Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOCALLER अग६. सत्र ६. SIC जिजी महाराजका ब्रह्मचारी पंडित जितमुनि श्री अमोलक ऋषिनी हिन्दी भाषानुवाद सहितः ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र प्रारसिद्ध कृती दाक्षिण हैदराबाद निवासी. WYNANNYAYAYAYA . 00 हादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला अमूल्य. WA यजी ज्वालाप्रसादजीजा १० EMAILWARAMMAVANAM 2 008 AAAA जैन शास्त्रोद्वार मुद्रालय सीकंदराबाद (दक्षिण.) DainElication international 6Private USEOnly: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूल्य शास्त्र दानदाता जैन स्थम्भ दानवीर जैन प्रभावक धर्म धूरंधर * CHISAR RASHAD JWALA PRAS SC जैन शास्त्रोद्धार मुद्रालय, सिकंदराबाद, (दाक्षिण.) स्व. राजा बहादुर लाला सुखदेव सहायजी, जौहरी जन्म स०१९२०. स्वगस्य सं०१९७४. लाग घालाप्रसादजी, जौहरी, जन्म सं.१९५० lain Foscation International For Reyeonly Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ षष्टांग-जाताधर्म कथांन सूत्र ज्ञाताधर्मकथांग की प्रस्तावना प्रणम्य श्रीमहावीरं, स्मृत्वा चैव सरस्वति ॥वदे सद्गुरुगदांबुजं, स्तंबुककिंचिंदुच्यते॥३॥ ज्ञाताधर्मकथांगस्य. सुभबोधहेतवे ॥ स्वात्मापरोपकाराय संतष्ठानुभवात् ॥ २ ॥ इष्टार्थ की सिद्धि के लिये प्रथम अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीजी को नमस्कार कर के जिनवाणी सरस्वति का हृदय में स्मरण कर के और सद्गुरु को नमस्कार कर के षडमांग हाता धर्म कथा जो मानधी भाषामय श्रीजिनेश्वर मणित है उस का भव्य गणों को मुखरूप शीघ्र दोष होने इस हेतु से निश्चय से स्वास्मा के औरव्यवहार सेंपरात्मा के उपकारार्थ हिन्दी भाषामय अनुवाद करता हूं. कथानकानां पवार्धचतस्रः कोटयः स्थिताः । सोत्क्षिप्तादिज्ञातहृदय, ज्ञाताधर्मकथा:श्रये ॥ ३ ॥ इस हाती धर्म-कथांग में पहिले साडी तीन कोटी धर्म कथाओं थी. अब इस के दो श्रुत्स्कन्ध में। सब २३५ अध्ययन रहगये हैं. प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम न्याय है, अर्थात् इस के उनीस अध्याय में 2 उनीस क्याओं दया रूप काकर फिर उस का न्याय भावार्थ साधु के आचार पर व्यवहार सुधारेपर + उतारा है. दूसरे प्रस्किन्ध का नाम धर्मकया है. उस के २१६ अध्ययन में पार्षनाथ स्वामी की mmmmwww प्रस्तावना 4848 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों अंग में पूजा गया है. इस के अलंकारा वषी पंडिता महा सती श्राप और अर्थ बुद्धि की २१६ आर्जिकाने पासत्थापना अंगीकार किया उस का कथन है. दूसरा अर्थ ज्ञाता धर्मकथा का ऐसा भी करते हैं कि-इस की धर्मकथाओंज्ञान की दाता है. इसलिये भी इसे ज्ञाता धर्मकांग कहते हैं. पभगवंतने चार प्रकार के अनुयोग कहे हैं जिम में सब शास्त्रों का समावेश हो जाता है. जिन का संक्षेप कथन तो श्री विवाहमति शास्त्र में किया गया है. और प्रथम के तीनों अनुयोग का कथन प्रथम के थरों अंग में पृथकर किया गया है. इस ज्ञाता धर्मकांग में फक्त एक धर्मकथानुयोग का ही वर्णन बढ़त खूबी के साथ किया गया है. इस के अलंकारों बडे २ विद्वानों को चकित बना देते हैं. इस का मूल पाट का सुधारा तो होश्यारपुर से वादीविजया विदुषी पंडिता महा सती श्री पारवती जी की तरफ से: माताई १७०२ के साल की लिखी हुई पुरानी प्रत के ऊपर से किया है. और अर्थ शुद्धि की मुख्यता में तो मद्रास निवासी शेठ अगर चंदमानमल की तरफ से धनपतसिंह बाबू की छपवाह हुइ प्रतपर से गौणता में मेरे पास की हस्त लिखित प्रतपर से किया है. तथापि अशुदी रहने का संभव है उसे श्रद्ध कर पठन कीजीये. ज्ञाताधर्म कथाङ्ग की अनुक्रमणिका. प्रथम श्रुतस्कन्ध. ४ दो काछवे का ४ , अध्ययन ... २२० मेषकुमार का १ अध्ययन ५ थावरचा पुत्र का ५ १२ घमासार्थवाइका २ , ..: १५९ । ६ तुम्बेका ६ का , मयूरी के अण्डेका३, ... २०१ । ७ रोहिणीका ७ वा." 18योजक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिजी - immmmmmmmmmmmmmons मा aamam मकासक-राजाबहादुर काबा ससदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद - awar For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - PA८ मलीनाथ जी का ८ वा अध्ययन बलेन्द्र की अग्रमहिषाका २ रा वर्ग ७७९ 11. जिनरक्ष मिनपाल ९ वा. दक्षिण के नबनीकाय की अग्रमहेषिका ११. चन्द्रमा का १०वा. रा वर्ग ७८ ११दाबद्रव वृक्ष का ११ वा. उत्तर के नवती काय की अप्रमाहिषिका १२ सुबुद्धि प्रधान का १२ वा . , ४६९ ४ था वर्ग ७८३ ११३ नन्दन मणियार का १३ वा ४८७ | दक्षिण के वाणव्यन्तर के इन्द्र की अग्र११४ तेतली पुत्र का १४ वा.. माहिषिका ५ वा वर्ग ७८४ ११५.नन्दी फल वृक्ष का १५ वा उत्तर के वाणव्यन्तर के इन्द्र की अग्र१६ द्रौपदी का १६ ना माहिषिका ६ ठा वर्ग ७८६ १७ अकीर्ण देश के घोडे का १७ वा,, चन्द्रमा की अग्रमाहषिका ७ वा वर्ग १८ सुषमा दारीका का १८ वा , ७१३ सूर्य की अग्रमाषिका ८ वा वर्ग ११९ पुंडरीक कुंडरीक का १९ वा , ७३८ शकेन्द्र की अग्रमाहिषिका ९ वा वर्ग .. द्वितीय श्रृंतस्कन्ध. ईशानेन्द्र की अग्रमाहिषिका १० वा वर्ग ७९० - चमरेन्द्र की अग्रमहेषिका १ ला वर्ग ७५६ परम पुज्य श्री कहामजी ऋषि महाराज के सम्प्रदायके बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलकऋषिजी ने सीर्फ तीन वर्ष में ३२ ही शास्त्रों का हिंदी भाषानुवाद किया, उन ३२ ही शास्त्रों की १०००१००० प्रतों को सर्फि पांच ही वर्ष में छपवाकर दक्षिण हैद्राबाद निवासी राजा बहादुरलाला सुखदेवसहायनी. ज्वालाप्रसादजी ने सब को अमूल्य लाभ. दिया है।... 48+4%8ष्टांग माता धर्म कांग सूत्र 443 49448 विषयानुक्रमणिका ++ ++ - ७७००. -- For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Male +18+ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ ॥ प्रथम श्रुतस्कन्धं ॥ . ॥ उत्क्षिप्त नामकं प्रथममध्ययनम् ॥ तेणं कालेणं, तेणं समएणं, चंपाएणामणयरि होत्था, वण्णओ ॥१॥ तीसेणं. चंपारणयरीए बहिया उन्तरपुरच्छिमेदिसीभाए इत्थेणं पुन्नभदेणाम चेइए होत्था, वण्णओ ॥ २ ॥ तत्थणं पाए णयरीए कोणिए णामं रायाहोत्या, वण्णओ ॥ ३ ॥ उस काले उस समय में चंपा नामकी नगरी थी, उसका वर्णन ऋद्धि पूर्ण भय रहित वगैरह ज्यवाइ सर जैसे जानना ॥ १ ॥ उस चंपानगरी की बाहिर ईशान कौन में यहां पर पूर्णभद्र नाम का उद्या या १ चौथा आरा २ उस वक्त कि जिस वक्त मैं भगवंतने यह भाव देखे. 488+ अक्षितकुमार) का प्रया या For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी तेणं कालेणं तेणं समएणं; समणस्स, भगवी महावीरस्स अंतेवासी अज सुहम्मे है .. णाम थेरे-जाइसंपन्ने, कलसंपन्ने, बाल-रुव-विणय-पाण-दसण-चरित्त-लाघष संपन ओयंती, तेयंती, वच्चंसी, जलेसी, जियकोहे जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जिइं. दिए, जियनिहे, जिय परिसहे, जीवियासामरणभयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पा हाणे, एवं-करण-चरण-णिग्गह णिच्छय-अजव-मदव-लाघव-खंति-गुत्ती-मुत्ती-विजा मंत-बंभचेर-बेय-णिय-णियम-सच्च-सीय-णाण-दसण-चरित्तप्पहाणे; ओराले,घोरे,धोरवए, उस का वर्णन भी उपचाइ मूत्र से जानना ॥२॥ उस चंपा नगरी में कोणिक नामक राजा था उस का वर्णन भी उववाइ सूत्र से जानना. ॥३॥ उस काल ससमय श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी के ज्येष्ट अंतेवामी-शिष्य आर्य सुधर्मास्वामी स्थविर. कैसे थे सो कहते हैं-जाति संपन्न - मातृपक्ष निर्मलथा, कुल संपन्न-पितृपक्ष निर्मलथा, बल संपन्न-वज्रऋषभनाराच संघयनवाले थे, रूपक - सर्वांग में अर्थात् समचतुत्र संस्थानके धारक. दिनय नम्रपन्ने कोमल स्वभाववाले, ज्ञानमति,श्रत, अवधिव मनापर्यव चार ज्ञान के धारक, दर्शन-सायिक सम्यक्त्व के धारक, चारित्र - सामायिकादि उत्तम चारित्र के धारक, लघुता-द्रव्यमे उपधिकर और भावसे कषाय व तीनों गर्वसे रहित हलके ओजस्वी-मनके चढते परिणामवाले, तेजस्वी-शरीर की अच्छी प्रभावाले, यशस्वी - सोभारयादि गुण सहित उत्तम यशवंत, क्रोध मान, मा • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायता ज्वालाप्रमादनी For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध घोर तवस्ती, घोर बभचरवासी, उच्छृढं सरोरे, संखित्तेविउलयलसे, चोहसे पुव्वी चउणाणोवग्गए, पंचहिं अणगार सएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुवाणुपुर्दिव, चरमाणे, गामाणुगाम दुइजमाणे, मुहं सुहेणविहरमाणे, जेणेव चंपाणयरी जेणेव पुन्नभद्दे चेइए, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता: अहापडिरूवं उग्गहंउगिहई उगिहितों संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ ४ ॥ तेणं चंपाएणयरीए परिसाणिः लोभ, इन्द्रिय,निद्रा,परिपेह इनकी जीतनेवाले,जीविताशा व मृत्युके भयसे मुक्त,अनशनादि सप, संयमादिगुन, पिंडविशुद्धादिक चरणसितरी,दशक्धि यति धर्मादि करण सितरीके गुणयुक्त रागादि शत्रुका निग्रह, करता. करणिं के फलमै निश्चय करनेवाले में प्रधान, ऋजुता, सृदुता, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, वेद. लोकिक लोकोत्सर शास्त्र, नैगमादिनय, अभिग्रहादि नियम, वचनादि मत्यता, मनादि शौचता, ज्ञान, दर्शन व चारित्र में उदार, ईन गुनों में प्रधान.घोर करणी करनेवाले,घोर व्रत पालनेवाले,धार नपावी,घोर ब्रह्मचर्य पालनेवाले शरीरकी शुश्रूषा रहित, संक्षिप्त विपुल तेजो लेश्यावाले, चउदह पूकि पाठी, और चारज्ञानयुक्त वे पांच सो अनगार साधुके परिवार से परिबरे हुए पूर्वानु चलते ग्रामानुग्राम रहते,सुखपूर्वक विहार करते, चंपानगरी के पूर्णभद्र उद्यानमें आकर यथामतिरूप केल्यनिय वस्तुको अवग्रह याचकर संयम व तपेसे आत्माको भावतेहुचे विचरने लगे. ॥४॥ उस चंपा-नगरी की परिषदा वंदन करने को नीकली.काणिक राजा भी वंदन करने को मीकला. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm साक्षप्त ( मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन-438 488 M Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अमुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी या, कोणओ णिग्गओ, धम्म कहिओ, परिसा जामेवदिसि पाउब्भूए तामेव दिलि पडिगया ॥ ५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं; अजसुहम्मस्सअणगाररस जे अंतेवासी अज जंगूणामंअगगारे कासवगोते जात्र सतुसेहे जात्र अज सुहम्मस्स थेररस अदूरसामते उडुंजाणू अहोसिरे उझाणकोडोवगए संज्ञमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई ॥ ६ ॥ तएण से अज्ज जंबुगामे जायसड्डे, जायसंसए, जायको उहले, संजायसड्डे, संजायसंसए, संजायकोउहले उत्पन्नसड्ढे, उत्पन्नसंसए, उत्पन्न को उहलेः समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्न कोउहले, उट्ठाए उट्ठित्ता जेणामेत्र अजसुहम्म धfकथा कही और परिषदा जहां से आई थी वहां पीछीगइ ॥ ५ ॥ उस काल उस समय में आर्य सुधर्मास्वामी अनगार के ज्येष्ट अंतेवासी आर्य जम्बू अनगार काश्यप गोत्र वाले यावत् सात हाथ की ऊंचाइवाले यावत् आर्य सुधर्मा स्वामी की पास ऊर्ध्वं जानु व अयो शिर सहिता ध्यान करते हुने संयम व तप से आत्मा को भाव हुने विचरते थे || ६ | उस समय में आर्य जम्बू स्वामी को ध्यान में वर्तते तत्र जानने की वांच्छा हुई, ज्ञान का विद्धार करने का संशय हुवा, और भगवान् कैसे उत्तर देते हैं वैसा जानने का कुतुहल उत्पन्न हुवा. विशेष श्रद्धा, विशेष संशय व विशेष कुतुहल हुवा. उत्पन्न हुई श्रद्धा संशय व कुछ विशेष समुह हुवा श्रद्धा संशय कुतूहल इस से अपने स्थान से उठ खड़े हुवे, खडे होकर वहां आर्य सुधर्मास्वामी स्थविर थे वहां आर्य काकर सुवर्मा स्वामी स्थानेर को तीन वक्त हस्तद्वय For Personal & Private Use Only manand * प्रकाशक- सजा बहदुर लाला सुखदेवमहायजी वालाप्रसादजी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ थेरे णामेत्र उदागच्छइ २त्ता अजसुहम्मे थेरे तिक्खुतो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ बंदइ, नमसइ २ वंदित्ता नमसित्ता अजसुहमस्स थेरस्स णच्चासणे णाइदूर, सुरसू समाणे णमंसमाणे अभिमुद्दे पंजलिउंड विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं, तित्थगरेणं, सयंसंबुद्धेणं, लोगणाहेणं लोग, लोगपजायगरेणं, अभयदएणं, सरणदएणं, चवखुदएणं, मग्गदएणं. धम्मदणं, धम्मदेसणं, धम्मवरचाउरंतचक्कवहीणं, अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेणं, • जिणेणं जावपुणं, बुद्धेणं बोहरणं, मुतेणं, मोयगेणं, तिष्णेणं तारएणं, सिव-मयल{ जोडकर आवर्त दक्षिणावत् करके वंदना नमस्कार कर आर्य सुधर्मा स्वामी से बहुत दूर व बहुत नहीं ऐसे रहकर शुश्रूषा करते हुवे सन्मुख पंजली सहित विनय से पर्युपासना करते हुवे ऐसा कहने लगे ( कि अहो भगवन् ! आदि के करनेवाले, तीर्थ के करनेवाले, स्वयं संबुद्ध, लोक के नाथ, लोक में मदीप समान, लोकमें उद्योत करनेवाले, अभय के देनेवाले, शरण देनेवाले, ज्ञानरूप चक्षुके दाता, मोक्षमार्ग देनेवाले, देने वाले, धर्म देशना करने वाले, धर्म में श्रेष्ट चातुरंत चक्रवर्ती, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धारक, रागद्वेष जीतने वाले, अन्य को उपदेश देकर रागद्वेष जीतनेवाले, तत्र जाननेवाले, अन्य को तस्त्र बतानेवाले, अष्टकर्मसे मुक्त होनेवाले, अन्यको मुक्त करनेवाले, आप संसारसे तीरे अन्य को तीरानेवाले, और उपद्रव रहित है निजीक ++ मांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुत++ For Personal & Private Use Only उप्ति (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मरुअ-मणत-मक्खय-मव्वाबाह-मप्पुणरवित्तयं, सासयंट्ठाण मुपगएणं; पंचमस्स अंगस्स . अयम? पण्णत्ते, छटेरसणं अंगरस भंते ! णाय धम्मकहाणं के अट्टे पण्णत्ते ? ॥ ५ ॥ जंबुइ अज जंबूणामं अणगारं एवं पयासी-एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छठस्स अंगस्स दो सुयखंधा पपणत्ता तंजहा-णा याणिय, धम्मकहाओय ॥ ८ ॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं छठरस अंगस्स दो सुयखंधा पण्णत्ता, तंजहा-णायणिय धम्मकहाआय ॥ पढमस्सणं भंते ! सुयखंधरस समणेणं जाव संपत्तेणं णायाणकात्तियज्झयणा अचल,रोग रहित,अनंत,अक्षय,अव्यावाधव पुन:आवागमन नहीं हो पा शाश्वत सिद्धीस्थानको माप्त हुने उन श्रमण भगवंत महावीरने पांचवा अंग श्री भगवतीजी का जो भाव कहा को मैंने सुना. अब अहो भगवन् ! छठा अंग ज्ञाता धर्मकथांग का क्या भाव प्ररूपा है?॥ ७॥ आर्य सुधर्मा यामी अनगार जम्बू आदि अनगार को संबोध कर ऐसा बोले. अहो जम्बू! श्रमण भगवंत महावीर यावत् मोक्ष प्रास हुने उनोंने छठे अंग के दो श्रुत स्कंध कहे. तद्यथा- ज्ञाता वरधर्मकथा॥८॥अहो भगवन्! जय श्रमण भगवंत महावीर यावत् मोक्ष प्राप्त हुने उनाने छठे अंग के दो श्रुत स्कंध कहे तो उन में से प्रथम श्रुत स्कंध के कितने अध्ययन कहे ? प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी 2 भावाथ oyo For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4280 - भावार्थ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध पण्णत्ता ? ॥ १॥ एवं खलु जंबु समणेर्ण जाव संपत्तेणं णायाणं एगणवीस अज्झय. णा पण्णत्ता. तंजहा-उक्खित्तणाए, संघाडे, अंडे, कुम्मेय, सेलेगे, तंबेय, रोहिणी, मल्ली, माइंदी, चंदीमाईय, दाबद्दवे, उदगणाए, मंडुक्के, तेयली, विय गंदिफले, अमरकंका, आइपणे, ससमाइय, अवरेय पंडरीय, णामाएगणवीसमे ॥ १०॥ जइणं भंते ! समणे जाव संपत्तेणं णायाणं एगुणवीसा अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-उकि तणाए जाव पुंडरीएय ॥ पढ़मस्सणं भंते ! अझयणम्स के अटे पण्णत्ते ? ॥११॥ ॥२॥ अहो जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्ष संप्राप्तने ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन कहे हैं. जिन के नाम-१ उत्क्षिप्त मेघ कुमार हाथी के भव में ऊंचा पांव रखकर जीव रक्षा की उम का, २ संधात. चौर व शेठ को एक खोडे में रखा जिम का, ३ मयूर के अंडे का, ४ क-काच्छये का, ५ सेलक राजर्षि का, ६ तुम्ड का, १७ रोहिणी का, ८ मल्लीनाथजी का, १ माकंदी वणिक पुत्र का, १. चंद्रमा का, ११ दावदववृक्ष १०२ खाई के पानी के न्याय से सबद्धि प्रधानका.१३मंडुकर्न-नंदनमणियार का,१४तेनली पुत्र का, १५नंदी के फलका,२६ अमरकंका-दौपदीका,१७आकीर्ण जाति के घोडे का, १.८सुसमा-श्रेष्टि की पुत्री का और र पुंडरीक कुंडरिक का. यों उन्नीम अध्ययन के नाम सुचे॥१०॥ अहो भगवन्! जब श्रमया यावत् मोक्ष समाप्तने ज्ञाताके उन्नीस अध्ययन कहे तो उनमें पहिला अध्ययनका क्या अर्थ(भाव)कहा ॥१॥अहोई उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 4.28 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं खलु जंबु-तेणं कालणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीवे भारहवासे दाहिणटु भरेहे .. रायगिहे णाम णयरे होत्था; वण्णओ गुणसीला चेइए वण्णओ ॥ १२ ॥ तत्थगं रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ ॥ १३ ॥ तस्सणं सेणियरस रणो णंदाणामं देवीहोत्था,सुकमाल पाणिपाया वण्णओ ॥ १४ ॥ तस्मणं सेणियस्स पुत्ते गंदादेवीए अत्तए अभएणामं कुमारे होत्था, अहीण जाव सुरूवे, साम दंड भेय उवप्पयाणा णीति सुप्पय उत्तणय विहण्णू ईहापोह मग्गण गवेसण, अत्थ namornmmmnanm भावार्थ 49 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषी जम्बू ! उस काल उस समय में इस जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिण विभाग में राजगृह नामक नगर था, उस का वर्णन चंपा नगरी जैसे कहना. उस की ईशान कौन में गुणशील नायक उद्यान था ॥ १२॥ उस राजगृह नगर में अणक नामका राजा था. महा हिपर्वत पर्वत समान यावत् सब वर्णन करने योग्य था ॥ १४॥ उस श्रेणिक राजा को नंदा नाम भी राणी थी यह सूकोमल हस्त पांववाली बगरह वर्णना योग्य थी॥१४॥उस श्रेणिक राजाका पुन व नंदा माणिका आत्मज अभय कुमार था,वह सम्पूर्ण इन्द्रियोगलाभ यावत् सुरूप था.माम-परस्पर गुण बोलकर स्वजनकोलेह उत्पन्न करेमो, दंड-चौगदिकको दंड दे तथा शत्रुका बधि व धन लेवेतो भेद-शके परिवारको स्वाम्यादि ऊपरकास्नेह मीटाना फूटपडानामो,उपप्रदान नीतिसो धन लेकर देनकी रीति,व संप्रयुक्त व्यापार का नीति.इन नीतियों को जाननेवालाया.ईहा:विचार कर निर्णय करना, काशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे षष्टमांगाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 सत्थमई वासारए, उप्पत्तियाए वेणईयाए कम्मइयाए, परिणामियाए,चउब्विहाए बुद्धिए उववेए, सेणियरस रण्णो वह सुक जेसुय, कुटंबेसुय, मतेसुय गुज्झेसुय, रहस्सेसुय, णिच्छएसुय आपुच्छणिजे, पडिपुच्छणिज्जे, मेढीपमाणं आहारे, अलंबणभूए, पमाण, भूए, आहारभूए, चक्खभूए, सब्बकजे मुय, सबभूमियासु, लड पञ्चए विइण्णवियारे, रजधुरचिंततयावि होत्था, सेणियस्तरपणो-रजंच रटुंच, कोसंच कोट्ठागारंच, बलंच, उपहा-उपयोग में शीघ्र याद करना, मार्ग गरेपणा-न्याय मार्ग का उपाय करना, भाव का भेद जान से न्याय अन्याय का निर्णय करना, अर्थ युक्ति से द्रव्योपार्जन करना. तथा शास्त्र व शस्त्र कला में पण्डित था. उत्सातिक-विना देखी विना सुनी बुद्धि तत्काल उतान हावे, २ विनायका-गुरुआदि के विनय से बुद्धि की प्राप्ति होवे, ३ कर्मणी-कार्य करने से बुद्धि की प्राप्ति होवे व४ परिणामिक-अवस्था अनुसार बुद्धि होवे; ऐसी चार प्रकार की बुद्धि सहित था. वह अभय कुमार श्रेणिक राजा को अपने बहुन कार्यों में, कुटुम्ब के कार्यों में,मंत्रि के स्थान,मलाइ में,गा कार्यों में,रहस्यवाले कार्यों में निश्चय की वार्ता में एक वार व अनेकवार पूछने योग्य था. सब को आधारभून, रस्सी जैस अबलम्बनभूत, प्रत्यक्ष प्रमाणभूत,याहारभूत, चक्षुभून, सब कार्य व सब स्थानों में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला, कार्य में विस्तीर्ण विचारवाला और राज्य की धुरा धारन करनेवाला-अर्थात् राज्य चलानेवाला था. वह सयमेव अणिक राजा का राज्य, राष्ट्र, को उलिम (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन हर 4 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 4 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी तस्सर्ण वाहणंच, पुरंच, अंतउरंच, सयमेव समुपैक्खमाणे २ विहरई ॥ १५ ॥ सेणियस्स रण्णणे धारणीणामं देवी होत्था, जाव सेणियस्स रण्णो इट्टा जाव विहरइ ॥ १६॥तएणं साधारणीदेवी अण्गयाई तंसि तारिसगंति छकटुलट्ठमट्ठ संद्विय खंभुग्गय पवरवर सालभंजिय उज्जल मणि कंणगरथण थुभियविडंकजालडं, चंदणिजूयं कंतरकयाणि चंदसालिया विभत्ति कलिए सरसच्छ धाउधवल वण्णरइए, वाहिर ओदूमिय घट्टम, अमरओ पसत्थ सुविलियि चित्तकम्मे णाणाविह पंचवष्ण मणिरयण भावार्थ = {[ भंडार ] कोष्टागार, व सैन्य, वाइन, पुर-नगर व अंतःपुर की संभाल रखता हुवा विचरता था ॥ १६॥ उत श्रेणिक राजाको धारणी देवी थी वह श्रेणिक राजाको इष्ट यावत् सुख भोगवति विचरती थी॥१६॥ पुण्यवन्तको योग्य षटू-काष्टमय गृह का द्वावाला, लष्ट, पुष्ट घारा मटारा सुस्थित संभवाला, प्रत्येक स्तंभ सुंदर पूत{लियाँवाला, प्रधान साल मंजिका पूतलीवाला. उज्जल देदीप्यमान चंद्र कान्तादि मणि से जडित करकेतनादि रनों का शिखर व वरंडियोंवाला, अर्ध चंद्राकार गवाक्षवाला, प्रासाद था. जिस में जाने के लिये पक्ति { स्थापन किये थे, गृहपर गृह उस पर शाला और उस में अलग २ विभाग किये हुवे थे, अच्छे पाषाणमय धवल पाण्डुरंग से चित्रित थे. अच्छी धातुओं से आलंकृत किये थे. गृह के बाहर का विभाग धवल उज्वल था, घटार मठार घसकर अच्छा बनाया था. उस भवन के मध्य में अपने स्वभाव की शुद्धिवाले अच्छे For Personal & Private Use Only # प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी-# C ( Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ 28+ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 कुटिमतले; पउमलंया फुल्लबालि वरघुप्फ आइउल्लोयचिल्लियवले चंदणवरकणग कलस सुणिम्मिय पडिपुंजिय सरस पउम सोहंत दारभाए, पयरग्गलंबंत मणिमत्तदाम सुविरइय दारसोहे, सुगंधवर कुसुम मउय पम्हलसइ, णोवयार मणिहियय णिव्वुइयारे, कप्पुर लवग मलय चदण काल गुरु पवर कुंदरुक्क लुरुक्कधूवडाझंतसुरभि मघमत गध धूयाभिरामे, सुगंधवरगंधिए गंधवट्टीसुए, मणिकिरण पणासियंधयारे, किं बहुणा जइगुणीहं सुरवरबिमाण विलंब वरघरए ॥ संसि सारिसमंसि सयणिजसि लीलायुक्त प्रत्यभाव बतानेवाले विचित्र चित्र किये थे. अनेक प्रकारके पांचों वर्ण के मणि रत्नों से भूमि का तला जडा हुवा था. अंगन विचित्र रंगले चित्रित किया था, पद्म कमल रक्त वेल, लतावेल, पुष्पवेल, नागर वेल, जाइ आदिवेलों और भी अन्य प्रधान अच्छे पुष्पोंकी जासिसे उपरका भाग चित्र सरित था, मंगलिक प्रधान सुवर्णमयचंदन कलश मनोज्ञ स्थानमें रखेथे, पद्मकमलसे सुशोभितद्वार भाग था, लटकती हुई मोतियों की मालासे द्वारकी शोभा विरचित्र की हुई थी, सुगंधित प्रधान कुसुमम समान मुद्र सोनेका उपचारसे मन को स्वास्थ करनेवाला था, कपूर, लोंग, मलयाचल चंदन, कृष्णागर, प्रधान चीड(गंध विशेष और सेलहारस धूपयोग ऐमी धूपकी गंधसे मघमघायमान होकर मनोहर बना हुवा था, सुगंधि में श्रेष्ट गंधवाला, सुगंधि गुटिका मामानथा. उस भवन में मणि के किरणों से नष्ट हुवा था अंधकार किंबहुना द्युतिकांति आदि गुणों से देवताओं के विमान को भी पुराभव करे ऐसा प्रसाद था. ऐमा प्रसाद में पुण्यवंतों का +8+ उत्तिम ( मेषकुमार ) का प्रथम अध्ययन 428 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री अमोलक ऋषिजी सालिंगणवटिए उभय ओविन्बोयणे, दुहओ वण्णए मझेणय गंभीरे गंगपुलिणे वालय उद्दाल सालिसए उयचिय, खोमदुगुल पट्ट पडिच्छयणा, अथरय मलयण वतय कुसुत्थलिंब सीह के प्तरपव्यथिए, सुविरइ यस्यताणंरत्तं सुय संबुए सुरम्मे आईण गरुयबकूरणवणीय तुल्लफासे । पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंसि सुत्तजागराओहिरमाणी HE} . ओहीरमाणी एगंमहं सतुस्सेहिं रययकूड सणिहं णहयलंप्ति सोमं सोमागारं लीलायं तं जं भायं तं मुहमंतिगयं पासित्ताणं पडिबुद्धा ॥ १७ ॥ तएणं साधारणी अयमेया भावार्थ के योग्य, दोनों वाजु तकीयेवाली, दोनों तरफ ऊंची, वीचमें गंभीर, गंगा नदी की बालू-रेती समान मृदु, कपास मे बनी हुई रदकम्बल वस्त्र विशेष से ढकी हुइ, कमल आदि पुष्प की वास नालिकायुक्त, बकरे के बाल सिंहकी के समय आभरण विशेषसे आच्छादितकी हुइ, रजवाण आच्छादन विशेष रक्त वसमे वेष्टित मशकगृह नामक वस्त्र विशेष आवृत्त सुरम्प कौमल जैना-मृगचर्म, कपास व बूर वनस्पति समान शय्याम धारणी राणी सोतीहुई थी. उसमय पूर्व [आधी रात्रीबीतेवाद कुच्छ सूती कुच्छ जगतीहुई आखोंकी मेषोन्मेष करती टपकातीहुई धारणी राणीने सानहाथका लम्बा चांदिके पर्वतसमान श्वेत सौम्य सौस्याकारवाला क्रीडा करता हुर.एकहाथी आकाशमें से उतकर अपने मुखमें प्रवेश करता हुवा देखा, देखकर नागृहतहुई।।१७।। १ किसी स्थान सिंह स्वप्न का भी पाठ है. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टमांगावाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4884 रूवं उरालं कल्लाणं सिर्व धर्ण मंगलं सस्तिरिय महासुमिणं पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणि हद्वतुट्ठा चित्तमाणंदिया पीयमाणा परमसोमाणसीया हरिसवस विसप्पमाणहियया धाराहयकदंबपुष्फगंपिवसमूससियरोमकूवे, तं सुमिणं उगिण्ह २ सयणिजाओ उट्टेइ पायपीढाओ पचोरुहइ २ त्ता अतुरिय मचवल मसंभंताए अबिलीबयाए रायहंससरिसीगईए जोणामेव तेसेणियेराया तेणामेव उवागन्छइ २ त्ता सेणियंरायं ताहिं इट्ठाहिं कताहि पियाहिं मणुण्णाहिं माणामाहि उरालाहिं कल्लाणहिं .. सिपाहिं धण्णाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हापणिज्जाहिं । उस समय वह धारणी रागी ऐसा उदार, प्रधान, मांगलिक ससश्रिक, महा स्वप्न देखकर जागृत होने मे Fबहुत इष्ट तुष्ट व आनंदित हुइ. मन में अच्छा भाव उत्पन्न हुवा, हर्ष से हृदय विकसित हुवा, मेघ की धारा से सींचाया हुवा कदंब के पुष्प समान रोमकूप खडे हुवे, फीर उस स्वप्न को ग्रहण कर अपने शयन से उपस्थित हुइ पाद पीठिका से नीचे उतरी और शीघ्रता, चपलताव संभ्रांत रहित वबिलम्ब रहित राजहंस समान गति से श्रेणिक राजाकी पासगइ और श्रेणिक राजाको इष्ट कारी,प्रियकारी, मनोज, मनोहर उदार,se कल्याणकारी मंगलकारी, धन्यकारी सश्रिक, हृदय को मुहासे, हृदय को आनंद करने वाले मृदुमपुर सिस (मेषकुमार) का प्रथम अध्ययर 42 भावार्थ ११ www.nolibrary.org For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मियमर रिभिति गंभिर सस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणि पडिबोहइ ॥ १८ ॥ पडिबोहिता; सेणिएणं रण्णा अग्भणुणायासमाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचिचसि भदासणंसि सिइ २ तासत्या विसस्था सुहासणवर, सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टु सेणियंशयं एवं वयासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अजतंसि तसं तारिसंगसि सयणिजंसि सलिंगणवाहिर जाव भियग वयणमड् वयंतंगयं सुमिगे पासित्ताणं डिबुद्धा, तं एसणं देवाणुनिया ! उरालस्स केमणे कलाणे फलवित्तिविसेसे भविरसइ ? ॥ १९ ॥ तरणं से सेपिएराया धारणीदेवी अंतिए. गंभीर व सक्षिक, वाणी से बोलाती हुड जागृत करने लगी ॥ ६८ ॥ श्रेणिक राजा को जाग्रत करके उन की आज्ञा से विविध प्रकार के मणि, कनक रत्नों व चित्रों वाला भद्रासनपर बैठकर स्वस्थ हुइ. फोर सुखासन में प्रधान ऐना सिंहसन पर रही हुइ दोनों हस्त तल जोडकर मस्तक से आवर्त देकर व अंजली करके श्रेणिक राजा को ऐसा बोली- अहो देवानुप्रिय आज मैं पुण्यवंत योग्य शयन में सूते यावत् मेरे मुख में मांश करता हुआ गज हस्ति देखकर मैं जाग्रत हुई. इसलिये अहो देवानुप्रिय ! इस उदार महाराजका क्या कायाणकारी फल होगा! ||१९|| वह श्रेणिकराजा धारणी देवी से ऐसा सुनकर हृष्टतुष्ट यावत् अनंदित हुआ और For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- सजावदादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* १४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 एयम सोच्चा णिसम्म हट्टतट्ठ जाव हियए धाराहयणीव सुरभि कुतुमचंचुमालइय. तणू ऊसवियरामकूवे, तेभुमिणं उगिण्हइ २ इहं अणुपविसई अण्पणोमाभावि. एणं मइपुब्बएगं बुद्धि विण्णाणेणं तस्स सुमिगसत्थोग्गहं करेइ २धारणीदेशयं ताहिं जाव हिययपल्हायाणिजाहिं मिउमहुर गंभीर ससिरियाहि वणू, अणुव्हमाणे एवं क्यासि ओरालाणं तुमे देवाणुप्पिए!सुमिणादिवा, कहाणाणं तुमे देवाणुप्पिए ! मिणादिट्ठा, धण्णे मंगले-सस्तिरिएण-तुम देवाणुप्पिए सुमिणादिला; आरोग्ग-तुहि-दीहाउ-कल्लाणं. मंगल कारगाणं तुमे देवी सुमिणादिट्टा अस्थलोभो देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए! नो पेघकी धारा से कदम्ब वृक्ष के पुष्प विकसित होते हैं वैसे ही उसके शरीर में रोमराई विकसित हुई. और उस स्वप्न को ग्रहण करके बुद्धिसे सज का विचार कीया, अपनी साभाविक पूर्वगति से व बुद्धि विज्ञान से उस सर का अर्थ ग्रहण करके धारणी देवी की चैने यावत् आनंदकारी प्रह्लादकारी मृदु मधुर गंमार व सश्रिक ऐनी वाणी से ऐसा कहने लगे अहो देवानुप्रिये ! तुमने आरोग्य सम देखा है, तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है, धन्य, मंगल व सश्रिक to स्वप्न तुमने देखा है, आरोग्य, तुष्ट, दयुष्यवाला, कल्याणकारी, व मंगल करनेवाला -स्वज तुमने देखा है. अहो देवानुप्रिय! इस से तुम को अर्थधन)लाभ, पुत्र लाभ,राज्य लाभ,भांग लाभ व सुख लाभ होगा. अवार्थ गत्क्ष ( मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 48862 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिणी रज्जलाभो भोगलाभो-सुखलाभो देवाणुप्पिए! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए! णवण्हं मासागं बहुपडिपुष्णाणं अट्ठमाणं राइंदियागं बिइकताणं अम्हंकुलकेउ अम्हंकुलदीवं,कुलपव्वये, कुलवडिंसंयं, कुलतिलयं, कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकर, कुलणेदिकर, कुलजसकर, कुलाधारं, कुलपायचं, कुत्र.विवद्धणकर सकुमाल पाणिपाय जावदारयं पयाहिसि॥सेवि. यणं दारए उमकवालभाव विण्णाय परिणथमित्तेजावणगमणपत्तं संवारे विकते विच्छिपणविपुल वाहणे रजर्वईराया भविस्सइ ॥ तं उरालाणं तुमेदेवीए सुमिणेदिट्ट जावे आरोग्गतुट्टि दीहाउ कल्याण कारएणं तुमेदेवी सुमिणे दिटुचि कहू, भुजो २ अणुबृहेइ ॥ २० ॥ तएणं साधारिणीदेवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्तासमाणी हट्टातुट्ठा और अहो देवानुमियसवानव मास व्यतीत हुवै पीछे हमारकुल में दनासमान हमारे कुलका दीपक,कुल पर्वत,कुलावतंसक,कुल तिलक,कुर कीर्तिकर,कुलको आनंद करनवाला,कुल को यशः देनेवाला,कुलका भापार,कुलको वृक्ष समान, कुलकी वृद्धि करनेवाला और कोमल हस्न पवियाला यावत् पुत्र होगा.और वह पुत्र अब पाल भाव (बाल्यावस्था से मुक्त होकर विज्ञानवंत होता हुवा पुवावस्थाको प्राप्त होगा. सब शुरवीर पराक्रम विस्तीर्ण विपुल यल वाहनयाला राजाओंका राजा होगा.इस लिये अहो देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है. यावत् आरोग्य तुष्ट दीर्घायुष्यवाला, कल्याणकारक ऐसा तुमने स्वप्न देखा है. पेमा कहकर पुन: पुन: प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसाद मावाथा For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438. षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा-का.प्रथम श्रतसन्ध-48500 जाव हियया करयल परिग्गहियंसि जावं अंजलि कट्ट एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवि तहमेयं-असंदिद्वमेयं-इच्छियं पडिच्छियमेयं सच्चेणं एसमढे जे तुम्भे वयहत्ति कटु, तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ २ त्ता सेणिएणं रण्णा अभण्णुणायासमाणी जाणामणि कणगरयण भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अग्भटेड २ त्ता, जेणेव सयं सयणिजे तेणेव उवागच्छड २ सा सयंसि सयणिजसि निसीइय २ त्ता, एवं वयासी-मामेते उत्तमे पहाणे मंगले सुभिणे अणेहिं पावसुमाणेहिं पडिहिमिहितिकटु, देवयगुरुजणसंबंधाहिं पसथाहिं धम्मिप्रशंसा की ॥ २० ॥ जब उस धारणी राणी को श्रेणिक राजाने ऐसा कहा तब वह भी हृष्ट तुष्ट पावत् . नंदित हृदयवादी हुई और हस्त तल भीलाकर यावत् अंजली करके ऐसा बोली. अहो देवानप्रिय ! जो तुम कहते हैं वह ऐमा ही हैं. यह ऐमा ही है, वह तथ्य हैं, यह अवितथ्य है, शंका रहित है, मैंने यही अर्थ इच्छा है. और यही अर्य सत्य हैं. ऐसा कहके सप्प के फठ को अच्छी तरह इच्छा, फीर श्रेणिक राजा की आशा से विविध प्रकार के मणि कनक व रत्नोंवाला भद्रासन से उठकर जहां अपना शका स्थान था वहां आई. यहां आकर शयन में बैठकर पुनः ऐसा विचार किया कदाचित् मेरा यइ उत्तम सप अन्य पापस्न से पास पवि. इसलिये देवगुरु जन संधि प्रशस्त धार्मिक कथा से स्वप्न जागरणा as उक्षित (मयकुमार) का प्रथम अध्ययन 4.88 * For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ री मुनि श्री अमालक ऋषिमी. नुवादक-त्रालब्रह्मच थाहिं कहाहि सुमण जगिारंय. पडिजागरमाणी २ विहरइ ॥ २१ ॥ तएणसे सेणिए. . राया पच्चुसकाल समयसि कोडुबिय पुरिसे सहावेइ २ ता एवं पयासी-खिप्पामेव भो देवापिया! बाहिरियं उवष्टुणसालं अज स बिसेस परमरम्मं गंधोदगसित्तं सुइय सम्मजिउवलितं पंचवण्णसरस राभिमुक्कपुष्फजोवयार कलियं कालागुरु पवर• कुंघरुक तुरुक्क धुवडझंत मघमघंत गंधद्वयाभिरामं सुगंधवरगोधयं गंधवडियं भूयं करेह करावेहय, एत्रमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ २२ ॥ तएणं ते कोडाबय पुरिसा सेणिएणं जागती हुइ विचरने लगी. ॥ २१ ॥ अय श्रेणिक राजाने प्रभास समय में कौटुम्बक [ आदेश कारी] घुरूपों को बोलाकर ऐसा बोले-अहो देवानुप्रिय ! बाज बाहिर की उपस्थान शाला [ राज्यसभा] हमेश मे अधिक अच्छी बनायो, उत्कृष्ट रम्नसुगंधित पानीका उसमें छिड़काव करायो, झादके कचरा सर नीकाल. दो. पांच वर्षों के अच्छे सुगंधि वाले पुपनों को उस में विखरो, कृष्णागर, श्रेष्ट कुंदरका, चीड वगैरह गंध द्रव्यों का धूप देकर उपस्यान को मघ घायपान करो, जैती तुगंधी द्रव्यकी गोलियों अथवा कस्तुरी प्रमुख की गोलियों. उपस्थान को इस प्रकार तुपसायं बनावो. अन्यको पास बनवावो. ऐना करकर मुझे मेरी आशा पीछो सुपरत करो ॥ २२ ॥ तब वह कौटुषिक पुरुष श्रेणिक राजा की पास से एसी वास सुनकर हृष्ट भावाथ प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदव सहायजी ज्वालामसादजी. 1 - For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाथे 488+-पटांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध रणा एवंवृत्तासाचा हट्टातुट्ठा जाय पञ्चपिह ॥ २३ ॥ तरणं सेनियराया कल्लंपाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पल कमल कोमलमिलयभि अह पंडुरेप्पभाए रत्तासोगपगास किं सुय सुयमुह गुंजद्ध बंधुजीवे वगवारावयचलणणयण परहुय सुरतलोयण जासुमन - कुसुम जलिय जलतरणिय कलस हिंगुलय निगर रुवाइरेगरहंत सिसिरीए दिवागरे अहकमेणं उहिए, तस्तदिणकर परपरोयारपारर्द्धमिअंधयारे बालातव कुंकुमेण खचियंमिजीवलोए, लोणविसावास विगतवितदसिमिलाए अब तुष्ट व आनंदित हुआ यावत् सब कार्य करके श्रीक राजा को उनकी आज्ञा पीछी देदी || २३ || एक घडी रात्रि रहते विकसित कमल की कोमल पांवडियों व हरिण | कालीयार विशेष ] के नेत्रों [ निद्रा रहित होने से ] विकमित हुवे हैं जिन में ऐसी उज्वल प्रभात में रक्त अशोक प्रगने प्रकाश, पलाश के पुरुष, शुक मुख, चिरमी [ चिणोंठी ] का उपर का रक्त अर्थ भाग, बंधु जीव का रंग, बक के पत्र पारवत के नयन, को किला के रक्त लोचन, जाइ कुतुनों के समुह, जाज्वल्यमान अनि, सुवर्ण कलश व बारिक कटा हुवा हिगलु इस से भी अधिक सुशोभित लक्ष्मी वाला सूर्य यथा ऋन से उदित होते उस के मभाव से अंधकार नष्ट होने लगा, तरुण सूर्प रूप कुंकुम से मनुष्य लोक रूप पिंजर नीला लाल पीला होने वृक्ष For Personal & Private Use Only - उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र +१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी कमलागरसंडबोहए उट्रियंमिसूरे सहस्सरस्सिमिदिणयरे तेय साजलंते सर्याणजाओ उठेइ २ चा जेणेव अदृणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपवीसइ २ त्ता . अणेग वायामजोगवग्गण वामद्दण जुद्धकरणेहिं संतेपरिस्संते सयपाग सहस्सपागेहि सुगंधवरतेलमाइएहिं पीणणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मदणिज्जेहिं विहणिज्जेहिं सबिदिय गायपल्हायणिज्जेहिं अभिगिएसमाणे तेलचम्मरिस पडिपुण्णपाणिपाय सुकुमाल कोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहि, दक्खेहिं पट्टेहिं, कुसलेहि, मेहावीहिं, निउणसि निलगा, लोक में दृष्टि विषय का स्पष्ट प्रकाश होने लगा, कमल आगर(वन)को प्रति घोधित(जाग्रत) करते हुये हजार किरणोंवाला सूर्य तेज मे देदीप्यमान होने लगा. तब श्रेणिक राजा अपने शयन से उठकर मर्दनशाला में गया. मदनशाला में प्रवेश कर के व्यायाम योग्य, वर्गण [लटकना) उछलना, व्यामर्दन परस्पर) हस्तादिक अंगों मरोडना मल्लयुद्ध वगैरह व्यायाम से श्रयित बहुत श्रमित होकर, शतपाक व सहस्र पाकवाले, पुष्ट करनेवाले, बल की वृद्धि करनेवाले, कामकी वृद्धि करनेवाले, मांसादिक की वृद्धि करनेवाले, व इन्द्रियों व गात्रों को आनंदकारी एसे श्रेष्ट तैल से अपने शरीरका मर्दन कराया, मर्दन करने वाले प्रतिपूर्ण हस्त पांव मुकोमल हस्त पाव के तलियेवाले, निपुण, दक्ष,पटु,कुशल,मेधावी,(पंडित)मालशर्क प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी भावाथ । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 432 त्रि 48षष्टांग झाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध __उणसिप्पोवगएहिं जियपरिस्समेहिं अम्भंगण परिमहणुञ्चलणकरण गुणनिम्माएहि; अट्ठिसुहाए, तया सुहाए, रोमसुहाय, मांससुहाए चउविहाए संवाहिएसमाणे अवगय परिस्सम्मेनरिंदे, अणसालाओ पडिनिक्खमई २ ता जेणव मंजणघरे तेणेब उवागच्छइ २ ता मंजणघरं अणुपविस्इ २ ता समुत्तजालाभिरामे विचित्तमणिरयण कोहिमतले रमाणिजे, हाणमंडसि गाणामणिरयणभत्ति. चित्तसि ण्हाण पीढंसि सुहं निसणे, सुहोदगेहिं, पुप्फोदगेहिं, गंधोदएहिं, सुद्धोदएहिं कलाओं में निपुण, परिश्रम को जीतनेवाले, अभ्यंगन, परिमर्दन, उदानवकरन इन के अभ्यासवाले पुरुषों से अस्थि, सचा, रोम व मांस इन चार के सुख के लिये तेल चर्म में मत्र मर्दन कराया हुचा राजा श्रेणिक परिश्रम रहित हुवा. फीर वह व्यायामशाला में से नीकलकर मंजनगृह में गया और उस में प्रवेश किया. वहां पर प्रवेश करके मालियों सहित अटारी जाली से भाभिराम, विचित्र मणि रत्नों की भिधि के तलेवाला व रमणीय स्तान मंडप में विविध प्रकार के चित्रों से चित्रित स्नान करने के पाट पर सुखपूर्वक बैठे. सुख उत्पन्न करे वैमा पानी, पुष्पोदक, गंधोदक व शुद्धोदक से वारंवार कल्याणकारी श्रेष्ट मज्जन विधि से श्रेणिक रामाने मज्जन किया, मजन करते बहन प्रकार के कौतुक कीये फोर कल्याणकारी उत्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 9th For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीमान श्री अमोलक ऋषिजी. अनुवादक-बालब्रह्मच पुणो पुणो कुल्लाणगपत्रर मजणविहीए मंजिए, तत्थकोऊसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणग . पवर मजणावसाणे पम्हल सुकुमाल गंध कासाइ लूहियंग, अहयसुमहग्घ दुसरयण सुसंवुए, सरस सुरभिगोसीस चंदणाणुलित्तगत्ते, सुइमालावण्णग विलेवणे अविद्ध मणिसुवणे कप्पियहारडहार तिसरय पालंब पलंबमाण कडिसुतयकय सोहेपिणद्ध गेविज्जे अंगुलिज गललियाकयाभरणे णाणामगि कणग तुडियथंभिय भुए अहियरुव सस्सीरीए कुंडलुजोइयाणणे, मउडदितासरए, हरुच्छय सुकयरइयवत्थे; पालंब मजन कीये पीछे प्रक्ष्य समान सुकोमल सुगंधित कापायिक बखों से शरीर स्वच्छ कीया. मपकादि उपदन हित बहुमूल्यवाले वस्त्र शरीर पे धारन कीये, अच्छा सुगंधित गोशीर्ष चंदन से गात्रों को विलेपन किया, पवित्र पुष्पों की माला, नाना प्रकार के वर्णक व कुंकुमादि विलेपन कीय. मणि व मुवर्ण के आभरण पहिने, अठारसरा, नवसरा, तीन मरा हार व लम्मा लटकता हुवा कटि सूत्र से शरीर मुशोभित कीया, कण्ठ में आभरण पहिने, व अंगुलिये अंगुठियां पहिली, भव्य मनोहर विविध प्रकार के आभरण धारन किये, हाथ में कडे, भुना में भुनबंध, वगैरह आभरणों से इन के हस्त स्तंभ समान हवे. इस तरह अधिक रूप से शोभायमान,कुंडल(कर्णाभरण विशेष)ने सुशोभित मुखवाला,मुकुट से देदीप्यमान, सिरवाला हारों से आच्छादित होते अच्छे हृदयबाला,लम्बा लटकने से अच्छा दुपट्टा रूप उतरासन वस्त्रवाला, मुदिनी GIRI-राजाबहादुर लाला मुखदायसहायजी ज्वालाप्रसादजी. YO मामा Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टमांग ज्ञाताधर्मक्रया का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 पलंबमाण सुकय पड़उत्तरिजे मुदिया पिंगलगलिए, णाणामणि कणगरयण विमलं । महरिह निउणी वियमिसिमिसंतसु लिलिट्ठ विसिट्रलटू संट्रिय पसत्थआविद्धवीरवलंए. किं बहुणा कप्परुक्खकए चत्र अलंकियविभासिए नरिंदे, सकोरंटमल्लदामेण छतेणे धरिजमाणेण च उचामर वालवीइयंगे मंगल जय२ सहकयालोए, अणेग गणनायक दंडनायक, राईमर, तलवर, माडंबिय,कोडंबिय, मंति,महामंति गणग,दोबारिय, अमच्च, चेड, पडिमद्दणगर, णिगस,सेट्ठि, सेणावइ, सत्थवाह, दूध, संधिपाल सद्धिं संपरिवुडे,.. काओं से बनी हुई पीली अंगुलीयोवाना, जिरका विमल व बहुमूल्यवाले विविध प्रकारके मगि,कनक,रत्नोंके निपुण कारिगरों स बनाये हुवे अच्छी तरह से संधी जोडी हुई व प्रशस्त रीति से पहिना वीर वलयनामक भूपणाला अर्थात् भूरवीर तथा अन्य से पराभव नहीं पाये ऐसाराजा दीप्त हुवा. किंबहुना विशेष क्या कहें] कल्पवृक्ष समान अलंकारादि से अलंकृत व वस्त्रादि से विभूषित राजा कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माला, छत्र धारण कराता हुआ, चार चमर विजाते हुवे अनेक गण नायक, दंडनायक, राजेश्वर, तलवर, के ल, माडं वय थोडे ग्राम का ठाकुर, कौटुम.क, मंत्री, महामंत्री, गणक ज्योतिषी] या भंडारी, द्वा आमात्य, चेटक, पृष्ट मर्दक-अंगरक्षक, निगम-व्यापारी, अंष्टि नगर का शेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत, व संधिपाल मुलह करानेवाले, इन सब परिवार से परवरे हुवे उज्वल महामेघ में से नीकेला हवा. १० भावार्थ 48 उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 42 9 MA For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +. मुनि श्री अमोलक ऋषि धवल महामह निग्गए विवहगहगण दिप्पंतरिक्ख तारागणाण मज्झै ससिव पियदसणेणरवइ, मजणघराओ पडिमिक्खमइ २ त्ता जेणव वाहिरिया उबट्टाणसाला तेणव ज्वागच्छइ २ त्ता सिहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सणिण्णे ॥२४॥ तएणं से सेणिएराया अप्पणो अदुरसामंते उत्तर पुरच्छिमे दिसिभाए अट्ठ भद्दासणाइ सेयवत्य पव्वत्थयाति, सिद्धत्यमंगलो वयारकयसंति, कम्माइ स्वावेइ २ त्ता, अप्पणो अदूर सामंते णाणामणिरयणमंडियं अहिय पेच्छणिज्ज रुवंमहम्ग वरपट्टणुंगयं सह बहु भत्तिसयचित्तट्ठाण ईहा, मिय, उसय, तुरंग, गर, मगर. विहग, वालम, किन्नर, ८८ के समुह में देदीप्यमान क्रोडाक्रोड तारा में रहा हुवा चंद्रमा समान मियदर्शनीय गजा मंजन गृह-स्नान गृह से नीकलकर बाहिर की उपस्थानशाला [ राजसभा ] में आया और वापर पूर्वाभिमुख से सिंहासन पर बैठा. ॥ २४ ॥ अब श्रेणिक राजाने अपनी पास ईशान कौन में आठ भद्रासन करवाये कि जो भद्रामनवत वस्त्र से ढके हुये थे. उन विघ्न नाश करने के लिये सरसव का मंगलिक उपचार ( पजा) किये थे. ऐसे आठ भटासन तैयार कीये. फीर श्रेणिक राजाने अपनी पास में एक पडदा माया. वह पडदा अनेक प्रकार के चंद्र कान्तादि मणि, करकेतनादि रत्नों युक्त, पहुत प्रेक्षनीय,. बहुन मल्यवाला प्रसिद्ध उत्तम नगरोंमें बनाया हुवा अथवा बहुम यस्न से रखा वह नीकाला हुवा,' शाहमृग । मशक-राजावहादुर लाला सुरु भावार्य यजी ज्वालामसादा For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध AR, अमर, कुंजर, वलय, उमलय, भाषिर्च सुचित वर परत देसभाग,अम्भितरियं जवणियं अच्छावेइ २ ता अत्थरएमसुरच्छइयं धवलवत्थं पव्वत्थुयं विसिटुं अंग सुहफायं मउयं धारणीएदेवीए भद्दासणं रयावेइ २ ता कोडुबिय पुरिसे महावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भोदेवाणुप्पिया ! अटुंग महानिमित तत्थ पाढाए विविहसस्थकुसले सुमिणपाढए सहावेइ २ ता, एवमणंतियं खिप्पामेव १२ मृग, २ वृषभ, ४ तुरग, ५ मनुष्य, ६ नगर, मगर, ८पक्षी, ९ व्याल-सर्प,१०किमर, ११. रुरु-वनचर १० अष्टापद, १३ चमरी गाय, १४ कुंजर [ हाथी ] १५ वनलता, १६ अशोक लता १७ पचलता व कपलिनी ऐसे विविध प्रकार के अनेक चित्रों से चित्रित, और अच्छे उत्तम सुवर्ण तार से बनाया ना था ऐसा पडदा. बांध कर उस की अंदर धारणी देवी को बैठने के लिये श्वेत वस्त्र से आच्छादित शरीर को । मुखकारी ऐपा एक भद्रासन विछवाया. फीर कौटुम्भिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोले. अहो देवानुप्रिय ! अष्टांग महानिमित्त के विविध प्रकार के शास्त्रों में कुशल ऐसे स्वप्न पाठकों को बोलावो. और मुझे मेरी १ भूमीकम्प, २ उत्पात, ३ स्पप्न, ४ आकाशवती, ५ अंगस्फूर्ण, ६ स्वर, ७ व्यंजन, और ८ लक्षण. यह निमित्त शास्त्र के ८ अंग हैं. * उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 4287 1 488 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mammaamire 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी पञ्चपिणह ॥ २५ ॥ तएसे पुरिसा सेणिएणं सरण्णा एवंवुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठ जाव . हियया करयलपरिग्गहियं दसणहंसिरसावत्तं मत्थए अंजलिंकटु एवं देवो तहत्ति, आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, सेणिएस्ससरण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता राय. गिहस्स.णयरस्स मज्झमझेणं जणव सुमिणपाढग गिहाणि तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सुमिण पाढए सद्दावेइ २ ॥ २६ ॥ तएणं से सुमिण पाढगा सेणिएसरण्णो कोडुविय पुरिसेहिं सहावियासमाणा हट्टतुट्ठ जाव हियया ण्हया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभारणालंकियसरीरा हरियालिय सिद्धत्थयकय सुद्धाणा, आज्ञा पीछी दो ॥ २५ ॥ श्रेणिक राजाने जब कौदाम्बिक पुरुष को ऐसा कहा तब वह बहुत हष्ट तुष्ट हुवा. यावत् आनंदित हुवा और करतल जोडकर दश नख से आवर्तश देकर मस्तक पर अंजली करके आपके वचन तथ्य हैं. यों विनय से श्रेणिक राजा की भाज्ञा धारन कर श्रेणिक राजा की पास मे नीकला और मध्य बझार में होते हुवे स्वप्न पाठक के गृह आकर स्वप्न पाठकों को राजा की आज्ञा सुनाइ ॥ २४ ॥ श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुष से ऐसा सुनकर वे स्वप्न पाठकों भी हृष्ट तुष्ट हुबे और स्नान किया, पानी के कुल्ले किये, तिलमसादिक किये, अल्प वजनवाले व बहुमूल्यवाले वस्त्र आमरणों से शरीर अलंकृत प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी भावार्थ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सएहिं गेहेहितो पडिणिक्खमइ २ रायगिहस्स मज्झमज्झणं जेणेव सेणियस्स भवण वडिंसगदुवारे तेणेव उवागच्छइ २ एगओमिलयंति २ सेणियस्सरण्णो भवण वडिंसग दुवारेणं अणुपविसंति, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सेणिएराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सेणियंरायं जयएणं विजयएणं वहावेइ, सेणिएणं रण्णा अच्चिय बंदिय पूइय माणिय सकारिय सम्माणिय समाणा पत्तेयं २ पुवनत्थेसु भद्दासणासु निसीयंति ॥ २७ ॥ तएणं से सेणिएराया जवणंतरियं धारणिदेविं ठवेइ २ त्ता पुप्फफल पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं तेसुमिण पाढए एवं क्यासी-एवं खलु देवाणु-. भावार्थ कीया और मस्तक में हरताल द्रोष वगैरह के सिद्धार्थ चिन्ह कीये. पीछे अपने २ गृह से निकले. नीकल कर राजगृह नगर की बीच में होते हुवे श्रेणिक राजा का भवनावतंसक द्वार की पास आये. वहां सब र एकत्रित हुवे. फीर श्रेणिक राजा के भवनावतंसक में प्रवेश कर बाहिर की उपस्थानशाला में श्रेणिक-राजा की पास जाकर उन को जय विजय रूप आशिर्वाद के शब्दों से वधाये. श्रेणिक राजाने भी उन की अर्चन, पूना, सत्कार सन्मान कर के प्रत्येक को पूर्वोक्त आठ भद्रासनपर बैठाये ॥ २७ ॥ अब 15 पडदे की पीछे धारणी देवी को बैठाकर पुष्प फल से प्रतिपूर्ण हस्तवाला श्रेणिक राजा बहुत विनय सेना पष्टमांग शाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48862 मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 428+ बा For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14- पिया! धारणीदेवी अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि जाव महासुमिणं पासित्ताणं पडि. बुद्धा, तं एयस्सणं देवणुप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्म महासुमिणस्स केमण्णे कलाणे फलवित्ति विसेसे भविसइ ? ॥ २८ ॥ तएणं से सुमिण पाढगा सेणिय सरण्णे अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्म हट्टतुटु जाव हियया, तं सुमिणं सम्मओ गिणहइ २ ता इहं अणुपविसइ २ त्ता अण्णमण्णेणसद्धिं संचालेति २ ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुग्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा सेणियस्सरण्णो पुरओ मुमिणसत्थाई उच्चारेमाणे २ एवं क्यासी-एवं खलु अम्हंसामी ! सुमिण सत्थंसि बयालीसं सुमिणा, तीसंमहासुमिणा, वावतारसवसुमिणादिट्टा तत्थणं सामी ! उन स्वप्न पाठकों को ऐमा बोले- अहो देवानुप्रिय धारणी देवी आज रात्रिमें पुण्यवन्तके योग्य भुवनमें यावत् महास्वप्न देखकर जाग्रत हुइ.इसलिये अहो देवानुप्रिय! ऐमा उदार यावत् सटिक महास्वप्नका कल्याणकारी क्या फल विशेष होगा ? ॥ २८ ॥ श्रेणिक राजा की पास से ऐना मुनकर वे स्वप्न पावक बहुत हर्षित यावत् आनंदित हुए. उस स्वन की सम्यक् प्रकार से ग्रहण कीया. अर्थत् मुना, बुद्धि पूर्वक उस का विचार किया. और परस्पर इस को संचालना कर. उस स्वप्न का अर्थ प्राप्त कीया, ग्रहण कीया, पुच्छा व पूछकर निश्चय कीया, पीछे श्रेणिक राना की पास स्वप्न शाख को पकाश करते हुए रेमा गले असे अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पष्टांग ज्ञाताधर्मकयों का प्रथम श्रुतस्कम 488 अरहंतमायगवा चकवाटिमायरोया- अरहंतसिवा चकाटिसिवा गम्भं वक्कममाणसि एएसिं तीसाए महासुभिणाणं इमे चउद्दस महासुमिणा पासित्ताणं पडिबुझंति, तंजहःगय, वसह, सींह, अभिसेय, दाम, ससि, दिणयरं, उझयं, कुंभ, पउमसर, सागर, विमाण, भवण, रयणुच्चय, सिहिंच ॥शसुदेव मायरोवा वासुदेवसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चउदस्खण्हं महासुमिणाणं अण्णयरे सत्तमहासुभिणे. पासित्ताणं पडिबुझंति ॥ बलदेवसायरोवा बलदेवसि गम्भं कक्कममाणसि एएसिंच चउदसण्हं महासुमिणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुझंति, मंडलिय मायारोवा मंडलियं स्वामिन स्वप्न शास्त्रमें हमने सब मीलकर बहोत्तर स्वप्न देखे हैं. जिनमें ४२ खराब हैं व सीस महास्वप्न उत्तम हैं,इनमें से अरिहंत अथवा चक्रवर्तीकी माता जब अरिहनया चक्रवर्ती गर्भमें आते हैं तब चौदह स्वप्न देख कर जाग्रत होती है जिन के नाम-गज, २ वृषभ, ३ सिंह, ४ अभिषेक लक्ष्मी ५ पुष्पमाला : ७ सूर्य, ८ धजा, ९ कुंभ, १० पद्म सरोवर, ११ सागर १२ विमान अथवा भुवन, १३ रन की राशि र १४ अप्रिशिखा. जब वामदेव गर्भ में आते हैं तब उन की माता इन में से कोई भी सात सन ती हैं,बल देवगर्भमें आते हैं. तब बलदेवकी माता इनमें से कोई भी चार स्वप्न देखकर जाग्रत होती हैं. और मंडलिकराजा गर्भपाते हैं. मंडलिकराजाकी माताइनमें से किसी भी एक सण देखकर जाग्रत होती है. भावार्थ उत्क्षिप्त (बंधकुमार) का प्रथम अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 43 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गब्भं वक्कममाणसि अण्णयरे एवं महासुमिणे पासित्ताणं पंडिवुज्झति ॥ इमेय सामी ! धरणि देवीए एगे महामुमिणेदिट्ठे तं उरालेणं सामी ! धारिणीए देवीए मुमिणदिट्ठे, जाव आरोग्ग-तुट्ठिी- दीहाउ - मंगल - कारगाणं, कल्लाण-कारएणं सामी ! धारिणीदेवीए सुमिदिट्ठे ; अत्थलाभो सामी !, भोगलाभोसामी ! पुत्तलाभो, रज्जलाभो, एवं खलु सामी! धारणीदेवीए सुमिणेदिट्ठे, णवण्हंमासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारगपयाहिसि ; सेत्रियणं दारए उमुक्कवालभावे विष्णाय परिणयमिचे जोव्वणगमणुपत्ते सूरे वीरे विक्ते विच्छिण्ण-विपुल- बलवाहणे -रज्जवईराया- भविस्सइ, अणगारेवा भावियप्पा ॥ तं उरालेणं सामी ! धारिणी देवीए सुमिणेदिट्ठे, जाव आरोग्गतुट्ठि जाव दिट्ठे तिकडु, अहो स्वामिन्! इसमें से धारणी देवीने एक स्वप्न देखा. वह स्वप्न अहो स्वामिन् ! अत्यन्त उदार प्रधान, यावत् आरोग्य, तुष्टता, दीर्घायुवाला, मंगलिक व कल्याणकारी स्वप्न देखा है. अहो स्वामिन् ! इस से {आपको अर्थ लाभ, पुत्र लाभ, भोग लाभ, व राज्य लाभ होगा. अहो स्वामिन् ! सवानवमास प्रतिपूर्ण हुए पीछे यावत् धारणी देवीके सुरूप पुत्र होगा. वह पुत्रभी बाल भावसे मुक्त होकर विज्ञान अवस्थाको मास हुवे पीछे शूरवीर, पराक्रमवंत, और विस्तीर्ण बल, वादनवाला राजाओं का राज होगा. अथवा तो भावितात्मा अनगार-साधु होगा. इससे अहो स्वामिन्! धारणी देवीने उदार प्रधान यावत् आरोग्य तुष्ट स्त्रम, देखा है. For Personal & Private Use Only • प्रकाशक सजाबहदुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी ३० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ भुजो २ अणुबूहेइः ॥ २९ ॥ तएणं सेणिएराया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्महट्ट जाव हियए करयल जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव जण्णं तुम्भेवयहतिकटु ॥ तं सुमिणं सम्मं संपडिच्छइ ; ते सामणंपाढए विउलेणं असगपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमलालंकारेणय सकारेइ समाणेइ विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ २ पाडविसज्जेइ ॥ ३० ॥ तंएणं से सेणिएराया सीहासणओ अब्भुदुइ २ जेणेव धारिणीदेवी तेणेव उवागच्छइ २ धारिणीदेवीं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुमिणंसत्थंसि वायालीसंसुमिणा तीसंमहासुमिणा जाव भुजो अणुबूह यों कहकर उन की वारंवार अनुमोदन की ॥२९॥ स्वप्न पाठकों की प से ऐमा अर्थ सुनकर श्रेणिक राजा भी हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और करतल जोडकर ऐसा वाले, अहो देवानुप्रिय ! जो तुम कहते हो वह वैसे ही है. यों स्वप्न को इच्छा और स्वप्न पाठकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र,गंध,पाला व अलंकार से सत्कार, सन्मान करके बहुतकाल आजीविका हाये वैसा प्रीति दान , देकर विसर्जन किये ॥३०॥ पीछे श्रेणिक राजा सिंहासन पर से उठे और धारणी राणी की पास गये वहां जाकर ऐसा बोले. अहो देवानुप्रिय ! स्वप्न शास्त्र में बीयालीस स्वप्न हैं व तीस महास्वप्न कहे हैं.3 यावत् वारंवार अनुमोदन किया ॥ ३१ ॥ श्रेणिक राजाकी पाससे धारणी देवी भी ऐसा स्वमार्थ सुनकर 488+ उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन + भावार्थ- JIO For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww. २१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋापनी ॥ ३१ ॥ तएणं धारिणीदेवी सणियस्सरण्णो अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्महढ जाव हियया तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ २ जेणेव वासघर तेणेव उव गच्छइ २ ण्हया कयवलि. कम्मा जाब विपुलाई विहरइ ॥३२॥ तएणं तीसे धारिशीदेवीए दोसुमासेसुविइक्कतेसु तइयमासे वहमाणे,तस्सगन्भस्स दोहलकाल समयंसि अयमेया रूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्था- धण्णाउणं तओ अम्मयाओ, संपुण्णाओणं ताओ अम्मयाओ, कयत्था ओणं ताओ, कयपुण्ण ओणंताओ, कयलक्खणाओ कयविहवाओ, सुलडेतोसिं माणुस्सए जम्मजीवियफलेताओणं मेहेसु अब्भुगएस अब्भुजएस अब्भुटिएस, सगजि एसु, सविज्जएसु, सफुसिएसु, सथणिएसु, धंतधौतरुप्पपट्ट अंक संख चंद कुंद सालि#दृष्ट तुष्ट यावत् आनंदि हुई. उस स्वप्न का अर्थ सम्यक प्रकार से ग्रहण कीया. फीर अपने निवास है गृह में आकर वहां स्नान कीया यावन् विचरने लगी ॥ ३२ ॥ अब धारणी देवी को गर्भ के दो मास हुने.. पीछे तीसरे मास में दोहल इच्छा उत्तम हआ, ऐसा अकाल मेघ का दाहला उत्पन्न दुवा कि, उस पत्र की ई. माताको धन्य है. वह परिपूर्ण पुण्यहै, वह कृतार्थ है, वह कृतपुण्यवाली है, वही अच्छ शरीरके लक्षणवाली है। तथा द्रव्य संपदा रूप विभवाली है, उस का मनुष्य जन्म सफल हुवा है कि जो अंकुर उत्पन्न होवे वैमा, प्रगट होकर वृद्धि पाता, आकाश में व्यापता, गरिव, विद्युत [विजसरी थोडी २ बुन्ध, व स्थनित. प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. भावार्थ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H8+ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488+ पिठरासी समप्पभेसु, चिउरहरियालभेय चंपग सण कोरंट सरिस पउमरय समप्पभेसु । लक्खारस सरस रत्त किंसुय जासुमण रत्तबंधुजीव गजइ हिंगुलिय सरस कुंकुम उ. रब्भससरुहिर इंदगोषगरमप्पभेम, वरहिणणीलगुलिया सुगचास पिच्छ भिंगपत्त सासग णीलप्पलणियरणवीसरीसकुसुम गवसादुलसमप्पभेसु, जच्चिं जणसिंगभेय रिटुग भमरावलि गवलगुलिय कज्जलसमप्पभेसु, कुरंत विजुतसगजिएसु वायवसविपुल गगणचवल परिसकिरेसु जिम्मलवर वारिधारा पयलियम्यंडमारुतसमाय समोच्छरंतउवरिउवरितुरिय वासंपवासिएसु धारा पहकराणिवायणिव्वाविय मेइणितलं (गर्भारव ) सहित, अग्नि से शुद्ध कीया हुवा चांदी का पट्टा, अंक नामक रत्नविशेष, शंक, चंद्र, और 2 चांवल के आटे का समुह समान वारंगाला, चिकुर,हरतालका टुकडा,चंपाके पुष्प शणवृक्षके पुष्प,कौरंटवृक्ष के दुष्प, सरिसव के पुष्प, पयकमल के रङ्ग समान पालावर्णवाला, लारुका रस, मरिसव, रक्त कि -+मंग जासूके फूल रक्त सन्धजीव हिंगल, श्रेष्ट कुम, करका रुधिर और इन्द्रगोपक (जीव विशेष) समान लाल रंगवाला, मधुर की पांख, नील नामक रत्न विशेष [ नीलम ] गलोइ, सोता व चांसकी पांख, भ्रपरकी पांख, सासक नामक वृक्ष विशेष, नीलोत्पल कमल की पराग, नव शिरीष वृक्ष के पुष्प और नविन तत्काल के नीकले हुने तृण समान हरा वर्णवाला, काला जातित सुरमा, पहिष ग भेद, अमरकी 482 उशिम (मे गकुपार ) का प्रथम अध्ययन 43 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र हरियगण कंचुए पल्लविय पायवगणेसु वालविथाणेसु पसरीएसु उन्नतेसु सोभगमुबगमेसु वेन्मारगिरिप्पवात कडंग विमुक्केसु उज्झरेसु तुरियपहा विय पल्लोट फेणाउलं सकलु संजालवहंतिसु गिरीणइसु सजज्जुण नीवकुडय कंदलसिलिंब कलिएसु उयवण्णेमु मेहरासिय हट्ठतुट्ठ चिट्ठिय हरिसवंसयमुक कंठकेकारवंमुयंतेसु वरहिणेमु उडुव समय जणिय तरुण सहरिय पणिच्चिएसु, णवसुराभि सिलिंधि कुडेय कंदल कलंब गंध पंक्ति,कोयले,गुयले,गुली,काजल, अरिष्ट रत्न जैसा काला वर्णवाला. यों पांचो वणसे आकाश में मंघ रंगित हुवा होवे फरकती,चमकती विद्यूत होवे, गर्जारव होता होये, वायु के विस्तार से आकाश में चपल बद्दल हुए होचे, त्वरित गति से जाते होवे,निर्मल पानी की धारा वर्पती होवे, पानी की धारा के प्रवाह से पृथ्वीभीजी होवे, पृथ्वी को आच्छादित कर रहे हुवे बद्दलों का विस्तार को तोडा होने और इस से वारंवार प्रकर्षपना मेघ वर्षता होवे,धारा के समुह के पतन से पृथ्वी पर का वायुको शीतली भून कीया होवे, पृथ्वीरूपस्त्रीनेक तृण रूपी हरे रंग की कंचुकी धारन की होवे, वृक्षों कुंपलयाले हुवे होवे, पर्वत में मे झरण भरते हो नाले वगैरह पानी के भरे हुवे,बहते होवे उस समयमें सरजवृक्ष,अर्जुन वृक्ष,कदंब वृक्ष, व कुटम वृक्ष के अंकूगें नीकलकर छत्रके आकारस बने हुवे होवे,उपवनमें हर्षवंत हृष्टतुष्ट बने मुक्त कण्ठहा कैकारव शब्द करते होवे, 17 वसंतऋतु के मद से युवान सहचरी जो मयुरी उस की साथ नृत्य करते होवे, नविन सुगंधवाले, 'छत्र भावार्थ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ 48 अनुवादक:बालब्रह्मचारी *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 द्वणिमुयंतसु उक्वण्णेमु परहुय रुयरिभितसंकुलेमु उद्दाइंतरत्तइंदगोवय धोवत कारुण्ण विसविएमु ओणयतण मंडिएसु दद्दर पयपिएस संपियदरिय भमर महुकरि पहकर परिलियमतछप्पय कुमा सबलोल मधुर गुजंतदेसभाएसु उववणेमु परिब्भामिय चंदसूरगहगण पण? णक्खततारगपहे इंदाउहबद्ध चिंधपट्टसिं अंवरतले उड्डीण बलागपंति सोभंत मेह चंदकारंडग चक्कवाय कलहंस उस्सयकरे संपत्ते पाउसम्मि समयसि कलि व्हायाओ कयवलिकम्माओ कयकोलमंगलपायच्छित्साओ किंतेवर पायपत्त णेउर मणिमेहल हाररइयउचिय कडग खड्डय विचित्तवर बलय थभिय. टाकुजघृक्ष, कदलिवृक्ष उन के पुष्पों की गंध से मुवासित उपचन होवें, कोकिलाके स्वर से पास का बनखंड सकुल आकुल होवे, इन्द्रगोप के करुणामय शब्दों जहां हो रहे हो, उन्नत अवनत तृण मंडित उपवनों हो रहे होवे, मेंडक प्रधान शब्द कर रहे होवे, मदोन्मत्त भ्रमर व भ्रमरियों के समुह एकत्रित हो पुष्पों के मकरन्द का आस्वादन कसे हुवे उस में लुब्धा बने हुवे मंजुल मधुर गुंजार शब्द करते होवे, उपवन में चंद्र, सूर्य, ग्रहगण की प्रभा का लुप्त हुवा होके और नक्षत्र व ताराकी प्रभा नष्ट हुइ। होवे आकाश में इन्द्र धनुष्य का चिन्ह हुवा होवे, वगले आकाश में उड़ते हुवे होवे, चक्रवाक, कलहंस 17राजहंस वगैरह पक्षियों मानसरोवर तर्फ जाते हुवे होवे, वर्षा के ऐसे चिन्हों होते हो, उस समय में ताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 42 nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnname भावाथे उन्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी भावार्थ भूयाओ, कुंडल उज्जोभवियणणाओ रयणभूसिमंमीओ णासा णीसास वाय बीमत चक्खहर वण्णफरिससंजतं हयलालापेलवाइरेयं धवलकणय खचियत्तकम्मं आगासफलिह सरिसप्पमं अंसुयं पवर परिहियाओ दुगुलसुकुमाल उत्तरिज्जाओ सम्बोउय सुरभिकुसुम पवरमल्लसोभियसिराओ कालागुरुधूवधूवीयाओ सिरीसमाणसाओ, सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरिढाओसमाणीओ सकोरंटमल्लदामेणंछत्तेणंधरिजमाणेणं चंदप्पभ हरवेरुलिय विमल दंड संख कुंद दगस्य समय महिय फेणपुंज सणिकास चउ. उस माताने मान कीया होवे, कुल्ले किये होके, तीलमसादिक किये होवे. इस प्रकार उत्तम मनकर.. पांच में उत्तम नेपुर पहिने होवे, मणिमय मेखला कटि में होवे, हृदयः पर हर होवे, योग्य स्थान में हाथके कई पहिने हो, अंगुलियों के आभरण परिने होवे,अनेक प्रकार के बलिय चूडायों). हाथ में पहने हुने होवे, कान में कुंडलों पहिन कर मुख प्रकाशित कीया होवे, रत्न के आभूषणों से सुशोभित . पान कोया होवे स्वतः की नामिकाके वायु से उडे ऐसे बहुत बारिक वस्त्र पहिने हुवे होवे, जिसके अच्छा-1 दित से शरीर का विभाग दीख सके वैसे वस्त्र होवे नहीं, सुंदरवर्ण, कोमल स्पर्श होवे, घोडे की लाला से अधिक सुकोमल. श्वेत व सुवर्ण के तार से बनी हुइ किनारवाला और आकाश समान स्वच्छ भावाला वस्त्र पहने हुने होवे, इन्द्रकुल व दुकुल नामक वृक्ष की शालसे बने हुवे दुकूल वृक्ष विशेष का • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसंहायजी ज्वालाप्रसादनी ॥ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामर वालीजित्तंगीओ सेणिएएणरण्णासाई हत्थिक्खधंवरगएणं पिटुओं २ समणु गच्छमाणीओ चउरगिणीए सेणाए महया हयाणीएणं गयाणीएणं रहाणीएणं पायत्ताणीएणं सिवढीए सव्वज्जुईए जाव णिग्घोसणाइयरवेणं, रायगिहणयरं संघाडग तिय चउक्क बच्चर चउम्मुह महापहेसु आसित्तासित्तसुचिय संमजितोबलितं जाव सुगंधवरगंधि वहिभय अवलोएमाणीओ णागरणेणं अभिणंदणिजमाओ, गुच्छलयारुक्ख गुम्ममाला उत्तरासन किया होवे, सब रुतु के सुगंधित पुष्पों की श्रेष्ट माला से मस्तक शोभित हुवा होवे, कृष्णागर के आदि सुगंधिप्रधान धूप से लक्ष्मी समान वशवाली हावे. एसी शोभा युक्त होती हुई सेचानक नामक हस्ती रत्न पर आरुढ होकर कोरंट पुष्प की माला वाला छत्र धारण करती हुइ. चंद्र की क्रान्ति समान वैडूर्य रत्नोंवाला विमल दंड व शंख, मचकुंदफूल पानी के कण, व समुद्र मन्थन से नीकला हुवा अमत का पुंज समान श्वेत चार चामर बीजाती हुइ श्रेणिक राजा की साथ हाथी की पीठपर #अश्व व रथ,पायदल यों चारों प्रकार की चतुरंगिनी सेना आती होवे. यावन बहुत वार्दित्रोंके बडेरनि?पसे राजगृह नगर के शृंगाटक, त्रिक, चौक, चच्चर; चतुर्मुख व राजमार्गमें सुगंदित पानीका छिटकावकर, विशेष छिटकावकर, कटक, कचरा रहित बनाये हुवे होवे और उसे देखती हुइ नगरजनों प्रशंसा करते होवे उसे 10 सनतीहइ, बैंगनादिक के गुरुत, चम्मादिलताओं, सहकारादि वृक्षों,गुल्मवेली,नवगालती, इत्यादिक के समुहसे" षष्टमोग हाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HO अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * वलिगुच्छोच्छाइयं सुरम्मंबेभारगिरिक्कडगपायमूर्ल सव्वासमंताऔ अहिंडमाणीओ २ दोहलं विणीयंति, तं जइणं अहमविमेहेसु अब्भुगए. जाव दोहलविणिज्जामि. ॥३३॥ तएणं साधारिणीदेवी तंसि डोहलसि अविणिजमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्ण दोहला असम्माणियडोहला, सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गसरीरा पमगल्ल दुबला किलंता उम्मीथपयवयणकमला णयण पंडइयमखी, करयलमलियच्च चंपगमालाणित्तेया दिणविवण्णवयणा, जहोचिय पुप्फगंधमलालंकार हारं अणभिलसमाणी कीडारमणकिारयंच पस्हिावेमाणी दीणा दुम्मणा जिराणंदा भूमिगएदिट्ठीया ओहयमण आच्छादित सुरम्य मनोहर वेभार पर्वन के मूल में चारों तरफ. फीरती हुइ जो स्त्रियों दोहल. मपूर्ण करती है उसे घन्य है. इस तरह मैं भी अकाल मेघ में दोहला संपूर्ण करूं तो मैं भी धन्य होवू ॥ ३३ ॥ अब धारणी देवी पूर्वोक्त दोहल पूर्ण नहीं हाना देखकर, मेघादि उत्पत्ति का अभाव जानकर, दोहला अस. । जानकर शुष्क होने लगी, निस्तेज हुइ, मांस रहित हइ, गलित गात्रोंवाली हुई, शरीर मलिन दुर्वल हुवा, स्नान व भोजन के त्याग से खेदित हुई, अधो मुख-भूमि तरफ मुख करके बैठी, मुख का पाण्डर होगया, जैसे चंपा की कली हस्त में मसलनेसे कुमलाती है वैमे होगई, निस्तेज व दीन मनवाली हुई, यथायोग्य पुष्प गंध माला व अलंकार से अरुची करने लगी, क्रीडा स्पणादि क्रिया. का त्याग । .प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी. भावार्थ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पष्टमाम ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध ++ मैकप्पा जाव झियाई ॥ ३४ ॥ तणं तीसे धारिणीयदेवीए अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दास चेडियाओ धारिणीदेवी ओलयं जाव ज्झियायमाणिं पासइ२ त्ता एवं वयासी- किणं तुमं देवाणुप्पिया! ओलयसरीर जाव झियायासि ? ॥ तएणं सा धारीणीदेवी ताहिय अंगपडिचारियहि अभितरियाओ ताओ दासचेडिओ णो अढाइ णो परियाणेइ, अणाढायमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ ॥ ३५॥ तएणं ताओ अंगपडिया रियाओ दासचेउियाहिं दोचंपि तच्चपि एवं वुत्तसमाणी णो आढाइ णों परिजाणाइ अणाढायमाणा तुसिणीया संचिट्ठति ॥ ३६॥ तएणं ताओ अंगपडियारिओ अन्भिकिया, दीन, दुर्मनवाली, आनंद रहित भूमिगत दृष्टिबाली, मन के संकल्पों जिन को नष्ट होगये हैं वैसी | होती हुई यावत् आध्यान ध्याने लगी ॥३४॥ अब धारणी देवीको उनकी अंग परिचारिकाओं अंगरक्षिकाव आभ्यंतर चेटियों यावत् आर्तध्यान करनी हुइ देखकर कहने लगी-अहो देवातुप्रिय! किस लिये तुम दुर्बल शरीरवाली यावत् आर्तध्यान करती हो ? तब धारणी देवी उक्त अंग परिचारिका च आभ्यंतरिक दासियों को आदर सत्कार दीया नहीं व उनके वचनोको अच्छे जाने नहीं. परंतु मौन रही॥३५॥३॥ अंगपरिचारिका व आभ्यंतरिक दासियोंने दो तीनवार ऐसा कहा ताईपि उस को आदर सत्कार कीया नहीं परंतु मौन रही ॥ ३६ ॥ जब अंग परिचारिका व आभ्यंतर चेटियों धारणी देवीसे अनादर भावार्थ उरिक्षप्त (मेषकुमार ) का प्रथम अध्ययन 424 mmename For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 403 अनुवादक बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी तरियाओ दासचेडियाओ धारिणीदेवीए अणाढाइजमाणीओ अपरियाणमाणीओ ata संभंताओ समाणीए धारिणीदेवी अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ ता जेणेव सेणिएराया तेणेव उरागच्छइ २ त्ता करयलपरिग्गहियं जाव कट्टु जएणं विजएणं बाइ २ एवं वयासी एवं खलु सामी ! किंपि अज धारिणीदेवी ओलग सरीरा जाव अटुज्झाणोत्रगया झियायए ॥ ३७ ॥ तरणं सेणिएराया तासि अंगपडियारियाणं अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म तब संभते ! समाणे सिग्घं तुरियं श्ववलं वेइयं जेणेव धारणिदेवी तेणेत्र उवागच्छइ २ त्ता धारिदेवीं उलुग्ग सरीरा जाव अज्झाणोवगया झियायमाणि पासइ पासित्ता, एवं व्यासी- किण्णं तुमं देवामिया ! ओग्गासरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि ? ॥ ३८ ॥ तणं असंस्कार पाई हुई सभ्रांत बनी हुई वे धारणी राणीकी पाससे नीकलकर श्रेणिक राजाकी पास आई और हस्तद्वय जोडकर जाव विनय से वधा कर ऐसा बोली- अहो साभिन्! आज धारणी देवी नमालुम किस करन से दुर्बल {शरीरवाली यावत् आर्तध्यान कररही है ||३७|| तत्र दासियों की पास से ऐसा सुनकर श्रेणिक राजा वैसे ही संभ्रांत चित्तमे शीघ्रता से त्वरित धारणी देवीकी पासगया और धारणी देवीको यावत् आर्तध्यान करती हुइ देखकर ऐसा बोले- अहो देवानुप्रिय ! आज किस कारन से तुम दुर्बल शरीखाली यावत् आर्त ध्यान For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * ४० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ git amanawara षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध से धारिणीदेवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी णो अढाइ णो परिजाणइ तुसिणीया सीचट्ठइ ॥ तएणं से सेणिएराया धारणीदेवीं दोचंपि तच्चपि एवं वयासी-किण्णं तुम देवाणुप्पिया ! ओलग्गा जाव झियायसि ?॥ तएणं साधरिणीदेवी सेणिएणरण्णा दोचंपि तच्चपि एवं वुत्तासमाणी णो अढाइ णो परिजाणइ तुसिणीया संचिटुइ॥३९॥ तएणं सेणिएराया धरिणी देश सवह साविय करेइ २त्ता एवं वयासी-किण्णं तुमं देवा णप्पिए ! अहमेयस्स अटस्स अणरिह सावयणयाए. ताणं तमं ममं अयमेयारूवं मणोमाणसिय दुक्खं रहस्सिकरेइ ? ॥ ४० ॥ तएणं साधारिणीदेवी सेणिएणं रण्णा सवहसावियाणी सेणियरायं एवं वयासी-एवं खलु सामी. ! ममतस्स उरालस्स जाव करती हो? ॥३८॥श्रेणिक राजाने ऐसा कहा ताईपि धारणी देवीने उन केवचन मान्य कीये नहीं और मौन रही. फिर भी श्रेणिक राजाने दो तीन वखन धारणी देवी को कहा के अहो देवानुप्रिय ! किस कारन से तू आर्तध्यान करती है ? इस तरह दो तीनवख्त कहने पर भी धारणी देवीने उन के बचन मान्य कीये नहीं और मौन रही ॥३९॥ फोर श्रेणिक राजाने धारणी देवी को शपथ (सोगंद) देकर ऐसा बोले, अहो देवानु-१ मिय ! किस कारन से तू मुझे यह बात नहीं कहती है और उस से तू ऐसा मानसिक दुःख मन में ही सहन करती है ? ॥ ४० ॥ जब श्रेणिक राजाने धारणी देवी को शपथ दीया तब वह श्रेणिक राजा को 428+ उत्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 4882 भावार्थ 1 4 । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासुमिणस्स तिपई मासाणं बहुपडैिपुण्णाणं अयमेयासवे अकाले मेहेसडोहल पाउब्भूए-धप्णाओणंताओअम्मयाओ कयत्थओणंताओअम्मयाओ जाव वेभारगिरि पायमूलं आहिंडमाणीओ दोहलंविणिइ, तं जइणं अहमवि दोहलं विणिज्जामि, तेणाहं सामी! अयमेयरूवंसि अकालेसि अविणिजमाणसि ओलग्ग जाव अज्झाणोवगए ज्झियाइ ॥४१॥ तएणं से सेणिएराया धारिणीदेवीए अंतिए एयम, सोच्चा जिसम्म धारिणीएदेवीं एवं यासी-माणं तुम देवाणुप्पिए! उलुग्गा जाव झियाहि, अहणं तहा करिस्सामि जहाणं तुमं अयमेयारूवस्स अकाल दोहलस्स मणोरहसंपत्ति भविस्सइति कहु. धारणीदेवी इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणामाहिं वग्गृहि समासासेइरजेणेव बाहिरिए बोली अहो स्वामिन : मेरे उस उदार यावत महास्थान के तीन मास पूर्ण हए सने ऐसा अकाल मेघ का दोहला हुवा है कि-धन्य है उस माता को, कृतार्थ है वह माता यावत् वेभारगिरि पर्वत के पास में फीरती. हुइ वियती है इस से मैं भी वैसा दीहला पूर्ण करूं. अहो स्वामिन् ! ऐमा अकाल मेघ का दाहल संपूर्ण नहीं होता देख आर्तध्यान करती हूं ॥४॥ अब धारणी देवी की पास मे ऐसा सुनकर श्रेणिक राजाई ऐमा बोला अहो देवानुप्रिय ! तू आतध्यान करता नहीं. तेरा अकाल मेघका होहल संपूर्ण होवेगा वैसा है 12मैं करूंगा. यों कहकर धारणी देवी को इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ व मणाभ वचनों से आश्वासन देकर १० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * भावार्थ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटरांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18 उबट्ठाणसाल तेणामेव उवगच्छइ२ सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सणिसण्णे धारिणी एदेवीए एवं अकाल दोहलं बहुहिं आएहिय उवाएहिय उप्पत्तियाहिय वेणत्तियाहिय कम्मियाहिय परिणामियाहिय चउविहाहि बुद्धिहिं अणुचिंतेमाणे २ तस्स दोहलस्स आयंवा उवायंवा ट्रिइंवा उप्पत्तिवा आदिमाणे आहयमाणसंकप्पे जाव ज्झियायइ ॥ ४२ ॥ तयाणं तरंचणं अभयकुमारे ण्हाए कयबलिकम्मे जाव सव्यालंकारविभूसिए पायबंदाए पहारत्थगमणाए ॥ ४३ ॥ तंएणं से अभयकुमारे जेव सेणिएराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सेणिएरायं ओहयमाण संकप्प जाव झियायमाणं पससइ २ ता अयमेयारूवे अज्झात्थिर चिंतिए पत्थिए बाहिर की उपस्थान शाला में आये. और वहां सिंहासन पर पूर्वाभिमुख से बैठकर धारणीदेवी का अकाल मेधका दोहला पूर्ण करनेका हेतु उपाय औपपालिक,वैनैयिक कार्मिका व परिणामिक एसी चार प्रकारकी बुद्धिसे चितवने हुवे उस दोहला का लाभ, उपाय, स्थिति व उत्पत्ति की प्राप्ति नहीं होने से खेदितमनवाले हुवे यावत् आत ध्यान करने लगे ॥ ४२ ॥ तत्पश्चात् अभयकुमारने सर कीया पलिकर्म कीया यावत् सर्वालंकार से मिभूषित बने और श्रेणिक राजा के पांव वंदन को नीकले. ॥ ४३ ।। उस समय में अभय कुमार श्रेणिक राजा की पास जाकर श्रणिक राजा को आतध्यान करते हुवे देखकर ऐसा अध्यवसाय 4+8+ उत्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 428 भारी 488 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - anamamiwwwww प्रचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १०१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मणोगए संकप्पे समुपजित्ता :- अण्ण ममं सेणिएर!या एजमाणं पासइ. ३ त्ता आढाइ परिजाणाति सकारेइ समाणेइ आलवइ संलबइ अद्धासणेणं उवणिमंतेइ, मत्थयंसि अग्धाइ ; इयाणिं ममसेणियराया णो अढाइ णो परियाणइ णो सकारेइ णो सम्माणेइ णो इटाहि-पियाहि-मण्णण्णाहिं उरालाहि वग्गुहिं आलवइसलवइ, णो अद्धासणेणं उवणिमंतेइ, णो मत्थयसि अग्घइ, किंपि ओहयमणसंकप्पो शियायइ, तं भवियव्वं एत्थकारेणं ते सेयं खलु मेसेणिएरायं एयमटुं पुच्छिन्तए एवं संपहेइ२त्ता, जेणामेव सेणिएराया तेणामेव उवागच्छइ २त्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए उत्पन्न हुवा यावत् मनोगत संकल्प हुवा कि अन्यदा जब मैं श्रेणिक राजा की पास आना था तब श्रेणिक राजा आदर करते थे सत्कार करते थे सन्मानदेते थे, वार्तालाप करते थे, अर्धासन की आमंत्रण करते थे, व मस्तक सुंघते ते, परंतु आज श्रेणिक राजा मेरा आदर सत्कार नहीं करते हैं, मुझे अच्छा नहीं जानते हैं, सत्कार नहीं करते हैं, सन्मान नहीं देते हैं, और इष्ट कान्त, पिय, मनोज्ञ व, उदार वचन से वारतालाप नहीं करते हैं, अर्धासन की आमंत्रण नहीं करते हैं व मस्तक नहीं सुंघते हैं परंतु आर्तध्यान करते हैं, इस से इस का कारन कुच्छ होना चाहिये. मुझे उस का कारन पुछना श्रेय है. । विचार कर के श्रेणिक राजा की पासगये और मस्तक से आवर्त देकर श्रेपिाक राजा को जय विजय .प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी. For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कम्प 48 अंजलिंकटु जएणं विजएणं बहावेइ २त्ता एवं वयासी तुमेणं ताओ ! अण्णया मम एजमाणं पासित्ता अढाह परिजण्ह जाव मत्थयसि अग्घायह, आसणेणं उवणिमतेइ इयाणिताओ! तुम्भे ममं णो आढइ जाव णो आसणेणं उवनिमंतेहिं किंपि ओहयमाण संकप्पाझियायह, तं भवियन्वं ताओ ! एत्थकारणेणं, तओ तुझं ममताओ एयं कारणेणं अगहेमाणा, असंकमाणा, अणिण्हवमाणा, अपच्छाएमाणा जहा भूतमवि तहमसंदिद्ध एयमर्स्ट माइक्खह ॥ तएणं अहं तस्स कारणरस अंतगसणं गमिस्सामी ॥४४॥दएण सेणिएराया अभएणंकमारणं एवं वत्ते समाणे अभयकुमारं एवं वयाणी-एवं खलु पुत्ता ! तवचुल्लमाउयाए धारिणीदेवीए तस्सगम्भशब्द से बधाये और ऐषा बोले-अहो तात ! जब अन्यदा मैं आपकी पास आता तब आप मुझे देखकर मेरा मुझें आदर सत्कार करते थे यावत् यस्तक भंघते थे आसन का आमंत्रणभी करते थे और आज आदर सत्कार नहीं करते हो व आसन का निमंत्रण भी नहीं करते हो और आर्तध्यान करते हुवे रहतेही इस से इसका कुछ कारण होना चाहिये. अहो तात ! इसका कारण नहीं छिपाते हुवे, किसी प्रकारकी शंका नहीं करते हुवे, किसी प्रकार का पश्चाताप नहीं करते हुये जैसा बना होवे वैसा शंका रहित वह मुझ कहो. इस से में इस का अंत करूंगा. ॥४४॥ जब श्रेणिक राजा अभयकुमार के उक्त बचन सुनकर क्षिप्त (पेषकुमार ) का प्रथम अध्ययन 48 भावार्थ । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र भावार्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रस दोसु मासे विकतेसु तइयमासे वहमाणे दोहलका समयसि अयमेयरूत्रे दोहले पाउ भवित्था. धण्णओणंताओ अम्मयाओ तहेव णिरवसेसं भाणियव्वं जाव विणंति || एणं तं अहं पुत्ता ! धारिणीदवीए तरस अकाल दोहलस्स बहुहिं आएहि उवाहिय जात्र उप्पत्तिं अविंदमाणे ओहयमाण संकध्ये जावज्झियाहिं, तुम आप जाणामि, तं एतेणं कारणेणं अहं पुत्ता ? ओहय, जाव ज्झियामि ॥ ४५ ॥ जए से अभयकुमारे सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमटुं सोच्चा जिसम्म हट्टु जाव हिए, सेणियराय एवं वयासी माणं तुम्भे ताओ ! ओहयमण जावज्झियायह, अभयकुमार से ऐसा बोले- अहो पुत्र. सेरी छोटी माता धारणी देवी को दो मास व्यतीत होकर तीसरा मास चलाता है उस में उन को अकाल मेप का दोहला हुआ है कि उन माता को धन्य हैं, वे माताओं कृतार्थ हैं यावत् बेभारगिरि पर्वत की पास फीरती हुई विचरती है. वैसे ही मैं भी विचरू. अहो पुत्र ! धारणी देवी का ऐसा अकलमेघ का दोहला का बहुत अर्थ, उपाय से यावत् उपत्ति पूर्ण नहीं होने से आर्तध्यान करताथा. इतने में तू आया परंतु मुझे यह मालूम हुई नहीं. अहो पुत्र ! इस कारण से मैं आर्तध्यान करता हूं ॥४५॥ श्रेणिक राजाकी पाससे ऐसी बात सुनकर अभयकुमार हृष्ट तुष्टित यावत् आनंदित हुने और श्रेणिक राजा For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ४६ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aa ~ षष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 480 अहणं तहा करिस्सामि जहाणं मम चुल्लमाउयाए धारणीएदेवीए अयमेया स्वस्त अकाल दोहलस्स मणोरह संपत्ती भविस्सइ, तिकटु, सेणियरायं तहिं इट्ठाहिं कंताहि. जाव समासासेइ ॥ ४६ ॥ तएणं से सेणिएराया अभएकुमारणं एवं वुत्तसमाणे. हतुढे जाव अभयकुमारं सक्कारेइ सम्माणेइ २ पडिक्सिज्जेइ, ॥ ४७ । तएणं से. अभयेकुमार सक्कारिए समाणिय पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्सरण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणामेवसएभवणे तेणामेव उवामच्छइ २ सिंहासणे णिसण्णे॥ तएणं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूये अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्ता-णो खलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीदेवीए अकाल मणोरहं संपत्ति HAB8% उत्क्षिप्त ( मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन भावार्थ को ऐमा बोले. अहो तात ! तुम आर्तध्यान करना नहीं. मै मेरी छोटी माता धारणीदेवी का अकाल मेघ का दोहल संपूर्ण होवे वैसा करुंगा. यों कहकर श्रेणिक राजा को इष्टकांत यावत् आश्वासन दीया ॥ ४६॥ अभयकुमार के ऐसे वचन सुनकर श्रेणिक राजा हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और अभय कुमार को सत्कार सन्मान देकर विसर्जन कीया ।। ४७॥ तब श्रेणिक राजा से सत्कार कराया हुवा, सन्मान कराया हुवा व विसर्जन कराया हुवा अभय कुमार श्रेणिक राजा की पास से नीकल कर स्वतः के भुवन में आया और वहां सिंहासनपर बैठा. वहां उनको ऐसा अध्यवसाय 21 882 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी करित्तए णण्णत्थ दिव्वेणं उवाएणं । अथिर्ण मम सोम्मकप्पवासी पुत्वसंगइए देवे महढ़िए जाव महासुक्ख; तसेयं खलु ममः पोसहसालाए पोसहितस्स बंभयारिस्स उमुक्कामणिसुवण्णरस, वयगय मालवण्णम विलेवणस्स, निखित्तसत्थ मुसलस्स, एगस्स अवीयस्स दभसंथरोवगयस्स अट्ठमसत्तं परिगिण्हत्ता पुन्वसंगतियंदेवं मणसीकर माणस्स विहरित्तए ॥ तएणं पुत्रसंगतिए. देवे मम चुल्लमाउयाए धारणीदेवीए अयमेयाः रूवे अकालमेहेस दोहलं विणेहंति; एवं संपेहेइ २ न्ता जेआमेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २. पोसहसासे पमज्जइ २: उच्चारपासवणभूमी पडिलेहेइ र, दंभसंथारयः । यावत् उत्पन्न हुवा कि मनुष्य के ऊगय से मेरी छोटी धारणी माता का अकाल मेघ. का दोहला पूर्ण al होला शक्य नहीं है; परंत भोई देव के उपाय से पूर्ण होगा, मेरा पूर्व परिचयवाला महर्द्धिक यावत् महा सुखवाला सौधर्म देवलोक में रहनेवाला देव है इसलिये पोषधशाला में ब्रह्मचर्य व्रत सहित मणि मुवर्णादि विवर्जित, माला वर्ण विलेपन रहित, शस्त्र सूशलादि विना अकेला अद्वितीय दर्भ संथारा पर अठम. भक्त (तेला ) का तप करके पूर्व परिचयबाला देव को याद करना मुझे श्रेय है. और वह पूर्व परिचयवाला देव मेरी छोटी धारणी माता का अकाल मेघ का दोहल. पूर्ण करेगा. ऐसा विचार करके पोषधशाला.में, प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामसादजी* भावार्थ in For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताधर्म कथा का प्रथम श्रुत्स्कन्ध 480 48 षष्टमांग-बार पडिलेहैइ २ ता दन्भ संथारगं दुरुहइ २ ता, अट्ठमभत्तं पगिण्हइ ता पोसह-- सालाए पसह बंभयारी जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसीकरेमाणे चिट्ठइ ॥ ४८ ॥ तएणं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठम भत्ते परिणममाणे पुत्वसंगइयरस देवस्स आसणं चलइ॥तएणं पुत्वसंगइए सोहम्मकप्पवासीदेवे आसणं चलियं पासात्त ओहियंपउज्जति, तएणं तस्स पुन्वसंगइयस्सदेवस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपत्थिए समुपज्जित्ता, एवं खलु ममं पुथ्वसंगइए जंबुद्दीवे दीवे दाहिण भरहेवासे रायगिहेणयरे पोसहसालाए पोसहिए अभयणामं कुमारे अट्ठमभत्तं गिण्हत्ताणं ममं मणसीकरमाणे २ गया और पोषध व शाला प्रमार्जी. उच्चारप्रस्रवण भूमि देखी, दर्म संथारा की प्रतिलेखना की, और अष्टम भक्त ग्रहणकर के पोषध शाला में ब्रह्मचारि यावब् पूर्व संगतिवाला देव का स्मरण करते रहे ॥, ४८ ॥ इस तरह अप्रम भक्त तप में करने से पूर्व परिचय वाला देवका आसन चलायमान हवा. इस संगति वाला सौधर्म देवलोक वासी देव अपना आसन चलाय मान जानकर अवधिज्ञानप्रयुजा और ऐसा अध्यवसाय हुवा कि-इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में रामगृह नगर में मेरा पूर्व परिचित वाला अभय कुमार अष्टम भक्त तप करके मुझे यादकी कर रहाहै इससे उनकी पासजाना मुझे श्रेय है यों विचार कर ईशान कौन में जाकर वैक्रेय समुद्धात से संख्यात योजन का देढ कीया फीर जीव के मदेश - काया . 4882 उत्क्षिप्तं (मेघ कुमार) का प्रथम अध्ययन 488 , For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र mornrnd 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी: चिट्ठइ, तं सेयंखलु मम अभयकुमारस्स अंतिए पाउब्भविचए एवं संपेहइ २त्ता उत्तर पुरस्थिमं दिसीमागं अवक्कमइ २ वेउन्बिय समुग्घाएणं समोहण्णइ २संखिजाइ जोयणाइ दंडं निसरए २त्ता तंजहा-रयणाणं,क्यराणं, वेरुलियाणं, लोहियक्खाणं, मसारगलाणं, हंसगन्माणं पुलगाणं, सोगंधियाणे, जायरूवाणं, अंकणं अंजणाणं रजक पुलागाणं, जोइयाणं अंजण पुलागाणं फलिहाणं, रिटाणं; अहावायरे पोग्गले परिसाडेइ अहासुहमे पोग्गले परिगण्हइ, अभयकुमारमणुकंपमाणोदेवो पुत्रभवजणियणेहपियवहुमाणजाय: मोयंतओ विमाणवरपुढरीयाओ रयणुत्तमाओ धरणीयलगमण तुरिय संजणिय, मण के पुद्गलोका क्रेय बनाकर भनेक प्रकारके रहनोंके पुद्गलों ग्रहण कीये. जिनके नामः१ ककेंतन रत्न २ पज रत्न ३ बैडूर्य रत्न ४ लोहिताक्ष रत्न ५ मपारमल्ल रत्न ६ इंसगर्भ रत्न पुलाक रन ८ सौगंधिक रत्न ९ जातरूपरत्नर ० अंकरल ११ अंजनरत् रजत पुलाक रत्न ज्योतिषरत्न १४अंजन पुखाक रत्न २५फटिक रत्न और१० रिष्ट रस्न यों सोलह प्रकारके रत्नों के यथा बादर असार पुगलों छोडकर यथा सक्ष्म सार पुगलों ग्रहणकर अभय कुमार की अनुकंपा वाला पूर्व भव का उत्पन्न हुवा स्नेह व बहुमान बाला देव अपने श्रेष्ट पौंडरिक विमान से पृथ्वीपर जाने के लिये शीघ्र नीकला उस देवताने हलाते हुये विमल है। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला एखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी" For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टमांग-माता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध488 पयारोवा थुण्णिय विमलकणगपयरग वडिंसग मउड, कडाडोव दंसणिजो, अणेगमा णिकणगरयण पहकर परिमंडिय, भत्तिचित्तविणिउत्तमणुगुणजणिय हरिसे पेखोलमाण वर ललियकुंडलुजलिय वयणगुणजणि सोमरूवो उदितोविवकोमुईणी सापस णिच्छरगाउजलिउमझभागत्थो गयणाणंदो मरयचंदो दिवोसहिपजल्लुजलियं दसणाभिरामो,उउलच्छिसमत्तजाय सोहो पइट्टगंधडुयायाभिरामो मेरुविवणगवरो विउ. 1 निर्मल सुवर्ण के मतररूप कर्ण आभरण धारण कीये, मुकुट के आटोप से दर्शनीय हुवा मुख जिसका, प्रकार मणिसुवर्ण गरनों के समुह से सुशोभित हुवे वैकंदोरा पहिन कर हर्षित हुवा, और भी हलते हुए प्रधान ललितं मनोहर कर्णपूर कुंडल का युगल से उद्योत हुवा उस देवता का मुख सौभ्यता से मनोहर हुवा, जैसे-उदय पाती हुई कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में शनैश्चर व अंगारक ( मंगला ) ये दोनों ग्रहों जैसे उज्वल, देदीप्य मान तेजवंत व कुंडल के आकार समान देखता है वैसे ही उस देवता का रूप आखोंको मानंद करने वाला देखता है, व चंद्रमा जैसा है, तथा-दीव्य प्रधान औषधि के प्रचलित मान से मुकुटादि से उद्योदित दर्शन से मनोहर होने लगा, ऋतु की लक्ष्मीरूप सब ऋतु के पुष्पों से सुशोभित शोभा उत्पम हुइ प्रकृष्ट गंध से सुशोभित हुवा, सब पर्वतों मेंरू पर्वत जैसा सुदर ऐसा विचित्र प्रकार के वेष धारेन 48+ उलिप्त (मेघ कुमार) का प्रथम अध्ययन 4884 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विय . विचित वेमो दीवसमुदाणं असंखारिमाणणामधेजाणं मम्झकारण वीइवयमाणे उजायंतो पभाए घिनलाए जीवलोयं रायगिह पुरवरंच अभयस्स तस्सपासओवयितिउ दिवरूयधारी ॥ ४९ ॥ (पाठान्तर-एकोतावसोगमे ॥ अणोविगमो-ताए उकिट्ठाए, तुरियाए, चवलाए, चंडाए, सीहाए, उद्याए, जयणाए, जेयाए, दिव्वाए देवगइए जेणामेव अंबुद्दीवे २ भारहेवासे जेणामेव दाहिणद्वभरहे रायगिहे पयरे पोसहसाले अभयकुमार तेणामेव उवागच्छइ २) तएणं से देवअंतलिक्खपडिवण्णे दसहवण्णाई संखखिणीयाई पचरवस्थाई परिहिये अभयकुमारं करके मुंदर बना देवता असंख्यात द्वीप समुद्र की मध्यमें से होता हुवा उद्योत करता हुवा राजगृह नगरमें दीव्य रूप धारिदेवता अभय कुमार की पास उतरा ॥ ४२ ॥ (एक पाठ इस तरह है और है दूसरा पाठवह उसकी उत्कृष्ट, स्वरित चपल, चंड-रौद्र शीघ्र, अहंकार उत्पन्न करे वैसी, दीव्य देवगति से जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में दक्षिण भरत में राजगृह नगर की पौषध शाला में अभय कुमार की पास आया) पांच वर्ण बाले व छोटी २ घुघरियों वाले वस्त्र महित घुघरीयों घमकाता 17 अंतरीक्ष आकाश में रहकर अभय कुमार को ऐसा बोला-अहो देवानुप्रिय ! मैं तेरा पूर्व परिचय 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टांग नाना धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध428 एवं वयासी-अहणं देवाणुप्पिए ! पुव्वभवसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महवीए जण्णं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तंसि गिण्हताणं मममणसीकरेमाणे चिट्ठइ, तएसणं देवाणुप्पिए! अहंणं इहं हव्वमाग, संदिसहणं देवाणुप्पिया! किं करेमि? किं दलयामी, किं पत्थयामी ? किं वातेहियइच्छियं? ॥ ५० ॥ तएणं से अभयकुमारे तंपुब्यसंगइयं देवं अंतलिक्खपडिवण्णं पासइ २ हट्ट तुट्ठ पोसहं पारेइ २ करयल अंजलिंकटु, एवं है क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! ममचुलमाउयाए धारिणीएदेवीए अयमेयारूवे अकाल दोहले पाउब्भूए-धण्णओणं ताओ अम्मयाओ तहेव पुव्वगमणेणं जाव विणिज्जामि, वाला सौधर्म देवलोक में रहने वाला महाऋद्धिक देव हूं तैने मेरे लिये पौषध शाला अष्टम भक्ततप करके मुझे याद कीया है इस लिये मैं यहांपर आयाहूं तो अहो देवानुप्रिय ! मैं क्या करूं ? क्या देवू ? क्या चहाते हो ? अथवा तेरा क्या हितइच्छं? ॥५०॥ उतसमय में अभय कुमार उस पूर्व संगति वाला मित्र देवता को अंतरीक्ष में रहा हवा देखकर हृष्टतष्ट होकर पोषय वन को पारा [ पूर्ण किया ] और हस्तद्वय जोडकर ऐसा बोले-अहो देवानुप्रिया ! मेरी छोटीमाता धारणी देवीको ऐसा अकालमें मेघका दोहल उत्पन्न हुवा कि उन माताओं को थन्य हैं यावत् दोहल पूर्ण करूं अहो देवानुप्रिय! तुम मेरी छोटी माता धारणा 48 उत्क्षिप्त ( मघ कमार ) का प्रथम अध्ययन48+ J For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 " अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक तण्णं तुम देवाणुप्पिया ! ममचुलमाउयाए धारिणी देवीए अयमेयारूवं अकालडोहलं . विणेहि ॥ ५१ ॥ तएणं से देवे अभएणकुमारेणं एवंवुत्ते समाणे हट्ट तुटे, - अभयं कुमारं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया! सुणिव्वुयवीसत्ते अत्थाहिअहतह चुल्लुमाउयाए धारिणीदेवीए अयमेयारूवं डोहलं विणेमी तिकटु; अभयकुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ २त्ता उत्तरपुरच्छिमेणं बेभारपन्वय वेउब्विय समुग्घाएणं समोहण्णइ २संखेजाइ जोयणाइ दंडणिस्सरइ जाव दोच्चंपि वेउब्विय समुग्घाएणं समोहणाइ२ खिप्पामेव गज्जइ सविज्जुयं सफुसित पंचवण्ण मेहणिणाओवसोहिथं दिव्यं पाउससिरिं विउव्वइ २त्ता,.. देवी का अकाल मेघ का दोहला पूर्ण करो. ॥ ११ ॥ जब अभय कुमारने उस देव को ऐसा कहा तब वह देव हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और अभय कुपारको ऐसा योगा देनानुप्रिय ! तू अच्छी तरह. निर्वृत्ति धारनकर स्वस्थ व विश्वास वाला हो, मैं तेरी उस छोटी बात. देवका दोहल पूर्ण करूंगा. यों कह कर अभय कुमार के पास से नीकलकर ईश : को में नया का भार गिरे पर्वत की पास वैक्रेय समद्धात करके संख्यात योजन का दंड ...! यावत् दूसरी त वैक्रय समद्धत कर के गरिव कीया विद्युत चमकाइ, पानी के बुन्द सहित पांच वर्ण वाले मेघ बद्दलसे दीव्य दृष्टिका वैक्रेय प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. + For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18+ 8+ षष्टमांग-माता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध जेणेव अभयकुमारे तेणेव उवागच्छइ २ ता अभयंकुमार एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तवपियट्टयाए सगजिय, सफुसिय, सविजुया, दिव्वापाउससिरी विउविया, तंविणउणं देवाणुप्पिया! तब चुल्लमाउया धारणीदेवी अयमेवारूवं अकालदोहलं ॥ ५३ ॥ तएणं से अभयकुमारे तस्संदेवस्स पुज्वसंगइयरस सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्मा हट्ट तुट्टे सयाओ भवणाओ पडिणिक्खमइ २ जेणामेव सेणियराया तेणामेवा उवागच्छइ २ करयलं अंजलिंकटु एवं वयासी-एवं खलु ताओ ! ममपुब्बगइएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगजिय कीया इतना वैक्रेय करके वह देवता अभय कुमार की पास गया और उनको ऐसा दोलो-अहो । देवानुप्रिय ! मैंने तेरी मिति के लिये गरिव सहित विद्यत सहित व पानी के कणों महित दीव्य वर्षा ऋतु की लक्ष्मी का वैक्रेय कीया है इस से तेरी छठी माता का अकाल मेघका पर्ण करो ॥५२॥ तब अपना पूर्ण परिचित सौधर्म दवलोकवासी देव से ऐसा सुनकर अभय कुमार ष्ट हुवे और अपने भवन से नीकलकर श्रेणिक राजा की पास गये. वहां उन को अंजली जोडकर ऐसा बोले अहो तात! मेरे पूर्व परिचित सौधर्म देवलोक निवासी देवने गरिव विद्युत व पानी के कणों Hit उत्क्षिप्त मेघकुपार ) का प्रथम अध्ययन 488 अर्थ | For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी * सविज्जुय पंचवण्ण मेहणिणा, उवसोभिया दिव्व पाउससिरी विउब्विया, तंविणऊणं मम चल्लमाउया धारिणीदेवी अकालदोहलं ॥ ५३ ॥ तएणं से सेणिएराया अभय कुमारस्स अंतिए एयमद्रं सोचाणिसम्म हट्टतुटू कोडुविय पुरिसे सहावेइ २ ता, एवं वयासी-खिप्पामेव भादेवाणुप्दिया ! रायगिहंणयरं सिंघाढगतियचउक्कचच्चर आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंध टिभूयं करेह कारवेह एयमाणत्तियं पञ्चप्पि. 'णह ॥ ५४ ॥ तएणं कोडंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणति ॥ ५५ ॥ तएणं सेणिए. राया दोच्चंपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो हेवाणुप्पिया! सहित पांच वर्ण के मेघ से मुशोभित दीव्य वर्षा ऋतु का वैक्रेय कीया है. इस से मेरी छोटी माता का अकाल मेघ का दोहल पूर्ण होगा ॥ ५३ ॥ अभय कुमार की पास ऐसा मुनकर अंणिक राजा हृष्ट तुष्ट हुए और कौटुम्पिक पुरुषों को बोलाकर ऐमा बोले-अहो देवानुप्रिय ! राजगृह नगर के शृंगाटक, त्रिक, चौक राजमार्ग वगैरह को सुगंधित पानी का छिटकाव करो यावत् सब श्रेष्ठ सुगंधित पदार्थों को गंधवाली बनावो. यह मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो ॥ १४ ॥ कौटुम्बिक पुरुषों उक्त कथनानुसार सब करके श्रेणिक राजा को उन की आज्ञा पीछी दे दी ॥ ५५ ॥ फीर श्रेणिक राजाने दूसरी वक्त भी कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय! अश्व, गज, रथ व योधा की चतुरंगिनी *.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी* For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 488 48ष्टमांम-ज्ञासा धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध488 हयगयरह जोह पवरकलियं चाउरंगिणींसगं सण्णाहह सेयणयंच गंधहत्यि परिकप्पेह ॥ तेवि तहेव जाव पच्चत्थिणंति ॥ ५६ ॥ तएणं से सेणिएराया जेणेव धारि. णीदेवी तेणामेव उवागच्छइ २ धारिणीदेवीं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! सगजिया जाव पाउसंसिरीपाउन्भूया. तण्णं देवाणुप्पिए ! एयं अकाल दोहलं विणेहिं ॥ ५७ ॥ तएणं सा धारिणीदेवी सेणिएणंरण्णा एवंवुत्तासमाणी हट्टतुट्ठ जेणामेव मजणघरं तेणामेव उवागच्छइ २ मजणघरं अणुपविस्सइ २ अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयवलिकम्मा कयकोऊय मंगल पायच्छित्ता किंतेवर पाय पत्त णेउर जाव आगासफलिह सप्पभं अंसयांणयत्या सेयणयं गंथहत्थि सेना तैयार करो और से चानक गंध हस्ती को तैयार करो, उस पुरुपने वेसा करके उन को उनकी आज्ञा पीछी दे दी ॥ ५६ ॥ पीछे श्रेणिक राजा धारणी देवी की पास आये और ऐसा बोले अहो देवानुप्रिय! गौरव सहित यावत् वर्षाऋतु का वैक्रय कीया है. इस से तुम तुमारा अकाल मेघ का दोहल पूर्ण ॐ ॥५७ ॥ श्रेणिक राजा के ऐसा कहने पर वह धारणी देवी हृष्ट तुष्ट हुइ और जहां स्नान गृह था वहां भाई, बहां आकर अंतःपुर में स्नान कीया, कुल्ले कीये. तीलमप्तादिक कीये पांव में नेपुर यावत् आकाश उत्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 88 1 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी. दुरुढासमाणी - अमयमहिय फेगपुंजसप्णिगासाहिं सेयचामर बालवीयणीहि वीइजमाणी. २ संपत्थिया ॥ ५८ ॥ तएणं से सेणिएराया पहाए कय बलिकम्मे जात्र सरीरे हत्थि खंधवरगए सकोरंट मल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं चउचामराहिं वीइजमाणे धरीणीदेवी पिटुआ अगुगच्छइ ॥ ५९ ॥ तएणं साधारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हत्थिखंध वरगएणं पिट्टी २ समणुगम्ममाणमग्गा हयगयरह जोह कलियाए चउरंगिणी सेणाएसद्धिं संपरिबुडा महया भड चडगर बंधपरिखित्ता प्रकाशक-रामावहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. व पटिक के कान्ति सपान वेत वस्त्र धारन कीये. और संचानक गंध हस्ती पर आरूढ होती हुई अमृत के फैन के पुंज समान वन कारों से जाती हुई नीकली ॥५८॥ श्रेणिक राजाने भी स्नान कीया कुल्ले किये यावत् अलंकृत शरीर सालास. और श्रेष्ठ गंध हस्ती पर बैठकर कोरंटक वृक्ष के पुष्यों माला वाला छत्र धारन कर चामरो।मान र धारगी देवीके पीछे बैठे कर चले।।५९॥ श्रेणिक राजा साथ हाथी की पाठपर बैठकर पीछ अन्य, गज, रथ व योध यों चतुरंगी सेना से परवरी हुई ध देवी बडे २ भटों से सुरक्षित सब ऋदि सहित या दुनी की निर्दोषणा के अवाज से राज नगर में शंगाटक, त्रिक, चौक व राजमार्ग यावत् महापंथ में नगर के जनों से प्रशंसा पाई हुई वेभारगिरी, For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांग-शाला धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध +is+ सव्वदीए सव्वजुइए जाव दुंदुभी णिग्घोसणाइरवेणं रायगिहेणयरे सिंघाडग तिगचउक्क चच्चर जाव महापहेसु णागरजणेणं अभिणंदिजमाणे जेणामेव वेभारागिरिपन्चए तेणामेव उवागच्छइ २ वेभारगिरिकडगतड पायमूले आरामेसुय, उज्जाणेसुय, काणणेसुय, वणेसुय, वणसंडेसुय, रुक्खसुय, गुच्छेसुय, गुम्मसुय, लयासुय, वल्ली.. सुय, कंदरासुय, दरीसुय, चुंढीसुय, दहेसुय, कत्थेसुय, इसुय, संगमेसुय, विधार सय. अस्थमाणी, पेच्छमाणी. पजमाणीय; पत्ताणिय, पुप्फाणिय, फलाणिय, पल्लवाणिय, गिण्हेमाणि माणमाणि, अग्घाएमाणी, परिभुजेमाणी, परिभाएमाणीय. केभारपर्वत की पास आई. वहाँ पर स्त्री पुरुष कीडा करे वैसे आराम. पुष्पादिक ऋदिवंत वृक्षोंवाले उद्यान, नगर की पास होवे सो कानन, नगर से दूर होवे मो वन, समान जातीवाले वृक्षों के समुह सो बनखण्ड, माम्रादि वृक्ष होवे सोवन,, गन के वक्ष सो बुच्छ, द्रहके स्थान बनमालादिक वंश जाली प्रमुख गुल्म, सहकार चंपादिक वृक्ष लता, पेठादिक की वेली सो वाल्ल, भगालादिक के बनाये हुवे स्थान सो कंदरा, गुफारूप पानी के द्रह सो दरी, द्रह, कच्छ, नदी, दो नदियों का मिलना होवे सो संगम, और विहार में बैठती हुए देखती हुई, स्नान मज्जानादि करनी हुई, पत्र पुष, काल व पञ्च व का प्राण करती हुई सुंधने योग्य पदार्थों को सुंधती हुई, भोगने योग्य वस्तु को भोगती हुई, व देने योग्य वस्तु देतीहुई, वेभारगिरि पर्वत की 484उत्क्षिस (मकुमार) का प्रथम अध्ययनक । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4. अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी गिरिपोयमूले दोहलं विणेमाणी सव्यसंमता आहिंडइ ॥६०॥ तणं सा धाणिदेवी विणीय दोहला, संपुण्णदोहला संपतदोहला, जायायविहोत्था ॥ ६१ ॥ एणं सांधारिणीदेवी सेयाणगंधहत्थि दुरुढासमाणी सेजिएणं हत्थि खंधवर गणणंपिट्ठाओ २ समनुगममाणमम्गा हयगय जात्र रहेणं जेणेव राय गेहेणयरे तेणेव उवागच्छइ २ यहिं यरं मज्झमस्झेणं जेणामेव सएभवणे, तेणामेव उवागच्छइ, विउलाई भगभगाहिं जाव विहरइ ॥ ६२ ॥ तणं से अभयकुमारे. जेणेव पोसह.सालाए तणामेव उत्रागच्छइ २ तां पुब्वभवसंगइयं देवं सकारेइ सम्माणेइ र पडिविसजेंड | ६३ ॥ एणं से देवे सगज्जियं पंचवण्णमेहोव सोहियं दिव्बं पाउससिरी पडिसाहरइ, ( तलेटी में अपना दोहल पूर्ण करती चारों तरफ फीरने लगी ॥ ६० ॥ अत्र धारणी देवी का दोहल पूर्ण हुवा, संपूर्ण हुवा इच्छा तृप्तहुई ॥ ६१॥ तत्पश्चात् धारणी देवी श्रेणिक राजाकी साथ सेचानक गंध हस्ती की पीठपर आरूढ होकर पीछे अश्व, गज यावत् रथ सहित राजगृह नगर में आई, राजगृहीं के बीच में होती हुई अपने राज्य भवन में आई. वहां जाकर विपुल भोगोपभोग सहित यावत् विचरने लगी ॥ ६२ ॥ | तत्पश्चात् अभयकुमार पोषधशाला में गया और अपना पूर्व परिचित देव को सत्कार सन्मान देकर विस- - | र्जित कीया ॥ ६३ ॥ तत्पश्चात् वह देव भी गर्जास्त्र विद्युत सहित पांच वर्णवाला मेघरूप दीव्य वर्षाऋतु For Personal & Private Use Only * प्रकाशक राजाबहादुर लाली सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ( Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 nwwwmwww पष्टमांग ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध जामेवदिस पाउन्भए तामेवदिसि पडिगए ॥ ६५ ॥ तएणं साधारिणीदेवी तंसि अकाल दोहलंसि विणियांस सम्माणिय दोहला, तस्स गब्भस्स अणुकपणट्टाए-- जयचिट्ठइ, जयंआरूइ, जयंसुवइ, आहारंपियणंआहारेमाणी-णाइतितं, गाइकडुयं, णाइकसायं. णाइअंबिलं, णाइमहुरं, जं तस्सगम्भस्स हियमियं पत्यं तं देसेय कालेय आहाराहारेमाणी; जाइचिंतं, णाइसोयं, गाइमोहं, गाइभयं, गाइपरित्तासं ववगचिंतासोयमोहभयपरितासा उदुभयमाण सुहेहिं भोयणच्छायण गंधमलालंकार हारेहिं तंगभं सुहंसुहेणं परिवहइ ॥ ६५ ॥ तएणं सा धारिणी देवी गवण्हं मासाणं की शोभा का साहरन कर अपने स्थान पीछा चला गया ॥ ६४ ॥ अप धारणी देवी को अकाल मेघ का दोहल पूर्ण हुए पीछे गर्भ की अनुकंपा के लिये वह यत्ना पूर्वक खडी रहने लगी, यत्ना पूर्वक बैठने लगी व वरना पूर्वक सोने लगी. आहार करने में भी बहुत तिक्त, कटुक, कषाय का, अम्बट व मधुर रस का आहार नहीं करने लगी. परंतु देश व काल जानकर जो गर्भ को पथ्य व हितकारी आहार होने का माहार करने लगी. भति चिंता, शोक, मोह भय व त्रासवाले कार्य नहीं करने से चिंतातिक्त, योह, भय व त्रास रहित होकर सुख पूर्वक भोजन,छाया,गंध,माला व अलेकारों सहित सुख पूर्वक गर्भ का निर्वाह करने लगी ॥६५॥भव धारणी देवी को सवानव मास और साडीसात अहोरानि मातपूर्ण हुए पीछे बर्ष रात्रि के समय में उत्क्षिप्त (मेषकुमार ) को प्रथम अध्ययन । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ बहुपडि पुण्णणं अद्रुमाण राइंदियाणं विइचंताणं अद्धरत्तकाल समयंसीः सुकुमाल फार्मापायं जाव सव्वंगसुदरंगं दारयं पयाया ॥ ६६ ॥ तरणं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणीदेवी णवण्मासाणं जात्र दारगंपयाया पासंति, सिग्धं, तुरियं, चवलं, चेइयं, जेणेव सेणिएराया तेणेव उवागच्छइ २ सेणियं जएणं विजएणं वधावे २ करयल परिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टु, एवं क्यासी एवं खलु देवाणुपिया ! धारि णीदेवी व मासाणं जाव दारगं पयाया तं तुम्हे देवाणुप्पियाणं पिर्याणिवेदेपियंत्ते भव ॥ ६७ ॥ एणं से सेणिएराया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमटुं सांच्च णिसम्म हट्ट तुट्ठे, ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेय- पुप्फगंध सर्वांग सुंदर पुत्र उत्पन्न हुवा ॥ ६६ ॥ धारणी देवी को सवानव मास में पुत्र हुवा जानकर उन की अंग परिचारिकादासी शीघ्र त्वरित चपलतामे श्रेणिक राजा की पास गई. श्रेणिक राजा को जय विजय शब्द से विवाये और हस्तद्वय जोडकर मस्तक से आवर्त देकर ऐसा बोली- अहो देवानुप्रिय ! धारणी देवी को सवानव मास में अर्ध रात्रि पूर्ण हुने पुत्र उत्पन्न हुवा है, यह आपको प्रियकारी निवेदन प्रीतिउत्पादक होवो ॥ ६७ ॥ अंग * परिचारिकाकी पास ऐसा सुनकर श्रेणिक राजा हृष्ट तुष्ट हुवा और उसको मधुर वचन व विपुल पुष्प गंधमाला ब * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी For Personal & Private Use Only -राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यामलदजासी ६२ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 + पटमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध + मल्लालंकारेणं सक्कारेइ- सम्माणेइ २ मत्थयधोयाओ करेइ, पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिकप्पइ, पडिविसज्जेह ॥ ६८ ॥ तएणं से सेणिएराया कुटुंबियपुरिसे सहावेइ एवं वयासीखिप्पामेव भोदेवाणुप्पिया ! रायगिहंणयरं आसित्त जाव परिगीयं करेह कारवेह, चारगसोहणं करेह २, माणुम्मागवठ्ठणं करेह २, एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ जाव पञ्चप्पिणति ॥ ६ ॥ तएणं से सेणियराया अट्ठारस सेणियप्पसेणिओ सद्दावेइ २ एवं व्यासी-गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया! रायगिहेणयरे अभितरबाहिरए उस्सुकं, उक्कर, अलंकारों से सरकार सन्मान कीया, व उस के पस्तक का प्रक्षालग कीया और पुत्र के पुत्र प्रपोत्र ]पर्यन्त चाले वैसी आजीविका देकर विसर्जन की ॥ ६८ ॥ अब श्रेणिक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बोल और ऐसा बोले अहो देवानुप्रिय ! राजगृह नगर को अंदर व बाहिर सुगंधित जल से छिटकाव करो, में स्थान २ गीत गान करो, चारक की शुद्धि करो अर्थात् केदीयों को मुक्त करो, तोल माप की वृद्धि करो, अन्य से करावो और मुझे मेरी आज्ञा पीछो दो. कौटुम्भिक पुरुषोंने भी आज्ञानुसार कार्य करके उन की में आमा पीछी दे दी॥१९॥फीर श्रेणिक रामाने अठारह श्रेणियों व अठारह प्रश्रेणियों यो छत्तीस कौम के 4 अग्रेसर को बोलाकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय! राजगृह नगर के अंदर व बाहिर तुमारी पास से दश 0 दिन पर्यन्त दानहसलोलेना नहीं,ग्रहादिकके कर लेना नहीं,राजाके सेवक किसी के गृह में प्रशिकरसकेंगे। उत्क्षिप्त (मे पकुमार) का प्रथम For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4: अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + अभडप्पवेसं अडंडिमं कुडंडीमं, अधरिमं अधारणिजं, अणुचुयमुइंगं अध्याय मल्लदामं गणियावर गाडइज्जकलियं, अणेगतालायराणुचरियं, पकुइय पकलियाभिरामं, जहा रिहं ट्ठिइबडियं दसदिवसियं करेह २, एयमाणंतियं पञ्चपिह ॥ तेत्रिकरेइ तब पञ्चपिणइ ॥ ७० ॥ एणं से सेणियराया बाहिरिया उवद्वाणसालाए सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सणसणे, सइएहिए साहस्सिएहिय सयसाहस्सिएहिय जाएहिं दाएहिं भाएहिं दलयमाणे २ पडिच्छमाणे २ एवंचणं विहरइ ॥ ७१ ॥ तरणं तस्स अम्मानहीं, किसी को किसी प्रकार का दंड उप शिक्षा मीले नहीं. किसी के वहां कोई धरणा देना नहीं, जो चहिये सो देना परंतु कर्जा देना नहीं, योग्यस्थान पर मृदंगादि वार्दित्र बजावो, अग्लान पुष्पोंकी मालाओं लटकावी, गणिकाओं के नृत्य करावो, नाटक करावो, इस तरह करके नगरी को कलित करो, किसी के वहां शोक संताप होने उस का निवारण करो, अनेक प्रकार की क्रीडा योग्य वस्तु मंगत्रावो इस तरह जन्मोत्सव की जो क्रिया हैं वे सब तुम स्वयं करो और अन्य के पास करावा इतना करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो.व उक्त पुरुषोंने वैसाही कर उन की आज्ञा उन को पीछी दे दी || ७० ॥ अत्र श्रेणिक राजा बाहिर की उपस्थान शाला में सिंहासन पर पूर्वाभिमुख से बैठा और सेंकडो हजारों व लाखों दान देता हुवा, खर्च करता हुवा व विभाग करता हुवा विचरने लगा || ७१ || अब उन के मातापिताने पहिले दिन जाति कर्म किया, For Personal & Private Use Only * प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेव सझयजी ज्वालाप्रसादजी ६४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 488पष्टांग ज्ञाना धर्मकथा का प्रथम तन्त्र 4224 पियरो पढमेदिवसे जातकम्मं करेइ, त्रिइयदिवसे जागरियं करेइ, तइयदिवसे चंददूर दणियं करेइ, एवामेव निव्वते असुइ जातकम्मकरणे संपत्ते बारसह दिवसे विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेइ २ मित्तणाइ णियग सयण संबंधि परिजण बलंच बहवे गणणायग जाव आमंतेत्ति, तओ पच्छा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय जाव सव्त्रालंकार विभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तणाइ गणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा, एवंचणं विहरइ, जिमिय भुत्तुतरागयावियणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया, तंमित्तणाइ णियग सयण संबंधि गणनायग दूसरे दिन जागरणा की. तीसरे दिन चंद्र सूर्य का दर्शन कराया यों अशुचि की निवृत्ति हुए पीछे बारहवे दिन विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम तैयार कर मित्र ज्ञाति निजके, स्वजन व संबंधि व अन्य लोगों सेवा बहुत गणनायक यावत् आमंत्रण दीया. तत्पश्चात् स्नान किया, कुल्ले किये यावत् सर्वालंकार से विभूषित बने. बहुत बडे भोजन मंडप में विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम मित्र ज्ञाति गणनायक की ( माथ यावत् आस्वादते हुए, विशेष आस्वादते हुए विभाग करते हुवे व उपभोग करते हुवे भोजन कीये पीछे राजा व राणी अपने पहिले के आसनपर बैठे और निर्मल पानी से कोल्छे विचरने लगे, करके मुख For Personal & Private Use Only +8+- उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 488+ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www mandeEAMES विषुलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालं करेण सकारइ सम्माणइ २ एवं वयासी-जम्हाणे अम्हं इम्मस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहसुडोहलेपाउन्भूए तं होउणं अम्हं दारए मेहेणामेणं; तस्स दारगरत्र अम्मापियरो अयमेयारूवंगोणं गुणणिप्पणं णामधेजं करेइ ॥ ७२ ॥ तएणं से मेहकुमारे पंचधाई परिग्गहिए, तंजहा-खीरध इए, मंडणधाइए, मजणध इए.कीलावणधाइए. अंकधाइए, अण्णाहिय बहुहिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणि, वडभि,बव्वरि, बकुसि, जोणियाहि, पल्लविथ, ईसिणिय घारुगिणि, लासिय, उसिय, दमिलि, सिंहलि, आरवी, पुलिंदी, पकणि, स्वच्छ कीये, मित्र ज्ञाति स्वजन संबंधी व गणनायक को विषुल पुष्प वस गंध व अलंकार से सत्कार सम्मान कीया और ऐसा बोले कि जब हमारा यह बालक गर्भ में था तब अकाल मेव का दोहरू उत्पम हुवा इस से इस पुत्र का नाम 'मेघ' होवो. और मातपिताने ऐसा गुण निष्पन्न नाम उस बालक का रखा ॥ ७२ ॥ अब १ क्षीरधाइ-स्तनपान करानेवाली, २ मंदनधाइ-वस्त्राभूषण पहिनानेवाली, ३ मजणधाइ-स्नान करानेवाली, ४ क्रीडाघाइ-कुतहल करानेवाली और अंकथाइ-गोद में लेनेवाली ऐसी पांच और भी इन सिवा कुरुजा, चिलात देशकी बामन देशकी, बड देश की, बर्बर देशकी, बकुश देशकी,योनिक देश की,बल12पिय देश की, ऋषि देश की, भारूणि देश की, लामिय देश की, उप्तिय देश की, दामल देश का, सहल ३ अनुवादक-चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी wwwwww~ प्रकाशक रानाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 वहलि, मुरुंडि, सबरी, पारिसीहि, णाणादसेहि विदेस परिमंडियाहिं, इंगियचिंतिय, पत्थिय, वियाणियाहिं, सदेसणे वत्थगहिय वेसाहिं णिउणकुसलाहिं, विणियाहि, चेड़िया चकवाल वरिसधरं कंचइज महतरगवंद परिक्खित्ते, हत्थाओहत्थं साहिज. माणे, अंकाओअंक परिभुजमाणे उवलालिजमाणे रम्मंसि मणिकोटिमतलांस परि. गिजमाणे २ णिवाय णिव्याघायंसि गिरिकंदरमल्लीणेव चंपगपायवे सुहंसुहेण यदुइ ॥ ७३ ॥ तएणं तस्स मेहस्सकुमाररस अम्मापियरो अणुपुन्वेण णामकरणंच पज्जेमणंच पचंकमाणंच चोलोषणयंच महया २ इड्डीसकारसमुदाएणं देशकी, अरव देशकी,पुलिंद देशकी, पक्षण देशकी, वडिल देश की, मुरंड देशकी, सबर देशकी, पारमी देशकी, इरान देशकी यो विविध प्रकार के देश विदेशकी दासियों मेघकुमार के मुख के चिन्ह,चिंता व प्रार्थना से जानकर पर कार्य करते अपनेरदेशके वस्त्रों पहिनकर निपुण व कुशल,कार्य दक्षदासियों व बडरकंचुकीजनों मेघकुपारकी आसपास रहने लगे. वह एक हाथ में से दूसरे के हाथ में जाता हुवा, एक की गोद में से दूसरे की गोद में आनंद करता हुवा, लालपाल कराता हुवा, मणि जडित अंगम में व्याघात रहित पर्वत की गुफा में बढता हुवा। मालती व चंपक वृक्ष समान सुख पूर्वक बढने लगा ॥ ७३ ।। तत्पश्चात् मेघकुमार के मातपिताने अनुक्रम से 24 12 नाम स्थापना, झुले स्थापना, पादचलन, अन्नप्रासन, शिखा [चोटी ] रखना, इत्यादि कार्यों में बहुत द्व्या पटमांग-माताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488, उक्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन +8 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - करीमु ॥ ७४ ॥ तएणं तं मेहकुमारं अम्मापियरोसाइरेगट्टवासं जातगंचेव गभट्ठमेवासे सोहणंसि तिहिकरणमुहत्तीस कलायरियस्स उवणेइं ॥ ७५॥ तएणं से कलायरिए मेहकुमारं लेहाइयाओ गणित्तप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ वावतरिं कलाओ सुत्तओ अत्थओय करणेओय सेहावेइ सिक्खावेइ तं जहालेहं ,, गणियं २, रूवं ३, णटं , गीयं ५, वाइयं ६, सरगयं७, पेक्खरगयं८, समतालं ९. जूयं १०, जणवायं ११, पाढयं १२, अट्ठावयं १३, पोरेकत्तं १४, दगमट्टियं १५, अण्णविही १६, पाणिविहिं १७, वत्थविहिं १८, विलेवणविहिं १९, अर्थव्य य करके सत्कार सन्मान सहित महोत्सव कीया ॥७४॥ जब मेघकुमार आठ वर्ष व नव मास [गर्भ के] का हुवा तब उन के मातपिता शुभतिथि करण व मुहूर्त में कलाचार्य की पास भेजे ॥ ७५ ॥ तब वह कला-3 चार्यने मेघकुमार को लीखने की अठारह लिपि आदि देकर गाणित प्रधान शकुन शास्त्र बगैरह ऋतुतक बहुतर कला पाठ व अर्थ सहित शिवलाइ इन बहोत्तर कला के नाम- लिखने की, २ गिनने की, ३ रूप परावर्त करने की, ४ नाटक की, ५ गायन की, ६ वात्रि बजाने की, ७ स्वर पहिचानने की ८ वार्दित्र गत कला जानने की ९ समान ताल जानने की १० जुए खेलने की ११ पासा हालने 1११२ वाद विवाद करने की १.३ अष्टापद (चौपट) खेलने की १४ नगर रक्षादि कर्तव्य की १५ पानी वा .प्रकावाक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी मालाप्रसादजी. 18 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +. सयणविहिं २०, अजं २१, पहेलियं २२, मागहियं २३, इत्थियलक्षणं २४, गाहा २५, गीइय २६, सिलोयं २७, हिरण्णजुत्तं २८, सुवणजुत्तिं २९, चुण्णजुत्ति ३०, आभरणविहं ३१, तरुणीपडिकम्मं ३२,पुरिसलक्खणं ३३, हयलक्खगं ३४, गयलक्खणं ३५, गोणलक्खणं३६, कुकडलक्खणं३७, छत्तलक्षणं ३८, दंडलक्खणं ३९, असिलक्खणं ४०, मणिलक्खणं ४१, कांगणिलक्खणं ४२, wwwwwwnnnnnnnnnnnwwwwwwwwwwwwwww पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्तन्य मिट्टि के संयोग से नविन चीजों बनाने की, १६ अन बनाने की, शोधन करने व पकाने की, १७ पानी में उत्पन्न करना, संस्कार से शुद्ध करना व ऊष्ण करने की, १८ वस्त्र तैयार करना. सीना व पहिनने की विधि, १९ शरीर में तेलादिक का विलेपन करने का विधि, २० शैय्या में शयन करने की विधि, २१. सं । एसी आर्य भाषा बोलने की, २२ प्रहलिका बंधने की,२३पगध देश संबंधि भाषा में गाया बन्धनेकी, १२४ पद्मनी आदि स्त्री के लक्षण जानने की, २५ प्राकृत में गाथा बन्धन की,२६ गीत बनाने की, २७ बत्तोम Fअक्षरवाले श्लोक बनाने की, २८ रूपा चांदी बनाने की, २९ मुवर्ण बनाने की, ३० चूग्ण गुलाल अबीर है बनाने की, ३१ आभूषण घडना, जहना व पहिनने की, ३२ तरुणी का सेवन करने की, ३३ पुरुष के | "लक्षण जानने की, ३४ घोडे के लक्षण जानने की, ३५ हाथी के लक्षण जानने की, ३६ गो, वृषभ, ] मार) का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वत्थुविज ४३, संधारमाणे ४४, णगरमाणं ४५, बूहं ४६, पडिबूह ४७,चारं४८, पडिचारं ४९, चकबूह ५०, गरुडबूह ५१, सगडबूह ५२, जुद्धं ५२, णिजुद्ध ५४, जुद्धाइजुद्धं ५५, अटिजुई ५६, मुट्ठिजुद्ध ५७, बाहजुद्ध ५८, लयाजुद्धं ५९, इसत्थं ६०, छरुप्पवाय ६१,धणुव्वेयं ६२,हिरप्णपागं ६३, सुवण्णपागं ६४, " सुत्तखेडं ६५, वखेड ६६, णालियाखडं ६७, पत्तछजं ६८, कडगळेज ६९, के लक्षण जानने की, ३७ मूर्गे के लक्षण जानने की, ३८ छत्र के लक्षण जानने की, १९ दंड के लक्षण जानने की, ४० असि-खड्ग के लक्षण जानने की, ४१. चंद्रकान्तादि मणिके लक्षण की, ४२ कांगणी रत्न के लक्षण की, ४३ वास्त विद्या-दुकान प्रमुख चलाने की, ४४ कटक उतारने की, ४५ नगर बसाने की, ४६युद्ध की रचना करने की,४७ प्रतिज्यूह-सन्मुख कटक रखने की, ४८ कटक चढने की,४९। कटक प्रति चार करने की, ५० चक्रकारव्यूह रचने को,५१गरुडाकारव्यूह रचने की,५२ शकटाकार व्यूह रचने की, ५३ सामान्य युद्ध करने की, ५४ युद्ध मीटाने की,२५अभि नव युद्ध करने की, ५६ हड्डीयों के युद्ध की, ५७ मुष्टियों के युद्ध की, ५८ बांह के युद्ध की, ५९ लता के युद्ध की, ६० थोडे का बहुत व बहुत का थोडा बताने की, ६. आहार बनाने की वस्तु में मालाने के प्रमाग जानने की, ६२ धनुष्यवान 14चलाने की, ६३ हिरण्य रूपाका पाक बनाने की, ६.४ सुवर्ण पाक बनाने की,६५सूत छेदने की, ३० क्षेत्र में अनवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ *48+ पट्टमांग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 सज्जीवं ७०, निजीवं ७१, सउणरुय ७२ ॥ ७६ ॥ तरणं से कलायरिस मेहकुमारं लेहाइया ओगणिय पहाणाओ सउणरूय पजवसणाओ वाबतरिकलाओ सुत्तओय अत्थओय करणओय सेहावइ, सिक्खावेइ, सेहावित्ता; सिक्खावित्ता अम्मापियूणं उवइ ॥ ७७ ॥ एणं मेहस्स अम्मापियरो तं कलायरियं महुरेहिं वयणेहिं त्रिपुलेणं गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणइ २ चा विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ २ तापडिविसज्जेइ ॥ ७८ ॥ तणं से मेहकुमारे बाबत्तरिकला पंडिए, णत्रंगसुत खेडनेकी खेती करने की ६७ कमलादि नाली छेदनेकी, ६८ पत्र छेदनकी, ६९ कडे कुंडलाकार छेदन करनेकी ७० { मूच्छित को शुद्धि में लाने की ७१ जीते को मारनेकी ७२ काकादिक के शकुन देखनेकी यों७२ कलाओं का विधि पूर्वक अभ्यास करावा ॥ ७६ ॥ उक्त प्रकार लेखन गणितादिसे- प्रकुन देखने पर्यम्त { यों बहत्तर कलाओं का मूल व अर्थ सहित शिक्षा देकर मेघकुमार को उन के मातापिता की पास कल्प्रचार्य लेगये ॥ ७७ ॥ मेघकुमार के मातापिताने उस कलाचार्य को मधुर वचनों से व विपुल गंध वस्त्र माला व अलंकार से सत्कार सम्मान देकर विपुल आजीविका रूप प्रीति दान देकर विसर्जित | किया ॥ ७८ ॥ अव मेघकुमार बहोत्तर कला में पण्डित हुए, २ कान, २ आंख, २ नासिका, ७ जिव्हां, For Personal & Private Use Only +१+ उरिक्षत (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 86+ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48 अनुवादक- वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पडिवोहिए, अट्ठारसविहिप्पगारं देसी भासाविसारए गीइरइ गंधव्व णढकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोग समत्थे साहसीए वियोलचाली जातेयाविहोत्था ॥ ७९ ॥ तएणं तस्स मेहकुमारस्स अम्माप्पियरो मेहं कुमारं बाव तरिकाला मंडियं जाव वियालचारि, जायं पासइ २ ता अट्ठयासायव डिसए करेइ २ अमुग्गय मूसिय पहसिएचिव मणिकणगरयण भत्तिचित्ते वाउडुय विजय वैजयंती पडाग, छताछत्तकलिए तुंगे मगणतल मभिलंघमाण सिहरे जालंतर रयण. १८ त्वचा व ९ मन, यों नव सुप्त अंगों जागृत हुत्रा अर्थात् नव अंगों उपयोग योग्य हुए, अठारह देश की { भाषा बोलने में पण्डित हुए, गीत गाने की, गीत श्रवण की, गंधर्व नाटक की कलम में प्राण होने लगे; घोडा, हाथी व रथ को फीराने में व विविध प्रकार के युद्ध में प्रवृत हुए, अन्य का मर्दन करने लगे; भोग भोगने में समर्थ हुए, साहसिक धैर्यवंत हुए, विचारवन्त व बलवन्त हुए और उचित समय में गमन करने लगे. ऐसे लक्षण युक्त मेघकुमार हुए ॥७९॥ अब मेघकुनारको बहात्तर कला में निपुण यावत् कालाकालमें गमन करनेवाला जानकर मेघकुमार के पिताने उस के लिये आउ प्रासादावतंसककरायेः वे आठों प्रासाद) अत्यंत ऊंचे स्यात् हसते होवे वैसे व चंद्रकांतादिमणि, सुत्रर्ण च कर्केतनादि रत्नसमान आश्चर्यकारी थे. उनपर पा 11 ● प्रकाशकर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only ७२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ *पष्टमांग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध पंजरुम्मिलिपव्य मणिकणग थुभियाए त्रियसिय सयपत्त पुंडरीए तिलयरयणद्धचंदच्चिए जाणामणिमय दामालंकि अताबासह तवणिजरुइलवालुयापत्थरे मुहासे सरिसरीय रूये पासादीए जाव पडिरूवे ॥ ८० ॥ एकंचणं महं भवणं करेइ अग खंभ सय सणिविट्ठ लीलट्ठियसाल भजियागं अब्भुगय सुकय वयरवेइया, तोरणेवरू रइय सालभंजिया, सुसिलिट्ठ विसिटुलट्ठ संद्विय पसत्थ वेरूलिय खंभ, णाणामणि झपाटेसे जयविजय करनेवाली विजय व वैजयंती नामक द्रजाओं फरक रही है, ऊंचा गगनतलको स्पर्श करनेवाले शिखरों हैं, जालियों के मध्य भाग में, अथवा ग्वाक्ष के अंतर में रत्नों के पंजर रहे हुवे हैं, चंद्रकांतादि मणि व सुवर्ण से जडित वृभिका है, इस प्रकार आठ प्रासादों में विकसित पाए हुए कमल मतिरूप व प्रतिबिम्ब से अंकित है, अर्ध चंद्राकार पगथिये हैं चंद्रकान्तादि मणि की माला से अलंकृत कीये हैं. आभ्यंतर व बाह्य भाग रसकोमल बनाया है, तप्त सुवर्ण के रंग जैसी वालु रेती बिछाई हुई है, प्रासादों का स्पर्श सुखकारी है कि सहित है. वे मासादा चित्त को प्रसन्न कर्ता है, अभिरूप व प्रतिरूप हैं। ॥ ८० ॥ और भी उन अवसादों के बीच मेघकदार के लिये एक बडा भवन कराया. उस में अनेक स्थंभ बनाये, अनेक प्रकार की लीला सहित पूतलीयों स्थापन की, वड भवन उन प्रामादों से बहुत ऊंचा व {सुंदर था, उस के बाहिर दोनों तरफ वेदिका थी, उस पर तोरन लगाये हुवे थे, अनेक प्रकार की श्रेणियों For Personal & Private Use Only क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन " Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सत्र 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी st • कणगरयणखचिय उजलं बहुसमप्सुबिभत्तविचित्त रमणिजभूमिभागं ईहामिय .. जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गय वयरवेइया परिगयाभिरामं विजाहर जमल,जुयल जंतं. जुत्तं विव, अच्चीसहस्समालगीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिजिसमाणं धक्खलोयणलेसं सुहफासं सस्सिरियरूवं कंचणमणिरयणभूमि मामं पाणाविह बनायी हुई थी, शालभांजिका पूतलियों की अच्छी तरह संधी मीलाइ थी, उस का द्वार मुंदर मनोहर था, अच्छे चैदूर्य रत्नोमय घोडले थे, अनेक चंद्रकान्तादि मणि, व सुवर्ण जडे हुवे थे, उस का भूमि भाग बहुत सम व विशाल था उस की रचना बहुत मनोहर थी, उस भवन में शाहमृग, सायनमृग यावत् वृषभ मनुष्य सागर, मच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर इत्यादि अनेक प्रकार के चित्रों मे चित्रित था, उस भवन में स्थंभों पर वज्रमय बेदिका थी, उस भवन में अनेक विद्यधरों के युगल सम श्रेणि में अनेक कार्य करते हुए दीखने में आत थे. वह भवन हजारों सूर्य की कारणों से अचिंत होरहा था, हजारों चित्रों सहित था, वह भवन अतिशय देदीप्यमान होरहा था, आंखों को देखने योग्य.था, उस का स्पर्श आनंद दाता था, उप भुवन के अंदर की भूमि का चंद्रकान्तादि मणि, सुवर्ण व कर्तनादि रत्नों अनेक चित्रों के आकार में जडे उस की भूमिका रत्नमय होरही धी,उस भूमिकाके ऊर्य भाग में पांचों वर्णकी रणकती प्रधान झूलकती हुइ फरफराती हुइ पताकाओं से मण्डित था, उस भवन का आगे का शिखर श्वेत वर्णका प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी, For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध-48+ पंचवण्ण घंटा पडाग परिमंडियग्गसिहरं धवलमरीचिक बयविणिमुयंत लाउल्लाइय महियं जाव गंधवट्टीभूयं पासादियं दरिसणिजं अभिरूवं पडिख्वं ॥ ८१ ॥ तएणं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहकुमार सोहणतितिहिकरणनक्खत्तमुहुर्तसि सिरिसयाणं सरिसन्बयाणं सरिसतयाणं सरिरलवण्णरूवजोव्वणगुणोववेयाणं सरिसएहितो रायकुमलेहिंतोअणिल्लियाणं पसाहणट्टग अविहव बहुउवयण मंगल सुजंपितेहिं अट्ठहिं रायवरकण्णाहिंसद्धिं एगदिवसेणं पाणिगिण्हावेसुं ॥ ८२ ॥ तएणं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइदाणं दलयंति--अटुहिरण्णकोडीओ, हैं देदिप्यमान कवच सहित था. वह भवन लीपा हुवा स्वच्छ कीया हुवा था. स्थान २ पर सुगंधि वत्तीयों रखी हुई थी, इस तरह यह भवन देवताओं के चित्त को प्रसन्न कर्ता था तो मनुष्य का तो कहना ही क्या देखतेहृधे कीलामना नहीं पावे वैसा अभिरूप व प्रतिरूप था ॥८॥ तत्पश्चात् मेधकुमार को उन के मातपिताने समानवयवाली,सरीखा स्वचावाली,लावण्य,रूप,वौवनादि विविधगुणों वाली समान कुल में से लाई हुई है। ऐमी आठगज कन्याओंका आठों अंगोंमें मंडन करनेवाली विवाह क्रिया रूपमांगलिक कार्य होवे पैस स्त्री से एक दिन में पाणिग्रहण कराया ॥ ८२ ॥ उस मेघकुमार के मातपिताने आठ करोड हिरण्य [चांदि] आठ क्रोड मुवर्ण, यावत आठ पेमण काम करनेवाली व विपुल धन कनक, रत्न, मणि, मोती, शीला, 480 उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 48 OYO For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अट्रसुवण्णकोडीओ, गाहाणुसारेण भाणियन्वं, जाच पण हारियाओ अणंच, विपुल धण-कणग-रयण-मणि-मेत्तिय-सिलप्पवाल-रत्तरयण संत-स.रसावतेज अलाहि जाव आसत्तमाओ कलवंसाओपकामदाउं पकामभोत्तं पकाम परिभाएउ ॥८३॥ एणं से मेहेकमारे एगमेगाए भारियाए एगमगं हिरणकोडिं दलयइ, एगमगं सुवण्णकोडिं दलयइ जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ अण्णंच, विउलं धणकणग जाव परिभाएउं दलयइ ॥ ८४ ॥ तएणं से मेहेकुमारे उप्पिपासायवरगए फुटमाणेहिंमुइंग मत्थएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं वत्तीसइबद्धएहिनाडएहिं उवगिजमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ सद्दफारिसरसरूवगंध विऊलेमाणुस्सएकामभीए पच्चणुब्भवमाणे प्रवाल,रत्न,रजत व प्रधान धान्यादी प्रीतिदान(दायचा)दीया यावत् मातवा कल पर्यंत देते हुवे खुटे नहीं, इतना भोगतेहवेव उपभोगमें लाने को दीया॥८॥अब मेघकुमारने एकरभार्याको एकर हिरण्य क्रोड,एकरसुवर्ण क्रोड, 3 यावत् एक पेसण काम करनेवाली दासी दी. और भी अन्य विपुल धन, कनक यावत् विभाग करने को दीया ॥ ८४ ॥ फोर अपने प्रासाद पर रहे हुवा मेधकुमार मृदंग की ध्वनि व श्रेष्ठ तरुणियों के संयोग से बत्तीस प्रकार के नाटक देकना हुवा, पांचों इन्द्रियों को योग्य गीत गान मे क्रीडा करता हुवाच ब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, रूप, विपुल मनुष्य के कामभोग भोगता हुवा विचरता था ॥ ८५ ॥ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 पटनांग ज्ञाना धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्तन्य 46 विरइ ॥ ८५ ॥ कालेणं तेणंसमएणं समणे भगवं महावीरे पुन्त्राणुपुवि चरमाणे गामा गामं दूइजमाणे, सुहंसुहेणंविहरमाणे जेणामेव रागगिहेनयर गुणसिलए चेइए जाव विहरइ ॥ ८६ ॥ तरणं से रायगिहेनयरे सिंघाडम जाव महयाजणसद्देइवा जाव बहवे उग्गे भोगे जाव रायगिहस्सणयरस्त मज्झंमज्झेणं एगदिसिं एगामिमुहा णिग्गच्छति ॥ इमं चणं से मेहकुमारे उपिपासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थ एहिं जा माणुस कामभोगे भुंजमाणे रायमग्गंच उलोएमाणे २ एवं चणं विहरइ ॥ मेह कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहं णिगच्छमाणे पासइ २ ता ( उमकाल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में यथा प्रतिरूप अवग्रह याचकर विचरने लगे ॥ ८६ ॥ उससमय में राजगृह नगर में शृंगाटक { यावत् राजमार्ग में बहुत लोगों का कोलाहल होनेलगा और उग्र कुल के भोग कुल के यावत् बहुत लोगों राजगृह नगर की बीच में से होते हुए एक दिशा तरफ नीकलने लगे. इस समय मेघकुमार अपने महल पर रहाहुबा रंग ध्वनि सहित यावत् मनुष्य संबंधी काम भोगभोगता हुवा व राजगृह नगरका अवलोकन कहता हुवा विरता था. उस समय में बहुत उग्र कुलवाले भोग कुलवाले यावत् राजगृह नगरी बीच में होकर जाते हुवे देखकर For Personal & Private Use Only उत्क्षिप्त (मधे कुमार ) का प्रथम अध्ययन 4 ७७ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · कंचुइजपुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-किं गं भो देवाणुप्पिया ! अज्ज रायगिहे . *। णयरे इंदमहेइवा खंदमहेइवा एवं रूद-सिवे-धेसमण-णाग-जक्ख भूय-णई-तलाय रूक्ख-चेइय-पन्वय-उजाण-गिरिजत्ताइवा, जओणं उग्गंभोगा जाव एगदिमि एगाभिमुहा गच्छति ॥ ८७ ॥ तएणं से कंचुइज्जपुरि समणस्स भगवओ महावीरस्म गहियागमण पवित्तिए मेहकुमारं एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अजरायगिहे णयरे इंदमहेइवा जाव गिरिजत्ताइवा जण्णं एए उग्गा जाव एगदिसि एगाभिमुहा णिगच्छंति, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणेइ आइगरे तित्थयरे इह भागए इह संपत्ते इह मेघकुमारने कंचुकी पुरुषोंको बोलाया और कहाकि अहो देवानुप्रिय ! आज नगरमें क्या इन्द्रमहोत्सव, स्कंध महोत्तत, रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भूत, नदी, तलाव, बृक्ष, चैत्य, पर्वत, उद्यान व गिरियात्रा है। कि जिस से ये उग्र भोग यावत् सब एक दिशि में जाते हैं ॥ ८७ ॥ अब कंचुकी पुरुषको श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे हैं ऐसी बात की खबर मीलने से ऐसा मोला-अहो देवानुप्रिय ! आज इस ग्राम में इन्द्र महोत्सव यावत् गिरियात्रा नहीं हैं कि जिस से ये सब लोगों एक दिशि में जाते हैं. परंतु 12 अहो देवानुप्रिय ! श्री श्रमण भगतत महावीर स्वामी यहां आये हैं यहां पधारे हैं और यहां ही राजगृही । अनुवादेकालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी anandamanadaKARAA Aacanamam *प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसढे इह चेव रायगिहे गुणसिलए चेइए अहा पडिरूवं जाव विहरइ॥८८॥ तएणं से मेहकुमारे कंचुइज पुरिस्स अंतिए एयमढे सोच्चाणिसम्म हट्ठ तुढे कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव चाउघंटं आसरहं जुत्तमेव उवट्ठवेह तहत्ति उवणेइ ॥ ८९ ॥ तएणं से मेहे हाए जाव सव्यालंकार विभूसिए चाउघंटं आसरहं दुरूढे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंद परियाल संपरिवुडे रायगिहस्सणयरस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ २ त्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ २ ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइछत्तं पडागाइ नगर के गुणशील उद्यान मे अवग्रहलेकर विचर रहे हैं ! ॥ ८८ ॥ कंचुकी पुरुष की पास से ऐसा मुनकर मघकुमार हृष्ट तुष्ट हप और कौटुम्बिक पुरुष को बोलाकर ऐमा कहा अहो देवानुप्रिय! चार घंटसला अश्व रथ शीघू नैयार करो. कौटुम्बिक पुरुषने उनक बच मान्यकीया रथ स्थापनकर आज्ञापोछी देदी ।।८९॥ तत्पश्चात् मेघकुमारने स्नानकीया यावत् सर्व भू षित बने. चार घंटावाला अश्व रथपर आरूढ होकर कोरंट पुष्प की मालावाला छत्र धारन करा भट्ट चटक वगैरह पदात्यनिक को साथ लेकर राजगृह नगर की 17मध्य बीच में से नीकलकर गुणशील उद्यान में गये. वहां जाकर छत्रपे छत्र व पताकापे पताका, विद्याधर षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 13:07 488+ उत्क्षिप्त ( मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 43 अर्थ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी पडागं विज्जाहरचारणे जंभऐयदेवे उवयमाणे उप्पयमाणे पासइ २ ता, चाउघंटाओ आसरहाओ पचोरुहइ २ ता, समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छति तं जहा - सचित्ताणंदव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणंदव्वाणं अविउसरणयाए. एगसाडिव उत्तरासंग करणेणं, चक्खुफासे अंजलिंपग्गहेणं, मणसो एगत करणेणं जेणामेव समणे भगवं तेणामेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पाहणं करेइ २ बंदइ णमंसइ २ त्ता पच्चासणे णाइदूरे सुस्सुसमाणे णमंसमाणे अंजलिउडे अभिमुहे विणणं पज्जुवासति ॥ ९० ॥ एणं समणे भगवं {चारण, कुंभक देवों को नीचे आते हुवे व ऊंचे जाते हुवे देखकर चार घंटावाला अश्व रथ से नीचे उतरे और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास पांच प्रकार के अभिगम से गये जिन के नाम-१ सचित्त द्रव्यका त्याग २ अचित्त द्रव्य वस्त्राभूषण का त्याग नहीं करना ३ एक वस्त्रका उत्तरासन अर्थात मुख की यत्ना करने के लिये वस्त्र रखना ४ भगवंत को देखते ही अंजली जोडना और ५ अन्य कार्य से निर्वृत्ति कर मन को एकाग्र करना. यों पांच अभिगम पूर्वक श्रमण भगवंत की पास आये और श्रमण भगवंत को तीनवार दाहीने कानसे बाये कानपर्यन्त आवर्त व प्रदक्षिणा देकर वंदना नमस्कार करके नीचे आसन से पास में शुश्रूषा करते हुवे नमस्कार करते हुवे अंजली जोडकर विनय पूर्वक सन्मुख पर्युपासना करने For Personal & Private Use Only *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी आलामसादजी & Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध या वह तमांग-माता महावीरे मेहकुमारस्स तीसेय महइमहालियाए परिसाए मझगए विचित्तं धम्ममाइ. क्खइ जहा जीवा वज्झंति मुच्चंति जहय संकिलिस्संति, धम्मकहा भाणियन्वा जाव परिसा पडिगया ॥९१॥ तएणं से मेहेकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ वंदइ - णमंसइ २ एवं वयासी-सहहामिणं भंते ! णिग्गंथपावयणं, एवं पतियामिण-रोएमिणं - अब्भुट्ठमिणं भंते ! गिग्गंथंपाव यणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं अवितहमेयं इच्छियमेयं पडिच्छयमेयं भंते ! लगे ॥ ९० ॥ उस समय श्री श्रमण भगवंत महावीरने उस भहती परिपदा में विचित्र प्रकार से श्रुत चारित्र रूप धर्म कहा.-यह त्रीव मिथ्यात्व अत्रवादि से बंधाता है, ज्ञान चारित्र से मुक्त होता है, रागद्वेष से संतम होता है विशेष सत्र उववाइ सूत्र से जानना. इस तरह धर्म श्रवण कर परिषदा अपने स्थान पीछीगइ ॥ ९१ ॥ मेघकुमार श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास धर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट हुए और श्रमण A भगवंत महावीर स्वामी को तीनवक्त आवर्त प्रदक्षिणा कर वंदना नमस्कार करते हुवे ऐसा कहनलगे अहो भगवन् ! निर्ग्रन्थ के प्रवचन मैं श्रद्धता हूं, मुझे उस की रुचि व प्रतीति हुई है. निग्रन्थ के प्रवचन में मैं । 4882 उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 46. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! से जहेव तुब्भे वयह जं णवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो अपुच्छामितओ पच्छा मुंडेभवित्ता पब्विइस्सामि ॥ ९२ ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंधं करेह ॥ ९३ व से मेहकुमारे समणं भगवं यहावीरं बंदइ णमंसइ २ जेणामेव चाउघंटे आसरहे, तेणामेव उवागच्छइ२ चाउघंटं आसरहं दुरूहइ महया डचडकरपहकरणं रायगिहस्सणगरस्स मज्झं मझेणं जेणामेव ए भवण तेणामेव उवागच्छइ रचउघंटओ आसरहाओ पच्चो रुहइ जेणामेव अम्मावियरो तेणामेव उवागच्छइ २ त्ता अम्मापिउणं पायवडणं करेइ २ उपस्थित हुदा हूं अहो भगवन्! यह वैसेहो है,तथ्य है विशेष तथ्य है मैंने यह इच्छा है. विशेषइच्छे है,वारम्बार इच्छा है जैसे पापकहतेहो वैसे ही हैं. परंत अहो देवाणप्रिय! मेरे मातपिताको पुछकर पीछे मुंड होकर प्रवजित होवूगा. ॥ १२ ॥ भगवंतनं उत्तर दिया अहो देवानुप्रिय ! तुम को जैस सुख होये वैसे करो, विलम्ब मत करा ॥ ९३ ॥ तत्वश्चात मेघकुमार श्रमण भगवंत महावीर का वंदना नमस्कार कर चार घंटावाला अश्च रथ की पास आये और उसपर आरूढ होकर बडे सुभटों के परिवार सहित राजगृह नगर की मध्य में होते हुए अपने भवन में आये, वहां जार घंटावाला अश्वरथ से नीचे उतरकर जहां अपने मातपिता यह प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादमी * - For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ramani 428ष्टमांग-ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति धम्मेणिसंते सेवियमे धम्मे, इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ॥ ९४ ॥ तएणं तस्स मेह कुमारस्स अम्मापियरो एवं वयासी-धण्णोसिणं तुम जाया! संपुणो कयत्थो कयलक्खणो - सिणं तुम जाया! जेणं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते सेविक . तेधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ॥ ९५ ॥ तएणं से मेहकुमारे अम्मापियर दोचंपि तच्चंपि एवं वयासी-एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्सा १ अंतिए धम्म णिसंते सेवियधम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए. तं इच्छामिणं अम्मवहां आये, वहां आकर मातपिता के पाद वंदन कीया.और मातपिता को ऐसा कहने लगे. अहो मातपिता! मैंने श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से धर्म सुना है. उस धर्म को मैंने इच्छा है विशेष इच्छा है उस की मुझे रुचि हुई है ॥ ९४ ॥ तब मेघकुमार के मातपिता ऐमा बोले अहो पुत्र ! तुझे. धन्य है तू कृतार्थ है, संपूर्ण व कृतलक्षणाला है क्यों कि तैने श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से धर्म सुन olo वही धर्म तैने इच्छा है विशेष इच्छा है और उस की रुचि तैने की है ॥ ९५ ॥ अब मेघकुमारने दो तीन वक्त ऐसा कहा अहो मातपिता. ! मैंने श्रमण, भगवंत महावीर स्वामी की पास से धर्म सुना है वही धर्म samanianimari 402112 उत्क्षिप्त (म्घकुमार) का प्रथम अध्ययन 48 । For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmmmm याओ! लुब्भेहि. अब्भणुणाए समाणे समणस्स: भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भविताणं आगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ९६ ॥ तएणं साधारिणीदेवी तमणिटुं अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणाणं असुयपुव्वं फरुसंगिरं सोच्चाणिसम्म इमेणं. एयारुवेणं मणो माणसिएणं महापुत्तदुक्खणं अमिभूयासमाणी सेयागयरोमाकूब पगलंत विलीण गायासोयारेण पविसि यंगी णियत्तेया दीणविमणवयणा करयलमलियन्व. कमलमाला तक्खणउलुग्ग दुव्बलसरीरा लावण्णसुण्णणिच्छाय, गयसिरीया, मैंने इच्छा है विशेष इच्छा है उस की मुझे अभिरुचि हुई है इस से अहो. मातपिता ! आपकी आज्ञा से मैं श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मुंडित होकर गृहवास से साधुपना अंगीकार करना चाहता हूं ॥ ९६ ॥ अब धारणी देवी ऐमा अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय,अमनोज्ञ,अमणाम,पहिले नहीं सुने वैसे कुबेर के वचनों सुनकर मानसिक महा पुत्र रियोग के दुःख से पराभवी हुई प्रस्वेद से भींजे गात्रोंवाली हुई अर्थात् प्रत्येक P, रोम रूप रूप में पसीना आगया. शोक से कंपायमान शरीर होगया, दुर्लबल व तेज रहित होगई दीन जैसे दुमण वदनवाली हुई, जैम कमल की माला हाथ में भलते संकोचित होवे वैसे राणी संकोचत होनेलगी, 19मैं दीक्षा अंगीकार करूंगा ऐला वचन से दुर्वलयशरीर व ग्लान शरीर होगया, लावण्य चतुराइ आदि 48 अनुपादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + . प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी नालाप्रसादजी अर्थ । For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - Fa.. 8+पटांम-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 42.2 2 पसिढिल भूसणपडत खुम्मियस चुणियधवलवलयपन्मउत्तरिज सुकुमाल विकिण्णकेसहत्था मुच्छावसअचये गुरुईपरसुणियतब चंपगलयाणिवत्तमहेव्ध .. इंदलट्ठीवि मुक्कसंधिवंधणा कोटिमतलंसि सव्यंगहिंधसत्ति पडिया ॥ ९७ ॥ तएणं . साधारणिदेवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचभिंगारमुहविणिग्गय सीयलजल विमल. • धाराएपरिसिंचमाणा णियावियगायलट्ठी उखेवयत्तालबीटवियणं जणिय चाएणं संफुसिएणं अंतेउरपरियणेणं आसासिपासमाणी मुत्तावलिसण्णिगास पवडंत अंसुगुणों में शून्य होगई, शोभा रहित होगई, तेजसैंप लक्ष्मी रहित होगई, पाहुदुर्वल होने से भाभूषणों शिथिल हो कर,भूमि पर गिरत धवल केकणका चूर्ण होगया,और ओडनेका वस्त्रभी दूर होगया.सुकुमारकेश मस्तक विखर गये, जो पर से चंपाकी लता काटनेमे भूमि पर गिरे वैसे मूर्छा वश से चेतना रहित हुई, इन्द्रलष्टि जैसे सब शरीर के बंध शिथिल होगये. और धेशतवा. सीयस पृथ्वी पर मिर गइम९७॥धारणी राणी इस तरह. आकुल व्याकुल चित्त से एकाएक नीचे गिरने से तत्काल अंतेपुरके मेमोंने सुवर्ण कलश मे से शीतल जलको निर्मल धारा से छिटकाव कीया पानी के विन्दू सहित ताल वृक्ष के पखसे अथवा चर्मके पंखेसे चामुकरने लमे. और अनेक प्रकार के आवासन देकर बैठाइ. उस समय राणा जैसे लाहुवा हार में से NROO उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 48 भर्थ For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48 अनुवादक - बालह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी धारा सिंचमाणी पयोहरे कलुण विमण दीणे शेयमाणी कंदमार्णा तिप्पमाणी सोयमाणी चित्रमाणी मेहकुमारं एवं वयासी तुम्हसिणं जाया! अम्हं एगपुत्ते इट्टे कंते पिए मणुण्ण मणामे धेजे बेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंङग समाणे, रयणे, रयणभूए जीवि उस्सासिए, हिययाणंदजणणे, उवरंपुष्कं बदुलहे सणयाए किमंगपुण पासययाए णो वलु जया ! अम्मे इच्छामो खणमावविप्पओगंसहित्तए भुंजाहितावजाया ! विपुले माणुस्सर कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो, तओपच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिण मोती गिरते हैं जैसे अरिखोंमें से स्तनपर अश्रु वर्षातीहुइ, करुणा जनक खराब मनसे दीन के जैसी रोती हुई, { आनंद करती हुई, पीडा पातीहुई, शोक करती हुई व विलाप करती हुई मेघकुमार को ऐसा बोली- हे पुत्र ! तु हमको एकडी इष्ट, कांत, प्रिय, मनोश, मनको आनंदकारी, धैर्य देनेवाला, विश्वासकारी, मानने योग्य, बहुत मानने योग्य, अनुपत, आभरण के करंड समान, कुलरत्न, रस्न समान जीवित बढ़ानेवाला, श्वासोश्वास समान हृदय को आनंदकारी अंबर पुष्प की समान दुर्लभ ऐसा एक ही सुनने को है तो देखने का तो कहनाही क्या ? अहो पुत्र ! हम क्षणमात्र भी तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते हैं. अहो पुत्र ! जहां लग हम जीते रहें वहां लग तुम मनुष्य संबंधी भोग भोगवो. तत्पश्चात् अत्र हम काल करजावें, और तेरी भी यौवना For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्याामलदजासी * Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतस्कन्ध +8 488+ पष्टमांग-झाताधर्मकथा का प्रथम AAAAAAmarrinnnn याएवद्रिय कुलवंसतंतुकमि निरवयक्खे समणस भगवओ महावीरस्म अतिए मुंडभवित्ता भगाराओ अणगारियं पन्वइस्ससि ? ॥९॥ तएणं से मेघकुमारे अम्मा पिउहिं एवंयुत्तेसमाणे अम्मापियरोएवं वयासी-तहेवणं तं अम्मो ! जहेवणं तुम्हेममं एवं एवं वयह, तुमंसिर्णाया अस्हे एगेपुत्ते तं चैव जाव निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स आव पब्वइस्सइ ॥ एवं खलु अम्मयाओ ! माणुस्सए भत्रे अधुवे अणिय असासएवसणस्स उद्दवाभिभूए. विजुलयाचंचले अणिचे जलबब्युयसमाणे कुसग्ग जलविंदुसन्निभे संज्झारागसरिसे, सुविणवेसणोवमे, सडणपडणविसणधम्मे पच्छा वस्था पूर्णहो जावे, पुत्र पौत्रादिक की वृद्धि होवे तव संसारके कार्यकी बाछा रहितहो तू श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पास मुंड बनकर गृहवास से साधुपना अंगीकार करना ॥ ९८ ॥ मातपिता के ऐसा कहने से मेघकुमार उन को ऐसा बोला-अहो मातपिता ! जैसे तुम कहते हो कि मैं तुम को एक इष्टकांत यावत् श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मवजित होना. वैसे ही है, परंतु अहो मातपिता ! मनुष्य भव अध्रुव, अनिस, अशाश्वत, सदैव हजारों उपद्रव से व्याप्त है, विजली के चमत्कार जैसा चंचल है,3 पानी के परपोटे समान अनिय है, कुशाग्र जल विन्दु समान अस्थिर है, संध्या राग समान वस्वप्न-दर्शन 488+ उत्क्षिप्त ( मेघकुगर ) का प्रथम अध्ययन +8 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8 पुरंचणे अवस्सविष्पजहणिजे, से कैर्ण ज.जइ अन्याओ ! के पुब्धिगमणाए के पच्छा .. गमणाए, तं इच्छामिणं अम्मयाओ! तुब्भहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणरुस भगवओ महावीरस्स अंतिए जाव पब्बइत्तए ॥ ९९ ॥ तएणं से मेहंकुमारं अम्मापियरो एवं 'बयासी इमाओ ले जाया! सरिसियाओ सरिसतयाओ सरिस्सम्बयाओ सरिसलावफ्णरूव जोवणगुणोक्वेयाओ; सस्सिहिंतोरायकुलहितो आणियल्लियाओ भारियाओ तंभुजाहिणं आया! एताहिं सडिं विपुले मणुस्सए कामभाए, तओपच्छा भुत्तभोए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए जाव पव्वइ॥१०॥तएणं से मेहकुमारे अम्मापियरं एवं वयासीन्तहेवणं ममान,क्षणिक है और सडन पान व विमन धवाला है।इस लिये इसको आगे पीछ अवश्य सजना होगा. और भी अहो मातपिता! यह कौन जानता है कि पहिला कौन जायगा और पीछे कौन जायगा, इस से अहो मातपिता! मैं आपकी आज्ञा से श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा लेना चाहता हूँ॥१९॥ फोर मेघकुमार के मातपिताने कहा अहो पुत्र ! तेरे ममान,समान वय वाली,समान स्वचावाली,समान रूप, गुण. लावण्य व योवन वाली और समान राजकुल में लाइ हुई खियों हैं, इमलिये उम की साथत् मनुष्य संबंधी काम भोग भोगव तत्पश्चान श्रमण भगवंत महावीर की पास यावत् दीक्षा अंगीकार करना? ॥२०॥ तव मेघ कुमारने मातपिता को ऐसा कहा अहो मातपिता ! जैसे तुम कहते हो कि समान वय यावत् श्रणमा मकाशक राजाबहादर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालामसादजी, For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 पष्टपांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध+ अम्मयाओ ? जण तुम्म मर्म एवं वयह इमाओ ते जावा सरिसियाओं जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स पव्वइस्सास एवं खलु अम्मयाओ ! मग कामभोगा असुइ, असासमा, बेतासबा, पित्तासवा खेलासवा, सुक्कासवा • सोणिया सवा दुरुस्सासनीसासवा दुरुयभुत्तषुरिसपूय वह पीडषुण्णाओ उच्चार पासवण• खेल - जल-सिंघाणग-चैत-पित्त सुक्क सोणिय सभवा; अधुत्र अणियया असासया सडण पंडण विद्धंसणं धम्मां पच्छा पुरवणं अवस्सविप्पजहणिजा, से केणं अम्मयाओ! जाणइ के पुत्रि गमणाए के पच्छा गर्मणाए, तं इच्छामिण अम्मा ! जीव पव्यइतए ॥ १०१ ॥ तरणं तं महकुमार अम्मापियरी एवं वयासी- इमेए जाया ! - अजय · भगवंत महावीर की प सदीक्षा लेना, यह सत्य हैं; परंतु अहो मातपिता! मनुष्य के काम भोम अनूचि बोले. व अशाश्वत, हैं उनके अंग में से वमन, पित्त, श्लेष्म, शुक्र. रुधिर झरता है, मर्यादा रहित व दुर्गंधी श्वासोश्वास होता है, लघुनीत बडीनीत से परिपूर्ण है, उच्चार प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, शुक्र,व शोणितका (उत्पत्ति स्थान है, अध्रुव, अनित्य अशाश्वत बसडन पडन व विध्वंस धर्म वाला है, इनको आगे पीछे तो अवश्य छोडना पडेगा और भी अहो मातपिता यह कौन जानता है कि पहिला कौन मरे और पीछे कौन मरे इसलिये भगवंत महावीर स्वामी की पास प्रवजित होने को इच्छा हूं ॥। १०१ ।। तत्र मेघ कुमार को उनके मातपिता For Personal & Private Use Only उत्क्षिप्त (कुमार) का प्रथम अध्ययन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. wwwanimurnimwand पज्जय पजयागए सुबहुहिरण्णेय सुवण्णेय कसेय मणि-मात्तिए-संख-सिलप्पवाल-रत्तारयण संतसारसावतेजेय अलाहि जाव आसत्तमाओकुल वसंओ पग्गामंदाओ पगामभातुं पगामंपरिभाएओ तं अणुहोहिइतावजाया ! विपुलं माणुस्सगं इडिसक्कारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूय कल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पव्वइस्ससि?॥१०२॥ तएणं से मेहकमारे अम्मापियरं एवं वयासी-तहेवणं अम्माजण्णं वयहइमेय ते जाया! अजग पजय जाव तओपच्छा अणुभूय कल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पवइस्ससि॥एवं खलु अम्मयाओ! हिरण्णेय सुवण्णेय जाव सावतेजे अग्गिसाहिए,चोरऐसा कहने लगे. अहो पुत्र! तेरेदादा, परदादा, और पिताके परदादा से यह बहुत हिरण्य सुवर्ण, काँस्य, मणि मोतिक, शंख, सीला, प्रवाल, रत्न, रजत व प्रधान द्रव्य संपूर्ण यावत् सातवंश पर्यंत बहुत दीन दुःखी को दवे, बहुत स्वयं भोगते व बहुत स्वजनो का विभाग करते खुट नहीं इतना रहाहुवा है इसलिये अहो पुत्र विपुल मनुष्य की ऋद्धि सत्कार व समुदाय महित सुख को अनुभव तत्पश्चात् श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना. ॥१०२ ॥ तत्पश्चात् मेघकुमार मातपिता का एसा बोले-अहो मातपिता ! जैसे तुम कहते हो कि दादा पडदादा यावत् का अनुभव कीये पीछे श्रमण भगवं महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना यह सत्यत्र है, परंतु अहो मात पिता ! हिरण्य सुवर्ण यावत् पाधन द्रव्य अनि मेजले, चोर हरणकरे, अर्थ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सायजी ज्वालाप्रसादजी - For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहिए,रायसाहिए दाइयसाहिए मच्चुसाहिए अग्गिसमाण्णे जाव मच्चुमसाणे,सडणपडण विद्धंसण धम्मे,पच्छा पुरंचणं अवस्सविप्पजहणिजे,सेकेणं जाणइ अम्मयाओकेजाव गमणाए.तं इच्छामीणं जाव पव्वइत्तए॥१०३॥ तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे णो संचाएति मेहकुमारं-बहहिं विसयाणुलोमाहिं, आघवणाहिय, पण्णवणाहिय, सण्णवणाहिय विण्णवणाहिय,आघवितएवा, पण्णवितएवा,सण्णवितएवा, विण्णवित्तएवा, ताहे विसयपडिकूलाहिं संजम भउव्वेग कारियाहिय पण्णवणाहिय पण्णवेमाणा एवं वयासी-एसणं जाया ! णिगंप्पेपावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे याउए राज लूटे, भातृ भागले, व मृत्यु विनाशपावे ऐसा है अग्नि से जले यावत् विनाश को प्राप्त होवे, सडण पडण । E व विध्वंस स्वभाव वाला हैं इसे अवश्य छोडना तो पडेगा, और भी यह कौन जानता है कि पहिला कौन जावेगा व पाछ कौन जावेगा इसलिये में प्रत्रजित होने को चाहता हू ॥ १०३ ॥ जब मेघ कुमार के मात पिता उनको विषयानुकूल वचनों कह कर समझाने में समर्थ हुए नहीं, तब विषय प्रतिकूल, संजम में भय व उद्देग करने वाले शब्दों से समझाते हुए ऐसा कहने लगे-अहो पुत्र ! यद्यपि निर्ग्रन्थ के प्रवचन सत्य हैं। प्रधान हैं केवल संपूर्ण अखण्डित हैं मोक्ष प्राप्ति केलिये प्रतिपूर्ण हैं, प्रत्यक्षादि प्रमाण मे न्यायसिद्ध 19 हैं, शुद्ध निष्कलंक हैं, मायदि तीनों शल्य रहित हैं, सदगति में प्राप्त कराने वाले हैं, कर्म से मुक्त षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 1880 4802 उत्क्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी . संसुद्धे सलगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमगे. निजाणमग्गे णिव्वाणमग्गे सन्वदुक्ख पहीणमग्गे, अहीवएगंतादिट्ठीए, खरोइवएंगंतधारार, लोहमयाइवजवाचावेयव्वा, घालुयाकवलोइवनिरस्साए, गंगाइवमहानईपडीसोधगमणायाए, महासमुहोइवभूयाहिं दुत्तरे, तिक्खकमियव्वं गरुयंलंबेयवं, अस्सिधारावसंचरियव्वं; जो खलु कप्पति जाया ! समणाणं णिग्गंथाणं आहाकम्मिएवा, उद्देसिएवा, कीयगडेवा, ट्ठविएवा, रइएवा, दुब्भिक्ख भत्तेवा, वदलियाभत्तबा कंतारभत्तेवा, गिलाणभत्तेवा, मूल.. भोयणेवा, कंदभायणेवा, फल भोयणवा, वीयभाषणेवा, हरियभोयणेवा, भोतएवा, करने पाले है, निरुपम किसी प्रकार की. उपमा रहित निर्वाण लेगाने वाले हैं. जन्मजरा मृत्युरूप दुःख दूर करने वाले हैं; परंतु सर्प जैसे एकांत दृष्टिवाला है, शुकी एकधारा समान एकगमी हैं, लोहमय चने चावने जैसे कठीन हैं,बालु के कवल करने जैस निस्तार हैं,गंगा महानदी के प्रति श्रोतमें नाने जैस बिक्रट हैं, महासमुद्र भुजासे तीरने जैसे दुस्तर है, जैसे खङ्गभालादिक्रकी तीक्षणधार आक्रमण करना दुष्कर है वैसेही चारित्र पालना दुष्कर है, बडी शीला उठाना दुष्कर है वैसे ही चारित्र दुष्कर है, और असिधारा पर चलने दुष्कर है. और भी श्रमण निर्ग्रन्थों को आधा कमी, उद्देशिक, मोललीया हुवा, स्थापकर रखा हुवा रचा (जमाया) हुवा, दुर्मिक्षमें भिक्षुको देने केलिये बनाया हुग, वर्षा नहीं होने से देने को बनाया हुवा,ग्लनि । -- प्रकाशक-रानावहादुर लाला मुखदेवपहायनी ज्वालाप्रसादजी . 