________________
अनुवादकालब्रहचारी मुनि श्री अमोलकाजी
घिरत्थुगं देवाणुप्पिया ! णागसिरीए. माहणीए जाव जिंबोलियाए जएणं तहारूवे साहु साहुरूवे सालतिएणं जीवियाओ ववरोवेति ॥ २३ ॥ तत्तणं तेसिं समणाणं
अंतिए एयमटुं सोच्चा गिसम्म बहुजणो अण्णमण्णस्त एवमाइक्खति एवं भासति धिपत्थुगं णागसिरीए माहणीए जाव ववरोवेति ॥ २४ ॥ ततणं ते माहणा पाए णयरीए बहुजणस्म अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म आसुस्ता जाब मिसिमिसे जेणेव
णागसिरीए माहणी तेणेव उवागच्छइ, णागसिरीए एवं वायसी-हं भा णागसिरी ! कहने लगे कि नागश्री ब्राह्मणी को धिक्कार हावो यह अधन्या अपुण्या व नियली नैमी है. इस में नया का माधु के गणवाले धर्मवि अणगार को स्नेहवाग कटुक तुम्ब का आहार देकर अकाल से विना मृत्य पारडला ॥ २३ ॥ इन श्रपणों की पास से ऐमा सनकर बहुत लोगों परस्पर ऐमा कहने लगे, कि नागश्रा ब्रह्मणः को धिक्क र हा यावत् धर्मरुचि अणगार को बिमृत्यु से मार डाला ॥ २४ ॥ चंपा नगरी के बहुत लोगों की पाम मे एमा सुनकर वे तीनों ब्राह्मणो आ यान मिसमिसायमान होकर नागश्री ब्राह्मणी की पास आय और उन को कहने लगे अर अप्रार्थित मृत्यु उस की प्रार्थना करने वाले, दुष्ट होन लक्षणों की धारन करने वाली; तीन पुण्या चतुदर्श की।
- ..काशक-राजाबहादुर गला मृम देनरायझी ज्वालाप्रसादजी.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org