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याओ! लुब्भेहि. अब्भणुणाए समाणे समणस्स: भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भविताणं आगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ९६ ॥ तएणं साधारिणीदेवी तमणिटुं अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणाणं असुयपुव्वं फरुसंगिरं सोच्चाणिसम्म इमेणं. एयारुवेणं मणो माणसिएणं महापुत्तदुक्खणं अमिभूयासमाणी सेयागयरोमाकूब पगलंत विलीण गायासोयारेण पविसि यंगी णियत्तेया दीणविमणवयणा करयलमलियन्व.
कमलमाला तक्खणउलुग्ग दुव्बलसरीरा लावण्णसुण्णणिच्छाय, गयसिरीया, मैंने इच्छा है विशेष इच्छा है उस की मुझे अभिरुचि हुई है इस से अहो. मातपिता ! आपकी आज्ञा से मैं श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास मुंडित होकर गृहवास से साधुपना अंगीकार करना चाहता हूं ॥ ९६ ॥ अब धारणी देवी ऐमा अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय,अमनोज्ञ,अमणाम,पहिले नहीं सुने वैसे कुबेर के
वचनों सुनकर मानसिक महा पुत्र रियोग के दुःख से पराभवी हुई प्रस्वेद से भींजे गात्रोंवाली हुई अर्थात् प्रत्येक P, रोम रूप रूप में पसीना आगया. शोक से कंपायमान शरीर होगया, दुर्लबल व तेज रहित होगई दीन जैसे
दुमण वदनवाली हुई, जैम कमल की माला हाथ में भलते संकोचित होवे वैसे राणी संकोचत होनेलगी, 19मैं दीक्षा अंगीकार करूंगा ऐला वचन से दुर्वलयशरीर व ग्लान शरीर होगया, लावण्य चतुराइ आदि
48 अनुपादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
. प्रकाशक राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी नालाप्रसादजी
अर्थ
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