1 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध पाएएवा तुंमंचणं जाया ! सुहसमुचिए; णो चैवणं दुहसमुथिए, जालंसीय, गालंउण्हं, 'गालंखुहं, णालंपिवासं, णालंवातय, पित्तिय, संत्तिय, सण्णिवाइव, विविहे रोयातके उच्चावए. गामकंटए, बावीसंपरीसहोरसग्गंउदीपणे सम्मंअहियासित्तए भुजाहि ताव जाव माणुस्सए कामभोगे तओपच्छा भुत्तभाइ समणस्स भगवओ महावीरस्स जाया ! पत्वहस्ससि ? ॥ १०४ ॥ तएणं से मेहेकुमारे अम्मापिउहिं एवं बुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी-तहेवणं तं अम्मयाओ!अण्णं तुम्भे ममं एवं वयह को देने के लिये बनाया 'हुवा कच्चे मूल का भोजन,कच्चे कंदका भोजन, कई बीजका भोजन व हरिवनस्पति का भोजन खानेको व पीने को नहीं कल्पता है. अहो पुत्र! तू सुखी सुकमाल है, तैने कभी दुःख नहीं देखा है, तू शीत, ऊषण क्षुधा, पिपासा, वात, पित्त, कफ, सन्निपात, विविध प्रकार के रोग, ऊंच नीच इन्द्रियों को कांट के समान दर्वचन व उदय आये हुवे बावीस परिसह सम्यक प्रकारसे सहन करने को समर्थ नहीं है. इमलिय मनुष्य सम्बन्धी भोग भोगवो तत्पश्चात भुक्त भोगी बनकर श्रमण भगवंत महागीर स्वामी की पाम जाकर दीक्षा अंगीकार करना. ॥१०४॥ तब वह मेघ कुमार मातपिता के कहने पर एमा बोला-अहो ईमानपिता! तुम मुझे ऐसा कहते हैं कि नियन्थ के प्रवचन सत्य अनुचर वगैरह हैं यावत् भुक्त भोगी बनकर + उस्क्षिप्त (मेधकुमार) का प्रथम अध्ययन * । -.. For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - एसणं जाया णिग्गेथे पावषणे-सच्चे अणुत्तरे पुणरवि तेचव जाव तओपच्छा भुत्तभोई समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पन्धहस्ससि ॥ एवं खलु अम्मयाओ जिग्गंथे पावयणे कीविणाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबहाणं, परलोयाणिप्पिवासाणं, दुरणुचरे पायय जणस्स; णो चेवणं धीरस्स, एत्य किं दुक्करं करणयाए, तं इच्छामिणं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भण्णुण्णाए समाणे समणस्स भयवओ जाव पन्वइत्तए ॥ ११५ ॥ तएणं तं महंकुमारं अम्मापियरो. जाहे णो संचाएइ बहुहिं विसयाणुलोभाहिय, विसय पडिकुलाहिय आघवणाहिय पण्णवणाहिय सण्णवणाहिय, विण्णव पाहिय, आघवितएवा, पण्णवितएवा, सण्णवितएवा, विणवीतएवा ताहे अकामकाई श्रयण भगवंत महावीर स्वामी की पास दीक्षा अंगीकार करना परंतु, अहो मातपिता ! निर्ग्रन्य के प्रवचन , क्लीव [ नपुंसक ] कायर , नीच पुरुष, इस लोक के प्रेम में बंधाये हवे,परलोककी वाच्छा रहित पुर पामरजनों को आचरने में दुष्कर हैं परंतु धीर वीर पुरुषों को कुच्छ भी दुष्कर नहीं है. इसलिये अहो मात तात! मैं आपकी आज्ञा होते श्रमण भगवतं महावीर स्वामी की पास दीक्षित होना चाहता हूँ॥१०५॥ जब रमेघ कुमारको विषयानुकूल व विषय प्रतिकूल वचनोंगे समझानेको उनके मातपिता.समर्थ हुए नहीं तब इच्छा .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. www.iainelibrary.org For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 42 षष्टमांग ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्स्कन्ध चेव मेहं कुमारं एवं वयासी-इच्छामोताव जाया ! एगदिवसमवि रायसिरि पासित्तए ? ॥१०६ ॥ तएणं से मेहेकुमरे अम्मापियरं मणुवमाणे तुसिणीएसंचिट्ठा ॥ १.७॥ तएणं से सेणिएराया कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ, एवं वयासी-खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया! मेहस्सकुमारस्स महत्थं महरिहं महंग्धं, विउलं रायाभिसेयं उबटुवेह॥ तएणं कोडुंबिय पुरिसा जाब तेवितहेव उवट्ठवेइ २ ॥ १०८ ॥ तएणं से सणिएराया बहुहिं ममणायग, दंडणायगेहिय जाव संपरिबुडे मेहंकुमारं अट्ठसएणं सोवाणियाणं कलसाणे, एवं रुप्पमयाणंकलसाणं, मणिमयाणकलसाणं, सुवष्ण रहित मेशकुमार को ऐसाहा अहोपुत्र एकदिन तुम राज्यलक्ष्मी भोगवता हुवा हमदेखना चाहते हैं अर्थात् एकदिन तू राजगादीपर बैठ ॥१०६॥ उससमय मेघकुमार मातपिता का मन रखने को मौन रहा ॥१०७॥ उस समय श्रेणिक राजा कौडाम्बक पुरुषों को बोलाकर ऐसा बोले अहो देवासुप्रिय ! मघकुमार को बहुत द्रव्यवाला, बहुत योग्य व महy ऐसा बहा राज्याभिषेक करो. कौटुम्बिक पुरुषोंने भी वैसा ही कीया ॥१०८॥ अब बहुत गणनायक दंडक नायक से यावत् परवरे हुबे श्रेणिक राजाने मेघकुमार को एक सो आठ मुवर्ण के कलश, एक सो आव चांदी के कलश, एक सो आठ मणि के कलश, एक सो आट सोने चांदी के कलश, 48 उत्क्षिप्त (मेषकुमार) का प्रथम अध्ययन Net For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amirmirmwimwwwini 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में रुप्पमयाणकलसाणं, रुप्पमणिमयाणकलसाणं, सुवण्णरुप्पमणिमयाणकलसाणं; मोमेजाणं, सब्बोदएहि, सब्वमट्टियाहिं, सबपुप्फेहि, सव्वगंधेहिं; सव्वमल्लेहिं, सब्बोसहि सिद्धत्थएहिय सवढीए सब्विर्जुईए,सबबलणं,जाव दुंदभिणिग्घोसणाइ रवेणं महाया २ रायाभिषेएणं अभिसिंचंती, करयल 'जाव कटु एवं वयासी-जयजयणंदा • जयजयभद्दा भदंते . अजियंजिणाहि जियपालयाहि जियमझेवसाहि, अजिर्य जिणेहि सतुपखं, जियंचपालहिं मित्तपक्खं, जाव भरहोइवमणुषाणं रायएक सो आठ चांदी, मणि के कलश, एक मो आठ मुवर्ण चांदी व मणि के कलश और एक सो आठ मृत्तिकाके कलश से संपूर्ण पानी, संपूर्ण मृत्तिका, पुष्प, गंध, माला, औषधियों सिद्धार्थ मांगलिक निमित्त सब वस्तुओं सहित सब प्रकार के आभरणों सहित, सब प्रकार की युति, क्रांति सहित, सब प्रकार की चतुसंगिनी सेना सहित यावत् दुंदुभी आदि वादित्र के बडे २ शब्दों से निर्घोषणा करते हुये बडा सज्याभिषेक कीयापीछे दोनों हाथ जोडकर ऐमा बोले-अहो मेघराजा! तुम जयवन्त होवो. विजयवन्त होवो, आनंद समृद्धि को प्राप्त होवो, तुम्हारा कल्याण होवो, नहीं जीते को जीतो, जीते. की प्रतिपालना करो. जयवंत सज्जनो के मध्य में निवास करो, अजित शत्रुको जीतो, जीने हवे शत्रका भी पालन करो,मित्र पक्ष प्रकाशक-राजाबहादर लाला मुखदव सहाय जी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 488 48.पष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध गिहस्सणगरस्स 'अण्णेर्सिच बहुणं गामागरणगर जाव सणिवेसाणं आहेवच्चं जाब विहरहि तिकटु, जय २ सदं पउज्जति ॥ १०९ ॥ तएणं से मेहरायाजाए. महया जाव विहरति ॥ ११ ॥ तएणं तस्स मेहस्सरण्णो अम्मापियरो एवं वयासीभणजाया! किं दलय मो,? किं पयच्छामो,? किं वा ते हियइच्छिए? सामत्थे? ॥तएणं से मेहेराया! अम्मापियरो एवं व्यासी-इच्छामिणं अम्मयाओ! कुतियावणाओ रयहरणं परिग्गहंचआणियं कासवयंचसदावितए ॥ १११ ॥ तएणं से सेणिएराया : कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ २. एवं वयासी-गच्छहणं तुमे देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ: यावत् भरव राजा जैसे सब मनुष्योंका गजगृह नगर, व अन्य बहुत ग्राम, आगर, नगर यावत् सभिवेशका अधिपतिपना करते हुवे विचरो. यों कहकर जयविजय शब्दों का प्रयोगकर बधाये॥१०९।। तबवह मेघकुमार मेघराजा महाहेमवंत पर्वत जैसे हुई यावत् विचरनेलगे॥११०॥उससमय मेघराजा को मातपिला ऐसा अहो पुत्र! तू कहेकि तुझेक्या देवें? क्या चहाताहै ? क्या तेराहितकरें ? किसमर्थहै ? तब मेघराजा मातपिताको ऐसा बोले अहो मातपिता!कत्रिक वणिककी दकानसे रजोहरण व पात्रेलाना और नापित वोलाना मैं चाहता है। ॥१११॥उससमय श्रेणिकराजाने कौटुम्विक पुरुषों को वोलाकर ऐसाकहा-अहो देवानुप्रिय! तुपलक्ष्मीक भंडार । उत्क्षिप्त ( मेयकुमार ) का प्रथम अध्ययन अर्थ 1. f For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी तिण्णियसयसहस्साई गहाय दोहि सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च उवणेह, सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेह ॥११२॥ तएणं कोडुषियपुरिसा सेणिएणं रण्णाएवं वुत्ता समाणा हतुट्ठा सिरिघराओ तिणि सयसहस्सइ गहाय कुत्तियावणाओ, दोहिं सयसहस्सेहिं स्यहरणंच पडिगहंच वर्णेति, सयसहस्सेणं कासवयं सहावेलि ॥ ११३ ॥ तएणं से कासवे कोडुवियपुरिसेहिं सदाविए समाणा हट्टतुट्ठा जाव हियए ण्हाए कयवलिकम्मे कयकोऊअमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई क्त्थाई पवराई परिहिए अप्पमहग्घभरणालंकियसरीरे जेणवसिणिएराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता में से तीनलाख सुवर्ण महोर लेकर जावो जिसमें से दोलावसे कृत्रिक वणिक की दुकानसे रजोहरण व पात्र लावो और एक लाख से नापित बोलावो ॥११२ ।। कौटुम्विक पुरुष श्रेणिक राजा की पास से ऐसा सुनकर हृष्ट तुष्ट हुवे लक्ष्मी भंडारमें से तीन लक्ष मोनैये लेकर दोलक्ष सोनये से कुत्रिक वणिक की दुकानसे घरजोहरण व पात्रे लीये और एकलक्ष सोनये नापित कोदे बुलवाया.॥११३॥ वह नापित राजाके कौटुम्बिक पुरुषों बोलाने से हृष्ट तुष्ट हुवा यावत् स्नान कीया, कुल्ले कीये, तीलक मसादिक कीये, शुद्ध राज्यसभा में प्रवेश करने योग्य श्रेष्ण, मांगलिक वस्त्र पहिने, अल्प भार बहुन मूल्य वाले आभरण पहिने, पीछे श्रेणिक * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी . For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 88 षष्टमांग-माता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध सेणियरम्यं करयल मंजलिकटु एवं यथासी-संदिसहणं देवाणुप्पिया ! जमएकरणिज्ज ॥ ११ ॥ तएणं से सेणियराया कासवयं एवं व्यासी-गच्छाहिगं तुम देवाणुप्पिया! सुरभिणागंधोदएणं णिके हत्थेपाएपक्खाले हिं, सेयाए चउप्फलाए पात्तीए मुहबंधेत्ता मेहकुमारस्स चउरंगुलवज णिक्खमणपउग्गे अग्गकेसे कप्पेहिं ॥ ११५ ॥ तएणं कासवेए सेणिएणं रण्णा एवंवुत्ते समाणे हट्ठतुजाव पडिसुणतिरसुरभिणागंधोदएणं हत्ये पाए पक्खालेत्ति २. सद्धंवत्थेणं महवंधति ॥ परेणं जत्तेणं मेहस्सकमारस्स चउरं. गुलबजे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकसे कप्पति ॥ ११६ ॥ तएणं तस्स मेहकुमारस्स राजा की पास आकर श्रेणिक राजा को हस्तद्वय जोडकर ऐसा बोले अहो देवानप्रिय! जो मुझे करने योग्य होवे सो यत लावो? ॥११४॥ तब श्रेणिक राजा काश्यप [ नापित ] को ऐसा बोले-अहो देवानमिव ! तू यहां से जा और सुगंधित पानी से हाथ पांव का प्रक्षालन कर श्वेत वस्त्र के चार पडवाले वस्त्र से मुख वांधकर मेघकुमार के मस्तक के केश चार अंगुल छोडकर शेष सब केश काटो ॥११॥ जब राजाने ऐसा कहा तब वह काश्यप बहुत हृष्ट तुष्ट होकर यावत् सब आज्ञा सविनय मुनी और सुगंधित पानी से हस्त पांवका प्रक्षालन कीया,शुद्ध वस्त्रसे मुख बांधा और बहुत यत्ना पूर्वक मेघकुमार के मस्तक के चार अंगुल छोड. कर बाकी के अग्रकेश काटे ॥ ११६ ॥ उस समय मेघकुमार की माताने इस समान श्वेत वस्त्र में अग्रकेश 480 उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन 428 अर्थ 488 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमोलक ऋषिजी माया महरिहेणं हंसलक्खणपड साडएणं अग्गक पडिच्छइ २, सुरभिणागंधोदएण. पक्खालेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चा ओदलयइ २ से पाएपोत्तीए बंधति रयण समुन्गयंसि पक्खिवइ मंजूसाए पक्खिवइ,हारवास्धिार सिंदुवार छिण्णमुत्तावलि पगासाई अंसुयाई विणिम्मुयमाणी२रोयमाणी २कंदमाणी विलवमाणी एवं वयासी-एसणं अम्हंमेहकुमारस्स अब्भदएसुय, उस्सवेसुय, पसवेसुथ, तिहीसुय, छणेसुय,जण्णेसुय,पव्वणीसुय, ... अपच्छिमदरिसणे भवइइत्तिकटु, उस्सीसामू टुवेइ ॥ ११७ ।। तएणं तस्स मेहस्स... कुमारस्स अम्मापियरो उत्सरावकमाणं सिहासणं रयावेइ मेहंकुमारं दोच्चपि तच्चपि होये, और सुगंधित पानी से उन का प्रक्षालन कीया, श्रेष्ट गोशीर्ष चंदन छांटकर श्वेत वस्त्र में ब रत्न के डब्बे में रखे.. वह डब्बा संदूक में रखा, तूटा हुवा मोती का हार बर्षाद की धार अथवा सिंदुर वृक्ष के पुष्पों गिरे वैसे अश्रु वर्षाती हुई, रोती हुई, आक्रंद करती हुई और विलाप करती हुई धारणी राणों ऐसा बोलने लगी-कि मेघकुमार के दर्शन तो हम को दुर्लभ होंगे परंतु यह बाल प्रातःकाल में, किसी प्रकार के उत्सव में, किसी प्रकार के उत्तम पर्व में, उत्तम तिथि में यज्ञादि प्रयोजन में व प्रवणी में अपश्चिम दर्शनाला होंगे वारंवार दर्शन होंगे] यों कहकर उत संदूकको उसीसे(तकये)के नीचे रखी ॥१.१७॥ तब मेघकुमारके मातपिताने उत्तरदिशामें सुख रहवसे सिंहासन बनवाया और मेघकुमारको उसपर बैठाचा फर दो प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * अर्थ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ सेयापीयएहि कलसेहिं ण्हायेइ २ पम्हल सूकमालाए गंधकासाइयाए गायाई लूहेइर __ सरसेणं गोसीस चंदणेणं गायाइं अणुलिपंति २ णासाणीसासवायवोजं जाव हंसं लक्खण पडग साडगंणियंसेइ, हारंपिणहति २ अद्धारं पिणद्वंति २ एवं एगावलिं२ मत्तावलिं २, कणगावलिं २,रयणावलिं २,पालंब २,पयापलंब कडगाइं २, तुडियाई, केऊराई २, अंगयाइं २, दसमुहियाणं तयं २ कडिसुत्तयं कुंडलाई, चूडामाणि रयणुहै कडं मउड पिणद्धंति दिव्य सुमणदामं पिगद्धतिकटु, रमलय सुगंधिएगंधे पिणद्धति ॥ ११८ ॥ तएणं तं मेहंकुमारं गंटिम वेढिम, पुरिम, संओइमेण. चउबिहेणं मलेणं तीनवार श्वेत पीत चांदी सवर्ण के] कलश से स्नान करायः पक्ष समान मुकोमल काषायिक सुगधि वस्त्र से गावों पूछे, श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन से गात्रोंको विलेपन कीया, के वायु से उडे वैसे यावत् हंभ समान श्वेत वस्त्र पहिनाया,हार,अर्धहार ऐसे ही एकावली कनकावली मानली हार धारन कराये, हाथ में कडे, बहे रखे, केयूर वगैरह पहिनाये,दशों अंगलियों में मुद्रिकाओं, केम्मरकंदोरा, कर्ण में कुंडल मस्तक पर चडा ae पणि मुकुट,रत्न से जड़ी हुई दीव्य पुष्पों की माला वगैरह पहिनाई,परमार से उत्पन्न हुवे सुगंधि वस्त्रों पहिने 11॥११८॥ सूत्रादि प्ले गुंथी हुई, पुष्पादि से बीटी हुई, धातु आदिसे पूरी हुई. व वस्तु संयोग से बनाई हुई, यो षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध्र 348 उक्षिप्त ( मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्परुक्खंमिव अलंकिय विभूसियं करेंति ॥ ११९ ॥ तएणं सेणिएराया कोडुबिय पुरिसे सद्दावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव को देवाणप्पिया! अणेगखभसय सण्णिविट्ठ, लीलट्रियसालभांजियागं.डहमिय उसभ तरंगणार मगर विहग वालग किन्नर रुरु सरभ चमर कुंजर वणलय पउमलय भत्तिचित्तं घंटावलिमहर मणहरसरं सुभकंत दरसणिजं णिउणोचिय मिसिमिसित्त मणिरयण घंटियाजाल परिखितं, खब्भुगय वइरवेझ्या परिगयाभिरामं विजाहरजमलजंतजुत्तंपिय अच्चीसहस्समालणियं रूवगसहस्स कलियंभिसमाणं चक्खूलोयणलेसंसुहफासं सस्सिरीयरूवं सिग्धं तुरियं चवलं चार प्रकार की माला से मेधकुमार को कल्पवृक्ष समान अलंकृत विभूषित कीया ॥ ११९ ॥ तत्र श्रेणिक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहने लगे कि-अहो देवानुप्रिय ! तुम अनेक स्थं वाली, लीला सहित क्रीडा करती हुई पूतलीयोंवाली, शाहमृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षी, वगले, किन्नर.. अष्टापद, चवरीगाय, हाथी, वनलता, पद्मलता, वगैरह चित्रों से चित्रित, चारों तरफ मधुर २ स्वर करती हुई घुघरियोंवाली, शुभ, कांतकारी, अच्छे पुरुष से बनाई हुई, चंद्रकांतादि मणि रत्नों की घंटिका जाल वालीस्थंभ पर रही हई वज़की वेदिका से संपर्ण विटी हुई,अभिराम,विद्याधारों के युगलोंकी पंक्तियों वाली, 35 10 सूर्यके सहश्र किरणों समान क्रांखिकर मुशोभित,हजारों रूपों सहित, नेत्रको अतृप्त, सुख स्पर्शवाली सश्रिक. मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी * अ For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतियं पुरिस सहस्सवाहिणी सीयं उवट्ठवेह ॥ तएणं ते कोडुंबियपुरिसा हट्टतुट्ठा जाव उवट्ठवेइ ॥ १२. ॥ तएणं से मेहकुमारे सीयं दुरुहइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे ॥ तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हाय कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घमरणालंकियसरीरा सीयं दुरुहइ २ मेहस्सकुमारस्स दाहिणपासे भद्दासणसि णिसीयंति ॥ तएणं तस्स मेहस्सकुमारस्स अंमधाई रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं दुरुहइ २ मेहस्स कुमारस्स वामेपासे भद्दासणसि णिसीयंति ॥ तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठओ एगवरतरुणी सिंगारागार चारुवेसा संगयगय हसिय रूपवाली शीघ्र, त्वरित, चपल, सहश्र, पुरुष उठासके वैसी एक शिविका (पालखी) तैयार करो. उससमय में कौटुम्बिक पुरुषों हृष्टतुष्ट हुए यावत् पालखी तैयार कर लाकर रखी ।। १२० ॥ तत्पश्चात् मेघकुमार उसमें पालखी पर चढकर सिंहासनपे पूर्वाभिमुख से बैठे. मेघकुमार की माताने स्नान कीया कुल्ले कीये यावत् अल्पाभार व बहुमूल्यवाले वस्त्राभरण से शरीर अलंकृत कीया पीछे पालखी पर आरूढ होकर मेघकुमार की दाहीनी बाजु पर भद्रासन पर बैठी. उस समय में मेघकुमार की अम्मा धात्री [दूध पीलाने 13वाली ! रजाहरण व पात्र लेकर पालखी पर चढकर मेघकुमार की वाइ वाजु पर भद्रासन पे बैठी. मेघ-150 कुमार की पीछे एक श्रेष्ठ, शृंगारकी आगर, उत्तम मनोहर वेष धारन करनेवाली, संगति से गमन करने षष्टमांग-ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+ 488+ उत्क्षिप्त ( मेघवपार ) का प्रथम अध्ययन 488+ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी भाणिय चेट्ठिय विसालसंलाबुल्लावणिउण जुत्तो व्यारकुसला. आमेलगजमलजुयल वड़ियं. .. अब्भुण्णव पीणरइय संट्ठिय पओहरा, हिमरयंयकुंदेंदु पगासं सकोरंट मल्लदामं धवलं. आवत्तं छत्तं महाय सलीलं ओहारेमाणी चिट्रइ ॥ तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वर तरुणीओ सिंगारागार चारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयंदुरूहंति मेहस्व कुमारस्स उभओपासिं णाणामणि कणगरयण महरिह,तवणिज जलविचित्त दंडाआसुहम बरदीह वालाओ संख कुंद दगरययमय महियं पुज सणिणगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओ हारेमाणीओ २ चिट्ठइ ।। तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगावरतरुणी सिंगारागार जाव बाली, हसकर बोलनेवाली, शास्त्र का पठण करनेवाली, विशाल नेत्र की चेष्टा करनेवाली, संलाप उल्लाप में निपुण, लोक व्यवहार में कुशाल, परस्पर मीले हुए उन्नत राति मुख देनेवाले विशिष्ट स्थानवन्त पयोधर वाली स्त्री,बरफ चांदी या कुंद वृक्ष के पुष्प व चंद्र समान प्रकाश करनेवाला कोरंट पुष्पकी माला बाल मेघाडंबरनामक छत्र धारण करके लीला सहित डोलतीहुइ खडी रही. मेघकुमार की दोनों बाजुशृंगार के घर समान यावत् कुशल दा तरूणियों पालखी पर आरूढ होकर मेघकुमार की दोनों वाजु विविध प्रकारके मणि, कनक, रत्न वाले, बहुत योग्य, तपायाहुवा लालसुवर्ण समान विचित्र दांडीवाले, सूक्ष्म श्रेष्ठ लम्बे बालो बाले, शंख कुंद चांदि, पानी के कण, व अमृत फेन समान उञ्चल चापर को ग्रहण कर लीला सहित वीजनी (हलाती) हुई खर्ड .प्रकाशक-राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4- षष्टमांग- ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन् कुसला सीयं जाव दुरुहइ मेहस्सकुमारस्स पुरओ पुव्वच्छिमेणं चंमप्पभइव वेरूलिह विमलदंडं तालियंट गहायचिट्ठइ || तणं तरस मेहरम कुमारस्स एंगावरतरुणी जाव रूवा सीयं दुरुहइ मेहस्सकुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयंश्ययमयं विमल सलिल पुण्णं मत्तगयसहा मुहा कितिसमाण भिंगारं गहाय चिट्ठइ ॥ १२१ ॥ एणं तरस मेहस्स कुमारस्सपिया कोडुंबिय पुरिसे सद्दानेइ २ एवं वयासी - खिप्पामेव भो · देवाणुपिया ! सरिसवाणं सरितयाणं सरिवयाणं एगाभरणगहियणिज्जोहाणं कोडुबि - यवरतरुणाणं सहस्सं सद्दावेह जाव सहावैति ॥ तरणं कोड बेयवरतरुण पुरिसा } रही. एक श्रेष्ट यावत् कुशल तरुणि पालखीपर बैठकर मेघकुमार की आगे पूर्वदिशा में चंद्रकी कांति समान विमल वैडूर्य रत्न समान बिमल दंडवाला ताल वृंत पंखा ग्रहणकर खडी रही. वत्पश्चात शृंगार के घरसमान एक श्रेष्ट तरुणि मेघकुमार के ईशाम कौन में श्वेत रजतमय विमल निर्मल पानी से परिपूर्ण मदोवन्म हाथी के मुख समान कलश लेकर खड़ी रही ।। १२१ ॥ फीर श्रेणिकराजा कौटुम्बिक पुरुषोंको बोलाकर ऐसा बोले- अहो देवानुप्रिय ! समान वय, व त्वचा वाले व एक सरिखे आभरण पहिने हुवे वैसे एक हजार कौंटुम्बिक पुरुषों को बोला को. यावत् बोलाने को गये. जब श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों से बोलाये हुवे एक For Personal & Private Use Only उत्क्षिप्त संघकुमार) का प्रथम अध्ययन ++ १०६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 48 Manmannmannernmnamannaman सेणियस्सरण्णो कोडेबियपुरिसेहिं सहावित्ता समाणा हट्ठ तुट्ठा व्हाया जाव एगासरण गहियणिज्जोया, जेणामेव सेणिएराया तेणामेव उरागच्छइ २ सेणियरायं एवं वयासी संदिसहणं देवाणुप्पिया ! जणं अम्हेहिं करणिजं ?॥ १२२ ॥ तएणं से सेणिए तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं एवं वयासी-गच्छहणं देवाणुप्पिया ! मेहस्स कुमारस्त पुरिस सहस्स वाहिणी सीयं परिवहह ॥ तएणं ते कोडंविय वरतरुण सहस्सं सेणिएणं रण्णा एवं वुत्तं मंतं हटुं तुटुं मेहस्सकुमारस्स पुरिससहरस वाहणिसीयं परिवहइ ॥१२३॥ तएणं तस्स मेहरम कुमारस्स पुरिससहस्सवाहणीं सीयं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठ मंगलया तपढमयाए पुरओ आहाणुपुवीए संपाट्टिए, तंजहा-सोच्छियं,सिरिवच्छ, गंदामार श्रेष्ठ तरुण कौरम्बिक पुरुषों हृष्ट तुष्ट हुए स्लान कीया यावत् एक समान आभरण पहिन कर अपने गृह से नीकल कर श्रेणिक राना की पास आये और उन से बोले-अहो देवानुप्रिय ! कहो क्या करें ? ॥ १२२ ॥ श्रेणिक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को ऐसा कहा-अहो देवानुप्रिय ! मेघकुमार हजार पुरुष वाहिनी पालखी उठावो. श्रेणिक राजा से ऐशी भाज्ञा होते उक्त हजारों कौटुम्बिक पुरुषोंने ईमेघगर की पालखी उठाइ. ॥ १२३ ॥ जब मेघकुपार पालखीपर आरूढ हुए तव अनुक्रम से आठ मंगलिक आगे नीकाले जिनके नाम-१ माधिया,२ श्रीवत्स, ३ नंदावर्त, ४ वर्धमान, ५ भद्रासन, ६ कलश, maradmummmmmmmmmmmmmmm प्रकाशक-राजाबहादुर काला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 49% kakak bkk i lank IEL-Wb&b *** वत्त, बद्धमाणग भदासण, कलस, मध्छ, दप्पण, जाव वहवे अत्यत्थिया जाव तर्हि इट्ठाहिं जाव अणवरयं अभिणंदताय अभिथुणंताय एवं वयासी-जयजयणंदा, जयजयः भदा जयणंदा भदंते, अजियं जिगार्हि-इदियाहिं, जियंचपालेहि-समणधम्मं, जियविग्घोवियवसांहे तदेवसिाडमझणि शाहि, रागदोसमल्लेतवेणविधणिय, बद्धकक्खे मद्दाहिय अट्ठकम्म सतू ज्झाणेण, उत्तमेणं सुकंणं अप्पमते-पावय, वितिमर मणुत्तरं केवलणाणं गच्छओमोक्ख परमंपयं सासयंच अचलं, हंतापरिसह चमूणं, अभीओ परिसहोवसग्गाणं धम्मतअविग्धं वओ तिकटु, पुणो २ मंगल जय २ सदं पउजंति ७ मत्य व ८ दर्पण. इस तहर यावत् अर्थ की सिद्धि करने वाले यावत् इष्ट शब्दों से निरंतर स्तुति करते है हुवे ऐसे बोलने लगे जय रामे, विजय होवे, अजिते जो इन्द्रिय धर्म उसे जीतो, जीता हुवा श्रमण चर्म का पालन करो, देव ब सिद्धि की मध्य में रहो तप से रागद्वेष रूप. मैल दूर करो, धैर्य धारण करो, अष्ट कर्म रूप शत्रु का मर्दन करो, उत्तम शुक्ल ध्यान से अप्रमाद अवस्था में प्रवर्ती, ज्ञानावरणीय रूप पडल से जो अंधकार होरहा है उसे केवल ज्ञान रूप सूर्य से प्रकाश करो, शाश्वत, अचल, ऐसे मोक्ष पद प्राप्त करो, परिषह रूप सेना का नाश करो, परिषद उपसर्ग में निर्भय बनो, तुम धर्मार्थ विघ्न रहित 942 उत्क्षिप्त ( मेयकुमार) का प्रथम For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ १२४ ॥ तएणं से मेहेकुमारे रायगिहस्सणंयरस्स मज्झमच्झेणं णिगन्छइ. जेणेष गुणसिलए चइए तेणेव उवागच्छइ२त्ता पुरिससहस्सवहणीओ सीयाओ पञ्चारुहइ ॥ १२५ ॥ तएणं तस्स मेहस्सकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ .... कटु जेणामेव समणं भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ २ त्ता, समणं भगवं. महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करे २ करेइत्ता बंदइ. णमंसइत्ता. एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! मेहेकुमारे अम्हं एगेपुत्ते इटुं कंते पिए .मणुणे मणामे जाव जीविऊसासएहिययणंदिजणए, ऊंबरपुप्फपिव दुल्लहे सवणयाए किं होवो. यों कहते हुए वारंवार मंगल जय २ शब्दोच्चार करने लगे ॥ १२४ ॥ तत्पश्चात् मेषकुमार राजगृह नगर में से नीकलकर गुणशील उद्यान में आये और पुरुष सहस्र वाहिनी पालखी से नीचे उतरे. ॥ १२५ ॥ वहां मेघकुमार के मालपिता मेघकुमार को आगे करके श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास गये और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को तीनवार आवर्त प्रदाक्षिणा करके वंदना, नमस्कार कर ऐसा बोले-अहो देवानप्रिय ! यह मेघकुमार हम को एक ही 'पुत्र सुनने को इष्ट कान्तप्रिय, मन मनको आनंद कर्ता यावत् जीव को श्वासोश्वास समान हृदय को आनंद कारी व उम्बर पुष्प. समान *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगपुण परिसक्याए; से जहा गार उपस पउमेहका कुमुदेवया, पंकजाए जलेसु संवहिए गोवलिप्पड़ करएण,गोबलिप्पह जलरएणं एवामेव मेहेकुमारे कामजाए भोगेसु संवदिए, जोबलिप्पकामपूर्ण, गोवलिप्पडभोगरएण, एस वाणुपिया ! संसारभउविगे भीएजम्मगजरामरणानं, इछह देवाणुप्पियाण अंतिए मुंडे भविता आगारामो अणगारियं भवत्सए । अम्हे देवाणपिका सिरसभिकर रलपामो, पडिग्छ तुमेणं देवास्क्यिा ! सस्सभिक्ख १२६ तएवं समणे भगवं महाधार मेहस्सकुमारस्स अम्मापिउहिं एवं कुते समाणे एषमटुं सम्म पडिसुणे ।। १२७॥ एक से मेहेकुमारे समलस भग महावीरस्स अतिया, उत्तर दुर्लभी तो देखनेका कहनाहीया और भी जैसे उसलकाल,पकमल, कुमर दर्षय उत्पमावा बगल में वृदिपाया परंतु पंकरज करडेपाय नही, मलरज करवायना से होगा मेषकुमार भाप से उपभमा भोग वृद्धिपाया परंतु कामभोगरूपरजस लिसपनानी,अहो देवानुधियापर संसार मपये दिपावा व नन्पजरा मरण गरें इस लिपे अहो देवानुमिष ! यह आप की पास मुंह बनकर हवास से साधु पना भागीकार करना चाहता है. अहो देवानुमिय! हम आपको शिष्य भिक्षादेते और आपयह शिष्य मिलानाप करें.॥१२॥ प्रपन भगत महापार स्वामीने पेषकुमार के मातपिता के उक्त वचनों सम्पर प्रकार ने मुने ॥ १७ ॥ रिक्षत (कुगर)का प्रथम अध्ययन 4.14 For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनुवादक-पायाचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + पुरच्छिम दिसीभार्ग अवकम्मेइ २त्ता सयमेव आमरणमहालंकार मुयइरचा. तएणं से मेहस्सकुमाररस माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरण मल्लालंकारे पडिन्छ। २ त्ता हारवारिधार सिंदुवार, छिण्णमुत्तावलिप्पासाई अंसूणिविणि मुयमाणी २ रोयमाणी २ कंदमाणी २ बिलबमाणी ३ एवं क्यासी-जइयव्वं जाया ! घडियन्वं जाया! परिक्कमियचं आया! अस्सिचणं अट्रे जोपमाएअब्बं, भम्हपिणं एवमेवमग्गे भवओ तिकटु ॥ मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समण भगवं महावीरं वंदई गमंसई २ चा, जामेवदिसं पाउम्भूया तामेवसिं पडिगया ॥ १२८ ॥ तएणं से मेहेकुमार उससमय मेघकुमारने श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी पाससे ईशान कौनमें गाकर स्वयंपेर धरण, माला अलंकार नीकाल दीये, वे उसकी माताने इस समान भत बस्त्र में सब अभरणपाला अलंकार लेकर लूटावा हार पानीकी धारावसिंदूर वृक्ष के पुष्प समान आंशू डालती हुई रोती हुई भकंद करती हुई,बविलापकरता है ऐसारोली-अहो पुर! संयम याचाकी यस्ना करना, शानादि गुन को प्राप्त करना, व तप मार्गमें पराकाम करना, पुरुषपनेका अभिमान सिद्ध करना,संयम अर्थ कदापि प्रमाद करना नहीं, और हमको भी या मार्ग यथायोग्य समय प्राप्त होवो. यों कहकर मेघकुमार के मानपिता श्रमण भगवंत पारीरको वंदना नमस्कार कर जाणे भाये थे वहां पीय गये ॥१२८॥ तत्पश्चात् मेपकुमारने स्वयमेव पंच मुष्टि लोच करके श्रमण, भगवत ।। .काशक-गजाबहादुर लाला मुखदेवमहावजी मालमसादजी. Dinmaamanam For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सममेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, जेणामेव समणे भगवे महावीरे तेणामेव उवागच्छइ २ता, समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ२ चा वंदद णमंसदरत्ता एवं बयासी-आलित्तेणं भंते! लोए,पलितेणंभंते! लोए,अलित्तेपलितेणं भंते! लोए,जराए मर. णय से जहाणामए के गाहावई आगारंसिग्झियायमाणंसि जे तत्थ भंडेभबई अप्पभारे मोल्लगुरुए तंगहाय आयाए एगंत अवकमई, एसमेणिच्छारिएसमाणे पच्छापुराएलोए हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामित्साए भविस्सई, एवामेव ममाविएगेआयारभंडे इ8 कंते पिए मणुणेमणामे एसमे निच्छारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ, तइच्छा । मिणं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पन्चावियं, सयमेव मुंडावियं, सय मेव सेहावियं, सयमेव महावीर स्वामी की पास आये और आपण भगवंत महावीर को तीन वक्त वंदना नमस्कार कर ऐसे बोले अहो । भगवन!पा लोक आलिप्त मलित है अर्थात् अटीते पलीते जरा व मरणरूप अधिकर जलरहा है उस में से जैसे कोई गायापति अपना गृह जलने पर उस में से अल्पाभार ५ बहुमूल्यवाला भंडोपकरण लेकर एकांत में जाता है | क्योंकि-वही इस लोक में उसको हित सखब कल्याणका कर्ता होता है.ऐसे ही मेरा एक आचार आप भंडो-A पकरण इष्ट,कांत,मिय,मनोड व मन को आनंदकारी है यही मेरा संसार नाश करनेवाला होगा. इसलिये रिमु - आप वयं प्रबजित करो, सयमेव पंडित करो, सयमेव दीक्षित करो, शिक्षित करो | पहमांग-माताधर्मकया का प्रथम श्रुतस्कन्ध4.18 विन्स (मेषकुमार) का बथम अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48 पदकपालमवारी मुनि श्री भगोलक ऋषिनी 8 सिक्स्थावियं तपमेव ममआयारगोयर-विणय-रण-करणे- आया- माया- उचियं धम्म माइक्विव ॥ १२९ ॥ एवं समणे भगवं महावीरे मेहकुमारं सयक्षेत्र पत्राद् समेत्र मुंडाइ, सयमेत्र-आयार जाव धम्ममाहखइ, एवं देवाणुप्पिया! गतब्धं, चिट्टि पभ्यं. जिसीयन्वं, तुहियन्त्र, भुजियत्वं भासियन्त्रं, एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जी सतह जमे संजमियां, अहिंसवणं अट्ठे णो पद्माएयस्वं ॥ १३० ॥ सए से मेहे कुमार मण भगवओ महावीर अतिए इमं श्यारूयं धम्मियं उपमं प्रिंसम्म सम्बडिबबइ, समाजा सहा गाइ, सहा बिट्ट, जव उट्ठाएउट्ठाय पाणेहिं भूयहिं जीहिं माचार, गोवर, विनय, चरण, करण यात्रा, आहार आदि की मात्र तप कर्म करने को मैं चाहता हूंब हे {देशनुप्रिया ! आपस्वयमेव मुझे कहो ? ।।१२२|| तब श्रमण भगवंत महावीरने स्वयंमंत्र उनको प्रजित कीया, मुंडिस कीया यावत् उत्तम धर्म कहा. अहो देवाप्रिय ! इस बकार ईव समिती पूर्वक चलना, बस्मा पूर्वक खडे रहना, प्रस्ना ब्रेडना, यस्नामे शयन करना, यदनासे आहार करना, यस्नारे भाषा समिति युक्त बोलना, यो सदेव ण, भूत, बीच, मस्की यस्ता करना, उक्त संगमके कर्मों में किचिन्मान प्रमाद करना नहीं ॥ २२० ॥मेघकुमारने श्रमण महावीर हामी को पास ऐसा धार्मिक उपदेश सुनकर सम्यक प्रकार से अंगीकार कीया. बाह्य में से जलने बैठने कान खडे रहने लये व माण, भूत, मीच का सं For Personal & Private Use Only राजवाहर लाला सुखदेवसहायत्री ज्वालाप्रसादजी ● ११३ ( Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र सत्तेहि संजमइ ॥ १३ ॥ज दिवसंचणं मेहकुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अण. गारियं पन्चाए तस्सणं दिवसस्स पुवावरण्हकालसमयंसि समणाणं णिग्गंथाणं अहारावीणयाए सेजा. संथरएमुवि भजमाणेम मेहस्तकुमारस्स दारमूले सिज्जा संथारएयाचि होत्थ ॥ ३२ ॥ तएणं समणाणिग्गंधा पुब्बरत्ता वरत्तकाल ममयंति वाय. पाए पुच्छणाए परियणाए धम्माणुयोगचिंताएय उच्चारसय पासवणस्सय अइगच्छमाणाय णिगच्छमाणाय-अगइया मेहंकुमारं हत्यहिसंघटंति, एवं-पाएक्षि-सीसेणं पोटे. काय, अप्पेगझ्या ओलंडइ, अपंगइया पोलैंडेइ. अप्पगइया पायरएणुगंडियं करेइ, पालनलगे॥१३॥ जिमदिन मेषकुमारने मुंडित कर गृहवास संसापुरता प्रकारकीया उस दिनकी मंध्या समय यथारलाधिक प्रमण निर्ग्रन्थों के शैय्या संधारेकी जगहाका निभा समयकुमारका सोनेका पिछा-31 नाद्वार की पास आया. क्योंकि यह नव दीक्षिा ॥१३२॥उसप्तमयमें आधी रात्रिधीने बाद श्रमण निर्ग्रन्थों वाचना, पृच्छना, पर्यटना, धर्म चितवना व लघुनीन बडीमीत कैलिये जाने माने से कितनेक का मेघकुमार के हाथ का संघटन हुवा, कितनेक का पांव से, मस्तक से व पीठ से संघटन हुवा, कितनेक उल्लंघकर जांसमे,पलंघनकर आनेटगे कितनेकेषांवकीरजम मेघकमारका शरीरभर गया; यो संपूर्ण रात्रिम मेघकुमारकी दीक्षा में बडे साधुओं का बिछोना पाहले किया मोर छोटे का पीछे किया यों अनुकम से बिछोने किये थे. नयर बामथम श्रुतरसन्ध म पष्टयांग ज्ञानाधर्म Hiसिस(पकुमाराव अध्ययन 4 अर्थ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4- अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं महालियंचणं हिं रयणी मेहकुमारे जोसंचाएइ स्वणमत्रि अच्छिणिमीलित्तए ॥ १३३ ॥ तएगं तस्स मेहरसकुमार अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था - एवं खलु अहं सेणिएरणोपुत्ते धारिणीदेवीए अत्तए मेहे जात्र सत्रणथाए, तं जम्हाणं अहं आगार मज्झावसामि तयाणं मम समणाणिग्गंथा आढायंति परिजाणंतिसक्कारेति सम्मा ति अट्ठाइहऊति परिणाई कारणाई वाकारणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं ताहिं आलर्वेति संलवंति, जप्पभिचणं अहं मुंडे भविता आगाराओअणगारियं पव्वइए तप्पभिचणं ममं समणाणिग्गंथा णो आढाइंति जात्र णो संलवंति अदुतरंचणं मम आंखों क्षणभर भी मीली नहीं. अर्थात् क्षणभर भी उस को निद्रा आसकी नहीं ॥ १३३ ॥ उस समय बेधकुमार को ऐसा अध्यक्षमाय यावत् हुवा कि मैं श्रेणिक राजा का पुत्र, धारणी देवी का आत्मज पावत् डम्बर पुष्प जैसे सुनने को दुर्लभ हूं. और भी जब मैं गृहवास में था तब श्रमण निर्ग्रन्थों मुझे आदर { करते थे, अच्छा जानते थे, सत्कार करते थे, सम्मान करते थे, अर्थ हेतु प्रश्न कारण व व्याकरण कहते थे. इष्ट कांत वचनों से मुझे वोलाते थे, व मेरी साथ संलाप करते थे. परंतु जिस दिन से मैं मुंडित होकर गृह{वास से साधुपना अंगीकार कीया है उस दिन से श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर नहीं करते हैं यावद मेरी साथ बचनों वार्तालाप भी नहीं करते हैं और भी पढे माधुओं आज राधि में वाचना पृच्छा यावत् For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्यामलदजासी ११४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.पष्टमांग-गावाधर्मकथा का प्रथ- श्रुतस्कम्प समणाणिग्गंथा राओ पुखरता वरत्तकालसमयांस वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं चणं रत्तिं णोसंचाएमि अक्विणि मिल्लावत्तए ॥ १३४ ॥ तं सेयं खलु ममकलं पाउप्पभाए रयणीए जाव तेयसा जलते समणं भगवं महावीर अपुच्छित्ता पुणरवि आगारमझेवसित्तए त्तिकटु, एवं संपेहेइ २. त्ता अट्ठदुहट्ठवसट्ठमाणसागए गिरए पडिरूवियंचणं तं रयणि खवेइत्ता, कल्लंपाउप्पभाए सबिमलाए रयणीए जाव तेय साजलंते, जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ२ ता तिखुत्तो आया हिणं फ्याहिणं करेइ २ ता वंदइ णमंसइ २ चा जाव पज्जुवासइ ॥ १३५॥ वडीनीत लघुनीत के लिये जाने आने से मैं निद्रा नहीं लेलका हूं ॥ १३४ ॥ इसलिये कल प्रभात में यावत् जाज्वल्यमान सूर्य उदय होते श्रमण भनवन महावीर स्वामीको पूछकर पुनः गृहवास में जाकर रहना मुझे श्रेय है. यों विचार कर आर्तध्यान रूप दुःख से पीडाया हुवा मानसिक दुःख में विकला वश नरक समान दुःखवाली रात्रि पूर्णकर प्रभातमें जाज्वल्यमान सूर्य उदय होते श्रमण भगवंत महावीर स्वामीकी पामआये और उन को तीनवार आवर्त वंदना नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करने लगे ॥ १३५ । उस समय श्री श्रमण मगवंत महावीर स्वामीने मेघकुमार को ऐसा कहा महो मेघ ! आज मध्य राबिवी से अमन । उत्क्षिप्त (अपकुमार) का प्रथम अध्ययन अर्थ/ 8 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिनी + तएणं मेहाइ ! समगे भगवं महावीरे मेहंकुमारं एवं क्यासी-सेणणं तुम मेहा ! पुत्ररत्ता. वरत्तकालसमयंसि समणेहि णिगंथेहिं अयणाए पुच्छणाए जाव महालियं चणं. राई णोसंचाएमि महुतमवि अक्खिणिमिल्लावेत्तए ॥ तएणं तुम मेहा! इमे एयारूवं अज्झथिए समुप्पजित्था जयाणं अहं अगारमझेासामि तयाणं मम समणा णिग्गंथा आढायंति, जप्पभिइंचणं मुंडेभबित्ता आगाराओअणगा. रियंपव्ययामि तभिवणं मम समणा णोआढायंति जाव णोपरिमाणति, अदुतरचणं समणाणिग्गंथाराओ अप्पेगइया वायणाए जाव पायरयरेणुगडियं करेंति; त सेयं खलु भमकल्लं पाउप्पभाए समणं भगवं अपुच्छित्ता पुणरवि अगार. __ मञ्छे आवप्सित्तए, तिकटु, एवं संपेहइ २ अ हुहट्ट वसट्टमाणसे जाव रयणीखवेइ, निर्ग्रन्थों वाचन पुच्छा के लिये यावत् जाने आने से तू मुहू मात्र भी निद्रा नहीं ले सका ? उस से तुझे *क्या ऐसा अध्यवसाय हुवा कि जब मैं गृहवास में था तब श्रमण निर्ग्रन्यों आदर सत्कार करते थे और जब से मैंने दीक्षा ली तब से श्रमख निर्ग्रन्थों मुझ आदर सत्कार नहीं करते हैं यावत् अच्छा नहीं जानते हैं। तदुपरांत बडे रत्नाधिक माधुओं वाचनापुरनाके लिये यावत् पांव की रज से मेरा शरीर खराव कीया. इस लिये कल प्रभात में श्रमण भमत को पूराकर पुन: गहवास में रहना रेसा मुंश्रेय है, विचार कर मायाक-राजावादर लालामुखदर सक्षयजी ज्वाला - - For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागमाता पर्वका का तक +8+ जेणानेव अहं सेणेव हम्बमागए, सेणूणं महा ! एसअटे सम? हंता अढे समष्टे 4 ॥ १३॥ एवं कलु महा ! तुम इउतचे अइयभवग्गहणे वेयगिरि पायमूले वणयरेहि जिन्वतिय जामधेजे संखदल उजल विमल णिम्मल दहियण गोखीर फेण वररयरयय रियप्पयासे सत्तुसेहे णवायए इस परिणाहे सत्तंगपइदिए सोमं संमिए सुरुवे पुरओ उदग्गे समुसियसिरे सुहासणे पिटुआबरहि अइकुक्खया अच्छिहकुक्खी भलंबकुक्खी पलंबलंबोदराहरकरे धनुप्पिटुगिइ विसिटुपट्टे अल्लीणपमाणुजुत्ते वट्टिय। वार्तध्यान से दुखित होकर संकलश यात्र रात्र पूर्ण करके प्रमात होते मेरी बाया. बहो मेय ! क्या यह पात सत्य है ? हो भगवन् ! यह बात सत्य है. ॥ १३॥ परंतु बहो मेय! इससे पूर्व सासरे मर में तू वैतादयगिरि पर्वत के पास शंख पूर्ण समान, उनस, विमल ।। निर्मल विसा, गाय के दूध जैसा, समुद्र के फेन जैपा, पानी के कण जैसा तेजस्त्री, सात हाय का उवा, मदाय का लम्बा, दश हाथ का उदर स्थान, चार पांव, ५ सूद६ पुंछ और इन्द्रिय ये सार अंय मुक्ति , जमीन कोलगते सौम्य,मुरुर, बागेस संचा, सुखकारी स्कंधवाला, पछि सूथस जैसा नीचा, बकरीट समान अंग पृष्ट भागवाला, छिद्र व खो गहित, अपलक्षण रहित लम्बी कलीवाला, लम्बोद लम्स मुंडन पर बाससाने गुरे धनुष्य जैसे विशिए पृष्ट भाग पा, पीली हुई प्रमाणा पंचा पंचकुमार) का भय अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुबांदक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि पौवस्गत्तावर अजीणपमाणजुत्तषुच्छे पडिपुण्णसुचारुकुम्मचलणे पंडरसुविसुर णिरणिरुवहयविसतिणेह छदंते सुमेरुप्पभेगानं हत्थिरायाहोत्था ॥ १३ ॥ तत्थणं तुम मेहा ! बहुहिं हत्याहिय हत्यगियाहिय लोहएाहिय लोटियाहिय कलभहिय कलभियाहिय सडिसंपरिबुडे हत्थी सहस्सणायए देसए पागडीए टीवए जूहबईविंदपरीयटुए, अण्णेसिंच बहुणहत्थी कल माणं आहेव जाव विहरसि ॥१३८ ॥ . तएणं तुम मेहा ! णिचप्पमत्तेत्ति पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितिण्ण काम .मोगेतिसिए बहुहिं हस्थीहिय जाव सहिं संपरिबुडे वेयगिरिपायमूले-गिरी य, F{पुण्याला, मनोहर कावे असे पत्रिवाल . धालो विशुद्ध निर्मल सेजवंत उपद्रव रहित फटे आदि दोषों रहित । विषस बीसनल पाला, छह देतू भूल 'मुपेरुमभ' नामक इथियों का राजा त था ॥ १७ ॥ अहों मेघ ! वहां तू बहुत पुवावस्थावाले हाधिों, हायिणियों, नरबच्चे व मादावची च छोटे कुलभ कलभी के परिवार सहित फिरतावा. एकहजार हाथिणियोंका नायकथा, हितमार्ग बतानेमे प्रकर्ष अग्रगामी वनकर रहताथा, हामिणीयों के बुध में वृद्धि करने वाला था, और अन्य बहुत हाथी व छोटे हाथी का अधिपति पना करता हुवा विचरमा प्रा. ॥ १३८ ॥ और भी अओ मेष ! तू सदैव लीला क्रीडा करता हुना काम भोग, रति मोह के सभाप का काम भोगों को पार नहीं पहुंचा दुवा र पाल क्षित पनकर बहुत हाथियों से बावत् पररा। प्रकारकरावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. मर्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जरिभात (मेषकुमार) का 8+ पामांम-माता धर्मकथा का प्रथम श्रुतमन दरीमुय, कुहरेसुय, कंदरासुय, उज्झरेसुथ,णिज्झरसुय, विपरेमुय, गतामुय,विखलेसुयाई कडगेसुय, कडगपल्लेलसुय, तडीसुय, वियडीसुय, टंकेसुथ, कुंडेसुस, सिहरेसुय, पम्भारेसुय, मंचेसुय, मालसुय, काणणेसुयः वणेसुय, वणसंडेसुय, वणराईसुय, गइसुय, णइकच्छेनुय, जूहेसुय, संगमसुप, वावीसुय, पुक्खरिणीसुष, दीहियासुथ, गुजालियामुया, सरमुय, सरपतियासुय, वणयरहिं दिष्णविणारे, बहुहिं हत्यहिष जाव सहि संपरिबुड़े बहुविह तरुपल्लव पउर पाणिय. तणेणिभए: णिरूविगे मुहं . मुहणं विहरइ ॥ १३९ ॥ तएणं तुम मेहा अण्णया कयाई पाउसवारसारच सांय . सातादयगिरि पर्वत के मूल में, केंदगपडी गुफा में दरी-छोटी गुफा में उज्वर-पर्वत पर से पानी पस्ने । के स्थान, कुंदर-पर्वत की तराड, मिसना पानी नीकलमे के स्थान, बिहार-छोटी नदी, गर्मा-खां विल्लल-बिनाबन्धे तालाब में कडग पर्वत के कडवे में, नदी आदिके तट अटवि में कूट में... शिखर, प्रभार में, भांचा में, माला में, कानन, वन वनखंड, पनराजी, नदी, कच्छ, युप, संगम अचडियों पुरा दीपिका, गुंजालि का बांकी वावी, सरीवर सरोवर की पंक्ति में, बमयरों की साथ बहुत रानी डायनी यों की साथ परवरा हुवा अनेक वृक्षों के कुंबल खाता. हुवा हसपास घरता हुवा निर्मकपारी पाता दुता, किसी प्रकार के उपद्रव सेग सहित सदैवमुख समाधि में, दिखरता था. ॥ ११९ ॥ मो मेनका For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महंत वसतेनु कर्मण पंचमुउऊ मइकर्ता गिम्हवालसमपंसिः जेठामुलमासेमा पायचं समुट्टिएणं मुक्क तण्ण पत्त कयवर मारूय संजोगा दीविएणं महाभय करणं हयवहेणं वणदव जालपसंपलित्तमः वर्णतेनु धृमाउलासु दिलासुः महावाप्रवेगेणं संघट्टिए मुग्छिण्णजालेमु, आवयमाणेसुय पोखरक्तासु, अंसो २ मिसायमाणे सुमय कुहिय विणि? किमिय कहमण विस्भाम्भाण पाणीयंत सुवण्णतेसु भिंगारक वीण कंदीयरवेमु सरफरस अणिदुरिट याहितबिद, मग्मेंस दुमु तण्हावसमुक खपयाडय जिब्भतालुय. असंपुडियतुंड पकिससंघ ससते. मुगिम्हमह उष्णवाय अर्थ एकदा माद ऋतु श्रावण माद्रपद, वर्षाऋतु-अनि कतिक, सादातु-पसर पोप, मन्तऋतुमहाकाल्गुन IFऔर वसंत ऋतु-चत्र, वैशाख, यो पांगे ऋतु व्यतीत होकर श्रीष ऋतु के ज्योष्ट व अपार पास का समय लगा. उस में वृक्षोंका परस्पर संघटन हो अनि प्रस्ट हुवा,बहा भाकर दोसन लगाम की अनियों की माला प्रतिज्याला से पदीश हुना, धूम्र के गोटेगोट वनखण्ड के अंतक पर्यन्त व्यास.ए, पहा बाबु के वेग से मशित होकर सुटी हुई ज्वाला समूह चारों दिशि में पड़ने लमे सर्व आनिमय देखापे लगा, वृक्षों के छिद्रों में अपि प्रवेश कर आये. प्रज्वलित होने लगी. मृत्यु पाये हुए शादि पशुषों के कलेवर बोडे मनी में रहने से डगपिन या, नाले साल के नीर बीग हुए, मा. बता धारादि: पक्षियों . अमुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अकोलक ऋषिमी .काका-राजावर लालामुखदेव सहावजी ज्वालामसादर For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ bi RakPRILab18 खर फरुत चंडमारुय सुधातणपत्त कयवरवातुलि भमतदित्त संभंतसावयाओलीमग. तण्हा । बचण्हंपट्टेस गिरिवरेस संवइसुतत्यानयासबसिरीलिवन अववालिय वयण विवरणिलालियग्गजी हे महंत तुबइय पुणकपणे संकचियघोर पविरकरे ऊसियलंगले पीणइय विरलरडिय तदेणं फोड यंतेव अंबरतलं पाबददरएयां कंपयतेव मइणितलं, विणिमुयमाणेय सीयसीयरं सव्वओ समता वलिवियाणा इच्छिमाणे स्थानभ्रष्ट होने से दीन दया जा क रने लगे, आनंद शब्द होने लगे. अती कर्कश कठोर अ.नेष्ट रिष्ट कोवे का आवाज होने लगा. उ. ५क्त में विदुर-प्रवाल, जैसे लाल रंग समान बन का अग्नभाग प्रज्वलित हुवा. उम स्थान पर तृपा से पीडित मुख विकासकर व पांखो प्रसार कर पडे हुवे व गिव्हा तालु से बाहिर निकाल हुवे ऐसे पक्षियों के समुह पडे थे. तडफडते उश्वास डालते ग्रीष्म ऋतु का वायु सूर्य के किरण से ऊष्ण हुवा, तीक्ष्ण, अमुहा !णा, फरुप-खराब स्पर्शवाला, वायु शुष्क तृण पत्र व कचार पर परिभ्रमण करन लगा, भ्रम को प्राप्त होने से आवागमन करते हुए दीत मनाले साद सिंहादिक जीव आकलव्याकुल हुए. मग उष्ण,परिचिक व पानीके शांझवाराबंधहुधा.. बड पति में संवर्तक वायु चलने से त्रास को प्राप्त मनादि, अटवि के तुष्पद जीवों, सरिमप गोह प्रमुख उरपर भी बाला बन हवा. वह वन इस प्रकार होने से सुमेरुपम हस्तीने भी साप से ततवनकर अपना पख पकुमारका गम अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमापाजी रुक्खसंहस्साई तत्थ सुबहुणि णिल्लायंते विणिट्टरटेव वणयरविंदे वायाभेटुव्बपोए मंडलावायव्वपरिभभमंते अभिक्खणं २ लेंडणियरं पमुंचमाणे बहुहिं हत्थीहिय जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्ता तत्थणं तुममेहा ! जुण्णे जरा जज्जरिय देहे आउरेज्झझिए पिवासिए दुबले किलंते णट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहुणे दवणवजाला परद्धे उण्हणय तण्हाएय छुहाएय परब्भाहएसमाणे भीए तत्थे तसिए उव्विगे संजायभए रूप छिद्र विकसित किया, उम में से जिव्हा बाहिर निकाली, महा भय से व्याकूल बनकर तुम्बाकार, दोनों कान खडे किये, उन की मूंढ अत्यंत जाडी हुई, पूंछ ऊंचा किया. विरस निरस रहित अरडाट , शब्द से आकाश तल फोडता हुवा,पांवों के प्रवाह से मेदनी तल तोडता हुवा, चित्कार पाडता हुवा, सब दिशि विदिशियों की बेलियों का छेदन करता हुवा वृक्षों के समुह तोडता हुवा, महा वायु से भ्रष्ट होकर समुद्र में लीरते हुए जहाजों तथा मंडलिक वायु जैसे भ्रमण करता हुवा, वारंवार लीडे डालता हुवा था हाथी बहायणियों के साथ दो दिशि में पलायन करता हवा अहो मेघ! तू जीर्ण व जर्जरित देहवाला हुवा. आकुल व्याकुल बनकर क्षुधा व तृषा से पीडित दुर्बल बनकर भगने लगा. बहिरा जैसा के होकर दिग्मूढ बना हुवा अपने यूथ में से निकल कर वन की दावाग्नि की ज्यालासे पराभव पाया. ऊष्ण , ज्वालासे तृषातुर क्षुधातूर बनकर पहुन दुःखित हुवा, डरा, त्रासत हवा, उद्वेग पाया और चारों तरफ .जाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम + पाणियं सव्वओ समंता आघावमाणे परिधात्रमाणे एवं चणं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुले अतित्थेनं पाणियपाए उत्तिष्णे ॥ १४० ॥ तत्थणं तुमं मेहा ! तीरमइगए असंपत्ते अंतराचेव सेयसि विसिणे ॥ तत्थणं तु मेहा ! पाणियं पाइएस्सामि तिक, इत्थं पसारेइ सेबियए हत्थे उदगं ण. पावइ । तएणं तुममेहा ! पुणरविकार्य पच्चरिस्सामि तिकडु, वलियतरायं पंक सिक्खुत्तो ॥ १४१ ॥ तएणं तुमं मेहा ! कागे चिर णिज्जुढएगपवरजुवाणे सयाओ जुवाणे सयाओ जूहाओ करचरणदंत मुसलप्पहारेहिं विप्परसमाणे, तंचेव महदहं पाणियपाये समोयरइ दोडता हुवा अल्प उदकवाला एक बडा सरोवर में जमीन से दूर व पानी को अप स ऐसी की स्थिति में ( प्राप्त हुवा || १४० ॥ अहो मेघ ! वहां तू किनारे से निकला व पानी को अप्राप्स बना हुवा बीच में कीचड में फस गया. वहां अहो मेघ! मैं पानी प्राप्त करूंगा ऐसा विचार कर सूंढ लम्बी की परंतु पानी तक पहूंची { नहीं. तब अहो मेघ! तैने यह विचार कीया कि यहां से मैं बाहिर निकल जाऊं परंतु उस की में विशेष निमन्न होने लगा ॥ १४१ ॥ अव अहो मेघ ! एकदा प्रस्तावे तैंने तेरे यूथ में से एक हाथी को बाहिर निकाल ( दिया था, वह हाथी अब युवावस्था को माप्त हुआ था, वह अपने सूंढ पांच व दंताशूल से प्रहार कर मारता " For Personal & Private Use Only 18+ उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन १२३ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ man प्रकाशक-राजावर १२४ ॥ १४२ ॥ तएणं से कलभए तुम पामइत्ता तंच पुचवरं समरइ आ रत्ते रु? कुदिए चंडकिए मिसिमिसेमागे जेणब तुम तणव उवागच्छइ २ ता, तुम तिक्वेहिं दंतमुसलेहिं तिक्वन्तो पिटू उच्छु भइ २ त्ता पुत्वरं णिज्जाएइ २ त्ता ट त पाणियं पियइ २ ता जामेय दिसि पउभए तामेदिसिं पाडगए ॥ ११३ ॥ तरणं तव मेहा ! सरीरगति वेयण पाउन्भवित्था उज्जलाति उजला विउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जर परिगयसरीरा दाहवक्कतीएयावि विहारत्था ॥ १४४ ॥ तएणं तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराइदिय वेयणं वेएसि सीमं वाससयं हुवा भगता हुवा उम ही अला पानीवाले सरोबर में पानी पीने को आया ॥ १४२ ॥ अब उस युवान हाथीन तुझ देखकर अपना पर्व बर याद आया और आमरक्त. रुष्ट, कपित, प्रचंड होरर दांत पीसता हवा तेरी पास आया. तरीठ में ताक्षण दंतूशल, मे नीन वक्त मारकर पूर्व वैर का बदला लेकर हृष्टतुष्ट हुवा और पानी पीकर जहां मे आया था वहां पीछा गया ॥ १४३ ॥ अब अहो मेघ ! उस समय रे शरीर में उज्जल, विपुल कर्कश यावन नहीं सहन हो सके वैसी वेदना हुई, शरीर में पित्तर व दाह। उत्पन्न हवा ॥ १४४ ॥ अब अहो मंघ ! उज्वल यावत् सहन न होमक वैसी वेदना मात गांव|दिन पर्यंत वेदकर एक मो पीस वर्ष का उत्कृष्ट आयुष्य पालकर आर्तध्यान से दुःखित होताना १ अनवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक रुषिजी लालाखदेवसहायजी ज्वालाप्रमा* For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -> - परमाउयं पालइ २ चा अहवनदहहे कालमासेक लकिच्चा इहेव जंबुद्दीवे २ भारहेवाखे दाहिणभरहे गंगार महाणईए दाहिणे कृले विज्झगिरि पायमूले एगणं मत्तवर गंधहत्थिणा, एग ए वर करेणए कुच्छसि गयकलभए जणिए ॥ १४५ ॥ तएणं सागय कलभिया णव: माताणं वसंतमासंमि तुम. पयाया । तएणं तुम मेहा ! गम्भवासाआ विप्पलके समाणे गयकलभयाधि होत्था, रत्तुप्पलरत्त सूकमाले जासमणरत्तपालि जत्तए लक्खारस सरस कुकुम संझब्भरागवणे, इट्ट णियगस्त जवइणो गणियायाराकरेणु कोत्थहत्य अगहत्थिमयसपरिवुडे रम्मे सुगिरिकाणणेसु अथकाल अवसर में काल कर इस ही जम्बूद्वीप के भरन क्षेत्र में दक्षिणार्ध भरत में गंगा महा नदी के दक्षिण नारा पर विध्यगिरी पर्वत के मूल में एक मदोन्मत्त गंध हस्ति से एक श्रेष्ठ अथिणी की कुति में हाथी को बच्चा जन्म लीया ॥ १४५ ॥ उस समय में वह हाथीनि का नवमास परिपूर्ण हुए पीछे वर्मत काल में तेरा जन्म हुवा. इस तरह गर्भ से मुक्त होने से तू हाथी का बचा हुआ. तू रक्त कमल समान रक्त वर्गाला, सकुपार कोमल शरीरवाला, जाई के पुष्प जैसा, पारिजात वृक्ष विशेष, लाख का * रस, ताजा कुमुय का रंग व संध्या राग समान लाल रंगवाला इष्टकारी अपना यूथ के अधिपनि. गणिका समान विपयाली दाक्षिणीक उदर में संद रखनेवाला अर्थात् कामक्रीडा में नत्पर, अनेक गणों से पर पष्ट ज्ञाता धर्मकथा का-प्रथम श्रुतध उत्क्षिप्त मेघकुमार का प्रथम अध्याय 47 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादक-बालब्रह्म चारी मुनि श्री अमोलक ऋपी सुहं गुहेणं विहरइ॥१४६॥तएणं तुम मेहा! उमुक्कबालभावे जोवणगमणुपत्ते जूहवइणा कालंधम्मणा संजुत्तेणं तंजूहं सयमेव पडिवजसि॥१४७॥ तएणं तुम मेहा! वणयरेहि णिवत्तिय णामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था ॥ तत्थणं तुममेहा ! सत्तंगपइट्ठिए तहेव जाव पडिरूवे ॥ तत्थणं तुममेहा ! सत्तसयरस जूहस्स आहेवच्चं जाव अभिर मेत्था ॥ १४८ ॥ तएणं तुमं अण्णया कयाई गिम्हकाल समयंसि जिट्ठामूले वणदव जाला पलित्ते मुवणंति सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाएव्व परिभमंता भीए तत्थे जाव संजायभए बहूहि हत्थीहिय जाव कलभियाहिय सद्धिं संपरिरा हुवा रम्य पर्वत के वन में सुख पूर्वक विचरने लगा ॥१४६॥ अहो मेध ! तू बालभाव से मुक्त होकर योवनावस्था को प्राप्त होते यूथपत्ति के काल धर्म से संयुक्त हाने से तैने उस यूथ को अंगीकार कियामालक बना।।१४७॥ तहां अहो मेघौतेरा बलचरोंने यावत् चार दांतवाला मेरुप्रभ हस्तीरत्न नाम रखा. अहोभ मेघ ! सातों अंगों में प्रतिष्ठित यावत् प्रतिरूप हुना. अहो मेघ ! तू सातसो हाथियों का आधिपति यावत् ॐ मनोहर था ॥ १४८ ॥ तध अहो मेघ ! एकदा ग्रीष्म ऋतु प्राप्त होते ज्येष्ठ मास की मूल नक्षत्रकी अग्नि में प्रदीप्त होने से धूम्र से आकुल व्याकुल होकर दशोंदिशि में वास को प्राप्त होते बहुन हाथी । प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी. क For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२७ स्था का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 वुढे सवओ समंता दिसोदिसं विप्पलाइत्था ॥ १४९ ॥ तएणं तव मेहा ! तं वणदवं पसित्ता अयमेया रूवेअज्झथिए जाव समुप्पाजत्था कहणं मण्णे मए अयमेया रूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुवे ॥ १५० ॥ तएणं तब मेहा ! लेसाहि विसुज्झमाणीहिं. अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्भाणं खउसमेणं इहापुहमग्गण गवेसणं करेमाणस्स सणिपुव्वे जाइसरणे समुप्पजित्था ॥ १५१ ॥ तएणं तुमं मेहा ! एयमटुं सम्मं अभिसमेइ एवं खलु मया अतीए दोचे भवग्गहणे इह जंबूदीचे २ भारहेवासे वेयड्डगिरि पायमूले जाव सुहं सुहेणं ओं, हाथी के नर बच्चे व मादी बच्चे वगैरह सब भगने लगे ॥ १.४९ ॥ अहो मेघ ! वन का दवा र लेने को उस समय ऐसा अध्यवसाय हुवा कि मैंने ऐसा अग्नि का उत्पन्न होना किसी स्थान - अनुभवा हुवा है ॥१५०॥ अब अहो मेघ ! तेरे विशुद्ध लेश्या व अध्यवसाय से शुभ परिणामसे या काय कर्मों के क्षयोपशम से मातज्ञान के इहादि में मार्ग गवेषणा करते पूर्व का जाति स्मरण ज्ञान उस दुधः ॥ १५१. ॥ अहो मेघ ! सेन यह बात सम्यक् प्रकार से जानी कि मैंने गये भव में , इस जम्बूद्रोप के भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के मूल में यावत् सुख पूर्वक विचरता था. वहां ऐमा अनि 4+8+ उक्षित (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन *38 16 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिर्जन विहरइ, तत्थणं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभए ॥ १५२ ॥ तत्थणं तुम मेहा ! तस्सव दिवसस्स पवावरण्ह कालसमयसि सणियएणं जहेणं सद्धि समण्णागएयावि होत्या । तएणं तमं महा सभुस्सेह जाव सणि जाइसरणे चउदंते भेरुप्पमेणाम हत्थी राया होत्था ॥ १५३ ॥ तरगं तुम मेहा ! अथमेयारूचे अझ थिए जाव समुपजित्था-त सेयं खलु ममइयाणि मंगाए महाणईए दाहिजिल्लं कलंलि विज्झगिरि पायमूले दवग्गि संतागकारला .लए जूहेणं महइ महालयं मंडलं घाइत्तए तिकटु, एवं संपेहइ २ सुई महेण विहरइ ॥ तए तुम महा अाया कयाइं पढम पाउलियं महाबुट्टिकायंस सगियायमि गंगाए महागाईए अदूर सामने उत्पन्न हुवा था ॥ १५२ ॥ अहो मेघ ! उस दिन के प्रथम प्रहर से पीछे के पहर तक अपने यूथ की। साथ तू आता था. अहो मेघ ! उस समय तू सात हाथ का ऊंचा, नव य का सम्पा, दश हाथ क | चौडा, यावत् जाति स्मरण ज्ञानवाला, चारों दांतवाला व रक्त वर्णवाला ममम नामक हस्ती गजा था ॥ १५३ ।। अहो मेघ! वहां तुझ एसा अध्यवसाय हुआ कि ऐसी दवन से रक्षण करने के लिये गंगा नदी के दक्षिण किनारे पर विध्ययल पर्षन के एक छोटे पहाड के मन में वृक्षादिक का छेदन कर अपने यूथ सहित एक धडा मंडल वनार मुझ श्रेय है. एका विचार कर तू मुख पूर्वक विचरने लगा. तदनंतर '. प्रकाशमलवडाका डालादाजी पालापमा For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ १०+ षष्ठा ज्ञाताधर्मकथा प्रथम-तस्कंध हे हत्थाय कलाभियाहिय सत्ता हत्थितएहिं सद्धि संपरिवुडे एगंमहं जोयण परिमंडलं महंति महालयं मंडल घाएसि, जं तत्थ तर्णवा, पत्तंवा, कटुंगा, कंटएवा लयावा बल्लवा, खाणुवा, रुक्खा, खुवा तं स तिक्खुतो आहुणिय २ पाएणं उद्धरेसि हत्थेणं गिव्हइ एगंत पाडेसि ॥ १५४ ॥ एणं तुमं मेहा ! तस्सेव मंडलस्ल अदूर सामंते गंगाए महाणईए दाहिणिलेकुले विज्झगिरि पायले गिरिसु जाव विहरइ ॥ १५५ ॥ तनं तुमं मेहा ! अण्गयाकयाइं मज्झिमए वरिसारचमि महाबुद्धि कार्यसि सणिवा जेणव से मंडले तेणेव उवागच्छइ २ चा दोचंपि मंडलवाए स य अहो मेघ ! एकदा प्रथम वर्षाकाल में जब बहुत वर्षा हुई तब गंगा महानदी की पास हस्ती यवत् हस्तिनयों के सातसों के परिवार से परवरा हुआ वृक्षों का देखन कर एक योजन का मंडल बडपिर जो तृग, पत्र. काष्ट, कंटक, लना, बल्ली, खूटी वृक्ष व छंटे वृक्ष हिल हिलाकर पांव से नीकाल कर व सूंढ से पकडकर दूर डाल दिये. उस मंडल की पास गंगानदी के दक्षिण कि तारेपर विध्यगिरी पर्वत की | लगा. ॥ १५५ ॥ तसश्चात् अहो मेघ ! अन्यदा मध्य वर्षा काल में बहुत वृष्टि हुई तब अपना मंडल " वगैरह सब को तीन २ बार ॥ १५४ ॥ अहो मेघ ! तलटी में यावत् तु विचरने For Personal & Private Use Only +8+ उत्क्षिप्त मेघकुमार प्रथम अन १२९ V Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - एवं चरिम वरसारसिः महावुट्रिकायंसि सणिवायमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छइ २ ता तच्चपि मंडलघायं करेंति जं तत्य तणंवा जाव सुहं मुहेणं विहरइ॥१५६॥ अह मेहा! तुमं गयंदभामि वढमाणो कमेण णलाणवण विधवणकरे हेमंते कुंदलोडउद्दततुसारपउरांमि अइकते अहणबगिम्ह काल समयसि पत्ते वियदृमाणो वणे सुबणकरेणु विविहदिण्णकयंपसघाओ पुनः आया और दूसरी वार तैने वह मंडल वृक्षादि नीकाल कर स्वच्छ किया और चरिम वर्षा काल में जब बहुत वृष्टि हुई तव पुनः अपने मंडल में आया और वहां जो तृणादि रहे थे उसे नीकाल कर तीसरी वार मंडल स्वच्छ बनाया. और फीर तू मुख पूर्वक विचरने लगा ॥ १५६ ॥ अब अहो मेघ ! गजेन्द्र भाव में प्रवर्तता हुवा नलिनीवन को विध्वंस करने वाला ६ कुंद पुष्प क्लोप्र वृक्ष को समुद्धिवान करने वाला व अतिहिम पड़े वैसा हेमंत काल अनुक्रम से व्यतीत हुवे पीछे आया हवा ग्रीष्म काल में विचरता हुवा बन में हाथियों की साथ तू जल क्रडा करने लगा. अहो मेध ! ऋतु से उत्पन्न हुए पुष्ा रूप चवर समान कर्णपुर से शोभायमान व मनोहर तू था. मदन दश से खिन्नरखते हुवे गंडस्थलों में से गंधरूप प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी वालाप्रसाद १ कजा पानी उससे उत्पन्न. सो पुष्प यहां जलक्रीडा. For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ पटानागावरकथा काथ। श्रुतध 3: तुम उउय कुसुमकयचामराकण्णपूरपरिमीडयाभिरामे मयवसविकसंत कडतड किलिण्ण गंधमदवारिणा सरभि जणियगंधोकरेण परिवारिओ उऊ समत्त जणिय सोहोकाले दिणयरकरपयंडे परिससिय तरुवर सीहरमीमतर दरिसाणजे, भिंगाररूवंतरवभेरवरवे गाणाविह पत्त-कट्र-तण- कयवरुद्धत पइमारुया इट्ठणहयल दुमगणे वाउलि दारुणतर तण्हावसदोस इसिय समंत विविह सावयसमाउले भीम दरिसणिज्जे, वदंते दारुणमिगिम्हे मारूय यमपलर पसरिय वियंभिएणं अभहिय मद का पानी भरने से तेरे में मनोहर गंध उत्पन्न हुइ, हायोंगयी का परिवार से परवरा हुचा रहा. जिस काल में समस्त ऋतुन शोभा उत्पन की है, जिस में सूर्य का प्रचंड ताप है, जिप्त में प्रधान वृक्षों के शिखरों निरस करने से रौद्र दीखते हैं, जिसमें भ्रमराओं भयंकर रौद्र शब्दों करते जिन में प्रतिकूल वायु से विविध प्रकार के पत्र, काष्ट, तृण, कचवर । नमस्ल व वृक्षगण को व्याप्त कर दिया है, जिस में भयंकर वायू (बंटोलियों आंधि प्रमुख होता है, जिन में तृषा से पीडित सापद पशुओं इधर उधर पानी की शोध में परिभ्रमण करते हैं, इस से वह काल बहुत हो भयंकर देखाव वाला होता है. ऐसा दासण ग्रीष्मकाल में बाय के वशा से प्रसरा हुवा दावानल प्रबड़ी भूत हुवा. वह वनदव कैसा है सो बताते हैं-ज्यों २ वन दावाग्नि अधिक होता है त्यों २ 489 गत्क्षप्त प्रघकुमार का प्रथ! अध्ययन if he cho अर्थ < For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुभदकबाल ब्रह्मचारीमान श्री अफ के ऋषिजी भीम भेरव वरप्पगारणे महुधारा पडियसित्त उद्धायमाणे धगधगंत समुद्धयेणंदित्त तरफुलिगेणं धूममालाउलेणं साबय संयंत करणेणं वणवेणं जालालोविय णिरुद्ध धूमधयारभीओआयवालोय महंततुं वइय पुण्णकण्णो आकुंचिय धोरपीवरकरो भयव सभयंत दित्तणयणो वेगेणं महामेहोव्व वायणोल्लिय महलरूबो जेणकआते पुरादयग्गिभय भीयहियएणं अवगयतणप्पस रूक्खोदेसो दवाम्गसंताणं कारण. ट्ठाए जेणेव मंडले तणेव पहारित्थ गमणाए एक्कोतावएसगमो ॥१५७॥ तएणं तुम मेहा! उस का भयंकर शब्द होता है, वृक्षदिक पर से मधु धारा का अग्नि में सिंचन होने से जंचा उछलताई, हुवा ज ज्वल्यमान रस व उत्कृष्ट जलता हुवा क.ष्ट रम से प्रबल बना हुवा दाशनल है. देदीप्यमान है। अनिकण रहे हवे हैं. धूम्र की श्रेणी से व्याकूल है, और सेंकडों श्वापद का विनाश करने वाला है. आम ज्याला से ढका हुवा व इच्छित मार्ग धूम्रादिक के अंधकार से रंधित होने से भय पाया हुना, अगि के ताप को देखकर बड तुम्बे समान कानों वाला, बहुत स्थूल पुष्ट गूढ को संकुचित करने वाला, भय से सब दिशि में खत नयनों बाला, असे वायु में महामेघ महारूप बाला हाये वैसा महारूप वाला, जिमने से दावाग्नि के भय से पहिले तृण वृक्ष रहित प्रदेश बनाया है वैमा हस्ती दानि में अपना रक्षण करने के अपने मंडलं तरफ जाने लगा. यह मयम अलापक ( एक आचार्य का मन)जानना ॥१५॥तत्पश्चत् अहो मेघ ! .प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सरवदेवाय नालापसवानी, For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र Manormanandimammammadar 48+ षष्टान ज्ञातार्धमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध अण्णया कयाइं. कमेणं पंचसु ऊऊसु समक्तेसु गिम्हकाल समयांस जेदामले मासे पायवसंघससमुट्ठिएणं जाव संवाड्ढएस मिय-पसु-पक्खि-सिरीसवेस दिसोदिस विपलायमाणेसु तेहिं बहुहिं हत्थीहियसाई जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थगमणाए तत्थणं अण्णे बहवे सीहाय, वग्याय, विगाय, दीरिया, अच्छा,रीच्छ तरच्छाय, पारासरा सरभाय, सिआल, विराला, सुणहा, कोला, ससा, कोकंतिय, चित्ता, चिल्लला पुवपविट्ठिया, अग्गि मया भिवा एगओविलधम्मेणं चिट्ठति ॥ १५९ ॥ तएणं प्रावृट् काल, वर्षाकाल, शरत्काल, हेमंत काल व वसंत काल यो पांचों कास अनुक्रम से व्यतीत हुए पीछे ग्रीष्म काल में ज्येष्टमामा आया. इस में वांशादि पादप में परस्पर संघर्षण होने से दावामि उत्पन्न हवा, यावत् वृद्धिपाने लगा. मृग, पशु, पक्षी, सर्प, इत्यादि चारों दिशि में भगने पर तू ने हाथियों व हा णियों के परिवार सहित अपने पंडल पर आया. ॥१५८॥ उस मंडल में अन्य बहुत सिख, व्याघ १६ चित्ते, अच्छ, रीछ, तरच्छा, पारासर, झरभ, गाल, सूर, कुचे, कोले, शशले, कोकोतका, या है इसादि व जीवों ने पूर्वोक्त मंडल में प्रवेश किया और जैसे चींटी आदिशक बिल में रहते हैं से कहा --... मेने लगे. ॥ १५९ ॥ तत्पश्चात् अहो घ मौरि - उत्तप्त (मघकुपार ) का प्रमाण For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ तुमं मेहा ! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तेहिं बहूहिं सीहहिं जाव चिल्ल हिय एगयओ विलधम्मेणं चिट्ठामि ॥१६०॥ तएणं तुम मेहा ! पाएणंगतं कडुइ स्मावि तिकटु, पाएउक्खित्त भेपिचणं अंतरंसि अण्णाहय बलवंतेहिय सत्तेहिय पल्लाइजमाणे.२ ससए अणुपवितु ॥ १६१ ॥ तएणं तुम मेहा ! गायंकंडुइत्ता पुणरविपायं पडिणिक्खामिस्सामि तिकटु तं ससयं अणुपविटुं पासइ २ ता पागाणु कंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयार से पाए अंतराचेव संधारिए णो चेवणं णिक्खित्ते ।। १६२ ॥ तएणं तुम मेहा ! ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए, संसार परित्तीकए नणुस्साउए पिबडे ॥ १६३ ॥ तएणं से यावत् चिल्लर के साथ एक बिल में रहने वाले जैसे रहा. ॥ १६ ॥ अहो मेघ ! महां तैने अपना शरीर खुनालने के लियपात्र उठाया. हमले में अन्न बलवनमाण की ठोपास ५ए शशा उठाय हुए पांच नीचे की जगह में आगया. ॥१६॥ अहो मेघ! शरीर के प्रत्याजाल कर पांच नीचे रखने का तेने विचार किया जिसने में एक शशांक को अपना पांचवीन शाला हुवा देवर प्राण, भूत. जीव व सत्व की अनुकंपा असे तने वर चवीचवा परंतुनाये रखा नहीं. ॥ १६२ ॥ अहो मेघ! प्राण यावत् सस की नुकंपा रोने उस समय संसार पैरत किया और मनुष्य के आयुष्य का बंध किया. ॥ १६२ ॥ वह में अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पिजी - प्रकाश राजाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. । For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 48 प्रथम श्रुतरा 4 वणवे अढाइजाई राईदियाई तं वगं झामइ णिदिए, उच्चरए उनसते णिज्जाएयावि होत्था ॥ १६४।। तएवं ते वहवे सीहा जाय विणाय तवग विट्रय जाव झापासति २त्तः अनिय दिगमका ॥ १६५ ।। तर सं वय हत्थी जाय छहार पारवन हया समाणा तओ मंडल ओ पाहाति २ दिसं विपरित ॥ १६६ ॥ स तम नेहा जो जानकि मिटिललिया (जगते दुल किलंते जनिए पवालिए अत्यामे अबल पर अचंकमाजो थाणुष तने वेगणविपसारस्लामि तिक, पाएपसारेमाणे विज्जुहए विरयय अर्थ ष्टाङ्गशालाधमकथा व अढाइ दिन पर्यंत हा पीछे स्वयमेव शांत हुवा व ज्वालाओं बंध होगइ ॥ १६४॥ पूर्वोक्त बहुत सिंह याच चिउल अग्नि को बंध यावत् शांत दखकर अग्नि भय से रहिन बने. ॥ १६५ ॥ उस समय र सनी या क्षणा से वन बने हुये उस मंडल से नीकल कर दशों दिशी में फोर ॥१६६॥ मेध! तू जीर्ण व जरा से मेरित देह वाला बना हुमा था. शिथिल त्वचा मे तेरे गात्रों बंधाये थे. नू दूल, क्लांन, क्षुधा व तृपा से पीडित, शागरिक बल रहित, आधार रहित, निर्बल, पराक्रम हित व चलने में अशक्त व एक स्थान खडा रहने से स्थंभित गात्र बाला हुला. जमे शिशुत् गिरने से रजत रिका पहिले नमा हुरा भाग पृथ्वी पर गिरजाता है वैसे ही पांच सारने की इच्छा से पांव पसारता उक्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन BF 4.3 For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ....... .... ५..लास संगहि सज्यिवउिए।तएणं तव मेह! सरीरगंसि घेयणा पाउब्भूया उज्जला जाब वाहवकंतीएयावि विहरति ॥ तएणं तुम मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिण्णिराइंदियाइं वेषणं वेएमाणे विहरित्ता एगवास सयं परमाउयं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २ भारहवासे रायगिहे पयरे सेणियरपणो धारिणीए देशए कुच्छिसि कुमारत्ताए पञ्चाया ॥ १६७ ॥ तएणं तुम मेहा! अणुपुबेणं गब्भवासाओ पिक्वते समाणे उम्मुक्कवालभावे जोधणगमणुपत्ते ममअतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणमारियं पव्वइए ॥ १६ ॥ तंजइ ताव तुमे मेहा ! लिरिक्खजोणिय भाव हुवा तू पृथ्वी पर गिरपडा. अहो मेघ ! उप सभ्य तेरे अंग में उज्वल यावन् दाहवाली वक्र वेदना उत्पन्न हुई. अहा मेव ! ऐमी वेदना तीन रात्रि दिन तक शोमवकर एक सो वर्ष का उत्कृष्ट आयुष्य पालकर यहां जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र के राजगह नगर में श्रेणिक राजा की धारणि देवी की की कुमारपने उत्पन्न हुवा ॥ १६७ ॥ अहो मेघ ! अनुरुप से गर्भधान में से नीकलकर बालभाव मे मुक्त होकर योवन भाव को जब प्राप्त हवा तब मेरी पास मुंडित होकर गश्वास से साधुपना तैने अंगीकार किया. ॥१६८ ॥ अहो मेघ! तिर्यंच के भव में जब तेरे को सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं हुई थी उस • पकाशक-राजाबः लाला मुखदेवमहायजी वालSES. For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . षष्टङ्गज्ञाताधमकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध मुवागएणं अप्पडिलद्ध सम्मत्तरयणलभेणं से पाए पाणाणुकंपयाए जाव अंतराचैव संधारिए, णोचवं णिखित्ते किं मगपुण तुमे मेहा ! इयाणि विपुलकुलसमुठभवेणं जि.रुवहय शरीर दंतलडू पंचिंदिएणं एवं उट्ठाण बलवीरिय पुरिसक्कार परकम संजतेणं ममअतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए समाणे समणाणं जिग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए उच्चाररसवा पासवणस्सवा अतिगच्छमाणाणय णिगच्छमाणाणय, हत्य संघटणाणिय जाव रयरेणु गुंडगाणिय को सम्मं सहसि तितिक्खसि अहियासेसि ॥ १६९ ॥ समर प्राणों की नक।। स बीचमेंही पांव रखा परंतु नीचे नहीं रखा तब ऐसा विपुल उत्तमलमें जन्म ले कर उपद्रव रहित,पांचों इन्द्रियों,व उत्थान,कर्म, बल, वीर्य, पुरुषात्कार पराक्रम से संयुक्त हो कर मेरी पान मंहत बनकर गृयास से साधुपना अंगीकार करके पहिली व पीछली रात्रि मेवांचना पृच्छा यावत् धर्मानुयोग की चिंताना के लिये, उच्चार प्रस्रवण के लिये बहुत 'जाते आते श्रमण ग्रिन्थ के हाथ पाँव के संघर्पण यावत् रजरेणु को सम्यक् प्राकर से तू नहीं सहन कर सका। ॥ १६९ ।। उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी से एसा सुनकर शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय oid उत्क्षप्त मघकुमार ) का प्रथम अध्ययन 802 अर्थ 8 For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अथ ॐ अनुवादक चालब्रह्मचारी मुनि श्री अम ae at मेहस्स अणगारस्त समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयम सांचा णिसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झबसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणिहिं सवाबरगिजाणं कम्नाणं खओवसणं इहापूहमग्गण गवसणं करेमाणस्ल सणिपुत्रे जइसरणे उप्पण्णे, एयम सम्मं अभिसमेइ ॥ १७० ॥ तएण से मेहे अणगारे समणं भगवया महावीरेणं संभारिय पुच्बजाइ सरणे दुगुणाणियं संवर्ग, आनंदय पुण्मु, हरिस वसे धाराहयक यंवगपिवममूसिय रोमकुवे, सम ं भगवं महावीरं वंद णमंसइ २ ता एवं वयासी अजप्पनिएणं भंते ! मम दो अदिखणि व लेश्या से शुद्ध ध्यान करते, तदा रणीय कर्म के क्षयोपशम मे. मैंने पतिले ऐसा देखा है वैसा विचार ) करते हुने संज्ञा पूर्ण जाति स्मरण ज्ञान जो कहा उसे कार में जाना. ॥ २७० ॥ भगवन कण कराया महावीर स्वामी के कारन से का दुवैराग्य गय पूर्वका कार और रक वृक्ष समन रोमांचित बरमे अगर भरण गरमी को वंदना नमस्कार कर ऐ और कुमार को पूर उत्पन्न होने पूर्ण १ जिस में पूर्व के सब संज्ञी के किये हुवे भव देखे. जाती स्मरण ज्ञान से उत्कृष्ट ९०० भव जो संझी के लगोलग किये होवे सो देख सकते हैं. • प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायणी ज्यालाप्रसादर्ज • For Personal & Private Use Only १३८ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 46ष्टांग ज्ञाताधर्षकभाका प्रथाश्रत मोचणं अवसेस काए समणाणं णिग्गंथाणं णिसट्टे तिकट ॥ पुणरवि समणं वंदइ । णमंसह २ त्ता एवं वाली इछामिण भंते ! इयानं सपरेर दोचंपिं पदावियं म्यान मंडविक व सामे आयारगोयर जामा माया उत्तिय धनमाइक्खओ ॥ नए सालमा कार सयभा पचाइ जब जाया माया उपियं घरतरकले. एवंदे णाय गंतव्यं एवं चिट्रियव्व, एवं णिसीयव्वं, एव तुहिरव्यं, एवं भुंजपन्न, एवं भाग्मिय उवाय, पागा भूयागं जीवाणं सत्ताणं संजमेण संजमियः ॥ तएणं स महे, समणस्स भगवओ महावीरस्त अयनेयारूवे धम्नियं बोले अहो भगान् ! आम के दो भेनों छ उकार शेष सा काया श्रण निको सपंग करता हूँ कहकर एल अवाम र स्वामी कोकम सरकर खिलीहो भगान् ! में हूं कि मुझे दूका देव, अ.स्य हालले युदत करा यः इत् आप स्वयं ही मजाकार नीला सत्र मात्रा उज, श्रमण भगवान मह वीर स्वामीने मेघकुमार को दूसरी वक्त दक्ष दो गांवत् यावा मात्रामा उपदेश दिया. अहो मेघाईया समिति माहित-धूंजर प्रमाण भूपि देखकर चलना, निर्दोष भूमि में खडे रहन , भूमि प्रमार्न कर बैठना, भूमि प्रमाण कर सोना, यत्ना सहित मधूर वचन बोलना, और निद्रासे जाग्रत होकर प्राण,भून जीव व मत्तकी यत्नो करतो. तब मेघ अनगार श्रमख भगवान महा उत्क्षिप्तामघकुमार ] का पथ अध्ययन : Jan Education International For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनुवादक-चालन हा वारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, 8 उवएसं सम्म पडिच्छइ २ त्ता तहचिट्ठइ जाव संजमेणं संजमेइ ॥ तएणं सेमेहे अणगारे जाए इरियासमिए अणगार वण्णओ भाणियब्वओ ॥ १७१ ॥ तएणं सेमेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतिए नहारूवाण थेराणं सामाइमाइयाई एकारस अंगाइ अहिजइ २ त्ता बहूहि चउत्थ छट्टम दसम दुवालसहि मासद्धमास खमणेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ ।। १७२ ॥ तएणं समणे भाव महावीरं रायगिनओणयराओ गुणसिलाओ चेश्याओ पडिणिक्खमइ २ त्ता वहिया जणघय विहारं विहरइ ॥ १७३ ॥ तएणं से मेहे अणगारे अण्णयाकयाइ समणं वर स्वामी का ऐसा धार्मिक उपदेश ग्रहण कर तैसे ही ईर्या समिति सहित जाने ला यावत् संयम सहित विचर ने लगे. उस समय मेघ अणगार मुत्रे वगैरह सब. अणगार का कथन उपाइ सूत्र से जानना. ॥१७॥ मेघ अणगर श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी की ममीप तथारूप श्रमण निन्थो की पास से सामायिकादि अग्यारह अंगका अध्ययन कर बहुत उपयाम, वेल, तेले, चौले, पचोले, अर्धमाम व मासक्षमण की तरस्या सहित आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ।। १७२ ।। भगवान महावीर स्वामी राजग्रही नगर मणशील उद्यन से नीकलकर बाहिर जनपद विहार करने लग ॥ १७३ ।। एकदा श्रमण भगवन् • प्रकाशक-राजावहादुर लारा सुखदेवमहायजी ज्यालाप्रमादजी . ? For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ + पष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 भगवं वदं णसंसद् २ ता एवं वयासी इच्छामिणं भंते ! तुम्भेहिं अन्भणुन ए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ? अहासुहं देवशणुपिया ! मापडबंध करेह || १७४ ॥ तणं सेमेह समणेणं भगवया महाबीरेणं अध्भणुष्णाए समाणे मासिय भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहर। मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं, अहामग्गं सम्मं कारण फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, कोइ सम्म कारण फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरिता किट्टित्ता पुणरवि समणं भमवं महावीरं वंदइ महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर मेघ अणगार ऐसा बोले अहो भगवन् ! आप की आज्ञा होवे तो एक माम की भिक्षूकी प्रतिमा अंगीकार करना चाहता हूं, भगवान ने उत्तर दिया अहो देवानुमिया ! जैसा तुमको सुख होवे वैसा करो विलम्ब मत करो || १७४ ॥ महावीर स्वामी की अनुज्ञा होने मे अनगार एक मास की मिक्षूकी पाडमा अंगीकार कर विचर ने लगे जिस में एक महिनेतक एक दात अहार की एक दात पानी की ग्रहण कर जो २ उपसर्ग आये सो सब सड़न किये, शास्त्र में जंसा कहा ? वैसे ही पडिमा अंगीकार कर जिस का जेसा मार्ग है जैसे सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शी, पाला शुद्धकी, { पूर्व की कीर्ति की इस तरह सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शकर यावत् कति कर पुनः दूसरी वक्त श्रमण For Personal & Private Use Only उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्ययन १.४१ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A चाहक-वाब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋविर्ज णमसइ २ ता, एवं क्यासी- इच्छामिणं भंते ! तुब्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे दो मासियं भिक्खु पडिम उवसंपजित्ताणं विहरित्तए ? अहासुहं देवाणुपिया ! मापडिबध करेह. जहा पढनाए अभिलावो तहादचाए. तचाए, चउत्थाए, पंचमाए छम्मासियाए, सत्तनालियाए पदम सत्तराईदयाई, दच सत्तराईदियाइ. तश्च सत्तराईदियाई. अहोर इंदियाएवि एगराई दियाए वि ॥ १७५ ॥ १, से मेह अगगारे, वारस निवखुपडिमाआ समं कारण फामता पालना समितीरितः किहिता पुगरवि दइ नमसइ २ त्ता एवं वाली इन्छ मिणं भते ! तुमेहं अब्भणुण्याए भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसा कर अओ देवानुभिः ! बाप की आज्ञा हवे तो दो मास | की मिपनिमा अंकार कर विवरना चाहता हूं.भगवान ने उत्तर दिया जैना सुख होने तकरो,निलम्न मत करो। जैसे पहिली शिक्षा पडिमा का आलायक कहाने ही सरी, चौबी. पांछ मातबी सात महिने तक सात २ दालभाहा पानीकोली, आदी सातगावहिनी त्रिीदामोसमात्रि दिनकी. इमारचीदा शिदिनी वधारनदेवकीनाअनुसार सरकार की इस उक्त हमनमायकवादक्षास्व जानता. ॥१७॥ भिकोबार प्रतिमाओम्पकप्रकार +सेकाया स स्पर्श कर पालकर, पूर्ण का यावत् कीकर मेघ अणगार भगवान महावीर स्वामी को वंदन 'काशक राजबहादुर लाला मुम्बतेवमहायजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र - पष्ठाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध ही समाणे गुणरयणं संवच्छरं तवोकम्मं उवसंपजित्ताणं विहरिचए ? अहा सुहं देवापिया ! मा पडिबंध करेह ॥ १७६ ॥ तरणं से मेहे अणगारे पढ म उत्थ चडत्ये अणि देतेगं तनकम्मेणं दियागणुक्कडुर सराभिमुड़ आयावण भूमी यामाणे रविवीरागेणं अवाउडएणं दमा आगोक्खणं दियाट्टाणुक्कुडर सूराभिमु आयावणभूमी ए आयमाणे तिंवीरासणेणं अवाउडेगं. भूमीए अव उडे तच मात अम अमेगं अजिखित्तेणं तत्रो कम्मेणं दिवाणुड़ए, सूरीीनमुहे, आयावेमाणे नमस्कार कर ऐसा कहने लगे अड़ भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं गुणरत संत्सर तप अंगीकार करू भगवान ने उसर दिया जैसे सुख क्षेत्र वैसे करो प्रतिबंध मत कहो || १७६ || तब मेघ मुनि प्रथम मास चिरत्नक २ (ए) से परावरने छ, दिन में उत्कट आसन से केलोको राखी रहने लगे. इस प्रकार एक पान पर्यन तप किया दूरे मास में छह मक्त अर्थात् बने, २ पारता से निरंतर तप कर ने लां. दिन में उत्कटासन से सूर्य का आप सहन करने लगे ओर रात्रि में वस्त्र रहिव वीरासन से रहते लगे. तीसरे पास मे अ For Personal & Private Use Only उत्क्षिप्त (मेघकुमार ) का प्रथम अध्याय १४३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिवीरासणेणं अवाउडेणं; चउत्थमासं दसमं दसमेणं अणिखित्तेणं तवो कमेणं दियागणुक्कहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रतिवीरासणेणं, अवाउडेणं; पंचमं मासं दुवालसमेणं अणिखित्तेणं तवोकम्मेणं दियाट्ठाणणुक्कड्डए सूराभिमुहे आयावण भूमीए आयावेमाणे रतिवीरासणण अवाउडणं एवं खलु एएणं अभिलावणं- छटे चउद्दसमेणं २, सत्तमेमासे सोलसमेणं २, अट्ठमेमासे अट्ठारस मेणं, णवमे मासे वीसतिमं २, दसमेमाले वावीसंतिम २, एकारसमे मासे चउवी सतिमं २; बारसमे मासे छव्वीसतिमं.२, तेरसमेमासे अट्ठाबीसतिम २, चउद्दसमे भक्त तेले २ पारना से निरंतर तप करने लगे चौंथे पास में चौले २ पारना, पांच वे मास में पचौले २ परना, छटे मास में छछ उपवास से पारना, सात के पास में सान२ उपवास से पारना,आठ के मात्र आठ २ उपवास से पारना, नव वे मास में नव २ उपवास से पारना, दश वे मात दश २ उपवास पारना, अग्यरदो मास में अग्यारह २ "उपवास से पारना, बारह मास में बारह २ उपवास से पारना. तेरह मास में रह २ उपवास से पारना, चउदहवे मास मे चउदह २ उपवास से पारना, पम्बरवे गारमें 12 पन्नरइ २ उपवास से पारना, और सोलह वे मास में सोलह २ उपवास से पारना करने लगे, सब मास में * अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमर पिजी काशक-राजावहादुर लाला सुखदेवमहायजी चालाप्रसदाजी. For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टाङ्ग बासापर्कथा का प्रथम वसंघ मोसे तीसंतिम २ पंचदसमे मासे बत्तीसतिम २ सोलसमे मासे चउतीसतिम २ अणिखित्तेणं तबोकम्मेणं दियाट्टाणुक्कडएगं. सुराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रनि वीरासणेणं अवाउडएणं ॥ १७७ ॥ तएणं से मेहे अणगारे गुणरयण संवच्छा तवोकम्मं अहासुत्तं जाव सम्मं काएण, फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किटेइ, अहासुत्तं अहाकप्पं जाव किहिता समणं भगवं महावीर दइ णमंसइ ३ त्ता बहूहि छटुट्ठम दसम दु । से हैं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तपोकम्महिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ १७८ ॥ तएणं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं विपुलणं दिन को उत्कटासन से आतापना भूमि में सूर्य की आतापना लेने लगे और रात्रि मे वस्त्र रहित धीरासन से रहने लगे उक्त दिनी पसे १.३ म स व सात दिन तपस्याके और ७३ पारण के होते हैं।।१७७॥ तब उन मेघ अणगारने गुणरत्न मंवत्सर तप सूत्रानुसार यावत् कम्पक प्रकार से कायासे स्पर्श किया, पाला, शुद्ध किया, पूर्णकिया, व कीर्ती की मूत्र नुसार यावत् कीर्ती कर श्रमग भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर हत बेले, तेले, चोल, पचोले, अर्ध मास, मास खमण यो विचित्र प्रकार के तप कर्म से अ.स को.. भावते हुवे विचरने लगे. ॥ १७८ ॥ तत्र मेघ अनगार का शरीर उदार विगुल सश्रित माक्षप्त प्रघकुमार का प्रथप अध्ययन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पकाशक रामासादर गालामुखदेवमायनी BIRBी. गुणरत्न संवत्सरतप. .. संवत्सरतप.. ... तपदिनारषा दिन RERESEENE AVM انوار او اها GIRI-ISTE SEEGED:6001 For Personal & Private Use Only ४ ० C - .... , २४६ ।। ४।४।४। ४१६ ., २४ ३ । ३ । ३।३।३।३।३।३८ " १०२।२।२।२।२।२ ।२०,२९ -00 '... 10111011211१1१1१1१1१६ ३२ " 090999999ROCEROIGe aapseeeasam00000 इस का वाय-ल महिन एकान्तर उपवास, दूसर महिने बले २ पारना। तीसरे महिने तेले २ पारना, यावत् सोलके महिने में सोले २उपवास के पारना करे. दिनको उत्कटासन से सूर्य की आतापना ले और रात्रि को वस्त्र रहित बीरासन से ध्यान करे. इस तप के.सब तपदिन ४०७. पारणे के दिन ७३. यों सबदिन ४८० होते हैं जिस के१४महिने होते हैं इतने में यह तप पूर्ण होताहे + ANDAMENT Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अर्थ ताधर्मकथा का प्रथम अत सस्सिएणं पयतेनं पग्गहिएणं कखाणं सिवेणं घण्णेणं मंगलेणं उदग्गेणं उदारएणे उत्तमेण मुक्क भुक्खे लुक्ले निम्नंसे निस्मोजिए कि डेकि डियाभूए अम्माण कि धमणिस नए जाएयाचि होत्था, जीव जीवणं गच्छइ, जीवं जीवजं चिट्ठ, भासं भासिता गिलाई, भासं भासमाणे गिलाई, भासं भासिस्तमिति गिलाई ॥ से जहा नामए इंगालसागडियाइवा, कटुसंगडिया इवा, पत्तसगडियाइत्रा, तिलदंड सगडियाइवा, एरंडक साडिय इवा, उण्हेदिण्णा सुदासमणी; ससद्वं गच्छइ, सरु चिट्टा एवामंत्र मेहं अणगारे ससदं गच्छ३, ससद्दं चिट्ठइ. उबचिट्ठ: गुरुने दिया हुवा, कल्याणकारी, निरुपद्रवकारी, धन्यकारी, मंगलकारी, उदार, उत्तम व महानुभाव तप कर्म से शुष्क, रुक्ष हावा रूवर मौन रहित, कड २ शब्द करनेवाला, हड्डी व चर्म से बद्ध, वनसी की जालवाला होगया. जीव [मन] के दल ने चलता है, मन के बल मे खड रहता है भाषा ब हा विचारकर बालत खदित होता है, भाषा वो पीछ भी खदेत होता है. इस का कोप से हुई गाडीबाट की गड, पत्री गाडी, तिल के मूके कष्ट की गडे, मी हुए गडा सूर्य के लार से शुष्कबी हुई जब चलत है उसका मैने शब्द होता है वैसे ही बघ अमनार के शरीर का रूढ २ ६६६ होने लगा तब से रूविर मांस सूक जाने पर भी भस्म में जैसा कहते है-जैसे एरंड का For Personal & Private Use Only 4-18+ (बेधकुमार) का प्रथम अध्ययन १४७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ .40 अनुदक-सलमान श्री अफ कऋषिजी तवेणं अवचिए मंससौपिएणं हुपासणे ३३ भातरासिपारछिपण, तवणं तेएणः ।। तवतेय सिरीए अईव २ उसोभेमाणे २ चिट्ठइ ॥ १७९ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सभगो भावं महावरे आइगरे तिस्थगरे जाव पुवाणुपवं चरमाणे गामाणु. गाम दुइज्जमाणे सुदंसहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिह गयर, जणामेव गुणतिलए चेइए तणामेव उवागच्छइ २ त्ता अहापडिरूवं उग्गहं उगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ २८० ॥ तएणं तस्स मेहस्स अगगारस्स राओ पुत्ररत्तावरतकालसमयास धम्मजागरियं जागरमाणस्त अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासिरमामितिगिलाइ अगि दीप्त रहा है तैसे ही मेघ अनगार तप तेन से तप की लक्ष्मी से अती शोभायमान बना हुआ है. ॥ ११२ ॥ उस काल उस समय में धर्म की आदिकरनेवाले तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी यावत् पूर्ण पूरि चलते ग्र मानु ग्राम निचरते हु। राजगृहे। नगरी के गुण भील उद्यान में यथा पनि रू। अवग्रह याचकर संयम व तप से अ'त्मा को भाने हुरे विचरते थे॥ १८० ॥ उम सब मेघ अन्गार को पूर्व व पश्चात गात्र में धर्म जागर गा करते ऐमा अध्यामाय हुआ कि इस उदार तर कर्म में मेरा शरीर क्षीण हाया है यावत् भाषा वालाते भी हैं ग्लानि पाता हूं, इसलिये जहां तक मेरे में उत्थान धर्म,बर • पकायक-राजाबहाद लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रम। For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - nomwww -ष्टाङ्ग जत धर्मर 41 का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 तं अस्थितामे उट्ठाणे कम्मेवले वौरिए पुरिसक्कार परिव सद्धा घिद संवेगे तं जाव तामे अत्थि उढाणे कछम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार परिवाम सद्धाधीइ संवेगे जावयमे धम्मायरिए धम्मोवएमए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी बिहरइ ताव मे सेयं कल पाउप्पभाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सम्णं भगवं महावीर बंदित्ता मंसित्ता, समणणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णायसमाणस्स सयमेव पंचमहन्वयाई आरोहेत्ता गोयमादिए समणे जिग्गंथ णिग्गंत्यीआय खामेत्ता तहारूवेहि कडाइहिं थेरह सद्धि विउल पव्वयं सणियं २ दुरुहित्ता सयमेव मेहवसाणगाम पुहविसिला } पट्टयं पडिले हत्ता, सलहणाए झूसणाए झूसियस्त भत्तपाणपडियाइक्खियस्त वीर्य, पुर।कार पराक्रम, श्रद्धा व धृति रहे हुवे हैं उस से जब लग मेरे में उत्थान यावत् श्रद्धा व धृति हैं और जहां लग मेरे मर्धा चार्य धर्मोपदेशक श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामी सुख पूर्वक विचरते हैं। वहां लग में प्रातःकाल होने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार कर उन की अज्ञानुमार स्य मेव पांच महावन की आराधना कर गौतमादि निर्गन्थों निग्रधिनियों को खपाकर तयारूप कडाइ स्थविरों को साथ लेकर महान पर्वत को शनै: चडकर स्वयम मेव मेघ समान धनाकार पृथ्वी शिलापट्ट की मालिएना कर संलेखना यूसना से आत्मा को झोंस कर, भक्त पान का प्रत्याख्यान कर पादोप' उत्क्षिप्त मेषकुमारका प्रथम अध्ययन 41 अर्थ | For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगदक-वासनापरी मुनि श्री मोडीजी पाओषगयस्त कालं अ समागम विहरित्तए, एवं संपेहेइ २ क प उप्पभाए रयणीए जाव जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छइ २ त्ता, तिक्खुचो मायाहिणं पपाहिणं करेइ वंदा गममइ २ ता चासणे णाइदूरे पुस्सुसमाणे अभिमूहे विण एणं पंजलिउडे पाजुवासइ ॥ १८१ ॥ मेहेति ! समण भगव महावीरे मेहं अगमार एवं बयासी-से पूर्ण तवमहा ! राओ पुत्र रत्तावत्त काल समयंसि धम्म जागरियं जागरमाणस्त अयमेयारूवे अज्झत्थए जाव समुप्प जिस्था-एवं खल अहं इमेणं उरालेणं जार जैगव अह तगव हगमागए, सं मेहा ! अटुं समठ्ठ ? हना अस्थि ॥ अहामुहं देवाणुपिया ! मा पडिपंधं गमनकारार कल कोही पच्छिता हुवा विचलं, ऐमा विचार कर प्रभात होते पण भगवान पहार स्व मो की पास भाकर तीन वरुन हाय जोड ३ प्रमोक्षगा देकर बहुत पाम नहीं बने ही बहुत इस तरह मेरा परता दुगन की सन्मुख रिनय पूर्णक स्तद्वार जंड कर पापना करने लगा १८१॥श्रमण भगान् महावीर स्थानीने मब अनगार का देख कर ऐसा कहा कि अहो अप ! की पकी रात्रि में धर्म जागरणा करते हुए एमा अध्याय हुवा किस उदार तपस्यासे वापर मेरी पास भाया है. क्या यह सत्य है अर्थ ! अहो भगान् ! या अर्थ सत्य है. महा maAananmnnnnnnnnnnnnnnnnnnar प्रकाशकामाबादुर बामसुखदेवसहा भ ज्वालाममादजी । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करोड १८२॥तएणं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अम्भाणुणाए समाणे हट्ट तुढे जाव हियए उट्ठाए उठेइ २ त्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खनो भायाहिणं पयाहिणं करेइ २ चा बंदइ णमंसइ २ त्ता सयमेव पंचमहब्बयाई भारहइ १ ता गोयमाइ समणे निग्मंथीओय खामेइ, तह रूकेहि कडाईए धेहि सर्डि विपुलं पत्रयं सणिणं २ दुरुदइ २ ता सयमेव मेहघणसगिगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ २ ता उच्चारपासवण भूमि पडिलेहेइ २ ता दब्भ संघारगं संथरइ दब्भ संथार दुरुहइ पुरत्यानिमुहे संपलियंकणिसण्णे करयल देवानाय ! जैमें मुख होये वैसा करो विलम्ब मत करो ॥ १८२ ॥ उस समय मेघ अनगार भगवान की पास से ऐसी आज्ञा मीळनेमे इष्ट तुष्ट हुपे यावत् इश्य विकमाय मान हुा अपने स्थन से उठकर भगवान् महावीर सापी कोनीन अ.वर्त व प्रदक्षिणा करके स्वयमेव पांच महवा की अरग के गौतम दि श्रमण निन्ध व प्रैन्थ नीभाको खाकार तयारूप कडाइ स्थरी माय विपुल पर्वत पर शत: २ चडकर स्ममेव सघा मेव नमान पृथी शिल, पE की माते लेखा कर, उच्चार पत्रण भूमिकी पविलेखना करदर्भ संथारा विछाकर उसपर पूर्वाभि ख पकासन से बेठे करतल जोड कर शिर रत्सित मेधकुमार का प्रथम अध्ययन मर्थ ] For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी--णमोरधुर्ण अरिहताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविओ कामरल मम धम्मायरियस्स वदामिण मग तत्थगयंइहगए पाप्तउमे भगवं तत्थगए इहगयं तिकटु वंदइ णमंसइ २ ता एवं क्यासी-पुस्विपिणं समणरस भगवओ महावीरस्त अंतिए सवपा णाइवाए पञ्चक्खइ मुसावाए अदिण्णदाणे मेहणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोभे पंजे दोसे कलहे अब्भक्खणे पेसुणे परपरिवाए अरह रइ मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खए इयाणिपिणं अहं तस्मेव अंतिए से आवर्त देकर मस्तक पर अंजकिरपाबोले अरिहंत भगवंत को यावत् मोक्षको प्राप्तमिद्ध भगवंत को नमकार हावे श्रमण भगवंत महावीर किजो मोक्ष प्राप्त करने के कापी हैं उनको भी नमस्कार होवे मेरे धर्माचर्य को में वंदना करता हुं अहो भगवन् ( वहां बैठे हुन अप मुझे देख सकते हो यों कहकर बंदना नमस्कार कर ऐसा वाले कि मेने पहले भी अमण भगवान महावीर स्वामी के पास सब प्रणाति, पात, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह अभ्याख्यान 17 पैशुन्य, परपरिवाद, अरति रति, म या मृपा, व मिथ्या दर्शन शल्य का प्रत्याख्यान किया है. अत्र में अनवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री बमोस ऋपिजी + .पाक राभावमदुर लामा मुखवसहायजी चाला प्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in षष्ट ड्रज्ञानार्धमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध सध्व पाणाइयायं पञ्चक्खामि जाब मिच्छादसण सल्ले पच्चक्खामि, सव्वं असण। पाण खाइम साइमं चाव्वहंपि आहारं पच्चक्खामि जाव जीवाए, जंपिय इमे सरीरं इ8 कंतं पियं जाब विधिहारोगायका परिसहोवसग्गा कुमात तिकडु एवं वियण चरिमेहिं ऊसासणीसामेहिं वोसरामि तिकटु, सलहणा झूसिए भत्त पाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकंखमाणे विहरइ ॥ १८३ ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अण मारस्स अगिलाण वेयावडियं करति ॥ १८ ॥ तएणं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अतिए में उन की ही पास सब प्र णातिपात यावत् मिथ्या दर्शन शल्य का जावजीव प्रत्याख्यान करता है प्रशनदि 4 चारो आहारका प्रत्याख्यान करता हूं और यह मेरा शरीर इष्ठ. कांतकारी पिय है उसको पावत विविध प्रकार के रोग व परिपरा उपसर्ग स्पर्शो, यह अब चमि उच्छा विश्वास पर्यंत त्यागता. . स खासे ।। 4 आत्मा निकल करनेवाला भक्तान का सामान किया पादोगमत संथारा . अंगीकार किया और काल की बाँच्छा नहीं करता हुग विचरने लगा. ॥ १८३ ॥ वहां रहे हुने स्थविर . भगवंत मेघ अनगार की अग्लानपन वैय्यावृत्य करने लगे. ॥१८॥ श्रमण मगान महावीर के स्थाप। निवासमेषकुमार का प्रथम मध्यपन 47 मर्थ ANANA 488 1 For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पुनि श्री अमोलक अरिजी+ पर बनवानव- पारो सामाइमाइयाइ इकारस भंगाई अहिजह २ ता बहुपडिपुण्णाइ दुवालसवासाई सामण्ण परियः पाउणिता मासियाए सलेहणाए अप्पाण झूसित्ता सद्धि भत्ताई असं गाए छदेता आलाइय पडिकते उद्धरिय सल्ले समाहिपत्ते अणुपुरवेणं कालगए ॥ १८५ ॥ तएणं थे। भगवंता ! मेहं अणगारं आणुपुत्रवेणं कालंगयं पासंति १ सा परिजिन्यायरिय काउसम्म करिति २ मेहस्स अणगारस्त आयार भंडगं गिति २ ता विउलाओ पन्चयाओ सगियं पचोरुहद, जेगाव गुणासेलए पेइए जेण:मेव समणे भगवं महावीर तेणामेव उवागच्छइ २ त्ता समणं भग महापार वह मंसइ २ चा एवं यासी- एवं खलु देवाणुप्पियाणं मग स्थपिरों की पास से अपारह अंग का पठन कर, पारर वर्ष प. माधुराना पार एकपास की संखर से बात के तकर,सठ भक्त अनशन छेद कर,अंतसका स निकालकर समापि fat सेल कोहरा ॥ १८५ ॥ मेघ अनगार को काल इश मानकर स्वपिन भगते निर्वाण कायसग किया. घनगार केस पात्र वगैरहमपारण लेकर विपुल पर्वत से बना नीच उतरे और जहां श्रमण गगन महावीर स्वामी विराजमान ये यहां आय. श्रयण भगान-पहावीर शायीको बदना नमस्कार कर ऐमा बोछे अहो देवानुमिय! आप का शिष्य प्रकृति का महिर बार ...नया-राजाहादुर ताला सुखदरसमजी व्यासापमादनी. For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + भंतेवासी मेहे णाम अणगार पगइमदए जाब विणीए सेणं देवाणुप्पिएहिं अम्भणुकाए समाणे गोयमाइए समणे जिगंथेय जिग्गंधीओय खानेता अम्हेहिं सद्धि विउलं. ..पवयं सणियं २ दुरुहइ सयमा मेहवग सण्णिमासं पुढवीसिलं पहिलेहे। २ ना भत्तगणपडिइक्खिए अणुपुश्वेणं कालगए एसणं देवाणुप्पिया ! मेहस्स अगगारस्त. माघारभंडर ॥ १८६ ॥ भो ! ति, भगवं गोयम समर्ग भगवं महावीरं वदह मसत्ता एवं वयासी-एवं खल देवाणाप्पयवर्ण अंतवासी महे णामं अणगारे सेणं भंते ! मेहे अगगारे कालमासे कालोकच्चा कहिंगए कहिं उबवण्णे ? गोयमा, नीत मेघनगरमागकी मात्रामाद अनि निमीयों को बयाकर हमारी सब विपुछ पर्वत पर शनैः २ भाय. वहां उनोंने स्वयमेव मेघ समान पृथ्वी शिला पट्ट की पार बना कर पात भक्त पान का प्रत्याख्यान कर काल प्राप्त हुए. भो देवानुप्रिय ! यह मेपर अनगर के मंगरकरन हैं. ॥८६॥ मगशन गौतम स्वामी श्री श्रषण भगवान महावीर स्वामी को ना नमस्कार कर ऐमागील अहो भगान् ! आरका शिष्य पंच परमार काल के अवसर में काम . उत्क्षिस (अघकुधार)कावा अध्ययन.43 :कोइ साधु काल धर्म को प्राप्त होते हैं . तब अन्य साधुओं चारलागत्स का इसग करते हैं ऐसी आचार्य परंपरा है. - For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं क्यासी एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी मेह णाम अणगारे पगइभदए जाव विणीए,सेणं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइ याए एक्कारस अंगाइ अहिजइत्ता बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयण संवच्छरं तवोकम्म काएगं फासित्ता जाव किहित्ता मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरेखामेइ तहा रूहि जाव विपुल पब्वयं दुरूहइ २ त्ता दब्भसंथारगं संथरंति २ चा दग्भसंथारो वगय सयमव पचमहन्धए उच्चारइ बारस बासाई सामण्ण परियागं पाउणित्ता मासियाए संलहणाए अप्पाणं ज्झसित्ता साट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइव पडिकते उहियमन समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डे चंदिम सुरग्गहगण णक्खत्त ताराकर कहां गया गावत् कहाँ उत्पन्न हुवा ? भगवान ने गौतम को कड़ा अहो गौतम! मेरा शिष्य प्रकृति भदेक यावत् विनीत मेघ अनगार तयारूप स्थविरों की पाम अग्यारह अंग का अध्ययन करके चारह का भिक्षु प्रतिमा व गुणरत्न संवत्सर तप कर्म से शरीर को कृश बनाकर मेरी अनुज्ञासे गौतमादि स्थविरों को खमाकर ताकर कडास्थविरा की साय विपुल पर्वत पर चढकर बारह वर्ष साधुपना पालकर एक माम की मलेखग से आत्मा को शेपार, माउ भक अनशन का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण *सह शसनीकारसमधि । कालो अवसरमें क उ पूर्गहर चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र रूपमे बहन योजन, पहत मो • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालीप्रसादजी Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. पटांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रृतसन्ध. १ रूवाणं बहूई जोयणाई बहूइं जोयणसयाई बहुइं जोयण सहस्माई बहूई जोयण सयसहस्साई बहूई जोयणकोडीओ बहूइं- जोयण कोडाकोडीओ उड्ड दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण सणंकुमार माहिंद बंभ लंतग माहासुक्क सहस्माराणय पाणयारणच्चुए तिणिय अटारसुत्तरेगेवेज विमाणवासमए बीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताएं उबवणे, तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं वत्तीसं सागरोबमाइ ठिई पण्णत्ता तत्यणं महरमवि देवरस वत्तीसं सागरोवमाइं ॥ १८७ ॥ एसणं भते ! मेहे देवत्ताओ देवले ग ओ आऊक्खएणं भवक्खएण द्विइक्खएणं अणंतरं चयंचइत्ता कहिंगच्छहिंति कहिं उवाजिर्हिति गोयमा ! महाविदेहवासे सिझिर्हिति योजन, बहुत सहस्र योजन, वहुन क्रोड योजन, व बहन कोडा कोड योजन ऊंच सौर्धा ईशान, सनत्कुमार, माहन्द्र, ब्रह्म, लंतक महाशुक्ल महरवार, आणत, प्राणत, आरण व अच्युत देवलोक से ऊपर १०८ ग्रैय विमान त्रो उल्लयंकर वेजय नामक महावियान में देवतापने उत्पन्न हुवा. वहां किसनेक देवों की बत्तीस सागरोपन की स्थिति कही, वैसे ही मेघ देवकी बत्तीम सामरोपम की स्थिति है ।। १८७ ॥ अहो भगवन! वह मेघ देवता उन देवलोक में से आयुष्य, भव व स्थिति का क्षय से 30 चाकर उत्सान होगा ? अो गौतम. महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सीगे, बुझेगे, निर्वाण प्रा। क्षिप्त (मघकुमार ) का प्रथम अध्याय 43 + io For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4-, अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । बुझिहिति मुच्चिहिंति परिणिवाहिति सम्वदुक्खाणं अंतकाहिति ॥ १८८ ॥.... एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तणं । अप्पोलं भणिमित्तं ॥ पढमस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते ॥ त्तिबेमि ॥ पढमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ महरेहिं णिउणेसिं बयणेहिय चोययंति आयरिया सीसे कहिं चिखालए जहा मेघमुणि महावीरो ॥ इति . पढम अज्झयणं सम्मत्तं ॥ १ ॥ * . ... . करेंगे व सब दुःखों का अंत करेंगे. ॥ १८८ ।। अहो म्बू ! श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी कि जो आदि के करने वाल यार निर्माण को प्राप्त हुवे हैं उन प्रविषिष्य को उपालम्य रूप यह अध्ययन कहा है. यह प्रथप अगर का अर्थ कहा. यह प्रथम अध्ययन संपूर्ण हुवा. उपसंहारजैसे महावीर स्वामीन मेघ मुनि को मधुर निपुण वचनों से उपालम्भ दिया वैसे ही आचार्य किसी अविनीत शिष्य को धुर वचनों से उपालम्भ देवे. ॥ १॥ . . . • प्रबंशक-राजाबहादर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसदाजी. For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TO 8- १५९ 48:+ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतरकन्ध 43+ ॥दितिय अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेनं आव संपन्तेण पढमस्स णायज्झयणस्स अयमझे पप्णते वितियस्त भंते ! गायझमजस के अ पणते ? ॥ एवं खलु जंब ! तेणं काल लेणं समएणं रामांगहेगाम जयरे होत्था, गरवण्णा ।। तत्थणं रायामहे पयरे सेणिये णामं राया होत्था माहया वाओ तस्स रायनिहस्स नबरस बहिया उत्तर पुरच्छिम दिसीभाए गुणसिलए णाम चेहए होत्था, वण्णओ ॥ १॥ तस्सणं गुणसिलयस्स अइरसामंते एत्थणं महं एगे पडिय जिण्णुजाणयावि होत्या, विटु देवउले परिसडिय तोरणघरे जाणाविह गुच्छ श्री जम्बू स्वामी सर्वा स्वामी से कहते हैं कि अहो भगवन् ! श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् मुक्ति पधारे उनोंने प्रथर अध्ययन का उक्त कथनानुसार अर्थ कहा,तव दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा? अहो जम्बू ! उस काल उस समय में राजगह नामका नगर था. उस का वर्णन चंपा नगरी समान जानना. उस राज गृह नगर में श्रेणिक रजा राज्यकता था. वह भी वर्णन योग्य था, उस राजगृह नगर से बाहर उत्तर पूर्व सा ईशान कोन में गणवला नामक उद्यान था. उस का वर्णन पूर्ण भद्र उद्दान जो जानना. ॥ १॥ उभ गुणशील उद्यान की पारी एक रखा जीर्ण उद्यान था. उस में देवालय नष्ट होगये थे. तोरण महाघर इत्यादि सहगये थे विविध प्रकार के गुच्छ, गुल्म, धन्नासार्थवाह का दूसरा अध्ययन 498+ અર્થ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-वासनाचारी मुले श्री अमोलक ऋषिजी गुम्म लयावल्लि वच्छाइए, अणेगवाल सय संकणिजेयाधि होत्था ॥ २ ॥ तस्मण.. जिण्णु जाणरस बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे भरा कृषएयावि होत्था ॥ ३ ॥ तस्सणं भग्गकृवस्स अदूर सामंते एत्थणं महेगे मालुपाकच्छएयावि होत्था, किण्हे.. किण्होभासे जाव रम्म महा मेहेणिउरबभूते; बहृह सबले हिंप, गुच्छहिय गुहिय लयाहेय, वल्लीहिय, तणहिय, कुसेहिय, खाणुएहिय, संछण्णे परिछन्ने अन्तोझसिरे 'बाहिर गंभीरे, अणेग वाल सयसंकगिज्जयाविहोत्था ॥ ४ ॥ तत्थणं रायगिहे नगरे लता वल्ली व वृक्षों से आच्छादित बना हुवा था और सेंकडों सपदि उस में रहते थे. ॥२॥ जीर्ण उद्यान के बीच में टूटा हुवा एक कूप था. ॥ ३ ॥ उस कूप की पार मलूका नामक कच्छ था. वह कच्छ वृक्षों की सघनता से कृष्ण वर्ण हो रहा था. उस की प्रभा भी कृष्ण वर्ण मय यावत् रमणीय थी. महामेघ के निकुरंच भूत वह कच्छ था. बहुन वृक्षों, वेगनादि के गुच्छे, वंश जालादि ग्रहों. चम्म कादि लताओ, औषधियों की वल्लियों, तण, कुश व कोले के बिल से वह कच्छ कप्त व अच्छागि था. वह कच्छ अंतर भाग से विस्तृतथा परंतु बाहिर से गंभीर दीखता था. और अनेक प्रकारके सो से वह कच्छ व्याप्त था. ॥ ४ ॥ उस राजगृह नगर में धन्ना नामक, मार्थवाह रहता था. वह ऋद्धिवंत, १ माल का गुठली वाले बेरादिक वृक्ष के समुह को कहते हैं, • प्रकाशक-राजावादाला सुखद बमहारजी वालारज . For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 14धणेनाम सत्यवाहे अड्डे दित्ते जाव विउले भत्तपाणे॥५॥ तस्सणं धण्णस्स सत्थवाहस्स भदानाम भरिया होत्था सुकुमाल पाणि पाया अहीण पपुण्णपचिंदियसरीर लक्षण वंजणगुणोकोया, माणापमाण पडि पुण्ा सुजात सव्वग सुदरंगी, सलि सोमागारं यंत पिय इसणं, सूरुवा, करयल परिमिय तिवलिय मञ्झा कुंडलुल्लिहियगंडलेहा,कोमुइय -- रयाणपर पुडिपुण्णा सोमवदणा लिंगारागारच रुवेमा जाव पडिरूवा वंझा अवियाउरी. आणुकाप्पर नायायावि होत्था।॥६॥तरसणं धण्णस तत्थवाहस्स पंथए नामंदास चेडे होत्था - - अर्थदक्षिात यावत् विपुल अक्त पान वाला था ॥॥ ५ ॥ उस धन नार्थ को यदा नामकी भी थी. उस में हस्त पर पक्खन समान को पल थे. किसी प्रकार की हीनांगना नहीं थी. पांचों इन्द्रियों से शरीर के लक्षण व्यंजन युक्त, मान उन्मान व प्रमाण में रायर, सांग मुदरी, शशा- समान सौम्य कार वाली, कांता, पिय दर्शना थी, मुधि से परिमित प्राण पाली) त्रिनली उन की कटि भाग में पा. कान में कुंडल धारन गिरा थे, पूर्णिमा की रात्रि के प्रीपूर्ण चंद्र ममान सौम्य वंदन वाली थी, और शहर के ग्रहसमान पनाहर पेशवाली यावत् प्रतिरूप थी, और भी वह खी बंध्या | अजन स्वामी श्री. शासकी पालना उसरे नहीं भर पाता थी ॥६॥ उस धनामार्थ रामपा माल थेवं शरोरांश भूतानि तस्यास्तती स्पृशंति ना पत्य अर्थात् दोनों घुटने व हाथ की कोना ही जिस माता, के 4 पर्श करे परंतु त्र उतान्न होकर स्पर्श करे नहीं. धन्ना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबग संदरंगे मंसोवचिए बाल कीलावण कुसलेयाविहोत्थ ॥ ७ ॥ तएणं धण्णे सत्यवाहे रायागहे नगरे वहुणं णगरणियमसेटि सत्थवाहाणं अहारमण्हयसेणि प्पलेणीणं बहुसु कज्जेसुय कडुबमुय जाव चवखुएयाविहोत्था णियगस्स वियणं बहुसु कुंडुबेसुय बहुमु गुज्झनुय जाव चक्खभतेयावि ॥ ८ ॥ तत्थणं रायगिहेनगरे बहिया विजए नाम तकर होत्था, पाव चंडाल रूवे भीमतर रुद्दकम्मे आरुसियदित्ता, रत्तनयणे, खर फरुसमहल्लु विगय बीभत्थ दाढिए असपडिय उद्रे अंनुवादक-पालवह्मचारी मुनि श्री अमोलक अपिजी पंथक नामका दासका पुत्र अथवा दासपुत्र समान था. वह सांग संदर व मांस रधिर से रुष्ट पुष्ट और बालकों को क्रीडा कराने में कुशल था. ॥७॥ वह घना सावह राजगृह बार बहत नगर व निगम के श्रेष्ट व मार्थवाहों में व कुंभकार से लोहका पर्यंत अठारह प्रकार कोणे परत कर्मों के लिये, बहत लोकों के कुटुंध के लिये व बहुन रहस्य बातों के लिये बसू समान था. और अपने कुटुम्ब में भी यह रहस्य बातों में यावत् चक्षभून श. ॥८॥ उस राजगृह नगर की बाहिर विजय नामक चार रहता था. वह पापी, चांड ल, रुद्र, भयंकर, रुद्र रुद्रकर्म करने वाला, कुद्ध मनुष्य जैसे रक्त नेत्रों वाला, था. उस को अतिकठोर भयानक विखरे हवे बालों की दाढी थी, उस के दांत परस्पर नहीं मीलते थे, उस से उसके दोनों ओष्ट भी अलग रहते थे, उसको वायु से विखरे हुवे सिरके लम्बे बाल थे, भ्रमरों की प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ ** पछङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध खरेव लंबत मुडए पइ भमर राहुवण्णे णिरणुक्को से णिरणुता णिसंसतिते, निरणुक अहो एतदिट्ठी, एतधाराए गिद्धेव अभिसेतह्निच्छे, अग्गिमित्र सव्वभक्ती जलमित्र सव्वग्गाही, पुंछ के समुह व राहु ग्रह जैसा उस के शरीर का वर्ण था, वह निर्दय दया रहित था, उस को अकार्य में पश्चाताप कदापि नहीं होता था, वह दारुण अर्थात् रौद्र था, अन्य को भय उत्पन्न करने वाला था, विशंकित था अर्थात् शूरवीरपना से किसी कार्य को साधने में उस को शंका नहीं थी. अथवा नृशंसकर था. अनुकंपा रहिन था, सर्प समान एक दृष्टिला था अर्थात् हरन करनेकी वस्तु पर उस की दृष्टि स्थिर रहती थी. जैसे छुरी एक धारा ने चलती है वैसे ही वह एक धवाला था, अर्थात् जिस की चोटी करने की इच्छा की उसकी चारी किये बिना ही रहता था, वृद्धा लोभी होता हुवा जिस जन्तु पीछे होता है उसे लिये बिना नहीं कला है बैरन को देखा होवे उसे लिये बिना नहीं रहता था, जैसे अन को वैसे ही यह चोर तर वस्तु भक्षण करने वाला था, पानी जैसे सब वस्तु प्रण करने वाला था, तीच वस्तु को ऊंच बनाने व ऊंच वस्तु को नीच बनाने में बडा युक्तितथा अन्य कोच में बड़ा मायावी था, निवड (गुप्त गंठिला ) १ निःसंशयिकः शीर्यतिशयादसाधाविवृतिकः पाठांतरे निसंते नृनरान् शंसति निति नृशंसः उद्धय दारुणे पइण्ण पइभते, For Personal & Private Use Only 486* घना सार्थ ग्रह का द्वारा अध्ययन १६३ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अथ शनि श्री अमोलक and aण माया नियडि कूड कवड माइ संपओग बहुले, चिरणगरविण सीलायर चरिते, जूदपसंगी, मज्जपसंगी भोजपसंगी, मंसपसंगी, दारुण साहसिए, संधिच्छेयए, उबहिए, विसम्भघाइ, आयलिंग तित्थभेय लहुहत्य संपते परस्त दव्त्र हरणमि जिव अणुबडे, तिव्बंबरे; गगहस्स नगरस्त बहुणि अतिगमणाणिय, जिगामणाजिय दाराणिय, अवदाराशिय, छिंडिउप, खंडीउय, जगर मिपाणिय, संवट्टणाणिय, निवाणिय, जुबखलिय, पाणागाराणिय, वेखागारागाथा, खोटेले खोटे माप का अतिशय से प्रयोग कर सका था, बहुत काल से नगर में बहुत धूर करने वाला था, द्यूत (जुवा) का प्रसंगी खेलनेवाला था, मद्य व मांस का प्रसंगी था, थालेकी विदारने में बडा दारुण था, साहसिक था, सन्धि छेदक खातका देने औधिया से पच्छन्नवारी थी, विश्वासघाती था, अग्नि लगाने वाला था देने को परि में भेद करने वाला था, चौर्य कर्म में उस का हाथ बहुत हलका था, अन्य हरण करने में नित्य अनुबद्ध था, और तीव्र वैर विरोध का करने वाला था. वह चोर नगर के बहुत से कलने के द्वार, प्रवेश करने के द्वार. गुप्त छिष हुवे मार्ग, छंडी, गल्ली कूंची का मापड हुए गिरे हुब मकानों में जाने के मार्ग, नगर के नाले व नालियों में से जाने के मार्ग, था, का For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक राजवार लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी १६४ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 अर्थ 480 पटांग ज्ञानाधकथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध 441 णिय, तक्करट्ठाणाणिय, सिंघाडगाणिय, तयाणिय, चउक्काणिय, चच्चराणिय, णागघराणिय, भूयघराणिय, जक्खदेउलाणिय, सभाणिय, पगणिय, पाणियसालांणिय, सुन्नघराणिय; आभाएमाणे २ मग्गमाणे गवेसमाणे बहुजणस्सच्छिद्देसुय, विसमेसुय, लिहुरेसुय, वसणेसुय अन्भुदयेसुय, उस्सवेसुय, तिहीसुय, छोसुय, जणेसुय पव्वीस्मसुय, जुद्देसुय, मत्तमत्तस्सय विक्खित्तस्सय बाउलरसय, जो २ मार्ग जहां से नीकलते हैं और जहां मीलते हैं वे मार्ग, पीछे फीरने के मार्ग, जून खेलने के अखाडे ॐ मदिरापान करने के कलाल खाने, वेश्याओं के घर, तस्करों को छिपने के स्थान, तस्करों को रहने के के स्थान, गटकाकार मार्ग, तीन रास्ते मीले, चार रास्ते मीले वैसे स्थान, बहुत रास्ते मीले वैमे स्थान, नाश के देवालय,भूगों के देवालय, पक्षों के देवालय, बहुत लंगों एकत्रित होकर बैठे वैनी सभा,भनी पिलाने के पोके स्थान किराने वाले की दुकानों, अन्य उजड गृहों वगैरह स्था में देखता हुवा गरेप : करता हु । बहुत लोगों के छिद्रों देखता हुवा, जिप्त मार्ग में जाने से कोई पकडसके न ही वैमा वि पंथ में - विषमरोग से कोई व्याप्त हुवा हवे उप में, इष्ट वियोग से पीडित हुए होवे उन में रामादिक के उपद्रवों से पीडित हुए लोको में, दष्ट व्यसनों में फो हुए लोगों में, राजादिक मान से बड़े हुए लोकों में, इन्द्रादिक के उत्सव स्थान में, पुत्रादिक के प्रमा के उत्सव में, मदन तेरमादि तिथियों के उत्सा में बहुत लोगों के धन्ना साथमार का.दूपरा अध्ययन में - For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषि नो के सुहियस्सय,दुहियस्सय,विदेसत्थस्सय, विप्परसियरसय मगगंध छिदंच विरहंच अंतरंच मग्गमाणे गवेसमागे एवं च णं विहरइबिहिया वियण रायागहस्स नगरस्स आरामेसुय, उजाणे सुय,सुसाणे सुर बाधीपोखराणि दीहिया गुंजालिय सरपंतिया सरसर पंतियासुय, जिण्णुजाणेसुय, भग्गकूबएसय, मालुयाकच्छए उय, सुसाणे सुय, गिरिकंदरलयण जेमम के स्थान में महदिक के युद्ध स्थान में, बहुत लोगों के क्लेश वाले स्थान में, मदोन्मत्त नशा से व्याप्त लोगों के स्थान में, निद्रादि स व्याप्त लेगों के स्थान में अन्य कार्य में चित्त तल्लीन करने वाले लोगों के स्थान में, बहुत कार्यों से व्याकूल लोकों के स्थान में, और बहुत सुख में रक्त लोगों के स्यान में चोरी करने का प्रसंग अच्छा रहता है इन से इन स्थानों का अवलोकन करता हुवा और देशान्तर जाने के लिये तैयार हुवे लोगों के स्थान में मार्ग में अवेलो मनुष्य के स्थान में इन के अंतर का विचार करता हुदा पा करमा या इसप्रकार ५४ विजय चौर विचर रहा था. और नगर के वाहिर भी सी पुरुषों को ऋडा कर६. अगम, पररा वृक्षा बाल उद्यान में, बाद में पाकरणियों, दायिक लम्मी वाडीयों में, गुनालिका गलाडियों में, पानी की नहेरोमें, हर में, तालाब की पंक्तिओम बहुत सरोवर की पंक्तियों में, जीर्ण पड हुवे उद्यानों में, भगे टुटे कूचे के स्थानों में, मालूया कच्छ के स्थान • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अष्टांग ज्ञात धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्वन्य - बहुजणं च्छिदेय जार एवंचगं विरइ॥ ९ ॥ ततेणं तीसे भदए. भारियाए अन्नयाकयाइ पुण्वस्तावत्काल समर्थ कुटुंबजागरियं जागराणीए अरू अझ अहं धणं सत्यवाणं सद्धिं बहूणि वासागि सह फारस रत सत्राणि माणुस्लगाई कामभोगाई पचणुभात्रमाण विहरमि, नो चेत्र अहं दार वा दारियंत्रापयःयामि तं धन्नाओगं तिओ अम्मयाओ जाव सुलद्धेणं माणुस्तए जम्मजीत्रिय फले, तालि अम्नयाणं जानिं मन्नेणियग कुछि संभूयाई थाई, महुलमुलाबाई मम्मणवयंपियाई मुलकखदे भागं ई में इशारों में, की गुफाओं में, छिद्र बिशा खड्डे कोपरे वगैरह में या विचरता था ए९॥ तत्पश्चात् भद्रा भार्य को पूर्व रात्रि के काल में हुटुम्ब जागरणा करते हुये ऐसा विचार हुन कि मैं धन्ना की साथ बहुत वर्षो से शब्द, स्पर्श, रूप, र बगैर मनुष्य के काम में यों भोगती हूइ विचरती हूं परंतु तुझे कोई पुत्र अथवा पुत्री नहीं हुई. इसमें ओ नाता अपने कुक्षि में उत्पन्न हुवा, स्तन में दुग्ध उत्पन्न करने वाला मधुर आळाप करने वाला, मन मन में जलन करने वाला, स्तन के मूल भाग में से सरकता हुवा बालक को स्तनपान कराती है, कमल समान कोमल हाथों से के कर जो अपने खोले में For Personal & Private Use Only ॐ घना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन क १६७ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलस पिजी १ आभिसरमाणाई, मुडयाई थणियपिवंति, तउयकोमल कमलोवमेहि, हत्थेहिं गिाण्हऊग ओछंगेनिवेसियाणं देति समुल्लावएपिएसु महुरेसु पुणोपुणो मंजुलप्पभंगिए ॥. ते अहं-अधण्णा अपुण्णा अलक्खणाय अकयपुग्णातो एगमविगपत्ता तं सेयं ममकल्लं . पाउप्पभाए जाव जलते घणं सत्थवाहं आपुरुलेत्ता घण्णेणं सत्थवाहेणं अभुणु णायासमाणीसुबहुविपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावत्ता सुबहुं पुष्फ वत्थगंध मल्लालकार गहाय, बहूहि मित्त नायि नियग सयण सबंधि परिजण महिलाहिं सद्धिं संपग्वुिडा जाई इमाई रायगिहस्स नयरस्स बहिया, णागाणिय, भूपाणिय, वैसी है, और जिस का बालक मधुर आलाप वारंवार करता है उस माता को धन्य है यावत् उस का मनुष्य जन्म भी सफल है. परंतु मैं अधन्या, अपूण्या हूँ शुभ लक्षणों से रहित हूं, क्यों की मुझे एक बालक की भी उत्पत्ति नहीं हुई. इस से कलप्रभात में धन्ना सार्थवाह को पुच्छ कर उन की अनुज्ञा होने से विपुल अशन,पान खादिम स्वादिम बनाकर बहुत अच्छे पुष्प, वस्त्र, गंध माल्यालंकार लेकर बहुत मित्र ज्ञाती, निजक, स्वजन, संबंधीयों की स्त्रियों की साथ इस राजगृह नगर वाहिर जो नाग भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कंध, रूद्र, शिव व श्रमण आदि देवों हैं उन की प्रतिमाओं को बहुत मूल्यवान पुष्पादिक से * प्रकाशक राजावहादुर लाला खदवसायजीवालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only wiww.jainelibrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. षष्टा ज्ञाताधेमकथा का प्रथम श्रतस्कंध जक्खाणिय, इंदाणिय खंदाणिय, रुहाणिय, सिवाणिय,वेसाणिय, वेसमणाणियातस्थणं . बहणं णागपडिमाणिय जाव वेसमणपडिमाणिय महरिहं पुष्फ चणियं करेत्ता, जणुगयवडियाए एवं वइत्ता जइणं अहं देवाणुप्पिया ! दारगंवा दारियंत्रा पयायामि, तेणं अहं तुभं जायंच दायंच भायंच अक्खयणिहिंच अणुबलेमि त्तिकटु, उवाइयं उववाइत्तए, एवं संपेहेइ २ ता कल्लं जाव जलंते जेणामेव धण्णेसत्यवाहे तेणामेव उपागच्छइ २ ता एवं वयासी-एवं खलु अहं . देवाणुप्पिया! तुम्मेहिं सद्धिं वहूई वासाइं जाव दिति, सल्लावरसु मुहुरेहिं पुणा पुणो । पूना अर्चना करूंगी और घुटने से जपीनपर पडकर उन का नमस्कार करके ऐसा बोलूंगी कि ओ देवानुपिय ! यदि मुझे पुत्र या पुत्री होगा तो मैं तुम्हारी पूना करूंगी, पर्वके दिनों में दान दूंगी, द्रव्योपार्जन का विभाग करूंगी, अक्षयनिधि जो आप के भंडार हैं उन में द्रव्य की वृद्धि करूंगी. इस 4/कार उस की पास याचना करूं. ऐसा विचार कर प्रभात होते घमासार्थवाह की पाम गई. और ऐसा बोली अहो देवांनुप्रिय! आप की साथ में पांचों इन्द्रियों संबंधी भोगोपभोग बहुत वर्षों से भोगती हूं." परंतु मुझे पुत्र या पुत्री की प्राप्ति नहीं हुई. याव जो माता अपने पुत्र को पंजुल भाषण कराती हुई। धन्न सार्थवाह का दूसरा अध्ययन 4 4.20 For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १७० 41 अनुवादक-पलबमाचारमाने श्री अयोकऋषिजी मंजुलप्पभागिए, लणं अहं अधन्ना अपुन्ना अकयलक्खणाः एत्तो एगमविणपत्ता ॥ तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अब्भणुनाया समाणी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव अणुवद्वेमि, उवाइयं करित्तए ॥१०॥ ततेणं धण्णेसत्थबाहे भदं भारियं एवं वयासी-ममंपियणं स्खलु देवाणुप्पियाए एसचेव मणोरहे कहण्णं तुमं. दारगंवा दारियंवा पयाएज्जासि, दाए सत्थवाहीए एयमद्रं अणुजाण ॥ ११॥ ततेणं सा भद्दासत्थवाहिणी धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नायासमाणी हट्टतुट्ठा जाव हियया, विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति सुबहुपुप्फगंधमलालंकारं गेण्डा रहती है उस माता को धन्य है. मैं अधन्या अपुण्या हुं. मेरे में शुभ लक्षण नहीं है. क्यों की मुझे एक भी पुत्र की प्राप्ति नहीं है. इस से अहो देवानुप्रिय ! आप की अनुशा होवे तो मैं विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम पनाकर यावन् वांछित वस्तु की याचना करने को चाहती हूं. ॥१०॥ तब यह धन्नासार्थवाह भद्रा भार्या को ऐमा बोले कि मेरे मन में भी ऐसा मनोरथ था कि कर तुझे पुत्र या पुत्री होवे. भद्राने धन्नार्थवाह की इस बात को सम्यक् प्रकार से जानी * ॥ २१ ॥ धनासार्थवाह की अनुज्ञा होने मे भद्रा बहुत हृष्ट तुष्ट हुई, विपुल अश्न, पान, खादिम, स्वादिम, बनाये, और गंधित बहुत पुष्प, गंध, माला, अलंकार वगैरह लिये. फीर अपने गृह से नीकलकर राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद नी.. For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ 48+ षष्टाङ्ग वाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 418+ गिण्हइत्ता सयाओ गिहाओ णिगच्छइ २ ता रायागहं नगरं मंज्झमझेणं निग्गच्छइ निग्गग्छइत्ता जेणेव पोक्खरणी तणेव उवागच्छइ २ त्ता पोक्खरणीए तीरे मुबहुं पुप्फ जाव मल्लालंकार ठवेइ २ त्ता पेक्खरणिं उग्गाहइरत्ता जलमजणं करेइ जलकीडं करति, ण्हाया कयवलिकम्मा उल्लयपडसागा. जाई तत्थ उप्पलाई जाव सहस्स पचाई ताई गिण्डइत्ता पोक्खरणीउ पच्चोहइ २ ता तं सुबहुं पुष्फ वस्थगंधमलं गेण्हा २ ता जेणामेव णागघरएय जाव वेसमणघरएय तेणेव उवाग छइत्ता, सत्षणं णागपडिमाणय जाव वेसमण पडिमाणय आलाए पणाम करेइ ईसिं राजगृही नगरी के बीच में होते हुवे पुष्करणी बारडी थी वहां आई. उस वावडी के किनारे पर पुष्पो वगैरह सब रखे. फीर उम में जाकर जल मज्जन किया, जलक्रीडा की, स्नान किया, कोगले किये. फीर उस पानी से भींजी हुई साडी सहित वहां जो उत्पल यावत् सहस्र पत्रवाले कमलों थे उसे ग्रहण कर उस में से बाहिर आई. और वस्त्र, गंध, माल्यालंकारादि बाहिर थे उसे लेकर नाग देवालय यावत् वैश्रपण देवालय में गई. बहुत नीचा नमकर नमस्कार किया. फीर मोरपीछ की पूंजनी ग्रहण की, और नाग प्रतिमा यावत् वैश्रमण की प्रतिमा को उस पूजन से प्रपार्जना की. पानी की धारा से प्रक्षालन 18+ पत्रा मार्यवाह का दूसरा अध्ययन 4k | For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्राषिजी पच्चुण्णमइ २ लोमहत्वगं परामुसइ २ णागपडिमाओय. जाव समणपडिमाओय लोमहत्थेणं पमजद दगधारए अब्भुक्खेइ २ पम्हलमुकुमालाए गंधकालाई गायाई लुहेइ २ महरिहं वत्थारुहणंच मल्लारुहणंच गंधारुहणंच, पुष्फारुहणंच,चुण्णारुहणंच वण्णारुहणंच करेइ जावधूवं डहतिरजाणुपायवडिया पंजलिउडा एवं वयासी जइणं अहं दारगंवा दारियंवा पयायामि तोणं अहं जायं च जाव अणुवड्ढामि तिकद्द उवाइयं करेइ २ जेणेव पोक्खरणी तेणेव उवागम्छइ, तेणेव उवागच्छइत्ता में विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणी जाब विहरइ ॥ जिमिय जाव सूइब्भूया, जेणेव सएया, पख जैसे सुकोमल कपाय रंगवाले वस्त्रों से उन प्रतिमाभों को स्वच्छ की, पहमूल्य वस्त्र अलंकार पहिनाये. गंध, चूया चंदनादि लगाये, पुष्प चढाये, वगैरह यथास्थान सब शोभित किया. यावत् अंगार में मुगन्धी धूप डालकर देवालय पधमयायमान कर दिया. फर हाथ जोडकर ऐमा बोली याद मुझं पुष अथवा पुत्री हेगा तो मैं बहुमूल्य पाली पूजा करूंगी, पर्वादि दिनों में दान करूंगी, द्रव्योपार्ज की विभाग करूंगी, और आपके भंडार में द्रव्य की वृद्धि करूंगी. इस तरह याचना करके जहां पुष्करणी वावडी थी वहां आई और विपुल अशन पानादि आसादती हुई यावत् विचरने लगी. जीमकर यावत् प्रकाशक-राजावट दुलाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रमादजी . Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 20 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध गिहे ते उत्रागच्छ ॥ १२ ॥ अदुतरंचणं भद्द मत्थवाही चउद्दट्ठ मुद्दिट्ठ पुण्णमासिणीसुविपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उक्खडेइ २ ता बहवे नागाजय जाव वेसमणाणय उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं चणं विहरइ ॥ १३ ॥ तसा भद्दा संस्थवाही अन्नया कयाई केणं कालंतरेणं आपण सत्ता जायाया वि होत्था ॥ १४ ॥ तरणं तीसे भदासत्यवाहीए दोसु मासेमु वीसिकतेमु, तइएमा से ब्रह्माणे इमेयारूत्रे दोहले पाउन्भूते तं धन्नाउणं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खजातो ताओ अम्मयाओ जाउणं विपुलं असणपाण खाइम साइमेसु बहुयं पुप्फगंध शुचिभूरा (पवित्र) मुखनक्षालनादि से हुई और वहां से अपने घर आई || १२ || अब भद्रा सार्थवाही चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिया, अमावास्या. इन चारों तिथियों में विपुल अशनादि बनाकर बहुत नाग देव शवत् वैश्रमण देवों को भोग चढाकर पुत्र या पुत्री की याचना करने लगी ॥ १३ ॥ बहुत कालांतर से एकदा प्रस्तावे भद्रा सार्थवाही गर्भवती हुई ॥ १४ ॥ जब दो मास व्यतीत हुए और तीसरा मास बैठा सब भद्रा भार्या का ऐसा दोहद हुवा कि जो माता विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, अच्छे सुगंधित बहुत पुष्प, गंध, माल्य व अलंकार लेकर मित्र, निजक, ज्ञाति, स्वजन, संबंधी वगैरह की स्त्रियों साथ परवरी हुई- राजगृही For Personal & Private Use Only * धन्नास वाह का दूसरा अध्ययन 44 १७३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - मल्लालंकारं गहाय मित्तनाति नियग संयण संबंधि परिय महिलाद्दिय सद्धि संपरिबुडा रायगिहं नगरं मज्झमज्झणं णिग्गच्छति २ त्ता, जेणेव पोक्खरणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुक्खरणिं उग्गाहिति २ व्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकार विभूसिआओ तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणीओ जाव परिभुजमाणीओ दोहलं विणेति ॥ एवं संपेहेति २ कलं जाव जलते जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइत्ता, घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी एवं खलु देवापिया ! मम तस्स गन्भरस जाव विणेति, तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! तुम्भहिं अब्भणुष्णाया समाणी आव त्रिहरितए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध वे { नगरी की मध्य बीच में से नीकलती है और पुष्करणी वावडी पास जाकर उस में स्नान कर सर्वालंकार से विभूषित बनी हुई उस विपुल अशनादि को भोगवती हुइ अपना दोहद पूर्ण करती है उन माता को धन्य है यावत् शुभलक्षणवाली है. इस तरह विचार कर प्रमात होते धन्नामार्थवाद की पास आई और धमासार्थवाह को कहने लगी कि मेरे इस गर्भ को ऐसा दोहद उत्पन्न हुवा है कि जो माता यावत् उक्तप्रकार दोहद पूर्ण करती है उन को धन्य है. इस से अहो देवानुप्रिया आप की अनुज्ञा होवे तो मैं उक्त | प्रकार से दोहद पूर्ण करने के लिये विचरूं. अहो देवानुप्रिये ! तुम को जैसे सुख होवे वैसे करो. विलम्ब For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक- राजाबहादुर बाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी १७४ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 पष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकया का प्रथम वस्कंध ॥ १५ ॥ ततेणं सां भद्दा सत्यवाही घण्गेणं सत्थवाहेणं अन्भणुष्णायासमाणी हट्ट तुट्ठ जात्र विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव ण्हाया जात्र उल्लगपडसाडगा जेणेव णाघर गए जाव धूवं डहइ २ त्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवा गच्छित्ता ततेणं तातो मित्तनाति जाव णय महिलाओ भद्दा सत्यवाही सवालंकार विभूतियं करत तरणं सा भद्दा सत्यवाही ताहि मित्तणाई नियग सयण संबंधि परिजण नगर महिलाहि सार्द्धं विपुलं अस पाणं खाइमं साइमं जात्र परिभुंजमा णीय दोहलं विणेइ २ जामेव दिसिं पाउ भूयां तामेवदिसि पडिगया ॥ १६ ॥ ततेणं सा भद्दासत्यवाही संपुन दाहला जातं गन्धं सुहंसुहेणं परिवहइ ॥ १७ ॥ ततेणं सा भद्दा [ मत करो. ।। १५ ।। धन्ना सार्थवाह की अनुज्ञा लेकर भद्रा सार्थवाहीनीने हृष्ट दुष्टं बनकर विपुल अनादि बनवाये यावत् पुष्करणी में स्नान किया, कोगले किये यावत् भीगे हुने वन सहितं नागादि देवताओं का देवालय यावत् वैश्रमण देवका देवालय में आइ यावत् धूप देकर प्रणाम किया. फीर पुष्करणी सबढी की पास जाकर स्वजन संबंधी यावद नगर जन की महिलाओंने भद्रासार्थवाही को सार्बलंकार से विभूषित की फोर स्वजन संबंधि मित्र जन व नगर जन की महिलाओं की साथ विपुल अशनादि भोगवती (हुइ दोहद पूर्ण करने लगी. फीर सब अपने २ स्थान गये. ॥ १६ ॥ इस तरह दोडद संपूर्ण करके वह भद्रा सार्ववाहिनी सुख पूर्वक गर्भ की रक्षा करने लगी. ॥ १७ ॥ नत्र मास व बाढे सात रात्रि दिन For Personal & Private Use Only 4 घनासार्थवाह का दूसरा अध्ययन 42 १७५ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुन दयाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सत्यवाही णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण राइंदियाणं सुकुमाल पाणिपायं जाव दारगं पयाया ॥ १८ ॥ ततेणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जाइ कम्मं करति तहेव जाव विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उपक्खडावेति तहेव मित्तणाति भोयावेत्ता, अयमेयारूवं गोणं गुणणिप्पण्णं नामधेनं करेंति, जम्हाणं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाणेय जाव वेसमणपडिमाणय उवाइयलढणं तं होउणं अम्हं इमे दारए देवदिण्णे नारेण ॥ ततेणं तस्स दारगरस अम्मापियरो णामधिज्जं करेंति देवादिन्नेति ॥ १८ ॥ ततणं तस्स दारगरस अम्मापियरो जायंच दायंच भायंच अक्खयनिर्हिच अणुबड्डति पूर्ण हाते उस को मुकोमल हाथ पांव वाला पुत्र उत्पन्न हुवा. ॥ १८ ॥ उस बालक के माता पिताने प्रथम दिन जात कर्म चर्म रोदनादि किया यावत् जन्म का उत्सव करके विस्तीर्ण अशनादि चारों प्रकार का आहार तैयार करके मित्र ज्ञाति आदि को भोजन करा के गुण निष्पन्न नाम की स्थापना की नाग की प्रतिमा यावत् वैश्रमण देवकी प्रतिमा का आराधन करने से इस पुत्र की मति हुई है इस से इस के पत्र का नाम देवदिन कुमार होवे. तत्पश्चात उस पत्र के माता-पितान उत का नाम देवदिन कमार रखा. ॥ १८ ॥ तत्पश्चात् उस पुत्र के मात पिताने पूजा.की, दान दिया, द्रव्योत्पत्ति का भाग दिया पावत् : प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वाला प्रसाद For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १७७ पष्टाङ्गजाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कम्प ॥ १९॥ ततेणं से पंथए दास चेडए देवदिमस्स हारगस्स बालग्गाही जाए देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हइ २ वहहिं डिभएदिय डिभियाहिय दारएहिं दारियाहि कुमारहिं कुमारियाहिय सद्धिं संपरिबुड अभिरमइ ॥ २० ॥ ततेणं सा भद्दा सत्यवाही अन्नयाकयाइ देवादिन्नं दारयं व्हायं कपवलिकम्मं कयकोउयमंगल पायछित्तं सम्बालंकार विभूसियं करेइ २ पंथयस्स दास चेडयस हत्ययांसि दलयइ ॥ २१ ॥ ततेणं से पंथए दास चेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिण्णं दारगं कडीए गिण्हइ गिव्हइत्ता, सयाओ गिहाओ पडिाणक्खमइ २, बहूहिं डिभएहिय डिभियाहिय भंडार में द्रव्य की वृद्धि की. ॥ १९ ॥ पंथक दास उस कुमार का वालग्राही हुवा अर्थात् बालक को लेकर खेलाने वाला हुवा. और उस कुमार को कम्मरपर बैठाकर बहुत बालक बालिकाओं से परवर हुवा खलने लगा. ॥ २० ॥ एकदा भद्रा मार्थवाहीने देवपिन कुमार को मान कराया यावत् शरीर स्वच्छ किया दवा सर्वालंकार से विभूषित किया. और पंथक दास को खेलाने को दिया ॥ २१॥ भद्रा सार्थवाहिनी की पास से कुपार को लेकर वह पंथक उसे अपनी कम्मरपर बैठाकर अपने गृह से नीकला और बहुत बालक बालिकाओं को साथ लेकर राज मार्ग पर गया. वह यहां देवदिन कुमार को एकांत takघमा सार्थवाह का दूसरा अध्ययन -4 1 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव कुमारियाहिय सद्धिं संपरिवुड़े. जेणेव. रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ २त्ता देवदिनं । दारगं एगंते ठावेइ २ बहूहिं डिभएहिय जाव कुमारियाहिं सद्धिं संपरिबुडे पमत्तेयावि विहरइ ॥ २२ ॥ इमंचणं विजए तकरे रायगिहस्स नगरस्त बहूणि दाराणिय अवदाराणिय तहेव जाव आभोएमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे जेणेव देवादिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ २ देवदिन्नं दारगं सवालंकारं विभूलियं पासइ पासइत्सा देवदिन्नस्स दारगरस आभरणालंकारेसुमुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झविवण्णे पंथयं दास पचेडयंपमत्तं पासति २ दितालोयं करेति २ देवदिन्नं दारयं गेण्हति २ कक्खसि . अल्लियावेइ २ उत्तरिजेणं पिहेइ २ सिग्धं तुरियं चवलं चेतियं रायागहस्सं नगरस्स अवदारणं 19 में रखकर बहुत बालक बालिकाओं साथ प्रमाद से खेलने लगा. ॥ २२ ॥ इस समय विजय चोर है नगर के बहुत द्वार अपद्वार यावत् देखता हुवा गवेषता हुवावदिन कुमार की पास आया, और उस कुमार को सर्व अलंकारों में विभूषित बना हुवा देखा, उस कुमार के अलंकारों में उम चोर का मन मूच्छित हुदा, गृद्ध हुवा व तल्लीन हुचा. इस से पंथकदास को प्रपादी जानकर चारों तरफ देखकर 17उस कुमार को उढाया और कांख में दबाकर उसपर वस्त्र ढककर शीघ्र ही राजगृह नगरकी छोटी बारि में 42 अनुवादक बालबमचारी मुनि श्री अमे लक ऋषीजी * .प्रकाशकनाजाबहादर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी* अर्थ/ For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 णिग्गच्छर २त्ता जेणेव जिष्णुजाणे जेणेव भग्गवए तेणेव उवागच्छइ २त्ता देवविन्नं दारयं जीवियातो ववरोवेति २ आभरणालंकार गिण्हति २ देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवइ २ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छइत्ता मालुया, कच्छयं अणुप्पविसइ २ ता णिच्चले णिफंदे तुसिणीए दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ ॥ २३ ॥ ततेणं से पंथए दासचेडे तओ मुहुत्ततरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छइ २ देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स मे बहिर नीकल गया. और जहां जीर्ण उद्यान था. व तूटा हुवा कूबा था वहां आया. वहांपर उस कुमार को मारकर उम के अलंकारों ले लिये और उस कुमार का प्राण रहित निश्चेष्ठ व जीव रहित शरीर को उम तूटा हुवः कूत्रा में डालकर मालुया कच्छ में जाकर वहां निश्चिल स्थिर चूपचाप रहकर दिन व्यतीत किया. ॥ २३ ॥ थोहे संमय पीछे वह पंथक नामक दास देवदिन कुमार को जहां रखा था.13 2वहां गया, पांतु वहाँ वह नहीं मीलने से रोता हुवा, आक्रंद करता हुवा, विलाप करता हुवा उस कुमार की चारों तरफ उसने गवेषणा की. गोषणा करते हवे भी उस को इन को किसी प्रकार से पत्ता नहीं। 8+ षष्ठान ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध धनामावाह का दूमरा अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक पनीर सबतो समंता मग्गण गवेसणं करेतिरदेवदिन्नस्स दारगस्स कत्थ सुइवा खुइंवा,उर्चिा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता धण्णं सस्थवाहं एवं वयासी एवं खलु सामी महासंस्थवाही देवदिन्नं दारयं व्हायं जाव ममहत्यसि दलयति तएणं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिहामि जाव मग्गण गवसणं करेमि, तं णणजइणं सामी! देवदिन्नए दारए केणय तणेतिवा,अवहरितेला,अक्खित्तेवा पायडिए धण्णरस सस्थवाहस्स एयमटुं णिवेएति ॥ २४ ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे पंथरस दासचेडस्स एमपट्टे सोचा णिप्तम्म सेणय महापुत्तसोएगा भिभूएसमाणे परम छित्तेव चंपगपायवे धसत्ति धरणियलासि सव्यंगहि सन्निव ॥ २५ ॥ तएण मीरने से अपने घर आया और धनासार्यवाह की पास जाकर ऐसा बोला अहो स्वामिन्! भद्रा सार्थवाहीने देवदिम कुमार को मान करा के यावत् बहुत पसालंकार से विभूषित करा के मुझे दिया था. पीछे देवदिन्न बालक को मैं कम्मर पर बैठाकर यावत् मार्ग की गवेषणा की. अहो स्वामिन् ! देवदिन्न बालक को किसने हरन किया यह मैं नहीं जानता हूं यों कह कर वह घमा सार्थवाह के पांव में गिरपडा पंथक की पास से ऐसा सुनकर वह पन्नासार्थवाह को बहुन शोक हुवा. और उस शोक से पराभव पायाहुया जैसे परशु से छेदाया हुषा चंपक वृक्ष पडता है वैसे ही पृथ्वीपर गिरपडा.॥२५॥ अब धमासार्थवाद ..प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी अर्थ | 1 | For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टांत हाताधर्मकथा का प्रथम-शुतस्कन्ध 4 " से धण्णेसत्यवाहे तओमुहुर्सतरस्स आसत्थे पछागययाणे देवदिनस्स पारगस्स। सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ २त्ता देवदिनस्स दारयस्स करथइ सुइवा खुइवा. पउत्तिवा अलभमाणे जेणेव सएगिहे तेणेव उवामछइ रत्ता महत्थपाहुडं गेण्हहरना जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ उवाग छहत्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेति २ त्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम पुत्ते भहाए भारियाए अत्तए देवदिने मामं दारए इढे जाव उंथर पुप्फपिव दुलहे सवणयाए किमगपुण पासणयाए । ततेणं सा भद्दा देवदिनं व्हायं सव्वालंकार विभूसियं, पंथगस्स हत्थे दलयति आव दो घडी पीछे आश्वासन पाता हुवा स्वस्थ हुवा और देवदिन पालक की गवेषना करने लगा. जब | करते हुए भी किसी प्रकार से पचा मला नहीं वह अपने ग्रह आया. वहाँ बहु मूल्य भेट लेकर नगर रक्षक कोतवाल ] की पास गया. उन की पास वह भेट रखकर ऐसा बोला अहो देवानुप्रिय ! मेरी भद्रा मार्या से उस्मान हुवा मेरा पालक देवादिन कुमार इष्ट यावत् उबर पुष्प समान सुनेन को ही दुर्लभ था, वो देखने का कहना ही कमा ऐमा था. भद्रा सार्थवाहीने उनको नान कराके यावत् सर्व अलंकार से विभूषित करके। _48+ धना सार्थमाव का दूसरा मध्ययन MP For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૨ 4. अनुकादक-बालब्रह्मनगरी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - पायवडिए तं ममनिबेएइ ॥ तं इच्छामिणं देवाणुपिया ! देवदिन्नस्सं दारगरस सयता समंता मग्गणगवेसणं करेह ॥ २६ ॥ ततेणं ते नगरगुत्तेया धणेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्तासमाणा सन्नडऋद्धवम्मियकवया उप्पलियसरासणपट्टिया जाव गहिया उहपहरणा धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहम्म नगरस्स बहूणि अगमगाणिय जाव पवासुय मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिणिक्खमंति २त्ता जेणेव जिष्णुजाणे जेणेव भग्गकूबए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता देवदिन्नस्स दारगरस सरीरं णिप्पाणं णिच्चेटुं जीव विप्पजढं पासंति २ हाहा अहो पंथक दाम को दिया यावत् उसने मेरे पांव में पडकर सब बात मुझे कही. अब अहो देवालुमिप! मैं देवदिन कुमार की गवेषणा कराना चाहता हूं.॥ २६ ॥ उस कोटवालने धन्ना सार्थवाह की पास से ऐसा सुनकर चर्म के बंध बांध, कवच (बख्तर) धारण किया, धनुष्य की पीठको खींची, मस्तक में मुगुटपट्ट पहिन लिया और हाथ में हथियार धारण किये. फार धन्ना सार्थवाह की साथ राजगृह नगर के बहुत निक लने के मार्ग यावत् पानी के स्थानों में गवेषणा करते हुवे राजगृही नगरी के.काहिर निकले. वहाँ से जहाँ जीर्ण उद्यान व तूटा हुवा कूबा था वहां आये. वहां देवदिन कुमार का शरीर प्राण रहित निश्चेष्ट । प्रकाशक-राजाबहादुर.लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 पाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतसन्ध 41 अकजमित्तिकटु, देवदिन्नं दारगं भग्गकूवाउ उत्तारैति २ ता धण्णस्स सत्थवाहस्स * हत्थेणं दलयंति ॥ २७ ॥ ततेणं ते जगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्ग णुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकग्छए तेणेव उवागच्छंति २ ता मालुया कच्छयं अणुप्पविसंति २विजयं तकरंससक्खं, सहोढं सहगेवेजं जीवगाहं गेण्हति २ त्ता अट्ठि मुट्टि जाणु कोप्पर पहार संभग्ग महियगत्तं करेंति २ अउडा बंधणं करेंति २ देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हति २ विजयस्स तक्कररस गीवाए बंधति २ त्ता मालुया कच्छयाओं पडिणिक्खमंतिरत्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति २त्ता निर्जीव देखकर हा ! हा !! अहो !!! यह अकार्य हुवा. फीर उस को को में से निकालकर धम सार्थवाह को दिया ॥ २७ ॥ फीर वह नगर रक्षपाल उस चोर के पांव के अनुसार से जाते मालवा कच्छ की पास गये और उस में प्रवेश कर विजय चोर को सब की साक्षी से मुख और पीठ को गावाडी के बंधन से बांधा. जीवित चोर को पकड कर हड्डी, मष्टी, जान, हाथ की कूणियाँ वरह में चार ॐ को बहुत प्रहार करके खोखरा किया. पीछे हाथ रखवाकर बंधन से बांध दिया. और देवदिन कुमार के काजो आमरण उसकी पास थे उसे ले लिया. फीर उसे गरदन से पकड कर बाहिर निकाला और राजगृह 48 घना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन + For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ + अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी - रायगिह नंयर अणुप्पविसंति २त्ता रायमिहे नयरे सिंघाडग तिग चउक्क चच्चर रहा पहपहेतु कसप्पहारेय, लयाप्पहारेय छिवाप्पहारेय, निवाएमाणाच्छारंवा धूलियंच कयवरंच उवरिं पक्खिवमाणा महता २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वदति-एसणं देवाणुप्पिया ! विजए णामं तकरे जाव गिरविव-आमिसभक्खी बालधाएय बालमारए, तं नो खलु देवाणुप्पिया ! एयरस केति रायावा रायमचेवा अवरज्झति, णण्णत्थ अप्पणो सयाई कम्माइं अवरज्झति तिकटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उबागच्छति उक्गच्छित्ता हडिबंधणं करेति, भत्तमाण निरोहं करेति २ ता संज्झंनगर में गये. वहां प्रवेश करते अंगाटक, त्रिक, चौक, चच्चर, व महापंथ में चाबुक का प्रहार, लत्ता का प्रहार, मोटा के प्रहार से मारते हुवे राख, धूलि, व कचरा उस पर फेंकते हुवे बडे जोर २ से लोगों बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! यह विजय चोर मोस खानेवाला, पालक का घातक, पालक को मारने वाला है. इस से कोई राजा व राजकर्मचारी इस को दण्ड देने में अनर्थ नहीं करते हैं. उसे अपने किये। हने कर्म के फल मात हवे हैं, सिवा अन्य किसी का दोष नहीं हैं. इस तरह कहते हुवे रस चोरों को बांधन की चरकशाला (केदखाना ) में लायें, वहां उसे हड्डी [ खोडे ] से बंधा, खाने को देने का निरोप : • प्रकायाक राजापहार लाला मुखदेवसझयजी ज्वालापसाटला. भर्थ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 4. १८५ षष्ठङ्ग जाता धर्मकथा का-प्रथम श्रुतस्कंध कसप्पहारेप जाब णिवाएमाणा विहरति ॥२८॥ततेणं से धण्णेसत्थवाहे मित्तणाति णियग। सयण सबंधि परिययेण सहिं रोयमाणे जाव विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं निहरणं करेंति२बहुइं लोइयाई मय किच्चाई करेतिरकेइ कालंतरेणं अवगय सोए आएयावि होत्था ॥ २९ ॥ततेणं से धण्णेसत्थवाहे अन्नया कयाई अण्णया लहुसयंसि रायावराहसि संपलिंत्ते जाएयावि होत्थागततेणं तेणगरगुत्तिया धण्णंसत्यवाहं गिण्हति २ जेणेव चारए तेणेव उवागच्छति चारगं अणुपवेसंति विजएणं तकरएणं सहिं एगयओ हडिबंधणं करेंति ॥ ३० ॥ ततेणं सा किया, और संध्या समय में चाबूक के प्रहार से यावत् मारने लगे ॥२८॥ तत्पश्चात् धना सार्थवाहने अपमे सजन संबंधी परिवार सहित रोता हुवा यावत् विलाप करना हुवा देवदिन बालक के शरीर का ३हुन दि सत्कार सयुदय से निहारन किया. लौकिक मुत्यु की कियाओं को, और कितनेक कासांतर मे शोक रहित होगये ॥ २९ ॥ एकदा घमासार्थवाह भी गज्य के छोटे अपराध में आगये. और किसी पिशुनने राज पुरुष को कहा. इस से नगर रक्षक (कोतवाल) धनासार्थवाह को लेकर केदखाने में लेगये और वहां विजय तस्कर की साथ एक ही खोडे में बांध दिया. ॥३०॥ वह भद्रा भार्या* का १ छोटे अपराध में दाण चोरी का अर्थ लेते हैं ऐसा परंपरा है. धना सार्यवाह का दूसरा अध्ययन HA 486 For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ammam १४ अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + भद्दा भारिया कल्लं जाव जलंते विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ भोयणपिंडए करेति २ भायणाइ पक्खिवइ २ लंच्छिय मुयिं करेति २ एगंच सुरभिवारि पडिपुन्नं दगवारयं करेंति २ पंथयं दासचेडयं सहाविति सद्दावित्ता एवं वयासी-- गच्छहणं तुम देवाणुप्पिया ! इमं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धपणस्स सत्थवाहस्स उवणेहि॥ ३१ ॥ ततेणं से पंथए भदाए सत्यवाहीए एवं वुत्तेसमाणे हट्ठ तुढे तं भोयणपडियंतच सुरभिवारिपडिपुन्नं दगवारयं गेण्हइ २ त्ता सयाओ गिहाओ पडिगिक्खमइ सयाउ गिह ओ पडिणिक्खमित्ता • रायगिहं जयरं मझमझेणं जेणेव चारगमाला जेगव धण्णेसत्थवाहे तेणेव प्रभात होते विपुल अशनादि बताकर भोजन पिण्ड तैयार किया. उसे एक पात्र में रख कर उस का मुखबंध किया और सुगंधि जल से एक पात्र भरा. फीर पंथक नापक चेटक को वोलाकर कहा कि अहोरी देवानुपिय! इम अशनादि लेकर केदखाने में धमासार्थवाह की पास जाओ और उने यह देवो ॥१॥ भद्रा सार्थव हीने ऐसा काम बतलाया इससे वह पंथक हृष्ठ तुष्ट हुवा और भेजन व पानी का पात्र लेकर अपने गृहसे नीकलता हुवा राजगृह नगर के बीचमें होता हुवा घरकशालामें धन्नासार्थवाह की पास गया..| प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतरसन्ध उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोयणं पिंडियं उर्वति २ उलंछइ २ त्ता भायण इं गिण्हइ रत्ता भायणातिं धोवइ २त्ता हत्थसोयं दलयति २त्ताधणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं परिवेसइ ॥ ३२ ॥ ततेणं से विजए तकरे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-तुमेणं देवाणुप्पिया ! मम एतातो विपुलातो असणं पाण खाइमं साइमं संविभागं करेहि ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं वयासी-अवियाइ अहं विजया! एवं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाणवा सूणगाणवा दलएज्जा उकूरडियाए वाणं छडेजा णो चेवणं तब पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्त, वेरियस्स पडिणीयस्त पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असणं पाणं खाइमं और वहा भोग्न पिण्ड रखा. उसने उस को खोलकर उस में से भोजन [ थाली कटोरे ] लिया, उभे पनामे धाकर स्वच्छ किये, फेर हथ धोए, और धनसार्थवाहको विपुल अशन पान,स्वादिम, व स्वादि परुम ||३२|| उस समय विजय चोर धन्नासार्थवाह को बोला कि अहो देवानुप्रिय ! इस विपुल अशनादि से तुम मुझे कुच्छ विभाग दो. तब धन सार्थवाह उस तस्कर से ऐमा बोले कि अरे विजथ ! इम अशनादि को मैं कौरे या कुत्तों को डालदू अथवा उकरडपर डाल दू परंतु तूं कि जो मेरे पुत्र की धास करने वाला, धन्ना सार्थवाह का दूसरा अध्याय 436 For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८८ अनुावदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि साइमं संविभागं करेज्जामि ॥ ततेणं से धण्णेसस्थवाहे तं विउलं असणं पाणं खाइम साइमं आहारेइ, तं पंथयं पडिविसजेइ ॥ ३३ ॥ ततेणं पंथए दास चेडए तं भोयण पिंडगं गेण्हइ २ जामेवदिसं पाउब्भूए तामेवदिसं पडिगए ॥ ३४ ॥ ततेणं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहरियस्स समाणस्स उच्चारपासवर्णणं उवाहित्था ॥ ततेणं से धण्णेसत्थवाहे विजयं तक्करं एवं बयासी एहि ताव विजया ! एगतमवकमामो जेणं अहं उच्चारपासवणं परिवमि ॥ तएणं से विजए तक्करे धण्णंसत्थथाहं एवंवयासी-तुब्भं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स. अत्थि उच्चारेवा पासबणेवा, ममणं, देवाणुप्पिया ! पुत्र को मारने वाला, दुश्पन है उसे इस में से कुच्छ भी नहीं देऊंगा तत्पश्चन् धन्नासार्थवाहने उस अशनादिक का आहार कर पथक को विजित किया. ॥३३॥ तच पेशक नामक दास भाजन के पात्र को लेकर अपने स्थान आया॥३४॥अशनादिकका आहार करने से धन्नाप्तार्थवाहको उच्चार प्रस्रवण की बाधाहुई. तष वह विजय चोरसे ऐसा बोले अहो विजय! चलो अपन एकांत में जावे कि जिससे में वहां सच्चार प्रस्रवण परिठावू. तब विनय चोरने उत्तर दिया कि अहो देवानुप्रिय! तुमने आहार किया है इस से तुम को उच्चार प्रस्रवण प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदवसायी बालाप्रसादजी . अर्थ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 . 488+ षष्टांग शासाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 448 इमेहिं वहहिं कसप्पहारेहिं जाव लयाप्पहारेहि तण्हाएय छुहाएय परिष्भवमाणस्स णस्थि केइ उच्चारेवा पासवणेबा ॥ तं छंदेणं तुमं देवाणुप्पिया! एगंत अवक्कमेचा उच्चार पास. वणं परिट्ठावेहि ॥ ३५ ॥ तलेणं से धण्णे सत्यवाहे बिनएणं तकरेणं एवं धुत्तेसमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ ३६ ॥ ततेणं धण्णे सत्यवाहे मुहुत्तरस्स बलियं तरागं उच्चार पासवणेणं उवाहिजमाणे विजयं तकरं एवं वयासी-एहि ताव विजया ! आव अवकमामो ॥ ३७ ॥ तएणं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं बयासी-जइणं तुम देवाणुप्पिया!ताओ विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभाग करेहि तओहं सुमेहिं सद्धिं एगंतं अवकमामि ॥ ३८ ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे विजयं एवं क्यासी की बाधा हुई है परंतु मुझे इस चाबुक के प्रहार से यावत् लता के प्रहार से, वैसे ही क्षुधा तृषा से पीडित होने से उच्चार प्रस्रवण की बाधा नहीं है. इस से तुम स्वयमेव एकांत में जाकर उच्चार प्रस्रवण करी ॥३॥ विजय चोर के ऐसा कहने से घमासार्यवाह चूप रहा ॥ ३६ ॥ पुनः पन्ना सार्थवाह को उच्चार प्रस्रवण की विशेष वांधा होने से विजय चोर को कहा. अरे विजय ! चल अपन एकांत में चले वहां चार प्रस्रवण मैं करूं ॥ ३७ ॥ तब विजय चोरने कहा कि अब से तुमारी पास जो अशनादि आवे उस में से मुझे विभाग कर दो तो मैं तुम्हारी साथ चलं ॥ ३८ ॥ धन्ना सार्थवाहने विजय चोर को कहा कि अब मैं घना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन ! Jain Education intestinal For Personal & Private Use Only www.anelibrary.org Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ११ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी. अहंणं तुभं ताओ विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागं करिस्सामि . ॥ ३९ ॥ ततेणं से विजए धण्णस्स सत्थवाहस्स एयमढें पडिसुणेइ २ ॥ ततेणं से धण्णे विजएणं सद्धिं एगते अवक्कमइ उच्चार पासवणं परिठयेइ आयंतं चोक्खे परमसुइभूए तमेवट्ठाणं उवसंक मेत्ताणं विहरई ॥ ४० ॥ तएणं सा भद्दा कल्लं जाव जलंते विलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव परिवसेइ ॥४१॥ ततणं से धण्णे सत्यवाहे विजयस्स तक्करस्स ततो विपुलतो असणं पाणं खाइम साइमं संविभागं करेइ ॥४२॥ततेणं से धण्णे सत्थवाहे पंथयं दास चेङविसज्जेइ ॥४३॥ ततेणं से पंथए भोयणं के तुझ अशादिका विभाग दूंगा॥३९॥विजय चोरने धन्ना सार्थ राह शेठ की बात मान्य की और उनकी साथ जाकर उच्चार प्रस्रवण किय. फोर जलादि से शूचिभूत हुए और उनी स्थान आकर रहने ग ॥४०॥ दसरे दिन भद्रा भार्याने पहिले दिन जैले अशनादि बनाकर एक करांडिये में रखकर उसे बा कर एक जल का पात्र मरकर पंथक दास को दिया यावत् धना सार्थवाह को परूमा ॥४१॥ उस समय धन्ना सार्थवाहने विजय चोर को उस अशनादि में से विभाग कर दिया ॥ ४२ ॥ तत्पश्चात् धन्ना सार्थ. पाइने पंथक को विसर्जित किया !! ४३ ॥ तत्पश्चात् वह पंथक भोजन के पात्रों लेकर केदखानेमें से निक • प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेनमहायजा ज्नालाप्रसदाजी For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ..488 48 अष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध पिंडयं गहाय चारगसलाओ पडिक्खमति रत्ना रायगिहं नगरं मझमझेणं जेणेव सएगिहे. जेणेव भद्दा भारिया तणेव उवागच्छइ २त्ता भई एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिये ! धण्णे सत्थशहे तव पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागं करेइ ॥ ४४ ॥ ततेणं सा भद्दासत्थवाही पंथयस्स दास चंड यस्म अंतिए एयमटुं सोचा आसुरत्ता रुट्टा जाव मिसिमिसेमाणी धण्णस्त सत्थवाहरस पउसमा वजइ ॥ ४५ ॥ ततेणं से धण्णेसत्यवाहे अन्नया कयाइ मित्तनाइ णियग सयण सबंधि परियणेणं सएणय अत्यसारेणं रायकज्जातो अप्पणं मोयावेइ २ त्ता चारगसालातो पडिणिक्खमइ २ त्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ २ ता । लकर रानगृह नगर की बीच में से होते हुवे अपने गृह भद्रा भार्या की पास आया. और उसे ऐमा बोला अहो देव नुप्रिय ! धन्ना सार्थवाह अपने पुत्र के घातक यावत् दुश्मन को अन्न में से विभाग करके देते हैं ॥ ४४ ॥ पंथक नामक दास की पास से ऐसी बात सुनकर भद्रा सार्थवाहीनी आसुरक्त, रुष्ट यावत् मितापिपायमान हुई. और धन्ना सार्थवाह पर द्वेष करने लगी ॥ ४५ ॥ थोडे दिन पीछे धन्ना * सार्थताह को उन के स्वजन संबंधी व परिजनोंने राजा को दंड देकर मुक्त कराया. फीर उस चरक शालामें धन्नासार्थवाह का दूसरा अध्ययन 428 For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अलंकारिय कम्मं कारवेइ,२त्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणव उवागच्छद २ ता अहधोय मष्टियं :: गेण्हइ २ त्ता पुक्खरिणी ओगाहइ पुक्खरिणी ओगाहित्ता जल मज्जगं करेइ हाये कयबलिकम्मे जाव रायगिहं अणुप्पवेसेइ,रायगिहस्त णयरस्स नगरं मझं मझेणं जेणेव सएगिहे तेणेव पाहारस्थ गमणाए॥४६॥ततेणं धणं सत्थवाहं एजमाणं पासइ पासित्ता रायगिहे णयरे वहा नगरणिगम सेट्ठि सत्थवाहापभितयो आढ़ति परिजाणंति सकारेंति समाणेति अब्भुटुंति सरीरं कुसलं पुछति।ततेणं सेधण्णे जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता जावियसे तत्थवाहिरिया परिसा भवंति तंजहा-दासातिवा पेसणातिवा भाइंगातिवा मे निकलकर अलंकार की सभा में आया और अलंकारिक कर्म करवाया. वहां से पुष्करणी पावडी की पास आया. वहां मृनिका लेकर शरीर को लगाई. पोछे वावटी में जाकर मान किया यावत् राजगृह नगर में से होते हुवे अपने घर आने को निकला ॥ ४६ ॥धमा सार्थवाह को आते देख कर बहुत गांव के शेठ सार्थवाह प्रमुखने इन का सत्कार किया, इन को सन्मान दिया और शरीर को शल क्षेम पुछी. वहां से अपने गृह आया वहाँ बाहिर में दास, प्रेषण, मृत्यु, भाइंग (पचपनसे रखेहुचे) १ यस्यां नापितादिभिः शरीरसत्कारो विधीयते. जहां नापित शरीर स्वच्छ करे वह स्थान. २ नखमंहनादि. ०प्रकाशक-राजावादूर लाला मुखदवसहायजी व्यायामसाहबी. For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwor भाइल्नेतिया सावियणं धन्नेसात्यवाई एजमाणे पासइता पायवडियाए खेमं कुसलं : पुछंति ॥ जावियसेतत्थ अभितरिया. परिसा भवंति. तंजहा-मायाइवा पियाइवा भायातिवा भगिणीतिवा सावियणं धणसत्थवाहं एन्जमाणं पासइ२ त्ता आसणातो अन्भुट्टे. कंठाकंठियं अवदासियं वाहप्पमक्खिणं करेइ ॥ ४७ ॥ ततेणं से धणे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ, ततेणं सा भद्दा धणं सत्यवाहं एजमाणं पासति, पामित्ता ना आढति नो परियाणेइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया परंमुही सचिट्ठइ ॥४८॥ ततेण से धण्णे सत्थवाहे भदं भारियं एवं चयासी किंणं तुमं देवाणुप्पिया ! न तुहिवा, न हरिसोवा,ना नंदोवा जं मएसएणं अत्थसावगैरह धन्ना सार्थ राह को आते देखकर उन के पांव में पडे और उनकी कुशल क्षेम पूछी. वहां से अंदर के माम में उन की माता, पिता, भाइ, भगिनी, वमैर है सब धन्नासार्थवाह को कंठ से कंठ मिलाकर मिले। और आलिंगनकर हर्षाश्रु वर्षाये ॥४७॥ वहां से वह धनामार्यवाह भद्र भार्याकी पास गया, परंतु उसने ॐन का आदर सत्कार किया नहीं चाचाप परांगमुख होकर बैठी ॥४८॥ तब धन्ना साशन 1 दाभाई को पूछा कि अहो देवानुप्रिये ! तू किस लिये संतुष्ट नहीं है, मेरे को हर्ष, आनंद न है ? पष्ट अज्ञाताधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 16th wwwwwwww "ne पन्ना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन १३ For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रेणं रायकजाओ अप्पाणं विमोइए ॥ ४९ ॥ ततेणं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं षयासी-कहणं देव णुप्पिया ! मम तुट्ठीवा जाव आगंदे भविरसति, जेणं तमं मम पुत्तघायगरस आव पच्चमित्तस्स तओ विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागं करोसि।ततणंस धणे सत्यवाहि भदं सत्थवाहिं एवं वयासीनो खलुदेवाणुप्पिए धम्मोत्तिबा तोचिया कइपडिकइयावा लोगजत्तातिवा, नायएतिवा संघाडियाएइवा सहाएतिवा सुहितिवा तउविउलाउ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभाए कए; णण्णत्थ सरीर चिंताए ॥ ततेणं सा भदा धण्णणं सत्थवाहणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा जाव क्यों कि में मेरे ही पैसे से राज्यकार्य से मुक्त हुवा हूं ॥ ४९ ॥ तब भद्रा भार्या धनामार्थवाह को बोली हो देवानुप्रिय ! जब तुमने मेरे पुत्र धातक यावत् दुश्मन को विपुल अशनादि में से विभाग करके दिया तब मुझे कहां से आनंद होवे ? तब धन्ना सार्थवाह वाले, अहो देवानुप्रिये ! मैंने उस चोर को शनादि धर्म के लिये नहीं दिया है, तप के लिये नहीं दिया है, लोकों को बताने को नहीं दिया है, नायक क संबंध से नहीं दिया है, संघाडे का जानकर नहीं दिया है, सहायक जानकर नहीं दिया है, मित्र जानकर नहीं दिया; परंतु शरीर का उच्चार प्रस्रवणादि कारन टालने को दिया है क्यों कि यह कार्य वहां से चले विना नहीं होता था. धन्ना सार्थवाह का इतना कहने पर वह भद्रा भार्या हृष्ट तुष्ट ० प्रश-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रमादजी . For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ 8षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4284 आसणाओ अम्भुढेइ कंट्ठाकाटुं अवतासेइ खेम कुसलं पुच्छइ २ ता बहाया जाव पायाच्छत्ता विउलाति भोगभोगाति भुंजमाणी विहरइ ॥ ५० ॥ ततेणं विजए तकरे चारणसालाए तेहिं बधेहिय कसप्पहारेहिय जाव तण्हाए छुहाएय परब्भमाणे कालंमासे कालंकिच्चा नरएसु नेरइयत्ताए उबवन्ने, सेणं तत्थ नेरइएजाए काले कालां भासे जाव वेयणं पचणुब्भवमाणा विहरति ॥ सेणं ततो उवहित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरत संसार कंतारं अणुपरियहिस्सति ॥ ५१ ॥ एवामेव जंबु ! नेणं अम्हं णिग्गथोवा निग्गथीवा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अमा 86ना सार्थवाह का दूसरा अध्ययन 4 १ अपने आसन से उठकर धन्ना सार्थवाह के गले से आलिंगन किया, उन का कुशल क्षेम पूछा, स्नान किया यावत् विपुल भोग भोगते हुए दोनों विचरने लगे ॥५०॥ वह बिजय चोर उस चरकशाला में इ.कश प्रहार यावत् लता प्रहार से मराया हुश क्षुधा तृषा से पराभव पाया हुवा काल के अवसर में काल कर नरक में नारकीपने उत्पन्न हुआ. वह बहां कृष्ण, कृष्ण वर्णवाला यावत् बेदना अनुभवता हुवा विचरता: है. वहां से नीकलकर अनादि अनंत चतुर्गतिक संसार में परिभ्रपण करेगा. ॥ ५१ ॥ अहो जम्बू ! एसे ही हमारे साधु साध्वियों आचार्य उपाध्याय की पास मुंडित बनकर दीक्षा ग्रहण करके मणि, पौक्तिक, धन, | For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmms बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमेलक ऋपीजी रातो अणगारियं पतिए समाणं विपुलमा मुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुभइ से विए एवं चेव ॥ ५२ ॥ तेणं क लेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णामथेरा भगवंतो जाति संपन्ना जाब पुष्वाणुपुर्वि चरमाणा जाव जेणामेव रायगिहणयरे जेणामेव गुणसिलएचेइए जाव अहापडिरूवं उगहं उगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पार्ण भावमाणा विहरंति ॥ परिप्ता निग्गया धम्मो कहिओ॥ ५३ ॥ ततेणं तस्स धणस्त सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमहूँ सोच्च। णिसम्म इमे एतारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु ! थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना इहमागया इहसंपत्ता, तं इच्छामिणं थेरे भगवते वदामि नमामि, हाते जाव . सुइप्पवेसाति कनक ब रत्नों में लुब्ध होंगे उन का भी वैसे ही हाल होगा. ॥ ५२ ॥ उस काल उस समय में धर्म थोष नामक स्थविर भगवंत जाति संपन्न यावत् पूर्वानुपूर्षि चलते हुये ग्रमानुग्राम विचरते हुवे राजगृह नगर में गुणशील उद्यान में यथ प्रतिरूप अवग्रह याचकर सयम व तप से आत्मा को भारत हुवे बिचर रहे थे. परिषदा आई व धर्मो पदेश सनाया ॥ ३ ॥धनासार्थवाहने बहुन मनुष्यों की पास मे ऐमा सना इस उन को ऐसा विचार हुग कि यहां जाति संपन्न स्थरि भगवंत पधारे हैं, इस से उन को वंदना प्रकाशक-राजावादर लाला सुखदेवसहायजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FA पष्टाङ्गज्ञाताधमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध .. मंगलाइवत्थाइ पवर परिहिते पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए । जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति २ ता वदति नमंसति ॥ ५४ ॥ ततेणं थेराभगवंतो धण्णस्स सत्यत्राहस्स विचित्तं धम्म माइक्खंति ॥ ५५ ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे धम्म सोच्चाए एवं वयासी सहामिणं भंते ! निग्गथं पावयणे जाव पव्वतिते जाव बहणिवासाणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता भसपच्चक्खातित्ता मासियाए संलेहणाए सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदइत्ता कालमासे कालंकिच्चा सोहम्म कप्पेदेवत्ताए उवबन्ने ॥ तत्थणं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमातिं ठिती नमस्कार करने को जाना. ऐसा विचार कर उसने स्नान किया परिषदा में जाने योग्य वस्त्रों परिधान किये, और पावसे चलते हुए गुणशील उद्यान में स्थविर भगवंत की पास आकर उनको बेदना नमस्कार किया. ॥ ५४ ॥ उन स्थविर भगवंतने विचित्र प्रकार का धर्म कहा. ॥ ५५ ॥ पन्नासार्थवाहने ऐसा धर्म सुनकर ऐसे बोले कि अहो भगवन् ! निग्रन्थ के वचन में श्रद्धता हू, यावत् उन की पास प्रत्रजित हुए. बहुत वर्ष पर्यत साधु की पर्याय पालकर भक्त प्रत्याख्यान से एक मास की मलेखमाठ भक्त अनशन का छेदन कर क.ल के अवसर में काल कर सौधर्म देवलोक में दासा पने उत्पन्न हुए. वहां कितनेक पन्न सार्थवाह का दूसरा अध्ययन 43 For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 अनुवादक-बालब्रह्म चारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, पन्नत्ता॥तत्थणं धण्णरस देवस्स चत्तारि पसिओवमाति ठिती पण्णत्ता॥सणं धण्णदेवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता महाविदेहेवासे सिञ्झिहिति जाव सव्वदुक्खार्ण मंतं करेहिति ॥५५॥ जहाणं जंबु!धण्णणं सत्थवाहेशं नो धम्मोतिवा जाव विजयस्सतक्करस्स ततो विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागकए नन्नत्थ सरीरस्स रक्खणट्ठयाए ॥ एवामेव जंबु ! जेणं अम्हं णिग्गंथोवा णिग्गंधीवा जाव पवतिते समाणे ववगय हाणुमद्दण पुप्फगंध मल्लालंकारे विभूसे, इमस्स ओरालियरस सरीरस्स नो वन्नहेउवा, रूबहेउवा, विसयहउंवा, देवों की चार पल्योपम की स्थिति के ही वैसे ही पन्नदेव की चार पल्योपय की स्थिति है. वह धनदेव वहां से आयुष्य भव में स्थिति का क्षय होने से महाविदेह क्षेत्र में मीझेंगे, बूझेंग यावत् सब दुःखों का अंग करेंगे. ॥ ५५ ॥ अहो जम्बू ! धन्नासार्थवाहने उस विजय चो को अशनादि धर्मादि कार्य के लिये नहीं दिया था. वैभे ही हमारे साधु साधी यावत् दीक्षित बन कर स्रान मर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार विभूष' वगैरह का त्याग करके इस उदारिक शरीर को वर्ण (पुष्टि) के लिये, रुप के लिये, व विषय के लिये आहारआदि नहीं देते हैं परंतु ज्ञान दर्शन चारित्र का वहन करने के लिये ही देते हैं उन साधु साध्वी श्रावक • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . 48 188षष्ठाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहार माहारेति, नन्नत्थ णाणदंसण चरित्ताणं है। वहगट्टयाए. सेणं इहलोएचेव बहूणं समणाणं समणीणं सावगाणं सावियाणय अच्चणिजे जाव पज्जुवासणिज्जे भवति ॥ परलोए वियणं नो वहूणि हत्यच्छेयणाणिय, १९९ कन्नच्छेयणणिय, नासाच्छेयणाणिय एवंहिय उप्पायणांणिय, वसणुप्पायणाणिय, उल्लबणाणिय पाविहिंति ॥ अणःदियचणं अणवदग्गजाववीतिवतिस्सति, जहेव से धण्णसत्यवाहे ॥ एवं खलु जंबु ! समणणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स णायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्तिबेमी ॥ ५६ ॥ वितियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ २ ॥ श्राविका की इस लोक में अर्चना यावत् पूना होगी और परलोक में भी उन के हाथ कान नाकों का छदन नहीं होना है. हृदय में किसी प्रकार का उत्पात नहीं होता है, किसी प्रकार के बंधन भी नहीं पडते हैं, और वे धन्नासार्थवाह जैसे अनादि अनंत संसार को उत्तीर्ण करेंगे. अहो जम्बू ! यह दूसरा * अध्ययन का श्री श्रमण भगवंत महावीर म्वामीने यह अर्थ कहा.।। ५६ ॥ उपसंहार--राजगृही नगरी के स्थान मनुष्य क्षेत्र, धन्नासार्थवाह के स्थान साधु मंयमी पुरुष, विजय चोर के स्थान शरीर, देवदिन्न कुमार के स्थान अनुपम संयम, आभरण के स्थान शब्दादि विषय, इन में शरीर रूप चोर की प्रवर्ती हुई. तब धन्नासार्थवाह का दूसरा अध्ययन BF For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अयो क ऋषिजी गाथा-सिवसुहसाहणेसु, आहारविरहिओ जं म वहए देहो ॥ तम्ह धण्णोव्व विजयं साहुणं तेणं पोसिज्जा ॥ १ ॥ इति वियज्झयणं ॥ २ ॥ * * संयमरूप पुष । घात हुई. धन्नासार्थवाह रूप संयति व शरीररूप चोर का एक ही स्थान सो खोडा, राजा के स्थान कर्म, राजपुरुषों के स्थन कर्मप्रकृतियों, मल मूत्र परिठाने के स्थान प्रति नादि संयम क्रिया साधने के लिये वासो शरीर को आहार देग, गाथा का अर्थ कहते हैं. मुख साधन में आहार रहित देह नहीं रहता है, इस से धन्ना सार्थवाहने जैसे चोर की पापणा की वैसे ही साधु को शरीर पोषणा करना. यह दूसरा अध्ययम संपूर्ण हुवा. ॥ २॥ . 4.भ.पादक-भल ब्रह्मचारीमान प्रकाशक-राजाबहादुर लाला खदवमहायजी ज्वालाप्रसादनी. For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २०१ + षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम शुवस्कंध ॥ तृतीय अध्ययनम् ॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते; तम्चस्सणं भंते ! नायज्झयणस्स के अट्रे पन्नते ? एवं खल जंब ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानामं नगरी होत्था वन्नओतीसेणं चंपाए नयरीए बहिया उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए सुभूभिभाए नामं उज्जाण होत्था, सव्वउय सुरम्ने, गंदणवणेइवसुहसुरभिय सीयलच्छाए समणुबद्ध ॥तरसणं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उत्तरए एगदममि मालुया कच्छए होत्या वन्नओ॥१॥तत्थणं एगा वणमयूरी दोपुढे परियागते पिट्ठउंडो पंडुरे निवाणे अब तीसरा अध्ययन कहते हैं. अहो भगान् ! जब भी आपण भगांत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्मकथा के दूसरे अध्ययन का उक्त अर्थ कहा तब उस के तीसरा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू ! उस काल उस समय में चंपा नगरी थी. उस का वर्णन उपबाइ सूत्र से जानना. उम चम नगरी के बाहिर ईशानकून में समभिभाग नामक उद्यान था. यह सब ऋतु में मुरम्य नंदन वन जैमा अच्छ’ सुरभिगंधवाला शीतल छायाशला इत्यादि अनेक गुणोंवाला था. उस सुभूमिभाग उद्यान में उत्तर के एक देश में मालुवा कच्छ था. उस का वर्णन पूर्वोक्त दूसरे अध्ययन से जानना ॥ १ ॥ वहां 488+ मयुरे के अंडे का तीसरा अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक -बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निरुह भिन्नमुटुप्पमाणे मयूरी अंडए पसवति२, से तेणं पक्खत्राएणं सारक्खमाणी संगोमाणी संचिमाणी विहरति ॥ २ ॥ तत्थणं चंपाए णयरीए दुबे सत्यवाह दारगा परिवसंति, तंजहा- जिणदत्तपुत्तेय, सागरदत्तपुत्तेय || सहजायया सहवड्डियया, सहपसुकीलियया, सहरारदरिसी अन्नमन्न मणुरत्तया, अन्नमन्नमणुव्वया, अन्नमन्न छंदाणुवत्तया, अन्नमन्नहियायपिय कारया, अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई कराणजाइ पचणुब्भवमाणा विहति ॥ ३ ॥ सतेणं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नयाकयाइं { एक वन मयूरी ने वृद्धि पाये हुए पर्याय से प्रत्रत्रे काल के नजीक आये हुवे, चांवल के आटे जैसे श्वे रंगवाले, किमी प्रकार के व्रण दोष रहित पोली मुष्टि के प्रमाणवाले दो अण्ड प्रस्रवे. वह अपनी पांखों में उन की रक्षा करती हुई, उन का गोपन करती हुई वहां ही रहती थी ॥ २ ॥ उन चंपा नगरी में दो सार्थवाह के पुत्र रहते थे. जिन के नाम-जिनदत्त व सागरदत्त. उक्त दोनों साथ ही जन्मे हुए, साथ ही बडे हुए, पांशुक्रीडादि साथ किये हुवे और साथ ही स्त्रियों को देखनेवाले थे. वे दोनों परस्पर अनुरक्त थे, साथ ही फीरनेवाले थे, परस्पर दोनों को प्रीति थी, परस्पर एक दूसरे के कहने जैसे चलते थे, व परस्पर गृह कार्य करते हुवे विचरते थे || ३ || अब एकदा वे दोनों सार्थवाह के पुत्रों को साथ रहते, For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी ० २०२ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + एगतओ सहियाणं. समुवगयाणं सन्निसण्णाणं सन्निचिट्ठाणं इमेयारूवे. मिहोकहासमुल्लावे समुजित्था जण्णं देशणुप्पिया ! सुहं दुहंवा पव्वजावा विदेसगमणंवा समुपजइ तन्ने अम्हेहिं एगयओ समच्च णिच्छारयव्वं तिकडु, अन्नमन्न मेयारूवं संगारं पडिसुणेति २ सकम्म संपउत्ता जायावि होत्था ॥ ४ ॥ तत्थणं चंपाए णयरीए देवदत्तानाम गणिया परिवसंति अड्डा जाव भत्तपाणा चउसटुिं कला पंडिया, चउसट्ठि मणिया गुणोववेया, आउणत्तीसं विसेस अर्थ-बै उसे, उठते ऐमा वार्तालाप हवा कि अहे देवानुप्रिय ! यदि अपने दोनों में से किमी को सुख हो या दुःख होवे, प्रवा लेना होवे या विदेश में जाना होवे. तब अपन दोनों को एकत्रित मिलकर उसे परिपूर्ण करना. इस तरह दोनों परम्पर संकेत करके अपने २ काम में प्रवृत्त हुए ॥ ४ ॥ उस चंपा नगरी में देवदत्ता नाम की गणिका रहती थी. वह बहुत ऋद्धिवंत थी, उस के घर में बहत भक्त पान होता था, बहुन जीवों का पोषण होता था, वह गीत नृत्यादि स्त्रियों की ६४ कलाओं में पंडिता थी, गणिकोके, '६४ गणों से वह युक्त थी, उन को तीम क्राडा करने के विशेष भेदों से क्रीडा करनेवाली थी, कंदर्प के इक्काम गणों से प्रधान थी, काम शास्त्र में बत्तीस पुरुषों के उपचार में कुशल थी, बाल्यावस्था में सुप्तनंब १ आलिंगनादि आठ क्रिया और उस आठ में से प्रत्येक के आठ २ भेद यों ६४ भेद होते हैं. २ दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिव्हां, एक त्वचा, ओर एक मन यह ९ अंग जानना. + षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध + ____42 + मयुरे के अंडे का तीसरा अध्ययन 428 - Jan Education Interational For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ १३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषी रममाणी, एक्कवसिरतिगुणप्पहाणा, बत्तीस पुरिसोवयार कुसला, णवंगलुत्त पांडे बोहिया, अट्ठारसदेसी भासाविसारया, सिंगारागार चारुबेसा, संगयगय हसिय भणिय विहिय विलास ललिप संलावनिउणजुत्तो, बयारकुमला ऊसियज्झया सहस्मलंभा, विदिण्णछत्तचामरबालवियणीया, कन्नीरहप्पयाया होत्था || बहूणं गणिया सहरसाणं अहेवच्चं. जाव विहरति ॥ ५ ॥ ततेणं तेसिं सत्थवाह दारगाण अन्नया कयाइ पुव्त्रावरण्हकालसमयम जिमिय भुत्तत्तरागयाणं समाजानं आयताण चोक्खाणं परयसूई भूयाणं मुहासण वरगयाणं इमेघारूत्रे मिहो अंगों की प्रतिबंधिता थी; अर्थात् यौवनावस्था प्राप्त होने से नत्र अंगों भोग योग्य स्वाद ग्रहण करने के लिये जाग्रत हुने थे, अठारह देश की भाषा में पंडिता थी, श्रृंगार के स्थानक समान उस का मनोहर वेष था, संगति वगैरह सब में कुशल थी, उस के घर पर ध्वजा फररा रही थी, वह एक हजार दिनार ग्रहण करनेवाली थी, अर्थात् हजार सुवर्ण मढोर देनेवाले को ही आदर करती थी, राज्य तरफ से छत्र व चंवर उम को प्राप्त हुए थे. कन्नी रथपर जाती आती थी, और अन्य अनेक गणिकाओं का अधिपतिपना करती हुई विचरती थी ॥ ५ ॥ एकदा दिन के पूर्व भाग ( प्रहर दिन ) में भोजन जीमकर हाथ मुख स्वच्छ कर परम अचिभून बनकर सुखासन पर बैठे हुने थे. उस समय उन दोनों को परस्पर For Personal & Private Use Only • प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी • २०४ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -h DO अष्टांग नाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतम् कहा समुखावे समुप्पजित्था सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कलं जाव अलंते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता,तं विपुलं भसणं ४ धूव पुष्फगंध वत्थं गहाय, देवदत्ताय गणियाए सद्धिं सुभामि भागस्त उज्जाणस्स उजाणप्तिरिं पञ्चणुढभवमाणाणं विहरित्तए त्तिकटु ॥ अन्नमन्नस्स एयमढें पडिसुणेति २ ता कल्लं पाउब्भूए जाव दुबियपुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासो' गच्छहणं देवाणप्पिया ! विपुलं असणं ४ उवक्खडेह २ ता तं विउलं असणं ४ धूव पुप्फगहाय जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जिणेव नंदा पुक्खगिण नेणा मेव उवागच्छइ २ त्ता गंदा पुक्खरिणीते अदूर ऐसा वार्तालाप हुवा. अहो देवानुप्रिय ! कल प्रभात में विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम बनाकर और विफल पुष्प, गंध, वस्त्र वगैरह लेकर देवदत्ता गणिका की साथ सुभूमि उद्यान में उद्यान की शोभा का अपन अनुभव करे. दोनोंने इस बात का स्वीकार किया. और दूसरे दिन प्रभात होते कुटुम्भिक पुरुष को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय! तुम विपुल अशनादि बनाकर और उस की साथ फल धू। पुष्प वस्त्र लेकर सभूमि भाग उद्यान में नंदा पुष्करणी की पास जाओ. वहां उस पुष्करणी की नाम वस्त्रे से सजाया हुवा एक मंदम तैयार करो. वहां जमीन व करके, पानि का सिंघन करके - मयूरी के अंडे का तीसरा अध्ययन Men For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. सामंते थूणामडवं आहणह आसित समजितोवलितं सुगंध जाव' कलियं करेह अम्हं पडिवालमाणा२ चिट्ठह ॥ जाव ते चिट्ठति ॥३॥ ततेणं से सत्यवाह दारगा दीपि कुटुंबिय पुरिसे सहावेति सहावेता एवं क्यासी खिप्पामेव लहुकरणजुत्त जातियं समखुर वालिहाण समलिहिय तिक्खसिंगएहिं श्ययामयघंट सुत्तरज्जुय, पवर कंचण खंधियणत्य पमाहोवग्गहिएयहिं नीलुप्पलकयामेलएहि, पवरगोण' जुवाणएहिं नाणामणिरयण कंचण घंटिया जाल परिक्खित्तं, पवरलक्खण गुणोववेयं जुतामेव पवहण उवह ॥ तेवि तहेव उणांत ॥ ७॥ ततेणं ते सत्यवाह दारगा सुगंधित पदार्थों से मघमपायमान कर के हमारी प्रतिलेखना करते(रास्तादेखते) हुवेरहो. वे कौटुनिक पुरुषों उक्त कथनानुमार सब करके वहां उनकी मतिलेखना करते हवे रहने लगे. ॥६॥ पुन: दोनों सार्थवाह पुषोंने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि, अहो देवानुप्रिय ! रथ चलाने में चपल होवे वैसे बला से जोते हुवे, समान खुर व पूंछ वाले और चित्रित तीक्ष्ण शृंगों सहित, सुाणं घण्ट व सूवर्णमय सूत्र की दोरी की नाथ वाले, नीलोत्पल कमल के शिखर धारन कराये हु व श्रेष्ट थैलों से युक्त विविधि प्रकार के पणि, रत्नों, व सूर्ण की घंटिया से समुदाय से घराया हुवा श्रेष्टल लक्षण वाणा व भजे गुण बाला रथ नै परा करों. कौटुबिक पुरुषोंन उनकी आम नमार रथ तैयार कर दिया. ॥ ७॥ तत्पश्चात H अनुवादक-पाका पुनि श्री अमोलक ऋषि Panamannamrnmen प्रकाशक-राजाभदुर लाला मुखदेवमहायजी ज्यामप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 षष्टांगहासाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध व्हाया जाव सरीरा, पवहणं दुरुहति २ ता जेणेव देवदत्ताए गणियाएगिहे तेणेव उवागन्छंति २ ता. पवहणाओ पच्चोरुहंति देवदत्त ए गणियागिहं अणुपविसंति, अणुपविसित्ता ॥ तए:: से देवदत्तागाणया से सत्यवाह दारए एजमाणे पासति २त्ता हट्र तुझा आसणाओ अब्भुटेति २ त्ता सत्तट्ट पायाई अणुगच्छति २त्ता ते सत्य वाहदारवं एवं वधासी संदिसणंतुम देवाणुप्पिया! किमिहा गमण पओयणं ? ॥८॥ ततेणं ते सत्थवाह दारगा देवदत्तगणियं एवं वयासी - इच्छामाणं देवाणुप्पिए ! तुमेहिं साई सुभमिभागस्स उजाणस्स उजाणसिरि पच्चाणुब्भवमाणा विहरित्तए ॥९॥ ततणं सा देवदत्ता माणिया तेसिं सत्यवाह वे दोनों शेठ पुत्रोंने स्नानकिया यावत् सालक र से शरीर विभूषित किया और उमरगपर बैठकर देवदत्ता : गणिका की पास जानेलगे. उसके घर पास आर उस रथ से नीचे उत्तरे और देवदचा के गृहमें दोनों प्रवेश किया. उन दोनों सार्थवाह के पुत्रों को आत देखकर वह देवदत्ता गणिका आनंदित हुई. अपने आसन में उठकर सात आठ पांव सन्मुख गइ. और उनको ऐसा बोली अही दव नुप्रिय ! अ.प यहां किस कार्या को पधारे हो सो कहो।।८॥ दोनों सार्थवाह के पुत्रोंने उस गणिका को ऐसा कहा कि अहो देवानु प्रिय : सुभूपि भाग उद्यान में तुम्हारी साथ उद्यान की शोभा का अनुभव करना हम चाहते हैं ॥१॥ गणिकाने मयूरी क अंडे का तीसरा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अमोलक ऋषिजी ** अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि दारगाणं एवम पडणेति २ व्हाया कयवलिकम्मा किं तेपवर जाब सिरिस माणचेसा, जेणेव ते सत्यवाह दारगा तेणेव समःगया ॥ १० ॥ ततेणं ते सत्थवाह दारगा देवदत्तगणियाए सद्धिं जाण दुरुति २ ता चंपाए नयरीए मज्झमज्झणं जेणेव सुभूमिभाग उज्जाणे जेणेव नंदानुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ चा पवहणतो पच्चो रुहति २त्ता नंदा पोक्खरिणी उगर्हिति २त्ता जलमंजणंकरेति २ ता जलकिडं करति २ता पहाया देवदत्ताए सहि पच्चुरुर हंति; जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छति, तेव उवागच्छित्ता, अणुविसति सव्त्रालंकार भूसिया असत्था विसस्था मुहासण वरगया वहां रथ से नीचे उन का वचन अंगीकार किया उसने स्नान किया य वत् लक्ष्मी समान वेश धारण किया फीर सार्थवाह के पुत्र की पास गई ॥ १० ॥ वे सार्थवाह के बालक भो देवदत्त गणिका की संथ रथ पर आरूढ होकर चंपा नगरी के बीच में होते हुवे सुभूमि भाग उद्यान में नंद पुष्करणी की पास आये. उतरकर उस पुष्करणी में गये. उसमें जल मंज्जमकिया, स्न नकिया और देवदत्त की साथ बाहि निकलकर थूण मंडप में गये. सर्वालंकार से विभूषित, आश्वस्थ विश्वस्थ हो सुख देनेवाले आसनों पर रहे हुत्र देवत की साथ विपुल अशनादि, चारों आहार धूप, गंध, पुष्प व वस्त्र का आस्वाद विस्वाद व भोग करते हुवें For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक- राजा बहादूर छाला सुखदेवसहायजी ज्वाला मादर्ज २०८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतन्ध ... देवदत्तए सहि तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं व पुष्फ गंध वत्थं आसाए मागा विसाएमाणा परि जमाणा एवं चणं विहरति, जिमिया भुत्तुत्तरागया वियणं समाणा देवदत्ताए सहिं विपुलाति माणुस्सगाई कामभोगाइं भुजमाणा विहरंति॥११॥ ततेणं ते सत्थवाहदारगा पच्चावरण्ह काल समयसि देवदत्ताए गणियाए सहिं थुणा मंडवालो पांडनिक्खमंति २, हत्थ संगिल्लीए सभूमिभागे बहुसु आलिघरएसुय कयलीघरे मुय, लयाघरे मुय, अच्छाण घरेसुय, . पेच्छणघरेसुय, मोहणघरेसुय, पासाणघरेसुय, मालाघरसुया जालघरेसुय, जाव कुसुमघरेसुय उजाणंसिरि पच्चणब्भवमाणा विहरंति ॥ १२ ॥ तएणं ते सत्यवाह दारया जेणेव से मलयाकच्छए तेणेव पहारस्थगमणाए ॥ १३ ॥ तएणं सा वणमऊरी घिर ग, जीम कर तृप्त हुवे पीछे : वदत्ता की साथ विपुल मनुष्य संबंधी काम भोग भोगते हुवे sir विचरने लग ॥ ११॥ दिन के पीछे के भाग में व दोनों शेठ पुत्रों उस गणिका की साथ थूण मंडप में से निकलकर हाथों के आलिग करते हुवे उम सुभमि भाग उद्यान के आग्रह केली के घर में लता के घर Aमें अच्छदन घर में, प्रेक्षा घर में, मोहन घर में, पाषानों के घर में, मला के घर में,जाली के घर में यावत् । on'कलम गृह में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुवे विचर रहे थे।। १२॥ वहां सचे सार्थवाहके पुत्र मालुका कच्छकी पास ये ॥१३॥ उन दोनों सार्थवाह के पुत्रों को आते हुरे देखकर वह वन मयुरी भयभ्रान्तबनी त्रस पाकर - मयूरी के अंडेका तीसरा अध्ययन 42+ अथ Eye । For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सत्यवाहदारए एजमाणे पासति २ ता भीया तत्था महया २ सद्देण केकारवं विणिम्मुयमाणी २ मालुया कच्छाओ पडिणिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता, एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा, ते सत्यवाह दारए मालुया कच्छयंच पविसमाणा अणिमिसाए दिट्टीए.पेहमाणी२ चिट्ठति॥१४॥ततेणं ते सत्थाह दारगा अन्नमन्नं सदावेति २त्ता एवं वयासी-जहाणं देवाणुप्पिया ! एसावणमऊरी अम्हे एजमाणे पासित्ता भीता तत्था तसिया उविग्गा पलाया महता २ सदेणं जाव अम्हे मालुया कच्छयंच पेहमाणीए २ चिट्ठति, तं भवियवमत्थ कारणेणं तिकट्ठ मालुया कच्छयं अंतो अणुपविसंति २त्ता बडे २ कैकारव शब्द करती हुई मालुका कच्च में से निकलकर एक वृक्ष की डाल पर बैठकर उन सार्थवाह के पुत्रों व मालुया कच्छ दोनों को अनिमिष नेत्रों से देखने लगी॥ १४॥ उस सपय वे दोनों* पुत्रों परस्सर बेलने लगे कि अहो देवानुप्रिय! जब यह वन मयूरी अपने को आते दुवे देखकर डरी, त्राम 15पायी, उद्वग्न हुई और बडे २ शब्दों से कैकारव करती हुई यावत् अपन को कमालुया कच्छ दोनों को देखने लगी है तब इस में कोई कारण होना नाहिये. ऐमा करके वे दोनों उस मालुया कच्छ में गये वहां 12 पर्याय को प्राप्त ऐमे दो बडे अंडे देखकर परस्पर कहने लगे कि अहो देवानु प्रय ! अपने इ१ बन अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख कपनी T • पकायाक राजाबहादुर लाला मुखदेवसप्रयजी ज्वालापसादरी. For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ * पांङ्ग ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 44 तत्थणं दो पुढे परियागए जाव पासित्ता अन्नमन्नं स वेति सदावेता एवं वयासी तं से खलु देवाणुपिया ! अम्हे इमेत्रणमऊरी अंडाए साणं २ जाइमंताणं कुकुडियाणं अंड सुपक्खिवात्तिए, तएणं ताओ जातिमंत्तातो कुकुडियाओ एए अंडए सएय अंडएमएणं पक्खवाएणं सा रक्खमाणीओ संगावेमा गीओ विहरिस्सई ॥ ततेणं अम्हे एत्थ दोकीलावणगा मऊरी पोयगा भविस्संति तिकट्टु, अन्नमन्नस्स एयमट्ठे पडिसुर्णेति सएसए दास चेडए सदात्रैति २ सा एवं वयासी- गच्छहणं तुब्भे देवाणुपिया ! इमे अंडगहाय सगाणं जाइमताणं कुकुडीणं अडएसुपक्खिवह, जात्र तेत्रि पक्खिति ॥ १५ ॥ ततेणं से सत्थवाह दारगा देवदत्ताए गणियाए संद्धि भूभूविभागस्त मयूरी के अण्डे को अपनी २ जात कूकडी के अंडे के साथ रखेंगे और वह अपने अंडे के साथ इन अंडों को भी अपनी पांख नीचे रखकर उस की रक्षा करती हुई व उस का गोपन करती हुई रहेगी. तत्पश्चात् ये दो खेलने के लिये अपन को दो मयूरी के बच्चे होंगे. दोनोंने इस बात का स्वीकार किया और अपने २ दासों को बोलाकर ऐसा बोले कि अहो देवानुप्रिय ! इन अंडों को लेकर अपनी २ जानवंत कूकडी के अंडे के साथ रखो, उनोंने वैसा ही काम किया || १५ || वे दोनों सार्थवाह के पुत्रों उस मृभूमी भाग उद्यान में देवदत्ता गणिका की साथ उद्यान की शोभा का अनुभव करके जिस For Personal & Private Use Only 458+ मयूरी के अण्डे का तीसरा अध्ययन 49 २११ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उज्जणस्स सिरिं पच्चाणुब्भवमाणा विहरत्ता; तमेव जाणं दुरुदासभाणा जेणेव चंपा नगरा जेणव देवदत्ताएँ गणियाए गिहे, तेणेव उत्रागच्छति २त्ता देवदत्ताएहिं अणुपविमति २ देवदत्ताए गणियाए विपुलं जीवियारिहिं पीइदाणं दलयति २त्ता, सकारेति सम्माति २त्ता देवदत्ताए गितो पाडेनिक्खमति २त्ता जेणेव सयाई २गिह इं तेणेव उपागच्छति रुकम्म उत्ता जायाया विहेोत्था ॥ १६ ॥ ततेणं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थाहदारएणं कल्लं जाय जलते जेणेव से वणमऊरी अंडए तेणेव उवागच्छते २त्ता तसि मऊरी अंडयंसि संकिते कंखिते वितिगिच्छसमावन्ने भयसमावन्ने स्थपर बैठकर आये थे उस ही रथपर बैठकर चंपनगरी में देवदत्ता गणिका के गृह गये. उस के घर में प्रवेश कर उस गणका को आजिविका चले वैसा प्रीतिदान दिया. सत्कार किया, सम्मान किया. फोर उस के गृह में नीकलकर अपने २ गृह आये और अपने कार्य में प्रवृत्त हुए. ।। १६ ।। इन में से सागरदत्त नामका (सार्थवाह का पुत्र वह प्रभाव होते उस वन मयू के अण्डे के पास गया. इस मे उसे शंका हुई. कि {इम में मयूरी हागा या नहीं, कौन जाने इम में कब मयूरी होगा, वितिमिच्छा-ऐसा करने से फल का मासि होती है क्या ? यदि उत्पन्न होगा तो क्या यह कला का अभ्यास करेगा या नहीं यो द्विधाभाव अस For Personal & Private Use Only • प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादाजी क २१२ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलुससमावणे-किण्हं मम एत्थ कीलावण मऊरी पोयए भविरसंति ? उदाहु जो भविस्मति, तिकटु ॥ तं मऊरी अंडयं अभिक्खण २ उवत्तेति परियत्तेति आसारेइ. संसारेइ, चालइ, फंदेइ, घट्टेइ, खोभेइ, अभिक्खणं २ कण्णमूलं सिटहियावेइ ॥ ततेणं. सा वणमऊरी अंडए अभिक्खणं' २ उवतिजमाणे जाव टिटियाजमाणे पोच्चडेजाएयाविहोत्था ॥ १७ ॥ ततेणं से सागरदत्तपुत्ते सत्थव ह दारए अन्नधाकयाइ जेणेव मयूरी अंडए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता तं मयूरी अंडए पोच्चडमेव पासइ २त्ता अहोणं मम एस कीलावणए मयूरी पोहए नजाए तिकटु, ओहयमाणे हुवा, इस में जीव होगा या नहीं वैसे कालुष्यपना प्रप्त हुवा क्या इस में से मुझे खेलने के लिये मयुरी को बच्चा होगया नहीं यों करके उस अण्डे को वारंवार उठाने लगा, उपर नीचे करने लगा, इधर से उधार गिराने लगा, चलाने लगा संघठन करने लमा, क्षोभ पेदा करने लगा, और वारंवार कान की पास लाकर हिलाने लगा. इस तरह करने से वह मयूरी का अंडा खाली जीव रहित हो गया. ॥१७ एकदा उस मयूरी के अण्डे के पाम जाकर उसे मालूप हुवा कि यह अण्डा निर्जीव होगया है तब मन में मिश्च ताप करने लगा. यावत् जलने लगा कि अहो मुझ इम में खेलने के लिये प्रयूरी का बच्चा नहीं। - षष्ठ अज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रतस्कंध 2... मगरी के अंड का तोसरा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कर बापदंक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जाव झियायति ॥ १८ ॥ एवामेव समगाउसो! जो अम्हं निग्गत्थावा निग्गस्थिवा आयरिए उवज्झायाणं अंतिए पन्वतिए समाणा पंचमहम्बएसु छज्जीवनीकाएसु निग्गंत्ये पावयणे संकिए जाव कलुस समावण्णे सेणं इहभवे चेव, बहुणं समणाणं बहुणं समीणं बहुणं सावियाणं बहुणं सावयाणं हीलाणिजे निंदणिजे खिसणिज्जे गरहणिजे परिभवणिज्जे ॥ परलोए वियणं आगच्छइ बहुणि दंडणाणिय जाव अणुपरियइ॥२९॥ ततेणं से जिणदत्त पुत्ते जेणेव मयूरी अडए तेणेव उवागच्छइ २त्ता वा. ॥ १८॥ अहो अयुष्यन्त श्रगणो ! एमे ही हमारे जो कोई साधु या सधी आचार्य उपाध्याय की पाम दीक्षा लेकर पांच महाव्रत, छ जीव निकाय व निग्रंन्ध प्रवचन में शंका लागे अन्य मतों की यांच्छा करेगे. करनी फल प्राप्त में संदेह करेंगे, भेद भाव संपन्न होगे, व कालुष्यपना रखेंगे वे इम भवमें बहुत साधु साध्वी श्रवक व श्राविकाओंमें हीलना पडेंगे, निन्दनीय होंगे, खिमाने होंगे, गह:-अपमान गे, वगैर दुःखों से दुःखी बनेंगे और परलोक में भी चतुर्गतिके प्रत संमार में परिभ्रमण करके अनेक प्रकर का दर पाग.॥१९॥ अब जो जिनदत्त पुत्र था वह मयूरी के अण्डे के पास गया. वह शंका गहित • यह कथन सुधा स्वामी का है. प्रकाशक राजाबहादुर काला एखदवसायी चालामसादजी . For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fo अर्थ तेसिंमयूर अंडगंसि निस्संकिए सुचत्तणं मम एत्थ किलावणए मयूरि पोषए भवि स्वति तिकडुतं मयुरिअंडयं अभिक्खणं २ नो उवत्तइ जात्र नो टिहियावेइ तसे मयूर अंडर अणुब्बतिजंमाणे जाव अटिडियावेजमाणे तेणं कालणं तेणं समएणं उज्झणे मयूर पोय एत्थजाते ॥ २० ॥ ततेणं से जिणदत्ते तं मयूरी पोययं पासइ २ चा हट्ट तुट्ठे मयूर पोसए सदा वेइ २ ता एवं वघासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया । इमं मयूरी पोययं बहुहिं मयूर पोसण पाउग्गेहिं दन्देहिं अणुपुत्रेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संह, हलुंगच सिक्खावे ॥ २१ ॥ ततेयं ते मयूरपोसए जिणदत्तस्स पुत्तस्स बना और मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि इस में से मुझे खेलने के लिये मयूरी का बच्चा अवश्यमेव ( होगा इस से उसने उन अण्डो को उठाया नहीं यावत् कान की पास लाकर हिलाया भी नहीं. इस तरह यूटी के अण्डे को नहीं उठाने से पावत् कान पास नहीं हिलाने से जब उस कां काल पूर्ण हुआ तब वह अण्डा फुटकर उस में बच्च नीकला ॥ २० ॥ मयूरी के अण्डे में से बच्चा निकला हुआ देखकर वह अनं देत हुना और 'यूर को पालने वाला व कला शिखलाने वाले को बोलाकर कहा कि अहो देवानुप्रिय! | ब्यूर के पोषण योग्य द्रव्य से इस बच्चे की रक्षा करके उसे बडा करो और नृत्य कला खिलावो. ॥२१॥ 48* पष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम असर + For Personal & Private Use Only 48* मथुरी के अंडे का तीसरा अध्याय २१५ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + एयम8 पडिसुणेति २ चा तं मयूर पोयमं गेण्हतिरत्ताजेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छद २त्ता तं मयूर पोयगं जाव नटुलगं सिक्खावेति २ ॥ २२ ॥ ततेणं से मयूरपोयए उम्मुक्क बालभावे विणाय जोवण लक्खण वंजण मणुम्माण पडिपुन्न पक्खापिहुण कलावे विचित्ता पिच्छा सत चंदए नीलकंटुए णचणसीलएय एगाए चंपुडीयाए कयाए समाणीए अणेगाई नदृल्लुगसयाई कयातित सयाणिए करेमाणे विहरइ ॥२३॥ ततेणं से मयूर पोसगं तं मयूर पोतगं उम्मुक्कबाल जाव करेमाणे पासित्ताणं तं मयूर पोयगं गेण्हंति २त्ता जिगदत्त पुत्तस्स उवणेति २ ॥ २४॥ ततेणं से जिण मयूर पोषकोने उनकी बात मान्यकी और उसे लेकर अपने गृह आया यावत् ससको नृत्य कला शिखलाइ ॥२२॥ अब वह मयूरी का बच्चा वाल भाव से मुक्त होकर विज्ञान, यौवन, लक्षण, व्यंजन, मान, उन्मान. ब. प्रमाण, प्रतिपूर्ण पांखों, मयूर के अंग का कलाप, पांखों में चांदों का समुहवाला बनकर हरे रंग की गर्दन वाला नृत्य शलाला एक चिपटी बनाने जिसने समय में अनेक प्रकार की.नृत्य कलामें विविध १० प्रकार के मयूर के शब्दों में प्रविण बना ॥ २३ ॥ उस पयी के बच्चे को ऐंमा कलावान बना हुमा जान कर उस के शिख.नेवालें उसे लेकर जिनदत्त शेठ की पास गये ॥ २४ ॥ वह जिनदत्त पुत्र उस को एसी, • प्रकाशक राजाबहादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालामसादजी . For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स the षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रुतस्कंध, दत्त पत्ते सत्थवाहदारए मयूरपोयगे उमुक्क जाव करेमाणे पासेत्ता हट्ट सुट्टे, 1 तेसि विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं जाव पडिविसजेति ॥ २५ ॥ ततेणं से मयूर पोपगे जिणदत्त पुत्तेणं .एगाएचपुडियाए कयाए समाणाए. गंगोला मंगसिरोधरे, . सेयावंगे. उत्तरिय पइन्नपश्खे उक्खित्त चंद कातिय कलावे केक्काइय सइय विमुच्चमाणे णञ्चइ ॥२६॥ ततेणं से जिणदत्तपुत्ते तेण मयूर पोयएणं चंपाए णयरीए सिंघाड जाव पहेसु सतिपहिय साहस्सिएहिय सयसाहस्सिएहिय पणिएहियजयं करेमाणे विहग्इ ॥ २७ ॥ एवामेव समजाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथोवा जिग्गंथिवा देखकर हृष्ट तुष्ट हुवा यावत् आजीविका के लिये प्रीतिदान देकर उसे विसर्जन किया ॥ २५ ॥ अब वह जिनदत्त पुत्र एक चिमटी बनावे उतने में ही वह मयूरी का बच्चा पुंछ का भाग विस्तारकर उसे मस्तकपर आटोप करे. पूंछ का परिभंग कर शिर पर धारण कर फीरता हुवा ग्रीवा की व श्वेत पांव की शोभा Aबताता हुवा पांखों कंघी कर मयूर के सेंकडों कैकारव शब्द करता हुवा मृत्य करने लगा ॥ २६. अब* जिनदत्त पुत्र उस मयूरी के बच्चे से चंपा नगरी के शृंगाटक यावत् महा पथ में सेंकडों, हजारों व लखों व्य की होड करके जीतने लगा ॥ २७ ॥ अहा आयुष्यात श्रमणो * वैसे ही जो हमारे साधु सोची मयूरी के अंडे का तीसरा अध्ययन 48 4 ANI For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4. अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पत्रइए समाणा पंचमहाव्यएमु छमुजावणिक एसु निग्गंथे पात्रयणे निसंकिए निक्कखिए निव्वितिगिच्छे, सेणं इह भेव चैत्र बहुणं समणाणं बहुणं समजीणं बहु सात्रयाणं बहुणं सावियाणं जाव वितिवतिस्सति ॥ २८ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं तच्चस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते ॥ तिबेमि ॥ तइयं णायज्झयणं सम्मत्तं || ३ || गाथा || जिणवर भासिय भावेसु भावसश्वसु भावओ मइमं, जो कुज्ज, संदेहं संदेहो णत्थि हेउति ॥ १ ॥ निस्संदेह तं पुण गुणहेउ जंतओ आचार्य उपाध्याय की पास प्रवजित होकर पांच महाव्रत छ जीवनिकाय व निग्रंथ के प्रवचन में शंका, कक्षा व चितिमिच्छा रहित प्रवतेंगे, वे इस भव में बहुत साधु साध्वी, श्रावक व श्राविकाओं में सत्कार योग्य, सम्मान योग्य बनेंगे यावत् अनादि अनंत चतुर्गतिक संसार के अंत कर्ता होंगे ॥ २८ ॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत ज्ञात पुत्रने ज्ञाता धर्मकथाङ्ग सूत्र के तीसरे अध्ययन का यह अर्थ कहा है. ( यह तीसरा अध्ययन संपूर्ण हुवा || ३ || अब इस दृष्टान्त का परमार्थ कहते हैं- श्री वीतरागदेव के प्रणित भावों में भाव सत्य, क्षायिकादि भावों में, बुद्धिमान मनुष्यों को संदेह करना यह मिथ्यात्व - दुःख का कारन है ॥ १ ॥ निस्संदेहपना सो गुन का हेतु है, इस से निःस्संदेहपना ही धारण करना. यहां संदेह For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राज्यबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी ० २१८ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ +8+ षष्टाङ्ग ज्ञातार्धमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4 तयं कज्जं ॥ एत्थ दोसे ठियया अंडयग्गाही उदाहरणं ॥ २ ॥ तं कत्थमइ दुब्यलेण तन्विहायरिय विरहवा, विशेयगहणचणेणं णाणावरणोदणंच ॥ ३ ॥ हेऊदारणा संभवेयसइ सुहु जंण बुझेज्जा ॥ सव्वण्णुमयमक्ति; तहा विइति चिंतइमइमं ॥४॥ अणवकय पराणुग्गह परायणा जं जिणा जयप्पत्ररा, जियरागदसो मोहाय हावाइ णो तेणं ॥ ५ ॥ तच्चं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३ ॥ व निःस्संदेह में दो सार्थवाह के पुत्र व मयूरी के अण्डे का शान्त ग्रहण करना || २ || यह संदेह होनेका कारन किसी स्थान बुद्धि की दुर्बलता, अथवा योग्य आचार्य का विरह अथवा अज्ञान का उदय होने से { होता है ॥ ३ ॥ हेतु दृष्टान्त, उदाहरण के असंभव होने से अच्छा नहीं जानता है वह सर्वश मार्ग में अवितथ्य है ऐसा चितवे ॥ ४ ॥ अनुपकारी पुरुषों पर भी उपकार करने में परायण, प्रधान, राग, द्वेष, जीतनेवाले, ऐसे वीतराग अन्यथा वादी नहीं होते हैं. यों पूर्ण निश्चय रखना. यह तीसरा अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥ ३ ॥ :: For Personal & Private Use Only + मयुरी के अंडे का तीसरा अध्ययन 45 २११ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ चतुर्थ अध्ययनम् ॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं नाव संपेत्तेणं णायाणं तच्चस्स जायज्झयणस्स अयमद्धे पण्णत्ते॥चउत्थरसणं भंते ! गायञ्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं णायाणं के अट्टे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबु ! तेणे कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी होत्था वण्णओ ॥१॥ तीसेणं वाणारसीए नवरीए बहिया उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयंगती दहेणाम यह होत्था, अणुपुबसुजाय वष्प गंभीर सीयल जल अच्छ विमल सलिल पडिपुण्णे संच्छण्ण पत्त पुप्फ पलासे बहुउप्पल पउम कुसुम मलिण सुभग सोगांधय पुंडरीय महा पुंडरीय, सय अहो भगवन्! जब श्रमण भगवान महावीर स्वामीने तीसरा अध्ययनका उत्तर अर्थकहा तब चौथा अध्ययन का क्श अर्थ कहा ? अहो जम् ! उस काल उस समय में बानारसी नामकी नगरी थी ॥१ वाणारसी नगरी के ईशानकून में गंगा महानदी का मृत गंगातीर न म का द्रह था. अनुक्रम मे वर बना हुवा, वर्तुलाकार व गंभीर था. उस का जल शीतल ३ सच्छा . पत्र पुष्पों से अच्छादित था. उस में बहुत उत्सल कमल, पद्म कमल, मलिनी कपल, सुगंधित पुंडरिक कमल, महापुंडरिक कमल, श पत्र कमल व सहस्र पत्र कमलों के मुह रहे हुवे थे. इस तरह होने से वह द्रह आनंद कारी, दर्शनीय .प्रकाशक-राजाचा दर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमाद जी For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arth * "TA पष्टाङ्ग जसाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध पत्त सहस्स पत्त केसर पुप्फोवचिए पासादिए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवै ॥ २ ॥ तस्थणं बहुणं मच्छाणय, कच्छभाणय, गाहाणय, मगराणय, सुंसमाराणय, सयाणिय सहस्मियाणिय, सयसहस्सियाणिय, जूहाई, निम्भयाई, णिरुब्धिवाई, सुहं सुहेणं अभिरममाणाइ २ विहरति ॥ ३ ॥ तस्सणं मयंगतीर दहस्स अदूरसामंत एस्थण महं एगे मालुयाकच्छर होत्था, वण्णओ ॥ ४ ॥ तत्वणं दुवे पात्र सियालगा परिवसंति, पावा चंड। रुद्दा तलछा साहस्तिया लोहियपाणीआ आमिसत्था, आमि साहारा, आमिस प्पिया, आमिसलोला, आमिसंच गेवसमाणा, रतवियालचारिणो, अभिरून प्रतिरूप था.॥२॥ उस द्रह में बहुन मत्स्य, कच्छ, गाहा, मगर मुसुमार ३ हजारों, लाखों अन्य जलचर प्राणियों क Rमुह उद्वेग रहिन सुख पूर्वक विचरते थे. ॥ ३ ॥ उस मृगंगाद्र के पास एक मालुया कच्छ था. वह वर्णन योग्य था. ॥ ४॥ उमालुया कच्छ में दो पापाचरण करने वाले शगाल ( सियाल) रहते थे. वे पापी, प्रचंड, भयानक होने से गैद्र, आत्यंत लालची होने से तलिच्छ । निडर हाने से साहमिक, रुधिर के हाथ वाले, मांस के इरछक, पामाहार करने वाले, पोस की से बाले, मांस के इच्छक, मांस के लोलुपी, मांसाहार की गोषणा करनेवाले, रात्रि दो कांच का चौथा अध्ययन 42 | For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ि दिया गच्छिण्यावि चिट्ठति ॥ ५ ॥ तणं ताओ मयंगतीर दहातो अष्णवाकयाईं सूरियंसि चिरअत्थ मियंसि लुलियाए संज्झाए पविरल माणुससि णिसंत पडनिसंतांस समाणं सिदुबे कुम्मगा आहारत्था आहारंगवेसमाणा सणियं २ उत्तरंति, तरसेव मयंग तीरदहस्त परिपेरंतेणं सव्वतो समंता परिघोलमाणा २, विति कप्पमाणा विहरति ॥ ६ ॥ तयणंतरंचणं ते पावसियालगा आहारत्था जात्र आहारं व गवे - समाणा, मालुया कच्छयाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरद्द तेणेव उत्रागच्छंत २ ता तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं परिघोलेमाणा २ विकिपेमाणा विहरति ॥ ७ ॥ ततेनं ते पात्रमियाला ते कुम्मए पासंति२त्ता जेणेव से या संध्या में फरनेवाले व दिन को गुप्त स्थान में छिपकर बैठनेवाले थे || ५ || एकदा उस मृत गंगाद्रह { में से सूर्यास्त होते, संध्या का वक्त होने पर और मनुष्य का संचारबंध होने पर आहार के अर्थी दो कूर्त आहार की गवेषणा करते हुये शनैः उस द्रह से बाहिर निकलकर उसकी आसपास आजीदेविका के लिये फोरने लगे || ६ || तदनंतर आहार के अर्थी उक्त दोनों पापीं शृगालक उस मालुया कच्छ में से निकलकर मृतगंगाद्रह की पास गये और उस के चारों तरफ भाजीविका के लिये फिरने For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक- राजाबहादुर लाला मुलकारायजी ज्वालाप्रसादभी • २२२ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 31 48 २२३ 42+ षष्टाङ्ग शाताधर्मकथा का प्रथम श्रुवस्कंध कुम्मए तेणेव पहारेत्थगमणाए ॥ ८ ॥ ततेणं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणं पासंति २. त्ता भीया तत्था तसिया उधिग्गा संजायभया, हत्थेय पाएय गीवाएय सएहिं काएहिं साहरति त्तार णिच्चला णिप्फंदा तुसिणीया संचिट्ठति ॥ ९ ॥ ततेणं ते पावसियाला जेणेव कुम्भगा तेणेव उवागच्छत्ति २ ता ते कुम्मगा सव्वतो समंता उच्चत्तेति, परियति, असारंति, संसारंति, चलिंति, घटृति, फंदंति, खोभंति, नहेहिं आलंपति, दतेडिय अक्खोडंति. नो चेवण संचाएति तेसिं कम्मगाणं सरीरस्स किंचिवा आवाहवा विवाहंवा उप्पाएत्तए छविछयंवा करित्तए ॥ १० ॥ ततेणं लगे ॥ ७॥ उतने में उक्त पापी शृगालकोंने उन कर्मो को देखे और उन को पास गये ॥ ८॥ उन पापी अगालकों को आते देखकर दोनों कूर्म (कायवे) डरे, त्रास पाये, खेदित हुए व भयभीत बने. अपने पांवों को गोपकर अपनी काया (दाल) की नीचे अपने शरीर का उनोने साहरन कर लिया. और वहां ही ठहर गये ॥ ९ ॥ अब वे पापी शृगालक उस कूर्य की पास भाकर उन को चारों तरफ देखन। लगे, उन को इधर उधर फिराये, आगे पीछे किये, गोल चक्कर फिराये, ऊंचे उछाले, उप को क्षोभ उत्पन्न किया, नखों से उन का शरीर खोदने लगे, दांतों से काटने लगे, परंतु उन के शरीर को किसी प्रकार से बाधा पीडा अथवा चमच्छेद करने में शक्तिवंत नहीं बने ॥ १०॥ तब पापी शृगालकोंने उन दोकाचवे का चौथा अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ २०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अलक ऋषीजी ते पावसियालगा ते कुम्मए दोपि तचंपि सव्वतोसमेता उव्वदेति, जात्र णो संचाएति करित्तए, तहेव संता तंता परितंता णिन्त्रिण्णासमाणा सनियं २ पञ्चसक्के ते २ सा एगंत मत्रकमंति मिचला णिप्कंदा तुसिणीषा संचिट्ठति ॥ ११ ॥ सस्थणं एगे कुम्मए तेपावसियालए चिरंगए दूरंगए जाणित्सा सनियं २ एगं पायें निच्छति २ ॥ १२ ॥ ततेणं ते पावसियाला तेणं कुम्मएणं सणियं २ एवं पायं णीयिं पासति २ ता सिग्धं चत्रलं तुरियं चंड जइण वेगेयं जेणेव से कुम्मए तेत्र उत्रागच्छेति २, ता तरसणं कुम्मगस्स त पायं णक्खहि आलुवंति, दंतहिं अक्खोडेंति, को दो तीन बार उठाये यावत् दांतों से काटने लगे परंतु उन के शरीर को किसी प्रकार से बाधा पीडा करने को समर्थ नहीं हुवे. इस से संतप्त बने हुवे, निराश बने हुत्र शनैः पीछे सरकते हुये एकांत में जाकर निश्चल शांत खडे रहे ॥ ११ ॥ उन शृगालकों को दूर गये हुवे जानकर एक कूपने शनैः २एक पत्र चाहिर निकाला || १२ | इस तरह एक कूर्म को एक पांव बाहिर निकाला हुवा देखकर वे दोनों पापी शीघ्र ही उस की पास गये और उस के पांच को नख मे खोतरने लगे, दांतों से काटने लगे तत्पश्चात् उस के मांस व रुधिर का आहार किया परंतु उस को उठाकर पावत् उस के संपूर्ण शरीर का आहार शृगालक For Personal & Private Use Only .० प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी • २२४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठान ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध 484 ततो पच्छा मंसंच सोणियंच आहारैति २त्ता तं कुम्मगं स० तो समंता उव्वत्तेति जाव नोचेवणं संचाएति करेत्तए; ताहे दोच्चं अवकमति एवं चत्तारिविपाया जाय सणियं२ गीवं जीणेइ ॥ ततेणं पा सियालगा तेणं कुम्मएणं गीणिणिय पासंति २ त्ता सिग्धं चवलं नहेहिं दंतहिंय कवाडं विहाडेंति २त्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति र त्ता, मंसंच सोणियंच आहारेति २ ॥ १३ ॥ एषामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथोवा णिग्गंथीवा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए पवइए समाणे पंचय सेइदिया अगुत्ताणो भवंति; सेणं इह भवेचत्र बहुणं समणाणं, बहुणं समणीणं, बहुणं सावयाणं, बहुणं करने में समर्थ हुवे नहीं. इस से दूसरी वक्त एकांत में गये, फीर कूर्मने दूसरा पर निकाला उसे पकडकर नख से खोदकर उस का आहार कर लिया, यो चार वक्त एकांत जाकर चार पांव काट लिये और फीर एकांत में गये उतने में उनने ग्रीवा निकाली जिस से उस की ग्रीबा को भी खा गये और उसका जीवित से पृथक कर दिया अर्थात् वह कूर्य मरगया. और उस के मास व रुधिर दोनों पापी शगा-3 *लक खा गये ॥ १३ ॥ अहो आयुष्मान श्रमणो ! जैसे यह कूर्य इंद्रियों का गोपन नहीं करने से दुःखी है। हुवा वैसे ही हमारे साधु साध्वी आचार्य उपाध्याय की पास दीक्षा धारकर पांचों इंद्रियों का गोपन नहीं है । दो कात्र का चौथा अध्ययन 498+ अर्थ +86 For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावियाणं, हीलणिज्जे, परलोगेवियणं आगच्छइ, बहुणं दंडगाणं जाय अणुपरियदृइ; जहा से कुम्मए अगुतिदिए ॥ १४ ॥ ततेणं ते पावसियालगा जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छति २ त्ता तं कुम्मगं सवतो समंता उव्वतेति जाव देतेहिं अक्खोडेंति जाव नो चेवणं कारत्तए ॥ ततेणं ते पावसियालगा दोच्चंपि जाव नो संचाएति तस्स कुम्मगस्स किंचि आवाहवा विवाहंवा जाव छविच्छेयंवा करेत्तए,तासंता तंता परितंता णिविण्णा समाणा जामेवादिसं पाउब्भूया तामेवदिसि पडिगय ॥ ततेणं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरंगए जाणित्ता, सणियं २ गीवं जीणेइ २त्ता करेंगे वे इस भव में बहुत साधु साधी, श्रावक व श्राविका में हीलना, निंदा, खिमना पायेंगे और परलोक में बहुत दंड मिलगा यावत् अनादि अनंत चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करेंगे ॥ १४ ॥ अब वे पापी दोनों शृगालक उस दूसरे कूर्म की पास गये, उस को उठाया यावत् दांतों से काटने लगे परंतु । उसको किसी प्रकार से पंडा कर सके नहीं. इस से दूसरी वक्त एकांत गये यावत् उस कोकिसी प्रकार से पीडा नहीं कर सके. इस से संतप्त यावत् निराश बने हुवे अपने स्थान पीछे चले गये. जब दोनों पापी 1. शगालकों को चल गये जान कर उस दूरे कूर्मने पहिले गरदन वाहिर निकाली और चारों तरफ देखा..। अनुवादक-बालब्रह्म चारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 22 .. प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र अर्थ 485 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम अतस्कन्ध * दिसावलोयं करेति २त्ता जं मगसमग चत्तारिपाए पीणइ २ चा ताए उक्किट्ठाए कुम्मगतीए वीतीत्रयमाणे २ जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ २ ता मित्तणाइ णियग सयण सबंधि परियणं सद्धि अभिसमंण्णागएयावि विहरइ ।। १५ ।। एवामे समणाउसो ! जो अहं समणोवा समणीवा पंचयसे इंदियार्णिगुत्ताइं भवंति जाव जहा से कुम्म गुतिदिए ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महवीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, तिबेमि ॥ चउत्थं नायज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ गाथा - विसएस इंदियाई रुमंता । रागदोस विमुक्का || पावंति निव्वुइ सुहं | कुम्मोव फीर चारों पत्र साथ निकाले और कूर्म की जो उत्कृष्ट शीघ्र गति होती है उस गति से चलते हुवे मृत गंगातीर में गया. वहां मित्रज्ञाति, स्वजन संबंधी व परिजनों की साथ मिलकर सुख पूर्वक विचरने लगा ||| १५ || अहो आयुष्यमान श्रमणो ! जैसे यह कूर्म इन्द्रियों का गोपन करने से सुखी हुवा वैसे ही हमारे मधु साधी इन्द्रियों का गोपन करेंगे तो सुखी होंगे. अहो जम्बू श्रमण भगवान महाबीरने ज्ञाता सूत्र के {चतुर्थ अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण हुबा ॥ ४॥ उपसंहार-जैसे मृत गंगाद्रह के दोनों कूपों में से एक कूर्व इन्द्रियों का गोपन करने से सुखी हुवा वैसे ही विषय में इन्द्रियों का निधन For Personal & Private Use Only 488+ दो काचवे का चौथा अध्ययन 40+ २२७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 14 गदह सोक्खं || १ || इयरओ अणत्थपरंपराओ पावंत पाचकम्मवसा, संसार सागरगया, गोमा ओग्गसिया कुम्मोव्व ॥ २ ॥ चउत्थं नायज्झयणं सम्मतं ॥ ४ ॥ करने से व रागद्वेष से रहित होने से जीत्र मोक्ष सुख प्राप्त कर सकता है ॥ १ ॥ जैसे पापी मृगालकों ने इन्द्रियों का गोपन नहीं करनेवाला कूर्म को मार डाला वैसे ही इन्द्रियों का गोपन नहीं करनेवाले पापी जीवों पाप कर्म के वश से संसार रूप समुद्र में परंपरा से अनर्थ को प्राप्त करेंगे. इस दृष्टांत में द्रह सो संयम, कूर्म रूप साधु, ग्रीवा व चार पांव रूप पांचों इन्द्रियों, पापी शृगालक रूप स्त्रियादिक के विषय, द्रह के पास का स्थान सो भिक्षास्थान. यह कथन गुहे द्रय व अगुप्तेन्द्रिय के विषय में कहना ॥ ४ ॥ इति चाथा अध्ययन समाप्तम् ॥ ४ ॥ अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाप्रसादजी, २२८ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8+ षष्टाङ्गतामकथा का प्रथम श्रुतरकन्ध 41 ॥ पञ्चम अध्ययनम् ॥ जइणं भंते ! समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स नायझयणस्म अयम? पण्णत्ते, पंचमस्स नायझयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं आव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? ॥ ॥ एवं खा जंबु ! तेणं कालेणं ते समएणं बारावती नाम नयरी होत्था, पाईणपडीणायया उद्रीणदाहिण विच्छिण्णा, नव जोषण विच्छिण्णा दुगल 7 जो गायामा, धणवति मतिणिम्माया चामीयर पवर षागारा नाणाविधिमांग पंचणकविसीसगसोहिया, अलिपापुरीसंकासा, पमुइय पक्कीलिया, पच्चक्खं देवलोगभूया ॥ २ ॥ तीसेणं बारावतीए गयरीए बहिया ओ ममवन् ! श्री श्रमण भमवंत महावीर स्वामीने ज्ञा।। सूत्र के चौथा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा तब पांचवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ॥१॥ अहो अम्बू ! उस काल उस समय में द्वारिका नामकी नगरी थी. यह पूर्व पश्चिम लम्बी व उत्तर दक्षिण चौडी थी. नव योजन की चौडी व बारह योपन की लम्बी थी. यह द्वारिका नवा वासुदेव के लिये धनपति (कुरेर ) की बुद्धि से बनाई गई थी. उस 4 बाबाध प्रकार के पांच वर्णवाले मणियों के कंगरे थे. यह टारिया अमापरीसमान थी. अ.नंद व क्रीडा करने के लिये अति सुशोभित व प्रत्यक्ष देवलोक भूत थी ॥२॥ उस द्वारिकाई। 4.111 सेग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4.3 For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदक-पासमारी मुनि श्री बालक ऋषिजो हक उत्तर पुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नामं पत्रए होत्या, तुंगगगणतलमणुलिहंतसिहरे, नाणाविह गुच्छगुम्मलयावलिपरिगए, हंसमिग मयूर कोंच सारस बकवाय मयण साल कोइल कुलोक्वेए, अणेगतड कडग विवर उज्झर पावाय पन्भारसिहर पउरे. अच्छेरगण देवसंघ चारण विजाहर मिहुण संविचिण्णे निच्चच्छण दसारवर वीर पुरिस तेलोकबल वगाणं, सोमे सुभगे पिय दसणे सुरूबे पासादिए दरिसणिज्जे । भभिरून पटिरूवे ॥ ३ ॥ तस्सणं रेवयगस्स अदूरसामंते तत्वणं गंदणवणे गाम । नगरी के बाहिर ईशानकून में रेवतक (गिरनार ) नाम का पर्वत था. पर ऊंचा गगनतम को पांच से शिखरवाला, विविध प्रकार के गुज्य, गुल्म, लता बड्डी से मेराया सावा. उस पर स, एम, पयूर, काँच, सारस, चाक, मदनशाल व कोकिल वगैरह पक्षियों का समुहवा, भनेक पर्वत के तट रो हुपे,. बनेक कटक-पर्वत पर से नीचे परे हुवे अघटित शिलारप पाषाण थे, और भरणे के प्रताप से उस के शिखरों किंचित नीचे नमे हुए थे. उस पर अप्सरा के गण, देवसंघ चारण पियाघरों के युगलों। सदेव महतो, उस पर तीन छोक में अतुलबब्बाले दशारवंश के समुद्रविषयादि श्रेष्ठ रानाभों का उत्सव हा होता था, वैसे ही सौम्य, मुंभग, देखने में प्रिय, सुप, आनंदकारी, दर्शनीय, अभिप प्रतिरूप था.॥३॥ रस गिरनार पर्वतकी पास नंदनवन नायका पचान था. इसमें सब ऋतु के •प्रकाश राजावहादुर मालपुसदेवसहायजीपालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48+ पहाता धर्मकथा का प्रथम स्कंध 48 ន उज्जाणे होत्था, सव्त्रउय पुष्कफल समिद्धे रम्मे नंदजवणप्पाले पासादिए ४ ॥४॥ तरसणं उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिएणामं जक्खरस जक्वायणे होत्या, दिब्बे घण्णओ ॥ ५ ॥ तत्वणं बारावतीए जयरीए कण्हे णामं वासुदेवे राया परिवसह, सेणं संस्थ समुद्रविजय पामोक्खाणं दसव्हं दसाराणं, बलदेव पामोक्स्खाणं पंचण्डं महावीराणं, उग्गसेण पामोक्खाणं सोलसण्ड राईसहस्ताणं, पज्जुण्ण पामोक्खाणं असुट्ठाणं कुमार कोडीणं संब- पामोक्खाणं सट्टीणं दुदंत साहसणं, वीरसेण पामोक्स्खाणं एक्कत्रीसाए वीर साहस्सीणं, महासेण पाभोक्खाणं छप्पण्णाए बलवगा साहस्सीणं, रुप्पिणी पामोक्खाणं बत्तीसाए महिला पुष्प फल की समृद्धि रही हुई थी. और भी बह रम्य व नंदनवन समान आनंदकारी. दर्शनीय, अमिरूप व प्रतिरूप था. ॥४॥ उस उद्यान में सूरप्रिय यक्ष का एक मंदिर था वह बहुत वर्णन योग्य था. ॥५॥ उस (द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव राजा राज्य करते थे. वे समुद्र विजय प्रमुख दश दशार, बलदेव प्रमुख (पांच बडे वीर, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार मुकुटबंध - देशाधिपति, प्रद्युम्नकुमार प्रमुख कुमार, शॉभ प्रमुख साठ हजार दुर्देव ( अपराजित कुमार ), वीरसेन प्रमुख साडे तीन कोट इकार वीर पुरुषों For Personal & Private Use Only 488* पेल राजाने का पांचवा अध्ययन 18+ २३१ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H atate greRANSIA- सहस्सीणं अनंगसेणं पामोक्खाणं अणेगाणं गाणया साहस्साणे अझसिंच बहूर्ण ईसर तलवर जाय सत्थवाह पभिईणं वेय१गिरि सागरपेरंतस्स दाहिणड्ड भरहस्सय बारावतीए नयरीए आहेबच्चं जाव पालेमाणे विहरइ ॥ ६॥ सस्सणं बारवतीए प्रायरीए थावच्चा णाम गाहावईणी परिवसति अढा जाव अपरिभूया ॥ ७ ॥ तीसणं थावचाय गाहावतिणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते णाम सस्थवाहदारए होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे ॥ ८ ॥ ततेणं से थावच्चा गाहावइणी तं दारगं सातिरेगं अट्ठवास सयं जाणित्ता सोहण तिहि करण ण खत्त मुहुत्तंसि महासेन प्रमुख ५६ हजार बळवंत पुरुषों, रुक्मिणी प्रमुख बत्तीस हजार स्त्रियों, अनंगसेना प्रमुख अनेक सहस्र गणिकाओं, व अन्य अनेक ईश्वर तलवर यावत् सार्थवाह प्रमुख का व वैतादयगिरी से समुद्र पर्यन दक्षिणार्थ भरत का अधिपतिपना करते हुवे द्वारिका नगरी में विचरते थे. ॥ ६॥ उस द्वारका नगरी में याचा नामकी गायापतिनी रहती थी. वह ऋद्धिपती यावत् अपरिभूता थी ॥ ७॥ उस थावच्चाई ग.धापतिनी को थावचा नाम का पुत्र था. वह सुकोमल हाथ पांव बाला यावत् सुरूप था. ॥ ८ ॥ थावच्चा पुत्र को साधिक आठ वर्ष का हुवा देख कर शुभ तिथी, करण नक्षत्र व मुहूर्त में वह गाथा प्रकाशक-राजावट दरलाला सुखदेवसमयजी ज्वालाप्रपाटनी 6 For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध +ve कैलायरियरस उवणेति, जाव भोगसमत्थं जै णित्ता बत्तीसाए इब्भकुल बालियाहिं एगदिवसेणं पाणिगिण्हावेइ, बत्तीतो दातो जाव बत्तीसाए इब्भकुलबलियाहिं साई घिउले सह रस फरिस रूप गंधे जाव भुजमाणे विहरइ ॥ ९॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटनेमी सोचेव वण्णओ दसधणुस्सेहे नीलप्पलधवल गुलिय अयसिकुसुमप्पगासे, अट्ठारसेहिं समणे साहसीहिं सद्धिं संपरिवुडे,चत्तालीसाए अज्जिया साहस्तीहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुवाणुपुल्वि चरमाणे जाव जेणेव बारावई नयरी जेणेव रेवएपन्चए जेणेव नंदणवणे उजाणे जेणेव सुरप्पियस्म पनि उसे कला शिखानेवाले आचार्य की पाम लेगइ यावत् भोग भोगने योग्य देख कर वर्तस इन्य श्रोष्टकी बालिकाओं के साथ एक दिन में पाणिग्रहण कर या. दायचे में वत्तीय दातों दो यावत् वत्तस ही बालिकाओं साथ शब्द, रस, स्पर्श, रूप व गंध का यावत् भोग " मागता हुँचा रहता था ॥ १॥ उस काल उस समय में दश धनुष्य की अवगाहनावाले, नीलोत्पल कपल,* पहिप शृंग या अलसी कुसम के पुरुष के समान नीले रंगवाले श्री अरिहंत अरिष्ट नेमीनाथ अठारह हजार साधु, काली हजार पाभीके परिवार से पर्यानपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विच द्वारका गरी में रेवतकपतिकी पास Nir. मला राज का पांचवा अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवखस्स जक्खायणे, जेणेव असोगवरपावे, तेणेव उवागष्छइ १चा अहाहरूवं उग्गहं उगिणहत्ता संजमणं सवसा अप्पाणं भावमाणे चिहरंति ॥१०॥ परिसा जिग्गया, धम्मो कहिओ ॥ ७॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे इमीसे कहाए लट्ठ समाणे २१४ कोडुम्बिय पुरिस सहावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरसिय गंभीरमहुरसई कोमुदियं भेरि तालेह ॥॥ ततेणं ते कोडंबिय पुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवंवुत्ते समाणे हट्ट जाव मत्थएअंजलि कटु, एवं क्यासी! तहत्ति जाव पडिसुणेइ रत्ता, कण्हस्स घासुदेवरस अंतियाती पडि. नंदन बन उथान में सुरमिय यक्ष के यक्षायतन की पास अशोक वृक्ष की नीचे यथाप्रतिरूप अवग्रह याचकर संयम ३ तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ १. ॥ परिषदा दर्शन करने को निकली पावत् धर्मोपदेश कहा ॥ ११॥ जय कृष्ण वासुदेव को इस बात की मालूम हुई तब उनोंने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय ! सुधर्मा सभा में मेघ के समुह जैसी घोर गंभीर बन मधुर सम्दवाली कै.मुदी नाम की मेरी मावो. कृष्ण बासुदेव के ऐसे कहने पर वे कौटुबिक पुरुषों IVा दुष्ट हुए यावन् मस्तक से दोनों हाथ की अंगली करके कहा अहो स्वामी ! तथ्य है, ऐसा करक * मनुवादक बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । भकामकाजावामदर सालामुखदवसहायणी ज्वाखाप्रसादमी। Anamnnamommanm For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २३५ षष्टांग झालाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध + णिक्खमंति २ ता जेणे सुहम्मा सभा जेणेव कोमुदिया भेरी तेणेव उवागच्छंति,तेणेव उवागच्छित्ता तं मेघोघरसिय गंभीर महुरसइं कोमदियं भेरी तालेति ॥ ततो निह महर गंभीर पडिसुएणं पिव सारइएणं बलाहएणं मणुरसिय भेरीए ॥ १२ ॥ ततेणं तीने कामदियाए भेरीए तालियाए समाणीए बारावीए णयरीए ना जायण विच्छिण्णाए दुवालस जायणा यामाए संघाडग तिय चउक्क चञ्चर कंदर दरीय विवर कुहर गिरि सिहर नगर गोपुर पानाय द्वार भवण देउल पडिमुथा, सयसहस्से संकुलंसह करेमाणा वारवतिणयरिं सम्भितंर बाहिरिय सन्वतो समंता से सद्दे विपरिसत्था ॥ १३ ॥ ततेणं वारावतीए णयरीए णव जोयण विच्छिण्णाए बारस कृष्ण व मुदेव की पाम मे निकलकर सुधर्मा सभा में -ये और कौमुदिका मेरी वजाइ. उस में से स्निग्ध, मधुर, गंभीर मतिध्वनिवाला, शरद ऋतु के मंघ समान गर्जनावाला शब्द निकला ।। १२ । इस तरह उस कौमुदी नाम की भेरी बनाने से नव योजन की विस्तारवाली व पारस योजन की चौडाइवाली द्वारिका नगरी में भंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चचर, कंदर, गुफा, खड्डों, नहरे, स्थानों, पर्वत, शिखर, गोपुर, मासादों के द्वार, भवन व देव कुलों वगैरह सर्व स्थान उस का शब्द सुना गया. और लाखों संकल्प करते हुवे द्वारका नगरी के पाभ्यंतर व पादिर चारों भक इस शब्द का विस्तार होगया ॥१३ ॥ जस! 40+ सलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 48 म For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी. जोयणायामाए समुद्दरिजय पामाक्खाणं दस सारा जाव गणिया सहस्साति कोमु. दियाए भेरीए सहं सोचा निसम्म हट्ट तु? जाव ण्हया आविड वग्घारिय मन्जदाम कलावा अहयवत्थ चंदणो किन्नगाय सरीरा अप्पेगतिया हयगया, एवं गयगया, रह सीया संदमाणी गया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिस बग्गुरा परिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवरत अंतिए पाउब्भवेत्था ॥ १४ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे समुद्द विजयं पामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउड्भवमाणे पासित्ता हट्ट तुट्ठ जाव द्वारिका नगरी में समुद्र विजय प्रमुख दश दशार यावत् अनंगसेना प्रःख अनेक गणिकाओं ऐसी भेरी का शब्द सुनकर हृष्ट तुष्ट हुए यावत् स्नान किया, सर्वालंकार से विभूषित हुए और लम्मी लटकती हुई मालाओं धारण की, अखंडित वस्त्रों पहिने और गात्रोंपर चंदन लगाया, फीर कितनेक घोरेपर स्वार हो कितनेक हाथीपर स्वार होकर, कितनेक रथ, पालखी, म्यानाएर सार होकर व कितनेक पांव से चलकर पुरुषों के समुदाय से परवरे हुवे कृष्ण वासुदेव को पास आये ॥ १४ ॥ समुद्र विजय प्रमुख दश दशार। इत्यादि सब को पाप्त आये हुए देखकर कृष्ण वासुदेव हृष्ट तुष्ट हुवे यावत् कौटुम्बा पुरुषों को बोलाकर ऐसे बोले. अहो देवानुप्रिय ! चतुरंगिनी सेना शीघ्रमेव तैयार करो और विजय नाम का गंध हस्ती को सज्ज करो. कौटुम्धिक पुरुषोंने उस कार्य का तहत्ति किया यावत् चतुरंगिनी सेना व गंध हस्ती मज्ज कर • पकायक राजबहादुर लाला खदवसायजी चाछापसाढली. 1 For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14}. कोविय पुरिसे सहावेइ. २ एवं वयांसी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिय चाउरंगीणी सेण सजेह विजयंचगंधहरिय उवट्ठवेह तेवि तहेव उट्ठवेति जाव पज्जुवासइ ॥ १५ ॥ थावचापुत्तेविणिग्गहे जहा मेहो तहेव धम्म सोच्चणिसम्म जेणेष चावचा “गाहावइणी सेणेव उवागच्छद ३ त्ता पायग्गहणं करइ जहा मेहस्स तहाचेव निवेयणा जाहे जो संचाएति विसयाणु लामाहिग, · विसयपडिकूलाहिय बहुहि आघवणाहिय पण्णवणाहिय, समवणाहिय, आघवित्तएवा ४ ताहे अकामिया व थावच्चा पुत्तस्स दारगरस निक्खमण मणुम्मण्णस्था॥१६॥ततेण सा थावच्चागाहावइणी आसणाओ लाये. कृष्ण वासुदेव समुद्र विजयादि प्रमुख दश दशार इत्यादि सब परिवार से परबरे हुवे कि नामक गंध हस्ती पर बैठकर नंदन वम में श्री भरिष्ट नेमीनाथ की सेवा भक्ति करने लगे ॥५॥ मथम अध्ययन में मेघ कुमार का भगवान के दर्शन के लिये निकलने का कथन है वैसे ही थावची पत्र का कथन जानना. वैसे ही धर्म पुनकर थावर्चा गायापतिनी की पास गये, उन के पांच में पटा और मनसे अपना वैराग्यभाष मेधकुमारने बताया था वैसे ही इसने बतलाया. आता पुत्र दोनों का संघाद हुवा परंतु जब वह अपने पुत्र को विषय के अनुकूल व प्रतिकूल वचनों से, विज्ञप्ति वचनों व स्नेह के वचनों से सरझाने में असमर्थ हुई. तब थावर्ग पुत्र का दीक्षा महोत्सव करना मान्य किया ॥ १६ ॥ 418 पाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्धर लग राजा का पांच अध्ययन 4. For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर मनुवादक-पालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिधी - __ अन्भुटेइ २त्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुढं गिण्हइ रत्ता मित्त जावसंपरिवडा, जेणेव कण्हस्सवासुदेवेस्स भवणवरपडिदुवार देसभाए तेणेव उवागच्छइ२चा पडिहार देसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ २,त्ता करयल वराति २त्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं उवणेति २ चा एवंवयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !मम एगपुत्ते थावच्चापुत्ते णामं दारए इडे जाव सेणं संसाराभउविग्गे इच्छति, अरहंतो अरिट्टनेमिस्स नाव पन्बाइत्तते महण्णं निक्खिमण सकारं करेमि, तं इच्छामिण देवाणुप्पिया ! थावच्चा पुत्तस्स निक्खमणस्स छत्त मउड चामराओउव अवार्था माथापविनी अपने पासन से उठकर बहुन मूल्यवाली,बहुअर्थवाली मोंगे राजा को पाग्य वस्तुओं कानिजराना लेकर अपने परिवार सहित कृष्णासुदेव के भवन के प्रतिद्वार पाम आई. वहां से द्वारपालने मार्ग बताया जिस से वह कृष्ण वासुदेव की पास गई. वहां उसने हाथ जोडकर बधाये फीर महा वर्षवाली, पहेंगी, बहमूल्यवाली रामा को योग्य वस्तुयों का निजराना भेट किया. और ऐमा बोली. बहो दिवानप्रिय ! मेरा एक ही पुत्र थावरी नाम का है. ह इकारी है पावद संसार मर से गइन बना दुवा श्री अरिष्ट नेपीनाथ की पाम दीक्ष लेना चाहता Tमें इस का बीमा पोत्सव करूंगा इस लिये जो देवानुपिय ! : यावर्चा पुत्र को प्रकाशक राजावहादुर लाला एखदवसायी न्याछामसादनी. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 418+ पांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-तस्कम्भ 448+ त्रिदिष्णाउ ॥ १७ ॥ तरणं कण्हवासुदेवे पावचा गात्रइणीए एवं क्यासो अत्याहिणं तुमं देवाणुपिया ! सुणिव्वुया वीसत्था, अहमं सयमेत्र थावथा पुत्तस्स दारगरस जिक्स्वमण सकारं करिस्तामि ॥ १८ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे चाउरंगिणीए सेनाए विजयं इत्थिरयणं दुरूढे समाण जेणेव थावच्चाए गाहा बहणीए भवणे तेणेब उत्रागच्छइ २ सा थावचा पुत्तं एवं वयासी मानं तुमं देवाणुष्पिया ! मुंडे भविता पव्याहि मुबाहिणं देशणुप्पिया ! विउले माणुस्सर कामभोगे ममं बाहुच्छाया परिग्गहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं नो संचाएमि वाडकायं उवरिसेणं गच्छमिणं निवारिश्वए; अण्णेणं देवाणुप्पियस्स जं किंचि आबाईचा वादाहंवा उप्पा दीक्षा के लिये छत्र, मुकुट, च. मर व बार्दिन देवों ॥ १७ ॥ तब कृष्ण वासुदेव बोके कि अहो देवानुमिये तुम यहाँ निर्मित बैठो में स्वयमेव थावच पुत्र का दीक्षा महोत्सव करूंगा. ॥ १८ ॥ फीर वह कृष्ण देव विग्य नामक गंधहस्तीवर आरूढ होकर थावर्षा गाथापतिनी को गृह गये और थावच पुत्र को एने बोलें, अहो देवानुप्रिय ! तुम मुंडित बनकर दीक्षा मत ग्रहण करो. परंतु मेरे माश्रय में रहकर पनष्य संबंधी विपुल काम भोगों भोगवो. तुम्हारे पर ऊपर से आता हुवा बाबुकाय का निवारण करने में ही में मात्र अशक्त हूं. इस सिवा अन्य किसी प्रकार की भाषा पीडा यदि तुम को होगी उम्र का वे For Personal & Private Use Only 488+- लग राजा का पांचवा अध्ययन 448+ २१९ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र एति तं सव्वं निवारेमि ॥ १९ ॥ ततेणं से थावच्चा पुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जणं तुमं देवाणुप्पिया ! मम जीवियंतकरणं मच्चुएजमाणं निवारेसि, जरंवा सरीर एवं विणासणि सरीरं अवइयमाणि णिवारेसि, ततेणं अहं तव बाहुच्छायं परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भंजमाणे विहरामि ॥ २० ॥ तेणं से कण्हवासुदेवे थावश्चापुत्तणं एवं वुत्तसमाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-एएणं दवाणुप्पिया ! दुरतिकमणिज्जा णो खल सक्कासु बलिएणाधि देवणावि दाणवेणवि निवारित्तए, नन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं ॥ २१ ॥ ततेणं से थावच्चापुत्ते कण्हवासुदेवं एवं वयासी-जइणं एए दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का IF निवारण करूंगा ॥ १९ ॥ कृष्ण वासुदेष का ऐसा कथन सुनकर थावर्चा पुत्र बोले अहो देवानुमिय ! यदि थाप मेरे बीषित का अन्त करनेवाला मृत्युव-शरीर के रूप का विनाश करनेवाली जरा का निवाकारण करोगे तो में आपके आश्रय में रहकर मनुष्य संबंधी विपुल काम भोग भोगचूंगा ॥२०॥ थावर्चा चुन के ऐसे करने पर कृष्ण पामुदेवने कहा-अहो देवानुपिय! यह दूरतीक्रमनीय है. इस को बखवान देष या दानव भी निवारने को शक्तिपान नहीं हैं. यह कर्म क्षय सिवाय नहीं होसकता है ॥२१॥ व थापर्चा पुषने कृष्ण वायदेव को ऐसा कहा कि जब यह मृत्यु ब जरा मिटाने का आप नहीं कर बमुकादक पाउन मुनि श्री बमोसक ऋषि प्रमा -राजापार का मुखदधर्मशयजी कालमसदानी For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 41ष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकभाका प्रथम श्रुतसंघ जाव णण्णत्थ अध्पणो कम्मक्खएणं, तं इन्छामिणं देवाणुप्पिया ! अण्णाण मिच्छत्त अपिरय कंसाय संचियरस अत्तणो कम्मक्खयं करिसए ॥ २२ ॥ तलेणं से कण्हवासुदेवे थावच्चा पुतणं एवं वुत्ते समाणे कोडवियपुरिसे सहावेइ २त्ता एवं वयासी गच्छहणं देवाणुपिया! बारावईए गयरीएं सिंघाडग जाव महापहेमु हत्थिखंध घरगया महया २ सहेणं उग्धोसेमाणा २ उग्घोसणं करेंह एवं खलु देवाणुपिया ! थावच्चा पुत्ते संसारभ उदिा भीए जण मरणाणं, इच्छति अरहतो भरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वतित्तते, तं जो खलु देवाणुप्पिया ! रायावा, जुवरायावा, सकते हैं परंतु कर्म क्षय से होता है तब अहो देवानुमिय ! अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय से संचित आत्मा के कर्मों का क्षय करना मैं चाहता हूं ॥ २२ ॥ यावर्चा पुत्र के ऐने कहने पर कृष्ण वासुदेवने । कौटुम्पिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम जाओ और हाथी पर बैठकर द्वारिका नगरी के शंकाटक,यावत् राजमर्म में बड २२.७मों से उद्घोषणा करो कि थावर्चा पुत्र संसारभय रे उद्विग्न नकर जन्म जरा मरण से भयभीत बना हुवा अरिईन अरिष्टनेमी की पास मुंडित होकर दीक्षा अंगीकार करते हैं इससे जो कोई राजा यु राना, देवी, कुमार ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, पाडंबिक, ईभ, अंट' 438+सलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन ११ अर्थ | For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री गसक पीजी देवीवा, कुमारेवा,ईसरवा,तलवरेवा, कोडुपियपुरिसा, माडंबिय इन्भ, सेटुि, सेणावति सत्यवाहे यावच्चा पुत्त पव्ययंत मणुपत्वयति,तस्सणं कण्हवासुदेवे अणुजाणति पच्छाओ तस्सविय से मित्त णाति जोग खेमवद्यमाणो पडिनदइ तिकटु घाखणं बोलेह जानन घोसंति ॥ २३ ॥ ततेणं थावच्चा पुत्तरस अगुराएणं पुरिस सहस्सं णिक्खमणाभिमुहं व्हाय सन्यालंकारं विमूसियं पत्तेयं २ पुरिस सहस्तवाहिणीसु सिविया दुरूसमाणं मित्तणाइ परिवुडं थावच्चापुत्तरस अंतियं पाउभवित्था ॥ २४ ॥ ततेणं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्सं अंतियं पाउब्भवमाणं पासति र सा कोडुबिय पुरिसे सहासेनापनि व मार्यवाह वगैरह थावई पुत्रकी साथ दीक्षा ग्रहण करेंगे उनको कृष्ण पामुदेव की अनुज्ञा है, उनके पीछे जो कोई मित्र, ति आदि रहेंगे उस सब परिवारको इच्छित मुख कृष्ण वासुदेव देंगे. कोम्बिक पुरुषोंने उक्त कथनानसारं उद्घोषणा की. ॥ २३ ॥इस सरह उद्घोषणा मुनकर एक साल पुरुषों दीक्षा लेने को तैयार हो, स्नान किया, अलंकार से विभूषित बने और पत्येकाचार मनुष्य रहाणे वैसी शिविका में बैठकर मित्र शाति स्वजन संवा की सार बावर्चा पुत्रकी पास भाये ॥२॥ एकबार परुष दक्षिालने के लिये माये हुवे देखकर कृष्ण बामदेवने कौदमिक पुरुषों को बोलाये और • प्रायासारशला हरदेवतालापलादणी . For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ ** पहाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 88 बेति २त्ता एवं वयासी जहा मेहस्स क्खिमणाभिसओ तहेव सीयापी हिं कलसेहि व्हावेइ २ चा तरणं से थावच्चापुत्तं सहस्स पुरुसेहिंसद्धिं सिवियाए दुरूढे जाव रखेणं बारावइनयरिं मज्झं मज्झेणं जेणेव अरहतो अरिट्ठने मिस्स छत्ताइछत्तं पडागातिपडागं पासंति २ चा विजाहर चारणे जाव पालितासी वियाओ पचोरुहति ॥ २५ ॥ ततेणं से कण्हेवासुदेवे थावचापुत्तं पुरतोकओ जेणेंत्र अरहा अरिट्ठनेमी सत्वं तचेत्र आभरणं थावचा गाहावइणी इंसलक्खणेणं पडगसाडगेणं आभरणमल्लालंकार पडिच्छति, हारवारिधार छिष्णमुत्ता लिपगासार्ति जैसे मेघकुमार का दीक्षा महोत्सव हुवा था वैसे ही महोत्सव कराया. और १०८ सोने के कलश, १०८ {चांदि के कलश, १०८ रत्नों के कलश से स्नानकरा कर थावच पुत्र की साथ शिक्षिका में बैठकर वढे २१ ( वार्दित्र के शब्दों से द्वारिका नगरीकी बीच में होते हुवे अरिहंत अरिष्टमी के छत्रपर छब व पताकापर {पताका व विद्याधर व चारण युनियों को देखते वहां ही वे शिविका से नीचे उतर गये. ॥ २५ ॥ थावच पुत्र को सब से आगे कर के श्री कृष्ण वासुदेव अरिहंत अरिष्टनेमी की पास आये यावत् सब कथन मेघकुमार जैसे कहना. ईशान कौन में आये. वहां यावच गाथा पतिनीने हंस आभरणालंकार ग्रहण किया. और जैसे हर लूटने से मोतियों गिरते हैं वैसे ही समान श्वेत वस्त्र में अति हुई कहने For Personal & Private Use Only 4 + सेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4+ २४३ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभदक- लब्रह्मचारीमुनि श्री अयो क ऋषिजीt असूणि विधि माणी२ एवं वय सी-जयवंजःयः पक्किामयव्यंजाया! घडयव्यं जाया!. परिमियन्वं जाया! अरिं च । अट्टे नो पमादयन्वं; जामेवदिसिं पाउब्मूया तामेवदिसिं पडिगया ॥ २६ ॥ ततेणं से थावच्चा पुत्ते पुरिससहरसेणं साई सयमेव पंचमुट्रियं लायं करोति जाव पवइए ॥ २७ ॥ ततेगं से थावच्चापत्ते अणगारे जाए इरिया समिए भासा समिए जाव विहरइ ॥२८॥ ततेणं थावच्च पुत्र अणगारे अरहओ अरिट्ठ नेमिस्स तहा रूवाणं राणं अंतिए सामाइयमाइयाई चोदमपुवाई अहिज्जति २ बहूहिं जाव चउत्थ विहरति ॥ २९ ॥ ततेणं अरहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स लगी अहो पुत्र ! समय में पराक्रम करना, अहो पुत्र! अच्छी क्रिया करनेमें धर्माराधना करनी अहो पुत्र समय चारित्र में अपना बल वीर्य फोडना, अहो पुत्र. ! इमकिंचिन्मात्र प्रमाद ही करना. यों कहकर सब अपने २ स्थान पीछ गये ॥ २६ ॥ फर थावर्चा पुत्रने एक हजार पुरुषों की साथ स्वयमेव पंच मुछि लोच किया. यावत् दीक्षित बने ॥ २७ ॥ अन वह थावर्चा पुत्र अनगार बनकर ईर्या समिति भाषः समिति सहित यावत् विचरने लगे ॥ २८ ॥ कर वह थार्चा पुत्र अरहंत अरिष्ट नेमी के तथरूप स्थविरों के पास सामायिकादि चौदह पूर्व का अध्ययन करके बहुन उपनाम बोले यावत् नपश्चर्या करके तप व संयम से भात्मा को भ.बने हुवे विचरने लगे ॥ २९ ॥ श्री रहंत अरिष्ठ नेमीनाथने इकम प्रकाशक-राजाबहा लाममुखदवसहायजी ज्वालाममाट। For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ » टाङ्ग जानाधकथा का प्रथम शुवध अगारस्स तं इन्भाइयं अणगार सहस्सं सीसत्ताए दलयति ॥ ३० ॥ ततेणं से थावच्चापुत्ते अणगारे अन्नयाकयाइं अरहं अरिट्ठनमि वंदइ नमसइ २ त्ता एवं वयासी इच्छामिणं ति ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे सहसणं अणगारेणंसाई वहिया जणश्य विहारं विहरित्तए ? अहासुहं ॥ ३१ ॥ ततेणं से थावच्चापत्ते अणगारे सहरसे गं सहिं तेणं उरालेणं उदग्गेणं प्यतेणं पग्गहिएणं बहिया जणवय विहार विहरइ ॥३२॥ तेणं कालेणं सेणं समपणं सलग पुरणामेणगरे होत्था वण्णओ, मभमि भाग उज्जाणे, सेलए राया, पउमावइदेवी, महुए कुमारे जुबराया ॥ तस्सणं सेलगस्स वगैरह एक हजार अनगार को थावर्चा पुत्र अनगार के शिष्य बनाये ॥३०॥ तब वह थावर्चा पुत्र अनगार अरिहंत टिनको वंदना नमस्कार कर ऐमा बोले कि अहो भगवन्! एक हजार शिष्यों सहित बाहिर जनपः देशमें विहार करने को चहता हूं. भगवानने उत्तर दिया जैसे तुम को सुख होवे वैसे करो ॥ ३१ ॥ अव थावर्चा पुष उन एक हजार साधुओं सहित बाहिर जनपद देश चने लग ॥ ३२ ॥ उस काल उस समय में मेलगपुर नाम का नगर था, उस की ईशानकून में सुभूमि भाग नाम का उद्यान था, उसमें शेलग नाम का राजा था. उसमोपद्मावती देवी थी,उम को मंडुक कपार था, उस सेला राजा को पंथक प्रमुख पांव सोमंत्री थे, वे उत्सातिका वयिकादि चारों बुद्धि से संपन्न । अर्थ सेलग राजर्ष का पांचवा अध्ययन 438* LE ॐ For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पा पंथग पामोक्खाणं पंचमंतिसवाहोत्था उपपत्तियावेयणियाए चउन्त्रिह बुडीए उवत्रेया रज्जधुरचितयात्रि होत्या ! ततेणं थावच्चा पुत्ते णामं अणगारे सहस्सेणं अणगारणं सद्धिं जेणेव सेलग पुर नगरे सुभूमि उज्जाणे तेणेव समोसढे, रायाणिग्गते, धम्सो कहिओ धम्मं सोचा, जहाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहने उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरणं जाव पव्वतिया, तहाणं अहं णो संचाएमि पव्वतिए, अहणं देवाप्पियाणं अंतिए पंच्चाणुव्वतिथं जाव समणोवासए जाए, जाव अभिगय जीवाजीवे जात्र अप्पानं भावेमाणे विहरइ ॥ ३३ ॥ पंथगं पामोक्खाणं पंच मंतिसया समणोवासया जाया ॥ ३४ ॥ थावच्चापुत्ते दहिया जणवय विहारं विहरइ ॥ ३५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया णामं णयरी होत्था वण्णओ (राज्य की चिन्ता करनेवाले थे. वहां पर थावच पुत्र ग्रामानुग्राम विचरते पधारे, राजा वंदन करने को [गया धर्म श्रवण किया और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! आप की पास जैसे अन्य उग्रकुबाले भोगकुटवाले यावत् अपनी ऋद्धि समृद्धि का त्याग कर दीक्षा लेते हैं जैसे दीक्षा लेने में मैं असमर्थ हूं; परंतु आप की पाप मैं पांच अनुव्रत वगैरह ग्रहण कर श्रावक बनूंगा. फीर वह श्रावक हुवा यावत् जीवाजीव के स्वरूप जानकर यावत् अपनी आत्मा को भागते हुये विचरने लगा ॥ ३२ ॥ पंथक प्रमुख पांच सो मंत्री मा श्रमणोपासक हुए ||३४|| फीर वहां से थावच पुत्र व हिर जनपद देशमें विहार करने लगे || ३५ ॥ उस For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजबहादुर ळाला सुखदेव सहयजी ज्वालाप्रसादजी २४६ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ + षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध + नीलसोए उज्जाणे. वण्णओ, तत्थणं सोगंधियाए नगरीए सुदंसणे णामं णगरसैट्ठी परिवस अड्डे जाव अपरिभूए ॥ ३६ ॥ तेणं कालेजं तेणं समएणं सुए णामं परिव्वायए होत्या रिउव्वेम जजुनय, सामय अथव्वणवेय सहिततं कुसले, संखसमए लडट्ठे, पंचजम पंचनियमजुत्तं, सोयमूल दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं, दाणधम्मंच, तित्थामिसेयंच, आघवेमाणे, पण्णवेमाणे, धाउरन्तपवरवत्थपरिहिए तिदंडकुडिय छत्त छन्नालिया, अंकुस पत्रितिथ, केसरि हत्थगए परिव्वायग सहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणैव सोगंधियानयरी जेणेव परिव्वायगा वसहे, तेणेव उवागच्छति २ ता परिव्वायगा वसहंसि भंडग काल उस समय में सौगंधिक नाम की नगरी थी. नीलाशोक नामका उद्यान था, उस में सुदर्शन नाम का श्रेष्ठि ( रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत था ॥ ३६ ॥ उस काल उस ममय में शुक नाम का परिव्राजक था. यह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद इन चारों वेदों व साठ तांत्रिक शास्त्रों में कुशल था, उस का मत सांख्य था, पांच यम व नियम से युक्त था, शूचि मूल दश प्रकार का परिवाजक धर्म, दान धर्म व तीर्थाभिषेक का कथन करता हुवा, गेरु से रंगित करके रक्त वस्त्र पहिन कर, त्रिदंड कुंड, छत्र, छन्नलिका, अंकुश, पवित्रता सूचक ताम्बे की अंगूठी व केसरी सो वस्त्र का खण्ड यों सातों वस्तुओं हाथ में १ मोर पोंछ की बनती है, २ वृक्षों का छेदन के लिये. For Personal & Private Use Only 48+ सेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4 २४७ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 019 अनुवादक बालब्रह्म चारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी निक्खेवं करेति २ चा संखसमएणं अप्पानं भावमाणे विहरति ॥ ३७ ॥ ततेनं सोगंधिए णयरीए सिंघाडग जात्र बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं वयासी एवं खलु सुए परिव्वा, इह मागते जाव विहरति ॥ परिसा णिग्गया सुंदसजोत्रि णिग्गए ततेणं से सुर परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्म अन्नेसिं बहूणं संखाणं परिकहेति, एवं खलु सुदंसणा अम्ह सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते सेविय सोय दुविहे पण्णत्तं, तंजहा- दव्वेसोयए भावसोएय, दव्वसोएय उदएणं मट्टियाएय, भावसोए दम्भेहिय मंतेहिय, जण्णं अम्हं {लेकर एक हजार परिव्राजक की साथ सौगंधि नगरीमें परिव्राजक का जहां स्थान था वहां आया. वहां पर अपनी सब वस्तुओं रखकर सांख्य मत का चितवन करता हुवा रहने लगा. उस समय सौगंधिक नगरी में) शृं । यावत् बहुत मनुष्यों में परस्पर ऐसा वार्तालाप होने बगा कि शुक परिव्राजक यहां आया है. यावत् परिव्राजक वसति में रहकर विचर रहा है. बहुत लोक उस की पास जाने को निकले वैसे ही सुदर्शन भी निकला. शुक्र परिवाजकने उस परिषदा में सुदर्शन शेठ व अन्य बहुत मनुष्यों को सांख्य मत का उपदेश दिया. और कहा अहो देवानुप्रिम ! हमारे मत में धर्म का मूल शूचि है, शुचि दो ( प्रकार की कही है—१ द्रव्यशुशिव २ भावशुचि. उस में से द्रव्य शुचि यांनी व मिट्ट से होती है और भाव शूचि दर्भ व मंत्र से होती है. अहो देवानुप्रिय ! हम को किसी प्रकार से अशूवि होवे तो पाहले For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाममादजी • २४८ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टाङ्ग ज्ञाताधमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 420 देवाणुप्पिया ! किंचि असुई हवइ, तं सव्वं सज्ज पुढवीए आलिंपइ. ततोपच्छा सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जइ, ततो तं असुई मुई हवइ॥एवं खलुजीवा जलाभिसेय पूयप्पाणो, अविग्घेणं सगच्छति॥३८॥ततेणं सुदंसणे मुयस्त अतिए धम्मं सोचा हट्ठ तुट्ठ सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्म मेण्हइ २त्ता, परिवायएमु विपुलेणं असणं पाणंखाइमं साइमं वत्थ पडिलाभेमाणे जाब विहरइ॥३९॥ततेणं से सुए परिव्वायगे सोगंधियाओं णयरीओ णिगच्छइ गिगाच्छित्ता बहिया जणवय विहारं विहरइ ॥ ४ ॥ तेणं कालणं तेणं समएणं थावच्चापुत्तेणामे अणगारे सहस्सेणं अणगारेणं साई पुगाणुपुचि चरखारी पृथ्वी से उम को लिंपते हैं तत्पश्चात् शुद्ध जल से उस का प्रक्षालन करते हैं. इस तरह करने से चि की भूचि होती है. इसी तरह जलाभिषेक से पवित्र कराये जीवों विघ्न रहितपना से स्वर्ग ओक । जाते हैं ॥ ३८ ॥ इस तरह शुक की पास से धर्म श्रवण कर सुदर्शन श्रेष्ठ आनंदित हुवा और उनकी पास से शूचिमूल धर्म अंगीकार कर परिव्राजकों को विपुल अशनादि चारों आहर वस्त्र वगैरह देता हुवा विचर रहा था।॥३१॥ पदावहांसे वह शुक परिव्राजकनिकलकर बाहिरदेशमें विचरने लगा॥४०॥उस काल उस समयमें थार्चा पुत्र अनगार एक हजार पाधु सहित पूर्वानुपूर्ती चलते ग्रःमानुग्राम विचरते सोगंधिक नगरी में 28सेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 428 For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 4 जनवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + माणे गामाणुगामं दुइजमाणे सुहंमुहेणं विहरमाणे जेणेव सोगंधिया जयरीए जेणेव गिलासाए उज्जाणे तेणेव समोसढे परिसाणिग्गया, सुदंसणात्रि निम्नए ॥ थावच्चा पुस्तं णामं अणगारं वंदति नमसित्ता एवं वयासी तुम्हाणं किं मूलए धम्मे पण्णत्ते ? ततेणं यात्रश्चा पुत्ते सुंदसणेणं एवं वृत्तंसमाणे, सुदंसणं एवं बयासी- सुदंसणा ! त्रिणयमूले धम्मे पण्णत्ते, सेविय विए दुविहे पण्णत्ते तंजहा- आगारचिणएय अणगारविणस्य ॥ तत्थणं जेसे आगार विज सेणं पंचअणुन्नयाई सतसिक्खावयाइ, एक्कारस उवासग पडिमाआतो तत्थणं जे से अणगारविगए सेणं पंचमहव्वयाइं तंजहा सव्त्राओ पाणाइवायाओ नीलाशोक उद्यान में पधारे. परिषदा आई. सुदर्शन शेठ भी आया. थाबच पुत्र अनगारको वंदना नमस्कारकर ऐश बोला कि आपके मत में धर्म का क्या मूल है ? सुदर्शन के ऐसे कहने पर थावच पुत्रने उत्तर दिया कि यही सुदर्शन ! हमारे मत में विनय मूळ धर्म कहा है और वह विनय दो प्रकार का है. तथा • बागार विनय वर अनागार विनय आगार विनय में पांच अनुव्रत सात शिक्षा व्रत व श्रावक की अग्यारह प्रतिमाओं होती है. अनगार विनय में पांच महाव्रत हैं. तद्यथा सर्वथा प्रकार से प्राणाति पाद से निवर्तना, १ सर्वथा प्रकार से मृषावाद से निवर्तना, ३ सर्वथा प्रकार से अदत्तादान से निवर्तना, For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायओ ज्वालामसाद २५० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R वामणं, सम्वाओ मुसावायाओ रमणं, सन्बामो अदिमादागाओ रमणं, सन्यानो मेहुणाओ बेरमगं, सवाओ परिग्गहाओ बेरमणं, सबाओ राइभोयणाओ बेरमणं, जाय मिन्छा देसणस्लाओ वेरमणं दसविहे पञ्चक्खाणे,बारस मिक्खपडिमाभो चयणं V२५१ दविहेणं विणयमलेणं धम्मेणं अणुपुम्वेणं अटुकम्मपगडीउसवेला लेायग्गपयट्टाणे मति ॥४१॥तएणं थावच्चापुत्ते सुदसणं एवं वयासी तुम्भेणं सुदंसणा किं मूलए धम्मे पण्णते? मन्हाणं देवाणुप्पिया ! सोय मलए धम्मे पण्णत्ते ? जाव सग्गं गच्छति ॥ ४२ ॥ ततेणं थावचापुत्ते सुंदसणं एवं वयासी सुरंमणा से जहा मामए के पुरिसे ४ सर्वथा प्रकार से मैथुन से निवर्तना और ५ सर्वथा प्रकार से परित्रह से निवर्तमा, सर्वथा मकार से रात्रि भोजन से निवर्सना य वन् सर्वथा प्रकार से मिथ्या दर्शन शल्य से निवर्तना. और पारा प्रकार की भिक्षु पडिमा भी इस धर्म में हैं. इन दो प्रकार के विनय मूल धर्म से आठ कर्म की प्रकृतियों का तय कर जीव लोकान में स्थित होते हैं अर्थात् सिद्ध होते हैं ॥४१॥ तब थावर्चा पुत्रने मुदर्शन को पूछा कि अहो सुदर्शन ! तुम्हारे मत में धर्म का क्या मूल? अहो देवानु प्रिय ! हमारे मन में भूचि मूल धर्म है । यावत इस तरह शूचि करनेवाला वर्ग में जापाई ॥ ४२ ॥ तब थावर्चा पुत्र सुदर्शन को कहने लगे कि 10ो सुदर्शन ! जैसे ई पुरुष रुधिर से भरा वा वसा रुधिर से घोरे और इस तरह रूधिर में । - षष्टाङ्गदाताधर्मकथा का प्रथम भूतस्कन्ध AM सेलन राजर्षि का पांचवा अध्ययन * For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अनुवादक-कालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एगमहं रुहिरकयवत्थं रुहिरेण चेव धोएज्जा, ततेणं सुदंसणा तस्स रुहिर कयरस वत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालि जमाणस्स अस्थि सोही ? णो तिणटुं सम? ॥ एवामेव सुदंसणा तुम्भंपि पाणाइवाएणं जाय मिच्छादसणसल्लेणं णत्थिही जहा सस्स रुहिरकयवत्थस्स रुहिरेणंचेव पक्खालिजमाणस्स णत्थि साही ॥ सुदैसणा से जहा णामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिर कयवत्थं सजियखारेणं अणुलिंपइ २ त्ता पयणं अरुहेति उहं गाहेइ २ ता तओपच्छासुद्धणं वारिणा धोवेज सेणणं सुदंरुणा! तरस रुहिरकयवस्थरस सजियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं अरुहियरस उण्डं गाहियरस सद्धेणं बारिणा पक्खीलज्जमाणस्स सोही भवति? हंता भवति ॥ एवामेव सुदंसणा ! अम्हंपि पाणाइवाय वेरमणेणं जाव मिच्छादसण धोने से क्या उस वस्त्र की शुद्धि होवे ? यह अर्थ योग्य नहीं है, अर्थात् इस तरह शुद्धि नहीं होती है। जैस रुधिरवाला वस्त्र की शुद्धि रुधिर में धोने से नहीं होती है वैसे ही तम्हारे मत में प्राणातिपात यावत् मिथ्या दर्शन शल्य मे आत्मा की शुद्ध नहीं होती है. परंतु अहो सुदर्शन ! कोई पुरुष रुधिर से भरा हुवा क्व क्षारादि से लिप्त करे, चूले पर चढाकर ऊष्ण करे, फीर शुद्ध पानी से धाये तो उस वस्त्र की क्या बुद्धि होती है ? हां! इस तरह करने से उस की शुद्धि होती हैं. जैसे रुधिर मय बस्त्र की क्षारादि के लेपन कर शुद्ध पानी से धोने से शुद्धि होती है वैसे ही हम भी माणातिपात से निवर्तने से प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - षष्ठ अहाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंथ ' सल्लवेरमणेणं अस्थि सोही जहावि तस्स रुहिरकयस्स वस्थरस जाव सुद्धेणं वारिणा पक्स्वालिजमाणस्स अत्थि सोही ॥४३॥ तस्थणं से सदसणे संबुद्धे थायापुत्तं वंदति गमंसति २ त्ता एवं क्यासी-इच्छामिणं मंते ! धम्मं सोचा नाणित्तते जात्र समणो वासएजाते ॥ अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे विहरति ॥ ४४ ॥ तनेणं तस्स सुयस्स परिवायगस्स इमीसे कहाते लहटुस्स समणास्स अयमयरूवे जाव समुप्पजेत्था-एवं स्खल मुम्मोण सोय थम्म विष्पजहाय, विणयमूलं धम्मं पाडवन्ने त सेयं खलु मम सुंदसणस्स दिलि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवेत्तते त्तिकटु, यायत् मिथ्या दर्शन शल्य से निवर्तने से युद्ध होते हैं ॥ ४३ ॥ इस तरह उपदेश होने से सुदर्शन को ज्ञान हुचा और थावर्चा पुत्र को बंदना नमस्कार कर ऐसे बोले कि अहो भगवन् ! मैंने आपका धर्म श्रवणं किया यावत् वह श्रमणोपासक हवा. और जीवा जीव का सरूप जानता विचरने लगा ॥ ४४ ॥ उम भुक परिव्रजक को इस बात का मान होने से ऐसा विचार पुना कि सुदर्शनने आप। शूचिमूल धर्म छेडकर विनय मूल धर्म अंगीकार किया है. इस से मु.र्शन का विनय मूल धर्म का वमन कराके पन: शचि मूल धर्म अंगीकार करना मुझे श्रेय है. शेलग राजषि का पांचवा अध्ययन 424 १४ । For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी एवं संपेहेइ २ त्ता परिवायग सहस्सेणं सहि जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव परिवायगा वसहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवगच्छइत्ता, परिवायगा वसहसि भंडग निक्खेवं करेइ २ त्ता धाउरत्तवत्थपरिहिते पविरल परिब्बापा सहि संपरित्रुडे परिव्वायग वसहातो पडिनिक्खमइ २ त्ता सोगंधियाए णयरीए मझमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता ततेणं से सुदंसणे तं सुयं एजमाणं पासति २ ता नो अब्भुटेइ, नो पञ्चुगच्छइ, नो आढाइ णोपरियाणाइ णो वंदेइ, तुसिणीए संचिट्ठइ।।४७॥तत गं से सुए परिवायए सुदसणं अणुब्भुट्टियं पासित्ता __ एवं क्यासी-तुमणं सुदमणा अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता अब्भट्ठोसि जाव दास, मा पचार कर हजारों परिव्राजकों की साथ सौगंधि नगरी में जहां परिव्राजक की वसति थी माया. वहां अपने भंड पात्रादि रखकर गेरु के वस्त्र पहिन कर थोडे परिव्राजकों को साथ सौगंधिक नगरी के बीच में होता हुवा मुदर्शन के गृह आया. इस तरह शुभ परिव्राजक को आता हुवा देखकर में सुदर्शन शेठ खडे हुवे नहीं, उसकी सन्मुख गया नहीं, उनको आदर सत्कार किया नीं परंतु मौन रहा। तब वह शुक परिव्राजक सुदर्शन को इसतरह नहीं खड़ाहुवा देखकर ऐमा बोला कि अहो सुदर्शनातू अन्पदा : .एकामक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहापजी ज्यालामवादजी. .. For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ या सुणा तुमं मम एजमाणं पासिता जाव नो वंदसि तं कस्सणं तुमे सुदंसणा इमेयरूत्रे विणयमुले धम्मे पडणे ॥ ४५ ॥ तरणं सुदंसणे सुरणं परिव्द्रायणं एवं वृत्तंसमाणे आसागातो अब्भुट्ठेइ त्ता २ करयल सुयपरिवायगं, एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अरहतो अरिट्ठनेमिरुस अंतेवासी थावच्चापुत्तणामं अणगारे जात्र हमागते, इह नीलासोए उज्जाणे विहरति, तस्सण अंतिए विजयमूले धम्मं पडिवन्ने, ॥ ४६ ॥ ततेणं से सुए परिव्वाय सुदंसणं एवं बयासी --तं गच्छामोणं सुदंसणा ! तव धम्मायरियस्स थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो, इमाइचणं मुझे आता हुवा देखकर खडा होता था यावत् वंदन करता था परंतु अधुना मुझे आता हुआ देखकर यावत् दन नहीं करता है. तो अहो सुदर्शन क्या तैने विनय मूल धर्म अंगीकार किया है ॥ ४५ ॥ जत्र शुरु परिव्राजकने ऐसा कहा तब अपने आसन से उपस्थित हुवा और हाथ जोडकर शुक परिव्राजक को ऐसा बोला अहो देवानुप्रिय ! अरिहंत अरिष्ट नेमी के अंतेवासी थावच पुत्र नामके अणगार यहां आये हुत्रे हैं और यहां हो नीलाशोक उद्यान में विचर रहे हैं. उन की पास मैंने विनय मूल धर्म अंगीकार किया है || ४६ ॥ तंव शुरु परिव्राजक सुदर्शन को ऐना बोला कि अदर्शन चल अपनन षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 For Personal & Private Use Only 4- शेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन २५५ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 अनुविदेक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक एयारूबाई अट्ठाई हेऊई पसिनाइ कारणाई बागरणाई पुच्छ, मो, तं जइणं मेसे इयाइ अट्ठाइ जात्र वागरेति तेआणं अहं वंदामि णमंसामि, अहमे से इमाइ अटू इं जब नो से वागरेइ ताणं अहं एतसिं चेत्र अहिं हेऊ हैं निप्पट्ट पसिण वागरणं करिस्समि ॥ ४७ ॥ ततेणं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेणय सेट्टिणा सद्धिं जेणेव निलासाए उज्जाणे जेणेव थाना पुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ थावच्चा पुत्तं - एवं वयासी - जता ते मंते ! जवणिज्जं ते, अञ्वावपि ते, फासूयविहारपि ॥ ततेणं से थावच्चा पुत्ते सुएणं एवं वुत्ते समाणे सुर्यपरिव्वाययं एवं वयासी - नुया ! तेरे धर्माचार्य यावच पुत्र की पास जावे और उन को अर्थ, हेतु प्रश्न कारण व व्याकरण पूछेंगे. यदि वे मेरे इस प्रश्न का उत्तर देगे वा उन को वंदना, नमस्कार करूंगा. यदि वे मेरे प्रश्न यावत् व्याकरण का उत्तर नहीं देंगे तो मैं उन को अर्थ व हेतु से निरुत्तर प्रश्न रहित करूंगा ॥ ४७ ॥ अब वह शुक परिव्राजक अन्य हजारों परिवाजकों को लेकर सुदर्शन श्रेष्ठ की साथ नीलाशोक उद्यान में थावच पुत्र अनगार की पास आया और ऐसा बोला यहां भगवन् ! क्या तुम्हारे मत में यात्रा है ? यज्ञ हैं ? क्या { अव्यावाध है ? क्या फ्रासुक विहार है ? जब शुक परिवाजकने ऐसा कहा तव दिया कि अहो शुक ! हमारे मत पुत्रने उत्तर यात्रा भी है, यज्ञ भी है, अव्यावा भी हैवमुक (वहार भी है. For Personal & Private Use Only * नकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेव सायं ज्वाला मादजी ० २५६ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अर्थ षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रनर जत्ताविमे, जवणिजंपिमे, अवाबाहंपिमे, फायनिहारंपिभे ॥ ततेणं से पुए थावच्चा पुत्तं एवं वयासी से किंते भंते ! जत्ता ? य! जणं मम न ण दसण चरित्त तवसंजममाइएहिं जोएहिं जयणा से जत्ता ॥ सेकित भंते ! जणिज्जं ? सया ! जबणिज्जे दुविहे पण्णत्ते तजहा-इंदिय जाणिजेय णो इंदिय जवाणिजय ॥ सेकिंतं इंदियजवाणिज्ज ? सुया ! जण्णं ममं सोतइंदिय चक्खुइंदिय घाणिदिय, जिभिदिय, फासिदिए तं निरुवहयाति वासे वहृति, सेतं इंदियजवणिज्जे । सेकिंतं नो इदय जवणिजे ? सुया ! जणं कोहं मागं माया लोभे खीणा उवसंता नो से उदयंति, था अनगार को शुक परिव्राजकने पुनः प्रश्न किया कि अहो भगवन् ! तुम्हारे मत में यात्रा किसे कति ? अहो शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयपादि में यत्न करना वही हमारे मत में यात्रा है. अहा भगरन् ! आपके पत में यज्ञ किस तरह है ? अहो शुभ ! हमारे मत में यज्ञ के दो भेद कहे हैं तयथा-१ इन्द्रिय का यश और २ नोइन्द्रिय का यज्ञ. इस में से इन्द्रिय यन्झ किसे कहते हैं? अहो । शुक ! श्रोत्रन्द्रिय, चाइन्ट्रिय, प्रणेन्द्रिय, रमनेन्द्रिय व स्पर्शेन्द्रिय. ये पांचों इन्द्रियों निरुपहत किमी प्रकार के उपद्रव रहित प्रार्ते, उन्मार्ग में जावे नहीं सो इन्द्रिय का यज्ञ हमारे मत में कहा है. नोइन्द्रिय जिसे कहते हैं ? अहो. शुरु ! क्रोध, मान, भाया । लोभ वे उपशम भाव में होवे व उदय लग राजर्ष का पांचवा अध्ययन 4.98+ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुवादक- बाळब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋ से तं नोइदियजयणिजे ॥ सर्कितं भंते! अव्वावाह ? सुया ! जं ण्णं मम वालिय वित्तिय संभिय संन्निवाइय विविहारोगायका नो उदीरैति सेत अवाबाहं ॥ सेतिं भंते! फायविहारं ? सुया ! जणं आरामेसु, उज्जाणेसु, देवकुलेस, सभासु पन्त्रासु इत्थि सुडगवज्जियासु वसही पाडिहारियं पीढ फलग सेज्जा संथारयं उगिहताणं विरामि, सेतं फ. सुयं विहारं ॥ ४८ ॥ सरिसवा ते भंते ! किं भक्खया अभक्खेया ? सुया ! सरिसवया भक्वेयात्रि अभक्खयात्रि ? से केणटुणं भंते ! एवं वृच्चइ सरिसवया भक्वेयावि अभक्वेयात्रि ? सुया ! सरिसवया दुबिहा पण्णत्ता भाव में नहीं आये हुवे होवे मो नोइन्द्रिय का यज्ञ है. अहो भगवन् ! आपके मत में अव्यावाध किसे कहते हैं ? अहो शुक ! जो वात, पित्त, कफ, श्लेष्म व सन्निपातादि विविध प्रकार के रोगों उदय में नहीं आये हुये होवे उन को अव्यावाध कहते हैं. अहो भगवन् ! आपके मत में फ्रायुक बिहार किसे कहते हैं ? अहो बुक ! आराम, उद्यान, देवालय, सभा, पानी पीने की पो [प्रपा] अथवा स्त्री, पशु, पंडग रहित वसति में पाडियारा (ले आये पीछ दे ऐसा ) पटिये बाजोद, शैय्या व थरा ग्रहणकर विचार है यह हमारा फासुकं बिहार है ॥ ४८ ॥ अहो भगवन् ! आपके मत में सरिसब क्या मक्ष्य हैं या अभक्ष्य है ? भो For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाळाप्रसादजी ० २५८ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र 42 षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध तंजहा-मित्तसरिसत्रया, धण्ण सरिसवया, तत्थेणं जे ते मित्त सरिस वया ते तिविहा पण्णत्ता तंजह!-सहजायया, सहवड्या सहपंकीलियाय तेणं समणाणं णिगंथाणं अब्भक्खेया॥सत्थाणं जेधण्ण सरिसवा ते दुविहा पण्णत्ता,तंजहा सत्य परिणयाय, असत्थ परिणयाय, तत्थणं जेते असत्थ परिणयाय ते समणाणं जिग्गंथाणं अभक्खेया ॥ तत्थणं जेते सत्थ परिणया ते दुविहा पण्णत्ता तंजहा फासुगाय अफासुगाय,तत्थणं अफामुयाय सयानो भवखेया|तत्थणं जेते फासयाते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा जातियाए, अजातियाय, तत्थणं जेते अजातियाय ते अभक्खया ॥ शुक ! हमारे मन में सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है. अहो भगवन् ! किस काग्न से सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? अहो शुक ! सारमव के दो भेद कहे हैं.-१ मित्र सरिसव व २ धान्य सरिसव. इस में से मित्र सरिसव के तीन भेद कहे हैं-१ साथ जन्मे हुवे २ साथ ही वृद्धि पाये हुवे और ३ सथ ही धूलादि क्रीडा की हो. यह मित्र सरिसव श्रमण निर्ग्रन्थों को अभक्ष्य हैं. जो धान्य मरिमर हैं उम के दो मेद है-१ शस्त्र परिणत व २ शस्त्र परिणत रहित. जिस धान्य में * शस्त्र नहीं परिणमा है यह श्रमण निर्ग्रन्थों को अभक्ष्य है. जो शस्त्र परिणत है उस के दो भेद कह हैं११ फामुक और अफ्र'मुक. इस में से अफ्रासुक साधुओं को अभक्ष्य है. और फ्रासुक के दो मंद सेलग रान का पांचवा अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aamannanow का अनुवादक-बालवाचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + तत्यणं जे जाइया ते दुविहा पणत्ता तंजहा एसणिजाय, अणेसणिज्जाय, तत्थणं जते अणेसणिजाय ते अब्भक्खेया ॥ तत्थेणं जेते एसणिज्जा तेदुधिहा पण्णत्ता, तंजहा लहाय अलहाय, तत्थणं जेते अलहाज ते अक्खया ॥ तत्थणं जते लहा तेनिग्गंथाणं भक्खया।एएणं अटेणं सुया!एवं वुच्चइ सरिसवया भक्खेयाविअभक्खेयावि ॥४९॥ एवं कुलत्थाणि भाणियव्वा, णावर इमं णाणत्ते इत्थिकुलत्थाय धण्ण कुलत्थाय इत्थि कुलत्थाय तिविहः पण्णत्ता, तंजहा कुलबहुयाय, कुलमाउयाय, कुलधूया ॥ धण्णकुलत्था तहेव ॥ एवं मासावि, गवरं इमं नाणत्तं मासा तिविहा पण्णत्ता तंजहा कहे हैं याचना कर प्राप्त किया हुआ व विना याचा प्रप्त हुवा. इम में जो विनायाचाहुना होवे यह साधुओं को अभक्ष्य है और जो याच कर प्राप्त किया है उम के दो भेद पणि व अनेषणिक. इम ये से अंपनिक साधुओं को अभक्ष्य है और एवणिक के दो भेद प्रप्त और प्राप्त. इम में जो अप्राप्त है वह माधु को अभक्ष्य है और प्राप्त वस्तु साध को भक्ष्य है, इस लिग अहो शुक ! सरिमय भक्ष्य भी है। और अभक्ष्य भी है. ॥ ४२ ॥ जैसे सरिसब का कड़ा चैस ही कुत्थी का कहना. परंतु इस में कुलत्थी 70 के दो भेद स्त्री कुलत्थ व धन्य कुलत्य, इस नो कुलत्य के तीन भेद ? कुलवंत की बहु कुलम ता व कुलवंत पुत्री | Vऔर धन्य कुलत्थ का सरिसव जैसे कहना. ऐसे ई मास के प्रश्नोत्तर. इस में मास के तीन भेद ! काली • पकाशक राजाबहादूर लाला मुखवसहायजी ज्वाळापसादजी For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 २३१ 43 षष्टांग ज्ञाताधर्मस्या का प्रथम अतस्कन्ध 42 कालमासाय अत्थमासाय धण्णमाप्साय ॥ तत्थणं जेते काल मासा तेणे दुवालस विहा पण्णत्ता तंजहा सावणे भत्रे, असणे कत्तिए मगसिरे, पोसे, माहे, फग्गुणे, चित्ते, वेसाहे, जेडे असाढे, तणं अभक्खया, तत्थणं जेते अत्थमासा ते दुविहा पण्णत्ता, हिरण्णमा राय, सुवण्णमासाय , तेण अभक्खया, धण्णमासा तहेव ॥ ५० ॥ एगे मवं, दुरे भवं, अणेगेभवं अक्खएभवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं अणेग भूय भाव भविएविए भवं ? सुया ! एगेवि अहं दुवेवि अहं जाव अणेगभूयभावभावएविअहं ॥ से केण?णं भंते ! एगेवि अहं जाव ? मुया ! मास २ अर्थपास ३ व धान्य पास. इस में काल मास के बारह भेद जिन के नाम-श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मृगशर. पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ट, व अप.द. यह अभक्ष्य है अर्थ मास के दो भेद चांदी का मासा व सुवर्ण का मासा यह भी अभक्षा है मौर धान्य मास ( उडिद ) का सरिमा जैसे कहना. ॥ ५० ॥ प्रश्न-आप एक हैं, दा हैं, भनेक हैं, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है व अनेक भूतभावित क्या हैं ? अहो शुक ! में एक भी . दोभी हूं, यावत् अनेक भूत भाव भ वैर भी हूं. अहो भगान्! यह किस तरह आप कहते हो! अहो झुक! आत्म द्रव्य आश्रय मैं एक हूं ज्ञान दर्शन आश्रिा मैं दो हं. प्रदेश अाश्रिय अक्षय, अव्यय व अस्थित हूं सेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६२ ६वट्ठयाए एगे अहं,नाणदंसणट्टयाए दुवे अंह, पएसट्टयाए अक्खएविअहं, अन्वएवि अहं, अवट्ठिएवि अहं, उवउगट्ठयाए अणेगभूय भाव भविएवि अहं ॥५१॥ तत्थणं से सुए ! संबुद्धे थावच्चा पुत्तं वंदति नमसंति २ ता एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुभं अंतियं केवलि पण्णत्तं धम्मं णिसामित्तए, धम्मकहा भणियबा ॥ ५२ ॥ ततेणं से सयपरिवायए थावच्चापत्तस्स अतियं धम्मं सोच्चानिसम्म एवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! परिवायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुड देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पवइए ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया ! जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तिदंडयं जाव धाउरत्ताउय एगंते एडति सयमेव सिंह उप्पाडेति २ त्ता और उपयोग आश्रिय अनेक भूनभावित हूं॥५१॥ यहां वह शुरु प्रतिवोध पाया, और थावर्चा पुत्र अनगार को बंदमा नमस्कार कर बोला कि अहो भगवन् ! आप की पास से मैं धर्म का श्रवण करना चाहता हूं. तब थावर्चा पुत्र अणगारने धर्म कथा कही॥५२॥थावर्ची पुत्रकी पास धर्म श्रवण कर, शुक ऐमा बोले, अहो | भगवन! एक हजार परिव्राजकों की साथ आपकी पास मुंडित होकर दीक्षा अंगीकार करना मैं चाहता हूं अहो देवानुप्रिय ! तुम को जैसे मुख होवे वैसे करो. यावत् ईशानकून में जाकर त्रिदंड यावत् गेरूं रगित 15 वस्त्र को एकांत में डालकर सतः शिखा ( चोटी ) का लाच किया. और थावचा पुत्र अनगार की: अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी * • प्रकाशक-जावदूर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. wwwm For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwww पटाजज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध +91 जेणेव थावच्चा पुने जाव मुंडे भवित्ता जाव पवइए ॥ सामाइय माइयाइ चोद्दस पुवाइ अहिज्जइ॥५३॥ततेणं थावच्चापुत्वे सुयस्स अणगारसहस्स सीसत्साए विहरइ॥५४॥ ततेणं थावच्चापुत्ते सोगंधिया नयरीए नीलासोयाओ उजाणाओ पडिनिक्खमइ २ ता बहिया जणवय विहारं विहरइ ॥ ततेां से थावचा पुत्तं अणगार सहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पन्वते तेणेव उवागच्छइ पुंडरीयं पव्वयं सणियर दुरुहति २त्ता मेघघणसन्नियासं देवसन्निवायं पुढविजाव पाउवगम र समणुषण्णे ॥ ततेणं से थावश्चा पुत्ते णाम अणगारे बहणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए पास मुंडित हुवा. सामायिकादि चौदह पूर्व का अध्ययन किया ॥ ५३॥ फीर थावर्चा पुष अनगार शुरु अनगार के माथ दीक्षा लेनेवाले एक हजार साधुओं को उन के शिष्य बनाकर विचरने लगे ॥५४॥ 'नत्यश्चत् थावर्चा पुत्र सौगंधिक नगरी में से निकलकर बाहिर जनपद में विहार मे विचरने लगे ॥ ५६ तत्पश्चात् वह थावर्चा पुत्र अनगार एक हमार साधुओं सहित पुंडरीक पर्वत पर शनैः चढकर घनमेष सपान कृष्ण वर्णवाली पृथ्वी शिलापट्ट पर पादोपगमन संथारा अंगीकार किया. वहाँ पर थार्चा पुत्रने बहुन वर्ष मंयम पालकर एक मास की संडेखना से साठ भक्त अनशन का छेदन कर यावत् केवल हामी + सेलन राजर्षि का पांचवा अध्ययन 41 ११ For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE २६४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मान श्री अपाळक ऋापना सर्द्धि भत्ताई अणसणाए जाय केबलवरणाण दंसण समुप्पाडित्ता ततो पच्छा सिद्धे जाव सव्व दुक्ख पहीण ॥ ५५ ॥ ततेणं से सुए अण्णया कयाइ जेणेव सेलगपुरनगरे जेणेव सुभूमिमाए उज्जाणे समोसरिए ॥ परिसा जिग्गया, सेलओ णिगाच्छा, धम्म सोच्चा जं गवरं देवाणुप्पिया ! पंथग पामोक्खाइ पंचमंति सयाति आपुच्छामि मंडयंच कुमारं रजे ठावेमि, ततो पच्छा देवाणुप्पियाणं मुंडे भवित्ता, अगारातो अणगारियं पञ्चयामि ॥ अहासुहं ॥ ५६ ॥ ततेणं से सेलगराया सेलगपुरं नगरं अणुपविसइ २ जणेव सएगिहे जेमेव बाहिरिया दर्शन प्राप्त किया. तत्पश्च न घे सिद्ध हुये यावत् सब दुःखों से रहित बने ॥ ५५ ॥ अब शुक अनगार एकदा शेलग पुर नगर में सुभूमि भाग उद्यान में पधारे. परिषदा आई. शेलग राजा भी दर्शन करनेको। निकले धर्म श्रषण किया. और कहा कि अहो देवानप्रिय ! मैं मेरे पांच सो मंत्री को पुछकर मंडुच कुमार को राज्याभिषेक करके आपको पाम मुंडन बनकर गृहवास मे साधुपना अंगीकार करूंगा. अहो। देवानुप्रिय ? जो मुख होवे वैसे करो ॥ ५६ ॥ अव यह शेळग राजा शेलगपुर नगर में प्रवेश कर अपने स्थान गया. यहाँ बाहिर की उपस्थान शाला में आकर सिंहासन पर बैठा. उनोंने यहां पांच सा ० प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदरमहायजी ज्वालाप्रसादाजी. For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहाड्रातार्धपकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 41 उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागइच्छत्ता सौहासणसनिसने ॥ ततेणं से सेलगराया पंथय पामोक्खाणं पंचमंतिसए सहावेति २ चा एवं प्रयासीएवं खलु देवाणुप्पियामिए मयस्स अंतिए धम्मे निसं सेवियमे धम्मे इच्छिए पडिइपिछए अभिरूईए तएणं अहं देवाणुप्पिया ! संसार भउविग्गे जाव पचयामि, तुब्भेमं वाणुप्पिया ! किं करेह, किं बसए, किं पातेहियइछिए सामस्थे ॥५॥ ततेणं से पंथय पामोक्खा संलयरायं एवं बयासी-जइणं सुम्भे देवाणुप्पिया ! संसार जाव पत्रयह, अम्हेणं देवाणुप्पिया ! कि भन्ने आहारेवा, आलंधवा, अम्हेवियणं देवाणुपिया ! संसारभउबिग्ग जाव पम्बयामो, जहाणे देवाणुप्पिषा ! मंधियो को पोलाकर ऐसा कहा कि मैंने एक अनगार की पास से धर्म श्रवण किया है. यही धर्म मैंने इच्छा है इस की मुझे अभिरूचि हुई है. अहो देवानुप्रिय ! इम से मैं संसार भप से उदिन बना हुआ दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवानप्रिय! तुम क्या करोगे, कसं रोग व तुम्हारे हृदय में क्या ॥ तत्र वे पथक प्रमुख ..पांचसो मंत्रियों बोलने लगे कि अहो देवानुगिय ! जब आपही दीक्षा लेते हैं तो हम को अन्य वि.स का आधर पा अवलम्बन है. अहो देवान प्रिय ! हम भी संसार भय से उद्विय बने + सेलग राजर्षि का पांचवा अश्ययन : 428 । For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक-ह्मचारीमुनि श्री अपो क ऋषिजी अहं बहुमुकजेसुय कारणेसुय जाव ताणं पव्वइयाणवि समणाणं बहुसु जात्र चत्र ॥ ५८ ॥ ततेणं से सेलगे राया पंथग पामोक्खाणं पंचमंतिसए एवं बयासीजणं देवापिया ! तुब्भे संसार भउग्गिा जाव पव्वयह, तंगच्छहणं देवाणुपिया ! ससु २ कुटुंबसु जेट्ठपुत्ते कोटुंबमज्झेदृवेत्ता पुरिससहरसवाहिणीयाओ सयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवह ॥ ५९ ॥ तेवि तहेब पाउन्भवती ॥ ६० ॥ ततणं से सेलएराया पंचमंतिसयाई पाउब्भवमाणाई पासइ २त्ता हट्ट तुट्टे कोटुंबिय पुरिसे सद्द।बेइ २त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुनिया ! मड्डयरस कुमारस्स महत्थे { हुए यावत् दीक्षा लेंगे. जैसे संसार के बहुत कार्यों मे कारणों में हम मंत्री थे वैसे ही बहुत श्रमणों के कार्यों में यावत् हम आप को चक्षुभूत होंगे ॥ ५८ ॥ तब सेलगराजा पंथक प्रमुख पांच सों मंत्रियों को ऐसा कहने लगा कि अहो देवानुप्रिय ! जब तुम संसार भय से उद्विन बने हुये यावत् दीक्षा लेते हीं तो अहो देवानुप्रिय ! तुम अपने गृह जावो, जेष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापकर सहस्र पुरुष वाहिनी शिविका पर बैठकर मेरी पास आवो ॥ ५९ ॥ वे पांच सो मंत्रियों वैसे ही करके वहां आगये ॥ ६० ॥ अब वह बेलग राजा पांच सौ मंत्रियों को आये हुवे देखकर द्रष्ट तुष्ट हुआ और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर ऐसा कहा कि अहो देवानुमिय ! मंडुक्क कुमार का राज्याभिषेक शीघ्रमेव तैयार करो यावत् वह राजा For Personal & Private Use Only राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादी • २३३ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 २६७ + पष्टाङ्ग बातमधर्मकथा का प्रथम शुवस्कंध 43+ जाव रायाभिसेयं उबटुवेह २ अभिसिंचंति जाव गयाजाए, जाव विहरति ॥६१॥ ततेणं से सेलएराया मड्यरायं अपुछह,॥तएणं से महएराया कोटुंबिय पुरिसे सद्दावेति. २ ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो सेलगपुरं नगर आसिय जाव गंधवटिभुय करेह कारवेह एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ ततेणं से महुएराया दोच्चंपि कोटुबिय पुरिसे सहावेइ २त्ता एवं व्यासी-विप्पामेव सेलगरसरण्णो महत्यं जाव निक्खमणांभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव णवरं पउमावतीदेवी अग्गकेसे पडिच्छइ, सच्चवि पडिग्गहं गहाय सीयं दुरूहंति, अवसेसं तहेव जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई घनकर विचरने लगे ॥ ६१ ॥ फीर सेलग राजाने मंदुक राजा को दीक्षा के लिये पूछा. मंडक राजाने कौटुम्बक पुरुषों को बोलाकर कहा कि अहो देवानुपिय ! शेलगपुर नगर को स्वच्छ कर सुगंधित बनायो और मुझे मेरी भाज्ञः पीछी दो. पुनः मंडुक राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि शेलग राजा के लिये वडा बहुत मूल्यबाला दीक्षा का उत्सव करो. इम का सब वर्णन मेघकुमार जैसे जानना. पद्म पती देवीने अग्रकेश ग्रहण किये. वही पात्र लेकर शिविका में बैठी. शेष सब पूर्वोक्त है यावत् स पायिकादि अग्यारह अंग का अध्यया करके बहुत चतुर्थ भक्त यावत् तप मंयम से आत्माको भावते हुने सेलग रान.र्षे का पांचवा अध्ययन - Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी र अहिजइ बहुहिं चउरा जाव विहरति ॥ ६२ ॥ ततेणं से कुए मेलयस्त अणगारस्स ताई पंथय पामोक्खाई पंचअणगारमयाति सीसत्ताए वियरइ ॥ ६३ ॥ ततणं से सुए अणगारे अण्णयाकयाइ सेलएपुरतो सुभुमिभाग्गओ उजाणाभो पणि. स्खामति पडिणिक्खमित्ता वहिया जगवयाविहारविहग्इ ॥ ततेणं से सुए अणगारे अन्नयाकयाइ तणं अणगारसहस्सेणसद्धिं संपरिबुडे पुवणुपुविचरमाणे गामाणुगामविहरमाणे जेगेव पुंडरिएपवए जाव सिद्धे ॥ ६४ ॥ ततेणं तस्स सेलगस्स रायरिंसिरम तेहिं अंतेहिय पंतेहिय तुछेहिय लुहहिय अरसेहिय विरसेहिय सीएहिय उण्हेहिय कालायकतेहिय पमाणइकतेहिय मिच्चंचपाण भोयणेहिय । विचरने लगे ॥ ६२ ॥ शुक अनगारने पंथक प्रमुख पांच सो साधुओं शैलगअन्गार को शिष्यपने दिथे ॥ १३ ॥ अब वह शु अनगार एकदा एक हजार अनगार की साथ परिवरे हुवे ग्रामनिग्रांप चलता पुंडरीक पर्वत पर गये यावत वहां सिद्ध हुरे ॥ ६४ ॥ तब सेलग राजर्षि अंत, मान, तुच्छ, रुक्ष, अरम विरस, शीन, ऊष्ण, कालोतिकान्त, व प्रमाणातिकान्त पान व भोजन नित्य करने मे उस मुकुपाल नियमसर नहीं मिलने से. २ अल्प या आधिक आहार, •प्रक शकराजावह दुलाला सुखदेवसायजी ज्यालापमानी. अर्थ - अनुवादक For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पष्टाङ्ग ज्ञाताधरया का प्रथम श्रमस्कन्ध पत्र पइय सुकुमालस्सय सुहोचियरस सरीरंगसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव दुरहियासा,कंडुपदाह पित्तजर परिगय सरीरेयावि विहरति॥ततेण से सेलए रायरिसी तेणं रोयायंकेणं सुक्के किसे जाएयावि होत्था ॥ ६५ ॥ ततेणं सलए रायरिसी अन्नयाकयाई पुवाणुपुचि घरमाणे जाब जेणेव मूभूमिभागे जाव विहति ॥ ६६ ॥ परिसा निग्गया महुओविराया निग्गओ, सेलगंअणगारं वंदइजाव पज्जुवांसइ ॥६॥ ततेणं से मडुए राया सेलगस्स अणगाररस सरीरयं सुकंभुक्खलुक्खं जाव सव्वावाहं सरोगं पासति २ ता एवं वयासी अहणं भंते ! तुभं अहापवितेहिं तिगिछिएहिं अहापवत्तेणं प्रकृनाले शेला राजर्षि सुकुगल हुवा शरीर में वेदना उत्पन्न हुई. यह वेदना उज्जल यावत् सहन नहीं हो सके ती थी. इस तरह की दाहजरवाली वेदना सहित शेलग राजर्षि विचरने लगे. तब वह शेलग राजर्षि उस राग कर शुष्क व दुर्बल शरीरवाले हुए॥६५॥वह शेलग गजाप पूर्वानुपूर्वि चलते ग्रामानुग्राम विचरते शेलग पुर के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे॥६६॥परिषदा वंदन करने को आई. मंडुक राजा भी वंदन करने को आये वह लग अनगार को वंदना नमस्कार यावत् पर्युपासना करने लग॥६७||अब शुष्क यारत् व्याधि से परिपूर्ण रोगिष्ट शेलग अनगार का शरीर देखकर वह मंडुक राजा बोले अहो भगवन् ! मैं आपके आचार को । सलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अनुवादक-अलब्रह्मचारी मुनि श्री भोलक * . उसहभेजए भसपाणेणं तेगिच्छं आउद्दावमि, तुन्भेणं भंते ! मम जाणसाल सु समासरहे, फासुए एसणिज पढि फलग सेजा संथारयं उगिण्हित्ताणं विहरह । ततेणं से सेलए अणगारे मंड्डयस्सरण्णो एयमटुं तहति पाडसुइ ॥ तएणं से मड्डय राया सेलए वंदति नमसंति वंदित्ता णमंसित्ता जामेवदिसिं पाउब्भूए तामेवदिसिं पडिगए ॥ ६९ ॥ ततेणं से सेलए कल्लं जाव जलंते सभंडमतोक्करण मायाए पंथय पामोक्खेहि पंचहिंअणगारसएहिं सद्धिं सेलगपुरमणुपविसति २त्ता जेणेव मड्डयस्सरण्णो जाणसालाओ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता फासुयं पीढ जाव विहरइ ॥७०॥ ततेणं से मड्डुए राया तिगिच्छए सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी तुब्भेणं देवाणुप्पिया!सेलयस्स रायरिसीयोग्य चिकित्सा से व यथायोग्य औषध. भैषज्य, भक्त पान से आपकी चिकित्मा करावू. आप मेरी यानशाला में पधारो और वहां पर ही फ्रासुक एषणिक पीढ, फलक, शैय्या, संथारा ग्रहण कर विचरो. उन शेलग राजर्षिने उन का हितकर कथनका स्वीकार किया॥६८॥ मंडुक राजा शेलग अनगार को वंदना नमस्कार कर अपने स्थान पीछा गया ॥ ६९ ॥ दूसरे दिन शेलग राजर्षि पंथक प्रमुख पांच सो शिष्यों सहित शेलग पुर में प्रवेश किया. और बंदुक राजा की यानशाला में फ्रास्क पीठ, फला वगैरह ग्रहण कर विचरने लग ॥ ७० ॥ मंडक राजाने चिकित्सों को (वैचों को) बुलवाकर कहा कि अहो देवानुपिय ! ० प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ० For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पष्ट बताताधकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 4361 स्स फासुएसणिजेणं जाव तिगिच्छं आउटेह॥७-१॥ततेणं तिगिछिया मंडुएणरण्णा एवं . वुत्ता समाणा हट्ट तुट्ठा, सेलयस्स रायरिसीस्स आहापवित्तहि औसह भेसज्जेण भत्तपाणेहिं तिगिच्छं आउंटइ, मज्जपाणयंच से उवदिसंति ॥७२॥ततेणं तस्स सेलयस्स आहापवि. त्तिहिं जाव मजपाणएणं सेरोगायके उवसतेयावि होत्या, हटे जाव बलिए सरीर जाते ववगयरोगायके ॥ ७३ ॥ ततेणं से सेलए तंसि रोयायकसि उवसंतसि समाणांस तंसि विउल असणं पाणं खाइमं साइमं मजपाणएय मुच्छिए गढिए गिछे शेळग अनमार की मासुक एषणिक औषधियों से थावद चिकित्सा करो ॥ ७७॥ मंदुक राजा के ऐसे कहने पर चिकित्सकों बहुत इष्ट तुष्ट हुए और शेलग अनगार की यथायोग्य औषधि, भैषज्य, भक्त पानसे चिकित्सा करने लगे और मद्यपान करने का कहा ॥७२॥ यथा योग्य और औषधोपचार यावत् मद्यपान से उन शेलगराजर्षि का रोगउपशांत हुवा. शरीर हृष्ठ तुष्ट यावत् रोग रहित हुवा ॥७३॥ रन का रोग उपशांत होने पर भी विपुल अशन, पान, खादिम व स्वादिम व मद्यपान में मूच्छित,गद होकर पार्श्वस्थ, पार्थस्थहिवारी १ मद्यपान से मदिरा प्रासनकी ऐसा ग्रहण करना नहीं क्योंकी उन को साधुके योग्य उपचार करनेका इसमें कथन है। और साधु मादिरा के त्यागी होते हैं इस से यहां नशा उत्पन्न होने बैंसी कोई बस्तु जानना चाहिये. + सेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अज्झोव वने पास थे पासत्थविहारी; एवं उसने कुसीले पमचे संसते संसत विहारी, उउवलद्ध पीढ फलग सेज्जा संथारए पमत्तेवावि विहरइ, नो संचाएइ फासुएसणिज्जं पीढ फलग पञ्चपिणित्ता मंडुयंचरायं आपुछेत्ता बहिया जणवय विहारं विश्व ॥ ४ ॥ ततेणंतेसिपंथग वज्जाणं पचण्ह अणगारसयाणं अन्नयाकयाइ एगयओसहियाणं जाव पुध्वरत्तावरप्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणेणं अयमंयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जेत्था, एवं खलु सेलएरायरिसी चइत्ता रजं जाब पव्वतिए जाव बिहरितए, नो खलु कप्पइ देवाणुपिया ! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरिसए, तं प्रतिक्रमणादि क्रिया रहित स्थिल बनकर विचरने वाले हुवे इस तरह पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त संसक्त { बनकर जो पीढ फलगादि प्राप्त हुए थे उस में प्रमादि बने विचरने लगे. परंतु फ्राक एषणिक पीढ ( फलागादि को पीछेदिये नहीं व मंडक राजा को पुछकर बाहिर जन प्रदेश में विचरने नहीं लगे ॥ ७४ ॥ अब पंथक छोडकर शेष ४९९ साधुओंने एकत्रित होकर यावत् अर्ध रात्रि व्यतीत होते धर्म जागरणा करते ऐसा विचार किया कि शेलग राजर्षि राज्य छोडकर नवजित हुए हैं परंतु विपुल अशन, पान, स्वादिम स्वादिम व मद्यपान में मूच्छित हुए हैं और विहार करने में समर्थ नहीं हैं. अहो देवानुप्रिय ! श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रमादिपने विचरना नहीं कल्पता है. इस से अहो देवानुप्रिय ! कल शेलगराजर्षि For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजाबहादुर लाळा सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ● २७२ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwinnamommom~ २७३ पष्ठान हातापर्पकथा का प्रथम श्रुतस्ध Rin सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अहं कल्लं सेलएरापरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफगलसिमायारगं पञ्चप्पिणित्ता सेलगस्त अगगाररस पंथएअणगार वेयावच्चं करंटुवेत्ता वहिया अन्भजएणं जाव विहरित्तए, एवं संपेहेति २ त्ता कल्लं जेणेव सेलग रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ जाव पञ्चप्पिणंति २ त्ता पंथयंअणगारं वेयावच्चकर वेति २त्ता वहिया जाव विहरति॥७५॥ततेण सैपथए संलयस्स रायरिसिंस्स सेजा संथार उच्चारषासवणखलसिंघाण, मज आसहभसज्ज भत्तपागएणं अगिलाए विणरण । वेयावडियं करोत ॥ ७६ ॥ ततेणं सलए रायरिसी अन्नयाकय इकत्तिय चउम्मासियंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहार माहारिए सुबहुंच मजाणपिए पुया- 4 को पुछकर पडियारे पद, बाजोट को पीछे देकर पंथक अनगार को सेला अनगार की वैश्यावृत्य के लिये रखकर अपन बाहिर विवरें. ऐमा विनार कर प्रता:काल होते शेलग राजर्षि को पुछकर पडेबारा पाट, पाटले बाजोट वगैरह पीछे देकर पंथ अनगार को वैश्यावृत्य के लिगे रख कर बाहिर पिचरने लग. ॥७॥ अब पंथक अनगार शेलग राजर्षि की शैय्या, संथारा, उच्चार, प्रसनण, श्लेष्म, नाक-का मद्य, औषध, भैपध, भक्तपान की अग्लानपने वैश्यावृत्य करने लग. ॥ ७॥ शेलग राजकिदा कार्तिक चतुमांमी के दिन अशन,पान, खादिम व सादिम का आहार का बहुत मद्यपान कर के पहिली की + सेलग राजर्षि का पांचा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरी मन श्री अमोलक ऋषीजी में वरण्ह कालसमयंसि सहप्पसत्ते ॥ ७७ ॥ ततेणं सेपंथए कत्तियं चाउमस्तियांस कयकाउसग्गे,देवसिय पडिकममाणं पडिक्कते, चउमासियं पडिक्कमि उकामे,सेलयं रायरिसिं खामणट्टयाए सीसेणं पाएसु संघदृइ ।। ७८ ॥ ततणं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसु संघट्टिएसमाण आसुरत्ते जाव मिसिमि से माणे उट्टेति २ एवं वयासी-से केसणं भी एस अपत्थिय पत्थिए जाव वजिए, जेणं ममं सुहप्प पुत्तं पाए संघट्टेति ॥७९॥ ततेणं से पंचए अणगारे सेलएणं एवंवृत्त समाणे भीए तत्थे तसिए करयलकदृ एवं वयासी अहणं भंते! पंथए कयका उसग्ग देवसियं पडिकंते चाउमासियं पडिकमिउक्कामे,चउमासियं खामेमाणे है .प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी रात्रिमें सुख से मोने हवे थे.॥७॥ अब उस पंथक अननारने कार्तिक चतुमांस का कायोत्सर्ग सहित देवसी प्रतिक्रमण करके चतमाजिक पमिक्रमण का कामी बनावा शलग राजर्षि को क्षमासमण देने को अपने मस्तक से उन के पांव को वर्षना किया ॥ ७८ ॥ पंथक शिष्यने इस तरह संघर्षण किया जिस से वह शेलग राजा . आसुरक्त यावत् मिमिसायमान होता हुवा बोलने लगा कि अप्रार्थित का (मृत्यु) की प्रार्थना करने वाला यावहिरी श्रीवनित ऐसा कौन है कि निमने मुझे सुख से सोते हुवे को मेरे पाव को संघर्षणा की! ॥७॥ शेलगराजा के एने कहने पर वह पंथा भय भीत हुग त्रासपाया व दोनों हाथ जोडकर ऐसा बोला. अहोई भगवन् ! मैं पंथक हूं, मैंदे कायोत्सर्ग करके देवसी प्रतिक्रमण किये पीछे चतुपातिक प्रतिक्रमण का स Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 २७५ + षष्ठाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध 44 . देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं गएस संघमि तं खमं तुम देवाणप्पिया ! णाति भुजो२एवं करण याए त्तिकटु, सेलयंअणगारं. एमयटुं सम्म विणएणं भुजो२ खामेइ॥८॥ततेणं, तस्स सेल यस्स रायरिसिस्म पंथएणं एव बुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं रजच जाव ओसणं जावउउवद्धपीढ विहरामि तं नो खलु कप्पति . समणाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए तं सेयं खलु मे कल्लं मड्डयरायं आपुछित्ता पाडिहारियं पीढ फलग सेजा सथारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारणसद्धिं वहिया अब्भुजएणं जाव जणवय विहारणं विहरित्तए एवं संपहिति २ त्ता कलं जाव विहरति बना हुवा आप के पांच को वंदना करते हुये, संधर्षणा की. इस से अहो देवानुप्रिय ! इस की मुझे क्षमा करो, मैं अब ऐमा नहीं करूंगा. इस तरह सम्यक् प्रकार से विनय पूर्वक शेलग अनगार को खमाया.॥८॥ पंथक शिष्य के एना कहने पर शला राजर्षि को एमा अध्यवसाय वा कि मैंने राज्य त्याग करके या दीक्षा अंगाकार कर अब सरस आहार में गृद्ध बनकर यावत् सुष्टु क्रिया का त्यागकर रोग रहित प्रमादी । हे कर विचरता हूं. परंतु साधु को इस तरह प्रमादी बनकर विचरना नहीं कराता है. इस से कल . भात में सूर्योदय होत पंहुक राजा को पुछकर पाडियार पीढ. फलग शैय्या संथारा पीछा देकर पंथक अनगार की साथ उद्यम करके बाहिर जनपद देशमें विहार करना मुझे श्रेय है. यों विचारकर दूसरे दिन उसी तरह सलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4038 For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि ॥ ८१ ॥ एवमेत्र समणाउसो ! जात्र णिग्गंत्योवा जिग्गित्थिवा ओस जान संथारए पमते विहरति सेणं इहलोए चैत्र बहुणं समणाणं समणीणं हीलणिजे संसारो भाणियन्त्रो ॥८२॥ तणं ते पंथगवजा पंच प्रणगारसया इमीसे कहाए लडट्ठा समाणा अन्नमन्नं सहावेति २त्ता एवं वयासी-सेलएरायरिसी पंथरण बहिया जात्र विहरति त सेयं खलु देवाप्पिया! अहं सेलयं रायरिसी उवसंपजित्ताणं विहरित्तए | एवं संपेह२ त्ता सेलराय शिसं उवसंपज्जित्ताणं विहरति ॥ ८३ ॥ तंतणं ते सेलयं पामोक्खाए पंचअणगारसया बहुणिवासाणि समण परियागं पाउणित्ता, जेणेव पुंडरिएन्ए { सब करके यावत् विचरने लगे. ॥८१॥ अहो अ युष्मान् श्रमणों! वैसेही हमारे कोई साधु साध्वी पार्श्वस्थपने यावत् था में प्रसादी बनकर विचरेंगे ने इसलोक में बहुत साघु आदि चारों संघ में हीलना, निंदा, खिंचना को प्राप हावेंगे यावत् मंसार में परिभ्रमण करेंगे ॥ ८२ ॥ पंथक सिवाय अन्य ४९९ साधुओं को ऐसा मालुम हुवा कि शेलगराज पं बाहिर विचरने लगे हैं तब उन सबने परस्पर मिलकर ऐसा कहा कि अपन को शेलग राजर्षि की आशा में जाकर रहना चाहिये. फोर वे सब शेलगराजर्षि की पास जाकर उन की साथ उन की आज्ञा में विचरने लगे ॥ ८३ ॥ तत्र लग राजर्षि प्रमुख पांच सो अनगारों बहुत वर्ष पर्यंत साधु की पर्याय पालकर यादव पुत्र अनगार जैसे पुंडरीक पर्वत ( शेडुंजय) पर सिद्ध हुने For Personal & Private Use Only ) प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदेव सहायजी ज्वाला प्रसादजी • २७६ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E अर्थ 488+ षष्ठाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतसंध तेणेव उवागच्छइ २ सा जत्र थावच्चापुत्ते अणगारे तहेव सिद्धा ॥ ८४ ॥ एवमे समणाउसो ! जोनिग्गंथोवा णिग्गंथीवा जाब बिहरिस्सति ॥ ८५ ॥ एवं खलु अंबु ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पन्नन्त ॥ तिमि || पंचमं नायज्झयणं सम्मतं ॥ ५ ॥ गाथा ॥ सिढलिय संजम, कज्जावि होइउं उज्जमंति ॥ जइ पच्छा संवेगाओ || तेसेलओन्त्र आराहवा होइ ॥ १ ॥ ॥ ८४ ॥ इसी तरह जो साधु अथवा साधी प्रमाद रहित विचरते हैं वे इस लोक में चारों तीर्थ के पूज्यनीय होते हैं और परलोक में सिद्ध बुद्ध होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं ॥ ८५ ॥ भगवान श्री महावीर स्वामीने झाता सूत्र के पांचवा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा. अहो जम्बू ! भ्रमण यह पांचवा अध्ययन संपूर्ण वा ॥ ५ ॥ उपसंहार - संयम कार्य में शिथिल बनकर भी पीछे से वैराग्य से उद्यमवन्त होते हैं। वे साधु शेलग राजर्षि समान आराधक होते हैं. मोक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥ इति पांचवा अध्याय समाप्तम् ॥ * For Personal & Private Use Only +-- शेलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 428+ २७७ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4- अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ॥ षष्ठम अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया अयमट्ठे पन्नचे, छट्टरसणं भंते संपेतेण के अट्ठे पन्नंते ? ॥ रायगिहे णामं नयरे होत्था, महावीरेणं जाब संपत्तेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव ॥ एवं खलु जंबु । तेणं कालेणं तेणं समएणं तत्थणं रायगियरे सेजिएणामरायाहोत्था, तत्थणं रायगिहरुस बहिया उत्तरपुरिच्छिमदिसीभाए एत्थणं गुणसिलएणामं चेइए होत्था ॥२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुन्त्राणु पुत्रि चरमाणे जाव जेणेव रायगिणयरे जेणेव गुणसिलए चेइए. तेणेव समोसढे, अहा पडिरूवं अहो भगवन् ! श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथासूत्र के पांचवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो छठा अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ॥१॥ अहो गौतम ! उस काल उस समय में राजगृह नाम का नगर था. उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का राजा था. उस राजगृह नगर की ईशानकून { में गुणशील नाम का उद्यान था. ॥ २ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामः नुग्राम विचरते राजगृह, मगर के गुणशील उद्यान में पधारे वहां यथा प्रतिरूप For Personal & Private Use Only • प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ० २७८ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 488+- षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 418+ उगाई उग्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहङ्ग || परिसाणिग्गया, सेणिओ विणिग्गओ, धम्मकहिओ, परिसापडिगया, ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभुइणामंअणगारे अदूर सामंते जाव सुक्कज्झाणो गए बिरइ ॥ ४ ॥ ततेणं से इंदभूई जाएसड्डे एवं वयासी - कह भंते! जीवा गरुयचंवा लहुयतंत्रा इल्वमागच्छति ? गोयमा 1 से जहा नामए केइ पुरिसे एगंमहंसुकं बणिच्छिदं णिरुवहए दम्भेहिये कुसेहिय वेढेइ २ चामट्टिया लेवेणं लिपतिरत्ता उन्हं दलयति २ चा सुक्कंसमाणं दोचंपि दव्भेहिय कुसेहिय बढेति २त्ता, मट्टिया अवग्रह याचकर संयम व सप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. परिषदा आई श्रेणिकराजा भी आया. धर्म कथा सुनाइ, परिषदा पीछीगई || ३ || उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महाबार स्वामी के ज्येष्ट अंतेवासी इन्द्रभूति अनगार भगवंत के पास में यावत् शुक्त ध्यानसहित विचर रहेथे { ॥ ४ ॥ इन्द्रभूति अनगार को शंका यावत् श्रद्धा उत्पन्न होने से ऐसा प्रश्न किया कि अहो भगवन् जीव गुरुत्व व लघुल ( भारीपने व हलके पने को ) कैसे प्राप्त करता ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष छिद्र रहित किसी सूके हुने बढे तुम्बवे को दर्भ व कुश से बांटे ( लपेटे ) फीर उसे मिट्टि के लिन करें और ताप में सूकात्रे, फोर उसे दूसरी बार दर्भ व कुश से लेपेट और मिट्टि का लेप लगाने, फीर For Personal & Private Use Only 49498+ तुम्ब का छठा अध्ययन 446++ २७१ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - लवणं लिंपइति, २त्ता उण्हं सुकं समाणे, तच्चपि दम्भेहिय कुसहिय वदति, महिया लेवेणं लिंपलि, एवं खलु एएणुवाएगं अंतर। बेढमाणे अंतरा लिंपेमाण अंतरासु. क्खमाणे जाव अट्ठ हिं मष्टिया लेबेहिं आलिंपइ, अस्थ हसि मतारगंसिअप.रम पारिसियं उदगंसि पक्खियेजा सणूण गोयमा ! से तुंब तेर्सि अट्टण्हं मटियालेवणं गुरुययाए भारियाए गुरूयभारिययाए उपि सलिलमइवतित्ता अहेधरणियलं पइट्ठाणे भवति ॥ एवामेव गोयमा। जीवावि पाणाइ वाएणं जाव मिग्छादसणसंलणं अणुपुत्रेणं अट्ठकम्मं पगडिओ समजिणित्ता,तासिं गुरुयात्ताए भारिययाए, गरुय भारियाए कालमासेकालकिच्चा धरणियलमवित्तत्ता अहे नरगतलं पइट्ठाणा भवति ॥ उसे ताप में सूकावे और तीसरी वक्त दर्भ व कुश से विंटकर मिट्टी का लेप लगावे यो पाठ बार दर्भव कुश से लपेट कर पिट्टी के लेप लगया कर और प्रत्येक लेप करके धूप में सकावे करना तीर सके अगाध पानी में उसे ढाले. अहो गौतम ! उस आठ लेम के भार से वा तुम्बा पानी में डालने से नीये जमीन पर जाकर ठहरता है, अहो गौतम ! ऐसे ही प्राण तिपात यावत् मिथ्या दर्शनशल्य से जी आठ कर्म प्रकृतियों एकत्रित करके उस की गुरुता के भार से काल के अवसर में काल करके : तल को व्यतीक्रांत करके नीचे नरक सल में नाकर रहते हैं. अहा गौतम ! इस तरह जीव का गुरुत्व है.नाई • पकाशक-राजाबरादरलाला सुखदवमहायज AFTET For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ घष्टांङ्ग जाताधर्षवधा का प्रथम श्रुतमन्ध फ. एवं खलु गोयमा ! जीव! गरुयत्तं हवमागच्छति ॥ ५ ॥ अहणं गोयमा ! से तुबे तेसिं पढमेलगसि महियालेसि तित्तसि कुहियषि, परिसाडियांस, ईसिं धराणयलाओ उप्पत्तित्ताणं चिटुइ तयाणतरंचगं दोच्चपि माहे पालेवे जाव उप्पत्तिताणं चिटुंति, एवं खलु एएण उवाएणं तेसु अट्ठसु महियालेवेनु तित्तेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे ,धरणियलेमइवइत्ता उप्पिसलिलतलपइट्टाणे भवइ ॥ एवामेव गोयमा ! जीवा पाणइवाय वेरमणेणं, जाव मिच्छादसणसल्लरमणणं आणुपुयेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेता गगणतल मुप्पइत्ता उपिलोयग्गपतिट्ठाणा भवंति ॥ एवं खलु गोयमा ! कहा है ॥ ५ ॥ अहो गौतम ! उस पानी में रहे हवे तुम्चे पर से दर्भ व कुश मडकर गलकर प्रथम लेप दूर हावे ता वह तुम्बा धरणी तल से पानी में चित् ऊपर आता है, दूसरा मिट्टी व शन का लप गलने से ज्यादा ऊपर आता है यों आगे लेप दूर होने से वह तुम्बा पानी ऊपर आकर तीरता है वैसे हैं। 3 गौतम ! जीव प्राणातिपात के निवर्तमे से यावत् मिथ्या दर्शन शल्प के निवर्तने स अन्क्रप से आठों कमों का क्षयकर गमन तल को उलंचकर लोक के उपर अग्रभाग (मोक्ष स्थान) में स्थित होते हैं. अहो गौतम ! इस तरह जीव रघुत्व प्राप्त करते हैं. ॥६॥ अहो गत श्रमण भगवान महाव र समीने ज्ञातामूत्र के छठा अध्ययन HD तुम्बे का छठा अध्ययन Arch 4 For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ जीवा लहुयत्तं हवमागच्छंते ॥ ६ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगव्या महावीरणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्त नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, तिबेमि ॥ छटुं णायन्डारणं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ इह उपणय गाहा–जहामिउलेवालित्तं, गुरुयंतुबे अहो क्यइ ।। एवं आसव कय कम्म, गुरुजीवावच्चंति अहरगई ॥१॥ तंव तन्विमुकं, जलोवरिट्ठाइ जाइलहु भाव||जह तह कम्मविमुक्का,लोयग्गपइट्ठियाहुंति॥२॥छटुंणायज्झणं सम्मत्॥६॥ का यह अर्थ कहा. यह छठा अध्ययन संपूर्ण हुवा. ॥ ६ ॥ उपसंहार-जैसे मिट्टिके लेपसे भारी पना हुषा तुम्बा नीचे जाता है ऐसे ही आश्रव कृत कर्म से जीवों नीचेगति में जाते हैं. वही तुम्बा उसलेपों से मुक्त होने से पानी पर आकर ठहरता है वैसे ही कर्म से मुक्त जीवों लोकाग्र (मोक्षस्थान) में स्थित होते हैं. यह छठा अध्ययन संपूर्ण हुआ. ॥६॥ • प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वाळाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रवस्कन्ध 4 ॥ सप्तम अध्ययनम् ॥ जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्रस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ता, सत्तमसेणं भत्ते ! नायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णत्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जबुं ! तेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहेणामं णपरे होत्था, तत्थणं रायगिहे णयर सेणिराया होत्था तम्मण रायागिहस्स जयरस्स उत्तर परत्थिमेदिसीभाए __ सुभूमिभागे उज्जाणे होत्था ॥ तत्थणं रायगिहेणयरे धण्णेणामे सत्थवाहेपरिवसति अड्रे जाव अपरिभूए ॥ तस्सणं धण्ण सत्थवाहस्स भदाणामं भारिया होत्था अहीणपंचिंदिय जाव सरूवे॥२॥ तस्सणं धणस्स सत्थवाहस्स पुस्ता भद्दाभारियाएअत्तयां चचारि सत्थवाह अहो भगवन्! जब श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने ज्ञाताधर्मकथा के छठा अध्ययन का यह अर्थ कहा. तत्र सातवा अध्ययनका क्या अर्थ कहा? ॥२॥ यों निश्चय अहो जंबु! उसकाल उससमय में राजगृह नामका नगर था. उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा राज्य करता था. उप राजगृह नगर की ईशानकून में * मुभूमिभाग नाम का उद्यान था. उस राजगह नगर में धन्ना सार्थवाह रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् । अपरिभूत था. उसको भद्रा नाम की भार्या थी वह संपूर्ण अंगोपांग से सुशोभित यावत् सुरूपा थी ॥२॥ - उम धन्ना सार्थवाह के पुत्र व भद्रा भार्या के आत्मन ऐसे चार पुत्रों थे. जिन के नाम१धनपाल,२ धनदेव, ।। in रोहिणी का सातवा अध्ययन 2 For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक-माला ह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋपिज दारया होत्था तंजहा-धणपाले,धणदेवे, धणगोवे,धणरक्खिए॥३॥तस्सणं धणसत्थवाहस्स घउण्हं पुत्ताणं भरियाओ चत्तारि सुहाओ होत्था, तंजहा-उज्झिया, भोगवतिया, रक्खिया. रोहिणिया ॥ ४ ॥ ततेणं तस्स धस्स अन्नयाकयाइ पव्वरत्ता वरत्तकाल ममयंसि कुटुंबजागरणा जागरमाणे जाव इमयारूचे जाव समुप्पजत्था-एवं खलु अहं रायगिह गयो बहुणं राजा ईसर जाव पभिताणं सयस्सय कुटुंघस्स बहुनु कजे मुय कारणेसुय कोटंबे-मते-गुज्झे-रहस्से-णिच्छए--ववहारेसुय आपुछणिज्जे पडिपुछणिजे मेढीपमाणं आहारे आलबणे चक्खू पमाण भूते सवकज्ज बढावए, तणणजईणं मएगयं १३धनगोप व ४ धन रक्षित ॥ ३ ॥ उस धन्ना सार्थवाह को चार पुत्रकी चारपुत्र वधुनों थी. जिन के नाम उज्झना २ भोगवती ३ रक्षिता और ४ रोहिणी ॥ ४ ॥ एकदा धन्ना सार्थवाह का प्रथम रात्रि गये पीछ पोछली रात्रि में कुटुम्ब जागरणा जागते हुवे ऐसा अध्यवसाय हुघा कि मैं राजगृही नगरी में बहुन राजा ईश्वर यावत् प्रभृतिक के व अपने कुटुम्ब के बहुत कार्यो, कारण में, कुटुम्ब पें, मंत्र करने में, रहस्य -बातों में, गुह्य बातों पें, निश्चय व व्यवहार में पूछने योग्य हूं. वारंवार पूछने योग्य हूं, मंदी प्रमाण आ धारभूत, व आलम्ब भूत हूं, शरीर में चक्षु जैसे आधार मून हैं वैसे ही मैं आधारभूत हूं, सब को प्रमाण • प्रकारक-जावादर ळाका मुखदरमहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 षष्टांग शाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 1 सिवा वयंसिवा भगंसिवा, चुयसिवा, मुयंसिवा, लुग्गसिवा सडियंसिवा पडियंसिवा विदेसत्थंसिबा, विप्पसियंसिवा इमस्स कुटंबते केमन्ने आहारवा आलंबणेवा पडिवंधेवा भविस्तइ ? तं सेयं खल ममकलं जाव जलंते विउल असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्तनाइ चउण्हय सुण्हाण कुलघरवग्गं आमतेत्ता, तमित्तनाइनियग सयण चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवगं विपुलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं धूव पुप्फवत्थ गंध जाव सकारेत्ता सम्माणसा, तस्सेयांमत्तणाति चउण्हय पुण्हेसुणं कुलघरवग्गरसय पुरओ चउण्डं सुण्हाणं परिक्खपट्ठयाए पंचपंच साल अक्खएदलइ २ त्ता जाणामित्ताव भून हूं. अर्थात् मेग कथन सब को मान्य, है, सब कार्य में मुझे आगे बढाया है पा मप कार्यों की मैं वृद्धि : करनेवाला हूं. परंतु न मालुप मेरे ग्रामादि जाने से, वायू मादि की व्याधि होने से, शरीर भंग होने से, चवने से, लुप्त होने मे, मरने से, पदने से, इत्यादि कारनों से मेरे वियाग में इस कुटुम्ब को कौन प्रा. धार दे, अवलम्बन दे, अकार्य करन में प्रतिबंध करे, इस लिये कल प्रभात में विपुल अशन, पान. खतिम स्वादिम बनाकर मित्र, ज्ञाति, चार वधुभो व कुलघर वर्ग को बोला व उन को विपुल अशनादिका भोजन कराकर बहुत पुष्य वस्त्र गंध मारयाकार मे सत्कार सन्मान देकर उन सब की सन्मुख चरों वधुओं की परीक्षा करने के लिये पांच शालो धान्य के प्रखंड दाने देना चाहिये, इस में से कौन किस तरह १ धन्य के खले में जो लकडी रखने में आती है उस मेढ़ी कहते हैं, गाहणी का सातवा अध्ययन RIP 411 www.iainelibrary.org For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनाबदक पाल बह्मचारी मुनि श्री भोळक ऋषिमा काकिहवा सारखइवा,काकिहवा,संगोवइवा,संवड्डेइवा।।एवं सपेहेइ२त्ता कलं जाव मित्तणाति चउण्हय सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइरशाविपुलं असणं पाणंखाइमं साइमंउवक्खडा वेइ २त्ता ततो पछाण्हाया भोयण मंडवंसि सुहासण सण्णिसाण्णे तं मितणाति चउण्ड्य मुण्डाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं विपुलं असणं जाव सक्कारेति सम्माणेति २त्ता तस्सेव मित्तणाति चउण्डय सुण्हाणं कुलघरवग्गरसय पुरतो पंचसालि अक्खए गेण्ड २ त्ता जेट्ठसुण्डं-उज्झिइतं सहाति रत्ता एवं वयासी-तुमेचणं पुत्ता! महत्था तो इमे पंचसालि अक्खएगिण्हाहि आणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि, जयाणं अहं पुत्ता! रखती है, कौन किस तरह गौपती है व कौन किस तरह बृद्धि करती है. ऐसा विचार कर दूसरे दिन प्रभात होते यावत् मित्र बाति, चार वधुओ कुलघर का वर्ग को बोलाकर विपुल अशनादि बनवायें तत्पश्चात स्नान किया फीर भोजन मंडप में मुखासनपर मित्र शाति चार वधुभो । कुलघरवर्ग की Eसाथ विपुल अशनादि से यावत् सत्कार सन्मान किया. और उन सब की सन्मुख पांच अंखड शाली के दाने लेकर ज्येष्ठा पुत्रवधू उज्झिया को बोलाइ. बोलाकर ऐसा कहा कि महो पुत्री ! तुम यह महा अर्थ +वाले पांच शाली के दाने ग्रहण करो. और उस का रक्षण यावत् गोप करते हुए विचरते रहो और जब में इन प्रकायाक राजाबहादुर लाला मुखदेवसछायजी व्यकापसादरी For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र 49. २८७ 48+ षष्टांग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रुउस्कन्ध 18 तम इमं पंचसालिअक्खए जाएजा तयाणं तुमं मम इमे पंचसालि अक्खए पडिदेजासि तिकटु, सुण्हाते हत्थे दलयति २त्ता पडिविसजेति ॥५॥ ततेणं सा उज्झिया धण्णस्स तहत्तिएयमटुं पडिसुणेति २ त्ता धणरस सत्थवाहस्स हत्थातो ते पंचसालि अक्खए गेण्हाति २ ता एगंतमवक्कमइ एगमवकमिया, इमयारूवे अज्झथिए ४, एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्लासालीणं पडि पुन्ने चिटुंति तं जयाणं ममताउ इमे पंचसालिअक्खए जाएसाति तयाणं अहं पलंतरातो अमपंचसालिअक्खए गहाय दाहामि तिकटु एवं संपेहेति, एवं संपेहेत्ता, तेपंचसालिअक्खए एगतेएडेइ २त्ता सकम्म संजुत्ता जाययाविहोत्था ॥ ६ ॥ एवं भोगवतियावि, णवरं सा छोल्लेति २त्ता दानों को मांगू तब मुझे पीण देना. ऐसा कह कर उक्त पांचों शालिके दाने उस ज्येष्टा पुत्रवधू के हाथ में रखे और उसे विभर्जित की ॥ ५ ॥ उस उज्झिताने धना सार्थवाह का वचन स्वीकृन किया. धन्ना सार्थवाह के हाथ में से उक्त दाने लेकर एकांत में गई. और ऐसा विचार करने लगी की मेरे पिताजी ( श्वशुर ) के कोष्टागार में बहुत पल्लों शाळी के भरे हुए हैं. इस से जब वह मंगेगे तब में इस कोष्ठागार से शाली के अखंडित पांच दाने लेकर देखेगा. ऐसा विचारकर पांचों पालि के दाने एकांत में गलरिये और वह अपने कार्य में प्रबुन हुई. ॥ ६॥ दूमरी भोगपती को वोलाकर वैसे कहा और वह पांचों दाने रोहिगी का सातवा अध्ययन 488 1 । For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८८ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी अणुगिलइ २त्ता सकम्म संजुत्ता जायायाविहोत्था॥७॥एवं रक्खियावि गवरं पंचसालि अक्खए गेणहइ२त्ता इमेयारूवे अज्झथिए,एवं स्खलु ममं ताओ इमस्स मित्तणाति चउण्डय सुण्हाणं कुलघर वग्गरस पुरतो सदावेसारत्ता एवं वयासी-तुमणं पुत्ताममहत्थातो जाब पडिनिजाए जासित्तिकटु,मम हत्थंसि पंचसालिमक्खएं दलयति तं भवियध्वमेत्थ कारणेणं तिकटु, एवं संपहेइ २ ता ते पंचसालिअक्खए सुद्धे वत्थेबंधति २ त्ता रयण करंडियाए पक्खेवति २ त्ता मज्जुसाए पक्विवइ २ त्ता उसीसामूलेट्ठावेइ २ त्ता लेकर एकांत नइ और उसने उस ही विचार से पांचों दाने के उपर से चिलटे नीकालकर निगर(खा) गई और अपने कार्य में प्रवृत्त हुई. ॥ ७॥ ऐसे ही रक्षित नाम की तीसरी पुत्रवधू का मानना. वह उसे गइ और ऐमा अध्यवसाय हुग कि मेरे पारने मब मित्र ज्ञाति, चारवधुभो व कुलघर वर्ग की सन्मुख बोलाकर ऐसे बोले हैं कि अहो पुत्री ! में तुप को यह शाली के दाने देताहूं यावत् जब में मांगु तब पीछे देना. ऐसा कह कर मेरे हाय में ये पांच दाने रखे हैं। इस से इस में कुच्छ कारन होना चाहिये. इस से उसमे पांचों शाली के दानों को अद वस्त्र में बांध दिये. उस रत्न के करंडिये में रखा. स करंडियेको एक संदूक रखा. उम संदूक को ओसीसों नीचे रस्त्री और दोनों काल संध्या को उसकी • प्रकाशक राजबहादुर लाला मुखदवसहायी चालाप्रसदजी . For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ति, २ ता तिसंज्झं पडिलागरमाणी २ विहरति । ८ ॥ तते से पणे सत्थचाहे तहेव मित्त जाव चउत्थं रोहिणियंसुण्हं सदावइ २ . त्ता जाव तं . भषियव्वं एस्थ कारणेणं तिकटु, तं सेयं खलु ममएए पंचसालिअक्खए सारख माणीए संगोवेमाणीए संवर्ल्डमाणीए तिकटु, एवं संपेहेति एवं संपेहेत्ता कुलघर पुरिसे सदावेइ २ त्ता एवं वयासी-तुभेणं देवाणुप्पिया ! एए पंचसालिअक्लए गिण्ह २त्ता सारक्खमाणा संगो माणा, अणुपुत्रे संवुडहा फ्डम पाउसंसि महावुट्टि कार्यसि निवइयंसि खुड्डागंकेयारं सुपरिकंम्मियं करेह र ता इमं पंच सालिअक्खए ई संभाल करती हुई विचरने लमी ॥ ८॥ धना सार्थवाहने रोहिणी नामकी चौथी पुत्रवधू को पोलाइ यावत् तीसरी रक्षिता जैसे विचार किया कि इस में कुच्छ कारन होना चाहिये. इम से इन पांचों दाने में की रक्षा करना, गोपना व वृद्धि करना मुझे श्रेय है. ऐमे विचार कर अपने घर के पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देशानुपिय। ये मेरे शालि के दाने ले जावो इस का रक्षण करते. गोपन करते व वृद्धि को, पथम वर्षा काल में जब बहुत वर्षा होवे तब सृण घास रहित अच्छी भूमिमे एक छोटा 11 वा. इन पांच शालि के दाने को बोत्रो. फीर उसे वहां से उखाद कर देको । षष्टा,ज्ञाताधमकथा का प्रथम श्रुसस्कंध 4 रोहिणी का सातवा अध्ययन 08 भ + . For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० मा र अनुवादक पालनाचारीमान श्री अमोलक ऋषीजी बाह २ ता दोच्चपि तच्चपि उक्खय णिक्खए करहइ २. ना वाडिंपरिक्खेवं करहा। २ ता समागंसि संरक्खमाणा संगावेमाणा अणुपुर्ण संबड्वेह ॥ ९ ॥ तण कोटुम्बिया रोहिणीए एयमटुं पडिसुणेति २त्ता तेचमालिअक्खर गण्हति २त्ता अणपुषण सारखंति संगोति विहरति॥१॥ततेण ते कोटुबिधा पढम पाउसासे महावुष्टिकायसि नितियंसि समाणसि खुड्डयं केदारं सुपरिकम्मियं करेंति २त्ता ते. पंचप्सालि अखए ठवंति २त्ता दोच्चंपि तच्चपि उवक्खय निक्खए करेति रत्ता वाडि परिक्खेवं करिति २ त्ता अणुपुर्वणं सारक्खमाणा संगोवमणा संबड्डेमाणा विहरंति॥११॥ततेणं से सालीअक्खए अणुपुवेणं सारक्खिजमाणा संगोविजमाणा संवटिजमाणा सालीजाया किण्हा किण्हो अन्य स्थान रोपना, उन क्यारे को चोतरफ बाढ स्नाना, उम की अच्छी तरह रक्षा करना यावत् वृद्धि करना ॥ ९ ॥ कौटुम्विक पुरुषोंने उस के वचन मान्य किये और उन पांचों दानों को लेकर उन कथनानुसार रक्षा करते हुरे विचरने लगे ॥ १० ॥ जर वर्षाकाल में प्रथम महा नष्ट हुई. ता कौटु में पुरुषों ने तृणा दे निकालकर एक छोटा क्यारा बनाया, उस में पांचों शाली के दान डाल दिये. उसे वहां से निकालकर दूसरी वक्त उस का रोप किया. और उस का रक्षण करत वे कृष्ण, कृष्णाभास Auranmaa राजा दुर लालासुखदवसहायणी नाला प्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + सूत्र 3 + षष्टाङ्ग जाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्प .. मासा जाब निकुरबभूया पासादीया ४, ॥ १२ ॥ ततेणं ते साली पत्तिया, 'वत्तिया, गम्भिया, पसूया, आगयगंधा, खीराइया, बद्धफला, पिका, परियागया, सल्लइया, पत्तइया, हरिया, पेरूंडा, जापावि होत्था ॥ ततेनं ते कोडुधिया तेसाली पत्तीए जाव सल्लइया पचए जाणिवा तिक्वेहि. नवपनगएहिं असियएहिं लुणंति २, त्ता करयल मलिए कति २ ता पुर्णति तत्थण चोक्खाणं सूइयाणं अक्खंडाणं यावन् निकूरजभूत झाली हुई. यह प्रामादिक यावत् प्रतिरूपनी ॥ १२ ॥ अब वह शाही पत्रवाली, वर्तितावाली, गर्भवाली हुई, दाने पकने से मसूना हुई, उस की सुभिगंध फैलने लगी, क्षीर नत्पन्न हुवा, उस में दाने उत्पन्न हुए. पक्य बनकर काठन हुई. दाने पर्याय की मास हुए अर्थात संपूर्ण दाने बन गये. शादि कर वृक्ष लायमान हुई, और जम के पर्व कांड:दिनीले हए. जब कोटाम्पक पुरुर्षोंने.