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पटांगातःधर्मकथा का प्रथम स्कन्ध 48+
मणुक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता; तत्थणं धम्मरुइस्स देवस्स तेत्तीस सागरोवमाति ठिई पण्णता ॥ सेणं धम्मरुई देवे ताओ दवलोगाओ जाव महाविदेहवासे मिज्झिहिति ॥ २१ ॥ तं धिरत्थूण अजो ! नागमिरीए माहणीए अधन्न'ए अपुन्नाए जाव निंबोलियाए, जाएण तहारूवे माहु माहरु धम्मरुई अणगारे मासखमणसि पारणगंसि सालइएणं जाव गाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ॥ २२ ॥ ततेण ते समणा जिग्गंथा धम्मघोमाणं थेगणं अंतिए
एयमटुं सोचा णिसम्म चंपाए नयरीए सिंघाडग तिग जाव बहुजणस्स एमाइक्खति पम की स्थिते कही. इस में धचि देव की भी तेतीस मागरोपम की स्थिति कही धरुन अन्गार -उम देवलोक में अयष्य स्थिति व भाको क्षयहोने मे वहां से चवकर यावत् महाविदेह क्षेत्र में,
सीझेंगे ॥ २१॥ अहो पायर्यो ! नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार होवो यह नागश्री ब्राह्मणी अधन्या अपुण्या पावत् विला जैसी है इस ने तथारूप माधु के गुणवाला धर्मरु'चे अनगार को मसक्षमण के .. पारन में रेह युक्त कटु 5 तुम्बे का आहार देकर उन का अकाल से पृत्य किया ॥ २२॥ वे स्थिचिरों धर्मघोष स्थविर को प स से ऐ मुनकर चंपा नगरी के शृंगाटक यावत् बहुव जनों को एमा
448+ द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन
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