमित्ता तस्याः श्रवणेऽपि स्वस्मिन् सदसत्त्वचिन्तयाऽविकृतमनस्कत्वं क्रोधादीनामुदयनिरोध उदितस्य वा विवेकबलेन नैष्फल्यापादनं क्षमोपकारीत्यर्थः । क्रोधादिनिमित्तानां स्वस्मिन् भावे हि किमत्रासौ मिथ्या ब्रवीति ? विद्यन्त एव मय्येते दोषा इति क्षमितव्यम्, अभावे 10 च न सन्त्येव मयि दोषा अज्ञात्वैवैतान् दोषानयमुपक्षिपति, एवश्वात्मानं निरपराधिनमवेत्य सुतरां क्षमितव्यमिति भावः । क्षमैवेति, आत्मनः क्षमैव मूलोत्तरगुणप्रवर्धकोsसाधारणो धर्म इति बुद्ध्या प्राप्तेऽपि क्रोधादिनिमित्ते क्षमितव्यमिति भावः। ईदृशीनां भावनानां सत्त्वेऽवश्यम्भाविकी क्षमेत्याह क्षमायामुपकारिकेति, उपकारेण क्षान्तिरपकारेण क्षान्तिर्विपाकक्षान्तिर्वचनात्क्षान्तिर्धर्मात्क्षान्तिरिति पञ्चधा क्षान्तिर्भाव्या । अथ मार्दवं स्वरूपयति-- गर्वपराङ्मुखस्य श्रेष्ठेष्वभ्युत्थानादिभिर्विनयाचरणं मार्दवम् । जातिरूपैश्वर्यकुलतप:श्रुतलाभवीर्येष्वहम्भावो मार्दवविरोधी अतस्ततो निवर्तेत ॥ गर्वेति । चित्तपरिणामविशेषो गर्वस्तस्मात्पराङ्मुखस्य तद्विधुरस्य श्रेष्ठेष्वाचार्यादिषु 20 यथायोग्यमभ्युत्थानासनादिभिर्विनयाचरणं नीचैर्वर्त्तनं मार्दवं मदनिग्रह इत्यर्थः । मदो हि जात्यादिप्रयुक्तोऽहम्भात्रो यद्विजम्भणादेते जात्यादिमदाः प्रादुर्भवन्ति यस्य निग्रह उदयनिरोध उदितस्य वा निष्फलत्वापादनम् , तद्धाते चावश्यम्भावी मदविनाश इति भावः । मार्दवे सति हि जीवोऽनहङ्कारित्वं प्राप्नोति तेन सकलभव्यजनमनस्सन्तोषहेतुत्वात्कोमलो द्रव्यतो भावतश्च सरलो भवति तादृशस्सन्नष्टौ मदस्थानानि क्षपयतीति, तत्र मार्दवविरोधभूतान्यष्टौ 25 मदस्थानान्याह जातीति, पितुरन्वयो जातिस्ततो विख्याततमवंशतया गर्वमुद्वहति जन्तुः, विशिष्टजात्युद्भवोऽहमिति । विदितकर्मपरिणामस्तु जातिमदं स्वकृतकर्मफलभाक्त्वाजीव उच्चावचनानाजातीः प्राप्नोतीत्यश्रेयस्कारतया निरुणद्धि । लावण्ययुक्तःकायावयवानां विशि 15 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५३४ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे निवेशो रूपम्, कश्चित्तेनापि माद्यति, कारणादिपर्यालोचनया च तेनापि मदो न कार्यः । ऐश्वर्यं धनधान्यादिकम् तेनापि कर्मानुभावादप्राप्तेन प्राप्तेन वा संरक्ष्यमाणेन क्लेशकारिणाकाण्डेभङ्गुरेणाऽऽयतावायासबहुलेन को मद इत्येवं प्रत्याचक्षीत । मातुरन्वयः कुलम्, तेनापि जातिमदवन्न कार्यः । तपो बाह्यान्तरभेदभिन्नम्, तेन चाहमेव तपस्वीति मन्यमानः परान् 5 परिभवति, तस्माच्चाशुभं कर्म बन्धमेति यदनेकभवपरम्परासु परिनिष्ठास्यतीति सापायमवगम्य तन्मदं प्रत्याचक्षीत । श्रुतमाप्तप्रणीत आगमः, तद्विज्ञानेनाहमेवैको विज्ञो नापर इति माद्यति तस्माच्चान्यं बालिशमेव मन्यते तच्च निजिघृक्षुरेवं विचिन्तयेत् क्षयोपशमो हि प्रकर्षाप्रकर्षरूपो मत्तोऽन्येऽपि बहुश्रुताः सन्त्येव, अहं कदाचिदन्येभ्योऽल्पश्रुतः आगमानामतिगहनार्थत्वात्, अधिगतश्रुतोऽपि दुरधिगततदर्थः स्यामिति श्रुतमदत्यागः श्रेयान् । 10 लाभः प्राप्तिः, विज्ञानतपोऽभिजनशौर्याद्याधिकान्नृपतिसन्मित्रभृत्यस्वजनेभ्यो विशिष्टफलं सत्कार सन्मानादिकमहमेव लभेयं नापरः प्रयत्नवानपि इति स्वलाभेन माद्यन्ति सकलजनवल्लभतां प्राप्तोऽहमयमपरो न कस्मैचिद्रोचते वचनमप्यस्य नाद्रियन्तेइति सर्वोऽप्ययं लाभमदो निग्रहीतव्य एव लाभान्तरायकर्मोदयादलाभस्तत्क्षयोपशमाच्च सत्कारादिलाभः, संसारे परिभ्रमतो जीवस्य कादाचित्को न शाश्वतः कर्मतन्त्रत्वात्संसारानुबन्ध्येवेति लाभ - 15 मदत्यागः श्रेयस्करः । वीर्यं पराक्रमः, तन्मदोऽपि विचारोंत्त्याज्यः, वीर्यान्तरायक्षयोपशमाद्वीर्यस्य प्रादुर्भावः, संसारानुबन्धिनस्तस्य कषायरूपत्वेनाशाश्वतत्वान्न तन्मदः कार्यः, बलिनोsपि हि पुरुषा नैर्बल्यमुपयन्तो दृश्यन्ते निर्बलाश्च बलवन्तस्तथा व्याधिजराप्रभृतिपूद्भूतबलेषु चक्रवर्त्तिह रिसीरिणोऽपि सीदन्ति ससुरासुराः किमुतान्ये जना इति वीर्य - मदाद्वद्युपरमः श्रेयानिति । अहम्भाव इति मद इत्यर्थः । मार्दवविरोधीति, मदस्थानैरे20 भिरष्टभिर्मत्तः परात्मनिन्दाप्रशंसाभिरतस्तीत्रत राहङ्कारोपहतमना इहामुत्राशुभफलं कर्मोपचिनोति, उपदिश्यमानमपि च श्रेयो न प्रतिपद्यते तस्मादेते श्रमणधर्मस्य मार्दवस्य विघातका इति भाव: । अत इति, यत एते मार्दवविरोधिनोऽत एवेत्यर्थः, ततो निवर्त्ततेति, एषां मदस्थानानां निग्रहो विधेय इत्यर्थः ॥ • मायाप्रतिपक्षिभूतमार्जवमाह - " १. वीर्यं द्विविधं औदयिकभावनिष्पन्नस्य कर्म, औदयिकोऽपि भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीर्यम् वीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्य, चारित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमजनितञ्च पण्डितवीर्यमिति । आभ्यां नानाविधक्रियासु प्रवर्त्तमानमुत्साहबलसम्पन्न पुरुषं दृष्ट्वा वीर्यवानयमिति व्यपदिश्यते तथा तदावारककर्मणः क्षयादनतबलयुक्तोऽयमिति च व्यपदिश्यत इति ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण धर्माः ] न्यायप्रकाशसमलते कायवाझनसां शाव्यराहित्यमार्जवम् । भावदोषयुक्तो हि इहामुत्र चाकुशलाशुभफलं कर्मोपचिनोति ॥ कायेति । अन्यनिमित्तं कुब्जादिवेषभूविकारादीनामकरणादुपहासादिहेतोरन्यदेशादिभाषया भाषणपरित्यागात् परविप्रतारणाद्यचिन्तनाच्च जीवो धर्मस्याराधको भवति, विशुद्धाध्यवसायत्वेन जन्मान्तरेऽपि तदवाप्तेः, तस्मान्मायावक्रतापरित्याग आर्जवमिति भावः। 5 मायावी हि सर्वाभिसन्धानपरतया सर्वाभिशङ्कनीयः कपटपटप्रच्छादितकायादिक्रियस्सुहदेऽपि द्रुह्यति । शाठ्यकृत्यमाह अकुशलेति, अकुशलं पापं तदपि बद्धं कदाचित्कुशलफलतया परिणमत इत्यशुभफलमित्युक्तम् ॥ अथ लोभप्रतिद्वन्द्वि शौचं स्वरूपयतिकालुष्यविरहः शौचम् । तद् द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, शास्त्रीयविधिना 10 यतिजनशरीरगतमहाव्रणादिक्षालनमाद्यम् । रजोहरणादिष्वपि ममताविरहो द्वितीयम् । ममत्वमत्र मनःकालुष्यम् ॥ ... कालुष्येति । कालुष्यमशुचिलोंभरूपा, सचित्ताचित्तमिश्रवस्तुविषयाभिष्वङ्गलक्षणलोभाद्धि क्रोधमानमायाहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहार्जनमलजालेनोपचीयमान आत्मा भवत्यशुचिः, ततस्तद्विरहः शौचमित्यर्थः । तद्विभजते तदिति, शौचमित्यर्थः । शास्त्रीयविधिनेति, प्रासुकैष. 15 णीयेन जलादिनेति भावः । क्षालनमिति, निर्लेपनिर्गन्धतापादनमित्यर्थः। द्वितीय भेदमाह रजोहरणादिष्वपीति, आदिना मुखवत्रिकाचोलपट्टकपात्रादयो ग्राह्याः, अत्र कल्मषरूपममत्वस्य लोभरूपतया मनोविषयत्वादाह ममत्वमिति, ननु मनोगुप्तौ शौचस्यान्तर्भावात्पृथग्ग्रहणमनर्थकमिति चेन्न मनोगुप्तौ मानसपरिस्पन्दप्रतिषेधादत्र तु परकीयेषु वस्तुष्वनिष्टप्रणिधानोपरमस्य विधानात् । न चाकिश्चन्येऽन्तर्भाव इति वाच्यम् , तस्य निर्ममत्वप्रधानत्वात् , स्वश- 20 रीरादिषु संस्कारायपोहार्थमाकिञ्चन्यमिष्यते तेन द्रव्यशौचासङ्ग्रहोऽपि स्यादिति ॥ अथ सत्यं निरूपयति यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिकरं स्वपरहितं वचः सत्यम् ॥ __ यथावस्थितेति । यथावस्थितस्यानन्तधर्मात्मकस्यार्थजातस्य तथैव प्रतिपत्तिकर बोधकं स्वस्मै परस्मै च हितं वचनं सत्यमित्यर्थः । अनेकपर्यायकलापभाजामर्थानां हि यथावस्थि- 25 तविवक्षितपर्यायप्रतिपादनं सत्यम्, एतदेव जीवाजीवेभ्यो हितं यद्यथार्थप्रतिपादन मिति Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वस्याप्रषिक्षाको [ प्रामकिरणे भावः । सञ्च भूतनिहवामूतोद्भावनविपरीतकटुकसावधादिपूर्वोदितस्वरूपभिन्नं न परपीडा. कारि, सत्यासत्यदोषाख्यानप्रीतिविच्छेदकारिवचनभिन्नत्वात् । सभासु यन्न विगर्हितं नानालोचितवचनं प्रसन्नवचनं, श्रोतुरनादरवाक्यप्रयोगाच्छ्वणवैरस्यकारिभाषणभिन्नमव्यक्तवर्णपदलोपत्वादप्रत्ययकारित्वरितवचनभिन्नं प्रसन्नपदघटितं श्रुतिसुखं विनयसहितं निराकांक्षं 5 निश्चितार्थमनौद्धत्यप्रदीपकमुदारार्थ विद्वजनमनोरमं मायालोभाभ्यां क्रोधमानाभ्याश्चायुक्तं वचनं सूत्रमार्गानुसारि, अर्थिजनचित्तग्रहणसमर्थमात्मपरानुग्राहकं देशकालोपपन्नं प्रश्नव्याकरणमिति सत्यात्मको धर्मः। ननु भाषासमितावस्यान्तर्भाव इति चेन्न भाषासमितौ साध्वसाधुभाषाव्यवहारे हितमितार्थत्वात् , संयतो हि साध्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितश्च ब्रूयात् , अन्यथा रागानर्थदण्डादिदोषानुषङ्गः स्यादिति समितिलक्षणमुक्तम् , 10 अत्र तु सन्तः प्रबजितास्तद्भक्ता वा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु धर्मोपबृंहणार्थ बह्वपि वक्तव्यमित्यनुज्ञायत इति विशेषः ।। ___ चरणे पृथगुक्तस्यापि संयमस्य श्रमणानामसाधारणधर्मत्वप्रज्ञापनाय तदङ्गतया तद्व्याख्याति इन्द्रियदमनं संयमः । तपस्तु पूर्वमेवोक्तम् ॥ 10 इन्द्रियेति । इन्द्रियानिन्द्रियनियम इत्यर्थः । पञ्चेन्द्रियाणां स्वस्वविषयेषु स्पर्शादिषु लाम्पट्यपरिहारेण वर्त्तनं, प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहात्मकपश्चाभिनवकर्मबन्धहेतुभ्यो विनिवर्त्तनं क्रोधमानमायालोभानां जयो मनोवाकायानामशुभप्रवृत्तिनिरोध इति सप्तदशविधानां संयमानामत्र ग्रहणार्थं वोपलक्षणतयेन्द्रियदमनमित्युक्तम् । इन्द्रियाणां पश्वानां दमनं स्वस्वविषयेभ्यो लोलुपत्वाभावापादनं संयम इत्यर्थः । उपलक्षकमिदमुपयु20 क्तानां सर्वेषाम् । अत एव भाषादिनिवृत्तिर्विशिष्टा कायादिप्रवृत्तिरात्यन्तिकस्त्रसस्थावरवधप्रतिषेध इति लक्षणान्युक्तानि, प्रथमस्य निवृत्तिप्रधानायां गुप्तौ द्वितीयस्य च समितावन्तर्भावापत्तेः, अन्त्यस्य च यथाख्यातविशुद्धचारित्रान्तर्भावापत्तेः पृथक्संयमग्रहणानर्थक्यं स्यात् । किन्त्वीर्यासमित्यादिषु वर्तमानस्य मुनेस्तत्पालनार्थमिन्द्रियादिनिवृत्तिरेव संयम इति भावः । रसादिधातूनां कर्मणां वा सन्तपनहेतुस्तपो निर्जराव्याख्यायां व्याख्यातमेवेति 25 नात्र पुनरुच्यत इत्याह तपस्त्विति, चरणमध्ये पठितमपि श्रमणधर्मत्वप्रख्यापनायात्र पुन. रुक्तमपि न पौनरुतव भाक् । पूर्वमेवेति, निर्जरानिरूपणावसर एवेत्यर्थः ॥ अथ मुक्त्यपरपर्यायं त्यागमभिदधाति-- बाह्याभ्यन्तरोपधिशरीरानपानादिविषयकभावदोषपरित्यजनं त्यागः।। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ onent ] म्याकाशसमलते : ५३७ : बाह्येति । भावदोषो मूर्च्छा तृष्णा स्नेहो वा तत्परित्यजनं परिहारस्त्याग इत्यर्थः, तत्र विषयनियममाह बाह्येति, बाह्यो रजोहरणपात्रादिः स्थविरजिनकल्पयोग्य उपाधिः, आभ्यन्तरः क्रोधादिरतिदुस्त्यजः, शरीरमाभ्यन्तरमन्नपानादि बाह्यमेतद्विषया ये बाह्यदोषास्तत्परित्यजनं त्याग इत्यर्थः, रजोहरणादीनि धर्मसाधनानीत्येवं बुद्ध्या धारयेन्न तु रागादिप्रयुक्तः शोभाद्यर्थम् । तथाचायं त्यागो बाह्याभ्यन्तरवस्तुविषय आस्रवद्वाराणि संवृणोति, 5 अतस्सर्वात्मना त्यागिना भवितव्यमित्येष श्रमणधर्मः । ननु तपोऽन्तर्गतेऽनेषणीयस्य संसतस्य वान्नादेः कायकषायाणाश्च परित्यजनरूप उत्सर्गे त्यागस्यास्य ग्रहणादत्र तदुपादानमनर्थकमिति चेन्न तस्य नियतकालं सर्वोत्सर्गरूपत्वात् अस्य तु यथाशक्त्य नियतकाल - त्वेन विशेषात् । न च शौचेऽन्तर्भावसम्भव इति वाच्यमसन्निहिते कर्मोदयवशादुदितस्य गास्य निवृत्त्यात्मकत्वाच्छौचस्य, त्यागस्य तु सन्निहितेऽपि तन्निवृत्तिरूपत्वात् संयतस्य 10 स्वयोग्यज्ञानादिदानस्य वा त्यागरूपत्वादिति ॥ अथ त्यागोत्तरकालभाविनमा किञ्चन्यमाह - शरीरधर्मोपकरणादिषु मूर्च्छाराहित्यमाकिश्चन्यम् ॥ शरीरेति । नास्ति किञ्चन द्रव्यमस्येत्य किचनस्तस्य भाव आकिञ्चन्यमुपलक्षणत्वाच्छधर्मोपकरणादिष्वपि निर्ममत्वमित्यर्थः । मूर्च्छा हि ममेदमित्यभिसन्धिस्तत्सत्त्वे च 15 शरीरादीनवयवसन्निवेशशोभार्थं परिपालयेत्, ततश्चास्रवे पतेत्, अतो नश्वरा एते शरीरादयोऽशुचित्वङ्मांसादिपरिपूर्णा धर्मसाधनार्थमेवाहारादिनोपग्राह्या इति मूर्च्छतो निवर्त्तेत, तथा चोपात्तेष्वपि शरीरधर्मोपकरणादिषु ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिरा किञ्चन्यमिति भावः ॥ अथाssकिञ्चन्येऽवस्थितस्य ब्रह्मचर्यपरिपालनमावश्यकमिति तत्स्वरूपमाविष्करोति-व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो 20 ब्रह्मचर्यम् ॥ व्रतेति । व्रतमब्रह्मनिवृत्तिरूपं मैथुनवर्जनं तत्परिपालनाय गुरुकुले वासो ब्रह्मचर्य - मुच्यते, एतेन स्वातंत्र्येणावस्थानं प्रतिक्षिप्तम्, सदा गुर्वधीनेन गुरुनिर्देशावस्थायिना च भवितव्यम् । गुरुकुलवासात्मक ब्रह्मचर्यस्य फलान्तरमप्याह -- ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय चेति, तत्र वासे ज्ञानवृद्धिर्भवति दर्शने चारित्रे च स्थैर्य भवति तथा 25 क्रोधादीनां परिणतेरुपशमः क्षयोपशमः क्षयो वा भवति । गुरुरहितस्य हि परिणाम ६८ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५३८ : तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे वैचित्र्याद्विकथादिदोषादसज्जन सम्पर्काद सत्क्रियासङ्गादनुस्रोतोगामित्वदोषात्सद्य एव मोक्षमार्गाद्धंशः स्यात् । तस्मादाप्राणिताद्गुरुकुलवासः श्रेयानिति भावः । गुरुकुले वसतां ह्याप्तोपदेशपालनाद्यथाशक्ति ज्ञानाभिवृद्धिद्वारा चरणं परिपूर्णं सम्पद्यते । ननु गुरुकुले वसतोऽपि कदाचित्तदविकलं न दृश्यत इति चेन्न ग्लानाद्यवस्थासु प्रत्युपेक्षणादि बाह्य सद5 नुष्ठानासद्भावेऽपि सद्गुरूपदेशश्रवण सञ्जनित संवेगेन तद्भावात् । ननु श्रमणधर्मे प्रक्रान्ते क्षमादीनामेवोत्कर्षणं युक्तं तद्रूपत्वात्तस्य किं गुरुकुलवासोत्कर्षणेन, आश्रयमात्रत्वात्तस्येति चेन्न गुरुकुल एव सम्यग्विनीततया स्थितानां यतीनां साधुधर्मतया सम्मतानां क्षमादीनां प्रकर्षतो निष्पत्तेः, तद्वासत्यागे चैतेषां सुष्ठु विशुद्धिर्न भवेदेव, इतरेतरस्नेह रोषविषादादीनां भावादेषणायाश्च बाधसम्भवादपरिशुद्धिरेव स्यात्, तथा न केवलं क्षमादीनामविशुद्धिरपि 10 तु गुरुकुलवासत्यागिनो नियमेन क्षान्त्याद्यभाव एव, कषायोदयात् । ततो ब्रह्मचर्यं न भवति तत्त्यागे तद्गुप्तिरपि न भवति, यतिजन सहायतायामेव ब्रह्मचर्यगुप्तित्वात्, ततः शेषाण्यपि नेति समस्तत्रतभङ्गः स्यात् । अत एवैकाकित्वे बहुतमदोषाः शास्त्रे श्रूयन्ते एगस्स कओ धम्मो ' इत्यादि । गुरुविषयकवैयावृत्त्येन जिनप्रवचनार्थप्रकाशन गच्छपालनादौ सहायकरणतः कर्मक्षयलक्षणं महाफलं गुरुकुलवासिनो भवति, अन्यथा सर्वदा 15 वैयावृश्यत पोज्ञानचारित्रविशुद्धयादीनां गुरुसंसर्ग साध्यगुणानां व्याघातादिप्राप्तेः । शोभनगुणान्तरायान्महान् दोषोऽपि स्यात्, तथा च तत्र वसन् गुर्वादेशं प्रतीक्षमाणस्समीपव त्यैव स्यात् । इत्थंभूत एव ज्ञानदर्शनचरणेषु स्थिरतरो भवति यतोऽष्टादशशीलाङ्गसहस्ररूपनिखिलगुणमूलभूतो गुरुकुलवासः, अतश्चरणकामी गुरुकुलेऽवश्यं वसेत् । नन्वागमे यतेराहारशुद्धिरेव मुख्यतश्चारित्रशुद्धिहेतुरुक्ता, पिण्डविशुद्धिश्च बहूनां मध्ये वसतां 20 दुष्करैव प्रतिभासते, इत्येकाकिनापि भूत्वा सैव विधेया, किं ज्ञानादिलाभेन, मूलभूतस्य चारित्रस्यैव मुख्यतया पालनीयत्वादिति चेन्न तस्य गुरुपारतंत्र्यस्यावर्जितत्वात्, द्वितीयसाध्व पेक्षाभावे लोभस्यातिदुर्जयत्वात्, प्रतिक्षणं परिवर्त्तमानपरिणामेनैकाकिना पिण्डविशुद्धेरपि पालयितुमशक्यत्वात्, अत एव गुरुवास परित्यागाच्छुद्धोञ्छशुद्धोपाश्रयवस्त्रपात्रादिपरिग्रहस्याप्यशोभनत्वमागमे प्रोक्तमिति । क्षमया क्रोधं निहन्यात् निहतक्रोधो मार्द्दवं धारयेत्, 25 परित्यक्तमदस्थान आर्जवं भावयेत्, भावदोषवर्जनेन निगूढदोषां मायामार्जवेन दूरीकृत्या - 6 १. यदि तु गच्छो गुरुश्च सर्वथा निजगुणविकलो भवेत्तदाऽऽगमोक्तेन विधिना त्यजनीयः, परं कालापेक्षया योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसम्पद् ग्राह्या न पुनः स्वतंत्रैः स्थातव्यम्, तस्माद्यावज्जीवं गुरोरन्तिकं सन्मार्गानुष्ठानमिच्छेत् । स एव हि परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति तच्च सदा गुरोरन्तिकें व्यवस्थितेन सदनुष्टानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते तस्मात्सदा गुरुकुलवासोऽनुसर्त्तव्य इति बोध्यम् ॥ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमभेदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते लोभसंश्रयेण शौचमाचरेत् , लोभाशौचमलोभशौचेन संशोध्य विशुद्धात्मा सत्यं ब्रूयात् , सत्यभाषी सप्तदशविधं संयममनुतिष्ठेत् , संयतात्मा शेषाशयविशोधनार्थ तपश्चरेत् ततः कायवाङ्मानसेषु धर्मोपकरणेषु च निःस्पृहत्वान्निर्ममत्वाख्यमाकिश्चन्यं भावयेत्, सत्याकिञ्चन्ये परिपूर्ण ब्रह्मचर्यं भवतीति पूर्वपूर्वस्य कारणत्वमुत्तरोत्तरस्य कार्यत्वं भाव्यम् ॥ अथ चरणमूलभेदं तृतीय संयममाह सनियमं शरीरवाङ्मनोनिग्रहः संयमः । स च सप्तदशविधः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायद्वित्रिचतुः पञ्चेन्द्रियप्रेक्ष्योपेक्ष्यापहृत्यप्रमृज्यकायवाङ्मनउपकरणसंयमभेदात् ॥ सनियममिति । क्रियाविशेषणमिदम् , शरीरवाङ्मनसां प्रवचनोक्तेन एवमेवगन्तव्य स्थातव्यं चिन्तयितव्यं भाषितव्यमिति नियमानुगुणं निग्रहः स्वाभाविकप्रवृत्तिनि- 10 रोधः संयम इत्यर्थः। तस्य प्रभेदमाह स चेति, संयमश्वेत्यर्थः, सप्तदशविधत्वं दर्शयति पृथिवीति, वनस्पत्यन्तं द्वन्द्व विधाय कायपदेन बहुव्रीहिः, तथा द्वयादिपञ्चान्तं द्वन्द्वं विधायेन्द्रियपदेन बहुव्रीहिस्ततः सर्वेषामुपकरणान्तानां द्वन्द्वं कृत्वा संयमपदेन तत्पुरुषः, तथा च पृथिवीकायसंयमोऽप्कायसंयम इत्यादिरों लभ्यते, ये जीवाः पृथिव्यादिकायाः द्वीन्द्रियादयश्च तेषां संयम इत्यर्थः ॥ तान् दर्शयति तत्र पृथिवीकायिकादारभ्य पञ्चेन्द्रियं यावद्ये नवविधा जीवास्तेषां करणत्रयैः कृतकारितानुमतिभिः संघट्टपरितापव्यापत्तिपरिहारः पृथिवीकायिकादिसंयमो नवविधो ज्ञेयः॥ 15 ..... तत्रेति । सप्तदशविधसंयमेषु मध्य इत्यर्थः, पृथिवीकायिकादारभ्येति, ये जीवाः पृथि: 20 व्यादिशरीरा द्वीन्द्रियादयश्च नवविधानां तेषामित्यर्थः, करणत्रयैरिति, कायवाङ्मनोभिरित्यर्थः, कृतकारितानुमतिभिरिति, करणकारणानुज्ञानैरित्यर्थः । संघट्टपरितापव्यापत्तिपरिहार इति, संघट्टः संरम्भः प्राणातिपातकरणसङ्कल्पः, प्राणिवधानुकूलान्योऽन्यगात्रसंहतीकरणं वा पाराश्चिकादिप्रायश्चित्तयोग्यम् । परितापस्समारम्भो मानसिकवाचिककायिकभेदः, तत्राद्यः परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनमंत्रादिध्यानरूपः, द्वितीयः परपरितापकरक्षुद्रविद्या- 25 दिपरावर्तनासंकल्पसूचकध्वनिरूपः, तृतीयोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं तद्वर्जनमिति Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५४०: तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे भावः, व्यापत्तिविनाशः प्राणवियोग इति यावत् तस्या अपि वर्जनमित्यर्थः । एतेन मवविधस्संयम उक्त इत्याह नवविध इति ।। प्रेक्ष्योपेक्ष्यसंयमे आह स्थानादीन् विलोक्य क्रियाचरणं प्रेक्ष्यसंयमः । साधुप्रभृतीन् प्रवच5 नोदितक्रियासु व्यापारयतः स्वस्वक्रियासु व्यापारवतो वा गृहस्थादीनुपेक्षमाणस्य संयम उपेक्ष्यसंयमः ।। __ स्थानादीनिति । स्थानं शयनासनचक्रमणयोग्य, आदिना स्थण्डिलादेः परिग्रहः, विलोक्य चक्षुषा सम्यक्तया दृष्ट्वा यथा बीजहरितजन्तुसंसक्तादिरहितं भवेदित्यर्थः । क्रियाचरणं शयनादिविधानं प्रेक्ष्यसंयमः प्रेक्षासंयम इत्यर्थः । उपेक्ष्यसंयममाह साधुप्रभृती10 निति, उपेक्षाशब्दोऽत्र चित्तव्यापारविशेषेऽव्यापारे च वर्त्तते व्याख्यानात् , तत्र क व्या पारः क वाऽव्यापार इत्यत्राह प्रवचनेति, तथा च संयम प्रति सीदतां साधूनां प्रवचनविहितानुष्ठानेषु प्रेरणं, पापव्यापारमाचरतो गृहस्थस्याप्रेरणमिदं ग्रामचिन्तनादिकं सोपयोगं कुर्वित्यादिरूपेणाशनश्च कुर्वत उपेक्ष्यसंयम उपेक्षासंयमापरनामा भवतीति भावः ॥ अपहृत्यादिसंयम वक्ति15 चरणानुपकारकवस्तुनिग्रहो विधिना च प्राणिसंसक्तभक्तपानादिप रित्यजनमपहृत्यसंयमः । दृष्टिदृष्टस्थण्डिलवस्त्रादीनां विशिष्टप्रदेशगमने रजोऽवगुण्ठितपादादीनाश्च रजोहरणादिना प्रमार्जनं प्रमृज्यसंयमः॥ चरणेति । अपहृत्यापुनर्ग्रहणतया त्यक्त्वा संयम लभते, तत्र त्यागः संयमानुपयोगिनां वस्त्रपात्राद्यतिरिक्तानाम् , तदुपयोगिनां प्राणिसंसक्तानामन्नपानादीनां जन्तुरहिते स्थाने 20 समयभणितेन विधिना परिष्ठापनं, तथाकुर्वतश्च परिष्ठापनासंयमापरपर्यायोऽपहृत्यसंयमो भवतीत्याशयेनाह चरणेति । वक्त्यथ प्रमृज्यसंयमं दृष्टीति, प्रमार्जनं कुर्वतः संयमो भवति तच द्विविधं यथा प्रेक्षितेऽपि स्थण्डिले वस्त्रपात्रादौ च रजोहरणादिना प्रमार्जनमेकम् , अपरश्च कृष्णभूप्रदेशात्पथि पाण्डुभूप्रदेशं गच्छतः स्थण्डिलादस्थण्डिलाद्वा स्थण्डिलं संक्रामतः सचित्ताचित्तमिश्ररजोऽवगुण्ठितपादादीनां सागारिकाद्यनिरीक्षणे सति रजोहरणादिना प्रमार्जन १. द्विविधो ह्युपेक्षासंयमः, यतिव्यापारोपेक्षा गृहस्थव्यापारोपेक्षा चेति, उभौ यथाक्रमं चोदनाचोदनविषयौ, विषीदन्तं साधुं दृष्ट्वा संयमव्यापारेषु चोदयतः संयमव्यापारोपेक्षा प्रथमः, गृहस्थमधिकरणव्यापारेषु प्रवृत्तं दृष्टा तत्र प्रवृत्तमचोदयतो गृहस्थव्यापारोपेक्षारूपो द्वितीय इति तात्पर्यार्थः ।। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्यम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५४१ : सागारिकादिनिरीक्षणे त्वप्रमार्जनमध्यन्तर्गर्भितं बोध्यम् । एवं विदधतः प्रमार्जनासंयमो भवतीत्याशयेनाह दृष्टिदृष्टेत्यादिना ॥ अथ कायादिसंयममाख्याति - धावनादिदुष्टक्रियानिवृत्तिशुभक्रियाप्रवृत्त्युभयरूपः कायसंयमः । हिंस्र परुषादिनिवृत्तिशुभवाक्प्रवृत्त्युभयरूपो वाक्संयमः । अभिद्रोहा- 5 दिनिवृत्तिपूर्वक धर्म ध्यानादिप्रवृत्तिर्मनस्संयमः । पुस्तकाद्यजीव कायसंयम उपकरणसंयमः ॥ धावनादीति । संयमोऽयं न केवलं शरीरस्य सर्वात्मनोपरमरूपोऽशक्यत्वादपि तु यथाशास्त्रं प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, केभ्यः कायस्य निवृत्तिरित्यत्राह घावनेति, आदिना वल्गनप्लवनादीनां परिग्रहः । गमनागमनादिष्ववश्यकरणीयेषु धर्मसाधनभूतेषु च सोपयोगं काय- 10 व्यापारः प्रवृत्तिरूप इत्याशयेनोक्तं शुभक्रियाप्रवृत्तीति । वाक्संयममाचष्टे हिंस्रेति, प्राणव्यपरोपणे जातशक्तिर्हिस्रः परुषं रूक्षं स्नेहरहितं परोद्वेगकारि, आदिना पिशुनासभ्यादीनामुपग्रहः, ईदृशवचसो निवृत्तिः, शुभवचसि सूत्रमार्गानुसारप्रवृत्तार्थे निजपरार्थानुग्राहकेऽरागद्वेषयुक् प्रवृत्तिश्च वाक्संयम इत्यर्थः । तथा च पृथिवीकायिकारम्भादिप्रेरणरहिता परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतस्य 15 योग्या वाक्, तदधिष्ठानाश्च सर्वसम्पद् इति भावः । मनस्संयममाचष्टेऽभिद्रोहेति, स्पष्टम् । उपकरणसंयममाह पुस्तकादीति, अजीवरूपाण्यपि पुस्तकादीनि दुष्षमादिदोषात्तथाविधप्रज्ञाऽऽयुष्कश्रद्धासंवेगोद्यमबलादिहीनाद्यकालीन विनेयजनानुग्रहाय प्रतिलेखनाप्रमार्जनापूर्व यतनया धारयतोऽजीव संयमापरपर्याय उपकरणसंयम इति भावः ॥ अथ वैयावृत्त्यमाख्याति- शास्त्रोदितविधिना गौरवजनक क्रियानुष्ठानप्रवृत्तिर्वैयावृत्यम् । तच्चाचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षकग्लान गणकुलसङ्घ साधुसमनोज्ञसम्बन्धित्वादशविधम् । 25 . शास्त्रोदितविधिनेति । आगमोक्तप्रकारेण न तु यथालोकमिति भावः, सामायिकादिक्रियानुष्ठानप्रवृत्तेर्वैयावृत्त्यरूपत्वाभावादाह गौरवजनकेति, भावतीर्थंकरनामकर्मबन्धजनकक्रियानुष्ठानप्रवृत्तिरित्यर्थः, आहारादिसाहाय्येन वैयावृत्त्येन हि तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बध्नाति, ताश्च क्रियाः क्षेत्रवसतिप्रत्यवेक्षणं शुश्रूषणं भेषजक्रियाः कान्तारविषम दुर्गोपसर्गेषु 20 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५४२: तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे अन्नपानादिभिः परिरक्षणमित्यादिरूपाः, तदनुष्ठाने प्रवृत्तिः परिणामविशेषः परितः सर्वतो भावेन वृत्तिः प्रवृत्तिरिति व्युत्पत्त्या तल्लाभात् , न ह्यपरिणतः सर्वतो भावेन वर्तितुं शक्यः । शास्त्रोदितविधिनेत्युक्तत्वात्प्रवचनवात्सल्यमपि वैयावृत्त्यस्य फलम् , तथा च महानिर्जरास नाथत्वप्रवचनवात्सल्यविचिकित्साऽभावतीर्थकरनामकर्मबन्धादयोऽस्य फलमिति सिद्धम् । 5 आचार्यादीनां दशानां भक्तपानशय्यासनक्षेत्रोपधिप्रत्युपेक्षणभेषजदानाध्वोपग्रहशरीरोपधि स्तेनसंरक्षणदण्डग्रहग्लानशुश्रूषणमूत्रिकत्रिकढौकनरूपत्रयोदशभिः पदैवैयावृत्त्यं कर्त्तव्यम् , तत्राचार्यादीनाह तञ्चेति, वैयावृत्त्यश्चेत्यर्थः, दशस्वामिकत्वादशविधत्वं वैयावृत्त्यस्येति भावः। अत्राचार्यपदेन तीर्थंकरोऽपि गृहीतस्तेन तीर्थकरवैयावृत्त्याकथनप्रयुक्ता न न्यूनता, न च तीर्थकरत्रिलोकाधिपतिराचार्यस्तु सामान्य इति कथमाचार्यग्रहणेन स गृहीत इति वाच्यम्, 10 पञ्चविधाचारोपदेशकत्वे सति स्वयमप्यनुष्ठातृत्वस्यैवाचार्यपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन तस्य तीर्थ__ करसाधारण्यात् । तीर्थकरस्य धर्माचार्यत्वप्रसिद्धेश्च । एतेषां दशानां प्रत्येकं त्रयोदशभिः पदैवैयावृत्त्यं कर्त्तव्यमिति भावः ॥ ___ तत्राचार्य स्वरूपयति-- ज्ञानाद्याचारे प्रधान आचार्यः। स पञ्चविधः प्रव्राजको दिगाचार्यः 15 श्रुतोदेष्टा श्रुतसमुद्देष्टाऽऽम्नायार्थवाचकश्चेति ॥ . ज्ञानाद्याचार इति । आदिना दर्शनचारित्रतपोवीर्याणां ग्रहणम् । तत्र प्रधानः स्वयं करणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्च । अयमाचार्यः सूत्रार्थतदुभयोपेतो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु कृतोपयोगो गच्छचिन्ताविप्रमुक्तः शुभलक्षणोपेतश्च भवति, तद्गुणाश्च षट्त्रिंशत् , तत्र पञ्च गुणा ज्ञानादय उक्ता एव, इतरे गुणाश्च देशकुलजातिरूपसंहननधृतियुक्तताकांक्षा20 बहु भाषामायावैधुर्यसूत्राद्यनुप्रयोगपरिपाटीदाढयोपादेयवचनपर्षजयाल्पनिद्रत्वमाध्यस्थ्यदेश कालभावज्ञत्वप्रतिभाविविधदेशभाषाज्ञानसूत्रार्थतदुभयविधिज्ञत्वदृष्टान्तहेतूपनयनयनैपुण्यप्र-- तिपादनशक्तिस्वपरसमयवेत्तृत्वगाम्भीर्यदीप्तिकल्याणकारित्वशान्तदृष्टित्वरूपा विज्ञेयाः । सम्यग्ज्ञानादिगुणाधाराद्यस्मादाहत्य व्रतानि स्वर्गापवर्गसुखामृतबीजानि भव्या हितार्थ माचरन्ति स आचार्यः । अथवा ज्ञानादीत्यादिना दर्शनचारित्रतपसां ग्रहः, ज्ञानादीना25 - १. चतुर्विधः सामान्येनाचार्यः, इहलोके हितो न परलोके, परलोके हितो नेहलोके, इहलोके हितो. ऽपि परलोके हितः नेहलोके हितो नापि परलोके हित इति । तत्र यो भक्तवत्रपात्रपानादिकं समस्तमपि साधूनां पूरयति न पुनस्संयमे सीदतस्सारयति स इहलोके हितोऽपि साररहितो न परलोकहितः। यश्च संयमयोगेषु प्रमाद्यतां सारणां करोति नच वस्त्रादिकं प्रयच्छति स द्वितीयः । एवमेव तृतीयचतुर्थों भाव्यौ । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्यभेदाः ] म्यायप्रकाश समलङ्कृते माचारे प्रधानः सः, तद्गुणसमन्वितत्वात् । तथाहि ज्ञानाचारस्य कालविनयादयोऽष्टौ गुणाः, दर्शनाचारस्य निःशङ्कितत्वादयोऽष्टौ, चारित्राचारस्येर्या समित्यादयोऽष्टौ, बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नस्य तपसोऽनशनादयो द्वादशभेदास्तथा च ज्ञानाद्याचारविषयक षट् त्रिंशद्गुणयुक्त आचार्य इति फलितार्थः, अयञ्चार्थमेव केवलं भाषते नतु सूत्रमपि वाचयति । ननु कुतोऽयं सूत्रं न वाचयति, उच्यते, अर्थचिन्तायां ह्यस्यैकाग्रताऽर्थव्याख्यानार्थम्, यदि पुनस्सूत्रमपि 5 वाचयेत्तदा बहुव्यग्रत्वादर्थचिन्तायामेकाग्रता न स्यात्, एकाप्रतया ह्यर्थं चिन्तयतः सूत्रेषु सूक्ष्मार्थोन्मीलनात्सूत्रार्थस्य वृद्धिरुपजायते, तीर्थकरानुकारित्वाच्चाचार्यस्य, तीर्थकृतो हि केवलमर्थमेव भाषन्ते नतु सूत्रं नवा गणचिन्तां कुर्वन्ति तथाऽऽचार्या अपि, सूत्रवाचनां तु प्रयच्छतामाचार्याणां लाघवमप्युपजायते तस्या उपाध्यायादिभिः क्रियमाणत्वात् । तस्य किश्चिद्गुणप्राधान्यौपाधिकं प्रभेदमाह स इति आचार्य इत्यर्थः ॥ तत्र प्रव्राजकादीनां स्वरूपाण्याह :- ५४३ सामायिकादिवतारोपयिता प्रव्राजकः । सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्वनुज्ञायी दिगाचार्य: । प्रथमत आगमोपदेष्टा श्रुतोद्देष्टा । उद्दिष्टगुर्वाद्यभावे स्थिरपरिचितकारयितृत्वेन सम्यग्धारणानुप्रवचनेन च तस्यैवागमस्य समुद्देष्टा अनुज्ञाता वा श्रुतसमुद्देष्टा । आम्नायस्योत्सर्गापवादात्मकार्थप्रवक्ता आम्नायार्थवाचकः ॥ 