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त्रसू
अर्थ
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
रामे सरजमाणा, रमंति सोइंदिय वसट्टा ॥ १ ॥ सोइंदिय दुदंत, तजस्स. अतत्ति उववतिदोसा ॥ दीवि गरुय मसहतो, बहुबंध तित्तिरो पत्ते ॥ २ ॥ थण जहण वयण, करचरणणयणगन्त्रिय विलासियगइ सुरूवंसु रजमाणार मंति चक्खिदिय वसट्ट॥॥३॥चखिदिय दुद्दत त्तणस्स अहएतिओ भवति दोसा ॥ जं जल मि जलते, पडति य पयंगो अबुद्धाओं ॥ ४ ॥ अगरु वरपबर धूत्रणओ उउयमवाणु
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{ इन्द्रियों के विषय संबंधी बोध करते हैं. श्रवण व हृदय को हरन करनेवाले अव्यक्त ध्यानेरूप रिभित मधुर तंत्री, हस्तताल, कांस्य के ताल और वंश की मोरली के प्रधान मनोहर शब्दों में रागवंत बने हुवें जीवों श्रीन्द्रिय के वश से पीडित बनकर आनंद करते हैं ॥ १ ॥ श्रोत्रेन्द्रिय को नहीं जीतनेवाला तीतर { पक्षी पक्षी पकडने वाले पुरुष के पीजरे में रहा हुवा अन्य तीतर का शब्द सुनकर अपने स्थान से बाहिर आकर शब्द करता है इस से वह वध अथवा बंधन को प्राप्त होता हैं ! १२ ॥ स्वन, जघन (कटि ) (बदन, हाथा, पाँत्र व नयय इन अंगों पांगमें गति बनी हुइ स्त्रियों की विकार वाली गति व रूप में रागवंत बने हुवे जीवों चक्षु इन्द्रिय के वश से आनंद मानते हैं ॥ ३ ॥ चक्षु इन्द्रिय का वाले को यह दुःख होता है-जैसे अबुद्धि से पतंग चक्षु इन्द्रिय के बश से गीरता है ॥ ४ ॥ कृष्णगुरु, श्रेष्ठधूप, ऋतु संबंधी माल्यजाति के पुष्पों व बावना चंदन
दमन नहीं करनेअग्नि में आकर केशर प्रमुख / ०
* प्रकाशक - राजा बहादुरकाला सुखदेवसझयजी ज्वालाप्रसादजी •
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