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जिवाणं ॥ ३ ॥ जह सदाइपुगिहा, बहा मासा तहेव विसयरया ॥ पावंति कम्म बंधं परमासुह कारणं घोरं ॥ ४ ॥ जहते कालिय दीवा जीया, अणत्थ दुहगणंपत्ता; तह धम्म परिभट्ठा, अहं मपत्ता इहं जीवा ॥ ५ ॥ पावंति कम्मणरवइय, क्सया संसार वाहलीयालीए ॥ आसप्प महएहिव, जेरइयाईहि बेदुक्खाई ॥६॥ सत्तरसम णायज्झयणं सम्मतं ॥ १७॥ [:]... . . []
- षष्टांग जाताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कन्ध 12th
गये वैसे ही यहांपर विषय विरक्त साधु को जन्म जरा परण गहित शाश्वत आनंदरूप निर्वाण है॥३॥ जैसे शब्दों में गृद्ध बने हुए अश्वों पाश से बंधाये गये वैसे ही पाप में रत जीवों परम दुःख का कारण घोर पाप कर्म प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥ जैसे कालिक द्वीप से लाये हुवे अों अनर्थ दुःख को प्राप्त हुए वैसे ही धर्म से भ्रष्ट हुए जीवों अधर्म को मात कर आठकर्म रूप नरपति के वश हो होते हैं जैसे अश्वपाल से कश महारादिक मार सहन करते हैं वैसे ही नारकी के दुःखों सहन करते हैं. यह ज्ञाता सूत्र का सरहवा अध्ययन संपूर्ण हुना ॥ १७ ॥
बाकीण जाति के घडे का सतरहवा अध्ययन
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