10 15 सामायिकेति । आत्मार्थं परार्थं वा सामायिकादेर्व्रतस्य केवलमारोपयिता प्रत्राजकाचार्य इत्यर्थः । दिगाचार्यस्वरूपमाह सचित्तेति, स्पष्टम् गुर्वादिष्टदिग्वर्त्ति साधूनां सारणादिकर्त्तारोऽपि दिगाचार्याः । श्रुतोद्देष्टारमाह प्रथमत इति, विशदं मूलम् । श्रुतसमुद्देष्टारमाचष्टे - उद्दिष्टेति, पूर्वोद्दिष्टगुर्वाद्यभाव इत्यर्थः, उद्दिष्टं स्थिरपरिचितं कुरु, 20 सम्यग्धारय, अन्याश्च प्रवेदयेति समकालं भिन्नकालं वा समुद्देशकोऽनुज्ञापको वा श्रुतसमुद्देष्टेति भावः । आम्नायार्थवाचकमभिधत्ते - आम्नायस्येति, आम्नायस्यागमस्य, उत्सर्गः सामान्येनोक्तो विधिर्यथा त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातविरतिः, अपवादः, विशेषेणोक्तो विधिः, यथा ' पुढवाइसु आसेवा उप्पण्णे कारणम्मि जयणाए । मिगरहिस्स ठियस्स अववाओ होइ नायव्वो " इति । तदेवं उत्सर्गमपवादमुत्सर्गापवादच 25 यथावत्परिज्ञाय सूत्रार्थानामुपदेशक इत्यर्थः ॥ अथोपाध्यायं परिचाययति- Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वम्यापविभाकरे [प्रबनविरण __आचारविषयविनयस्य स्वाध्यायस्य वाऽऽचार्यानुज्ञया साधूनामुपदेशक उपाध्यायः॥ आचारेति, आचारः ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यात्मना पश्चविधः, तद्विषयकविनयस्य स्वाध्यायस्य वाचना प्रच्छनापरावर्तनानुप्रेक्षाधर्मोपदेशात्मना पञ्चविधस्याचार्यानुज्ञया साधूना5 मुपदेशकः, उप, समीपमागत्याधीयते, आधिक्येन गम्यते स्मयते सूत्रतो जिनप्रवचनं येनेत्युपाध्यायः, यो द्वादशाङ्गः स्वाध्यायः प्रथमतो जिनैरागतस्ततो गणधरादिभिः कथितः तं स्वाध्यायं सूत्रतश्शिष्यानुपदिशति स उपाध्यायः, स हि सूत्रवाचनां शिष्येभ्यो यच्छन् स्वयमर्थमपि परिभावयति, तस्य तदर्थे स्थिरत्वमुपजायते, ऋणस्यापि सूत्रलक्षणस्य वाचनाप्रदानेन मोक्षः कृतो भवति, उत्तरकाले चाचार्यपदाध्यासेऽत्यन्ताभ्यस्ततया यथावस्थिततया स्वरूपस्य 10 सूत्रस्यानुवर्त्तनं भवति, येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्सूत्रोपसम्पदं गृह्णते ते प्रतीच्छका उच्यन्ते ते च सूत्रवाचनाप्रदानेनागृहीता भवन्ति, मोहस्य जयोऽपि कृतो भवति, सूत्रवाचनादानव्यग्रस्य प्रायश्चित्तविश्रोतसिकाया अभावात् । अतः उपाध्यायस्सूत्रं वाचयेदिति ।। तपस्विनं शैक्षकश्चाह किश्चिदूनषण्मासान्तोग्रतपोऽनुष्ठाता तपस्वी। अनारोपितविविक्त15 व्रतश्शिक्षायोग्यशैक्षकः ॥ किञ्चिदिति । दशमादिकिञ्चिन्यूनषण्मासान्तमुप्रस्य भावविशुद्धस्य अनिश्रितस्याल्पसत्त्वभयानकस्य वा तपसोऽनुष्ठातेत्यर्थः । अनिश्रितं तपो नाम शुभयोगसंग्रहाय परसाहाय्यानपेक्षं भावतपः। अथ शैक्षकमाह अनारोपितेति, अनारोपितं विविक्तं दोषरहितं व्रतं यस्य तादृशः, शिक्षायोग्यश्च शैक्षकः, अभिनवप्रव्रजितो ग्रहणासेवनाशिक्षायोग्यः तत्र शैक्षको20 द्विविधः, आज्ञया परिणामको दृष्टान्तेन परिणामकश्चेति, तदेव सत्यं यजिनैः प्रवेदित मित्येवं यो निस्संशयं श्रद्धधाति न च कारणमपेक्षते स आज्ञापरिणामक उच्यते, यस्तु लिङ्गेन गम्यमर्थं प्रत्यक्षप्रसिद्धदृष्टान्तेनात्मबुद्धावारोपयन् वर्त्तते स दृष्टान्तपरिणामक उच्यते । सप्तरात्रिन्दिवचतुर्मासषण्मासैजघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपैरुपस्थाप्यतेऽयम् ॥ अथ ग्लानमाह अपटुाध्याक्रान्तो मुनिगर्लानः ॥ । अपटुरिति । भिक्षादिकं कर्तुमसमर्थः ज्वरादिव्याध्याक्रान्त इत्यर्थः । अस्य वैयावृत्त्य कार्यमन्यथा प्रायश्चित्तभाक् स्यात् , तस्माद्भगवदाज्ञामनुवर्तमानेन कर्मनिर्जरालाभलिप्सया 25 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्यमैदाः ] म्यायंप्रकाशसमलङ्कृते : ५४५ : ग्लाने समुत्पन्ने मायाविप्रमुक्तेन यत्र कुत्रापि स्थितेन त्वरितमागन्तव्यमेवं कुर्वता साधर्मि - कवात्सल्यं कृतं भवति, आत्मा च निर्जराद्वारे नियोजितो भवति, तत्राशक्तत्वमप्रशस्यभाषाऽपमानं लुब्धत्वमुद्भाव्य प्रतिबन्धयतः प्रायश्चित्तं स्यादिति ॥ गणं कुलचाह— श्रुतस्थविरपरम्परानुयायी गणः । एकजातीयानेकगच्छसमूहः कुलम्।। 5 श्रुति । श्रुतेनागमेन स्थविरो वृद्धः श्रुतस्थविरस्तृतीयचतुर्थाङ्गधरस्साधुस्तत्परंपरानुगमनशीलो गण इत्यर्थः, श्रुतेति विशेषणेन वयसा पर्यायेण वा वृद्धस्य न ग्रहणम् । वयस्थविरसप्तत्यादिवर्षजीवितः, पर्यायस्थविरः यस्य दीक्षितस्य विंशत्यादीनि वर्षाणि गतानि सः, पदेन स्थविरस्तु प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतस्साधून ज्ञानादिष्वैहिकाऽऽमुष्मिकापायदर्शनतः स्थिरीकर्त्ता, कुलसमुदायो वा गणो भाव्यो यथा कौटिकादिः, कुलमाह एक- 10 जातीयेति, बहूनां गच्छानामेकजातीयानां समूहः कुलमित्यर्थो यथा चान्द्रादि । गच्छ विहितमुनिवृन्दरूप एकाचार्यप्रणीतो जघन्यतस्त्रिपुरुषप्रमाणः साधुसमुदायरूपत्वात् चतु:पञ्चप्रभृतिपुरुषसंख्याका मध्यमा गच्छाः, द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकस्मिन् गच्छे साधूनामुत्कृष्टा संख्या यथा श्री ऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवतो ऋषभसेनस्य । अशुभ फलप्रदत्वादसदाचारगच्छसंवासपरिहारपूर्वकं परमशुभफलदत्वादिहपरलोकहितार्थं सदाचारगच्छसंवासः 15 कार्यः । तत्र वसतां हि महती निर्जरा भवति, सारणावारणाचोदनादिभिर्दोषावाप्तेरभावात् विस्मृते क्वचित्कर्तव्ये भवतेदं न कृतमिति सारणा, अकर्त्तव्यानां निषेधो वारणा, संयमयोगेषु स्खलितस्याऽयुक्तमेतद्भवादृशामित्यादिस्वरमधुरवचनैः प्रेरणं चोदना । षड्डिधानां जीवानां बाधा मरणान्तेऽपि यत्र करणत्रयैर्न क्रियते मुनिभिस्स गच्छ इति ॥ अथ संघमाह - ज्ञानदर्शन चरणगुणवान् श्रमणादिः सङ्घः ॥ ज्ञानदर्शनेति । गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमूहः सङ्घः कोऽयं समूहः तादृश इत्यत्राह श्रमणादिरिति, आदिना श्रमणी श्रावक श्राविकानां ग्रहणम् । श्राम्यन्ति तपस्यन्तीति श्रमणाः । शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्रीवकाः । तीर्थङ्करवन्दनीयं सङ्घ ज्ञानादिगुणरूपं न तिरस्कुर्यात् सङ्घाद्बहिष्करणभयेन श्रुतकेवलिनापि सङ्घो मानितः तस्मात्सङ्घः पूज्य इति ।। १ श्रावकत्वं न श्रवणमात्रनिबन्धनं तथा च सति श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतां सर्वेषां श्रावकत्वं स्यादित्यत्रो कं जिनवचनमिति, जिनवचनमाप्तागमो न पुनरनाप्तागमः तस्याप्रमाणत्वेन परलोकहितत्वासम्भवाच्छ्रवणवैयर्थ्यापत्तेः, ६९ 20 25 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे - अथ साधुस्वरूपमाचष्टे ज्ञानादिपौरुषेयशक्तिभिर्मोक्षसाधकः साधुः ॥ ज्ञानादीति । ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो मोक्षमार्गव्यवस्थितस्साधुरित्यर्थः, शास्त्रोक्तगुणी साधुन शेषास्तद्गुणरहितत्वात् व्यतिरेकतस्सुवर्णवत् सुवर्ण हि विषघाति रसायनं वयस्स्त5 म्भनं मङ्गलप्रयोजकं कटकादियोग्यतया प्रदक्षिणावर्त्तमग्नितप्तं प्रकृत्या गुरु सारतयाऽदाह्यं सारतयैवाकुथनीयमित्यसाधारणाष्टगुणविशिष्टं तथैव साधुरपि मोहविषघातकः केषांचिद् वैद्योपदेशाद्रसायनं भवति, अत एव परिणतान्मुख्यं गुणतश्च मङ्गलार्थं करोति प्रकृत्या विनीतः सर्वत्र मार्गानुसारिप्रदक्षिणावर्त्तता गम्भीरश्चेतसा गुरुः क्रोधाग्निनाऽदाह्यस्सदो. चितेन शीलभावेनाकुथनीयश्च भवति तथा च यथा निखिलगुणयुक्तमेव सुवर्ण तात्त्विकं, न 10 तु नामरूपमात्रेण गुणेन युक्तं, तथैव शास्त्रोदितमूलगुणैरेव साधुर्भवति, न पुनर्गुणरहितस्सन् यो भिक्षामटति स इति ॥ इदानीं समनोज्ञमाह-- एकसामाचारीसमाचरणपरस्साधुः समनोज्ञः ॥ एकेति । समाचरणं समाचारः, शिष्टाचरितक्रियाकलापः, तद्भावष्यजन्तेन स्त्रीत्व. 15 विवक्षायां ङीषि सामाचारीति पदसिद्धिः, सा च त्रिधा ओघसामाचारी दशविधसामा चारी पदविभागसामाचारी चेति । संक्षेपतः क्रियाकलापः ओघसामाचारी, इच्छाकारादिलक्षणा दशविधसामाचारी, पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणीति तत्रैकस्यां सामाचाऱ्यां वर्तमानस्साधुः समनोज्ञ इत्यर्थः । अथ ब्रह्मचर्यगुप्तिमाह20 वसतिकथानिषद्येन्द्रियकुड्यान्तरपूर्वक्रीडितप्रणीतातिमात्राऽऽहारभू षणगुप्तिभेदेन ब्रह्मचर्यगुप्तिनवधा । तत्रापि साक्षात्परलोकहितं ग्राह्य, तेन ज्योतिषप्राभृतिकादेरभिप्रायविशेषेण परलोकहितत्वेऽपि न क्षतिः, श्रवणमपि न प्रत्लनीकादिभावेन, तेन तथा शृण्वतां न धावकत्वप्रसङ्गः । उपयोगपूर्वकमित्यपि विवक्षणीयम् , तेनानुपयोगेन शृण्वतो व्यवच्छेदः । इदञ्च श्रावकत्वमत्युत्कटज्ञानावरणमिथ्यात्वादिविनाशाल्लभ्यत इति ॥ १ तत्रौघसामाचारी नवमात्पूर्वात् तृतीयाद्वस्तुन आचाराभिधानात्तत्रापि विंशतितमात्प्राभृतात् तत्राप्योघप्राभृतात् नि डेति, एतदुक्तं भवति साम्प्रतकालप्रवजितानां तावच्छतपरिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्कादिहासमपेक्ष्य. प्रत्यासन्नीकृतेति । दशविधसामाचारी पुनः षड्विंशतितमादुत्तराध्ययनात्स्वल्पतरकालप्रवजितपरिज्ञानार्थ नियूंढेति । पदविभागसामाचार्य्यपि छेदसूत्रलक्षणान्नवमपूर्वादेव नियूंढेति ॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्यगुप्तिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते वसतीति । भूषणान्तं द्वन्द्वस्ततो गुप्त्या तत्पुरुषः । बह्मचर्यगुप्तिमैथुनविरतिव्रतस्य रक्षाप्रकारः, नवविधगुप्तिसेवनाद्धि सर्वकालं प्रमादरहितस्सन्नप्रतिबद्धविहारितया गुप्तीब्रह्मचारी चरेदिति ॥ अथ वसतिगुप्तिमाह ___ स्त्रीषण्डादिवासस्थानवर्जनं वसतिगुप्तिः॥ 5 स्त्रीति । स्त्रियो दिव्या मानुष्यो वा षण्डो महामोहकर्मा स्त्रीपुंससेवनाभिरतः आदिना पशवो ग्राह्याः तदाकीर्णवसतौ शयनासनादीन्युपभुञ्जानस्य ब्रह्मचारिणोऽपि सतो ब्रह्मचर्ये स्वस्य किमेतास्सेवे उत नेति परेषां वा किमसावेवंविधशयनासनादिसेवी ब्रह्मचार्युत नेति संशयस्समुपजायते, ख्यादिभिरत्यन्तापहृतचित्तत्वाच्च विस्मृतसकलाप्तोपदेशस्य ' अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचने ' त्यादिकुविकल्पान् विकल्पयतो मिथ्यात्वोदयतः कदाचि- 10 देतत्परिहार एव तीर्थकृद्भिर्नोक्तः, एतदासेवने वा यो दोष उक्तस्स दोष एव न भवतीत्येवंरूपा विचिकित्सा स्यात्, धर्म प्रत्यपि किमेतावतः कष्टानुष्ठानस्य फलं भविष्यति न वेति संशयः स्यात् , ततश्च केवलित्रज्ञप्ताद्धर्माच्छूतचारित्ररूपात् समस्ताद्भश्येत् तस्मात्स्त्रीषण्डाद्याकीर्णतारहितानि शयनासनस्थानादीनि यः सेवते स एव निर्ग्रन्थो द्रव्यभावग्रन्थान्निष्क्रान्तत्वादतः तादृशशयनासनस्थानादिपरिवर्जनं वसतिगुप्तिरिति भावः ।। कथागुप्तिमाह रागानुबन्धिस्त्रीसंलापचरित्रवर्णनपरित्यागः कथागुप्तिः ।। रागेति । एकाकिनीनां स्त्रीणां रागानुबन्धिनस्सॅल्लापाः, 'कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा लाटी विदग्धप्रिये' त्यादिरूपाः कथाश्च ब्रह्मचर्यगुप्तिकामेन सर्वथा परित्याज्याः, अन्यथा पूर्वोदितरीत्या संशयादयो भवेयुः, देशजातिकुलनेपथ्यभाषागतिविभ्रमगीतहास्य- 20 लीलाकटाक्षप्रणयकलहशृङ्गाररसानुविद्धाः कामिनीनां कथा हि रागनुबन्धिन्यः, ता अवश्यमिह मुनीनामपि मनोविक्रियां नयन्तीति तासामपि परित्यागः कार्य इति भावः ॥ 15 १ यस्संयतः कषायादिप्रमादेन रागद्वेषवशं गतो न तु मध्यस्थः परिकथयति किञ्चित्सा विकथा, सा च न कथनीया, तथाविधपरिणामविशेषकारणत्वाद्वक्तृश्रोत्रोः, शृङ्गाररसेन मन्मथदीपिकया तयोत्तेजितश्चारित्रमोहनीयकर्मोदयप्रयुक्तात्मपरिणामरूपो मोहो जायते तस्मात्स्वपरात्मनोरुभयोर्वा पापोपादानभूतां कथां न कुर्यादिति तथा च तपस्संयमगुणधारिणश्चरणरताः तां कथां कथयेयुर्या सर्वजीवहितकरा निर्जराख्यफलसाधना कर्तृणां श्रोतृणामपि चेतः कुशलपरिणामनिबन्धनेति ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५४८: तत्स्वन्यायविभाकरे [प्रथमकिरणे निषद्यागुप्तिमाह-- ___ रुयासनपरिवर्जनं निषद्यागुप्तिः॥ स्त्रीति । स्त्रीणां यदासनं यत्र ताभिस्सह नोपविशेदुत्थितास्वपि मुहूत्तं तत्र नोपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः, यश्चैवंविधस्स निम्रन्थः, अन्यथोक्तदोषप्रसङ्गः स्यादतस्तदासनं सर्वथा 5 परिहरणीयमिति भावः ॥ इन्द्रियगुप्ति कुड्यान्तरगुप्तिञ्चाह रागप्रयुक्तरुयङ्गोपाङ्गविलोकनत्यजनमिन्द्रियगुप्तिः । एककुड्यान्तरितमैथुनशब्दश्रवणस्थानपरित्यागः कुड्यान्तरगुप्तिः॥ रागेति । अनुरागेण वनितानामङ्गोपाङ्गानां निरीक्षणत्यागः कार्यः, तासां नयनना10 सिकादीनि निरीक्षितमात्राण्यपि चेतो हरन्ति तथा दर्शनानन्तरं विभाव्यमानानि चेतो दूष. यन्ति, ततस्तेषां सम्यग्दर्शनं ततश्चाहो ! सलवणत्वं लोचनयोः, ऋजुत्वं नासावंशस्येत्येवं विचिन्तनञ्च ब्रह्मचर्यभङ्गप्रसङ्गेन नैव कार्यमिति भावः । कुड्यान्तरगुप्तिमाह एकेति, कुड्यं कटादिरचितं पक्केष्टकादिनिर्मिता वा भित्तिः तयाऽन्तरितेऽपि स्थाने यत्र विविधविहगादि भाषया अव्यक्तशब्दः सुरतसमयभावी रुदितशब्दः रतिकलहादिरूपः मानिनीकृतः गीत15 शब्दो वा पञ्चमादिहुंकृतिरूपो हसितशद्रो वा श्रूयते तादृशस्थानपरित्यागः कार्य इति भावः॥ पूर्वक्रीडितप्रणीतगुप्ती प्राह प्राक्तनतकीडास्मरणवैधुर्यं पूर्वक्रीडितगुप्तिः । अतिस्निग्धमधुराद्या. हारपरिहारः प्रणीतगुप्तिः ॥ ....... प्राक्तनेति । पूर्व गृहस्थावस्थाकाले स्यादिभिस्सह विषयानुभवस्य कृतस्य दुरोदरादि20 स्मणस्य चानुचिन्तना न विधेया तथाच सति ब्रह्मचर्यरक्षणं भवेदिति भावः । अथ प्रणीतगुप्तिमाह अतिस्निग्धेति, गलत्स्नेहरसमत्यन्तधातूद्रेककारिणमाहारं पानभोजनादिकं वर्जयेदित्यर्थः ॥ आहारगुप्तिं भूषणगुप्तिश्चाह मानाधिकाऽऽहारपरिवर्जनमतिमात्राहारगुप्तिः । स्नानविलेपनादि25 शरीरशुश्रूषावर्जनं भूषणगुप्तिः ।। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानादि] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते :५४९; . मानाधिकेति । पुरुषस्य कवलपरिमाणं द्वात्रिंशत्कवलाः स्त्रियाः पुनरष्टाविंशतिः, ततोऽप्यधिकतया पानभोजनादिसंसेवनं ब्रह्मक्षतिकारित्वाच्छरीरपीडाकरत्वाचावश्यं त्याज्यं, केवलं संयमनिर्वाहार्थ चित्तस्वास्थ्योपेतो भुञ्जीत न तु रागद्वेषवशगः सर्वकालमतिमात्राहारस्य दुष्टत्वात् , कदाचित्तु कारणतोऽतिमात्राहारो न दुष्ट इति । भूषणगुप्तिमाह स्नानेति, शरीरोपकरणादीनां विभूषार्थं युवतिजनमनस्तोषार्थ संस्कारो न विधेयः, अन्यथा स्त्रीजना- 5 भिलषणीयत्वात्तस्य ब्रह्मचर्ये शंका स्यात् , उज्ज्वलवेषपुरुषदर्शनेन युवतीनां कामोद्रेकात् , किमेतास्तावदित्थं प्रार्थयमाना उपभुञ्जे, आयतौ तु यद्भावि तद्भवतु उतश्वित् कष्टानि शाल्मलीश्लेषादयो नरक एतद्विपाका इति परिहरामि वेत्येवं रूपो वितर्कः स्यात्तस्माद्भिक्षुर्धर्मारामो धृतिमान् दान्तश्शङ्कास्थानभूतानेतान् आज्ञाऽनवस्थामिथ्यात्वविराधनादोपान्विचिन्तयन् ब्रह्मचर्ये समाहितो भवेत् , तथाविधश्च तं देवदानवगन्धर्वयक्षरक्षःकिन्न- 10 रादयोऽपि नमस्यन्ति, अयञ्चाष्टादशविधो ब्रह्मचर्यधर्मः परप्रवादिभिरप्रकम्प्यतया ध्रुवः, अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वान्नित्यो द्रव्यार्थतया, शश्वदन्यान्यरूपतयोत्पादात्पर्यायार्थतयापि शाश्वतः जिनैः प्रतिपादितः, अनेन ब्रह्मचर्येण पुरा अनन्तासूत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु महाविदेहे तत्कालापेक्षया इहापि वा सिद्धाः सिद्ध्यन्ति अनागताद्धायाश्च सेत्स्यन्तीति सर्वोत्तमोऽयमिति ॥ ..15 अथ ज्ञानादि निरूपयति-- ज्ञानदर्शनचरणभेदतो ज्ञानादि त्रिविधम् । कर्मक्षयोपशमसमुत्थावबोधतधेतु द्वादशाङ्गाद्यन्यतरत् ज्ञानम् । तत्त्वश्रद्धानं दर्शनम् । पापव्यापारेभ्यो ज्ञानश्रद्धानपूर्वकविरतिश्चरणम् ।। ज्ञानेति । स्पष्टम् , तत्र ज्ञानमाह कर्मेति, तत्तज्ज्ञानावरणभूतकर्मेत्यर्थः, तथा च तत्त- 20 ज्ज्ञानावरणक्षयोपशमरूपोपाधिसम्पादितसत्ताक आभिनिबोधिकरूपप्रकाशविशेषः, तन्निदानभूतं द्वादशाङ्गरूपं श्रुतञ्च ज्ञानमित्यर्थः। दर्शनमाह तत्त्वेति, दर्शनमोहनीयक्षयाद्या १. 'दिव्यात्कामरतिसुखात्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । औदारिकादपि तथा तद्ब्रह्माष्टादशविकल्पमि' त्यष्टादशविधं ब्रह्मचर्यम् तदेतत्सर्वस्त्रीणां मनोवाकायस्सर्वथा संगत्यागस्सर्वतो ब्रह्मचर्यम् . संयमिनां, एष्वेव देशतस्स्वदारसंतोषरूपं देशतो देशविरतानाम् । व्रतेषु प्रधानं, उक्तञ्च व्रतानां बह्मचर्य हि निर्दिष्टं गुरुकं व्रतं । तज्जन्यपुण्यसम्भारसंयोगाद्गुरुरुच्यते इति । तीर्थान्तरीयैरप्युक्तं, 'एकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्यञ्च एकतः । एकतस्सर्वपापानि, मद्यं मांसञ्च एकतः' इति ॥ २. तथापुरुषस्य द्वादशाङ्गानि तद्वच्छूतात्मकपरमपुरुषस्यापि द्वादशाङ्गानि, तानि च 'आयारो सुयगडो ठाणं, समवाओ विवाहपन्नत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अनुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुयं दिट्ठिवाओ य' इति । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५० : 5 तत्त्वन्यायविभाकरे [ प्रथमकिरणे विर्भूततत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामविशेषो दर्शनमित्यर्थः । तव सकलपर्यायोपेतसकलवस्तुस्वरूपम् तस्य सर्वविदुपदिष्टतया पारमार्थिकस्य जीवादेः पदार्थस्यैतदेवमेवेति प्रत्ययविशेषः श्रद्धानं, तत्त्वेन वा भावतोऽर्थानां श्रद्धानं तत्त्वश्रद्धानमिति भावः । चरणमाह - पापेति, स्पष्टम् ॥ अथ तपोनिरूपणायाह 10 बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वादशविधानि तपांसि पूर्वमेवोक्तानि ॥ बाह्येति । पूर्वमेवेति, निर्जरानिरूपण इत्यर्थः ॥ क्रोधनिग्रहमाचष्टे - उदीर्णक्रोधादिचतुष्टयनिग्रहः क्रोधनिग्रहः । इति चरणनिरूपणम् ॥ उदीर्णेति । क्रोधादिमोहनीय कर्मविपाकादुदयमागतेत्यर्थः, आदिना मानमाया लोभानां ग्रहणम् तेषां निग्रहस्तितिक्षा, क्रोधनिग्रहेण हि जीवः क्षान्ति जनयति, क्रोधवेदनीयं कर्म पुनर्न बध्नाति, पूर्वबद्धञ्च कर्म निर्जरयति ततश्च जीवविशिष्टवीर्योल्लासो भवति, एवं मानादावपि भाव्यम् । तदेवं व्रतपञ्चकस्य श्रमणधर्मदशकस्य संयमसप्तदशकस्य वैयावृत्त्यदशकस्य ब्रह्मचर्यगुप्तिनवस्य ज्ञानादित्रिकस्य तपोद्वादशकस्य क्रोधनिप्रहचतुष्टयस्य च मेलनेन 15 सम्भूतं सप्ततिविधं चरणं निरूपितमित्याह इतीति ॥ इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्द सूरीश्वर पट्टधर- श्रीमद्विजय कमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशटीकायां चरणनिरूपणनामा प्रथमः किरणः ॥ यद्यपि गणधराः प्रथमं पूर्वाण्येवोपनिबध्नन्ति तथापि दुर्मेधसां तदवधारणाद्ययोग्यानां स्त्रीणाञ्चानुग्रहार्थ शेषश्रुतस्य विरचना विज्ञेया ॥ १ क्रोधमानमायालोभानां चतुर्णां विजयो यस्मात्तपसः तचैकाशनं निर्विकृतिकमाचाम्लमुपवासमित्येका लता, प्रतिकषायमेकैका लता क्रियते एतत्कषायविजयं तपः, अस्मिंश्च तपसि चतस्रो लताः षोडशदिवसानि भवन्ति ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते अथ द्वितीयः किरणः ॥ मूलगुणसद्भाव एव मोक्षार्थिभिस्साधुभिर्यनिष्पाद्यते तत्करणं सप्ततिविधमित्याह - पिण्डविशुद्धिसमितिभावनाप्रतिमेन्द्रियनिरोधप्रतिलेखनागुप्यभिग्रहभेदेनाष्टविधमपि करणमवान्तरभेदात्सप्ततिविधम् ॥ पिण्डविशुद्धीति । सप्ततिविधमिदमुत्तरगुणरूपं बोध्यम् ॥ अथैतान् सप्रभेदान् व्याख्यातुकामः प्रथमं पिण्डविशुद्धिमाह - सर्वदोषरहिताऽऽहारोपाश्रयवस्त्रपात्रपरिग्रहात्मिकाश्चतस्रः पिण्ड : ५५१ : " 5 विशुद्धयः ॥ सर्वेति । पिण्डनं पिण्डः, बहूनां सजातीयानां विजातीयानां कठिनद्रव्याणां एकत्र समुदाय इत्यर्थः, तत्र च समुदायसमुदायिनोरभेदेन त एव बहवः पदार्था एकत्र संश्लिष्टाः पिण्ड - 10 शब्देनोच्यन्ते, तस्य विविधमने कैराधाकर्मादिपरिहारप्रकारैश्शुद्धिर्निर्दोषता पिण्डविशुद्धि:, तथा चात्र पिण्डशब्देन भावपिण्डोपष्टम्भकमचित्तद्रव्यरूपमाहारशय्यावस्त्रपात्ररूपवस्तुचतुष्टयं गृह्यते तस्मात्पिण्डविशुद्धेश्चतुर्विधत्वमित्याशयेनाह सर्वदोषरहितेत्यादि । तथाऽऽहारशय्यावस्त्रपात्राणां सर्वदोषरहितानां ग्रहणं पिण्डविशुद्धिरित्यर्थः, तत्र दोषाश्चाहारविषया षोडशोद्गमदोषाः षोडशोपार्जनादोषाः दशैषणादोषाः पञ्च संयोजनादोषा इत्येवं मिलितास्सप्तचत्वा - 15 रिंशदेषणाया दोषा एवोच्यन्ते, एतेषां विशोधनेन पिण्डस्य विशुद्धया चारित्रशुद्धिद्वारा मोक्षावाप्तिः । तत्रोद्गमदोषे आधाकर्म तावत् साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं पच्यते गृहादिकं वा सङ्गृह्यते वयते वा वस्त्रादिकं कारयति वा पात्रादिकममुकस्मै साधवे देयमिति, तादृशपाकादिक्रिया तद्योगाद्भक्ताद्यपि आधाकर्मोच्यते तच्चाधोगतिकारणम्, प्राणातिपाताद्याश्रवप्रवृत्तेः, तथा तत्प्रतिसेवनप्रतिश्रवणतद्भोक्त्रादिसंवासा अप्याधाकर्मात्मकाः 20 भवंति । औद्देशिकं तावत् - दुर्भिक्षापगमे वाचा साध्वादीनुद्दिश्य यद्भिक्षावितरणं तदुद्दिष्टौ - शिकं, यदुद्धरितमोदनादि व्यञ्जनादिना मिश्रयित्वा तस्य वितरणं तत्कृतौदेशिकं, यच्च तप्त्वा गुडादिना मोदक चूरीबन्धवितरणं तत्कमद्देशिकमिति । पूतीकर्म - पवित्रस्यापवित्रकरणं, यथा शुचिः प्रयोघटोऽपि मद्यबिन्दुनैकेनाशुचिः स्यात्तथा विशुद्धाहारोऽप्याधाकर्मादियोगात्पूतिकः स्यात् उद्गमादिदोषरहितं भक्तं सदपि तादृशं भुज्यमानं निरतिचारमपि चरणं पूर्ति करोतीत्ययं 25 दोषः । मिश्रजातं - गृहिसंयतोभयप्रणिधानेन पाकादिभावमुपगतं - सामान्यतो भिक्षाचरस्वकुटुम्बनिमित्तं मिलित्वा पाचितं, पाखण्डिस्वकुटुम्बनिमित्तं मिलित्वा पाचितं, केवलसाधु Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे. [द्वितीयकिरणे स्वकुटुम्बनिमित्तं सम्मील्य पाचितश्च तद्भवति । स्थापना-साधुभ्यो देयमिदमिति चुल्लीस्थाल्यादौ स्वस्थाने सुस्थितछजकादौ परस्थाने चिरकालमल्पकालश्च घृतादीनां क्षीरादीनां स्थापनम् । प्राभृतिका-कालान्तरभाविनां विवाहादीनामन्तर एव साधुसमागमे तेषामप्युपयोगो विवाहादिसम्भवमोदकादीनां भवत्विति बुद्ध्या इदानीमेव करणं 5 सन्निकृष्टस्य वा विवाहादेः कालान्तरे साधुसमागमं विभाव्य तदानीमेव करणं तद्यो गात्तादृशभक्तादिकमपि । प्रादुष्करणम्-वह्निप्रदीपमण्यादिना भित्त्यपनयनेन वा बहिनिकाश्य द्रव्यधारणेन वा प्रकटकरणम् । तद्विधा प्रकटकरणं प्रकाशकरणश्चेति, अन्धकारादपसार्य बहिः प्रकाशे स्थापनं प्रकटकरणं, स्थानस्थितस्यैव भित्तिरन्ध्रकरणादिना प्रकटी करणं प्रकाशकरणम् । रत्नेन पद्मरागादिना प्रदीपेन ज्योतिषा ज्वलता वैश्वानरेण तत्रैवं 10 प्रकाशना सुविहितानां न कल्पते, प्रकाशकरणेन प्रकटकरणेन च यद्दीयते भक्तादि तत्संयमिनां न कल्पते, ज्योतिःप्रदीपाभ्यान्तु प्रकाशितमात्मार्थे कृतमपि न कल्पते, तेजस्कायदीप्तिसंस्पर्शादिति । क्रीतम्-साध्वादिनिमित्तं क्रयेण निष्पादितम् तदपि आत्मद्रव्यक्रीतमात्मभावक्रीतं परद्रव्यक्रीतं परभावक्रीतश्चेति चतुर्विधम् , स्वयमेवोज यन्तभगवत्प्रतिमाशेषादिरूपेण द्रव्येण परमावयं यत्ततो भक्तादि गृह्यते तदात्म15 द्रव्यक्रीतम , यत्पुनरात्मना भक्ताद्यर्थं धर्मकथादिना परमावर्त्य भक्तकादि ततो गृह्यते तदात्मभावक्रीतम् , तथा यत् परेण साधुनिमित्तं द्रव्येण क्रीतं तत्परद्रव्यक्रीतं यत्पुनः परेण साध्वर्थ निजविज्ञानप्रदानेन परमावर्ण्य ततो गृहीतं तत्परभावक्रीतम् । प्रामित्यं-साध्वर्थमन्नादि वस्त्रमुच्छिन्नमानीयते तत्प्रामित्यं, अपमित्य--भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत्साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तत्तथा, तच्च लौकिकलोकोत्तरभेदतो द्विविधम् , साधुविषयं भगि20 न्यादिभिः क्रियमाणद्रव्यमाद्यम् , द्वितीयन्तु परस्परं साधूनामेव वस्त्रादिविषयम् । परिवर्तितम् साधुनिमित्तं कृतपरावर्तरूपं तदपि लौकिकलोकोत्तरभेदाभ्यां द्विविधम्-कुथितं घृतं दत्त्वा साधुनिमित्तं सुगन्धिघृतग्रहणं,कोद्रवकूर समर्पयित्वा साधुनिमित्तं शाल्योदनग्रहणश्चाद्यम् ,द्वितीयञ्च यत्साधुस्साधुना सह वस्त्रादिपरिवर्तनकरणरूपम् । अभ्याहृतं-साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रा माद्वा समानीतम्-आचीर्णमनाचीर्णमिति तद्विविधम् , निशीथाभ्याहृतनोनिशीथाभ्याहृतभे25 देनानाचीर्णं द्विविधम् , यदर्धरात्रावानीतं प्रच्छन्नं साधूनामपि यदभ्याहृतमित्यविदितं तदाद्यं, नोनिशीथाभ्याहृतं तु तद्विपरीतं यत्साधूनामभ्याहृतमिति विदितम्, देशे देशदेशे चाचीण, हस्तशतप्रमितक्षेत्रं देशः तावन्माने आचीर्ण उपयोगपूर्वकाणि यदि त्रीणि गृहाणि भवन्ति ततः कल्पते, हस्तशतमध्ये तु देशदेशः, एतन्मध्यवर्ति मध्यमम् । यदोोपविष्टा कथमपि स्वयोगेन मुष्टिगृहीतेन मण्डकादिना यदि वा स्वापत्यादिपरिवेषणार्थमोदनभृतया करोटिकयो. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वविशुद्धिः ] M : ५५३ त्पाटिता, अत्रान्तरे च कथमपि साधुरागच्छति भिक्षार्थं तस्मै च यदि करस्थं ददाति तदा करपरिवर्तनमात्रं जघन्यमभ्याहृतमाचीर्णम्, हस्तशतादभ्याहृतमुत्कृष्टम् । उद्भिन्नम् - साधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितोद्घाटनम् इदश्च पिहितोद्भिन्नमुच्यते, यत्तु पिहितं कपाटमुद्घाट्य साधुभ्यो दीयते तत्कपाटोद्भिन्नम्, मालापहृतम् - उच्चस्थानात्साध्वर्थमुत्तार्याऽऽहारादीनां दानम्, द्विविधं जघन्यमुत्कृष्टश्वेति तत्, भूविन्यस्ताभ्यां पादयोरप्रभागाभ्यां 5 फलकसंज्ञाभ्यां पाणिभ्यां चोत्पाटिताभ्यामूर्ध्वविगलितोच सिक्ककादिस्थितं दात्र्या दृष्टेरगोचरं यद्दीयते तज्जघन्यं मालापहृतम् बृहन्निःश्रेण्यादिकमारुह्य प्रासादोपरितलादानीय यद्दीयते तदुत्कृष्टमुभयमप्यकल्प्यम् । आच्छेद्यम् - आच्छिद्यापहृत्य यद्भक्तादिकं प्रभुः भृत्यादीनां कर्मकरादीनां सत्कं ददाति तत् । त्रिप्रकारं तत् प्रभ्वाश्रितं, स्वामिविषयं स्तेनकविषयञ्च । एतत्रिविधमप्याच्छेद्यं तीर्थकर गणधरैः निराकृतमतः श्रमणानां तद्ब्रहीतुं न कल्पते । अनिसृष्टम् - 10 यदा द्वित्राणां पुरुषाणां साधारणे आहार एकोऽन्याननापृच्छय साधवे ददाति तादृशमनिसृष्टम् - अननुज्ञातं तीर्थकरगणधरैरिति यावत्, अनुज्ञातं पुनः कल्पते सुविहितानाम् तच्चानिसृष्टमनेकधा मोदकविषयं चुल्लकविभोजन विषयम् विवाहादिविषयं दुग्धविषयं आपणादिविषयमित्यादि । अध्यवपूरकम् - अधि आधिक्येनावपूरणं स्वार्थदत्ताधिश्रयणादेस्साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थं प्राचुर्येण भरणमध्यवपूरः, स एवाध्यवपूरकस्तद्योगाद्भक्ताद्यप्य- 15 ध्यवपूरकम्, तदपि स्वगृहयावदर्थिकमिश्रं स्वगृहसाधुमिश्रं स्वगृहपाषण्डमिश्रश्चेति स्पष्टस्वरूपं त्रिविधम् प्रथमतः पाकारम्भकाले स्वनिमित्तं पाके निष्पाद्यमानेऽत्रान्तर एव यथासम्भवमुपस्थितयावदर्थिजननिमित्तं पुनरवतार्य विशेषेण तण्डुलादीन् प्रक्षिप्य पचति सोs - ध्यवपूरक इत्युद्गमेदोषाः । धात्रीपिण्डः बालस्य क्षीरमज्जन मण्डनक्रीडनालङ्काराऽऽरोपणकर्मकारिण्यः पञ्च धात्र्यः, एतासां कर्मधात्रीत्वं तेन लब्धः पिण्डो धात्रीपिण्डः, रुदन्तं बाल - 20 कमुद्वीक्ष्य भिक्षार्थं प्रविष्टस्साधुः प्रथमं भिक्षां दत्त्वा स्तन्यं पायय, पश्चाद्वा भिक्षां देहि, नो . चेदमस्मै क्षीरं दास्याम्यन्यस्या वा स्तन्यं पाययामीत्यादिरूपेण वदन् यं पिण्डं लभते स धात्री - पिण्डः । परस्परसन्दिष्टार्थकथिका दूती सा द्विधा स्वग्रामे परप्रामे च यस्मिन् ग्रामे साधु तस्मिन्नेव प्रायदि सन्देश कथिका तर्हि स्वग्रामदूती, या तु परप्रामे गत्वा सन्देशं कथयति सा परग्रामदूती, तन्निमित्तं पिण्डः दूतीपिण्डः । निमित्तपिण्डः - अतीतानागतवर्त्तमानकालेषु - 25 1 १. ज्ञानदर्शनशुद्धा विवोद्गमादिदोषपरिशुद्धाहारे गृहीते चारित्रशुद्धिर्भवति तथा च ज्ञानावरणादिकर्मणोऽपगमो भवति, तदपगमे आत्मनो यथावस्थितस्वरूपलाभात्मको मोक्षस्ततो मोक्षार्थिना चरणशुद्धधर्थं नियमेनोमादिदोषपरिशुद्ध आहारो प्राह्य इति ॥ ७० Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पन्यायविमाकरे [तीयविरल लाभादिकथनं भिक्षार्थ कुर्वतोत्पादनादोषसंपर्केण गृहीतपिण्डः, लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणरूपविषयभेदात्स षड्विधः । आजीवनपिण्डः-जातिकुलगणकर्मशिल्परूपाजीवनेनोत्पादिताऽऽहारशय्यादिकम् , मातृसमुत्था जातिर्ब्राह्मणादिवा, पितृसमुत्थं कुलमुग्रादि वा, गणो मल्लादिवृन्दं, कर्म कृष्यादि, शिल्पं तृणादितूण्डनसीवनप्रभृति, जात्या जीवनं पृष्टो 5 ऽपृष्टो वाऽऽहारार्थ स्वजाति प्रकटयति यथाऽहं- ब्राह्मण इत्यादि तदा स जात्या जीवनपिण्डः एवमन्येष्वपि भावनीयम् । वनीपक:-दायकाभिमतेषु श्रमणादिध्वात्मानं भक्तं दर्शवित्वा याचनया लब्धः पिण्डः । भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुराहारादिलुब्धतया तत्तद्भक्तगृहिणः पुरतश्शाक्यादिभक्तमात्मानं दर्शयति, निर्म न्थशाक्यतापसगेरुकाऽऽजीवकरूपेण पञ्चधा श्रमणाः । चिकित्सापिण्ड:-वमनविरेचन10 बस्तिकर्मादि कारयतो भैषज्यादि सूचयतो वा भिक्षार्थे यः पिण्डः स चिकित्सापिण्डः, सूक्ष्मः औषधविधिवैद्यज्ञापनेन, बादरः स्वयं चिकित्साकरणेन । अन्यस्मात्कारणाच भिक्षार्थ गृहे प्रविष्टेन साधुना निजव्याधिप्रतीकारोपाये पृष्टे ममाप्येकदैवं सञ्जातोऽमुकेनौषधेन घोपशमं गत इत्येवं वदता रोगिणो भैषज्यकरणाभिप्रायोत्पादनादौषधसूचनं कृतं भवतीति सूक्ष्मो बादरः प्रसिद्ध एव । क्रोधपिण्डः-विद्यातपःप्रभावज्ञापनं राजपूजादिख्यापनं क्रोधफल 15 दर्शनं वा भिक्षार्थ कुर्वतोऽयं दोषः। मानपिण्ड:-साधूनां समक्षं पणं कृत्वा तदाऽहं लब्धिमान यदा भवतां सरसमाहारममुकगृहादानीय ददामीत्युक्त्वा गृहस्थं विडम्ब्य गृह्णाति तदाऽयं दोषः । मायापिंड:-वेषपरावर्त्तादिना मायया प्रतारणेन दापयत्यात्मने भक्तादिदानाय च परं प्रयोजयति यदा तदाऽयं दोषः । लोभपिण्ड:-अद्याहममुकं सिंहकेसरादिकं ग्रहीष्यामीति बुद्ध्याऽन्यद्वल्लचनकादिकं लभ्यमानमपि यन्न गृह्णाति किन्तु तदेवेप्सितं स लोभपिण्डः । 