________________
सूत्र
4. पट इतघर्षकथा का प्रथम स्कंध
॥ १६० ॥ ततेणं से दूर जात्र भणति, पडिवालेमाणा चिट्ठह ॥ तेवि जाव चिट्ठेति ॥ १६१ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेव कोडबिय पुरिसे सहावेइ २ ता एवं वयासी - गच्छहणं तुब्भे देवाणुपिया ! सन्नाहियं मेरिं तालेह ॥ तेत्रि तालेति ॥ तणं ती सहाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुह विजय पामोक्खा दस दसारा जान छप्पण्णं बलश्च साहस्सीओ सन्नद्धबद्ध जात्र गहिया ओहप्पहरण्णा. अप्पेगनिया गया; अप्पेगतिया गय गया जाव ऋग्गुरा परिक्खित्ता जेणेव सभासुधम्मा जेजेव कहे वासुदेवे तेव उत्रागच्छइ २ चा करयल जाव वद्धावेति ॥ १६२ ॥ ततेणं { रहे ॥ ९९० ॥ दून भी वहां गया, उसने वैसे ही वहां कह दिया और पांचों पांडवों वैतालिक समुद्र की पाम कृष्ण बासुदेव की मार्ग प्रतीक्षा करते हुवे रहने लगे || १६१ || यहां पर कृष्ण वासुदेवने कट क पुरुषों को बोल ये और कहा कि युद्ध की मेरी बनावो उनोंने वैसे ही किया. तब इस युद्ध की भरी का शब्द सुनकर समुद्र विजय प्रमुख दश दशार यावत् छान हजार बलवंत पुरुषों अपने २ कवच
{ पहिन कर शस्त्र घरन कर कितनेक घोडे पर आख्न होकर कितनेक गज पर आरूढ होकर यावत् टों के परिवार से सूची सभा में कृष्ण वासुदेव की पास आये और जन को जय विजय शब्द से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
++ द्रौपदी का सोन्टहवा अध्ययन 4
६५३
www.jainelibrary.org