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अर्थ
ज्ञानकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48
दावतीदेवी जाव पउमनाभस्स भवणंसि साहरिया, तष्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ममं पंचहि पडवहिं साईं अप्पछटुस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गवियराहि, जण्ण अहं अमरकंका राहाणं दोवतीए कूवं गच्छामि ॥ १६४ ॥ एणं से सुट्ठिए देवे वासुदेवं एवं वयासी - किण्णं देवाणुपिया ! जहा चेत्र पउमणाभस्स रणो पुवसंगतिएणं देवणं दोवती जात्र साहरिया तहचवणं दोवति देवि धायतीसंडातो दीवातो भारहातो जाब हत्यिणाउरं साहरामि उदाहु पउमणाभंरायं सपुरबल वाहणं लवणसमुद्दे पक्खिवामेि ॥ ततेगं से कहवासुदेवे सुट्टियं देव एवं (पद्मनाभ राजा के भवन में द्रौपदी देवी का साहरन हुवा है. तुम पांचों पांडवोंको, मुझे और हमारे छही रथ को लवण समुद्र से पार उतार दो जिस से अमरकंका राज्यधानी में द्रौपदी की सहाय के लिये मैं जाऊं ॥ १३४ ॥ तत्र स्थित देवने कृष्ण वासुदेव को कहा कि अहो देवानुप्रिय ! जैसे पद्मनाभ राज: के पूर्व संगतिवाले देवने द्रौपदी का साहरन किया वैसे ही क्या द्रौपदी देवी को घातकी खण्डद्वीप से भरत क्षेत्र में यावत् हस्तिनापुर नगर में लाहूं अथवा पद्मनाभ राजा और उस के बल वाहन प्रमुख सब को इस लवण समुद्र में क्या डालटं ? कृष्ण वासुदेवने कहा अहो देवानुप्रिय ! तुम इस तरह साहरन
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** द्रौपदी का सोलहवा अध्ययन १०३
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