जम शाली कोई पत्रचाली यावत् शल्ल की वृज समान बरी हई जानी तब तीक्ष्ण दातरडे से काटने लगे. फीर उस हाथ से मशले औकचरा उडाकर सब दाने स्वच्छ किये, शद्ध निर्थल, पिता कटे छेद शब्द करते। stop १ शाखा डाली आदि की जो वर्तुभूत हवि सा वर्तिता दरोदावाली. २ चार पसली की एक सेई, चार सेई का रु एक कुंडा, चार कुंडा का एक पाथा होता है. .. wwwwwwwwwwwwww राहिणी का साथवा अध्ययन w w + For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4: अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अकुडिया छडछड्डाणं पूयाणं सालीणं मागहए पत्थर जाए ॥ १३ ॥ ततेणं तं higher derai पत्थए सुडए पक्स्विति २त्ता उपलिंपति २ता लेछिय मुद्दिए करेंति २ कोट्ठागाररस एमसि द्वावेइ रत्ता, संरक्खमाणा संगोचेमाणा विहति ॥ १४ ॥ ततेां ते कोटुंबिया दुच्चमि वासारत्तंसि पढमपाउससि महावुट्टिकायंसि नित्रइयांस खुडायारं सुपरिकर्मियं करेति २ ता ते साली वुप्पति, दोबांप उक्खणियहए जाति, जाव चलण तलमलिए करेति २ ता पुर्णति तत्थणं सालीणं बहवे कुंड जाए जब एगदेमंसि टुवेति २त्ता संरक्खमाणा संगोवेण विहरति ॥ १५ ॥ ततेनं से सूर्पादि से झटक कर मगध देश में प्रसिद्ध पस्था नाम का पाप जिसने दाने हुवे ॥ १३ ॥ फर कौटुम्बिक पुरुषोंने उन दाने को एक नये घंड में भर कर उस का मुंह बंध कर उस पर लिपन किया यात् उरूपर लक्षण मुद्रा की. फीर कोष्टागार के एक विभाग में उस घड को रखा ॥ १४ ॥ दूसरी वर्षा ऋतु में जब प्रथम वर्षा हुई तब तृणादेि निकालकर एक क्यारा बनाय उन में शाली के दाने बाये और फीर ( वहां से नकाल कर रोप किया. यावत् पत्रवाली यावत् परिषका होने पर तीक्ष्ण दातडे से कारणी की. पांव के तलिये से उस को मसला यावत् बहुत कूंडे में भर कर कोष्टागार के एक विभाग में रखी. और उसको रक्षा करते हुने यावत् विचरने लगे || १५ ॥ तीसरी वर्षा ऋतु में प्रथम वर्षा काल में बहुत For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक - राजावादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद २९२ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ ज्ञानार्मकथा का प्रय-अतबंध 42 कोडबिय पुरिसा तच्चसि वासरित्तसि महावुट्टिकायंसि नि इयंसि बहवे केदारे सुपरिवावेजा जाव लुणंति २ त्ता संवहति २ ता खलयं करेंति २ त्तामलते जाव बहवे कुंभ जाया।ततेणं ते कं डुपिया साली कोट्ठागारंसि पक्खियंति जाब विहरीत, ॥१६॥ चउत्थवासारत्ते यहवे कुभसया जाता ॥ १७ ॥ ततेणं तस्स धणरस पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाण स पुब्बरत्तावरत्त कालसमयसि इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु मएइओ अतीते पचमे संवच्छरे चउण्हं अण्हाणं परिक्खणट्टयाए ते पंच २ सालिअक्खया हत्थे दिन्ना तं सेयं खलु मम कलंजाब जलंतेचसालीअक्खाए परिजा तत्तए एवं जाणामि ताव क्य र आये प.वत् काटकर इस का खला बनाया. उन में पसल कर स्वच्छ बनाकर बहुत कुंभ भ लिये: उस की रक्षा करते हुने कौटुम्बक पुरुषों विचरने लगे ॥ १६ ॥ चौथी वर्षा ऋतु में बहुत सेंकडो कुंभ शाली के हुवे ॥ १७ ॥ पांचवे वर्ष में धन्ना सार्थवाह को रात्रि में विचार करते एसा अध्य दसाय हुना कि आज स पांच वर्ष पर चार पत्र मधुओं की परीक्षा करने के लिये मैंने पांच २ शालि के दाने दिये थे इसे कल प्रभात होते यावत इम की चौकसाइ करना मुझ श्रेय है. इन से मैं जान - सकू कि सिने किस तरह क्षण दिया, किसन किस त इ गोपन किरा व किसने किस तरह वृद्धि की. ऐसा viगहिणीका सातवा- अध्ययन 8 For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मनुवादक-ालनमसरीमुनि श्री अको के ऋषिजी १ काविहंवा सारक्सियावा संगोविरास, संघड्डिय वा, ज व तिकटु, एवं संरहे३ २ चा कल जाव जलते विपुलं असणं पाणं स्वाइयं साइम मित्त "ति च उण्डय सुण्हाणं कुलघर नाव सम्माणित्ता तस्सेक्य मित्तणाइ च उण्हय साहाणं पुरता जेट्ठ उझियं सवैति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं पुत्ता । इलो अनीते पंचमिसंबच्छरे इमरनमित्त पउण्हय सुगहाणं कुलघरयस्स पुरतो तव हत्थंसि पंचमालिक्खए दलथामि, जयाणं अहं पुत्ता एएसालिअक्खाए जाएजा तगाणं तुम मम इमे पच वाली अक्खए पडि नजाएसि, तिकटु सेणूणं पूत्त ! अटे सम? ?, हंता अत्थि ॥ तण्णं तुमं पुत्ता विचार करके दूसरे दिन प्रभ तहते अशनादि चारों आहार बनाकर मित्र,जाति, वजन, चार पुत्रवधुनों व कुलघर वर्ग का HEIR मन्मान कर उन सब की सम्पुरख पहिले अष्ट पुत्र की ग्धु को युलदाई. और उम को ऐमा बोकि अहे पुत्री ! आज से पांचवे वर्ष में इन पित्र ज्ञाति चा पुत्र वधुओं व कुलपा वर्ग की सनाव तुम्हारे हाथ में अखंडित पांच शाली के दाने दिये थे और कहा था कि ये दाने जब मैं मांगू तब मुझे पंछ देना. अहो पी !! यह बात मत्य है? उसने कहा-हां यह बाद सत्य है. तब श्वशुरने कहा कि श्रह पुत्र ! तब मुझ मेरे दिये हुवे अखंडे । शाली के दाने पाछे दे दो. तब अझया पन्ना सार्थवाह का पशक-राजाबहादुर लाछा सुखवा प्रजी व्यालाप्रमादजी . । For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. षष्ट अवताधर्मक्रया का प्रथम श्रुतम्घ मम तेपालि अक्खए पडिनिन्जाएसि ॥ तएणं सा उझिपा एयटुं धगरस पड़िसुगंति २त्ता जेणेव कुट्ठागारं तणेव उवागच्छइ २त्ता पल्लातो पंचकालअक्खए गाहइ २त्ता जे गेव धरणेस वाहे तेणेव उवागलइ२त्ता धन्न मत्थाहं एवं वयासी एएतता पंचताली अक्खर तिव धण्णरस हत्थंसि ते पंचवालि अस्खए दलयति ॥ ततेणं धंग उम्झियं संबहसाविध करेइ २ ला एवं वयोसी किण्णं पुत्तः !तंचे। पंचपालि अक्खए उदाहु अन्ने?ततेणं सा उज्झिया धणं सत्यवाह एवं क्याली एवं खल तुम्भे लातोइतो अतीत पंचमे संपच्छर इमरस मिसणाति च उण्हय कल जाव विहरामि ॥लतेणं अहं तुब्भ एयमटुं पडि पुणेमि ते पंचनालिअक्खए गण्हलि २ एगंत नवकमागि, ततेणं ऐना वचन सुनकर कोष्ट गारशाला की पास गई और उन में से पांच अखंडत शाली के दाने लहर धना सार्थवाह की पास अई धन्ना मार्थवार को ऐसा बोली यह पांच अखंडेत शाल के दाने लो. यों कहकर पांचों दाने उन की हाथ में रख. धन्ना सार्थवाहने उझयाको शपय साग, देकर एमारहा कि अहो पु मो मैंने शालि के दान दिये थे वही यह है कि अन्य है ? तम यह उ उझया धना सार्थवाह से इस प्रकार आली कि अहो नात! आपने आज पांचवे वर्ष में इन मित्र ज्ञानिचारवधूत्रो व कुरघर वर्ग की। मन्मुख मुझे पाय शालि के अखंडन दाने दिये थे. मैंने भाप के वचन सूने और इन को एकांत में लेन सोहणी का सातवा अध्ययन अर्थ । । ' For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - अलब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ि मम इमेारू अज्झत्थिए जात्र समुप्पज्जेत्या, एवं खलु ताओणं कोट्ठागारंसि जाव सकम संजुत्ता, तं नो खलु तातो तचेत्र पंचसालि अक्खए, एएण अन्ने ॥ १७ ॥ ततेणं से धणे सत्थवाहे उज्झितियाते अतिए एयमट्ठे संच्च निमम्म असुरते जाब मिि मिसेमाणा उज्झतियं तस्स मिणाति चउन्हंया सुण्हाणं कुलघरस्वपुरतो तस्स कुलघरस्स छरुझियंच छापाज्झियंच कयवरु उझयंच, संपुछियंच, संमज्झियंच, पाओवदाइयच हाणोद तिथंच बाहिर पेसण कारियंच ठावेइ ॥ १८ ॥ एवमेव समजाउसो ! कर ऐसा विचार किया की अपने कोष्ट गार में बहुत पल्लों चावल रहे हैं. उस में से देऊंगी और कोष्टागार में से लाकर यह दिये हैं इसने अहां तात! आपने दिये हुवे शाली के दाने यह नहीं हैं परंतु दूसर हैं. ॥ १७ ॥ उज्झना के मुख ऐसा सुकर धन्ना सार्थवाद आसुरक्त यावत् मिममिसायमान हुई और मित्र, इति चार वधूओं व कूलघर वर्ग की सन्मुख उज्झिना को राख डालने के गोवर थोपने का चराड लने का अर्थात् घर का झाडु नीकाल ने का वगैरह स्वच्छ करने का प्रातःकाल में घर में पानी का छिडक व करने के, घर के बाहिर याअंदर लिंपने तने के, घर के मनुष्यों को स्नान करने के लिये पानी देने के कार्य में और इन सिवाय घरके बहिर का लाने का पहुंचाने का वगैरह जो कार्य दास दासि से किया जाता है उस कार्य में उज्झिता को स्थपितकी ॥ १८ ॥ अब सुधन स्वामी कहते हैं कि अहो आयुष्यन्त श्रमणो! जैसे उज्झिना शाली के पांच व • प्रकाशक- राजा बहादुर चाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only २९६ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ की षष्टाङ्ग ज्ञात धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488+ जो अम्हे निग्गंथोत्रा निग्गंथीवा जाव पव्वतिए पंचय से महन्वयाति उज्झियाइं भवति, सेणं इह भवचेत्र बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाण बहुणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुवरिअस्सइ, जहासाउज्झि ॥ ॥ १९ ॥ एवं भोगवलियात्रि णवरं तस्स कुलघरस्स कंडेतियंच कुट्टितियंच, पीसणियंच एवं रूधतियंच रंधतियंच परिवेस तिथंच परिभाय तिथंच अग्भितरियच पेसणकारं महाणनिणं वेति २ | २० | एवामे समाउ मो! जो अम्हे समगोत्रा ( दाने डालने से हलिना निंदा को प्राप्त हुइ यावत् नीच कार्य करना पडा बेले ही हमारे साधु साध्वी पांच महत्व अंगीकार करके प्रपद वश से उसे डालदेंगे तो वे इस भव में बहुत माधु साधी, श्रवक व ( श्राविका में हीना निंदा को प्राप्त होंगें यावत् चतुर्गतिक अनंत संमार में परिभ्रमण करेंगे ॥ १९ ॥ जैसे उज्झना का कहा वैसे ही भोगवती का जानना. जिस में इतना विशेष कि वह पांचों दानों को छोल कर निगल गई थी इस से उस को ख न पान प्रिय जानकर उसे मित्र, ज्ञाति, व उनके मात पिता मन्मुख तंदूलादि को कवल में कूटने का गेहूं आदि घट्टां में पीसने का, गृह कुटुंब के लिये रमोइ बनाने का सक्रांत आदि पर्वो में खांड ख जे पमुख पकान्न बनाकर उस का कुटुंब में विभाग करने का, રોફ भाजन धोने का और इस शिवा अन्य गृह के अंदर के कार्य जो दाम दासी करते हैं उस कार्य में उने (स्थापित की. ॥ २० ॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि अहो आयुष्यवंत श्रमणो ! जैसे शाली के पांव दाने For Personal & Private Use Only १०+ रोहिणी का सातवा अध्ययन 448+ ३९७ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणिवा पंचपसे महव्ययाति पाडियाति भवति, सेगं हि भत्रेचे बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाणं बहुगं सावियाणं जार होलणिज्जे जहावा मा भोगवतिया ॥२१॥एवं रक्खियाविणवरं जेणेव वाघरे तणव उवागच्छइ २त्ता मज्जसं विहेडेति २त्ता रयणकरंडगाओ त पचसालिअक्खए गिण्हइ २त्ता जेणेव धणे सत्यवाहे तेणव उवागच्छइ २ चा पंचसालिअक्खए धरतहत्थे दलयति २त्सा ततेणं से धणे सत्थवाहे रक्खियं एवं वशासी किन्न पुत्ता ! तेचच एए पंचसालिअक्खए उदाहु अन्ने? निगल जाने से भोवती को कार्य पीला वैसे जो कोई मधु साध्वी पांच पहावत अंगीकार कर रसना क लोलपी धो वा भंग करेंगे वे इस भव में बहुत मधु साधी श्रकक व श्रचिका में हलना, निंदा व खिमना पायेंगे व परलोक में अनामनार का परिभ्रमण करेंगे.॥ २१ ॥ जैसेभांगरती को धन्नास वाहने कहा वैसे ही रक्षिताको बोजाकर कहा और उन से पांच दाने मांगे. जिसो वह अपना रहका महमें गइ और मंदक खोलकर दागी के करंडो से पांचों अखाडत शालीक दाने लेकर धन्ना सार्थकादिय. तब उस क्षिता को धनामार्थवा एरे बोले कि अहो पुत्र! जो मैं श ले के दाने दिये य वेही यह है कि अन् ? 17 रक्षिताने उत्तर दिया कि अहो तात! आपने जो शाली के दाने दिये थे वही हैं परंतु दूसरे नहा है. अहो. पुत्र::। नादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी प्रकाशक सजावहादुर लाला मुखदर सहायजी ज्वालाप्रश्नाद जी . अर्थ For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 . ततेणं रविषया धग सत्यवाहं एवयासी-तेवे ताया!(एपंच साल अक्खया नो अन्ने। कहणं पुत्ता ? एवं खलु ताओ : तुम्भेइतो पंचमंसि जाव रुवाछो भावियत्रयं एत्थ कारणेणं तिकटु, ते पंचसालि अक्खए सुडेवत्थे जाव तिम्झं डिजागरमाणीय विहरामि ॥ तं एएणं कारणेगं ताओ! तेचेच ते पंवसालिअक्खश, नो अन्ने ॥२२॥ ततेणं से धागे रविवतियाए अतियं एयम टुं सोचा हट्टतुटु, तस्स कुलघरस्त हिरण्णरसय. कंस-दृस-विटल धण कगग जाव सावइजस्सय भंडागारिणी दुवेति ॥ २३॥ एवामेव समणा उसा ! जाव पंचय से महत्वयाई रक्खियाति भवंति, सेणं १२ किम नरद है ! सब उसने उत्तर दिया कि अहो तात ! अपने मुझे आज से पाचवे वर्ष पहिले दिए उसे लेकर मैं एकांत में गई. वहां मुझ ऐनाविच र हुवा कि इस में मुच्छ कारन होना चाहिये इस विचार से में इस को शुद्ध वस्त्र में बांधकर यायम् तीनों दल उस के लिये संभाल रखती हुई विचाती . हा अहो नात ! पह शाली के दाने आपके दिये हुव हैं परंतु अन्य नहीं हैं ॥२२॥ रक्षिता की पाम से पेन मुमतापमान याबाई हट तुष्टहर और उमेघा के सब हिरण्य. सूर्ण, कांस्य, दृष्य, व विपुल धन ॐाय या स्थापते (उत्तम धन मागियादिक) के भंडार की चाबियों ( कुचीयों )दी॥२॥ सुधर्म स्वामी कहने । सिक आहेअ युष्मन्त साधुओं ! ऐसे हो जो साधु साधी पांच महाव्रत का रक्षम करते हैं वे इस भा में बहुत ] नाघकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध रोहिणी का पांचवा अध्ययन षष्ट Jain Education Intenational For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋ पेजी इहभवेचैव बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाणं बहुणं साबियाणं अच्चणिजे जहा जाता रक्खितिया ॥ २४ ॥ रोहणियावि एवंचेव, णवरं तुम्भे तातो! ममसु बहुयं समडीसागडं दलाह जाणं अम्हं तुब्भं ते पंचसालिअक्खए पडिनिजएमि ॥ तते धन्नेसत्यवाहे रोहणीए एवं क्यासी कहणं तुमं मम पुत्ता! ते पंचसालि अक्खए सगड सागडेणं निजातिस्सासि ? ॥ ततेणं सा रोहिणी घण्णं सत्यवाहं एवं वयासी एवं खलु ताओ ! इओ तुम्भे पंचमेसंवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया । तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ ! तुब्भेते पंचसाल अक्खए सगडि सागमाधु-साध्वी, श्राचक व श्राविकाओं में रक्षिता जैसे अर्चनीय व पूज्यनीय होते हैं ॥ २४ ॥ ऐसे ही रोहिणा का जनना. परंतु रोहिणीने कहा कि अहो तात ! मुझे बहुत गाडा गाडी दो जिस से मैं आपके पांच शाली के दाने ला हूं धन्ना सार्थवाह रोहिणी को कहने लगे कि अहो पुत्री ! मेरे पांच शाली के दाने कैसे गाडा गाडी में लावांगे ! तब रोहिणाने उत्तर दिया कि अहो तात ! आज से पांचवे वर्ष में इन सब की सन्मुख मुझे पांच शाली के दाने दिये थे. उसे लेकर मैंने मेरे पितृगृह के कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और उसे खेलने में डालकर बढाने का कहा यावत् अब वे सेंकडों कुंभ प्रमाण शाली हुवे हैं. For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक- राजांबदुर लाला सुखदेवसहायकी ब्वालाप्रसादजी ३०० Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन अर्थ *पष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुत डे निजामि ॥ ततेणं से घण्णे सत्थवाहे रोहणियाए सु बहुये सगडि सागई. दाति ॥ ततेणं सारोहिणी सुबहु सगडी सागडं गहाय जेणेव सएगिहे कुलपरे तेणेच उत्रागच्छइ २त्ता कोट्टागारे विहाडेति २त्ता पलेउभिदइ २त्ता सगडी सागडं भरेइ . २ता रायगिहं नपरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्गे सत्थवाहे तेणेव उवाडच्छ उबागच्छइ २ न्ता ॥ २५ ॥ ततणं से रायगिहे जयरे सिंघाडग बहुजणो अन्नमन्नस्त एवम इक्खति घण्णेण देण पाया! घण्णेसस्थवाह जस्सणं रोहिणिया मुव्हा, पंचसाल अक्खए सगडे सागडेणं णिजाएइ ॥ ततेणं से सत्या तं पंच : अतात ! इस कारण से आपके पांच शाली के दाने माडा गाडी से मैं लालूंगी. धन्न सार्थवाहने रोहिणी को गाडेगाडी दिया. रोहिणी उम गाडे गाडी को लेकर अपने पितृ गृह में आइ. कोठागार उप ड कर पल्लों को मंदकर गाड ओ भरकर राजगृही नगरी की बीच में होती हुई अपने गृह धन्ना सार्थवाह { की पास आई. २५ || राजगृह नगर के श्रृंगाटक यावत् राजमार्ग में बहुत मनुष्यों परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुमिया ! धजा सार्थवाह को धन्य है. जिस को रोहिणी पुत्रवधूने पांच शाली के दाने के इव गाडेभर शालि पछी देती है. धन्ना सार्थवाह शाली के गाडे देखकर हृष्ट तुष्ट दुबे और For Personal & Private Use Only रोहिणी का साथ अध्ययन ३०१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अमुवाद का बाह्मचारी मुनि श्री अमोलक का सालिअक्खए सगड सागडेणं णिजाएइ पसति २त्ता हतढे जाव पडिच्छइ, तरसंवमित्त जाति चउण्हय सुण्हाण कुलघरस्त पुरओ रोहिणीयं सुण्ह तस्स कुलघरस्म बहुकजसुय जाव रहस्सु य अपुछणिजं जाव वड्डावियं, पमाणभूतं दुवेइ ।। २६ ॥ एवामेव समणाउसो ! जाव पंच महन्वयाति संबड्डियाई भवंति, सेणं इह भवे चेव बहुणं समणाणं बहुणं समणीण बहुगं सावयाणं बहुणं सावियाणं जाव वीतीवइस्संति, . जहा सा राहिणीया ॥ २७ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जावं संपत्तेणं सत्तमस्स णायज्झयणस्प्त अयमढे पण्णत्ते, तिबेमि ॥ सत्तम णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ ७ ॥ उपनय गाहा-जहा सेट्ठी तहा गुरुणो, जहाणाइजणो- . तहा समणसंघो ॥ जहा बहुया तहा भवा, जहा सालिकणा तहा वयाइ ॥ १ ॥ उन सब मित्र ज्ञातिय चार पुत्रवधुओं व कलयर के वर्ग मन्मुख रोहिणीको कुल के बहन कार्यों में यावत् रहस्य * कायों में पूछकर काम करने स्थापन की वं घर में सब से बडी बनाइ. ॥ २६ ॥ अहो आयुष्यवंत जैसे रोहिणीशाली के पांच दाने को वृद्धि करने में प्रतिष्टा पाह ही जो कोई साधु साध्वी पांच महावर, अंगीकार कर इस मे संयम तप वृद्धि करेगे वे इस भर में बहुत साधु साध्वी श्रावक व श्राविकाओं में पूज्यनीय होंगे और परभव में भी अनंत संसार का उत्चर्ण करेंगे ॥ २७ ॥ अहो जम् ! श्रवण भगवंत 16शक-राजावतालामुखदवमहायजीवालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ३०३ + षष्ठङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का-प्रथम श्रुतस्कंध 422+ जहा सा उझिया गामा, उज्झिय साली जहत्थ मभिदाणा ॥ पेसण कारितेणं, असंक्ख दक्खणीजाया ॥ २ ॥ तहा भव्वो जो काइ, संघसमक्ख गुरुवि दिण्णाई ॥ पडि वाजिउ समझई, महव्वयाइं महामोहा ॥ ३ ॥ सो इहचेव भवंमी, जणाण धिक्कार भायणं होइ ॥ परलोए दुहहतो, णाणा जोणी संचाइ ॥४॥ जहवा साभोगवई, जइत्तणामोय भुत्तसालिकणा ॥ पेसण विसेसाकारि, तणेण पत्तादुहं चव ॥ ५ ॥ तहाजो महत्वयाई,, उव भुंजई जीवियति पालता ॥ आहाराइसु सत्तो, चतोसिव साहश्री महावीरस्वामी यावत् मक्ष संमतहवे उनोंने ज्ञाताधर्मकथा के मानवे अध्ययनका यह अर्थ कहा है. यह सातवा अध्ययन संपूर्ण हुवा।।७॥उपसंहार-धनः स र्थवाह समान गुरु,ज्ञातिजन जैसे श्राण संघ,बहु जैस भव्यसाधुओं शालिकण जैसे हा व्रत ॥१॥ जो शाली के दाने फेंकदेने से यथा नाम वाली उज्झिन प्रषण (दामी के कार्य करने से अत्यंत दुःखी हुइ॥३॥ वैसंही जो कोई भव्य साधुओं संघसन्मुख गुरुने दिये हुवे व्रतोंको अंगीकार कर भगंकरतेहैं वे इस भव में मनुष्या के धिक्कार को पात्र होते हैं और परलोक में दुःख से हणाये हुवे विविध / 4 कोरते हैं ॥ ४॥ अव जो शाके के द ने पापो से पार्थ नाममाली भोगनी श्रेण (ोई के) कार्य से दुःवी हुइ तैने ही जो साधु महात्रों का भक्षण करता है अर्थत् अ चरणरूा साधु का वेप मात्र रखना। सहै वह अनिी का (पेट भाई ) के लिये पालत हुरा अहर में आसक्त बनकर शिव सुख के साधन का +nonvaraavanninvannnnnnnnnn. रोहिणी का साथवा- अध्ययन 428 For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिच्छ!ए ॥ ६ ॥ सोएत्थ जहित्थ.ए, पावइ आहार मालिंगत्ति ॥ विसाउ जाणाइ पुजो, परलोयाम दुहंचर ॥ ७ ॥ जहवा राक्खया बहुया, क्खिय सालीकणा जहत्थक्खा ॥ परिजण मण जाया, मोगं सुहाइंच संपत्ता ॥ ८ ॥ तहा जो जीवो सम्म, पडिवजित्ता महव्वये पंच, ॥ लेइ णिग्इयारे, पमायलेसं पिवतो ॥ ९ ॥ सो अपहिएकरई इहलोयमि विविऊहिं पणयपओ ॥ एगंत सुहीजायइ, पमि मुखपि पावेइ ॥ १० ॥ जहा रोहिणीओ सुण्हा, रोविय साली जहत्थमभिहाणा ॥ बडित सालकणे, पत्ता सव्वस्स सामित्तं त्य ग करनेवाला होता है ॥ ६॥ एमा साधु वेष से इस लोक म जैसा चा वैमा आहार प्राप्त कर अर्थ सकता है और यहां पर पूज्यनीयभी होता है परंतु परलोक में दःखी होता है॥ ७॥ श ली के कण रक्षने से यथार्थनापवाली रक्षिता सा को मानने योग्य बनी व ओग सुख को भी प्राप्त किया ॥८॥ वैरही जाई सधयों सम्यक् प्रकार से महात्र। अंगीकार कर निराधार मे पाला हैं और प्रमाद भालइ को भी छो. करते हैं वे माधु इस लोक में अला का हित में अधिक य ताप सुख प्राप्त करने हैं. उन के पांव में पाइन विद्वानों भी पड़ हैं और परलोक में मक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥ १० ॥ खेत में पांच शाली रोप1 नपाली यथ र्थ न मवाली रोहिणी शादी के दाने की वृद्धि करने से मात्र का स्वामित्व, पाप्राप्त किया, वैसी मुनि श्री अमोलक पिना • पकत्सक गजाली मुखदवमहायजी म.ल.पगटन. । अनुवादक-बाल ब्रह्मचा For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख कपनी+ ॥ अष्टम अध्ययनम् ॥ जातिणं भंते ? समणेणं भगचया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स जायज्झयणस्स अयमट्र पण्णत्ते, अट्रमस्मणं भंते ! णायझयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं के अट्टे पन्नत्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहवे जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहवासे मंदरस्स पन्वयस्स पच्चत्थिमणं णिसढस्स व सहर पव्वयस्म उतरेग, सीओयाए महाणदीए दाहिणणं, सहावहस्स वखारपव्वयस्म पञ्चत्थिमेणं. पच्चच्छिमे लवण समुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं सलिलावईणाम चकवट्टी विजए पण्णत्ता ॥ तत्थणं सलिलावइ विजए वीयसोंगाणामं रायहाणी पन्नत्ता, नवजायण विछिण्णा जाव पच्चक्ख देवलोय भया ॥ २ ॥ तीसेणे वीतसो प्रकाशक राजबहादर लाला सुखदवमहायजी ज्याला प्रसदजी . अर्थ __ अहो भगवन् ! श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्मकथा के मानवा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा, तम आठमा अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ॥ १॥ अहो जम्बू ! उम काल उम समय में इस जवीप के पहाविदह क्षेत्र में मेरु पर्वत के पश्चिम में निषध नाम का वर्षधर पति से उत्तर में मीता मडा गदी के दक्षिण में मखावह वक्षार पर्वत की पश्चिम में और पश्चिम लवण समुद्र की पूर्व में साललायती नामका चक्रवर्ती का विजय है. उस सलिलावती विनय में वीत शाका नाम की राज्धानी है व For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम तमन्न गाए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमेदिनीभाए एत्थणं इंदकुंभणाम उजाणं होत्था॥३॥तत्यणं वीतसोगाए रायहाणीए बलेनामंराया होत्था ॥ तस्सणं बलस्मरणो बारिणीपा मक्खंदविं सहस्त उवरोहे होत्था॥४॥तएणं सा धारिणीदेवी अन्नयाकयाइ सीहे सुमिणे पासित्तागं पडिबुद्धा जाव महव्वलेयदारए जात्र उम्मकबालभावे जाव भोग समत्ये ॥ ५ ॥ ततणं तं महब्बलं अम्मापियरी, सरिसियाणं सरिस्म वयाणं कमलसिरि पामोक्खागं पंचण्हरायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणिगिण्हावेति, पंच पासायसया, बरगया, पंचसतोदातो जाव विहरते ॥ ६ ॥ तेणं कालणं तेणं समएण नव योजन चौडी बारह य जन की लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलाक समान है ॥२॥ उस वीतशोका राज्यधानी की शिनकून में इन्द्रकुम्भ नाम का उद्यन है ॥ ३ ॥ उस वितशाका नगरी में बल राजा राज्य करता था. उस को धरणी पमुख एक हजार पट्टरानियों थी. ॥ ४ ॥ उस धारणी देवीने एकदा स्वप्न में सिंह देखकर ज गृत हुई गारत् महा बल नाम का कुपार हुया. वह महाबल बाल भाव मे मुक्त होकर भग भागने योग्य हुवा ।। ५ ॥ उस समय पहावल कुंगार के मातापमान उन के समान, वय बल व रूपाली पांच मो राज कन्यानों की पाथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया, पां सों प्रासाद बनवाये और पांच सो दात दायच में आई यावत् उन की साथ सुख भोगवते 4280 श्रीमल्लानाथना का आठवा अध्ययन 18+ Sye 4 । For Personal & Private Use Only . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ke 42 अनुवादक-पालवारीमान श्री अमालकापजा धम्नघालणामथेरा पंवहिं अणगारसएहिंसद्धिं संपी वुडे पुवणुपुचिरेमाणे गामाणुगाम दुइजमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणव इंदकुभेणामं उजाणे तेणेव, समोटे संजमणंतवासा अप्पाणंभ वेमाणवित र.ते ॥ ७ ॥ परिसाणिग्गया, बलोविरायाणग्गओ, धम्मसुच्चााणसम्म जे णवरं महालकुमारं रजेट्ठावइ २ त्ता. सयमेव वलराया थेराण आंतए पव्वइए एक्कारस अगविउ, बहुणिवासाणि समण्णं परियायं पाउगित्ता जेणव चारु पचए मासिएणं भत्तेणं अप्पणेणं केवलं गउणित्ता जात्र सिद्धे ॥ ८ ॥ तएणं सा - कमलसि र अण्णयाकयाई जाव सहि सुमिणे विचरते थे. ॥ ६ ॥ उस काल उस समय में धघोष स्थ वर पांच सो अनगार की साथ पूर्वानुपू च ने ग्राम नुन म मिचरते मुख पूक विहार करते इन्द्रकुंभ उद्य न में पधारे और वहां संयम व तप स आत्मा को भावते हुवे व वरने लगे ॥ ७ ॥ परिषदा धर्मोपदेश सुनने को नीकली बलाजा भी की निकला. धर्मघाप अनगार की पाम से धर्म श्रण कर कहा कि में महाबल कुमार को राज्याप्सन पर बैठाकर आपका पास दीक्षा लेलंगा. यावत् वह बलरजा स्थविर की पास दीक्षित हुए. अग्यारह अंगके जानकार हुने. बहुत वर्ष माधु की पर्याय पालकर चारु पर्वत पर एक मास के भक्त प्रत्याख्यान सहित किल ज्ञान प्राप्त कर सिद्ध बुद्ध व मुक्त हुवे ॥८॥ एकदा कमल श्री स्वामसिंह देखकर जाग्रत ० प्रकार राजावादुर लाला सुख वमहायडकालापस che For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 षष्टांग ज्ञाताधर्म था का प्रथम श्रुतरकन्ध 48 पासित्ताणं पडिवुद्धा जाव बलभद्दो कुमारीजाओ जुवरायाविहात्या ॥ ९ ॥ तस्सणं महबलस्तरपणो इमे छप्पिय बालवयंसयागी होत्था, तंजहा अपले, धरणे, पूरणे, वन, वेसमणे, अभिचंदे; सहजाया जाव संबढियात णिच्छरियवे तिकटु, अण्णम एयमटुं पडिमुगति मुहं सुहेणं विहरइ ॥ १० ॥ तेण कालेणं तेणं समएणं धम्मथोषथरा जणेव इंदकुंभउजाणे तणेव समोसड्डे, परिमाणिग्गया, महब्बलोविराया णिग्गयाओ,धम्मोकहिओ ॥ महव्वलेणं धम्मं सोचा ज णवरं देवाणुयावत् बलभद्र कुमार युवराज हुवे ॥ ५॥ महादलराजा को छ ब ल भित्र राजा थे अर्थात् इन छ को बलभद्रकी साथ बचपनसे ही मित्राचार था. जिनके नाम १ अंचल २ धारण ३ पूण ४३सु ५ वैश्रमण और १६ अभिचंद वे सब स थ जन्मे हुने साथ ही वृद्धि पाये हुरे यार साथ ही संसार त्याग करने के श्रिय वाले थे. और इसी तहर वे परस्पर बचन देकर सुख पूर्वक विचरते थे. ॥१०॥ उप काल उस समय में धर्मघोष स्थ वर इन्दकुंभ उद्य न में पधारे परिषदा वंदन करने को नीकली. महावल भी नील धर्म कथा सुनाई. मावल राजा धर्म श्रषणा कर हर्षित हुए और कहने लगे कि आप के वचन सत्य हैं मन आप के वचन इच्छे हैं. अहंत देवानुप्रय ! मेरे छबाल मित्रों को पूछ कर बलभद्र कुमार को राज्य देकर श्री मल्ल थी का आठवा अधायन 48 436 For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अनुवादक बालब्रह्मचारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पिया ! छप्पिएबालवयसयं पुच्छामि, बलभद्दच कुमारं रजेावेमि जाव जेणेव छप्पथ बालवयं आपुच्छइ; तएणं छप्पिय बालवयंसए महव्वलरायं एवं वयासीजइणं देवाणुपिया ! तुम्मे पवयह अम्हे के अन्ने आहारेवा जाव पव्त्रयामो ॥११॥ तएणं महव्वलेराया छप्पिए बालवयंसए एवं वयासी जइणं देवण.प्पया ! तुब्मे मएसद्धिं जाव पञ्चयह, ताणं तुब्भगच्छेह जेट्ठपुत्तं मएहिं २ रज्जेहिं रट्ठेहि ठ पुरिस सहर बाहिणीओ सियाओ दुरूढासमाणा पाउन्भवह || १२ || तरणं छप्पिए बालवयंसए जब पाउ भवति ॥ १३ ॥ तएण से महव्वल अंतिए छप्पिए बाल मैं आप की पास प्रत्रजित होऊंगा. यावत् अपने छदा बाळ मित्रों की पास आये और उनको अपना वृतां । कहा और उन की अज्ञा मांगी. तब छ ही मित्रोंने कहा कि अहो देवानुप्रिय ! जब तुम दीक्षा अंगीकार करते हो तब हम को किम का आधार है इस से हम भी आप की साथ दीक्षा लेंगे ॥ ११ ॥ तत्र महाबल राजा ऐसे बोले कि अहो देवानुप्रिय ! जब तुम मेरी साथ दीक्षा अंगीकार करना च हते हो तब तुम अपने स्थान पीछे जाओ और ज्येष्ट पुत्र को रज्य देकर महत्र पुरुष वाहिनी शिविका पर आरूढ होकर यहां आजाओ || १२ || तब वे छही बल उक्त कथनानुसार कर के महाबलराजा को पास आये || १३ || अपने छड़ी बाल मित्रों को अपनी पाने दिक्षा लेने के लिये आये हुवे देखकर For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवमडायजी ज्वालाप्रसादजी ३१० Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टङ्ग ज्ञाता धर्मकथा की प्रथम श्रतवन्य 48 वयंसए पाउन्भूए पासइ २ त्ता हटे, तुटे कोडंघिय पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वय सी गच्छहणं तुब्भे देवाणु प्पिया ! बलभद्दकुमारस्म महयारायाभिसेणं अभिसंचेह, तेवि तहब जाव बलभदृकुमारं अभिसिंचति ॥ १४ ॥ तएणं से महव्वलेराया बलभद्दकुमारं आपुच्छइ ॥ १५ ॥ तएणं महव्वल पामोक्खा छप्पियबालवयंसयाए सडिं, पुरिस सहस्सबाहिणी दुरूढा, बीयसोयाए रायहाणीए' मम्झमझेणं णिगच्छइ २ त्ता जेणेव इंदकभेउजाणे जेगव, थेराभगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ ता, तेवि सयमेव पंचमुट्ठियलोयं करेइ जाव पव्वइए, एकारस्सअंगाई अहिजित्ता, राहिणी कासातवा अध्यय वह बहुन हर्षित हुए और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर ऐसा बोले कि अहो देवाणुप्रिया ! बलभद्र कुमार के लिये बहुत बड राज्यभिषक करो उनों ने भी वैसेही राज्याभिषेक किया ॥ १४ ॥ महाराजा ने बरपद कार की दिक्षा के लिये आज्ञा ली ॥ १५ महाबलराजा ने छ बालमित्रों सहित 'हस्र परुष वाहिने शिविका में बैठकर बीतशो का राज्यधानी की मध्य बीच में होते हुए इन्द्रका उद्यान में स्थविर भगवंत की पाम आये और वहां पर उोंने सा ने सय मेव पंच मुष्टिक लोच क्रिया या 'त् प्रवनि । हुए अग्यारह अंग का अध्ययन किया और बहुत चतुर्थ अष्टभक्त यावन् तप व संयम . » For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-पारमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ बहहिं च उत्थछट्ठम अपाणंमावेमाणे विहाइ ॥ १६ ॥ तएणं तसिं महाबलपमे क्खागं सतह अणगाराणं अण्णयाकयाइं एगओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुपजित्या जण्हं अम्हं देवाणुप्पिया ! एगंतवोकम्म उवसंपजिणं विहरइ, तण्णं अम्हेहिं सर्वहिं साई तबो कम्म उवसंपजित्ताणं विहरइए तिकटु, अण्णमण्णस्स एयमढे पडिमुणेइ २ ता बहुहिं चउत्थ भत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरति ॥ १७ ॥ तएणं से महत्वलेअणगारे इमेणं कारणेणं इत्थणाम कम्मं गोयं निव्वंतिसु, जइणं ते महव्वल बजा छ अणगार चउत्थं उपस पजित्ताणं विहरंति, तएणंसे महवले अणगारे छड्ढे उवसंपजित्ताणं है अत्मा को भावते हुए विचरने लगे. ॥ १६ ॥ एकदा महाब.. प्रमुख सातों अनगारोंने मालकर ऐना, वार्तालाप किया कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे अपन एक सरिखा तर कर्म करते हुवे विचरते हैं वैसे ही समान सदैव ता करना. साने यह बात स्वीकार की. ॥१७॥महाबल अनगार ने आगे कहेंगें उस कारन से स्त्री नाम कर्ष निष्पन्न किया. जब पहावर अनगार मिवाय अन्य छ स धुनों एक उपवास करते थे तर महाबल अनगर बला करते थे, जब अन्य छ अनगारों बला करते थे तब महाबल अनगार तेला करते थे। • महाशक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजा. मर्थ * Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ort મધ जनधर्म कथा का प्रथम श्रनस ध विहरति, जइणं महवल्लयज्जा छ अणगारा छटुं उसंपजित्ताणं विहरइ, तएणं से महव्वले अणगारे अट्ठमं उपसंपाजता विहरंति ॥ एवं अहे अट्ठम तो दममं अहदसमतो दुबालसम ॥ १८ ॥ इमे हयाणं वीसाहिय कारणहिं असविय बहुली कएहि तित्थयर जामगायं कम्मं नि तेस तंजहा (गह!) अरिहंत सिद्ध पवयण, गुरु थेरे बहुस्सुए तवरलासु ॥ वच्छलयाय तसिं, अभिक्ख जागोवओगेय ॥१॥ सण विषय आवस्स. शेजा अन्य समगार तलाकथनद महाबल अन्गार पीला करते थे बछ चोला करने तर महाबल अ गार वोला करते थे. इस तरह गुप्तपने अधिक सपश्चर्या करने (माया सेवनसे) स्त्रनाम कर्म उपार्जन किया ॥ १८ ॥ निमत बर ६ क प २ संवन ता कर नाम कर्म की उपकी . इन पप स्था के नाम---१ रिहंत, २मिद्ध, ३. शस्त्र ४ गुरु स्थविर पुत्रः, यत् पण्डित. ७ प हातों के बारम्भार गुण नुवाद करने से, ८ ज्ञान का वारकर पनेरने मे१ एकम .१० गुरु इत्यादि पूजा जना में विन्य अर्थ नमा भात ख. ११ वी, यासी, पर्ख..चौका और पं . इ. वर आपदयों को। सबसम ने बंर नहीं होता है तो साधुपना में कैसे होगे ? इस शंका का निवारण के लिये स्त्री नाम कर्म के उपार्जना में विधात्व अथवा शाश्वदन की प्राप्ति माया करने से होना संभवत हे श्रीमल्लनाथ जी का अंठ अध्ययन and 9 For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ बालब्रमचारी मुनि श्री अमेलक ऋषीजी - 'एय सीलबएय णिस्वइयारे ॥ खणलव तवच्चियाए, वेयावच्चे समाहीयं ॥ २ ॥ अपुत्रणाणा गहणे, सुयभत्ती. पवयणेप्पभावणया ॥ एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं । लहइजीवो ॥ ३ ॥ १९॥ ततेणंते महब्बल पामे क्खाण सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरंति ॥ जाव एगरातियं उवसंपजिताणं विहरंति ॥ २० ॥ ततेणं से महव्वल पामोक्खा सत्त अणगार। खुड्डागं सीहणिक्कीलियं तवो कम्मं उवसंपजिनाणं विहरति, तंजहा-चउत्थं करेति २ चा सव्वकामगुणियं पारेति, सदा करने से, १२ शील अर्थात् ब्रह्मचर्य इत्यादि व्रतों का निदोषतया आचरन करने से, १३ सदा निवृति अथा वैग्य भाव रखने से, १४ बाह्य व आभ्यंतर तपश्चर्या करने से, १५. सुपात्र को दान देने से, १६ गुरु, रोगी, तपस्वी व नविनदीक्षित की वैय्याबृत्य करने से, १७ समाधि भाव रखने से, १८ नित्य नय अपूर्ण ज्ञान का अभ्यास करने से, १९ जिनेश्वर की वाणी पर बहुमान पुर्वक श्रद्धा रखने स, और २० जैन धर्म को तनमन व धन से उन्नति करने से. इस तरह बीस स्थानक मे अन्य जीव भी तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन करते हैं ॥ १९ ॥ महाबल प्रमुख सातों अनगारने एक मास की भिक्षु प्रतिमा ल अंगीकार को यावत् एक रात्रि दिन की यों भिक्षु की बारह प्रतिमा अंगीकार की॥ २० ॥ अब महावल प्रमुख सो अनगार लघुसिंह क्रीडा तप अंगीकार कर विचरने लगे. इसकी विधि एक उपवास करके सब प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी. , For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + +2+ षष्टाङ्ग ज्ञातामकथा का प्रथम श्रुनस्कंध छटुं करेंति २त्ता चउत्थं करेंति, २. त्ता अट्ठमं करति १ त्ता छ8 करेति २त्ता दसमं करेंति २ ता दुवालसमं करेति २ त्ता दसमं करेइ. २त्ता चोदसमं करेंति २त्ता दुवालसमं करेंइ २त्ता सोलसमं करेंति २त्ता चोदृसमं करेंति २त्ता अट्ठारसमं करेंति २त्ता सोल समं करोति २त्ता वीसंतिमं करेंति २त्ता अट्ठारसमं करेंतिरत्ता वीसतिमं करेतिरत्ता सोलसमं करेंति २ चा अट्ठारसमं करेंति २ ना चोदसमं करेंति २त्ता सोलसमं करेंति . दुवालसमं करेंति २ चोदसमं करेंति २त्ता दसमं करेति २त्ता दुवालसमं करेति २त्ता प्रकार के आहार भोगवकर पारणा किया, फीर बेला किया, बेला का सब प्रकार के आहार से पारना किया फीर उपवास किया, उपवास का पारना करके तेला किया, इस का पारणा करके बेला किया, इस को पारमा करके चोला किया, चोला का पारना करके तेला किया, तेला का पारना करके पचोला किया, पचोला का गरना करके चोला किया, चोला का पारना करके छ उपवास किया, छ उपवास का पारना करके पांच उपवास किये, पांच उपास. का पारना करके मात उपचास किये, सात उपवास पारना करके छ उपास किये, छ उपवास का पारना करके आठ उपवास किये, अठ उबाम का रुपाना करके सात उपवास किये, सान उपनाम का पारना करके ना उपास किये, नव उपवास का 428 श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4g For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋ अमेकरिता दमं करेंति२त्ता छ करेति २ अगं करेंति, शत्ता छटुं करेंति २वा चउत्थं करेनि २ सस्था कामगुणियं प्रदेशी ॥ एवं खल एना खडाग सिंह नि कीलियस तवोकस्य पढमा परिडी, छडेमासदिय सतहिय अहोरताय, अहाता जाव आराहिया भवति ॥ तयाण तरचणंए दंए परिवाडीए उत्थं करें। २ ता नवरं विगतित्रज्ञ पारेति ॥ एवं तच्चापि परिवाडीए नवरं पारणाए अलेवाड पारेति ॥ एवं चउत्थवि परिवाडी णवर पारणए आयंबिलेणं . प करके आठ उपनाम किये, फीर नव उपवास, सात उपशन, आठ उपवास छ उपासन उपरास, पांच उपवास छ उपवास, चार उपवास पनि उपवास तीन उपवास, चार उपास दो उपवास. तीन उपवराम, एक उपास दो उपचार व एक उपवास. इन फक अहार भोग इन घुट क्रीडा तप की एक परिवाद में इस में पारना के तीन दिन जाते हैं. इन का सूत्र विधि से अगस्त की यवत् वपूर्ण हुई. तश्चात् दूसरी परिषटी उक्त प्रकार ही की. इस मे परने में गिय का त्याग किया. तीसरी परिपाटी एस ही की परंतु पारने में अलेपकारी लेप लगाया हुआ नहीं बैा आहार किया, और चौथी परिपाटी के For Personal & Private Use Only के पार के दिनों बार कर बसान लगते हैं. ● प्रकाशक- राजावर दर लाला मुखमा ३१.६ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. 2 Vvvvvvvvvsn.in पारेति ॥ तणं ते महव्वल रामक्खिाणं सत्त अमाग खुडग साहनिकालिय तोकका दोहिं स्वच्छर हिं अहानीमए अहार तहि अहसुन जाय अणाए आगहित्ता ॥२१॥ जणेव थर भगवती तेणेव उनागच्छंति २त्त थेर भगवते बंदात नममंतिरत्ता एवं चयाम-इच्छा म मते ! महालय सीहनिकोलिय ताकम्म तहेव जहः खुडारा, गवरं चात्तीमइमाओ निपाई गाएपंडवाडे ए कालणं एगोणं संवच्छरणं छह पटवायकरावाप्रमा Elevara cive speeccidenheckerder REETCSSEDCCCCIEEEECcakcise- CGadai 33333xasansaiaasaa350sesiaaaabaacia . ल्ल थजा का आठवा अध्ययन career Cape cases * हा तर उक्त मातों अगारने लघु सिंह कंडा नपदो र पूर्ण किया. या प्रत् भावानुसार आराधन किया, ॥२॥ ॥ गट नाम . .. भगार स्थ वर की : अये, स्थविर "ग+को वंदना नमस्तार क बारे कि हो भगवन् ! हम यहा भिंड क्रडान अंगीकार कर इस विधि लपाद कीडर तप रही। न . प. कद : उपवास पर्यंत लिया है इसमें ६ उपनाम कान फर यहांछे फर।. एक परिपाटा एक, छ माम व अटस दिन में पूर्ण है की है. और को परिपाटी मिलकर है For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ * अनुगदक-पलब्रह्मचारीमान श्री अयो के ऋषिजी मासहिं अट्ठारसहिं अहोरत्तेहिं समप्पात; सत्यपि सीह णिकीलियं-छ हेवासहि दोहिमासेहिं बारसहिं अहो रत्तेहिं समप्पात ॥ २२ ॥ ततेण ते महबले पामाक्खा सत्त अगगारा महालयं सीहनिकोलिय अहासुत्त जाव आराहित्ता ॥ जगेव थर भगवंते तेणेव उबागछति, तेणेव उवागछित्ता थर भगवंते ! वदात णमंसंति २त्ता बहुणि चउत्थ जाव विहरंति ॥ २३ ॥ ततेणं ते महन्वल पामोक्खा सत्तअणगारा तेणं उरालेणं सुक्खाभुक्खा जहा खंदओ, गवरं थेरे आपूच्छित्ता (पाठांन्तर चारु पव्यय ) वक्खार पव्ययं दुरुहंति जाव दोमालियाए सलेहणाए सवीसंभत्तसयं अणसणं मासिंह क्रीडा तप छ वर्ष दो मास व बारह अहो रात्रि में पूर्ण होता है।॥२२॥ महासिंह क्रीडा तप की सम्पन प्रकार से आराधना करके उक्त सासों अनगार स्थविर भगवंत की पास गये और उनमें को वंदना नमस्कार क के चउत्थ भक्त यावत् तपश्चर्यासे । संयम से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे ॥ २३ ॥ ऐमा उदार शुष्क तप से स्कंधक जैसे उक्त सातों अनगार हुने और स्थविर को पूछ कर वक्षस्क र(वास)पर्वतपर गये.यावतू दो मासकी संलेखनासे १२० भक्त अनशनका छेदनकर ८४ हजार बर्ष *साधु पना पालकर सब मील कर ८४ लाख पूर्व का आयुष्य पालकर जयंत विमान में देवता पने उत्पन्न प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 48 ध पठान ज्ञातावर्षकथा का प्रथम- . चउरामिति वाससय सहस्साति समण परियागंपाउणंति २त्ताचुलसीइ पुवासय सहस्साई . सव्वाउयं पालइत्ता, जयंते विमाणे देवत्ताए उववण्णा ॥ २४ ॥ तत्थणं अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाई हिंई पण्णत्ता ॥तस्थणं महब्बल वजाणं छहं देवाणं देसूणाति बत्तीसंसागरोवमातिदिति, पण्णत्ता महब्बलस्स देवरस पडिपुण्णाति बत्तीसं सागरोधमाति ट्ठिति पणत्ता॥२५॥ ततेणं ते महब्बलदेववज्जा छप्पियदेवा जयंताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ट्रितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयंचइत्ता इहेब जंबूट्टीवेदीवे भारहेवासे विसुद्ध पितिमाति वससुय रायकुले पुय पत्तेयं २ कुमारत्ताए पच्चाया, तंजहा-पष्टिबुद्धा इक्खागराया, चंदच्छाए अंगराया, संखे कासिराया, रुप्पि हुव. ॥ २४ ॥ वहां कितनक देवों की बत्तीस सागरोपम की स्थिति कही. है वैसे ही महाबल छोडकर छ देव की स्थिति कुछ कर बत्तीस सागरोपमकी हुई और महाबल देवकी बत्तीस सागरोषम की पूरी स्थि ईई ॥ २५ ॥ प्रहाबल सिवा छ देवों वहां से आयुष्य, स्थिति व भव का क्षय होने से अंतर रहित कर इस जम्मूद्रीप के भरत क्षेत्र में विशुद्ध मातापिता के वंश में राजकुल में कुपारपने उत्पन्न हुने, जिन के HIम-१ प्रतिबुद्धि इक्षाग देश के राजा का पुत्र २ चंद्रछाया अंगदेश के राजा का पुत्र ३ शंख श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 448 अर्थ | १. | For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाद-मालबासबारी पानश्री अमापजा - कुणाला हिवई, अणरत्त कुरुराया, जियमत्त पंचाला हवई ॥ २६ ॥ ततेणं से महबले देवो हैं जेहिं समग्गो उच्च गएमु गहे सु सोमास दिसामु वितिमिरामु सिद्वासु जइन्पु सटणे या हणाणुक लमि भूमिमपिसि भात्यसि पायप्ति निवारसमेइणीइंसि क ल एमइ। कीला सजन एमु अहरत्तकाल समलि अस्मिगाणखत्तेणं जो माणस हमंताणं चउथैम से अटुमेपरखे तस्सगं । गुणस्प च उत्थी र जयतन किमाणाओ बत्तीस माग। मं ढतायाओ अणंतर य चइत्ता इहव जपहीवेदवे भारहे बासे महिलाए रायहाणिए । स देश के राना । पुत्र ४ रुकी कुलदेव रामा । पुत्र ५ प्रदी-शत्रु कुरु दशक २ जा का पुत्र जीन शपांवल देश क राजा का पुत्रम ॥२६॥ श्च त् तीन ज्ञान सहन महावन देव उच्चस्थ न ग्रो पास ह ने पर, पम्प अंक र रनि विशुद्ध देशको ने पर, जयन शकु, सुखकारी .य, सब प्रकार क धान की उपची व लं.कोदित कडा कर हमने कभर त्रिकाल में अश्विनी नक्षत्र ११ यम में हत ऋतु का चतुर्थ म स व अउवा पक्ष अर्थत् फल्गुन शुदा ४ में जयंत विधान से चाकर र राहत इस जम्वृद्धाप के भरत क्षेत्र में मिथिला राज्यधनी में कुंभर ना की प्रभात देवी की कार्ड प्रकशक-गनावहादुर लाल सुखनवमहायजा ज्याला प्रमादजी. For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- PO त्र 2 has it ilab कुंभगस्मरन्ना पभावतीए देवीए कुछिसि ताओ देवलागाओ अ हारबछातीए. भवतीए, सरीरकतीए गमताए वसत ।। २७॥ त रयगं च गं पभावद तामे तारिस गसि वामभवणमि सयणिजसि जाव अद्धरस काल समयास सत्तजागरा ओहोरमाणी २ इमेयारूपे उराले कल्लाण सिवे धणे मंगले मस्सिरिये चउद्दसमहासुमिणे पासत्ताण पडिबुद्दा तंजहा गय. बसह, सीह, अभीमेय, दाम, मसि, दिण्या, ज्झय, कुंभं. पउमसर, सागर, विमाणा, रयण चेया मिहच ॥ २८ ॥ तएणं सा पभावइदेबी जणव कुंभराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जाव भत्तार कहणं, समणपाटग में देव बंधी पाहार, भव व शरीर छोडका गर्भ पने उत्पन्न हुए ॥ २७ ॥ 3 रात्रि में प्रभावती देवी पुनको यगर भान में यत् अर्थगत्र में सुप्त जन अरस्थ में एने उदार कल्याणकारी है का, मंगल कारी व रक्ष्यांवत २उहर मह सप्त दखकर जाग्रत हुई जिनके नाम- गज वृषभ ३ ४ लक्ष्मी ५ पप्प की दो मालाओ ६ शशा ७ सूर्य ८ इन्द्र धना १ कुम्भ १० पद्य संगवर ११ मागर T१२२ विमान १३ गता की राशि १४ निर्व अधि. ॥ २८ ॥ तव पावती दवी जहां कुंघराजा थे वहां आई. अपने पति को सर सप्न निवदन किय. सपा पाठों से इस की पृच्छा की पावन गर्भ की पति मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन + + । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82 पुच्छा, जाव विहरंति ॥ २९ ॥ तएणं तीसे पभाई देवीए तिष्हं मासाणं बहु पडिपुण्णाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूए, धण्णा माणं ताओ अम्मया तो जाओणं जलय थलय भासूर पभएणं दसवण्णणं मल्लणं, अच्छुय, पच्चच्या सयणंजसिं सण्णिस्सनाती सयणवण्णातोय विहरति ॥ एगंचण महासार सामगंड पाडल मलिय चंपय आसोय पुन्नाग, मरुयग दमणग अणोज कोज कारट पतिवर पउरं परम सुहफास दरिमाणजे महया गंधद्वाणंमुयंत, अग्घायमाणीओ डोहलं विणिति ॥ ३० ॥ ततेणं तीसे पभावतीए देवीए इमएयारूवं डाहलं पाउब्भूयं पासित्ता, अहा पालना करती हुइ विचरने लगी. ॥ २९ ॥ तीन मासे पूरा होते अभावती देवीको ऐना दोहद उत्पन्न हु ने कि उन माताओं को धन्य हैं कि जो जल व स्थल में उत्पन्न हुए देदीप्य पान तेजवंत, बहुन पांचौ वर्ण के पुष्प की मालाओं, पांचों वर्ण के पुष्पों से अच्छदित.प्रच्छन्न उपग उपरी पुष्षों वाली शैय्या में अच्छ तरह बैठकर मन के मनोरथ पूर्ण करती है. और शैय्यापर में रही हुई पाहल, मालती, चंपक, अशोक युनाग, मरुया दमण, अनवद्य, कुवज, कोरंट पत्रं इन के श्रेष्ट पत्र व पुष्पों से बनाया हुवा, देखने में है स्पर्श में बहुन मुख खारी और बहुत सुगंध फैल वैसा पुष्ष का गेंद (गोटा) को मुंघती हुई मैं या दोहर पूर्ण करूं ॥३०॥ प्रभावती देवी को ऐसा दोहद उत्पन्न हुवा जान कर पास में रह हुवे वाणव्यंतर प्रकाशक राजाबहादर लाला मग्नदन महायजी ज्वालाप्रमाद जी . अर्थ For Personal & Private Use Only www.iainelibrary.org Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध सन्निहिया वाणमतरादेवा खियामेव जलय थलय जाब तडवण्ण मल्लं कुंभग्गसोय भरागसोय कुंभगस्सरण्गो भवणंसि साहरंति; एगंच महं सिरि दामगंड जाव गधंद्धणिमुयंत उघणेति ॥ ततेणं सा पभावतिदेवी जलय थलय जाब मलेणं डोहलं विर्णेति ॥ ३१ ॥ ततेनं सा पभावतिदेवी पसत्थदोहल जाव विहरइ ॥ ३२॥ ततेणं सापभावतिदेवी मासा बहुपडिपुण्गाणं अडट्टमाणशतिदियाण जेसे हेमंताणं पढमे मासे hara मग्गसिर सुद्धं तस्वणं मगसिरसुद्धस्स एक्कार सीए - दिवसेणं वरत्तकालसमयंसि अस्मिणीएणक्खत्तणं जांगमुवागएणं उच्चट्ठाण जात्र मुइय पक्की लिए आरोयारायं पुव्रता जण सु देवीने शीघ्रमेव कुंभराजा के भान में जल व स्थल में उत्पन्न हुने पांचों वर्णों के पुष्पों का साहरन किया और एक बडा पुष्प का गेंद यावत् गंध फळे तसा लाये. वह प्रभावती देवीने उन जलस्थल से उत्पन्न हुए पुष्प दि सं यावत् दांहृद पूर्ण किया. ॥ ३१ ॥ वह प्रभावतीदेवी प्रसस्त दोहद वाली यावत् विरने लगी. ॥ ३२ ॥ अब प्रभावती देवीको नवमास प्रतिपूर्ण हुवे और उपर साढीसात रात्रि दिन होते. ( हेमत ऋतु के प्रथम मास में दूसरे पक्ष में अर्थात् मृगशर शुदी एकादशी में पहिली रात्रि पूर्ण हुए पीछे. अश्विनी नक्षत्र में ऊंचे स्थान ग्रहों प्राप्त होने पर यावत् प्रमुदित व क्रीडा वाले लोकों होवे ऐसा देश For Personal & Private Use Only * रोहिणी का सातवा अध्ययन ३२३ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुवादक-वालह्मचारी मुनि श्री अमोलक गुगीसतिमं तित्थयरं पयाय ॥ ५३ ॥ तेनं कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्यव्त्राओं अट्टयदिनाकुमारिए महयरियाओं जहा जंबूदीपणती जमणं सर्व भाणियनं; वरं महिलाए जयरी कुंभरायस् भवणीने पभावती देवीए अभिलाशे, संजीएसवी जाब नंदीसरदीव महिया ॥ ३४ ॥ सागं कुभगया बहुवियति वाणवितर जोइलिय माणि देवातिर जम्मण निषेय जायकम् जाव णाम करणं - जम्हाणं अम्हेंइमाए दारियाए मऊ कम सिमल यणिज्जति डोल विणीते. त होऊग णामेणं हिमी प्रकार की बाधा पंडरी लोक में गजदंता पर्यन के उत्पन्न हुए || ३ || उप काल उन समय में अधे नेवल आठ देवयों चारों दिश व विदिशा से आई. यावत् ५६ कु ६४ इन्द्र जन्म किया. इन का विस्तारपूर्वक वर्णन जम्बूदी पन्नास में किया कैंस यहां जना विशेष में निथला नगरी कमराजा पिता व भावताना पावत् दिश्विर द्वीप में आकर अटाइ महस्व किया वहांतक सब कथन कहन. ।। ३४ ।। बहन भवनपति बाणांतर ज्योतिषीनिक देवाने निकर का जन्म महोत्न किये पीछे कंमराजाने जन्म महोत्सव किया, जन्म कर्म किया यावत् नामक स्थइस वलकाको मतको पुष्प की बनाई हुई मालाओं की For Personal & Private Use Only • प्रकाशक- राजवहादुर लाया मुखदेवसहायजी ज्वालामसादकी ३२४ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्र २२६ षष्टांग हाताधर्मकथा का श्यप तस्कर ... मला णामंठयेइ ॥ जहा महाबले जाव परिवाड्डिया, सावडती॥३५॥भगवती देवलोयच्या अजोवम सरीरा · दासीदास परिवुडा परिकिन्ना पीढमहर्हि, अमिय सिरया, सनयाणा, बिंघोडी, धवलदतपतीया घरकमलकोमलंगी, फुल्लुप्पलगंधणीमामा, ॥ ३६ ॥ ततेणं सा मल्ली विदेहरायावरकण्णा उम्मुक्क बालभव जाव रूण जावणणय,लावण्णणय, अतीव २ उकिट्रा उक्विटसरीराजायायावि होत्था॥३७॥ तएणं सामल्ली विदहरायवर का देण. वाससये जाया त छपिरायाणा विउलेणं उहिणा आभोए शैया मोने का देहद हुवा जिम से इस बालिका का नाम मल्ली होवे. वह महाबलः कुपर 3. ॥ ३६॥ भगवती मल्ली देवलोक में से चरकर अने से उन का शररी अनुपम था, दाम दासियों के परिवार से सदैव परवरी हुई थ, मित्र स्वजनो में सर्वाधिक देखाती थी, अनिसमान नक के बाल काल थे, नयन विकसिम प्रकाशमान थे, ५का गोलह के फल सान अपरोष्ट थे, व दांत की पक्तओं थी, श्रेष्ट कमल और कोलांगी थी और प्रफल्लन गंध जैसा निश्च स था ॥ ३६॥ वह पल्ली ए की विदेह राजवर कन्पा बाल भाव से मुक्त होकर यावत् का योपन लावण्य को ताप हुई. और उसका शरीर आती है। उत्कृष्ट देदीप्यमान दीखने लगा॥३॥मबह विदेह राजा की प्रधान न्य 'कुरुप की ई तब पाने पूर्व के मित्र छ ही राजा को अपने विपुल अनधि ज्ञान मेदेखीईई' 48 श्रीमल्ल नथनी का आठवा अध्यन HD 4 For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी र आभाएगणी २ विहरतिजिहा-पाडबुडि जावे जियतु पंच ला हिवइ।३८ ।तत सामल्लें। विदहरायवर का कोटुंबियपुरेसे सदावति २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुब्भ तुब्भे देवापापिया ! आसोगणियाए एगंमहं मोहगघरं करेह, अणेगसंभसयसन्निविट्ठ ।। तस्मण मोहणघरस्स बहुमज्झदसभाए छ गम्भघरए करेह, तरसणं गब्भघराण बहुमज्झ देसभाए जालघरं करेह, तरसणं जालघरस्स बहमज्झदेसभाए माणिपाढिय करेह ॥ तवि तहेव जाव पच्चप्पिणति ॥ ३९ ॥ ततेणं सामल्ली मणिपीढियाए उबार अप्पणो सरिस्सिय सरित्तयं सरिसवयं सरिसलावण्ण जोवण्ण गुणोववेयं,कणगमयं मत्थय च्छिाईयं पउमप्पल विचरती थी जिन के नाम-पतिबुद्ध राजा यावत् जीनशत्रु राना पांचाल देश का अधिपति ॥ ३८ ॥ तब उस मल्ली कन्याने कौटुम्बिक पुरुषों को बोल कर ऐसा कहा कि अहो देवानु मव ! तुम अशोक वन में एक बडा मोहनघर वनाको उम में अनेक संभों खडे 'करो, उम मोहन घर के बहुत मध्य भाग में छ गर्भ धरों (गुप्त रहने के कमरे ) पनाको, इन की बीच में छ जालीवाले घर बनावो, उम की बीच में एक मणि पीठिका (चबूतरा) बनावो, इतना करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. कौटुम्बक में पुरुषोंने वैस ही किया ॥ ३१ ॥ मल्ली कन्याने उम मणि पीठिका के चबुतरे पर अपने जैसी त्वचा. * लावण्य, वय, लक्षण व गुण वाली एक सुवर्ण की प्रतिमा बनाइ. इस के मस्तक पर पन कपल जैसा प्राक गजबह दर लाला मुखदेवमहायनी वाल.प्रसदनी . For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षष्ट ङ्ग ज्ञात धर्मव था की प्रथम श्रमस्वन्थ + अण्णाकयाई जे पिहाणं पडिम कारेति २ ता तरणं मल्ली विदेह रायवरकाण्णा विउलं असणं पाणं खा इमं साइमं आहारेति ततो मणुण्गाता असणं पाणं खइमं साइमाओ कलाकलि एगमेपिंडं गहाय तीसे कणग मतीए मत्थए हिदुए जाव पडिमा मत्ययंसि पविमाणी विहरति ॥ ४० ॥ नतेणं तीसणं कणगमतीए जाव मत्थय च्छडाएपडिमाए एगमेसि पिंडेप क्खिप्पमाणे २ पउपप्पल पहाणं वितता गंधे पाउ भवइ से जहा णामए अहिमडेतिया, गोमडेोता, पणरलडेतिया जाब एते अनितराए अत्रणामतराए ॥ २१ ॥ सेणं काले ते समपुर्ण के सलाणाम जणवए, होत्था तत्थणं सागएणामं नगरे तरसणं सागए जयरे बहिया उत्तरपुच्छिम दिलामागे छिद्रवाला ढक्कन बनाया, यावत् विपुल अशनादि का जो आहार वह करतथं उ में मेमना आदारादिका एक २ कवल कालोकाल उस छिद्र के द्वार से प्रतिमा में प्रक्षेपती हुई बेचने लगी ॥ ४० ॥ उस कनकमयं यावत् मस्तक में छिद्रवाली प्रतिमा में एक २ कवल आहार का डालने मे दुर्गंध उत्पन्न हुई. जैसे मृन सर्प का शरीर, मृत गाय का शरीर, मृत मनुष्य का शरीर मंड जान से जसे दुर्गंध पैदा होती है. इस भी अधिक तर अनिष्ट व अमनोज्ञ दर्गंध उत्पन्न हुई ॥ ४१ ॥ अब यहां से छ राजाओं का अधिकार चलत है. जा काल उस समय में कौशल नाम का ज पद (देश) था उस में साकेतपुर नगर था, उस नगर की ईशानकून में एक व नागकर देवता का देवालय था, वह देवता मत्य, सत्य वचन For Personal & Private Use Only ** श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ३२७ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अमुसदक-बाला ह्मचारीमुनि श्री अपोलकाता प्रत्यणं महे। गघरेहोत्या, दिवसच सच्चे व.ए, सन्निहि परिहा ॥२॥ तरण सागए गयरे पडिबुद्धीन मं इक्खागराया परिवमति, पङमावतीदेवी, सुबडी आमच्चे सामदंडे ॥ ४३ ॥ ततेणं पउमावतीएदेवीए अन्नयाकमाइ नागजत्ताएयाविहोत्थ. ॥ ततेणं सा पउमावतीदेवी नागजतं मुट्टिय जाणित्ता, जगेव पडिबुद्धीगया तगेव उवागच्छइ २ ता करयल जाव एवं बयासी.एव खल सामी ! ममकलं गार्ग जत्तए भविस्तति, त इच्छ मिणं सामी ! तुबभेहिं अब्मणु गायासभाणी नाग जन्नयं गमित्तए, तुम्भेवियणं सामी ! मम नागजन्नयांम समोसरेह ॥ ततेणं पडिबुद्धाराया पउवमाइदेवीए एयमट्ठ परिसुगति ॥ ४४ ॥ ततेणं पउमावती करनेवाला प्रतिमा की पास रहनेवाला थ' ॥४२॥ उम माका नगर में प्र नेबुद्धि नाम का इक्षागांश का राजा राज्य करता था, उनकी पद्मावती देवी थे , सुद्धि प्रधा। था वह शमादि दंड में कुशल था. ॥४३॥ एकदा पद्मावती देवी को नाग देवी यापा-उलप था वह उत्सव पास आया जानकर प्रतिवाद राजा की पस जाकर हाथ जोडकर एमाबली, हो सामिन् ! कल मर को नाग देवता का उत्सव में जाना है इससे आपकी अज्ञ होवे तो नाग उत्सव में जाना चाहता हूं और आप भी वहां पध रे. प्रतिबुद्ध रानाने पनातीदेवी का पनन मान्य किया ॥ ४४ ॥ पतेबुद्धि * प्रकाशक-राजाहरलालामुखहवमहायजी उचाल मा अथे . For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पहङ्गामध-वथ का प्रथम श्रमसन्ध देवी पडिबुद्धमन्ना अब्भणुन्नयासमाणी हट्ट तट्ठा कोडुबियपुरिसे सहावेति, महावत्ता एवं वयानी एवं खल देव णपिया ! ममकलं णागजणए भविस्मइ 13 त तुम्भे मालागार सह बेइ २, त्सा एवं बदह-एवं खल पउमावई देवीए कल्ल णागजन्नए भविस्वइ, तं तुम्भेणं देवाणु प्पिया ! जलय थलय दसद्ध वण मलं जाग घरपंसि माहरेह, जलयथलय दमवण मलं साहरित्ता एचगं महसिरिदामगड उवणेह ॥ तेणं जलय थलय दसद्धवन्नणं मलण नाणाविहभात्त मुविरइयं करेह, तास भति सि हस मिय मयूर कोच सारम चक्कवाय मयण साला कोइल कुलोवेवय ईहामिय है।ज की अनज्ञ होने में पछावनी दी हृष्ट तुष्ट हुई और कौम्बि: पुरुषों क बोलाका ऐसा बोली अहोईल दवा ! कल मुझ नगक उत्सव है इस मे अहो देशानुभव ! मलाकार को बोलकर ऐसा कहा iक (मता देवी का कल नाग का उत्सव है इस से पांचों वर्ण वाले जलज 4 स्थलज पुष्पों की लाओं नागपुर में लाया और उसका ए बड़ा श भय मान गेंदबावो फेर ले त्पन्न व स्थल पत्र पानों वर्ण पुरुषों की माला वध कर के इंत, मृग, मयुर, केंच, मास, चकवे, पैना, कोकिला ils 2. गुरु व साभा, चल, याहा मनुष्य मकर, पक्षी, वगल', विमर, अष्टापद, चवी गाय, हाथी वगैरह विपित्रकार के चित्र बनायों, और पहन मह मावाला पुष्य का पंडाव . 11 के भ भ म में मल्लानयना का अठमा अध्यय। 42 For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल ऋषी उह तुरंग पर मग! विहग वलग किण्णर रुहरु साम चमरणला पउमलया भत्ति चित्तं महग्घं महरिहं विपुलं पुप्फ मंडव विराएह || तरसणंपुप्फ मंडवर बहुमज्झ देनभाए एगंमहं सिरिदामगंडं जाव गधद्वाणं मुयंत उल्लोयंसि उलएह २त्ता परमावर्ति देवीं परिबुद्धिओ पडिवाले माणा चिट्ठह ॥ तरणं ते कोडुबिया जात्र चिट्ठेति ॥ ४५ ॥ तलेणंसा परमावती देवीकलं कोटुंबिय पुरिस एवं क्यासी- खिप्पामेत्रभो देवाणाप्पया ! सागयणगर सतिर बाहिरियं आसिय समज्जियंओवाळित्त जाव पच्चपिणति ॥ तणं सापडावइ देवी दोचंप को बिय जाव एवं वयासी- खिप्पामेवं लहु करण जुत्तामेत्र उबट्ठा ॥ तणं सा पउमावइ देवी अंतो अंनेउरंसि व्हाया जाव धम्मियं जाणं पवहणं दुरुढ ॥ ततेणं एक बड' मला का गेंद यावत् गंध का फैलाव करता हुआ बनावो. छत-चंदर बंधो और पद्मावती देवी वमा बुद्धि राजा की मार्ग प्रतक्षा करते हुए वहां रहो. कौटुम्बिक पुरुषों वैने ही सब कार्य करके वहां ही रह ॥ ४५ ॥ प्रभात होते पद्मावती देवीने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर कहा कि अहो देवनुप्रिय ! साकेतपुर नगर की अंदर व बाहिर संगंधित जल का छिडकाव करो, कचरा स्वच्छ करावी, दिपा रंगा बगे ह करके मुझे मेरी आज्ञा पोछी दो फीर पद्मावती देवीने कौटुम्बिक पुरुषों को दूसरी बार बोलाये व कहा मेरे शीघ्रवाल वाले बैल से युक्त यावत् रथ तैयार कर लो. तपश्चात वह पद्मावती देवी For Personal & Private Use Only • प्राय राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ० ३३० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Ro पष्ट अज्ञाता धर्मकथा का-प्रथम श्रतस्क सा पउमावतीदेवी नियगपरियालमहि संपरिबुडा मागेय नगरं मझं मज्झेणं निगच्छइ २ त्ता जेणेव पॉक्टहणि तेणव उवागच्छइ २ त्ता पोक्खगणं उग्गहति पोक्खराणि उगाहेत्ता जल मजणं जाव परमसूइ भूया उल्ल पडसाडयाजाई तत्य उप्पलाई जाव तत्थं गेण्डइ २ त्ता जेणेव नागघरए तेणव पाहरत्थ गमणाए ॥ ४६ ॥ ततणं सा पउमावतीएदेवीए दासचेडाओ बहुप्रो पुप्फफलग हत्थगयो धूवकडच्छुयं हत्थागयाओ पीटुओ समणुगच्छति ॥४७॥ ततेणं पउमावइदेवी सन्विड्डीए जावरवेणं जेणेव जागघरए तणव उवागच्छइ२त्ता नागघरं अणुपविसइ २त्ता लामहत्थग जावधूवडहइ२ 'ता पडिबुद्धिराय पडियाले माणी २ चिट्ठइ ॥ ४८ ॥ ततेणं ते पडिबुडिराया व्हायं अंतपुर में गइ. वहां न न किया यावत् धार्मिक कार्य के स्थपर आरूढ होकर माकेतपूर नगर की मध्य में होकर पुष्करणो की पाम गई पुष्करणी में प्रवेश कर जलमज्जा किया, यापत् परम शूचिभूत होकर भीगे हो वस्त्र साइत उत्पलादि कमलों लेकर नागधर तरफ जाने की नीकरी. ॥ ४६॥ पद्मावती देवी की पीछे हाथ में पुष फल व धूप की कडछ ओं लेकर दासियों चरने लगी. ॥ ४७ ।। पावती देवी विधि पूक नागघर की तरफ गइ अर उम में प्रवेश कर मयुर पीछे से झडकर प्रतिमा को स्वच्छ की यारत् धा कर के प्रबुद्ध राना का मार्ग प्रतीक्षा करती हुई विचरने लगी. ॥४८॥ अब प्रतिबुद्धि राजाने मान किया 41श्री मल्लांनाथजी का आठमा अध्ययन 4 अथ । For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मददक साबनधनागमान श्री अमालका हत्थिखंध वग्गए मकरंटमल्लदामेण छत्तेणं धारिजमाणेए सेयवर चामराहि' महया हयगयरह जाह महया भडचडगर पहकर सागेयं णगरं मज्झं मरझणं निग्गच्छइ निगच्छइत्ता जेणेव नागघरए तेणव उवागच्छइ २ त्ता हात्थरखंधाओ पञ्चायहात २ त्ता आलए पणाम करेंति २ ता पुष्फमंडव अणुपविमति २ ता पामति तं एगमहं भिरिदामगंड पामइ २ त्ता ॥ ४९ ॥ ततेणं पडिबुद्धिरःया तं मिग्दि मगडं सुचिरं काल निरिक्खइ२त्ता तमि मिरिदामंगडंसि जाइय विम्हये सु. बाई आमच्चं एव वयाम-तमेण देवणप्पिया ! मम दाचेण बहुणि गानागरणगर जाव सनिसाइ आहिंडास, बहुणं रायईसर तलवर ईसर जाव गहाति अणुपविमइ, था पर सार होकर कोरंट वृक्ष के पुष्प की माल ओं का छत्र धारणकराना वेत च पर मारिन हय, गन, योपा व वडे २ मुभट. चेटक, महिन माकतपूर नगर की बीच में हाने हुए ३ गघा को पास गय हाथी पर नच ना कर नागपनिमा को दख प्रणाम किया, फीर पुष्प प्रश करा. या एक बडा पुष्त की ल का दंड खा ॥ ४ ॥ प्रतिबद्ध राना उस श्री. दाम दंड को बहुत क लक स्थिर दृष्टि से दखार विस्मित हुआ और सुबुद्ध प्रधान को बोलाकर छा कि अहो देवान प्रेर! मेरे आदेश से दून तर के तुप बह ग्राम नगर यात् सनपश में गये है। प्रकाशकामासादर लाला मखममहाराजा यायप्रसदाजा. For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 + षष्टांग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रुतस्कम 42+ तं अस्थिणं तुम देवाणप्पिया ! कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्ठिपुठवे जारिसएणं इमे पउमावतीएदेवीए सिरिदमगंड ? ॥ ततेणं सुब ई पडिबुद्धिरायं एवं वयासी-एवं खलु सामी । अहं अन्नयाकयाइ तुम्भं दोच्चणं महिलरायहाणिगत, तत्थ गं मरकभयस्सरमो धूयाए पभावतीएदेवी अत्तयाए मल्लीए विदहवर कप्णयाए संवच्छर पडिले . गसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिटिपु तरसणं सिग्दिामगंडस्स इम पउमावती, (ए सिरियामगंडे सयसहस्तति मपिकल अग्घइ ॥ ५० ॥ ततेणं पडिबुद्धिराया सुबुद्धिं आमचे एवं वयासी-कैरिसियाणं देव णुप्पिया ! मनीविदेहरायवर कन्ना, जस्मण और वहां बहुन राजा ईश्वर यादन् उन के ग्रमों में तैने प्रवेश किय है तो जैसा मेरी पद्मावती देवी का श्री दाम गेंद बनवाया है वैसा अन्य किसी स्था। मैंने देखा है ? सुद्ध प्रधानने उत्तर दिया कि अयो सामिन् ! एकदा आपकी आज्ञा होने में मिथिला राज्यपानि में गया था. वहां कुंपर ना की पुत्री व प्रभावनी देवी की आत्माजा मल्ल कुंवर्ग के वार्षिक उत्सव जन्मगांठ का उत्सव ] में । श्री दाम गेंद में देखा थ. उस श्री दाम गेंद से यह श्री दाम गेंद लाख भ ग में भी है भासका है है ॥ ५० ॥ प्रतियुद्ध राजाने मुबुद्धि पचान को पूछा कि अहो देवानुप्रिय ! जिन माल्लं कुंरी के वर्ष अंमल्लीनाथा का पाठवा अध्ययन 48+ For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ चारी मुनि श्री अमोलक * संवच्छरं पडिलहणसि सिरिदामगंडस्स पउमाई एदेवीए सिरिदामगंडे सयसहस्सति मंपिकलं न अग्घेइ ॥ततेणं सुबुद्धि अभच्चे पडिबुद्धिइक्खागरायं एवं बयासी- वं खलु सामी ! विदेहराय वरकन्ना उपइठिय कुमुन्नय चारुचलणा, वन्न मो ॥ ५५ ॥ तएणं पडिबुद्धिराया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमढे सोच्चाणिसंम. सिरिदामगंड जणियहासे दूयं सदावेइ २ ता एवं क्यासी- गच्छाहिणं तुभं दवाणुपिया ! महिलं रायहाणिं तत्थगं कुभमस्सरन्नोधूयं पभावतीए देवीए अत्तयं मल्लिं विदेहरायवर कन्नग मम भारियत्ताए वरेहि, जइवियणंसा सयरजंसुक्क ॥ ५२ ॥ गांठ के उत्सव में तने दीव्य श्री दाम गेंद देखा वह मल्ल कुंबरी कैसी है ? सबुद्धि प्रबनने इन गवंशी प्रतिबुद्धि राजा को कहा अहो सामिन् ! वह विदेह राजा की कन्या मुपतिष्ठ कूर्म जैसे पांदन बगैरह। संत्र वर्णन जानना ॥ ५५ ॥ सुबुद्धि अमात्य की पास मे एमा सुनकर श्री दाम गेंद के निमित से पूर्व लेह उत्पन्न हवा. और दू। का बालाकर कहा कि अहो दवानुप्रय! तुप मिथिला र पधान में नारी। वहां कुंभराजा की पुत्री व प्रभावतोदेवी की अत्मजा ल्लो नाम की विदेह राजवर कन्या को मेरी भर्या बनाने के लिय मागणी करते. और उसके बदले में राज्य का दान मग तो भी देना ॥ ५२ ॥ पकवाक राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +2+ 48+ षष्टांङ्ग जाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतरबन्ध ततेणं से दुए पडिपाहणारना एवंबुत्ते समाणे हटे, तुझे पडिसुषेति, पडिसुणेत्ता जेणेव सएगिहे जेणेव च उग्घंटआसरहे तेणेव उवागच्छह २ त्ता चाउघंट आसरहं पडिकप्पावेति २ त्ता दुरुढे जाव हयगय महया भड चडगरेणं सायाओ गिहामो णिग्ग ध्छइ २त्ता जेणेव विदेहा जणवए मज्झमझगं जेणेव महिलारायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए॥१॥५३॥ तेणं कालणं तेणं समएणं अंगणामं जणवए होस्था,तत्थण चंाए णामं जयरीए चंदच्छ!ए अंगराया होत्था॥तरणं चंपाए नयरीए अरहन्नग पामोक्खा बहवे संज त्ताणावा वणियगा परिवसति, अवाजाव अपरिभूया ॥ ततेणं से अरहन्नगे समोवासए प्रतिबुद्धि राजा के ऐमा कथन से वह दून हृष्ट तुष्ट हुवा और अपने घर आकर चार घंटवाला अश्वरथ तैयार किया और उस पर बैठकर यावत् अश्व, गज, सुभट, चेक वगैरह परिवार की साथ लेकर साकेतपुर गरी मे कालकर विदेह देश में मिथिला राजगध नी के तरफ जाने को प्रयाण किया. यह प्रथम | ५३ ।। उस काल उस समय में अंगनाम का देश था. चंपान.म की राज्यधानी थी. चंद्रच्छाया राजा था. उस चंप:नगरी में अरिहना प्रमुख साथ मीलकर व्यापार करने वाले वणिक रहते थे. वे ऋद्धिवंत यावत अपर भूत थे. उस में अरहनक श्रमणोपामक था वह जीवा जीव को स्वच्छ जानने गला Hश्री मल्लन थजी का आठवा अध्ययन 428 | For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www याव होत्था, अहिंगए जीवा जीवे बन्नी ॥ ५४ ॥ ततेणं तेर्सि अरहन्नगामो. क्खाण संजत्तानाव वाणियगाणं अन्नयाकयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूबेमिहो कहा संमुल्लावे समुप्पजेत्था, संय खलु अम्ह गणिमंच, धरिमंत्र, मेजंच परिछिजंच, भंडगगहाय गडाय लवणसमुह पोयण वाहणे गं उग्गाहत्तए तिकटु, अन्नमन्नस्स एयम8 पडिसुगेति २, त्ता गाणमंच ४ गेण्हइ २ ता सगडी सगडं सज्जेति२ त्ता गणिमस्स ४. भस्म सगडा सगडीयं भरात २, त्ता सोहणसि. तिहि करण णक्खत्त मुहुत्तंति विउलं असणं पाणं खाइमं साइम उवक्डावति उवक्खडावेत्ता मित्त जाति भोयण श्राकों के सा गुणों से युक्त था. ॥ ५४ ॥ उन अरिहनक प्रमुख मा व्यापारियों में एकदा परहार ऐमा लाप हुवा कि गिनती होम के वैसी नालिएर दि ताला बारे सो धान्यादि, पालादि से मापकिया। नावे सा घतादि और परीक्षा कर लिया जावे सो सुवर्य रत्नादि उक्त च रों प्रकार के किरिया ने को लेकर लवण समुद्र में नीरमक वे जहाजों पर चड कर उपर के लिये अन्य प में जावे. सरने यह बात मान्य की और चारों प्रकार के कि.र पाने कर गाडा ओं सज्ज केये और उन में चारों प्रकार के किरिआने से भरे MAIT पात्रो रखे. फोर शुष नीथि करन, नक्षत्र व मुहूर्त में विपुल अशनादि बनाकर मित्र ज्ञाति सजनों को xes अनुवादक-समचारी मनि श्री अमोलक ऋषिभी+ प्रकाशक-राजावादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादमा. For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + । षष्टाङ्ग ज्ञातामकथा का प्रथम श्रुनबंध -घेलाए भंजाति जाव आपुछते २ ता सगड सागडिया जोयंति २ ता. चंगाए नयरीए मझ मज्झेणं किंग्गच्छंति, जिग्गच्छित्ता जेणेव · गंभीर पोयपणे तणेव उगच्छइ २ तासगड सागडियं मोयंति २त्ता पोयवहणं सजेति २ त्ता गर्णिमस्स '. जाव चउब्धिहस्स्स भंडस्स • भरति तंदुलाणयसमियस्तय तेलस्सय घीयरसय, गुलस्तयः गोरसस्तय उद्गरसय भायणास्सथ उसहाणय भेसज्जाणय तणरसय कटुस्सय आवरणाय पहरणाणय, अन्नसिंच बहुणं . पोतवाहणाउगाणं दवाणं पोयवहणं मातिरता माहणं लिहि करण मक्खत्त महत्तंसि विउल असणं पाणे खाइमं साइमं उवखडावति, मित्तणाति आपुच्छति जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव भोजन निमाकर यावत् उन को पूछ कर गांडाओं जीते और चंप नगरी के बीच में होते हुए जहां गंभीर नावा का पट्टण (समुद्र किना), वहां आये, वहां आकर गाडे छ.डदिये और- जहान तैयार की. फीर उन में गणिमाद्रि वारों प्रकार के निगने पर, और खाने के लिय गेह,' आदि का आटा, तेल, गुड, दधि, अ.दि गौरस, मीठा पानी खाने पकाने के, भाजन. औपधियों, तेल चूर्णादि, भैषध, तृण, कष्ट आगतण, नख, भूषण और इनसिवाय अन्य हुतसी वस्तुओं को जा समुद्रमें उपयोगी होवे यवत भरकर जई.जो में रखी. फीर शमतीथी, करण, नक्षत्र व मुह में निपुल 'अशादि बनाकर मित्र ज्ञानी को धर जहा मों में बैठ गये, अगहना प्रमुख यावत बाणों को उन को मित्र ज्ञाति सनन भ श्रीमल्लीनःयनी का आठवा अध्यन अर्थ For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागच्छति नेणे उगच्छित्ता त तेति अरहन्नगा पामोवखाण बोगियगाणते परि.. यण जाव ताहि इंटहिं जाव बग्गृह अभिनंदलाय अभिमथुर, माणाय एवयासी-अज्ज तायभ य माउलय, भातिणेज, भगवयः, - महेणं अभिरक्खजमाणार चिज वह भद्दच पुणरबि लट्टे कयकजे अणह समग्गा कि यगं घरं स्वमा गए पामामो तिकट्ट, ताहिं सोमाहि निहाहि दहा हैं साप्पिंगमाहि, प्याहि, दिट्ठीहि, निरिक्खमाणा महुत्तांमतं संचिट्ठति ॥ ५५ ।। तओ समाणिएस : फलकम्भेमु दिन्नेमु, सरसरत्तचंदण दहर पंचगुलितलेमु अणुक्खत्तिासि धूमिपूइतेमु र मुद्दव तमु संसारियासु बलयवाहासु हिन इष्ट इभ शो म अभिनंदन दिया, व.र करने नुए एमा बोलने लगे. अहे? आर्य. .... अहे नत, भाग, ग्रह माना,हामी मुव मद्र रक्षा हो चिनीमा, तुमगाणा'. तुम्हर क सिदि होवो, और तुप मा का कार शिघ्रा मा हम दख. ऐ... करार: वापसो.नि.दीर्घ पिया महिर (नदारदव के इच्छ ) मरः दुई ही में दखो हो ये दु. बड रहे ॥ ५५ ।। उन साय त्रिकोंन पुष्ा म बलिकर्म किया. नूरत के घोले रे चंदन से पांदा अंगुलयों से नवा को छपे दिये, फोर धूप से प्रकारभारादरमाला बदव महायज माहादजी. For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મર્થ कथाकथ Fac म अमिएस सिएस झग्गेषु डुप्पत्रः इसुत्तरेषु जइतें मध्यम उ सुगहिएषु गवराम महया उकटु मोडणाम जान रवेण पक्ष्खभय महारु मुद्दल भूमेइणी करमागा एगर्दिस जब जियगान व दरुढ ॥ ५६ ॥ ततः परम माग कम शह हमो ! अत्थमिद्धओ उट्टियाइ कलालाइ पडिहाई सब गवई जत्ती पुस्मोविजओ महतो अकाली तमा पुरुषमाणएवं बक्क मुदाहरिए हट्ट तुट्ठे कुछ कन्नधरा गभिज गंजत्ता नवा वाणियगया समुद्रयान की पूजा की, जहाज चलने के सड के बडे चटुओं यथा योग्य स्थान गग्यंजकर रख, वे ध्वजा के अग्रभाग ऊंच किये तु पुरुष तूरी आदेवात्र बजाए. फार श्रेष्ठ शक होने पर हाजनो की आज्ञा लेकर ड २ नाद सहित क्षोभित हुआ महा मंद्र मान पृथ्वी को क्षेम करते हुए एक विश में यत् णिकों नाव रूढ हुए || १६ || भोजक भार दे बीज पल वचने या किथ कि अो सब को ! तु को अर्थ सिद्धि हो, तुम्ह आग हैं तुम्हरा शव है, वाहनारूढ होने वा पत्राला होने से कार्य की सिद्ध करनेवाला है. इस तरह भट चरणों के मंग सरस हृा हए और निक दोनों ब ज ए चलनवाल a आज का अन चंद्रपा के दु ऊ नीच कार्य कवल लं.क.- रखकर वे अपने कार्य में प्रवृत्त हुए. और उन पुण्यार्थ नाव को For Personal & Private Use Only लुंगी का .३३९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वारं तं गावं गच्छ पुण्णमुहि बंधणे हिंती मुचेति ॥ ५७ ॥ ततसा पावर farara समाहर्या ऊसियसियापसिया वितत पक्वाइब गरुल जुबती गंगासलिल तिक्ख सांयवेगेहिं मंबज्झमाणी २ उम्मीतरंगमाला सहस्साति }: : समतित्यमाणी २ कइवएहिं अहोरचेहि लवणसमुहं अणंगाई जोयण साई उगाढा ॥ ५८ ॥ ततेण तेलि अहरनग्ग पामक्खिणं सजुत्ताण वणियगाणं लवण समुदं अनगाई जायणसयाई उगाढाणं समाजाणं बहुई उपपातिय सयाई पाउन्भूयातितं जहा - अकाले गजिते, अकाले विज्जुए, अकालेथणियम हूँ, अभिक्खणं २ अगासे देवयाओणचंति एगंचणं महाविसायरूपं पासति, ताल पुण्यमुत्री बंधन से मुक्त की ।। ५७ ।। अब बंधन मे मुक्त हुई वह नावा पवन की मात्रल्यता मे घेराई हुई ऊंचा श्वन वस्त्र का मढवाली, गरुड की स्त्री पक्षीनी के पांख समान, गंगा नदी के पनी का क्षण प्रवाह में भी क्षोभ नहीं पाती हुई, पानी के छोटे बड़े बहुत तरंगों को उलंघन हुई कितने दिनों में लवण में अनक सो योजन गई || ५८ ॥ उम अरहक प्रमुख हाण के व्यापारयों को लवण समुद्र अनेक सो योजन- गये पीछे एक बड़ा उत्पात प्रगट हुन मो कहते हैं. अकाल में गर्जना हुई, अकाल में विद्युत हुई, अकाल में स्तनित शब्द होने लगा और देवताओं आकाश में बारंबार नृत्य करने लगे. इतने में एक बडा पिशाचका रूप देखा. उस की जंघाओं तालवृक्ष जैसी थी, उस के दोनों हाथ अलश में ममद्र For Personal & Private Use Only कादर लाला सुखदेवसहायजी ज्या Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. चष्टाङ्ग यात्र म सब पार्टी गये थे, उन का रूप वर्ष, कजल, अथवा महिष समान अथवा गंभीर कला पानी से भरा हुवा मेघ श्याम वर्णराला था, उस क ओष्ट लम्बे थे, उस के दांतों मुख मे बाहिर निकले थे, विस्तारवाले उसने दो जिओं निकाली थी, दोनों तरफ के कपोल मुख में बैठ गये थे, उस की नामिका हुई थी, उस की दोनों भ्रमरों विकारवंत, भय उत्पन्न करे वैसे व अती ही स्त्र थे, कान खजूबूत के रंग समान जयंत उस की आखों थी. उस का वक्षःस्थल भय उत्पन्न करनेवाला विशाल वस्ती, उनका हृदय बहुत चौडा था, उस की दोनों कुक्षिओं बहुत लम्बी थी, उन के गात्रों नीचे पडवाले प्रचलित होने से शिला भूर हुए थे, ऐना वह आकाश को अस्फलता हुवा, सन्मुख आकर † पकडत हुत्रा, सन्मुख गजर करता हुआ, बहुत अट्टहास्य करता हुआ, और नीलोत्पल कमल समान, जय गया, वहाहि मिलि मुमग महिस काल गंभरिय मेहवन लंबाई, निग्गयग्ग देत निखालि जमलजुयलजीहं आउसिय वयण गंडदसं चीण चविटु नासिकं, भिमहिं खजोयगदित्त चक्खुरागं उत्तः सगं विसाल वत्थं कुछ पलबकुछें, पहसिय पयलिय पडियगत्तं, पणश्च्चमाणं अप्फोडत. अमिवगतं अभिगर्जतं बहुसो २ अट्टहासोत्रिणिमु नील ग For Personal & Private Use Only * श्री महानायकी का आठवा अध्ययन + ३४१ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ बालरी श्री अलक ऋजी गलिय अयसि कुसुम पगामं खुरवारा अनिंगहाय अभिमुद्द माध्यमाणं : पासते ॥ ५९ ॥ तण ते अग्न्नग बजा गंजनाणावा बणियगा एगचभं महंताल विमाय पसति ताल जंघ दिवंगया है बाहाहि फहमिरिं भमरांनगरवर मासरासि महिम गंभरिय मेह-नं. मुख्यगह, फलनारसजीहं लंबे टू. धवलवह अमिलिट्टु तिक्खथर पग कुडिल दाढी बगहाणं विकमियधारासि जयल सम मरिस तणुत्र चंचल गलन रमलोल चाल फुर पुरतं जिल्ल लियग्गाय जहिं, अत्रयच्छिय बीके पर गालगुडी पाक्षु की बङ्ग हथ में प्राण कर आहु हस्तक देव ॥ ५९ ॥ नलसाजी श. मह उड़ने की राशी पालनप शुश्य वर्ण पखाल अनपाया वा बबन पत्र का हव्य जिवली हुई स्थ पुष्ट न कटेल द नमें से बाहर निकलई अधिक युग समन पली चंचल झरती हुई लाल को टपकती हुई कंपन दो जिह्वा के अग्रभाग मुख में ले बाहिर निकालनेवाला, खुल्ला ० प्रकाशक राजा दुर लालामुखदेव सहाय जी ज्वाला प्रसादजी ० For Personal & Private Use Only १४२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ 40 पटइधर्मकथा का प्रथप श्रम मानविय वाग्छ लाला पालंज त तालुयं हिंगलग गगम कंदर लिंग अनागिरम अगामा लुगालत, मऊय अवचम्म उट्ठ गडदेम चौगाव मनु कणा समागय धमधमत मारुय •ि हर खन्फरुत झू मेर उभाग नगगणास। पुड घ जुम्मडग्इय भीमणमुई उडमुद्र कमकुलि५ महंत गर लोम मसाल गलबंन चलय कणं विगल दिप्पत लं यणं भिउडितडिजनिडलं नरसिरमाल परिणद्ध विड विचितं गोणस सुबद्ध गरेकर अवहालत पुप्फ. व महारपली भर उत्पन्न करें की लाल से माना एका उक्त नावालागवं ममा भार मग पहिन गफः मम न मुबाला, जलता हु। अंजनाबर पनि पीडालने में जो वर्ण हो । वर्ण या मुगल', अप. गंडस्थलवला. पति वटी छेटी नापिकावला. पोप मे धमाप करना दुग गुरु सना पुरुष, ११ भनक छिद्रास . परुषाका - प्रथा अवयो " और नल बटे लम्बाले वक्ष को मनादेक. नम डाको खडे न तु ) - नत्र क. कुपेन वाकर भृकुट के विकार सहित ललाटाला, मनुष्य के मस्तक की माला स वष्टिा किया हुग चिनवाडा, सों से बनाया हुवा कवच- ' श्रमलं नाथजी का आठवा अध्ययन 1 For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अमोलक पिज यंत सम्पत्रिच्छ्या गोहं उंदर नउल सरडे विरइय विचित्ते, वेयस्थ मालियागं भौगः । कुरकण्ह सप्प धम धमंत लबत कण्णपुर मजार सियाल लइय खंधदितस्सर घुघयंत धु कयस भल सिर घंट रवण भीम भयंकर कायरजणहियफोडणं दित्तं अद्वे हासं विणिमुतिं वसा रुहिर पय मंसमल मलिण पांचडतणुं उत्तासणय, विसाल १० ... वरुधं पंच्छता भिन्न नख मुहनयण कण्णवर बग्घ चित्त कित्तीणियंसणं सरस रुहिरग .. रूप चम्मरूप वितत उसविध यहु जुयल, ताहिय खर फरुस असिद्धि दिन अणि? पासक-राजाबहादुर लालामुखतवमहायजी ज्वालाप्रसादनी अनुबारक-RAR माला पर घर डोलायमान फुलकार शब्द करते हुए मर्प बिच्छु गोड, उंदर, नकुल, काकाडे, माढे १ को विचित्र प्रकार का उत्तर संग रूप मालामाला, कृष्ण रूपी आमरणों कान में धरन करने या ना : शृगल को दोनों स्कंध पर बैठानेवाला, दी।प्तान बहा कठिन घुघु शब्द करनेवाला लको बैठाय हुए.शिरवाला, कायाजनक हृदयफोडनेवाला घटा के जमे भीम भयंकर बन्द करनेवाला, अरहट्टी है हास्य करनेवाला, चरबी, रुधिर, मांस, मल वगैरह वगव वस्तुओं से शरी। बिगाहनेवाला, भयानक विशाल वक्षःस्थल शला, अखंडन दखारक वै नख, मुख, नयन व दो कान वाली बाघकी चपड़ी को वन वाला, भरस रूधिर वाला, गम धर्मसे ढक दुवे दानें हाथ वाला, खा, परुप, रूक्ष, दीन, भनिष्ट, For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 83 पठन ज्ञानावर्धकथा का मथप श्रुतकंच 436 असुन आदि अमण अकंत बग्गूहिय तज्जयंत पसंति ॥ ६० ॥ तं तालपिसाय रूवं एवं एजमाणं पासंति२त्ता भीया, संजया भया अण्णमण्णस्म कार्य समतुरंगमाणा २ बहु इंदाणय, खंदाणय, रुद्दा, मित्रा, बेसमण, मागाणं, भूयाणय, जक्खाण • अज कोड केरियाणय, बहुणिं उबाइय सयाइणि उत्रातियमाणा चिति ॥ ६१ ॥ एवं म • अरहनए समणोबासए त दिल्वं पिसायरूवं 'एज्जमाणं पासति २ ता अभीए अमत्थे अचलिए असमंते अणाउले अणुठित्रग्गे अभिण्णमहराग, नयणवणे आदीण त्रिमण माणसे पायं बाणस्लए एगदेसंसि, वत्थं तणं भूमि पमज्जइ २त्ता हट्टाइय ता अशुभ, अप्रिय, अक्रांत वचनों में सर्जन करने वाला एक घोरे पिशाच को देखा. ॥ ६० ॥ ऐमा ताल वृक्ष | समान विशाच को आता हुआ! देखकर वे डरे, भयभीत हुवे, परस्पर एक दूसर को नीपटने लगे, और बहुत इन्द्र. स्कंध, रूद्र, शिव, वैश्रमण, नाग. भून, पक्ष, और मशरूप दुर्गा, कोड, क्रिया- वही दुर्गा महिषडा वगैरह सब की मनता पूजा करने लगे. ॥ ६१ ॥ तब वह अरक श्रमणोपासक उस पिशाच की आतांहुचा देखकर डरा नहीं, त्रास नहीं पाया, चलित छूता नहीं संभ्रात नहीं हुआ। आकुल व्याकुल नहीं। हुआ नहीं बन, मुल्वकेव मंत्रों में किसी प्रकार से विकास लायों नहीं, मन में भी दोन बॅना नहीं परंतु जहाज के एक विभाग में जाकर वस्त्र से भूमि की प्रमार्ज किया. और हांथ जोडकर कर आसन For Personal & Private Use Only श्रमल्लीनाथजी का अठवा अध्ययन १४५ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघिमो. ३४३ 4 अनुवादक निमचारीमान श्री अफ करय एवं व्यासी-नमत्यूणं अरिहंताणं जात्र संपत्ताणं, नइणं अहं एतो उत्सगातो मुंचामि तम कप्प परत्तते,जह अहणंएत्तो उमगा मच मे नातं तह पचक्खाएयचे तिकट्ट नागारं भत्त पञ्चवति ॥ ६२ ॥ ततण ३ पिपारूवे जणव अरहनगममागमए तणे उशगदत्ता अगहन्ना मणवायं व याम-हंभो! अरहन्नगा अपस्थियस्थिया जान परवजिया जो खल कप्पड तवमीलब्धय गण. वरमण पश्चरखाग पं.सहावामानि चालितएका एवं खोमेत्तएवा. खंडित्तवा भंजित्तएवा: उज्झितएग, परिश्वत्तएवा, तं जागं तु सीलन्वय जाव नपरिचयति ऐगा बांस किन भगगन को नमस्कार होणे यावत् क्ष मत हुए उन को नकार in यादेस - मुक्त हेमो मुझे पर मंथग पल। कलाता है परंतु जो इस उप पुक्त ना मझे । माया का पत्य सान: यों का कर भाग र सहर भक प्रत्यख्या या..॥ ६२ ॥ ३ नलका शव प्रहब का उस की ग्य और कह-यो! अमाथ। नेवल पर ई श्रीना भण्डम ! तझ श्रीर व्रत. गुण, वरमण स्पसाव पर मायचा . खं है। करन. ते रस्याग करना ना ना ? परन्तु पदि दशा यावत् सामना करना तो इस हम दो अंगु •काशक-मजाबहादुर लामबदेवमहायजी भालापानमा For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 हाताधर्मकायम अतरघ तोमे अहं पोयरहणं दोहिं अंगलियाहिं गेहामि २ । सत्तटु तलपमागमेचाहि उडोहामं उन्विहाम अंता जलांस निकालेमि, जाणं तभं अदुइट वम्हे अममाहि. पत्त अकालचब जीवओ बबरावजासि ॥ ६३ ॥ ततण सं अरहन्नए समोवासए तद मणसाचे एवं बयासी-अहणं देवाणुपिया! अपहलए न मं समणोवामए अभिगय जीवाजवे,ना स्वल अहं मक्का केणइदेवणवा दाणवेणवा जाव जिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तएवा खभित्तएवा विपारणामिन एग, तुमणं जा पद्धा तंकरहा,तिकटु,अभीएजाब अभिन्नमुहराग नयणन अदीण मिण माणसे निचले निफदं तुसिणीए धम्मजा. में पारकर मार तास जितनी ऊंची आकाश कर पानी की अंदर हलूं। जिस से तु आ. द ध्यान मे दुःखित पनकर बममाधि पना मे कल में ही काल कर जीवन मे पृथक् होगा. ॥ ६ ॥ बस र देवस ऐना उत्तर दिया कि ओदान प्रय! में अराम नाम का श्रामक जना का खजाना है, मुझे मित्र के प्रावन में कोइ दा अथवा दान व चकाने को मर्थन मजेमारा इच्छा होवे न तु कर. ऐ कह कर, भय सहित यावत् मुख के रंग में किसी प्रकार का विक र भाव नहीं लाता हुआ मदीनमन सहित निश्चलाई । . श्रीमल्लीनाथजी का पाठवा अध्ययन 4kt For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + जा 4. अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी पनि श्री अमोल णोयगए विहरइ ॥ ६४ ॥ ततेणं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासयं दोच्चपि तच्चं.पि एवं बयासी हंभो ! अरहन्नहगा ! जाव धम्मज्झाणोक्गए वेहरति । ततेणं से दिव्ये पिसायरूवे अरहनगं समणोवासयं धम्मज्झाणोवगए पासइ पासिता बलिय तरागं आसुरत्ते तं पे यण वाहण दोहिं अंगुलेयाहिं निगेण्डइ, २त्ता सत्तट्ट तलाईि जाव अरहनगं एवं क्यासी-हंभा! अरहन्नगं अगत्थय पत्थिय णो खलु कप्पति तक सीलवय तहेव जाव.. धम्मज्मज्झाणावगए विहरति । ततेणं से पिमायरूवे अरहन्नगं जाहे नों संचाए। णिगंथाओ चालितएवा तहेव संते जाव णिघिण्णे तं पायवाहणं सणियं २ शांत बन धर्म ध्यान करता हु विचरने लगा ॥६४॥ उस दीव्य पिशाचरूपदेव ने अरहना श्रयक को दो तनवार वैने ही कहा परंतु वह अरहनं श्रावक अपने पूर्वोक्त भावों से ही धर्म ध्यान चितवता हुवा विवरने लगा. जब अरहन्न श्रापक धर्म ध्यान में ही विचर । हुवा देखकर अत्यंत क्रुद्ध बनकर उस जहान को दो अंगुल से उठाइ और मात अठ ताल जितनी ऊंचे लेकर फीर उनको कहा कि अहो अरहन तेरे को शोट आदि यावत् खंडिन रना नहीं कल्पना है यावत् वह अपने धर्म ध्यान में स्थिर रहा. जब वह पिशाचरूप अरहनक श्रावक निग्रंथ के प्राचन। चलाने को समर्थ हुवा नहीं तब वह देव शांत बनकर • प्रा शक-गजामादुर लाला सुखदेवपागजी ज्यालाप्रमादजो For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अथ - 480 हातघर्षकथा की प्रथम श्रुतस्कन्ध 418+ उचरिं जलस्सटुवेति: १ता में दिनं पिसायां पडिसाहरति २ चा दिव्यं देव चिउम्र २ अंतलिक्खि पर्डित्रणे सखिखिनिय जाव परिहए अरणगंसमणवस एवं - भो अरगा ! धन्नांसिणा तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीत्रियफले जस्सणं तब rajथे पावणे इमेयारूवा पडिवची लापता अभिसमन्नागय॥ ॥ ६५ ॥ एवं खलु देवा... विषा ! सक्केदेविंददेवरायां सोहम्मेकप्पे सोहम्मं डिसएविंमाणे सभाए सुम्माप बहुणं देणं मज्झगए महया २ सद्दणं आइक्यति ४ एवं खलु जंबूदीवेदीने भार बासे चंपारणयरीए अरहन्नतेसमणोवाए अभिगयजीवाजीये, नो स्वलु सका यावत् उस जहाज को शनैः नीचे उतारी और पानी पर रखी. उस दीव्य पिवादरूपका साहरन करके {दीव्य देवरूप का वैक्रेव किया और ऊपर जाकाश में रहा हुआ घुमरीयोंका चम चम शब्द करता हुवा वखाभूषण धारन कर अरश्मक श्रावक को इस प्रकार कहने लगा-अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है तुमारा जीवित सफल है क्योंकी तुमको निर्व्रन्य के प्रवचन में इमप्रकार प्रतीति प्राप्त हुई है ।। ६५ ।। अहो देवानुयि ! सौधर्मा देवलोक के सौधनवंतमक विमानकी सुधर्मा सभांमें बहुत देवोंकी बीचमें शक्रेन्द्रने जोर २से ऐसा कहा या कि इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपा नगरी में अरहमक नाम का जीवाजीव का स्वरूप मानवाला For Personal & Private Use Only श्री मल्ली नावजी का आठवा अध्ययन 18+ ३४९ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. नावदक-वाबवह्मचारी मुनि श्री बालक. केणइ देवणवा ६ जिग्गंथाओ पावयणातो चालित्तएवा जाव विपारणामित्तएवा ॥ततैर्ण अहं देवाणुप्पिया! सक्कस्स देविंदरस को एयमटुं सदहामि; ततेणं मम इमेयारूवे अज्झथिए नाव समुपज्जित्था-गच्छामिणं अहं अरहन्नयस्स आतयं पाउब्भवामि जाणामिताव अहं भरहनगं किंपियधम्मे,नो पियधम्मे, दंढधम्मे णो दंढथम्मे, सीलव्धयगुण किं चालेति जाध परिचयइ, नो परिचयइ तिकडु, एवं संपहेमि २ ताओहिं पउज्जामि देवाणुप्पियाणं ओहिणा आभोएमि २ उत्तर पुरच्छिमं दिसीभागं उत्तर वेडाब्वयंसमग्याति ताए उकिट्ठाए जाब जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागछामि २ प्राणोपासक . उन को निर्णय के प्राचन से कोई देव दानव चलाने को यावत् विपरीत परिणमाने को मप it. अहो दवानुर्भय ! ने शक देवेंद्र की इस वन में श्रद्धा की नहीं इस में मुझे ऐमा अध्यवसाया कि अगहन श्रावक की पास ज'. और देखें क्या प्रिय है कि या नहीं है, रढ व हमि हद ध नहीं है, या जिगुण गैरकारित ह त य नहैं . यावत बाविस्थानना है या नहीं. एसा विचार कर अवधिज्ञ न रंग पर उप में तुम को देखा. और ईशानन वैक करक देव की दीव्य उ घ गति स इस लवण समुंद्र में तुम्हारी पास बाया •प्रकागजावादर लाला मुखदेवमहायजीपालामादजी. । 1 । For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालघर्षकथा का प्रथम श्रुतरखान्य48+ पिया उग्गं करोमि, णो देवअणुपिया ! भिवाचा तं जपणं सझेदबिंद देवराया एवं वदति सच्चेणं एममट्ठे त दिट्ठणं देवाणुवियाणं इड्डी जुई जात्र परमे लपत्ते अभिसमण्णागए तं स्वामेमिगं दव णुप्पिया! जाव णां एवं भुजे २ करणयाए तिकडु, पंजलिउड पायवडिए एयमटुं विणएणं मुज्जो २ खामेइ; अरहन्नगरुन दुबे कुंडल जयले दलयति २ जामेवदिसि पाउंम्भूए तामंत्रदिन पडिगए ॥ ६६ ॥ तेतेणं से अरहन्नए णिरूवसग्ग मित्तिकद्दु, पडिमं पारेइ ॥६७॥ ततेणं ते अरहन्तग पामोक्खा जाव वाणियगा दक्खिणाणु कूलेणं बातेणं जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेव हूं. और सम को उनसर्ग दिया. परंतु तुम डरे नहीं तुमने तुमेध का त्याग किया नहीं इस से शक देवेन्द्रने जो काया वह सत्यही कहा है. यह मैंने तुम्हारी ऋद्धि द्यति यावत् पराक्रम प्रत्यक्ष देखा है. अ देवानप्रिय ! मेरे इस कृत्यकी मुझे क्षमाकरो यों कहकर वह देव अरक्षक श्रावक के पांच पडा और उस अपराधकी वारंवार क्षमा याची. अहन्नगको दो जेडे कुंडल के दिये और वह देव अपने स्थान पीछा गया { ॥ ६६ ॥ अरहाक श्रावकने उपसर्ग गय हुआ। जान कर प्रतिमा [भिग्रह ] पाली ॥६७॥ भव व अरहनक प्रमुख वणिको दक्षिणानुकुल पत्र से जां समुद्रका किनारा वहां आये वहां जहाज ठहराया. गाडा गाडीयों सज्ज किये, For Personal & Private Use Only *** श्रमल्लीनाथजी का बाबा अध्ययन 493+ २५१ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. उवागछह १, पत्तं ठति रत्ता सगदि सागडं सज्जेति २त्ता तं गणिमच सगाई संकामात २ तासगर्ड सागड जोते तर जणव महिला रायहाणी तेणव उवागच्छइ २ त्ता महिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणसि म्गडा सागडं मोएति २ महत्थं महग्ध विउलंरायारिहिं पाहुडे कंडल जुयलंगिण्डइरत्ता महिलाएरायहाणिए अणुपविसतिर चा जेणेव कुंभएराया तेणेव उनामच्छइ २ त्ता करयल जाव तिकटुतं महत्यं रायरिह पाहुडं दिन्नं कुंडलजुयलच पुरओटुवेइ ॥ तएणं से कुंमराया तेर्सि संजुतगाणं जाव है पडिच्छह २ मलिंविदेह रायवरकन्नं सदावेद २ ता तं दिवं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवर रायकन्नगाए पिणहति २ चा पढिविसजेति ॥ १८॥ ततेनं से उक चारों प्रकार के किराने को उम में डाले, और गारे जोतकर मिथिला नगरी में भाये और वहां ग्र नामक उपान में गाडे छोटे और बड़े मूरपसाला गना के योग्य बड़ा निगराना व कुंदरकी जोर लेकर गाम में प्रोष किया और कुंम रामा की पाम पाकर दोनों हाय जोहार स्तुति की पावत् वा महामूल्यवाला रामाप नजराना व दोनों कुंटल गना की मन्मुम्ब रख दिये. कुंभ राजाने उन व्यापारियों का नजराना प्राण कर मडी नाम की विदेश राजवर कन्या को बोलाइ और उन को दोनों ॥ १८ ॥भरामान बरामा प्रमुख सा व्यापारियों को चारों-बहार mammindiancom 4 अमुसहक-पालबचारीमान श्री अलकाममा - • प्रकाशक-राजाश दुर लाला मुपदपमहायजी मारली. For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 43 पट जाताधर्मकथा का प्रथम कुंभराया ते अरहन्नग पामोक्खा जात्र वाणियगा विउलेणं असणं ४ वत्थ गंधमल्लालंकारेणं जावं उसक किं वियति २ रायमग्गे मोगाढेय आवसेवियरइ २ पडिसिजइ २ता ॥ ६९ ॥ ततणं अम्हण्णग पामक्खिा संजुत्ता जेणेव रायमग्ग मोगांद आवाने तंत्र उवागच्छति रत्ता मंडग्र हरणं करोति २त्ता पडिभंड गि हांत २चा मगडी मग भरें। २त्त जगभीरपणे तेणेव उनागच्छ २त्ता पोयहणं सज्जेति संकार्मेति दविखणः णकुलेणं वाएणं जेब चंपाए जयरी तेणेत्र उत्रगच्छ २ चा पोपणे ते पोयलंबइ २त्ता मगडी सज्जेइ तं गणिमं ४ सगडी संकामेइ जात्र महत्थं पहुडे दिव्त्रकुंडल ज़वलं गेण्हंनि २त्ता जेणेव चदच्छाए अंगराया तेणेव उनागच्छ ख. गंधमाला अलंकार में सत्र मन्नान किया, हांसल माफ किया, र जयपंथ में उन के योग्य आदेश पनियों को विसर्जन किये ॥ ६२ ॥ अग्न प्रमुख सब उर मकान में गय ओरड किया दूसरा सन खरीदमा गाडे गार्ड यों भरी और समुद्र किनारे पर जाकर जान मज्ज के उस में सब सामान भरदिया और दक्षिण नकूल वन से चंपा नगरी तरफ चलेसमुद्र किनारा आनपर जहाज खडी करदी. गाडा गाडीसज्ज किये उसमें सब पाल भरदियं यावत् महा मूल्य For Personal & Private Use Only 418+ श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ३५३ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक २ च तं महत्थे कुंडलजुयलं जान उत्रर्णेति र ॥ ७० ॥ ततेनं चंदच्छाए अंगराया तंदिवं महत्थंच कुंडल जयलं पाडेछइ रत्ता ते अरहन्नगपामे क्वे एवं वयासी-तुम्भेणं देाणुपिया ! बहुणी गाभागर जात्र आहिंडह लवणसमुदंच अभिक्खणं २ पोयत्रहहिं उग्गह तं अस्थियाहिं कति कर्हित्रि अच्छे रए दिट्ठपुत्रे ? ॥ ततेणं ते अरहन्तग पामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी एवं खलु सामी । अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन पामेक्खा बहवे संजुत्तता नात्रा वाणियगा परित्रसामो, ततेणं अम्हे अन्नया कयाइ गणिमंच ४ तव अहीणं अतिरिक्तं जात्र कुंभस्सरन्नो उवणेमे। ॥ ततेनं से बाला नजरा यावत् दिव्य कुंडल का युगल लेकर अंगदेश के चंद्रछाय राजाके पास गये. और उनकी सन्मुख निजरानः रखा || 90 || अंग देश के चंद्रछाय राजा वैसे दीव्य महामूल्यवालेकुं डल ग्रहण किये, और उनको ऐसा बोले कि अहां देवानुप्रिय ! बहुत ग्राम नगर वाला सन्निवेश में फीरते हुवे तुमने आश्चर्य कारक किसी { स्थान क्या कुछ देखा है पहिले ? तब अरहरू प्रमुख वणिको चंद्रछाय राजा को ऐसा कहने लगे कि अहो स्वामिन्! हम सब नावों के वेपारीवणिक मीलकर यहां चंपा नगरी में रहते हैं. हमने गणिमादि चारों प्रकार के किराने भर कर समुद्र मार्ग से मिथिला नगरी में गये थे, जैसे हमने आपको नजराना किया For Personal & Private Use Only • बायक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी • ३५४ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hit+ P 44 षष्ठ अज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध कुंभराया मल्ली विदेह रायवरकन्नाए तं दिव्यकुंडल जयलं पिणहति रत्ता पाडेविमेजेति। तं एसणं सामी! अम्हेहिं कुंभगराय भवजलि मजए विदेह रायवर कण्गाए अच्छरएदिद्ध तं नो खलु अन्नेकावितारिसिया देवकनगावा जाव जारािमयाणं मल्लविदह रायवर कण्णा ॥७॥ततणं चंदछाए अरहन्न पामोक्खा सकेग्इ सम्माणेइ२ उसुक्करियरइ, पडिविसजेइ ॥७१॥ततणं चद च्छाएगया वाणियमा जतिलहास दुय सदावेइरत्ता जाव जइबियणं सा सयं रज सुंका ॥ तएणं से दूते हट्टतुटुं जाव पाहारत्थगमणाए ॥२॥ ७२ ॥ तेणं कालेण तेणं समएणं कुणालाणामं जणवए होत्था, तत्थणं सारथीणाम णयरी होत्था; वैसेही कंपराजा को भी नजरात लिया था. कंभराज ने व कुडलों अपनी विदेह राजवर कन्याको पहना विमर्जन की. हो स्वामिन् ! इन कंभराजा के भान में मल्ली नारकी विदह राजा की कन्या का रू अन देखा. एसी देव कन्या विसा स्थान दखने में आई. नहीं ॥ ७० ॥ चंद्रन या मनाने अगहन एख वगिकों का सरकार गिय ! सन्मान किया. महमूल मे मुक्त क के विमानम किये ॥ ७ ॥ वाणिक के निमित्त से चंद्रछाय राजा को पूर्व स्न: उद्गा हुआ. दू को बोला कर बुद्धि राजा जैन सा कहा. दूत भी प्रतिबुद्धि राजा के दून जैसे दृष्ट तुम हकर जान को नाकला. यह दूसरा दून रवान दुवा काहवा ॥७२॥ स काल उस समय में कुणाल नाम का देश था. उसमें सवस्थी नाम की नगरी बी. श्रीपल्लन थनी का आठवा अध्ययन +22.. animavana For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र अनुवादक-बालिकासमुनि श्री अमोलक ऋषिनी तत्थ गं प्पि कुणालाहिबतिणामराया होत्था ॥तस्सणं रुप्पिस्स धूया धारिणीए अत्तया सुबाहु णामदारिया होत्या, सुकुमाला सरूवा रूवेणय जोवण्णय लावन्नेणय,उकिट्ठा अमिट स रा जायायावि हात्थ। ॥७३॥ तीमणं मुबाह दारियाए अन्नया चउम्मामिय मजलाए जाएगाव हात्था !७४ ।। ततण मे रुप्पो कुणाल हवइ सुबहुदारियाए चाउम्मासिय मजणयं उबट्टियं जाण २त्ताक डुबय पुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! मुबाहुदारियाए कल चाउम्मामिय मजणए भविसति ॥ तं तुभेणं रायमग्गमोगाढमि पुप्फ मडंच मे,जलयथलय द' द्वबण्णमल साहरह जाब सिरिदामगडं ओलयति ॥ ७५ ॥ ततेणं से रुाप्प कुणालाहिवइ सुवण्णगारसेणिं सहावेद २ त्ता १ उपदेशमा मालकी नापका राजा की पुत्री व धारणी रानी की आत्मना सुबाहु नामकी लडकी थी. वर रूपयवन, लारण्य में उत्कृष्ट मुकामक, व उत्कृष्ट शरीर वाली थी. ॥७३॥ उम मुबाहु राज पुत्रीको एकदा चतगम स्नान का उतना आया. ॥ ४ ॥ रूपी र जाने अपन सुबह पुत्री का चतुर्षामिक स्नान का पा आया हुआ ना कर के पुरुषों की बोल य और कहा कि बो देव नुप्रिय ! सुबहु पुत्री का कल चतुर्ग: स्नान का उत्तर होगा इसालय तुम गजमार्ग रहा हुवा पुष्प मंडप जलं पत्रक स्थ पन्न पांचों वर्ण के पुष्षों लावो यावत् एक श्रीदास गेंद बनायो ॥ ७५ ॥ फीर रूसी सजान ।। काशक-राजावादरला मुखदरमहायजी बाबामसाक्षणी . For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : पष्टमसापचा कायम तस्कन्ध 4Me एवं क्यासी-खिप्पणमेव भोदेवाणुप्पिया ! रायमग्ग मोगाढंसि पुष्फमंडसि माणाविक पंचवण्णेहिं तंदुलेहि जयरं आलिहह, तरसेणं बहुमझदसभाए पट्टयं एह जाव पचमिति ॥ ७६ ॥ ततेणं से रुथी कुणालाहिबई हस्थिखंधवरगए, उ. रंगिणीए मेणार महया भचडा अतेउर परिपाल सहि संपरिवुडे, सुबाहुदारियं पुरतोकटु जणव रायमग्गा जणेव पप्फमंडवे तेणेव उवागम्छति । ताहत्थिखंधातो पन्ना रुहइ २त्ता पुप्फमडवे अणुपविसइ २ त्ता सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे संनिसन्ने ॥७॥ ततणं ताआ अंतउरियाआ सुब दारियं पट्टसि हुरहंति २ सीयापीयरहिं कलसेहिं = मुवर्णकार (सनार) को बलाये और कहा कि राजमार्ग पर रहास पुष्प मंडप में विविध प्रकार के पांच वर्ष वाले यावलों से नगर की भालेखना करो. उस के मध्य में एक पाट बनाओ यावत् उनोने चैम ही करके उनकी आवा पीछी दी. ॥ ७६ ॥ अब वह कुणाल देश का कसी राजा अपनी सुबाहु पुत्री आगे हमीपर बैठकर चतुरंगिनी सेना सहित बडे २ भट यावत् अंतपुर के परिवार से. परकर हुवे रान मार्ग में पुष्प मंडप में गये. और हाथी पर मे उतर कर पुष्प मंडड में प्रवेश किया, वहां सिंहासनपर पूर्वाभिमुख से ठे. ॥ ७७ ॥ उन अन्नापुर की अपना रानियोंने मुबाहु.T पुत्री को उस पाटपर बैठाई और तर पीले ( चांदी मुवर्ण क) करों से मान, कराया. सर्वा अलंकार से - श्री मल्लीनाथजी का अथ For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्हावेति २ सव्वालंकार विभसियं करेतिर त्ता पिउणो पायवेदिओ उवणे तण. सुबाहुदारिया जेगव रुप्पिर या तणव उगाच्छइ २ ता पायगाहणं करेइ ॥ ७॥ ततेण स रुप्पीराया सुबाहुदीरया अगिवरोइ सबाहदारियाए रूषणय जोवण्णेणय लवणेणय; विम्हए ॥७८॥ वरिधर सदावइ २ ता एवं वधामी-तुभण देवाणुपि. या ! मय दोण बहूण गामागर गिहाणि अणपत्र पविसह तं अस्थियाइते करसइ रणोश ईसरस्सा कहिंथिए रमए भेजगए दिटेपव्वे जारिसए इमीमे सब हदारिया मजणए ? ॥ तएण से वरसधर रप्पिरायं करयल जाव एवं वयामी. एवं खलु सामी ! अह अन्नयाकयाइं तम्भं दे वाण महिलंगए तरणं मए कुभगस्सरनो - विभीषन कीताश्चत् पिता के पांच में वंदन करने के लिये यहां आई पग में वंदन नमन किया|७७॥हप्पीगजाने सुबाहु पुत्रों को पन गोद में बैटई, और माहु पुत्र का रूप,भानवला पण दग्बकस्विभ७८॥ वहां पर वर्षधर पुरुषों को बोला कर कहा कि अहो देवानु प्रिय ! मेरे आदेश में बहुन ग्राम नगर थावत मनिवश तुम प्रवेश न हो तो जैम मेरी साह पुत्री की जा उत्साह वैध मज्जन उत्सव किमा स्थान क्या देखने में आया? वे वर्षधर रुपी राजा को हाथ जोडकर मा बोकि बोदवान 1ोपिय! मैं आपकी आज्ञा से एकदा मिथिल नगरी में गया था. यहां कुंभ राजा की पुषी . all अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी + .कामराजावहादरलाला मुक्क्दवमयी माRARBी । For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूयाए मावत ए देवीए अत्तया मल्लीएविदेह रायवरकन्नागाए मजगदिटे तस्मर्ण मजणगस इमीले सुबाहएदारियाए मजगए सयसहस्मंपिकलं जो अग्घेइ ॥ ७९ ॥ ततेणं स रुप्पीराया वरिधरस्म अंतियं एयमटुं सोचा नि मम्म मजणग जणियहामे दुध महावइ २त्ता एवं क्यासी जो जंग महल नारी तग पहरेत्थ गमगाए ॥ ३॥८॥ कालेणं तगं समरणं का नाम जगवए होत्था,तत्थणं वणारसी णामणधरीहात्था ॥तत्थगं संखणामं कामिराया होत्॥८॥ततेणं तीसे मल एविदेह रायवर कण्जाए अन्नया कयाह तस्स देवस्स कुंडलजुयलस्त संधीविसंघडिएयावि देवी की आत्मजा मल्लीनाप की विदेह र ज पर कन्या का मजन देखने में आया. उस मज से प्रबाहु पुत्री का मज्जन लाख में भाग में नहीं है ॥ ७१ ॥ वर्षयरों की पास से ऐसः मुनकर ज म पर्व का स्नेह उत्पन्न हवा इस से दूत को बोला कर प्रतिबडि गना जैसे सब कहा यावत् वा दू। मिथिला नगरा जाने को निकला. यहीमग दूर हुमः ॥८० ॥ उस कार म मपय काशी नाम का देश था, उप्स में नासी गरी पी. शंख नामका माशी देश का राजा या ॥८१॥ एकदा मल्ली सरीका ने दिये हुवे कुंडल के युगल की संधी तूट गई इससे कुंभ रानाने मुवर्णकारों को बोसोकर कह प पत्र मथनी का जाना हायन । For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होत्था ॥ ततेणं से कुंभराया सुबण्णेगारसेणी सहावेइ २ ता एवं बयासी-तुम्भेणं देवाणुप्पिया! इमस्स दिव्वस्स कुंडस जुयलस्स संधी सघडेह ॥ ततेणं सा सुवण्णगार सेणी एयमटुं तहत्ति पडिसुणेति २त्ता तं दिन्नं कुंडस जयलं गेण्हइ २ ताजणेत्र सुवण्णगार भेसियाओ संणेव उवागच्छति २ चा सुवण्णगार भेसिया सुणिवेसेइ, बहुर्हि आएहिय. जाव परिणाममाणा इन्छ ते तस्म दिवसस्स कुंडलजुयल संधिषडत्ताए, नो वेवणं संचाएत्ति घडित्तए॥ततेणं से मुवण्णगारसेणी जगेव कुंभएराया तेणेव उबागच्छइ २ ता करयल जाव वडावडत्ता २ एवं वयासी-एवं खलु क्यासी सामी अजतुन्भे अम्हे सहावेइ २त्ता आव संधी मंघाडेताए एयमाणतियं पचप्पिणह, ततेणं से अम्हे तं दिव्वं कुंडल है कि जो देशानुप्रिय ! इन दीन्य कंडल की मंधी पीछी जोर दे मुवर्णकागें राणा के वचन को मान्य कर वहां सोने करने की अधिकरणी थी वहां आये, उस पर रखा, बहुत उपाय यावत् परिणामों से उस कंडकीसंध करने का चाहा परंतु करसन. रमन सुवर्णकारों भराजाकी पासगये और हा जोरकर जयही विजयहो बधाकर ऐमा बोले महो सामिन् मापने बाजामकोबोलाये यावन् संधीपनाने को दी से इन रोमेकर सोने परमे की किरकी पास गये, और बनेक उपायों किये परंतु किसी/ • प्रकाशकशनसरदर लावामुखदवसहायनी मालमसदनी For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 422 ** पछङ्गज्ञाताधर्मकथा का प्रथम स्कंध जुबलं गेव्हामो जेणेत्र सुन्नागारभिसियाओ जाव णो संचारभो सघडितए || ततेणं अम्हे सामी ! एयरस दिव्वस्म कुंडलजुयलस्स अन्नंसरिमयं कंडल जुबलं घडेमो ॥ ८२ ॥ तते से कुंनराया तीने सुवण्णगार सेणीए अंतीए एमट्ठेोच्चा निम्म आनुरते : ४ तित्रालयं भिउ डिगिडाले साह एवं वासी सेकसणं तब्भे कलायाणं भवह जणं तुम्भे इमस्स दिवस कुंडल जुयलस्सनो संचाए संघ संघ डित्तए, ते सुत्रण गाराणित्रित आणवेति ॥ ८२ ॥ तणं ते सुन्नगाग कुंभए रण्गा निव्त्रिमया आणत्ताममाणा जेणेव साई २ गिहाइ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सभंडमतावगरणं मायाए महिलाए रायहाणीए प्रकार से हम उर की मन्धी पिला सके नहीं अो स्वामिन् ! हम इम कुंडल जैसे दूसरे कंडल आपको वनः देवें ॥ ८२ ॥ सुरों की पास से ऐमा सुनकर कुंभ राजा आयुक्त यावत् क्रोधित हुवा और ललाट में जिलो चढाकर ऐसा बोले, अरे ! तापास कैसी कला है कि जिससे इन दीव्य कुंडलों की संघ जोड पके नहीं. अयोग्य अकामी देखकर उ को देश निकाल किये॥८२॥ कुंम राधा से देश निकाल करागेल असे गये और २ लेकर मेलानगरी से निकलकर विदे For Personal & Private Use Only श्री मल्लीनाथजी का बाठवा अध्ययन 428 • ३६९ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्र mamanna । अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी मझमझेणं. णिक्खमंति २ त्ता विदेहस्त जणवयरत मज्झंमज्झेणं णिक्खमंति २त्ता जणेत्र काही जणवए जेणेव वाणारसीए नयरीए तेणेव उवागच्छइ २ ता अगुजाणसि सगडा सागडी मोएति २ त्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हति २ त्ता वाणरसीए नयरीए मझमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छइ २ । त्ता करयल जाव वधाति २ त्ता पाहुडं पुरओ ठावेइ २त्ता संखराय एवं व्याप्ती अम्हेणं . सामी ! महिलातोणं कुभए णवरीओ रन्ना णिव्विसयाआणेत्तासमाणा इहं हवमागया तं. इच्छामोणं सामी ! तुब्भं बाहुच्छाया परिग्गहिया णिब्भया णिरुव्यिग्गा सुहंसुहेणं परिवसियं ॥ ततेणं संख कासीराया ते सुवन्नगारे एवं वयासी किंण्णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! कुंभएणरन्ना देश में होते हुवे काशी देश में वानारसी नगगी में आये. वहां अग्र उद्यान में गाडे गाही छेडकर महामूल्यवाला नजणा लहर बानारसी नगरी के बीच में होते हुरे शंख नाम का काशी राजा की पास गये उन को हाथ जोडकर विज्ञाप्ति की कि अहो सामिन् ! मिथिमा नगरी में से कुंभराजाने हम को देशानीकाल कीया है, इस से हम यहां आये हैं इस से अहो सामिना ! हम आपका आश्रय ग्रहण कर निर्भय निरुद्वेग "पने यहां पर सुख से रहना चाहते हैं. काशी दशके शंख राजाने उन सोनारों से कहा कि तुम को किस लिये कंभराना ने देश पर किये हैं ? सोनारों बोले अहो स्वामिन् ! कुंभ राजा की पुत्री प्रभावती देवीकी। .प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदवसहायंजनाला सादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મેથ +३+ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4 णिन्सिया अणत्ता ? ॥ ततेणं से सुवन्नगारा संखं कासीरायं एवं वयासी एवं खलु सामी ! कुंभयस्तरण्णोधूया पभत्रावतीए देवीए अत्तया मल्लीए विदहरायवर कण्णए कुंडलस्स जुयलस्स संघ । विसंघडीए ततेनं से कुंभएराया सुवण्णगारसेणि सहावेति २त्ता जाव णिचिसिया • आत्ता || तरणं कारणणं सामी ! अम्हे कुंभएणं णिन्त्रिसया आणेत्त ॥ ८३ ॥ ततेणं से संखया सुवणारे एवं त्रयासी केरिसियाणं देवाणुपिया ! कुंभयस्तरण्णो धूया पभावती देवीए अत्तयामीविदेहवरराजकन्ना ? ॥ ततेनं ते सुवण्णगारा संखरायं एवं बयासी नो खलु सामी ! अन्नाकाइ तारिसिया देवकन्नावा गंधव्यकन्नावा जाव आत्मजा मल्ली नाम की त्रिदेव राजवरकन्या है उन के कुडंल की संधी तूट जानेसे हमको बोलाकर संधी मीलाने के लिये कहा हम उस को बनास के नहीं, इस से क्रुद्वतनकर हम को देश निकाल किये. अहो स्वामिन्! कुंभ राजाने हम को देश नीकाल किया है इस का यह कारन है. ॥ ८३ ॥ शंख राजा उनसुवर्णकारों को पुछा कि अहो देवानुप्रिय ! कुतं राजा की पुत्री, प्रभावती देवी को आत्मजा मल्ली विदेह राजाकी कन्या कैभी वे सुवर्णकारों शेख राजा को ऐसे बोले अहाँ देवानुप्रिया जैसे कोई देवकन्या अथ गंधा भी नहीं है बैरी कहन्या है. कुंडल के प्रसंग से पूर्व अन्नका उद्धा होने से दूतकों For Personal & Private Use Only 48* श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ३६३ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 929 जारिसियाणं मल्लविदहबगरायकन्ना ॥ततेणं से सखेराया कुंडलजुयल जायधिम्ह जणिय. हासे दूयं सहावेइ २त्ता जाव तहेव पाहरेत्थगमाणाए॥४॥८॥तेणं कालेण तेणं समएणं कुरु जणवए होत्था, हरियणाउरेनयर, अदीणसन्तुणामंराया होत्या, जात्र विहरइ ॥८५॥ तत्यणं महिलाए कुंभगरसपुत्त पभारतीएदेव एअत्तए मल्ल ए विदहरायबर कण्णाय अणुमग्गजायए मल्लादन्नए नाम कुमार जाव जुबरायावि होत्था॥८६॥ तत्तणं मल्लदिने कुभार अन्नयाकयाइ कोडुधिय पुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं श्याम्मी-गच्छहणं तुम्मे मम पमदवणसिए एगमहं चित्तसभं कोह. अणेग जाव पच्चाप्पणति ॥ ८७ ॥ मलया यावत् प्रतिबद रजा कहा और दून भ मिथिग जाने को निक 1. यह चीश दून ॥८॥ उस काल उम समय में कुरु नाम का था. उस में हस्तिनापुर नगर था, अदीनशत्रु राजा यावत् विचरता यः ॥ ८५ ॥ उर मिथिला नगरी में कुंभ गना का पुत्र प्रभावतीदेवी का असन ल्ला कुंवरी की पीछे जन्मा हुल्ली -1म का कुार यानत युवराजा था ।। ८६ ।। मल दिन कुमान एकदा कौटु अम्बिक पुरुषों को बोला कर ऐ कहा-अहो देवानु प्रिय ! तुम मेरे घर की पाछे बन्खण्ड बग.च संभवाली चित्रसभा करायो यावन् मुझे मेरा आना पछिी दा. कौटाम्बक पुरुषाने मनोन उक्त कार्य करके अनुवादक-बालब्रह्मचारा मुान श्रा अपालक ऋषिजा + प्रकाशक- नामदेवमहायजी ज्याप्रमाद । । For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ततेणं से मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सद्दावेइ २ त्ता एवं व्यामी-तुम्भेणं देवाणु पिया ! चितसभ हाव भ व विलास वियोह कलिहिं रूह चतेह नाव पच्चा पिणह॥८॥ तनेणं सा चित्तगरसणी तहत्ति पडिसणेइ २त्ता जेणेव सयाई २ गिहाई तणव उवागच्छइ २त्ता तूलियाओ वण्णरया गिणह३२ सा जेणव चित्तसभा तेणेव अणविमइ२ त्ता भमभाग वित्ति भभिमजइ चित्तसभं हाव भाव जाव चित्ते उपयत्तावि हात्था ॥ ८५ ॥ ततेणं एगम चित्तगरस्स इमयारूचे चितगरलडी लद्वापत्ता आभसमना गया- जस्सणं दुपयस्तया चउप्पयरमवा अपयस्सया एगदेममविपासति, तस्सणं देसाणुउसकी आज्ञा पीछीदी ॥ ८७॥ तत्पश्चात् मल्ल देन कमारने चित्रकारों को बोलाये और कहा कि अहो देवानु प्रेश ! तुम उप चित्रसभा में हक, भाव, विलाभ, व्यमोह सहिन कल्पित रूपवाल विचा प्रकार मित्र धके, यावल मुझ पी अज्ञा पछी दो ॥ ८८॥ चित्र कागें उर की अज्ञ' को सत्त कर अब २ गृह गय वहां कई चित्र नकालने की कलमों, तरह २ के रंग लकर चित्रसभा में अये, उनकोश कर चित्र समाचित्रों नीकालंकीमिका निभाग किया, उस घटर मटर कर 1ॐ चित्र नीकारन ये वनाइ, फर उस चित्रसभा में हर पार विलाम, विभ शस्त्रानुसार चैग असन स्त्री पुरुषों की क्रीडा वगैरह कचित्र बनाये।।८१॥ उनमें से एक चित्रकार को।' - षष्टाङ्ग ज्ञात धर्मकदा का प्रथम शुसन्ध श्रमल्लानाथजी का अठरा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwdnnamon 48 अनुवादक बालब्रमचारी मुनि श्री अमेलक ऋषीजी - सारेणं तयाणुरूवरूवं णिवत्तेत्ति। ततेणं से चितगरदारए मल्लीए विदेहरायवर कण्णाए जवणंतारियाए जालंतरण पायंगुटुं पासंति २ त्ता ततेणं तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवे अज्झयत्थिए जात्र समुप्पजित्था सेयं खलु मममलीएविदेहे रायवरकण्णाए पायंगुट्ठाणासारणं सरिसगं जाव गुणोववेयरूवं णिवत्तिए एवं संपेहेति-एदं संपेहेत्ता भूमिभागं सजेति २त्ता मल्लीएवि देहयरायवर क०गाए पायंगुट्टाणुलारेणं ज वणिवत्तेति।९०।ततणं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं जाव हाव भाव चित्तेति, २ त्ता जेणेव मल्लदिन्नकुमारे तेणेव उवागच्छइ २त्ताजाव एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति॥ ९१ ॥ ततेणं मल्लदिन्न चित्तरसंणिं सक्करति ऐमी चित्रकला की लब्धि हुईथी जिम किसी द्विपद चतुष्पद अथवा अपद (पांव विना)का कोई भी प्राणीका # एक देश विभाग भी देख लेवे तो उस अनुसार उसका संपूर्ण रूप बनादेता. उम चित्रकारने मल्लीकुंबरी के पांव का अंगुठा पडदे की जाली में से देखा, इस से उस को ऐमा विचार हुआ कि मल्ली कुंवरी के 3 पांव के अंगुले से उस का सब रूप बनाना मुझे श्रेय है. पेमा विचार करके उसने भूमि को स्वच्छ की " यावत् एक अंगुठे के अनुमार से मब रूप बना दिया ।। ९० ॥ सब चित्रकारोंने चित्र सभा में हाव भाव युक्त सब चित्रों बनाकर मल्लीदिन्न कमार की पार गये और उन को उन की आज्ञा पीछो दी ॥२१॥ प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रमादजी . 1 For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 पटङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतसन्य सक्कारेत्ता सम्माणेइता विउलं जीवियारिहं पीतिदाणदलयतिः त्तापडिविसेज्जति। ९३ तितर्ण मलेन्नि कुमारे अन्नयाकयाइ पहाए अतेउर परिवारसद्धिं परिबुडे अम्मधातीएसद्धिं जेणेत्र चित्तसभा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता चित्तसमं अणुपविमति २ न्ता हाव भाव दिलासं विव्वोय कलियाई रूवाति पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेह रायवरकन्नाए तयाणुरूवेणिवत्तिए तेगेव पहारत्थगमनाए ॥ ततेणं से मल्लदिन्ने कुमार मल्ली विदेहवर रायकण्णाए तयारुणिव्बतियं पासइ २ ता इमेयारूवं अज्झथिए जाव समुप्पजित्था - एसणं किं मल्लविदेहराय तिक हु, लजिए विलिए मल दिन कुमारने चित्रकारों का सत्कार सन्मान किया यावत् आजीविका चले वैसा भीतिदान देकर त्रिमर्जन किये ॥ १२ ॥ एकदा मल्लीदिन कुमार स्नानकर अपने न्नन्तःपुर सहित दूध पिलानेवाली धात्री को साथ लेकर चित्रसभा में गया. चित्र सभा में प्रवेश कर हाव, भाव, हुपे मल्लो नाम की विदेह राजवर कन्या का जो रूप बन या उस की पास गये. का रूप देख कर ऐना विचार हुवा, कि क्या यह मल्ली विदेह राजवरकन्या है, ऐसा कहकर वह लज्जित हुआ, शर्मिंदा हुआ, और शनैः २ पीछे हटने लगा. मल्ली दिन कुमार को इममकार पीछे हटना हुवा देखक For Personal & Private Use Only विलासवाले रूपों देखत मल्ल दिन कुमारने उस * श्रीमल्लीनाथजीका आठवा अध्ययन 48+ ३६७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक-राजारहादुर मुनि श्री अमोलक ऋषिणी 48. अनवादक-पालन मी विड्डे सणियं २ पच्चो सक्काइ॥तएगं तं मल्लदिन्नं कमारं अम्मधाइ साणियं २ पच्चीसवंत पासित्ता एवं वयासी-किण्णं तमं पुत्त लजिए बिल्लिए विडु सणिय २ पच्चो मछाह ? ॥ तएणं मल्लदिन्नं अम्मधति एवं वयासी- जुत्तंणं अम्मो ! मम जलाए भगिणीए गुरुदवयभूयाए लजपिज्जाए ममचित्तागणवत्तियसभ अणुपविसित्तए ॥ तएणं अम्मधाति मलादणंकमारं एयं क्यासी-नो स्खल पत्ता ! एस मल्ली, एसणं मल्लीएविदेह रायवरकणाए चित्तगरएणं तयाणुरू णिव्यत्तिए । ९३ ॥ ततेण मल्लदिन्न अम्मधाइ एयम सोचाणिसम्म आ रुत्ते एवं वयामी केसणं भौ! चित्तगरए है उस की अम्मा धात्री घोली अहो पुत्र ! तुम क्यों ले.जिन हाकर पीछे हटत हो ? मल्लंदन कुमार अपनी अम्मा धात्री ने इस प्रकार कहने लगा. अहा यानमा लज्ज. सान्न क. ऐपो मग चत्र सभा ममेरे गुरु देव सपान जष्ठा भागाने को प्रवेश करना का योग्य है ? तब वह अम्बाध त्र मल्लनिकमार स ऐना बाली कि अहो पुत्र! यह ल कुमारी परंतु निमारने मल्लविदहगजवरकन्या का ऐ । रूप बनाया है॥ १३ ॥ अम्म धान की पाम स एना सुनकर मल्लो दिन कुमार पासुक्त हुवा और ऐ बोला : ऐसा अमाव की प्रार्थना करनेवाला यावत् श्रे, हीपजित चित्रकार ौन है कि जितने मरी रायको ज्वालाप्रमादजी. For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ 48 अचादक-बालमनी मुनि श्री अमालक ऋषिषी विड्डे सणियं २ पच्चो सक्कइ॥तएगं तं मल्लदिन्नं कुमारं अम्मधाइ सणियं २ पच्चीसवंतं पासित्ता एवं वयासी-किण्णं तमं पुत्ता लजिए बिलिए विड सणिय २ पच्चमाह ? ॥ तएणं मल्लदिन्नं अम्मध तिं एवं बयासी- जुत्तंणं अम्मो ! मम जाए भगिणीए गुरुदवयभूयाए लज्जणिज्जाए मचित्ताणिवत्तियसभ अणुपविसित्तए ॥ तएणं अम्मधाति मल्लादणंकमारं एय वयासी-नो स्खलु पुत्ता ! एस मल्ली, एसणं मल्लीएविदेह रायवरकण्णाए चित्तगरएणं तयाणुरू किंव्यत्तिए ॥ ९३ ॥ ततेण मल्लदिन्न अम्मधाइ एयम? सोचाणिसाम्म आ रुत्ते एवं वयामी-केसणं भो! चित्तगरए है उस की अम्मा धात्री घोली अहो पुत्र ! तुम क्यों .जित हाकर पीछे हटत हो ? मल्लं दम कुमार अपनी अम्मा धात्री ने इस प्रकार करने लगा. अहा मानालिज्ज. उत्पन्न क. ऐसे मग चत्र सभा म मेरे गुरु देव समान जता भगिाने को प्रवेश करना का योग्य है ? तब वह अम्माध त्र मल्लनिकमार सये बाल कि अहो पुत्र ! यह ली कुमारी हैं . परंतु विकारने ल्ल विदहगंजबरकन्या का ऐ । रूप बनाया है ॥ १३ ॥ अम्म धावं की पाम स एना सुनकर मल्लो दिन कुमार आसुक्त हुवा और ऐसा बोला कि ऐसा अपावित की प्रार्थना करनेवाला यावत् श्रे. हीराजित चित्रकार कौन है कि जितने म .प्रकाशक-राजाबहादुर रायी ज्वालाप्रमादजी. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अतियए जाव परिवजिए जेणं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभुयाए जाव णिवत्तेए तिकटु, तं चित्तगरंथजं आवेइ ॥ ९४ ॥ ततणं माचित्तगरसेणी इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जेणेव मलदिन्नेकुमारे तेणव उवागच्छइ २ त्ता करयलपरिग्गाहिं जाव वद्धावेत्त. एब क्यासी- एब खल मामी ! तस्मचित्तगरस्स इमेयारूवाचित्तकर लडी लडपत्ता आनममन्नागया जरसणं दुप्पयस्मवा जाव णिवतेति, तं माण सामी । तुम्भं तं चित्तगर बाझआणवेह, तं तुभगं सामी ! तस्तचित्तकरस्स अणतयाणुरूव डनिव्वत्तेहाततणं से मल्लदिन्ने कुमार तस्स चित्तगरस्स अंगुहा संडा. सगं च्छिदारति तओ निवासय आणवेइ॥९५॥ततणं से चित्तगरस्सदारए मल्लदिनेणं अर्थE देव भूत भगिनी का रूप बनायः, ऐमा कहकर उय चित्रकार का वध की आज्ञा दी ॥ ९४ । मब चित्र का यह बात सुनकर मल्ला दिन कुमार की पा भाये और हाथ मोडकर ऐमा बोले कि हो स्वान् ! उप चित्रकार को चित्रकला में ऐसा लब्ध है कि किती द्विपद चतुगद का एक देश देखने स ह उम * अनुसार उस का मंपूर्ण स्वरूप बनाता है. अहे स्वामिन् ! उम चित्रकार का वध के अशा मत दो.3 उस को अन्य कोई किसी प्रकार दंड दो. तब इस मल्लीदिन कुमारसे उस चित्रकार क कर अंगुष्ट का छेदन कर दश निकाल करा दिया ॥ १५ ॥ वह चित्रकार मल्ल दिन कुमार ने देश निकाल करने से र षष्टाङ्गज्ञाताधर्मकभा का प्रथम श्रुतर घ 48 मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ६.४४ For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक राजाबही अनुगदक-लब्रमचारीमुनि श्री अमो के ऋषिजी + /OLA निधिसए आणत्तेसमाणे भभंडभत्तोवगरण मायाए मिहिलाओ नयरीएओ मिक्खमह २ चा विदेहं जणवयं मझमझणं जेणेव कुरुजणवए जणव हत्थिणाउर णयरे, तेणेव उवागच्छइ२ त्ता भंडणिक्खेवं करेइ २ त्ता चित्तफलगं सजेतिरत्ता मल्लीएविदेह रायवरकण्णए पायंगुट्ठाणुसारेणं रूवं णिवत्तेइ २त्ता कक्खंतरंसि लुब्भइत्ता २ त्ता महत्थ ना पाहुडं गेण्हह २त्ता हत्थिणापुर णयरं मझमज्झणं जेणव अदिण्णसतुराया, तेणेर उवागच्छइ २ त तं करयल जाब वडावेति २त्ता पाहुडं उघणेति २त्ता एवं वथासी एवं खलु अहं सामी ! मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्सरन्न पुत्तेणं पभावतीएदेवीए अपने भंड पात्र उपकरण लेकर मिथिला नगरी से निकलकर विदेह देश में से होता हुवा हस्तिनापुर नगर की पास आया. वहां उसने अपना सामान रखा और चित्र का पटिआ लेकर मल्लीविदेह राजवर कन्या का सम के अंगुष्ट के अनुसार रूप बनाया. उने कक्षा (बगल) में लिया और दूसरा राजा को योग्यं महा मूल्यवाला निजराना लेकर हस्तीना पुर नगर की बीच में हो अदिन्न शत्रु राजा की पाम गय. वहां जाकर हाथ अंडकर राजाको बधाया, और महा मूल्यवाला भेटग रखका ऐंमा बोला अहाँ स्वामिन्! मिथिला राज्यधानी के कुंभ राजा का पुत्र व प्रभावती देवी के आत्मन मलादिन कुमारने मुझे देश मुखदव सहायश्री ज्वालाप्रसादमी . + For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + षष्टाङ्ग ज्ञातार्धपकथा का प्रथम श्रुनस्कंध 4 अत्तएणं मल्लदिन्नेणंकुमारे णिब्बिए आणत्ते समाणे इहं हवमागए तं इच्छामिणं सामी ! तूब्भं वाहूच्छायाए पडिगहिए जाव परिवसित्तए ॥ ततेणं से अदिंण सतृराया तं चित्तगारदारयं एवं क्यासी-किन्नं तुमं देवाणुप्पिया ! मल्लदिण्णेणं कुमारेणं शिठिसए आणत्ते ? ॥ ततेणं से चित्तगरे अदीणसतुरीयं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! मल्लदिन्नकुमारे अण्णयाकयाइ चित्तगरसेणी सद्दावेइ. २ त्ता एवं बयासीतुम्भेणं देवाणुप्पिया ! ममचित्तसभं संचव सव्वं भाणियवं जाव ममसंडासयं छिंदावेति २ ता निविसयं आणवेति ॥ एवं खलु अहं सामी ! मल्लदिन्नेणं कुमारणं निकाल किया है. इस से मैं यहां आया हूं. अहो स्वामिन् ! मैं आप का आश्रय ग्रहण कर यान् यहां रहना चाहन हूं. अदीनशधु राजाने उस चित्रकार के पुत्र को कहा कि तेरेको मल्लीदिन्न कुमारने क्यों देश निकाल लिया ? तब उस चित्रकार पुत्रने राजासे कहा कि अहो ग्वामिन् ! मल्लीदिन कुमारने एकदा मत्र चित्रकारों को बोलाकर कहा कि तुम हाव, भाव सहित चित्रों से मेरी चित्रपमा बनावो. उसमें मैंने एक पां के अंगुष्ट के अनुसार से मल्लोविदेह राजवर कन्याका चित्र बनाया जिससे मेरेपर रुष्ट होकर मेरे अंगुष्टे का छेदन कर मुझ देश.निकाल किया है.. अहो सामिन् ! मल्लदिन कम रन मुझे देश विकाल किया। 422 श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन BN For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ko गिव्यिमा आगत्ते ॥ ९६ ॥ ततेणं अहीण सत्तुराय वित्तमरं एवं घयासी से करिस एणं देवाणुपए ! तुझे मल्लीर लहाणुरूवे जिम्वेत्तिए ॥ तेण से चितार दरए कक्खतरा तो चित्तफलयं ण ण त अदीण मत्तम उवणेति २ त्ता : यामी-एमण सामी! मल्लर विदेहबर रायकमा तयणरूरत केइ अप व डायारेणीतिए, नो खलु सक्का केणइ देवेणवा गंधणवा दाणवेणवा जाव मल्लीएविदहराय वरकन्नाए तयाणरूणिवत्तितः॥ ९७ ॥ ततेग अदीण मत्तूगय पडिरूवजणियहासे दूयं सहावेइ २त्ता एवं वयासी-तहव पाहारत्यगमणाए ॥५॥९८॥ तणं कालण तेणं समएणं पंचाले हैं इसका यही कारन है॥६॥ अदीन शत्रु सजाने कहा कि अहो देव नुप्रिय! तैन मल्ली कुवरी का कैस सबसया. ? तर चित्रकारने अपनी कक्षा में से सचित्र का दिया। कल कर रज की सन्मुख * खा और ला मो ममापिन् ! मल्ली देह राजवर कण के कितनेक आकार मात्र 1 प्रीनगर को हैं ई उ न करने काई देव. वन्य व गंर्धा भी समर्थ नहीं ॥१७॥ अदीन शत्रु र जाने उस के पागनिदेख... पू न उत्तम हुवा और प्रतिबुद्ध राना जै दूत 16 को वोलाकर कहा यावन दून भा मिथिला नगरी जाने को भी कला. यह पांवचा राजा. का दून. ॥१८॥ अनवादकाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अपालकन) + • पक शक-गादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्यालाप्रमादत्री • अर्थ For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 - - ३ पटान ज्ञाताधर्मकथा की ग्रथम श्रुतस्पन्य 48 जणवा मु कंपिल पुरेणाम णयरे होत्था जियसतुनःमंराया पंचालाहिवइ तस्सणं जियसतरस रण्णे धारिणी पामोक्खंदविसहस्सं उरोहे होत्था। ९९।तत्थणं महिलाए रायाहाणएचोक्खनाम परिवाइया परिवम्इ रिउया. जाव परिणिट्टियापि होत्थः।। १००॥ ततेणं सा चोक्खा परिव्व इया महलाए रायहाणीए बहुणं राईसर जाव सर स्याह पभिईणं पुरतो दाणधम्मंच सोयधम्मच तित्थाभिमेयंच आघमाणी, पण्णवेमाणी, परूवेमाणी उबदस माणी विहरति ॥१० १॥ततेणं सा चोरव परियइ अन्नया कयाई तिदंडच कुंडियंच जाव धाउरत्ताओय गेहति २त्ता परिब्वायगावसहाओ पडिनिक्खमइ पडिणिक्खमेइसापविरलपरिवाइयासद्धिं # उस क ल उस समय में पांच ल देश में कंपिलपुर नगर था. पांचाल देश का अधिपति जितशत्रु राजा राज्य काता था. उस को धारणी प्रम व एक हजार रानियों का अन्नापुर था: ॥१९॥ उकाल उस समय मिथिलानगरी में चोखा नाम की पत्ति जिका थी. वह ऋग्वेद आदि चारों वेद, सांठ तांत्रिक शास्त्रा वगैरह में पढ़ता थी. ॥ १ ॥ वह चोखा परिव्राजका मिथिला नगरी में बहुत राजेश्वा यावत् ॐ सार्थना प्रमुखको दान धर्म, शौच धर्म व तीर्थाभिवेक प्ररूपती हुई उपदेश करती हुई विचरती थी. ॥१.० १ || एकदा वह खा परिवजिहा दंड कमंडल य बत् ग से रंगित वस्त्र ग्रहण कर अपनी बसते में से नीकल श्री मल्लीनाथ जी का आठवा अध्ययन +80% । - For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपरिवडा मिहिलं रायहाणि मज्झमझेग जेणेव कुभस्सरनो भवण जेणेव मल्लीविदह रायवरकण्णा तेणेव उवागच्छइ २ त्ता उदयपरिफ सियाए दभोवरिपवत्थया तिभिसिया ते निसीयइ २ त्ता मनीएविदेह रायवरकणओ पुरओ दाणधम्मं जाव विहरंति ॥१०२॥ ततेणं मल्ली विदेहरायवरा कण्णा चोख परिवाइयं एवं क्यासी-तुब्भेणं!चोक्खे किं मूलए धम्म पण्णत्त।ततेणं सा चोक्खा परिवाइया मल्लिविदेह रायवरकन्नाए एवं वयासी-अम्हाणं . देवाणुप्पिए ! सोय मूलए धम्मे पन्नतमि जहेणं अम्हं किंचि अतुइभवइ तण्णं उदयणय मट्टीयणय जाव अविग्घणं सगं गच्छामो ॥ ततेणं मल्लीवादेह रायवरकण्णओ चक्खा परिव्वए एवं वयासी-चोक्खा से जहा णमाए. केइपूरिसे रुहिरकयंबत्थं रुहिरेणचेवधोवेजा, अर्थ / कर थोड़ी परिव निकाओं की साथ परमरी हुई मिथिला नगरी की बिच में होती हुई कुंभ राजा के भुवन के मे मल्ली विदेह राज वर कन्या के पा? आई. वहां पानी से भूमिपर सिंचन किया, दर्भासन विछया और उस पर बैठकर मल्ली कुंवरी के आगे दान धर्म की प्ररूपणा करने लगी. ॥ १०२ ॥ मल्ली कुंवरीने चोखा परिव निका को पुछा कि अहो गेखे! तुम्हारा धर्म का क्या मूल है ? चे कख परिव्रविकाने उत्तर दिया। कि हमारा धर्मका मूलऋषि और जिसस्थान किसी भी प्रकार की अशुचि होवे तो पानीपिट्टीने लीपकर उस अनुवादक-बासाह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी । काशक जाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रप अर्थ ** षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतरकन्ध 4 अस्थि चोक्खा ! तस्स रुहिरकयस्त वत्थरस्स रुहिरेणचेत्र घोषमाणस्स क'इमोही? णो इट्टे समट्ठे, एवामेत्र चोक्खा ! तुम्भेणं पफाइवारणं जाब मिच्छादमण सल्लेणं त्थकाइ सोही, जहा व तरल रुहिरे यवत् र रुहिरणेचेत्र धोयमाणस्स ॥ एवं सा चोक्खा परिव्वाइया मजीविदेहावर कणाए एवबुत्तासमाया संकिया कखिया वितिगिच्छिया यसमावण्णा कलुमममात्रणा जायावि होत्था, मल्लीए विदेह रायवरकण्णाए णोसंचाएइ किंचिवि पामा इक्खित्तए, तुसिणीया संचिट्ठइ ॥ १०३ ॥ ततणं तं चोक्खं परिव्वाइयं मल्लीएविदेह रायवरकण्णाए { से शुद्धकर यावत् स्वर्ग में जाते है. तब मल्ल कुंवरी उसे ऐसा वोली अहो चौक्खी ! जैसे कोई पुरुष रुधिर से भराहुना बस्त्र रुधिर से धोवेतो क्या वस्त्र की शुद्धि होती है ? यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थान नहीं होती है. वैसे ही अहो चोक्खे! जैसे रुधिर वाला वस्त्र को रुधिर से धोने से शुद्धि नहीं होती है वैसे ही तुम्हारे मत ने प्रतिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से किसी प्रकार मे शुद्ध नहीं होता है. मल्ली कुरी के ऐसे } कहने पर वह परिव्रजिका शंकित हुई, कांक्षित हुई. फळ प्रप्त में संदेह हुवा, भेद व कलुष को प्राप्त हुई, और मल्ली कुंारी को किसी प्रकार से उत्तर देने में समर्थ नहीं हुई, जिम मे मौनस्थ रहे. ॥ १०३ ॥ मल्ल कुंबरी की दसियों चंटियों उ । चकखा परिव्राजिका की हलिना, निंदा खिलना करने लगी, कितनीक For Personal & Private Use Only *१३* श्रापले नाथजी का आठवा अध्ययन + ३७५ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 41 अनुावदक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिन बहुओ दासी चाभी हीलंती जिंदाते खिमाते गरिएंति अप्पेगइया हेरूयालेति अप्पेगइया मुहमकडिया मा करति, अप्पेगइया घडीपाओ करेइ, अप्पगइया तज्जमाणिओ करेति. अप्पेगइया तालेमाणिओ करेति, अप्पगइया णिच्छति।।१.४॥ तएणं सा चोक्खा मद्धिविदह रायवरकण्णाए दास चडियाहिं जव गिरिहि जमाणी हलिजमाणी आसरसा जाब मिमिमि मेमाणी मलु एविदह रायवरक गयाए पउसमावजइ भिसियं गिण्हइ २ त्ना कागतेउराओ पाडनखपइ २ त्ता महिलाओ राय. हाणिआ निगज्छइ २ त्ता पारव्याइया संपरिबुडा जेणेव पचालजणवय जेणेव कंपिल्लपुरणयरे तणव उवागच्छइ २ त्ता कंपिल्ल पुर बहूगं राईसर जाव • प्रकाशक राजदर लाला सुखदवमहायजी ज्या प्रमजा . उको अपचेष्टा करनेलगी. कितनी मन्मुख देखकर मारने लगी, कितनीक हपमकरी करने लगी. कितनीक तजना करने लगी, कानीक त ड करने लगी और कितनीक निर्भत्सना करने लगी.॥१०४ामल्ल कुंरी की दासियों व बटयों ने इस प्रकार उ का टीलन निर या त् मीततीकन गारना की जिम में वह चे.क्खा आसुरक्त यावत् मसीआयप नवना हुई पल कुंव के साथ प्रदे ह भावधारन किया और अपा आशन दि ग्रहण कर अंतपुर से नीकल कर दिया नगरी में से नीकलकर अपनी परिव्र निकाओं सथ पांचाल देश के कंपिल पुर नगर में गइ. वहां बहुत रज रजिश्व को दान धर्म व तीर्थाभिषक प्ररूपी Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-धालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + विम्हाए चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी-तुमे गं देवाणुप्पिया! बहुणी गामागर जाव अहिंडइ, बहुणं राईसर गिहाइ अणुपवि संति तं अत्थियाई ते कस्सविरणोवा ज व एरिसिए उरोहे दिट्ठपुब्धे जारिसएणं इम ममउरोहे ? || तएणं सा चोक्खा परिधाइया जियसत्तुरायं एवं वयासी-इसिं अवहसिय करेइ २ चा सरिसएणं तुमणं देवाणुप्पिया ? तस्स अगड दडुरस्स, केसणं देवाणुप्पिएसे अगड दहरे ? जियसत्तु ! सेजहा णामए अगड दरे सियासेणं तत्थ जाए तत्थेवबड्डे अण्णंअगडंबा तडागंवा दहंवा सरंवा सागरंव अपासमाणे मण्णइ अयंचेव अगडंवा जाव सगरंवा ॥ तएणं तं कुवं अण्णे देखकर विस्मित हुया ऐमा बोला कि अहो देवानु प्रिय ! तुम को बहुन ग्राम नगर यावत् फीरते बहुत राजाओं के घरों में प्रवेश करते हुए जैसा मेरा अंत:पुर है वैना अंत:पुर अन्य किमी स्थान देखा. क्या? चोक्खा परिवाजिका किंचित् स्मित करके बोली अहो देवानु प्रिय ! तुप को के मेंडक जैसे हो. जिनशत्रु भी राजा पूछने लगे कि अहो देतानु प्रिय! रह कूत्र के मेंडक का वृतान्त किप्त तरह है ! परिवाजिकाने कहा हो में जितशत्रु ! जैम एक कूो का मेंडक वहां ही जन्म पाया हुवा वहां ही वृद्धि पाया हुवा था. उसने अन्य तलब, कूबा, द्रह समुद्र सागर वगैरह कुच्छ भी नहीं देखा था. इस से वह अपने मन में ऐपा ही मानता प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी . For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...इन्ध 48+ र समुद्दए ददुरे हब्वमागए, तएणं से कुब्वे ददरे तं समदद दरं एवं वयासी-से * केप्तणं तुम देवापुप्पिया ! कतेवाइह हवमागए?तए गं मे समुदद्दरे तं कुव ददुरं एवं वयाल देवाणप्पिया ! अहं समुदए दद्दरे ॥ तएण कवदहरे त समयं द के महलएगा देवाणु प्पिया ! से समुदे ? तएणं से समुदददुरे तं . यानी- हाल एण देवाणप्पिया ! समुदे ॥ तएणं से कुवदईरे गं कलेर एवं पयासी एवंचए महालए. देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ? णो इ, मढे ! हाल एणं समुद्दे ॥ तएणं से कुबददुर पुरच्छिमिलाओ तीराओ थारे जो कुच्छ कूता या मागर है पत्र यही है. एकदा उम कूचे में एक सपद्र का मेंडक आया. तब | उ के भडकने उो पूछा कि अहो के नुप्रिय ! तु कौन है और यहां क्यों आया है ? उसने उ ग कि अहो देवानुपिय ! मैं समुद्र का मेंडक हूं. फीर उसने पूछा कि तेरा समुद्र कितना पड ? उसने उत्तर दिया कि बहु। बडा मेरा समद्र है, तब उस कूचे के मेंडकने को में पांत्र के ॐ नख से मर करके कहा कि क्या इतना बड़ा है ? उसने उत्तर दिया कि यह योग्य नहीं अर्थात् इस २ से बहुत ही बडा समुद्र है,फीर कूवे का मेंडक फलांग मारकर कूरे के पूर्व किनारे से पश्चिम के किनारे पर 48 श्रीमल्लीनाथनी का आठवा अध्ययन 48 पष्टांग बताया Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ॐ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उप्फडिताणं गच्छइ २ त्ता एवं वयासी- एव महालएणं देवाणुप्पिया ! से समुद्दे ? णो इट्टे समट्ठे || तब एवा मेत्र तुमपि जियसत्तु ! अन्नेसिं बहुणं राईसर जाव सत्यवाह पनिईणं भजंग भगिनिंवा धूयंवा सुहंवा इत्थियं अपासमाण जाण सि जरिएणं ममं उरो तरिसए नो अन्नरस तं एवं खलु जियसत्तु मिहिलाएवा नयरी कुंभगस्तरण्णो धूयाए पभावइएदवी अतिया महीनागं विदेहावर कृण्णा रूय जीव जात्र न खलु अन्नोकाइ देवकण्यावा जारिया मजीविहरायवरकण्णाए विच्छ विपायंगुट्ठस्त इमेतत्र उरोहं रायसहस्तिमंपिकलं णअग्घइ त्तिकट्टु, जामवदिसिं पाउन्भूया तामेवदिसिं पडिगया ॥ १०८ ॥ तरणं जिवसतुराया जाकर बोला कि क्या इतना बडा है ! तब उसने उत्तरादेया कि यह अर्थ योग्य नहीं है. इस से बहुत ही बडा है. ऐसे ही अहो जितशत्रु ! तुम अन्य बहुत राजश्वर तलवर, सार्यवाह प्रमुख की भय, भगिनी, पुत्री, या पुत्रवधूस्त्रयों को बिना देखे जानता है कि मेरे अंतःपुर जैसा अन्य किसी का नहीं है. अहो जित शत्रु ! मिथिला नगरी में कुंभराजा की देवी की अपना मल्ली विदेह राजकन्या है छेदेन किये हुवे पत्र के अंगूठे मे जिंका अपने स्थान गई || १०८॥ उस के जैसी अन्य कोई देवदानव व गंधर्व कन्या भी नहीं है. इस के लाखने भाग में भी तेरे अंपुर में कोई भी नहीं है. ऐसा कहकर वह For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ३८० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v 4: षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध २ त्ता परिव्वइया अंते जनियहा से दुर्ग सहावेइ २त्ता जाव पहारेत्थ गमगाए ॥ ६ ॥ १०९ ॥ तएणं जियसत्तु पामोक्खाणं छण्हं राइणंदूया जेगेव मिहिलाए नपरी तेगेव पहारत्थ गमगाए ॥ तणं छप्पिययगा जंगेव मिहिलाणयरी तेणेव उभगच्छ महिलाए अंगुजातिपत्तय २ खंधावर निवमं करेति मिहिल रायहाणि अणुपत्रि संति जेणेव कुंभराया तेणेत्र उत्रागच्छइ २ त्ता पत्तेय २ करियल सांग २ राई त्रयणाति निवेदेति ॥ ततणं से कुमराया ते दूषाणं अतीए एयमट्ठे सोच्चा अहुरुत्ते जाव तिवलियं भिउडिं पिडाले साहहु एवं व्यासी— नंदमिणं अह तुभं मालविदेह बरका तिहु ॥ ११० ॥ तत्थणं छप्पिए दुई असक्कारिय सम्माणिय उस परिव्राजिका के पास से ऐसा सुन कर पूर्व भव का स्लेट उत्पन्न होने के दूत व लाया वह मिथिला नगरी में जाने को निकाला यह छठा दून ॥ १०० ॥ इस मकार जितशत्रु आदि छ राजा के दूरों मिथिला नगरी जाने को शकल वे वहां जाकर वाहिर अग्र उद्यान में पृथकर अपना २ कटक रखा. मिथिला राज्यधानी में प्रवेश कर कुंप बाजा को पास गये और प्रत्येकने हाथ जोडकर अपने २ राजा का कथन कह सुनाया. दूतों की पस ऐना सनकर वह कुंप राजा आसुरक्त हुवा यावत् कपाल में भृकुटि चढाकर एमा बोला मैं तुम की किसी को भी मली विदेह राजा कन्या नहीं दूंगा ॥ ११० ॥ छ ही दूरों सत्कार सन्मान नहीं मिलने से वहां से छंद 1 For Personal & Private Use Only ** श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4+ ३८१ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ३०२ 4- अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - • अवदारेणं णिच्छु.भाविया समाणा जेणेव सग्गउ २जणवए जेणेव सयाई २णगराई जेणेव सया२रायाणो तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल एवं वयासी-एवं खलु सामी ! अम्हे जियसत्तू पामोक्खाणं छह राइणं दूया जमगं समगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारेणं णिच्छुभावेइ, तं णदेवणं सामी ! कुंभराया मल्लीविदह रायवरकन्नगासाणं २ राइण एयम₹णियंति ॥ १११॥ ततेणं ते जियसत्तू पामोक्त्रा छप्पिरायाणी तेसिं दूयाणं अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म आमुरत्ता ४ अन्नमन्नस्स दूयं संपेसणं करेति २त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं छण्हं राई दया द्वारों से निकाल दियेबाद अपने देश में अपनी २ नगरी को अपने २ राजाकी पास आये और हाथ जो डकर ऐसा बोले कि नितशत्रु राजा के दूत प्रमुख हम छ ही दून साथ मिलकर मिथिला नगरी गये थे. वहां हम को अपमान कर छाटे द्वार से बाहिर निकाल दिये और कहा कि वह कुंघराजा मल्ल विदेश गना कन्या किसी को भी देंगा नहीं. एका अप। २ राजा की पास मव नोंने विवेदन किया ॥१.११॥ अपने २ दूत की पास से एना सुनकर जितशत्रु प्रमुख छ ही राजाओं आसुरक्त यावत् गिसमिस.यपान हुवे. और परस्पर दूर भेन कर छ ही राजाभों को कहलाया कि अहो देवानु प्रय ! अपने ० प्रकाशक राजावक्षदर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. । For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 IPS ர சர்ரறு டநற जमा ससगं चेव जाव निच्छुढा, तं सेयं खलु देवाणु प्पिया ! अम्हं कुंभगस्स जुत्तंगेण्हत्तिए. तिकटु, अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति २ त्ता ॥ ११२ ॥ तएणं से जित्तसत्तु पामोक्खा व्हाया साहबद्दा हत्थिखंध वरगया सकोरंटमल्लदामेणं. जाव सेयवर चामराहिं महया हयगयरहवर जोहकलियाए चाउरंगिणीएसेणाए सद्धिं संपरिवुड। सविड्डीए जाच रवेणं सएहिं २ नारे हिंतो जाव निग्गंच्छंति २त्ता एगयओ मिलयाति २ ता जेणेव महिला णयरी तेणेव पहारेत्थ गमगाए ॥ ११३ ॥ तसेणं कुंभराया इमीसे कहाए लढे सामणे बलवाउयं सदावेइ २ त्ता एवं ही दूनों साथ मिलकर मिथिला गये थे यावत् छोटे द्वार से निकाल दिये. इसमे कुंभ राजा की साथ युद्ध करना चाहिये. मब ने यह बात स्वीकार की. ॥११२॥ जिनशत्रु प्रमुख सब रानाबोंने स्नान किया। कवच शस्त्र धारन फिये, और हाथी पर बैठकर कोरंट वृक्ष की माला वाला छत्र धारन करते यात च पर महिन बह २ घ डे गज, रथ, व सार करने वाले श्रय योधाओं की चतुरंगीनी से? सहित यावत् विड २ वार्दिक शब्दसे अपने २ नगरसे यावत् नीकले और मब एकत्रित मीलकर मिथिला नगरी जानेको रवाना हुए ॥११३॥ कुंमरान को इस बात की पालू होने से सेनापति को बोलाया और कहा कि अहो श्री मल्लीनाथनी का आठमा अध्ययन 498 ANNEL For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋपनी * अनुवादक:बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया ! हेय जात्र सेणं सन्नहिह जाव पच्चप्पिणंति ॥११४॥ ततेणं से कु भएराया आहाए सन्नद्धबद्धे जाव हत्थिखंधवरगए सकोरटेंमल्ल दामेणं छत्तेणं संयचामराहिं धारिजमाणे मिहिलंगयहाणि मज्झं मज्भेणं निगच्छइत्ता २ त्ता विदेहं जणवयं मझमझेणं जेणेव देसपंते तेणेव उवागच्छइ २त्ता खंधावार निसं करेइ २ ता,तएणं जियसत्तु पामोक्खा छप्पिरायाणो पडिबालेमाणा २ जुनसज्जे पडिचिटुंति ॥ ११५ ॥ ततेणं जियसत्तु पामोक्खा छाप्पयाणो जेणेव कुंभएर अ तेणेव उवागच्छइ २ ता कुंभरणं रण्णासद्धिं संपलग्गोजाया देवान प्रेय ! अव य यन् हथियार बंध होकर यारत् मझे मेरी आज्ञा पीछी दो. उमने वैना करके उनकी अ ज्ञा पीछी दी. ॥ ११४ ॥ कंभराजाने स्नान किया, हथियार बद्ध बनकर हाथीपर स्वार होकर कोरंट पूष्प मालाओं वाला छत्र व श्वेत चामरों से मिथिला राजधानी की बीच में से नीकल कर विदेह । में होता हुवा अपने देशकी परवापर अपन, कटक रखा. वहां जिन शत्रु प्रपुरख छ ही रानाओं कुं ल प्रीक्षा करते हुए यद्ध की तैयारी करके बैठे थे. ॥ ११५ ॥ जितशत्रु प्रमुख छही राजाओं कुंभराज की . सवा ओकर उन की साथ युद्ध करने लगे. युद्ध में जित शत्रु प्रमुख छ ही राजा माने कुंभराजा को हराया। • पकाशक-नाजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसदाजी. For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4*62 ++8 बिहोत्था ॥ नएणं जियमत्तु पामोक्खा छप्पिरायाणो कुंभयंरायं हय महिय पवर वीरघातिय विवडियं चिंद्धय पड़ागं केत्थप्पाणोधगयं दिसोदिसं पडिसहते ॥ ततेर्ण से कंभएराया जियसत्तु पामोइखे छहिंराईहिं हय महिय जाव पडिसेहितसमाणा अथामे अबले अवीरिए जाव अधारणिजमि तिकटु, सिग्धं तुरियं जाव चेइयं जेणेव महिला तेणव उवागच्छइ २त्ता मिथिलं अणुपविसइ २त्ता मिहिलाए दुवारानि पिहेइ गेहासजावे चिति॥तएणं ते जियसत्त पामोक्खा छप्पिरायाणा जेणेव महिला तेणेव उबागच्छति २त्ता महिलं रायहाणि स्पचारणं णिरुच्चारं सम्वत्तो समंताओ रुभित्ताणं चिटुंति महाप्रबल सेना का घात किया, कुंभराजा के मान का मधन किया, बहुत सुभटों का विनाश किया, कुंभ राजा के राज्य चिन्ह धजा पताका नीचे पटकी, महामार के दुःख से पराभव पाये हुवे कुंभराजा के मुभटों पलायन करने लगे. जित शत्रु प्रमुख छही राजाओं में पगभव पाया हुआ यावत् अपनी सेना को दशों दिशा में पलायन करती हुई देखकर,कुंभराजा पराक्रम,बल व वीर्य रहिन हुभा यावत् उन की सेना का प्रहार नी सहन हो सके वैसा जानकर शीघ्रमे मिथिला नगरी में आया; उन में प्रवेश कर उसके द्वारा Aध कराये, और गढरोह किया. जित शतु प्रमुख छही राजाओं मिथिला नगरी में आये. और मिथिला 18गरी के वारि नीकलन के सब द्वारों का चारों दिशाओं में संघटन कर रहने लगे. ॥११६॥ मिथिला नगरी + पठाजवातावर्षकथा का प्रथम-श्रतस्क श्री मल्लनाथनी का अठवा अध्ययन * * For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र થે 42 अनुदकं ब्रह्मचारीमुनि श्री अपो ऋषि+ ॥ २१६ ॥ ततेणं से कुंमएराया महिलंरा यहाणि रुद्धं जाणित्ता अग्निता रियाए उड्डाणसालाए सीहाणवरगते तेसिं जियसत्तु पामोक्खाणं छ राईणं छिद्दानिय विवराणिया मम्माणिय अलभसमाणे बहु आएहिए उवाएहि उप्पत्तियाहिं४, बुद्धीहिं परिणाममाणे २ किंचित्रि आयंत्रा उवावा अलभमा जे ओहयमाण संकप्पे जात्र ज्झीयायति ॥ ११७ ॥ इमंचणं मल्लीविदेह रायवरॠण्णा व्हाया जात्र बहु है खज्जाहिं परिवुडा जेणेव कुंभराया तेणेत्र उवागच्छइ २त्ता कुंभयस्स पायग्गहजं करेति, ततेणं ते कुंभएरायामल्लीीर्वदेहेरायत्ररकणा नो आढाति मो परियाणा ते को चारों दिशाओं में मंधी हुई जानकर आभ्यंतर उपस्थान शाला में सिंहासन पर बैठा हुवा जितशत्रु प्रमख छड़ा राजाओं के छिद्र, विवर, व मर्म विचारने लगा. परंतु उस में कुच्छ भेद नहीं (पालन से चारों प्रकारी बुद्ध से विचार करते हुवे किसी प्रकार का जिस से मन में संकल्प विकल्प करता हुआ यावत् आर्तध्यान ध्याने लगा. {इधर मल्ली विदेह राजवर कन्याने स्नान किया यावत् बहुत खोज से परवरी हुई कुंभ ¥ आई और उन के पांव में पडी. कुंभ राजाने मल्ली कंवरी का बादर सत्कार किया नहीं उपाय नहीं मीळा ॥ ११७ ॥ राजा की पाम यावत् पच्छा For Personal & Private Use Only ० प्रकाशक राजानदा उदय सावजी ज्वालाप्रसादजी Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिना ताओ उहयम्ण संकप्पा जाब झियाह, तुम्भेणं ताओ, तोर्स जियसत्तु पामोक्खाणं छण्हंराईणं पत्तेयं २ रहस्तियं दुयं संपसेणं करेह, एगमेगं एवं वयहा-तवदामि मलिंविदेहवर रायकम्नं तिकटु, संज्झकाल समयसि पविरल मणुससि निसंत पडिनिसंतसि पत्तेयं २ महिलं रायहागं अणुप्पोसेह गम्भघरएसु अणुप्पवंसेह महिलाए रायहाणीए दुवारात पिहेह रोहामजे चिट्ठह ॥११९॥ ततेणं ते कुंभएराया एवं तं चेव ाव पवेसेति रोहसजे चिट्ठति ॥ १२ ॥ ततेणे से जियसन्तु पामो. क्खा छपिपरायाणो कल्लंपाउंभूया जाव जलंते जालंतरहिं कणगमयं मत्थयीछद्रं पउम. प्पलपिहाणं पडिमं पासंति,एसणं मजीविदेह रायवर कन्नं तिकटु, मल्लीविदेह रायबहकणं करो परन्तु उन छही राजा को अलग में छुरे दुन भेजो और कहो कि मल्ली विदेह राज वर कम्या तु को देंग.* यों कहकर गय थोडे मनुष्य चल से शान्त संध्या समय पृथक २छा राजाओं को मिथिला नगरी में प्रवेश करावी वहां गर्भ घर में उन को रखो फर मिथिला राजधानी के द्वार बंधकर गहरोह से सज पनकर रो १९॥ कम राजानेवैमा ही कर रोहमेजबनकर रहा. ॥ १.२. ॥ जित शत्र प्रमुख छही रज, प्रभात होते ही जाल के अंदर से सुवर्णपयी पस्तक में छिद्र बाली व पचपल के दक्कन वाली प्रतिमा देखी- प्रकाशक-राजावादर लाला मुखदेवमहायजी ज्याप्रमाद। For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - तसि जियसत्तु पामोक्ख छप्पिरायाणो एवं ययासी-किंण्ण तुम्भ देवाणुपिया सएहि २ उत्तरिजेहिं जाव परंमुहा चिट्ठह॥ततेणं जिसत्तू पामोक्खा मल्लीविदेहं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूयासमाणा सएहिं २जाब चिट्ठामो॥ ततेगं मल्लीविदेह ते जियसत्तु पामोक्खे एवं वयासी-एवं खलु जइ ताव देवाणुप्पिया! इमी से कणगमयाए जात्र पडिभाए कल्लाकालं ताओ मणुन्नाओ अलणंपाणं खाइमं साइम एगमेगे पिंडेर विखप्पमाणे २ इमेयारूचे असुभ पोग्गल परिणामे. इमरस पुण उगलिय सरीरस्स, खलासबस्स, वंतासवस्स, पित्तासबस्स, सुक्कासवस्स सोणियासवरस, मल्ली विदह राजार कन्याने कहा कि अहो देव नुप्रिय ! तुम किम लिये अपने उत्तरासन से अपना ना ढकते यात् पराङ्ग मुख ह गये. जितशत्रु प्रमुख छ ही गमः ओंने कहा कि. अहो देवानुप्रिय ! हम इMal अशभ गंध में पराभव पाये हुने यावत् अपने नाक ढककर पगङ्गमुख बनकर बैठे हैं. तब वह मल्ली कुंवरी उन को एना बालो-अहो देवानुमेय ! इस मुवर्णमयी प्रतिमा में मैंने सदैन मनोज्ञ अशनादि में से एक पिंड डालती थी जिस से इस में इतने अशुभ पुद्गल परिणमे हैं तब श्लंष्प, अपन, पित्त, शुक्र, शोणित प्रश्रास के आश्रमवाला खराब उश्वास निश्वासवाला, खराव मुत्र विष्टादि से भरा हुवा, और सहण पडण mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. प्रकाशक-राजाबहादुर लालामुखदेक्सझायनीज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48ष्ठाइ ज्ञानार्धमकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 4. पुथासवस्स दुरुयऊसास नीसासरम, दुरुय मत्तपूइय पुरिसस्स पुण्णरस सडण पडण । विद्धंसण जाव धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सति ॥ तंमाणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएकामभोगेमु सजह रजह गिझह मुझह, अजोववजह ॥ १२५ ॥ . एवंखलु देवाणुप्पिया! अम्हे इयातो तच्चेभरगहणे अवरविदेहे वासे सलिलावति विजए वि. यसोगाए रायहाणिए महव्वल पामोक्खा सत्तपिय बालवयंसया रायाणी होत्था,सहजायया जाव परइया,ततेणं अहं देवाणुपिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीणामगायकम्मं निव्वत्तेमि ॥ जतिगं तुम्भं चीत्थं उसपजित्ताणं विहरह ततेणं अहं छटुं उवसंपज्जिताणं विहरामी, छदन विधमन सभाववाला इन उदारिक शरीर का कैमा परिणाम होगा ? इस से अहो देवानुपिय! तुम मनुष्य के काम भोगों में आमक्त मत बनो, मूत मत होवो, उस में तन्मय मत बनो ॥ १२४ ॥ अहो देवानुप्रिय ! इस से ती मरे भव में अपन अपर विदेह क्षेत्र में सलीलावती विजय में महाबल प्रमुख सात बालमित्र थे, अपन साथ ही जन्म हुवे यावत् साथ ही प्रवर्जित हुए थे. उस समय जब तुम सब उपवास करते थे जब मैं बेला करती थी, तुप बेले करते थे, तब मैं तला करती थी, इमी कारन से मैंने स्वा नाम कर्म गोत्र उपार्जन किया. वहां से काल के अवसर में काल करके अपन सब जयंत विमान में 42श्रीमल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनवादक-बाल ब्रह्मचारी पनि श्री शासक ऋषिजी सेसं तहेव सव्वंतेणं तुब्भे देवाणुपिया! कालमासे कालंकिच्चा जयंते विमाणे उबवण्णा ॥ तत्थणं तुभं देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाई,ट्रिइ पण्णत्ता ततेणं तुब्भे ताओ देवलोया ओ अणंतर चयं चइत्ता-इहेव जंबूद्दीवेदीव जाव सयाई रज्जाइं उपसंपजित्ताणं विहरइ, ततेणं अहं देवाणपिया!ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दायित्ताए पयायाn (गाहा) किंचतयं पम्म? जच तया भो!जयतपरंमिव॒च्छा समयणिवद्धं देवाणुप्पियातंसंभरजाइ।। ॥१२६॥ ततेणंतेसिं जियसत्तु पामोक्खणं छण्ह राईणं मल्लीए विदेहरायवरकण्णह अंतिए एयभटुं साच्चाणिसम मुहणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवमणेणं,लेसाहिविसुज्झमाणीहिं तयावराणजणं कम्माण खउवसमाणं ईहापूह जाव सन्निजाईमरणे समुप्पन्न एयमटुंसम्म अभिस प्रकाशक-राजाबादुर लामा मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजी. उत्पन्न हुए वहां तुम्हारी कुछ कम इत्तीन सागरोषम की स्थिति थे, उन देवलोक से तुम चाकर यहां जम्बूद्वीप में यावत् अपने २ र ज्य भोगवते रहते हो. और मैं वहां से आयुष्य क्षय कर चवकर यहां पर पुत्रोपने उत्पन्न हुई हूं. अहो श्रेष्ठ! विनय पिमान में अपन सबने मन परस्पर संकेत किया था मृत्युलोक में गये पीछे प.तोध देना और सब को प्रजित होस, यह क्या भूल गये. इस से तुप पूर्व 16जन्म स्मरण करो ॥१॥ १२६ ॥ जितशत्रु प्रमुख छ राजाओं -ल्ली विदह राजवर कन्या की पास से ऐमा सुन कर शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय विशुद्ध लेइया से उपयोग लगाते गत भव देखने का For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनवादक-पालब्रह्मचारीमान श्री अलक ऋपिजी + सेसं तहेव सव्वतेणं तुब्भे देवाणुप्पिया! कालमासे कालंकिच्चा जयंते विमाणे उववण्णा ॥ तत्थणं तुभं देसूणाई बत्तीसाइं सागरोवमाई,द्विइ पण्णत्ता ततेणं तुम्भे ताओ देवलोया ओ अणंतर चयं चइत्ता-इहेब जंबूद्दीवेदीव जाव सयाई रज्जाइं उवसंपजित्ताणं विहरइ, ततेणं अहं देवाणुपिया!ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दाग्यित्ताए पयायाn (गाहा) किंचतयं पम्मट जच तया भो!जयतपवरंमिवच्छा समयणिवद्धं देवाणुप्पियातंसंभरजाइ।१। ॥१२६॥ ततेणंतेसिं जियसत्तु पामोक्खाणं छह राईणं मल्लीए विदेहरायवरकण्णह अंतिए एयभटुं सांच्चाणिसम मुंहणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवमणेणं,लेसाहिविसुज्झमाणीहि तयावराणजणं कम्माण खउवसमाणं ईहापूह जाव सन्निजाईमरणे समुप्पन्न एयमटुं सम्म अभिस • प्रकाशक-राजापादुर लामा मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजी . अर्थ उत्पन्न हुए वहां तुम्हरी कुन्छ कम इत्ती सागरोषम की स्थिति थे, उन देवलोक से तुम चाकर यहां जम्बूद्रप में सावत् अपने २ र ज्य भोगवते रहते हो. और मैं वहां से आयुष्य क्षय कर चवकर यहां पर पुत्रोपने उत्पन्न हुई हूं. अहो श्रेष्ठ विजय विमान में अपर सत्र ने मन में परस्पर संकेत किया था मृत्युलोक में गये पीछे प.तेवोध देना और सब को प्रजित होरा, यह क्या भूल गये. इस से तुम पूर्व जन्म स्परण करो ॥१॥१२६ ॥ जितशत्रु प्रमुख छ राजाओं -ल्ली विदह राजवर कन्या की पास से ऐसा सुनकर शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय विशुद्ध लेइया से उपयोग. लगाते गत भव देखने का .. | For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 48+ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 यागच्छति ॥ ततेणं मल्ली अरहा जियसत्तु पामोक्खे छप्पिरायाणो समुप्पण्णे, जाइ सरणे जाणित्ता गब्भघराणं दाराई विहाडेति ॥ ततेणं तेजियसत्तू पामोक्खा जेणेव । मल्लीअरहा तणेव उवागच्छइ २त्ता ॥ १२७ ॥ ततेणं से महावल्ल पामोक्खा सत्तरिय बालवयं साएगो अभिसमन्नागावि होत्था ॥ १२८ ॥ ततेणं जे मल्ली अरहा तेजियसत्त पामोक्खा छप्पिरायाणो एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पि पा ! अहं संसार भउविग्गे जाव पब्धयामि तं तब्भेणं किं करेह किं वसह जाव किंते भो हियसामत्थे॥ ततेणं जियसतू पामोक्खा छप्पिरायाणो मल्लिं अरहं एवं वयासी जतिअं तुम्भे देवाणुE जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा और इस बात को सम्एक प्रकार से जानी. उन को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुया देख कर पल्लो कुंबरी गर्भ धर के द्वारों खोल दिये. और जित शत्रु प्रमुख छे राजाओं लं नाम अरित की पाम आये ॥ १२७ ॥ पूर्व भव के महाबल प्रमुख साता बालमित्र एकत्रित हुए । १२८ ॥ वहां मल्ली अरिहंतने कहा, अहो देव न प्रयो! मैं संसार भय से उद्विग्न बनी हुई हूं य बत् दीक्षित बनना चाहती हूं इममें तुम्हारी क्या इच्छा है, तुम क्या करोगे, कहां रहोगे ? तब जितशत्रु प्रमुख छ है।।। राजाओं मल्ली अरिहंत को ऐसा वाले, अहो देवान प्रेय ! जब तुम संसार भय से उद्वग्न बनकर यावत् | श्रीमल्लानाथजी का आठमा अध्ययन 487 For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋबेजी संसार जाव पव्वह अम्हाणं देवाणु पिया! के अन्ने आलंबणेत्रा के आहारवा के अपने पडिबंधेवा जहाचेवणं देवाणुप्पिय.! तुब्भे अम्मं इआतच्चेभवग्गणे बहुसुकज्जे नुय मेढीपमाण जात्र धम्मंधूराहोत्था तहा चैत्रणं देवः णुपिया ! इव्हिप जाव भविस्सह, अम्हेपियण देवाणपिया ! संसार भयविग्गे जाव भीया जमण मरणेणं, देवः णुप्पियाणं सद्धि मुडे भवित्ता जाव पन्त्रयामो॥ १२९॥ततेणं मल्ली अरहा तेजियस्तु एवं पमाक्खे वयासी-जतिणं तुब्भे संसार भयउविग्गा जाब एहिं सद्धिं पत्रयाचे तं गछण तुब्भे देव णुपिया ! मए हैं २ रजेहिं जेटुपुत्रजेद्वावे पुरिससहस्स वाहिणी सीयाओ दुरुइह मम अंतियं पाउब्भवह दीक्षा लेना चाहते हो तो हम को अन्य क्या अवलम्बन व अधार है या प्रतिबंध है. जैसे आप इस से तीसरे भत्र में हमारे बहुत कार्यों में मेढी प्रमाण यावत् धर्मधार थे वैसे ही इस भत्र में होवो. अहो देवानुप्रिये ! हम भी संसार भय से उद्वेग्न बने हुये यावत् जन्म मरण से डरे हुवे हैं. हम भी आपकी माथ मुंडित बनकर यावत् दीक्षा अंगीकार करेंगे ॥ १२१ ॥ तब उन मल्ली अरिहंतने जिनशत्रु प्रमुख { को कहा कि जब तुम संसार भय से उद्विग्न बनकर मत्रजित होना चाहते हो तो तुम अपने अपने २ ज्येष्ठ पुत्र को राज्य पर स्थापन करके सहस्र पुत्र वाहिणी शिविका परं बैठकर छ ही राजाओं For Personal & Private Use Only राज्य में जाकर मेरी पास आवो ० प्रकाशक राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी • ३९४ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. षष्टङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्व ॥ १३० ॥ तते जियसत्तु पामोक्खा मल्लिएस अरहओ अंतिए एयमटुं पीडसुणेति ॥ १३१ ॥ ततेणं मल्लीअरहा ते जियसत्तु पामोक्खाछण्ह रायाणगहाय जेणेव कुंभएराया तेणेव उब!गच्छइ २त्तां कुंभगस्स पाएसुपाडेति । १३१ । एणं कुंभएराया ते जीयसत्तु पामोक्खाणं त्रिउलेणं अमणपाणं खाइमं साइमं पुप्प वत्थ गंध मल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारेता समाणेत्ता जाव पडिविसज्जेति ॥ १३२ ॥ ततेणं ते जिसत्तु पामोक्खा कुंभएरन्ना विसज्जिया समाणा अशेवसाति २ रज्जाति, जेणेव नगराई तेणेव उवागच्छ २चा सग हं २ रजाई उपसंपद्धित्ताणं विहरति ॥ १३३ ॥ ततेणं मल्लीअरहा संबंच्छरसाणे निक्खमिस्सामिचिमगं संपहारेति ॥ १३४ ॥ तेणं कालेणं तेणं | ॥ १३०॥ जितशत्रु प्रमुख छही राजाओं ने इस बात को स्वीकार की ॥ १३१ ॥ मल्ली अरिहंत जितशत्रु प्रमुख छ ही राजाओं से नाथ लेकर कुंभराजाकी पाम अई और उन के पांच में पाडे ॥ १३१ ॥ कुंभराजाने जितशत्रु प्रमुख छराजाओं को विपुल अशनादि चारों आहार पुष्प, वस्त्र, गंध, याला व अलंकार से सत्कार सम्मान देकर यावत् सर्व किये ॥१३२|| कुंभराजाने जिशत्रु प्रमुव छ हो राजाओं को बिसर्जन करने पर वे वहां से निकलकर अपने २ नगर में आये. और अपना २ राज्य करते हुवे विचरने लगे ॥ १३३ ॥ इस समय मल्ल- अरिहंत को एक संवत्सर के पर्यवसान में मैं निकलूंगा ऐसा पन में निश्चय किया ॥ ९३४ ॥ उस For Personal & Private Use Only +++ श्रीमल्लीनाथजीका आउवा अध्ययन 4+ ३९५ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पा समएणं समस्त आसणं चलति, ततेणं से सके देविंद देवराया आसणं चलियं पासति २त्ता ओहिं परं जति २त्ता मल्लं अरहं उहिणा आभोएति २त्ता इमेयारुचे अज्झत्थिए जात्र समुप्पजेत्था एवं खलु जंबुद्दीवंदीवे भारहेवासे मिहिलाए कुंभगस्तरन्ना मल्लीअरहा निक्खामिस्सामित्ति मणं पहारेति । तं जियमेतिय पचपन्न मणागयाणं सक्काणं अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेवारूवं अत्थ संपयाणं दलतित्तए॥ तं जहा गाहा तिन्नत्रय कोडिसया, अट्ठावीस चहार्ति कोडीओ ॥ असियंच सयसहस्साणं दानंदलयति अरहाणं ॥ १ ॥ एवं संपेहइ २ता वेसमणं देवं सद्दावेति २त्ता एवं त्र्यामी एवं खलु देव णुपिया ! जंबूद्दीवेदी काल उस समय शक देवेन्द्र का आसन चलायमान हुवा, शक्र देवेन्द्रने आसन चलित हुवा देख अवधि ज्ञान प्रयुंजा और अवधि ज्ञान से मल्लीनाथ अरिहंत को देखे देखकर ऐसा विचार हुवा कि इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मिथिला नगरी के कुंभ राजा के वहां मल्लीनाथ अरिहंतने दीक्षा लेने का मन में इरादा किया है इस पे अरिहंत भगवंत क दीक्षित होने को इतनी धन संपदा देने का अतीत वर्तमान व अनागत शकेन्द्र का जीत व्यवहार है सो कहते हैं. तीन सो क्रंड [ तीन अब्ज ] अट्यासी कोड, अस्सी लाख सुवर्ण महर अरिहंत दान देते हैं. ऐसा विचार कर वैश्रवण [कुबेर ] भंडारी को बोलाया और कहा For Personal & Private Use Only ० क शक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्यालाप्रमादजी • ३९.६ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्र अर्थ पङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुत+ भारदेवासे जाव असतंच सय सहस्स ति दलइत्तए, तं गछहणं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवेदीवे भारह वासे मिहिलाएं राहाणीए कुंभगस्स भवणंसि इमेयारूत्रं अत्यसंपायाणं साहराति तार खियामेव ममयमाणं खियं पच्चप्पिणा हे ॥ ततेणं से वेसमणेदवे सणदेविद एवं बुत्ते समाणे हड्डे तुट्ठे करयल जात्र पडिसुणेति २त्ता जंभए देवे सदावेति सदावेत्ता एवं बयासी गच्छहण तब्भे देवाणुपिया ! जंबुद्दीबंदीचे भारहवासं मिहलंराय हाजिं कुंभगस्तरन्नो भवनि तिमि कांडिसय', असातिंच कोडिओ || अतिइंचसयसहस्ताई अयमेयारूयं अत्यसंपयाणं सारह २ ता ममएयमाणत्तियं पञ्चपिह ॥ तते नगादेवा वेसणे जात्र सुणेत्ता, उत्तर पुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमंति२त्ता जात्र कि अहो देवानुमिय ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में यावत् उक्त सुवर्णमहोरों की धन संपदा यावत् मुझे मे अज्ञा पीछे दो शकेन्द्रदेव के ऐसा कहने पर वैश्रमण देव हृष्ट तुष्ट हुए यावत् जंक ३ देवताओं को बोलाकर कहा कि अहां देवानुभिय | इल जम्बूद्रीप के भरत क्षेत्र में मिथिला र ज्यधानी में कुंभर ना के बद उक्त महरों रूप अर्थ संपदा का साइरन कर मुझे पेरी अशा पीछी दो. गर्म देवों की ऐना बात सुनकर ईशान कूल में गये वहाँ उत्तर वैक्रेपरूप करके उत्कृष्ट यात् For Personal & Private Use Only + श्रमल्लीनाथती का आठवा अध्ययन ३९७ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 अनुवादक- वालाचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी उत्तर वेउनियाई रूई विउव्वति २ ता ताए उक्किंडाए जाव वीइत्रयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे भारहवासे जेणेव महिलारायहाणी जेणेव कुंभगस्सर नोभवणे तेणेचा उवागच्छइ तेणेव उवागछित्ता कुंभगस्सरन्नो भवणसिं तिणिकोडिसया जाव साहरंति ॥ जेशव वेसमणदेवे तेणेव उनागंच्छंति रत्ता करयल जात्र पञ्चपिणंति ॥ सतेणं से वेसमणदेवे जेणेव सके देविंददेवराया तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल जात्र पञ्चपिति ॥ १३५ ॥ ततेणं मल्लीअरहा कल्लाकलिं जात्र मागहओ पातरासोति चहुणं समाहाण्य, अणाहाजय, पंथियाणय, पहियाणय, करोडियाणय, कप्पडियाणय, एगमेगं हिरण्णकोडि अटु अणूंगात सय सदस्साई, इमेयारूवं अत्थसंपयाणं व्यतिक्रम करते जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मिथिला नगरी के कुंभ राजा के भवन की पास आये और उक्त सुर्वण महोर रूप संपदा लाकर रखी. फीर वे वैश्रमण देव के पास पीछे आये और उनकी आज्ञा पीछी देदी. वैश्रमण देव भी शक्रदेवेन्द्र की पास आये और उन को हाथ जोडकर यावत् आशा पीछी दी. ॥ १३५ ॥ अत्र मल्ली अरिहंत कालो काल प्रातःकाल से बहुत सनाय, अनाथ बंदीजन प्रार्थिक जनो कोटिक सन्यासी और कापडिये कपटाचारी वगैरह अनेक लोगोंको प्रतिदिन ए. क्रोड आख्यातीलाख सौनेये For Personal & Private Use Only • प्रकाष राजावादूर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ● १९८ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३११ बलयति ॥ १३६ ॥ ततेणं कुंभएराया मिहिलाएरायहाणीए-तत्थ तत्थ, तहिं तहिं, देसंदेसे बहुओ महाणस सालाओ करेइ, तत्थणं बहवे मणुयादिन्नभइभत्तवेयणा, विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेंति २, जे जहा आगछति तं पंत्थियावा पहियावा, करोडियावा, कप्पडियावा, पासंडत्थावा, गिहत्थावा, तस्सय तहा आसत्थरसय विसत्थस्सय सुहासणबरगयस्स, तं विउलं असणं पाणं स्वाइमं साइमं परिभायमाणा परिवेसमाणा विहरति ॥ १३७ ॥ ततेणं मिहिलाए सिंघाडगतिग जाव बहुजणो अन्नमन्मस्स एयमाइक्खति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कुंभगस्सरनो भवणंसि दान देने लगे. ॥ १३६ ॥ कुंभ राजाने भी स्थान, स्थान,पाडों में पोलोंपे वगैरह बहुत स्थान भोजन शाला स्थापित की. उस में बहुत मनुष्यों को देने केलिये पानी, भोजन, व्यंजन दाल शाग और विपूल भशनादि चारों प्रकार के आहार तैयार: कराते थे. और वहां जो कोइ प्रार्थिक, पथिक, कटिक व कापिडायों प्राश्वस्थ व गृहस्थी आते थे उन को वैसे ही आश्वासन विश्वाम देकर सुखरूप आसन पर बैठाकर उक्त ॐ भोजनादि जिमाते थे. ॥ १३७ ॥ अव मिथिला नगरी के श्रृंग.टक त्रिक चौक यावत् राज्य मार्ग में 13 लोगों परस्पर ऐसा बोलने लगे-कि अहो देवानुप्रिय ! कुंभ राजा के भवन में सर्मा प्रकार के कार्य गुण HP षष्टानहाताधर्षकथा की प्रथम श्रतस्कन्थ +16+ श्रीमल्लीनाथजी का पाठवा अध्ययन HEP । For Personal & Private Use Only Jah Education International Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वारी मुनि श्री अलक ऋषिो - सकामगणियं किमि च्छयं विलं असणं पाणं खाइमै स इमं बहुणं समणाणय जाव विजति ॥ (गाहा ) परवरिया घो मजद, किमिच्छियं दिजए बहु बिहीयं ।। सुरमयुर देव दाणव, मरंद महियाण निक्ख ॥ १ ॥ १३८ ॥ तलेणं मला अरहा संवच्छरेणं सिन्निकोडिसया अट्टात्तिवहाँति कोडिओ अमिंच सयसहस्माइं, इमेया रूवं मत्य संपयाणं दलयत्तित्ता; निक्ख मामित्तिमणं धारेति ॥ १३८ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतियादवा बमलोएकप्पे स्ट्रिविमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणहि, सएहिं सएहिं पासायवडिप्लएहिं पत्तेयं पत्तयं चउहिं सामाणिय युक्त जैसा चाहे वैसा विस्तीर्ण अशन दि बहु । माधु भादि को देने हुए चिरते हैं और वहां उद्वेषणा करते हैं कि तुम क्या चाहत हो ? जी चाहत हो सो देते हैं. यह दान अपुर भव पते, वैमानिक, दानव पंवर नरेन्द्र चक्रानी वगैहर सबको ग्रह है. अर्थत् ऐसा दान लेोको ये भी अपना हाथ बाहिर नीकालते हैं। ॥३८॥ व भरिहतने एक संवत्सर में तीन अन्न, अठ्यार कर व अस्सीलारव स नेय का दानदेकर दाक्षा अंगीकार करने का मन में धारी हुए। १११॥ उस काल उस समय में ब्रह्मदेवलोक में रिष्ट । विमान के पाथड में लोकानिक देव अपने २ विमान के आने २ पामादावतंसक में चार हजार मा निक, तीन परिषदा, सात अनीक, मात अन काधिपते, सोलह हजार आत्म रक्षक देव, व अन्य बहुत • पानाजान दर लाला सुखदेवमहायजा For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साहस्सीहि तिहिं परिसा हि सत्तहि अणिएहिं, सत्ताहिं अणियाहिवताहिं सोलसहि आयक्खदर साहसीहिं अन्नेहिय बहु हैं लोगतिएहिं देवहिलविं संपरिवुडा, महया हयणगीय वाइयं जाव रखे भजमाणा विदति।जहा (महा) कारमय, माइच्चा वण्ही वनमाय, गदतोयाय ॥ तयाण, अव्याबाहा, अनिाचा. चास्ट्रिाय ॥ १ ॥१४०॥ ततेणं तेलि लोयंतियाणयदेवाण पत्तेयं २ आसणाई . चलति तहब जाव अरहनाणं णिक्खममाणं सबोहणं करत्तएत्ति, संगच्छामाणं अम्हेहिं मनिस्स अरहओ सबोहणंकरमो तिकटु, एवं संपहेति एव संपत्ता उत्तर पुरच्छिमं दिसीभागं उब्धियःमुपएणं समोहणति २ संजाई जोयाणाति एवं जहा अर्थ लोकनि देवों के परिवार में वडे २ न टक, मीन व वात्रि यावत् गुरुसे भंग भोगते हुने विचरने हैं। जनके नाम सारस्त,२ आदित्य.३ वन्दी, ४ वरुण, गर्दतोय, तुम्न.७ अव्य वाथ, ८ अगिव, अररिष्ट ॥४.१॥उनसब लोवानिक देशका आमन क्लायमाना . इवले आधिज्ञान प्रयं ना. आधिचनस मली। अरिहंत को देखा और उौने अरिहंत को मंवोधन करने का अपना ही चाहार जाना. इस मे 13नि उनकोबोधन करने को जाने का निश्चय किया. एका विचार कर ईशाकून में गो यहां उत्कृष्ट चक्रेग बनाया और जम्मूद्वीप के भरत क्षेत्र में मिथिला राज्यधानी में कुं। सजा भार में मला पण हाताधर्मकथा का प्रथम श्रमदान्ध श्रीमल्लीनाथजी का पाठप अध्ययन 4200 For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्र * अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल ऋषि जंभगा जाव जेणेव महिलारायहाणि जेवेत्र कुंभगस्रन्नोभवणे, जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छइ २त्ता अंतलिक्खपडित्रन्नो सखिखणियाइ जात्र वत्थाई पवरपरिहिया करयल ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं वयासी "बुज्झाहि भगवं लोगनाहा पवत्तं हि धम्मतित्थं, जीवाणं हिय सुहं निसेस्सेयसकरंच्च भविस्सइ तिकहु” दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-मल्ली अरहं वंदति नम॑सति वंदिता नमसित्ता जामेवदिसिं पाउन्भूया तामेवदितं पडिगया ॥ १४१ ॥ ततेणं मल्लीअरहा तेहिं लोगंतिएहिं दहिं संबाहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल इच्छामिणं अम्मयाओ तुम्भेहिं अब्भणुन्नात्ते समाणे मुंडे भवित्ता; जाव पव्वतित्तए, अहासुहं देवाणुअरिहंत की पास आकर अंतरिक्ष में रहे. घुघरियों घमकाते हुए यावत् श्रेष्ठ वस्त्रों पहिनें हुत्रे लोकान्तिक दवने इष्टकारी कन्तिकारी भिंय यावत् प्रणाम शब्दों से ऐसा बोले अहो लोकनाथ ! दुझो धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो ! और जीवों को हित, सुख व कल्याण के कर्ता बनो. यों दो तीनबार बोलकर मल्ली अरिहंत को वंदना नमस्कार कर अपने २ स्थान पीछे गये ॥ १४१ ॥ लोकान्तिक देवों से बोधित कराये हुवे मल्लो भरिहंत अपने मातरिता की पास आये और हाथ जोडकर कहा कि आपकी आज्ञा होवे तो मुंडित बनकर दीक्षा अंगीकार करना चाहती हूं उनोंने उत्तर दिया कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे तुम को मुख होवे वैसा करो. For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजवहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसदजी ० ४०२ ( Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anamainamain मक पष्ठाता धर्मकश्या का प्रथम अतस्कंध 42 पया ! मापडिबंधं करेहि ॥ ४२ ॥ ततण कुमएराया कोडुबियपुरिसे सद्दावति २त्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव अट्रमहरुमं जाव भोमेजाणंति अण्णंच जाव महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उबट्टवेह जात्र उवटावेति ॥ १४३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चय पजवसाणा आगया ॥१४४॥ ततेणं सक्के अभिओगिए देवे सदावेद २ चा एवं वयासी- खिप्पामेव असहस्सं सोवणियाणं कलसाणं जाव अनंच तं विउले उवट्ठवेह, जाव उबटाति ॥ तेविकलला तंचंत्र कलसेसु अणुपविट्ठा बिलम्ब मत करो, ऐसा मातपिताने उत्तर दिया ॥ १५२ ॥ फीर कुंभ राजा कौटुम्बक पुरुषों को बोला- कर यों कहने लगे कि अहो देवानु प्रिय ! सोने को यावत् मिट्टी के १००८ कलश बनाको यावत् महा अर्थवाला तीर्थंकर का अभिषेक करो. कौटुबिक पुष्टपोंने वैसा ही किया ॥ १.४३ ॥ उस काल उस समय में अमरेन्द्र से अच्युतन्द्र पर्यंत चौसठ इन्द्रवीरकर का दीक्षा का उत्सव करने के आये ॥१.४४॥ शक्वेन्द्र देवने आभियोगी दवों को बोलाकर कहा कि अहो देवानुप्रिय ! एक हजार पर्ण के कलश यावत् और भी अन्य सब वस्तुओं सहित शीघ्रमेव दीक्षा उत्सव की स्थापना करों यावत् मे ही किया. और देवकृत कलशों को मनुष्य कृत कर शों में रखे. ॥ १४५ ॥ शक्रेन्द्र देव राजा व कुंभ सनाने पल्ली अरिहंत को सिंहासनपर पूर्वाभिमुख बैठ ये. और एकहजार आठ सुवर्ण कलश यातू १०.८॥ 1 श्री. मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 4120 For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ४.४ - अनुवादक-बाल मचाशमान श्री अमोलक ऋषिज ॥ १४५ ॥ तते गं से सके देविदे देवराया कुंभएयराया मल्लिअरहं सिंहासणंसि पुरत् मिमुहं णिवेसति, अट्ठसहस्सेणं सोबणियाणं कलसाणं जाव अभिसिंचंतिततेणं मल्लस भगवओ अभिसेयं वदृमाणे अर्थगतिया देवा मिहिलंच सभितरं वाहिं जाव सम्वत्तो समंत्ता संपरिधाउंति ॥ १४६ ॥ ततेण कुंभएराया दोच्चपि उत्तरावकमाणं जाव सवालंकारविभूसियं करोति के डुबियपुरिसे सदाति २ त्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भादेवाणुपिया!मणोरमंसीयं उबट्टवेहोतेवितहव उववेति ततेणे सक्कं दविंददेवराया अभिआगिएदवे सद्दावेति एव वयासी-खिप्पामंव अणेग खंभ जाव मणौरमंसीयं उबटुवेह, जाव तेवि साविसीया तंचव सीय अणुमृत्तिका के कल से सिंचन किया. इस तरह मल्ली अरिहंत का अभिक होता था तब कितनेक देवों मिथिला नगरी में बाहिर अंदर यायत् च रों तरफ होडते थे ॥१४६॥ कुभ जाने सल्ली अरिहंत को दूसरी वक्त उनर तरफ बैठाये, स्नान कराया यावत् सर्वालंकार से विभूषित किये. और कटुमक पुरुषों को बोल कर कहा कि अहो देव नुप्रय ! शघ्रमेव मनोरमा नाम शिवका तैयार करा. उनाने वैसे ही है किया. तब शकेन्द्रने आभिगेगी देवताओं को बोलाये और कहा कि अनेक स्तंभवाली यावत् मनोरमा, सशिविका तैपार करो. उनोंगे वो ही किया और यह शिविका पहिल तैयार करायी हुई शिविका में प्रकाशक राजाबहादर लाला मुखदवसहाय वाल माजी For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4 पांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध ॥ १४७ ॥ ततेणं मल्लीअरहा सीहासणाओ अब्भुट्ठेति, सीहासणाओ अब्भुट्टेत्ता जेणेव मणोरमासीया तेणेव उत्रागच्छइ, २ ता मणोरमंसीयं अणुक्याहिणि करमाणी मणोरमंसीयं दुरहति; २त्ता सीहासवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निमन्ने || १०८ ॥ ततेणं कुंभएराया अट्ठारस सेणिप्पसेणिय सहावेइ २त्ता एवं वयासी- तुमेणं देवाणुपिया व्हाया कयवलिकम्मा जा सवालंकारविभूसिया मस्सि सीयं परिवहह || जाव परिवहति ॥ ततेणं सक्केदेविंद देवराया मनोरमाए दक्खिणिलेणं उवरिया गेहइ, ईसाणे उत्तरिल्लवाहं गेहइ, चमरे दाहिणिलं उपरिल्लं हेट्ठिल्लं रखी ॥ १४७ ॥ मी अरहंत सिंहासन पर से उठे सिंहासन से उठकर मनेरमा शिविका की पास गये. मनोरमा शिविका के प्रदक्षिवृत फेरकर गोरम शिविका में प्रवेश कर उस में सिंहासन पर पूर्णभिमुख से बैठे ॥ ४८॥ तब कुंभराजाने अठारह श्रेणो. भठारह प्रश्रेणी को बोला और कहा कि अहां देश मे ! तु ज्ञान कर पवित्र कर यावत् सर्वालंकार से विभूवित बनकर मल्लों की शिविका उठायावत् उनोंने वैसे ही किया. तब शक्रेन्द्र मनोरमा शिवका की दक्षिण तरफ की ऊपर की बांह ग्रहण कर बरं, ईशानेन्द्र उत्तर तरफ की ऊपर की बांदा ग्रहण कर चळे, चमरेन्द्र दक्षिण तरफ की नीचे की बांश ग्रहण कर चले, बलेन्द्र उत्तर For Personal & Private Use Only 48 श्रीमल्लानाथजी का आठवा अध्ययन ४०५ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - - वली उत्तरिल्लं अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं परिवहह ॥ गाहा-पुट्विं उखित्तामाणु सेहिं, साहवरोम कुर्वहिं, ॥ पच्छा वहंति सीयं, असुरिंद बुरिंदाणागदा ॥ १ ॥ चवल चंचल कंडलधरा, सच्छंदे वेउब्बियाभरणधारी ॥ देविंद, दाणविंदा, वहति सीयं जिणंदस्स ॥ २ ॥ १४९ ॥ तएणं मलस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स, इमे अटुट्ठ मंगलगा पुरतो अहाणुपुवीए एवं विणिग्गमा जहा जमालिस्स ॥१५॥ ततेणं मल्लिस्स अरहतो णिक्खम माणस्स अप्पंगइयादेवा मिहिलं आसिय अभितरं वासंचिहि गाहा जाव परिधावति ॥ १५१ ॥ ततणं मल्लीअरहा जेणेव की ऊपर की बांहा ग्रहण कर चले, और अन्य सब देवों इच्छानुसार उस पालखी को उठाकर चल. पहिले बहुन हर्षित बनकर मनुष्योंने शिविका उठाइ तत्पश्च त् असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, व नागेन्द्रन उसे उठ इ. चाल, चंचल, कुंडल धारन करनेवाले अपनी इच्छानुमार वैक्रय बनाये वस्त्र भूषण धारन करनेवाले देव व नव के इन्द्र बहुत आनंद से शिषिका उठाते हैं ॥ १४९ ॥ मनोरमा शिविका में बैठे हवे मल्ली अरिहन के आठ २ मंगल अनुक्रम से आगे चलन ळग. या दीक्षा उत्सव का मव कथन जैस भगवती सूत्र में अभाली का कहा वैसे ही कहना ॥ १५ ॥ मल्ली अरिहंत के दीक्षा महोत्सव में कितनेक देवों मिथिला नगरी के भाभ्यंतर व बाहर कचरा निकालते थे, सुगंधित जल छिडकते थे, वर्षा वर्षाते थे, यावत् इधर उधर दोडने •माश राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स 22 - सहस्संबवणे उजाणे, जेणेव आसोगवरपायवे तेणेव उवाग छइ २ ता, सीयाओ पचोरुहति २ चा आभरणालंकार पभावती पडिच्छह ॥ १५२ ॥ ततेणं मल्लीअरहा। सयमंत्र पंचमुट्रियं लोयं करेंति२॥१५३॥ ततेणं सके दविंद देवराया मल्लिस्स अरहओ केसे पडिच्छइ २ ता खीरोदग समुद्दे साहरेइ ॥१५४॥ ततणं तेमल्ली अरहा गमो. त्थुणं सिद्धाणं तिकटु, सामातियं चरित्तं पडिवजति ॥ १५५ ॥ समयंचणं मल्ली. अरहा चरित्तं पडिवजति, तं समयंचणं देवाणु माणुसाणय णिग्घोसे तुडिय निगाए गीत वातिय पडिय, णिग्घोसेय सकरमधयणं संदसेणं निलुक्केयावि होत्था ॥ १५६ ॥ जप्तमयंचणं मल्ली अरहा सामातिय चरित्तं पडिवन तं समय फारते थे ॥१५१॥ तब मल्ली अरिहंत सहस्त्र वन उद्यान में अशोक पादप (वृक्ष) पास जाकर शिविका से नीचे उतरे, आभरण अलंकार वगैरह सब प्रभावती देवी ने लिया ॥ १५२ ॥ तत्पश्चात् मल्ली अरिहनने स्वयमेत पंच मुष्टि का लोच किया ॥ १४३ ॥ शक्र देवेन्द्रने मल्ली अरिहंत के केश को क्षीरोदधि समुद्र में 2 ठ,ये ॥ २५४ ॥ मल्ली अरिहंतने सिद्ध को नमस्कार करके सामायिक चारित्र अंगीकार किया ॥१५॥ Tiनन समय ल अरिहंतने सामायिक चारित्र अंगीकार किया उससमय शक्रेन्द्र के आदेशसे देव मनुष्य के शब्दों, वादियों का शब्द, गीत, गान आदि की प्रतिध्वनि मंत्र लुप्त होगई ।। १५६ ॥ मिस समय मल्ली पांगताधमर्कथा का प्रथम स्कन्ध 48 श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन 488 andirwin For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannrnmmmmmm अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिमी चगं. मलिस्स अरह भो माणुरसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जव नाणे समुप्पने ॥१५॥ मल्लीणं आहा जने हेमंताणं दोचपास चउत्थंरक्ख पोससुद्धं तस्सगं पोस सुदस्स एकारसी पखणं पुवाहकाल समयसि अट्टमेणं भत्तणं अपाणएणं आरसणीहिं णक्खतणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थिरएहिं अभितारय ए परिसाए तिहिं पुरिसमएहिं बाहिरियाए परिसाएसहि मुंडभवित्त पवातए ॥ ५८ ॥ मल्लि अरहं इमे अद्वनायकुमारा अणुपवयसि तंजहा-१ गंदेय, २ गादमित्तेय, ३ सुमित्त, ४ बलामेत्त, ५ भाणुमीत्तेय, ६ अमरवई, ७ अमरसेण, ८ महसणे अरिहंत सामायिक चारित्र अंगीकार किया उस समय उन को मनुष्य लोक के प्रमाण विपुल मति मन पर्यत्र ज्ञान उत्पन्न हुम ।। १५७ ॥ मल्ली अरिहंतने हेमंत ऋतु के दूमर माम में, चतुर्थ पत्र में अर्थत् पौष शु११ को दिन के पूर्वी भाग में च उनिहार अष्टम भक्त (तेल) के तर सहित, अश्विनी नक्षत्र के योग्य से तर परिषःकी तीन सो स्त्रियों व बाहिर की परिषा के सीन सो पुरुषों की साथ मुंडित बना र प्रवत हुए॥१५८॥ मल्ली अरिहंत की माथ आठ कुपार पत्र जमा हुए जिन के नाम-१ नंद,२ नंद. मित्र, ३ मुमित्र, ४ बलमित्र, ५ भानु मत्र, ६ अमरपति,७ अमरसेन, और ८ महाशेन. तत्पश्च त् भवनपात प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसाद को . For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ *पष्ट ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम स्कंध 4+ त्ता चैत्र || १ | तणं ते भवइ वाणमंतर जोइसिय त्रेमार्णिय लि अरहरलक्खिमण महिमं करैति, जेणेव नंदीसरे अट्ठाहियं करेइ २ पडिगया ॥ १५९ ॥ ततेनं मल्ली अरहा जंचेत्र दिवमं पव्वतिते, तस्संत्र दिवसरस वावरण्काल समयंसि, असोगवरपायवस्त अहे पुढत्रिसिला पट्टयंसि सुहासण वरगयरस सुहेणं परिणानेणं पसरथोहि अज्झत्रसाणेहिं, पंसत्याहि लेसाहिं, तयावरण कम्मरयत्रिकरण करं अपुन्त्रकरणं अणुपविट्ठस्स अनंते जाव केवलरणा दंसणे • समुप्पण्णे || तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वाणं देवाणं आसणातिं चलंति समोसदा वणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमानिक देवोंने मल्ली अरिहंत के दीक्षा महोत्सव का महिमा किया, वहां मे नंदीश्वर द्वीप में अढाइ महोत्सव करके पीछे गये ॥ १०१ ॥ ल्ली अरिहंतने जिस दिन दीक्षा-ली उम दिन के पीछे के भग में अशोक- पादप नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर सुखासन पर शुभ परिणाम में प्रशस्त मात्र प्रशस्न लेइया सहित सदावरणीय कर्ष रज का त्रिकरण करने वाला अपूर्व करण में परश करने अनंत यावत् केवल ज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुआ. ।। १४० ॥ उस काल उ पूनमच.. मी कि देव के आसेन बलायमान हुए.- क्षेत्र व आये रेशन: For Personal & Private Use Only +++ श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ४०९० Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र । . 4. अनुवादक-वारब्रह्मवा मुनि श्री अपोलो सुगंति अट्टाहियं महिमा नंदीसरे जाव जामेवदिसि पाउम्भूया तामेवदिसि पडिगया। कुंभएवि जिगच्छह ॥ १६२ ॥ ततेणं ते जियसत्तू पामोरखा छप्पियरायाणो जेटपके रजे दुवित्ता, पुरिमसहस्म वाहिणतो दुरूढा सबिट्टीए जंणव मल्ली अरहा साव पज्जवासंति ॥१६३॥ ततेणं मल्ली अग्हा तीमे महति महालियाए कुभस्स रपणे तेति च जियसत्त पामोक्ख णं धम्मच परिकहति ॥ परिसा जामेदिसि पाउम्भया त मवादिमि पडिगया ॥१६४॥ कुंभएरायाम गांवासए जाए पडिगए।पभावतिया समको वासया जाया पड़िगया ॥१६५॥ ततेणं जियसत्तू पामोक्खा छप्पिरायाणोधम्म सोबा श्रण की, महा नंदीश्वर द्वीप में भठाइ महोत्सत किया गात् अपने • स्थान प गो. कुंभ राना भी अपने स्थान ' गये. ॥ १६ ॥ जितशत्रु प्रमुख जी राजा जष्ठ पुत्र कोर में स्थापन करके सरस पुरुष पहनी शीविका रह कर सबकशि महित श्रीपल्ली नाय आरहंत की पास आय यावत् पर्यपासना करने लगे ॥ १६३ ॥ मल्लीनाव बहिन न उम माती पपदा में कुंभराजा को वजिशनु प्रमुख राजाओं को धर्म करा, परिषदा जिम दिशा से बाई थी वहां पंछी गह ॥ १६४: कुंभगमा श्रमणोपामक हुए और अपने स्थान गय प्रमालीवाश्रम पासिकाइ ॥ १६५ । मितपत्रु प्रमुख की रामानों पर्म सुन कर बोले मो भगवन् ! या का र HINA - । For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ madhnama मालित्ते भंते! लोए जाव पवइया जाव चे दसपुस्विणो, अणते केवली जाब सिद्धा ॥ ॥ सतेणं ममी अरहा सहस्सं वणातो उज्वाणाओ जिक्खमति णिक्खमित्ता बहिया जणषय विहारं विहरुति ॥ १६७ ॥ मल्ललणं अरहओ किंतुयामाक्खा अट्ठावीसं गण, अट्ठावीस गणहरा होत्या ॥ १६८ ॥ मदिरमणं अरहओ चत्तालीस समणसाहस्सीओ उचोसियाओ, बंधुमनी पामेोक्खाओ पमपण्णं अजियासाहसीओ उकोसिया अजिया होत्या मल्लिस्सणं अरहओ सावयाणं एगासयसाहस्सीओ चुलसीइंच सहस्सा उक्कोसिया सावयाणं संपया होत्था ॥ मजिस्सणं अरहओ साबियाणं तिणि सयसाहस्सीओ पट्टिच सहस्सा संपया हे स्था ॥ मल्लिस्मणं बालित है यावत् प्ररजिन हए. चवदह पूर्व के ज्ञान के धारक हुए. अनंत कवत्री या दिए ॥ १६ ॥ मल्ली अग्हिन सहन वन में से नीकल कर बाहिर विहार करने लगे. ॥ १६७ ॥ मल अरिहत ] को किंत्रक प्रमुख अठाइस गण व अट्ठाइस मणघर हुवे.॥१६८ ॥ मल्ल अरिहंत को गलीम हजार सधु, पति प्रमुख पञ्चावन हजार भाजिका थी, एक लाख चौरामी हजार श्रावक की संपदा, तीन लाना सिट बार भाविका की संपदा थी, सो बउदहपूर्व के प.ठी , दो हजार अधिकानी, बस सो था का प्रयब महकन 4481 WHश्रीमल्लीनाथजी का आठवा अवषय शाता For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहओ-छसया चउद्दस पुत्रीणं वीससया ओहिणाणीप्यं, वत्तारसया कवलणाणीणं, पणतीससया डावयाणं, असया मणपजवणाणीणं, चउद्दमसया व ईणं वीसंसया अणुत्तगंवातीणं ॥ १६८ ॥ मल्लिस्सणं अग्हओदुविहा अंतकरभूमी मी होत्था तंजहा-जुगतकर भूमी परियायतकर भूमी जाव वीमांतमाओं पुरिस जुगाओ जुयंतकर भूमी, दुवास परियाए अंतिमकामी ॥ १६९ ॥ मल्लीणं अरहा पपणबीसं धणणि उट्ठे उच्चत्तेणं, वन्नेगं पियंगु समे समचउरस संठाण संठिए बजरिसहनाराय संघयणे, मझदे से सुह सुहेणं विहरित्ता, जेणेव सम्मय मर्थE केवल ज्ञानी, पेंतीम मो वैकेय लब्धि के धारक, आठ मो पनापर्यत्र ज्ञानी, गैदमो बादी विजय और दो हजार अनुत्तर विमान में उत्म होने वाले थे ॥ १६८ ॥ पलनाथ अरिहंत को दो प्रकार की अंत कृत भूपि हुई. जिन के नाम. युग तर भूपि सो संसार का अंत करनेवाली और २ पर्यायांतर पो गुरु शिष्य व प्रशिष्य की जिम में वीस पुरुषों युगामर भमि वाले पाट मुक्ति जाने वाले हुए. और पल्लं नाथ अरिहंत मुक्त गये अनंतर दो वर्ष पछि मुक्ति में जाना शरू हुना. ॥ १६९ ॥ मल्लानाथ अरिहंत के शरीर की अवगाहना पच्चीम धनुष्य की थी, उनके शरीर का वर्ण पियंग ममानस था. उन का संस्थान | समचतुत्र था, संधयन बज्र ऋषभ नाराव था, और मध्य देश में मुख पूर्वक विचर कर समंत शिखर पर्वत मुनि श्री अमोलक ऋषिजी । - . पावागजाबहादर लालासुबहवमहायजी मालाप्रमादज' । For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + षष्टांडवानाधर्मकथा का प्रथम श्रमस्कन्ध 122 पाए नेणव उवागग्छ। २त्ता संमेय सेलसिहरे पाउगमण पडिवन्ने ॥१७०॥ मल्लीणं आहा एगं वाससयं अगारवास मज्झे पणपण्णं वास सहस्माई वाममयं ऊ गाति के बलि परियागं पाउणेना, पणपण्णं वास सहस्साति सघाउयं पालइत्ता ॥ १७१ ॥ जेमे गिम्हाणं पढमे मासे देोच्च पक्खे चित्तसुद्धे तरणं चनसुद्वरस चउत्थी परखणं भरणी नक्खतणं अद्वरत्तकाल समयंसि पहिं अजिया सएहिं अभितस्यिाए परिमाते, पंचहि अणगार सएहिं वाहिरिया परिसाए, मासिएणं भत्तगं अगणएणं वग्धारिय पाणी खींगे वेयणिजे आउए नाम गाए की पाम अ.ये. वहां स्वयपेन चडकर पादोगमन अ शन किया. ॥ १७ ॥ मल्लीनाथ अरिहंत एकसो वर्ष संसार में से, पंचावन हजार वर्ष में सो वर्ष कम की केवल पर्याय और सब पीलकर पञ्चावन हजार वर्ष संयम पाला, ॥ १७१ । ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के दूसरे पक्ष में चैत्र शुदी ४ को भरणी नक्षत्र में अब सा समयमें आभ्यंतर परिषदाके पांचसो आर्यामी, बाहिरकी परिषदा के पांचसो साधु सहित एक मास, पर्यंत भक्तपान रहित हायपांव का हलन चलन सिवाय वेदनीय, आयुष्य, नाम व गोत्रको क्षगकर सीझे यावत् मुक्ति पधारे. यो सब निर्वाण अधिकार जम्न द्वाप प्रज्ञप्ति से मानना. यारत् नंदीश्वर वैप में 128श्री मल्लीनाथजी का आठवा अध्ययन ११ For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ सिद एवं परिनिन्वाण महिमा भाणियब्वा, जहा जंबुद्दीव पन्नत्तीए नंदीसरे, अहिय महिमातो. पडिगयातो ॥ १७३ एवं खलु जंबु ! समजेणं भगवया महावीरणे जाव संपत्तेणं अटुमस्स जायज्झयणस्त अयम? पण्णते ॥ तिबेमि ॥ मजीणं गायझयणंअट्टमं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ उग्गतब संयमवओपगिट्ठ फल साहगरम विजयस्स धम्मविसएदि महमावि होइ माया अणस्थाय ॥ ..॥ जह मालस्स महाबल भवंमि तित्वयरणामबंधेवि तब विमए थाब माया जाया जुक्यात हउत्ति॥ २ ॥अट्रमें नायज्झयणं सम्मत्तं ॥ . . - अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्रीमान पिजो - मानाबाद लाला भुखहब पहायजी ज्याप्रमाानी - - - अठाइ मोत्पब करके पीछे गये. ।। १७२ ॥ अहो न ! श्रमण भगवान महावीरसामी ने बाता कथा के आठवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. पर मल्ली नामका ज्ञाता धर्म कथा का भाठम अध्ययम मंपूर्ण दुना. ॥८॥ उपसंहार-उग्रनप, संयम र व्रत को मोक्ष के लिये साधन करने वाले साधुओं को धर्म में किचिमात्र माया भी अनर्थ रागनी ॥१॥ जैसे महाबल के भव में मल्लीनाय का 15 तीर्थकर नाप कर्म का बंध होने पर भी माया से बना पात्र हुवा. या आठमा अध्ययन संपूर्ण हुवा. ॥८॥ : : :: : For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. AMERIAL ॥ नवम अध्ययनम् ॥ सातिणं भंते ! समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स जायज्झयणस्म अयमढे पण्णते, नवमरसणं भंते ! णायज्झयणस्स समजेणं भगवया भहावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते ?॥१॥ एवं खलु जंबु | तेणं क लेणं तेणं समएणं चंपा मार्म नगरी होत्या, तीसेणं चंगाए गयरीए कोणिए नामंराया होत्या, तत्थणं चंपाए गयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिम दिसीभाए तत्थणं पुण्णभइनाम चेइए होत्या. ॥ तपणं पाए गयरीए मायंदीनाम सत्थवाह परिवसति, अड्डे ॥ तस्सणं भद्दानाम भारिया होत्था ॥ तीसंग भद्दयाए अत्तया दवे सरन्याह दारया होत्था, तंजहा. श्री अयण भगवान मावीर स्वामीने इतः सूत्र क रन का उक्त अर्थ कहा अब नवा मध्यरन का क्या अर्थ कहा ॥१॥हो जम्बू! उस कल उस समय चंपा नाम की नगरी थी सपा नगरी में कणिक राजा था. उप चंगा नगरी स बाहिर ईशानकून में पूर्णभद्र नाम का उद्यान था. उस में माकंदिय नाम का एक सर्यवाह रहता था. वा ऋद्धघंन यावत् अपराभून था. उप को, मा नाम की मार्या थी, भद्रा मार्ग से उस सार्थवाह को दो पुत्र हुए थे जिन के नाप-१ जिनरल जिनरस मिनपाका नवरा मध्ययन 40 | For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा - अनुवादक-काल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिर्जी + जिगपालएय. जिणरक्खिएय ॥ २ ॥ ततेणं तेसिं मागंदियदारगाणं अन्नयाकयाई एगयउ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पजित्था-एवं खलु अम्हे लवणसमुद्दे पोयवाहणणं एकारसवारा उगाढा सम्वस्थ वियणं लट्ठा कयकज्जा अणहस्म मग्गा पुणरवि णिययघरं हाय मागया ॥ तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! दुवालसंपि लवणसमुदं पोयवहणेणं उगाह तर तिकटु अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेति पडिसुणेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेगेव उवागम्छइ २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्ह अम्मायाओ इक्कारम वारा तंचेव जाव निघरं हवमागया, तं इच्छामिणं अम्मयाओ ! तुभहिं अन्भन्नाया समाणा दुवालम लवणममुह पायवहणेणं उगाहित्तए ॥ ४ ॥ ? और २ जिसपाल ॥ २ ॥ उक्त दोनों बालकों ने मिलकर एमा विचार किया कि अपने जहाज से लवण पमुद्र में अग्यारह वक्त प्रयास किया, मब वक्त धन को प्राप्ति की, इच्छिन कार्य किया, और अविध्नपन कुशलता पूर्वक अपन पर पीछे आये. इम स बारहवी वक्त भी जहाजों से लवण समुद्र में प्रवास करना अपने को श्रेय है. थों दोनोंने इस बात का स्वीकार किया, और अपने मातपिना की पास जाकर ऐमा बाले अरोमानपिता! हमने अग्य रह वक्त जहाजों मे लवण मुद्र में प्रयास किया यावत् अपने ग्रह। प्रकाशक-राजाबहादुर डाला मुबदवमहायजी ज्वालाप्रमासाद जी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 षष्टांग वाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4.1 - ततेनं ते मागंदिय दारए अम्मापियरो एवं वयासी-इमे भी जाया ! अजग जाव परिभाइत्तए अणुहोह ताव जाया ! विउले माणुस्सए इसक्काररूमदए किंभो सपञ्चवारणं निरालंबणेणं लवणसमुद्दोत्तारेणं ॥ एवं खल पुत्ता ! दुवालस म जत्ता सोवसग्गयावि भवति, तं माणं तुभ दुवे पुत्ता दुवालसंमि लवण जाव उगाहेह, माहं तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ ॥ ५ ॥ ततणं ते मागंदिय दारए अम्मापियरी दोच्चं ितच्चपि एवं क्यासी-एवं खलु अम्हे अम्मताओ ! एक्कारसवारा लवण जाव उगाहित्तए ॥ ६ ॥ तएणते मागिदिय दारए अम्मापियरो जाहे तमि गो पीछे भाये परंतु अब हम बारहवी वक्त लवण ममुद्र में प्रवास करना चाहते हैं ॥ ४ ॥ तब जन मादियो के पुत्रों को मातपिताने ऐमा कहा कि अहो पुत्रो ! तुम्हारे बाप दादाओं से प्राप्त कराया हुवा द्रव्य भोगत मी कमी ह वे न हैं। इतना है इससे इमे नवलग रहे वहां लग भोगवा, बहा पुत्रो!इतना ऋद्ध मत्कार समुदाय होते हुवे भी निकारण लवण समुद्र में प्रयास करने का क्या मतलब है ? और भी अ बारहवी समुद्रयात्रा उपसर्ग रूप होती है इससे तुम दोनों समुद्र बारहवी यात्रा मत करो. तुम्हारा शरीर में बाधा पीडा होगा. ॥ ५ ॥ अब माकंदिय के पुत्रोंने दो तीनवार ऐसा कहा कि अहो मात पिता! हमने अग्यारह वक्त लवण समुद्र में प्रयास किया यावत् बार हवो वक्त हम प्राप्त करेगे ॥ ६॥ जब vvvvvvvvvvvvvvv - जिनरक्ष जिनपाल कानववा अध्ययन 1 4 For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुवादक-बाबमारी मुनि श्रीगोलपिनीM संवाएतिः बहि आपत्रणाहिय. पण्णवणाहिय आघवित्तए पण्णवित्तए वा ताहे अकामयाए चेव एयमटुं अणुजाणित्ता ॥ ७॥ तएणं ते मागंदिय दारया अम्मापि. जहिं अब्भणुण्णाय समाणा, गणिमंच, धरिमंच, मेजच, परिच्छेच जहा भरहणगस्स जाव लवणसमुच बहू हैं जोयणसयाहिं ओगाढा ॥ ८ ॥ तएणं तेसिं मागंदिय दारवाणं अणेगाइ जोयणलयाई ओगाढाणं समाणाणं उपाइय सयाई अगाई पाउम्भूयाइ तंजहा-अकाले गजियं, अकाले विजयं जाव थणियसई कालिएकाए ___ जाव सस्थ समुत्थिए ॥ ९ ॥ तलेणं सा नात्रा तेणं कालिय वातेणं आहुणि जमाणी २ पादिव पुत्रों को उनके मात पिता बहुत कहासुनी मे सपना सके न सब अनिच्छा से इस को मान्य की. 10 भात पिता की अनुज्ञा होने से पादिय पुत्रोंने गिनती करपके कैमे धार सक रेमे, पाप सके से बगैर सब भनक श्रापक जैसे करके लवण समुद्र में बहुत योजन दुत सो योजन पर्यत प्रवासनकल गये. ॥८॥इम कहो योन स मुद्र नये पी अनेक उपदव ने जागना, कासविद्युत् पावत् स्वनित पद कालिका पावन मास उत्पमा हुवा ॥९॥ बना स प्रतिकूल वायु स कम्मन बगी, कम्पती हुई स्थान से रन बगी, बनिधित दिशा पकाषक-रामानहादरमाला सम्बदवमहावनीमालासादा. 1 For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र - पायधर्मकथा का प्रथम कक्ष 43 मंचालिजमाथी २ संखेभजमाणी २ सलिलतिक्खवेगेहिं भणियट्टिजमाणी २ कोहिमकर लाइए विवर्ति दूसए तथेत्र २ उवयमाणी २ उप्पयमाणवित्र घरणियलाओ सिद्धविजाहर कक्षा उपयमाणचित्र गगनतलाओ भट्टविजा विबाहर कन्नगः, विपलायमाणवित्र महागरुल वेगविशामियाभूयगवर कसा धावमानी चित्र महाजण रसियस वितत्या ठ णभट्ठा 'आसकीसोरी निगुंजमाणीचित्र, गुरुजनविदेशी में गमन करने लगी, हुब्ध हुई, पानी के क्षण वेग मेन्ध होने से नहीं रूक सकती थी, जैसे पृथ्वी पर हाथ में से फेंका हुआ गेंद ऊंचे उछलकर पडता है पैसे ही पहनावा कर पानी में पढने लगी, वहां डी किविम्यात्र में पानी के अर मे चढकर उपर जाती थी, पानी का कोट हटने से नींव आतों या पृथ्वी के अश्रय च ध्यास करने वाली विद्याधर की कन्या परिपूर्ण विद्या नहीं होने से उपर जाकर नीचे जाती है डी नावा उपर जाकर नीचे जाने लगी. जैसे दिया से भ्रष्ट हुई। विद्याधर कन्या विद्या का विस्मरण होने मे इबर उधर परिभ्रमण करती है देने ही यह न वा इधर उधर परभ्रमण करने लगी, गरुड पक्षी के परख के इरादे से कामित नाम कन्या अपने प्राण की कवानी करती है वैसे ही यह गाना करने लगी. जैसे अपने स्थान (अयशाला में मे फ्रांकाल से अकुत व्याकुल बनकर अक दिशा में दोस्ती है हुई घोडी मनुष्य ही यह नाबा वैसे For Personal & Private Use Only 44+ जिनरत जिनवाल का नववा अध्यनन Yee Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | दिट्ठी बराह जणकुलकलगा. घुम्ममाणीमित्र, वीचीपहारमयलालिया गलियलंबणा 'विव गगणतलातो रोयमाणीविव- सलीलगंठी विप्परइमाण धोरंसु पाएहि: णवबहुउवरयः भत्तया विलवमाणीविव, परचक्करायाभि रंगहिया परमः महाभयाभिडय! मह पुरवरी उझायमाणी विव कवडत्थोमणपउगजुत्ताजोगपरिमाझ्याणि. संसमाणीवित्र, महाकतार विजिग्गय परिस्संता परिणयच्या अम्मया सोयमाणीविव, तवचरण , खीण परिभागावचवणंकालदेववरबहुसँचुण्णियकट्ठकुवरा भग्गमेढिमोडिय . संहरसमाला : दौडन लमी. उत्तम कुल की कन्या को दृष्ट आचरण करती हुई उन के कोई वडिलं - पुरुषो देखलेवे तो Eजैम वह बंदना से घुरघुराट करनी है मे ही यह नावा घुरघुर शब्द करने लगी, जैसे किसी स्त्री को चाबुक के प्रहर मारन से वह घुरघुराट शब्द करती है वैसे ही यह नावा घुरघुराट शब्द करने लगी. आकाश में से अश्रु जैसे पानी के कण गिरने से लावा रूदन करती होचे पैसी दीखती है.. नव परिणत धू जम के मर्ता त्याग देने से जैसे कलयांत करती है. वैसे ही कलांन करने जैसी होनी लगी, जैम -1 परचक्री प्रबल नृपति से काम पाई हुई सेना में बहन कोलाहल हेता है वैसे ही नावा में कोलाहल शब्द होने लगा. कंचित ना स्थिर होती है तब उस का दृष्य जैमा होता है। *उस का वर्णन करते हैं जैसे किसी का वंचित करने के लिये कपट रूप योमी बनकर ध्यानस्थ बैठा मग दीर्य निक स दालता है वैसे ही उस नावा में बैठे हुने लोगों के दीर्घ मिश्च स से वा नावा ही दीर्घ है। अनुवादक-बालमनचारी मुनि श्री अमोलक प्रापजी - पकाधक राजाबहादुर लालाखदवसहायजा ज्वालामहादजी. For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ हांद्रताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध सुलाइय चंक परिमामा फ आमग लडनडित कुटुंन संधिविमलंत, _लोहकालिया सवियंभिया परिसादिपरज्जु पितरंत सव्वगता अगमणोरहे। चितिज माणी, गुहर्त हाराकद करणार नात्रियवाणियगजा, कम्मकार विलविया, नाणाविहरणाय पण्ण संपुझा विश्वास डालती हुई दीखती है. जैसे वृद्ध पुरुष दोघन करते अन से निश्वास डालती है अथवा जैसे बहुत पुत्र पुत्रियों को जन्म देनेवाली माता के गात्र वृद्ध अवस्था से शिथिल होने से किसी प्रकार का कार्य करते हुए निःषःस डालती है वैसे ही इस मावा में रहे हुवे लोगों विश्वास डाल रहे हैं. और भी जैने संयम के क उसे बनाना देवता के अपना आयष्य मंत्र व स्थिति क्षीण होने से उम्र के चक्षण काल में उस की खा ( देवांगना ) चिंताग्रस्त करती है वैसे ही वह नाक शेष कर रहीं होने देसी दीखनी है, ऐसी नाडा के कटकर चूर्णीभू होगये कूपस्तंभ बगैर टूट गये, उस नात्रा की मेडियो होगई, त् की fin नावा सूची पर चडा हुन, या पर्वनर से पड़ा हुआ रहित होता है बेनेही बहित हुई, समुद्र "खरे तीक्ष्ण पाहाडों में नाथा के महार से छेदन हुए मनुष्यों के बृद उस से पड़ने से जैसे पानी में पडे, वैसे ही तडा तडतडत करते हुए पये से लगे हुए लीह कीले से हट गई, समुद्रानी में भित्र बिना केब्बी दोरियों सह सक For Personal & Private Use Only कम जिंनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन ४२१ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जी श्रा अपालक 42 अनुवादक-मालवाचारीमुनि "बहूहिं पुरिममए हैं रोयमाणेहिं. कामारोह, मायमाण १. नि विललमा. हिं. एगं म; अंतो जलगयं, गिरिसिहर मामायना मंभगरेरणा मोडयं उझरे। दंडाबलयसय खंडिया करकरस्म रत्न विदा उगया ॥ ततेण तार नभए भिज माणीए एते यह पुरिसा विउल पणियभंउ मायाए अंतो जलमि निमाभियाबि हत्था : गल गल कर पडगइ, और कचा मृतका का मगर पानी के येग मे क्षण मात्र होजना है। मे ही यह नाव होगई, पूर्वपन में जिन ने पुण्य का मंचय नहीं किया थ ऐसे मनुष्यों के मगेग्य भन्न होने से गोदकमा विकास भ्रमित हुए, महा दुःख के अयान में मात्र को प्राप्त हुए वैसे नाम चर नेवास निर्यमदिक, वाणिज्य करनेवाले व्यापारी और भी उम नवा में काम करनेवाले 1987 अनेक ऊंच नीच लंकावलाप करने लगे. ही प्रकार के कर्ण रग्न व चरों प्रकार रिया से पूर्ण भरी हुई गवाको पुरुषों के हृदय को रूदन कगती हई अशुवर्षनी हुई. शोक कगनी . अकंद कराती हुई, खदिन बनाती हुई, विलाप करानी हुई, आर्तर र करानी दुई. लवण समुद्र में रहा हु। एक महान पर्वत मे अथवाइ..उम के तू सभ तर गये उस रसद भी तूट गया, | अन्य अनाओं दंड सहन मण्डा गई, एक २ काट के मेंबडो दुकडे होगये, और नावा का जो कच्छ भाग रहा था यह भी भीती हुई, विश्व पानी हुई, बहुत पुरा व रत्नादि किरयाने सहित लवणही राजाबहादुताला मुखदेव महायश्री मालापानी For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in ॥१०॥ ततेणं से मागंदिय दारया छपा दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहाची निउण प्तिप्योवगया बहुसु पोयवहणसंगमएमु कयकरणा लढा विजया अमृदः अमृढत्या, एंगमहं फलगखडं आमादाते, जसिचणं पदेसात से पं.यम्हणे विवन्न तसिंचणं पई सि एगं महं स्यादी कामदार होता अगाइ जोयणाई आयामक्खिभेणं, अगम इ जायण,इ परिक्खेत्रण नाणदुभ मांडओ देसे, सस्सिरीए. पासाइए परिसन्नि, अनिरूो पडरू। ॥१॥ तस्मणं बहमज्झदेमभाए एत्थणं महं एगे पासायसिए वि हात्था अभुग्गय मासए जा सरिसरीयरूर पासादिए दरिसगिजे, अभिरूवे. पडिरूवं समुद्र में डाने लगी ॥ १०॥ उस समय वे पाकंदिय पुत्र कि जो चतुर, दक्ष, प्राप्त अर्थशले, मध.बी, पुण, शिल्प लीन. जहाज चसोक कार्य में कृतकृत्य, अमूद व अमूढ इसबाल थे उनाने डा क..ट का पटेय, पकड लिया. जिस विभाग में यह मावा तूट गई उस ही विभाग में एक सपनाम का दू था. अनेक योजनका लम्बा चौहाथा, उसको भोक योजन की परिषिथी, विविध महार के वृक्ष से मुशम था, २६ शभायपान, दर्शवीय, अभिरूप प्रतिरूप था ॥ ११ ॥ इस द्वीप /*/५ध्य भाग एक मास.द बांसक थ बह-त-वर्णवाला बहुल ऊं यावद अपनी श्री लग से शोभा पष्टाङ्गताधर्मकय का प्रथम श्रनस्कन्ध जमक्ष जिमपाल का नया अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ पनवादक बालब्रह्मचारी ने श्री ऋषिजी ++ ॥ १२ ॥ तरसण पासवार्डस स्वर्णदीव देवया णाम देवी - पश्विसति पा चंडा, रुदा साहस्तिया ॥ १३ ॥ तस्मणं पासाथ डिसयस्स चाहसि वरि वडा, प०किहा किण्हो भासा ॥ १४ ॥ ततेण ते मार्गदिय दास्या तेण फलयस्वणं उवज्झमाणा २ रणदीवे तेणं संवढायावि होत्था । ततण ते मार्गदिये दारया थाह लहति२ चा मुहुत्ततरं आसासंति फलगखंड त्रिसजति, २ता रथनदीवं उत्तरति २ फलाण करें ते, करेता, फलानि आहारति २ जालिएराज मग्गणगत्रे सणं करेंति २ · लिएर णि फांडेति २, नालिएररस तिलगं अण्णमस्स गलाइ अम्भगति र पुक्खरिणी चमन, प्रसन्नहारी, दर्शनीय, अभिरूप व प्रतिरूप था ॥ १२ ॥ उसे प्रामादात्रसंक में रस्नाईप नाम की देवी रहनी थी, वह पापी, मखंड, रुद्र, क्षुद्र, व स हसिक थी ॥ १३॥ सप्रासादक की चारों दिशि में चार बनखण्ड थे वह कृष्णवले व कृष्णा भास थे ॥ १४ ॥ उक्त माकंदिय के पुत्रों उस (काट के पटिये से रसनईप नामक द्वीप की पास आये, वहां थोडा और काल का पटिये छंड दिया, रत्नद्वीप के पार उतरे, व की गवेषणा करने लगे, फल लाकर उन का आहार किया, फोर उस के तल से दोनों ने परस्पर अपने २ गात्रों का मर्दन किया, पानी देख कर आश्वासन लिया. क्षुधा मे पीडित होने से फत्र पुष्पादि नालिएर लाकर उस को फोडकर तत्पश्च व. पुष्करणी में जाकर स्नान For Personal & Private Use Only ●प्रकाशक- राजाबहादुर का सुखदेव महायनी ज्वालाप्रसादी • ४२४ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + - 43 षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतान्ध उगाहति पुक्खरिणि उगाहित्ता जलमजणं करति, जलमंजण करता जाव फरकुतरति पुढविसिलापट्टयांसि निमीयंति निसीयत्ता, आसत्यावीमत्था सहासण वरगया गानयरं अम्मापिउगं आपुच्छणं च लवणसमुहोतारंच कालिपवाय समुच्छंणच पोयवहण विवत्तिंच फालयखंड आसायणं रयणुदीवुत्तारचं अणुचितेमाणा २: ओहयमणसंकप्पा जाव ज्झियायति ॥ १५ ॥ ततेणं सा रयणदीव देवया तं मागदिय दारगं आहिणा. आभोएइ २ त्ता अमिफलगवग्नहत्था सणवहवडा सत्तटुतालप्पमाणं उर्दू बेहासं उपयति २त्ता साए उकिट्ठाए जाव देवगतीए वीईवयमाणी २ जेणेव मागंदिय दारए.... मजा किया, और वहां से बाहिर आकर पृथ्वी शिलापट्ट पर बैठे, वहाँ स्वस्थ हुए, विश्रानि ली, फार वहां मुघ से बैठ हो चंपा नगरी की, मातपिता को पूछने की, लमण समुद्र में बाहनामह - होने की. काल में गर्जना व विधुत होने की, जबाम दूसने की, काट का पटेगा पहने की, और रई में आकर रहने की सब बीनक वार्ता का चिन्तयन करते हुने, चित्त में बनेक प्रकार के मंत्र विकल्प *करते हुवे यावत् आर्तध्यान करने लगे ॥ १५ ॥ अब रत्नद्वीप देवीने अभ.प शान से इन दोनों पुओं को अपने द्वीप में आया हुवा देखकर हाथ में खद धारण करके, पख्तर पहिन कर सास आर बाल वृक्ष मिनरक्ष जिनपाल का नववा अध्यष48+ । For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक बाल- मुनि श्री अमोलक ऋषी आगच्छति १ ता आसुरता ते मागंदिय दारए खरफरून निडर जयहिं एवं बयासी हं मां भागंदिय दारया ! जइ तुब्भे मएमडि बिउलाई भोग भोगाई माणा विरह तोते अत्थि जीविय; अहणं तब्भे मएमा घिउलातिं नो ह तामे अह इमेणं नप्पल गलगलिय जाव खग्धारेणं अमिणा रतगड या मापा उनमांहियाई, तालफलाणित्र सीसाति एगत एडमि ॥ १६ ॥ तते ते मागंदिय दाग्गा रयमदीवदेश्याएं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म भीया . करपल जाब एवं वयामी - जण्ण देवगणुप्रिया ! वतिस्यति तस्म भाणा उनवाय aण निहते चिट्ठामो ॥ १७ ॥ ततेणं सा रयणदवि देवया ते मार्गदियदःरए माणसे आकाश में उड़ती हुई उत्कृष्ट दीव्य देव गाने से उन पुत्रों की पास आई. वहाँ आकर रह उन पुत्रों को कठोर शब्दों से बोलने लगा कि अहो माय पुत्रो ! यदि तुम मेरी माथ विपुल भग भोगवे तो तुमारा जति है. और यदि तुप मेरी माथ विपुल गोग भोगन हुने नहीं रहोगे तो मेरे इप वन से साइफन जैम तुपारा इन रंगिन कपोलाले शोभनिक मस्तक को उतरूंगी ॥ १६ ॥ उप रत्न देवी का ऐसा वचन सुनकर वे पाकंदिय पुत्रों डरे और हाथ जोडकर ऐसा बोले कि यह देवानुप्रये ! आप जो अज्ञा बनाओगी उस अनुसार हम करेंगे. ॥ १७ ॥ अब वह न्द्वीया ) For Personal & Private Use Only ० पाक- राजाबहादुर ला ग सुखदे सहा जी कलासा ४२६ ( Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "442 टांझज्ञताधकथा का प्रथम भूतकाघ 4A गेण्हति २ नेणेय पासायडिसए तेणेव उवागच्छद २ असुभ पोग्गला बहारं करोति २ मुहम गलपक्ख कति २ त्ता ततो पच्छा तेहिं सद्धिं विउलात भोग भोगाति भजमाणी विहरति ॥ कल्लाकलंच अमयफल ति उवर्गति ॥ १८ ॥ ततेणं सा रयणदीव देवया मकरयणसंदमणं सुट्टिएण लवणाहिराणा लवण समुद्दे सत्तखुत्तो अणपरियायव्येइ, किंचि तत्थ तगंवा पत्तं कटुवा कयवरवा असुषंइयं :दुगनिगंध मक्खं तंसव्यं आहुणियं सत्तखत्तो एगने एडेय तिकटु नियुत्ता ॥ १९ ॥ ततेणं सारयणदीव देवया ते मागदिय दारगे एवं क्यासी-एवं खलु - को उन दोनों पाकंदिय पुत्रों को मथ लेकर अपने ममावतंसक पर गई. यहां अपने शरीर के अन्नम अपनोज्ञ पुद्गलों दूर किये. शुभ पुद्गों पर किये. और उन दोनों की माथ विएट भोग भोगनी हुइ विचरने लगी. वैने ही कालोकाल अमृतफल लाकर देने लगी. ॥ १८ ॥ लवण पमुद्र में जो कुच्छ तण, पत्र, काष्ट, कचार वगैरह अशुचाली वस्तु हो उन सब को इक्कीम वक्त नीकालार स्वच्छ करने को शक देवेन्द्र से स्थापित किये हुो लवण समुद्र के अघिपनि देवान इस रवीग नामक देश को नियुक्त कोथी. ॥ २१ ॥ इम मे रस द्वैपा देवीने अन माकंदिय पुष को, कहा जिनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 4.28 अर्थ । • For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवादक-बालनाचारी मुनिश्री.अमोलक ऋपिजी - अहं देवाणुप्पिया ! सकश्यणं । द्विय तंत्र जाब विउत्ता त जाय अई . देवाणुपिया ! लवण समुहे जाव एडमि ताव तो इहेव पासायवार्डपए. सुई सुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह ॥ २० ॥ जहणं तुझे एयगसि अंतरसि उधिग्गावा उस्तुयावा उप्पुयावा भवेजा, हताणं तब्भे पुरस्थिमिजं वणखंडं गच्छज्जाह, तत्थणं दो ऊऊ सया साहाणा तंजहा-पाउसेय वासारत्तेय ॥ गाथा ॥ तत्थ कक्लसिलिंधरती निउरवपुप्फयीवरकरो, कुडयज्जनीवसुरभिदागो, पाउस ऊऊ गयवरो साहीणी ॥ १ ॥ तस्थयसुरगोपमणिविचित्ते दुदुर कुल २सिय उज्झर रखो, घरहिणविक कि अहो देवानुप्रया ! शक देवेन्द्र के आदेश में यावत् में नियुक्त वही हूं. इस से भर लग में लवण समुद्र में यावत् सब कचवर एकांत में डाल दूं वहां लग प्रासादावनमक, पर नुम सुख पूर्वक रहो ॥ २०॥ इतने समय में यदि तुम को उद्वेग, उत्सुकता अथवा उत्पान होवे तो तुम पूर्व दिशा के वन खण्ड में जाना, वहाँ दो ऋतु के सख सदैव स्वाधिन है. जिन के नाम-प्रवृनु (श्रावण भाद्रपद माम में वर्तमवाली) और वात (आश्विन कातिक पास में वर्तवाली) इन दोनों मुखों का वर्णन गाथ कहने है. कंदली तयां सिम्ध्रिवृक्ष रूप दारूवाला, निउ वृक्ष के पुष्प रूप स्थूल मूंद वाला, कुटज, अर्जुन, व .काशक-राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाममादकी. wwwwwwwwww - For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिगहसिंहरो; वासारत्त ऊऊ पंचओमो साहीणो ॥२॥ तत्थणं तुम्मं देवाणुपिया ! बहुसु वावीसुध जावे सरसरपत यानुय बहुसु आलीयधरएसुर जाव कुसुमधरए मुय सुहंसुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जा ॥ २१ ॥ जइणं तुम्भे तत्थवि उबिग्गावा उसथा उप्पया भवज्जाह, ताणं तुम्भे उत्चरिखं वणसई गध्छ जाह, तत्थणं दो ऊऊ साहीगा संजहा-सरदोष हेमंतोय (गाथा ) सत्यमोसणसवण्ण, कहो निलुगल पवृक्ष की मुगंध हा मुगंधि देने वाला गजवर समान मावृष्टवस्तु स्वाधीन हैं.॥१॥ अब वर्षाऋतका वर्णन करते हैं. इन्द्रगोप नामक कीड रूप पणियों से चित्रित पमा हवा, मेंड क शब्द रूप रण के शब्दवाला, व मयूर के समूह से व्याप्त शिखरमाला पर्वत रूप वर्षऋनु स्व.धीन है ॥ २ ॥ ओ देवान प्रेय ! कहां तप हु चारही के यावत सगंबर की पंक्तियों में बहुत कुमुरगृह में सुख पूर्वक क्रिडा करते हुये विच॥२५॥ कदाचित तुम को वहां भी उद्वेग, उत्सुकता अथा भय । IF दिशा के बनखण्ड में जाना. वहां दो ऋतु के सुख सदैव रहते हैं जिन के नाम शारद ऋ ( मृगभर व पोवास वाली) और हेत ऋत (माघ फलान मास वाली)इन का वर्णन भी गथ से को बहाल व म पुण रूप धवाल, गिलात्पल, पल कमल नलिनी कम रूपशा बाला, यही भावना को गज की उपमा दी है, वर्षाऋतु को पर्वत की इषमा दी है. ज़िनरक्ष जिनपाल का नया अध्ययन 2 For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ री मुनिश्री अमोलक ऋषिनी+ + अनुवादक बालब्रह्मचारी पउमनलिणसिंगो, सारसचकायरसितधेसो सरतोगोवईमया साहीणो ॥ १॥ तत्थ्य सिय कुंद धवल ज हो, कुमुमिय लाइव गसड मंडलतलो, तुसार दगधार पीवरकरो, हमत ऊऊ ससीसया साहीणो ॥ २१ ॥ तत्थणं तब्भ दवाणुप्पिया ! जाव विहरजाह ॥ २२ ॥ जण तत्थर्व उच्चम्ग जाव रस्सय.या भवजाह तोणं तम्भे अव.रिल्ल वणसंड गछज्ज ह, तथणं दो ऊऊ सगा साहीणा भवति तजहावसंतय गिम्हय (गाथा ) तत्थी सहकारचारुहारो; किंतुयकगियार सोग.. रमचक्राक के धोष सपान शब्द करने वाल रूप काल मदेव ता.x॥१॥षेत्र कुंद बराति क पृष,रू । ज्योत्र । वाठा, कुसुमित लोध्र वा वरवण्ड रूप मंडल नल बाला, हिमाय पानी की ध। रूप जाड किरण बाला, शाला काल सौवर्तता॥२ ॥ अहो देवानपिय! नुवां जाकर सनः ॥ २७ ॥ हपर भी तुमको उद्वग्ना, उस्मता, भय होतो तुप पश्चिप के वनखण्ड में नाना वहां पर दो ऋतु साव रहती जिनक-नाम-वसंत ऋतु (चत्र व वैशाख) और ग्रंप ऋतु (ज. व अशट) उन का वर्ण गाथा से कहते हैं. महार (अ.म्र वृक्ष) के कोर रूप मनोहर हराल, वृित पुष्प व अशोक वृक्ष के रू। मुकुटबालो, ऊंचा हिलक वृक्षक पुष व करवृक्ष के पुष्प रूप x शरद तुऋ को बैल की उपमा दी है. यहां हेअंत काल को शाशीकी उपमा दी है. Minimaanwwwwwwwwwwwanmm 'प्रकाशक राजावहादुर लामामुखदेवमहायजी ज्वाला भपादनी . For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4** bemi Kisce निताधकथा का प्रथा श्रवन्ध -4 'मउडो, ऊमियतिलगाउलालाबनी वसंत ऊऊ नावती माहीमो ॥ ॥ तत्या पाडल मिर्गम मलिलो, मल्लिएवातीतयधलंगले, झीपलममिनिलमय चरिओ, गिम्ह ऊउ सागरोसाहीणो ॥ २ ॥ तर णं बहु । जव बिहरेजा ॥ २३ ॥ जइ तुमे देशणु पिया ! त्यो उनिगा उपुया भवेजाह ततो तुम्भ जेगेव पासायवडेसए तेणेच उवागन्छेजइ ममडिव लेनाणा चिट्टेबह ॥ माणं तुम्भ दक्खिणिलं वणमडं गच्छे बाह; तत्थणं महं एगे उगविने चंडसेि महा घोरविले ... महाविने, अइकाए महाकाए जहा तेनिगागो ममिमीहम् मूसःकालर नगविमरोस छत्र वाला पति का संना मदेव वर्तती है. या संत काको रामा की जामा की है। • ॥ 12 लव शिरप कुमुप रूपी बाला मल्ल र नामानाकर पानी की बेर बाला, शीतल मुगधेन वाय रूप भ्रष्ण करने वाले मगर पसारेमला में घर का प्रयापती. या गोष ऋतु मे मागर की अपपा दी है. अहो देवाणुषों पर यावत् सुप रहना ॥ २३ ॥ भो वाणु प्रिय ! यदि तुप को यहां पर भी उवा हो तो पारासारतमा पर भाकर सना और मेरी मार्ग समीक्षा करना. परंतु तु. दहिग देशा के बाखा में माना नहीं सके बरिषः बाला, चंडी s aniwimmmmmmmmmmmaniamommmmmmmmmmmon pie i Eteta For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. पुराण मंजणगंज निभा रत्तच्छे जमलजयलचंचलचक्लचलतमीहे । परणियल भए उडफडकुडलज क्लिक्खडायड फडाडो करणदिवं लोहागार धम्ममाम धमधमला घसा अणागलिए चंडतिनगमा समुह : तरि चबलं धभंबे दिद्रिविम सो परिवमनि । म सम्ले सगरगरा अवती भविस्संद ॥ ते. मागविय वारए देच ितच्चपि एक्वाति २ ता वेउनिय स्मुग्घ एण समोहणति २, . तीउछिट्टाए लवणसमुई तिसत्तखु वो अणुरिय: पयसायरि होला ॥ २४ ॥ भईवाला धागविप वाला महाविप वाला, अतिकाय वाला, महाकाय वाला, अभिने सपना दुभा कोयला पा, म से (कारल ) सोनार का सोना तपाने का सामन जैसा काला विक व रोपपूर्ण नमन वाला है। ना के समुह जैमा रक्त आंखो वारा, बैनल घाल २ चलती हुई । दो निंगा वाला, पृथ्वी पर गिरती हखी की वैषि ममार, उसट, स्फुट कुटेल क विकर फण का ऑटो करने में दक्ष, लोहमारशाला पंधपती दुई समय समान न करने वाला, प्रचण्ड तीव्र गेपणाली व कुत्ती जैसे सपल व सरित न करनेमाला एक विष रहना है. इससे वहां माने में तुपारे शरीर में बाधा हाचे. इस तरह मादिय पुत्रों को दो तीन बार पैमा करकर केयः समुदान की.. 17 को उत्कृष्ट दीव्य देवगति से लाण समुद्र को इसक पर्यटन करने को प्रवृल हुई ॥ २४ ॥ अब । अनुगदक ब्रह्मचारीमान श्री अलपित्री पक-राजवहादुर लामा मन्दसायजाज्वालाममावलि For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 - 1. तते ते मागंदिय दारया तो मुहुरंतरस्स पासायांवाईसए सहवाति वा विश अलभमाणा अण्णमण्णं एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! रयणदीव देवया अम्हे एवं क्यामी एवं खलु अहं समायणसंदेसेण सुट्टिएणं लवणाहिवइणा जाव वावत्ती भविसति- सेयं खलु अहं देवाणुपिया ! पुरथिमिजं वणस गमित्तए, अन्नमन्नस्स पडिमुणीत पाडसुणता, जेणेत्र पुराम्छिामिल्ले वणसं तेणेव उवागन्छ। २ ना तत्यणं पावीसुय जाव भालीघरएमय जाव अभिरममाणा विहरंति ॥ ततेणं ते मागदियदारगा तस्यपि संर्तिवा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिखं वसंड तणेष उवागन्छति, तत्थर्ण बाबीय जाव आलाघरएमए विहरति ॥ ततेग से मागं. JE वा नई पा देवी गयी थोड़ी देर बाद वे पाबंदिय पुत्रों प्रासादावतंसक पर मेरे व्याकुल होकर न रखने से परहार बोलने सगे कि बो देव नुप्रय ! रुद्वीपा देवी ने अपन को ऐसा कहा था किशन से स्थापित किये से सण समद्र के अधिपति से यावत् प्रवृत्तिकाली होउंगा. इस से हो देवानुनिय ! अपन को पूर्व दिशा के बनखण्ड में जाना चाहिये. इस रा दोनों ने इस बात का स्वीकार किया और पूर्व दिशा के बनखण्ड में गये. वहां वावड़ियों यावत् बालिगृहों में विचरने लगे. वहां पर चिच व्याकुछ होने से पचर दिशा के बनखण्ड में यावत् विचरने लगे. वहाँ पर भी चित्त म्याकुल। पांडताधकथा का 10 मिनरक्ष जिनपाका नववा अध्यपन 48 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक क ...दिय दारा त्यसबा जब जेणेव पञ्चत्थिमिले वणसंडे तेणेव उवागच्छद्र जाब विहरति ॥ २ ॥ ततेणं ते मार्गदियदारंगा तत्थवि सतिंत्रा जाव अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयामी एवं खलु अम्हे रयणदवि देवया एवं वयासी एवं खलु अम्हं देवाणुपिया ! सक्कस्म वयणसंदसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा जाव माणं तुम्भे सरीरस्स वावती भविस्सति; तं भवियन्वं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु अम्हं दक्खिपिल्लं श्रणसंड गमितर तिकट्टु, अण्णमपणस्स एयमटुं पडिसुणेइ २ जेणेव दक्खिजिले वणसड तेणेव पहारस्थ गमणाते सओणं गंधेणिजाए से जहा नामए अहिमडेतिया जाब अतिराएचव || सतेणं ते मांगदियदारगा तेणं असुभेणं गंधणं होने से पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गये ॥ २६ ॥ पश्चिम दिशा में चित्त व्याकुल होने से परस्पर कहने लगे कि अपन को रत्नद्वीपा नाम की देवी कहती गई है कि मैं शक्रेन्द्र के स्थापित किये हुत्रे लवण समुद्रके अधिपति देव से लवण समुद्र को इक्कीस वक्त स्वच्छ करने का नियुक्त हुई हूं यावत् दक्षिण दिशा में अपन को बाधा पीडा डोबे एसा कहा है; इस से इस में कुछ कारण होना चाहिये. अपन को दक्षिण के बनखण्ड में जाना चाहिये. ऐसा कहकर दोनों हो दक्षिण दिशा के बनखण्ड में जाने लगे. वहां सर्प के मुडदे यावत् अनिष्टतर दुर्गंध नीकली. ऐसी दुर्गंध सहन नहीं हो सकने से दोनों मार्कदियं पुत्रोंने} For Personal & Private Use Only (काशक - राजा वहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी ४३४ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 । मष्टाङ्ग जाताधर्म था का प्रथम श्रुतस्कख 4 2.. अभिभूया समाणा सएहिं २ उत्तरिजे हैं, आसाति पिहेति, २,. जेणेव दकिवणिो 'वर्णसंडे. तेणेव उवागया ॥ २६ ॥ तत्थण मह एगं आयतणं पासंति अट्रियसासि सतसंकुलं भीम दरिसणिजे एक चणं तस्थ सूलाइयं पुरिसं. कलुणाति कहाति विस्स. १. गति कुध्वमाणं. पासति २ ता. भोया जाव- संजातभया; जेणेव से सलातिए पुरिसे ।। तेणेव उवागच्छई. २ चा ते मलाइयं पुरिस एवं वयासी ऐसणं देवाणुप्पिंया!करस आयतणं तुमंचणं के? कउंग इह हत्यमागए,? केण वा इमेया रूवे आवर्ति पाविएसि ? ॥ ततेणं ते सूलातिते पुरिसे मागंदिय दारगे - एवं क्यास्नी--एमणे देवाणुपिया ! 'रयणदीव अपने २ मख को उत्तगमन मे ढक दिगा और दक्षिण के बनखण्ड में आये ॥ २६ ॥ वहां एक बड़ा वधान देखा: वह हड्डियों की गशि से परिपूर्ण व भयंकर देखावधाला था. वहां शूलिपर रहाई एक पुरुष को करुणाजनक, कष्टकारी व विरूप शब्द करता हुवा देखकर वे दोनों भाई डरे गावन भयभीत हुए. और मह शूलियर चढ़ा हुआ पुरुष था उस की पाम आये. और यूलिपर चढाहुवा पुरुष को कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! यह किम का वधस्थान है, तू कौन है और यहां कहां से भाया है, और इस विपत्ति में कैथे पडा है? तब उस शूलोपर रहे हुये पुरुषने सर माकंदिय पुत्रों को कहा, अहो मित्ररक्ष जिनपाल कानबा...अध्ययन । For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 देवपाए आयपणे महल देवाणुपिया ! जद्दीवातो र भारहामो पासाओ : कागदिय आसिवाणियए विपुलं पणियभंडगमायाए पोयवहणेणं लवणसमुई उयाए, वतेणं मई पोय वहणवित्तीए निकबहु भंडसार एगफलगखंडं माएमि. ततेणं गई बुज्झमाणे १ रयणदीव तेणं संवुढो ॥२७॥ ततेणं सा रणदीव देवयाए ममं पासंति १ वा ममं ओ हणा गेण्हति, मए सहिं बिउलाति भोग भोगाई भुजमाणी विहरतिाततेणं सा रयण दी देवया अन्नयाकयाइ महालहुगांस भवराहसि परिकु. विया समाणी ममं एषारूवं भावतियं पात्रेति. सं न गजहणं देवाणुप्पिया ! तुम्भेषि पर्व देशानुमिष ! पा रहीपा नामक देवी का स्थान है. बही देवानुमेय ! आम्द्वीप के मरनेत्रl काकंदी मगरी कामका व्यापारीहू. बहुत माया वह मंडोपकरण ग्रहण कर नहानों से लबण समुद्र का प्रबंधन करते हमारा नाम तूट गया और सब सामान ब गया. एक पटिया पकर कर तीरवा एगा.इस स्लप में पाया ॥ २७ ॥ उस समय इस दीपा देवी मुझे रखकर इस के गाई नौर। :मेरी साप विपुल भोग भोगनी ई विचरने लगी. एकदा किचिन्मा. गेटा अपराध में बाबाने से । पित पाकर इस देरीने मुझे इस प्रकार की बापति में डाला, महो देवानु मेप ! न पाहम हमारे । कामना मुनि श्रीका . namamalininmmmcindimamiammamminenes -समावहादुर डाडा सदसहावी-बावसादन For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है १७ इमेसि सगरगाणं कामणे आवतिय भविस्सह ॥३८॥ ततेणे ते मार्गदियदारगा तरस सूलाइगरस पारमस्स अंतिए एयमढें सोचा निमम्म बलियतरं भीया जावसंजाय भया, मूलाइयं पुरिसं एवं व्यासी-कहणे देवाणुप्पिया ! अम्हं रयण देवयाए हत्यातो साहत्यि निच्छरेजामो ? ॥ २९ ॥ ततेणं से सूलाइए परमे ते मागंदिय परए एवं वयासी-एसणं देवाणुपिया ! पुरपिछमिल्ले वणसंडे मलगरस जक्खस्स जक्खापर्यणे सेलएणाम आसस्त्रधारी जक्खे परिवसति, ततेणं से सेलए जक्खे चाउमटू मुट्ठि पुण्णमासिणी आगपसमए पत्चसमए महया २ सहगं एवं पयासी-कं शरीर को भी कमा कष्ट होगा ॥ २८ ॥ उस पुरुष की पास से ऐसा सुनकर वे पाकंदिय पुत्रों विशेष मन हुए और उसको पुछने लगे रिको देव नुमेय ! हम इस सपा देवी के हाथ से केस छूट ॥ २९ ॥ नब रो दुवे पुरुषले उनको कहा कि मो देवतु य ! पूर्व दिशा के विखण्ड में शेरगं यक्ष का पक्ष यान है. इसमें अपरूपाला एक पक्ष रहना. वह शोलम वक्ष: चतुर्दशी, अधी, अमावास्तारपूर्णमा इन चार तपित्रों में माता है और परशद से ऐसा Viatकि बिस को कोई किस को पाले. इस से महा देवानुप्रिय ! पूर्व दिशा के बलन में सेना पटांडावार्यकथाका प्रथम श्रुनस्कंध 4. जिनरसाधनपाल का नववा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी "तारयामि, कपालयामि, ॥ तं गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया। पुरथिमिलं बणस. जेणेव । सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह जाणुप्पायवडिया पंजलिउडा। विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह ॥ जाहेणं से सेलए जक्खे आगतसमए ४३८ पत्तसमए- एवं वदेजा कं तारयामि कं । पालयामि, ताहे तुब्भे एवं' वदेह अम्हे तारयाहि, अम्हे पाल याहि ॥ सेलए जक्खे परं रयणहीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थि निन्छारेज्जा, अन्नहा भे न याणामि इमेसि सरीरगाणं कामण्णे आवती मविस्सति ॥ ३० ॥ ततेणं ते मागदिय दारगा तस्स सूलाइयरस अंतिए एयमटुं सोचा । निसम्म सिग्धं घंड चवलं तुरियं चेइयं नेणेव पुरथिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोक्खयक्ष की महा मूल्यवाली पूजा अर्चना करो. दोनों घूटने पृथ्वीपर रखकर दोनों हाथ जोडकर विनय । पूर्वक पर्युपासना करो. अंर जब शेलग यक्ष भावे और कहे कि किस को तारूं किस को पालं तब तुमः । ऐसा कहना कि हम को तारो हप को पालो. शेलग यक्ष रत्नदीपा देवी के हाथ से मुक्त करेगा अन्यथाई हैन मालूम तुम्हारा शरीर विपत्ति में आ जाये ॥३०॥ उस शूलीपर रहे दुवे पुरुष की पास से ऐसा सुनकर शीघ्र, चपल व त्वरित वेग से पूर्व दिशा के वनखण्ड में दोनों माकंदियः पुत्रों गयः उस में अवगाहकर । anwimmmmmmmmmmmm मर्थक-राजाबहादुर लाला मुखदरमहावजी ज्वालाममादजी. For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4ष्टां ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध स्नान किया, और वहां जो उत्पलादि कमलों थे उसे लेकर शेलग यक्ष का यज्ञायतन था वहां आये. उस को देखते ही प्रणाम किया, महामूल्पवाली पूजा अर्चना की, दोनों घुटने से नीचे पडकर सेवाब नमस्कार करते हुवे पर्युपासना करने लगे ।। ३१ ।। समय प्राप्त होने पर शेलंग यक्ष बोलने लगा कि किस को तारू किस को पालूं ? तब माकंदिय पुत्रों उठकर हाथ जोडकर बोलने लगे कि हम को तारो हम का पालो ।। ३२ । वह शलग यक्ष माकंदिय पुत्रों को बोलने लगा कि अहो देवानुप्रिय ! मेरी साथ लवण समुद्र में तुम जाते हो परंतु वह पापी चण्डा- रुद्रा क्षुद्रा व साहसिका देवी "आवेगी और तुम का a रिणी तेणेव उवागच्छ २त्ता पोक्खाणि ओगाहेइ २चा जमलमजणं करेइ २ ता जाति तत्थ उप्पलाति जात्र गेव्हंति रत्ता जेणेव सेलगस्स अक्खस्स जबखायणे तेणेव उवागच्छ्इ २त्ता आलोए पणामं करेति २ महरिहं पुप्फञ्चणियं करोति२ जक्खप्पायंवडियाय सुस्सूसमाणा नर्मसमाणा जात्र पज्जुवासंति ॥ ३१ ॥ ततेनं से सेलए जक्खे आगतसमए पत्तसमए एवं वयासी-कं तारयामि ? के पालयामि ? ततेणं से मागंदियदारया उट्ठाए उट्ठेति करयल जावकद्दु एवं वयासी अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि ॥ ३२ ॥ ततेणं से सेलए जक्खे ते मागंदिय दारए एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया! तुभे मएसद्धिं लबणसमुद्दे For Personal & Private Use Only 4+ जिनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन ११* ४३९ ( Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. मनुवारकालबमचारी भनि श्री अपायक रजी 'माझे मसणं वीत्रयमाणाणं सा रणदीव देवया पाया पडा रुदा सुहा साह सिया 'बद्दहि खरएहिय मउएहिंय अणुलोमेदिय पडिलोमेहिय सिंगोरेहिय ।। कलुगेहिय उवसग्गेहिय उवसग्गं करहिति ॥ जतिणं तुम्भं देवाणुप्पिया ! रयणदीय देवयाए एषमटुं आढाइवा परियाणहवा अध्यक्लहवा तो मेहं पुष्टातो बिहुणामि ॥ अहणं तुम्भे रयणदीव देवयाए एयमटुं नो माढाह नो परिजाणह नो अवयक्खह तो भे रयणदीव देवयाए हस्थातो साहन्छि नित्यारेमि ॥ ततेणं मागंदियदरगा सेलयं जक्खं एवं क्याम्ग-जणं देणुपिया ! इसति तरसणं । उवायवयण निहसे चिढिरसामो ॥ ३३ ॥ ततेणं से संलए जक्खे उत्तरपुर स्विमसि ।। है कठोर, पृ. अनुलोम. प्रतिरोग, श्रृंगार, करूण जनक उपसर्ग में असमर्म करेगी. अहो देवानुमेय ! यदि तुप उन के वचनों का आदर करागे अथवा मा जानोगे तो में री पीउपर से दूर राल दूंगा. और तम उन के वचन को अwai जानेगे या बादर न करोगे तो में तुप को दीपा देवी के Fहाथ से मुक्त करूंगा. तब मानिय पुत्रों कहने लमे कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे तुम कहोगे बेमे की करते हुब हम रहेंगे ॥ ३३ ॥ तत्र पर लग याने शिानन में जाकर य समुद्रात करके संवाद | मनमायादुरकाका-मुबश्वमहामनीबालामममा. For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANलासम्म भगं मामति रचा पंउन्विा समुग्घाएनं समोहणतिर वा संखजाई जोषणाई. रंट निस्सरह रोचपि तचंपि घेउन्विय समुग्धाएणं समोहतिर चा एगं मई मासरूवं विसति चाते मागदिय दारए एवं बयासी-हंभो. मागदियदारगा भारुहणं देवाणुः लिया! ममंपिटुंसि ॥ ततेणं ते मागरिय दारगा हट्ट तुट्ठा सेलगस्स पणाम करइ रचा सैलगस्सपिट्टि दुख्दा । ततेणं से तलए ते मागवियदारएदुरुढे जाणिचा सत्तटुतल पमाणनेता तं उड्डोहास उप्पयति, ताए उकिटाए तुरियाए दिवाए देवगईए लवणसमुदं मझमझेणं जेणेव अंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वाले जेणेव पाए जयरीए तेणेव पाहारस्थ गमगाए ॥ ३४ ॥ ततेणं सा रपणदीव देवया योजना बनाया, दूसरी बार भी वैकेय समुदन की जिसमें एक बड़ा अपरूप बनाया, और मादिय पुत्रों को कहा कि मही देवाननिय ! मेरी पीठ मारत होवो. तब वे मादिय पुत्रों द्वारा करना को प्रणामकाके उन को डिपर अरूढ दर. माकं दिया. पुषों को अपनी पर बैठे दुवे जानकावा या मात भाउताल प्रमाण भाग जाकर म पकड सरिखदीप देवगति से. सण सीबीच में एकर जम्मुईपके बरतक्षेत्र में चंग नगरी की तरफ जाने को नीका ॥ १४ ॥ जिमरक्ष मिनपासकानवा अध्ययरSAY - - For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - i - लवण समुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियति जं तत्थ तणंवा झाव एडेति. २ त्ता जेणेव । पासायबडिंसए तेणेव उवागल्छीत ते मागंदिय दारए, पासायवडिसए अपासमाणी जणेव पुरच्छिमिल वणसंडे जाव सम्बतो समंता मग्गण गवेसणं करेति तएणं से मागदियदारगाण कत्थई सुइवा २ अलभमाणी २ जेणेव उत्तरिल्ले वसंड एवंचे। पच्छस्थिमिलवि आप अपासमाणी आहिं पउंजति २ ते मार्गदिय दारए सेलएणं सद्धिं लवण समुई मज्झं मझेणं वीइवयमाणे पासति २ सा आसुरचा ४ भसिखडगं गिण्हति गेण्डित्ता सत्त? जाव उप्पयति, २त्ता साए उक्किट्ठाए जणेव मागविव दारगा तेणेव उगगच्छंति २ त्ता एवं वयासी-हंभो मागंदिया अपत्थिय पत्थिया किणं तुम JEग्न द्वीपा देवी लाण समद्र को इक्कीस वक्त फोर कर जो कच्छ तृण काय वगैरा था उसे यावन् एकांत में डालकर जहां प्रासादावतंसक था वहां आइ. वहां मादियं पुओं को नहीं देखने-भे पूर्व दिशा के वनखण्ड में बाइ यावत् चारों तरफ मार्ग गवेषना की, परन्तु की किसी स्थान भी शुचि नहीं मीलने से तर दिशाके वनखण्डमें प्राइ, वहांपर भी उमका पत्ता नहीं मीलनेसे पश्चिम दिशाके पनखण्डमें आई और यहां पर भी नहीं मी ठने से अबधि मान प्रयुजा और अवधि ज्ञान से पलंग यक्षको साथ दोनों मादिया 42 अनुवादक-चालबह्मचारी पुनी श्री अयोगऋपिी AAMAVA प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 - तुम्भं जाणह ममं विप्पजहाय सेलरणं ज़बग्ने सद्धि लवणसमुदं मज्झं मझेणं वीतीवयमाणा तं एव मविगए, जतिणं तुम्भे ममं अबक्खयह तो भे अस्थिय जीवियं अहण्णं. जो वयक्खयहनो मे इमेणं नलुप्पल गवल जावएडेमि ॥ ३५ ॥ मएणं तेमागंदिय दारया रयणदीव देवयाए अंतिए', एगमटुं मोचा णिसम्म, - अभीया, अतस्था अणुविग्गा अखुभिया असंभंता रयणदीय देवयाए एयमटुंगो आढाति नो परिणायंतिणावयइक्खंति, अणाढायमाणो अपरिजाणमाणा अणवयक्खमाणा खुत्रों को लवण ममुद्र से जाने हुए देख कर भास रक्त हुइ और असिखा हाथ में लेकर गवत् मात आठ तालवृक्ष प्रमाण ऊंचे उहकर उत्कृष्ट दैयि देवगति से माकंदिय पुत्रो की पास आइ और एस बोली अहो मादिय पुत्रो आमाथित जो मृत्यु उसकी प्रार्थना करने वाले ! तुम क्या जानते हो.कि मुझ छेड कर शळग यक्षकी साथ लषण समुद्र में जा रहे हो. तुप जानते हुए मेरी सन्मुख देखोगे ता भी जीवित रहांगे, और याद नहीं देखोगे तो मेरे इस नीलोत्पल जैसे यावत् काटकर एकांत में डाल दूंगी ॥ ३५ ॥ अब वे माकंदिय पुत्र रत्नदीपा देवी की पास एना सुनकर भयभीत रहित हुए त्रास रहित मदए द्वेग रहित अक्षध प अभ्रांत रहे, रत्न द्रोपा देने के उक्त वचनों का आदर किया नहीं और | अच्छे जाने नहीं. इस तरह नहीं आदर करतं य. अच्छा नहीं नाग तें व इस को नहीं देखते भग ष्टाङ्ग हाताधर्षकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध जिनरक्ष जिनबा का नया अध्ययन - A For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेलएणं जक्खएण सरि लान समर मझ मझेणं वांतीवयेति ॥ ३६॥ तत सा रयण दीव देश्या ते मागंदियधारए जाहे नो संचाएति बहहिं पडिलोहिय उवसग्गेहिय चालित्तएवा क्खोभित्तएका विपरिणामित्तएवा, ताई महुरेहिं सिंगारेहिय कलुणहिय उबसहिय उपसग्गे उपयत्तायाधि होत्या. ॥ हंभो मागदिय दारगा । जहणं तम्भौहें देवाणुपिया! मए सरि हसियाणिय, रसिआणिय,ललियाणिय, कीलियाणिय, हिंडियाणिय, मोहियाणिय, ताहणं तुम्भ संयति अगाणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएण सद्धि लबसमुई मज्झं मजाणं वीतीवयह ॥ ३७॥ ततेग सा रयणदीव देवया जिण EAR की साथ लयच समुद्र की मध्य में जा ॥३५॥ वह रस्न्दीपा देवी सन 'पादिय पुत्रों कोमु प्रतिलोम उपपर्गमे चलायमान व शोषित करने में समर्थ हुई तब मधुर करुणा भनक उपपर्ग से करने लगी. बहो माकंदिय पुत्रो! सुपने पेरी साय हास्य, प्रत. लालित्य, कडा, साय करने का, पयोहकारी पवनों किये , अब इन सब को नहीं गिनते दुरे मुझे छोड कर शेलक पक्ष की साय सण समुद्र की बीच में जाते हो. ॥ ३७॥ विनरक्षका मन अवविज्ञान से मानकर, वा रत्नदीपा 1 देवी ने सगी कि जिमपाट को अनि थी और वह भी मुह मनिह पा. परंतु में जिनरल को प्रकाशक-जावयाला सुखदेव सहायणी ज्यालामवादमी. Jain Education international For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध रक्खियरस मणं आहिणा आभोएति २ ता एवं क्यासी-निच्चंपियणं अहं जिण पालियस्स अणिटुा, णिचं मम निणपालिए अणिटे, णिच पियणं अहं जिणरक्खियस्स . इट्ठा णिचंपियणं मम जिणरक्खिए इटे५,जतिणं मम जिणपालिय रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणि तिप्पमाणि, विलवमाणी जाव गोवयक्खति,किण्णं तुमपि जिणरक्खिया मम रोयमाणि, जाव णावयवति ॥ ३८ ॥ गाथा--ततंणं सा रयगदीवस्त देवः। उहिणा जिणरक्खियरस मगं णाऊण ॥ वधणिमित्तं उबारं मागंदियदारगाणं दोण्हंपि ॥१॥ दोसकलिया सललिय, णाणाविह चुण्णवाससमीसियं ॥ दिव्यंघाणमणणिव्वुइकर प्रिय थी और वह भी मझे प्रिप था, मुझे रोती हुई आक्रंद करती हुई, शोक करती हुई व आंशु वर्षाती हुई को बिनपाल न देखता था परंतु तुम मिनरम भी ऐमा करते हो ॥३८॥ अब यह रत्नदीपा देवी जिनरक्ष का मन जानकर उस के दोनों याकदिय पुत्रों के वध के लिये ऊपर से प्रपंच करती हुई द्वेष से भरी दुई क्रीडा सहित, विविध प्रकार के, दीव्य, प्राणको सुख करे ऐसे गंग बूर्ग की वर्षा की. चारों दिशि में, सुविन पुरुषों की वर्षा को, विविध प्रकार की मणिरत्तों की पटिकाओं घमघमाती हुई, नेपुर कटि । मेखला आदि भूषणों के प्रकाश से और शब्द से दिशि विदिशि को पूरित करती. हुई, पाप में प्रवृत्ति का करमेनाले वचत चलनी हुई, प्रेय पूकि नीच शो पोरने छमी. रे मूल! रे घसुरु ! रे गोल! बहो मामा • जिनपक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 4+ For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 44 अनुवादक-याला चारीमुनि श्री नमो भवभय सुरभिकुसुमवुद्धिं पमुचमाणी || २ || माणामणि कणगरयग, घंटिप विस्वणि नेउरमेहल भूसणरबणं ॥ दिसाओ विदिसाओ पूरयंति, वयणमिणत्रयति सासकला || ३ ||होला वसुलागोला नाहदइया पियरयण कंतसामिय णिग्घिणाणि निछकत्थिष्ण॥ . निक्किया अकयणुय सिढिलभाव निल्लज लुक्ख अकलुण जिणरक्षिय मुज्झहियय रखिग || ४ || हुज्जुज्जसि, एक्कियं अनाहं अबंधत्रं तुज्झचलण उववायकारियं, ..उझियममधणं गुणसंकरहूं, तुमे विहुणा णसमत्था जीविउ खनंवि ॥ ५ ॥ इमस्सओ अग अझसमगर विविध सावयस्याउलघरस्त रयणागरस्तमज्झे अप्पाणं बहेमि इंबित ! बल्लभ ! प्यारे ! रमण [कांत ! निर्दयी ! निःस्नेही ! क्लीव ! दुर्भागी ! कृतघ्नी ! शिथिल | स्वभावी ! निर्लज ! लुक्ख ! निष्ठूर ! जिन रक्षित मेरे हृदय की तू रक्षा कर, मेरे समान इस जगत | अनाथ अबंधन कोई मत दोषो. मैं तेरे चरण की सेवा करनेवाली हूं मुझे स्यांगना योग्य नहीं हैं. महो गुणशंकर ! मैं तेरे विना क्षण मात्र भी जीवित नहीं रहूंगा, अनेक प्रहार के मत्स्य कच्छ विविध प्रकार के स्वापद जळचर जीव बगैरह सेंकडो यावत् भरे हुवा है ऐसे इसरत्नाकर में तू मेरी रक्षाकर, नहीं तो | मैं तेरी सपक्ष इस में डूब मरूंगी. तू एक बार पीछा कर कर देख, तुझ यदि काम आया हो तो एक For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक अनाचार काका सुखदेव सहायत्री महामारी ४४६ ( Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मंडप्रासापर्षकथा का प्रथम भुतस्वय तुझपुरओ, एहि नियत्ताहि जइसि कुविउ खमाहिएक्कावरांहमे ६॥तुमय विगय पण विमल ससिमंडलागारसरिसरीप सारय णव कमलकुमुद कुरलय विमलदलनिकर ससिभनयण वयणं पवासागयाए ससा पेछि ओ ज अवलोयहि ताइओ मम माइजाते पेच्छामि वयणकमल ॥ एवं सप्पणय सरल महुराइं पुणोपुणो कलुगाइ पपणाई जंपमाणीमा पाबामगओ समंमेइ, पावहियया ८ ॥ ३९ ॥ ततेणं सा मिणरस्सिए चलमले तेणेय भमणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं, तेदिय सप्पणय सरलमुहुर भणिएहि संजायविउणराए रयणदीवस्म देवयाए तीसे सुंदर थण जहण वक पाकर. सेरा मुख पहलों सहित निर्वक चंद्र जैमा है, तेरी आँखो श्री युक्त शरद ऋतु के मकमल, कुमुदनी कमळ, नीलोत्पल कमल ममान है, तेरा चंद्र समान मुख अवलोकन करने की मुझे तीव्र । पिपासा है, इस से तू एक ही बार मेरी सन्मुख देख, जिस में है तेरे बदन कमल को एक बार देखळू. इम तराव पापी हृदयवाही प्रज्ञा युक्त सरक मधुर करुणाजनक पचनो बोलती हुई उस की पीछमें जाने लगी. ॥ ३१ ॥ उस के,पूर्वोक्त कान को सुबकारी मनोहर आभूषणों के शब्दों से व प्रेम सहित. सरळ मधु वचन से संचल मनवाला जिनरक्षका प्रेम दुगुना हुवा. और रत्नदीपा देवी के सुंदर स्तन कटि, पचर, हाथ, पांच, नवन, बाण, स, यौवन, श्रीव दीव्य शोभा का स्मरण करता हुवा अथवा जिनरल जिनपाठ का नववा अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमादक- बलबमचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वयणकरचरणनयण लावण्णरूप जाध्वण सिरिंचदिवं सरनसउवगहियाई विवोय , विलासया णियाविहसिय सकडक्खदिटिणिस्ससिय मलिय उबललियवियगमण पयणयखिजिय पासादिया थिसरमणे रागमोहिय मतिअवसे कम्मवमगते अवयक्खति मगातो सविलियं ॥ ४०॥ सतेणं जिणरक्खिा समुप्पण्ण कलुणाभावं मच्चुगलस्थलणोझियमई अवयक्खतं तहेव जक्खे भो रेल! भोहिणा आणि उण सणियं र उब्धिहइ २ णियगापिटाहि विगय सड़े।।११॥तएणं सा रयण युक्त लिंगनादि मुख, स्त्रियों संबंधि चेष्टा, नेत्रादिक के विकार का स्मरण करता हुवा, मुखमकमल के हास्य, कटाक्ष. पात, निभास डालनेका, पुरुष की इच्छा का निवारण, क्री विनोद, स्थिर होना, गति को चलाकर पागों में गिरपडना, चीडना, प्रब होना, इन सब का स्मरण करता हुआ देवी राग में मोहित बनावा आत्मभाव असकर पोहवश से परवश पहाहमा काँक वशगया हना देवी मन्मुख देखने लगा. मार्ग म पंचालित हुआ. पाछा हटा. ॥ ४० ॥ उस रत्नटीपा देवीपर करुणा भाव से मृत्यु के गल में पडा हुवा लोलुपित मतिशमा जिनरक्ष को देखता हवा शेळग यक्षने अवधिज्ञान से जिस से अपनी पीउपर से शनैः २ सरकाता हुवा दूर किया ॥ ४१ ॥ सी समय वह क्रूर र द्वीपा देव। ..काशक-राजाबहादुर लाला सखदेक्सभयजावालाममामा । For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rainarammarAAAAAAAM ४४२ - षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 दीवदेवया णिरसंसा कलुगं जिणरक्खियं सकलुमं सेलग पिट्टाहि उवयंत दासे, मउसित्तिं जपमाणी अप्पत्तं सागरसलिलं गिव्हिय बाहाहि भारसंतं उळू उब्धिहहिति, अबरतले उदयमाणंच मडलगेण पडिपिछत्ता, मिलुप्पलगवल असियप्पगासेणं असि. वरेणं खंडाखंडिं करेंति र त्ता तत्यविविलवमाणं तस्सय सरिसवाहियस्स घेत्तूणं अंगमगाति सरुहिराई उक्खित्तबलं चउदिसि करेंति सापंजली पहट्ठा ॥११॥ एवामेव समणाउसो! जीअम्हं निग्गंथाणवा अम्हनिग्गंथीणवा अंतिए एवतिए समाणे पुणरविमाणुस्सए कामभोगे उस करुणाभाववाल शेलग यक्ष की पीठ से परसा हुवा जिनरक्ष को कालुष्यता सहित बोलने लगी. बरे दास ! अब तू मृत्यु के मुख में पाया है यो काका समुद्र के पानी में परते पहिले ही एसे आप से उठाकर आकाश में नछाला, यहां से पी परते अपनी असिपर उठाया, और अपने सर से उसके दुकडे टुका किया. उम विलाप करते हुये, अभिमानपूर्वक पध कराये जिनरक्षित के मंदिर सहित अमोपांग कर जैसे देवता को चारों दिशा में पलिते है वैसे ही उसके अंगोपांग को चारों दिशा डालकर बलि दिया ॥ ४२ ॥ अहो आयुष्यात श्रमणों! जैसे जिनरक्ष पुनः काममोग में मूपिछत होनेने खित हुवा वैसे ही हमारे कोई माधु,साधी की पास प्रबानिस बनकर मनुष्य संबंधी कामभोगों का पासाद 428-जनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 300 For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋan आयसति, पत्थयति, पीहेह अभिलसति, सेणं इहभः चेव बहुणं समणाणं बहूणं समणीणं, बहूणं साक्याणं, बहुणं सावियाणं जाव संसार भणुपहिस्सति, जहावा से जिणरक्खिए ( गाथा ) छलिओ भवयक्खंतो, निरावयक्खो गतो अविग्घेणं।। तम्हा पत्रयणसारे, निरावयक्खेण भवियम् ॥ ॥ भोगं अवयक्संतो पडति संसार सायरे पोरे ॥ भोगेहिं निक्खयक्खा, तरंतिं संसार कतारं ॥ २ ॥ ४२ ॥ ततेणं सारयणहीवदेवया जेणेव जिणपालए तेणेव उवा गन्छइ २ चा बहूहि अणुलोमेहि पडिलोमेहिय, रोहियम उएहिय सिंगारहिय कलुणेहिय करेंगे, प्रार्थना करेंगे इच्छा व भीमलाषा करेंगे यह इस भव में बहुन साधु, साध्वी, प्रारक व श्राविका में निन्दा पावेंगे यावत् संसार में परिभ्रमण करेंगे, इस की गाथा का अर्थ कहते हैं. जो रस्नदीपा देवी से लित होकर देखन लगा वह दुःखित हुना और जिसने देखा नहीं वह निर्षिअपने स्वस्थान पहुच गया. इसलिये प्रवचन शस्त्र के सार के ज्ञाता को चित है कि वा विषय संबंध से सदैव निरपेक्षित र ॥१॥ जो विषय वासना में पड़ता है वह इस घोर संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है और भोगों में जो इन राहत होता है वह संसार समुद्र को पार होता है. ॥ ४२ ॥ तत्पश्चात बा रमईपा देगी जिनपाल की धकाधक राजाकाादुर मासुखदरसायनी वाला प्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ *पष्टांद्र ज्ञाताधर्यकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 48 उवसग्गेहिय आहे नो संचाएति चालित एत्रा लोभिचएका विपरिणामित्तएवा, ताहे संता संता परितंता निविष्णा समाणी जामेवदिसि पाउष्भया, तामेवदिसिं पडिगया ॥ ४३ ॥ ततणं से सेलए जबखे जिणपालिएण सर्जि लवण समुहं मज्झं झणं वीतित्रयति २ जेणेव 'चंपाए नगरीए तेणेव उनागच्छ २ ता पाए नयरीए गुजा जिणपालि पिट्ठातो उयारेति २ ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! पानयरी दीसति तिकट्टु, जिणपालिय आपु छति २ जामेव दिलि पाउम्भूमा तामेवादारों पडिगया ॥ ४४ ॥ ततेणं से जिणपालिए चंप अणुपविसति २ता जेणव सर गिहूं जेणे अम्मापियरो तगेव उवागच्छ २० अमापिऊणं रोयमाणे जाव विलश्माण जिणरक्खियं पास आइ. उन को बहुत अनुकुल व प्रतिकुल, कठोर व मृदु, शृंगार युक्त व करुणाजनक उपषगों से चलित करने को समर्थ हुई नहीं सब दुःखित व वंदित बनकर अपने स्थान गइ ||४३|| अब वह लक यक्ष ( जिनपाल की साथ लाण समुद्र की बीच में होकर चंपा नगरी की पास आया और वहां अंग उद्यान में जिनपाल को अपनी पीढपर उतारकर ऐसा बोला अहो देवानुप्रिय यह चंपा नगरी दीखती हैं. पीठ जिनपाल को पुछ कर वह यक्ष अपने स्थान पीछा गया. ॥ ४४ ॥ वह जिनपाल चंपा नगरी में प्रवेश कर अपने गृह आया और विलाप करता हुवा जिनरक्षित का सब वृत्तांत अपने मातापिता की पास कहा. For Personal & Private Use Only 44 मिनरल जिनपाल का नववा अध्ययन 48 ४५१ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपनबादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी, वावित्ति णिवेएति ॥ ततेणं जिणपालिए अम्यापियरो मित्तणाति जाव परियणेणं सदि रोयमाणाति बहुति लोइयाति मयकिच्चाई करेंति, बहूइ लोइयाति मयकिच्चाई करसा कालेणं विगय सोया जाता ॥ ४५ ॥ ततेणं जिणपालियं अन्नयाकयाई सुहासण वरगया अम्मापियरो एवं क्यासी-कहणं पुत्ता ! जिग रखिए कालगए ? ॥ ततेणं से जिणपालिए अम्मापिउणं लवणस्मुद्दातारंच कालियवाय समुत्थाणं च पोयवहणविवितिच, फलहखंडआसातणंच, रयणदीवुत्तारंच, रयणदीन देवया गिण्हणंच, भोगभोगाति भुंजमाणा, रयणदीवदेवया अप्पहणच, सूलाइया मिनपालने मातपिता स्वजन संबंधी इत्यादि परिजन की साथ रुदन करते हुए मन लोकाचार मुत्यु क्रिया की और कालांतर में शोक रहिन हुप ॥ ४५ ॥ एकदा जिनपाल का सुखसे बैठे थे देखकर उन माता पिता पूछने लगे अहो पुत्र ! जिनरक्षित कैसे काल धर्म को प्राप्त हुवा ? तब जिनपालने उन के मात पिता को लवण समुद्र में जानेका, अकाल में नवीन होने का, जहाज दुपने का, दोनों भाइयोंने पठिया पकडा उस का, रत्नद्वीप में जाने का, रत्नवीपा देवी के जाने का, धन की साथ भोगोपभोग करने का, सरप देवी का जाने का, शूलीपर रहा हुषा पुरुर देखने का, शलग यस पर मारूढ होने का, रत्नदीप काशक-राजाबहादुर कारवटेचमहायजी बाळाप्रसादजी. 2031 For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.28 षष्टांग ज्ञाताधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4.28 पुरिम दरिसणंच, सेलग जक्खाहणंच, रयणदीवदेवयाउवसग्गंच, निणरक्खियरस विवत्तिच, लवणसमुह उत्तरणंच, चंपागमणंच, सेलगजखमापुच्छणंच,जहा भूयमवि तहमसंदिद्ध पारकहति ॥ ततेणं से जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विउलाति भोगभोगाति भुजमाणा विहरति ॥ ४६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सभणे भगवं महावीरे जेणेव चंपाणयरी जेणेव पुण्णभइ चेइए तेणेव सभासढे, परिसा णिग्गया कृणिओविराआ णिग्गआजिणपालिए धम्मं सोचा पवइत्तए,एक्कारसगावठ, मासिएगं, सोहम्मे कप्पे दो सागरोवमट्टिई जाव महाविदेहे सिझिहिति॥४७॥एवामेव समणाउमो ! जाव माणुस्लए कामभागे णो पुणरवि आसाति,सेणं जाव बीतीवइस्सति,जहा वासे जिणपालिए देवी के मर्ग का, जिन रक्षित को करने का,बवण समुद्र से पार कतरने का, चंपा नगरी में भानका व शेटग यक्षका पूछकर मानेका वगैरह सब कथन नेमा बनाया बैमा संदेड रहित कह दिया. तत्पश्चात् जिन पाल यावत् अल्प शोकवाला यात विपुल भोग भोगता हुवा विचरने लगा ॥ ४॥ स काल सस १ सय में श्रमण भगवंत महावीर सहामी पधारे, धर्ष सुनकर दीसा अंगीकार की अग्यास अंग का अध्ययन इकिवा, सौधर्म देवलोक में दो सागरोपम की स्थिति से उत्तम हा और महाविदह क्षेत्र में गिझेंगे यावत् 'मत होंग ॥४७॥ मनुष्य के काममानों का भासाइन नहीं करने में जैसे जिनप.ल मक्त में जायेंगे aawarananaanaaaaaaaaaawwwwwwwwwww जनरक्ष जिनपाल का नववा अध्ययन 4.28.5 44 Jain Education literational For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र बमुपादकारी मानिकी बमोगली ॥ १८ ॥ एवं बलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं नवमस्स नापज्झयणस्स अपम? पण्णत्ते तिबेमि ॥ नवमं नायज्झयणं सम्मतं ॥ ९ ॥ गाथा-जह रयणदीवदेवी, तह इत्थं अविरइ महा पावा, जइ लाभर यावणिया तह सुहकामा इहं मीषा ॥१॥जह तेहिं भीए है दिट्ठो, भाषायमंडले पुरिसो॥ संसार दुक्लभीपा, पावंति तहेव धम्मकहं ॥ २ ॥ जह तेणं तेसिं कहिया, देवी दुक्खाण कारणं ॥ घोरंतस्तुणिय णिस्थारो, सेलगजक्लओपणत्तो ॥ ३ ॥ इह धम्मकहा भन्माण साहएट्टि । मविरह सहावोसयलह. हेउभ्या विसया विहरइतिजीवाणं से ही पम्प कोई इस तरह पाचरण करेंगे ये भी मुक्ति में भायेंगे ॥ ४ ॥ बहो मम्म् ! श्रमण भगवंत मावीर स्वामीने झानासूच के नया अध्ययनका यह अर्थ कहा. नवया हाताका अध्ययन संपूर्ण हुना॥१॥ पहार-जैसे वहीपा देवी महापापी थी वैसे है हम दर्शन में अविसि पहापापी, जैसे नामकी छा बालेकिन वे ही इसमें मुष की इच्छा वाले जीवो . जैसे वे नक्षिण दिशा कीपर गागा पुरुष को देखकर हरपाये और कम से परेशलगम है यहां मंमार दुःख मे परे हुवे धर्मकथा प्राप्त रमे. मेसे जूत्रीपर गा वा पुरुषने देवी के दुःख देने का कारण, उमसे छुपाने बासाग यक्षका काती धर्म कथा मस्वकारको रंग साख के इन मत विषय से न निवास अविरत • प्रकावाक-रामाहादुर लाला पुखदवसहायणीपात्रसादमा. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखाचर्यकथा का प्रथम श्रुतम्बन्धnth ॥ ४ ॥ सत्ताण दुहत्ताणं धम्मसरणं जिणंदपण्णत्तं ॥ मागंदरूवीणब्याण साइणं तहयदेसह ॥५॥ जहतेसि तरियम्यो, रुद्दसमुदो तहेव ससारो॥ जहं तेसिं सगिहगमणं जिवाणगमो तहा इस्थ ॥ ६ ॥ जर सलगस्त पिटुं तेर्सि भन्वाण तहा इहं, परणं जह देवीवामोहो, तऊचुआ पाविओणिहणं ॥७॥ तह अविरईएणडिओ, वरणपओ दुक्खसावया, इण्णो जिवडा अपारसंसार सायरे दारूणसरूवे ॥ ८ ॥ जह देवीए अक्खाहो पत्तो सट्ठाण जीचिसुहाइ ।। तह चरणठिआ साहु अक्खोहो जाइ णियाणं ॥ ९ ॥णवमं भज्झयणं सम्म ॥९॥ नीत्रों को सुख है. दुःख से पीरित नीबों को भानंद ५ निर्वाण सापन बला जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म का परण है. जैसे रुद्र समुद्र मीरने का का वैसे ही यहां मंमार का जानना. जैसे या अपनेवरमया वैसे जीवों मोक्ष में जाते हैं जैसे शलग की पीठ पर भारू हो मे ही भव्य नीमचाधि धारन करते म रस्तदीपा देवी पकाने से चाखत दवा मे ही मोह मे चलाने संचाळेत होता.भीर वहां मेवर पापी माया. मे ही चारित्र सहण या अविरतिमीब दःख को मासकर सापद से परिपूर्ण दारूप स्वरूप वाला भगाधर्ममार सागर में पड़ता है. मेसे पस देवीको नहीं दखेता पामिनप.ल सुख पूर्वक अपने स्थान पांचगवा से ही चारित्र के मुख में संस्थित साधु निर्वाण प्राप्त करता है. वह नया अध्ययन संपूर्ण दुधा ॥२॥ वन+मिनरक्ष बिनपासका वा बबबन AE For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र अनुवादक-बालबमाचारीमान श्री अमाळकऋषिमी ॥ दशम अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगव्या महावीरेण जाब संपरुण नवमस्त नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, दसमस्सणं भंते ! नायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्या, तस्थणं सेणिए णामं राया होत्था; तस्मणं रायगिहस्य बहिया उत्तरपुच्छिम दिसीभाए एत्थणं गुणसीलए णाम घइए होत्था ॥ १ ॥ नेणं कालेणं तणं समएणं समजे भगवं महावीरे पुवाणुपुति चरमाणे जाव मेणेव गुणसीलए चइए तेगेव समोसढ, परिसा जिग्गया, सेणिओ वि रायाणग्गओ, जब श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् पोक्ष पधारे उनने ज्ञाता धर्म कथा के नववा अध्ययन का या अर्थ कहा बो ज्ञाता धर्म कक्षा के दशवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अहा जम्! उस काल उस सम राअगृह नामक मगर था, सम में श्रेणिक राजा रहता था, उस राजगृह नगर की बाहिर ईशाकून में गुणशील नाम का उद्यान था ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पूर्वानु-a पूर्ण चलने यावत् गुमशीर उद्यान में पधारे, परिषदा आई, श्रेणिक राजा भी वंदन करने को नीकला, .प्रकाशक-राजदर बाळा मुखदेवसहायकी कर For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ in षष्टांग ज्ञाताधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 42g धम्मसोच्चा परिसा पडिगया ॥ २ ॥ तयण गोयमे समणं गवं महागीरं एवं क्यास:कहणं भंत ! जीवा वखंतिया हायतिबा ? गामा ! से जहा नामए बहुलपक्खस्स पाडिवया चदे पुषिणमाचंदे पणिहाय हीणे वण्णेणं हीणे सोमयाए होणे निद्वयार हींग कंत.ए हीणे एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पमाए. उयाए लेस्साए मंडलेणं ॥ तयाणं. तरं घणं बीया चंदे पाडिययं चद पणिहाय हीणतराए वणणं जाव मंडलण ॥ तयाणंतरं च ततियाए चंदे बितियाचदं पणिहाय हणितराए वण्णेणं जाव मंडलेणं ॥ एवं खलु (एणं कमेणं परिहायमाणे २ जाव अमावासा चंदे चाउद्दसिचंद पणिहाय णष्टे धर्म सुनकर सब परिषदा पछी गई ॥ २ ॥ उस समय गौतम स्वामीने श्राण भगांत महावीर स्वामी को ऐसा कहा कि अहो भगवन् ! जीब कैसे वृद्धि पाते हैं व हीन होते हैं ? अहो मौतम ! जैसे कृष्णपक्ष में प्रतिपदा का चंद्र पूर्णिमा के चंद्र से हीन होता है, वर्ण, सौम् ता, स्निग्रता, कांति, दीप्ति, युत, छ , प्रभा, ओज, लेण्या, व मंडल से हीन होना है, तावत् द्वितीया का चंद्र प्रतदा के चंद्र श्री वर्ण यावत् मंडल से हीनतर होता है. तदनंतर तृतीग का चंद्र द्वितीया के चंद्र से वर्ण यात् मंडल से Vीन देता है, इस तरह क्रमशीन करते हो यावत अमावस्या का चंद्र चतुर्दशी के चंद्रसे वर्ण यात्र 1948 चंद्रमा का दशवा अध्ययन 4.4M For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ • अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी aणं जाव णट्टे मंडलेगं ॥ एवमेत्र समगाउसो जो अम्हं णिग्गंथोत्रा निरिंगधीवा जापतिए समाणे होणे खतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अजत्रेण मदण लाघवेणसच्चेणंतत्रेणं चियाए-अकिंचनघाए-वंभचरवासेणं ॥ तयाणतर च णं होणे हीणतराए, खंतीए जात्र बंभचेरवामेण एवं खलु एएणं कमण परिहायमाण २ टु ती जात्र ट्टे + चरवासेणं || ३ || से जहा वा सुक्कपक्खरस पाडिया चद अमावासाचंदं पणिहाय आहए वण्णेणं जाव अहिए मंडलेणं ॥ त्रयाणंतरं चणं बीयाएचंदे पाडिया चंद पणिहाय अहिययराए वण्णणं जात्र अहिययराए मंडलणं ॥ एव खलु एए कमेणं परिमाणे परिमाणं जाय पुन्निमाचंद च उद्दिसि चदं पणिहाय पडिपुन्ने वर्णणं जा पडिपुणे मंडलेणं ॥ एवमेव समणाउसो ! जाव पव्जतिए समाणे अहिए { मंडल से हीन होता है ऐसे ही अहो आयुष्मन्त श्रपणो ! हमारे जो साधु माधी यावत् प्रव्रजित बनकर क्षमा, मुक्ति, गुपि, ऋजुता, मृदुता, लघुना, मत्य, तप, त्याग निर्ममत्व व ब्रह्मचर्य इन दश प्रकार के यते धर्म से हीन होते हैं वे तदनन्तर क्षमा यावत् ब्रह्मवर्य में हीन व डीन्तर होते हैं || ३ || जैसे शुक्ल पक्ष में प्रतिदा का चंद्र अपावास्या के चंद्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है वैसे ही तदनन्तर द्वितीया का चंद्र प्रतिपदा का चंद्र से अधिकतर होता है और इसी तरह अनुक्रम से वृद्धि पाते पूर्णिमा का For Personal & Private Use Only * हा राजाबहादुरलाला सुखदेवमहायजी ब्वालाप्रसादजी ● ४५८ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488: + षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रूतस्कन्ध 43: खंतीए जाव बंभरवासेणं ॥ तयाणंतरंचणं अहिययराए खंतीए जाव बंभचेर वासेणं ॥ एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्डमाणे जाव पडिपुण्णे बंभचरवासेणं ॥ एवं खलु जीबा वढुतिया हयंतिया ॥ ४ ॥ एवं खलु समणेणं भगवया महावीरण जाब संपत्तणं दसमस्स न यझयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते, तिबेमि ॥ दममं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १० ॥ गाथा-जह चदा, तह साहु, राहुवरोहो जह तहा पमाओ ॥ वण्णाइ गुणगणो जह. तहा क्खमाइ समणधम्मा पुणोवि पइदिणं जह हायंतो सम्बहा ससीणा सो; तह पुण्ण चरित्तो विहुं, कुसील चंद्र चतुर्दशीके चंद्र से वर्ण यात् मंडल से अधिकतर होता है ऐसे ही अहो अयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारे साधु साधी यावन् प्रव्रजन बनकर क्षमा यावत् ब्रह्मचर्य में अधिक होते हैं वे तदनन्तर १मा यावत् ब्रह्मचर्य में अधिकतर होने हैं. इसी तरह जीवों वृद्धि पात हैं व हीन होने हैं ? ॥ ४ ॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथा क दशवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह दशवाई अध्ययन मंपूर्ण हुव' ॥ १० ॥ उपसंहार-चंद्रमा रूप माधु, राहु के विरोध रूप पद विषय कष यादि गांव प्रपाद, वर्णादिगुण रूप क्षमा आदि साधु धर्म हैं ॥ १ ॥ जैसे र.हु के संसर्ग मे पूर्णपा का चंद्र। निदिन होन होता हुवा अमावास्या त नष्ट पायः होता है, वैसे ही चारित्र से परिपूर्ण साधु प्रपाद के अर्थ चंद्रमा कादशवा अध्ययन 420 For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक बालब्रह्मवारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी संसग्गिं माइहिं ॥ २ ॥ अणिय प्रमाआ साहुहायंती इरिण खमइाहं ॥ जायें चरितो, ततो दुखाइं पांव ॥ ३ ॥ तथा होण गुणो, होउ सुह गुरु जोगाइ, जणिय सेवंगा पुण्ग सुरूयो, जायइ चिचड्डूमाणे सस हरु || ४ णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १० ॥ * ॥ दसमं वश कुशील आदि संसर्ग से क्षति आदि सधु के गुणों से सर्वथा हीन होते हैं ॥ २ ॥ जो प्रमादी बना हुवा साधु क्षमा आदि गुणों से हीन होता है; उस का चारित्र नष्ट होता है, तत्पश्चात् दुःख को प्राप्त होता है || ३ || जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्र वृद्धि पाता है वैसे ही हीन गुणवाला होने पर भी सद्गुरु संयोग से वैराग्यबन्त व सुरूप होता है. यह दशवा अध्ययन संपूर्ण हुबा ॥ १० ॥ • For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजाबहादर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रमादजा ● ४६० Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ + षष्टङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्र ॥ एकादश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेण भगवया महावीरण जान सपत्तणं दममस्म णायज्झणस्स अयमट्ठे पण ते एक्कारनमस्सणं भंते! नायज्झयणस्म समणण भगवया महावीरणं जाव संपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ एवं खल जंबु ! तेणं कारण नेणं समएणं रायगिहे नगरे; मेणिएराया, गुणमिलए चेइए || १ || तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे महावीरेवात्रिं चरमाणे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे, राय परिमा गया, धम्म कहिओ, परिसा पडिगया || २ || तणं गाय मे समण भग महावीरं एवं वयसी कहणणं भंते! जीवा आराहगावा विराहगावा भवति ? गोयमा ! श्री श्रवणभावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के दशवा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा तो अग्यारहवा ( अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अक्षे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नगर था. श्रेणिक राजा था. गुगशील उद्यान था || १ | उस काल उम समय में भ्रमण भगवंत महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते यवत् गुणशील उद्यान में पधारे, श्रेणिक राजा व परिषदा वंदन करने को नीकली, धर्मकथा कही व परिषदा पछी गई ॥ २ ॥ उस समय श्री गौतम सामने श्रमण भगवंत महवीर स्मी को पूछा कि अहो भगवन् ! जीव आराधक व विराधक कैसे होते हैं ? अहो गौतम ! For Personal & Private Use Only * दावद्रव वृक्षों का इग्यारहवा अध्ययन ४६१ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख अधिना रो जहाणामए-मि समुद्दकुल सी दवदवा नाम रुक्खा पण्णत्ता, कि हो जाव मिउवभया; पत्तिया पुफिया फलिया हरिया रेरिजमाणा सिरीए अतीव २ उबमो. भेमाणा चिटुंति ॥ जयाणं दिविवागा ईसिं पुरेवाया १च्छावाया मंदावाया वायति महा वाया वायंति; तदाणं बहवे दाबद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिटुंति ॥ अप्पेगतिया दाबद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिमडियं पंडुपत्त पुप्फ फला सुक्क रुक्खाउविव मिलायमाणा २ चिटुंति ॥ एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिगंथोवा णिग्गंथीवा जाव पवतिए समाणे वहणं समणाणं वहणं समणीणं जैसे समुद्र में दावा नाम के वृक्ष हैं वे कृष्ण वर्णवाले यावत् निकुम्बभूत हैं. पत्र, पुष्प, व फलवाले हरे, व वृक्ष की लक्ष्मी मे अतीच शोभित हुशे रहने हैं. जब प संबंधी किंचित् स्नेह सहित वायु अथवा पूर्व दिशा का वायु, पथ्य व यु, मंद वायु व महा वायु चलना है तथापि बहुन दाबद्रव वृक्ष पर ल, पुष्पवले यात् सग धे मे रहते हैं. उन वय से क्षुब्ध नहीं होते हैं. कितनेक दावद्रा वृता जीर्ण होते हैं, कितनेक सड जाते हैं, कितन्क पीले, पांडुर वर्णवाले पत्र पुष्प फल वृक्ष जैसे म्लान होकर रहते हैं. ऐसे ही अहो आयुष्मन्त श्रमणों ! हमारे माधु साध्वी यान् दीक्षित बनकर बहुत साधु साधी, श्रावक ब श्राविका .16शक राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामादजी. For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पटांग ज्ञाताधर्म था का प्रथम श्रुतवन्ध बहु सायाणं, बहूणं सावियाणं सम्मं सहति जाव अहियासेति ॥ बहूणं अण्णउत्थिया बहूणं गिहत्थाण णो सम्मं सहति जाव नो अहियामेति ॥ एसणं मए पुरिसे देवराहए पण्णत्ते ॥ ३ ॥ समणा उसो ! जयाणं सामुद्दगा ईसिंपुरेवाया पस्थात्रया मंदावाया महाशया वायंति, तनेणं बहने दावदवा रुक्खा जुण्णा उझोडा जात्र मिलायमाणा चिट्ठति अप्पे दावद्दव रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया जाव उसोभमाणा चिट्ठति ॥ एवामेव समणाउसो ! जो अम्हणिग्गंथोत्रा णिग्गथिवा पव्त्रतिसमाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं गिहत्थाण सम्मं सहति जाब अहियासेनि बहूणं समणाणं बहूगं समणीणं, बहूणं सात्रयाणं, बहूणं सात्रियाग नो सम्म सहति जो हित शिक्षा देते हैं उसे सम्यक् प्रकार में सहन करते हैं और अन्य तीर्थियों व गृहस्थियों के दुर्बचन सम्पक् प्रकार मे सहन नहीं करते हैं वे ज्ञ'नादि में देश विराधक होते हैं || ३ || जब समुद्र संबंधी किंचित् पुरावायु, पच्छा वायु मंद्रवायु व महात्रायु चलता है तब बहुत दावद्रव वृक्ष जीर्ण होते हैं. मटजते हैं यावत् म्लान होकर रहते हैं और कितनेक टावर वृक्ष पत्र, पुष्प, फल वगेरह सहित शोभित हवे दीखते हैं. अहो आयुष्मन्त श्रमणों! ऐसे ही हमारे साधु साध्वी प्रत्रजित होकर अन्य तीर्थियों व {गृहस्थियों के वचन सहन करते हैं परंतु माधु साध्वी, श्रावक व श्राविका के वचन नहीं सहन करते हैं व For Personal & Private Use Only ** दादर वृक्षों का इग्वारा अध्ययन ४६३ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ +2 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋपनी + एमणं मए पुरिसे देसागहए पणत्ते ॥ ४ ॥ समणाउमो ! जयाणं णो दंविच्चगा जो समुद्दगा ईसिं पुरोवाया पच्छावाया जाव महावाया. वायति तयेणं सव्वे दाबद्दल रुक्खा जुण्णा ज्झोडा ॥ एगमेव समणाउयो ! जाव पव्वतिए समाण बहूगं समणाणं बहूण समणीणं बहूणं सावयाणं बढणं सावियाणं, वहणं अन्नउत्थियनिहत्थाणं सम्मं नो सहति,, एसणं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते ॥ ५ ॥ समणाउसो ! जयाणं दीविश्वगावि समुद्दगावि ईसिं जाव वायंति तयाणं सव्वे दावदवा पत्तिया जाव चिट्ठति ॥ एवामेत्र समणाउसगे ! जो अम्हे जिग्गंथोत्रा णिग्गिथीवा पवतिए देश आराधक हैं ॥ ४ ॥ जय द्वीप अथवा समुद्र के पुगवायु यावत् म्हागयु नहीं चलता है तब सब दाबद्रव वृक्ष जीर्ण होते हैं यावत् मड जाते हैं वो ही हमारे प्रवजित हुए साधु साधी अन्य साधु, माध्वी, श्रावक व श्राविकाओं के वचनों से ही अन्यतथि व गृहस्थियों के व सम्यक् प्रकार से नहीं सहन करते हैं वे सर्व विराधक हैं ॥ ५ ॥ और जर द्वीप संबंधी व ममुद्र मंबंरी पुगवाय यावत महावाय चलना है तब दावदन वक्षों पत्र वाले. पण वाले यावत् रहते हैं ऐसे ही आयुष्मन श्रमणों : हरे साधु साध्वी प्रनित हुए बहुन माधू पाशिक-रांजाबहादुर लाला मुखदवस हायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ट इवाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 44. समाणा बहणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगागं वहूगं स.पियाणं, वहूणं अण्णउत्थियंगित्थीणं सम्मं सहति ॥ एसणं पुरिसे सव्वाराहए पत्ते ॥ एवं खलु गोयमा! जीवा आराहगा विगहगा भवंति॥६॥ एवं खलु जब! समणेणं भगवया महावीरेणं जाच संपत्तेणं एक्कारसमस्त णायज्झयणस्त अयम? पण्णत्त, तिमि ॥ एक्कारसमं गायज्झयण सम्मत्तं ॥ ११ ॥ `जह दावदवतरुवण मवं साहु जहेह दिब्धिगा वाया तहा समणाइय सपक्ख वयणाई दूसहाइ ॥ १ ॥ जह सामुद्दयवाया तहण्हतित्याति कडुयणाई, कुसुमादि संपया जहा सिवमगराहणा तहय ॥ २ ॥ जह कुलमाइ विणासो, सिवमग्ग विराहणा तहा या ॥ जहा दीवव यु जोगे. बहुमाध्वी, श्रावक व अंत्रिकाओं के बहुत अन्यतीथिनों व गृहस्थिओं के वचनों .म्यक् प्रकार से सहन करते हैं हैं ये स अराधक होते हैं. अहो गौतम ! इसी तरह जीवों आराधक व विरोधक होते हैं. ॥६॥ अहो जम्मू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथा के अग्यारहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. यह अग्यारहवा अध्ययन संपूर्ण हुवा. ॥ ११ ॥ उपसंहार-दाबद्रव वृक्ष जमे साधु और द्वीप संबंधी वाय 4 जैमे अपने पक्षमश्रण दि के दुःसह वचनों ॥ १ ॥ समुद्र के व.यु जैसे अन्यतथियों के कटु वचन और कु मादि संपदा जैसे मोक्ष मार्ग की अराधा. ॥ २ ॥ कुसुगदक का विनाश जैसे मोक्षमार्ग की । 416-दाबद्रव वृक्षों का इग्यारहवा अध्ययन 480 For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ __इड्डीइ सियअणिड्डी ॥ ३ ॥ तह साहम्मिय वयणाण, सहण माराहणाभवे, बहुआ इय राण मसहगे पुगसिवमग्गं विराहणाथोवा ॥ ४ ॥ जह जलहिवायुजोगे थोबड्डी बहुथरा अणिट्ठीओ. तहपर पक्खक्खमाणा, आराहणमासि बहुयरं ॥ ५ ॥ जह उभयवायु, विरहे सव्वतरु संपयाविणटुति ॥ अणिमित्तो भयमच्छररूवे हराहविणा तहय ॥ ६ ॥ जह उभयवाय जोगे सवसमिही वणरस संजाया तहउभय वयणसहणे सिवमग्गाराहणा पुण्णा ॥ ७ ॥ ता पुण समण धम्माराहणचित्तो सया राधना जानना. जैसे द्वैप वायु के येग से बहुत ऋद्ध होवे और अला विनाश हो ॥ ३ ॥ वैसे ही स्म यों के बचन सहन करने से आराधना बहुत होवे और अन्य के वचन सहन नहीं करन में विराधना थे डी होवे ॥ ४॥ जैसे समद्र के वायु के योग से ऋद्ध थोडी व नाश बहुन होता है वैसे ही अन्य के वचन सहन करने में आराधना व विराधना बहन होती है. ॥५॥ जैसे उभय वायु के विरह से अर्थात् समुद्र व द्वेष के वायु के न होने से वृक्ष की सर्व ममृद्धि का विनाश होता है वैसे ही स्वधर्मा व अन्यीथिंक दोनों के वचन सहन नहीं करने से मत्सर भ व धारन करता हु विनाश को प्रप्त होता 16 है. ॥ ६ ॥ जैसे उभय वायु के योग से वृक्ष के वर्णदि की सब समृद्धि होती है वैसे ही दोनों के वचन अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - काशक-गजाबहादर लाला मुग्वदवमहायजी ज्वालाप्रमादकी For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासत्तो सण : विकिरत सेहजसपि पडिकलं ॥ ८ ॥ एक्का रसमं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ ११ ॥ महन करने से विमार्ग की आराधना होती है. ॥ ७॥ अपण धर्म की आराधना करने में चित्तवाला महा सतत सर्व प्रकार की क्रिया करता हुवा सब प्रतिकुल को सम्यक् प्रकार से सहन करे. यह अग्यारहवा अध्ययन मंपूर्ण दुवा. ॥ ११ ॥ . . . . . ४६७ यहां ज्ञाताधर्मक्था का प्रथम श्रतस्कन्ध 498 दाबद्रव वृक्षों का इग्यारहना अध्ययन 4 M For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अधासक ऋषि ॥ हादश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते - समशेणं भगवया महावीरणं जाव सपत्तणं एकारसमस णायज्झय. रस अयमद्वे पण्णत्त बारसमस्सणं भंते ! णायझयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? ॥ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा न म णयरी पुण्णभदंए चेहए, जियमत्त राया होत्था ॥ १ ॥ तरतणं जियतत्तुस्सरन्नो धारिणी णामं देवीहोत्था, अर्हण सुकुमाल जाव सुरूवा ॥ २ ॥ तस्मणं जियसत्तुस्तरन्नो पुत्ते धरिणीए अत्तए अदीणसत्तणामं कुवारे जुबरायःवि होत्थ ॥ ३ ॥ सुबुद्धी अमच्च, जाब रजधुगचिंतए समणोवासए अहो भगवन् ! आपण भावन महाबीर सापीने ज्ञ ता मूत्र के अग्यार हुवे अध्ययन का उक्त अर्थ कहा तो बारहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू ! उस कल उस समय में चंपा नाम की नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, ब जित शत्रु राना था ॥ १ ॥ उम जिशिव राजा को धारणी नाम की देश थी वह मब अंगोपांग महिन सकोमल यावत् मुरूपा थी ॥ २ ॥ उस जितशत्रु गजा का पुत्र व पारणी देवी का अरमन अदीनशबु नाम का कुमार युराना था ॥३॥ उस को मबुद्धि नाम .प्रकाशक-सजावह दर लाला सुखदध महायजी ज्वालाप्रसादजी. M For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E अर्थ *पटकथा का प्रथम स् अभिगय जीवाजीवे ॥ ४ ॥ तीसे गं चंनए नए बहिया उत्तरपुरत्थि मे गं एग फरहाद या होत्या, मेयबसारुहिर मंमपूपडलोचडे मयगकलेवर संछण्गे; अणुणे वणणं जाव अमपुण्ग फासेणं; से जहा नामए अहिमडेतिवा. गोमडे वा जाव मय - कुहिय विणिट्ठ किमिण वावण्ण दुरभिगंधकिमिजाला उले संसत्ते, असुइत्रिगयत्रींमत्थ दरिमणिजे मंत्रेया रूसिया ? णो इटुं समट्ठेः एताअतिराए चेत्र जात्र गंधेणं पण्णत्ते ॥ ५ ॥ एवं से जियरूतू राया प्रधान था. वह राज्य में घुरी समान, जीवाजीव का स्वरूप जाननेवाला श्रमणोपासक था ॥ ४ ॥ उम चंपा नगरी के बहिर ईश नकून में एक पानी से भरी परिखा (खाई ) थी, वह मेद, चरबी, रुधेर, मान, परु के समुह से व्यथी उस में मृतक कलेवरों सडे हुवे थे. वह खाइ अपनोज्ञ वर्ण यात् अपनो स्पर्श वाली थी. जैसे सर्प का मुद्दा, गाय का मुड, यवत् पृतः अथवा तत्काल का मरा हुवा कलेवरों व कीडे से भरी हुई दुष्ट गंध वाली थी, कीडों के समूह मे परिपूर्ण थी, अपवित्र वस्तुओं पक्षी कत्ते वगैरह खाने से उस का देखाव बीभत्म हो रहा था. ऐसी खारच दुर्गन्ध क्या हो ! अहो भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. परंतु इम से अरिष्टतर यात गंध उस में ही हुई थी ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् For Personal & Private Use Only बुद्धिप्रधान का बारहवा अध्ययन ४६९ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्री बोला ऋषेत्री * काशक-नाजाबहादु अन्नयाकयाइ हाए कपबलिकम्मे जाव अप्पमहग्याभरणालंकिय सरीरे बहृहि, राईसर जाव मत्थवाहपभितीहि सर्हि भोयणमडसि भाषणवलाए सुहासगवरगए. विपुलं. असणं पाणं खाइम साइमं जाव विहरनि; जिमियः भुत्तुत्तरागए जाव सूइभए तं विउलंसि असण पाणं खाइमं साइमं जाव जायविम्हए, त वहवे ईसर जाव पभिइ एवं क्यासी-अहोणं देवाणुप्पिया ! इमे मणुण्ण असण पाणं खाइमं साइमं वणेणं उववेए जाव फासेणं उक्वेए आस्सायणि जे विस्सायणिजे दीवणिजे पीणणिजे दप्पणिज्जे मदणिजे सविादयगाय पल्हायणिजे ॥ ततेणं वहवे राईसर जाव पमिईओ वह जितशत्रु रामाने एकदा स्नान किया, बलि कर्म किया यावत् अल्प मार व बहुत मूल्यवाला भाभरण अलंकार शरीर पर धारण किया, बहुत ईश्वर यावत् सार्थवाह वगैरह की साय भोजन मंडप में भोजन की सपब में मुखासन पर रहे हुवे विपुल अनादि महिन यावत् विचरने लगे. अपने परिवार की माथ जीकर यावत् मुखप्रक्षालनाद से शूचिभूत हे कर उस विपुट अशन, पान, ख दिम व स्वादिप से यावत् विस्थित हुग. बहुन ईश्वर इत्यादि मब को ऐमा कहने लगा कि ओ देवानुप्रिय ! यह मनोज पान, खादिम, स्वादिम, वर्ण, गंध. रसव स्पर्श से उषेत है. आसान करने योग्य हैं. विस्ताद करने योग्य है, प्रीतिवत है, मोति उत्तराम करानेवाला है, दर्प उत्पन्न करानेवाला है, पद कराने ज्वालाप्रसादी अशन For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.28 टांगताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध in जियसत्तुराय एवं वयास:-हे वणं मामी अण्णं तुम्भे यह अहोणं इमे मणुणे असणं पाणं खाइमं साइमं वणेणं उत्रवेए जावपल्हायणिज्जे॥तएणं जियसत्तूगया सुबुई अमच्चं एवं क्यासी-अहोणं सुबुद्धि अमच्चे इमे मणुण्णे असणं ४ जाव पल्हायणिजे ततेणं सुबद्धी अमच्च जियसत्त रायस्म एयमटुं ना आढाति जाव तुप्तिणीए चिट्ठति ॥ ततेणं जियसत्तू सुबुड अमञ्च दोच्चपि तच्चपि एवं वनामी-अहोणं सुबुद्धी !इम मणुन्न तंत्र पल्हायणिजे ? ॥ तएणं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रन्ना दोचंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे जियसत्तुरायं एवं क्यासी-नो खलु सामी! अम्ह एयंसि मणुन्नंसि असणं पाणं वाला है, व व इन्द्रिय व गात्रों को पानंद करनेवाला है. न वे बहुन राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रमुख कहने लगे कि अहा स्वामिन् जैसे आप कहते हो वैसे ही है. यह अशन दि वर्ण उपपेन यावत् आनंद - कारी है. तब जितशत्रु राजाने मुबुद्धि प्रधान को कहा कि अहो सुद्धि प्रधान ! यह मश भशन दिय बत् भानंदकारी है. तब जितशत्रु राजा के इस अर्थका मुबुद्धि प्रधानने आदर किया नहीं यावत् मौन रहा. जिनशन रानाने दुपगं बार भी एसा कहा कि अहो सुबुद्ध ! यह मनोज्ञ अशनादि यावत् आनंदकारी 5. जब जितशत्रु गनाने मुबुद प्रधार को दो तीन बार ऐसा कहा कि यह मनाज्ञ अशनादि यावत् आनंदकारी है. तब मुषद प्रधान ने उत्तर दिया कि अहो स्वामिन ! मैंन मन प्रशनाद में किंचि मुबुद्धप्रधान का बारहवा अध्ययन 4.2 4 For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - "खाइमें साइमं केइ विम्हए, ॥ एवं खलु सामी ! सुभिसहाय पागला दुठिभ सद्दत्ताए परिण मंति, दुबिभसद्दावि पोग्गला सुभिमदत्ताए परिणमंति; सुरूवावि पोग्गला दुरूपत्ताए परिणमंत दुरूवात्रि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति; सुब्भिगधावि पोग्गल। दुभिगंधत्ताए परि गमंति, दुभगंधा व प.ग्गला भिगंधत्ताए परिणमंति सुरस'वि पं.ग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दरसावि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति, सुहफासाव पगला दुहफ.साए परिणमंति, दुइफासावि पोग्गला हफासत्ताए परिणमंति, पओगविससा वियणं परिणयावियणं सामी पोग्गला पण्णत्ता ॥६॥ ततेणं मात्र भी सिस्मित नहैं। हुवा हूं. अहो सामिन् ! सुरभि शब्दवाले पुद्गल दुभि शब्दपने परिणयन है और दुरभि शब्दवाल पुद्गल सामि शब्दपने परिणमत हैं, सुरूपवाले पुद्गल दुष्टरूपपने परिणमते हैं और दुष्टरूपवाले पुद्गल सुरू पन परिणम हैं, मुरभिांववाले पुद्गल दुरभिगंधपने परिणमने हैं और दुरभिगंधवाले पुद्गल सुरभिगंपने परिणमत हैं, अच्छे रमवाले पुद्गल खराब रसपने परिणम हैं और ख ग रसवले पुल अच्छे रसपने परिणमते हैं, अच्छे स्पर्शवाले पुद्गल खराव स्पर्शपने परिणपत हैं, और खग स्पर्श वल पुद्गल अच्छ सशंपो परिणमत हैं. क्यों कि अहो स्वा मन् ! प्रयाग वश्रिा पुद्गल कहे हुए हैं ॥६॥ •पक शक राजाबहदुर लाला सुखदेक्समय जाज्वाल प्रमादजी Jan Education Interational For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tre 4. ४७३ का प्रथय तकन्छ जियसत्तू गया बुद्धिस्म अमच्चस्स एवं माइक्खमा भर ४ एएमटुं नो अदात नो परियाणानि तुपाणीए मंचिति ॥७॥ ततेणं से जिया स्तृगया अन्नय कयाई हाए जाय आग्मखंधवगए महया भर चेडगरआमवाणिया णिज्जायमाणे तस्स फरिहोदयस्म अदूर मामलेणं वीइन्वयइ ॥८॥ ततेण जियमत्तगया तस्स फरिहादगरस असुभेण गधण अभिभूए समाणे, सएणं उत्तारजगणं आसग पहिति २ एगंतं अवक्कम्मइ २त्ता त वहये ईमर जाव पमितीयो एवं वयासी-अहाणं देवाणुप्पिया! इमे फारहोदए अमणुन्ने वनणं ४, से जहा णामत अहिमडेतवा जाव अमणामतराए च। ततेण ते वहवे . ईसर ज व पनिई ए एवं वयामी-तहेवणं तं सामी ! जण्णं तुब्भे एवयह अहोण इमे सद्धि प्रध न के ऐसे कथन का जितशत्रु गनाने आदर किया नहीं व अज्छा जाना नहीं पातु मौन रहा ॥ ७ ॥ एकदा गिनशत्रु राजा स्नान कर अश्व रूढ होकर, अन्य अनक भट चेटक प अनीक की माथ होता हुवा उस पानीवाली खाइ के पाम से निकले ॥ ८ ॥ उस खड के दुर्गंधवाले पानी में पराभून होकर राजाने स्वतः के उत्तरीय वस्त्र से अपना मुव ढक लिया. और वहां से दूर जाकर बहुत ईश्वर, राजेश्वर । को कहने लगा कि अहो देवानु मेय ! इस खाइ का पानी अमन वर्णवाला यावत् सर्प के मुडदे की ३. दुधवाला व अमनोज्ञ है. उस समय उन सब ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रमुख ने कहा कि अहे. । सबुद्ध प्रधान का बारहवा अध्ययन मर्थ Aatm पछांङ जाताधर्य wimminimationbackmins -g. For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पजा फरिहोदर अमणुन्ने वन्नेणं ४, से जहा नामए अहिमडेतिय जाव अमणामतराए तसेणं से जियमस्तू राया सबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-अहोणं साह ! इमे फ.रहादए अमणुण्यो वण्णेणं 8 से महा नामए अहिमडेतिव आव अमणामतराए चेव ॥ ततणं से सुबडी अमच्चे जाव तुसिणीए संचिट्ठति ॥ ततेणं से जियसत्तृ राया सुबई अमच्च दोच्चीि तपि एवं वयासी-अहोणं तंत्र ॥ ततेणं सुबुद्धी अमच्चे जियसस्तुणारण्णा दोच्चपि तच्चपि एवं वुत्तेसमाणे एवं क्यासी-नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फारहोदगंसि कइ विम्हए, एवं खलु सामी ! सुब्भिसह वि पं.ग्गला दुभिसत्ताए परिणमंति तंचव पोगवीससा परिणया वियणं सामी ! पं.ग्गला वामिन् ! जैसे आप कहते हो वैसे ही है. इस खाइ का पानी अमनोज्ञ गंधाला यात् स के मुडदे जैमा यावत् अपनामता है. उन सपर जिनशत्रु राजाने सवुदि प्रधान को कहा कि अहा मुबुद्ध ! इस खाइ का पानी जैसे सर्प के मुडदे की गंध होवे वैमा अमनोज गंधाला यावत् अमनामतर है. उस समय भी मुबुद्धि प्रधान यवत् मौन रहा, जब राजाने दो तीन बार ऐसा कहा तप उसने कहा कि अहो स्वामिन् ! म खाइके पानी में कच्छ भी आश्चर्य है. क्यों कि मुरभिशन्दवाले पुगल दुरभिगंधवाले होते हैं यावत् पुद्गलों प्रयोग वीससा. 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक .प्रकाशकराजावडादर काला हव्दवमहायजीवाहासमादमी अर्थ For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V७ षष्टांझज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रृतस्कन्ध 411 पण्णत्त॥९॥ततेगं जियसत्तू गाया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-माणं तुम देवाणुप्पिय! अप्पाणं च परंच तदुभयच बहुहिय असंभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेणय बुग्गाहेमाणे उप्पाएमाणे विहराहि ॥ १० ॥ ततेणं मुबुद्धिस्स अमच्चस्म इमेय रूवे अज्झथिए, समुप्पजित्था अहोणं जियमत्तू संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूते, जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभंति॥ तं सेयं खल मम जियसत्तूरस रण्णो संताणं. तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्रयाए एयम, उायणावेत्तए॥ एवं संपेहेति एवं संपेहेइत्ता पत्तिएहि पुरिमेहि सई अंतरावणाओ भवए घडए गिण्हति २त्ता संज्झा कालं समयसि विरलमण संसि निसंतपडिनि तसि जेणव फ रेहोदए तेणव । है. ॥ ९ ॥ तप जिनशत्रु राजाने सुद्धि को ऐषा कहा कि अहो देवानु पय ! तुम अपना, अन्य के व उभय के अस्मा की बहुन अपार व मिथा अभिनिवेश से कदाग्रह ग्रहण कर मत रहे। ॥१०॥ सुबुद्ध प्रधान को ऐ। अपवसाय हुवा कि जित शत्रु रामा विद्यगन. तथप, अविनथ्य व मद्भूत जिन " मणतं भावों की नहीं जानना है. इस से ऐसे जिन प्रणत भागे जिनशव राजा को समझाने के लिये उपाय करना मुझे श्रेय है. ऐसा विचार कर विश्व मु पुरुषों की साय बीच में रही हुई कुंभार की दुकानों से घडलेकर संध्या काल में-जब मार्ग शाम हुवा और मनुष्यों रहित मार्ग हुआ तब उस पानीको जानकर 24 सुबद्धपान का बारहवा बध्ययन 4. 44 49 For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vainiwand लब्रह्मचारीमुनि श्री अपोल : ऋषिनी + अनुदकला उवागच्छ३ ३ त्ता तं फरेहोदगं गिण्हावेति २ त्ता नवएसु घडए पु गालवेति २ ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेति २ त्ता सजवारं पक्खिवावेति २ त्ता लंछिय मुदए कगवेइ, सत्तरत्तं परिवासावेति २ दोच्चपि णवएस घडएसु गालावति २ त्ता सज्जखारं पक्खिवावेति २त्ता लछिय मदिय कारावेति २ त्ता सत्तरत्तं परिवासावति २, तच्चपि नएस घडएस जाव संत्रामावति संवासत्ता ॥ एवं खलु एएणं उबाएणं अंतरा गालावेमाणे अतरा पक्खिवावेमाण अंतरा अवसावमाणे सत्तसत्तरातिदियाति परिवासावेति २ त्ता ॥ ततणं से परिहादए सनम सत्तयसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए पावि होत्था, अच्छे पत्थे जच्चे तेणुए फ लियवाभ, पानी वाली खाइकी पाम जाकर उसमें से पानी लिया. उस पानीको छानकर नये धडे में पानी भर लिया, उस में सजवार (राग्व) डालकर घडे को मुद्रेन कर दिया, उस घडे को सात अहोरात्रि तक एकति में रखकर दो मीन वार नये घडे में उसके पानी को छान , फोर राख डालकर उसे मुद्रित कर सात अहोर त्रि पर्यंत रखा. और तासरी वार मये घडे में पानी छाना, इसी तरह राख डालना व सात दिन " रखना फर उस पानी को छानना. यों करने लगा. इस तरह सात सप्ताह पर्यंत उमरख इका पानीको बदलते वह उदक रत्न हुश. वह पानी आरोग्य काग. स्वच्छ, जतिवंत व स्पटिक रत्न समान वर्ण, रस प्रकाशक रानावहादुर लालासुखदवसहायजी ज्वाला प्रसादजी. લઈ For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 488+ षष्टां ज्ञानाधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध वणे उववेति गंधेगं उबवेति, रसेणं उषति, फासेणं उववेति आमा जे जाब सर्विवदिय गायपल्हायणिज्जं ॥ ११ ॥ तते सुबुद्धी अमन्च जेणेव से उदगरयगे तेणेव उवागच्छइ २ चा करयलंसि आसादति २ ना तं उदगरयणं वणणं उति ४, आसायणिज्जं जाव सर्विवदियगाय पल्हायणिजं जाणित्ता तु बहू हैं उदग संभारणिज्जेहिं दवेहिं संभारेति २त्ता जियमत्तस्मरण्णो पाणियधरि पुरेसं स वेति २त्ता एवं वयासी तुमेणं देवाणु लिया! इमं उदगरयणं गिण्हाहि २ जियसत्तुरसरणी भोयण वेलाए उवणिजासि ॥ १२ ॥ तते से पाणियधरए पुरिसे व स्पर्श से निर्मल हुवा. पीने योग्य यावत् सर्व इन्द्रियों को आनंदकारी हुवा || ११ | जब पानी सच्छ हुवा, तब मुबुद्धि प्रधानने उस पानी को हाथ में लकर उन का आस्वादन किया. उस पानी के वर्ण से यग्य पनि योग्य यावत् सर्व इन्द्रिय का अनंदकारी बना हुआ। जानकर बहुत हृष्ट तुष्ट हुआ. उसे पानी का संभार जो मोयादि द्रव्य हैं उस से सस्कृत किया. संस्कृत किया हुआ पानी हुवे पंछ जिनशत्रु राजा के पानी लानेवाले बागों को बोलकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! इस पानी को लेजाकर जिनशत्रु {राजा को भोज समय में परून || १२|| त्रेलोको सुबुद्धि प्रधान की ऐसी बात सुनकर उस पानी को For Personal & Private Use Only 4+सबुद्धि प्रधान का बारहवा अध्ययन '४७७ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी + सुबडिस्स अमच्चस्स एयमटुं पडिमुणेति एयमढें पडिणेत्ता,तं उदगरयणं गेण्हति २ ता । जियसत्तुस्सरण्णा भोयणलाए उभट्टवेति२ ॥१३॥ ततेणं सो जयसत्तुराया तं विउलं असण पाणं खाइमं साइमं आस एमाणा विसाएमाणा जाव विहरइ, जिमियभुत्तुत्तगगए वियणं जाव परमसूईभूए तसि उदगरयणंसि जाय विम्हए, ते बहबे राईसर जाव एवं वयासी-अहोणं देवाणुप्पिया ! इमे उदगरयणं अच्छे जाव 'सविदिषगायपल्हाय हिजे तएणं से बहवे राईसर जाव एवं वयासी- तहेणं सामी ! जण्ण तुम्भे वयह जाव तंचेव पल्हायणिजे ॥ १४ ॥ तण जियसत्तूराया पाणियधरयं पुरिसं सहावेइ २ त्ता एवं वयासी-एसण देवाणुप्पिया ! उदगरयणे कओ आसादिए ? ॥ तएणं से लेकर पितात्रु राजा को भोजन समय में पड़ा. ॥ १३ ॥ नितश राजा पिपुल अशनादिका आस्वाद करता हुवा विचरने लगा. जिमकर यांचन परम भुचि भून हुए पोछ पानी पाकर विस्मित हुआ. और बहुत ईश्वा मंगरर को ऐसा कहने लगा अहो देवानुपिय ! यह उदक स्वच्छ यावत् सब इन्द्रियों में का आनंदकारी है. उस समय बहुत राजेश्वर यावत् एना बोलने लगे अहा स्वामिन् !} मे आप कहते हो वैसे है आनंद कारी है. ॥१४॥ जितशत्र राजा अपने पानी देने वाले को बोर कहने लग-कि अहो देवानुपिय! यह पानी कहां से लाये तब उनाने । प्रकाशक साजाबहादुर लाला मुखदेव सहारज ज्वालापमा जो. For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म श्रुतस्कन्ध 4211 पष्टवानाधर्मकथा का पागिधरए जियसत्तुरयं एवं बवासी-एसणं सामी ! मए उदगरयणे सुबुद्धिरम अंतियाओ आसाइए ॥ तएणं जियसस्तूराया सुबुद्धिअमचं सहावेइ २ त्ता एवं वयासी-अहोणं सुबुद्धी ! अहं तव अणि? ५ जेणं तुम ममं कलाकल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं ण उट्ठवेसि ॥ तएणं तुमे देवाणुप्पिया ! उदगग्यणे कओ उबलडे ? ॥ तएणं सबुद्धी अमच्चे जियमत्तु रायं एवं व्याप्ती-एसणं सामी ! से फरिहोदए ॥ तरण से जियसत्तू राया सुचुहिं अमचं एवं वयासी-केणं कारणेणं सुबुद्धी अमचे! एस फरिहादए? ॥ तएणं सुबुद्धी अमच जियसत्तु रायं एवं वयासीउत्तर दिया कि अहो पापेन ! यह पानी सुबुद्धि प्रधान के वहां से मिला है. तब राजाने सुत्र दि पवन को बोलाकर कहा कि अहो सुद्धि! क्या में तो अनिष्ट हूं कि जब में भोजन करने को तब तुम ऐसा पानी नहा छा देते हो. हा देवानुप्रिय ! यह पानी तुम कहां से लाये हो ? तब सद्ध प्रधानने जितशत्रु राजा को एमा कहा कि अहो स्वामिन् ! यह बाइ का पानी है. राजाने पुन:{" प्रश्न किया कि वह खाइ का पानी किस तरह हो सकता है? तब प्रधानने उत्तर दिया कि आपने उस /दिया मुझे कहा था यावन् मेरे कपर पर आपने श्रद्धा नहीं की थी तब मुझे ऐसा अध्यबसाय, चिंता, शर्वना सुदिप्रधान का बारहवा अध्ययन link For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवादक-बाल ब्रह्मचारी मनि श्री अटक ऋषिजी एवं खलु सामी ! तुम्हे तइया मम एवमाइक्खमाण त ४ एयमटुं णो महह ।। तएणं ममं इमेयारूवे अझथिए चितिए पत्थिए मणीगर संकप्पे मुजित्था-अहोणं जियमत्तुराया संते जाव भावे णो सहहइ णो पत्तियइ णो रोएति त सेयं खलु मम जियमत्तूस्स रणो संताणं जाव समाणं जिण पण्णत्ताणं भावणं अभिगमण?याए एयमट्र उवाथणावेत्तए॥एवं संपेहइ २, एवं तंचेव जाव पाणियधरिय परिसं सदावेति पाणियध रयं सदावेइत्ता एवं वयासी तुमणं देवाणप्पिय ! उदगम्यणं जियसत्तस्मरणो भोयणवेलाए उवणेहि ॥ तं एएणं कारणेणं सामी एस फरिहोदए ॥ १५ ॥ ततेणं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमातिक्खमाणस्म ४ एयमटुं नो सद्दहति २त्ता व मनोगत संकल्प हुवा कि जितश्व राजा विद्यमान भावों को नहीं श्रद्धा हैं. उम की प्रीति नहीं करते हैं. इस से जितश्चू राना को विद्यमान जिन प्रणत पदार्थों को समजाने के लिये उप य करना चाहिये. ऐमा विचार कर मेरे विश्वासु मनुष्यों की साथ मंध्या समय उस खाद का पानी लेने को गया, और पानी सच्छ कर आपके पानी लानेवाले मनुष्यों को बोल कर दिया और 3 भाजन समय परूपने का कहा. स्वामिन् ! यह उम ही स्वाइ का पानी है ॥ १५ ॥ मुबुद्धि प्रधान के ।इस कथन पर जितशत्रु राजा को श्रद्धा प्रतीति व विश्वास नहीं हुवा जिस से अपने खानगी पुरुषों को महाक-राजावादर बाळा सुखवसहायजी सलाप्रमादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... ... ..... का प्रथम श्रुतरख 43 +8+ पटांग हातधर्मकथा } असदहमाणे ३ आमतरठाणिजे पुरिसे सदावेप्ति २. ता. एवं वयासी-गन्छहणं तुम्भे देवाणुपिया ! अंतरावणातो नवघडए गिण्हह जाव उदगसंभारमिज्जेहिं - दव्वेहिं संभारेहातेवि तहेव संभारेति,जियसत्तुस्स रन्नो उवणेति।।ततेणं जियसत्तूराया तं उदगरयणं . :- करयलांस आसाएति २ आसायणिज जाव सब्विादिय गाय पल्हायणिज्जं जाणित्ता, सुबुद्धि अमच्च सहावइ २त्ता एवं क्यासी-सुबुद्धीए! एणतम संता तच्चा जाव सब्भूया भावा को उबलद्धा ? ततणं सुबुद्दी जीयसत्तू एवं वयासी-एसणं सामी ! मए संता जाव भावा जिणवयणातो उवलद्धा ॥ १६ ॥ ततेणं जियसत्तू सुबुद्धि एवं वासीबोलकर ऐमा कहा अहो देवानुप्रिय ! उस खाइ में से नये घडे ले जाकर पानी भर लामो यात् पानी के सब संभार से उसे स्वच्छ करों. उन ले.गोंने भी वैसे ही किया, फीर जिवशत्रु की पास ल ये. जित शत्रु राना ने उस पानी को देखकर उसे मायलेकर उम का आस्वादन किया. उभे पीने योग्य व सब. इन्द्रियों को प्रियकारी जानकर सबुद्ध अशको इमकार कहने लगे कि अहो मुद्धि ! तुमने ऐसे विद्यपान 63थ्य यावत् भूत भाव कहां से जाना ? तब प्रधानने उत्ता दिया स्व मिन् ! मैंने ये भाव मिन वचन * से जानामा १६॥ तब राजाने कहा कि भो सुद्धि ! मैं तुम्हारी पास से जिन वचन सुनने को च हवा . बुद्धवान का बारहवा अध्ययन +2 For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 त इन्छामिग देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामित्तए।ततेणं सुबुद्दी अमचे : जियसत्तुस्स रणो विचित्तं केवलि पणत्तं चाउजामं धम्मपरिकहति, तमाइक्सति जहा जीवा बुझंति, जाव पंचअणुवयाणि ॥ ततेणं जियारतू सुबुद्धिस्स अतिए ४८१ धम्म सोचा निसम्म इट्ट, तुझे सुबुद्धि अमचं एवं क्यासी-सहहामिणं देवाणुप्पिया ! जिग्गंथं पावयणं ३, जाव से जहेयं तुम्मे वदह तं. इच्छामिणं तत्र अंतिए पंचाप्रावतियं सत्चसिरखावतियं जाव उवसंपजित्ताणं विहरिचए ?, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह ॥ ततणं ते जियसत्तू सुबुद्धिस्स अमवस्स अंतिए पुदि प्रधान जिता राजा को विचित्र प्रकार का केवलि प्रकापित पार पामरूप धर्म का जीवों जैसे दुझते हैं वैसा भी कहा यावत् पांच अनुवन का अधिकार कहा. तब नितश राजा सुबुद्धि प्रधान की पास . से धर्म सुनकर हष्ट तुष्ट हुए और मुबंदि प्रधान को ऐमा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! निIय के प्रवचन की श्रदा करता हूं यावत् भैसे आप कहते हो। से में तुम्हारी पास पांच अनुव्रत व सात शिक्षा व्रत अंगीकार कर विचरना चाहता हूँ. भो 17देवानुप्रिय ! तुम को असं मुख होचे वैसा करो इस में पिलम मत करो. वा शिवशत्रु राजाने मुधि ।। बनवादक-पासमचारी मुनि श्रीबमोळकपिजी .महाशक-राजाबहादुर काला मुरुदेवसहायणी यालामसादमी M मर्य For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ४८३ पंकणुप्रतियं जाब दुवालसविहांगहि धम्म पडिवजह ॥ ततेणं जियसरतू समणोवासए जाए, अभिगय जीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे विहरह॥१७॥तणं कालेशं तेणं समएणं येरा गमणं जेणव चंपा नयरी जेणेव पृजभई चेइए तेणेव समोसढे जियसत्तूगया जिग्ग. छति सुबुद्दीवि जिग्गओ सुबुद्धी धम्म साचा जंणवरं जियसत्तुं आपुग्छ मि जाब पन्वयामि? अहासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं करेह ततेणं से जणव जियसत्तू तेणेत्र उवागच्छतिर ता एवं क्यासी-एव खलु सामी!मए थेराणं अंतिए धम्मेनिमत सेरिय धम्मे इच्छिए पडिपिछए ततेणं अहं सामी संसारभविग्गे भीए जाव इच्छामिणं तुम्भेहि प्रधान की पास से पांच अनुना यावत् बारह प्रकार का श्रावक धर्म अंगीकार किया. सप जितन राजा श्रमणोपासक हुवे, जीवाजीव का स्वरूप जानते हुवे यावत् विचरने लगे ॥ १७॥ उस काल उस समय में स्थविर चंपा नगरी के बाहिर पूर्ण भद्र उद्यान में पधारे. जितशव राजा व मप्रति प्रधान दर्शन करने को गये. धर्म सनकर सुबुद्धि प्रधानने कहा कि मैं जित शत्रु राजा की आज्ञा लेकर पावत् दीक्षित होऊंगा. स्थविर बोले जैसे सुख होवे वैसा करो. विलम्ब मत करो. अब बह-सद्धि प्रघान जिस शव राजा की पास आया और कहा. अहो स्वामिन ! मैंने स्वषिरों की पास से धर्म सुनाई और। षष्टांगहाताधर्मकथा मुबुद्धि प्रधान का बारहवा अध्ययन 42th 1 For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक रिजाल . अणुन्न ए जाय फवइत्तए ॥ ३८ ॥ ततेणं जियसत्तु सुवाई एवं क्यासी- . अच्छसु ताव देवःणुपिया ! कतिवयाति वासाति उरोलाति जाव भुजमाणा, तलो पच्छा एगयातो थेराण अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिरसामो ॥तलेणं सुकुद्धी जियस : त्तुस्स एयमट्ठ पडि मुणेति २ ॥ १९ ॥ तलेगं जियसत्तुस्स रन्नो बुद्धिणा सद्धि विपुलांति मण्णुस्सगाई जाव पञ्चणुब्भवप्राणरत दुवालस वासाति वीतिवंताति ॥ २० ॥ तेण कालेणं तेणं समएणं थेरा गमणं जियसत्तू धम्म सोच्चा, एवं जं णवरं देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि अमचं आमतेमि, जट्ठ पुत्तं रज्जे वेमि, ततेणं तुब्भणं मुझ इच्छित है मैं संसार भयसे गंद्वग्न बना हुवा यावत् आप अनुज्ञा देवे तो मैं दीक्षा अंगीकार करना चाहता हूं ॥ १८ ॥ तब नितशत्रु राना सुबुद्धि धान का एमा कहने लग कि अहो देवानु प्रिय ! थंडे वर्ष तक भोग में गत हुने रहो तत्पश्चात् अपन दोनों माथ स्थगिरा की पास मुंडन बन कर विचरेंग. सुवढे प्रधामने जितशत्रु का इस कथन को स्वीकार किया ॥ १९ ॥ नितशत्रुधराजाको सुबद्ध की साथ मनुष्य संबंधी भोग भोगते हुवे बारह वर्ष व्यत त हुवे ॥ २० ॥ उस काल उस समय में स्थविर पधार जिन शत्रु राजा धर्म मुनकर स्थविरों को बाले कि सुबुद्ध प्रधान को बुलाकर ज्येष्ठ पुत्र को राज्याभिषेक प्रकाधक-सजावट दर लाला मुखदव महायजी ज्वाल.प्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.8+ पटांड ज्ञाताधर्षकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 44 जवि पव्वयामि ?, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह ॥ २१ ॥ ततेणं जियसत्तू जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सुद्धिं अमच्चं सदावेति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु मए थेराणं जाव पध्वयामि तुमणं किं करोसि ॥ ततेणं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुरायं एवं बयासी-जाव के अण्णे आहारे जाव पव्वयामि ॥२२॥ त जइणं देवाणुपिया ! जाव पब्वाहि गच्छहणं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्तं कुटुंबे ट्ठावहि, सीयं दुरुहिताणं मम अंतिए सीया जाब पाउब्भवह तएणं से सुबुद्धि जाव पाउभइ ॥ २३ ॥ ततेणं जियसत्तगया कोदंबियपरिसे महावेति कोड बय परिसे सहावेचा, एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया ! अदीणसत्तुस्स रायाभिसेयं कर आप की पास दीक्षा अंगीकार करूंगा, स्थविर बोले जैसे तुम को सुख होवे वैमा करो ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् 'जितशन अपने गृह आया, और सुबुद्धि प्रगान को बुलाकर कहा कि मैं स्थविर की पास यावत् दीक्षित होऊंगा. तुम्हारा क्या विचार है ? तब सुबुद्ध धान बोला कि मुझ अन्य क्या आधार व अवलम्बन है, इस से मैं भी दीक्षा ग्रहण करूंगा ॥ २२ ॥ यादे तुम्हारी दीक्षा लेने की इच्छा हो तो अपने गृह ज ओ. और ज्येष्ठ पुत्र को कुटम्प में स्थाप करें शिषिका पर बैठकर मेरी पास आवो ॥ २३ ॥ जितशत्रु राजाने कौटुब्धि पुरुषों को चोलाकर ऐसा कहा कि ओ देवानु प्रेय : तुर अर्द ने शत्रु मुबुद्ध प्रधान का बारहवा अध्ययन ११ 1 ब For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . त्र अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिर्जी उववेह जाव अभिसिंचति जाव पवातिए ॥ २४ ॥ ततेणं जियसन्तु एकारस अंगाई अहिजेति बहाणि वासाणि परियायं पाउणिचा, मासियाए जाव सिद्धे॥ततणं मुबुद्धी एक्कारस अंगाइ, बहुाण वासणि, आव सिद्धे ॥ २५ ॥ एवं खलू बु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं वारसमस्स णायज्झयणस्त अयम पण्णत्ते ॥ तिबति ॥ बारसम णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १२ ॥ गाथा ॥ मिच्छत्तमोहिमणा पावपसत्तावि पाणिणो विगुणा ॥ फरिहोदगंच गुण, णो हति वरगुरुषसायाआ इति बारसम गायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १२ ॥ कुमार को राज्याभिषेक करो यावत् किया और वे दोनों दीक्षित हुए ॥ २४ ॥ जित शत्रु राजाने अग्यारह अंग का अध्ययन किया. बहुत वर्ष पर्यंत साधु की पर्याय पालकर एक मास की संलेखना से यावत् सिद्ध हुने. सुबुद्धि प्रधान भी अग्यारस अंग का अध्ययन कर बहुत वर्ष साधुपना पालकर यावत् सिद्ध हुए ॥ २५ ॥ अहो जम्बू ! श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के पारख्या अध्ययन का उक्त अर्थ कहा. यह वारहवा अध्ययन संपूर्ण हवा ॥ १२॥ उपसंहार-मिथ्यात्व से जिस का मन मोहित हुनाले से पपाप में प्रसक्त जीवों गुण रहत होने पर मी सद्गुरु के प्रसाद से खाद के पानी जैसे गुणवाले होते. या पारावा अध्ययन संपूर्ण वा ॥१२॥ क राजाबहादुरलाला मुखदवसहाय वालाबादमी For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4+ षष्टङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 488+ ॥ त्रयोदश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवमा महावीरेणं जाव संपत्तेणं बारसमरस णायज्झयणस्स अमट्ठे पन्नत्ते, तेरसमस्सणं भंते ! णायज्झवरूप समणेणं भगवया महावीरेण जात्र संपते के अट्ठे पण ते ? ॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जयरे, सेणिएराया, रायगिहस्स णयरस्स उत्तरपुरत्थिमदिमीभाए गुणसिलए चेइए॥ १ ॥ तेगं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे चउदसहि समणसाहस्सीहिं जाव सद्धिं पुत्राणुपुत्रि चरमाणे जाव जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेत्र समोसढे, अहार डिरूवं उग्गहं उगहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥ २ ॥ तेणं काल श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के बारहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो अहो भगवन् ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने तेरहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू ! काल उस समय में राजगृह नगर था. उस में श्रंणे राजा राज्य करना था. उस राजगृह नगर की बाहिर ईशानकून में गुणशील उद्यान था ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी चिउदह हजार साधु की साथ पूर्वानुपूर्व चलते हुवे यात्रतू गुणशील उद्यान में पधारे. वहां यथा प्रतिरूप For Personal & Private Use Only * नंदमणियार श्रेष्टि का संरहवा अध्ययन 4 ४८७ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलस अमिजो र तेणं समएणं सोहम्मेकप्पे ददरबडिंसए विमाणे सभाए मुहम्माए ददुरसि सहिासणांस दबुरे देवे चउहिमामाणिय साहस्सीहिं चउहिं अग्गमाहसीहिं सपरिसाहि एवं जहा सूरियाभो जाव दिवाति भोगभागाति भुजमाणे विहरति ॥ इमं चणं केवलकप्पं जबद्दीव विउलेणं ओहिणा आभाएमाणे २ जाव नविहं उवदसित्ता पडिगते ॥ जहामरियाभे ॥ ३ ॥ भंतेति भगवं गोयमे समणं भगव महावीर वंदति नमसति बंदित्ता नमप्तित्ता एवं बयासी-अहोण भंते ! ददुरेदेवे महिड्एि ६, ददुरस णं भंते! अवग्रह याचकर संयम व सप से आत्मा को भावते हुए विचरने लगे ॥६॥ उस काल उस समय में सौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसक विपान की सुधर्मा समा में दर्दुर सिंहासन पर दर्दूर देव चार हजार मामानिक चार अग्रमहिषी व उन की परिषदा वगैरह जैसा रायप्रसेणी सूत्र में सूर्याभ देवता समान यावत् दीव्य भोगोपभोग भोगते हुए विचरता था. उसने अवधि ज्ञान लगाकर श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में विराजमान देखे जिसमे अपने सब परिवार महित विमान में बैठकर आया, यावत् बत्तीस प्रकार का नाठ ॥ बताकर पीछा गया, वगैरह मच कथन मूर्याम दवता जैसे कहा ॥३॥ भगवन्त गौतम स्वामी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर कहने लगे कि अहो भगवन् ! यह दर्दुर देव महर्द्धिक है. - इम की ऐसी ऋद्ध कहां चली गइ ? अहो गौतम ! कूटाकार शाला जैप्स शरीर में उस का प्रमावेश होगया. इस को ऐसी दीय पराशक-राजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 2 षष्टांग ज्ञाताधर्म था का प्रथम श्रुतम्वन्ध:4 देवरुप्त सा. दिव्वा देविड्डी ३ कहिंगया कहिं अणुप्पचिट्ठा ! गोयमा! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा कूडागार दिटुंते ददरेणं भंत देवणं सादीबादविडा किण्णालद्धा, जाव अभिसमन्नागया ? ॥ ४ ॥ एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबद्दीवेदीवे भारहेवासे रायगिहे गुलसिलए चेइए सेणिएराया ॥ ५ ॥ तत्यणं रायगिहे नयरे ण णामं मअियारसेट्ठी परिवसइ, अड दित्ते जाव अपरिभए ॥६॥ तणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! रायगिहे णयरे जेणेव गुण सिलए चइए तेणेव समोमढ, परिसानिग्गया, सणिएवि राया णिग्गओ ॥ ७ ॥ तएणं से गंदमाणियार सेट्ठी इमीसे कहाए लट्ठ समाणेष्हाए पायविहार चारेणं जाव पज्जुवासति ॥८॥ गंदे धम्मं साचा, समणावासए जाए ॥८॥ देव ऋद्ध कैसे प्राप्त हुई ! ॥ ४ ॥ भगान्त महावीर स्वामीने उत्तर दिया कि अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में राजगृह नगर, गुणशील उद्यान व अँणक राजा है ॥ ५॥ इस राजगृह नगर में नंद नामका माणभार रहना था. वह ऋदन, दीप्तिांत यावत् अपरिभूत था ॥ ६॥ अहो गौतम ! उम काल उस समय में आया, परिषदा वंदन करने को नीकली और श्रणिक राजा भी नोकरा.॥७॥ नंद मणिभारने भी एसी बात सुनकर स्नान किया यवत् पांच से चलता हुवा. यावत् पर्युपामना करने में लगा ॥ ८ ॥ ६ मणि आर धर्म सुनकर आपण पासक हुना ॥ ८ ॥ तत्पश्च न् मैं राजगृह नगर में से। नंदमणियार श्रष्ठा का तेरहवा अध्ययन 42 wwwnnnnnnnnvvv - For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुवादक-मालवमचारी मुनि-श्री अमोलक ऋषिजी - ततेणं अहं गोयमा ! रायगिहाओ पीडाणक्खमीत, बहिया जणवय- बिहार बिहामि ॥ ९॥ ततेणं से गंदे मणियार सेट्ठी अण्णयाकयाइ असाहुदस गेणय अपज्जुबासणाएय अमणुमासणाएय असुस्सूसणारय सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमाजेहिं मिच्छत्त पजवहिं परिवड्डमाणहिं २ मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे जाएयादि होत्या ॥ १० ॥ ततणं गंद माणधार सट्ठी अन्नयाकयाइ गिम्हकालममयसि जेट्टामूलं स मांससि अट्ठमभत्त गिण्हइ २ ता पोसहसालाए जाव विहरति ॥ ११ ॥ ततेणं णंदरम अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि, तण्हा छुहाएय अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिते ५ धन्नाणं ते जाव ईसर नकलकर बाहिर देश में विहार करने लगा ॥९॥ अब नंद मणिभार श्रेष्टी को साधु के दर्शन, पर्युपामना, अनुशासन, सेना, भक्ति नहीं होने से सम्यक्त्र से हीन होना हुा व पिध्यत्व परिणाप से बढता हुआ मिथ्याती बन गया ॥ १० ॥ एकदा प्रेम ऋतु के ज्येष्ट मास में नंद पणिभारने अप भक्त । (तला) करके पौषधशाला में यावत् विचरने लगा ॥ ११ ॥ अष्टमभक्त तप करते हुए तृष्णा शुधा से पगमूर नंद मणिआर को ऐमा अध्यवपाय हुआ कि जो राजेश्वर वगैरह राजगृह नगर को बाहिर बहुत बावड़ी पुष्करणी याइन् सरसर पंक्तियों बनाते हैं और जिस में बहुत लोग मान करते हैं। मार्थक-राजाबहादर लाली सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादकी | For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ जाव पभिइओ जेसिणं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीतो पोक्खरिपातो जाव सर.२ . पंतिओ, जत्थणं बहुजणो हतिय पियतिय पाणियंच संवहति ॥ तं सेयं खलु मम कल्लं पाउड्भवाए, सेणियंराय आपुच्छित्ता रायगिहस्सबहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमाए वेभारपत्रयस्म अदूरसामंते, वत्थुपाडग रोइयंसि भूमिभागसि जाव गंदपोक्खरणि खणावित्तए तिकटु ॥ एवं संपेहेइ २ चा ॥ कल्लं पाउभयाए जाव पोसहं पारेति पोमहं पारेत्ता, हाए कयबल्लि कम्मे, मित्तणाइ जाव संपरिवुड़े महत्थं जाव पाहुडं रायारिहं गिण्हइ २ त्ता जेणेव सेणिए राया तेणेब उवागच्छइ २ ता, जाव पाहुडं और पानी पीते हैं उन लोगों को धन्य है, इस से कल प्रभ त में श्रेणिक राजा को पुछकर राजगृह नगर की बाहिर ईशानकून बेपार पति की पास शिल्पकारों को अनुकुल भूमिभाग में यावत् नंद पुकरणि खोदवाना मुझ श्रेय है, ऐमा र कर दूसरे दिन प्रभात होते यावत् पौषय पाल नमन किया, कोगले किये, पिप जान सहित परवरे हुए महामूल्य वाला पावत् गजा को योग्य नगराणा लेकर श्रेणिक राजा की पास वह नंद मणिभार गया. यात सब नजराणा रख दिया और कहा कि माप की भाषा हो तो राजगृही नगरी की पाहिर भार पर्वत की पास में एक पुष्करणी खोदवाना 40पष्टताधकथा का प्रथम प्रताप - नंद मणिबार श्रेष्टि का तरह अध्ययन - For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-कालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी उवटुवेति, उवटवेइत्ता एवं वयासी-इच्छामिणं सामी ! तुम पेहि अब्भणुगाए समाणे. रायगिहस्त णयरस्स बहिया जात्र खणावित्तए ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया ॥१२॥ तएणं से णंदे मणियारसट्ठी सेणिएणं रम्ना अब्भणुणाए समाणे हट्टतुट्टे; जाव रायगिह मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २त्ता वत्थुपाढयारोतियसि भूमि भागसि गदपोक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते • पावि होत्था ॥१३॥ तएणं सा गंदा पोक्खरणिं अणुपुश्वेणं खणमाणा २ पोक्खरिणी जाएयावि होत्था, चाउकोणा समतीरा अणुपुत्वं सुजाय वप्पसीयल जलासंछन्न पत्तभि समुणाला बहु उप्पल पउम कुमुद णलिणि सुभग सोगंधिय पुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त चाहता हूं. राजा ने कहा अहो देवानुप्रिय ! तुम को जैसा मुख होचे वैसा करो ॥१२॥ श्रेणिक राजा की आज्ञा होते नंदमणिधार इष्ट तुष्ट हुवा और राजग्रह नगर की बीच में होता हुवा शिल्पकारों को अनुकूल स्थान में - पुष्करण खुदबने को प्रवृत्त हुवा. ॥ १३ ॥ अब नंद मणियारने अनुक्रम से पुष्करणी खोदवाते हुवे एक अच्छी पुष्करणी तैयार की. यह चार कुना बाली, समान तीर घाली हुइ. उस को कोट बनाया, उस का पानी, शीतल रहने लगा, पर व मृणाल से उस का वानी ढका हुवा था, बहुत उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, मुगंधित पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फल व केसरा युक्त वह बावडी थी, उस की सुगंध के • मानक गजाबहादर लाला सुखदेनमहायजी ज्वालाप्रम्खजी. - - - For Personal & Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + +8+ षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध १. सहस्सपत्त पुष्फफलकेसरोक्वेया पम्हिस्थभमंतमत्तछप्पयअगसउणगण मिहुण ..विश्थिरिय सहइ महुरसरण्णाइया पासाइयणिया दरिसाणया अभिरूवा पडिया ॥ १४ ॥ ततेणं से गंदे मणियार सेट्टी. णंद पोवारणीते चउहसि ‘चत्तरि वणसंडे रोवावति ॥ ततेणं ते वणसंडा अणुपुत्रेणं सारक्खिजमाणा, संगोविजमाणा, संवड्डिजमाणाय वणसंडा जाया-किण्हा जाब निउरंबंभूया, पत्तिया पुफिया जाव उबसोभेमाणा चिट्ठति ॥ १५ ॥ ततेणं गंदे पुरथिमिल्ले वणसंडे एगं मह चित्तसभं करावेति २, अणेग खंभसय सण्णिविटुं पासा दिया दरिसणीया लिये परिभ्रमण करते हुवे भ्रमरों व पक्षियों के युगल पधुर शब्दो करते थे. और भी वह प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप व प्रतिरूप थी. ॥ १४ ॥ नेदमणियारने उस वावड़ी के चारों दिशी में चार घनखण्ड रोपे थे, उन की रक्षा व गोपन करते हुने धनखंड पन गये. वे कृष्ण यावत् निकुरव भून थे. पत्र पुष्प से यावत् शःभायमान थे. ॥ १५ ॥ उम नंदणियारने पूर्व दिशा के वनखंड में एक चित्रसभा पनगाइ वह अनेक 4 स्तंभ वाली प्रामादिक, दर्शनीय अभिरूप प प्रतिरूप थी. उम में बहुत कृष्ण वर्ण नाले यावत् शुक्ल वर्ण वाले काय कर्म, ( काय की पूतीयों ) वन कर्म (वस्त्र की पूनलीयों ) मूत्र मे गंयकर, लपेट कर, पुष्प नंदपणपार श्रेष्ठ का तेरहवा अध्ययन 48 For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ - - अनुवादक- लिब्रह्मचारी मुनि श्री अपाला ऋषिजी अभिरूवा पद्धिता ॥ तस्याणं ब्रहृणि किण्हाणिय जाय सुकिलाशिय कट्टकम्माणियपत्थकम्माणिय चित्तलेप, गरिम, कोढ़ा, पूरम, संघातिम, उबदसिज्जमाणा चिट्रति ॥ तत्थणं वह णे असणाणय स्यणाणिय अत्थुयपत्थयाय चिटुंति ॥ तत्थणं वहवे नडाय जाव दिनभइ भत्तवेयणातालयरकम्म करेमाण! विहरति ॥ राथमिहवि जिगतो एत्थ. बहुजणो तेतु पुव्वणत्थेसु आसण सयणेसु सनिसनीय संतोय सयमाणोय पच्छमाणोय सोहमाणोय सुहंसहेण विहरति ॥.१६ ॥ ततेण णदे दाहिल्लेि वणसंडे एग महं महागससालं कारावेइ, अणेग जाव पडिरूवं ॥ तत्थण बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विउलं असणं पाणं की माला के गेंद जैसे गुस्था कर. तिल सुवर्ण वगैरह की प्रतिमा जैसे संधातिम ये चारों प्रगर के त्रिों दर्शाये थे. उसमें प्रा. शयन. पाट पाटल रखे थे, उसमें वेतन देकर नत्य कला करने वाले नौकरों रखे ५, में स्व यहात्तव कान हुए विचरने थे. राजगह नगरी में मे निकलते हुवे लागों का रख हुने आस शयन पर बैठन थे, सोते थे. कथा सुनने थे, अनेक नाट्यःदिक देखो हो सुख पूर्वक विचरत य ॥१६॥ उ. नंद मणिपार श्रष्टिने दक्षिण के वनखण्ड में एक बड़ी भोजनशाला बनाइ. वह अनेक स्तंभवाली यावत् प्रतिरूप थी. उम में वेतन देकर है। प्रकाशक सजावहादुर लाला मुखदव महायजा ज्मालामादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 491ष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 42 खाइमं साइमं उवक्खडेति, बहुणं समण माहण अतिहि किवण वणीमयाणं, परिभाएमाणा २ विहरति ॥ १७ ॥ ततेणं ते गंद मणियार पञ्चथिमिल्ले. वणसंडे एग महं तमिच्छियसालं कारावेति, अणेगखंभसयसनिविट्ठ जाव पडिरूव ॥ तत्थणं बहवे विजाय वेजपुत्ताय, जाणुगाय जाणुपुत्साय, कुसलाय कमलपुसाय, दिनभइ भत्तवेयणा बहूणं बाहियाणष गिलाणाणय, रोगियाणय दुबलाणय तेइच्छकम्म करेमाणा विहरति अण्णेय एत्य बहवे पुरिता एतेसिं बहूणं बाहियाणप रोगि गिलाणय दुबलाणय उसह भेसज्ज भत्तपाणेणं पडिचारं करेमाणा विहरंति पुरुषों (रसे इये) अशनादि बनाने के लिये रखे थे. और उसमें से बहुत पण,माण,अतिथि,कृषण व भिखारी को अशनादि देते हुवे विचरसे थे ॥ १७ ॥ नंद मणि आर श्रष्टिने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक चिकित्सा करने की शाला बनवाइ. वह अनेक स्तंभवाली यावत् प्रतिरूप थी. उस में बहुत वैद्य वैद्य पुत्र, ज्ञायक-गंगों के शास्त्र को अध्ययन किय सिवाय जाननेवाले, ज्ञायक पुत्रों, चिकित्सा में कुशल * पुरुषों, व कुशल पुत्रों वतन लेकर रोगी ग्लानि च दुर्बल पुरुषों की चिकित्सा करते हुए विचरते थे. इन सिवा अन्य बहुत पुरुषों रागी, ग्लानि व दुर्वल पुरुषों की सेवा करते हुवे विवरते थे. ॥ १८ ॥ पुष्करणी 480 दमाणियार श्रेष्ट का नरहवा अध्ययन 498 " For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pro ॥ १८ ॥ तंतेण गंदे उत्तरिल्ल वर्णसंडे गए महं अलंकारियसभं कारावेइ अंणग खभसय जाव पडिरूवं ॥ तत्थणं बहवे अलंकीरय मणुस्सा दिनभइमर बहुणं समणाणय, अणाहाणय, रागी. गिलाणाणय दवलाय अलकारियकम्म करमाणा विहरति ॥ १९ ॥ ततेणं गंदा पोक्खरिणीए बहवे सणाहाणय अणाहाणय, पंथियाय,पाइयकरोडिकाय तणाहारा,पत्ताहारा, कट्टाहारा, अप्पगतिया व्हायति, अप्पेगतिया पाणियंपियंति,अप्पेगतिया पाणियं मवहति,अप्पगतिया विसजिय संय-जल्ल-मल्लपरिस्समाणिदखु पिवासा सुहंसुणं विहरति ॥ २० ॥ रायगिहवि जिग्गउवि तत्थ बहुजणो किंते जलरमण विविह मजणकय लीलया घरय कुस्तुम पत्थरय, अणेग से उत्तरदिशा के वनखंड में एक अलंकारशाला (नापित की शाला) स्थापन की थी. उस में बहुत नापित लोगों को वेतन देकर रख थे और वे बहुत श्रमण, मारण, अनाय, रोगी, ग्लानि व दुर्बल का क्षर. करते हुये विचरते थे. ॥ १९ ॥ नंदा पुष्करणी में बहुत सनाथ, अनाथ, पथिक, कावधारी, तृण लेजाना वाले, पत्र व काष्ट उठानाले कितनेक लोगों मान करत थ, कितनेक पानी पीते थे, कितने पानी लक्ष जाते थे, और कितनेक स्वेद, मैल, परिश्रम, निद्रा व पिपासा का त्याग करते हुवे मुख पूर्वक विचरते थे 17॥२० ॥ राजगृह नगर के लोक बाहिर आकर क्या करने में से कहते हैं-जलक्रीडा, विविध प्रकार के अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ..प्रकाशक-गजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजीज्वालाममाद For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ४२७ 446 षष्टांग नारथी का प्रथम श्रतस्कंध सउणिगणरुवारीमयसंकुलेसु सुहसुहणं अभिरममाणा २. विहरंति. ॥ २१ ॥ ततेणं नंदाए पोखरिणीए बहुजणा व्हायमाणाय पियमाणोय; पाणियं च संवहमाणो । य, अन्नमन्नं एवं वासी- धन्नेगं देवाणु पया ! गंद मणियारमेट्ठी कयत्थं जात्र जम्म जीवियफले, जस्मणं इमयारूया गंदा पोक्खारिणी चउकोणा जाव पडिरूवा ॥ जस्सणं पुरथिमिल्ले तंचव मव्वं चउसुवि वणसंड जाव रायगिहणयरावे जिग्गओजत्थ बहु जणो आमणेसुय सरणेतुय मन्नि मन्नोय संतुयट्ठोय, पेच्छमाणोय साहेमाणोय सुहंसुहेणं विहरति ॥ तं धन्ने कपत्थपुन्ने कयाणं लोया सुलदमाणुस्सए नार मंजन दे, लीला करते हुवे अनेक पक्षियों के शब्दवाली पुष्करणी व चारों वनखण्ड में आनंद करने हो विरते थे ॥ २१ ॥ नंदा पुष्करणी में बहुन मनुष्यों स्नान करते. पानी पीते, पनी ले जाने पासर ऐमा बोलने लगे कि नंद पणिभार अंकता है यावत उन का जीवित सफल है. 4 उौने चार कोली यावत् प्रतिरूप यह नंदा पुष्करणी बनव इ है. इस की पूर्व दिशा के वनखण्ड वित्रशाला इनवाइ यावत् वर्ग बहा लोग आसन शयन पर बैठकर संतुष्ठ होते हैं और उसे देखने हुवे यारत गीत गान मनते हुवे सुख पूर्वक विचरते हैं. इस से नंद पणि भार श्रेष्ठ कृतार्थ है यावत् उप 4. नंदमाणवार श्रका बारहवा अध्ययन 42 अ For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ 4.2 अनादर गालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक पनी:+ जम्म जीवियफले दस मणियारस ॥ ततणं रायगिहे सिंघाडग जाव बहुजणी अन्नमन्नस्स एकमाइक्खति ४, धन्नेणं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सोचत्र गमउ जाव सुहसहणं विहरति ॥ २२ ॥ ततेणं से गंदे मणियारे बहुअणस्स अंतिए एयरटुं सोच्च। निसम्म हट्टतट्टे धारहयकयंबकंपिय समुस्मीय रोमकूवे परंसाया सोक्खमणभत्रमाणे विहरति ॥ २३ ॥ ततणं तस्म दस्म मणियार मेट्रिरंस अन्नयाकयाइ सरीरगान सोलसरोयायंका पानभूया तंजहा-सासे, खासे, जरे, दाहे, कुच्छिमूले, भगंदरे, हरिसा, अजीरए, दिट्ठीमुलं, मुहमूले अकारए, अस्थिवे या, का मनुष्य जन्म अच्छा प्राप्त हुआ है. राजगृह नगर के श्रृंगाटा यायत बहुत मनुष्यों भी परस्पर उपयुक्त बात चीत करन लगे ॥ २२ ॥ यह ले गो की प स से एग सुकर मंद मणिभार हृष्ट तुट हुा. उनके रापांच धारा से हणाया हुवा कलंच वृक्ष जमे हे गये, यावत् परम सुख अनुभनना हुवा विचरने लगा ॥ २३ ॥ एकदा नंद मणि भार के शरीर में सोलह प्रकार क राग प्रगट हुए. जिन के नाम-१ श्वास, १२ खासी, ३ ार, ४ दाह, ५ कुक्षिशूल, ६ भगंदर, ७ हरम (मसा), ८ अजीर्ण, १ ने ११० मस्तकशूल, ११ अन्नार अरु च, १२ च की वेदना, १३ कर्ण वेदना, ५४ खुनली, १५ जलोदर, प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखद वमहायजस ज्वालाप्रसादज. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ** Remei batek i कण्णवेयणा, कंड़य, उदरे, कोढे ॥ २४ ॥ ततेणं से गंदे मणियारे सोलमहिं रोयायकेहिं अभिभूएनंगाणे कोडंघिय परिसे सदावेइ, के डबिय पुरिसे सद्दावेइत्ता एवं बयासी गच्छहगं तुब्भे दवाणुप्पिया ! रायगिहे जयरे सिंघाडा जाव महापहेतु महथा २ सद्दणं उग्बानमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देव णपिया ! दरम मणियारस्म सरीणमि सोलस रोयायंका पाउभया, तंजहा सास, जाव कोढे, ते जोणं इच्छांत देवाणु पिया ! विजावा विज पुत्तोत्रा जाणु उवा २ कसलोवा २ दस्म मणियार मेट्रिल ते.