20 अथवा पूर्व तथाविधबुद्ध्यभावेऽपि यथाभावं लभ्यमानं प्रचुरं लपनकश्रीप्रभृतिकं भद्रकर. समिति कृत्वा यद्गृह्णाति स लोभपिण्डः । संस्तवपिण्ड:-पूर्व जननीजनकादिद्वारेण पश्चाच्च श्वश्रश्वशुरादिद्वारेणात्मपरिचयानुरूपं सम्बन्ध भिक्षार्थं घटयता ग्राह्यः पिण्डः, सम्बन्धिसंस्तवो वचनसंस्तवश्चेति स द्विविधः मातृश्वश्वादिरूपतया संस्तवस्सम्बन्धिसंस्तवः । श्लाघारूपतया संस्तवो वचनसंस्तवस्तथाकरणेन लब्धः पिण्डो दूषितः । विद्या25 पिण्ड:-यया विद्यया सुरं साधयित्वाऽऽहारं गृह्णाति तदा विद्यापिण्डः, अथवा विद्यां पाठ यित्वा भोजनादिकं गृहस्थाद्हाति तदा विद्यापिण्डः । मन्त्रपिण्डः-मंत्रेणावाप्तः पिण्डः, पादलिप्तसूरयो मुरुण्डराजानं प्रति मंत्रं प्रयुक्तवन्तः परं तत्र न कोऽपि दोषस्तेषां तं प्रत्युपकारित्वादेवं संघादिप्रयोजनेन मंत्रे प्रयुज्यमाने न दोषः किन्तु केवलं भिक्षार्थमेव मंत्रप्रयोगे क्रियमाणे दोषः । चूर्गपिण्ड:-वशीकरणाद्यर्थं अञ्जनादिचूर्णप्रयोगादवाप्तः पिण्डो दुष्टः । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डविशुद्धिः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते योगपिण्डः यदा मुग्धलोकान् सौभाग्यादिविलेपनराजवशीकरणादितिलकेन जलस्थलमार्गोलंघनसुभगदुर्भगविधिमुपदिश्याऽऽहारं गृह्णाति तदा योगपिण्डदोषः । मूलकर्मपिण्डः - पुत्रादिजन्मदूषणनिवारणार्थ मघाज्येष्ठाऽऽश्लेषामूलादिनक्षत्रशान्त्यर्थ मूलैर्वनस्पत्यवयवैस्स्नानमुपदिश्याहारादिकं गृह्णाति तदायं दोषः । इत्युपार्जनादोषाः । शङ्कितदोषः, भक्तपानादौ या शक्का कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषया, न विद्मः किमिदमुद्मादिदोषयुक्तं किं वा नेत्या- 5 शंकास्पदीभूतं असति कल्पनीयनिश्चये ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते एतादृशमिति । म्रक्षितदोषः-सचित्तपृथिव्यादिना गुण्ठितं, तद्विविधं सचित्तेन पृथिव्यप्कायवनस्पतिकायेनावगुण्ठितं, अचित्तम्रक्षितश्चेति, अचित्तपदेन वसादिः पूतादिश्च गृह्यते । निक्षिप्तदोषःसचित्तायुपरिस्थापितपिण्डादिः । पिहितदोषः-उदकुंभेन पेषण्या : पीठकेन शिलापुत्रकेण मृल्लेपादिना केनचिजतुसिक्थादिना वा स्थगितं लिप्तं वा सदुद्भिद्य दायक श्रमणार्थ यदि 10. दद्यात्तदा तद्ब्रहणेऽयं दोषः । संहृतदोष:-दानानुचितं सचित्तेषु पृथिव्यादिष्वचित्तेषु वा केषुचित्पात्रेषु निक्षिप्य तेन रिक्तीकृतपात्रकेणैव भक्तं यदा दीयते तदायं दोषः । दायकदोषःबालवृद्धमत्तोन्मत्तग्रहगृहीतवेपमानज्वरितान्धप्रगलितारूढपादुकादीनां चत्वारिंशतां दायकानां हस्ताद्भिक्षादीनां ग्रहणम् । अन्मिश्रदोषः, अशनपानखाद्यस्वाद्यादिकं जातिपाटलादिभिः पुष्पैर्बीजहरितादिभिर्वा मिश्रं संयतानामकल्पिकं ददतो न मम कल्पत इति प्रत्याचक्षीता- 15 न्यथा दोषस्स्यात् । अपरिणतदोषः, रूपान्तरानापन्नमपरिणतं यथा दुग्धं दुग्धभाव एव स्थित दधिभावमनापन्नम् , भावोनस्तूभयोः पुरुषयोराहारो वर्तते तन्मध्ये एकस्य साधये दातुं मनोऽस्ति एकस्य च नास्ति तदाहारोऽपरिणतदोषयुक्तः स्यात् । लिप्तदोषः-सर्वतः पिच्छिलीकृतं, मृत्तिकया सर्वतः खरण्टितं, गर्हितद्रव्यादिना लिप्तम् । छर्दितदोषः-दीयमानस्यानादेः पृथ्वीकायादिसंसक्तत्वादि छर्दितम्, छर्दितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः, तदपि कदा- 20 चिच्छद्यते सचित्तमध्ये, कदाचिदचित्ते कदाचिन्मिश्रे, ततश्छर्दितानां सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामाधारभूतानामाधेयभूतानाश्च संयोगतश्चतुर्भङ्गी भवति, एतत्सम्बन्धिसर्वेषु भङ्गेषु भक्तादिग्रहणं प्रतिषिद्धमिति दशैषणादोषाः । संयोजनादोषाः पञ्च, संयोजनं नाम भक्तादेर्गुणान्तरोत्पादनीयद्रव्यान्तरमीलनम् , ते च संयोजनातिबहुकाङ्गारधूमनिष्कारणरूपाः पञ्चविधाः तत्र १. अपरिणतं द्विविधं द्रव्ये भावे च प्रत्येकमपि दातृग्रहीतृसम्बन्धाद्विधा, दुग्धत्वात्परिभ्रष्टं दधित्वमापन्नं परिणतमुच्यते, दुग्धभावे वाऽवस्थितेऽपरिणतं, भावविषयन्तु उभयोः पुरुषयोरिति टीकोक्तं वेदितव्यम् ॥ २. संयोजना द्विविधा द्रव्यविषया भावविषया च, द्रव्यसंयोजना च बहिरन्तश्च, यदा भिक्षार्थ हिण्डमानस्सन् क्षीरादिकं खण्डादिभिस्सह रसगृद्धथा संयोजयति तदा बाह्या संयोजना, यदा तु वसतावागत्य भोजनवेलायां पात्रे कवले वदने वा संयोजयति तदाऽभ्यन्तरा। एवं कुर्वन् आत्मनि ज्ञानावरणादिकं कर्म संयोजयति, दीर्घतरभवाच्च दुःखं संयोजयति ॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [द्वित्तीयकिरणे लोभाद्रव्यस्य मण्डकादेव्यान्तरेण खण्डघृतादिना रसविशेषोत्पादनाय वसतेबहिरन्तर्वा योजनं संयोजना । धृतिबलसंयमयोगा यावता न सीदन्ति तावदाहारप्रमाणं, अधिकाहारस्तु वमनाय मृत्यवे व्याधये वेति अतिबहुको दोषः । स्वाद्वन्नं तहातारं वा प्रशंसयन् यद्भुते स रागाग्निना चारित्रेन्धनस्याङ्गारीकरणादङ्गारदोषः । निन्दन् पुनः चारित्रेन्धनं दहन 5 धूमकरणाद्धमदोषः । षड्भोजनकारणाभावे भुञ्जानस्य कारणाभावो दोषः । क्षुद्वेदनाऽसहनं, क्षामवैयावृत्त्याकरणं, ईर्यासमित्यविशुद्धिः, प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादिसंयमापालनं क्षुधातुरस्य प्रबलारत्युदयात्प्राणप्रहारशङ्का, आतरौद्रपरिहारेण धर्मध्यानस्थिरीकरणमिति षड् भोजनकारणानि, तदेवं नामग्राहं संक्षेपेण वर्णिता एते दोषाः, विस्तरतस्तु पिण्डविशुद्ध्यादिग्रन्थे भ्योऽवगन्तव्या एवं वसत्यादिनिमित्तदोषा अपि ॥ 10 अथ समितिमाह साध्वाचरणे शास्त्रोदितविधिना सम्यक्प्रवृत्तिस्समितिः, सा चेर्याविरूपा पञ्चविधा पूर्वमेवोक्ता वेदितव्या ॥ . साध्वाचरण इति । साधुयोग्य आचरणेऽहत्प्रवचनानुसारेण प्रशस्ता प्रवृत्तिस्समितिः । गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारतः प्रवृत्तिरीर्यासमितिः, निरवद्यवचनप्रवृत्तिर्भाषासमितिः, द्विच. 15 त्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिरेषणासमितिः, आसनसंस्तारकपीठफलकवस्त्रपात्र दण्डादिकं चक्षुषा निरीक्ष्य प्रतिलिख्य सम्यगुपयोगपूर्व रजोहरणादिना यद्गहीयात् यञ्च निरीक्षितप्रतिलेखितभूमौ निक्षिपेत्साऽऽदाननिक्षेपणासमितिः, पुरीषप्रस्रवणनिष्ठीवनश्लेष्मशरीर. मलानुपकारिवसनानपानादीनां जन्तुरहितस्थण्डिले उपयोगपूर्वकं परित्यजनं परिष्ठापनास मितिरिति पञ्च समितयः पूर्वमेव संवरनिरूपणे प्रदर्शिता इत्याशयेनोक्तं पूर्वमेवोक्ता इति ॥ 20 अथ भावनामाख्याति धर्मार्थ चित्तस्थिरीकरणहेतुर्विचारो भावना। द्वादशविधा सा चेत्थम् ।। धर्मार्थमिति । भाव्यतेऽनयेति भावना, अभ्यास क्रिया, सा चाव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतर १. मुख्यतया भावना पञ्चविधा दर्शनशानचारित्रतपोवैराग्यभेदात् तत्र तीर्थकृतां प्रवचनस्य प्रावचनिकानामाचार्यादीनामतिशायिनां केवलिमनःपर्यवावधिमच्चतुर्दशपूर्वविदां अभिगमननमनदर्शनकीर्तनसम्पूजनस्तवनादिभिर्दर्शनभावना, भाव्यमानयानया दर्शनशुद्धिर्भवति । मौनीन्द्रं ज्ञानं प्रवचनं यथावस्थिताशेषपदार्थाविर्भावकं यत इहैव प्रवचने सम्यग् ज्ञातव्यजीवाजीवादिनवतत्त्वपरिज्ञानं दृष्टं तथा परमार्थरूपं मोक्षाख्यं कार्यम्, करणं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, कारकः सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठाता साधुः, क्रिया सिद्धिश्च मोक्षावाप्तिलक्षणा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनामेदाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते संस्कारस्य पुनस्तदनुष्ठानरूपा, आत्मगुणः ज्ञानजाज्ञानहेतुश्च दृष्टानुभूतश्रुतेष्वर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञानकार्योनीयमाना च, धारणात्मकमतिविशेषरूपैवेयं यदा धर्मार्थ चित्तस्थिरतायां कारणं भवति तदा सा भावनोच्यत इत्याशयेनोक्तं धर्मार्थ चित्तस्थिरीकरणहेतुरिति, तथाच ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवैराग्यादिषु चित्तस्थैर्याय यो विचारस्सा भावनेत्यर्थः । तस्या भेदा अनित्यादिरूपा द्वादशविधाः पूर्वमेव संवरे प्रोक्ताः परन्तु प्रत्येकं स्वरूपाणि न दर्शितानीति. 5 तत्स्वरूपाणि दर्शयितुं प्रतिजानीते द्वादशविधेति ॥ - तत्रादावनित्यभावनामाह बाह्याभ्यन्तरनिखिलपदार्थेष्वनित्यत्वचिन्तनमनित्यभावना। अनया चैषां संयोग आसक्तिर्विप्रयोगे च दुःखमपि पुरुषस्य न स्यात् ॥ - बाह्येति । बाह्येषु शय्याऽऽसनवस्त्रौघोपधिषु प्रतिदिवसमिमे रजसा विपरिणम्यमाना- 10 स्सर्वप्रकारेण स्वां सन्निवेशावस्थां विहाय विशरारुतां प्रतिपद्यन्ते, आभ्यन्तरं शरीरद्रव्यं जीवप्रदेशाप्तत्वात् , इदमपि जन्मनः प्रभृति पूर्वपूर्वावस्थां जहदुत्तरोत्तरावस्थामास्कन्दत्प्रतिक्षणमन्यान्यरूपेण च भवजराजर्जिताशेषावयवं पुद्गलजालविरचनमानं पर्यन्ते परित्यक्तस निवेशविशेषं विशीर्यते, निरीक्ष्यते हि भवे यत्प्रातरस्ति न तन्मध्याह्ने यञ्च मध्याह्ने न तनिशीथिन्यामत एव वृद्धास्सचेतनमचेतनमप्यशेषमुशन्त्युत्पादानित्यधर्मकमिति विचारोऽ- 15 नित्यभावनेत्यर्थः, ईशभावनाफलमाविष्करोति अनयेति-अनित्यभावनयेत्यर्थः एषामिति, प्राणप्रियाणामपि शरीरशय्यासनवस्त्रादीनां संयोगे आत्मना सम्बन्धे सति आसक्तिरभि. ध्वङ्गः, विप्रयोगे-वियोगे सति दुःखमपि शारीरं मानसं वा पुरुषस्य न स्यान्न भवेदेव तृष्णाविनाशेन निर्ममत्वादिति भावः ॥ • अशरणभावनामाह जन्मजरामरणादिजन्यदुःखपरिवेष्टितस्य जन्तोस्संसारे क्वापि अहच्छासनातिरिक्तं किमपि शरणं न विद्यते इति भावनाऽशरणभावना । एवं भावयतस्सांसारिकेषु भावेषु वैराग्यं समुत्पद्येत ॥ दृष्टा नान्यत्रैवं भावयतो ज्ञानभावना, अनया नित्यं गुरुकुलवासो भवति चारित्रभावना पूर्वमेव टीकाकृता प्रदर्शिता। केन निर्विकृत्यादिना तपसा मम दिवसोऽवन्ध्यो भवेत् कतरद्वा तपोऽहं विधातुं प्रभुः, कतरच्च तपः कस्मिन् द्रव्यादौ मम निर्वहति इति भावनीयं, इत्यादिरूपेण तपसि भावना । वैराग्यभावना च द्वादशविधा ग्रन्थकृता सम्प्रति प्रदीत इति ॥. Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे जन्मेति । पितृमातृभ्रातृदयितातनयादिपरिवेष्टितस्यापरिवेष्टितस्य वा त्रैलोक्यविध्वंसनपदिष्ठसामर्थ्यस्यासामर्थ्यस्य वा मंत्रतंत्रादिक्रिया सुगूढस्यानिगूढस्य वा नानाशास्त्रकृत परिश्रमस्यापरिश्रमस्य वा जन्तुमात्रस्य जन्मजरामरणादिजन्यदुःख परिवेष्टितत्वेन दुःखदावा भिज्वलज्ज्वालाकरालकरम्बितेऽस्मिन् संसारे शरणं भयापहारिस्थान मर्हच्छासनातिरिक्तं किमपि न 5 विद्यत इत्येवं पर्यालोचनमशरणभावनेत्यर्थः, तथा चिन्तयतो लाभमाह एवं भावयत इति अशरणभयात्सांसारिकपदार्थजातेषु प्रीत्यभावेन वैराग्यं लभते, जन्मजरामरणभ्रयाक्रान्तानानार्हच्छासनोक्तविधेरेव प्रकृष्टशरणत्वाज्ज्ञानदर्शनचरणलक्षणे तद्विधौ प्रवर्त्तत इति भावः ॥ संसारभावनामाह : ५५८ : संसारे वम्भ्रम्यमाणानां जनानां सर्व एव स्वजनाः परजनाश्चेति 10 विचारस्संसारभावना । एवं विचारयतः केष्वपि ममत्वाभावान्निर्विण्णस्य संसारपरिहाराय यत्न उदीयात् ॥ संसार इति । इतश्चेतश्च परिभ्रमण संसारः, तत्र जीवपुद्गलानां यथायोगं भ्रमणं द्रव्य-: संसारः, क्षेत्रसंसारो येषु चतुर्दशरज्ज्वात्मकेषु द्रव्याणां संसरणं सः, नारकतिर्यङ्नरामरगतिचतुर्विधानुपूर्व्युदयाद्भवान्तरसंक्रमणं भवसंसारः, दिवस पक्षमा सर्व्वयनसंवत्सरादिलक्षणस्य 15 चक्रन्यायेन भ्रमणं कालसंसारः, भावसंसारस्तु संसृतिस्वभाव औदयिका दिभाव परिणतिरूपः, तत्र च प्रकृतिस्थित्यनुभागानां प्रदेशविपाकानुभवनम् तथा च कर्मसंबन्धात्संसारी जन्मजरामरणरोगशोकादिग्रस्तत्वेन दुःखस्वभावे जन्मान्तरे नरकादिदुः खभाबाहुः खफले “पुनः पुनर्दुःखसन्तानसन्धानाद्दुःखानुबन्धिनि सुरनरनैरयिकतिर्यक्सुभगादुर्भगादिविचित्ररूपे सुखलेशाभावादसारे चक्रवत्पौनःपुन्येन भ्राम्यतां जनिजुषामेकद्वित्रिचतुः पश्चेन्द्रियास्सर्व एव यदा जनकता20. सम्बन्धेन स्वाम्या दिसम्बधेन वा सम्बन्धिनस्तदा स्वजना उच्यन्ते यदा च न तेन सम्बन्धेन सम्बन्धिनस्तदा परजना न पुनः सर्वथा स्वजनत्वं परजनत्वं वा नियतं, रागद्वेषमोहामिभूतत्वेन जन्तूनां नानायोनौ पृथक् पृथक् परिभ्रमणात्, अत एव प्रकृष्टानि दुःखान्यनुभवन्ति इत्येवं विधो विचारः संसारभावनेत्यर्थः, फलमाह एवमिति, प्रचुरदुःखफलनानायोनि भ्रमणभयेन कापि ममत्वाभावात् सांसारिक सुखेषु तडित्कल्पेषु विषमिश्रपयोनिभेषु जिहासितो 25 भवति, ततश्च संसारपरित्यागाय प्रयत्नवान् भवतीति भावः ॥ एकत्वभावनामाचष्टे— एक एवाहं जाये म्रिये न मे कश्चिदात्मीयः परो वा नवा कश्चिन्म Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ntentner: ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते • दीयं दुःखाद्यपहर्तुं प्रभवतीत्येवं विचिन्तनमेकत्व भावना | अनया च निस्सङ्गतां यायात् ॥ एक एवेति । एव शब्देन कदाचिदपि जननमरणानुभवो नेतरसहायो भवतीति सूचितम्, यमलकयोरपि क्रमेणैव निस्सरणान्मरणाच्च । संसारे हि जन्तुरेकक एवोत्पद्यते विपद्यतेऽस्येकक एव, दुःखी सन्नेकक एव कर्मार्जयति फलमपि तस्यैकक एवासेवते, बहुविधैः क्लेशैरर्जितं 5 धनन्तु कलत्र मित्रादिभिस्सम्भूय भुज्यते परन्तु दुःखं स्वकर्मकृतमेकक एव सहते यदर्थमपि जीवः प्रत्यहं भ्रमति क्लिश्यते समालम्बते दैन्यं भ्रश्यति धर्माद् वञ्चयत्यहितान पक्रामति च न्यायात्सोऽपि देहः परभवप्रयाणे पदमेकमपि नानुवर्त्तते; तथा च सर्वेषां स्वार्थैकनिष्ठत्वेन धर्मादृते नापरः कश्चन सहायो दुःखाद्यपहरणे दक्ष इत्येव भावनैकत्वभावनेत्यर्थः । ननु गृहावासकालीन ममतायाः कलत्रादिविषयिण्याः प्रव्रज्याकाले साधुभिस्त्यागः कृतः परन्तु साम्प्रत- 10 कालीनमाचार्यादिविषयं ममत्वं कथं परिहाय्यं भवेदिति चेदुच्यते बाह्यप्रेमणि पूर्व तनूकृते एकत्वभावनादिदाढर्थात् आचार्यादिविषयेऽपि ममत्वानुदयेन पश्चादाहारे उपधौ देहे न सज्जति छिन्नममत्वश्च सर्वेऽपि जीवा असकृदनन्तशो वा सर्वजन्तूनां स्वजनभावेन परजनभावेन च संजाताः, अतः कोऽत्र स्वजः परजनो वा इति भावनया त्रुटितप्रेमबन्धो भवतीति भावः । एवं सति यद्भवति तदाहानयाचेति । निस्सङ्गतामिति, स्वजनसंज्ञकेषु स्वीयत्वेन प्रसिद्धे शरीरे 15 च स्नेहानुरागवैधुर्यमित्यर्थः, यायादिति, प्राप्नुयादित्यर्थः, ततो मोक्षायैव चेष्टत इति भावः ॥ अन्यत्वभावनामाह- वैधम्र्येण शरीरभिन्नतयाऽऽत्मानुचिन्तन मन्यत्वभावना । अनया च देहात्माभिमाननिवृत्तिर्जायेत ॥ वैधर्म्येणेति । यस्माज्जीवः कायमपि व्यपास्य लोकान्तरं यात्यतोऽयं वपुषो भिन्न: 20 सहगमनरूपसाधर्म्याभावात् । तथा सेन्द्रियं शरीरमतीन्द्रियोऽहं, अनित्यं तन्नित्योऽहं, आद्यन्तवच्छरीरमनाद्यनन्तश्चाहं, संसारे भ्रमतो मे बहूनि शरीराणि प्राप्तानि परं स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्यादिविरुद्धधर्मैरन्यत्वचिन्तनमन्यत्वभावनेत्यर्थः, तत्फलमाहानया चेति । देहात्माभिमाननिवृत्तिरिति, शरीरमेवात्मेति बुद्धेः शरीरममताया वा विच्छेद इत्यर्थः तथाचैव भावयतस्सर्वस्वनाशेऽपि शोकांशोपि न जायत इति भावः ॥ अशुचिभावनामाह- अशुचिमयः कायोऽशुचिहेतुकोऽशुचिस्यन्दी चेति विचारोऽशुचिमा - बना । एतया च शरीरविषये निर्ममत्वं स्यात् 11 25 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तस्वभ्थापविमाकरे [ द्वितीयकिरणे अशुचिमय इति । अशुचिप्रचुर इत्यर्थः तत्कथमित्यत्राहाशुचिहेतुक इति यतो गर्भे शुक्रशोणितमेलनप्रभवो जरायुवेष्टितो मात्रभ्यवहृतान्नपानरसवर्द्धितः लिद्यद्धातुसमा कुलो, ऽतोऽशुचिमय इत्यर्थः, उत्पन्नादपि तस्मात्सदाऽशुचीन्येव मलमूत्रश्लेष्मपित्तरवेदादीनि निर्यान्तीत्यतोऽप्यशुचिमय इत्याहाशुचिस्यन्दीति, भावनाया अस्याः प्रयोजनमाह एतया चेति, 5 निर्ममत्वमिति, शरीरपोषणशृङ्गारादावौदासीन्यमुदेतीति भावः ॥ : ५६० : आश्रवभावनामाह- इन्द्रियायावद्वारा कर्मागमनचिन्तनमाश्रवभावना । अनया चाश्रवनिरोधाय यतेत ॥ इन्द्रियादीति । बहुतरविद्याबलादियुता अपि तत्तदिन्द्रियविषयप्रसक्तचित्ता इहामुत्र च 10 विनाशं प्राप्नुवन्ति अत एते चक्षुरादयो निजप्रवाहपतितमात्मानं सन्मार्गाद्धंशयन्ति नदीप्रवाहो स्वस्मिन् पतितानां तृणकाष्ठादीनामिव । अत इन्द्रियादयश्शुभाशुभकर्मागमद्वारभूता जीवस्योपकारिण इति चिन्तनमाश्रवभावनेति भावः । लाभमाहानयाचेति, अनया भावनया इन्द्रियविषयेषु मनोव्यावृत्त्या अनर्थपरम्परैकजनकादाश्रवौघात्परावर्त्तत इति भावः ॥ संभावनामाविष्करोति आश्रवदोषास्सर्वे पापोपार्जन निरोधपटिष्ठसंवरवतो नैव स्पृशन्तीति विलोकनं संवरभावना । अनया च संवराय घटते ॥ 15 आश्रवदोषा इति । मनोवचः काय कर्मप्रभवात्रवास्सर्वे पापसम्पादननिरोधसमर्थप्राणातिपातनिवृत्त्यादिपरिरक्षकगुत्यादिधारणतो नैव भवन्तीत्येवं चिन्तनमित्यर्थः, फलमाहानयेति, तत्रं विचारयतोऽवश्यं मिध्यात्वकषायादिनिरोधाय तत्परिपन्थिभूतेषूपायेषु 20 प्रवृत्तिर्भवति तथा च सद्दर्शनेन मिथ्यात्वं क्षमया क्रोधं मार्दवेन मानमार्जवेन मायामनीहया लोभं संयमेन विषयान्विषतुल्यान् गुप्तित्रयेण योगमप्रमादेन प्रमादं सावद्ययोगहानेन चाविरतिं शुभस्थैर्यचेतसाऽऽर्त्तरौद्रात्मकं ध्यानं च निरुध्यादिति भावः ॥ निर्जराभावनामाह— नरकादिषु कर्मफलविपाकोदयोऽबुद्धिपूर्वकस्तपः परीषहादिकृत कु 25 शलमूल इति विभावनं निर्जरा भावना । अनया च कर्मपरिक्षयाय यतेत ॥ नरकादिष्विति । नरकादिषु कर्मफलविपाकोदयस्याबुद्धिपूर्वकत्वेन संसारानुबन्धित्वा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूप ] म्या प्रकाशसमलङ्कृतै त्पापरूपत्वं तपसा परिषह्यजयेन वा कृतस्य बुद्धिपूर्वकत्वेन शुभानुबन्धित्वान्निरनुबन्धित्वाद्वा उपकारकमित्येवं विचिन्तयतो निर्जराभावना प्रोच्यत इति भावः फलमाहानया चेति कर्मपरिक्षयायं तपःप्रभृतिभिर्वर्धमाननिर्जरया ममत्वादिरूपकर्मणां परिशाटनायेत्यर्थः ॥ · ५६१ :: लोकभावनामाचष्टे— पञ्चास्तिकायरूपाने कपरिणाम्युत्पादव्ययधौव्यात्मको लोको विचि- 5 स्वभाव इति विचारणा लोकभावना । एतया च निर्ममत्वमुदियात् ॥ " पञ्चास्तिकायेति । लोक्यते दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति लोकः, स च धर्मास्तिकायेनाधर्मास्तिकायेन वाऽवच्छिन्नो निखिलद्रव्याधारो विशिष्टसंस्थानो गगनभागः क्षेत्ररूपः, द्रव्यरूपस्तु जीवाजीवरूपः, एतदभिप्रायेणैव पञ्चास्तिकायरूपेत्युक्तम्, यत ईदृशो marsa एवाने परिणामी, नानाविधपरिणामवान् प्रतिक्षणवर्त्तिनीं कालान्तरवर्त्तिनीं द्विवि- 10 धामुत्पत्ति बिभर्ति भावा हि प्रतिक्षणमुत्पद्यन्तेऽन्यान्यरूपेण, कालान्तरवर्तिनी चोत्पत्तिः पिण्डाद्याकारेण मृदादिद्रव्यमपहाय तस्य घटादिरूपेण परिणमनम्, एवं विनाशभृदपि, विनाशो हि द्विविधो क्षणिक कालान्तरवर्ती च विवक्षितक्षणाद्वितीयक्षणे हि विनाशोऽवश्यम्भावी, सोऽप्यवस्थान्तरापत्तिरेव न तु निरन्वयः । स्थित्युत्पत्ती अर्थक्रियाकारित्वेन सत्त्वानामनुग्रहकारिण्यौ, घटो हि समुत्पन्नस्तिष्ठश्च जलाहरणधारणादिरूपेणानुगृह्णाति, विनाशो - 15 ऽपि कालान्तरभावी कुण्डलार्थिनः कटकविनाशवद्भवत्यनुग्राहकः तथावस्थानमपि बिभर्त्ति, अस्तिकायरूपेण भावानां सर्वदा सद्भावात् धर्मास्तिकायादिव्यपदेशमजहतो हि ते वचनार्थपर्यायैस्सर्वदा व्यवतिष्ठन्ते इत्यादिरूपेण जीवाजीवाधारस्य लोकस्य विचित्रस्वभावतया विभावनमिति भावः, विभाविते चैवं किं स्यादित्यत्राहेतया चेति, कचिदपीदृशे लोके शाश्वत स्थानाभावेन प्रीत्यसम्भवान्निर्ममत्वं भवेत् तथा तत्त्वज्ञानविशुद्धिश्च ततोऽवश्यं मोक्षाय 20 चेतोवृत्तिः स्यादिति भावः ॥ तत्त्वज्ञानविशुद्ध्यर्थं लोकस्वरूपं विस्तरेणादर्शयितुं तत्स्वरूपसंस्थानादीन् वक्तुमुपक्रमते -- १. अनेन निक्षेपस्सूचितः तथाहि रूप्यरूप्यात्मकः सप्रदेशासप्रदेशरूपः जीवाजीवसमुदायो द्रव्यलोको नित्य नित्यात्मकः, - आकाशस्य प्रदेशा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक्षु क्षेत्रलोकः, अलोकाकाशप्रदेशापेक्षया चानन्तः, समयावलिका मुहूर्त्तदिवसाहोरात्रपक्ष मास संवत्सरयुग पल्योपमसागरोपमोत्सर्पिणी कालचक्र पुद्गलपरावर्त्तरूपः काललोकः, चतुर्गतिषु वर्त्तमाना जीवास्तत्र तत्र भवे यदनुभावमनुभवन्ति स भवलोकः, औदायिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकसान्निपातिकरूपो भावलोक इति ॥ ७१ 1 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयांकले तत्रालोकभिन्नः केवलिनाऽवलोक्यमानो लोकः, स च पश्चास्तिकायात्मकः कटिन्यस्तहस्तयुग्मवैशाखसंस्थानसंस्थितपादनराकृतिरुत्पत्तिस्थितिव्ययात्मकश्चतुर्दशरज्जुपरिमाण ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्भेदभिन्नः ।। तत्रेति । लोकभावनायामित्यर्थः, अस्मदादिभिरवलोक्यमानत्वं न सर्वत्रास्तीति केव5 लिनेत्युक्तम् , केवलिनाऽवलोक्यमानत्वमलोकस्यापीति तद्भिन्नत्वमुक्तं तावन्मात्रं शशशृङ्गादावपीति विशेष्यम् , यदेशावस्थितेनः केवलिना विलोक्यते स देशो लोक इति तु न लोकमाव्यापकं परिच्छिन्नदेशवृत्तित्वात्तस्य, लोके स्थित्वा विलोक्यत इति तु परस्पराश्रयमिति । कोऽसावित्यत्राह पश्चास्तिकायात्मक इति जीवाजीवरूप इत्यर्थः । तस्य संस्थानमाह कटिन्य स्तेति, कट्यां न्यस्तं विन्यस्तं करयुग्मं यस्य तादृशस्य, वैशाखस्य यत्संस्थानं पूर्वापरायत10 कोटिरूपं तदिव संस्थितौ न्यस्तौ पादौ यस्य तादृशस्य च नरस्य पुरुषस्याकृतिरिवाकृतिर्यस्य तथाभूत इत्यर्थः, उत्पत्तिस्थि तिव्ययस्वभावपदार्थपरिपूर्णत्वात्सोऽपि तथेत्याहोत्पादेति । तत्परिमाणं सूचयति, चतुर्दशरज्जुपरिमाण इति, अधस्ताद्देशोनसप्तरज्जुविस्तारः, तिर्यग्लोकमध्य एकरज्जुविस्तारः ब्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुविस्तीर्णः, उपरि तु लोकान्त एकरज्जु विस्तारः, शेषस्थानेषु कोऽपि कियानस्य विस्तार इति उच्छायतस्तु चतुर्दशरज्जवोऽस्य 15 प्रमाणमिति भावः । तस्य विभागमाहोधिस्तिर्यग्भेदभिन्न इति, ऊर्ध्वलोकोऽधोलोकस्तिर्यग्लोकश्चेति भागत्रयवानित्यर्थः ॥ रजोः प्रमाणमाह असंख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणा रज्जुः ॥ असंख्येयेति । संख्यातुमयोग्यस्स्वसमयपरिभाषितोऽसंख्येयः कोटाकोटीति, कोटेः 20 कोटिना गुणने लब्धायास्संख्यायाः कोटाकोटीति संज्ञा बोध्या । असंख्येयानां योजनानां या कोटाकोटिस्तत्प्रमाणा रज्जुर्भवति, कृत्स्नद्वीपपयोधिपर्यन्तवर्त्तिनस्स्वयम्भूरमणाभिधानजलनिधेः परतटवर्तिपूर्ववेदिकान्तादारभ्य यावत्तस्यैव तोयनिधेरपरवेदिकान्तमेतावत्प्रमाणा रज्जुरिति ॥ तत्र प्रथममधस्तनलोकस्वरूपमभिधातुकामोऽधोभागमाविष्करोति25 तत्र रुचकादधो नवशतयोजनान्युल्लंघ्य साधिकसप्तरज्जुप्रमाणो लो- कान्तावधिरधोमुखमल्लकाकृतिभवनपतिनारकनिवासयोग्योऽधोलोकः ॥ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते तत्रेति । लोक इत्यर्थः, बहुसमभूमिभागे रत्नप्रभाभागे मेरुमध्ये वक्ष्यमाणस्वरूपो मध्यलोकस्य मध्यभूतो रुचको भवति, तस्मादधोभागे नवशतयोजनानि यावत्तिर्यग्लोको भवति तदुक्तं " योजनानां नवशतान्यतीत्य रुचकादितः। आलोकान्तमधोलोकस्तप्राकृतिरुदाहृत" इति । साधिकेति, तदुक्तं ' सातिरेकसप्तरज्जुमानोऽधोलोक इष्यत' इति, अधोमुखमल्लकाकृतिरिति, ऊर्ध्वमल्पोच्छायत्वादधोऽधो महाविस्तारत्वाच्चाधोमुखशरावाकार- 5 संस्थान इति भावः । तत्र वासयोग्यानाह-भवनपतीति, विस्तरस्त्वग्रे वक्ष्यते, अधोलोक इति, अधः-अशुभः परिणामो बाहुल्येन क्षेत्रानुभावाद्यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोक इत्यर्थः ॥ कोऽसौ रुचक इत्यत्राह रुचकस्तु रत्नप्रभापरनामघर्मापृथिव्युपरितनक्षुल्लकप्रतरद्विके मेरुध. 10 राधरमध्ये उपय॑धोभावेन स्थितश्चतुरस्राकृतिराकाशप्रदेशाष्टकः । अयश्च मध्यलोकस्य मध्यं दिग्विदिग्व्यवहारमूलश्च ॥ रुचकस्त्विति । अष्टविधासु पृथिवीषु धर्मानाम्न्येका पृथिवी, यस्या रत्नप्रभा इति नामान्तरं, तत्र मध्ये मेरुवर्तते, तत्र चायामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकं रज्जुप्रमाणौ सर्वप्रतराणां क्षुल्लको द्वौ नभःप्रदेशप्रतरौ विद्यते उपर्यधोभावेन, तयोश्च मेरुमध्यप्रदेशे मध्यं लभ्यते, 15 तत्र च मध्य उपरितनप्रतरस्य ये चत्वारो नभःप्रदेशास्तथाऽधस्तनप्रतरस्य ये चत्वारो व्योमप्रदेशास्तेषामष्टानामपि प्रदेशानां समये रुचक इति परिभाषा । अयश्चाष्टप्रदेशको रुचकस्समस्ततिर्यग्लोकमध्यवर्ती गोस्तनाकारः क्षेत्रतः षण्णामपि दिशां चतसृणामपि विदिशां प्रभव इत्याशयेनाहायश्चेति, चशब्दो भिन्नक्रम एवार्थे, तथा च तिर्यग्लोकस्यैव मध्यं, न तु लोकस्य, भगवत्यादौ रत्नप्रभाघनोदधिघनतनुवातान् गगनस्यासंख्येयभागञ्चा- 20 तीत्य लोकमध्यव्यवस्थितेः, तस्मादेव चोर्ध्वमधश्च सम्पूर्णास्सप्तरजवो भवन्ति, तदुक्तं 'धर्माघनोदधिधनतनुवातान् विहायसः । असंख्यभागश्चातीत्य मध्यं लोकस्य कीर्तितम् । अस्मादूर्ध्वमधश्चैव सम्पूर्णास्सप्तरजवः' इति भावः । दिग्विदिग्व्यवहारमूलमिति, अस्मादेव रुचकादिशो विदिशश्च प्रभवन्ति, विजयद्वारानुसारेण प्रथमा दिगैन्द्री, ततोऽवशिष्टाः १. अस्य लोकस्य मध्यन्तु चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमधमतिवाह्य भवति ॥ २. तिर्यग्लोकमध्यभागवर्तिनाविमौ, उपरितनक्षुल्लकमवधीकृत्योर्ध्व प्रतरवृद्धिरधःक्षुल्लकमवधीकृत्याधः प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अतः शेषापेक्षयेमौ लघुतरौ रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भौ वृद्धिहानिवर्जितौ लोकस्य बहुसमौ भागौ बोध्यौ ॥. . Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे प्रदक्षिणतो भवन्ति, ऊर्ध्वश्च विमला तमा चाधः, रुचकादारम्भात्सर्या दिशस्साद्याः, बहिश्वालोकाऽऽकाशाश्रयणादपर्यवसिताः, दशापि दिशोऽनन्तप्रदेशात्मिकाः, तत्र रुचकाद्वहिश्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येकमादौ द्वौ द्वौ नभःप्रदेशौ भवतः, तदप्रतश्चत्वारः, तत्पुस्तष्षट् ततो ऽप्यग्रतोऽष्टौ व्योमप्रदेशा इत्येवं व्यादिद्वयुत्तरश्रेण्या चतसृष्वपि दिक्षु पृथक्पृथक् नेतव्यम् , 5 तत एताः शकटो/संस्थानाः पूर्वादिका महादिशश्चतस्रो भवन्ति, एतासाश्च चतसृणामपि दिशां चतुर्वन्तरालकोणेष्वेकैकनभःप्रदेशनिष्पन्ना अनुत्तरा यथोत्तरं वृद्धिरहिताश्छिन्नमुक्तावलीसंस्थिताश्चतस्र एव विदिशो भवन्ति, ऊर्ध्वन्तु चतुरो नभःप्रदेशानादौ कृत्वा यथोत्तरं वृद्धिरहितत्वाच्चतुष्प्रदेशिकैव रुचकनिभा च चतुरस्रदण्डाकारैकैव भवति, अधो ऽप्येवं प्रकारा द्वितीयेति, निश्चयनयेन बोध्यम् , व्यवहारेण तु यत्र सवितोदेति सा प्राची, 10 यत्रास्तं याति सा प्रतीची कर्कादिधनुरन्तान् राशीन यत्र स्थितश्वरति सा दक्षिणा, मक रादीन् मिथुनान्तान् यत्र स्थितश्वरति सोत्तरेति सूर्यगतिकृतो नियमः, एवं विदिशोऽपि भाव्या इति ॥ तत्राधोलोकस्वरूपं पृथिवीभेदेनोच्यते रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभापूरपर्याया धर्मावंशाशै15 लाञ्जनारिष्टामघामाघवत्यभिधानास्सप्त पृथिव्योऽधोऽधः पृथुतराः॥ - रत्नेति । रत्नादीनां महातमःपर्यन्तानां द्वन्द्वः प्रभाशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः, तेन रत्नप्रभेत्यादिरों विज्ञेयः, रत्नादीनां प्रभायोगाद्गोत्रेणोत्कीर्तनम् , अथवा प्रभाशब्दस्स्वभाववाची प्राचुर्येण रत्नस्वभावा रत्नमयी रत्नबहुला वेत्यर्थः एवं शर्कराप्रभादावपि । नाम तासामाह घ मेति, तथा च प्रथमा पृथ्वी नाम्ना घर्मा गोत्रेण रत्नप्रभा द्वितीया नाम्ना वंशा गोत्रेण शर्कराप्रभे20 त्येवं भाव्यम् , पृथिव्य इति, पदमिदमधिकरणविशेषप्रतिपत्त्यर्थ, यथा च स्वर्गविमानपटलानि भूमिमनाश्रित्यावस्थितानि न तथा नारकावासाः, किन्तर्हि ? भूमिमाश्रित्य व्यवस्थिता इति भावः, सप्तग्रहणं न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदाय, अधोऽध इति, सप्तापि भूमयो नोर्ध्वतिर्यक्प्रचयेनावस्थिता अपि त्वधोऽध एवेति भावः । पृथुतरा इति, उपर्युपरितनपृथिव्यपेक्षयाऽधोऽधः पृथिवीनामायामविष्कम्भाभ्यां महत्तमत्वं, तथाहि विष्कम्भायामाभ्यां रत्नप्रभैकरज्जुप्रमाणा, 25 शर्कराप्रभा रज्जुद्वयप्रमाणा, वालुकाप्रभा रज्जुत्रयप्रमाणेत्येवंरूपेण भाव्या, तथा रत्नप्रभा १. अस्याः पृथिव्याः काण्डत्रयं खरकाण्डपंकबहुलकाण्डजलबहुलकाण्डभेदात् , तत्क्रमेण च षोडशचतुरशीत्यशीतियोजनसहस्रबाहल्यविभागात्मकम् , खरकाण्डं षोडशविधरत्नात्मकत्वात् षोडशविधम् , तत्र यः प्रथमो भागो. रत्नकाण्डं नाम तद्दशयोजनशतानि बाहल्येन, एवमन्यान्यपि पञ्चदश भाव्यानि रत्नविशेषमयानि चेति ॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५६५ : बाहल्यं अशीतिसहस्राधिकैक लक्षयोजनमितम्, द्वितीयाया द्वात्रिंशत्सहस्रो त्तर लक्षप्रमाणं तृतीयाया अष्टाविंशतिसहस्रोत्तरलक्षप्रमाणं चतुर्थ्यां : विंशतिसहस्रोत्तरलक्षप्रमाणम् पञ्चम्या अष्टादशसहस्त्रोत्तरलक्षप्रमाणं षष्ठयाष्षोडशसहस्रोत्तरलक्षप्रमाणं सप्तम्यास्तु सहस्राष्टकोत्तरलक्षप्रमाणमिति । एतासां पृथिवीनां किं निरालम्बनत्वं सालम्बनत्वं वेत्यत्राह - ताच प्रत्येकमनुक्रमतो घनोदधिघनवाततनुवात काशैर्लब्धप्रतिष्ठा वलयिताश्च ॥ 5 ताश्चेति । पृथिव्यः पुनरित्यर्थः, न ह्यव्यवधानेन रत्नप्रभादयश्शर्कराप्रभादिषु प्रति - ष्ठिता नापि निरालम्बना अपि तु प्रत्येकं पृथिव्योऽनुक्रमं घनोदध्यादिषु प्रतिष्ठिता इति भावः, तथा च रत्नप्रभा घनोदधौ घनोदधिश्व घनवाते स च तनुवाते सोऽप्याकाशे ततोऽधश्श- 10 र्कप्रभा सापि घनोदधावित्येवं पृथिवीनां प्रतिष्ठितत्वमाकाशन्तु स्वस्मिन्नेव प्रतिष्ठितं नत्वाधारान्तरसमासादितप्रतिष्ठं, सर्वद्रव्याधारतया तत्सिद्धेः, तस्यैवाधाराधेयरूपत्वाच्चेति तात्पर्यार्थः । घनोदधीति, घनः स्त्यानी भूतोदक एवोदधिर्घनोदधिः, अयं बाहल्येन विंशतियोजनसहस्रपरिमिते मध्यभागे, घनः पिण्डीभूतो वातो घनवातोऽसंख्येययोजन सहस्रपरिमितो बाहुल्येन मध्यभागे, तनुश्चासौ वातश्च तनुवातोऽसंख्येययोजनसहस्रपरिमितो बाहल्येन 15 मध्यभागे, आकाशोऽवकाशान्तरं असंख्येययोजन सहस्रपरिमितं बाहल्येन मध्यभागे, एते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाहल्यास्ततः प्रदेश प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरभूताः, तनुतरीभूत्वा च स्वस्वपृथिवीं वलयाकारेण वेष्टयित्वा स्थिताः, अत वामूनि वलयान्युच्यन्ते तेषामुच्चैस्त्वं स्वस्वपृथिव्यनुसारेणेत्याशयेनाह वलयिताश्चेति, घनोदध्यादिभिर्वलयाकारेण वेष्टिता इत्यर्थः ॥ व्यावर्णितस्वरूपेऽस्मिन् लोके रत्नप्रभादिपृथिवीषु प्रत्येक मूर्ध्वमधश्चैकैकं योजन सहस्रं १. ईषत्प्राग्भारा तु पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसा: स्थावराः प्राणाः प्रायः, आकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते, शरीरादिपुद्गला जीवप्रतिष्ठाः जीवेषु तेषां स्थितेः, जीवाः कर्मप्रतिष्ठाः अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपेषु कर्मसु संसारिजीवानामाश्रितत्वात् । नारकादिभावेन कर्मभिर्जीवाः प्रतिष्ठिता वा । अजीवा जीवसङ्गृहीताः मनोभाषादिपुद्गलानां जीवैस्संगृहीतत्वात् संग्राह्यसंग्राहकभावेनेदम् । पूर्वत्रत्वाधाराधेयभावेन । जीवा अपि कर्मसंगृहीताः संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्त्तित्वात् ये यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिता एवेति ॥ 20 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वन्यायविभाकरे [द्वितीयकिरणे विहाय मध्ये नरका भवन्ति महातमःप्रभायान्तु मध्ये त्रिषु सहस्रेष्वेव नरका भवन्ति तेषु कुत्र कियदायुष्काः कीदृशाश्च नारका वसन्तीति शङ्कायामाह___ एतस्मिन् लोके रत्नप्रभादिक्रमेणोत्कर्षत एकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुष्का जघन्यतो दशवर्षसहस्रकत्रिसप्त5 दशसप्तदशद्वाविंशतिसागरोपमायुष्का । अनवरताशुभतरलेश्यापरिणामशरीरवेदनाविक्रिया अन्योन्योदीरितदुःखा नारका वसन्ति ॥ एतस्मिन् लोक इति । अधोलोके व्यावर्णितस्वरूप इत्यर्थः, रत्नप्रभादिक्रमेणेति, रत्नप्रभायामुत्कर्षेणैकसागरोपमायुष्काइशर्कराप्रभायां त्रिसागरोपमायुष्कास्तृतीयायां सप्त सागरोपमायुष्कास्तुर्यायां दशसागरोपमायुष्काः पञ्चम्यां सप्तदशसागरोपमायुष्काः षष्ठयां 10 द्वाविंशतिसागरोपमायुष्कास्सप्तम्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुष्का नारका निवसन्तीति भावः । किमेतन्न्यूनायुष्का न निवसन्तीत्यत्राहोत्कर्षत इति, नन्वेवं कुत्र कियन्न्यूनायुष्का वासयोग्या इत्यत्राह जघन्यत इति, प्रथमायां दशवर्षसहस्राणि द्वितीयायामेकसागरोपमं तृतीयायां त्रीणि सागरोपमाणि तुर्यायां सप्तसागरोपमाणि पञ्चम्यां दशसागरोपमाणि षष्ठयां सप्तदशसाग रोपमाणि सप्तम्यां द्वाविंशतिसागरोपमाणि तेषां जघन्या स्थितिरिति भावः । नारकाणां 15 लेश्यादिदुःखानाहानवरतेति, अनवरतं या अशुभतरा लेश्यापरिणामशरीरवेदनाविक्रियास्ता स्सन्त्येषामिति तादृशाः, अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः । नरकगतिनरकपश्चेन्द्रियजात्योर्नियमादशुभतरलेश्यादिभिस्सम्बन्धः, निमेषमात्रमपि कदाचिन्न शुभलेश्यादीनां सम्भव इति सूचयितुमनवरतेति लेश्यादीनां विशेषणम् । कापोतनीलकृष्णास्तिस्र एव तीव्रतातार तम्येन नारकाणां भवन्ति तथापि लेश्येति, सामान्यत उक्ति रकाणां सम्यक्त्वप्रतिपत्ते20 षडपि लेश्याः सम्भवन्तीति च सूचयितुम् । तत्र प्रथमायां कापोता तीव्रा, द्वितीयायां सैव तीव्रतरा, तृतीयायां कापोता तीव्रतमा तीव्रा च नीला, तुर्यायां नीला तीव्रतरा, पञ्चम्यां १. रत्नप्रभायां पृथिव्यामायामविष्कम्भाभ्यां नरका द्विविधाः संख्येयविस्तृता असंख्येयविस्तृताश्चेति तत्र ये संख्येयविस्तृतास्ते संख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः येऽसंख्येयविस्तृतास्ते असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण. असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपण, एवं षष्ठपृथिवीं यावत् । सप्तमपृथिव्यां द्विविधाः संख्येयविस्तृत एकः, स चाप्रतिष्ठानाभिधानो नरकेन्द्रकोऽवसातव्यः । असंख्येयविस्तृताश्चत्वारः, ये असंख्येयविस्तृतास्तेऽसंख्येयानि योजनशतसहनाणि आयामविष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपण । अप्रतिष्ठानाभिधानश्च एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडशसहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके त्रयः कोशा अष्टाविंश धनुश्शतं त्रयोदशांगुलानि अर्धाङ्गुलच्च किंचिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेणेति ॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशलमलते तीव्रतमा नीला तीव्रा कृष्णा च, षष्ट्यां तीव्रतरा कृष्णा, सप्तम्यां तीव्रतमा कृष्णैवेति । अशुभतराः पुद्गलपरिणामाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दसंस्थानभेदगतिबन्धागुरुलघुनामानो दश तैर्यथायोगं सन्तप्ता वेदितव्याः। अशुभतरदेहा अशुभनामकर्मोदयात्सर्वाण्यङ्गोपाङ्गादीनि तहेहेष्वशुभानि नियमेन हुण्डशरीराणि बीभत्सानि, तेषां हि द्विविधानि शरीराणि, भव. धारकाणि उत्तरवैक्रियाणि च, जघन्येनाकुलासंख्येयभागप्रमाणं भवधारकं सर्वासु, उत्कर्षेण 5 सप्त धनंषि त्रयो हस्ताः षट् चाङ्गुलानि प्रथमायामुत्सेधाङ्गुलमधिकृत्येदम् , अधोऽधोऽन्यासु च द्विगुणवृद्ध्या विज्ञेयम् । उत्तरवैक्रियन्तु प्रथमायां जघन्येनाङ्गुलसंख्येयभागप्रमितमन्यासु च, उत्कर्षेण पञ्चदश धनूंष्यर्धतृतीयाश्च रत्नयः प्रथमायामेतदेव द्विगुणं द्वितीयस्यामेवं तावज्ज्ञेयं यावत्सप्तम्यां धनुस्तहस्रमिति । अशुभतराश्च वेदनाः, नरकेषु अधोऽधश्शीतोष्णादिप्रयुक्ता विचित्रा वेदितव्याः, अशुभतरा विक्रिया नारकाणां भवन्ति, शुभं 10 करिष्याम इत्यशुभतरमेव विकुर्वते दुःखाभिहतमानसाश्च दुःखप्रतीकारं चिकीर्षवो गरीयस एव ते दुःखहेतून विकुर्वते इति भावः । किमेषां शीतोष्णजनितमेव दुःखमुतान्यथापीत्यत्राहान्योऽन्योदीरितदुःखा इति, भवप्रत्ययविभङ्गज्ञानानुगतत्वान्मिथ्यादृष्टयो दूरादेव दुःखहेतूनवगत्योत्पन्नदुःखाः प्रत्यासत्तमै परस्परालोकनाच्च समुज्वलितक्रोधकृशानवोऽभिघातादिभिरुदीरितदुःखा भवन्ति, सम्यग्दृष्टयस्तु संज्ञित्वादेवातीतजन्मन्यनाचारकारिणमात्मानं जामन्तः 15 क्षेत्रस्वभावजानि दुःखानि सहमानाः परैरुदीरितवेदनारस्वायुःक्षयमुदीक्षन्तेऽतिदुःखिताः न पुनर्वेदनास्समुदीरयन्त्यन्यनारकाणाम् , एषामवधिज्ञानं न विभङ्गज्ञानमिति भावः। नारका इति, नरको विद्यते एषान्ते नारका नरकेषु भवा इति वा, ननु चन्द्रसूर्यादयो देवाः प्रत्यक्षसिद्धा एव, ये चाप्रत्यक्षा अन्ये देवा मंत्रविद्योपयाचितकादिफलसिद्ध्याऽनुमानतो गम्यन्ते ये पुनर्नारकास्ते साक्षादनुमानतो वाऽनुपलभ्यमानत्वेन तिर्यङ्नरामरेभ्यो न सर्वथा भिन्नजातीया- 20 स्सन्ति खरविषाणवदिति चेन्मैवम् , सर्वज्ञप्रत्यक्षविषयत्वेन सर्वथाऽनुपलभ्यमानत्वस्यासिद्धत्वात् । अस्मत्प्रत्यक्षाविषयत्वान्न तत्सिद्धिरिति तु एकस्याप्रत्यक्षस्यापि अपरप्रत्यक्षविषयत्वे बाधकाभावेन व्युदसनीयम् , इन्द्रियप्रत्यक्षस्योपचारमात्रेणैव प्रत्यक्षत्वाच्च, सन्ति केचित्प्रकृष्टपापफलभोक्तारस्तस्य कर्मफलत्वात् जघन्यमध्यमफलभोगितिर्यङ्नरवत् , ये च प्रकृष्ट १. शीतोष्णबुभुक्षापिपासाखर्जूपारतंत्र्यभयशोकजराव्याधिरूपा दशविधा वेदनाः । तिर्यङ्मनुष्यभवान्नरकेषूत्पन्नास्सत्वा अन्तर्मुहूर्तेन निळूनाण्डजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्तिभावमागताश्चातिभयानकान् शब्दान् परमाधार्मिकजनितान् शृण्वन्ति हत, छिन्द, भिन्तेत्येवं रूपान् । श्रुत्वा ते भयोद्धान्तलोचना नष्टान्तःकरणा नष्टसंज्ञाश्च कां दिशं व्रजामः कुत्र वैतदु:खस्य त्राणं स्यादिति कांक्षन्ति, खदिराझारसंनिभा ज्वालां ज्योतिर्मयीं भूमिमाक्रमन्तो दह्यमानाः करुणमाक्रन्दन्तीत्यादिरूपेण वेदना विज्ञयाः ।। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविभाकरे . [द्वितीयकिरणे पापफलभोगिनस्ते नारका इत्यनुमानादपि तत्सिद्धेः, न चात्यर्थ ये दुःखितास्तिर्यङ्मनुष्यास्त एव प्रकृष्टपापफलभोगित्वान्नारकव्यपदेशभाजो नादृष्टनारकाः केचिदिति वाच्यम् , नरतिरश्वामुत्कृष्टपापफलभोक्तत्वाभावात् , येषामुत्कृष्टपापफलभोगस्तैश्च संभवद्भिस्सर्वैरपि दुःख प्रकारैर्युतैर्भवितव्यं, न चैक्मतिदुःखितानामपि तिर्यगादीनां दृश्यते, आलोकतरुच्छायाशीत5 पवनसरित्सरःकूपजलादिसुखस्यातिदुःखितेष्वपि तेषु दर्शनात् , छेदनभेदनपाचनदहनदम्भनवअकण्टकशिलास्फालनादिभिश्च नरकप्रसिद्धैः प्रकारैर्दुःखस्यादर्शनादिति ॥ ननु किमधोलोके सर्वत्र नारका एव वसन्ति नान्ये इत्याशंकायामाह- . - रत्नप्रभायाश्चाशीतिसहस्रोत्तरैकलक्षयोजनस्थूलाया योजनसहस्त्र मुपर्यधश्च विहायान्तर्जघन्यतो दशसहस्रवर्षायुष्काणामुत्कृष्टतः किश्चि10 दधिकसागरोपमायुष्काणां भवनपतीनां भवनानि वर्तन्ते । तत्रैव भागान्तरे रत्नप्रभीया नारका वसन्ति ॥ रत्नप्रभायाश्चेति । तस्याः स्थौल्यमाहाशीतिसहस्रेति, तावत्स्थूलायां न सर्वत्र भवनपतीनां भवनानि किन्तु परिमिते भाग इत्याह योजनसहस्रमिति, एक योजनसहस्रमुपर्यधश्चैकं योजनसहस्रं विहाय मध्येऽष्टसप्ततिसहस्राढथे लक्ष इत्य, तत्र केषां निवास इत्यत्राह 15 भवनपतीनामिति, भवनानां गृहविशेषाणां पतयोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वी पदिक्कुमारा दश देवविशेषास्तेषामित्यर्थः, भवनमायामापेक्षया किञ्चिन्न्यूनोच्छ्रायमानं, प्रासाद आयामद्विगुणोच्छ्रायः, बहिर्वृत्तान्यन्तस्समचतुरस्राणि अधःकर्णिकासंस्थानानि भवनानि, आवासास्तु कायमानस्थानीया महामण्डपा विचित्रमणिरत्नप्रभाभासितसकलदिक्चक्रा इति विशेषोऽवसेयः । भवनानीति, असुरादीनां विचित्रसंस्थानानि विमानानीत्यर्थः, अन्ये तु नव20 तियोजनसहस्राणामधस्ताद्भवनानि, अन्यत्र चोपरितनमधस्तनञ्च योजनसहस्रं मुक्त्वा सर्वत्रापि यथासम्भवमावासा इत्याहुः । तत्रासुरकुमारादीनां दक्षिणोत्तरदिग्भाविनां सर्वसंख्यया भवनानि चतुष्षष्टिलक्षा भवन्ति, नागकुमाराणां चतुरशीतिलक्षाः, सुपर्णकुमाराणां द्विसप्ततिलक्षाः, वायुकुमाराणां षण्णवतिलक्षाः, द्वीपकुमारदिक्कुमारोदधिकुमारविद्युत्कुमारस्तनितकुमाराग्नि कुमाराणां षण्णामपि दक्षिणोत्तरदिग्वर्तिश्लक्ष्णयुग्मरूपाणां प्रत्येकं षट्सप्ततिलक्षा भवन्ति । 25 भवनपतीनां स्थिति नियमयति जघन्यत इति, उत्कृष्टामाहोत्कृष्टत इति, एते भवनपतयः कुमारखदुद्धतभाषाऽऽभरणप्रहरणावरणयानवाहनत्वादुल्बणरागक्रीडनपरत्वाच्च कुमारा उच्यन्ते नन्वष्टसप्ततिसहस्राढये लक्षे रत्नप्रभायां यदि वासो भवनपतीनां नारकाणां तर्हि क वास इत्याशंकायामाहतत्रैवेति, तावन्मात्रायामेव रत्नप्रभायामित्यर्थः, ननु तर्हि तयोस्सांकर्य Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] म्यायप्रकाशसमलते स्यादित्यत्राह भागान्तर इति, भवनपतिवासानां दक्षिणोत्तरभेदतस्सत्त्वेनान्यत्र नारकाणां निवासा इति भावः, रत्नप्रभायां नारकाणां त्रयोदश प्रस्ताराः । नारकावासाश्च त्रिशल्लक्षाणि, द्रव्योर्थतया नित्या रत्नप्रभा प्रतिनियतसंस्थानादिरूपाकारस्य तादवस्थ्यात् , वर्णपर्यायैर्गन्ध-. पर्यायै रसपर्यायैस्स्पर्शपर्यायैश्चाशाश्वताः वर्णादीनामन्यथाभवनादिति ॥ अवशिष्टानां पृथिवीनां स्थूलपरिमाणादिकं प्रकाशयति नारकप्रस्तावात्- 5 द्वात्रिंशदष्टाविंशतिविंशत्यष्टादशषोडशाष्टसहस्राधिकलक्षयोजनबाहल्याश्शकेरादयः । अत्र तु नारका एव वसन्ति ॥ द्वात्रिंशदिति । शर्करादीनां पृथिवीनां बाहल्यं द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षयोजनादिक्रमेण बोध्यमित्यर्थः, अत्र वासयोग्यानाहात्र स्विति, शर्करादिपृथिवीष्वित्यर्थः, एवशब्देनाऽऽद्यायामिवात्र भवनपतिनिवासो नास्तीति सूच्यते, तथा क्रमेण प्रस्तारा नरकाणां एकादशनवस- 10 तपञ्चव्येकाः, आवासाश्च द्वितीयायां पञ्चविंशतिर्लक्षाणि, तृतीयायां पञ्चदश लक्षाणि, चतुर्थी दश लक्षाणि पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि षष्ठयां नरकपञ्चोनैकलक्षाः सप्तम्यान्तु पञ्चैवेति ॥ रत्नप्रभापृथिव्यन्तनिरूपणप्रसङ्गेन मध्यलोकवर्तिनामपि व्यन्तरवानमन्तराणां निवासस्थानमाह उपरितनसहस्रयोजनस्योर्ध्वमधश्च योजनशतं मुक्त्वा मध्ये पिशा- 15 चाद्यष्टविधानां जघन्यतो दशसहस्रवर्षायुष्काणामुत्कृष्टत एकपल्योपमायुष्काणां व्यन्तराणां भवनानि सन्ति ।। १ नारकावासा द्विविधाः आवलिकाप्रविष्टाः प्रकीर्णकरूपाश्चेति, आवलिकाप्रविष्टा नाम अष्टासु दिक्षु समश्रेण्या व्यवस्थिताः, आवलिकासु श्रेणीषु प्रविष्टा व्यवस्थिता इति व्युत्पत्तेः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधाः, वृत्ताः यस्राः चतुरस्राः, आवलिकाबाह्याः प्रकीर्णकाः नानासंस्थानसंस्थिताः, सप्तमपृथिव्यान्तु नारका आवलिकाप्रविष्टा एव । तथा चोभयविधनारकवाससंख्येयं रत्नप्रभायां त्रिंशल्लक्षेति ॥२ रत्नप्रभेयं द्रव्यार्थादेशेन शाश्वती आकारस्य सर्वदाभावात् पर्यायार्थादेशेनाशाश्वती, कृष्णसुरभितिक्तकठिनत्वादिपर्यायाणां प्रतिक्षणं कियत्कालादनन्तरं वाऽन्यथान्यथाभवनात् । अनादित्वान्न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति सदा भावात् न कदाचिन्न भविष्यति, अपर्यवसितत्वात् किन्तु अभूत् भवति भविष्यति च, एवं त्रिकालभावि.. त्वाद्धृवा, ध्रुवत्वानियतावस्थाना, धर्मास्तिकायादिवत् , नियतत्वादेव शाश्वती, शश्वद्भावे प्रलयाभावात् शाश्वतत्वादेव च सततं गंगासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पौण्डरीकहद इवान्यतरपुद्गलविचटनेऽपि अन्यतरपुद्गलोपचयभावादक्षया, अक्षयत्वादेव चाव्यया मानुषोत्तरादहिस्समुद्रवत् , अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणावस्थिता, सूर्यमण्डलादिवत्, एवं सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या जीवस्वरूपवदित्येवं सर्वासु पृथिवीषु बोध्यम् ।। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वग्यापविभाकरे (द्वितीयाहरणे ___ उपरितनेति । रत्नप्रभाया हि काण्डत्रयं भवति तत्रोपरितनं षोडशसहस्रयोजनमितं खरकाण्डं ततश्चतुरशीतिसहस्रयोजनमितं पङ्कबहुलं काण्डं, ततश्चाशीतिसहस्रयोजनमितं जलबहुलं तत्र खरकाण्डस्योपरितनयोजनसहस्रस्योर्ध्वमधश्चैकैकं योजनशतं विहाय मध्येऽष्टशतयोजने व्यन्तराणां नगराणि बहिर्विभागे वृत्तानि चतुरस्राण्यन्तरेऽधोभागे चारुपुष्कर5 कर्णिकानुकारीणि नगराण्यासत इति भावः, व्यन्तराणामिति, अन्तरमवकाशः तच्चाश्रय रूपं, विविधं भवननगरावासरूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः, तत्रोपर्युक्तस्थाने भवनानि, नगराण्यपि तिर्यग्लोके यथा जम्बूद्वीपद्वाराधिपतेर्विजयदेवस्यान्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजनसहस्रप्रमाणा नगरी, आवासास्त्रिष्वपि लोकेषु तत्रोयलोके पण्डकवनादाविति । अथवा विगतमन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि मनुष्यानपि चक्रवर्तिवासुदेवप्रभृतीन् 10 भृत्यवदुपचरन्ति केचिद्व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, एते हि देवनिकायविशेषाः पूर्वोदिताष्टशतयोजनेषूत्पन्नास्सन्तस्त्रिलोक्यामूर्ध्वमधस्तियक्षु च स्वभवननगरावासेषु स्वभावानवस्थितेर्बालवत्स्वातंत्र्याइवेन्द्राद्याज्ञया वा बाहुल्येनानियतगतिप्रचारा गिरिकन्दरान्तरारण्यविवरादिषु प्रतिवसन्तीति भावः । एते चाष्टविकल्पा इत्याह पिशाचाद्यष्टविधानामिति, पिशाचभूतराक्षसयक्षगन्धर्वमहोरगकिम्पुरुषकिन्नररूपेणाष्टविधानामित्यर्थः । देवगतिनाम15 कर्मोत्तरप्रकृतिविशेषोदयादेते विशेषसंज्ञाः पिशाचनामकर्मोदयात्पिशाचाः भूतनामकर्मोदया द्भूता इत्येवमादिरूपाः न तु पिशिताशनात्पिशाचा इति क्रियानिमित्ताः शुचिवैक्रियदेहत्वादशुच्यौदारिकशरीरसम्पर्कासम्भवात् , न च मांसमदिरादिषु पिशाचादीनां प्रवृत्तिलोके दृष्टेति वाच्यम् , क्रीडासुखनिमित्तत्वान्मानसाहाररूपत्वाचेति । एषां नघन्योत्कृष्टस्थितिमाह जघन्यत इति, उत्कृष्टत इति, योजनविस्तीर्ण योजनोच्छ्रायं पल्यमेकरात्राद्युत्कृष्टसप्तरात्रजाता. 20 नामङ्गलोमभिर्गाहें पूर्ण स्यात्, वर्षशतावर्षशतादेकैकस्मिन्नुद्धियमाणे यावता कालेन तद्रिक्तं स्यात्तावान् कालः पल्योपमं बौद्धिकव्यवहारेणोच्यते व्यन्तराश्चैतादृशैकपल्योपमायुष्का भवन्तीति भावः ।। अथ वानमन्तरानाह ऊर्ध्वशतयोजनेषु चोपर्यधश्च दशयोजनानि विहाय मध्ये वानमन्तर25 निकाया निवसन्ति । एते च व्यन्तराणामवान्तरभेदाः॥ १. चक्रं रत्नभूतः प्रहरणविशेषः तेन विजयाधिपत्ये वर्तितुं शीलमस्येति चक्रवर्ती भरतक्षेत्रे भरतादयो द्वादश चक्रवर्तिनोऽस्यामवसर्पिण्यामभूवन् , त्रिखण्डभरताधिपो बलदेवलघुभ्राता वासुदेवः, अवसर्पिण्यां ते नव उत्सर्पिण्यां च नव भवन्ति ॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५७१ : ऊर्ध्वशतयोजनेविति । रत्नप्रभापृथिव्या व्यन्तरनगरोपरितनवर्जितशतयोजनेषु ऊर्ध्वमधश्च दश दश योजनानि मुक्त्वाऽशीतियोजनेषु अणपन्नियपणपन्नियप्रभृतीनां वानमन्तराणां देवानां निकायास्सन्तीति भावः, ननु देवानां भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकभेदत. श्चतुर्निकायत्वमिति प्रज्ञापनातत्त्वार्थादावुक्तं तत्र ज्योतिष्कवैमानिको रुचकादूर्ध्व वर्तेते इति वक्ष्यते भवनपतिव्यन्तरौ तूक्तौ, इमे च वानमन्तराः के, किं देवा मनुष्या- 5 स्तियश्चो नारका वेत्याशंकायामाहैते चेति वानमन्तराश्चेत्यर्थः, व्यन्तराणामवान्तरभेदत्वादेते देवविशेषा एवेति भावः ॥ -- अथ तिर्यग्लोकं व्यावर्णयितुमादौ तिर्यग्लोकं स्वरूपयति रुचकादुपर्यधश्चाष्टादशशतयोजनमितो व्यन्तरनरज्योतिषादिनिवासयोग्यो झल्लाकृतिस्तिर्यग्विशालश्शुभपरिणामी तिर्यग्लोकः॥ 10 रुचकादिति । यस्मादूर्ध्वमधश्च लोकस्य वृद्धिस्तस्माद्रुचकादित्यर्थः, तवं नवशतयोजनान्यधो नवशतयोजनानि मिलित्वा चाष्टादशशतयोजनानि भवन्ति तावत्परिमित इत्यर्थः, तत्र वासयोग्यानाह व्यन्तरेति, आकारमाह झल्लाकृतिरिति, सर्वत्र समतलस्तुल्य... विष्कम्भायामो वादिनविशेषो झल्लरी, तद्वत्तिर्यग्लोकसन्निवेशोऽल्पोच्छ्रायत्वात्तुल्यायामविष्कम्भरूपमहाविस्ताराञ्चेत्यर्थ ऊर्ध्वाधोमानस्यातिसंकोचादाह तिर्यग्विशाल इति, विष्कम्भा- 15 यामाभ्यामेकरज्जुप्रमाण इत्यर्थः । तिर्यग्लोक इति, यतः असंख्येयास्स्वयंभूरमणपर्यन्तास्तिर्यक्प्रचयविशेषेणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्ततस्तिर्यग्लोकसंज्ञितः, अथवा तिर्यक्शब्दो मध्यमपर्यायः, तत्र क्षेत्रानुभावात्प्रायो मध्यमपरिणामवन्त्येव द्रव्याणि सम्भवन्ति, अतस्तद्योगादयं लोकोऽपि तिर्यग्लोक इत्यर्थः ॥ के पुनस्तत्रावस्थिता इत्यत्राह- मध्यलोकाभिधाने तिर्यग्लोके पूर्वपूर्वापेक्षया द्विगुणविस्तारा असंख्याता वलयाकृतयो जम्बूद्वीपादिस्वयम्भूरमणसमुद्रान्ता द्वीपसमुद्रा- . स्सन्ति ॥ मध्यलोकाभिधान इति । तिर्यग्लोकस्यैव मध्यलोक इति नामान्तरम् , न तु लोकस्यास्य चतुर्दशरज्जुमानस्य मध्यत्वात् , ननु कथं तर्हि तिर्यग्लोकस्य मध्यलोक इति नामा- 25 न्तरमिति चेन्न मध्यमपरिणामद्रव्यपूर्णत्वात् , ऊर्ध्वाधोलोकव्यवहारान्यथानुपपत्ता, यन्नि Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५७२ : तस्त्वन्याय विभाकरे [ द्वितीयकिरणे रूपितं हि ऊर्ध्वत्वमधस्त्वश्च तदेव मध्यं भवतीति भावः । जम्बूद्वीपादीति, द्विर्गता आपोSत्रेति द्वीपाः, द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाहाराद्युपष्टम्भहेतुलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति वा द्वीपाः । जम्ब्वा सुदर्शनापरनाम्न्याऽनादृतदेवा वासभूतयोपलक्षितो द्वीपस्तत्प्रधानो वा जम्बूद्वीपो निखिलद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरीभूतः, अथवा प्रतिविशिष्टस्य जम्बूवृक्षस्या5 साधारणाधिकरणत्वादयं जम्बूद्वीप उच्यते, न च केनायं संकेतितो जम्बूवृक्षसत्वाज्जम्बूद्वीप इतीति वाच्यम्, संज्ञासंज्ञिसम्बन्धस्यानादित्वात् न च तथापि संज्ञाकर्त्तुरावश्यकत्वमेकान्तानादित्वाभावादिति वाच्यम्, पुरुषप्रवाहस्याप्यनादितया प्रवाहानादित्वोपपतेर्जम्बूत रोश्च सर्वदा सवाल्लोकसन्निवेशस्य च न कदाचिदनीदृशत्वात् तस्मादनादिप्रवाहरूपत्वेन शब्दार्थसम्बन्धस्य पुरुषव्यवस्थाप्यत्वसम्भवात् । अनिष्टविनिवेशव्युदासाय पूर्वपूर्वापेक्षयेति, 10 जम्बूद्वीपादयो लवणसमुद्रादयश्च येन क्रमेणाग्रे वक्ष्यन्ते तेनैव क्रमेण तत्तदपेक्षयेत्यर्थः, चतुरस्रादिनिवृत्त्यर्थमुक्तं वलयाकृतय इति, वृत्तसंस्थानसंस्थितत्वात्सर्वे एकस्वरूपा इत्यर्थः, विस्तारमधिकृत्याह - द्विगुणविस्तारा इति, तथाच जम्बूद्वीप एकं लक्षं लवणसमुद्रो द्वे लक्ष धातकीखण्डश्चत्वारि लक्षाणीत्येवं विस्तारमधिकृत्य नानारूपा इत्यर्थः । स्वयम्भूरमणसमुद्रान्ता इति, स्वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो देवास्ते यत्रागत्य रमन्ते स स्वयम्भूरमणस्तादृश15 स्समुद्रः स्वयम्भूरमणसमुद्रः, अर्धरज्जुप्रमाणः प्रान्तसमुद्रः अस्य महर्द्धिकौ देवौ स्वयम्भूवरस्वयंभूमहावरौ, स्वयम्भूरमणद्वीपस्य तु स्वयंभूभद्रस्वयंभू रमण महाभद्रौ वेदितव्यौ । तथा च जम्बूद्वीपादयो द्वीपास्स्वयंभूरमणद्वीपपर्यवसाना लवणसमुद्रादयस्समुद्रास्स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यवसानास्तिर्यग् लोकेऽसंख्येया द्वीपसमुद्रा भवन्तीति भावः || ननु जम्बूद्वीपस्यापि द्वीपत्वाद्वलयाकृतित्वप्रसङ्ग इत्याह 20 मध्ये लक्षयोजन परिमाणस्य जम्बूद्वीपस्य नाभिरिव भूतलं योजनसहस्रेणावगाहमानश्चत्वारिंशद्योजनचूलायुतो नवाधिकनवतिसहस्रयोजनसमुच्छ्रायोऽधो दशयोजन सहस्रं विस्तृत ऊर्ध्वं च योजन सहस्रविस्तारो १ जम्बूद्वीपः निखिलसमुद्राणामभ्यन्तरवत्र्त्ती शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लकः तैलपूपसंस्थानसंस्थितः अद्वितीयवज्ररत्नात्मकजगत्या जम्बूद्वीपप्राकाररूपया द्वीपसमुद्रसीमाकारिण्या महानगरप्राकारकल्पया सर्वदिक्षु सम्परिक्षिप्तः चतुर्द्वारोपशोभितः भरतैरव तहैमवत हैरण्यवत हरि रम्यकमहाविदेहवर्षोपशोभिताश्च । तथाऽयं पृथिवीपरिणामोऽपि, पर्वतादिमत्वात् अपरिणामोऽपि, नदीहूदादिमत्त्वात्, जीवपरिणामोऽपि मुखवनादिषु वनस्पत्यादिमत्त्वात् । पुलपरिणामोऽपि मूर्त्तत्वस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । अत्र पृथग्जीव परिणामत्वाभिधानं परमते पृथिवीजलयोः जीवत्वाव्यवहारात् ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५७३ : भद्रशालादिभिश्चतुभिर्वनैः परिवृतो मेरुभूधरः काञ्चनमयो वर्तुलाकारो विलसति ॥ मध्य इति । निश्चयतो मध्यभाग इत्यर्थः, तथा च जम्बूद्वीपस्य मध्यभागे भूतलमवगाह्य मेरोस्थितत्वस्योक्त्या वलयस्येव जम्बूद्वीपस्याकृतिर्नास्तीति सूचितम् , तथात्वे हि मध्ये विवरसद्भावप्रसङ्गेन भूतलाभावात् , अवगाहमानत्वोक्ति-विरुध्येतातः कुलालचक्रस्येवायं 5 प्रतरवृत्त इति भावः । वलयभूतानां समुद्रद्वीपादीनां पूर्व सामान्येन द्विगुणविस्तारत्वोक्तेस्तद्विशेषतो विज्ञानाय परिवेष्टितस्यास्य प्रमाण उक्तेऽन्येषां परिमाणं सुवेद्यं भवेदित्याशयेनाह लक्षयोजनपरिमाणस्येति, इतरेषां जम्बूद्वीपानां व्यावर्तनायाह-नाभिरिव भूतलमिति, यथा च नाभिश्शरीरमध्यावस्थिता शरीरिणामवयवभूता तथा मेरुरपि जम्बूद्वीपस्य मध्येऽवस्थित इति भावः । ननु भूतलमवगाह्य किमस्ति इत्यत्राह मेरुभूधर इति, सकलतिर्यग्लोक- 10 मध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान्मेरुदेवयोगाद्वा मेरुः, एवंभूतो भूधरो मेरुभूधरः, अयं हि जम्बूद्वीपस्य नाभिरिव कालचक्रस्य भ्रमिदण्ड इव तिर्यग्लोकपङ्कजस्याष्टदिग्दलवतः परागभरपिञ्जरोऽन्तस्स्थो बीजकोश इव पूर्व विदेहेभ्यः प्रत्यक् पश्चिमविदेहतः प्राक् देवकुरुभ्य उदक उत्तरकुरुभ्योऽवागू वर्तत इति भावः । भूतलावगाहनपरिमाणमाह योजनसहस्रेणेति, वसुधान्तर्योजनानां सहस्रेणावगाह्येत्यर्थः, पुनस्तं विशेषयति चत्वारिंशदिति, मेरोरस्य वैडूर्यप्रचुरा 15 चूलिकाऽऽस्ते, सा चोद्मप्रदेशे विष्कम्भायामाभ्यां द्वादशयोजनैमध्येऽष्टाभिरुपरि चतुर्भियोजनैरुच्छ्रायेण चत्वारिंशद्योजनैः परिवृतो वर्तते इति भावः, अधुना मेरोस्समुच्छ्रायमाह नवाधिकेति, अयश्च दृश्योच्छ्रायो बोध्यः, भूमिमवगाह्य स्थितस्यास्यान्तर्विष्कम्भायाममाहाध इति, उपरि यत्र चूलोद्गमस्तत्र विष्कम्भायाममाहोर्ध्वश्चेति, पुनस्तं विशिनष्टि भद्रशालादिभिरिति, आदिना नन्दनसौमनसपाण्डुकानां ग्रहणं तत्र मूले वलयपरिक्षेपिभद्रशालवनं तस्मा- 20 त्पश्चयोजनशतान्यारुह्योपरि प्रथममेखलायां पञ्चयोजनशतप्रमाणविस्तृतं नन्दनं द्वितीयं वनं ततोऽर्धत्रिषष्टिसहस्राण्यारुह्य पञ्चयोजनशतप्रमाणविस्तीर्णमेव द्वितीयमेखलायां सौमनसं नाम तृतीयं वनं ततोऽप्युपरि षट्त्रिंशद्योजनसहस्राण्यारुह्य चतुर्नवत्युत्तरचतुर्योजनशतैर्विस्तीर्ण मेरोशिशरसि तुर्य पाण्डुकं वनमास्त इति भावः, पुनः कीदृश इत्यत्राह काञ्चनमय इति, कनकाचलेऽस्मिन् हि काण्डत्रयं वर्तते कन्दतस्सहस्रयोजनमानं मृत्तिकापाषाणवतशर्करामयं 25 प्रथमं काण्डं, समभूतलात्रिषष्टिसहस्रयोजनोन्मानं रजतजातरूपांकस्फटिकबहुलं द्वितीयं काण्डं, ततष्षट्त्रिंशत्सहस्रयोजनावधि जाम्बूनदबहुलं तृतीयं काण्डं, तथा च काञ्चनप्राचुर्यात्काञ्चनमयोऽयमिति भावः, स कथं विलसतीत्यत्राह वर्तुलाकार इति, काश्चनस्थालनाभिरिव वृत्त इत्यर्थः ॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५७४: तस्वन्यायविभाकरे [द्वितीयकिरणे एवंविघे जम्बूद्वीपे षड्भिः कुलपर्वतैर्विभक्तानि सप्त क्षेत्राणि सन्तीत्याह जम्बूद्वीपे चोत्तरोत्तरक्रमेणोत्तरदिग्वर्तीनि क्षेत्रव्यवच्छेदकहिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिवर्षधरपर्वतालङ्कतानि भरतहैमवत हरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतनामभाञ्जि सप्त क्षेत्राणि । एवमेव धातकी. 5 खण्डे पुष्कराधै च द्विगुणानि क्षेत्राणि ॥ जम्बूद्वीपे चेति । कानि तानि क्षेत्राणीत्यत्राह भरतेति, यत्र भरतो नाम देवो महर्द्धिको महाद्युतिको महायशाः पल्योपमस्थितिकः परिवसति तत्क्षेत्रं भरतं, क्षुद्रहिमवतो महाहिमवतश्चापान्तरालं क्षेत्रं हैमवतं, तत्रत्ययुग्मिमनुष्याणामुपवेशनाद्युपभोगे हेममयाः शिलापट्टका उपयुज्यन्त इति हैमवतं, हेम्नो नित्य सम्बन्धाद्वा हैमवतं, हैमवतनामकमहर्द्धिकपल्योपम10 स्थितिकदेवयोगाद्वा हैमवतं, हरिः सूर्यश्चन्द्रश्च यत्र केचन मनुष्या सूर्य इवारुणावभासाः केचन चन्द्र इव श्वेता निवसन्ति तादृशं क्षेत्रं हरयः क्षेत्रवाची हरिशब्दो नित्यं बहुवचनान्तः, विशिष्टशरीरवत्पुरुषसम्बन्धात् महाविदेहनामदेवसम्बन्धाद्वा विदेहं देवकुरूत्तरकुरुषु मनुघ्याणां त्रिगव्यूतोड्रायत्वात् , रम्यकं, रम्यते क्रीड्यते नानाकल्पद्रुमैः स्वर्णमणिखचितैश्च तैस्तैः प्रदेशैरतिरमणीयतया रतिविषयतां नीयत इति रम्यं तदेव रम्यकं रम्यकदेवसम्ब. 15 न्धाद्वा तादृशम् । हैरण्यवतदेवसम्बन्धाद्धैरण्यवतं, ऐरावतं ऐरावतयोगात्तादृशं तथा चैतानि सप्तक्षेत्राणीत्यर्थः । एषां विशिष्टक्रमसन्निवेशाभिधित्सया प्राहोत्तरोत्तरक्रमेणेति, भरतोत्तरं हैमवतं तदुत्तरं हरिक्षेत्रमित्येवं क्रमेणेत्यर्थः । कतमदिगवच्छेदेनेत्यत्राहोत्तरदिग्व नीति, उत्तरदिगवच्छेदेनेत्यर्थः, तथा च जम्बूद्वीपस्य दक्षिणगामिनि पर्यन्ते स्थितं कालचक्रे नाव स्थमधिज्यधनुराकारं पूर्वदक्षिणपश्चिमसमुद्रेण स्पृष्टं भरतक्षेत्रं षड्विंशत्युत्तरपंचशतयोजनमितं 20 तदुत्तरं हैमवतं तदुत्तरं हरिक्षेत्रमित्येवं क्रमो विज्ञेयः । क्षेत्राणामेषां किं कृता विभाग व्यवस्थेत्याशङ्कायामाह क्षेत्रव्यवच्छेदकेति, प्राचुर्येण हिमाभिसम्बन्धाद्धिमवान् महांश्चासौ हिमवान् महाहिमवान् इन्द्रगोपवदसत्यपि हिमे रूढिविशेषबलाद्धिमवदाख्या। यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थ निषीदन्ति प्राचुर्येण स निषधः । नीलवर्णयोगान्नीलः, रुक्मस. दावाद्रुक्मी, शिखरबाहुल्याच्छिखरी, एते षट्वर्षधरपर्वताः, वंशो वर्षो वास्य इति 25 पर्यायनामानि क्षेत्रस्य, वर्षसन्निधानाद्वर्षा भरतादयः, तानसंकरेण विभज्य धारणाद्वर्षधरा एवभूताः पर्वता वर्षधरपर्वताः, तैरलङ्कृतानि स्वस्वपूर्वापरकोटिभ्यां लवणसमुद्रस्पर्शिभि १. क्षुद्रहिमवतो दक्षिणप्त्यां । दाक्षिणात्यलवणसमुद्रस्योत्तरस्यां पौरस्य लवणसमुद्रस्य पश्चिमायां प्राश्चात्यलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां दिशि भरतनामा वर्षों वर्त्तते । चक्रवर्तिनाऽखण्डितातपत्रेण सल्लक्षणेन सुन्दराङ्गेण विनीता राजधानी प्रभूतेन भरतेन शासितत्वाद्धरतनामाऽस्य वर्षस्य ॥ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलहते :५७५: विभक्तानि, तथा च भरतहैमवतयोर्मध्यस्थस्वाद्धिमवान् तयोविभागमापादयति, हैमवतहरिवर्षयोर्मध्यगत्वान्महाहिमवान् तयोर्व्यवच्छेदक इत्येवं कृतो क्षेत्रविभाग इति भावः, अत्र विस्तरस्तु ग्रन्थान्तरादवसेयः । अथ जम्बूद्वीप इव वर्षवर्षधरादीनां संख्यानियम धातकीखण्डस्य पुष्करार्धस्य चाहैवमेवेति, जम्बूद्वीपबदेवेत्यर्थः, धातकीखण्ड इति, धातकीनां वृक्षविशेषाणां खण्डो वनसमूहो धातकीखण्डस्तद्युक्तो द्वीपोऽपि धातकीखण्डो लवण- 5 समुद्रं परिक्षिप्य स्थितः कालोदसमुद्रपरिक्षिप्तः वलयाकारसंस्थानसंस्थितो विजयवैजयन्तजयन्तापराजितरूपद्वारचतुष्टययुतश्च । लक्षचतुष्टयविष्कम्भो जम्ब्वपेक्षया द्विगुणभरतादिक्षेत्रयुतः तद्विभाजकद्वादशवर्षधरपर्वतविलसितश्च । द्वे भरतक्षेत्रे द्वे हैमवतक्षेत्रे इत्येवं तथा द्वौ हिमवन्तौ द्वौ महाहिमवन्तावित्येवं क्रमेण च द्विगुणक्षेत्रपर्वताः मेर्वादयोऽपि द्वौ द्वौ वेदितव्याविति भावः । पुष्करार्धे चेति, पद्मबाहुल्यात् पुष्करद्वीपं, तदर्धभागे द्वीप इत्यर्थः, च- 10 शब्देन जम्बूद्वीपापेक्षयैव क्षेत्रादीनामत्र द्वैगुण्यं सूच्यते न तु धातकीखण्डापेक्षया, तथा च यथा धातकीखण्डे भरतादिक्षेत्रपर्वतादीनां द्वैगुण्यं तथा पुष्करार्धेऽपि जम्बूद्वीपापेक्षं द्वैगुण्यम् , तत्र पुष्करद्वीपः कालोदसमुद्रपरिक्षेपी षोडशलक्षविष्कम्भस्तस्यार्धमारातममष्टौ योजनलक्षाणि तस्मिन् पुष्करार्धे एव द्वैगुण्यं भरतादिक्षेत्राणां हिमवदादिपर्वतानाश्च नापरार्धे, पुष्करद्वीपार्धविभागकारी च मानुषोत्तरो नाम सुनगरप्राकारवृतश्शैलविशेष इति भावः ॥ 15 अथैवंभूतेषु सार्धद्वयद्वीपेषु आर्यम्लेच्छभूयिष्ठेषु कर्माकर्मभूमिप्रज्ञापनायाह मेरुगिरेर्दक्षिणतो निषधस्योत्तरतो देवकुरवः, नीलपर्वतादक्षिणेन तदुत्तरेणोत्तराः कुरवः, देवकुरूत्तरकुरुभ्योऽन्यत्र भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयः॥ मेरुगिरेरिति । पल्योपमस्थितिकदेवकुरुनामदेवसम्बन्धाद्देवकुरवः, एते च विदेह- 20 क्षेत्रे बोध्याः। उत्तरकुरूनाह नीलपर्वतादिति, तदुत्तरेणेति, देवकुरूत्तरेणेत्यर्थः, एवश्व विदेहा मन्दरदेवकुरूत्तरकुरुभिर्व्यवच्छिन्नमर्यादा एकक्षेत्रान्तःपातिनोऽपि क्षेत्रान्तरा इव भवन्ति परस्परेण तत्रत्यमनुष्याणां गमनागमनाभावादिति बोध्यम् , उपसंहरति देवेति, विदेहान्त:पातिनां देवकुरूत्तरकुरूणां कर्मभूमित्वप्रसङ्गवारणायान्यत्रेति, तथा च देवकुरूत्तरकुरवो हैमवतादयश्वाकर्मभूमय इति भावः, भरतैरावतविदेहा इति, पञ्च भरतानि पञ्चैरावतानि 25 पञ्च विदेहा इत्यर्थः, कर्मभूमय इति, यद्यप्यष्टविधस्य कर्मणो बन्धस्तत्फलानुभवनं सर्वेष्वेव १. कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकहैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभूमयः । क्षेत्रभेदेनामुनाऽकर्मभूमिका अपि त्रिंशद्विधाः, हैमवतपञ्चके हैरण्यवतपञ्चके Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वन्यायविमाकरे [द्वितीयकिरणे मनुष्यक्षेत्रेषु साधारणं तथापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकमुक्त्युपायस्य ज्ञातारः कर्त्तार उपदेष्टारश्च भगवन्तः परमर्षयस्तीर्थकरा अत्रोत्पद्यन्तेऽत्रैव जातास्सिद्ध्यन्ति तस्मात्सकलकर्माग्नेविध्यापनाय सिद्धिभूमयः कर्मभूमय इत्यस्यार्थः, अकर्मभूमिषु वर्तमानानाश्च मनुष्याणां ज्ञान दर्शनयोस्सत्त्वेऽपि सततभोगपरिणामित्वेन सर्वदा चरणप्रतिपत्तिर्नास्ति, यद्वाऽसिकृषिमषि5 विद्यावणिशिल्पात्मकषड्विधकर्मणां भरतैरावतविदेहेष्वेव पूर्वोक्तेषु दर्शनाकर्मभूमय इति भावः । ततश्च विदेहश्चतुर्विधः पूर्वविदेहो यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतः प्राग्विदेहः, एवं पश्चिमतस्सोऽपरविदेहः, दक्षिणतो देवकुरुनामा विदेहः, उत्तरतस्तु उत्तरकुरुनामा विदेह इति । ननु पूर्वापरविदेहयोः कर्मक्षेत्रानुभावकत्वेन महाविदेहव्यपदेशताऽस्तु, देवकुरुत्तरकुरूणां त्वकर्मभूमित्वेन कथं महाविदेहत्वेन व्यपदेशो, मैवम् , प्रस्तुतक्षेत्रयोर्भरताद्यपेक्षया महाभोग10 त्वान्महाकायमनुष्ययोगित्वान्महाविदेहदेवाधिष्ठानत्वाच्च महाविदेहशब्दवाच्यत्वोपपत्तेरिति ।। ___ ननु जम्बूद्वीपादिस्वयम्भूरमणसमुद्रान्ता इति पूर्वमुक्तं तत्र के जम्बूद्वीपादयः के च समुद्रा इत्यत्राह--- एवं लवणोदकालोदपुष्करोदवरुणोदक्षीरोदघृतोदेक्षुवरोदनन्दीश्वरोदारुणवरोदादिभिः समुद्रैः क्रमेणान्तरिता जम्बूधातकीखण्डपुष्करवरवरु15 णवरक्षीरवरघृतवरेक्षुवरनन्दीश्वरारुणवरादयोऽसंख्यातास्स्वयम्भूरमणपर्यन्ता द्वीपसमुद्राः परित एकरज्जुविष्कम्भे वर्तन्ते ॥ एवमिति । समस्तद्वीपसमुद्राभ्यन्तर्भूतत्वेनादौ जम्बूवृक्षणोपलक्षितो जम्बूद्वीपस्तं परिवृत्य लवणरसास्वादनीरपूर्णो लवणसमुद्रस्तं परिक्षिप्य धातकीवृक्षखण्डोपलक्षितो धातकी खण्डस्तमावृत्य विशुद्धोदकरसास्वादः कालोदस्तं परिक्षिप्य पद्मवरैरुपलक्षितः पुष्करवर20 स्तस्य परितश्शुद्धजलरसास्वादः पुष्करोदस्तमभितो वरुणवरद्वीपः ततो वारुणीरसास्वादो वरुणोदस्ततः क्षीरवरो द्वीपस्ततः क्षीररसास्वादः क्षीरोदस्ततो घृतवरस्तमभिव्याप्य घृतरसास्वादो घृतोदस्तत इक्षुवरस्तं परिवृत्येक्षुरसास्वाद इक्षुरसः ततो नन्दीश्वरवरस्ततो इक्षुरसास्वाद एव नन्दीश्वरोदस्ततोऽरुणवरस्ततश्चक्षुरसास्वाद एवारुणवरोद इत्येवमादयोऽसंख्याता द्वीपसमुद्रास्स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्ताः परितो वलयाकारेणैकरज्जुविस्तृते रत्नप्रभापीठे वर्तन्ते च पल्योपमायुष्काश्चतुर्थातिक्रमभोजिनो गव्यूतिप्रमाणशरीरोच्छायाः वज्रर्षभनाराचसंहननिनः समचतुरस्त्रसंस्थानाः, पञ्चसु हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यकेषु द्विपल्योपमायुष्काः षष्ठभक्तातिकमाहारग्राहिणो द्विगव्यूतिप्रमाणशरीरोच्छ्रायाः संहननसंस्थानाभ्यां पूर्वोक्ताभ्यां युक्ताः, पञ्चसु देवकुरुषु पञ्चसूत्तरकुरुषु त्रिपल्योपमायुष्काः अष्टमभक्तातिकमाहारिणः गव्यूतित्रयप्रमाणशरीरोच्छायाः पूर्वोक्तसंहननसंस्थानयुता मनुष्या भवन्ति ॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलते नान्यत्रेति भावः । स्वयम्भूरमणसमुद्रस्तु शुद्धोदकरसः, आदिनाऽरुणावासकुण्डलवरशंखवररुचकवरादीनां द्वीपानां ग्रहणं समुद्राणां नामान्यपि द्वीपनामतुल्यान्येव। एते सर्वेऽपि जम्बूद्वीपादरभ्य नैरन्तर्येण व्यवस्थिताः, ततो रुचकवरादसंख्येयान द्वीपसमुद्रान् गत्वा भुजगवरो नाम द्वीपः, ततोऽप्यसंख्येयान् तानुल्लंघ्य कुशवरो द्वीपस्ततोऽपि तथैवोल्लंध्य कोंचवरस्ततोऽपि तथैवोल्लंघ्याभरणादयो द्वीपा भाव्यास्समुद्रा अपि तादृशनामान एव, 5 मध्यगानां द्वीपानां नामानि लोके यावन्ति शुभनामानि शंखध्वजकलशश्रीवत्सादिरूपाणि तावन्त्येवेति ।। ननु निखिलेषु द्वीपेषु मनुष्या वसन्त्यथवा द्वीपविशेष इत्याशङ्कायामाह-- तत्र पुष्करवरद्वीपाधं यावन्मानुषं क्षेत्रम्, ततः परं मनुष्यलोकपरिच्छेदकः प्राकाराकारो मानुषोत्तरो नाम भूधरो वर्तते । नास्मात्परतो 10 जन्ममरणे मनुष्याणां जायते ॥ तत्रेति । प्रोक्तद्वीपेषु मध्य इत्यर्थः, तथाच यावत्पुष्करवरद्वीपाधं मानुषं क्षेत्रं पश्चच. त्वारिंशद्योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, एका योजनकोटी द्वाचत्वारिंशच्छतसहस्राणि त्रिंशत्सहस्राणि द्वे योजनशते एकोनपश्चाशत् किश्चिद्विशेषाधिके परिक्षेपेण बोध्यम् , मनुष्यक्षेत्रे कर्मभूमिका अकर्मभूमिका अन्तरद्वीपकाश्चेति त्रिविधा मनुष्याः परिवसन्ति, तथा च 15 जम्बूद्वीपस्य सप्त क्षेत्राणि धातकीखण्डस्य चतुर्दश पुष्करार्धस्य च चतुर्दशेति संमिलितानि पञ्चत्रिंशत्क्षेत्राणि मानुषाणीति भावः । अस्य व्यवच्छेदकमाह ततःपरमिति, पुष्करवरार्धात्परं बाह्यपुष्करवरार्धक्षेत्रं प्रतिरुद्ध्य नरक्षेत्रसीमाकारी प्राकाराकारः यथा भित्तिर्गृह द्वेधाकरोति तथा द्वीपस्यास्य भेदकोऽन्वर्थनामा मानुषोत्तरो भूधरो वर्वर्तीति भावः,अयं पर्वत एकविंशत्युत्तरसप्तदशयोजनशतान्युच्चैस्त्वेन मूले द्वाविंशत्युत्तराणि दशयोजनशतानि विष्कम्भेण वर्त्तते, अमुं 20 मानुषा न कदाचिदपि व्यतिब्रजितवन्तो व्यतिव्रजन्ति व्यतिब्रजिष्यन्ति वाऽन्यत्र चारणा १. पुष्कराणि पद्मानि तेर्वरः पुष्करवरः, स चासौ द्वीपश्च पुष्करवरद्वीपः तस्यार्ध इति विग्रहः । पूर्वार्धे उत्तरकुरुषु यः पद्मवृक्षः, पश्चिमाधैं उत्तरकुरुषु यो महापद्मवृक्षः, तयोरत्र पुष्करवरद्वीपे यथाक्रम पद्मपुण्डरीको देवी महर्द्धिको यावत्पल्योपमस्थितिको पूर्वार्धापरार्धाधिपती परिवसतः । अतिविशालत्वात्पऱ्या वृक्ष इव पद्मवृक्षं, पद्मश्च पुष्करमिति पुष्करवरोपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरद्वीप उच्यत इति ।। २. देवकुरुत्तरकुरूणां महाविदेहेऽन्तर्भावेणैतद्बोध्यमन्यथा पंचदशकर्मभूमिस्त्रिंशदकर्मभूमिरिति पञ्चचत्वारिंशत्क्षेत्रसंख्या व्याहन्येत ॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्सम्यायविभाकरे दिभ्यः । ततः किमित्यत्राह नास्मात्परत इति, यस्मादयं पर्वतो मानुषक्षेत्रमात्रस्योत्तरं वर्ततेऽत एवास्मात्परतः क्षेत्रेषु मनुष्याणां न जन्ममरणे भवतः, मनुष्याणां हि जन्म मरणं चात्रैव क्षेत्रे, यदि नाम केनचिदेवेन दानवेन विद्याधरेण वा पूर्वानुबद्धवैरनिर्यातनार्थमेवरूपा बुद्धिः क्रियते यथाऽयं मनुष्योऽस्मात्स्थानादुत्पाट्य मनुष्यक्षेत्रस्य बहिः प्रक्षिप्यतां येनोर्द्ध5 शोषं शुष्यति म्रियते वेति तथापि लोकानुभावादेव सा काचनापि बुद्धिर्भूयः परावर्त्तते, यद्धा संहरणमेव न भवति, संहृत्य वा भूयस्समानयति तेन संहरणतोऽपि मनुष्यक्षेत्राहिमनुष्याणां न कदापि मरणम् , येऽपि जङ्घाचारिणो विद्याचारिणो वा नन्दीश्वरादीनपि यावद्गच्छन्ति तेऽपि तत्र गता न मरणमश्नुवते किन्तु मनुष्यक्षेत्रमागता एवेति भावः ।। इत्थं तिर्यग्लोके मनुष्यनिवासयोग्यानि क्षेत्राण्यभिधाय ज्योतिष्कनिवासयोग्यं प्रदेशमाह10 रुचकाभिधानसमतलादूर्ध्व नवत्युत्तरसप्तशतयोजनान्तेऽनुक्रमेण जघन्योत्कृष्टतः पल्योपमाष्टमचतुर्थभागायुष्काणांतारकाणां विमानानि, तत ऊर्ध्वं दशयोजनेषु सहस्राधिकपल्योपमायुष्कसूर्यविमानं, तदुपर्यशीतियोजनेषु लक्षाधिकपल्योपमायुष्कचन्द्रविमानम् , ततोऽप्यूज़ विंशतियोजनेषु अधेपल्यैकपल्योपमायुष्काणां नक्षत्रग्रहाणां विमानानि ॥ 15 रुचकेति । अनुक्रमेणेति, तारकाणां जघन्या स्थितिः पल्योपमस्याष्टमो भाग उत्कृष्टा तु पल्योपमस्य चतुर्थो भाग इत्येवं क्रमेणेत्यर्थः, तारकाणां विमानानीति, ज्योतिष्कविशेषाणां विमानप्रस्तारा इति भावः, तत ऊर्ध्वमिति, तारकविमानादूर्ध्वमित्यर्थः, सहस्राधिकेति, उत्कृष्टत इदमिति विज्ञेयम् , जघन्यतस्तु सूर्यचन्द्रनक्षत्रग्रहाणां पल्योपमचतुर्थ भागः, यद्यपि सूर्याचन्द्रमसोः कनीयसी स्थितिर्न संभवति तथाप्येषु विमानेषु नाकिनस्त्रि20 विधास्सन्ति विमाननायकाः तत्सदृशाः परिवारसुराश्चेति, तत्र नायकतत्सदृशापेक्षया परा स्थितिः परिवारदेवापेक्षया तु जघन्या विज्ञेया, एवं ग्रहविमानादिष्वपि, अत एव सहस्रा. धिकपल्योपमायुष्केति पदस्य सूर्यविशेषणत्वाजघन्या स्थिति!क्ता, एवमग्रेऽपि । चन्द्रविमानमाह तदुपरीति सूर्यविमानोपरीत्यर्थः, नक्षत्रग्रहाणां विमानान्याह ततोऽपीति चन्द्रविमानादपीत्यर्थः, विंशतियोजनेविति, विंशतियोजनेषु मध्ये इत्यर्थः । नक्षत्रग्रहाणा25 मिति, नक्षत्राणां ग्रहाणाश्चेत्यर्थः ग्रहा मङ्गलादयः, कीदृशानामित्यत्राहार्धपल्येति, उत्कर्षेणा र्धपल्योपमायुष्काणां नक्षत्राणामेकपल्योपमायुष्काणाञ्च ग्रहाणामित्यर्थः, एते मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तमानाश्चन्द्रसूर्यनक्षत्रग्रहतारारूपा विमानोपपन्ना मण्डलगत्या परिभ्रमणमाश्रिताश्वारसहिताः स्वभावतो गतिरतिकास्साक्षाद्गतियुक्ता देवा इति मनुष्यक्षेत्राबहिर्वतिनश्चन्द्रा Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५७९ : दयस्तु विमानोपपन्ना अपगतचारा नो गतिरतयो नवगतियुक्ताश्च तात्स्ध्यात्तद्व्यपदेश इति म्यादिति भावः । तत्र मानुषोत्तर पर्वताद्बहिर्वर्त्तिनां चन्द्रसूर्याणां तेजांस्यवस्थितानि भवन्ति तेजसा नात्युष्णास्सूर्याः सर्वदैवानतिशीततेजसः चन्द्रास्सर्वदाभिजिता नक्षत्रेण सूर्याश्च पु युक्ता भवन्ति तत्र जम्बूद्वीपे द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यौ चत्वारो लवणोदे द्वादश धातकीखण्डे द्वाचत्वारिंशत्कालोदे द्वासप्ततिरभ्यन्तरपुष्करार्धे सर्वसंख्यया चन्द्रसूर्याणां प्रत्येकं द्वात्रिंशं 5 शतं भाव्यम् । नक्षत्र परिमाणन्तु मनुष्यलोके अष्टाविंशतिसंख्यां द्वात्रिंशेन शतेन गुणयित्वा भाव्यम् || एषां ज्योतिष्काणां गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थं वक्ति एवममी ज्योतिर्गणा एकविंशत्युत्तरैकादशशतयोजनदूरतो मेरुं परिभ्रमन्ति ॥ एवमिति । पुनश्चेत्यर्थः, ज्योतिर्गणा इति, ज्योतिष्मद्विमानसमूहा इत्यर्थः, किं कुर्वन्तीत्यत्राह परिभ्रमन्तीति, प्रादक्षिण्येन परितो भ्रमन्तीत्यर्थः, कं परितो भ्रमन्तीत्यत्रा मेरुमिति मेरुभूधरमित्यर्थः, किं विप्रकृष्टास्सन्निकृष्टा वेत्यत्राहैकविंशत्युत्तरेति, ननु चेतनानां गतिलों के कारणवती दृष्टा, न च विमानस्थानां ज्योतिष्काणां गमने कारणमस्त्यत एतदयुक्तमितिचेन्न तेषां कर्मवैचित्र्येण गतिरतित्वात् इति भावः ॥ अथोर्ध्वलोकं निरूपयितुमुपक्रमते ततश्चोर्द्ध किञ्चिदून सतरज्जुप्रमाण ऊर्ध्वकृतमृदङ्गाकृतिरालोकान्तमूर्ध्वलोकः क्षेत्रत उत्कृष्टशुभपरिणामोपेतः ॥ ततश्चेति । रुचकोर्ध्वं नवयोजनशतानि परिहृत्य तत ऊर्ध्वलोकस्यारंभात्किञ्चिन्यून सप्त १ जम्बूद्वीपे एक: सूर्यो मेरोर्दक्षिणभागे चारं चरन् वर्त्तते, एक उत्तरभागे, एकश्चन्द्रमा मेरो: पूर्वभागे, एकोऽपरभागे ॥ २. अनेन चारेण मनुष्याणां सुखदुःखविधयो भवन्ति, मनुष्याणां कर्माणि सदा द्विविधानि, शुभवेद्यान्यशुभवेद्यानि चेति, कर्मणां विपाक हेतवस्सामान्येन पञ्च द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात् । शुभवेद्यनां कर्मणां शुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री - विपाकहेतुः, अशुभवेद्यानाञ्चाशुभद्रव्यक्षेत्रादिसामग्री तथा । ततो यदा येषां जन्मनक्षत्रादिविरोधी चन्द्रसूर्यादीनां चारो भवति तदा तेषां प्रायो यान्यशुभवेद्यानि कर्माणि तानि तथाविधविपाकसामग्रीमवाप्य विपाकमायान्ति, विपाकमागतानि शरीर रोगोत्पादनेन धनहानिकरणतो वा प्रियविप्रयोगजननेन वा कलहसम्पादनतो वा दुःखमुत्पादयन्ति यदा चैषां जन्मनक्षत्राद्यनुकूलश्चन्द्रादीनां चारस्तदा प्रायस्तेषां शुभवेद्यानि कर्माणि शुभद्रव्यादिसामग्रीमधिगम्य प्रतिपन्नविपाकानि शरीरनीरोगताधनवृद्धिवैरोपशमन प्रियसम्प्रयोगाभीष्ट प्रयोजननिष्पत्त्यादिना सुखमुपजनयन्तीति ॥ 10 15 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व न्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे रज्जुप्रमाणतोर्ध्वलोकस्येति भावः । ऊर्ध्वलोकस्याकार माहोर्ध्वकृतेति तिर्यङ्मृदङ्गाकारव्यावर्तनायोवकृतेति विशेषणम् । वादित्रविशेषो मृदङ्गो मध्ये दीर्घस्ततः प्रदेशहान्योपरिष्टादधश्च संक्षिप्तस्तथैवोर्ध्वलोको मध्ये पञ्च रज्जुप्रमाणः ऊर्ध्वाधस्तदून प्रमाण इति भावः । लोकस्यास्योर्ध्वावधिमा हालोकान्तमिति ऊर्ध्वं यावल्लोकसमाप्तीत्यर्थः । ईषत्प्राग्भारोर्ध्वभागे सिद्धक्षेत्रा5 वधिरिति भाव: । क्षेत्रत इति अशुभतर परिणामिनारकयोगाद्धि अधोलोकोऽशुभ परिणामी, शुभाशुभ परिणामि मनुष्य योगात्तिर्यग्लोको मध्यपरिणामी, अतोऽपि तस्य मध्यलोक इति संज्ञा, क्षेत्र प्रचुर मध्यलोकापेक्ष योत्कृष्ट शुभ परिणामिवैमानिकदेवयोगादवाप्तमोक्षाणां सिद्धानां निवासाञ्चायं लोकः क्षेत्रत उत्कृष्टशुभपरिणामी, अथवाऽधोलोकतिर्यग्लोकौ क्षेत्रस्वभावादेवाशुभमिश्रपरिणामिनावूर्ध्वलोकोऽपि स्वस्वाभाव्यादुत्कृष्टशुभ परिणामी, यतो ह्यमुमति10 स्तोका : शुभकर्माणः क्षपितकर्माणो वाऽवाप्नुवन्ति, यथा यथाहि जीवस्य कर्म मल प्रध्वंसस्तथातथा जले तुम्बिकावदूर्ध्वं निर्मलस्थानप्राप्तिः, अत्र हि वर्त्तमानान् जना विशेष - तस्सम्मानयन्तीति भावः ॥ अत्र तर्हि के वासयोग्या इत्यत्राह - तत्र च कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च वैमानिका देवा वसन्ति ॥ 1 तत्र चेति । उर्ध्वलोके चेत्यर्थः, दीव्यन्तीति देवा देवगतिनामकर्मोदय सहकारेण युत्याद्यर्थावरुद्धत्वाद्देवाः प्रकृष्टपुण्यहेतुक सर्वप्रकारसुखभोगिनः, ते च जिनजन्मदीक्षाकेवलनिर्वाणमहोत्सवादिकं विना तिर्यगूलोकं कदापि नागच्छन्ति, संक्रान्त दिव्य प्रेमत्वाद् विषयप्रसक्तत्वात्, असमाप्तकर्तव्यत्वात्, अनधीनमनुजकार्यत्वात्, नरभवस्याशुभत्वेन तद्गन्धासहिष्णुत्वाच्च । सन्ति देवा जातिस्मरणप्रत्ययितपुरुषेण कथनात्, नानादेशप्रचारिप्रत्यायित20 पुरुषावलोकितकथितविचित्र बृहद्देव कुलादिवस्तुवत् । कस्यापि तपःप्रभृतिगुणयुक्तस्य प्रत्यक्षदर्शनप्रवृत्तेश्च दूरविप्रकृष्ट नगरादिवत् । विद्यामंत्रोपयाचनेभ्यः कार्यसिद्धेः प्रसाद फलानुमितराजादिवदित्यनुमानाद्देवानां सिद्धिः । ते च बहुक्षुत्पिपासा संस्पर्शशून्या अनवरत क्रीडाप्रसक्तमानसाः स्वच्छन्दचारिणो भास्वरशरीराः अस्थिमांसासृक्प्रबन्धरहिताः सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दराः विद्यामंत्राञ्जनादीनन्तरेण प्राकृततपोविशेषापेक्षया जन्मलाभसमनन्तरमेवा25 काशगतिभाज इति विभावनीयम् । तिर्यग्लोकादिनिवासिभ्य एतान् विशिनष्टि वैमानिका इति, यत्र स्थिता विशेषेण परस्परस्य भोगातिशयं मिमते मन्यन्ते वा विज्ञानात्तानि विमानानि, इन्द्रकश्रेणिपुष्पप्रकीर्णकभेदेन त्रिविधानि इन्द्रवन्मध्येऽवस्थितानि इन्द्रकाणि तेषां चतुर्द्दिक्षु आकाशप्रदेशश्रेणिवदवस्थानाच्छ्रेणिविमानानि, प्रकीर्णपुष्पवृदवस्थानात् पुष्प : ५८० : 15 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलङ्कते : ५८१ : प्रकीर्णानि तेषु भवा वैमानिका इति भावः, तेषां द्वैविध्यमाह कल्पोपपन्ना इति, कल्प आचारः, स चेहेन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिव्यवहाररूपस्तमुपपन्नाः प्राप्ताः कल्पोपपन्नाः सौधर्मेशानादिदेवलोकनिवासिनः, कल्पानतीताः कल्पातीता अवेयकादिवासिनोऽहमिन्द्रा वैमानिकदेवा इत्यर्थः ॥ तेषामवस्थानविशेषविज्ञापनायाह सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्राराऽऽन. तप्राणताऽऽरणाच्युतभेदेन द्वादशविधानि कल्पोपपन्नदेवानां स्थानान्यु. पर्युपरि भवन्ति ।। सौधर्मेति । सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्ति शक्रनिवासभूतं सौधर्मावतंसकं नाम विमानं तदुपलक्षितत्वात्सौधर्मः, कल्पः-सन्निवेश:-विमानप्रस्तारः, सकलविमानप्रधाने- 10 शानावतंसकोपलक्षितस्थानविशेष ईशानः, सनत्कुमारनामप्रधानविमानविशेषस्सनत्कुमारः, एवमेव माहेन्द्रादयोऽपि तत्तद्देवाधिष्ठितस्थानविशेषा भाव्याः। एते च द्वादशविधाः कल्पोपपन्नदेवानां निवासयोगयाः । उपर्युपरीति, सामीप्ये द्वित्वं न चात्र न सामीप्यमस्ति, असंख्येययोजनोत्तरत्वात्तेषामिति वाच्यम् , तुल्यजातीयेनाव्यवधानस्यैव सामीप्येन विवक्षितत्वात् न च तेषां तुल्यजातीयं व्यवधायकमिष्टमिति भावः, स्थानान्युपर्युपरि भव- 15 न्तीत्यनेन देवानां विमानानाञ्चोपर्युपरिभवनं प्रतिषिद्धं तस्यानिष्टत्वात् श्रेणिप्रकीर्णकानां विमानानामपि तिर्यगवस्थानाच्च, अपि तु कल्पा एबोपर्युपरि भवन्ति, ते च कल्पास्सौधमादयो नैकस्मिन् प्रदेशे नापि तिर्यङ् न वाऽधस्तात् वर्तन्ते किन्तु यथानिर्देशमुपयुंपरीति भावः । एवञ्च तिर्यग्लोकादूर्ध्वमसंख्येययोजनोपरि मेरूपलक्षितदक्षिणभागार्धव्यवस्थित. स्सौधर्मः कल्पः, मेरूपलक्षितोत्तरदिग्भागव्यवस्थित उपरितनकोट्या ईषत्समुच्छ्रिततरः ऐशान: 20 कल्पः, सौधर्मस्योपरि बहुयोजनोवं समश्रेणिव्यवस्थितः सनत्कुमारः, ऐशानस्योपरि ईषत्समुच्छ्रितोपरितनकोटिर्माहेन्द्रः, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुपरि बहुयोजनात्परतो मध्ये ब्रह्म . १. आवलिकाप्रविष्टानि चतुसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, आवलिकाबाह्यानि तु प्राङ्गणप्रदेशे कुसुमप्रकर इव इतस्ततो विप्रकीर्णानि, तानि च मध्यवर्तिविमानेन्द्रस्य दक्षिणतोऽपरतः उत्तरतश्च विद्यन्ते नतु पूर्वस्यां दिशि, नानासंस्थानसंस्थितानि च, आवलिकाप्रविष्टानि च प्रतिप्रस्तटं विमानेन्द्रकस्य पूर्वदक्षिणापरोत्तररूपासु चतसृषु दिक्षु श्रेण्या व्यवस्थितानि, विमानेन्द्रकश्च सर्वोऽपि वृत्तः, ततः पार्श्ववर्तीनि चतसृष्वपि दिक्षु यस्राणि तेषां पृष्ठतः चतसृष्वपि दिक्षु चतुरस्राणि तेषां पृष्टतो वृत्तानि, ततोऽपि व्यस्राणि पुनश्चतुरस्राणीत्येवं आवलिकापर्यन्तं भाव्यम् । एवं प्रैवेयकविमानं यावद्बोध्यम् ॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८२ : तवम्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे लोकनामा कल्पः, तत उपरि बहुयोजनान्तरं उपर्युपरि लान्तकमहाशुक्रसहस्रारकल्पा स्त्रयः, ततो बहुयोजनादूर्ध्वं सौधर्मेशानकल्पवत् आनतप्राणतौ कल्पौ तदुपरि समश्रेणौ सनत्कु मारमाहेन्द्रवत् आरणाच्युतौ व्यवस्थिताविति द्वादशकल्पा विज्ञेयाः ॥ अथ क्रमेण द्वादशकल्पेष्ववस्थितानां देवानां स्थितिमाह — 5 तत्र सौधर्मदेवस्योत्कृष्टतो द्विसागरोपममायुः, ईशानस्य किश्चिदधिकं द्विसागरोपमं सनत्कुमारस्य सप्तसागरोपमं माहेन्द्रस्य किञ्चिदधिकं तत्, अग्रिमाणाञ्च दशचतुर्दश सप्तदशाष्टादशैकोनविंशतिविंशत्येकविंशतिद्वाविंशतिसागरोपमाणि । जघन्यतस्सौधर्मस्य पल्योपमं, ईशानस्य किञ्चिदधिकं पल्योपमं, अग्रे तु यदधोऽधो देवानामुत्कृष्टमायुरुपरितन10 देवानां तज्जघन्यम् ॥ तत्रेति । तत् - सप्तसागरोपमं, अग्रिमाणाश्चेति, ब्रह्मलोकस्थस्य दशसागरोपमाणि, लान्तकस्थस्य चतुर्दशसागरोपमाणि, महाशुक्रस्थस्य सप्तदशसागरोपमाणि, सहस्रारस्थस्याष्टादशसागरोपमाण, आनतस्थस्यैकोनविंशतिसागरोपमाणि, प्राणतस्थस्य विंशतिसागरोपमाणि, आरणस्थस्यैकविंशतिसागरोपमाणि, अच्युतस्थस्य द्वाविंशतिसागरोपमाणीति भावः । 15 अथ जघन्यामेषां स्थितिमाह - जघन्यत इति, अग्रे त्विति, सनत्कुमारादीनामिति भावः शिष्टं स्फुटार्थम् ॥ अथाहमिन्द्राणां निवासस्थानमाह ततश्चोपर्युपरि त्रयोविंशतिसागरोपमा देकैकाधिक सागरोपमाधिकोत्कृष्टायुष्काणां तदधो देवोत्कृष्टजघन्यायुष्काणां देवानां सुदर्श 20 नसुप्रतिबद्धमनोरम सर्व भद्रविशाल सुमनस सौमनसप्रीतिकरादित्यभेदतो लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेशस्थाः कण्ठाभरणभूता नव ग्रैवेयकाभिख्याः स्थानविशेषास्सन्ति || ततश्चेति । कल्पोर्ध्वमित्यर्थः, त्रयोविंशतिसागरोपमादिति, आरभ्येति शेषस्तथा च 25 सुदर्शनस्य परा स्थितिस्त्रयोविंशतिसागरोपमं, सुप्रतिबद्धस्यैकाधिकं चतुर्विंशतिसागरोपमं मनोरमस्य पञ्चविंशतिसागरोपमं सर्वभद्रस्य षड्विंशतिसागरोपमं विशालस्य सप्तविंशतिसागरोपमं सुमनसस्याष्टाविंशतिसागरोपमं सौमनसस्यैकोनत्रिंशत्सागरोपमं प्रीतिकरस्य त्रिंशत्सागरोपमं, आदित्यस्य एकत्रिंशत्सागरोपमं भवतीति भावः, तदधोदेवेति यस्य Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] न्यायप्रकाशसमलड्डू लङ्कृते देवस्याधो यो देवो वर्त्तते तस्य यदुत्कृष्टमायुस्तदेवोर्ध्वस्थस्य जघन्यं यथा सुदर्शनस्याधोऽच्युतदेव स्तस्योत्कृष्टमायुर्द्वाविंशतिसागरोपमं तदेव सुदर्शनस्य जघन्यमित्येवं भाव्यम्, लोकपुरुषस्येति, प्रीवेव ग्रीवा लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जुपरिवर्त्तिप्रदेशस्तन्निविष्टतयाऽतिभ्राजिष्णुतया च तदाभरणभूता ग्रैवेयका नवात्मका इति नव ग्रैवेयका उच्यन्ते इति भावः || सम्प्रति विजयादीनाह - ततश्वोपरि पूर्वादिक्रमेण विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानि विमानानि सन्ति । मध्ये च सर्वार्थसिद्धविमानम् । आद्यचतुर्विमानस्थानामुत्कृष्टतो द्वात्रिंशत्सागरोपमं जघन्यत एकत्रिंशत्सागरोपममायुः । सर्वार्थसिद्धस्थानान्तु जघन्याभावेनोत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपममायुः । आस्थानद्वयं घनोदधिप्रतिष्ठं तदुपरि स्थानत्रयं वायुप्रतिष्टं तदुपरि 10 स्थानत्रयश्च घनोदधिधनवातप्रतिष्ठं शेषाणि च गुरुलघुगुणवत्त्वादाकाशप्रतिष्ठानि ॥ १५८३: 5 I ततश्चोपरीति । नवप्रैवेयकोपरीत्यर्थः, पूर्वादिक्रमेणेति, पूर्वस्यां विजयः दक्षिणस्यां वैजयन्तः उत्तरस्यां जयन्त इत्येवं क्रमेणेत्यर्थः । देवानामप्येवमेवाभिधानानि, यैरभ्युदयविघ्नहेतवो जितास्तैश्च ये न पराजितास्ते देवास्तानि विमानान्यपि तदभिख्यानानीति 15 भावः । मध्ये चेति, विजयादीनां मध्य इत्यर्थः सर्वेऽभ्युदयार्थास्सिद्धा येषामिति सर्वार्थसिद्धास्तेषां विमानमित्यर्थः, एभ्य ऊर्ध्वं विमानानामभावादेतानि अनुत्तर विमानान्युच्यन्ते । एतेषां जघन्योत्कृष्ट स्थिती आह आद्येति, विजयवैजयन्तापराजितदेवानामित्यर्थः, सर्वार्थसिद्धानान्त्विति तु शब्देन द्योतितं विशेषमाह जघन्याभावेनेति । सर्वार्थसिद्धं संख्येयविस्तृतं शेषाणि चत्वार्य्यसंख्येय विस्तृतानि विमानप्रस्तटाश्च सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश 20 सनत्कुमार माहेन्द्रयोर्द्वादश ब्रह्मलोके षट् लान्तके पश्च शुक्रे चत्वारः, एवं सहस्रारे, आनतप्राणतयोश्चत्वारः, एवमारणाच्युतयोः, ग्रैवेयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु प्रत्येकं त्रयः, अनुत्तरेष्वेक इति द्विषष्टिस्ते भवन्ति । सौधर्मेशानयोर्विमानानि पञ्चवर्णानि, सनत्कुमार माहेन्द्रयो. चतुर्वर्णानि कृष्णवर्णाभावात् । ब्रह्मलोकलान्तकयोः त्रिवर्णानि कृष्णनीलवर्णाभावात्, महाशुक्रसहस्रारयोर्द्विवर्णानि कृष्णनीलहारिद्रवर्णाभावात्, आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु 25 एकवर्णानि शुक्लवर्णस्यैकस्यैव भावात् ग्रैवेयकविमानान्यनुत्तरविमानानि च परम १. एतान्यावलिकाप्रविष्टान्येव, मध्यवर्तिसर्वार्थसिद्धविमानं वृत्तं, शेषाणि विजयादीनि चत्वार्थपित्र्यस्त्राणि ॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५८४ : तत्त्वन्याय विभाकरे. [ द्वितीयकिरणे शुकानि निखिलानि च विमानानि नित्योद्योतानि नित्यालोकानि स्वयंप्रभाणि चेति । ननु आगमे पृथिवीनामष्टसंख्या कत्वस्यैवोक्तत्वे नाधोलोके सप्तानां मुक्तिस्थाने ईषत्प्राग्भारनाम्न्याः पृथिव्यासवेन सौधर्मादिदेवविमानानामन्तराले पृथिव्यभावेनैतानि किं प्रतिष्ठानीत्यत्राहाद्यस्थानद्वयमिति, सौधर्मैशानविमानव्रजद्वयमित्यर्थः, जगत्स्वभावादेवासौ 5 घनोदधिर्न स्पन्दते विमानान्यपि तत्रस्थानि न कदाचन जीर्यन्ति । तदुपरि स्थानत्रयमिति सनत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मलोकत्रयमित्यर्थः । वायुप्रतिष्ठमिति, अतिनिचिते निश्चले घनवाता - ख्ये वातसञ्चये लब्धप्रतिष्ठमित्यर्थः । तदुपरि स्थानत्रयश्चेति लान्तकमहाशुक्रसहस्रारस्थानत्रयमित्यर्थः । शेषाणीति, आनतप्राणतारणाच्युतविमानानि नव ग्रैवेयकाणि अनुत्तरविमानानि चेत्यर्थः आकाशप्रतिष्ठानीति, तत्र हेतुमाह गुरुलघुगुणवत्त्वादिति, ऊर्ध्वाधो10 गतिस्वभावविरहेणाकाशप्रतिष्ठानीत्यर्थः ॥ 