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सूत्र
अर्थ
488+ षष्टां ज्ञानाधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध
वणे उववेति गंधेगं उबवेति, रसेणं उषति, फासेणं उववेति आमा जे जाब सर्विवदिय गायपल्हायणिज्जं ॥ ११ ॥ तते सुबुद्धी अमन्च जेणेव से उदगरयगे तेणेव उवागच्छइ २ चा करयलंसि आसादति २ ना तं उदगरयणं वणणं उति ४, आसायणिज्जं जाव सर्विवदियगाय पल्हायणिजं जाणित्ता तु बहू हैं उदग संभारणिज्जेहिं दवेहिं संभारेति २त्ता जियमत्तस्मरण्णो पाणियधरि पुरेसं स वेति २त्ता एवं वयासी तुमेणं देवाणु लिया! इमं उदगरयणं गिण्हाहि २ जियसत्तुरसरणी भोयण वेलाए उवणिजासि ॥ १२ ॥ तते से पाणियधरए पुरिसे
व स्पर्श से निर्मल हुवा. पीने योग्य यावत् सर्व इन्द्रियों को आनंदकारी हुवा || ११ | जब पानी सच्छ हुवा, तब मुबुद्धि प्रधानने उस पानी को हाथ में लकर उन का आस्वादन किया. उस पानी के वर्ण से यग्य पनि योग्य यावत् सर्व इन्द्रिय का अनंदकारी बना हुआ। जानकर बहुत हृष्ट तुष्ट हुआ. उसे पानी का संभार जो मोयादि द्रव्य हैं उस से सस्कृत किया. संस्कृत किया हुआ पानी हुवे पंछ जिनशत्रु राजा के पानी लानेवाले बागों को बोलकर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! इस पानी को लेजाकर जिनशत्रु {राजा को भोज समय में परून || १२|| त्रेलोको सुबुद्धि प्रधान की ऐसी बात सुनकर उस पानी को
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4+सबुद्धि प्रधान का बारहवा अध्ययन
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