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बादक-बालबमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
43 ॥ ९ ॥ फासिदिय दुईत तणस्स, अहएत्तिओ हवीत दोसो ॥ जं खणइत्थयं
कुजरस्स, लोहंकुसोतिक्खो ॥ १० ॥ कलरिभिय महुरं तंति तलताल बंस कउहा अभिराभेसु ॥ सद्देस न जे गिहा, वसट्टा मरणंते मरए ॥ ११ ॥ थणजहण वयण कर चरण नयण गविय विलासिय गतीसु
रूवेसु जे न रत्ता, वसदृ मरणं न ते मरए ॥ १२ ॥ अगरुवर पवर धूवण उउय 4 मलाणु लेवण विहीसु ॥ गंधेसु जे न गिडा, वसह मरणं न ते मरए ॥१३॥ तित्
आनंद मानते हैं ॥९॥ स्पर्शेन्द्रिय को दमन नहीं करने वाले जीव को जो दोष होता है सो कहते हैं। जैसे स्वेच्छा पूर्वक चलने वाला हाथी,को अंकुश के प्रहाररूप दुःख होता है. ॥ १० ॥ अब पांचों इन्द्रियोंका संबग्न करने से जो सुःख होता है सो कहते हैं. कान व हृदय को हरन करने वाला अव्यक्त धनि रूप रिमित मधुर तंत्री. तल, ताल, व मोरली के प्रधान मनोहर शब्द में जो गृद्ध नहीं होता है वह दुःख से पीडित बनकर नहीं परता है जैसे तीतर का मृत्यु होता है. ॥ ११ ॥ स्तन, कटी, मुस्क, हाथ, व नयन में गर्वित बनी हुई विकार वाली के रूपमें जो रक्त नहीं होता है वह भी पंतग की तरह दुःख से पंडित बनकर बसट्ट मरण नहीं मरता है. ॥ १.२ ।। कृष्णागुरु, श्रेष्ठ धूप, ऋतु के माल्य जानि के । पुष्पों व केरस चंदनदिक का विलपन की गंध में जो गृद्ध नहीं होता है वह सर्प जैसे वसह मरण नहीं है।
प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेचसहायजी ज्वालासादजी.
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