________________
सूत्र
अर्थ
प्रथम श्रुतस्कंध 18+
4+ षष्टांङ्ग इताधर्मकथा
हि ॥ गंधेषु रजमाणा रमंति घाणिंदिय वसा ॥ ५ ॥ घानिंदिय दुदंत चरस, अहणत्तिओ हवइ दोसो ॥ जं ओसहि गंधेणांचे, विलाओ निद्धावई उरगो ॥ ६ ॥ तित्तकडुय कसायं, महुरं बहुखज पेज्जलेजेसु ॥ आसायमिओ गिद्धा, रमति जिम्भिदिय वसदृ ॥ ७ ॥ जिम्मिंदिया दुदंतत्तणस्स अहएतिओ हवंति दोसा जंगल लग्ग फुरइ, थलविरिलिओ मच्छे ॥ ८ ॥ उउभयमाणे सुहेसुय, सविभवहियमणणिब्बुइ करसु ॥ फासेसु रजमाणा, रमंति फासिंदिय वसहा
{की अनुलेपन विधिवाली गंध में रागवंत बने हुबे जीवों घ्राणेन्द्रिय के वश से आनंद करते हैं ॥ ५ ॥ घ्राणेन्द्रिय को नहीं जीतनेवाला जीव को यह दोष होता है. जैसे गंध के वंश से सर्प अपने बिल में से | बाहिर नीकलकर गारुडी के हाथ में जाता है ॥ ६ ॥ तिक्त, कटु, कषाय, व मधुर रसवाले बहुत खाने ब पीने योग्य व अंगुली से चाटने योग्य वस्तुओं का आस्वादन करने में गृद्ध जीवों जिव्हेन्द्रिय के वश मे { आनंद करते हैं || ७ || जिव्हेन्द्रिय का दमन नहीं करनेवाल को जो दोष होता है सो कहते हैं. जैसे [ मत्स्य लोह कांटे पर मांग की पेशी खाने की लालच से आता है परंतु वह उस में ही फम जाता जिस से उसे पानी बाहिर निकाल लेते हैं और वह वहां ही मर जाता है ॥ ८ ॥ छड़ी ऋतु में भोगने योग्य, सुखकारी, विभव सहित समृद्धिवंत, हितकारी व मन की निवृत्ति करने वाले स्पर्श में रागवंत बने हुवे जीवों स्पर्शेन्द्रिय क सुख से
है
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
44 आकीर्ण जाति के घोडे का सतरहवा अध्ययन
७.७
www.jainelibrary.org