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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिनी.
जोयणायामाए समुद्दरिजय पामाक्खाणं दस सारा जाव गणिया सहस्साति कोमु. दियाए भेरीए सहं सोचा निसम्म हट्ट तु? जाव ण्हया आविड वग्घारिय मन्जदाम कलावा अहयवत्थ चंदणो किन्नगाय सरीरा अप्पेगतिया हयगया, एवं गयगया, रह सीया संदमाणी गया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिस बग्गुरा परिक्खित्ता कण्हस्स वासुदेवरत अंतिए पाउब्भवेत्था ॥ १४ ॥ ततेणं से कण्हवासुदेवे समुद्द विजयं पामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउड्भवमाणे पासित्ता हट्ट तुट्ठ जाव द्वारिका नगरी में समुद्र विजय प्रमुख दश दशार यावत् अनंगसेना प्रःख अनेक गणिकाओं ऐसी भेरी का शब्द सुनकर हृष्ट तुष्ट हुए यावत् स्नान किया, सर्वालंकार से विभूषित हुए और लम्मी लटकती हुई मालाओं धारण की, अखंडित वस्त्रों पहिने और गात्रोंपर चंदन लगाया, फीर कितनेक घोरेपर स्वार हो कितनेक हाथीपर स्वार होकर, कितनेक रथ, पालखी, म्यानाएर सार होकर व कितनेक पांव से चलकर पुरुषों के समुदाय से परवरे हुवे कृष्ण वासुदेव को पास आये ॥ १४ ॥ समुद्र विजय प्रमुख दश दशार। इत्यादि सब को पाप्त आये हुए देखकर कृष्ण वासुदेव हृष्ट तुष्ट हुवे यावत् कौटुम्बा पुरुषों को बोलाकर ऐसे बोले. अहो देवानुप्रिय ! चतुरंगिनी सेना शीघ्रमेव तैयार करो और विजय नाम का गंध हस्ती को सज्ज करो. कौटुम्धिक पुरुषोंने उस कार्य का तहत्ति किया यावत् चतुरंगिनी सेना व गंध हस्ती मज्ज कर
• पकायक राजबहादुर लाला खदवसायजी चाछापसाढली.
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