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पष्टमांग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48+
भुजो २ अणुबूहेइः ॥ २९ ॥ तएणं सेणिएराया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्महट्ट जाव हियए करयल जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव जण्णं तुम्भेवयहतिकटु ॥ तं सुमिणं सम्मं संपडिच्छइ ; ते सामणंपाढए विउलेणं असगपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमलालंकारेणय सकारेइ समाणेइ विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ २ पाडविसज्जेइ ॥ ३० ॥ तंएणं से सेणिएराया सीहासणओ अब्भुदुइ २ जेणेव धारिणीदेवी तेणेव उवागच्छइ २ धारिणीदेवीं एवं वयासी-एवं खलु
देवाणुप्पिए ! सुमिणंसत्थंसि वायालीसंसुमिणा तीसंमहासुमिणा जाव भुजो अणुबूह यों कहकर उन की वारंवार अनुमोदन की ॥२९॥ स्वप्न पाठकों की प से ऐमा अर्थ सुनकर श्रेणिक राजा भी हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुए और करतल जोडकर ऐसा वाले, अहो देवानुप्रिय ! जो तुम कहते हो वह वैसे ही है. यों स्वप्न को इच्छा और स्वप्न पाठकों को विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र,गंध,पाला व अलंकार से सत्कार, सन्मान करके बहुतकाल आजीविका हाये वैसा प्रीति दान , देकर विसर्जन किये ॥३०॥ पीछे श्रेणिक राजा सिंहासन पर से उठे और धारणी राणी की पास गये वहां जाकर ऐसा बोले. अहो देवानुप्रिय ! स्वप्न शास्त्र में बीयालीस स्वप्न हैं व तीस महास्वप्न कहे हैं.3 यावत् वारंवार अनुमोदन किया ॥ ३१ ॥ श्रेणिक राजाकी पाससे धारणी देवी भी ऐसा स्वमार्थ सुनकर
488+ उत्क्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन +
भावार्थ-
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