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सूत्र
अर्थ
44 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
से कहासुदेवे हथिधवरंग सकोस्ट मलदमिणं छत्तेणं धारिजमाणेणं जाव हय गय महया भड चडगर पहकरेंण बारावतीएणयरोए मज्झ मज्झेणं निगच्छति २त्ता जेणेव पुरथिमिल वेयाली तेणेव उवागच्छइ २ चा पंचहि पंडवेहिं सद्धिं एगयओ मिलइ २ त्ता धावारणिवेस करेइ २त्ता पोसहमाल कारावेति २ चा पोसहसालं अणुपविसइ २ ता सुट्टियं देवं मणसी करेमाणे २ चिट्ठइ ॥ तंतेणं कण्हवासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि मुट्ठिओ जात्र आगतो, भण देवाणुप्पिया ! जंमए कायन्वं ॥ १६३ ॥ तते से कण्हवासुदेवे मुट्ठियंदेवं एवं वयासी- एवं खलु देवाणुप्पिया !
बधाये ॥ १६२ ॥ कृष्ण वासुदेव हाथी की पीट पर आरूढ हुने और कोरंट वृक्ष के पुरुष की मालावाला छत्र सहित हय गय रथ वगैरह परिवार से द्वारिका नगरी में होते हुवे पूरे का वैतालिक समुद्र की पास आये. वहां पांच पांडवों की साथ एकत्रित मिलकर उनोंने पडाव किया, वहां पौषधशाला बनवाइ, और उस में प्रवेश कर सुस्थित देव की मन में चिन्तवना करने लगे. इस तरह कृष्ण वासुदेवने अष्टम भक्त तप किया. जिन से सुस्थित देव आकर उपस्थित हुई. और कहा अहो देवानुप्रिय ! मुझे जा करने का हो सो कहाँ || १६३ || तब कृष्ण वासुदेव सुस्थित देव को ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय !
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• प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ●
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