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42 अनुवादक-बालब्रह्मनारीमुनी श्री अमोलक ऋषिनी +
तभं चेवणं देवाणुपिया । एतं पुक्काम। ततेणं से कछल्लए नारए कर्णणे. वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणिविजं आवाहेति २ ता जमदसिं पाउब्भूए तामवदिसि पडिगए ॥ १५९ ॥ ततेणं से कण्हेवासुदेवे दूयं सद्दावइ २त्ता एवं क्यासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! हथिणाउरं पंडुस्सरमो एयमटुं निवेएहि एवं खलु देवाणुपिया ! दोवति देवि धायइसड पुरथिबद्ध अमरकक ए रायहाणीए पउमणाभरस भवणंसि साहरिया; दोवतीए देवीए पउत्ती उबलद्धा,तगच्छ तुमंच पंडवा
चाउरगिणीए सेणाए सद्धिंसपरिवुडा पुराच्छम बंथालीए मम पडिवालमाणा चिट्टतु वासुदेव उनारद को कहने लगे, अहो देवानुमिय ! यह राही कार्य होगा ? कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर वह नारद उत्पातिनी विद्या से उडकर जयं से आया था वहां पोछा गया ॥ १५९ ॥ तब कृष्ण वासुदेवने दूत बुलवाया. और कब कि अहो देवानप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर में जाओ और पाण्डु राजा को इस बात का निवेदन करो कि अहो देवानांप्रय ! पूधि धातकी खण्ड के दक्षण भरत क्षेत्र की अमरकंका राज्यानी में पद्मनाभ राजा के भवन में द्रोपदी की मनसि बिली है. इन स पायों पांडवों चतुरांगनी सना माहित पूर्व के वेनोलिक समुद्र की पास जावे वहां पेरी या प्रतीक्षा करते हुो
१ जहां समुद्र की वेल चलकर गंगा नदी में मिलती है वह स्थान.
मानक-राजावहादर लालामुखतवमहायजी वाला सादजी
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