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षष्टानहानाधकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 43101
अपत्थिय पत्थिय दुरंतपत लक्खणे हीण पुण्ण चाउद्दमे धिरत्थुगं अधण्णार अपुष्णाए जाव लिंबोलियाए-जावणं तुमे तहारूवे साहु साहुरूवे मामखमण पारणगंसि सालतिएणं जाव बवरोविए, उच्चावयाहिं अक्कोसणाहिं अकोमंति, उच्चावयाहिं उग्घोसणाहिं उग्घोसेति, उच्चावयाहि णिज्झत्थणेहि नित्यो.ति तज्जेति तालेते ताजत्ता तालिसा सयाओ गिहाओ णिच्छभति ॥ २४ ॥ ततेण सा जाग सिरी सयाओ गिहाओ णित्थुढासमाणी चंपाए णयरीए सिंघाडग तिय चउक्क चच्चरचउ जन्मी नागो ! तुझे धिक्क र हो. तू अधन्या, अपुण्या व अनादर योग्य है. क्यों कि तैने तथा रूप साधु को माम क्षमण के पारण के दिन स्नेहवंत टु तुम्बे का आहार देकर पिना मृत्य से मार डाला. उस को ऊच नीच आक्रोशकारी व वनो सेतना की. प्रामपिनी तू क्या नहीं मरगड अर दृष्ठ कुल में उत्पन्न होने वाली वगैरह असमंजन वचनों से भरीना की. अर पापि हमारे घर बाहिर नील यों तर्जना की, उस क आभरणालंकार लेलिय फोर उसे तडा करके अपने गृह से बाहिर नीकाल दी. ॥ २४ ॥ इस तरह नागी ब्राह्मणी का घर से बाहिर नीकाल देने में चा नगरों को शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चच्चर यावन् ताज्य मार्ग बहुन लोगों उस को हीलना, खिसना, निदा व गर्दा करन लगे, उस की तर्जना करने लगे।
अर्थ
पदी का मोलहवा अध्ययन 48
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