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चरी मन श्री अमोलक ऋषीजी में
वरण्ह कालसमयंसि सहप्पसत्ते ॥ ७७ ॥ ततेणं सेपंथए कत्तियं चाउमस्तियांस कयकाउसग्गे,देवसिय पडिकममाणं पडिक्कते, चउमासियं पडिक्कमि उकामे,सेलयं रायरिसिं खामणट्टयाए सीसेणं पाएसु संघदृइ ।। ७८ ॥ ततणं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसु संघट्टिएसमाण आसुरत्ते जाव मिसिमि से माणे उट्टेति २ एवं वयासी-से केसणं भी एस अपत्थिय पत्थिए जाव वजिए, जेणं ममं सुहप्प पुत्तं पाए संघट्टेति ॥७९॥ ततेणं से पंचए अणगारे सेलएणं एवंवृत्त समाणे भीए तत्थे तसिए करयलकदृ एवं वयासी अहणं भंते! पंथए कयका उसग्ग देवसियं पडिकंते चाउमासियं पडिकमिउक्कामे,चउमासियं खामेमाणे
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.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
रात्रिमें सुख से मोने हवे थे.॥७॥ अब उस पंथक अननारने कार्तिक चतुमांस का कायोत्सर्ग सहित देवसी प्रतिक्रमण करके चतमाजिक पमिक्रमण का कामी बनावा शलग राजर्षि को क्षमासमण देने को अपने मस्तक से उन के पांव को वर्षना किया ॥ ७८ ॥ पंथक शिष्यने इस तरह संघर्षण किया जिस से वह शेलग राजा . आसुरक्त यावत् मिमिसायमान होता हुवा बोलने लगा कि अप्रार्थित का (मृत्यु) की प्रार्थना करने वाला यावहिरी श्रीवनित ऐसा कौन है कि निमने मुझे सुख से सोते हुवे को मेरे पाव को संघर्षणा की! ॥७॥ शेलगराजा के एने कहने पर वह पंथा भय भीत हुग त्रासपाया व दोनों हाथ जोडकर ऐसा बोला. अहोई भगवन् ! मैं पंथक हूं, मैंदे कायोत्सर्ग करके देवसी प्रतिक्रमण किये पीछे चतुपातिक प्रतिक्रमण का
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