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+ अनुवादक-बालबमचारी मुनि भी अमोलक ऋषिजी -
4. “णियत्ताए दलयइ एकारस अंगाइ अहिज्जइ २ ता बहुणि वासाणि छटुट्ठम दसम
दुवालसेहिं जाव विहरइ ।। २०३ ॥ ततेणं थे। भगवंतो अन्नया कयाई पंडुमहुरातो णयरीओ सहरसं बणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमति २ त्ता बहिया जणवय विहारं
६८४ विहरंति ॥२०४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी जेणेष सुरट्ठा जणवए तेणेव उवागच्छइ रत्ता सुरट्ठा जणवयांस संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥२०॥ततेणं बहुजणा अन्नमस्स एवमाइक्खति एवं खलु देवाणुप्पिवा!अरहा अरिटुनेमी मुरद्वाजणवए आव विहरह॥२०॥तएणं तेजुहिट्ठिल पामोक्खा पच अणगारा बहुजणस्स
अंतिए एयमटुं सोचा अन्नमन्न सहावेति २त्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरा उतरकर यावत् प्रब्राजित हुई. सुव्रता आर्या की शिष्यनी बनी और अग्यारह अंगका अध्ययन किया बहुत ही वर्ष छठ-अठम, दशम,द्वादश भक्त सपसे यावत् आत्माको भावती विचरने लगो ॥२०॥एकदा स्थविर भगवंत पांडुमथुरा नगरी के सहस्र वन उद्यान में से निकलकर बाहिर देश में विहार करने लगे ॥ २०४ ॥ उसाल उस समय में अरिहंत अरिष्ट नेमीसौराष्ट्रदेश में संयम व तप से आत्माको भावतेहुवे विचर रहे थे ॥२०॥ वहां बहुब लोगों परस्पर ऐमा वार्तालाप करने लगे कि सौराष्ट्र देश में मरिहंत अरिष्ट नेमी यावत् विचररहे हैं। ॥२०६॥उससमयमें युधिष्टिर प्रमुख पांचों अमारोने यह बात मुनी परस्पर कहनेलगे कि अरिहंत अरिष्टनेमी यात्रा
प्रकाशक-राजाबहादुरकाला मुखदेवसमयजी ज्वालामसादजी ।
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