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मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
सया ण होयव्वं ॥ १९ ॥ फासे भद्दयपावएसु, काय विसयमुवगए मुथ ॥ रुद्रेणव, .. तट्रेणव, समणेणसय, होयध्वं ॥ २०॥ एवं खल समणेण भगवया महावीरेणं
आव संपत्तेणं सत्तरसमस णायज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते ॥ तिमि १७ ॥ सारास गाथा ॥ जह सोकालिय दीवो, अणुवम सुक्खो तहेव जइ धम्मो ॥ जह आसा तह साहु, वणियब्ध अणुकूलकारिजणो ॥ १ ॥ जह सहाइ अगिडापत्ता, जो पासबंधणं आसा; तहविसएस अगिद्दा, वज्झतिण कम्मणो साहु ॥ २ ॥
जह सच्छंदविहारोआसाणं तह इहवरमुणाणं जरमरणाइं विवजिय साइत्ताणं? को प्राप्त होने पर साधु को उस में आनंद या रंज करना नहीं ॥ १९ ॥ अच्छे अथवा बुरे स्पर्श स्पोंFन्द्रिय को प्राप्त होने पर साधु को उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ २०॥ श्री श्रमण भगवंत
महावीर स्वामीने ज्ञाता सूत्र के सतरहवा अध्ययन का यह अर्थ कहा ॥ १७ ॥ उपसंहार-जैसे कालिक द्वीप अश्वों को मुख का करनेवाला है वैसे ही साधुओं को धर्म सुखकारी है. जैसे वहां अश्वों है वैसे ही यति धर्म में साधुओं हैं, न्यापारी जैसे अनुकूलता से वर्तनेवाले लोगों जानना ॥१॥ जैसे अश्वों शब्दादि। विषय में गृद्ध नहीं होने से पाशादि से बद्ध नहीं होते हैं वैसे ही विषय में अग्रद माधु कर्म रूप पाश मे नहीं बंधाते है ॥ २ ॥ जैसे अश्वों का संग्छंद विहार है अर्थात् व्यापारियों को देखकर जैसे अश्व भा ।
•काशक-रानाबहादुर काला मुखदेव सहायनी ज्वालाप्रसादजी.
अनुवादक-बालब्रह्म
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