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षष्टो हानाधर्मकथा का प्रथप ध्रुनन्ध
" देवाणुपिया । मम सत्थानवेससि महयामहया. सदेणं उग्योसेमाणा एवं वयह- एवं ...
खल दवा पिया ! इमीसे आगामीयाए छिन्नावायाए दीहमदाए अडवीए बहुमज्झ
देसमाए इत्थक बहवे गंदिफलाणाम रुक्खा पण्णत्ता किण्हा जाव पत्तिया पुफिया :: मलिया हरिया सेरिजमाणा सिरीए अतीवर उसोभेमाणा चिट्रतिामणगावणेणं जाव । मणुष्णाफामण जाव मणुण्या छःयाए त मोण देवाणुप्पिया! तसि दिफलाणं रुक्खाण.
मूलाणिवा कद-तया-पत्त-पुप्फ-फल-बीयाणिवा, . हरियाणिवा आहारति छायाए वा । वीममति तस्सणं अविए भहए. भवलिः ॥ ततो अच्छा परिणममाणा २ अकाल चत्र
जीवियातो बवरोवेति ॥ ते माणं देवाणुप्पिया ! कोवि तेसिं णदिफलाणं मूलाणिवा लमी अटवी के मध्य भाग में दीपाल नाम के वृक्षों हैं. वे कृष्ण वर्ण वाले यावन् पा, पुष्प, फल : से हरेवण वाले व वृक्ष की शामा से अतीव सोभते हुवे रहते हैं. वे मनोज्ञ वर्ण यावत् मनाज्ञ स्पर्श वाले मनोज छाया वाले हैं, इन वृक्षों के पूल, कंद, सचा, फा, पुष्प, बज व हम्किाय का जो कोई आहार करेगा, अथवा उस की छाया में विश्राम करेंमा तो उस को पहिल कल्याणकारी.होगा परंतु शरीर में उस की परिणति हुए. पीछे बिना मोत से मरना पड़ेगा. इस से कोई भी इन के कंद फ.ठ वगैरह खाना नहीं और उन की छाया में विश्राम में. करना नहीं; जिस से विना मोत से मरना न होगा. अहे. देव नुभित्र !
48.नंदी फवृधापनाहवा अध्ययनक
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