सं चग सोलसह रायायंकाणं एगमवि रोयायंक उत्साभित्तए तस्मणंद मगियारे विउल अत्थसंग्याण दलयति तिकटु दाचंपि और १.६ कोढ ॥ २४ ॥ अब नंद मारने सोलह प्रकार के रंगों में पर भा पार कौट माक पुरुषों को वोलाय और कहा. अहो देशानुमिय'! तुप राजगृह नगरी के श्रृंगाटक यात् गजमार्ग में जाओ और बडे २ शब्द मे उदूघपणा करो कि नंदमणिभार श्रेष्ठ के शरीर में सोलह प्रकार के' गंग प्रगट हुए हैं, इस से जो कोई वैध, वैद्य पुत्र, ज्ञायक अथा कुशल पुरुप संलह प्रकार के रोग में से एक भी रेग उपशमाने को चाहता हो उन को मंद मणिपार श्रष्ट बहन धन देखेंगे. इस तरह दो 1/तीनवार उद्घोपणा करो यावत् मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. जनोंने भा वैसा ही किया यात् अज्ञा | bethi नंदमणिपार श्रेष्ठ का ताहमा अध्ययन righ Sh ** For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तचाप छोसेणं घोम्ह जाव पच्चप्पिणह ॥ तेवि तहेव जाव पच्चप्पिणंति ॥ २५ ॥ ततेणं गयगिहे इमेयारूने घोमेणं सोचा निसम्मं बहवे विजाप विजपुत्ताय जात्र कुमलपुत्ताय सत्थकोस हत्थगयाय सिलिया हत्थगयाय गुलियाहत्थगय य उसह भेसज्ज हत्थगयाय सएहि २ गिहेहितो णिक्खमति, गिहहिंतो णिक्खमत्ता रायागहं नगरं मझमझेणं जेणेव णदस्स मणियार सट्रिस्स गिहे तेणे उवागग्छड २त्ता मंदस्स मणियार सरीर पासंति २ तास रोययंकाणं नियाणं पुच्छंतिरत्ता गंदरस मणियारस्म बहूहिं उबटुंगोहिय उवहणेहिय सिणेहपाणहिय, बमणेहिय. विरेयगेहिय सेयणहिय अदहणीहय, अवदण्हाणेहिय, अणुवासहिय वत्थिकम्महिय, निवेहिय, तत्थणाहिय, पत्थणाहिय सिराहिय, तप्पणाहिय पुड पीछी दी ॥ २५ ॥ राजगृह नगर में ऐमी उद्घपणा सुनकर बहुत वैद्य, वैद्यपुत्रों, यानम् कुशलपुत्रों के हाय में कापतप के शस्त्र की थेली, भस्म बनाने के लिय शिलिका, बहुस वस्तुओं की बनाइ हुई गोली, और औषध भैषज्य लेकर अपने २ गृह से नीकलने हुवे गजगृह नगरी की मध्य बीच में होकर नंद मणिभार श्रेट के घर आये. नंद मणिर का शरीर देखा, इन के रोगों का निदान पूछा फोर बहुन उपरपन. 17मर्दन, स्नेहपान ( औषध पान ) वमन, विरेचन, सोद निकालना, दद्दन (डाम) भूनादि निकालन के मनवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमारक ऋषिजी +काशक-राजाबहादुर कालावटवमहायजी ज्वालाप्रमादजी+ For Personal & Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. पडझानाधकथा का प्रथम धनस्कन्ध व पाएहिय, छलीहिय, वल्लीहिय, मूलहिय, कंदहिय, पत्तेहिय, पुप्फहिय, फलेहिय, बीएहिय, सिलियाहिय, गुलियाहिय, ओसहहिय, भेसजेहिय, इच्छंति. तो सोलसण्हं रोयाकाणं एगमवि रोयायंक उवममित्तए ना चवणं संचाएति, उत्सामित्तए ॥ २६ ॥ ततणं बहवे वेज्जाय,जाहे नो मंचाएति,तसिं सोलसण्हं रोगाणं एगमवि रोगायकं उसामित्तए, ताहे संता तंता जाव पडिगया ॥२७॥ ततेणं गंदे तेहिं सोललिये स्नान, अनुवासना, वस्ति कर्म, निरूध, सिरावध, तर्पण, पुटपार्क, छल्ली, बल्लो, मूल, कंद, पत्र, पुष्प,., फल, बीज, सिलिका, गुटिका, औषध व भैषज्य में उप नंद मणिभार अष्टि के मोलह रोगों उपशमाने को चाहा परंतु उन में से एक रोग भी मिटाने को समर्थ हुए नहीं ॥ २६ ॥ जब वे वैद्य या,त् कुशल पुत्रों उन मोलह रोग में से एक भी रोग उपशमाने का समर्थ हुवे नहीं तब वे तप्त व दुःखित होकर पीछे गये. ॥२७॥ अब वह नंदमःणयार उस नंदा पुरुरिणि मूछन व 41. 'नंटमणियार श्रेष्ट का नेचा अध्ययन rity . १ चमयंत्र से अधोद्वार में तैलादिक औषध का प्रक्षेप करना, २ चर्म लपेटने के लिये मस्तकादिक को तेल का मर्दन करमा अथवा अधोद्वार से वायु का प्रक्षेप करना, ३ चर्म के यंत्र से निःकेवल 'द्रव्य अधोद्वार में डालना, ४ नाडी में से रुधिर निकालना, ५ चिकिस्सापाले द्रव्य से मसलाना, ६ कणक को विट कर अग्नि में पकाना, ७ रोहिणी प्रमुख 3 औषधि, ८ घेल.. For Personal & Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेहिं रोयायंकेहिं अभिभूए समाणे गंदाए पुक्खरिणीए मुच्छिते ४ तिरिक्खजोणिएहिं बद्धाए बद्धपए सेए अह दुहट वसट्टे कालमासे कालंकिच्चा,गंदा पं.क्खरिणीए ददुरीए कुत्यिसि दह रत्तए उवरणे ॥२८॥ ततेणं गंद मणियारजीव दद्दरीए गन्माता विणिमक समाण उस्मक बालभावे विण्णाय परिणय मेन्त जोवणुगमणुपत्त नंदाए पोक्खरिणीए अभिरममाणे २ विहरति ।।२९॥ ततेणं गंदाए प.क्खारणीए बहुजणो ण्हायमाणोय, पाणियं पियमागोय,पाणियंच संवहमाणोय, अण्मणस्स एवम इक्खंति ४,धणणं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे जस्सणं इमेयारूपा गंदा पोखरिणी चाउकोणा जाव पडिरूवा ॥ जस्सणं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभ तहेव चत्तारि सभातो गृद्ध बना हुया उक्त रोगों से पराभव पाकर तिर्यंच योनि का आयुष्य बांधकर काल के अबसर में काल कर उस है। नंदा पुष्करणी में मेंडकी की कुल में मेंडक पने उत्पन्न हवा ॥२८॥ अब यह मेंडक गर्भ से मुक्त हुने पोछे वाल्यावस्था में से योवन अवस्था को प्राप्त होकर नंदा पुष्करण में क्रीडा करता हा विचरता था. ॥२२॥ वहां न न करते हुो, पानी पीत हुवे व लेजात हुवे ऐने बहुत लोगों परस्पर एमा कहत थे कि अहो देवानु प्रय! नंदपणियार को धन्य है क्यों कि उसने ऐमी चारकु॥ वाली चारस पुष्करणा 17 बनवाई हैं. इस की पूर्व दिश के बनखंड में अनेक स्तंभवाली चित्र समाव हो चार सभाओं बनाइ है इस 4- अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक iपजा प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रमाद जी For Personal & Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4 ५०३ + नंदमणवार टांगताधर्मकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध जाव जम्मजीषिय फले ॥ ३० ॥ ततेगं तस्स ददुरस्म अभिक्खगं २ बहुजणस्म अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म इमेयारूवे अज्झ त्थए जाव समुप्पजित्था-कहिमन्ने मए इमेयारूचे सद्दे निमंते पुढो तिकट्ट, मुग भींगामेणं जाय जाइमरण "समुप्पन्न, पुवजाति सम्म सम गच्छति ॥ ३१ ॥ ततणं तस्म दहरस्स इमेयारूचे अझास्थिए ५ एवं खलु अहं इहेव रायार्गहणयरे 4.दे गाम मणियार होत्था अड्डे जाव अपरिभूए तेणं कालेणं तणं समएणं रमणे भगवं महाधीरे समासढे, ततेणं मए समणस्स भगओ महावीरस्त आंतेए पंचाणुब्बतियं सतसिक्खावतियं जाव से इन का जीवन फल है. ॥ ३ ॥ उस पुष्ाण रहे हुने पेंड को बहुत लोगों की पास से ऐमा सुनकर एता अध्यवसाय हुवा कि मैंने एरे शक परे सुने हैं. यों काते हुवे शुभ परिणाम से यावत जाति स्परण शन हुवा और अपना पूर्व भव मासेजना ॥३१॥ उस दर्दुर को ऐमा अध्यवसाय में :हुना कि मैं रामगृह नगर में नंदपणिार ऋद्धवंत यावत् अपराभूा था. उम काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर सामी पधार थे, उस समय मैंने अपण भगवन मह वीर स्गमी को पास पांच अनुव्रत व सात शिक्ष'त. यावत् अंगीकार कियेथे तत्पश्चात वहां मुझे साधु का दर्शन नहीं होने से यावत् मिथ्यावर अथ ले-का-तेरहवा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ अमुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक जी पात्रणे ॥ ततेणं अहं अन्नयाकयाइ असाहुदंसणेणय जात्र मिच्छतं विपडिवण्णे ॥ ततेणं अहं अन्नयाकयाइ गिम्हकालसमयंसि जात्र उवसंपजित्ताणं विहरामि एवं जहेब चिंता आपुच्छणं, णंदापुक्खरिणी, वणसंडा; सहातो, तंचेत्र सजाव णंदाए पोक्खरिणीए दद्दुरत्ताए उबवण्गे तं अहोणं अहं अधने अपुण्णे अकयषुण्णेनिग्गंथातो पावणाओ ट्ठे भट्ठे परिभट्ठे ॥ ३२ ॥ तं मेयं खलु ममं सयमेत्र पुत्रपात पंचवाई सतसिखावयाई उप संपजित्ताण विहसितए एवं संपेहेइ २त्ता पाडण्णा-ति पंचान्याई जाव आरुहेइ २त्ता इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिरहति, कप्पति मे जाक अंगीकार किया. एकदा ग्रीष्म ऋतु में अष्टम भक्त तेलाकर के यावत् मैं विचरता था. मैं रात्रि में क्षुधाव पिपासा के परिसर से पराभूत हुवा जिस से एक पुष्करणी बनाने का विचार किया. प्रभान होते श्रेणिक राजाको पुछ कर पुष्करणी बनाइ. उसकी चारों तरफ चार बनखंड बनाये यावत् नंदा पुष्करण में मेंडक प उत्पन्न हुवा हूं अरे मैं अधन्य हूं व पुण्य रहित हू क्यों कि मैं जिन प्राचनसे नष्ट व भ्रष्ट हुआ हूं ||३२|| अब पहले जैसे पांच अनुव्रत यावत् अंगीकार कर विवरना मुझे श्रेय है. ऐन विचार कर पहिले अंकार किये हुवे पांच अनुवर का आराधन करके ऐसा अभिग्रह ग्रहण किया कि मुझे जीवन पर्यव { में For Personal & Private Use Only प्रकाशक राजाबादुर लालासुखदेव सहायजी ज्वाला प्रमादजी ५०४ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr.6 4.११. - पटांड ज्ञाताधर्मकथाका प्रथम श्रूनेस्कंध 4762 ज्जीगर छटुंछट्टेणं अणिक्खित्ते तोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्त विहरित्तए । छगुस्स चियणं पारणगति कप्पति गंदाए पोक्खरिणीए परिपेरत सु फा एवं पहाणोदएणं उम्महणाई लालियाहिय वित्ति कप्पेमाणरस विहरित्तए इमयारूवं अभिगाई अभिागण्हति २ ता जावजीवाए छटुंछट्टेणं जाव विहरति ॥ ३३ ॥ तेणं कालेण तेणं समएण अहं गायमा ! जाव गुणसिलए समोसते, परिसा जिग्गया ॥३४॥ ततेण दाए पाक्खरिणीए बहुजणो अण्णमन्न जाव समण भगवं महावीरं जाव-इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे तं गच्छामोण देवाणुपिया ! समणं भगवं महावीरं वदामो नमसामी, छठ २ के तप से आत्मा को भावते हुरे विचरना मुझे कसता है. और छठ के पारण के दिन नंदा पुष्करणी की चारों तरफ लोगोंने खस किया हुआ फ सुक पानी व उन के शरीर पर स निकाला हुवा मैल लेकर आनीविका करना सता है. इस तरह जायजीव पर्यंत अभिग्रह धारण कर ७४२ के तप कर्म से आत्मा को भावते हुवे विचरन लगा ॥ ३३ ॥ उस काल उस समय में हो गौतम : में राजगृही नगरी में आया, यावत् परिषदा पीठी गई। ३४ ॥ उस समय नंदा पुष्क रणी में बहुत लोगों परसर ऐसा वार्तालाप करने लगे कि यहां गुणशील उद्यान में श्री श्रण भगवन्त है महावीर स्व.गी पध.रे.इए हैं. इस से अहो देवानुमय ! श्री श्रमण भगवंत यहावीर स्वामी को चंदना नद्रमाणधार श्रष्ठा का तरहवा अध्ययन 49. harwanam For Personal & Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल खऋषिजी - जाव पज्जवासामो, तेणं इहभवे परभवे : हिंयाएं जाव अणगामियत्ताए . भविस्सइ ॥ ३५ ॥ ततेणं तस्स ददरस्त बहुजणरस अतिए एयमटुं सांच्चा निमम्म अयमेयारूवे अज्झस्थिए समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीर गुणसिलए चेइए समोसढे, तं गच्छामिणं वदामि णमंसामि ॥ एवं संपेहेति २त्ता गंदाओ पुक्खरिणीतो सणियं मणियं उत्तरइ उत्तरइत्ता जेणव रायमगे तेणव उबागच्छइ २ त्ता ताए उक्किट्ठाए ददुरगतीए बीतीवयमाणे जेणेव मम अंतिए तेणेव पाहारेत्थ गमणाए ॥ ३६ ॥ इमंचण सणिएराया भिंभसारे व्हाए कयको उय जाव सवालंकार विभूतिए नमस्कार करने को चल यावन पर्युपामना करें. यह इस भव व परभा में हित सुख का कती व अनुगामी होगा ॥ ३५ ॥ उम पुष्करणी में रहः हुवा मेंडक को बहुत लोगों के पास मे ऐसी बात सुनकर ऐसा अध्यवसाय हुवा कि श्रमण भगवंत महावीर स्वामी गुणशील उद्यान मे पधारे हुवे हैं इम में मैं उन को वंदना नमस्कार करने को जाऊं, एमा विवार कर पुष्करण में में शनैः २ निकला. फीर वहां से राजमार्ग पर आकर मेंडक की स्कृष्ट गति से चलता हुवा मरी पाम आने को निकला ॥३६॥ इधर श्रेणिक राजा भी स्नान कर कौतुक मंगल कर सर्व अलंकार से विभू पा बनकर हाथी की पीठपर प्रकाशक-गजाबह'दर लाला मुखदव महायजी ज्वालाप्रसादजील બર્થ For Personal & Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थिखंधवरगते सकोरंट मल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं सेयवरच उचामराहि, मझ्या हयगयग्हय भडचडकर चा उरंगिणीए सेणाए सहि सपरिवडे ममपाववंदते हब्वमागच्छइ ॥३७॥ततेणं से दहरे सणियस्त रण्णो एगेणं आसकिसोरेण वामपाएणं अकंते समाणे अंतजिग्घातिए कयावि होत्था ॥३८॥ ततेणं से ददरे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार परक्कमे अधरिणिजमितिकट्टाएगतम कमति २त्ता.करयल परिग्गहियतिख तोसिरसावत्तं मत्थए अंजलिंकदृ एवं वयासी-मोत्थुग अरहताण भगवंताण जा। संपत्ताणं नमोत्थुणं समणस्स भगवआ महावीररस मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउकामरस पुबंप्पियणं मए बैठकर कोरंट वृक्ष के पुष्पों की मालावाला छत्र महित श्वेत वर्णवाले चार चामरों से विनाता हुआ बडे अश्व, गज, रथ । भट चेटक की चतुरंगिनी सेना सहिन परवरा हुवा मुझे वंदना करने को आता था ॥ ३७॥ वह मंड क श्रेणक राजा की अश्व किशोरी के बाये पांच मे दब या हुआ पायल मा और उम. के पट में से आंतरहीयों निकल गई ॥ ३८ ॥ अब वह मेंडक स्थाम, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम रहित होगा जिस से एकांत में गया. वहां दो हाथ जोडकर मस्तक से तीन बार आवर्त किया. ॐऔर, अंजली करके एमा बोला मोक्षको प्राप्त हो गये ऐमे अरिहंत भगत को नमस्कार होवो,मेरे धर्मचार्य यावत् मोक्ष के कापी श्री श्रपण भगवंत महावीर को मेरा मस्कार हो, पहिले भी श्री अमण भगवन्त महावीर 48. षष्टांडवाताधर्मकथा का प्रथम श्रनस्कन्ध 42 442 नंदमणियार श्रष्ट का नेरहवा अध्ययन 42 - For Personal & Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी समणस्स भगवओ. महावीरस्म अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जात्र थूलए परिग्गहे पचक्खाए,तंइयानिवि तस्मेव अंतिए सव्वं पाणातियं पच्चश्वामि जाप सवं परिग्गह पञ्चक्ख मि, जावजीवं सव्वं अमणं पाणं खाइमं साइमं पच्चक्वामि, जावजीवाए.जपियं इमं सरीरं इटुंकत जाव मा फपतु एयंपिणं चरमेहिं ऊमासेहिं वोलिगमि त्तिक॥३८॥ततेणं से दुदुरे कालमासे कालांकच्चा जाव सोहम्म कप्पे ददुरबडिमए विमाण उवाय सभाए दडुरदेवत्ताए उबवणे ॥३९॥ एवं खलु गेया ! ददुरणं देवेणं सा दिबादेवड्डी लहा पत्ता अभिसमण्णागया ॥४०॥ दद्दरस्सण भते ! देवरस केवयतियं कालं ठनी स्वामी की पास से स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था. अब इन की पस जावनीव सब पण तिपात यावत् सब परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं र जा.जीव मब अशन, पान. खादिम व व दिम का प्रत्यख्याम करता हूं. यह जो मेरा शरीर इष्टकारी, कंतकारी, पियकारी यावत् उसको किसी प्रकार की व्याधि मतों वैसा शरीर को भी चश्मि उश्व स श्वान पथन है त्यनता हूं ॥ ३८ ॥ अत्र दर्दूर काल के अवसर में काल करके यावत् सौधदेवलोक में दर्दु वितंसक है विपान में दईर देवरने उत्पन्न हुआ ॥ ३९ ॥ अहो गौतम ! दर्दुर देवने इ · तरह यह दीव्य दव ऋद्ध प्राप्त की है ॥ ४० ॥ अहो भगवन् ! द१र देव की कितनी स्थिति कही है ? अहो गौतम ! दर्दुर काशगजाबहादर लाला मखदेवमहायजी ज्याप्रमा For Personal & Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ எ7 + षष्टांड़ ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम सन् पन्नता ? गोयमा ! चारि पलिओमाति ट्ठई पण्णत्ता ॥ ४१ ॥ सेणं ददुग्देवे महाविदेहेवासे सिज्झिहिति बज्झति जान अंत करेहिति ॥ ४२ ॥ एवं खलु जैब ! समगणं भगवया महावीरेण जाव संपतेणं तेरसमस्म णायज्झयणस्स अपमट्टे पणते, तिथे मे ॥ १३ ॥ गाथा-पण गण विजओ, सुमाहु संसग्ग वजिनो; पयं पावइ गुण परिहाणि ददुरज मणियार || १ | अथवा तित्थयर वदत्थं चलिओ भावण पाएलगं ॥ जह दर देणं, पत्तं वेमाणिय सुरतं ॥ २ ॥ तेरसमं णायझवणं सम्मतं ॥ १३ ॥ * # ** देव की चार पल्योपन की स्थिति कही है ॥ ४१ ॥ यह दर देव महाविदेह क्षेत्र में संझेंगे, बुझेंगे यावत् दुःखों का अंत करेंगे ॥ ४२ ॥ अजस्त्र ! श्री भगवन् महावीर स्वामीने ज्ञता सूत्र के तेरह अध्ययन का यह अर्थ कहा है !! १३ ॥ उपसंहार-द मणियार जैन मेंडक में उत्पन्न हुआ वैसे ही संपूर्ण गुणवाले जीवों साधु की मंगने से गुत्र से हीन होते हैं ॥ १ ॥ भव मे तीर्थंकर को ? वंदन करने के लिये निकला हुआ जीवा होस करता है, जैसे दर्दर देवेशनिक त किया ॥ २ ॥ यह तेरा अध्ययन संपूर्ण ॥ ॥ १२ ॥ ० For Personal & Private Use Only मणियार श्रेष्टका तेरहवा अध्ययन ० ५०१ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamed स ॥ चतुर्दश अध्ययनम् ॥ जइणं भते ! समजेणं भगवथा महावीरणं जाव संपत्तण तेरसमस णायज्झयस्त अयमद्धे १०णसे चउद्दममस्सणं भंते ! णायज्झयणस्म समणे भगवया महावीरेणं जाव संपत्तण के अटू पन्नत्तं ? ॥ १॥ एवं खल जंब ! तणं कालेण तेणं समएणं तयलिपुर णाम जयरे हात्या ।। तस्तणं तयाल पुरस्स बहिया उत्तर पुरिच्छिम दिसी भाए एस्थणं पमयवणे णाम उजाणे हात्था ॥ तत्थणं तेलीपुरे जयरे कणगरहे णामं राया होत्था ॥ तस्मण रणां पउमावई णाम देवी होत्था ॥ तस्सणं कणगरहस्स रण्णो तयलीपुत्ते णामं अमच्च होत्था; साम दाम भेद दंड ॥ २ ॥ तत्थणं तयलीपुरे कालाद णामं मूसियादारए होत्था, अवजाव अपरिभूए ॥ तस्सणं भद्दाणामं ___ अहो भगवन् ! श्र श्रमण भगवन्त महावीर स्वामीने ज्ञाता मूत्र के तेरहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो चउदहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥ १ ॥ उम काल उस समय में तंतलीपुर नाम का नगर था. उस की वाहिर ईशान कून में प्रपदबन नाम वा उद्यान था. उस में कनकरथ राजा राज्य करता था. उस को पद्मावती देवी थी. कनकरथ गनाको तेतली पुत्र नामक आमात्य था वह साम दाम दंड 18व भद में निपुण था ॥ २ ॥ उस तेतलीपुर नगर कालादे नामक सोनारका पुत्र रहता था, वह ऋद्धिवंता अनुनादक-बालब्रह्मवारीमुनी श्री अमोलक ऋषी .प्रकाशक राजाबहादालाला अम्बदवमहायजी वालापमादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 28 962 षष्टांडवाताधर्मव.था का प्रथम श्रतस्कन्ध भारिया होत्था ॥ तरसणं कलायस्म मूसियारदारयस्स धूया भदाए अत्तया पोटिला णाम दारिया होत्था || रूवेणय जोवणणय उक्किट्ठा उक्किट्ठ सरीरा ॥ ३ ॥ तएणं पोर्टिला दारिया अगयाकय इ हाया मब्बालंकार विभसिया चंडिया चक्रवाल सद्धिं संपरिवडा उपिंपपाम्यवरगया गाम्तलगसि कणगमएणं तिंदूमएणं कीलमाणी विहग्इ ॥ ४ ॥ इमं चणं तयलीपुत्ते अमच्चे हाए आम खंधवरगए महया भडचेडगरह आसवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारस्स गिहस्स अदूर सामंतणं बीईबयइ तएणं तेयालपुत्ते मसियार दारगरस गिहस्स अदूरमामतणं वाईवयमाणे पोटिलं दारियं उपि आगासतलंगसि कणगमएणं तिंदू यावत् अपगभून था. उस को भद्रा नामक भी थी. उस कलाद मोनार की पुत्री व भद्रा भार्या की आस्पना पट्टिला नाव की कन्या थी. रूप व यौवन से उत्कृष्ट व उत्कृष्ट शरीरवाली थी ॥३॥ एकदा पहिला पुत्री स्नान कर सर्व अलंकर से विभूहिक बनकर चेटिकायों के परिवार सहित अग्ने पामाद पर रही हुई चांदनी में सुवर्णमय मेंद से क्रीडा करती हुई विचरती थी ॥ ४ ॥ इधर सेनली पुत्र आमात्य स्नान कर अश्वारूढ होकर बडे २ भट चेट व घड स्वारों की साथ कलाद सुवर्णकार के गृह की पास जा रहा था. इतने में उसने पोट्टिला कन्या को प्रासाद की चांदनी में मुवर्णमय-गेंद से क्रीडा.करती हुई। ततली पुत्र का चउदहवा अध्ययन : For Personal & Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww नबारकबहानाचा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी सएणं कालमाणि पासइ २ त्ता, पोटिलाए दारियाए रूवेणय ३ जाब अझोवबन्ने कोटुबिय पुरिसे सद्दावेति २ त्ता एवं वयासी रमणं देवाणुप्पिया ! कस्स दारिया किं गामधेनावा ? ॥ ततेणं कोटुबियपुरिसे तेयलीपुत्तं एवं वयासी-एणं ५१३ सामी ! कलायस्त मूसियाररस धूया भदाए अत्तया पोटिला णामं दारिया रूवणं जाव सरीरा ॥ ५ ॥ ततेणं से तेयलीपुत्ते आमवाहणियाओ पडिणियत्ते समाणे अभितर ठाणिजे पुरिसे सदावेइ २ ता एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया । कलाय मूसियारस्त धयं भदाए अतयं पोटैलं दारियं मम भारियताए वरेह ॥ देखी. उसे देखकर वह उस कन्या के रूप में . मोहिन हो गया और अपने कौटुम्पिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा कहा ओ देवानुधिय! यह किस की कन्या है और इम का नाम क्या है ? तब कौटुम्बक तेती पुत्र को एनेवले अहा सामिन ! यह कल द सुवर्णकार की पुत्री व भद्रा भार्या श्री पासना पहिला नाम की कन्या है ॥ ५ ॥ अश्व क्रीडा करके अपने स्थान आये पीछे तेतली पत्रो गत कार्य करनेवाले पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानप्रिय ! कलाद सुवर्णकर की। त्री व भद्रा भार्या को आतदा पोट्टला नामक कन्या मेरी साथ विवाह करे वैसा करो. तब वे गुप्ता प्रकाशक-राजाबहादूर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादिजे. For Personal & Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 428 ततेणं ते अभितरठाणिज्जा पुरिता तेयलिणा एवं बुत्ता समाणा हट्ठ, तुट्ठा करयल तहत्ति जेणेव कलायम मूसियारगहे तंगेव उवागया ॥ ६ ॥ ततेणं से कलाए मुसिया तेयलिपुत्तपुरिसे एजमाणे पासइ २ ता हट्ठ तुट्ठा आसणाओ अब्भूतुइ२ चा सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइ २त्ता आसणणं उवणिमंतेइ २ त्ता आसरथे वितत्थे मुहासणवरगते अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे एवं क्यासी-संदिसहणं देवाणुप्पिया! किमागमणं पओयणं ॥ ततेणं ते अभितरढाणिज्जा पुरिसा कलायंमूसियं एवं क्या पी-अम्हेणं देवाणुंगिया तवधूयं भहाए अत्तयं पाहिलं दारियं तेयलियुत्तस्स अमच्चस्स भयित्ताए कार्य करनेवाले लोगों तेतली पुत्र की पास से एमा सुनकर हृष्ट तुष्ट हुए और हाय जेडकर बोले । आप का वचन तथ्य है. ऐमा करके कलाद सुर्णकार के वहां गये ॥६॥ कलाद सुवर्णकार तेतली पुत्र के पुरुषों को आत हुए देखकर हृष्ट तष्ट हुवा. अपने आसन से उठकर सात आठ पांव मामने ग और आसन को निमंत्रणा की. फीर आश्वस्थ विश्वस्थ होकर सुखासन पर बैठे पीछे कलाद सुवर्णकार बोला, अहो देवानुप्रिय ! बाप का यहां आने का क्या प्रयोजन है सा कहो. तब वे लेगों उनमें एना बोलने लगे कि अहो दानु प्रिय ! हम तुम्हारी पुत्रा व भद्रा भार्या की पात्मजा पोटिला नामक # तेतला पत्र का चउदहवा अध्ययन - । For Personal & Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरेमो, तं जइणं जाणासि देवाणुपिया ! जुत्तंबा पत्तंवा सलाहणि अंबा सरिसोवा संजागोवा ता दिजउणं पोटिला दारिया तेयलीपुत्तस्स ता भण देवाणुप्पिया ! किं दलामो सुक्कं ॥ तएणं कलाएसु मूसियार दारए ते अभितरटाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी एसचेव देवाणुप्पिया ! मम के जण तेयलीपत्ते मम दारिया णिमित्तेणं अणुग्गहं करिंति, ते अभितरटाणिज्जे पुरिसे विउलं असणं पण खाइमं साइमं पुप्फ वत्थ जाव मल्लालंकारेणं सक्क रेइ सम्माणेइ पडीवसज्जेइ ॥ ७ ॥ तएणं ते अब्तिरदाणिज्जा पुरिसा कलायस्स मूसियारदाररस गिहाओ पडिणिक्खमइ जेणेव तयर्ल.पुते अमञ्च कन्या को तेतली पुत्र आमात्य की साथ विवाह संबंध कराने को आय हैं. अहो देवानुपिया तुम को योग्य, लगे, प्रीती होवे, इम में तुमारी श्लागा होवे अथवा ममान : य ग होवे ऐसा तुम याद जानते हो तो तुम्हारी कन्या नंतली पुत्र आमात्य के दो. अहो देवानुप्रिय ! तुम को क्या शक्ल [ द्रव्य दे मो भी कहो. नर वह कलाद सुवर्णकार बला कि अहवानुप्रिय ! मेनी पुत्री के निमित्त से तेतली पुत्र आमात्य मेरेपर जो अनुग्रह करत हैं वही परा शुक्ल है. यों कहकर उन पुरुषों को पिपुल अशन, पार, खादिम म नादिप, पुष्प, वस्त्र. यावत् माला अलंकार से सरकार सन्मान देकर विसर्जित किये ॥७॥ 17 अब वे पुरुषों कलाद सुर्ण कार के वहां से नीकल कर तेतली पुत्र आमात्य की पास आये और उन को 'दक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिना - कराजाबहादूर लाला सुखदवस हायजा ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सूत्र ज्ञातावकथा का प्रथम श्रुतराव तेणेव उवागच्छइ २ ता तेयला पुत्तं अमच्चं एंयम निवेदेति॥८॥ततेणं कलाएमसिए अन्नयाकयाइ सोहणनिहिकरणणखत्तमुहुत्तसि पाहिलं दारियं ण्ह यं सव्वालकार विभूसियं सीयं दुरुहइ २त्ता मित्तणाति सद्धिं सपरिवड साता गिहातो पडिणिवखमति २त्ता सब्बड्डीए जाव रवेणं तेयलिपुरं मज्झमज्झण जेणेव तेयलिस्स गिहे तेणव उवागच्छइ २त्ता पाटिल दारियं तेयालिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयति ॥ ९ ॥ ततेणं तेयली पुत्त पाहिलं दारियं भरियत्ताए उवणिय पामति २ सा हट्ठ तुटे,पोटिलाए सद्धिं पट्टयं दुरुहइ २त्ता सेयापीएहिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेति २, अग्गिहामं कारति पाणिग्रहणं करति # इस बात का निवेदन किया. ॥ ८ ॥ एकदा कलाद सुपर्णकार सुप तिथि, मुहूर्न, करण, व नक्षत्र में पाहिला पुत्री को सान कराके यावत् मर्च आलंकार से विभूषित बनाकर शिविका पर बैठाकर भित्र ज्ञाति स्वजन संबंधि नन की माथ पर बराहा अपने गृह से नीकला. और सब ऋद्ध सहित तेतली. पुर नगर की बीच में होता हुआ तेतली आमात्य के ग्रह आया. और उसने वहां अपनी पुत्री ततकी पुत्र आमात्य को उन की भार्य के लिये दी, ॥ ९ ॥ पाली कन्या को आई हुई देख कर ततली पुत्र आपात्य । हृष्ट तुष्ट हुना. पोट्टिनकी साथ प.ट पर बैठ कर श्वेन कलाशों से स्नान करके अग्निहोत्र कराया. फीर तलोपुष का च उदामा अध्ययन High अर्थ 6. पष्ट - For Personal & Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ८० अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - . २त्ता, महिलाए भारियाए मित्तणाति जाव परिजण विउलणं असणं पाणणं खाइमणं साइमेण पुप्फ वत्थ जाव पडविसजेति ॥ १० ॥ तते गं से तेयलि पुत्ते पोटिलाए भारियाए अणरत्त अविरत्ते उरालाइ भोगभोगाइं जाव विहरांत ॥११॥ ततेणं स कणगाहेगया,रजेय,रट्रय,बलय,वाहणेय, कोमेय कोट्ठागारेय. अंते उरेय मच्छित्ते । जाए ३ पुते वियगति अप्पेगतियाणं हत्थंगु लयाई छिंदति, अपंगतिय णं हत्थंगुट्ठए छिंदति, एवं पायंगुलियाए, पायंगुट्ठएवि, कन्नसंकुलीओवि, नसापुडाति .फालति एवं अगाइमंगाइ वियगेति ॥ १२ ॥ तएणं तीसे पउमावतीए दवीए अन्नया उस का पाणिग्रहण करके उन के मित्र ज्ञाती स्वजन संधि को विपुल अशन पान खादिम स्मादिभ, पुष्प, वस्त्र वगैरह से सत्कार सन्मान देकर विसर्जित किये.॥१०॥अब वह तेली पुत्र उस पाहिला भार्था में अनुरक्त, अविरक्त व उदार होकर विचाने लगा ॥ ११ ॥ कनकरथ राना राज्य, राष्ट्र. बल, वाहन, कष्ट गार व अंत:पुर में गृद्ध. मूच्छित व तन्मय बनने से जो कोई पुत्र होवे उस में से कितनेक के हाथी में की अंगुलियों का छेदन कर, कितनक के पांच की अंगुलियों का छदन करे, कितनेक के हाथ के अंगुठ का छेदन करे, कितनेक के पांच का अंगुठे का छेदन करे, कर्ण की संकली का छदन करे, कितनेक के नातिका-क पुट चाटा कर देवे यो अंगोपांग हीन करे जिस से वह राज्य के लिय योग्य होवे नई ॥१२॥ प्रकाशक-राजाबहादुर माला सुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादजा 1 For Personal & Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयाई पुत्र रचावरत्त कालसमयंसि अयमेयारो अझ थिए चिंति९ मणोंगए संकप्पे समुप्पजित्था--एवं खलु कणगरहे राया रजेय जाव पुत्ते वियंगे ॥ तं जतिणं अहं दारगं पयाय नि त सेयं बल मम तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेत्र संरक्खमाणीते संगोत्रमाणीए बिहरित्तर, तिकटु, एवं संपेहेतिरत्ता तेयलि पुत्त अमचं सहावेति सहावेत्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रजेय जाव वियंगेह, तं जतिणं अहं देवाणप्पिया ! दारगं पयायामि, ततेणं तुम कणगरहस्स रहस्सिय तंत्र मणुपुठवणं संरक्समाणे संगोवमाणे संबडेहि ॥ एकदा पापती रागी को पूर्व रात्रि में ऐसा विचार का किनारप राजा राग्य पावत् कोहगार में मलित होने से जो कोई पुजवा सको यावत् अंगोपांग से हीन करता है. इस से जो कोई पुत्र हो तो कनकरय राजा से गुप्त रखकर उस का रक्षण करना मुं श्रेय . ऐसा विचार । र सीपुर समास्य को बुलाया और कहा, महो देवानुप्रय! कनकरय राजा पावत् पुत्रों को गोपग से न SHIT. इससे ओ देवानुपिय! मुझे जो कोई पुत्र होवे उस को कनकरय है। 1रमा में गुब रमा वेगम करना. असहाय बाल मासे पुक होकर गौवन अस्व. को ++ पहनानायकथा का प्रयम धुमन्य 42 48N सलीपुत्र का दावा अध्ययन 1 For Personal & Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ ततेणं से दारए उम्मु कबालभावे जाव जोवणगमणुपत्ते तव मम भिक्खाभायणे भविस्मइ ततेणं से तेयलि पुत्ते पठमावतीए एयमटुं पडिसुणति २. त्ता, जामवदिसिं पाउ. भूए तामेवादसिं पडिगए ॥.१३ ॥ ततेणं पउमावती देवी पोटिलाय अमच्ची सममेवगम्भ परिवहात सममेवगन्भं परिवति ॥ १४ ॥ ततेणं सा पउमावती णवण्हं मासाणं जाब पियदसणं सुरूवं दारय पयाया ॥ १५॥ जंच रयणिचणं पउमावतीदेवी । दारयं पयाया तं रयणिचणं पोटिलावि अमच्ची गवण्हणं मालाणं विणिहायमावणं दारियं पयाया ॥ १५ ॥ ततेणं. सा पउमावती अम्मधाई सद्दावेति २ त्ता एवं प्राप्त होगा तब वह अपना भिक्षा का भाजन (अपना निर्वाह करनेवाला) होगा. तेतलीपुत्र पद्मावती में देवी की इस बात को सुनकर अपने स्थान पीछा गया ॥ १३ ॥ अब पद्मावती. राणी व आमात्य खो पोट्टियां दोनोंने माथ गर्भ धारण किया और साथ है। उस गर्भ को वहन करने लगे ॥ १४ ॥ सवानव मास परिपूर्ण हुए तब पनावती देवी को प्रिय व सुरूप पुत्र का जन्म हुवा ॥ १५ ॥ जिस रात्रि में पावती देवी को पुत्र का जन्म हुवा उम रात्रि में पोटिला को नव मास परिपूर्ण होकर मृत 17 पुत्री का जन्म हुवा ॥ १५ ॥ जब पद्मावती को पुत्र का जन्म हुना तब उसने अम्माघात्री को पोलाइका मनुवादक-चालनमचारी मुनि श्री बमोळक ऋषिजी प्रकशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजाज्वालाममादजा Jan Education Interational For Personal & Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 45 वयासी-गच्छदणं तुमं अम्मो! तेयालपुत्त रहस्सियं चेव सद्दावेहि ॥१६॥ ततेणं साअम्म धाती तहत्ति एयमटुं पडिमुणोत्त २ त्ता अंबेउरस्स अवहारेणं णिग्गच्छति जेणेव तैयालिपुतस्स गिहि जेणव तेयालपुत्ते तेणेव उवागच्छइ २ ता करयलं जाव एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पउमावती सदावेति ॥ १७ ॥ ततणं तेयालपुत्त अम्मधाईए अंतिए एयमढे सोच्चाणिसम्म हट्ट तुट्ट अम्मधातीए सई सातो गिहातो णिगच्छति २ त्ता अतेउरस्म अवदारेण रहस्सिय चेव अणुपत्रिसति जगेव पउमावती देवी तेणेव उवागच्छई २ त्ता करयल एवं वयासी-संदि हणं देवाणुप्पिए ! जं मए काय ॥ १८ ॥ ततेणं पउमावती तेयलिपुत्तं एवं वयासी-एव खलु कणगरहे और कहा अम्मा ! तुम तेतली पुत्र अमात्य को गुप्त रीति मे बोलाने को जावो ॥ १६ ॥ अम्माधात्री इस बात को मुनकर अंतःपुर के छोट द्वार से नीकलकर तेतली पुत्र के गृह आई और ततली पुत्र की पास जाकर हाथ जोडकर बोलने लगी कि आपको पद्मावती राणी पोलात हैं ॥१७॥ अम्मा धात्री की । पाप से ऐसा सुनकर तेनली पुत्र इष्ट तुष्ट हुचा और उस की साथ अपने गृह से नीकलं हर अंत:पुर के 2 छोटे द्वार से गुप्तपमे प्रवेश किया और जहां पद्मावती-राणी थी वह अाया. उसने हाथ जोडकर कहा, के अहो देवानुप्रिये ! मुझे जो करने - योग्य हो सो बनलायो । १८ ॥ तब पावती देवी सेतली ।' तेती पुत्र का नउदहवा अध्ययन 4.88 4 For Personal & Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपीजी + पासनाचारी मुनि श्री मोलकर + गला जाब वियंगेत, अहं च देवाणुपिया ! दारगं पयाया तं तुम देवाणुपिया! एवं पारगं गिहादि जाव तवममाभवाभायणे भारिस्मा चिकटु, तय लपुतस्म हत्थे दलयत ॥ १९ ॥ ततेगं च तेयलिपुत्ते पउमावतीए हत्यातो दारगं गिण्हति । । उनरिजर्ण पिंहति ता अउरस्म रहस्तिषषं अवहारेणं जिग्गच्छति । त्ता जेणेव सए गिहे जगव पोटिला भारिया तेणेव उवागत २ ला पोहिलं एवं वयानी-एवं खलु देवाणुपिया ! कणगरहराया रजेय जाव बियंगेति, अयं वर्ण दगए कणगर हस्स पुत्तेय पउमावतीए दीए अत्तए तंण्णं तुमे देवाणुप्पिए । इमं दारगं कणा. रहस्त रहस्सिययं चंब अणुपुत्रेणं संरक्वाहिय संगोवाहिय सबड्डेहिय ॥ ततेणं पुत्र को ऐसा बोली कि कनकाय राजा यावत् अंगोपांग का छेदन करता है और मुझे पुत्र का जन्म 1 हुवा है। इस से पहोवानुप्रिय! तुम इस पग को ले जावो. या तुषको व मझे अधारभूत होगा.. काकर उस बालक को तेतली पुत्र केय दिया ॥ ११ ॥ पचासती गणी की पास स पुत्र में १पुत्रने अपरे उत्सर्गय समेलिया और अंत:पा के छांटद्वार में निकल 6अपने भाया. और अपनी व पोहिला स ऐसा कहने लगा कि अहो दबानु प्रिय ! कनकरय राजा पात्र उनके पुत्रों को भंगारंग से हीन करता है. पाकनकरथ रामा का पुष व पावती देवी का आत्मन ...कायकाजावरादुर लालासुखदवसहायणी चाला प्रमादज:० For Personal & Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र का प्रथम श्रनस्कंध कल षटङ्ग तार्मको एस दारगे उम्मुकचा भावे तत्रय ममय परमावतीएय आहारे भविस्सति चिकटु, पहलाए पास क्खिनि २ ता, पहिलाए पास ओ तं विनिहाय मात्रणियं दारियं गिण्हति गिव्हइत्ता उत्तारणं विहेति २ चा अंतंउरस्स अवधारणं अनुष्पविस्वति २ ताजे पउमाबाई देवी तेणेव उवागच्छति २त्ता पउमावतीए देवीए पात २ ता जाव पडिनिगगते ॥ २० ॥ ततंणं तीसे पउमावतीए अंग पडियारियातो पातं देवि त्रिणिद्दाय मात्रणियं च दारियं पासति २ ता जेणेव गगरहेराया तेणेव उवागच्छइ २ चा करयलं जात्र एवं बयासी- एवं खलु सामी ! इन से उन की गुप्त रोति में क्षा करते हुवे वृद्धि करना. जब वह पुत्र यौवनावस्था को प्राप्त होगा यह तुन को, मुझ पतीको अधभू होगा. यों कहकर उसे पाहिला की पान रखा और पं. हे की पास समृपुत्री लेकर उस अपने उत्तरीय सडककर अंतर के छठे द्वार से पझाती देवी की पास आया और उसे पद्मा देवी की पान रखकर यावत् अपने स्थान गया ॥ २० ॥ पद्मवती देवी की अंग परिचारिका दयाको मृतपुत्री का प्रतत्र हुआ। देखकर कथा की पास गई और हाथ जोडकर बोलने लगी महामित्र ! पद्मावती देवी को मृत्री For Personal & Private Use Only * तेती का चउदावा अध्ययन ५२१ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ काशक-राजाबहादुर पउमावतीए मलंय दारियं पयाया ॥ २१ ॥ तएणं कणगरहे राया तीसे मल्लियाए दारियाए णीहरणं करेंति, बहूइ लोइयाई मय किच्चाई करेइ २ त्ता कालणं विगयसे ए जाया ॥३२॥ ततेणं से तयलि पुत्ते कल्लं कोडुबिय पुरिसे सहावेइ २ त्ता-एवं वयासीखिप्पामव चारगसालाए सहणं करह जाव ठिईवडिया,जम्हाणं अम्हे एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होऊण दारए णामेणं कणगज्झए, जाव अलं भोगसमत्थेजाए॥२३॥ ततेणं सा पोटिला अण्णयाकयाई तेयलिपुत्तस्स. अणिट्ठा ५ जायायावि होत्था ॥ [B का प्रमय हुवा है ॥ २१ ॥ कनकरथ राजाने उप मृन पुत्री का निहारण किया. और बहुत लौकिक न्यु कर्म करके बहुत काल पीछे शोक रहित हुए ॥ २२ ॥ अब तेतली पुत्रने प्रभात होते कौटुम्पिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा कहा अहो दबानुपिय ! चारक शाला (जलखाना ) शुद्ध करो अर्थात् उन में से केदीयों को छोडदों. यारत् जैसे राजपुत्र का जन्मोत्सव होता है वैसे करो यावत् नाम स्थापना करो. हम को यह पुत्र कनकरथ राजा के राज्य में हुवा है इस लिये इम का नाम कनकध्वज रखो. सब प्रकार से पालन पोषण कर पांच धात्रियों से ड किया, पुरुष की ७२ कला का व राजनीति का अभ्यास कराया यावत् यौवन अवस्था को प्राप्त ह.ते भोग भोगने समर्थ हुवा ॥ २३ ॥ कितनेक सय पीछ एकदा नेतली पुत्र को पाहि या किसी कारण से आनेष्ट व अप्रिय होगई जिस से उस का नाम ग.त्र। अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी + For Personal & Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18+ + + षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध णेच्छतिणं तेयाल पुत्त पोटिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुणदरिसणंवा परिभोगं वा ॥ २४ ॥ ततेणं तीमे पोटिलाए अण्णयाकयाई पुनवरत्तावरत्त काल समयंस इमेय रूबे अज्झथिए जाव समुप.जित्या एवं खलु अहं तेयलिस्स पुन्धिइट्ठा ५, आसी; इयाणिं. अणिट्ठा ५, जाया; जाव णेच्छइ तेयालिपुत्ते मम जाव परिभोगंवा उहय मणसंकप्पा जाव झियायति. ॥ २५ ॥ ततेणं तेयलिपुत्ते पोटिलं उहयमणसकप्प जाव झियायमाणं पासति २ ता एवं वयासी- माणं तुमं देवाणुप्पिए! उहयमणं संकप्पे तुमणं मम महाणसंमि विउलं असणं ४ उवक्खडावेहि मुनने का भी वह नहीं चाहना था तो उस को देखने का व उस की साथ भोग भोगने का तो कहां से हो ॥ २४ ॥ एकदा पोहिला को पूर्व गत्रि ऐसा अध्यवसाय हुवा कि में तेतली पुत्र को पहिले इष्टकारी, कंतकारी, प्रियकारी, मनामकार व मन इ थी आ भनिष्ट यावत् अमनोज ढूं, मेरा नाम गोत्र भी श्रमण करना बह नहीं चाहता है तो देखन की व भोग की इच्छा करना कहां रहा. इस प्रकार मन का मनोरथ नष्ट होने से यावत् आर्त ध्यान करती हुई रहती थी ॥ २५ ॥ इस तरह पोटिला को मात यान करती हुई देखकर सेतली पुत्र कहने लगा कि महो देवानुप्रिये ! तू आर्त ध्यान मत कर. तू मेरी तली पुत्र का चउदहा अध्ययन 41 + For Personal & Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48-सवारीनि श्रा अमोलक ऋषिजी + बहुणं समणमाहण जाय वणी मगाणं दीयमाणाय देवावेमाणीय विहरह त्रिउलं तेणं ॥ २६ ॥ ततेणं पहिला तेयलिपुत्तस्न अमचे एवं बुता समाणी हट्टु तेथलि पुत्तस्स एयमहं पडिमुति २ शा कज्ञः कलिं महाण संसि अनणं ४ आय देयमाणी देशत्रेमाणीय विहरति ॥ २६ ॥ क.ले गं तेगं समएणं सुनयाओ णामं अजिआओ इरिया समियातो जाव गुत्तबंभचारिणीतो बहुत्नुयाओ बहू परिवारातो पुत्रःणुपुवि चरमाणे जेणेत्र तेयलि पुरे जयरे तंत्र उपागच्छ २ चा अहापडिरूवं उग्गहूं उगिव्हइ २ चा संजमेणं भोजनशाला में विपुल अनादि बन कर पण ब्रह्मण यावत् भिक्खारी को देती हुई व अन्य से दिलाती हुई रहे. ती पुत्र पास मे ऐसी सूनकर बढे पाहि इष्ट तष्ट हुई और उन के वचन का स्वीकार किया. यवत् प्रतिदिन भंजनशला में विपुल अशनादि बनाकर श्रमण ब्रह्मण यावत् भिक्ख को अशना दे दी हुई व अन्य मे दलानी हुई विचरने लगी ॥ २६ ॥ आयी इसी ख ेत बहु 'व ग्रामानुग्राम विचरतो तेसलीपुर नगर में आई, और वहा ययम तरूप For Personal & Private Use Only उन काल उस ममय में सुना परिवार बाली पुर्वानुपूर्व चलती अवग्रह याचकर संयम व तप से ● प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी उदाराममाद ५२४ ( Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ 4+ज्ञः तःधर्मकथा का प्रथम श्र तवसा अणं भावे माणीओ विहरति ॥ २७ ॥ ततेणं तासि सुव्त्रयाणं अज्ञाणं एगे संघ ए मा परिसीए सज्झायं करेइ २ता जात्र अडमाणीओ तयलिस्म गेहं अणु - ति ॥ २८ ॥ ततेणं सा पहिला ताओ अजाओ एजमाणीओ पापात २त्ता हट्ठ डा अमणात! अब्भुट्ठेति २ ता बंद २ चा, त्रिपुलं असणं ४ पाडलाभ पडिला मित्ता एवं त्रयामी - एवं खलु अह अज.अ.! तेयलिपुत्तस्स अमञ्चस्स पुर्देव इट्ठा५ आसि; इयणिं अणिट्ठा५, जात्र दंसणंवा परिभागा ॥ तं तुम्मेण अज्जाओ ! बहु बहुसिक्खियाओ बहुडियाओ तुम्मे बहूनि गामागर जावं आहिंडेड बहु आत्माको भती हुई विचरने लगी ||२७|| उस सुत्र । भार्या का एक संघाने प्रथम प्रहर में साध्याय शहर में नव तीसरे प्रहर में गौचरी के लिय परिभ्रमण करते हुए तेसलीके गृह में प्रवेश किया ||२८|| उन अर्या को आते हुये देखकर पोहित्रा इष्ट तुष्ट हुई. अपने त्रिपुत्र अशनादि देकर ऐसा बोलने लगी अहो इष्ट थी. अब मैं अनिष्ट होगई हूं जिस में मुझे देखना व मेरी आमनसे उठकर वंदना नमस्कार किया. आओ! पाहजे में की पुत्र का साथ भोग मंगना भी नहीं चाहत: है. } अहो वार्याओ ! तु बहुत पढी हुई व पंडिता हो, तुमने बहुत ग्राम यावत् परिभ्रमण किया होगा, और For Personal & Private Use Only तेलीपुत्र का चउदावा अध्ययन ५२५ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-लबमचारीमान श्री अमोल ऋषिजी 8. राइसर जाव गिहाइ अणुप्पविसह तं, अत्थिया इमे अजाओ ! केइ कहिंवि चुण्ण जोएवा मंतजोएवा कम्मण जोएवा, कम्म ओएवा,हियउड्ढाएणेवा काय उड्डायणेवा आभिओ गिवावसीकरणेवा कोउकम्मेवा भूइकम्मेवा कंदे-मूले-छल्ली-वल्ली-सिलियावा गुलियावा ओसहेबा भेसज्जवा उबलद्धपुव्वे जणाहं तेपालपुन्तरस अमच्चस्म पुणरवि इट्टा ५ भवेज्जामि ॥ २९ ॥ तएणं ताओ अजाओ पोहिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दोवि कण्णेठाएति २ पोटिलं एवं वयासी-अम्हेणं देवाणुप्पिया! समगीतो णिग्गंथीओ जाव गुत्तबंभचारिणीतो नो खलु कप्पति अम्हं एयप्पयारं कन्नेहिं विणिसामिबहुत राजेश्वर वगैरह के गृहों में प्रवेश किया होगा, इस से अहो आर्याओ ! ऐसा कोइ चूर्णयोग, मंत्रयोग कामणयोग, कर्मयोग हृदय भाकर्षण करने का, काया आकर्षण करने का, योग, अन्य को पराभव करने का, वशीकरण, कोतुक कर्म, भुतिकर्म, कंद, मूल, छल्ल, बल्ली, मिलिया, गुटिका, औषध, या मेषज्य हो कि जिम मे में पुन:तेतली पुत्र अमात्य को पहिले से इष्ट होऊं. ॥ २९ ॥ पोट्टिला का कथन सनकर उन आर्याओने अपने दोनों कान में अंगुली रखकर पोहिला को ऐमा कहा अहो पानुप्रियाहम श्रमण निर्गन्थीतियो हैं यावत् मुख ममचारीणियों हैं. हमको ऐसी बात कान से श्रवण करना भी है। । प्रकाशक साजाबहादुर लाला मुखदेव सहार For Personal & Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा की प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 तर किंमगपुण उवदिसित्तएवाआयरियत्तएवा ॥ अम्हेणं तत्र देवाणुप्पिए! विवित्तं केवलि पणन्तं धम्मं परिकहज्जामो ॥ ३० ॥ ततेणं सा पोहिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी इच्छामिण अजाओ ! तुम्हं अंतिए के लिपन्नत्तं धम्मं निममित्तए ॥ ततेणं ताओ अजाओ पोहिलाते विचितं धम्मं परिकहेति ॥ ३१ ॥ ततेनं सा पोहिला धम्मं सोच्चा मिसम्म हट्ट तुट्ठा एवं वयासी- सद्दहामिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं पत्तिए जाब से जहेयं तुम्भे वयह, इच्छामिणं अहं तुष्भं अंतिए पंचाणुव्त्रयं जाव गिहिधम्मं पडिजिए || अहासुहं मा पडिबंधं करह ततेणं सा पाहिला तेसिं अजाणं अंतिए पंचाणुव्वतियं जाव धम्मं पडिवज्जति ताओ अज्जाओ वंदति णमंसति कल्पता नहीं है तो उपदेशन देना व आचरण करना तो कहां रहा. अहो देवानुप्रिये ! हम तुम को केबलि (प्ररूपित विचित्र प्रकारका धर्मोपदेश कहेंगे ॥ ३० ॥ तब पोहिला उन आर्याओं कहने लगा अहा आर्याओ ! आप की पास विदिष प्रकारका केवली प्ररूपित धर्म श्रवण करना चाहती हूं तत्र उनोंने पोट्टिला को विचित्र प्रकार { का केवली परूपित धर्म कहा ॥ ३१ ॥ उसकी पास से धर्म सुनकर पोट्टेला हष्टतुष्ट हुई और ऐसा कहा अहो आर्याओं! मैं निग्रन्थ के प्रवचनकी श्रद्धा करती हूं यावत् जैसे आप कहते हो वैसा ही मैं आपकी पास पांच अनुव्रत रूप यावत् धर्म अंगीकार करती हूं. यों कहकर उन को वंदना नमस्कार कर विर्जित For Personal & Private Use Only तेतली पुत्र का चउद्रहवा अध्ययन Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक बासनाचाराम श्री अमोलक पिजा + वंदिता मंसित्ता पडिविसजेति तरण सा पोटिला समणोवासिया जाया जाव पडिल माणा विहरई॥ ३२ ॥ ततेनं तीसे पोटिलाए अनया कयाति पुवरत्ता वरत्त कालममयसि कुटंबजागरिय जागरमांणीए अयमेयारूवे अझस्थिए५समुसज्जित्था एवं खलु अह तलिपुत्तस्स पवि इट्ठा ५ आमि; इयाणि अगिट्ठा ५ जाव परिभोगा, तं सेयं खल मम सम्पयाणं अजाणं अंतिए पाइत्तर एवं महति २ ता कलं पाउ जेगेव तेयलि पत्त तेणेव आगन्छ। २त्ता करयल परिसग एव वयासी- एवं खलु देवाणुपिया ! मए सुबयाणं अजियाणं अतए धम्मे जिससे जाव अब्भण्णुन्नाए समाणे पवितित्तए ॥ ३३ ॥ ततेणं तेयलिपुत्ते पोटिलं एवं को. सन बह पोहिला श्रपणे पामिका हुई यावत् जीवाजीव का सारा जाननी हुई य बत् च दह प्रकारका दान देनी हुवचरने लगः ॥३२॥ एकदा पाहिला कापूराित्रि में कुटुम्ब मागरणा जागते हुए पेना अध्यवसाय हुग में तलपुत्रकोपहिले इष्ट थी परंतु अब श्रीपरन् पेय भोग भोग भीनही चाहत हैं, उसम में मुब। बाकी पाम दीक्षित होना श्रेय है. एसा विचार कर प्रभात हाने तेतली पुत्र की पास गइ मा ह य ज्ञाड .र ऐमा ब... अहो देवानुपिय ! मैंने सुत्रता अर्या को पास धर्म सुना है यावत् 7 आप की अनुशा हा तो मैं दीक्षित होना चाहती हूं ॥ ३३ ॥ तम वेतली पुत्र पाहिला को ऐसे है। पकाशक-राजाबहादर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादनी For Personal & Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टांडवानाधकथाका प्रथम श्रत यामी एवं खल देवाणप्पिथे ! तमं मद्धे भविता पतियाममाणी कालमा कालं किश्या अन्नयरसु देश्लोएस देवत्ताए उनजिहिति, तंजाणं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म केवालिपातं धम्म बोहेहितोहं . विसजेमि ॥ अहणं तुम मम ण संवा सि तो ण विसाम ॥ ततेणं सा पाहिला तेयलिपुत्तस्त एयम पडिसुणेति ॥ ३४ ॥ ततेणं तेलिपत्ते विउळ असणं ४ उवखडावेहता मित्तनाइ जाव आमंतेति २ जाव सम्माणेति २ पाहिलं व्हायं जाव पुरिससहरसवाहिणीयस्म सीयं दुरुहहरसा, मित्तनाइ जाव परिवुडे सस्विट्टीए जाव रवेणं तेयालपुर मञ्झं से अहो देवानुप्रिये ! सुब मुंडिन बनकर प्रजित हुए पीछे कल के अवसर , काठ करके किमी लोक में देवता रोचोगी. ओ देवानुप्रिये ! उस समय उम देवलोक में से आकर मुझे केवली पर पित धर्म । उपदेश देना तो मैं पत्रजित होऊंगा. यदि तू मुझे पातशेध नहीं देगा तो मैं नहीं निकलूंगा. पहिलाने नेतले पुत्र की इस बात का स्वीकार किया ॥ ४॥ उस सपय तेनले पुत्रने विपुल अशन.. पान, खादिम स्वादिय पार करायो फर पिशासि जनों को भामंत्रणकर यावत् पोट्टिता को मान कर सहले पुरुष उडी म बसी शिठिाकर मित्र शानि वगैरह से परवरा दुवा ब २ शब्दों में से नेल पुर की पव-बीच में होते हुने सुनता पार्या का उपाश्रय वयं या वहाँ शिविका में से 18+ तली पत्र का चदवा अध्ययन 424 .. For Personal & Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजी 11}. मझणं जेणेव सुवया उबस्सए तेणेव उवागच्छइ.२ ता सीयातो पच्चोरुहइ२त्ता पोटिलं परतो कटु जेणेव सुक्या अज्जा तव उबागच्छइ २ सा ददइ नमसइ वंदित्ता नमंमित्ता एवं वयामी-एवं खलु देवाणपिण्या ! मम पोहिला भारिया ! इट्टा ५;" एसणं संसार भउतिग्गा जाब पव्वतित्तए, पडिग्छंतु गं देवाणुप्पिया ! सिस्मिाण भिक्खै दलय मि. ॥ अहा दुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबधं करेह ॥ ३५ ॥ ततेणं “सा पोटिला. सुव्वयाहि अजाहि एवं वुत्तासमाणी हट्ठा तुट्ठा पुरच्छिमे दिमीभाए सयमेव आभरणमल्लालंकार मुयह २ ना सदमेव पंचमुट्टियं लोथंकरेइ २ त्ता पहला नीचे उतरी. पोहिला को आगे करके तैनल पुत्र सब्रता आर्य की पास गये. 'उनको चंदना नमस्कार करके ऐसा बोले अहो देवानु प्रिय ! 'पोट्टे । भार्या मुझे इष्टः कांत यावत् मनोन है यह मंमारभय से. उद्विग्न पनी हुई यावत् आपको पाम दीक्षा लेना चाहती है ..अहो देवानु प्रिय ! आप को मैं शिष्यणी भिक्षा देना ई मो श्राप ग्रहण करे.. आर्याने उत्तर दिया. अहो देवानु प्रिय ! जैसे तुम को सुख हवे में वैसा करो. विलम्ब मत करो ॥ ३५ ॥ मुब्रता आर्या का ऐसा कहने पर पोट्टला इष्ट तुष्ट हुई, ईशानकून में माकर सताने आमरण अलंकार नीकाल दिये और स्वताने पंचमुष्टिकाच किया. फोर मुव्रता आय. अमुवादक-चालनमचारी मुनि श्री अमालक पाजावहादुर कालाबदेवमहायजी ज्वालाममाद जी । For Personal & Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 41*+ षष्टाङ्ग ज्ञाता धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध जेणेव सुव्ययाओ अजाओ तेणेव उवागच्छ २ बंद मंस वेदइत्ता नमसइसा एवं वयासी-आलित्तेणं जहा देवाणंदा जाव एक्कारस अंगाई बहुणि वासाणि सामण्ण परियागं पाउणति २ ता मासियाए संलहणाए अत्ताणं ज्झसित्ता सट्ठिभत्ताई अणरुणाई आलोइय पडिक समाहिपत्ता कालमासे काला कच्चा अन्नतरेसु देवलोएस देवन्ताए उवण्णा ॥ ३६ ॥ ततेगं से कणगरहे राया अंन्नया कयाइ काल धम्मुणा संजुत्ते यात्रि होत्था ॥ ३७ ॥ ततेण से राइसर जाव णहिरणं करेइ, अन्नमन्नं एवं बयासी एवं खलु दोषाणुपिया ! कणगरहे राया रजेय जाव पुत्तेय त्रियंगच्छित्ता की पास आकर वंदना नमस्कार कर जैसे देवानंदाने कहा था वैसे ही कहा अध्ययन किया. बहुत वर्ष पर्यंत साधुपना पालकर एक मांग की संदेखना से सहित भक्त का 'अनशन करके आलोचना प्रतिक्रमण बाल के अवसर में काल करके देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुई ॥ ३३ ॥ कनकस्य राज भी एकदा काल धर्म को माप्त हुना ॥ ३७ ॥ बह राज राजेभरने करके परस्पर ऐसा कहने लगे कि अहो देव नुप्रिय यावत् अग्यारह अंग का आत्मा को झोमकर साठ For Personal & Private Use Only ** तेतली पुत्र का चउदहना अध्ययन २०१ उनके शरीर का हरण किया. मोहरण के कनकरथ राजा यावत् पुत्रों के अंगोपांग को दीन ५३१ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ अम्हेणं देवाणुपिया । रायाहीण रायाहिट्टिया, रायाहीपकजा, अपचंग ततली पुत्चे अमचे कहणगरहस्स रण्णो सबटाणेसु सबभूमियापु लखपञ्चए दिनवियार सव्यकज बढाबएयावि हत्था॥ तं सेयं खलु अम्ह तेतलिपुत्तं अमचं कुमार जाइत्तए तिकटु ॥ अन्नमन्नस्स एयमट्ठ पडिसुति २ ता जेणव तेयलिपुत्री अमचे तेणेव उवागच्छति, तेबालपुत्त एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जेय रट्रेय जाव वियगति; अम्हेणं देवाणुप्पिया ! रायाहीणा जाव रायहीण कज्जा, तुम चणं देवाणुप्पिया ! कणगरहस्स रन्नो सम्बठाणेसु जाव रज्जधूराचिंत्तए, तं जइण करता था. अपन राजा के आधीन, राजा के अधिष्ठित और राजा के आधिन रहकर कार्य करनेवाले है. यह सेतलीपुष अमात्य कनकरय राजा के सब स्थान में व सब भूमि में विभासनीय है, विचारवाला और सर कार्य की वृद्धि करनेवाला है. इस से वेतली पुष को कुमार के लिये कहना चाहिये.. सरने 48 बात मान्य की और सब मीलकर तंतली पुत्र की पास आय. और उन को ऐसा कहने लगे कि आगे देवानुपिय ! कनकरथ राजा राज्य, राष्ट्र वगैरह में मूछित बनकर जो पुत्र होते थे उन के अंगापांग काडेदन कर उस को खगव बनाता था. अहो देवानुप्रिय हम राजा के बाधीन है यावत् राज्यकै आध.न 17कार्य करनेवाले हैं. अहो देवानुप्रिय ! तुम कनारथ राजा के सर्व स्थान में व सर्व भापे में विचार, वादक-वासमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिना - प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखन्न महायजी ज्वाल प्रसादज.. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ५३. यष्टांग ज्ञानाधाया काय साध 412 देवाणुपिया ! अत्थः केतिक नारे रायलक्खगसंपन्ने अभिमेयारिहे. तरण तुमं दल हि, जाणं अम्हे महया महया रायाभसेएणं अभिम्चिामो ॥ ३८ ॥ ततेणं तेयाल पुस अमच्चतलि ईमर पभितिए एयमद्रं पडिमणेति २ त्ता कणगज्झयकमारं व्हायं सवालकार विभूसिय जाव मस्मिरीयं करता तेसिं-ईसर जाव उ३वण्णेति उववणेत्ता एवं वयासी-सणं देवाणुपिया ! कगगरहस्स रन्नो पुत्ते पउमावईए अराए कणगज्झए णाम कुमारे अभिसेयारिहे गयलक्खणसंपन्ने, मएकणगरहस्स रन्नो रहस्मयं मंबर तं एयणं तुभे महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचह, सम्वं तेसिं पाये हो हो यावत् राज्य में धुरंधर हो, इम मे जो कोइ राज लक्षण बाला अनिषक योग्य मो कोई कुमार होचे तो श्राप दे जिन को हम राजा को येोग्य बहा राजगभिषेक करे ॥ ३८॥ नेतली पुत्र मात्यने उन ईश्वर वगैरह मन की बात सुनी. फर कनकध्वज कुमार को स्नान कराकर सर्व अलंकार से विभूषित करके यावत् श्री युक्त करके उन लोगों को सम्मुख लाया. और कहा कि अहो देवानमिय! कनकरय राजा का पुत्र प्रभावतीदेवी का आत्मन राज लक्षण संपन व अभिषेक योग्य कनकध्वज नाम का यः कुमार है. मैंने इसे कनपन से गुप्त रीति से पटा किया है, तुम उन को अभिषक करों. इन लेतलीपुत्र का उदहा अध्ययन 4Me • For Personal & Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकाचक-राजावहारलाहा परियायणिय परिकहेइ ॥ ३९ ॥ ततेगं ते ईसर क गगज्झयं कुमारं महया २ राघाभिसए अभिसिंचति ॥ ४० ॥ ततेणं से कणगज्झए कुमारे राया जाए महया हिमवंत जाव रज पालेमाणे विहरति ॥ ४१ ॥ ततेणं सा पउमावती देवी कणज्झयराय सदावेइ २ त्ता एवं वयासी-एसणं पुत्ता तवरले जाव अंतेउरेय तमंच तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्सप्पभावेणं, तं तुम तेतलिपुत्तं अमच्चं आढाहि, परिजाणाहि; सक्कारेहि, सम्माणहि, अन्भुढेहि, पज्जुवासेहि, वयंत पडिम माहेहि, अहासणणं उवणिमतेहि भोगंच से अणुगड्ढेहि ततेणं से कणज्झए पउमावई का आय से इनि पर्यत सव कथन कह सुनाया. ॥ ३९ ॥ सब राजेश्वरने कनकध्वन कुमार का बड़ा । गज्याभिक किया. ॥४०॥अब वह कनकधज राजा हुआ, महाहिपर्वत समान गवत् राज्य की पालना करता हुचा विचरता था. ॥ ४२ ॥ पद्मावती राणीने कनकधज गजा को बोलाकर कहा कि अहो पुत्र! यावत् अंत:पुर मब तेली पुत्र अमात्य के प्रभाव से ही तुझे मीला है, इस से उन का अ.दर सत्कार पान करना, उत्तम स्थान बैठाना, वचन स प्रशंसा करना, अर्ध आसन से निमंत्रणा काना, और 17 भोगों की वृद्धि करना. कनकधाज राजाने पावती देवी का कथन का स्वीकार किया और तेतली'। अनुवादक-चाल ब्रह्मचारीमुना श्री अमेलक ऋपनी महाजी स्वाधनमाविम For Personal & Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अर्थ 44- षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम शुरू 48+ देवीए तहत्ति पडणे २ ता जाव भोगं च संवति ॥ ४२ ॥ तते सा पोहिल देवे तेतलिपुत्तं अभिक्खणं २ केवलिपण्णसं धम्मं संबोहेइ णोचत्रणं से तेयलि पुते बुज्झति ॥ ४३ ॥ तलेणं तस्म पोट्टिलदेवस्स इमेयारूत्रे अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था-- एवं खलु कणगज्झए गया तेयलिपुत्तं आद्रात जाव भोगच संवति, तणं से तेयलिपुत्ते अभिक्खणं २ संबोहिजमाणेवि धम्मे नो संबुज्झति ॥ ४४ ॥ तं सेयं खलु ममकणगज्झयं तेतलिपुत्ताओं विष्परिणामित्तर तिकट्टु एवं संपति २ चा कगज्झयं तेयलिपुत्तातो विपरिणामेति ॥ ४५ ॥ ततेगं तेयालिपुत्ते कल्लं अमात्य को यावत् भोग की वृद्धि की. ॥ ४२ ॥ पोट्टा देव तेनली पुत्र का वारंवार केवली (प्ररूपित धर्म से उपदेश देकर बुझाने लगे परंतु तेतली पुत्र संबुद्ध हुआ नहीं ॥ ४३ ॥ वत्र पोटिला देव को ऐसा विचार हुआ कि कनकध्वज राजा तेतली पुत्र का आदर सत्कार व सन्मान करते हैं यावत भोगकी वृद्धि करते हैं, इससे नेतली पुत्र को वारंवार बोध देते हुए भी बोध नहीं लगता है। | ।। ४४ । अब कनकध्वज राजा को इन से विमुख बनाना मुझे श्रेय है। ऐसा विचार कर कनकध्वज राजा को इन से विमुख बनाया || ४५ ॥ ततली पुत्रने प्रभात होते स्नान किया यावत् प्रायश्चित किया For Personal & Private Use Only कहतेतली पत्र का नवा अध्ययन ५३५ ( Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋमित्रो हाए जान पायच्छित्ते आसखंधवरगए बहहिं पुरिसेहिं साई संपरिवूडे सातो गिहातो णिग्गच्छइ २ ता जेणेव कणगज्झएराया तेणेव पहारत्थ गमणाए ॥ ४६ ॥ ततेणं तंयलिपुत्तं अमच्चं जहा बहवे राईसर तलवर जाव पभिइउ पासंति ते तत्र आढायंति परियाणति अब्भुट्ठति सक्कारेइ समाणेइ अंजलि परिगहियं करति इटाहिं कताई जाव वागर्हि आलवमाणाय संलबमाणाय पुरतोय पिटुओय पासतोय मग्गओय समणुग. च्छति ॥४७॥ ततण स तेयलिपुत्ते जेणेव कणगज्झए तेणेव उवागच्छइ॥४८॥ततेण से कणज्झए ततलियुत्तं ऐजमाण पासतिरत्ता नो आढाति ना परियाणाति, जो अब्भुटुंति आणाढायाणे ३, परंमुहे संचिट्ठति ।।४ ९॥ ततेणं से तेयलिपुत्ते कणगझयस्सरन्नो अंजलि और घोडे पर स्वार होकर बहुत पुरुषों की मात्र परवरा हुवा अपने गृह से नीकलकर कनकध्ज राजा की । पास जाने लगा ॥ ४ ॥ तेली पुत्र को जो कोई राजेश्वर वगैरह देखमे ये वे सब उन को आदर सत्कार करने लगे. अपने स्थान स उठकर हाथ जोडने लगे, और इष्टकारी, कानकारी, यावत् बल्ग शब्दों घालने हुवे आगे, पीछे व दोनों बाजु के मार्ग में चलने लगे ॥ ४७ ॥ अब वह तेतली पुत्र कनकध्वज राजा की पाम गया ॥ ४८ ॥ तेनाली पुत्र को आता हुआ देखकर कनकध्वज राजाने उन का आदर सत्कार किया नहीं व खडे हुवे नहीं, परंतु पगंगमुम्ब बनकर बैठे ॥ ४९ ॥ नाशक राजाबहार बाळा सुखदवमहायजी ज्वालाप्रमादजी. For Personal & Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पोड़ ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतन् करेति ॥ ततेणं से कणगज्झएराघा ! अणाढायमाणे तुसिणीए परम्मुहे संचिट्ठइ ॥ ५० ॥ ततेणं तत्तलि पुते कणगज्झयं विपरिणयं जाणित्ता भीए जात्र संजाय भए एवं क्यासीरुणं मम कणगज्झएराया, हीणेणं मम कणगज्झए राया, अवज्झाएणं मम कणगज्झएराया ण णज्जतिणं मम केणति कुमारेण मारहत्तिकहु भीए तत्थे जाब सणियं २ पश्च्चोमद्धत २ सा तमव आसखधं दुरुहति, तमेव आसवं दुरुहिता तेतलिपुरं मज्झे मज्झणं जेणेव सए गिहे तेणेत्र पहारेत्थ गमणाए ॥ ५१ ॥ ततं तेतलि पुचं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा आढायंति की कनकध्वज हाथ जोड राजा को परांगमुख बनकर रहे ॥ ५० ॥ बाहुबा जान कर बेतली पुत्र मन में हो बोलने लगा कि कनकध्वज राजा सब तेतली पुत्रने कनकध्वज राजा आदर सत्कार नहीं करता हुआ तथापि १६ कनकध्वज राजा को मुख परंपर रूष्ट हुए हैं, मेरे पर दुष्ट हुए है और मेरे पर दुष्ट विचार वाल हैं इम मे न मालुम यह मुझे कौन से दृष्ट मार से मारेंगे य बालकर डरने लगा यात शनै: पीछे हटकर अपने घोडे पर सवार होकर तनली पुर नगर की बच [ में से होते हुवे अपने गृह आने लगा ।। ५१ ।। अब मार्ग में जो रामेश्वर वगैरह तेतली पुत्र को मीलते For Personal & Private Use Only तेलीपुरका चदावा अध्ययन 48 ५३७ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अनुवादक-नावमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिकी नो परिजानंति नो अब्भुढेइ नो अंजलिं करति इट्टाहिं जाव नो संलवतिनो पुरओय :पिटुओय समणुगच्छति ॥ ५२ ॥ ततणं तेयलि पुत्त जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ जावियसे तत्थ बाहिरिया परिसा भवंति दासेतिवा पेसेतिबा भाइल्लतिवा सावियण णो अढायति जावियस अभंतरिया परिमा तंजहा-पियातिबा मातातिवा जाव सुण्हातिवा सावियणं णो अढाति ॥५३॥ ततेणं से तेयलि पुत्ते जेणब वासघर :जेणेव सयाणिजे तेणेव उवागच्छति, सयणिजंसि निसीयति २ ता एवं वयामी एवं खलु अहं सयातो गिहाता जिग्गच्छामि तंत्र जाव अभितरिया परिसा य वे भी उन को आदर सत्कार नहीं देने लगे, स्थान में खड़े हुवे नहीं यावत् पहिल पीछे व दोनों बाजु रह कर इष्ट कारी वनों बेल कर उन की साथ नहीं जाने लाग ॥ ५२॥ फोर वह ततली पुत्र अपने गृह पाण और जा बाहिर की परिषदा के दास प्रषक व नोकरों थे वे भी आदर सत्कार नहीं करने लगे वैसे ही अध्यंतरे परिषदा वाले मात पिता यावन् पत्राने भी उन का आदर सत्कार किया नहीं ॥ ५३ ॥ तब तेतली पुत्र अपनें वाम गृह में शयन की पाम आया. उस पर सोना हुआ ऐमा बालने लगा कि में अपने गृह से नीकल कर कनकध्वज राजा की पास ग्य परंतु उनोंने परा आदर प काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजो स्वालामवादी Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ कहां ज्ञानधर्मकथा का प्रथम श्रन्य जो आढातिनो परियाणाति नो अब्भुट्ठेति ॥ सेयं खलु ममं अप्पाणं जीवियाओ रोवित्तर तिकट्टु ॥ एवं संपेइ २ ता तालपुडंविसं आसगंसि पक्खिति २ सेयं विसे नो संकमति ॥ ततेणं से नीलुप्पल जाव असिबंधंसि उहरेति तत्थविय से 'धागउ पल्ला ततणं से तेयलि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छति २त्ता पासगं गवाए बधइ रूक्खदुरुहसि पासगं रुक्खंबंधइ २ अध्याणं मुयति, सत्थविय मे रज्जुच्छिन्ना ॥ तते से तेयलि पुत्त महति महालयसिल गवाए बधति अत्याह मतार पोरिसियास उदगसि अप्पाण मुयति, तत्थविसे थाहे जाए | तते से तेयलि सुक्कास तर्णकूडंसि सरकार किया नहीं यावत् आभ्यंतर परिषदा के लोगोंने भी मेरा आदर सत्कार किया नहीं इस से अब मुझे मरना श्रेष्ट है. ऐसा विचार कर तालपुट विष मुख में डाला परंतु उस विषने तेतळी पुत्र पर कुच्छ भी असर की नहीं ॥ ५४ ॥ र्फ र नीलोत्पल ममान यावत् अमिधारा से अपनी गरदन कटने लगा परंतु वह आभिधारा भी चली नहीं, फर अशोकवन में जाकर अपने गले में पास बांधकर वृक्ष पर चडकर और पाश को बृत की साथ बांध दी, वशं वह नीचे लटक गया परंतु पाश को काट दी [ गइ. फरतेतली पुत्र ने एक बडी शीला गले से बांध कर बहुत ऊड़ा कोई नहीं तीर सके वैपा पुरुष प्रमाण पानी में पडा, परंतु वहां स्थल बन गया और वहां से बच गया. फर उसने शुष्क तृण समुदाय एकविक For Personal & Private Use Only तापुत्र की चउदहवा अध्ययन 48 ५३९ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काका आणिकायं पक्खियति २ त्ता अप्पाणं मुपति तत्थति से अगाणिकाप विझाए ॥ ५५ ॥ ततण में तेतलिपुत्ते अमच्च एवं वयामी- सद्देय खलु भो समणा वयंति महेयं खल भो माहणा बयांत सहयं खलु भो समणमाहणा वयांत अहं एगो असहेयं बयामि- एवं खलु अहं मपुत्तहिं अपुत्ते, कामेदं महडिस्मइ महमित्तेहिं अमित्ते, कोमदं सद्दहिस्मद एवं अत्थणं दारण- दासणं पेमेणं- परिजणेणं- एवं खल नलियुसेणं कणगज्झएग रन्ना अवज्झाए ममाणे, नालपुडगविमे आसगाम पक्खित्ते सेवियणी संकमांत, कामेदं सहहिस्मति, तथालपुसे निलुप्पल जाव स्वधंसि करके उसमें आने लगादी और उसमें स्वयं जाकर गीर पहा परंतु वह अनिकाय वुझगया ॥ ५५ ॥ अब तेतली पुत्र अमात्य ऐने बोलने लगा कि जो अपण कहते हैं का श्रद्धरे योग्य है, जो वाह्मण करने ” वा भी श्रद्धने योग्य है, जो श्रमण ब्रझग कहते हैं वह भी श्रद्धने योग्य है अर्थात् वे लोगों पुण्ण पाप स्वर्ग नरक बगैर कि जो किमीने देखा नहीं है। उनका उपदेश देने है वह श्रद्धने योग्य है परंतु मैं अकेला नो पोलना हूं उमे कैन श्रद्धगा, मैं पुत्र घाला होकर अपुत्र कहूंगा तो कौन मानेगा, मित्र वाला होकर चित्र सहित कहूंगा तो कौन मागा. ऐसे ही अर्थ, दाग, दास, प्रेष्यक परिजन वाला कर इन से रहित कहूंगा. तो भी की मानेगा. ऐसे ही? बनुवादक-समचारीमान श्री .का राजारादरमाला मदवमहायजा श्वालामलादी. सार्थ For Personal & Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +16 ताधर्मकथा का प्रथम श्रुनसन्ध 41 . 'असि हरिए तत्थविय से धारा पला कोमयं सहहिस्मइ, तैयालपुत्ते पासगीचाए -बधित्ता आव रज छिन्ना कोमेयं सहहिस्सति, तेयलिपुत्ते महलियं जाव बंधिता. अच्छाह जाव उदगंसि अप्पाणं मुक्के तत्थवियणं थाहे जाए कोमेयं सहहिस्सति, तयाल पुत्त सुकसितणकुडे अग्गीविझाए कोमेदं. सहहिस्सति, ओहय मण संकप्पे जा . झियायति॥५६॥ततेणं से पाहिले देवे. पोटिलारू विउन्नति, तेतलिपुत्तरप्त अदूरसा.. संत विचा, एव वयासी हंभो तेतलिपुत्ता पुरतोपवाए पिलुआ हस्थिभयं दुहतो अचक्खुफासे मजकचन गजाने मेरे पर दुष्ट विचार किया है, इस से मैंने मलघुट विष मुख में डाल लिया परंतु उमने कुछ भी असर की नहीं, नीलोत्पल समासवर्ष वाला खङ्ग में मेरी गरदन काटने लगा परंतु कटाइ दी, मले में पाप डालकर परना चाहा परंतु पाश तूट गई, गले में एक बड़ा पत्थर बांधकर पानी में पडा परंतु वहां स्थल होगया और तृण एकत्रित कर उम में अने लगाकर, मरेना. पाहा पतु या अग्नि भी बुझ गया, ऐसी बातों मेरे अकरे की कौन पानेगा. यो निश्व स डालता हुत्र याव आन पान कर रहा था ॥ १६ ॥ तब पोहिल देने पोट्टिका के रूा की चिकुणा की और तेतली. पुत्र का पास रहकर घोलन लगा, अही तैनली 'पुत्र ! भाग वडी ऊंडी खदान है और पीछे से हाथी का भय दोनों बाजु में-अंधकार है, मध्य भाग में पानी की वर्ष होगी, इधर ग्राम अमले जल रहा है। तेतलीपुत्र का चउदावा अध्ययन 48 For Personal & Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोलक ऋोजी + अर्थ/ “मझें सराण वारसति, गाप लत्ते रन्न झियाति, रन्नो पलित्ते गामे झियाति, आउसे ततलिपुत्ता कउ वयामा ॥ ततणं से तेयलिपुत्ते पोहिलं ए क्यामीभीयस्म खलु भो पवजा सरणं, उक्कंठियस्म सदेसगमणं, छहियस्स अन्न, ति सबस्त पाणं, आउग्रस भेसज्ज, मातियस्म रहस्सं, आभेजुत्तस्स पच्चयकरणं, अडाणं परिस्संतस्म वाहणममण, तरिउकामरस पहणं, किचं पर, अभिजियकामस्म सहाय किच्च, तस्स दंतस्स जितादयस्म एत्तो एगमवि ण भवति। ततणं से पोट्टिले और उधर अटी में बड़ा दाव लग रहा है इधर अटी जल रही है तो ग्राम में दाह लग रहा है. अहो तकी पुत्र ! ऐसे समय में कय जाना ? तव तेतली पुत्रने पहिला देव को उत्तर दिया कि भयभीत नुष्य को चरित्र का शरण है, अपन देश में जाने को उत्सुक मनुष्य को देश में जाने का शरण है, क्षुध तुर को अन्न का, तृप तुरको पानीका, रोगोको औषधा, मायावी को गुप्तका, अभियुक्त का विश्व स कराने का, पार्ग में श्रन पुरुषको वाहन से जाने का, तीरने की इच्छावाले को नावा का, कामी पुरुष को सखा का शरण है, परंतु कंध का निग्रह करनेवाले पांचों इन्द्रियों व मनको जीतनेवाले को उक्त भय में मेरे एक भी नहीं है क्योंकि मामयिक परिणनि रूप शरीर में मिलापता होने से परणादिक भय का प्रभाव से होता है. और मरणादिक भय के अभाव से अन्य सब भय नष्ट हो जाते हैं. इस तरह पहिला देवन है। पात्रक-राजाबहादुर लाला चदवसहायजी ज्वालाप्रसादज. अनुमानकाला For Personal & Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र का प्रथप शुनस्कन्ध 44 षष्टांड ज्ञानाथा देवे तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयामी-तुहुणं तमं तेतलि पुत्ता एयमटुं आयाणाहि तिकटु,दोच्चपि तच्चवि एवं क्यइ २त्ता जामेव दिसिंपाउन्मए तामेव दिसिंपडिगए ॥५७॥ तलेणं तस्म तेताल पुत्तरस सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पण्णे ॥५८॥ ततेणं तेयलिस्स अयमेयारूत्रे अझथिए जाव समुपन्न-एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवेदीव महाविदहवासे पोक्खलावई विजए पोंडारगिणीए रायहाणीए महापउमेणामं राया होत्था । ततेणं अहं थेगणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चे दस पुवाति बहुणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवत्ताए उबवण्णे तएणं अहं ताओ तेनली पुत्र के पास से कहलाया कि भयभीत मनुष्य को चारित्र का ही शरण है. ऐसा कहलाकर वा पोट्टिला देव कहने लगा अहो तेतली पुत्र! तुमने मुष्ट कहा. और वैमे ही अंगीकार करना. ऐसा दो तीन बार कहकर अपने स्थ न पीछा गया।।५७॥ ततलो पुत्र को शुष ध्यान व परिणाम जास्मिरण ज्ञान उत्पन्न हवा॥५८॥तेतही पुषको जतिस्मरण ज्ञान होने से ऐमा अध्यक्षमाय हुबा कि मैं जम्बूदीप के महाविदेह क्षेत्र में पुष्करावी. विजय की पुंडरीक र उपधानी में महापअराजा था. तत्पश्चात स्थविर की पास मुंडन होकर यावत चौदह पूर्व का अध्ययन कर बहु। वर्ष तक संयम पाला र एक मास की संलेखना करके महत +8+ नेतले.पुत्र का चउदावा अध्ययन 478 48 For Personal & Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - + अनुवादक-कालब्रह्मचारी मुनि श्री अमे.लक अपनी देवलोगाओ आउवखएणं ठिईक्खएणं भवक्खएणं इहेव तेथीलपुरे गयरे तयलियरस अमञ्चस्स भहाए भरियाए दारगत्ताए पयायाए ॥ तमयं खलु मम पुस्ट्रिाई पंचमहन्वयाइ सयमेव उपसंपांजत्ताण विहारत्तर एवं संपहइ २ त्ता सयमेव पचमह च्वाई आरुहहरत्ता जणेव पमयवण उजाणे जणेव आमोगवरपायवस्स अहे. पुढवि मिलापट्टयास सुहणिसण्णस्म चिंतेमाणस्स पुब्वाहियाई सामाइयाई एकारस अंगाई चोदमपुगइ सयमेव अभिसमण्णागयाइं ॥ ५९॥ ततेणं तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामणे जाव तयावराणिजाणं कम्माणं खउवसमेणं कम्मविकरण शुक्र देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवा. वहां से आयुष्य, स्थिति व भा का क्षय होने से यहां तेतलीपुर नगर में तेनली अपात्य की भद्रा भायां की कुक्षि में उत्पन्न हुवा. इस से पहिले उपदश कराये हो पांच अनुवा अंगीकार कर विचरना मुझे श्रेय है. ऐमा विचार कर पांच महा धारन कर प्रपदवन उद्यान में अशोक वृक्ष नीचे पृथ्वोशोला पर सुख से बैठे हुवे मन में चितवन करते पहिले अध्ययन र मामायिकाद अग्यारह अंग व च उदह पूर्ण स्वयंपा जानलिया ॥ ५२ ॥ ताली पुत्र अनगारको + शुभ परिणाम से यारत् तदावरणाय कर्म क्षयोपशम से कर्म का विकरण करनेवाला अपूर्व करण में .काकरामावादुर लालाभुखदवसहायजी ज्वाला प्रसाद For Personal & Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 + पटांडताधर्मकथा का प्रथम श्रृतस्कन्ध कर अपुवकरणं पविद्धस्स अणते अणुत्तरे णिव्याघाए णिरावरणे कमिणे पडिपुणे केवलवर जाण दमणे समुप्पणे ॥ ६ ॥ तएणं तेयलिपो गयरे अहास गहिं वाणमतरेहि देवेहिं देवदुदुहीओ समाहयाआ दसद्धवणे कुसमे णिवाइए दिव्य गीयंगंधमणिणाएयावि होत्या ॥ ६१ ॥ तएणं से कणगज्झए राया इमीमे. कहाए लट्ठ समाण एवं वयासी- एवं खल तेतलि अमच्चे मए अवझए मंडे भवित्ता पव्वतिए, तं गच्छामिणं तेयलिपुत्तं अणगारं बंदामि नमसामि पज्जु गसामि, एयमट्ट विणएणं भजो २ स्वाममि ॥६२॥एवं संपेहेइ २ चा हाए जाव चाउरंगिणीए सेणाए जेणर पमयवणे उजाणे जेणेव प्रवेश करते अत अनुत्तानिय त,निरावण, कृत्सव प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान केल दर्शन उत्पन्न हुवा ॥६॥ उन पपय ताली नगर की पाप रहने वाले वाणव्यंतरदेवों ने देवदंदुरी बजाइ, पकिर्ण वाले अचित्त पुरुषों की दृष्ट की ओर दंपीत व दीव्य गंनिनाद किया. ॥ ३२ ॥ जब कनकमज राजा को इस बान की पाल। ईसब ऐसा कहो लगाकरे आध्यास तती पुत्र मुडा कर दीत आ. इस सतलों पर पानवर को वंदना नमस्कार करूं और मेग हा अविनय की मैं क्षमा याचू. ॥६२॥ ऐसा विचार कर सान किया चतरंगीनी सेना सहित प्रमदवन उद्यान में तेतकी पुत्र अनगार की १० माया . तेतलीपुत्र. का चउदाचा अध्ययन + For Personal & Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४६ तेयलिपुत्ते अणगारे तेणेत्र उवागच्छइ. २ ता, तेयलिपुत्तं . अणमारं वदई मंसइ एयमटुं विणएणं भुजो २ खामेइ पच्चासणे पज्जुवासइ ॥ ६३ ॥ तएणं. से तेयलिपुत्ते अणगारे कणगझयस्म रणो तीसेय धम्म परिकहति ॥ ६५ ॥ तने से कणगझए राया तेयलिपुत्तस्स केवलिस्त अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म पंचाणुव्वतियं सत्तसिक्खावतियं सावधम्म परिवजति ममणोवासए जाए अभिगय जीवा जीवे ॥ ६५ ॥ ततेणं तेयलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि केवल परियागं पाउणित्ता जाव सिद्दे ॥ ६६ ॥ एवं खलु जंबु ! समजेणं भावया महावीरणं तेतली पुत्र अनगार को वंदन नमस्कार कर अपना अविनय की पुन: २ क्षमा याची. यावत् नम्बामन से पर्युपासना करने लगा. ॥ १३ ॥ उस समय कनकध्वन राजा को तेतली पुत्र अनगारने धर्म कहा ॥ ६४ ॥ कनकधज राजाने तेतली पुत्र की पान मे धर्म मुनकर पांच अनुबन, सात शिक्ष व्रत हरू। श्रावक धर्म अंगीकार किया. इस स बह श्रावक हुआ यावत् जीवाजीव का स्वरूा जानने वालाई हुआ. ॥ ६५ ॥ तेतली पुत्र बहुन वर्ष पर्यन केवलि पर्याय पाल कर यावतु सिद्ध हुए. ॥ ६६ ॥ अहो 17जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञातासूत्र के चउदहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा. ॥ १४॥ अनुश-लब्रह्मचारीमान श्री अमोल ऋषिजी - .फाश-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामादक For Personal & Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 जाव संपत्तणं चाहसमस्स नायझयणस्स अयमढे पन्नसे ॥ तिमि ॥ १४ ॥ गाथा-जाव ण दुक्ख पत्ता माणभमं च पाणिणो ॥ पायं ताव " धम्मं गिण्हति भावआ तेयलिमुयन्वं ॥ १ ॥ चौदसमं गायझयणं सम्मत्तं ॥ १४ ॥ * * तेतली पुत्र जैसे जब लग जीवों को दुःख प्राप्त नहीं होता है अथवा पानभंग नहीं होता है तब लग जीवों धर्म नहीं ग्राण करत ॥ ॥ यह चउदइया अध्ययन संपूर्ण हुभा ॥ १४ ॥ . षष्ट झज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 42 तेतली पुत्र का चउदहवा अध्ययन 48 21 For Personal & Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M 42 अनुवादक-पालनामचारों मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ पञ्चदश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं चाहसमस्स जायज्झयणस्म अयमटे पण्णत्त पन्नरसमस्सणं भंते ! णायज्झयणस्स जाव संपत्तणं के अट्टे पन्नत्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जंब ! तेणं कालंणं तेणं समएणं चपा णामं जयरी होत्था, पुण्णभद्द चइए जियमत्त राया ॥ २ ॥ तत्थण चपाए नयरीए धण्णे णामं मत्थवाहे हात्था अड्डे जाव अपरिभूए ॥ ३ ॥ तीसणं चपाए नयरीए उत्तर पुरच्छिमादसीमाए आहिछत्ता णाम जयरी होत्था रिद्धत्थामय समिद्धा वण्णओ॥४॥ तत्थणं आहछत्ताए नयरीए कणगकंऊ णामं राया होत्था महया वणतो ॥ ५ ॥ ततेणं तस्स धणस्स जब श्री श्रपण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता मत्र के चउदहवा अध्ययन का उक्त भर्य कहा तर पनहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥ १ ॥ अहा उ.म्बू ! उन काल उस समय में चंपा नगर्ग थी। उम में पूर्णभद्र चैत्य था, और जितशत्रु राजा राज्य करता था. ॥२॥ उम चंपा नगरी में धमा मार्थिवाह रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभून था. ॥ ३ ॥ उम चंपा नगरी मे ईशानन में रिपत्रा. नगरी थी. या ऋद्ध समृद्धि युक्त वगैरह वर्णन येोग्य थी. ॥ ४ ॥ उम अहिछत्रा नगरी में कनककत राजा राज्य करता था. वह भी वर्णन योग्य था. ॥५॥ एकदा पूर्व राषिधमा सार्थवाह को एसा '+काशक-राजाबहादुर थला मुखदेवमहायजी ज्वालामसाढणी+ કપ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4+पटताचपर्कथी का प्रथम श्रनस्कंध ल सत्थवाहस्स अन्नयाकयाइ, पुत्ररतावर कालसमयंसि इमेयारूवे अज्झत्-ए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकप्पे समुप्यजित्या तं सेयं खलु मम विउलपणिय भंडगमायाय अहिछतनयरिं वाणिजाए गर्मि ए ॥ एवं संपेहेइ २ सा, गणिमंच ध रेमंच मेयजं पारिस्थिजं त्रिभंडगिण्इ २ सगडि सागडि सजेति २त्ता सगडि सागडं भरेंतिरत्ता कोटुचिय पुरिसे सहावेति २ चा एवं बयासी - गच्छहणं तुष्भे देवाणुप्पिया ! चंपाए नयरीए सिंघाड़ग जाब महापहेतु घोसेणं घोसह एवं खलु देवाणुपियाँ ! घण्णे सत्थवाहे अध्यवसाय, संकल्प व मनोगत भाव हुआ कि विस्तीर्ण किरीयान, मंड उपकरण वगैरह लेकर अहिछत्रा नगरी में जाना मुझे श्रेय है, ऐना विचार करके गीनती हो सके जैसे वगैरह चारों प्रकार के धान्य लेकर गाडे गाडियों मज्ज की, और कौटुंबिक परुषों को बोलाकर ऐसा बोले अहो देव नुप्रिय ! चं नगरी के श्रृंगाटक यावत राज मार्ग में ऐसी उद्धे षणा करो कि सार्थवाह वस्तीर्ण किरीयाने गैरह लेकर अहिछत्रा चाहते हैं, इस लिये जो कोई चरकौद्धमतानुसारी, चीरिक-मार्ग में पंडहुने धन अहा देवानुमिय ! नगरी में जाना पनेि वाले, चर्म खंडी वर्म का वस्त्र पहिनेन वाले, मोक्ष वृत्ति से आजीविका करने वाले पांडर रंग के वस्त्र पहनने वाले For Personal & Private Use Only 488+ नदीफ वृक्ष का पारहवा अध्ययन Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 4 अनुवादक-माल प्रमचाती मनि श्रा अपोलक पिजी+ विपुलं पणियं इच्छपइ अहिच्छत्तं यरिं वाणिज्जाए गमिन्नए, तंजोणं इच्छइ देवाणुप्पिया! चरए वा चीरिए चम्मखंडिएका भिक्खंडवा पंडरगेवा गायमेवा गोभातएवा गिहधम्मेवा गिहधम्मचिंतिएवा अविरुद्ध विरुद्ध बुट्ठ मावगरत्तपड निग्गंथ पाभती पासंडत्वा गिहत्थेवा धण्गेणं सहिं अहिछत्तं गरि गच्छइ तस्सणं धण्णे अच्छत्तगस्त छत्तगं दलयइ, अणुवाहणस्म वाहणाओ दल यति,; अकुंडियस्त कुंडियं दलयति अपत्थायणस्स पत्थयणदलयति, अपक्खेवगरस पक्खेवंदलयति, अतिराविय से पडियरसवा भग्गलुग्गरस साहिज दलयति,सुहंसुहेणं अहिछत्तं संपावेति, गौतम-रघुप्रक्षपाला रखे व शरीर में चित्रित बखों पहिने, गोप्रतिक-गाय से आजीविका करे, गृहधर्मी, गृह धर्म में चितवन करनेवाले, अविरुद्ध करनेवालं. धर्म चिंतन करभेवाल, वृद्ध, श्रवक-ब्राह्मण, क्तपट al पहिननेवाल परिव्रजक बगैरह पावंडो या गृ'स्थ धमा सार्यग्रहकी नाथ अहिछत्र नगरमें जाना चाहत हो और उनमें से जिम किमी की पास छत्र नहैं. होवे तो उनको छत्रदेत हैं,पमरखी नहीं होवे तो पगरखा देते हैं.पात्र नहीं है.वे उन को पात्र दस हैं, पथ्यद-भातः-नहीं होचे उम को भाता देते है, बीच में खर्च नहीं होगा। उन को खर्च देंग, मार्ग में भी जो कोई गाडी घेड प्रमुख से गीर जागा अथवा कुच्छ अंगोपांग में हीनता होगा तो उन की सहाय देंगे, और सुख पूर्वक अहिछत्र ग्रम में पहुंचा देंगे. इस बरह दो तीनवार .गजाहदरल'का सवयपहाजधालाबमादना. For Personal & Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 甯 4984 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथमे सुन्ध तिकडु, दोपि तच घोसे घोमे २ मम एयमाणतियं पच्चविगह ॥ ततेगं ते कोटुंबिय पुरिसा जाब एवं वयासी हंदि मुकंतु भगवंतो चपाए नगरीए वत्यन्ना बहवे चरगा जाव पच्च पिणंति ॥ ६ ॥ ततेणं तेसिं कोटुंबिय पुरिमाणं अतिए एयमटु सोच्चा निसम्म चंपाए जयरीए बहवे चरंगाय जाब गिहत्थाय जेणेव घण्ण सत्थवाह तेणेव उवागच्छति ॥ ततणं धणे सत्थवाहे तेसिं चरगाणय जाव गिहत्था जय अच्छत्तगस्स छत्तं दलयति जाब पत्थयणं दलयति २ गच्छहण तुम्भे देवापिया ! चंगए जयरीए बहिया अग्गुजानासि ममपडिवालमाणा २ चिट्ठह उद्घोषणा करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. तब कौटुम्बिक पुरुषों या त् ऐभी उद्घोषणा करने लगे. अहो देवानुप्रिय चंपा नगरी के नरक यावत् गृहस्थी सुनो ! धना सार्थवाह अछि नगर में विस्तीर्ण किरीयाना भरकर जाते हैं उप से जो कोई जाना चाहे उन को धन्नः सार्थवाह सब प्रकार की सहाय करेंगे यावत् सुख पूर्वक अद्वित्र नगर में पहुंचायेंगे यों उद्घोषणा करके उन को उन की आज्ञा पंछी देदी ।। ६ ।। कौटुम्बिक पुरूषों की पान से ऐसा सुनकर बहुत चरक यावत् गृहस्थी धन्ना सार्थवाह की पास आये. उनमें से जिसको छत्र नहीं था उनको छत्र दिया यात्रत् जिनकी पाम पथ्यद-भाता नहीं था उनको माता दिया. और कहा देवानुप्रिय ! चंपा नगरी की बाहिर अंग उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुवे रहो. वे For Personal & Private Use Only 4+ नंदी फल वृक्ष का परहवा अध्ययन 4+ ܕ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार मुनि श्री अमालक-ऋषी भवाइकालवा ततेणं ते चरंगाय धणेणे . सत्यवाहेण एवं बुत्तासमाणा जाब चिटुंति ॥ ७ ॥तेर्ण धणे सत्थवाहे सोहणंति तिहि करण णक्खसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं -उवक्खडावेति २ ता मित्तणाति आमंतेत्ता भोयणभायावात २ ता आपुच्छति २ सगडी मागडं जोगावेति २ धपाओ णयरीओ. जिग्गच्छति २ ‘जाइविगिद्धेहि अद्धाणोहिं वसमाणे २ सहेहिं वसहिं पायराहिं अंगजणवयं मझं मझेणं जेणेव देसगते तणेव उधागच्छद २ ता संगडीसागडं मोयायेइ २त्ता मत्थानवेसं करेंति २त्ता कोटुविय पुरिसे सदावति. कोडविय पुरिसे सहायता एवं वयासी- तुम्भेणं लोगों धमा माह के कथन अनुसार अंगउद्यान में रहे, ॥ ७॥ धमा सार्गवाई शुभ तीथी, करण नक्षत्र में विस्तीर्ण अशनादि बनाकर मित्र झालीयों को आमंत्रण कर भोजन नीम कर उन. को पुडकर गाडे गाईयों जोताकर चेपा नगदी बाहिर नीकला. और पार्ग में चलने हुए अच्छे आपस में प्रभात में नीमकर चलते हुए अंगदेश की बीच में कर देश के एक छेडे गया. और वहां गाडे गाडियों को छेड कर अपने साथियों का उनाग किया फीर कौटुम्बक पुरुषों को बोलाकर ऐमा कहा कि अहा देवानुमेय मेरे साथी के परब में शब्द से उद्ये पणा करो कि -आगामिक मार्ग विना की बहन का प्रकाशक रामबहादर काला सम्बदन महायजी नालाप्रमादमा. अर्थ 1 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 ५५३ षष्टो हानाधर्मकथा का प्रथप ध्रुनन्ध " देवाणुपिया । मम सत्थानवेससि महयामहया. सदेणं उग्योसेमाणा एवं वयह- एवं ... खल दवा पिया ! इमीसे आगामीयाए छिन्नावायाए दीहमदाए अडवीए बहुमज्झ देसमाए इत्थक बहवे गंदिफलाणाम रुक्खा पण्णत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया :: मलिया हरिया सेरिजमाणा सिरीए अतीवर उसोभेमाणा चिट्रतिामणगावणेणं जाव । मणुष्णाफामण जाव मणुण्या छःयाए त मोण देवाणुप्पिया! तसि दिफलाणं रुक्खाण. मूलाणिवा कद-तया-पत्त-पुप्फ-फल-बीयाणिवा, . हरियाणिवा आहारति छायाए वा । वीममति तस्सणं अविए भहए. भवलिः ॥ ततो अच्छा परिणममाणा २ अकाल चत्र जीवियातो बवरोवेति ॥ ते माणं देवाणुप्पिया ! कोवि तेसिं णदिफलाणं मूलाणिवा लमी अटवी के मध्य भाग में दीपाल नाम के वृक्षों हैं. वे कृष्ण वर्ण वाले यावन् पा, पुष्प, फल : से हरेवण वाले व वृक्ष की शामा से अतीव सोभते हुवे रहते हैं. वे मनोज्ञ वर्ण यावत् मनाज्ञ स्पर्श वाले मनोज छाया वाले हैं, इन वृक्षों के पूल, कंद, सचा, फा, पुष्प, बज व हम्किाय का जो कोई आहार करेगा, अथवा उस की छाया में विश्राम करेंमा तो उस को पहिल कल्याणकारी.होगा परंतु शरीर में उस की परिणति हुए. पीछे बिना मोत से मरना पड़ेगा. इस से कोई भी इन के कंद फ.ठ वगैरह खाना नहीं और उन की छाया में विश्राम में. करना नहीं; जिस से विना मोत से मरना न होगा. अहे. देव नुभित्र ! 48.नंदी फवृधापनाहवा अध्ययनक For Personal & Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पालक ऋषिमा जा छायाएवा वीसमओ, तं माण सेविय. अकालेचत्र जीवियाओ ववरोविजस्सओ॥ तुम्भेणं देगणुप्पिया ! अण्णेसिंच रुक्खाणं मूलाणिय जाव हरियाणिव आहारह छायास विसमहात्ति, घोसेणं घोसेह जाव पञ्चविणति ॥ ८ ॥ ततण धण्णे सत्यवाहे सगडीसागडं जाएति सगडीसागडं जोएत्ता जेणव दिफला रुक्खा तणेव उवागच्छइ २त्ता,तसिणं गंदिफलाणं अदरसामत सत्थणिव करड करतादाच्चंपि तच्चंपि कोटुंबिय पुरिसे सहावेति २ एवं वयाती-तुब्भणं देवाणुप्पिया ! मम सत्थणिवसंमि महता २ सद्दणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-एसणं दवाणुपिया ! ते गदिफला IE तुम अन्य वृक्षों के कंद मूल बगैरह का आहार करना और उन की छाया में विश्राम करना. ऐसी उद्घोषणा करके मूझे मेरी आज्ञा पीछी दो यावत् उन लोगों ने वैसा करके उनकी आज्ञा पीछी दी. ॥ ८ ॥ वहां से धन्ना सार्थवाह गाहाओं जानाकर नंद फल वृक्ष की तरफ गये और उन से कितने दूर साबने पडाव किया. फोर वहां पर भी कौटू म्गक पुरुषों को दो तीन बार केलाकर ऐसा कहा अहो Eदवानुप्रिय ! तुम अपने समुदाय में सब को विदित करा कि य नंदीफल वृक्ष कृष्ण यावत् मनोज्ञ छाया | वाले हैं. अहो देवा नप्रिय ! जा कोई इन के कंद, फल, पत्र, वगैरह का आहार करेंगे अथवा उन की 13काया में विश्राम करेंगे उन को पहिले कल्याण मालूम होगा, परंतु शरीर में परिणमे पीछे विना मृत्यु से प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव महायजी जाल प्रसादजी. बनुवादक-बालब्रम For Personal & Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4 ष्टांग नाताधर्म था का प्रथम श्रुनसन्ध किण्हा जाव मणुष्णा छायाए, तं जोणं देवाणुप्पिया ! एएसि गंदिफलाणं रुक्खाणं मुलाणिवा कद-तया-पत्त-पुप्फ-फल-जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेति, तं माणं तुम्भे जाव वीसमह माणं अकालचेव जीवितातो विवरोविजस्सह; तणं देवगणुप्पिया ! एएसिणं गंदीफलाणं दुरंदरेणं परिहरमाणा अण्णेसि रुक्खाणं मूलाणिय जाव वीसमह तिकटु,घोसेणं पच्चाप्पणति ॥ ९ ॥ तत्थणं अत्ये गतिया पुरिसा धष्णस्स सत्थवाहरत एयमटुं सद्दहति जाव रोयति एयमढें सद्दहमाणा तसिं दिफलाणं दूरंदूरेणं परिहरमाणा अन्नति रुक्खाणं मूलाणिय जाव वीसमंति, तसिणं अवाए णो भद्दए भवति, ततोपच्छा परिणममाणा २ सुरूवत्ताए भुजो २ E मरना होगा, इस मेहर के कंद, मूल, वगैरह कुच्छ भी खाना नहीं और उन की छाया में विश्राम भी करना नहीं. यदि इच्छा होवे तो अन्य बृक्षों के पत्र, पुष्यो, खाना और उनकी छाया में विश्राम करना निमसे मृत्यु विना मरण होगा नहीं. यो उद्घोणा करक मुझे मेरी आमा पीछो दो. जाने भी वैसे है करके उनकी अज्ञापछी दी. • ॥ इन में से कितनक पुरुषों घना मार्थह के वचन की श्रद्धा,* पती ते व रूत्रि करने लगे इस मे नंदीफरवृक्ष को दुर से ही त्यगत हुये विचरन लगे, और अन्य वृक्ष के मूल कंद व वगैरह खाने लगे व इन वृक्षों की छाया में विश्राम करने लगे. इन लोगों को ये वृक्षों प.ल्याणकारी हुन नहीं । +नंदीफल वक्ष का स्वरहवा अध्ययन 4 wmmmwww 8. For Personal & Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलप मापनो - परिणम ते ॥ ५० ॥ एषामेव मणाउसो ! जो अम्हे जिग्गयो । जिग्गीवा जवी पंचमुक मगुणेसु नो सज्जति नो रज्जति सेणं इहभवे चेव बहृणं समण बहणं समणीण बहूर्ण साक्याणं यहूणं साधियाणं अच्चणिज्जे परलोए नो आगच्छति जाव वीतीबतिस्मति जहाते पुरिमा ॥ ११ ॥ तत्थणं अपेगतिया पुरिसा धण्णस्म सत्यवाहस्स एयमटुं जोमदहति ४ धण्णस्म एयमटुं अग्नदहमाणा ४ अमेव ते दिफला तेणेव उवागछति, तेसिणं गंदिफलाणं मूलाणिय जाव बीममंति, तसिणं आवाए भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरावति ॥१२॥एवामेव परंतु वहां रहे पीछे उन का रस परिणपते हुए सुरूप पने परिणमा |॥ १० ॥ अहो आयुष्ण्न् ! श्रमणों एमे ही हमारे साधु माधी यावत् पांच कापगुणों में गूद नहीं होने है वे इस भव में बहुत मायु, साधी. श्रावक व श्राविकाओं में पूज्यनीय होने है और परलोक में दर्गनि में नहीं जाने है यावन् परंपरा से मक्ष जाने है. ॥१॥ कितनेक पुरुषाने धना सर्थवाह के वचन की श्रद्धा प्रतीति व रूच की नहीं है और नंदीफर वृक्ष की पम गये. उनके मूल कंद वगैरह खाने गे, छाया में विश्राम करने लगे. उन को पहिले कल्याण हुभा परंतु जब उस का परिणाप हुआ तब विना मृत्यु,से मरण हुभा ॥ १२ ॥ अहे पहनावहादालाला मुखदवमहायजी वागम माह For Personal & Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 सांड ज्ञाताधर्मकथाका प्रथम समणा उमो ! जो अम्हे निग्गीथोवा जिग्गंधीवा पवतिए पवमुकामगुणसु सजति रजइ ज व अणु परिय दृस्मति जहाव तेपुरिसा ॥ १३ ॥ ततणं धणसत्यवाह सगडीसागड जायाति जायायेत्ता जगेव अहछत्तागयरी तेणेव उपागच्छ३ २ अहिछत्ताए णयरीए बहिया अग्गुजागसि सत्यानवमं करात २ ता सगडीमगडं मोयावेति ॥ १४ ॥ ततेणं से धण्णेसत्थव हे महरां रायारिह पाहुडं गेण्हति रायारिहं पाहुडं गोणिहत्ता बहुपुरिसेहिं साई संपवुिड आहेछ त णयारम्झंमज्झणं अणुप्पविमति २ ता जेणेव कणगक ऊ राया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयल जाव बद्धावेद २ तं महत्थं ३ पाहुडं उणेइ ॥ १५ ॥ ततेणं से कणगके.ऊराया हट्ट अयष्मन् ! श्रपणे ! हमारे साधु साध्वी यात् पांच कामगुणों में गृद्ध हं.गा वह यावत् सर में परिभ्रपण करेगा. ॥ १३ ॥ प्राधना सार्थवाह सब गाडे जोताकर अहिछत्र नगरी में गये. वहां पडाव कर गाडे छुडवाये. ॥ १४ ॥ धनः सार्थमा मह मूल्यवाला व रजा को योग्य भेट गा लकर बडुन पुरुषा की साथ अहिछत्रा नगरी की बीच में होते हुए कनक रतु राजा की पास गया. उन को हाथ जोडकर विधाये और वहां महाअर्थवाला भेटगा रख दिया. ॥ १६ ॥ कनकेनुरनाने हृष्ट तुष्ट बनकर महा फरवन का पन्नरहमा अध्ययन अथ For Personal & Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ **मनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालका तु तं महत्थे ३ जात्र पडिच्छति, घण्णं सत्थव हं सक्कारेमि समाति सक्कारेचा समाणेता उम्मक्कं वियरति पाडावसज्जेति भडविणामयं करेति २ पडिभंड गति २ ता मुहं सुहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता मित्तणाति अभिसमण्णागते विपुलाति माणुस्सगाई जाब विहरांत || १६ || तेण कालेणं ते समए थेरागमणं धणे धम्मं सोच्चा, जेटु पुत्तं कुटुंबे टूवेत्ता पव्वतिए, सामाइसाई एक्कारस अंगाई बहूणि वासाणि जाव मासियाए संलेहणः ए अन्नयरेसु देवालोएमु देवताए उबवण्णे सेणं देवा ताओ देवलगाओ आउक्खएणं भक्वएण टिइक्खणं अण्ण अर्थवाला भेटणा का स्वीकार किया. उन का मत्कार सम्मान किया. उन का कर माफ कर दिया और वहां से विसर्जित किया. धन्ना सार्थवाहने अपना करियाणा बेच दिया और वहा से दुसरे डोपकरण ग्रहण कर सुख पूर्वक चंपा नगरी में आये. मित्र ज्ञाति जनोंकी साथ मीलकर मनुष्य संबंधी विस्तीर्ण वाम भाग भांगता हुवा विचरने लगा. उस काल उस समय में स्थविर भगवंत पधारे, परिषदा वंदन करने को आइ, धन्ना सार्थवाह धर्म सुनकर ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापकर पवन्ति हुए. सामायिकादि अग्याग्ड 'अंग का अध्ययन कर बहुत वर्ष संयम पाल कर यावत् एक मास की संलेखना से किसी देवलोक में For Personal & Private Use Only ● काशक राजा बहादुर लालासहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ५५८ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aaaaaaaaaaaamwww 488 तरणं चयं चइत्ता महाविदेहवासे सिजिहिति जाव अंतकरेहिइ॥१७॥एवं खल जंबु ! ममणणं भगवया महावीरगं जाव संपत्तेणं पण्णरसमस्स णायज्झयणस्म अयम? पण्णत्ते ॥ तिबेमि ॥ १५ ॥ गाथा-चपाइव मणुगई, धण्णुव्व भयबंजिणोदइक्कारसो अहिछत्ता णयरि समं, इह णिव्याणं मुणेयव्वं ॥ १ ॥ घोसणयाइवतित्थंकरस्स मिवमग्गदेसण, महग्धं चरगाइजोव इत्थं सिव सुहकामाजिया ॥ २ ॥ बहवे दिफलाइव्वइ इहंसिवपहपडिबण्णगाणं, विसयाओ तभक्खणाओ मरणं जहा तह विसएहिं संसारो ॥ ३ ॥ तव्वजणेण जह इट्टपुरगमो विसायावजणेण तहा परमाणंद णिबंधण सिवपुरगमणं मुणेयत्वं ॥ ४ ॥ पन्नरसमं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १५ ॥+ देवत पने उत्पन्न हुआ. वहां से चरकर महाविदह क्षेत्र में स झेंगे, बुझेग व सब दुरों का अंत करेंगे ॥१७॥%2 अहो अम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीरने ज्ञाता सूत्र के पन्नात्रा अध्ययन का यह अर्थ कहा. ॥ १५ ॥ उपमंहार-चपा नगरी जैपमय गति, धन्ना सार्थवाह जैसे जिन प्ररूपित अनुपम रस और अहिछत्रा। नमरी जैपे निर्वाण जानना. ॥१॥ उद्घाषणा जैसे तीर्थकर की शिवमार्ग की देशना, चारकादि जै? मक्ष सुख के कामो जीवों जानना. ॥ २ ॥ बहन नंदीफल जैसै शिवपथ मे विरुद्ध करनेवाले विषयों हैं.14 से नंदीफल खाने में मृत्यु होता है वैसे ही विषय सेवन मे संसर को को बृद्धि हाती है ॥३॥ नंदी फल वृक्ष का त्याग करनेवाले इष्टकारी स्थान पर पहूंन गये पैसे ही विषय त्याग से परमानंद रूप. 14बंधन सहित मोक्ष मार्ग में गमन करने का जानना ॥४॥ यह ज्ञाता सूत्र का पभरका अध्ययन सपूंण।।१५॥ षष्टजज्ञाताधर्मरथा का प्रथम श्रवन्ध 48 तला पुत्र का च उदहवा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० HAL अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोलक ऋषिजी - ॥ षोडश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तण पन्नरममस्त णायज्झय स्स अयमढे पन्नत्त सालसमस्मणं भंत ! णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं ज व संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जबु ! तेणं कालणं तणं समएणं चंपाणाम ण यहिोत्था, तीसणं चपाए गयरीए बहिया उत्तरपुरथिम दिसिभाए सुभूमिभागं उजाणे होत्था ॥ २ ॥ तत्थणं चंपाए. गयरीए तओ माहणा भायरो परिवसंति तंजहा-सोमे, सोमदत्त सोमभूए, अड्डे जाव अपरिभूए जाव रिउवेदे जाव मुरिनि टुया ॥ ३ ॥ तेसिं माहणाण तओ भारिया होत्था तंजहा अहो भगवन् ! श्री श्रमण भगवंत. महावीर स्वामीने बाता मूत्र के पन्नरहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो सोरहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥१॥ अहो जम्बू! उस काल उस समय में चंपा नामक नगरी थी. उस चंपा नगरी के बाहिर ईशानकून में सुभूपि भाग उद्यान था ॥२॥ उस चंपा नगरी में तीन ब्राह्मण रहने ये जिन के नाम--१ मोम २ सोमदत्त व ३. सोमभन. वे ऋद्धिवंत यावत् । सअपरान थे. ऋमेदादि चारों वेदों में अति निपुण थ ॥ ३ ॥ उन तीनों ब्रह्मणों को तीन खियों थी. .काशक-जावहादुरगला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4+ षटङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का म अण्ममण्णस्म • नागमि, भूतसिरी, यक्खसिरी, सुकुमाल जात्र तेसिणं माहणाणं इट्ठा ते विउले माणुस जाव विहरति ॥ ४ ॥ ततेणं तोसें माहणाणं अन्नया कथाई एगयओ समयाणं जाव इमेयारूत्रे मिहोकहानमुलाचे समुप्पजित्था एवं खलु देवाध्विया ! अम्ह इमे विउलंघणं जाव सावएजे अल हि जात्र आसत्तमातो कुल सांतो पकाम दाउं पकामंभोत्तुं, पकामं परिभाएउ, तं सेयं खलु अम्हे देवाणुपिया ! अष्णमण्णस्स गिहे सु कल्लाकलं विउल अरुण ४ उबाक्खडावेइ २त्ता परिभुजमाणा बिहारतर एम पडिसुर्णेति कल्ला कलिं अन्नमन्नस्म गिहसु विउलं असणं ४ उक्खडावैति उत्रक्खडावेत्ता परिभुंजमाणा विहरति ॥ ५ ॥ ततेणं तीस जिन के नाम- १ नाग २ श्री ३ यक्षश्री. बे सुकोमल यावत् उन ब्राह्मणों को इष्ट थी और वे मध्य संबंधी भोगोपभोग भोगवती थी ॥ ४ ॥ एकदा उन ब्रह्मण ने एकत्रित मीलकर एमा वार्ता ला किया कि अहो देवानुप्रेय ! अपने को ऐसा विपुल धन यावत् स्वापनेय मीला है, जिस से मात पीडीतक बहुत देते हुए, बहुन भोगते हुने व बहुत विभाग करते हुवे भी कम होने नहीं इतना है इन मे. अहो देवानुप्रिय ! सदैव परस्पर एक २ गृह में वितीर्ण अशनादि बनाकर जीमना अपन को श्रेय है. सब यह बात मान्य की. और सदैव एक २ के गृह में विस्तीर्ण अशनादि बनाकर भोगते हुने विवरने मे ॥ ५ ॥ For Personal & Private Use Only 48 द्रोपदी का सोलहवा अध्ययन ५६१ ( Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवार एजानेयाविहात्या ॥ ततेणं सा नागसिरी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडतित्ता एगंमह सालतियं तिन्लाडयं बहुसंभारसं जुत्तंणेहाबगाढं उवक्खडावेइ २ ता एगविंदुय करयलंसि आसाएति २त्ता, तं खारकडुयं अग्वजं विसमयं जाणित्ता, एवं क्यासी-धिरत्थुणं मम नागमिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दृभगाए दृभगसत्ताए दुभग लिंबोलियाए जाएणं मए सालए बह संभारं संजुए नहावगाढे उवक्खडिए मुदबक्खाए अभक्ख एयकए, तं जतिणं मम जाउएयाओ जाणिस्तति तोणं मम खिसस्संति तं जाव एकदा नागश्री के वहां सब का भोजन बनाने का हुवा. नागश्री ब्राह्मणीने विपुल अशादि पनाये और बस मंभार महिन बहुत प्रा डालकर स्नडत एक तुंबडी का शाक भी बनाया. फार उस का । बिन्द हाथ में लकर उन का अनादन किया तो उसे क्षार कटुक अभय व डाल देने योग्य जाना और ए । मन में बेलने लगा कि अहां देवान प्रय! मुझ घिर है. मैं अधन्या, अपुण्या, 'भई व दर्ग मत्ववाली हूं निम्न फल जैसे अनादरणीय हूं क्योंकि मैंने बहुत संभार डालकर व (Vत से परिपूर्ण ऐ ।। दुक तुम्ब। का शाक बनाया. इन में अच्छे द्रव्यों का व्यय किया परंतु खाने 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनी श्री अमोलक ऋषिर्जी. धराशक-राजाबहादूर लाला मुख्दवमहायजीवालाप्रसादजी । For Personal & Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + # पटांङ्गज्ञान धर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध + ताव ममं जाउएयांओ गजाति, ताव मम सेयं एवं सालयं तित्ता लाउयं बहु संभारणेहकयं एगंते गोवेत्तए; अj सालइयं महुर लाउय जाब गेहओगाढं उवक्खडित्तए २, एवं संपेहेइ एवं संपेहेइत्ता तं सालाइयं जाव गोवइ २, अण्ण सालाइयं महुर लाउयं उवक्खडेति, तेति माहणाणं व्हायाणं जाव सुहासण वरगयाणं त विपुलं असणं ४ परिवेसेति॥६॥ततेणं ते माहणा जिमिय भुत्तुत्तरागया समाणा आयंत चोक्खा परममइभया सकम्म संपाउत्ता जायाधि होत्था ॥ ७ ॥ ततेणं ताओ माहणीओ ण्हाया जाव भूसियाओ तंविउलं असणं ४ आहारेति, जेणेव सयाति २ गेहाति योग्य नहीं बन सका. यदि मेरो देगणियों नानेगी तो मर खिसना करेगी, इम से वे इस बात को जाने नहीं वैसा करना. इस से इस शाक को एकांत में गुप्त रखना और दूसरा मिष्ट तुम्मी का वैसे ही शाक बनाना मुझ श्रय है. ऐना विचार कर उन कटु तुम्बि का शाक का गोपन किया व अन्य मिष्ट शाक बनाया. जब वे ब्राह्मगों अशनादि करके मुख पूर्णकठे थे तब उन को विपुल अशनादि १रूसा ॥ ६ ॥ ब्राह्मणों जीमे पाछे शूचिभून बनकर अपने २ काम में प्रवृत्त हुए ॥ ७ ॥ फोर तीनों ब्राह्मणयों है न किया यावत् अलंकार से विभूषित बनकर विपुल अशनादि का आहार किया. फर अपने २१ द्रोपदी का सोलहवा अध्ययन अर्थ 448 Htt. For Personal & Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपलक ऋषिजी तेणे उचागच्छइ, कम्म संपउत्ताओ जायाओ ॥ ८ ॥ तेणं कालेगं तेणं समएणं धम्मघोस काम थर जब बहु परिवारा जेणव चंपा नाम पयरी जेणेव सूभूमि भाग उनाण तेणेव उवागच्छ २ त्ता अहा पडिरूवं विहरति ॥ ९ ॥ परसा जिग्गा धम्माकहिओ परिसा पडिगषा ॥ १० ॥ ततणं तेसिं धम्म घांसाणं थेसणं अंतेवासी धम्मरुई णामं अणगारे उराले जाव तेयलस्मे मासं मासेणं खमाणं विहरति ॥ १३ ॥ तले से धम्मरुई अणगारे मासखमण पारणगंसि पढमा पोरसीए सज्झायं करेति २ सा बीपाए मोरसीए एवं जहां मोयमसामी ॐ गृह आकर अपने २ कार्य में प्रवृत्त हुई. ॥ ८ ॥ उस काल उस समय में धर्मघोष स्थविर यावत् | बहुत परिवार सहित चंपा नगरी के भूमिभाग उद्यान में आकर यथ प्रतिरूप अवग्रह याचकर यावर विचरने लगे. ॥ ९ ॥ परिषदा वंदन करने को नीकली. धर्म सुनकर पीछी गइ ॥ १० ॥ धर्मघोष स्थर के अंतेवासी धर्म अनगार थे. वे उदार तपवाले यावत् तेजोलेश्यावाले थे. और (माममण की तपस्या करते हुवें विचरते थे | ११ || अब धर्मरूचि अनग़ारने मामक्षमण के पारने के दिन पहिले महर में स्वाध्याय की, दूसरे पहर में ध्यान किया वगैरह सब गौतम स्वामी जैते For Personal & Private Use Only सरकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालामसादगी ५६४ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48+ षष्टांद्र ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम थुतस्कन्ध नगरी उच्च पासइ तव उग्गाहति २ ता तहेव धम्मघोस थेरं अपुच्छइ २ जाव न च मज्झिम् कुलाई जावं अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेब अणुवि ॥ १२ ॥ ततणं सा नागसिरी माहणी धम्मरुई . अणगारं एजमाणं सालतिरूपं तित्त कडुयस्स बहु पेहा पडणटुगाए २ ता तस्स एउट्ठेति २ जेणेव मतघरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता सालतिथं तित्तं कड्य - बहुणेह धम्मरुइस्स अणगारस्म पडिग्गहंसि सत्यमेव ततेणं मे धम्मरुई अणगारे अहापजत्त त्तिकद्दु गिहातो पडिणिक्खमति २त्ता चंपाए जयरीए मज्झं मज्झणं पडिणिक्खमइ २त्ता जेणेव हट्ठ णिस्सरति ॥ १३ ॥ नागसिरीए माइलीए. i +8+ द्रौपदी का सोलाना अध्ययन अभिग्रह धारनकर घघोष स्थविर की आज्ञा लेकर चंपा नगरी के ऊंच नीच व मध्य कुल में यावत् परिभ्रमण करते नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रवेश किया || १२ || अब नागश्री ब्राह्मणी धर्माचे अनगार को आते हुब देखकर उल कटुक तुम्बि का विकास वाला शाक देने का भाजन जानकर दृष्ट तुष्ट हुई. अपने आसन से उठ कर भोजन गृह में गई, और स्ने वाला कटुरुतु का सब शाक धर्मरू च अनगार के पात्र में डाल दियां ॥ १३ ॥ धर्मरूचि अनगार यथापर्यत ( चाहिये उनने ) जान कर नागश्री शमी के गृह मे नीकले और चंपा नगरी की बीच में होते हुये सुभूभाग यान में For Personal & Private Use Only ५६६ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ श्री अमोलक जी 42 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ २ जेणेव धम्मघोसा थेरा, तेणेव उवागच्छइ २त्ता धम्मघोर अदूरसामंते अण्णपाणं पडिलंहेइ अण्णपाणयं करयलांस पडिदमेति ॥ १४ ॥ ततेणं धम्मघोस थेरे तस्स सालातयस्स हावगाढस्स गंघेणं अभि भूयममाणा ततो सालाइयातो नेहावगाढाओ एगबिंदुयं गहाय करयांस आसादेइ तित्तगं खारं कडुयं अखजं अभोज विमभूर्ति जाणित्ता, धम्मरुइं अणगार एवं वयासी-जतिणं तुमं देवाणुपिया ! एयं सालतियं जात्र हावगाढं आहारोस ताणं तुमं अकालेचव जीवियाओ ववरोबिज्जासि; तं गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया इमं साळातियं एगंत मणावात अचिचे थंडिल परिटुबेति २ अण्णं फार्य एस णिज्जं स्थविर की पास आये. धर्मवेष मुनि के पास अन्न व पानी की प्रतिलेखना कर उसे हाथेली में ले कर बतलाया ॥ १४ ॥ उस स्त शाक की गंध से पराभूत होने से घघोष अनगारने उस का एक बिन्दु हाथ में लेकर उस का आस्वादन किया. उन को क्षारयुक्त, कटुक, अखाद्य, अभाज्य, व विषमय जानकर धर्मरुचि अनगार का ऐसा कहने लगे कि अहो देवानुमय ! यदि तब इस कटुक तुम्बी के शाक का आहार करोगे तो बिना मृत्यु से तुम को मरना होगा. इस से अहो देवानुप्रिय ! इस शाक को एकांत लजा कर अचित्त भूमि में परिठा दो और दूसरा फ्रमुक एप.णिक आहार लाकर उसका आहार करो For Personal & Private Use Only • प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसहाय मज्विालाममादजी * ५६६ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. षष्टांग ज्ञताधमर्कथा का प्रथम श्रुतस्कंध 444 असणं ४ पडिगाहेत्ता आहारं आहारेति ॥१५॥ ततेणं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वुत्ते समाणे धम्मघोसरस थेरस्स अंतियाओ पडिाणक्खमति २ त्ता सुभूमिउजाणाओ अदुरसामंते थंडिलं पडिलेहेति थंडिलं पडिलेहेत्ता ततो सालाइयाओ एगविंदु गहाय थंडिल्लति णिसिरति ॥ ततेणं तरस सालतियस्स तित्ता कडुयस्त बहुगेहावगाढस्स गयेणं बहणि पिवीलिगा सहस्साणि पाउ जा जहायणं पिपीलिआ आहारोति सा तहा अकाले चेव जी बयाओ ववरोविजति ॥१६॥ ततेण तस्त धम्धरुइस्म इमेवारूवे अझथिए समुपजित्था अइ ता३ इमस्त तालाइयस्त जाव एगमि ॥ १८ ॥ धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पा धरूचि अनगार उन की पास से नीकले और सुभूमि भाग उद्यान से दर में स्थं डल भूमि की प्रतेलखता की. वहां उस शक का एक विंद लेकर डाला. उस स्नह युक्त कटु सतुम्बे के शक की गंध से सहस्रो चीटियों आइ ओर जो २ उमे खाने लागा वे तत्काल विना मृत्यु से मरने लगी. ॥ १६ ॥ धर्म रूचि अनगार को ऐसा अध्यवमाय हुमा कि इम स्नेह युक्त कटु सतुम्धी के शाक का एक विन्दु स्थंडिल में डालने से अनेक चींटियों उस को खाकर मर जाती है, तत्र यदि मैं यह सत्र स्थंडिल में डाल दू तो बहुन पाण, भन, जीव व सत्तों का वध होवे, इस पे मुझे ही सममेव । पदी का मोरहवा अध्यपन - 42 For Personal & Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ बिंदुमि पविखतमि अगाई पिपलिगा रहस्सासि ववरादिज्जति तं जति अहं एवं मालातिय थंडिल से सव्वं णिसिरामि ताणं बहुगं पाणाणं ४ वहकरणं भविस्मति तं मेयं खल ममेयं सालीयं जाव गाढं सयमेव आहारितए ममंत्र एएणं सरिएणं बिजाओ तिकट्टु, एंव संपेहति २ ता मुहत्तिय पडिलेहेति २ ससिमोवारथं कार्य पमज्जेत २ तं सालतियं तित्त कडुयं बहुनेहगढ विलमिल पणगभूएणं अपाणं सव्यं सरीर कोदुगंसि पक्खिवति । १७ ॥ ततण धम्मरुइस्स तं सालति जाव णेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरणं परिणममाणांस सररिगसि वेणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरुहियासा ॥ १८ ॥ ततेणं से धम्मरुइ अणगारे शाक का आहार करना चाहिये. यह मेरा शरीर ही निर्बंध है. ऐसा विचार कर मुखात्रिका की प्रतिले खना की और मस्तक सहित सब उपर की काया की प्रमार्जना की. फेर उस वटुक स्नेह वंत सब शाक को जैसे सर्व अपने बिल में प्रवेश करता है वैसे ही बिना पानी मे अपने शरीर रूप कोठे में डाल दिया. ॥ १७ ॥ उस स्नेहवंत कटुक तुम्बी का आहार किये पीछे एक मुहूर्त में उस की परिणत हुई. इस तरह उस शाक का परिणाम होने से शरीर में उज्जल यावतु नहीं सहन होमके वैसी उजाल वेदना प्रगह हुई || १८ || जब धर्मरूचि अनगार स्थान, वल, वीर्य पुरुषाकार व पराक्रप रहित हुए, 44 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपलक ऋषेत्री For Personal & Private Use Only *काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला मसादर्ज ५६८ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * ५६९ अत्थामे अबले अवीरिए अपरिसक्कार परक्कमे अधारिजेमि त्तिकटु आयार भंडगं एगते ठोति ठवेत्ता, थंडिल्ल पडिलेहेति २, दब्भमथारगं संथाग्इ २ दब्भसंथारगं दुरुहइ २ पुरच्छाभिमुहे संपलियंकनिमन्ने करियल रिग्गहियं एवं वयासी-णमोत्थुणं आहना भगवंताणं जाव सपेत्ताणं, नमत्थगं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुर्दिबपि मए धम्मघोसाणं राणं अंतिए सब्वे पाणाइवाय पच्चक्खाए जावजीवाए जाव परिगहं पच्चक्खामि जावजीवाए जाव खंदतो जाव चरिमेहिं उस्तास वोसरामि त्तिकटु आलोइय पडिकते समाहिपत्ते कालगते ॥ १८ ॥ ततणं तब आचार के भंडोपकण ( रजोहरण पात्रादि ) को एकान्त में रखकर स्थंडिल की प्रमार्जना की. दर्भ सथारा का बिछोना किया, वहां पूर्वाभिमुख से पर्वकासन से बैठ कर दोनों हाथ जोडकर ए । बाले अरिहंत भगवंत कि जो मोक्ष को प्राप्त हुए हैं उन को नमस्कार होबे, और मेरे धर्माचार्य धर्मोप देशक धर्मघोष स्थविर को मेरा नमस्कार होवो मैंने धर्मघोष अनगार की पास से पहिले भी यावत् जीवन सब प्राणातिपात यावत् सब परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है और अब भी जावजीव सब प्राणातिपात यावत् सब परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं यावत् चरिम उश्वास निश्वास पर्यंत सब शरीर को स्पजता 12 हूं. यो आलोचना, प्रतिक्रमणकर समाधि सहित कास धर्म को प्राप्त हुआ ॥ १८ ॥ धर्मरूवि अगार षष्टाङ्गज्ञाताधमेकथा का प्रथम अतस्कन्ध । मोहवा अध्ययन 480 For Personal & Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 अनुवादक लिब्रह्मचारीमुनि श्री अमोल ऋषि धम्मघोसा थे धम्मई अणगारं चिरगयं जाणित्ता समणे णिग्गथ सदावेति २ एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! धम्मरुइ मासखमणपारणगांस सालइयरस जाव गाढस्स णिसिर टुपाए बहिया णिग्गए चिरावेति, तं गच्छहणं तुब्भे देवाणुपिया ! धम्मरुइस्स अणगाररस सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेह ॥ १९ ॥ तवेणं तं समणा णिग्गंथा जाव पडिसुणेति २ त्ता, धम्मघांसाण थेराणं अतियाओ पडिणिक्खमति २ त्ता धम्मरुइस्स अणगारस्त सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिलो तेणव उवागच्छइ २ त्ता धम्मरुइस्सं अणगारस्स सरीरगं को गये हुवे बहुत समय हुन जानकर धर्मघोष स्थविरने अन्य श्रपण निर्ग्रन्थों को बोलाये और कहा कि परिठाने का बाहिर गये हैं, और उम नगार की चारों दिशी में गवेषणा करो. धरुचि अनगार मामक्षमण के पारने में स्नेहयुक्त कटुक शाक को बहुत समय हुवा है. इस मे अहां देवानुप्रिय ! तुम धर्मरूचि | ॥ १९ ॥ धर्मघोष स्थविर की पास से ऐसा सुनकर श्रमण निर्ग्रन्थों उन की पास से नीकलकर धर्मरुचि { अनगार की चारों दिशि में गवषणा करते हुए जहां स्थंडिल स्थान था वहां आये. वहां धर्मरुचि अनगार के शरीर को प्राण रहित, निश्चेष्ट व जीव रहित देख कर दादा ! अरे अरे ! यह अकार्य ! ऐसा कर के धर्मरुचि For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक - राजावर दुर लाला सुखदेवसहाय जी ज्वालाप्रसादी ● ५७० Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 44- षष्टां ज्ञ ताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्वन्ध + णिप्पाणं णिच्चटुं जीव विप्पज्जढं पासंति हाहा ! अहो ! अकजो ! ! तिकट्टु; धम्मरुइस्स अपरिणिव्वाणवत्तियं काउसग्गं करेति २ धम्मरुइस्स आयारंभडग गेण्हइ २त्ता जेणेव धर्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ गमनागमणं पडिक्कमति २ एवं बयासी एवं खलु अम्हे तुम्भं अंतियातो पडिणिक्खममाणा सुभूमिभागस्म उज्जाणस्स परिपेरं तणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्त्र आत्र करेमाणा जेणेवं थंडिल्ले नेणेव उवागच्छइ २ जाव इहं हन्यमागया । तं कालगणं भंते ! धम्मरुई अणगारे इमे से आयार भंडए ॥ २० ॥ ततेणं धम्मघोसा थेरा पुञ्चगए उवओगं गच्छति उनओगं अनगार के निर्वाण का कायोत्सर्ग किया. उन के भंडोपकरण लेकर धर्मघोष स्थविर की पास आये, वहां गमनागमन का प्रतिक्रमण किया, फोर कहने लगे हम आपकी पास से नीकल कर सुभूमिभाग उद्यान की आमपास चारों तरफ घर्मरु चे अनगार की गवेषणा करते हुए स्थंडिल भूमि में गये और वहां धर्माचे अनगार का शरीर प्राण रहित निश्चेष्ट व जीव रहित देखा. हमने उन के निर्वाण का कायोत्सर्ग किया फोर वहां से उन के भंडे पकरण लेकर यहां आप की पास आये हैं, अहां पूज्य धर्मरुचि अनगार कालगत ब हुए हैं. उन के यह भंडोपकरण हैं ॥ तब धर्मघोष स्थविर ने पूर्वगत उपयोग लगाया, उपयोग २० ॥ For Personal & Private Use Only 4 द्रौपदी का सोलहवा अध्ययत 483+ ५७१ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06 ५७२ की अनवादक-बाल ब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी + मच्छित्ता समणिग्गथे णिग्गंथीओय सद्दावेति ३ त्ता एवं वयासी-एवं खलु अजा मम अतवासी-धम्मरुईणाम अण. गार पगइभदए जाब विणीए मासं मासण अणिक्खित्तेण तवोकम्मणं जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपबिटु ॥ ततणं सा णागसिरी माहणी जाव णिसिरइ ॥ तएणं धम्मरुई अणगारे अहपजत्तमि त्तिकटु जाव कालं अणवखमाणा विहरति ॥ सेणं धम्मरुई अणगारे बहूण वास्गणि सामण्ण परियागं पाउणित्ता आलोइय पडिक्कते समाहि पत्त कालमासे कालंकिच्चा उट्टे जाव सम्वट्ठसिद्धि महाविमाणे देवत्ताए उबवण्णे, तत्थणं अजहण्ण लगाकर सब साधु माधीयों को बोलाकर कहने लगे कि अही आय: ! मेरा अंतरासी धर्मरुचि अनगार प्रकृतिसे भद्रिक व विनीत था. वह निरंतर मासक्षमण का नए कर के यावत् नागश्रा व ह्मणो के घर में गौचरी के लिय गया था. नागश्रा ब्राह्मणी न स्नेहवाला कडुवे तुम्बे का सब शाक उन के पात्र में डाल दिया. तब धर्मरुचि अणकार ने यथा पर्याप्त जानकर यावत् काल को नहीं च्छते हुए विचर ने लगे धर्मरूचि अणगार बहुत व पर्यंत साधुपना पालकर आलोचना प्रतिक्रपण कर समाधिसीहत काल के अवसर में कालकर ऊंचे सर्वार्थसिद्ध विमान में देवता पने उत्पन्न हुए, वहां जघन्य. उत्कृष्ट तेत्तीस सागरो प्रकाशक राजाबहादुर काला मुखदव महायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटांगातःधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध 48+ मणुक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता; तत्थणं धम्मरुइस्स देवस्स तेत्तीस सागरोवमाति ठिई पण्णता ॥ सेणं धम्मरुई देवे ताओ दवलोगाओ जाव महाविदेहवासे मिज्झिहिति ॥ २१ ॥ तं धिरत्थूण अजो ! नागमिरीए माहणीए अधन्न'ए अपुन्नाए जाव निंबोलियाए, जाएण तहारूवे माहु माहरु धम्मरुई अणगारे मासखमणसि पारणगंसि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ॥ २२ ॥ ततेण ते समणा जिग्गंथा धम्मघोमाणं थेगणं अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म चंपाए नयरीए सिंघाडग तिग जाव बहुजणस्स एमाइक्खति पम की स्थिते कही. इस में धचि देव की भी तेतीस मागरोपम की स्थिति कही धरुन अन्गार -उम देवलोक में अयष्य स्थिति व भाको क्षयहोने मे वहां से चवकर यावत् महाविदेह क्षेत्र में, सीझेंगे ॥ २१॥ अहो पायर्यो ! नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार होवो यह नागश्री ब्राह्मणी अधन्या अपुण्या पावत् विला जैसी है इस ने तथारूप माधु के गुणवाला धर्मरु'चे अनगार को मसक्षमण के .. पारन में रेह युक्त कटु 5 तुम्बे का आहार देकर उन का अकाल से पृत्य किया ॥ २२॥ वे स्थिचिरों धर्मघोष स्थविर को प स से ऐ मुनकर चंपा नगरी के शृंगाटक यावत् बहुव जनों को एमा 448+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन + 4. For Personal & Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादकालब्रहचारी मुनि श्री अमोलकाजी घिरत्थुगं देवाणुप्पिया ! णागसिरीए. माहणीए जाव जिंबोलियाए जएणं तहारूवे साहु साहुरूवे सालतिएणं जीवियाओ ववरोवेति ॥ २३ ॥ तत्तणं तेसिं समणाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा गिसम्म बहुजणो अण्णमण्णस्त एवमाइक्खति एवं भासति धिपत्थुगं णागसिरीए माहणीए जाव ववरोवेति ॥ २४ ॥ ततणं ते माहणा पाए णयरीए बहुजणस्म अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुस्ता जाब मिसिमिसे जेणेव णागसिरीए माहणी तेणेव उवागच्छइ, णागसिरीए एवं वायसी-हं भा णागसिरी ! कहने लगे कि नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार हावो यह अधन्या अपुण्या व नियली नैमी है. इस में नया का माधु के गणवाले धर्मवि अणगार को स्नेहवाग कटुक तुम्ब का आहार देकर अकाल से विना मृत्य पारडला ॥ २३ ॥ इन श्रपणों की पास से ऐमा सनकर बहुत लोगों परस्पर ऐमा कहने लगे, कि नागश्रा ब्रह्मणः को धिक्क र हा यावत् धर्मरुचि अणगार को बिमृत्यु से मार डाला ॥ २४ ॥ चंपा नगरी के बहुत लोगों की पाम मे एमा सुनकर वे तीनों ब्राह्मणो आ यान मिसमिसायमान होकर नागश्री ब्राह्मणी की पास आय और उन को कहने लगे अर अप्रार्थित मृत्यु उस की प्रार्थना करने वाले, दुष्ट होन लक्षणों की धारन करने वाली; तीन पुण्या चतुदर्श की। - ..काशक-राजाबहादुर गला मृम देनरायझी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टानहानाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 43101 अपत्थिय पत्थिय दुरंतपत लक्खणे हीण पुण्ण चाउद्दमे धिरत्थुगं अधण्णार अपुष्णाए जाव लिंबोलियाए-जावणं तुमे तहारूवे साहु साहुरूवे मामखमण पारणगंसि सालतिएणं जाव बवरोविए, उच्चावयाहिं अक्कोसणाहिं अकोमंति, उच्चावयाहिं उग्घोसणाहिं उग्घोसेति, उच्चावयाहि णिज्झत्थणेहि नित्यो.ति तज्जेति तालेते ताजत्ता तालिसा सयाओ गिहाओ णिच्छभति ॥ २४ ॥ ततेण सा जाग सिरी सयाओ गिहाओ णित्थुढासमाणी चंपाए णयरीए सिंघाडग तिय चउक्क चच्चरचउ जन्मी नागो ! तुझे धिक्क र हो. तू अधन्या, अपुण्या व अनादर योग्य है. क्यों कि तैने तथा रूप साधु को माम क्षमण के पारण के दिन स्नेहवंत टु तुम्बे का आहार देकर पिना मृत्य से मार डाला. उस को ऊच नीच आक्रोशकारी व वनो सेतना की. प्रामपिनी तू क्या नहीं मरगड अर दृष्ठ कुल में उत्पन्न होने वाली वगैरह असमंजन वचनों से भरीना की. अर पापि हमारे घर बाहिर नील यों तर्जना की, उस क आभरणालंकार लेलिय फोर उसे तडा करके अपने गृह से बाहिर नीकाल दी. ॥ २४ ॥ इस तरह नागी ब्राह्मणी का घर से बाहिर नीकाल देने में चा नगरों को शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चच्चर यावन् ताज्य मार्ग बहुन लोगों उस को हीलना, खिसना, निदा व गर्दा करन लगे, उस की तर्जना करने लगे। अर्थ पदी का मोलहवा अध्ययन 48 4 For Personal & Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ मह जीव बहजगणं हीलिजमाणी खिंभिजमाणी णिदिजमाणी गरहिजमाणी तजि जमाणी पवाहिजमाणी धिकारिजमाणी थुक्कारिजमाणी कत्थइ ढाणंवा निलयंवा अलभमाणी दंडि खंडमलय, खडघडगहत्थगया फुटहडाहडसीसा मत्थिया चडगरेणं अनिजमाणमग्गा गेहंगहेण देहबलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरति ।। २५ ॥ तेणं तीसे णागसिरीए माहणीए तब्भवति चेव सोलसरोयायंका पाउन्भूया तंजहा- सास, खास, जोणिसूल, जाव कोढ ॥ २६ ॥ ततेणं सा णागसिरी माहणी सोलसहिं रायायंकहिं अभिभूषासमाणी अट दुहट वसा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उसे मारने लगे, उसे धिक्कार देने लगे, उम पर थूकने लगे इस तरह होने से उमको किसी स्थान पर आश्रय पीला नहीं और खंडेत वस्त्र के टुकड से शरीर का गुह्य भाग छोपाती हुई, फुटा हुआ मृत्तिका का परावला फूट' हुना पानी पीने का घड. लेकर, शिर में पत्थरोंक पार से रुधिर नीकलेने से विवरे हुव बाल चिपकगये इस से मक्खियों का गणगणाट हाने लगा इस तरह रहकर घर २ में शरीर की - पुष्टि के लिये भीख मांगती हुई वह नागश्री ब्राह्मणी विचरने लगी ॥ २५ ॥ उस नागश्री ब्राह्मणी को भा में सोलह गेग प्रगट हुए जिन के नाम-श्व स. खास, योनिशूल यावत् कोढ. ॥ २६ ॥ वह भागश्री 1 ब्राह्मगी इन सो ह प्रकार के रोगों से पराभव पइ हुई बहुत दुःखी बनकर काल के अवसर में काल कर अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोहक ऋषिजी प्रकाशक-सजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद जी For Personal & Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र षष्टङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुत488+ उक्को से बावीसेणं : सागरोवमटिसीएस नरएस नेरइयत्ताए उबवण्णा || साणं ततो अतर उहित्ता मच्छेमु उवबन्ना, तत्थणं सत्यवजा दाहकतीए कालमास काल किच्चा अहे सत्तमाए पुढबीए उक्कोण तेत्तीस सागरोत्रमठिम उवत्रण्णा, साणं ततःअगर उचट्टित्ता दोच्चंपि मच्छंसु उत्रवज्जति, तत्थवियणं सत्थवज्जा दाहवकं ती दोपि अहे सत्तमा पुढत्रीए उक्कांमण तेतीस सागरांवम ठेतीसु नेग्इएम उववज्जति, साणं तओहितो जाय उन्महित्ता तचंपि मच्छेमु उवत्रष्णा तत्यत्रियण सत्यवज्झे जात्र कालमासे कालं किच्चा दोपि छट्टीए पुढवीए उक्कांसेणं सागरोवम छठी नारकी में बाइस सामरोपम की स्थिति से नारकीपने उत्पन्न हुई. वहां से अंतर रहित चवकर मत्स्य में उत्पन्न हुई. वहां ते शस्त्र से हणाकर दाह व्युत्क्रांत से उसका अव काल के अवसर में काल कर सातवी पृथ्वा में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति उत्पन्न हुआ. वहां से अंतर रहित चक्कर दू गे चार पुनः मत्स्य में उत्पन्न हुवा, वहां पर शस्त्र से हणाया दाह से व्युत्क्रांत होने से दूसरी बार पुनः माती -रर्क में उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की स्थिति में उत्पन्न हुवा. वहां से अंतर रहित नीकलकर तीमरीवार मत्स्व में उत्पन हुआ, वहां से कालं करके दूसरी बार छठी नरक में उत्कृष्ट बाइस सागरो की स्थिति से उन बाबां से रर्ष में हुआ को मय कथन गोशाला जैसे जानना. } लकर For Personal & Private Use Only 448* द्रौपदी का सोलहवा- अध्ययन 184 ५७७ ( Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । nnnnnnnx अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिमी 43 ठिलिएम उवबजाति,तओगंतरं उध्यहिता उरएमु एवं जहा गोसालो तहा या जाय मणप्पभानोत्तभ340,ततो उनहत्ता सांगणसु उवण्णा तओं उठवहिता जाइ इमाई खहयर विहागाई जाव अदुत्तरंचणं खर बायर पुढवीकाइयत्ताएमु अणेग सयसहस्स खुनो साणतउ अतरं उन्नटि ना इहेत जंबुद्दीवे दीवे भारहवासे चंपाए गयरीए. सागरदत्तस्स सत्य वाहस्म भद्दाए भारियार कत्थिान दारियत्ताए पयाया ॥२७॥ ततेणं भद्दा सत्यवाही पवण्हं मामाणं जव दारियं पयाया, मकुमाल कोमलियगयतालुय समाणं ॥ २८ ॥ तीमे दारियाए णिमत्ताए धारसाहियाए अम्मापियरो इमं एयारूवं गाणं यावत् रत्नप्रभा पर्यंत करना. वहां से नीकलार अंसी में उत्पन्न हुवा, वहां से नीकलकर खेचर पक्षी की जाति में उत्पन्न हुआ. वहां मेनकलकर कठिन सदर पृथकीकाय में उत्पन्न हुवा. उसमें अनेक लक्षार भवभ्रमण किया. स्थ र काा में यों अंक भनभ्रण करने में बहन काल ग हैपीछ इस जम्बूदीपक भरत वर्षको वंश गरी माग दर सार्थवाह की भद्रा भर्या की कुक्षि पुत्र पने उत्पन्न हुआ ॥ २७ ॥ भद्र भान पाम में पुत्रः का जन्म दिया. वह सुकुमार कोमल व के तालुमा समान रक्तपी॥ २८ ॥ इस पालिका को बारह दिन हो पीछे उनके मातापिताने काराबाबहादुर लामासुस्वरेबमहाय ज्वालाममादा | For Personal & Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स त्र H+ पटवताधर्मस्या का प्रथम श्रुतसन्ध 47 गुगणिप्फ गं गामधे जं करेंते जम्हाणं अम्हं एसा दारिया मुकमाल गयतालुय समाणा तं होउगं अम्ह इमीसे दारियाए नामघज कुमाल या २४ ततेणं तीमे दारियाए अम्मापिणे णामधजं सुकुमा लेयत्ति ॥ २९ ॥ तलेग सा कमालिया दारिया पंचधाई परिग्गाडेया तजहां-वीरधाइ जाव गिरिकस्मट्रीणाइव चपगलया निवाया जिवघयंसि जाव पारड्ढइ ॥ ३० ॥ तएणं सा सुकुमालिया दारिया उम्मक बालभात्रा जाव रूपेण जाणणय लावण्जणय उकिट उछिद्र सरीरा ज यायावि हत्या ॥ ३१ ॥ तत्थणं चराए गयरी जिगदसे नामसत्थवाहे परिवसद अद्वै।।३२॥ तस्तणं जिणदत्तस्त भदाभारिया इट्ठा जाव भ.णुए कामभोगे पच्च गुरुम १६प का गुग निष्पन्न नाम दिया. हमारी यह पुर्व सुकमार व हाथी के तालो ममान रक्त है इस से पुना का नाम मुसिका हवो ॥ २७ ॥ उस पुत्र की क्षार धात्री आदि पांच धात्रियों रक्षा करन गी. और जगदमा की चा लता किसी व्याघात विनः वृद्धि पानी है वैभही वृद्ध पाने लगी। ॥ ॥ अब वह सकालेका पुर्व बाल भ.व में मुक्त होकर यावत् रूप, यवन व लावण्य से उत्कृष्ट व उत्कृष्ट शरीग्बल हुई ॥ ३१॥ वहां चंग नगरी मिन्दस नाम का साथ रहता था. वह ऋद्धिवंत यारत् अपराभूत था ॥ २२ ॥ म जिनदत्त को भट्रा भाई थी, वह इष्ट यावत् मनुष्य संबंधी कामयोग +2+द्रपदी का मोलहवा अध्ययन answamanAAAAAnn 1 । For Personal & Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अतुमादक-बाल ब्रह्मचारी मुान श्री अमालक कायजा भवमाणा विहरति ॥ ३३ ॥ तरसणं जिगदत्तस्मपुत्ते महाएरियाए अत्तए सागर णामं दारएंसकमाल जाव सरो॥ ३४॥ ततेणं से जिवादत्ते सत्यवाह अन्ना - कयाति मयातो गिहातो पाडणिक्खमति २ ता सागरदत्तस्म सस्थवाहस्स गिहस्म अदूरसामतेणं बीतीवयंति ॥ ३५ ॥ इमंचणं सूमालिया दारिया व्हाया "चडिया - जाव परिवुडा उपि आगासतलगति कणग तं दुमएणं कीलमाणी २ विहरति ॥ ३६॥ ततेणं से जिणदत्ते सत्यवाहे सुकमालियं दारियं पासंति सुकमालय दारियं पासत्ता: सुकमालियाए दारियाए । रूयेय जाव उबिट्ठा जायति विम्हए कोटुंबिय पुरिसे. सदावति २ ता. एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! कस्स भोगवती हुई वि रती थी ॥ ३३ ॥ उम जिनदत्त का पुत्र व भद्रा भार्य का आत्मना सागर नामक पत्र था. यह मुकुगर यावत् सुरूप था ॥ ३४ ॥ एकदा जिनदत्त सार्थवाह अपने गृह में नीकलकर मागग्दत्त सार्थगह के घर की पाम मे जा रहा था ॥ ३५ ॥ इस समय सकपालिका पर्ष स्नान कर अपनी बेटि काओं की माथ यावत् परवरी हुई प्रासाद की चांदनी में मुवर्णपय गेंद से क्रीडा कर रही थी ॥ ३६॥ सुकुपालिका पुत्री को आती हुई देखकर जिनदत्त शेठ एस के रू। में यावत् उत्कृष्ट शरीर में विस्मित हुए. कीदमक पुरुषों को बोलाकर उसने पूछा अहो देवान प्रिय! यह किस की पूर्वी है और इस का नाम काजाचादर लाला मुकदेवमहायजीनामाज!. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - H8 + षष्टांङ्ग .ताधर्षःथा का प्रथम श्रमसान्ध दारिया किंवा नामधेजं से ॥ ३७ ॥ ततेणं से कोर्टविय पुरिसे जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एव बुत्तासमाण। हट्टतुटा, करयल जाव एवं बयासी-एसणं देवाणुप्पिया! सागरदत्तस्स सत्थवाहस्स धूया महाए अत्तया, सुकुमालिया नामं दारिया सुकुमाल पाणिपाया जांब उकिट्टा ॥ ३८ ॥ ततेणं से जिणदत्ते सत्थवाहे तेसिं कौटुंबियाणं तिए एयम? सोचा, जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ ता पहाते जाव.. मित्तणति संपरिघुड़े चंपाए णयरीए मझं मझेणं जेणेव सागरदत्तस्सगिहे तेणेव . उवागए ॥ ३९ ॥ ततेणं सागरदचे सत्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एजमाणं क्या है ? ॥३७॥ जिनदत्त सार्याड के ऐसा कहनेपर कौटुक पुरुषों इष्ट तुष्ट हुए और हाथ जोडकर ऐसा बोलने लग कि अहो दवानुमिया यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्रों व भद्रा भार्या को आत्मजा सुकुमालिका नामकी कन्या है. इन के हाथ पांव सुकोमल है यावत् उत्कृष्ट शरीरवाली है ॥ ३८ ॥ उन कौटुबिक पुरुषों को पास से ऐना सुनकर जिनदच सार्थवाह अपने गृह आया.. वहां स्नान ..करके मित्रज्ञातिजनों को साथ लेकर च नगरी की पंच में होते हुने सागरदत्त सार्थवाइ के गृह आया. ॥ ३९. जिनदत्त सार्थशाह को ना. हुआ इंसासागर सलवार ओमानसिा हुआ. और उन को वो के लिए छौपदी का सोलहवा अध्ययन । • Jain Education Iterational For Personal & Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ 42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलम्ब ऋतिमी पासति एजमणं सिता आसणात अभट्रेति, आसणणं उपणिमतति, .. आमस्थ विसत्थं सहारण वरगयं एवं यासी-भण देवाणुप्पिया ! किमागमणं . पउयण ॥ ४॥ ततेणं से जिगदत्ते सागरदत्तस्म एवं श्यासी- एवं खलु अह देवाणाप्पा ! तब धूयं भद्दाए अत्तयं सकमालियं सागरस्स भाग्यित्ताए घरेमि; जातण जाणह देवाणुप्पिया ! जत्तंवा पतंवा सलाहणिजवा सरिसोवा संजागो तो देज उणं सुकुमालया सागरस्स दारगस्त, सतेण देवाणुप्पिया ! भग किं है धामन के नियंत्रणा की. आमन पर आश्वस्थ विश्वस्थ हुए पीछे उन को ऐमा पुछने लगे कि अहो देव'नुपिय ! आप का आने का क्या प्रयोजन हैं मो .हो. ॥ ४० ॥ तब मागरदत्तन उत्तर दिया कि अहो देगनुप्रिय ! तुम्हारी पुत्री मुभद्रा. भार्या की आत्मजा मुकुणालिका कन्या का मेरे पुत्र सागर की साथ विवाह करो. अहो दवानु प्रिय ! यदि आप योग्य, प्राप्त, श्लाघनीय व मपान संयाग जानते हो तो तुम्हारी मुहमालि का कन्या इमरे मागर पुत्र को दो. अहा देवानुप्रिय ! इप का हम क्या शुक्ल आप को देवे. ॥४१॥ तब सागर त जिनदत्त का ऐसा कहने लगा कि अहो देवासुप्रिय ! यह मुकपोलका पुत्री हम को एक ही है. वह इष्टकारी, कंतकारी यावत् मनोज्ञ है. इस का नाम है। श्रवण करने से हमको बहुन संतोप होता है तो उन को देखने का कहना ही क्या.: इस से अहो देवानुप्रिय ! भकामकाजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसाद.. For Personal & Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARपष्टङ्गज्ञाताधकथा का प्रथम ताप दलयामो सुक्क सुकुमालियाए ॥ ११॥ ततेणं से सागरदत्ते जिणदत्तस्स एवं बया । एवं खलु देवाणुपिया ! सुकुमालिया दाग्यिा एगा एगजाया इट्ठ। ५, जाव किंमंग पुग पासणयाए तं जो खलु अहं इच्छामि मुकमालियाए दारियाए त खणंमधि विप्पउगं तं अतिण देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घग्जामाउए भवति ताणं अह सागरस्स सुकमालियं दलयामि ॥ ४२ ॥ ततेणं से जिगदत्ते सत्यवाहे सागरदत्सेणं सत्यवाहणं एवं वृत्त समाणे जेणेव सएगिह तणेत्र उवागम्छइ२ तासागरदरियं सदावेइ २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता ! सागरदत्ते मम एवं क्यासी-एव खलु देवाणुप्पिया ! सुकुमालियादारिया इट्ठा तंचव, जतिणं सागरदारए ममघर जामाउए भवइ जब दलयामि ॥ ततेणं से सागरए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एव वुत्ते समाणे तासणए म का क्षण मात्र भी वियोग हम नहीं चाहते हैं. अहो देवानुमा! यदि सागर हमारे यहां गृह में जामाता बनकर रहे तो मैं उन को हमारी कन्या दऊंगा. ॥ ४५ ॥ मानरदत्त की ऐसा बत सुरकर जिनदत्त शेठ अपने गृह आये और सागर को बुलाकर ऐसा कहा अहो पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाहने मुझ ऐपा कहा है कि सुकुमालिका पुत्री मुझे इष्ट है यावत् उन का देखने का तो कहना ही क्या. इस से जो सागर कुमार मेरे वहां गृहजामाता बनकर रह तो में मेरी कम्या द जिनदत्त के ऐसा कहनेपर सागर ट्रैपदी का सोलहश अध्ययन 44.30" अर्थ For Personal & Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिनी .॥४३॥ ततेणं से जिणदत्ते अन्नयाकयाई सोहणं तिहि करणे विपुलं असणं. ४ उक्खडावति . उवक्खडावेत्ता मित्तणाति आमंतति २ ता जाव समाणना सागरं दारगं हायं जाव सवालंकार विभूसिय कति पुरिससहस्म वाहिणीयं सीयं दुरुहावेति २ मित्त जाति जाव परिवुड सचिट्ठीए सातो गिहाओ णिगच्छइ २ नाचणारे मज्झ मज्झणं जेगेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छति २त्ता सीयातो पञ्चे रुहाइ सागर दारगं सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स उवणेति ॥ ४४ ॥ ततणं सागरदत्तेतत्थ वाहे विउलं अगणं ४ उवखडावेति २ त्ता जा . मौन रा. ॥ ४३ ॥ एकदा शुभ तिथि, करण, व नक्षत्र में विपुल अशनादि बनाकर मिष ज्ञाति स्वजनों को बोला कर यावत् सत्कार समान देकर मागरे पुत्र का स्नान कराया, यावत् सर्व अलंकार से विभूषित, किया, फीर उमें महस्त्र परुष उठा सके वैसी शीविका पर बैठाकर मित्र ज्ञाति सहित सब ऋद्धि से अपने गृह से नीकलर चंप नगरी की मध्य बीच में होकर सागरदत्त के गृह आया. वहां से नीचे उतारकर सागरदत्त सार्थबह की पाम सागर पुत्र को लाये. ॥ ४४ ॥ सागरदत्त सार्थवाहने विपुल अशनादि बनाकर यावत् सत्कार सन्मान कर सागरपुत्र को सुकुमालिका कन्या की साथ एक .भा-राजाबहादुर काढ़ा मुखंदवसहायजा ज्वालाप्रसादजा. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN. षष्टांग माताधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 40 सम्माणेत्ता सागरं दारगं सुकुमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टय दुरुहावेति २ सीया है. पीतएहिं कलसेहिं मजावेति २ त्ता होमं करावेइ २ त्ता सागरं सुमालियाए दारियाए पाणि गिण्हावेति ॥ ४५ ॥ ततेणं से सागरए सुकुमालियाए दारयाए इमं एयारूवं पाणिफासं पांडसंवेदोत-से जहा णामए असिपत्ते इवा जाव मुम्मुरइवा, एत्तो अगिट्टतराचेव ५, पाणिफास पडिमवेदति ॥ ४६ ॥ ततणं से सागर अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं सचिट्ठति २ ॥ ४७ ॥. ततेणं सागरदत्त सत्यवाह सागरस्स दारगरम अम्मापयरो मित्तणाई विउलं असणं पाणं खाइम साइमं पुष्फवर जाव सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ ॥ ४८ ॥ ततेनं सागरदारए पाटपर ठाया. फोर शेन व त कलशोंने स्नान कराकर अग्निहोम करवाया, और सागरको सुकुम लिका कन्या का पाणिग्रहण करवाय. ॥ ४५ ॥ उसने सुकालिका कन्या का हस्त र्श कर पर्श अनुभवा मानों कि असिपत्र होरे यावत् अंगार के खोरे होवे. उस से भी अनिष्ट उस का हस4 म उस को मालूप हुनरा ॥ ४५ ॥ स गर इच्छा रहिन परवश बनाइमा वहां मुह मात्र रहा ॥ ४॥ मागरदत्त मार्थवाहने मागर के मान पिना ज्ञाति गैरह को अशनादि चरों प्रकार का आहार पुष्प वस्त्र वगैरह से सत्कार सम्मान देकर विसर्जित किये. ॥ १८ ॥ अब वह सागर पुत्र सुकुगालिका -:44;पदी का सालहवा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादकसरी मुनि श्री ऋषिजी मुकमालिया सार्द्धं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छद्द २, मुकुमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि विज्जइ ॥ ४९ ॥ तए से सागरए दारंए सुकुमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगका पडिसवेदेइ मे जहानामए असिपचेतिवा जात्र अमणाम तर एचत्र अंगफालं पचत्रमाण विहरड़ ॥ तं से सागरए दारए तं अंगफासं अमहमागे असमुह नमित्त वि॥ि ५० ॥ ततेनं से सागरए दारए मुकुमालियं दाग्धिं मुहमत जाति कुमालिया दरियाए पासाओ उट्ठेति२ चा जेणेव सए मयणिज तणेव उब: गच्छइ २ प्ता मयणिजति विज्जति ॥ ५१ ॥ ततेणं सा सुकमालिया दारिया ततो मुहुतं रस्म पडिवुद्धा समाणी पतिवया पतिमणुरत्ता पति की सब अपने गृह में गया. और यहां कपालिका की माथ पलंग शयन किया. ॥४२॥ सुकुमपालिका कन्या का अति अगर अंग स्पर्श अनुभवता हुआ रहा. एस स्पर्श नहीं सहन होने परमो पर पडः हः मुहूर्त साथ रहा. ॥ ५० ॥ सुकुमालि का पुत्री को सुखम मोती हुई देखकर सागर {पुत्र उन की पान में उठकर अपने शयनगृह में गया. और वहाँ सो गया. ॥ ५१ ॥ वहाँ सुकपालिका [पुत्री अल्प समय में जाग्रत हुई. वह पता व पति में प्रासक्त कन्या पति को अपने पलंग में नहीं देखन For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजावादळाला देवमहायजी माजी ● ५८६ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पजिलाधर्षकथा का प्रथम श्रतस्य HD पासे अपासमाणी तलिमातो उट्ठति २ जेगेव सए सयणिब्बे तेणेव उभगच्छइ २त्ता सागरस्म दारयस्त पासेणुवजई २ ॥ ततेग से सागरएदारए सुमालियाए दारियाए इमंघारू अंगफार्म पडिमवेदेति जाव अकामए अबव्व से मुइत्तमत्तं चिटुति ॥ ५२ ॥ ततेणं से सागरएदारए सुमालियंदारयं गुहएसुसं जाणित्ता सयणिजाओ उद्वेति सयणिजाओ उर्दुत्ता वासघरस्स दारं विहाडति २ त्ता मारामुक्केविवकाए ___ जामेवदिसि पाउम्भूया तामेवदिमि पडिगया ॥५३॥ लएणं सा भुकुमालिया दारिया ततो महत्ततररस पडिबुद्धा पतिवया जाव अपासमाणी सयाणजाओ उट्ठति २ चा सागरस्म से उन के शयन में गइ और वहाँ मागर कुमार की पाम उसने शयन किया. वहां पास सोने से मागर कुपारने सकुमालिका का अभिधारा जैना यावत् अनिष्ठतर अंगपर्श का बनूभा किया. यावत् अनिच्या पूक परवंश पसा हुवा वहां थोडीदेर तक ठहर गया. ॥ ५२ ॥ वहां पर सुकुमारिका पुत्री को सख से दाधित जानकर अपने शयन में उठा, रहने के गृह के द्वार खोले और जो बधस्थान में से पाणि मुक्त होने से मग माता हे मे ही या जहां से पाया था वहां चला गया. ॥५३॥ थोडीदेर से वा सुकुमालिका जग्रत हुई. वा पतिव्रता यावत् अपने पति को नहीं देख सकने से अपने भवन से उठी. और सागर .. पदी का मेलिया अध्ययन 48+ For Personal & Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tee 14 दाम्गरस सम्बनो समंती मग्गण गवेसणं करमाणी २.. वासघरस्म दारं विहाडिय.. पासति पासित्ता एवं वयास:-गएणं से सागरए दारए तिकटु,ओहयमण संकप्पा जाव झियायति ॥ ५४ ॥ ततेणं मा भद्दा सत्थवाहिणी कल्लं पाउदास चडिय महावेइ २त्ता एवं वयामी गच्छहणं तर देवाणुप्पिया! वह वरस्स मुह धोवणियं उत्रणेह ततेणं सा दासचे डी भहाए एवं वुत्ताममाणी एयमटुं तहत्ति पडिमुणति २ त्ता मुहधोवणियं ... गेण्हति २. जेणव वासघर तेणेव उवागच्छइ २ ता सुकुमालियं जाब झियायमाणिं पासति पासित्ता एवं वयासी-किण्णं तुम देवाणुप्पिया ! ओहयमाण जाव झियाहि? ततेण सा मुकुमालिया दारया तंदास चडियं एव वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया पुत्र की चारों तरफ गोषणा की. परंतु आवास ग्रह के द्वार खुले देखकर ऐमा बोली कि सागर चला गया. यों करके पश्चाताप करती हइ यावत् आध्यान करने लगी. ॥ ५४ ॥ भद्रा सार्थवाहिनीने प्रभात होत दास व चाटयों को बालाइ और कहा अहो देवानुप्रिये ! तुम वरवधू के मुख धाने के लिये पानी में ल जा. वे दस चहियों भद्रा भार्या की ऐसो आज्ञा सुनकर इष्ट तुष्ट हुई. और इस बात को तथ्य करके मुख प्रक्षालन के लिय पानी लेकर उन के आवाम गृहमें गई. वहां मुकुमालिका कन्या को आत ध्यान करता हुई दखकर बाली अहो देवानुप्रिये ! तुम क्यों आतध्यान करती हो, तब उसने उत्तर दिया कि कविता बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्रकाशक-मजावदर लाला सुरवात महायजी माल:प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 488+ षष्टां ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध 4+ सागरए दारए मम सहपत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेति २ ता वासघर दुवारं अवगुणेति २ जाव पडिगए ॥ ततेणं अहं मुहुतंतरस्स जाब दारं विहाडियं पासामि गएणं से सागरए चिकट्टु ओहयमाण जाब झियामि ॥ ५५ ॥ ततणं सा दास चेडी सुकुमालियादारियाए एयमटुं सोच्चा जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेव उबागच्छइ २ सागरदत्तरस एयमटुं णिवेदेति २ ॥ ५६ ॥ ततेनं से सागरदत्ते दास डिए अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म आमुरत्ते जेणेव जिणदत्तस्त्र सत्यवाह गिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता जिनदत्तं सत्यवाह एवं वयासी - किण्णं देवाणुपिया ! अहो देवानुप्रिये ! मुझे सुख से सोती हुई देखकर सागरपुत्र मेरी पास से उठ कर आवास गृह के द्वारों खोलकर बावत् चला गया हैं. मैं थोडी दर में जाग्रत होकर देखने लगी परंतु आवास गृह के द्व खुल्ल देखकर सागर चला गया ऐसा जान कर यावत् आर्तध्यान करती हूं. ॥ ५५ ॥ सुकुमालिका की पास से ऐसी बात सुनकर वे दासियों सागरदत्त सार्थवाह की पास आई और सागर दत्त को रूब बात निवेदन की. ॥ ५६ ॥ दासियों की पाल से ऐसा सुनकर सागरदत्त आरक्त हुवा और जहां जिनत सार्थवाह का गृह या वहां आया और जिनदत्त को ऐसा कहने लगा कि अहो देवानुभिष For Personal & Private Use Only 4+ हैपदी का सोलहवा अध्ययन 4 ५८९ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - +8 अन्नादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक सपिजी एवं जुत्तंबा पत्तवा कुलाणरूवंवा कुलसरिसंवा जंण्णं सागरए दारए सुकु मालिय दारियं अदिट्ठदोसपइवियं विषजहाय इहमागए, बहूहि खिजणियाहिय रुंटणियाहिय उवालंभंति ॥ ५७ ॥ ततेगं जिणदत्ते सागरदत्तस्स सस्थवाहस्म अंतिए एवमटुं सोचा निपम्म जेणेव सागरए दारए तेणेव उवागल्छइ सागरयं दारयं एवं वयानी-दङ्गं पुत्ता तु कयं सागरदत्तस्स सस्थवाहस्स गिहातो इहं हवमागए तेषां तं गच्छहण तुम पुत्ता ! एवं मविगए सागरदत्तरस गिह ॥ ५८ ॥ ततेणं सागरदारए जिणदत्तस्स एवं वयासी-अवियांइ अहं ताओ! यह क्या योग्य है. प्रीन कारी है, कुल का रूफ है. ग कुलको समान है कि तुम्हारा सागर पुत्र हमारी पतिव्रता सुकुमालिा पुर्वी का किसी प्रकार देखे विस छोडकर यहां चला आया. यह बहुन खेद जनक व रुदजनक है. में कहकर अपने कर्मोको उपासम्म दन लगी. ॥५७॥जिनदत्त सार्थवाह सागरदत्त की पाक मे ऐरा सुनकर सागर पुत्र की पास गया और कहा कि अर पुत्र ! नू मागरदत्त सार्थवाह के गृह से यहां चला आय. या वह कार्य किया. अब तू विन लिम्ब मे उनके घर जा. ॥ ५८ ॥ तब सागरदत्त जिनदत्त का ऐसा कह लना कि अहो गात ! मैं पर्वत पर से पडूं. वृक्ष पर से १५, मरुस्थलि .प्रकाशक-राजाकहादुर लाहा सुखदवसहायनाबालाप्रमादजी अर्थ । For Personal & Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिरिपडणवा, तरुप्पडगंवा मरुप्पवायंवा; जलप्पवेसंवा जलणप्पसंग, विसभक्ख. गंवा, सत्थवाडणं का, बेहाणसंवा, गिद्धपटुंबा. पवज्जंबा, विदेशगमगंवा, अनभुवग. च्छेजा, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छज्जामि ॥ ५९ ॥ ततेणं से सागरदत्ते सत्थरहे कुटुंतरियाए सागरस्स एयमटुं णिसामेत्ता, लजिए विलेपविटेपि जिणदत्तरस गिहातो पडिणिक्खमइ २ त्ता, जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सुकुमालियं दारियं सहावेइ २ त्ता अके णिवेसेति २ एवं वयासी- किण्णं तब पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मक्का अहन्न तुमं तस्स दाहामि जस्मगं तुमं जाव मणामा में जाकर रहूं. पानी में प्रवेश करूं, अग्नि में प्रवेश करूं, विष. भक्षण करूं. शस्त्र में मेरे शरीर को काटडालू पापपात करूं, गृध प्रमुख पक्षियों की पाम भेग शरीर का भक्षण करावं, दीक्षा अंगीकार करूं या विदश में चला ज ऊं. परंतु मैं सागरदत्त के गृह नहीं जाऊंगा. ॥ ५९ ॥ मागरदत्त सार्थवाहने सागर पार का उक्त कथन उन की भित्ति के अंतर से सुना. सुनकर वह लजित हुमा और जिनदर मार्थवाद के गृह से नीकलकर अपने गृह आया. वहां अभी पुत्री को बोलाकर अपनी गोद में 12/बैठाइ और कहा कि अहो पुत्री ! सागर पुत्रने तेरा क्यों स्याग किया अब मैं तुझे उप पुरुष को रंगा पटाकशाताधवथाका प्रथम अनस्कन्ध 41 41+ द्रोपदी का बोहवा अध्ययन 493 For Personal & Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 43 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + - बहू है वग्गूहि समासामेति समासात्ता पडेविमज्जति ॥ ६० ॥ तते से सागरदत्ते अन्नयाकयाई उपि आगासतलास सुहणिसन्न रायमगं अलोएमा २ चिट्ठति ॥ ६१ ॥ ततेणं से सागरदत्ते एगं महं दुमग पुरिस पास इ दांड खंडबसणं खंडमल्लग खंडघडग हत्थगयं मच्छिया सहस्से हि जाव अणिज्जमानमग्गं ॥ ६२ ॥ ततेणं से सागरदचे सत्थवाहेक दुबिष पुरिसं सदावेति सावेत्ता एवं वयासी- तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! एवं दुमगपुरिसं साइमं पडिलोभेह गिहं अणुपत्रिसह २ ता खंडमलगं कि जो तझे इष्ट यावत् मनाम होवे. यों कहकर बहुत इष्टकरी वचनोंसे आश्वासन देकर विसर्जितकी ॥६०॥ एकदा सागरदत्त सार्थवाह अपने प्रासाद की चांदनी में बैठे हुवे राजमार्ग का अवलोकन कर रहे थे. ॥ ६१॥ व सागरदत्त मार्थवाहने एक बडा दरिद्री को देखा. उसने फटे हुये वस्त्र पहने थे, तुटा हुआ सरावल, पानीभरने का मिट्टी का घड! हाथ में लिया था. अनेक मक्षिकाओं उस की चारों तरफ गण गण कर रही थी. इस तरह वह इधर उधर परिभ्रमण कर रहा था ॥ ६२ ॥ सागरदत्त कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और ऐसा कहा कि अहो देवानुदय ! तुम इस दरिद्री पुरुष को विपुल अशनादिक विउलेणं असणं पाणं खाइमं खंड घडगं च से एगंते एडेह For Personal & Private Use Only *शिवराहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ५९३ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ षष्टां ज्ञ ताधर्मकथा का प्रथम श्रुतसन्य अलंकारिय कम्नं करेह २त्ता पहायं कयबलिकम्मं जाव सव्व लंकार विभूमियं करेह रत्ता मणणं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेह रन्ता मम अतियं उत्रणेह ॥ ६३ ॥ तते के डुचिय पुरसा जात्र पंडिसुगति २ त्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ तं दमगं अमणं पाणं खाइमं साइमं उपलोमंत २ सयंगेहं अणुपविसंति तखंड मल्लगं खंडघडगंच तस्स दमगपुरिसस्स एगंते एडति ॥ ६४ ॥ ततेणं से दमगे तसि खंडमल्ल गंसिया खंडघडगंसिया एडिजमाणांस महया २ संदेणं आरसतिए ॥ ६५ ॥ ततेणं से सागरदत्ते सत्यवाहे तस्सदमगपुरिसस्त तं महया २ का लोभ देकर घर में बोलावो, यहां लाकर उन के फटे हुवे वस्त्र, सरावल व घंडे को एकांत में डाल दो, (उप को क्षौर कर्म करावो, फोर स्नान कराकर, बालकर्म कराकर यावत् मब अलंकार से विभूषित बनाओ. फर मनोज्ञ अशादि जीमाकर मेरी पास लावो ॥ ३३ ॥ कौटुम्बिक पुरुषोंने यह कथा सुनी और उस दरिद्री पुरुष की पास गये. उस को विपुत्र अशनादि का लाभ देकर घर में प्रवेश करवाया. और उस के फट हुने पत्र रावल मिट्टी का घडा एक वजु डाल दियां ॥ ६४ ॥ उस दरिद्री के वगैरह एकांत में डाल देने से बड २ शब्द से आरहने लगा ॥ ६५ ॥ उसे दरिद्री को बडे २ शब्द For Personal & Private Use Only द्रौपदी का मोलहवां अध्ययन ५१३ ( Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारामाबहादुरत अनुपादक-ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी आरसिय सइंसेचा णिसम्म कै डुप पुरिसे एवं वयासी-किणं देवाणुप्पिया एम दमग पुरिसे महया २ सदेण आरसति ॥ ततेणं से कोटुंबिय पुरिसा एवं वयासी-एसणं सामी ! तसि खड मलगंसि खंडघडगासय एडिजमाणंसि महया २ सदेणं आरसति ॥ ततेणं से सागस्दत्ते सत्यवाहे ते काटाबय पुरिसे एवं वयामी-माण तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयरस दमगरस तं खंड जाव एडह जहाण अपत्तियं भवति तेवि तहेव ठवेति २ तस्त दमगरम अलंकारिय कम्म करते २ सयपागसहस्सापागेहि तेल्लेहि अब्भंगेति, अभंगिएसमाणे रक्षिणा गधुवट्टण एगगत्ताय उव्वदृति,उसिणोदग गंधोदएणं ण्हाणेति,सीउवगणं हाणात २ पम्हलसुकुसे भारडता हुचा सुनकर सागरदत्त सार्थवाहने कम्बत परुषों को बोलाये और उ7 का इस तरह आरडने का कारण पुछा. तब कौटम्पिक पुरुषोंने उत्तर दिया कि उ का बस्त्र वगैरह एति में डाल दने में वह आरडता है. तब सागरदत्त सार्थवाहने कहा कि अहो देवानु प्रिय ! तुम उप दरिद्रो के वस्रो वगैरह कांत में पन डाल दो. क्यों कि वह अपना विश्वास नहीं करता है, इस से उसे वहां ही रहने दा. उन लोगोंने उस को अविश्वास नहीं होवे वैसा किया, उमदन्द्रिीको क्षौर कर्म करवाया, शतपाक पाक तेल से अम्यंगना की, सुगंधित गंध से मर्दन किया ऊष्णोदक सुगंधित पानी से स्नान करवाया। गापित सहाली ला प्रसाद For Personal & Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 + षष्टांगताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्मन्ध htt+ अलंकारिय कम्नं करेह २ त्ता हायं कयबीलकम्मं जाव सम्व लंकार विभूमियं करेह २ त्ता मणणं अमणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेह २ न्ता मम अतियं उवणेह ॥ ६३ ॥ ततेणं के डुबिय पुरिसा जाव पंडिसुगति २ ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छइ तं दमगं अमणं पाणं खाइमं साइमं उवलोभति २ सयंगेहं अणुपविसति तखंड मल्लगं खंडघडगंच तस्स दमगपुरिसस्स एगते एडंति ॥ ६४ ॥ ततेणं से दमगे तसि खंडमल्लगंसिया खंडघडगसिया एडिजमाणास महया २ संदणं आरसतिए॥ ६५ ॥ ततेणं से सागरदत्ते सत्यवाहे तस्सदमगपुरिसर तं महया २ का लोभ देकर घर में बोलावो, यहां लाकर उन के फटे हुवे वस्त्र, सराबल व घडे को एकांत में डाल दो, उप को क्षौर कर्म करायो, फोर स्नान कराकर, पालकर्म कराकर यावत् सब अलंकार से विभूषित चनासे. फेर मनोज्ञ अशादि जीमाकर मेरी पास लावो. ॥६३ ॥ कौम्बिक पुरुषोंने यह कथा सुनी। और उस दरिद्री पुरुष की पाम गये, उस को विपुल अशनादि का लाभ देकर घर प्रवेश करवाया, पार उस के फर हवे पत्र. रावल मिट्टि का घडा एक वज़ डाल दिया.॥ ६४॥ उम दरिद्री स्त्र वगैरह एकांत में डाल देने से बढ २ शब्द स आरहने लगा ॥ ६५ ॥ उस दरिद्री को बढे २ शब्द पदी का मोलहवा अध्ययन में । For Personal & Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अनुपादक- ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी आरसिय सहंसेचा णिसम्म कौटुंबिय पुरिस एवं यासी-किण्णं देवाणुप्पिया एम दमग पुरिसे महया २ सदेण आरसति ॥ ततेणं से कोटुंबिय पुरिसा एवं वयासी-एसणं सामी ! तसि खड मलगंसि खंडघडगासय एडिजमाणंसि महया २ सद्देणं आरसति ॥ ततेणं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते काटाबय पुरिसे एवं वयासी-माण तुब्भे देवाणुप्पिया ! एयस्स दमगरस तं खंड जाव एडह जहाण अपत्तियं भवति तेवि तहेव ठवेंति २ तस्प्त दमगस्म अलंकारिय कम्म करत २ सयपागसहस्सापागेहि तेल्लेहि अब्भंगेति, अभंगिएसमाणे रमिणा गधुवटण एणगत्ताय उव्वदृति,उसिणोदग गंधोदएणं ण्हाणेति,सीउवगेणं हाणति २ पम्हलसुकुसे पारडता हुवा सुनकर सागरदत्त सार्थवाहने कदम्बक परुषों को केलाय और उस का इस तरह आरडने का कारण पुछा. तब कोटामक पुरुषोंने उत्तर दिया कि उम का बस्त्र वगरह एति में डाल मवह पारडता है. तन सागरदत्त सार्थशाहने कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम उप दरिद्री के वस्राव कांत पन डाल दो. क्यों कि वह अपना विश्वास नहीं करता है, इससे उसे वहां ही रहने दा. उन लोगोंने उसको अविश्वास नहीं होने वैसा किया, उम दरिद्रीको क्षौर कर्म करवाया, शतपाक व सास्र पाक तेल से अम्यंगना की, सगंधित गंध से मर्दन किया उष्णोदक सुगंधित पानी से स्नान करवाया, बाहकराजाबहादुरशालामु लामुखदेवसहायणी वाला प्रसाद For Personal & Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ * पांङ्ग ज्ञ ताधर्मकथा का प्रथम स्कंध गाल गंध कासाइए गायाई लूहेति २ इसगलक्खण पडगसाडयं परिहेति, सन्त्रालंकार विभूसियं करेइ २ चा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेति २ सागरदत्तस्स उवर्णेति २ ॥ ६६ ॥ ततेणं से सागरदन्ते सत्थवाहसुकुमालियं दारियं हायं जात्रालंकार भूसियं करेत्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी-एसणं देवा ! सम धूपा इट्ठा एयणं अहं तब भारियन्त्ताए दलयामि, भदयाए भद्दतो भवेज्जासि ॥ ६७ ॥ ततंग से दमग पुग्ने सागरदरस्स एयमट्ठ पडिमुणेति २ ता सुकुमालियाए दारियाए साई वासघरं अणुपवसति, सुकुमालियाए, दारियाए सा तलिमसि विज्जइ ॥ ६८ ॥ तसेणं से दमनपुरिसे सुमालियात इमेयारूचं ( पक्ष्प समान सुकोमल सुगंधिक कापाधिक वस्त्रों से मात्र स्वच्छ किया. हंस ममान श्वेत वस्त्र पहनाया, सव ( अलंकार से विभूषित किया और विपुल अनादि जीमाकर सागग्दत्त की पास लाया ॥ ६६ ॥ तब { सागरदत्तने सुकुपालिका पुत्री को स्नान करा कर यावत् सब अलंकार से विभूषित कराकर दरिद्री पुरुष को ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय ! यह मेरी पुत्री इष्ट है. मैं इसे तेरी भार्या बनाता हूं. भाद्रेका का कल्याण डांगा. ॥ ६७ ॥ उम्र दरिद्री पुरुषने सागरदत्त की यह बात सुनी और सुकुमालिका की साथ उस के आवास गृह में गया. और वहां उस की साथ पलंगपर सोया. ॥ ६८ ॥ उस दरिद्रीने सुकुनालिका अंग For Personal & Private Use Only * द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 4 ५९५ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ ० अनुवादक बालब मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपीजी + अंगफालं पडिसंत्रेदेति, सेसं जहा सागरस्स जात्र सयणिजातो अब्भुति २ वासघराओ गिगच्छति २ ता खंडमल्लगं खंडघडगं चगहाय मारामुकोविच काए जामेच दिसिं पाउ भए तामेवदिसि पडिगए ॥ ६९ ॥ ततेणं सा सुकुमालिया जात्र गण से दमपुरिसे तिकडु, ओहयमण जात्र ज्झियायति ॥ ७० ॥ ततेणं सा भद्दा कल्ले पाउन्भू दासचडि सदावेति जाव सांगरदत्तस्स एयमटुं निवेदेति ॥ ७१ ॥ ततेणं स सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छति स्पर्श सागर पुत्रने जैसा अनुभवां था वैसा है अनुभवा यावत् शयन में से उठकर वासगृह में से नीकलकर अपने फटे वस्त्र वगैरह लेकर जैने वध स्थान में से प्राणी मुक्त होने से भग जाता है वैसे ही अपने स्थान चला गया. ॥ ६९ ॥ जब सुकुशलिका को मलुप हुवा कि यह दरिद्री चला गया तब वह पश्चताप करती हुई यावत् आर्तध्यान करने लगी. ॥ ७० ॥ भद्राने प्रभात होते चटिकाओं की बोलाइ और बरबंधू का मुख प्रक्षालन के लिये पानी लेजाने का कहा. वे पानी लेकर वहां गई तो वहां सुकुमालिका पुत्री को ध्यान करती हुई देखी. उनोंने सागग्दत्त श्रेष्ठे की पास आकर सब बात निवेदन की ॥ ७१ ॥ तब सागरदच संभ्रांत बनकर पुत्री के वासगृह में गया, सुकुपालिका पुत्री को अपनी गोद में For Personal & Private Use Only • प्रकाशक - राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी ० ५९६ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48* षष्टां ज्ञत धर्मकथा का प्रथम श्रुन्+ i सूत्र सुकुमालियं अकेणिवेसेति अंकेणिवेसेत्ता एवं वयासी - अहोणं तुमं पुत्ता ! पुरा पोराणाणं कम्माणं जाब पच्चणुब्भवमाणी विहरसि तं माणं तुमं पुत्ता ! ओहयमण जात्र ज्झियाहि तुमणं पुत्ता ! मम माहणसंसि विपुल असणं पाणं खा इमं साइमं जहा पाहिला जाब परिभाएमाणी विहराहि ॥ ७२ ॥ ततेणं सुकुमालिया दारिया एमट्ठे पडणेति २त्ता महाणसांस विपुलं अमणं ४ जाव दलयमाणी विहरति ॥ ७३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जातो बहुस्सुआ तो एवं बैट'इ, और कहा पुत्री ! तुझे पहिले के कोइ पुराणे कर्म उदय आये हैं कि जिन का तू अनुभव कर रही है. अहो पुत्री ! तू पश्चताप मतकर यावत् आर्तध्यान मतकर. अहो पुत्री ! मेरी भोजनशाला में बहुत अशनादि बनते हैं उस में से श्रमण, माण यावत् भिक्खारी को देती हुई रहे ।। ७२ ।। मुकुमालिकाने उप के पिता के बचन का स्वीकार किया. और भोजन शाला में विपुल अशनादिवनावर यावत् देती हुई विचरने लगी. ॥ ७३ ॥ उस काल उस समय में गोवालिका आर्या बहुन शास्त्रो जानने वाली नगर सत्र तेनेला पुत्र के अध्ययन में सुत्रता आर्या का कहा वैसे ही विचरती हुई आइ. संघडा बनकर पहले प्रहर में स्वाध्याय, दुपरे प्रहर में ध्यान व तीसरे पहर और वैसे ही उनका में गोचरी के लिये For Personal & Private Use Only का सोडवा अव्ययत ५१७ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी अहेव तेयलिणाए. सुब्धयाओ तहेव समोसढाओ तहेव संघाड मो जाच अणुपविटा तहेव जाव सुकुमालिया पडिलाभेत्ता एवं क्यासी-एवं खलु अजातो अहं सागरस्स अणिट्ठा जाव अमणामा नेच्छतिणं सागरए दारए मम नाम वा जात्र परिभागवा, जस्स जस्स वियणं दिजामि तस्स तस्स वियण अगिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुब्भेणं अजाओ बहनायाओं एवं जहा पोटिला जाव उबलद्धे जणं अह सागरस्स दायरस्स इट्टा कता जाव भवेजामि ॥ अआओ तहेब भणति तहेव साविया परिभ्रमण करती हुइ नागरदत्त शेठ घा आइ. उन को देखकर मुझुमारिका हृष्ट तुष्ट हुई. अपने आमन से उपस्थित हुई. मात आठ पान सन्मुग्न गाड च विपर अनादि देकर एका बोठी अहो आर्यायो। पागादत्त पुत्र को अनिष्ट यावत् अपाय हूं. मगर पत्र पग नाम व रात्र मुना भी नहीं चाहता है तो देखने का कहना है. क्या तत्पश्च त जिन के २ मन की बात को भी मैं अभिष्ट गावत् अपनाम हुई. अहो आर्याभो ! तुप बहत पंडिता है वह साहला जैसे .यात् एमात्र प्रयोम बगैरह कहो कि जिस से मैं सागर पत्र को इष्टकारी होवू. आयओं न उत्तर दिया ! अहो देवानुप्रिय ! ऐसी बात हम को मानना भी कलाता नहीं है तो उस का उदश देना या उस का वरना प्रकाशक-राजाबहादुर लालाखदेवतहायजी ज्वालाप सादज.. For Personal & Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 कष्टांगहासाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18 जाया तहेव चिंत्ता, तहेव सागरदत्तं आपच्छति जाव गोवालियाणं अंतिथं पवतिया ॥ ७४ । तते मुकुमालिया अजा जाया. इरिया समिया जाव गुत्तबभचारिणी, बहूहिं चउत्थ छछुट्टम जाव विहरति ।। ७५ ॥ ततेगं सा मुकुनालिया अजा अन्नया कयाइ, जेगवा गोवालियाओ अजाआ तवा उवागच्छइ २ त्ता वंदति नममति, वंदित्ता. नमंसित्ता एवं वसास-इच्छामिणं अज्जा ! तुमेहि अब्भणुन्नाया समाणी चंपा नयरीए बाहिं सुभूमिभागस्स उज्ज परस अदूरसामत छटुं छटेणं आणिक्खिसेणं तबोकम्मेणं सूरामिमुही आयावेमाणी विहारत्तए ॥ ततणं ताओ गोवालियाओ करने का कहना कहां से होवे. फर उसने केलि प्ररूपित धर्म कहा जिस से वह श्राविका हुई वगैरह सब पोटिला जसे कहना यावत् सागरदत्त को पुछ कर दीक्षा अंगीकार की ॥ ७४ ॥ अब मुकुपाले का आर्या हुई. वह ईर्या समिति यूक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी बनी. बहुत चतुर्थ छठ अष्ट भक्त यावत् करती हुई विचरने लगी. ॥ ७५ ॥ एकदा सुकुना लि का आर्या गोवालि का आर्या की पास गइ और उस को वंदना नमस्कार कर एसा बोली अहो आय ! अबकी अनुज्ञा हवे ते चा नगरी की बाहिर सभामभाग उद्यान की प.. छठ २ का निरंतर तप करके सूर्य की सन्मुख आतापना लेना चाहती ट्रैपदी का सोरहवा अध्ययन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजाओ सुकुमालियं एवं-वयासी अम्हेण अजो समणीआ णिग्गंथ ओइरियासमियाओ जाव बंभचारिणीआ, णो खलु अम्हं कप्पति बहिया गामस्मवा जाव सन्निवे सस्मवा जाब विहरित्तए, कप्पतिणं अंतोउवासगस्स बत्ति परिक्खित्तस्स संघाडि वाहयाएण समतलबातियाए आयावेत्तए ॥७५॥ ततेणं सासुकुमालिया गोवालियाए अजाए एयमटुं णो सद्दहइ णो पत्तियइ णो रोएइ एयमटुं असदहमाणे ३ मभूमि भागस्स उजाणस्म अदरसामंते छट्रेछट्रेण जाव विहरइ ।। ७६ ॥ तत्थणं चपाए णयरीए ललियणाम गोट्ठी परिवसति णरवइदिग्ण वियारा अम्माप्पइ णिययणिप्पवासा 18 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपोळ क ऋषिजी ११ प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुग्वदेवमहायजी पालाप्रसादजी हूं. तब गोवालिका आनि उत्तर दिया अपन साधियों हैं. इर्या समिति वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिनियों हैं.. अपन का ग्राम अथवा सन्निवश से बाहिर विचरना व आतापना लेना नहीं कल्पता है परंतु अपन को उपाश्रय में चारो तरफ से ढके हुवे स्थान में साधायों के परिवार से दोनों पांव पृथ्वीपर है रखकर आतापना लना कल्पना है. ॥ ७५ ।। सुकुमालिकाने गोवालिका आर्या के वचन की श्रद्धा प्रनीति व रूचि का नहीं व इस तरह श्रद्धा प्रतीति व रुचि नहीं करते हवे सुभ मभाग उद्यान की पास निरंतर छठ २ का तप करती हुई बिचरती थी. ॥ ७६ ॥ उस चंपा नगरी में ललित गोष्टि [ कंडा करने वाले लोगों का समुह रहते थे. इन लोगों को सजाने भी क्रीडा करने की आज्ञा दी थी और मात पिता For Personal & Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६०१ षष्टांग ज्ञाताधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध 4 वेसविहार कणिकया णामाविह अविणयप्पहाणा अड्डा जाव अपरिभया ॥ ७७ ॥ तत्थणं चंपारणयरीए देवदत्ताणामं गणिया होत्था, मुकुभाला जहा अडणाए ॥ ७८ ॥ तएणं तीसं ललियए गोट्ठीए अण्णयाकयाइं पंचगोट्ठीलगपुरिया देवदत्ताएगणियाएमहिं सुभुमिभागस्म उजाणसिरि पच्चणुब्भवमाणा विहग्इ, तत्क्षणं एगे गोहलपुरिसे दवदत्तं गणियं उच्छो धरइ, एग पुरिसे रिट्टओ आयछत्तं धरइ. एगे पुरिसे पुष्फपुरिअं रयइ, एगे पुरिसे पायेरयइ, एगे पुरिसे चामरुक्खेवं करेइ ॥ .७९ ॥ तएणं सा सुकुमालियाअज्जा देवदत्तंगणियं तेहिं पंचहिं खज्ज संबंधि से लज्जा राहत हुने थे. वे लोगों के बृद में निवास करते थे, विविध प्रकार के अविनय से प्रधान ऋद्धिवंत यावत् अपराभून थे. ॥ ७७ ॥ चंपानगरी में देवदत्ता नामक गणिका रहती थी. वह सुकोमल वगैरह अण्डे जैसी पी. ॥ ७८ ॥ एकदा उनक्रीडा करने वाल पुरुषो में से पांच पुरुषों देवदत्ता गणिका की साय सुभूमि भाग उघान की शोभा अनुभवत हुवे विचर रहे थे. उस में एक पुरुष उम देवदत्ता मणिका को उत्संग (गोद ) में बैठा है, एक पुरुष शिरपर छत्र रखता है, एक पुरुष पुष्पं सर पूरित मस्कत शिखर बनाता है. एक पुरुष अलतादि से उसके पांव रंगता है, व एक पुरु। चामर धारणकर V. रिखता है,॥७२॥ इस तरह पांच गोहिल्ल पुरुषोंकी साथ मनुष्य संबंधि भोगोपभोगभानी हुई उस वैश्या को भद्रोपदी का सालहवा अध्ययर 48 For Personal & Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-बालब्रह्मकरी मुनि श्री अमोलक ऋमिना गोटिल पुरिसेहिंसद्धिं उरालहि माणुस्सणाई भोगाइ जमाणि पासइ २ ‘त्ता इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए' पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था अहोणं इमाइत्थिया पुरापोराणाणं जाव विहरइ, तं जइणं मे इमस्स सुचरियरस तवणियमबंभवेरवासस्स कल्लाणे फलावितिविसेसे अस्थि तोणं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणणं इमेयारूवाई उरालाई. माणुस्सग्गाई जाव विहरेज्जामि तिकट्टु नियाणं करेइ २ ता आयावणभूमिए पच्चोरुहइ ॥ ८.॥ तएणं सा सुकुमालियाअजा सरीर पाउसिया जायायाविहोत्था-अभिक्खणं २ हत्थे धावति, पाएधोवति, सीसंधोवति, मुइंधोवति, थणंतराइं धोवति, कखंतराई देखकर ऐमा विचार हुवा कि इस स्त्री को धन्य है. यह अपने पूर्व भव के मुख भोगवती हुई कैसे विचर रही है. यदि मेरे अच्छे आचरणवाल तप. नियम व ब्रह्मचर्यका फल होता तो मैं भी आगामिक भव में ऐमा । मनुष्य संबंधि भोग भोगवती हूई विचकं. यों करके उस सुकुमालिका आणिकाने निदानकिया.और आतापना *भूपि में से पछिी आइ.॥तत्पश्चात मुकुमालिका आर्या शरीरकी दुगंछा करनेवाली हुई, उपचारित्रविराधना करने लगी वारंवार हाथ धोने लगी. पारंवार पांच धोने लगी, वारंवार मस्तक धोने लगी, वारंवार मुख धोने लगी । पकाधक राजावहारमा मुखदवसहायजी ज्वालपसादजी લઈ For Personal & Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 富 44+ पष्टांङ्ग ज्ञावाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 धोवति, गुज्झतराई धोवति; जत्थणं ठाणंवा सेज्जंवा निसीहियंवा चेएति तत्थ त्रियणं पुत्रामेव उदएणं अब्भुक्खित्ता ततोपच्छा ठाणंत्रा सेज्जंवा निसीहियवा चेइए ॥ ८१ ॥ ततेणं ताओ गोवालियाओ अजाओ सुमालियंअजं एवं वयासीएवं खलु देवाणुया ! अम्हे समणीओ णिग्गंथीओ इरिया समियाओ जान भर धारिणीत णो खलु कप्पइ अम्हं सरीरपाउसियाए हात्तए, तुमंचणं अजे ! सरीर पाउसिया अभिक्खणं २ इत्थेधोवसि जाव चेतिसि, तं तुमणं देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणरस आलोएहि जान पडिवज्जाहि ॥ ८२ ॥ ततेणं सुमालिया अजा गोवालियाणं अज्जाणं गुह्यांतर धोने लगी, और जिस २ स्थान स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग करे. उस स्थान पानीका छिटकान करने {लगी ॥८१॥ सत्पश्चात् गोवालिका आर्याने सुकुमालिका आर्या को ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय ! अपन श्रमण निर्यस्थिनियों ईर्यासमिती यावत् गुप्त ब्रह्म वारिणि यों हैं. अपन को शरीर की दुगंछा करना नहीं कल्पना है. अहो {देवानुभिये ! तुप शरीर की दुर्गछा करने वाली हुइ हो और इस से वारंवार हाथ घोती. हो यावत् स्वाध्याय, ध्यान क कायोत्सर्ग के भी स्थान को धोकर करते हो, इस से अहो देवानुप्रिये ! तुप इस की आलोचना करो { यावत् प्रायच्छित अंगीकार करो. ॥८२॥ सुकुमालिकाआर्जिकाने गोवाहिका आर्या के इन वचनों की श्रद्धा For Personal & Private Use Only 448+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 42 ६०३ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो मुनि श्री अमोलम्ब ऋषिनी अंतिए एयटुं सोचा जो अढाइ णो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणेमाषी विहरति .. ॥८३॥ ततणं ताओ अजाओ ममालियं अजं अभिक्खणं २ हीलति जाव परिभवंति अभिवस्वर्ण २ एयमटुंगियाति ॥८४॥ ततेणं तीसे सुमालीयाए अजाए समणीहिं जिग्गथीहि हीलिजमाणीए भावतार जाव परि भवेजमाणीए इमारूव अज्झत्थत५ जाव समुप्पाजत्था- जयाणं अह अगारवास मञ्झेवासामि तयाणं अहं अप्पवमा, जयाणं अहं मंडाभवित्ता पठवतिए तयाणं परवसा पविचणं मम समाणीता आढाति इयाणं णो आढाति, त सेयं खलु ममं कहं पाउम्भूए गोवालियाणं । प्रतीति व रुचि की नहीं और इस तरह उन के वचनों का अनादर करती हुइ विचरने लगी. ॥ ८३ ॥ तत्पश्चात वे आर्याओं मुकुमालिका आर्या को वारंवार हीलना निंदा व खिमना करने लगी, उम का पराभव करने लगी व इस कार्य से निवारने का प्रयत्न करने लगी. ॥८॥ जब वे आर्याओं सुकु आर्या की हिलना, निंदा यावत् पराभव करने लगी तब इम को ऐमा अध्यवसाय हुवा कि जब थी तब मैं अपने वश (स्वतंत्र) थी और जब मैंने दीक्षा अंगीकार की तब से पर पहिले सघ सालीयो मरा आदर सत्कार करती थी. अब मेरा आदर सत्कार नहीं करती है। इस से कल प्रभात में गोगालि का आर्या की पास से नीकलकर पृथक उपाश्रय में जाकर रहना मुझे काराममहादर लाला सरवदवमहाया अर्थ अनुवादक-बालब्रह्म | । For Personal & Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र 4 पटान ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कर 41 अजाण अतियातो पाडणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता पाडी एक उवमग्ग उवसंपाजताणं विहरति तिकट्ट एवं संपहीरत्ता कल्लं पाउन्भया गोवालियागं अजाणं अंतियाओ पडिणिक्खमंइ २ ता पाडीएकं उवासगं उवसंपजित्ताणं विरहह ॥ तएणं सासकमालिया अज्ज! अणाहाट्रिया अणिवारिया सच्छंदमति अभिक्खणं२ हत्थं धावति जाव चति ॥८६॥ तत्थ वियणं पासत्था पासत्थविहारीणि, उसन्ना उमन्न विहारीणी, कुक्षीला कुसील विहारीगि, संसत्ता संसत्तविहारीणी' बहुणि यासाणी सामण परियारणति २ ता अहमासियाए संलेहणाए तस्स ट्राणस्स अणालातिय-पडिकते कालमासे कालंकिच्चा ईसाणंकप्पे अन्नयरंसि विमाणंसि श्रेय है. एपा विचार र दो दिन प्रभात होते गोवालिका आर्या की पाम से नीकलकर पृथक श्रय में जाकर विचरने लगी। ८५ ! इस तरह अलग रहने से उप्त को कोई कहने वाला रहा नहीं स को किसी कार्य मानिने जा रहा नहीं, जिससे स्वच्छता पूर्वक वारंवार हाथ धोने लगी यावत कायोत्सर्ग के स्थानी .॥८... यहां पर बहसकुमालिका आर्य पार्श्वस्था,वस्थ विहारिणी वनी, कर्श आचार सेवनलमा, आ की विराधना करती है, ऋद्ध आदि को गर्व करती साकी , या दहत वर्ष पर्यंत संयम पलकर अधे मास की संलेखना कर पूकृत देष स्थान की आलाच द मन्दि क्रणय बिना काल के अवसर में काल कर ईशान देवलोक के किसी विमान में । द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन अर्थ 9 4. For Personal & Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगणियत्ताए उववन्ना ॥ तत्थेगतियाणं देवीणं णवपलिआवमाइ दिइ पण्णत्ता, तत्थणं सुकुमालियाए देवीए नव पलिओवमाइं ट्रिती पण्णत्ता ॥ ८७ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवदीवे भारहवास पचालसु जणवएसु कंप्पिल्लपुरेणामं गरेहोत्था वण्णतत्थणं दुवतेणाम रायाहोत्था वण्ण।तस्सणं चुलणी णामं देवी होत्था धटग्जुणेणामकुमारे जुवराया॥८८॥ततेणं सा सुकमालियादेवी ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव चइत्ता इहवे जंबुद्दीवेदीवे भारहेवासे पंचालेसु जणबएसु कंप्पिल्ल पुरे नयरे दुवयसरन्नो चुलणीए देवीए कुत्थिसि दारियचाए पवाया !॥ ८९ ॥ अपरिग्रही देवी पने उत्पन्न हुई, वहां किननेक देवीयों की नव पल्य पम को स्थिते हैं वैसे ही मुकुमालि का देवी की नव पल्पोपम की स्थिति कही. ॥८७ ॥ उस काल उस समय में इस जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र के पांचाल(पंजाब)देश में कपिलपुर नामक नगर था. वहां द्रौपद गजा राज्य करता था, उम को Fचुलणी नाम की रानी थी व धृष्ट र्जुन कुमार युवराजा था ॥ ८८ ॥ सुकुमालिका देवी उस देवलोक में मे आयुष्य, स्थिति व भवका क्षय करके इम जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के पांचाल देश में कपिल पुर नगर | द्रापद राजा की चरणी देव राणी की कुक्षि में पुत्री पने उत्पन्न हुई. ॥८९॥ चलणी देवी को साढे नव 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी | For Personal & Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांङ्गताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध He+ ततेणं सा चुलणीदेवी णवण्हंमासाणं जाव सुकुमालापाणिपायं अहिण पडिपुण्ण पंचिंदिए सरीरं दारियं पयाया॥९०॥तएणं तीसे दारियाति णिवत्तं बारसाहियाए दिवस इम एयारूवं णामं जम्हाणं एसादारिया दुपयसरन्नो धुया चुलणीए अत्तया तं होऊणं अम्हंइमीसेदारियाए णामधेजं दोवतीततेणं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं णामधेजं करेति दोवइ ॥९०॥ ततेणं सा दोवती दारिया पचधाइ परिग्गहिया जाव गिरि कंदर मल्लीणाइव चंगलया निवाय निव्वाघायंसि सुहं मुहेणं परिवति ॥ ९१ ॥ ततेणं सा दोवतीरायवरकन्ना उमुक्कबालभावा जाव उक्किठ सरीरा जायायावि होत्था ॥ ततेणं सा पास में पुषी का प्रसव हुना. ॥ २० ॥ जब उम पुत्री के बारह दिन हुवे तब इस का ऐसा नाम की र स्थापना की कि यह लडकी द्रौपद राजाकी पुत्री व चुलणी राणी की आलना है इस से इस पुत्री का नाम द्रौपदी होवे. इस तरह उनके मात पिताने इम का गुण निष्पमे नाम की स्थापना की.॥१०॥ अब वह द्रौपदी कुमारिका को पांव धाइ यो प्रति पालना करने लगी. गावत् वह जैसे गिरिकंदर पर रही हुई चंपक लता * वृद्धि पाती है वैसे ही यह द्रौपदी मुख पूर्वक बढने लगी. ॥११॥ अब यह द्रौपदी राज कन्या बाल भाव ' 'से मुक्त होकर यावत् उत्कृष्ट शरीर केरूप यौवन लावण्यता वाली हुई. एकदा वह द्रौपदी कन्या स्नान कर ++ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 488 For Personal & Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 84+ अनुवाहक वाह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि देवती रायबर कन्ना अन्नयाकयाइ अंतउरियाओ पहायं जात्र विभूसियं करेति २ दुपयस्सरन्नो पायबंदियं पेसंति ॥ ९२ ॥ ततेण सा दोवती जेणेव दुपएराया तेणेव उवागच्छइ २ तादुपयस्मरन्ना पायग्गहणं करेंति ॥ तर्तेणं मे दुबएराया दोत्रर्तिदारिय अंकणित्रे सेति, अंकेणिवेसित्ता दोबतीए रायवर कन्नास्त रूत्रेणय जाणेणय लवण जाव विम्हए, दोवइ रायवरन्नं, एवं वयासी - जस्सणं अहं तुमं पुत्ता ! रायरसवा जुबरायरसवा भाग्यित्ताए सयंमंत्र दलयिस्सामि, तत्थणं तुमं सुहियावा दुखियात्रा भवेजाति, तरणं मम जावज्जीवाए हिययदा भविस्सति, ततेणं अहं पुत्ता ! अजयाएं सयंवरंयामि, अजपाएणं तुमं दिन्नसयं वराजणं तुमं सयमेत्र रायंत्रा यावत् विभुषित बनकर अंते पुरमें से नीकलकर दुयद राजाके पात्र चंदन करने आई ॥९२शावह द्रोपदी द्रुपद राजा की पास जाकर उन के पत्र में पांड. द्रुपद राजाने ट्रैौपदी को अपनी गोद में बैठाकर द्रौपदी के रूप, यौवन लावण्य यावत् विस्मय हुवा. और उस को ऐसा कहा कि अहो पुत्री ! मैं तेरे को जिम किसी राजा या युवराज को दूंगा. तां तू सुखी अथवा दुःखी होगा. इससे मेरा हृहय जीवन पर्यन जलता रहेगा इसलिये अहो पत्री ! आज सेहा तेरे लिये मैं स्वयंवरकी रचना करता हूं मैं अब तुझे स्वयंवर में ही दूंगा जिस से तू तेरी इच्छानुसार राजा अथवा युवराजाको वरेगी और वहीं तेरा भतीर हाब्रेगा. यों For Personal & Private Use Only * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादजी ६०८ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 जवसायंवा वरेहिसि सेणं तव भत्तारे भविस्सति तिकटु,ताहिं इट्टाहिं जाव आसासेति पडि विसजेति ॥ ९३ ॥ ततेणं से दुवएराया दुयं सद्दावेति दुयंसहावेत्ता एवं वयासी गच्छणं तुमे देवाणुप्पिया ! वारवतिं गयरिं तस्थणं तुम्हें कण्हं वासुदेवं समुद्द विजय पामोक्ख दस दसारे,बलदेवे पामोक्खे पंचमहावीरे,उग्गण पामक्खि सोलसह रायसहस्से पज्जुन्न पामोक्खाओ अदुवाओ कुमार कोडीओ,सब पामोक्खाओसद्रिं दद्दत साहस्सीओ, वीरसेण पामोक्खाओ एक्कवीस वीरपुरिस साहस्सीओ, महसेण पामक्खिाओ छप्पन्नं चेव बलवग साहस्सीओ, अग्नेय बहवे राईसर तलवर माडंबिय कोडुबिय इब्भ सेट्टि सेणावति सत्थवाह पभिइओ करयल परिगाहिय दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि Pष्ट यावत् बल्लभशष्दों में आश्वामन देकर विसोजत की. ॥१३॥तब द्रुपद राजाने दूको बोलाकर कहा कि | ५५ नुक्ष्यि ! तुम द्वारिका नगरी में जाओ, वहां कृष्ण वासुदेव. समुद्र विजय प्रमुख द। दशार, बलदेव प्रमुख पांच महावीर, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजर राजा, प्रद्युम्न कगार प्रमुख स हे तीनकोड कुगर, शंबई। प्रमुख साठ हजार दुईन कुमार, वीरसन प्रमुख इक्कोम हजार वीर पुरुषों, पहासे प्रमुख छप्पन्न हजार बालचंत पुरुषों का समुह, और अन्य बहुत राजेश्वर, तलवर, माडंधिय, कौटुबिक, इष्ध, श्रष्टि, सेनापति | सार्थवाह, वगैरह को दशोनच एकत्रि कर अर्थात् दोनों हाथ जोडकर मस्तक से आवर्त देकर जय व विजय । 3. पशंङ्ग ज्ञाताधर्षकथा का प्रथम श्रुसमन्ध 43 द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन म For Personal & Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143. कडु जएणं विजएणं वडावेहि रत्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुपयसरन्नोधूयाए चुलणीए अत्तयाए धट्ठज्जुण कुमारस्स भगिणीए दोवतीए रायवरकन्नायाए सयंवरे भविरसंति,ततेणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! दुपयरायं अणुगिण्हमाणा अकालपरिहीणे चव कंपिल्लपुरं णगरे समोसरेह ॥ ९४ ॥ ततेणं सेदुए करयल जाव कटु दुपयस्मरण्णो एयमढेंविणेएणं पडिसुणेति २ त्ता जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ२ त्ता कोटुंबिय पुरिसे सद्दावेति २त्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भोदेवाणुप्पिया! घाउघट E: आसरह जुत्तामेव उवट्टवेह ॥ जाव उवट्ठवेति । ततेणं से दूए हाए जाव सस्सिरीए से वधाना उन को बधाकर ऐसा बोलना अहो देवानुप्रिय ! कंपिल पुर नगर में दुपद राजा की पुत्री चूलणी रानी की आत्मज धाढर्जुन कुमार की भगिनी द्रौपदी राजा वरकन्या का स्वयंवर होगा इम में द्रुपद राजा पर आप अनुग्रह कर के विलम्ब रहित शीघ्र मेव कंपिल पुर नगर में पधारना. ॥ ९४ ॥ तब दूतने हाथ जोडकर दूग्द राजाकी इस आज्ञाको प्रमानकर वहां से अपने गृह गया,और अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बांलाकर कहा अहो देवानप्रिय ! चार घंटे वाला अश्वस्थ शीघ्रमेव तैयार करो उनोंने वैसे ही रथ ही तैयार किया तत्पश्चात दुतने स्नान किया, यावत् चार घंट वाला अश्वस्थ पर बैठ कर हथिारों से सज्ज बने हुए 1 यावत् प्रहरणलेने वाले पुरुषों की साथ परक्रा हुवा कंपिल्ल पुर नगर की मध्य बीच में नीकलकर . * अनुवादक-बाळप्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी प्रकाशक-शंजाबहादुरकाला मुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी. For Personal & Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांग माताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध HD चाउघंटं आसरहं दुरूहतिरता बहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध बद्ध जाव गहियाओप्पहरणेहि सद्धिं संपरिवुडे कंपिल्लपुरणयरं मझं मझेणं णिग्गच्छति २ ता पंचालजणवयस्स मज्झं मझेणं जेणेव देसप्पंते तेणेवा उवागन्छति २ ता, सुरटुजणवयस्स मज्झं मज्झेणं जेणेव बारावतीणयरी तेणेव उवागछइ २ चा, वारावर्तिणयरिं मझं मझेणं अणुपविसतिरचा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ चा चउघंट आसरहं ठावेति, रहं ठावेत्ता, रहाओ पञ्चोहति २ त्ता मणुस्सवम्गुरापरिक्खित्ते पायविहार चारेणं जणेव कण्हवासुदेवे तेणेव उवागच्छद २ चा कण्हवासुदेवं समुद्दविजय पामोक्खेय दसदसारे जाव बलवगसाहस्सीतो पांचाल देश में होता हुवा देश के अंत में आया, वहां से सौराष्ट्र देश की बीचमें होता हुवा द्वारिका नगरी में आया वहां द्वारिका नगरी की बीच में होता हुवा कृष्ण वासुदेव की बाहिर की उपस्थान शान में माकर चार घंटा वाला अश्वस्थ खड़ा किया. वहां रथसे नीचे उतरकर बहुत मनुष्यों के परिवार से परिवरा हुनापति से चलता हुवा कृष्ण वासुदेव की पास आया. और वहां कृष्ण वासुदेव, समुद्र विजय प्रमुख दश चार बावन महासेन प्रमख छम्पन हजार बळवंत पुरुषों के वर्ग को हाथ नोरकर दोनों हापको अंजळी, से पस्तक को मात देकर कहने लगा कि पांचाल देश में द्रुपद राजा की पुत्री चूठणी देवी की आत्मा । al द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 278 + For Personal & Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक - बालब्रह्मवारी मुनी श्री अमोलक ऋषिजी करयल तं चेत्र जाव समोसरेह ॥ ततेण से कण्ड्या मुदेवे तस्स दुतरस अतिते एयम सोचा जिसम्म हट्ट जाव हियए तं दूयंसकारति समाणोति संक्कारता समात्ता डिस्सिनेइ ॥ ९५ ॥ ततेणं से कण्हे वामुदेवे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ ता एवं वयासी गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! सभाए सुहुम्माए समुदाणिघंभेरिं तालहिं ॥ ततेां से कोटुंबियपुरिसे करयल जाव कण्हस्स वासुदेवस्स एयमट्ठे पडिसुणेति २ ता जैव सभामा सामुदाणियाभेरी तेणेव उवागच्छइ २ चा समुदाणियं भेरिं महया २ सदेहिं तालेइ ॥ ततेनं ताएसमुदाणिया भेरीए तालंयाए समाणीए समुहविजय पायोक्खाणं दसदसारा जाव महासेण पामोक्खाओ छप्पण्णं बलवग व पृष्टत की भगिनी द्रोपदी का स्वयंवर होने वाला है इस में आप सब परिवार से शीघ्रमेव पधारो. कृष्ण वासुदेव यह बात सुनकर दृष्ट. तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विनायमान हुवा. उस दूतको सत्कार सम्मान देकर विसर्जित किया. ॥ ९५ ॥ कृष्ण वासुदेवने उस समय कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! सुधर्मा सभायें जाकर सामुदानिक मेरी बजाओ. कौटुम्बिक पुरुषोंने हाथ जोडकर कृष्ण वासुदेव की इस आज्ञा का स्वीकार किया. और सुध सभा में जाकर सामुदानिक मेरी बडे शब्द सेि बजाई. अब यह सामुदानिक मेरी बजाइ तब समुद्र विजय प्रमुख दश दशार यावत् महासेन प्रमुख For Personal & Private Use Only नकाशक- राजा बहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ६१२ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - : षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 18 साहस्सीओ व्हाया जाव विभसिया जहा विभवं इडिसकारे समुदएणं अप्पेगतिया हयगया जाव अप्पेगतिया पायविहारचारणं जेणेव कण्हवामदेवे तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल जाव कण्हवासुदेवं जएणं विजएणं वडाति, ततणं कण्हवासदेव कोटुबिय फुरिसे सहाति सहावेत्ता सिप्पामेव भो देवाणुपिया ! अभिसेक हस्थिरयणं पडिकप्पेह हय गय जाव पञ्चप्पिणति ॥ ५६ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे जेणेव मजणघरे तणेष उवागच्छइ २ ता. समुत्तजालाभिरामे जाव अंजणगिरिकृड सण्णिभं गयबरं नरबई दुरूढे। ॥९॥ततणं से कण्हेवासुदेवे समुद्दविजय पामोक्खहिं छपन्न हजार बलवंत पुरुषोंने स्नान किया यावत् सर्व अलंकार से विभूषित बमकर जैसा २ अपना ऋद्धि सत्कार समुदय था वैसे ही कोई हाथी पर बैठकर तो कोई घंडे पर.यावत् कोइ पांच से चलते हुए कृष्ण वासुदेव की पास आये और उनको जयविजय शब्द से पाये. तब कृष्ण वासुदेवने कौटुबिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुपिय ! अभिषेकवाला हस्तिरत्न सज करो और सायही हावी पांड रथ पाषदल वगैरह सब सज्ज करके मुझ मेरी माझा पीछी दो. उनोंने वैसही करके उनकी आज्ञा पीछीदी.॥१६॥ कृष्ण वासुदेव मोतियों की जालवाले स्नान गृह में गये यावत् अंजनगिरि पर्वत के कूट समान गमत | पर आस्ट हुवे. ॥१७॥ अब कृष्ण वासुदेव समुद्र विजय प्रमुख दश दशार पारत् अनंगमेश प्रमुख अनेक Hद्रपदी का मोलहवा. अध्ययन +8+ 1 - For Personal & Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी दसय दसारहिं जाव अणंगसेण पामोक्खे हि अणेग हिं: गणिया साहसीहि सदि सपरिबुडे सविडिए जाव रवेणं बारवति गंधार मज्झमज्झणं जिग्गच्छति णिगच्छिता सुर?जणवयरस मज्झं मझेणं जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ. २ ता पंचाल जण वयस्स मज्झं मन्झेणं कपिल्लपुरणयर तेगेव पहारेत्थगमणाएः ॥ ९८॥ तेण से दुवएराया दापि दूयं सहावेति २ त्ता एवं क्यासी- गच्छहणं तुमं देवाणुपिया ! हत्थिणापुरं गयरं तत्थणं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं न उलं सहदेवं दुजोहणं भायसयममगं, गंगेयं विदुरं दोणं जयदहं सउणं कीवं असत्थाम सहस्र गाणिकाओं के परिवारमे परिवरे हुवे सब ऋद्धि मत्कार व समुदय यावत् बडे२ वादित्रादिके शब्दसे द्वारिका नगरी की बीचबं से सौराष्ट्र देशमें नीकलकर सौराष्ट्र देशकी बीच में होते हुवे सौराष्ट्र देशके अंतमें आय. वहां से पांचाल देश में होकर कंपिकपुर नगर को जाने को तैयार हुए. ॥ ९८ ॥ द्रुपद रामाने * दूसरा दूस बोलाया और कहा कि अहो देवानुप्रिय : तुम हस्तनापुर नगर में जाओं. वहां पुत्र सहित पण्ड राजा. युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, दुर्योधन, और उन के मो भाइ, गांगेय । कुमार, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुन, क्लिा अश्वस्थामा वगैरह को हाथ जोडकर जय विजय शब्द से 23 वधाना और कहना की पांचाल देश के कंपिल पुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदो का स्वयंवर काशक-राजाबहादुर लालामुखदेवसहायजी ज्वाला प्रमादजी. 1 For Personal & Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - oranwwwwwwwww 48 पटङ्गताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कंध 424 करयल जात्र कटु, तहेव जाव समोसरह॥ततेणं से दए एवं वयासी-जहा वासुदेवं णवरं भेरीणत्थि जाव जेणेव कपिलपुरे णयरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए॥९९॥एएणव कामणं तच्चं दुयं चंपाणयरिं तत्थंगं तुमं कण्ण अंगरायं सलंगंदिरायं करयल तहेव जाव समोसरंह ॥ चउत्थं दूयं सोत्तिमइ णयरिं तत्य तु निपालं दमघोस यं च पंचभाइसय संपरिबुड करयल तहेव जाव समोसरह ॥ पंचमं दूय हस्थितीसं नयरं तत्थगं तुमं दमदंत. रायं करयल जाव समोसरह ॥ छट्दयं महरिनारे तत्थणं तुम धररायं करयल जाव समोसरह ॥ सत्तमं यं रायगिहं नयर तत्थणं तुम सहदेवं जरासिंधपुयं करयल होगा, इस से आप शीघ्रमेव वहां पधरो. टून राजा की आज्ञा मुन कर वहां जाने को नीकला वगैरह सद वर्णन प्रथम दून जपे कृष्ण वासुदेव की पाम गया था वैसे ही कहना. परंतु वहां कृष्ण बासदेवने । भी बनाइ थी यहां भेग का शब्द कहना नहीं यावत् मव कंपिल पुर नगर जाने को नीकले. ॥ ११ ॥ इसी तरह तीसरे दूनको चंपानगरी में जाने का कहा. कां करण रानी अंग राजा सलानंदी राजा को आने का आमंत्रण किया. चोथा दूतको सोक्तिमति नगरी में जाने का कहा. वहां शिशुपाल गजा व पांचों भाइ सहि। दमघोष पुत्र को हाथ ज.डकर आने का आमंत्रण किया. पांचवा दूत को हस्तिशीर्ष नगर में जाने को कहा. वहां दमदंत राना आरंग दिया, छादु को मथुग नगरी में भेजा वहां पर राजा द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 18 . For Personal & Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - जाव समोसरह ॥ अटुमं दूयं कोडिगं णयर तत्थणं तुम हा भिमग सुर्य करयल जाव समोसरह ॥ गवमंदूपं विराडं गयरं तत्थणं तुमं कायगं भाउ सयसमग्गं करयल जाव समोसरह ॥दममंदूयं अवसेसे मु गामागरणगरेसु अणेगाइं रायसहस्सालि जाब समोसरह ।। ततेणं से दुए तहेव जिग्गछइ जेणेव गामागर नगर बहवे जाव समोसरह ॥ ततेणं ताई अणेगाइं रायसहस्साति तस्स दूयस्स अतिए एयमटुं सोचा णिसम्महट्ट तुट्ठा, तं दूयं सकारति सम्माणेति सकारेता समाणेत्ता पडिविसज्जेति ॥ १०० ॥ ततेण ते वासुदेवे पामोक्खा बहवेरायसहस्सा पत्तयं २ को आमंत्रण दिया. सातवा दनको राजगृह नगरी में भेजा वहां महदेव राजा जरासंध के पुत्रको आमंत्रण दिया. आठवा दूत कोहीणी नगरी मेना वहां रूपी राना व भीष्पक पुत्रको आमंत्रण दिया. नववाद को विराद नगरी में भेजा वहां कीचक राजा व उन के सो भाइयों को आमंत्रण दिया. और दशा दूतको | रोवे ग्राम आगर नगर में अनेक अन्य राजाओं को आमंत्रण देने के लिये भेजा. वे दून अपने गह मे मीकलकर ग्राम आगर नगर में बहुन राजाभो को आमंत्रण करने लगे. व राजाओं भी उस दूनकी पाम से ऐसा सुनकर इष्ट तुष्ट हुए और उस दूनका सत्कार सम्मान करके उसे विसर्जित किया. ॥ २० ॥ अव वासुदेव प्रमुख बहुत हजार राजाओंने स्नान किया, क्वच पहिना, शखो धारण है। प्रकाशकन्जाबहादुर लाला मुखवसहायनी कालाप्रसादजी मर्थ For Personal & Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? 44 + षष्टांग ज्ञ ताधर्मकथा का प्रथप श्रुतस्कन्ध ण्हाया सन्नहबद्ध हात्थिखंधवरगया हयगयरह महया भडचडकर पहकर सएहिरनगरहितो अभिणिग्गछंति २ ता जेणेव पंचाले जणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ ...॥ ततेणं से दुवएराया. कौटुंबिय पुरिसे सहावेइ २ ता एवं क्यासी- गच्छहणं तुमे देवाणुप्पिया ! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानदीए अदुरसामंते एग महं सयवर मंडवं करेह अणेग खभ सय सन्निविटुं. लीलट्ठिय सालिभंजियागं जाव पच्चप्पिणति ॥ १०२ ॥ ततेणं से दुवएराया दोचंपि कोटुविय पुरिसे सदावेइ २त्ता एवं क्यासी. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वासुदेव पामोक्खाणं बहूणराय संहस्साणं आवसे करह कि ये और हाथी पर स्वार होकर घोडे, गन, रथ, भट. चेटक के परिवार से परिवरे अपनी २ नगरी से - नीकल कर पांचाल देश में जाने को प्रयाण किया. ॥ १०१॥ द्रुपद राजाने कोदुम्बिक पुरुषों को लाकर कहा कि अहो दवानुप्रिय ! कपिल पुर नगर की बाहिर गंगा नदी की पास एक बड़ा स्वयंवर मंडप बनावो. उस में अनेक स्तंभ व क्रीडा करती हुई पुतलियों वगैरह कर मुझे मेरी अ.ज्ञा पीछी/ दो. यावन्, उनोंने वैसा ही करदिया. ॥ १.०२ ॥ द्रुपद राजाने दूसरे कौटुम्बक पुरुषों को बोलाये लाकर कहा भहो देवानप्रिय ! बामदेव प्रमुख बात इनार राजाओं के लिये आपात वैयार करो. नाना पटी का सोलहवा अध्ययन अर्थ - । स + For Personal & Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - nnar - अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + तावे करेत्ता पच्चीप्पणति ॥ १०३ ॥ ततेणं से दुवएराया वासुदेव पामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमणं जाणित्ता पत्तयं र हत्थिखधं जाव परिवुडे अग्घंच पजंच गहाय सव्विड्डीए कंपिल्लपुरातो णिगच्छति २ ता जेणेव ते वासुदेव पामोक्खा वहवेराय सहस्मा तेणेव उवागच्छइ २ ता ताई वासुदेव पामोक्खाई अग्घेण पजेणय सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारेइत्ता समाणइत्ता तसिं वासुदेव पामोक्खाणं.पत्तेयं २ आवासे विरयइ ॥ तएणं से वा देव पामोक्खा जणेव सयाई आवासाई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता हस्थि खंधेहितो पच्चारुहंति २ पवेयं २ खंधावार णिवेसं करेंति २त्ता सएसु २ आवासेसु भी वैसा हो करके उन की आज्ञा पीछी दी. ॥ १०३ व सुदेव प्रमख बहुत हजार राजाओं का आगमन जान कर व प्रत्येक २को अग्ने २ हाथो पर सार हुने यावत् परिवार सहित आते हुवे देखकर द्रुपद राजा पूनाका पुष्पादि सामान व पछी प्रपु.व लेकर अपनी सत्र ऋद्धि महिन कपिलपुर नगर की बीच में ही कर वासुदव प्रमुख राजाओं की पाम जाकर उन का पुष्पादि व पीछी प्रमुख से सरकार सम्मान किया, और उन सब को पृथक २ आवाम देदिया. वे वामदेव प्रमख सब राजाओं अपने २ आवास में आकर अपने २ हाथों पर से नीचे उतरे और वहां अपनी २ छावणी है। वकाशक-राजाबहादुर लाला वदवसहायनीज्वालाप्रसादजी અર્થ - - For Personal & Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६१९ पष्टानहाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 अणुविसंति २त्ता सएस २ आवसेसुय आसणेसुय सयणेसुय सणिसण्णाय संतुयट्ठाय 'बहुहिं गंधरहिय नाडरहिय उवगिज्झमाणाय उवगिजमाणाय विहरांति ॥ १.४ ॥ ततेणं से दवएराया कपिल्लपरं नयरं अणपविसति २ त विपलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति २त्ता कोटुबियपुरिसे सहावेइरत्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरंच मज्जच मंसंच सिंधुंच का पढाव किया. फीर अपने २ श्रागस में प्रवेश किया. यहां अपने २ श्रावास में आसन शयन पर बैठकर संतुष्ट हुए और बहुन गंधर्ष गीतन.टक कराते हुए विचरने लगे. ॥१.४॥ तत्पश्चात् दुपद राजाने अपने नगर मे प्रवेशकर विपुल अशनादि बनाकर कौटुम्बिक पुरुषा को बोलाकर एसा कहा की अहा देवानुप्रिय तुम जाओ और विपुल अशन पान खादिम, स्वादिम, + मुरा, मांस, व निधुसुरा व प्रपन्ना : मदिग यहां सूरा मांस कृष्ण वासुदेवके आवास स्थान पहुंचाने का कहा है इससे यहां कृष्णवासुदेव के भोग निमित्त जानना नहीं किंतु सेना आदि के लिये जानना. और कहा है कि जिनको जो प्रिय होवे उन को बह देना. इस से वहां कृष्ण बासुदेवने ग्रहण किया होवे बेसा नहीं हो सकता है. द्रपद राजा का कर्तव्य है कि सर्व प्रकार से आये हुवे राजाओं का स्वागत करना. इस में जिन को जो ग्राह्य होता है उसे वे लेते हैं. सम्यक्स्वी इसे कंदापि ग्रहण नहीं करते हैं, } द्रपद राचाने सुरामास बनवाया इस से यह सम्यत्क्वी नहीं है ऐसा मालूम होता है. + द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसन्नंच सुबहु . पुप्फवत्थगंधमलालंकारंच वासुदेव पामोक्खाणंरायसहस्साणं आवासे मु साहरह ॥ तेबि साहरंति ॥ १.५ ॥ तएणं ते वासुदेव पामोक्खा तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव पसनं चं आसाएमाणा४ जाव विहरंति, जीमिय भुत्तत्तरागया वियणं समाणा आयंता चोक्खा जाय सुहासणवरगया बहूहिं गंधव्वेहिय जाब विहरंति ॥ १०६ ॥ ततेणं से दुवेएराया पुवावरण्ह काल समयंसि कोडुबिय पुरिसे सहावेइ२ सा एवं वयासी-गच्छहणं तुमि देवाणुप्पिया !कंपिल्लपुरं णयरं सिंघाडग जाव पहेसु वासुदेव पामोक्खाणय रायसहस्साणं आवासेसु हत्थिखंधवरगया अर्थविशेष ] और पुष्प वस्त्र, गंध, माला, अलंकार वगैरा बासुदेव प्रमुख राजाओं के आवास में लेजाओ. वे लोगों भी उक्त सब वस्तुओं लेगये. ॥ १०५ ॥ बोसुदेव प्रमुख सब राजाओं अशनादि यावत् प्रसन्न नामक सुरा का आस्वादन करते हुने विचरने लगे. जीम कर मुख प्रक्षालनादि से शुचिभूत बनकर यावत् | पूर्वक बहुत गंधर्ष की साथ यावत विचरने लगे. ॥१.६॥ दुपद राजाने दिन के पीछे के भाग में मिक पुरुषों को बोलाकर ऐमा कहा अहो देवानुप्रिय ! तुम जाओ और कंपिल पुर नगर 11/श्रृंगाटक यावत् महापय में बासुदेव प्रमुख अनेक राजाओं के आवास में हाथी पर स्वार हो कर बडेर* अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी * प्रकाशक समावहादुर लालासुखदक्सहायजी ज्वाला प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ६२१ षष्टांग नाताधर्मकन्या का प्रथम श्रुतस्कन्ध 41 महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! कलंपाउप्पभाए दुपयस्सरन्नो धूयाए चूलणीए देवीए अचयाए घट्टजुण्णस्स भगिणीए दोवतीए रायवर कन्नाए सयंवरे भविस्प्तति,तं नुब्भेणं देवाणुप्पिया! दुवयं सयाणं अणुगिण्हमाणा व्हाया जाव विभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरंट मल्लदामेणं छत्तेणं धारिजमाणेणं सेयवर चामरेहिं महया हय गय रहमहया भड चडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरे मंडवे तेणेव उवागच्छइ २ ता पत्तेयं २ णामके आसणेमु निसीयह २ दोवति रायवरकन्नं पडिवालेमाणा २ चिट्ठह घोसेणं घोसेह मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह . शब्द से उदघोषणा करते हुरे ऐमा बोलो कि कल प्रगतम द्रुपद राजा की पुत्री चूरणी देवी की आत्मजा व धृष्टर्जुन की भगिनी द्रौपदी राज कन्या का स्वयंवर होगा इस से अहो देवानुप्रिय ! तुम द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुने स्नान कर पावत् सब अलंकार से विभूषित पनकर हाथी की पीठ पर बैठकर कौरंट क्ष की माला वाला छत्र सहित श्वेत चामर य गज, रथ व बडे २ भट चेटक के परिवार सपरिवरे स्वयंवर में आकर अपने २मासन पर बैठ जाना. और वहां द्रौपदीराजकन्याकी मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे रहना. इम तरह उद्घोषणा करके मुझे मेरी आशा पं दो. कौटुम्बक पुरुषोने वैसे ही करके उन को उन की . द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन अर्थ For Personal & Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ततेणं ते कौटुंबिय पुरिसा तहेव जाव पञ्चप्पिणंति ॥ १८८ ॥ ततेणं से दुवएराया कौटुंबिय पुरिसे सहावेति २ ता एवं क्यासी-गच्छहणं तुम्भे देवाणुप्पिया! सयंवर मंडवं आसियं समजिए उवलितं सुगंधवरगंधियं पंचवण्ण पुप्फोश्यार कलियं कालागुरु पवर कुंदुरुक्क तुरुक्क जाव गंधवट्टीभूयं मंचाइमंच कलियं करेह मंचाइ मंचकालयं करेइत्ता वासुदेव पामोक्खाणं बहुण रायसहस्साणं पत्तेयं २ नामं कियाइं आसणाई सेयवत्थ पच्चयाइं रएह २ ता-एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह; आव पञ्चप्पि गंति ॥ १०९ ॥ तसेणं से वायुदेव पामोक्खा वहवेरायसहस्सा कल्लंपाउप्पभायए आज्ञा पीछी दी. ॥ ५.०८ ॥ द्रुपद राजाने दूसरे कौटुमक पुरुषों को बोलाये और ऐमा कहा अहो, अर्थ देवानुप्रिय ! तुम स्वयंवर मंड में चार स्वच्छ करा, पानी का छिटकाव करादो, फोर उमे धूप से आदि मे स्वच्छ कारावो अच्छी मुगधि गटिकाओं स्थापन करो पांचों वर्ण वाले मुगंधि पुष्यों का ढग करो। कृष्ण गुरु, कुंदरक आदि धूप का उक्षेप कर मंडप मघपच यमान बनायो, चारों दिशा में पांच वधानी E और वहां वासूदेव प्रमुख पत्र राजाओं के बैठने के आमन पर सब का अलग २ नाप अद्धिाकरो. इतना करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. कौटुम्बक पुरुषोंने भी वैमा ही करके उन को उन की आज्ञा पीछी 16दा. ॥ १०९॥ बी अवमुदेव प्रमुख सब राजाभोंने प्रभात होते स्नान किया यावत् सत्र अलंकार से है। अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्रा अमोलक ऋषिनी • प्रकाबिहादुर लाला सुखदेवमहायजीज्वालाप्रमादजी. For Personal & Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E अर्थ 488+ ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 हाय भूमियां हात्थवंधर गया सकोरेंट मल्ल दामेण छत्तेणं धारिजमाणेणं चमराहियं उद्धव्त्रमाणेहिं हयगय जाव परिवुडा सन्बिड्डीए जात्र रेवणं जेणेव सयंवरे मंडवे तेव उत्रागच्छइ २त्ता सयंवरं अणुपत्रिसइ २त्ता पत्तेयं २णामंकिएसु आसणेसु णिमीयंत २त्ता दोवइरायवरकन्नं पडित्राले माणा २चिट्ठति ॥ ११० ॥ ततेणं से दुपएराया कल्लं पाउप्पभाए पहाए जाव विभूतिए हत्थिबंध वरगए सकोरंटमल दामेणं छत्तेनं धारिज्जमागेणं सेयवरचामरेहिं उद्धव्त्रमाणेहि मझ्या हय गय जाब सार्द्ध संपरिवुडे कंपिल्लपुरं यरं मझं मज्झेणं णिग्गच्छति २त्ता जेणेव सयंवर मंडवे जेणेव वामुदेव पामोक्खा बहवे रायवरसहस्सा तेणेव उवागच्छइ २तेसिं वासुदेव पामोक्खाणं करयल जाव वद्धावेत्ता, कण्हरुस घासुविभूषित बनकर हाथी पर स्वार होकर कोरंट वृक्ष के पुष्पों वाला छत्र चामर हय गज यावत् चटक के परिवार सहित यावत् बडे २ बर्दियों के नाद से स्वयंवर मंडप में आये. उस में प्रवेश कर महार अपने २ नाम वाले आसनों थे उनपर बैठ गये और द्रौपदी राजकन्या की प्रतीक्षा करते हुत्रे रहने ॥ ११० ॥ यहां द्रुपद राजा न प्रभात होते स्नान किया यात्रत् सर्वाहार से विभूषित बनकर हाथी की पीठ पर बैठकर कोरंट वृक्ष के पुष्पों की माछा वाला छत्र त चामर व बड़े २ हाथी तथा सुभटों के परिवार सहित कंपिल पुर नगर की बीच में नीकलकर स्वयंवर मंडप में जहां कृष्ण वासुदेव प्रमुख राजाओं बैठे थे वहां आये वासुदेव प्रमुख राजाओं को जयहो विजयहां शब्द से बधाये और कृष्ण For Personal & Private Use Only 428* ट्रैपदी का मोलडवा अध्ययन 496 ६२३ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री बमोबक ऋषिजी बालब्रह्मचारी देवरस सेयवर चामरं गहाय उवर्वीयमाणे २ चिटुंति॥११॥ततेणं सा दोवती रायवर. कन्ना कलंपाउप्पभाए जेणव मजणघरे तेणेव उवागन्छइरत्ता मजणघरं अणुविसइ२ सा व्हाया जाव सुद्धपावेसाइं मंगलाईवस्थाई पचरपरिहिया जिणपडिमाणं अचणं करोतिरत्ता जणव अंतउरे तेणेव उवामच्छइ ॥ १२ ॥ ततेणं तं दोक्ई रायवरकण्णं सामुदेवका पत चामर अपने हाथ से ढोलते हुए खडे रहे। १११ ॥ प्रातःकाल होतेही राज कन्या द्रौपदी मज्जनः गृहमें मइ. वहां स्नान किया,यावत् राजसभा में प्रवेश करने योग्य शुद्धवस्त्र पहिने,जिन प्रतिमा की अनाकी, फॉर अंत:पुर में आई. + ॥ ११२ ॥ तत्पश्चत् . राजकन्या द्रौपदी को अंत मुर में सब अलंकार से cal +आधुनिक समय में इस कथन में मत भिन्नता हो रही है. कितनेक की मान्यता यह है कि द्रोपदीने है जिन जो अरिहंत भगवंत उन के मंदिर में जाकर उन की सूर्याभ. देवता, जैसे पूजा की. कितनेक इस मत से सर्वथा १ विरुद्ध है, अर्थात् उसने अरिहंत पूजा नहीं की है। वैसे ही नमोत्थुणं का पाठ भी नहीं किया है. संवत १६१५ की प्राचिन हस्त लिखित प्रतों होशिआरपुर और व लिंबडी वगैरह स्थलोंसे हमें मीली है. इसमें पाठ मात्र जिण पडिमं अच्चणं करेइरत्वा जेणेव, अंतेउरे तेणेव उवागच्छइ इतना ही है. यह पाठ मसुदाबादवाले बाबु धनपतासिंह तर्फ से प्रसिद्ध हुवा ज्ञाता सूत्र की शैलंगाचार्य कृत टीकामें वाचनांतर से लिया है. पृष्ट १२५५ इस पाठ मे प्रोपदीने सूर्यभ देव जैसे पूजा की होवे वैसा नहीं लिखा है. मात्र अर्वाचिन प्रतों में पाठ दीखाइदेता है कि जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छद २ त्ता जिणघरे अगुपावसइ २.त्ता है जिण पडिमाणं आलोए पणामं करे २त्ता लोमहत्वगः पमन्जद २त्ता एवं जहा सरिआभो जिण पडिमाओ अच्चेइ तहेव । प्रकाशक-राजारादरलाना मुम्वदेवमहायजी आलाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hदंपरी अंतेउरियातो, सल्वालंकार विभूसियं करेंति किते वरपायपत्तणे उर जाव चैडिया चक्कवाल . : महतरगविंदपरिक्खिता अतिउराउ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहि: .. रिया उक्टाणसाला जेणेव चाउग्धंटे आमरहे तेणेव उवागच्छइ २त्ता कीडावियाए संहियाए साई बाउग्घट आमरहं दुरुहति॥ततणं से धटुजुर्ण कुमार दोवतीए रायवर केण्णाए. सारस्थय करेति ॥ १३ ॥ ततणं सा दोबतीरायवरकन्ना कपिल्लपुरं विभषित की, पांच में श्रेष्ट नेपूर धारन किये यारत् दासियों के समुह से फरवरी हुई अंत:पुर मे नीकलकर जहां बाहिर की स्पस्थान शाला थी वा आई. वहां क्रांडा कराने वाली पात्री व दासिको साथ चार घंटा वाला अश्वरय पर वह बैठी. धृष्टर्जुन कुमाग्ने द्रौपदी के मारथी का कार्य किया. ॥ १३ ॥ द्रोपदी भाणियध्वं जाव धूर्व डहइश्त्ता वाम जाणु अच्चइ रेत्ता दाहिणे जाणुं धरणिवलास णिसायइ २ ता तिक्वुत्तो मुद्धाण धणि3 तलीस णिवेसेइ दत्ता इस पच्चुणुमई २ ता करयल जाब तिकट्ट एवं वयासी णमोत्थुण अरहताणं-भगवताणं आदिमराणं तित्थगसणं सयंसंबुद्धाणं. जाव ठाणं संपत्ताणं बंदइ मेसाई वंदित्ता नमंसित्ता जिणधराओ पडिणिक्खमइ २ त्ता इतना पाठ } नविन प्रतोंमें प्रक्षेप किवा मालूम होता है. नहींतर प्राचिन प्रतीमें भी इस का उल्लेख मील सकता. और भी द्रपद राजा {: किसी प्रकार से श्रीवक अथवा सम्यक्त्वी होने का सिद्ध नहीं होता है. उन के संतान में ऐसी भावना कैसे आसके. इस से ale: यहां जिन प्रतिमा का का अर्थ अपने कुलदेवों हो सकता है, और सासारिक कार्यों में कुलंदयों की पूजा करने की रीति 14 अद्यापि पर्यंत विद्यमान है,... झानाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध HR ... द्रं पदो का सोलहवा अध्ययन ११ For Personal & Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक प्रतिषी गयर मझमझ जेणेव समंडषे तेणेव उवागछइरह ठवेइ रहाओ पश्चारुहार चा किडावियाए लेहियाए साई संयंवरमंडवं अणुपविसतिरत्ता करयल तेसि वासुदेव पामक्खिाणं वहणं रायवरसहस्साण पणाम करति॥११४तएण सादोवती रायवस्कण्णा एगंमहं सिरिदामगंड किंते पाडल मल्लियं चपय जाव सत्तत्थयइहिं गंधणि मुगतं परमसुहफास परिसाणिजं गिण्हति ॥ १५॥ ततेणं सा किडाविया सुरूवा जाव वामहत्येण चिल्लगं दपणं गहेऊण सा सललियं दप्पणं संकेत बिंब संदसि काराबापडाहरडाबाखदेवसहावजी ज्वारसाहनी राज कम्पा कपिल पूर नगर की ड्य बीच में होकर सयंवर मंडप की पाम आइ और वहां ग्था खरा किया. वहां रथ से नीचे उना कर क्रीडा कराने वाली पात्री र दासि की साथ सवार मंडप में ससने प्रवेश किया. anf सने हस्तद्रय जोडकर कृष्णवासुदेव प्रमुख अनेक सास रानाओं को प्रणाम वि. ॥ ११४ द्रौपदी गणान्याने एक श्रीदाम नामक मंद लिया. पापा यावत् समर्थ वृक्षों । के पुष्पों मे गुथा हुआ मुगंध धान का विस्तार करने वाला, हष्ट मुख पर्व वाला ब दर्शनीय था.. १॥ ११५॥ अबक्रीराकगने वाली यात मुरूषा धात्री बांये हाथ मेंदीष्यवान अमि उमलदर्पण लेकर 13स में मो राबावों के प्रतिबिंब आते थे इस जीमने हाथ से लीला सहित बनाने लगी. राजाओं For Personal & Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418+टांद्र द्वाताधर्मकथा का प्रथम स्कंध 446+ एय से दाहिणेण इत्थेण दरिसए पवर रायसीहे फुडावसय विसुद्ध रिभेय गंभीर महुर भणिया सा ते सव्यपत्थिवाणं अम्मापिडणं वंस सत्त सामत्थ गोत्तविनंति कति बहु वह आगम महापरून जोन्त्रण गुणलात्रष्ण कुलसील जाणिया किन्तणं करेइ ॥ ११६ ॥ पढमं तात्र वण्हिपुंगवाणं दसदसार वरवीरपुरिसाणं तेलोक्क बलवगाणं समय सहरसाणं माणोवमहमाणं भवसिद्धियत्ररपुंडरायाणं चिलगाणं बल वीरिय रूव जोवणगुण लावण्ण कितिया कित्तणं करेति ॥ ततो पुणो उग्गसेन के विषय में स्फुट, विषाद, विशुद्ध, रिभित, गंभीर मधुर वचनों यात्री बोलने लगी. इन सब राजाओं के मात पिता के वश कहा, ये धर्मवत्र हैं बैमा बतलाया, बलवंत, पराक्रमवंत हैं, बहुत कीर्ति वाले है, बनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता हैं, महामहिमावंत हैं रूप, यौवन गुण, लावण्य, कुल व शील वगैरह जा जानती थी उन का कीर्तन किया. ॥ ११३ ॥ प्रथम यादववंश में उत्पन्न होने वाले समुद्र विजयादि दश अथवा कृष्ण वासुदेव के प्रधानवीर पुरुषों का वर्णन किया. यः कृष्ण वासुदेव तीन भुवन में बलवंत हैं, लाखों शत्रुओं के मान का मर्दन करने वाले हैं, भव सिद्धिक पुरुषों में कमल समान है, उसका बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण, लावण्य व कीर्ती देदीप्यमान हैं यों उन का कीर्तन किया तत्पश्चात् उग्रसेन For Personal & Private Use Only 44+ ट्रैौपदी का सोलहवा अध्ययन + ६.२७ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६२० 14 'माईण जायवाण भणति सोहाग रूंब कलिय वरहि 'बर पुरिस गंधहाणं जो हुने होइ हिययदओ ॥ ११७ ॥ ततेणं सा दोवती रायवर कन्नगा वहूर्ण गयवर सहस्साणं मझंमज्झेणं समतित्थमाणी २ पुवकय नियाणेणं चाइजमाणी जेणे पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ २ ता ते पच पंडवे तेणं दसवण्णेणं कुसमदामेणं आवेढिय परिवेढिय करति २त्ता एवं वयासी एएणं मए पच पंडवा बरिया ॥१२८॥ तलेणं ताई वासुदेवपामोक्खाणि बहुणिं रायसहरुमाणि महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयंति २ सुवरिये खलु भो दोवतीए रायवरकन्नाए तिकटु सयंवर मंडवातो . प्रमुख का कीर्तन किया. यादव कल में उन का जन्म हुआ हैं, सौभाग्य व रूप सहित प्रशानः गंधहस्ती समान यह उग्रसेन राजा इत्यादि हैं. ये तेरे हृदय को बल्लन होगा. ॥ ११७ ॥ अब ट्रैपदी गज कर सहस्र राजाओं का वर्णन सुनतो हुई अपने पूर्व नियाणा [ निदान के वश में पांच पांडवों का पाम आई. इन पांचों पांडवों को पांच वर्ण की पुष्प माला से वेष्टित किये और एमा वोली कि में इन पांचों पांडकों को वरी हूं ॥ १२८ ॥ वहां बैठे हुवे कृष्ण वासुदेव प्रमुख बहुत सहस्र गनाओं बडे २ शब्द मे बालने लगे कि द्रौपदी राजकन्या पांचों पांडवों को बरी यह अच्छा हुवा. यों कहकर स्वयंवर मंडप में से 44 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक पनीर काशक-राजाबहादुर लाला मुखद वहायजी याबासादजी For Personal & Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटा ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 पडिणिक्खमंतिरत्ता जेणेव सया मया आवासे तेगेव उगगच्छति ॥ ११८ ॥ ततेणं धटुजुगे कुमारे पचपंडव दोवति रायवरकण चाउग्घट आसरहं दुरुहति २त्ता कंपिल्लुपुरमझम झणं जाव सयं भवणं अणु विमति २ ॥ ततेणं से दुवएराया पंचपंडये दोवर्ति रायवर कण्णयं पट्टयं दरुहति २ सा सेयपीएहिं कलमहिं मजावति २त्ता अग्गिहामं करइ २ त्ता पचण्ह पंडवाणं दावईए य पाणिग्गहणं करावेइ ॥ १९ ॥ ततण से दवएराया दोवतीए रायवरकण्णाए इमं एयारूवं पीतिदाणं दलयात तेजहा अहिरणकोडिओ जाव अट्ठपेसणकारीओ दासीचडीओ, अण्णच विउलं वाक गग जाव दलयति ।। १२० । ततेणं से दाएराया ताई वासदेव मील कर जहां अपने शयनाशयन थे वहां आये ॥ ११८ ॥ अब धृष्टणु ने पांच पांडवों व द्रौपदी राजकन्याका चार घण्टवाला अश्वरथ पर बैठा र कपिलपुर नगर की वाच में होते हुने अपने भवन में लाये. वहां रद सनाने द्रोपदी का पांच पांडव की साथ एक पाटपर बैठाकर श्वे। पीत कलशों से स्नान कराया और अनिदाम करवा कर पांच पांडा की साथ द्रौपदी का पाणिग्रहण करवाया ॥ १.१९ ॥ दुद सजाने द्रौपदी को प्रीतिदान दिया नद्यया-आठ ऋोड हिरण्य यावत आठ प्रपणकारी दासियों और अन्य विपुल धन कना यावत् दिया ॥ १२० ।। द्रुपद राजाने विपुल अशादि बनाकर नत्र गंध द्रौपदी का सातवा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4: अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोल सुविज प्र.म.कखाई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं वत्थगंध जात्र पडिविसज्जेति ॥ १२१ ॥ ततेां में पंडुराया तेमिं बासुदेव पामोक्खाणं बहुणं रायसहरसाणं करबल जावं एवं त्रयासीएवं खलु देवाणुपिया ! हरियणाउरे गयरे पंचण्डं पंडवाणं दोवतीए देवीए कलाण करे भविस्सति तं तृम्भणं देवाणुप्पिया ! ममं अणुगिरहमाणा अकाल परिहीणं समोसरह । तते वासुदेव पामोक्खा पत्तेय २ जाव पहारेत्थ गमणाए ॥ १२१ ॥ ततेणं से पंडुराधा कोडबिय पुरिसे सहावेति सदावेता एवं वयासी- गच्छद्दणं तुम्भे देवाणुपिया!हत्थिणाउरे जयरे पंचण्डं पंडवाणं पंचपामाथ वर्डिसए करेह, अब्भुग्गय भूसिय वण्णओ जान पडित्रे || तणं ते कोटुंबिय पुरिसा पडिमूर्णेति, जाब काराअलंकार से सत्कार सम्मान देकर यावत् विमर्जित किये || १२१ || अब पांडु राजा वासुदेव प्रमुख बहुम राजाओं को हाथ जोडकर कहने लगा कि अहो देवानुप्रिय : हस्तिनापुर में पांच पांडव व द्रौपदी देवीका कल्याणकारी उत्सव होगा, इस से मेरे पर अनुग्रह करके वहां आप पधारो. वासुदेव प्रमुख सबने वहाँ जाने का प्रयाण किया N ५२१ ॥ पांडु राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को वोलाये और कहा अहो देवानुभव ! तुम हस्तिनापुर नगर में जाओ और वहां पांडवों के लिये पांच प्रासादावतंसक बनावो. व ऊंचे आकाशतल को लगे हुवे यावत् प्रतिरूप होवे. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन के वचन का For Personal & Private Use Only प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवमहाथजी यासा ६३० Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र 418* पष्ठां ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम शुरु वेति ॥ १२२ ॥ ततेणं से पंडुएराया पंचहिं पंडबेहिं दोवईए देवीए सद्धिं हय गय संडे कंपराओ पडिनिक्खमइ २ ना जेगन हत्यिणाउरे तेणेत्र उत्रागए ॥ १२३ ॥ ततणं से पंडुराया तेर्सि वासुदेव पामोक्स्खाणं आगमणं जाणता कोटुंबिय पुरिसे सहावेइ २त्ता एवं वयासी गच्छद्दणं तुन्भे देवाणुपिया ! इत्थिणा उररस जयरस्त बहिया वासुदेवपामोक्स्खाणं बहुणं रायसहरसाणं आवामे करेह अग स्वभसय तहेव जात्र पञ्चपिति ॥ १२४ ॥ ततेनं ते वासुदेव पामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव इत्थिणापुरे तेणेव उवागच्छति ॥ १२५ ॥ तवेणं से पंडुराया {स्वीकार किया और वैसे ही प्रामादावतंसक करवा लिये || १२२ || अब पांडु राजा पांच पांडवों व द्रोपदी को साथ लेकर हब गज मे परवरे हुवे कंपिलपुर नगर मे नीकल कर डस्नीनापुर नगर में गये. ||| १२३ || पांडु राजाने वासुदेव प्रमुख राजाओं का आवागमन जान कर कौटुंबिक पुरुषों को बोलाय और कहा अहां देवानुप्रिय ! तुप हस्तिनापुर नगर की बाहिर वासुदेव प्रमुख राजाओं के अनेक हजार आवासों तैयार करो उन में अनेक स्तंभ बगैरह सब तैयार करके मुझे मेरी आझा पीछी दो. यावत् उनने बैसा किया. ॥ १२४ ॥ वसुदेव प्रमुख सब राजाओं हस्तिनापुर नगर में आये ॥ १२५ ॥ For Personal & Private Use Only 448*> द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 411+ ६३१ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-पाल ब्रह्मचारीमा । अमोलक ऋषिजी 1 वासुदेव पामोक्खा जाव आगए जाणित्ता हट्ठ तुटे हाए कयवीलकम्मे जहा दुःतराया - जाय जहारिहं आवासे दलयति ॥ ततेणं से वासुदव पाभोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव मयाइ आवामाइं तेणव उपागच्छइ २त्ता तहेव जाव विहरंति ॥ १२६ ॥ ततण मे पडराया हस्थिणाउरं जयरं अणुपाविसति २ त्ता कौटुंबिय पुरिमे सहावेति सहावेत्ता एवं वयासी-तुब्भण देवगणुप्पिया ! विपुलं असणं ४ तहेव जाव उवणेति ततेणं ते वासुदेव पामोक्खा बहवे रायसहस्सा बहाया कथवलिकम्मा तं विपुलं असणं पाण खाइमं साइमं तहेव जाव विहरति ।। १२७ ॥ ततेण से पंडुराया ते पंचपंडवे दोवतिं च देवि पट्टयं दुरुहेति २त्ता सीयापाएहिं कलसेहिं व्हावेति,कल्लाणक २ काति २, वासुदेव प्रमख को आये हुए जानकर पांडराजा हृष्ट तुष्ट हवा. उमने स्नान किया वगैरह सब करके जिस को जो यग्य था वैसे आवास दिये. वामदव प्रमुख सब राजाओं आने २ आवास में गये और वहां पूर्वक विचरने लगे. ॥ १२६ ॥ पांडगजाने हस्तिनापुर नगर में आकर कटुम्बक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम विपल अशनाादे यावत् तैयार करा. वासुदेव प्रमुख सब राजाओंन स्नान ". कोगले किये यावत् अशनादि भोगवत हुए विचरने लगः ॥ १२७ ॥ पांडुराजाने पांच पांडवों व नेपदी को एक पाटपर बैठकर श्वापीत कलनों से स्नान करवाया फोर कल्याणकारी उत्सव करके वासुदेव ।। प्रकाशक-रोजाबहादुर काला मुखदरमहायजी बालासाजी For Personal & Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 ते वासुदेव पामोक्खे बहवे रायसहस्से विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पुप्फबत्थ गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेति सक्कारेत्ता समाणेता जाव पडि विसजेति २ ॥ ततेणं ताई वासदेव पामोक्खाइं बहुई रायमहस्साइ जाव पंडिगयाति ॥ १२८ ॥ ततेण पंचपंडवा दोवतीए देवीए सद्धिं कलाकलिं वारंवारेणं उरालाति - भोगभोगाति जाव विहरंति ॥ १२९ ॥ ततेणं से पंडराया अन्नया कयाइं पहि " पडवहिं कौतीए देवीए दोवईए · देवीए सद्धि अंतेउर परियाल सद्धिं संपरिघुडे सीहासणवरगया विहरंति ॥१३० ॥ इमंचणं कच्छल्ल णारए दसणेण अइभद्दए विणीए, अंतोय कलुसहियए मज्झत्यो उत्थिएय अल्ली। सोम १. मुख बहुत सनाओं को विपुल अशन, मन, खादिम, स्वादिप, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, व अलंकार से मत्कार सन्मान करके यावत् विसर्जित किये. तत्पश्च त वे वासुदेव प्रमुग्व. मब राजाओ अपने २ स्थान गये. ॥ १२८ ॥ पांच पांडवों द्रौपदी की साथ कालौकाल अपनी वारी मे भोगभोगते हो विचरते थे. ॥ १२१ ॥ एकदा पांडुराजा पांच पांडवों कुंतिदेवी व पदी देवी की साथ अंत:पुर में मब परिवार 3महित सिंहासन पर बैठे हुए थे. ॥१३०॥ इस ममय कच्छल्ल नारद आये. दीखने भनि भद्रिक, व विनीत 15थे परंतु उन का अंतःकरण कालुपता ब.ला था, मध्यस्थभाव वाला था, वस्तु षों में अलीन स्वभाव हाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध ;पदी का सोलहवा अध्ययन अर्थ / - For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाहम-समचारी मुनि श्री मोडक अपिता पियदसणे सुरूवे अमंडलसगल परिहिए कालमियं चम्म उत्तरासंग रइयवत्ये दंड कमंडलु हत्थे जडामउदित्तसिरए जण्णोवइयगणे त्तियमुंजमेहलबागलधरे हत्थ कयकन्छभीए पियगंधचे धरणि गोयरप्पहाणे, संवरणावरणउवयणुप्पयणिले सीणीमुय संकामणि अभिओग पण्णति गमणीयंभणीय बहुसुविजाहरीसु विजासु विम्सुयजसो, इ8 रामस्सय केसवस्सय दज्जुण्ण पईवसंब अनिरुद्ध णिसढ उपय सारण गयसुमुह दुमुहाती जायवाणं अट्ठाणं कुमारकोडीगं हियय दइए संथाए, वाला था, सौम्य प्रियकारी दर्शनीय अच्छे रूपमाला यश, अच्छा, निर्मल अखंडित था. बल्कल पहिने हुए थे, मृगचर्म का उत्तरासन किया था, दंड कमंडल हाय में धारन किया था. जटा का मुकुट शिरपर था. गले उपवीत धारनी थी, सच सरुद्र की मालाका पाभरणपहिना था. कंदोरके स्थान वरालकादोराबंधा था, । हाथमें कच्छपिका नामक तापसका उपकरण रहता था, इनका गमन पृथ्वी में बहुत कम होता था, संवरनी, पावरनी. नीचे उतरने की, उपर चढ़ने की, संपनी, संक्रग्नी, भाभियोगिनी, मोना चांदी बनाने की पज्ञापिनी, स्तंभनि इत्यादि बहुत विद्याओं में विख्यात था. यह बलदेव व कृष्णवामदेव का प्रिय था, अतुम्न कुमार, प्रदीप कुमार, शंब कुमार, अनिरुद्ध कुमार, उम्पुखकुमार, सारनकुमार, गजमुकुपाल कुमार, मुमुख कुमार, .पाचकराजाबहादुर डाला खदरसा जी वालाप्रप्रदजी. For Personal & Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHA पटांसाधर्मस्या का प्रथम श्रतस्कंध कलह जुद्ध कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी, बहुमुयसमरसुय संपराएस दसणरए समंतओ कलहंसंदक्खिणं अणुगवेसमाणे, असमाहिकरे, दसारवरवीर पुरिसे तैलोबाबलबगाणं आमंतऊण तं भगवति परमाणे गमणागमण दत्तंउप्पइओ गण तल मभिलंघयंतो गामागरणगर खेड कन्नड मंडा दोणमुह पट्टणसंवाह सहस्म मंडियं थिमित मेइणीतलं सुहं उलोयंतो रम्मं हरिथणारं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवपइ ॥१३१ ॥ ततेणं मुख इत्यादि साई तीन कोर कुमारों को बलभ था, उन कुमार को संस्तवन योग्य था, कलाकारी था, लोगों के प्रशंसनीय वचनों उनको पियकारी थे, मर से बसनों बोलने का अभिलाषी था, में वगैरह देखने का बहा उत्सुक था, जहां रनवेमांश करानेका तीन का धर्म था, काकी गोषणा करनेवाला था, असमाधि करनेवाला था.. वैसा नारद तीन लोक में बलवान् इशार वंश के वीर पुरुषों को भामंत्रण देकर गमनागमन में दक्ष प्रामिनी शिक्षा को अयुंजकर गगनतल को उलंघता हुवाब धील में ग्राम, भागर, नगर, खेड, कपट, मंडप, दोगमुख, पट्टण, मंड, सनिवेश वगैस को देखना हुन हस्तिनापुर कमर में पाया. और पाण्डुराजा के भुान में अतिवेग से प्रवेश किया ॥ १३ ॥ 441 दीपदी का सोलहसाबध्ययन wwwwwwwww For Personal & Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी श्री अमालक ऋषिजी अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि मे पडुरायां कच्छुल्लं णास्यं एजमाणं पासति २ ता पंचाहं पंडवेहि कुंतीएय - देवीर, साई . आसणाओ. अब्भट्रेति . २ . त्ता कच्छल्लनारयं सत्तटु पयाई पच्चुगच्छइ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ ता वंदइ नामसति बंदित्ता नमंसित्ता महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेति ॥ १३२ ॥ ततेणं से कच्छुल्लए णारए उदगपरिफातियाए दब्भावरिए वत्थयाए भिसीयाए णिसीयइ २ त्ता पंडराय रज्जेय जाव. अते उरय कुसलादत पुच्छइ ॥ १३३ ॥ तएणं से पंडए राया कुंतीदेवी पंचय पडवा कच्छुलं णारयं आढति जाव पज्जुवासंति ॥ १३४ ॥ तएण सा दावई दी कच्छुल्लणारयं असंजयं अविरयं अपडिहयपच्चक्खाय पावकम्मे कच्छल्ल नारद को आता हुआ देखकर पांव अंडा व कुंनी को साथ पाण्डुराना अपने आमन स उपस्थित हए. उन की मन्मुख मान आठ पांच गये. तीन वक्त आवर्त प्रदक्षिणा से बंदग नमस्कार करके महा। मूल्यवाला आमन की निमंत्रणा की॥ १३२॥ कच्छल नारदने पानी से जर्मन पर छिटकाव किया, उस पर अपना दर्भासन विछायां, फीर अपना भीसिया नामक आसन बिछाकर पाण्डुराजा को .उन के ज्य यावत् अंतःपुर यो सब का कुशल क्षेम पूछा ।। १३३ ॥ पाण्टु राजा कुंतीदेवी व पांच पांडवों सपने कच्छुक नारद का आदर-सत्कार किया यावत् उस की पर्युपामना की ॥ १३४ ॥ कच्छुल नारद को अविरति, असंथात व प्रत्याख्यान रहित जानकर द्रौपदीने उन का बादर सत्कार किया नहीं, अपने काशक-गंजाबहादर लाला मुखव सहायजी ज्वालं प्रसादजी " For Personal & Private Use Only www.anebryong Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तिकटुणो आढाति नो परियाणाइ मो अम्मुडेति नो पञ्जु मसति ॥ १३५ ॥ ततेणं तरस कच्छुल्लणारयस्स इमेयारूवे अम्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपजित्था-अहोणं दोवतीदेवी रूवेणय जाव लावण्णेणय पंचहिं पंडवेहिं अवट्ठा ६३७ समाणी मम णो आढाति जाब नो पज्जुवासंति ॥ तं सेयं खलु ममं दोवती देवीए विप्पियं करित्तए त्तिकटु, एव संपेहेति २त्ता पंडुरायं आपुच्छिइ २त्ता उप्पयणियविनं आवाहेति ताए उक्किट्ठाए जाव विजाहरगईए लवणसमुदं मझमझेणं पुरच्छाभिमुहे वितीवतिओ पयत्तेयावि होत्था ॥ १३६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं धायतिसंडे दीवे पुरथिमड दाहिणड्ड भरहवासे अमरकंका गाम रायहाणी होत्था ॥ तत्थणं आसन से उठी नहीं वैसे ही उन की पर्युपासना मी की.नहीं ॥१३॥ कच्छुल नारद को यह देखकर ऐमा अध्यवसायहुवा कि अहो द्रौपदीराणी रूप, यौवन, लावण्य व पांच पांडवोंकी पालकी पत्नी होने से गर्विष्ट । बनी हुई है. इस से यह मुझे आदर नहीं देती है यावत् मेरी पर्युपासना नहीं करती है. इस से द्रौपदी पर * किसी प्रकार की विपत्ति डालना चाहिये.. यो विचार कर पाण्डु राना को - पूछकर उत्पातिनि विद्या से है। 17उडकर उत्कृष्ट विद्याधर गति से लवण समुद्र की मध्य बीच में होता हुआ पूर्व दिशा में गया ॥ १३६ ॥ 41 षष्टांद्रज्ञाताधमेकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध द्रपदी का सोलहवा अध्ययन 48MP Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था महयाहिमवंत वणओ ॥ तस्सणं पउमगाभस्सरणो सत्तदेवीसयाई उरोहे होत्था ॥ तरसणं पउमणाभरस्सरण्णो पुत्ते सुगाभे नाम पुत्त जुवरायाहोत्था ॥ १३७ ॥ ततेणं से पउमणा भेरया अंतेउरंसि उरोह संपरिबुडे तिहासणवरगए विहरति ॥ १३८ ॥ ततेणं से कच्छुलनारए जेणव अमरकंका रायहाणी जेणव पउमणाभस्सभवणे तेणेव उवागच्छति २ त्ता पउमणाभस्स रण्णो भवणांत झतिवेगेणं समोवतिते ॥ १३९ ॥ ततेणं से पउमनाभे राया कच्छुल्लणारयं एजमाणं पासतिरत्ता आसणातो अन्भुट्ठति अग्घेणं जाव उमकाल उससमय में धान की खण्डद्वीप के पूर्षि में दक्षिणा भरत क्षेत्रमें अमरकका नामक राज्यधानी थी. IE उस अमरकंका नगरी पद्मनाभ नामक राजा रज्य करता था. वह महाहेमवंत पर्वतसमान यावन् वर्णन पहिले जैसे जानना. इस पमनाभ राजाको माप्तों रानियों का समुह था. उसको सुनाम नामक पुत्र युवराजा था ॥ १३॥ एकदा पदनाम राजा अपने अंत:पुर में अपनी रानियों की साथ सिंहासन पर बैठा था। ॥ १३॥ तच्छुल नारद अमरकंका राज्यधानी में पद्मनाभ राजा के भवनगपा और ममें घ्रि की प्रवेश कर दिया ॥ १३९ ॥ अब पचनाम राना कच्छुल नारद को आते हुवे देखकर अपने आसन से 4 अनुनादक-गालब्रह्मचारीमान श्रा अमोलक ऋषिजी + प्रकाशक-राजावह दराला सुख देवमहायजामानापमादी. , For Personal & Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन अर्थ पज्ञ ताकथा का प्रथम स्कंध ११० आसणणं उवणिमतेति ॥ ततेणं से कच्छुल्लनारए उदयपरिफोसियाए दब्भाव रिपच्चुत्थ याते भिपियाए जिसीयइ जाव कुमलोदतं आपुच्छति ॥ १४० ॥ तन ने प मान रायगउरोहे जात्र विम्झिएकच्छुल्लणारयं एवं वयापी-तुनं देत्राणुनिया ! बहुगामाणि जाब गिहातिं अणुष्पविससितं अस्थिया तं ते कर्हि देवाणु विषाए एरिस उरांहे दिट्टपुत्रे जारिसएणं ममउरोहे ? ततेणं से कच्छुल्लन र परमेणं रन्ना एवं वुत्ते समाणा इसिं विहसियं करेति २ ता एवं वयासी - सरिलेणं तुम उपस्थित हुदा यावत् उन को आसन पर बैठने का कहा. कुच्छुल नारदने जल का टिकाव किया ( यावत् महामून ला आसन पर निमंत्रणा की. उस पर बैठकर सबका कुशल क्षेम पूछा ||| १४० ॥ यहां पद्मनाभ राजाने अपने अंतःपुर रूप यौवन लावता में विस्तवा कच्छु नर को एरा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुमने बहुत ग्राम नगर व है तो जैसे मेरा खियका समुदाय है वैसा समुदाय तुमने किसी स्थान क्या देखा है गृह प्रवेश किया किंचित् स्मित कर वाले अटा पद्मनाभ राजा ! तुम अगड़ के दर्दर जैसे हो. पद्मनाभने पूछा अहादेवानुमेय अगड दर का दृष्टांत कैसे है ? अगंड दर्दुर का दृष्टान्त जैसे मल्लिनाथ के अध्ययन में कहा वह सब यहां जानना. For Personal & Private Use Only 4984 ट्रैपदी का सोना अध्ययन 2015 १३९ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी १ पउमणाभा ! तस्स अगडददरस्स ॥ केणं देवाणुप्पिया ! से अगरददरे ? एवे जहा" मल्लिणाए, एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुदीवे २ भारहेवासे हथिणाउर नयर दुवयरस रण्णो धूया चुलणीदेवीए अत्तया पंडुस्स सुण्ड पंचण्हंपंडवाणं भारिया दोवतीणामदेवी रुपेणय जाय उक्किट्ठा उक्किट्टासरीरा दोवतीणं देवीणं छिण्णस्सवि पायंगुस्स अयंतव उरोह मयमकलणअग्घइ तिकट्ठ पउणाभं आपुच्छतिरक्षा जाव पाडगए।१४१॥ततर्ण से पउमणाभेराया कच्छुल्लणारए अतियं एयम? सोचा णिसम्म दावइए दवीएरूवेणय जोवण्णणय लावण्णणय मुच्छिए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता पोसह सालं जाव पुन्व संगतियं देवं एवं क्यासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवेदीव अहो देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेप में हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की कन्या, चूलणीदेवी की आत्मजा पाण्डु राजा की पुत्रवध, पांच पांडवों की भार्या द्रौपदी देवी है. वह रूप व लावण्यता यावत् उत्कृष्ट. उत्कृष्ट शरीरवाली है. इन के छेदे हुए पांव के अंगुठे जमी भी तुम्हारी कोई भी राणा न हो सकती है. यों कहकर पद्मनाभ गजाको पूछकर यावत् नारद पीछा गया ॥१४१॥ कच्छुल नारद की पास ऐसा मुनकर पमनाम राजा द्रौपदी राणी के रूप यौवन व लावण्यता में मूच्छित हुवा, वहांस पौषधशालामें आया.वहां अपने पूर्व परिचिव देक्का स्मरण किया अष्टमभक्त तप किया. अंतमें है। माशाबडादर लाल नदव महाया मालाप्रसादजी. - For Personal & Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध भारदेवासे इत्थिणापुर जात्र सरीरा, तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! दोवति देविं इह व्त्राणीयं ॥ १४२ ॥ ततेणं पुष्त्रसंगतिए देवे पउमणाभं एवं वयासी - नो खलु देवापिया ! एवं भूयं वा भव्त्रा भविस्संत्रा जेणं दोवती देवी पंचपडवे मोत्तूणं अन्नणं पुरिसेणं सद्धिं . उरालाति जाव विहरस्सइ तहवियणं अहतव पियट्ठाए दोवती इमाम चिकट्टु पउमणाभं आपुच्छइ २ ताए उक्किट्ठाए जाव लत्रण समुदं मज्झ मज्झणं जेणेव इत्थिनापुरे नयरे तेणेव पहारेत्थगमनाए ॥ १४३ ॥ वह देव आया. उसको पद्मनाभ राजा ऐसा कहने लगा कि अहो देवानुप्रिया जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हस्तिमापुर नगर है वहां पाण्डु राजा की पुत्रवधू द्रौपदी यावत् उत्कृष्ट शरीरबाली है. अहो देवानुप्रिय ! उस | द्रौपदी को यहां लाने को मैं चाहता हूं ॥ १४२ ॥ उन के पूर्व मंगतिवाले देवने पद्मनाभ को ऐसा कडा, अहो देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी पांच पांडवों को छोडकर अन्य पुरुष की साथ भोग भोगवे बैता कदापि हुवा नहीं है, नहीं होता है व होगा भी नहीं. मैं तेरी साथ प्रीति होने के लिये द्रौपदी को यहां पर का दूंगा, यों कहकर पद्म भ्रम को पूछकर उत्कृष्ट दीव्य देवगति में लवण समुद्र की मध्यबीच में होता हुआ इस्तिनापुर नगर की तरफ जाने को नीकला ॥ १४३ ॥ उम्र काल उस समय में हस्तिनापुर नगर में For Personal & Private Use Only 434 द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन ६४१ ( Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ચ अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री योजक ऋषिजी तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिगाउरे लयरे जुहिट्ठिल्लेराया दोवती देवीए सि उपि आगरसतलसि सुहपत्तेयावि हत्या ॥ १४४ ॥ ततेणं से संगतिए देवे जंग या जेणेव दावती तेणेव उवागच्छइ २ ना दोनतीए देवीएं सारणियं दल २ ता देवदित्रिं गिण्हइ २ चा तए उक्किट्ठाए जात्र जगेव अमरकंका जेणेव पासवणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पउमणा बनिया देवतिदेविं ठावे उसेोवणि अवहरति २० जेणेत्र पण भे तेणेत्र एवागच्छछ २ त्ता एवं क्यासी-एसणं देणुपिया ! मए इत्थिना उओ दीवतीदेवी इहं हन्यमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठति, अतो परं तुमं युवराज: द्रौपदी की साथ अपने मासार की चांदनी में सुख से सोते हुवे थे ॥ १४४ ॥ अब वह बुष्टि दी की पार आया. ईपी को अस्थापिनी निद्र देवर उससे उठा और ( उसे लेकर उत्कृष्ट दीव्य देवगने से अमरका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में आया और उस के पछे के भाग में अशोक वाटिका में रखी. वहां से पद्मनाभ राजा की पास आकर ऐसा कहा. अ देवानप्रिय ! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को यहां लाया हूं और वह तेरी अशोक वाटिका में है. अब For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसदापजीआाल नादी ६४२ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ षष्टांग ज्ञानाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्वन्ध 481 जाणासि तिकटु, जामेवदिमि पाउन्भूयए तामेघदिसिं पडिगए ॥ १४५ ॥ तएणं सा दोक्तदेवी ततो मुहुत्तरस्स पडिबहासमाणी तं भवणं असोगवणियंच अपच्चभिजाण मागी एवं वयामी-नो खल अम्हं एम सएभवणे णो खलु एसा अम्हं सगा असोगणिया, तं ण जतिणं अहं केणइ देवेणवा दाणवणवा किन्नरेणवा किंपुरिमणवा महोरंगणा गंधव्वणवा अन्नरस रन्नो असोगवणियं साहरिय त्तिकटु, ओहय मणसंकप्पा जाब झियायति ॥ १४६ ॥ ततेणं से पउमगाभेराया ण्हाए जाव सन्धालंकार विभूलिए अंतउर परियालसद्धिं परिवुडे जेणेव अप्लोगवाणिया जेणव दोवती देवी तेगव उपागच्छइ २ त्ता दोवती देवी उहय जाव झियायमाणि पासति, पासत्ता Eरा कर्म तू जान. यों कहकर अपो स्थान एल गया ॥ १४५ ॥ थोडे समय में द्रौपदी देवी ज ग्रन हुई और उन भान को व अशोक व टिका को अपनीत कारी जानकर मन में ऐसा बोलने लगी कि यह मेरा भान व मेगे अशोक वाटिका नहीं है. न मला किती दव, दानव, विमा, पुरुष, महोग, या गंर्धा किसी राजाकी अशोक वाटिका में मरा मदर किया है. यों पनमें संकल्प विकला करती हुई य बन आत ध्यान करने लगी ॥१४६ ॥ तब पद्मनाभ सजने स्नान किया यावत् सब अलंकार से विभूषित बिनकर अंतःपुर के परिवार की साथ परिवरा हुवा अशोक वाटिका में द्रौपदी देवी की पास बाया. द्रोपदी का मालहवा अध्ययन 4280 For Personal & Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी एवं वयासी - किण्णं तुमं देवःणुपिया ! ओहय जाव ज्झियाहि, एवं खलु तुभं देवः पिया ! ममं पुव्व मंगतिएणं देवणं जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्थिणापुराओ नयराओ जुहिट्टिलस्त रन्नो भवणाओ साहरिया, तं माणं तुमं देवाणुपिया ! ओहय जाब झियाहि, तुमं मए सार्द्धं विउलाई भोगभोगाई जाव विहराहि ॥ १४७ ॥ ततेणं सा दोत्रती देवी पउमणाभं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीव भारवा वारावतीए जयरीए कंणाम वासुदेवं ममपिया भाउए परिवसति, तं जतिणं छण्ह मासाणं ममकू णो व्वमागच्छइ, ततेणअहं देबाणुप्पिषा ! जं तुमं वदसि तरस वहाँ द्रौपदी देवी को संकल्प विकल्प करती यावत् आर्त ध्यान ध्याती हुई देखकर ऐसा बोला, अहो देवानुप्रिय ! तुम किस लिये यावत् आर्त ध्यान करती हो. अहो देवानुप्रिय ! मेरे पूर्व परिचित देवने जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में युधिष्टिर राजा के भुवन में से तेरा साहरन किया है. अहो देवानुप्रिय ! तू यहां संकल्प विकल्प मत कर यावत् आर्त ध्यान भत कर. तू मेरी साथ भोगोपभोग भोगवती हुई रहे || १४७ ॥ तच द्रौपदी पद्मनाभ राजा को ऐसा बोली, अहो देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की द्वारिका नगरी में मेरे पति के भाई कृष्ण वासुदेव रहते हैं. यदि छ मास में यहां पर मुझे लेने को आवे, नहीं तो तुम जो कहोगे वैसा मैं करूंगी ॥ १४८ ॥ पद्मनाभ For Personal & Private Use Only प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ब्ष ला प्रसादजी ६४४ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 पटानशाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कब आणा उवाय वंयणणिदेसे चिट्ठिस्सामि ॥ १४८ ॥ ततेणं से पउमणांभे दोवतीए देवीए एयमटुं पडिसुणेति २ ता दोवति देविं कण्णतेउरे ठवेति ॥ १४९ ॥ ततेणं सा दावतीदेवी कुटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिल परिग्गहिएणं तवोकम्मणं . अप्पाणं भावेमाणी विहरति ॥. १५० ॥ ततेणं से . जुहिडिल्ले राया तओ मुहुत्तेतरस्त पडिबुद्धसमाणे दोवर्तिदेविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उट्टेइ २ त्ता दोवतीए देवीए सब्बाओ समंता मग्गण गवेसणं करेइ २ त्ता दोवतीदेवीए कत्थइ सुइंवा खुइंवा पवत्तिवा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ २ ता पंडुरायं एवं वयासी-एवं खलु ताओ ! ममं आगासतगलगसि सुहपसुत्तस्स पासातो Eराजाने द्रौपदी देवी का यह वचन मान्य किया. और उसे कन्याओं के अंतःपुर में रखदी ॥ १४९ ॥ तब द्रौपदी देवी छठ २ का निरंतर वप र पारणे में आयंबिल करती हुई विचरने लगी ॥ १५० ॥ इधर युधिष्टिर राजा थोडी देर पीछे नागन हुवे. वहां शयन में द्रौपदी देवी को नहीं देखने से अपने शयन में से उठा और उस की चारो तरफ गवेषणा की. गवेषणा करते हुचे किसी स्थान द्रौपदी की शूचि धबा प्रवृति नहीं मीठने से पाण्दु राजा की पास गये और उन को कहा अहो तात! न मालुम चांदनी द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 48 For Personal & Private Use Only www.anelibrary.org Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोवतीदेवी णणजति केणइ देवेणवा दाणवेणवा किंपुरिसेणवा, किन्नरेणवा महारगणेचा गंधवणवा हियावा णियावा उक्खित्तावा, तं इच्छामिणं लाआ ! दतीर देवीते सव्वतो समंता मग्गणं गवेसणंकरित्तए ॥ १५१॥ तंतणं से पंडुगया कोडुबिय पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी- गच्छहणं तम्भ दवाणु पया ! हात्थ पुरेणयरे सिंघाडग तियचउक्कचच्चर महापहेसु महया २ मण उग्यासमामा २ एवं श्यह-एवं खलु देवाणुप्पिया हिंडिल्लस्मरणो अगासतलगामि सुहप्पसुतस्म पहातो दोवतीदवीणणजति केणइ देवेणवा दाणवेणा किंपुरिसणवा किन्नरणया महारग गवा गधब्वेणवा हियावाणियावा उक्खित्तावा तं जोणं देवाणुप्पिया ! दं वतीए दवाए मुर्तिवा जाव पवत्तिवा परिकहेति तस्तणं पराया विउल असंपयाण दलयइ में भेरी पास में द्रौपदी देवी का कोइ देव, दानव, पुरुप, किन्नर, मोरंग अथना गंर्धा हरण कर गया. इस से उनकी गषणा करनी चाहिये. ॥ ११ ॥ पाण्डु राजाने कौटुंबिक पुरुषों के वल 4 और कहा किमयो देवाननिय ! तुम हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटा, त्रिक, चतुष्क, चच्चर व महापथ में बडे २ ब्द से उद्धपणा करो कि युधिष्टिर राजा की पास चांदनी में से द्रोपदी देवी को कोई देव, दानव, किन्नर, 17पुरुष महोरग, अथवा गांर्य हरण करगया है, लंगया है. इस से जो कोई द्रौपदी देवी की भूति अथवा 4. धनबादक बालब्रह्मचारी पनि श्री अमोलक ऋषिजी+ पकायक-गाजत्यहादरलाला सदवसायीकालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४३ पांडवाताधर्मकथा का प्रयासस्कन्ध त्तिकह, घोसणं घोसावेह एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह ॥ ततेणं ते कोडुषिय पुरिसा जाव पञ्चप्पिणति ॥ १५२ ॥ तएणं से पंडूराया दोवताएदेवीए कत्थति भुइंवा जाव अलभमाणे कॉतिदेवि सहाति २ चा एवं वयासी-गच्छणं तमं देवाणुप्पिया ! बारावर्तिणयरिं कण्हवासुदेवस्त. एयमटुं णिवेदेहि, कप्हेणंपर वासुदेवे दोवतीए देवीए मम्गणंगवेसणं करेजा, अन्नहा ननजइ, दोवती देवीए सुइंवा खुइंवा पवीत्तवा उक्लभेजा ॥ १५३ ॥ ततेणं सा कौतिदेवी पंडुएणरन्नाए एवंवुत्ता समाणी जाव.. पांडेसुणेइ २ त्ता, व्हाया कयवलिक मा हत्थिखंधवरमया, हथिणारं माझं. वृ.. कहेंगे उन को पाण्डुः राज विपुल धन संपत्ति देंगे. ऐसी उद्घोषणा करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. कौटुम्बक पुरुषोंने वैसा ही किया ॥ १५२ ॥ इस तरह द्रौपदी की श्रुति अथवा प्रवृत्त नहीं मीलने से बांदूराजाने कुं देवीको बुवाइ और कहा कि अमओ देवानुपिय! तुम द्वारिका नगीनाओ और कृष्णधामुदेव को इस बात का निवेदन करो. कृण्ण रामुदेव द्रौपदी की गवेषणा करेंगे. अन्यथा क्वचितही उसकी प्रति यावद प्रवृत्तिमाल सकेगा ॥ १५३ ॥ पाण्दु राजा के ऐमा कहने पर कुंनी देवीने मान किया, लिकर्म किये और हाथीपर बैठकर हस्तिनापुर नगरकी वीचमें होती हुई कुरु देशमें से निकलकर rainirmirmir 4. द्रापसी का मारहवा अध्ययन 40 For Personal & Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक- लब्रह्मचारीमुनि श्री अमोल : ऋषिजी से मझेणं णिग्गच्छइ रत्ता कुरुजणवयस्स मज्झं मज्झणे जेणेव सुरट्टा जणवए जेव बारावती गयरी जेणेव अंगुजाणे तेणव उवागच्छइ रचा हस्थिखंधातो पञ्चोरुहति २त्ता कोडुषिय पुरिसे सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पियाजियोव बारावतिणयरिं ६५८ नेणेव अणुपविसहरत्ताकण्हवासुदेवं करयलं जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी!तुम्भपिउत्था कौतीदेवी हथिणाउराओ नगराओ इह हव्व मागया,तुभं दसणं कखति॥१५४॥ततणं कोडंबियपुरिसे जाव कहेति २ ॥१५५॥ तसेणं कण्हेवासुदेवे कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्महट्टतुटे हस्थिखधवरगए हय गय जाव वारावताए मञ्झं मझेणं राष्ट्र देश में द्वारिका नगरी में गई. और उम की बाहिर अंग उद्याम में आकर हाथी पर से नीचे उतरी. वहां कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाकर ऐसा कहा अहो देवानुप्रिय : तुम द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव की पास जाओ और उन को हाथ जोडकर कहो कि अहा स्वामिन! तुम्हारी पितृस्वमा (भूआ) हस्तिनापुर नगर से द्वारिका के बाहिर अंग उद्यान में आये हुवे हैं और तुम को मिलना चाहते हैं॥१५॥ कौटुम्बिक पुरुषोंने यावत् वैसे ही कहा ॥ १५५ ॥ कृष्ण वासुदेव कौटुम्बिक पुरुषों की पास से ऐमा. मुनकर हृष्ठ तुष्ट हुए और हाथी पर स्वार होकर हय, गज कारत् परिवार सहित द्वारिका नगरी की।* काशक रीजाबरादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसाद जी For Personal & Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 48+ पट्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध • जेणेत्र कौतीदेवी तेणेव उपागच्छ २ ता हस्थिधाओं पचोरुहति २त्ता कौतीए देवीए पाहणं करोति २ चा कोलीए देवीए सार्द्ध इत्थिखंधं दुरुहति २ ता ब.रावतीए जयरी मज्झ मझेण जेणेत्र मएगिहे तेणेत्र उवागच्छइ २सा सयंहिं अणुपत्रिसति ॥ १५६ ॥ ततेणं से कण्हेवामुदेवे कौतिदर्वि पहायं कयबलिकम्म जिमिय भुतत्तरागयं जात्र हासणवरगयं एवं वयासी- सदिसउणं पिउत्था किमागमणं पयोयणं ? तणं सातवीकडं वासुदेव एवं वयांसी एवं खलु पुत्ता ! हत्थगाउरनयरे हिलिस रण आगासतलगंसि सुहपमुत्तरस दावतीदेवी पासाओ जति केइ अवहियावा जाव उक्लिन्तावा, तं इच्छामिणं पुत्ता ! दोवती देवील कुंती देवी के पत्र में पडे बीच में होते हुने कुंती देवी की पास आये. वहां हाथी पर से मीचे उतर कर और कुंती देवी की साथ हाथी पर बैठकर द्वारिका मगरी में होते हुये अपने गृह गये || १५६ ॥ कुंती देवीने स्नान किया, बलिकर्म किया जीमकर सूचित हुने यावत् सुख पूर्वक आसन पर बैठे पीछे कुंती देवी को कृष्ण वासुदेवने पूछा कि आप का आनेका क्या प्रयोजन है । मब कुंती देवीने उत्तर दिया कि अहो पुत्र ! हस्तिनापुर में अपने मासाद की चांदनी में सुख से सोने हुवे युधिष्टिर की पास दिन दानव पावत् गंध द्रौपदी का हरण कर गया है. इस से अहो पुत्र ! द्रौपदी की For Personal & Private Use Only से न मालुम कोई गवेषणा करवाना 458+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 446+ દૂર Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा - अनुवाहक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक जाव'भग्गणावसणं कयं ॥ १५७ ॥ ततेणं मे कण्हवासुदेवे कौति पिउत्थंए एवं वयासी-जणवरं पिउत्था दोवतीदेवीए कत्थई मुइंवा जाव लभामि,तोणं अहं पातालाओवा भवणाओवा अद्वभरहाओवा समतओ दोवतिं देवि साहत्यि उवणाम त्तिक, कतीपिउत्थिं सकरेति, समाणेति, सक्कारत्ता समाणत्ता जाव पडिविसज्जेति ॥ ततेणं सा कोंतीदेवी कण्हवासुदेवेण पडिविसजिया समाणी जामेवादेसि पाउन्भूया तामेव दिमि पडिगया ।। ३५८॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे कोडुबिय पुरिसे सद्दावति २ ता एवं बयासी गच्छहण तुम्भे देवाणुप्पिया!वारावीतनयरिं एवं जहा पंडु तहा घोसणं घोसावेति जाव पञ्चप्पिणंति ॥ पडुस्स जहा ॥१५८॥ ततेचं कण्ह वासुदेवे अन्नयाकयाइ अंतो मैं चाहती हूं ॥ १५७ ॥ कृष्ण वासुदेव भूपा कुंनी को ऐमा बोले कि , पदो देवी की किमी स्थान पा श्रुति या प्रवृत्ति मिलंगी नो पातालमें भे, भवनों में से अथवा अर्ध भरतक्षेत्र में से जिस स्थान होगी उम स्थान से मैं उस को मर हाथ स ल गा. यों कहकर भाजीका आदर सत्कार कर यावत् विमर्जित की. कुंनी देवी भी वहां से रजा मिलने में अपने स्थान पीछ आई ॥ १५८ ॥ कृष्ण वासुदेवने कौटम्बक पुरुषों को बोलाये और कहा कि द्वारिका नगरी में पडह बजादो और जैण्ड जाने द्रौपदी के लिय उदघोषणा कराई थी वैसे उदघोषणा करो. यामत् मुझ मेरी आज्ञा पछी दो, उनमेंने भी वैसे है. पदह बनाया पाक गजाबहादुर लालाखद वस हायजी उचालाप्रमादजी. લઈ । For Personal & Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंते उरगए उरोहे आव विहरति॥ इमंचणं कच्छल्लगारए जाव समोवतिए जाव णिसीसूत्र यइ २त्ता कण्हं वासुदेवं कसलोदंतं पुच्छइ॥ततण से कण्हे वासुदेवे कच्छलणारयं एवं वयासी-तुमणं देवाणप्पिया ! बहणि गामाणि जाव अणुपविससि, तं अत्थियाति ते कहिवि दोवती देवीए मुतिवा जाव उवलद्ध।ततेणं से कच्छलएणारए कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु देवाण पिया! अन्नयाकयाइ धायति संडेदीवे पुरथिमई दाहिणड्ढ भरहवासं अमरकंका रायहागि गए, तत्थणं मए पउमणाभस्स रण्णा भवणांस दोवती देवी जारिसिया दिट्ठपुवायावि. होत्था ॥ तएणं कण्हेवासुदेवे कच्छल्लं एवं क्यासी॥ १५८ ॥ एकदा कृष्ण वासुदेव अपने अंत:पुर में यावत् विचरते थे. उप समय कच्छल नारद यावत् Maai आये. यावत् अपना आमन:बिछाकर कृष्ण वासुदेव का. कुशलक्षेम पूछा. कृष्ण वासुदेवने कच्छल नारद को पूछा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम बहुत ग्राम नगर यावत् बडे २.. राजाओं के 4 आवासों में फीरते होतो किसी स्थान द्रौपदीकी प्रवृत्ति का मालुमहुई है.तब वह कच्छुल कृष्णवासुदेव को ऐसा बोला कि अहो देवानमिय ! एकदा मैं पूरी धातकी खण्ड के दक्षिणार्थ भरत की अपरकका र.ज्य-17 | धानी में गया था. वहांपर पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी जैसी कोई दीखने में आई. नव कृष्ण 488 षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतम्ध 400 48 द्रोपदी का सोलहवा अध्ययन 42 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ romanam - ६६२ - 42 अनुवादक-बालब्रह्मनारीमुनी श्री अमोलक ऋषिनी + तभं चेवणं देवाणुपिया । एतं पुक्काम। ततेणं से कछल्लए नारए कर्णणे. वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणिविजं आवाहेति २ ता जमदसिं पाउब्भूए तामवदिसि पडिगए ॥ १५९ ॥ ततेणं से कण्हेवासुदेवे दूयं सद्दावइ २त्ता एवं क्यासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हथिणाउरं पंडुस्सरमो एयमटुं निवेएहि एवं खलु देवाणुपिया ! दोवति देवि धायइसड पुरथिबद्ध अमरकक ए रायहाणीए पउमणाभरस भवणंसि साहरिया; दोवतीए देवीए पउत्ती उबलद्धा,तगच्छ तुमंच पंडवा चाउरगिणीए सेणाए सद्धिंसपरिवुडा पुराच्छम बंथालीए मम पडिवालमाणा चिट्टतु वासुदेव उनारद को कहने लगे, अहो देवानुमिय ! यह राही कार्य होगा ? कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर वह नारद उत्पातिनी विद्या से उडकर जयं से आया था वहां पोछा गया ॥ १५९ ॥ तब कृष्ण वासुदेवने दूत बुलवाया. और कब कि अहो देवानप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर में जाओ और पाण्डु राजा को इस बात का निवेदन करो कि अहो देवानांप्रय ! पूधि धातकी खण्ड के दक्षण भरत क्षेत्र की अमरकंका राज्यानी में पद्मनाभ राजा के भवन में द्रोपदी की मनसि बिली है. इन स पायों पांडवों चतुरांगनी सना माहित पूर्व के वेनोलिक समुद्र की पास जावे वहां पेरी या प्रतीक्षा करते हुो १ जहां समुद्र की वेल चलकर गंगा नदी में मिलती है वह स्थान. मानक-राजावहादर लालामुखतवमहायजी वाला सादजी For Personal & Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 4. पट इतघर्षकथा का प्रथम स्कंध ॥ १६० ॥ ततेणं से दूर जात्र भणति, पडिवालेमाणा चिट्ठह ॥ तेवि जाव चिट्ठेति ॥ १६१ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेव कोडबिय पुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासी - गच्छहणं तुब्भे देवाणुपिया ! सन्नाहियं मेरिं तालेह ॥ तेत्रि तालेति ॥ तणं ती सहाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुह विजय पामोक्खा दस दसारा जान छप्पण्णं बलश्च साहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जात्र गहिया ओहप्पहरण्णा. अप्पेगनिया गया; अप्पेगतिया गय गया जाव ऋग्गुरा परिक्खित्ता जेणेव सभासुधम्मा जेजेव कहे वासुदेवे तेव उत्रागच्छइ २ चा करयल जाव वद्धावेति ॥ १६२ ॥ ततेणं { रहे ॥ ९९० ॥ दून भी वहां गया, उसने वैसे ही वहां कह दिया और पांचों पांडवों वैतालिक समुद्र की पाम कृष्ण बासुदेव की मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे रहने लगे || १६१ || यहां पर कृष्ण वासुदेवने कट क पुरुषों को बोल ये और कहा कि युद्ध की मेरी बनावो उनोंने वैसे ही किया. तब इस युद्ध की भरी का शब्द सुनकर समुद्र विजय प्रमुख दश दशार यावत् छान हजार बलवंत पुरुषों अपने २ कवच { पहिन कर शस्त्र घरन कर कितनेक घोडे पर आख्न होकर कितनेक गज पर आरूढ होकर यावत् टों के परिवार से सूची सभा में कृष्ण वासुदेव की पास आये और जन को जय विजय शब्द से For Personal & Private Use Only ++ द्रौपदी का सोन्टहवा अध्ययन 4 ६५३ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी से कहासुदेवे हथिधवरंग सकोस्ट मलदमिणं छत्तेणं धारिजमाणेणं जाव हय गय महया भड चडगर पहकरेंण बारावतीएणयरोए मज्झ मज्झेणं निगच्छति २त्ता जेणेव पुरथिमिल वेयाली तेणेव उवागच्छइ २ चा पंचहि पंडवेहिं सद्धिं एगयओ मिलइ २ त्ता धावारणिवेस करेइ २त्ता पोसहमाल कारावेति २ चा पोसहसालं अणुपविसइ २ ता सुट्टियं देवं मणसी करेमाणे २ चिट्ठइ ॥ तंतेणं कण्हवासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि मुट्ठिओ जात्र आगतो, भण देवाणुप्पिया ! जंमए कायन्वं ॥ १६३ ॥ तते से कण्हवासुदेवे मुट्ठियंदेवं एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया ! बधाये ॥ १६२ ॥ कृष्ण वासुदेव हाथी की पीट पर आरूढ हुने और कोरंट वृक्ष के पुरुष की मालावाला छत्र सहित हय गय रथ वगैरह परिवार से द्वारिका नगरी में होते हुवे पूरे का वैतालिक समुद्र की पास आये. वहां पांच पांडवों की साथ एकत्रित मिलकर उनोंने पडाव किया, वहां पौषधशाला बनवाइ, और उस में प्रवेश कर सुस्थित देव की मन में चिन्तवना करने लगे. इस तरह कृष्ण वासुदेवने अष्टम भक्त तप किया. जिन से सुस्थित देव आकर उपस्थित हुई. और कहा अहो देवानुप्रिय ! मुझे जा करने का हो सो कहाँ || १६३ || तब कृष्ण वासुदेव सुस्थित देव को ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ६५४ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ ज्ञानकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48 दावतीदेवी जाव पउमनाभस्स भवणंसि साहरिया, तष्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ममं पंचहि पडवहिं साईं अप्पछटुस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गवियराहि, जण्ण अहं अमरकंका राहाणं दोवतीए कूवं गच्छामि ॥ १६४ ॥ एणं से सुट्ठिए देवे वासुदेवं एवं वयासी - किण्णं देवाणुपिया ! जहा चेत्र पउमणाभस्स रणो पुवसंगतिएणं देवणं दोवती जात्र साहरिया तहचवणं दोवति देवि धायतीसंडातो दीवातो भारहातो जाब हत्यिणाउरं साहरामि उदाहु पउमणाभंरायं सपुरबल वाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामेि ॥ ततेगं से कहवासुदेवे सुट्टियं देव एवं (पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का साहरन हुवा है. तुम पांचों पांडवोंको, मुझे और हमारे छही रथ को लवण समुद्र से पार उतार दो जिस से अमरकंका राज्यधानी में द्रौपदी की सहाय के लिये मैं जाऊं ॥ १३४ ॥ तत्र स्थित देवने कृष्ण वासुदेव को कहा कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राज: के पूर्व संगतिवाले देवने द्रौपदी का साहरन किया वैसे ही क्या द्रौपदी देवी को घातकी खण्डद्वीप से भरत क्षेत्र में यावत् हस्तिनापुर नगर में लाहूं अथवा पद्मनाभ राजा और उस के बल वाहन प्रमुख सब को इस लवण समुद्र में क्या डालटं ? कृष्ण वासुदेवने कहा अहो देवानुप्रिय ! तुम इस तरह साहरन For Personal & Private Use Only ** द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन १०३ ६५५ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५६ अनुवादक-बारू ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + वयासी-माणं तुमं देवःण पिया ! जाव माहराहि, तुमणं देवाणुपिया ! लवण समुद्दे अप्पछ? सछण्णं रहाणं लवण समुदे मग वितराहि, सयमेवणं अहं दोवतीए कूवं गच्छामि ॥ ततेणं से मुट्टितेदेव कण्हवामदेव एवं क्यासी-एवं होऊणं पचहिं पंडवहिं साई अप्पछटुस्स छण्हं रहाणं लवण ममई मग्गवितरति ॥ ततेणं से कण्हेवामुदवे चाउगिणिसेण पडिविसज्जति २त्ता पंचहिं पडवेहि सद्धिं अप्पछट्टे छहि रहहिं लवण समुदं भज्झमझगं वीतियति २ जगव अमरकंकारायहाणी जेणेव अमरकंकारायहाणीए अग्गुमाणे तणेव उवागच्छइ २त्ता रहं वेति २ त्ता, दारुयं सारहिं सद्दावेचीइ सदावे एवं वयानी-गच्छहणं तुम देवाणुपिया ! अमकंकारायण मत करों, तुम हम को और हमारे रथों को लाण ममुद्र मे पार उतार दो. हम स्वयमेव द्रौपदी की साहाय करने का जागे. तब मुस्थित देवने कृष्ण वासुदेव को कहा कि पांचों पांडव,छठे तुम व तुम्हारे छड़ी के रथ लवण समुद्र के पार होवे वैसा होवो. तत्पश्चात कृष्ण वासुदेवने चतुगिनी सेना विसर्जित की. और पांच पांडा व छ रथलकर कृष्ण वासुदेव लाण ममुद्र उल्लंघने लगे. वहां से जहां अगर का राज्यधानी थी वहां आकर उस के बाहर अंग उद्यान में रथखड किय. दारुण सारी को बोलाकर कहा कि अहा देवानमिष ! तुप अमरका राज्यधानी में जाओ और वहां जाकर प्रकाशक रानाबहदुर लाला सुखढव सहायजी ज्वाल प्रसाद जी 1 For Personal & Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8+ पखंड ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्वन्ध 46+ 4. अणुपत्रिप्ताहि २त्ता पउमणाभस्सरण्णो बामेण पाएणं पायपढिं अवघमित्ता कंतग्गगं लेहिपणामेहि रत्ता तिवलियं भिउर्डि णिडाले साहहु आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडेधिए एवं क्याहि-हं भो पउमणाहा!अपत्थिय पत्थिया दुरंतपतलक्खणा होणपुन्ना चाउद्दस सिरि हिरिधितिकित्ति परिवजिया अज ण भवसि-किन्न तुमं ग यागाप्ति कण्हरस वासुदेवस्म भागिणी दोवतिदेवि इहं हन्त्रमाणीए तं एयमविगए पञ्चप्पिणाहिणं तमं दावइदेवि कण्हस्स वासुदेवरस अहवा चणं जुद्ध सज्जाणिग्गच्छाहि एसणं कण्हेवासुदेवे पंचहि पउहि सद्धिं अप्पछट्टे दोवतीर देवीए कूवं हवमागए ॥ १६५ ॥ नतेणं से बांग पांबसे पद्मनाभ राजाकी पाद पीठिका को ठोकर मारकर भालाकी अणी से लख देकर ललाट में विलि चडाकर आसरक्त, रुष्ट, कुपेन व चंडवनकर एसा कहो ओ पद्मनाभ ! अप्रार्थित जो मृत्यु उस की प्रार्थना करने वाला, दूरंत प्रांत लक्षण वाला, हीन पुण्या, चतुर्दशी का. जन्म लेने वाला, श्री, हा ऋद्धी कतिम रहित नू आन नहीं रहेगा. तू नहीं जानता है कि कृष्णवासुदव की भगिनी दंपदी देवीको न यहां लाया है. अब दू उसे कृष्ण वासुदेव को शघ्र ही पीछी दे नहीं तो युद्ध के लिये मज हो. यहां पांच पांडवो की माय कृष्ण वामदेव उस की साहाय के लिये आये हैं. ॥ १.३५ ॥ कृष्ण वासुदेव का + ट्रैपदी का सोलहवा अध्ययन ba For Personal & Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र दक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलयषिजी - - दारुए सारही कण्हवासुदेवेणे एवं कुरोसमाणे हट जाव पडिसुणेइ २ ता अमर ककं रायहाणि अणुषविसति २ त्ता जेणेव पउमणाहे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयल जाव बहावेइ२त्ता-एवं वयासी-एसणं सामी! मम विणयपडिवत्ती, इमा अण्णा मम सामिस्स समुहाणंति तिकटु-आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अवक्कमति २ त्ता कोंताग्गेणं लेहं पणामेति २ ता जाव कूवं हवमागए ॥ ततेणं से पउमणाभेराया दारुएणं सारहिणा एवं बुत्ते समाणे असुरुत्ते तिवलिं भिउडिं णिडाले साह? एवं वयासी-अप्पणामिणं अहं देवाणुप्पिया ! कण्हवामुदेवस्स दोवर्ति, एसणं अहं ऐसा वचन मुनकर दारुण सारथी दृष्ट तुष्ट हुवा. उन के वचन मान्य किये. और अमरकंका राज्य प्रवेश कर पद्मनाभ राजा की पाम गया. उनका हाथ जोडकर जय विजय शब्द से वधाया और कहा अहो । सामिन्! यह मेरी प्रवृत्ति है. परंतु मेरे सामीकी यह आज्ञा है यों कहकर आमुक्त बनार बाये पांचसे पाद पीठिका को ठोकर मारकर भालाके अग्रस लख देकर कहा, अरे अप्रार्थित की प्रार्थना करनेवाला यावत् द्रौपदी को सहाय के लिये कृष्ण वासुदेन व पांच पंडवों आये. दारुण सारथि के ऐसे कहने पर है पद्मनाभ राजा आसुक्त हुआ त्रिवलि सलर में चहाकर बोला अहो देव नुप्रिया में कृष्णवासुदेव को द्रौपदी प्रकाशक-राजाबहादर लारा सुखदेवमहायजीवासा 10 अर्थ 1 For Personal & Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयमेव जुझसज्जे जिग्गच्छामि त्तिकटु, दारुयं सारहिं एवं बयासी केवलं भो ! रायसत्थेसु दूर अवझे त्तिकटु, असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं णिच्छुभावेति ॥ १६६ ॥ ततेणं से दारुएसारही पउमणाभेण जाव असम्माणिय असक्कारिय जाव णिच्छदे समाण जेणेव कण्हेवासदवे तेणव उवागच्छड रत्ता करयल जाव कण्ठं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु अहं सामी ! तुम्भं वयणेण जाव णिच्छुभावति ।। तएण से पउमनाभेराया बलवाउयंसहावइ २ ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अभिसक्क हत्थिरयणं पडिकप्पह, तयाणंतरचणं छेयायरिय उवदसमइ विकप्पणा विकप्पेहिं जाव उवणेइ ॥ १६७ ॥ ततणं से पउमणाहे रायासन्नद्ध जाब नहीं देउंगा. मैं स्वयमेव युद्ध में सज होकर नीकलूंगा. यों करके दारुण मारधीको कहा कि राज्य नति शास्त्र में मात्र दून अवध्य है. इस से उस का सत्कार सन्मान किये बिना छोटे द्वार से नीकाल दिया. ॥ १६६ ॥ पद्मनाभ राजा से सत्कार सन्मान रहित बना हुवा व छोटे द्वार से नोकाला हुआ। मारथी कृष्ण वासुदेव की पाम आया. उन को हाथ जोडकर कहने लगा अहो स्वामिन् ! आप के वचन से मैं अमरकंका नगरी में पद्मनाभ राजा की पास गया था. यावत् गुप्त द्वार से मेरे को 11 नीकाल दिया. ॥१७॥ इधर पद्मनाभ राजाने कटक के अधिकारी को कुलवाया और कहा कि 49H षष्टांग ज्ञानाधर्मकथा का प्रथम् अनसन्ध 41 43- द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 42 For Personal & Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anvi का अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - अमिसेयं हस्थिरयणं दुरुहात २ सा हयगयचउरंगिणिए जेणेव कण्ह वासुदेवे तेणेव पहारेत्य गमणाते॥१६८॥ततेणं से कण्हेवासुदेवे पउमणाभरायं एजमाणं पासति,एजमाणं पासित्ता, तं पंच पंडवे एवं वयासी-हंभो दारगा किन्न तन्भं उमणभेणं सहिं जझह उदाहु . पिच्छेह ? ततेणं. ते. पचपंडवा कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी-अम्हेणं सामी ! ... झुज्झामो तुभ पिच्छह ॥१६९॥ततेणं पंचांडवा सण्णाहबद्ध जाव पहरणरहे दुरुहति, दुरुहेत्ता जेणेव पउमणाहे राया तेणेव उवागच्छइरला एवं वयासी-अम्हे वा पउमणाहे. अहो देवानुप्रिय : अभिषेक स्तिगत घ्रमेव तैयार करो. , तत्पश्चात् कलाचार्यों की पति से बनाये हुवे शस्त्रों यावत् रखा. तत्पश्चात् पद्मनाभ राजा वरूनर वगैरह पहिन कर अभिषेक इस्तिर पर आरूढ होकर हाथी घोडे वगैरह चतुरंगिनी मेना सहित कृष्ण वासुदेव की मन्मुख जाने को नीकला ॥ १६८ ॥ पद्मनाभ राजा को आने हुवे देखकर कृष्ण वासुदेव बोलने लगे कि अहो बाल को ! पद्मनाभ की साथ तुम पहिले युद्ध करोगे अथा। पीछे सं? तब पांचों पांडवों कृष्ण वासुदेव से बोलने लगे कि अहो स्वामिन् ! पहिले हम युद्ध करेंगे पीछे से तुम करना. ॥ १६९ ॥ पांचों एडयों बक्खसर धारन कर यावत् अपने at-AIR मग और रसाबले कि हम नहीं बना पानाभ नहीं प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसमायजी ज्वालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर का प्रथम श्रुतस्कन्ध 41 कराया तिकट्ट, प्रलमणाभेणं स्मद्धिं संप्रलग्गेयावि होत्या.॥ ततेणं से पउमणाभे राया . ले पंचपंडो खिप्पामेव. हय महिय पवर विकड़िय चिंधद्धय पडाग जाव दिसोदिर्सि 'पडिसेहेति ॥ १७ ॥ तसेणं ते. पंचपंडवा पउमणाभणं रण्णा हय महिय पवर ६६१ .. क्विडिय जाव. पंडिसहिया समाणा अस्थामा जाव अधारणिजमि त्तिकटु जेणेव : है. कण्हवासुदेवे तेणेव उबागच्छइ... ततेणं से कण्हवासुदेवे तेपेचपंडवे एवं बयासी कहण तुम्भे देवाणुपिया ! पउमणाभेग रण्णा. सद्धि संपलग्गा ॥ ततेणं ते. पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयांसी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुब्भेहि अब्भणु- .. 15यों कर कर पद्मनाभ राजा की साथ युद्ध करने लगे. पद्मनाभ राजाने पांडवों को शीघ्र जीत लिये, उन 3 | के मान का मर्दन किया. उनके मुकुट व धजा पताका के चिन्हों को नीचे डालदिये यावत् दशदिशि में भगा दिये. ॥ १७० ।। पमनाभ राजा से हणाये हुवे अजा पताका वगैरह चिन्हों नाश कराये हुवे यावत् । दर्शदिशि में भगते हुने पांचों पांडवों बल्ले वीर्य रहित बनकर कृष्ण बासुदेव की पास आये. तब कृष्ण वासुदेवने पुछा कि अहो देवानुपिय ! पद्मनाम राजा की साथ तुम 'कैपे युद्ध करने लगे ? तब. पांचों अपांडाने उत्तर दिया कि अहो देवानुमिया! आप की अनुझा से शस्त्र बांध कर च रथारूढ होकर पद्मनाभ 17राजाकी पाम हम गये. वहां उनको हमने ऐमा कहाकि हम नहीं अथवा पद्मनाभराजा नहीं यों कहकर युद्ध । द्रौपदी को सोलहवा अध्ययन - षष्टांत ) For Personal & Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CO 4- अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ण्णाया समाणा सन्नह बहा रहे दुरूढा जेणेव पउमणाभे तेणेव उवागच्छद २. त्ता एवं क्यासी--अम्हेवा पउमनाभेवा, आव पडिसेहेति ॥ १७१ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे ते पंचपंडवे एवं वयासी-जतिणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! एवं वयंनाअम्हेणो पउणाभेराय त्तिक? पउमणाभणं साई संपलग्गं वा तोणं तुम्भेणं उममाहे हय महिय पवर जाव पडिसहिया, तं पेच्छहणं तुम्मे देवाणुप्पिया । अहं नो. पउमणामेराय त्तिकटु पउमणाभणं रन्ना सद्धिं जुज्झामि ॥ रहं दुरुहेति रहं दुरुहि त्ता जेणेव एउमणा भेराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, सेयं गोस्वीरहारधवल तणु करने लगे. वहां से उनोंने हमारे चिन्हों ध्वजा इत्यादि सब नीचे डाल दिये यावत् उस मे भगते हुने हम तुम्हारी पास आये हैं ॥ १७१ ॥ तब कृष्ण वासुदेवने पांचों पांडवों को कहा कि अहो देवानुप्रिय ! यदि तुम वैसा कहते किहम विजय प्राप्त करेंग परंतु पमनाभ राजा विजय नहैं। प्राप्त करेंगा तो तुम पद्मनाभ - राजा के ध्वजा वगैरह राज्य चिन्ह को नष्ट करते यावत् युद्ध क्षेत्र में से उसे भगा देते. अहो देवानुभिय ! अब तुम देखो कि में विजय प्राप्त करूंगा परंत पद्मनाभ राजा। साथ युद्ध करने को मैं जाता हूं. यों कहकर कृष्ण वासुदेव रथ पर आरूढ हुवे. और पद्मनाभ राजा की पास गये. वहां कृष्ण व मुदेवने श्वेत गेक्षीर व मोती के हार समान धाल, मल्लिक, मालती, सिंदुवार,. प्रकाशक सजावहादुर लालासुखदेवस हायजी ज्याला प्रसादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 Am+ षष्टांङ्ग ज्ञ साधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कंध सोल्लिय सिंधुवार कुंददु संन्निगास निययस्स बलस्स हरिस जणणं रिउसेणवि.' णासकर पचजण्णसंखं पर मुसइ २ ता मुहवायपुरियं करेइ ॥ तएणं तस्स पउमणाभरस तेणं : संखसदेणं बलतिभाए हते जाव पडिसेहिए ॥ ततणं से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसति २ वेढो धणुपूरेति २त्ता धणुसहं करेइ ।ततेणं तस्स पउमणाभस्स दोच्च बलतिभाए तेणं ध[सदेणं हय महिय जाव पडि सेहेति।ततेणं से पउमणाभे . राया तिभागबलावसेसे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकार परक्कमे अधरणिज्जमि त्तिकहु, सिग्घतुरियं जेणेव अमरकंका रायहाणी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता अमरकंक व चंद्र के वर्ण समान श्वेत, अपने सैन्यदल. में हर्ष करनेवाला व शत्रुओं का विनाश करनेवाला पंचन्य शंख का अपने मुख से शब्द किया. इस तरह शंख का शब्द होते ही पद्मनाभ राजा के सैन्य का तीमरा भाग हराया यावत् दशोदिशी में भगने लगा. तत्पश्च त् कृष्ण वासुदेवने अपना सारंग * धनुष्य हाथ में उठाया, और उस की प्रत्यं वा खीचकर धनुष्य का टंकारव किया. इस से पद्मनाभ राजा के .. *दूसरा भाग का तीसरा भागहराया व यावत् दशदिशो में भागने लगा. अब कटक का तीसरा भाग अवशेष रहने से पमन भराजा बल बीर्य यावत् पुरुषार्थ रहित होने से शीघ्रपत्र अपनी अमरकंका राज्यधामी में. द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन । For Personal & Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६५ । अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अयोलक ऋषिजी 30 रायहाणि अणुप्पविसति २ चा दारातिपिहेति २ ता रोहासज्जे चिट्ठति ॥ १७२ ॥ ततेणं से कण्हेवासुदेवे जेणेव अमरकंका गयरी तेणेव उवागच्छइरसा रह ठवित रत्ता रहातो पञ्चोरुहति २ त्ता बेउब्विय समुग्घाएर्ण समोहण्णति २ त्ता एग महं णरसीह रूवं विउवइ २ ता महया महया सद्देण पाद दद्दरं करेति ॥ १०३ ॥ ततेणं से कण्हेणं वासुदेवणं महया २ सद्देणं पाददद्दरणं कएणं समागेणं अमरकका रायहाणी संभग्गपायारगापुरहालयं चरियंतोरणं पल्हत्थियं पवर भवण सिरिघरा सरसरस्स धरणियले सन्निवइया ॥ ततेणं से पउमणाभेराया अकरकंक रायहाणि संभगां जाव पासिता भीए दोवतिं देवि सरणं उवेति २ ॥ १७४ ।। ततेणं सा आकर उस के द्वार बंध करदिये और नगर का निरोध करके रहा ॥ १७२ ॥ तत्पश्चात कृष्णवासुदेव अमरकंका राज्यधानी की पास आये. वहां रथ को वडाकर के उस में से नीचे उतरे. वैक्रय समुद्घात करके एक बड़ा नृसिंह का रूप धारन किया, और बडे २ शब्दो मे पांवों की आस्फालने लगे. ॥१७॥ तब अमरकंका राज्यधानी के प्रकार, गोपुर, अटाली, मार्ग, तोरण, प्रधान मकानो, और श्री लक्ष्मी के भंडारो (खजाने)सब तट कर धरणि तल में गिरपडे. पद्मनाभ राजा इस प्रकार यावत् खजाने को भूमिपर पढते हुए. देखकर भयभीत हुवा. और द्रौपदीदेवीके शरण आया. ॥ १७ ॥ द्रौपदी देवीने पमनाभ राजा को कहा कामराजाहादुर मला पुरूदेवसहायनी ज्वालाप्रसादमी । For Personal & Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोवती देवी पउमणाभं रायं एवं वयामी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! जाणासि कण्हवासुदेवस्स उत्तम परिसस्स विप्पियंकरमाणे, ममं इहं हवमाणेमाण, तं एवं मविगए गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! हाए उल्लपडगसाडए चुलगवत्थ गियस्थ अतेउर परियालेणं परिउडे अग्गाई वराई रयणाई गहाय मम पूरओ कओ कण्हवासुदेवं करयल जाव पायवाडिए सरणं उवेहि पणिवइय वच्छलाणं, देवाणुप्पिया! उत्तम पुरिसा॥ १७५ ॥ ततेणं से पउमणाभे राया दोवतीए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ २त्ता पहाए जाव सरणं उवेति २त्ता, करयल जाव एवं वयासी-दिवाणं देवाणुप्पिया! अहो. देवानुप्रिय ! क्या तू यह ही जानता था कि मुझे यहां मंगवाकर कृष्ण वासुदेव की साथ शत्रुता भी होती है. ? अब भी अहो द प्रिय ! सू विलम्ब रहित जा और स्नानकरके पानी से भीगी हुई माडी पांव तक नीची पहिन कर तर अंतःपुरकी स्त्रियों सहित अत्युत्तम प्रधान रत्नों ग्रहण कर मुझे सव से आगे रखकर कृष्ण वासुदेव को हाथ जोडकर उन के चरणों में पढकर उन' का ही शरण अंमीकार कर. अहो देवानाप्रय! उत्तम पुरुषों को नहीं प्रिय होता है. ॥ १७५ ॥ पबनाम राजामे द्रौपदी के वचन का स्वीकार किया. उमने स्नान किया यावत् कृष्ण वासुदेव के चरण में पडकर बोलने लगा कि 10 अहो देवानुमिय ! उत्तम पुरुषों की ऋद्धि यावद पराक्रम मैने देखा. अहो देवानुप्रिय ! मी मैं इस की षष्टांग ज्ञातावकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4-1 द्रौपड़ी का सोलहवा अध्ययन 48+ ११. For Personal & Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ६६६ अनुगदक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक प्र.पिनी + उत्तम पुरिसाणं इट्ठी जाव परक्कमे तं खामेमिणं देवाणुप्पिया ! जाव णाई भुजों २ एवं करणयाए त्तिकटु, पंजलिउडे पायवडिए, कण्हवासुदेवस्स दोवर्तिदेविं साहत्थि : उवणेति ॥ १७६ ॥ ततेणं से कण्हवामुदवे पउमणाहं एवं वयासी-हंभो पउम- . णाभा ! अप्पत्थिय पत्थिया ४ किन्नं तुमंण जाणासि ममभगिणी दोवतीदेवी इहं हव्वमाणे, तं एव मागिए गस्थिते ममाहितो इयाणिं भयंनत्थि तिकटु पउमणाभं पडिविसजेतिरत्ता दोवति देविं गिण्हति,दोवति देवि गिहिती रहं दूरुहेति २त्ता जेणेव पंचपंडवा तेणेच उवागच्छति२ त्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवतिं देवीं साहत्थि उवणेति ॥ १७७ ॥ ततेणं से कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहि साई अप्पछटे छहिं रहेहिं लवण पुनः २ क्षमा चाहता हूं. पुनः मैं ऐसा नहीं करूंगा. यों कह कर हाथ जोडकर उनके पांव में पद्मनाम राजा गिर पडा. और कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी देव। हाथों हाथ दी. ॥१७६ ॥ कृष्ण वासुदेव पद्मनाम से बोलने लगे कि अहो अप्रार्थित जो मृत्यु उस की प्रार्थना करने वाला पद्मनाम ! तुझे क्या यह नहीं मालूम था कि मेरी भगिनी द्रौपदी देवीको यहां शीघ्र ले आया. अब यह सब गया. अब मेरी तरफ से तुझे इकिसी प्रकार का भय नहीं है. यों कह कर पद्मनाभ को विजित किया. वहां से द्रौपदी को अपने रथ में बैठाकर पांच पांडवों की पास लाये और उनको अपने हाथ से दी. ॥ १७७ ॥ अब कृष्ण वासुदेव पांच प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवमहायजाजालामसामील + For Personal & Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६६७ समुई मज्झं मझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ १७८ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं धायति संडेदीवे पुरच्छिमद्धे भारहेवासे चंपाणामं णयरी होत्था, पुण्णभद्देचेइए ॥ १७९ ॥ तत्थणं चंपाए नयरीए कविलेणामं वासुदेवे राया होत्था महया हिमवंत . ॥ १८० ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वय अरहा चंपाएणयरीए पुण्णभद्दे चेइए समोसढे कपिल वासुदेवे धम्मसुणेति ॥ १८१ ॥ तएणं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयस्स अरहतो धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवरस संखसदं सुणेति ॥ १८२ ॥ ततेणं पांडवों व छ रथ लेकर लवण समुद्र उल्लंघ कर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में जा रहे थे. ॥ १७८ ॥ उम काल उस समय में पुर्वाध धातकी खण्ड के भरत क्षेत्र में चंपा नामकी नगरी थी. उस में पूर्णभद्र चैत्य था. ॥ १७१ ॥ उस चंपा नगरी में कपिल नामक वासुदेध महाहिमवंत समान राजा था. ॥ १८ ॥ जस काल उस समय में मुनि सुब्रत अरिहंत चंपा नगरी के पुर्णभद्र उद्यान में पधारे. कपिल बामदेव धर्म 135 सुनते थे. ॥ १८१ ॥ मुनिसुव्रत अरिहंत की पास से धर्म श्रवण करते हुवे कपिलं वासुदेवने कृष्ण* 1 वासुदेव के शंख का शब्द सुना. ॥ २८२॥ शंख का शब्द सुनकर कपिल वासुदेव को ऐसा अभ्यासाय। पटांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध as द्रौपदी का सालहवा अध्ययन .. For Personal & Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी 4 तस्स कविलस्सकासुदेवरस इमेयारूचे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था, किंमण्णेधायइ :: संडेदीवे भारहेवासे दोच्चे वासुदेके समुप्पणे, अस्सणं अयंसंखसद्दे ममंपिव मुहवाय परियेधियं भवति कविलवासुदेवे सद्दाइ मुणेइ मुणिसुव्वते अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी-नूणं कविला वासुदेवा ! मम अंतिए धम्म गिसम्मेमाणस्त संखसदं आकणित्ता इमेयारूवे अज्झथिए किंमन्ने जाव वियंभवइ, सेनूणं कविला वासुदेवा! अटे सम? हंता अस्थि, तं नो खलु कविला एवं भूयबा णएवं भवइ णएयं भबिस्सइ जन्नं एखेत्ते एगे जुगे एगं समएणं दुवे अरिहंतावा चक्कबट्ठीवा बलदेवावा अर्थ में हुवा कि क्या धातकी खण्ड के भरत क्षेत्र में कोई दूसरा वासुदेव उत्पन्न हुवा, क्यों कि जैसा मैं मेरे शंख का शब्द मुख से करता हूं वैसे ही इस का शब्द मैं सुनता हूं, तब मनिसुव्रत अरिहंत कपिल वासुदेव को कहने लगे कि अहो कपिल वासुदेव ! मेरी पाम धर्म श्रवण करते हुवे शंखका शब्द सुनकर तुझे ऐमा अध्यउसाय हुवा कि इस धातकी खण्ड के भरत क्षत्र में क्या कोई दूसरा वासुदेव है क्यों कि जैसे मेरे शंखका शब्द होता है वैसे ही इस शंखका शब्द मैं सुनता हूं. अहो कपिल वासुदेव क्या यह 15 अर्थ समर्थ हैं ? हां भगवन् ! मेरे मन में ऐसा अध्यक्साय हुवा. अहो कपिल वासुदेव ! एसा हुरा नहीं है अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्रा अमोलक • प्रकापाक-राजाकहादुर लाला सुखदेवसापजीज्वालापसानी For Personal & Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पष्टद्रज्ञानाधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध वासुदेवा वा उप्पजिंसुवा उप्पजेतिवा उप्पजिस्सवा,तं एवं खलु कपिलवासुदेवा ! जंबु द्दीवातो भारहातो वासाओ हथिणाउराओ जगराओ पंडुस्सरण्णासुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवतीदेवी तव पउमणाभस्सरण्णो पुवसंगतिए देवेणं अमरकंक णयरिं साहरिया, ततेणं से कण्हवासुदेवे पंचहिं पंडवहिं सहिं अटुपिछ छहिरहे अमरकंकं रायहाणि दोवतीएदेवीएकूवे हब्बमागए ॥ ततेणं तस्स कण्हवासुदेवस्स पउमणाभेणं रण्णा साई संगाम संगामेमाणस्स अयंसंखसद्दे तवमूहबायाव वियं भवति ॥ ततेणं से कपिले वासुदेवे मुणिसुब्वयं वदति णमंसति वंदित्सा है, होता नहीं है व होगा भी नहीं कि एक ही क्षेत्र में एकयुग में व एक समय में दो अरिहंत, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव व दो वासुदेव उत्पन्न होवे. अहो कपिल वासुदेव ! जम्बूद्वीप के मरत क्षेत्र के इस्तिनापुर नगर में पाण्डु राजा की पुत्रवधू व पांच पांडव की स्त्रो द्रौपदी देवी का तेग पद्मनाभ राजा अपने पूर्व संगति वाल देव से साहरण कराकर अपरका नगरी में लाया था. इस में कृष्ण वासुदेव पांच पांडवों व उन के छ रथ लेकर अमरकंका नगरी में द्रौपदी की साहाय के लिये आये थे. पद्मनाभ राजा की साथ कृष्णवासुदेवको जब संग्राम हुवा उस वक्त किया हुवा यह शंखका नाद है. यह तेरे शंख- नाद 48+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन +in । For Personal & Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - णमंसित्ता एवं वयासी-गच्छामिणं अहं भंते ! कण्हवासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं . पासामि ॥ ततेणं से मुणिसुब्बए अरहा कपिलं वासुदेवं एवं वधासी-नो खलु देगणुपिया ! एयं भूयंवा ३ जणं आहेतावा आहतं पासति,चक्कवट्टीवा चक्कवष्टिं. पासति, बलदेवो वा बलदेवं पासंति वासुदेवो वासुदेवं पासति तह रियणं तुमं कण्हवासुदेवस्स लवणसमई मज्झमझेणं गतीवयमाणस्त सेयापीयाति धयसामग्ग पासिहसि ॥१८॥ततेणं से कपिले वासदेवे मुणसुव्वयं अरहतं वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता हत्थिखधं दुरुहति २ त्ता सिग्धं २ जेणेव वेलाउले तेणव उवागच्छइ २ ता कण्ह जैसा ही इष्टकारी कंतकारी है. कपिल वासुदेव मुनिसुव्रत अरिहत को वंदना नमस्कार कर ऐना बोलने लगे कि अहो भगवन् ! मैं मेरे जैसे . उत्तम पुरुष कृष्ण बामुदेव को देखने को (मीलने को) जाता हूं. तब मुनिमुनत अरिहंत कपिल वासुदेव को कहने लगे कि अहो देवानुपिय! अरित आरइंतको मील, चक्रवर्ती चक्रानी को मीले, बलदेव बलदेव को पीले व वासुदेव वासुदेव वासुदेवको मीले ऐमा में अतीत काल में नहीं हुवा है, वर्तमान में नहीं होता है और भविष्य में होगा भी नहीं. इस से तुम लवण समुद्र में जाते हुवे कृष्ण वासुदेवके रथ की वतपीत वनाओं देखोगे. ॥ १८३ ॥ वासुदव मुनिसुव्रत अरिहंस को बंदना नमस्कार करके हाथी पर स्वार होकर शीघ्रमेव जहां लवण AhAAmmmmmmmmmunwarAAAmaran प्रकाधक-राजाबहादुरलाळा मुखदवसहायजा ज्वाला प्रसादमा For Personal & Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७१ + षष्टाङ्गवासाधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 424 - वासुदेक्स्स लवणसमुदं मझं मझेणं वीतीवयमाणरस सेयापीयाइ धयाइ पासति २त्ता एवं वयासी-एसणं मम सरिस पुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मझं मझणं वतिीवयति तिकटु, पंचजन्नं संखं परामुसति परामुसित्ता मुहवायं पूरिय करेति, तएणसे कण्हे वासुदेवे कपिलस्स वासुदेवरस संखसई आइण्णे इत्ता पंचयण्ण संखमुहवायं पूरयं करेइ ततेणं दोवे वासुदेवा संखसई समायरिं करेंति ॥ १८४ ॥ ततेणं से कविले वासदेवे जेणेव अमरकंका तणेव उवागच्छड २सा अमरकंक रायहाणिसंभग्गं. तोरणं जाव पासति पालित्ता पउमणाभं एवं वयासी-किंन्नं देवाणुप्पिया ! एमा अमरकंका संभग्गा जाव सन्निवहाया ? ॥ १८५ ॥ ततेणं से पउमणाहे कविलं समुद्र की भरती का पानी आता था वहां आये. और लवण समुद्र की मध्य बीच में जाते हुवे कृष्ण वासुदेव के रथ की श्वेत व पाली वनाओं का अग्र भाग देखा. तब मन में बोलने लगे कि यह मेर समान उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव लवण समुद्र में जाते हैं यों कहकर पंचजन्य शंख लिया. और अपने " मुख से उस का नाद किया. तब कृष्ण वासुदेवने कपिलवासुदेव के शंखका शब्द श्रवणकर अपना पंचजन्य शंख को भी बनाया. तब दोनों बासुदेवने शंखनाद से समाचारी की ॥१८४॥ वहां से कपिल वासुदेव अमरकंका राज्यधानी में आये और भवन तोरणों वगैरह पड देखकर पद्मनाभ राजा को पूछा कि अहो देवानप्रिय! इस अमरकंका नेगरी के तोरणों ऐसे क्यों भग्न हुए हैं ? ॥ १८५ ॥ तब पमनाभ कपिल वासुदेव को ऐसा द्रौपदी का मोलहवा अध्ययन 48+ અર્થ For Personal & Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ वासुदेवं एवं क्यासी-एवं खलु सामी !. जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं . इन्धमागयरस कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूय अमरकंक जाव संनिवडिया ॥१८६॥ ततेणं से कविल वासुदेवे पंउमणाहस्स अंतिए एयमटुं सोचा पउमणाहं एवं वयासी-हं भो पउमणाभा ! अपत्थिय पत्थिया किंन्नं तुभंण जाणासि ममसरिस पुरिसस कण्हरस वासुदेवस्स विपि करेमाणे असुारुत्ते जाव पउमणाहं णिविलियं आणवेति, २ त्ता पउमणाहरस पुत्सस्स अमरकंकं रायहाणीए महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचेति जाव पडिगते ॥ १८७ ॥ ततणं से कण्हवासुदेवे लवणसमुद्दस्त मझ मझेणं वीतीवयती २ ता गंगंउवागए ते पंचपंडवे एवं वयासी-गच्छहणं तुम्भे कहने लगा कि अहो स्वामिन् ! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में से कृष्ण वासुदेवने आकर तुमने जीती हुई इस अमरकंका राज्यधानी को ऐसी स्थिति की ॥ १८६ । पद्मनाभ की पास से ऐपा. सुनकर कपिल वासुदेव । कहने लगे कि अरे अप्रार्थित की प्रार्थना करनेवाला पद्मनाभ क्या नू नहीं जानता था की मेरे समान कृष्ण वामदेष की साथ बने शबूता की. यो आसुरक्त बनकर यावत् पद्मनाभ को देश से वाहिर · कर दिया. और उसके पुत्र को अमरकंका का राज्य देकर अपने स्थान पीछे गये। १८७ ॥ लवण *. * समुद्र का उद्धंघन करते गंमानदी के पास आकर कृष्ण वासुदेवने पांचों पांडवो को कहा कि अहो देवानुपिय तुम हैं। 2 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी । पकावक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी कालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 419+ देवाविया ! गंगमहामदि उत्तरह, जाव ताघ अहं सुट्टियं लवणाविति पासामि ॥ ततेणं ते पंच पंडवा कण्हेणं बासुदेवेणं एवं बुत्तासमाणा जेणेव गंगामहाणईए तेणेव उबागच्छइ २ त्ता एगट्टियाएं नावाए मग्गणगबेसणं करेनि २ ता एगट्टियाए नावाए गंगमहानदि उत्तरेति २ ता अण्णमाण्णं एवं क्यासी- पहूणं देवाणुपिया ! देवदेवे गंग महादि बाहि उत्तरं रितए उदाहु उत्तरिए तिकडु, गट्टियाओ णावाओ मेति २ पोभू दे ' पडिवालेमाणा चिट्ठति ॥ १८८ ॥ तणं से कहवासुदेवे सुट्टियं लवणाविति पासति पासित्ता जेणेव गंगामहानदी तेणेव उबागच्छइ उवागच्छत्ता एगट्टियाए नावाए गंगा महा नदी तीर जाओ जितने में मैं लवणाधिपति सुस्थित देव को मीलकर आता हूं. कृष्ण बासुदेव के ऐसा कहने पर पांच पांडवों गंगा महानदी की पास गये और एक छोटी नावा की गवेषणा की. उस नावा से गंगा पहा नदी तीर गये. वहां वे परस्पर कहने लगे कि कृष्ण वासुदेव गंगा महा नदी को भुजा से तीरने में समर्थ है या नहीं ? यों कह उस नावा को एकांत में गुप्त रखकर कृष्ण वासुदेव की मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे रहने लगे ।। १८८ || अब कृष्ण वासुदेव सुस्थित नामक लबणाधिपति देव को मिलकर गंगा नदी की पास आये और वहां चारों तरफ छोटी नात्रा की गवेषणा की. परंतु किसी स्थान नावा For Personal & Private Use Only 488* द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 44 ६७३ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4: अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिजी सव्वओ समंता मग्गण गबेसणं करेति २ त्ता, एगट्टियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहंसतुरंगंसारहिं गिण्इ २ ता एगाए बाहाए गंगमहाणदि बासट्ठि जोयणाति अद्ध जोयणंच विच्छिण्णं उत्तरिओ पवत्तेयावि होत्था ॥ ततेणं. से कण्हवासुदेवे गंगाए महानदी बहुमज्झदेसभाएं संपत्तेसमाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाएयात्रि होत्था ॥ तणं तस्स कण्हवासुदेवस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिए जात्र समुप्पजित्था अहोणं पंचपंडवा महाबलगगा जेहिं गंगा महानदी बासट्ठि जोयणाति भद्धं जोयचं विच्छिणा बहाहिं उत्तिष्णा एत्थंत एहिणं पंचहिं पंडवेहिं पउमणाभेराया जाब णी पडिसेहि ॥ १८९ ॥ ततेणं गंगदेवी कण्हस्स वासुदेवरस इमं एयारूवं नहीं मिलने से एक हाथमें अश्वों व सारथी सहित रथ लिया और दूसरे हाथ से साडी बासठ योजन की विस्तारवाली गंगा नदी को तीरने के लिये प्रवृत्त हुए तीरते २ गंगा नदी के मध्यभाग में आये तव {कृष्ण वासुदेव परिश्रम से थक गये, तप्त होगये व शरीर में स्वेद आगया. उस समय उनको ऐसा अध्यवसाय हुवा कि अरे ! पांचों पांडवों बडे बलवंत हैं क्यों कि वे ६२ ॥ योजन के विस्तार वाली गंगानदी तीर गये. तब उनोंने पद्मनाभ राजा को क्यों मारा नहीं यावत् उसे दशोंदिशी में भगाया नहीं ! ॥ १८९ ॥ For Personal & Private Use Only *मदायक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ० + ६७४ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 483- षष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 4 अझ थिय जाब जाणित्ता था वितरति ॥ तएण से कण्ह वासुदेवें मुहुचंतरं समासासेति २ चा गंगंमहानदि बासट्ठि जाव उत्तरेति २ प्ता, जेणेव पंचपंडवा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता पंचपंडवे एवं वयासी- अहोणं तुब्भे देवाणुपिया ! महावलवंगा जेणेव तुज्झे गंगा महानदी वाट्ठि जाव उत्तिष्णा, इत्थं तहिं तुम्भेहिं पउमणा हे जात्र णो पडिसेहिए ॥ ततेणं तं पंचपंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्तासमाणा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं खलु देवापिया! अम्हे तुम्भेहि विसज्जिया समाणा जेणेव गंगामहानदी तेणेव उवागच्छामो 7 कृष्ण वासुदेव का ऐसा अध्यवसाय जानकर गंगादेवी ने वापर स्थल बना दिया. जिसपर कृष्ण वासुदेवने } ( दो घडी विश्राम लिया. फीर गंगा महानदी तीरकरांच पांडवों की पास गये और उन को कहा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम बहुत बलवंत हो, क्यों कि तुम ६२॥ योजन के विस्तार वाली गंगा नदी तीर गये. तब तुमने पद्मनाभ राजा को क्यों भगाया नहीं. तब पांचों पांडव कृष्ण वासुदेव को कहने लगे कि अहो ( देवानुप्रिय ! आपने हम को विसर्जित किये सब हम गंगा महानदी की पास आये. वहां गवेषणा करते | हुए छोटी नाव हम को मीली यावत् आपका पराक्रम देखने के लिये हमने वह नावा पीछी नहीं भेजी परंतु इसे. For Personal & Private Use Only 418+- द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 418+ ६७५ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-पालप्रमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " एगाट्टियाए मग्मणगवसणं तंचव जाव णूमेमो तुम्हें पडिवालमाणे चिट्ठामो ॥ १९ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे तेसि पंचाहं पंडवाणं एयमटुं सोचा णिसम्म आसुरुत्ते जाब तिबलितं एवं वयासी-अहो जयाणं मए लवण समुदं दुवे जोयण सयसहस्सं विच्छिण्णं वीतीवतित्ता पउमणाम हयमहिय जाव पडिसेहिता अमरकंका संभंग्गा दोवतीदेवी साहत्थि उवणीया तयाणं तुन्भेहि मम माहप्पं णविण्णायं इयाणि जाणिस्सह लिकटु, लोहदंड परामुसइ २त्ता पंचण्हं पंडवाणं रहं चूरति चूरित्ता णिव्विसए आगावति, णिविसए आणावता ॥ तत्थणं रहमदणं णाम कोट्टे णिविट्टे ॥१९१॥ Eगोपकर रखी है. और आप की मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे हम यहां बैठरहे हैं. ॥ १९० ॥ इन पांचों पांडवों में के बचन सुनकर कृष्ण वासुदेव आसुरक्त हुवे यावत् ललाट में त्रिवली घडाकर ऐसा बोलने लगे कि जब मैंने दो लाख योजन का लवण समुद्र उल्लंघकर पद्मनाभ राजा के रथगज यावत् सब को दशो दिशी में भगाकर अमरकंका राज्यधानी तोडडाला और द्रौपदी को हाथों हाथ लेआया तब तुमने मेरा पराक्रम जाना नही तो अब जानेगें. यों कह के लोह दण्ड उठाया और पांचों पांडवों के रथ पर मारकर उनका चूर करदिया और पांचों पांडवो को देश निकाल कर दिये, वहां रथमर्दन मामक कोट बनाया। १ ९॥ पकाधक-राजाबहादुर काला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसाद 610 For Personal & Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततेणं से . कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सएणं खंधावारेण साई अभिसमण्णागएयावि. होत्था ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे जेणेव बाराबतीए णयरीए तेणेव उबागल्छइ २ ता अणुपविसते ॥ १९२ ॥ ततेणं ते पंडवा जेणेवा इत्थिणाउरे गरे तेणेव उवागच्छइ२त्ता जेणेव पंडराया तेणेव उवागच्छइयत्ता करयल जाव एवं बयासी- एवं खलु ताओ ! अम्हे कण्हेणं वामदेवेणं णिबिसिया आणता ॥ तएणं पंडराया पंच पंडवं एवं वयासी कहणं . पुत्ता! तुब्भे कण्हवायुदेवे णिविसया आणत्ता? ॥ततेणं ते पंचपंडवे पंडरायं एवंवयासी एवं खलु ताओ ! अम्हे अमरकंकातो पडिमियत्ता लवण समुदं दोणि जोयण सय अब कृष्ण वासुदेव अपने सैन्य में गये और उन से मिले. वहां से द्वारिका नगरी में प्रवेश किया। ॥ १९२ पांचों पांडवों हस्तिनापुर नगर में पांडराजा की पास गये और हाथ जोडकर कहा कि बहो पिताजी हम को कृष्णवासुदेव ने दशपार किये है. तब पांडू राजाने पांचों पांडवों को कहा कि अहो पुत्रों ! तुम को कृष्ण वासुदवने किस लिये देश पार किये हैं? तब पांचों पांडवों पांडु राजा को कहने लगा 12 कि अमरकंका नगरी से पीछे आते दो लक्ष योजन का लवण समुद्र का उल्लघन किया. वहां से कृष्ण वासुदेवने हम को नदी तीर कर जाने का कहा. हम एक नावा लेकर तार गये परंतु कृष्ण वासुदेव के लिये वाछी नावा भेजी हां नहा : भार ही खेड रहे. वहां कृष्ण बामुदेव लवण समुद्र के आधिपति मुस्थित देव को षष्टांङ्ग शताधकथा का प्रथम श्रुतस्कंध HI ट्रैपदी का सोलहवा अध्ययन 4-11 For Personal & Private Use Only www.iainelibrary.org Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अनोलखा सहस्सातवीतीब २ता, तरणं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयासी- गच्छहणं तुम्मे देवाणु-: पिया ! गंगं महानदि उत्तरेह जाव ताव अहं एवं तहेव जाव चिट्ठामो ॥ ततेां से कह वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिबई दहुणं तंचेक सब्वं णबरं कण्हस्त चिंतानु वुच्चइ ॥ जाव निव्विस आणवेति ॥ १९३ ॥ ततेनं से पंडुराया ते पंच पंडवे एवं वयासी-दहुणं तुमं पुत्ता कथं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहिं ॥ १९४ ॥ तरणं से पंडुरायाको सिद्दा बेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुमं देवाणुप्पिया ! बारावतिं नयरिं कण्हरस वासुदेवरस णिवेदेहि-एवं खलु देवाणुपिया ! तुमं पंच पंडवाणं णिव्वेसियाणं . मिलकर गंगा नदी की पास आये. वहां नावा की गवेषणा की परंतु मिली नहीं, इस से एक हाथ में {अश्व रथ व सारथी लेकर दूसरे हाथ से गंगा नदी तीरने लगे. बीच में थक जाने से कृष्ण वासुदेव डूबने लगे, इम से हमने हास्य किया जिस से हम को देशपार किये हैं | १९३ ॥ तब पांडु राजा पांचों पांडवों को ऐसा कहने लगे कि अहो पुत्र ! तुमने कृष्ण वासुदेव से विपरीत होने का किया सो बहुत खराब किया ॥ १९४ ॥ उस समय पाण्डु राजाने कुंती देवी को बोलाई और कहा कि अहो देवानुप्रिये ! तुम द्वारिका नगरी जाओ और कृष्ण वासुदेव को निवेदन करो कि तुमने पांच पांडवों को देश निकाल किये हैं। For Personal & Private Use Only प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायणी ज्वालाप्रसादजी ० ६१८ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कृष 44+ आणत्ता तुमं चणं देवाणुप्पिया ! दाहिणड्ड भरहस्स सामी, तं संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! तं पंच पंडवा कयरं देसंघा दिसिंवा गच्छंतु?॥१९५॥ तएणं सा कोंती पंडुणा रण्णा एवं वुत्ता समाणी हथिखंधं दुरुहतिरत्ता जहा हिट्टा जाब संदिसंतुणं पिउत्था किमागमणं पयोयणं ॥ ततेणं . सा कोंती कण्हं वासुदेवं एवं व्यासी-एवं खलु तुमं पुत्ता ! पंचपंडवा णिविसया आणत्ता, तुमंचगं दाहिणड्ड भरह जाव दिसिंवा गच्छंतुवा ? ततेणं से कण्हवासुदेवे कौर्तिदेवि एवं वयासी-अपूइवयणाणं पिउत्था ! उत्तमं पुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टीवा तं गच्छंतुणं पंचपंडवा दाहिण परंतु आप अर्ध भरत खण्ड के स्वामी हैं, इस से कहो कि वे पांचों पांडव कौनसे देश में जाकर रहें ? ॥ १९५ ॥ पाण्दु राजाकी पाससे ऐसा सुनकर कुंतीदेवी हाथी पर बैठकर द्वारिका नगरीके अंग उद्यान में उतरी. वहां से अपने कौटुम्बिक पुरुषों की साथ अपना आने का समाचार कृष्ण वासुदेन को कहलाया. कृष्ण वासुदेव वहां आये और अपनी भूना को पूछा कि आप का आने का क्या प्रयोजन हुवा ? तब A. कुंती देवी कृष्ण वासुदेव को बोलने लगी हो पुत्र ! तुमने पांचों पांडवों को देश निकालं किये हैं. और तप दक्षिणार्थ भरत के स्वामी हो. तो कहो कि वे कहां जाकर रहे: ? तक कृष्ण वासुदेवने कुंतीमा * देवी को उत्तर दिया कि भूाजी! वासुदेव बलदेव व चक्रवर्ती, वगैरह उत्तम पुरुषों के वचन: असत्य नहीं। 480 द्रौपदी का सोलहवा मध्ययन W For Personal & Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ na अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी वियालिं तत्थ पंडुमहुरं णिविसंतु ॥ मम · अदिट्ठतेवगा भवंतु तिकटु, कोतिदेवि : : सक्कारेति समाणेति, सकारेत्तार जाव पडिविसजेति ॥ १९६ ॥ ततेणं सा कोंतीदेवी... जाव पंडुरस एयमटुं णिवेदेति ॥ १९७ ॥ ततेणं ते पडू राया पंचपंडवे सहावेति रत्ता एवं वयांसी-गच्छहणं तुम्भे पुत्ता ! दाहिणिल वेयालिं तत्थणं तुब्भे पंडुमहुरं णिवे- .. सेह ॥ ततेणं ते पंच पंडवा पंडुस्सरण्णो जाव तहत्ति पडिसुणेति, सबलवाहणा हत्थिणाउराओ पडिणिक्खमति २त्ता जेणेव दक्खिणिला वेयाली तेणेव उवागच्छति.. २त्ता पंडुमहुरं नगरं णिवेसंति, पंडुमहुरं नगर णिवेसिचा,तत्थणं ते विपुलभोगसमिति होते हैं. इस से पांचों पांडवों दक्षिण दिशा में वेतालिक (समुद्र के तट पर ) नविन पाण्डुपथुरा नगरी बसाकर मेरी दृष्टि से दूर रहकर सेवकपना करे. यों कहकर कुंती देवी का सत्कार मन्मान कर यावत् विसर्जित की ।। १९६॥ कंती देवीने हस्तिनापुर में आकर पाण्डु राजा को सब पात निवेदन की। ॥ १९७ ॥ तब पांड राजाने पांचों पांडवों को पोलाकर ऐमा कहाँ बहो पुत्र ! दक्षिण दिशा में बेत लिक है वहां पर पांदु मथुरा नगरी बसाकर रहो. पांचों पांडवोंने पांड राजा के वचन तहत किये. और बल सैन्य व बाहन वगैरह सहित हस्तिनापुर में से निकलकर दक्षिण दिशा में वैतालिक की पास आये. है। mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmania .प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालापसादजी. * For Personal & Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 44+पष्टां ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 488+ गया हो ॥ १९८ ॥ तएणं दोवतीदेवी अन्नयाकयाई आवण्णसत्ता जायायावि होत्या ॥ तत्थणं सा देवातीदेवी जवण्हंमासाण जाव सुरूवं दास्यं पयाया जाव सुकुमाले, वित्त बारसाहस्स इमं एयारूवं अम्हाणं अम्हे एस दार पंचण्डं पंडवाणं पुत्ते दोवतीए देवीए अन्तर तं होऊणं अम्हे इमस्स दारगरस नामधेजे पंडुसेणे ॥ ततेणं तस्स दारगस्स अम्मापिपरो नामधेज्जंकयं पंडुसेणेत्ति, वावरिं कलाओ जाव भोगसमत्थे जाए जुवराया जाव विहरति ॥ १९९॥ ते काणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेरा समोसढा, परिसाणिग्गया, पंडवा निग्गया, धम्मः सोचा, एवं वयासी जं णवरं देवाणुध्विया ! दोवर्तिदविं आपूच्छामो पंडुसणं च वहां पांडु मथुरा नगरी बसाकर विपुल भोग समृद्धि प्राप्त की ।॥ १९८ ॥ { सबानब मास पूर्ण हुए पीछे यावत् स्वरूपवान पुत्र का जन्म हुआ. बारह नाम रखा कि यह पांच पांडव का पुत्र व द्रौपदी देवी का आत्मज है, इस से एकदा द्रौपदी देवी गर्भवती हुई. दिन व्यतीत हुए पीछे ऐसा इस पुत्र का पांडुसेन नाम होवो. { वत्पश्चात् उप्त पुत्र के मात पिताने उस का नामपांडुसेन रखा. बहत्तर कला पढकर यावत् भोग संमर्थ बना हुवा {युवराज पद प्राप्त कर यावत् विचरने लगे ॥ १९९ ॥ उस काल उस समय में धर्मं घोष स्थविर पधारे. परिषदा बंदम करने को निकली. पांडवों भी गये. धर्म श्रवण कर ऐसा बोले अहो देवानुप्रिय ! द्रौपदी देवी को For Personal & Private Use Only ++ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 4 ६८१ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4+ अनुवाहक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजो कुमारं रजेाववामों ततो पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंड भविता जाव पव्बयामो? ॥ अहासु देवाणुप्रिया ! ॥ २०० ॥ ततेनं पंच पंडवा जेणेव सएगिहे तेणेव उवागच्छइ २ चा दोवतिदेवि सहावेति २ चा एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हेहिं थेराणं अंतिए धम्मं सिंते जाव पव्त्रयामो, तुमणं देवाणुपिए 1 किं करोसि ? तसेणं सा दोवती ते पंच पंडवे एवं वयासी-जतिणं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसार भउव्विग्गा जाव पन्चयह, के अपने आलंबेचा जाव भविस्सइ अहं पियणं संसार भड़विग्गा देवाणुनिएहिं साई पव्यतिस्सामि ॥ २०१ ॥ ततेनं ते पंच पंडवा पंडुसेणरस कुमारस्स अमिसेओ जाव पुछकर पांडुसेन कुमार को राज्याभिषेक करवा कर आपकी पास दीक्षा लेवेंगे. स्थावर ने उत्तर दिया { जैसे तुम को सुख होवे वैसा करो. ॥ २०० ॥ पांचों पांडवों अपने २ गृहगये और द्रौपदी को बोलाकर कहा अहो देवाणुप्रिये ! हम स्थविर की पास से धर्म श्रवण कर यावत् दीक्षा अंगीकार करते हैं अहो | देवाणुत्रियों तुम क्या करोगी. तब द्रौपदी पांचों पांडवो को बोली अहो देवानुप्रिय ! अब तुम संसार भय { से द्विन बनकर यावत् दीक्षा अंगीकार करते हो तो मुझे अन्य क्या आधार, अवलम्बन यावत् होगा. मैं भी संसार भय से उद्विन बनी हुई यावत् दीक्षा ग्रहण करूंगी. ॥ २०१ । अब पांचों पांडवोंने For Personal & Private Use Only * काशक राजाबहादुर मला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ર Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + षष्टांग शालधर्मकथाका प्रथम श्रुतस्कंध +sir रजं पसाहेमाणे विहरति.॥ २०२ ॥ततेणं ते पंचपंडवा दोवतीदेवी अन्नयाकयाइ पंडुसेणं रायं आपुच्छति ततेणं से पंडुसेणेराया कोडुबिय पुरिसे सहावेति २ ता एवं बयाली-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! णिक्खमणाभिसेयं जाव उवट्ठवेह, पुरिससहस्स : वाहिणीओ,सियाओ उवट्ठवेह जाव पचोरुहति रचा जेणेव थेरा तेणेव उवागच्छइ.२ ता. आलित्तेणं जाव समणा जाया चोहसपुवाई अहिजति २ चा बहाण वासाणि छट्ठट्ठम दसम दुवालसेहिं मासद्धमासक्खमणेहि अप्पाणं मावेमाणे विहरति ॥ तएणं सा दोवई देवी सियाओ पचोरुहइ २ ता जाव पब्वइओ मुनयाए अजाए सिस्सपांडुसेन कुमार का राज्याभिषेक किया यावत् राज्य को पालते हुवे विचरने लगा ॥२.२ ॥ एकदा पांचों पांडवों व द्रौपदीने पांडुसेन राजा की आज्ञा मांगी. सब पांडुसेन राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और कहा कि अरे देवानुप्रिय ! दीक्षा उत्सव यावत् वैयार करो. सहस्र पुरुष बाहिनी शीविका तैयार है। करो. यावत् उस में से उतर कर स्थविरों की पास गये और कहा कि यह लोक आलिप्त है यावत् श्रमण हुए. चौदह पूर्व का अध्ययन कर बहुस वर्ष पर्यंत छठ-अठम, दशम व द्वादश भक्त, अर्घ मास, मास समणादि तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. और द्रौपदी देवी भी शीविका में से नीच द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + अनुवादक-बालबमचारी मुनि भी अमोलक ऋषिजी - 4. “णियत्ताए दलयइ एकारस अंगाइ अहिज्जइ २ ता बहुणि वासाणि छटुट्ठम दसम दुवालसेहिं जाव विहरइ ।। २०३ ॥ ततेणं थे। भगवंतो अन्नया कयाई पंडुमहुरातो णयरीओ सहरसं बणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमति २ त्ता बहिया जणवय विहारं ६८४ विहरंति ॥२०४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी जेणेष सुरट्ठा जणवए तेणेव उवागच्छइ रत्ता सुरट्ठा जणवयांस संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥२०॥ततेणं बहुजणा अन्नमस्स एवमाइक्खति एवं खलु देवाणुप्पिवा!अरहा अरिटुनेमी मुरद्वाजणवए आव विहरह॥२०॥तएणं तेजुहिट्ठिल पामोक्खा पच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा अन्नमन्न सहावेति २त्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरा उतरकर यावत् प्रब्राजित हुई. सुव्रता आर्या की शिष्यनी बनी और अग्यारह अंगका अध्ययन किया बहुत ही वर्ष छठ-अठम, दशम,द्वादश भक्त सपसे यावत् आत्माको भावती विचरने लगो ॥२०॥एकदा स्थविर भगवंत पांडुमथुरा नगरी के सहस्र वन उद्यान में से निकलकर बाहिर देश में विहार करने लगे ॥ २०४ ॥ उसाल उस समय में अरिहंत अरिष्ट नेमीसौराष्ट्रदेश में संयम व तप से आत्माको भावतेहुवे विचर रहे थे ॥२०॥ वहां बहुब लोगों परस्पर ऐमा वार्तालाप करने लगे कि सौराष्ट्र देश में मरिहंत अरिष्ट नेमी यावत् विचररहे हैं। ॥२०६॥उससमयमें युधिष्टिर प्रमुख पांचों अमारोने यह बात मुनी परस्पर कहनेलगे कि अरिहंत अरिष्टनेमी यात्रा प्रकाशक-राजाबहादुरकाला मुखदेवसमयजी ज्वालामसादजी । For Personal & Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + षष्टांड्रज्ञानाधर्मकथा का प्रथप शुसस्कन्ध 4 अरिष्टुणेमी पुवाणुपुम्नि जाब विहरति, तं. सेमं खलु अम्हं थे। आपुच्छित्ता अरिहं अस्ट्रिनेमि बंदणाए गामत्तए अन्नमसरस एयमटुं पडिसुणेइ २त्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणवा उवागच्छद २ त्ता थेरा भगवंत वदति नमंसप्ति एवं व्यासी-इच्छामीणं तुठभेणं अब्भणुन्नाया समाणा अरहं अरिटुनेमी जाव गमित्तए? अहासुह दवाणुप्पिया! ततेणं ते अहिटिल्ल पामाखा पंच अणगारा थे रेहिं अब्भणुण्णाय समाणा थेरे भगवते वदेइ नमसई बंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिमिक्खमइ २ त्ता मासंमालेणं अणिक्खित्तेणं तकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाण जाव जेणेव हस्थिकप्पे पयरे तेणेव उवागच्छइ २ ता हत्थीकप्पणयरस वहिया सहस्संत्रवणे सौराष्ट्र देश में विचर रहे हैं इस से स्थविर भगवंत को पुछकर अरिहंत अरिष्टनेमी को वंदना नमस्कार करने के लिये जाना अपन को श्रेय है. यो परस्पर वार्तालाप कर के स्थविर के पाम आये. स्थविर भगवंत को वंदन नमस्कार करके कहने लगे कि आप की अनुज्ञा होवे तो हम अरिहंत अगिट नेमी को वंदना नमस्कार करने के लिये जाना चाहते हैं. स्थविरोंने उत्तर दिगा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम को जैत मुख हावे वैसा करो. ता युधेष्ठिर प्रमुख पांवों अनसार स्थविर की अनुजा होते स्थविर भगवंत को बंदना नमस्कार करके उन की पाल से नीकल कर एक २ मास की निरंतर सपश्चर्या करते हवे. प्रामाम 48. द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन 48 For Personal & Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dan2Z. 'उजाणे 'जाव विहरंति ॥ २०७॥ तत्तेण ते जहिट्रिलवजा चत्तारि अणगारा.. : मासखमण पारणए पढमाए पोरिसीए. मझायं करति बीयाए एवं जहा. गोयमसामी ! णवरं जुहिद्दिलं ‘आषुच्छंति जाव ' अडमाणा. बहुजणसई णिसामेति एवं खलु देवाणुप्पिया अरहा अस्टुिनमी उजंत सेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएगं पंचहि छत्तीसेहिं अणगारसएहिंसाई कालगए. जाव सन्ध दुक्ख • पहीणे । ततेणं जुहिटिन वजा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा हत्यिकप्पाओ पडिणिक्खमाले २त्ता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव जुहिट्टिले ग्राम विचरते यावत् दृस्ति कल्प नगर की वागिर सहस्रवन नामक उद्यान में पधारे. ॥२०७॥ वहां माम क्षमण #के पारने के दिन युधिष्ठिर सिवाय चार अनगारने प्रथम प्रहरसी में स्वाध्याय की, दूपरी में ध्यान ध्याया, यों जैमे गौतम स्वामी का अधिकार है वैसही करके युधिष्ठिर अनगार को पूछकर यावत् ऊंच नीच मध्यम कुल में गौचरी के लिय परिभ्रमण करते हुने बहुत लोगों की पाम से ऐसा मुना अरिहंत अरिष्ट नेमी न्ति पर्वत पर एक पाम पर्यंत भक्तपान रहित पांच सो . छत्तीस' अनगार की साथ कालधर्म का प्राप्त हुने गावत् सब दुःखों से रहित बने. युधिष्ठिर निवाय चार अनगारों बहुत लोगों की पास से ऐमा 11 सुनकर इस्तिकल्प नगर में से निकलकर बाहिर सहसाम्प उद्यान में गुधिष्ठिर अनगार की पास पधारे..। अनवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .प्रकाकि-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजीज्वालाप्रमादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 43 अणगारे तेणेव उवागच्छइ २त्ता भत्तपाणं पच्चक्खंति २ सागमणागमणस्स पडिक्क.... मति २ ता. एसणमणेसणं आलोएड्रत्ता भत्तपाणं पडिदसति २ त्ता -एव वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! जाव कालगते. तं सेयं खल अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुजगहिय भत्तपाणं परिहावेत्ता सेत्तुज पन्वय सणियं २ दुरुहित्तए सलेहणाए झोसियाए झोतियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए तिकटु, अण्णमण्णस्त एयम पडिसुणति २त्ता तं पुधगाहियं भत्तपाणं एगत पस्ट्रिवेति २ ता जेणेव सेत्तुज फवए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सेत्तुजं फवयं सणिय सणियं दुरुहति २ ता वहाँ भक्तपान का प्रत्याख्यान किया, गमनागमन का प्रतिक्रमण किया. एषणा समिति की आलोचना की, और भक्तपान बतलाये. फीर ऐमा बोले अहो देवानुप्रिय ! हम • आपकी अनुज्ञानुसार मामक्षमण के पारने के लिये ऊंच नीच व मध्य कुल में गोचरी करते हुवे यावत् परिभ्रमण करत थे. वहां हमने ऐमा सुना है कि श्री अरिहंत अरिष्ट नेमी एक मास पर्यंत भक्तपान रहितं यावत् कालधर्म को प्रश्न * यावत् सब दुःखों स रहित हुए. इस से हो ईवानुप्रिय ! अपने को-यह ग्रहण किया हुवा आहार को परिठाना और शत्रुजय पर्वत पर शनैः चमकर संलेषणा ग्रोसणा करके काल की वांच्छा नहीं करते हवे ।। विचरना. श्रेष्ठ है. सबने इस बात को खोकार की. लाये हुवे आहार को परिठाया और शबूंजय द्रोपदी का सोलहा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VvvHARA १८८ 4+ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी जाव कालं अणव कंखमाणा विहरति ॥ २०८ ॥ ततेणं से जुहिट्ठिल पामोक्खा पंच अणगारा सामातियमातिघाति योद्दस पुवाई,अहिजित्ता बहुणि वासाणि,सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताण ज्झोसित्ता जस्मट्राए किरति णग्गभावे जाव तंमट्टे माराहतिरत्ता, अणंते णाणे समुपण्णे जाव सिद्धा॥२.९॥तवेणं सा दावली अज्जा सुध्धयाणं अज्जियाण अंतिते सामाइयमाइयाइ एक्कारस अगाति अहिजति २त्ता. बहुणि वासाणि, सामाण परियागं पाउणित्ता मामियाए संलेहणाए, आलोइय पडित समाहित्ता कालमासे कालकिच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उवण्ण तत्थगं अत्यंगतियाणं देवाणं वस. सागरोवमांई ट्ठिई पन्नत्ता ॥ तत्थणं दुवतिरस देवस्त पर्वत पर शनैः २ चाकर काल की वांच्छा नहीं करते हुये यावत् विचरने लगे ॥ २८ ॥ अब युधिष्ठिर प्रमुख पांचों अनगार सामायिका दे चौदह पूर्व का अध्ययन कर बहुत वर्ष संयम पालकर दो मास की संलेखना से अल्मा को झाँसकर जिस रिय साधुपना अंगीकार किया था उस की आराधना कर अनंत केवल ज्ञान केवल दर्शन प्राप्त कर यावत् सिद्ध हुवे ॥२०१॥ द्रौपदी आर्या सुत्रता आर्या की पाम मामाथिकादिम अग्यारह अंग का अध्ययन कर बहन वर्ष संयम पालकर एक मास की संलेख ना सहित आलोचना प्रतिक्रमण कर काल के अवसर में काल कर पांचो ब्रह्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुई. वहां कितनेक प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव महायजी ज्वालाप्रसाद नी. For Personal & Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 म ६८९ 4- पटांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतः दम सागरोवमाइठिई पणत्ता ॥ सेणं भंते ! दुवे देवे ताओ जाव महाविदेहवासे जाव अंतंकाहिति ॥ २१०॥ एवं खल जंब ! समणणं भगवया महावीरेणं जाच संत्तणं सोलमस्सणं णायज्झयणरस अयम? पन्नत्ते ॥ तिमि ॥ १६ ॥ गाथा-मुबहुपि तवाकले सो णियाणदोसण दूसिआ संतो, न सिवाय दोवतीए अह किल सुउमालियाजम्मे ॥ १ ॥ अहवा · अमणुण्ण ‘मभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अगत्थाय ॥ जह कडुय तुबदाणं, णागसिरि भवमि दोवइएत्ति ॥ २॥ सोलसम जायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १६॥ * देवों की दश स'गरोपम की स्थिति बरूपी है. वैसे ही द्रौपदी देव की भी दश मागरोपम की स्थिति में कही. वह द्रौपद दव यावत् महा विदर क्षेत्रमें म झंगे.बुझेंग यावत् मबदुःखका अंत करेंगे ॥२१॥हो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के सोलहवा अध्ययनका यह अर्थ कहा ॥१६॥ पसंहारनियाणा के दोष मे दूषित बना हुवा कठिन तप भी मुक्ति का साधक नहीं होता है जैसे द्रौपदी मुकमालिका के भव में नियाणा हिया॥१॥ भक्ति रहित अमनोज्ञ वस्तु का दान सुपात्र को देना ही अनर्थ का हेतु है जैसे नागश्री के भव में कडुये तुम्का आहार धर्म रूचि अनगार को द्रौपदीने दिया. ॥२॥ यह सोलहवा अध्यापन संपूर्ण हुना ॥ १६ ॥ द्रोपदी का सोलहवा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्र - ऋषिजी namwww ३१० 49 अनुरादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री ॥ सप्तदश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया माहबीरणं जाव संपत्तेणं सोलसमस नायज्झ... यणस्स अयमढे पन्नत्ते, सत्तरसमरसणं भंते ! जायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपेत्तेणं के अट्रे पन्नते ? । १॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिसीसे नाम नयरे होत्था वणओ, तत्थणं कणगकेऊणाम राया होत्था वणओ ॥ २॥ तत्थणं हत्थिसीसं जयरे बहवे संजत्ताणावा वाणियगा परिवमंति ॥ अड़ा जाव अपरिभ्यायावि होत्था ॥ ३ ॥ ततेणं तेसिं संजुत्ताणावा वाणियगाण अन्नयाकयाइ एगयआ साहियाणं जहा अरहणए जाव लवणसमुद्दे अग्रेमाता जायणसपाइं उगाढायावि होत्था ॥ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने हाता मूत्र के सोलहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो सत्तरहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा है. ? ॥ १॥ अहो जम्बू ! उपकाल उस समय में हस्ति शीर्ष नामक नगर F था उनमकनक केतु राजा राज्य करता था. ॥२॥ उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत सांयात्रिक (जहाजा से व्यापार करने वाले) व्यापारी रहते थे. वे ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत थे. ॥ ३ ॥ जैसे अरहनक श्रबकने सब मिलकर विदेश गमन का विचार किया था वैसे ही इनोंने विदेश ममन का विचार किया। काशक सजावहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसाद For Personal & Private Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञताधर्मकथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध सतेणं तेर्सि जाव बहूणिं उप्पाइय सयाति जहा मागंदिय दारयाणं जाव कालियवाए एत्थसमुच्छिए ॥ तेणं कालियवातेणं सा णावा आहुणिजमाणी २ संचालिजमाणी २ संखोहिजमाणी तत्थेव परिभमयति ॥ ४ ॥ ततेणं से णिज्जामए णटुमतिते णट्ठसुइते, ‘ण?सन्ने, · मूढदिसाभाए जाएयावि होत्था, णजाणइ कयरं देसंवा दिसिंवा विदिसि पयवाहणा वहिए त्तिक्कट ओहयमण संकप्पे जाव ज्झियायति ॥ ५॥ ततेणं ते वहवे कुच्छिधाराय कन्नधाराय, मज्झि यावत् लवण समुद्र में अनेक सो योजन चले गये. वहां जाते मार्ग में जैसे मादिय पुत्रों को उत्पात हुवा था वैम सेंकडों उत्पात हुए यावत् प्रतिकूल वायु होने लगा वहां तक कहना. प्रतिकूल वायु से कंपाय-4 मान होती चलित होती, व क्षब्ध होती वह नावा इधर उधर परिभ्रमण करने लगी ॥ ४ ॥ तब नाव) 2 चलानेवाला नियामक गनि श्रुति व मंज्ञा मे शून्य होने से दिशा का भान भूल गया. और मावा किस देश में अथवा कौनमी दिशा में जाती है उस का ज्ञान भी उसे रहा नहीं. इस से मन में संकल्प विकल्प करता हुवा यावत् आत ध्यान करने लगा ॥५॥ उस समय वहां रहनेवाले बहुत चाटुए धारण करनेवाले 90 जा संभ धारण करनेवाले. सांयात्रिक पिकों निर्यामक की पास-गये श्रीर कहा अही देवानुमिथ अ.कर्ण जनि के घोडे का सत्तरवा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगाय संजुत्ताणावावाणियगाय जेणेव से णिजामए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता एवं क्यासी-किन्न तुम देवाणुप्पिया ! ओहयमण संकप्पा जाव झियातति ? ॥ ततेणं से णिज्जामए ते बहवे कुच्छिधाराय ४ एवं वयामी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! णटुमतित जाव अवहित्तए तिकटु, ततो ओहयमण संकप्पे जाव झियाति ॥ ६ ॥ ततेणं ते कण्णधाराय ४ तस्स णिज्जामयस्स अंतिए एयम, सोच्चाणिसम्म भीया, ४ ण्हाया कयवलिकम्मा करयल बहणं इंदाणय खदाणय जहा मलिणाए जाव उवायमाणा चिट्ठांते २ ॥ ७ ॥ ततेणं ण णिज्जामए ततो मुहुर्ततरस्स लडमईए ३ अर्थ तुप संकल्प विकल्प क्यों करत हो यावत् प्राति ध्यान क्यों ध्याते हो ? निर्यामकने उत्तर दिया कि मेरी मात, श्रुनि व संज्ञा अबी नष्ट होगइ है, और यह नावा किस दिशा में कौन से देश में माती है इस का भी मुझे ज्ञान नहीं रहा है, इस से. संकल्प विकल्प करता हुवा यावत् आर्त ध्यान करता हूं ॥ ६॥ इस से वे चाटुए धारन करनेवाले, कूवास्तंभ धारण करनेवाले, ऊंच नीच काम करनेवाले व सांयात्रिक बणि निर्यावक के ऐसे वचनों मुनकर भयभीत हवे. उनोंने स्नानकिया, बलिकर्म किया, और हाथ जोडकर बहुत इन्द्र, सध वगैरहकी जैसे मल्लिनाथ के अध्ययन में मांगात्रिकोंने पूजाकी थी वैसेही पूजा करतेहुवे रहने लग 16 ॥ ७॥ गुडून पीछे मति, स्मृति व संज्ञा होने से उस निर्यामक को दिशा का ज्ञान हुवा. तब उन चाटुए। अनादकाल ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी - प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजीनामाप्रसादज.. के For Personal & Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ६९३ अमढ दिसाभाए जाएयावि होत्था ॥ तसेणं से णिजामए ते बहो कुच्छीधाराय ४ -- एवं वयासी-एवं खलु अह देवाणुप्पिया ! लद्धमतीते जाव अमूढदिसाभाए अम्हेणं देवाणुप्पिया कालियदीवं तेणं संबूढा, एमणं कालिय. दीवे आलोकिजइ ॥ ततेणं ते कुच्छीधाराय ४ तस्स गिजामगस्स अतिए एयमटुं सोचा. हट्ट तुट्ठ पथक्खिणाणु कुलेश वारण जणेव कालियदीवे तेणेव उवागच्छइ२त्ता पोयवहणं लंबति २त्ता एगट्रियाहिं कालियदी उत्तरति॥८॥तत्थणं बहवे हिरण्णागरेय,सुवण्णागारेय रयणागरेय, वइरागरय; बहवे तत्य आसे पासंति, किते हरिरेणु सोणिसुत्तग . आइपणवेढा ॥ ९॥ ततेणं ते आसा ते वाणियाए पासंति २त्ता तसिं गंध अग्घायंति २त्ता भीया तत्था उविगा धारण करनेवाले यावत् सांयात्रिक लोगों को कहने लगा कि अब मुझे दिशा का ज्ञान हुवा है. अपन सब कालिक द्वीप की पास आये हैं और यह कालिक द्वीप दीख रहा है. निर्यापक के ऐसे वचनों सुनकर वे चादुए धारण करनेवाले यावत् सांयात्रिक लोग हृष्ट तुष्ट हुए. अनुकूल वायुमे कालिक द्वीपकी पास आये. वहां जहाजका लंगर डाला और छोटी नावाओं में आरह हो कर द्वीप में मये ॥८॥ वहां बहुन चांदा,सुवर्ण, परत व हीरे की खानों देखी. वैसेही कम्मर में बांधने का चमडे के दोरे जैसे नीला वर्णवाले आकीर्ण ... जाति के अश्व भी देखे ॥ ९ ॥ उन सांयात्रिक वणिकों को देखकर वे अश्वों भयभीत हुवे, उद्विग्न हुवे षष्टांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 44 आकीण जाति के घडे का मनरहने। अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उविगामणा, सतो. अणेगाति' जोयणाति भमंति। तेणं तत्थ पउरगोयरा पउता... । पाणिय निब्भया निरुविग्गा सहमहेणं विहरंति ॥ १० ॥ तएणं ते संजु । त्तागा णावावा णियगा अण्णमण्णं एवं बयासी-किण्णं अम्हे देव णुप्पिया!आसेहि इमेणं बहवेहिं हिरण्णागरा, सुवण्णांगारा, रयणगाराय, वइरागाराय, तं संयं खलु अम्हं हिरण्णस्सय सुवण्णस्सय रयणस्सय, वइरस्सय पोयवहणं भरित्तए तिकटु, अण्णमन्नरस एयमट्ठ पडिमुणेति २ हिरण्णस्सय सुवण्णस्सय रयणस्सय वइरस्सय, तणस्सय अण्णस्सय, पाणित्सय, पोयवहणं भरेंति २ . त्ता . दक्खिणाणुकुलेणवएणं अणव मंभीरए पायपट्टणे तेणव उवागच्छतिरत्ता पोयवहणं लबाबेतिरत्ता सगडीसागडं सज्जेति २ तं हिरण्णंच जाव वइरंच एगट्टियाहि पोयवाहणातो संचारेति २ त्ता और वहां से बहुत योजन दूर भग गये. वे अश्वों वहां प्रचुर तृण के क्षेत्रों व पानी मिलने से निर्भय बनकर वहां की विचरने लगे ॥ १ ॥ चे सांयात्रिक वणिको परस्पर कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! अपन को इन अश्वों से बहुत चांदी, सुवर्ण रत्न व हीरे की खदानों प्राप्त हुई है, इस से यहां से चांदी, सुवर्ण, रत्न व हीरे से अपनी जहाजों भरना चाहिये. यों, कहकर सबने यह बात मान्यः की. सबन 11/चांदी, सुवर्ण रत्नों, हीरे वृण, काष्ट मिष्ट पानी से अपनी २ जहाजों भर में. वहां से दक्षिणानुकूल है। 