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पाताधर्मकथा का प्रथम श्रतस्कन्ध 498
.. कडुयं कसाय. महुरं बहु खज़ पेजे लेजेमु ॥ आसायमि जे नगिद्धा, वसह मरणं
न तेमरए ॥ १४ ॥ उउभयमाण सुहे सुय, सविभवहिययमाणाणिव्वुइ कोसु ।। १. फ्रानेसु जे नगिहा, वसटू मरण नते मरए ॥ १५ ॥ सद्देसुय भद्दय पावएसु,
सोय विसय मुबागएसु, तु?णव रुद्वेशाव, समणेण सयांण होय ॥ १६ ॥ रूबेसुय भयपावएसु, चकविलय मुवगएसु ॥ रुद्रेणव तुट्टेणव, समणेण सवा ण हीयन्वं
१:७.॥ गंधेसुय भयपावएसु, विसय मुवगएसुय, रुद्रुणब तुटेणव, संमणेणंसया पा होयन्त्रं ॥१८॥रसेसुय भयपावएम,जिग्गि-विलय मुत्रगएसय, रुद्रेणव तुट्टेणव, समणेणं . परपो हैं ... ॥ तिक्त, कटुक, कपाय, मधुर रस वाले बहुत खाने पीने व चाटेन की वस्तु के आस्वादन, में जो गृद नहीं होता है वह पत्स्य की तरह वसट्ट मरण नहीं पाता है ... १४ ॥ ऋतु में भोगने योग्य मुखकारी, समृद्धिवंत, हितकारी वमन की निवृत्ति करनेवाले स्पर्श में जो गृद्ध नहीं होते हैं वे गज की तरह से वसट्ट मरण नहीं मरते हैं ॥ १५ ॥ अब साधुओं को. बोध करते हैं-अच्छ अथवा बुरे शब्दों श्रोत्रंन्द्रिय को प्राप्त होवे तो साधु को उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १६ ॥ अच्छा अथवा बुरा रूप चक्षु इन्द्रिय को प्राप्त होवे तो उन में आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १७ ॥ अच्छी अथवा बुरी गंध घाणेन्द्रिा को वाप्त होने पर साधु को आनंद अथवा रंज करना नहीं ॥ १८ ॥ अच्छे अथवा पुरे रस. रसनेन्द्रिय
wammam करवर्ण जानि के घड़े का सत्तरहवा. अध्ययन
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