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सूत्र
अर्थ
4- षष्टमांग- ज्ञाताधर्म कथा का प्रथम श्रुतस्कन्
कुसला सीयं जाव दुरुहइ मेहस्सकुमारस्स पुरओ पुव्वच्छिमेणं चंमप्पभइव वेरूलिह विमलदंडं तालियंट गहायचिट्ठइ || तणं तरस मेहरम कुमारस्स एंगावरतरुणी जाव रूवा सीयं दुरुहइ मेहस्सकुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयंश्ययमयं विमल सलिल पुण्णं मत्तगयसहा मुहा कितिसमाण भिंगारं गहाय चिट्ठइ ॥ १२१ ॥ एणं तरस मेहस्स कुमारस्सपिया कोडुंबिय पुरिसे सद्दानेइ २ एवं वयासी - खिप्पामेव भो · देवाणुपिया ! सरिसवाणं सरितयाणं सरिवयाणं एगाभरणगहियणिज्जोहाणं कोडुबि - यवरतरुणाणं सहस्सं सद्दावेह जाव सहावैति ॥ तरणं कोड बेयवरतरुण पुरिसा
} रही. एक श्रेष्ट यावत् कुशल तरुणि पालखीपर बैठकर मेघकुमार की आगे पूर्वदिशा में चंद्रकी कांति समान विमल वैडूर्य रत्न समान बिमल दंडवाला ताल वृंत पंखा ग्रहणकर खडी रही. वत्पश्चात शृंगार के घरसमान एक श्रेष्ट तरुणि मेघकुमार के ईशाम कौन में श्वेत रजतमय विमल निर्मल पानी से परिपूर्ण मदोवन्म हाथी के मुख समान कलश लेकर खड़ी रही ।। १२१ ॥ फीर श्रेणिकराजा कौटुम्बिक पुरुषोंको बोलाकर ऐसा बोले- अहो देवानुप्रिय ! समान वय, व त्वचा वाले व एक सरिखे आभरण पहिने हुवे वैसे एक हजार कौंटुम्बिक पुरुषों को बोला को. यावत् बोलाने को गये. जब श्रेणिक राजा के कौटुम्बिक पुरुषों से बोलाये हुवे एक
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उत्क्षिप्त संघकुमार) का प्रथम अध्ययन ++
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