4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्रा अपोलकषिजी anwarwwwh पशक-मजामहालाला हरदमहायजी ज्वालाप्रसादजी अथ For Personal & Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३९५ पष्टगतापर्षकथा का प्रथप श्रुतस्कंध 42. "सगडासागडं भरेति २ तासगडीसागडं जोएति . २ सा, जेणेव हस्थिसीसे नयरे तेणेव उवागन्छइ २ ता, हत्थिसीसस्स नयरस्स बहिया अगुजाणे सत्थणिवेसं करेति २त्ता सगडासागडं माएति २ चा महत्थं जाव पाहुडं गेण्हति २ त्ता हत्थिसीसं नगरं अणुपविसति २सा जेणेव से कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइरत्ते। जाब उवणेति ॥ ११ ॥ ततेणं से कणगकेऊ राया । तेसिं सजुत्ता वाणिवगाणं तं महत्थं २ जाव पडिच्छति...२ ते संजुत्तावाणियगा एवं वासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! बहुणिं गामागर जाब आहिंडह. लषणसमुहंच अभिक्खणं २ वायु से जहां गंभीर पोतरण था वहां आये. वहां जहाजों का लंगर डाला. गाडे गाडी भर लिये. उनको जोनाकर हस्तिशीर्ष नगर की तरफ गये और उस की बाहिर अंग उद्यान में पडाव किया. वहां गाडाओं छोडाये और महा मूल्यवाला भेटणा लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया और कनककेत राजा की पाम जाकर यावत् स भेटणा रख दिया ॥११॥ कनककेतु राजानें उन सांयात्रिक वणिकों का महा मूल्यवाला भेटणा का स्वीकार किया और उन को. पूछा अहो देवानुप्रिय ! तुपने बहन ग्राम आगर नगर यावत् परिभ्रमण किया है और वारंवार जहाजों से लवण समुद्र में भी तुमने प्रवास किया है। १ जहाज खडा रखने का स्थान, 4. आकीर्ण जाति के घाटे का सतरवा अध्ययन 31. For Personal & Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ 48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पोयथाहणेणं उगाहह ते अस्थियाइत्थ केइते कहिवि अच्छेरए दिट्टपुटवे?॥ ततेणं ते सजातात्रगणयमा कणगऊरावं..एवं क्यासी-एवं खलु, अम्हे . देवाणुप्पिया ! इहेवहत्यिसीसेनयरे परिवसामो संचव जाव कालिगादीवं तेणं संवढा : तत्थणं बहवे हिरणगरेय जाय बहचे तत्थ आमे, किं ते हरिरेणु जाब अणेमाई जोयणाइ . उन्भमंति ॥ तएणं सामी ! अम्हेहि कालिय दीवे ते आसा अत्थेरए दिट्ठपुचे.. ॥ १२ ॥ ततेणं से कणगकेऊराया तेसिं संजत्ताणं वाणियाण: अतिए एयमढे सांचा निप्तम्म संजत्तए एवं बयासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! मम कोडुतो किसी स्थ न तुम को आश्चर्य उत्पन्न करे पैसी कोई-वस्तु देखी. ? तब वे सांयात्रिक वणिकों बोलने लगे कि हम यहां हस्तिशीर्ष नगर में रहते हैं. यहां से जहाज भरकर हम लवण समुद्र में प्रयास करने । को नित्र ले.. मार्म में प्रतिकूल वायु से दिशाभूढ हम करमये, अंत में कालिक द्वीप में पहुंचे. वहां, हमने । जाकीर्ण जाति के नीले वर्णवाले. अश्यों देखे., वे हमको देखकर यावत अनेक योजन दर भग गय. अहो, स्वामिन् ! हिल ही.उस द्वीप में हमने ऐसी आश्चर्यकारी वस्तु देखो है ॥ १२ ॥ उन लोगों की पास मे रएमा मुनकर वे सांयात्रिक बोलने लगे कि अहो देशनु प्रेग ! तुम मेरे कौटुम्बक पुरुषों को साथ सनाओ । wwmayawwwmmmm प्रकाशक-सजावहादरलाला मुखदेवसझवनीवाला प्रसादमी. For Personal & Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ षष्टांत हाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध म्बिय पुरिसेहि साई कालिया दीवाओ ते आसे आणेह ॥ १३ ॥ ततेणं ते संजत्तावाणियगा कणगऊरायं एवं बयासी-एवं सामिात्त आणाए विणएणं पडिमुणेप्ति २ ॥ १४ ॥ ततेणं से कणगकेऊराया कोडुवियपुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासी-गग्छहणं तमं देवाणुप्पिया ! संजत्तएवाणियगेहिं सहि. क लिय दीवाओ मम आसे आणेह, तेवि पडिसुति ॥ १५ ॥ ततेणं ते कोडुबिय पुरिसे सगड सागडं सजेति ॥ तत्थणं बहु-वीणाणय, वल्लकीणय, भामरीणय, कच्छमीणय, भंभाणय, छन्भागरीणय, विचित्त बीणाणय, अन्नसिंच बहुणं सौतिदिय और.उस कालिक द्वीप से अभोंको लावो ॥१३॥ तब वे सांयात्रिक कनककेतु राजा को ऐसा बोलने लगे कि अहो स्वामिन् ! ऐसे ही हम करेंगे, यो उन की आज्ञा मान्य की. ॥ १४ ॥ कनककेतु राजा कौम्बिक पुरुषों को पोलाकर ऐसा कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! तुम इन सांयात्रिक वणिकों की साथ कालिक द्वीप में जाओ और वहां से अश्वोलेकर आओ. उनों ने भी वैसे ही इस बात का स्वीकार किया ॥ १५ ॥ कौटुंबिक पुरुषों ने गोडे गाडी सज्ज किये, उस में बहुत वीणा, वल्लकी भयाधरी, कच्छम, भंभ, भमरी, वगैरह विचित्र प्रकार के वात्रि और भी अन्य श्रोत्रेन्द्र के योग्य द्रव्यो गाडे भरे, कृष्ण वर्ण वाले '१ लोहतांत २ वीणा विशेष, ३ जे, वीणा सरस्वती के हाथ में होती है ४ भेरी वादिन. आकाणे माति के घड का सतरवा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेति २ ता, बहुणं किण्हाणय, जाव सुकिलाणय कटुकम्माणय ४, गंठिमाणय जाव संघाइमाणय अन्नसिं बहुणं चक्खिदिय पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी सागडं भरेंति २ त्ता बहुणं कोटपुडाणय, पत्तपुडाणय केयइपुडाणय, ६९८ एलापुडाणय, कुंकुम पुडाणय, उसीर पुडाणय,चंपगपुडाणय, अन्नसिंच बहुणं घाणिं. दिय पाउग्गाणं दवाणं सगडीसागडं भरेति २ त्ता ॥ बहुस्स खंडस्सय, गुलस्सय सक्कराएय, मच्छडियाएय, तणस्सय,पाणिस्सय, गोरमस्सय, तं दुलाणय, समियस्सय पुप्फुत्तर पउमुत्तर अन्नेसिंच बहुणं जाव जिभिदिय पाउग्गाणं दवाणं भरेति २ त्ता बहुणं कोयवागय कबलाणय,पावरणाणय,नवतयाणय, मलयाणय,मसूराणय, सिलावा. यावत् काष्टकर्मवाले यावत् संघातिम पर्यंत और अन्य चक्ष इन्द्रियको योग्य अनेक द्रव्धसे गाड गटि भरदिये. कोष्ट के पुडे, केतकी के पुडे, इलायची के पुडे, कुंकुम के पुडे, अत्तर के सीसे, वंग के पुडे, व अन्य बहुत है' चणेन्द्रियको योग्य द्रव्य गाडे गडि भदिये. बहुत सक्कर,गुड, बुरा, मीश्री, मिष्ट घास,मधुर पानी, गोरस.. चांवल, मीश्रित किये हुवे पुष्पोतर, पोतर, और अन्य बहुत प्रकार के जिव्हेन्द्रिय को योग्य द्रव्य क * गाडे गाडे भरदिये, बहुन कोयो कंबल प्रावरण, नविन वस्त्रों, मलय देश के वस्त्रों, पसूर धान्य ५ प्रावरण विशेष ..पक शक-राजाबहादुर लाला सुखद सझवजामाप्रसादका For Personal & Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्टानज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रमस्कप 4 णय, जाव हंसगम्भाणय अन्नेसिंच फासेंदिय पाउग्गाणं दवाणं जाव भरेतिरत्ता संगाडि सागडं जोएइं रत्ताजेणेव गंभीरए पोयट्टाणे तेणेव उवागच्छंति२ चा सगडीसगडं मोएति. पोयवाउहणं सजेति २ चा, तेसि उकिंटाणं सद्द फोरस रस रूव गंधाणं कट्ठस्सय तणस्सय, पाणियस्सय, तंदुलाणय, समियस्मय, गोरसस्सय जाव अभासच बहुणं पोयवाहण पाउग्गाणं दवाणं पोयवहणं भरेति २, त्ता दक्खिणाणुकूलेणं वारण जेणेव कालियदीवे तेणव उवागच्छति २, चा पोयवहणं. लंबति २ ता ताई उक्किट्ठाइं सह फरिस रस · रूव गंधाई एगट्ठियाहिं कालियदीवं उत्तारेति, कालियदीवं उत्तारेत्ता ॥ जहिं जहिं च णं ते. आसा आसायंतिवा सयंतिधा, चिटुंतिवा, विशेष के वस्त्रों, शिलापट्ट सुकोमल यावत् श्वेत वस्त्रो व स्पर्शेन्द्रिय के योग्य अन्य बहुत । द्रव्यों से गांडगाडी भरे. वहां से सब गाडेगाडी जोतकर गंभीर पोत स्थान की पास आये, वहां गाडे छोडकर पोत वाहन मज किया, उस्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध, काष्ट, तृण, पानी, तंदुल, आटा, गोरस व अन्य बहुत जहाज में जरूरी वस्तुओं को भरकर दक्षिणानुकूल वायु से कालिक द्वीप की पास आये. वहां नहाज का लंगर डालकर छोटी २ नावाओं से सब वस्तुओं कालिक द्वं.प.में उतारी. और जहां २ । 4 पाकीर्ण जाति के घाटे का सत्तरहवा अध्ययन P For Personal & Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलखपिजी तुयंदतिवा, ताह २. चगं ते कोडं वेयपुरिसा ताओ वीणातीय जाव चि सविणाओय अन्नाणिय बहुणि सोइंदिय पाउग्गाणिय दवाइस मुदीरे माणा २ठति, तसिं चणं परि परंतेणं पासे ठति णिच्चला णिफंदा तुसिणीया चिटुति ॥ जत्थ जत्थ ते आसा आसयतिवा जाव तुपतिवा तत्थ तस्थणं ते कोजुबिय पुरिसा बहुणि किण्हाणिय, कट्ठ कम्माणिय झाव सपाइमाणिय अन्नाणिय बहाणे . चक्खिदिय पाउग्गाणिय दव्वाणि ठवेति; तेसिं परिपेरतेणं पासए ठति, णिच्चला णिफंदा तुसिणीया चिटुंति २ ॥ जस्थ २ ते आमी आसयंति ४ तत्थणं ते कोडुबिय पुरिसा बहुणं कोटण पुडाणय जाव अण्णेसिंच घाजिदिय पाउग्गाणं दवाणं पुजेणय णियरेये करेंति, तेसिं परिपेरंत जाव चिटुंलि ॥ जत्थ २ गं ते आसा आसयंति ४, तत्थ २ अन्धे बैठते थे, सोते थे, खडे रहते थे, वहाँ २ कौटुम्बिक पुरुषों उन वीणाओं को व श्रोत्रन्द्रिय के. योग्य अन्य बहुत द्रव्यों को उन घोडे के चारों तरफ बजाते हुवे निश्चल, हलन चलन सिवाय मौन खडे रहने लगे. जहां २ व घोडे सोते,बैठते उन खडे रहते थे वहार वे घोड के सोने बैठ ने आसपास कृष्ण वर्ण वाले यावत् शुक्लवर्णवाले यावत् संघातिम और चक्षु इन्द्रियों को योग्य अन्य बहुत द्रव्यों को रखकर वे पुरुषों निश्चल खडे रहे. और भी वे घोडे सोते यावत् उन थोडे की आस पास कोष्ट के घुडे यावन् घ्राणन्द्रिय को योग्य अन्य प्रकाशक-जावह 'दर लाला मुखदेव महायजी ज्वाल.प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + २०१ बहवे गुलस्स जाव. अन्नेसिंच बहुणं जिभदिय पंजय निकरेय करति . २ ता । । वियरए खणंति २गुलपाणगस्सय खंडपाणगस्तय अन्नेसिंच पोरपाणगस्सय बहुणंपाणगाणं विययरे भरत रत्ता तसिं परिपेरंतेणं पासए ठवेति २त्ता जाव चिटुंति ॥ जहिं २चणं ते आसा आसयंति जाव तुयर्सेति तहिं २ वहवे कोयवया नाव सिलावटया अण्णाणिय फासिंदियाई अत्थय पवुत्थयाई ठवेति २ ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिटुंति ॥ १६ ॥ ततेणं ते आसा जेणेवा उक्किट्ठ सह फरिस रस रूव गंधा तणेव उवागच्छइ २त्ता तत्थगं अत्येगइया आसा अपुवाणं इमे सह फरिस रस रूब बहुत सुगंधि वस्तुओं का समुदाय रख कर यावत् निश्चल खडे रहे. जहाँ २ वे घोडे बैठते उठते थे वहां २ मकर गुड यावत् अन्य बहुत जिव्डेन्द्रिय के योग्य द्रन्यों के समुह किये, वहां खड़े बनाकर उम में गुड सक्कर का पानी व अन्य पीठे पानी भरे और उन की आसपास के लोगों शांत मौन खडे रहे. और भी जहां वे घोडे बैठते उठते वहां रुइ से भरे गले यावत् शिलापट्ट वस्त्र और अन्य सुखदाइ वस्त्रों के विछोने में वछ पे. और वे लोगों उन की आसपास पौन खडे रहे ॥ १६ ॥ अब वे अश्यों जहां उत्कृष्ट शब्द, 1.स्पर्श, रूप, रस, गंगवाले पदार्थों थे वहॉ अये, उन में से कितोक अश्वों शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध | + षष्टाङ्गज्ञाताधर्मकथाका प्रथम श्रतरकंध + आकीर्ण जाति के घड का सतरह अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुवादक-बाल ब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋपिजी गंधा सिकटु,तेसुउक्किडेसु सह फरिस रस रूब गंधेसु अमुच्छिया४तेसि उक्किट्ठाणं सह .. जाच गंधाणं दुरंदरेणं अबकमंति, तेणं तत्थ पउर गोयरा पउर तण पाणिया णिब्भया णिरुविग्मा सुहंसुहेणं विहरंति ॥ १७ ॥ एबामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथोवा णिग्गंथीवा सद्द जाव फरिसा जोसज्जति ४ सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावगाणं बहुणं सावियाणं अच्चणिजे जाव वीतीवतिरसति ॥ १८ ॥ तत्थणं अत्थेगतिया आसा जेणेव ते उक्किट्ठा सदाफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छति २ ता तेसु उकिट्ठसु सद्द . फरेसरसरूवगंधसु समुच्छिया जाव अझोववण्णा आसेविओ यह अपूर्व , पहिले यहां नहीं थे अब कहां से आये गो भयका जानकर उस में मूच्छित हुवे विना ही उन को दूर से ही छोडकर जहां प्रचूर घाम चारा वगैरह था वहां भाकर भय व उद्वेग रहित मुख पूर्वक विचरने लगे ॥ १७ ॥ अहो आयुष्मन् श्रपणों ! वैसे ही जो कोई साधु माध्वी शब्द, स्पर्श, रम व रूपमें र मूर्छित होंगे नहीं वे इस लोक में बहुन माधु, मावी, श्रावक व श्राविका में अर्चनीय व पूज्यनीय होंगे. यावत् मंसार उत्तीर्ण करेंगे ॥१८॥ कितनेक अश्वों जहां उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गंध थ 'वयं गये. उन में मछित यावत् तन्मय बनकर उन का आस्वादन करने लगे. इस तरह उत्कृष्ट शब्द,। मायक-राजाबहादुर काला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांडवाताधर्षकथाका प्रथम श्रुतस्कन्ध 419 पयत्नेयादि होत्था ॥ ततेणं ते आसा ते उक्ट्रेिस सद्द फरिसरसरूवं गंधेसु . . आसेवमाणा तेहिं बहुहिं कूडेहिय पासेहिय गलएसुप पाएसुय बझंति ॥ १९ ॥ ततेणं ते कोडुंबिय पुरिसा ते आसा गिण्हति २ ता एगट्ठियाहिं पोयवाहणे संचारेति २ त्ता तणस्सय कटुस्सय जाब भरेति ॥ २० ॥ ततेणं ते संजताणावा वाणियगा दक्विणाणु कूलेण वाएणं जेणव गंभीर पोयपटणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता पोयवाहणं लबतिरत्ता आसे उत्तारोत, ते आसाउत्तारेत्ता, जेणेव हात्थि सीसे णयर जेणेव कणगकेउराया तेणेव उवागच्छइ २ करयल जाव वडावेति २त्ता ते आसा उवणेइ ॥ २१॥ ततेणं से कणग केऊराया तेसिं संजत्ता वाणियगाणं स्पर्श, रूप व रस का आस्वादन करनेवाले अश्वों को कूह पाश में गले व पांच से बांध दिये ॥ १९ ॥ कौटुबिक पुरुषोंने अश्वों लिये और छोटी नावा से बडी जहाज में लगये. उस में तृण काष्ट यावत् सब भर दिया ॥ २० ॥ तत्पश्चात् वे सांयात्रिक वणिकों दक्षिणानुकूल वायु से गंभीर पोत पट्टण की पास गये. वहां जहाज का लंगर किया. उस में से घोडे उतारे और जहां हस्तिशीर्ष नगर व कनकके राजा था वहां जाकर उन को हाथ जोडकर यावत् जय विजय शब्द से बधाकर उन घोडे को देदिया। २१॥कनककेतु रामाने उन सांयात्रिकों का कर माफ कर दिया. और उन को सरकार सन्मान देकर 4. आकोण जाति के घोडे का सतरहवा अध्ययन * For Personal & Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 44 अनुवाक चालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिो उम्मुकं वियरति सकारेति सम्माणेति पडिविसज्जेति ॥ २२ ॥ ततेणं से कणग के ऊराया कोटुंबिय पुरिसे सदावेति २ ता सकारेति सम्माणेति पडिविसज्जेति ॥ २३ ॥ ततेणं से कणगकेऊराया आसमह पुरिसे सद्दाति २त्ता एवं वयासी तुब्भेणं देवाणुपिया ! मम आसा विणएह ! ततेण ते आसमद्दगा पुरिसा तहत्ति पडिमुणेति २त्ता ते आसेबहहिं मुहबंधेहिय कण्णबंधेहिय णासाबंधहिय, बालबंधहिय, खरबंधेहिय, कडगबंधेय, खलिणबधेय, पडियाणेहिय, अंकणाहिय, बलप्पहारेहिय, चित्तप्पहारेहिय, लया पहारेहिय, कसप्पहारेहिय छिवपहारेहिय, विजयंति ते आसे कणगकेविसर्जित किये ॥ २२ ॥ कनककेतु राजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बोलाये और उन का सत्कार सन्मान करके उन को विसर्जित किये ॥ २३ ॥ तत्पश्चात् कनककेतु राजाने अश्वमर्दक ( अश्व को पढनेवाले ) को बोला ये और कहा कि मेरे अश्वों को सब प्रकार की चाल चलाना सीखलावो. अश्वपालोंने तहत करके उन का वचन मान्य किया. उन अश्वों को बहुत प्रकार से दोरी आदि से मुख बंबा, कर्ण बंधे, नासिका बंध दी, गर्दन व पुंछ के बाल बांधे, बंधे के खर बंध, कमर बंधी, चौकडा बन्धा, पट्टे आदि ( भीडे, अंकित (खमी ) किये, सबल महार से मारे, चाबूक के प्रहार से, तों के प्रहार से, दोरियों के For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक राजा बहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालामादजी ७०४ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 षष्टांग नाताधर्म कथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध +8+ ऊस्सरणो जाव उवणेइ ॥ तएणं कणगकेऊराया ते आसमद्दए पुरिसे सक्कारेइ सम्माणइ २ सा पडिविसजेइ ॥ २४ ॥ तएणं ते आसा बहुहिं मुहबंधे. हिय जाव छिवप्पहारेहिय बहुणि सारीरमाणसाणि दुक्खाणि पावति ॥ एवामेव . समणाउसो ! जो अम्ह णिग्गंथावा णिग्गंधीवा पवइएसमाणे इ8मुसद्द फरिस रतरूवगंधेसुय सजति रजति मिज्झति मुज्झति अझोववजति, सेणं इहलोए थेव बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाणं बहुणं सावियाणं हीलणिजे आव अणुपरियटिस्सति ॥ २५ ॥ गाथा ॥ कलरिभिय मुहुर तंति तलनाल बंस ककुदाभिप्रहार मे, व छालों के प्रहार से मार मार कर विनयादि गुणों शिखलाये. फोर कनककेतु राजा की पास उन अश्वों को लाये. कनक तु राजा उन अश्वपालों का सत्कार सन्मान करके उन को विसर्जित किये ॥ २४ ॥ बहुत मुख बंधन यावत् छाल के प्रहार से उन अश्वों के शारीरिक व मानसिक बहुत दुःख हुना. अहो आयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारे साधु साध्वी दीक्षित बनकर इष्ट शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध में मन होंगे, रंजित होंगे. गृद्ध, मोहित व तन्मय होंगे वे इस लोक में बहुत साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका से हीलनीय, निंदनीय होंगे यावत् अनंत संसार में परिभ्रमण करेंगे ॥ २५ ॥ अव आगे पांचों : कीर्ण जाति के घोडे का सतरहवां अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रसू अर्थ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी रामे सरजमाणा, रमंति सोइंदिय वसट्टा ॥ १ ॥ सोइंदिय दुदंत, तजस्स. अतत्ति उववतिदोसा ॥ दीवि गरुय मसहतो, बहुबंध तित्तिरो पत्ते ॥ २ ॥ थण जहण वयण, करचरणणयणगन्त्रिय विलासियगइ सुरूवंसु रजमाणार मंति चक्खिदिय वसट्ट॥॥३॥चखिदिय दुद्दत त्तणस्स अहएतिओ भवति दोसा ॥ जं जल मि जलते, पडति य पयंगो अबुद्धाओं ॥ ४ ॥ अगरु वरपबर धूत्रणओ उउयमवाणु { इन्द्रियों के विषय संबंधी बोध करते हैं. श्रवण व हृदय को हरन करनेवाले अव्यक्त ध्यानेरूप रिभित मधुर तंत्री, हस्तताल, कांस्य के ताल और वंश की मोरली के प्रधान मनोहर शब्दों में रागवंत बने हुवें जीवों श्रीन्द्रिय के वश से पीडित बनकर आनंद करते हैं ॥ १ ॥ श्रोत्रेन्द्रिय को नहीं जीतनेवाला तीतर { पक्षी पक्षी पकडने वाले पुरुष के पीजरे में रहा हुवा अन्य तीतर का शब्द सुनकर अपने स्थान से बाहिर आकर शब्द करता है इस से वह वध अथवा बंधन को प्राप्त होता हैं ! १२ ॥ स्वन, जघन (कटि ) (बदन, हाथा, पाँत्र व नयय इन अंगों पांगमें गति बनी हुइ स्त्रियों की विकार वाली गति व रूप में रागवंत बने हुवे जीवों चक्षु इन्द्रिय के वश से आनंद मानते हैं ॥ ३ ॥ चक्षु इन्द्रिय का वाले को यह दुःख होता है-जैसे अबुद्धि से पतंग चक्षु इन्द्रिय के बश से गीरता है ॥ ४ ॥ कृष्णगुरु, श्रेष्ठधूप, ऋतु संबंधी माल्यजाति के पुष्पों व बावना चंदन दमन नहीं करनेअग्नि में आकर केशर प्रमुख / ० * प्रकाशक - राजा बहादुरकाला सुखदेवसझयजी ज्वालाप्रसादजी • For Personal & Private Use Only ७०३ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ प्रथम श्रुतस्कंध 18+ 4+ षष्टांङ्ग इताधर्मकथा हि ॥ गंधेषु रजमाणा रमंति घाणिंदिय वसा ॥ ५ ॥ घानिंदिय दुदंत चरस, अहणत्तिओ हवइ दोसो ॥ जं ओसहि गंधेणांचे, विलाओ निद्धावई उरगो ॥ ६ ॥ तित्तकडुय कसायं, महुरं बहुखज पेज्जलेजेसु ॥ आसायमिओ गिद्धा, रमति जिम्भिदिय वसदृ ॥ ७ ॥ जिम्मिंदिया दुदंतत्तणस्स अहएतिओ हवंति दोसा जंगल लग्ग फुरइ, थलविरिलिओ मच्छे ॥ ८ ॥ उउभयमाणे सुहेसुय, सविभवहियमणणिब्बुइ करसु ॥ फासेसु रजमाणा, रमंति फासिंदिय वसहा {की अनुलेपन विधिवाली गंध में रागवंत बने हुबे जीवों घ्राणेन्द्रिय के वश से आनंद करते हैं ॥ ५ ॥ घ्राणेन्द्रिय को नहीं जीतनेवाला जीव को यह दोष होता है. जैसे गंध के वंश से सर्प अपने बिल में से | बाहिर नीकलकर गारुडी के हाथ में जाता है ॥ ६ ॥ तिक्त, कटु, कषाय, व मधुर रसवाले बहुत खाने ब पीने योग्य व अंगुली से चाटने योग्य वस्तुओं का आस्वादन करने में गृद्ध जीवों जिव्हेन्द्रिय के वश मे { आनंद करते हैं || ७ || जिव्हेन्द्रिय का दमन नहीं करनेवाल को जो दोष होता है सो कहते हैं. जैसे [ मत्स्य लोह कांटे पर मांग की पेशी खाने की लालच से आता है परंतु वह उस में ही फम जाता जिस से उसे पानी बाहिर निकाल लेते हैं और वह वहां ही मर जाता है ॥ ८ ॥ छड़ी ऋतु में भोगने योग्य, सुखकारी, विभव सहित समृद्धिवंत, हितकारी व मन की निवृत्ति करने वाले स्पर्श में रागवंत बने हुवे जीवों स्पर्शेन्द्रिय क सुख से है For Personal & Private Use Only 44 आकीर्ण जाति के घोडे का सतरहवा अध्ययन ७.७ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.८ बादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - 43 ॥ ९ ॥ फासिदिय दुईत तणस्स, अहएत्तिओ हवीत दोसो ॥ जं खणइत्थयं कुजरस्स, लोहंकुसोतिक्खो ॥ १० ॥ कलरिभिय महुरं तंति तलताल बंस कउहा अभिराभेसु ॥ सद्देस न जे गिहा, वसट्टा मरणंते मरए ॥ ११ ॥ थणजहण वयण कर चरण नयण गविय विलासिय गतीसु रूवेसु जे न रत्ता, वसदृ मरणं न ते मरए ॥ १२ ॥ अगरुवर पवर धूवण उउय 4 मलाणु लेवण विहीसु ॥ गंधेसु जे न गिडा, वसह मरणं न ते मरए ॥१३॥ तित् आनंद मानते हैं ॥९॥ स्पर्शेन्द्रिय को दमन नहीं करने वाले जीव को जो दोष होता है सो कहते हैं। जैसे स्वेच्छा पूर्वक चलने वाला हाथी,को अंकुश के प्रहाररूप दुःख होता है. ॥ १० ॥ अब पांचों इन्द्रियोंका संबग्न करने से जो सुःख होता है सो कहते हैं. कान व हृदय को हरन करने वाला अव्यक्त धनि रूप रिमित मधुर तंत्री. तल, ताल, व मोरली के प्रधान मनोहर शब्द में जो गृद्ध नहीं होता है वह दुःख से पीडित बनकर नहीं परता है जैसे तीतर का मृत्यु होता है. ॥ ११ ॥ स्तन, कटी, मुस्क, हाथ, व नयन में गर्वित बनी हुई विकार वाली के रूपमें जो रक्त नहीं होता है वह भी पंतग की तरह दुःख से पंडित बनकर बसट्ट मरण नहीं मरता है. ॥ १.२ ।। कृष्णागुरु, श्रेष्ठ धूप, ऋतु के माल्य जानि के । पुष्पों व केरस चंदनदिक का विलपन की गंध में जो गृद्ध नहीं होता है वह सर्प जैसे वसह मरण नहीं है। प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेचसहायजी ज्वालासादजी. SanmanNAAnnow Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN म ७०९ पाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 498 .. कडुयं कसाय. महुरं बहु खज़ पेजे लेजेमु ॥ आसायमि जे नगिद्धा, वसह मरणं न तेमरए ॥ १४ ॥ उउभयमाण सुहे सुय, सविभवहिययमाणाणिव्वुइ कोसु ।। १. फ्रानेसु जे नगिहा, वसटू मरण नते मरए ॥ १५ ॥ सद्देसुय भद्दय पावएसु, सोय विसय मुबागएसु, तु?णव रुद्वेशाव, समणेण सयांण होय ॥ १६ ॥ रूबेसुय भयपावएसु, चकविलय मुवगएसु ॥ रुद्रेणव तुट्टेणव, समणेण सवा ण हीयन्वं १:७.॥ गंधेसुय भयपावएसु, विसय मुवगएसुय, रुद्रुणब तुटेणव, संमणेणंसया पा होयन्त्रं ॥१८॥रसेसुय भयपावएम,जिग्गि-विलय मुत्रगएसय, रुद्रेणव तुट्टेणव, समणेणं . परपो हैं ... ॥ तिक्त, कटुक, कपाय, मधुर रस वाले बहुत खाने पीने व चाटेन की वस्तु के आस्वादन, में जो गृद नहीं होता है वह पत्स्य की तरह वसट्ट मरण नहीं पाता है ... १४ ॥ ऋतु में भोगने योग्य मुखकारी, समृद्धिवंत, हितकारी वमन की निवृत्ति करनेवाले स्पर्श में जो गृद्ध नहीं होते हैं वे गज की तरह से वसट्ट मरण नहीं मरते हैं ॥ १५ ॥ अब साधुओं को. बोध करते हैं-अच्छ अथवा बुरे शब्दों श्रोत्रंन्द्रिय को प्राप्त होवे तो साधु को उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १६ ॥ अच्छा अथवा बुरा रूप चक्षु इन्द्रिय को प्राप्त होवे तो उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १७ ॥ अच्छी अथवा बुरी गंध घाणेन्द्रिा को वाप्त होने पर साधु को आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १८ ॥ अच्छे अथवा पुरे रस. रसनेन्द्रिय wammam करवर्ण जानि के घड़े का सत्तरहवा. अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - सया ण होयव्वं ॥ १९ ॥ फासे भद्दयपावएसु, काय विसयमुवगए मुथ ॥ रुद्रेणव, .. तट्रेणव, समणेणसय, होयध्वं ॥ २०॥ एवं खल समणेण भगवया महावीरेणं आव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते ॥ तिमि १७ ॥ सारास गाथा ॥ जह सोकालिय दीवो, अणुवम सुक्खो तहेव जइ धम्मो ॥ जह आसा तह साहु, वणियब्ध अणुकूलकारिजणो ॥ १ ॥ जह सहाइ अगिडापत्ता, जो पासबंधणं आसा; तहविसएस अगिद्दा, वज्झतिण कम्मणो साहु ॥ २ ॥ जह सच्छंदविहारोआसाणं तह इहवरमुणाणं जरमरणाइं विवजिय साइत्ताणं? को प्राप्त होने पर साधु को उस में आनंद या रंज करना नहीं ॥ १९ ॥ अच्छे अथवा बुरे स्पर्श स्पोंFन्द्रिय को प्राप्त होने पर साधु को उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ २०॥ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के सतरहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा ॥ १७ ॥ उपसंहार-जैसे कालिक द्वीप अश्वों को मुख का करनेवाला है वैसे ही साधुओं को धर्म सुखकारी है. जैसे वहां अश्वों है वैसे ही यति धर्म में साधुओं हैं, न्यापारी जैसे अनुकूलता से वर्तनेवाले लोगों जानना ॥१॥ जैसे अश्वों शब्दादि। विषय में गृद्ध नहीं होने से पाशादि से बद्ध नहीं होते हैं वैसे ही विषय में अग्रद माधु कर्म रूप पाश मे नहीं बंधाते है ॥ २ ॥ जैसे अश्वों का संग्छंद विहार है अर्थात् व्यापारियों को देखकर जैसे अश्व भा । •काशक-रानाबहादुर काला मुखदेव सहायनी ज्वालाप्रसादजी. अनुवादक-बालब्रह्म For Personal & Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिवाणं ॥ ३ ॥ जह सदाइपुगिहा, बहा मासा तहेव विसयरया ॥ पावंति कम्म बंधं परमासुह कारणं घोरं ॥ ४ ॥ जहते कालिय दीवा जीया, अणत्थ दुहगणंपत्ता; तह धम्म परिभट्ठा, अहं मपत्ता इहं जीवा ॥ ५ ॥ पावंति कम्मणरवइय, क्सया संसार वाहलीयालीए ॥ आसप्प महएहिव, जेरइयाईहि बेदुक्खाई ॥६॥ सत्तरसम णायज्झयणं सम्मतं ॥ १७॥ [:]... . . [] - षष्टांग जाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 12th गये वैसे ही यहांपर विषय विरक्त साधु को जन्म जरा परण गहित शाश्वत आनंदरूप निर्वाण है॥३॥ जैसे शब्दों में गृद्ध बने हुए अश्वों पाश से बंधाये गये वैसे ही पाप में रत जीवों परम दुःख का कारण घोर पाप कर्म प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥ जैसे कालिक द्वीप से लाये हुवे अों अनर्थ दुःख को प्राप्त हुए वैसे ही धर्म से भ्रष्ट हुए जीवों अधर्म को मात कर आठकर्म रूप नरपति के वश हो होते हैं जैसे अश्वपाल से कश महारादिक मार सहन करते हैं वैसे ही नारकी के दुःखों सहन करते हैं. यह ज्ञाता सूत्र का सरहवा अध्ययन संपूर्ण हुना ॥ १७ ॥ बाकीण जाति के घडे का सतरहवा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र अर्थ 48 अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषि || अष्टादश अध्ययनम् ॥ जतिणं भंते ! समणेणं. भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं सत्तरमस्त नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्ठारसरसणं भंते ! णायज्झयणस्स समणेणं. भगवया महावीरणं जाव संपत्तेर्ण के अट्ठे पन्नन्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जंबू ! तेणं कालणं तेण समएणं रायगिणाम नगर होत्था वण्णओ ॥ २ ॥ तत्थणं घण्णेनामं संस्थवाहे परिवसइ. मद्दा भारिया ॥ ३ ॥ तस्मणं धष्णस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भद्दाए अत्तया पंच सत्थवाह दारंगा होत्था तंजहा-धणे, धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरखिए ॥ ४ ॥ सस्स्रणं धण सत्यवाहस्सधूया भद्दाए अत्तया पंचन्हं पुत्ताणं अणुमग्गं जातिया सुमसुमा में अहो भगवन् ! जब श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी ने ज्ञाता सूत्र के सत्तरहवा अध्ययन का उक्त अर्थ कहा तब अठारहवा अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥ १ ॥ अहो जम्बू ! उस काल उस समय | राजगृह नगर था वह वर्णन योग्य था ॥ २ ॥ उस में चन्ना मार्यवाह रहता था. वह ऋद्धि वंत यावत् अपराभूत था. उस को भद्रा भार्या थी ॥ ३ ॥ उस धनासार्थ वाह के पुत्र भद्रा भार्या के आत्मज (पांच सार्थवाह के पुत्र थे जिन के नाम १, धन २, धनपाल ३, धनदेव ४, घनगोप, व ५ घनरक्षित ॥ ४ ॥ धन्नास वाह की पुत्री भद्रा भार्या को आत्मना व पांचों पुत्रों से पीछे जन्मी हुई सुषुमा For Personal & Private Use Only * प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसायनीज्वालाममादजी*. ७१२ ( Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. :- षष्टांग ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध 12th णाम दारिया होस्था, सुकुमाल पाणिपाया ॥ ५॥ तस्सणं धणस सत्थवाहस्स चिलाए नाम दासचेडे होत्था; अहीण पचेदिय सरीरे, मंसोवचिए बाल कीलावण कमलेयावि होत्था ॥६॥ तएणं से चिलाए दास चेड समाए दारियाए बालग्गाह जाएयाधि होत्था, मुमुमं दारियं कडीए गिहइ बहुहिं दारएहिय दरियाहिय डिभएहिय,डिभियाहिय कुमारोहिय,कुमारीयाहिय साद अमिरममाणे २ विहरति॥७॥ततेणे से चिलाए दासचडे तेसिं बहुणं दारयाणय६ अप्पेगतियाणं खुल्लए अवहरति,एवं वट्टए अंडोलियातो, तिंदूसए पोतुल्लए,साडोल्लए,अप्पेगतियाणं आभरण मल्लालंकारं अवहरति, अप्पेगतिया आउसंति, एवं अवहसति, निन्छोडेति, निभच्छेइ, तजेति, तालेति ॥ नामक कन्या थी. वह सुकोमल हाथ पांव वाली थी. ॥ ५ ॥ उस धन्नासार्थवाह को चिलात नामक दास चेटक या. पांचों इन्द्रियों में परिपूर्ण, मांस से उपचित व छोटे बालकों को क्रीडा कराने में कुशल था.॥६॥ यह चिलात दास चेटक सुसमा पुत्री का पाल मित्र हुवा और उसे अपनी कम्मरपर बैठाकर बहुत बाल कों,बालिकाओं,छोटे बच्चे, बच्चियों, कुमार व कुमारिकाओंकी साथ कीडा करता हुवा विचरता था.॥७॥ वह चिनाब दास चटक उनः बालक बालिकाओं में से कितनेक के कोडा कोडी की चौसें करने लमा,कितनेक के लख के पासे, गेंद, बड़े मेंद, वस्न की पुरालियों, पहिनने की साडियों, और कितनेक के माला अळकर। सुषुमा दारिका का अठारहवा अध्ययन 425 For Personal & Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ततेणं तें बहवे दारगाय ६, रोयमाणाय साणं २ अम्मापियरं णिवेदेति ॥ ततेणं तेसिं बहुणं दारगाणय६ अम्माषियरो जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ२ चा धण्णस्म सत्थवाहस्म एयमटुं णिवर्देति ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे चिलायंदास चडयं एयमटुं भुज्जो २ णिवारेति, णो चवणं चिलाए दासचेडे उवरमति ॥ ततेणं से चिलाए दास चेडे तेसिं बहुणं दारगाणय ६, अप्पेगतियाणं खल्लए अवहरति जाव तालेति ॥ ततेणं ते बहवे दारगाय ६, रोयमाणो ५, जाव अम्मापिऊणं णिवेदेति ॥ ततण ते आपुरत्ता५, जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ रत्ता.बहुहिं खिजमाणेहिं जाव एयमढे निवेदेति ॥ ततेणं ते धण्णेसाथवाहे बहुणं दारगाणं ६, अम्मापिऊणं गैरह चोरने लगा,कितनको निर्भत्सना,तनाव ताडनादि करने लगा. तब वे बालको रुदन करते हुवे अपनेर पात पिता की पास आये और उन को यह सब कह दिया. उन के मातपिता धना मार्थवाहकी पास आयेॐ और उन को अपने बालकों की सब बात कही. धना मार्यवाहने चिलात दास को ऐमा नहीं करने के लिये वारंवार कहा परंतु ऐने कृत्यों से वहरुका नहीं. तत्पश्चात् भी वह चिलात दास कितनेक बालकों के कोडाकोडी में लेने लगा यावत् ताडना करने लगा तब वे अपने मात पिता की पास रूदन करते हुवे उसे 17बात कहने लगे. तब वे आसुरक्त बनकर धन्ना सार्थवाह की पाप्त आये और उन से बहुत खीजते हुये है। अनुवादक-मालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोल ऋषिजी , पकाधक-राजावहादुर काला मुरुदवसायजी ज्वालाप्रसादजी अथे For Personal & Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +8 अंतिए एयमटुं सोचा आसुरुत्ते चिलायं दास चेडं उच्चावयाति आउसणाहिं आउसेति उसेति णिब्भंछति, निच्छोडेति, तज्जेति, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेति, सातो गिहाओ णिच्छुभति ॥ ८॥ ततेणं से चिलाए दास चेडे सातो गिहातो निच्छूढे समाणा रायगिहे णयंर सिंघाडए जाव पहेसु देवकुलेसुय सभामुप पवासुय जुयखलएसुय, वेसाघरेभुय, पाणघरएसुय, सुहसुहेणं परिवति ॥ ९॥ ततेणं चिलाए दासचेडे अणोहट्ठिए अणिवारिए सच्छंदमई सहरप्पयारी मजप्पसंगी, यावत् उक्त कथन निवेदन किया. धमा सार्थवाह उन बालकों के मातपिता की पास से ऐपा सुनकर भासुरक्त हुचा और चिलात दास चेटक को चोलाकर ऊंच मीच आक्रोशकारी पचनों से आक्रोश किया, उस की तर्जना ताडना की और अपने गृह से वाहिर निकाल दिया ॥८॥ अब वह चिलात दास अपने गृह से निकलकर राजगृह नगर के शृंगाटक यावत् राजमार्ग में, देव मंदिरों में, सभा में, पानी पीने की प्रपा में, ध्रुतखेलने के स्थान में, वैश्या के घरों में व मदिरा पान करने के घरों में सुख पूर्व रहता हुवा वृद्धि पाने लगा ॥१॥ अथ चिलात दास चेटक को उन्मार्ग में जाते किसि का निरोध रहा नहीं 100 17 इस से वह स्वच्छन्दाचारी बनकर मद्ये पीनेवाला, मांस खोनवाला चौरी करनेवाला, द्यूत खेलनेवाला, वेश्या की। षष्टांग ज्ञानाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्धं 4 सुषुमा दारिका का अठारहवा अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + मंसप्पसंगी चोरप्पसंगी, जूयप्पसंगी, वेसप्पसंगी, परदारप्पसंगी जाएयावि होत्था ॥१०॥ ततेणं रायगिहस्स णयरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरच्छिमे दिसिभागे सिंहगुहानाम चोरपल्ली होत्था, विसमगिरि कडगकोडंब संनिविट्ठा वसीकलंग पागार परिक्खित्ता छिण्णसेलग विसमप्पवाय फलिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदित्त जण णिग्गमप्पवेता अभितर पाणिया सुदुल्लभजल पेरंता सुबहुस्स विकुक्यि बलस्स आगयेस्स दुप्पयससावि होत्था ॥ ११ ॥ तत्थणं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजएणामं प्रकाशक-सजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजीज्वालाप्रसादजी साथ गमन करनेवाला व परदारा की साथ गमन करनेवाला हुवा. ॥ १० ॥ उस राजगृह नगर की पास अनि कौनसिंहगुफा नामक चोरपल्ली थी: वह पल्ली विषम पहाड के कडखे में स्थापित की हुई थी. बांश रूपी प्राकार से रक्षा कराई हुई थी. छेदाया हुवा पर्वत मे बनी हुई खाइ रूप परिखा उस की आमपास थी. उम पल्ली को जाने आने का एक ही मार्ग था, लोगों को भग जाने के लिये छोटी अनेक बारियों थी. उस में प्रतीतकारी लोगों जानेका आनेका ही कर सकते थे. उस सिंहगुफा में पानी रहा हुवा था. उस की आसपास लोगों को पानी मिलना दुर्लभ होता था. वहां लोगों की पीछे क्रोधवंत बनकर आता कटा को यह ग्राम बोडना बहुत कठिन था ॥ ११॥ उस सिंहगुफा चोर पल्ली में विजयसेन नामक For Personal & Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टांगताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 42 चोर सेणावती परिवसति, अहंम्मिए जाव अधम्म केऊ समुट्ठिए बहुणगरणिग्गय जसे सूरे दढप्पहारी, साइस्सिए सद्दवेही, सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं, आहेवच्चं जाव विहरति ॥१२॥ ततेणं से विजए तक्कर चोर सेणाक्ती, बहुणं चोराणय. पारदारयाणय गंठिछेयाणय, संधिछेयगाणय, खत्तखणगाणय, राया-" बराहाणय,अणधारगाणय,बालघायगाणय बीसंभघायगाणय,जयकाराणय खंडरक्खाणय अनसिंच बहुणं छिन्नभिन्न बाहिराहयाणं कुडंगेयावि होत्था ॥१३॥ तएणं से विजए चोरों का अधिपति रहता था. वह अधर्म में रक्त यावत् अधर्म की वजा धारण करनेवाला था. बहुत नगर व निगमों में चोरी के कार्य में मुविख्यात था, वह शूरवीर, दृढ प्रहारी, साहसिक, व शब्दबधी या. चह वहां चोरपल्ली में पांचसो चोरों का अधिपतिपना करता हुंचा विचरता था ॥ १२॥ वह विजय नामक चोर की सेनापति बहुत चोरों को, परदारा गमन करनेवाले को, ग्रन्थी भेद करनेवाले को, सांधे छेदन करनेवाले को, खास देनेवाले को, राजा के अपराध करनेवाले को, ऋण धारण करनेवाले को, चालकों की बात करनेवाले को, विश्वासघाती को, धतखेलने वाले को, दंडपाशवाल को व दण्डादि हाथ, पांव नाक इत्यादि के छेदन करनेवाले अन्य बहुत अन्यायी लोगों को बांशनाली समान आधार हाभूत था-॥१३॥ वह विजय चोर सेनापति राजगृह नगर की अग्निकूत के देशों में बहुत ग्राम को धान 48+ सुषुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 498 For Personal & Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र । अनुवादक-पालब्रह्मचारी पुनि श्री अमोलक ऋषिजी + चोरसेणावती रायगिहस्स दाहिण पुरथिमेणं जणवयं बहुहिं गामघाएहिय, नगरपाएहिय गोग्गहणाहय, बदिग्गहणेहिय, पंथकुटणेहिय खत्तखणणेहिय उवीलेमाण, विहंसेमाण णित्थाणं गिद्धणकरेमाणेविहरति।।१४॥त तेणं से चिलाए दास चेडगे रायगिहे पयरे बहुहिं अत्थाभिसंकीहिय, चोराभिसंकीहिय, दाराभिसंकीहिय, धणिएहिय जूइकरहिय, परब्भवमाणे २ रायगिहातो नमराओ णिग्गच्छति २त्ता जेणेव सिंहगुहाए चोरपल्लीए तेणेव उवागच्छति, २त्ता विजयं चोर सेणावर्ति उपसंपजित्ताणं विहरति ॥१५॥ततेणं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोर सेणावइस्स अग्ग असिलटिग्गाहे जाएयावि करता हुवा, नगर की घान करता हुवा, गवादि पशू का हरन करता हुवा, मनुष्यों को बंधन में बांधता हुवा, पथिक जनों को लूटता हुवा, खात दे चोरी करता हुवा, दुःख उत्पन्न करता हुवा, विध्वंस का हुवाव निर्धन करता हुवा विचरता था ॥ १४ ॥ अब वह चिलात दास चेठक को धन चोरनेवाला चोरों में मिला हुग जान, पर स्त्री का गमन करनेवाला, दरिद्री व द्यूतखेलनेवाला जानकर बहुत को पराभव पाया हुवा राजगृह नगर में से निकालकर सिंहगुफा नामक चोर पल्ली में गया. और वहां विजय चोर को सेनापति मानकर रहने लगा ॥ १५ ॥ वह चिलात दासचे प्रकाशक सजावहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी m mmmmmmmmmmm For Personal & Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टांग ज्ञाताधकथा का प्रथम श्रृवस्कन्धAN होत्था ॥१६॥ जाहे वियणं से विजए चोर सेणावती गामघायंवा, जाव पंथ कोटिंवा काउवे यति,ताहे वियणं से चिलाए दासचेडे मुबहुं पियकुवियबलं हयमंहिय आव पडिसेहेइ, पुणरवि लट्टे कयकज्जे अणह समग्गे सीहगुहं चौरपालि हबमामछातै ॥ १७ ॥ ततेणं से विजएचोर सेणावती चिलायं तकर बहुओ चोर विजाउय चोरमंतेय, चोरमायाओय,चोर निगडीओय, सिक्खावेइ ॥ १८ ॥ ततेणं से विजय चोरसंणावई अन्नया कयाई काल धम्मुणा संजुत्तेयावि होत्था ॥ १९ ॥ ततेणं से ताई पंच चोर सयाति विजयस्स चोरसेणावइस्स महया महया इड्डी सक्कार विजय चौरका अग्रभागी अधिकारी हुवा. ॥ १६ ॥ जब विजय चोर सेनापति ग्राम की घात करे यावन् | पथिक को लूटे तब वह चिलात दास चेटक विजय चौरैकी पीछ रहकर उन की साहाय के लिये आये हुये लोगोंको मारकर दशों दिशी में भगाता हुवा उन से धनादिलिंटकर अपने कार्य की सिद्धि करता हुवा उपद्रव रहित सिंहगुफा नामक चोर पल्ली में आजाता था. ॥१७॥ तब विजय चोर सेनापतिने चिल तर चारको बहुत चोरकी विद्या. चोरी के मंत्र, चोरकी माया. चोरी गोरे की कला सिखलाइ. ॥१८॥ एकदा विजय चोर सेनापति काल पर्ष को प्राप्त दुवा. ॥ १९ ॥ तत्पश्चात वे पांचसो चोरोने विजय चोर सेनाति सुषुपादारिकाका अठारहवा अध्ययन 42 1 For Personal & Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी समुदएणं णीहरणं करेति, गीहरणं करेत्ता बहुतिं लोइयातिं मयकिच्चाई करेइ २ त्ता जाव विगय सोया जायायावि होत्था॥ १९ ॥ ततेणं ताई पंच चोर सयाति अन्नमन्न सदाति, २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्हं देवाणुपिया ! विजएचोर सेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते अयंचणं चिलाए तक्करे बिजएणं चोरसे णावइणा बहुओ चोरविज्जाओय जाव सिक्खाविए, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! चिलायं तकर सीहगुहाए चोरपलीए चोरसेणावइत्ताए अभिर्सिचित्तए त्तिकटु, अन्नमन्नस्स एयमटुं पडिसुणेत्ता, चिलायं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचति ॥ ततेणं से चिलाए चोरसेणावती जाए अहंम्मिए जाब विहरति ॥ ततेणं से चिलाए चोर सेणावती को महामूल्यवान ऋद्ध सत्कार समुदाय से नीहारन किया और लोकिक मृत्यु कर्म भी किया यावन् बहुत दिनों में शोक रहित हुए. ॥ १२ ॥ तत्पश्चात पांचसो चोरों एकत्रित मीलकर परस्पर ऐसा कहने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! विनय चोर सेनापति काल धर्म को प्राप्त इबा है. उनने इम चिलात चोर को व चोर की विद्या, मंत्र, माया वगैरह सिखलाया है इस मे अहो देवानुप्रिय ! अपने को चिलात चोर को सिंहगफा नामक चार पल्ली में सेनापति बनाना श्रेय है. सबने यह बात मान्य की और चिलात चोर को सेनापति बनाया. तब वह चिलात सेनापति हुवा. वह भी विजय चोर जैसा अधर्मी यावत् विचरता था.. सायक-राजाचहादुर डाका मुखदेवसहायनी वाला प्रसाद नी० For Personal & Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टज्ञाताधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 44 परिणायगे जाव कुंडगेयावि होत्था, सेणं तत्थ सोहगुहाए चौरपीए पंचण्हं चोरसयाणय एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स णयरस्स साहिण पुरथिमिल्नं जणवयं जाव णिस्थाणं गिद्धणं करेमाणे विहरति ॥ २० ॥ सतेणं से चिलाए चोरसेणावती अन्नयाकयाइ. विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ २त्ता ते पंचचोरसए आमंतेइ, तओ पछा. हाए कपबलिकम्मे भायणमंडवंसि तेहिं पंचहि चोरसएहिं सहिं विउलं असणं. पाणं खाइमं साइमं सुरंच जाव पसण्णच आसाएमाणे ४ विहरति, वह चिलात चोर सेनापति चोरों का मालक यावत् मव अधयों को बाधार भून था. अब वह चिलात चोर सेनापति सिंहगुफा नायक बोरपल्ली में पांचसो चोरों का मालिक बनकर वगैरस विजय चोर जैसे मानना यावत् राजगृह के अग्निकून के देश में यावत् जंगल करता हुवा विचरता था. ॥ २० ॥ एकदा. चिलात चोर सेनापतिने विपुल अशन, पान, स्वादिम व स्वादिन बनाकर पांचसो पोरोंको आफ्ण दिया, तत्पश्चात स्नान कर वाले कर्म कर भोजन मंडप में उन पांचसो चोरों की साथ विपुल अशनादिसुरा यावत् प्रसन्न जातिका सुराका पास्वादन करना यह विचरता था जिमकर शूचिभूत हुने पीछे पांचसो चोरों को त्रिपुरा ।। 40+ सुषुपा दारीका का अठारहवा अध्ययन अर्थ 42 For Personal & Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में जिमिय भत्तत्तरागए ते पंचचौरसए विपुलेणं असणं ४ धृवपुगंधमलालंकारेण.. सक्कारेति सम्माणेति सकारत्ता सम्माणेत्ता एवं व्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! 'रायगिहे नगरे धण्णेणाम सत्थवाहे अड्ड, तस्सणं धूयाभदाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजातिया सुसुमाणाम दारिया होत्था, अहीणा जाव सुरूवा, तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुपामो तुब्भे विउल धणकणग जाव सिलप्पवाले, मम सुसुमा दारिया ॥ २१ ॥ सतेणं ते पंचचोरसया चिलायस्म वयणं पडिसुणंति ॥ २२ ॥ ततेणं से चिलाए चोर सेणावती तेहि पंचहिं. चोरसएहिं अशन, पान, ख दिम, स्वादिम, धूप, गंध, पुष्प, माला व अलंकारों से सत्कार सन्मान देकर ऐमा कहा अहो देवानुप्रिय ! राजगृह नगर में धन्ना सार्थवाह रहता है. नह ऋद्धिवन यावत् अपराभूत है. उस की पुत्री भद्राभार्या की आत्मजा व ..उन के पांचो पुत्री के पीछ जन्मी हुइ सुममा नामक कन्या है. वह संपूर्ण इन्द्रियों वाली यावत् सरूपा है. इस लिये अहो देवानुप्रिय ! अपन वहां जावे और धन्ना साथीह का गृह लूटे. इस में से जो छ। कनक मिले वह तुम लेना और मन रूमुसुमा कन्या लेऊंगा ॥२१॥ पांच सो चोरोने उस चिलात चोर सेनापति का वचन मान्य किया ॥ २२ ॥ .प्रकाशक राजाबहादर लाला मुखदवसहायजा ज्वालाप्रसादजी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षष्टांङ्गज्ञताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध सद्धिं अलचम्मं दुरुहति पुव्वावरण्ह कालसमयंसि पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध जाब गहिया उह पहरणे माइयामोमुहीएहिं फलएहिं निक्कट्ठाहिं असिल हिं आसंगएहिं तो हिं सज्जीवेहिं घणूर्हि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहिं दाहाहिं ओसारयाहि ऊरुघंटाहिं छिप्पचूरहि वज्जमाणेहिं महया महया उकिट्ट सहिणाद जाव समुद्दरवपूयं करेमाणा सीहगुहातो चोरपल्लीओ पडिणिक्खमति २ ता जेणेव रायगिहे जयरे तेणेत्र उत्रागच्छइ २ ता रायगिहस्सा यरस्स { अब वह चिलात चोर उन पनि सो चोरों की साथ आई चर्मपर मंगल कार्य निमित्ति बैठा और दिन के पीछे के भाग में पांच सो चोरों की साथ वख्तर पहिनकर यावत् शस्त्रों धारन कर सावध करने का सिंघ के बाल वाला गोमुखी वादित्र फूंकता हुआ, दोरियों के बंध से शरीर को ढकता हुवा, खङ्गादि शत्र धारन किये. तारोंका माथा, व प्रत्यंचा खीचकर धनुष्य ग्रहण किया. भाला बरछी आदि शस्त्रों उछालने लगे, जंघा को लटकती हुइ धरियों बंधी शिघ्रवादित्र बजाते हुवे, सिंहनाद जैसे महा शब्द करते हुवे समुद्र के गुंजारव जैसे गर्जना करते हुवे सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से बाहिर निकलकर सजगृह नगरी की पास महा गहन गुहा वनखंड में आये. वहां शेष रहा हुवा दिन व्यतीत करते हुवे सब चोरों रहने लगे. For Personal & Private Use Only 4- सुषुमा दारिका का अठारहवा अध्ययन 428 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी " अदरसामते एगं मई गहणं अणुप्यविसति २त्ता दिवसं खमाणा चिटुंति ॥ २३ ॥ ततणं से चिलाए चोर सेणावती अडरत्त कालं समयंसि निसंत पडिनिसंत पचहिं चोर सएहिं सहिं माइयगोमुहीहिं फलएहिं जाव मृतियाहिं ऊरूघंटिहिया जेणेव ७२४ रायगिहे पुरच्छिमिल्ले दुवार तेणेव उवागच्छइ २त्ता उदगवत्थि परामुसहरसा चोक्खो आयंत तालुग्घाडणिविजं आवाहेइ, रामागहस्स दुवार कवाडे उदएणं अच्छोडेतिरमा कवाडं विहाडतिरत्ता रायगिहनयरं अणुप्पविमति २त्ता महया २ सदेणं उग्घसमाण एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुपिया ! चिलाएणामं धार सेणावई बचाहि चोर सएहिं साई सीहगुहाता चोर पल्लीओ इहं हवमागए, धण्णस्स सत्यवाहस्स. गिह घाउकामे; तं जेणं गवियाए माउपाए दुई पाउंकामे सेणंणिग्गओ ॥ २३ ॥ अर्थ रात्रि का समय हुवा तब चिशत चोर अपने पांच सो चोरों की मा गोमुखी वगैरह | शस्त्रों लेकर रामगृह नगर से पूर्व दिशा के द्वार की पास आया. वहां पानी की मशकबी. उसमें से स्वच्छ पानी को अंजली भरकर ताला खोलने की विद्या आराधन करके उस पर छोटी और द्वार खोले. फीर राजगृह नगर में प्रवेश कर बडे २ शब्दों में बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय! चिलात चोर सेनापति पांच मो चोरों की साथ सिंहगुफा नायक चौरपल्ली से पहां आया है. वर धना सार्थवाहा प्रकाशक-राजाबहादुर काळा मुखदवमहायजी ज्वालाप्रसादनी. For Personal & Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पङ्ग ज्ञाताधर्मदा का प्रथम शुकन्ध 44P त्तिक, जेणेव धण्णरस सस्थवाहस्स गिहं तेणेव उवागच्छइ ३ त्ता धण्णस्स गिहं विहाडति, ॥ २४ ॥ ततेणं से धणे चिलाएणं चार सेणावतिणा पंच है चोर सएहिं सद्धिं गिहंघातिजमाणं पासति २ ता भीतेतत्थे ४ पंचहिं पुत्तेहिं सईि एगंत अवक्कमति ॥ २५ ॥ ततेणं से चिलाए चार सेणावई धण्णस्त सत्यवाहस्त गिहं घाएति. २ चा सुबहु धणकणग जाव मावएजं सुसमंच दारियं गेहति २ ता रायगिहातो पडिनिक्खमति २ 'ता जेणेव सिंह गुहा तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ २५ ॥ ततेणं से धणेसत्यवाहे का घर लूटने का अभिलाषी है. इस मे जिमने नवी माता का दुध पीने की इच्छा हो वह अपने घर मे वारिंह निहला. यों कहते हुवे धन्ना सार्थवाह के घर आये और उन के द्वार खोले ॥ २४ ॥ पांचसोई चोरों की साथ चिटात चोरको अपना घर में आना हुवा देखकर धन्ना सार्थवाह भयभीत हुवा और अपने व पुत्रों को लेकर एकांत में जाकर बैठा ॥ २५ ॥ चिलात चोर सेनापतिने घना सार्यवाह का घर लू, वहां से बहुत धन, कनक यावत् द्रव्य प सुषुमा कन्या लेकर राजगृह नगर में से निकलकर सिंहगुफ नामक चेर पल्लो में बान के निकला ॥ २५ ॥ तब पछा सार्थवाह भने स्थान प.छा अामा सुपुपा दारिका का अठारहमा अध्ययन •88+ 1 For Personal & Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.8 अनादर-चालतमचारीमनी श्री अमोलक ऋपिनी जेणेव सएगिहे तेणे२ उवागच्छइ २ त्ता सुबहु धण कणग सुसुमंच दारियं अवहरियं जाणित्ता, महत्थं ३ जाव पाहुडं गहाय जेणेव गगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ २ ता तं महत्थं पाहुडं उवणेति २ त्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! चिलाए चोरसेणापई, सीहगुहातो चोरपल्लीओ इहं हन्वमागम्मं पंचहिं चोर सएहिं सद्धिं ममगिहं घाएत्ता सुबहुणं धण कणग सुसुमंच दारियं गहाय जाव पडिगए तं इच्छामोणं - देवाणुप्पिया ! सुसमाए दारियाए कूवं गमित्तए, तुभेणं .देवाणुप्पिया ! से विपुल धण कणगं मम बहुत धन, कनक व मुषा कन्या का हरण कराया हुवा जानकर महा मूल्यवाला यावत् भेटणा लेकर वहां के नगर रक्षक (कोतवाल ) की पास आया. उन को महा मूल्यवाला भेटणा रखकर ऐमा बोला महो देवानप्रिय ! सिंहगुफा नायक'चोरपल्ली में से चिलात नामक चोर सेनापति पांच मो चोरों की 'मा यहां आकर मेरे घर में मे बहन धन कनक यावत् लूटकर व मेरी सुषुमा नामक कन्या का हरण करने पीछा चला गया है. अहो देवानुप्रिय ! मैं सुषमा कन्या की साहाय के लिये जाना चाहता हूं. और आप भी साहाय के लिय चलो. उस में मे जो धन पीछा आवेगा सो आप रखना और कन्या हम लेवेंगे। भकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी • For Personal & Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 सुसमा दारिया ॥ २६ ॥ ततेणं ते णयरगुत्तिया धण्णस्स सत्थवाहत्स एयमटुं पडिसुणति २ सन्नह बह! जाव गहिया उपहरणा महया २ उक्किट्ठ जाव समुद्दरव भूयंपिव करेमाणा रायगिहातो णिग्गच्छति २ त्ता जेणेव चिलाए चारे तेणेव उवागच्छइरत्ता चिलाए चोर सेणावतिणा सहिं संपलग्गायावि होत्था ॥ ततेणं ते नगरगुत्तिया चिलायं चोरं सेणावति हय महिय जाव पडिसेहिति ॥ २७ ॥ ततेणं ते पंचचोरसया नयरगत्तिएहिं हय माहेय जाव' पडिसेहियसमाणा तं विपुलं धण कणग विच्छडेमाणाय विप्पकिरमाणाय सव्वतो समता विप्पलाइत्था ॥ ततेणं ते णगरगुत्तियां तं विपुलं धणकणगं गिण्हति २ चा जेणेव रायगिहे गयरे तेणेब. ॥ २६ ॥ धन्ना सार्थवाह की पास से ऐसा सुनकर कोतवाल बख्तर पहिनकर यावत् शत्रों लेकर सिंहनाद जैसे बड २ शब्द से गर्जना करते हुवे राजगृह नगर में से निकलकर चिलात चोर की मरफ गये। और चिलात चोर सेनापति की साथ यद्ध करने लगे. नगर रक्षकोंने चिलात चोर को हराकर यावत् दशों दिशी में भगाया ॥ २७ ॥ पांच सो चोरों को नगर रक्षकोंने हराकर दशों दिशी में भमाये जिस से | Vउन चोरोने विपुल धन,कनक इत्यादि को वहां ही चारों दिशीमें फेंक दिया. और वे भग गये, नगर रक्षकों 48 पटाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्य सुपुमा दारिका का अठारहमा अध्ययन 42 अर्थ For Personal & Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ अनुवाकलवारी मुनि श्री क उवागच्छ ॥ २८ ॥ ततेनं से चिल्लाए तं चोर सेजाताह णयरगुत्तिएहिं हयमहिय पवर भक्तीए जान भीते तत्थे सुसमंदारियं गहाय एगं महं आगामियं दीहम अडत्रिं अणुरविट्टे || तएणं से धष्णं सत्थवाहे सुसुमं दारियं चिलाएणं अडीही सुसुमं अवहौरमाणि पासित्ता पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सन्नडबड चिलयस पदमग्गविहिं अगच्छमाणे अभिगज्जते हक्कारेमाणे पोक्कारेमाणे अभितज्जेनाणे अभितामाणे पिटुआ अणुगच्छति ॥ २९ ॥ ततेणं से चिलाए तं घण्णसत्थवाहं पंचपुते अप्पछटुं सन्नद्ध समुणुगच्छमाणं पासति पासित्ता अत्थाम ४ जाहे जो संचाएति सुसुमदारियं निव्वाहितए ताइं संते तंते परितंते न.लुप्पलं उस धन को लेकर राजगृह नगर में आये || २ || नगर रक्षकों से चोर सेना हणाइ हुई यावत् दशों दिशी में भागती हुई देखकर चिलात चोर भयभीत हुना, त्राम पाया यावत् सुषुमा कन्या को उठाकर एक बडा ग्राम विना की अटवी में उसने प्रवेश किया. घना सार्थवाहने सुसुवा कन्या की साथ चिलात की अटवी प्रवेश करता हुआ देखा. वह शीघ्रमेव अपने पांचों पुत्रों की साथ सन्नद्ध बद्ध बना हुवा चिलात चार के पांव के अनुसार उनकी पछि जाता हुवा हुंकार करता हुवा, उसे पोकारता हुवा, तर्जना करता हुवा, ताडना करता हुत्रा, व त्रास उत्पन्न करता हुआ पीछे दौडते जाने लगा ॥ २२ ॥ धन्ना सार्थवाह व उन के पांचों पुत्र को पीछे आते हुने देखकर जब वह मुषमा कन्या को उठाकर ले जाने में समर्थ हु' For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुचदबसहायजी ज्वालाप्रसादजी ● ७२८ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 शाताधर्मकथाना प्रथम श्रुत भसिं परामुसति २चा सुसुमाए दारियाए उत्तमंगच्छिदंति २ तं गहाय तं आगामयअडर्षि अणुप्पविटुं ॥ ३० ॥ ततण से चिलाए तीसे आगमियाए अडवीए तणति अभिभूते ' समाणे पम्हट्ठदिसीभाए साहगुहं चोरपाल्लिं असंपत्ते अंतराचेव कालगए ॥ ३१ ॥ एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वतिए समाणे इमरस ओरालिय सरीरा वंतासबस्स जाब विहंसण धम्मस्स वण्णहेउवा जाव आहारं आहारति सेणं इालोएचेत्र बहुगं समणाणं बहुणं समणीणं वहणं साबयाणं बहुणं साबियाणं हीलणि जाव अणुप-- रियहिस्सति ॥ जहा वा से चिलाएतकरे ॥ ३२ ॥ ततेणं से धणे सत्यवाह पंचहिं नही तब वह श्रमित बना हुवा निलोत्पल समान असि उठाकर सुषमादारिका कास्तक उसने छेद डाला. और उस ग्राम विना की अटारे में प्रवेश किया ॥ ३० ॥ अब वह चिलात उस ग्राम विना की अटवि में तृषा से पगभून बना हुवा मार्ग भूलगाने से सिंहगुफा चोर पली को पहुंचे बिना ही बीच में काउ धर्म को प्राप्त हुआ।॥३१॥अहो आयुष्मन्त श्रमणो! हमारे साधु साश्त्री यावत् मनजित बनकर वंताश्रमाया विवंस स्वभावचाला उदारिक शरीर में वर्ण के लिये यावत् आहार करते हैं इस लोक में बहुत साधु, साध्वी, श्रावक / श्राविकाओं हीलनीय निंदनीय होते है यावत संसार में परिभ्रमण करेंगे जैसे चिलास चोर हुभा. ॥ ३१ ॥ सुपा दासका अठराश अध्ययन -- For Personal & Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र अर्थ 4 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलखी + पुत्त अप्पट्टे चिलायती से आगामियाए सव्वतो समता परिधाएमाणे संते तंते • परिततें नो संचाएइ चलायं चोरसेणावइ सहत्थिगिन्हित्तए, सेणं तओ पडिनियत्तइ जेणेव ससुनुमादारिया चिलारणं जीवियाओ क्रोत्रिया तेणेव उबांगच्छइ २ ता सुमं दारियं चिलाएणं जीवियाओ विवरोवियं षासति २त्तापरिसुणियत्तत्र चंपगपायवे ॥ ३३ ॥ तएणं से धण्णे सत्यव! हे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछडे आसत्ये कृत्रमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया २ संदेणं कुहकुहस्एरणे सुचिरकाल बाहमोक्खं करेइ ॥ ३४ ॥ तरणं से धण्णेसत्थवाहे पचहिं पुत्तेहिं अप्पछट्टे चिलायती से आगमीषाए सव्वतो समता परिधावेमाणे तण्हाए छुहाएय पराभूते समाणे तीसे आगामियाए धना सार्थवाह उन के पांचों पुत्रो सहित चारों तरफ दौड़ते हुवे श्रमित बनकर भी चिलात चोर को पकडने को समर्थ हुआ नहीं तब वह वहां से नीकलकर जहां सुसमा कन्या को मारडाली थी वहां आया. वहां सुषुमा दारिका को मृत देखकर जैसे छेदा हुवा चंपक वृक्ष गिरता है वैसे ही वह गिरपडा. ॥ ३३ ॥ धन्ना सार्थवाह पांचो पुत्रो की साथ सावधान होकर आनंद करता हुवा, विलाप करता हुबा वडे २ शब्द से कुछ कुछ करता हुवा उस अरण्य में बहुत काल तक आश्रु डालने लगा. ॥ ३४ ॥ उम अटवि में चिलात चार को चारों तरफ गोषणा के लिये दोडत हुने छ ही क्षुत्रा व तृषा से पीडित हुए और उस For Personal & Private Use Only श्रमकाशक - राजाबहादुरकाला सुखदेव रायजी ज्वालाप्रसाद जी ७ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पष्टांङ्ग ज्ञाताधर्ममया का प्रथम श्रुनस्कन्ध 43+ अडवीए सव्वतो समंता उदगस्स मगाण गवेसणं करेति, संते तंते परितंते णिवणेतीसे आगामियाए अडवीए उदगस्त मगगण गवसणं करेमाणे णी चेवणं उदगं आसादए तएणं उदगंआणासातेमाणे,जेणेव मुममा जीवियातो ववरोविया पडिया तेणेव उवागच्छइ तएणं से धण्णे सत्यवाहे जेटुं पुत्तं सदावेति २ ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता!सुसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तकरं सव्वतो समंतापरिधाडेमाणे तण्हाए छुहारय अभिभया समाणा, इमीमे आगामियाए अडवीए उदगम मग्गण गवसणं करमाणा णो चेवणउदग आसाएमो;ततेणं उदग अणासाएमाणा णा संचाएमो रायगिह णगरं संपावित्तए मुषुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 4 अटी में पानीक शोध करने लगे,थके हुवे उन लोगों को ग्रामविना की अटपी में किसी स्थान पानी नहीं मीलने से जहां सुपुपा दारिका पृत पडीथो वहां आये, वहां धन्ना मार्थवाहने ज्येष्ट पुत्र को बोलाकर कहा अहो पुत्र ! सुषुमा पुत्री के लिये चिलात चोर की शोध करने में चारों तरफ दौडते हुवे अपन क्षधः । व तृषा से पराभव पाये हैं. इस अटवी में अपनने पानी की गवेषणा की परंतु अपन को पानी मीला नहीं पानी विना अपन राज हुच सकेंगे नहीं. इस से अहो पुत्र ! तुम मुझे जीवित से पृथक् करो अर्थात् मुझे मार डालो. और मेरा मांस व रूधिर का तुम आहार करना. इस आहार के आधार से तुम पीछे की। For Personal & Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ततेणं तुम्भे ममं देवाणुपिया! जीवियाओ ववरोवेह मम मंसंच सोणियंच आहारेह ॥ तेणं आहारेणं अबधट्टा समाणा, ततो पन्छाइमं आगामियं अडविं मित्थरिह रायगिहं संपाविहह मित्तणातिणिय अभिसमागच्छीहह अत्थस्सय धम्मस्सय पुण्णस्सय आभोगी भविस्सह ॥ ३५ ॥ ततेणं से जेटुं पुत्ते धण्णेणं सत्थवाहणं एवं कुत्ते समाणे धणं सत्थवाहं एव वयासी-तुम्भेगं ताओ ! अम्हं पिया गुरु जणया देवयभूया टुक्का पाइट्ठवका संरक्खगा संगोबगा तं कहण्हं अम्हे ताओ ! तुम्भे जीवियाओ ववरोबेमो तुम्भेण मंसंघ सोणियच आहारेमो, तं तुम्भेणं ताओ ! मम जीवियातो ववरोवेह मंसच सोणियंच आहारेह आगामिय अडविं णित्थरेह संचेव सव्वं भगइ जाव ग्रामविना की अटवी को पार करना राजगृह नगर को पहूंच जाना, मिष शाति अनों को पीलना, और अर्थ, धर्म व पुण्यादि को भोगना. ॥ ३५ ॥ धना सार्थवार का ऐसा बचन सुनकर ज्येष्ठ पुत्र बोला कि अहो तात ! तुम हमारे पिता को हमारे पूज्यनीय हो, गुरुदेव समान हो, स्थापक हो, प्रतिस्थापक, संरक्षण व गोपन करने वाले हो. अहो तात ! तप हम आप को कैसे जीवित से पृथक करे और आपके मांस व रुधिरका आहार करे. ? अहो तास ! इस से तुम मुझे मार डालो और मेरे पांम व रुधिर का बाहार करो. इस से तुम अटवी का पारकर. सकोगे यावत् अर्थ धर्म पुण्यके मागी बनोगे. तब दूसरा पुत्र ऐसे बोलने प्रकाशक-राजावह'दुर लाला मुखदव महायजी ज्वालाप्रसादजी - For Personal & Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टांङ्ग बताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 128 अस्थरस ३भागी भविस्सह ॥ततेणं धण्णसत्यवाहं दोच्चेव पुत्ते एवं वयासी-माणं ताओ! अम्हे जेटुं भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भेणं ताओ ! मम जीवियाओ वववेह जाव आभागी भविस्सह; एवं जाव पंचमे पुत्ते ॥ २६ ॥ ततणं से धण्णेसत्यवाहे पंच पुत्ताणं हियं इच्छियं जाणित्ता, ते पंच पुत्ते एवं वयासी-माण अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो, एसणं मुमुमादारियाए सरीरे णिप्पाणे जाव जीवियाओ विप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता अम्हं सुसमाए दारियाए मंसंच सोणियंच आहा रित्तए, ततेणं अम्हे तणं आहारेणं अयत्थद्धा समाणा रायगिहं णयरं संपाउणियारसामो ।' ततेणं ते पंच पुत्ता धणेणं सत्थबाहेणं एवं वुत्तासमाणा एयमटुं पडिमुणेति ॥ ३७ ॥ लगा कि अहो तात ! हमारे गुरु देव समान ज्येष्ट भ्राता को आप मत पारो परंतु तुम मुझे मारकर भोगवो यावत अर्थ धर्मपुण्य भोगी बनोगें. इसही प्रकार पांच वे पत्र तक सबने कहा.॥ ३६॥ पन्ना सार्थवाह पांचों पत्रों को हित चिंतक जान कर उन को ऐसा कहा अहो पुत्रा ! तप किसी को हम नहीं मारेंगे. यह सुषुपा पुत्री प्राण रहित यावत् निचेष्ट मरीहुइ ही है. इस से सुषुपा पुत्री के ॐ मांस व रुधिर का आहार करना अपन को श्रेय है. इस आहार के आधार से राजगृह नगर में अपन पहुंच सकेंगे. पांचों पुषोंने धन्ना सार्थवाह की बात का स्वीकार किया ॥ ३७ ॥ पन्ना सार्थवाह पांचो। 48सुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 488 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - ततेणं से धण्णे सत्थवाहे पंचहि पुत्तेहि सहि अर.ण करेति अरणिकरेत्ता, सरगं करेइ २त्ता सरएणं अराणि महेति२ त्ता अग्गिपाडेइ२त्ता अग्गिसंधुक्केति २ ता, दारुयाति पक्खिवति २त्ता अग्गिं पज्जालेति २ चा सुसमाएदारियाए मंसंच पइत्ता सोणियंच आहारेति, तेणं आहारणं अवस्थड समाणा रायगिहं गयरिंपत्ता, मित्तणाइ, अभिसमण्णागया,तस्स विउलस्स धणकणगरयण जाव आभागी जायावि होत्था॥३८॥ ततेणं से धणे सत्यवाहे सुसुमाए. दारियाए बहुतिं लोइयातिं नाव विगयमोए जाए. यावि हात्था ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीर रायगिहे जयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तणेव समोसढे सेणिओ विराया जिग्गया ॥ ३९ ॥ तएणं की साथ अग्नि करने के लिये अरणि को काष्ट लाया, उसे पास्पर घीसे, घीसकर अग्नि प्रज्वलित की, अग्नि होते उम में लकडे डाले, फीर उस में मुषुमा पुत्री का मांस पकाया और उम का व रुधिर का आहार किया, उस में आधार मे राजगृही नगरी को प्राप्त हवे, मित्र ज्ञात जनों को मिले, और विपुल धन. कनक रत्न वगैरह के भोगी बने ॥ ३८ ॥ धन्ना सार्थवाहने सुषुपा पुत्री के बहुत लौकिक कार्य किये। यावत शोक रहित बने ॥ ३९ ॥ उस काल उम समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे, श्रेणिक राजा दर्शन करने को निकले ॥ ३९ ॥धन्ना सार्थवाद प्रकाशक-राजाहदुर लाला सुखदेवमहायजीनामासादजी मुनकर For Personal & Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 48 से धण्णेसत्थवाहे धम्मं सोचा, पव्वइया, एक्कारसंगविऊ, मासियाए संलेहणाए जाव कालं मासे कालंकिच्चा सौहम्मेकप्पे देवत्ताए उववष्णे, ताओ देवलोगाओ महाविदेह वासे सिज्झिहिंति जाव अंतं करिहिति ॥ ४. ॥ जहवियणं जंबु ! धण्णसत्थबाहे जो वण्णहऊंगा, णो रूवहेउवा, णो बलहेउवा, णो विसयहेउवा, सुसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, णणत्थ एगाए रायगिई संपावणट्टयाए ॥ एबामेव समणाउसो! अम्ह जिग्गंथोत्रा णिग्गंथिबा इमरस ओरालिय सरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवरस सुक्कासवस्स सोणियासवरस जाव अबस्सविप्पजहियस्स णो वष्णहेउवा जो रूबहेउवा,णो बलहेउवा, जो विसयहेउवा आहारं आहारेति, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणं प्रवजित हुए. अग्यारह अंग के ज्ञाता दुए. एक मास की संलेखना से यावत् काल के अवसर में काल करके सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुए. वहां से चक्कर महाविदेह क्षेत्र में सीगे बुझेंगे यावत् सब दुःबों का अंत करेंगे ॥ ४०॥ अहो जम्मू ! जैसे धना सार्थवाहने शरीर वर्ण, रूप, बल व विषय के लिये सुषुमा कन्या का मांस व रूधिर का आहार नहीं किया था परंतु मात्र राजगृह नगर में प्राप्त होने के लिये उस का आहार किया था बसे ही अहो आयुष्मन्त अपणों! जो कोई साधु साधी वंताश्रव पित्ताश्रम, शुक्राश्रा, श्राणिताश्रम, यावत् अवश्य स्थाजनीय उदारिक शरीर को वर्ण, रुप, चल व विषय के -- सुषुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 48+ - For Personal & Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्र 41 अनुगदक-गालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोल ऋषिजी - - संपावणटुयाए ॥ सणं इह भवैचव बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं साक्याणं बहुणं साविषाणं अच्चणिजे जाव बीतीवतीरसात ॥४१॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महाबीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्त णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते तिमि ॥ १८ ॥ सारांस गाथा--जहसो चिलाइपुत्तो मुसुमागहो अकजपडिबद्धो धण्णपारद्धो पत्तो महाअडविं वसणसय कलियं ॥ १ ॥ तह जीवो विसय सुहेलुडो काऊण पावकिरियाओ; कम्मबसेणं पावइ भवाडवीए महादुक्खं ॥ २ ॥ धणप्तेट्ठीविव लिये नहीं पोषते हैं परंतु मात्र सिद्धि मुक्ति में जाने के लिये इस को साधनभूत जानकर पोषते हैं वे इस भव में बहुत साधु साध्वी श्रावक व श्राविका में अर्चनीय पूज्यनीय होंगे यावत् अनंत संसार का अंत करेंगे ॥४१॥ अहो जम्नू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के अठारहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा ॥ १८ ॥ उपसंहार-जैसे चिलात पुत्र चोर सुषुमा में गृद्ध बना हुवा आकार्य में प्रतिबद्ध होने से सार्थवाह से पराभव पाया हुवा मनुष्य रहित अनेक दुःखोंवाली पहान अटवी को प्राप्त हुवा ॥१॥ वैसे ही विषय मुख में गृद्धबने जीवों पाप.क्रियाओं करके कर्म वश से बहुत दुःखोंवाली भवरूप अट्वी प्राप्त करते हैं ॥ २ ॥ धन्ना सार्थवाह समान गुरु, पांच पुत्रों समान शिष्यों, भवरूप अटवी, मुषुमा के मांस प्रकाशक-राजाबहादुर लाळा सुखदेवसहायनी ज्वाला प्रसाद | For Personal & Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MO गुरुणो, पुत्ताइव माहवोभवो ॥ अडवीसुय मंसमिवा आहारो, रायगिहं इव सिधणेयं ॥ ३ ॥ जह अडविणियर णित्थरण पावणत्थं ॥ तएहिं सुयमंस भुत्तं तहेव साहु गुरुणा आणाए आहारं ॥ ४ ॥ अट्ठारसमं णायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १८ ॥ * * समान आहार, और राजगृह समान मोक्ष ॥ ३ ॥ जैसे अटवी को पार होने के लिये उनोंने सुषुमा पुत्री के मांस का आहार किया वैसे ही भवरूप अटवी को पार करने के लिये गुरु की आज्ञा से साधु निर्दोष माहार करते हैं. यह अठारहवा अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥ १८ ॥ षष्टांग ज्ञानाधर्मकथा को प्रथम श्रुतस्कन्ध सुषमा दारिका का अठारहवा अध्ययन 42 42 For Personal & Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مشتبہ अनुवादक पालनपचास मुनि श्री अमोलक ऋषीजी ॥ एकोनविंशतितम अध्ययनम् ॥ नतिणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारमस्स णायज्झयणस्स अयम8 पण्णत्ते, गूणवीसइस्स णायज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पन्नत्ते? ॥१॥ एवं खलु जबु! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवेदीवे पुनविदेहे वासे सीयाएमहाणईए उत्तरिल्ले कूले नलिवंतस्स पव्वयस्स दाहिणेणं उत्तरिल्लस्म सीतामुहवणसंडस्स पञ्चत्थिमेणं, एगसेलगरस वक्खारपन्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं पुक्खालाबई णामं विजए पण्णत्ते । तत्थणं पुंडरिगिणी णामं रायहाणी होत्था णवजोयण विच्छिण्णा, दुवालस जोयणायामा जाव पच्चक्खं वालोय अहो भगवन् ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के अठारहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा तो उन्नीमवे अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥ १ ॥ श्रो जम्बू ! उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र में, साता महानदी के उत्तर किनारे, नीलबंत पर्वत से दक्षिण में, पत्थर के भी सीता मुख वमखण्ड से पश्चिम में, एक शेलग वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में पुष्कलावती नामक विजय रूपा है. उस में पुंडरिगिनी नामक राज्यशानी है. यह नव योगन की चौडो बारह बोजन की लम्बो यावत् । पकाशक-राजबहादुर काला स्वसहायजीबालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३९ 40 षष्टांग व साधर्मकया का प्रथम श्रुतस्कंध 48m भया पासादिया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा। तीसेणं पुडरीगिणीए णयरीए उत्तर पुरथिमे दिसीभाए णलिणीवणे ामं उजाणे होत्था वण्णओ ॥ २ ॥ तीसेणं पुंडरी. गिणीए रायहाणीए महापउमेणामं राया होत्था॥ तस्सणं पउमावती णाम देवी होत्था तस्सणं महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावतीए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्था तंजहा पुंडरीय, कंडरीय, सकुमाल पाणिपाया, पुंडरीएजुबराया ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मषोसार्थरा' पंचहि अणगार सएहि साई सपरिउडे पुवाणुपधि चरमाणा जाव णलिणीवणे उजाणे तेणेव समोसढे ॥ महापउमेराया णिग्गए, धम्मं सोचा, पुंडरीयं रजे ठावेत्ता, पाइए पुंडीर प्रत्यक्ष देवलोक समान प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप व प्रतिरूप है. उसकी ईशानकून में नलिनीवन । नामक उद्यान है ॥ २ ॥ उन पुंडरिकिनी राज्यधानी में महापन नामक राजा था उस को पद्मावती नामक देवी थी. उस महापन राजा को पद्मावनी रानी से दो पुत्र +हुए थे जिन के नाप-पुंडरीक व कंडरीक. सुकोमल हस्त पांववाले थे. उन में पुंडरीक युवराजा या ॥३ उम काल उम समय में धर्मघोष स्थविर पांचसो अनगार की साथ परबरे हुवे पूर्गनुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते यावत् नलिनीवन उद्यान में पधारे. वहां पझराजा नोकला. धर्म मुनकर पुंडरीक को। पुंडरीक कंडरीक का वत्रीसमा अध्ययन 41 For Personal & Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोहक ऋषिजी + राया जाए, कंडरीए जुवराया होत्था ॥४॥ महापउमे अणगारे जाए चोइस पुव्वाति अहिजति, ततेणं थेरा बहिया जणवय विहारं विहरंति ॥ ततेणं से महापउमे अणगारे बहुणि वासाणि जाव सिद्धे ॥ ५॥ ततेणं थेरा अग्नयाकयाइ पुणरवि पुंडरिगिणीए रायहाणीए णलिणीवणे उजाणे समोसढा, पुंडरीए राया जिग्गए, कंडरीए महाजण सदं सोचा जहा महब्बलो जाव पज्जुवासति ॥ थेरा धम्म परिकहेंति, पुंडरीए समणोवासएजाए जाव पडिगते ॥ ५ ॥ ततेणं कुंडरीए उट्ठाए उट्ठति राज्य पर स्थापन कर दीक्षित हुवा. जब में पुंडरीक राजा व कुंडरीक युवराज हुवा ॥ ४ ॥ महा पद्म अनगारने चौदह पूर्व का ज्ञानाभ्यास किया. स्थविर बाहिर देश में विचरने लगे. महापद्म राजा बहुत वर्ष पर्यंत चारित्र पालकर यावत् सिद्ध हुवा ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् स्थविरों पुनः पुंडरिकिनी राज्यधानी के नलिनी वन उद्यान में पधारे. पुंडरीक राजा दर्शन करने को नीकला. कुंडरीक युवराजने बहुत लोगों की पास से स्थविर भगवंत नलिनी वन उद्याने में पधारे हैं ऐसा सुना. इस से वह भी महावल कुमारवत् नाकलकर यावत् पर्युपासना करने लगा. स्थबिरोंने धर्षोंपदेश दिया. पुंडरीक श्रमणोपासक हुवा यावत् अपने स्थान पीछा गया ॥५॥ कंडरीकने अपने स्थान से उठकर स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार काशक-राजाबहादुर सन्तुखदेक्सझयजीज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ७४१ का प्रथम श्रुतस्कन्ध उद्वेत्ता जाव से जहेयं तुन्भे वदह, अं णवरं पुंडरीयं रायं आपुच्छामि तएणं जाव पन्धयामि ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया!॥ ६ ॥ तएणं से कंडरीए जाव थेरे वदइ नमसइ २त्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ २त्ता तामेव चाउघंट आसरहं दुरुहइ जाव पच्चोरुहइ, जणव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ २त्चा करयल जाव एवं क्यासी-एवं खलु देवाणु2. पिया! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते से धम्मे अभिरुइए जाव पबइत्तए॥७॥तएणंसे पुंडरीए कुंडरीयं एवं वयासी-माणं तुम भाउया ! इदाणिं मुंडे जाव पव्वयाहि, किया. और ऐसा बोला कि अहो भगवन् ! जैसे आप कहते हो वैसे ही है. बगैरह सब आधिकार 1. परंतु विशेषता यह कि मैं पुंडरीक को पूछकर आपकी पास दीक्षित होऊंगा. स्थविरोंने उत्तर दिया जैसे सुख होवे वैसे करो ॥8॥ अब कुंडरीक युवराजा यावत् स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार करके उन की पास से नीकलकर अपने चार घण्टवाले अश्वरथ पर आरूढ होकर पुंडरीक की पास जाने को नीकला. वहां पहूंचते रथसे नीचे उतरकर पुंडरीक राजाकी पास गया. उनको हाथ जोडकर ऐमा बोला। कि अहो देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर की पास से यावत् धर्म सुना है. वही धर्म मुझे रुचिकर है यावत् मैं दीक्षालेना चाहताहूं। तब पुंडरीक राना कुंडरीक को बोलेकि अहो भ्रात!तुम अघी दीक्षित मत होवो. में arwanaman पुंडरीक कंडरीक का उन्नीसहवा अध्ययन 4Rin For Personal & Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवादक -बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषि+ अन्नं तुमं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिचामि ॥ तरणं से कंडरीए पुंडरीयस्स रणो एयम णो आढाति जाब तुसिणीए संचिट्ठति ॥ ततेणं पुंडरीएराया कंडरीय दोच्चपि तचंपि एवं वयासी-जाव तुसिणीए संचिट्ठति ॥ ८ ॥ त एणं से पुंडरीएराया कंडरीयं. कुमारं जाहे नो संचाएति, बहुहिं अघत्रणाहिय पण्णवर्णााहिय ४, ताहे अकामएचेव एयमट्ठे अणुमण्णित्था जाब क्खिमणाभिसेएणं अभिसिंचति जाव थेराणं सीस भिक्खं दलयति, पव्वतीए, अणगारे जाए, एक्कारसंगीविउ ॥ ९ ॥ ततेणं धम्म घोसा थेरा भगवंत अन्नया कयाइ पुंडरीगिणीओ रायहाणीओ जलिणीवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमति २त्ता बहिया जणवय विहारं विहरति ॥ १० ॥ ततेणं तस्स कंडरीतुम्हारा बडा राज्याभिषेक करूं. कंडरीकने पुंडरीक के इन वचनों का आदर किया नहीं यावत् मौन { रहा. तब पुंडरीकने कंडरीक को दुमरी वक्त भी वैसा ही कष्ठा परंतु वह मौन रहा ॥ ८ ॥ जब पुंडरीक {राजा कंडरीक को बहुत कहने सुनने मे समजाने को समर्थ हुत्रा नहीं तब अनिच्छा से इस बात को मान्य की यावत् दीक्षा महोत्सव किया. यावत् स्थविरों को शिष्य भिक्षा दी. कंडरीक प्रत्रजित बनकर अनगार } हुए और अग्यारह अंग का अध्ययन किया ॥ ९ ॥ स्थविर भगवंत पुंडरिकिनी नगरी के नलिनी वन उद्यान में से नीकलकर बाहिर देश में विचरने लगे ॥ १० ॥ कुंडरीक अनगार को अंत प्रांत वगैरह For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक- राजावादु काला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी. ७४२ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 यस्स अणगारस्स अण्णदातेहिं अंतेहिय पंतेहिय जहा सेलग जाव दाहनकंतिएयावि विहरति ॥ ११॥ ततेणं ते थेरा अन्नयाकयाइ जेणेव पुंडरीगिणी नयरी तेणेव उवागच्छइ २ चा लिणीवणे समोसढा पुंडरीए राषा णिग्गए धम्म सुणेति॥ १२ ॥ ततेणं से पुंडरीए राया धम्मं सोचा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ२ त्ता कंडरीयं वंदति गमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सवावाहं सरायं पासति, पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ रत्ता थेरे भगवते वंदइ णमंसइ, वंदिता नमंसिता एवं क्यासी-अहण्णं भंते ! कंडरीयस्स अणगारस्स महापववित्तेहिं उसहभेसज्जेहिं जाव तेइच्छं आउंटामि, तं तुब्भेणं मईआहार से शलग राजा के जैसे शरीर में वेदना हुई यावत् दाइजर होगण ॥ ११॥ एकदा स्थविर पुनरीकिनी नगरी के नलिनी उद्यान में पधारे. पुंडरीक नीकला व धर्म सुना ॥१२॥ पुंडराक राजा धर्म मुनकर कुंडरीक अनगार की पास बाये. उन को वंदना नमस्कार करके उनके शरीर को व्याधि सहित देखा. फोर स्थविर भगवंत को पास आकर उन को वंदना नमस्कार करके कहने लगे कि वो भगवन् ! कुंडरीक अनगार.की आपकी प्रवृत्ति अनुसार औषध भैषज्य से यावत् चिकित्सा पाताधर्षकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 1 - पुंडरीक कंडरीक का उन्नीसवा अध्ययन 44 For Personal & Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक रुषिनी - भंते ! मम जाणसालामु समोसरह ॥ ततेणं तेथेरा भगवंतो पुंडयिस्स पडिसुगैतिर ता जाव उवसंपजित्ताणं विहरति ॥ १३ ॥ ततेणं पुडरीए राया जहा मंडुए सैलगस्स जाव बलियसरीरे जाए ॥ १४ ॥ ततेणं थेरा भगवंतो पुंडरीय आपुच्छति २त्ता बहिय जणवय बिहारं विहरति ॥ १५ ॥ ततेणं से कंडरीए अणगारे ताओ रोयातकाओ विष्पमुक्केसमाणे तांसे मणुन्नंसि असणपाणखाइमं साइमंसि मुच्छिए गिडिए गढिए अझोववण्णे णो संचाएइ पुंडरियरायं आपुच्छित्ता बहिया थेरेहिं सद्धिं जाव विहरित्तए, तत्थेव उसपणे जाए ॥ ततेणं पुंडरीए राया इमीसे कहाए करानूंगा. इस से अहो भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारो. स्थविर भगवंत पुंडरीक की बात पुनकर वहां गये. यावत् उनकी आज्ञा लेकर वहां विचरने लगे ॥ १३॥ जैसे मंडक राजाने शेलग राजर्षि का उपचार किया था धैसे ही पुंडरीक राजाने भी कंडरीक के उपचार किये. यावतू बलवंत शरीर में वाले हुए ॥ १४ ॥ स्थविर भगवंत कुंडरीक को पूछकर बाहिर देश में विचरने लगे ॥ १५ ॥ अब हैकंडरीक उस राग से मुक्त होने पर भी मनोज्ञ अशन, पान, खादिम, स्वादिम में मूञ्छित गृद्ध व तल्लालीन बनने से पुंडरीक को पूछकर बाहिर स्थविरों की साथ विचरने. को समर्थ हुचा नहीं और वहां ही उसण्ण (टीले) बने. पुंडरीक को इस बात की मालूम होते ही स्नान करके अंत:पुर की रानीयों की साथ कंड •काशक सजाबहादुर लालासुखदवसहायजा ज्वालाप्रसाद For Personal & Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + . पटांड हाताधया का प्रथम श्रुतस्कन्ध 42 + पुंडरिक कंडरिका का लहट्टे समाणे हाए अंतें उरए परियालं सद्धिः संपरिवुडे जेणेव कंडरीए. अणगारे तेणेक उबागच्छइ २ त्ता कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहि करेइर चा वदति णमंसति घदेत्ता गमंसित्ता एवं व्यासी-धन्नेसिणं तुम देवाणुप्पिया ! कयत्थे कयपुणे कयलक्खणे सुलटेणं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीविषफले जेणं तुम रजंच जीव अंतेउरंच विच्छडेड २ ता बिम्गोवइत्ता जाव पव्यइत्तए; अहणं अहण्णे अपुन्ने अकय पुण्णे रजेय जाव अंतउरेय माणुस्सएमय कामभोगेसु मुग्छिए जाव अज्झविवन्ने, नो. संचाएमिः जाव पवातित्तए ॥ तं धन्नेसिणं तुमे देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले ॥ १६ ॥ ततेणं से कंडरीए अणक अनगार की पास आये और उन को तीनवार आदान प्रदक्षिणा करके पंदना नमस्कार किया. और बोला अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है, तुम कृतार्थ हो, तुम पुण्यवंत हो, तुम शुभ लक्षणवाले हो, तुम्हारा जन्म सफल है. क्यों कि तुम राज्य व अंत:पुर को छोडकर यावत् दीक्षित बने हुवे हो.. अघन्य अपुण्य हूं. क्यों कि राज्य यावत् अंत:पुर व मनुष्य के काप भोगों में मूईछत यावत् तन्मय A बनकर दीक्षा लन को समर्थ नहीं हुआ है. इस से हो देवापुत्रिय ! तुम को धन्य है, यावत् नुम्हारा जन्म सफल है. ॥ १३ ॥ कंडरीक अनगारने पुंडरीक के वचन का आदर है समा अध्ययन 4 For Personal & Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र .पा । अनुवादक-पालवमचारी मुनि श्री अपोलकपिजी 10 गारे पुंडरीयस्सएयमटुंगो ढाति जाव तुसीए संचिटुंति ॥ ततेणं से कंडरीए पुंडरीए... दोचंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवसबसे लजाए गारवेणय पुंडरीयर आपुच्छति २त्ता थेरेहिंसहिं. बाहिया जणवय विहारं विहरति ॥ १७ ॥ ततेणं से कंडरीए अनगारे थेरेहिं सरि किंचिकालं उगंउग्गेणं विहरति, ततोपच्छा समणक्षण परितते समणतण णिविणे समणसणं गिभच्छिए समणगुण मुक्कजोगी थेराणं अंतियातो सणियं पञ्चोसकाइ २ ता जेणेव पोंडरीगिणी णयरी जेणेव पुंडरीयस्स भवणं तेणेव उवागच्छइ २ सा असोगणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढवि सिलाए पट्टगसि णिसीयति २चा ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठति किया नही यावत् मौन रहे. जर पुंडराने कुंडरीक को दो तीन बार ऐसा कहा तब अनिच्छासे परशेयपना व लज्जा से पुंडरीक को पुछकर स्थविकी माय बाहिर देशमें विचरने लगे. ॥१७॥ कंडरीक अनगारने उन स्थविरॉकी किंचित् कालतक कठिन क्रिया संयमका पालन किया. तत्पश्चात् साधु सा पनासे उद्विग्नबने विषवाद व निर्भत्सना पाकर साधुओं के गनोंसे रहित बनकर उन स्थविरोंकी पाससे शन नीकल कर पुंडरीकिनी नगरी आया. यहां पुंडरीक के भवन पीछे अशोक वाटिका में अशोक धबहादुर मला एखदेखमाजी चालाप्रसादी For Personal & Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५७ का प्रथम श्रुतसप me ॥१८॥ ततेणं तस्स पंडीयरस रणो अम्माघाती जेणेव आसोगवणिया तेणेव उवाग छह २त्ता कंडरीय अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयांस आहयमणसंकप्पं जाव झियाएमागं पासति पासित्ता जेणेव पुंडरीएराया तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पोडरीयंरायं एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव भाउए कडरीएअणगारे आसोगवाणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढवि सिलापट्टए ओहयमण जाव झियायति ॥ १९॥ ततेणं से पोंडरीएराया अम्माधातीए एयमटुं सोचा जिसम्म तहेव संभंते समाणे उट्ठाए उऐति अंतेउर परियालं सहि संपरिवुडे जेणेव आसोगवणिया जाव कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो २ आयाहिणं जाव नमंसिचा पृथ्वी शिलापट्ट पर बैठा. और मन में संकल्प विकल्प करता हुवा. यावत् भार्तध्यान करने लगा. ॥१८॥ पुंडरीक की अम्मापात्री अशोक वाटिका में आइ वहां कुंडरीक को अशोक वृक्ष नीचे पृथ्वी शीला पट्टपर बैठ कर संकल्प विकरय करता.दुवा यावत् आर्तध्यान ध्याता हुआ देखा. उससे वह पुंडरीक गजा की पास आई और उन से कमा बहो देवानुप्रिय ! तुपारा माई कंडरीक अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष, नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर यत् मार्तध्यान करता हुआ बैठा है ॥ १९ ॥ अम्माघात्री की पास से ऐमा सुनकर पुंडरीक राजा संभ्रांत हुना अपने स्थानसे उठा और अंत:पुर के परिवार सीतअशोक वाटिका में + पुटरीक कंडक का उनीसहना अध्ययन अर्थ For Personal & Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं वयासी-धन्नेसिणं तुम देशणुप्पिया ! जान पवइत्तए, अहणं अधयाणे जाव को पवइत्तए तं धन्नसिणं तुम देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले ॥ ततेणं कंडरीए पुंडरीएण एवं वुत्तेतमाणं तुसिणीए संचिति । ततेणं पुंडरीए राया दोच्चपि तवपि । जाब संचिहाते कंडरीएणं एवं वयासी--अट्ठा भंते भोगेहि? हता अट्टो ॥२०॥ ततेण ते पुडरीएराया कोडुविय पुरिसे सहावेइ २ त्ता एवं वयासी--खिप्पामेवभो देवाणु-... प्पिया ! कंडरीयस्स महत्थंजाव रायामिसेयं उबटुवेह॥जाव रायाभिसेणं अभिसिंचति ... ॥ २१ ॥ ततेणं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोयंकरति, सयमेव चाउज्जामंधम्म आया. यावत् कंडरीक को वंदना नमस्कार कर बोलने लगा कि अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है यावत् प्रत्रजित बने दुवे हो. मैं अधन्य हूं यावत् मैं दीक्षित महीं बना. इस से अहो देवानुप्रिय ! तुम को धन्य है यावत् तुम्हारा जन्म सफल है. पुंडरीक के ऐमा कहने पर कंडरीक पौन रहा. तब पुंडरीकने: कहा कि अहो देवानुप्रिय ! क्या तुम को भागों मे संबंध है अर्थात् भागों की इच्छा है ? तब कंडरोकने उत्तर दिया कि हां मुझे भोगों की इच्छा है ॥ २० ॥ पुंडरीक गजाने कौटुम्बिक पुरुषों को बालाकर कहा अहो देवानुप्रिय ! कंडरीक को महा अर्थवाला यावत् राज्याभिषेक करो. यावत् उनोंने 17 वैसे ही राज्याभिषेक किया ॥ २१ ॥ पुंडरीक राजाने स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया, और चस्याम अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनी श्री अमोलक ऋषिजी -राभाबहादुर लाला मुखदेवमलयजी ज्वालाप्रसादनी For Personal & Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षटङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का मम श्रुरुस्कन्ध 4 P पडित्रजिइ २ ता कंडरीयस्स सक्कीयं आयार मंडये गिण्हति २त्ता इमं एयारूवं अभिग्गई अभि पति में थरे वंदित्ता णमंसित्ता थेर णं अंतिए चउजामधम्मं उवसंपजित्ताणं तच्छा आहारं आहारित्तए तिकट्टु इमं एयारूवं अभिग्गनं गिण्हत्ताणं पोंडरोगिणणियओ पाडणिक्खमति २त्ता पुत्राणुपुत्रिचरमाणे, गामानुगामं दूइज्जमाणे, जेणेव थेरा भगवता तेणेव पाहारेत्थ गमेणाए ॥ २२ ॥ ततेणं तस्स कंडरीयस्स रण्णो पणियं पाणभायणं आहारियस्त समाणस्स अति जागरिएणय अतिभोयणपसंगेणय से आहारणो सम्मपरिणए ॥ ततेणं तस्स कंडरयिस्स रण्णो तसि आहारंसि अपरिणममाणांस रूप धर्म अंगीकार किया. कंडरीकने डाले हुवे भंड उपकरण वगैरह ग्रहण किये, और ऐमा अभिग्रह धारण किया कि स्थाबिरों की पास जाकर उन को वंदना नमस्कार कर उन की पास से चार याम रूप व्रत अंगीकार किये पीछे आहार करना मुझे कल्पता है. ऐसा अभिग्रह ग्रहण कर पभात में ही पुंडरीकिगिनी नगरी में से नीकलकर पूर्वानुपूर्वी चलते ग्रामानुग्राम विचरते हुने स्थ बेर भगवंत को पास जाने को निकले || २२ || अति स्निग्ध कामोत्पाद के वस्तु का आहार करने से रात्रि में बहुत जागरणा करने से और अती भोजन के प्रसंग से कंडरीक राजा को सम्यक् प्रकार से आहार परिणामा नहीं. इस तरह सम्यक् प्रकार से आहार की परिणति नहीं होने से पूर्व रात्रि काल में शरीर में वेदना उत्पन्न हुई. वह वेदना For Personal & Private Use Only ** पुंडरीक कंडरीक का उन्नीसहवा अध्ययन ७४९ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 48 अनुवक बालाचारी मुनि श्री अमोलक पुत्ररतावन्तकालं समयंसि सरीरंसि वेयण पाउन्भूया, उज्जला विउला गाढापगाढा जात्र दुरहियासा, पित्तज्जरप रेगयसरीरे दाहवतीयावि विहरति ॥ तसेणं से. कंडरीएराया रजय रद्वेग जात्र अंतेउरेम जाव अज्झोवबन्ने अट्टदुहट्टवसट्टे अकामते. असवसे कालमासे कालकिच्चा आहे सचमाए पुढवीए उक्कोस कालंटिइयंसि मेरयास इयत्ता उबवण्णे ॥ २३ ॥ एवमेत्र समणाउसो ! जाव पव्वत्तिए समाणे पुणरधि माणुस कामभोगे आसाइए जाव अणुपरियहिस्सति जहा से कंडरीए राया. ॥ २४ ॥ ततणं से पुडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ उज्वल, विपुल, प्रकट यावत् नहीं सहन हो सके बैषी थी. इस तरह पित्तज्वर शरीरवाला यावत् बनकर विचरता था. वह कंडरीक राजा राज्य, राष्ट्र यावत् अंतःपुर में मूच्छिब बना हुवा आर्तकारी, दुःखार्त बना हुवा परवश पडा हुवा बाल के अवसर में काल करके नीचे सातवी पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति से (नारकीपने उत्पन्न हुवा || २३ || अहो आयुष्मन्त श्रमणों ! जैसे कंडरीक काम भोग में मूर्च्छित होने से सातवी नरक में नारकीपन उत्पन्न हुआ वैसे ही जो कोई साधु साध्वी प्रव्रजित बनकर पुनः मनुष्य के काम भोगों में मूच्छित होगा वह इस लोक में माधु, साध्वी, श्रावक व श्राविकाओं में इलिना निंदा को मत होगा यावत् अनंत संसार में परिभ्रमण करेगा ||२४|| अत्र पुंडरीक अनगार स्थावर भगवंत की पास | For Personal & Private Use Only काशक- राजाबहदुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालामसादमी ७५० Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 44.पष्टगताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध HI+ थेर। भगवते वंदति नमसति बंदिता नमंसित्ता थेराणं अंतिए दोच्चपि चाउजाम धम्म पडियजति, छट्ठक्खमण पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करति २ त्ता जाव अडमाणे सयिलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेति २ चा महापजत्तीमतिकटु परिनियत्तए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २त्ता भत्तपाणे पडिदंसेति २त्ता थेरो भगवतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए ४ चिलमिवपणगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुयं एसणिज्जं असणं पाणं खाइमं साइमेणं सरीरकेटुगंसि पक्खिवति ॥ २५ ॥ ततेणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्वंतं अरस गये. स्थविर भगवंत को वंदना नमस्कार कर स्थविरों की पास दूसरी बार चार याम रूप धर्म अंगीकार किया. छठ (ले) के पारने के दिन प्रथम महर में स्वाध्यायकर यावत् ऊंच नीच मध्य कुलमें गोचरी के लिये परिम्रपण करत ठंडा, रूक्ष, पान भोजन ग्रहण किया. स्वतःको होवे जितना मिलने से पी फिरे और स्थविर भगवंत की पास आये, भक्त पान उन को बतलाया, स्थविर भगवंत की अनुज्ञा है। लेकर जैसे सर्प अपने बिल में प्रवेश करता है वैसे ही माहार पानी में किसी प्रकार से मच्छित हुए विना उस आहार पानी को अपने शरीर कप कोटे में डाला ॥ २५ ॥ पुंडरीक अनगार को शीवस, +1 पुंडरीक कंडरीक का उर्मीसहवा बैश्ययन ____ : For Personal & Private Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 4 अनुवादक- वारह्मचारी मुनि श्री अमोलखऋषिजी विरस सीयं लक्खं पाण भोयणं आहरियस्स समाणस्स पुत्ररत्तावरतकाल समयसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो समं परिणमति ॥ ततेणं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्म सरीरगंसि वेदना पाउब्भूया उजला जात्र दुरहियासा पित्तज्जर परिगय सरीरे दाहकतीए विहरति ॥ २६ ॥ ततेणं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अबीरिए अपुरिसक्कारपरिक्कम करयल जाब एवं वयास्त्री - णमोत्थुणं अरहंताणं भगवंताणं नात्र संपत्ताणं नमोत्थु थराणं भगवंताणं ममधम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं पुत्रं प्रियणं मए थेराणं अतिए सच्चे पाणातिवाए पञ्चखाए जाव मिच्छादंसणसले पच्चक्खाए जाब आलोइय पडिक्कते कालमासे कालंकिच्चा सव्व अरस विरसवाला आहार पानी समय वे समय मीलने से व पूर्व रात्रि में धर्म जागरणा करने से वह आहार सम्यक् प्रकार से परिणमा नहीं. इस से उन के शरीर में वेदना प्रगट हुई. पित्तज्वरबाला शरीर महित यावत् विचरने लगा || २६ || अब पुंडरीक अनगार बल वीर्य पुरुष स्कार व पराक्रम रहित होने से हाथ जोडकर ऐसा वोले कि अरिहंत भगवंत की जो मोक्ष को प्राप्त हुए हैं उन को नमस्कार होवो, मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक स्थविर भगत को मेरा नमस्कार होवो, पहिले मैंने स्थविरों की पास से धर्म सुनकर प्राणातिपात का यावत् मिथ्या दर्शन शल्य का प्रत्याख्यान किया था. यावत् आलोचना प्रतिक्रमण - For Personal & Private Use Only १. प्रकाशक-राजा बहादुर लाला. सुखदेवमहायजी स्वास्यमसादमी ० ७५२ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - R NRN षष्टक झाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध सिद्धे उजवन्ने ॥ ततो अणंतरं चइत्ता महाविदेहवासे सिञ्झिहिति जाब सन्दुक्खाण मतं करिहिति ॥ २७ ॥ एवामेव समणाउसो ! जाव पन्वतिते समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं गोसजति जोरजति जाव णो विप्पडिधायमावजाते, सेणं इहभवे चेव बहणं समगाणं बहुण समीणं बहुणं सावयाणं बहुणं सावियाणं अचणिजे वंदणिजे पूणिज्जे सकारमिजे- सम्मागणिजे कल्लाणं । मंगलं देवयं . चइयं पज्जुवासणिजे तिकटु, परलोए बियणं णो आगच्छति बहुणं दंडणाणिय मंडणा गिय तंजणाणिय तालणाणिय जाव चाउरतं. संसार कंतारं जाव बीतीवइस्सइ॥ जहा' महित काल के अवमर में काल करके सर्वार्थसिद्ध में देवतापने उत्पन्न हुए. वहां से चक्कर महाविदेह । क्षेत्र में सीझंगे, बुझेंगे व सब दुःखों का अंत करेंगे ॥ २७ ॥ जैसे पुंडरीक अनगार काम भोग में गृद्ध नहीं होने से सब दुःखें से रहित हुए, वैसे ही जो कोई साधु साधी प्रवजित बनकर मनुष्य संबंधी काम मोगो में आसक्त नहीं होते हैं यावत् उन्हें अंगीकार नहीं करते थे इस भव में बहुत साधु साध श्रावक व श्राविकाओं में अर्चनीय, वंदनीय, पूज्यनीय सरकार, सन्मान योग्य, कल्याणकारी देवसमान, मानवंत, व पर्युपासना के योग्य होते हैं, परलोक में किसी प्रकार का दंड, मुंड, तर्जना ताडना वगैरह मुंगारक कडरिक का उनोस अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in In अनुवादक-पालनमवारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी - वसे पुंडरीय अणगारे ॥ २८ ॥ एवं खलु समजेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं जाव सिद्धिगए णामधेनं ठाणसंपत्तेणं एगणवीस इमस्स . नायज्झयणस अयम? पण्णत्ते तिबेमि ॥ १९ ॥ गाथा ॥ वास सहरसंपि जई काऊगं,संजमंसुविउलपि ॥ अंत किलिट्रभाव, णविसुजइ कंडरीउब्ध॥१॥ तथा तत, अप्पेणवि कालणं केइ जहा गहिय सीलसाहति ॥ णिययकजं पुंडरिय महारिसिव जहा ॥ २ ॥ एगूणवीसमं जायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १९ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइ णामधेजं ठाणंसंपत्तेणं छटुस्स कुच्छ भी दुःख नहीं पाते हैं यावत चतुर्गतिक संसार का उल्लंघन करते ॥२८॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् सिद्धि को प्राप्त हुने उनोंने ज्ञाता मूत्र के उनीमवे अध्ययन का यह अर्थ कहा ॥१९॥उपसंहार-महस्र वर्ष पर्यंत संयम पालकर भी अंतमें क्लिष्ट भाव धारण करता है वह कुंडीक जैसे विशुद्ध नहीं होता है अर्थत् दुःख पाता॥१॥ और जो कोई अल्प कालसे भी यह तथ्य चारित्रग्रहण कर शुद्ध पासता हैवा पुंडरीक महाऋषि जेसे अपना कार्य साधता है॥२॥या उबीसवा अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥१९॥ अहो नंब! श्रीश्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञातामत्र नामक छठा अंगका प्रथम श्रतस्कंधया अधिकार प्ररूपा शाइस aamanaruna पकाकराजाबहादुर काला मुखदेवसहायनी ज्वालामस्वदशी. अर्थ m For Personal & Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 签 पशामकथाका प्रथम श्रवस्कंध 418+ अंगस पढमस्स सुवस्वधरस अयमठ्ठे पण्णत्ते, तिबेमि ॥ णायाधम्म कहाणं पढमो सुक्खंधो सम्मन्तो ॥ १ ॥ एयस्सणं सुअक्खधस्सं एगूणवीसं अज्झयणावि एक्कारसंगाणि गुणवीस दिवसे सम्मप्पति ॥ १ ॥ श्रुतस्कंध के उन्नीस अध्ययन कहे हैं. इग्यारह अंग में से यह अंग उभीस दिन में पूर्ण करे. यह प्रथम श्रुतस्कंध संपूर्ण ॥ १ ॥ ०. ॥ पढमो सुयखंधो सम्मत्तो ॥ ० ॥ प्रथम श्रस्कन्ध सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only 446+ पुंडरीक कंडरीक का उन्नीमा अध्ययन 15 ७५५ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 44 अनुवादक-पामचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध ॥ तेणं कालणं तेणं समएणं रायगिहे णथरे होत्या वष्णओ ॥ तत्थणं रायगिहस्स नगरस्स बाहियो उत्तर पुरत्थिमदिसीभाए तत्थैणं गुणसिलए नामं चेइए होत्था वनओ ॥ १॥ तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंते वासी अजसु हमा नाम थेरा भगवंता जति संपन्ना कुल संपन्ना जाव चउदसपुत्री चउणाणोत्रगया पंचहि अणगार सहिं सद्धिं संपरिबुडे पुन्त्राणुपुत्रि चरमाणा गामाणुगामं दुइनमाणं सुहंसुहेणं बिहरमाणा जंगव रायगिहेणयरे गुणसीलए चेइए तेणेव समोसढा जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणा विहरंति ॥ २ ॥ परिसा णिग्गया, उस काल उस समय राजगृह नगर था, वह वर्णन योग्य था. उस राजगृह नगर की बाहिर ईशानकून {में गुणशील नामका उद्यान था. वह वर्णन योग्य था. ॥ १ ॥ उस काल उस समय में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के अंतेवासी जगत संपन्न कुलसंपन्न यावत् चउदह पूर्व के ज्ञान धारन करने वाले {स्थविर भगवंत आर्य सुधर्मा स्वामी पांचों साधुओं के परिवार से पूर्वानुपुर्वे चलते ग्रामानुग्राम सुख से विच रामजगृह नगर के गुणशील उद्यान में पधारे. वहां संयम व तप से आत्मा को भावते हुवे विचरने लगे. ॥ २ ॥ परिषदा नीकली, धर्मकथा कही और परिषदा यहां से आई थी वहां पीछी गई. For Personal & Private Use Only प्रकाशक- राजा बहादुर लाला सुखदेवसायजी ब्यााप्रसादजी ● ७६६ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टांग हाताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कन्ध 4kre धम्मोका हिओ परिसा जामेवदिसि पाउम्भूया तामेवदिसि पडिगया॥३॥तेणं कालेणं तेणे समएणं अजसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज जंबूगामे अणगारे जाव पज्जा समाणे एवं बयासी-जतिणं भंते ! समजेणं भगवाया महावीरेणं जाव संपत्तेगं छटुस्स ___ अंगस्स पहम सुपखंधस्स णायाणं अयमढे पण्णत्ते दोबस्सणं भंते सुयखंधस्स.धम्म कहाणं समगेगं भगवया महावीरेणं जाव संपत्ते के अट्टे पन्नत्ते । ॥ एवं खलु जंधु! समणेणं भगवयामहावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्म कहाणं दसवगा पण्णता तंजहा चमरस्सणं अगमहिसाणं पढ़मेवावलिस्स बहरोयर्णिदस्ती वरीयण रन्नो अग्गमहिसाणं वीए. बग्गे, ॥२॥ असुरिंदवजाणं दाहिणिलाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइएवग्गे E॥ ३ उस काल उस समय में आर्य सुधा स्वामी अनगार के अंतेवासी आर्य जम्बू अनगार पावत पर्युपासना करते हुने ऐमा बोले अहो. पूरय मा श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने शातासूत्र नामक छट्ठा अंग के प्रथम श्रुतस्कप का उक्त अर्थ कहा तब दूसरा श्रुतस्कंध का स्या अर्थ कहा है ? ॥४॥ बहो जम्बू!" श्री श्रमण भगवंत महावीरस्वामी यावत् जो मोक्ष पधारे उभोंने धर्मकथा के दूसरे श्रुतम्ध के दशवर्ग कहे हैं। जिस के नाम-१ चपरेन्द्र की अनमहिषियों का पर्स, २.लि. नायक वैरोचनेन्द्र की अअपहिषियों। का दूसरा वर्ग, ३ असुरेन्द्र छडकर शेष दक्षिण दिशा मनपीत के इन्द्रों की अनमहिपियों का 8. पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन For Personal & Private Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - wwwwwwwwwwww अनुवादक- ब्रह्मचारीमान श्री अमोल ऋषिजी ॥३॥उत्तरिलाणं असुरिंदवजियाणं भवणवांसि इंदाणं अगमहिसाणं च उत्थे व॥४॥ दाहिणिल्लाणं वाणमंतरराणं इंदाणं. अग्गमहिंसीणं पंचमेवग्गे ॥ ५॥ उत्तरिलाणं वाणमंतराणं इंदाणं अगमहिसाणं छट्टेवग्गे ॥ ६॥ चंदरस अग्गमहिसीण मत्तमेवग्गे ॥ ७ ॥ सूरस्सअग्गमहिसीणं अट्रमेवग्गं ॥८॥ सरसअग्गमहिसीणं गवमेवम्गे ॥॥९॥ ईसाणस्स अग्गर्माहसीणं दसमे वग्गे ॥ १० ॥ ५ ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दसवग्गा पण्णत्ता, पढमस्सणं भंते ! वारसणं समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पन्नत्ते ? ॥ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पढमस्त बग्गस्स पच तीसरा वर्ग, ४ असुरेन्द्र छोडकर उत्तर दिशा के भवनवासी इन्द्रों की अग्रमहिपियों का चौथा वर्ग, १५ दक्षिण दिशी के वाणव्यंतर के इन्द्रों की अग्रपहिषियों का पात्रमा वर्ग, ६ उत्तर दिशा के वाणव्यंतर के इन्द्रों की अग्रपहिषियों का छट्ठा वर्ग, ७ चंद्र की अंग्रपहिषियों का सातवा वर्ग ८ सूर्य की अग्रपहिषियों का आठवा वर्ग ९ शक्रेन्द्र की अग्रपहिषियों का नवा वर्ग और १० ईशानेन्द्र की अग्रमहिषयों का दशवा वर्ग है ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने यावत् ज्ञाता धर्म कथा के सदश वर्ग कहे है. उप्स में से प्रथम वर्ग का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू ! श्री श्रपण भगवंत महावीर • पक शक-राजाबहादुर लाला. मुखदेवमहायजीज्वालाप्रमादजी अर्थ For Personal & Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 अझयणा पण्णता तंजहा-१काली, २ राती, ३ रयणी, ४ विज्जु, ५ मेहा ॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गरस पंच अज्झयणा षण्णत्ता पढमस्सणं भंते । अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्रे पन्नते?॥ एवं खलु जंबू? तेणं कालेणं तेणंसमएणं रायगिह णयरे गुणसिलर चेहए, सेणिएराया, चेल्लणादेवी, सामी सामासरिए, परिसा निग्गया, जाव परिसा पज्जुवा सति ॥ ६ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं काली देवी चमरचचाए रापहाणीए काल वडिंसगभवणे कालसिंहासणंसि चउहिं सामाणिय माहसीहिं चउहिं महारियाहि सपरिवाराहि, तिहिंपरिसाहिं, सत्चहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणियाहिवईहिं, सोलसहिं अर्थ | स्वामीने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन कहे हैं जिन के नाम-१ काली २ राई ३ रजनि ४ विद्युत और ५ मेघा. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन कहे हैं उन में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृहे नगर था, गुणशील उद्यान था, श्रेणिक राजा था. उसको चलाणा सणी थी. श्री श्रमण मंगवंत महावीर स्वामी पधारे, परिषदा वंदन 3करने को नीकली यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी ॥ ६ ॥ उस काल 'उस समय में काली देवी चपर चंचा राज्यधानी में काल:ब्रांसक विमान में चार हजार सामानिकदेव के परिवार सहित चार महतरिकादेवी) *पष्टाङ्गज्ञाताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कन्ध 41 पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 49 For Personal & Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ 4 अनुवादक -बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -+-- आरक्ख देवताहरुपीहिं, अन्नेहिय बहुहिं काल डिसय भरणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडा महयामहय जाव विहरइ ॥ ६ ॥ इमंचणं केवल क जंबूदी दीघे भारवा से विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी पासइ २त्ता तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबूदीचे दीवे भारहेवासे रायगिहेनगरे गुणासिलए चेइए अहा पंडिरूवं उग्गहं उगिव्हिचा सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति पासित्ता, हड्ड चित्तमानंदिया पीतिमाणी जाव हय हियया सिंहामणाओ अब्भुट्ठेतिर चा पायपी ढातो पचे सहनि २ ता पाउयातो सुरति २ ता तित्थयराभिमुही सत्तट्ठपयाई अणुतीन परिषदा, सात अनीका, सात श्रनीकाधिपति, सोलह हजार अस्मरक्षक देव और अन्य बहुत कालाव { तंसक भवन में रहनेवाले देव व देवियों की साथ परवरी हुई यावत् विचरती थी || ६ | उस समय काली देवी विपुल अवधिज्ञान से संपूर्ण जम्बूप को देख रही थी. उतने में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में यथामतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुये श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को देखकर हृष्ट तुष्ट हुई, चित्त को आनंद करनेवाली प्रीति उत्पन्न करती {हुई यावत् उल्लुमित हृदयवाली बनकर अपने सिंहासन से उपस्थित हुई, पादपीठ से नीचे उतर कर ( पादुका दूर रखी. तीर्थकर की सन्मुख सात आठ पांव गई, बांया जानु ऊंचा रख डावा जानु पृथ्वी पर For Personal & Private Use Only -राजाहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७६० Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ + पांद्र ज्ञानाधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कन्ध गच्छति २ता मंजाणु अंचति २ ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहद्दु तिक्खतो मुद्धाणं धरणियलंसि निसोयइ २ चा इसि पच्चुण्णमइ २ ता. कडय तुडिय थभियातो भुयाओ साहरति २ ता करयल जाव कट्टु एवं वयासी - णमोत्थुनं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, णमोत्थुणं समजस्म भगवओ महावीररस संपाविकामस्म बंदामिणं भगवंतं तत्थगई इहगओ पासओमे भगवं महावीरे तत्थगए इयं चिक बंदति नमसति, वंदित्ता नमसित्ता सिंहासणवरांस पुरत्थामिमुही निसण्णा जाव समगे ॥ ७ ॥ ततेणं [ रखकर मस्तक को तीनवार पृथ्वीतलपर लगाकर जमीन किंचित् ऊंची हुई कंडे, कंकण व तुडित से {स्तमित भुजाओं ऊंची करके हाथ जोडकर ऐसा बोली अरिहंत भगवंत यावत् मोक्ष को प्रस हुने उन को { नमस्कार होवो और जो मोक्ष के कामी हैं. वैसे श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को मेरा नमस्कार होवो, मैं यहां रही हुई तीर्थंकर भगवंत को नमस्कार करती हूं. और वहां रहे हुई श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यहां रही हुई मुझे देखते हैं. यों करके उन को वंदना नमस्कार कर सिंहासन पर पूर्व दिशा की तरफ मुख रखकर बैठो ॥ ७ ॥ उत काली देवी को ऐसा अध्यवसाय हुआ कि श्रमण भगत महावीर For Personal & Private Use Only +++-- पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन ६१ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्र अर्थ 4- अनुवादक- बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + ती कालीए देवीए इमेयारूत्रे जात्र समुपज्जित्था, - सेयं खलु से समणे भग महावीरं वंदति नम॑सति वंदित्ता नमसित्ता जाव पज्जुवासितए त्तिकद्दु, एवं संपे २ भिओए देवे सदावेइ २त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे एवं जहा सूरियामा तहेत्र आणत्तियं देइ जात्र दिव् सुरवराभिगमणजोग्गं करेह २ ता जाव पञ्चविण ॥ तेवि तहेव करेत्ता जाव पचविणंति णवरं जोयण सहस्स विच्छिण्णं जाणं सेसं तहेव ॥ तत्र नामगोयं साह लव नविहिं उवदसेइ जात्र पडिगया ॥ ८ ॥ संतेति भगवं गोयमे स्वामी को उन की पास जाकर वंदना नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करना मुझे श्रेय है. यों कर आभियोगिक देवों को बोलाये और कहा कि श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में {राजगृही नगरीके गुणशील उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह याचकर यावत् विचर रहे हैं वगैरह सब सूर्याभ देव जैसे आज्ञा दी. यावत् दीव्य देवताओं के गमन योग्य विमान बनावो. और इतना करके मुझे मेरी आज्ञा पीछी दो. उनोंने भी वैसे ही करके आज्ञा पीछी दी. विशेष में एक हजार यांजन का चौडा विमान बनाया. नाम गोत्र वगैरह कहे सब वैसे ही जानना और सूर्याभ देव जैसे नाटक बताकर पीछी गई ॥ ८ ॥ गौतम विचार For Personal & Private Use Only ● प्रकाशक - राजा बहादुर लाला सुखदेव सहाय की ज्वालाप्रसादजी ● ७६२ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 षष्टांङ्ग ज्ञताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कंध 48 समगं भगवं महावीरं वंदति गमंसति वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी-कालिएणं भंते ! देवीए सा दिवा देविड्डी ३ कहिंगया ? कूडागारसाला दिटुंतो ॥९॥ अहोणं भंते ! कालीदेवी महिद्विया सइज्जुया कालिएणं भंते! देवीए सा दिवा देवीडी ३ किण्णालडा किण्णापत्ता किण्णा अभिसामण्णागया ? एवं जहा सूरियाभस्स जाव एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इंहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहेवासे आमलकप्पा णामं णयरी होत्था वण्णओ ॥ अबसालवणे चेइए, जियसत्तूराया ॥१०॥ तत्थणं आमलकप्पाए जयराए कालेणाणं गाहावती होत्या स्वामी श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार करके पेमा बोली कि अहो भगवन् ! काली देवीकी यह दाव्य देवऋद्धि कहां गई? यहां उत्तरमें कूटाकारशालाका दृष्टान्त जानना ॥ ९॥ अहो भगवन् ! मैं काली देवी महा ऋद्धिवाली व महातिवाली है ! अहो भगवन् ! काली देवी को ऐमी दीव्य देव द 41 से प्राप्त हुई ? यो जैसे मूर्याभ का वर्णन किया वैसे ही कहना. यावत् अहो गौतम ! उस कालं उस समय में इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आमलकम्पा नामक नगरी थी. उम की बाहिर अम्बशाल नामक । उद्यान था. जितशत्रु राजा राज्य करता था. ।। १० ।। उस अमल कम्पा नगरी में काल नामक गाथा.. पहिला वर्ग का पहिला 4 For Personal & Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी अड्डे जाव अपरिभूए ॥ तस्सणं कालस्स गाहावइस्स कालसिरीणाम भारिया होस्था । सुकुमाला पाणिपाया जाव सुरूवा ॥ तस्सणं कालगस्स गाहावइस्स धूया कालसिरीए भारियाए असया कालीणामं दारिया होत्था वडा वडकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडिय पुयत्थणी णिविन्नवरा वर परिवजियावि होत्था ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं. समएणं पासेअरहा पुरिसादाणीए आइकरे जहा वडमाण सामी, गवरं लवहत्थुरसेहे, सोलसहिं समणसाहस्सिहिं अट्ठतीसाए अजिया साहस्सीहिं सडिं संपरिबुड़े जाव पति रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् अपराभूत था. उस गाथापति को काल श्री नामक भार्या थी वह सुकोमल हाथ पांव वाली यावत् सुरूपा थी. उस काल गाथापति को काल श्री भार्या से काली नामक कन्या हुई थी वह कुमारिका-यौवन. अवस्थाको माई तथापि वृद्ध देखाती थी, वृद्धावस्था जैसे शरीरमें. जीर्णता होगईथी, काया व सनस्थित पडगयेथे, और वरसे परिवर्जित थी अर्थात् उसका विवाह हुआ ही नहीं। था. ॥ ११॥ उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी , वर्धमान स्वामी समान विचरते थे. उन के शरीर की अवगाहना ना हाथ की थी. वे सोलह हजार साधु. अडतीस. हजार साधी की साथ यावत् परवरे हुवे अंबशाल बन में पधारे. परिपदा नीकली यावत् पर्युपा-का .५काशाशजाबहादुर छालामुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ -पष्टांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का द्वितीय तस्कन्य 43+ अंबमालवणे समोसढे, परिसा णिग्गया जात्र पज्जुवासति ॥ १२ ॥ ततेणं सा . कालीदारिया इमीसे कहाए लडट्ठा समाणी हट्ठ तुट्ठा जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ २ ता करयल जाव एवं वयासी एवं खलु अम्मयाओ पासे अरहा पुरसादाणीए आइगरे जाव विहरति, तं इच्छामिणं अम्मयातो तुम्मेहिं अम्भ गुणाया समाणी पासरस अरहा पुरिसादाणीयरस पायबंदिया गमित्तए ? अहासुहं देवांणुपिया ! मापडेिबंधं करेह ॥ ततेणं कालीदारिया अम्मापिताहिं अब्भणुन्नाया संमाणीहट्ठा जाव हियया हाया कयबलिकम्मा कय कोउयमंगल पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाति मंगलाइ वत्थाइ पत्रर परिहिया अप्पमहग्या भरणा लंकिय सरीरा चेडिया चक्कवाल परिकिण्णा सातो सना करने लगी ॥ १२ ॥ उस समय में काली कुमारी पार्श्वनाथ स्वामी के पधारने की बात सुनकर हृष्ट { तुष्ट हुई और जहां अपने मात पिता थे वहां आई. उन को हाथ जोडकर बोली- अहो मातपिता ! धर्म की आदि करनेवाले पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी यावत् विचर रहे हैं. इस से आप की अनुज्ञा होवे सो { पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी के पांच वंदन करने को मैं जाना चाहती हूं. उनोंने कहा अहो देवा{ नुनिय! जैसे सुख होवे वैसा करो. मात पिता की अनुज्ञा होने से काली कुपारी हृष्ट तुष्ट हुई. उसने स्नान किया, कुल्ले किये, तिल पासादिक किये, शुद्ध सभा में प्रवेश करने योग्य मंगलिक बनों परि For Personal & Private Use Only पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन ७६५ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सू ७६३ ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी + गिहातो पडिमिक्खमति २ ता. जेणेब बाहिरिया उवट्ठाण साला जेणेवधम्मिए जाणप्पवरे - तेणेव उवागच्छइ २त्ता धम्मियंजाणप्पवरं दुरूढा तएणं सा कालीदारिया धम्मियं जाणप्प- .. वरं एवं जहा दोवती तहा पज्जुवासति॥ १३॥ततेणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिए दारियाए तीसेय महति महालियाए परिसाए धम्मकहा कहेइ॥१४॥ततेणं सा कालीदारिया पासस्स अरहो पुरिसादाणीए अंतिए धम्मं सोचाणिसम्म हट्ट जाव हियया,पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो वंदति णमंसति, वंदित्ता गमंसित्ता एवं क्यासीसदहामिणं भंते ! जिग्गंय. पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वादह जं गवरं देवाणुधान किये. अल्पभार व बहुमूल्यवाले आभरण अलंकार धारण किये. और दासीयों के परिवार से अपने गृह से निकलकर जहां वाहिर की उपस्थानशाला थी वहां आई. वहां धार्मिक रथ की पास जाकर उस में बैठी. काली देवी रथ पर बैठ कर समोसरण में गई और द्रौपदी जैपे पर्युपासना करने लगी ॥ १३ ॥ श्री पुरुषादानीय पार्श्वनाथ स्वामीने उस काली कुपारिका को महती परिषदा में धर्पकथा कही ॥ १४ ॥ काली कुमारिका पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी की पाम धर्म सुनकर हृष्ट तुष्ट हुई. पार्श्वनाथ अरिहंत को बंदना नमस्कार करके ऐसा बोली अहो भगवन् ! निय प्रवचन की मैं श्रद्धः करती हूं. यावत् जैसा प्रकाधक-सजावहादुरळालामुखदवमहायजीवाला प्रसादजी अर्थ | Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 439 पटांग माताधकथा का द्वितीय श्रुनस्कन्ध 498 प्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि ततेणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पब्वयामि ॥... अहामहं देवाणप्पिए! ॥ १५॥ ततेणं सा कालीदारिया पासेणं अरहा पुरिसादाणिएणं . एवं वुत्तासमाणी हट्ट जाव हियया, पासं अरहं वंदति मंसंति वंदित्ता, मंसित्ता, तमेवधम्मियं जाणप्पवरं दुरुहतिरता पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स अंतियातो. अंब सालवणातो चेहयातो पडिणिक्खमति २ ता जेणेव आमलकप्पाणयरी तेणेव उवागच्छइ २ त्ता आमलकप्पं गयरिं मज्झं मझेगं जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता धम्मियं जाणप्पवरं ठवेतिरत्ता धम्मियातो जाण प्पवरातो : पच्चोरुहति रत्ता जेणेव अम्मापियरो तेमेव उवागच्छइरत्ता करयल जाव एवं वयासी. आप कहते हो वैसे ही है, विशेषमें मैं मेरे मातपिता को पूंछकर आप की पास दीक्षा अंगीकार करूंगी. भगवंतने कहा जो तुम को मुख होवे वैसा करो ॥ १५ ॥ पार्श्वनाथ अरिहंत के ऐमा कहने पर वह काली कुमारी हृष्ट तुष्ठ हुई. पार्श्वनाथ स्वामी को वंदना नमस्कार कर उस ही धार्षिक रथ पर बैठकर श्री पर्श्वनाथ भारत की पास से अंब शालयन उद्यान में से निकलकर अमलका नगरी में आइ.. और उस की मध्य बीच में होकर बाहिर की उपस्थान शाला में गई. वहां रथ खड़ा करवाया कि कारथ से नीचे उतरी और अपने मात मिता की पास आई. उन को हाथ जोडकर कहने लगी-कि अहो । पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 431 For Personal & Private Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनुवादक-माळमचारी मुनि श्री प्रमोडक ऋषिनी - एवं खलु अम्मयातो मएपासरस अम्हातो अंतिए धम्मेणिसंते सेवियधम्मे इन्छिए पडिग्छिए अभिरुइए, ततेणं अहं अम्मयाओ संसार भउन्विग्गा भीया जम्मण मरणाणं इच्छामिणं तुम्भेहिं अभणुन्नाया समाणी पासस्त अरहतो अंतिए मुझे भवित्ता अगारातो मणगारियं पचतिसए ॥ अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबर्ष करेइ ॥१६॥ ततेणं से काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावति २त्ता मित्तणाइणियग सयणसबंधि परियणं आमंतेतिरत्ता ततो पच्छाहाए जाव विपुले पुष्पवत्थगंध मलालंकारणं सकारत्ता समाणेत्ता तस्सेव मित्तणाति णियम सयण मात पिता ! मैंने पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामी की पास से धर्म सुना है. वहीं धर्म मुझे इच्छिा है यावत् उसपर ही मेरी अभिरूचि है.अहो पात पिता ! मैं संसार भय से उदिन बनी हुई जन्म जरा परण से भय भीत बनी हूं. मैं आपकी अनुज्ञा से श्री पुरुषादानीय पार्श्वनाथ स्वामी को पाम मुंडित बनकर दीक्षित होना चाहती हूं. मात पिताने कहा अहो देवानुप्रिये ! जैसे मुख होवे वैसे करो. इम में विलम्ब मत करो. ॥१६॥तष:काल गाव पतिने विपुल अशन पान खादिम व स्वादिम बनाये. मित्र ज्ञाति सहन संबंधि आदि परिजनको आमंत्रण देकर तत्पश्चात मान करके यावत् विपुल पुष्प बस गंध माला व अलंकार उन सघ का सत्कार सम्मान किया. उन मित्र शातिं स्वजन संबंधि जनो की सन्मुख कालि कुमा प्रकाशक-राजाकह दुर लाला मुखदेवसहायनीज्वालाम साहनी । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ षष्टां ज्ञातावकत्था का द्वितीय श्रुतस्कन्ध 4+ संबंधि परियणस्स पुरतो कालिंदारियं सेयापीएहिं कलसेर्हि व्हावेतिरता सबालंकारं विभूतियं करेति रत्ता पारस सहस्तबाहिर्लि सीयं दुरुहति २त्ता मित्तनाइ जियग सयण संबंधि परियाणेण सार्द्धं संपरिवुडे सन्विदीए जाव रवेण आमलंकम्पनयरिं मज्झं • मज्झेणं निगच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव अंबसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छइ र सा छादिए तित्थगराइए पासति २ ता सीयंठवेइ २ चा कालिं दारियं सीयाती पचोरुहति ॥ १७ ॥ ततेणं कालिं दारियं अम्मापियरो पुरओ काओ जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेच उत्रागच्छइ २ ता वंइइ नमसइ २त्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुपिया ! काली दारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता नाव किमंग पुण श्वेत पीत कलशों में स्नान कराया, यावत् सब अलंकार से विभूषित की. फोर सहस्रपुरुष {पर बैठकर मित्र ज्ञाति स्वजन संबंधि जनोंके परिवार से सब ऋद्धि यावत् अमलकम्पा नगरी की मध्य बीच में निकल कर अंबशाल वन में आइ. तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशय देखकर शीषिका खडी. की. और कॉली कुमारी उम में से नीचे उतरी || १७ || काली कुमारीका के मातपिता उन को आगे करके पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ अरिहंत की पस आये, उनको वंदना नमस्कार कर कहने लगे कि अ देवानुमेय ! हमारी यह काली नामक पुत्री के या देवा शीव का उसका दर्शन भी है. For Personal & Private Use Only 48 पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन ७६९ ( Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammmmmmmmmmmmmm पासणयाए एसणं देवाणुप्पिया ! संसार भउठिवग्गा इच्छइ देवाणुपियाणं अंतिए । मुंडे भविताणं जाव पव्वइए एयणं " देवाणुप्पियाण सिसणि भिक्खं दलयामो, . पडिग्छतु देवाणुप्पिया .! सिस्सणि भिक्खं ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंध करेह ॥ ततेणं सा काली कुमारी पास अरहं वदति. नमसति वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति २ ता सथमेआभरणमल्लालंकारं मुयति २ सा सयमेव लोयंकरेति २ ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ २ त्ता पासं अरहं तिक्खुचो वंदति ममंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलियह संसार भय से उद्विग्न बनी हुई है और आप की पास मुंडित बनकर दीक्षा अंगीकार करना चाहती है अहो देवानुपिय! हम इस की आप को शिषनी भिक्षा देते हैं. अहो देवानुप्रिय! आप या शिष्यनी मिक्षा ग्रहण करो. भगवानने उत्तर दिया कि महो देवानप्रिय ! तुम को जैसे मुख होबे वैसे करो, विलम्ब मत करो. तब वह काली कुमारीका पार्श्वनाथ स्वामी को वंदना नमस्कार कर ईशानकून में गई.। भाभरण अलंकार वगैरह स्वतःने निकाल दिये, स्वयमेव लोच किया, और पार्श्वनाथ अरिहंत की पास , 15 आई. उन को वंदना नमस्कार करके बोली, अहो भगवन् ! यह लोक भालिप्त है यों सब देवानंदा जैसे है। 4. अनुवादक-पालब्रह्मचारीमुनी श्रीअमोलक ऋषिजी+ पाशकामाबहादुर लाला मुखदषपहायजी चाकापसादिनी. अर्थ For Personal & Private Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 . 48ष्टाजज्ञासापकया का द्वितीया श्रुतस्कष48 तेणं भंते ! लोए एवं जहा देवाणंदा जाव सयमेव पव्वविया ॥१८॥ ततेणं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालि सयमेव पुष्फलाए अजाए सिरमणियत्ताए दलयइ ॥ १९ ॥ तएणं सा पुष्पचूला अजा कालिंकुमारि सयमेव पवावेइ, जाव एवसंपजिसाणं विहरइ ॥ २० ॥ तएणं सा काली अजा जाया इरियासमिया जाव गुसबंभयारिणी ॥ तरणं सा. काली अजा पुप्फचूलाए अजाए अंतिए सामाइय माइयाइं एगारस अंगाई अहिज्जइ, बहुइं चउत्थ जाव विहरद ॥ २२ ॥ तएणं सा काली अज्जा भण्णयाकयाई सरीर पाउसिया जायावि होत्था, अभिक्खणं २ हत्थे धोति पाएधोवेति सीसंधोवेइ मुहं धोवेइ थणं तराई धोवेइ कक्खतराणि धोवेति गुज्झंतराणि धोवेइ जत्थ २ कहना. यावत् स्वयमेव प्रबजित बनी ॥१८॥ पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ स्वामीने काली आर्जिका को पुष्पचूला आर्या की शिष्यनी वनाई ॥ १९ ॥ पुष्पचूला आर्याने काली कुमारी को अपने हाथ से दीक्षा दी यावत् आज्ञा अंगीकार कर विचरने लगी ॥ २० ॥ अब वह कालीआर्या ईर्यासमितिवाली + यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी बनी ॥ २१ ॥ वह काली आर्या पुष्पचूका आर्या की पास से सामायिकादि इग्यारह अंग पढो. हुन उपवास बले आदि तपश्चर्या से आत्मा को भावती हुई विचरने लगी ॥ २२ ॥ एकदा काली आर्या शरीर का द्वेष करने वाली हुई. वारंवार हाथ धोने लगी, पाप धोने लगी, मस्तक पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 4280 । For Personal & Private Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अमांककपिजी वियणं ठाणंवा सेजंवा णितीहियंका चेएइ तं पुन्नामेव अब्भुक्खेत्ता ततोपच्छा आसायतिका सयतिवा ॥ २३ ॥ ततेणं सा पुषचूला अजा कलिंअजं एवं वयासीणो खलु कप्पति देवाणुप्पिया ! समणीणं जिग्गंधीणं सरीरपाउसियाणं होत्थए, तुमं चणं देवाणुप्पिए ! सरीर पाउसिया जाया अभिक्खणं २ हत्ये धोवेति जाव आसयाहि, तं तुमं देवाणुप्पिए । एयरस ठाणस्स आलोएहि जाव पायछित्तं पडिवजेहि॥ततेणं सा काली अजा पुप्फचूलाए अजाए एयमटुं नो आढाति जाव तुसिणीया संचिट्ठति ॥ २४ ॥ ततेणं ताओ पुप्फलामो अजाओ कालिंअजं अभिक्खणं २ होलेति जिंदति खिसंति गरहति अवमण्णति अभिक्खणं. २ एयमटुं निवारेति धोने लगी, मुख धोने लगी, स्तनतिर धोने लगी, कक्षातर धोने लगी, गुह्मांतर धोने लगी. और जहां २ स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्मर्ग करती थी वहां २ पहिले पानी सींचन कर पीछे बैठती व मोती थी। ॥ २३॥ पुष्पला आर्याने काली आर्या से कहा कि अहो देवानमिय! अपन साध्वियों हैं. अपन शरीर की सभूषा करना नहीं कल्पता है. तुम शरीर की श्रुषा करने लगी हो हाथ धोने लगी हो यावत् पानीका सींचन कर बैठती सोती हो इसलिये तुम को इस की आलोचना कर उस का पायाच्छत्त लेनाई चाहिये. काली आर्याने पुष्पचूला आर्या की इस बात को अच्छी जानी नहीं यावत् मौन रही ॥ २४ ॥ पुष्पचका भार्या काली भार्या की वारंवार हीलना निंदा व खिसना करने लगी और इस बात नहीं। .पाचकराजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी. मर्थ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ *पष्टां ज्ञाताधर्म था का द्वितीय श्रुतस्कन्ध 48 जात्र तणं ती कालीए अजाए समणीहिं निग्गंथी हिं अभिकखणं रे हीलिजमाणीए निवारिज्जमानीए इमेयारूत्रे अज्झत्थिए जात्र समुप्पज्जित्था, जयाणं अहं अगस्त्राम मज्झत्र सित्ता, तयाणं अहं सयंवसा अप्पवसा जम्पभिई चर्ण अह मुंडा भवित्ता अगारातो अनगारियं पव्वतिया तप्पभिइंचणं अहं परवसा जाया ॥ तसेयं खलु मम कलं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव जलते पाडिएक्कयं उबरलयं उवसंपजिवाण विहरिए तिकडु, एवं संपेहेइ २ चा कल्लं जाव जलते पाडिक्क उवस्सयं गिण्हइ तरणं अनिवारिया अणाहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं २ हत्थे धोवेद्द जाव आसयइत्रो सवा ॥ २५ ॥ तरणं सा काली अजा पासत्था पासत्थविहारिणी, ओसण्णा करने का कहने लगी. इस तरह डीलना निंदा, खिमना व गर्दा होने से काली आर्या को ऐसा अध्यत्रसाथ हुवा कि जब मैं गृहवास में थी तब मैं स्वतंत्र थी. जब से मैंने दीक्षा अंगीकार की है तब से मैं परवश हूं. अब कल प्रभात होते एक अलग उपाश्रय ग्रहण कर त्रिवरूं अर्थात् एकलविहारिनी बनूं यों विचार कर प्रभात होने पृथक् उपाश्रय में रहने लगी. व उम को कोई निवारनेवाला नहीं होने से स्वेच्छापना से वारंवार हाथ धोने लगीं यावत् जहां स्वाध्याय ध्यान व कायरा पहिले पानी से धोती थी । २६ ।। अब वह काली आर्या पार्श्वस्थ पार्श्वस्य विहारिनी करती थी वहां भी भोसन, ओसन्न For Personal & Private Use Only ** पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 4* ७७३ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री श्रमालक ऋषिजी" ओसण्ण विहारिणी, कुसीला कुसी लविहारिणी, अहच्छे ।। अहन्छदविहारिणी, संसत्ता संमत्तविहारिणी, बहुणी वासाणि सामन्न पारयागं पाउणति २ चा अवमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेति २ ता तीसंभत्ताई अणसणाए छएइ २ त्ता, तस्स ठाणस्म अणालोइय अपडिकते कालमासे कालंकिच्चा चमरचचाए रायहाणीए कालीबडिसए भवणे उववायसभाए देवसयणिजसि देवदूसंतरिया अंगुलरस असंखेजए भागमित्ताए ओगाहणाए काली देवित्ताए उववण्णा ॥ २६ ॥ ततेणं सा काली देवी अहुणोववण्णा समाणी पचविहाए पजत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासा मणपजत्तीए ॥ २७ ॥ ततेणं सा कालीदेवी चउण्डं सामाणिय साहस्सीणं जाव विहारिनी, कुशीला, कुशील विहारिनी, स्वच्वंदी, स्वच्छंद विहारिनी, संसक्ता संसक्त विहारिनी पनी. फीर बहुत वर्ष पर्यंत साधुपना पालकर अर्ध मास की संलेखना से आस्मा को झोंसकर अपने किये कार्यों की आलोचना प्रतिक्रमण किये विना काल के अवसर में काल कर चमरचेचा राज्यधानी में कालावतंसक विमान की उपपात सभा में देव शयन में देव दूष्य पत्र नीचे अंगुल के असंख्यातवे भागकी अवगाहना से काली देवीपने उत्पन्न हुई ॥ २६ ॥ वहां उत्पन्न हुई काली देवी पांच पर्याप्ति से पर्याप्त 17वती वगैरह सब कथन मूर्याभदेव जैस जानना. यावत् भाषा मनः पर्याप्ति पूरीकी॥२७॥अब वह काली देवी .प्रकाशक-राजावहादुरलाला मुखदेवसलयजी ज्वालाप्रसाद जी. । For Personal & Private Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ *पष्टङ्ग इताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध MP असंच बहु काली डिसग भवनवासीणं असुरकुमाराणं देवाणय देवीणय आहेत्रचं जाव विहरति ॥ २८ ॥ एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्या देवड्डी ३ लापता अभिसमंण्णागया ॥ २९ ॥ कालीएणं भंते! देवीए के तिथं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! अड्डाइज्जाई पलिओ माई ठिई पण्णत्ता ॥ ३० ॥ कालीणं भंते ! देवी ताओ देवलोगाओ अनंतरंउवहित्ता कहिंगंच्छिहिति कहि उवत्रज्जिर्हिति ? गोयमा ! महाविदे देवासे सिज्झिहिति ॥ ३१ ॥ एवं खलु जंबु ! समणेणं भगवया महाबीरेणं जाब संपत्तेणं पढमस्लवग्गस्स पढमशेयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ तिमि ॥ चार हजार सामानिक देव यावत् अन्य बहुत कालावतंसक भुवनवासी असुरकुमार देव व देवियों का अघिपत्तिपना करती हुई यावत् विचरती है ॥ ६८ ॥ अहो गौतम ! काली देवी को इस तरह ऐसी दीव्य ऋद्धि माप्त हुई है ।। २९ ॥ अहो भगवन् ! काली देवी की स्थिति कितनी कही ? अहो गौतम ! अढाई पल्योपम की स्थिति कही ॥ ३० ॥ अहो भगवन् ! काली देवी वहां से निकलकर कहां जावेगी कहां उत्पन्न होगी ? अहो गौतम ! महा विदेह क्षेत्र में यावत् सीझेंगी, तूझेंगी व सब दुःखों का अंत करेगी '॥ ३१ ॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन For Personal & Private Use Only 488+ पहिला वर्ग का पहिला अध्ययन 48 ७७६ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ 44 अनुवाक बालब्रह्मचारी मुनि श्री मालक विज+ धम्म कहाणं पढमंझयणं सम्मतं ॥ १ ॥ १ ॥ जतिणं भंते! समणेणं भगवया महावीरणं जात्र संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गरस पदमज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते, बिइयरसणं भंते ! अज्झपणस्स समणेगं भगवया जाव संपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ १ ॥ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जयरे गुणसिलए चेइए, सामी समोसढे, परिसाणिग्गया जात्र पज्जुवासा ॥ २ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं राई देवी चमरचचाए रायहाजीए एवं जहा काली तहेत्र आगया, नहविह उवसेत्ता पडिगया ॥ ३ ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे पुत्रभव पुच्छा ? ॥ ४ ॥ एवं खलु गोयमा तेणं काले तेणं समएणं { का यह अर्थ कहा. यह धर्मकथा का पहिला अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥ १ ॥ १॥ श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने घर्मकथा के प्रथम वर्ग का प्रथम अध्ययन कहा तो दूसरा अध्ययन कैसे कहा ? ॥ १ ॥ अहो जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नगर में गुगशील उद्यान था. {स्वामी पधारे. परिषदा वंदना करने को निकली यावत् पर्युगसना करने लगे ॥ २ ॥ उस काल उस { समय में राजी देवी चपरचंचा राज्यवानी से काळी देवी जैसे आई और नाटक गौतम स्वामीने उन के पूर्व भत्र की पृच्छा की ॥ ४ ॥ उस काल उस समय में बताकर पीछी गई ॥३॥ आमलकम्पा नाम मगरी For Personal & Private Use Only _*काशक-शजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी या साप्रसादजी 998 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र 41 पटांग ज्ञाताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कंध 418+ आमलकप्पा गयरी : अंबसालवणे चेइए, जियसचूराया, राईगाहावती, राईसिरी भारिया राईदारिया || ५ | पासस्स समोसरणं, राईदारिया जहेब काली तहेव निक्खता, तहेव सरीरपाउलिया, तंचत्र सव्वं जाव अंतं कार्हिति एवं खल जंबु ! बीयरसज्झयणस्स निक्खेत्रओ १ ॥ २ ॥ जतिणं भंते ! तयागणरस उक्खवओ एवं खलु नंबु ! रायागिहे जयरे; गुणसिलए चेइए एवं अहेब राई तत्र रयणीवि, नवरं अमलकप्पा जयरी, रयणीगाहावती रवणसिरी भारिया, रयणी दारिया सेसं तहेव जाव अंतं काहिति ॥ १ ॥ ३ ॥ विज्जुवि आमलकप्पा जयरी विज्जुगाहावई, विज्जुसिरी भारिया विज्जुदारिया, थीं, अम्बशाल उद्यान था. जितशत्रू राजा था, राजी गाथापति, राजि श्री उन की स्री व उन को राजी [ नामकी कन्या थी ॥ ५ ॥ पार्श्वनाथ स्वामी का पधारना हुवा, और काली की तरह उसने भी दीक्षा जंगी{कार की. बेसे ही शरीर का प्रद्वेष करने लगी यावत् अंत करेगी. अहो जम्बू ! यह दूसरा { अध्ययन का निक्षेपा हुवा ॥ १ ॥ २ ॥ ० • अब तीसरा अध्ययनका निक्षेप कहते हैं. राजगृह नगर गुणशील उद्यान, वगैरह राजीने से रजनीका जानना | विशेषमें पूर्व मन में अमलकप्पा नगरी, रजनी गाथा पति, रजन श्री मार्या व रजनी पुत्री यावत् अंत करेगी || १ || ३ || For Personal & Private Use Only 488+ पहिला वर्ग का तीसरा अध्ययन ७७७ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अनुवादकाचारी सुनि श्री अमोलक ऋषिजी + सेसं तत्र ॥ १ ॥ ४ ॥ महा दारिया, एवं मेहात्रि अमलकप्पा जयरीए मेहो गाहावई, मेहसिरी भारिया, सेसं तत्र ॥ एवं खलु जंबु समणं भगक्यामहावीरणं जाब संपक्षेणं धम्मक्राणं पढमवग्गरस अयमट्ठे पण्णत्ते ॥ पढमोत्रम्ग्रो सम्मन्तो ॥ १ ॥ :: ऐसे ही विद्युत का जानना. इस में भी अमलकम्पा नगरी, विद्युत गाथापति, उस की विद्युत श्री स्त्री और विद्युत कन्या. शेष सब पूर्वोक्त जैसे जानना ॥ १ ॥ ४ ॥ a • ऐसे ही मेघा का जानना. अमलकम्पा नगरी, मेघा गाथापति, मेघा श्री गाथापतिनी, और मेधा ? कन्या. शेष सब पूर्वोक्त जैमे जानना. अहो जम्बू ! प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा. यह प्रथम वर्ग संपूर्ण हुबा ॥ १ ॥ For Personal & Private Use Only • प्रकाशक राजाबहादुर छाला सुखदेवसहायजी, ब्वालाप्रसादजी ● GI Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांडवाताधर्मकथा का द्वितीय शुसस्कन्ध 48M ॥ द्वितीय-वर्ग ॥ जतिणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स घग्गरस उक्खेवओ ॥ ॥ एवं खलु जबु ! समगेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंचज्झयणा पण्णता, तंजहा-सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मंदणा, ॥ २ ॥ जतिणं भंते ! समणेणं भगवया महावीरणं जाव संपत्तेणं धमकहाणं दोच्चस्स वग्गरस पंचज्झयणा पण्णत्ता ॥दोच्चस्सणं भंते ! वग्गरस पढमस्स अझयणस्स के अटे पण्णत्ते ? ॥ ३ ॥ एवं खलु जंबु तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, गुणसिलए चेइए, सामी समोसढे, परिसाणिग्गया जाव परजुवासति ॥ ४ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सुंभादेवी श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने पहिला वर्ग का उक्त अर्थ कहा तब दूसरा वर्ग का क्या अर्थ कहा ? अहो जम्बू! दूसरे वर्ग के पांच अध्ययन कहें जिन के नाम-शंभा, निझुंभा, रंभा, निरंभा । व मदना ॥२॥ जब श्री श्रमण भगवंत पहावीर स्वामीने दूसरे वर्ग के पांच अध्ययन कडे तब उन में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा?॥३॥ अहो जम्बू ! उस काल उस समय में राजगा नगर था गुणशील ज्यान था. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे. परिषदा बंदना करने को आई, यावत् । पर्युपासना करने लगी ॥४॥ उस काल उस समय में शुभा देवी पलचंचा राज्यधानी में शुभावसक 61- दूसरा वर्ग 4 402 For Personal & Private Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. बलबंचागयहाणीए सुंभावर्डिसए भवणे सुभ सिंहाससि कालीगमएणं जाव णविहिं उवदेसेत्ता जाव पडिगया॥ ५ ॥ पुत्वभव पुच्छा? सावत्थीए गयरीए, कोट्ठग चेहए, जियसत्तूराया, सुंभगाहावती मुंभेसिरी भारिया, मुंभादारिया, सेसं जहा कालिए गवरं अडुट्ठाति पालिओवमाइ ठिइओएवं खलु जबु! निक्खेवगो अझयणस्साएवं सेसावि चत्तारि अझयणा ॥ सावत्थीए, गवरं माया पिया ध्या सरिस नामया ॥ एवं खलु जंबु निक्खवओ वीयवग्गरस उक्खेवओ। वितियवगो सम्मत्ती ॥ २ ॥ ५ ॥ अनुवादक-शासनमचारी मुनि श्री अमोलसपि भवन से शुभसिंहासन पर बैठी वगैरह सब गमा कालीदेवी जैसे जानना. या नृत्य बताकर पीछीगई ॥५॥ उसके पूर्वभवकी मौतम स्वामीने पृच्छा क्रीं श्रावस्ती नगरी कोष्टक उद्यान, जितशत्रु राजा, शुभं गाथापति, शुंभ श्री भार्या और शुंभ कन्या. शेष सब काली जैसे जानना. विशेष यहां इसकी स्थिति साडेतीन पस्यो. पप की जानना. अहो जम्बू ! ऐसे ही इस अध्ययन का निक्षेपा जानना, ऐसे ही शेष चार अध्ययन श्रावस्ती नगरी के जामना. मातपिता के नाम उस पुत्री के नाम असं जानना. अहो जम्बू ! ऐमेही दूसरा वर्ग का निक्षेप कहा. या दूसरा वर्ग संपूर्ण हुवा ॥ २ ॥ -राबाहादर हाका मुखदेवमयर यजीवासाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र - पांङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कन्ध अझ तइवग्गस्त एवं खलु जंबु ! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपतेणं तइयरसवग्गरस वउंपण्णं अज्झयणा पण्णत्ता तंजहा- पढमे अझयणे जाव चउपण्णं तिमे "1 जतिणं भंते 1 समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकाणं तइयवग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पण्णत्ता | पढमरणं भंते ! अझयणरस समणेण भगवया महावीरेणं जाब संपते के अट्ठे पण्णत्ते ? ॥ २ ॥ एवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तुणं समएणं रायगिहे णयरे गुणसिलए बेइए, सामी समोसढे परिसाणिग्गया, जाव पज्जुवास ॥ ३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अलादेवी धरणीए रायहाणीए अलावडिस भवणे अलंसि *45* तीसरा वर्ग 4 अब तीसरा वर्ग कहते हैं अहो अम्बू ! श्री श्रमण भगवंत मडावीर स्वामीने तीसरे वर्ग के चौपन्न अध्ययन कडे } हैं. पहिले से चौपन्न पर्यंत जानना ॥ १ ॥ अहो भगवन्! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने धर्म कथा के तीसरे वर्ग चौपन अध्ययन जब कड़े तब पहिला अध्ययन का क्या अर्थ कहा ? ॥ २ ॥ अहो जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृही नेगरी के गुणशील उद्यान में भगवंत श्री महावीर स्वामी पधारे, } 20 {दा वंदन करने को निकली घावत् पर्युपासना करने लगे. ॥ ३ ॥ उस काल उस समय में अलादेवी धरणी राज्यधानी में अलावतंसक भवन में अलं सिंहासन पर बगैरह काली जैसे गमा जानन्स. याबत For Personal & Private Use Only ७८१ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAnamne.......... ७८२ ब्रह्मचारीमुनि श्री अमोल ऋषिजी + सीहाससि,एवं काली गभएणं जाब विहि उबदसेत्ता पडिगया ॥ पुटवभव पुन्छ ? वाणारसीए णयरीए, काम महावणे चेइए, अले गाहावई, अलसिरी भारिया, अला दारिया, सेसं जहा कालीए, गवरं धरणस्स अग्गमहिसित्ताए उववाओ, सातिरेग अडपलिओवमं द्विती, सेसं तहेव ॥ एव खलु णिक्खेवओ पढमज्झयणस्स ॥ ३ ॥ १ ॥ एवं कामा सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणाविज्जुयावि,सवाओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ,एए छ अझयणा ॥ वेणुदेवस्सवि अविसेसीया भाणियबा,एवं जाव घोसस्सवि, एएचेव अज्झयणा, एचए दाहिगिल्लाणं इंदाणं चउप्पण्णाभज्झयणा भवंति, सव्वाओवि नृत्य बताकर पीली गई. उस के पूर्व भव की पृच्छा की. बनारसी नगरी में काम महाक्न उद्यान में अलं गाथापति, उस की भार्या अलं श्री और कन्या अला. शेष सब काली जैसे कहना. विशेष में घरणन्द्र की भार्यपने उत्पन्न हुई. इस की स्थिति साधिक आधा पल्पोपम की जानना. यह पहिला अध्ययिन का निक्षेपा कहा ॥३॥ ऐसे ही कामा देवी का, सतरा देवी का, सोदामिनी देवी का, इन्द्रा देवी का और घणविद्युत् देवी का यों पांच अध्ययन जानना. यह धरणेन्द्र की अग्रमहिषियों के छ अध्ययन हुवे. ऐसे ही वेणुदेवेन्द्र की अग्रमाडिषियों के छ अध्ययन, ऐसे ही नववे घोषेन्द्र तक सब इन्द्र की २ अग्रमहिषियों के अध्ययन मानना. इस से दक्षिण दिशा के सब इन्द्रों की अग्रमहिषियों के प्रकाशकराजारादुर लाला मुखदेव सहायजी नालाप्रसादी अर्थ अनुशदक + For Personal & Private Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वाणारसाए, काममहावणे चेहए, ॥ तइय वागरस मिक्लेवो ॥ ३॥ . . 488 पटानानाधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कन्ध घउत्थस्स वग्गस्स उक्खेवओ, एवं खलु जंबू ! समणणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं ७८३ धम्म कहाणं चउत्थवग्गस्स चउप्पणं भज्झयणा पण्णता, तंजहा-पढमे अझयणे जाव चउप्पण्णइमे पढमस्स मज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबु ! बेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे पयरे, सामी समोसरणं, परिसा, जाव पज्जुवासति ॥ तेणं कालणं तेणं समएणं रुयादेवी, भूवाणंदारायहाणी रुयगवडिसए भवगे, रुयंसि E५४ अध्ययन होते हैं. समानारसी नगरी में हुई और काम महावन में दीक्षित हुई थी. यह तीसरा वर्ग समाप्त दुवा ॥१॥ अब चौवा निक्षेपा कहते हैं: बो जम्बू! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने. धर्मकथा के बाव वर्ग के ५४ अध्ययन को . तद्यथा-प्रथम अध्ययन गर चौपनमा अध्ययन. इनमें से पहिला अध्ययन का कथन करते हैं. इस काल उस समय में राजगृह नगर में भगवान महावीर स्वामी पधारे । बंपरिषदा पर्यपासना करने लगी. उस काल उस समय में रुचा देवी, मृतानंदाराज्यधानी में रुचाकी वंसक विमान के रुच सिंहासन पर बैठी हुई यावत् सब अधिकार काली जैसे जानना. विशेष में पूर्व ! madimanwwwwwwwwwwwwwwmanawa चौथा वर्ग 4481 For Personal & Private Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिजी । सीहासर्णसि जहा कालीए तहा नवरं पुबमवे-चंपाए पुण्णभद्दए चेइए, रुयगाहावइ रुपगंसिरी भारिया, रुयादारिया, सैसं तहेव णवर-भूयाणंदे अग्गमहिसित्ताए उववाओ, देसूर्ण पलिओवमंठिती,गिक्खेवओएवं सुरुया,विख्या विरुयेसा,विरुयगाएवति,विरुयकतावि, रुयप्पहावि, इच्चयाओचेव उत्तरिलाणं इंदाणं भाणियवाओ; जाव महा घोसस्स णिक्खेवओ ॥ चउत्थं बग्गरस ॥ ४ ॥ ५४ ॥ पंचम वग्गरस उखवओ-एवं खलु जंबु ! जाव बत्तीसं अज्झयणा पण्णता, तंगहा १. कमला, कमलप्पभा चेव उप्पलाए सुदसणा रूववती, बहुरूवा; सुरूवा, भव का कथन चंपा नगरी, पूर्णभद्र चैत्य, कच गाय पति रुचग श्री भायां, और उस की रुचा कन्या शेष सब वैसे ही कहना. यह भूमानेन्द्र की अग्रमहिषी हुई. इस की स्थिति पस्योपम से कुछ कम जानना. ऐसे ही सुरूचा, विचा, विरूतंसा, विरूचावती, और विरुचप्रमाय इन पांचों का रूचादेवी जैसा जानना ऐसे ही उत्तर दिशा के सब इन्द्रों का जानना. यह सब ५४ अध्ययन होते हैं. यह चौथा वर्ग दुवा॥४॥ 23 अब पांचवा वर्ग का उक्षेपा कहते हैं. इस के बत्तीस अध्ययन कहे हैं. जिन के माम १ कमला, २ कमल प्रभा, ३ उत्पला, ४ मुदर्शना, ५ रूपवती, ६ वारूपा, ७ सुरूपा, ८ सुभगा ९ पूर्णा, १० बहुपणि बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक : •प्रकाशक-राजाबहादुर काला मुखदेवसहायनी चालाप्रसादजी. For Personal & Private Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 पांग ज्ञाताधकथा का द्वितीय श्रुतस्तन्ध Rite सुभगावियं ॥ ॥ पुण्णा बहुपुष्णियाचेव; उत्तमा भारियाविय ॥ पउमा वसुमतीचेव, क गगा कगगप्पभा ॥ २ ॥ वडिगा केउमती चेव; वइरसेणा रइप्पिया; रोहिणी नयमिपा चेत्र हरी पुष्पवतीविय ॥ ३ ॥ भुयगा भयगवती चेव, महाकच्छा 9૮૦ फुड इय, सुघोसा विमला चव सुस्ससराय सरस्सती ॥ ४॥ उक्खेओ व पढमज्झयणस्म; एवं खलु जंबु!-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे समोसरणं जावं परिसा पज्जुबासति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं कमलादेवी कमलाए रायहाणीए कमलवासिए भवणे, कमलं सीहासणंसि, सेसं जहा कालीए, सहेब; णवरं पुव्वभयो. का ११ उत्तमा, १२ भारिका, १३ पना, १४ वसुमती १५ कनका १६ कनक प्रभा, १७ वर्तसका १८ केतुमती ११ वश पेना २० रतिप्रिया २१ रोहिनी २२ नामिका २३ होरी २४ पुष्पवती २६ भुगा २६4 भुनगवती २७ महाकच्छा २८ स्फुटा २९ मुधोपा ३० विमला ३१ सुस्परा और ३२ सरस्वती. इम में से प्रथा अध्ययन का कथन करते हैं. अहो जम्नू ! उस काल उस समय में कमला देवी कमला राज्य धनी में कमलावतंसक भान में कपल हासन पर अवधिज्ञान मे बगैरह काली देवी जैसे जानना. पूर्व-13 भर का कथन. नागपुर नगर, सहस्रम्प वन उद्यान, कमल गाथा पति, उसकी कमल श्री भार्या, कमला पुत्री, पवे गय सामी की पास दीक्षा अंगोकार की, काल पिशाच के इन्द्र की अग्रपहिर्ष पो उत्पन्न हुई. स्थिति । पांचा वर्ग 984 - - For Personal & Private Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी. नागपुरे नगरे सहसंयत्रणे उजाणे, कमलस्स गाहवतिरस कमलसिरी भारिया, कमलोंदारिया। पासरस अंतिते निक्खंतो, कालस्स पिसाय कुमारिदस्स अग्गमहिसीओ, अद्धपाल ओवनं द्वितीए एवं सेसावि अज्झयणा दाहिणिलाणं वाणमं. तरिंदाणं भाणिअब्बाओ ॥ सन्बो पागपुरे, सहसंबवणे उज्जाणे, मायपिया धूया सरिस नामया, ठिति अदपलिओवमं ॥ पंचमो वग्गो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ३२ ॥ . छट्ठोवि बग्गो पंचमवग्ग सरिसो, गवरं महाकालिंदाणं उत्तरिखाणं इदाणं अग्गमंहिसीओ, पुन्वभवे-सागेय नपरे, उत्तर कुरुउजाणे, मायापिया धूया सरिस नामया सेस तंवेव ॥ छट्ठोवग्गो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ३२॥:: : :: आधा पस्योपय की जानमा. ऐसे ही दक्षिण के बाणव्यतर के शेष सब अध्ययन जानना. सब नागपुर में महसन बन उद्यान में हुई. मातपिता व कन्या का नाम देवी के नाम से जानना. सब की स्थिति आधा पल्यापम की जानना. यह पांचवा वर्ग संपूर्ण हुवा ॥५॥ ___पांचना वर्ग जैसे छठा वर्ग जानना. इस में उत्तर दिशा के महाकाल पिशाच इन्द्रों की मनमडिषियों हैं. पूर्व भव में साकेत नगर और उत्तर कुरु उद्यान मानना. पाव, पिता व कन्या का नाम देवी जैसे ही मानना, पह छठा वर्ग संपूर्ण दुवा ॥ ६॥ ... काशक रामबहादुर बालासुखदेवसहायणी माला प्रसादी For Personal & Private Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . M शंशाताधर्मकथा द्वितीय श्रतस्कन्ध 41 सत्तमरस वास्स उक्खेवओ एवं खलु जंबु ! जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णता, तंजहा-सूरप्पभा आयचा, अचिमाली पभंकरा ॥ पढमज्झयणस्स उक्खेवओएवं खलु जंबु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं नाव परिसा पज्जुबासति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभादेवी सूरंसिविमाणसि सरप्पभं सीहासणसि, सेसं जहा कालीए तहा पवरं पुख्वभवो-अरक्खरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सरसिरीए भारियाए सरप्पभादारिया, सूरस्स अग्गमहिसी, ठिती अडपलिओवमं पंचर्हि वाससएहिं अन्भहियं, सेसं जहा कालीए सातवा वर्ग कहते हैं-सात वर्ग में चार अध्ययन को है जिनके नाम- सूरममा, २ मातपा, E३ अर्चीमालीनी और ४ प्रषंकरा. इन में पाहेला अध्ययन कहते है-उस काल उस समय में राजगृम। नगर के गुणशीर उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी पधारे परिषदा पंदना करने को निकली यावत् परिषदा गर्युपासना करने लगी. उस काल उस समय में सूरमभा देवी सर्प विमान में मरममा सिंहासन पर शेष सब काली देवी जैसे कहना. इसका पूर्वमन, अरक्सुरी नगरी, सूरमम गाथापति, उसकी सूर श्री भार्या व सूरममा कन्या थी. वह सूर्य देवेन्द्र की अग्रमहिषीपने उत्पन्न हुई. इस की स्थिति बाधा पल्योपम व पांच सो वर्ष अधिक की जाननाः शेष सब काली को जानना. पतीनों अपहिषियों। mmmmu er सातवा वर्ग alth For Personal & Private Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + सुत्र ૭૮૮ एवं सेसाओवि. सबाओ अरक्खुरीए णयरीए ॥ सत्तमो वग्गो सम्मत्तो ॥ ५ ॥ ४॥ अट्ठमस्म उक्खेवओ-एवं खलु जंबु जाव चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा. चंदप्पभा दोसिणाभा आचमाली पभंकररा।। ॥पढमज्झयणस्स उक्खेवओ-एवं खलु जंबु! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पज्जुगसति ॥ तेणं कालेगं तेणं समएणं चंदप्पभादेवी चंदप्पभंसि विमाणंसि चंदप्पभंसि सीहासणंति सेसं जहा कालीए णवरं पुवभवो-महुराए जयरीए चंडवडिसए उज्जाणे, चंदप्पभे गाहावती, चंदसिरि भारिया,चंदप्पभादारिया, चंदस्सअग्गमहिसी ठिती अहपलि ओक्मं अखुरी नगरी में हुई। यह सातवा वर्ग संपुर्ण हुआ ॥ ७॥ .. . ..... अब आठवा वर्ग कहते हैं-अहो जम्बु! आठवे वर्ग के चार अध्ययन कहे हैं जिनके नाम-चंद्रप्रभा, दोषी नामा, अमालीनी और प्रभंकरा. इन में से प्रथम अध्ययन का अर्थ कहते हैं. उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् परिषदा पर्युपासना करने लगी. उस काल उस समय में चंद्र प्रभा देवी चंद्र प्रभा सिंहासन पर अवधिज्ञान से जम्बूद्वीप का अवलोकन करती थी. शेष सब काली जेसा जानना. पूर्व भव में} 17मथुरा नमरी, मुंडावतंसक उधान, चंद्रप्रभ गाथापति, चंद्र श्री भार्या व इन की चंद्रप्रभा कन्या, चंद्र"। । अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्रा'अमोलक ऋषिजी प्रकाशक-रामाबहादुर साला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी For Personal & Private Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अर्थ *पष्टताधर्मकथा का द्वितीय श्रुतस्कंध पण्णासाए वाससहरसेहिं अब्भहियं. सेसं जहा कालिए || एवं सेसाओवि मुहुराए जयरी, मायापियरो धूसरित णामए ॥ अट्टमो वग्गो सम्मतो ॥ ८ ॥ ४ ॥ एवं मनमस्स उक्खेबओ - एवं खलु अंबु ! जात्र अट्ठ अज्झयणा पनंता, तंजहा - पउमासिवा सुती, अंजु रोहिणी नवमिया इवा अयला अच्छा || पढमज्झयणस्स उक्खेवाओ जंबू ! तेंणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवसिति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमाबाई देवी सोहम्मे कप्पे पउमवडिसए (देवेन्द्र की अग्रमहिषीपने उत्पन्न हुई, इन की स्थिति आधा पत्योपय व पचास सब अधिकार काली जैसे जानना शेष तीनों मथुरा मगरी में हुई मात पिता के नाम पुत्री जैसा जानना और सब काली देवी समान जानना, यह आठवा वर्ग संपूर्ण हुवा ॥ ८॥ P 2 (:) आठ अध्ययन कहे हैं. जिन के नाम- १ पद्म २ शूचि ४ अंज ५ रेहिणी ६ नवमिका ७ अचछा और ८ अप्सरा. इन में पहिला अध्ययन कहते हैं, उस काल उस raat देवी सौधर्म देवलोक में साविक विमान की सुधर्मसभा में पद्म सिंहासन पर वगैरह सब काली जैसे जानना. काली जैसे आठ अध्ययन कहना. परंतु विशेषता इतनी की दो श्रावस्ती हजार वर्ष की है. शेष (:) अब नववा उक्षेषा कहते हैं. इस के समय For Personal & Private Use Only 44+ नवत्रा वर्ग 4 93 Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 14 विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहासणांस एवं जहा कालीए, एवं. अट्रवि ETF अज्झयणा कालिगमए णायब्वा, गवरं सावत्थींए दोजणीओ, हरियणापुरे, दोजणीओ कंपिल्लपुरे दोजणीओ, सागेए णयरे, दोजणीओ, पउमपियरो विजयमायरो, सवओपि पासस्स अंतिए पन्नतियाओ, सक्करस अग्गमहिसी, ट्ठिई सत्तालिओवमाई, महाविदेहवासे अंतं काहिति ॥ णवमो क्गो सम्मसो ॥९॥८॥ अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री मोडक ऋषिजी rimanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm दसम उक्खेवओ, एवं खलु जंबु ! जाव अट्ठ अज्झयणा पन्नता, तंजहा–कण्हाय, कण्हराईय, रामा तह रामरक्खिया, वसुया, वसुगुत्ता, वसुमित्ता, वसुंधराचेव ईसाणो॥ E नगरी बम हस्तिनापुर, में दो कपिलपुर नगरी में, दो साकेत नगर में हुई. पच पिता और विजया मात जानना. सब श्री पार्श्वनाथ आरत की पास दीक्षित हुई. शक्र देवेन्द्र की अग्रमाहिषियों हुई। पल्योपम की स्थिति जामना. और महा विदेह क्षेत्र में सीझेगी बुझगी यावत् सब दुःखों का अंत करेगी. यह नववा वर्ग संपूर्ण हुवा ॥९॥ अब दशवा वर्ग कहते हैं: अहो जम् ! इस के आठ अध्ययन कहे हैं. जिन के नाम- कृष्ण, २ कृष्णरामी, ३ रामा, ४ रामरक्षिता, ५ बमु, ६ बसुगुप्ता, ७ वसुमित्रा, और ८ बमुंधरा. इन में से है। .प्रकाधक-राजाबहादुर साध्य सुखदेक्सहायनीज्वालाप्रसादनी. For Personal & Private Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का द्वितीय तस्कन्ध 4the पढमझयणस्त उक्खेवओ-एवं खलु जंघु ! तेणे कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं कण्हादेवी ईसाणे कप्पे कण्हवडसए विमाणो सभाए सुहम्माए कण्हसि सीहासणांस सेमं जहा कालीए ॥ एवं अटुवि अज्झयणा कालीगमएणं णायन्वा, णवरं पुवभवो वाणारसीए दोजणीओ, रायगिहे गयरीह पोजीओ, सावत्थी णयरीह दोजणीओ, कोसंबीओ दोजणिओ ॥ रामपिया धम्मामाया सव्वओवि पासस्स अरहो अंतिए पन्वइयाओ ॥ पुष्फलाए अजाए सिस्सिणीयत्तो ईसागस्सय अग्गमहिसीओ, ठिती णवपलिओ, 8+4+ दवा वर्ग Athaat प्रथम अध्ययन कहते हैं-मो जम्बू! उस काल उस समय में राजगृह नगर में भगवंत महावीर स्वामी पधारे. परिषदा वंदना करने को निकली यावत् पर्युपासना करने लगी. उस काल उस समय में कृष्ण देवी ईशान देवलोक में कृष्णावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में कृष्ण सिंहासन पर शेष काली जैसे कहना. ऐसे ही आठ अध्ययन काली जैसे जानना. विशेष में पूर्व भव का कथन. दो बानारसी नगरी में दोराजगृही नगरी में, दो श्रावस्ती नगरी में और दो कौशाम्ब नगरी में रामपिता व धर्मा माता. सब श्री पार्श्वनाथ अरिहंत की पास प्रबजित हुई. पुष्पच्ला भाषा की शिष्यणो बनी. ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों हुई स्थिति नवा पल्लोषण कीमहाविदेश क्षेत्र में सीझेगी, बुझेगी, मुक्त होगी या सब दुःखों का अंच करेगी. महो। - .. For Personal & Private Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमाई, महाविदेह वास सिझिहिति वुझिहिति, मुधिहिति, सम्बदुक्खणं मंतकाहिति एवं खलु जंबुणिक्खेवओ॥ दममो सम्मत्तो ॥१०॥ एवं खलु जंबु! समणणं भगक्या ___महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबद्धेणं परिसत्तमेणं पुरिससीहेणं जाव संपत्तणं ___ धम्मकहा सुयक्खधो सम्मत्तो दसहिं वग्गेहिं नायधम्मकेहाओ सम्मत्ताओ ॥ (:) 'बूम्न ! यो दशवा वर्ग कहा. वह दशवा वर्ग सपूर्ण हुआ ॥ १० ॥ अहो जम्मू ! धर्म की आदि करो वाले, तीर्थ के करनेवाले, स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुष में सिंह समान यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए ऐसे श्री श्रयण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञाता धर्म कथा का दूसरा श्रुतध कहा. इन दश वर्ग से ज्ञाता धर्म कथा का सूत्र संपूर्ण ॥१०॥ . . . 4- अनुवादक बालबचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजो ०. प्रकाशक-राजावहादुरळाळा मुखदवसायी चाला प्रसादजी, USERSEENESSESSENGE CENSEESSESEENIEEEEEE6854-CREEN Saees . ॥ इति षष्ठमांग ॥ ॥ ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र समाप्तम् ॥ 99933 वीर संवत २४४५ वैशाख शुक्ल चतुर्दशी वार मंगलं R EGIESS G664666GECIGGEE6000008466600NRGENGIEEEEEEEEEEesed For Personal & Private Use Only Hi Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रोद्धार प्रारंभ वीराब्द 2442 ज्ञान पंचमी OKS STAYA PER SIESTIVA SIONINTO MENU ज्ञाता धर्मकांग सूत्र Gooo समाप्तम् FECistice-CECHAR शास्त्रोद्धार समाप्ति वीराब्द 2446 विजयादशमी