15 ग्रैवेयकेषु अनुत्तरविमानेषु ये देवा वसन्ति ते कल्पातीता उच्यन्त इत्याहग्रैवेयकेषु अनुत्तरे च कल्पातीता देवा निवसन्ति ॥ ग्रैवेयकेष्विति । कुलकुक्षिग्रीवाभ्यः श्वास्यलङ्कारेष्विति ढकन्प्रत्ययः । सामानिकादिकल्पनाविरहादेते कल्पातीतास्तेषामहमिन्द्रत्वा दिति भावः । अथ सिद्धक्षेत्रमाह तत ऊर्ध्वं द्वादशयोजनात्पश्ञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनपरिमाणा मध्ये चाष्टयोजनबाहल्याऽन्ते मक्षिकापक्षवत्कृशतरोत्तानातपत्राकारषत्प्राग्भाराभिधानाऽष्टमी स्वच्छस्फटिकरूपा सिद्धशिलापराभिधाना पृथिवी || तत ऊर्ध्वमिति । अनुत्तरादूर्ध्वमित्यर्थः काऽस्तीत्यत्राह - ईषत्प्राग्भाराभिधानाऽष्टमी 20 पृथिवीति, ईषदल्पो रत्नप्रभाद्यपेक्षया प्राग्भार उच्छ्रायादिलक्षणो यस्याः सा ईषत्प्राग्भारा, ऊर्ध्वलोकाप्रस्था सिद्धानां निवासभूताऽष्टमी पृथिवीत्यर्थः । द्वादशयोजनादिति, सर्वार्थसिद्धविमानस्य द्वादशभिर्योजनैरूर्ध्वं वर्त्तमानेत्यर्थः । अस्या विस्तारमाह पञ्चचत्वारिंशदिति, आयामविष्कम्भाभ्यामिति बोध्यम् । मनुष्यक्षेत्रपरिमाणमिदं बोध्यम्, मध्य इति बहुमध्यदेशभाग इत्यर्थः, उच्चैस्त्वमाहाष्ट्रयोजनबाहल्येति, तर्हि सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च कथमि " १. ईषद् अल्पो योजनाष्टकबाहल्य पञ्चचत्वारिंशलक्ष विष्कम्भात् प्राग्भारः पुद्गलनिचयो यस्याः सेषत्प्राभारा अष्टमी पृथिवी, शेषपृथिव्यो हि रत्नप्रभाद्याः महाप्राग्भाराः अशीत्यादिसहस्रांधिकयोजनलक्षबाह. ल्यत्वात् ऊर्ध्वलोकस्य चूडाकल्पेयमिति ॥ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकस्वरूपम् ] म्याकडू ::: त्यत्राहान्त इति परितः प्रान्तभाग इत्यर्थः, मध्यतः प्रदेशहाम्या परिहीयमाणा सर्वेषु चरमान्तेषु मक्षिका पत्रतोऽप्यतितन्वी बाहल्येनाङ्गुला संख्येयभागमितेति भावः । पृथिव्या अस्या आकारमाहोत्तानातपत्राकारेति, उत्तानीकृतच्छत्रसंस्थानवत्संस्थितेत्यर्थः घृतपूर्ण तथाविधकरोटिकाकारा वा बोध्या । अस्याः स्वरूपमाह स्वच्छस्फटिकरूपेति, निर्मलस्फटिक मृणालचन्द्रकरजस्तुषारहिमगोक्षीरहारवर्णा श्वेतसुवर्णमयीति भावः । अस्या नामधेयान्तरमाह सिद्ध - 5 शिलापराभिधानेति, सिद्धिक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नतयोपचारात्सिद्धानां शिलाssधारभूता सिद्धशिला, तथा लोकाग्रस्तूपिका सर्वेषां प्राणभूतजीवसत्त्वानामुपद्रवकारित्वाभावात्सर्वप्राणभूतजीवसवसुखावहा मुक्तानामाश्रयत्वान्मुक्तालयेत्यादिनामानि भाव्यानि ॥ ननु यदि सिद्धक्षेत्रस्य प्रत्यासन्नत्वात्सिद्धशिलेत्युच्यते तर्हि क सिद्धक्षेत्रमित्यत्राह— तत ऊर्ध्वं चतुर्थगव्यूति षष्ठभागे आलोकान्तं सिद्धानां निवामः ॥ तत ऊर्ध्वमिति । सिद्धशिलाभिख्यपृथिव्या ऊर्ध्वमित्यर्थः, तस्याश्वोपरि योजनमेकं लोकस्ततोऽलोकः, योजनस्यास्याधस्तनक्रोशत्रयं विहाय परिशिष्टस्य चतुर्थक्रोशस्योपरितनषष्ठभागे त्रयस्त्रिंशदुत्तरधनुखिती सम्मिते धनुस्तृतीयभागाधिके सिद्धानां निवास इति भावः ॥ सम्प्रति लोकस्योर्ध्वस्य देवलोकनियमतः किञ्चिदून सप्तरज्जुमानं विशेषतः प्रदर्शयति 10 तत्र रुचकात्सौधर्मेशानौ यावत्सार्धरज्जुस्तत आसनत्कुमारमाहे- 15 न्द्रमेकरज्जुस्ततस्सहस्रारं यावत्सार्धं रज्जुद्वयं तस्मादच्युतं यावदेकरज्जुस्तत आलोकान्तं किञ्चिदुनैका रज्जुः ॥ तत्रेति । उत्तानार्थं मूलम् ॥ अथ किं चतुर्दशरज्जुपरिमितेऽस्मिन् लोके सर्वत्र चातुर्गतिकानां जीवानां निवासो गमनागमनं वा भवेदथ वाऽस्ति कश्चित्प्रतिनियम इत्यत्राह - अधोलोकान्तादूर्ध्वलोकान्तं चतुर्द्दशरज्जुपरिमाणैकरज्जुविस्तृता त्रसनिवासस्थानरूपा त्रसनाडिकाऽस्ति, अस्या बहिरेकेन्द्रिया एव निवसन्तीति ॥ अधोलोकान्तादिति । स्पष्टम्, अस्या इति नाडिकाया इत्यर्थः एवशब्देन तत्र द्वन्द्रियादीनां निवासो नास्तीति सूच्यते । इतिशब्दो लोकनिरूपणसमाप्तिद्योतकः ॥ ૪ 20 25 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे . [द्वितीयकिरण ___ अथ बोधिदुर्लभभावनामाह . नरकादिषु मुहुर्मुहुः परिभ्रमतो मिथ्यादर्शना|पहतचेतसः सम्यग्दर्शनादिनिर्मलार्हद्धर्मावाप्तिर्दुश्शक्येति परिचिन्तनं बोधिदुर्लभभा. वना । अतो योधिप्राप्तावप्रमादी स्यात् ॥ 5 .. नरकादिष्विति । बोधिर्जिनप्रणीतधर्मलाभः, सा त्रिविधा दर्शनज्ञानचारित्रबोधि भेदात , आद्या दर्शनमोहनीयक्षयोपशमादिसम्पन्नश्रद्धानलाभरूपा, द्वितीया ज्ञानावरणक्षयोपशमभूता ज्ञानप्राप्तिः, तृतीया च चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजा । संसारोऽयं ह्यनादिः, तत्र नरकतिर्यमनुष्यामरभवगहनेषु कुलालचक्रवद्वम्भ्रम्यमाणस्य जन्तोः नेकविधैः काय वाङ्मानसैर्दुःखैरभितप्तस्याकामनिर्जरया कथमपि शुभं पुण्यं संप्राप्य त्रसत्वमवाप्तस्य 10 सत्क्षेत्रादिसम्पदः प्राज्यराज्यसुखमवाप्तस्यापि रागद्वेषमोहमलिनमानसत्वात्तत्त्वार्थेषु श्रद्धव सर्वविद्देशिताऽक्षयमोक्षसौख्यजननी दुःखेन भवति किमुत ज्ञानं चारित्रश्च, यद्येकदाऽपि जीवेन बोधिलभ्यते तदा नैव भवपर्यटनं भवेदित्येवं चिन्तनं बोधिदुर्लभभावनेत्यर्थः । तत्फलमाहात इति, एवमनुचिन्तयतो नैव सम्यग्दर्शनादौ प्रमादस्स्यादिति भावः ॥ अथान्तिमां धर्मस्वाख्यातभावनामाचष्टे15सम्यग्दर्शनमूलः पश्चमहाव्रतसाधनो गुप्त्यादिविशुद्धिव्यवस्थानः संसारपारकरो धर्मः परमर्षिणार्हता व्याख्यातः स्वयमप्यनुष्ठितश्चेत्येवं चिंतनं धर्मस्वाख्यातभावना । अस्याश्च धर्मे श्रद्धा गौरवं तदनुष्ठानासक्तिश्च जायत इति ॥ : सम्यगिति । सम्यग्दर्शनमेव मूलं यस्य धर्मस्य स इत्यर्थः, पञ्चेति, पञ्चमहाव्रतानि 20 साधनं यस्येत्यर्थः, गुप्त्यादीति, गुप्त्यादिपरिपालनमेव यस्य स्वरूपावस्थानं स इत्यर्थः, एवम्भूत एव धर्मः संसारनिस्तारक इत्याह संसारपारकर इति । स च भगवताहतैवामोघ. वचनेन व्याख्यात इत्याह परमर्षिणेति, न केवलं व्याख्यात एवापि तु स्वयमप्यनुष्ठित इत्याह स्वयमपीति, एवं विचिन्तयतः किं भवेदित्यत्राहास्याश्चेति, एवं विचारणाया इत्यर्थः । इति शब्दो भावनासमाप्तिद्योतकः ॥ 25 सम्प्रति भिक्षुप्रतिमामाह विशिष्टतपोऽभिग्रहो भिक्षुप्रतिमा, सा द्वादशविधा, आमासं विशि Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाः] न्यायप्रकाशसमलङ्कते :५८७ : ष्टस्थानावस्थितदात्रविच्छिन्नसकृत्प्रदत्तानपानपरिग्रहा एकमासिकी प्र. तिमा। एवं द्विमासादि यावत्सप्तमासं विशिष्टस्थानावस्थितव्यत्त्या क्रमेण द्वित्रिचतुःपञ्चषट्सप्तवारं प्रदत्तानपानपरिग्रहणरूपाः षट् प्रतिमा भाव्याः ॥ विशिष्टेति । भिक्षोरुद्गमोत्पादनैषणादिशुद्धभिक्षाशीलस्य प्रतिमा प्रतिज्ञाविशेषः, 5 भिक्षुशब्दस्वरसात्सा प्रतिज्ञाऽऽहारविषया ग्राह्या, तथा च विशिष्टस्य तपस आहारादिनियमनरूपस्याभिग्रहः प्रतिज्ञाविशेषो भिक्षुप्रतिमेत्यर्थः । तस्या भेदानाह सा चेति, मासिकी द्वैमासिकी त्रैमासिकी चातुर्मासिकी पञ्चमासिकी पाण्मासिकी सप्तमासिकी प्रथमसप्तरात्रिदिवा द्वितीयसप्तरात्रिंदिवा तृतीयसप्तरात्रिंदिवाऽहोरात्रिकी एकरात्रिकी चेति द्वादशविधा सेत्यर्थः । तत्र मासिकीमाद्यां प्रतिमा वक्ति आमासमिति, यावन्मासपरिसमाप्तीत्यर्थः, 10 विशिष्टेति, विशिष्टस्थानेऽवस्थितेन दात्राऽविच्छिन्नरूपेण सकृदेव दत्तस्यान्नस्य पानस्य च । परिग्रहरूपेत्यर्थः, एलूकस्यापवरकस्यैकं पादमन्तः परं बहिर्यवस्थाप्य ददत्या नो गुर्विण्या नो बालवत्साया नवा बालकं क्षीरं पाययन्त्या हस्तेनाहारोऽत्र ग्रहीतुं कल्पते, एका अशनस्य पानीयस्य चैका दत्तिरेव ग्राह्या, दत्तिश्च करस्थाल्यादिभ्योऽव्यवच्छिन्नधारया या भिक्षा. पतति सा, भिक्षाविच्छेदे च द्वितीया दत्तिर्भवति, प्रतिमामेनां प्रतिपन्नो भिक्षुर्नित्यं परिकर्म: 15 वर्जनाव्युत्सृष्टकायः, देवमानुषतिर्यग्योनिकृतपरिषह्याणामविकृतभावेन सहनशीलः क्षमी. भवेत् , नियमविशेषा अधिका आगमेभ्यः प्रतिपत्तव्याः। ईदृशक्रमविशेषेण द्वैमासिकी, त्रैमासिकी चातुर्मासिकी पश्चमासिकी पाण्मासिकी सप्तमासिकी च प्रतिमा विज्ञेयाः, परन्तु प्रथमातो द्वैमासिक्यादिषु एकैकदत्तिवृद्धिर्भवेदित्याशयेनाह एवमिति ॥ -- अथाष्टमीमाह सप्ताहोरात्रप्रमाणा एकान्तरनिर्जलोपवासात्मिका आचाम्लपारणा 20 १. भावभिक्षुर्द्विधा नोआगमत आगमतश्च, आगमतो भिक्षुशब्दार्थस्य ज्ञाता, उपयोगो भावनिक्षेप इति वचनात् , नोआगमतः संयतः भिक्षणशीलों भिक्षुरिति व्युत्पत्तेः, ननु भिक्षणशीलत्वं रकपटादावतिव्याप्तं तेषां भिक्षाजीवित्वेन भिक्षणशीलत्वात् , मैवं, तेषामनन्यगतिकत्वेन भिक्षाशीलत्वात् , ' अयम्भावः शब्दस्य निमित्तं द्विविधं व्युत्पत्तिनिमित्तं प्रवृत्तिनिमित्तमिति, यथा गोशब्दस्य गमनक्रिया व्युत्पत्तिमिमित्तं, तदुपलक्षितञ्च सास्नादिमत्त्वं प्रवृत्तिनिमित्तं, तेन गच्छत्यगच्छति वा गवि गोशब्दः प्रवर्त्तते उभया-- वस्थायामपि प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् । तथा प्रकृतेऽपि भिक्षाशीलत्वं व्युत्पत्तिनिमित्तं, तदुपलक्षितश्चहपरलोकाऽऽशंसाविप्रमुक्ततया यमनियमेषु व्यवस्थितत्वं प्रवृत्तिनिमित्तं. भिक्षमाणे अभिक्षमाणे वा भिक्षौ प्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात्स एव भिक्षुः न रक्तपटादिः, नवकोट्यपरिशुद्धाहारभोजितया- तेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्याभावादिति.." Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :५८८: तत्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे रूपा ग्रामादिभ्यो बहिरूप्रमुखशयनाद्यासनस्थितिपूर्वकघोरोपसर्गसहनरूपा प्रतिमा अष्टमी ॥ सप्तेति । सप्त अहोरात्राणि प्रमाणं यस्यास्सा, एकान्तरेति, चतुर्थभक्तेन पानीयपरिवर्जनेन च विशिष्टेत्यर्थः । ग्रामादिभ्य इति, आदिना नगरादीनां ग्रहणं, ऊर्ध्वमुखशयना5 दीति, उत्तानशायित्वमित्यर्थ आदिना पार्श्वशायित्वं निषण्णत्वं वा गृह्यते ॥ एवं नवम्यादीनाह उत्कटिकाद्यासनस्थितिपूर्विका पूर्वोक्तैव नवमी प्रतिमा । गोदोहिका. यासनस्थितिपूर्विका तादृश्येव दशमी प्रतिमा ।। उत्कटिकेति । आदिना दण्डायतिकत्वं गृह्यते, पूर्वोक्तैवैति, तपःपारणकं प्रामादहि10 वृत्तिश्चाष्टमसप्तमरात्रप्रतिमोक्तरूपैवेत्यर्थः । दशमीमाह गोदोहिकेति, गोदोहनप्रवृत्तस्येव पुतयोः पाणिभ्यां संयोगे अग्रपादतलाभ्यामवस्थानक्रिया गोदोहिकासनस्थितिः, तथा वामपादो दक्षिणस्योरोरुपरि दक्षिणपादश्च वामस्योरोरुपरि यत्र क्रियते दक्षिणकरतलस्योपरि वामकरतलं वामकरतलस्योपरि च दक्षिणकरतलमुत्तानं नाभिलग्नश्च यत्र क्रियते तद्वीरासनं तथा वा संस्थितो भवेत् , यद्वा सिंहासनोपविष्टस्य भून्यस्तपादस्यापनीतसिं15 हासनस्येव यदवस्थानं तद्वीरासनं बोध्यम् । आम्रफलवद्वक्राकारेण वा तिष्ठेत्, तथा तपःपारणप्रामबहिर्निवासादिविधिः पूर्ववदेवेत्याह तादृश्येवेनि, इमास्तिस्रः प्रतिमा एकविंशत्या दिवसैर्यान्तीति बोध्यम् ॥ एकादशी द्वादशीश्चाह निर्जलषष्ठभक्तप्रत्याख्यानपूर्विका ग्रामावहिश्चतुरङ्गुलान्तरचरणवि20 न्यसनरूपा प्रलम्बितबाहुकायोत्सर्गकरणात्मिकाऽहोरात्रप्रमाणा प्रति मैकादशी। अष्टमभक्तपानीया ग्रामावहिरीषदवनमितोत्तरकाया एकपुगलन्यस्तदृष्टिकानिमिषनेत्रा सुगुप्तेन्द्रियग्रामा दिव्यमानुषाद्युपसर्गसहनसमर्था कायोत्सर्गावस्थायिन्येकरात्रिकी प्रतिमा द्वादशी ॥ निर्जलेति । जलरहितस्य षष्ठभक्तस्य प्रत्याख्यानं कुर्वन्नित्यर्थः, षष्टभक्तमुपवासद्वयरूपं 25 तपः, तत्र धुपवासद्वये चत्वारि भक्तानि वय॑न्ते, एकाशनेन च तदारभ्यते तेनैव च निष्ठां यातीत्येवं षष्ठभक्तप्रत्याख्यानं बोध्यम् । प्रामाहिरिति, ग्रामनगरादिभ्यो बहिश्चतुरङ्गुलान्तरे चरणौ विधाय प्रलम्बितभुजः कायोत्सर्गेऽवतिष्ठेत , षष्ठभक्तप्रत्याख्यानकरणा Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिलेखना ] न्यायप्रकाशसमलइते : ५८९ : हिनत्रयेणेयं प्रतिमा यातीति भावः । अथ द्वादशीमाहाष्टमभक्तति, यस्यामुपवासत्रयरूपेण पानाहाररहितेनावस्थानं बहिश्च प्रामादेरीषत्कुब्जो नद्यादिदुस्तटीस्थितो वा एकपुद्गलगतदृष्टिर्निर्निमेषलोचनो गुप्तसर्वेन्द्रियो दिव्यमानुषतिर्यग्विहितघोरोपद्रवसहिष्णुः क्रमौ जिनमुद्रया व्यवस्थाप्य कायोत्सर्गावस्थानावस्थितो भवेत् सैकरात्रिकी प्रतिमा, रात्रेरनन्तरमष्टमकरणाचतूरात्रिंदिवमाना स्यादिति भावः ॥ अथेन्द्रियनिरोधमाहतत्तद्विषयेभ्यस्तत्तदिन्द्रियाणां विरमणरूपाः पञ्चेन्द्रियनिरोधाः । तत्तद्विषयेभ्य इति । स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दात्मकविषयेभ्य आनुकूल्येन प्रातिकल्येन वा प्राप्तेभ्यस्तत्तदिन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुश्श्रोत्ररूपाणां विरमणमासक्तिवैधुर्यमित्यर्थः, इन्द्रियाणां पञ्चविधत्वात्तन्निरोधोऽपि पञ्चविध इत्याशयेनोक्तं पञ्चेति । अनियंत्रितानि हीन्दि- 10 याणि पदे पदे क्लेशमहासागर एव पातयन्तीत्यतस्तन्निरोधोऽवश्यकरणीय इति भावः ।। प्रतिलेखनामाचष्टे आगमानुसारेण वस्त्रपात्रादीनां सम्यनिरीक्षणपूर्वकं प्रमार्जन प्रतिलेखना ॥ आगमेति । लिख अक्षरविन्यास इत्यस्य प्रतिपूर्वकस्य भावे ल्युटि प्रतिलेखनेति 15 प्रयोगः, उपसर्गमहिम्ना धात्वर्थभेदेन शास्त्रानुसारेण वस्त्रादीनां निरीक्षणमर्थः सा च सर्वक्रियामूलभूता, अनेकप्रकारापि सा दिनचर्योपयोग्युपकरणविषयाऽत्रोक्ता वस्त्रपात्रादीति पदेन । कालत्रयभाविनी चैषा, रात्रेश्चतुर्थप्रहरे, दिनस्य तृतीयप्रहरान्ते, उद्घाटपौरुष्याश्चेति, तत्र प्रभाते उत्सर्गादिकरणानन्तरं प्रथमं वस्त्रविषया प्रतिलेखना, सापि मुखपोतिकारजोहरणनिषद्यावयचोलपट्टकल्पत्रिकसंस्तारकोत्तरपट्टरूपाणां दशानां भवति, दण्डकमपीति केचित्। 20 अनुद्गत एव सूर्ये विधेयम् , तत्रोत्कटिकासनस्थो मुखपोतिको प्रतिलिख्य प्रकाशदेशस्थो रजोहरणं प्रतिलिखति तत्र प्रभाते आन्तरी सूत्रमयीं निषधामपराहे तु बाह्यामूर्णामयी प्रतिलिखेत् , ततश्चोलपढें ततस्त्रयोदशभिः प्रतिलेखनाभिः स्थापनाचार्य प्रतिलिख्य स्थाने संस्थाप्य । मुखवलिको प्रतिलिखेत् , ततश्चैकेन क्षमाश्रमणेनोपधिसन्देशमाप्य द्वितीयेन तेनोपधि प्रति.. लिखेत् , तत्र पूर्वमौणं कल्पं ततस्सौत्रं कल्पद्वयं ततस्संस्तारकं ततश्चोत्तरपट्टमिति प्रतिलेख- 25 नाक्रमः । उपयुक्तस्सन्नेषां प्रत्युपेक्षणां कुर्यात् , तथा च षण्णामाराधको भवति, अकरणे च दोषाः । ततश्च जाते सूर्योदये शेषमप्युपधि प्रतिलिख्य वसतिं ततो दण्डं प्रमार्जयेत् , प्रतिले Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५९० : तत्त्वन्यायविभाकरे [ द्वितीयकिरणे खनं चक्षुषा निरीक्षणं प्रमार्जन रजोहरणादिभिरिति भेदेऽपि अविनाभावित्वेन तयोः प्रतिलेखना शब्देनैव लक्षितं मूलेन । इति प्रातः प्रतिलेखना भाव्या । ततश्चरमपौरुष्यां प्राप्तायां पात्राणि प्रतिलेख्यानि तृतीयप्रहरान्ते मुखवस्त्रिकाचोलपट्टगोच्छक पात्र प्रतिलेखनिकापात्रबन्धपटलरजस्त्राण पात्रस्थापनमात्रकपतग्रहरजोहरणकल्पत्रिकाण्यनुक्रमं प्रत्युपेक्षणी5 यानि, तथाऽन्योऽप्यौपग्रहिकोपधिः, प्रत्युपेक्षणीयः । उद्घटापौरुष्याश्च सप्तविधपात्रनिर्योगप्रत्युपेक्षणा भवति, तत्रासने समुपविष्टः प्रथमं मुखवस्त्रिकां प्रत्युपेक्ष्य गोच्छकं प्रत्युपेक्षते ततः पटलानि ततः पात्रकेसरिकां ततः पात्रबन्धं ततो रजस्त्राणं ततः पात्रं ततः पात्रस्थापनमिति, अत्र अरुणादावावश्यकं पूर्वमेव कृत्वा तत अरुणोद्गमसमये प्रत्युपेक्षणा क्रियते । अपरे त्वाद्दुः अरुणे उद्गते सति प्रभायां स्फुटितायां सत्यामावश्यकं पूर्वं कृत्वा ततः प्रत्युपेक्षणा 10 क्रियत इति, अन्ये त्वाहुर्यदा परस्परं मुखानि विभाव्यते तदा प्रत्युपेक्षणा क्रियत इति, इतरे वाहुर्यस्यां वेलायां पाणिरेखा दृश्यन्ते तदानीमिति, वेलायाच न्यूनायामधिकायां वा प्रत्युपेक्षणान कार्या, तत्र जिनकल्पिकाना मोघोपधिर्द्वादशविधः, स्थविरकल्पिकानां चतुर्दशविधः, आर्याणां पञ्चविंशतिविधः । अत ऊर्ध्वं यथासम्भवमौ पग्रहिको पधिर्भवति, तत्र प्रतिलेखनाक्रमो विधियुत आगमादौ सुस्पष्टमुपपादितोऽत्र तु केवलं स्थानाशू15 न्यार्थं तस्या वाक्योच्चारणात्मिकाया विशेषमादर्शयति. सा च सूत्रार्थतत्त्वश्रद्धानसम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वमोहनीयवर्जन का - मस्नेहदृष्टिरागपरिहारशुद्धदेवगुरुधर्मादरकुदेव कुगुरुकुधर्मपरिवर्जनज्ञानदर्शनचारित्रादरज्ञानदर्शन चारित्रविराधनापरिहार मनोवचन काय गुप्त्यादरमनोवाक्कायदण्डपरिहाररूप भावनागर्भितवचनोच्चारणपूर्वकत्रस्त्रादिनि20 रीक्षणप्रमार्जनरूपा पञ्चविंशतिप्रकारा विज्ञेया ॥ सा चेति । यच प्रतिलेखनोपकरणविषया, सूत्रतदर्थयोः तत्त्वतः श्रद्धानमेकं सम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वमोहनीयानां वर्जनात्मकानीति त्रीणि, कामस्नेहदृष्टीनां रागस्य परिहार इति त्रीणि, शुद्धा ये देवगुरुधर्मास्तेषामादर इति त्रीणि, कुदेव कुगुरुकुधर्माणां परिवर्जन मिति : त्रीणि, ज्ञानदर्शनचारित्राणामादर इति त्रीणि, ज्ञानदर्शनचारित्राणां विराधनायाः परिहार 25 इति त्रीणि, मनोवचनकायानां गुप्तेरादर इति त्रीणि मनोवाक्कायानां दण्डस्य परिहार इति त्रीणि, सर्वेषां मेलनेन पञ्चविंशतिवचनानामुच्चारणपुरस्सरं भावनया पञ्चविंशतिविधानां वस्त्रादीनां निरीक्षणपूर्वकं प्रमार्जनं विधेयमिति भेदानेतानादाय पञ्चविंशतिप्रकारा प्रतिलेखना प्रोक्ता, स्वसमये एषा सुप्रसिद्धेति नात्र विशेषतो विचार उपन्यस्यते ॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभिमहाः ] म्यायप्रकाशलमलहते अङ्गप्रमार्जनारूपां प्रतिलेखनामाचष्टेहास्यरत्यरतिपरिहार भयशोकजुगुप्सापरिहारकृष्णनीलकापोतलेश्या. परिहाररसर्द्धिसातगौरवपरिहारमायामिथ्यानिदानशल्यपरिहारक्रोधमानमायालोभपरिहारपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायरक्षणात्मकभावपूर्णवचनोचारणपूर्वकस्वाङ्गप्रमार्जनात्मिका वा सा पञ्चविंशतिरूपोपल- 5 क्षणतो बोध्या ॥ हास्येति । स्पष्टम् , अथातरौद्रध्यानानुबन्धिकल्पनानिचयवियोगात्मिकायाशास्त्रानुसारिण्याः परलोकसाधिकाया धर्मध्यानानुबन्धिन्या माध्यस्थ्यपरिणतिरूपायाः कुशलाकुशलमनोवृत्तिनिरोधेन योगनिरोधावस्थाभाविन्या आत्मारामात्मिकाया मनोगुप्तेः, अर्थसूचकाङ्गचेष्टापरिहारेण वागभिग्रहकरणरूपाया वाचनप्रच्छनपरपृष्टार्थव्याकरणादिषु लोकागमाविरो- 10 धेन मुखवस्त्रिकाच्छादितमुखतया भाषणात्मिकाया वाग्गुप्तेः, दिव्यमानुषाद्युपसर्गसद्भावेऽपि क्षुत्पिपासादिसम्भवेऽपि कायोत्सर्गकरणादिना निश्चलताकरणरूपायाः सर्वथा कायचेष्टानिरोधरूपाया वा तथा गुरुप्रच्छनशरीरसंस्तारकभूम्यादिप्रतिलेखनप्रमार्जनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुरस्सरं शयनादिरूपायाः कायगुप्तेश्च पूर्वमेव प्रायो निरूपितत्वादिह निरूपणं पुनरुक्तप्रायमिति मत्वा प्राह 15 प्रागुपदर्शिता गुप्तयस्तिस्रः॥ प्रागिति । संवरनिरूपणे उपदर्शिता इत्यर्थः ॥ अथाभिग्रहमाख्यातिसाधुनियमविशेषोऽभिग्रहः । स च द्रव्यक्षेत्रकालभावतश्चतुर्विधः ॥ साध्विति, अभिगृह्यन्ते साधुभिर्नियमविशेषा द्रव्यादिभिरनेकप्रकारास्तेऽभिग्रहाः, 20 तथा च साधूनां नियमविशेषोऽभिग्रहो यथेत्थमाहारादिकममीषां कल्पते नेत्थंभूतमित्येवंरूप इति भावः । द्रव्यक्षेत्रकालभावविशेषप्रयुक्तत्वात्स चतुर्विधो भवतीत्याशयेनाह स चेति ॥ तत्र द्रव्याद्यभिग्रहानाह विशिष्टद्रव्यपरिग्रहो द्रव्याभिग्रहः । विशिष्टक्षेत्रस्थदातृसकाशादनादिग्रहणं क्षेत्राभिग्रहः । विशिष्टकाल एवान्नादिग्रहणं कालाभिग्रहः । 25 विशिष्टभावयुतदातृसकाशादनादिपरिग्रहो भावाभिग्रहः । इति करणनिरूपणम् ॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसम्पावरिभाकरे [तीवपिर विशिष्टेति । विशिष्टं द्रव्यं लेपवज्जुगार्यादि तन्मिभं अलेपवद्वा मण्डकादिद्रव्यमद्य ग्रहीष्यामि दर्वीकुन्तादिना, अथवा यद्यहं कुल्माषबाकुलान् शूपैंककोणस्थान लप्स्ये तान् ग्रहीष्यामि नान्यथेत्येवमादिरूपो द्रव्यविषयो नियम इत्यर्थः । क्षेत्राभिग्रहमाह विशिष्टक्षेत्रेति, निगडनियंत्रितचरणा यद्येकं पादमुदुम्बरस्य मध्ये द्वितीयं च बहिष्टादात्री करिष्यति तदाहं 5 भिक्षा ग्रहीष्यामि नान्यथेत्यादिरूप इत्यर्थः । कालाभिग्रहमाचष्टे विशिष्टकालेति, यदि दिवसद्वितीयपौरुष्यामतिक्रान्तायां दास्यति तदा भिक्षा ग्रहीष्यामि नान्यथेत्येवंरूप इत्यर्थः । भावाभिग्रहमाह विशिष्टभावेति, उत्क्षिप्तचरकाः, संख्यादत्तिका इष्टलाभिकाः पृष्टलाभिका इत्यादयः, त एते गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेदाद्भावयुता अभिग्रहा भवन्ति, यद्वा गायन यदि दास्यति तदा मया ग्रहीतव्यं, एवं रुदन् वा, निषण्णो वा, उत्थितो वा, संप्रस्थितो वा 10 यद्ददाति तद्विषयो योऽभिग्रहः सर्वोऽपि स भावाभिग्रह इत्यर्थः । लेशेनैवं सति प्रयोजने क्रियमाणा मोक्षार्थिभिः करणसप्ततिनिरूपितेत्याहेतीति ।। इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वरचरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरेण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य तत्वन्यायविभाकरस्य स्योपशायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां करणसप्ततिनिरूपणं नाम द्वितीयः किरणः ॥ अथ तृतीयः किरणः ॥ अथ चारित्राणां सामायिकादीनां निरूपणे कृतेऽपि प्रकारान्तरेण चारित्रिणस्तानिरूपयितुमाह तद्वान् चारित्रीत्युच्यते। स पञ्चविधः पुलाकबकुशकुशीलनिर्गन्थ20 स्नातकभेदात् ॥ तद्वानिति । करणचरणरूपचारित्रविशिष्ट इत्यर्थः । तस्य भेदानाह पुलाकेति । ... तत्र पुलाकं स्वरूपयति सङ्घादिप्रयोजनाय सबलचक्रवर्तिविध्वंससामोपजीवनज्ञानाद्यतिचाराऽऽसेवनान्यतरेण दोषवान् जिनागमादप्रतिपाती च पुलाकः, स 25 द्विविधः लब्धिपुलाकस्सेवापुलाकश्चेति, देवेन्द्रसम्पत्तिसदृशसम्पत्तिमान लब्धिविशेषयुक्तः पुलाको लब्धिपुलाकः। सेवापुलाकस्तु ज्ञानदर्शनचारित्र लिङ्गयथासूक्ष्मभेदेन पञ्चविधः ।। 15 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाकाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते सङ्घादीति । तन्दुलकणशून्या पलञ्जिः पुलाको लोके प्रोच्यते निस्सारत्वात् । तद्वदयं चारित्री सारभूतानां ज्ञानदर्शनचारित्राणामतिचारानासेवते तप:श्रुताभ्यामुत्पन्नां ब्धि बिभर्ति प्रयुक्त च समये, जिनप्रणीतादागमादनवरतमप्रतिपाती च, सम्यग्दर्शनज्ञानचरणानि निर्वाणकारणानीति श्रद्धधानो ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायी च, तत्र संघादिप्रयोजने सबलवाहनस्य चक्रवल्देरपि चूर्णने समर्थायास्तपःश्रुतहेतुकाया लब्धेरुपजीवनेन ज्ञानाद्यतिचारासे- 5 वनेन वा यस्संयमसाररहितो जिनप्रेरितात्त्वागमात् सदैवाप्रतिपाती सन् ज्ञानानुसारेण क्रियानुष्ठायी स पुलाक इति भावः । उपजीवनान्तेन लब्धिमता दोषवानित्यन्तेन निस्सारताऽवशिष्टेन च सम्यग्दृष्टिता सूचिता । तस्य भेदमाह-स चेति, भेदप्रकारमाह लब्धिपुलाकेति, लब्ध्या युतः पुलाको लब्धिपुलाकः, सेवया अतिचारसेवनया युतः पुलाकस्सेवापुलाकः इत्यर्थः । तत्र लब्धिपुलाकमाह देवेन्द्रेति, देवेन्द्रस्य या सम्पत्तिस्तत्सदृशसम्पत्तिमानित्यर्थः, 10 कुत इत्यत्र हेतुगर्भविशेषणमाह लब्धिविशेषेति, साधारणलब्धियुतो न, किन्तु देवेन्द्रसम्पत्तितुल्यसम्पत्तिप्रसवयोग्यलब्धिविशेषयुक्त इति भावः, सोऽन्योऽपि भवेदित्यत्र आह पुलाक इति, केचित्तु आसेवनतो यो ज्ञानपुलाकस्तस्येयमीदृशी लब्धिः, स एव च लब्धिपुलाको न कश्चित्तद्व्यतिरिक्तोऽपर इण्याहुः । सेवापुलाकस्य प्रकारानाह सेवापुलाकस्त्विति ॥ सम्प्रति सेवापुलाकादीनां स्वरूपमाह-- 15 ५. सूत्राक्षराणां स्खलितमिलितादिभिरतिचारैनिमाश्रित्याऽऽत्मनो निस्सारकारी ज्ञानपुलाकः । कुदृष्टिसंस्तवादिभिरात्मगुणघातको दर्शनपुलाकः । मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनया चारित्रविराधनेनात्मभ्रंशकश्चारित्रपुलाकः, तत्र मूलगुणा महाव्रतादयः, उत्तरगुणाः पिण्डविशुद्धयादयः। उक्तलिङ्गाधिकलिङ्गग्रहणनिर्हेतुकापरलिङ्गकरणान्यतरस्मादात्मनो निस्सा- 20 रकर्ता लिङ्गपुलाकः। ईषत्प्रमादमनःकरणकाकल्प्यग्रहणान्यतरेणाऽऽत्मभ्रंशको यथासूक्ष्मपुलाकः॥ सूत्राक्षराणामिति । सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् पदानामनेकेषां सीवनात् सम्यक्कथनाद्वा सूत्रं, अल्पाक्षरं महाथ द्वात्रिंशदोषविधुरं अष्टभिर्गुणैरुपेतश्च तद्भवति, गुणाश्चैवं 'निर्दोष सारभूतश्च हेतुयुक्तमलङ्कृतम् । उपनीतं सोपचार मितं मधुरमेव चेति । ईदृशश्च 25 सूत्रमस्खलितादिगुणोपेतमुच्चारणीयमपरथाऽतिचारप्राप्तिः स्यात् , तथा च सूत्राणां पूर्वोक्तलक्षणानां स्खलितमिलितान्बुच्चारणेन परिप्राप्तातिचारैज्ञानस्य मालिन्याद् य आत्मानं निर्बलं Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५९४ : तस्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे विदधाति स ज्ञानपुलाक इत्यर्थः । सूत्रे तदर्थे वा यदृच्छया प्रवृत्तौ हि करणचरणस्यानवस्था भवति, ततश्च न तीर्थमनुसरति, नैव च प्रतिषिद्धं समाचरतस्तस्य संयमो भवति, तदभावे दीक्षा निरर्थिका तन्निरर्थकता याच मोक्षस्याप्यभावः स्यादिति निस्सारो भवत्यात्मा । अथ दर्शनपुलाकं लचयति कुदृष्टीति, कुत्सिता जिनागमविपरीतत्वादृष्टिर्दर्शनं येषां ते कुदृष्टयः 5 पाखण्डिनः, तेषां संस्तवः पुण्यभाज एते, सुलब्धमेषां जन्म, दयालव एत इत्येवं स्तुतिः, अयं हि सम्यक्त्वस्यातिचारः, यद्वा कुदृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परालापजन्यः परिचयः कुदृष्टिसंस्तवः, अयमपि सम्यक्त्वस्यातिचारः, एकत्र वासे हि तत्प्रक्रियाश्रवणात्तत्तत्क्रियादर्शनाच्च दृढसम्यक्त्वस्यापि दृष्टिभेदस्सम्भाव्यते, किमुत मन्दबुद्धेर्नवधर्मस्य, तथा च दृष्टिसंस्तवादिभिर्य आत्मनो गुणस्य सम्यक्त्वस्य घातकस्स दर्शनपुलाक इति भावः । 10 अथ चारित्रपुलकमाह मूलोत्तरेति, मूलानीव चारित्रकल्पद्रुमस्य मूलानि, तद्रूपा ये गुणास्ते मूलगुणाः प्राणातिपातादिविरमणरूपास्तेषां प्रातिकूल्येन सेवनं मूलगुणप्रतिसेवनं, यथैकेन्द्रियाणां संघट्टनगाढागाढ परितापनोपद्रवणादिरूपं, मूलगुणापेक्षयोत्तरभूता गुणा वृक्षशाखा इवोत्तरगुणाः, पिण्डविशुद्ध्यादयः तेषां प्रतिसेवना, उत्तरगुणप्रति सेवना, तत्र मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनापदेन मूलोत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना ग्राह्या पदैकदेशे 15 पदसमुदायोपचारेण प्रातिकूल्येन वा सेवनेनातिचारसम्भवात्कारणे कार्योपचारेण वा तथोक्तिः । मूलगुणानां पञ्चविधत्वादतिचारप्रतिसेवना पञ्चविधा, उत्तरगुणानां दशविधत्वात्तदतिचारप्रतिसेवनापि दशधा, एवम्प्रतिसेवनातश्चारित्रविराधनासंभवेनाऽऽत्मनः पातयिता चारित्रपुलाक उच्यत इत्यर्थः, अतिचारसूचनाय मूलोत्तरगुणान्स्मारयति तत्रेति, प्रतिसेवनासम्बन्धिन इत्यर्थः महाव्रतादय इति प्राणातिपातादिविरमणरूपमहाव्रतादय 20 इत्यर्थः, आदिना रात्रिभोजनविरमणस्य ग्रहणम्, पिण्डविशुद्ध्यादय इति पिंडविशुद्धिरेक उत्तरगुणः, पञ्च समितयः पश्चोत्तरगुणाः, एवं तपो बाह्यं षट्प्रभेदं सप्तम उत्तरगुणः, अभ्यन्तरषट्प्रभेदमष्टमः, भिक्षुप्रतिमा द्वादश नवमः, अभिग्रहाश्चतुर्विधा दशम इति । सम्प्रति लिङ्गपुलाकमाहोत्तेति, शास्त्रोक्तलिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणमन्यलिङ्गकरणालिङ्गपुलाको भवतीत्यर्थः । यथासूक्ष्मपुलाक माहेषदिति, ईषत्प्रमादात् मनसाऽकल्प्यानां ग्रहणा25 च्चात्मघातक इत्यर्थः ॥ अथ बकुशमाह - देहस्योपकरणानां वाऽलङ्काराभिलाषुकश्चरणमलिनकारी बकुशः । शरीरोपकरणभेदाभ्यां स द्विविधः । अनागुप्तव्यतिरेकेण भूषार्थं करचरणादिप्रक्षालननेत्रादिमलनिस्सारणदन्तक्षालनकेशसंस्काराद्यनुष्ठाता श Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकुशाः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते रीरवकुशः । शृङ्गाराय तैलादिना दण्डपात्रादीन्युज्वलीकृत्य ग्रहणशील उपकरणबकुशः॥ देहस्येति । अङ्गोपाङ्गसंघातरूपस्य देहस्य वस्त्रपात्राद्युपकरणानाञ्चालङ्करणेऽनुवर्तनाशीलः, अष्टाविंशतिविधमोहनीयक्षयाकांक्ष्यपि ऋद्धियशस्कामत्वात् सुखशीलतावाप्तिव्यापारप्रवणत्वाच्चाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियासु नितरामनुद्यततया चरणपटस्य विशुद्ध्यविशुद्धि- 5 संकीर्णस्वभावतामापादयतीति कर्बुरत्वाद्वकुश उच्यत इत्यर्थः, तत्प्रभेदमाह शरीरेति । शरीरबकुशं निरूपयति, अनागुप्तेति, मलनिस्सारणेति, मलानां दूरीकरणं दन्तानां धावनं केशानां च संस्कारः, इत्यादीनामनुष्ठातेत्यर्थः, अयं मूलगुणान्न विराधयति उत्तरगुणांस्तु भ्रंशयति, उपकरणबकुशमाह शृंगारायेति, विभूषार्थ दण्डपात्रकादि तैलादिनोज्ज्वलीकृत्य ग्रहणप्रवणः, अकाल एव प्रक्षालितचोलपट्टकान्तरकल्पादिः प्रभूतवस्त्रपात्रादिकामुक उपकरणबकुश 10 इति भावः ॥ बकुशमेव प्रकारान्तरेण विभज्य दर्शयति पुनरपि बकुशः पवविधः, आभोगानाभोगसंवृतासंवृतसूक्ष्मभेदात् शरीरोपकरणानामलंकारस्साधूनामकार्य इति ज्ञानवान् कर्ता च बकुश आभोगबकुशः। सहसा च शरीरोपकरणानामलंकर्ता बकुश अनाभोगः। 15 लोकैरविदितदोषो बकुशस्संवृतः। प्रकटं दोषानुष्ठाता बकुशोऽसंवृतः। किश्चित्प्रमादी नेत्रमलाद्यपनयकारी बकुशस्सूक्ष्मबकुशः । एते बकुशाः सामान्येनर्द्धियशस्कामास्सातगौरवाश्रिता अविविक्तपरिवाराश्छेदयोग्यशबलचारित्रा बोध्याः॥ पुनरपीति, स्पष्टम् । आभोगबकुशमाह-शरीरेति, शरीरोपकरणानां विभूषार्थ संस्कारो 20 न कार्य इति ज्ञात्वापि तथाकारीत्यर्थः, यस्तु तथाऽज्ञात्वा सहसा करोति स त्वनाभोगबकुश उच्यत इत्याह सहसेति, संवृतबकुशमाह लोकैरिति, यद्यपि संवृतशब्दो निरुद्धाश्रवद्वारे सर्वविरते मनोवाकायगुप्ते यमनियमरते वा वर्तते तथापि बकुशशब्दसामानाधिकरण्येन लोकाविदितत्वमात्रे वर्त्तते तथा च यथा लोका दोषान् स्वानुष्ठितान्न जानीयुस्तथादोषानुष्ठाता बकुशस्तादृश इत्यर्थः । असंवृतबकुशमाह प्रकटमिति, सूक्ष्मबकुशमाह किश्चित्प्रमादीति, स्पष्टं, 25 बकुशस्यैव स्वरूपं पुनर्दर्शयति एत इति उक्तप्रकारा बकुशा इत्यर्थः, ऋद्धियशस्कामा इति, प्रभूतवनपात्रादिकामृद्धिं गुणवन्तो विशिष्टास्साधव इत्यादिरूपां ख्यातिश्च ये कामयन्ते त इत्यर्थः, सातगौरवाश्रिता इति, साते सुखे यद्गौरवमादरस्तदाश्रिता इत्यर्थः, यत एवम्भूता एते अत एक Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे नातीवाहोरात्राभ्यन्तरानुष्ठेयासु क्रियासूद्यता इति भावः । अविविक्तपरिवारा इति, असंयमान्न पृथग्भूता घृष्टजंघास्तैलादिकृतशरीरमृजाः कतरिकाकल्पितकेशाश्च परिवारा येषां तादृशा इत्यर्थः, छेदयोग्यशबलचारित्रा इति, सर्वदेशच्छेदा तिचारजनितशबलत्वेन युक्ता इत्यर्थः ॥ अथ कुशीलमाह· उत्तरगुणविराधमसंज्वलनकषायोदयान्यतरस्माद्गर्हितचारित्रः कुशीलः । स चाऽऽसेवनाकषायभेदेन द्विविधः॥ उत्तरेति । कुत्सितं शीलमाचारो यस्य स कुशीलः, यद्वा कुत्सितमुत्तरगुणप्रतिसेवनया संज्वलनकषायोदयेन वा दूषितत्वाच्छीलमष्टादशसहस्राङ्गशीलभेदं यस्य स कुशीलः काल10 विनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः । तस्य प्रभेदं दर्शयति स चेति, आसेवनाकुशील इत्यर्थः । तौ दर्शयति,-- . वैपरीत्येन संयमाराधक आसेवनाकशीलः । अयमेव प्रतिसेवनाकशील उच्यते । संज्वलनक्रोधाद्युदयाद्गर्हितचारित्रः कषायकुशीलः ॥ .. 15 वैपरीत्येनेति । यो नैर्ग्रन्ध्यं प्रति प्रस्थितोऽनियतेन्द्रियः कथञ्चित्किञ्चिदेवोत्तरगुणेषु पिण्डविशुद्धिसमितिभावनातपःप्रतिमादिषु विराधयन् सर्वज्ञाज्ञोल्लंघनमाचरति स आसेवनाकुशील इत्यर्थः, आसेवनाप्रतिसेवनापदयोरेकार्थतयाऽऽहायमेवेति आसेवनाकुशील एवेत्यर्थः, . कषायकुशीलमाह संज्वलनेति, यस्य तु संयतस्यापि सतः कथञ्चित्संज्वलनकषाया उदीर्यन्ते स कषायकुशील इत्यर्थः ॥ 20 पुनस्तस्य प्रकारान्तरमाह-- _ द्विविधोऽपि स पञ्चविधः । ज्ञानदर्शनचरणतपोयथासूक्ष्मभेदात् । ज्ञानदर्शनचरणतपसां वैपरीत्येनाऽऽसेवकाश्चत्वारः प्रतिसेवनाकुशीलाः। शोभनतपस्वित्वप्रशंसाजन्यसंतोषवान् यथासूक्ष्मप्रतिसेवनाकुशीलः । - द्विविधोऽपीति । आसेवनाकषायभेदेन द्विभेदोऽपीत्यर्थः, तथा च प्रतिसेवनाकुशील: 25 पश्चविधः, कषायकुशीलोऽपि पञ्चविध इत्यर्थः । आद्यान् चतुर्विधानेकान्थेन लाघवादाह ज्ञानदर्शनचरणतपसामिति, यो हि ज्ञान-ज्ञानाचारं वैपरीत्येनासेवते स ज्ञानप्रतिसेवनाकुशीलः, ज्ञानाचारोऽष्टविधः, कालविनयबहुमानोपधानानिह्नवव्यञ्जनार्थतदुभयभेदात् । ज्ञान Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशीला: ] म्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५९७ : पदेन श्रुतं विवक्षितं यो यस्यांगप्रविष्टादेःश्रुतस्य काल उक्तस्तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्त्तव्यो नान्यदा, तीर्थकरवचनात् दृष्टञ्च लोकेऽपि कृष्यादेः काले करणे फलं विपर्यये तु विपर्यय इति, एवमनाचरणे प्रायश्चित्तमस्ति, तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोर्विनयः कार्यः, विनयोऽभ्युत्थानपादधावनादिः, अविनयहीनं हि तदूषरोप्तबीजमिव विफलं भवति, तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोर्बहुमानः कार्यः, बहुमानो नामाऽऽन्तरों भावप्रतिबन्धः, एतस्मिन् 5. सत्यक्षेपेणाधिकफलं श्रुतं भवति, अङ्गोपाङ्गानां सिद्धान्तानां पठनाराधनार्थमाचाम्लोपवासनिर्विकृत्यादिलक्षणस्तपोविशेष उपधानम् । न निवोऽपलापः अनिह्नवः, यतोऽधीतं तस्यानपलाप:, यतोऽनिवेनैव पाठादि सूत्रादेर्विधेयं न पुनर्मानादिवशादात्मनो लाघवाद्याशङ्कया श्रुतगुरूणां श्रुतस्य वाऽपलापः कार्यः । व्यञ्जनार्थतदुभयभेद्राः यथा श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमभीसता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेदस्तदुभयभेदश्च न कार्यः, तत्र व्यञ्जनभेदो यथा - ' धम्मो मङ्गलमु - 10 क्विटं ' इति वक्तव्ये ' पुण्णं कल्लाणमुक्कोस 'मित्यादि, अर्थभेदस्तु यथा ' आवंती केयावंती लोगंसि विप्परा मुसंति' इत्याचारसूत्रे यावन्तः केचन लोके अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीत्येवंविधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केया-रज्जुर्वान्ता पतिता लोकः परामृशति कूप इत्याह, तदुभयभेदस्तु द्वयोरपि याथात्म्योपमर्देन यथा ' धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतमस्तक इत्यादि, अत्र दोषश्च व्यञ्जनभेदेऽर्थभेदस्तद्भेदे क्रियाभेदस्तद्भेदे मोक्षाभावस्तदभावे 15 निरर्थका दीक्षेति । एवञ्च ज्ञानाचारान् यः प्रतिसेवते स ज्ञानप्रति सेवनाकुशीलो बोध्यः, एवं दर्शनं दर्शनाचारं वैपरीत्येनासेवते स दर्शनप्रतिसेवनाकुशीलः । दर्शनं सम्यक्त्वं तदाचारः निश्शङ्कितत्वादिरष्टविधः निश्शङ्कितनिष्कांक्षितनिर्विचिकित्साऽमूढदृष्टधुपबृंहणस्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावनाभेदात् । शङ्कितं सन्देहस्तस्याभावो निःशङ्कितम्, कांक्षा अन्यान्यदर्शनग्रहस्तदभावो निष्कांक्षितं विचिकित्सा मतिविभ्रमः युक्तयाऽऽगमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं 20 प्रति संमोहः तदभावो निर्विचिकित्सम् । अमूढाऽविचला तपोविद्यातिशयादिकुतीर्थिकर्द्धिदर्शनेऽप्यमोहस्वभावा दृष्टिस्सम्यग्दर्शनममूढदृष्टिः, उपबृंहणं समानधार्मिकाणां क्षमणावैयावृत्त्यादिसद्गुणप्रशंसनेन तत्तद्गुणवृद्धिकरणम्, स्थिरीकरणं धर्माद्विषीदतां तत्रैव चारुवचन'चातुर्यादवस्थापनम्, वात्सल्यं समानदेवगुरुधर्माणां भोजनवसनदानोपकारादिभिस्सम्माननम्, प्रभावना धर्मकथाप्रतिवादिविजयदुष्करतपश्चरणकरणादिभिर्जिनप्रवचनप्रकाशनम् 25 यद्यपि च प्रवचनं शाश्वतत्वा तीर्थंकर भाषितत्वात्सुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा स्वयमेव दीप्यते तथापि दर्शनशुद्धिमात्मनोऽभीप्सुर्यो येन गुणेनाधिकः स तेन तत्प्रवचनं प्रभावयति - यथा भगवदाचार्यवज्रस्वामिप्रभृतिक इति । तदेवं दर्शनाचारं यः प्रतिसेवते स दर्शनप्रति सेवना कुशील उच्यते । एवं चारित्राचारा अष्टौ प्रणिधानयोगयुक्तस्य पञ्चसमितयस्त्रिगुप्तय इति । 6 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ५९८ : तस्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे तान् यः प्रतिसेवते स चारित्रप्रतिसेवनाकुशीलः । तपआचारास्तु द्वादशविधा बाह्याभ्यन्तररूपाः तद्विराधकस्तपःप्रतिसेवनाकुशील इति । यद्वा चरणप्रतिसेवनाकुशीलो यः कौतुकभूतिकर्मप्रश्नाप्रश्ननिमित्ताजीवकल्ककुरुकालक्षणविद्यामन्त्रादीन्युफ्जीवति सः, तत्र कौतुकं आश्चर्य यथा मायाकारको मुखे गोलकान् प्रक्षिप्य कर्णेन निष्काशयति नासिकया वा । 5 तथा मुखादग्नि निष्कासयतीत्येवंभूतम् , भूतिकर्म नाम यजवरितादीनामभिमंत्रितेन शारेण रक्षाकरणम् । प्रश्नाप्रश्नं नाम--यत्स्वप्नविद्यादिभिः शिष्टस्यान्येभ्यः कथनम् । निमित्तं नामातीतादिभावकथनम् । आजीवो नामाऽऽजीविका स च जात्यादिभेदस्सप्तप्रकारः । कल्को नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनमथवाऽऽत्मनश्शरीरस्य देशतस्सर्वतो वा लोध्रादिभिरुद्वर्त्तनम् । कुरुका नाम देशतस्सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनम् । लक्षणं पुरुषलक्षणादि । 10 तथा विद्यामंत्राथुपजीवकः ससाधना विद्या, असाधनो मंत्र, यद्वा यस्याधिष्ठात्री देवता सा विद्या, यस्य चाधिष्ठाता देवस्स मंत्रः, आदिना मूलकर्मचूर्णादीनां ग्रहणं, मूलकर्म-गर्भोत्पादनं गर्मपातनमित्यादिचूर्णादयस्तु प्रसिद्धा एव । यथासूक्ष्मप्रतिसेवनाकुशीलमाह-शोभनेति । अयं शोभनस्तपस्वीत्येवंविधलोकप्रयुक्तप्रशंसाश्रवणजन्यसंतोषवान् कुशील इत्यर्थः ॥ ... कषायकुशीलस्यापि भेदानाह15 संज्वलनक्रोधादिभिर्ज्ञानदर्शनतपसां स्वाभिप्रेतविषये व्यापारयिता ज्ञानादित्रिविधकषायकुशीलः । कषायाक्रान्तश्शापप्रदः कुशीलश्चारित्रकषायकुशीलः । मनसा क्रोधादिकर्ता कुशीलो यथासूक्ष्मकषायकुशीलः। संज्वलनेति । संज्वलनक्रोधादिना स्वाभिप्रेतविषये विद्यादिज्ञानं दर्शनग्रन्थं च प्रयुजानः तपसा शापं ददत् , चारित्रतो लिङ्गान्तरं कुर्वन् ज्ञानकषायकुशीलो दर्शनकषायकु20 शीलः चारित्रकषायकुशीलस्तपःकषायफुशीलश्च भवतीत्यर्थः । मनसा केवलं क्रोधादीन कुर्वन् यथासूक्ष्मकषायकुशील इति ॥ अथ निर्ग्रन्थमाह. निर्गतमोहनीयमात्रकर्मा चारित्री निर्ग्रन्थः । स चोपशान्तमोहः क्षीणमोहश्चेति द्विविधः। संक्रमणोद्वर्तनादिकरणायोग्यतया व्यवस्थापित25 मोहनीयकर्मोपशान्तमोहः । क्षपितसर्वमोहनीयप्रकृतिको निर्ग्रन्थः क्षीणमोहः॥ ... निर्गतेति । द्रव्यतो भावतश्च मिथ्यात्वादिमोहनीयकर्मभ्यो निर्गतश्चारित्री निर्मन्थ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्मम्याः ] न्यायप्रकाशसमलङ्कृते : ५९९ इत्यर्थः । क्रोधादिभिरान्तरग्रन्थैस्सर्वैरपि केचिद्विप्रमुक्ताः केचिच्च सहिता भवन्ति, ये सहितास्ते पुलाकबकुशकुशीला उक्ताः । यस्तु सर्वैर्विप्रमुक्तस्सोऽपि तेषामुपशमावस्थां क्षयावस्थायाभ्युपगम्य द्विविधो भवतीत्याशयेनाह स चेति-उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थमाह-संक्रमणेति, यो विद्य मानानपि कषायान्निगृह्णांति संक्रमणोद्वर्त्तनायोग्यं करोति, उदीयमानानेव प्रथमतो निरुणद्धि, स सतामपि कषायाणामसत्कल्पकरणात्सरागसंयतोऽपि उपशान्तकषायनिर्ग्रन्थो भवतीति 5 भाषः । क्षीणमोहनिर्ग्रन्थमाह क्षपितेति यस्तु संज्वलनकषायादीनामुदय निरोधोदय प्राप्तविफलीकरणाभ्यां क्षयकरण (योद्यतस्सन्नन्तरग्रन्थनिग्रहप्रधानो भवति स विशेषेणापुनर्भावेण रागस्य गतत्वाद्वीतरागः क्षीणमोहनिर्ग्रन्थ उच्यत इति भावः ॥ अस्यैव प्रकारान्तरेण भेदमाह - द्विविधोऽपि स प्रथमाप्रथमचरमाचरमसमययथासूक्ष्म भेदात्पश्ञ्च- 10 विधः । अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणे निर्ग्रन्थकालसमयराशौ प्रथमसमय एव निग्रन्थत्वं प्रतिपद्यमानः प्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । अन्यसमयेषु विद्यमानोsप्रथमसमयनिर्ग्रन्थः । अन्तिमसमये विद्यमानश्वरमसमयनिर्ग्रन्थः । शेषेषु विद्यमानोऽचरमसमयनिर्ग्रन्थः । आद्यौ पूर्वानुपूर्व्या अन्त्यौ च पश्चानुपूर्व्या व्यपदिष्टौ । प्रथमादिसमयाविवक्षया सर्वेषु समयेषु वर्त्त- 15 मानो यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थः ॥ द्विविधोऽपीति । उपशान्तक्षीण मोहरूपोऽपीत्यर्थः । प्रथमसमय निर्ग्रन्थमाहान्तर्मुहूर्तप्रमाण इति, उपशान्तमोहत्व क्षीण मोहत्वान्यतररूपनिर्ग्रन्थत्वस्यान्तर्मुहूर्त्त मानत्वात्तदूर्ध्वं परिणामान्तरपाप्तेरिति भावः । प्रथमसमय एवेति, उपशान्तमोहत्वादिरूपो यो भावो यत्समयावच्छेदेन जीवेनावाप्तपूर्व स्तादृशभाव विशिष्टस्तत्समयस्तस्य जीवस्याप्रथमसमयभाव उच्यते, 20 अप्राप्तपूर्वभावसम्बद्धसमयस्तु प्रथमसमय उच्यते तदानीमेव प्राप्तत्वात् उक्तश्न 'जो जेण पत्तपुव्वो भावो सो तेण अपढमो होइ । सेसेसु होइ पढमो अपत्तपुव्वैसु भावेसु' इति तत्र तादृशप्रथमसमयावच्छिन्नमिर्त्रन्थत्वात् प्रथमसमयनिर्ग्रन्थ इति भावः । प्राप्तपूर्व भावविशिष्टसमयवानप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ इत्याहान्य समयेष्विति, अप्राप्तपूर्व भाव सम्बद्धसमयान्यत्तद्भावसम्बद्धसमयेष्वित्यर्थः । चरमसमयनिर्ग्रन्थमाहान्तिमसमय इति, चरमत्वं पर्यन्तवर्त्तित्वं 25 तच सापेक्षिकं, तथा च निर्ग्रन्थावस्थायाः यावन्तस्समयास्तेषु प्रान्तवर्तिसमय विशिष्टनिग्रन्थावस्थावान् चरमसमयनिर्ग्रन्थ इत्यर्थः । तत्पूर्ववर्त्तिसमय विशिष्ट निर्ग्रन्थावस्थावांस्त्वचरमसमयनिर्ग्रन्थ उच्यत इत्याह शेषेष्विति प्रान्तसमय पूर्ववर्त्तिसमयेष्वित्यर्थः । ननु प्रथमा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे प्रथमसमयनिम्रन्थयोश्चरमाचरमनिर्ग्रन्थयोः किं कृतो विशेष इत्यत्राहाद्याविति, पूर्वानुपूर्वेति, विवक्षितसमयसमुदाये यः प्रथमस्तस्मादनुक्रमेण परिपाटिर्विरच्यते चेत्तदा स क्रमः पूर्वानुपूर्वीत्युच्यते तामवलम्ब्याद्यद्वयभेद आहत इति भावः । अन्त्यौ चेति पश्चानुपूयेति, तत्रैव यः पाश्चात्यचरमस्तस्मादारभ्य व्यत्ययेन क्रमपरिपाटिर्विरच्यते चेत्तदा स क्रमः पश्चानुपूर्वी5 त्युच्यते, तामवलंब्यान्त्यभेदद्वय उक्त इत्येव विशेष इति भावः । यथासूक्ष्मनिम्रन्थमाह प्रथमादीति, निर्विवक्षितसमयविशेषो वस्तुतस्तत्समयेषु वर्तमानो निम्रन्थो यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ इत्यर्थः॥ अथ स्नातकमादर्शयति निरस्तघातिकर्मचतुष्टयस्स्नातकः । स सयोग्ययोगिभेदेन द्विविधः । 10 मनोवाकायव्यापारवान् स्नातकस्सयोगी । सर्वथा समुच्छिन्नयोगव्यापारवान् स्नातकोऽयोगी॥ निरस्तेति । क्षालितसकलघातिकर्ममलत्वात्स्नात इव स्नातस्स एव स्नातक इत्यर्थः, स्नाकत्वञ्च क्षपकश्रेणीत एव लभ्यते । अस्यापि द्वैविध्यमाह स इति, सयोगिनमाह मन इति, योगो वीर्य शक्तिरुत्साहः पराकम इति पर्यायाः, स च मनोवाकायलक्षणकरणभेदात्तिस्रः 15 संज्ञा लभते मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति, ईदृशयोगत्रयविशिष्टस्स्नातकस्सयोगीत्युच्यते मनःपर्यायज्ञानिप्रभृतिभिर्मनसा पृष्टस्य देशनाय मनोयोगस्य, धर्मदेशनादौ वाग्योगस्य, निमेषोन्मेषचंक्रमणादौ काययोगस्यावश्यकत्वादिति भावः, अयोगिनमाह सर्वथेति, सर्वथायोगनिरोधोत्तरं शैलेश्यवस्थावानित्यर्थः । योगनिरोधशैलेशीकरणञ्च पूर्वमेवोपदर्शितम् ॥ - अथ स्वरूपतोऽभिहितानामेषां चारित्रिणामनुयोगद्वारैस्साधनायाह20. संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपातस्थानैर्विचार्या एते । पुलाक बकुशप्रतिसेवनाकुशीलास्सामायिकसंयमे छेदोपस्थाप्ये च वर्तन्ते । कषायकुशीलाः परिहारविशुद्धौ सूक्ष्मसम्पराये च । निर्ग्रन्थाः स्नातकाश्च यथाख्यात एव ॥ संयमेति । अष्टावेतान्यनुयोगद्वाराणि संक्षेपेणोक्तानि नातो न्यूनता शङ्का कार्य । अत्र 25 कस्मिन् संयमे के भवन्तीत्यत्राह पुलाकेति । सप्रभेदा एते आधचारित्रद्वय एव वन्त इत्यर्थः, कषायकुशीला इति, तत्त्वार्थभाष्यानुसारेणैवमुक्तिः, भगवत्याद्यनुसारेण तु आद्यद्वयेऽपि भवन्त्येत इति बोध्यम् । शिष्टं स्पष्टम् ॥ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराणि] न्यायप्रकाशसमलते पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणानूनकाक्षराणि दशपूर्वाणि श्रुतानि धारयन्ति, कषायकुशीला निर्ग्रन्थाश्च चतुर्दशपूर्वधराः, जघन्येन पुलाकानां श्रुतमाचारवस्तु, बकुशकुशीलनिर्ग्रन्थानामष्टौ प्रवचनमातरः, स्नातकास्तु श्रुतरहिताः केवलज्ञानवत्त्वात् ॥ . .. पुलाकेति । अनूनेति, एकेनाप्यक्षरेणान्यूनानि दशपूर्वाणीत्यर्थः । कषायेति चतुर्दशेति, 5 उत्कर्षेणेदं बोध्यम् , आचारवस्त्विति, नवमपूर्वान्तःपातितृतीयमाचारवस्तु यावत्तेषां श्रुतमित्यर्थः । अष्टौ प्रवचनमातर इति, एतत्पालनरूपत्वाचारित्रस्य, तथा च चारित्रिभिरवश्यं तावज्ज्ञानवद्भिर्भवितव्यं चारित्रस्य ज्ञानपूर्वकत्वात् तज्ज्ञानश्च श्रुतादिति तेषामष्टप्रवचनमातृप्रतिपादनपरं श्रुतं बोध्यम् , अवशिष्टं मूलं स्फुटार्थम् ॥ प्रतिसेवनाद्वारमाह . . 10 क्षपाभोजनविरतिसहितपञ्चमूलगुणानामन्यतमं बलात्कारेण प्रतिसेवते पुलाका, बकुशो मूलगुणाविराधक उत्तरगुणांशे विराधकः, प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणाविराधक उत्तरगुणेषु काश्चिद्विराधनां प्रतिसेवते, कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकानां प्रतिसेवना नास्ति ॥ क्षपाभोजनेति । बलात्कारेणेति राजादिकृतबलात्कारेण न तु स्वरसत इति तत्त्वार्थ- 15 भाष्यानुसारेण । भगवत्यनुसारेण पश्चानां महाव्रतानामन्यतमं प्रतिसेवेत, उत्तरगुणान् प्रतिसेवमानो दशविधप्रत्याख्यानान्यतमं प्रतिसेवेतेति, उत्तरगुणांशे विराधक इति, दशविधप्रत्याख्यानान्यतमं विराधयतीत्यर्थः । काश्चिदिति तत्त्वार्थभाष्यानुसारेणेदम् , भगवत्यान्तु प्रतिसेवनाकुशीलः पुलाकवदुक्तः ॥ तीर्थद्वारमाह 20 पुलाकादयस्सर्वे सर्वेषां तीर्थकृतां तीर्थेषु भवन्ति ॥ __ पुलाकादय इति । तरन्त्यनेनेति तीर्थ प्रवचन प्रथमगणधरो वा, तीर्यतेऽनेनेति वा तीर्थ सङ्को ज्ञानदर्शनचारित्रगुणयुतः, प्रवचनमपि श्रुतज्ञानरूपत्वात्तीर्थमेव, तत्र जैनमेव तीर्थ अभिप्रेतार्थसाधकं, सम्यश्रद्धानोपलब्धिक्रियात्मकत्वाद्यदेवं तदेवं यथा सम्यक्परिच्छेदवती रोगापनयनक्रिया यन्नैवं तत्तु नैवं यथोन्मत्तप्रयुक्तक्रिया । नेतरेषां तीर्थानि अभि- 25 प्रेतफलानि, समप्रनयविकलत्वात् , विफलक्रियावत् , यथा भिषक्प्रतिचारकातुरौषधाद्यन्यत Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६०२: तस्वन्यायविमाफरे [ तृतीयकिरणे माङ्गविकला क्रिया न सम्पूर्णाभिप्रेतफलसाधनभूता तथैतदन्यतीर्थान्यपीति । तीर्थेषु भवन्तीति, तत्त्वार्थभाष्यानुसारेणेदम्, भगवत्यान्तु पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीलास्तीर्थे एव, कषायकुशीलनिम्रन्थस्नातकास्तु तीर्थे वाऽतीर्थे वा भवन्ति, कषायकुशीलः छद्मस्थावस्थायां तीर्थकरोऽपि स्यात्तदपेक्षया, तीर्थव्यवच्छेदे तदन्योऽप्यसौ स्यादिति तदन्यापेक्षया 5 चातीर्थेऽपि स्यादिति ॥ लिङ्गद्वारमाह ज्ञानदर्शनचारित्ररूपभावलिङ्गानि सर्वेषां स्युः, रजोहरणादिद्रव्यलिङ्गानि तु केषाश्चित्सर्वदैव भवन्ति, केषाश्चित्कदाचित्, केषाश्चिच्च नैव भवन्ति ॥ 10 ज्ञानेति । लिङ्गं द्विधा, द्रव्यभावभेदात्, भावलिङ्ग ज्ञानादि, एतच्च स्वलिङ्गमेव, ज्ञानादिभावस्याहतामेव भावात् , द्रव्यलिङ्गन्तु स्वलिङ्गपरलिङ्गभेदावधा, रजोहरणादि स्वलिङ्गम् , परलिङ्गमपि कुतीर्थिकगृहस्थलिङ्गभेदाद्विविधम् , तत्र भावलिङ्गस्य तदन्तरा चरणासम्भवात्सर्वेषामस्तित्वमेवेत्याह ज्ञानेति, द्रव्यलिङ्गमाश्रित्याह रजोहरणादीति, चरण परिणामस्य द्रव्यलिङ्गानपेक्षत्वात्रिविधलिङ्गेऽप्येते भवन्तीति भावः । नैव भवन्तीति, यथा 15 मरुदेवीप्रभृतीनामिति ॥ लेश्याद्वारमाह पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो लेश्याः, बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोषडपि, परिहारविशुद्धिस्थकषायकुशीलस्योत्तरास्तिस्रः, सूक्ष्मसम्परायस्थस्य तस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च केवला शुक्ला लेश्या, अयोगस्य शैलेशीप्रतिपन्नस्य 20 न काचिदपि भवति । पुलाकस्येति । लेश्याः पूर्वोक्ताः, उत्तरा इति, भावलेश्यापेक्षया तेजःपद्मशुक्ललेश्यास्तिस्र इत्यर्थः । बकुशेति, षडपीति, तत्त्वार्थभाष्यानुसारेणेदम् , भगवत्यान्तु पुलाकस्येवेत्यु. क्तम् । परिहारविशुद्धिस्थेति, तिस्र इति तेजःपद्मशुक्ललेश्या इत्यर्थः, तत्त्वार्थानुसारेणेदम् , भगक्त्यान्तु कषायकुशीलस्तु षट्स्वपीत्युक्तम् , तद्व्याख्यायां सकषायमेवाश्रित्य " पुषपडि25 वण्णओ पुण अण्णयरीए लेस्साए” इत्येतदुक्तमिति संभाव्यत इति दृश्यते । तस्येति कषायकुशीलस्येत्यर्थः । केवलेति, अन्यलेश्यानिरपेक्षेत्यर्थः । स्नातकस्य परमशुक्ललेश्या प्रोक्ता भगवत्यां, परमशुक्ललेश्या च शुक्लध्यानतृतीयभेदावसरे या लेश्या सा, अन्यदा तु शुक्लैव, सापीतरजीवशुक्ललेश्यापेक्षया स्नातकस्य परमशुक्लेति । शिष्टं स्पष्टम् ॥ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराषि] न्यायप्रकाशसमलते : ६०३ : उपपातद्वारमाह पुलाकस्योपपात आसहस्रारं, बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोादशदेवलोके । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थयोस्तु सर्वार्थसिद्धे । सर्वेषामपि जघन्यः पल्योपमपृथक्त्वस्थितिके सौधर्मे । स्नातकस्य निर्वाणे ॥ 'पुलाकस्येति । उपपातः पूर्वजन्मपरित्यागेन स्थानान्तरप्राप्तिः। आसहस्रारमिति, 5 उत्कर्षेणेदम् । बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोरिति, द्वादशदेवलोक इति, अच्युत इत्यर्थः । सर्वार्थसिद्ध इति, निर्ग्रन्थस्याजघन्योत्कृष्टत्वं बोध्यम् । सर्वेषामपीति, जघन्ययोग्यानां सर्वेषामित्यर्थः, तथा च पुलाकबकुशकुशीलानां जघन्येन सौधर्मे करूपे उपपात इति भावः, पल्योपमपृथक्त्वस्थितिक इति, पल्योपमस्य द्विप्रभृत्यानवभ्यः पृथक्त्वपरिभाषणात् तावस्थितिक इत्यर्थः । उत्कर्षेण तु पुलाकस्य तत्राष्टादशसागरोपमा स्थितिर्बकुशस्य द्वाविं. 10 शतिसागरोपमस्थितिः। एवं प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि, कषायकुशीलस्य तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा स्थितिस्स्वस्वोत्कृष्टलोकेष्विति ज्ञेयम् ॥ स्थानद्वारमाह पुलाककषायकुशीलयोर्लब्धिस्थानानि सर्वजघन्यानि।तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः। ततःपुलाको व्युच्छिद्यते।कषायकुशीलस्तु गच्छ. 15. त्यसंख्येयस्थानान्येककः । ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलबकुशा युगपदसंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छन्ति, ततो बकुशो व्युच्छिद्यते ततोऽसंख्येयस्थानानि गत्वा प्रतिसेवनाकुशीलो व्युच्छिद्यते ततोऽसंख्येयस्थानानि गत्वा कषायकुशीलो व्युच्छिद्यते, अत ऊर्ध्वमकषायस्थानानि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽप्यसंख्येयस्थानानि गत्वा व्युच्छिद्यते, अत 30 ऊर्ध्वमकषायस्थानानि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽप्यसंख्येयस्थानानि गत्वा व्युच्छिद्यते, अत ऊर्ध्वस्थानं गत्वा स्नातको निर्वाणं प्रामोतीति दिक् ॥ इति पुलाकादिनिरूपणम् ॥ पुलाकेति । पुलाको बकुशप्रतिसेवनाकुशीलापेक्षया तथाविधविशुद्ध्यभावेन हीन एव स्यात् , कषायकुशीलापेक्षया हीनो वा स्यात् , अविशुद्धसंयमस्थानवृत्तित्वात् , तुल्यो वा 25 समानसंयमस्थानवृत्तित्वात् , अधिको वा स्याच्छुद्धतरसंयमस्थानवृत्तित्वात् , यतः पुलाकस्य कषायकुशीलस्य च सर्वजघन्यानि संयमस्थानान्यध इति भावः । युगपदसंख्येयानीति, तुल्याध्यवसायत्वादिति भावः । व्युच्छिद्यत इति हीनपरिणामत्वादिति भावः । तु शब्देन Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६०४: तत्त्वन्यायविभाकरे [ तृतीयकिरणे पुलाके व्युच्छिन्नेऽपीति गम्यते । एकक इति, शुभतरपरिणामत्वादिति भावः, निर्वाणमिति, मोक्षं कृत्स्नकर्मक्षयरूपमित्यर्थः,निखिलनयाभिप्रेतार्थत्वात् ,जैनदर्शने च षड्दर्शनसमूहमयत्वस्य सम्मतत्वात् , तथाहि ऋजुसूत्रादिभिर्नयः ज्ञानसुखादिपरम्परा मुक्तिरिष्यते, तैरुत्तरोत्तरवि शुद्धपर्यायमात्राभ्युपगमात् , क्षणविद्यमानत्वेन ज्ञानादीनां क्षणरूपतायास्सिद्धेः क्षणविद्यमा5 नत्वस्य क्षणतादात्म्यनियतत्वात् , क्षणस्वरूपे तथादर्शनात् । सङ्ग्रहेण त्वावरणोच्छित्त्या व्यङ्गयं सुखं मुक्तिरित्यभ्युपगम्यते, व्यवहारेण प्रयत्नसाध्यः कर्मणां क्षयो मुक्तिरिष्यते, दुःखहेतुनाशोपायेच्छाविषयत्वेन परमपुरुषार्थत्वात् ज्ञानादिषु दुःखोपायनाशहेतुषु प्रवृत्तिर्जायत एवेति । अन्तेऽस्य ग्रन्थस्य निर्वाणपदनिर्देशेन पर्यन्तमङ्गलमपि शिष्यप्रशिष्यपरम्परया ग्रन्थस्यास्याविच्छेदफलकं निबद्धमिति सूचितम् । ग्रन्थेऽस्मिन् सर्वे विषया न पूर्णतया 10 दर्शिताः, अपि तु लेशत एवेत्याशयेनाह दिगिति । पुलकादिचारित्रिनिरूपणं निगमयतीतीति ।। सम्यक्चरणनिरूपणमपि निगमयति जिज्ञासूनां यथाशास्त्रं सम्यक्चरणमीरितम् । स्वरूपेण विधानेन सम्यग्ज्ञानाभिवृद्धये ॥ जिज्ञासूनामिति । जैनतत्त्वज्ञानाभिलाषिणामित्यर्थः, यथाशास्त्रमिति, शास्त्रमर्या15 दामबुल्लद्ध्येत्यर्थः, सम्यक्चरणमीरितमिति, चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यत इति चरणं यद्वा चर्यते प्राप्यते परं पारं भवोदधेरनेनेति चरणं व्रतश्रमणधर्मादिरूपं, सम्यगविपरीतं मोक्षसिद्धि प्रतीत्यानुगुणं यच्चरणं तदीरितं कथितमित्यर्थः, कथमित्यत्राह स्वरूपेण विधानेनेति, लक्षणेन प्रभेदेन चेत्यर्थः, किमर्थमित्यत्राह सम्यग्ज्ञानाभिवृद्धय इति, श्रोतृणां स्वस्य च सम्यरज्ञानस्य विवृद्ध्यर्थमित्यर्थः ॥ 20 इति तपोगच्छनभोमणिश्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरपट्टालङ्कारश्रीमद्विजयकमलसूरीश्वर चरणनलिनविन्यस्तभक्तिभरण तत्पट्टधरेण विजयलब्धिसूरिणा विनिर्मितस्य - तत्वन्यायविभाकरस्य स्वोपज्ञायां न्यायप्रकाशव्याख्यायां पुलाकादि निरूपणं नाम तृतीयः किरणः ॥ पूर्वर्षिकृतशास्त्राणां सारमादाय केवलम् । रचितेयं मया टीका मूलस्येव विभाव्यताम् ।। ..... . . . Dac तृतीयो भागः समाप्तः ॥ समाप्तच व्याख्यासहितस्तस्वन्यायविभाकरः ॥ इति शिवमस्तु ॥ .. Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री भद्रंकरविजयजीविरचितो ग्रन्थप्रशस्तिरूपः ग्रन्थकारपरम्परापरिचयः॥ शक्रश्रेणीमुकुटमणिभिः स्पृष्टपादारविन्दः, ___स्याद्वादीशश्वरमजिनपो वर्धमानः श्रियोढः । ज्ञानानन्त्यो यतिततिलतापूर्वबीजं विरागः, भूयाभूत्यै सुकृतिकृतिनां शासनाधीश्वरोऽसौ ॥१॥ तत्पट्टा हिमरुगिव यो भासते कान्तकान्तिः, विद्याम्भोधिः प्रथितगणभृत्पञ्चमः संयताक्षः। प्रातध्येयस्त्रिदिवपतिवत्सत्सुधर्माश्रितः सः, · हर्षाय स्तात्सहृदयहृदां श्रीसुधर्मेशिता वै ॥२॥..... जम्बूः कम्बूजवलतरयशास्तत्सुपट्टाब्जपूषा, ___नव्योढाभिर्जितसुभगतास्वर्गरम्भोर्वशीभिः । जहे स्त्रीभिः सुदृढमनसो यस्य यूनो मनो नो, . ___वात्यामिर्वो वितरतु यथा मेरुकूटं स सौख्यम् ॥ ३॥ . . तत्पदृप्राक्शिखरिरवयः श्रीलजम्बूपदेशाद् , .. दीक्षां प्राप्ताः प्रभवविभवो येऽभवन्पान्तु ते वः। अर्हन्मृा कुमततिमिरं सूर्यदीप्त्येव नष्टं; . तत्पट्टेशोऽवतु सुमनसो यस्य शय्यम्भवः सः॥४॥ ततो यशोभद्रगुरुर्बभूव, तत्पदृशुद्धाम्बरपुष्पदन्तौ। सम्भूतविद्वन्मणिभद्रबाहू, उभावभूतां कुमताजराहू ॥५॥ वेश्यावेश्मन्युषित्वा त्रिभुवनविजयी येन कामो विजिग्ये, कोशावेश्याकटाक्षप्रसृमरविशिखानिर्जितस्वान्तयोधः।। कीर्तिः प्रातत्रिलोक्यां नरसुरदनुजैः कीर्त्यते यस्य नित्यं, भद्रं स स्थूलभद्रो दिशतु मतिमतां-पट्टरत्नं तयोर्यः ॥६॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nwr : ६०६ : प्रन्थकारपरम्परापरिचयः श्रीमन्महागिरिसुहस्तिगुरू अभूतां, तत्पट्टभालतिलकौ च सुहस्तिशिष्यो। श्रीसुस्थितो विबुधसुप्रतिबुद्ध एतौ, जातौ च कौटिकगणः समभूत्ततोऽसौ ॥७॥ क्रियास्वखिन्नोऽभवदिन्द्रदिन्नः, ततोऽभवच्च व्रतिदिन सूरिः। ___ गम्भीरवक्षा गिरिवत्सुधीरः, ततोऽभवत्सिहगिरिः सुवीरः ॥ ८॥ वज्रस्वामी वृजिनशिखरिध्वंसवज्रोपमानः, बाल्येऽपाठीन्मतिसुरगुरुयोऽखिलैकादशाङ्गीम् । विद्याधीशः समजनि यतो वज्रशाखा प्रभाब्या, विश्वं पायाद्भववनदवात्सैष तत्पराजः ॥ ९ ॥ श्रीवब्रुसेनो विजिताक्षसेनः, तत्पट्टपूर्वाद्रिरविर्वभूव । तत्पट्टरत्नो गुरुचंद्रसूरिः, ततोऽभवञ्चान्द्रकुलस्य मूलम् ॥ १० ॥ सामन्तभद्रः कृतभव्यभद्रः, ततोऽजनि स्वागमपारदृश्वा । .. विद्याक्रियासत्वकृपासमुद्रः, निरस्ततन्द्रो नतभूरिसूरिः ॥११॥ श्रीवृद्धदेवोऽजनि सूरिवर्यः, तत्पट्टपूर्वाचलचित्रभानुः । ___ साधुक्रियाकर्मठताप्रतीतः, ज्ञानप्रमोदप्रतिपूर्णचेताः ॥ १२ ॥ 15 श्रीप्रद्योतनसूरिराट् समभवत् तत्पपुण्ड्रायितो. देवीभिर्विजयादिभिश्चतसृमिः संसेव्यपादद्वयः। .. यः शान्तिस्तवगुम्फतः समहरन्मारिं दयामेदुरः, तत्पट्टाभरणं सुखं दिशतु वः श्रीमानदेवः कृती ॥ १३ ॥ अद्वैतव्रतिमानतुङ्गविबुधः सिद्धान्तपारङ्गतः, श्रीभक्तामरकाव्यचारुरचनाचातुर्यचञ्चुः सुचित् । तत्पट्टामलहारनायकमणि-स्तन्याद्रमां धीमतां, विद्यावित्तमहीप्रतीतमहिमाऽर्हच्छासनामार्यमा ॥ १४ ॥ यो नागपूर्यां नमिनाथबिम्ब, प्रातिष्ठिपत्स्फारमहत्त्वपूर्णम् । श्रीवीररिः समभूत्ततः सः, तत्पशेषोरगवासुदेवः ॥ १५ ॥ 25 तत्पढे जयदेव रिरभव-चारित्रपावित्र्यभृद्, देवानन्दगुरुस्ततः समजनि त्राता पतत्प्राणिनाम्।... 20 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अन्धाशस्तिरफ. ... विद्वान् विक्रमसूरिराट् गणपतिनिर्ग्रन्थ आसीत्ततः, . योगिश्रीनरसिंहपेरिवृषभो जज्ञेऽथ विशेश्वरः ॥ १६ ॥ श्रीनागदतीर्थरक्षणकृते नग्नाटजेता क्षणात् , .. तत्पद्देशसमुद्रंसूरिनृपतिः सञ्ज्ञाततत्त्वोऽभवत् । सञ्जातो हरिभद्रसूरिसवयाः श्रीमानंदेवस्ततः, __आसीच्छ्रीविबुधप्रभो यतिपतिः प्राज्ञप्रकाण्डस्ततः ॥ १७ ॥ भव्यानन्ददररितल्लजजयानन्दस्ततो जातवान् , मत्ताम्मोजरवी रविप्र गुरु संख्यावतामणीः । सूरीशोऽजनि शुद्धकीर्तिकयशोदेवो बभूवाँस्ततः, । प्रद्युम्नस्मयहत्ततः समजनि प्रद्युम्नसूरीश्वरः ॥ १८ ॥ येनाकार्युपधानवान्यरुचिरग्रन्थो मुदे ज्ञानिनां, . उत्पेदे स ततस्तपोधनवरः श्रीमानदेवः प्रभुः। जज्ञे श्रीविमलादिचन्द्रसुगुरुः सत्स्वर्णसिद्धिस्ततः,... जेता गोपगिरीशकोविदमणेर्वादाङ्गणे शास्त्रवित् ॥ १९ ॥ वेदाकाङ्कमिते समं सुमनुजैः श्रीवैक्रमाब्दे गते,........ श्रीलोद्योतनसुरिराट् प्रविहरन् पूर्वावनीतः सुधीः। ..." आगात्सोऽर्बुदमुख्यशैलसविधे टेलीवटद्रोरधः, ... लग्नेऽच्छे स्वपदेऽष्टसरिवृषभान् प्रातिष्ठिपत्पावनः ॥ २० ॥ सन्मौक्तिकाच्छो वटसंज्ञगच्छः, ततो जगत्यां सुगुणैकगुच्छः । . अपप्रथद्व्यासतमोऽपहारी, यथाऽन्तरिक्षे सवितुः प्रकाशः ॥ २१॥ श्रीसँर्वदेवो नतसर्वदेवः, प्रशस्यशिष्यैः कृतपादसेवः । प्रख्यातकीर्तिः प्रथमोऽत्र मरिस, जज्ञेऽथ तत्पट्टसर सरोजम् ॥ २२ ॥ रूपश्रीविरुदं प्रजेशसविधात्प्राप्तं स्ववैदुष्यतः, .. बेन श्रीयुतदेव सूरिनृपतिर्जातः स विज्ञस्ततः। तत्पट्टेऽजनि सूरिशेखस्वरः श्रीसर्वदेवः पुनः, ......... .... सद्विद्याललनाविलाससदनं चारित्रिचूडामणिः ॥ २३ ॥...... 15 20 25 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अन्यकारपरम्परापरिचयः ततो यशोभद्रकनेमिचन्द्रौ तत्पट्टभद्रासनमुख्यराजौ । ... जातौ मुनी संयमशौर्यभाजौ, द्वौ कोविदौ सूरिवरौ सतीयों ॥ २४ ॥ अतात्यजीद् यो विकृतीः समग्राः, अपात्सदा काश्चिकनीरमेकम् । सोऽभूत्ततः श्रीमुनिचन्द्रसूरिः तत्पट्टशाली शमवीचिमाली ॥२५॥ आचार्यवर्याजितदेववादि-श्रीदेवसरिप्रमुखा अभूवन् । प्राज्ञा विनेया विनयप्रशस्याः, शिष्येषु धुर्या मुनिचन्द्रसूरेः ॥ २६ ॥ तत्रादिमाच्छीजयसिंहँसूरिः, कुशाग्रबुद्ध्या जितदेवसूरिः । जज्ञे मुनीशः कविचक्रवर्ती, दिगन्तरालप्रथितातिकीर्तिः ॥ २७ ॥ सोमप्रभाचार्यवरः शतार्थी, पूर्वो द्वितीयो मणिरत्नरिः। उभौ च तस्याभवतां विनेयौ, प्रतीक्ष्यपादौ जितवादिवादौ ॥ २८॥ सानुग्रहप्रचरणप्रथितोदयो यः, स्वःसानुमानिव बभौ मणिरत्नपट्टे । चारित्ररत्नखनिमान् गुणधातुपूर्णः, कल्याणराजिजटिलः सुरसेव्यपादः ॥२९॥ श्रीमजगचन्द्रमुनीन्द्रमुख्यः, तत्वज्ञराट् चान्द्रकुलाब्धिचन्द्रः। चन्द्रातिसौम्याकृतिकस्तपस्वी, स सूरिवर्यस्तनुताच्छिवं वः ॥ ३० ॥ सुदुस्तपा धीरवरेण याव-जीवं मुदा येन तपस्विना सः। ___ आचाम्लरम्या विदधे तपस्या, प्रशंसनीयो न कथं सुधीभिः ॥ ३१ ॥ यो द्वादशाब्दे विगते सुराज्ञः, श्रीराणकात्सत्तमजैत्रसिंहात् । __ आघाटसंज्ञे नगरेऽभिरामे, प्रापत्सुरम्यं विरुदं तपेति ॥ ३२ ॥ बाणाष्टवक्षोरुहचन्द्रसङ्ख्थे, वर्षे सुधान्यादिकसन्निकर्षे । विस्तीर्णतेजा भुवि पप्रथेऽयं, तपेति गच्छः सुखदस्ततोऽच्छः ।।३३।। सदालिजुष्टः सुमनोऽतिरम्यः, फलेग्रहिः शिष्यलतावितानः । पर्वाधिशाली सुरगच्छवत्सः, तपेति गच्छः स्म चकास्ति नित्यम् ॥३४॥ अनन्यसाधारणचिच्चरित्रः, शैथिल्यमुक्तश्चरणप्रवृत्तौ । यस्य द्वितीया वटगच्छसंज्ञा, बिभर्ति केषां न स पूज्यभावम् ॥ ३५ ॥ स्फारस्फुरत्संवरवीचिराजि-मर्यादितो भव्यरमानिमित्तम् । अस्ताघमूलो मुनिरत्नपूर्णः, शश्वद्व्यभात्सागरवत्स गच्छः ॥ ३६ ॥ 15 20 25 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : প্রখসহাবিব देवेन्द्रसूरिविजयादिमचन्द्रसूरी, शिष्योत्तमौ कुमतसन्तमसांशुमन्तौ । विद्याविशारंदवरौ श्रमणौ समास्तां, तत्पनाकवडवातनयो मुनीन्द्रौ ॥३७॥ विद्यानन्दगणिर्विचक्षणमणिदेवेन्द्रसूरीशितुः, पूर्वोऽन्यो मुनिधर्मघोषगणपो ह्येतौ विनेयावुभौ । सेनान्यौ जिनशासनक्षितिपतेः पुण्याङ्गिबाहूपमौ, . . .. . . जातो तत्पदमौलिमौलिमणिभृत्-श्रीधर्मघोषः क्षमी ॥ ३८ ॥ समुद्राधिष्ठाता जलनिधितरङ्गावलिमिषात् , डुढौके रत्नादीननिमिषवरो यस्य सविधे । स्वपक्षान्यस्त्रीभिः प्रवचनवचोभञ्जनकृते, गले केशव्यूहः कुमतिभिरकारि स्वबलतः ॥ ३९ ॥ तदा विद्याद्रले विदितकपटो यो मुनिवरो, भृशं तस्तम्भैतास्तदनु सदयः सङ्घवचनात् । वधूनां निर्बन्धाल्लघु सममुचच्चातिशयभृत् , समग्रन्थीच्छ्रव्या जयवृषभसंज्ञादिकविताः ॥ ४० ॥ भिषज्यते कर्मरुजापहारे, सम्राज्यते सूरिसमूहमध्ये । धर्मोपदेशे जलमुच्यते यः, ओजायते पण्डितमण्डलेषु ॥ ४१ ॥ कश्चिद्योगिशठोऽवसद्वरनरे द्रङ्गे विशालाभिधे, साधून्भापयते स्म सौववलतो जैनान्समभ्यागतान् । भूम्यां संविहरन्हरन्कलितमः कुर्वञ्जनस्योद्धति, श्रीसूरीश्वरधर्मघोषविबुधस्तत्राजगामैकदा ॥ ४२ ॥ ईज्विालाज्वलितहृदयोऽहतिध्वस्तबुद्धिः, ज्ञात्वा योगी प्रति मुनिवरान् भापनायाददर्शत्। भीष्मान्दन्तान्क्रकचविषमान्दर्शयित्वा कफोणिं, जग्मुर्भीताः स्वगुरुसविधे साधवः प्रोचुराशु ॥ ४३ ।। प्रावोचद्गुरुराट् मुनींस्ततदयो मा भैष्ट यूयं मनाम् , युष्मद्रक्षणदक्षशक्तिसमितो वेवेभि यावत्तदा । 15 20 25 ७७ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ६१० : 10 - 15 20 म 25 ग्रन्थकारपरम्परापरिचयः श्रुत्वा भीतिकरान्वहिश्च वसतेह्रकुन्दुरा हिस्वराने, नानोपद्रवभीतसाधुनिकरो द्राक्कान्दिशीकोऽभवत् ॥ ४४ ॥ ज्ञात्वा यावदिमां प्रवृत्तिमृषिराट् - श्रीधर्मघोषो गुरुः, - प्रासजीकृतकुम्भके निजकरं दत्वा पटाच्छादिते । निर्भीकः प्रजजाप तावदुदिता सर्वाङ्गगामिन्यथा, धूर्ते योगिनि सेवकानथ तदा योगी जगाद म्रिये ॥ ४५ ॥ योगी स्वीयं विलसितमिदं व्याकुलो द्रागहाषित्, aarssन्दन् श्रमणवसतौ वक्त्रदत्ताङ्गुलिः सः । अन्त्यवोचद् यदिह विहितं क्षम्यतां सर्वमेतत्, 1. कुर्वे नातः प्रति मुनिवरान् क्लेशकृनीचकृत्यम् ॥ ४६ ॥ लीनं व्यधात्तं गुरुधर्मघोषः, स्वकीयपादाम्बुजयोस्तदानीम्, ततः प्रवृद्धिर्जिनशासनस्य, कामं बभूवाघविनाशनस्य ॥ ४७ ॥ यत्राखिलादिप्रवरस्तुतीर्यः, प्रादी भत्काव्यकलाविदग्धः । सोमप्रभाचार्यवरो बभूवान्, तत्पादसेवानलिनी द्विरेफः ॥ ४८ ॥ आसीत्सू विरेण्य सोम तिर्लकस्तत्पट्टलक्ष्मीधरः, सत्संवेगतरङ्गसङ्गविशदी भूतक्रियाज्ञानभृत् । यस्याद्यो गणिचन्द्रशेखरतपस्व्यन्यों जयानन्दकः, प्रान्त्यः श्रीगुरुदेव सुन्दरवरः शिष्यत्रयी प्राजनि ॥ ४९ ॥ श्रीसूरीश्वर देवसुन्दरेशमी प्राभ्यस्तयोगोऽभवत्, सम्प्राप्ताखिलमन्त्रतत्रविभवः तत्पट्टरोचिष्पतिः । नृव्यालानलसर्वसाध्वसहरो नैमित्तिकेष्वग्रणीः, हर्ता स्थावरजङ्गमाखिलविषस्याच्य नृपामात्यकैः ॥ ५० ॥ यः पञ्चभिः पण्डित शिष्यमुख्यैः, शिलीमुखैः काम इव व्यभात्तैः । ज्ञानादिमः सागरसूरिराद्यः आसीत्कृतावश्यक कावचूरिः ॥ ५१ ॥ विश्वश्रीधर पुस्तकादिरचना-सौन्दर्य नैपुण्य भाग् सूरश्रीकुलमण्डनाह्वगुरुराट् जज्ञे द्वितीयस्ततः । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थप्रशस्तिरूपः आसीच्छ्रीगुणरत्नसूरिमृगपो वैराग्यरङ्गाञ्चितः, श्रीवैयाकरणाग्रणीर्गणिगणे वर्यस्तृतीयस्ततः ।। ५२ ।। आचार्याग्रिमसोमसुन्दरगणिर्जातश्चतुर्थस्ततः, दृष्ट्वा केचन निन्दका मुनिपतेर्यस्य क्रियापात्रताम् । तद्वाताय सहस्रमानवगणं पाखण्डिनो मानुषाः, प्रेषुः श्रीगुरवश्च यत्र शयितास्तत्रागतोऽयं गणः ॥ ५३ ॥ रात्रौ चन्द्रमसः प्रकाशपतने धर्मध्वजेनादितः, पार्श्वसद्विधिना प्रमार्ण्य गुरुराट् प्रोद्वर्तयन्वीक्षितः । तेनोचे लघुजन्तुरक्षणकरो वध्यः कथं पापकै रस्माभिः खलु निन्द्यवृत्तिनिपुणैः कारुण्यवारांनिधिः ॥ ५४ ॥ ततो गणोऽयं गुरुपादनम्रः अस्मान्क्षमस्वेति जगाद सूरिम् । तो गणः स स्वगृहं क्षमित्वा, तत्र प्रभावः प्रससार सूरेः ॥ ५५ ॥ श्री साधु रत्नगणपोऽजनि पञ्चमोऽत्र, श्रीसोमसुन्दरगणिः समसाधुमध्ये | कल्याणिकाभिधसुकाव्यविधानदक्षः, तत्पट्टशेषभुजगाग्रमणिर्बभूव ॥ ५६ ॥ सिंहासनाशोकसरोवरार्ध - भ्रमाब्जभेरीमुरजादिनव्यैः । J. त्रिंशत्सुबन्धै रमणीयभागां, चित्राक्षरद्वयक्षरपञ्चवर्गाम् ॥ ५७ ॥ : ६११ : तां त्रिदशतरङ्गिणी-नामधेयां सुपत्रिकाम् । योऽष्टोत्तरशतैर्हस्तै- र्दीर्घं प्रैषीद्गुरुं प्रति ॥ ५८ ॥ युग्मम् ॥ प्रापद्वालसरस्वतीति बिरुदं यो दक्षिणे राष्ट्रके, बाल्ये श्लोकसहस्रकं नवनवं कण्ठे चकारानिशम् । स्तोत्रं संतिकरं नृणां सुखकरं प्रादीभत्सुन्दरं, आसीच्छ्रीमुनिसुन्दरौ भिधगुरुस्तत्पट्टधौरेयकः ॥ ५९ ॥ श्रीरत्नशेखर विशारदवर्यधुर्यः, सूरीशशेखरसमो नयभङ्गविज्ञः । श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रसुवृत्तिकर्ता, तत्पट्टशेखरवरः समभूत्ततोऽसौ ॥ ६० ॥ श्रीलक्ष्मीसागरः सूरिर्जज्ञे तत्पट्टमण्डनः । अच्छी सुमतिः साधुः तत्पट्टान्धिविधूमः ॥ ६१ ॥ 5 10 हूँ 15 20 25 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ११२ : 5 F 10 15 20 25 ग्रन्थकारपरम्परापरिचयः दाक्षिण्यदाक्ष्य मुनितादिगुणालिपुष्टाः, तत्पट्टचैत्यशिखराग्रसुवर्णकुम्भाः । ये जैनशासननभः किरणेशितारः, दीक्षां ददुर्हरगिरिप्रमुखर्षिगणाम् ॥ ६२ ॥ स्वाचारमार्ग मुमुचुर्न धन्याः, ये ते वसन्तः श्लथसाधुमध्ये | गच्छप्रभूतंप्रभुताविशिष्टाः, हेमादिमाः श्रीविमला अभूवन् ॥ ६३॥ युग्मम् ॥ आनन्दसूरिर्विमलान्तिमोऽभूत्, तत्पट्टदीव्यन्मणिहारनाथ: । समुद्धरन् साधुपथं श्लथं यः, तपस्विनिर्ग्रन्थसमाजराजः ॥ ६४ ॥ प्रभावयचैनमिदं सुशासनं, समर्थयन्नागमतश्वगूढताम् । प्रचारयन्देशनया स्वधर्मकं, प्रवर्धयन्विश्वतले यशोलताम् ॥ ६५ ॥ तत्पट्टभद्रासन राजतेजाः, आप्तोक्तिवेत्ता जयिदान सूरिः । प्रमादी जितवादिवादो, महाप्रतापी समभून्मुनीन्द्रः || ६६ ॥ युग्मम् || वैराग्यरत्नप्रभवावनीभृद्, वैदग्ध्यचूतस्य वसन्तमासः । सौभाग्य सौजन्यविहारभूमिः, क्रियाङ्गनाक्रीडनकान्तकुञ्जः ॥ ६७ ॥ तत्पट्टपद्माकरराजहंसः, कुपाक्षिकाज्ञानतमिस्रहंसः । कारुण्यसिन्धुः शमराजसौधः, श्रीहीर सूरिर्नतसूरिरासीत् ॥ ६८ ॥ स्याद्वाद सिद्धान्तमबाध्यमेनं, प्रमाणयन्युक्तिततिप्रयुक्तम् । समन्वयन्भिन्नमतानि विद्वान्, स्वकीयसिद्धान्तसुचारुदृष्ट्या ।। ६९ ।। मध्ये भाति यदीयवाणी, पानीयवत्कर्ममलं हरन्ती । औदाच्यगाम्भीर्यमयी सुचार्थी, माधुर्यधुर्या शुचितां वहन्ती ॥ ७० ॥ हिंसा परा श्रीमदकब्बरादीन् नृपाननेकान्यवनेषु मुख्यान् । , दयामयाँ स्तान्विदधजगत्यां व्याख्यानधाराधरधारया यः ॥ ७१ ॥ श्रीसेन सूरिप्रमुखैः स्वशिष्यैः, विद्याश्चतस्रः समुपेयिवद्भिः । वज्री देवैः समुपास्यमानः, जगद्गुरुर्जङ्गमकल्पशाखी ॥ ७२ ॥ समागतान्वादिगजान्सुसज्जान्, वादस्थले सिंह इवाधिगर्जन् । · स हीरसूरिर्जिनशासनस्य, पुस्फोर जित्वा विजयध्वजं तान् ॥ ७३ ॥ श्रीसेन सूरिः शमिसेनताभाक्, तत्पढ्डचूडामणिताधरोऽभूत् । वादे विजेता वदवादिन्दम्, श्रीजैन सच्छा सनदण्डनाथः ॥ ७४ ॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অসহানিফ रूपेण कामतुल्यो यो, वृत्या कामविनाशनः । स जीयात्सेनसूरीशः, पादाभ्यां लोकपावनः ।। ७५ ।। यस्मै जहागिरनृपेण सगौरवेण, सन्मण्डपाचलचये बिरुदं प्रदत्तम् । दीन्यजहागिरमहासुतपेति सोऽभूत् , तत्पट्टहाटकघटो गणिदेवसूरिः ॥७६ ॥ तत्पट्टसरोऽजनि सिंहमूरिः, दुर्वादिदन्तावलसिंहरूपः। ": तदन्तिपत्सत्यगणिबभूव, क्रियाप्रियाश्लेषसुखोपभोक्ता ॥ ७७ ॥ न्यायाचार्य यशःसतीर्थ्यविनयोपाध्यायसाहाय्यतः, . ... शैथिल्यं स्वगणे समीक्ष्य विदधौ कार्मः क्रियोद्धारकम् । सत्यं नाम चकार सत्यमिति यः स्वीयं तपस्वी ततः, ___ गच्छं स्वच्छममुं तपेति विदध-जीयात्स सत्यश्विरम् ॥ ७८ ॥ 10 तच्छिष्यकर्पूरगणिस्ततोऽभूत् , क्रियैककर्पूरसुगन्धपूर्णः। .... .... क्षमागणीशः समभूत्ततः सा, तदीयशिष्ये वरतां दधानः ॥ ७९ ॥ प्रतिष्ठिता सप्तशती च येन, तीर्थङ्करस्य प्रतिमा मनोज्ञा। .. ___ तत्पादवासी जिननामकोऽभूत् , षड्जीवरक्षाकरणप्रवीणः ।।८०॥ युग्मम्॥ श्रीमानभूदुत्तमनामधेयः, तच्छिष्यवर्यो गणिपूत्तमोऽसौ । 15 '. पन्यासपद्मास्यजयो गणीशः, ततोऽभवद् गौर्जरकाव्यकारी ॥ ८१॥ पअद्रहेति प्रथितोरुकीर्तिः, बर्हानपूर्या सह दण्डकैर्यः। ...... कुर्वन्विवादं विजयं तदापत् , क्रियाभिकाजी सततं विहारी ॥ ८२ ॥ तच्छिष्य आसीद्गणिरूपनामा, ततोऽभवत्कीर्तिर्गणिः सुकीर्तिः । पन्यासकस्तूरगणिस्ततोऽभूत् , विभ्रक्रियाचिन्मृगनाभिगन्धम् ॥८३॥ 20 सप्तर्षिभिर्गणिमणिः प्रयुतो यथानं, दीव्यत्तपाः सदमृतादिविनेयवयः । तस्पट्टमौलिमुकुटोऽप्रतिबद्धचारी, संवेगरङ्गकलितः शमितेन्द्रियोऽभूत् ॥४॥ अद्यापि वर्वति तदीयशिष्यः श्रीसिद्धिसूरिः स्वपरागमज्ञः। - पोरां तपस्यां तपति स्म वृद्धः, विनेयवर्यैः परिषेव्यमाणः ॥ ८५ ॥ ततोऽभवबुद्धिगणिर्मनीषी, विलोक्य शास्त्रे प्रतिमाविधानम् । . 25 विहाय यो दुण्डककापथ-सा, जग्राह संवेगपथं विधिशम् ॥ ८६ ॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :६१४: ग्रन्थकारपरम्परापरिचयः चश्चत्पश्चनदे पराक्रमपदे राजन्यवंशेऽवशे, रूपाम्बाजठरे गणेशभवने ग्रामे लहेराभिधे । ज्यहाष्टाजमितेऽन्दके जनिरभूयेषां शुभे वैक्रमे, . हिंसोच्छित्तिकृतेऽत्र भारततले सद्धर्मरक्षाकृते ॥ ८७ ॥ व्योमाजाकविभावरीपतिमिते संवत्सरे वैक्रमे, ... दीक्षां दुण्ढकवत्मनः प्रजगृहुर्वैरङ्गिका ये मुदा । पश्चाच्छास्त्रविलोकनाध्ययनतः टीकानिरुत्युक्तितः - ____ वन्येति प्रतिमा जिनस्य शिवदा ज्ञातं च यैाकृतेः ॥ ८८ ॥ सत्यान्वेषणचञ्चुभिः प्रति मुनीन्प्रोक्तं तदन्यांश्च यैः, .. केचित्सत्प्रविधार्य तन्मुनिवराः सत्यार्थसाहकाः । आबद्धास्यपटाः बुधा निरगमन् सत्यप्रचाराय वै, . . शास्त्रोक्तः प्रतिमानमस्कृतिविधिः सर्वत्र तै|षितः ॥ ८९ ॥ मूर्त्यर्चाप्रवणान्व्यधुहिजनान्कैवल्यकासावतः, .... ....धर्मार्थ जिनभक्तये प्रतिपुरं कष्टं सहन्त स्म ये। .. आजग्मुर्गुरुबुद्धिसाधुसविधे संवेगरगोज्वलाः, १... सत्संवेगपथस्य ते प्रजगृहुर्दीक्षां तदानीं विधेः ॥ ९० ॥ अहम्मदावादमहानगाँ, आनन्दरोमाश्चितपूर्जनायाम् । ... आनन्दपूर्वा विजयान्तिमास्ते, प्रापप्रथन्भूमितले महान्तः ॥११॥ येभ्यः सरिपदं ददौ प्रमदतः सम्भूय सङ्घोऽखिलः, . .. विद्वद्भयो रुचिरे महोत्सववरे श्रीपादलिप्ते पुरे।। पाश्चालोद्धृतिकारिणोऽजनिषत श्रीजैनसैद्धान्तिकाः, न्यायाम्भोनिधिसरिवर्यविजयानन्दाभिधानाश्च ते ॥ ९२ ॥ विद्याभृङ्गीललनसदनं शासनप्रेमकन्दः, . " जैनाजैनोपकृतिविकसच्चारुकासामरन्दः। श्रीसूरीशश्चरणकरणव्यग्रताकर्णिकावान् , .. .....प्रादुर्भूतः कमलविजयस्तत्सुपट्टाम्बुजातः ॥ ९३ ॥ rrywww Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थप्रशस्तिरूपः ईलायदुर्गापरि शान्तिचैत्यं भवार्त्तभव्याङ्गिकृतातिशैत्यम् । जीर्ण समीक्ष्योद्धरति स्म रुच्यं, जिनेशभक्तः कमलाख्यसूरिः ॥ ९४ ॥ पापर्द्धि हिंसादिपरान्नरेशान्, नैकाँस्तदन्यान्पुरुषान्नृशंसान् । जीमूतगम्भीरवचःप्रवाहात्, प्राबोधयच्छ्री कमला हंसूरिः ।। ९५ ।। पन्यासदानमुनिलब्धिसुधीवरेण्यौ, पट्टे स्वके कमलसू खिरो न्यधात्तौ । सङ्घा ग्रहात्स्वपदयोग्यतया महर्षिः, छायापुरौ महपुरःसरतः प्रमोदात् ॥ ९६ ॥ महाव्रती भूतिततिप्रतीतः, शिवान्वितो दग्धमनोजराजः । श्रीलब्धिरिः समभूद्गणेन्द्रः तदीयपट्टाचलरागिरीशः ॥ ९७ ॥ तर्फे सूक्ष्मे धिषणधिषणा पोस्फुरीति प्रतीक्ष्णा, येषां कृत्स्नागमगनयने लक्षणे दक्षशिक्षा | जैनाजैनप्रवचनवचःपाटवं पूर्णता भाग् ज्योतिःशास्त्र वरनिपुणता कोविदैरप्यगम्ये तच्चन्यायसुमावलीविलसितं स्याद्वादकुञ्जाश्रितं, श्रव्यं काव्यं प्रसृमरगुणं चारुसन्दर्भ मर्भ, श्रुत्वा लोकैः कविकुलकिरीटेत्युपाधिः प्रदत्तः । येभ्यः पूज्यक्रमणकमला लब्धिसूरीशितारः, ते पायासुर्भविक कृषिकान्देशानावारिदानात् मूलत्राणप्रदेशे दुरधिगमतमे कष्टकोटिं सहित्वा, प्राणिप्रत्राणमय्या मधुमधुरगिरा देशनागाङ्गनीरम् | भुजानान् सन्निहत्य द्विजपशुसमजं काश्यपं हिंस्रलोकान्, चक्रुस्तान्पाययित्वा पलघसिरहितान् लब्धिसूरीश्वरास्ते ॥ १०० ॥ श्रीलब्धिसूरिर्वपद्रपूर्यां जित्वा मुकुन्दाश्रमवादिवर्यम् । वादासवाटे जिनशासनेऽस्मिन्, जेतेतिकीर्तिं बिभराञ्चकार ॥ १०१ ॥ ॥ ९८ ॥ 4 गुल्लक्षणभृङ्गसङ्गघटितं जात्याङ्कितं व्याख्यया, ॥ ९९ ॥ भङ्गीवल्लिनयागराजिजटिलं न्यायप्रकाशाख्यया । : ६१५ : न्यायविभाकरोपवनकं, सच्छन्दलालित्यभृत् ॥ १०२ ॥ 5 10 15 20 25 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकारपरम्परापरिचयः नव्यप्राग्यसुनीतिरीतिसरणिं पालम्ब्य विद्यावता, ।' यद्येनारचि मालिकेन महता कारुण्यपुण्याब्धिना । तत्त्वाकासिविलासिखेलनकृते व्याख्यानवाचस्पतिः, ... ... जीयाभूमितले स निर्मलयशाः श्रीलब्धिसूरीश्वरः ॥ १०३ ॥ ॥ युग्मम् ॥ वर्षे व्यङ्कनवौषधींपतिमिते तीर्थे वरे स्तम्भने, तत्त्वन्यायविभाकरं सुललितं ग्रन्थं समारब्धवान् । ईलादुर्गपुरे समाप्तिमकरोत् तस्यैकसत्पद्धतेः, ___ सद्गुबाथैकमूलसूत्ररचनात् श्रीलब्धिसूरीश्वरः ॥ १०४ ॥ बाणाकाङ्कमृगाङ्कवत्सरमिते श्रीवैक्रमे तत्र वै, ____ व्याख्यामारभते स तस्य महतीं न्याप्रकाशामिधाम् । गुर्वर्था फलवर्धिनामनगरे व्याख्यां समापत्सुधीः, सप्ताकाङ्कसुधामरीचिशरदि श्रीलब्धिसूरीश्वरः ॥ १०५ ॥ तच्छिष्यो भुवनादिनामविजयो-पाध्यायमुख्योऽभवत् , तच्छिष्येण मया प्रशस्तिशतकं भद्ररेणारचि । .. योत्राज्ञानवशात्प्रविस्मृतिवशाद् दुष्टप्रयोगः कृतः, . . तं संशोध्य विवेकहंसविदुरैर्वाच्यं हि तद्धीधनैः ॥१०६ ॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सटीकस्य तत्त्वन्यायविभाकरस्य शुद्धाशुद्धपत्रिका पुद्गल पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् . शुद्धम् ६ १० णमार्था णामों ७ ६ सुखार्थ सुखार्थ ८ २१ स्सामाधिक- स्समानाधि रण्या . करणा ८ २३ भेषजे भेषजेन । १०. ३ पौद्गलिकं पौद्गलिक १० १४ भिलाषा, सा भिलाषः, स १० १६ त्मिकाया मकस्या ____ अभिलाषाया भिलाषस्य ११ ४ चरितत्वे चरितत्वे १४ ९ जातीयत्त्वे जातीयत्वे १५ ७ अनागस्या अनागतस्या १६ २ परमाणवपीति परमाणावपीति १६ १६ तिसृणा तिसृणा १७ २७ ज्ञानारणी ज्ञानावरणी १८ २६ किया क्रिया १९ १ इदानी इदानीं २० १० पुद्गल .......-- पुद्गल .. २० ११ पुद्गल २२ २४ सिद्ध सिद्ध २४ १० भाविनां भाविनः २४ १० दीनामे दीने . पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् शुद्धम् . २४ १० भूयेत. भवेत् २४ १७ नात्म्यैक्ये नात्मैक्ये २६ १३ षष्ठय षष्ट्य २६ २३ षष्ठय षष्टय २७ १६ त्युकूल त्यनुकूल २७ १९ यवत्त्वं यवत्वं २९ ६ पुद्गलो पुद्गलो २९ ७ निमित्तकः निमित्त ३० ९ पुद्गला पुद्गला .. पुद्रला ३० १२ पुद्गल . ३० २२ पुद्गला पुद्गला ३० २३ पुद्गला पुद्गला ३० २७ निर्वत्तन निवर्तन ३० २८ चक्षुश्रोत्राणां चक्षुश्श्रोत्राणां ३१ १३ पुद्गलोयच पुद्गलोपच ३१, १६ क्षायौप.. क्षायोप ३२ १ पुद्गला पुद्गला ३२ १० स्तस्तः स्ततः ३.३ २२ च्छेद्य ३४ ४ रसन रसने ३९ १७ प्रदेशा येषान्ते प्रदेशा : ३९ १९ निरवयत्वेन निरवयवत्वेन Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २ : पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् ४३ १९ निवृत्तौ ४४ ७ द्यत्वे ४८ २ द ४८ ६ arear ४८ ५१ २६ तदाह १९ स्यान्नित्य मनित्यश्व १८ मपराणां ५३ ५९ २ पयार्या ६० ८ पूर्व्या ६० २४. प्रवृति ६१ १५ जघन्य ६५ २१ मित्यार्थः ७१ ६ प्रयोजक ७१ ७१ ७४ ७५ ७५ ७७ ७ लक्षण २२ तेन प्रत्येकं २६ युषं यदा सटीक तस्व न्यायविभाकरस्थ ८९ २३ निवृत्तिः ९४ ४ चत्वारो ९८ ११ लाषेव शुद्धम् निर्वृत्तौ द्यत्वेन द्भिन्नं धेयत्वा तमाह स्यान्नित्योऽनित्यश्व मपरेषां पर्याया पूर्व्याः प्रवृत्ति जघन्था मित्यर्थः प्रयोजकं लक्षणार्थः तेन २ युषं बध्नाति युर्बध्नाति २० चक्रधरत्वादी चक्रधरादी १० त्रिका त्रिक ७७ १४ द्रष्टव्यमिति द्रष्टव्य इति प्रयोजकत्वे सति ७८ ३ प्रयोजकत्वे १६ पर्याय ७८ पर्याये ८३ ९ समवाधा समवधा ८६ १ चक्षुर्ज्ञानादीनि चक्षुर्दर्शनादीनि निर्वृत्तिः चत्वारस्सप्त लाष इव पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् ९८ ११ लाषा ९८ ९८ ९८ ९८ १८ लाषावत् १८ लाषा २५ लाषावत् २५ लाषा १० रसन १२ विधा २१ निवृत्त २६ लाषा १० मुदिष्ट १६ प्रभा २२ परिग्रह २३ क्रियेत्यर्थः १०० १०३ १०३ १०३ १०४ १०८ ११० ११३ ११५ -१५ विशेष १२५ १२८ १३५ १३६ १३७ १४२ १४४ १४७ १६ लक्षणम् १४७ २० लक्षणं १४९ ६ गुणपेक्ष १५० २४ विशुद्धय १५३ २ नोकि १५३ २ उत्कीरणं १५८ २१ निस्पन्दो ७ भेद ५ प्रविष्टस्य शुद्धम् लाषो लाषवत् लाषः लाषवत् लाषः रसने विधाः निर्वृत्त लाषः मुद्दिष्ट प्रधा परिग्रह क्रियेत्यर्थः विशेषण भेदं प्रविष्टः २४ वस्तु १८ विध्याना १ प्रतिनियतदिवसा प्रतिदिवसा २४ मुहु १८ राद्रक वास्तु विध्यापना रा लक्षक: लक्षकं गुणापेक्ष विशुद्धय उत्किरणं निःस्पन्दो Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... इत्यर्थः शुद्धाशुद्धपत्रिका । पृष्ठ पंको अशुद्धम् शुद्धम् | पृष्ठ पंक्तौ अशुद्धम् . शुद्धम् १६५ १६ मुंहूर्तिकाः मौहूर्तिकाः २१८ १ मांसश्च मांसश्च । १६५ १९ शेषायुः शेषायूः २१८ १ स्याज्य एव त्याज्यमेव . १६५ २० मन्थना मन्थाना । २२४ ७ कर्षाश्च कर्षञ्च १६७ २ समयाचान्य समयाश्च २२४ २१ कानशा कानाशा १६७ ९ भूतास्समि. भूतान् समि- २३० ९ दुखं दुःखं त्यादयः त्यादीन् २३१ १ ध्यायायति ध्यायति १६९ ९ स्थापत्र स्याप्यत्र २३२ २२ विदाभिति विदामिति - १७२ ५ सन्तप्तोऽपि सन्तापेऽपि २३६ ७ सम्बन्ध स बन्ध १७२ २८ न्यज्वा न्यज्वा २३६ १९ त्पुद्गलैः त्पुद्गलैः १७४ ४ सदुष्टाना दुष्टाना २३९ ३ इत्यर्थे १७५ १२ कूलोपर्ग कूलोपसर्ग २४२ ७ काय काय १७६ ९ विभावयता विभावयतः २४२ २२ तेदव तदेवं १७६ २० ताऽऽद्रियेत , तामाद्रियेत २४३ १६ व्यापारा व्यापाराः १८१ ९ व्यदेश व्यपदेश २४३ २७ तावेवो तयोरेवो १८२ ७ तीर्थान्तर- तीर्थान्तरं २४५ १ त्यर्थः संक्रामतो संक्रामतो २४५ १७ मित्येव मित्येवं १८४ १२ प्युशम प्युपशम २४६ २४ निर्वर्तना निवर्तना १८७ १५ पाविति पा इति २४८ २ परिणमति परिणमते १९० १२ रूप २५२ २४ द्विधाः . द्विधा १९१ ८ संयम संयत २५८ २ भेदास्तेषाम् भेदास्तासाम् १९५ ४ स्त्रिंशदादि स्त्रिंशादि २५८ २३ सामग्रीस सामग्री १९८ २४ आद्य आद्या २५९ ३ वरणमा वरणे आ २०२१ द्वादर दादर २६० २४ विशुद्धया विशुद्धपा २०२ १६ दलिकं . दलिकस्य २६३ ६ विधोदयो विध उदयो । २०३ ८. छेदो छेदोपस्थापनीयः २६५ ४ कारोपयुक्तस्य कारोपयोगयुक्तस्य छेदो २७१ ६ शद्वै २१६ २ तीथे तीर्थे २८२ ९ भेदा भेदो २१८ १ णीयम् णीयः २८२ १५ जीवा जीवाः :- त्यर्थः रूपे - Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासौ सटीकतास्वन्यायविभाकरस्यपृष्ठ - पंको अशुद्धम् शुद्धम् .. | पृष्ठ - पंक्तौ अशुद्धम् शुद्धम् २८५ . १. पुरुषस्य ख्यः पुरुषादेः . . . ४८० २० पर्यायार्थिकाः . पर्यायार्थिकनयाः ...... भिलाषो ख्याद्यभिलाषो ४८५ ५ प्रायतोऽनेकधा प्रायतो२८६ २२ ह्यावरकं . ह्यावारक.... ४८५ . ११ वक्कभिप्रायेण वक्रभिप्रायेण २८८ १० ज्ञेयताया. ज्ञेयतायाः । ४८९ -१४ कल्पतात् कल्पनात् २८८ १:९. दुष्यन्ति । - दुःध्यन्ति । ४९१ ७ कुम्भः कुम्भ २९३ . २- मार्गणाः .. मार्गणा .. | ४९४ २१ वासो ३०२ १० जीना , जिना . ४९५ . १३ नामापि नामपि ३१० -२१ -यन्नैवं तन्नैवं यदेवं तदेवं ४९७ २० भूमिकत्वा- भूमिकत्वा३१६ ११. प्रकर्ष प्रकर्ष . . सङ्ग्रहासङ्ग्रहा ३२६ १९ शमादिति शमेति ... ५०० . १ शब्दानयभास शब्दनयाभास ३२६ २.१ शमादित्यर्थः . शमेत्यर्थः ... ५०३ ६ वर्तमानपि वर्तमानमपि ३३०८ सत्त्वस्या सत्त्वस्य ५०३ ९ त्ततत्तन्नात्तत्तन्ना ३३३ १९ व्यभिचारात् व्याप्त्यसिद्धेः ५३४ १० द्याधिकान्नृपति द्याधिकान्नृपति ३३६ १७ भाषमाणो भाष्यमाणो | ५३६ २६ रुजव रत्तय ३४९ २० चेष्टान चेष्टानां | ५४४ १३ शैक्षकश्चाह शैक्षकञ्चाह ३५३ १५ स्सनो स्सतो ५४८ १७ तक्कीडा तत्क्रीडा ३५६ २४ दृष्टान्तान्याह दृष्टान्तानाह ५५८ २० सम्बधेन सम्बन्धेन ३६२ १० कतया कया . ५६० १० प्रवाहो प्रवाहः ३६७ २१ कृतिको कृत्तिको . .: ५६१ १९ हेतया हैतया ३६९ १ वह्नयादिधर्म वह्नयादिधर्म . ५६२ . ६ तेनः तेन ३७६ । ९ अत्र तत्र : ५६५ , १३ दक एवो दकमेवो ३८१ . १६ नुलब्धि नुपलब्धि :: ५६५ १४ मिते मितो ३९१ १७ नादौ . नान्ते :५७४ २६ एवभूताः । एवम्भूताः ३९२ २६ गुणशब्दः गुणश्शब्दः । ५७७ ३ दरभ्य - दारभ्य : “४०४ २६ अन्वयव्यति अव्यति.. | ५७७ ५ क्रोच क्रौंच ४३० ३ वोत्पत्ति वोत्पत्ते .. ५७९ १ नव नवा ४७६ ३ प्युचार प्युपचार: ५७९ १ न्यादिति न्यायादिति ? . ४८० २० द्रव्यार्थिकाः । द्रव्यार्थिकनयाः । ५७९ ३ 'नक्षत्रेण नक्षत्रेण चन्द्राः । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्तौ अशुद्धम् -५८२ १ नान्तरं ५८३ ३ रज्जु ५८८ ९ वै ५८९ ५८९ ५९० ५ उद्धटा १० हीन्दि २१ विधेयम् ५९० ८ अरुणा ५९० १० व्यते ५९० १४ खना ५९२ ८ उत्क्षि ५९२ १७ त्राणां शुद्धाशुद्धपत्रिका । शुद्धम् पृष्ठ पंक्तौ अशुद्धम् शुद्धम् ५९२ १७ त्रिगस्तान्नि त्रिणो नि ५९३ ३ त्वागमा ५९३ ७ मता ५९३ १५ कादीनां ५९५ ३ वर्त्तना ५९५ ५९७ ५९९ खनायाः ५९९ विशिष्ट भावाश्च उत्क्षि ६०० त्रिणां ६०० नानन्तरं रज्जू वेति हीन्द्रि विधेया उद्घाट अरुणोदया व्यन्ते १५ बकुश ४ अविनय ७ सन्नन्तर १९ पाप्ते १४ कम १८ निरोधशै दागमा मन्ता' कानां वर्त्तन कुशोऽ विनय : ५ : सन्नान्तर प्राप्ते क्रम निरोध शै Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे आर्थिक साहाय्यकों की सूची। देनेवाले सज्जनों के शुभ नाम फलौदी ( मारवाड) . रुपये नाम.. ३२७) तपागच्छ श्री संघ - ( वि. सं१९९७ के चातुर्मास में हुई ज्ञान की आमदनी से ) ३००) श्रीमान् शेठ जमनालालजी संपतलालजी छाजेड. १२१) श्रीमान् पोठ माणेकचन्दजी अमरचन्दजी कोचर. ७५) श्रीमान शेठ लालचन्दजी मीलापचन्दजी ढहा७५) श्रीमान् शेठ कीसनलालजी संपतलालजी लूणावत. ७५) श्रीमान् शेठ भभूतमलजी कानुगा. ४५) श्रीमान् शेठ पद्मचन्दजी संपतलालजी कोचर. ४५) श्रीमान् शेठ कंवरलालजी कानुगा. ४५) श्रीमान् शेठ पुनमचन्दजी उदयराजजी कानुगा. ३०) श्रीमान् शेठ लखमीलालजी मीश्रीलालजी बैद. ३०) श्रीमान् शेठ नेमीचन्दजी बैद, ३०) श्रीमान् शेठ संपतलालजी गुलाबचन्दजी कोचर. २१) श्रीमान् शेठ लक्ष्मीलालजी मीश्रीलालजी कोचर. २१) श्रीमान् शेठ नवनीधमलजी कोचर. २१) श्रीमान् शेठ संपतलालजी बैद. १५) श्रीमान् शेठ मगनमलजी कानमलजी कोचर. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : साहाय्यकों की सूची। १५) श्रीमान् शेठ अगरचन्दजी लुंकड. १५) श्रीमान् शेठ अमरचन्दजी बैद. १५) श्रीमान् शेठ जेठमलजी कानुगा. १५) श्रीमान् शेठ जुगराजजी नाहर. १५) श्रीमान् शेठ सुगनचंदजी कोचर. बीकानेर ( राजपूताना) ३८५) जैन श्वेताम्बर श्री संघ, ह. श्रीमान् मोतीलालजी बैद. (वि. सं. १९९८ के चातुर्मास में हुई ज्ञान की आमदनी से) ३००) श्रीमान् बाबु नथमलजी संपतलालजी रामपुरीया. १००) श्रीमान् बाबु भंवरलालजी रामपुरीया, ३०) सतीबाई. का उपाश्रय ( ज्ञान की आमदनी से ) ३०) श्रीमान् अभयराजजी नाहटा. बगडी ( मारवाड) ६७) जैन, श्वेताम्बर श्री संघ. साणंद (गुजरात) ७५) विजयआणसुर नानागच्छ, ह. माणेकचन्द केशवजी ईडर (महीकांठा.) ७५) जैन श्वेताम्बर श्री संघ ह. शेठ आणंदजी मंगलजी की पेढी. - जूना डीसा (गुजरात) ३०) जैन धर्मशाला का संघ, ह. न्यालचंद गोडीदास. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAP श्री लब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमालाप्रकाशितग्रन्थसूची। ०-८-० ०-१२-० ॥ ०-८-० सटाकम् ... ........ १ जैनव्रतविधिसंग्रहः .. .. ... ... २ हीरप्रश्नोत्तराणि ... .... .३ श्रीपालचरितम् ... ... ४ तत्चन्यायविभाकरः ( मूलम् ) ५ पंचसूत्रम् सटीकम् ६ हरिश्चन्द्रकथानकम् ७ वैराग्यरसमंजरी ८ चैत्यवन्दनचतुर्विंशतिः ९ कविकुलकिरीट १० मूर्तिमंडन ( गुजराती) ... . ११ मूर्तिमंडन (हिन्दी) ... १२ आरंभसिद्धिः सटीका...... १३ तत्वन्यायविभाकरः ( स्वोपज्ञवृत्तियुतः) १४ सद्भावनाप्रकाश (हिन्दी) .... ०-२-० ०-८-० ०-४-० २-०-० -० -० ........ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- _