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श्री पालक ऋषिमा
जा छायाएवा वीसमओ, तं माण सेविय. अकालेचत्र जीवियाओ ववरोविजस्सओ॥ तुम्भेणं देगणुप्पिया ! अण्णेसिंच रुक्खाणं मूलाणिय जाव हरियाणिव आहारह छायास विसमहात्ति, घोसेणं घोसेह जाव पञ्चविणति ॥ ८ ॥ ततण धण्णे सत्यवाहे सगडीसागडं जाएति सगडीसागडं जोएत्ता जेणव दिफला रुक्खा तणेव उवागच्छइ २त्ता,तसिणं गंदिफलाणं अदरसामत सत्थणिव करड करतादाच्चंपि तच्चंपि कोटुंबिय पुरिसे सहावेति २ एवं वयाती-तुब्भणं देवाणुप्पिया ! मम सत्थणिवसंमि
महता २ सद्दणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-एसणं दवाणुपिया ! ते गदिफला IE तुम अन्य वृक्षों के कंद मूल बगैरह का आहार करना और उन की छाया में विश्राम करना. ऐसी
उद्घोषणा करके मूझे मेरी आज्ञा पीछी दो यावत् उन लोगों ने वैसा करके उनकी आज्ञा पीछी दी. ॥ ८ ॥ वहां से धन्ना सार्थवाह गाहाओं जानाकर नंद फल वृक्ष की तरफ गये और उन से कितने दूर
साबने पडाव किया. फोर वहां पर भी कौटू म्गक पुरुषों को दो तीन बार केलाकर ऐसा कहा अहो Eदवानुप्रिय ! तुम अपने समुदाय में सब को विदित करा कि य नंदीफल वृक्ष कृष्ण यावत् मनोज्ञ छाया | वाले हैं. अहो देवा नप्रिय ! जा कोई इन के कंद, फल, पत्र, वगैरह का आहार करेंगे अथवा उन की 13काया में विश्राम करेंगे उन को पहिले कल्याण मालूम होगा, परंतु शरीर में परिणमे पीछे विना मृत्यु से
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव महायजी जाल प्रसादजी.
बनुवादक-बालब्रम
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