________________
4
२७५
+ षष्ठाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम-श्रुतस्कंध 44
. देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं गएस संघमि तं खमं तुम देवाणप्पिया ! णाति भुजो२एवं करण याए त्तिकटु, सेलयंअणगारं. एमयटुं सम्म विणएणं भुजो२ खामेइ॥८॥ततेणं, तस्स सेल यस्स रायरिसिस्म पंथएणं एव बुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं रजच जाव ओसणं जावउउवद्धपीढ विहरामि तं नो खलु कप्पति . समणाणं पासत्थाणं जाव विहरित्तए तं सेयं खलु मे कल्लं मड्डयरायं आपुछित्ता पाडिहारियं पीढ फलग सेजा सथारयं पञ्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारणसद्धिं वहिया
अब्भुजएणं जाव जणवय विहारणं विहरित्तए एवं संपहिति २ त्ता कलं जाव विहरति बना हुवा आप के पांच को वंदना करते हुये, संधर्षणा की. इस से अहो देवानुप्रिय ! इस की मुझे क्षमा करो, मैं अब ऐमा नहीं करूंगा. इस तरह सम्यक् प्रकार से विनय पूर्वक शेलग अनगार को खमाया.॥८॥ पंथक शिष्य के एना कहने पर शला राजर्षि को एमा अध्यवसाय वा कि मैंने राज्य त्याग करके या दीक्षा अंगाकार कर अब सरस आहार में गृद्ध बनकर यावत् सुष्टु क्रिया का त्यागकर रोग रहित प्रमादी । हे कर विचरता हूं. परंतु साधु को इस तरह प्रमादी बनकर विचरना नहीं कराता है. इस से कल . भात में सूर्योदय होत पंहुक राजा को पुछकर पाडियार पीढ. फलग शैय्या संथारा पीछा देकर पंथक अनगार की साथ उद्यम करके बाहिर जनपद देशमें विहार करना मुझे श्रेय है. यों विचारकर दूसरे दिन उसी तरह
सलग राजर्षि का पांचवा अध्ययन 4038
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org